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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)

 छटवां-प्रवचन-(अमृत की उपलब्धि)

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, एक पूर्णिमा की रात्रि कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे हो गए। देर तक उन्होंने शराब पी। और जब वे नशे में नाचने लगे और उन्होंने आकाश में पूरे चांद को देखा, तो किसी ने कहा, अच्छा न हो कि हम नदी पर नौका-विहार को चलें? और वे नदी की तरफ चले। मांझी अपनी नौकाएं बांध कर जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं, उन्होंने पतवारें चलानी शुरू कर दीं। और वे बहुत रात गए तक पतवारें चलाते रहे, नाव को खेते रहे। और जब सुबह की ठंडी हवाएं आईं और उनका नशा उतरा, तो उन्होंने सोचा..हम न मालूम कितने दूर निकल आए हों और न मालूम किस दिशा में निकल आए हों, कोई नीचे उतर कर देख ले। एक व्यक्ति नीचे उतरा और हंसने लगा और उसने कहा कि आप भी नीचे उतर आएं। हम कहीं भी नहीं गए। हम रात भर वहीं खड़े रहे हैं!

नौका वहीं खड़ी थी जहां उन्होंने रात उसे पाया था। वे बहुत हैरान हुए, रात भर की मेहनत का क्या हुआ? नीचे उतर कर पता चला कि नौका की जंजीरें किनारे से बंधी थीं, वे छोड़ना भूल गए थे।

नशे में थे, ऐसी भूल हो सकती है। लेकिन ऐसी भूल उन लोगों से भी हो जाती है जो नशे में नहीं हैं।
असल में नशे भी बहुत तरह के हैं। कुछ नशे हैं जो हमें दिखाई पड़ते हैं और कुछ हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ते हैं। असल में जो नशे में नहीं हैं और फिर भी ऐसी भूल कर लेते हैं, वे भी किसी नशे में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़ता। जाति का नशा है, समाज का नशा है, देश का नशा है, धर्म का नशा है। बहुत तरह के नशे हैं जिनमें आदमी बेहोश हो जाता है और ऐसी भूल कर लेता है कि जिंदगी ठहरी रह जाती है, उसकी गति खो जाती है। और हम जिन-जिन नावों में सवार हैं, वे नावें कहीं भी नहीं पहुंच पातीं।
आमतौर से, जिस दिन हम जन्मे थे, जीवन की नाव में बैठे, मरते समय अधिकतम लोग अपने को वहीं पाते हैं जहां जन्मते समय उन्होंने अपने को पाया था। कोई यात्रा नहीं हो पाती। जन्म और मृत्यु के बीच में पतवार बहुत चलाते हैं हम, श्रम भी बहुत करते हैं, दौड़-धूप भी बहुत उठाते हैं, लेकिन कहीं पहुंच नहीं पाते। मरते समय ऐसा नहीं होता कि हम कह सकें कि कहीं पहुंच गए। शायद मृत्यु के समय किनारे पर उतर कर जब कोई देखता होगा तो पाता होगा..खूंटियां, नाव की जंजीरें बंधी रह गई हैं।
तो मैं आज कुछ उन जंजीरों की बात करना चाहूंगा, जिनके कारण मनुष्य की आत्मा की नाव परमात्मा के सागर तक नहीं पहुंच पाती, रुक जाती है, ठहरी रह जाती है। श्रम करने के बावजूद भी, पतवार चलाने के बाद भी कोई विकास नहीं हो पाता है।
कौन-कौन सी चीजें हैं जो आदमी की नाव को रोक लेती हैं?
पहली बात, जो आदमी की नाव के लिए बहुत बड़ी जंजीर सिद्ध होती है..और वह यह है कि आदमी बिना जाने ही परमात्मा को मान लेता है कि वह है या मान लेता है कि नहीं है। बिना जाने मान लेता है कि है, बिना जाने मान लेता है कि नहीं है। दोनों एक सी नासमझियां हैं। बिना जाने मान लेना भी गलत है, बिना जाने इनकार करना भी गलत है। लेकिन हम सब इन दो नासमझियों में बंटे होते हैं। और जिसे हम बिना जाने मान लेते हैं उसकी खोज बंद हो जाती है और जिसे हम बिना जाने इनकार कर देते हैं उसकी भी खोज बंद हो जाती है। खोज तो उसकी हो सकती है जिसे हम मानना नहीं चाहते बल्कि जानना चाहते हैं। मानना मौत है और जानना जीवन है। मानना ठहर जाना है और जानना एक यात्रा है, एक गति है। माने हुए सारे लोग ठहर जाते हैं। सब तरह के विश्वासी, सब तरह के श्रद्धालु ठहर जाते हैं।
श्रद्धाएं दो तरह की हैं। आस्तिक की एक श्रद्धा है जो हां पर विश्वास करता है, नास्तिक की एक श्रद्धा है जो न पर विश्वास करता है। लेकिन दोनों श्रद्धालु हैं। और धार्मिक आदमी का श्रद्धालु आदमी से कोई संबंध नहीं। धार्मिक आदमी श्रद्धालु नहीं, जिज्ञासु है। धार्मिक आदमी विश्वासी नहीं, खोजी है। धार्मिक आदमी कुछ मान कर ठहरने को तैयार नहीं जब तक कि जान न ले। जब तक कि जानने के सागर में न पहुंच जाए, तब तक वह मानने के किनारे पर खूंटी बांध कर रुका नहीं रहेगा, वह जाएगा। लेकिन अब तक हमने यही समझा है कि विश्वास करने वाले लोग धार्मिक होते हैं।
विश्वास करने वाला आदमी धार्मिक न होता है, न हो सकता है। विश्वास का मतलब ही है कि जो हम नहीं जानते हैं उसे हमने मान लिया। यह अंधेपन की शुरुआत है। यह अपने को अंधा बनाने का रास्ता है।
लेकिन अब तक निरंतर यही समझाया जाता रहा है कि विश्वास करो, अगर भगवान को पाना हो। और इसलिए विश्वास बहुत लोगों ने किया और भगवान को पाया बहुत कम लोगों ने! विश्वास तो सभी करते हैं इस तरफ या उस तरफ, लेकिन भगवान अधिक लोगों को उपलब्ध क्यों नहीं हो पाता? पृथ्वी हजारों साल से विश्वास कर रही है, लेकिन पृथ्वी के जीवन में परमात्मा की स्पष्ट झलक नहीं उतर पाती। कितने मंदिर हैं, कितनी मस्जिद हैं, कितने गुरुद्वारे हैं! कितनी पूजा है, कितना पाठ है, कितनी प्रार्थना है, कितना विश्वास है! लेकिन फिर भी पृथ्वी धार्मिक क्यों नहीं? पृथ्वी का जीवन तो अधार्मिक है। क्या हो गया है? कारण क्या है?
कारण एक है: जीवन चलता है ज्ञान से; विश्वास सिर्फ सपने बन कर रह जाते हैं, सत्य नहीं बन पाते। विश्वासों को सत्य बनाया भी नहीं जा सकता है। सत्य को जानना हो तो विश्वास छोड़ने पड़ते हैं।
मैं नहीं कहता हूं अविश्वास करें, क्योंकि अविश्वास भी उलटा विश्वास है। न विश्वास, न अविश्वास, दोनों के बीच में जो खड़े होने को राजी है, उसके जीवन में ज्ञान की किरण उतरती है। न जो विश्वास की खूंटी से अपनी नाव को बांधता, न अविश्वास की खूंटी से बांधता, न हिंदू की खूंटी से बांधता, न मुसलमान की खूंटी से, न जैन की, न ईसाई की, न सिक्ख की..किसी की खूंटी से जो अपने को नहीं बांधता और कहता है कि हम तो अनंत के सागर में नाव छोड़ेंगे, किसी की खूंटी से बांधेंगे नहीं..वह आदमी परमात्मा तक पहुंचने में सफल हो पाता है।
और मजा यह है कि हिंदू जिनका गुणगान करता है, वे वे ही लोग हैं जो बिना किसी की खूंटी से बंधे परमात्मा तक पहुंचे। और मुसलमान जिनका गुणगान करता है, वे वे ही लोग हैं जो बिना किसी खूंटी से बंधे परमात्मा तक पहुंचे। और सिक्ख जिनका गुणगान करता है, वे वे ही लोग हैं जो बिना किसी की खूंटी से बंधे और परमात्मा तक पहुंचे। सब नौका छोड़ कर सागर में जाने वाले लोग, हम उनके नाम पर भी खूंटियां बांध कर किनारे पर बैठ जाते हैं।
कबीर ने कहा है। कहा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।।
उन्होंने पाया जो गहरे डूबे और मैं पागल किनारे बैठ कर रह गई।
तो किसी ने पूछा कि किनारे बैठ कर रह जाने की जरूरत क्या थी? तो कबीर ने कहा कि..
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ।।
मैं डूबने से डर गई, इसलिए किनारे पर बैठ गई।
जो भी डूबने से डरेगा वह खूंटियां पकड़ लेगा, सहारे पकड़ लेगा। और जो डूबने से डरेगा वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। क्योंकि जो डूबता है वही उबरता है, जो डूबता है वही पहुंचता है, जो डूबता है वही पाता है। यहां बचना हो तो डूबना जरूरी है। धर्म के जगत में बचना हो तो डूबना जरूरी है और अगर धर्म से बचना हो तो किनारे पर खूंटियां पकड़ कर बैठ जाना बहुत उपयोगी है।
खूंटियां बहुत पुरानी हो सकती हैं। लेकिन पुराने होने से कोई खूंटी कम खूंटी नहीं हो जाती। खूंटी बिल्कुल नई हो सकती है। लेकिन नई होने से भी कोई खूंटी खूंटी नहीं रह जाती, ऐसा नहीं है। खूंटी नई हो कि पुरानी, वह काम बांधने का करती है। और धर्म खूंटी नहीं है; धर्म स्वतंत्रता है। इसलिए धार्मिक आदमी न हिंदू होता, न मुसलमान होता, न ईसाई होता, न सिक्ख होता। धार्मिक आदमी बस धार्मिक आदमी होता है।
मैं स्वर्ण मंदिर देखने गया, कुछ मित्र दिखाने ले गए। जो मित्र दिखाने ले गए उन्होंने मुझे कहा कि यहां ईसाई, हिंदू, मुसलमान, सबके लिए जगह खुली है।
मैंने उनसे कहा, ऐसा मत कहें। क्योंकि ऐसा कहने में ही हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई की स्वीकृति हो जाती है कि ये अलग-अलग हैं। इतना ही कहें कि आदमी के लिए जगह खुली है। उतना काफी है। इतना रिकग्नीशन भी..कि हिंदू और मुसलमान और ईसाई, सबके लिए खुला है..वही बात हो गई। बंद हो तो भी वही बात है और खुला हो तो भी वही बात है।
हम पृथ्वी पर कब ऐसे मंदिर बनाएंगे जिनमें सिर्फ आदमी होना काफी होगा, जिनमें कोई पहचान न होगी। अब तक हम नहीं बना पा रहे हैं। हजार दफे कोशिश होती है, कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर, कभी कोई कृष्ण, कभी कोई क्राइस्ट, कोई नानक ऐसा मंदिर बनाने की कोशिश करता है। लेकिन हम ऐसे पागल हैं कि हम उस मंदिर को भी खूंटियां गाड़ लेते हैं। हम उस मंदिर पर भी कब्जा कर लेते हैं। हम उस मंदिर को भी किसी का बना देते हैं। और जो मंदिर किसी का बन जाता है, वह परमात्मा का नहीं रह जाता। परमात्मा का रहने के लिए उसका किसी का होना अयोग्यता है। वह किसी का भी नहीं होना चाहिए, तभी वह सभी का हो सकता है। जब वह किसी का होता है, तब सभी का नहीं रह जाता। और स्वीकृति जब हम देते हैं तभी भूल हो जाती है।
मैं अभी अहमदाबाद था। कुछ हरिजन मित्र मुझे मिलने आए। उन्होंने मुझसे कहा कि गांधी जी तो आते थे तो हरिजनों के घर ठहरते थे। आप हमारे हरिजनों के घर क्यों नहीं ठहरते?
मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हारे घर ठहर सकता हूं, लेकिन हरिजन के घर नहीं ठहर सकता। क्योंकि इतनी स्वीकृति भी देनी..कि तुम हरिजन हो और तुम्हारे घर मैं ठहरता हूं क्योंकि तुम हरिजन हो..अन्याय है, अधर्म है, गलती है। कोई आदमी कहता है कि तुम हरिजन हो, हम न छुएंगे; यह भी तुम्हें हरिजन मानता है। एक आदमी कहता है, तुम हरिजन हो, हम तुम्हारे घर ठहरेंगे; यह भी तुम्हें हरिजन मानता है। तुम्हारे घर मैं ठहर सकता हूं, लेकिन हरिजन की तरह नहीं। आदमी होना काफी है।
हमें यह दिखाई नहीं पड़ता। हिंदू-मुसलमान लड़ें तो भी दुश्मन होते हैं, तो भी दो होते हैं। कोई कहता है कि नहीं, दो नहीं, हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। फिर भी दो रहते हैं, फर्क नहीं पड़ता। भाई-भाई कहने वाला भी एक नहीं मानता; लड़ाने वाला भी एक नहीं मानता। एक तो वही मान सकता है जो कहे कि तुम हिंदू कैसे? तुम मुसलमान कैसे? तुम कोई भी नहीं हो। आदमी होना सत्य है, बाकी सब हमारी सिखावन है जो हम ऊपर से थोप देते हैं। इन सिखावनों ने खूंटियां खड़ी कर दी हैं और धार्मिक आदमी का पैदा होना मुश्किल हो गया है।
यह धार्मिक आदमी कैसे पैदा हो, इस संबंध में कुछ सूत्र की बात आपसे कहना चाहूं।
एक तो धर्म के संबंध में यह बात ठीक से समझ लें कि धर्म और विद्याओं जैसी विद्या नहीं है। दुनिया में बहुत तरह की विद्याएं हैं, धर्म उनमें से एक विद्या नहीं है। अगर दुनिया में कोई भी चीज सीखनी है तो किसी और से सीखनी पड़ेगी। अगर कोई भी चीज सीखनी है दुनिया में तो किसी से सीखना पड़ेगा। धर्म अकेली ऐसी विद्या है कि अगर सीखनी हो तो दूसरे से सीखने से बचना, अन्यथा मुश्किल हो जाएगी। असल में धर्म दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता। धर्म अकेली ऐसी विद्या है, जो स्वयं ही सीखी जाती है, जिसमें दूसरे से सीखने की गुंजाइश नहीं है। उसके कारण हैं। सत्य ट्रांसफरेबल नहीं है, एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। जगत में सब चीजें एक हाथ से दूसरे हाथ में दी जा सकती हैं। धर्म का ज्ञान भर एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। और दिया जाए तो बासा और उधार हो जाता है। और उधार होते से ही अज्ञान से भी बदतर हो जाता है।
अज्ञान की एक खूबी है कि अज्ञान विनम्र होता है। और उधार ज्ञान का एक खतरा है, उधार ज्ञान अहंकार से भर जाता है, ईगो से भर जाता है। और मजा यह है कि जो ज्ञान भीतर से पैदा होता है, उसके पैदा होते ही अहंकार ऐसे विदा हो जाता है जैसे सुबह के सूरज उगने पर अंधेरा विदा हो जाता है। खुद के ज्ञान के पैदा होने पर अहंकार कहीं नहीं पाया जाता, लेकिन दूसरे से लिया गया ज्ञान अहंकार को मजबूत करता है, पुष्ट करता है और भीतर भारी, कड़ी, सख्त चीज पैदा कर देता है। वह कड़ा अहंकार ही परमात्मा से मिलने में बाधा बन जाता है।
धर्म दूसरे से कभी भी उपलब्ध नहीं होता। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरा बिल्कुल बेकार है। जब कभी कोई एक बुद्ध हमारे बीच से गुजरता है तो बुद्ध हमें ज्ञान नहीं दे सकता, और जब कभी कोई नानक गीत गाता हुआ हमारे बीच से निकलता है तो नानक हमें ज्ञान नहीं दे सकते, लेकिन एक बुद्ध या एक नानक के गुजरने से हमारी प्यास जग सकती है। ज्ञान नहीं मिल सकता, प्यास जग सकती है। उन्हें देख कर हमें इस बात का स्मरण आ सकता है कि जो उन्हें संभव हुआ, वह मुझे भी संभव हो सकता है।
ज्ञानी धर्म की दुनिया में ज्ञान का देने वाला नहीं, सिर्फ प्यास का जगाने वाला है। लेकिन प्यास जगाने के बाद कुआं तो अपने ही भीतर खोदना पड़ता है और पानी तो अपने भीतर ही खोजना पड़ता है, वह कोई दूसरा नहीं दे सकता। अगर दूसरा दे सकता होता तो एक ही ज्ञानी ने सारी दुनिया को ज्ञान दे दिया होता। उसका कारण है। क्योंकि ज्ञानी में इतनी करुणा है कि वह रुकता ही नहीं, वह सबको बांट ही देता। लेकिन वह नहीं दिया जा सकता।
सब ज्ञानी तड़पते हुए मरते हैं..अपने लिए नहीं, दूसरे के लिए..क्योंकि जो उन्हें मिल गया है, वे देना चाहते हैं, लेकिन वह दिया नहीं जा पाता। देते हैं कि बदल जाता है। हाथ से दिया, दूसरे के पास गया कि बदला। क्योंकि जब देते हैं तो अनुभूति तो भीतर रह जाती है, शब्द ही उसके पास पहुंचते हैं। और शब्दों का अर्थ? शब्दों का अर्थ देने वाले से तय नहीं होता; जिसके पास शब्द पहुंचते हैं वही उनका अर्थ तय करता है।
इसलिए गीता की एक हजार टीकाएं हैं। कृष्ण का दिमाग खराब तो नहीं रहा होगा कि एक हजार अर्थ रहे हों। कृष्ण जैसे आदमी का मतलब तो सुनिश्चित रूप से एक होता है। लेकिन एक हजार टीकाएं हैं। गीता के एक हजार अर्थ करने वाले हैं। ये अर्थ कहां से आए? ये कृष्ण के अर्थ नहीं हैं। ये हजार टीका करने वालों के अर्थ हैं। गीता को पढ़ते हैं जब हम तो वह कृष्ण की गीता नहीं होती, हम उसमें अपना अर्थ डाल कर पढ़ते हैं। हम ही उसमें होते हैं। आज तक दुनिया में कृष्ण की गीता को कृष्ण जैसा हुए बिना पढ़ने का उपाय भी नहीं है। हम ही अपना अर्थ डालेंगे।
इसलिए मैं कहता हूं, शास्त्र को भूल कर मत पकड़ना। क्योंकि शास्त्र में आपकी ही छवि झलकेगी, और कुछ भी होने वाला नहीं। शास्त्र में हम खुद को ही पढ़ते हैं। इसीलिए एक शास्त्र को दो आदमी पढ़ते हैं, दो मतलब निकलते हैं।
एक रात ऐसा हुआ कि बुद्ध ने एक सभा में प्रवचन दिया। प्रवचन के बाद वे रोज अपने भिक्षुओं से कहते थे कि अब जाओ, अब रात के आखिरी काम में लग जाओ। उस दिन एक चोर भी आया हुआ था। जब बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, जाओ, रात के काम में लग जाओ, चोर भी उठा, उसने कहा कि बड़ी देर हो गई, समय हो गया काम का। एक वेश्या भी आई थी। जब बुद्ध ने कहा, जाओ, अपने रात के काम में लग जाओ, तो वेश्या ने कहा कि मैं भी कितनी देर गवां दी, पता नहीं ग्राहक वापस लौट गए हों। और भिक्षु उठ कर ध्यान करने चले गए, क्योंकि भिक्षुओं को रात का आखिरी काम था कि वे ध्यान करें और फिर सो जाएं। वेश्या अपनी दुकान चलाने चली गई, चोर अपने काम पर लग गया, भिक्षु ध्यान करने लगे। और बुद्ध ने एक ही शब्द कहा था: जाओ, रात के काम पर लग जाओ।
अर्थ कौन देगा? अर्थ हम देते हैं। इसलिए शास्त्र को पढ़ कर सत्य न मिलेगा, आप ही मिल जाओगे, सत्य नहीं मिलने वाला। सत्य तो मिलेगा किसी और यात्रा से, सत्य तो मिलेगा स्वयं को खोने से। शास्त्र में तो स्वयं का ही दर्पण बन जाता है और हम अपने को ही पढ़ लेते हैं। इसलिए कुरान को जब मुसलमान पढ़ता है तो और मतलब निकाल लेता है, जब हिंदू पढ़ता है तो और मतलब निकाल लेता है। वेद को जब वेद का मानने वाला पढ़ता है तो और मतलब निकालता है, जब नहीं मानने वाला पढ़ता है तो और मतलब निकालता है। मतलब हमारे हैं। और हमारे ही मतलब अगर सत्य होते तो वेद तक जाने की क्या जरूरत है? हम सत्य हैं ही।
नहीं, हमारे चलते काम नहीं चलेगा, हमें मिटना पड़ेगा। कोई शास्त्र हमें मिटा नहीं सकता। हम शास्त्र को भी अपना आभूषण बना लेते हैं। अगर आप दस शास्त्र जान लेते हैं तो आपका अहंकार और मजबूत हो जाता है। पंडितों से ज्यादा अहंकारी आदमी खोजना कठिन है। जिनको भी ख्याल हो गया कि वे जानते हैं, वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। जानने का अहंकार इस जगत में सबसे गहरा अहंकार है। इसलिए पंडित निरंतर लोगों को लड़ाई में ले जाते हैं। इस जमीन पर जो लड़ाइयां हुई हैं वे अज्ञानियों के कारण नहीं, उनके पीछे कारण हमेशा झूठे ज्ञानी हैं। अज्ञानी तो बेचारे उनके चक्कर में पड़ कर लड़ते रहते हैं। सारी लड़ाई झूठे ज्ञानियों के द्वारा पैदा होती है, क्योंकि झूठा ज्ञान भीतर अहंकार से भरा हुआ होता है।
नहीं, धर्म ऐसी विद्या नहीं है कि शास्त्र से मिल जाए। धर्म ऐसी विद्या है जो स्वयं के खोने से मिलती है। गणित सीखना हो तो स्वयं को मिटाने की कोई जरूरत नहीं है; इतिहास पढ़ना हो तो स्वयं को मिटाने की कोई जरूरत नहीं है; साइंस पढ़नी हो, इंजीनियर बनना हो, डाक्टर बनना हो, तो स्वयं को मिटाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन धर्म के जगत में जाना हो तो स्वयं को मिटाने की तैयारी चाहिए।
मैंने सुनी है एक कहानी। मैंने सुना है कि यूनान में एक बहुत बड़ा मूर्तिकार हुआ। उस मूर्तिकार की बड़ी प्रशंसा थी सारे दूर-दूर के देशों तक। और लोग कहते थे कि अगर उसकी मूर्ति रखी हो बनी हुई और जिस आदमी की उसने मूर्ति बनाई है वह आदमी भी उसके पड़ोस में खड़ा हो जाए श्वास बंद करके, तो बताना मुश्किल है कि मूल कौन है और मूर्ति कौन है। दोनों एक से मालूम होने लगते हैं। उस मूर्तिकार की मौत करीब आई। तो उसने सोचा कि मौत को धोखा क्यों न दे दूं? उसने अपनी ही ग्यारह मूर्तियां बना कर तैयार कर लीं और उन ग्यारह मूर्तियों के साथ छिप कर खड़ा हो गया। मौत भीतर घुसी, उसने देखा, वहां बारह एक जैसे लोग हैं। वह बहुत मुश्किल में पड़ गई होगी, एक को लेने आई थी, बारह लोग थे, किसको ले जाए? और फिर कौन असली है? वह वापस लौटी और उसने परमात्मा से कहा कि मैं बहुत मुश्किल में पड़ गई, वहां बारह एक जैसे लोग हैं! असली को कैसे खोजूं?
परमात्मा ने उसके कान में एक सूत्र कहा। और कहा, इसे सदा याद रखना। जब भी असली को खोजना हो, इससे खोज लेना। यह तरकीब है असली को खोजने की।
मौत वापस लौटी, उस कमरे के भीतर गई, उसने मूर्तियों को देखा और कहा कि मूर्तियां बहुत सुंदर बनी हैं, सिर्फ एक भूल रह गई।
वह जो चित्रकार था वह बोला, कौन सी भूल?
उस मृत्यु ने कहा, यही कि तुम अपने को नहीं भूल सकते। बाहर आ जाओ! और परमात्मा ने मुझे कहा कि जो अपने को नहीं भूल सकता उसे तो मरना ही पड़ेगा और जो अपने को भूल जाए उसे मारने का कोई उपाय नहीं, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
धर्म अपने को भूलना है, क्योंकि धर्म अमृत की उपलब्धि है। लेकिन अपने को हम कैसे भूलें? अपने को तो हम सदा याद रखते हैं, चैबीस घंटे याद रखते हैं। अपने को तो हम चारों तरफ से सजा कर, संवार कर रखते हैं। अपने को तो हम चारों तरफ से दीवारें और पत्थर की मजबूत दीवारों में सुरक्षित रखते हैं। कहीं से कोई चोट न पहुंच जाए, कहीं हम मिट न जाएं थोड़े भी, तो हम अपने को बहुत इंतजाम करके रखते हैं। हमारी जिंदगी भर का सारा इंतजाम, अपने को बचाने का इंतजाम है। और अगर हम कभी परमात्मा के द्वार पर भी जाते हैं, तो परमात्मा से भी थोड़ी-बहुत सेवा लेने जाते हैं। अपने को बचाने की कोई सेवा हो तो हम जाते हैं। किसी को नौकरी चाहिए तो जाता है, किसी को धन चाहिए तो जाता है, किसी को बेटा चाहिए तो जाता है, किसी को बीमारी मिटानी है तो जाता है, किसी को लाटरी जीतनी है तो जाता है। हम परमात्मा के द्वार पर अपने को बचाने जाते हैं। परमात्मा से भी थोड़ी सेवा लेने का इरादा हमारा रहता है। हमारा अहंकार अदभुत है, परमात्मा को भी थोड़ी-बहुत नौकरी में हम लगाना ही चाहते हैं। इरादे तो हमारे यही रहते हैं। बल्कि हम कहते भी यह हैं कि जरा हमारी नौकरी कर दो तो हम मान लेंगे! जैसे कि हमारे मानने का वह इतना भूखा होगा कि थोड़ी-बहुत हमारी नौकरी भी करे।
हम परमात्मा के दरवाजे पर अपने को बनाने के लिए ही जाते हैं। तो हम उसके दरवाजे पर कभी पहुंच ही नहीं पाते। फिर हम झूठे दरवाजों पर पहुंच जाते हैं, जो आदमी के बनाए हुए हैं। और उन्हीं दरवाजों को हम परमात्मा का दरवाजा समझ कर लौट आते हैं। परमात्मा का दरवाजा तो वहीं है जहां लिखा है कि आप भीतर न जा सकोगे, अपने को बाहर छोड़ो और फिर भीतर आओ!
बंगाल में मैं एक छोटा सा नाटक देखा हूं। ग्रामीण नाटक है। उस नाटक में एक यात्री वृंदावन की यात्रा को गया है। वह एक फकीर है, उसके पास कुछ भी नहीं है। एक छोटी सी झोली है, जिसमें उसके एक-दो कपड़े-लत्ते, थोड़े-बहुत बर्तन वगैरह हैं। वह जब वृंदावन के मंदिर पर पहुंचता है तो द्वारपाल उससे कहता है कि ठहरो, भीतर कुछ ले जा न सकोगे। तो वह अपनी झोली, जिसमें बर्तन और कपड़े हैं, बाहर ही छोड़ देता है। वह कहता है कि अब तो मैं जा सकता हूं, झोली-कपड़े बाहर छोड़ दिए। वह द्वारपाल कहता है, झोली-कपड़े ले जाना हो तो ले जाओ, अपने को बाहर छोड़ो। झोली-कपड़े से कोई दिक्कत नहीं है, ले आओ उठा कर, लेकिन अपने को बाहर रख आओ। अपने को लेकर भीतर न जा सकोगे।
असल में एक ही शर्त है उसके दरवाजे पर। और वह शर्त अपने को खोने की शर्त है। ज्ञान जो हम दूसरों से ले लेते हैं, वह अपने को मजबूत करता है, मिटाता नहीं। यहां तक कि त्याग और तपश्चर्या भी अहंकार को मजबूत कर जाते हैं, मिटाते नहीं। किसी ने अगर उपवास कर लिया है, और कोई अगर शीर्षासन करके खड़ा हो गया है, और कोई अगर कांटों पर लेटा है, तो उसके भीतर अहंकार और मजबूत हो जाता है। साधक, तपस्वी, संन्यासी, सब का अहंकार, ईगो बहुत ही गहरी, घनी हो जाती है। वे उसी घनी अहंकार की छाया में जीने लगते हैं। और सोचते हैं कि परमात्मा भी उनके पीछे आए। परमात्मा के पीछे जाने को वे तैयार नहीं होते। इसलिए वे परमात्मा पर भी आरोपण करते हैं कि इस शक्ल में मिलो तो ही! जैसा हम चाहते हैं उस शक्ल में मिलो। तो हिंदू अपनी शक्ल थोपता है, मुसलमान अपनी शक्ल थोपता है, जैन अपनी शक्ल थोपता है। हम परमात्मा को भी कहते हैं कि उस शक्ल में आना जो हमने मांग की है। ईसाई अपनी शक्ल थोपता है। हम परमात्मा को भी उसकी शक्ल में स्वीकार करने को राजी नहीं। हम बहुत अदभुत लोग हैं। हमारे अदभुत होने का कोई ठिकाना नहीं है। लेकिन हम इन्हीं सारी बातों को धर्म कहते हैं। और हम सोचते हैं कि इन सारी बातों को करके हम सत्य को या प्रभु को पाने में कभी समर्थ हो जाएंगे, तो हम बहुत गलत सोचते हैं।
दूसरी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं: शास्त्र से नहीं मिलेगा धर्म, स्वयं से मिलेगा। हालांकि स्वयं से मिलने पर शास्त्र निर्मित हो सकते हैं। लेकिन शास्त्र से जाने पर सत्य नहीं मिल सकता, सत्य मिलने पर शास्त्र जरूर निर्मित हो जाते हैं। जिन्हें भी सत्य मिल जाता है, वे कहना चाहते हैं दूसरों को कि हमें क्या मिल गया। यह जानते हुए भी कि शब्द नहीं कह पाते हैं।
एक गूंगे को भी मिठाई मिल जाए तो वह भी शोरगुल मचा कर कहना चाहता है कि बहुत आनंद आया। लेकिन आप उसके शोरगुल को पकड़ लें और घर में जाकर वैसे ही शोरगुल मचाने लगें और समझें कि मिठाई मिल जाएगी, तो आप गलती में पड़ गए हैं।
शास्त्र, जिन्हें सत्य की मिठाई मिली, उन गूंगे हो गए लोगों का शोरगुल है। उन्होंने कहने की बड़ी कोशिश की है, लेकिन कह नहीं पाए। उसका कारण यह नहीं है कि वे कमजोर थे कहने में, उसका कारण यह है कि कहना ही असमर्थ है सत्य को प्रकट करने के लिए।
लाओत्से ने एक छोटी सी किताब लिखी है। और उस किताब का पहला वचन उसने जो लिखा है वह बहुत अदभुत है। उसने पहला वचन लिखा है कि सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहता हूं कि जो मैं कहने जा रहा हूं वह मैं कह न पाऊंगा। दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि जो मैं कहूं उसको पकड़ मत लेना, क्योंकि जो मैं कहना चाहता था वह बात और थी और जो कह गया हूं वह बात और है।
रवींद्रनाथ मर रहे थे, मरणशय्या पर पड़े थे। एक मित्र मिलने आया और उसने रवींद्रनाथ से कहा कि आप तो तृप्त होकर मर रहे होंगे, आपने तो जिंदगी में सब पा लिया जो एक आदमी पा सकता है। आप महाकवि थे, आपने छह हजार गीत लिखे। यूरोप में शेली को महाकवि कहते हैं, उसके भी दो हजार गीत हैं। आपके छह हजार गीत हैं! आपके छह हजार गीत संगीत में बांधे जा सकते हैं! शायद पृथ्वी पर इतना बड़ा महाकवि कभी नहीं हुआ, उस मित्र ने कहा, आप तो तृप्त हैं?
लेकिन रवींद्रनाथ की आंख से आंसू गिर रहे थे। रवींद्रनाथ ने कहा कि नहीं, मैं जो गाना चाहता था, वह अभी गा ही नहीं पाया। ये छह हजार तो मेरी कोशिश हैं, जो असफल गईं। ये तो छह हजार मैंने प्रयास किए जो सफल नहीं हो सके। अभी जो मैं गाना चाहता था वह मैं गा नहीं पाया, वह तो भीतर रह गया। और जाने का वक्त आ गया! तो मैं तो आंख बंद करके भगवान से यही कह रहा हूं कि अभी साज ही बिठा पाया था, अभी गाया कहां? और जाने का वक्त आ गया! लेकिन फिर मैं यह सोचता हूं कि अगर अनंत जन्म भी मुझे मिल जाएं, तब भी साज ही बिठा पाऊंगा, गा न पाऊंगा। क्योंकि वह जो गाने योग्य है, वह सभी पकड़ के बाहर छूट जाता है। न शब्द में पकड़ता, न स्वर में पकड़ता, न रंग में पकड़ता, वह किसी रेखा में नहीं पकड़ता, वह बाहर छूट जाता है। वह अनंत है, असीम है, वह कैसे पकड़ में आएगा?
नहीं, किताबें उसे नहीं पकड़ सकतीं। कोई उसे कभी नहीं पकड़ पाया। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं किताबें फेंक दें। इसका केवल इतना ही मतलब है कि किताबों को भी देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो कहना चाहने की कोशिश की गई थी वह नहीं कहा जा सका। सब किताबें एक ही इशारा करती हैं कि वह अनकहा छूट गया है, वह नहीं कहा गया है। सब इशारे एक बात कहते हैं कि अनएक्सप्रेस्ड, अभी तक वह अभिव्यक्त नहीं हुआ, वह प्रकट नहीं हो सका है। आदमी की वाणी छोटी पड़ गई है। वह बहुत विराट है, वह समा नहीं पाता। हम चिल्लाते हैं, प्रकट करने की कोशिश करते हैं, वह अप्रकट रह जाता है।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं: प्रभु जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए कोई धर्मशास्त्र बन नहीं सकता, बना भी नहीं है, बनेगा भी नहीं। ऐसा कोई शास्त्र नहीं जिसको जान कर आप धर्म को जान लेंगे। हां, अगर धर्म को आप जान लें तो आप सब शास्त्रों को जरूर जान लेंगे। धर्म को जान लें तो सब शास्त्रों का सीक्रेट, राज खुल जाएगा। आप जान लेंगे कि ठीक है, पा गए लोग गूंगे हो गए थे, उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर कहा है, लेकिन आवाजें ही निकली हैं, वे कह नहीं पाए हैं। जो कहना था वह छूट गया है।
धर्म को जान लें तो शास्त्र समझ में आ जाएंगे, लेकिन शास्त्र को समझ कर धर्म समझ में नहीं आ सकता है। इस बात को ठीक से ध्यान में ले लें, अन्यथा शास्त्र खूंटी बन जाता है।
दूसरी बात, यह भी ख्याल में ले लें, नहीं तो वह भी बहुत बड़ी खूंटी है। और वह खूंटी यह है कि अगर आप सोचते हों कि जैसे आपने धन पाया, यश पाया, पद पाया, ऐसे ही आप प्रभु को भी पाएंगे, तो आप भूल में पड़ जाएंगे। धन भी अहंकार की उपलब्धि है, पद भी अहंकार की उपलब्धि है, यश भी अहंकार की उपलब्धि है। प्रभु को इसी मार्ग से नहीं पाया जा सकता। वह अहंकार की उपलब्धि नहीं, अहंकार का खोना है। इन दोनों में विरोध है।
इसलिए संसार में जिस ढंग से हम पाते हैं, उसी ढंग से हम सत्य को नहीं पा सकते। लेकिन स्वभावतः, जो हमारी आदत संसार में पाने की होती है, उसी आदत को हम परमात्मा पर भी लगाने की कोशिश करते हैं। जो हमारा अनुभव होता है कि जीवन में हमने धन कैसे पाया, वैसे ही हम परमात्मा को भी पाने चल पड़ते हैं। वहां बड़ी भूल हो जाती है। इस भूल से सावधान होना जरूरी है।
उसे पाना हो तो एक बात का तो आप निर्णय कर ही लेना, वह यह कि अपने को खोना पड़ेगा। अपने को खोए बिना कोई रास्ता नहीं है। नदी जब खोती है अपने को तो सागर हो जाती है, और बीज जब अपने को खोता है तो वृक्ष हो जाता है, और मनुष्य जब अपने को खोता है तो प्रभु हो जाता है। खोने से मिटता नहीं है; खोने से सिर्फ उसका जो छोटापन है वह मिटता है। खोने से उसकी जो सीमा है वह मिटती है। खोने से उसकी जो क्षुद्रता है वह मिटती है। खोने से वह मिटता नहीं, खोने से ही वह वस्तुतः हो पाता है।
लेकिन हमारी कठिनाई है। हमारी कठिनाई है। एक बीज अगर सोच ले कि मैं मिट जाऊंगा, अपने को बचा लूं। तो बीज अपने को बचा सकता है, लेकिन तब वृक्ष पैदा नहीं हो पाएगा। और वृक्ष पैदा न हो तो बीज के प्राण सदा के लिए रोते रह जाएंगे। हम भी ऐसे बीज हैं जिन्होंने अपने को बचाने की कोशिश की है। नानक या कबीर या फरीद ऐसे बीज हैं जिन्होंने अपने को खोने की तैयारी की, वे वृक्ष बन गए। अब उन वृक्षों के नीचे हजारों लोग छाया ले सकते हैं। और हम ऐसे बीज हैं कि हमारे नीचे छाया लेने का सवाल ही नहीं है। हमारे नीचे ही कुछ होने का सवाल नहीं है। हम सिर्फ सड़ते हैं। अगर बीज वृक्ष न हो तो सिर्फ सड़ सकता है, और क्या करेगा? बीज के लिए दो ही रास्ते हैं: या तो वृक्ष हो जाए और या फिर सड़े।
तो हम सिर्फ सड़ते हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं वह सड़ने की लंबी प्रक्रिया है। बच्चा बूढ़ा होता है बस, और कुछ नहीं होता। बच्चा रोज बूढ़ा होता जाता है और हम सोचते हैं..जीवन है, जीवन है। रोज मरते हैं, और कुछ भी नहीं होता। कल से आज तक आपने क्या किया है? सिर्फ चैबीस घंटे और मर गए। जन्म से मरने तक हम जीते नहीं, जन्म से मरने तक हम सिर्फ मरते ही हैं। लेकिन लंबे फासले की वजह से ख्याल में नहीं आता कि जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह स्लो डेथ है, ग्रेजुअल डेथ है, धीरे-धीरे मरते जाना है। एक दिन का बच्चा एक दिन मर गया, दो दिन का बच्चा दो दिन मर गया, सत्तर वर्ष का आदमी सत्तर वर्ष मर चुका, चुक गई रेत, गया, समाप्त हो गया।
मैंने सुनी है एक घटना कि एक सम्राट ने एक रात एक सपना देखा। सपना देखा कि अंधेरे में, रात के सपने में, कोई छाया उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी है। उसने लौट कर पीछे देखा, बहुत घबड़ा गया। पूछा कि तू कौन है?
उस छाया ने कहा, पहचानते नहीं अब तक? डर गए हो तो समझ तो मैं गई कि तुम पहचान गए, क्योंकि कई बार मैं आई हूं पहले भी, लेकिन तुम अजीब हो कि बार-बार भूल जाते हो! असल में जिससे हम भयभीत होते हैं उसे हम भूलने की कोशिश करते हैं। भूलने से कुछ मिटता नहीं। उसने कहा कि मैं तुम्हारी मौत हूं और आज सांझ आ रही हूं। इतनी खबर देने आई हूं कि सांझ सूरज डूबते समय ठीक जगह पर और ठीक समय मिल जाना! ऐसा न हो कि मैं वहां खोजूं और तुम यहां-वहां हो जाओ।
सम्राट पूछना चाहता था..कौन सी जगह? इसलिए नहीं कि वहां पहुंच जाए, बल्कि इसलिए कि कहीं भूल से वहां न पहुंच जाए। लेकिन जब उसने पूछा..कौन सी जगह? तो इतने जोर से पूछा कि नींद टूट गई और सपना खो गया। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। आधी रात थी, वजीरों को बुलवा कर उसने गांव में खबर की कि जो लोग भी स्वप्न का अर्थ कर सकते हों, उनको जल्दी बुला लाओ।
भागे वे। गांव के पंडित इकट्ठे हो गए। वे अपने शास्त्र साथ में ले आए। पंडित के पास शास्त्र के सिवाय और कुछ होता भी नहीं है। बुद्धि तो होती नहीं, शास्त्र ही होता है। तो उसे ले आए। उन्होंने सबने अपने शास्त्र खोल लिए और व्याख्या करने में लग गए।
सुबह होने लगी, सूरज निकलने लगा। सम्राट ने कहा कि यह कब तक तुम व्याख्या करोगे? सूरज उग चुका है! और उगे हुए सूरज को डूबने में देर कितनी लगती है! एक अर्थ में सूरज ने डूबना शुरू कर दिया! जल्दी करो अर्थ! क्या अर्थ है इसका?
लेकिन पंडितों ने कहा, इतनी जल्दी नहीं हो सकता। पहले हम शास्त्रार्थ करेंगे, एक-एक शब्द का अर्थ करेंगे। यह इतना आसान मामला नहीं है।
विवाद बढ़ने लगा। दोपहर तक हालतें और बुरी हो गईं। जब सम्राट जगा था नींद से, तो सपना कुछ साफ था। पंडितों की बात सुन कर और कनफ्यूजन हो गया। कुछ साफ तो न हुआ नया, बल्कि जो साफ था वह भी डांवाडोल हो गया। सम्राट ने कहा कि जब मैं जगा था तो मुझे कुछ साफ नजर आता था, तुम्हारी बातें सुन कर मैं और मुश्किल में पड़ गया।
तो सम्राट के बूढ़े नौकर ने कहा उसके कान में कि सूरज डूबने के करीब होने लगा, दोपहर हो गई, सूरज उतर रहा है अब। और इनकी बातों का कभी अंत नहीं होगा। क्योंकि पंडितों की बातों का हजारों साल में अंत नहीं हुआ, सांझ तक कैसे होगा! और यह भी ध्यान रहे कि पंडित कभी किसी निष्कर्ष पर, किसी कनक्लूजन पर नहीं पहुंचे हैं। पहुंच भी नहीं सकते हैं, क्योंकि निष्कर्ष पर अनुभव पहुंचता है। ये पंडित कभी न पहुंचेंगे। सांझ हो जाएगी तो मुश्किल में पड़ जाओगे। उस बूढ़े ने कहा, मेरी तो एक सलाह है अगर मानो। और वह सलाह यह है कि तुम्हारे पास एक तेज घोड़ा है, उसे लेकर तुम जितनी शीघ्रता से इस महल को छोड़ सको, छोड़ दो। इस महल में रुकना ठीक नहीं है। यहीं वह सपना आया है। खतरा यही है कि वह मौत यहीं आ जाए।
सम्राट को बात जंची। उसने कहा, कहीं भी भाग जाऊं, इतनी बड़ी पृथ्वी है। उसी जगह थोड़े ही पहुंच जाऊंगा जहां कि मौत को मिलना है। और इस मकान को तो छोड़ ही दूं, यहां सपना आया है।
वह घोड़े पर सवार हुआ और भागा। उसके पास तेज घोड़ा था।
कई बार उसने अपनी पत्नी को कहा था, तेरे बिना एक दिन न जी सकूंगा। लेकिन घोड़े पर भागते वक्त उसे याद भी न आई पत्नी की। असल में मौत सब भुला देती है। जीवन के सब वायदे मौत भुला देती है। मित्रों से कहा था कि तुम्हीं हो तो सब कुछ है। उन मित्रों का आज कोई पता न रहा। मौत करीब आती है तो सब खो जाता है। भागा है घोड़े पर, भागता रहा। न भूख लगी उस दिन, न प्यास लगी उस दिन। ये सब जीवन के नखरे हैं, मौत सामने खड़ी हो तो कैसी भूख? कैसी प्यास? भागता रहा, भागता रहा। सोचा, एक क्षण भी रुकूंगा तो उतनी देर मकान से दूर न निकल पाऊंगा। तो आज न खाऊंगा तो क्या हर्ज?
सांझ तक वह सैकड़ों मील दूर निकल गया। तेज था उसके पास घोड़ा। ऐसे ही एक बगीचे में जाकर एक आम के झाड़ के नीचे घोड़े को बांध कर रुका। सूरज डूबता था, घोड़े की पीठ पर थपकी दी और उसने कहा, शाबाश! आज तू ही मेरा मित्र सिद्ध हुआ। बहुत दूर तू ले आया। थोड़े समय में बहुत यात्रा करवा दी। कैसे तेरा धन्यवाद करूं? तभी पीछे कंधे पर कोई हाथ पड़ा..वही काली छाया..और उसने कहा, घोड़े को धन्यवाद मुझे भी देना है। क्योंकि मैं बहुत डरी हुई थी कि इस झाड़ के नीचे तुम सांझ तक आ पाओगे कि नहीं आ पाओगे? इसी जगह तुम्हें मरना है! घोड़ा तुम्हें बिल्कुल ठीक वक्त पर ले आया, बड़ा तेज घोड़ा है। कैसे इसका धन्यवाद करूं?
आदमी जिंदगी भर दौड़ कर सिवाय मौत के और कहां पहुंच पाता है? जिंदगी भर बना कर सिवाय मौत के और क्या बना पाता है? जिंदगी भर जोड़ कर सिवाय कब्र के और क्या जोड़ पाता है? जिंदगी भर सारा उपाय, अंतिम निष्कर्ष क्या है? इसे हम जिंदगी न कहेंगे। धर्म इसे जिंदगी नहीं कहता। धर्म इसे सिर्फ मरने की लंबी प्रक्रिया कहता है। यह मरने का क्रम है लंबा, धीरे-धीरे सत्तर साल लगता है मरने में, अस्सी साल लगता है। कोई जरा धीरे मरता है, कोई जरा तेजी से मरता है। मरने की प्रक्रिया लेकिन पूरी हो जाती है। गरीब का घोड़ा भी पहुंच जाता है उसी झाड़ के नीचे, अमीर का घोड़ा भी पहुंच जाता है। कोई जरा शानदार घोड़े पर जाता है, कोई जरा गरीब घोड़े पर जाता है। कुछ हैं कि पैदल भी जाते हैं। कोई हवाई जहाजों से भी पहुंच जाते हैं। लेकिन सब अपना दरख्त खोज लेते हैं और सब ठीक समय पर पहुंच जाते हैं।
आदमी जिंदगी भर चल कर पहुंचता कहां है?
नहीं, धर्म कहता है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह जीवन नहीं है। धर्म कहता है, जिसे हम जीवन कहते हैं, वह केवल जीवन के पैदा होने का एक अवसर है, एक अपरचुनिटी है। जिसे हम जीवन कहते हैं वह एक बीज है जिसमें से जीवन पैदा हो सकता है। लेकिन हो नहीं गया है। और उसे कौन पैदा करेगा? उसे वही बीज पैदा कर पाएगा जो मिटने को तैयार है। लेकिन हम सब बीज तो बचने की कोशिश में लगे हैं। जिंदगी भर बचते हैं, अंतिम परिणाम में मौत पकड़ लेती है।
धर्म कहता है, इससे उलटा है रास्ता..मरने की तैयारी जुटाओ, मिटने की तैयारी जुटाओ, और फिर तुम्हें मौत कभी न पकड़ सकेगी। अमृत उपलब्ध हो जाएगा। और जीवन का वृक्ष इस बीज के बाहर पैदा हो सकता है।
इसलिए धर्म का मूल सार अहंकार की हत्या है। इससे न कोई हिंदू का संबंध है, न कोई मुसलमान का संबंध है, न कोई सिक्ख का, न कोई जैन का, न कोई ईसाई का। धर्म का मूल सूत्र अहंकार की मृत्यु है। मैं कैसे मिटूं? मैं कैसे समाप्त हो जाऊं? मैं कैसे अपने को खो दूं?
कठिन है यह बात, क्योंकि अपने को खोने से ज्यादा और कठिन क्या हो सकता है? लेकिन सरल भी है यह बात, क्योंकि अपने को खोने में इतना आनंद और अपने को बचाने में इतना दुख है। इसलिए सरल भी है यह बात।
जीसस को जिस दिन सूली लगी उस रात खबर हो गई थी कि कल सुबह सूली लग जाएगी। एक मित्र ने जीसस से कहा कि भाग क्यों नहीं जाते हो? जब पता चल गया है कि सुबह सूली लग जाएगी और दुश्मन खोजता आ रहा है, तो अभी समय है, भाग क्यों नहीं जाते हो?
तो जीसस ने कहा कि सूली बिना लगे उस परमात्मा का द्वार भी कैसे खुलेगा? सूली लगेगी तभी तो मैं उसको पा सकूंगा। मिटूंगा तभी तो उसे पा सकूंगा। तो मैं सूली से न भागूंगा, मैं तो सूली की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
फिर वे सूली पर लटके। फिर अब उनका जो पादरी है वह गले में एक सोने की सूली लटकाए रहता है। बड़े मजे की बात है! सूलियां सोने की नहीं होतीं। और सूलियों पर गला लटकाया जाता है, गले में सूलियां नहीं लटकाई जातीं। मगर आदमी बहुत धोखेबाज है। वह जीसस को धोखा देगा, नानक को धोखा देगा, बुद्ध को धोखा देगा, कृष्ण को धोखा देगा, वह सबको धोखा दे देता है। वह कहता है कि ठीक कहते हो! सूली पर लटकना चाहिए? ठीक, हम एक सोने की सूली अपने गले में लटका लेते हैं।
यह सोने की सूली सूली नहीं है, यह उसका आभूषण है। यह सोने की सूली से वह अकड़ कर चलता है रास्ते पर कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। सोने की सूली वाला, जीसस का पादरी हूं। कहां जीसस बेचारा, उसको लकड़ी की सूली अपने कंधे पर ढोनी पड़ी। अपनी सूली अपने ही कंधे पर ढोनी पड़ती है। उसको गाड़ना पड़ा और उस पर लटक जाना पड़ा। लेकिन मरते वक्त, जिसने उसको सूली की आज्ञा दी थी, पायलट, उस पायलट ने जीसस से एक सवाल पूछा। और वह सवाल शायद मरते वक्त आप भी अपने से पूछेंगे। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो मरते वक्त नहीं, जिंदा में पूछ लेते हैं। क्योंकि फिर काम करने का समय नहीं बचता। पायलट ने जीसस से मरने के पहले पूछा कि एक बात तो बता दो मरने के पहले कि सत्य क्या है? व्हाट इ.ज ट्रुथ? जीसस चुप रह गए और उनकी आंखें सूली की तरफ उठ गईं। पायलट समझा नहीं, लेकिन जीसस ने कहा कि सूली पर लटको तो पता चल जाएगा। और सत्य के पता चलने का कोई रास्ता नहीं है। और कोई रास्ता ही नहीं है सत्य के पता चलने का। लेकिन पायलट नहीं समझा। उसने कहा, क्या उत्तर नहीं देते हो? मालूम होता है मालूम नहीं है। असल में मौन में दिए गए उत्तर को समझने के लिए बड़ी सामथ्र्य चाहिए। जीसस हंसे, और फिर उन्होंने सूली की तरफ देखा। लेकिन पायलट ने कहा कि ठीक है, दे दो सूली। इस आदमी को शायद पता नहीं कि सत्य क्या है।
वे भी कोई वेद-वचन उद्धृत कर सकते थे। वे भी कोई शास्त्र का वचन कह सकते थे कि सत्य क्या है। नहीं, ऐसा नहीं था कि उन्हें पता नहीं था कि सत्य के संबंध में क्या-क्या कहा गया है। लेकिन कहने का सवाल नहीं, सत्य अनुभव का सवाल है। और अनुभव अपने को दांव पर लगाने से उपलब्ध होता है, उसके पहले उपलब्ध नहीं होता। तो धार्मिक आदमी इस जगत में सबसे बड़ा साहसी आदमी है। उससे बड़ा एडवेंचरर कोई भी नहीं है।
लेकिन हम तो देखते हैं धार्मिक लोगों को अत्यंत कमजोर, घुटने टेके हुए, हाथ जोड़े हुए। यह धार्मिक आदमी की शक्ल नहीं है। यह परमात्मा से कोई काम लेने गया हुआ आदमी है। यह कनिंग, चालाक दिमाग, यह कह रहा है कि हमारा कुछ काम निपटा दो जरा, अगर तुम हमारा काम निपटा दोगे तो हम पांच आने का एक नारियल चढ़ा देंगे।
हद्द पागलपन है! भगवान को भी रिश्वत देने का इरादा हम रखते हैं। और हमारे मुल्क में अगर इतनी रिश्वत है तो उसका कारण है कि हम पहले ही से भगवान को रिश्वत देते रहे हैं। हमने सोचा, आदमी को देने में हर्ज क्या है? जब भगवान तक रिश्वत से काम चल जाता है..पांच आने का नारियल चढ़ा देते हैं, लाख का काम करवा लेते हैं..तो आदमी को भी पांच आने दे दिए तो हर्ज क्या है? रिश्वत हमारे खून में मिल गई है, क्योंकि हम भगवान तक को रिश्वत देने में संकोच नहीं किए हैं।
विवेकानंद की हालत बहुत गरीब थी, बहुत खराब थी। विवेकानंद के पिता मर गए, तो कर्ज छोड़ गए थे। रामकृष्ण के पास जाते थे तो अक्सर भूखे ही घूमते रहते थे। घर में इतनी रोटी होती थी कि या तो मां खा सके या विवेकानंद खा सकें। तो मां को कह देते थे कि आज किसी मित्र के घर निमंत्रण है। तो मां रोटी खा लेती थी और वे सड़कों पर भूखे घूम कर पानी पीकर वापस आकर सो जाते थे।
रामकृष्ण को पता लगा तो रामकृष्ण ने कहा, पागल! जब इतनी परेशानी है तो भगवान से क्यों नहीं कह देता? कल आ, और मंदिर में जाकर मां से कह दे, काली से कह दे। कह दे प्रभु से हाथ जोड़ कर। सब दुख मिट जाएगा।
विवेकानंद ने कहा, आप कहते हैं तो मैं आ जाऊंगा।
वे आए, वे मंदिर के भीतर गए। रामकृष्ण बाहर बैठे हैं, वे भीतर गए। वे हाथ जोड़ कर घंटे भर खड़े रहे, आंसू बहे, लौट कर आए। रामकृष्ण ने सीढ़ियों पर पूछा, कहा?
विवेकानंद ने कहा कि अरे! वह तो मैं भूल ही गया।
कहा, पागल फिर से जा।
वे फिर भीतर गए, फिर हाथ जोड़ कर खड़े रहे, रोते रहे। फिर घंटे भर बाद लौटे। रामकृष्ण ने कहा, कहा?
उन्होंने कहा, अरे वह! वह तो मैं भूल ही गया।
रामकृष्ण ने कहा, तीसरी बार जा।
विवेकानंद ने कहा कि वह मैं तीसरी बार भी भूल जाऊंगा। क्योंकि मैं यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि भगवान के पास भी मांगने जाऊं तो रोटी मांगने जाऊं। यह मैं सोच ही नहीं सकता।
तो रामकृष्ण ने कहा, तू करता क्या है वहां जाकर? फिर क्या मांगता है? रोटी नहीं मांगता।
तो विवेकानंद ने कहा, मांगो कुछ भी, मांगना ही गलत है। वहां जाकर मैं यह कहता हूं कि मुझे ले लो, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे मिटा दो, मुझे सम्हाल लो। वहां मैं मांगता नहीं, वहां मैं देता हूं..कि मुझे ले लो किसी तरह, मुझे सम्हाल लो किसी तरह, मुझे मिटा दो, तुम्हीं रह जाओ।
तो रोता किसलिए है? उन्होंने पूछा।
तो विवेकानंद ने कहा, रोता इसलिए हूं कि शायद यह आवाज पूरी गहराई से नहीं उठती, नहीं तो स्वीकार हो जाए। शायद कहीं कोई बचाव रह जाता होगा, इसलिए स्वीकृत नहीं होती।
शिकायत यहां भी नहीं है। यही ख्याल है कि आवाज शायद पूरी तरह नहीं उठती, नहीं तो स्वीकृत हो जाए।
मिटना होगा, मिटने की प्रार्थना करनी होगी। उसके द्वार पर गिरना होगा, समाप्त होना होगा। इस मैं को बचाना छोड़ें। इस मैं को बनाना छोड़ें। इस मैं को मिटाने के ध्यान को ख्याल में लाएं, तो आपकी जिंदगी में धर्म का विस्फोट हो सकता है। और जब मैं कहता हूं कि यह विस्फोट आपके मिटने से ही होगा, इसके पहले नहीं, तो मैं कोई नई बात नहीं कहता और न मैं कोई पुरानी बात कहता हूं। मैं एक बात कहता हूं जो शाश्वत है, जो सनातन है।
सनातन का मतलब पुराना नहीं होता। सनातन का मतलब होता है कि जिसका नये और पुराने का कोई अर्थ ही नहीं है, जो सदा है। पुराने का मतलब है जो कभी था। नये का मतलब है जो कभी नहीं था। सनातन का मतलब है जो सदा है। न नया है, न पुराना है। धर्म सनातन है। सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। ध्यान रखना! धर्म सनातन है, सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। क्योंकि सनातन धर्म का तो मतलब होगा कि कुछ सामयिक धर्म भी हैं। सनातन धर्म का मतलब होगा कि कुछ क्षणिक धर्म भी हैं। सनातन धर्म का मतलब होगा कि कुछ असनातन धर्म भी हैं।
नहीं, सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। धर्म सनातन है। धर्म का होना ही सनातन है। वह इटरनल है, वह सदा है।
यह जो सनातन, यह जो सदा से एक नियम, एक सूत्र जीवन के प्राणों में बैठा है..कि जो अपने को मिटाता है वह सर्व को उपलब्ध हो जाता है..यह सनातन है, यह कोई नई बात नहीं है। लेकिन यह हर बार नई लगती है। उसका कारण है कि हर बार लोग इसे पुराना कर देने की पूरी कोशिश करते हैं। यह हर बार नई इसलिए लगती है कि इसको हर बार लोग पुराना कर देते हैं। इसे पत्थरों पर खोद देते हैं, किताबों में लिख देते हैं। इसे लोगों को कहते हैं कि हमारी पुरानी किताब में लिखा हुआ है।
उनकी किताब पुरानी होगी, यह बात कभी पुरानी नहीं है। यह बात सदा-सदा सनातन है। न पुरानी है, न नई है। इस पर धूल नहीं जमती। न यह पुरानी होती, न नई होती। लेकिन इस बात का जब वे दावा करते हैं कि हमारी किताब में है और हमारी किताब पुरानी है, तब वे इस बात को भी पुराना करने के लिए व्यर्थ ही मेहनत में पड़ जाते हैं।
और ध्यान रहे, जो पुराना हो जाता है, वह मर जाता है। और धर्म चूंकि मर नहीं सकता इसलिए कभी पुराना नहीं हो सकता। जो भी पुराना होगा, वह मरेगा। इसलिए धर्म के साथ पुराने का आग्रह मत करें।
लेकिन सारी दुनिया के धार्मिक लोग यह कोशिश करते हैं कि उनका धर्म सबसे ज्यादा पुराना। जैसे पुराना होना कोई कीमत है। परमात्मा न पुराना है, न नया है। वह सदा वही है। वह कभी पुराना नहीं होता और नया भी नहीं होता। लेकिन हम शास्त्र निर्मित करके इसे पुराना कर देते हैं। इसलिए जब दुबारा बात आती है तब फिर हमें कठिनाई शुरू हो जाती है कि कहीं यह कोई नई बात तो नहीं है? हम नई से इतने भयभीत होते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। नये से इतना भय क्या है? अगर नये से भयभीत हैं तो परमात्मा से तो बहुत भयभीत हो जाएंगे। क्योंकि परमात्मा जब मिलेगा तो उससे ज्यादा नया क्या है! उससे ज्यादा फ्रेश क्या है! उससे ज्यादा ताजा क्या है! जब वह मिलेगा तब तो आप बहुत घबड़ा कर भाग जाएंगे। आप कहेंगे, हम तो अपनी पुरानी खोल में छिप जाते हैं। यह तो बड़ा नया मालूम होता है। यह तो बिल्कुल नया है, जैसे सुबह की ओस, जैसे सुबह की धूप। यह तो सदा-सदा नया है। यह तो कभी बासा नहीं होता। इस पर धूल नहीं जमती।
लेकिन धर्म तो बासा नहीं होता, धर्मग्रंथ जरूर बासे हो जाते हैं। क्योंकि वे आदमी की लिखी हुई किताबें हैं, वे तो पुरानी पड़ेंगी।
मैंने सुना है, एक घर में एक आदमी डिक्शनरी बेचने आया है, शब्दकोश बेच रहा है। और घर की गृहिणी ने उसे टालने को कहा कि हमारे पास तो शब्दकोश है, डिक्शनरी है। तुम ले जाओ।
उसने कहा, कहां है?
सामने ही टेबल पर एक मोटी किताब रखी थी, तो उसने कहा कि वह रही।
उस आदमी ने कहा, माफ करिए देवी जी, वह डिक्शनरी नहीं है।
उस औरत ने कहा, पागल हो गए, तुम्हें इतनी दूर से कैसे पता चलेगा?
उसने कहा, मैं कह सकता हूं वह कोई धर्मग्रंथ है, डिक्शनरी नहीं है।
उसने कहा, क्या मतलब? तुमने जाना कैसे?
वह धर्मग्रंथ था। उस आदमी ने कहा, जानने का कारण है, उस पर इतनी धूल जमी है कि वह डिक्शनरी नहीं हो सकती। डिक्शनरी को तो बच्चे रोज खोलते हैं। धर्मग्रंथ बंद रखा है, धूल जमती चली जा रही है। कौन खोलता है उसे? घर में रखे हुए हैं और धूल जमा हो रही है।
उस आदमी ने कहा, मैं धूल की पर्त देख कर कह सकता हूं कि धर्मग्रंथ होना चाहिए, डिक्शनरी तो नहीं हो सकती।
धर्मग्रंथों पर धूल इकट्ठी हो ही जाएगी। असल में आदमी कुछ भी बनाएगा वह पुराना होगा। आदमी का बनाया शाश्वत कुछ भी नहीं हो सकता। आदमी की सब बनाई चीज बनती है और मिटती है। आदमी जो भी बनाएगा, बनेगा और मिटेगा।
लेकिन कुछ ऐसा भी है जो न कभी बनता और न कभी मिटता; जो सदा है। वह आदमी की बनावट नहीं है; वह आदमी के बनाने के बाहर है। आदमी खुद जहां से बनता है, वहां है वह जगह। जहां शाश्वत, सनातन नियम काम करते हैं।
उन नियमों में एक सूत्र जो मूल्यवान मुझे आपके लिए लगता है, वह मैं आपसे कहता हूं। अगर धार्मिक होना है तो अपने को मिटाने की तैयारी करना। और अगर न होना हो तो कम से कम झूठे धार्मिक मत होना। सच्चे अधार्मिक होना बेहतर है। उसका कारण है। ठीक से यह जानना कि मैं धार्मिक आदमी नहीं हूं, मैं अभी अपने को मिटाने को तैयार नहीं। अगर यह बात आपको ठीक से ख्याल में रहे कि मैं धार्मिक आदमी नहीं हूं, क्योंकि मेरी अभी अपने को मिटाने की कोई तैयारी नहीं..तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों, आपकी जिंदगी में वह पीड़ा घनी होने लगेगी, घनी होने लगेगी। अधार्मिक होना आपको दुखद होने लगेगा, पीड़ा से भर देगा। और एक दिन आपको निर्णय लेना पड़ेगा कि अब मैं धार्मिक होने का निर्णय लूं।
लेकिन हमारी तकलीफ क्या है? हमारी तकलीफ यह है कि हम अधार्मिक होते हुए अपने को धार्मिक मान लेते हैं। इसलिए धार्मिक होने का फिर मौका ही नहीं आता। जैसे कोई बीमार आदमी अपने को स्वस्थ मान ले बीमार होते हुए, तो न इलाज करता, न स्वस्थ होने की कोई कोशिश करता। वह स्वस्थ है ही।
मनुष्य के जीवन में जो बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है वह यह है कि हम अधार्मिक होते हुए अपने को धार्मिक समझे हुए हैं। और हमने धार्मिक होने की कैसी सरल तरकीबें निकाल ली हैं! एक आदमी रोज सुबह मंदिर हो आता है..या मस्जिद हो आता है, या गुरुद्वारा हो आता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता..तो वह अपने को धार्मिक समझने लगता है। जरा मंदिर से, मस्जिद से निकलते हुए आदमी की अकड़ देखें! वह और ढंग से चलता है। वह सारे लोगों की तरफ देखता हुआ चलता है..कि ठीक है, नरक में सड़ोगे। हिसाब रखता है: कौन-कौन नरक में जाएगा, कौन-कौन मंदिर नहीं गया।
मैंने सुना है कि मोहम्मद एक दिन एक लड़के को लेकर मस्जिद चले गए। उस लड़के को उन्होंने कई बार कहा था कि सुबह की नमाज में चल, सुबह की प्रार्थना में सम्मिलित हो। उस लड़के ने कहा कि मुझे तो नींद ही नहीं खुलती जल्दी। लेकिन एक दिन नहीं मोहम्मद माने तो वह उठ गया। मोहम्मद लेकर उसे मस्जिद गए, सुबह की नमाज में वह लड़का सम्मिलित हुआ। जब लौट रहा था तो उसकी चाल बदल गई। रास्ते में, गर्मी के दिन थे, अभी भी कुछ लोग अपने बिस्तरों पर सोए हुए थे। उस लड़के ने मोहम्मद से कहा, देखते हैं हजरत, ये पापी अभी तक सो रहे हैं! अच्छा यह बताइए कि नरक में इनका क्या हश्र होगा?
मोहम्मद वहीं रुक गए और उन्होंने कहा, भाई माफ कर, मुझसे बड़ी गलती हो गई जो मैंने तुझे उठा कर मस्जिद लाया, मुझसे बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुझसे एक दिन प्रार्थना में खड़े होने को कहा। कल तक तू अच्छा आदमी था, कम से कम इनको पापी तो नहीं समझता था। तू वापस जा, मुझे माफ कर, और मैं वापस मस्जिद जाऊं।
उस लड़के ने कहा, आप किसलिए जाते हैं?
उन्होंने कहा, वह मेरी नमाज खराब हो गई, क्योंकि मैंने एक आदमी को खराब किया। मैं फिर से नमाज पढूं, फिर से भगवान से प्रार्थना करूं कि माफ करना, मुझसे बड़ी भूल हो गई। एक अच्छा भला आदमी नाहक खराब हो गया। वह दूसरों को पापी समझने लगा।
एक आदमी मंदिर हो आता है, धार्मिक हो जाता है। एक आदमी सुबह एक माला खरीद लेता है, फेर लेता है, वह धार्मिक हो जाता है। एक आदमी एक किताब सुबह पढ़ लेता है, वह धार्मिक हो जाता है।
इतना सस्ता धर्म है? अगर इतना सस्ता धर्म होता तो दुनिया में अधर्म की जगह क्या थी? अधर्म बचता कहां?
नहीं, इतना सस्ता धर्म संभव नहीं। ये अधर्म को बचाने की तरकीबें हैं। ये सेफ्टी मेजर्स हैं, जिनसे हम अपने अधर्म को बचा लेते हैं। भीतर हम जो हैं, हम वही रहे आते हैं। हम वही रहेंगे ही। अगर एक आदमी दुकान पर जो था, मंदिर में जाकर दूसरा आदमी हो कैसे जाएगा? वह जो दुकान पर था, वही उठ कर मंदिर में जाता है। और मंदिर में जो है, वही लौट कर दुकान पर जाता है।
कोई खेल तो नहीं है जिंदगी कि आप मंदिर के दरवाजे पर पहुंचे, तत्काल दूसरे आदमी हो गए। भीतर गए, दूसरे आदमी रहे; बाहर निकले, दूसरे आदमी हो गए; दुकान पर बैठे, दूसरे आदमी हो गए। जिंदगी ऐसा खेल नहीं है; जिंदगी एक सातत्य है। जो आदमी दुकान पर बैठा है, वही मंदिर जाता है। और इसलिए इसकी संभावना बहुत कम है कि दुकान पर बैठा हुआ आदमी अगर गलत था, तो मंदिर में जाकर ठीक हो जाए। इसकी संभावना ज्यादा है कि दुकान पर बैठा हुआ गलत आदमी मंदिर में जाए तो वह मंदिर भी गलत हो जाए, इसकी संभावना ज्यादा है। और मंदिर उन्होंने गलत कर दिया है। वे सब तरह के अधार्मिक लोग मंदिरों में इकट्ठे होकर मंदिरों तक को अधार्मिक कर दिए हैं। वहां कोई धर्म की संभावना नहीं रह गई। स्वभावतः, आदमी इतनी आसानी से नहीं बदल जाता है। वह वही बना रहता है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरणशय्या पर पड़ा है, मर रहा है। उसकी पत्नी उसके पास बैठी है, उसके माथे पर हाथ रखे है। डर रही है, रो रही है। सारे घर के लोग इकट्ठे हैं। सांझ अंधेरा हो गया है, दीया भी नहीं जला है। तब अचानक उस आदमी ने पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है?
उसकी पत्नी ने कहा, आपके पास बैठा है।
उसको बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि यह जिंदगी में पहला मौका है कि उसने इतने प्रेम से पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है? हमेशा पूछता था: तिजोड़ी की चाबी कहां है? खाते-बही कहां हैं? फलां कहां है? यह उसने कभी नहीं पूछा कि बेटा कहां है? असल में जो पैसे के लिए पागल है, उसकी जिंदगी में प्रेम की तलाश कहां होती है जो पूछे कि बेटा कहां है? वह बहुत खुश हुई, मौत की छाया में भी उसे आनंद की झलक मिली। उसने कहा, कोई बात नहीं, आज तो इतने प्रेम से पूछा।
उस आदमी ने कहा, और उससे छोटा कहां है?
उसने कहा, वह भी बैठा हुआ है।
उसने कहा, उससे छोटा कहां है?
उसने कहा, वह भी बैठा हुआ है।
वह आदमी हाथ टेक कर उठने लगा।
उसने कहा, आप लेटे रहें, हम सब यहीं बैठे हैं। सबसे छोटा भी यहीं है।
उस आदमी ने कहा, इसका क्या मतलब? फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है? सब यहीं बैठे हुए हैं!
वह पत्नी गलत समझ रही थी, वह आदमी वही है। वह अभी भी बेटे को नहीं पूछ रहा, अभी भी पूछ रहा है: तिजोड़ी की चाबी कहां है? अभी भी दुकान पर कौन है? वह मरते वक्त भी यह पूछ रहा है। उसे इसकी फिक्र नहीं कि मैं मर रहा हूं। उसे इसकी फिक्र है कि दुकान चल रही कि नहीं चल रही?
असल में जिंदगी एक कंटिन्युटी है। अगर कल तक वह दुकान की पूछ रहा था, तो आज अचानक प्रेम की कैसे पूछ लेगा? यह अचानक नहीं हो सकता। छलांग लगानी पड़े, जंप लेनी पड़े, तो कंटिन्युटी टूटती है।
इसलिए ध्यान रखना, आप ऐसा मत सोचना कि जैसी जिंदगी चल रही है, चलती रहे, थोड़ा-बहुत धार्मिक काम करते रहो। कभी कुछ दान कर दो, कभी एकाध मंदिर में एक कमरा बना कर पत्थर लगवा दो, कभी तीर्थ हो आओ, कभी मंदिर हो आओ, कभी सत्यनारायण की कथा करवा दो, कभी कुरान पढ़ लो, कभी गीता पढ़ लो, कभी गुरुग्रंथ को नमस्कार कर लो। यह अपने को धोखा मत दे देना। इस भांति धार्मिक न हो सकोगे। धर्म मांगता है कि आओ तो पूरे आओ। वह टोटल मांगता है। असल में कोई भी प्रेम अधूरा नहीं मांगता। प्रेम कहता है..पूरे आओ! और धर्म भी कहता है..पूरे आओ! पूरी जिंदगी बदलने की तैयारी!
लेकिन वह कहां से शुरू होगी? उसका सूत्र है: वह मैं टूट जाए तो पूरी जिंदगी तत्काल बदल जाती है। यह जो हमारी जिंदगी है, मैं के आस-पास खड़ी है। मैं का केंद्र, न्यूक्लियस जो है वह टूट जाए, तो यह जिंदगी ऐसे ही बिखर जाती है जैसे कोई भी केंद्र टूट जाए तो सब बिखर जाता है। जैसे साइकिल पर स्पोक्स लगे हुए हैं, बीच में एक केंद्र पर सब जुड़े हैं। वह केंद्र टूट जाए, सब स्पोक्स बिखर जाते हैं। यह हमारी जिंदगी का केंद्र अहंकार है। और उस जिंदगी का केंद्र निरअहंकार है, धार्मिक जिंदगी का केंद्र निरअहंकार है, नॅान-ईगो। वहां नहीं रह जाए मैं, तो वहां सब बदल जाए।
लेकिन हम चैबीस घंटे मैं, मैं, मैं से ही भरे हुए हैं। हमारी श्वास-श्वास में मैं है। रोएं-रोएं में मैं है। सोते-जागते, उठते-बैठते, हिलते-डुलते हम मैं में ही जी रहे हैं। हमारा सारा का सारा व्यक्तित्व मैं है। इसलिए इस मैं में आप धर्म को एडीसन नहीं बना सकते, कि आप सोचते हों यही मैं माला फेरने लगे तो काम हो जाए। यही मैं ग्रंथ पढ़ने लगे तो काम हो जाए। यही मैं त्याग करने लगे तो काम हो जाए।
नहीं, यह काम तब होगा जब यह मैं टूटे। और यह मैं टूट सकता है। इस मैं के टूटने में सिवाय आपके और कोई बाधा नहीं है। यह मैं तत्काल टूट सकता है। एक बार इतना भर स्मरण आ जाए कि यह मैं है भी? यह जिस मैं के लिए मैं जी रहा हूं, मर रहा हूं, यह कहीं है? सच में इसकी कोई सच्चाई है? इसका कोई अस्तित्व है? अगर यह पता चल जाए तो यह तत्काल टूट सकता है।
सुना है मैंने, एक महल के पास पत्थर का ढेर लगा है। एक छोटा सा बच्चा निकला है और उसने एक पत्थर महल की तरफ फेंक दिया। जब वह पत्थर महल की तरफ उठने लगा, उसने नीचे पड़े हुए पत्थरों से कहा कि सुनो मित्रो, मैं जरा आकाश की यात्रा को जा रहा हूं।
फेंका गया था, लेकिन कहा उसने कि जा रहा हूं। फर्क कर लिया इतना। फर्क समझ लेना ठीक से। धार्मिक और अधार्मिक जिंदगी का वही फर्क है। फेंके गए हैं हम जिंदगी में, लेकिन कहते हैं..मेरा जन्म, मैं जिंदगी में आया हूं।
उस पत्थर ने कहा कि मैं जा रहा हूं आकाश की सैर को। नीचे के पत्थर कुड़मुड़ाए होंगे, कुनकुनाए होंगे, ईष्र्या से भर गए होंगे। लेकिन क्या कर सकते हैं? सोचा होगा मन में: भाग्यशाली है कोई, तब तो जा रहा है। जाना तो हम भी चाहते हैं, मगर पंख कहां? शक्ति कहां? भगवान की कृपा है इसलिए जा रहा है।
गया है पत्थर, जाकर कांच की खिड़की से टकराया महल की। स्वभावतः, जब कांच से पत्थर टकराए तो कांच चूर-चूर हो जाता है। पत्थर चूर-चूर करता नहीं है, पत्थर को कुछ करना नहीं पड़ता कांच से टकरा कर, बस कांच से टकराने पर पत्थर और कांच का स्वभाव ऐसा है कि कांच चूर-चूर हो जाता है।
लेकिन जब कांच चूर-चूर हो गया तो पत्थर ने कहा, नासमझ कांच, कितनी दफे मैंने खबर की, कितनी दफे समझाया कि मेरे रास्ते में मत आओ, मैं चकनाचूर कर देता हूं!
किया नहीं था कुछ, सिर्फ हो गई थी घटना। इट वा.ज जस्ट ए हैपनिंग, इसमें डूइंग कुछ भी नहीं थी कि उसने कुछ किया हो, कि पत्थर को कुछ करना पड़ा हो इंतजाम कांच को चकनाचूर करने में। पत्थर और कांच का स्वभाव ऐसा है कि पत्थर और कांच टकराएं तो कांच चकनाचूर हो जाता है।
लेकिन कांच के टुकड़े क्या कह सकते थे? हारे, पराजित, टूटे हुए पड़े थे। उन्होंने कहा, ठीक ही कहते हैं, भूल हो गई, आगे से ख्याल रखेंगे।
पत्थर और अकड़ गया। गिरा नीचे। कालीन बिछा था महल में, ईरानी बहुमूल्य कालीन। पत्थर ने अपने मन में कहा, बड़े भले लोग हैं। मालूम होता है मेरे आने की खबर पता चल गई, कालीन वगैरह सब बिछा कर रखे हुए हैं। विश्राम कर लूं थोड़ा।
तभी नौकर भागा हुआ आया कांच के टूटने की आवाज सुन कर। पत्थर को हाथ में उठाया। तो पत्थर ने कहा, धन्यवाद! बहुत-बहुत धन्यवाद! सोचा पत्थर ने..भवन का मालिक हाथ में उठा कर स्वागत करता है।
लेकिन नौकर तो पत्थर की आवाज न समझा, बात न समझा। नौकर ने तो पत्थर को वापस फेंक दिया।
जब पत्थर वापस खिड़की से लौटने लगा, तो उस पत्थर ने कहा, अब चलें। कितने ही हों अच्छे तुम्हारे महल, लेकिन वह मजा कहां जो खुले आकाश के नीचे पत्थरों के बीच रहने में होता है! वापस जाता हूं। और फिर उस पत्थर ने कहा, होम सिकनेस भी मालूम होती है और घर की याद भी बहुत आती है।
वह वापस अपने पत्थरों की ढेरी पर गिरा है। पत्थरों से उसने कहा कि बड़ी यात्राएं कीं, महलों में निवास किया, राजाओं के हाथों में स्वागत पाया, कालीनों पर विश्राम किया, शत्रुओं का विनाश किया, लेकिन फिर भी मन हुआ कि वापस लौट चलें, घर वापस लौट चलें। मैं वापस आ गया हूं।
उस पत्थर पर आपको जरूर हंसी आएगी। लेकिन किसी दिन अगर अपने पर भी इसी तरह हंसी आ जाए तो आपकी जिंदगी में धर्म की शुरुआत हो जाती है। गौर से समझ लेना, उस पत्थर से हम भिन्न नहीं हैं। जहां चीजें हो रही हैं वहां हम कह रहे हैं..मैं कर रहा हूं। जहां जिंदगी अपने से हो रही है वहां हम कर्ता बने हुए हैं। वह कर्तापन ही हमारा मैं बन गया है। वह मैं ही हमारे और परमात्मा के बीच में दीवाल है। उसके अतिरिक्त कोई दीवाल नहीं।
मैं को खोने को तैयार हों और परमात्मा आपसे मिलने को सदा तैयार है। आप एक छलांग लगाएं मैं के बाहर और वह सदा मौजूद है। धर्म प्रभु की खोज है। धर्म मैं का खोना है। धर्म बीज का मिटना है, वृक्ष का होना है। धर्म बूंद का मिटना है, सागर का होना है। फिर आपके हाथ में है कि बूंद ही रहना चाहें तो बूंद रह जाएं। सागर होना चाहें, सागर हो जाएं। लेकिन एक कृपा अपने पर करें कि बूंद रहते हुए सागर अपने को समझने की भूल में न पड़ें। तो किसी न किसी दिन आपकी बूंद तड़प उठेगी, प्यासी हो जाएगी, प्रार्थना से भर जाएगी और सागर की यात्रा पर निकल जाएगी।
जिस दिन भी सागर की यात्रा पर निकलना हो, चारों तरफ गौर से देख लेना..कोई खूंटी तो नाव की बंधी नहीं रह गई है! कोई हिंदू की खूंटी, मुसलमान की, सिक्ख की, जैन की, ईसाई की! कोई भारतीय की, पाकिस्तानी की, चीनी की, अमरीकी की कोई खूंटी तो बंधी नहीं रह गई है! काले की, गोरे की, अमीर की, गरीब की, स्त्री की, पुरुष की कोई खूंटी तो बंधी नहीं रह गई है! खूंटी को ठीक से देख लेना। नाव में पतवार बाद में चलाना, पहले खूंटी उखाड़ देना, जंजीर तोड़ देना। और अननोन, उस अज्ञात की यात्रा पर अगर आप खूंटियां छोड़ दें, तो रामकृष्ण के एक वचन से अपनी बात पूरी करता हूं।
रामकृष्ण कहते थे, तुम नाव तो खोलो, उसकी हवाएं ले जाने को सदा तैयार हैं। तुम नाव तो खोलो, उसकी हवाएं ले जाने को सदा तैयार हैं।
नाव बंधी पड़ी है किनारे से। कब तक इस नाव को किनारे पर ही बांधे रखिएगा? कब तक? कब तक इस दीवाल को बनाए रखना है? इस प्रश्न के साथ ही मैं अपनी बात पूरी करता हूं।
मेरी बातें इन चार दिनों में इतने प्रेम और शांति से सुनीं, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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