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रविवार, 26 अगस्त 2018

घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-01)

पहला-प्रवचन-सरलता-(सजगता और शून्यता)

सुबह-सुबह एक झील के किनारे से नौका छूटी। कुछ लोग उस पर सवार थे। नौका ने झील में थोड़ा ही प्रवेश किया होगा कि जोर का तूफान आ गया और बादल घिर आए। नौका डगमगाने लगी। आज की नौका नहीं थी, दो हजार वर्ष पहले की थी। उसके डूबने का डा पैदा हो गया। जितने लोग उस नौका पर थे, सारे लोग घबड़ा गए। प्राणों का संकट खड़ा हो गया। लेकिन उस समय भी उस नौका पर एक आदमी शांत सोया हुआ था। उन सारे लोगों ने जाकर उस आदमी को जगाया और कहा कि क्या सारे रहे हो और कैसे शांत बने हो। प्राण संकट में हैं, मृत्यु निकट में है और नौका के बचने की कोई उम्मीद नहीं है। तूफान बड़ा है और दोनों किनारे दूर है। उस शांत सोए हुए व्यक्ति ने आंखें खोलीं और कहाः कितने कम विश्वास के तुम लोग हो, कितनी कम श्रद्धा है तुममें। कहो झील से कि शांत हो जाए। वे लोग हैरान हुए कि झील किसी के कहने से शांत होती है! यह कैसी पागलपन की बात है! लेकिन वह शांत सोया हुआ आदमी उठा और झील के पास गया और उसने जाकर झील से कहा, झील! शांत हो जाओ! और आश्चर्यों का आश्चर्य कि झील शांत हो गई।

यह आदमी जीसस क्राइस्ट था और झील गैलीली झील थी और उनके साथ उनके दस-बारह मित्र थे। यह कहानी एकदम सच है। आज हर आदमी झील पर सवार है, हर आदमी नौका पर सवार है और कोई आदमी जब तक जीवन में है कभी जमीन पर नहीं है, हमेशा झील में है। एक भी दिन ऐसा नहीं है जब आंधी नहीं आती है, तूफान नहीं आता है। हम रोज ही तूफान में घिरे हैं। लेकिन अगर हममें श्रद्धा हो, आत्म-श्रद्धा, और हम झील में कह सकें कि शांत हो जाओ, तो झील निश्चित शांत हो जाती है। कैसे हम उस झील को कहें जो अशांत बन गई? तूफान और आंधियों से पूर्ण उस चित्त की झील में कैसे शांति ला सकते हैं?
आपमें भी वह क्षमता आ सकती है कि आप आंख उठा कर झील की तरफ देख लें तो झील शांत हो जाएगी। यह कहने की भी जरूरत न पड़ेगी कि झील, शांत हो जाओ। क्योंकि तूफान हमारा ही पैदा किया हुआ है और आंधी हमारी पैदा की हुई है। जिस अशांति में हम खड़े हुए हैं, मैं चाहूं तो उसे इसी क्षण मिटा सकता हूं। और जिस अंधकार को मैंने निर्मित किया है उसको मिटाने की पूरी सामथ्र्य और शक्ति मुझमें है। मनुष्य कितना ही पाप करे और कितना ही अशांत हो और कितना ही दुःख में हो और कितना ही पीड़ा में हो, एक सत्य स्मरण रख लेने जैसा कि सब उसका अपना बनाया हुआ है। और इसीलिए इसी सत्य में से एक आशा की किरण भी निकल आती है कि जो खुद का बनाया हुआ हो उसे हम खुद मिटाने के हमेशा हकदार होते हैं।
शांति की आंख सत्य के दर्शन देने में समर्थ बनाती है। जब भीतर शांति होती है और भीतर के चित्त की झील पर कोई लहर नहीं होती है, कोई आंधी नहीं होती, तो हम दर्पण बन जाते हैं और परमात्मा का प्रतिबिंब हममें प्रतिफलित होने लगता है। तब हमारी अंतरात्मा अपनी गहराइयों में उस सत्य को प्रतिबिंबित करने लगती है, जो चारों तरफ व्याप्त है और हमें दिखलाई नहीं पड़ता है। हम अशांत हैं इसलिए सुन नहीं पाते उस आवाज को जो चारों तरफ मौजूद है और हम इतने व्यस्त और उलझे हुए हैं कि देख नहीं पाते उस सत्य को जो चारों तरफ खड़ा हुआ है। काश, हम व्यस्त हो जाएं, हमारा चित्त शांत हो जाए तो जो जानने-जैसा है वह जान लिया जाएगा और वह जो पाने जैसा है वह पा लिया जाएगा। तीन सूत्र हैं सरलता, सजगता और शून्यता। बहुत बार सुना होगा आपने कि जीवन सरल होना चाहिए। बहुत बार सुना होगा आने कि जीवन सरल होना चाहिए। बहुत बार सुना होगा कि जितनी सरलता हो, उतना जीवन ऊंचा हो जाता है। लेकिन शायद ही आपको पता हो कि सरलता कैसे पैदा होती है? यदि आप सोचते हों, सादे वस्त्र पहन लेने से सरलता पैदा होती है, तो धोखे में होंगे। सादे वस्त्र पहनने से सरलता पैदा नहीं होती। बहुत जटिल लोग भी सादे वस्त्र पहने देखे जाते हैं। अक्सर जो भीतर जटिल होते हैं वह बाहर सरलता का वेश बना लेते हैं, इसलिए नहीं कि दुनिया को धोखा दे सकें, इसलिए कि अपने को धोखा दे सकें। क्योंकि जो जितना जटिल होता है वह उतना सरल दिखाना चाहता है, दूसरों की आंखों में भी और अपनी आंखों में भी। इसी भांति वह अपनी जटिलता को छिपाने और जटिलता से बचने का उपाय करता है। इसलिए दुनिया में जो जटिल लोग बहुत सरल होते देखे जाते हैं, वह सरलता का अयास कर लेते हैं और बाहर से सरलता ओढ़ लेते हैं। ओढ़ी हुई सरलता का कोई मूल्य नहीं है। सीधे-सादे भोजन से भी कोई सरल नहीं हो जाता है। कोई अत्यंत विनम्रता प्रदर्शित करे उससे भी सरल नहीं हो जाता है। क्योंकि विनम्रता के पीछे अकसर अहंकार खड़ा रहता है और विनम्र आदमी हाथ जोड़कर सिर झुकाता है तो सिर तो झुकता है, लेकिन अहंकार नहीं झुकता है। और विनम्र आदमी को भी यह भाव बना रहता है कि मुझसे ज्यादा और कोई विनम्र नहीं है और उसको भी आकांक्षा होतीं है कि मेरी विनम्रता और मेरी सरलता स्वीकृत की जाए और सम्मानित हो। सरलता को इस भांति ऊपर से तो साधना आसान है, लेकिन उसका कोई मूल्य नहीं है।
मैं एक गांव में गया था। एक साधु वहां रहता था। उनसे भी मिलने वहां गया। जब मैं उनके झोपड़े पर पहुंचा तो खिड़की में से देखा कि वह नंगे अपने कमरे में टहल रहे हैं। मैंने दरवाजा खटखटाया। उन्होंने जल्दी से चादर को लपेटा और दरवाजा खोला। मैंने उनसे पूछा, आप यहां क्या करते थे? तो वह बोला, आपसे क्या छिपाऊं, मैं मुनि की दीक्षा लेना चाहता हूं तो नग्न रहने का अयास कर रहा हूं। मैंने कहाः बेहतर हो, किसी सर्कस में भर्ती हो जाएं, क्योंकि नग्न रहने का अगर अयास करके कोई आदमी नग्न हो गया तो वह नग्न होना बिल्कुल झूठा है। अयास से जो नग्नता आएगी उसका कोई मूल्य है? हां, सर्कस में उसका मूल्य हो सकता है, जीवन में क्या मूल्य हो सकता है! एक आदमी अयास करके नग्न भी खड़ा हो जाए तो अत्यंत सरल नहीं हो जाता, क्योंकि नग्नता भी उसकी साधी हुई है। वह भी जटिल है, वह भी कठिन है, वह चेष्टा से आरोपित है। एक महावीर की नग्नता रही होगी, जो आनंद से फलित हुई थी। लोग सोचते हैं, महावीर वस्त्र छोड़कर नग्न हो गए थे। वे गलती में हैं। महावीर आनंद को उपलब्ध करके नग्न हो गए थे। एक चित्त की दशा है कि चित्त इतना आनंद से भार जाए, इतना आनंद से भर जाए कि वस्त्र भी भार मालूम होने लगें। और एक अवस्था है कि चित्त इतना निर्दोष हो जाए कि शरीर पर छिपाने के लिए कुछ भी न रह जाए..इसलिए आदमी निर्वस्त्र हो जाए, यह दूसरी बात है। जो आनंद और निर्दोषता से पैदा होती है, वह नग्नता बिल्कुल दूसरी बात है और यह जो अभिनय करके, अयास करके पैदा कर ली जाती है वह बिल्कुल दूसरी बात है। एक आदमी सरल होगा, दूसरा आदमी बिल्कुल जटिल होगा। तो सरलता के संबंध में कुछ बातें स्मरणीय हैं..पहली बात यह कि सरलता थोपी हुई नहीं हो सकती है, उसे ऊपर से थोपा नहीं जा सकता। उसे भीतर से विकसित करना होता है, उसे भीतर से फैलाना होता है। अगर चारों तरफ देखें..पशु सरल हैं, पौधे सरल हैं, लेकिन मनुष्य अकेला जटिल प्राणी है।
क्राइस्ट ने एक गांव से निकलते वक्त अपने मित्रों को कहा, लिली के फूलों की तरफ देखो। वह किस शांति से और ज्ञान से खड़े हैं; बादशाह सोलोमन भी अपनी पूरी गरिमा और गौरव में इतना सुंदर नहीं था। लेकिन फूल कितने सरल हैं, फल सरल हैं, पौधे सरल हैं, पशु-पक्षी सरल हैं। आदमी भर जटिल है। आदमी क्यों जटिल है? इस पूरी पृथ्वी पर आदमी क्यों जटिल है, यह पूछने और विचारने-जैसी बात है। आदमी इसलिए जटिल है कि वह अपने सामने होने के आदर्श, आइडियल खड़ा कर लेता है और उनके होने के पीछे लग जाता है। उससे जटिलता पैदा होती है। जैसे आपने महावीर को देखा है, बुद्ध को देखा है, कृष्ण को देखा है, क्राइस्ट को देखा है, उनके जीवन को दो है, उनके सत्य को देखा है, उनकी शांति को देखा है। आप सबके मन मग लोभ पैदा होती है..वैसी शांति हो, वैसा सत्य हो, वैसा आलोक हो, वैसा जीवन हो। आप भी उन जैसे होने में लग जाते हैं। आप भी चाहते हैं, मैं भी उन जैसा हो जाऊं। एक आदर्श खड़ा कर लेते हैं और फिर उस आदर्श की तरह अपने को ढालने लगते हैं। जो आदमी किसी आदर्श को लेकर अपने को ढालना शुरू कर देता है वह बहुत जटिल हो जाता है। वह इसलिए जटिल हो जाएगा कि इस संसार में दो कंकड़ भी एक-जैसे नहीं होते हैं। दो पत्ते भी एक..जैसे नहीं होते हैं। दो मनुष्य भी एक-जैसे नहीं होते हैं। जब भी कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को आदर्श बना लेता है और उसके जैसा होने की चेष्टा में लग जाता है तभी जटिलता शुरू हो जाती है, तभी कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं। पूरा इतिहास इस बात का गवाह है कि दूसरा महावीर पैदा नहीं हो सकता, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हो सकता, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हो सकता, दूसरा क्राइस्ट पैदा नहीं होता। लेकिन फिर भी, नहीं मालूम कैसा पागलपन है कि हजारों लोग सोचते हैं कि हम भी उन जैसे हो जाएं! और जब आप उन जैसे होने में लग जाते हैं तो आप अपनी असलियत को दबाते हैं और दूसरे की सुनी हुई असलियत को ओढ़ने लगते हैं। जब भीतर दो आदमी पैदा हो जाते हैं तो जो आप हैं वस्तुतः वह और जो आप होना चाहते हैं कल्पना में, इन दोनों के भीतर कठिनाई, इन दोनों के भीतर तनाव, इन दोनों के भीतर अंतद्र्वंद्व शुरू हो जाता है। तब आप चैबीस घंटे लड़ाई में लग जाते हैं और लड़ाई मनुष्य को जटिल हो जाता है। चैबीस घंटे आप लड़ रहे हज। हर आदमी के दिमाग में शिक्षा ने, संप्रदायों ने और धर्मों ने, तथाकथित उपदेशों ने यह भाव पैदा किया है कि आदर्श बनाओ। यह सबसे बड़ी झूठी बात है और सबसे खतरनाक है कि कोई आदमी केवल वही हो सकता है, जो वह है। कोई दूसरा आदमी नकल नहीं किया जा सकता और न दूसरे आदमी को ओढ़ा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो उसकी निजी क्षमता है, वही विकसित हो, यह तो समझ में आता है। लेकिन एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति-जैसा होने की चेष्टा में लग जाए, यह बिल्कुल समझ में आने जैसी बात नहीं है।
महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। इन पच्चीस सौ वर्षों में हजारों लोगों ने महावीर-जैसा नग्न होने का प्रयास किया है। लेकिन उनमें से एक भी महावीर नहीं बन पाया। बुद्ध को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। इस बीच लाखों लोगों ने बुद्ध जैसा बनने की चेष्टा की, लेकिन एक भी आदमी बुद्ध नहीं बन पाया। क्या आंखें खोलने को यह बात काफी नहीं है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हो सकता है! और यह सौभाग्य की बात है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हो सकता है, नहीं तो दुनिया अत्यंत घबराने वाली चीज हो जाए। हर आदमी विविध है, हर आदमी अद्वितीय है, हर आदमी को अपनी गौरव-गरिमा है, हर आदमी के भीतर परमात्मा का अपना वैभव है। अपनी-अपनी निज की वृत्ति के भीतर बैठी हुई आत्मा है, उसकी अपनी क्षमता है, अद्वितीय क्षमता है। कोई मनुष्य न किसी दूसरे से ऊपर है, न नीचे है। न कोई साधारण है, न कोई असाधारण है। सबके भीतर एक ही परमात्मा अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है। इसलिए बजाय इसके कि कोई आदमी किसी दूसरे को आदर्श बनाए, यही उचित है कि उसके भीतर जो बैठा है उसे जानने में लगा रहे..बजाय इसके कि उसके बाहर जो दिखाई पड़ रहे हैं उसका अनुकरण करे। अनुकरण जटिलता पैदा करता है। किसी दूसरे का अनुकरण हमेशा जटिलता पैदा करता है। वह ऐसे ही है कि एक ढांचा हम बना लेते हैं और फिर उस ढांचे के अनुसार अपने को ढालना शुरू कर देते हैं।
आदमी को जड़ वस्तु नहीं है। आदमी को पदार्थ नहीं है कि मशीनों में ले जाएं और ढाल दें। कल मैं एक कारखाना देखने गया और वहां हर चीज ढाली जा रही थी, हर चीज बनाई जा रही थी। कारखाने में एक-जैसी चीजें बनाई जा सकती हैं। क्यों? क्योंकि जो हम बना रहे हैं वह पदार्थ है। लेकिन मनुष्य एक-जैसा नहीं बनाया जा सकता। और जब भी मनुष्य को एक-जैसा बनाने की चेष्टा की जाती है तभी दुनिया में खतरा और सबसे बड़ी बुराइयां पैदा हो जाती हैं। हम इसी कोशिश में लगे हुए हैं कि हम किसी की भांति ढल जाएं एक ढांचे में, एक पैटर्न में, एक सांचे में। हम ढलकर निकल आएं। इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और कोई नहीं होगी कि आप सांचे में ढलकर निकलें और कुछ बन जाएं। क्योंकि तब आप मिट्टी होंगे, मनुष्य नहीं होंगे, और तब आप पदार्थ होंगे, परमात्मा नहीं होंगे। चेतना स्वतंत्र है। उसकी अभिव्यक्तियां हमेशा नवीन से नवीन रास्ते खोज लेती हैं और चेतना इतनी स्वतंत्र है कि हमेशा अपना मार्ग बना लेती है। उसकी खूबी किसी सांचे में ढलने में नहीं, बल्कि अत्यंत सहज, स्फूर्त, स्वाभाविकता को उपलब्ध हो जाने में है। स्वतंत्रता को उपलब्ध करना है, किसी पराए रूप के पीछे जाकर अपने को नहीं ढाल लेना है। यह वैसा ही पागलपन है जैसे कोई कपड़े तो पहले बना ले और फिर आदमी को कहे कि अब इन कपड़ों को पहनने के लिए तुमको काट-छांट करेंगे। क्योंकि कपड़े तो तुम्हें पहनने हैं और इसलिए हम तुमको काटेंगे, छाटेंगे और तुम्हें इनके योग्य बनाएंगे। ढांचे हम पहले बना लेते हैं और फिर आदमी को काटते-छांटते हैं। हर आदमी यह कर रहा है। हम सब ढांचे तोड़ दें और अपने भीतर बैठे हुए परमात्मा का अपमान न करें। किसी के पीछे किसी को जाने की कोई जरूरत नहीं। अपने भीतर जाने की जरूरत है। किसी के पीछे जाने से क्या प्रयोजन? और कौन किसके पीछे जा सकता है? कितनी आश्चर्य की बात है कि धार्मिक लोग यह कहते हैं, साधु और संन्यासी यह कहते सुने जाते हैं कि इस संसार में सब अकेले हैं, कोई किसी का नहीं है। वह यह कहते सुने जाते हैं कि मां-बाप नहीं है, भाई-बहन नहीं है, पति-पत्नी नहीं है। कोई किसी का नहीं है, सब अकेले हैं। लेकिन वही लोग यह भी समझते हैं कि राम के पीछे चलो, बुद्ध के पीछे चलो, कृष्ण के पीछे चलो, क्राइस्ट के पीछे चलो, मुहम्मद के पीछे चलो।
जब सभी लोग अकेले हैं तो कोई किसी के पीछे कैसे चल सकता है? हम आदमी जब अकेला है तो अकेला चलेगा। किसी के पीछे कैसे चलेगा? असल में कोई किसी के साथ को ही नहीं सकता और यह बहुत महत्वपूर्ण है। मैं चाहता हूं कि आपके मस्तिष्क से सारे ढांचे टूट जाएं और आप अपनी निज की सरलता को पकड़ने की कोशिश करें, बजाय इसके कि किसी की छाया के पीछे भागें। और छायाएं भी जिंदा नहीं हैं। वे कोई पच्चीस सौ वर्ष पहले विलीन हो गई हैं, कोई दो हजार वर्ष पहले, कोई तीन हजार वर्ष पहले। हम करीब-करीब मुर्दा छायाओं के पीछे भाग रहे हैं और उनके जैसा बनने की कोशिश कर रहे हैं। यह बिल्कुल पागलपन है। इससे बहुत जटिलता और कंपलेक्सिटी पैदा हो जाती है और मनुष्य बड़ी तकलीफ में, बेचैनी में और अंतद्र्वंद्व में पड़ जाता है। फिर बहुत पीड़ा और बहुत परेशानी होती है। क्योंकि जो हम बनाना चाहते हैं वह हम बन नहीं पाते और जो हम हैं उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं। फिर इस कशमकश में, इस संघर्ष में असफलता और विषाद हाथ लगते हैं और अंत में मालूम होता है कि हम हार गए। जीवन व्यर्थ हो गया। हम तो कुछ भी नहीं बन पाए। निश्चित है अगर गुलाब के फूल चमेली के फूल बनने में लग जाएं और चमेली के फूल गुलाब के फूल बनने में लग जाएं, तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। उनके भीतर अंर्तद्वंद्व पैदा हो जाएगा। कृपा करें, गुलाब को गुलाब रहने दें, चमेली को चमेली रहने दें। जो आप हैं, उसको ही जानें और वही हो जाएं। और स्मरण रखें कि जो आप हैं, अपनी वास्तविक सत्ता में, उससे अन्यथा आप कभी नहीं हो सकते हैं। अगर कितनी भी चेष्टा करें तो केवल एक एक्टिंग, एक अभिनय भर पाएंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं। एक अभिनय मात्र ज्यादा से ज्यादा आप कर पाएंगे। और अभिनय का क्या मूल्य है? अभिनय का कोई भी मूल्य नहीं है।
सरलता का पहला सूत्र है, कृपा करके किसी का अनुगमन न करें और कोई ढांचा न बनाएं। फिर क्या करें? सारे ढांचे अलग कर दें। जो महावीर के भीतर था, जो बुद्ध के भीतर था, जो राम-कृष्ण के भीतर था, वह आपके भीतर है। सब ढांचे अलग कर दें। उसे पहचानें, उसे समझें, उससे संबंधित हों, उसे जगाएं, उसे खड़ा करें, वह जो भीतर मूच्र्छित सोया हुआ मनुष्य पड़ा है उसे होश में भरें और तब आप पाएंगे कि सारी जटिलता क्षीण होने लगती है और अत्यंत सरलता का, अत्यंत सहजता का जन्म शुरू हो जाता है।
यह स्मरण रखें कि जीवन में जितनी कम द्वंद्व, जितना कम संघर्ष जितने कम व्यर्थ के तनाव, व्यर्थ के खंड कम हों, उतनी सरलता उत्पन्न होगी। मनुष्य जितना अखंड हो उतनी सरलता उपलब्ध होती है। हम खंड-खंड है और हम अपनी अखंडता को अपने हाथों से तोड़े हुए हैं। हम अपनी अखंडता को कैसे तोड़ देते हैं? हम अपनी अखंडता का तादात्म्य से, आइडिंटटी से तोड़ देते हैं।
होता क्या है? मैं एक घर में पैदा हुआ। उस घर के लोगों ने मुझे एक नाम दे दिया और मैंने समझ लिया कि वह नाम मैं हूं। मैंने एक आइडिंटटी कर ली। मैंने समझ लिया कि यह नाम मैं हूं। फिर मैं कहीं शिक्षित हुआ। फिर मुझे कोई उपाधि मिल गई। फिर मैंने उन उपाधियों को समझ लिया कि ये उपाधियां मैं हूं। फिर किसी ने मुझे प्रेम किया, तो मैंने समझ लिया कि लोग मुझे प्रेम करते हैं और वह प्रेम की एक तस्वीर मैंने बना ली और समझा कि यह मैं हूं। फिर किसी ने ग्रहण किया, अपमानित किया, सम्मानित किया तो मैंने वह तस्वीर बना ली। ऐसी बहुत सी तस्वीरें आपके चित्त के अलबम पर आपकी ही लगती चली जाती हैं और हर तस्वीर को आप समझ लेते हैं कि मैं हूं। इन तस्वीरों में बड़ा विरोध होता है। ये तस्वीरें बहुत प्रकार की हैं। अनेकों रूपों की हैं। इन तस्वीरों को, यह समझकर कि मैं हूं, आप अनेक रूपों में विभक्त हो जाते हैं।
एक और बात मुझे स्मरण आती है। एक गांव से क्राइस्ट निकले और एक आदमी ने आकर उनका पैर छुआ। उस आदमी ने पूछा..क्या मैं भी ईश्वर को पा सकता हूं? क्राइस्ट ने कहा कि इसके पहले कि तुम ईश्वर को पा सको, मैं तुमसे पूछूं कि तुम्हारा नाम क्या है? उस आदमी ने आंखें नीचे झुका लीं और कहा मेरा नाम? क्या बताऊं अपना नाम? मेरे तो हजार नाम हैं। कौन-सा नाम बताऊं? मैं तो हजार-हजार आदमी एक ही साथ हूं। जब घृणा करता हूं तो दूसरा आदमी हो जाता हूं। जब प्रेम करता हूं तो बिल्कुल दूसरा आदमी हो जाता हूं। जब रोष और क्रोध से भरता हूं तो बिल्कुल दूसरा आदमी हो जाता हूं। और जब क्षमा से भरता हूं तो बिल्कुल दूसरा आदमी हो जाता हूं। अपने बच्चों में मैं दूसरा आदमी हूं। अपने शत्रुओं में मैं दूसरा आदमी हूं। मित्रों में दूसरा हूं। अपरिचितों में दूसरा हूं। मेरे तो हजार नाम है। मैं कौन-सा नाम बताऊं?
यह हम आदमी की तस्वीर है। आपके नाम भी ऐसे ही हैं। आपके नाम भी हजार हैं। आप हजार टुकड़ों में बंटे हुए हैं। आप एक आदमी नहीं हैं। और जो एक आदमी नहीं है वह सरल कैसे होगा? उसके भीतर तो भीड़ है। हर आदमी एक क्राउड है। यह भीड़ बाहर नहीं है आपके भीतर हैं। तो आप में कई आदमी बैठे हुए हैं एक ही साथ। एक ही साथ कई आदमी आपके भीतर बैठे हुए हैं। ख्याल करें, अपने चेहरे को पहचानें। सुबह से उठते हैं तो सांझ तक क्या आपका चेहरा एक ही रहता है? जब आप घर से बाहर निकलते हैं और रास्ते पर एक भिखमंगा भीख मांगता है तब और जब आप बाजार में पहुंचते हैं और कोई आदमी आपको नमस्कार करता है तब, और जब आप दुकान पर बैठते हैं तब, जब आप अपनी पत्नी के पास होते हैं तब, जब आप अपने बच्चों के पास होते हैं तब, क्या आपका चेहरा एक ही है? अगर आपके चेहरे अनेक हैं तो आप सरल नहीं हो सकते, आप जटिलता खड़ी कर लेंगे, बहुत जटिल हो जाएंगे। कैसे सरल हो सकते हैं, अगर एक ही आदमी के अंदर दस-पंद्रह रहते हों?
हत्यारों ने जिन्होंने बड़ी हत्याएं की हैं, अनेकों ने यह कहा है कि हमें पता नहीं कि हमने हत्या भी की है। पहले तो लोग समझते थे कि ये लोग झूठ बोल रहे हैं, लेकिन अब मनोविज्ञान इस नतीजे पर पहुंचा है कि वे ठीक कह रहे हैं। उनके व्यक्तित्व इतने खंडित है कि जिस आदमी ने हत्या की है वह वह आदमी नहीं है, जो अदालत में बयान दे रहा है। वह दूसरा आदमी है। यह बिल्कुल दूसरा चेहरा है, उसे याद भी नहीं कि मैंने हत्या की है। इतने खंड हो गे हैं भीतर कि दूसरे खंड ने यह काम किया है, इस खंड को पता भी नहीं। और आपके भीतर भी ऐसे बहुत से खंड हैं। नहीं लगता, क्रोध करने के बाद क्या आप नहीं कहते कि मैंने अपने बावजूद क्रोध किया। अजीब बात है, आपके बावजूद! मतलब..आपके भीतर कोई दूसरा आदमी भी है। आप नहीं चाहते थे कि क्रोध हो और उसने क्रोध करवा दिया। कई बार आप अनुभव करते हैं कि मैं नहीं करना था, फिर मैंने किया। फिर कौन करवा देता है? जरूर आपके भीतर कोई दूसरे लोग हैं। आप नहीं चाहते हैं फिर भी आपसे हो जाता है। हजार बार निर्णय करते हैं कि अब ऐसा नहीं करेंगे, फिर भी कर लेते हैं और पछताते हैं।
 असल में आपके भीतर बहुत-से लोग हैं। जिसने निर्णय किया था कि नहीं करेंगे और जिसने किया, उन दोनों को पता नहीं कि बीच में कोई और बातचीत है। उन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है। सांझ को आप तय करके सोते हैं कि सुबह पांच बजे उठेंगे और सुबह पांच बजे आपके भीतर कोई कहता है कि रहने भी दो। आप सो जाते हैं। सुबह आप पछताते हैं कि मैंने तय किया था कि उठना है फिर मैं उठा क्यों नहीं? अगर आपने ही तय किया था कि उठना है और आप एक व्यक्त होते, तो सुबह पांच बजे कौन कह सकता था कि मत उठो? लेकिन आपके भीतर और व्यक्ति बैठे हुए हैं और वे कहते हैं..रहने दो, चलने दो।
महावीर ने कहा है कि मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है, आपके भीतर बहुचित्त हैं। और जिसके भीतर बहुत चित्त है वह कभी सरल होगा? सरल हो ही नहीं सकता। उसके भीतर कई आवाजें हैं। एक आवाज कुछ कहती है, दूसरी आवाज कुछ कहती है। कभी सोचें आप, अपने भीतर आवाजों को सुनें। आपको बहुत आवाजें सुनाई पड़ेंगी। आपको लगेगा, आप बहुत आदमियों से घिरे हुए हैं। एक चित्तता कैसे आएगी? आप जिन तादात्म्य को बना लेते हैं उनको तोड़ने से एक चित्तता आएगी।
एक भारतीय साधु सारी दुनिया की यात्रा करके वापस लौटा था। वह भारत आया और हिमालय की एक छोटी-सी रियासत में मेहमान हुआ। उस रियासत के राजा ने साधु के पास जाकर कहा, ‘मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं। मैंने बहुत-से लोगों के प्रवचन सुने हैं, बहुत-सी बातें सुनी हैं, सब मुझे बकवास मालूम होती है। मुझे नहीं मालूम होता है कि ईश्वर है और जब भी साधु-संन्यासी मेरे गांव में आते हैं, तब उनके पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं। अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ईश्वर के संबंध में मुझे कोई व्याख्यान नहीं सुनने हैं, मैंने काफी सुन लिए हैं। तो आपसे यह पूछने आया हूं कि अगर ईश्वर है, तो मुझे मिला सकते हैं? ’ वह संन्यासी बैठा चुपचाप सुन रहा था। वह बोला..‘अभी मिलना है या थोड़ी देर ठहर सकते हो? ’ राजा एकदम अवाक हो गया। उसको आशा नहीं थी कि कोई आदमी कहेगा कि अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर सकते हैं। राजा ने समझा कि समझने में भूल हो गई होगी। संन्यासी कुछ गलत समझ गया है। राजा ने दुबारा कहा..‘शायद आप ने ठीक से नहीं समझा। मैं ईश्वर की बात कर रहा हूं, परमेश्वर की।’ संन्यासी ने कहा..‘मैं तो उसके सिवा किसी की बात ही नहीं करता। अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं? ’ उस राजा ने कभी नहीं सोचा था कि वह ऐसा पूछेगा, तो क्या उत्तर दूंगा? उसने कहा..‘आप कहते हैं तो मैं अभी ही मिलना चाहता हूं।’ संन्यासी ने कहा, ‘तो एक काम करें; यह कागज है, इस पर थोड़ा-सा लिख दूं कि आप कौन हैं, ताकि परमात्मा तक खबर भेज दूं। क्योंकि यह तो आप मानेंगे ही कि जो आपसे भी कोई मिलने आता है, तो आप पूछ लेते हैं कौन है, क्या है? ’ राजा ने कहा, ‘यह तो ठीक है। यह तो नियमबद्ध है। उसने अपने राज्य और भवन का पता उस संन्यासी को दिया। वह संन्यासी हंसने लगा और उसने कहा..‘दो-तीन बातें पूछनी जरूरी हो गई। इस कागज में जो भी आपने लिखा है, सब असत्य है।’ तब राजा बोला..‘असत्य! आप क्या पागलपन की बात कर रहे हैं! मैं राजा हूं और जो नाम मैंने लिखा है वही मेरा नाम है।’ संन्यासी ने कहा, ‘मुझे तो बिल्कुल ही असत्य मालूम होता है। आप न राजा है और न आपने जो नाम लिखा है वह आपका है।’ वह राजा बोला..‘आप अजीब आदमी मालूम होते हैं। पहले तो आपने कहा कि ईश्वर से अभी मिला दूंगा। वह भी मुझे पागलपन की बात मालूम पड़ी। और दूसरे यह कि अब मैं कह रहा हूं कि मैं इस क्षेत्र का राजा हूं, मेरा यह नाम है तो उससे इंकार करते हैं।’ संन्यासी ने कहा..‘थोड़ा सोचें। अगर आपका नाम दूसरा हो तो क्या फर्क पड़ जाएगा? आपके मां-बाप ने ‘आ’ नाम दे दिया और यदि मैं ‘बा’ नाम दे देता, तो क्या फर्क पड़ जाता? आप जो थे, वही रहते कि बदल जाते? आपको अगर हम दूसरा नाम दे दें तो आप बदल जाएंगे? ’ उस राजा ने कहा..‘नाम बदलने से मैं कैसे बदलूंगा? ’ संन्यासी ने कहा..‘जिस नाम के बदलने से आप नहीं बदलते, निश्चित ही नाम कुछ और है, आप कुछ और हैं। आज आप उस नाम से अलग हैं और फिर आप राजा है, कल अगर इसी गांव में भिखारी हो जाएं तो बदल जाएंगे? फिर आप आप नहीं रहेंगे? ’ राजा बोला..‘मैं तो फिर भी रहूंगा। राज्य नहीं रहेगा, धन नहीं रहेगा, राजा नहीं रहेंगे, भिखारी हो जाऊंगा, मेरे पास कुछ नहीं रहेगा, लेकिन मैं तो जो हूं वही रहूंगा।’ संन्यासी बोला, ‘फिर राजा होने का कोई मतलब नहीं रहा। फिर आपकी सत्ता से उसका कोई संबंध नहीं। वह तो ऊपरी खोल है, बदल जाए तो भी नहीं बदलेंगे। यह कपड़े मैं पहने हूं तो मैं यह थोड़ा कहूंगा कि यह कपड़ा मैं हूं। क्यों नहीं कहूंगा? क्योंकि कपड़े दूसरे पहन लूं तब भी मैं ही बना रहूंगा।’ संन्यासी ने कहा..‘फिर राजा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह आपका परिचय नहीं हुआ, क्योंकि जो परिचय आपने दिया है उसके बदल जाने पर भी आप नहीं बदलते हैं। अतः आपका परिचय कुछ और होना चाहिए, जिसके बदलने पर आप न बदल जाएं, वही आप हो सकते हैं। और जब तक आप वह परिचय न देंगे तो मैं कैसे परमात्मा को कहूं कि कौन मिलने आया है, किसको मिलाऊं? परमात्मा तो मौजूद है, लेकिन मिलाऊं किसको? मिलनेवाला मौजूद नहीं है। क्योंकि मिलनेवाला बंटा है बहुत..से टुकड़ों में, खंडों में। वह इकट्ठा नहीं है, वह राजी नहीं है, वह खड़ा नहीं है। कौन है जो मिलना चाहता है? आप ईश्वर को खोजते हैं लेकिन कौन हैं आप? अपने खंडों को इकट्ठा करना होगा। कैसे वे खंड इकट्ठे होंगे, क्योंकि अगर सच में खंड हो गए हैं तो कैसे इकट्ठे होंगे? कितने ही उनको पास लाएंगे तब भी वे खंड बने रहेंगे। अगर सच में खंड हो जाए तो फिर अखंड नहीं हो सकते। क्योंकि खंडों को कितने ही करीब लाओ उनके बीच फिर भी फासला बना रहेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि दो अंगों को कितने ही करीब लाओ, फिर भी फासला दोनों के बीच बना ही रहेगा। यह ठीक ही कहते हैं, क्योंकि कितने ही करीब लाओ, बीच में फासला होगा ही। यदि नहीं तो दोनों एक ही हो जाएंगे अगर फासला नहीं रहेगा। तो खंडों को कितने ही करीब लाओ अखंड नहीं बना सकते हैं, खंडों का जोड़ ही होगा।’
इसका अर्थ है कि आप अखंड है। खंड होना आपका भ्रम है। भ्रम टूट सकता है और आप इसी क्षण अखंडता को पा सकते हैं। आप खंडित हो नहीं गए हैं, खंडित मालूम हो रहे हैं। मैं एक पहाड़ पर गया था और वहां एक महल में लोग मुझे ले गए थे। मैं एक बड़ा गुंबज था और उस गुंबज में कांच के छोटे-छोटे लाखों टुकड़े लगे थे। मैं वहां खड़ा हुआ। मुझे लाखों अपनी तस्वीरें दिखाई पड़ने लगीं, टुकड़े-टुकड़े। और फिर हमने वहां दीया जलाया तो लाख दीए जलने लगे..कांच के टुकड़े-टुकड़े में। अब अगर उस दीए को न देखूं जिसको हाथ में लिए हूं और उन कांच पर प्रतिबिंबित हजारों दीयों को देखूंगा तो मैं समझूंगा कि इस भवन में लाखों दीए जल रहे हैं और अगर मैं हाथ के दीए को देखूं तो मैं पाऊंगा कि एक ही दीया जल रहा है।
अगर मैं अपने को भूल जाऊंगा तो मैं देखूंगा कि हजार-हजार लोग कमरे में मौजूद हैं और मैं अपने को देखूं तो पाऊंगा कि एक ही मौजूद है। फर्क आप समझ रहे हैं? जो व्यक्ति अपने अनुभव के दर्पण में, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के दर्पण में, क्षण-क्षण प्रवाही जीवन के दर्पण में, अपनी तस्वीर को देखता है उसे हजार-हजार टुकड़े खुद के मालूम होते हैं। और अगर वह उनको न देखे, उसको देखे जो पीछे बैठा है, सबके अनुभवों में नहीं अनुभोक्ता में, दृश्यों में नहीं द्रष्टा में, जो चारों तरफ घटित हो रहा है उसमें नहीं जिसके ऊपर घटित हो रहा है उसमें, तो पाएंगे एक है और वहां अखंड है। चित्त अनेक हैं, चेतना एक है। चित्त प्रतिफलित है, चेतना एक है। जिसका प्रतिफलन है उसे पकड़ना होगा। अगर उसे पकड़ने में हम समर्थ हो जाएं तो जीवन एकदम सरल हो जाएगा। अखंड जीवन की सरल जीवन है। समग्र..‘इंटीग्रेटेड’..जीवन ही सरल जीवन है। इसे पहचानने का रास्ता होगा..दूसरा सूत्र, जिसे मैं सजगता कह रहा हूं। सजगता का अर्थ है..‘अवेयरनेस, होश, भान, आत्मभान। जिस व्यक्ति का आत्मभान जितना जाग्रत होगा वह उतना ही सरल और अखंड हो जाएगा। आत्मभान का क्या अर्थ है? होश का क्या अर्थ है? आत्मभान, या अमूच्र्छा या, अप्रमाद का अर्थ है..जीवन के जितने भी अनुभव हैं उनके साथ एक न हो जो उनसे दूर बने रहें, उनके द्रष्टा बने रहें। जैसे मैं इस भवन में बैठा हूं। प्रकाश जला दिया जाए तो भवन में प्रकाश भर जाएगा। प्रकाश मुझे घेर लेगा। दो भूलें मैं कर सकता हूं। यह भूल कर सकता हूं कि मैं समझ लूं कि मैं प्रकाश हूं, क्योंकि प्रकाश कमरे में भरा हुआ है। फिर प्रकाश बुझा दिया जाए तो अंधकार आ जाएगा। फिर मैं यह भूल कर सकता हूं कि मैं अंधकार हूं। यह भूल है, क्यों? क्योंकि प्रकाश आया तब भी मैं यहां था। प्रकाश चला गया तब भी मैं यहां था। अंधकार आया तब भी मैं यहां हूं। अंधकार चला जाए तब भी मैं यहां रहूंगा। तो मेरा जो मैं है, वह न तो प्रकाश है, न अंधकार है। सुख आते हैं, चले जाते हैं। दुःख आते हैं, चले जाते हैं। सम्मान मिलता है, चला जाता है। अपमान मिलता है, चला जाता है। जो आता है और चला जाता है, वह मैं नहीं हो सकता।
तो जीवन के प्रत्येक अनुभव में, घृणा में, अशांति में, शांति में, सुख में, दुःख में, मान में, सम्मान में..यह स्मरण, यह स्मृति कि जो भी घटित हो रहा है वह मैं नहीं हूं, मैं केवल उसका देखनेवाला हूं..मैं देख रहा हूं कि अपमान किया जा रहा है और मैं देख रहा हूं कि जो सम्मान किया जा रहा है, और मैं देख रहा हूं कि दुःख आया और मैं देख रहा हूं कि सुख आया और मैं देखता हूं कि रात हुई और मैं देखता हूं कि दिन हुआ। सूरज उगा और सूरज डूबा। मैं केवल देखनेवाला हूं। मैं केवल साक्षी हूं। जो हो रहा है उससे मेरा इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं कि मैं देख रहा हूं। अगर क्रमशः यह स्मृति और यह भान विकसित होने लगा कि मैं देखने वाला हूं तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि आपकी अखंडता आ रही है और खंडता जा रही है। खंड होना बंद हो जाएगा। खंड-खंड वे होते हैं, जो किसी दृश्य को देखते ही उस के साथ एक हो जाते हैं। इसलिए द्रष्टा यदि दृश्य के साथ एक हो जाए तो जीवन खंड हो जाता है। द्रष्टा दृश्य से अलग हो जाए तो जीवन अखंड हो जाता है। सारा योग, सारे धर्म, सारे मार्ग, सारी पद्धतियां जो मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचाती हैं, बुनियादी रूप से इस बात पर खड़ी हैं कि मनुष्य अपनी चेतना को साक्षी समझ ले। मनुष्य केवल दर्शक मात्र रह जाए। लेकिन हम तो अजीब पागल लोग हैं। हम तो नाटक देखें या फिल्म देखें वहां भी दृश्य ही रह जाते हैं। वहां भी हम भोक्ता हो जाते हैं। अगर नाटक में कोई दुःख का दृश्य आता है तो हमारी आंखों से आंसू बहने लगता है। हम द्रष्टा नहीं रह गए, हम भोक्ता रह गए। हम सम्मलित हो गए नाटक में। हम नाटक के पात्र हो गए। नाटकगृह में बैठकर ऐसे बहुत कम लोग हैं जो नाटक के पात्र न हो जाएं। कोई रोने लगता है, कोई हंसने लगता है, कोई दुखी और प्रसन्न हो जाता है। वह जो मंच पर हो रहा है या परदे पर हो रहा है, वहां भी रोना, दुखी होना और पीड़ित होना आपके भीतर शुरू हो जाता है। आपको आदत पड़ी है कि दृश्य के साथ एक हो जाएं। धर्म कहता है कि जीवन का जो दृश्य है वहां भी एक न रह जाएं और हम ऐसे पागल हैं कि नाटक के जो दृश्य होते हैं वहां भी एक हो जाते हैं। जीवन का जो वृहत्तर नाटक चल रहा है वह नाटक से ज्यादा नहीं है। क्यों हम उसे कह रहे हैं कि नाटक से ज्यादा नहीं है? इसलिए नहीं कि उसके मूल्य को कम करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि उसका जो ठीक-ठीक मूल्य है वही आंकना चाहते हैं।
सुबह में जागता हूं तो जो देखता हूं वह सच मालूम होने लगता है। और रात में सोता हूं तो जो सपना होता है वह सच मालूम होने लगता है। सपने में जाते हैं तो संसार झूठा हो जाता है। सब भूल जाता हूं, कुछ याद नहीं रहता। और सपने के बाहर आते हैं, तो संसार सच हो जाता है और सपना झूठा हो जाता है। इसलिए जो जानते हैं, वह इस यात्रा में एक सपने में दूसरे सपने में आते हैं और फिर मृत्यु में सब सपना हो जाता है। अभी पीछे उलटकर देखें अपने जीवन को, तो जो जाना था और देखा था, क्या ठीक-ठीक याद पड़ते हैं कि वह सपने में देख रहा था या सच में देख रहा था? सिवा स्मृति के और क्या निशान रह गए हैं? पीछे लौटकर अगर कोई मृत्यु के कगार पर देखे तो क्या उसे याद पड़ेगा कि जो मैंने जीवन में जाना वह सब था या सपना था क्योंकि निशान कहां है? केवल स्मृति में रह गए हैं। सपना भी स्मृति में निशान छोड़ जाता है और संसार भी, और अगर स्मृति पहचान भी जाए तो दोनों मिट जाएंगे।
एक आदमी टेन से गिर पड़ा था। टेन से गिरते ही उसकी स्मृति विलीन हो गई। फिर उसने पहचानन बंद कर दिया था..कौन उसकी पत्नी है, कौन उसका पिता है। मैं उससे मिलने गया तो वह मुझे नहीं पहचान सका। क्या हो गया? स्मृति विलीन हो गई। उसे सपने भी भूल गए, जो उसने पहले देखे थे। और वह जिंदगी भी भूल गई जो देखी थी; जिसकी रेखाएं केवल स्मृति पर रह जाती हैं। और स्मृति के समीप पहुंचने से जिसका सब मिट जाए उसे सपने से ज्यादा क्या कहेंगे? जो केवल स्मृति में है उसे सपने से ज्यादा और कहने का प्रयोजन क्या है? और मौत सब स्मृति को पोंछ देती है और सब जो जाना था, जो जीया था वह सपना हो जाता है। यह जो जगत का बड़ा सपना है, इस सपने के प्रति बोध और सजगता चाहिए। यह जानना कि जो मैं देख रहा हूं, वह दृश्य है और मैं अलग हूं, मैं पृथक और भिन्न हूं। सुबह से शाम तक उठते-बैठते, सदा जागते, बोलते, चुप रहते, खाते-पीते, चलते-फिरते हर वक्त धीमे-धीमे इस स्मरण को गहरा करना होगा कि मैं अलग हूं। जो हो रहा है वह अलग है। धीरे-धीरे वह घड़ी आए, जब आप अपने भीतर एक अलग चेतना की ज्योति का अनुभव करेंगे जो सारे अनुभवों से पृथक है, और तब जीवन एकदम सरल हो जाएगा। तब आप पाएंगे, आप एकदम सरल हो गए हैं, एकदम ‘इनोसेंट’..जैसे छोटे बच्चे। और छोटा बच्चा हुए बिना कोई उपलब्धि नहीं है। बूढ़े जब बच्चे हो जाते हैं तभी वे परमात्मा को पा लेते हैं। इतनी सरलता सजगता से उत्पन्न हो सकती है।

दूसरा सूत्र है सजगता और तीसरा सूत्र है शून्यता। जितना शून्य होंगे उतनी सजगता गहरी होगी। मैंने कहा कि सरलता उत्पन्न होती है सजगता से और सजगता उत्पन्न होती है शून्यता से। शून्यता चरम बिंदु है। शून्यता साधना का केंद्र-बिंदु है। शून्य हो जाएं। शून्य होने का मतलब है जो हो रहा है चारों तरफ, उसके प्रति मरना सीखें।
एक छोटी-सी कहानी कहूं तो शायद समझ में आ जाए। जापान में एक संन्यासी हुआ। एक ऐसा दरिद्र भिखारी, जो टोकियो राजधानी में एक नीम के झाड़ के नीचे पड़ा रहता था। वर्ष ओ और गए, वहीं पड़ा रहा। लाखों हजारों लोग उसे मानते थे और श्रद्धा देते थे। स्वयं बादशाह भी उसे श्रद्धा और आदर करता था। एक दिन बादशाह आया और उसके चरण छुए और कहा कि कृपा करें, मेरे महल में चलें। यहां पड़े रहने से क्या? बरसात भी है, शरीर आपका वृद्ध हो गया है, धूप आती है, तकलीफ होती है, सर्दी आती है। मुझ पर कृपा करें और तुरंत मेरे महल में चलें। साधु ने अपनी चटाई लपेटी और खड़ा हो गया। राजा बहुत हैरान हुआ। साधु इतना जल्दी तैयार हो गया! कैसा साधु है, कैसा संन्यासी है? एक दफा भी ऐसा नहीं कहा कि यह संसार सब माया है, महल में क्या लेना-देना है। हमने तो लात मार दी। हम तो झोपड़े में रहनेवाले फकीर हैं, हम तो मग्न रहते हैं, हमको क्या मतलब? ऐसा कहता तो मालूम पड़ता कि संन्यासी है। और जिन-जिन को संन्यासी मालूम पड़ना हो, उन को ऐसा कहना पड़ता है। वह संन्यासी तो खड़ा हो गया। उसने कहा, महाराज, चलें। वह तो आगे हो गया और बादशाह बहुत चिंतित हुआ। बड़े उत्साह से लेने गया था, लेकिन चित्त एकदम फीका हो गया कि किसा आदमी को ले जा रहा हूं। यह भी गलती हो गई। यह तो धोखा हो गया। लेकिन जब खुद ही आमंत्रण दिया था, खुद को बुलाया था इसलिए इंकार भी बीच रास्ते में कैसे करे। महल में ले गया, बड़ी अच्छी व्यवस्था उसकी की थी। जो राजा की व्यवस्था थी, वैसी व्यवस्था उसकी थी। लेकिन प्रति क्षण संदेह बढ़ने लगा। जो जो दिया, उसने स्वीकार कर लिया और जो शाही बिस्तरे दिए उन पर सो गया। नौकर..चाकर दिए, उनकी सेवाएं उसने अंगीकार कर लीं। राजा तो हैरान हुआ कि यह आदमी कैसा है? यह तो बिल्कुल ही गलत आदमी मालूम होता है। क्या यह उसकी प्रतीक्षा में ही बैठा हुआ था? क्या सब ढोंग था, धोखा था? यह सारी फकीरी क्या बरसों से प्रतीक्षा कर रही थी कि राजा कब आमंत्रण दे और मैं चलूं। रात मुश्किल से बीती। संन्यासी तो मजे से सोया पर राजा नहीं जो सका। सुबह होते ही राजा ने कहा कि संत जी, बड़ी शंका मन में उठी है। जब तक निवारण न हो, मैं बड़ी दिक्कत में पड़ गया हूं। एक शंका उठी है, उसे प्रकट करने की आज्ञा दें। संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा..तुम्हें शंका अब प्रकट हुई? मुझे वहीं हो गई थी। जैसे ही मैं खड़ा हुआ, मैं समझा तुमने निमंत्रण वापस ले लिया। फिर तो मजबूरी से यहां तक ले आए हो। पूछ लो, शंका का निवारण कर लो। राजा ने कहा कि रात मैं यही सोचता रहा कि आप कैसे संन्यासी हैं? संन्यासी ने कहा कि थोड़ा एकांत होगा तो सरलता होगी बतलाने में। राजा ने कहा भेद तो जानना ही है। मुझमें और आपमें क्या भेद रहा, इस रात? कल तक तो भेद था। आप नीम के नीचे थे, भिखारी थे, भिखमंगे थे। खोने के बर्तन को सिर के नीचे रखकर सो जाते थे। मैं महल में था तो राजा था, आप भिखमंगे थे कल तक..तो बहुत भेद था। आप संन्यासी थे, मैं भोगी था। लेकिन आज रात कोई भेद मुझे दिखाई नहीं पड़ता। संन्यासी खूब हंसने लगा। और कोई भी संन्यासी हंसेगा, क्योंकि अगर भेद इतना ही है कि एक के पास बहुत बिस्तर हैं और एक के पास बहुत बिस्तर नहीं हैं; एक दरख्त के नीचे सोता है और एक महलों में। अगर भेद इतना ही हो, तो संन्यास और संसार में तो भेद किस मूल्य का हुआ? कोई भेद है ही नहीं।
संन्यासी बहुत हंसा। उसने कहा कि गांव के बाहर चलें। वे दोनों गांव के बाहर गए। बार-बार थोड़ी-थोड़ी दूर पर राजा पूछने लगा, उत्तर दे दें। अब तो गांव के बाहर आ गए। संन्यासी ने कहा, थोड़ा और आगे, थोड़ा और आगे। दोपहर हो गई। सूरज ऊपर आ गया तो राजा ने कहा..क्या कर रहे हैं! आपको उत्तर देना है कि नहीं? यह और आगे से क्या मतलब होगा? संन्यासी ने कहा, और आगे ही उसका उत्तर है। अब मैं आगे ही जाऊंगा, पीछे नहीं लौटूंगा। आप भी मेरे साथ चलते हैं। राजा ने कहा..मैं कैसे चल सकता हूं? पीछे मेरा महल, मेरा राज्य है। संन्यासी ने कहा..पीछे न मेरा महल है न मेरा राज्य है और इतना ही भेद है। जब रात तुम्हारे भवन में मैं सोया तो मैं बिल्कुल उतना ही शून्य था जितना जब मैं नीम के नीचे सोता था। इतना ही भेद है। उसे स्मरण रखें, इसे हृदय के किसी कोने में बैठ जाने दें। इतना ही भेद है कि जब तुम्हारे महल में सोया तो उतना ही शून्य था जितना तब जब मैं रोज नीम के नीचे सोता था। मेरी शून्यता वही थी, वही भेद था, तुम्हारे भीतर शून्यता नहीं है। जो तुम्हारे पास आता है उसी से तुम भर जाते हो। महल से भरे हुए हो। तुम कहते हो पीछे मेरा महल है, तुम कहते हो पीछे मेरा राज्य है। तुम जब मरोगे तब भी कहोगे कि पीछे मेरा सब कुछ गया। तुम रोते हो कि कहां मुझे लिए जा रहे हैं। और मैं जब मरूंगा तो ऐसा ही चला जाऊंगा आगे, क्योंकि मेरे पीछे कुछ भी नहीं है। पीछे वही है जो भीतर हो और जो भीतर न हो वह पीछे भी नहीं है। बाहर भी वही है जो भीतर हो। जो भीतर न हो बाहर भी कुछ नहीं है। जो शून्य हो जाते हैं, उनके लिए संसार मोक्ष हो जाता है। जो शून्य हो जाते हैं उनके लिए संसार परमात्मा हो जाता है। जो शून्य हो जाते हैं उनके लिए यहीं सब कुछ उतर आता है, जिसकी आपको तलाश है और खोज है। लेकिन शून्य हो जाना जरूरी है। क्यों? क्योंकि जब वर्षा का पानी गिरता है और आकाश में मेघ इकट्ठे होते हैं और बूंदें बरसती हैं तो वह पानी की बूंदें टीलों पर या पहाड़ों पर इकट्ठी नहीं होती हैं, गड्ढों में इकट्ठी हो जाती हैं। जो टीले के की भांति हैं, जिनका अहंकार उठा हुआ है, उन पर पानी तो गिरेगा लेकिन बहकर नीचे निकल जाएगा, इकट्ठा नहीं होगा। और जो गड्ढों की भांति खाली और शून्य हैं उनमें भर जाएगा। जो शून्य है, वह ग्रहण करता है परमात्मा को और जो भरा है संसार से वह इंकार कर देता है, अस्वीकार कर देता है।
द्वार खोलना है तो शून्य हो जाएं, भीतर से बिल्कुल खाली हो जाएं। जैसे वहां कुछ न हो। सामान वहां इकट्ठा न करें, फर्नीचर अपने घर में लाएं और अपने भीतर न लाएं, चीजें अपने बाहर लाएं लेकिन भीतर न लाएं। बाहर सब होने दें लेकिन भीतर खाली रहने दें। रोज सांझ को जो इकट्ठा किया उसे बाहर कर दें। झाड़ लें अपने को, बिल्कुल साफ कर लें अपने को।
एक संन्यासी ने अपने शिष्य को एक दिन कहा कि तू बहुत दिन मेरे पास रहा है। जब मैं तुझे कहीं और भेजा हूं ताकि मैंने तुझसे जो कहा है वह और ठीक से समझ ले। तो उसको एक दूसरे संन्यासी के पास भेजा कि तू जा और उसे पास रह और उसकी जीवनचर्या को देख। वह वहां गया। सुबह से शाम तक उसने दिनचर्या को देखा। उसमें कुछ भी नहीं था। वह संन्यासी एक छोटी-सी सराय का रखवाला था। वह संन्यासी भी नहीं था। साधारण कपड़े पहनता था लेकिन उसके गुरु ने उसे वहां भेजा, तो गया। वह सुबह से शाम तक देखता रहा, वहां तो कुछ भी नहीं था। वह आदमी है, रखवाला है, रखवाली करता है। सराय को साफ करता है। मेहमान ठहरते हैं, उनके कमरे साफ करता है। मेहमान जाते हैं, उनके कमरे साफ करता है। उसने दो-चार दिन देखा तो ऊब गया। वहां तो कोई बात ही नहीं थी, चर्या की कोई बात ही नहीं थी। चलते वक्त उसने कहा, सब देख लिया जिसके लिए मेरे गुरु ने भेजा था। सिर्फ दो बातें मैं नहीं देख पाया हूंः रात को सोते समय आप क्या करते हैं, वह मुझे पता नहीं है और सुबह उठते वक्त आप क्या करते हैं, वह मुझे पता नहीं। यह मुझे बता दें। मैं वापस लौट जाऊं। संन्यासी ने कहा, कुछ नहीं करता। दिन भर मैं सराय के जो बर्तन गंदे हो जाते हैं रात में उनको साफ करके रख देता हूं और सुबह जब उठता हूं तो रात भर में उन पर थोड़ी बहुत धूल जम जाती है तो उन्हें मैं फिर पोंछ देता हूं। बस इससे ज्यादा कुछ नहीं करता।
शिष्य ने वापस लौटकर गुरु से कहा, कहां तुमने मुझे भेज दिया, एक साधारण सराय के रखवाले के पास! उस नासमझ से मैंने पूछा, तो न तो वह प्रार्थना करता है न ध्यान, न कुछ। वह मुझसे बोला, रात बर्तन साफ कर देता हूं, जो दिन भर गंदे हो जाते हैं। और सुबह थोड़ी धूल जम जाती है तो फिर उसे पोंछ देता हूं। उसके गुरु ने कहा..कह दिया उसने। जो कहने जैसा था, उसने कह दिया। सारा ध्यान, सारी समाधि, सब कह दिया। तू समझा नहीं। दिन भर बर्तन गंदे हो जाते हैं, सांझ को उन्हें पोंछकर साह कर दो। रात भर में सपनों की थोड़ी धूल फिर जम जाएगी, सुबह में फिर पोंछ डालो और खाली हो जाओ। मरते जाएं, रोज, रोज धूल को इकट्ठी न करें। रोज मर जाएं, सांझ को मर जाएं। जो हो गया उसे प्रति मर जाएं। वह जो बीत गया उसके लिए बीत जाने दें और मर जाएं। उसे छोड़ दें। वह स्मृति से ज्यादा कुछ भी नहीं। उस कचरे को अलग करें। शांत हो जाएं, चुप हो जाएं, शून्य हो जाएं। सुबह उठें जैसे कोई शून्य उठा हो, जिसका कोई आगा-पीछा नहीं है। दिन भर ऐसे जीएं जैसे सब शून्य है। बाहर सब हो रहा है, भीतर सब शून्य है। अगर सतत इस शून्य का भीतर स्मरण हो तो धीरे-धीरे वह गड्ढा तैयार हो जाता है, जिसमें परमात्मा का अवतरण होता है और अमृत की वर्षा होती है। खाली हो जाएं..परमात्मा आपको भर देगा। इसके सिवा और कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। खाली हो जाएं..परमात्मा आपको भर देगा। भर जाएं..परमात्मा आपको खाली कर देगा।
मैंने तीन छोटे से सूत्र कहे..सरलता, सजगता और शून्यता। जो इन तीन को साथ ले, वह उस परमानंद को उपलब्ध हो जाता है जिसकी हमने बातें सुनी हैं लेकिन जिसका हमें कोई अनुभव नहीं है। वही हम करें, जो अभी सुना है, जो अभी औरों से सुना है। जिसकी खबरें बुद्ध, महावीर, कृष्ण और राम से सुनी हैं, क्राइस्ट और मुहम्मद, मीरा और कबीर ने जिसके गीत गाए हैं। उन्होंने इसको जैसा जाना है, वैसा कहा है, वैसा ही जानना आपका भी हो सके। धर्म आपका मानना न रहे, धर्म आपका जानना हो जाए। मानने का कोई मूल्य नहीं है, मानना बिल्कुल ही व्यर्थ है। जानने का मूल्य है। धर्म आपका अपना जानना, अपनी अनुभूति, अपना प्रत्यक्ष, अपना साक्षात हो जाए, यही प्रभु से कामना करता हूं। और यदि आप तैयार हों तो कल तक रुकने की भी कोई जरूरत नहीं है। जो मिटने को तैयार वह अभी पा लेता है। बूंद जब सागर में अपने को खोने में राजी हो जाती है, तो सागर हो जाती है। ईश्वर करे, आपकी बूंद सागर में खो जाए और आप भी उसे जान सकें जिसे जान लेना सब कुछ है, जिसे पा लेना सब कुछ है और जिसके बिना सब कुछ अभाव है, जिसे पा लेने से सब कुछ मिल जाता है
..आनंद, शांति, शून्य, प्रेम!

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