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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां-प्रवचन-(ओशो)

मेरा भरोसा व्यक्ति पर है

प्रश्नः पंद्रह अगस्त के दिन मैंने कहा, उसी संदर्भ में पूरे हिंदुस्तान की स्थिति स्वरूप में है, उसके लिए कौन जिम्मेवार? हमारे नेता और हम?
उसके लिए हमारे नेता जिम्मेवार हैं। लेकिन हमारे नेताओं के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। अंततः की जिम्मेवारी हमारी ही है। क्योंकि हमारे नेता हमसे कुछ अलग और भिन्न नहीं हैं। और हमने उन्हें चुना है, तो यह हमारी मनोस्थिति के प्रमाण हैं। हमारी जिम्मेवारी में, दो-चार बातें बहुत बुनियादी हैं। जैसे एक तो हमारी कोई राजनीतिक चेतना, कोई पोलिटिकल कनसनट्रेट नहीं है। आजादी की लड़ाई भी जो हम संघर्ष कर रहे थे, वह भी हमें राजनीतिक रूप से चेतन नहीं कर पाया। और न करने का कारण था कि हिंदुस्तान की पूरी परम्परा धार्मिक चेतना की परम्परा है। उसके पास कोई राजनीतिक चेतना नहीं। स्वभावतः इसीलिए हम इतने दिन तक गुलाम भी रह सके। क्योंकि हमारे धार्मिक मन को हमारी राजनीतिक गुलामी से कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि हमने स्वतंत्रता के संबंध में भी कभी सोचा है, तो वो आतीक स्वतंत्रता की बात है। हमारा शरीर भी स्वतंत्र हो, हमारा सामान्य जीवन भी स्वतंत्र हो, उसके आगे हमारी कोई कामना नहीं थी। हमारी आत्मा मोक्ष जाए, तो आत्मा तो जंजीरों में भी मोक्ष जा सकती है और जेलखाने में भी मोक्ष जा सकती है। इसलिए भारत के पास जिसको पोलिटिकल कनसनट्रेट कहें, वह है ही नहीं।

आजादी के बाद भी वह नहीं है, क्योंकि आजादी से वह नहीं जग जाएगी। तो एक तो राजनैतिक बोध की कमी हमें भारी नुकसान पहुंचा रही है। यह हमें जगाना पढ़ेगा। और हमें यह समझना पड़े कि राजनीति हमारे जीवन के सारे पहलुओं को भेदती है। चाहे वह धर्म हो, चाहे कला हो, चाहे साहित्य हो, चाहे पेट हो और चाहे मस्तिष्क। राजनीति सर्वग्राही है। राजनीति जिंदगी का एक पहलू अब नहीं रह गई, जैसे वह कभी थी। यानि जिंदगी ऐसी भी हो सकती थी कि गैर राजनीतिक हो, अब नहीं हो सकती। अब तो वह आदमी जो राजनीति में भाग नहीं लेता, वह भी अपने न लेने से भाग ले रहा है।
अगर आज एक सन्यासी राजनीति में कोई उत्सुकता नहीं लेता, तो भी उन लोगों के हित में काम कर रहा है जो चाहते हैं कि राजनीति में उत्सुकता कम लोग लें। तो यह हमें तोड़ना पड़े। और राजनीति का जो सर्वग्राही अस्तित्व है, राजनीति अब एक खंड नहीं है जीवन का, अब सारे जीवन को उसने आग्रहित कर लिया। यह बोध पैदा करने की जरूरत है, वह भारत के मन में नहीं है।
दूसरी बात, आजादी की लड़ाई में कई तरह की भ्रांतियां पैदा की हैं। एक तो भ्रांति यह पैदा की कि आजादी की लड़ाई में हमें ऐसे सपने दिखाए जो झूठे, मिसाल के तौर पर ऐसा हमारे मन में आजादी के संघर्ष के दिनों के नेताओं ने यह भाव पैदा किया, जैसे अंग्रेज की गुलामी ही सब बीमारियों का कारण है। अंग्रेज गया कि सब बीमारियां गईं। सब बीमारियों का कारण अंग्रेज हैं। तो अंग्रेज गया कि बीमारियां गईं। फिर जैसे हमें कुछ और करना नहीं है। एक काम हमने कर लिया कि अंग्रेज चला गया, तो बात खत्म हो गई, क्योंकि बीमारी उसकी वजह से थी। लेकिन यह बात झूठ है। सच बात तो यह है कि हमारी बीमारियों की वजह से अंग्रेज था। हमारी बीमारियंा ज्यादा डीप रोटेड थी, अंग्रेज बहुत बाद में आया। तो अंग्रेज हमारी बीमारियों का कारण नहीं था, बल्कि हमारी बीमारियां ही अंग्रेज के हिंदुस्तान में रहने के लिए कारण थी। तो अंग्रेज तो चला गया और बीमारियां वहीं की वहीं हैं। न केवल वहीं की वहीं हैं, बल्कि अंग्रेज ने दो सौ साल तक उन बीमारियों से कई तरह से लड़ने की भी कोशिश की, वह लड़ाई भी बंद हो गई। और अंग्रेज ने एक बुनियादी भूल की थी उस लड़ाई में, वह अंग्रेज के पक्ष में नहीं थी, हमारे पक्ष में थी कि अंग्रेज ने हमें पहली बार हमारा जो पूर्वई कुआं था। उसके बाहर हमें निकाल कर बाहर खड़ा कर दिया। एक हमारा मन था क्लोज्ड, उसके सब तरफ से दरवाजे तोड़ दिए। मेरी अपनी समझ में, अगर अंग्रेज भारत को पाश्चात्य ढंग की शिक्षा न देते, तो भारत अनंतकाल तक गुलाम रह सकता था। क्योंकि जैसे ही उन्होंने पश्चिमी ढंग की शिक्षा दी, हमारे मन में पश्चिमी मूल पहली दफा जाग्रत हुआ। स्वतंत्रता, लोकतंत्र यह सारी की सारी मूल भावनाएं हम पश्चिम से लाए हैं।

प्रश्नः उन्होंने तो जैसे यह पश्चिमी शिक्षा यहां दाखिल की, तो वह तो उनके लिए कारक पैदा करने के लिए ही की थी। उस वक्त तो उनको ये ख्याल न होगा कि हिन्दुस्तान वाले इतनी तरक्की करेंगे?

नहीं, तरक्की तो कुछ खास नहीं की। लेकिन मैकाले को, मैकाले ने कोई यह शिक्षा यहां इन्ट्रोड्यूज्ड की थी, कि हिन्दुस्तान विकसित हो जाएगा, इसलिए की थी कि उनकी मशीनरी ठीक चल सके। लेकिन मैकाले हिन्दुस्तान की आजादी का पिता है, गांधी नहीं।

प्रश्नः उसे इतना खयाल नहीं आया होगा कि यह लोग पढ़ते-पढ़ते इतना आगे बढ़ जाएंगे? जो हमसे भी टक्कर लेंगे।

नहीं, यह कारण नहीं है। उन्हें कुछ और बातों का ख्याल नहीं हुआ। जैसे भारत के पास एक संतोष की लंबी परंपरा है। असंतोष भारत के लिए कोई मूल्य नहीं रहा। संतोष ही मूल्य है। सब स्थितियों में दुःख, पीड़ा, गुलामी कुछ भी हो, हम संतुष्ट हैं। पश्चिम में पिछले तीन सौ वर्षोंं में असंतोष के एक नए स्वर ने जन्म लिया। किसी चीज से संतोष नहीं है। इसलिए हर चीज को बदलना है। असंतोष अंततः क्रांति बना। हमारे लड़के भी पश्चिम जाके शिक्षा लेकर आए और असंतोष का स्वर लेकर आए। उस असंतोष के स्वर ने ही यहां भी क्रांति की और स्वतंत्रता की बात पैदा करनी शुरू की।
दूसरी बात, पश्चिम की शिक्षा ने पहली दफा, हिन्दुस्तान का जो बंद दिमाग था, उसके बाहर भी दुनिया है, उसका ख्याल दिया। अंग्रेजी के माध्यम से हम पहली दफा सारी दुनिया से संबंधित हुए। इस संबंध ने पहली दफा तुलना पैदा की। और हमें पता लगा कि हम कहां खड़े हैं? और साथ ही पश्चिम की समृद्धि, पश्चिम का लोकतंत्र, उसको जब देखकर हमारे बच्चे लौटे हैं, स्वभावतः उनके मन में ख्याल उठा कि यहां भी यह सब होना चाहिए। मजे की बात यह है अंग्रेजों से हिन्दुस्तान नहीं लड़ रहा था। अंग्रेजों से अंग्रेजों के पढ़ाए हुए लड़के ही लड़ रहे थे। पूरा हिन्दुस्तान लड़ाई लड़ा भी नहीं है आजादी की। सिर्फ अंग्रेजी शिक्षित वर्ग अंग्रेजों से लड़ा है। पश्चिम के साथ हमारा जो संबंध था, जिसने हमें सबल भी किया, स्वतंत्रता का बोध भी दिया, एक राजनीतिक चेतना की थोड़ी झलक भी दी। आजादी के बाद वो भी खो गई।
आजादी के बाद फिर हमने अपने पूरे के भीतर बंद होने की कोशिश की। उसको कोई भारतीयकरण कहे, उसके कुछ और नाम दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, या नाम न भी दे, फिर भी हम अपने गड्ढे में वापिस पहुंचने की कोशिश की हैं। अंग्रेजी को भी बाहर निकालो, पाश्चात्य शिक्षा को भी बाहर निकालो, पश्चिमी ढंग भी मत जियो, पश्चिमी ढंग के कपड़े भी मत पहनो। हमने धीरे-धीरे, फिर से अपने पूरे को मजबूत किया है और अपनी दीवालें मजबूत की हैं। इसकी वजह से ये बीस वर्ष हमारी चेतना के विकास के वर्ष नहीं हो सके।
भारत का जो नेतृत्व है, और जो राजनैतिक दल हैं, इन सबकी मनोस्थिति भी, मुझे चर्चिल का एक वक्तव्य ख्याल में है कि पंद्रह अगस्त, उन्नीस सौ सैंतालीस को आजादी के बाद चर्चिल ने एक वक्तव्य दिया, और उसने कहा कि आजादी आप दे रहे हैं, लेकिन हिंदुस्तान बीस साल के बाद वहीं होगा, जहां से मुगलों से हमने लिया था। इतना वापिस खड़ा हो जाएगा अपनी जगह पर। इतने खंड होंगे, इतना उपद्रव, इतना झगड़ा और कन्यूजन होगा। चर्चिल की भविष्यवाणी सही होती मालूम पड़ रही है। और ऐसा नहीं लगता कि आजादी मिलने से हमने कोई विकास किया है, बल्कि ऐसा लगता है कि किन्हीं मामलों में हम पतित हुए हैं, जैसे, आजादी के पहले कम से कम गुलामी के कारण ही सही भारत के जीवन में एक तरह का अनुशासन था। आजाद होकर वो अनुशासन सब नष्ट हुआ। यानि हमें ऐसा लगा क्योंकि हम स्वतंत्र हो गए हैं, इसलिए सड़क पर ट्रैफिक के नियम भी मानने की कोई जरूरत नहीं है।
मैंने सुना है कि रूस में जब पहली दफा क्रांति हुई तो क्रांति के बाद एक बूढ़ी औरत बीच सड़क पे चल रही थी। और एक ट्रैफिक के आदमी ने कहा कि तू कहां चल रही है? तो उसने कहा कि अब हम स्वतंत्र हैं। अब कोई नियम लागू नहीं होता। अब वो गए जार के दिन जबकि बाएं या दाएं चलना पड़ता था। करीब-करीब हमारे मन पर ऐसा हुआ कि गुलामी की वजह से जो-जो रोग हमारे दबे थे, और प्रकट नहीं हो पाते थे, वह सब-के-सब रोग एक साथ प्रकट हो गए। स्वतंत्रता ने अंग्रेजों को तो हटाया, हमारी एक बीमारी नहीं हटाई, बल्कि हमारी सब दबी हुई बीमारियों को उभारने का काम...। सारी बीमारियां उभर के खड़ी हो गईं। तो भारत के नेताओं ने जो भरोसा दिया था कि अंग्रेज अकेली बीमारी हैं, और उसके हटने से सब ठीक हो जाएगा। वो गलत सिद्ध हुआ। गलत था। और हमारी सारी बीमारियां जो सदा से थी हमारे भीतर, वो वापिस अपनी जगह प्रकट होकर खड़ी हो गईं।
यह सारी की सारी बीमारियां भी हिन्दुस्तान को राजनीतिक चेतना देतीं। कोई आदमी ब्राह्मण की तरह चेतन है, कोई आदमी क्षत्रिय की तरह चेतन है। हिन्दुस्तान की पूरी राजनीति जातिवाद की राजनीति है, गहरे में। ऊपर कोई कुछ भी बात कर रहा हो। गहरे में सारा मत जो है, वह मुसलमान का मुसलमान को मिल रहा है, हिन्दू का हिन्दू को मिल रहा है। और सारा-का-सारा जातिवाद भीतर काम कर रहा है। इसमें हमारी पूरी की पूरी जो राष्ट्रीय चेतना होनी चाहिए, राजनीतिक, वह चुनाव को नहीं पैदा होने देती क्योंकि चुनाव हमारे कुछ और हैं। मैं उसको वोट करूंगा, जो हमारी जाति का है।
दूसरी बात, हिन्दुस्तान के मन में हजारों साल से समृद्ध होने की कोई कामना नहीं है। इसमें दरिद्रता तृप्ति बना देती है। इसलिए जो एक आकंाक्षा चाहिए विकास की, उन्नत होने की, विस्तार की वह नहीं है। और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि जो कौम विस्तार नहीं करती, वह सिकुड़ती जाती है। और जो अमीर नहीं होना चाहता, वह गरीब होता चला जाता है।

प्रश्नः आप जो कह रहे हैं कि हमारे राजनैतिक कांशसनेस नहीं आई है। और हमारे नेताओं ने भी यह हमको सिखाया हुआ नहीं है। तो हमारे नेताओं को जान-बूझ कर यह पता था कि हमारे पास में यह राजनैतिक कांशसनेस नहीं है, इसकी हम कोशिश नहीं करें?

नहीं...। यह जान-बूझ कर पता नहीं था। हमारा नेता जो है, उसकी स्थिति बहुत कम समझ-बूझ की है। और आजादी के वक्त में जो नेतृत्व था, वह लोगों को उखाड़ने के लिए कुछ भी कह रहा था। और लोगों को लड़ाने के लिए कोई भी सपने दे रहा था। वो बहुत साफ नहीं था। क्योंकि नेताओं को भी यही ख्याल था। गांधी जी भी आजादी के बाद इतने फ्रस्टेटिड थे, जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि गांधी जी को भी यह ही ख्याल था कि जो हमने कहा है वह आजादी के बाद एकदम हो जाएगा। अमन हो जाएगा, भाईचारा हो जाएगा, शान्ति हो जाएगी, सब सुख हो जाएगा, स्वावलंबन हो जाएगा और देश सुखी हो जाएगा, और लौट जाएगा गुरू के दिनों में और रामराज आ जाएगा, यह सब ख्याल थे। हम जिन नेताओं के नीचे, पिछले पचास सालों में जिए हैं, उन नेताओं के पास भी बहुत वैज्ञानिक सूझ-बूझ नहीं थी। काव्यात्मक सूझ-बूझ थी। पोएट्री थी। तो वह पोएट्री तो काम नहीं करती। हां, पोएट्री लड़ा सकती है। कविता लड़ा सकती है। लेकिन जब ताकत हाथ में आएगी तब वह बिल्कुल इंपोटेंट सिद्ध होगी। तो क्या करिएगा कविता का? तो अगर हिन्दुस्तानी गुलाम रहता, तो हम लड़ते चले जाते और मैनर्स अपने बनाए चले जाते, और रामराज की बातें करते चले जाते। सारी कठिनाई तभी होती है, जब नेता हाथ में, उस नेता के हाथ में जो कि जनता को उभारने की तरकीब जानता था, ताकत आती, तब पता चलता कि उसको सिर्फ उभारने की ताकत पता थी। उसे और कोई क्रियेटिव मुल्क में कुछ करने के लिए उपाय नहीं था।
तो हमारे नेता की तकलीफ है, और वह तकलीफ यह है कि उसके पास कोई वैज्ञानिक सूझ-बूझ नहीं है, न समाज के जीवन के वैज्ञानिक नियमों का कोई पता है। अब जैसे कि हमारा नेता आजादी के वक्त में अगर चरखे की बात कर रहा था, तो हमने कभी भी नहीं सोचा कि चरखे की बात करने वाले नेता के हाथ में अगर ताकत आ जाएगी, तो यह क्या करेगा? यह बड़ा मुश्किल में डाल देगा। यह बहुत मुश्किल, इसके पास कोई टैक्नोलाॅजिकल कोई ख्याल नहीं है। हिन्दुस्तान के जो सवाल हैं, जो कठिनाइयां हैं, जो जरूरतें हैं, वह आज चरखे से हल होने वाले नहीं हैं, उसके लिए तो बड़ा विशाल टैक्नोलाॅजिकल इंतजाम चाहिए। और चरखे की बुद्धि जिस पर थी, और जो सोचता था, चरखा कातने से हमने अंग्रेजों को भगा दिया, तो हम चरखा कातके सब बीमारियों को भगा देंगे। अब जब अंग्रेज सब भाग गया, तो और क्या बचेगा? वह गलत ख्याल में था। अंग्रेज चरखा कातने से नहीं भाग गये। और चरखा कातने से कुछ नहीं भगेगा, हम रोज बीमार होते चले जाएंगे, जींर्ण होते चले जाएंगे।
तो हिन्दुस्तान के नेता के पास एक काव्य की सूझ-बूझ जो मेरी अपनी समझ है कि हिन्दुस्तान के पास काव्य की सूझ-बूझ बहुत पुरानी है। हम कविता करने वाले लोग हैं, इसलिए हम बहुत बुरी तरह परेशान रहे। कविता भी जरूरी है लेकिन चटनी की तरह जरूरी है भोजन में, इससे ज्यादा वो जिंदगी बन जाए, तो जान ले उड़े। अगर पूरा भोजन चटनी का ही करना पड़े तो उस आदमी की मौत निश्चित है।
तो आजादी आने पर हमको पहली दफा पता चला कि हमारे पास कोई रचनात्मक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टि नहीं है। अब हम क्या करें? नेता भाषण देना जानता था, जेल जाना जानता था, लकड़ी खाना जानता था, धरना देना जानता था। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया, कि जो नेता ताकत में गए, वह बेचारे कठिनाई में पड़ गए, क्योंकि जो वह जानते थे, उससे कुछ संबंध न था अब। जो नेता उनकी ताकत में नहीं जा पाए, वह फिर धरना देना उन्होंने शुरू कर दिया, और दूसरे आंदोलन चलाने शुरू कर दिए। हिन्दुस्तान का नेतृत्व दो हिस्सों में बंट गया था। सत्ता धारी जो हो गए, उनको कुछ पता नहीं था कि अब क्या करना है? और जो सत्ता में नहीं जा सके, उनको बिल्कुल पता था कि क्या करना है? वह अपना काम जारी रखे। उन्होंने बीस साल में हिन्दुस्तान के मन को नीचे से विकृत किया। उन्होंने हर टुच्चे मुद्दों पर आंदोलन चलाए। सत्याग्रह किए कि एक कारखाना इस गांव में है तो उस गांव में हो, उसपे गोलियां चलवाई, उसपे आंदोलन चलवाए। और जो आदमी ताकत में पहुंच गया था, उसे कुछ भी पता नहीं था कि वह क्या करे? और वह आदमी तो तब एक ही रह गया कुल जमा कि वह ताकत में किस तरह बना रहे। स्वभावतः उसके पास कोई प्लान नहीं था, क्योंकि अगर उसके पास प्लान होता तो उसे ताकत में बने रहने की कोशिश न करनी पड़ती। अगर देश को वह सुख देता, समृद्धि देता और देश को भविष्य देता, तो हम उसे ताकत में बनाए ही रखते। यह कोई सवाल ही नहीं था। हां, लेकिन वह दे नहीं सका, तब उसके सामने एक ही सवाल रह गया कि जो मैं दे सकता था, देना चाहिए था, वह दे नहीं सका हूं और मुझे ताकत से हटा दिया जाएगा। तो वह ताकत पकड़.ने में लग गया। तो पूरे हिन्दुस्तान का नेतृत्व कुर्सी की पकड़-धकड़ में पड़ा हुआ है, उसे अब कोई और दूसरा प्रयोजन नहीं है। जो कुर्सी के बाहर है, वह जरूर उपद्रव करवाता है। वह कुर्सी में जाने को उत्सुक है। जो कुर्सी के भीतर वह जोर से कुर्सी को पकड़े रहता है, और उपद्रव करने वाले को तोड़ता रहता है।

प्रश्नः आजकल जो हमारे देश में प्रक्रिया चल रही है, सोशियलिज्म के नाम पर, और यह इकोनोमिक पाॅलिसी के नाम पर इसके बारे में आपका क्या ख़्याल है? यह कुछ सही तरीका है?

नहीं, यह देश को फिर झूठे सपने देना है। और यह फिर ट्रिक का उपयोग है। जैसा कि 1947 के पहले हम आजादी के सपने देखते रहे कि आजादी आने से सब कुछ आ जाएगा, हालांकि आजादी आने से कुछ भी नहीं आता, आजादी आने से सिर्फ जिम्मेदारियां आती हैं। गुलाम के ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं होती। और अगर गुलाम भूखा मरता है, तो मालिक जिम्मेदार होता है। लेकिन मालिक हट जाए तो फिर गुलाम की जिम्मेदार रह जाता है। तो आजादी के साथ सिर्फ जिम्मेदारियां आती हैं। और जिम्मेदारियां झेलने के लिए साहस और सामथ्र्य की जरूरत पड़ती है। सूझ-बूझ की जरूरत पड़ती है। वो एक सपना देकर हिन्दुस्तान का नेतृत्व चलता था। अब उनको बड़ी कठिनाई हो गई थी कि वह अब क्या करें? अब वह दूसरा सपना देना चाहते थे। और वह सपना है समाजवाद, कि समाजवाद आ जाए तो सब ठीक हो जाएगा। यह पहले सपने से भी झूठा सपना है। क्योंकि मजा यह कि समाजवाद उस मुल्क में ही आ सकता है, जहां कि संपत्ति पैदा हुई हो। हमारे जैसे गरीब मुल्क को समाजवाद की बातें करना बिल्कुल ही पागलपन है। पागलपन इसलिए कि समाजवाद का मतलब है बंटवारा, और बंटवारा होता है धन का। और धन तो होना ही चाहिए, अन्यथा हम सिर्फ गरीबी को बांटेंगे। और उससे कुछ फल नहीं होने वाला। नुकसान जरूर होगा। क्योंकि हिन्दुस्तान में जो थोड़ी बहुत संपत्ति कुछ लोगों के पास है अगर यह वितरित हो जाए, या न्यूनता में आ जाए, तो यह जो उत्पादन करते थे, इनके उत्पादन की प्रेरणा मर जाएगी। क्योंकि उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। जब सारी संपत्ति सरकार के हाथ में जानी है, और एक सीमा पर टैक्.जेशन इतना होना है कि सारा-का-सारा मुनाफा सरकार के हाथ में ही जाने वाला है, तो मुनाफे की इच्छा भी मरती है। पैदा करने की इच्छा भी मरती है, और देश कुछ पैदा कर सकता नहीं। और देश बिलकुल ही काहिल है। तो ऐसी स्थितियों में अगर समाजवाद लाया गया, कानूनी ढंग से थोप दिया गया मुल्क के ऊपर, तो हम और कठिनाई में पड़ जाएंगे, हम जो थोड़ा-बहुत पैदा कर रहे हैं, वह पैदाइश बंद हो जाएगी। सरकार के हाथ में जितना उद्योग जाता है, सबका सब हानि में चलने लगता है, फिर भी हम अंधे लोग, हम कहते हैं कि सारे उद्योग को राज्य के हाथ में दे देना चाहते हैं। राज्य जो उद्योग चला रहा है, उसमें वह अपना निकम्मापन हर तरह से सिद्ध कर रहा है। फिर भी हम सोचते हैं कि सारा राज्य के हाथ में चला जाए उद्योग, नेशनलाइज हो जाए, तो बड़े सुख की और स्वर्ग की दुनिया आ जाएगी।
अब यह फिर हम सपना देख रहे हैं। यह पहले सपने से भी ज्यादा झूठा सपना है। और समाजवाद अगर इस तरह थोप दिया गया, तो हमारा मुल्क और भी फ्रस्ट्रेशन में, और भी विषाद में घिर जाएगा। तो मेरी अपनी समझ ये है कि यह सिर्फ एक पाॅलिटिकल ट्रिक है। समाजवाद की बात को उठा कर, अब जो लोग सत्ता में हैं, वे कुछ दिन और सत्ता में रहने की चेष्टा में रहेंगे। क्योंकि यह बात दिखाई पड़ गई है कि उनकी ऊपर दौड़-धूप सबको मालूम है, पूरे मुल्क को। अब वह सिर्फ कुर्सी पकड़ने के लिए उत्सुक हैं। तो अब मुल्क को फिर धोखा देना जरूरी भी नहीं, हम कुर्सी पकड़ने को उत्सुक नहीं, हम तो कोई वाद लाने को उत्सुक हैं। हम तो समाजवाद लाने को उत्सुक हैं, इसलिए सब दांव अब समाजवाद पर लगा दिया जाएगा कि समाजवाद आ जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। मेरी अपनी मान्यता ऐसी है कि समाज की बीमारियां मल्टीकाॅजल हैं, बहुकारणीय। इसलिए इस तरह के एकांगी नारे सब खतरनाक हैं कि आजादी आ जाएगी, तो सब ठीक हो जाएगा कि समाजवाद आ जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। यह एकांगी नारे हैं। और हमें मुल्क की जो बहुआयामी पीड़ा है, उसको अनेक-अनेक मोर्चों से टक्कर लेने की जरूरत है। और फिर मजे की बात यह है कि हमारी यह ही तो तकली.फ है कि हमारे पास पूंजी नहीं है। हमारी तकलीफ यह नहीं है कि हमारे पास पूंजी है, और कुछ हाथों में। ये हमारी तकलीफ होती तो बात थी, हमारी तकलीफ यह कि हम पर पूंजी नहीं है। और जो कुछ हाथ हमें दिखाई पड़ रहे हैं, उनके पास इतनी अल्प पूंजी है, कि वह तभी तक दिखाई पड़ती है, जब तक कुछ ही हाथों में हैं, अगर वो बंटती है तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगी।
हां, बिल्कुल ही इस तरह कुछ हल होने वाला नहीं है। तो मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान को अभी पचास-सौ वर्ष कंस्टेंटली पूंजीवाद का प्रयोग करना चाहिए। और इतनी संपत्ति पैदा कर लेनी चाहिए कि पूंजीवाद का काम पूरा हो जाए। पूंजीवाद का काम समाजवाद नहीं कर सकेगा और अगर करवाना है समाजवाद से, तो फिर हमें बंदूक का उपयोग करना पड़ेगा, वह भी हम करने में कमजोर हैं। वह भी हम नहीं कर सकते।
स्टैलिन और माओ हो तो वह भी हो जाए, स्टेलिन ने कोई एक करोड़ लोगों की हत्या की विश्व में। तो अब जब इतनी हत्या के बाद सफल नहीं हो सके, तो हमारी तो कोई रास्ता नहीं, हम अहिंसावादी, और हम समाजवाद लाने में सफल हो जाएं। इस मुल्क में तो एक ही उपाय है और उपाय अगर कहीं से भी जाता है तो वाया वाशिंगटन जाता है। वह वाया मास्को नहीं जाता। समाजवाद वाया वाशिंगटन ही इस मुल्क में संभव है कि हम इस मुल्क को समृद्ध करें, समृद्धि के सारे व्यक्तिगत जो भी इन्सेंटिव हैं, उनका हम पूरा उपयोग करें, मुल्क की लिथार्जी तोडं.े। और उसके लिए हम बहुत उपाय कर सकते हैं, लेकिन समाजवाद की वजह से वो हम न कर पाएंगे, नहीं तो मेरी दृष्टि में जो आदमी जितना ज्यादा कमाता है, उस पर टैक्जीशन उतना कम होता जाना चाहिए। एक आदमी लाख रूपये कमाता है तो ज्यादा टैक्स होना चाहिए, दो लाख कमाता है, कम हो जाना चाहिए। तीन लाख कमाता है और कम हो जाना चाहिए। पांच लाख कमाता है तो टैक्स के बाहर हो जाना चाहिए, और दस लाख कमाता है तो मुल्क को उसको कुछ उपाधियां भी और सम्मान भी देना चाहिए। हमें इंसेंटिव बढ़ाना चाहिए कि लोग पैदा करने में उत्सुक हों। हम इंसेंटिव कम करने में उत्सुक हैं। यह रोक लगाओ। तो मेरी दृष्टि में समाजवाद है फीलिंग का ख्याल और मेरी दृष्टि में मुल्क को जरूरत है लोरिंग की, फीलिंग की नहीं। नीचे से हमें तय करना चाहिए कि जो आदमी सौ रूपये से कम कमाता है, वह अपराधी है। और मुल्क को कोशिश करनी चाहिए, और उस आदमी को नैतिक भावना भी देनी चाहिए कि सौ से कम कमाना तो अपराध है। और मुल्क को भी जानना चाहिए कि हम सौ से कम कमाने को अगर आदमी को मजबूर कर रहे हैं तो यह अपराध है। सौ के नीचे कोई नहीं। हमें नीचे से लोरिंग मान लेनी चाहिए कि इससे नीचे हम किसी आदमी को नहीं जीने देंगे। उसके लिए हम कोशिश करेंगे। फीलिंग हमें बांध लेनी चाहिए कि इसके ऊपर हम किसी को न जाने देंगे। हम कर रहे हैं उल्टा।
तो समाजवाद मेरे लिए फिर एक सपना है, जो यह धोखेबाज सपना है। और दस-पन्द्रह साल के लिए मुल्क को भटका जाएगा। और अगर समाजवाद की स्थिति हम नहीं ला सके, जो कि हम नहीं ला सकते, तो इसका मतलब फिर मुल्क सिर्फ सिवाय कमिश्नरों के हाथ में जाने का कोई और उपाय नहीं रह जाएगा। एक दफा मुल्क को समाजवाद का ख्याल दे दिया, इसलिए कम्यूनिज्म बहुत उत्सुक है इस बात से कि आप समाजवाद का खयाल तो दे दें, समाजवाद आप पूरा नहीं कर पाएंगे, और मुल्क को समाजवाद का खयाल मिल गया, तो कंयूनिज्म के लिए फसल काटने का मौका हो जाएगा। क्योंकि वो कहेगा कि अब हम दे सकते हैं समाजवाद। एक बात से तो हम राजी हुए कि समाजवाद चाहिए, और आप समाजवाद दे नहीं सकते, लेकिन हम दे सकते हैं। तो इंदिरा जी और उनका सारा गु्रप कम्युनिस्टों के लिए रास्ता तैयार कर रहा है। ये तो कुछ कर नहीं पाएंगे।

प्रश्नः यह सीधी-साधी बात उन लोगों के समझ में क्यों नहीं आती?

उसके कारण हैं। उनके इंवेस्ट के खिलाफ है ये सीधी-साधी बात। इंदिरा जी के पक्ष में नहीं है। क्योंकि आज कठिनाई क्या हो गई है, मुल्क में गरीब है बड़ा, तो वह है बहुमत। अमीर है अल्पतम, सबसे छोटी मायनोरिटि अमीर की है। बड़ी मेजोरिटि गरीब की है। आज गरीब की भावनाओं के अमीर के खिलाफ भड़काने से सरल और कोई काम नहीं है। अमीर के खिलाफ गरीब बुनियादी रूप से होता ही है, स्वभावतः ईष्र्या से भरा होता है। उसकी इस ईष्र्या को आज जगाया जा सकता है। और गरीबी इतनी बढ़ गई है कि अब दो ही उपाय हैं, या तो गरीब राजनेता पे टूट पड़ेगा, और कहेगा कि तुम हमें गरीब बनाए हुए हो, या राजनेता कोई और पकड़ाए इसके हाथ में कि यह तुम्हें गरीब बनाए हुए है। अब मैं क्या कर सकता हूं पूंजीपति तुम्हें चूसे जा रहा है। तो हम क्या कर सकते हैं, जब तक हम पूंजीपति को न रोकें। तो इसके उपाय खोजने की जरूरत पड़ गई। बीस साल में राजनेता ने कुछ भी नहीं किया है। तो आज मुल्क राजनेता की गर्दन पकड़ने को तैयार है कि आप ने कुछ भी नहीं किया। अब राजनेता के लिए जरूरी है कि कोई और गर्दन बता दे कि ये गर्दन है, जिसको तुम पकड़ो, हम कर ही क्या सकते हैं? यह शोषण किये चले जा रहे हैं। तो राजनेता के लिए जरूरी है कि वह धनपति को पकड़ा दे, जनता के हाथ में। सीधी-साधी बात है, लेकिन उसके हित में नहीं है। उसके लिए सरलतम यही है कि वह अमीर को पकड़ा दे गरीब के हाथ में। और गरीब को एकदम जंचती है यह बात। मजदूर को जंचती है कि वह परेशान है, क्योंकि पूंजीपति शोषण कर रहा है। जबकि सच्चाई उल्टी है, अगर यह फैक्ट्री बंद होती और पूंजीपति शोषण बंद करता तो वो परेशान नहीं होगा, मरेगा सिर्फ। क्योंकि परेशान होने के लिए भी जिंदा होना जरूरी है। वो सिर्फ मरेगा। यह पूंजीपति उसका शोषण ही नहीं कर रहा है, उसको जिंदगी बनाए रखने में भी सहयोगी हो रहा है। इसका कोई ख्ंयाल नहीं है। छोटे झोपड़े वाले को लग रहा है कि बड़े मकान वाले ने मेरे मकान को छोटा करके बड़ा बना लिया है। जबकि असलियत उल्टी है। असलियत यह है कि बड़ा मकान बन रहा है इसलिए दस छोटे मकान बन पा रहे हैं। लेकिन यह दस छोटे मकान क्रोध से भरे हुए हैं, बड़े मकान के प्रति। इनके अहंकार को चोट लग रही है। राजनेता इस मौके को नहीं चूकेगा। राजनेता को ये बात साफ दिखाई पड़ रही है, या तो खुद की गर्दन दब जाएगी या किसी की गर्दन बताओ।
तो सदा ऐसा करना पड़ता है, जैसा हिटलर को जर्मनी में करना पड़ा। जब हिटलर कुछ नहीं कर सका, तो एक ही सवाल था कि उसे स्कैप वोट चाहिए, यहूदी को खतरा हो जाएगा। यहूदी सब कर रहा है। तो यहूदी का फंसाने में सहयोग मिला। क्योंकि यहूदी सिर्फ यहूदी ही नहीं था, धनपति भी था। जर्मनी का ज्यादा से ज्यादा धन यहूदी के पास था। एक तो यहूदी था, ईसाई उसके खिलाफ थे। दूसरा वह धनपति था, गरीब उसके विरोध में था। यहूदी को फंसा दिया। यहूदी को फंसाते ही से हिटलर निश्चिंत हो गया। हिटलर निश्चिंत हो गया, और जनता की आंख यहूदी पर पहुंच गई। हिन्दुस्तान के नेतृत्व को अब वही क्षण आ गया है। और इसलिए इंदिरा जी के हिटलर हो जाने की पूरी संभावना है। पूरी संभावना है। क्योंकि ट्रिक वही हैं। अब उनको फंसा देना है अमीर को। अब उनको फंसा देना है अमीर को। अमीर को यहां गर्दन दबाने लगेगी, जनता का रूख अमीर की तरफ हो जाएगा, और जितना अमीर की तरफ जनता का रूख होगा, उतनी जनता की दीनता और दरिद्रता बढ़ेगी। कारखाने बंद होंगे, हड़तालें होंगी, सरकार घाटे में चली जाएगी। और जितना जनता दुःखी होगी उतना अमीर को पकड़वाने के लिए और तैयारियां करती चली जाएगी। और जब तक जनता अमीर से जूझे, तो नेता अपनी जगह पर सुरक्षित है। और इतनी बड़ी जनता की भावना को अपने अनुकूल लाने के लिए इससे ज्यादा सरल कोई उपाय नहीं हो सकता।
आजादी के वक्त में हिन्दुस्तान में कोई पार्टी नहीं थी। पार्टी न होने का कारण था, क्योंकि जिससे हम लड़ रहे थे, वह हम सबका दुश्मन था। इसलिए एक पार्टी काफी थी। आजादी के बाद पच्चीस पार्टियां मुल्क में हो गईं। क्योंकि अब एक दुश्मन न था। अब इंदिरा जी फिर एक दुश्मन पैदा कर रहीं हैं, जिसके खिलाफ बाकी मुल्क को इकट्ठा किया जा सके। आप अंग्रेज तो नहीं है, जिसके खिलाफ काॅमन जैलेसी जगाई जा सके। लेकिन आप पूंजीपति हैं, इसके खिलाफ काॅमन जैलेसी जगाई जा सकती है। पूंजीपति को बिल्कुल विदेशी बनाया जा सकता है। और यह बन जाएगा इसमें कठिनाई नहीं। तो यह सीधी-साधी बात, मुल्क को अहित में ले जाने वाली बात भी आज नेता को समझानी कठिन है क्योंकि नेता को साफ दिखाई पड़ रहा है कि ताली किस बात से बजती है। जनता का वोट किस बात से मिलेगा? और जनता को पता नहीं कि वह अपनी ही आत्महत्या के लिए वोट दे रही है। और जनता को कोई पता नहीं है कि वह जो कर रही है, वह उससे मुल्क मरेगा।
अब इसमें कठिनाई क्या है कि पूंजीपति जनता को समझाने में असमर्थ है। क्योंकि पूंजीपति अगर जनता को समझाने जाएगा, हम तुम्हारे पक्ष में हैं, तो जनता मान नहीं सकती। और पूंजीपति खुद ही कमजोर है, वह हिम्मत नहीं जुटा पाता, कि वह कहे हम तुम्हारे पक्ष में हैं, वह कैसे कहे मजदूर से कि वो उसके पक्ष में है? उसने कुछ भी नहीं किया है। जिससे साफ दिखाई पड़े कि वो पक्ष में है। और अगर एक पूंजीपति ने मंदिर बनवा दिए, एक पूंजीपति ने धर्मशाला बनवाई, तो वह उस विशेष पूंजीपति का दान है, पूंजीवाद का नहीं। पूंजीपति एज ए क्लास अभी भी खड़ा हुआ नहीं है। वह फुटकर है, बंटा हुआ है। और उसके पास, खुद ही वो गिल्टी काॅन्शेस से भरा हुआ है। यह बड़े मजे की बात है। कई बार लंबा प्रचार सच को झूठ कर देता है। और पूंजीपति अपराधी भाव से भरा हुआ है, यानि उसको भी ऐसा लगता है कि है तो समाजवाद ही ठीक। मेरे पास बड़े से बड़ा धनपति आता है तो वह भी कहता है कि है तो समाजवाद ही ठीक। आएगा तो वही। एक ऐसी नपुंसकता है पीछे, जो दोहरे तलों से खड़ी हो गई है। एक तो उसको अपराध का भाव, तो उसको लग रहा है मेरे पास बड़ा महल है, दूसरे के पास छोटा झोपड़ा है। तो उसको लग रहा है, मेरे पास बड़ा धन है, दूसरे के पास बिलकुल नहीं है। तो उसको भी डर तो लग ही रहा है कि मैंने कहीं से चूस लिया है। पूंजीपति को भी पता नहीं है कि पूंजीवाद शोषण की व्यवस्था नहीं है, क्रियेशन की व्यवस्था है। वो पूंजी पैदा कर रही है। इसलिए पूंजीपति कुछ कह नहीं सकता। नेतागण के फायदे हैं। और इंदिरा जी के विरोध में जो लोग हैं, उनकी भी इतनी हिम्मत नहीं कि समाजवाद के विरोध में बोलें। क्योंकि समाजवाद के विरोध में बोल कर कहीं वोट न खो जाए। इसलिए समाजवाद के विरोधी लोग भी चाहे मोरारजी हों, चाहे जनसंघी हों, और चाहे कोई और हों, वह भी भाषा समाजवाद की बोलेंगे। वह भी कहेंगे समाजवाद चािहए। बल्कि इंदिरा जी से बढ़-चढ़ कर बात करेंगे कि इतना जोर से राष्ट्रीयकरण करो।
यह एक जाल है, और इस जाल में जब तक इस मुल्क में कुछ ऐसे लोग इस जाल को तोड़ने की कोशिश न करें, जिनका कोई राजनैतिक स्वार्थ नहीं। और जिनको जनता के वोट से कोई मतलब नहीं, जो खुद पूंजीपति नहीं हैं, और जो खुद राजनीतिज्ञ नहीं हैं।
प्रश्नः शायद वह मौका आ जाए। अगर आप जैसे अभी इस प्रजा में ये कांशेसनैस ला रहे हैं कि राजनीतिक कांशसनेस क्या है? तो अगर कोई पार्टी, और कोई जनता का समूह आपको कहे कि पूरे देश में आप ये कांशसनेस फैलाने का काम करें, तो आप क्या नहीं करेंगे?
नहीं, बिलकुल करूंगा। लेकिन उस राजनैतिक पार्टी के लिए नहीं करूंगा। बिल्कुल करूंगा, लेकिन यह चेतना फैलाने के लिए ही करूंगा। और मेरी अपनी समझ यह है कि जैसे ही कोई व्यक्ति राजनैतिक पार्टी से बंध जाए, वह चेतना फैलाने का काम नहीं कर सकता। क्योंकि राजनैतिक पार्टी के अपने स्वार्थ हैं। वह उतनी दूर तक चेतना फैलाना पसंद करेगी, जितनी दूर तक उस चेतना का शोषण वो कर सके। उसके आगे नहीं। उसके आगे नहीं। अगर मुझसे कोई राजनैतिक पार्टी राजी हो तो मैं, बिल्कुल राजनैतिक चेतना फैलाने का काम कर सकता हूं, लेकिन उस पार्टी के लिए नहीं, उस पार्टी का ही मैं उपयोग करूंगा, राजनैतिक चेतना फैलाने के लिए। और ऐसी कोई सीमा नहीं है, जिसमें मैं राजनैतिक चेतना को रोकने को राजी हूं।
जनसंघी एक सीमा तक फैलाना चाहेगा। कांग्रेसी दूसरी सीमा तक फैलाना चाहेगा। कम्युनिस्ट तीसरी सीमा तक फैलाना चाहेगा। लेकिन मैं असीम राजनैतिक चेतना चाहता हूं। मुझे इसकी फिकर नहीं है कि कौन पार्टी है। मुझे इसकी फिक्र है कि मुल्क राजनीतिक रीति से बुद्ध हो, तो गलत पार्टी नहीं चुनी जाएगी। मुझे इससे मतलब नहीं कि कौन सी पार्टी चुनी जाए और अगर मुझे इससे जरा भी मतलब है कि यह पार्टी चुनी जाए, तो फिर मैं उसी सीमा तक मुल्क की राजनैतिक चेतना को जगाने की कोशिश करूंगा, जिस सीमा तक वह पार्टी चली जाए। और सब पार्टियों की सीमाएं हैं। राजनैतिक चेतना की कोई सीमा नहीं। तो मैं शुद्ध रूप से राजनैतिक चेतना फैलाना चाहता हूं। तो मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं कि मुल्क क्या निर्णय लेता है, मैं कहता हूं कि मुल्क निर्णय होश से ले। इससे .ज्यादा मुझे प्रयोजन नहीं है।

प्रश्नः मुल्क कभी होश से निर्णय ले सकेगा?

ले सकता है।

प्रश्नः का स्टैंडर्ड तो वही नीचा होता है?

बिलकुल होता है नीचा, लेकिन उसको नीचा रखने के हमने सब इंतजाम किए हैं। इसलिए वह नीचा है। अन्यथा नीचा नहीं रहेगा। जैसे-हुआ क्या है, हमेशा से वह सारे लोग, जो सत्ता में हैं, चाहे धर्म की सत्ता हो, चाहे राज्य की हो, चाहे धन की हो। जो भी सत्ता में हैं वह भीड़ की चेतना को बढ़ने नहीं देना चाहते हैं। वह भीड़ की चेतना को दबा कर रखते हैं। और भीड़ को भीड़ बना कर रखते हैं। मेरा प्रयास यही है कि भीड़ नहीं है, एक-एक व्यक्ति के पास चेतना है। और उस चेतना को अगर जगाया जा सके, जो कि जगाई जा सकती है, लेकिन उसे मैं तभी जगा सकता हूं जब मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं। अगर मेरा जरा ही निहित स्वार्थ है, तो मैं भी चाहूंगा कि भीड़-भीड़ रहे। क्योंकि कल उसकी जागी हुई चेतना मेरे स्वार्थ के विपरीत भी पड़ेगी।
इस मुल्क में अब कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है, जिनका कोई राजनैतिक स्वार्थ नहीं है। जिनका कोई आर्थिक स्वार्थ भी नहीं है। अगर मैं आज जनता से जा कर कहता हूं कि मेरी बात समझी जा सकती है, क्योंकि न मैं उससे वोट मांगने कभी जाता हूं, न कोई पार्टी बनाने कभी जाता हूं , अगर आज मैं पूंजीवाद की बात भी करूं तो उसको समझ में आ सकती है क्योंकि न मैं कोई फैक्ट्री चलाता हूं, न मैं कोई पूंजीपति हूं, न मैं कोई धन इकट्ठा करता हूं।
इस मुल्क को ऐसे दस-पचास विचारशील आंदोलनों की जरूरत है, जिनका कोई निकटतम लक्ष्य ही नहीं है। जिनका सिर्फ एक ही लक्ष्य है कि मुल्क जो भी निर्णय करेगा, उसके पास एक बोध हो और उस बोध के बाद जो भी निर्णय हों, हम उसके लिए राजी हैं। मुझे पर्टिकुलर निर्णय की जरूरत नहीं है। निर्णय बोधपूर्वक किया जा सके इसकी फिक्र है, और जनता इसके लिए बिल्कुल जगाई जा सकती है। अगर हम जनता को गलत चीजों के लिए सचेत कर सकते हैं, तो ठीक चीजों के लिए भी सचेत कर सकते हैं। अब जब जनता समाजवाद के लिए सचेत हो सकती है, चिल्ला सकती है कि समाजवाद चाहिए, तो हम जनता को यह भी समझा सकते हैं कि समाजवाद चाहिए, इसका इसका मतलब तुम्हें पता है, कि उसका क्या मतलब होगा? और अगर वो मतलब स्पष्ट किया जा सके, जो कि एक सच्चाई है, तो जनता उसके लिए भी जगाई जा सकती है।

प्रश्नः ऐसी चेतना जगाने का काम आज से पहले किसी हमारे नेता ने या धर्म पुरूष ने या कोई विचारक ने अपने देश में किया है?

नहीं किया, उसका कारण है। हमारे देश का कोई भी धर्म गुरू अब तक विशेष धर्म से बंधा हुआ व्यक्ति है। या जैसे बुद्ध जैसा व्यक्ति अगर पैदा भी हुआ जो किसी विशेष धर्म से बंधा हुआ नहीं था, तो बुद्ध के मरते ही जो परंपरा खड़ी हुई, वो बुद्ध से बंधी हुई थी। उसने बुद्ध धर्म बना दिया। इस हिन्दुस्तान में चाहे राजनैतिक, चाहे धार्मिक, एक आॅर्गेनाजेशन, एक संगठन, एक संप्रदाय, एक चर्च खड़ा हो गया। और उस चर्च के अपने स्वार्थ होने शुरू हो गए। इसलिए मैं इस संबंध में भी बहुत सचेत हूं कि मेरा कोई अनुयायी न हो, और मेरा कोई पंथ न हो, और मेरा कोई संप्रदाय न हो। मैं मरूं तो बिल्कुल मर जाऊं, मेरे पीछे कोई नामलेवा भी न हो।

प्रश्नः खामखां इतनी तकलीफ उठा रहे हैं, आपने यह जो किया है, वह इसको कौन चलाए रखेगा?

यह जो मेरी दृष्टि है, मेरा मानना ही यह है, कि जो मैं कर रहा हूं अगर वह सच है, तो संगठन उसको नहीं जगाए रख सकता, क्योंकि संगठन उसी सच के आधार पर अपने स्वार्थ खड़े कर लेगा।

प्रश्नः आप कहते हैं, अगर आप जो कर रहे हैं अगर सच है, मतलब क्या आपको अभी भी भरोसा नहीं कि आप जो कर रहे हैं वह सच है?

मुझे तो पूरा भरोसा है, लेकिन मेरा भरोसा आपको संक्रामक न हो जाए। इसलिए मैं सदा अगर कहता हूं। मुझे तो पक्का भरोसा है। लेकिन जब मैं आपसे बात कर रहा हूं तो आपके लिए वह सच, मेरा सच आपके लिए सच तब तक नहीं होना चाहिए जब तक वह आपके चिंतन और आपके बोध का हिस्सा न हो जाए। तब तक मैं यदि की बात करता हूं। आपके लिए वह अगर है। और अगर मैं कहता हूं कि नहीं बिल्कुल सच है जो मैं कह रहा हूं, वह बिल्कुल सत्य है, तो मैं आपको फाॅलोवर बनाने की कोशिश में लग गया। इसलिए मेरी प्रत्येक बात के साथ अगर लगा ही हुआ है। उसमें मेरी तरफ से कोई कमी नहीं है। लेकिन जिससे मैं कह रहा हूं वह कहीं संक्रामक न हो जाए। मेरा भरोसा कहीं उसका भरोसा न बन जाए। जो विरोध हो जाता है, अगर हम बहुत जोर से बोलें तो दूसरा आदमी मान लेता है, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, नहीं इतने जोर से कैसे कह रहे हैं? हैजिटेट करते हैं तो दूसरा आदमी भी सोचता है, नहीं तो सोचता नहीं। तो अब दुनिया को जिन लोगों को विचार देना है उनको हैजिटेशन के साथ देना है। उन्हें डाॅगमैटिक असेप्शन के साथ नहीं देना है। उनको ये नहीं कहना है कि जो मैं कह रहा हूं, वह परमात्मा की आवा.ज है, तुम्हें सिर्फ मान ही लेना है और कुछ नहीं करना है। इसी से नुकसान हुआ है।
तो न मैं किसी पंथ, न किसी संप्रदाय, न किसी पार्टी, न किसी मत, मेरा भरोसा व्यक्ति पर है। और व्यक्ति की गरिमा पर मेरी श्रद्धा है। और मैं मानता हूं, अगर मेरी बात ठीक है, तो कुछ व्यक्तियों को जरूर ठीक लगेगी। और वे व्यक्ति काम जारी रखेंगे। लेकिन वह भी व्यक्ति की हैसियत से काम जारी रखना है। उसको अब श्रृंखला नहीं बनानी है। श्रृंखला बनते ही बात मर जाती है। और श्रृंखला बनते ही बात स्वार्थ पैदा करती है।
अब जैसे कि समझे कि बुद्ध ने कहा, बुद्ध ने, इसके बाद बुद्ध के मठ बन गए, विहार बन गए। अब इन मठों और विहारों को चलाना है, तो एस्टैब्लिशमेंट शुरू हुए। इनके लिए धन भी चाहिए, धनियों का सहयोग भी चाहिए। तो फिर बाद के मठों और बाद के संयासियों को जो बुद्ध के पीछे आए, उनको रोज-रोज समझौता करना पड़ा। रोज-रोज समझौता करना पड़ा।

प्रश्नः अब कभी भी आपको धन की जरूरत नहीं पड़ती?

नहीं, मुझे बिलकुल नहीं पड़ती। आपके घर सोता हूं, आपके खाना खा लेता हूं। बात खत्म हो गई। जब तक आपको लगता है यह आदमी खाना देने योग्य बात करता है, आप दे देते हैं, नहीं तो बात खत्म हो गई। किसी दिन दूसरे के घर ठहरता हूं, तो वह मुझे खाना दे देता है। मुझे कोई धन की जरूरत नहीं।

प्रश्नः मिसाल के तौर पर आपके यह सब जो विचार लोगों में फैल रहे हैं, पुस्तकों के रूप में? वह सारे मेरे मित्र हैं, जैसे आपको ठीक लगता है, मेरी एक किताब लोगों तक पहुंचा देनी तो आप फिक्र कर लेते हैं। तो यह सब अनस्टैब्लिश है।

प्रश्नः अगर कल आपको खाना न मिले तो आप हमारे साथ बात कैसे करेंगे?

जब तक वह कर सकूं बिना खाना किये करता रहूंगा, फिर मैं मरना पसंद करूंगा, बजाय बात करने के। मगर खाने के लिए समझौता नहीं करूंगा।

प्रश्नः आज सुबह मैंने आपसे लैक्चर सुनी है, और आप मरने की बात कर रहे हैं?

हां, मैं इसलिए मरने की बात कर रहा हूं , कि मैं जो कह रहा हूं उसमें अगर मुझे समझौता करना पड़े, तो मैं जीने की बजाय मरना पसंद करूंगा। अगर आपका खाना शर्त के साथ आए मेरी तरफ, तो मैं मरना पसंद करूंगा। बेशर्त जिंदा रहना पसंद करूंगा, सशर्त जिंदा रहने का मुझे कोई अर्थ मालूम नहीं पड़ता।

प्रश्नः आप अभी तक जिंदा क्यों रहते हैं, और यह दुनिया में रखा भी क्या है?

इस दुनिया में बहुत कुछ रखा है, और इस दुनिया में जिंदा रहने का भी बहुत कुछ अर्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इस दुनिया में न पाया जा सके। और जो कुछ भी पाया गया है, चाहे दुनिया के बाहर का भी कुछ पाया गया हो, तो वह भी इसी दुनिया में पाया गया है। फिर मेरी अपनी समझ यह है कि जहां तक मेरा अपना काम है, जहां तक मैं संबंधित हूं, मैं आज मर जाऊं तो मुझे कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि जो मुझे पाने जैसा लगता है, वह मुझे लगता है, मिल गया है। लेकिन इस आनंद का एक दूसरा हिस्सा भी है, और वो बांटने का हिस्सा है। आनंद के साथ एक खूबी है, एक खूबी है कि अगर वो आपको मिल जाए तो आपको उसे बांटना ही पड़ेगा। और दुःख के साथ एक खूबी है कि अगर आपको मिल जाए तो आप दरवाजा बंद रख कर कोने में बैठ जाएंगे। दुःख सिकोड़ता है, और कहता है कोई न मिले। और आनंद फैलता है, और कहता है कोई मिल जाए। आनंद बंटना चाहता है। और मजा ये है कि जितना आनंद हमें मिलकर मिलता है, उससे ज्यादा आनंद तब मिलता है जब हम उसे शेयर कर पाते हैं। जब हम उसे बांट पाते हैं। तो वह भी मेरी वजह से जिंदा है। मुझे लगती है कोई बात आनंदपूर्ण तो जब आपको मैं कह पाता हूं तो मेरा आनंद बढ़ता है वह हजार गुना ज्यादा हो जाता है। और जब वही चमक आपकी आंख में मुझे दिखाई पड़ती है, तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रह जाता। पर वह बेशर्त ही जी सकता है, उसमें कोई शर्त नहीं हो सकती।

प्रश्नः कभी आपने सुसाइड का भी खयाल आया होगा?

नहीं, मुझे कभी खयाल नहीं आया। क्योंकि जिंदगी मुझे इतनी आनंदपूर्ण मालूम होती है।

प्रश्नः जब कि आपने ये ज्ञान प्राप्त नहीं किया होगा तब ?

तब भी नहीं, उसका कारण है। उसका कारण है, क्योंकि जिंदगी को सदा जैसी वह है, उसमें क्या-क्या खोजने योग्य है, उसमें मेरा रस है। असल में सोसाइड का ख्याल ही तब हमें आता है, जब जिंदगी हमें खोजने योग्य नहीं रह जाती।
एक आदमी किसी को प्रेम करता है, और वो औरत उसे न मिल पाए, तो वह मरने की सोचता है, वह मरने की नहीं सोचता, वह असल में एक शर्त के साथ जिंदा रहने को था, वह कहता था कि यह औरत मुझे मिलेगी तो ही मैं जिंदा रह सकता हूं।
मेरी कोई शर्त नहीं है। मैं ये कहता हूं कि जिंदगी जो मुझे देगी, उसमें मैं खोजूंगा कि मेरा आनंद कितना हो सकता है। अगर मैं किसी स्त्री को प्रेम करता हूं, वह मर जाए, तो मैं नहीं मानता उस स्त्री के साथ मेरा मरना हो जाए। क्योंकि मेरे प्रेम की अनन्त संभावनाएं हैं। बल्कि और स्त्री मिल सकती है, जिसको मैं प्रेम कर सकता हूं। और शायद जब उसे मैं प्रेम करूं तब मैं सोचूं कि बेहतर ही हुआ कि वो स्त्री मर गई। नहीं तो यह स्त्री मुझे न मिल पाती। मेरा मतलब समझ रहे हैं ना आप। मैं जिंदगी जैसी है, उसमें कितना आनंद खोजा जा सकता है इसकी चूंकि चेष्टा में लगा हूं इसलिए मुझे मरने का कभी ख्याल नहीं आया। जिंदगी मुझे रोज ज्यादा रसपूर्ण मालूम पड़ी है।

प्रश्नः जब मैं बैठ कर आपके बारे में सोच रहा था तो यही ख्याल आता था कि आप जिंदे ही क्यों रहते हैं और मरने का खयाल ही क्यों नहीं आता?

यह ख्याल आता है, बिल्कुल ठीक है, यह स्वाभाविक है सवाल उठना।

प्रश्नः...साल की भी हो, तो उसके बाद आप जाएंगे जैसे महावीर और बुद्ध भी गए हैं, तो फिर दुनिया उसी की उसी रतार से चलेगी, यह उन्नीस सौ अस्सी में भी दुनिया यही रहेगी, आप खामखां में तकलीफ क्यों उठा रहे हैं?

नहीं, यह मेरे लिए तकलीफ होती तो नहीं मैं उठाता। अगर यह मेरे लिए तकलीफ होती तो आप जो कहते हैं वह ख्याल आ गया होता, मुझे मर जाना चाहिए। तकलीफ तो मैं कभी न उठाऊं। अगर मुझे लगे ये तकलीफ है, तो मर ही जाना उचित है। लेकिन ये मेरी तकलीफ नहीं है, यह मेरा आनंद है। यह मेरा आनंद है। और यह आनंद...।
एक छोटी घटना में आपसे कहूं, बुद्ध जिस दिन मरे, उस दिन उन्होंने आखिरी क्षण में अपने भिक्षुओं से पूछा कि कुछ और तो नहीं पूछना। मेरी मौत करीब आ रही है। तो भिक्षुओं ने कहा कि आपने जिंदगी में हमें इतना समझाया है कि अब कुछ पूछने को भी नहीं बचा है। तीन बार बुद्ध ने पूछा, फिर उन्होंने कहा कि ठीक है। वो वृद्ध के पीछे चले गए जहां बैठे थे, और आंख बंद करके मृत्यु में डूबने लगे, तब एक आदमी भागा हुआ आया। वो उसी गांव में रहता था, और तीन बार बुद्ध उस गांव से गुजरे थे, लेकिन अपनी दुकान पर व्यस्त था और लोगों ने उससे कहा भी था, तो उसने कहा अगली बार जब आएंगे तो आ जाऊंगा, आज तो बड़ा काम है। आज उसको पता चला कि बुद्ध मरने के करीब हैं तो वो वहां उठ कर भागा हुआ आया। आके उसने कहा कि बुद्ध कहां हैं? मुझे उनसे कुछ पूछना है। भिक्षुओं ने कहा, अब चुप रहो, अब तो उन्होंने आंख भी बंद कर ली। अब उचित नहीं है, वह खोज भी चुके और हम मना भी कर चुके। लेकिन बुद्ध उस वृक्ष के पीछे से वापिस लौटकर आ गए। और उन्होंने कहा, जब तक मैं जिंदा हूं तुम मुझे इस आनंद से वंचित मत करो कि एक आदमी आया तो उसे मैं कुछ और दे जाऊं।
मेरे लिए वो तकलीफ नहीं है। मरने के आखिरी क्षण में भी अगर मुझे पता चल जाए कि आप आ गए तो मैं उठ के बैठ जाऊं कि दो बातें और हो लें। मेरे लिए जिंदगी एक शेयरिंग है।

प्रश्नः जो अपने यह जिंदगी अपनी मर्जी से तो ली नहीं है?

नहीं ऐसा ख्याल नहीं है मेरा। हम जो कुछ भी कर रहे हैं, हमारी मर्जी से कर रहे हैं, बहुत बार हमारी मर्जी का भी हमें पता नहीं है, यह दूसरी बात है। कर तो सब हम अपनी मर्जी से रहे हैं। अगर मैं जिंदगी में आया हूं तो यह मेरी मर्जी है, मेरे पिछले जन्मों की मर्जी है। मुझे याद न हो यह बात हो सकती है। आपको याद न हो, यह बात हो सकती है। लेकिन इस जगत में सुख और दुख, पीड़ा और आनन्द हम सब अपनी मर्जी से ही पैदा कर रहे हैं लेकिन कठिनाई क्या है, जब हम बीज बोते हैं, और जब फल आते हैं, इन दोनों के बीच इतना फासला होता है कि हम जुड़ नहीं पाते। अगर मैं कल आपको गाली दे आया था, और आज आप रास्ते में मुझको वहां मिल कर पत्थर मार दिए तो मैं जोड़ नहीं पाता। तो आज मैं सोचता हूं इस पत्थर को तो मैंने कभी मांगा ही नहीं था, यह तो मेरी मर्जी ही न थी। बाकी आ गई, नहीं वह मेरी ही मर्जी है, क्योंकि मेरे बिना चाहे क्या हो सकता है मेरे प्रति।

प्रश्नः आप स्वीकार करते हैं, फिर भी यह मानते हैं कि पिछला जन्म और अगला जन्म और यह जन्म भी हो सकते हैं?

नहीं यह मैं मानता नहीं हूं, यह मैं जानता हूं।

प्रश्नः मतलब क्या, आप मानते नहीं हैं और जानते हैं?

मानने का मतलब है कि किसी और ने कहा है। और मैं मानता हूं। जानने का मतलब है, मैंने जाना है। और मैं मानता नहीं हूँ। इतना फर्क पड़ जाता है। और बहुत बड़ा फर्क है, बहुत बड़ा फर्क है।

प्रश्न: आप यह समझा सकते हैं बात?

यह मैं समझा सकता हूं। लेकिन समझाने से आप, मानने से ज्यादा नहीं जा सकेंगे। लेकिन दिखा सकता हूं, वहां आप जानने में भी जा सकते हैं। तो उसकी सारी प्रक्रियाएं हैं। और बिल्कुल साइंटिफिक प्रक्रिया हैं कि आप अपने पिछले जन्म का स्मरण कैसे करें?

प्रश्नः यह फिजिकल साइंसेज और यह स्प्रिचुअल साइंसेज मतलब कि आप कहते हैं कि यह जन्म है और पिछला जन्म होता है और अगला जन्म भी होगा, बैठ जाएगा आपके दिमाग में?

बिल्कुल बैठ जाएगा, क्योंकि जहां साइंस है, वहां ताल-मेल बैठ ही जाता है। अगर दोनों साइंस हैं। मानने का और साइंस का मेल नहीं बैठेगा। जानने और सांइस का मेल बैठ जाएगा। उसके कारण हैं, क्योंकि चाहे कितनी भी भीतरी बात हो उसके पाने के उपाय अगर वैज्ञानिक हैं, तो बाहर का विज्ञान आज नहीं कल राजी हो जाएगा। अभी मैं एक आॅक्सफाॅर्ड यूनिवर्सिटी में एक लेबोरेट्री है, दिलावार लेबोरेट्री। उसमें वह कुछ वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे हैं और बहुत हैरान हो गए। एक फकीर ने यह कहा कि मैं कुछ बीजों के ऊपर प्रार्थना करके पानी छिड़क देता हूं, यह बीज तुम्हारें उन बीजों से जल्दी अंकुरित हो जाएंगे, जो मेरी प्रार्थना के पानी के बिना तुमने बोए हैं। जिस पर प्रयोग किया गया है। सैकड़ों प्रयोग किये गए हैं इस बात पर, और वह फकीर हर बार सही निकला। एक ही पुड़िया के आधे बीज इस गमले में डाले गए, आधे इस गमले में। सारा खाद, सारी मिट्टी सब एक-सा और जो पानी छिड़का गया वह भी एक, पानी भी अलग नहीं। लेकिन इस गमले पर डाले गए पानी के लिए उसने प्रार्थना की और डाला, और इस पर बिना प्रार्थना के डाला गया। और हैरानी की बात है उसके हर प्रार्थना के सब बीज जल्दी अंकुरित हुए। बड़े पत्ते आए, बड़े फूल आए और उसकी गैर प्रार्थना के बीज पिछड़ गए। अब दिलावार लेबोरेट्री ने अपनी इस साल की रिसर्च रिपोर्ट में कहा कि हमें इंकार करना मुश्किल है। और इससे भी बड़ी जो घटना घटी, वह यह घटी कि उस फकीर ने एक बीज पर खड़े होकर प्रार्थना की, ईसाई फकीर है जो गले में एक क्राॅस लटकाए हुए है, और दोनों हाथ फैला कर वह आंख बंद करके खड़ा हुआ है, और इस बीज के लिए उसने प्रार्थना की। और जब उस बीज का फोटो लिया गया, तो बड़ी हैरानी की बात हुई, उस फोटो में क्राॅस का पूरा चिह्न है। तो आज नहीं, अब वह दिलावार लेबोरेट्री तो बिल्कुल वैज्ञानिक नियमों से चलती है।
अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गए। कि इस बीज के फोटोग्राफ में क्या इतनी संवेदनशीलता हो सकती है कि फकीर का चित्र उसमें भीतर प्रवेश कर गया। और उसकी छाती और उसके फैले हाथ, और क्राॅस उसमें पकड़ गया। लेकिन धर्म इसको बहुत दिन से कहता है। इतना जरूर है कि आम तौर से धर्म मानने वाले लोगों के हाथ में है, और इसलिए उन दोनों में ताल-मेल नहीं बैठता। मेरे जैसे आदमी के तो हाथ में तालमेल बैठने ही वाला है, उसमें कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मैं मानता यह हूं कि धर्म जो है वह आंतरिक विज्ञान है। और विज्ञान जो है वो बाह्य धर्म है। और इन दोनों के सूत्र तो एक ही होने वाले हैं। आज देर लग सकती है, कि विज्ञान धीरे-धीरे बढ़ कर भीतर आ रहा है। अगर धर्म भी धीरे-धीरे बढ़ कर थोड़ा बाहर आए, तो किसी जगह मिलन हो सकता है। और वह मिलन आने वाली सदी में निश्चित ही हो जाएगा। और हो सकता है इसी सदी में हो जाए।
पिछले जन्म की स्मृति उतना ही वैज्ञानिक तथ्य है, जैसे इस जन्म की स्मृति। लेकिन दोनों में थोड़े से फर्क हैं, अब जैसे अगर मैं आपसे अभी पूछूं कि उन्नीस सौ पचास एक जनवरी आप थे तो, लेकिन स्मरण है आपको? नहीं है। अगर आपकी स्मृति से ही हमको मान कर चलना पड़े तो उन्नीस सौ पचास एक जनवरी हुई या नहीं हुई, और आपको कोई स्मरण नहीं और आप कहते हैं मैं था। आप किस आधार पर कहते है कि आप थे? क्योंकि आपको बिलकुल स्मरण नहीं कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास में क्या हुआ। आप सुबह कब उठे, कब सोए, क्या खाया, क्या पीआ? किससे क्या बात की आप कहते हैं, कुछ भी नहीं। अगर आप ही प्रमाण हैं, और कोई कैलेंडर नहीं बचे दुनिया में, तो आप सिद्ध न कर पाएंगे कि एक जनवरी, उन्नीस सौ पचास थी, क्योंकि पहली तो बात यह कि आपको स्मरण ही नहीं, जो बुनियादी चीज तो कट गई है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि आपको अगर हिप्नोटाइज्ड किया जाए, तो आपको एक जनवरी, उन्नीस सौ पचास की सब स्मृतियां लौट आती हैं। तत्काल। मैं सैंकड़ो प्रयोग किया, और मैं दंग रह गया, कि आपको एक जनवरी जो आप होश में बिल्कुल नहीं बता पाते, बेहोशी में बताते हैं। वह स्मृति मिटी नहीं है। सिर्फ आपके अनकांशस में चली गई है। उसे उभारा जा सकता है। ठीक इसी भांति पिछले जन्म की स्मृतियां और गहरे अनकांशस में चली गई हैं। मां के पेट में भी जब बच्चा होता है, अगर मां गिर पड़ी हो तो उसकी चोट की स्मृति भी उसमें बनती है।

प्रश्नः वैसे वह स्मृति जीन्स के द्वारा अपने पास में आती कहां से होगी? अभी हम इस जन्म में इस मां के पेट से पैदा हुए हैं, और दूसरे जन्म में दूसरी मां के पेट में से पैदा हुए। तो यहां के जीन्स स्ट्रक्चर वही हैं, और वहां के जीन्स स्ट्रक्चर दूसरे हैं। तो दोनों का मेल कैसे...?

जीन्स का जो स्ट्रक्चर है, उससे सिर्फ बाॅडी आती है। और भी एक स्ट्रक्चर है आत्मा का, जिससे जीन के स्ट्रक्चर का कोई संबंध नहीं। इसलिए कल तो यह हो सकेगा कि जीन तो हम कैमिकली भी बना लें, लेकिन इससे भी आत्मा के लिए कोई फर्क नहीं पड़ जाएगा। इससे इतना ही फर्क पड़ेगा कि कल मां के पेट में जो प्राकृतिक रूप से तैयारी होती थी, और फिर आत्मा प्रवेश करती थी, अब इतना होगा कि लेबोरेट्री में वह तैयारी हो जाएगी, सिचुएशन पैदा हो जाएगी, आत्मा अब भी प्रवेश करेगी। आत्मा का प्रवेश और उसकी यात्रा अलग है। आपका जीन तो सिर्फ आपके शरीर को स्ट्रक्चर देता है। और शरीर की जहां तक मैमोरी का संबंध है वहां, तक वो आपकी मां की मैमोरी लाता है। आपका जो जीन है, जो सैल है पहला, वह आपके बाप और अपनी मां दोनों की मैमोरी को लाता है। आपके बाप की आंख का रंग भी उसमें होता है, आपकी मां की बुद्धि की क्षमता भी होती है। शरीर का रंग भी होता है, और ऊंचाई भी होती है। स्वास्थ्य भी होता है। वह सब लेकर आता है। वह बिल्टिनप्रोग्रील है। यह शरीर का बिल्टिनप्रोग्रील है। लेकिन जिस मैमोरी की मैं बात कर रहा हूं वह मैमोरी इस शरीर का हिस्सा ही नहीं है। इस शरीर का हिस्सा ब्रेन है, माइंड नहीं है। तो ब्रेन का तो बिल्टिनप्रोग्रेल लेकर आता है जीन, लेकिन माइंड का बिल्टिनप्रोग्रील लेकर नहीं आता। माइंड का बिल्टिनप्रोग्रील तो पिछले जन्म से आता है। और वह बिल्कुल अलग यात्रा है। और इन दोनों का मेल हैं आप।
एक आपका फिजिकल स्ट्रक्चर है, जिससे वह यात्री प्रकट होता है, जो भीतर आपके आया है। ऐसे ही जैसे यह बल्ब जल रहा है, इसमें दो स्ट्रक्चर हैं। एक तो बल्ब है और एक इलेक्ट्रिसिटी है। हालांकि बल्ब को हम फोड़ दें, तो इलेक्ट्रिसिटी एकदम नदारद हो जाएगी। और हो सकता है, कोई कहे कि एक ही स्ट्रक्चर था, बल्ब ही। क्योंकि जब बल्ब को फोड़ा तो इलेक्ट्रिसिटी कहां है? लेकिन बल्ब सिर्फ मैनिफेस्ट कर रहा था। इलेक्ट्रिसिटी फिर भी अलग थी। और उससे प्रकट होती थी।

प्रश्नः अगर हमारा शरीर यही स्तर पर रहे तो मर जाएगा, तो आत्मा के लिए तो घर नहीं बनेगा। घर नहीं रहेगा, तो उसका अलग अस्तित्व है?

अलग का मतलब केवल इतना है कि जब तक आप जी रहे हैं, तो जिसको आप हाथ कह रहे हैं, यह वही हाथ नहीं है जो मर के होगा। उसको फिर हाथ कहना गलत होगा। असल में यह हाथ एक लीविंग आॅर्गेनिज्म है। तो जब मैं कह रहा हूं, जैसे मैंने आज सुबह कहा, कि शरीर दिखाई पड़ने वाली आत्मा है, तो उससे मेरा मतलब यह है, कि एक मरे हुए आदमी का हाथ, और एक जिंदा आदमी का हाथ, जिंदा आदमी का हाथ शरीर है। मरे हुए आदमी का हाथ एक पदार्थ है। मरे हुए आदमी के हाथ को मैं हाथ भी कहने को राजी नहीं हूं। क्योंकि अब हाथ का कोई भी तो काम नहीं करता वह। न पकड़ता है, न उठाता है, कुछ भी तो नहीं करता। हाथ तो एक फंग्शन था। अब सिर्फ मैटर रह जाता है।
एक कलम को पकड़ कर मैं लिख रहा हूं, जब मैं लिख रहा हूं कलम से, तभी तक वह कलम है, क्योंकि लिखा जाना उसका बेसिक फंग्शन है। जब मैंने उसको रख दिया, तब वह कलम नहीं है। तो जो शरीर मरने के बाद रह जाता है, उसको शरीर कहना ठीक नहीं है। कहना चाहिए इतना ही सिर्फ कि इस सब पदार्थ का आत्मा ने शरीर की तरह उपयोग किया था, वह छोड़ गई इसको अब। अब न वह उपयोग बचा, न वह उपयोग करने वाला बचा। अब तो सिर्फ मैटर रह गया है, पड़ा हुआ।

प्रश्नः और फिर आत्मा छोड़के कहां आ गई। शरीर से तो बाहर निकल जाती है, बिल्कुल हो सकेगा।
प्रश्नः तो फिर उसी वक्त पर आत्मा कहां से वापस आएगी?

हां, इस सबको समझने की बात है, ना। एक तो, दस साल बाद जब वो जिंदा होगा, तो कई प्राॅब्लम्स सामने खड़े होंगे। अभी वह जिंदा हुआ नहीं, मैं मानता हूं, वह हो जाएगा। लेकिन कई प्राब्लम खड़े होंगे। पहला प्राॅब्लम तो यह खड़ा होगा कि हो सकता है उसमें दूसरी आत्मा प्रवेश कर जाए। और इसकी पर्सनैलिटि भिन्न हो। और पर्सनैलिटि तो शरीर के मरने की भी बात नहीं, अगर एक प्रेत एक आदमी में प्रवेश कर जाए तो भी पर्सनैलिटि बदल जाती है। पर्सनैलिटि के बदलने का जहां तक मामला है, पर्सनैलिटि के बदलने का जहां तक मामला है, एक आदमी में दो-तीन आत्माएं भी कभी रह सकती हैं, तो तब उसकी दो-तीन पर्सनेलिटि हो जाती हैं। और सी.ज आॅफ फ्रेनिक भी हो जाता है। तो जिस दिन हम आदमी के बचाए हुए शरीर को वापस लौटाएंगे, उस दिन कई प्राॅब्लम खड़े होंगे। हो सकता है यह आदमी दूसरा ही आदमी हो। सिर्फ शरीर उसका वही हो। और यह भी हो सकता है किसी क्षणों में कि यह उसी आदमी की आत्मा वापस लौट आए। यह भी संभावना है। क्योंकि अगर उस आदमी की आत्मा ने इतने दिन तक शरीर नहीं लिया, तो पासिबिलिटिज फिर है कि लौट आए। जैसे कि मैं यह घर छोड़ कर चला जाऊं, और अहमदाबाद में मैं घर खोजूं और मुझे घर न मिले, और एक झाड़ के नीचे बैठा रहूं, दो महीने बाद यह घर फिर अवेलेबल हो जाए, तो मैं वापस लौट आऊं। तो उसके प्राॅब्लम्स तो अलग खड़े होंगे।

प्रश्नः तो इतने वक्त तक आत्मा कहां रहेगी?

यह जो हमारा कहना है कहां, जिसको अभी हम स्पेस समझते हैं, वह स्पेस बहुत सी चीजों के लिए घर है। जैसे आप यहां बैठे हैं, लेकिन एक एक्स-रे की किरण आपको पार करके निकल जाती है, अगर एक्स-रे की किरण जानती हो तो वह पूछेगी, कहेगी यहां कोई आदमी नहीं, क्योंकि मैं तो रूकती नहीं। आप आॅप्सेक्शन नहीं हैं उसके लिए। एक प्रेत आत्मा के लिए भी आप आॅप्सेक्शन नहीं हैं। इसी कुर्सी पर एक प्रेत आत्मा भी बैठ सकती है आपके साथ। तो कहां से मेरा मतलब है किसी और लोक में चली जाती है, ना, वह ठीक इसी स्पेस में है। लेकिन बहुत दूसरे डायमेन्शन में जीती है। इसी स्पेस में लेकिन डायमेंशन और हैं। जैसे कि हम यहां बैठे हैं, उस कमरे में हवा भरी हुई है, एक रेडियो रखा हुआ है, हम रेडियो चलाते हैं, और रेडियो से आवाज आनी शुरू हो जाती है। जब तक आवाज नहीं आती है, तब भी इस कमरे से आवाज गुजरती है। इसी कमरे से।

प्रश्नः सुनाई न देने वाली आवाज?

वह गुजरती है। तरंग रहती है, लेकिन हमने रेडियो से उसे पकड़ लिया। मीडियम एक आत्मा को इसी भांति पकड़ता है। जो कि थी, लेकिन पकड़ने का उपाय न था।  

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