कुल पेज दृश्य

बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(खुद को खोने का साहस)

एक छोटी सी कहानी से मैं आज चर्चा शुरू करना चाहूंगा। अंतिम चर्चा है यह। पिछली तीन चर्चाओं में जो मैंने आपसे कहा है, जो भूमिका और जो पात्रता बनाने को कहा है, उस भूमिका के अंतिम तीन चरण आज मैं आपसे कहने को हूं, उसके पहले एक छोटी सी कहानी।
एक बहुत पुरानी कथा है। एक सम्राट का बड़ा वजीर मर गया था। उस राज्य का यह नियम था कि बड़े वजीर की खोज साधारण नहीं, बहुत कठिन थी। देश से सबसे बड़े बुद्धिमान आदमी को ही वजीर बनाया जाता था। ...... बुद्धिमान आदमी की खोज में बहुत सी परीक्षाएं हुईं, बहुत सी प्रतियोगिताएं हुईं, बहुत सी प्रतिस्पर्धाएं हुईं और फिर अंतिम रूप से तीन आदमी चुने गए, उन तीनों को राजधानी बुलाया गया। वे देश के सबसे बुद्धिमान लोग थे। फिर उनकी परीक्षा हुई और उसमें से एक व्यक्ति चुना गया। और वह देश का वजीर बना ।

उस अंतिम परीक्षा के संबंध में थोड़ी बातें मुझे कहनी हैं। उन तीनों ने भी नहीं सोचा होगा कि अंतिम परीक्षा बहुत कठिन होगी। वे तीनों ही डरे ह‏ुए काफी घबराए हुए थे। जबकि रात खत्म ह‏ुई तो उन्होंने कोशिश की कि अगर पता चल जाए कि परीक्षा क्या है, तो शायद हम तैयारी कर लें। जैसा सभी विद्यार्थी करते हैं, परीक्षा के पहले पता लगा लेना चाहते हैं कि तैयारी का कि परीक्षा क्या है? उन तीनों ने भी कोशिश की।


कोई आजकल के विद्यार्थी ही समझदार हो गए हों ऐसा नहीं है, पहले के लोग भी इतने ही समझदार थे।
लेकिन राजधानी पहुंचे, उनको पता चला कि पता लगाने की कोई भी जरूरत नहीं। पूरी राजधानी को पता हो गया है कि परीक्षा क्या है? गांव भर में खबर थी, हर आदमी कह रहा है कि कल परीक्षा क्या होगी। ये सुने, बहुत घबड़ा गए। परीक्षा पता न होती तो भी ठीक था।
परीक्षा यह होने को थी कि सम्राट ने एक भवन बनवाया हुआ था। उस भवन में एक ही द्वार था। और उस द्वार पर उसने देश के बड़े-बड़े गंतव्यों और इंजीनियरों को बुलवा कर एक ऐसा ताला लगवाया था, जिसकी कोई चाबी नहीं। और उस ताले को खोलने की तरकीब तो थी लेकिन कोई चाबी नहीं थी, कोई कुंजी नहीं थी। उस ताले के ऊ पर गणित के अंक लिखे हुए थे और एक गणित की पहेली थी, जो उस पहेली को हल कर सकेगा, उससे वह ताला खुल जाएगा। बाकि किसी से वह ताला नहीं खुल सकता। गांव भर में खबर थी कि कल उन तीनों बुद्धिमान लोगों को महल के भीतर बंद कर दिया जाएगा, और उनसे कहा जाएगा कि इस ताले को खोल कर जो सबसे पहले बाहर आ जाएगा, वही वजीर होगा।
उन तीनों ने क्या किया? उनमें से एक तो जाकर तत्क्षण अपने घर सो गया। दो बाजार की तरफ भागे।।तालों के संबंध में, पहेलियों के संबंध में, गणित के संबंध में।।जो भी किताबें मिल सकती थीं, उनको इकट्ठा कर लाए। और उन दोनों लोगों ने पढ़ना शुरू कर दिया, दोनों ने पढ़ना शुरू कर दिया। तीसरा सोया देख कर उन्होंने समझा कि मालूम होता है इसने हिम्मत खो दी, इसने .... दे दिया, यह परीक्षा नहीं देगा। वे दोनों रात भर तैयारी करते रहे।
अब न तो वे चोर थे जो उन्हें ताले खोलने की तरकीब पता हो, और न ही कोई इंजीनियर थे कि उन्हें ताले बनाने का कोई पता हो। रात भर पढ़ने का उसका परिणाम यह हुआ कि जितना वह सांझ को जानते थे, सुबह उससे बहुत कम जानते थे। अगर सुबह उनसे कोई पूछता, दो और दो कितने होते हैं? तो शायद वे उत्तर नहीं दे सकते थे। जैसा कि परीक्षार्थी, सो वह सभी परीक्षार्थियों की हालत हो जाए।।तो वह उनकी हालत होती थी।
जो आदमी रात भर सोया रहा है, जब वे दोनों परीक्षा के भवन की तरफ जाने लगे तो वह भी उठा और उनके पीछे हो गया।।गीत गाता हुआ। उन दोनों को बहुत हैरानी हुई! उन्होंने सोचा कि शायद यह पागल हो गया हैै। रात भर सोया है और सुबह गीत गा रहा है और परीक्षा में जा रहा है। फि र जब वे तीनों पहुंचे, और बात सच थी। सम्राट ने उन्हें एक महल के भीतर बंद किया और कहा कि इस दरवाजे पर जो ताला लगा है।।यह गणित की एक पहेली है। और जो इसे हल कर लेगा और खोलेगा वह बाहर आ जाएगा, वह सम्राट का वजीर हो जाएगा। आप तीनों अंदर हो जाएं, मैं बाहर प्रतीक्षा करता हूं । सम्राट द्वार लगा कर बाहर जाकर प्रतीक्षा करने लगा।
वे दोनों आदमी अपने कपड़ों के भीतर किताबें छिपा लाए थे। जैसे ही सम्राट बाहर गया उन्होंने किताबें निकाल लीं और पहेली हल करने की कोशिश में लग गए। लेकिन वह तीसरा आदमी जो रात भर सोया रहा था, फिर आंख बंद करके एक कोने में सो गया। वे दोनों बहुत हैरान थे कि इसको क्या हो गया है! वे दोनों अपना हल खोजते रहे, परिणाम उलझते चले गए, उलझते चले गए। वह आदमी अचानक उठा, द्वार पर गया, उसने द्वार हटा कर देखा, द्वार बंद नहीं था।।अटका ह‏ुआ था, वह बाहर निकल गया। वे दोनों हल करने में लगे रहे। उन्हें पता भी नहीं चला कि उनका साथी बाहर हो गया। उन्हें तब पता चला जब सम्राट ने आकर कहा कि बंद करो अपनी किताब, जिसको निकलना था वह बाहर निकल गया। वे दोनों तो भौंचक्के रह गए! उन्होंने कहा: यह आदमी बाहर निकल गया, ये तो आंख बंद किए बैठा था। ये कैसे बाहर निकला!
सम्राट ने कहा: इस आदमी ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा सुबूत दिया है। इसने पहले ही यह देखने की कोशिश की कि दरवाजा बंद है या खुला है? बंद हो तो खोलने की कोशिश की जाए, खुला हो तो खोलने की क्या जरूरत है? इसने पहले यह देखने की कोशिश की कि कोई समस्या भी है या नहीं? समस्या हो तो समाधान खोजा जाए, और समस्या न हो तो समाधान कैसे खोजा जा सकता है?
सबसे कठिन समाधान वे ही होते हैं, जो उन समस्याओं के लिए खोजे जाते हैं जो कि समस्याएं ही नहीं। जो द्वार बंद ही नहीं है उसे खोलने की सब कोशिशें असफल हो जाने को पहले से ही निश्चित है।
परमात्मा का द्वार बंद नहीं है। जो लोग भी उसे खोलने की कोशिश करते हैं, वे असफल हो जाते हैं। परमात्मा का द्वार खुला हुआ है। लेकिन द्वार खुला हुआ है, इसका बोध भी केवल उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो अत्यंत शांत और मौन होकर बैठने में समर्थ है।
वह आदमी सोया हुआ नहीं था, वह आदमी मौन और शांत बैठ गया था।
जब समस्या सामने हो तो सबसे बड़ा समाधान यह है कि समस्या का साक्षात्कार कोई शांति और मौन से कर सके। समस्या को जो सोच कर हल करने की कोशिश करता है, वह और उलझता चला जाता है, वह समस्या को हल नहीं कर पाता है। समस्या के हल के लिए पहली जरूरत है कि कोई मौन, शांति को उपलब्ध हो जाए, तो उस शांति में ही वह द्वार, वह दिशा दिखाई पड़ जाती है।।जहां समाधान है।
और जहां समस्या नहीं है। वह आदमी ऊपर से दिखाई पड़ता था कि कोई उपाय नहीं कर रहा है, वही आदमी ठीक उपाय कर रहा था। वे दोनों जो उपाय करते हुए प्रतीत हो रहे थे, वे कोई उपाय नहीं कर रहे थे, वे और उलझते जा रहे थे। वे और अपने ही जाल में फंसते जा रहे थे।
वह सम्राट बड़ा अदभुत सम्राट था। और उसने जो समस्या खोजी, वह बड़ी अदभुत थी। परमात्मा और भी अदभुत है। उसने भी जो मनुष्य के साथ समस्या ....है वह , वह भी बहुत अदभुत है। वह उतनी सरल है कि जिनके मन जटिल हैं, वे उसे नहीं खोल पाते हैं। और जिनके मन सरल हैं, वे उसे खोल लेते हैं। यह श्रमदा, यह मौन, यह शांति कैसे उपलब्ध हो कि प्रभु का द्वार खुल जाए, उसके तीन सूत्रों पर, अंतिम तीन सूत्रों पर मुझे आपसे बात करनी है।
पहला सूत्रः असीम का बोध। मनुष्य के चारों तरफ एक असीम जगत है। लेकिन हमें उस असीम का, उस ..... का कोई बोध नहीं है। हम अपनी ही सीमाओं में बंधे हुए जीते हैं और जो आदमी जितनी सीमाओं में बंधा हुआ होता है; उतना ही क्षुद्र, उतना ही जटिल हो जाता है। और जो आदमी असीम के बोध को जितना उपलब्ध होता है; उतना ही विराट, उतना ही सरल हो जाता है।
क्षुद्रता और कठिनता एक ही साथ उपलब्ध होती हैं। सरलता और असीमता एक ही साथ उपलब्ध होती हैं। छोटे-छोटे झरने बहुत शोरगुल करते हैं। जितना विराट सागर हो उतना ही मौन सन्नाटे में डूब जाता है। बर्तन खाली हो तो आवाज, थोड़ा भरा हो तो आवाज करता है, पूरा भर जाए तो मौन आ जाता है।
मनुष्य जब तक अपनी सीमाओं में छोटा बना है, क्षुद्र बना है तब तक उसके जीवन में शांति असंभव है। शांति असीम का लक्षण है; अशांति सीमित का लक्षण है। अशांति होती ही सीमाओं के कारण है। जहां सीमा आ जाती है वहीं चित्त अशांत हो जाता है; जहां दीवाल आ जाती है वहीं चित्त अशांत हो जाता है; जहां कोई अड़चन खड़ी हो जाती है वहीं चित्त अशांत हो जाता है। हमारी सारी अशांति...एक कारागृह में कैदी बंद होता है, उसकी अशांति क्या होती है आपको पता है? उसको भोजन नहीं मिलता? उसको भोजन मिलता है। उसको सोने नहीं मिलता? उसको सोने भी मिलता है। और यह भी हो सकता है कि घर से अच्छा भोजन मिलता हो, घर से अच्छा सोने को मिलता हो, लेकिन अशांति क्या हो जाती है उसे? अशांति यह हो जाती है।।जहां भी जाता है दीवाल मिल जाती है, द्वार कहीं भी नहीं मिलता। जहां भी जाता है बंधन मिल जाते हैं। जहां भी जाता है सीमा आ जाती है। असीम के साथ कोई उसका मिलन नहीं हो पाता।
कैदी की पीड़ा क्या है? कैदी की पीड़ा सीमा है। मुक्त व्यक्ति का आनंद क्या है? मुक्त व्यक्ति का आनंद सीमा का अभाव है। लेकिन जो लोग कारागृहों में बंद होते हैं वे ही कैदी नहीं हैं, हम सब भी कैदी हैं। फर्क इतना है कि वे दूसरों के बनाए कारागृहों में बंद होते हैं; हम अपने बनाए कारागृहों में बंद रहते हैं। और प्रभु मिलन की जिसके मन में प्यास पैदा हो गई हो, उसे सब तरह के कारागृह तोड़ देने होते हैं, और सब जंजीरें गिरा देनी होती हैं।
हमारी सीमाएं हमने निर्मित कर ली हैं। कोई कहता है मैं हिंदू हूं। उसने इतनी बड़ी मनुष्य-जाति से नाता तोड़ दिया। अब वह हिंदू है। फिर वह हिंदू भी कहता है मैं वैष्णव हूं। उसने हिंदू से भी नाता तोड़ दिया है। अब वह सिर्फ वैष्णव रह गया। वह वैष्णव भी कहता है कि मैं ब्राह्मण हूं या फलां हूं या ढिकां हूं।।उसने और नाता तोड़ दिया। फिर वह ब्राह्मण भी कहता है।।मैं गुजराती हूं, मैं मराठी हूं।।उसने और नाता तोड़ दिया, वह और छोटे में सीमित हो गया। और छोटे में सीमित होते-होते आखिर में वह अकेला अहंकार रह पाता है कि मैं हूं, और मैं कोई नहीं हूं। और तब वह क्षुद्रतम कारागृह में बंद हो जाता है। मनुष्य अपने ऊपर जो भी सीमाएं थोपता है, वे सभी सीमाएं उसे परमात्मा से दूर करने वाली सिद्ध होती हैं। परमात्मा की दिशा में जिसे जाना है उसे सभी सीमाएं तोड़ देनी होंगी। उसे सब विशेषण गिरा देने होंगे। उसे सारे द्वार खोल देने होंगे। सब दीवालें गिरा देनी होंगी। तो ही व्यक्ति असीम को उपलब्ध हो सकता है।
एक सम्राट ने अपनी पचासवीं वर्षगांठ मनाई। उसने देश के सौ बड़े विद्वानों को, बुद्धिमानों को बुलाया भोजन पर। उन सबको भोजन कराया गया, उनका सेवा-सत्कार किया गया, और जब विदा लेने लगे तो सम्राट ने कहा कि दक्षिणा भी मैं देना चाहता हूं। लेकिन मैंने सोचा कि मैं कुछ भी दूंगा तो कहीं वह आपके योग्य न हुआ, कहीं वह आपसे छोटा पड़ गया, तो इसलिए फिर मैं खुद देने के लिए तैयार नहीं हूं। मैं आपसे ही कहता हूं कि मेरे भवन के पीछे जो विराट राज्य की भूमि है, उस भूमि में से जितनी आप जो लेना चाहें ले लें।।जितनी जो लेना चाहे। एक ही शर्त है कि उस जमीन पर जो जितना बड़ा घेरा बना लेगा, वह जमीन उसकी हो जाएगी। जितना बड़ा घेरा जो बना लेगा, उतनी ही जमीन उसकी हो जाएगी।
वे सौ आदमी तो पागल हो गए। वे सौ ही ब्राह्मण, वे सौ ही बुद्धिमान तो पागल हो गए कि जितना घेरा बनाएंगे, उतनी जमीन! वह राज्य की सबसे बहुमूल्य जमीन थी। वह राजा की अपनी जमीन थी। उसकी कीमत का कोई हिसाब न था। और सिर्फ घेरा बनाने के मूल्य पर वह मिलती थी।
वे गए और उन्होंने अपने मकान बेच दिए और अपनी जमीनें बेच दीं, अपने जेवर बेच दिए। उन्होंने अपने कपड़े तक बेच दिए कि एक दफा बेच दो सब; जमीन घेर लो, फिर जमीन बेच कर बहुत कुछ उपलब्ध हो जाएगा। फिर वे सौ ही पागल की तरह लग गए और उन्होंने जमीन पर बड़े से बड़े घेरे बना लिए। आप सोच सकते हैं कि उन्होंने कितने घेरे बनाए होंगे?
अगर आप भी उनकी जगह होते तो कितना बड़ा घेरा बनाते?
 वह कितनी मुश्किल में पड़ गए। छह महीने का केवल वक्त मिला था उनको, और छह महीने में घेरा बनाना था। छह महीने बीतते-बीतते वे बड़े दीन-हीन हो गए, भूखे रहने लगे, सारे बड़े-बड़े घेरे बना लिए। और उस राजा ने और आखिरी पागलपन पैदा करवा दिया। उसने तीन महीने बाद कहा कि एक बात और तुम्हें बता दूं, जो सबसे बड़ा घेरा बना लेगा उसको मैं राजगुरु के पद पर स्थापित कर दूंगा। अब तो और जोर पकड़ गया।
छह महीने पूरे होने पर राजा गया और उसने कहा कि ठीक है तुमने काफी बड़े घेरे बनाए, किसने सबसे बड़ा घेरा बनाया है वह खुद कह दे, ताकि उसके घेरे का निरीक्षण कर लिया जाए। एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। सारे ब्राह्मण उसे देख कर हंसने लगे। वह निन्यानवें ब्राह्मण उसको पागल समझते थे, क्योंकि उसने एक छोटा सा घेरा बनाया था, अत्यंत छोटा सा। वह दावा कर रहा है कि मेरा घेरा सबसे बड़ा है। शायद उसका दिमाग खराब हो गया है।
लेकिन जब दावा किया गया था तो निरीक्षण होना जरूरी था। सम्राट उसके घेरे पर गया, वहां जाकर सम्राट को भी ख्याल आ गया कि वह आदमी पागल है। रात उसने जो घेरा बनाया था उसमें आग लगा दी थी, अब वहां कोई घेरा ही नहीं था। सम्राट ने कहाः तुम्हारा घेरा कहां है?
उस ब्राह्मण ने कहा: घेरा मैं कितना ही बड़ा बनाता, घेरे में जो जमीन घिरी है वह छोटी ही हो सकती है। मैंने घेरा जला दिया और मैं दावा करता हूं कि मेरी जमीन सबसे बड़ी है। क्योंकि मेरी जमीन पर कोई घेरा नहीं। मेरी जमीन की कोई सीमा नहीं है, इसलिए मैं दावा करता हूं कि मेरी जमीन सबसे बड़ी है। इन सबकी जमीन छोटी ही होंगी, कितनी ही बड़ी हों, तो भी छोटी होंगी क्योंकि।।घिरी है। जो घिरा है वह छोटा है, जो अनघिरा है वही बड़ा है। सम्राट उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा कि मैं जिस ब्राह्मण की खोज में था, वह मुझे मिल गया।
क्योंकि घेरा बनाता है जो, वह ब्रह्म को नहीं जान सकता; वह ब्रह्म नहीं हो सकता। जो घेरे तोड़ देता है, वही फिर उस ब्रह्म को जान पाता है। घेरे लेकिन हम सब बनाते हैं, न मालूम कितनी शक्लों के घेरे बनाते हैं; और उन घेरों से जकड़ जाते हैं, उन घेरों से पकड़ जाते हैं।।मैं भारतीय हूं, मैं हिंदू हूं, मैं मुसलमान हूं; मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं; मैं धनी हूं, मैं गरीब हूं; मैं ये हूं, मैं वह हूं। जब तक हम यह घोषणा करते हैं कि मैं यह हूं, तब तक हमारे ऊपर घेरा है, तब तक हम सीमा से बंधे हैं।
जिस दिन एक आदमी कह देता है कि मुझे पता ही नहीं कि मैं कौन हूं? जिस दिन वह कह देता है मेरा कोई घेरा नहीं, जिस दिन कह देता है मैं हूं ही नहीं, क्योंकि मैं होऊंगा तो कोई न कोई घेरा हो जाएगा। उस दिन वह असीम की तरफ पहला कदम रखता है। असीम की यात्रा में पहला कदम है: चित्त पर सारे घेरे हट जाएंगे।
दूसरा कदम हैः असीम का सानिध्य। हम सीमित के ही सानिध्य में होते हैं। न तो हम कभी खुले आकाश के नीचे होते हैं, न हम कभी दूर सागर के किनारे होते हैं; न हम तारों के पास होते हैं, न हम वह जो चारों तरफ फैला हुआ विराट शून्य है, उसके सान्निध्य में होते हैं।
हम तो आदमी से घिरे हैं और आदमी की दुनिया से बंधे हैं। आदमी की दुनिया बहुत सीमित है। आदमी जो भी बनाएगा, वह बहुत सीमित है। आदमी जो भी निर्मित करेगा, वह असीम के लिए नहीं हो सकता। हम आदमी और आदमी और आदमी से घिर-घिर कर एकदम सीमित होते चले गए हैं।
जो प्रकृति के करीब नहीं पहुंचता, वह अनंत के और असीम के करीब नहीं पहुंच सकता। परमात्मा को खोजने आदमी के बनाए हुए मंदिरों में न जाएं, परमात्मा को खोजने को उस विराट के निकट जाएं, जो चारों तरफ हमेशा मौजूद है और बुला रहा है। लेकिन उस तरफ हमें कुछ सुनाई नहीं पड़ता। उस तरफ हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हम भूल ही गए हैं कि हमारे चारों तरफ एक अनंत फैला हुआ है। हमें कल्पना भी नहीं रही है कि अनंत कितने दूर तक चला गया होगा, कैसा होगा?
एक धर्मगुरु ने एक रात सपना देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया है। जीवन भर स्वर्ग की ही उसने कामना की थी। और आज स्वर्ग के द्वार पर देख कर वह बहुत खुश हुआ। उसने सोचा जरूर भगवान द्वार पर खड़े होंगे, मुझे गले लगाने को उत्सुक होंगे। क्योंकि मैं उन्हीं की तो प्रार्थना करता रहा जीवन भर। उन्हीं का तो गुणगान करता रहा, उन्हीं की स्तुति करता रहा। जरूर वे द्वार पर खड़े होंगे और गले भर कर मुझे आलिंगन करेंगे और महल में ले जाएंगे। लेकिन द्वार वहां बंद था।।स्वर्ग का। वहां कोई भगवान तो दूर, वहां कोई भी नहीं था। वह बहुत हैरान हुआ! फिर उसने सोचा शायद मेरे आने की कोई खबर न हुई हो। तो फिर द्वार पीटना शुरू किया, लेकिन द्वार पर आवाज का कोई...आवाज भी पैदा नहीं होती थी। द्वार इतना बड़ा था और वह आदमी इतना छोटा था कि जैसे कोई चींटी किसी लोह-द्वार पर चोट करती हो, ऐसी वह चोट थी। उसकी कोई ध्वनि पैदा न होती थी। वह द्वार इतना बड़ा था कि उसके ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ते थे। वह कहां खतम होता है और कहां शुरू होता है, कुछ पता नहीं चलता था। वह तो घबरा गया। वह ठोक रहा है, पीट रहा है दरवाजा, उसके हाथ-पैर दुखने लगे, उसकी श्वासें थक गईं, तब कहीं कोई एक खिड़की खुली द्वार से। और कोई चेहरा बाहर झांका। और उस चेहरे की कम से कम हजार आंखें होंगी, और एक-एक आंख एक- एक बड़ा जलता हुआ सूरज थी। उससे इतनी रोशनी आई कि वह पुरोहित घबड़ा कर एक कोने में दब गया और चिल्लाने लगा आप भीतर ही रहें भगवान।।भीतर ही, बाहर न निकलें, मैं बह‏ुत घबड़ा गया हूं। उन हजार आंखों वाले आदमी ने कहा कि मैं भगवान नहीं हूं। मैं तो केवल यहां का पहरेदार हूं। भगवान से तो मेरा भी मिलना नहीं हुआ है। तू कौन है और कहां से बोल रहा है, मुझे दिखाई नहीं पड़ता?
आंखें हजार सूरज जैसी हैं, लेकिन इतनी बड़ी आखें भी उस आदमी को नहीं देख पा रही हैं, क्योंकि आदमी बहुत छोटा है। वे आंखें खोजती हैं और कहती हैं, तू कहां है और कौन है? वह नीचे से चिल्लाता है क्या तुम्हें पता नहीं, मैं फलाने-फलाने धर्म का सबसे बड़ा धर्मगुरु हूं, आर्च प्रीस्ट हूं। मेरा नाम तक तुम्हें पता नहीं। अखबार नहीं पढ़ते हो, किताबें नहीं पढ़ते हो? कितनी किताबों में मेरा नाम छपा है, कितने अखबारों में मेरी खबर निकलती हैं।
उस पहरेदार ने कहाः यहां तक कोई खबर नहीं पहुंच पाती, सब खबरें बीच में ही समाप्त हो जाती हैं। फासला बहुत ज्यादा है, तुम कहां से आते हो पहले ये बताओ?
उसने कहा: मैं आदमी हूं और पृथ्वी से आता हूं।
उस पहरेदार ने कहा: आदमी? पृथ्वी? ये शब्द यहां पहली बार सुने जा रहे हैं। कौन सी पृथ्वी? क्या नंबर है तुम्हारी पृथ्वी का, क्या इंडेक्स नंबर है? क्योंकि करोड़ो पृथ्वियां हैं, कौन सी पृथ्वी से आते हो? किस प्रकार के मनुष्य हो? क्योंकि करोड़ों प्रकार के मनुष्य हैं।
उस आदमी ने कहा: सूर्य की पृथ्वी।
अब वह धर्मगुरु घबड़ाने लगा था, उसके पैर के नीचे की जमीन खिसकती जा रही थी। जब पृथ्वी तक का कोई पता नहीं, जब आदमियत का भी कोई पता नहीं, तो मेरे धर्मगुरु की कोई खबर यहां पहुंची हो बहुत मुश्किल है? और ये तो पहरेदार है इस तक भी खबर नहीं पहुंची तो आगे का कोई हिसाब लगाना गलत है। उसके पैर ... लगे, उसने कहा: सूर्य वाली पृथ्वी।
उस पहरेदार ने कहाः अरबों सूर्य हैं, और ... अरबों सूर्यों के अपने-अपने तारे, अपनी-अपनी पृथ्वियां, अपने-अपने ग्रह हैं। कौन सा सूर्य?
उसने कहाः हमने तो कोई नाम नहीं रखा, हम तो एक ही सूर्य को पहचानते हैं इसलिए नाम रखने की कोई जरूरत नहीं पड़ी।
उसने कहाः फिर भी मैं कोशिश करता हूं पता लगाने की, लेकिन कम से कम छह महीने लग जाएंगे। पता लग जाएगा कि तुम किस जगह से आते हो, लेकिन तुम चाहते क्या हो? उस धर्मगुरु की जबान बंद हो गई।
क्योंकि ऐसे विराट के समक्ष।।चाह का, मनुष्य की चाह का मूल्य ही क्या हो सकता है? कौन उसे सुनेगा? कौन उसे पहचानेगा? घबड़ाहट में उसकी नींद खुल गई, ठंडी रात थी। वह पसीने से तरबतर अपने बिस्तर पर पड़ा था। सुबह उसने चर्च में जाकर कहा कि रात मैं बहुत घबरा गया हूं। मुझे पहली दफा खयाल आया है कि इतना विराट है यह सब कुछ। इस विराट का मुझे कोई ख्याल ही न था।
सूरज से पृथ्वी तक सूर्य की रोशनी आने में दस मिनट लगते हैं। शायद हमको लगेगा कि सूर्य बहुत पास है। शायद हमें पता न हो कि प्रकाश की किरण कितनी यात्रा करती है? एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की यात्रा करती है। एक सेकेंड में, एक लाख छियासी हजार मील चलती है सूर्य की किरण। दस मिनट लगते हैं सूरज की किरण को पृथ्वी तक आने में। लेकिन सूरज बहुत करीब है, पृथ्वी के जो निकटतम तारा है, उससे जमीन तक प्रकाश आने में चार वर्ष लगते हैं।।उसी गति से। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से। रोशनी चलती है तो चार वर्ष में पहुंचती है। जो सबसे निकट का तारा है। जो सबसे दूर के तारे हैं, किसी से चार करोड़ वर्ष लगते हैं, किसी से पांच करोड़ वर्ष लगते हैं, पृथ्वी तक रोशनी आने में। पृथ्वी को बने दो अरब वर्ष हुए हैं, ऐसे तारे हैं जिनकी रोशनी पृथ्वी के बनने से पहले चली थी और अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। उसके आगे भी तारे होंगे, उसके आगे भी तारे होंगे। उसको मील से नहीं नापा जा सकता। क्योंकि मील का कोई हिसाब वहां काम नहीं करता।
इतना ये जो विराट है, धार्मिक व्यक्ति को इस असीम का बोध होना चाहिए। उसे बोध किस बात का है? उसे इस बात का बोध है कि मैंने अपने गांव में सबसे बड़ा मकान बना लिया है।।इसका बोध है। उसकी पृथ्वी की भी कोई गणना नहीं है जगत में। उसका सूरज भी सबसे छोटा सूरज है। पृथ्वी से हमारा सूरज सात हजार गुना बड़ा है। लेकिन यह सूरज सबसे छोटा सूरज है। ऐसे दो अरब सूरज का पता तो विज्ञान को है, वे इससे बड़े हैं, करोड़ों-अरबों गुना बड़े हैं। और हमने ... में एक तीन मंजिल का मकान बना लिया। तो हम इतराए घूम रहे हैं। हम पागल हो गए हैं कि हमने तीन मंजिल का मकान बना लिया है सुना तुमने, कि मंजिल तीन का मकान बना लिया। हम पागल हुए घूम रहे हैं। हमारा बोध हमारे मकान का बोध है। और हम जिस बड़े मकान में रह रहे हैं, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। उसका हमें कोई ख्याल भी नहीं। फिर हम अपने ही मकान जैसा भगवान के लिए भी एक मकान बना लेते हैं और कहते हैं, मैंने अपने लिए ही नहीं; एक भगवान का मंदिर भी मैंने बना दिया है।
भगवान का मंदिर केवल उस हृदय में बनता है जो असीम के साथ एक हो जाता है। भगवान का मंदिर किन्हीं दीवालों के भीतर नहीं बन सकता है। और जब आदमी भगवान का मंदिर दीवालों में बना लेता है तो वह खुद तो कैदी है, वह एक कैदी भगवान को भी पैदा कर लेता है। ऐसे कई तरह के भगवान पैदा हो गए हैं, वे सब कैदी भगवान हैं, वह आदमी की करतूत है।
एक चर्च में एक रात एक काले आदमी ने दरवाजा खटखटाया। पादरी ने द्वार खोला। उसे पता नहीं था कि काला आदमी द्वार पर खड़ा है। क्योंकि वह चर्च काले लोगों का चर्च न था। वह मंदिर गोरे लोगों...।
मंदिर में भी चमड़ी के रंगों का ख्याल किया जाता है। मंदिर में भी आदमी पहचाने जाते हैं कि कौन आदमी भीतर आने के योग्य है, पात्र है, कौन आदमी नहीं, और इसकी जांच जन्म से की जाती है, इसकी जांच चमड़ी से की जाती है। इसकी जांच, वह आदमी किस जमीन पर पैदा हुआ है इससे की जाती है। इसकी जांच इस बात से की जाती है कि वह आदमी किस किताब को पढ़ा है।
उस पादरी ने देखा कि काला आदमी द्वार पर खड़ा है उसके लिए तो मंदिर नहीं है वह। अगर पुराने दिन होते तो वह कहता: शूद्र यहां तुम कैसे आ गए? और पुराने दिन होते तो उसकी गर्दन अलग कर दी जाती। और पुराने दिन होते तो उसके आंख, कान फोड़ दिए जाते कि तूने अपनी अपवित्र आंखों से इस मंदिर को कैसे देखा है? लेकिन जमाना बदल गया है, अब ऐसे काम करने जरा मुश्किल हैं। दिल तो बहुत होता है पुरोहित का कि ऐसे काम करवा ले, लेकिन बहुत मुश्किल है।
उसने उसको कहा कि मेरे भाई तुम कैसे आए यहां, कैसे आना हो गया है?
उस नीग्रो ने कहा...तो आप से मुझे मंदिर के भीतर आने दें, मुझे भी प्रभु की प्यास पैदा हो गई है। मत रोकें मुझे, मुझे भीतर जाने दें, मेरे प्राण उसके लिए आतुर हैं।
वह पादरी हंसने लगा, और उस पादरी ने कहा: पागल, मंदिर में आने से क्या होगा? पहले जा हृदय को पवित्र कर, प्रार्थना कर, प्रेम कर, मन को शांत कर, मौन कर। जब तेरे प्राणों में एक शांति की ज्योतिशिखा बन जाएगी, तू आ जाना। फिर प्रभु के दर्शन हो सकते हैं, ऐसे प्रभु के दर्शन नहीं हो सकते। और उसने द्वार बंद कर दिए। वह काला आदमी वापस लौट गया।
उस पादरी ने सोचा कि न इसका मन कभी पवित्र होगा, न यह दुबारा लौट कर आएगा। शर्त काम कर जाएगी, झंझट के हम बाहर हो गए हैं। एक साल बीत गया। फिर पादरी निशिं्चत हो गया, वह आदमी कभी दिखाई ही नहीं पड़ा। लेकिन एक साल बाद एक दिन सुबह-सुबह ही सूरज निकला था और वह आदमी चला आ रहा है चर्च की तरफ। उस पादरी के प्राण ...खाने लगे, कहीं वह आ तो नहीं रहा, और उसकी चाल को देख कर उसे लगा कि शायद वह जरूर आ रहा है। क्योंकि उसके पैर एक अदभुत शांति से उठ रहे हैं। उसकी आंखों की ज्योति बदल गई है। उसके चेहरे का भाव बदल गया है। वह एक पवित्र फूल की तरह हो गया है। वह चर्च का पादरी घबड़ा गया है। लेकिन नहीं, वह गलती हो रही है उससे, वह नीग्रो, वह काला आदमी मंदिर की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखा। वह आगे चला गया।
पादरी दौड़ा, उसे रोका और कहा कि मेरे दोस्त तुम आए नहीं?
वह नीग्रो हंसने लगा और उसने कहाः आप न पूछें तो अच्छा है। एक साल मैंने यही कोशिश की कि कब मंदिर में प्रवेश पा जाऊं, एक साल प्रार्थना और प्रेम का ही वर्ष था। एक साल मैंने प्राणों को पवित्र करने के सब उपाय किए। और धीरे-धीरे सफलता मिलने लगी और मेरे प्राण एक सुगंध से भरने लगे, एक संगीत उतरने लगा। आशा बंधने लगी कि आज नहीं कल, आज नहीं कल किसी दिन मंदिर में प्रवेश का अधिकारी हो जाऊंगा। और कल सांझ को तो लगता था कि आ गया वह समय, और लगता था कि कल सुबह होते ही मंदिर पहुंच जाऊंगा। प्रभु के दर्शन हो जाएंगे, लेकिन रात सब गड़बड़ हो गई।
उस पादरी ने पूछाः रात क्या हुआ?
उस नीग्रो ने कहाः आप न पूछें तो अच्छा है? लेकिन आप नहीं मानते हैं तो मैं कहे देता हूं, रात सपने में मुझे भगवान दिखाई पड़े। और वह भगवान कहने लगे कि तू पागल क्यों इतनी प्रार्थनाएं कर रहा है, किसके लिए? क्या चाहता है? क्या तेरी मर्जी है, क्या तेरी इच्छा है? तो मैने कहाः मेरी और कोई मर्जी नहीं है, वह तुम्हारा जो मंदिर है गांव में, मैं उसमें प्रवेश चाहता हूं। वे भगवान एकदम उदास हो गए और कहने लगे कि यह मांग तू मत कर। यह वरदान भर मैं नहीं दे सकता हूं, और सब दे सकता हूं। दस साल से मैं खुद ही कोशिश कर रहा हूं उस मंदिर में जाने की। वह पादरी मुझको ही भीतर नहीं आने देता तो तुझे कैसे भीतर आने देगा?
दस साल की ही बात होती तो भी ठीक थी। भगवान ने शायद वह नीग्रो घबड़ा न जाए इसलिए शायद दस साल कहा हो, वैसे हजारों साल से यह कोशिश चल रही है कि भगवान मंदिरों में प्रवेश पा जाएं। लेकिन पादरी, पुरोहित, पुजारी प्रवेश करने नहीं देते, नहीं करने देंगे, नहीं करने देंगे; नहीं हो सकता यह प्रवेश, क्योंकि सीमा में असीम का प्रवेश असंभव है। वह जो सीमित है, वह जो दीवालों में बंद घर है वहां असीम का प्रवेश नहीं हो सकता।
असीम में जाना हो तो सीमाएं अपनी छोड़नी होंगी; तो असीम से मिलन हो सकता है। असीम को अपनी सीमाओं में नहीं लाया जा सकता है। बूंद चाहती हो कि समुद्र बूंद में आ जाए तो यह नहीं हो सकता है, लेकिन बूंद चाहे कि मैं समुद्र में गिर जाऊं तो यह हो सकता है। मनुष्य चाहे कि हम परमात्मा को अपने मकान में ले आएं, तो वे भूल में है, वे गलती में है, यह नहीं हो सकता। लेकिन मनुष्य अगर चाहे कि मैं परमात्मा में प्रविष्ट हो जाऊं।।तो यह हो सकता है, यह संभव है। असीम में सीमा खोई जा सकती है, लेकिन असीम को सीमा में नहीं लाया जा सकता है।
यह पहला सूत्र स्मरण रखने जैसा है कि हमारे जीवन में सीमा से अतिक्रमण और असीम की गति बढ़ती चली जाए। असीम का ध्यान, असीम का स्मरण, असीम का भाव प्रवेश करता जाए।।विचार में, भाव में, जीवन में प्रविष्ट होता चला जाए, जहां सीमा मिल जाए, वहीं से सीमा को उखाड़ने की कोशिश चलती रहे, तो एक दिन यह सूत्र पूरा हो सकता है।।पहली बात।
दूसरी बात जिस भांति असीम का बोध जरूरी है, वैसे ही अनंत का बोध भी जरूरी है। असीम के बोध का अर्थ है: क्षेत्र में, स्थान में, स्पेस में।।असीम। और अनंत का अर्थ है: समय में, काल में, टाइम में।।अनंत। दो ही अस्तित्व हैं जगत में।।स्पेस और टाइम। काल और क्षेत्र। दो ही जगत है।।स्थान है, और समय है। बस दो ही अस्तित्व हैं, और दोनों के अस्तित्व से मिल कर सारा जीवन। स्थान में असीम का बोध होना चाहिए कि स्थान कहीं भी समाप्त नहीं होता, समाप्त ही नहीं होता; कोई सीमा नहीं आती। ऐसे ही समय भी कहीं समाप्त नहीं होता, न कहीं शुरू होता। उसकी भी कोई सीमा नहीं आती। लेकिन स्थान में हम जीते हैं छोटे-छोटे घेरे बना कर, और समय में भी हम जीते हैं छोटे-छोटे घेरे बना कर।
एक आदमी सोचता है कि मेरी पचास साल की जिंदगी जो है, वही जिंदगी है। पचास साल का समय जो है, वही मेरा जीवन है।
जीवन इतना ही नहीं है। क्योंकि मैं नहीं था तब भी जीवन था, मैं जब नहीं रहूंगा तब भी जीवन रहेगा। मैं जीवन में जागता हूं, जीवन में लीन हो जाता हूं। एक लहर समुद्र में उठती है, जब नहीं उठी थी तब भी समुद्र था, जब गिर जाएगी और बिखर जाएगी, तब भी समुद्र होगा। लहर का होना एक क्षण की घटना है, लहर का हो जाना एक क्षण की घटना है। सागर का होना अनंत है। हमेशा है, था, रहेगा। लहर अगर सोच ले कि मैं ही हूं, तो भूल में पड़ जाएगी। लहर सिर्फ दिखाई पड़ती है।।है नहीं। है तो समुद्र ही। लहर सिर्फ दिखाई पड़ती है, है नहीं। वह केवल अपिअरेंस है, केवल दिखाई पड़ना।।अस्तित्व नहीं।
लेकिन जब लहर उठती है आकाश की तरफ तब उसको भी लगता होगा कि मैं हूं। मैं कुछ हूं। एक क्षण लग भी नहीं पाता और... बिखराव आ जाता है, और लहर विलीन हो जाती है। दूसरी लहरें उठ आती हैं, वे लहरें विलीन हो जाती हैं। जिसमें लहरें उठती हैं और जिसमें लीन हो जाती हैं।।वह है। लहरें उठती हैं, दिखाई पड़ती हैं।।हैं नहीं। उनका होना केवल दिखाई पड़ना है। उनकी वास्तविक सत्ता उसके साथ है जो उनके पहले है, और उनके पीछे है।
मनुष्य भी समय में उठी एक लहर है। समय के अनंत सागर में उठ आई एक कंपन, एक लहर। लेकिन मनुष्य को लगता है, मैं हूं। और यहीं वह समय में सीमा को बांध लेता है। फिर वह कहता है: मेरा जन्म, मेरी मृत्यु। और इन दोनों के बीच में वह जीवन को मान लेता है।
जन्म है लहर का उठना, मृत्यु है लहर का लीन हो जाना। जीवन नहीं है उन दोनों के बीच, जीवन उनके पार भी है। जीवन का न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत। समय में भी, टाइम में भी यह अनंत का बोध।।धार्मिक व्यक्ति की दूसरी बाध्यता है। लेकिन यह बोध कैसे हो? कैसे हमें यह पता चले? और जिस दिन यह अनंत समय का बोध हमें होगा, उसी दिन हमें एक अदभुत अनुभव होगा, एक अदभुत अनुभव होगा। जैसे ही हमें पता चलेगा कि मैं जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहूंगा, वैसे ही हमें पता चलेगा कि मैं हूं ही नहीं, कुछ और ही है क्योंकि मैं तो बनता हूं और बिखर जाता हूं। मेरे भीतर कुछ और ही है जो न बनता है न बिखरता है, जिसके आसपास मैं बनता हूं और टूट जाता हूं। लेकिन कुछ और भी है, जो न बनता है न टूटता है। लेकिन हम तो समय की रेत पर कुछ होने की कोशिश में लगे रहते हैं, अपने हस्ताक्षर करना चाहते हैं समय की रेत पर। हस्ताक्षर कर देना चाहते हैं कि ....
बच्चे जाते हैं नदी की रेत पर नाम लिख आते हैं अपना। बूढ़े उनको कहते हैं: पागलों उस पर नाम मत लिखो। नदी की रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा है? अभी पानी आएगा, सब नाम बह जाएंगे। हवा चलेगी, रेत उड़ेगी, सब नाम साफ हो जाएंगे। लेकिन बूढ़े भी चट्टानों पर नाम लिखते हैं, मंदिरों में नाम लिखते हैं, स्मारकों पर नाम लिखते हैं और भूल जाते हैं ये कि जिसको वह पत्थर कह रहे हैं।।वह रेत ही है, कभी रेत थी, फिर रेत हो जाएगी।
बच्चे जरा सॉफ्ट मीडियम चुनते हैं।।रेत का। मनुष्य जरा हार्ड मीडियम चुनते हैं।।पत्थर का। लेकिन रेत और पत्थर एक ही चीज के दो शक्लें हैं। रेत पत्थर हो जाती है, पत्थर रेत हो जाता है। लेकिन आदमी इस कोशिश में रहता है कि समय की रेखा पर अपना नाम छोड़ जाए, बच्चों को मां-बाप सिखाते हैं, स्कूल सिखाता है।।अपना नाम छोड़ जाना। तुम्हारे पीछे तुम्हारा नाम रह जाए, ऐसे काम करना।
अहंकार के अतिरिक्त हम कु छ भी नहीं सिखाते। अहंकार क्या है? समय की रेत पर हस्ताक्षर करने की आकांक्षा। और क्या है? और क्या है कि मैं लिख जाऊं मेरा नाम? किसी भी तरकीब से लिख जाऊं मेरा नाम, मेरा नाम मिट न जाए। हम पागल हैं, जब हम ही मिट जाते हैं तो हमारा नाम कैसे टिक सकेगा? और नाम तो एक झूठी कल्पना है। कोई जन्म के साथ नाम लेकर पैदा नहीं होता, न मृत्यु के साथ कोई नाम लेकर जाता है। नाम तो आदमियों की ईजाद है। नाम रख लेते हैं कि काम चल जाए। किसी को कहते हैं राम, किसी को कहते हैं कृष्ण।।कि नाम चल जाए।
न राम का नाम राम है, न कृष्ण का नाम कृष्ण। नाम किसी का कुछ है ही नहीं, अनाम ही पैदा होते हैं।।नेमलेस, और अनाम ही समाप्त हो जाते हैं। लेकिन नाम का मोह भारी है। जिस आदमी में नाम का मोह भारी है, वह परमात्मा से नहीं मिल सकेगा। क्योंकि परमात्मा अनाम है, उसका कोई नाम नहीं है। नाम का वह अपनी तख्तियां लेकर जो परमात्मा की तरफ जा रहे हैं, वे कहीं भी खोज लें, उन्हें परमात्मा नहीं मिलेगा। नाम की तख्ती बीच में है तो परमात्मा से मिलना नहीं हो सकता।
और नाम के हम बड़े मोही हैं। और समय में, समय की बहती धार में हमारा नाम टिका रह जाए, बचा रह जाए।।बेटे हमारे, हमारे बच्चे नाम को बचाएं; हमारे मकान, हमारी इज्जत, हमारे नाम को बचाएं; हमारे शास्त्र, हमारी किताबें, हमारे पत्थर, हमारे स्मारक हमारे नाम को बचाएं।
एक बहुत पुराने दिनों की घटना है एक सम्राट चक्रवर्ती हो गया। चक्रवर्ती वह था तो उसने सारी दुनिया जीत ली। वह अकेला विजेता हो गया। सब लोग उससे हार गए। तो चक्रवर्तियों के लिए विधान था कि वे स्वर्ग में जाकर, सुमेरु पर्वत पर हस्ताक्षर करते थे।
सुमेरु पर्वत सबसे कठोर पर्वत है। सभी को मौका नहीं मिलता उस पर हस्ताक्षर करने का, सिर्फ चक्रवर्तियों को मिलता है। वह सबसे मजबूत पाषाण है। सारे पाषाण गल जाते हैं और वह नहीं गलता। और सारे पहाड़ गिर कर गड्ढे हो जाते हैं, वह गड्ढा नहीं होता। वह देवताओं का पर्वत है, वह आदमियों का पर्वत नहीं है। देवताओं के पर्वत आदमियों से मजबूत होते हैं। देवताओं का अहंकार भी आदमियों से मजबूत होता होगा। कुछ-कुछ आदमी जो देवताओं की कोटि में ऊंचे हो जाते हैं, उनको वहां हस्ताक्षर करने का मौका मिलता है, चक्रवर्तियों को मौका मिलता है।
वही एक आदमी चक्रवर्ती हो गया। फिर वह भारी बैंड-बाजा लेकर स्वर्ग की तरफ चला दस्तखत करने के लिए, हस्ताक्षर करने के लिए। द्वारपाल ने कहा कि आप अकेले ही भीतर जा सकते हैं, ये सब लोग नहीं।
उसने कहाः फिर मजा ही क्या आया जब दूसरे लोग देखने वाले न हों। क्योंकि नाम के हस्ताक्षर का मजा ही यह है कि दूसरे देखने वाले हों।
हालांकि खयाल रखना कि अपने नाम के हस्ताक्षर आपके अतिरिक्त कोई नहीं पढ़ता है। अपने हस्ताक्षर खुद ही आदमी पढ़ता है, दूसरा कोई... नहीं पढ़ता है। किसको फुरसत पड़ी? अपना नाम पढ़ने से फुर्सत मिले तो किसी दूसरे का नाम कोई पढ़े।
लेकिन चक्रवर्ती उदास हो गया।
लेकिन उसने कहा कि नियम यही है और अभी आप उदास हो रहे हैं, भीतर से आप लौटेंगे तो आप कहेंगे कि नियम ठीक है।
चक्रवर्ती ने कहाः तब फिर ठीक है मैं चलता हूं। वह अपनी हथौड़ी-छेनी लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ। महान विशाल पर्वत है, उसका कोई ओर-छोर नहीं।
वह पहरेदार उससे कहने लगा कि लेकिन एक बात आपसे निवेदन कर दूं, पहाड़ पर इतने नाम लिखे जा चुके हैं कि कोई जगह नहीं बची है। तो आपको थोड़ा किसी का नाम मिटा कर पहले, फिर नाम लिखना पड़ेगा।
उसने कहा कि पर्वत पर नाम ... लिखने की जगह नहीं बची? क्या इतने चक्रवर्ती हो चुके हैं? मैं तो सोचता था यह काम मैंने ही कर लिया है।
तो पहरेदार ने कहा: सभी को यह भ्रम होता है कि यह काम मैंने ही कर लिया है, यह बात मैंने ही कह दी है, यह मकान मैंने बना लिया है, यह किताब मैंने लिख दी है, जो एक दफा हुआ है वह करोड़ दफा हो चुका है, अरब दफा हो चुका है, कुछ भी नया नहीं है। चक्रवर्ती उदास होने लगा, तो उस पहरेदार ने कहाः आप उदास न हों, मेरे पिता भी एक पहरेदार थे, उनके पिता भी एक पहरेदार थे, उनके पिता भी एक पहरेदार थे। हमने जन्म-जन्म से यही बात सुनी है कि जब...कोई चक्रवर्ती आता है नाम मिटा कर ही दस्तखत करने पड़ते हैं। ....... चक्रवर्ती.....................
जिस जमीन पर आप रह रहे हैं आपको पता है वह जमीन कितने लोगों की कब्र बन चुकी है? आप किसी की कब्र पर रह रहे हैं। जमीन पर एक इंच जमीन ऐसी नहीं है जो मरघट न बन चुकी हो। जहां बड़ी बस्तियां दिखाई पड़ती हैं, वे कभी मरघट थे। जहां आज बड़ी बस्तियां हैं, कभी वहां मरघट हो जाएंगे। सब चीजें बनती हैं, और बिगड़ जाती हैं।
जीवन में इसका स्मरण कि समय की जो रेखा उठती है, वह उठती है और विलीन हो जाती है। और उसके पहले भी सब, उसके बाद भी सब।।समय की दृष्टि से, टाइम की दृष्टि से अनंत का बोध। तो फिर अनंत में मैं अपने को बानने की कोशिश छोड़ देता। फिर उस अनंत में अपना हिसाब छोड़ जाने का कोई सवाल नहीं है। फिर तो अनंत में हस्ताक्षर कर जाने की कोई बात ही नहीं है। मैं एक लहर हूं, बनूंगा और विलीन हो जाऊंगा।
समय है अनंत, क्षेत्र है असीम।।दो सूत्र, और तीसरा सूत्र।।कि मनुष्य है शून्य। क्षेत्र है असीम, समय है अनंत, और मनुष्य है शून्य। तीसरा सूत्र हैः शून्य का बोध। पहला सूत्र हैः असीम का बोध। दूसरा सूत्र हैः अनंत का बोध। तीसरा सूत्र हैः शून्य का बोध।।कि मैं नहीं हूं। और यही धार्मिकता की, रिलीजिअसनेस की गहरी से गहरी पकड़ और पहंुच है कि वह जान ले कि मैं नहीं हूं। क्योंकि जिस दिन कोई जान लेता है कि मैं नहीं हूं, उसी दिन उसे पता चलता है कि परमात्मा है।
जब तक कोई सोचता है मैं हूं, तब तक परमात्मा नहीं है। यह दोनों अनुभव एक साथ नहीं हो सकते। या तो मैं हूं, या परमात्मा है। इसलिए अगर कोई आदमी पूछता है कि क्या परमात्मा है? तो उसे उत्तर देने की कोई जरूरत नहीं। उससे यही कहने की जरूरत है कि तुम हो, और जब तक तुम हो तब तक परमात्मा नहीं हो सकता है।
खुद को खोने का साहस ही परमात्मा को पाने का अधिकार है। खुद को पोंछ डालने, मिटा डालने का सामथ्र्य ही परमात्मा को उपलब्घ करने की पात्रता है। स्वयं में शून्य हो जाना ही पूर्ण के लिए द्वार बन जाना है। तो अंतिम सूत्र है: शून्यता का बोध।।मैं नहीं हूं। लेकिन यह बोध कैसे हो? हमें तो लगता है कि मैं हूं, मैं बहुत कुछ हूं।
हर आदमी को समबडी होने का बोध है, नोबडी होने का किसी को भी नहीं है। किसी को जरा धक्का लग जाए तो वह कहता है जानते नहीं मैं कौन हूं, आपनेे धक्का मारा? हर आदमी यही कहता है कि जानते नहीं मैं कौन हूं? हालांकि कोई भी खुद भी नहीं जानता है कि वह कौन है? लेकिन दूसरे को वह कहता है जानते नहीं मैं कौन हूं? उसको खुद भी पता नहीं कि वह कौन है? क्योंकि जिस दिन उसे पता चलेगा कि कौन है वह, उसी दिन उसे पता चलेगा मैं नहीं हूं।।परमात्मा है।
एक महल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा हुआ था। कुछ बच्चे वहां जो खेलते निकल आए थे, और एक बच्चे ने एक पत्थर को उठा कर महल की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठने लगा, पत्थर के पास पंख नहीं होते कि आकाश में उड़ जाए। लेकिन पत्थर, पत्थर के भी प्राणों में यह वासना तो उठती है कि कभी आकाश में उड़ूं। पत्थर भी सपने तो देखता है आकाश में उड़ने के। पक्षी शायद सपने न देखते होंगे आकाश में उड़ने के, लेकिन पत्थर जरूर सपने देखते हैं आकाश में उड़ने के।
जीवन में जो नहीं मिलता उसी को तो आदमी सपने में देखता है। और सबसे बड़ा... आप सोचते होंगे कि आकाश में उड़ जाएं, पक्षी जैसे पर मिल जाएं, सूरज को छू लें। लेकिन पत्थर के पास पंख नहीं है कि आकाश में उड़ जाएं। .....एक पत्थर आकाश की तरफ उठने लगा, तो वह पत्थर फूल कर दुगना बड़ा हो गया होगा।
जब आदमी तक फूल कर दुगना बड़ा हो जाता है तो पत्थर क्या! पत्थर तो हो ही जाएगा।
उस पत्थर ने नीचे पड़े हुए पत्थरों को तिरस्कार के भाव से देखा और कहा कि मित्रों मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं, और नीचे के पत्थर तिलमिला कर रह गए होंगे, ईष्र्या से जल कर रह गए होंगे। लेकिन क्या कर सकते थे? झूठ भी नहीं कह सकते थे।
पत्थर ठीक ही कह रहा था, वह आकाश की तरफ जा रहा था।
लेकिन उस पत्थर ने एक बात बदल दी, एक छोटी सी बात, और सब बदल गया।
छोटा सा फर्क और जमीन और आसमान अलग हो जाते हैं। छोटा सा बाल भर फर्क और सब सत्य और असत्य अलग हो जाते हैं। बाल भर फर्क और जीवन और मृत्यु अलग हो जाते हैं। और उस पत्थर ने थोड़ा सा फर्क कर दिया। वह फेंका गया था, लेकिन उसने कहा कि मैं जा रहा हूं ......। उस पत्थर को फेंका गया था, वह जा नहीं रहा था। लेकिन उसने कहा कि मैं जा रहा हूं, और इसको कोई इंकार भी नहीं कर सकता था, वह दिखाई पड़ रहा था कि जा रहा है।
वह जाकर महल की कांच की खिड़की से टकराया, कांच चकनाचूर हो गया। अब यह बिलकुल स्वभाविक है कि कांच और पत्थर टकराए तो कांच चकनाचूर हो जाएगा। इसमें पत्थर कांच को चकनाचूर करता नहीं है, कांच चकनाचूर हो जाता है, इट जस्ट हैपंस। यह कांच का स्वभाव है कि पत्थर से टकरा कर वह चकनाचूर हो जाता है। इसमें पत्थर चकनाचूर करता नहीं है। पत्थर को कुछ भी नहीं करना पड़ता, टकराना काफी है और कांच चकनाचूर हो जाता है। यह कांच का स्वभाव है, यह पत्थर का स्वभाव है। इसमें कोई कुछ करता नहीं है यह कोई कर्म नहीं है, यह कोई कृृत्य नहीं है कि पत्थर कहे।
लेकिन पत्थर ने कांच के टूटे टुकड़ों से कहा, पागलों तुम्हें पता नहीं है, मैंने कितनी बार घोषणा की है, आकाशवाणी पर खबरें नहीं सुनते हो, अखबार नहीं पढ़ते हो? कितनी बार मैंने कहा है कि मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर कर दूंगा। अब भोगो अपने भाग्य को, अब पछताओ अपनी नासमझी को। मैं पत्थर हूं, कोई साधारण पत्थर नहीं, आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। जो मेरे रास्ते में आता है, उसको मैं चकनाचूर कर देता हूं।
...चकनाचूर हो जाता है, कर नहीं देता पत्थर, लेकिन इतने से फर्क से सब फर्क पड़ जाता है। कांच के टुकड़े इंकार भी क्या कर सकते थे, चकनाचूर हो गए। तो पत्थर नीचे गिरा। कालीन बहुमूल्य बिछे हुए थे महल के। उस पत्थर ने हलकी ठंडी श्वास ली और उसने कहा: इस महल के लोग बड़े सज्जन, बड़े सुसंस्कृत मालूम होते हैं। ज्ञात होता है मेरे आने की खबर पहले ही पहुंच गयी, कालीन वगैरह सब बिछा रखे हैं। और महल के मालिकों को कोई पता भी नहीं था कि कोई पत्थर घर में मेहमान होने को है।
मेहमानों का किसी को भी कोई पता नहीं होता है, इसीलिए तो हम उनको अतिथि कहते हैं। अतिथि का मतलब: जो बिना तिथि की खबर दिए घर पर आ धमकते हैं। जो कोई खबर नहीं देते कि हम आ रहे हैं, इसलिए तो अतिथि कहते हैं। तो अतिथि की किसी को खबर तो होती नहीं है।
और उस पत्थर की तो किसको खबर थी। महल के लोगों को पता भी नहीं होगा कि कोई पत्थर आएगा। लेकिन पत्थर ने अपने मन में कहा कि धन्यवाद। बहुत सुसंस्कृत लोग मालूम होते हैं। मेरे स्वागत में कालीन बिछा रखे हैं। क्यों न, हों भी क्यों ना आखिर मैं कोई साधारण पत्थर तो नहीं हूं, आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। वह सुस्ता रहा था, आराम करता था। और तभी महल के पहरेदार ने आवाज सुनी होगी कांच के टूट जाने की, वह भागा हुआ आया। उसको आया देख कर पत्थर ने कहा, मालूम होता है मालिक खुद स्वागत के लिए आ रहा है।
अब पत्थर क्या सोच रहा है, किसी को भी कोई पता नहीं। हर आदमी अपने मन के भीतर क्या सोचता रहता है, यह उसको ही पता है और किसी को कुछ भी पता नहीं।
नौकर ने आकर पत्थर को हाथ में उठाया फेंक देने के लिए। लेकिन पत्थर ने हाथ में आकर कहा धन्यवाद, धन्यवाद, बहुत धन्यवाद। मालूम होता है मालिक हाथ में लेकर प्रेम जता रहा है, स्वागत जता रहा है। नौकर को क्या पता पत्थर की भाषा। उसने पत्थर को वापस फेंक दिया खिड़की से।
पत्थर जब वापस गिरने लगा, तो उस पत्थर ने कहा: घर की बहुत याद आती है, मित्रों की बह‏ुत याद आदती है, होम सिकनेस मालूम होती है। महलों में मन नहीं लगता, अपने जो झोपड़ें हैं, खुले आकाश के नीचे पड़े रहना, वहीं बहुत आनंददायक है। कहां अपनी मात्रभूमि और कहां पराए महल। होंगे तुम्हारे महल तुम्हारे काम के, लेकिन मैं जाता हूं।
वह भेजा जा रहा था, लेकिन वह कहने लगा, मैं जा रहा हूं।
तो जब वापस गिरने लगा अपनी पत्थरों के ढेरी पर, उसने कहा: मित्रों मैं वापस लौट आया हूं। मैंने न मालूम किन-किन अज्ञात देशों में यात्रा की है। जैसा कि कोई भारत में लौट आता है अमरीका से, इंग्लैंड से तो फिर चैबीस घंटे यही कहने लगता है कि मैं इंग्लैंड गया था, मैं अमरीका गया था। मैं वहां गया, मैं वहां गया। वैसे ही बेचारा वह पत्थर भी कहने लगा कि मैं बड़ी-बड़ी राजधानियों में ठहरा, बड़े-बड़े महलों में ठहरा, बड़े सम्राटों ने मेरा स्वागत किया। लेकिन फिर मेरा मन ऊब गया। होंगे महल उनके अच्छे, होंगी राजधानियां सुंदर। लेकिन कहां अपना देश, कहां अपनी मात्रभूमि।।मदरलैंड! मैं वापस लौट आया।
पत्थरों ने स्वागत किया, फूल-वूल के हार पहनाए उन्होंने। गौरव शोभायात्रा निकाली होगी, और फिर सब सभा करके उस पत्थर से कहे कि तुम अपनी आत्मकथा जरूर लिख दो, आने वाले बच्चों के काम पड़ेेगी। ऐसा महापुरुष हमारे बीच कभी पैदा ही नहीं हुआ।
वह पत्थर अपनी आत्मकथा लिख रहा है। बहुत से और पत्थरों ने भी अपनी आत्मकथाएं लिखी, वह भी लिखेगा। लेकिन उसकी अहंकार की कथा को वह आत्मकथा कहेगा।
सब आत्मकथा अहंकार की कथा है। सारा भ्रांत जीवन, सारा धार्मिक जीवन अहंकार की यात्रा है। और सारी भूल इतनी सी है जितनी उस पत्थर की। उस पत्थर पर हमको हंसी आती है, लेकिन जिस दिन किसी आदमी को अपने पर हंसी आ जाती है, उसके जीवन में धर्म का प्रारंभ हो जाता है।
हम भी कहते हैं मेरा जन्म।।फेंके गए हैं हम, लेकिन कहते हैं मेरा जन्म! कोई अज्ञात हाथ फेंक देता है जीवन में, और हम कहते हैं मेरा जन्म! मेरा जन्म है। जैसे हमसे पूछा गया हो जन्म के पहले कि महानुभव, आप कहां जन्म लेना चाहते हैं, बलसार में? किसके घर जन्म लेना चाहते हैं।।हिंदू के घर, ब्राह्मण के घर, जैन के घर। किस पवित्रपुर में आपका इरादा है उतरने का।।जैसे हमसे पूछा गया हो! जैसे ये हमारा निर्णय हो, ये हमारा डिसीजन हो, ये हमारी च्वाइस हो; लेकिन हम कहते हैं मेरा जन्म!
जन्म के पहले का जरा भी पता नहीं, फिर यह जन्म मेरा कैसे हो सकता है? जिस जन्म के पहले मेरे का भी कोई बोध नहीं, वह जन्म मेरा कैसे हो सकता है? जन्म के बाद मेरा मैं पैदा होता है, तो जन्म मेरा कैसे हो सकता है? जन्म के बाद मेरे मैं का भाव आता है, तो जन्म मेरे मैं के साथ संयुक्त कैसे हो सकता है?
मेरा जन्म नहीं है यह, जीवन का जन्म है। और भ्रंाति से मैं कहता हूं, मेरा जन्म है। यह अज्ञात के हाथों द्वारा फेंका गया जीवन है। यह मेरा जन्म नहीं है, लेकिन मैं कहता हूं।।मेरा बचपन, मेरी जवानी। जैसे जवानी, बचपन भी हम लाते हों। जवानी, बचपन आते हैं।
जैसे कांच टूट जाता है पत्थर से टकरा कर। जैसे पत्थर फेंका जाता था, और कांच टूट जाता था। ऐसे ही पौधा बो दिया जाए तो बीज अंकुर बन जाता है, बीज वृक्ष बन जाता है, वृक्ष में फूल आ जाते हैं, फल आ जाते हैं। ऐसे ही आदमी पैदा होता है।।बचपन आता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आता है। ये वृक्ष की यात्राएं हैं। इसमें मैं के, और अहंकार के खड़े होने की कोई भी जगह नहीं है। लेकिन यह तो दूर, हम तो यहां तक कहते हैं कि मैं श्वास लेता हूं।
पागल हो गया है आदमी। अगर आप श्वास लेते हैं, तब तो आप कभी मर नहीं सकेंगे। क्योंकि मौत आ जाएगी और आप श्वास लेते चले जाएंगे, तो उसे वापस लौट जाना पड़ेगा।
श्वास आप लेते नहीं हैं; श्वास आती है, जाती है। श्वास लेने वाले नहीं हैं आप। आपके बस में नहीं है कि आप श्वास ले लें। यह आपका नियंत्रण नहीं है। यह आपकी परवत्ता है कि आपको श्वास आती है और जाती है।
और जिस क्षण नहीं आएगी, उस दिन आपका कोई बस नहीं है कि आ जाए। श्वास चलती है, आप चलाते नहीं हैं। श्वास चलती है, आप चलाते नहीं हैं। आप उसके कर्ता और मालिक नहीं हैं।
सारा जीवन इस छोटी सी भ्रांति पर खड़ा होता है। जहां चीजें हो रही हैं, वहां हम सोचते हैं: मैं कर रहा हूं। बस मैं मजबूत होता चला जाता है, मैं खड़ा हो जाता है और भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं हूं।
पहला भ्रम है कि मैं करता हूं। बार-बार दोहराने से कि मैं यह करता हूं, मैं यह करता हूं, मैं यह करता हूं। एक भीतर वहम गहरा हो जाता है कि मैं हूं। तो अगर मैं हूं के भ्रम को तोड़ना हो तो पहले मैं करता हूं, इस भ्रम को विलीन कर दें। फिर धीरे-धीरे आपको पता चलेगा कि जब मैं करता ही नहीं हूं, तो फिर मैं कहां हूं?
डू अगर जला जाए तो इगो चली जाती है, कर्ता चला जाए तो अहंकार चला जाता है। तब आप सागर की छाती पर उठी एक लहर रह जाते हैं, तब हवाओं में उड़ती हुई एक पत्ती रह जाते हैं, तब बीज से अंकुरित होते हुए एक अंकुर रह जाते हैं, तब आप जीवन के एक श्वास रह जाते हैं, तब आप जीवन के एक तरंग रह जाते हैं।।और उस तरंग के क्षण में, उस जीवन के एकाग्र के क्षण में।।उसका अनुभव हो जाता है, जिसे मैं परमात्मा कह रहा हूं।
परमात्मा का द्वार खुला हुआ है, लेकिन आप सीमा में घिरे हैं। सीमा से घिरी ह‏ुई आंखें खुले द्वार को नहीं देख सकतीं। क्योंकि सीमा से घिरी आंखें केवल दीवालों को देखने की आदी हैं। परमात्मा का द्वार खुला हुआ है। लेकिन आप समय, क्षण से घिरे हुए हैं। क्षण पर जो घिरा हुआ है वह अनंत को नहीं जान सकता। क्योंकि क्षण अनंत के प्रति घिर जाते हैं।
एक छोटी सी रेत का कण आंख में गिर जाता है तो फिर पहाड़ भी दिखाई नहीं पड़ता। और जब तक क्षण मनुष्य की आंख में पड़ा रहता है, तब तक अनंत दिखाई नहीं पड़ता। प्रभु का द्वार तो खुला हुआ है, लेकिन आप अपने ‘मैं’ से बंधे हुए हैं। जो अपने मैं से बंधा हुआ है, वह उस खुले द्वार को नहीं देख सकता, नहीं देखना चाह सकता। क्योंकि उस द्वार को देखते ही मैं को छोड़ देना पड़ेगा। मैं का समर्पण ही, प्रभु के द्वार पर चढ़ाई गई एकमात्र पूजा, एकमात्र प्रार्थना है।
ये अंतिम तीन सूत्र, इन तीन से जो मुक्त हो जाता है, वह प्रभु के अज्ञात सागर में प्रविष्ट हो जाता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा मैं पूरी कर दूं।
एक अमावस की रात थी और एक छोटे से गांव में कुछ मित्र एक मधुशाला में गए और शराब पी कर बेहोश हो गए। फिर उन्हें खयाल आया नशे में कि चलें हम नदी पर, और नाव में यात्रा करें। फिर वे नदी पर पहंुचते हैं, फिर वे नाव में बैठते हैं, फिर उन्होंने पतवार थाम ली है और नाव खेनी शुरू कर दी। अंधेरी रात, नशे में चल पड़े किसी भी तरफ। फिर आधी रात थी तब, बीत गई रात धीरे-धीरे, सुबह होेने के करीब आ गई, ठंडी हवाएं आने लगीं, उनका नशा उतरा। अंधेरा कम हुआ, सूरज करीब आने लगा, पीछे-पीछे रोशनी आने लगी। तो उनमें से एक ने कहा कि हम पता नहीं कितनी दूर निकल आए हैं? रात खतम होने को है। मित्रों, अब वापस लौट चलें। न मालूम रात में हमने कितनी यात्रा कर ली? किस दिशा में आ गए? कहां आ गए? कुछ भी पता नहीं है।
अंधेरे की यात्रा थी, बेहोशी की यात्रा थी।
तो उन्होंने कहा कि तुम्हीं नीचे उतर कर देख लो, नाव के किनारे कि हम कहां आ गए हैं? कहां हैं? तो हम वापस लौट चलें।
वह आदमी नीचे उतरा, वह नीचे उतर कर खूब हंसने लगा और उसने कहा कि मित्रों, तुम भी नीचे उतर आओ।
वे पूछने लगे कि हंसते क्यों हो?
उसने कहा: तुम भी नीचे उतर आओ। एक-एक उतरने लगे और वे हंसने लगे। फिर सब नीचे उतर आए और सब पागलों की तरह हंसने लगे। घाट पर खड़े लोग पूछने लगे कि आपको क्या हो गया है?
तो उन्होंने कहाः हम भी बड़े पागल हैं। रात भर हमने नाव चलाई, लेकिन हम वहीं के वहीं खड़े हैं। क्या मजाक हो गया!
 वे नाव की जंजीर खोलना भूल गए थे। वह जंजीर घाट से ही जुड़ी थी। रात भर पतवार चलाते रहे, और सोचते रहे कि यात्रा कर रहे हैं, यात्रा कर रहे हैं, यात्रा कर रहे हैं।
सीमा की जंजीर है, अहंकार की जंजीर है, क्षुद्र की जंजीर है। और जिसकी नांव उन जंजीरों से बंधी हैं, वह परमात्मा के अज्ञात सागर में कोई यात्रा नहीं कर सकता है। इसके पहले कि यात्रा पर निकलें, घाट पर जंजीर को देख लेना कि नांव कहीं बंधी तो नहीं है।
इन तीन दिनों में ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं, और अंत में यही कामना और प्रार्थना करता हूं: प्रभु का आनंद आपको उपलब्ध हो, प्रभु की शांति आपको उपलब्ध हो, प्रभु का अमृत आपको उपलब्ध हो।
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें