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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(समाज अनैतिक क्यों है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिनों की चर्चाओं के कारण बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। उनमें जो प्रश्न केंद्रीय हैं या जो प्रश्न बहुत-बह‏ुत लोगों ने पूछे हैं, उन पर आज अंतिम दिन मैं विचार कर सकूंगा। बहुत लोगों ने यह पूछा है कि देश में, समाज में समाज सुधारक हैं, साधु हैं, नेता हैं। वे सब तरह का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज की नैतिकता सुधर नहीं रही; भ्रष्टाचार सुधर नहीं रहा, समाज का जीवन ऊपर नहीं उठ रहा। इसका क्या कारण है?
एक छोटी सी कहानी से मैं कारण समझाने की कोशिश करूं।
एक गांव में एक स्कूल में, सुबह ही सुबह स्कूल का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर का आगमन हुआ। सुबह ही थी अभी। इंस्पेक्टर आया निरीक्षण को। स्कूल की जो सबसे बड़ी कक्षा थी उसमें वह गया। और उसने जाकर विद्यार्थियों से कहा कि मैं निरीक्षण करने आया हूं।
लेकिन समय मेरे पास ज्यादा नहीं। मैं ज्यादा लोगों से प्रश्न नहीं पूछ सकूंगा। तो कक्षा में जो तीन विद्यार्थी श्रेष्ठतम हों।।प्रथम, द्वितीय, तृतीय जो हों।।वे ही केवल तीन मेरे प्रश्न का उत्तर दे दें तो पर्याप्त होगा। उसने तख्ते पर प्रश्न लिखा और कहाः जो कक्षा में जो प्रथम विद्यार्थी हो, वह आगे आ जाए।


जो प्रथम विद्यार्थी था।।वह उठा, बोर्ड के पास गया, प्रश्न को हल किया। उसने प्रश्न ठीक हल किया था। वह वापस अपनी जगह जाकर बैठ गया। फिर नंबर दो का विद्यार्थी आया। उसने भी प्रश्न हल किया। वह भी अपनी जगह जाकर बैठ गया। फिर नंबर तीन का विद्यार्थी उठा। लेकिन नंबर तीन का विद्यार्थी उठते में झिझका, डरा, भयभीत सा तख्ते के पास आया। उसके भय और डर को देख कर इंस्पेक्टर ने उसे गौर से देखा, तो उसे शक हुआ कि यह तो मालूम होता है जो पहली बार आया था, वही लड़का है। दुबारा आ गया है। तो उसने उसे पकड़ा और कहा कि क्या तू मुझे धोखा देना चाहता है। मालूम होता है तू पहली बार भी आकर सवाल हल कर गया है।
उस लड़के ने कहाः धोखा तो नहीं देना चाहता। लेकिन मैं वही लड़का जरूर हूं जो पहली बार भी आया था।
शिक्षक, उसने कहा कि फिर दुबारा क्यों आया?
उस लड़के ने कहा: हमारी कक्षा का जो नंबर तीन का लड़का है, वह आज क्रिकेट का मैच देखने चला गया है। और मुझसे कह गया है कि उसका कोई काम पड़ जाए, उसकी जगह मैं कर दूं। तो मैं उसकी जगह आया हूं।
इंस्पेक्टर ने कहाः पागल, तुझे यह भी पता नहीं है कि परीक्षा किसी दूसरे की जगह नहीं दी जा सकती। यह धोखा है, यह बेईमानी है, यह असत्य की शिक्षा है। तू अभी से, इस उम्र से बेईमानी सीख रहा है। बहुत डांटा, बहुत चिल्लाया। वह विद्यार्थी कंपता हुआ, घबड़ाया हुआ अपनी जगह बैठ गया। फिर वह इंस्पेक्टर शिक्षक की तरफ मुड़ा, जो बोर्ड की तरफ एक कोने में चुपचाप खड़ा था।
उस इंस्पेक्टर ने कहाः महाशय, यह बच्चा तो धोखा दे रहा था सो ठीक है। आप क्या कर रहे हैं खड़े हुए? आपने क्यों नहीं कहा: यह लड़का दुबारा आया है? मैं तो पहचानता भी नहीं, लेकिन आप तो पहचानते हैं?
उस शिक्षक ने कहाः माफ करें, मैं इन लड़कों को बिलकुल नहीं पहचानता।
इंस्पेक्टर ने कहाः आप स्कूल के शिक्षक, इस कक्षा के शिक्षक हैं। लड़कों को नहीं पहचानते?
तो उसने कहाः नहीं, असल बात यह है कि मैं पड़ोस की कक्षा का शिक्षक हूं। इस कक्षा का शिक्षक तो क्रिकेट का मैच देखने चला गया है। वह कह गया है कि उसकी जगह कोई काम पड़ जाए तो मैं जरा खड़ा हो जाऊं। तो मैं तो उसकी जगह खड़ा हुआ हूं। माफ करिए, मैं लड़कों को नहीं पहचानता हूं।
अब तो इंस्पेक्टर के आगबबूला होने का वक्त आ गया कि यह क्या मामला है? तुम भी धोखा दे रहे हो। तुम भी किसी की जगह खड़े हुए हो। बहुत चिल्लाया और कहाः नौकरी से अलग कर दिए जाओगे। यह क्या मामला है? शिक्षक घबड़ाया। बेचारा गरीब शिक्षक, नौकरी से अलग हो जाए तो बहुत मुश्किल! बच्चे भी रोने लगे और घबड़ा गए। इंस्पेक्टर को भी दया आ गई।
फिर उसको दया आई तो उसने कहा: मत घबड़ाओ, मत रोओ। तुम्हारा भाग्य, तुम्हारी किस्मत कि तुम समझो आज तुम बच गए! मैं असल में असली इंस्पेक्टर नहीं हूं। इंस्पेक्टर का मित्र हूं। असली इंस्पेक्टर तो क्रिकेट मैच देखने चला गया है। उसका दोस्त हंू मैं। मुझसे कह गया है कि जरा आज निरीक्षण कर आना। निरीक्षण करने मुझे जाना है। अगर आज असली इंस्पेक्टर होता तो तुम्हें पता चलता कि तुम्हारी क्या हालत हो जाती। वह तुम बच गए, तुम्हारा भाग्य! लेकिन देखो, खयाल रखना आगे ऐसी गलती न हो।
इस कहानी से इसलिए कहना चाहता हूं: इस मुल्क के गिरे से गिरे व्यक्ति की जो हालत है उसको सुधारने वाले सुधारक और नेता की हालत उससे भिन्न नहीं है। सब एक नाव में सवार हैं। सब एक नाव के यात्री हैं। इसलिए इस मुल्क का कोई नैतिक जीवन ऊपर नहीं उठ पा रहा है। अनुयायी और नेता: कोई फर्क नहीं है। जिन्हें सुधारा जाना है वह, और जो सुधारने की बातें करते हैं उनमें कोई फर्क नहीं है। थोड़ा सा फर्क हो भी सकता है कि जिनको सुधारा जाना है, वे कम चालाक हैं। जो सुधारने की बातें करते हैं, वे ज्यादा चालाक हैं। कनिंगनेस का फर्क है और कोई फर्क नहीं। जो ज्यादा चालाक हैं।।वे नेता हैं, जो कम चालाक हैं।।वे अनुयायी हैं। और इसलिए इन बातों में मत उलझे रहना कि ये नेताओं के भाषण और ये साधुओं के उपदेश कुछ मुल्क के जीवन को ऊपर उठा सकेंगे। इस मुल्क के जीवन को ऊपर उठाना है तो नेताओं का भरोसा बिलकुल छोड़ दें। फिर किसका भरोसा करेंगे?
इस मुल्क को ऊपर उठाना है तो पहला भरोसा अपना करें। और इस मुल्क की किस्मत को बदलनी है तो पहली बदलाहट अपने से शुरू कर दें। न नेता की प्रतीक्षा करें, न आंदोलन की, न सुधार की। अगर मन में पीड़ा है, और ऐसा लगता है कि इस मुल्क की किस्मत बदलनी चाहिए; नियती बदलनी चाहिए, यह क्या हो रहा है? या क्या अंधकारपूर्ण या क्या नरक बनता जा रहा है देश! तो इतनी हिम्मत करें कि मैं अपने को बदलूंगा। किसी को सुधारने जाने की जरूरत नहीं है आपको। मैं अपने को बदल लूं। मैं अपने को ठीक कर लूं। तो मैं एक पत्थर बनता हूं, एक ईंट बनता हूं।।उस मकान की, जो अच्छा हो सकता है। और एक आदमी भी जब बल जुटा लेता है अपने को बदलने का।।तो उसके बल की छाया; उसके बल का प्रभाव, उसके बल की शक्ति भी फैलनी शुरू हो जाती है। एक वर्तुल उसके आस-पास बनना शुरू हो जाता है।।उसकी ज्योति का, उसकी सुगंध का!
और क्या आपको पता है उपदेश देने से कोई नहीं बदलता। लेकिन जब एक आदमी की जिंदगी बदलती है और उसकी जिंदगी में सुगंध फैलने लगती है। उस सुगंध को देख कर लोग बदलते हैं। जब एक अंधेरे घर में दीया जलता है, और प्रकाश फूटने लगता है, तो पड़ोस के लोग पूछने आ जाते हैं।।कि हमारे घर भी अंधेरे हैं, तुम्हारे घर में दीया कैसे जल गया? तुम कैसे प्रकाशित हो उठे हो, क्या हो गया है! हम भी दीया चाहते हैं। यह दीया कैसे जलाया जाए? दूसरों को समझाने जाने का सवाल नहीं है। जितना खुद के भीतर दीया जल जाए तो दूसरे पूछने शुरू हो जाते हैं। आने लगते हैं पूछने कि दीया कैसे जल गया?
कौन आदमी अंधेरे में जीना चाहता है? कौन आदमी अनाचार में जीना चाहता है? कौन आदमी पतन के गर्त में जीना चाहता है? लेकिन जब चारों तरफ सभी लोग पतन में जीते हों, तो किसी आदमी को न प्रेरणा मिलती है, न बोध आता है; न संबंल मिलता है, न सहारा मिलता है; न खयाल, न सपना पैदा होता है।।कि हम भी ऐसे हो सकते हैं।
इस समय एक ही बात की जरूरत है कि जिन लोगों के मन में भी पीड़ा हो, वे अकेली हिम्मत से अपना काम शुरू कर दें। वे अपने को बदल लें। और वे पाएंगे कि पड़ोस में, गांव में उनकी हवा फैलनी शुरू हो गई है। और वहां, उनके भीतर से कुछ किरणें लोगों तक पहुंचने लगी हैं।
लेकिन स्मरण रहे, जब भी कोई व्यक्ति सच में अपने जीवन, अपने अंतस और आचरण को बदलता है तो उसका जीवन आनंद की घटना बन जाती है। उसका जीवन आनंद की घटना बन ही जानी चाहिए। अगर कोई आदमी अपने जीवन को बदलता है और दुखी दिखाई पड़ता है, और दिन भर रोता है कि मैं अपनी नैतिकता के कारण बड़ा परेशान हूं। मैं सच्चरित्र हूं, इसलिए बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं सत्य बोलता हूं, इसलिए जगह-जगह असफल हो जाता हूं। अगर कोई आदमी अपने आचरण और सच्चरित्रता के कारण दुख रोता है तो वह आदमी लोगों को दुष्चरित्र बनाने की चेष्टा कर रहा है।
क्योंकि जब लोग देखते हैं कि एक सच्चरित्र आदमी दुख झेल रहा है तो कौन सच्चरित्र बनना चाहे? जो आदमी थो.ड़े से आचरण का प्रयोग करता है उसकी सारी जिंदगी खुशी की एक खबर, आनंद की एक लहर बन जानी चाहिए! ताकि लोग पूछ सकें, इतना आनंद कहां से मिला? ये इतनी खुशी कहां से पाई! ये इतनी चमकती हुई आंखें इस अंधेरे में कहां से मिल गईं! यह कैसे हुआ? यह लोग पूछने लगें, और वह अपनी खुशी की खबर सुनाने लगे।।कोई कठिनाई नहीं है। एक गांव में एक आदमी भी काफी हो सकता है। एक छोटे से बीज से कितना बड़ा वृक्ष पैदा हो जाता है। और एक छोटे से बीज में जब वृक्ष पैदा होता है तो वृक्ष में करोड़ों बीज लग जाते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं: एक छोटा सा बीज इस पृथ्वी को, पूरी पृथ्वी को जंगल से भर सकता है। एक छोटा सा बीज! तो एक छोटा सा आदमी सारे जीवन को बदल नहीं सकता? एक छोटा सा बीज सारी पृथ्वी को हरियाली से भर दे! एक छोटे से अणु का विस्फोट सारी पृथ्वी में आग लगा दे! तो एक आदमी की आत्मा के आचरण की किरणें, क्या पूरे जीवन को नहीं बदल सकतीं? एक गांव को, एक पड़ोस को, एक घर को नहीं बदल सकतीं?
निश्चित बदल सकती हैं। लेकिन जब तक आप नेताओं की तरफ आंखें उठा कर देखते रहेंगे तब तक यह मुल्क कभी नहीं बदल सकता। नेताओं से सावधान! वह चाहे किसी तरह के नेता हों। चाहे धर्म के हों, चाहे राजनीति के हों; उनसे कुछ भी नहीं होने वाला। और आप यह मत सोचना कि वह आपको बदलना चाहते हैं इसलिए भाषण दे रहे हैं। यह आप मत समझना कि वे सच्चरित्रता लाना चाहते हैं इसलिए उपदेश कर रहे हैं। इसलिए आंदोलन चला रहे हैं।।नहीं। ये सब आंदोलन उनको नेता बनाने की तरकीबों से ज्यादा और कुछ भी नहीं हैं। ये सब उन्हें और बड़ा नेता, और बड़ा नेता बनाए चले जाते हैं। सामान्य जन को, इस मुल्क के भाग्य को अपने हाथ में ले लेना होगा।।तो बदलाहट हो सकती है।

कुछ मित्रों ने यह भी पूछा है कि हमारे मुल्क में तो इतने-इतने बड़े सिद्धांत हैं। इतने बड़े शास्त्र हैं। इतने बड़े महापुरुष हो चुके हैं। इतनी ऊँची किताबें हैं। फिर हमारा चरित्र नीचे क्यों गिर गया?

तो फिर मुझे एक कहानी से समझाने का खयाल आता है। एक गांव में, बहुत पुराने दिनों की बात है। गांव के राजा के महल के पास एक आदमी पंखे बेच रहा था। गर्मी के दिन आने के करीब थे। पंखे बेच रहा था। साधारण पंखे, दो-दो आने के पंखे। लेकिन वह जोर से चिल्ला रहा था कि ऐसे पंखे आज तक नहीं बने। यह पंखा अदभुत है! यह पंखा साधारण नहीं है। इस एक पंखे की कीमत सौ रुपया है। लोग तो हंसे सड़क पर कि पागल हो गया है। लेकिन राजा को सुनाई पड़ गई यह आवाज। अगर दो आने का पंखा होता तो राजा को सुनाई न भी पड़ती। क्योंकि दो आने के पंखे राजा नहीं खरीदा करते। सौ रुपये का पंखा कोई बेच रहा है।
दरवाजा खोल कर राजा ने कहाः बुलाओ उस पंखे बेचने वाले को। कैसा पंखा आ गया! पंखा देखा तो राजा भी हैरान हो गया! साधारण बाजार में दो आने में मिलने वाला पंखा। राजा ने पूछा: क्या कर रहे हो? क्या कह रहे हो? होश में हो? सौ रुपये दाम! क्या खूबी है इस पंखे की?
उस बेचने वाले ने कहाः महाराज, आप समझ सकेंगे। यह कोई साधारण पंखा नहीं है। साधारण आदमी समझ भी कैसे सकता है। आप समझ सकेंगे। यह पंखा ऐसा है कि यह सौ साल चलता है। सौ साल के पहले कोई तोड़ दे, तो गारंटी हम देते हैं। सौ रुपये हम वापस कर देंगे।
राजा ने कहाः सौ साल चलेगा, गारंटी भी है!
बिलकुल गारंटी है। सौ साल चलेगा। और सौ रुपये दाम है।
राजा ने सौ रुपये दे दिए और पंखा ले लिया।
पंखा देख कर हैरानी होती थी। वह बिलकुल पंखा था। दो आने से भी गया-बीता। वह सात दिन चल जाए यह भी मुश्किल मालूम होता था। लेकिन ठीक है। राजा ने उस दिन से वही पंखा किया। वह तो सात दिन में बिलकुल ढ़ीला जर-जर हो गया। एक रात उसका हाथ जोर से पड़ गया तो दो टुकड़े हो गए। उसने कहाः बुलाओ उस आदमी को। आठवें दिन सुबह ही वह आदमी बुला कर सामने खड़ा कर दिया गया। राजा ने कहा: यह रहा पंखा। यह तो टूट गया। सौ साल चलने की बातें कहते थे?
पंखा बेचने वाला हंसा। उसने कहाः महाराज, पंखा करना आपको आता है कि नहीं? पंखा कैसे करते हैं यह मालूम है?
राजा ने कहाः तू बोलता क्या है? पंखा करना हमको नहीं आता?
निश्चित! उसने कहाः नहीं आता। सौ साल चलने वाला पंखा सात दिन में तोड़ दिया। गजब करते हैं आप! कुछ गड़बड़ किया है आपने। आपको चलाना नहीं आता मालूम होता है।
राजा ने कहाः अच्छा तो कैसे चलाया जाता है?
उसने कहाः पहले आप बताएं आप कैसे चलाते हैं?
राजा ने कहाः तू बिलकुल पागल है क्या? पंखा हिला कर बताया।
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहाः हो गई गड़बड़। आपको इतने ऊंचे पंखा चलाने का पता ही नहीं। पंखे को ऐसे मत हिलाइए। पंखे को ऐसा रखिए। सर उसके सामने हिलाइए। पंखा तो बहुत गजब का है। सिर हिलाना आता ही नहीं आपको। हवा की हवा होगी, पंखा का पंखा बना रहेगा। ये सारे सिद्धांत, और ये सारे शास्त्र।।ये बिलकुल गड़बड़ नहीं हैं। यह पंखा तो बिलकुल दुरुस्त है, आपको सिर हिलाना नहीं आता। इसलिए सब ग.ड़बड़ हो रही है मुल्क में!
मैं आपसे कहना चाहता हूं: ये सिद्धांत गड़बड़ हैं, आदमी गड़बड़ नहीं है। राजा गड़बड़ नहीं था, उसे पंखा हिलाना आता था। वह आदमी बदमाश था। ये सिद्धांत गड़बड़ हैं।।कहीं। लेकिन हम हमेशा दोष आदमी को देते हैं। पंखा तो बिलकुल ठीक है, तुम्हें सिर हिलाना नहीं आता! सिद्धांत तो बिलकुल ठीक हैं। हमने सौ टका सिद्धांत खोज लिए हैं। उनमें तो अब कुछ बदलाहट करने की जरूरत नहीं है। आदमी गड़बड़ है। सारा दोष आदमी का है, सिद्धांत का कोई दोष नहीं है। सच्चाई उलटी है। आदमी में कोई गड़बड़ नहीं है। सिद्धांत बुनियादी रूप से गलत हैं।
तो दो-तीन उदाहरण के लिए मैं सिद्धांत आपको कहूं: जो बुनियादी रूप से गलत हैं। जिनकी वजह से सारा जीवन अनैतिक हो गया। कौन से सिद्धांत बुनियादी रूप से गलत हैं? पहली बात।।सारा मुल्क पाखंडी हो गया, हाइपोक्रेट हो गया है। सारा मुल्क पाखंड में घिर गया है। ये सिद्धांतों के कारण है, आदमी के कारण नहीं। ऐसे सिद्धांत हमने बना रखे हैं जो कि मनुष्य के लिए पूरे करने असंभव हैं। जो ह्यूमनली इंपॉसिबल हैं। जिनको पूरा नहीं किया जा सकता। जिनको सामान्य आदमी, कमजोरी से भरा हुआ आदमी कभी पूरा नहीं कर सकता। ऐसे हमने सिद्धांत बना लिए हैं। और उन सिद्धांतों को हम आदमी के ऊपर थोपना चाहते हैं। उस थोपने का परिणाम यह नहीं होता कि वे सिद्धांत मान लिए जाते हैं। उस थोपने का परिणाम यह होता है कि वह आदमी पाखंडी हो जाता है। सिद्धांतों की बातें ऊपर से करता है, भीतर से दूसरा व्यवहार करने लगता है। पाखंड का मतलब यह है कि ऐसे आदर्श पकड़ लिए हैं हमने।।जो पूरे हो नहीं सकते।
अब जैसे हम यह आदर्श बना लें कि किसी आदमी को जमीन पर नहीं चलना चाहिए। हवा में चलना चाहिए। जो हवा में चलता है वह महापुरुष है, जो जमीन पर चलता है वह पापी है। तो कई लोग यह कहने लगेंगे कि जब हमें कोई नहीं देखता तब हम हवा में चलते हैं। रात में हम हवा में चलते हैं। ऐसे काम चलाने के लिए बाजार वगैरह जाते हैं तो जमीन पर चले जाते हैं। वैसे तो हम हवा में ही चलते हैं। और तब पाखंड पैदा होगा। वे आदमी भलीभांति जानते हैं कि हवा में कोई नहीं चलता। और तब झूठ पैदा होगी। तब आदमी का व्यक्तित्व विकृत होगा। यह जो जितनी विकृति है, यह पाखंड की विकृति है। पाखंड पैदा होता है।।असंभव आदर्श के कारण।
इंग्लैंड में लंदन में कोई सौ साल पहले शेक्सपीयर का एक नाटक चल रहा था। सारे गांव में प्रशंसा थी। सारे गांव के लोग दीवाने हो उठे थे नाटक देखने को। जो आर्चबिशप था, लंदन का जो सबसे बड़ा पुरोहित और पादरी था उसके मन में भी खयाल उठा कि मैं भी नाटक देखूं।
आखिर पादरी भी तो आदमी है। कोई पत्थर तो नहीं। तो उसके मन में नाटक देखने का खयाल नहीं उठना चाहिए? लेकिन पादरी कैसे नाटक देखने जाए? और अगर कहीं पादरी मिल जाए नाटक देखता हुआ उन लोगों को।।जिनको रोज समझाता है कि सब असार है, सब नाटक व्यर्थ है, सब यह है वह है।।तो लोग क्या कहेंगे? लेकिन जितनी खबर बनने लगी कि नाटक बहुत अदभुत है, बहु‏त अदभुत! अभिनय बहुत कुशल हुआ है। पादरी बेचैन होने लगा। उसने कहा: अब क्या करें, क्या न करें बड़ी मुश्किल है? जितना बेचैन होता था उतना ही चर्च में नाटक के खिलाफ बोलता था। और भीतर से सोचता था नाटक कैसे देखूं? गुस्सा भी आता था कि नाटक बड़ी गड़बड़ चीज है। तो सुबह जब चर्च में भाषण करता था तो नाटक को जितनी गालियां दे सकता था।।देता था। आखिर यहां तक कह दिया उसने कि नाटक देखने वालों को नरक जाना पड़ेगा। लेकिन रात रोज योजना बनाता था कि एक बार यह नाटक मैं देख तो लूं, यह नाटक है कैसा? और उसको तो पक्का ही पता था कि नाटक देखने से कोई नरक में नहीं जाता। ये खुद ही उसकी ईजाद है।।कि नरक जाना पड़ेगा। वह तो कोई डर था नहीं। लेकिन नाटक देखे कैसे?
आखिर होशियार आदमी था। उसने नाटक के मैंनेजर को एक चिट्ठी लिखी। और लिखा की भाई मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ हूं। मैं धर्मगुरु हूं। मैं भी नाटक देखना चाहता हूं। लेकिन सामने के दरवाजे से कैसे आऊं ? तुम्हारे नाटकगृह में पीछे का कोई दरवाजा नहीं है कि मैं तो नाटक देख सकूं, लेकिन दूसरे नाटक देखने वाले मुझको न देख सकें। ऐसे पीछे से घुस जाऊं चुपचाप, जब अंधेरा हो जाए। फिर पहले ही निकल जाऊं ।
थियेटर के मैनेजर ने उत्तर लिखा: पीछे का दरवाजा है। धर्मगुरुओं इत्यादि के लिए बनाना पड़ता है। हर जगह बनाना पड़ता है। आप बेफिकर आएं। पीछे का दरवाजा है। बनाना ही पड़ता है। कुछ सज्जन लोग पीछे के दरवाजे से ही आते हैं। तो आपका स्वागत है। लेकिन एक बात नोट कर लें। उसका जिम्मा मैं नहीं लेता हूं। और वह यह।।कि ऐसा दरवाजा तो है हमारे नाटकगृह में कि नाटक देखने वाले आपको न देख पाएंगे, लेकिन परमात्मा देख पाएगा कि नहीं देख पाएगा।।इसका हम विश्वास नहीं दिला सकते हैं। क्योंकि वह तो पीछे के दरवाजे से भी देख ही लेगा। फिर आपकी मर्जी। पता नहीं वह नाटक देखने गया कि नहीं गया। जहां तक तो गया ही होगा।
यह क्या पागलपन पैदा हुआ? यह पाखंड क्यों पैदा हुआ कि पीछे के दरवाजे से जाएं? दो शक्लें हैं। एक शक्ल यह दिखाना चाहती है कि मैं नाटक नहीं देखता। और नाटक देखने का भीतर मनुष्य का स्वभाव, जो प्रेरित करता है कि नाटक देखो। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम यह पाखंड उतार दें। यह पाखंड तभी उतर सकता है जब नाटक देखने की सहजता को हम स्वीकार कर लें कि उसमें कोई पाप नहीं है। धर्मगुरु भी नाटक देख सकता है। वह भी आदमी है। कोई एतराज की बात नहीं है। कोई नरक नहीं चला जा रहा, कोई पाप नहीं हुआ चला जा रहा।
जीवन में हमने जीवन-विरोधी आदर्श बना रखे हैं। और उन आदर्शों को पूरा करवाने के लिए हम आदमी पर जोर डालते हैं। वह आदमी बेचारा क्या करे? तीन विकल्प होते हैं उसके सामने। एक विकल्प तो यह होता है कि असंभव आदर्श को पकड़ने की कोशिश में जीवन का सारा रस खो दे। जीवन का सारा अर्थ खो दे। एक रूखा-सूखा मुर्दा आदमी रह जाए। एक तो रास्ता यह रहता है। यह रास्ता भी कोई संुदर और सुखद रास्ता नहीं है। दुख का रास्ता है।
दूसरा रास्ता यह रहता है कि वह आदमी इंकार कर दे आदर्श को, और पशुओं की जिंदगी जीने लगे। जो ठीक लगे करे। इंकार कर दे कि हम कुछ मानते नहीं। हमको तो जो ठीक लगता है वह हम करते हैं। यह दूसरा रास्ता।।अनाचार का रास्ता है। यह भी कोई शुभ रास्ता नहीं है।
तीसरा रास्ता है: पाखंड का रास्ता। वह आदमी आदर्श की बात करे और व्यवहार जैसा करना हो पीछे के दरवाजे से करता चला जाए।
पुरानी दुनिया में दो ही तरह के लोग थे। पहली और दूसरी तरह के। क्योंकि लोग कम समझते थे। जो समझदार थे, वे तो तब भी पाखंडी थे। लेकिन अब समझदारों की संख्या अनिवार्य शिक्षा के कारण सारी दुनिया में बढ़ती जा रही है। इसलिए पाखंड बढ़ता जाता है। सब समझदार होते जाते हैं। वे कहते हैं: तस्वीर दूसरी। कपड़े खादी के पहनों, अगर दिल काला है। जितना दिल काला है उतना ही सफेद और टिनोफॉल दो धोती में।।कपड़ों में। समझ आ गई, सीधी बात है। काला दिल तो किसी को दिखता नहीं, दिखते तो कपड़े हैं। और गांधी ने और बड़ी कृपा कर दी। खादी के पहनो तो वह और पवित्र हो जाती है। तो पवित्र खादी के कपड़े पहनो।।इससे बड़ी सुविधा हो गई। सामने का आदमी दिखता आदमी अच्छा है। और उसको पता नहीं कि सफेद कपड़े वाला आदमी, कहीं इसलिए तो सफेद कपड़े नहीं पहना कि आपकी नजर बचे, और आपकी जेब काट ले। यह जो, यह जितना आदमी समझदार होता चला जाएगा, पाखंड का विकल्प रह जाएगा उसके लिए। दुनिया में शिक्षा बढ़ेगी और पाखंड बढ़ेगा। अगर हम आदर्शों को असंभव से उतार कर संभव, और मनुष्य की सामथ्र्य के भीतर नहीं लाते तो दुनिया में पाखंड बढ़ना बिलकुल स्वाभाविक है।
ये जो और दो चार बातें आपसे कहूं: इससे खयाल में आ जाए कि हमने कैसे असंभव आदर्श बिठा रखे हैं। हिंदुस्तान हजारों साल से स्त्रियों को विधवा किए चला जा रहा है। उनको हक नहीं है विवाह का। उनको पति मर जाए तो फिर जीवन भर अनिवार्य ब्रह्मचर्य। बड़े आश्चर्य की बात है! पुरुषों ने अपने लिए ऐसा नियम नहीं लिया कि पत्नी मर जाए तो हम आजीवन विधुर रहेंगे। बह्मचर्य का पालन करेंगे। बड़े होशियार! पुरुष ज्यादा होशियार है।।स्त्री से। और किताबें, और शास्त्र चूंकि पुरुषों ही ने लिखे हैं इसलिए अपने लिए तो इंतजाम रखा है, स्त्री के लिए कोई इंतजाम नहीं रखा। स्त्री को विधवा छोड़ दो। विधवा छूटी स्त्री के सामने क्या विकल्प रह गया? या तो इतनी रुग्ण, और बीमार, और परेशान हो जाए कि आत्मघात कर ले। जैसा कि सती की व्यवस्था में था कि वह जाकर मर जाए।
और पता है आपको कैसे मारते थे।।सती की व्यवस्था में!
किसी का पति मर गया है, वह तो बेचारी रोए जा रही है। वह तो, उसके तो मन में मरने का खयाल वैसे ही आ रहा है। प्रियजन चल बसा है। किसको खयाल नहीं आता है कि मर जाए? और उस मरने के मौके में समझाना चाहिए कि ठहरो, शांति रखो। तो उस वक्त उत्तेजना दी जाएगी कि चलो, मर जाओ। तो उस वक्त तो कोई भी उस उत्तेजना में मर जाए, कोई भी मर जाए। और फिर उसे यह भी पता है कि अगर वह न मरे, सती न हो, तो सारे जीवन के लिए निंदित और कंडेम्ड हो गई। पापिणी हो गई! गांव में लोग उसका चेहरा भी नहीं देखेंगे। एक तो यह कष्ट पड़ा कि उसका प्रियजन मर गया। वह बेसहारा हो गई। दूसरा कष्ट सामने यह खड़ा है कि अगर जिंदा रहती है, तो जिंदा रहना मरने से बदतर हो जाएगा। अब यही रास्ता है कि वह जाए और मर जाए।
लेकिन जिंदा आदमी जब आग में कूदेगा तो कैसा होगा, कभी आपने सोचा? आराम से सो जाएगा।।जाकर आग में! जरा हाथ जलता है तो आपको पता है क्या होता है? हाथ रखे रहिए आग में, तो पता चलेगा कि क्या होता है?
 तो उसे तो अग्नि में कूदना है।।जलते आदमी को। उसकी क्या हालत होगी? वह भागेगी निकल कर औरत।।आग से। कूदेगी, निकलेगी, भागेगी, चिल्लाएगी। तो सारा इंतजाम किया हुआ था कि बहुत बड़ी चिता बनाएंगे। उसमें उसे लकड़ियों में बिलकुल खपा कर, हाथ-पैर फंसा कर बिठा देंगे ताकि वह निकल न सके। फिर भी हो सकता है आग लगे, और आग लगे तो जीवन बचाने की इतनी ताकत उठे कि वह कूद कर बाहर आ जाए। तो इतना घी डालेंगे चिता में, कि इतना धुआं हो जाए, कि किसी को दिखाई न पड़े, कि वह निकल रही है बाहर। या उसको भी दिखाई न पड़े। और फिर चारों तरफ जलती हुई मशालें लेकर पंडे और पुरोहित खड़े होंगे, और इतनी जोर से ढोल बजाएंगे, इतने मंत्र पीटेंगे, कि उसका रुदन, उसकी आवाज कुछ भी सुनाई न पड़े। अगर वह भागे, तो वह मशालों से वापस उसको धक्का देकर अंदर चिता में कर देंगे। ये धार्मिक लोग थे!
 सती होना तो बंद हो गया। विधवा जिंदा रह गई। अब वह विधवा जिंदा है। उसकी जिंदगी एक बिलकुल ही असंभव जिंदगी बनाने की हम कोशिश कर रहे हैं। और असंभव जिंदगी बनाने में अगर वह विधवा पीछे के रास्तों से प्रेम में पड़ जाए, अनैतिक हो जाए, भाग जाए और वेश्या हो जाए।।तो कहना कि समाज में अनैतिकता बढ़ रही है। लेकिन जिंदगी को सीधा नहीं देखेंगे। संभव नियम नहीं बनाएंगे। संभव आदर्श तय नहीं करेंगे।
ठीक है कि जवान स्त्री विधवा हो गई है। उचित है कि साल-छह महीने में जब उसका वापस दुख शांत हो जाए, उसके जीवन की नई व्यवस्था की जाए। ‘आदरपूर्वक’, ‘सम्मानपूर्वक’।।तो हिंदुस्तान में इतनी वेश्याएं न हो, इतना भीतर चलता ह‏ुआ व्यभिचार न हो।
लेकिन हम तो बड़े सिद्धांतवादी हैं! हम तो विधवा का विवाह कर नहीं सकते। हम वेश्याएं सह सकते हैं, भागती हुई औरतें सह सकते हैं, घर-घर के भीतर अनाचार सह सकते हैं, गर्भपात सह सकते हैं।।लेकिन नहीं, हम विधवा का विवाह नहीं कर सकते। हम तो बड़ी पुरानी संस्कृति के ठेकेदार हैं। हम तो बड़े नैतिक लोग हैं! हम तो अनीति को कैसे सह सकते हैं? विधवा का विवाह अनीति है। और विधवा।।अविवाहित रह कर जो अनीति का गड्ढा बन जाएगी सारे जीवन के लिए।।वह। वह तुम्हारी गलती है। हमारा सिद्धांत तो बिलकुल ठीक है। पंखा करना नहीं आता तो हम क्या करें! सिर हिलाइए, पंखे को सामने रख लीजिए। सिद्धांत तो हमारे ठीक हैं। सिर हिलाते जाइए। सिद्धांत तो बिलकुल ठीक हैं। आप गड़बड़, गड़बड़ हो हम क्या कर सकते हैं!
हमने सारी की सारी जीवन-दृष्टि असंभव आदर्शों के पास केंद्रित कर दी है। इसलिए हम गड़बड़ में पड़ गए हैं। सामान्य मनुष्य के बाबत कोई चिंतन नहीं किया गया। न उसकी कमजोरियों के प्रति दया बरती गई। ये जिनको आप बहुत दयावान कहते हैं, बहुत करुणावान कहते हैं।।ये उतने करुणावान और दयावान नहीं मालूम होते। ये बहुत कठोर, लीगलिस्ट और कानूनवादी मालूम होते हैं। मनु से लेकर आज तक हिंदुस्तान में कोई दयापूर्ण जीवन-नियमन करने वाला व्यक्ति नहीं हुआ। सब कठोर। और कठोरता उनकी इस बात में है कि वे खुद अपवाद हैं। यह बात सच है। वे खुद उस नियम का पालन कर सकते हैं। और चूंकि वे खुद पालन कर सकते हैं, वे सोचते हैं: हर आदमी पालन कर सकता है। हर आदमी को पालन करना चाहिए। बस यह सारी कठिनाई हो जाती है। वे थोप देते हैं अपने नियम को। अपवाद का नियम। वह जो एक्सेप्शनल आदमी है उसका नियम पूरे समाज पर थोपा जाएगा। समाज का पाखंडी हो जाना अनिवार्य है।।गणित की तरह। दो-दो चार जैसे होते हैं।।ऐसा ही अनिवार्य है।
हिंदुस्तान अपवादी, आत्यतिंक नियमों के भीतर पीड़ित और परेशान हो रहा है। इन सिद्धांतों से मुक्ति चाहिए। हममें सामान्य मनुष्य का सिद्धांत और जीवन देखना चाहिए। उसे पकड़ना चाहिए। ‘सामान्य’, उसको खोजना चाहिए।।उसकी कमजोरी, उसकी सीमाओं के भीतर। मनुष्य की सीमाओं के भीतर क्या हो सकता है? और जब असंभव आदर्श होता है, और पालन नहीं हो पाता तो परिणाम यह नहीं होता कि आदमी सामान्य रह जाए। आदमी उलटी स्थिति में हो जाता है। ब्रह्मचर्य पालन नहीं होता। तो परिणाम संयम नहीं होता। परिणाम व्यभिचार होता है। एक एक्सट्रीम से आदमी गिरता है।।एक अति से, तो दूसरी अति पर पहुंच जाता है। बीच में नहीं रुकता। ब्रह्मचर्य का जो कौम आदर्श बनाएगी, वह कौम व्यभिचारी हो जाने वाली है। एकाध आदमी के ब्रह्मचर्य से रहने से कोई फर्क पड़ता है? ब्रह्मचर्य का आदर्श जो कौम थोपेगी, वह कौम व्यभिचारिणी हो जाएगी। क्योंकि वह आदर्श तो सम्हलेगा नहीं। और तब, तब दूसरा ही विकल्प रह जाता है।।चोरी छिपे। पीछे के दरवाजे।
मैं...इस मुल्क में सत्तर साल के बूढ़े भी मेरे पास आते हैं। सबके सामने तो वह मुझसे ईश्वर-परमात्मा के प्रश्न पूछते हैं। अकेले में वे कहते हैं कि महाराज, इस सैक्स से हम बड़े परेशान हैं। सत्तर साल की उम्र हो गई, वे कहते हैं कि हम सेक्स से परेशान हैं। यह स्त्री से कैसे छुटकारा होगा। सत्तर साल की उम्र हो गई। कब्र के करीब पहुंच रहे हैं। वे कहते हैं: स्त्री से कैसे छुटकारा होगा! और छोटे-छोटे बच्चों में बैठ कर वही बुड्ढा कहेगा: सिनेमा देखने जाते हो! नंगी तस्वीरें देखते हो! अरे, गंदा! तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया। तुम बरबाद हो गये। यह आदमी अकेले में मुझसे पूछता है कि मैं क्या करूं। मेरा मुश्किल हो गई है। मेरे मन में बस यह स्त्री ही स्त्री और सेक्स ही सेक्स चलता है।
क्या।।यह मामला क्या है! यह बात क्या है! यही बूढ़ा लड़के को कह रहा है कि तू सिनेमा मत जा। तू कहां का फिल्मी गाना गा रहा है। तू यह कहां कि किताब ले आया।।इसमें नंगी औरत की तस्वीर है। हम अश्लील पोस्टर नहीं चाहते। हम अश्लील पोस्टर के खिलाफ आंदोलन करेंगे। लेकिन यह आदमी।।खुद इसके भीतर क्या चल रहा है?
साधु-संन्यासी मुझे मिलते हैं। सबके सामने वेदांत की चर्चा। अकेले में आज तक मुझे कोई साधु नहीं मिला जिसने सेक्स के बाबत नहीं पूछा हो। जो आखिर में, अंत में यह नहीं पूछता कि यह इससे कैसे छुटकारा हो? यह सेक्स बड़ी मुश्किल किए दे रहा है। दिन में तो दिन भर चलता है, रात सपने में भी यही चलता है। और आप कहे जा रहे हैं: ‘हमारे पास बड़े ऊंचे सिद्धांत हैं। अब हमारे नीचे क्यों बिगड़ रहा है?’ पंखा तो बहुत अच्छा है। लेकिन आपको हिलाना नहीं आता। सिर हिलाइए, पंखे को सामने कर लीजिए।
ब्रह्मचर्य का सिद्धांत बनाए बैठे हैं।।अस्वाभाविक, अवैज्ञानिक, अर्थहीन! और फिर उसके पीछे व्यभिचार पैदा होगा तो गाली देना। युग खराब आ गया है। कलयुग आ गया है। संयत, वैज्ञानिक, स्वभाविक जीवन को ऊंचे उठाने वाले, जीवन को धीरे-धीरे परिवर्तित करने वाले सहज नियम हमारे सामने नहीं हैं। और उनकी वजह से हम पीड़ित और परेशान होते चले जा रहे हैं। पीड़ित और परेशान होते चले जा रहे हैं।
सारी शिक्षा हमारी, सारे आदर्श दमनकारी हैं। सप्रेसिव हैं। और जहां भी शिक्षा दमनकारी होती है, वहां उलटे परिणाम होते हैं। जिस, जिस चीज का दमन किया जाएगा वही चीज लौट-लौट कर मन में आ जाती है।
अभी इस, यहां हम इतने लोग बैठे हैं। इस भवन के एक दरवाजे पर एक तख्ती टांग दी जाए कि इस दरवाजे के भीतर झांकना मना है। फिर आपको पता है उदयपुर में एक भी ताकतवर आदमी नहीं हो सकता जो बिना झांके निकल जाए। कि है कोई उदयपुर में जो बिना झांके निकल जाएगा? और अगर कोई निकल भी गया बिना झांके तो उसकी मौत हो जाएगी। घर तो पहुंच जाएगा, दफ्तर पहुंच जाएगा, मंदिर पहुंच जाएगा, लेकिन मन इसी दरवाजे के आस-पास घूमेगा कि उस तख्ती के पीछे पता नहीं क्या था। क्यों लिखा था वहां कि झांकना मना है? अगर रात मौका मिल गया।।बच्चों ने नहीं देखा, पत्नी ने नहीं देखा, किसी ने नहीं देखा तो कहेगा: मंदिर जा रहा हूं। पहुंचेगा इस मकान के पास कि जरा देख ले, झांक ले किसी तरह है क्या मामला? क्यों लिखा है यह कि यहां झांकना मना है? और अगर नहीं मिला मौका, यहां कहीं बच्चे पहले से ही झांकते रहे, तो बेचारा लौट जाएगा। फिर रात सपने में देखेगा कि वहीं पहुंच गया है। तख्ती उठा कर देख रहा है।।कमरे में क्या है? सपने में देखेगा, लेकिन देखेगा। मन में घाव बन जाता है। जिस चीज को हम इंकार करते हैं।।जोर से, जिस चीज का हम विरोध करते हैं मन के पास। मन पूछने लगता है: बात क्या है?
सिंग्मंड फ्रायड एक, एक दिन सांझ वीना के एक बड़े बगीचे में, जैसे हम बैठे हैं ऐसे एक बड़े बगीचे में घूमने गया। उसकी पत्नी, उसका छोटा बच्चा।।तीनों। दोनों घूमते रहे। घूमते रहे। जब सांझ हो गई, घंटी बज गई, बगीचेे से निकलने के लिए बाहर निकलने लगे। तो दरवाजे पर पत्नी ने कहाः लेकिन बच्चा कहां है? हम तो बातचीत में लग गए। बच्चा कहां गया? और अब दरवाजा बंद होना है। पहरेदार दरवाजा बंद कर रहा है। बड़ा बगीचा है। अब बच्चे को कहां ढूंढेंगे?
फ्रायड ने कहा: घबड़ा मत। तूने उसे कहीं जाने को मना तो नहीं किया था। अगर मना किया हो तो सबसे पहले वहीं चलना चाहिए। अगर तेरे लड़के में थोड़ी भी बुद्धि है तो सौ में से निन्यानबे मौके तो येे हैं कि वह वहीं होगा।।जहां मना किया है। अगर थोड़ी भी बुद्धि है। अगर बिलकुल निर्बुद्धि, ईडियट है तो फिर मुश्किल है खोजना। कहीं भी हो सकता है।
उसकी पत्नी ने कहा कि मैंने मना किया था कि फव्वारे पर मत जाना। चलो फव्वारे पर। फव्वारे पर लड़का पैर डाले हुए बैठा है पानी में। पत्नी बड़ी हैरान हुई कि तुम बड़ा जादू कर दिए। तुमने पता कैसे लगा लिया कि यह फव्वारे पर होगा?
फ्रायड ने कहा कि इसमें पता क्या लगाना है? इसी छोटी सी बात को मनुष्यता आज तक पता नहीं लगा पाई। और हमारा मुल्क तो बिलकुल पता नहीं लगा पाया है कि हम जहां-जहां मना करते हैं, चित्त वहीं-वहीं पहुंच जाता है। जितना बुद्धिमान चित्त है, वह और जल्दी पहुंच जाता है। जड़बुद्धि भर रह जाते हैं।
इंकार निमंत्रण है। निषेध बुलावा है। मत आओ। मत जाओ यहां। यह प्राणों के लिए चुनौती है। चैलेंज है। जाना पड़ेगा। जाना पड़ेगा। जहां-जहां बच्चों को जाने से आप रोक रहे हैं आप बच्चों को वहीं पहुंचा रहे हैं। लेकिन ये हमें दिखाई नहीं पड़ता। ये हमें हजारों साल से दिखाई नहीं पड़ रहा। पंखा तो बिलकुल ठीक है। करना हमको नहीं आता है। पंखा सामने कर लीजिए, सिर हिलाते रहिए। सप्रेसिव ईथिक्स, यह सप्रेसिव मॉरेलिटी, यह दमनकारी नीति।।अनैतिकता का मूल है।
एक फकीर था।।नसरुद्दीन। एक सांझ अपने घर से निकल रहा था।
बड़ा अदभुत फकीर था। बड़े गहरे मजाक उसने आदमी की जिंदगी पर किए। शायद दुनिया में दो-चार लोग ऐसे हुए जिन्होंने ऐसे तीखे छाती में छिद जाने वाले मजाक किए हैं। और जिन मजाकों से जाहिर कर दीं कुछ बातें।।बड़ी कीमती!
सांझ निकल रहा था अपने घर से कि देखा एक मित्र चला आ रहा है। घोड़े से उतरा है मित्र। फकीर नसरुद्दीन ने कहा कि दोस्त तुम रुको। मैं जरूरी काम से दो-तीन मित्रों को मिलने जा रहा हूं। तो वहां मुझे जाना है। मैं घंटे भर में लौट आऊंगा, तब तक तुम आराम करो। रुको, मैं अभी आता।
मित्र ने कहा कि घंटे भर, मैं तो बेचैन हुआ जाता तुमसे मिलने को। चलो मैं भी साथ चला चलता हूं। घंटे भर रास्ते में बात भी कर लेंगे।
नसरुद्दीन ने कहाः ठीक है चलो।
 लेकिन उस मित्र ने कहाः कपड़े मेरे गंदे हो गए हैं। रास्ते की धूल-धवांस। क्या तुम्हारे पास कोई कपड़े नहीं है? कम से कम एकाध अच्छा कपड़ा हो तो मैं ऊपर से डाल लूं।
फकीर ने कहाः अरे मेरे पास एक अच्छी जोड़ी है कपड़े की।।आओ। उसने अच्छी, जो उसके पास बचा कर रखा था हमेशा के लिए।।वह जोड़ी, अच्छा कोट, अच्छी पगड़ी, अच्छे जूते उसे दिए।
उसने पहने और साथ हो लिए।
पहना तो दिए कपड़े लेकिन मन में ऐसा लगा कि इतने अच्छे कपड़े जिनको मैं भी नहीं पहनता हूं, बचा कर रखता हूं। इस नासमझ को पहना दिए। खराब न कर लाए। और दूसरी दिक्कत यह हुई कि उन कपड़ों को पहन कर मित्र तो बड़ा शानदार मालूम होने लगा। फकीर फकीर ही रह गया। तो मन में बड़ी बेचैनी हो गई कि अपने कपड़े, और अपन ही नासमझ दिखाई पड़ रहे हैं। और यह जरा रौबदार मालूम हो रहा है। फिर भी सोचा मन में कि क्या करना, अरे ये तो सब ठीक है। अपना दोस्त ही है। अपने कपड़े पहन लिए तो हर्ज क्या? ये तो मन-मन की बातें थीं। ऊपर से तो यही कहता रहा कि दोस्त, बड़े अच्छे लग रहे हो, बड़ा अच्छा हुआ आ गए। लेकिन मन में यह कि कहां की गलती कर ली कि इसको अच्छे कपड़े पहना दिए? ऐसे ही तो मन काम करता है आदमी का।
सुबह एक आदमी मिल जाता है। आप उससे कहते हैं: अरे मिल कर बड़ी खुशी हुई। मन में भीतर कहते हैं: इस दुष्ट का चेहरा सुबह से कहां से दिखाई दे गया? ऐसे ही तो काम करता है मन।
 मित्र के घर, एक मित्र के घर पहुंचे हैं।।उसे लेकर। जाकर अंदर बैठे, परिचय कराया कि मेरे दोस्त हैं। बाहर से आए हैं, बड़े जिगरी दोस्त हैं। सब कह रहा है, लेकिन नजर कपड़े पर लगी है कि जिगरी दोस्ती है सो तो ठीक, लेकिन कपड़े...। कपड़े मेरे ही पहने हैं।।यह मन ही मन में चल रहा है। लेकिन दबा रहा है कि ये सब कपड़े की क्या बात है?
पूछाः क्या है इनका नाम?
कहाः मेरे दोस्त हैं।।जमाल इनका नाम है। बड़े प्यारे दोस्त हैं। बहुत ही प्यारे दोस्त हैं। और रही कपड़ों की बात, सो कपड़े मेरे हैं। बहुत दबाया मन को कि ये कपड़ों की बात न उठे, लेकिन निकल गई। बड़ा संकोच था।
लेकिन वह मित्र तो बह‏ुत हैरान हो गया कि यह क्या बेवकूफी है? अरे मेरा परिचय दिया तो ठीक। लेकिन कपड़े की बात क्यों उठानी थी। तो कैसी बेइज्जती करवा दी। इससे तो अपने ही कपड़े।।गंदे भी थे, तो भी ठीक थे। कम से कम यह तो नहीं था कि।।उधार। लेकिन अब वहां सामने क्या कहे? बाहर निकला, तो बाहर निकल कर कहा: यह क्या किया नसरुद्दीन तुमने? कपड़े की बात...!
और नसरुद्दीन तो खुद ही घबड़ाए हुए थे कि कपड़े की बात निकल गई। अब वह बड़ा मुश्किल। कहा कि माफ करो भई, बड़ी गलती हो गई। बड़ी गलती हो गई। अरे इसमें क्या था, कपड़े मेरे तो तुम्हारे ही हैं।
जैसे हम कहते हैं: कोई घर में आता है घर में। आपका ही घर है। हालांकि मान ले तो झंझट हो जाए! अदालत में मुकदमा चलाएं।
कहाः नहीं-नहीं आपके ही, कपड़े तो आपके ही हैं। कोई मेरे हैं क्या? ऐसे ही ख्याल नहीं रहा।।निकल गया। और फिर मन में सोचता रहा, बड़ा पश्चात्ताप मन में हुआ कि ये तो बड़ी गलती बात हो गई। बिलकुल गलती। दूसरे मित्र के घर गए। सम्हाल कर रखा अपने को कि वह गलती फिर न हो जाए।
लेकिन जो आदमी जितना सम्हालता है गलती से उसी गलती में पैर चला जाता है। वह पैर जाने की तरकीब है।
जाकर दूसरे मित्र के यहां कहा कि ये रहे मेरे मित्र।
सम्हाले है अपने को।
ये रहे मेरे मित्र।।जमाल। रहे कपड़े, सो कौन कहता है।।मेरे नहीं हैं, इनके ही हैं। कपड़े इन्हीं के हैं, बिलकुल इनके हैं साहब!
 तो, वे तो बहुत हैरान हुए लोग कि यह हो क्या गया है!
और मित्र तो बहुत हैरान हुआ कि यह बात तो फिर वही की वह हो गई। ये कपड़े की बात क्यों उठाता है बार-बार। कपड़े इतने महत्वपूर्ण कहां हैं?
लेकिन उसके मित्र को क्या पता कि बेचारा इसके भीतर क्या गुजर रही है? इसके लिए कपड़े ही महत्वपूर्ण रह गए हैं। न अब मित्र महत्वपूर्ण है, न मिलना-जुलना महत्वपूर्ण है। फिर बाहर निकले।
फिर वह डरा हुआ है। उसने कहा कि भई मैं नहीं जाता तुम्हारे साथ।
उसने कहा: भई माफ करो। इस बार तो देखो मैंने यह भी नहीं कहा कि मेरे हैं। मैंने तो यही कहा था कि कपड़े इन्हीं के हैं।
तो वह तो ठीक। लेकिन तुम्हें यह कहने की बात क्या थी? शक तो हो ही गया कि मामला क्या है। कपड़े की बात क्यों उठती?
उसे एक के और यहां जाना है।
उसने कहाः अब मैं अब यह बिलकुल भूल नहीं करूंगा, उस तीसरे के यहां। अब यह बात ही नहीं उठानी कपड़े की बिलकुल। तुम पक्का विश्वास रखो।
मन को सम्हाल कर। जैसा कि साधु-संन्यासी सम्हाले-सम्हाले चलते हैं, सज्जन सम्हाले-सम्हाले चलते हैं। मन को सम्हाले हुए हैं, पकड़े हुए हैं।।कि कहीं छूट न जाए हाथ से लगाम। फिर लगाम सम्हाले वे मित्र के घर पहुंचे।
अबकी दफा बहुत सम्हला हुआ है। फिर परिचय दिया कि मेरे मित्र हैं।।जमाल। और वह बात, वह कपड़ों की बात, वह उठानी नहीं है बिलकुल। किसी के हों, मतलब क्या साहब? इनके हों या मेरे हों।
ये जो माइंड है। ये जो सप्रेसिव माइंड। ये जो दमनकारी चित्त, यह जो चीजों को जबरदस्ती दबाता है। उनके विस्फोट होने शुरू होते हैं।
हिंदुस्तान का पूरा चित्त दमन से भरा हुआ है। हिंदुस्तान की सारी अनीति के पीछे दमनकारी सिद्धांत हैं। हर चीज को दबाओ। हर चीज को दबाओ। जीवन की कोई वृत्ति का सहज स्वीकार नहीं है। सब वृत्तियों को दबाना है। दबाई हुई वृत्तियां विकृत होकर नये-नये रूपों में निकलना शुरू होती हैं। दबाई हुई वृत्तियां जीवन में चारों तरफ फैलनी शुरू हो जाती हैं। जितना दबाते हैं उतनी विकृत होती चली जाती हैं। और सारे मनुष्य का चित्त एक रुग्णता में घिर जाता है।
यह नेता-वेताओं से नहीं कुछ इसमें होने वाला है, न उपदेशों से होने वाला है। क्योंकि जिन...जो कह रहे हैं हम ठीक करना चाहते हैं, उन्हीं के उपदेशों का ये परिणाम है।
ये जिन शास्त्रों और सिद्धांतों की दुहाई दी जाती हैं, उन्हीं शास्त्रों और सिद्धांतों ने यह स्थिति पैदा की है।...कैसे होगा? एक बहुत कंट्राडिक्ट्री, एक बहुत विरोधाभासी स्थिति में चेतना इस देश की उलझ गई है। इस उलझाव को उठाना हो, तो फिर से पुनर्विचार करना जरूरी है कि हमने कहीं ऐसे सिद्धांत तो नहीं बना लिए हैं जो कि अवैज्ञानिक हैं। हमने कहीं ऐसे सिद्धांत तो बना नहीं लिए हैं जो कि मनुष्य के ऊपर कटघरे की तरह जबरदस्ती बैठाने पड़ते हैं। हमने आदमी को देख कर सिद्धांत बनाए हैं या सिद्धांतों को देख कर आदमियों को बनाने की कसम खा रखी है! क्या है हमारा इरादा? कमीज बनवा ली है पहले, और आदमी को पहनाने की कोशिश कर रहे हैं। और आदमी अगर लंबा पड़ता है तो उससे कहते हैं: हाथ छांटो, थोड़ा हाथ छांटो! कमीज, कमीज तो बिलकुल ठीक है, तुम कुछ गड़बड़ मालूम होते हो। जरा पैर छोटे करो। पायजामा तो बिलकुल ठीक है, लेकिन तुम गड़बड़ हो! हमने पहले तय कर रखें हैं बिलकुल।।ढांचे। और ढांचों में आदमी को कसना चाहते हैं। और जब आदमी कसने से इनकार करता है। वह कहता है: रहने दो साहब! हम नंगे रह जाएंगे, पतलून न पहनेंगे। लेकिन पैर न कटवाते।
तो हम चिल्लाते हैं कि यह आदमी नंगा घूम रहा है। बड़ी मुश्किल खड़ी कर रखी है! आदमी को नंगा नहीं घूमने देना चाहते। पतलून अपनी मन की बनाना, चाहे तो उसका स्वीकार नहीं है। पतलून आपने पहलेे से तय कर रखी है जब वह आदमी पैदा ही नहीं हुआ था।
मनु महाराज पतलून बना गए तीन हजार साल पहले। आपको पहनाई जा रही है! उनको पता नहीं तीन हजार साल पहले कौन आदमी पहनेगा! वे टेलरिंग तीन हजार साल पहले कर गए। आदमी अब पैदा हुआ है। नाप-जोख अब इसकी कभी ली नहीं गई कि यह आदमी किस तरह का है, इसके ऊपर कमीज बैठा रहे हैं। नहीं बैठती, तो पंखा तो बिलकुल ठीक है। आप आदमी गड़बड़ हो! आपको पंखा करना नहीं आता, आपको कमीज पहननी नहीं आती। हाथ-पैर काटो, छोटे कर लो! कमीज चरम है, अल्टीमेट है। उसके, उसके ऊपर कोई सवाल नहीं।
ये, ये मुल्क के जीवन को जो हम नहीं बदल पा रहे हैं, उसके बुनियाद में यह कारण है कि हम सिद्धांत मनुष्यों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझ रहे हैं। कोई सिद्धांत मनुष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई शास्त्र मनुष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई धर्म मनुष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। मनुष्य अंतिम और चरम है। और जो बात मनुष्य को योग्य नहीं पड़ रही, उस बात को बदलने की तैयारी होनी चाहिए। मनुष्य को जो बात योग्य पड़ सके, मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल पड़ सके, मनुष्य के मनस्क के, उसकी साइकोलॉजी के करीब पड़ सके।।वह हमें निर्धारित करनी है।
ये मुल्क आज बदल सकता है। इस मुल्क के बदलने में कोई कठिनाई नहीं है। नहीं तो ये मुल्क कभी नहीं बदल सकेगा। तो मैं इसलिए कठिनाई में पड़ा हुआ मालूम पड़ता हूं, कि जिनसे हम आंखें लगाए हुए हैं, कि ये हमको सुधारेंगे।।ये वही पुराने टेलरों के प्रचारक और दुकानदार।।ये वही कहते हैं कि वही कमीज, रंग-वंग कर ले आते हैं फिर उसको।।लेकिन कमीज का साइज वही है, हिसाब वही है। नई शक्लें दे आते हैं, नया नाम दे देते हैं। नये हिसाब से नया नाम दे देते हैं। रंग कर लाते हैं, लेविल बदल कर लाते हैं। लेकिन कमीज वही है। उसको जरा भी फर्क नहीं करते।
और इसलिए मनुष्य को हमने बड़ी बेचैनी में छोड़ दिया है। नहीं कमीज बनती है उसकी, तो बेचारा फिर नंगा ही रह जाता है। और जब नंगा रह जाता है तो हम कहते हैं कि आदमी बड़े नंगेपन पर उतर गया है। आदमी नंगा ही घूम रहा है। ये लड़के बड़े बिगड़ गए हैं। यह सब गड़बड़ हुआ जा रहा है।
यह कोई नहीं बिगड़ गया है। आप जिस ढांचे में बिठालना चाहते हैं वह ढांचा मैकेनिकल है, यांत्रिक है। वह मनुष्य की तरल चेतना को समझ कर नहीं बनाया गया। नहीं विचारा गया है।
पुनर्विचार जरूरी है मनुष्य के पूरे जीवन पर। बंधे-बंधाए उत्तर नहीं। प्रत्येक नई समस्या में नये मनुष्य को, नये युग को, फिर से उत्तर की जरूरत होती है। क्योंकि नये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। बंधे हुए उत्तर देने वाली कौमें धीरे-धीरे मरने लगती हैं, और सड़ने लगती हैं। और हमारे उत्तर ऐसे बंधे हैं, बल्कि हम तो उलटे हैं। हम तो यह कहते हैं कि मेरा उत्तर तुमसे ज्यादा पुराना है। हमारी किताब तुमसे ज्यादा पुरानी है। हिंदू कहते हैं।।कि मेरा वेद। इससे ज्यादा पुरानी कोई किताब नहीं। जैन कहते हैं कि।।हमारी किताब। इससे ज्यादा पुराना कोई धर्म नहीं। जिसका जितना पुराना उत्तर है, वह कहता है: हमारे पास उतना ही ऊंचा उत्तर है।
सच्चाई यह है कि जिसके पास जितना नया उत्तर हो, वह मनुष्य के उतने काम का हो सकता है। क्योंकि जितना पुराना उत्तर है, आदमी की यात्रा उससे बहुत दूर हो चुकी है। वह अब आदमी को उतना ही कम मौजूद रह गया है। हर युग को, हर स्थिति में नये उत्तर खोज लेने जरूरी होते हैं। और क्या हम मर गए, हमारी प्रतिभा मर गई कि हम नये उत्तर न खोज सकें।।जो हमें पुराने उत्तरों को मानने के लिए बाध्य किया जाए? क्या हमारे पास अब चेतना नहीं है कि हम नये उत्तर को विकसित कर सकें।
जापान में एक दफा ऐसा हो गया। दो मंदिर थे एक गांव में। एक उत्तर का मंदिर कहलाता था, एक दक्षिण का मंदिर कहलाता था। दोनों मंदिरों में झगड़ा था, जैसा कि मंदिरों में होता है। उनमें कोई बोलचाल नहीं थी।
किसी मंदिर में कभी बोलचाल नहीं है।
मंदिर के पुजारी एक-दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे। शत्रु थे बिलकुल। और शत्रुता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आती थी। कोई हजार साल पुरानी थीं। बड़ा मजा है! आदमी मर जाते हैं, बाप मर जाते हैं लेकिन अपने बच्चों को अपनी शत्रुताएं दे जाते हैं। वे जहर तैयार कर जाते हैं कि हमारी शत्रुता को कायम रखना। फलां आदमी से अपनी दुश्मनी थी।।वह पाकिस्तानी है, वह चीनी है, वह फलां है, वह ढिकां, वह हिंदू है, वह मुसलमान है। और बच्चे भी ऐसे नासमझ कि सब नया सीख लेते हैं लेकिन दुश्मनियां पुरानी पकड़े रहते हैं।
तो वह मंदिरों में हजार साल पुरानी दुश्मनी। दोनों मंदिरों के पुजारी बूढ़े हैं। और दोनों पुजारियों के पास दो छोटे-छोटे लड़के हैं। बाजार से सेवा टहल के लिए। सब्जी लाने के लिए, यह काम, वह काम के लिए। दोनों ने कह रखा है अपने लड़कों को कि देखो: उस मंदिर में मत जाना। उसमें पैर रखना भी पाप है।
हिंदुओं की किताबों में ऐसा लिखा है। जैनियों की किताबों में ऐसा लिखा है। औरों की किताबों में भी ऐसा लिखा है। जैनियों कि किताबों में ऐसा लिखा है कि अगर हिंदू मंदिर के सामने से निकल रहे हो, और पागल हाथी पीछे आ जाए, तो पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना लेकिन हिंदू मंदिर में शरण मत लेना। वह पाप नहीं है। पाप मंदिर में शरण लेना है। हिंदू ग्रंथों में भी यही लिखा है कि जैन मंदिर के सामने हो, और पागल हाथी आ जाए, तो उसके पैर के नीचे मर जाना लेकिन जैन मंदिर में शरण मत लेना। वह बहुत पापपूर्ण है। उधर घुसना ही मत।
वही उन्होंने समझाया हुआ था। दोनों बच्चे छोटे थे। उनसे यह भी कह दिया था कि आपस में भी कभी मिल जाओ तो बातचीत मत करना।
लेकिन बच्चे-बच्चे हैं। बूढ़े भी उनको बिगाड़ते हैं तो थोड़ा वक्त लग जाता है। एकदम से बिगाड़ना आसान नहीं।
बच्चे कभी-कभी मिल जाते थे, दो बात कर लेते थे।।चोरी छिपे। लेकिन एक दिन बड़ी गड़बड़ हो गई। उत्तर के मंदिर का बच्चा निकला। दक्षिण के मंदिर का बच्चा भी निकला हुआ था। रास्ते पर मिला। दक्षिण के मंदिर वाले लड़के ने उस उत्तर वाले ल.ड़के से पूछा: दोस्त कहां जा रहे हो?
वह अपने मंदिर से चला आ रहा था। वहां बड़ी मैटाफिजीकल, बड़ी दार्शनिक बातें चल रही थीं।।मंदिर में। वह भी उसी जोश में था।
उसने कहा: कहां जा रहे हो?
 कौन कहां जाता है? जहां हवा ले जाती है, वहीं जा रहे हैं। सुन कर आ रहा था ऊंची बातें। उसके दिमाग में फितूर चढ़ा हुआ था। उसने कहाः कौन कहां जाता है? कैसा आना, कैसा जाना! जहां हवा ले जाती है वहीं जाते हैं।
वह दूसरा लड़का तो दंग रह गया। इससे तो बातचीत यहीं बंद हो गई। आगे कुछ रास्ता न रहा। उसके मन को दुख भी हुआ। उसने सोचा कि कहीं मैं हार तो नहीं गया। मेरा गुरु कहता था: उस मंदिर से कभी हारना नहीं। वह लौट कर अपने गुरु के पास गया। उसने कहा कि बड़ा दुख है। आज उससे मैंने बात की, और मैं हार गया। उसने एक ऐसा उत्तर दे दिया कि उसके आगे मुझे कुछ सूझा ही नहीं।
मैंने पूछाः कहां जा रहे हो?
वह कहने लगा: जहां हवाएं ले जाएं।
उस बूढ़े ने कहा: कितनी दफा कहा, नहीं मानता। उससे बात तूने की, यही भूल की। हमारे मंदिर का कोई आदमी उस मंदिर के आदमी से कभी नहीं हारा। कल फिर उसी जगह खड़े हो जाना। उससे फिर पूछना कि कहां जा रहा है? और अगर वह कहे कि जहां हवाएं ले जाएं, तो उससे कहना कि अगर हवाएं ठहरी हों, और न चल रही हों।।तो कहीं जाओगे कि नहीं? फिर वह भी रह जाएगा ठप्प। उसको भी कुछ सूझेगा नहीं। और उसको मुंह बंद करना बहुत जरूरी है।।उस मंदिर के लोगों का। एक दफा बढ़ गया तो बड़ी दिक्कत देंगे बाद में।
वह लड़का जाकर रेडीमेड उत्तर लेकर खड़ा हो गया कि आज यह कह देना है।
वह लड़का निकला उस मंदिर का।
उसने पूछा: कहां जा रहे हो दोस्त?
उसने कहा: कहां जा रहा हूं? जहां पैर जा रहे हैं, वहीं जा रहा हूं।
अब मामला ही बदल गया। वह हवा की बात ही उठाई नहीं उसने। उत्तर तैयार था हवा का। पांव पर लागू नहीं होता था। बोलने की कोई जरूरत नहीं थी। फिर हार हो गई। वह वापस लौटा। उसने गुरु से कहा: वह तो बड़ा बेईमान है लड़का। उसने तो उत्तर ही बदल दिया।
गुरु ने कहा: उस मंदिर के लोग हजारों साल से बेइमान होते रहे हैं। यही तो हमारा झगड़ा है। लेकिन ऐसे नहीं चलेगा। अब कल तू फिर खड़े हो जाना और उससे, जब वह कहे कि जहां पैर ले जाएं, तो उससे कहना ¬ः कभी ऐसा भी हो जाता है कि पैर में लकवा लग जाता है, कभी ऐसा भी हो जाता है कि पैर कमजोर हो जाते हैं।।फिर कहीं जाएगा कि नहीं जाएगा?
फिर दूसरे दिन, फिर वह खड़ा हो गया। फिर तैयार उत्तर। उसने उस लड़के से पूछा: कहो दोस्त कहां जा रहो हो?
उसने कहा: कहां जा रहा हूं? देखते नहीं, झोला लिए हुए हूं। सब्जी खरीदने जा रहा हूं। तो मामला वहीं डोल गया।
गुस्से में लौटा और कहा कि बड़ा बेईमान है वह, आज फिर बदल गया।
जिंदगी भी इतनी ही बेईमान है। रोज बदल जाती है अगर इसको बेईमानी कहते हों तो। सच तो यह है कि बदलाहट जिंदगी है। क्रोध जिंदगी के बदलने का नहीं; पागलपन और दुख आपके बंधे हुए उत्तरों का है। बंधे हुए उत्तर की यही हालत होती है। जिंदगियां बदलती जाती हैं, आप अपनी पुरानी किताब में खोज रहे हैं कि उत्तर कहां है? जब तक आप उत्तर खोेजते हैं तब तक जिंदगी बदल गई। यहां तो ताजा, नया, अभी, इसी क्षण जीवन के साथ संपर्क चाहिए और उत्तर चाहिए। उत्तर अपने से चाहिए, बंधी हुई किताब से नहीं।
इस मुल्क के सामने सबसे बड़ी समस्या आज एक ही है। उसके चरित्र की, उसकी चेतना की, उसके व्यक्तित्व की। और वह यह है कि हमारे पास बंधे हुए उत्तर हैं और जिंदगी रोज बदलती चली जा रही है। जब तक हमारे पास जिंदगी के बदलते हुए उत्तरों के साथ बहने की क्षमता, और जिंदगी के बदलाहट को पकड़ लेने की क्षमता और जिंदगी के नये रूपों के नये रिस्पांस, नया प्रतियुत्तर हमारे भीतर से आ सके।।इतनी जीवंतता नहीं होगी, तब तक इस मुल्क का कोई भविष्य नहीं हो सकता है।
इसलिए मैं यह कहना चाहता हूं: छोड़ें बंधे-बंधाए उत्तर। चेतना को जगाएं, विकसित करें, खोजें नये उत्तर।।तो आज हम अपने जीवन की सारी समस्याओं के उत्तर खोज ले सकते हैं। कोई कठिनाई नहीं आ गई है, कोई ऐसा मसला नहीं आ गया है जो हल नहीं हो सकता। सब हल हो सकता है।

एक अंतिम प्रश्न की चर्चा और फिर मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान, मौन, इनकी क्या जरूरत है, क्या सेवा करने से सब काम नहीं हो जाता।।समाज-सेवा, गरीबों की सेवा, भूदान।।कोई ऐसा काम रचनात्मक, इससे नहीं हो सकता? क्या जरूरत है कि हम मौन करें? ध्यान करें? क्यों समय गवाएं? मुल्क को तो सेवा की जरूरत है।

कई के मन में यह सवाल उठता है। कई कहते हैं कि सेवा ही धर्म है। मैं आपसे कहना चाहता हूं: सेवा धर्म नहीं है। यद्यपि धार्मिक व्यक्ति सेवक होता है। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
धर्म तो सेवा है; लेकिन सेवा धर्म नहीं। क्या फर्क हो गया इतनी सी बात में? जमीन-आसमान का फर्क हो गया। जो आदमी शांत होता है, मौन होता है, जो आदमी प्रभु की दिशा में प्रार्थना में लीन होता है।।उसका सारा जीवन सेवा बन जाता है। लेकिन उसे पता नहीं चलता कि मैं सेवा कर रहा हूं। दूसरी तरफ जो आदमी कहता है: मैं सेवा कर रहा हूं। इस सेवा से न तो वह शंात होता है, न मौन होता है; और न प्रभु से संबंधित होता है। बल्कि मैं सेवा कर रहा हूं।।इससे उसका मैं और अहंकार बलिष्ट होता है और मजबूत होता है।
जाइए, सेवकों को खोजिए! और आप पाएंगे उनका अहंकार इतना मजबूत, जिसका हिसाब नहीं। सेवक।।भारी अहंकार से भरा रहता है कि मैं सेवा करने वाला हूं। धर्मिक चेतना हो जाए तो जीवन सेवा बन जाता है।।आनायास, आकस्मिक, सहज। लेकिन तब सेवा अहंकार की पूर्ति नहीं करती।
लेकिन कोई कहता है: हम सेवा कर-कर के ही, गरीब का पैर दाब कर, कोढ़ी की सेवा करके, सड़क झाड़ कर, हम सेवा कर-कर के परमात्मा को पा लेंगे।
 तो मैं आपको निश्चित कहता हूं: कोई परमात्मा को पाने का द्वार सेवा से नहीं जाता। सेवा एक नई तरह की अस्मिता और अहंकारपूर्ण ईगो को भर मजबूत करती है। और इस चेष्टा में जो सेवा की जाती है वह अक्सर गैर-जरूरी, कृत्रिम, अनावश्यक और कई बार जिसकी हम सेवा करते हैं उसके लिए भी खतरनाक हो जाती है।
एक घटना मुझे स्मरण आती है। एक स्कूल में एक पादरी ने जाकर एक दिन सेवा का उपदेश दिया। उसने बच्चों को समझाया कि सेवा करो। क्योंकि सर्विस, सेवा ही सच्चा धर्म है। रोज एक न एक सेवा करनी ही चाहिए। बिना सेवा किये भोजन नहीं खाना चाहिए। बिना सेवा किए चैन से सोना नहीं चाहिए। अगर तुम सेवा नहीं करते तो तुम कभी अच्छे आदमी नहीं बन सकते हो।
उन बच्चों ने पूछा: मतलब? कैसी सेवा? क्या करें?
उसने कहा: जैसे, जैसे कोई नदी में डूबता हो, तो उसको बचाना चाहिए। किसी के घर में आग लगी हो, तो दौड़ कर बुझाना चाहिए। कोई बूढ़ा, कोई बूढ़ी रास्ता पार होता हो, न होता हो उससे बनते, तो हाथ पकड़ कर रास्ता पार कराना चाहिए।
छोटे-छोटे बच्चे थे।
उन्होंने कहा: अच्छी बात है। हम कोशिश करेंगे। सात दिन बात वह पादरी फिर वापस आया।
उसने बच्चों से पूछा: तुमने कोई सेवा का काम किया? कोई एक्ट ऑफ सर्विस? तीन बच्चों ने हाथ ऊपर उठाए कि हमने किया।
उसने कहा: कोई हर्ज नहीं। आज तीन ने किया, कल तीस करेंगे। मैं बहुत खुश हूं। बेटे तुम खड़े होओ। बताओ, तुमने क्या सेवा की?
पहले लड़के से पूछा: तुमने क्या सेवा की?
उसने कहाः मैंने एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई।
पादरी ने कहाः बहुत अच्छा किया। हमेशा सेवा का काम करो। उससे तुम्हारे जीवन में बड़ा, बड़ा सत्य का अवतरण होगा। प्रभु का सान्निध्य मिलेगा। बैठ जाओ।
दूसरे से पूछा कि बेटे तुमने क्या किया।
उसने कहा कि मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई।
तब जरा पादरी को शक हुआ। इसने भी बूढ़ी औरत पार करवाई। फिर भी हो सकता है। क्योंकि बूढ़ी औरतों की कोई कमी तो है नहीं। करवा दी होगी। सड़कें भी बहुत, बूढ़ी औरतें भी बहुत, पार भी बह‏ुत करती हैं। ऐसी क्या हैरानी की बात। संयोग की बात नहीं।।होगा।
उसको भी कहा: अच्छा बेटा, बहुत अच्छा किया।
तीसरे से पूछा: तुमने क्या किया?
उसने कहा: मैंने भी एक बूढ़ी औरत पार करवाई।
उसने कहा: बड़ी हैरानी हो गई। तुम तीनों को तीन बूढियां मिल गईं।
उन्होंने कहा: तीन कहां साहब! एक ही बूढ़ी थी। उसी को हम तीनों ने पार करवाया।
एक ही बूढ़ी थी! तो क्या बहुत बिलकुल मरने के करीब थी कि तुम तीन की जरूरत पड़ी ले जाने को?
उन्होंने कहा कि नहीं, मरने के करीब नहीं। बूढ़ी बड़ी ताकतवर थी। वह उस तरफ जाना ही नहीं चाहती थी। हम तो बामुश्किल से पार करवा लाए। वह तो बिलकुल इंकार करती थी कि हमको जाना ही नहीं उस तरफ। लेकिन आपने कहा था: कोई एक्ट ऑफ सर्विस। कोई सेवा का काम बिना किए भोजन नहीं। अब हमको भूख लग रही थी। हमको भूख... हमको भोजन करना था और सेवा का काम हुआ नहीं। मकान में आग लगाएं, झंझट हो जाए! नदी में किसी को डुबाएं, मुश्किल हो जाए! हमने कहा ¬ः इस बूढ़ी को पार करवा दें। हमने पार करवा दिया। बिलकुल पूरा पार करवा दिया। उस तरफ जाकर छोड़ा। अब वह फिर से लौट गई हो तो भगवान जाने!...
सेवा को जो धर्म समझ लेते हैं उनकी सब सेवा खतरनाक हो सकती है। फिर उन्हें इसकी फिकर नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। इसकी फिकर है कि मेरा धर्म, मेरा पुण्य कैसे अर्जित हो रहा है? सेवक अक्सर मिस्चिफ मेकर साबित होते हैं। बहुत उत्पात, उपद्रव खड़ा करवा लेते हैं। अगर दुनिया में सेवक और समाज सुधारकों की संख्या कम रही होती तो शायद समाज पहले से बहुत बेहतर होता। लेकिन वे अपनी धुन में लगे हैं, उनको समाज बदल के दिखा देना है। उनको सेवा करके दिखा देनी है। और वे इतने पागल हैं इसमें, कि यह कभी पूछते ही नहीं, कि मेरा मन शांत नहीं है।
शांत मन जो नहीं है: उससे निकली हुई सेवा जहरीली हो जाएगी। पहली बात है कि मन अत्यंत शांत हो। तो शांत मन से जो भी कृत्य होता है, वह मंगलदायी होता है। अशांत मन से कोई भी कृत्य मंगलदायी नहीं होता। अशांत आदमी राजनीति में होगा तो मुश्किल खड़ी करेगा, अशांत आदमी सेवा करेगा तो मुश्किल खड़ी करेगा, अशांत आदमी साधु हो जाएगा तो मुश्किल खड़ी करेगा।
यह साधु-सेवा या राजनीति का सवाल नहीं। यह अशांत मन का अनिवार्य कारण है कि उससे, उससे उपद्रव होगा। इसलिए मैं कहता हूं कि सेवा की फिकर मत करें। शांत होना पहली बात है, सेवा तो उसके पीछे छाया की तरह आती है।

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