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रविवार, 26 अगस्त 2018

गूंगे केरी सरकरा-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(दुलहा दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात)

दिनांक 13-01-1975, ओशो आश्रम पूना।

सूत्र:

दुलहनी गावहु मंगलाचार,
हम घरि आए हौ राजा राम भरतार।
तन रति करि मैं मन रति करिहुेुे पंचतत बराती।
रामदेव मोरे पाहुनै आए मैं जोवन में माती।।
सरीर सरोवर वेदी करिहुं ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव संग भांवरि लैहुं धनि धनि भाग हमार।।
सुर तैतीसूं कौतिग आए मुनियर सहस अठ्यासी।
कहैं कबीर हम ब्याहि चले हैं पुरूष एक अविनासी।।

जीवन एक प्राक्कथन है, एक तैयारी है; और प्रतिपल तैयारी चल रही है। तुम्हें ज्ञात हो, न ज्ञात हो; तुम किसी विराट महोत्सव की तरफ बद रहे हो। गिरो भी, उठो भी, कभी भटक भी जाओगे, कभी राह पर वापस भी लौट आओगे; लेकिन कोई विराट नियति तुम्हें खींचे लिये जा रही है। कुछ होनेवाला है, कुछ होकर ही रहेगा!


तुम अपने आप में अधूरे इसलिए अपने को अनुभव करते हो, क्योंकि तुम एक बीज की भांति हो। बीज भी टटोलता है, रास्ता खोजता है; पृथ्वी के अंधेरे गर्भ से मार्ग खोजता है; तोडता है चट्टान को, पृथ्वी की परतों को, कंकड़-पत्थर को; पार होता है, उठता है आकाश की तरफ..ज्ञात उसे नहीं, क्यों? जबाब न दे सकेगा, अगर पूछोगे, क्या कर रहे हो, कहां जा रहे हो? लेकिन कोई भीतरी अंतप्र्रकृति उसे उठाए लिए जाती है। आकाश को छूना ही होगा। सूर्य के दर्शन करने ही होंगे! बिना उस दर्शन के फूल न खिलेंगे और जीवन में उत्सव न आएगा! उठता है, फैलाता है बांहो को आकाश में! सब तरह की चेष्टा करता है, तब फूल आते हैं। लेकिन फिर फूल आते हैं। लेकिन फिर फूल जमीन में गिर जाते हैं, फिर बीज बन जाते हैं..फिर वही दौड़ शुरू हो जाती है।
एक पुनरुक्ति है वृक्ष के जीवन में। और वैसी ही पुनरुक्ति पूरी प्रकृति में है। और मनुष्य उस जगह आ गया है जहां अगर सचेत हो जाये तो पुनरुक्ति न होगी; अगर अचेत रहा तो पुनरुक्ति होती चली जायेगी।
कुछ बातें हम समझ लें।
एकः सूरज, चांद, तारे, पृथ्वियां, यह जो अनंत विस्तार है, यह सारा विस्तार अकारण नहीं है। और यह सारा विस्तार किसी महान नियति को भीतर संजोये हुए है। जैसे छोटे-से बीज में फूल खिलते हैं, ऐसे ही इस महा विस्तार में भी परमात्मा के खिलने की संभावना छिपी है, और उसी की तैयारी चल रही है। सभी उस तरफ जा रहे हैं..पापी भी, पुण्यात्मा भी; कोई देर, कोई अबेर।
यह जाना दो तरह से हो सकता है। एक तो है: अचेतन, अनकांशस् एवालूशन, एक विकास चल रहा है। जिसका हमें कुछ होश नहीं, क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है? तुम्हें ठीक-ठीक पता है, तुम क्या कर रहे हो, क्यों कर रहे हो, कौन करवा रहा है? रुक भी नहीं सकते! क्यों कर रहे हो, इसका पता भी नहीं है। कोई नियति बांधे लिये जा रही है!
प्रकृति अचेतन विकास है; परमात्मा चेतन विकास है..कांशस एवोलूशन है; और मनुष्य दोनों के बीच बीच की कड़ी है, जहा परमात्मा प्रकृति से जुड़ा है। मनुष्य की महिमा बहुत है! तुम उसे ऐसे ही मत गंवा देना, क्योंकि तुम कड़ी हो जहां से प्रकृति परमात्मा बनती है; जहां से पदार्थ परम चेतना बनता है; जहां से रूप अरूप में प्रवेश करता है, और आकार निराकार में द्वार पाता है। तुम वह कड़ी हो! तुम्हारी महिमा अपरंपार है। लेकिन तुम्हारी महिमा अभी भविष्य के गर्भ में छिपी है।
तुम बीज हो; तुम्हे अपने फूलों का पता नहीं।
प्रकृति तो अचेतन है, अंधेरी दौड़ है, अंधी यात्रा है। मनुष्य के साथ एक नयी कड़ी शुरू होती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि मनुष्य की तरह तुम पैदा हो गये, इसलिए वह कड़ी तुम बन जाओगे। उसके लिए सचेतन चेष्टा करनी होगी। इसलिए योग है, तंत्र है, धर्म है।
धर्म, योग, तंत्र का क्या अर्थ है? ..एक ही अर्थ है कि अब मैं अंधी यात्रा नहीं करूंगा; अब मैं आंख खोल कर चलूंगा। अब मैं कहां जा रहा हूं, क्यों जा रहा हूं, इसकी सचेतन प्रक्रिया को सम्हालूंगा। श्वास भी चलेगी तो होश से चलेगी, पैर भी उठेंगे तो होश से उठेंगे। अब मैं अंधी प्रकृति की दौड़ के बाहर छलांग लेता हूं, क्योंकि वह दौड़ तो वापस वहीं लौट आती है।
बीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष बीज बन जाता है। तुम जन्मते हो, मरते हो, फिर पैदा हो जाते हो। एक वर्तुलाकार स्थिति है। संसार का चक्र है, वह घूमता चला जाता है। तुम उसमें से कहीं भी पहंुचते हुए मालूम नहीं पड़ते।
मनुष्य को जागना पड़े! और यात्रा को सचेतन करना पड़े! मनुष्य तक तो प्रकृति ले आती है; अब तुम्हें स्वयं को ले जाना पड़ेगा। यह बड़ा दायित्व है और इसी से चिंता पैदा होती है। इसलिए मनुष्य चिंतित है। प्रकृति में और कोई चिंतित नहीं है। पशु-पक्षी चिंतित नहीं; पौधे चिंतित नहीं; पत्थर, झरने चिंतित नहीं। चिंता का कोई कारण नहीं है; जो भी हो रहा है, अचेतन है।
मनुष्य चिंतित है, क्योंकि मनुष्य को साफ दिखाई पड़ रहा है कि जो भी हो रहा है, वह काफी नहीं है; जो भी मै हूं, वह काफी नहीं हूं, कहीं कुछ कम है। वह कमी सालती है, चुभती है कांटे की तरह, और जीवन भर सताती है, और सतायेगी जब तक कि तुम सचेतन न हो जाओ। हो गई यात्रा प्रकृति की, जहां तक प्रकृति ला सकती थी तुम्हें ले आयी। यह भी बड़ी लंबी यात्रा थी, यह भी कोई छोटी घटना न थी। कितना-कितना समय बीता!
वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर पृथ्वी की उम्र को चोबीस घंटा मान लें, अगर चैबीस घंटे का माप रख लें कि प्रकृति की पूरी उम्र चैबीस घंटे, तो आदमी को आये हुए अभी केवल दो सेकेंड हुए हैं..केवल दो सेकेंड! आदमी बहुत पुराना नहीं है। प्रकृति बड़ी पुरानी है। चैबीस घंटे की यात्रा के बाद बस दो सेकेंड हुए हैं कि मनुष्य की चेतना जन्मी है। प्रकृति की यह ऊंची-से-ऊंची घटना है, जहां तक वह ला सकती है, जहां तक अंधेरे में यात्रा हो सकती है। वह पड़ाव आ गया! अब या तो तुम यहां से वापस प्रकृति में गिर के पुनरुक्ति करते रहोगे, जैसा कि साधारणतः आदमी करता है..वह सांसारिक आदमी है।
संसार का अर्थ है चक्र, और जो चक्र की तरह ही जीता है वह सांसारिक। उठता है सुबह, वही करता है जो कल किया था।
दोपहर वैसा ही जीता है जैसा कल भी जीया था, परसों भी जीया था। सांझ, रात घड़ी के साथ खुद भी दुहरता है, और ऐसे ही दुहर-दुहर के एक दिन समाप्त हो जाता है। फिर बीज बन कर गिर जाता है। फिर नया गर्भ, फिर वहीं अंधी दौड़!
इसलिए तो हिंदू, जो कि इस पृथ्वी पर पुराने-से-पुराने सचेतन लोग हैं, जिन्होंने धर्म की उ˜ावना सर्वप्रथम की, उनकी एक ही आकांक्षा है, उनकी एक ही प्रार्थना है, उनके हृदय में एक ही स्वर रहा है, और वह यह कि आवागमन से कैसे छुटकारा हो जाये, कैसे यह आना-जाना बंद हो, कैसे इस चक्र की परिधि के बाहर हम छलांग लगा पायें, कैसे हम कूदें और सचेतन हो जायें, बाहर हो जायें। बहुत हो चुकी अंधी दौड़, बीज और वृक्ष बहुत बार हो लिये, अब वही-वही सारहीन मालूम पड़ता है। पर अब एक तनाव पैदा होता है, एक चिंता पैदा होती है।
धार्मिक आदमी जितना चिंतित होता है, उतना अधार्मिक आदमी नहीं। अधार्मिक आदमी की कोई चिंता ही क्या है! इसलिए तुम अक्सर उसे पाओगे हंसते हुए एक क्लब में, होटल में, बाजार में, क्षुद्र के साथ प्रसन्न पाओगे। अधार्मिक आदमी की कोई चिंंता ही नहीं है। क्या चिंता है? चिंतायें भी हैं तो छोटी हैं जो कि पूरी हो सकती हैं। धन कम हो, ज्यादा हो सकता है; प्रतिष्ठा कम हो, कमाई जा सकती है; मकान छोटा हो, बड़ा बनाया जा सकता है। ये कोई बहुत बड़े मामले नहीं हैं जो हल न हो जाएं। इसलिए अधार्मिक
आदमी बहुत चिंतित नहीं होता। तुम अधार्मिक आदमी को हंसते हुए पाओगे। उससे धोखे में मत पड़ना।
धार्मिक आदमी की जिंदगी में बड़ी चिंता पैदा होती है..बड़ी गहन एंगजाइटी! उसी से शुरूआत है। और चिंता क्या है? चिंता यह है कि कब तक चलेगी यह पुनरुक्ति? कब तक दुहराता रहूंगा अपने-आप को? कब बाहर निकलूंगा? यह बहुत हो चुका जितना हुआ! ऐसे भी ज्यादा देर हो गई है! कब मैं सचेतन बनूंगा? कब मुझे होश आयेगा?
तो धार्मिक आदमी का प्रथम चरण तो बड़ी चिंता से भरा हुआ है, अंत निशिं्चतता का है। लेकिन अंत तो दूर है..यात्रा करनी पड़ेगी। चिंता और निशिं्चतता के बीच में धार्मिक आदमी को बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। बडी तपश्चर्या है!
इस बात को अपने मन में बहुत सम्हाल के रख लो कि जहां तक प्रकृति तुम्हें ला सकती थी, अचेतन..विकास की प्रक्रिया ले आई। उसका काम पूरा हो गया। अब तुम्हें कुछ करना है। जैसे बाप बेटे का हाथ पकड़ कर थोड़े दिन चला देता है; कब तक चलायेगा? एक घड़ी आती है जब बाप कहता है, अब अपने पैरों पर सम्हालो; अब तुम हुए योग्य, अब तुम प्रौद हुए, अब तुम जाओ, अब अपनी यात्रा करो, अब अपना दायित्व लो, अपनी चिंता उठाओ। क्योंकि चिंता की चुनौती में ही तो प्रौदता आयेगी, बदेगी। जितना ही सम्हालोगे अपने को उतना ही सम्हालने की कला आयेगी।
प्रकृति ले आई तुम्हें यहां तक, जहां तुम आदमी हो गये हो; जहां तुम सोच सकते हो, विचार सकते हो; जहां तुम चिंतित हो सकते हो; और जहां तुम चुनाव कर सकते हो उस मार्ग का जो चिंता के बाहर ले जायेगा। बस, प्रकृति का काम पूरा हो गया। अब अगर तुमने अपने हाथ में बागडोर न ली, अगर तुम साधक न बने... साधक का यही अर्थ है कि जिसने बागडोर अपने हाथ में ले ली; अब बच्चे ने पिता से कहा कि बहुत हुआ, धन्यवाद! अनुग्रह! अब मैं अपने पैर पर खड़ा हो जाऊंगा!
जिस क्षण तुमने यह कहा प्रकृति से कि अब मैं अपने पैर पर खड़ा होना चाहता हूं, उसी क्षण तुम बालिग हुए, उसी क्षण पहली
दफा प्रौदता आई। लेकिन अब बड़ी चिंतायें आयेंगी, क्योंकि दायित्व भी सिर पर आ गया, और अब साधना शुरू होगी।
साधना का अर्थ है: विकास की तरफ सचेतन रूप से गति, साफ-साफ यात्रा। ऐसे कहीं भी नहीं भागते रहना, दौड़ना; सारी शक्ति को नियोजित कर देना है..एक गंतव्य की ओर। इसलिए मैं कहता हूं कि मनुष्य का सारा जीवन, जब तक कि उसकी आंखें परमात्मा की तरफ न उठें, एक प्राक्कथन है, एक इंट्रोेडक्शन, एक भूमिका है; असली कहानी अभी शुरू नहीं हुई।
ऐसा समझो जैसे कि कोई शास्त्रीय संगीतज्ञ ठोक रहा है अपने तंबूरे को, साज बिठा रहा है; अभी संगीत शुरू नहीं हुआ, अभी सिर्फ साज बिठाया जा रहा है। कभी-कभी घड़ी लग जाती है, श्रोता ऊब जाते हैं कि अब यह क्या हो रहा है? यह कब तक खटर-पटर, ठोक-पीट चलती रहेगी? लेकिन शास्त्रीय संगीतज्ञ जब तक साज न बिठा ले तब तक शुरू न करेगा।
अब तक तो तुम केवल साज की तरह बिठाये गये हो! मनुष्य तक आते-आते प्रकृति ने तुम्हें तैयार किया है। अब तुम तैयार हो। अब वह महागीत तुम से गाया जा सकता हैं! वह महाध्वनि तुम में उतर सकती है। वह ओंकार अब तुम्हारे जीवन को पुलकित कर सकता है। लेकिन सिर्फ साज सज गया हो, इतने से ही संगीत नहीं उतर आयेगा। और अगर तुमने यह समझा हो कि साज सजाने पर ही संगीत पूरा हो गया, तब तो बात ही समाप्त हो गई।
अगर शास्त्रीय संगीतज्ञ यह समजता हो कि ठोक-पीट के जब बाजे ठीक कर लिये, बस काम पूरा हो गया, तो एक अधूरापन रहेगा। वैसा ही अधूरापन तुम्हारे जीवन में मैं देखता हूं। धन कमा लिया, मकान बना लिया, पत्नी है, बच्चे हैं, साज सब बैठ गया..अब? अब पाते हो, एकदम सब खाली है। अब पाते हो जैसे एक शून्यता ने पकड़ लिया। अब तक तो कुछ काम भी था, दौड़धूप थी, यह करना है, वह करना है; जरूरतें थीं, वे सब पूरी हो गई..अब? ‘अब’ एक खाई की तरह सामने खड़ा है। नहीं, यह केवल प्राक्कथन था; अभी जीवन शुरू न हुआ था; अभी तो केवल तैयारी की थी। अभी यात्रा पर निकले न थे; अभी तो साज-सामान बांधा था। सब सम्हाल के रख दिया था..पेटी, बिस्तर, पाथेय, रास्ते की सब तैयारियां कर ली थीं; अभी यात्रा पर निकले न थे। मनुष्य वहां है!
अगर तुम मनुष्य के चित्र को ठीक से समझना चाहो, जैसे किसी ने जाने की तैयारी कर ली हो तीर्थयात्रा की, पेटियां बंधी रखी हैं, बिस्तर बंधा रखा है, भोजन तैयार है और वह आदमी बैठा है; और अब वह भूल गया कि कहां जाना है, किसलिए यह तैयारी है..ऐसी तुम्हारी दशा है।
तैयारी सब पूरी हो गई..तुम मनुष्य हो! तुम अब छलांग ले सकते हो तीर्थ में! अब तुम परमात्मा में उतर सकते हो। अब कुछ भी तुम में कमी नहीं है। साज बिल्कुल तैयार है, सिर्फ छेड़ने की बात है, और ध्वनि उठनी शुरू हो जायेगी! इसे कबीर बरात कहते हैं..इस तैयारी को देखकर, यह जो अब तक चली। लेकिन बरात सब कुछ नहीं है, बरात अंत नहीं है; बरात तो प्राक्कथन है।
इसलिए कबीर कहते हैं: ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। दुलहा दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।।’ अब तक जो यह सब चलता रहा है, जैसे ही घटना घटेगी, सब फीका हो जायेगा। तैयारी का क्या मूल्य है फिर? लेकिन तुम तैयार हुए बैठे हो। और तुम्हें कुछ होश नहीं कि कहां जाने के लिए तैयार हुए थे; क्यों तैयार हुए थे; किसने पुकारा था; कौन-सी आवाज आ गई थी अज्ञात से जिसके कारण तुम इतने बेचैन थे? इतनी तैयारी की, अब तैयारी पूरी हो गई है; और अब जाने से तुम डरते होे! तुम ऐसे आदमी हो जो फिर से अपना साज-सामान खोल लेगा, ताकि फिर बांध सके..क्योंकि खोलने और बांधने में काम लगा रहता है, व्यस्तता बनी रहती है। तुम बार-बार साज-सामान जुटाते हो!
कितनी बार तुम मनुष्य नहीं हो चुके हो! इस हालत में तुम बहुत बार आ चुके हो, लेकिन हर बार जब सब तैयारी हो जाती है, तब तुम पाते हो कि अब क्या करना है? फिर से तुम खोल कर सामान रख देते हो, अपनी-अपनी जगह जमा देते हो ताकि फिर से तैयारी की जा सके। तैयारी, तैयारी, तैयारी; बरात, बरात, बरात..मिलन कब होगा? जब तक तुम साधक न बनोगे, यात्रा शुरू न होगी। और यात्रा शुरू हो गई तो आधी हो गई। प्रारंभ आधा हो जाना है। एक बार प्रारंभ हो जाये तो अंत बहुत दूर नहीं है।
साधक और सिद्ध के बीच इतना फासला नहीं है, जितना गैर-साधक और साधक के बीच है। घर से निकल ही पड़े तो तीर्थ कितनी दूर हो, पहुंच जायेंगे। कठिनाई तो घर से निकलने की है। कठिनाई सदा पहला कदम उठाने की है।
लाओत्से ने कहा है: एक कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। दो कदम की जरूरत भी किसे है? एक बार में एक ही कदम उठता है। एक-एक कदम उठाते-उठाते हजारो मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन एक कदम उठाना आ जाये! मनुष्य के साथ एक नये तत्त्व का सूत्रपात होता है, मनुष्य के साथ परमात्मा एक नया कदम लेता है।
प्रकृति है अचेतन विकास, परमात्मा है सचेतन विकास, मनुष्य है मध्य की कड़ी, और तुम्हारे हाथ में है। तुम जैसे द्वार पर खड़े हो, ड्योदी पर खड़े हो..पीछे पूरी प्रकृति है, आगे परमात्मा है! तुम द्वार के मध्य में खड़े हो। तुम अगर जरा ही आलस्य करो तो तुम पीछे हट जाओगे। क्योंकि एक बात ख्याल रखना, जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है। अगर तुम आगे न बदे तो पीछे हटना पड़ेगा। रुकना यहां होता ही नहीं। कोई रुकना चाहे तो रुक नहीं सकता। रुकना असंभव है! चलना ही होगा!
जीवन गति है। अगर आगे न गये, पीछे फेंक दिये जाओगे। अगर ऊपर न उठे, नीचे गिरा दिये जाओगे। यह मत सोचना की जहां हैं कम-से-कम वहीं बने रहेंगे। ऐसी कोई घटना होती नहीं। कोई भी वहां नहीं हो सकता जहां है। अगर तुम वहां भी रहना चाहो जहां हो, तो भी आगे बदने की कोशिश करते रहना। अगर अपनी ही जगह खड़े रहना हो तो भी आगे बदने की सतत चेष्टा जारी रखनी जरूरी है। तो अपनी ही जगह पर दौड़ते रहना है..जागिंग; मगर रुकना मत। रुके कि प्रवाह तुम्हें नीचे ले जायेगा।
तुमने कभी तीव्र नदी की धार में खड़े होकर देखा है? ..कि अगर तुम्हें अपनी ही जगह पर खड़े रहना हो तो भी संघर्ष करना पड़ता है; तो भी तुम्हें धार से लड़ना पड़ता है। अपनी ही जगह खड़ा रहना हो तो भी, क्योंकि रेत भागी जा रही है, धार बही जा रही है। अगर तुम सिर्फ खड़े रहे तो नदी तुम्हें ले जायेगी। रुकने पर भरोसा मत करना; रुकना होता ही नहीं अस्तित्व में। अस्तित्व तो सतत प्रक्रिया है, गति है, गत्यात्मकता है। एक-एक क्षण या तो तुम आगे जा रहे हो या पीछे जा रहे हो। यह भरोसा मत करना कि कम-से-कम वहीं खड़े हैं। ऐसा होता ही नहीं। ड्योदी पर खड़े हो, अगर पीछे देखते रहे तो प्रकृति तुम्हें खींच लेगी।
अतीत को भूलना जरूरी है। बरातियों के साथ कब तक बने रहोगे? माना कि दूल्हा बरात में होता है, लेकिन बरात के आगे होता है, घोड़े पर सवार होता है, बरात से अलग होता है। माना कि बरात दूल्हे की है; लेकिन दूल्हा बरात का हिस्सा नहीं है। दूल्हा बराती नहीं है; दूल्हा पृथक है। बरात दूल्हे के साथ आई है; दूल्हा बरात के साथ नहीं आया है। दूल्हे को आगे जाना है। बरात का काम तो पूरा हो जायेगा, जैसे ही दूल्हा आगे गया! बरात की यात्रा तो दूल्हा और दुल्हन के मिलने पर पूरी हो जायेगी; दूल्हे की यात्रा शुरू होगी।
यह प्रकृति तुम्हें इस द्वार तक ले आई..वह बरात है; उसकी यात्रा पूरी हो गई। तुम लौट कर धन्यवाद दे दो। दूर तक उसने साथ दिया। काफी दूर तुम्हें ले आई। तुम्हें वहां तक ले आई जहां तुम अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ हो सको। बरातियों को धन्यवाद दे दो। इतने दूर आये, यह भी क्या कम है! यहां तक ले आये, यह भी अनुग्रह है। लेकिन तुम्हारी यात्रा वहीं शुरू होती है जहां बरात की यात्रा पूरी होती है।
‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। दुलहा-दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।।’
उसी संदर्भ में कबीर का यह दूसरा गीत है। इसे समझने की कोशिश करें।
‘दुलहनी गावहु मंगलाचार, हम घरि आए हौ राजा राम भरतार।’ यह वहां से शुरू होता है जहां बरात फीकी पड़ गई।
कबीर कहते हैं: सौभाग्यवती नारियो! गाओ, विवाह के मंगल गीत गाओ, क्योंकि आज मेरे घर राम पधारे हैं। मेरे प्रीतम आये हैं!
‘गावहु मंगलाचार, हम घरि आए हौ राजा राम भरतार।’ मेरे प्राणों के सम्राट! राजा! मेरे प्रीतम! राम का आना हुआ है! स्वागत में मंगल के गीत गाओ!
‘तन रति करि मंौ मन रति करिहुं, पंचतत बराती। रामदेव मोरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।’
कबीर कहते हैं: तन को चदा दूंगा, मन को चदा दूंगा। तन से प्रेम करूंगा, मन से प्रेम करूंगा। ये जो पांच तत्त्वों के बराती हैं, ये जो पांच महातत्त्व हैं जिनसे शरीर बना है, ये सब चदा दूंगा; जो भी मेरे पास है सब चदा दूंगा।
शरीर से प्रेम, मन से प्रेम..पद कर ख्याल आना स्वाभाविक है कि कबीर आत्मा से प्रेम क्यों नहीं कहते? समझना जरूरी है। कबीर कहते हैं: तन से करूंगा प्रेम, मन से करूंगा प्रेम। ये जो पंचतत्त्व बराती हैं, ये जो महातत्त्व अब तक मुझे ले आये, इन सब को वार दूंगा तुम्हारे ऊपर, तुम्हारे चरणों में रख दूंगा।’ वे आत्मा की बात नहीं कहते हैं।
तुम तो जब किसी के प्रेम में पड़ते हो तो तुम कहते हो, आत्मा से प्रेम करुंगा..आत्मिक प्रेम! और कबीर केवल शरीर और मन की बात करते हैं। कारण है और कारण यह है कि आत्मा तो राम ही है। वहां तो कोई भेद नहीं है। भेद तो शरीर और मन तक ही है। जहां तक भेद है वहां तक चदाया जा सकता है। जहां भेद नहीं है, वहां कैसे चदाओगे? आत्मा में तो प्रेमी और प्रेयसी एक है। वहां तो राम में और राम के भक्त में रत्ती भर भी फासला नहीं है। वहां कौन करेगा प्रेम और किसको करेगा प्रेम?
तो कबीर कहते हैं: ‘जो भी मेरे पास है, वह सब चदा देता हूं। अब मेरे प्रीतम आ गये..जिनकी प्रतीक्षा थी; जिनके लिए तैयारी थी; जिनके लिए इतनी लंबी यात्रा और बरात थी! जन्मों-जन्मों की खोज पूरी हुई! दर्शन हुए उस तत्त्व के जिसके लिए सारी तड़पन थी। अब मैं सब चदाने को तैयार हूं।’’
‘तन रति करि मैं मन रति करहुं, पंचतत बराती। रामदेव मोरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।।’ और मेरे प्रीतम मेरे द्वार आये, मेरे पाहुने हुए है और मैं यौवन में मदमत्त हूं।
एक तो यौवन है जो शरीर से आता है, वह भी मदमत्त कर देता है। युवा व्यक्ति की बात ही और होती है। बुदापा तो ऐसे है जैसे बाद आयी थी नदी में और जा चुकी। कभी देखी नदी बाद के बाद? सब सूख-सूख गया, धारा जगह-जगह खंडित हो गयी, टूट गयी, रेत-ही-रेत का फैलाव दिखाई पड़ता है और जा चुकी नदी अपने बहाव में, कूडा-कर्कट, न मालूम क्या-क्या किनारे पर छोड़ गयी। सब उजाड़ लगता है। जैसे कोई घटना घटी थी और अब सब अभाव हो गया।
 देखी है वर्षा में बाद आई नदी? तब उसकी चाल में एक मस्ती होती है..जैसे शराब पिये हो, जैसे पैर जहां रखना चाहती हो वहां न पड़ते हों। बाद में आयी नदी मदमस्त है, युवा है। ठीक वैसे ही शरीर का यौवन है। जब शरीर की सारी शक्तियां बाद में होती हैं, तब ईश्वर पर भरोसा नहीं आता; तब अपने पर ही भरोसा बहुत मालूम होता है; तब दुनिया में किसी की चिंता करने का ख्याल नहीं उठता; तब शक्ति की मदमत्तता इतनी होती है कि झुकने का सवाल नहीं, समर्पण का सवाल नहीं; तब आदमी पागला होता है, जवानी में अंधा होता है। वह क्षंय है, क्योंकि अपने बस के बाहर है, बाद से घिरा है।
शरीर का एक यौवन है, लेकिन आता है और चला जाता है। शरीर का यौवन वैसे है जैसे पहाड़ी नदियों में पानी का आना और जाना रुकता नहीं..इधर आया, उधर गया। होगा भी ऐसा, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है; उसकी ऊर्जा ज्यादा देर नहीं टिक सकती। यही चमत्कार है कि शरीर कुछ दिन के लिए जवान हो जाता है। यह रहस्यों का रहस्य है कि कभी-कभी बाद का जल भर जाता है; उतरेगा ही। शरीर के तल पर आई हुई बाद तो उतरेगी। शरीर के तल पर आई हुई रोशनी अंधेरा बनेगी। शरीर के तल पर बजा हुआ संगीत जल्दी ही शोरगुल हो जायेगा। शरीर के तल पर दिखा हुआ सौंदर्य जल्दी ही सपना बन जायेगा। शरीर में मिली थी जो झलक सरोवर की, ज्यादा देर न लगेगी, वह मरूद्यान का धोखा, भ्रांति हुई थी; नशे में कुछ देख लिया था जो था नहीं।
इसलिए तो बुदापा इतना उदास है! कुछ था जो खो गया! जैसे सपने में रात तुमने देखा हो कि तुम सम्राट हो गये, बड़े महल हैं स्वर्ण के, बड़े दूर-दूर तक तुम्हारे राज्य की सीमाएं हैं और अचानक नींद खुल गई, सपना टूट गया! भरोसा नहीं आता अपनी दयनीय दशा पर जो अब है! अभी क्षण भर पहले इतना महान सपना था..सम्राट थे, स्वर्ण के महल थे, हजारों सेवक थे; सब खो गया!
बुदापा चैंका-चैंका रहता है। उसे समझ में नहीं आता कि क्या हो गया! कहां गई वह ऊर्जा? कहां गये वे मदमत्त चरण? कहां गया वह भरोसा? कहां गया वह अहंकार? झुक गई सारी जीवन-उर्जा! सब तरफ खोखलापन मालूम पड़ता है, क्योंकि बूदा भीतर खोखला हो गया है; अस्थिपंजर शेष रह गया है। जल्दी ही विदा का क्षण आ जायेगा। बस मौत की प्रतीक्षा है। ‘क्यू’ में खड़ा है।
एक तो जवानी है शरीर की, जो आती है और चली जाती है। जिसने उस पर भरोसा किया, वह धोखा खाएगा; क्योंकि उस पर भरोसा करो या न करो, उसका जाना निश्चित है। जितनी देर भरोसा करोगे, उतनी देर धोखे में रहोगे और जब टूट जायेगा धोखा तो विषाद से भर जाओगे।
जवानी जवानी में ही नहीं सताती, बुदापे में भी सताती है; जवानी में होने के कारण सताती है, बुदापे में न होने के कारण सताती है। रह-रह के मन, लौट-लौट के वहीं जाता है।
एक और भी जवानी है जिसकी कबीर बात कर रहे हैं। एक और यौवन है जो आत्मा का है। एक और यौवन है जो परम सत्ता का है..वह शाश्वत है। वहां बाद चदती है और उतरती नहीं। वहां जो है, ठीक वैसा ही सदा है। वहां परिवर्तन नहीं, वहां शाश्वतता है। उसकी मस्ती अलग है! और मस्ती इतनी अलग है कि तुम अपनी मस्ती से उसके संबंध में कुछ भी सोचोगे तो गलत होगा। अलग ही नहीं, विपरीत है। भिन्न ही नहीं, बिल्कुल विरोधी है।
शरीर के साथ जवानी की जो मदमत्ता है, जो बेहोशी है, वह ठीक शराब जैसी है; वह बेहोशी की मदमत्तता है..जब तुम होश में नहीं हो। आत्मा की जो जवानी है, आत्मा का जो यौवन है, उसकी जो मदमत्तता है, वह होश की मदमत्तता है। तुम इतने होश से भरे हो, इसलिए आनंदित हो। वह शराब होश की शराब है..अगर ऐसी कोई शराब हो सके।
 एक मस्ती बुद्ध की है, महावीर की है; एक मस्ती नेपोलियन और सिकंदर की भी है। पर नेपोलियन और सिकंदर की मस्ती जल्दी ही उतर जायेगी। बुद्ध और महावीर की मस्ती रहेगी सदा और सदा। क्योंकि मस्ती अगर शरीर पर निर्भर है; शरीर ही नहीं टिकता, मस्ती कैसी टिकेगी? आधार ही बिखर जाता है, भवन कैसे बचेगा?
कबीर कहते हैं: ‘रामदेव मोरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।’ मै मदमस्त हूं। एक नया यौवन जैसे मेरे भीतर आ गया, क्योंकि रामदेव मेरे द्वार आये।
 जब परमात्मा से आत्मा का मिलन होता है, तब एक मस्ती जो होश की है, जागृति की है; एक आनंद जो पूरी तरह डुबा देता है, फिर भी डुबा नहीं पाता; भीतर होश का दीया जलता ही रहता है!
‘रामदेव मेरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।’
‘सरीर सरोवर वेदी करहुं, ब्रह्मा वेद उचार। रामदेव संग भांवरि लैहुं, धनि धनि भाग हमार।।’
इस मस्ती की थोड़ी-सी झलक तुम्हारी चेतना में उतर जाये, थोड़ा-सा स्वाद, तो ही तुम समझ पाओगे। जब तुम कभी शांत पाओ अपने को..कभी-कभी पाते हो, क्योंकि इतना अशांत तो कोई भी नहीं हो सकता कि कभी-कभी क्षण भर को शांति की झलक न आती हो, क्योंकि इतना अशांत अगर तुम हो जाओ कि क्षण भर भी शांति न उतरती हो तो तुम जी ही न सकोगे; शांति के क्षणों में ही तो तुम्हारी जड़ों को रस मिलता है..जब कभी तुम थोडे शांत होओ, थोड़े प्रफुल्लित होओ, तो आंख बंद करना, और सिर्फ भीतर देखना। कुछ करना मत। कोई चेष्टा नहीं, सिर्फ भीतर देखना। उस शांति के क्षण में तुम्हारे अस्तित्व में और परमात्मा के अस्तित्व में थोड़ी देर को तालमेल होता है, इसीलिए तुम शांत हो।
जब भी तुम परमात्मा के साथ हो, तब शांत हो; या जब भी तुम शांत हो तब समझना कि परमात्मा पास है। इसे सूत्र की तरह गांठ बांध लो, इसे कसौटी बना लो। क्योंकि उसके और तुम्हारे बीच जब साज बैठ जाता है, तभी शांति अनुभव होती है। उसके और तुम्हारे बीच जब किसी तरह की कोई कलह नहीं रह जाती तभी शांति अनुभव होती है।
अमरीका का एक बहुत अनूठा विचारक हुआ..हेनरी थारो। जब वह मरने लगा तो उसकी एक बूदी चाची जो बहुत धार्मिक थी, और उसे हमेशा से शक था कि यह हेनरी थारो धार्मिक नहीं है, क्योंकि न तो कभी मंदिर गया, न कभी इसके हाथ में बाइबल
देखी, न कभी परमात्मा का शब्द इसके मुंह से सुना गया। तो वह चाची दयावश आई और उसने हेनरी थारो से कहा कि परमात्मा और तुम्हारे बीच तुमने कलह निपटा ली न? हैव यू मेड पीस बिटविन यू एंड योर गॉड! क्या तुमने शांति बना ली अपने और परमात्मा के बीच?
हेनरी थारो मर रहा था। उसने आंखे खोली और उसने कहा: आई डोंट नो दैट वी ऐवर क्वैरल्ड। मुझे पता ही नहीं कि हमारे बीच कभी कोई झगड़ा हुआ। शांति कैसी?
और हेनरी थारो ऐसा आदमी था कि झगड़ा नहीं हुआ। मंदिर नहीं गया, जरूरत न थी। झगड़ा ही न हो तो अदालत जाने की जरूरत क्या है? कभी नाम नहीं लिया परमात्मा का, जरूरत ही न थी; क्योंकि अहर्निश उसकी ही धुन बज रही थी।
हेनरी थारो मनुष्य-जाति के थोड़े-से बड़े अप्रतिम फूलों में से एक है। शांत रहा ही, कोई झगड़ा ही नहीं हुआ तो प्रार्थना कैसी करनी? पूजा किसकी करनी? अर्चना किसकी करनी?
जब भी तुम शांत होते हो तब तुम्हारे और परमात्मा के बीच कलह टल गई, अन्यथा तुम चैबीस घंटे संघर्ष में हो। जितने तुम संघर्ष में हो, उतने ही तुम बेचैन रहोगे। क्योंकि कोई भी वृक्ष पृथ्वी से लड़ कर कैसे शांत हो सकता है? जड़े तो पृथ्वी मे हैं; तुम पृथ्वी से लड़ रहे हो, अपनी ही जड़ो से लड़ रहे हो? अशांति स्वाभाविक है। बेचैनी रहेगी ही। तुम विक्षिप्त होओगे ही। वृक्ष पागल हो जायेंगे, अगर जमीन से लड़ेंगे, क्योंकि जमीन तो गर्भ है, और जैसे वृक्षों की जड़े जमीन में हैं, वैसे ही तुम्हारी जड़े परमात्मा में हैं। तुम परमात्मा से लड़ोगे?
चैबीस घंटे तुम लड़ रहे हो। परमात्मा कुछ चाहता है, तुम कुछ और चाहते हो। तुम उससे राजी नहीं हो। तुम्हारी सभी प्रार्थनाओं का सार ही यही है की हमारी सुन, हमारी वासना पूरी कर! तुम्हारी सारी प्रार्थनाओं का एक ही निचोड़ है कि तू जो कर रहा है, गलत है। तुम्हारी प्रार्थनाएं परमात्मा को दी गई तुम्हारी सलाह है कि मेरा लड़का बीमार है, इसको ठीक कर। अगर वही बीमार कर रहा है तो तुम कौन हो बीच में ठीक करने की प्रार्थना करने वाले? ‘मै गरीब हूं, धन दे।’ अगर वही देने वाला है तो तुमसे ज्यादा समझदार है। तुम प्रार्थना किससे कर रहे हो?
अगर मनुष्यों की प्रार्थनाओं को गौर से सुनो..जैसा कि मैं सुनता रहा हूं..तो मैंने एक ही सार पाया कि सभी परमात्मा से यह कह रहे हैं कि तू हमारी मान, हम तेरी मानने को राजी नहीं हैं।
तुम्हारी प्रार्थनाओं में भी तुम्हारी कलह है, संघर्ष है। तुम और भी सब कोशिशें कर रहे हो अपनी वासना सिद्ध करने की, और जब वह कोशिशें हार जाती हैं, तब तुम प्रार्थना भी करते हो। लेकिन तुम्हारी कोशिश वही है कि तुम जीत जाओ। परमात्मा को हराने में लगे हो। तुम कैसे उसे हरा पाओगे। तुम उसे हराने में ही हार जाओगे। वह तुम्हारा आधार है। वह तुम्हारा अस्तित्व है। वह तुम्हारी श्वांस है, तुम्हारा प्राण है।
जैसे ही वह तुम्हारे द्वार आता है सब शांत हो जाता है। एक नई मस्ती भर जाती है रोएं-रोएं में, आत्मा के रोएं-रोएं में, धड़कन-धड़कन में। उस मस्ती की खूबी यह है कि शराब जैसी तो मस्त है वह, उतनी ही मस्त, उससे हजारों गुणा ज्यादा मस्त और बेहोशी उसमें शराब की बिल्कुल नहीं है। सूफी इसीलिए तो शराब के गीत गाते हंै।
 पश्चिम में उमरखय्याम के गीतों के अनुवाद हुए, वे समझे नहीं गये। क्योंकि फिट्जराल्ड ने, जिसने अनुवाद किया और बड़ा प्यारा अनुवाद किया, वह कोई सूफी संत न था। वह शराब का मतलब शराब समझा; साकी का मतलब साकी समझा; मधुशाला का मतलब मधुशाला समझा। उसने शब्दकोश से रूबाईयात को पद लिया।
यह उमरखय्याम सूफी फकीर है। यह जब शराब की बात करता है तो यह उस शराब की बात कर रहा है जिसकी कबीर बात कर रहे हैं: ‘रामदेव मोरे पाहुनै आए, मै जोवन में माती।’ मैं परम यौवन से भर गया हूं और परम उन्मत्तता, परम मस्ती मुझ में छा गई है! उमरखय्याम भी इसी की बात कर रहा है। वह मधुशाला मंदिर की है। और वह साकी कोई और नहीं, गुरु है। और वह शराब कोई और नहीं, परमात्मा की है।
फिट्जराल्ड के साथ बड़ी भूल हो गयी। उसने उमरखय्याम के गीतों का अनुवाद वैसा कर दिया जैसे वे थे और पश्चिम में समझा गया कि वह कोई शराबी है, शराब की प्रशंसा में गीत गाये हैं। फिर फिट्जराल्ड के अनुवाद के सारी दुनिया में अनुवाद हुए, और जगह-जगह फिट्जराल्ड की वजह से उमरखय्याम की मधुशाला प्रसिद्ध हो गई। लेकिन बड़ी चूक हो गई। होनी ही थी, क्योंकि ज्ञानी को समझना हो तो ज्ञानी होना जरूरी है। पागल को समझना हो तो पागल होना जरूरी है। बुद्धों को समझना हो तो बुद्ध होना जरूरी है। गूंगे की सैन गूंगे को ही समझ में आ सकती है। चूक गया फिट्जराल्ड। उमरखय्याम अगर लौट आये तो फिट्जराल्ड पर जितना नाराज होगा उतना किसी पर नहीं, क्योंकि उसने ही उसका नाम जगत में ख्यात किया, लेकिन बड़े गलत दंग से ख्यात हो गया।
‘रामदेव मोरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।’
जब भी तुम थोड़े शांत होओ, प्रसन्न होओ, उस क्षण को खोना मत, क्योंकि उसका मतलब है कि वह परम मेहमान कहीं आसपास है, तभी तो तुम अचानक प्रसन्न अनुभव कर रहे हो। उस प्रसन्नता के क्षण में आंख बंद कर लेना। उस प्रसन्नता के क्षण को ध्यान बनाना।
अक्सर उलटा होता है। जब भी तुम दुखी होते हो तब तुम ध्यान करने बैठते हो। तब परमात्मा और तुम्हारे बीच बड़ा फासला है, इसीलिए तो तुम दुखी हो। और जब फासला ज्यादा है तब तुम कैसे पुकारोगे? कैसे जानोगे? कैसे पहचानोगे?
लोग दुख में तो याद करते हैं, सुख में भूल जाते हैं; और सुख की ही घड़ी में वह करीब है।
सुख का मतलब नहीं है कि तुमने कोई बड़ा मकान बना लिया है; जरूरी नहीं उससे तुम सुखी होओ। सुख का यह मतलब नहीं कि तुम्हें लॉटरी मिल गई है; उससे कोई जरूरी नहीं कि तुम सुखी होओ। उससे तो बेचैनी भी बद सकती है; अक्सर तो बेचैनी ही
बदती है। सुख के क्षण का अर्थ है, जब तुम ऐसे प्रफुल्लित होओ कि तुम कह सकते हो, जो है ठीक है। सुख की परिभाषा है, जब तुम्हारा मन कहता है, जो है ठीक है। तुम उसमें कोई भी सुधार नहीं करना चाहते; जो है ठीक है। ऐसे ठीक की धुन तुम्हारे भीतर बज रही है..तुम राजी हो! एक तथाता का भाव है कि सब सुखद है, जैसा है। तुम्हारे भीतर एक सुर बज रहा है शांति का! उस क्षण को तुम प्रार्थना, ध्यान, पूजा बनाना। किसी और मंदिर में जाने की जरूरत नहीं; तुम्हीं मंदिर हो, वहीं छिपा बैठा है तुम्हारा प्रभु।
प्रियतमा में प्रीतम छिपा है। राह पर मंजिल बिछी है। खोजनेवाला अपने को ही खोज रहा है। आंख बंद कर लेना; और भी शांत होने का, और भी शांति में डूब जाने का उपाय करना। तड़फड़ाना छोड़ देना, क्योंकि जो भी तड़फड़ाता है, सतह पर रह जाता है। डुबकी ले लेना। उस भीतर की शांति में डूबना, और तब तुम पाओगे एक नये यौवन की झलक; एक ऐसा यौवन जो कभी बुझता नहीं; एक ऐसा यौवन जो कभी बूदा नही होता; एक ऐसी ताजगी जो कभी बासी नहीं पड़ती; एक ऐसा प्रभात जो सदा ही प्रभात है और जिसकी संध्या कभी नहीं आती; और एक ऐसा जन्म जिसके आगे जीवन ही जीवन है, और जिसके आगे मृत्यु का कोई पड़ाव नहीं; एक ऐसा जन्म, मृत्यु जिसके पीछे छूट गई और एक ऐसी सुबह, रात जिसके पीछे छूट गई और आगे कोई रात नहीं है। तब तुम नाच उठोगे; लेकिन उस नाच में एक होश होगा..होश ही नाचेगा; एक प्रज्ञा होगी; एक जागरूकता होगी..जैसे बुद्ध मीरा बन जायें।
कबीर में बुद्ध और मीरा का जोड़ है..बुद्ध जैसे शांत, मीरा जैसे नाचते हुए।
‘रामदेव मोरे पाहुनै आए, मैं जोवन में माती।’
‘सरीर सरोवर वेदी करहुं, ब्रह्मा वेद उचार। रामदेव संग भांवरि लैहुं, धनि धनि भाग हमार।।’
शरीर को वेदी बना दूं! कबीर कहते हैं: द्वार पर अतिथि आ गया; कैसे करूं स्वागत? कुछ और, छोटा होगा; ‘सरीर सरोवर वेदी करिहूं’..इस पूरे शरीर के सरोवर को वेदी बना देते हैं। इस शरीर को दे देते हैं, समर्पण कर देते हैं, आहुति लगा देते हैं।
‘ब्रह्मा वेद उचार’..और बड़ी अनूठी बात है यह! जिस दिन भी तुम शरीर की वेदी बना दोगे, उस दिन किसी ब्राह्मण को वेद का उच्चार करने नहीं बुलाना पड़ता; उस दिन स्वयं ब्रह्मा वेद-उच्चार करता है।
बड़ा गहरा प्रतीक है! ब्रह्मा हिंदुओं की धारणा में, धारणा काव्य की है, प्रतीक में समझाने की चेष्टा है उसकी जो प्रतीक में बंधता नहीं है। ब्रह्मा है इस अस्तित्व को बनाने वाला..सर्जक, स्रष्टा। जिस दिन तुम अपने शरीर की वेदी बनाने में सफल हो जाते हो, जिस दिन तुम अपने शरीर को उसे देने में सफल हो जाते हो; और सब वेदियां झूठीं हैं और सब वेद-उच्चार दो कोैड़ी का है। क्योंकि किससे तुम उच्चार करवा रहे हो? ब्राह्मण से? ..जिसे तुम खरीद लाये हो? वेदी झूठी, ब्राह्मण झूठा; इन दोनों के बीच में सच्चा वेद कैसे हो सकता है?
कबीर कहते हैं: जब शरीर को कोई वेदी बना देता है, तब किसी साधारण ब्राह्मण को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती है। जिसने इस अस्तित्व को रचा है, वह ब्रह्मा स्वयं वेद-उच्चार करता है; सारा अस्तित्व वेद-उच्चार से भर जाता है..यह अर्थ है। पूरे अस्तित्व को रोआं-रोआं प्रफुल्लित और आनंदित हो जाता है। जब भी कोई एक व्यक्ति अपने शरीर को वेदी बना देता है, तब सारा अस्तित्व उच्चार करता है..अहोभाव का, धन्यता का।
‘सरीर सरोवर वेदी करिहूं, ब्रह्मा वेद उचार।’
अस्तित्व खंड-खंड नहीं है, अखंड है।
अंग्रेज कवि टेनिसन ने कहा है: एक फूल को तोड़ दो और करोड़ों-करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर जो तारा है उसको चोट पहुंचती है।’ अगर अस्तित्व एक है तो ऐसा होगा ही। तोड़ो एक फूल, तारे को चोट पहुंच जाती है।
कल रात एक इटैलियन नाटककार का एक वचन पद रहा था। उगोवेती नाम है उस नाटककार का। वचन मेरे मन को खूब भा गया। बड़ी कीमत का, वेद-वचन जैसा वचन है। उगोवेती ने कहा है: ‘इफ देयर वाज ईवन ए ड्रॉप ऑफ वाटर लेस इन एग्जिस्टैंस, द होल यूनिवर्स विल फील थस्र्टी। अगर एक बूंद भी पानी की कम होती, जितनी है उससे, तो सारा अस्तित्व प्यासा अनुभव करता।’ वह यह कह रहा है कि एक बूंद भी अलग नहीं है। और एक छोटी-सी बूंद पर भी पूरा अस्तित्व निर्भर है अपनी प्यास बुझाने को।
अस्तित्व जैसा है, परिपूर्ण है। इसमें से कुछ कम नहीं किया जा सकता। और न ही इसमें कुछ जोड़ने की जरूरत है। यह जैसा है, परिपूर्ण है। ऐसी जब तुम्हारे मन की घड़ी होती है, जब समग्र अस्तित्व परिपूर्ण मालूम होता है, जैसा है इससे बेहतर हो नहीं सकता। जिस दिन तुम कह सकते हो परम भाव से कि बस यही परिपूर्णता है, उस क्षण तुम्हारे द्वार पर राम खड़ा हो जाता है; उस क्षण इस अस्तित्व में छिपा हुआ जो ब्रह्म है, जो परम अस्तित्व है, जो परम चैतन्य है, वह तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है, जिस दिन से तुम राजी हो। यह तुम्हारे राजीपन की खबर है। उस दिन वह अतिथि सदा द्वार पर आ जाता है।
कहते हैं कबीर: अपने शरीर को वेदी बना दूं, क्योंकि और मेरे पास है भी क्या? इस शरीर में ही अग्नि को जला दूं, इस शरीर में ही तेरे नाम की आहुति दूं, तेरा स्वागत करूं।
जब शादी होती है दूल्हा-दुल्हन की तो वह वेदी बनाते हैं, फिर वेदी का चक्कर लगवाते हैं। वेदी भी झूठी, चक्कर भी झूठे; सात लगाओ कि सत्तर, कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वेदी जब तक तुम अपने प्राणों की न बनाओगे, और जब तक तुम्हारे जीवन की ऊर्जा ही अग्नि की तरह न जलेगी तब तक तुम किसे धोखे दे रहे हो? तब तक तुम अपने को ही भला धोखा देत रहो, और तब तक तुम्हारे खरीदे हुए ब्राह्मण वेद का उच्चार करेंगे।
बाजार में वेद खरीदे जा सकते हैं। कबीर कहते हैं: प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचै, शीश देई लै जाय। ..उससे कम में नहीं चलेगा। बहुत देर से तुम मोल-भाव कर रहे हो; कब तक करते रहोगे? सिर देना ही पड़ेगा।
कबीर कहते हैं: शरीर को ही वेदी बना देता हूं..‘ब्रह्मा वेद उचार’। और जिसने भी शरीर को वेदी बनाई, सारा अस्तित्व वेद का उच्चार करता है, ओंकार से भर जाता है..स्वयं ब्रह्मा जैसे वेद का उच्चार कर रहे हैं।
‘रामदेव संग भांवरि लैहुं, धनि धनि भाग हमार।’ और अब राम के साथ भांवरे पड़ने वाली हैं। राम के साथ भांवर लूंगा। धन्य हैं भाग हमारे! इससे बड़ी कोई धन्यता भी नहीं है कि राम प्रीतम हो और तुम प्रेयसी बन जाओ।
क्यों कबीर पसंद करते हैं अपने को प्रेयसी और राम को प्रेमी? इससे उलटा भी हो सकता है। सूफियों ने वही किया है। सूफी स्वयं को कहते हैं प्रेमी और राम को प्रेयसी। दोनों के अपने-अपने कारण हैं। दोनों समझ लेने जैसी बातें हैं। कबीर अपने को प्रेयसी कहते हैं, क्योंकि कबीर की धारणा है कि परम निष्क्रियता ध्यान है। और स्त्री का स्वभाव निष्क्रियता है, पुरुष का स्वभाव सक्रियता..पुरुष है आक्रमक, स्त्री है ग्राहकता। इसलिए तो स्त्री कभी पुरुष से निवेदन नहीं करती कि मैं तुम्हारे प्रेम में हूं; इतना निवेदन भी आक्रमण हो जायेगा। कोई स्त्री किसी पुरुष के पीछे नहीं दौड़ती; सिर्फ प्रतीक्षा करती है बैठ के; बुलाती है, लेकिन आवाज नहीं देती; इशारा करती है, और इशारे भी परोक्ष हैं..आंखों के होंगे, भाषा के होंगे; लेकिन ऐसा हाथ पकड़ के नहीं रोक लेती, क्योंकि वह स्त्रैण स्वभाव के बिल्कुल विपरीत होगा। और ऐसे स्त्री प्यारी भी न मालूम पड़ेगी। यह बेहूदा होगा, असंभव होगा। ऐसी स्त्री थोड़ी पुरुष-जैसी होगी..आक्रमक।
इसलिए स्त्री निमंत्रण भी नहीं देती..शब्दों से; बुलाती है भावों से और प्रतीक्षा करती है। इसलिए तुम कभी किसी स्त्री को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते। स्त्रियां हमेशा पतियों से कह सकती हैं कि तुम्हीं हमारे पीछे पड़े थे। कोई हम तुम्हारे घर न आये थे। पति कभी नहीं कहता कि तू हमारे पीछे पड़ी थी। ऐसा होता ही नहीं। पुरुष ही आता है; पुरुष ही रचाता है राग-रंग; पुरुष ही प्रेम के निवेदन करता है। स्त्री सिर्फ स्वीकार करती है या अस्वीकार करती है। लेकिन स्त्री कभी अपनी तरफ से प्रयास नहीं लेती, इनीशियेटिव, पहल नहीं लेती।
कबीर कहते हैं कि हमारी क्या सामथ्र्य कि हम पहल लें! हमारी क्या सामथ्र्य कि हम तुझे खोजें! हमें तो पता भी नहीं तेरा ठिकाना। तो हम तो प्रेयसी की भांति हैं, बैठ के प्रतीक्षा कर सकते हैं। तो जब तेरी मर्जी हो, तू आ जाना।
इसलिए कबीर की धारणा में भक्त सदा राह देखता है; परमात्मा आता है। भक्त जाये भी तो कहां जाये? कहां खोजे? भक्त बैठता है, प्रतीक्षा करता है; पुकारता है भाव से; रोता है हृदय की गहराइयों में; आंसू बन जाते हैं उसके प्राण, लेकिन प्रतीक्षा करता है। वह एक स्त्रैण प्रतीक्षा है..‘फेमिनिन अवेटिंग’। परमात्मा आता है; वह पुरुष है; वह खोजता है, वह भक्त में प्रवेश करता है, वह भक्त के गहनतम में जाता है। वहां ‘धनि धनि भाग हमार’। वहां शरीर की बेदी पर ब्रह्मा के उच्चार में वह परम भांवर पड़ती है।
सूफियों ने उलटा प्रयोग किया है। सूफी परमात्मा को प्रेयसी कहते हैं, स्वयं को प्रेमी; क्योंकि उनकी सारी साधना सक्रिय है। उनकी सारी साधना पुरुषगत है। परमात्मा छिपा है, जैसे स्त्री छिपी हो अवगुंठन में। उसे खोजना है, उघाड़ना है; जगह-जगह से कोशिश करनी है। वह खेल खेल रहा है छिपने का। और ऐसे न आयेगा, तुम्हीं को जाना पड़ेगा और तुम खोजोगे बहुत जगह। और बहुत जगह खाली स्थान पाओगे और तुम भटकोगे, लेकिन तुम्हें खोजते जाना है। तुम्हें एक पुरुष की तरह होना है, एक प्रेमी की तरह, जो कोई बाधा नहीं मानता, जैसे मजनू लैला को खोजता हो, या फरिहाद शीरी को। ये सब सूफी कथाएं हैं। मजनू भक्त है, वह साधक है; लैला परमात्मा है, वह उसको खोज रहा है।
अगर सक्रिय साधना होगी तो सूफियों का प्रतीक ठीक मालूम पड़ेगा। अगर निष्क्रिय साधना होगी तो कबीर का प्रतीक ठीक मालूम पड़ेगा।
‘रामदेव संग भांवरि लैहुं, धनि धनि भाग हमार।’
उस परम गहन गुहा में, हृदय की गुहा में, जहां पंचतत्व के बराती पीछे छूट गये; जहां प्रकृति बहुत पीछे रह गई; जहां अचेतन विकास बहुत पीछे रह गया; जहां अपना शरीर वेदी बन गया; और जहां सारे अस्तित्व ने वेद-उच्चार किया; स्वीकार किया तुम्हें, तुम्हारी बलि को, तुम्हारी तपश्चर्या को, तुम्हारे दान को, तुम्हारी भेंट को; जहां वेद का उच्चार होने लगा ब्रह्मा के मुख से; अस्तित्व स्वयं गाने लगा जहां गीत वेद का..उस घड़ी में, अंतर की गुहा में, वह भांवर पड़ती है..जहां भक्त और भगवान का मिलन होता है; जहां प्रेमी और प्रेयसी एक हो जाते हैं। फिर कोई दुई ना रही। फिर प्रेमी और प्रेयसी एक ही हैं! फिर कौन भक्त है, कौन भगवान! फर्क न रहा। उसके पहले तक फर्क है जब तक भांवर नहीं पड़ी।
भांवर, जैसा इस मुल्क में प्रचलित है, वह भी इस भीतर की भांवर का प्रतिफलन है। तुमने ख्याल किया, सात चक्कर क्यों लगाते हैं? क्योंकि महायोगियों ने कहा है कि जब वह भीतर की भांवर पड़ती है तो सात चक्करों में पड़ती है। जो सेवन सेंटर्स हैं, जो सात चक्र हैं बॉडी के, शरीर के भीतर, उस प्रत्येक चक्र में भांवर पड़ती है। भांवर ठीक होगा। तुमने अगर नदी में भंवर पड़ती देखी हो..नदी में भंवर पड़ती है, कुछ कारण नहीं दिखाई पड़ता; लेकिन कोई शक्ति-स्त्रोेत नदी की एक परत को गोल घुमा रहा है। भंवर पड़ रही है। चक्र यानी भंवर।
तुम्हारी शरीर-ऊर्जा में सात भंवरे हैं। सात स्थानों पर तुम्हारी शरीर की नदी चक्र लेती है। और जब परमात्मा की ऊर्जा तुममें उतरती है तो इन सातों चक्रों में क्रमशः उतरती है..इसलिए सात भंवर। उसी के आधार पर पति और पत्नी को भी विवाह के वक्त हम सात चक्कर लगवाते हैं। वे बाहर के प्रतीक हैं, लेकिन भीतर की घटना से जुड़े हैं।
जिस दिन भीतर भी भांवर पड़ जाती है, कबीर कहते हैं: ‘धनि धनि भाग हमार।’ उससे बड़ा कोई भाग्य नहीं; वहीं नियति है, पहुंच गये तुम जहां के लिए चले थे; बीज ने अपनी अंतिम परिष्कृति पा ली। अब कोई लौटना न होगा; मंजिल आ गई। अब कोई यात्रा नहीं। अब परम विश्राम का क्षण आया।
तुम्हारे और परमात्मा के बीच जब भांवर पड़ जाय तभी विश्राम है, उसके पहले तक तो यात्रा रहेगी।
‘सुर तैतीसूं कौतिग आए’ मुनियर सहस अठ्यासी। कहैं कबीर हम ब्याही चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।’
उस घड़ी की बात कर रहे हैं कबीर जब तुम्हारे भीतर की सीता बाहर के राम से मिलती है। उस घड़ी में क्या घटता है? सारा अस्तित्व उत्सव मानता है, क्योंकि हम सब जुड़े हैं। अगर एक बूंद के कम होने से सारा अस्तित्व प्यासा रह जायेगा, तो तुम सोचो, तुम जिस दिन परमात्मा को उपलब्ध होओेगे, उस दिन सारा अस्तित्व नहीं नाचेगा? क्योंकि तुम्हारी तृप्ति अस्तित्व की भी तो तृप्ति है; तुम्हारे पहुंचने में अस्तित्व भी तो तुम्हारे द्वारा परमात्मा तक पहुंच रहा है। संयुक्त है यह अस्तित्व, अलग-अलग, खंड-खंड नहीं। हम द्वीप की तरह बंटे-बंटे नहीं हैं, हम सब इकट्ठे हैं। इसलिए जब कोई एक बुद्ध होता है तो हजारों लोगों के बुद्ध होने का द्वार तत्क्षण खुल जाता है।
कहते हैं कबीर: ‘सुर तैतीसूं कौतिग आए’..तैंतीस करोड़ देवता देखने आये। ‘मुनियर सहस अठ्यासी’..अठासी हजार सिद्ध, तैंतीस करोड़ देवता, सब देखने आये इस परम घटना को। ‘रामदेव संग भावरि लैहुं, धनि धनि भाग हमार!’ इस परम घटना को
देखने सारा अस्तित्व आया, यह मतलब है। क्योंकि हिंदू कहते हैं कि तैंतीस करोड़ देवता, यह तो प्रतीक-संख्या है, यह उस जमाने की संख्या है जब दुनिया की संख्या तैंतीस करोड़ मनुष्यों की थी। जब तैंतीस करोड़ मनुष्य थे, हिंदू कहते थे कि तैंतीस करोड़ देवता, क्योंकि हर मनुष्य अंततः देवता हो जाने वाला है, छिपा हुआ देवता है। अब तो संख्या बहुत ज्यादा है। यह प्रतीक-संख्या है।
तैंतीस करोड़ देवता का अर्थ है कि पूरा अस्तित्व अपने रोएं-रोएं के साथ उपस्थित हो गया। जो भी जागे हुए हैं, वे सब आ गये। सोये हुए भर पीछे रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं कि क्या हो रहा है। जो भी थोड़े-से जागे हुए थे ....। देवता थोड़ा-सा जागा हुआ अस्तित्व है। सिद्ध पूरे जागे हुए हैं। अठासी हजार सिद्ध, तैंतीस करोड़ देवता सब इस परम घटना को देखने इकट्ठे हो गये हैं।
जब भी परम घटना घटती है तो तुम्हारे भीतर थोड़ा-सा जागृति का सूत्र हो तो ही तुम वहां जा सकते हो। बुद्ध पैदा होंगे, सभी तो नहीं जायेंगे; सिर्फ वे ही जायेंगे जिनके भीतर कोई धुन बजेगी। वे खींच लिये जायेंगे, जैसे कोई अचेतन चुंबक बुला रहा हो और रुकना असंभव हो। हजार बाधाएं हैं तो भी छोड़ के चले जायेंगे। हजार दायित्व थे तो भी टूट जायेंगे। होश न रहेगा; कोई खींच रहा है!
ऐसी परम घटना, कबीर कहते हैं, जब स्वयं कबीर के भीतर घटी तो तैंतीस करोड़ देवता, अठासी हजार सिद्ध पुरुष आये। क्योंकि इससे बड़ी और कोई घटना नहीं है, इससे बड़ा कोई महोत्सव नहीं है।
‘कहैं कबीर हम ब्याही चले हैं पुरुष एक अविनासी।’..उस एक अविनाशी पुरुष से हमारा विवाह हो गया। ‘ब्याही चले हैं’..अब हम चले परम विश्राम में। इस परम विश्राम के क्षण में पूरा अस्तित्व अहोभाव, आनंद, परम धन्यता से भर जाता है, क्योंकि तुम अस्तित्व के बेटे हो।
तुम्हारा जब विवाह होता है, तुमसे भी ज्यादा प्रसन्न तुम्हारे माता-पिता मालूम पड़ते हैं। तुम फल-फूल रहे हो..जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया है, वे अहोभाव से भर जाते हैं। मां-बाप को सदा पीड़ा रहती है अगर बेटा विवाह न करे; सदा यह लगा रहता है, कि कुछ अधूरा रह गया। सदा यह लगा रहता है..बुद्धों के पिता को भी लगा रहता है..कि अगर विवाह कर लेता तो वे तृप्त हो जाते।
अगर साधारण माता-पिता, जिनका केवल शरीर से ही संबंध है, वे तुम्हारे फले फूले होने की इतनी कामना करते हैं तो यह पूरा अस्तित्व, जो तुम्हारा वास्तविक माता-पिता है..यह पृथ्वी, यह आकाश, जिनमें तुम्हारी जड़ें हैं, जहां तुम जी रहे हो, जहां से तुम आये हो और जहां तुम लौटोग..जब तुम लौटोगे, जब तुम परम धन्यता को उपलब्ध होते हो, राम को विवाह चलते हो..‘कहैं कबीर हम ब्याही चले हैं, पुरुष एक अविनाशी’..उस क्षण अगर ये सब पृथ्वी-आकाश नाचते हों, गाते हों तो कुछ आश्चर्य नहीं। तुम्हारी धन्यता मेें पूरा अस्तित्व धन्य होता है..इसे स्मरण रखना। तुम्हारी दीनता में पूरा अस्तित्व दीन है..इसे भी स्मरण रखना।

आज इतना ही।

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