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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)  

निःशब्द में ठहर जाएं

मेरे प्रिय आत्मन्!
जैसे कोई मछली पूछे कि सागर कहां है? ऐसे ही यह सवाल है आदमी का कि सत्य कहां है? मछली सागर में पैदा होती है सागर में जीती है और मरती है। शायद इसी कारण सागर से अपरिचित भी रह जाती है।
जो दूर है उसे जानना सदा आसान जो पास है उसे जानना सदा कठिन है। मछली सागर भर को नहीं जान पाती है। रात शायद आकाश के तारे भी उसे दिखाई पड़ते हैं और सुबह शायद ऊगता हुआ सूरज भी दिखाई पड़ता है। सिर्फ एक जो नहीं दिखाई पड़ता मछली को वह वही सागर है जिसमें वह पैदा होती है, जीती है और मरती है।
सत्य कहां है? कहीं दूर होता तो हम पा लेते, खोज लेते। कहीं चांद-तारों पर होता तो हम पहुंच जाते। दूरी बाधा न बन सकती। एवरेस्ट पर्वत पर तो हम चढ़ जाते हैं। और पैसिफिक महासागर में होता तो हम गहरे उतर जाते। लेकिन सत्य इतने भीतर है जितने कि हम भी अपने से निकट नहीं हैं। और यही सबसे बड़ी कठिनाई हो जाती है। जो पास है उसे खोजना मुश्किल ही हो जाता है। क्योंकि खोजने के लिए जगह चाहिए, स्पेस चाहिए जहां हम खोज सकें। इतना भी फासला नहीं है हमारे और सत्य के बीच। इसलिए सबसे बड़ी कठिनाई यही हो गई है कि जो हम हैं उसी को हम नहीं खोज पाते। यह कहना भी उचित नहीं है कि सत्य पास है क्योंकि पास भी दूरी का एक नाम है यही कहना उचित होगा कि हम जो हैं वही सत्य है। अन्यथा हो ही नहीं सकता।



मैंने छोटी सी एक कहानी सुनी है, उससे मैं अपनी बात शुरू करूं।
मैंने सुना है कि ईश्वर ने दुनिया बनाई, और जब तक आदमी नहीं बनाया था तब तक बड़ी चैन थी उसे। आदमी को बना कर ही मुसीबत शुरू हो गई। आदमी को बनाते ही परमात्मा को एक क्षण भी शांति से जीना मुश्किल हो गया होगा ये हम समझ सकते हैं। और उसका मकान बीच में था, पास था और सारे लोग दिन-रात घेरे रखते और न मालूम कैसे-कैसे सुझाव देते और न मालूम कैसी-कैसी शिकायतें करते। कोई कहता कि आज सूरज न निकले और कोई कहता कि आज वर्षा हो जाए। और कोई कहता कि आज सूरज निकले। और आज वर्षा न हो। और जितने लोग थे, जितने मुंह थे उतने सुझाव थे उतनी शिकायतें थीं। उस ईश्वर ने अपने सारे देवताओं को इकट्ठा किया और कहा कि मुझे आदमी से बचने के लिए कोई जगह चाहिए। अन्यथा मैंने आदमी को बनाया। आदमी मुझे मार डालेगा। मुझे कोई ऐसी जगह बता दो जहां आदमी न पहुंच पाए। किसी ने कहा, गौरीशंकर ठीक होगा उस पर चले जाओ। और उसने आंख बंद की और कहा कि नहीं ठीक नहीं होगा थोड़ी ही देर बाद तेनसिंग और हिलेरी वहां चढ़ जाएंगे। तो किसी ने कहा कि चांद पर चले जाएं। और उसने आंख बंद की और उसने कहा कि यह भी नहीं चलेगा, आर्मस्ट्रांग के पैर पड़ने के ही करीब है।
और बहुत सुझाव थे, लेकिन उसे कोई न जंचा। तब एक बूढ़े देवता ने उसके कान में कहा कि फिर तो एक ही रास्ता है। आप आदमी के भीतर छिप जाएं। ईश्वर ने कहा, यह बात जंचती है। क्योंकि आदमी शायद ही वहां जाने की कभी कोशिश करे। इस जगह पर हर आदमी नहीं जाएगा।
यह कहानी पता नहीं कहां तक सच है। लेकिन इसका निष्कर्ष तो सच ही मालूम पड़ता है। ये पूरी कहानी झूठ हो सकती है। लेकिन आखिरी बात तो सच है। आदमियों के भीतर छिपा है वह जिसे हम खोजते हैं। और खोज का खतरा यह है कि खोज सदा बाहर की तरफ ले जाती है। खोज बाहर की तरफ ले जाती है। जैसे ही हम खोजने की बात, सर्च की और सीकिंग की बात सोचते हैं वैसे ही बाहर चले जाते हैं।
सत्य की खोज के संबंध में कहा गया है कि मैं बोलूं तो पहली तो बात मैं ये बोलूंगा कि सत्य को आप खोज न सकेंगे। क्योंकि खोज का अर्थ ही उसे खोजना होता है जो खो गया हो। सत्य को हमने कभी खोया नहीं। असल में सत्य वही है जिसे खोने का उपाय न हो। जिसे खोया जा सके वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य वही है जो हमारा प्राणों का प्राण है हमारे अस्तित्व का अस्तित्व है। उसे हम खो कैसे सकेंगे! इसलिए सत्य की खोज शब्द बहुत कंट्राडिक्ट है। यह खोज सत्य की नहीं होती। खोज सदा ही असत्य की होती है।
इसलिए जितना आदमी खोज में आगे बढ़ता है उतनी असत्य की दुनिया निर्मित होती चली जाती है। खोज से नहीं होगा काम इसलिए भी कि खोज उसकी हो सकती है जो दूर हो। उसकी नहीं हो सकती जो पास हो। और इसलिए भी खोज उसकी नहीं हो सकती है सत्य की क्योंकि खोजने के लिए कम से कम दो चाहिए खोजने वाला और जिसे खोजना हो वह। और सत्य के मामले में दोनों एक ही हैं। वह जो खोज रहा है उसी को खोजा भी जाना है। यहां दोनों ही जैसे चित्रकार बनाने वाला अलग होता है और चित्र बनता है तो अलग होता है। मूर्तिकार अलग होता है मूर्ति बनती है तो अलग होती है। यह सत्य की खोज नर्तक की भांति है, डांसर की भांति है जहां नृत्य और नृत्यकार एक ही होते हैं। जहां दो नहीं होते। यहां सत्य की खोज करने वाला और सत्य एक ही है।
बुद्ध को जिस दिन सत्य मिला भाषा में कहना पड़ेगा मिला। नहीं, उचित तो होगा कहना कि जिस दिन बुद्ध ने ये पाया कि मैेंने सत्य कभी खोया नहीं है उसी दिन लोग इकट्ठे हो गए गांव के और उन्होंने पूछा तुम्हें क्या मिला है हमें ठीक से बता दो तो हम भी खोज पर चले जाएं। तो बुद्ध ने कहा कि एक काम भूलकर मत करना खोज पर मत जाना क्योंकि जब तक मैं खोजता रहा तब तक न पा सका। और दूसरी बात ये मत पूछो कि मुझे क्या मिला है क्योंकि मिला मुझे कुछ भी नहीं है जो सदा से मेरे पास था सिर्फ उसका पता चला है। मिलता वह है जो हमारे पास न हो। जो मेरे पास ही था और जिसका मुझे पता नहीं था उसका मुझे पता चल गया है। इसलिए बुद्ध ने कहा, यह मत कहो कि मुझे मिला क्या है यह पूछो कि मैंने खोया है? मैंने असत्य खो दिया है इतना मैं कह सकता हूं। सत्य मैंने पा लिया है ये कहना गलत होगा। क्योंकि सत्य तो था ही। तो लेकिन जो है ही और इतने पास है वह भी हमें पता नहीं है। और हमारे सोचने की और खोजने के जो ढंग हैं हमारी खोज की जो व्यवस्था है वह उसका पता भी न चलने...क्योंकि जैसा मैंने कहा कि खोज का मतलब ही बाहर खोजना होता है। खोज का मतलब ही दूर खोजना होता है। खोज का मतलब ही पराए को खोजना होता है। खोज का मतलब ही जो नहीं हूं मैं जो नहीं है मेरे पास उसको खोजना होता है और सत्य का मतलब ही यही होता है कि जो है दैट व्हीच इ.ज। वह नहीं हो जो होगा, हो सकता है। नहीं जो है ही। इसी क्षण अभी और यहां और ऐसा कोई क्षण न था जो नहीं था जो है ही सदा। उसे खोजने की बात सोचनी पड़ेगी बहुत पहलुओं से। एक पहलू से हम बात शुरू करें।
सुना है मैंने, एक फकीर औरत है राबिया। एक सांझ अपने झोपड़े के बाहर कुछ खोजती है। पास-पड़ोस के लोगों ने सोचा, बूढ़ी औरत है कुछ सहायता कर दें। पुराने जमाने की बात है ये अब तो कोई नहीं करेगा। बहुत पहले की बात है। अब तो बूढ़ी औरत की कौन सहायता करेगा? पड़ोस के लोग आ गए और उन्होंने कहा कि क्या खोजती हो, हम सहयोगी हो जाएं। उसने कहाः मेरी सुई खो गई है। तो वे सारे लोग खोजने लगे। नासमझ लोग रहे होंगे क्योंकि उनमें से किसी ने भी ये न पूछा कि सुई खोई कहां? सुई जैसी छोटी चीज बड़ा रास्ता सांझ सूरज का ढलता हुआ वक्त। इतनी छोटी चीज को जब तक ये पता न हो कि वह कहां खोई है, खोजना मुश्किल है। लेकिन वे ही नासमझ न थे, हम सभी नासमझ हैं। हम सभी खोज पर निकल जाते हैं कोई आनंद खोजता है, कोई सत्य खोजता है, कोई ईश्वर कोई शांति। बिना यह पूछे कि खोया कहां है? और वह रास्ता बहुत बड़ा न था। जिस अस्तित्व में हम खोजते हैं वह बहुत बड़ा है। कहां खोया है, इसका ठीक पता न हो तो खोजना बहुत मुश्किल है। फिर एक आदमी को खयाल आया जब सूरज बिलकुल ढलने लगा और अंधेरा उतरने लगा तो उसने कहा, अंधेरा उतरने के करीब है, सुई जैसी छोटी चीज मिल न सकेगी। ये बूढ़ी औरत, यह बता दे कि खोई कहां है?
उसने कहा, यह दुख की बात है। यह मत पूछो तो अच्छा। खोजो तो ठीक, यह सवाल मत उठाओ। वे सारे लोग रुक गए और उन्होंने कहा, यह सवाल तो हमें पहले ही पूछ लेना चाहिए था। सुई खोई कहां है? अगर तू न बताती हो तो हम खोजना बंद करें। हमें व्यर्थ परेशान न कर। उस बूढ़ी औरत ने कहा, सुई तो मैंने घर के भीतर खोई है, लेकिन वहां उजाला नहीं है, मेरे पास दीया नहीं है। तो मैंने सोचा, जहां उजाला है वहीं तो खोजा जा सकता है। अंधेरे में तो खोजना संभव नहीं है। इसलिए मैं बाहर खोजती थी वहां सूरज की रोशनी है। और घर में अंधेरा है। अंधेरे में कैसे खोजोगे! और लोगों ने कहा, पागल है तू औरत! पागल हो गई है! जहां खोई है चीज वहीं खोजनी पड़ेगी प्रकाश से क्या होगा! उस बूढ़ी औरत ने कहा, लेकिन अंधेरे में कैसे खोज सकते हैं? तो उन सारे लोगों ने कहा कि इस पागल को खोजने दो। हम अपने घर लौट जाएं। जब वे लौटने लगे तो वह बूढ़ी बहुत हंसने लगी। उसने कहा कि तुम मुझे पागल कहते हो! तब तो सारी दुनिया ही पागल है क्योंकि मैंने सारे लोगों को बाहर खोजते देखा है उसे जो भीतर है।
हमारे भी बाहर खोजने का कारण वही है जो उस बूढ़ी राबिया का है। वह कारण यही है कि हमारी आंखों की रोशनी बाहर पड़ती है। हमारे हाथ की रोशनी बाहर पड़ती है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर की तरह देख पाती हैं और भीतर अंधेरा है। तो हम बाहर खोजना शुरू कर देते हैं जहां उजाला है वहीं तो खोज सकते हैं। बाहर बहुत रौशनी है और बाहर हमारा कान भी सुनता है आंख भी देखती है, हाथ भी फैलता है पैर भी चलता है। हमारी सारी इंद्रियां बहिर्मुखी हैं। वे बाहर की तरफ तो जाती हैं भीतर की तरफ नहीं जातीं। तो जहां इंद्रियां जा सकती हैं जहां पैर ले जाएंगे वहीं तो खोजेंगे न, और जहां आंखें देखेंगे वहीं तो खोजेंगे न, और जहां कान सुनेंगे वहीं तो खोजेंगे न। न जहां आंख देखती हो, न कान सुनता हो, न हाथ खोज सकता हो, न पैर चल सकते हों, वहां खोजेंगे कैसे? तर्क हमारा भी वही है जो उस बूढ़ी औरत ने मजाक किया है। हम भी बाहर खोजने निकल जाते हैं।
बाहर खोज कर जो हम पा लेंगे बाहर खोज कर जरूर बहुत कुछ पा लेंगे। बाहर खोज कर शक्ति पाई जा सकती है। विज्ञान भूल में है वह सोचता है कि हम सत्य पा रहे हैं वह सिर्फ शक्ति पा रहा है। विज्ञान के पास कोई शक्ति नहीं है विज्ञान के पास सिर्फ शक्ति का आविष्कार है। और इसलिए विज्ञान को अपने सत्य रोज बदलने पड़ते हैं। सत्य रोज बदल सकता है। न्यूटन के वक्त में विज्ञान का सत्य दूसरा होता है, आइंस्टीन के समय में दूसरा होता है। विज्ञान का सत्य रोज बदलता है इसलिए विज्ञान कहता है सत्य नहीं। अब उसने ठीक भाषा बोलनी शुरू की है उसने कहा कि हम अप्राॅक्सिमेट ट्रुथ करीब-करीब सत्य की बात करते हैं। लेकिन सोचने जैसा मजा है करीब-करीब सत्य हो सकता है? अप्राॅक्सिमेट ट्रुथ हो सकता है? अप्राॅक्सिमेट लव हो सकता है? या तो सत्य होगा या नहीं होगा अप्राॅक्सिमेट जैसी कोई चीज नहीं हो सकती। अप्राॅक्सिमेट ट्रुथ झूठ का ही नाम होगा। जो सत्य के जैसा अभिनय करता है।
नहीं लेकिन विज्ञान कुछ खोजता है वह जिंदगी के नियम खोज लेता है और नियमों की मालकियत खोज लेता है। और मालिक होकर शक्तिशाली हो जाता है लेकिन...नहीं है।
सत्य नहीं उसके हाथ में आ जाता है। शक्ति उसके हाथ में आ जाती है। और ऐसे आदमी के हाथ में शक्ति का आना जिसके पास सत्य नहीं है बहुत खतरनाक है क्योंकि तब सारी शक्ति असत्य के उपयोग में नियोजित होगी हो रही है होती रही है। विज्ञान की खोज शक्ति की खोज है इसलिए विज्ञान कांकरिंग की भाषा में सोचता है जीतने की भाषा में सोचता है। प्रकृति को जीतो वह जो दूसरा है उससे सदा लड़ा ही जा सकता है। वह जो दि अदर है उससे लड़ने के सिवाए और कोई उपाय नहीं है। इसलिए लड़ो और जीतो और ताकत को बढ़ाओ। अणु की खोज हो या विज्ञान की कोई और खोज वे सब शक्ति को पा लेने की खोज हैं।
लेकिन सत्य उससे उपलब्ध नहीं है। सत्य है भीतर और भीतर का जो डायमेंशन है, भीतर का जो आयाम है वह जो आंतरिक है वह जो इनवर्ट है वहां विज्ञान की कोई गति नहीं क्योंकि विज्ञान का मतलब ही ये है कि जो बाहर है उसे खोजने की व्यवस्था। इसलिए विज्ञान सत्य को न खोज सके लेकिन विज्ञान की शक्ति की खोज ने हमें बहुत मुश्किल में डाल दिया है। हमें ऐसा लगता है कि विज्ञान के पास खोजने के सब आयाम उपलब्ध हो गए। इसलिए भीतर के आयाम की बात ही मंदी और धीमी हो गई है। इसलिए पिछले हजार वर्षों में बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट के हैसियत के लोग पैदा नहीं किए जा सके। क्योंकि वे भीतर की आयाम की यात्रा में पैदा होते थे। इनर डायमेंशन की खोज में जो लोग जाते थे वहां पैदा होते थे। इसलिए पिछले तीन सौ वर्षों में मनुष्य की प्रतिभा ने आइंस्टीन पैदा किया, न्यूटन पैदा किया प्लांक पैदा किया और और तरह के लोग पैदा किए जो बाहर की खोज की यात्रा पर मिली हुई प्रतिभा के चरण हैं। लेकिन भीतर की खोज की प्रतिभा जो थी उसके चरण पिछले निरंतर हजार वर्षों में क्षीण होते चले गए।
धीरे-धीरे हमें ऐसा लगा विज्ञान से सब मिल जाएगा। इसलिए भीतर की बात ही फिजूल है। बाहर ही सब मिल जाएगा। विज्ञान राबिया की भूल कर रहा है। और आज नहीं कल विज्ञान पर सारी दुनिया वैसे ही हंसेगी जैसे राबिया पर उस दिन उस गांव के लोग हंसे और उन्होंने कहा, पागल! अगर भीतर खोया है तो भीतर ही खोजना पड़ेगा। रोशनी बाहर होने से कुछ भी नहीं होता। सूरज और चांद और तारे और रौशनी बहुत है बाहर प्रकृति की शक्तियां हैं बहुत बाहर परमात्मा का फैलाव है बहुत बाहर लेकिन सत्य का पहला अनुभव भीतर ही होता है। ये भीतर पहला पहलू है सत्य का। इनवर्टनेस सत्य की पहली क्वालिटी। सत्य का पहला लक्षण और पहला गुण भीतरी होना है। सत्य की तरफ एक दूसरी तरफ से भी हम सोचें।
मनुष्य बहुत कुछ निर्माण कर सकता है। लेकिन सत्य निर्माण नहीं कर सकता। क्योंकि सत्य को निर्मित करने का कोई उपाय नहीं है। सत्य वह है जो है ही। मनुष्य जो भी निर्माण करेगा वह एक अर्थ में असत्य होगा। वह इस अर्थ में असत्य होगा क्योंकि वह निर्मित है, क्रिएटेड है, बनाया गया है। सत्य वह है जो अन-क्रिएटेड है, बनाया नहीं गया, है। इजनेस जिसका गुण है, होना जिसका गुण है,जो है। जब सब बनाई गई चीजें नहीं थीं तब भी था और जब सब बनाई गई चीजें मिट जाएंगी तब भी होगा।
मनुष्य बहुत कुछ बना सकता है और मनुष्य ने बहुत कुछ बनाया। बनाने की वजह से उसे एक भ्रांति पैदा हुई कि वह सत्य को भी बना सकता है और तब उसने सत्य के बहुत से सिद्धांत बनाए। शास्त्र बनाए, सिस्टमस बनाए सारी फिलासफी सत्य को बनाने की नासमझी है।
वह चाहे पूरब में हो और चाहे पश्चिम में हो। सारे दुनिया के दार्शनिक और विचारक सत्य को कंस्ट्रक्ट करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन कंस्ट्रक्शन कभी सत्य नहीं हो सकता। आदमी की बनाई गई चीज कभी सत्य नहीं हो सकती। सत्य वह है जो आदमी के होने के भी पहले मौजूद है, और आदमी के न हो जाने पर भी मौजूद होगा। सत्य का मतलब हैवह जो एक्झिटेंस है वह जो है ही। इसलिए हम सत्य को बना नहीं सकते हैं। लेकिन पिछले पांच हजार वर्षों में निरंतर आदमी सत्य को बनाने की कोशिश किया है। सत्य तो नहीं बना लेकिन सिद्धांत बहुत बन गए। और सिद्धांतों ने आदमी के मन को इस बुरी तरह जकड़ लिया कि सत्य की खोज बंद हो गई। अब जब हम सत्य की खोज पर जाते हैं तो अक्सर हम सिद्धांत को लेकर घर लौट आते हैं। सत्य को खोज करने जाते हैं गीता खरीद कर घर आ जाते हैं। सत्य को खोजने जाते हैं कुरान ले आते हैं। सत्य को खोजने जाते हैं कोई गुरु मिल जाता है, गुरुवाणी मिल जाती है, कोई सिद्धांत कोई सिस्टम कोई अरविंद कोई रसल कोई मिल जाता है हम घर लौट आते हैं। सिद्धांत लेकर घर लौट आते हैं और सोचते हैं कि सत्य मिल गया। इन्हीं सिद्धांतों के कारण इतने ज्यादा सत्य दिखाई पड़ते हैं। अन्यथा सत्य एक ही हो सकता है। हां, असत्य बहुत हो सकते हैं।
इस समय जमीन पर तीन सौ धर्म हैं। सत्य के तीन सौ दावेदार हैं। और फिर प्राइवेट किस्म के दावे बहुत हैं उनकी संख्या लगाना बहुत मुश्किल है। लेकिन तीन सौ तो बहुत संगठित दावेदार हैं, आर्गनाइज्ड दावेदार हैं जो कहते हैं सत्य यहां है और बाकी सब जगह असत्य है। ये सत्य के जो दावेदार हैं ये एक-दूसरे को निरंतर लड़ाते हैं। हिंदू मुसलमान को लड़ा रहा है, मुसलमान हिंदू को लड़ा रहा है। ईसाई जैन से लड़ रहा है, जैन बौद्ध से लड़ रहा है। ये सब सत्य के दावेदार संघर्ष में पड़े हुए हैं। जहां सत्य है वहां शांति होगी संघर्ष नहीं। जहां सत्य है वहां कलह न होगी सुलह होगी। जहां सत्य है वहां प्रेम होगा घृणा न होगी। लेकिन ये सारे धर्म ये सारे शास्त्र ये सारे सिद्धांत सिवाय आदमी को लड़ाने के और कुछ भी नहीं करते हैं। निश्चित ही इनके गहरे में असत्य है। और असत्य क्या है? असत्य ये है, वह जो आदमी ने कंस्ट्रक्ट किया है बुद्धि से उसने निर्मित किए हैं सत्य। आदमी के पास बुद्धि है वह निर्मित कर सकता है वह कल्पनाएं खड़ी कर सकता है। वह कल्पनाओं के बड़े व्यवस्थित खेल बना सकता है जैसे ताश के पत्तों के घर बनाए जाते हैं ऐसे शब्दों के घर बना सकता है। और शब्दों के घर बनाकर उन घरों में सोच सकता है कि सत्य मिल गया। हां सत्य पाना कठिन बनाना बहुत आसान है। थोड़ा सा कनिंग और कैल्कुलेटिव माइंड हो तो सिद्धांत बना सकता है। थोड़ा चालाक और थोड़ा हिसाब लगाने वाला आदमी हो तो अपने घर का सत्य बना लेता है। और होममेड सत्यों के कारण बहुत तकलीफ है। एक-एक घर में सत्य बन जाते हैं और झगड़े का कारण बनते हैं।
एक बात जो इस दूसरे आयाम में आपसे कहना चाहता हूं वह ये कि सत्य बनाया नहीं जा सकता। सत्य तो मौजूद है इसलिए उस सत्य को जानने के लिए बनाए गए आदमी के जितने सिद्धांत हैं उनको मस्तिष्क से छोड़ना जरूरी है अन्यथा उसे हम न जान सकेंगे जो है, हम उसी को थोपते रहेंगे इंपोज करते रहेंगे जो हमने मान रखा है। इसलिए दुनिया में अपने-अपने सत्यों को हम थोप रहे हैं। हम वह नहीं देख रहे जो है हम वही देख रहे हैं जो हम कहते हैं कि होना चाहिए। हम वही देख रहे हैं जो हम थोप रहे हैं। आदमी अपने ही मन को प्रोजेक्ट किये चला जाता है। कोई कृष्ण को देख रहा है, कोई राम को देख रहा है, कोई हनुमान को देख रहा है, कोई स्वर्ग और मोक्ष देख रहा है। और अपना ही बनाया हुआ सिद्धांत हम प्रोजेक्ट करते चले जाते हैं। आदमी के मन में बहुत बड़ी प्रोजेक्टिंग शक्ति है। वह जो भीतर तय कर ले उसे बाहर देख सकता है।
मैंने सुना है कि मजनू को उस गांव के राजा ने बुला कर कहा कि तू पागल तो नहीं हो गया है? यह लैला बहुत साधारण लड़की है। सुंदर भी नहीं कही जा सकती है। तू इसके पीछे पागल क्यों है? मैंने बहुत सुंदर लड़कियां बुलाई हैं, तू उन्हें देख और किसी को भी पसंद कर ले। उसने मजनू ने कहाः आप पागल हो गए हैं। आपके पास लैला को देखने के लिए मजनू की आंख कहां? मैं जिस लैला को देखता हूं मेरे अतिरिक्त और कोई देख भी नहीं सकता। क्योंकि लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। और जिन लड़कियों को आपने खड़ा किया है मुझे वे लैला ही दिखाई पड़ती है उनमें। कोई उनमें मुझे दूसरी लड़की दिखाई नहीं पड़ती।
मजनू ने बड़ी कीमत की बात कही। कीमत की बात उसने ये कही कि वह जो उसे दिखाई पड़ रहा है उसमें उसके आंख का हाथ ज्यादा है। उसका हाथ बहुत कम है जो बाहर है। जो बाहर है वह परदे का काम कर रहा है सिर्फ। जो दिखाई पड़ रहा है वह हम प्रोजेक्ट कर रहे हैं। इसलिए हिंदू के सत्य हिंदू देख लेता है, मुसलमान के सत्य मुसलमान देख लेता है। ईसाई के सत्य ईसाई देख लेता है और तीनों जब अपने सत्य देख लेते हैं तब वे कैसे मानें कि उनका सत्य गलत है और कैसे मानें कि उनसे विपरीत सत्य सही हो सकता है। आदमी सत्य की खोज में दूसरी मुसीबत जो उसके लिए खड़ी है वह आदमी के ही बनाए हुए सत्य। इसलिए जिसे सत्य की खोज पर जाना है उसे आदमी द्वारा मेन मेड ट्रुथ से बचने की जरूरत है। उसे ध्यान रखना पड़ेगा कि वह आदमी के बनाए हुए जाल में न पड़ जाए। चाहे वह जाल कितने ही बड़े तीर्थंकर ने बनाया हो और चाहे कितने ही बड़े अवतार ने बनाया हो चाहे कितने ही बड़े विचारक ने बनाया हो। अगर आदमी को सत्य को जानना है तो उसे आदमी के बनाए गए सारे ख्यालों को हटा कर खड़े होना पड़ेगा नग्न, मौन शांत ताकि वह कोई प्रोजेक्ट न कर सके कुछ और वही देख सके जो है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक गरीब आदमी था। और गरीब आदमी ने राजा की गाय खरीदी। अब राजा की गाय है और गरीब आदमी है मुश्किल में पड़ गया। मुश्किल में यह पड़ गया कि उसके पास तो हरी घास भी नहीं है। उसके पास तो सूखा भूसा है। वह गाय को रखता है गाय तो आंख बंद करके मुंह फेर लेती है। वह बहुत कहता है कि तू गौ-माता है, हम तेरे लिए आंदोलन करते हैं, दिल्ली में गोली भी खाते हैं। लेकिन तू हमारा इतना भी नहीं! अब बेटे के पास जो रूखा-सूखा है स्वीकार कर लो।
लेकिन वह गौ-माता बेटे की तरफ बिलकुल देखती ही नहीं। असल में किसी गौ ने कभी कहा नहीं आदमी हमारा बेटा है। मैं नहीं समझता कि कोई गऊ आदमी को बेटा मानने के लिए राजी भी हो सकती है कि आदमी की इतनी भी योग्यता है कि वह गऊ उसको बेटा माने। लेकिन आदमी थोपे चले जाता है कि तू हमारी माता है। बहुत उसने कहा लेकिन बहुत क्रोध आ गया। माता को पीटा भी। लेकिन फिर भी माता नहीं मानी। फिर उसने कहा, बड़ी मुसीबत हो गई। राजा की गाय खरीद कर दिक्कत में पड़ गया। गांव में एक बूढ़े आदमी के पास सलाह लेने गया कि मैं करूं क्या?
गरीब आदमी, उसने कहा, तू बिलकुल पागल है। जाकर एक हरा चश्मा खरीद ला और गाय की आंख पर चढ़ा दे। उसने कहा, क्या गाय को ऐसा धोखा देना आसान होगा! उस बूढ़े आदमी ने कहा, आदमी तक को धोखा देना आसान है गाय को तो देना बिलकुल ही आसान है। तू हरा चश्मा खरीद।
वह चार आने का चश्मा खरीद लाया गाय पर चढ़ा दिया। गाय सूखे भूसे को हरा समझ कर खा रही है। उस ब्राह्मण ने कहा, माता, बेटे को तूने न माना लेकिन हरे चश्मे को तूने मान लिया।
उस बूढ़े को धन्यवाद देने गया कि आपका गायों के संबंध में बड़ा अनुभव मालूम होता है। उस बूढ़े ने कहा, गाय से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। आदमी के संबंध में अनुभव है। उसी आधार पर कहा है।
हम सब की आंखों पर चश्मे हैं सिद्धांतों के, शास्त्रों के, संप्रदायों के, पंथों के, गुरुओं के वे चश्मे इतने हैं इतने हैं कि जो है वह दिखाई ही नहीं पड़ सकता। चश्मों के ऊपर चश्मे हैं। सत्य की खोज में उन्हें गिरा देना पड़ता है।
गुरु से बचना शास्त्र से बचना संप्रदाय से बचना सत्य के खोजी के लिए अनिवार्य जरूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है।
और मैं तीसरा बिंदु आपसे बात करूं। कि आप गुरु से बच जाएं, शास्त्र से बच जाएं सिद्धांत से बच जाएं संप्रदाय से बच जाएं। अब तीसरी बात आपसे कहता हूं जो और भी मुश्किल है अपने से भी बचना पड़े। क्योंकि इन सबसे बच कर हमारा माइंड भी जो है वह बहुत इमेजिनेटिव है। हमारा जो मन है वह भी बहुत कल्पनाशील है। हम भी जो है उसको नहीं देखते जो होना चाहिए उसे देखते रहते हैं। हम सब कल्पनाओं में जीते हैं।
इसलिए सत्य से हमारा कभी संबंध नहीं हो पाता। हम सब कल्पनाओं में जीते हैं। हम सब ने कल्पनाएं बना रखी हैं। हम सभी उन्हीं कल्पनाओं में रस लेते हैं। और उन्हीं कल्पनाओं का एक जाल हमें घेरे रहता है ड्रीम्स का।
ऐसा नहीं कि सोने में ही घेरे रहता है, जागने में भी घेरे रहता है। जरा आंख बंद करके आरामकुर्सी पर बैठे और आपको पता चलेगा कि स्वप्न आकर चारों तरफ खड़े हो गए।
जब आप आंख बंद नहीं किए हैं तब भी भीतर स्वप्न चल रहे हैं। यह स्वप्न की हमारी जो क्षमता है यह सत्य के लिए सबसे बड़ा अवरोध है। ऐसा चित्त सत्य को जान सकता है जो स्वप्नों से मुक्त हो जाए। जो कल्पना न करता हो। कल्पना करता ही न हो तभी हम उसे देख पाएंगे जो है अन्यथा हम वह देख लेंगे जो हम देखना चाहते हैं। हम निरंतर वही देखते रहते हैं जो हम देखना चाहते हैं। इसलिए हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। क्योंकि जब असलियत खुलती है तो डिसइलुजनमेंट होता है। तब लगता है कि अरे! इसलिए जिन लोगों ने सत्य को जाना उन्होंने कहा कि सब माया है। जो जगत है उसको माया नहीं कहा। जो उनका जगत था जो उनका...थी उसे उन्होंने कहा, माया है। क्योंकि पाया कि वह सब सपना है। सपने हम बहुत अदभुत रूप से देख रहे हैं। सब चीजों के बाबत देख रहे हैं। सब चीजों के संबंध में हम सपने निर्मित कर रहे हैं।
अभी आज से पचास साल पहले किसी घर में कैक्टस नहीं मिल सकता था। लेकिन अब सुशिक्षित घर में कैक्टस जरूर होगा। गुलाब बाहर कर दिया गया है। कैक्टस भीतर आ गया है। पहले गुलाब ब्राह्मण हुआ करता था, कैक्टस शूद्र हुआ करता था। अब कैक्टस ब्राह्मण की जगह आ गए हैं। ब्राह्मण शूद्र की जगह बाहर पहरे पर खड़े हो गए हैं। यह कैक्टस घर में घुस आया, यह कभी था नहीं घर में। यह धतूरा कभी गांव के बाहर लगता था, कोई अपने खेत-वेत के किनारे लगा देता था। कोई इसको देखता नहीं था। कोई कालिदास ने, कोई भवभूत ने कभी इसकी प्रशंसा नहीं की। अचानक क्या हो गया? अचानक हो क्या गया? यह कैक्टस इतना प्रीतिकर कैसे हो गया?
आदमी ऊब गया गुलाब से, गुलाब की कल्पना उसने हटा ली उसने अब नई कल्पना का...शुरू किया। इसलिए रोज हमें फैशन बदलनी पड़ती है। कल्पना से भी हम ऊब जाते हैं। हम नई कल्पना बना लेते हैं। एक कल्पना से ऊब जाते हैं करते करते हम दूसरी कल्पना बना लेते हैं। सिर्फ सत्य है ऐसी बात जिससे कोई कभी नहीं ऊबता। कल्पना से तो ऊब ही जाना पड़ेगा क्योंकि अपनी ही कल्पना है कब तक उसको घसीटिएगा। फिर परेशान हो जाते हैं फिर नई कल्पना चाहिए।
इसलिए सत्य की दुनिया में भी फैशन चलते हैं। कभी कोई मार्ग चलता है, कभी कोई महर्षि चलते हैं, कभी कोई योगी चलता है, कभी कोई गुरु चलते हैं वे सब फैशन चलते हैं। जैसे अब महेश योगी हैं उनका फैशन गया। आया था फैशन जोर से लेकिन फैशन जाने के लिए ही आते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं। उनका रुकना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए कि उनसे हम ऊब जाते हैं हमारी ये कल्पना होती है उसको थोपते हैं फिर थोड़े दिन में ऊब जाते हैं। कहते हैं, चुप रहो, अब दूसरी कल्पना चाहिए। मन नये सेंशेसन चाहता है। नई इमेजिनेशन चाहता है। तो वह रोज नई कल्पना करता है। गुलाब से ऊब गया ऐसा नहीं कि गुलाब नहीं लौट आएगा गुलाब बदला लेगा। लौटेगा। थोड़े दिन में कैक्टस से ऊब जाइएगा कैक्टस बाहर जाएगा। गुलाब वापस लौट आएगा। वह चलता रहता है हमारा मन रोज नई कल्पनाएं गूंथता रहता है पुरानी हटाता रहता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं करता कि गैप पड़ जाए। पुरानी कल्पना चली जाए और नई न आए वह इंटरवल आ जाए। बीच में जगह खाली छूट जाए, डिसकंटीन्यूटी हो जाए। तो उस खाली गैप से ही सत्य की झलक मिलती है। लेकिन हम बहुत जल्दी करते हैं पुराना वस्त्र उतारते जाते हैं और नया पहनते जाते हैं। एक क्षण को नग्न नहीं हो पाते। कमीज बदल लेते हैं पुरानी तो नई डाल लेते हैं फिर पाजामा बदलते हैं तो नया डाल लेते हैं। लेकिन शरीर कभी भी नग्न नहीं रह पाता। ऐसे ही हमारा चित्त कभी नग्न नहीं रह पाता। खाली नहीं रह पाता, एंप्टी नहीं रह पाता। एक गया हमने दूसरा थोपा असल में जब हम दूसरे का ठीक-ठीक हाथ पकड़ लेते हैं तभी पहले को जाने देते हैं। कल्पनाशील मनुष्य के चित्त ने निरंतर कल्पना करके अपने को उलझा रखा है। इसलिए जो है वह उसे कभी दिखाई नहीं पड़ता।
मैंने सुना है, जब पंडित नेहरू हिंदुस्तान में थे, तो हिंदुस्तान के पागलखाने में नहीं तो कम से कम सात-आठ लोग बंद थे जिनको पंडित नेहरू होने का खयाल था। हिंदुस्तान के जेलों के बाहर, पागलखानों के बाहर तो और भी बहुत थे। कई ऐसे थे जो कहते थे, कई ऐसे थे जो कहते नहीं थे, मन में ही समझते थे। लेकिन थे बहुत।
एक पागलखाने में पंडित नेहरू गए और उस पागलखाने से एक पागल छूटने को था, तो पागलखाने के अधिकारियों ने उसे रोक रखा था कि कल पंडितजी आते हैं, तो उन्हीं के हाथों से विदा करवाएंगे। उस पागल को उन्होंने विदा करवाया। पंडितजी ने कहा कि पागल भी ठीक हो जाते हैं यहां पागलखाने में? तो उस पागल ने कहा कि बिलकुल ठीक हो जाते हैं। मैं ठीक ही हो गया। तीन साल पहले आया था, अब बिलकुल ठीक हो गया। फिर वह पागल चलने लगा, फिर उसने पूछा कि महाशय, मैं पूछना भूल गया कि आप हैं कौन? तो उन्होंने कहा, मुझे नहीं जानते? मैं जवाहरलाल नेहरू। तो उस पागल ने कहाः आप घबड़ाए मत, तीन साल रह जाएं, आप भी ठीक हो जाएंगे। यह ही बीमारी मुझे भी थी तीन साल पहले। आप बिलकुल मत घबड़ाएं। यही बीमारी मुझे भी तीन साल पहले...मैं भी यही समझता था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। मगर अब मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं।
हिटलर जब जर्मनी में हुकूमत में था तो सैकड़ों लोग थे जिनको हिटलर होने का खयाल था।
दूसरा महायुद्ध शुरू हुआ तो सारी दुनिया में जिस मुल्क में जो नाम बड़ा था उस उस मुल्क में उस नाम के अनेक लोग एकदम पैदा हो गए। क्या इनको हो क्या गया है? इनको हो कुछ भी नहीं गया है। इन्होंने किसी बड़ी कल्पना में अपना सारा प्राण डुबो दिया। एक कल्पना जो प्रीतिकर है।
अब नेहरू होने की कल्पना प्रीतिकर थी। उस कल्पना में इन्होंने अपने को पूरा डुबा दिया। तो ध्यान रहे जो प्रीतिकर है जरूरी नहीं है कि सत्य हो इसलिए। प्रेय से भी बचने की भी फिकर करना अन्यथा कल्पना से मुक्त होना बहुत मुश्किल है। कल्पना प्रीतिकर होती है। जरूरी नहीं है कि सत्य प्रीतिकर ही हो। सत्य अक्सर अप्रीतिकर होगा क्योंकि हमने जो कल्पनाओं का जाल बनाया है वह उसे तोड़ देगा। सत्य बहुत कठोर है और सत्य बहुत कठिन धार है वह हमें काट डालेगा। क्योंकि हमने जो जाल बनाया है सपनों का वह सब टूट जाएगा सुबह जब नींद खुलेगी तो जागने पर सपने बचेंगे कैसे? सपने टूटेंगे। इसलिए सुबह अगर कोई आपसे कहे भी कि पांच बजे उठा देना तो उठाना मत। उठ भला आए लेकिन गाली देता हुए उठेगा क्योंकि सब सपने टूट जाते हैं। फिर वही दुनिया शुरू हो जाती है यथार्थ की, तथ्य की कहां सपने, सुंदर सपने वह सब देखता है, वह सब टूट जाता है।
...होने का सपना सुखद है एक आदमी देख सकता है। भगवान होने का सपना भी सुखद है। वह भी एक आदमी देख सकता है। सत्य पा लेने का सपना और भी सुखद है वह भी एक आदमी देख सकता है। इसलिए इसकी फिकर मत करना कि कौन दावा करता है कि मैंने सत्य पा लिया है। ध्यान रखना कि दावा करने वाले ने नहीं ही पाया होगा। क्योंकि दावा भी असत्य की दुनिया का हिस्सा है।
जो कहे कि मैंने पा लिया जानना कि कुछ गड़बड़ हो गई, कहीं चूक हो गई। यह आदमी कहीं भटक गया। नहीं दावा नहीं है वहां क्योंकि जहां सत्य मिलता है वहां मैं ही खो जाता है दावा कौन करेगा?
लेकिन कल्पना के साथ दावे जुड़े हैं। इसलिए सत्य के दावेदार आंख-कान बंद करके अपने दावे में जीते हैं। क्योंकि आंख-कान से कहीं से खबर आ जाए कि दावा गलत है तो वे सब तरफ से द्वार बंद कर देते हैं और भीतर अपना दावा करके जीते रहते हैं।
हजारों-हजारों साल से सत्य की खोज चलती है, सत्य नहीं मिलता। बहुत कम लोगों को कभी उसकी किरण दिखाई पड़ती है या कभी बहुत कम लोगों को उसकी आग से गुजरना पड़ता है। अधिक लोग सपने में खो जाते हैं और अपना सपना बना लेते हैं, और जी लेते हैं। सपने में जीना बहुत आसान भी है लेकिन वह सत्य की यात्रा नहीं है। और जब कोई सपना बहुत गहरे बैठ जाए तो उसे तोड़ना बहुत मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है कि उस सपने के साथ हमारे बहुत सुख जुड़ जाते हैं। जिंदगी में तो सुख हमारे हैं नहीं सपनों में ही सुख होते हैं। जिंदगी में तो दुख होते हैं, सपनों में सुख होते हैं। इसलिए धीरे-धीरे हम जिंदगी से एस्केप करते चले जाते हैं और सपनों में प्रवेश करते चले जाते हैं।
ये हमारे संन्यासी, हमारे भागे हुए लोग, ये सब जिंदगी से भागते हैं और किसी एकांत अंधेरे कोने में बैठ कर किसी सपने में प्रवेश कर जाते हैं। वहां सपने देखते रहते हैं। और उस ड्रीमिंग को समझ लेते हैं कि सत्य के करीब हैं। उस सपने में वे चाहें तो कृष्ण को नाच नचा लेते हैं। उस सपने में वे चाहें तो क्राइस्ट को सूली चढ़ा लेते हैं। उस सपने में वे चाहें जो कर लेते हैं। राम धनुषबाण लेकर खड़े हो जाते हैं। उस सपने में सब चलता रहता है।
लेकिन यह सत्य का इससे कोई संबंध नहीं है। वह आदमी ही सत्य जान सकता है जिसके चित्त में कुछ भी नहीं चल रहा है। चित्त जहां ऐसे ठहर गया जैसे झील पर एक भी लहर न हो। चित्त ऐसा हो गया कि दूसरा ही न हो कोई सपना नहीं रह गया। फिल्म टूट गई है और परदा खाली छूट गया है। आप अकेले ही रह गए कांशसनेस भर रह गई, चेतना भर रह गई। चेतना के लिए कोई आॅब्जेक्ट नहीं रह गया। सिर्फ सब्जेक्टिविटी रह गई, सिर्फ होना मात्र रह गया है आपका। ऐसा एक क्षण भी जीवन में उपलब्ध हो जाए तो तीनों घटनाएं घट जाती हैं। ऐसे क्षण में आप इनवर्ट हो जाते हैं आपको होना नहीं पड़ता। आप अचानक पाते हैं कि आप भीतर खड़े हैं। एक एक्सप्लोजन की तरह।
जैसे एक आदमी को नींद से हिला कर उठा दिया गया हो और वह पाए कि वह जाग कर खड़ा है। ऐसे ही इस क्षण में मौन, शून्य शांत क्षण में चेतना के आप भीतर खड़े हो जाते हैं। जहां आप कभी खड़े नहीं हुए। इस शांत, शून्य क्षण में आप उसे जानते हैं जो सदा से है, रहेगा था होगा। जिसके लिए अतीत भविष्य वर्तमान का कोई फासला नहींहै। जो नाॅन-टेंपरल है। जो बियांड टाइम है समय के बाहर है जो है ही। वह आपको पता चलेगा।
और वह आपको ऐसा पता न चलेगा कि दूसरा है। ऐसा पता चलेगा कि वह और मैं एक हैं। उसमें दो भी नहीं हैं वहां जानने वाला और जाना गया नोअर एंड नोन ऐसे भी दो नहीं हैं।
सुनी है मैंने एक कहानी कि एक समुद्र के तट पर एक बड़ा मेला लगा है। दो नमक के पुतले भी उस मेले में चले गए। तट पर बड़ी भीड़ है और बड़ा शास्त्रार्थ छिड़ा हुआ है। कई पंडित कह रहे हैं कि समुद्र की इतनी गहराई है। कई कह रहे हैं नहीं है। कई पंडित कह रहे हैं कि गहराई और-और है। कोई और कह रहा है, कोई और कह रहा है। बड़ा विवाद है, बड़े शास्त्र खुले हैं। बड़ी भीड़ इकट्ठी है। लेकिन कोई भी उस समुद्र में उतर कर गहराई का पता लगाने नहीं जा रहा। वहीं तर्क कर रहे हैं किनारे पर बैठ कर।
सब पंडित किनारों पर बैठ कर तर्क करते रहते हैं कि गहराई कितनी है। गहराई कितनी है ये गहराई में जाने वाला जानता है। यह तट पर बैठने वाले नहीं जानते। लेकिन नमक के पुतले ने कहा कि सांझ होने के करीब आ गई और विवाद का कोई अंत नहीं होता है। तो तुम ठहरो, मैं कूदता हूं सागर में और पता लिए आता हूं। असल में नमक का पुतला कूदने को राजी भी सिर्फ इसीलिए हो गया कि सागर और उसके बीच एक आत्मीयता है वह सागर का ही हिस्सा है। भय कुछ भी नहीं है। सिर्फ वे ही कूद सकते हैं सत्य में जिन्हें यह अभय का खयाल आ जाए कि हम भी तो उसी सत्य से निकले हैं और उसी में जाएंगे तो भय क्या है? छलांग लगाई जा सकती है। जिससे हम आए हैं और जिसमें हम जाएंगे जिसमें हम हैं उससे भय क्या है उसमें छलांग लगाई जा सकती है। वह नमक का पुतला कूद गया।
भीड़ किनारे पर इकट्ठी होकर राह देखती रही, वह नमक का पुतला चला नीचे नीचे गहराई में तो वह उतरने लगा। गहराई में तो होने लगा, गहराई में तो जाने लगा। लेकिन एक बड़ी मुश्किल कि पिघलने भी लगा। बड़ा घबड़ाया कि खबर कैसे दूंगा? यह तो बड़ी मुश्किल हो गई आखिर पहुंच गया नीचे तक गहराई में लेकिन पहुंचते-पहुंचते पिघल कर सागर के साथ एक हो गया। पूरे सागर के साथ एक हो गया। पुतला तो छोटा था लेकिन जब सागर के साथ एक हुआ तो पूरे सागर के साथ एक हो गया। सागर की लहर-लहर से चिल्लाने लगा कि आओ, जानना है तो तुम्हें भी यहां आना पड़ेगा। और आओ, मैं न बता सकूंगा क्या मैंने जाना। क्योंकि जानने में मैं खो गया।
लेकिन सागर की लहरों की कौन सुनता है आवाज? अपनी आवाज बंद हो तो सागर की कोई आवाज सुने। और हमारे भीतर तो इतनी आवाज है कि हिसाब लगाना मुश्किल है।
मैंने सुना है कि नियाग्रा की आवाज दस-बीस मील तक सुनाई पड़ती है। दस-बीस मील तक नियाग्रा की आवाज सुनाई पड़ती है। पांच-सात महिलाएं नियाग्रा देखने गई थीं, वे किनारे खड़ी हैं, तो गाइड ने उनसे कहा कि देवियो, अब मैं कुछ नियाग्रा के संबंध में तुम्हें बताना चाहता हूं। इसकी आवाज बीस मील तक सुनाई पड़ती है, लेकिन तुम अगर चुप हो जाओ तभी सुनाई पड़ सकती है। बीस मील तक सुनाई नहीं पड़ती हो, बीस हजार मील तक सुनाई पड़ती हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है। लेकिन जिसको सुनना है वह तो चुप होना चाहिए।
वे लहरें चिल्लाती रहीं सागर की लेकिन कुछ पता नहीं चला बाहर तट पर खड़े लोगों को। असल में जो तट पर खड़े हैं वे गहराई की भाषा नहीं समझ पाते। गहराई की भाषा कुछ और है और तट की भाषा कुछ और है।
दूसरे पुतले ने कहा कि मैं अपने मित्र को खोज लाऊं रात ज्यादा होने लगी। वह दूसरा पुतला भी कूद गया। लेकिन न पहला लौटा, न दूसरा लौटा। दूसरा जैसे-जैसे मित्र को खोजने लगा, वैसे-वैसे खोने लगा। खोज लिया उसने मित्र को लेकिन तभी खोज पाया जब खोकर सागर के साथ एक हो गया। तब वह भी चिल्लाता रहा तट के लोगों से कि लौट जाओ, मित्र को मैंने पा लिया। लेकिन सागर की आवाज कौन सुने? अपनी ही आवाज बहुत है।
हम सब अपने सपनों अपने सिद्धांतों अपनी आवाजों अपने विचारों से भरे हुए लोग हमें अपने से सावधान होना पड़ेगा। अन्यथा हम सत्य को न जान पाएं न देख पाएं। यह मेरा जो मेरा होना है इस मेरे होने को किसी गहरे अर्थों में चुप होना पड़े।
एक ही बात, अंत में सत्य की खोज का अर्थ हैः शांति के आयाम में प्रवेश। इन दि ट्रूथ आॅफ साइलेंस। एक शब्द का आयाम है जिसमें हम जीते हैं। हम प्रेम करते हैं तो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। हम क्रोध करते हैं तो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। मित्र से मिलते हैं तो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। शत्रु से मिलते हैं तो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। जागते हैं तो शब्दों का उपयोग करते हैं, सोते हैं तो सपने में शब्दों का उपयोग करते हैं।
हम एक डाइमेंशन में जीते हैं जो शब्द का डायमेंशन है। सत्य उस डाइमेंशन पर कहीं भी न मिलेगा। उस डाइमेंशन पर शास्त्र मिलेंगे, जो शब्दों का संग्रह है। सिद्धांत मिलेंगे जो शब्दो के कंस्ट्रक्शन हैं। गुरु मिलेंगे जो शब्दों के दुकानदार हैं। दावेदार मिलेंगे जो शब्दों के कुशल प्रयोगकर्ता हैं। लेकिन उस डाइमेंशन में शब्द के डाइमेंशन में सात्र्र ने अपनी आत्मकथा लिखी तो उसको नाम दिया वर्डस, शब्द। हम भी अपनी आत्मकथा लिखें तो शब्दों से ज्यादा क्या है! लेकिन शब्दों की आत्मकथा में सत्य कहीं भी नहीं होगा। एक और भी आत्मकथा है और वह है शांति की, शून्य, साइलेंस की निशब्द की जहां सब शब्द हो गए।
अगर सत्य की खोज पर निकलना है तो इस शून्य की और शांति के डाइमेंशन को खोजना। कहीं भी सागर के तट के किनारे पड़े हो थोड़ी देर शब्द से बचना। लेकिन हम इतने भयभीत हैं कि कहीं शून्य न उतर आए, कहीं सत्य पास न आ जाए। हम जरूरत न हो तो भी शब्द चलाए चले जाते हैं। अगर दो आदमियों से कहा जाए कि घंटे भर चुपचाप बैठे रहो तो कितनी बेचैनी होती है वे कितनी करवटें बदलते हैं कितनी मुश्किल पड़ जाती है। सांस घुटने लगती है गर्दन दुखने लगती। ऐसा लगता है कि मरे। क्योंकि एक ही भोजन था उनका शब्द वही उनकी जिंदगी थी बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं।
दो आदमियों को अगर घंटे भर शांत बैठने को कहा जाए पास-पास बड़े घबड़ा जाते हैं। पागल हो जाएंगे आप अगर आपको शांति में रोक दिया जाए। शब्द ही हमारा सब कुछ है। लेकिन सत्य की खोज में वह कुछ भी नहीं है। बाधा जरूर है। लेकिन कभी-कभी अगर मौन उतरता है जैसे किसी को हम प्रेम करते हैं तो थोड़ा सा मौन उतरना है। लेकिन जल्दी से हम शब्दों से भर देते हैं। हम कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। गई वह बात गई वह क्वालिटी गई वह सुगंध जो मौन से उठी होती पहचानी जाती लेकिन हमने जल्दी से हम डरे। क्योंकि खतरनाक है वह आयाम जहां से मौन आता है वहां खतरा है वहां झूठ जाने का मिट जाने का, समाप्त हो जाने...फौरन कहा कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और तब ये शब्द ऐसे नहीं मालूम पड़ते कि हमने कहे, ऐसे लगते हैं कि किसी फिल्म के डायलाग में सुने हों।
पराए हो गए। शब्द सदा बासा है शब्द सदा झूठा है। बहुत मुंह में घूमा है बहुत लोगों ने उसका प्रयोग किया है। कितने लोगों ने नहीं कहा है किसी से कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और प्रेम कभी बासा हो सकता है। लेकिन प्रेम शब्द तो बहुत बासा है। कितने होंठों का थूक उस पर लगा, कितने कीटाणु उसको छुए और गए। कितनी अनंत-अनंत सदियों में कितने-कितने लोगों ने कहा, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।
नहीं, प्रेम जो कि सदा ताजा है, सदा निर्दोष है। जिसे कभी किसी ने नहीं छुआ। प्रेम जो सदा वर्जिन है, कुवांरा है वह शब्द से नहीं प्रकट होगा। लेकिन प्रेम भी किसी से हो तो फौरन शब्द बीच में खड़ा हो जाता है। अगर दो प्रेमी भी बैठेंगे तो कहेंगे कि गीत गाओ, बोलो कुछ, चुप क्यों हो। अगर प्रेमी चुप बैठेगा तो प्रेयसी समझेगी कुछ गड़बड़ है, कुछ प्रेम खो गया है। नहीं चुप्पी के हम दुश्मन हैं क्योंकि शब्दों के हम यात्री हैं।
सत्य की खोज में ये शब्द की हमारी जो इतना आग्रहपूर्ण पकड़ है यह छोड़ देनी पड़े और निशब्द में रुक जाना पड़े। मौन में ठहर जाना पड़े और इसके लिए आयास करेंगे, प्रयास करेंगे, आयोजन करेंगे तो उतना आसान न होगा। अनायास कभी किसी सागर के तट लेटे हैं हो जाएं चुप। अनायास एफर्टलेसली कभी आकाश को देखते हैं हो जाएं चुप। कभी किसी वृक्ष के तने से टिके बैठे हैं हो जाएं चुप। कभी अपनी पत्नी की आंख में झांकते हैं हो जाएं चुप। कभी अपने बेटे को गले लगाया है हो जाएं चुप। कभी अनायास, चैबीस घंटे में किसी क्षण हो जाएं चुप। शब्द को छोड़ें और निशब्द में ठहर जाएं। सत्य दूर नहीं है बहुत पास है। लेकिन सिर्फ उनको जो निशब्द में ठहरने की कला सीख लेते हैं।
और जो जानेंगे उस मौन में उसे न तो आप कह सकेंगे न मैं कह सकता हूं न कोई और कह सका है। जो जानेंगे उस मौन में वह गूंगे का गुड़ हो जाता है। जान तो लेते हैं स्वभावतः क्योंकि जिसे शब्द को छोड़ कर जाना है उसे शब्द में कैसे कहा जा सकेगा। जिसे शब्द को मारकर जाना उसे शब्द में कैसे कहा जा सकेगा। जिसे शब्द से विपरीत जाकर जाना उसे शब्द में कैसे लाया जा सकेगा। इसलिए आज तक कोई नहीं कह सका कि सत्य क्या है! सत्य कैसे मिल सकता है इसकी तो चर्चा हुई है बहुत लेकिन सत्य क्या है? वहां सब चुप हो गए हैं। जीसस सूली पर लटके हैं और पायलट ने जिसने उन्हें सूली की आज्ञा दी थी आखिरी क्षण में उनसे पूछा है, वाॅट इ.ज ट्रूथ? खूब मौका चुना उसने भी पूछने का। सूली पर लटकाया जा रहा वह जीसस, फंदे कस गए हैं, हाथ ठोंक दिए गए हैं, क्रास पर लटका है और पायलट उससे पूछता है, वाॅट इ.ज ट्रूथ? लेकिन जीसस चुप रह जाते हैं।
ईसाइयों के पास जवाब नहीं है कि जीसस चुप क्यों रह जाते हैं। क्योंकि अगर वे समझ जाएं कि जीसस चुप रह गए, तो फिर ईसाई मिशनरी इतना बोल कर सारे जगत को ईसाई कैसे उपाय करते। वे कैसे कहें कि ईसाइयत में सच है। क्योंकि जीसस तो चुप रह गए जब पूछा गया कि सत्य क्या है!
लेकिन बिलकुल चुप नहीं रह गए। चुप्पी से भी उन्होंने कुछ कहा। काश, पायलट समझ लेता। लेकिन वह नहीं समझ पाया। वह भाषा दूसरी थी। जब जीसस चुप रह गए तो उन्होंने कहा, चुप रह जाओ और जान ले। लेकिन इसे कहना उचित न था। क्योंकि चुप रह जाओ और जान ले, इसे भी शब्द से कहना पड़े! तो वे चुप ही रह गए। लेकिन पायलट नहीं समझा। फांसी हो गई। पायलट शायद यही समझा होगा कि जीसस को सत्य का पता नहीं है। बुद्ध से जब भी कोई आकर पूछता कि सत्य क्या है? तो वे कहते इसको भर छोड़ दो और सब पूछो। वह कहता लेकिन मैं सत्य को ही जानने आया हूं तो बुद्ध कहते फिर सभी पूछना छोड़ दो और चुप हो जाओ।
वह कहता लेकिन मुझे पता कैसे चलेगा? बुद्ध कहते, कुछ दिन चुप रह जाओ फिर मैं तुमसे पूछूंगा कि पता चला कि नहीं।
एक आदमी आया मोग्गलान उसने कहा, मैं तो खोजने निकला हूं सत्य, कहां है? बुद्ध ने कहाः रुको कुछ दिन, चुप रहो कुछ दिन, पूछो मत कुछ दिन फिर मैं तुमसे पूछूंगा साल भर बीतने पर। उसने कहा लेकिन मुझे अभी पता करना है। बुद्ध ने कहा, अभी अगर पता करना है तो अभी चुप हो जाओ। साल भर इसीलिए कहता हूं कि तुम्हें साल भर लग जाएगा। रफ्तार में हो, मूमेंटम में हो रुकते-रुकते साल लग जाएगा। अन्यथा अभी हो सकता है सत्य तो यहीं है चारों तरफ है ये रहा! ये रहा!
कहां है? कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं।
 बुद्ध ने कहाः तुम दौड़ में हो। रुको तो दिखाई पड़ जाए। साल भर रुको। एक भिक्षु किनारे बैठा था हंसने लगा जोर से।
मोग्गलान ने उससे कहाः क्यों हंसते हो। उसने कहा कि धोखे में मत पड़ना बुद्ध के। मैं भी आया था कुछ समय पहले पूछता हुआ कि सत्य कहां है, क्या है। इन बुद्ध ने कहा कि चुप हो जाओ साल भर, फिर पूछ लेना। अगर पूछना हो तो अभी पूछ ले। हम चुप रह गए साल भर। अब पूछने को भी कुछ नहीं बचा है। अब उलटा ये बुद्ध मुझको सताते हैं। कहते हैं, बोल, अब पूछ। क्या पूछूं? पूछने को भी नहीं बचा। मिल गया अब, पूछूं क्या? अगर पूछना हो, तो अभी पूछ ले; नहीं तो साल भर बाद धोखे में पड़ जाएगा। बुद्ध ने कहाः मैं वायदे पर पक्का रहूंगा, तू पक्का रहना। पूछेगा साल भर बाद, हम जवाब देंगे। साल बीता, भीड़ है इकट्ठी एक दिन सुबह और बुद्ध ने कहाः मोग्गलान कहां है? वह भाग गया है। मोग्गलान कहां है? उसे खोजो, क्योंकि साल पूरा हो गया है। और मुझे पूछना है कि उसे कुछ पूछना है? मोग्गलान को पकड़ कर लोग लाए वह एक वृक्ष के पीछे छिपा था। बुद्ध ने कहाः पूछ लो साल पूरा हो गया, वचन की याद भूल गए? मैंने कहा था साल भर बाद चुप रह कर पूछना, तो मैं जवाब दूंगा। मोग्गलान ने कहाः अब क्या पूछना? आप हैं जो आपको दिखाई पड़ता है वही मैं भी हूं, वही मुझे भी दिखाई पड़ता है। अब पूछने वाला गया। अब तो जानने वाला आ गया है।
ध्यान रहे, जब तक पूछने वाला है तब तक जानने वाला नहीं आता। इस दरवाजे से पूछने वाला गया उस दरवाजे से जानने वाला आ जाता है। पूछना छोड़ें, रुकें, ठहरें, अनायास किसी क्षण में चुप रह जाएं, किसी दिन उसकी झलक मिल जाएगी। किसी भी दिन, कभी भी मिल सकती है। कोई प्रिडिक्शन नहीं हो सकता कब मिल जाएगी। और कोई पूर्व भविष्यवाणी नहीं हो सकती है कि ऐसे मिल जाएगी। सत्य के रास्ते बहुत अपरिचित, अनजान हैं सत्य कहीं से भी किसी भी क्षण कैसे उतर आएगा नहीं कहा जा सकता।
एक ही बात ध्यान रखें कि आपका दरवाजा बंद न हो जब सत्य द्वार खटखटाए तो आपका दरवाजा खुला हो, आप खाली हों शून्य को देखने को राजी हों। खुले हों, मुक्त हों आ सके तो आप कह सकें आओ, द्वार खुला है। आपका द्वार भर खुला रहना चाहिए। साइलेंस उस द्वार के खुलने का नाम है। अगर ऐसा ही कहना हो तो मैं कहूंगा, मौन ही सत्य है। शून्य ही सत्य है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इन बातों को सत्य मत समझ लेना। बातें सत्य नहीं होतीं। इस बोलने वाले को सत्य मत समझ लेना। बोलने वाले से सत्य का क्या संबंध है? लेकिन इस बोलने वाले के भीतर एक न बोलने वाला भी है और आप सुनने वाले के भीतर एक न सुनने वाला भी है, वहां जाने की बात है।

इतनी शांति और प्रेम से मेरी बातें सुनीं, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

आपने बड़ी सुंदर वाणी आज आचार्यजी से सुनी, अगर आप कोई सवाल पूछना चाहते हैं, तो आप पूछ सकते हैं।

मित्र पूछ रहे हैं कि कहा जाता है कि अरविंद को शून्य का, वैक्यूम का अनुभव हुआ। क्या वह सत्य की खोज थी?

अरविंद के संबंध में पूछना ही फिजूल है, क्योंकि जब भी हम दूसरे के संबंध में पूछते हैं कि उसे जो शून्य हुआ वह क्या था? तब हम अपने को ज्यादा से ज्यादा शब्दों से ही भर सकेंगे। अरविंद भी एक शब्द बनेगा और अरविंद का शून्य भी एक शब्द बनेगा। और उन्हें मिला या नहीं मिला ये भी शब्द बनेंगे। न दूसरे के संबंध में हम शब्द से कभी मुक्त ही नही हो सकते। दूसरे के संबंध में शब्द अनिवार्य है। सिर्फ अपने संबंध में हम शब्द से मुक्त हो सकते हैं। तो फिकर इसकी न करें कि अरविंद को क्या हुआ क्या नहीं हुआ। फिकर इसकी करें कि आपको क्या हो सकता है!
और अगर मैं कहूं कि अरविंद को हुआ, तो आप किसी दूसरे से पूछेंगे कि मैंने ऐसा अरविंद के संबंध में कहा, वह सही है या गलत?...पूछेंगे। इसका अंत कहां होगा? यह इनफिनिट ट्रिगरेस है। जो हम पूछते चले जाते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी एक गांव में जाने को है और उसने पूछा है कि अ नाम का आदमी कहां रहता है? तो किसी ने कहा कि ब नाम के आदमी के पड़ोस में रहता है। उसने कहाः मुश्किल में मत डालो मुझे। यह ब नाम का आदमी कहां रहता है? तो वह स नाम के आदमी के पड़ोस में रहता है। उसने कहाः लेकिन मुझे स आदमी का कोई पता नहीं है!
अरविंद के संबंध में पूछेंगे कुछ मुझसे, अरविंद भी दूसरे मैं भी दूसरा। दोनों आपके लिए बेकार--अरविंद भी, मैं भी। दूसरे होने की वजह से बेकार हैं। असली सवाल सत्य की खोज का सदा अपने से। मैं वैक्यूम में हो पाता हूं? नहीं यह सवाल महत्वपूर्ण है। और इतना जरूर कहूंगा कि जिस दिन आप शून्य में हो पाएंगे। उस दिन आप ही देख पाएंगे कि कौन-कौन शून्य में हो गया है। तब आप कभी न पूछेंगे कि कौन हुआ, कौन नहीं हुआ। लेकिन जब तक आप नहीं हुए हैं कोई दूसरा दावा करे कि हो गया। कोई दूसरे के संबंध में कहे कि नहीं हो गया। क्या होगा? बातचीत हो जाएगी इससे कोई अर्थ नहीं है। बचें, यही तो मैंने कहा, गुरुओं से बचें। अरविंद को अगर मैं कहूं कि हां, हो गया है तो आप कहेंगे कि चलो अरविंद को गुरु बना लिया। अगर कहूं कि नहीं हुआ तो कहेंगे चलो मुझको ही बना लें। ये हमारी गुरु की तलाश हैै। हम पता लगाते हैं बुद्ध को ज्ञान हुआ? अगर हुआ हो तो चलो इनके पैर पकड़ लें। महावीर तीर्थंकर असली थे कि नकली चलो चलो इनके पैर पकड़ लें अगर पक्का हो जाए। लेकिन कैसे पक्का होगा। कौन करेगा पक्का? और जरूरत क्या है पक्का करने की। क्योंकि मैं कह ही यह रहा हूं कि दूसरे से बचना। नहीं तो अरविंद आॅथेरिटी बंद जाएंगे। बैठ कर उनकी किताबें आप पढ़ेंगे और क्या करेंगे। अरविंद को मानने वाला उनकी बैठ कर किताबें पढ़ रहा है। बैठा है, माताजी का आशीर्वाद मिल जाएगा, तो सब हो जाएगा। यह सब अंधों की दुनिया पैदा होती है।
गुरु जो हैं वे अंधों की दुनिया के राजा हैं। वह अंधों की दुनिया उनसे पैदा होती है। नहीं, कोई की फिकर न करें क्योंकि फिकर की जरूरत नहीं है। कोई आॅथेरिटी बनानी है, कोई...बनाना है। शून्य में जाना है आप चले जाएं। अब यह बड़े मजे की बात है कि जहां हमें जाना होता है वहां हम कभी नहीं पूछते यह सवाल। जैसे मुझसे कोई कभी नहीं पूछता आकर कि मजनूं का प्रेम सच था? वह अपने ही प्रेम में चला जाता है। कोई पूछता ही नहीं। फरिहाद का प्रेम सच था? कोई नहीं पूछता। वह खुद ही चला जाता है।
प्रेम में हम खुद चले जाते हैं और हम कभी नहीं पूछते हैं कि किसका सच किसका झूठ। सत्य में हम स्वयं नहीं जाते इसलिए हम सदा पूछते रहते हैं किसका सच, किसका झूठ, किसको मिला, किसको नहीं मिला। एक ही बात ध्यान रखें कि जब तक आपको नहीं मिला तब तक किसी को नहीं मिला। और जिस दिन आपको मिल गया उस दिन सबको मिल गया कोई मतलब नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। इररिलेवेंट हैं अरविंद या मैं या कोई भी। आपसे कुछ लेना-देना नहीं। ये फिजूल के लोग हैं इनसे बचना चाहिए। जहां गुरु दिखाई पड़े वहां से एकदम भाग खड़े होना चाहिए वहां से, उस तरफ जाना नहीं चाहिए भूल कर। क्योंकि वह अनिवार्य रूप से दूसरे में आपको उलझा देता है। और दूसरे से बचना सत्य की खोज का अनिवार्य हिस्सा है।

आप पूछते हैं शून्य में जाने की विधि क्या है?

शून्य में जाने की विधि नहीं हो सकती है। और विधि से जाइएगा तो कम से कम विधि तो साथ रह ही जाएगी। शून्य न हो पाएगा। क्योंकि फिर विधि को कैसे छोड़िएगा! फिर विधि को छोड़ने की विधि पूछिएगा। अब वे विधि पकड़ गई अब इसको कैसे छोड़ें? ऐसा हो जाता है कोई कहता है राम-राम, राम-राम, राम-राम जपो। इससे शून्य में चले जाओगे। राम-राम जप पकड़ जाता है। अब वह कहता है, अब यह राम-राम को कैसे छोड़ें, अब इसकी कोई विधि चाहिए। असल में एक विधि को छुड़ाने के लिए फिर दूसरी फिर दूसरी को तीसरी। नहीं, इस चक्कर में पड़िए मत।
शून्य में जाने को विधि मत बनाइए। फिर आप कहेंगे लेकिन हम कैसे जाएं? शून्य में जाने को विधि न बनाएंगे तो हम तो बिना विधि के कहीं जा ही नहीं सकते। वह तो अच्छा हुआ कि हमको श्वांस लेने की, लेते रहते हैं बचपन से इसलिए हम विधि नहीं पूछते।
मैंने सुना है, एक सेंटीपेड था, सौ पैर वाला एक जानवर था। वह जा रहा था एक रास्ते से। एक मकौडे ने देखा, वह बहुत हैरान हुआ कि सौ पैर! किस विधि से उठाता होगा पैर? पहले कौन सा उठाता होगा, दूसरा पीछे कब उठाता होगा? मर गए! वह बहुत घबड़ाया, उसने कहा, कितना बड़ा गणितज्ञ होगा यह सेंटीपेड? सौ पैरों का हिसाब रखना कि कब कौन सा उठाना और चलना, फिर हिसाब भी रखना। चार पैर में दिक्कत हुई जाती है। उसने कहा, सुन भाई, रुक! जरा इतना तो बता जा कि किस विधि से चलता है? सौ पैर कैसे उठाता है? पहले कौन सा, दूसरा कब, तीसरा कब। गड़बड़ा नहीं जाता? उस सेंटीपेड ने कहाः मैंने कभी खयाल नहीं किया, मैं खयाल करता हूं। उसने खयाल किया वह गिर पड़ा। गड़बड़ा गया, कि सौ पैर, कौन सा पैर आगे, पीछे। उसने कहा कि...में पड़े। अब किसी सेंटीपेड से ऐसा सवाल मत पूछना। जान कर मुसीबत आ गई। अभी तक चलते चले जाते थे बिना विधि के।
शून्य विधि नहीं है, सिर्फ शब्द की व्यर्थता को समझ लें। सिर्फ शब्द की व्यर्थता को समझ लें। विचार की व्यर्थता को समझ लें। उस व्यर्थता का परिणाम सहज रूप से शून्य बनता है।
यहां हम बैठे हैं मकान में आग लग गई और मैं कहता हूं, मकान में आग लग गई है और लपटें आपको दिखाई पड़ती हैं। फिर कोई यहां नहीं पूछेगा कि बाहर निकलने की विधि क्या है? आप पाएंगे कि बिना विधि के लोग निकले जा रहे हैं। सब शिष्टाचार छोड़ कर कि स्त्री को धक्का लग रहा है कि नहीं लग रहा है। कि अपनी पत्नी साथ है कि नहीं धर्मपत्नी...सब छोड़ कर बिलकुल बिना विधि के लोग बाहर निकले जा रहे हैं। जहां दरवाजे हैं वहां से और जहां दरवाजे नहीं हैं वहां से। सब तरफ से निकले जा रहे हैं। क्या हो गया है? लपट का दिखाई पड़ जाना निकलने की विधि बन जाती है। शब्द की व्यर्थता दिखाई पड़े शास्त्र की व्यर्थता दिखाई पड़े बाहर की व्यर्थता दिखाई पड़े ये है सवाल असल में। अगर यह...दिखाई पड़ जाए कि यह शब्द बातचीत सिद्धांत शास्त्र बेकार हैं, व्यर्थ हैं। अगर यह दिखाई पड़ जाए ये चैबीस घंटे शब्दों में ही विचारों में ही जीना व्यर्थ है। ये व्यर्थता जितनी तीव्रता से दिखाई पड़ जाए आप अचानक पाएंगे कि आप बाहर हो गए। और ये बाहर होना बिलकुल बिना विधि के, बिना मेथड के हो जाएगा। और अगर विधि से बाहर हुए तो आप एक बहुत चक्कर में पड़ेंगे क्योंकि विधि कभी भी अंत नहीं आता उसका फिर दूसरी विधि फिर तीसरी विधि और चलता रहता है।
नहीं, विधि से नहीं होगा। शून्य में जाना है तो विधि से नहीं होगा। इसलिए निगेटिव मेथड कहना चाहिए जो मैं कह रहा हूं उसको।
पत्नी के पास बैठे होंगे समुद्र के तट पर, या मित्र के साथ, या प्रेयसी के साथ, या अकेले। अगर वहां तट पर बैठ कर आपको ऐसा लगता है कि क्या अर्थ है यहां सोचने का? सागर है, आकाश है। कोई नहीं सोच रहा, न सागर सोचता, न आकाश सोचता, न वृक्ष सोचते, न हवाएं सोचतीं, कोई नहीं सोचता। मैं भी बिना सोचे पड़ा रहूं। बहुत तो सोचता हूं, चैबीस घंटे सोचने से सिवाए सिर थकाने के कहीं पहुंचता नहीं हूं।
तो आप ठीक कह रहे हैं कि ऊपर से तो मौन हो जाता है लेकिन भीतर चलता रहता है। चलने दें। मैंने कहा, मूवमेंटम है। वह ऐसे ही है जैसे कोई साइकिल चलाता है एक आदमी। अब उससे हम कहते हैं रुक जाओ। तो वह पैडल रोक देता है। वह कहता है, पैडल तो रुक गए लेकिन चके चल रहे हैं। अब चके चलेंगे न। दो मील से आप चलते आ रहे हैं तो पैडल रोक देने से भी थोड़ी देर चके चलेंगे। लेकिन आप ये मानकर कि जब बिना पैडल चलाए चके चल रहे हैं तो पैडल चलाए ही जाओ। फिर पैडल चलाना शुरू कर देते हैं।
नहीं तट पर पड़े हैं, घर पर पड़े हैं, बिस्तर में रात सो गए हैं अंधेरा है सुखद है। रेशम की तरफ चारों तरफ से घेरे है। चुप हो जाएं। भीतर विचार चलेंगे क्योंकि दिन भर चले हैं तो उनका मूवमेंटम है। जिंदगी भर चले हैं जो जानते हैं वे कहेंगे जन्मों से चले हैं जन्मों-जन्मों से। उनका मूवमेंटम भारी है। उनको चलने दें लेकिन आप पैडल न मारें। भीतर जो विचार हैं उनको आप पैडल भी मारते हैं एक विचार आता है और आप तत्काल दूसरे पर उसको ले जाते हैं, तीसरे पर ले जाते हैं, चैथे पर ले जाते हैं। आप कहें कि जितना अपने से चलना हो चलो हम पैडल नहीं मारते हैं। हम जरा चुपचाप हो जाएं। आप पड़े रहें। इसलिए मैंने कहा कुछ कह नहीं सकता, कब हो जाएगा। किसी दिन आप अचानक पाएंगे कि कोई क्षण है जब कोई विचार नहीं है। खाली रह गया आकाश। तो उस खाली आकाश में जब आपको आनंद की प्रतीति होगी तो वह आनंद की प्रतीति विधि बन जाएगी फिर आपके लिए। फिर आपका मन खुद ही उस आनंद की तरफ बहने लगेगा। मन का नियम ये है कि वह आनंद की तरफ बहता है।
अभी मैं यहां बोल रहा हूं और कोई पास के बगीचे में सितार बजाएं, तो आप किस विधि से आपका मन उसके सितार को सुनने पहुंच जाता है। कभी खयाल किया आपने? इधर मैं बोल रहा हूं, वह खत्म हो गया मेरा बोलना। मैं बोलता रहूंगा, आपका सुनाई पड़ना यहां बंद हो गया। आप अचानक गए। आप यहां नहीं हैं। सितार बजने लगा है बाहर, वह सितार ने आपके मन को पकड़ लिया। आपका मन गया बाहर।
मन आनंद की तरफ बाहर चला जाता है। अपने आप बिना किसी विधि के जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं बिना किसी नक्शे को हाथ में लिए। ऐसे मन आनंद की तरफ बहता है। कभी जब अनायास वह क्षण आप में घटित हो जाएगा चलते-चलते, रुकते-रुकते किसी दिन आपको आनंद की प्रतीति होगी। सत्य की थोड़ी सी झलक भी मिल जाएगी तो फिर मन लौट-लौट कर वहां जाने लगेगा। अपने-आप जब भी आप खाली होंगे चुप हो जाएगा। ये विधि नहीं है लेकिन हमारा मन चूंकि बिना विधि के कुछ भी नहीं करता। हम पूछते हैं विधि इसलिए फिर हमारा शोषण करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं वे कहते हैं, आओ हम देते हैं विधि। लो साढ़े तीन रुपये में मंत्र ले लो, कान फूंके देते हैं अब और किसी से मत लेना ये पक्की हमने विधि दे दी। इससे तुम चलते रहो।
सारी दुनिया के आदमी को हर तरह के शोषण हैं। और आध्यात्मिक शोषण सबसे बड़ा शोषण है।और गुरु कर रहे हैं उसको सब तरफ। अब इस वक्त पश्चिम में बहुत अशांति है, तो वे विधि चाहते हैं, इसलिए पूरब के जितने उपद्रवी हैं वे सब पश्चिम जा रहे हैं। वे वहां लोगों को विधि दे रहे हैं। उनको इकट्ठा करके बता रहे हैं कि हम तुमको मंत्र दिए देते हैं ये कंठी लो हाथ में ये माला जपते रहो। हमारा शोषण हो जाता है क्योंकि हमें ख्याल नहीं है कि मामला विधि का नहीं है।
अंतिम बात आपसे कह दूं, फिर हम उठें।
विधि से कभी भी विधि से बड़ी चीज नहीं मिल सकती। और परमात्मा इतना बड़ा है कि हमारी कौन सी विधि से मिल सकता है। आप दो पैसे से खरीदने जाएंगे तो दो पैसे की चीज मिल सकती है। परमात्मा को आप खरीद नहीं सकते हैं, क्योंकि कितने पैसे से आप खरीदेंगे? आपको पहाड़ पर चढ़ना है, तो सीढ़ियां बनाई जा सकती हैं, लेकिन जितनी बड़ी सीढ़ियां होंगी उतने बड़े पहाड़ तक पहुंचा देंगी। अब परमात्मा के अंतहीन इस शिखर पर चढ़ने के लिए कैसे सीढ़ियां बनाइएगा?
यहां तो मेथडलेसली यहां तो बिना विधि के जो कूदने के लिए तैयार है वे ही इस अनंत में और अनादि में प्रवेश कर पाते हैं। अन्यथा लोग बैठे हुए विधि का हिसाब करते रह जाते हैं।
एक छोटी सी कहानी से मैं आपको कहूं।
सुना है मैंने, एक सम्राट का वजीर मर गया। बड़ा था वजीर। उस राज्य का नियम था कि जब भी कोई बड़ा वजीर मर जाए तो सारे राज्य में चुनाव किया जाए, परीक्षाएं की जाएं और श्रेष्ठतम बुद्धिमान आदमी खोजा जाए।
परीक्षाएं की गईं। तीन आदमी खोजे गए। वे राजधानी लाए गए अंतिम परीक्षा के लिए। अंतिम परीक्षा तीनों रात भर परेशान होने चाहिए। लेकिन एक चादर ओढ़ कर एकदम सो गया। दो ने कहा कि यह आदमी क्या ड्राप कर गया? क्या हुआ? इसको परीक्षा नहीं देनी, तैयारी नहीं करनी और। कल परीक्षा क्या होगी, यह अनजान थी परीक्षा, कुछ खबर नहीं थी। पर गांव भर में खबर थी, हर आदमी कह रहा था कि परीक्षा तय है। तो गांव में गए तो पता चल गया। पूरे गांव में चर्चा थी कि परीक्षा यह है। राजा ने एक कमरा बनाया है और उसमें एक अदभुत ताला लगाया है और ताला एक मैथेमेटिकल प.जल है। वह पजल उस पर खुदी हुई है। जो उसको हल कर लेगा वह ताला खोल लेगा। इन तीनों को कल बंद किया जाएगा और जो ताला खोल कर बाहर आ जाएगा वह जीत जाएगा, वह वजीर हो जाएगा। वे दोनों भागे, न तो वे चोर थे कि ताला खोलना जानते हों न गणितज्ञ थे कि गणित जानते हों न पहेलियां हल करने के शौकीन थे। बड़ी मुश्किल में पड़ गए।
गांव भर में जो गणित जानता था उसके पास गए ताले खोलता था उसके पास गए इंजीनियर के पास गए कई किताबें लाए।...जिंदगी भर का मामला है अब रात सोओ मत। रात भर जागे हैं सब पढ़ा-लिखा सांझ से भी हालत सुबह तक बुरी हो गई। जैसा कि परीक्षार्थियों की हो जाती है। सांझ को दो और दो चार बता सकते थे। सुबह आप उनसे पूछो, दो और दो चार, तो उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था कि आप पूछ क्या रहे हैं? जवाब तो बहुत दूर है, पहले प्रश्न ही समझ में आना मुश्किल हो गया सुबह।
लेकिन वह एक आदमी रात भर सोया रहा, वे दोनों खुश हुए कि अच्छा हुआ कम से कम एक खत्म हुआ। अब दो ही प्रतियोगी बचे। लेकिन जब वे सुबह थके-मांदे थे तब वह भी उठा गीत गाता हुआ, स्नान किया। उन्होंने तो स्नान भी नहीं किया। उन्होंने कहा, अब आज तो सब छोड़ो। वे दोनों चले, वह भी पीछे गीत गाता चला। उन दोनों ने सोचा, यह पागल किसलिए आ रहा है, कुछ तैयारी तो की नहीं। गए तीनों।
सच थी अफवाह। दरवाजे के भीतर सम्राट ने किया और कहा यह है पहेली का ताला इसे खोल कर जो बाहर आ जाए। इसकी कोई चाबी नहीं है। यह पहेली जो है बस यही चाबी है। जो बाहर आ जाए वह जीत गया। अब तुम भीतर जाओ मैं बाहर जा रहा हूं। दरवाजा लगाया। राजा बाहर हो गया। वह जो तीसरा आदमी रात भर सोया रहा था फिर वह एक कोने में आंख बंद करके बैठ गया। उन्होंने कहाः यह आदमी क्या कर रहा है? लेकिन उन्होंने कहाः इसकी फिकर छोड़ो, फुरसत किसे है इसकी फिकर की। वे अपनी किताबें छिपा लाए थे अपने कपड़ों के अंदर। कोई आजकल के विद्यार्थी चोर हैं ऐसा नहीं, विद्यार्थी सदा से चोर हैं। क्योंकि जहां ज्ञान स्मृति से समझा जाता हो वहां चोरी अनिवार्य है। चोरी कई तरह से हो सकती है। वे बेचारे ले आए थे छिपा कर। जल्दी हिसाब-किताब लगाने लगे। लग गए अपनी मुश्किल में। पसीना चुआ जा रहा है। हिसाब कुछ सूझता नहीं है।
तभी अचानक राजा भीतर आया, उसने कहा, बंद करो यह हिसाब-किताब, जिसको निकलना था वह निकल चुका। उन्होंने कहाः कौन निकल चुका? हम दोनों तो यहीं हैं। कहाः वह तीसरा आदमी निकल चुका है।
देखा, कोना खाली है, वह आदमी नदारद है। राजा ने कहाः वह बाहर है। लेकिन उन्होंने कहाः निकला कैसे वह? क्योंकि हिसाब तो उसने कुछ किया नहीं। उस राजा ने कहाः हिसाब का सवाल न था। ताला लगा ही नहीं था, सिर्फ दरवाजा अटका था।
दरवाजा सिर्फ अटका था। और बुद्धिमान आदमी का पहला लक्षण यह है कि पहले वह यह देख ले कि सवाल भी है या नहीं? अगर जवाब खोजने में लग जाए तो मुश्किल में पड़ जाता है। वह निकल गया बाहर।
उस आदमी से पूछा कि तुझे क्या हुआ? उसने कहा, मैंने सोचा रात कि जिस परीक्षा का अपने को पता ही नहीं उसकी तैयारी करनी खतरनाक है। क्योंकि कहीं तैयारी न मालूम क्या-क्या हो जाए। तो उसके लिए तो अनप्रिपे्रयर्ड होना ही अच्छा है। प्रिपे्रयर्ड होना खतरनाक है जिसका अपने को कुछ पता ही नहीं। तो मैें अनप्रिप्रेयर्ड आया रात भर मैंने कहा कि बिलकुल अनप्रिपे्रयर्ड हो जाओ जो पहले की तैयारी है वह भी भूल जाओ ताकि सुबह कम से कम खाली साफ-सुथरा तो खड़ा हो जाऊं कि क्या है। जब इस कमरे में आकर बैठा तो मैंने कहा कि ताले तो अपने बापदादों ने कभी नहीं खोले अगर वे खोल ही लेते तो राजा हो जाता उनका बेटा वजीर क्यों होता! अपना तो काम नहीं है ये लेकिन अब आंख बंद करके बैठ जाएं, कुछ सूझ जाए तो हो जाए। आंख बंद करके मैं बैठा तब मुझे खयाल आया कि पहले यह तो देख लें कि ताला लगा भी है कि नहीं? गया और ताला खोल कर बाहर निकल गया। ताला तो लगा नहीं था, दरवाजा अटका था।
परमात्मा का दरवाजा भी लगा हुआ दरवाजा नहीं है कि कोई विधि की और चाबी की जरूरत हो। बिलकुल अटका है। मगर आप अपनी किताब खोले बैठे हैं कि क्या विधि से निकलें। उधर परमात्मा उस तरफ प्रतीक्षा कर रहा है कि छोड़ो किताब आ जाओ बिना ही विधि के चलेगा। जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है वह सब बिना विधि के होता है। न प्रेम विधि से होता है, न सत्य विधि से होता है, न काव्य विधि से होता है, न संगीत विधि से होता है।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है विधि के बाहर है। और जीवन में जो भी क्षुद्र है विधि के भीतर है। विधि से पाना हो तो क्षुद्र मिलेगा और बिना विधि के कूदने की क्षमता हो तो विराट मिल जाता है।

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