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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन के तथ्यों से भागें नहीं)

कैसे विरोध में, कैसी जड़ता में ग्रस्त है उस संबंध में कल हमने थोड़ी सी बातें कीं। किन कारणों से मन की, मनुष्य की, पूरी संस्कृति की ये दुविधा है उस संबंध में थोड़ा सा विचार किया। दो-तीन बातें मैंने कल आपसे कहीं। पहली बात तो मैंने आपसे ये कही कि हम जब तक भी जीवन की समस्याओं को सीधा देखने में समर्थ नहीं होंगे और निरंतर पुराने समाधानों से, पुराने समाधानों, पुराने सिद्धांतों से अपने मन को जकड़े रहेंगे, तब तक कोई हल, कोई शांति, कोई आनंद या कोई सत्य का साक्षात असंभव है।
आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसके पहले कि जीवन सत्य की खोज में निकले, अपने मन को समाधानों और शास्त्रों से मुक्त कर ले। उनका भार मनुष्य के चित्त को ऊध्र्वगामी होने से रोकता है, इस संबंध में थोड़ा सा मैंने आपसे कहा। इन समाधानों से अटके रहने के कारण दुविधा पैदा होती है। और दूसरी बात हम अत्यधिक आदर्शवाद से भरे हों तो जीवन में पाखंड को जन्म मिलता है।
हम वैसे दिखना और होना चाहते हैं, जैसे हम नहीं हैं। हम दूसरे लोगों का अनुसरण, दूसरे लोगों की अनुकृति बनना चाहते हैं और तब जीवन स्वयं की सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी खो देता है। तब हम नकल होकर, कापियां होकर रह जाते हैं।


 स्वभाविक रूप से कोई भी आत्मा किसी दूसरी आत्मा की नकल या अनुकृति नहीं हो सकती। प्रत्येक आत्मा के भीतर अपना अद्वितीय जीवन है, अपनी यूनीक, अपनी बेजोड़ प्रतिभा और शक्ति है; वह विकसित होनी चाहिए। उसके बाबत थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही, और इसी संबंध में कहा कि जब तक हम अनुसरण करते हैं दूसरों के ज्ञान को, उधार ज्ञान को अपने मस्तिष्क पर लादते हैं, तब तक हमारा मन द्वंद्व शून्य नहीं होगा। ये कल मैंने आपसे कहा। इस सबको एक छोटी सी कहानी में संक्षिप्त करके मैं आज की चर्चा आपसे शुरू करूं।
मैंने सुना है एक बहुत बड़े नगर में एक फोटोग्राफर ने अपनी दुकान पर एक तख्ती लटका रखी थी। दूर एक आदिवासी राजा शहर आया, पहली बार आया। उसके मन में भी चाह उठी कि मैं भी फोटो उतरवाऊं। वह उस फोटोग्राफर के स्टूडियो पर गया। उसने वह तख्ती पढ़ी। उस तख्ती पर लिखा हुआ था...फोटो उतरवाने के दाम लिखे हुए थे। उस पर लिखा थाः जैसे आप हैं यदि वैसी ही फोटो उतरवानी है तो दस रुपये, जैसे आप चाहते हैं कि आप दूसरों को दिखाई पड़ें, अगर वैसी फोटो उतरवानी है तो पंद्रह रुपये। जैसी आप कामना करते हैं कि आपको होना चाहिए था, यानी भगवान आपको जैसा बनाता अगर वैसी फोटो उतरवानी है तो बीस रुपये।
वह थोड़ा हैरान हुआ! देहात का, जंगल का सीधा-साधा राजा था। उसकी समझ में नहीं आया कि ये कैसा मामला है। उसने स्टूडियो के मालिक को पूछा कि क्या पहली फोटो के अलावा दूसरी फोटो उतरवाने लोग भी यहां आते हैं। क्या ऐसे लोग भी हैं जो दूसरी बाकी फोटो उतरवाना चाहते हों।
उस स्टूडियो के मालिक ने कहा: आप पहले आदमी हैं जो ये पूछते हैं। अब तक पहली फोटो उतरवाने तो कोई आया ही नहीं। कोई अपने जैसा दिखना ही नहीं चाहता। उसने कहाः आप कौन सी फोटो उतरवाना चाहते हैं।
उसने कहाः क्षमा करें, मैं तो पहली फोटो उतरवाऊंगा, क्योंकि मैं अपनी फोटो उतरवाने आया हूं, किसी और की फोटो उतरवाने नहीं आया हूं।
लेकिन ये तो गांव का गंवार आदमी था। जो समझदार हैं वह कभी अपनी फोटो नहीं उतरवाते हैं।
वह महावीर की फोटो उतरवाते हैं, बुद्ध की फोटो उतरवाते हैं, कृष्ण की फोटो उतरवाते हैं, क्राइस्ट की फोटो उतरवाते हैं--अपनी फोटो नहीं उतरवाते हैं। और इसलिए दुनिया में द्वंद्व है, क्योंकि कोई आदमी अपना जैसा होने को राजी नहीं है, तैयार नहीं है। इसके लिए बहुत करेज की, बहुत साहस की जरूरत है।
राम होने की कोशिश बहुत आसान है, क्योंकि राम के नाम के साथ प्रतिष्ठा है, रिस्पेक्टिबिलिटी है। आपके खुद के नाम के साथ तो कोई प्रतिष्ठा नहीं है। बुद्ध होने की कोशिश आसान है, बुद्ध को हजारों लोग, लाखों लोग भगवान मानते हैं।
आपका मन भी भगवान मान कर पूजे जाने को उत्सुक होता होगा।
महावीर होने की कोशिश आसान है, क्योंकि महावीर को तीर्थंकर मानने वाले लाखों लोग हैं, उनके पैरों में सिर रखते हैं, उनकी मूर्तियां और मंदिर बनाते हैं।
आपके अहंकार को भी इससे तृप्ति मिलेगी कि आप भी महावीर जैसे हो जाएं। लेकिन अपने जैसे होने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। क्योंकि अपने जैसे होने का साहस का अर्थ है: नोबडी होने का साहस, ना कुछ होने का साहस। दूसरे की अनुकृति हमेशा आसान है। क्योंकि दूसरे की अनुकृति...हम उसी की अनुकृति होना चाहते हैं जिसके नाम के साथ प्रतिष्ठा है, यश है, पद है। फिर चाहे वह पद लौकिक हो, और चाहे वह पद पारलौकिक हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
हमारा अहंकार हमेशा उनकी तरफ जाना चाहता है जो शिखर पर खड़े हैं, जो ऊपर ऊंचाई पर खड़े हैं। और इसलिये हम नकल में पड़ जाते हैं। सारी अनुकृति, सारी नकल, सारी फॉलोइंग, सारा अनुसरण--ये सारे दुनिया के अनुयायी, ये सारे लोग जो दूसरों जैसा होने की कोशिश में लगे हैं, ये सारे लोग अहंकारग्रस्त हैं।
और जो अहंकारग्रस्त है उसका मन शांत नहीं हो सकता, उसका मन द्वंद्व शून्य नहीं हो सकता।
इसलिए आज मैं आपसे जिस विधायक साधना के संबंध में कुछ कहने को हूं, क्योंकि कल मैंने कहा कि जो मैंने कहा: वह विध्वंसात्मक है, वह तोड़ देने के लिए है। कुछ चीजें टूट जानी चाहिए, तब कुछ चीजें निर्मित की जा सकती हैं। जब बीज को हम बोते हैं, इसके पहले कि बीज से अंकुर पैदा हो, बीज टूट जाता है और मिट्टी में मिल जाता है। अगर बीज टूटने से इंकार कर दे, अगर बीज मिटने से इंकार कर दे, तो फिर अंकुर का जन्म नहीं हो सकता। इसके पहले कि सृजन हो विध्वंस उसके पहले आता है, विध्वंस सृजन का पहला चरण है। इसलिए मैंने कल कुछ बातें कहीं, जो तोड़ देने जैसी हैं। मन से सारे आदर्श खंडित हो जाने चाहिए।
कोई भी व्यक्ति जब तक किसी दूसरे की प्रतिमा के अनुकूल अपने को बनाने की कोशिश कर रहा है तब तक वह आत्मघाती है, वह आत्मविरोधी है। तब तक वह स्वयं की सत्ता को न तो स्वीकार करता है, न प्रेम की सत्ता की महत्ता को समझने को राजी है; न स्वयं की सत्ता को विकसित करने की तरफ उसकी कोई दृष्टि हो सकती है।
जब हम सारी प्रतिमाओं को अपने चित्त से अलग कर देते हैं। सारे आदर्शों को, सारे महापुरुषों को, सारे महात्माओं को जब हम अपने मन से अलग कर देते हैं, तब हम खाली अकेले रह जाते हैं। और तब हम दृष्टिपात कर सकते हैं उस व्यक्ति पर--जो हमारा है। उस व्यक्तित्व पर जो हमें मिला है। उस बीज पर जिसे लेकर हम जन्मे हैं। और तब हम विचार कर सकते हैं कि इस बीज के लिए क्या करें, इस बीज को कैसे विकसित करें, इस बीज को कैसे अंकुरित करें।
पहली बात है इस विधायक साधना के लिए, पहली बुनियादी आधारभूत बात है, वह यह है कि हम जानें कि हम क्या हैं? हम इस कोशिश में न पड़ें कि हमें कैसा होना चाहिए? हम जानें कि हम क्या हैं? आदर्श नहीं, तथ्य क्या हैं? हमारी एक्चुअलिटी क्या है, वस्तुतः हम क्या हैं? आत्मा और परमात्मा नहीं, वास्तविक तथ्य क्या हैं हमारे मन के? हमारे मानसिक जीवन के वास्तविक वेग क्या हैं? बहुत कठिन है।
कठिन इसलिए नहीं कि स्वयं के तथ्य को जानना कोई अपने आप में दुरूह बात है। कठिन इसलिए कि हम सब ने हजारों वर्षों से इस तरह के आदर्श मुखौटे ओढ़ रखे हैं कि अब अपनी शक्ल पहचाननी बहुत कठिन है।
कभी आपने खयाल किया, जब आप अपनी पत्नी के पास होते हैं तो आपका चेहरा क्या वही होता है, जब आप नौकर के पास होते हैं--तब होता है? फर्क हो जाता है। जब आप नौकर की तरफ आंख उठाते हैं तो वे आंखें दूसरी होती हैं, जब आप पत्नी की तरफ आंखें उठाते हैं तो वे आंखें दूसरी होती हैं, जब आप एक भिखमंगे के बच्चे को देखते हैं तो वे आंखें दूसरी होती हैं। दिन में चैबीस घंटे गिरगिट की भांति आपके मुखौटे, आपके चेहरे, आपकी आत्मा हवा की तरह बदलती रहती है--कभी इस पर खयाल किया है, कभी इस पर विचार किया है, कभी इस पर दृष्टिपात किया है--आपका चेहरा कौन सा है? आपका ओरिजिनल फेस क्या है? आप कौन हैं? आपका तथ्य क्या है?
चैबीस घंटे बदले जा रहे हैं, चैबीस घंटे! दफ्तर में मालिक के पास होते हैं, बॉस के पास होते हैं तो आपका चेहरा कुछ और है; चपरासी के साथ खड़े होते हैं, आपका चेहरा कुछ और है; मित्र के साथ खड़े होते हैं, चेहरा कुछ और है; अपरिचित के साथ खड़े होते हैं, चेहरा कुछ और है! अगर आपको पता है आपका असली चेहरा कौन सा है...चैबीस घंटे जो आदमी चेहरे बदलता रहता है, वह धीरे-धीरे भूल जाता है उसका तथ्य क्या है, उसकी एक्चुअलिटी क्या है?
मैंने सुना एक महिला एक खजांची से कुछ रुपये भुनाने गई थी खजाने में। उस खजांची ने उसको कहा कि मैं ये कैसे मानूं कि आप आप ही हैं।
वह किसी तरह की साक्षी और गवाही चाहता था।
उसने पूछा कि मैं कैसे मानूं कि आप आप ही हैं। उस महिला ने जल्दी से अपने वेनिटी बैग से अपना आईना निकाला, अपना चेहरा देखा और कहा: मानिए मैं, मैं ही हूं। उसने कहाः मान लीजिए मैं, मैं ही हूं।
पर उसके पहले उसने आईना निकाल कर अपना चेहरा देख लिया।
अगर आईने न हों तो हमें अपने आपको पहचानना कठिन हो जाएगा। क्योंकि हमें अपनी मौलिक प्रतिभा का, अपनी मौलिक क्षमता का वह जो हममें जन्मजात तथ्य हैं, उसका हमें कोई पता नहीं रहा। हमने खूब वस्त्र ओढ़ लिए हैं और हम उन वस्त्रों में इस भांति भूल गए हैं, ये आश्चर्यजनक है।
मनुष्य वस्त्रों में खो जाता है, और हम वस्त्रों में खो गए हैं। जब आप प्रेम प्रकट कर रहे होते हैं तब क्या कभी आपने गौर किया, कभी देखा कि वह प्रेम आपके भीतर है, या कि आपके शब्दों में है। और वे शब्द उन किताबों से लिए गए हैं जिनमें प्रेम की बातें कही गई हैं। जब आप प्रेम करते हैं तो प्रेम आपके भीतर है या कि आप प्रेम का दिखावा कर रहे हैं। जब आप भले आदमी का दिखावा करते हैं तो भला आदमी आपके भीतर है, या आप अभिनय कर रहे हैं। हम चैबीस घंटेे एक्टिंग्स में लगे हुए हैं। न मालूम किस-किस तरह की एक्टिंग्स हैं जो हम कर रहे हैं, और धीरे-धीरे इसमें हमारा तथ्य खो हो गया है।
और ये एक्टिंग हम क्यों करना चाहते हैं, कौन सा कारण है? वह मैंने कल आपसे कहा: आदर और अनुकरण। शिक्षा और यह दिखावट कि दूसरे जैसे हो जाओ। हमने बहुत अच्छे-अच्छे चेहरे ओढ़ रखे हैं, इसलिए अपने तथ्य को जानना असंभव हो गया है।
स्मरण रखें, जो अपने तथ्य को जैसा वह है--नग्न। वस्तुतः जब तक कोई व्यक्ति अपने उस तथ्य को नहीं जानेगा, तब तक उसके जीवन में कोई बुनियादी क्रांति नहीं हो सकती। क्योंकि जो स्वयं को पहचानता ही नहीं, वह स्वयं को बदलेगा कैसे? उसमें कोई बदलाहट कैसे होगी?
हम सब अपने को बदलना चाहते हैं लेकिन अपने को जानना नहीं चाहते।
आप महावीर बनना चाहते हैं, बुद्ध बनना चाहते हैं, क्राइस्ट बनना चाहते हैं, लेकिन आप अपने को जानना नहीं चाहते। जानने में तो दुख होगा, पीड़ा होगी, तप होगा। क्योंकि खुद को जानना कठिन और दुरूह इसलिए है कि हम दूसरों को धोखा देते-देते अपने को भी धोखा दे दिए हैं। और आज अपनी पर्तें उघाड़ना और अपने घाव देखना और अपने भीतर छिपे हुए पशुओं को पहचानना; हमारे अहंकार को अपनी ही आंखों में गिराना होगा, खुद ही खंडित करना होगा। हमने खुद अपनी जो तसवीर बना ली है--बहुत सुंदर। जब हम भीतर झांकेंगे तो बहुत कुरूप व्यक्ति को वहां पाएंगे। और तब परिणाम क्या होता है? जब-जब हमें अपने भीतर कुरूपता दिखाई पड़ती है, जब-जब अपने भीतर कोई असुंदर तत्व दिखाई पड़ता है, तभी हम क्या करते हैं? तब हम ये करते हैं कि उस असुंदर को सुंदर से ढांकने की कोशिश करते हैं।
मैं एक गांव में गया। एक घर में मैं ठहरा। उस घर में बहुत गंदगी थी। जिस कमरे में मुझे ठहराया उसमें बड़ी दुर्गंध थी, तो उन्होंने बहुत इत्र वहां छिड़क दिया, खूब फूल लाकर लगा दिए। जब मैं पहुंचा तो वहां इत्र ही इत्र था। जरूर, मुझे शक हो गया कि जब इतना इत्र छिड़का है, यहां जरूर कुछ बदबू होनी चाहिए। नहीं तो कौन इत्र छिड़कता है, इतने इत्र छिड़कने की जरूरत क्या है? जरूर यहां कुछ बदबू होनी चाहिए। थोड़ी देर में इत्र तो उड़ गया। रात जब मैं सोया तब तो इत्र था, जब सुबह उठा तो बदबू थी। उस बदबू को छिपाने के लिए इत्र छिड़क दिया।
जो आदमी जितना कुरूप होता है, उतना सुंदर वस्त्रों में अपने को ढांपने की कोशिश में लग जाता है। जो आदमी जितना कुरूप होता है उतने सुन्दर होने की, सारे के सारे आयोजन, सारे प्रसाधन खोजने लगता है। ये सारी खोज इसी चीज को ढांकने के लिए होती है।
संसार में हम अपने को ढांकते हैं, लेकिन परमात्मा की तरफ जिसको जाना है उसे अपने को उघाड़ना पड़ता है--ढांकना नहीं पड़ता। क्योंकि मैं कितने ही वस्त्र पहन लूं मेरी नग्नता आपसे छिप जाएगी, लेकिन स्वयं मेरी आत्मा के समक्ष मेरी नग्नता कैसे छिप जाएगी? और जो मेरी आत्मा के समक्ष छिपनी असंभव है, वह परमात्मा के समक्ष भी कैसे छिप सकती है? वहां तो मैं जो हूं, जैसा हूं, वैसा ही हूं--वहां कोई भेद नहीं पड़ सकता।
तथ्य इसलिए जानने जरूरी हैं। लेकिन हम तथ्यों से भागते हैं, हम एस्केप करते हैं। अगर आपको लगता है कि मेरा मन बहुत लोभी है, तो आप क्या करते हैं? आप एक मंदिर बनवाने लगते हैं ताकि, ताकि मैं समझा सकूं अपने को कि नहीं, मैं लोभी कहां हूं। देखिए, इतना बड़ा मंदिर बनाया।
एक मंदिर बन रहा था मेरे गांव में। नया मंदिर बन रहा था, तो मुझे हैरानी हुई! क्योंकि लोग तो घटते जाते हैं धर्म को मानने वाले, लेकिन नये मंदिर क्यों बनते जाते हैं? मंदिर पुराने बहुत हैं, उनमें कोई जाने वाला नहीं है। लेकिन नये मंदिर रोज बनते जाते हैं तो मैं हैरान था! रोज वहां से निकलता था तो मेरे मन में समझ नहीं आता था कि नया मंदिर क्यों बन रहा है। तो मैंने एक बूढ़े कारीगर को पूछा कि नया मंदिर क्यों बन रहा है, तुमने बहुत मंदिर बनाए हैं, तुम्हें जरूर पता होगा।
अदभुत वह कारीगर रहा होगा, उसने मुझसे कहा कि मेरे साथ पीछे आओ। पीछे गया तो वहां पत्थर पर खुदाई हो रही थी, मूर्तियां बन रही थीं। मैंने सोचा कि शायद वह कहेगा कि इन मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है। फिर मैंने कहा: ये तो कोई उत्तर न होगा। क्योंकि तब सवाल यह होगा कि ये मूर्तियां क्यों बन रही हैं? पुरानी मूर्तियां तो काफी हैं। उनको पूजने वाला कोई नहीं, उनको देखने वाला कोई नहीं, फिर नई मूर्तियों को बनाने की जरूरत क्या है? लेकिन वह बूढ़ा कारीगर बहुत होशियार रहा होगा। बड़ी गहरी उसकी दृष्ट रही होगी। उसने मुझे ये नहीं कहा कि मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है। वह मुझे और पीछे ले गया, और वहां एक पत्थर पर कुछ कारीगर काम करते थे। उसने कहाः इस पत्थर के लिए मंदिर बन रहा है। मैंने गौर से देखा, उस पत्थर पर मंदिर के बनाने वाले का नाम लिखा जा रहा था।
और सब मंदिर इसी के लिए बने हैं। वह उन भगवानों के मंदिर नहीं है जिनकी मूर्तियां भीतर हैं, वह झूठी बात है। वह उन पत्थरों के मंदिर हैं, जो बाहर लगे हुए हैं, वह उन नामों के लिए बने हैं। और ये लोक का हिस्सा है, ये लोक ही का हिस्सा है।
वह यहां नहीं, उस लोक के लिये भी इनवेस्टमेंट करना चाहता है। उस परलोक के लिए भी कि मैंने एक मंदिर बनवाया था। वह भगवान से कहेगा कि याद रखो--मैंने एक मंदिर बनवाया था।
मैंने सुना है, एक बार एक बहुत बड़े धनपति की मृत्यु हुई। वह गया...काल्पनिक कथा होगी। वह स्वर्ग में गया। उसने जाकर जोर से दरवाजे हड़बड़ाए। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना बड़ा आदमी मरे और दरवाजा बंद है। पहले से ही खोल कर रखने चाहिए थे। सारे जमीन के अखबारों में खबरें छप गई थीं। क्या भगवान तक अभी तक कोई खबर नहीं आई! उसने जोर से दरवाजा हड़बड़ाया।
गरीब आदमी धीरे-धीरे खटखटाता है। बड़ा आदमी कोई धीरे खटखटाता है! जोर से दरवाजे को धक्का दिया, भगवान भी भीतर डर गए होंगे!
दरवाजा उठ कर भगवान ने खोला और पूछा, कहिए।
उसने कहाः कहिए क्या? क्या पता नहीं चला आपको कि मैं मर गया हूं। इधर खबर नहीं आई, यहां कौन सा अखबार आता है। सभी अखबारों में करीब-करीब खबर छपी है, और सभी के पहले पृष्ठ पर छपी है।
कहा: ये तो मैं समझा लेकिन आपका प्रयोजन क्या है? क्या चाहते हैं?
उसने कहा: मैं स्वर्ग चाहता हूं और उसने अपने खींसे से नोटों का बंडल निकाला। वह साथ लेता आया था। उसने सोचा दुनिया में जो आदतें काम करती हैं, यहां फिर भगवान भी क्या दूसरे ढंग का होगा। उसने भगवान के हाथों में रुपये थमा देता है।
भगवान ने कहा कि क्षमा करें। शायद आपको पता नहीं कि आपकी दुनिया के सिक्के यहां नहीं चलते, रुपये बेकार हैं। वहां के कोई सिक्के यहां नहीं चलते हैं।
फिर भी उसने कहा कि... तब तो वह एकदम से फीका पड़ा गया। तब तो वह ताकत चली गई। जो दरवाजे को जोर से भिड़ाते वक्त थी। वह ताकत एकदम ढ़ीली हो गई। क्योंकि ताकत तो उन नोटों की थी, जो चलते तो ताकत थी, नहीं चलते तो बेकार हो गई। फिर भी उसने कहा कि मैं स्वर्ग में रहना चाहता हूं।
भगवान ने अपने कारीगरों, अपने काम करने वालों को दफ्तर में पूछा होगा, इसके नाम कुछ है स्वर्ग में रहने लायक। उससे खुद पूछा: तुमने कभी कुछ किया है।
उसने कहा: हां, मैंने एक दफा एक बूढ़ी औरत को पंद्रह नये पैसे दिए थे।
पूछा, कि देखो भई ये सच बोलता है क्या? देखा तो बात सच थी, उसने पंद्रह पैसे दिए थे। तो और भी तुम्हें कुछ याद आता है।
उसने कहाः एक दफा मैंने एक विद्यार्थी को भी पांच नये पैसे की सहायता की थी। वह भी सच पाया गया।
और कुछ याद आता हो।
उसने कहाः और तो मुझे कुछ याद आता नहीं।
असल में उसने और कभी कुछ किया नहीं था।
भगवान ने अपने सलाहकारों को पूछा: इस आदमी के साथ क्या किया जाए? उन्होंने कहा: ऐसा है इसके पंद्रह पैसे वापस कर दिए जाएं। क्योंकि पंद्रह पैसे में स्वर्ग बहुत सस्ता है।
मैं आपसे कहता हूं: पंद्रह पैसे में अगर स्वर्ग सस्ता है। तो पंद्रह लाख में भी स्वर्ग सस्ता है, पंद्रह करोड़ में भी स्वर्ग सस्ता है, और कितने ही मंदिर बनाएं, मंदिर बनाने से स्वर्ग नहीं मिल सकता। न परमात्मा की कोई अनुभूति हो सकती है, न कोई शांति मिल सकती है। क्योंकि किसलिए आप बनाते हैं! यह रुग्ण-चित्त अपने को धोखा देने के बहुत उपाय करता है, बहुत उपाय करता है।
 एक आदमी को क्रोध मालूम होता है, क्रोध पीड़ा देता है और शास्त्र कहते हैं--कि क्रोधी नरक जाएगा, वहां अग्नि में जलाया जाएगा और गर्म कढ़ाहो में खौलाया जाएगा। चित्त डरता है, घबड़ाता है, कमजोर आदमी है। क्षमा करने की योजना बना लेता है। क्षमा करूं, किसी को क्रोध न करूं।
लेकिन जो चित्त क्रोधी है, वह क्षमा कैसे करेगा? यह बुनियादी सवाल विचार करने जैसा है। इस पर बहुत गंभीरता से विचार करने जैसा है। क्योंकि पूरे जीवन की प्रक्रिया इस पर निर्भर करेगी। एक लोभी व्यक्ति त्याग कैसे कर सकता है? ये तो दोनों बातें विरोधी हैं। एक अहंकारी व्यक्ति विनीत कैसे हो सकता है? ये तो विरोधी बात है। एक क्रोध से भरा हुआ व्यक्ति प्रेमपूर्ण कैसे हो सकता है? या घृणा से भरा हुआ व्यक्ति प्रेमपूर्ण कैसे हो सकता है? या हिंसा से भरा हुआ चित्त अहिंसक कैसे हो सकता है?
अहिंसक नहीं हो सकता लेकिन तब वह अहिंसक होने के धोखे ईजाद कर सकता है। वह रात पानी छान कर पी सकता है। वह कुछ-कुछ चीजें खाने की छोड़ सकता है, और तब वह ये अपनों को वहम पैदा कर सकता है कि मैं अहिंसक हो गया। अहिंसक होना इतनी सस्ती बात नहीं है। पंद्रह नये पैसे में स्वर्ग नहीं मिल सकता और न अहिंसा मिल सकती है। अहिंसक होना तो पूरी आत्मक्रांति है। लेकिन वह कैसे होगा? जब तक हमारा चित्त क्रोध से भरा है, हिंसा से भरा है, घृणा से भरा है--हम अहिंसक कैसे होंगे? लेकिन ये क्रोधी हिंसक चित्त अहिंसक होना चाहता है। तब ये कोई तरकीब ऊपर से ढांक लेता है। भीतर हिंसा .... है ऊपर से अहिंसा का वेश अख्तियार कर लेता है। ज्यादा गहरी नहीं है इसकी अहिंसा, स्किन डीप भी नहीं है। जरा सा इसको उकसा दें, इसकी हिंसा बाहर आ जाएगी।
अभी हिंदुस्तान में हमला हुआ दूसरे मुल्कों का। इस मुल्क के सब अहिंसक एकदम हवा हो गए। यहां मुल्क के साधु भी युद्ध की भाषा बोलने लगे। वे भी बोले कि अब तो अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत है।
कैसा पागलपन का मामला है! एक आदमी कहे कि सत्य की रक्षा के लिए अब तो झूठ बोलने की आवश्यकता है तो रक्षा किसकी होगी? एक आदमी कहे अहिंसा की रक्षा के लिए अब तो हिंसा की जरूरत है तो रक्षा किसकी होगी? एक आदमी कहे कि भगवान की रक्षा के लिए अब तो शैतान के मंदिर बनाने की जरूरत है तो रक्षा किसकी होगी? लेकिन इस मुल्क को, जिनको हम कहते हैं--अहिंसक। उनकी अहिंसा भी दो क्षण में उखड़ गई। अखड़ गईं क्योंकि वह बहुत पतली है, ऊ पर छाई हुई है। भीतर तो कोई अहिंसा नहीं है, हो भी नहीं सकती।
हिंसक मनुष्य, हिंसक चित्त, कभी भी अहिंसक कैसे हो सकता है। वह अहिंसा को थोप लेगा। क..... कर लेगा, लेकिन उससे क्या होगा? एक जिस व्यक्ति के भीतर कामुकता है, सेक्सुअलिटी है वह अगर ऊपर से ब्रह्मचर्य को ओढ़ ले तो क्या होगा? सेक्सुअलिटी नष्ट हो जाएगी। नहीं; उसकी अंतर धाराएं प्रविष्ट हो जाएंगी। ऊपर ब्रह्मचर्य की बातें होंगी, भीतर सेक्सुअलिटी, भीतर कामुकता--गहरी होकर घूमने लगेगी।
एक साध्वी से मैं बातें कर रहा था। समुद्र के किनारे थे, जोर की हवा चलती थी, मेरा कोई कुसूर भी नहीं था। हवाएं मेरी चद्दर को उड़ाने लगीं। वह साध्वी को छू गया। साध्वी को छू गया तो जैसे उनके प्राण कंप गए। उनका साहस मुझसे कुछ कहने का नहीं हुआ, लेकिन उनके अनुयायी भी साथ थे। उनकी बरदाश्त के बाहर हो गया। उन्होंने मुझसे कहाः देखिए, आप अपनी चद्दर को रोकिए। साध्वी को पुरुष का कपड़ा छू रहा है।
वह साध्वी मुझसे आत्मा की, परमात्मा की बातें कर रही थी, मोक्ष की बातें कर रही थी, ध्यान की, समाधि की बातें कर रही थी। मेरे चद्दर के छूते ही सारा ध्यान, सारा मोक्ष, सारी आत्मा-परमात्मा विलीन हो गई। पुरुष का चद्दर छू गया। मैं हैरान हुआ! मैंने कहा: चद्दर केवल चद्दर है, पुरुष और स्त्री का कैसे हो सकता है।
लेकिन पुरुष का चद्दर छूने से अगर भीतर घबड़ाहट पैदा हो जाए। ये किस बात की खबर है? ये इस बात की खबर है कि सेक्स को दबाया गया है। इतना दबाया गया है कि सारे चित्त में सेक्सुअलिटी भर गई है, सारे चित्त में कामुकता भर गई। अब ये चद्दर भी कामुकता का प्रतीक अंग और चिह्न हो गया। इसको छू लेने से भी भीतर कुछ कंपन होने लगा।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ब्रह्मचर्य का अर्थ है: चित्त की सारी कामुकता का प्रेम में परिवर्तन। लेकिन कोई भी सेक्सुअल माइंड, जहां सेक्स काम कर रहा है--जोर से, जबरदस्ती ऊपर से बह्मचर्य को थोपेगा, तो और सेक्सफुल होता चला जाएगा, और सेक्सुअल होता चला जाएगा। कोई भी चीज दमन से नष्ट नहीं होती है। लेकिन हम क्या करें? क्या रास्ता है फिर आदमी के सामने?
जब उसको क्रोध मालूम होता है तो वह क्षमा के शास्त्र पढ़ता है, क्षमा की बातें सीखता है। जब उसको लोभ मालूम होता है तो वह त्याग की बातें सीखता है, त्याग की कोशिश करता है, मंदिर बनवाता है। जब उसको सेक्स पीड़ित करता है, कामवासना पीड़ित करती है तो फिर वह--ब्रह्मचर्य ही जीवन है--ऐसी किताबों को पढ़ता है, अध्ययन करता है। साधु-संन्यासियों का सत्संग करता है। फिर वह ब्रह्मचारी होने की कोशिश करता है।
लेकिन सेक्सुअल माइंड ब्रह्मचारी कैसे हो सकता है? तब तो आप कहेंगे कि अगर मैं ये कह रहा हूं, तब तो फिर कोई रास्ता नहीं है। निश्चित रास्ता है, लेकिन रास्ता यह नहीं है, रास्ता कुछ और है। और उसकी मैं आपसे बात कहना चाहता हूं।
जो व्यक्ति अपने जीवन के तथ्यों में कोई क्रांति लाना चाहता है, पहली बुनियादी बात है--उन तथ्यों से भागे नहीं। क्योंकि भागता है कमजोर और बदलाहट के लिए चाहिए ताकतवर। भागता है कमजोर, कायर, और बदलाहट के लिए चाहिए ताकतवर। तो अगर आप अपने जीवन के तथ्यों से भागते हैं, एस्केप करते हैं, यहां-वहां तरंग रहते हैं। किसी आदत में, किसी नीतिशास्त्र में, किसी धर्मशास्त्र में जाकर अपने सिर को छुपाते हैं...जैसे शुतुरमुर्ग होता है रेगिस्तान में। कोई दुश्मन आ जाता है उस पक्षी का, तो जल्दी से अपना सिर रेत में खपा कर खड़ा हो जाता है। जब सिर रेत में खप जाता है दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता। तर्क सीधा है, जब दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता--तो है ही नहीं। लेकिन दुश्मन न दिखाई पड़ने से नष्ट नहीं होता, बल्कि जब दुश्मन आपको नहीं दिखाई पड़ता, तभी खतरा शुरू होता है। क्योंकि तब दुश्मन के हाथ में आप हो जाते हैं। तब कोई बचाव का रास्ता नहीं रह जाता। लेकिन हम भी शुतुरमुर्ग जैसा ही काम करते हैं। जब भी भीतर कोई, कोई बात दिखाई पड़ती है जो हमें परेशान करती है जल्द ही उसके विरोध में सिर खपा कर खड़े हो जाते हैं। सेक्स दिखाई पड़ता है तो जाकर ब्रह्मचर्य की कसमें लेने लगते हैं।
पागल हुए हैं; कहीं कसमों से ब्रह्मचर्य दुनिया में हुआ है, और कसम लेने का मतलब क्या है, व्रत लेने का मतलब क्या है? एक आदमी कसम खाता है कि अब तो मैं ब्रह्मचर्य से रहूंगा। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब उसके भीतर सेक्सुअलिटी धक्के दे रही है, उसके खिलाफ वह कसम खा रहा है? नहीं तो कसम क्यों खाता। कोई जो आदमी सच बोलता है, क्या कभी कसम खाएगा कि मैं सदा सच बोलूंगा? नहीं खाएगा। क्योंकि वह कहेगा, मैं झूठ बोलता ही नहीं, कसम का कोई सवाल नहीं।
व्रत केवल वे लेते हैं जिनके भीतर विरोधी तत्व धक्के मार रहा है। उसके विरोध में ताकत पैदा करने को, अपनी शक्ति इकट्ठी करने को, समाज का सहारा लेने को हजार आदमियों के सामने वे कहते हैं--मैं ब्रह्मचर्य की कसम खाता हूं--ताकि अब यह उनके अहंकार का हिस्सा हो जाए कि मैंने ब्रह्मचर्य की कसम खाई। हजार लोगों के सामने अब कहीं वह टूट न जाए, इस अहंकार को वे खड़ा करते हैं सेक्स के खिलाफ। तब लड़ाई शुरू हो जाती है, उनके दोनों हाथ लड़ने लगते हैं। यहां अहंकार व्रत को सम्हालने की कोशिश करता है; वहां प्रकृति सेक्स के धक्के देती है। और तब उनका चित्त द्वंद्व में भरता चला जाता है और टूटता चला जाता है। कोई, कोई ताकतवर व्यक्ति भागता नहीं है--देखता है।
तो मेरा पहला जो निवेदन है: विधायक जीवन परिवर्तन की ओर--वह यह है--तथ्यों से भागें नहीं। लेकिन तथ्यों से आप तब तक भागते ही रहेंगे, जब तक तथ्यों का कंडेमनेशन आपके मन में है। जब तक आप उनकी निंदा करते हैं, जब तक आप कहते हैं: क्रोध बुरा है, तो फिर आप भागेंगे। जब तक आप कहते हैं: सेक्स बुरा है, तो आप भागेंगे। जब तक आप कहते हैं: कि फलां चीज बुरी है, तो फिर उससे आप भागेंगे। पहली बात है जीवन के तथ्यों को...जीवन के तथ्य न तो बुरे हैं, और न भले हैं; जीवन के तथ्य, बस तथ्य हैं। जीवन के तथ्य न बुरे हैं, और न भले हैं; जीवन के तथ्य, बस तथ्य हैं। आपको दो आंखें मिली हैं--न तो ये बुरा है और न ये भला है। ये गिविन फैक्ट है।
ऐसे ही आपको सेक्स मिला है, क्रोध मिला है, लोभ मिला है, अहंकार मिला है--ये भी जीवन के तथ्य हैं। जैसे आपको शरीर की हड्डियां मिली हैं, चमड़ा मिला है, मांस मिला है--ऐसे ही ये तत्व भी मिले हैं। इनको सिर्फ जानें कि ये तथ्य हैं। इनके प्रति अच्छे और बुरे का भाव लेना; फिर लड़ाई शुरू हो गई, भागना शुरू हो गया।
पहली बात है जीवन के तथ्यों को बहुत सहजता से, बिना किसी कंडेमनेशन के, बिना किसी निंदा के, बिना किसी स्तुति के, बिना किसी प्रशंसा के स्वीकार करना--देखना। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैं जो कहेंगे--सेक्स ही जीवन है। उन्होंने उस तथ्य की प्रशंसा में अपने मन को जोड़ दिया। एक वे लोग हैं जो कहेंगे--सेक्स, यह तो मृत्यु है। उन्होंने उसके विरोध में, निंदा में अपने को संलग्न कर लिया। ये दोनों व्यक्ति उलझ गए। एक तीसरा व्यक्ति है--जिसके होने की मैं आपसे प्रार्थना करता हूं।
वह तीसरा व्यक्ति न तो सेक्स को जीवन मानता है और न मृत्यु मानता है, न तो अमृत मानता है और न जहर मानता है। वह मानता है सेक्स है--ये तथ्य है। इस तथ्य को मैं जानूं, ये क्या है, क्यों है, इसे पहचानूं। इसकी पूरी शक्ति के भीतर प्रविष्ट हो जाऊं , इसकी सारी परतों को खोदूं, इसकी जड़ों तक जाऊं , इससे परिचित तो हो जाऊं --ये क्या है? तो पहली बात है: मन के तथ्यों को, तथ्यों की भांति जानें। तटस्थ भाव से जानें, उनकी निंदा में या स्तुति में संलग्न न हो जाएं--वे दोनों रास्ते गलत हैं। बीच में ठहरें, इसको मैं संयम कहता हूं। बीच में ठहरने को मैं संयम कहता हूं। ये दोनों असंयम हैं। भोगी--एक तरह का असंयमी है, साधु--दूसरी तरह का असंयमी है। एक, एक अति पर चला गया है; दूसरा, दूसरी इक्सट्रीम पर चला गया है। जो मध्य में ठहरता है--वह संयमी है, वह ज्ञानी है। रुकें और अपने मन के सारे तथ्यों को जानें, पहचानें--क्या है?
घबड़ाएं न, घबड़ाहट इसलिए पैदा होती है कि हजारों साल से उनकी निंदा की गई है। निंदा हमारे मन में बैठी है। जब हम देखते हैं अपने भीतर कि क्रोध है मेरे भीतर, अहंकार है हमारे भीतर; तो हम सोचते हैं, हम क्या करें? इस अहंकार से छूटने के लिए, मैं क्या करूं? हम पूछते हैं, अहंकार से बचने के लिए मैं क्या करूं?
कोई कहता है कि घर-द्वार छोड़ दो, कोई कहता है सम्पत्ति छोड़ दो, कोई कहता है कि वस्त्र छोड़ दो, कोई कहता है कि सब छोड़ दो, पद-प्रतिष्ठा छोड़ दो--तो अहंकार चला जाएगा।
सब छोड़ दें--अहंकार कहीं भी नहीं जाएगा। अहंकार वहीं के वहीं बना रहेगा। वह नई शक्ल ले लेगा। वह तपस्वी का अहंकार बन जाएगा, त्यागी का अहंकार बन जाएगा। वह कहेगा मैं संन्यासी हूं और मेरे मुकाबले और कोई संन्यासी नहीं। वह नए किस्म का अहंकार बन जाएगा। अहंकार ऐसे जा नहीं सकता।
अहंकार को जानना होगा। काम को, क्रोध को, मोह को, लोभ को जानना होगा--बड़ी सरलता से। वे हमारे जीवन के तथ्य हैं, जीवन की शक्तियां हैं, हम उन्हें जानें। और ये बड़े आश्चर्य की बात है, अगर आप किसी तथ्य के प्रति मात्र सजग होकर उसे खोजें, इस सजगता, इस अवेयरनेस, इस होश के कारण ही उस तथ्य में परिवर्तन शुरू हो जाते हैं। आपको कुछ करना नहीं होता।
अगर एक व्यक्ति चोर है, और वह इस तथ्य को खोजे ठीक से, कि क्या मैं चोर हूं। न तो इसकी बुराई करे, न इसकी भलाई करे। इस तथ्य को जाने, इससे भागे नहीं। इसको बदलने की कोई फिकर न करे। इस तथ्य को पूरा खोजे और समझ ले कि मैं चोर हूं--बिना किसी विरोध के। और फिर देखे क्या होता है!
अगर ये बोध उसे पक्का हो जाए कि मैं चोर हूं, स्पष्ट हो जाए--बस तो ये बोध ही परिवर्तन लाना शुरू कर देगा, ये ट्रांसफॉर्मेशन शुरू हो जाएगा। क्योंकि कोई भी मनुष्य सचेतन रूप से जब जान लेता है--मैं चोर हूं, तो उसकी पूरी आत्मा इस तथ्य को बदलने, इस क्रूर तथ्य को बदलने में संलग्न हो जाती है। उसे खुद कुछ कॉन्सशली नहीं करना होता। उसका अनकॉन्सश माइंड, उसकी अचेतन आत्मा सारी चीजों को बदलने में संलग्न हो जाती है।
लेकिन हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं करना चाहते तो इससे बचने की तरकीब हम क्या निकालते हैं? हम ये निकालते हैं कि कौन कहता है कि मैं चोर हूं? हम चोर नहीं हैं, हम तो मंदिर बनवाएं हैं। हम कैसे चोर हो सकते हैं? हम चोर नहीं, हम तो रोज सुबह मंदिर जाते हैं, हम कैसे चोर हो सकते हैं? हम चोर नहीं, हम तो रोज टीका लगाते हैं, जनेऊ पहनते हैं। हम कैसे चोर हो सकते हैं?
जीवन के तथ्यों से बचने के लिए हम उपाय खोजते हैं। पापी तीर्थयात्रा करते हैं, पापी रोज मंदिर जाते हैं--क्यों? ताकि हम कह सकें कि कौन कहता है कि हम चोर हैं? रोज सुबह मंदिर जाने वाला कहीं चोर हो सकता है? तीर्थयात्रा करने वाला कहीं चोर हो सकता है? लेकिन चोरों के सिवाय कब कौन मंदिर गया है, कब किसने तीर्थ किया है?
जिस आदमी का मन चोरी से मुक्त हो गया, पाप से मुक्त हो गया, वह तीर्थ जाएगा! तीर्थ उसके हृदय में आ जाते हैं। वह मंदिर जाएगा! भगवान उसके पास आ जाते हैं। वह जहां है, वहां मंदिर है; वह जहां है,वहां तीर्थ है। लेकिन हम तथ्यों से भागते हैं। मैं कहता हूं: तथ्य की स्वीकृति।
एक छोटी सी कहानी कहूं: उससे समझ में आए।
बहुत पुराने दिनों की बात है एक ऋषि हुए गौतम। वे अपने झोपड़े में बैठे थे, तभी एक युवक आया। बड़ा सुंदर स्वस्थ युवक था। उस युवक ने आकर ऋषि गौतम को कहा कि मैं भी आपके आश्रम में सम्मिलित होना चाहता। मैं भी ज्ञान का प्यासा हूं। मुझे भी सत्य की खोज है। मैं भी ब्रह्म को जानना चाहता हूं। क्या मुझे स्वीकार करेंगे?
गौतम ने कहाः तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता का नाम क्या है?
उस युवक ने कहाः मैंने अपनी मां से पूछा था। लेकिन मेरी मां ने कहा कि उसे मेरे पिता का कोई पता नहीं। उसे मेरे गोत्र का भी कोई पता नहीं। क्योंकि उसने मुझे कहा कि जब वह युवा थी तो वह बहुत से शिष्टजनों में रमती थी, और उन्हें रमाती थी; उन्हें प्रसन्न करती थी, उन्हें आनंद देती थी। इसलिए पिता का कोई भी पता नहीं। मैं किससे पैदा हुआ उसे कुछ पता नहीं। तो मेरी मां ने कहा है कि ऋषि को जाकर कह देना कि मेरी मां जब युवा थी तो उसने बहुत से लोगों की सेवा की, बहुत से लोगों को प्रसन्न किया। उन बहुत से लोगों में से किसी का मैं पुत्र हूं, उसे कुछ पता नहीं है। मेरी मां का नाम जाबाली है। मेरा नाम सत्यकाम है। इसलिए मेरी मां ने कहा कि तू यह बता देना कि मेरा पूरा नाम सत्यकाम जाबाल है। मेरे पिता का कोई पता नहीं है।
ऋषि गौतम ने क्या किया? वे उठे उस युवक को छाती से लगा लिया और कहा कि तू निश्चित ब्राह्मण है। क्योंकि इतना सीधा और सच्चा सत्य जो ब्रह्म का खोजी है, उसके सिवाय और किसी के मन से कभी निकलता नहीं है। तू ब्राह्मण है, तू स्वीकृत हुआ। इतना सीधा सत्य, तथ्य की ऐसी सीधी स्वीकृति केवल उसी से निकलती है जो ब्रह्म का खोजी है।
मैं आपसे कहना चाहूंगाः जो सत्य का खोजी है, उसे तथ्य की सीधी-सीधी सहज स्वीकृति जरूरी है। उसे छिपाना, उससे भागना घातक है। तो अपने मन को उघाड़ें, खोलें और जैसा पाएं...अगर पाएं कि वहां कोई गोत्र नहीं है, और कोई पिता का कोई पता नहीं है, तो कोई घबड़ाहट की बात नहीं। उस तथ्य को वैसा ही स्वीकार कर लें। वहां पाएं कि बिलकुल पशु बैठा हुआ है, उसे भी स्वीकार कर लें, उसमें क्या कसूर है। जैसा हमने पाया है, वैसा वह है। प्रकृति ने वैसा हमें दिया है--वह है। उसे हम स्वीकार कर लें। इस स्वीकृति से देखें कि क्या होगा।
स्वीकृति के साथ ही आपके भीतर अभय पैदा हो जाएगा, भय चला जाएगा। भय उसे होता है जो कुछ छिपाता है। जब आप कुछ छिपाते हैं, तो भय होता है। जब आप कुछ भी नहीं छिपाते और चीजों को सीधा खोल देते हैं, तो फिअरलेसनेस पैदा होती है। अभय पैदा होता है। तब आपको कोई भय नहीं रह जाता। क्योंकि उघड़ने के लिए तो भय होता है कि कोई मेरी नग्नता को न उघाड़ ले, कोई मेरे झूठ को न उघाड़ ले, कोई मेरे सेक्स को न उघाड़ ले। ये सारी तो भय की बातें होती हैं।
और अगर मैंने अपने चित्त के सामने सब खुद ही उघाड़ लिया है, तो भय के सारे बिंदु विलीन हो जाते हैं--फिअरलेसनेस पैदा होती है। अभय, साहस पैदा होता है। और जब मैं अपने सारे तथ्यों को उघाड़ता हूं तो उघाड़ने के साथ ही साथ वह जो ग्लानि का भाव होता है, वह जो एक आत्मा में ग्लानि का भाव होता है कि ये, ये बुरा मेरे भीतर है--वह विसर्जित हो जाता है। क्योंकि उघाड़ कर मैं पाता हूं--उघाड़ते, उघाड़ते, उघाड़ते ही इस बात का दर्शन होता है--कि वे तथ्य अलग हैं। और मैं जो उघाड़ रहा हूं--अलग हूं, पृथक हूं। स्वयं की चेतना की पृथकता का बोध स्पष्ट होता है।
और जब कोई तथ्य बहुत ज्यादा पीड़ादायी उपलब्ध होता है, जो अर्थहीन मालूम होता है, अबसर्ड मालूम होता है, मीनिंगलेस मालूम होता है, जिसमें कोई अर्थ नहीं मालूम होता। उसकी जब पूरी तलहटी को कोई व्यक्ति उघाड़ कर देखता है। तो इस देखने के द्वारा ही उस तथ्य में परिवर्तन होता है। बोध, अवेयरनेस अपने मन की सारी प्रक्रियाओं के प्रति सजगता अग्नि की तरह काम करती है। अगर हम अग्नि को जला दें तो कूड़ा-कर्कट जल जाएगा और जो सोना है, खालिस सोना--वह बाकी रह जाएगा।
होश, चीजों को देखने का सामथ्र्य और चीजों पर दृष्टि ले जाना अग्नि की भांति है। जब हम अपने भीतर सब चीजों को जांच कर देखना शुरू करते हैं--एक आग लग जाती है मन में। उस अग्नि में जो-जो कचरा है वह जलने लगता है, और जो-जो स्वर्ण है वह निखरने लगता है। एक दिन जब सब कचरा जल जाता है, अग्नि समाप्त हो जाती है--खालिस सोना, स्वर्ण भीतर रह जाता है। ये अग्नि को जलाना, होश की अग्नि।
लेकिन भागे हुए लोग उसे नहीं जला सकते हैं। एस्केप किए हुए लोग उसे नहीं जला सकते हैं। एस्केप बहुत तरह की हैं। एक आदमी शराब पीने लगता है, अपने तथ्यों से घबड़ा जाता है। एक आदमी जुआ खेलने लगता है, अपनी बेचैनी से घबड़ा कर जुआ पर दांव लगाता है--सब भूल जाता है उस दांव के तीव्र क्षण में, उस सेनसेशन की स्थिति में, उसे सब विस्मृति हो जाती है--चिंताएं, दुख, पीड़ाएं। एक आदमी शराब पी लेता है सब भूल जाता है। एक आदमी मंदिर के कोने में बैठ कर राम-राम जपने लगता है। राम-राम जपते ही जाता है, जोर-जोर से, जोर-जोर से, जितने जोर से राम-राम जपता है, उतनी जोर से चिंताएं भूल जाती हैं, उतनी देर के लिए चिंताएं विलीन हो जाती हैं। और फिर निरंतर राम-राम जपने से, या ओम् जपने से, या कोई भी मंत्र जपने से, मन की जो संवेदनशीलता है, जागृति है, वह कम हो जाती है। अगर मैं यहां एक घंटे तक एक ही वाक्य बोलता रहूं, कितने लोग होंगे जो जगे रह जाएंगे? अधिक लोग सो जाएंगे--स्वभावतः।
एक अदालत में एक मुकदमा चलता था। जो वकील अपने पक्ष के संबंध में बोल रहा था उसके बोलने का ढंग कुछ ऐसा मोनोटोनस था, कुछ ऐसा एकसुरा था और वह कुछ एक ही .... पर कानून की एक ही एक दलीलें इस भांति दोहराता था कि अक्सर सब ज्यूरी सो जाते थे। एक दिन वह समझा रहा था कोई घंटे भर से, करीब-करीब सब ज्यूरी सो गए थे। जिसके पक्ष में वह बोल रहा था, वह कैदी भी अपने कठघरे पर सिर रख कर सो रहा था। उसने चिल्ला कर मजिस्ट्रेट को कहा कि महानुभाव, ये क्या, कैसी अदालत है? सब ज्यूरी सोये हुए हैं।
उस मजिस्ट्रेट ने कहा कि मुझे क्षमा करें, मैं खुद गुनहगार हूं। क्योंकि बीच-बीच में मैं खुद ही सो जाता हूं। लेकिन महाशय, इसमें हम अकेले जिम्मेवार नहीं हैं। आप, आप भी जिम्मेवार हैं। आप कुछ ऐसी तरकीब करें कि लोगों की नींद खुल जाए। आप कुछ ऐसी बातें बोलें कि लोगों कि नींद उचट जाए।
एक मां को अपने बच्चे को सुलाना होता है। वह एक कड़ी उठा लेती है, सो जा मुन्ना, सो जा मुन्ना ही कहती चली जाती है, उसी-उसी को कहती जाती है। मां को ये भ्रम होता होगा कि बड़ा ऊंचा संगीत है, इसलिए मुन्ना सो रहा है।
मुन्ना बर्डन की वजह से सोया जा रहा है। जब बार-बार सो जा मुन्ना, सो जा मुन्ना किसी से भी कहिएगा तो मुन्ना क्या, मुन्ना के पिता भी सो सकते हैं--घबड़ा जाएंगे। बर्डन, किसी चीज की ऊब, घबड़ाहट, बेचैनी किसी को भी सुला देगी। एक आदमी राम-राम जप रहा है, एक आदमी ओम्-ओम् जपे जा रहा है। ये जपने से ऊब पैदा होती है, बर्डन पैदा होती, माइंड शिथिल हो जाता है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे डल हो जाता है।
यही तो वजह है जिन-जिन मुल्कों में राम-राम, ओम्-ओम् जपा, उनका माइंड बिल्कुल डल हो गया। उनको, उनसे कुछ फायदा नहीं हो सका, उनसे कोई आविष्कार नहीं हो सका। उनकी प्रतिभा सुस्त, काहिल और कुंद हो गई, खत्म हो गई। उनकी संस्कृति टूट गई। क्योंकि कुंद मस्तिष्क कुछ पैदा कर सकते हैं! लेकिन शांति मिल जाती है। क्योंकि नींद से किसी को शांति नहीं मिलती, नशा पीने से किसी को शांति नहीं मिलती, राम-राम जप रहे हैं, चिंताएं मिट गईं!
चिन्ता के लिए भी तो सजग मन चाहिए न। मूढ़ मन को चिंता भी नहीं होती, जड़ बुद्धि को चिंता भी नहीं होती। चिंता व्यापने के लिए भी तो होश चाहिए।
ये सब एस्केप हैं, ये सब तरकीबें हैं--अपने जीवन को भूल जाने की। नहीं, ये कोई भी धार्मिक नहीं हैं। धर्म है--जीवन को भूलना नहीं, जीवन की पूरी स्मृति, विस्मृति नहीं--स्मृति, अपने मन की, अपनी चेतना की सारी परतों का होश। एक-एक पर्त पर होश को ले जाना है, जागना है, देखना है--मेरे भीतर क्या है? भागना नहीं है।
भागता हुआ आदमी अधार्मिक है, जागता हुआ आदमी धार्मिक है। धर्म का मेरी दृष्टि में एक ही अर्थ हैः जागरण की सतत चेष्टा। तो जागें और देखें, और फिर देखें कि एक ट्रांसफार्मेशन आता है जो आपका लाया हुआ नहीं है, क्योंकि आप तो सिर्फ जागते थे। आप तो देखते थे कि मेरे भीतर चोरी है, प्रयोग करें।
क्योंकि जो मैं कह रहा हूं कोई सैद्धांतिक बकवास नहीं है। उससे तो मुल्क भरा हुआ है, उसकी कोई जरूरत भी नहीं है। मैं कोई उपदेश नहीं दे रहा हूं आपको। क्योंकि जिसका दिमाग खराब नहीं हुआ, वह किसी को काहे को उपदेश देगा? मुझे तो जो बात दिखाई पड़ती है सहज, वह आपसे कह रहा हूं। इसलिए नहीं कि आप मान लें, बल्कि इसलिए कि आप थोड़ा देखें--प्रयोग करके देखें। अगर ठीक लगे तो आपको खुद ठीक लगेगी, वह आपकी अनुभूति होगी; उससे मेरा कोई संबंध नहीं होगा। देखें अपने भीतर किसी तथ्य को। एक तथ्य को पकड़ लें और देखें, और फिर देखें कि वह तथ्य टिकता है या जाता है।
जब आप बहुत सजगता से किसी भी एक तथ्य को पकड़ लेंगे; हिंसा को पकड़ लेंगे कि मेरे मन में हिंसा है, और अहिंसक होने की कोई चेष्टा न करें। क्योंकि अहिंसक होने की चेष्टा का मतलब हिंसा से आपने मुंह चुराना शुरू कर दिया। नहीं, उस हिंसक होने को स्वीकार कर लें कि ये मेरी हिंसा है--ठीक है। अब मैं इस हिंसा के तथ्य के साथ जीऊंगा, देखूं क्या होता है? अब मैं इस तथ्य के साथ रहूंगा, देखूं क्या होता है? चैबीस घंटे जागे हुए रहें--कि हिंसा है।
जब मैं चपरासी से अभद्र शब्द बोला, तब हिंसा थी; जब मैं पत्नी से बेहूदी बात बोला, तब हिंसा थी; जब मैं बच्चे का कान पकड़ा, तब हिंसा थी। देखें चैबीस घंटे कहां-कहां हिंसा है। जब मैं किसी से प्रतिस्पर्धा कर रहा हूं, तब हिंसा है। जब मैं बड़ा मकान बना रहा हूं, पड़ोसी के छोटे मकान को छोटा करने के लिए, तब हिंसा है। तो मैं देखूं अपनी सारी हिंसा को चैबीस घंटे की, जो मेरे जीवन के संबंध हैं, उसमें देखूं कहां-कहां हिंसा है और चुपचाप उसे देखूं और कुछ करने की भी जरूरत नहीं है। और आप देखते-देखते हैरान हो जाएंगे! आपका जैसे-जैसे बोध होगा कि हिंसा है, वैसे-वैसे आप पाएंगे हिंसा विलीन हो रही है, और हिंसा की जगह कोई एक नया तत्व आ रहा है--जो अहिंसा का है।
चूंकि हम देखते नहीं, इसलिए हिंसा जिंदा है। हमारी मूच्र्छा हिंसा का प्राण है। अगर हम जागेंगे और देखेंगे, हिंसा की मृत्यु हो जाएगी। जीवन में जो भी अशुभ है, वह हमारी मूच्र्छा के कारण जिंदा है। हम बेहोश हैं, इसलिए वह जिंदा है, इसलिए उसमें प्राण है। प्राण कौन दे रहा है? हम दे रहे हैं। मूच्र्छा के कारण हम ही प्राण दे रहे हैं उसको, हम ही शक्ति दे रहे हैं, हम ही वैडिलिटी दे रहे हैं। हमारी ही एनर्जी वह पी रहा है लेकिन अगर हम जाग जाएं, तो हमारा...अपने आप हमारी शक्तियां उससे दूर हटती जाएंगी। हम ‘क्षण’ सजग हो जाएंगे।
 एक मित्र हैं, उन्होंने मुझसे कहाः मुझे बहुत क्रोध आता है, मैं क्या करूं? मैं बहुत तरकीबें कर चुका। क्रोध तो जाता नहीं, क्रोध से मेरा जीवन खराब हुआ जा रहा है। मैंने उनसे कहाः आप एक छोटा सा काम करें, कागज पर लिख कर रख लें कि अब मुझे क्रोध आ रहा है। उसे हमेशा खींसे में रखें। जैसे क्रोध आए, कृपा करके उसको निकाल कर पढ़ें और वापस रख लें। फिर मुझे महीने भर बाद आकर कहें। वह महीने भर बाद आया। वे बोले हैरान हूं मैं तो! क्रोध आता है, मेरा हाथ खींसे की तरफ गया कि मुझे लगता है--क्रोध तो हवा हो गया।
किसी भी तथ्य को आप जाग कर देखें। आपका जागरण तथ्य की मौत है। और जब तथ्य मर जाता है तो उस तथ्य में जो शक्ति आपकी खर्च हो रही थी, वह रिलीज होती है। आखिर क्रोध में शक्ति नष्ट हो रही है, लोभ में शक्ति नष्ट हो रही है; प्रतिस्पर्धा में, घृणा में शक्ति नष्ट हो रही है; द्वेष में, ईष्र्या में शक्ति नष्ट हो रही है। अगर ये सारे तथ्य विलीन हो जाएं--तो एक अदभुत शक्ति का रिलीज होगा। इनकी सारी शक्ति बच जाएगी। वही शक्ति आपकी आत्मा को बल देगी, वही शक्ति आपकी आत्मा का उध्र्वगमन बन जाएगी--जो शक्ति क्रोध में नष्ट होती, लोभ में नष्ट होती, जो शक्ति अहंकार में नष्ट होती है--वही बच जाए, तो वही उर्जा परमात्मा तक ले जाने का मार्ग बन जाती है; वही उर्जा परमात्मा तक ले जाने की सीढ़ी बन जाती है।
लेकिन भाग कर कोई दुनिया में कभी क्रांति नहीं होती। फिर इस भांति जागरण से जो क्रांति होती है, ये जो ट्रांसफार्मेशन होता है--ये आपका लाया हुआ नहीं है। क्योंकि आप तो केवल जागे थे, आप तो केवल जागे थे, ट्रांसफार्मेशन अपने से आता है। आप जागें, सत्य अपने से आता है। मनुष्य जागे, सत्य का आगमन अपने से होता है। मनुष्य जागे, परमात्मा उसे खोजता हुआ उसके द्वार चला आता है। लेकिन जागने की बात है, पूरी तरह जागने की बात है।
और इसलिए जागना ही एकमात्र तप है, एकमात्र तपश्चर्या है। जागना ही एक मात्र श्रम है, संकल्प है, साधना है। जो मनुष्य करे तो उसके भीतर एक बिलकुल अभिनव व्यक्ति का जन्म हो जाएगा। एक ऐसे व्यक्ति का जिसे उस शांति का पता चलेगा--जो सनातन है, अनादि है। जिसे उस सन्नाटे का अनुभव होगा--जो परमात्मा के हृदय में है, जिसे उस आनंद की किरणें उपलब्ध होंगी--जो इस सारी विराट सृष्टि के केंद्र में छिपा हुआ है, उसे उस अमृत का सागर उपलब्ध हो जाएगा--जो कि सारे अस्तित्व में रमा हुआ है, लेकिन व्यक्ति टूट जाएगा। उसके तथ्य सब बदल जाएंगे, सिर्फ होश रह जाएगा। और अंततः होश की लपट उसे परमात्मा की ज्योति से मिला देगी।
ये विधायक रूप से क्या किया जा सकता है, हम क्या कर रहे हैं? हम भाग रहे हैं, भागते चले जा रहे हैं। नहीं, भागना नहीं है--रुकना। ठहरें और देखें और जागें और अपने को बदलने की कोई फिकर न करें--बदलाहट आएगी। बदलाहट आपके हाथ का काम नहीं हो सकती। क्योंकि आपका जो कनफ्यूज दिमाग है, आपका जो द्वंद्वग्रस्त मन है, आपका जो बेहोश मन है--यह क्या बदलाहट लाएगा, इससे क्या बदलाहट हो सकती है।
अगर यह बदलाहट ला सकता, तब तो कहने ही क्या थे! और अगर यह कोई बदलाहट ले भी आएगा तो क्या वह बदलाहट इस मन से बेहतर हो सकती है? जो मन बदलाहट लाएगा, बदलाहट इस मन से नीची होगी; इससे ऊंची नहीं हो सकती।
 कैसे हो सकती है? बनाने वाले से बनाई गई चीज कहीं बड़ी हो सकती है! क्रिएशन कहीं क्रिएटर से बड़ा हो सकता है! तो आपका माइंड जिस वाइलेंस से बच कर नॉन-वाइलेंस को पैदा करेगा, हिंसा से बच कर अहिंसा पैदा करेगा, वह आपके दिमाग से बड़ी हो सकती है--नहीं हो सकती। वह आपके दिमाग से भी छोटी होगी। जब आपका दिमाग ही छोटा है, जब मेरा दिमाग ही छोटा है, जब मेरा दिमाग हिंसा से, क्रोध से, वासना से भरा हुआ है तो इससे धर्म कैसे पैदा हो सकता है--नहीं, इससे कोई धर्म पैदा नहीं हो सकता। इससे जो धर्म पैदा होगा, वह इसी तरह का धर्म होगा--वह लोभ का धर्म होगा, पाप का धर्म होगा, अहंकार का धर्म होगा। वह धर्म इस मन से बड़ा नहीं हो सकता। जो चीज जिससे पैदा होती है, उससे बड़ी कभी नहीं हो सकती।
फिर क्या रास्ता है? इस मन से कोई रास्ता नहीं, इस मन से कुछ हो नहीं सकता। लेकिन एक बात है इस मन के प्रति जागा जा सकता है, जो जागता है वह मन से अलग है। जो होश से भरता है, वह मन के पीछे है। और अगर वह होश से पूरा भर जाए, तो उसका होश इस मन में क्रांति लाना शुरू कर देता है।
एक छोटी सी कहानी से अपनी चर्चा को मैं पूरा करूं।
एक फकीर था। एक युवक उसके पास गया और उसने कहा कि मैं तो चोर हूं, मैं तो बेईमान हूं, मैं तो झूठ बोलने वाला हूं, लेकिन मैं भी परमात्मा को पाना चाहता हूं--मैं क्या करूं? और मैं जिस साधु के पास गया उसने कहाः पहले झूठ छोड़ो, पहले बेईमानी छोड़ो, फिर मेरे पास आना।
उस फकीर ने कहाः तुम गलत लोगों के पास पहुंच गए, जिन्हें कुछ भी पता नहीं। तुम ठीक ही हुआ कि यहां आ गए और मैं खुश हूं कि तुम यह स्वीकार करते हो--तुम चोर हो, तुम बेईमान हो। यह धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है कि वह स्वीकार करता है कि वह चोर है, वह बेईमान है, वह झूठ बोलता है। अब कुछ हो सकता है। तुम्हारी तैयारी पूरी है। लेकिन इन्हें छोड़ना मत, छोड़ने की फिकर में मत पड़ जाना, नहीं तो छोड़ने की फिकर में ये बच जाएंगे; फिर तुम भागते रहोगे, और ये बचे रहेंगे। जब तुम रुकोगे, तब तुम पाओगे कि ये मौजूद हैं। ये कहीं भी नहीं जाएंगे, क्योंकि तुम अपने को छोड़ कर कहां भाग सकते हो?
उसने एक छोटी सी कहानी उस युवक को कही। उसने कहा कि एक आदमी एक दूसरे गांव के दरवाजे पर पहुंचा। उस गांव के दरवाजे पर एक बूढ़ा आदमी बैठा था, उसने उससे पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहाः मैं ये पूछूं कि आप किसलिए ये पूछते हैं? क्या यहां बसना चाहते हैं? यदि बसना चाहते हैं तो ये बताएं कि आप जिस गांव को छोड़ कर आ रहे हैं, वहां के लोग कैसे थे?
आदमी ने कहाः उस गांव के लोगों का नाम भी मत लो। वैसे दुष्ट, वैसे पाजी लोग इस सारे संसार में कहीं भी नहीं हैं।
उस बूढ़े ने कहा: तब आप किसी और गांव में बसें। आप पाएंगे इस गांव के लोग, उस गांव से भी ज्यादा दुष्ट हैं। यह तो बहुत ही खराब गांव है। मेरा अनुभव यह है कि इस गांव जैसे आदमी, उस गांव में भी न होंगे। तुम जाओ कहीं और बस जाना। वह हटा, उसके पीछे एक दूसरा आदमी पहुंचा।
उसने भी पूछा कि मैं इस गांव में बसना चाहता हूं--उस बूढ़े आदमी से। इस गांव के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहा कि पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम जिस गांव से आते हो उस गांव के लोग कैसे थे?
उसने कहाः उनका तो नाम ही मेरे हृदय को आनंद से भर देता है। उतने भले लोगों को छोड़ कर मजबूरी में मुझे आना पड़ा, इसके लिए मेरा हृदय सदा दुखी रहेगा।
उस बूढ़े ने कहाः आओ, तुम्हारा स्वागत है। तुम पाओगे इस गांव के लोग तो उस गांव से भी बेहतर हैं। इस गांव जैसे अच्छे लोग तो हैं ही नहीं जमीन पर।
उस फकीर ने उस युवक को कहा: यह कहानी मैं तुमसे कहता हूं, तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपनों को छोड़ कर नहीं जा सकते। तुम जो हो, वह तुम्हारे साथ है। और उसकी शक्ल तुम्हें दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती है--और क्या दिखाई पड़ता है!
आप, सब, मैं, आप एक दूसरे के लिए दर्पण हैं, एक दूसरे में अपनी शक्ल झांक लेते हैं।
तो तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपने से भाग नहीं सकते। लेकिन एक काम करना, तुम अपने प्रति जाग सकते हो। तो तुम एक काम करना कि जब भी तुम्हारे मन में चोरी का, बेईमानी का खयाल आए तो तुम होश से करना, चोरी करना होश से करना, किसी का ताला तोड़ने जाओ, तो बेहोशी में मत तोड़ना, पूरे होश से कि मैं ताला तोड़ रहा हूं, चोरी कर रहा हूं--सजगता से ताले को तोड़ना। जैसे ही मूच्र्छा आ जाए, वहीं ताला छोड़ देना। होश आए, फिर ही ताला खोलना; मूच्र्छा में ताला मत खोलना। पूरी तरह से जागे हुए हो कि ताला तोड़ना। जागे हुए को में तिजोरी से रुपये निकालना।
वह युवक पंद्रह दिन बाद लौटा। उसने कहाः यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। जब मैं पूरे होश से भरा होता हूं तो मेरा हाथ रुपये उठाने को नहीं बढ़ता है। और जब मैं बेहोश होता हूं तो हाथ बढ़ता है। और आपने तो बड़ी मुश्किल कर दी। मैं दो दिन बहुत बढ़िया खजाने छोड़ कर आया। तोड़ ली थी दीवालेें, पहुंच गया था, तिजोरियां खोल ली थीं--हाथ उठाता था, ख्याल आता था कि चोरी होशपूर्वक करनी है। होश जैसे ही जगता था, चोरी विलीन हो जाती थी।
जैसे हम यहां दीया जलाते हैं तो अंधेरा विलीन हो जाता है, दीये के साथ अंधेरा विलीन हो जाता है। दीया बुझा दें, अंधेरा आ जाता है। ठीक वैसे ही होश जगाएं, सारी विकृति विलीन हो जाती हैं। दीया बुझा दें, विकृति लौट आती है। होश आत्मा का दीया है, वही ध्यान है। उसी को मैं मेडिटेशन कहता हूं। होश ध्यान है। निरंतर अपने जीवन के सारे तथ्यों के प्रति जागे हुए होना ध्यान है। वही दीया है, वही ज्योति है; उसको जगा लें और फिर देखें--पाएंगे, अंधेरा क्रमशः विलीन होता चला जा रहा है।
एक दिन आप पाएंगे अंधेरा है ही नहीं, एक दिन आप पाएंगे, आपके सारे प्राण प्रकाश से भर गए; और एक ऐसे प्रकाश से जो अलौकिक है; एक ऐसे प्रकाश से जो परमात्मा का है; एक ऐसे प्रकाश से जो इस लोक का नहीं, इस समय का नहीं, इस काल का नहीं--जो कहीं दूरगामी, किसी बहुत केंद्रीय तत्व से आता है और उसके आलोक में ही जीवन नृत्य से भर जाता है, संगीत से भर जाता है। तभी शांति है, तभी सत्य है। उसके पूर्व सब भटकन है, सब अंधेरा है। उस अंधेरे में आप कुछ भी करें, कुछ भी न होगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। ज्योति को जगाएं--होश की, फिर होश ही कुछ करेगा। होश क्रांति ले आता है।
कल मैंने कुछ तोड़ने की बात कही। आज कुछ आपसे बनाने की बात कही। अगर तोड़ने और बनाने का साहस जिस व्यक्ति में है, वह कभी भी अपने जीवन को एक अदभुत जीवन में परिवर्तित कर सकता है।
परमात्मा करे, आपका जीवन एक ज्योति बने--एक जीती ह‏ुई ज्योति। आपके लिए ही केवल ये जरूरी नहीं है, इस वक्त सारा मनुष्य संकट में है। सारा मनुष्य पीड़ा में है। अगर बहुत से लोगों के हृदय जग जाएं और ज्योति बन जाएं, तो इस सारे जगत से अंधकार दूर हो सकता है। एक नई संस्कृति पैदा हो सकती है--जो धार्मिक होगी।
अभी तक कोई धार्मिक संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। अभी वस्तुतः धर्म ही पैदा नहीं हो सका। अभी धर्म के नाम से चर्च पैदा हुए, संप्रदाय पैदा हुए; अभी धर्म पैदा नहीं हुआ। अभी मनुष्य के हृदय में धर्म की ज्योति नहीं जगी, अभी समय है। और बहुत लोगों को श्रम करना होगा। उनके खुद के हित में भी, और सारे मनुष्य के हित में भी, उसमें ही कल्याण है। अगर हम एक संस्कृति को पैदा कर सकें--जो कि धार्मिक हो। वह कैसी होगी? धार्मिक मन से होगी। धार्मिक मन कौन सा है? जिसके भीतर होश की ज्योति जगी है, वह धार्मिक मन है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम, इतनी शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत आनंदित और अनुगृहीत हूं। और आप सबके चरणों में प्रणाम करता हूं। क्योंकि कोई चरण किसी का नहीं, सभी चरण परमात्मा के हैं।
समाप्त 

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