कुल पेज दृश्य

सोमवार, 27 अगस्त 2018

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-01)

चित चकमक लागे नाहिं-(ध्यान-साधना)  

पहला-प्रवचन-(जीवन की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन्!
आने वाले तीन दिनों में जीवन की खोज के संबंध में थोड़ी सी बात मैं आपसे कहूंगा।
इससे पहले कि कल सुबह से मैं जीवन की खोज के संबंध में कुछ कहूं, प्रारंभिक रूप से यह कहना जरूरी है कि जिसे हम जीवन समझते हैं उसे जीवन समझने का कोई भी कारण नहीं है। और जब तक यह स्पष्ट न हो जाए, और जब तक हमारे हृदय के समक्ष यह बात सुनिश्चित न हो जाए कि हम जिसे जीवन समझ रहे हैं वह जीवन नहीं है तब तक सत्य जीवन की खोज भी प्रारंभ नहीं हो सकती। अंधकार को ही कोई प्रकाश समझ ले तो प्रकाश की खोज नहीं होगी और मृत्यु को ही कोई जीवन समझ ले तो जीवन से वंचित रह जाएगा। हम क्या समझे बैठे हुए हैं, अगर वह गलत है, तो हमारे सारे जीवन का फल भी गलत ही होगा। हमारी समझ पर निर्भर करेगा कि हमारी खोज क्या होगी?

सबसे पहली बात जो मैं निवेदन करना चाहता हूं वह ये बहुत कम लोगों को जीवन उपलब्ध होता है। जन्म तो सभी लोगों को उपलब्ध होता है। और अधिकांश लोग जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं और मूल्य बढ़ जाता है। जिसे हम जीवन जानते हैं, वो केवल एक जीवन को पाने का अवसर है पाने का या खोने का। क्योंकि उसके द्वारा जीवन पाया भी जा सकता है और जीवन खोया भी जा सकता है। जिसे हम जीवन जानते हैं वह केवल एक अवसर है, वो एक संभावना है, वो एक बीज है। जिसमें से कुछ विकसित हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि बीज व्यर्थ पड़ा रह जाए, उसमें से कोई अंकुर न निकले, कोई फूल न लगे, कोई फल न आए। दोनों बातों की संभावनाएं हैं और जैसा आज तक हुआ है अधिक लोगों का जीवन बीच व्यर्थ ही पड़ा रह जाता है। बहुत कम लोगों के जीवन में अंकुर आते हैं, फूल आते हैं और सुगंध आती है। ऐसे थोड़े से लोगों को हम पूजते हैं उनका स्मरण करते हैं। लेकिन एक बात का स्मरण नहीं करते कि ठीक वैसा ही बीज हमें भी उपलब्ध हुआ है और ठीक वैसी ही सुगंध को हम भी उपलब्ध हो सकते हैं।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट को देख कर जिसके मन में ये अपमान का बोध पैदा न होता हो कि मेरे भीतर भी ठीक वैसा ही बीज है और मैं भी ठीक उनके ही जीवन जैसे जीवन को उपलब्ध हो सकता हूं, उसकी सब पूजा व्यर्थ है और सब ढोंग है और पाखंड है। एक बात इस पीड़ा से बचने के लिए हमने कृष्ण को, बुद्ध को, महावीर को भगवान बना रखा है। इस पीड़ा से बचने के लिए अगर वे भी मनुष्य हों तो फिर हमें अपने मनुष्य होने पर पश्चात्ताप शुरू हो जाएगा। यदि वे भी हमारे जैसे मनुष्य हैं तो फिर हमें बचने के लिए कोई जगह, कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी। इसलिए बचने के लिए अपमान से, पीड़ा से दुख से, उन्हें भगवान, ईश्वर का पुत्र, तीर्थंकर और न मालूम क्या-क्या नासमझियों की बातें हम लोगों पे थोपते हैं। हमारे जैसे ही सारे मनुष्य हैं, सारे मनुष्य थे लेकिन कुछ मनुष्य-बीज ठीक से विकसित होते हैं और उनके भीतर से परमात्मा का प्रकाश प्रकट होने लगता है। और अधिक बीज विकसित नहीं हो पाते। धर्म का यदि कोई भी संबंध इसी बात से कि सारे बीज जो होने को थे वो हो जाएं। जो उनके भीतर छिपा है, वह प्रकट हो जाए। और उसके लिए सबसे पहले आधारभूत जरूरी बात जो आज मैं आपसे कह रहा हूं वह यह है कि हमें हमें यह स्मरण न आए कि हम जिस दिशा में चल रहे हैं और जो कर रहे हैं वो एकदम गलत है तब तक कोई क्रांति, कोई परिवर्तन, कोई मोक्ष संभव नहीं होगा? ये करीब-करीब जिसे हम जीवन जानते हैं रोज धीरे-धीरे मरते जाने से ज्यादा नहीं है। और लंबी मृत्यु को जीवन नहीं कहा जा सकता।
सत्तर वर्ष में एक आदमी मरता है, ये सत्तर वर्ष मरने की क्रिया चलती है। सौ वर्षों में कोई मरता होगा, कोई पचास वर्ष में भी मरता होगा। ये मरने की लंबी क्रिया को भी हम जीवन समझ कर चुप बैठे रह जाते हैं। कल आप जितने थे उससे आज एक दिन कम हो गए हैं। कल और एक दिन कम होगा। जिसे आप उम्र का बढ़ना जानते हैं, वह उम्र का घटना है। और जिन जन्मजनों को आप जन्म दिवस मनाते हैं, वे केवल मृत्यु के करीब आने के पत्थर हैं। और सब तरफ से दौड़ के अन्त में पाया जाता है कि मौत में पहुंच जाते हैं। इसी की तरफ दौड़ते हैं और कुछ नहीं करते हैं और हजार तरह के उपाय करते हैं हजार तरह की व्यवस्थाएं करते हैं। ये सारी दौड़-धूप मृत्यु से बचने की व्यवस्था से ज्यादा नहीं है कोई धन इकट्ठा करता हो, यश इकट्ठा करता हो, पद इकट्ठा करता हो, शक्ति बढ़ाता हो सारी चेष्टाएं एक बात से बचने के लिए हैं कि वो जो कल मौत आएगी उसके खिलाफ मैं कोई सुरक्षा, कोई सिक्योरिटी की व्यवस्था कर लूं, लेकिन ये सब व्यवस्थाएं टूट जाती हैं और मौत आ जाती है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है। धनुष्ट ने एक रात एक स्वप्न देखा। स्वप्न देखा कि वो एक वृक्ष के नीचे एक घोड़े के पास खड़ा है और किसी काली छाया ने आकर उसके कंधे पर हाथ रखा। लौट कर उसने देखा तो वह घबड़ा गया। उस छाया ने कहाः मैं मृत्यु हूं और कल तैयार रहना और ठीक जगह पर पहुंच जाना, मैं तुम्हें लेने को आ रही हूं। उसकी नींद टूट गई, सपना टूट गया। वह घबड़ा गया सुबह होते ही उसने राज्य के बड़े से बड़े ज्योतिषियों को बुलाया। बड़े से बड़े स्वप्न को जानने वाले विद्वानों को बुलाया। और उनसे पूछा, इस स्वप्न का इस लक्षण का क्या अर्थ है? रात मैंने एक काली छाया देखी है जिसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहाः मैं मौत हूं, कल तैयार रहना और ठीक जगह पर पहुंच जाना। मैं तुम्हें लेने को आ रही हूं। ज्यादा समय भी नहीं था क्योंकि कल सांझ सूरज होते-होते मौत आ जाएगी। ज्योतिषियों ने कहा आपके पास ज्यादा समय का विचार का मौका भी नहीं है। आपके पास कोई तेज से तेज घोड़ा हो तो उसे ले-लें और भागने की कोशिश करें, जितना दूर निकल जाएं उतना बेहतर है। सिवाय इसके कोई उपाय हो भी नहीं सकता था। मनुष्य की बुद्धि और क्या करती। यही एक उपाय हो सकता था उस महल से उस राजधानी से दूर से दूर निकला जाए बचने का और क्या उपाय हो सकता था, आपसे भी पूछता कोई तो क्या करते? या मुझसे भी पूछते तो मैं क्या बताता? उन ज्योतिषियों ने ठीक ही बताया। मनुष्य की बुद्धि और ज्यादा दूर दौड़ती भी नहीं है। खोज भी नहीं पाती, सीधी सी बात है--भागें और बचें मौत से।
तेज घोड़े की उस राजा के पास कमी न थी। तेज से तेज घोड़े थे। उसने एक तेज घोड़ा बुलाया, बैठे और भागना शुरू किया। घोड़ा बहुत तेज था और राजा निश्चिंत मन में धीरे-धीरे होने लगा घोड़े की तेज चाल को देख कर यह आत्मविश्वास आना स्वाभाविक था कि बच जाऊंगा, निकल जाऊंगा, दूर हो जाऊंगा, धीरे-धीरे राजधानी दूर छूटने लगी, राज्य दूर छूटने लगा, नगर और दूर छूटने लगे, घोड़ा भागता जाता था, न तो उस दिन राजा रूका, न उसने भोजन लिया, न उसने पानी लिया, कौन रूकेगा, कौन भोजन लेगा, कौन पानी पीएगा जिसके पीछे मौत पड़ी हो? न उसने घोड़े को ठहराया, न उसके पानी की व्यवस्था की। उस दिन तो दूर से दूर निकल जाना जरूरी था सुबह-दोपहर हो गई। राजा काफी दूर निकल आया था वो बहुत प्रसन्न था दोपहर तक तो वह उदास था, दोपहर के बाद वह गीत भी गुनगुनाने लगा। थोड़ा सा खयाल आ रहा था कि वो काफी दूर निकल आया है। सांझ होते-होते वो सैंकड़ों मील दूर निकल गया था और जब सूरज डूब रहा था तो उसने जाके एक आम के बगीचे में जाकर अपने घोड़े को बांधा और एक झाड़ के नीचे खड़ा हुआ। फिर उठा वह परमात्मा को धन्यवाद देने को ही था, कि अब तो काफी दूर निकल आया हूं, कि वही पंजा जो रात उसने देखा था उसने कंधे पर आकर हाथ रखा। उसने गौर से देखा कि वही काली छाया थी। उस काली छाया ने कहा कि मैं बहुत परेशान थी कि इतनी दूर तुम आ भी पाओगे या नहीं! क्योंकि यही जगह तुम्हारी मौत होने को थी। तो मैं हैरान थी कि ये कैसे संभव होगा? इतना फासला तुम पार कर सकोगे या नहीं कर सकोगे? लेकिन घोड़ा सच में तेज था। और तुम ठीक से दौड़े और ठीक समय पर मौजूद हो गए।
हम दौड़ें कैसे भी, पर एक दिन यह होगा और सपना आपने देखा हो या न देखा हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है और यह होगा। एक दिन मौत आपको ठीक जगह पर मिल जाएगी। जहां उसको मिलना है। तो यह हो सकता है कि हमारे भागने की दिशाएं अलग हों, हमारे रास्ते अलग हों हमारे घोड़ों की चाल अलग हो, यह हो सकता है। लेकिन अंतिम बात में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि झाड़ के नीचे कोई न कोई एक दिन कंधे पर हाथ रखा जाएगा और तब आप पाएंगे कि जिससे आप भाग रहे थे, उससे मुलाकात हो गई। और उस दिन आप घबड़ाएंगे कि जिससे बचने को आप भाग रहे थे वस्तुतः आप उसी की तरफ भाग रहे थे। मौत से बचने का कोई उपाय नहीं है, हम कहीं भी भागें, हम मौत की तरफ ही भागते हैं। भागना मात्र मौत में ले जाता है। जो भी भागेगा वह मौत में पहुंच जाएगा। तो ये हो सकता है कि दरिद्र बहुत धीमे-धीमे भागेगा, उसके पास घोड़ा नहीं, बिना घोड़े के भागेगा। और समृद्ध बहुत बड़े घोड़े पर भागेगा और वास्तव में वह बहुत तेज चाल वाले घोड़े पर भागेंगे, बिना घोड़े के लोग भी वहां पहुंच जाते हैं और घोड़े वाले भी वहां पहुंच जाते हैं। उपाय क्या है, रास्ता क्या है, करें क्या? और पहली बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जो भी आप कर रहे हैं वह सब आप को मौत में ले जाएगा और ये कोई चैंकाने वाली बात नहीं है आज से पहले जो भी किया गया है वह सब मौत में ले जाया गया है थोड़े से लोग मौत से बचे हैं और उन्होंने जो किया है वह आप बिलकुल भी नहीं कर रहे हैं थोड़े से लोग मनुष्य-जाति के इतिहास में मौत से बचे हैं और उन्होंने जो किया है वह आप बिलकुल भी नहीं कर रहे हैं। इसलिए आप जो भी तैयारी कर रहे हैं वह मौत की तैयारी है और चाहे वह प्रीतिकर लगे, चाहे अप्रीतिकर लगे, तथ्य और सत्य यही है कि हमारी सबकी तैयारी मौत की तैयारी है। इन तीन दिनों में मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा कि मौत की तैयारी के क्या लक्षण हैं? और जीवन की तैयारी कैसे हो सकती है? हो सकता है आपके भीतर भी जीवन को जानने की और पाने की आकांक्षा हो। वस्तुतः ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसके भीतर जीवन को पाने की आकांक्षा न हो। लेकिन फिर भी कुछ पागलपन है, कोई बड़ा पागलपन है। कोई बहुत गहरा पागलपन है। जिसमें पूरी मनुष्य-जाति ग्रसित है नया बच्चा आता है उसी पागलपन में ग्रसित हो जाता है शायद यह स्वाभाविक भी है। नया बच्चा दीक्षित न हो तो हमें पागल मालूम पड़ेगा। माना कि जिस दिन घर छोड़ते हैं उन्हें लोग पागल समझते हैं और बुद्ध जिस दिन घर से भागते हैं उस दिन वे भी पागल समझे जाते हैं और क्राइस्ट को भी पागल समझा जाता है। पूरी मनुष्य-जाति पागल है। इसलिए जब भी कोई ठीक आदमी पैदा होता है, तो पागल समझा जाता है।
एक और छोटी कहानी कहंू उससे मेरी बात शायद समझ में आए।
एक गांव में ऐसा हुआ कि एक दिन सुबह-सुबह एक बूढ़ी औरत आई और उसने आके उस गांव के कुएं में कुछ डाल दिया और कहा कि जो भी इस कुएं का पानी पीएगा पागल हो जाएगा। गांव में दो ही कुएं थे। एक तो गांव का कुआं था। एक राजा के महल का कुआं था। शाम तक मजबूरी थी, सारा गांव पागल हो गया पानी पीना भी पड़ा। सिर्फ राजा-रानी व वजीर तीन लोग जिन्होंने उस कुएं का पानी नहीं पीया वे बच गए पागल नहीं हुए पूरा गांव सांझ होते-होते पागल हो गया सारे गांव में एक अफवाह उड़ी कि मालूम होता है कि राजा का दिमाग खराब हो गया यह बिलकुल स्वाभाविक था क्योंकि जब पूरा गांव पागल हो गया हो तो वहां एक आदमी जो पागल नहीं है पागल मालूम पड़ेगा। सीधा सा गणित है वे सारे लोग बड़े चिंतित और परेशान हो गए। उनमें जो विचारशील थे और पागलों में बहुत विचारशील लोग होते हैं। इसलिए पागल और विचारशील में बहुत कम फासला होता है। विचारशील अक्सर पागल हो जाते हैं। और पागल अक्सर विचार करने लगते हैं। उन पागलों में कुछ विचारशील थे, कुछ नेता थे। उन सबने इकट्ठे होकर सोचा कि अब क्या किया जाए? राजा को बिना बदले तो सब गड़बड़ हो जाएगाअ क्योंकि राजा पागल हुआ तो कैसे चलेगा?
वे सब राजमहल गए सांझ होते-होते राजमहल के बाहर इकट्ठे हो गए और उन्होंने नारा लगाया कि राजा को बदले बिना चल नहीं सकता। राजा पागल हो गया है, वजीर पागल है, रानी पागल है। राजा उसका वजीर उसकी रानी ऊपर महल पर खड़े होकर विचार करने लगे कि अब क्या करें। उनके सिपाही भी पागल हो गए थे। उनके नौकर भी पागल हो गए थे। राजा ने वजीर से पूछा कि कुछ सोचो अब हम क्या करें उसने कहा कि सिवाय इसके कि हम उस कुएं का पानी जल्दी पी लें इसके सिवा कोई और उपाय नहीं है। उन तीनों ने लोगों से कहा तुम ठहरो हम इलाज कर दिए देते हैं, अपने पागलपन का। वो गए उन्होंने उस कुएं का पानी पी लिया। उस गांव में बड़ी खुशी मनाई गई, लोग नाचे और गीत गाए कि राजा का दिमाग ठीक हो गया।
मनुष्य-जाति किसी बहुत गहरे बुनियादी पागलपन से ग्रसित है। कोई बहुत बड़ी रात, कोई बहुत बड़ी विक्षिप्तता हमारे कानों को पकड़े है। हम नये बच्चों को उसमें दीक्षित कर देते हैं। जो बच्चे इंकार करेंगे वो विद्रोही मालूम पड़ेंगे। जो बच्चे उस दीक्षा से इंकार करेंगे, वे पागल मालूम पड़ेंगे। उनको हम जबरदस्ती ठोंक-पीट कर लाएंगे उसी रास्ते पर कि वे पागल हो जाएं। इसलिए दुनिया में स्वस्थ होना बड़ी खतरनाक बात है और जो आदमी अस्वस्थ होता है उसे स्वस्थ होने के लिए बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है। किसी को गोली खानी पड़ती है, किसी को जहर पीना पड़ता है, किसी को सूली पर लटक जाना पड़ता है। पागलों की दुनिया में भी स्वस्थ आदमी बरदाश्त नहीं किए जाते। इन पागलों की दुनिया में जो जितना बड़ा पागल हो उतना प्रीतिकर मालूम पड़ता है। क्योंकि वह अपना मालूम पड़ता है। ठीक उन्हीं रास्तों पर चलता मालूम होता है, जिन पर हम चल रहे हैं। तो ऐसे तो मैं जो आपसे कहूंगा इस मनुष्य-जाति को पकड़ी हुई जो गहरी पागलपन की स्थिति है उससे छुटकारे का क्या मार्ग है और उन्हीं में भी खोजते हैं कोई मार्ग तो मृत्यु उसका फल है और कुछ भी करें अंततः मौत पकड़ लेगी। और ये भी जरूरी नहीं है कि बहुत दिन बाद मौत पकड़ लेगी। कल पकड़ सकती है, आज पकड़ सकती है, अभी पकड़ सकती है। आज की रात एक तो आपसे यह कहना चाहता हूं कि इस पर थोड़ा सोचेंगे, इस पर थोड़ा विचार करेंगे कि आप जो भी कर रहे हैं अगर उससे मृत्यु ही निकलती है तो आपके करने की सार्थकता क्या है? आप जो भी कर रहे हैं अगर उससे अमृत की ओर आपके चरण नहीं पड़ते हैं, अगर अमृत की ओर आपकी आंखें नहीं खुलती हैं। अगर उस दिशा में आपके जीवन की गति नहीं होती है जहां मृत्यु नहीं है तो उसकी उपयोगिता क्या है? उसका कितनी दूर तक अर्थ है और क्या प्रयोजन है? फिर जीवन एक अवसर है और जितने क्षण हम खो देते हैं उन्हें वापस पाने का कोई भी उपाय नहीं है। और जीवन एक अवसर है उसे हम किसी भी भांति किसी भी रूप में परिवर्तित कर सकते हैं। जो भी हम उसके साथ करते हैं जीवन परिवर्तित हो जाता है। कुछ लोग उसे संपत्ति में परिवर्तित कर लेते हैं। जीवन भर, जीवन के सारे अवसर को, सारी शक्ति को संपत्ति में परिवर्तित कर लेते हैं लेकिन मौत जब सामने खड़ी होती है संपत्ति व्यर्थ हो जाती है। कुछ लोग जीवन भर सांग करके जीवन के अवसर को यश में कीर्ति में परिवर्तित कर लेते हैं। यश होता है, कीर्ति होती है, अहंकार की तृप्ति होती है लेकिन मौत जब सामने खड़ी होती है अहंकार और यश और कीर्ति सब व्यर्थ हो जाते हैं।
कसौटी क्या है कि आपका जीवन व्यर्थ नहीं गया? कसौटी एक ही है कि मौत जब सामने खड़ी हो तो जो आपने जीवन में कमाया हो वह व्यर्थ न हो जाए। आपने जीवन के अवसर को जिस चीज में परिवर्तित किया हो, सारे जीवन को जिस दांव पर लगाया हो जब मौत सामने खड़ी हो तो वह व्यर्थ न हो जाए, उसकी सार्थकता बनी रहे। मृत्यु के समक्ष जो सार्थक है, वही वस्तुतः सार्थक है, शेष सब व्यर्थ है। दुबारा दोहराता हूं मृत्यु के समक्ष जो सार्थक है वही सार्थक है, शेष सब व्यर्थ है ये बहुत कम लोगों के स्मरण में है ये कसौटी, ये मूल्यांकन, ये दृष्टि बहुत कम लोगों के समक्ष है। आपके समक्ष है या नहीं इसे सोचने का निवेदन करता हूं। इसे थोड़ा विचार करेंगे कि मैं जीवन भर दौड़ कर जो भी इकट्ठा कर लूंगा, जो भी, चाहे पांडित्य कर लूंगा। चाहे धन इकट्ठा कर लूंगा, चाहे बहुत उपवास करके तपस्याएं इकट्ठी कर लूंगा या बहुत यश कमा लूंगा, या कुछ किताबें लिख लूंगा, या कुछ चित्र बना लूंगा, या कुछ गीत गा लूंगा लेकिन अंततः जब मेरा सारा जीवन अंतिम कसौटी पर खड़ा होगा तो मृत्यु के समक्ष इनकी कोई सार्थकता होगी या नहीं? अगर नहीं होगी तो आज ही सचेत हो जाना उचित है और उस दिशा में संलग्न हो जाना उचित है कि मैं कुछ ऐसी संपदा भी खड़ी कर सकूं और कोई ऐसी शक्ति भी निर्मित कर सकूं और प्राणों के भीतर कोई ऐसी ऊर्जा को जन्म दे सकूं कि जब मौत समक्ष हो तो मेरे भीतर कुछ हो जो मौत से बच जाता हो। मौत जिसे नष्ट न कर पाती हो कि ये हो सकता है। अगर यह नहीं हो सकता तो सब धर्म बकवास हैं, व्यर्थ हैं।
यह हुआ है, यह आज भी हो सकता है। और हरेक के जीवन में हो सकता है लेकिन ये आसमान से टपक कर नहीं होता और न ही ये दान में मिलता है और न ही इसकी चोरी की जा सकती है और न ही किसी गुरू के चरणों में बैठ कर इसको मुफ्त में पाया जा सकता है। ये किसी और से नहीं पाया जा सकता, इसे तो जन्माया जा सकता है, इसका तो सृजन किया जा सकता है। इसे तो खुद अपने श्रम और अपने जीवन और अपने संकल्प और अपनी सारी शक्ति को लगा कर निर्मित किया जा सकता है। लेकिन एक निर्माण की दिशा में कदम नहीं उठेंगे तब तक जैसे हम जिएं हैं अगर वो हमें ठीक-ठीक मालूम पड़ता हो तब तक इस दिशा में कदम नहीं उठ सकते। तब तक जब तक कि हम जो कर रहे हैं वह हमें बिलकुल ठीक-ठीक मालूम पड़ता हो, तब तक कदम नहीं उठेंगे जीवन हमारा कहीं भ्रांत है, कहीं गलत है, कहीं दिशा हमारी ऐसे रास्तों पर ले जाती है जो कहीं नहीं पहुंचाते। इसके बोध का जन्म आवश्यक है।
बोध के जन्म के लिए जो कसौटी में मानता हूं वह है मृत्यु के समक्ष अपने जीवन को रख कर तोलना। एक दिन तोलना पड़ेगा लेकिन उस पथ पर करने के लिए कुछ भी नहीं होता। इसलिए जो पहले से ही तोलने लगता है। वह जरूर कुछ कर पाता है। उसके जीवन में कुछ हो पाता है। उसके जीवन में कोई क्रांति घनीभूत हो जाती है। आज से ही तोलना जरूरी है। प्रतिदिन तोलना जरूरी है। एक बार मजाक में एक बात कही थी कि प्रत्येक आदमी को दुनिया में ऐसी अदालतें होनी चाहिए कि हर तीन वर्ष में उन अदालतों के सामने हर आदमी को मौजूद होना पड़े। और उसे ये कहना पड़े कि तीन वर्ष की जिंदगी, तीन वर्ष वह जीया है। उसकी सार्थकता अदालत के सामने सिद्ध करे! तो मजाक ही थी लेकिन ऐसी अदालतें हो सकती हैं और अगर हुईं तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। कैसे अपने जीवन की सार्थकता को सिद्ध करिएगा? कैसे कहिएगा कि मैं जो जीया हूं, उससे ये फल हुआ है? ये जीवन हुआ है, उससे ये सार्थकता निकली है, उससे ये अर्थ निष्पन्न हुआ है। लेकिन छोड़िए कोई अदालतें न हो लेकिन हर आदमी के मन में अपने विवेक की एक अदालत तो होनी ही चाहिए, जिसके समक्ष वो रोज ही खड़ा हो जाए। जिसके समक्ष उसे प्रतिक्षण ही मौजूद होना चाहिए और वहां पूछना चाहिए कि मैं क्यों जी रहा हूं और वहां पूछना चाहिए कि क्या जो मैं जी रहा हूं, उससे कुछ होगा, उससे कुछ मिलेगा, उससे मैं कहीं पहुंचूंगा, उससे दौड़ मिटेगी, उससे दुख मिटेगा, उससे अंधकार मिटेगा, उससे मृत्यु मिटेगी या नहीं मिटेगी। ये प्रश्न बहुत घनीभूत जिसके मन में होकर खड़े हो जाते हैं, उसके जीवन में धर्म का प्रारंभ होता है। शास्त्र पढ़ने से धर्म का प्रारंभ नहीं होता लेकिन स्वयं के समक्ष जीवन को निरंतर तोलने से धर्म का जन्म होता है। रोज-रोज तोलने की जरूरत है। एक-एक क्षण तोलने की जरूरत है।
इस विचार के लिए, इस प्रारंभिक विचार के लिए कहता हूं। इसी आधार पर केवल तीन दिनों के लिए आपसे बात करूंगा। उस मार्ग की जिस पर हम मृत्यु की दिशा से हट कर और अमृत की दिशा में गति कर सकते हैं। होगा आपके मन में भी खयाल कि यदि अमृत जीवन मिल जाए तो बहुत अच्छा, मन में ये आकांक्षा पैदा होती होगी कि मृत्यु से बच जाएं तो बहुत अच्छा। मन में लगता होगा कि कैसे अमृत को पा लें लेकिन नहीं वो पाने की वास्तविक आकांक्षा तब तक पैदा नहीं होगी, जब तक हमारा मौजूदा जीवन अपनी पूरी व्यर्थता में स्पष्ट न हो जाए। जब तक मौजूदा हमारे जीवन का ढंग, हमारी पद्धति हमारा सोच-विचार, हमारे प्राणों की गति सब की सब व्यर्थ होकर खड़ी न हो जाएं। जब तक हमें यह न दिखाई पड़ने लगे कि जो भी मैं कर रहा हूं, वह बिलकुल व्यर्थ है। यह बेचैनी और यह घबड़ाहट और यह चिंता जब तक जीवन में न आ जाए कि जो मैं कर रहा हूं, वह व्यर्थ है, तब तक सार्थक की दिशा में कल्पना कैसे उठेगी और विचार कैसे जगेगा। तो आज तो यही करना चाहता हूं कि मृत्यु को अपने सामने ले लें हम सब उसे पीछे खड़ा रखते हैं। उसकी तरफ पीठ किए रखते हैं, जो आदमी मृत्यु की तरफ पीठ करे हुए है वह बहुत धोखे में है।
मैं एक यात्रा में था। वर्षा के दिन थे और पहाड़ी नदी के किनारे मुझे थोड़ी देर रूक जाना पड़ा। मेरी गाड़ी रूक गई। एक नाला था और जोर से गिरता था। मेरे पीछे और दो-तीन गाड़ियां थीं, वे भी रूक गईं। जो उनमें थे वे मेरे अपरिचित थे लेकिन मुझे बैठा देख कर मेरे पास आए और मुझसे कुछ बातें शुरू कीं। मैं उनसे बात कर रहा था और उनसे इस संबंध में अचानक बात हो आई उन्होंने मुझसे पूछा कि सबसे ज्यादा सोचने जैसी बात क्या है? तो मैंने उनसे कहा एक ही बात सोचने जैसी है और वह मृत्यु। बहुत उनसे बात होती रही। उन्होंने मुझसे कहा कि लौट कर वे मुझसे मिलेंगे। मैंने मजाक में उनसे कहा कि लौट कर मिलने का कोई पक्का भरोसा नहीं है। हो सकता है मैं न बचूं, हो सकता है आप न बचें, हो सकता है हम दोनों बचें लेकिन मिलने का कोई संयोग न बचे।
उनसे मैंने एक छोटी सी कहानी कही और कभी मेरी कल्पना में न था कि क्या होगा जाते-जाते नाला उतर गया और तब मैंने उनसे एक कहानी कही कि चीन में एक बादशाह अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने उसे कैद कर दिया और तय किया कि फलां-फलां दिन सुबह उसे फांसी दे देगा लेकिन उस राज्य का रिवाज था कि जब भी किसी को फांसी हो तो फांसी के दिन सुबह-सुबह राजा खुद जाकर उस कैदी को मिले और उस कैदी की जो भी मंशा हो तो उसे पूरी करे। फिर तो वह वजीर था ऐसे राजा का बहुत प्यारा रहा था लेकिन कोई भूल-चूक हुई थी और राजा नाराज हुआ था और फांसी की सजा दे दी थी। आज फांसी होनी थी तो सुबह-सुबह ही राजा आया अपने घोड़े से उतरा और वजीर से बोलाः कोई तुम्हारी अंतिम इच्छा हो तो मैं पूरी कर दूं। लेकिन ये कहते ही वजीर की आंखों में आंसू आ गए। राजा बहुत हैरान था। वजीर बहुत बहादुर था। रोना उसने जाना नहीं था जीवन में और ये असंभव था कि अपनी मौत के खयाल से वे रोने लगे। ये असंभव था। राजा हैरान हुआ उसने कहा कि तुम्हारी आंखों में आंसू देख कर मैं हैरान हो रहा हूं। वजीर ने कहा इसलिए नहीं रोता हूं कि मेरी मौत करीब आ गई है। रोता हूं किसी और बात से, रोता हूं आपके घोड़े को देख कर। राजा ने कहा कि इसमें मेरे घोड़े को देख कर रोने की क्या बात है। और वजीर ने कहाः मैंने बरसों मेहनत करके एक कला सीखी थी, मैंने एक विज्ञान सीखा था कि घोड़े को मैं उड़ना सिखा सकता था लेकिन जिस जाति का घोड़ा उड़ना था वह मेरे जीवन में नहीं था। और जिस घोड़े पर आप बैठ कर आए हैं, ये उसी जाति का घोड़ा है। तो इसलिए आंख में आंसू आ गए कि जीवन भर जिस कला को सीखने में व्यर्थ किए, वो आज मेरे साथ समाप्त हो जाएगी।
राजा तो सोचा कि यदि घोड़ा उड़ना सीख जाए तो अदभुत बात होगी। तो उसने कहा इसमें कोई घबड़ाने की बात नहीं है। मत रो, कितनी देर लगेगी कि ये घोड़ा उड़ना सीख जाए। वजीर ने कहाः केवल एक वर्ष। राजा ने कहा यदि घोड़ा सीख गया तो मृत्यु के दंड से तुम बच ही जाओगे। फिर से तुम्हें वजीर बना देंगे और बहुत धन संपत्ति जो तुम चाहोगे देंगे और इसमें कोई हर्ज नहीं हो रहा है और यदि वर्ष भर बाद घोड़ा उड़ना नहीं सीखा तो तुम्हें फांसी लगा देंगे, वर्ष भर बाद लगा देंगे। वजीर घोड़े पर बैठ कर घर लौट आया। घर तो लोग रो रहे थे कि उसको फांसी हो गई है, उसको घर पर देख कर सब हैरान हुए।
उन सबने पूछा कैसे तुम लौट आए। उसने सारी कथा बताई। तो भी उसकी पत्नी रोती रही, बच्चे रोते रहे। उसने कहा तुम रोना बंद करो, उसकी पत्नी ने कहा मैं तो जानती हूं कि तुम घोड़े को उड़ाने की कोई कला जानते नहीं, तो तुमने ये क्या पागलपन किया। आज मरते तो वर्ष भर बाद मरोगे और हमारे लिए तो ये वर्ष भर भी तुम्हारी मृत्यु की प्रतीक्षा का समय होगा हम तो दुखी ही होंगे। अगर ऐसा ही किया था धोखा ही किया था तो कम से कम बीस वर्ष, पचास वर्ष, ऐसा कोई वक्त मांगते। लेकिन वह वजीर हंसने लगा उसने कहा कि तुम जिंदगी के रिवाज नहीं जानती हो। मैं मर जाऊं, घोड़ा मर जाए, बादशाह मर जाए। साल भर बड़ी बात है। और बीस वर्ष मांगता तो राजा की हिम्मत नहीं हो सकती थी। बीस वर्ष बहुत लम्बा समय होता है। एक वर्ष मांगा है, एक वर्ष बहुत लंबा वक्त है और कुछ भी हो सकता है। मैं मर सकता हूं, घोड़ा मर सकता है, बादशाह मर सकता है। बात टल जाएगी।
यह कहानी उनसे कही और घटना तो ऐसी घटी कि जिसकी कभी कोई कल्पना नहीं थी, वे तीनों ही मर गए उस वर्ष। राजा भी, वजीर भी और घोड़ा भी। यह उनसे कहा। नाला उतर गया, वे गाड़ी लेकर चले गए। और मुझसे बोले कि लौट कर आता हूं तो आपसे मिलूंगा। उन्होंने भी वही बात कही बातें हमारी कुछ ऐसी होती हैं कि कितना ही कहा जाए बार-बार हम फिर-फिर वही कहने लगते हैं, वही करने लगते हैं। उन्होंने फिर जाते वक्त मुझसे यही कहा कि लौट कर आते वक्त आपसे जरूर मिलूंगा, मुझे बहुत आनंद हुआ। मैं हंसने लगा, उनकी गाड़ी निकल गई, फिर पीछे मेरी गाड़ी निकली। दो मील के बाद ही मैंने उन्हें मरा हुआ पाया। उनकी गाड़ी तो टकरा गई थी और वे समाप्त हो गए थे। मेरा जो ड्राइवर था वह कहने लगा कि ये तो बड़ी अजीब बात हुई अभी-अभी आपने यही तो कहा था ये मैं आपसे कहता हूँ।
ये कोई पक्का भरोसा नहीं कि अभी आप जायें और घर पहुंच जाएं। आज पहुंच जाएंगे, कल नहीं पहुंच सकेंगे, कल पहुंच जाएंगे परसों नहीं पहुंच सकेंगे या फिर कितनी देर बचेंगे एक दिन वह होगा कि नहीं पहुंच पाएंगे। तो उसे दूर करके देखने से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दस साल बाद वह दिन होगा या बीस साल बाद वह दिन होगा। जो जानता है वह उसे आज की रात ही करके देख लेता है। ऐसा ही सोच कर जाइए कि कल सुबह नहीं उठ सकेंगे फिर क्या करना है। ऐसा ही सोच कर जाइए कि कल सुबह नहीं होना है फिर क्या करना है। एक दिन तो जरूर ऐसी सुबह होगी कि आप नहीं होंगे, इसको तो पक्का मान लीजिए, इसमें कोई शक नहीं है। इसे समझाने की भी कोई जरूरत नहीं है, एक दिन तो पक्का ऐसा होगा कि सूरज उगेगा और आप नहीं होंगे। बहुत लोग जमीन पर थे वे अब नहीं हैं, आप हैं आप भी नहीं होंगे। जिंदगी में मृत्यु से ज्यादा निश्चित कुछ भी नहीं है लेकिन उस पर भी सबसे कम विचार है और सब अनिश्चित है, और सब संदिग्ध है। हो सकता है परमात्मा हो या न हो, हो सकता है आत्मा हो या न हो, हो सकता है कि यह सब दुनिया जो हम देख रहे हैं ये न हो, हो सकता है सपना हो फिर भी एक बात निश्चित है, एक बात में कोई संदेह नहीं है कि जो यहां है वो सदा यहां नहीं है। एक बात निश्चित है कि मौत है। मौत से बड़ा कोई सत्य नहीं है। लेकिन हम सब उसे पीठ के पीछे किए रहते हैं और अपने मरने की बात तो कभी सोचते नहीं और अगर कोई आपको याद दिलाए तो आप कहेंगे कि ऐसे अपशकुन की बातें मत करो ऐसी बातें मत करो, मरने की बातें क्या करनी हैं। मरने की बात ही हम दूर रखते हैं, उससे हाथ भर दूर रहते हैं लेकिन मौत तो आप से बड़ा प्रेम है, वह ज्यादा दिन दूर नहीं रहेगी जो जीवन पर विचार करेगा वह पाएगा कि मृत्यु सर्वाधिक निश्चित है।
तो फिर क्यों न इस सर्वाधिक निश्चित तथ्य को ही चिंतन का प्राथमिक तथ्य बना लिया जाए। तो फिर क्यों न इसको ही सोच कर जीवन का दर्शन खड़ा किया जाए। फिर जो भी फिलासफी हो जीवन की, जो भी जीवन का दर्शन हो, वो क्यों न इस मृत्यु की बुनियाद पर ही खड़ा हो। क्योंकि यही एक सुनिश्चित आधार है और बाकी सब आधार तो अनिश्चित हैं। इसको ही क्यों न हम बुनियाद में रख लें और जिस तथ्य को आज नहीं कल मुकाबला करना ही होगा उसे क्यों न आज ही पकड़ कर मुकाबला कर लें। जो आज उससे मुकाबला करने को राजी हो जाता है, जो आज उस पर चिंतन करने लगता है उसके पूरे जीवन की गति और दिशा बदल जाती है उसका जीवन कुछ से कुछ और ही हो जाता है। जो मृत्यु को आज ही चिंतन करने में समर्थ है और आज ही चिंतन करने का साहस करता है। आज ही उसको सामने ले लेता है पीछे से हटा देता है। आज ही उसे स्वीकार कर लेता है वह उसके कदम, उसकी श्वासें फिर मृत्यु की दिशा में चलने बंद हो जाते हैं। उसके समक्ष फिर एक नया द्वार और एक नया मार्ग खुलता है। वो मार्ग कैसे खुल सकता है, उसकी मैं बात करूंगा। आज की रात तो इस छोटे से ही बिंदु को विचार में डाल देना चाहता हूँ कि इस पर आप सोचेंगे और इस तथ्य को विचार में ले लेंगे आज रात सोते वक्त मृत्यु पर ही ध्यान करके सोइए। ताकि सुबह जब आप उठें कल दिन जो आप काम करें, उसमें बार-बार आपको यह खयाल आ सके कि यह जो मैं कर रहा हूं, ये जो हो रहा है, ये जो मैं कर रहा हूं, ये जो मैं इकट्ठा कर रहा हूं, ये सब उस अंतिम मृत्यु के समक्ष कोई अर्थ रखता है। मैं ये नहीं कहता हूं कि इसे छोड़ कर भाग जाए, मैं ये कह रहा हूं कि इसे बंद कर दें। इतना ही कह रहा हूं कि आपके समक्ष यह स्पष्ट हो जाए कि मृत्यु के समक्ष, मृत्यु के सामने, मृत्यु की मौजूदगी में मेरा यह किया हुआ कोई भी अर्थ नहीं रखता है।
इतना ही स्पष्ट समझाना पड़े आपसे इसे छोड़ने को नहीं कह रहा हूं, इसे छोड़ कर भागने को नहीं कह रहा हूं। इतना बोध स्पष्ट हो जाना चाहिए और तब आपके जीवन में एक नई खोज की प्यास अपने आप शुरू हो जाएगी। एक नई प्यास आप अनुभव करेंगे। ये सब चलेगा, ऐसा ही जैसा चलता है इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता लेकिन इसके किनारे-किनारे एक नई गति भी शुरू हो जाएगी और धीरे-धीरे आप पायेंगे कि काम तो आप यही सब कर रहे हैं, लेकिन प्राण आपके इस काम में नहीं रहे। काम तो आप यही सब कर रहे हैं लेकिन अब आपका शरीर ही है इसमें। आपकी आत्मा ने किसी और दिशा को अंगीकार कर लिया है। संसार में जो भी है जीवन में जो भी है, उसे बहुत कुछ करना पड़ेगा। जो केवल शरीर को ही बनाए रखने के लिए ही जरूरी है लेकिन इतने पर ही सब समाप्त नहीं हो जाता और भी कुछ है भीतर, उसे पाने, उसे विकसित करने के लिए कुछ और भी जरूरी है। इसे छोड़ कर और उसके विरोध में नहीं है वह यहीं मौजूद है वह और यदि उसकी दिशा स्पष्ट हो जाए तो यह सब जो व्यर्थ दिखते काम हैं भी उस व्यर्थ काम के सार्थक अंग बन सकते हैं। ये जो रोटी कमाना है। ये जो वस्त्र पहनना है, ये जो मकान बनाना है, ये भी सार्थक हो सकता है। यदि आत्मिक दिशा में कोई चरण पड़ने शुरू हो जाएं।    तब यह सब उस आत्मा के लिए ही अर्थपूर्ण हो जाएगा और तब यह सब भूमिका बन जाएगी और आधार बन जाएगा। शरीर आत्मा तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बन जाता है। और यह जो सब सारे काम हैं, यह जो क्षुद्र से काम हैं ये आत्मा की दिशा में अगर मन गति न करता हो तो अपने आप में बिलकुल व्यर्थ हैं लेकिन अगर गति करने लगे काम उस दिशा में तो ये सब काम भी सार्थक हो जाते हैं।
परमात्मा और संसार में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। परमात्मा और संसार में कोई शत्रुता नहीं है। लेकिन संसार अपने आपमें अकेला व्यर्थ है। और अगर वो परमात्मा के केंद्र पर घूमने लगे तो सार्थक हो जाता है। महावीर भी भोजन करते हैं और श्वास लेते हैं। कृष्ण भी पानी पीते हैं और क्राइस्ट भी कपड़े पहनते हैं। लेकिन फर्क है। बहुत-बहुत फर्क है। हम सिर्फ कपड़ा ही पहनते हैं और आगे मामला कुछ भी नहीं है। हम केवल शरीर को बचाए जाते हैं लेकिन आगे किसलिए और क्यों? हम भोजन किए जाते हैं लेकिन शरीर को बचाने की उपयोगिता क्या है? हम केवल साधनों को ही सम्हालते रहते हैं और समाप्त हो जाते हैं क्योंकि जीवन में कोई साध्य नहीं है। साधन सार्थक हो सकता है यदि साध्य हो। साधन अपने में तो बिलकुल व्यर्थ होता है उसकी कोई सार्थकता नहीं है।
एक आदमी एक रास्ता बनाए, एक ऐसा आदमी जिसे कहीं भी न जाना हो और वह जिंदगी भर रास्ता बनाए, रास्ता तोड़े, जंगल तोड़े, मिट्टियां बिछाए, रास्ता बनाए और आप उससे पूछें ये रास्ता किसलिए बना रहे हो और वह कहे मुझे कहीं जाना तो नहीं तो रास्ता बनाना व्यर्थ हो गया। हम सब ऐसे ही रास्ते बनाते हैं जिन्हें कहीं जाना नहीं है। जिसे परमात्मा तक नहीं जाना है उसका जीवन एक ऐसा ही रास्ता है जिसे वह बना रहा है लेकिन कहीं जाएगा नहीं। जिसके प्राण परमात्मा तक जाने को आकांक्षी हो गए हैं, उसका ये सारा क्षुद्र जीवन ये सारा छोटा-छोटा मिट्टियों का बिछौना और मिट्टियों को रखना और जंगल को तोड़ना, रास्ते को बनाना सार्थक हो जाता है। रास्ते हम सब बनाते हैं, पहुंचते हममें से बहुत थोड़े हैं। क्योंकि रास्ता बनाते वक्त हमें पहुंचने का कोई खयाल ही नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मैं पूछूं कि मैं क्यूं जीना चाहता हूं, बजाय इसके कि मैं जीने के लिए व्यवस्था करता जाऊं। ज्यादा उचित है कि मैं पूछूं कि मैं क्यूं बोलना चाहता हूं, बजाय इसके कि मैं सिर्फ होने की रक्षा करता चला जाऊं!
ये विचार, ये प्रश्न आपके मन में पैदा होने चाहिए, हमारे मनों में बहुत कम प्रश्न पैदा होते हैं। प्रश्न पैदा ही नहीं होते हैं और जब प्रश्न ही पैदा नहीं होते और जिज्ञासा ही पैदा नहीं होती तो खोज कैसे पैदा होगी? और खोज की आकांक्षा नहीं होगी तो उस दिशा में श्रम कैसे होगा? तो वह तो सारी बात इन तीन दिनों में धीरे-धीरे आपसे करूंगा। आज की रात इतना ही करता हूं मृत्यु को साथ लेकर सोएं, उस पर सोचते हुए सोएं कि वह आपके पास सोएगी। और उसे निरंतर समक्ष रखें, साथ रखें वो साथ है, उसे साथ रखें जो मृत्यु को साथ रख लेता है, मृत्यु को संगी बना लेता है, मित्र बना लेता है वो स्मरण रखे बहुत ज्यादा देर नहीं है कि परमात्मा उसके साथ होगा।
उसने पहला कदम उठाया है, मृत्यु के साथ जिसने दोस्ती की है और उसे साथ लिया है, उसने पहला कदम उठा लिया है। अमृत उसके साथ होगा। आज नहीं-कल। देर-अवेर परमात्मा उसके निकट होगा। मृत्यु के ही साथ हो जाने में सारी बात छिपी है। उसको मैं साधक कहता हूं, जिसने मृत्यु को साथ ले लिया है। उसको मैं संसारी कहता हूं जो मृत्यु से भाग रहा है और बच रहा है और उसे साथ नहीं ले रहा है। और ज्यादा नहीं कहूंगा।
शिविर की चर्चा तो कल सुबह से शुरू करूंगा, यह तो भूमिका के लिए कि आपके मन में अगर साधना का कोई भी जन्म हो सकता है तो तभी हो सकता है जब साधक होने की इस पहली शर्त को आप पूरा कर दें। मौत से मुख मत मोड़िए उसकी आंखों में देखिए। उसे निकट ले लीजिए, आज उसके साथ ही सोइए। उस पर ही विचार करते हुए। अपनी मृत्यु पर विचार करते हुए। उसे निकट जानते हुए। वो कभी भी हो सकती है, किसी भी क्षण।
कल सुबह ही आपके मन में कुछ और प्रश्नों को जन्म मिलेगा अगर मिले तो मैं यहां तीन दिन हूं, उन प्रश्नों को मुझसे पूछ लें, उनकी चर्चा कर लें। अगर नहीं मिले, अगर मृत्यु को निकट लेने से कोई खयाल न आता हो तो कल सुबह दुबारा यहां न आएं इसका कोई मतलब नहीं, इसका कोई अर्थ नहीं। अगर आपको अपनी मृत्यु से कोई खयाल न आता हो तो फिर कल सुबह यहां न आएं उसकी कोई सार्थकता नहीं क्योंकि मैं जो कुछ भी कह सकता हूं वह उसके बाद ही महत्वपूर्ण है जब आपको अपनी मृत्यु का दर्शन होने लगा हो। और आपके मन में ये चिंता और विचार आने लगा हो कि मैं क्या करूं चारों तरफ से मौत घेरे हुए है, मैं क्या करूं, मैं कैसे ऊपर उठ जाऊं। चारों तरफ से सब नष्ट होने वाला है, तो मैं कुछ अविनश्वर को पाने के लिए कौन सा मार्ग खोजूं। तो कल आपका आना तभी अर्थपूर्ण है और मैं कुछ कहूंगा वह तभी सार्थक है क्योंकि मैं उसी सेतु को बनाने की बात करूंगा जो मृत्यु से अमृत तक ले जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हंू। परमात्मा आपको मृत्यु के निकट भूख दे, इसकी प्रार्थना करता हूं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें