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रविवार, 26 अगस्त 2018

गूंगे केरी सरकरा-(प्रवचन-01)

गूंगे केरी सरकरा--(कबीर दास)

पहला-प्रवचन--(अकथ कहानी प्रेम की)

दिनांक 11-01-1975 से 20-01-1975 कबीर दास के वचनों पर दिये ओशो आश्रम पूना में के अमृत प्रवचनों का संकलन)

सूत्र-

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय।।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय।
जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि मैं हूं नाहिं।।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।।
जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहिं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भये बेकाम।।

राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।।

अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाय।
गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुसकाय।।
मैं देखता हूं तुम्हें, और एक बात सुनिश्चित मालूम होती है कि कुछ तुम्हारे पास था और खो गया है..कोई संपदा, कोई सुराग, कोई राज, कोई रहस्य, कोई कुंजी, जो तुम्हारे पास थी और खो गई है।
तुम सदा कुछ खोज रहे हो; प्रतिपल, सोते-जागते खोज में लगे हो। शायद ठीक पता भी नहीं कि क्या खोजते हो, और यह भी पता नहीं कि क्या खोया है; लेकिन खोज तुम्हारी आंखों में है; तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन में है। और यह खोज जन्मों से चल रही है। कभी तुम उस खोज को सत्य की खोज कहते हो; लेकिन सत्य तो तुमने कभी जाना नहीं, उसे खो कैसे सकोगे? कभी तुम उसे परमात्मा की खोज कहते हो; लेकिन परमात्मा से भी तुम्हारा मिलन कभी हुआ नहीं, तो तुम बिछुड़ कैसे सकोगे? मंदिर में, मस्जिद में, काशी में, मक्का में, द्वार-द्वार तुम चोट करते फिरते हो, इस आशा में कि जो खो गया है वह मिल जाएगा। लेकिन जब तक ठीक-ठीक पक्का पता न हो कि क्या खोया है, कहां खोया है, तब तक खोज पूरी नहीं हो सकती। तुम्हारा अनुभव भी कहेगा..द्वार तो बहुत खटखटाए; लेकिन खाली हाथ ही तुम लौट आए हो। इसमें द्वारों का कोई कसूर नहीं है। खोज के पहले सुनिश्चित होना चाहिए..क्या मैं खोज रहा हूं? कहां खोया है? बीमारी का ठीक पता ही न हो तो तुम औषधि को कैसे खोजोगे? वैद्य भी मिल जाए तो क्या करेगा?
नानक बीमार पड़े..ऐसे ही बीमार पड़े जैसे तुम सब बीमार हो..तो घर के लोगों ने वैद्य बुलाया। कोई बीमार पड़े तो हम वैद्य को बुलाते हैं, बिना यह समझे कि ऐसी भी बीमारियां हैं जिनसे वैद्य का कोई संबंध नहीं। वैद्य आया, नानक की नब्ज पकड़ी, नाड़ी गिनने लगा। नानक हंसने लगे। उन्होंने कहाः ‘बीमारी वहां नहीं है, नाड़ी पकड़ने से कुछ भी न होगा; बीमारी हृदय की है।’
वैद्य की तो कुछ समझ में आया नहीं, क्योंकि वैद्य की तो एक दुनिया है, जहां नाड़ी की बीमारी पकड़ में आ जाती है। नानक को वैद्य नहीं, गुरु चाहिए था। गुरु भी वैद्य है, पर शरीर का नहीं, हृदय का। और गुरु का पहला काम है इस बात को स्पष्ट कर देना कि क्या खोज रहे हो। फिर खोज बहुत आसान हो जाती है।
निदान हो जाए तो औषधि खोजनी बहुत मुश्किल नहीं है। निदान आधा इलाज है। निदान न हो तो औषधियों के ढेर लगे रहें..ढेर लगे हैं तुम्हारे चारों तरफ..पर कौन सी औषधि तुम्हारे लिए है? और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम शब्दों से प्रभावित होकर सोचने लगते हो कि शायद यही मैंने खोया है..परमात्मा को खो दिया है, सत्य को खो दिया है, मोक्ष को खो दिया है। फिर तुम खोज पर निकल जाते हो; और खोज प्रारंभ से ही गलत हो गई।
जैसे-जैसे तुम्हें मैं समझता हूं, और जैसे-जैसे तुम्हारे हृदय में देखता हूं, वैसे-वैसे लगता है, सिंहासन वहां खाली है। सिंहासन तो है, कोई जरूर वहां बैठा रहा होगा, किंतु भटक गया है। तुम्हारा हृदय सिंहासन है; प्रेम का सम्राट वहां से भटक गया है।
हर बच्चा प्रेम को लेकर पैदा होता है, तभी तो खोज हो सकती है। खोज के पहले खोना तो जरूरी है। हर बच्चा प्रेम को लेकर पैदा होता है, लेकिन बड़े होने की प्रक्रिया में प्रेम कहीं खो जाता है। शिक्षण-दीक्षण, समाज, संस्कृति..प्रेम कहीं खो जाता है। और उस प्रेम के खोने के कारण ही तुम्हारे भीतर एक रिक्तता है, एक अभाव है, एक खालीपन है। तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो, परमात्मा को नहीं। यद्यपि प्रेम मिल जाए, तो परमात्मा के मिलने का द्वार मिल जाता है। लेकिन, खोज तुम प्रेम को रहे हो, परमात्मा से तुम्हारा मिलन कहां हुआ? परमात्मा को तुमने कभी जाना नहीं; वह अनजान है, उसकी कोई खोज नहीं हो सकती। खोज के लिए कुछ संबंध होना चाहिए, कुछ परिचय होना चाहिए, कोई पहचान होनी चाहिए। वह कोई भी पहचान तुम्हारी नहीं है।
सत्य तो सब तरफ मौजूद है; सत्य को तुम खोजोगे कैसे? सत्य तो है ही; असली सवाल तुम्हारे पास आंख का है। सूरज तो निकला है सदा से; तुम अंधे हो। अंधा सूरज को खोजे या आंख को? और आंख न हो, सूरज मिल भी जाए, तो क्या करोगे? कोई दरस तो न हो सकेगा। तुम तो अंधेरे में ही रहोगे।
आंख चाहिए..वही आंख प्रेम है। परमात्मा सब तरफ मौजूद है; आंख खो गई है; उसे अनुभव करने की क्षमता खो गई है। प्रेम का अर्थ है अनुभव करने की क्षमता, संवेदनशीलता। प्रेम का अर्थ है ऐसी पुलक जिसमें तुम निर्भय होकर सब द्वार-दरवाजे खोल देते हो। जो द्वार पर खड़ा है, उसे तुम शत्रु की भांति नहीं देखते; अतिथि है, प्रेमी द्वार पर आया है, और तुम द्वार खोल देते हो।
जब तुम्हें सारा जगत अपना मालूम पड़ने लगेगा, जो भी द्वार पर आएगा उसमें प्रेमी की ही झलक मिलने लगेगी, अजनबी समाप्त हो जाएगा, शत्रु मिट जाएगा, मित्र ही मित्र दिखाई पड़ने लगेंगे, तब तुमने प्रेम को पाया। और जिसने प्रेम को पा लिया, उसे पाने को क्या शेष रह जाता है! जिसने प्रेम को पा लिया, उसने परमात्मा के द्वार की कुंजी पा ली।
प्रेम को ठीक से समझ लो। उससे बड़ा कुछ भी नहीं है, परमात्मा भी नहीं है; चूंकि, प्रेम से परमात्मा मिलता है, परमात्मा के मौजूद होने से प्रेम तो नहीं मिलता। परमात्मा तो मौजूद है, प्रेम नहीं मिलता; लेकिन प्रेम मौजूद हो जाए तो परमात्मा मिल जाता है।
जीसस ने कहा हैः प्रेम ही परमात्मा है।
और असली सवाल प्रेम को खोज लेने का है।
तो पहले तो हम यह समझें कि कैसे प्रेम को खो दिया जाता है। क्योंकि, खोने की प्रक्रिया को ही समझ लेने पर पाने की प्रक्रिया का पता चलेगा। क्योंकि, जैसे हम खोते हैं, वही रास्ता पाने का भी है; सिर्फ उलटे चलने की जरूरत है। वही सीढ़ी स्वर्ग ले जाती है, वही नरक; नीचे का छोर तो नरक में टिका रहता है, ऊपर का छोर स्वर्ग में। प्रेम जैसे-जैसे खोता जाता है, वैसे-वैसे जीवन पदार्थ से भर जाता है। वह नरक है। सीढ़ी का एक छोर पदार्थ पर टिका है। जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता है, वैसे-वैसे पदार्थ खो जाता है और परमात्मा प्रगट हो जाता है। वह दूसरा छोर है। सीढ़ी का दूसरा छोर वहां टिका है। और, प्रेम सीढ़ी है। अगर तुम प्रेम को छोड़ते गए तो तुम नीचे उतरते जाते हो। अगर तुम प्रेम को पकड़ते गए, तुम ऊपर चढ़ते जाते हो।
अगर मुझसे पूछो, तो भूल जाओ परमात्मा को, भूल जाओ सत्य को; तुम सिर्फ प्रेम को खोजो और शेष सब उसके पीछे चला आएगा। परमात्मा ऐसे बंधा चला आता है प्रेम के पीछे, जैसे छाया तुम्हारे पीछे बंधी चली आती है। लेकिन, प्रेम के बिना तुम कुछ भी खोजो, कुछ भी न पा सकोगे; क्योंकि पानेवाला संवेदनशील ही नहीं है; पानेवाले के पास क्षमता और पात्रता नहीं है। पानेवाला बेहोश है घृणा में, क्रोध में, वैमनस्य में; पानेवाला जहर में दबा है। प्रेम के अमृत से पुलक आएगी।
हर बच्चा पैदा होता है प्रेम को लेकर, इसीलिए तो हर बच्चा प्यारा लगता है। लेकिन धीरे-धीरे कहीं कुछ गड़बड़ हो जाती है। हर बच्चा प्यारा लगता है, हर बच्चा सुंदर है। तुमने कोई कुरूप बच्चा देखा? बच्चे का सौंदर्य जैसे उसके शरीर पर निर्भर नहीं है, बल्कि किसी भीतरी क्षमता पर। बच्चे का दीया अभी जल रहा है। अभी उसके रोएं-रोएं से चारों तरफ से प्रेम की रोशनी पड़ती है। अभी वह जिस तरफ देखता है वहीं प्रेम है। पर जैसे-जैसे बड़ा होगा, वैसे-वैसे प्रेम खोने लगेगा। हम सहायता करते हैं कि प्रेम खो जाए। हम उसे प्रेम करना नहीं सिखाते प्रेम से सावधान रहना सिखाते हैं..क्योंकि प्रेम बड़ा खतरनाक है।
हम बच्चे को सिखाते हैं संदेह करना; क्योंकि इस दुनिया में संदेह की जरूरत है, नहीं तो लोग लूट लेंगे। धोखा-धड़ी है बहुत, बेईमानी है, प्रपंच है..अगर तुम संदेह न कर सके तो कोई भी तुम्हें लूट लेगा। चारों तरफ लुटेरे हैं। हम चारों तरफ के परमात्मा का ध्यान नहीं रखते; हम चारों तरफ के लुटेरों का ध्यान रखते हैं। और हम लुटेरों के लिए तैयार करते हैं बच्चों को। तो लुटेरों के लिए तैयार करना हो तो प्रेम नहीं सिखाया जा सकता, क्योंकि प्रेम खतरनाक है।
प्रेम का अर्थ हैः भरोसा। प्रेम का अर्थ हैः श्रद्धा। प्रेम का अर्थ हैः स्वीकार। संदेह का अर्थ हैः होश रखो, कोई लूट न ले; बचाओ अपने को, सदा तत्पर रहो, आक्रमण होने को है कहीं न कहीं से, और इसके पहले कि आक्रमण हो तुम खुद आक्रमण कर दो, क्योंकि वही रक्षा का सबसे उचित उपाय है। तो प्रतिपल जैसे संतरी पहरे पर खड़ा हो, ऐसे हम बच्चों को तैयार करते हैं। तभी हम बच्चे को कहते हैं कि प्रौढ़ हुआ, जब उसकी प्रेम की क्षमता पूरी खो जाती है; जब वह चारों तरफ शत्रु को देखने लगता है, मित्र उसे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता; जब अपने बाप पर भी संदेह करता है..तभी हम समझ पाते हैं कि अब वह योग्य हुआ, दुनिया में जाने योग्य हुआ। अब बचपना न रहा। अब इसे कोई धोखा न दे सकेगा। अब यह दूसरों को धोखा देगा।
कबीर ने कहा है कि तुम धोखा खा लेना, लेकिन धोखा मत देना; क्योंकि धोखा खा लेने से कुछ भी नहीं खोता है। धोखा देने से सब कुछ खो जाता है।
किस सब कुछ की बात करते हैं कबीर?
जैसे-जैसे तुम धोखा देते हो, वैसे-वैसे तुम्हारे प्रेम की क्षमता खो जाती है। कैसे तुम प्रेम करोगे, अगर तुम धोखा देते हो? और अगर तुम डरे हुए हो, तो भय तो जहर है, प्रेम का फूल खिल न पाएगा। अगर तुम डरे हुए हो तो तुम प्रेम कैसे करोगे? भय से कहीं प्रेम उपजा है? भय से तो घृणा उपजती है। भय से तो शत्रुता उपजती है। भय से तो तुम अपनी सुरक्षा में लग जाते हो।
पूरा जीवन, जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे सुरक्षा करता है..धन से, मकान से, व्यवस्था से; सब तरफ से इंतजाम करता है कि कहीं से कोई हमला न हो जाए। लेकिन इसी इंतजाम में हम भूल जाते हैं कि सब द्वार बंद हो जाते हैं, और प्रेम के आने का रास्ता भी अवरुद्ध हो जाता है। सुरक्षा पूरी हो जाती है, लेकिन सुरक्षा ही कब्र बन जाती है।
एक सम्राट ने अपनी सुरक्षा के लिए एक महल बनाया। सम्राट निश्चित ही और भी ज्यादा डरे हुए लोग हैं, क्योंकि उनके लिए और भी ज्यादा खतरा है। उनके पास बहुत कुछ है, और बहुत कुछ लूटा जा सकता है। इसलिए उतनी ही मात्रा में भय भी है।
एक बड़ा महल बनाया, उसमें उसने एक ही दरवाजा रखा; कोई खिड़की नहीं, कोई दरवाजे नहीं, शत्रु को भीतर पहुंचने का कोई उपाय नहीं। पड़ोस का सम्राट उसके महल को देखने आया। वह भी प्रभावित हुआ; क्योंकि महल इतना सुरक्षित गढ़ था कि उसमें कोई प्रवेश कर ही न सके। एक ही दरवाजा और एक दरवाजे पर पहरेदारों की जमात। और एक पहरेदार पर दूसरा पहरेदार, दूसरे पहरे दार पर तीसरा पहरेदार..ऐसीशृंखला। क्योंकि, पहरेदार का भी क्या भरोसा! रात प्रवेश कर जाए, हत्या कर दे! तो एक पहरेदार पर दूसरा पहरेदार, दूसरे पर तीसरा..ऐसी एक लंबी कतार, और एक ही दरवाजा, घुसने का कोई उपाय नहीं।
दूसरा सम्राट भी प्रभावित हुआ। उसने कहा, मैं भी ऐसा ही भवन बना लूंगा।
जब वे दोनों द्वार पर खड़े होकर ऐसी बात कर रहे थे तो एक भिखारी सड़क के किनारे बैठ के जोर से हंसने लगा। दोनों ने चैंक कर उसकी तरफ देखा। उस भिखारी ने कहाः ‘माफ करें! इसमें सिर्फ एक भूल है। मैं भी यहीं बैठा रहता हूं, भीख मांगता हूं। यह मकान मैंने बनते देखा। इसमें सिर्फ एक खतरा है। वह खतरा भी महंगा पड़ेगा। अगर मेरी सलाह मानें तो आप भीतर हो जाएं और यह एक दरवाजा और है, इसको भी चुनवा दें, इसमें भी पत्थर लगवा दें। फिर कोई खतरा नहीं है।’
तो उस सम्राट ने कहा कि नासमझ! बात तो तेरी समझ में आती है, लेकिन फिर तो मैं मर गया भीतर। यह तो कब्र हो गई!
उस फकीर ने कहा कि कब्र तो यह हो ही गई है, बस एक दरवाजा बचा है।
जितनी ही हम सुरक्षा करते हैं, उतनी ही कब्र निर्मित हो जाती है, हम मरने लगते हैं। तुम इतने मरे-मरे हुए इसीलिए हो कि तुमने बहुत सुरक्षा कर ली हैं चारों तरफ। असुरक्षित होना जीवित होना है। जीवन का सूत्र हैः असुरक्षा में जीना। खतरा वहां है निश्चित। पत्थर तो सुरक्षित है, फूल खतरे में है; क्योंकि पत्थर मरा हुआ है, फूल जिंदा है। आंधी आएगी, फूल गिरेगा; पत्थर तो अपनी जगह पड़ा रहेगा। उपद्रवी बच्चे आएंगे, फूल को तोड़ लेंगे; पत्थर तो अपनी जगह पड़ा रहेगा। सांझ आएगी, सूरज ढलेगा; पत्थर तो अपनी जगह पड़ा रहेगा। फूल कुम्हलाएगा, और गिर जाएगा। लेकिन, क्या तुम पत्थर होना चाहोगे? सिर्फ इसीलिए कि पत्थर सुरक्षित है? पर वही तुमने चुन लिया है।
तुम पत्थर हो गए हो।
फूल खतरे में है। प्रेम फूल है। और प्रेम से बड़ा कोई फूल इस जगत में नहीं है। उससे बड़े खतरे में भी कोई चीज नहीं है। लेकिन प्रेम जीवन भी है।
प्रेम का अर्थ हैः द्वार खुले हैं; तुम खुले आकाश के नीचे हो। खतरा वहां बहुत है; लेकिन जीवन की संपदा भी वहीं है। वहां कोई दुश्मन आकर तुम पर हमला भी कर सकता है। लेकिन वहीं मित्र भी आएगा और गले लगेगा। अगर दुश्मन से तुम बचे तो मित्र से भी बच जाओगे। अगर तुमने सब तरफ दीवाल खड़ी कर ली, तो तुमने अपनी ही कब्र चुन ली। इसके भीतर तुम तड़पोगे, और तुम कहोगे कि कुछ खो गया है। कुछ खो नहीं गया है; तुम्हारे हृदय का फूल खिल नहीं पाया; तुम प्रेम को उपलब्ध न हो सके।
बच्चे को हम तैयार करते हैं सुरक्षा के लिए..प्रेम सिकुड़ जाता है। फिर बच्चे को हम तैयार करते हैं बेईमानी के लिए..प्रेम और सिकुड़ जाता है। फिर बच्चे को हम तैयार करते हैं अहंकार के लिए..तब तो प्रेम की मृत्यु हो जाती है। क्योंकि प्रेम का एक ही तो रास्ता है कि तुम अपने को खोओ। और बच्चे को हम कहते हैंः अपने को बचा, अपने को कभी खोना मत; घर की इज्जत का सवाल है; परिवार, राष्ट्र, जाति की इज्जत का सवाल है।
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन का बड़ा बेटा घर से भाग गया। मुल्ला बहुत नाराज था। लेकिन फिर बाद में खबर आई कि बेटा एक नाटक कंपनी में सम्मिलित हो गया है और बड़ा अभिनेता हो गया है। धीरे-धीरे मुल्ला उसकी तारीफ भी करने लगा। फिर धीरे-धीरे प्रशंसा के पुल भी बांधने लगा। फिर वह दिन भी आया जब नाटक कंपनी गांव में आ गई..भ्रमण करती नाटक कंपनी। मुल्ला ने एक दर्जन टिकट खरीदे, प्रथम पंक्ति के। मित्रों को आमंत्रित किया। मुझे भी बुलाया। बेटा आया था गांव में। बड़ा अभिनेता हो गया था और मुल्ला चाहता था सबको दिखा दे। बड़ा उत्तेजित था मुल्ला। बड़े उत्सव की बात थी। सबको लेकर पहुंचा। परदा उठा। पहला दृश्य पूरा होने के करीब आ गया, बेटे का कोई पता नहीं। मुल्ला कुर्सी के कगार पर बैठ कर पसीना-पसीना हुआ जा रहा है। पहला दृश्य समाप्त हो गया, दूसरा दृश्य शुरू हो गया; बेटे का कोई पता नहीं। अब तो थोड़ी घबड़ाहट फैलने लगी। मुल्ला निराश होने लगा और तीसरा दृश्य आ गया..आखिरी दृश्य, और बेटे का कोई पता नहीं और अंतिम क्षण आ गया कि अब पर्दा गिरने को है। जो लोग दूसरे गांव में नाटक देख चुके थे वे तो उठ-उठ कर खड़े भी होने लगे। तभी आखिरी क्षण में बेटा दिखाई पड़ा। आखिरी दृश्य में वह एक बंदूक लिए संतरी का काम कर रहा है, दरवाजे के बाहर..इस कोने से उस कोने टहल रहा है, और बस पर्दा गिरने लगा। वह एक शब्द बोला भी नहीं। मुल्ला से फिर न रहा गया। वह खड़ा होकर चिल्लायाः ‘उल्लू के पट्ठे! अगर बोलने न देते हों तो कम से कम गोली ही चला दे! घर की इज्जत का सवाल है।’
बच्चों को हम तैयार करते हैं इज्जत के लिए, अहंकार के लिए..घर की इज्जत का ख्याल रखना! कभी कुछ ऐसा काम मत करना, जिससे घर के, परिवार के अहंकार को कोई चोट पहुंचे!
तुम्हारा बेटा प्रथम आ जाता है स्कूल में, तुम कितने खुश होते हो! ..तुम उसे अप्रेम सिखा रहे हो। जब वह घर आता है और उसका स्वागत होता है और तुम मिठाई बांटते हो, तो तुम क्या कह रहे हो? तुम उसे बेटे से कह रहे हो कि तू सदा प्रथम होने की कोशिश जारी रखना। और प्रेम तो उन्हें मिलता है जो अंतिम होना जानते हैं। तुम बेटे से कह रहे हो कि तू प्रतियोगी होना, संघर्ष करना, महत्वाकांक्षा...और सदा प्रथम होना, चाहे प्रथम होने में कुछ भी हो जाए। तुम बेटे को राजनीति सिखा रहे हो। तुमने बेटे को राजनीतिज्ञ बना दिया। और अब वह जीवनभर कोशिश करेगा कि कुछ भी हो जाए, लेकिन प्रथम होना है। कुछ भी खो जाए, लेकिन प्रथम होना है। आखिर में पाएगा कि प्रथम तो हो गया; और सब खो गया..सबसे बड़ी बात खो गई कि प्रेम करने की क्षमता खो गई।
राजनीतिज्ञ किसी को प्रेम नहीं कर सकता। राजनीतिज्ञ का कोई मित्र ही नहीं होता, हो ही नहीं सकता। सोचते हो, इंदिरा गांधी का कोई मित्र हो सके? जिसके पास भी शक्ति हो, उसका कैसा कोई मित्र! पास भी जो हैं, वे भी निकट के शत्रु हैं; जब मौका पाएंगे छाती पर चढ़ बैठेंगे; जब मौका पाएंगे तब खींच के कुर्सी से नीचे कर देंगे। वे सब तैयार हैं। इसीलिए तो इंदिरा अपने मंत्रिमंडल में बदलाहट करती रहती है। किसी भी आदमी को एक जगह ज्यादा देर रहने देना खतरनाक है, क्योंकि वह ज्यादा देर रह जाए तो आश्वस्त हो जाता है; आश्वस्त हो जाए, पैर पकड़ लेता है; मौका मिल जाए, टांग खींच के नीचे गिरा देता है..क्योंकि इसी तरकीब से तो जो कुर्सी पर है, वह पहुंचा। उसी तरकीब से दूसरे पहुंचेंगे। घृणा है, संघर्ष है, प्रतियोगिता है, लेकिन राजनीति में प्रेम कहां!
तुम चाहते हो, तुम्हारा बेटा प्रतियोगी होः तुम उसे घृणा सिखा रहे हो, वैमनस्य सिखा रहे हो, शत्रुता सिखा रहे हो। और तुम चाहते हो, बड़ा धन इकट्ठा कर ले, धन का अंबार लगा ले। तुम्हें पता है कि जो भी धन को इकट्ठा करते हैं, वे वे ही लोग हैं जिनके जीवन में प्रेम शून्य हो गया होता है! जिसके जीवन में प्रेम है, उसके पास इतनी बड़ी संपदा है कि वह धन को इकट्ठा करने का पागलपन क्यों करेगा!
इसको थोड़ा बारीकी से समझ लो।
धन प्रेम का परिपूरक है। इसलिए कृपण आदमी के जीवन में तुम प्रेम न पाओगे। वह कृपण है ही इसलिए कि प्रेम नहीं है। धन परिपूरक है। अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम है तो तुम जानते हो कि कल अगर कोई मुसीबत आएगी, तो तुमने इतना प्रेम किया है, जिनको प्रेम किया है वे फिक्र लेंगे। और अगर तुम्हारे जीवन में इतना प्रेम है कि तुम्हारा प्रेम प्रार्थना बन गया, तब तो तुम जानते हो कि परमात्मा फिक्र लेगा। अगर वह पक्षियों की फिक्र रखता है, पौधों की फिक्र रखता है, तो मुझसे नाराजगी क्या! लेकिन, अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है, तो तुम जानते हो कि कोई तुम्हारी फिक्र लेनेवाला नहीं है तिजोरी के अतिरिक्त। धन ही बस एकमात्र मित्र है फिर।
अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं, कल तुम बूढ़े होओगे, बीमार होओगे, कौन चिंता लेगा? कौन तुम्हारे पैर पर हाथ रखेगा? कौन तुम्हें सहारा देगा? कौन तुम्हारे बुढ़ापे की लकड़ी बनेगा? अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं तो कोई बनने वाला नहीं है। तब धन ही तुम्हारे साथ होगा। तो धन ही एकमात्र मित्र है।
कृपण, प्रेम-रिक्त जीवन में धन के अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है। तो जितना तुम व्यक्ति को पाओगे कि उसके पास ज्यादा से ज्यादा धन की पकड़ हो गई है, उतना ही उतना तुम पाओगे, उसका हृदय सिकुड़ गया, मर गया। प्रेम तो बांटता है; इकट्ठा करना उसे कठिन है। जो इकट्ठा करता है, वह इसलिए इकट्ठा करता है कि बांटने की उसके पास कोई क्षमता नहीं, देने का कोई भाव नहीं है।
और प्रेम तो दान है। प्रेम तो दान है। प्रेम तो सभी को भागीदार बनाना है।
तुम बेटे को राजी करते हो कि धन कमाए, राजपद पर पहुंचे, प्रतिष्ठित हो जाए, सिकंदर बने, नेपोलियन बने, बिरला बने; आदमी भर न बने। आदमी छोड़ के कुछ भी बने तो चलेगा। क्योंकि आदमी अगर बन गया तो ये कोई भी चीजें संभव नहीं हैं। अगर आदमी बन जाए तो नेपोलियन कैसे बनेगा? अगर आदमी बन जाए तो बिरला कैसे बनेगा? अगर आदमी बन जाए तो राष्ट्रपति कैसे बनेगा? अगर आदमी बन जाए तो ये सब रास्ते खो जाते हैं; क्योंकि ये सब रास्ते गैर-आदमीयत के हैं, हैवानियत के हैं; ये सब रास्ते पशुता के हैं, मनुष्यता के नहीं हैं..क्योंकि इन सभी रास्तों पर घृणा और हिंसा की जरूरत है। और प्रभु का द्वार प्रेम है।
तो, धीरे-धीरे प्रेम खो जाता है। बच्चे के खुद से ही संबंध टूट जाते हैं। अपने हृदय से ही उसका नाता कट जाता है। फिर वह जीता है बिना जड़ों का; खोजता फिरता है..कुछ खो गया! उसकी भी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या खो गया है। क्योंकि जब उसने खोया तब उसे होश ही न था; वह बहुत छोटा था, उसे कोई बोध न था। जब तुमने उसे तैयार किया प्रेम से अलग हो जाने के लिए, तब उसको कुछ भी पता न था कि तुम क्या कर रहे हो। उसने तुम पर भरोसा किया। उसने मां-बाप की बात मानी। उसने समाज, संस्कार को सुना। वह गुरु और शिक्षक की बात स्वीकार करके चला। उसे पता ही नहीं, क्या हो गया; अनजान में, अचेतन में उसके संबंध काट दिए गए; उसकी जड़ें काट दी गईं।
जापान में एक खास तरह का वृक्ष वे बनाते हैं। स्वामी राम पहली दफा जब जापान गए तो उन्होंने वह वृक्ष देखा तो वे बहुत हैरान हुए। उनको भरोसा न आया कि ये कैसे बनाते होंगे। जापान में वे जो वृक्ष बनाते हैं, वे दो-दो सौ, तीन-तीन सौ वर्ष पुराने वृक्ष है..छह इंच ऊंचे, आठ इंच ऊंचे। उनको भरोसा न आया कि तीन सौ साल पुराना वृक्ष और छह इंच ऊंचा कैसे होगा! तो उन्होंने पूछा कि इसकी कला क्या है। मोटा हो गया है, लेकिन बढ़ता नहीं; फैलता है नीचे, लेकिन ऊपर नहीं जाता। तो मालियों ने बताया कि इसकी कला है कि इसकी जड़ें काटते रहो। तो गमले में लगाते हैं वृक्ष को, और नीचे से गमला टूटा हुआ होता है। जड़ों को कभी बढ़ने नहीं देते और नीचे काटते जाते हैं। जब जड़ें नीचे नहीं बढ़तीं तो वृक्ष ऊपर नहीं बढ़ता। वृक्ष पुराना होने लगता है। उसका तना मोटा होने लगता है, जराजीर्ण होने लगता है, लेकिन ऊपर नहीं जा सकता। क्योंकि ऊपर जाने का एक ही उपाय है कि जड़ें नीचे जाएं। जितनी जड़ें नीचे जमीन में जाएंगी, उतना ही ऊपर वृक्ष आकाश में जाएगा। अनुपात बराबर होता है। तो नीचे जड़ कटती रहे तो वृक्ष ऊपर कैसे जाए? ..तो बौना हो जाता है। ये बौने वृक्षों की बड़ी कला है।
रामतीर्थ ने उस दिन अपनी डायरी में लिखा कि यही कोई शैतान आदमी के साथ भी कर रहा है। सब आदमी बौने हो गए हैं..कोई जैसे नीचे से जड़ें काटता जाता है। वृक्ष को पता भी नहीं चलता कि यह क्या हो रहा है, क्योंकि जड़ें तो छिपी हैं।
तुम्हारी प्रेम की जड़ें काट दी गई हैं, और अगर तुमने ठीक उपाय न किया तो तुम उन जड़ों को फिर न पा सकोगे। फिर तुम मंदिरों में जाओ, मस्जिदों में भटको; करो पूजा, प्रार्थना, अर्चना..सब व्यर्थ हैं। तुम कितना ही सिर पटको, परमात्मा तक तुम्हारी आवाज नहीं पहुंचेगी; क्योंकि उस तक केवल तुम्हारे प्रेम की आवाज पहुंच सकती है। आवाज की भी जरूरत नहीं है; अगर प्रेम हो, तो तुम्हारा मौन भी उस तक पहुंच जाता है। तुम न भी कहो तो भी तुम सुन लिए जाते हो। लेकिन अगर प्रेम न तो कुछ भी उस तक नहीं पहुंचता।
अब हम कबीर के इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।
एक-एक शब्द बहुमूल्य है। उपनिषद फीके पड़ जाते हैं कबीर के सामने। वेद दयनीय मालूम पड़ने लगता है। कबीर बहुत अनूठे हैं। बेपढ़े-लिखे हैं, लेकिन जीवन के अनुभव से उन्होंने कुछ सार पा लिया है। और चूंकि वे पंडित नहीं हैं, इसलिए सार की बात संक्षिप्त में कह दी है। उसमें विस्तार नहीं है। बीज की तरह उनके वचन हैं..बीज-मंत्र की भांति।
‘प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय।।’
प्रेम को उपजाने का, खेतीबाड़ी करने का कोई उपाय नहीं है। प्रेम को कल्टीवेट नहीं किया जा सकता, नहीं तो बाजार से खरीद लेते, किसी से उधार ले लेते, कहीं से चोरी कर लेते, किसी से सीख लेते, किसी गुरु के पास बैठ जाते और प्रेम सीख लेते; प्रेम सीखा भी नहीं जा सकता।
और अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो लोग प्रेम सीख लेते हैं, उनके जीवन में प्रेम बिल्कुल खो जाता है। अभिनेता हैं..उनका कुल धंधा प्रेम प्रकट करने का धंधा है। लेकिन अभिनेताओं से ज्यादा असफल प्रेमी तुम कहीं भी न पाओगे। होना तो उलटा चाहिए, क्योंकि चैबीस घंटे वे धंधा ही प्रेम प्रकट करने का करते हैं। लेकिन उनका प्रेम का जीवन बिल्कुल असफल होता है।
क्या कारण है?
क्योंकि जो ऊपर-ऊपर से सीख लेता है, वह भूल ही जाता है कि प्रेम ऊपर-ऊपर से सीखा ही नहीं जाता है। वह कोई कला नहीं है कि तुम किसी विद्यापीठ में गए और सीख ली। वह तो खुद आग में उतरने जैसा है; उतरोगे तो ही निखरोगे। वह तो पानी में तैरने जैसा है; उतरोगे तो ही सीखोगे, कोई दूसरा नहीं सिखा सकता। कहीं किसी शास्त्र से, किसी किताब से उसके सूत्र नहीं सीखे जा सकते। प्रेम के संबंध में तुम जान लोगे शास्त्र से, प्रेम को न जान पाओगे।
‘प्रेम न बाड़ी उपजै’..बगीचे में प्रेम नहीं पैदा होता। ‘प्रेम न हाट बिकाय’..न बाजार में उसकी कोई बिक्री होती है। ‘राजा, परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय’..और प्रेम के जगत में राजा और प्रजा का भी कोई भेद नहीं है; गरीब, अमीर का कोई सवाल नहीं है; भिखारी और सम्राट वहां बराबर हैं। सूत्र एक है..‘सीस देय लै जाय’। जिसको भी प्रेम चाहिए हो, उसको अपने को खोना पड़ेगा..अपने अहंकार को, अपने दंभ को, ‘मैं’ भाव को..वही सीस है; सिर खोना पड़ेगा। और जब तक तुम सिर खोने को राजी नहीं हो, तब तक प्रेम पैदा नहीं होगा।
इसे थोड़ा समझ लें।
सिर के खोने के दो आयाम हैं। एक आयाम तो है कि तुम्हारा अहंकार गिरे। तुम्हारा अहंकार तुम्हारी खोपड़ी में समाया हुआ है। इसलिए तुम लोगों से कहते हो, सिर ऊंचा रखो। अगर किसी का तुमने अपमान कर दिया तो तुम कहते हो, उसका सिर नीचा करके दिखा दिया। सिर अहंकार का प्रतीक हो गया है। इसलिए तो जब तुम समर्पण करते हो तो तुम किसी के चरणों में सिर रखते हो। सिर ही क्यों? शरीर में और अंग भी हैं; लेकिन, क्योंकि सिर ही अहंकार का प्रतीक है, सिंबालिक है। जब तुम किसी के प्रति बहुत समर्पण से भर जाते हो, तो उसके चरणों में सिर रखते हो। और जब तुम किसी के प्रति क्रोध में आ जाते हो तो अपना जूता निकाल के उसके सिर पर रख देते हो।
सिर अहंकार है। वह पहला आयाम है। कबीर कहते हैंः अहंकार को छोड़ दो तो तुम गरीब हो या अमीर, कोई फर्क नहीं पड़ता; शिक्षित-अशिक्षित, कोई फर्क नहीं पड़ता; गोरे-काले का कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम भर लो प्रेम को और ले जाओ। बाजार में न खरीद सकोगे, नहीं तो अमीर और गरीब को फर्क पड़ जाएगा। अमीर खरीद लेगा, गरीब पीछे खड़ा रह जाएगा। बेशर्त मिलता है प्रेम, कोई मूल्य चुकाने का सवाल नहीं। सिर्फ एक बात पूरी करनी जरूरी है, क्योंकि वह बाधा है। अहंकार से भरा हुआ मन, जो सोचता है, मैं सब कुछ हूं या मैं इस जगत का केंद्र हूं, वह किसी के प्रेम में नहीं पड़ सकता। क्योंकि, प्रेम का अर्थ हैः दूसरे को अपने जीवन का केंद्र बना लेना; दूसरा इतना मूल्यवान हो जाए कि मैं परिधि हो जाऊं और दूसरा केंद्र हो जाए; मैं दूसरे के लिए जीऊं और मरूं; मेरी श्वासें दूसरे के लिए आएं और जाएं; जरूरत हो तो मैं अपने को मिटा दूं, लेकिन दूसरे को बचाऊं।
प्रेम का अर्थ हैः केंद्र का रूपांतरण। अहंकार मानता है स्वयं को कें..सारी दुनिया मिट जाए तो भी मैं बचूं। अगर जरूरत हो सबको मिटाने की तो मैं सबको मिटा दूंगा, लेकिन खुद को बचाऊंगा। अहंकार विध्वंसक है। और इसीलिए जब अहंकार किसी को प्रेम करने का बहाना भी करता है तो मिटा डालता है। प्रेम में कितने लोग मिटे हुए दिखाई पड़ते हैं! तुम कहते हो कि पत्नी को तुम प्रेम करते हो, या पति को प्रेम करते हो, लेकिन तुम्हारी सारी चेष्टाएं मिटाने की चलती हैं। पति मिटाने की कोशिश कर रहा है कि पत्नी का व्यक्तित्व खो जाए; पत्नी की स्वतंत्रता खो जाए; पत्नी की आत्मा खो जाए। पति कोशिश कर रहा है कि पत्नी एक छाया हो जाए..एक वस्तुमात्र, जिसका जब उपयोग करना हो कर लिया और जिसकी अपनी न कोई स्वतंत्रता है; न जिसका अपना कोई संकल्प है, न जिसकी अपनी कोई शक्ति है। पत्नी भी यही कोशिश कर रही है। दोनों एक ही राजनीति में हैं। पत्नी भी पूरे वक्त चेष्टा कर रही है कि पति को गुलाम बना ले, इशारे पर चलाए।
एक पत्नी ने अमरीका में एक अदालत में दावा किया। एक कार के एक्सीडेंट में उसकी अंगुली कट गई। उसने दस लाख रुपयों का दावा किया। अदालत भी थोड़ी दंग हुई। उसने कहा कि ठीक है, कुछ तुम्हें मिलना चाहिए; तुम्हारी कोई भूल न थी। लेकिन एक अंगुली कट जाने का दस लाख रुपयों का दावा थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता है। उस पत्नी ने कहाः ‘मैं इसी अंगुली पर अपने पति को नचाया करती थी। यह कोई साधारण अंगुली नहीं थी।’
पत्नियां पतियों को नचाने की कोशिश कर रही हैं; पति पत्नियों को कब्जे में रखने की कोशिश कर रहे हैं..इसलिए कलह है। तुम विवाह से बड़ी कलह कहीं भी न खोज पाओगे, और सतत कलह है। और सब कलह खतम होती है, सब युद्ध समाप्त होते हैं, शांति की संधियां होती हैं; विवाह की कलह शाश्वत है, वह चलती चली जाती है।
एक चर्च के पादरी को बिना प्रकाश के गाड़ी चलाने के जुर्म में पुलिसवाले ने पकड़ा और अदालत में ले गया। पादरी ने कहाः ‘मुझे पता ही नहीं था कि प्रकाश काम नहीं कर रहा है, इसलिए क्षमा करें। और यह मैंने पुलिसवाले को भी कहा है कि मुझे कुछ पता ही नहीं है। कुछ यांत्रिक भूल हो गई होगी। कल तक तो सब ठीक था, और मैंने देखा भी नहीं है।’
जज ने कहाः ‘यह कोई बहुत बड़ा जुर्म न था। और, मैं पुलिसवाले पर भी भरोसा करता हूं और आप पर भी। लेकिन क्या आप सोचते हैं कि पुलिसवाला आपको इसलिए पकड़ लाया है कि वह आपसे नाराज है? या आपसे पीड़ित है? या आपने उसकी कोई हानि की है? ’
पादरी ने कहाः ‘और तो कोई हानि मुझे याद नहीं आती, सिवाय इसके कि तीन साल पहले मैंने इसकी शादी करवाई थी। अगर उसका ही बदला ले रहा हो...।’
विवाह दुख हो गया है..क्योंकि, एक संघर्ष है, एक सतत कलह है। कलह क्या है..कौन किसका मालिक है?
मालकियत हिंसा का भाव है। प्रेम का उससे कोई दूर का भी संबंध नहीं।
फिर जब तुम प्रेम कर ही नहीं पाते, बच्चे पैदा हो जाते हैं, उन पर भी वही मालकियत का खेल जारी रहता है। तुम बच्चों को भी दबाने में लगे रहते हो। तुम उनकी भी आत्मा को मारने में लगे रहते हो, क्योंकि उनकी स्वतंत्रता भी तुम्हें खतरनाक मालूम पड़ती है। तुम्हारी मानकर चलना चाहिए! तुम जो कहो, वही सत्य है! सत्य का तुम्हें भी पता नहीं है। सही का तुम्हें भी कोई बोध नहीं है। जिंदगी खुद तुम्हारी व्यर्थ चली गई है। लेकिन एक छोटे से बच्चे के सामने तुम मालकियत का दावा करते हो कि मैं तुम्हारा बाप हूं, इसलिए जो मैं कहूं वह सही है। क्या चाहते हो तुम? तुम बच्चे को भी मार कर एक वस्तु बना देना चाहते हो।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि मरे-खुरे बच्चे, जिनमें जीवन की धारा नहीं है, मां-बाप उनकी प्रशंसा करते हैं कि बहुत आज्ञाकारी हैं। जिनमें थोड़ा जीवन है, जो जरा उछल-कूद कर सकते हैं, जो भागते हैं, दौड़ते हैं, जिनको तुम दबा नहीं पाते हो..मां-बाप उनकी शिकायत करते हैं। लेकिन एक बड़ी हैरानी की बात है कि जिन बच्चों को भी मां-बाप आज्ञाकारी कहते हैं, जिंदगी में वे बेरौनक सिद्ध होते हैं। और जिन बच्चों को भी मां-बाप शैतान मानते हैं, जिंदगी में वे एक चमक लाते हैं। उनके पास ऊर्जा है!
लेकिन फिर भी हमारा पूरा शड्यंत्र यह है कि मैं सबको दबा दूं अपने चारों तरफ; मैं मालिक होकर बैठ जाऊं। यह जो मालकियत की इतनी आकांक्षा है, इसके कारण प्रेम का बीज फूट ही नहीं पाता।
प्रेम का अर्थ हैः अपने अहंकार को विसर्जित करने की कला। अगर तुम सच में ही अपने बेटे को प्रेम करते हो, तो तुम अहंकार को छोड़ दोगे बेटे के चरणों में..बेटे के चरणों में भी! तुम अकड़ के बाप नहीं बनोगे। और तुम चकित होओगे कि तुम अगर अपने अहंकार को छोड़ते हो तो बेटा भी तुम्हारे प्रति अपने अहंकार को छोड़ देता है। क्योंकि हम एक-दूसरे को सहारा देते हैं। नहीं तो बेटा भी दुखित है और पीड़ित है, और रास्ता देख रहा है कि कब उसे मौका मिले। जल्दी मौका मिलेगा। धीरे-धीरे तुम कमजोर होओगे, बूढ़े हो जाओगे; वह ताकतवर होगा, जवान होगा। वह तुम्हें सताएगा। वह बदला लेगा। और तुम सोचोगे कि बेटा बिगड़ गया है। लेकिन तुमने जो बोया था वही तुम काट रहे हो। जब बेटा कमजोर था, तब तुमने सताया; अब बेटा ताकतवर है, तुम कमजोर हो, अब बेटा सता रहा है।
यह सीधा कर्म का नियम है..तुम वही काटते हो, जो तुम बोते हो। अगर तुमने बेटे के सामने अहंकार की अकड़ न रखी होती, तो जब तुम कमजोर होते, बेटे की भी संभावना न थी कि अकड़ रखता। हम एक-दूसरे को भी सताने की ऐसी-ऐसी तरकीबें खोज लिए हैं, और ऐसी सुंदर तरकीबें और हमने उन तरकीबों को फूलों से सजा लिया है, उन पर रंग-रोगन कर दिया है, उन पर हमने सजावट बना ली है। हम अच्छे-अच्छे नामों से सताते हैं। हम प्रेम के नाम पर मारते हैं। हम व्यवस्था के नाम पर हत्या करते हैं; आज्ञा के नाम पर हम अपने अहंकार की घोषणा करते हैं।
‘राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय’..और जिसने भी चाहा हो प्रेम को..और ध्यान रखो, चाहा हो न चाहा हो, प्रेम के बिना तुम रिक्त रहोगे, खाली रहोगे, खाली घड़े की भांति। तुम्हारे जीवन में एक रुदन होगा। तुम उत्सव से न भर सकोगे। प्रेम के बिना कभी कोई उत्सव को उपलब्ध नहीं हुआ, न कभी हो सकेगा। वह जीवन का शाश्वत नियम है।
तो शीश देने का पहला तो अर्थ है अहंकार को झुका देना। जहां भी प्रेम है, वहां अहंकार झुक जाता है..चाहे अपने से छोटा ही क्यों न हों, तुम्हारा बेटा ही क्यों न हों। अगर प्रेम है तो अहंकार नहीं होता। पत्नी ही क्यों न हो तुम्हारी, तो तुम अकड़ के पतिदेवता बन के खड़े नहीं होते! वहां तुम झुक जाते हो। और ऐसा नहीं होता कि तुम किसी के सामने झुक रहे हो, कि पत्नी के सामने झुक रहे हो, कि पत्नी तुम्हारे सामने झुक रही है; वस्तुतः दोनों ही प्रेम के सामने झुक रहे हैं; दोनों ही प्रेम के देवता के चरणों में झुक रहे हैं। कोई किसी के सामने नहीं झुक रहा है; दोनों ही झुक रहे हैं। चाहो तो कहो कि एक-दूसरे के सामने झुक रहे हैं और चाहो तो कहो कि दोनों के बीच में है कोई प्रेम का देवता..अदृश्य..उसके सामने झुक रहे हैं।
तो शीश का एक तो अर्थ है अहंकार और दूसरा अर्थ है विचार। क्योंकि तुम्हारे सिर में सारे विचारों का संग्रह है। तुम सोचते ही रहते हो। संगत-असंगत, अनर्गल विचारों की भीड़ तुम्हारे मन में चलती रहती है। इस विचारों की अतिशय भीड़ के कारण तुम्हारी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति खो जाती है, प्रेम करने को कुछ बचता नहीं है।
मस्तिष्क शोषक हो गया है। वह तुम्हें चूस लेता है। हृदय के पास तक रस की धार पहुंच ही नहीं पाती। तुम्हारी सारी ऊर्जा तुम्हारे विचारों में नष्ट हुई जा रही है। और तुम्हारे विचार निन्यानबे प्रतिशत विक्षिप्त हैं। उनका कोई भी मूल्य नहीं। तुम न विचारो तो कुछ हर्जा न हो जाएगा।
लेकिन तुम होश में ही नहीं हो। कभी तुमने बैठकर घड़ी भर देखा कि तुम क्या सोचते रहते हो? कैसा कचरा तुम्हारे मन में चलता रहता है? इस कचरे को चला कर क्या होगा? दिन चलता है, रात चलता है; सोने में, जागने में, सपने में, विचार में, कचरा घूम रहा है। और ध्यान रखना कि छोटा सा भी विचार चलता है तो तुम्हारी शक्ति को नष्ट कर रहा है।
वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अगर तुम एक घंटा जाकर खेत में कुदाली लेकर गड्ढा खोदो तो जितनी शक्ति समाप्त होती है, पंद्रह मिनट विचार करने में, चिंता करने में उतनी ही शक्ति समाप्त होती है। चैगुनी शरीर के श्रम से मन के श्रम में समाप्त होती है। शरीर का श्रम तो कम हो गया है; आदमी के मन का श्रम बढ़ गया है। सिर शोषक हो गया है। वह किसी और तरफ शक्ति को जाने ही नहीं देता; सारी शक्ति को खुद ही पी लेता है। हृदय आक्रामक नहीं है। वह प्रतीक्षा करता है और प्रतीक्षा करने की वजह से ही वंचित है।
जब तक तुम सिर को न गिरा दोगे, विचार को न गिरा दोगे, तब तक तुम्हारे हृदय में मरुस्थल रहेगा; जल के स्रोत वहां तक न पहुंच पाएंगे। और, वहां पड़ा है बीज प्रेम का; जलस्रोत वहां तक पहुंचें तो ही प्रेम अंकुरित होगा।
कहते हैं कबीरः ‘प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय।।’
शीश देने को ठीक से समझ लेना। विचार और अहंकार..दो छूट जाएं तो तुम्हारा सिर गिर गया। अब प्रेम की संभावना खुली है। अब प्रेम खिलेगा। अब तुमने प्रेम के बीच से बाधा हटा दी। तुम्हारी खोपड़ी के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। वही पत्थर की चट्टान की तरह बीच में पड़ी है।
‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित हुआ न कोई। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।’
कहते हैं कबीरः पोथी पढ़-पढ़ कर अनेक लोग मर जाते हैं; जीवन भर पढ़ते रहते हैं और मर जाते हैं, फिर भी ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते हैं। क्योंकि ज्ञान का कोई संबंध विचार से नहीं है। विचार को तो उपलब्ध हो जाते हैं, बहुत विचार को उपलब्ध हो जाते हैं। जितना तुम पढ़ोगे, सुनोगे, संग्रह करोगे-स्मृति भारी होती जाएगी। तुम बहुत कुछ जान लोगे बिना जाने, बिना पहचाने। केवल शब्दों के कारण तुम्हें यह भ्रांति आ जाएगी कि मैं ज्ञानी हो गया हूं।
‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित हुआ न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’
कबीर के लिए पांडित्य की परिभाषा ज्ञान की परिभाषा है-जिसने प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ लिए हैं। और प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ने का कोई उपाय पोथी में नहीं है; जीवन की पोथी में ही पढ़ना पड़े; जीवन के विद्यालय में ही आना पड़े; जीवन के प्रांगण में ही वे ढाई अक्षर पढ़े जा सकते हैं।
ढाई अक्षर..हिंदी में जो शब्द है..प्रेम, उसमें ढाई अक्षर हैं; लेकिन कबीर का मतलब गहरा है। जब भी कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में गिरता है, तो वहां ढाई अक्षर प्रेम के पूरे होते हैं। एक तो प्रेम करनेवाला..एक; जिसको प्रेम करता है वह..दो; और दोनों के बीच में कुछ है, अज्ञात..वह ढाई। और उसे क्यों कबीर आधा कहते हैं? ढाई क्यों? तीन कह सकते हैं। आधा कहने का कारण है और बड़ा मधुर कारण है। कबीर कहते हैं कि प्रेम कभी पूरा नहीं होता, कितना ही पूरा होता जाए। तुम कभी तृप्त नहीं होते। कभी ऐसा नहीं लगता कि बस, आ गई पूर्ति, संतुष्ट हो गए। प्रेम कितना ही होता जाए, अधूरा ही बना रहता है। वह परमात्मा जैसा है..कितना ही विकसित होता जाए, पूर्ण से पूर्णतर होता जाता है, फिर भी विकास जारी है। जैसे प्रेम का जो अधूरापन है, वह उसकी शाश्वतता है।
इसे ध्यान में रखना कि जो भी चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है; क्योंकि फिर बचा नहीं कुछ करने को, होने को कुछ बचा नहीं, आगे कोई गति न रही। जो भी चीज पूर्ण हो गई, वह मर गई। मर ही जाएगी, क्योंकि फिर क्या होगा? सिर्फ वही जी सकता है शाश्वत, जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है, अधूरा है, आधा है; और तुम कितना ही भरो, वह आधा रहेगा। आधा होना उसका स्वभाव है। तुम कितने ही तृप्त होते जाओ, फिर भी तुम पाओगे कि हर तृप्ति और अतृप्त कर जाती है। जितना तुम पीते हो, उतनी ही प्यास बढ़ती चली जाती है। यह ऐसा जल नहीं है कि तुम पी लो और तृप्त हो जाओ। यह ऐसा जल है कि तुम्हारी प्यास को और जलाएगा। इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता। और, इसलिए उसके आनंद का कोई अंत नहीं है। क्योंकि आनंद का वहीं अंत हो जाता है, जहां चीजें पूरी हो जाती हैं।
कामी तृप्त हो सकता है, प्रेमी नहीं। काम का अंत है, सीमा है। प्रेम का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। प्रेम आदि-अनादि है। वह ठीक परमात्मा के स्वरूप का है। इस जगत में प्रेम परमात्मा का प्रतिनिधि है, समय की धारा में समयातीत का प्रवेश है, मनुष्य की दुनिया में अतिमानवीय की किरण का आगमन है। प्रेम प्रतीक है यहां परमात्मा का और उसका स्वभाव परमात्मा जैसा है।
परमात्मा कभी पूरा नहीं होगा, नहीं तो जगत समाप्त हो जाएगा। उसकी पूर्णता बड़ी गहन अपूर्णता जैसी है। उपनिषद कहते हैं कि उस पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो तो भी वह पूर्ण ही रहता है। उस पूर्ण में और पूर्ण को डाल दो, तो भी वह उतना ही रहता है, जितना था। वह जैसा है, वैसा ही है; उसमें घट-बढ़ नहीं होती। प्रेम भी जैसा पहले दिन होता है, वैसा ही अंतिम दिन भी होगा। जो चुक जाए, उसे तुम प्रेम ही मत समझना; वह कामवासना रही होगी। जिसका अंत आ जाए, वह शरीर से संबंधित है। आत्मा से जिस चीज का भी संबंध है, उसका कोई अंत नहीं है। शरीर भी मिटता है, मन भी मिटता है; आत्मा तो चलती चली जाती है। वह यात्रा अनंत है। मंजिल कोई है नहीं, क्योंकि अगर मंजिल हो तो मृत्यु हो जाएगी।
तो कबीर रहते हैंः ढाई आखर प्रेम का! वे प्रेम के ढाई अक्षर की तरफ इशारा तो करते ही हैं, गहरा इशारा है प्रेम के आधेपन का। प्रेमी और प्रेयसी के बीच एक अदृश्य धारा है, एक अदृश्य आंदोलन है, एक सेतु है जो दिखाई नहीं पड़ता, जिससे वे दोनों जुड़ गए हैं और एक हो गए हैं।
‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।’
‘प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय’..बहुत संकरी गली है प्रेम की। उससे संकरी और कोई गली नहीं! वहां दो न समा सकेंगे। शुरू में तो ढाई होते हैं। प्रथम चरण में, प्रथम संघात में तो ढाई होते हैं; लेकिन आखिर में प्रेम ही बचता है, बाकी दो खो जाते हैं। लेकिन, दोनों को लगता है कि मैं खो गया हूं, दूसरा है। दूसरे को लगता है कि प्रेमी खो गया है, मैं हूं; लेकिन वस्तुतः दोनों खो जाते हैं; प्रेम ही बचता है। वह जो मध्य में है, वही बचता है; दोनों सिरे खो जाते हैं।
‘प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाय। जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है मैं नाहिं।।’ इसलिए परमात्मा का मनुष्य से कभी मिलन नहीं होता, हो ही नहीं सकता। क्योंकि जब मिलन की घड़ी आती है, तब मनुष्य खो जाता है और जब तक मनुष्य होता है, तब तक मिलन की घड़ी नहीं आती। ऐसे ही समझो, जैसे बूंद को तुम सागर में डालो तो जब तक बूंद सागर में गिर ही नहीं गई है, अभी थोड़ी दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर, तब तक है। सागर भी है, बूंद भी है..यह ढाई की दशा है। गिर रही है सागर की तरफ, गिरती जा रही है; लेकिन अभी बूंद है, सागर भी है; अभी बीच में थोड़ा फासला है। वह फासला प्रेम से भरा है, आकर्षण से भरा है। बूंद सागर की तरफ गिरती जा रही है, लेकिन अभी मिलन नहीं हुआ। जिस घड़ी मिलन होगा उस दिन एक रह जाएगा..न सागर होगा, न बूंद होगी। बूंद को लगेगा कि सागर बचा, सागर को लगेगा, बूंद बची।
इसलिए कबीर एक दूसरे पद में कहते हैंः हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाइ।
बूंद सागर में गिर गई, अब उसे वापस कैसे निकालें! यह एक तरफ से, कबीर की तरफ से, बूंद की तरफ से, तुम्हारी तरफ से। पर दूसरी तरफ से भी कबीर ने बात कही है। ठीक दूसरे पद में उन्होंने कहा हैः ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाइ।’ समुद्र की तरफ से..समुद्र बूंद में गिर गया, अब उसे कैसे निकालें!
एक बूंद का दृष्टिकोण है कि मैं खो गई, सागर बचा। एक सागर का दृष्टिकोण है कि मैं खो गया, बूंद ही बची। बूंद विराट हो गई। सागर बूंद में लीन हो गया। लेकिन अगर ठीक से समझो, अगर उस आधे की तरफ से देखो तो न सागर बचा, न बूंद बची, क्योंकि सागर बूंद के मिलने के पहले कुछ कम था। एक बूंद की कमी थी; वह भी कुछ कम कमी तो नहीं। बूंद सागर से मिलने के पहले बहुत कम थी, पूरा सागर कम था; अब दोनों न रहे, अब प्रेम ही बचा। वह ढाई की मात्रा बची। वह बीच का सेतु बचा। खो गया प्रेमी, खो गयी प्रेयसी; खो गया भक्त, खो गए भगवान; खो गए कबीर, खो गया हरि..बचा प्रेम!
यह जो प्रेम का अनंत पारावार बच रहता है, उसका अनुभव कैसे होगा शास्त्र से? तुम कैसे वेद से, कुरान से, बाइबिल से उसे समझोगे? कोई गुरु भी तुम्हें इसे कैसे समझाएगा? गुरु करेगा क्या? इतना ही कर सकता है कि तुम्हें धक्का दे दे, ताकि तुम्हें अनुभव हो जाए। अनुभव के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।
‘प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय। जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि हैं मैं नाहि।।’
लोग कहते हैं, परमात्मा को खोजना है। लोग कहते हैं कि कहां है परमात्मा? ..हम खोजना चाहते हैं। लोग कहते हैं कि प्रमाण क्या है कि परमात्मा है? उन्हें पता ही नहीं कि वे क्या कह रहे हैं; क्योंकि परमात्मा को खोजने का एक ही ढंग है..स्वयं को खोना। जब तक तुम बचोगे, तुम्हें उसकी प्रतीति न होगी। जब तुम न रहोगे, तब होगी प्रतीति। इसलिए तुम तो कभी प्रमाण न जुटा पाओगे कि वह है। तुम्हारे मिटने पर ही प्रमाण मिलेगा। जो खोया, उसने प्रमाण पाया। जो प्रमाण खोजता रहा, उसने पाया कि परमात्मा नहीं है।
शास्त्र से तुम नास्तिकता पा सकते हो, आस्तिकता नहीं। शब्दों से तुम निर्णय ले सकते हो कि परमात्मा नहीं है; लेकिन परमात्मा है, यह निर्णय तुम शब्दों से नहीं ले सकते।
उमर खय्याम ने कहा है कि जब मैं जवान था तो बहुत पंडितों के द्वार पर गया। बड़े-बड़े ज्ञानी थे वे। उनकी मैंने बड़ी-बड़ी बातें सुनीं, विवाद सुने, पक्ष-विपक्ष में चर्चा सुनी; लेकिन जिस दरवाजे से गया था, उसी से वापस बाहर लौटा, हाथ कुछ न लगा। हाथ कुछ लगेगा भी नहीं। शब्द को तुम मुट्ठी में बांध भी लोगे तो बंधेगा कुछ भी नहीं, घर तुम खाली हाथ ही आओगे। शब्द से ज्यादा नाचीज और क्या है! लेकिन बड़े मजे की बात है, या मूढ़ता की, कि हर आदमी शब्द की संपत्ति पर बैठा हुआ अकड़ा है कि मैं कुछ जानता हूं। ...‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।’
‘कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ। अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।।’
शब्दों के बादल से कहीं वर्षा होगी? शब्दों के बादल से अगर वर्षा भी हो तो क्या तुम्हारा बगीचा हरा हो जाएगा? क्या वृक्षों में फूल लगेंगे? वृक्षों को तुम धोखा न दे सकोगे। शब्दों की वर्षा से वे धोखे में न आएंगे। वे असली जल चाहते हैं। असली जल अनुभव का जल है।
‘कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई’..और, जैसे ही तुम सिर को हटा दोगे, बरसा हो जाएगी। जैसे ही यह तुम्हारा अहंकार न होगा, बादल बरस जाएगा। बादल तो घुमड़ ही रहा है तुम्हारे ऊपर सदा से। बादल ने तो एक क्षण को तुम्हें छोड़ा नहीं है, क्योंकि वह तुम्हारा अंतरतम स्वभाव है। वह तुम्हारी आत्मा के होने का गुण है। प्रेम कुछ ऐसी चीज नहीं है कि जिसे हम बाहर से लेते हैं और देते हैं। प्रेम तो ऐसे ही है जैसे आग में अग्नि है और जल में शीतलता है..ऐसे ही आत्मा में प्रेम है; लेकिन तुम्हारी नजर उस तरफ नहीं, तुम पीठ किए खड़े हो। अपनी ही तरफ पीठ किए खड़े हो। बादल तो घुमड़ रहा है। कभी-कभी उसकी आवाज भी तुम्हें सुनाई पड़ती है, लेकिन तुम्हारा मन ऐसा है कि तुम कुछ व्याख्या कर लेते हो।
रवींद्रनाथ का एक प्रसिद्ध गीत है कि एक बहुत बड़ा मंदिर था। मंदिर में सौ पुजारी थे। पूजा चलती थी, अर्चना चलती थी, लाखों रुपये का प्रसाद चढ़ता था। एक रात बड़े पुजारी ने स्वप्न देखा कि मंदिर का जो प्रभु है, उसने कहा कि आज रात मैं आ रहा हूं, तैयारी पूरी कर लो। सुबह वह जागा; सोचा, सपना सपना है। और पुजारियों को भगवान पर बिल्कुल भरोसा नहीं होता, मंदिर आनेवालों को थोड़ा-बहुत होता भी हो। मंदिर को जो धंधे की तरह चला रहे हैं, उनको कभी नहीं होता, हो भी नहीं सकता। क्योंकि वे जानते हैं कि यह सिर्फ धंधा है। पर फिर भी, डरा भी बड़ा पुजारी कि हो न हो, कहीं सपना सच न हो। कहीं ऐसा न हो कि हम बिना तैयारी में हों, और वह परमात्मा आ जाए, हम मुश्किल में पड़ जाएं। तो सोचा, उचित है कि अपने साथियों से कह दूं। अपने साथियों को इकट्ठा किया..सौ पुजारियों को, और कहा, कि ऐसा सपना देखा है। सपना सपना ही है, कोई भरोसे की जरूरत नहीं; लेकिन कहीं ऐसा न हो कि सपना सच ही हो जाए! तो पुजारियों ने कहाः ‘हर्ज भी क्या है। हम तैयारी कर लें। अगर भगवान न आया तो भोग हम अपने को ही लगा लेंगे।’ और, यह तो पुजारी सदा से ही करते रहे हैं। लगता तो भोग भगवान को है, पहुंचता तो पुजारी को है। ‘हर्ज क्या है। और कई दिनों से मंदिर की सफाई भी नहीं हुई, सफाई भी हो जाएगी इस बहाने।’ भरोसा तो किसी को था नहीं, क्योंकि सभी के पास सिर है और सभी सोचते हैं कि सपने कहीं सच हुए हैं!
कुछ तैयारी की, साफ-सुथरा किया मंदिर। दीये जलाए। धूप बाली। फूलों से सजाया। सांझ हो गई, कोई खबर नहीं! रात उतरने लगी; कोई खबर नहीं! आखिर पुजारी आपस में कहने लगेः ‘हम भी नासमझ हैं..सपने पर भरोसा कर लिया। अब हम भोग लगा लें और सो जाएं।’ दिन भर के थके थे, भोजन किया, सो गए।
आधी रात उसका रथ आया। रथ की आवाज सुनाई पड़ी। एक पुजारी को नींद में लगा कि उसका रथ आ रहा है। बड़ी आवाज है। उसने कहाः ‘सुनो, जागो, लगता है कि प्रभु आ रहे हैं। रथ आ रहा है।’ दूसरे पुजारी ने कहाः ‘बकवास बंद। दिन भर के थके-मांदे हैं। कोई रथ-वथ नहीं है; हवा के झोंके दरवाजों से टकरा रहे हैं।’
व्याख्या हो गई। वे सो गए। रथ द्वार पर आकर रुका। वह चढ़ा। उसके पैरों की पगध्वनि सुनाई पड़ी। उसने द्वार पर दस्तक दी। फिर किसी ने कहा कि सुनो, लगता है वह आ गया, द्वार पर दस्तक पड़ रही है। फिर कोई नाराज हुआ; उसने कहाः ‘दिन भर के थके हैं, तुम्हें यह भी समझ नहीं। अब छोड़ो भी बकवास। सपने कहीं सच हुए हैं? यह कोई द्वार पर दस्तक नहीं है, बादलों की गड़गड़ाहट है। सो जाओ, शांत रहो।’
सुबह उठे, रथ आया था। रथ के पहियों के निशान मंदिर के द्वार तक बने थे। सीढ़ियों पर कोई चढ़ा था, उसके पद-चिह्न थे। रवींद्रनाथ ने कहा है कि लेकिन अब बहुत देर हो गई थी। अवसर चूक गया था।
बादल तो तुम्हारे चारों तरफ घुमड़ रहा है; जो देख सकते हैं, वे देख सकते हैं। लेकिन तुम्हारा सिर बीच में खड़ा है; बादल तुम पर बरस नहीं पाता। बरस भी जाए तो तुम चिकने घड़े हो..तुम्हारा सिर चिकने घड़े की तरह है..वह सब बिखर जाता है; तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंच पाता। और वही है बनराइ, जिसकी कबीर बात कर रहे हैं।
‘कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ। अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।।’
सारा जंगल हरा हो उठा। हृदय है भी जंगल जैसा..वाइल्ड। बुद्धि तो परिष्कृत है, संस्कृत है, सभ्य है, समाज की है। हृदय तो जंगल जैसा है..अपरिष्कृत, आदिम, असंस्कृत, असभ्य। वह तो जंगली जानवरों जैसा, वृक्षों जैसा, आकाश के बादलों जैसा है। आदमी का हाथ अब तक हृदय पर नहीं पहुंच पाया, पहुंच भी नहीं सकता। समाज तुम्हारे सिर के आगे नहीं जा सकता। तुम्हारे हृदय तक तो केवल परमात्मा की ही पहुंच है।
तो कहते हैं कबीरः जब कोई सिर को छोड़ देता है..अहंकार को, विचार को..तो बरस जाता है बादल।
‘अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।।’
‘जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहीं राम। ते नर इस संसार में, उपजि भये बेकाम।।’
तुम मरते क्षण में पाओगे कि तुम्हारा जीवन बेकाम गया। अगर तुम्हारे होंठों पर उस प्यारे का नाम न आया, और अगर तुम्हारे हृदय-घट में उसका प्रेमरस न भरा तो मरते वक्त तुम पाओगे कि अवसर बीत गया। तब तुम द्वार खोल कर देखोगे कि बहुत बार उसका रथ तुम्हारे हृदय के मंदिर तक आने की कोशिश किया, बहुत बार उसके चरण-चिह्न तुम्हारी सीढ़ियों पर पड़े, बहुत बार उसने दस्तक दी; लेकिन हर बार तुम्हारी खोपड़ी ने व्याख्या कर ली..आकाश में बादलों की गर्जन है, हवा के झोंके हैं, कोई ऐरा-गैरा चलता होगा राह पर। तुम अवसर चूकते गए..मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे...
मृत्यु के क्षण में तुम लोगों को रोते, उदास, बेचैन देखते हो..वह घबड़ाहट मृत्यु की वजह से नहीं आती; वह घबड़ाहट खो गए जीवन के कारण आती है। अवसर था, हाथ में आया और चला गया। मृत्यु से कोई कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि जिसे तुम जानते नहीं, उससे तुम भयभीत कैसे होओगे? मृत्यु को तुमने कभी देखा? उससे तुम डरोगे कैसे? अनजान से भय कैसा? उसने तुम्हें कभी कोई नुकसान पहुंचाया? कोई हानि की, जो तुम रोओगे, तड़पोगे, चिल्लाओगे? नहीं, असली बात और है।
मृत्यु के क्षण में तुम्हें पहली दफे समझ आती है कि सारा जीवन बेकाम गया। अब समय न बचा और यह मृत्यु सामने आ गई, अब क्या करूं? तुम्हारी सारी दीनता तुम्हारे जीवन भर के असफल जाने की कथा है। जिसने जीवन को ठीक से जीया और जिसने जीवन के रहस्य को जाना-पहचाना और जिसके मंदिर में परमात्मा प्रविष्ट हुआ, जिसका सिंहासन खाली न रहा, जिसके हृदय में प्रेम का रस भरा और जिसकी रसना पर राम का नाम रहा..वह मृत्यु का आनंद से स्वागत करता है। जिसने जीवन को जाना, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। वह जीवन को जान कर मृत्यु को विश्राम की तरह पाता है..एक गहन विश्राम, जीवन की थकान के बाद। तुम डरोगे! डर जीवन के बेकाम जाने से आता है।
‘ते नर इस संसार में उपजि भये बेकाम जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहीं राम।।’
हमेशा टटोलते रहना अपने हृदय में कि वहां प्रेम का रस अब तक भरा या नहीं। समय जा रहा है। तुम समय को रोक नहीं सकोगे। तुम लौटा भी न सकोगे। कोई कभी नहीं लौटा सका। कोई समय की धारा को रोक नहीं सका। वह जा ही रहा है। प्रतिपल तुम्हारे हाथ से जीवन खिसका जाता है। हर घड़ी तुम मौत के करीब पहुंच रहे हो। किसी भी क्षण मौत आ जाएगी। और मौत किसी को क्षमा नहीं करती और मौत किसी पर दया नहीं करती, और मौत से तुम एक क्षण भी मांगोगे ज्यादा तो वह भी नहीं मिल सकता।
हमेशा टटोलते रहना अपने हृदय में कि वहां प्रेम का रस अब तक भरा या नहीं। और अगर न भरा हो, और पाओ कि वहां मरुस्थल है, वहां वर्षा पहुंची ही नहीं, तो जल्दी करना सिर को अलग कर देने की। वही ध्यान है। वही प्रार्थना है। सिर को गिरा देने की कला योग है। अहंकार और विचार छूट जाएं तो तुम्हारे हृदय में रस भरने लगेगा। वर्षा तो हो ही रही है; तुम्हारा हृदय तुम्हारे सिर के ढकने से बंद है।
‘जहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहिं राम’..और जिसके हृदय में प्रेम का रस भर जाता है, उसके होठों पर राम का नाम आ जाता है। राम के नाम का अर्थ यह नहीं है कि तुम राम-राम, राम-राम जपते रहो; मुंह, तुम्हारे होंठ, उसके स्वाद से भर जाते हैं। तुम्हारी जीभ पर उसके स्वाद के सिवाय कोई स्वाद नहीं टिकता। चैबीस घंटे जैसे मिश्री रखी हो तुम्हारे मुंह में, ऐसा उसका, राम का नाम पिघलता रहता है। उसका माधुर्य तुम्हारे पूरे जीवन में, तुम्हारे रोएं-रोएं में गूंजता रहता है।
राम एक माधुर्य है; वह एक स्वाद है। राम-राम दुहराने से कुछ अर्थ नहीं है कि राम चदरिया ओढ़ ली कि राम-राम लिखा है, दूसरे भी पढ़ लें। उससे कुछ होने का नहीं है। तुम्हारे रोएं-रोएं में उसका स्वाद भर जाए...।
‘राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय। मतवाला दीदार का मांगे मुक्त बलाय।’
बड़ी अनूठी बात कबीर कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जो उसके नाम के रस में डूब गया..राता माता नाम का..जो उसके नाम के प्रेम में मत्त हो गया, उन्मत्त हो गया, पागल हो गया..राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय..इतना प्रेम पी गया कि बहने लगा प्रेम ऊपर से! तुम तभी दूसरे लोगों को प्रेम कर पाओगे, जब परमात्मा के प्रेम से इतने भर जाओ कि ‘ओवरफ्लो’ होकर तुम्हारे घट के ऊपर से बहने लगे। वही स्थिति उन्मत्त की स्थिति है।
ऐसी घड़ी आती है, जब तुम्हारे पास इतना होता है कि तुम न दो तो मुश्किल में पड़ जाओ। तुम इतने भर जाते हो कि तुम न उलीचो तो मुश्किल में पड़ जाओ। कबीर ने कहा हैः दोइ हाथ उलीचिए।
अभी हालत ठीक उलटी है। अभी तुम एक खाली घट हो और सब तरफ भिक्षुक की तरह घूमते हो कि मेरे प्रेम के घट को भर दो। तुम एक भिखारी हो। तुम हर किसी के सामने खड़े हो जाते हो कि जरा सा प्रेम दे दो। तुम्हारी आंखें प्रेम मांग रही हैं, भीख मांग रही है। जरा सा भी कोई तुम्हारी तरफ मुस्कुरा के देख जाता है, तुम बड़े खुश हो जाते हो। तुम्हारी दरिद्रता का अंत नहीं है। कोई कंकड़ भी डाल देता है तुम्हारे पात्र में तो तुम हीरा समझ लेते हो। तुम चैबीस घंटे मांग रहे हो एक-दूसरे से कि प्रेम दो, प्रेम दो..हाय-हाय मची है कि प्रेम दो!
और, ध्यान रखना..जिनसे तुम मांग रहे हो, वे भी तुम्हारे ही जैसे खाली घड़े हैं। वे सिर्फ आश्वासन दे सकते हैं, प्रेम नहीं दे सकते। देना भी चाहें तो नहीं दे सकते। भिखारी भिखारियों के सामने खड़े हैं भिक्षापात्र फैलाए। हर भिखारी अकड़ दिखा रहा है कि मैं सम्राट हूं, लेकिन भीतर से भिखारी है। मांगने आया है। देने की बातें कर रहा है; देने की बातें करता है, मिलने के लिए। तुम थोड़ा सा प्रेम देते दिखाई भी पड़ते हो, वह भी सिर्फ इसलिए ताकि लौटे। वह एक सौदा है। दूसरा भी तुमसे प्रेम की बातें कर रहा है; वह भी तुम्हें चूस लेना चाहता है।
इस संसार में सभी एक-दूसरे से प्रेम मांग रहे हैं..बेटा बाप से, बाप बेटे से, पति पत्नी से, पत्नी पति से, मित्र मित्र से। सब एक-दूसरे से प्रेम मांग रहे हैं..प्रेम दो! और कोई भी यह नहीं देख रहा है कि जिनसे हम मांग रहे हैं, वे भी हमसे मांगने आए हुए हैं। इसलिए तो प्रेम असफल होता है। शुरू-शुरू में थोड़े दिन धोखा चल जाए; धोखा कितने दिन चलेगा? पता चलेगा कि दूसरा भी भिखारी है; हम अच्छी मुसीबत में पड़े हैं!
एक स्त्री को तुम देखते हो, लगती है कि प्रेम से लबालब है। एक स्त्री तुम्हें देखती है, लगते हो कि तुम प्रेम से भरे हो। वह सब धोखा है। वह ऐसे ही है, जैसे कोई मछली को पकड़ने के लिए कांटे में आटा लगाता है। वह सिर्फ आटा है, भीतर कांटा है। तो प्रेम टिक जाए दो-चार दिन तो भी बहुत है, क्योंकि दो-चार दिन में ही तुम परिचित हो जाओगे कि दूसरा भी भिखारी है, तुम भी भिखारी हो। पास आते ही पहचान हो जाएगी कि दूसरा भी मांगने की इच्छा से आया था, लेकिन देने की बातें कर रहा था। हम भी मांगने आए थे और देने की बातें कर रहे थे। सब कहते हैंः प्रेम देंगे। और सब मांग रहे हैं!
छोटे-छोटे बच्चों से भी तुम मांगते हो। तुम्हारे भिखारीपन का कोई हिसाब नहीं! पहले दिन का बच्चा है, मां उसकी तरफ देखती है और चाहती है कि वह मुस्कुराए..मांग शुरू हो गई। अभी बच्चा आया भी नहीं है जमीन पर, लेकिन मां कह रही हैः मुस्कुराओ। वह उसे गुदगुदाती है, ऊपर से मुस्कान थोपती है उसके ऊपर, मुस्कुराती है चेष्टा करती है कि वह सीख जाए। बच्चा थोड़े दिन में राजनीति सीख जाएगा। वह समझ जाएगा कि मुस्कुराने से लाभ है..मुस्कुराओ, मां खुश होती है; न मुस्कुराओ, नाराज होती है। तब वह भी मुस्कुराएगा। वह मुस्कुराहट ऊपर से होगी, थोप लेगा।
छोटे-छोटे बच्चे कुशल हो जाते हैं तुम्हारे साथ रह कर..सत्संग का प्रभाव! और वह भी मतलब से। जब उनको भी मतलब नहीं होता, तुम लाख करो उपाय, वे भी नहीं मुस्कुराते; क्योंकि बेमतलब क्या सार है! जब मतलब होता है तो देखो, बच्चे कैसे तुम्हें फुसलाते हैं। तुम्हें सब तरह से राजी करते हैं..हंसते हैं, नाचते हैं; जैसे बड़े प्रसन्न हैं।
भिखमंगे हैं सभी और तब तक भिखमंगे ही रहेंगे, जब तक..जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहिं राम। ते नर इस संसार में उपजि भये बेकाम।
लेकिन जब कोई अपनी स्थिति को ठीक से समझ लेता है और विचार और अहंकार को हटा देता है...और हटाने में क्या अड़चन है? क्या तुमने पाया है उनसे? कुछ भी तो नहीं पाया, फिर भी पकड़े हो। तुम्हारी दशा वैसी है, जैसी लोग कहते हैं कि डूबता हुआ तिनके का सहारा ले लेता है। और तुम उससे अगर कहो कि यह तिनका है, मूर्ख! डूबेगा, तू बचेगा नहीं इसमें, तो वह आंख नहीं खोलता, क्योंकि डर लगता है कि कहीं सच में ही तिनका न हो; क्योंकि अगर तिनका हुआ तो एक आशा थी, वह भी गई।
आशा के सहारे लोग जीते हैं। तुम सोचते हो, कुछ न कुछ हो जाएगा। पकड़े रहो थोड़ी देर और, अभी तक नहीं हुआ, माना; लेकिन कौन जाने कल कुछ हो जाए। लेकिन जो अब तक नहीं हुआ है वह कल भी नहीं होगा। जो आज तक नहीं हुआ है वह कल कैसे हो जाएगा? तुम्हें अपने को बदलना ही पड़ेगा। बिना बदले अब तक नहीं हुआ; जन्मों-जन्मों से तुमने कोशिश की बिना बदले। तुम पुनरुक्त करते जाओगे, अपने को दुहराते रहोगे।
‘राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय।’
लेकिन जो सिर को काट के रख देता है..‘शीश देई ले जाय, राजा परजा जेहि रुचै’..वह उन्मत्त हो जाता है। वह मत्त हो जाता है। एक मस्ती आ जाती है। उसके रोएं-रोएं से प्रेम झरने लगता है। ‘मतवाला दीदार का मांगे मुक्ति बलाय’..वह मुक्ति भी नहीं मांगता। वह परमात्मा से नहीं कहता कि मुझे मुक्ति दे दो। वह कहता हैः मेरी बला से, मुक्ति जाए भाड़ में; मुझे सिर्फ तेरा दर्शन चाहिए। भक्त मुक्ति नहीं मांगते; भक्त कहते हैं, सिर्फ तेरा दर्शन हो जाए। मतवाला दीदार का..बस तेरी दीदार मिल लाए। तुझे एक बार देख लूं भर नजर! ‘मांगे मुक्ति बलाय’। और मुक्ति की मुझे कोई आकांक्षा नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि यह हो सकता है कि मुक्ति भी अहंकार का रूप हो; अक्सर होता है सौ में निन्यानबे मौके पर। जब तुम कहते हो ‘मैं मुक्त होना चाहता हूं’ तो यह मैं ही है, जो मुक्त होना चाहता है। तुम्हारा मोक्ष भी तुम्हारे अहंकार का ही फैलाव है। वहां भी तुम मैं को बचा लेना चाहते हो। तुम कहते हो, शरीर गिरेगा, मन गिरेगा, सब गिर जाएगा; लेकिन मैं? मैं बचूंगा। उस मैं को तुमने आत्मा का नाम दे दिया है..मेरी मुक्ति। लेकिन ध्यान रखो कि एक ही मुक्ति है और वह मुक्ति है ‘मैं’ से मुक्ति। मेरी कोई मुक्ति नहीं हो सकती। मैं कैसे मुक्त होऊंगा? मैं ही तो बंधन हूं। इसलिए ‘मैं’ कभी मुक्त नहीं हो सकता। ‘मैं’ का कोई मोक्ष नहीं है; ‘मैं’ से मोक्ष है।
इसलिए भक्त उस मोक्ष को उपलब्ध हो जाते हैं, जिसको योगी अनेक बार वंचित रह जाते हैं पाने से। क्योंकि योगी कहता है कि मुझे मुक्ति चाहिए, मैं मुक्त होना चाहता हूं। यह मोक्ष भी मैं से ही जुड़ा लगता है। यह भी मैं की ही वासना लगती है..आखिरी वासना। कितनी ही शुद्ध हो, लेकिन वासना वासना है। कितनी ही स्वर्ण की बनी हों जंजीरें, जंजीरें जंजीरें हैं।
कबीर कहते हैंः ‘राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय। मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।।’ वे कहते हैंः मेरी बला मांगे मुक्ति; मैं तो सिर्फ तेरे दर्शन चाहता हूं। वह मुक्ति को भी छोड़ देता है, लेकिन उस छोड़ने में ही मुक्त हो जाता है। क्योंकि एक ही मोक्ष है..जहां कोई वासना न रह जाए। वही मोक्ष है। यह वासना भी नहीं है कि मैं मुक्त हो जाऊं, सिर्फ दीदार, सिर्फ तुझे देख लूं; सिर्फ तेरा दर्शन हो जाए, एक झलक मिल जाए।
भक्त बड़े कम से संतुष्ट हो जाता है। इसलिए उसे सब मिल जाता है। योगी सबकी मांग करता है। ध्यान रखना, तुम जितने कम से संतुष्ट हो जाओगे, उतने ज्यादा को पाने के हकदार हो जाओगे। अगर तुम जैसे हो, ऐसे ही संतुष्ट हो जाओ...। मैं तो तुमसे कहता हूं कि दीदार भी मत मांगना। तुम यह भी मत कहना कि तेरी एक झलक, वह आकांक्षा भी क्यों रखनी! जो तेरी मर्जी! झलक तो झलक, न झलक तो न झलक। तो तुम उसी क्षण मुक्त हो जाओगे।
‘अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाए। गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुस्काय।।’ कबीर कहते हैंः यह कहानी है प्रेम की कि जो भी अपने शीश को रख दे ले जाए। जो भी अपने शीश को गिरा दे, उस पर बरस जाता है प्रेम का मेघ, भर जाता है हृदय का घट, बहने लगता है ऊपर से, बंटने लगता है दूसरों को। और प्रेम ऐसी मुक्ति है कि मोक्ष की भी वहां चाहना नहीं। प्रेम इतनी परम मुक्ति है कि वहां मुक्ति की भी कोई वासना नहीं रह जाती। ऐसी अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाए..कहना कठिन है इस कहानी को। कहना असंभव है। जाने सो जाने, जी ले तो जाने..अनुभव हो जाए।
इसलिए कबीर कहते हैंः ‘गूंगे केरी सरकरा’..जैसे गूंगे ने खा लिया हो गुड़ या शक्कर..‘खाइ और मुस्काय’। अब वह बैठा मुस्कुरा रहा है, स्वाद ले रहा है। तुम पूछते हो, क्या मामला है? वह गूंगा है। वह कुछ कह नहीं सकता, मुस्काता है। प्रसन्न है। ‘गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुस्काय।’ जिसने उस प्रेम के रस को पी लिया, वह मुस्काता है। वह गूंगे जैसा हो गया। कहने को कुछ सूझता नहीं है। इतने स्वाद से भर गया कि कहने वाला बचा नहीं। तुम उसकी मुस्कुराहट समझ लो तो वही इशारा है।
संतों के पास जाना। वे क्या कहते हैं, इसकी बहुत चिंता मत करना; वे क्या हैं, इसकी ही चिंता करना। उनके होने में ही इशारा है। कहने की तो वह कहानी नहीं है। ‘गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुस्काय।’
सत्संग का एक ही अर्थ है कि तुम संतों के पास बैठना। जिन्होंने उस गुड़ को चख लिया, उस मिठास को, वह स्वाद जिनको आ गया..तुम उनके पास बैठना और उनके पूरे रोएं-रोएं में, उनके जीवन में व्याप्त जो एक आनंद का भाव है, वह जो एक मुस्कुराहट है, जो एक प्रफुल्लता है, जैसे उनका रोआं-रोआं एक फूल है; उनकी सुगंध को पीना, उनके स्वाद में डूबना, उनके रंग में रंग जाना। वे क्या कहते हैं, इसकी बहुत फिक्र मत करना; वे क्या हैं..तो ही शायद तुम समझ पाओ। और समझ पाओ तो तुम्हारी गति हो सके, तुम आगे बढ़ सको।

आज इतना ही।

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