कुल पेज दृश्य

बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(प्राणों की प्यास) 

शायद हम जीवन के बरामदे में ही जी लेते हैं और जीवन का भवन अपरिचित ही रह जाता है। हम अपने से बाहर ही जी लेते हैं, मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो पाता है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि वह अपने से ही अपरिचित, अनजान, अजनबी जी लेता है। शायद सबसे कठिन ज्ञान भी वही है। और सब कुछ जान लेना बहुत सरल है। एक अपने को ही जान लेना बहुत कठिन पड़ जाता है। होना तो चाहिए सबसे ज्यादा सरल, अपने को जानना सबसे सुगम होना चाहिए। लेकिन सबसे कठिन हो जाता है।
कारण हैं कुछ। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि हम यह मान कर ही चल पड़ते हैं कि जैसे हम स्वयं को जानते हैं। और जैसे कोई बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, ऐसे ही हम अज्ञानी समझ लेते हैं कि ज्ञानी हैं। अपने को जानते ही हैं, इस भ्रांति से जीवन में अज्ञान के टूटने की संभावना ही समाप्त हो जाती है। सिर्फ वही आदमी अपने को जानने को निकलेगा, जो कम से कम इतना जानता हो कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। परमात्मा की खोज तो बहुत दूर है। जिन्होंने अपनी ही खोज नहीं की, वे परमात्मा को कैसे खोज सकेंगे?
और अगर परमात्मा के द्वार पर भूले-भटके पहुंच भी गए और उसने पुछवा भेजा कि आप कौन हैं जो आए हैं? तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।

शायद दरवाजे से भागना ही पड़ेगा। क्योंकि अपना भी जो परिचय न बता सके, वह परमात्मा से परिचय पाने का अधिकारी नहीं हो सकता है। और हम सब अपने को बिना जाने परमात्मा को खोजने निकल पड़ते हैं।
इस खोज से न मालूम कितनी नासमझियां पैदा होती हैं। जब कि जो अपने को खोजने जाए, उसे परमात्मा को खोजने जाना ही नहीं पड़ता है। क्योंकि जैसे ही वह अपने को जानता है, परमात्मा को भी जान लेता है। बूंद को कोई जान ले तो सागर को जानने में कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। एक छोटी सी बूंद में सागर का सारा प्राण समाया हुआ है। एक छोटी सी बूंद में सागर का सब कुछ समाया हुआ है। एक बूंद जिसने जान ली, उसने सागर को भी जान लिया। और जो बूंद को बिना जाने सागर को खोजने निकला है, उस पागल के लिए क्या कहा जा सकता है? जो बूंद को भी नहीं जान सका, वह सागर को जानने की आकांक्षा करता हो, तो वह आकांक्षा असफलता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ला सकती है।
परमात्मा को हम नहीं खोज पाते हैं, क्योंकि हम अपने को ही नहीं खोज पाते हैं। अपने को क्यों नहीं खोज पाते हैं? अपने को खोजने की प्यास भी क्यों पैदा नहीं हो पाती है?
कल मैंने कुछ बात शुरू की थी। वह आपको फिर से कहूं, वह जरूरी है आपसे कह देना। अपने को खोजने की या परमात्मा को खोजने की प्यास भी पैदा नहीं हो पाती, क्योंकि आदमी अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है।
साधारणतः हम समझते हैं कि अनुभव से हम सीखते हैं। भ्रांति है वह। बच्चे जितने अज्ञानी होते हैं, बूढ़े उनसे कम अज्ञानी नहीं मरते। मां के पेट से पैदा हुआ बच्चा और कब्र में जाता हुआ बूढ़ा, जो जानते हैं, कहेंगे, बराबर एक से ही अज्ञानी होते हैं।
नहीं लेकिन, बूढ़ा बहुत सी बातें जानता है। बच्चा बहुत सी बातें नहीं जानता। उस जानकारी, उस इनफर्मेशन के बाबत नहीं कह रहा हूं। बच्चा भी अपने को नहीं जानता, बूढ़ा भी अपने को नहीं जानता। और बाकी सब जान लेते हैं हम, बस वह एक सूत्र अनजाना रह जाता है। इसलिए कहता हूं कि अनुभव से आदमी कुछ भी सीखता हुआ मालूम नहीं पड़ता है।
कल मैं एक छोटी सी कहानी कह रहा था।
मैं कह रहा था, एक आदमी के घर में एक चोर घुस गया। उसकी पत्नी ने उस आदमी को कहा है, मालूम होता है कोई चोर है। तो उस आदमी ने उठ कर उस कोठरी में जाकर पूछा, कौन है? उस चोर ने कहा, कोई भी नहीं! नोबडी, सर! वह आदमी वापस आकर सो गया। जब कोई भी नहीं है तो व्यर्थ परेशान होने की कोई जरूरत ही नहीं।
उस रात चोरी हो गई। सुबह उसकी पत्नी ने कहा, नासमझ हो तुम! रात मैंने कहा था चोर मालूम होता है। तुमने लौट कर कहा, कोई भी नहीं है।
उस आदमी ने कहा, कैसी बातें करती हो? मैं वहां गया, मैंने पूछा भी, अपने कानों से सुना भी कि कोई भी नहीं है। तभी मैं आकर सोया।
ऐसे घर में चोर दुबारा घुसे तो बहुत आश्चर्य तो नहीं है! पंद्रह-बीस दिन बाद चोर वापस आ गया।
इस बार पुरानी भूल नहीं करनी थी। लेकिन जब हम पुरानी भूल भी नहीं करते, तो नये ढंग से सिर्फ पुरानी भूल ही करते हैं, सिर्फ ढंग बदल जाता है। आदमी अनुभव से कुछ सीखता मालूम नहीं पड़ता है। उसने जाकर चोर को सीधा पकड़ लिया और कहा कि अब मैं पुरानी भूल न करूंगा कि तुमसे पूछूं कि कौन हो? क्योंकि पिछली बार तुमने बड़ा धोखा दिया कि कहा कि कोई भी नहीं है। चोर को पकड़ कर वह पुलिस थाने की तरफ ले चला। आधे रास्ते पर चोर ने आकर कहा, माफ करना, मेरे जूते तो मैं आपके घर ही भूल आया हूं। उस आदमी ने कहा कि जाओ, जूते लेकर आओ। मैं यहीं रुका हुआ हूं। अब मैं दुबारा इतना पीछे जाने की परेशानी नहीं उठाऊंगा।
वह आदमी गया। स्वभावतः वह कभी नहीं लौटा। मालिक घर आ गया और उसने कहा कि वह चोर धोखा दे गया।
फिर कुछ दिन बाद वह चोर उस घर में घुसा। मालिक ने उसे पकड़ लिया और कहा कि ठीक से अपनी सब चीजें सम्हाल लो। ऐसा न हो कि बीच रास्ते पर कहो कि मुझे घर जाना है। पिछली बार बहुत धोखा हो गया। उस चोर ने कहा, जहां तक ख्याल पड़ता है सब चीजें मेरे साथ हैं, बेफिक्र चलें। आधे रास्ते पर उसने कहा, लेकिन माफ करिए, बड़ी भूल हो गई, कंबल तो मैं सच में ही आपके घर भूल आया हूं।
उस आदमी ने कहा कि फिर वही बात? अब तुम मुझे धोखा न दे सकोगे। अब तुम यहीं रुको, मैं तुम्हारा कंबल लेने जाता हूं।
यह आदमी हमें हंसने योग्य मालूम पड़ता है। लेकिन यह आदमी हम सबके भीतर बैठा है। हम पूरी जिंदगी वही भूलें नये-नये ढंग से दोहराते हैं। वही भूलें! नई भूल भी कोई आदमी करे तो बड़ा कीमती आदमी है। भूल भी हम पुरानी ही करते हैं, सिर्फ नये ढंग हो जाते हैं।
कल भी आपने क्रोध किया था, परसों भी क्रोध किया था, उसके पहले भी किया था, पिछले जन्म में भी किया था, उसके पहले जन्म में भी किया होगा। और हर बार कसम भी खाई है कि अब क्रोध न करेंगे। और आज भी आप करेंगे और कल भी आप करेंगे, लेकिन कभी अपने पर हंसेंगे नहीं। हर बार, हर इच्छा के पीछे दौड़ कर देखा है। और हर बार जब भी कोई इच्छा पूरी हो गई है, तभी पाया कि कुछ भी नहीं मिला है। लेकिन फिर आज आप इच्छा के पीछे दौड़ रहे हैं। कल भी आप दौड़ेंगे, कल भी आप दौड़े थे। आदमी हर बार वही भूल करता है, सिर्फ ढंग बदल जाते हैं। कल मकान चाहा था, आज कार चाहेंगे, कल कुछ और चाहेंगे। और हर बार जब चाह पूरी हुई तो पाया कि हाथ में कुछ भी नहीं आया। लेकिन आदमी भूल वही किए चला जा रहा है। हां, नाम बदल लेता है।
मैं अभी एक गांव में गया था, तो डाक्टर के घर ठहरा था। बहुत मच्छर थे। मैंने कहा, तुम्हारे गांव में डीड़ी.टी. का प्रयोग नहीं होता? तो उस डाक्टर ने कहा, होता है, लेकिन मच्छर अनुभव से सीख गए, इम्यून हो गए। अब वह डीड़ी.टी. पड़ता है तो उन पर असर ही नहीं होता! तो मैंने कहा, मालूम होता है तुम्हारे गांव के मच्छर तुम्हारे गांव के आदमियों से ज्यादा समझदार हैं। तो मैंने कहा, तुम ऐसा करो, डीड़ी.टी. का नाम बदल दो, तो शायद मच्छर धोखे में आ जाएं। लेकिन उस आदमी ने, उस डाक्टर ने कहा कि मच्छर धोखे में नहीं आएंगे, क्योंकि मच्छर बेपढ़े-लिखे हैं। पढ़े-लिखे होते तो धोखे में भी आ सकते थे। वे समझ ही न पाएंगे कि नाम बदल गया है।
आदमी नाम बदल लेता है चीजों के और अपने को धोखा दिए चला जाता है। रोज वही करता है, सिर्फ नाम बदल लेता है। कभी धन खोजता है, कभी यश खोजता है, कभी पद खोजता है। नाम बदल लेता है। हर हालत में अहंकार खोजता है..पद में भी, धन में भी, यश में भी। खोजता अहंकार है, लेकिन नाम बदल देता है। नाम बदल कर खुद को धोखा दे लेता है। आज जो भूल करता है, कल भी वही करता है, नाम बदल लेता है।
जिंदगी भर हम वही दोहराए चले जाते हैं यंत्र की भांति। रिपीटीशन है हमारी जिंदगी, एक पुनरुक्ति है, घूमते रहते हैं कोल्हू के बैल की तरह। लेकिन एक बात कभी हमारे ख्याल में नहीं आती कि यह सारी जिंदगी इस तरह जीकर हमें मिला क्या है? यह सवाल कभी उठाते भी नहीं हम। शायद डरते हैं, क्योंकि यह सवाल हमें मुश्किल में डाल सकता है।
इस सारी जिंदगी में दौड़ कर हमें मिला क्या है? हमने पाया क्या है? हमारे हाथ में क्या है? सारी संपत्ति पाकर कौन सी संपत्ति मिल गई है? और सारा यश पाकर कौन सा यश मिल गया है? और बड़े से बड़े पद पाकर आदमी को मिल क्या गया है? ये सवाल जो आदमी उठा लेगा, उसकी जिंदगी में धर्म ज्यादा दूर नहीं रहेगा। वह बहुत करीब-करीब धर्म के पास पहुंचने लगेगा। लेकिन यह सवाल भी नहीं उठाते।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या प्रभु की प्यास पैदा की जा सकती है?
पैदा की जा सकती है। लेकिन जरूरी सवाल उठाने होंगे। सबसे जरूरी सवाल यह है कि जिसे हम जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी है? जिसे हमने आज तक जीया है, वह जीने योग्य है? अगर आपको दुबारा कोई मौका दे..कि हम फिर से आपको मौका देते हैं, आप उसी जिंदगी को फिर से जी सकते हैं जिसको आप पचास साल जीए..क्या आप उस जिंदगी को फिर से जीने को राजी होंगे? मैं नहीं समझता कि एक भी आदमी राजी हो जाए। उसी जिंदगी को जिसे आप जीए हैं, अगर दुबारा आपको मौका दे दिया जाए कि फिर यह कहानी वापस दोहरती है..कि आप पैदा होंगे, वही सब करेंगे जो किया है पचास साल, साठ साल तक, चलेंगे, सब वैसा ही दौड़ेगा..तो क्या आप इसे दोहराने को राजी होंगे? आदमी दुबारा उसी फिल्म को देखने को राजी नहीं होता, उसी जिंदगी को दुबारा दोहराने को कोई आदमी राजी नहीं हो सकता है।
लेकिन अगर जिंदगी में कुछ था तब तो दोहराने को हजार बार राजी हो जाना चाहिए। लेकिन जिंदगी में कुछ है ही नहीं। पर यह हम सवाल नहीं उठाते। और जब तक हम यह सवाल न उठाएं और जब तक हमारी जिंदगी हमें व्यर्थ न मालूम पड़ने लगे, फ्यूटाइल न मालूम पड़ने लगे, मीनिंगलेस न मालूम पड़ने लगे, अर्थहीन न मालूम पड़ने लगे..जब तक हमें हमारी जिंदगी राख की तरह मुट्ठी में दिखाई न पड़ने लगे..तब तक हम परमात्मा की खोज पर नहीं जा सकते हैं। परमात्मा की खोज पर वे ही जाते हैं जिन्हें यह जीवन एकदम व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। तब वे नये जीवन की सार्थकता को खोजने को अग्रसर होते हैं।
लेकिन हम अगर परमात्मा की बात भी करते हैं तो इसी जीवन के साज-सिंगार के लिए करते हैं। किसी को मकान चाहिए तो परमात्मा से प्रार्थना करता है। किसी को नौकरी चाहिए तो परमात्मा से प्रार्थना करता है। किसी को बच्चा नहीं है तो परमात्मा से प्रार्थना करता है। कोई बीमार है तो परमात्मा से प्रार्थना करता है। हम परमात्मा का भी उपयोग इसी जिंदगी की सजावट के लिए करना चाहते हैं। इसलिए हमारी सब प्रार्थनाएं अनसुनी हो जाती हैं। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं सुनता, बल्कि इसलिए कि हमारी प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं ही नहीं हैं, सिर्फ मांगें हैं, सिर्फ डिमांड्स हैं, सिर्फ इच्छाएं हैं, सिर्फ आकांक्षाएं हैं। और उसी व्यर्थ जिंदगी के लिए सारी आकांक्षाएं हैं, जिस व्यर्थ जिंदगी को व्यर्थ समझ कर ही कोई ऊपर उठ सकता है।
अगर आपके हाथ में कंकड़-पत्थर भरे हों और हीरे-जवाहरात खोजने हों, तो आपको कंकड़-पत्थर से हाथ खाली कर लेने होंगे। लेकिन आप कंकड़-पत्थर को जोर से पकड़े रहे तो मैं कह सकूंगा कि आप हीरे न खोज पाएंगे। क्योंकि जो आदमी अभी कंकड़-पत्थरों को हीरे की भांति पकड़े है, वह हीरे पहचान भी नहीं पाएगा। जो कंकड़-पत्थर में हीरे देख रहा है, उसे हीरों में कंकड़-पत्थर दिखाई पड़ें तो बहुत आश्चर्य नहीं है।
जीवन, जिसे हमने जीया है, यह जिंदगी तो हमें याद है..और भी बहुत बार हम जीए हैं इसी जिंदगी को, वह हमें याद नहीं है..लेकिन जो हमें याद है उसको भी देखें तो बड़ी हैरानी होती है। हम क्यों जी रहे हैं? क्या आपकी जिंदगी में कभी यह सवाल, जोर से क्वेश्चन मार्क आपके सामने खड़ा हो गया है कि आप क्यों जी रहे हैं? इसी जिंदगी को आप क्यों खींच रहे हैं? कल इससे कुछ नहीं मिला, आज नहीं मिला, कल क्या मिल जाएगा?
जिस दिन यह प्रश्न आपके सामने गहरा होकर खड़ा हो जाता है, उसी दिन आपकी आंखें किसी और जिंदगी की खोज में भटकने लगती हैं। वही प्यास बननी शुरू हो जाती है। वही है प्यास। प्यास पैदा की जा सकती है।
दूसरी तरफ से भी सोचें: हम जिंदगी भर चाहते क्या हैं? चाहते हैं आनंद। मिलता है कभी? मिलता कभी भी नहीं। चाहते हैं शांति। मिलती है कभी? मिलती कभी भी नहीं। बल्कि जितनी शांति चाहते हैं उतनी अशांति सघन होती चली जाती है। और जितना आनंद खोजते हैं जिंदगी में उतना तनाव, उतनी चिंता बढ़ती चली जाती है। पूरी जिंदगी दुख का एक ढेर हो जाती है। और उस दुख पर हम ढेर पर ढेर बढ़ाते चले जाते हैं।
खोजते हैं आनंद, मिलता है दुख। जरूर हमारी खोज में कहीं कोई बुनियादी भूल है। और साधारण भूल नहीं, असाधारण भूल होनी चाहिए। क्योंकि जाते हैं आकाश की तरफ, पहुंच जाते हैं पाताल। जाते हैं स्वर्ग की तरफ, पहुंच जाते हैं नरक। खोजते हैं आनंद, मिल जाता है दुख। जलाते हैं दीये, जलता है अंधेरा। यह जो पूरी की पूरी जिंदगी है, बड़ी कंट्राडिक्ट्री मालूम पड़ती है। आदमी जो खोजता है वही नहीं मिलता है!
सिकंदर हिंदुस्तान आ रहा था। रास्ते में एक फकीर डायोजनीज से उसकी कुछ बात हो गई। डायोजनीज उस जमाने में यूनान का सबसे आनंदित आदमी था। और कहना चाहिए कि सिकंदर उस जमाने में सबसे ज्यादा दुखी आदमी था। होगा ही। हम सब छोटे-मोटे सिकंदर हैं। सब यात्राओं पर निकले हैं..जीत, विक्ट्री। कोई धन जीतने, कोई पद जीतने, कोई दिल्ली जीतने। यात्राओं पर हैं लोग।
सिकंदर बहुत दुखी रहा होगा, क्योंकि पूरी दुनिया को जीतने निकला था। असल में, जो दुखी नहीं है वह किसी को जीतने ही नहीं निकलेगा। जो आनंदित है वह जीत गया! अब वह किसको जीतने जाएगा? जो आनंदित है उसने अपने को जीत लिया, अब किसी और को जीतने की कोई जरूरत न रही। असल में, जो अपने को नहीं जीत पाया, जो अपने को नहीं जीत पाता, वह इस कमी को पूरा करने के लिए दूसरों को जीतने निकल पड़ता है। जो अपने भीतर बहुत इनफीरियर कांप्लेक्स, बहुत हीनता से भरे होते हैं, वे दूसरों को दबा कर अपनी हीनता को पूरा करने निकल पड़ते हैं।
यह बड़े मजे की बात है और बड़ी गहरी भी। जो बहुत दीन होते हैं वे धन खोजने निकलते हैं; जो बहुत हीन होते हैं वे पद खोजने निकलते हैं; जो बहुत हारे हुए होते हैं वे जीतने निकलते हैं; जिनके पास कुछ नहीं होता वे सब मांगने निकल पड़ते हैं। स्वभावतः, सिकंदर सबसे दुखी आदमी रहा होगा, सारी दुनिया को जीतने निकला था! और रास्ते में किसी ने सिकंदर से कहा कि डायोजनीज से मिलते चले जाओ, क्योंकि डायोजनीज जैसा आनंदित आदमी नहीं।
सिकंदर ने कहा, आनंद तो मैं भी खोजता हूं। तो मिल लेता हूं। लेकिन सिकंदर ने कहा कि जाओ, डायोजनीज को कहो कि मुझसे मिलने आए। तो जो खबर लाए थे उन्होंने कहा, डायोजनीज नहीं आएगा, क्योंकि डायोजनीज को पाने के लिए कुछ नहीं बचा कि वह कहीं आए। आपको जाना हो तो जा सकते हैं।
सिकंदर गया। डायोजनीज रेत पर लेटा था। सुबह की धूप निकली थी, वह आनंद से लेटा हुआ था। नग्न था। सिकंदर उसके पास खड़ा हो गया और सिकंदर ने कहा कि इतने आनंदित मालूम पड़ते हो! कैसे पाया यह आनंद?
तो डायोजनीज ने कहा, जब से बाहर खोजना बंद किया, तब से ही।
सिकंदर ने कहा, खोजना तो मैं भी चाहता हूं।
डायोजनीज ने कहा, खोज न पाओगे। क्योंकि जब भी खोजोगे बाहर खोजोगे, दूसरे में खोजोगे, कहीं और खोजोगे..समव्हेयर एल्स। वहां कभी न देखोगे जहां है।
सिकंदर ने कहा, अभी तो मैं दुनिया जीतने निकला हूं।
तो डायोजनीज ने कहा, जब दुनिया को जीत लो और समय बचे तो अपने को भी जीत लेना। नहीं तो भिखारी ही मर जाओगे।
डायोजनीज से सिकंदर विदा लेने लगा तो उसने कहा कि तुम्हारी बातें बड़ी आकर्षित करती हैं। तुम्हारा आनंद देख कर मन लालच से भरता है। चाहता तो मैं भी यह हूं! जब सारी दुनिया जीत लूंगा तो मैं भी विश्राम करूंगा।
तो डायोजनीज ने कहा, नाहक के उपक्रम में न गिरो। मैं अभी विश्राम कर रहा हूं बिना दुनिया को जीते! तुम भी आ जाओ, इस नदी के तट पर बहुत जगह है। हम दोनों ही विश्राम कर सकते हैं। इतना परेशान होकर आखिर विश्राम ही करना है तो अभी ही विश्राम करो, इतनी दौड़ क्यों लगाते हो?
सिकंदर ने कहा, बात तो समझ में आती है। लेकिन अभी तो निकल पड़ा यात्रा पर, बीच से कैसे लौट सकता हूं!
तो डायोजनीज ने कहा, एक बात याद रखना: आज तक दुनिया में यात्रा पूरी करके कौन लौटा है? सदा बीच से ही लौट जाना पड़ता है। मौत लौटा लेगी तब तुम कैसे कहोगे कि बीच से मत लौटाओ!
और कहानी बड़ी अदभुत है, सिकंदर मरा तो लौट नहीं पाया अपने देश तक। हिंदुस्तान से लौटते वक्त बीच में ही मर गया। और भी मजेदार संयोग की बात है कि जिस दिन सिकंदर मरा, उसी दिन डायोजनीज भी मरा। और कहते हैं...अब यह कहानी तो पीछे प्रचलित हो गई, लेकिन मीठी है, सच न भी हो, तो भी सच है...कि वैतरणी पार करते वक्त दोनों की मुलाकात फिर हो गई। सिकंदर आगे था, थोड़ी देर पहले मरा था। डायोजनीज पीछे था, थोड़ी देर बाद मरा था। डायोजनीज खिलखिला कर हंसने लगा, तो सिकंदर ने लौट कर देखा। आज बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि डायोजनीज उस दिन भी नंगा था, आज भी नंगा है। और सिकंदर उस दिन सम्राट के वस्त्रों में था, लेकिन आज नंगा है। वह बड़ा सकुचाने लगा।
डायोजनीज ने कहा, सकुचाओ मत, क्योंकि हम पहले ही जानते थे कि हर आदमी कपड़ों के भीतर नंगा है। सकुचावे की बात नहीं है। और इसीलिए हम पहले ही नंगे हो गए थे। इसके पहले कि कोई और वस्त्र छीने, हमने खुद ही फेंक दिए थे। मौत को हमसे छीनने के लिए कुछ भी न बचा, मौत खाली हाथ लौटी। तुमसे बहुत छीन कर लौटी। इसलिए हम आनंद से भरे आ रहे हैं और तुम रोते हुए चले आ रहे हो।
सिकंदर ने अपने मन को समझाने के लिए जोर से हंसा, कोशिश की झूठी हंसने की। और हंस कर यह कहा कि खुशी हुई मिल कर। और कैसा आश्चर्य कि एक बार हम पहले भी मिले थे और आज वैतरणी पर फिर मिल गए! और इस वैतरणी पर ऐसा कभी-कभी होता होगा कि एक सम्राट और एक भिखारी की मुलाकात हो जाती हो!
डायोजनीज फिर हंसने लगा। उसने कहा, तुम बात बिल्कुल ठीक कहते हो, लेकिन समझने में जरा भूल करते हो कि कौन सम्राट है और कौन भिखारी। सम्राट पीछे है, भिखारी आगे है। क्योंकि तुम सब खोकर लौट रहे हो, मैं सब पाकर लौट रहा हूं।
जिस जीवन में यह सवाल न उठे कि जो मैंने पाया है वह पाया है या खोया है? जिसे मैं उपलब्धि समझ रहा हूं वह उपलब्धि है या गंवाना है? जिसे मैं सफलता समझ रहा हूं वह सफलता है या असफलता का नाम है? जिसे मैं जीत समझ रहा हूं वह जीत है या हार है? जिसे मैं ज्ञान समझ रहा हूं वह ज्ञान है या सिर्फ अज्ञान को ढांक लेना है? जिस जिंदगी में यह सवाल न उठे वह जिंदगी धार्मिक नहीं हो पाती है। और हम क्या करते हैं कि हम धर्म को भी इसी जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं।
धर्म दूसरी जिंदगी है। धर्म इस जिंदगी के ऊपर, इस जिंदगी की व्यर्थता के ऊपर, इस जिंदगी की राख के ऊपर खिला हुआ बिल्कुल ही दूसरा फूल है। लेकिन वह उन्हीं के लिए खिल सकता है जिनके लिए यह सच्चाई साफ हो जाए कि अभी तक हम राख बटोरने में, बच्चों की तरह नदी के किनारे पर कंकड़-पत्थर बीनने में बिता दिए हैं।
अनुभव से आदमी नहीं सीखता, इसलिए मैंने कहा। अनुभव तो हम सबको होते हैं व्यर्थता के, रोज होते हैं, लेकिन सीख नहीं पैदा हो पाती। अनुभव सबके पास है, ज्ञान नहीं हो पाता। अनुभव से जो सीख लेता है उसके जीवन में ज्ञान शुरू हो जाता है। जो सिर्फ अनुभव को दोहराए चला जाता है उसके जीवन में ज्ञान शुरू नहीं होता।
इसलिए यह सूत्र ख्याल रख लें: अनुभव ज्ञान नहीं है, अनुभव से सीख लेने का नाम ज्ञान है। एक्सपीरिएंस इटसेल्फ इ.ज नॅाट नालेज। अनुभव स्वयं ज्ञान नहीं है। बट टु लर्न फ्रॅाम एक्सपीरिएंस। अनुभव से भी सीख लेना ज्ञान है। ज्ञान अनुभवों का निचोड़ है। जैसे इत्र होता है फूलों से निचोड़ा हुआ, ऐसे समस्त अनुभव से जो निचोड़ लिया जाता है..इसेंस..वह ज्ञान है। अनुभव सबके पास है, ज्ञान बहुत कम लोगों के पास है। क्योंकि ज्ञान, हम अनुभव से सीखते ही नहीं, तो ज्ञान कैसे पैदा होगा?
थोड़ी दो-चार घटनाएं आपसे कहूं तो ख्याल आ सके कि आदमी अनुभव से कैसे सीखता है।
सुना है मैंने, एक सूफी फकीर हसन एक गांव में प्रवेश हुआ। आधी रात, धर्मशालाएं बंद, जगह-जगह खोजा, गरीब फकीर, फटे हुए कपड़े, कोई जगह नहीं। एक अंधेरी गली से गुजरते वक्त एक चोर ने कहा कि सुनिए, दो-तीन बार आपको भटकते देख चुका। मालूम होता है ठहरने की कोई जगह नहीं मिलती। मेरे घर आ जाएं। लेकिन आप फकीर हैं, आपसे सच कह दूं, मैं एक चोर हूं जो अपने काम के लिए निकला हूं। आपको घर छोड़ आता हूं, मेरे घर रुक जाएं।
हसन का मन एक बार दहशत से भरा..कि चोर के घर में साधु ठहरे या नहीं? अक्सर ऐसा होता है, साधु चोर से भी कमजोर मालूम होता है। चोर नहीं डरता साधु को घर में ठहराने से। साधु डर रहा है चोर के घर में ठहरने से। हसन को भी ख्याल आ गया कि यह तो बड़ी कमजोरी की बात है। डरना चाहिए चोर को..कि एक साधु को घर में ठहराऊं? डर रहा हूं मैं!
तो उसने कहा कि नहीं, चलूंगा।
फिर वह चोर बड़ा ईमानदार मालूम पड़ा। रास्ते में हसन ने सोचा: ऐसा चोर तो कभी देखा नहीं, जिसने कहा हो कि पहले बता दूं कि मैं चोर हूं। इतनी हिम्मत तो मेरी भी नहीं। चोरी तो कई बार मैंने भी की है। हजार तरह की चोरियां हैं। कभी किसी से आंख बचा कर निकल गए तो भी चोरी हो जाती है। चोरी में कोई हिसाब नहीं है। चोर के घर पहुंच कर हसन ने पहले उसके पैर छुए। तो उस चोर ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं?
कहा कि मैं इसलिए पैर छूता हूं कि चोरियां तो मैंने भी की हैं, लेकिन इतना साधु अभी नहीं हो पाया कि चोरी स्वीकार कर लूं।
हसन अनुभव से सीखा। फिर सो गया। सुबह करीब चोर आया तो हसन ने पूछा, कुछ मिला?
चोर ने कहा, आज तो नहीं। लेकिन बड़ा खुश था। मेहनत पूरी की, लेकिन आज मिला नहीं, कल फिर कोशिश करेंगे।
दूसरी रात भी यही हुआ कि चोर लौटा, तो हसन ने पूछा, कुछ लाए?
तो उसने कहा कि आज भी नहीं मिला। मेहनत पूरी की, कल फिर कोशिश करेंगे।
एक महीने हसन उस चोर के घर था। हर रात यही हुआ कि चोर खाली हाथ लौटा, लेकिन हंसता लौटा और कहा, कल फिर कोशिश करेंगे। फिर महीने भर बाद हसन चला गया।
मरते वक्त हसन से किसी ने पूछा कि तुमने किन-किन गुरुओं से ज्ञान लिया? तो उसने कहा कि बहुतों से लिया। लेकिन परमात्मा, अगर एक चोर के घर में न ठहरता तो शायद न मिल पाता। उन्होंने कहा, मतलब? तो उसने कहा, जब मैं परमात्मा को खोजता था, आज खोजता था, नहीं मिलता था तो रोने लगता था, तब मुझे उस चोर की याद आती थी कि वह चोरी करने गया और हंसता हुआ लौटा, खाली हाथ। और मैं तो परमात्मा की चोरी करने निकला हूं, इतनी बड़ी चोरी! और अगर एक दिन में पूरी नहीं हुई तो इतना रोना क्या? तो मैं हंसने लगता था। हर रोज यही होता था कि खाली हाथ लौट आता था परमात्मा से। लेकिन वह चोर सामने खड़ा हो जाता..उसकी तस्वीर..और वह कहता, कल फिर कोशिश करेंगे। आखिर एक दिन मैंने परमात्मा को पा लिया, तो मैंने परमात्मा को पहले धन्यवाद नहीं दिया, पहले धन्यवाद उस चोर को दिया। अगर उसके घर न रुका होता।
आप चोर के घर रुकते तो इस अनुभव से कुछ सीख पाते? मुश्किल था। पहले तो रुकते ही नहीं। फिर रुकते भी तो शायद चोर हो जाते। चोर भी न हो पाते तो भी चोर से कुछ सीख न पाते। वह अनुभव ज्ञान नहीं बन सकता था।
लाओत्से ने लिखा है कि एक वृक्ष के नीचे से गुजरता था। बहुत बार सुना था कि जो परमात्मा के चरणों में समर्पण कर दे वही पा सकता है। सब कोशिश की, समर्पण नहीं हो सका।
कोशिश से कहीं समर्पण हो सकता है? उलटी बात है। वैसे ही जैसे कोई कोशिश से नींद लाने की कोशिश करे। रात नींद न आती हो, और कोई कोशिश करे सो जाने की। तो एक बात पक्की है कि जब तक कोशिश चलेगी, तब तक नींद नहीं आएगी। कोशिश और नींद उलटी चीजें हैं। असल में, नींद तभी आएगी जब आप थक जाएंगे और कोशिश भी बंद कर देंगे, तभी नींद आएगी, अन्यथा नींद नहीं आएगी। समर्पण कोशिश से नहीं आता। कोई कितना ही परमात्मा के चरणों में सिर रखे। कोशिश से नहीं आता। जब कोशिश भी व्यर्थ हो जाती है और आदमी इतना असहाय हो जाता है कि वह कहता है, कोशिश भी क्या करूं? कैसे करूं? कोशिश भी तो नहीं हो सकती! तब समर्पण हो जाता है।
तो लाओत्से थक गया खोजते-खोजते। रुका है एक झाड़ के नीचे। पतझड़ का मौसम है। पत्ते ऊपर से गिर रहे हैं सूखे, हवाओं में उड़ रहे हैं। और लाओत्से भी उठा और पत्तों के साथ दौड़ने लगा। हवा पूरब की तरफ जा रही थी तो पूरब की तरफ दौड़ा, हवा पश्चिम की तरफ जा रही थी तो पश्चिम की तरफ दौड़ा। उसके शिष्यों ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए?
तो उसने कहा, अब तक मैं पागल था! अब मैं एक सूखे पत्ते की तरह हो गया हूं। एक सूखे पत्ते को मैंने वृक्ष से गिरते देखा। उसकी गिरने की कहीं भी कोई आकांक्षा न थी। हवा पूरब ले जाती तो वह पूरब चला जाता, हवा पश्चिम ले जाती तो वह पश्चिम चला जाता। हवा ऊपर उठा देती तो वह ऊपर उठ जाता, हवा नीचे गिरा देती तो वह नीचे गिर जाता। तब मैंने कहा, एक सूखा पत्ता भी समर्पण कर सकता है और मैं समर्पण नहीं कर पा रहा हूं! मेरी कोशिश ही बाधा बन रही है। मैंने कोशिश छोड़ दी। समर्पण उपलब्ध हो गया।
लाओत्से से जब भी कोई पूछता, तो वह कहता कि जाओ, पतझड़ में वृक्षों के नीचे बैठ जाओ। सूखे पत्तों से सीखो।
लोग जाते, लेकिन सूखे पत्तों से बिना कुछ सीखे वापस लौट आते। वे कहते, सूखे पत्तों में क्या रखा हुआ है!
लाओत्से का अनुभव ज्ञान बन गया। वे जो दूसरे लोग बैठते तो सूखे पत्तों को गिरता देख कर वापस लौट आते।
मैंने सुना है कि बंगाल में एक साधु हुआ। राजाबाबू उसका नाम था। वह बंगाल की हाईकोर्ट का जज था। वह रिटायर हो गया। अपने घर से सुबह निकला छड़ी लेकर घूमने। कोई पैंसठ साल की उम्र होगी। कोई स्त्री अपने घर के भीतर, द्वार-दरवाजे बंद, अपने बेटे को या अपने देवर को या किसी को उठाती होगी और भीतर कहती होगी..राजाबाबू उठो! सुबह हो गई। बहुत देर हुई जा रही है। कब तक सोए रहोगे? सारा जगत जाग गया!
वह अपने किसी को भीतर कह रही थी। उसे पता भी नहीं कि बाहर एक और राजाबाबू अपनी छड़ी लेकर घूमने निकले हैं। वह छड़ी वहीं रुक गई! वे राजाबाबू वहीं ठहर गए! वे शब्द उन्हें सुनाई पड़े कि भोर हो गई, सुबह हो गई। कब तक सोए रहोगे? जागने का समय आ गया! वे वहीं से वापस घर लौट आए। घर आकर उन्होंने दरवाजे पर जोर से कहा..कि राजाबाबू अब जागते हैं! सुबह हो गई, सूरज निकल आया, अब राजाबाबू ज्यादा न सोएंगे!
घर के लोगों ने कहा, पागल तो नहीं हो गए?
तो उन्होंने कहा, अब तक पागल था।
पर लोगों ने कहा, यह तुम्हें हो क्या गया?
उन्होंने कहा, एक घर के द्वार से निकलता था, भीतर से आवाज सुनाई पड़ी। और वह छोटा सा अनुभव ज्ञान बन गया।
आप भी निकल सकते हैं उस घर के सामने से, आवाज आपको भी सुनाई पड़ सकती है यही, लेकिन ज्ञान नहीं बन जाएगी। अनुभव से जब हम सीखते हैं तब छोटा सा अनुभव बड़े से बड़ा ज्ञान बन जाता है। और जब हम अनुभव से नहीं सीखते तो बड़े से बड़ा अनुभव छोटे से छोटा ज्ञान भी नहीं बन पाता। जिंदगी बड़ा अनुभव है। अगर ठीक से समझें तो जिंदगी परमात्मा के ज्ञान के लिए दोहराया गया अनुभव है। लेकिन हम पूरी जिंदगी से ऐसे गुजर जाते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं..चिकने घड़े की तरह, जिस पर पानी गिरता रहता है और एक बूंद भी पानी घड़े में समा नहीं पाता। गुजर जाते हैं जिंदगी से..रिक्त, खाली।
धार्मिक प्यास जगती है एक-एक अनुभव को सजग रूप से अनुभव करने से। एक-एक अनुभव को जाग कर देखने से। एक-एक अनुभव के निरीक्षण, अॅाब्जर्वेशन से। एक-एक अनुभव में आंखें गड़ा कर देखने से। रोज अनुभव हैं, इन्हीं सब अनुभवों से दुनिया के वे सारे लोग गुजरे हैं जो परमात्मा को पाए हैं। इन्हीं से हम गुजर रहे हैं। अनुभवों में कोई फर्क नहीं। नानक के अनुभव में और आपके अनुभव में कोई फर्क नहीं। बुद्ध के अनुभव में, आपके अनुभव में कोई फर्क नहीं। जीसस के अनुभव में, आपके अनुभव में कोई फर्क नहीं। फर्क अनुभव में नहीं है, फर्क अनुभव से सीखने में शुरू होता है। इन्हीं अनुभवों से लोग परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं। इन्हीं अनुभवों से हम सिर्फ मरघट को उपलब्ध होते हैं, और कहीं भी नहीं जा पाते। यही अनुभव, यह जिंदगी यही है। यही रुदन है, यही आंसू हैं! यही मुस्कुराहटें हैं, यही कांटे हैं, यही फूल हैं! यही झगड़े हैं, यही प्रेम है! यही धन, यही वैभव, यही आकांक्षाएं..यही सब, सबके लिए है। इसी में कोई अचानक...
बुद्ध निकले हैं अपने घर से। युवा हैं, रथ पर सवार हैं। एक महोत्सव हो रहा है गांव में। और एक बूढ़े आदमी को पहली दफा देखा। तो अपने सारथी से पूछा, इस आदमी को क्या हो गया है?
उस सारथी ने कहा, मत पूछें आप। क्योंकि आपके पिता की आज्ञा नहीं है कि बूढ़े आपको दिखाई पड़ें। यह बूढ़ा कैसे आ गया रास्ते पर, यही हैरानी है!
क्योंकि बुद्ध जहां से निकलते, उनके पिता वृद्ध लोगों को रास्तों से अलग करवा देते। बुद्ध के बगीचे में फूल को कुम्हलाने न देते। कुम्हलाने के पहले रात में फूल अलग कर दिए जाते। बुद्ध को पता ही न चले कि जिंदगी में बुढ़ापा भी है।
यह बूढ़ा कैसे आ गया? उस सारथी ने कहा, लेकिन अब आप पूछते हैं तो इनकार भी नहीं कर सकता। यह आदमी बूढ़ा हो गया है।
बुद्ध ने कहा, क्या मतलब? क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा?
आपने न पूछा होता यह सवाल। हम रोज बूढ़े देखते हैं, लेकिन हमने कभी यह नहीं पूछा कि क्या मैं बूढ़ा हो जाऊंगा? हम सोचते हैं, यह बेचारा बूढ़ा हो गया। तब अनुभव अनुभव रह गया, ज्ञान नहीं बना। बुद्ध ने तत्काल यह पूछा कि क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? यह ज्ञान बनाने की कीमिया का सूत्र है। अनुभव को तत्काल ज्ञान बनाना शुरू हो गया।
उस सारथी ने कहा, मैं कैसे कहूं? लेकिन झूठ भी नहीं बोल सकता। इस जमीन पर जो भी आया है वह बूढ़ा होगा।
तो बुद्ध ने कहा, फिर मैं बूढ़ा हो ही गया। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितनी देर लगेगी! रथ वापस लौटा लो। युवक महोत्सव में, यूथ फेस्टिवल में जा रहे थे। तो बुद्ध ने कहा, अब यूथ फेस्टिवल में जाने की कोई जरूरत न रही। अब बूढ़ा हो गया तो जवानों के उत्सव में मेरा क्या प्रयोजन! वापस लौटा लो।
सारथी ने कहा, कैसी आप बात करते हैं? अभी कैसे बूढ़े हो गए? अभी तो युवा हैं।
लेकिन बुद्ध ने कहा कि जब बूढ़ा होना ही पड़ेगा, तो वर्ष, दो वर्ष, दस वर्ष, बीस वर्ष, क्या फर्क पड़ता है! बात हो गई, अब मैं युवा नहीं रहा, वापस लौटा लो।
और लौटते में रास्ते पर एक अरथी मिली। और बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ?
तो सारथी ने कहा, आप मत पूछें ऐसे सवाल। मुझे मुश्किल में मत डालें। क्योंकि मैं आपके पिता को क्या जवाब दूंगा? यह आदमी मर गया।
तो बुद्ध ने पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा?
उस सारथी की तकलीफ तुम समझ सकते हो। उसने कहा कि आप ऐसे बेकार सवाल मत पूछें। कोई नहीं पूछता। सच तो यह है कि यही सार्थक सवाल है। दूसरे आदमी की मौत का अनुभव भी बुद्ध ने ज्ञान में बदल लिया।
सारथी ने कहा, मरना तो पड़ेगा ही। जो भी जन्मता है वह मरता है। असल में जन्मता है जिस दिन उसी दिन मरना शुरू हो जाता है। ऐसा नहीं कि मरना कोई सत्तर साल बाद आता है। वह दिखाई पड़ता है सत्तर साल बाद। जन्म के क्षण से ही मरना शुरू हो जाता है। जिसको हम जिंदगी कहते हैं वह ग्रेजुअल डेथ है, धीमे-धीमे मरने की लंबी प्रक्रिया है। एक क्षण बच्चा पैदा हुआ कि मरने के लिए पूरा कैपेबल है, मरने के लिए पूरा समर्थ हो गया। अब मरने में उसके पास कोई चीज की कमी नहीं है। अभी मर सकता है।
तो बुद्ध ने कहा, फिर बात ही खत्म हो गई, बात ही समाप्त हो गई। जब मरना ही पड़ेगा तो मर ही गए, अब इस जिंदगी में कोई अर्थ न रहा। अब मैं उस जिंदगी की खोज पर निकलूंगा जो नहीं मरती है। मैं उस जिंदगी की खोज पर अब निकलूंगा जो अमत्र्य है।
लेकिन मृत्यु को जिसने कभी सवाल नहीं बनाया, वह अमृत की खोज पर कैसे निकलेगा? आप न मालूम कितने लोगों को मरघट पर पहुंचा आए होंगे, लेकिन कभी यह ख्याल मन में गहरे नहीं बैठता कि अब जल्दी ही लोग मुझे पहुंचाने की तैयारी कर रहे होंगे। मरघट सदा दूसरे के लिए मालूम होता है, मीन्ट फॅार दि अदर, कभी अपने लिए नहीं। मौत सदा किसी और की होती है, कभी अपनी नहीं। तो फिर अनुभव ज्ञान नहीं बन पाता। और अनुभव ज्ञान न बन पाए तो जीवन धर्म नहीं बन पाता। अनुभव ज्ञान बने तो जीवन धर्म बन जाता है।
प्यास जग सकती है। एक-एक अनुभव को चारों तरफ से जांचना-परखना होगा। एक-एक अनुभव को पूरा का पूरा ज्ञान में रूपांतरित कर लेना होगा। और फिर जिंदगी पूरी प्यास बन जाएगी। और फिर तब तक हम चैन से न बैठ सकेंगे, जब तक परमात्मा का द्वार ही न खुल जाए। तब तक हम उसके दरवाजे को ठोकते ही रहेंगे। और एक बार प्यास जग जाए, तो परमात्मा को पाने के लिए दूसरी और कोई भी चीज अनिवार्य नहीं है। बाकी सब चीजें गैर-अनिवार्य हैं, अनिवार्य सिर्फ प्यास है। प्यास छोटी बात नहीं है। प्यास से बड़ी कोई बात ही नहीं है। प्यास जग सकती है। और जग जाए तो रोआं-रोआं तड़पने लगता है। फिर ऐसा नहीं होता कि परमात्मा जिंदगी के बहुत कामों में एक काम हो। नहीं, परमात्मा ही एक काम रह जाता है। जिंदगी के सब कामों में वही रह जाता है असली। फिर जिंदगी के सब काम माला के गुरियों की तरह हो जाते हैं और परमात्मा उनमें दौड़ता हुआ धागे की तरह हो जाता है। सब काम चलेगा, लेकिन खोज और प्यास परमात्मा की चलेगी। भोजन कर रहे होंगे, लेकिन परमात्मा की भूख लगी रह जाएगी। पेट भर जाएगा और परमात्मा की भूख खाली रह जाएगी। पानी पी रहे होंगे, गला शीतल हो जाएगा, शरीर की प्यास बुझ जाएगी और परमात्मा की प्यास पीछे चलती रहेगी। बेटे से बात कर रहे होंगे, बात बेटे से चलेगी, लेकिन भीतर कहीं बात परमात्मा से चलती रहेगी। दुकान पर बैठे होंगे, ग्राहक को देख रहे होंगे, आंख जो देखती हैं, ग्राहक को देखती रहेंगी, और भी गहरी आंखें हैं जो परमात्मा को खोजती रहेंगी।
कबीर जाते थे बेचने कपड़ा बाजार में। तो लोग उनसे कहते कि अब आप इतने ज्ञान को उपलब्ध हो गए कि अब कपड़ा बुनना बंद करो। अब यह शोभा नहीं देता। तो कबीर कहते, अज्ञानी सिर्फ कपड़ा ही बुनते हैं, मैं इसमें कुछ और भी बुनता हूं, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। मैं इसमें राम भी बुन देता हूं। मेरी श्वास-श्वास में वही है, मेरे हाथ में वही है, मेरी धड़कन-धड़कन में वही है। यह साधारण कपड़ा नहीं है। इसमें मैंने राम के ताने-बाने भी बुन दिए हैं। और जब कबीर बेचने जाते, तो ग्राहक जब खरीदता तो उससे वे कहते कि राम! वे ग्राहक से कहते: राम! तुम्हारे लिए ही बना कर लाया हूं।
जिंदगी चलेगी, ऐसी ही चलेगी, लेकिन बिल्कुल बदल जाएगी, भीतर का धागा परमात्मा का हो जाएगा। एक प्यास! लेकिन वह प्यास हमारे भीतर रहेगी। और बिना प्यास के जो परमात्मा को खोजेगा, समझ सकते हैं कि उसकी खोज आथेंटिक, प्रामाणिक नहीं हो सकती।
मैंने सुना है कि लंका में एक फकीर था। उसने तीस वर्ष तक हजारों लोगों को समझाया..मोक्ष, निर्वाण, परमात्मा। मरने का दिन करीब आया तो उस फकीर ने उन लोगों से पूछा कि अब मैं कल मरने वाला हूं और इतने दिन मैंने तीस वर्षों तक तुम्हें समझाया..मोक्ष, निर्वाण, परमात्मा। अब कौन मेरे साथ चलने को तैयार है, वह खड़ा हो जाए!
मरने की खबर सुन कर उसके सब प्रेम करने वाले लाखों लोग इकट्ठे हो गए थे। एक भी आदमी खड़ा नहीं हुआ। बल्कि लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, जो जिसको मोक्ष पहुंचाना चाहता होगा, उसकी तरफ देखने लगे कि फलां आदमी चला जाए। लेकिन उस फकीर ने कहा, मैं तुमसे पूछ रहा हूं! क्योंकि यह सवाल दूसरे का नहीं है, दूसरे की तरफ मत देखो। कौन चलना चाहता है?
एक आदमी डरता सा खड़ा हुआ। उसने कहा, लेकिन पहले ही मैं निवेदन कर दूं, अभी कल नहीं चलना चाहता हूं, मैं सिर्फ यह पूछने खड़ा हुआ हूं कि तरकीब बता दें, कभी जाना होगा तो उपयोग कर लेंगे। लेकिन कल नहीं चलना चाहता हूं।
हम कहते जरूर हैं कि परमात्मा को चाहते हैं, लेकिन अगर सच में ही कहा जाए कि चाहते हैं? तैयारी है? चलते हैं? तो आप कहेंगे, इतनी जल्दी नहीं, थोड़ा ठहरें। अभी बहुत काम पड़े हैं, वे सब निपटा लें।
अनआथेंटिक, अप्रामाणिक प्यास का कोई भी मतलब नहीं है। इसीलिए तो पृथ्वी पर इतने मंदिर, इतने गिरजे, इतने गुरुद्वारे, इतनी मस्जिदें, इतने धार्मिक लोग, और फिर भी पृथ्वी धार्मिक नहीं हो पाती! पूरी पृथ्वी धार्मिक हो जानी चाहिए थी। श्वास-श्वास, कण-कण हवा का धर्म से भर जाना चाहिए था। कितनी अजानें, कितनी प्रार्थनाएं, कितने कंठों के स्वर, लेकिन कहीं कुछ नहीं होता। असल में जब लोगों के दिल में प्यास ही न हो, तो ये सब चीजें फॅार्मल, औपचारिक हो जाती हैं। इनमें कोई अर्थ नहीं रह जाता। पुजारी चढ़ा देता है भगवान के मंदिर में फूल, बिना अपने हृदय को चढ़ाए। पुजारी जला देता है बत्तियां, धूप बत्तियां, सुगंध फैला देता है, लेकिन बिना प्राणों के संगीत के।
रामकृष्ण को दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की तरह रखा गया था। गरीब ब्राह्मण थे, तो पुजारी की जगह रख दिया था। ज्यादा तनख्वाह न थी, शायद सोलह रुपये तनख्वाह थी। लेकिन दो-चार-दस दिन में ही कमेटी ट्रस्टियों की बड़ी मुश्किल में पड़ गई। क्योंकि ट्रस्टियों की कमेटी जिन पुजारियों की आदी थी, यह वैसा पुजारी न था। कमेटी तो हजार पुजारियों को निपटा चुकी थी उस मंदिर से। पुराना मंदिर था, न मालूम कितने पुजारी आए और गए। लेकिन कभी किसी पुजारी से दिक्कत न हुई थी। इस पुजारी से दिक्कत होने लगी। बड़ी मजे की बात है! कमेटी ने रामकृष्ण को बुलाया और कहा कि ऐसा नहीं चलेगा। सात दिन बाद ही नौकरी से अलग कर दिए जाओगे। यह कोई पूजा का ढंग है? क्योंकि हमने सुना है कि तुम फूल पहले सूंघते हो और फिर चढ़ाते हो। और हमने सुना है कि पहले तुम भोग खुद अपने को लगा लेते हो, फिर भगवान को लगाते हो। हद्द हो गई! नास्तिक हो?
रामकृष्ण ने कहा कि सम्हालो अपनी नौकरी! लेकिन मेरी मां जब मुझे भोजन देती थी तो पहले चख लेती थी। मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता। पता नहीं खाने योग्य है भी कि नहीं! और फूल जो मैंने नहीं सूंघा, पता नहीं उसके चरणों में रखने योग्य है भी या नहीं! मैं बिना सूंघे नहीं रख सकता हूं।
ठीक पुजारी हो तो ट्रस्टियों की कमेटी मुश्किल में पड़ गई। गलत पुजारी चलते रहे तो ट्रस्टियों की कमेटी मुश्किल में नहीं पड़ी थी। निकालने को तत्पर हो गए कि बंद करो इस आदमी को! यह ठीक नहीं है।
यह जमीन, इस पर दिखाई पड़ने वाला तथाकथित धर्म, सो काल्ड रिलीजन, उसके नाम कुछ भी हों, और हम सारे लोग जो अपने को धार्मिक समझते हैं, हम धर्म को भी एक औपचारिकता, एक शिष्टाचार, एक सामाजिक व्यवहार, एक सोशल यूटिलिटी, एक सामाजिक उपयोगिता बनाए हुए हैं।
नहीं! धर्म सामाजिक उपयोगिता नहीं है। धर्म तो प्राणों की बड़ी गहरी अकुलाहट है। समाज का उससे कोई संबंध नहीं। वह एक-एक व्यक्ति की निजी प्राणों की तड़पन है। और उस तड़पन को हम झूठी बातों से हल न कर पाएंगे। उस तड़पन को हम झूठी आग से न जला पाएंगे। उस तड़पन के लिए सच्ची आग चाहिए। वह सच्ची आग प्यास से पैदा होगी। और प्यास जीवन के अनुभव को ज्ञान बनाने से पैदा होगी।
एक और तरफ से सोचने की कोशिश करें। क्योंकि यह बात अगर ठीक से समझ में आ जाए, और मैं नहीं जानता कि आपकी जिंदगी में प्यास कहां से आए, इसलिए कई तरफ से सोच लेना जरूरी है। किसी की जिंदगी में प्यास दुख से आ सकती है..अगर वह दुख को समझ ले। और किसी की जिंदगी में प्यास अज्ञान से आ सकती है..अगर वह अज्ञान को समझ ले। किसी की जिंदगी में प्यास मृत्यु से आ सकती है..अगर वह मृत्यु को समझ ले। किसी की जिंदगी में प्यास रोजमर्रा की जिंदगी को देखने से आ सकती है..अगर वह उसकी व्यर्थता को समझ ले। कुछ कहा नहीं जा सकता, किसकी जिंदगी में प्यास कहां से आएगी। इसलिए दो-चार कोणों से समझ लेना जरूरी है।
सुना है मैंने, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, च्वांगत्से। रात सोया तो उसने एक स्वप्न देखा। सुबह उठा तो बहुत बेचैन था और सारे गांव के लोगों को बुला लिया कि रात बड़ी मुश्किल में पड़ गया, एक सपना देखा।
गांव के लोगों ने कहा, पागल हो? सपने हम रोज देखते हैं। सपनों से मुसीबत में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन च्वांगत्से ने कहा कि नहीं, मामला ही ऐसा है कि मुश्किल में पड़ ही गया हूं, जरूरत हो या न हो, मुसीबत आ गई है। तुम कुछ सहायता कर सकते हो तो करो। रात मैंने एक सपना देखा है कि मैं तितली हो गया हूं और फूलों पर उड़ रहा हूं।
तो उन्होंने कहा, यह कोई खास बात नहीं, हम सब देख चुके ऐसे सपने। कभी हम पक्षी हो जाते हैं, आकाश में उड़ जाते हैं।
लेकिन च्वांगत्से ने कहा, पूरी बात तो सुनो! सपने से दिक्कत नहीं आई। अब सुबह उठ कर मुझे यह सवाल उठ रहा है कि अगर रात आदमी सोकर सपना देख सकता है कि तितली हो गया, तो तितली भी तो दिन में सोकर सपना देख सकती है कि आदमी हो गई। अब मैं इस दिक्कत में हूं कि च्वांगत्से ने सपना देखा कि तितली बन गया कि तितली सपना देख रही है कि च्वांगत्से बन गई? अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। तो कुछ रास्ता बताओ! नहीं तो मैं गया।
गांव के लोगों ने कहा, बड़ी मुश्किल बात है। लेकिन हमने कभी इस तरह सोचा नहीं।
सपने सबने देखे हैं, लेकिन सपने तक पर हमने नहीं सोचा, उस अनुभव को भी कभी ज्ञान नहीं बनाया। कितने मजे की बात है कि रात के सपने को सुबह उठ कर आप झूठ कह देते हैं कि गलत था। क्यों? क्योंकि जिंदगी और तरह की दिखाई पड़ती है, उसमें सपना गलत हो जाता है। लेकिन कभी इससे उलटा आपने सोचा कि रात जब आप सपने में जाते हैं, तो जिसे आपने दिन भर सच कहा था, वह इसी तरह झूठ हो जाता है। कभी आपने ख्याल किया कि जिसको आप जिंदगी कहते हैं, यथार्थ कहते हैं, वह सपने में उसी तरह झूठ हो जाती है जिस तरह सपना जिंदगी में झूठ हो जाता है। दोनों झूठों में कौन सा सच है, इसे कभी सोचा?
और भी एक मजे की बात है..बहुत मजे की बात है..कि रात का सपना तो दिन में थोड़ा-बहुत याद भी रह जाता है, दिन का सपना रात के सपने में बिल्कुल याद नहीं रहता। रात अगर आप सम्राट हो गए थे सपने में, तो सुबह भी थोड़ी-बहुत धुन उसकी बाकी रह जाती है कि रात सम्राट हो गया था। लेकिन दिन भर जो सम्राट रहा है, जिंदगी भर जो सम्राट रहा है, उसको भी रात के सपने में धुन नहीं रह जाती कि मैं दिन में सम्राट था।
अगर समझेंगे तो शायद पता चले कि जिसे हम जिंदगी कहते हैं, वह सपने से भी ज्यादा सपना है। कभी आपने सोचा कि सपने में कभी भी याद नहीं आता कि जो मैं देख रहा हूं वह सपना है! और अगर याद आ जाए तो समझना सपना टूट गया। आप सो नहीं रहे, अब आप जाग गए। सपने में पता ही नहीं चलता कि जो मैं देख रहा हूं वह सपना है। कितनी बार आपने सपना देखा है..हजार बार, लाख बार, करोड़ बार..रोज सुबह जग कर पाया है कि सपना झूठा होता है। लेकिन फिर आज रात जब आप सपना देखेंगे तब वह फिर सच मालूम होगा। सपने में सच मालूम होगा। जिंदगी में हजार दफे देखे सपनों के अनुभव का कोई परिणाम नहीं हुआ! सपना फिर आज रात सच हो जाता है! और जब सपने में सपना सच मालूम होता है और झूठ नहीं मालूम होता, तो जिस जिंदगी को आप जिंदगी में सच मान रहे हैं उसे सच मानने का कोई कारण है फिर? हो सकता है उससे भी जाग कर पता चले कि वह भी झूठ है।
जिन्होंने इस जिंदगी को माया या इलूजन कहा है, उनका मतलब यह नहीं है कि यह नहीं है। उनका कुल मतलब इतना है कि जब इससे भी कोई जाग कर देखता है तो वह हैरान हो जाता है, वह कहता है वह भी झूठ है। वह उसी तरह का एक सपना थी। बस प्रोलांग्ड ड्रीम था, बड़ा लंबा सपना था। एक कंटिन्युटी थी, एक सातत्य था उस सपने में।
अगर आदमी सपने को समझ ले तो जिंदगी सपना हो जाती है। लेकिन नहीं, उसे भी हम नहीं देख पाते। वह च्वांगत्से ने ठीक कहा कि मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं आपसे कहता हूं, आप कब मुश्किल में पड़ेंगे कि आपको सपना तकलीफ देने लगे?
मैंने और सुनी है एक कहानी। मैंने सुना है, एक सम्राट का बेटा मरणशय्या पर पड़ा है, बिल्कुल मरने के करीब है..अभी गया, अभी गया। चार रात हो गई हैं और चिकित्सक कहते हैं कभी भी जा सकता है, तो बाप जग रहा है, इकलौता बेटा है, चार रात से जग रहा है। चैथी रात चार बजे के करीब ठंडी हवाएं सुबह की आई हैं, वह अपनी कुर्सी पर सो गया। बाप की झपकी लग गई। झपकी लगी तो उसने सपना देखा कि उसके बारह लड़के हैं, बहुत सुंदर, बहुत शक्तिशाली। सारी पृथ्वी पर उसका राज्य है। बड़े आनंद में हो गया है। बड़े दुख में था अभी सपने के बाहर, एक बेटा मर रहा था। अब बड़े आनंद में हो गया है। न उस बेटे से मतलब रहा, न कुछ सवाल रहा। सपने में बड़ा प्रसन्न है। अगर उसका कोई चेहरा भी देखे तो उसकी मुस्कुराहट और उसका आनंद बाहर से भी दिखाई पड़ सकता है। बड़ा आनंदित है।
तभी उसका बेटा मर गया..बाहर वाला बेटा। भीतर के बेटे तो सब ठीक हैं, वे बारह बेटे ठीक चल रहे हैं। बाहर वाला बेटा मर गया। पत्नी चीख मार कर चिल्लाई तो उसकी नींद टूटी। नींद क्या टूटी, बारह बेटे भीतर वाले मर गए, सपना खतम हो गया, लेकिन वह राजा रोने की बजाय हंसने लगा। उसकी पत्नी ने समझा कि कहीं पागल तो नहीं हो गया! कभी दुख में आदमी हो जाता है; कभी सुख में आदमी हो जाता है। कोई भी चीज तीव्र हो जाए तो पागल हो जाता है। पत्नी घबड़ाई, हिलाया कि हंसते क्यों हैं? देखते नहीं बेटा मर गया! फिर भी वह हंसता रहा। उसकी पत्नी ने कहा, बात क्या है?
तो उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
वही मुश्किल जो च्वांगत्से को पड़ गई थी।
क्या मुश्किल है?
उसने कहा, अब मैं फिकर में पड़ा हूं कि किनके लिए पहले रोऊं? अभी जो बारह भीतर थे उनके लिए पहले रोऊं कि अभी जो एक बाहर था उसके लिए पहले रोऊं? और जब मैं भीतर के लड़कों को देखता था, तब इस लड़के का मुझे पता ही नहीं था कि है या नहीं, मरा कि जिंदा है, कोई मतलब ही न था। अगर मैं सपना ही देखता रहता और यह लड़का मर जाता तो मुझे कभी पता भी नहीं चल सकता था कि यह लड़का मर गया है। और जब भीतर के लड़कों को देखते वक्त बाहर का लड़का झूठ हो गया, और अब बाहर के लड़के को देख कर भीतर के लड़के झूठ हो गए। कौन सच है? मैं यह जानना चाहता हूं। मैं किसके लिए रोऊं? तो वह सम्राट गांव-गांव घूमने लगा पूछते हुए कि मैं किसके लिए रोऊं? वह साधुओं के पास, संन्यासियों के पास जाता, उनकी गर्दन पकड़ लेता और कहता, किसके लिए रोऊं? वह जो बाहर का लड़का मर गया उसके लिए कि वे जो भीतर के लड़के मर गए?
तो लोगों ने उस सम्राट से कहा कि इसका उत्तर सिर्फ च्वांगत्से दे सकता है, तुम उसी के पास चले जाओ। वह जिसने तितली का सपना देखा। तुम उसी झंझट में पड़ गए हो।
तो सुना है मैंने कि वह सम्राट च्वांगत्से के पास गया और च्वांगत्से से कहा कि मैं किसके लिए रोऊं?
च्वांगत्से ने कहा, अपने लिए रोओ! और किसी के लिए रोने की कोई भी जरूरत नहीं है।
और जो आदमी अपने लिए रोना शुरू कर दे, उस आदमी की जिंदगी में धर्म का आगमन हो जाता है। या जो आदमी अपने ऊपर हंसना शुरू कर दे, उसकी जिंदगी में भी धर्म का आगमन हो जाता है। लेकिन हम दूसरों पर हंसते हैं, दूसरों पर रोते हैं, अपने को सदा बचा जाते हैं।
एकाध दरवाजे से और देखने की कोशिश करें कि यह प्यास कैसे पैदा हो सकती है? यह प्यास कैसे पैदा हो सकती है? शायद यह कहना ठीक नहीं है कि यह प्यास कैसे पैदा हो सकती है, प्यास तो शायद कहीं है, सिर्फ उकसाने की ही बात है। प्यास तो कहीं है, उकसाने की बात है।
शायद प्यास का हमें कभी-कभी बिना उकसाए भी पता चलता है। लेकिन हम उसे दबा देते हैं। कहने को हमारी संस्कृति सारी दुनिया की धार्मिक है, लेकिन धार्मिक प्यास को हम सब दबाते हैं। अगर एक बाप का बेटा चोर हो जाए तो इतना परेशान नहीं होता, जितना बेटा संन्यासी हो जाए तो परेशान हो जाता है। कहते हैं हम धार्मिक संस्कृति है। एक पति शराब पीने लगे तो पत्नी इतनी चिंतित नहीं होती, जितना पति प्रार्थना में डूब जाए तो चिंतित हो जाती है। कहते हैं हम कि धार्मिक संस्कृति है। कहने की बातें हैं। धर्म बड़ा डराता है। और डराता इसलिए है कि धर्म आदमी को बिल्कुल बदल देता है और हमारे आस-पास का कोई भी आदमी चाहता नहीं कि हम बिल्कुल बदल जाएं। शराब पीने वाला बिल्कुल नहीं बदलता, खींचा जा सकता है। लेकिन संन्यासी बिल्कुल बदल जाता है, उसे खींचा नहीं जा सकता। चोर बेटा बुरा है, लेकिन फिर भी चलाया जा सकता है। लेकिन संन्यासी बेटा बेटा ही नहीं रह जाता। चोर बेटा कम से कम बेटा तो रहता है। इसलिए हम चोर बेटे को बर्दाश्त कर लेंगे, संन्यासी बेटे से दिक्कत हो जाएगी।
चारों तरफ से हमारे भीतर अर्ज तो है, जन्म से है, जैसे बीज के भीतर छिपा है अंकुर। लेकिन अगर बीज को हम पत्थरों पर रख दें तो बीज का अंकुर नहीं निकल पाएगा। और हो सकता है बीज पूछे कि मैं अंकुरित कैसे हो जाऊं?
हम सबने अपने जीवन के बीज को पत्थरों पर रखा है कि अंकुरित न हो जाए। तो आखिरी बात आपसे कहना चाहता हूं कि जरा अपने आस-पास पहचानना कि आपकी अर्ज को तोड़ने का, आपकी प्यास को मिटाने का जो उपक्रम है, जो बड़ा शड्यंत्र चल रहा है चारों तरफ से, उससे जरा सजग होना पड़ेगा, तो शायद प्यास जग उठे, अंकुर फूट उठे। चैबीस घंटे सब तरफ से यही चल रहा है।
अगर एक पति अपनी पत्नी से यह कहे या पत्नी अपने पति से यह कहे कि तुमसे ज्यादा मैं परमात्मा को चाहती हूं, तो झगड़ा शुरू हो जाएगा। पति चाहता है कि पत्नी उसी को परमात्मा समझे। अब यह पत्थर बन रहा है। पति समझाते रहे हैं इस दुनिया में स्त्रियों को कि हम ही परमात्मा हैं! तुम हमें ही परमात्मा समझो! पति ही परमात्मा है!
क्या पागलपन की बात है! सब्स्टीट्यूट बन रहा है पति। पत्नी भी चाहती है कि पति यह कहे कि तेरे सिवाय, तुझसे ज्यादा किसी को नहीं चाहता। अगर काम्पिटीशन में परमात्मा भी रखा जाए तो भी पत्नी दिक्कत में पड़ जाती है कि यह प्रतियोगिता नहीं चल सकती। आप मुझे चाहते हैं या परमात्मा को, साफ-साफ बता दें। परमात्मा भी सौतेली पत्नी मालूम पड़ेगा।
तो अपने चारों तरफ देखने की कोशिश करें। प्यास को जगाने का उतना सवाल नहीं है, जितना प्यास को चारों तरफ से दबाया हुआ है, वह दबाव को देखें। देखेंगे तो कठिनाई नहीं रहेगी, उस दबाव को हटाया जा सकता है। इस दबाव की कई तरकीबें हैं। यह दबाव बहुत टेक्निकल है। इसकी बड़ी गहरी व्यवस्था है।
हर आदमी की मौत निश्चित है। निश्चित का मतलब यह नहीं है कि कोई तारीख निश्चित है। निश्चित का मतलब यह कि मौत एक सरटेंटी है, उससे बचा नहीं जा सकता। वह एक निश्चय है। हर आदमी की मौत निश्चित है। लेकिन हर आदमी उसको आशीर्वाद दिए जा रहा है कि तुम जुग-जुग जीओ। मां आशीर्वाद दे रही है: तुम जुग-जुग जीओ। बाप कह रहा है: तुम जुग-जुग जीओ। गुरु भी कह रहा है कि आशीर्वाद, जुग-जुग जीओ।
कोई जुग-जुग नहीं जी सकता। खतरनाक और झूठी बात बोली जा रही है। लेकिन मन में बैठती है। और मृत्यु की जो सरटेंटी है, मृत्यु का जो निश्चय है, मृत्यु की जो अनिवार्यता है, उसको झुठलाती है। और ऐसा लगता है कि नहीं, ठीक है, जुग-जुग जी लेंगे।
कोई जुग-जुग नहीं जीएगा। कोई आशीर्वाद कभी पूरा नहीं हुआ, होगा भी नहीं। लेकिन मौत को झुठलाने के काम आ जाता है। और मौत को जितना हम झुठलाते हैं, उतना ही अमृत की खोज मुश्किल हो जाती है। पत्थर पर पड़ गया बीज।
अब झुठलाने से काम नहीं चलेगा। जिंदगी इनसिक्योरिटी है। जिंदगी बिल्कुल असुरक्षा है। यहां कुछ भी सुरक्षित नहीं है। आप यहां हैं, घर तक पहुंचेंगे, यह पक्का नहीं है। मैं यहां हूं, दूसरा शब्द भी बोल सकूंगा इसके आगे, यह पक्का नहीं है। यह बिल्कुल अनिश्चित है। लेकिन मन कहता है कि सब निश्चित है। चारों तरफ सब समझाया जाता है कि सब निश्चित है। बैंक बैलेंस निश्चित है, इंश्योरेंस कंपनी कहती है निश्चित है। सब तरफ निश्चय का धोखा खड़ा किया जा रहा है। जब कि सब अनिश्चित है, कुछ भी निश्चित नहीं है।
अगर अनिश्चय का पता चल जाए तो बीज पत्थर से हट जाएगा। अगर यह पता चल जाए, जहां सब अनिश्चित है और जहां निश्चित सिर्फ धोखा है, वहां जीवन को जो खोज रहा है वह बड़ी गलती कर रहा है, जो मैंने सुना है, एक बार मुसलमान बादशाह इब्राहिम की छत पर हुई। रात सोया था, आधी रात नींद खुली तो देखा कि कोई छप्पर पर चल रहा है ऊपर। तो पूछा चिल्ला कर कि कौन हो? छप्पर पर कौन चल रहा है?
तो ऊपर से किसी ने हंस कर कहा कि सोए रहो, परेशान मत होओ। मेरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोज रहा हूं।
इब्राहिम ने कहा, पागल, कहीं मकानों और महलों के छप्परों पर ऊंट खोए सुने हैं?
जोर की हंसी आई और उसने कहा कि तू मुझे पागल कहता है, लेकिन जहां तू जिंदगी खोज रहा है वहां कभी किसी को जिंदगी खोजते हुए पाया है? तो अगर जहां मृत्यु है वहां आदमी अमृत को खोजता है और जहां अनिश्चय है वहां निश्चय को खोजे, जहां सब असत्य है वहां सत्य को खोजे, अगर इस तरह के लोग पागल नहीं तो मुझे भी पागल कहने का क्या कारण है?
इब्राहिम उठा और उसने सिपाही दौड़ाए कि इस आदमी को पकड़ो! यह आदमी कुछ मतलब की बात कहता मालूम पड़ता है।
कई बार मतलब की बात कहनी हो तो लोगों की नींद खराब करनी पड़ती है आधी रात। लेकिन वह आदमी नहीं पकड़ा जा सका। इब्राहिम दूसरे दिन बहुत चिंतित अपने दरबार में बैठा है। उसने आदमी भेजे कि सारी राजधानी खोज डालो। वह आदमी कौन है जो रात छप्पर पर ऊंट खोजता था?
उन सबने कहा कि वह तो आदमी पागल था ही, आप क्यों पागल हो रहे हैं!
इब्राहिम ने कहा, यही मैंने भी उससे कहा था। लेकिन जो जवाब उसने मुझे दिया है उससे मैं पागल हो गया हूं और वह पागल नहीं रहा है। उसकी खोज करो।
बहुत खोज की गई, कुछ पता चला नहीं। लेकिन थोड़ी देर बाद दरवाजे पर बड़ा झगड़ा होने लगा। दरबान से एक आदमी कह रहा था कि मुझे इस सराय में ठहर जाने दो। वह दरबान कह रहा था, यह सराय नहीं है महाशय, यह राजा का महल है, निवास स्थान है। वह आदमी कह रहा था कि झूठ मत बोलो, मैं जानता हूं कि यह सराय है, यह धर्मशाला है, ठहर जाने दो। बात इतनी बढ़ गई कि उस दरबान ने कहा कि आप पागल तो नहीं हैं? राजा को भीतर सुनाई पड़ा कि फिर किसी आदमी से दरबान कह रहा है कि आप पागल तो नहीं हैं? राजा भागा बाहर आया, उस आदमी को भीतर लाया। उस आदमी से पूछा कि क्या बात है?
उस आदमी ने कहा कि मैं इस सराय में ठहरना चाहता हूं। आपको कोई एतराज है?
उस राजा ने कहा, पागल तो नहीं हो? यह सराय नहीं है; मेरा महल है, निवास है।
तो उस आदमी ने कहा कि मैं इसके पहले भी आया था, तब कोई दूसरा आदमी इसी सिंहासन पर बैठा था। वह कहता था यह मेरा निवास है। उसके पहले भी आया था, तब कोई और दूसरा ही आदमी बैठा हुआ था। वह भी कहता था यह मेरा निवास है।
तो उस राजा ने कहा कि वे मेरे पिता थे। और उसके पहले जब तुम आए, वे उनके भी पिता थे।
तो उस फकीर ने कहा कि जब मैं दुबारा आऊंगा, तुम मिलोगे, यह पक्का है?
इब्राहिम ने कहा कि मुश्किल बात है।
तो फिर, उसने कहा, सराय है। तुम भी ठहरे हो, मुझे भी ठहर जाने दो। इसमें बहुत लोग ठहर चुके हैं, मैं भी ठहर जाता हूं।
वह इब्राहिम उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मिल गया वह आदमी जो रात छप्पर पर ऊंट खोज रहा था। तुम ही वह आदमी मालूम पड़ते हो। अब तुम ठहरो और मैं जाता हूं।
उस फकीर ने कहा, कहां जाते हो?
तो उस राजा ने कहा, अब घर खोजने जाता हूं। क्योंकि अब तक इस सराय को घर समझा हुआ था।
जिसे हम जिंदगी समझ रहे हैं..सुरक्षित, सिक्योर्ड, मौत नहीं है, सब ठीक है..यह बनाया हुआ जो हमारा इंतजाम है, यह जो मेक बिलीफ है, यह जो हमारी तैयारी है, यह सिर्फ धोखा है। इस धोखे को टूटने में देर नहीं लगती। यह धोखा किसी दिन टूटता है। लेकिन जब टूट जाता है, तब करने का समय नहीं बचता। अभी जब तक नहीं टूटा है, करने का समय बचा है, कुछ किया जा सकता है।
तो आखिरी बात आपसे कहता हूं, प्यास को जगाने के लिए, अपनी जिंदगी में जहां-जहां जो-जो आपको दिखाई पड़ता हो, जरा गौर से देखना..जैसा दिखाई पड़ता है, ठीक उससे उलटा उसे पाएंगे। जहां दिखाई पड़ता है कि सब ठीक है, वहां कुछ भी ठीक दिखाई नहीं पड़ेगा। और जहां दिखाई पड़ता है पैरों के नीचे चट्टानें हैं, वहां गड्ढों के सिवाय कुछ भी नहीं है। और जहां दिखाई पड़ता है जिंदगी बिल्कुल सुरक्षित है, वहां सिर्फ मौत ही सुरक्षित है, और कुछ भी सुरक्षित नहीं है।
काश हमें जिंदगी की यह असली तस्वीर..जो हमारी जिंदगी है..दिखाई पड़ जाए, तो फिर हम सराय को छोड़ कर घर की खोज में नहीं निकलेंगे? निकलना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं, निकलना ही पड़ेगा। वही खोज परमात्मा की खोज बन जाती है, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई घर नहीं है। बाकी सब सराय है। जिसमें पहुंच कर फिर वापस लौटना न हो वही घर है। जिसमें पहुंच कर फिर वापस खोना न हो वही घर है। जिसमें पहुंच कर फिर और कहीं पहुंचने को कोई जगह शेष न रह जाए वही घर है। जिसको पाकर फिर पाने को कुछ और बाकी न बचे वही घर है। लेकिन यह हम अनेक आयाम से, अनेक डायमेंशंस से जिंदगी को खोजें, शायद किसी कोने से आपकी प्यास जग जाए। और अगर प्यास जग जाए तो फिर क्या करें, उस संबंध में कल आपसे बात करूंगा। प्यास न जगे तब तो करने का कोई सवाल नहीं है। प्यास जगे तो कुछ किया जा सकता है। सरोवर निकट है, जो प्यासे हैं उन्हें तत्काल मिल जाएगा। जो प्यासे नहीं हैं..सरोवर बिल्कुल मकान के पीछे हो..लेकिन जो प्यासे नहीं हैं उन्हें कभी नहीं मिल सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें