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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(रहस्य का द्वार)

एक फकीर को एक सम्राट ने फांसी दे दी थी। और उस देश का रिवाज था कि नदी के किनारे फांसी के तख्ते को खड़ा करके फांसी दे देते थे। और उस लटकते हुए आदमी को वहीं छोड़ कर लौट जाते थे। उसकी लाश नदी में गिर जाती और बह जाती। लेकिन कुछ भूल हो गई, और फकीर के गले में जो फंदा लगाया था वह बहुत मजबूत नहीं था, फकीर जिंदा ही फंदे से छूट कर नदी में गिर गया। पर किसी को पता न चला, फांसी लगाने वाले लौट चुके थे।
दस साल बाद उस फकीर को फिर फांसी की सजा दी गई। और जब उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ाया जा रहा था और सूली बांधी जा रही थी, तो उस फकीर ने कहा कि मित्रो, जरा एक बात का ध्यान रखना कि फंदा ठीक से लगाना। पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया था।
उन्होंने कहा, हम समझे नहीं, मतलब क्या है? कौन सी पिछली बार?
उसने कहा, यह फांसी दुबारा लग रही है। और मैं तैरना नहीं जानता हूं। तो पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नदी में गिर गया, और नदी तैर कर मुझे पार करनी पड़ी, और तैरना मुझे मालूम नहीं है। फंदा जरा ठीक से लगाना, फिर वैसी मुसीबत न हो जाए।


वे जो उसे फांसी दे रहे थे, बहुत हैरान हुए कि वह आदमी कैसा है! फांसी देने के पहले उन्होंने उससे पूछा कि तुम जीना नहीं चाहते? अच्छा तो था कि तुम भगवान से प्रार्थना करते कि फंदा थोड़ा फिर वैसा ही ढीला हो जैसा पिछली बार हुआ था!
तो उस फकीर ने कहा, दस साल जीकर देख लिया, कुछ पाया नहीं। अब दुबारा किस मुंह से भगवान से प्रार्थना कर सकता हूं?
हम सब जीकर देख लेते हैं बहुत वर्ष, कुछ पाते नहीं। लेकिन फिर भी जीने की आकांक्षा किए चले जाते हैं। जीने की आकांक्षा को जो समझेगा ठीक से, वह जीने की आकांक्षा का दीवाना और पागल नहीं रह जाएगा..वह जो लस्ट फॅार लाइफ है। और जब तक कोई जीने की आकांक्षा से भरा है, जीने की तृष्णा से भरा है, लस्ट फॅार लाइफ से भरा है, तब तक परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं हो सकता है।
इसलिए पहला सूत्र आपको याद रखने के लिए कहता हूं वह यह कि अपनी जिंदगी में कभी सुबह, कभी सांझ रुक कर जरा देख लेना कि इस जिंदगी में पाया क्या है? सिर्फ पूछ लेना..अपने से ही, किसी और से नहीं। क्योंकि इसका उत्तर कोई दूसरा न दे सकेगा। यह अपने से ही कभी-कभी पूछते रहें कि जिंदगी में पाया क्या है?
यह प्रश्न ही धीरे-धीरे इस जिंदगी की व्यर्थता को दिखाने का कारण बन जाता है। और जब तक यह जिंदगी व्यर्थ न हो जाए, तब तक दूसरी सार्थक जिंदगी का द्वार नहीं खुलता है। इस जिंदगी की व्यर्थता का अर्थ है: अब हम इस जिंदगी के पार होने के लिए तैयार हो गए। पहली कक्षा से विद्यार्थी दूसरी कक्षा में जाता है। उसका कुल मतलब इतना है कि अब पहली कक्षा व्यर्थ हो गई, अब उसमें सीखने जैसा कुछ भी बाकी नहीं बचा है। इस जिंदगी से हम तभी ऊपर की जिंदगी में उठ सकते हैं, जब यह जिंदगी व्यर्थ हो जाए। इससे जो सीखा जा सकता...
लेकिन इसके पहले कि पा ली गई चीज व्यर्थ हो, हम दूसरी चीज को पाने में लग जाते हैं। हमारी डिजायर्स ओवर लैपिंग हैं। एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि हम दूसरी में संलग्न हो जाते हैं। कभी मौका ही नहीं मिलता जिंदगी में कि दो इच्छाओं के बीच में खड़े होकर हम देख लें, एक विचार, पुनर्विचार कर लें, एक रिकंसिड्रेशन कर लें कि हम जो दौड़ रहे हैं, पा रहे हैं, उससे कुछ मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है?
सुना है मैंने कि काशी के एक कुत्ते को दिल्ली की यात्रा की सनक सवार हो गई थी। वह किसी एम.पी. का कुत्ता था, छोटा-मोटा कुत्ता नहीं था। और एम.पी. के घर में, चलो दिल्ली, चलो दिल्ली की बातें सुनते-सुनते उसका दिमाग भी खराब हो गया हो तो कुछ बहुत आश्चर्य नहीं है। आदमियों का हो जाता है, सो वह तो कुत्ता था। एक दिन उसने अपने नेता से पूछ ही लिया कि सारी दुनिया दिल्ली जा रही है, मैं भी दिल्ली जाना चाहता हूं। रास्ता क्या है? कैसे दिल्ली पहुंचूं?
नेता का जो अपना रास्ता था, उसने उस कुत्ते को भी बता दिया। उसने कहा कि गरीब कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि अमीर कुत्ते तुम्हारा शोषण कर रहे हैं। और अमीर कुत्तों से बचाने के लिए सिवाय मेरे और तुम्हारा कोई सेवक नहीं है। और अमीर कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि गरीब कुत्ते मिल कर तुम्हारी हत्या की कोशिश कर रहे हैं और मेरे सिवाय तुम्हें बचाने वाला सेवक और कोई भी नहीं है।
लेकिन कुत्ता भी होशियार था, राजनैतिक का कुत्ता था। उसने कहा, अगर दोनों एक साथ मिल जाएं?
तो नेता ने कहा, सर्वोदय की बात करना कि हम सबका उदय चाहते हैं, हम सबके सेवक हैं।
वह कुत्ता बहुत जल्दी नेता हो गया, सीक्रेट कुंजी उसके हाथ में आ गई। और उसने दिल्ली खबर भेज दी कि अब मैं आ रहा हूं। एक महीने का अंदाज था उसे कि काशी से दिल्ली तक आने में एक महीना लग जाएगा, इसलिए एक महीने बाद की उसने खबर की कि फलां तारीख को मैं चलूंगा और एक महीने बाद फलां तारीख को दिल्ली पहुंच जाऊंगा। दिल्ली के कुत्तों को खबर की। वहां सर्किट हाउस वगैरह में इंतजाम कर लेना, उसने सब खबर कर दी।
लेकिन वह कुत्ता सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्ते बड़े हैरान हुए कि इतनी जल्दी यात्रा कैसे की? इतनी जल्दी आ कैसे गए?
वह कुत्ता थोड़ा ही बता पाया और मर गया। क्योंकि इतनी जल्दी जिसने यात्रा की, वह जीता हुआ मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन अपनी बात कह गया। उसने कहा कि यह यात्रा मैंने नहीं की; मैं तो महीने भर में भी शायद ही पहुंच पाता; यह तो बाकी कुत्तों ने मेरी यात्रा करवाई। एक गांव को मैं छोड़ भी न पाता कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। अपनी जान बचाने को मैं भागता। वे दूसरे गांव के बाहर तक मुझे छोड़ कर लौट भी न पाते कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। और मैं जान बचाने को भागता। मैं दिल्ली नहीं आया, मैं जान बचा रहा हूं। इतना ही कहते, सुना है मैंने, वह कुत्ता मर गया था। लेकिन बड़े राज की बात वह कह गया।
आदमी भी अपनी-अपनी दिल्लियों पर पहुंच जाता है, लेकिन एक इच्छाएं दूसरे गांव तक छोड़ भी नहीं पातीं कि दूसरे गांव की इच्छाएं पकड़ लेती हैं। और सिर्फ अपने को बचाने में आदमी दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है। और आखिर में कुछ बचता नहीं और कुछ मिलता नहीं।
इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं: अपने से पूछते रहना बार-बार, क्या मिल गया है इस जिंदगी में? और यह भी पूछते रहना कि क्या मिल जाएगा? क्योंकि जो कल चाहा था वही आज भी हम चाह रहे हैं, जो परसों चाहा था वही कल भी चाहा था, जो वर्ष भर पहले चाहा था वही आज भी चाह रहे हैं। जब जिंदगी भर चाहने से कुछ नहीं मिला, तो अब क्या मिल जाएगा? जिस आदमी के सामने यह प्रश्न बहुत गहरा होकर बैठ जाता है, उस आदमी की जिंदगी में बदलाहट तत्काल शुरू हो जाती है। जब ऐसा आदमी क्रोध करेगा तो पूछेगा: क्या मिल जाएगा? और यह पूछते से ही क्रोध करना मुश्किल हो जाएगा।
मेरे एक मित्र हैं, बहुत क्रोधी हैं। तो मुझसे वे पूछते थे कि मैं क्रोध से बचने के लिए क्या करूं? बड़े नुस्खे उन्होंने उपयोग कर लिए थे, लेकिन कोई काम आया नहीं था। बड़ा संयम साध चुके थे, लेकिन जितना संयम साधा उतने क्रोधी होते चले गए थे। हां, एक-दो दिन साध लेते थे, तो तीसरे दिन दस गुना होकर प्रकट हो जाता था। तो मैंने उन्हें एक कागज लिख कर दे दिया, और उस कागज में लिख दिया कि इस क्रोध से मुझे क्या मिल जाएगा? मैंने कहा, यह अपने खीसे में रख लो। दबाना मत क्रोध को, जब क्रोध आए तो इस कागज को पढ़ कर और वापस खीसे में रख लेना।
वे पंद्रह दिन बाद मेरे पास आए और उन्होंने कहा, यह तो बड़ा अजीब कागज है! इसमें कुछ रहस्य, कुछ मंत्र, कुछ जादू है?
मैंने कहा, कोई रहस्य नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं। साधारण कागज है और हाथ की लिखावट है।
उन्होंने कहा, नहीं, जरूर कोई बात है। अब तो हालत यह हो गई है कि इसको निकाल कर पढ़ना भी नहीं पड़ता। बस हाथ खीसे की तरफ गया कि मामला एकदम विदा हो जाता है। क्योंकि जैसे ही यह ख्याल आता है..इस क्रोध से क्या मिल जाएगा? तो जिंदगी भर का तो अनुभव है कि कभी कुछ नहीं मिला। सिर्फ खोया जरूर है, मिला कुछ भी नहीं है।
और ध्यान रहे, जिस चीज से कुछ नहीं मिलता, यह मत समझना आप कि सिर्फ कुछ नहीं मिलता। जिससे कुछ नहीं मिलता उसमें कुछ खोता भी जरूर है। इस जिंदगी में या तो माइनस होता है कुछ या प्लस होता है कुछ। या तो कुछ मिलता है या कुछ खोता है, बीच में कभी नहीं होता। इस पूरी जिंदगी में या तो कुछ मिलेगा या कुछ खोएगा। और अगर आपको कुछ न मिला हो तो दूसरी बात मैं आपसे कहता हूं कि आपने कुछ खो दिया है, जिसका आपको पता भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम खड़े रह जाएं। या तो हम आगे जाएंगे, या हम पीछे जाएंगे। अपनी जगह खड़े रहने की कोई गुंजाइश नहीं है।
एडिंगटन एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ। उसने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आदमी की भाषा में रेस्ट नाम का शब्द सबसे झूठा है..रेस्ट, विश्राम। उसने लिखा कि मैं पूरी जिंदगी के अनुभव के बाद यह कहता हूं कि कोई चीज विश्राम में नहीं है, या तो चीजें आगे जा रही हैं या पीछे जा रही हैं। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। एट रेस्ट कोई भी चीज नहीं है।
मैं आपसे कहता हूं, या तो आप खोएंगे या आप पाएंगे। अगर आप पा नहीं रहे हैं, तो आप पूरे समय खो रहे हैं। लेकिन यह तो दूसरी बात होगी। पहले तो हमें यह पता चल जाए कि हम कुछ पा रहे हैं? हमें कुछ मिल रहा है? यह प्रश्न उठाना जरूरी है। जिस मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठ जाता है, उस मनुष्य को परमात्मा से बहुत दिन तक दूर रखने का कोई उपाय नहीं है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों उसकी परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू हो जाएगी।
दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि जिंदगी में जो भी है, कुछ भी ठहरता नहीं है। आ भी नहीं पाता कि चला जाता है। जिंदगी एक धारा है, नदी, एक फ्लक्स, किनारे छू भी नहीं पाते कि छूट जाते हैं। आ भी नहीं पाती कि चीज चली जाती है। चीज तो चली जाती है, लेकिन हम परेशान रह जाते हैं।
एक आदमी गाली दे जाता है। गाली आती है, गूंजती है और चली जाती है। और हमारी रात भर नींद असंभव हो जाती है। गाली तो टिकती नहीं, लेकिन हम गाली पर टिक जाते हैं। जिंदगी तो एक बहाव है, लेकिन आदमी जोर से क्लिंगिंग करता है और हर चीज को पकड़ लेता है।
एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया। क्रोध में था, गुस्से में था, थूक दिया। बुद्ध ने अपनी चादर से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा, और कुछ कहना है?
उस आदमी ने कहा, कहना? मैंने कुछ कहा नहीं, सीधा अपमान किया है आपका!
बुद्ध ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, तुम कुछ कहना ही चाहते हो, लेकिन शब्द कहने में असमर्थ होंगे, इसलिए थूक कर तुमने कहा है। बुद्ध ने कहा, अक्सर ऐसा होता है, कोई बहुत प्रेम में होता है तो शब्द से नहीं कह पाता तो वह गले लगा लेता है। कोई बहुत श्रद्धा में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो चरणों पर सिर रख देता है। कोई बहुत क्रोध में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो थूक देता है। मैं समझता हूं तुमने कुछ कहा है। और भी कुछ कहना है कि बात पूरी हो गई?
वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया होगा। वह वापस लौट गया। रात भर सो न सका। सुबह बुद्ध से क्षमा मांगने आया। उनसे कहने लगा, मुझे माफ कर दें।
बुद्ध ने कहा, किस बात की तुम माफी मांगते हो?
उसने कहा कि मैं कल आपके ऊपर थूक गया था।
बुद्ध ने कहा, न अब थूक बचा, न अब कल बचा, न अब तुम वही हो, न अब मैं वही हूं। कौन किसको क्षमा करे? कौन किस पर नाराज हो? चीजें सब बह गईं। तुम भी वही नहीं हो! क्योंकि कल तुम थूकते थे, आज तुम चरणों पर सिर रखते हो। कैसे मानूं कि तुम वही हो?
सब बह जाता है। जिंदगी एक बहाव है। इस जिंदगी में जो मकान बनाते हैं, उन्हें इस बहाव का पता नहीं है, इसलिए नदी पर मकान बनाने की कोशिश में नष्ट हो जाते हैं। लेकिन हम हर चीज को पकड़ लेते हैं जोर से। जो आदमी जिंदगी में चीजों को जोर से पकड़ रहा है, वह धारा के खिलाफ, जीवन की धारा के खिलाफ परेशान होगा। वह इतना परेशान हो जाएगा, अपने ही हाथ से।
मैंने सुना है कि सूफियों में एक कहानी है। वे कहते हैं कि एक नदी जोर से बही जाती थी, तेज थी धार, बहाव था बाढ़ का। और दो छोटे से तिनके नदी में बह रहे थे। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ा हुआ था और नदी से लड़ रहा था। और कोशिश कर रहा था कि नदी को आगे नहीं बढ़ने देगा। बहा जा रहा था, क्योंकि नदी को कहां पता चलेगा कि एक तिनका नदी को आड़ बन कर रोकने की कोशिश कर रहा है! लेकिन बड़ा बेचैन था, क्योंकि लड़ रहा था पूरे वक्त और हार रहा था पूरे वक्त। लड़ रहा था और हार रहा था। चेष्टा कर रहा था और डूब रहा था। संघर्ष कर रहा था और नीचे की तरफ बह रहा था। ऊपर चढ़ना चाह रहा था और नीचे की तरफ जा रहा था। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन तिनका बड़ा परेशान था। दूसरा तिनका नदी में आड़ा पड़ा हुआ नहीं था, सीधा पड़ा था। नदी की धार की तरफ पड़ा हुआ था। वह दूसरा तिनका नदी के साथ बह रहा था और बड़ा आनंदित था और यह सोच रहा था मन में कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। नदी को उसका भी पता नहीं था, लेकिन वह परेशान नहीं था। नदी को उन दोनों तिनकों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन उन दोनों तिनकों के दृष्टिकोण से उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क पड़ रहा था।
जिंदगी की धारा में आप आड़े तिनके की तरह पड़े हैं या जिंदगी की धारा में आप सीधे तिनके की तरह पड़े हैं? अगर जिंदगी की धारा में आप बहने को राजी हैं, तो यह जिंदगी की धारा आपको परमात्मा तक पहुंचा ही देगी। अगर आप बहने को राजी नहीं हैं, तो आप बहुत परेशान होंगे। और वह परेशानी इतना धुआं बन जाएगी कि अगर परमात्मा का सागर सामने भी आ जाए तो आपको दिखाई नहीं पड़ेगा, सिर्फ अपनी हार ही दिखाई पड़ती रहेगी, अपनी असफलता ही दिखाई पड़ती रहेगी।
तो दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं वह यह कि जिंदगी में कुछ भी ठहराव नहीं है, जिंदगी में कुछ ठहरा हुआ नहीं है। आप जिंदगी में कुछ ठहराने की कोशिश में मत पड़ जाना।
हम सब पड़े हैं कोशिश में। यह कोशिश चिंता बन जाती है। यह कोशिश विषाद बन जाती है। यह कोशिश एंग्विश, संताप बन जाती है। यह कोशिश हमें पागल कर देती है। यह कोशिश ही हमारे व्यक्तित्व को रुग्ण और बीमार कर देती है। नहीं, जिंदगी की धारा में कुछ भी ठहरता नहीं है। इसे प्रतिपल जो स्मरण रखेगा, वह विक्षिप्त नहीं होगा, वह पागल नहीं हो जाएगा।
सुना है मैंने कि एक सम्राट ने अपने वजीर को कहा था कि कोई ऐसा सूत्र मेरे लिए ले आओ किसी ज्ञानी से, जो मेरे लिए हर समय काम पड़ सके। तो एक फकीर से वे एक सूत्र ले आए। किंतु उस फकीर ने कहा कि यह ताबीज मैं देता हूं, लेकिन सम्राट तब तक इसे न खोले जब तक कि सच में ही जरूरत न पड़ जाए। तो ताबीज लटका लिया गया, वर्षों बीत गए, जरूरत कुछ खास पड़ी नहीं सम्राट को, खोला भी नहीं।
फिर दुश्मन ने हमला किया और सम्राट हार गया। और वह अपने घोड़े पर भागा जा रहा है। सब हार चुका है। दुश्मनों के घोड़ों की टाप पीछे सुनाई पड़ रही है, भाग रहा है। और पाता है आखिर में कि एक पहाड़ के किनारे पर पहुंच गया है, जहां आगे कोई रास्ता नहीं है, सिर्फ खड्ड है, रास्ता समाप्त हो गया है। दुश्मन की टाप पीछे सुनाई पड़ रही है, पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। तब उसे याद आया कि मैं वह ताबीज खोल कर देख लूं। उसने वह ताबीज खोल कर देखा, उसमें एक छोटे से कागज पर लिखा है: यह भी बीत जाएगा। बस इतना ही लिखा है: यह भी बीत जाएगा। दिस टू इ.ज नॅाट गोइंग टु स्टे। यह भी ठहरेगा नहीं। यह भी बीत जाएगा। एकदम से उसकी समझ में नहीं आया कि क्या मतलब है? लेकिन सच में ही वह भी बीत गया। वे घोड़े की टापें, वे आवाजें जंगल में कहां खो गईं, कुछ पता न रहा।
सात दिन बाद वह सम्राट उसी राजधानी में वापस पहुंच गया, सात दिन बाद वह अपने महल में बैठा। तब उसने उस फकीर को बुलवाया और कहा कि मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि इस ताबीज में क्या है? एक छोटा सा कागज का टुकड़ा और एक छोटी सी बात! लेकिन अगर यह कागज का टुकड़ा न होता, तो सम्राट ने कहा कि शायद मैं उस गड्ढे में कूद कर और आत्महत्या करने की तैयारी कर रहा था। लेकिन यह सोच कर कि यह भी बीत जाएगा, मैंने कहा, थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लूं।
सब बीत जाता है। दुख भी बीत जाते हैं, सुख भी बीत जाते हैं। दुख में स्मरण रखना कि बीत जाएगा, तो दुख पीड़ा न देगा। सुख में स्मरण रखना कि बीत जाएगा, तो सुख अहंकार न देगा। असफलता में स्मरण रखना कि बीत जाएगी, तो चिंता न होगी। सफलता में याद रखना कि बीत जाएगी, तो पागलपन पैदा न होगा। सुख में, दुख में; छाया में, प्रकाश में; बीमारी में, स्वास्थ्य में; रात में, दिन में; जवानी में, बुढ़ापे में; जन्म में, मृत्यु में..जो याद रख सकता है: यह भी बीत जाएगा, उसकी जिंदगी से तनाव, टेंशन्स विदा हो जाते हैं। उसकी जिंदगी में कोई तनाव नहीं रह जाता।
और जिसकी जिंदगी में तनाव नहीं है, वह परमात्मा के मंदिर की तरफ कदम बढ़ा सकता है। जिसकी जिंदगी में तनाव है, वह सिर्फ पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाता रहता है। हम सब पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाए चले जाते हैं। कोई जरा दरवाजे पर पहुंच गया है, कोई दरवाजे के भीतर पहुंच गया है, कोई दरवाजे से जरा दूर है, कोई सड़क पर है, कोई चैराहे पर है, लेकिन रुख, चेहरा हमारा पागलखाने की तरफ है।
विलियम जेम्स एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। वह एक दफा पागलखाने में गया तो फिर लौट कर कभी प्रसन्न नहीं हो सका। दिन बीतने लगे, उसकी पत्नी चिंतित, उसके मित्र चिंतित। उन्होंने कहा, तुम इतने उदास क्यों हो गए हो?
तो विलियम जेम्स ने कहा कि जब से मैं पागलखाने से लौटा हूं, मेरी सारी खुशी चली गई!
पर उन्होंने कहा, ऐसी क्या बात है पागलखाने में?
तो विलियम जेम्स ने कहा, पागलखाने में जिन लोगों को मैंने देखा, कल वे सभी लोग मेरे ही जैसे लोग थे। तो मुझे यह ख्याल आया कि कहीं ऐसा तो न होगा कि किसी दिन मैं भी पागलखाने में पड़ जाऊं?
उन सबने समझाया कि तुम व्यर्थ की बातों में पड़े हो। तुम क्यों पागल होने लगे?
तो विलियम जेम्स ने कहा कि उनके घर के लोग भी उनको यही समझाते, अगर वे कहते कि हम पागल तो न हो जाएंगे! तो वे कहते कि तुम पागल क्यों होओगे? कैसी बातों में पड़े हो? लेकिन वे पागल हो गए। मुझे कौन पागल होने से रोक सकेगा? क्योंकि चिंतित हूं मैं वैसा ही जैसे वे लोग कल चिंतित थे। आज उनकी चिंता की मात्रा बढ़ गई है, बस इतना ही फर्क है। परेशान हूं मैं भी जैसे वे लोग परेशान थे। उनकी परेशानी सौ डिग्री पार कर गई है। मेरी परेशानी अट्ठानबे डिग्री पर होगी, नब्बे डिग्री पर होगी। लेकिन कितनी देर लगेगी कि मैं भी सौ डिग्री के पास नहीं पहुंच जाऊंगा?
हम सब चिंतित, परेशान, तनाव से भरे हुए, पागलखाने की तरफ मुंह किए हुए हैं। परमात्मा की तरफ मुंह, पागलखाने की तरफ पीठ करने से होता है। और पागलखाने की तरफ पीठ वही कर सकता है जो जिंदगी में जरा भी तनाव नहीं पालता। पालता ही नहीं तनाव, जो टेंशन्स मोल ही नहीं लेता। चीजें आती हैं, बीत जाती हैं, वह खड़ा रह जाता है। तूफान आते हैं, बड़े वृक्ष गिर जाते हैं। क्योंकि बड़े वृक्ष बड़े तनाव पालते हैं, बड़े अकड़े होते हैं। ऊंचे होने का पागलपन और अहंकार हो जाता है। तूफान आते हैं तो बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, छोटे घास के पौधे झुक जाते हैं। तूफान चला जाता है, पौधे वापस खड़े हो जाते हैं।
जिंदगी तूफान है, बहुत आंधियां हैं वहां। चैबीस घंटे न मालूम क्या-क्या चारों ओर हो रहा है। जो आदमी एक-एक तूफान में टूटेगा, वह आदमी टूट ही जाएगा। जो आदमी प्रत्येक तूफान में जानेगा..यह भी बीत जाएगा, वह आदमी हर तूफान के बाद फिर खड़ा हो जाएगा। और जो सैकड़ों तूफानों के बाद खड़ा हो जाता है, फिर उसे तूफान तूफान नहीं, खेल मालूम पड़ने लगते हैं। फिर तूफान घबड़ाते नहीं, लीला हो जाते हैं।
धार्मिक व्यक्ति के चित्त निर्माण में यह दूसरा सूत्र भी बहुत जरूरी है कि हम जिंदगी में ऐसे गुजर जाएं जैसे कोई आदमी पानी से गुजरे और पानी उसके पैरों को न छुए। बड़ा मुश्किल है! पानी से गुजरेगा तो पानी तो पैरों को छुएगा ही। लेकिन जिंदगी से जरूर आदमी ऐसे गुजर सकता है कि जिंदगी उसे न छुए। जिंदगी छूती नहीं, हम पकड़ लेते हैं।
अब बुद्ध चाहते तो पकड़ सकते थे कि यह आदमी थूक गया, इसने क्यों थूका? अब मैं क्या करूं और क्या न करूं? और रात भर चिंतित हो सकते थे। वे पकड़ लेते।
थूक आया और गया, गाली आई और गई। पकड़ते हैं हम, जिंदगी हमें कुछ नहीं पकड़ाती। हम जोर से पकड़ लेते हैं। और हमारी पकड़, हमारी क्लिंगिंग हमारी चिंता, हमारी बेचैनी बन जाती है। और धीरे-धीरे हम इतने अशांत हो जाते हैं कि हम लोगों से पूछते फिरते हैं कि शांत कैसे हों? मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांत कैसे हों?
मैं उनसे पूछता हूं कि पहले तुम मुझे बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जब तक यह पता न चल जाए कि तुम कैसे अशांत हुए, तो शांत कैसे हो सकोगे!
एक आदमी मेरे पास लाया गया। उसने कहा, मैं अरविंद आश्रम से आता हूं। शिवानंद के आश्रम गया हूं। महेश योगी के पास गया हूं। ऋषिकेश हो आया। यहां गया, वहां गया। रमण के आश्रम गया हूं। कहीं शांति नहीं मिलती। तो किसी ने आपका मुझे नाम दिया तो मैं आपके पास आया हूं।
तो मैंने कहा, इसके पहले कि तुम निराश होकर लौट जाओ, तुम लौट जाओ पहले ही। नहीं तो तुम और लोगों से भी जाकर कहोगे कि वहां भी गया और शांति नहीं मिली। तो तुम अभी ही लौट जाओ, इसके आगे बात करनी उचित नहीं है।
उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैं तो बड़ी आशा से आया हूं।
तो मैंने उस आदमी को कहा कि अशांति सीखने तुम किस आश्रम में गए थे? किस गुरु से अशांति सीखी? अशांति तुम सीखोगे और शांति मैं न दे पाऊंगा तो अपराधी मैं हो जाऊंगा। मैंने उस आदमी से पूछा, तुम फिकर छोड़ो शांति की, तुम मुझे यह बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जो अशांत होने का ढंग है उसी में कुंजी छिपी है शांत होने की, और कहीं कोई शांति नहीं खोज सकता।
अशांत होते हैं हम, जिंदगी के साथ जोर से चिपक जाते हैं इसलिए अशांत होते हैं। जिंदगी को बहने नहीं देते, तिनके की तरह आड़े लड़ते हैं जिंदगी से, तो अशांत होते हैं। उस तिनके की तरह सीधे नहीं नदी में बह जाते। नहीं तो फिर अशांति का कोई कारण नहीं है। अशांत हम होते हैं, हमारा जीवन के प्रति जो ढंग है, उससे। वह जो हमारा वे अॅाफ लिविंग है, उससे हम अशांत होते हैं। और शांति हम खोजते हैं कि किसी मंत्र से मिल जाए, किसी माला से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि परमात्मा की कृपा से मिल जाए। हम अशांत होने का पूरा इंतजाम करते चले जाते हैं और शांति खोजते रहते हैं। तब यह शांति की खोज सिर्फ एक और नई अशांति बन जाती है, और कुछ भी नहीं होता।
इसलिए साधारण आदमी साधारण रूप से अशांत होता है, धार्मिक आदमी असाधारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, शांति भी चाहिए। और वह जो चाहिए था सब, वह तो चाहिए ही..वह धन भी चाहिए, वह यश भी चाहिए, वह पद भी चाहिए..वह सब तो चाहिए ही, शांति भी चाहिए। उसकी फेहरिस्त में एक आयटम चाह का और बढ़ गया..शांति भी चाहिए। आगे लिखेगा: परमात्मा भी चाहिए। और उसकी अशांति और बढ़ जाएगी। इसलिए किसी घर में एक आदमी तथाकथित धार्मिक हो जाए, तो खुद तो अशांत होता है, बाकी लोगों को भी शांत रहने देने में दिक्कत डालने लगता है। सबको गड़बड़ कर देता है। शांति चाहिए, यह भी उसके लिए अशांति ही बन जाती है।
शांति चाही नहीं जा सकती, सिर्फ अशांति समझी जा सकती है। शांति को चाहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि चाह अशांति है। इसलिए शांति को कैसे चाहिएगा? वह तो कंट्राडिक्ट्री हो जाएगी। शांति को कोई नहीं चाह सकता। शांति को डिजायर अॅाब्जेक्ट नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि सब इच्छाएं अशांति पैदा करती हैं, इसलिए शांति इच्छा नहीं बन सकती। सिर्फ अशांति को कोई समझ ले और अशांत न हो, तो जो शेष रह जाता है उसका नाम शांति है। शांति एब्सेंस है। शांति सिर्फ अभाव है।
स्वास्थ्य क्या है? अगर किसी डाक्टर से पूछें जाकर..स्वास्थ्य क्या है? तो वह कहेगा..बीमारियों का अभाव। इसलिए अगर किसी डाक्टर से कहें कि मुझे स्वास्थ्य का इंजेक्शन लगा दें! तो वह कहेगा, क्षमा करें मुझे। हम बीमारी काटने का इंजेक्शन लगा सकते हैं, स्वास्थ्य का कोई इंजेक्शन नहीं है। डाक्टर से आप कहें कि हमें स्वास्थ्य दे दीजिए! तो वह कहेगा, हम बीमारी छीन सकते हैं, स्वास्थ्य कैसे दे देंगे? हां, बीमारी नहीं बचेगी तो जो बच रहेगा वह स्वास्थ्य है।
इसलिए किसी मेडिकल साइंस की किसी किताब में..चाहे आयुर्वेद हो, और चाहे एलोपैथी हो, और चाहे होमियोपैथी हो..स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं है, कोई डेफिनीशन नहीं है कि स्वास्थ्य क्या है। सिर्फ बीमारियों की परिभाषाएं हैं कि बीमारी क्या है। और जहां बीमारी नहीं होती, वहां जो शेष रह जाता है, वह स्वास्थ्य है। इसलिए स्वास्थ्य की सब परिभाषाएं निगेटिव हैं, सब नकारात्मक हैं। बीमारी जहां नहीं है, वहां स्वास्थ्य है।
अशांति के कारण जहां नहीं हैं, वहां शांति है।
और ध्यान रहे, अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलती में पड़ेंगे। परमात्मा से आपका संबंध ही तब होगा जब आप शांत होंगे। इसलिए परमात्मा कोई शांति नहीं दे सकता। अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलत कंडीशन लगा रहे हैं। परमात्मा से संबंध ही तब होता है जब आप शांत हों। और जिससे संबंध ही नहीं है, उसकी तरफ की गई प्रार्थना अंधेरे में फिंक जाती है, कहीं नहीं पहुंचती। जिससे संबंध नहीं, कम्युनिकेशन नहीं, उसके साथ प्रार्थना का संबंध नहीं बन पाता। शांत आदमी ही प्रार्थना कर सकता है।
लेकिन अब तक अशांत आदमी प्रार्थना करता रहता है। और अशांत आदमी सोचता है..हमारी प्रार्थना सुनी नहीं जा रही। वह ऐसा ही है कि टेलीफोन बिना उठाए आदमी बोले चला जा रहा है और सोचता है..दूसरी तरफ कोई सुन नहीं रहा!
मैंने सुना है कि एक आदमी ने अपने घर की कॅालबेल सुधरवाने के लिए एक मेकेनिक को बुलाया हुआ था। बाहर जो घंटी लगी है घर के भीतर बुलाने की। दो दिन बीत गए, तीन दिन बीत गए, वह मेकेनिक नहीं आया। तो उसने फिर उसे फोन किया कि तुम आए नहीं, मैं तीन दिन से रास्ता देख रहा हूं।
उसने कहा, मैं आया था, मैंने कॅालबेल बजाई थी, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला।
अब उसको कॅालबेल सुधरवाने के लिए बुलाया हुआ था। वह सज्जन ने कॅालबेल बजाई, किसी ने नहीं सुनी इसलिए वापस लौट गए।
अधिक लोगों की प्रार्थनाएं इसी तरह की कॅालबेल पर हाथ रखना है, जो बिगड़ी पड़ी है, जो कहीं नहीं बजेगी। वे जिंदगी भर प्रार्थना करते रहें, कहीं नहीं सुनी जाएगी। फिर नाराज परमात्मा पर होंगे आप।
नाराज अपने पर हों, परमात्मा का इसमें कोई कसूर नहीं है। परमात्मा के साथ कम्युनिकेशन का, संवाद का जो पहला सूत्र है, वह शांति है। शांति के ही द्वार से हम उससे संबंधित होते हैं। या इससे उलटा कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। अशांति के कारण हम उससे डिसकनेक्ट हो जाते हैं, अशांति के कारण हम असंबंधित हो जाते हैं। शांति के कारण हम संबंधित हो जाते हैं। शांति संबंध है, अशांति असंबंध है। बीच का तार कट गया, टूट गया।
इसलिए परमात्मा से शांति मत मांगना, शांति आप लेकर जाना उसके द्वार पर। आनंद उससे मिल सकता है, शांति आपको बनानी पड़ेगी।
इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा। शांति हमारी पात्रता है, आनंद उसका प्रसाद है। शांत हमें होना होगा, आनंद से वह हमें भर देगा। शांति हमारी पात्रता है, आनंद उसकी वर्षा है। तो आनंद तो प्रसाद है। आप आनंदित नहीं हो सकते, आप सिर्फ शांत हो सकते हैं। आनंद बरसेगा। ऐसा समझें, शांति हमारा पात्र है और आनंद उसकी नदी है, जिससे हम अपने पात्र में पानी को भर लाते हैं।
लेकिन आप बिना ही पात्र के नदी के पास चले गए हैं और चिल्ला रहे हैं, और नदी से ही कह रहे हैं कि पात्र दे दे!
नदी पानी दे सकती है, पात्र आपके पास होना चाहिए। परमात्मा से लोग पात्र मांग रहे हैं। पात्र तो आपको होना पड़ेगा।
इसलिए दूसरा सूत्र आपकी पात्रता के लिए कह रहा हूं: जीवन को पकड़ें मत, बहने दें। फिर आप अशांत न होंगे। पकड़ अशांति लाती है। जिस चीज को पकड़ लेते हैं, वही अशांति ले आती है। चाहे आप प्रेम को पकड़ लें। कल एक आदमी मित्र था, आज मित्र नहीं है, तो आप अशांत हो रहे हैं। क्यों अशांत हो रहे हैं? इतना ही क्या कम है कि वह कल मित्र था। आज भी मित्र हो, यह आपकी पकड़ है। आप कह रहे हैं, कल मित्र थे तो आज भी मित्र होना ही चाहिए। बस अब आप अशांत होंगे। इतना ही क्या कम है कि वह कल मित्र था। कल के लिए धन्यवाद दे दें और बात समाप्त हो गई। तो फिर अशांत न होंगे।
अपेक्षाएं हमारी, एक्सपेक्टेशंस हमारी पकड़े हैं। हम कहते हैं, ऐसा होना ही चाहिए।
अभी एक मित्र के घर में मैं ठहरा था। वे बड़े परेशान थे। टैं्रक्वेलाइजर पर टैं्रक्वेलाइजर ले रहे थे और नींद आती नहीं थी, और बड़े बेचैन थे, और चिकित्सकों ने कहा कि इनको तो अब शायद बिजली के शॅाक देने पड़ेंगे। पुराने मित्र थे, उनके घर मैं गया था। तो मैंने पूछा कि बात क्या है?
तो वे कहने लगे, बड़ा नुकसान लग गया। कोई पांच लाख रुपये का नुकसान लग गया।
मुझे कुछ पता नहीं था। मैंने उनकी पत्नी से पूछा कि ये ठीक कह रहे हैं?
उसने कहा कि एक लिहाज से तो ठीक कह रहे हैं। लेकिन दूसरे लिहाज से ठीक नहीं कह रहे हैं। इनसे पूछिए, लाभ कितना हुआ?
तो मैंने उनसे पूछा, लाभ कितना हुआ?
उन्होंने कहा, लाभ क्या कुछ खास नहीं हुआ, एक लाख रुपये का ही लाभ हुआ। पांच लाख का नुकसान हो गया।
वे सज्जन छह लाख रुपये की आशा बांधे हुए थे कि छह लाख का लाभ होगा। पांच लाख का नुकसान हो गया, क्योंकि लाख का ही लाभ हुआ। अब उनकी नींद हराम हो गई है, अब वे परेशान हुए जा रहे हैं। तब मुझे पता चला कि उनकी हानि जो है वह बड़ी अदभुत है। लेकिन हम सब की हानियां भी ऐसी ही हैं। हम सब की हानियां ऐसी ही हैं। हम जो एक्सपेक्ट करते हैं, उतना पूरा नहीं होता तो हानि लगती है।
एक आदमी से रास्ते पर मैं आशा करता हूं कि वह नमस्कार करे। नहीं करता, दुख शुरू हो गया। लेकिन मुझे क्या हक है कि मैं अपेक्षा करूं कि वह नमस्कार करे? नमस्कार न करे, दुख हो गया। अगर वह पत्थर मार दे तो और दुख हो गया। लेकिन उसने पत्थर ही मारा, चट्टान नहीं पटक दी, यही कोई कम है?
बुद्ध का एक शिष्य था, पूर्ण काश्यप। जब उसकी शिक्षा पूरी हो गई तो बुद्ध ने उससे कहा कि अब तुम जाओ और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा दो।
तो उस पूर्ण ने कहा कि मैं सूखा नाम की एक जगह है बिहार में, वहां जाना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहा, वहां मत जा, वहां के लोग अच्छे नहीं हैं।
तो पूर्ण ने कहा, जहां के लोग अच्छे हैं, वहां जाकर भी मैं क्या करूंगा? जहां लोग अच्छे नहीं हैं, वहीं जाने की आज्ञा दें। वहीं मेरी जरूरत भी है। चिकित्सक की जरूरत है कि बीमारों में जाए, शिक्षक की जरूरत है कि अज्ञानियों में जाए। तो मेरी जरूरत वहां है, साधु की जरूरत वहां है जहां असाधु हों। तो मुझे वहां जाने दें।
बुद्ध ने कहा, तू जा जरूर, लेकिन मेरे तीन सवालों का जवाब देता जा। पहला तो यह कि अगर वहां के लोग तुझे गालियां दें, अपमानजनक शब्द बोलें, तो तेरे मन को क्या होगा?
उसने कहा, मेरे मन को होगा कि लोग बहुत अच्छे हैं, क्योंकि सिर्फ गालियां देते हैं, मार-पीट नहीं करते, इतना ही क्या कम है!
बुद्ध ने कहा, और अगर वे मार-पीट ही करने लगें, तो तेरे मन को क्या होगा?
तो उसने कहा, मेरे मन को होगा कि लोग बहुत अच्छे हैं, सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते। मार डाल भी सकते हैं।
बुद्ध ने कहा, बस आखिरी सवाल और कि अगर वे तुझे मार ही डालें, तो मरते क्षण में, आखिरी क्षण में तेरे मन को क्या होगा?
तो उस पूर्ण ने कहा कि मेरे मन को होगा कि अच्छे लोग हैं, उस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी, जिसमें कोई भटकाव हो सकता था, कोई गलती हो सकती थी।
अब ऐसे आदमी को अशांत आप नहीं कर सकते। और ऐसा आदमी ही शांति का पात्र बन जाता है। और ऐसे आदमी की जिंदगी में ही परमात्मा के आनंद की वर्षा होती है।
इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं: जीवन में कुछ भी पकड़ें मत। अपेक्षा में भी मत पकड़ें, तथ्य में भी मत पकड़ें, आकांक्षा में भी मत पकड़ें। पकड़ने के कारण सिवाय दुख के और कभी कुछ भी नहीं मिला है, न मिल सकता है।
लेकिन हम जोर से पकड़े चले जाते हैं। हर चीज पकड़े चले जाते हैं। और तब अपने चारों तरफ इतने पकड़ का जाल बुन लेते हैं कि दुख ही दुख, अशांति ही अशांति जीवन को घेर लेती है। फिर सिर्फ हम एक राख के एक ढेर रह जाते हैं जिसमें अशांति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है।
तीसरी बात आपसे कहूं। और ये तीन सूत्र अगर आप ख्याल में ले लें तो आप परमात्मा की फिकर छोड़ सकते हैं, क्योंकि फिर परमात्मा आपकी फिकर कर लेता है। परमात्मा को बिल्कुल फिर आप भूल सकते हैं, क्योंकि फिर परमात्मा आपको नहीं भूल सकता है। पहला सूत्र, दूसरा, अब तीसरा मैं आपसे कहूं। तीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं और वह यह कि जो हमें दिखाई पड़ता है, जो हमें सुनाई पड़ता है, जो हमारी समझ में आता है, उतना ही सब कुछ नहीं है। बहुत कुछ है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। बहुत कुछ है जो हमें सुनाई नहीं पड़ता। बहुत कुछ है जो हमारी समझ में नहीं आता। उचित भी यही है। हमारी समझ की भी सीमा है, आंख की भी सीमा है, कान की भी सीमा है। हम सीमित हैं। लेकिन मनुष्य अपनी सीमा को अस्तित्व की सीमा मान लेता है, तब कठिनाई शुरू हो जाती है। वह कहता है, जो मुझे दिखाई पड़ता है वही सत्य है। तब जो दिखाई नहीं पड़ता, उसे वह असत्य कहने लगता है। वह कहता है, जो मुझे सुनाई पड़ता है वही है, जो नहीं सुनाई पड़ता वह नहीं है। और बहुत कुछ है जीवन में जो सुनाई नहीं पड़ता है और है। बहुत कुछ है जीवन में जो हाथ की पकड़ में नहीं आता है और है। लेकिन हम साधारणतः अपनी सीमाओं को जीवन की सीमाएं समझ लेते हैं।
जिस आदमी ने अपनी सीमाओं को जीवन की सीमाएं समझा, उसी आदमी को मैं अधार्मिक आदमी कहता हूं। उसे चाहे नास्तिक कहें, उसे चाहे हम मैटीरियलिस्ट कहें, भौतिकवादी कहें, कोई भी नाम दे दें। जिस आदमी ने अपनी सीमाओं को जीवन की सीमा समझा, उसे मैं अधार्मिक आदमी कहता हूं। यह ऐसे ही है जैसे बूंद अपनी सीमा को सागर की सीमा समझे। हम बूंद से ज्यादा नहीं हैं। हम अपनी सीमा को जगत पर न थोपें।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो आपको दिखाई पड़े, कहना, वहां तक मुझे दिखाई पड़ता है; आगे होगा, मुझे दिखाई नहीं पड़ता। जो मेरी हाथ की पकड़ में आता है, वह मेरी पकड़ में आता है; आगे मेरी पकड़ में नहीं आता, होगा कि नहीं होगा, मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं।
क्यों यह तीसरा सूत्र आपसे कह रहा हूं?
क्योंकि परमात्मा आपके द्वार में प्रवेश करता है रहस्य के मार्ग से, मिस्ट्री के मार्ग से। हमने अपनी जिंदगी में सब रहस्य बंद कर लिया है। रहस्य है ही नहीं कहीं। सब चीजें हमें मालूम हैं; हालांकि कुछ भी मालूम नहीं है। सब हमें पता है; हालांकि कुछ भी पता नहीं है। डाक्टर हजारों बीमारों को ठीक कर रहा है। फिर भी उसे पता नहीं है कि वह क्या है जो स्वास्थ्य है। उसे कुछ भी पता नहीं है। लाखों मरीजों को मरने से बचा रहा है या मरने में सहयोग दे रहा है। लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं है कि वह क्या है जो जीवन है।
एक छोटी सी घटना मुझे आती है याद। एडीसन एक गांव में गया हुआ था। और गांव के स्कूल में एक प्रदर्शनी भरी है और गांव के स्कूल के बच्चों ने बहुत से खेल-खिलौने बनाए हैं। एडीसन ने तो एक हजार आविष्कार किए। विज्ञान के इतने आविष्कार किसी दूसरे आदमी ने नहीं किए। और इलेक्ट्रिसिटी का तो वह सबसे बड़ा ज्ञाता था। तो उस गांव के स्कूल में गया है देखने। बूढ़ा आदमी..और जब ज्ञानी, बूढ़ा, सच में ज्ञानी होता है, तो बच्चों से भी, और बच्चे भी कुछ कर रहे हैं, इससे भी सीखने चला जाता है। सोचा कि पता नहीं बच्चों ने क्या किया है? वह गया। अब बच्चे क्या करते? कहीं नाव बनाई हुई है छोटी सी, बिजली से चलती है। मोटर बनाई है, ट्रेन बनाई है। वह पूछने लगा बच्चों से। उसे कोई जानता नहीं उस गांव में कि वह एडीसन है। वह बच्चों से पूछने लगा कि यह कैसे चल रही है?
तो उन बच्चों ने कहा, इलेक्ट्रिसिटी से चल रही है।
तो उसने पूछा, व्हाट इ.ज इलेक्ट्रिसिटी? बिजली क्या है?
तो उन बच्चों ने कहा कि यह तो हम न बता सकेंगे। हम तो सिर्फ बटन दबा कर इसको चला कर बता सकते हैं। लेकिन हमारा शिक्षक है, वह ग्रेजुएट है। हम उसको बुला लाते हैं, वह शायद आपको बता सके। वह शिक्षक बी.एससी. है, वह आ गया। उसको पूछा, यह बिजली क्या है?
तो उसने कहा, बिजली! बिजली एक प्रकार की शक्ति है।
उसने कहा कि फिर भी वह शक्ति क्या है?
तो उसने कहा, यह तो आप जरा कठिन सवाल पूछते हैं, यह मुझसे नहीं बन सकेगा। हमारा पिं्रसिपल डी.एससी. है, वह डाक्टर अॅाफ साइंस है, उसको हम बुला लाते हैं।
वह डाक्टर अॅाफ साइंस आ गया। उनको किसी को पता नहीं है कि सामने जो आदमी खड़ा है वह एडीसन है। वह पूछता है कि बिजली क्या है? तो वह जो डी.एससी. है, पिं्रसिपल, वह बताता है बिजली कैसे पैदा होती है।
तो वह कहता है, मैं यह नहीं पूछता कि कैसे पैदा होती है, मैं यह पूछ रहा हूं कि जो पैदा होती है वह क्या है?
तो वह डाक्टर बताता है, बिजली कैसे काम करती है। हाउ इट वक्र्स।
तो वह एडीसन कहता है, मैं यह नहीं पूछा कि वह कैसे काम करती है। मैं यह पूछता हूं, वह क्या है जो काम करती है?
उसने कहा, आप बड़े कठिन सवाल पूछ रहे हैं, इनका बड़ा मुश्किल है।
तो वह बूढ़ा एडीसन हंसने लगा, उसने कहा, घबड़ाओ मत, मैं एडीसन हूं और मैं भी नहीं जानता कि बिजली क्या है! मैं भी इतना ही बता सकता हूं..कैसे काम करती है, कैसे पैदा होती है। मैं भी नहीं जानता कि बिजली क्या है!
यह आदमी धार्मिक आदमी हो सकता है। इसकी जिंदगी में रहस्य का द्वार खुला है। लेकिन हम? हम सब तरफ से रहस्य का द्वार बंद कर लेते हैं। सब चीजें, ऐसा लगता है, हमें मालूम हैं। जिस आदमी को ऐसा लगता है सब मालूम है, वह क्लोज्ड हो गया, बंद हो गया। उसके दरवाजे, द्वार, खिड़कियां, सब बंद हो गए। अब परमात्मा कहीं से भी कोशिश करे, तो उसने रंध्र भी नहीं छोड़ी है कि उसमें प्रवेश कर जाए।
मिस्ट्री धर्म है। रहस्य धर्म है।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि प्रतिपल रहस्य को खोजते रहना। सुबह सूरज निकले तो भी खोजना कि रहस्य कहां है? रात तारे निकलें आकाश में तो भी खोजना कि रहस्य कहां है? बच्चे की आंखें चमकें तो भी खोजना कि रहस्य कहां है? स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़े तो भी खोजना कि सौंदर्य का रहस्य कहां है? फूल खिले तो भी खोजना कि रहस्य कहां है? पक्षी गीत गाएं तो भी खोजना कि रहस्य कहां है?
यह पूरी जिंदगी चारों तरफ बड़ी अज्ञात ध्वनियों से भरी है। यह पूरी जिंदगी चारों तरफ बड़े अज्ञात पदचापों से भरी है। यह पूरी जिंदगी में चारों तरफ रहस्य ही रहस्य है। हम अंधे हैं, हम कान बंद किए बैठे हैं। हम ज्ञानी हैं, हम क्लोज्ड हैं, हमने द्वार-दरवाजे बंद कर लिए हैं। यहां हर चीज रहस्य है..मिट्टी का एक कण, सूरज की एक किरण, फूल का खिलना..सब रहस्य है। लेकिन हम बिल्कुल बंद हैं।
जो आदमी इस तरह बंद है, क्लोज्ड माइंड है, उस आदमी की जिंदगी में कैसे परमात्मा प्रवेश करे? द्वार खुला चाहिए।
तीसरा सूत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि आपकी जिंदगी रहस्य को खोजने में समर्थ हो जाए। और आप अगर हर जगह रहस्य को देखने लगे और ऐसी जगह आपको रोज-रोज मिलने लगे जहां आपका ज्ञान काम न पड़े, जहां आपका ज्ञान गिर जाए, जहां आपकी समझदारी व्यर्थ हो जाए, जहां आपकी बुद्धि इनकार कर दे आगे जाने से, तो आप समझना कि जगह-जगह से परमात्मा से आपके संबंध होने शुरू हो गए। परमात्मा का जो पहला अनुभव है, वह रहस्य की भांति ही प्रवेश करता है। उसकी जो पहली प्रतीति है, उसकी जो पहली पुलक है, उसका जो पहला स्पर्श है, वह रहस्य का स्पर्श है।
हमारी यह जो दुनिया है, जितने हम सभ्य होते चले गए हैं, उतनी ही रहस्य से दूर आती चली गई है। इस दुनिया के अधार्मिक होने का कारण और कुछ भी नहीं है, हम धीरे-धीरे रहस्य से दूर आते चले गए हैं। और अब हमने एक अपने चारों तरफ जो सभ्यता का जाल बनाया है, वह आदमी का बनाया हुआ है, इसलिए उसमें कोई रहस्य नहीं है। सीमेंट की सड़क में क्या रहस्य हो सकता है? हमारी बनाई हुई है। सीमेंट के बड़े मकानों में क्या रहस्य हो सकता है? चंडीगढ़ के मकानों में बहुत रहस्य नहीं हो सकता। आदमी के अपने बनाए हुए हैं, ढाले हुए हैं। न्यूयार्क की सड़कों में रहस्य क्या हो सकता है? बड़े कारखाने में, मशीनों के बीच रहस्य क्या हो सकता है? जो भी आदमी ने बनाया है, उसमें रहस्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो आदमी ने ही बनाया है, उसमें रहस्य का सवाल कहां है! जिसे हम बना सकते हैं, वह रहस्य नहीं है। इसलिए जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ी है, वैसे-वैसे प्रकृति और जगत और विश्व का जो रहस्य है, उसके और हमारे बीच दीवाल खड़ी हो गई है।
लंदन में पिछली बार बच्चों का एक सर्वे किया गया। तो दस लाख बच्चों ने यह कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है। सात लाख बच्चों ने यह कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। सात लाख बच्चे, उन्होंने खेत नहीं देखा है! जिस बच्चे ने खेत नहीं देखा है, इस बच्चे की जिंदगी में परमात्मा आसान होगा? बहुत मुश्किल हो जाएगा। सब आदमी का बनाया हुआ इंतजाम है। आदमी का बनाया हुआ इंतजाम मेकेनिकल डिवाइस है, उसमें रहस्य नहीं है, उसमें मिस्ट्री नहीं है। परमात्मा का एक बीज भी टूटे तो रहस्य है और आदमी एटम बम भी फोड़ डाले तो रहस्य नहीं है।
तो जिंदगी में रहस्य की खोज। सुबह उठ जाएं, जब अभी आखिरी तारे डूबने को हैं। कुछ न करें। जरूरत नहीं कि किसी मस्जिद में जाएं। मस्जिद आदमी की बनाई हुई है, बहुत रहस्य नहीं है। जरूरत नहीं कि किसी मंदिर में जाएं। मंदिर आदमी का बनाया हुआ है, बहुत रहस्य नहीं है। जरूरत नहीं कि किसी आदमी की बनाई हुई प्रतिमा के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जाएं। आदमी की बनाई हुई प्रतिमा में बहुत रहस्य नहीं है। सुबह जब आखिरी तारे डूबते हों, तब हाथ जोड़ कर उन तारों के पास बैठ जाएं और उन तारों को डूबते हुए, मिस्ट्री में खोते हुए देखते रहें। और आपके भीतर भी कुछ डूबेगा, आपके भीतर भी कुछ गहरा होगा। सुबह से उगते हुए सूरज को देखते रहें। कुछ न करें, सिर्फ देखते रहें। उगने दें। उधर सूरज उगेगा, इधर भीतर भी कुछ उगेगा। खुले आकाश के नीचे लेट जाएं और घंटे दो घंटे, सिर्फ आकाश को देखते रहें, तो विस्तार का अनुभव होगा। कितना विराट है सब, आदमी कितना छोटा है! फूल को खिलते हुए देखें, चिटकते हुए, उसके पास बैठ जाएं, उसके रंग और उसकी सुगंध को फैलते देखें। एक पक्षी के गीत के पास कभी रुक जाएं, कभी किसी वृक्ष को गले लगा कर उसके पास बैठ जाएं। और आदमी के बनाए मंदिर-मस्जिद जहां नहीं पहुंचा सकेंगे, वहां परमात्मा का बनाया हुआ रेत का कण भी पहुंचा सकता है। वही है मंदिर, वही है मस्जिद।
लेकिन आदमी बड़ा होशियार है, वह अपने लिए भी मकान बनाता है, परमात्मा के लिए भी मकान बना देता है। कहता है, हम इधर रहेंगे, तुम इधर रहो। कभी भी जरूरत होगी, आ जाएंगे, मिल लेंगे, दो बात कर लेंगे, ताला डाल कर वापस चले जाएंगे कि कहीं भाग भी न जाओ। एक नौकर रख देंगे, एक पुजारी बिठा देंगे, वह तुम्हारी पूजा भी कर देगा, अगर हमें फुर्सत न मिली तो वह फूल चढ़ा देगा।
धर्म को हमने फॅार्मल, औपचारिक बनाया हुआ है।
परमात्मा सब तरफ मौजूद है। ऐसा नहीं कह रहा हूं कि मंदिर में मौजूद नहीं है। लेकिन जिसे सब जगह दिखाई पड़ेगा, उसे मंदिर में भी दिखाई पड़ सकता है। लेकिन जिसे सिर्फ मंदिर में होने का ख्याल है, उसे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ सकता। वह असंभव है। वह असंभव है।
जिंदगी चारों तरफ से उसकी खबर दे रही है। उत्सुकता चाहिए, रहस्य का भाव चाहिए, आश्चर्य का बोध चाहिए। रुक कर ठहर कर देखने की क्षमता चाहिए। एक परसेप्शन चाहिए, एक दृष्टि चाहिए।
यह तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं: रहस्य को स्मरण रखें और दिन में दस-पांच बार कोई न कोई जगह खोज लें, जहां से रहस्य से आपका संबंध हो जाए। एक बच्चा मुस्कुरा रहा है रास्ते पर, तो खड़े हो जाएं दो क्षण, उसकी हंसी को देख लें। किसी की आंख से आंसू टपक रहा है, तो दो क्षण रुक जाएं, उसके आंसू को टपकते देख लें। जिंदगी में चारों तरफ न मालूम कितनी महत्वपूर्ण घटनाएं प्रतिपल घट रही हैं। लेकिन हम आदी हो गए हैं, हैबिचुअल हो गए हैं, उनकी तरफ देखते ही नहीं, बस भागे चले जा रहे हैं..कोई अपनी दुकान जा रहा है, कोई अपने मंदिर जा रहा है, कोई बाजार जा रहा है, कोई आश्रम जा रहा है..भागे जा रहे हैं। और जिंदगी चारों तरफ पुकार रही है: कहां भागे जा रहे हो? जिसे तुम खोज रहे हो वह यहां है!
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी करूं।
मैंने सुना है कि सुबह एक मंदिर में एक आदमी आया। अभी सुबह सूरज निकलने में देर है, लेकिन पक्षियों ने धीमे-धीमे गीत गाने शुरू कर दिए हैं। उसने मंदिर का द्वार खोल लिया। वह मंदिर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर बैठ गया और वह कहने लगा कि परमात्मा, तू कहां है? मुझे दर्शन दे!
एक फकीर भी उस मंदिर में एक कोने में दुबका हुआ रात भर पड़ा रहा था। वह आदमी चिल्लाता रहा भगवान के सामने कि मुझे दर्शन दे, तू कहां है? मुझे दर्शन दे, तू कहां है? वह फकीर बाहर निकला और उस आदमी को हिलाया और कहा कि पागल, बाहर पक्षी चिल्ला कर कह रहे हैं..यहां है! बाहर खिलने वाले फूल कह रहे हैं..यहां है! बाहर निकलने वाला सूरज कह रहा है..यहां है! तू सुनता क्यों नहीं?
उस आदमी ने कहा, मेरी पूजा में बाधा मत डालो! नास्तिक मालूम पड़ते हो। हटो यहां से, मुझे अपनी पूजा करने दो।
वह फिर अपनी पूजा करने लगा..हे भगवान, तू कहां है? मुझे दर्शन दे!
जो आदमी कहता है..हे भगवान, तू कहां है? मुझे दर्शन दे! उसे दर्शन नहीं हो सकेंगे। क्योंकि जो पूछता है..व्हेयर? वह गलत बात पूछ रहा है। क्योंकि जो एवरीव्हेयर है, उसके बाबत व्हेयर-व्हेयर नहीं किया जा सकता। कहां है? जो यह पूछ रहा है, वह बात ही गलत पूछ रहा है। धार्मिक आदमी पूछता है कि हे परमात्मा, तू कहां नहीं है? धार्मिक आदमी नहीं पूछता..कहां है? वह तो जैसे-जैसे खोजता है, वैसे-वैसे पाता है: सब जगह वही है।
और जिस दिन सब जगह उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है, उसका स्वर सुनाई पड़ता है, उस दिन ही आप मिट जाते हैं। उस दिन ही आप समाप्त हो जाते हैं। उस दिन ही गई बूंद, हो गई सागर। और ऐसा नहीं है कि बूंद जब सागर में खोती है तो बूंद का कुछ खोता है। नहीं, बूंद जब सागर में खोती है तो बूंद सिर्फ सागर को पा लेती है। खोती कुछ भी नहीं, सिर्फ पाती है।
कबीर के एक वचन से अपनी बात पूरी कर दूं। कबीर ने कहीं कहा है किः
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
खोजते-खोजते कबीर खो गया। बड़ी मजे की बात है! निकला था खोजने और खोजने में खो गया! खोजते-खोजते कबीर खो गया।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।
और बूंद जो है वह समुद्र में गिर गई, अब उसे कैसे खोजा जाए?
लेकिन कुछ दिनों बाद कबीर ने अपने मित्रों को बुला कर कहा कि बदल लो, वह बात गलत थी। वह सूत्र बदल लो।
मित्रों ने कहा, बड़ा सुंदर सूत्र है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।
मित्रों ने कहा, बड़ा सुंदर सूत्र है।
कबीर ने कहा, बदलो। क्योंकि वह बूंद की तरफ से लिखा गया था। तब तक मुझे सागर का पता नहीं था। अब सागर की तरफ से लिखना है, क्योंकि अब मुझे बूंद का पता नहीं है। तो कबीर ने सूत्र बदलवा दिया और दूसरा सूत्र लिखवाया। और दूसरा सूत्र है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।
समुद्र बूंद में समा गया, अब कैसे निकाला जाए? पहला सूत्र था: बूंद समुद्र में समा गई, अब कैसे निकाली जाए? पहले सूत्र में तो बूंद निकाली भी जा सकती है, लेकिन दूसरे सूत्र में बड़ी मुश्किल हो गई, और मुश्किल हो गई, क्योंकि समुद्र बूंद में समा गया।
जब पहली दफे व्यक्ति परमात्मा का अनुभव करता है तो ऐसा ही लगता है..बूंद समुद्र में समा गई। लेकिन दूसरे ही क्षण पता चलता है कि नहीं, भूल हो गई, यह तो समुद्र ही बूंद में समा गया है।
ये तीन सूत्र आपसे कहता हूं। इन सूत्रों को थोड़ा जीवन में फैलाएं। और आप अचानक पाएंगे कि रोज-रोज परमात्मा आपका पड़ोसी होता चला जा रहा है। रोज-रोज आप उसके मंदिर में प्रवेश करने लगे हैं। रोज-रोज-रोज परमात्मा होने लगा और आप मिटने लगे। और एक दिन आ जाएगा, जिस दिन आप कह सकेंगे कि मैं नहीं हूं, तू ही है। और जिस दिन कोई आदमी यह कह पाता है..मैं नहीं हूं, तू ही है..उसी दिन फिर मृत्यु न रही, उसी दिन फिर दुख न रहा, उसी दिन फिर चिंता न रही। उसी दिन सब समाप्त हुआ। उसी दिन सब नया, अमृत, आनंद, सत्य का प्रारंभ है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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