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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(झूठी प्यासों से मुक्ति)

मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। उन सब प्रश्नों के जो सार प्रश्न हैं, उन पर मैं विचार करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या तर्क के सहारे ही सत्य को नहीं पाया जा सकता है?
तर्क अपने आप में तो बिल्कुल व्यर्थ है, अपने आप में बिल्कुल ही व्यर्थ है। तर्क अपने आप में बूढ़े हो गए बच्चों का खेल है, उससे ज्यादा नहीं। हां, तर्क के साथ प्रयोग मिल जाए, तो विज्ञान का जन्म हो जाता है। और तर्क के साथ योग मिल जाए, तो धर्म का जन्म हो जाता है। तर्क अपने आप में शून्य की भांति है। शून्य का अपने में कोई मूल्य नहीं है। एक के ऊपर रख दें, तो दस बन जाता है, नौ के बराबर मूल्य हो जाता है। अपने में कोई भी मूल्य नहीं, अंक पर बैठ कर मूल्यवान हो जाता है। तर्क का अपने में कोई मूल्य नहीं। प्रयोग के ऊपर बैठ जाए तो विज्ञान बन जाता है, योग के ऊपर बैठ जाए, तो धर्म बन जाता है। अपने आप में कोरा खोल है, शब्दों का जाल है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़े महानगर में एक आदमी ने गांव में आकर विज्ञापन करवाया। डूंडी पिटवाई। एक ऐसा घोड़ा प्रदर्शित किया जाएगा आज संध्या, जैसा घोड़ा न कभी हुआ और न कभी देखा गया है। उस घोड़े की खूबी यह है कि घोड़े का मुंह वहां है, जहां उसकी पूंछ होनी चाहिए पूंछ वहां है, जहां उसका मुंह होना चाहिए।
सारे लोग उस गांव के उस भवन की तरफ टूट पड़े, जहां सांझ उस घोड़े का प्रदर्शन था। महंगी टिकटें थीं, वे उन्होंने खरीदीं। अगर आप भी उस गांव में रहे होंगे, तो जरूर उस भवन में गए होंगे। गांव में कोई समझदार आदमी बचा ही नहीं, जो उस घोड़े को देखने न गया हो।

भीड़ बाहर-भीतर, और घोड़े की तीव्र प्रतीक्षा और वह आदमी बार-बार मंच पर आकर कहने लगा कि थोड़ा सा ठहर जाएं, थोड़ा ठहर जाएं, फिर सांस लेने को भी जगह न रही। और लोग चिल्लाने लगे कि अब जल्दी करो! और जब पर्दा उठा, तो सामने एक साधारण घोड़ा खड़ा था। एक क्षण तो सब चैंक कर रह गए। घोड़ा बिल्कुल साधारण था। गौर से देखा, फिर लोग चिल्लाए कि धोखा है यह! यह घोड़ा तो बिल्कुल साधारण है।
उस आदमी ने कहाः ठीक से देखो। जो मैंने कहा था, वह बात पूरी है। घोड़े के मुंह में जो तोगड़ा बांधा जाता है, वह घोड़े की पूंछ में बांधा हुआ था। और उस आदमी ने कहा कि देख लो, मैंने जो खबर की थी, वह यह थी कि घोड़े का मुंह वहां है, जहां पूंछ होनी चाहिए, और पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। तोगड़े में पूंछ थी, जहां मुंह होना चाहिए था। और उसने कहा कि अगर तुम तर्क को थोड़ा भी समझते हो, तो चुपचाप वापस लौट जाओ।
उस भवन से लोगों को चुपचाप पैसे खोकर वापस लौट आना पड़ा। तर्क सही था, लेकिन तर्क बस इतना ही कर सकता है कि जहां घोड़े का मुंह हो वहां पूंछ डाल दे। जहां पूंछ हो, वहां मुंह डाल दे, तोगड़ा बदल दे। इससे ज्यादा तर्क कुछ भी नहीं कर सकता है।
और तर्क के साथ मजा यह है कि तर्क ऐसी तलवार है, जिसमें दोनों तरफ धार है। वह एक तरफ ही नहीं काटती, वह दोनों तरफ काटती है। इसलिए ऐसा कोई तर्क नहीं जो तर्क से नहीं कट जाता हो। इसलिए जो आस्तिक तर्क देकर ईश्वर को सिद्ध करते हैं, वे आस्तिक तर्क से ईश्वर को असिद्ध करवा देते हैं। जिन आस्तिकों ने ईश्वर के लिए तर्क दिया है, उन्होंने वे नास्तिक पैदा किए, जिन्होंने ईश्वर को खंडित किया है। नास्तिक उन आस्तिकों ने पैदा किए हैं, जिन्होंने ईश्वर के लिए तर्क दिया है।
दुनिया में जिस दिन तर्क देने वाले आस्तिक विदा हो जाएंगे, उसी दिन तर्क देने वाले नास्तिक समाप्त हो जाएंगे। जब तक दुनिया में आस्तिक हैं, तब तक नास्तिक नहीं मर सकता, क्योंकि नास्तिक आस्तिक के तर्क का उत्तर है और अगर दुनिया को धार्मिक बनना है, तो आस्तिकों को मर जाना चाहिए। ताकि नास्तिक समाप्त हो जाएं। दुनिया उस दिन धार्मिक होगी, जिस दिन ईश्वर के लिए, सत्य के लिए तर्क देना नासमझी ज्ञात होगी।
आस्तिक एक तरह का नासमझ है जो ईश्वर के लिए तर्क देता है और सिद्ध करना चाहता है। ईश्वर के लिए तर्क देकर सिद्ध करने का मतलब यह है कि हम ईश्वर से बड़े हैं, जो ईश्वर को सिद्ध करते हैं। अगर हम सिद्ध न करेंगे, तो वह असिद्ध हो जाएगा। अगर हम सिद्ध न कर पाएंगे, तो वह मरा ईश्वर, हारा ईश्वर गया।
ईश्वर को सिद्ध होना न होना हमारी मुट्ठी की बात है। आस्तिक यह कहता है कि हम ईश्वर को सिद्ध करके रहेंगे। आस्तिक ईश्वर से बड़े होने का दावा करता है। नास्तिक क्रोध से भर जाता है और वह भी कहता है, हम असिद्ध करके रहेंगे। आस्तिक और नास्तिक, दोनों ईश्वर के दुश्मन हैं। जो भी सत्य के लिए तर्क भर देता है, वह सदा सत्य का दुश्मन है।
सत्य का तर्क से कम संबंध, अनुभव से ज्यादा है। अगर अनुभव को ही कोई तर्क कहे तो बात दूसरी है। अन्यथा अनुभव एक और ही दिशा है।
ये जो पूछते हैं कि क्या तर्क से ही सत्य नहीं मिल सकता? उन्हें मैं कहना चाहूंगा, तर्क से सत्य मिलना तो दूर है, असत्य तक का मिलना मुश्किल है। सत्य तो हवा में मुट्ठियां बांधने जैसा है। तर्क तो हवा में मुट्ठियां बांधने जैसा है, जितनी जोर से मुट्ठी बांधेंगे, हवा और बाहर निकल जाएगी। अगर हवा चाहते हो मुट्ठियों में, तो मुट्ठी खुली रखना। अब यह उलटी बात है, अगर हवा चाहते हो मुट्ठी में, तो मुट्ठी खुली रखना। और अगर हवा पर मुट्ठी बांधने की कोशिश की, जितनी सख्त मुट्ठी होगी, उतनी कम हवा भीतर होगी। अगर मुट्ठी पूरी सख्त होगी, हवा बिल्कुल नहीं होगी।
जो तर्क बांधने की कोशिश करता है सत्य पर, उसकी मुट्ठी से सत्य खिसक जाता है। असल में तर्क का क्या अर्थ है? तर्क का अर्थ है कि मनुष्य की बुद्धि एक सीमा खींचती है कि यह सत्य है। मनुष्य की बुद्धि जो सीमा खींचती है, वह सीमा कितनी बड़ी हो सकती है? कितने मूल्य की हो सकती है?
कल रात कुछ मित्रों से मैं एक बात कर रहा था। एक गांव में एक बहुत बुद्धिमान फकीर था, उसकी बात कर रहा था। उस गांव के सम्राट ने यह घोषणा की, कि मैं अपने राज्य से असत्य का अंत करना चाहता हूं। और जो असत्य बोलेेगा, उसे मैं सूली पर लटका दूंगा। लेकिन गांव के लोगों ने कहाः गांव में एक फकीर है, बूढ़ा। तुम उससे तो पूछ लो कि यह हो भी सकता है कि नहीं। यह आज तक नहीं हुआ। आज तक कोई असत्य को बंद नहीं कर पाया, आज तक कोई असत्य को रोक नहीं पाया, क्योंकि आज तक कोई यही तय नहीं कर पाया कि सत्य क्या है और असत्य क्या है।
उस फकीर को बुलाया और सम्राट ने कहाः आप आशीर्वाद दें कि मेरी योजना सफल हो, मैं अपने राज्य में असत्य को समाप्त करना चाहता हूं। फकीर ने गौर से ऊपर आंख उठा कर देखा। और उस राजा से कहा, कैसे करोगे असत्य को समाप्त? उसने कहा: फांसी की सजा दूंगा, जो असत्य बोलता हुआ पकड़ा जाएगा।
कल नया वर्ष शुरू हो रहा है और कल सुबह मैं एक झूठ बोलने वाले को पकड़ कर, जो दरबार है नगर का, द्वार है, उस द्वार पर लटका दूंगा, ताकि सारा गांव देख ले और सारा गांव जान ले। उस फकीर ने कहाः तो फिर मैं बात नहीं करूंगा। कल सुबह दरवाजे पर मैं मिलूंगा। आप दरवा.जे पर ही मिलिएगा। राजा ने कहाः तुम्हारा मतलब? उसने कहा, दरवाजे पर मैं पहला आदमी रहूंगा, वहीं आपसे बातचीत होगी। अभी यहां बात नहीं हो सकती। राजा बहुत चकित हुआ। दूसरे दिन शीघ्र दरवाजे पर पहुंच गया। दरवाजा खुला, तो फकीर भीतर आ रहा था। गधे पर सवार। राजा ने पूछाः आप और गधे पर, कहां जा रहे हैं। फकीर ने कहाः सूली पर चढ़ने जा रहा हूं। उस राजा ने कहाः सूली पर चढ़ने, क्यों झूठ बोलते हैं? आपको भलीभांति पता है कि मैं झूठ बोलने वाले को सूली पर चढ़वा दूंगा। उस फकीर ने कहः तो मैंने झूठ बोला है, सूली पर चढ़वा दो, लेकिन ध्यान रखना अगर वह सूली पर चढ़वाया तो जो मैंने बोला था, वह सच हो जाएगा। और अगर तुमने सूली पर नहीं चढ़ाया, तो एक झूठ बोलने वाला आदमी झूठ बोल कर निकल गया और तुमने सूली नहीं लगाई। अब बोलो, तुम क्या करते हो। उस राजा ने कहाः यह तो मुश्किल हो गई। अगर मैं तुम्हें छोड़ दूं, तो तुम झूठ बोलने वाले हो और बचते हो। और अगर मैं मार डालूं, तो तुम सच हो जाओगे और मैंने एक सच बोलने वाले को सूली दे दी। अब मैं क्या करूं।
उस फकीर ने कहाः तुम सोचो। जब सोच लो तो मुझे बताना, इसके बाद कानून शुरू करना। सुनते हैं, वह राजा कई वर्ष जीया और मर गया। फिर उस फकीर को नहीं बुलाया। उससे यह तय नहीं हो सका कि वह क्या करे। उसे सूली दे कि न दे। फिर उसने यह बात ही छोड़ दी कि सत्य और असत्य का निर्णय कर लेना।
आदमी तर्क के द्वारा करता क्या है, एक सीमा खींचना चाहता है, एक डिस्कशन बनाना चाहता है। यह सत्य है, यह असत्य है। पहले हम यह पूछ लें कि बुद्धि की यह सामथ्र्य है कि वह सत्य और असत्य का निर्णय करे। यह कैसे हमने मान लिया कि बुद्धि तय कर लेगी कि क्या सत्य है, क्या असत्य। यह हमने कैसे जान लिया।
बुद्धि बहुत काम चलाऊ है, उससे यह चरम निर्णय कैसे हो सकते हैं और बुद्धि सोच सकती है, जान नहीं सकती। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। बुद्धि सोच सकती है, जान नहीं सकती। बुद्धि थिंक कर सकती है, वह जो नोइंग है, वह जो जानना है, वह बुद्धि नहीं कर सकती। जानने का उपकरण मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व है। बुद्धि सिर्फ सोच सकती है। और सोचते क्या हैं आप? यह भी आपने कभी सोचा कि आप सोचते क्या हैं? जो आप सोचते हैं, सब उधार सब बासा होता है। आपने खुद कभी कुछ भी नहीं सोचा है। जो सोचा है, वह सब सुना है, कहीं से इकट्ठा किया है, उसी को वापस उगला है। एक भी बात जो आप सोचते हैं और कहते हैं, बोलते हैं, लिखते हैं, वह आती कहां से है? पहले जो भीतर डाली जाती है, फिर वह भीतर से बाहर आती है।
सोचना कभी भी मौलिक नहीं है, ओरिजिनल नहीं है। ओरिजिनल थिंकिंग जैसी कोई चीज ही नहीं होती। सब थिंकिंग बोरोड होती है, सब सोचना उधार और बासा होता है। मौलिक विचारक, हम कहते हैं कि ओरिजिनल थिंकर यह शब्द ही झूठा है। दुनिया में कोई विचारक मौलिक नहीं होता। सब विचारक उधार होते हैं। लेकिन फिर मौलिकता कहां से आती है? मौलिकता विचार से नहीं आती, निर्विचार से आती है। विचार से जो मुक्त हो जाता है, वह मौलिक हो सकता है। लेकिन जो विचार में बंधा है, वह तो हमेशा उधार होता है, बासा होता है। विचार हमेशा दूसरों से मिलते हैं, विचार हम इकट्ठे करते हैं। हां, हम इतना कर सकते हैं कि दस विचारों की टांग-सिर तोड़-ताड़ कर एक नया विचार खड़ा कर लें और दुनिया को लगे यह नया विचार हो गया। यह नया विचार नहीं है। जैसे आप चाहें, तो आप ऐसा सपना देख सकते हैं कि मैं एक सोने का उड़ता हुआ घोड़ा देख रहा हूं। सोने का उड़ता हुआ घोड़ा किसी ने भी नहीं देखा। यह बड़ा मौलिक विचार है। घोड़े लोगों ने देखे हैं, उड़ते हुए पक्षी देखे हैं, सोना देखा है। लेकिन इन तीनों चीजों की, टांगों को तोड़ कर एक उड़ता हुआ सोने का घोड़ा बना लेते हैं। यह कोई मौलिक विचार न हुआ यह सिर्फ कंपोजिशन हुआ, यह क्रिएशन नहीं हुआ, यह केवल जोड़-तोड़ हुई, निर्माण न हुआ, सृजन न हुआ।
विचार तो मौलिक है ही नहीं। और सत्य मौलिक है, सत्य सदा मौलिक है। सत्य सदा मौलिक रहा है। तो मौलिक सत्य से, सत्य उधार नहीं है, सत्य बासा नहीं है, सत्य सदा ताजा है। वह जो सतत ताजा और मौलिक और नया है, उसे यह बासे विचारों की बुद्धि कैसे जान सकेगी। और इस बासी बुद्धि को लेकर गए, इस उधार दिमाग को लेकर गए, तो सत्य को नहीं जान पाएंगे। हां, यह हो सकता है कि सत्य के काम से कोई मत, कोई ओपिनियन, ट्रूथ नहीं ओपिनियन, सत्य नहीं, कोई मत, कोई मत आप मान कर लौट आएंगे और कहेंगे, यही सत्य है। एक आदमी कहता है, जैन धर्म सत्य है। यह एक मत है। सत्य का जैन धर्म से क्या लेना-देना। एक आदमी यह कहता है, ईसाइयत सत्य है। यह एक मत है, एक ओपिनियन है, ओपिनियन हजार हो सकते हैं, सत्य हजार नहीं हो सकते, सत्य एक है। ओपिनियन, मत, संप्रदाय कितने भी हो सकते हैं, जितने आदमी हैं उतने मत हैं दुनिया में।
आप क्या समझते हैं, दो ईसाई आपस में सहमत हैं? बाप ईसाई और बेटा ईसाई सहमत नहीं हैं। आप समझते हैं, दो मुसलमान आपस में सहमत हैं, भूल में मत पड़ना, पति मुसलमान और पत्नी मुसलमान सहमत नहीं हैं आपस में।
दुनिया में जितने आदमी हैं, उतने मत हैं, लेकिन सत्य एक है। और बुद्धि के पास सिवाय मत के और कुछ भी नहीं है। मत को लेकर जो बुद्धि जाती है, सत्य को जानने वह मत के कारण ही नहीं जान पाती और वापस लौट जाती है। मत की दीवार बीच में खड़ी हो जाती है। और मत उधार है, मैंने कहा, दूसरों के लिए हुआ है।
अगर आप हिंदू हैं तो आप हिंदू हो कैसे गए? सोचा है आपने हिंदू होना? बाप से मिल गया हिंदू होना। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण दुनिया है कि हिंदू होना भी वसीयत में मिलता है। मुसलमान होना भी वसीयत में मिलता है। कुछ दिनों में हो सकता है कि कांग्रेसी और कम्युनिस्ट होना भी वसीयत में मिले..कि कम्युनिस्ट के घर में पैदा हो गए तो कम्युनिस्ट होना पड़ेगा, क्योंकि इस लड़के का बाप कम्युनिस्ट है।
अजीब बात है, अगर बाप मुसलमान है तो बेटे के मुसलमान होने की कौन सी अनिवार्यता है? और जब तक सारे बेटे इस पागलपन से इंकार नहीं करेंगे दुनिया अच्छी नहीं हो सकती। बेटों को कहना चाहिएः तुम्हारी मर्जी थी कि तुम मुसलमान थे, हमारी मर्जी तो आदमी होने की है। तुम्हारी मर्जी तुम हिंदू थे, हमारी मर्जी तो आदमी होने की है। कृपा करो, हमको हिंदू, मुसलमान मत बनाओ। जिस दिन बेटे बाप से उधार मत लेने से इंकार कर देंगे, उस दिन जमीन कुछ और हो जाएगी। उस दिन ऐसा पागलपन नहीं दिखाई पड़ेगा। जैसा हिंदुस्तान, पाकिस्तान दिखाई पड़ता है।
क्या आपको पता है, मैंने एक कहानी सुनी है कि जब हिंदुस्तान, पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा था, तो एक पागलखाना था, जो दोनों मुल्कों की सीमा पर पड़ गया। और सवाल उठा कि पागखाने को कहां करना है हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में। बड़ा मुश्किल हो गया। न हिंदुस्तानी नेताओं को फिकर थी कि पागल इधर आएं न मुसलमान नेताओं को फिकर थी कि पागल इधर आएं। वे खुद अपने पागलपन में पागल थे। उन्हें कहां फुरसत थी कि पागलों से...उन्होंने कहा, पागलों से ही पूछ लो। पागलों से पूछा गया कि तुम कहां जाना चाहते हो? हिंदुस्तान में या पाकिस्तान में? उन्होंने कहाः हम कहीं नहीं जाना चाहते, हम यहीं रहना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि रहोगे तो यहीं तुम, लेकिन तुम जाना कहां चाहते हो, हिंदुस्तान में या पाकिस्तान में। उन्होंने कहा कि बड़ी पागलपन की बात कर रहे हैं आप। जब हम यहीं रहेेंगे तो हम हिंदुस्तान, पाकिस्तान में जा कैसे सकते हैं? ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? अधिकारी सिर पीटने लगे, कि तुम्हारी कुछ समझ में नहीं आता? तुम बिल्कुल पागल हो। उन्होंने कहा: हमारी सब समझ में आता है, लेकिन जब हम यहीं रहेंगे, तो यह सवाल ही फिजूल है कि कहां जाना है। उन्होंने कहाः फिर भी तुम बताओ, तुममें हिंदू कौन है, मुसलमान कौन? उन्होंने कहाः हम तो सिर्फ पागल हैं, हम हिंदू, मुसलमान नहीं हैं।
तो सोचते हैं आप, पागल भी कहते हैं, हम सिर्फ पागल हैं। और वे जो समझदार हैं, वे कहते हैं, हम हिंदू हैं, मुसलमान हैं। उन्होंने कहाः हम तो सिर्फ पागल हैं। हमें पता नहीं, हम कौन-कौन हैं। ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं, हम आदमी हैं। अगर आप एतराज नहीं करो तो, क्योंकि पागलों की हर बात पर ऐतराज हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा हम आदमी हैं।
फिर भी कोई रास्ता नहीं था, तो बीच में से रेखा खींच दी। जो पागल का कमरा जिस तरफ पड़ गया, हिंदुस्तानी पागल हिंदुस्तान की तरफ आ गए और पाकिस्तानी पागल पाकिस्तान की तरफ चले गए और बीच में दीवाल उठा दी। पागल उस दीवाल पर चढ़-चढ़ कर अब भी बैठ जाते हैं और आपस में सोचते हैं। बड़ी अजीब बात है, हम रहे वहीं के वहीं! तुम हिंदुस्तान में चले गए हम पाकिस्तान में चले गए, यह बात क्या है? यह हो क्या गया? पागलों की समझ में नहीं आता।
बात ही ऐसी है कि पागलों की समझ में भी न आए, जैसा हो गया है दुनिया में।
मत, मत मिलता है पीछे से और हम उसे चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। विचार मिलते हैं दूसरों से, हम उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। फिर उन विचारों की बड़ी नई खिचड़ी तैयार हो जाती है। हजार-हजार धाराओं से विचार आकर भीतर इकट्ठे हो जाते हैं और आपको यह भ्रम पैदा होता है कि आप भी सोचते हैं। कभी आपने एकाध ऐसा विचार सोचा है, जो आप कह सकें, मैंने सोचा है। आप सोने का घोड़ा ही पाएंगे। और कभी ऐसा कोई विचार नहीं पा सकते, जो आपने सोचा है।
तो ऐसे उधार मस्तिष्क, विचारों के संग्रह और इनके तर्क और इनकी बुद्धि और इनका सारा चिंतन सत्य की तरफ कैसे ले जा सकता है। सत्य की तरफ जिसे जाना है, उसे यह समझना पड़ेगा कि बुद्धि तो बासी है, उधार है। उसे यह भी समझना पड़ेगा विचार दूसरों के हैं मेरे नहीं हैं। उसे यह भी समझना पड़ेगा कि यह मत है, हजारों हैं। कौन मत सत्य है, मैं कैसे जानूं। मैं तो सत्य को जान लूं, तो शायद बना भी सकूं कि फलां मत सत्य है, लेकिन बिना सत्य को जाने किसी मत को कोई सत्य कैसे कह सकता है। अभी मैं हूं, आपने मुझे देखा, कल आप मेरी तस्वीर देखें, तो आप कह सकते हैं कि हां, यह तसवीर उनकी है। लेकिन आपने मुझे नहीं देखा, न ही कभी आपसे कोई पूछता है, तस्वीर फलां व्यक्ति की है। आप सच मानते हैं कि झूठ, आप कहेंगे कि बड़ी फिजूल बात है। मैं उस आदमी को नहीं जानता। मैं इस तसवीर को सच और झूठ कैसे कहूं। मैं इतना ही कह सकता हूं, यह तसवीर है, किसकी है यह भी नहीं कह सकता। सच और झूठ का तो सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि मैं मूल को नहीं जानता, तो उसकी प्रति को कैसे पहचानूं।
और आप सत्य को बिना जाने कहते हैं, हिंदू धर्म सत्य है, जैन धर्म सत्य है, हमारे स्वामी सत्य हैं, हमारे बाबा सत्य हैं, हमारा फलां सत्य है। सत्य को बिना जाने आप किसी मत को सत्य कहते हैं, इससे ज्यादा असत्य होने की और क्या मनोदशा हो सकती है।
नहीं, सत्य को जानना पड़ेगा पहले। मत! मत को छोड़ना पड़ेगा। तर्क, विचार, बुद्धि, मत, सब छोड़ने की जो सामथ्र्य जुटाता है और मौन खड़ा हो जाता है सब विचार छोड़ कर जीवन के समक्ष। वह जीवन जो बाहर भी है और भीतर भी है। जिसका चित्त, विचार, तर्क को छोड़ कर अत्यंत शांत दर्पण की तरह, मिरर लाइक दर्पण की तरह हो जाता है। उसमें जीवन का प्रतिबिंब बनता है। वही सत्य है।
सत्य को तर्क से किसी ने कभी नहीं पाया। विचार से नहीं पाया, बुद्धि से नहीं पाया। सबको छोड़ा है, तो छोड़ते ही पाया है कि खोया कभी भी नहीं था। इसे मैं फिर से दोहरा दूं। बुद्धि से, विचार से, तर्क से सत्य को कभी किसी ने नहीं पाया। और जो बुद्धि को, विचार को, तर्क को छोड़ कर शांत होकर खड़ा हुआ है, उसने पाया है कि जिसे मैं खोज रहा था, उसे मैंने कभी खोया ही नहीं था। वह भीतर मौजूद था, लेकिन मत की भीड़ में खो गया था। विचारों की भीड़ में खो गया था। ओपिनियन, ध्यान तथाकथित बासा और उधार इकट्ठा हो गया था और उसमें वह दब गया था, जो सच्चा है।
सत्य तो हम स्वयं हैं। हम हैं, तो सत्य है। हमारा होना सत्य है। अपने ही इस होने को हम विचार से जानने जाएंगे? यह ऐसे ही है, जैसे कोई अपनी ही आंख से अपनी ही आंख को देखने जाए। अपने ही हाथ से अपने हाथ को पकड़ने चला जाए। तर्क, विचार, सत्य को पकड़ने की कोशिश है, लेकिन सत्य तो वहां पीछे मौजूद है, जहां से विचार उत्पन्न हो रहा है वहां सत्य मौजूद है। जहां से बुद्धि शक्ति पा रही है, वहां सत्य मौजूद है।
यह मैं कहना चाहूंगा, सत्य से नहीं मिल सकता है सत्य। लेकिन सत्य से क्या कुछ भी नहीं, तर्क से क्या कुछ भी नहीं हो सकता है? एक बात हो सकती है, अगर कोई आदमी सम्यक तर्क करे, सोचे-विचारे तो एक महत्वपूर्ण नतीजा उसे मिलेगा। अगर कोई ठीक तर्क करेगा, तो उसे पता चलेगा कि तर्क व्यर्थ है। अगर कोई ठीक विचार करे, तो वह पाएगा कि विचार छोड़ना पड़ेगा। इतनी महत्वपूर्ण बात जरूर मिल सकती है और यह बहुत बड़ी बात है। इतना भी पता चल जाए कि छोड़ देना पड़ेगा। लेकिन छोड़ वही सकता है, जिसने कभी किया हो। जिन्होंने कभी किया ही नहीं, आंख के अंधे बने बैठे हुए हैं, वे छोड़ेंगे क्या खाक। छोड़ने के पहले करना जरूरी है।
मैंने सुना है, एक स्टेशन पर बड़ी भीड़-भाड़ थी और मेले में लोग जा रहे थे। और उस स्टेशन पर एकदम शोरगुल मचा हुआ थाः चलो, चढ़ो, सामान रखो, उठाओ, मित्रों को भीतर लाओ, लड़का कहां है? पत्नी कहां है? सारे स्टेशन पर शोरगुल है। किसी मेले में ट्रेन जा रही है। सारे लोग हरिद्वार जा रहे हैं। लेकिन एक आदमी खड़ा हुआ है प्लेटफार्म पर और कह रहा हैः एक बात का पक्का जवाब दे दो। फिर उतरना तो नहीं पड़ेगा इस ट्रेन से। अगर उतरना पड़े, तो हम चढ़ते ही नहीं। मित्र कह रहे हैंः जल्दी करो! सीटी बज गई, झंडी दिखाई जा रही है, अब यहां बकवास का मौका नहीं है, तर्क का, रास्ते में बात कर लेंगे। उतरना तो पड़ेगा। हरिद्वार पर जब पहुंच जाएगी गाड़ी, तो उतरना तो पड़ेगा, लेकिन यहां से तो चढ़ना पड़ेगा। अभी चढ़ो। और वह मित्र कह रहा है कि मैं उस चीज में चढ़ता ही नहीं, जिसमें से उतरना पड़े। फषयदा क्या है चढ़ने से, जब उतरना है। उसका तर्क ठीक है, लेकिन मित्र नहीं माने। जबरदस्ती उसको गाड़ी में बिठा लिया। फिर गाड़ी चल पड़ी। फिर हरिद्वार का स्टेशन आ गया। अब उलटी आवाजें मची हुई हैं। हर आदमी चिल्ला रहा हैः उतारो। मेरा सामान कहां है? मेरा लड़का कहां है? जल्दी उतरो गाड़ी जाने वाली है और वे मित्र उसको फिर पकड़े हैं, वह कह रहा है, अब मैं उतरूंगा नहीं। जब मैं चढ़ ही गया तो उतरना क्या? और अगर मुझे उतरना ही था, तो चढ़ाया क्यों? अब वे मित्र बहुत कहते हैंः वह दूसरी स्टेशन थी, जहां हम चढ़े थे। यह दूसरी स्टेशन है, जहां हम उतरते हैं। वहां चढ़ना जरूरी था और यहां उतरना जरूरी है।
तर्क पर चढ़ना भी पड़ता है, उतरने के लिए, लेकिन स्थान बदल जाते हैं। इसलिए ध्यान रहे, मैं अंधविश्वास का पक्षपाती नहीं हूं, नहीं तो कोई यह सोच ले कि मैं कह रहा हूं तर्क, विचार, कुछ नहीं करना। किसी के भी चरण पकड़ लो आंख बंद करके। और कहीं का भी ताबीज बांध लो और मजा करो। कुछ विचार नहीं करना, कोई तर्क नहीं करना। जो कोई कह दे, वह मान लो, यह मैं नहीं कह रहा हूं।
यह तो तर्क से भी बदतर अवस्था है। तो मैं तीन अवस्थाओं की बात कर रहा हूं।
एक विश्वास की अवस्था है, यह सबसे नीची, सबसे ओछी, सबसे खतरनाक अवस्था है। दूसरी अवस्था विचार की है, यह विश्वास से अच्छी, बेहतर, लेकिन बीच की अवस्था है। विश्वास से ऊपर, विचार से ऊपर फिर निर्विचार की अवस्था है, ध्यान की अवस्था है। एक अवस्था है विश्वास की, बिलीव की, फेथ की, फेथ और बिलीव और विश्वास वाला आदमी मनुष्य-जाति में सबसे नीची कोटि पर खड़ा है। दूसरी अवस्था है विचार की, थिंकिंग की, तर्क की, रीजनिंग की। यह दूसरा व्यक्ति विश्वास वाले व्यक्ति से ऊपर खड़ा है। इसके पैर में ज्यादा बल होगा। इसकी आंखें ज्यादा खुली होंगी। यह ज्यादा सजग होगा।
पहली अवस्था से सारी दुनिया के अंधविश्वास पैदा होते हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई पैदा होते हैं। मंदिर, मस्जिद, मूर्तियां बनती हैं। इस सारी दुनिया में जो रिचुअल चलता है, क्रियाकांड चलता है, वह पहली अवस्था से पैदा होता है। दूसरी अवस्था है रीजनिंग की, तर्क की, विचार की। विचार से विज्ञान पैदा होता है, साइंस पैदा होती है। तीसरी अवस्था है निर्विचार की, ध्यान की। तीसरी अवस्था विचार के ऊपर है। और तीसरी अवस्था से सत्य या जिसको कहें धर्म, या जिसे कहें दर्शन, वह पैदा होता है।
विश्वास वाला भी विचार का दुश्मन है, और ध्यान वाला भी विचार का दुश्मन है, लेकिन दोनों की दुश्मनी बिल्कुल अलग है। यह ख्याल रख लेना। मैं भी तर्क और विचार का दुश्मन हूं, ध्यान के पक्ष में। और तर्क और विचार का दोस्त हूं विश्वास के विरोध में। विश्वास को उखाड़ कर फेंक देना है विचार से और फिर विचार को उखाड़ कर फेंक देना है ध्यान से। और फिर ध्यान में उखाड़ कर फेंक देने को कुछ भी नहीं बचता है, वही बचता है, जो उखाड़ कर नहीं फेंका जा सकता।
जैसे एक आदमी के पैर में कांटा लग गया हो। और उसके कांटे को निकालने के लिए हम कहें, कि एक कांटा और ले आओ। और वह आदमी कहे कि यह क्या बात कर रहे हैं, मैं एक ही कांटे से काफी परेशान हूं। अब आप दूसरा कांटा और मत लाइए। लेकिन हम न माने। और कांटा ले आए और जबरदस्ती कांटा निकालने लगे और वह आदमी चिल्लाने लगे कि एक ही कांटा मेरे पैर में घुसा है, उससे मैं मरा जा रहा हूं। और तुम कैसे दोस्त हो कि दूसरा कांटा भी डाल रहे हो। हम उससे कहें कि हम दूसरे कांटे से पहला कांटा बाहर निकाल रहे हैं। वह आदमी राजी हो जाए। हम उसका पहला कांटा बाहर निकाल दें। वह आदमी कहे, अब दूसरे कांटे को पहले वाले घाव में रख दो, इस कांटे ने बड़ी कृपा की। अब हम इसको सम्हाल कर रखेंगे, घाव में रखेंगे। वहीं रखेंगे, जहां इसने पहले कांटे को निकाल दिया, तो फिर मुसीबत हो जाएगी।
पहले कांटे को निकालने के बाद दूसरा कांटा भी बेमानी है, फेंक देने के योग्य है। तर्क और विचार का एक उपयोग है कि विश्वास के कांटे को निकाल दे। निकला विश्वास का कांटा कि तर्क और विचार फेंक देने योग्य हैं और तब जो अवस्था आती है वह विश्वास की नहीं है, वह ज्ञान की है। तब जो अवस्था आती है, वह विचार की भी नहीं है, वह निर्विचार की है। और तब जो दिखाई पड़ता है, वह मौलिक है, वह ओरिजिनल है।
इस मौलिक सत्य की खोज में जो विश्वास पर खड़े हैं, उनसे कहूंगा, छोड़ो विश्वास, विचार पकड़ो। जो विचार पर खड़े हैं, उनसे कहूंगा, छोड़ो विचार, ध्यान पकड़ो। और जो ध्यान पर खड़े हैं, वहां न कुछ पकड़ने को बचता है, न छोड़ने को। इसलिए उनसे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन इससे बड़ी भूल पैदा हो जाती है।
एक गांव में एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध का प्रवेश हुआ। और एक आदमी ने दरवाजे पर ही गांव के आदमी से पूछा कि मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं। आप ईश्वर को मानते हैं? बुद्ध ने कहाः मैं ईश्वर को मानता हूं, ईश्वर है! ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बुद्ध आगे बढ़े, बीच गांव में एक दूसरे आदमी ने पूछा कि रुकिए मैं आस्तिक हूं। मैं ईश्वर को मानता हूं। मैं पक्का विश्वासी हूं। आप मानते हैं? बुद्ध ने कहाः ईश्वर, ईश्वर है ही नहीं। ईश्वर है ही नहीं, मानने का सवाल नहीं है। ईश्वर बिल्कुल नहीं है। ईश्वर से ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं। सुबह बुद्ध ने कहा ईश्वर है, वही सत्य है। दोपहर बुद्ध ने कहा ईश्वर नहीं है, असत्य है। सांझ को एक तीसरा आदमी आया। और उसने कहाः मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। न मैं आस्तिक हूं, न मैं नास्तिक हूं, मैं क्या करूं?
बुद्ध ने कहाः अब तू फिकर ही छोड़ दे। तू चुप हो जा। अब तू नास्तिक-आस्तिक की बात ही छोड़ दे। अब बात मत कर आगे। हम तुझसे कुछ भी न कहेंगे। यह तो ठीक थी, क्योंकि यह तीन अलग-अलग आदमियों से बात हुई।
बुद्ध के साथ एक भिक्षु था आनंद। उसने तीनों बातें सुन लीं। उसकी मुसीबत आप समझ सकते हो। उसके तो प्राण संकट में पड़ गए कि मर गए, सच क्या है? सुबह यह आदमी कहता है कि ईश्वर है, दोपहर कहता है नहीं है, सांझ कहता है छोड़ो दोनों बातें बेकार हैं, चुप हो जाओ। रात जब सोने लगा, तो वह आदमी करवट बदल रहा है। बुद्ध ने उससे पूछा कि बहुत करवट बदलता है आज, बात क्या है? उसने कहाः आपने मेरी जान ले ली। आप पूछते हैं, करवट बदलता है! मैं क्या करूं, ईश्वर है या नहीं? दिन में तीन उत्तर मैंने एक साथ सुन लिए, एक ही आदमी से। मेरी हालत समझते हैं? मैं बुखार में पड़ गया हूं। मेरा सारा चित्त खिन्न हो गया है।
बुद्ध ने कहाः पागल तुझे तो एक भी उत्तर नहीं दिया था, तूने सुना क्यों। जिन्हें दिया गया था, उनके लिए था। तूने सुना क्यों, तुझे किसने दिया था। उसने कहाः और गजब, मैं साथ था, मुझे सुनाई पड़ गया, सुना कहां। लेकिन सुनाई पड़ कर ही मुश्किल में पड़ गया हूं। बुद्ध ने कहाः जो दूसरों के लिए दी हुई बातों को सुन लेते हैं। जो दूसरों के चले हुए रास्तों को देख लेते हैं, जो दूसरों के किसी भी तरह प्रभाव में पड़ गए हैं, उनकी ऐसी मुसीबत होती है। तुझे क्या मतलब था? फिर भी तूने सुन लिया, तो मैं तुझे कहता हूं। पहले आदमी में जो मैंने पाया, उसको उखाड़ा। दूसरे आदमी में जो मैंने पाया, उसको उखाड़ा। बुद्ध ने कहाः हम तो उखाड़ने वाले हैं। हम तो सब कूड़ा-कर्कट उखाड़ देते हैं। तीसरे आदमी में उखाड़ने को कुछ भी नहीं था। तो उसे मैंने सचेत किया कि कुछ लगा मत लेना। और जब चित्त की भूमि खाली रह जाती है, जहां कोई विश्वास नहीं, कोई विचार नहीं, कोई तर्क नहीं। जहां कोई मत नहीं, कोई संप्रदाय नहीं, तब वहां उसका दर्शन होता है, जो है, देट व्हीच इ.ज। जो है, बस वही सत्य है।
बहुत से मित्रों ने इस संबंध में कुछ बातें पूछी थीं, इसलिए मैंने इस पर बात की। एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप साधना के लिए कहते हैं, लेकिन हममें तो प्यास ही नहीं। आप कहते हैं कि ध्यान करो, केंद्र को जगाओ, कुंडलिनी शक्ति को जगाओ, लेकिन हममें तो प्यास ही नहीं है। यह प्यास कहां से लाएं?
यह बड़ा मुश्किल मामला है। पानी तो कोई दे सकता है, प्यास कोई भी नहीं दे सकता। और पानी मांगने जाओ, तो कहीं मिल भी जाएगा, लेकिन प्यास मांगने जाओेगे, तो कहां मिलेगी। लेकिन ऐसा एक भी आदमी नहीं है, जिसके पास प्यास न हो। अगर प्यास न होती, तो कोई उपाय न था। एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जिसको सत्य को जानने की प्यास नहीं है।
एक छोटा सा बच्चा भी, चींटा चल रहा है, उसको पकड़ कर तोड़ डालता है। आप यह मत सोचना कि वह हिंसा कर रहा है। वे सिर्फ इंक्वायरी कर रहे हैं, वे सिर्फ जांच-पड़ताल कर रहे हैं कि प्राणी चल रहा है, मामला क्या है भीतर? तोड़ कर देख रहा है। कोई चींटे को छोटा बच्चा इसलिए थोड़े मारता है कि चींटे से कोई दुश्मनी है। कि चींटा कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है कि मारो। छोटा बच्चा चींटे को तोड़ कर देखता है कि मामला क्या है। क्या चल रहा है। भीतर कौन सी चीज चल रही है। जिज्ञासा।
कहीं पर्दा टांग दो और लिख दोः यहां मत झांकना। फिर, फिर वहां से कोई आदमी निकल सकता है जो बिना झांके निकल जाए?
मैंने सुना है कि एक सूफी फकीर एक जंगल में रहता था। उसने रास्ते के किनारे एक बड़ी तख्ती लगा रखी थी। और तख्ती पर लिखा हुआ थाः पत्थर खाना बिल्कुल मना है, सख्त मना है। अगर पत्थर खाया तो ठीक नहीं होगा। और जिसको मिलना हो, पीछे झोपड़ा है। जो भी आदमी निकलता, उससे मिलने जाता, क्योंकि पत्थर खाना सख्त मना है, मामला क्या है, यह कौन आदमी है और यह कैसा बोर्ड है, यह कैसी तख्ती है? कभी आप ऐसी तख्ती के पास से निकल सकते हैं, जिस पर लिखा होः पत्थर खाना सख्त मना है। जो भी आदमी उस तख्ती को देखता, उतर कर नीचे जंगल में थोड़ी दूर उस झोपड़े तक जाता और उस फकीर से पूछता कि बात क्या है। कोई पत्थर खाता है? जो पत्थर खाने को मनाही की है। उसने कहाः कोई नहीं खाता है, इसलिए बोर्ड वहां लगाया है कि हमसे मुलाकात हो सके, बैठ जाओ। और आज तक इस रास्ते पर एक आदमी ऐसा नहीं निकला जो यहां से बिना मिले हुए चला गया हो। आना ही पड़ता है। क्यों? बोर्ड पर किसी ने लिखा हो, लिखा रहने दें, आपको क्या जरूरत है कि आप मुड़ के जाएं रास्ते से?
जिज्ञासा है। क्या है सच, यह क्या बात है। एक प्रश्न है, जो प्राणों में सबको पकड़े हुए है। छोटे-छोटे बच्चे अपनी मां से पूछते हैं। नया बच्चा घर में आया है, यह कहां से आया। मां समझती है कि बच्चा बिगड़ा जा रहा है। यह कैसी गंदी बातें पूछ रहा है। बिचारे को उसको क्या पता है, वह फिर भी पूछ रहा है कि बच्चा आ गया मामला क्या है। यह कहां से आ गया है। मां-बाप गंदे हैं, वह कोई कह रहे हैं झूठ कि हनुमान जी दे गए, कोई कहता है कुछ। हनुमान जी को इस झंझट से क्या मतलब! और बच्चा आज नहीं कल बड़ा होकर पता लगा लेगा कि हनुमान जी का इसमें कोई कसूर नहीं है। और तब बहुत मुसीबत होगी, क्योंकि तब बच्चे की सारी श्रद्धा उनसे उठ जाएगी, जिन्होंने झूठ थोपा था।
आप ध्यान रखें, हर बच्चा बूढ़े बाप का अपमान करता है। मुश्किल से ऐसे लड़के खोजने से मिलेंगे, जो बूढ़े बाप का सम्मान करते हों और फिर बूढ़े बाप बहुत दुखी होते हैं और परेशान होते हैं कि सब लड़ कर बिगड़ गए। लड़के नहीं बिगड़े हैं। लड़कों के बिगड़ने के पहले बाप का बिगड़ना बहुत जरूरी है। नहीं तो लड़के बिगड़ेंगे कैसे? पहली बिगड़ने की बात यहां से शुरू हो गई कि जब लड़के ने सत्य की जिज्ञासा की थी, तब तुमने झूठ उसके ऊपर थोप दिया। उस वक्त बच्चा था, मान गया होगा। बड़े होकर पता चल गया। उस झूठ के साथ तुम सदा के लिए झूठे हो गए। तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा सदा के लिए खो गई। अब तुम्हारे प्रति कभी सम्मान नहीं हो सकता। हां, दिखा सकता है सम्मान। जब मर जाओगे, तो श्राद्ध करेगा। लेकिन जिंदा में, जिंदा में रोज प्रार्थना करेगा कि पिता जी स्वर्गवासी कब होंगे।
स्वाभाविक है, वह जो प्यास है जानने की, वह सब तरफ से हर आदमी के भीतर है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। हां, मिल सकता है ऐसा आदमी। लेकिन वह, वह आदमी होगा जिसे सब मिल गया। उसके पास प्यास नहीं होगी। यह बात ठीक है, लेकिन कोई पूछता है मुझसे कि हममें प्यास नहीं है। अगर प्यास नहीं थी, तो आप यहां आए कैसे? और प्यास नहीं थी, तो यह कागज लिखने और प्रश्न लिखने की तकलीफ आपने कैसे की, और क्यों परेशान हुए? प्यास तो है। हां, कम-ज्यादा हो सकती है। प्यास न हो, तब तो कोई उपाय नहीं है। कम-ज्यादा हो सकती है। कम-ज्यादा को बदला जा सकता है।
अगर कोई दीये में ज्योत न जलती हो, तो आप बाती ऊंचा करते रहें, उससे क्या होने वाला है, कोई बाती ऊंची करने से ज्योति जल जाएगी? बाती ऊंची करके और नासमझी होगी। लेकिन अगर ज्योति धीमी-धीमी जलती हो, तो बाती ऊंची की जा सकती है और ज्योति जोर से जल सकती है।
प्यास तो सबके पास है। बिना प्यास के कोई आदमी पैदा नहीं होता। सत्य की प्यास कहें, धर्म की प्यास कहें, परमात्मा की प्यास कहेें, कोई भी नाम दे दें, प्यास है। हां, लेकिन धीमी और कम जल सकती है।
धीमी और कम जलने का मतलब केवल इतना है, उसका मतलब यह नहीं कि पाजिटिव रूप से, विधायक रूप से किसी की प्यास कम और किसी की ज्यादा है, नहीं यह भी नहीं है। उसका कुल मतलब यह है कि किसी की प्यास पर ज्यादा बोझ है, दूसरी झूठी प्यासों का। और किसी की प्यास पर दूसरी झूठी प्यासों का बोझ कम है। जिसकी असली प्यास पर झूठी प्यास का बोझ कम है, उसकी प्यास ज्यादा जलती हुई मालूम पड़ेगी।
हमने बहुत सी झूठी प्यासें सीख रखी हैं और उन झूठी प्यासों को समझना जरूरी है, तो सच्ची प्यास एकदम भभक कर उठ बैठेगी। कैसी-कैसी झूठी प्यासें सीख रखी हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं।
एक आदमी पड़ोस से निकला हुआ है, वह एक चश्मा लगाए हुए है। आपको ख्याल ही नहीं था कल तक कि चश्मा लगाना है। एक आदमी को चश्मा लगाए देख कर आपको पहली दफा पता चला कि चश्मा लगाना बहुत जरूरी है। आश्चर्य है। आपको चश्मे का सवाल ही नहीं था। एक दूसरे आदमी को चश्मा लगाए देख कर एक प्यास पैदा हो रही है कि आपको भी चश्मा लगाया जाना चाहिए।
फिर चारों तरफ हजारों-हजारों तरह के लोग हैं और सबको देखके आप नई-नई झूठी प्यासें गढ़ रहे हैं, जो आपके भीतर नहीं है। जो बाहर से देख करके आपके भीतर आती हैं और आप उन्हें पकड़ लेते हैं। और बचपन से मां-बाप उन्हें सिखा रहे हैं, शिक्षक उन्हें सिखा रहे हैं। मां कह रही है बेटे से कि देख पड़ोसी के बेटे को किस ढंग से चलता है, इसी तरह तुझे भी चलना चाहिए। और मां को पता नहीं है कि लड़के को एक खतरनाक रास्ते पर ले जा रही है। पड़ोसी के लड़के की तरफ उसकी आंखें उठा रही है। वह जिंदगी भर पड़ोसी के लड़कों को देखता रहेगा, और पड़ोसी के लड़के जो कुछ भी करेंगे, वह भी करेगा।
आप जो कपड़े पहने हुए हैं, वे आपने नहीं पहन लिए हैं, पड़ोसी वैसे पहने हुए है, यह मुसीबत है। जिस सिनेमाघर में आप जा रहे हैं, आप नहीं गए हैं, पड़ोसी उस तरफ जा रहे हैं और आप भी चले जा रहे हैं। आप जो अखबार पढ़ रहे हैं, वह आप नहीं पढ़ रहे हैं, पड़ोसी पढ़ रहे हैं।
बर्नार्ड शॉ ने अपनी पहली किताब लिखी, तो बामुश्किल तो छपी, किसी तरह छप गई। गहना, पैसा किसी तरह इंतजाम करके गिरवी रख कर किताब छप गई, लेकिन खरीदे कौन? क्योंकि किताब तो वही बिकती है, जो पहले से बिकती हो। क्योंकि बिकती हुई किताब को देख कर लोग खरीदते हैं। जब कोई पड़ोसी खरीद ले कोई किताब, तब आप खरीदते हैं।
अब जब किताब पहली दफा लिखी, न कोई बर्नार्ड शॉ का काम जानता है, न कुछ। किताब कोई दुकानदार रखने को तैयार भी नहीं। तो बर्नार्ड शॉ ने अपने पांच-सात मित्रों से कहा कि तुम एक कृपा करो, अलग से करने को कुछ नहीं है, जहां से तुम निकलो, अगर किताब की दुकान मिल जाए, तो खड़े होकर इतना पूछ लेना कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की फलानी किताब है? और खरीदने का कोई डर ही नहीं, क्योंकि किताब किसी दुकान पर है नहीं, तो तुम बेफिकरी से पूछ लेना। और आगे बढ़ जाना और इतना पंद्रह दिन कृपा कर दो, जहां किताब की दुकान मिले, तुम इतना पूछते चले जाना जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की फलानी किताब है?
उन पांच-सात मित्रों ने पंद्रह दिन के भीतर करीब-करीब सब किताबों की दुकान पर दस-पांच चक्कर लगा दिए। दुकानदार ने कहाः जॉर्ज बर्नार्ड शॉ कोई बहुत बड़ा लेखक मालूम होता है। हम अभी तक किताब नहीं मंगाए, जो देखो वही पूछ रहा है जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की किताब।
दुकानदारों ने किताब मंगा कर रख ली। बर्नार्ड शॉ की किताबें जोर से बिकीं और ग्राहक भी आए, तो दुकानदारों ने कहाः पता है कुछ, सारी बस्ती जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की किताब पढ़ रही है। जो आदमी आता है, वही पूछता हैः जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की किताब आपने देखी।
उन्होंने कहा कि जब सारी बस्ती पढ़ रही है, तो हमें पढ़नी ही पड़ेगी। किताब दो।
बर्नार्ड शॉ ने लिखा है कि मैंने पहली किताब इस तरह बेची और दूसरी किताबें पहली किताब बिकवाएं चली जा रही है, और बिकती रहेंगी। किताब जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की, पता है आपको! अब रुकना बहुत मुश्किल है।
एक मुसलमान फकीर था, नसरुद्दीन। वह एक दिन मस्जिद में गया। मस्जिद में वह जाता नहीं था। कोई अच्छे आदमी कभी नहीं जाते। चला गया। गांव के लोगों ने कहाः मस्जिद में बड़े बुद्धिमान लोग इकट्ठे होते हैं। तो उसने कहाः जरा मैं देख आऊं। मस्जिद नहीं गया था, बुद्धिमान लोगों को देखने गया था। पहले तो उसने कहा कि बुद्धिमान लोगों का इकट्ठा होना जरा मुश्किल है। नासमझ तो इकट्ठे होते देखे जाते हैं, बुद्धिमान कहां इकट्ठे होते देखे जाते हैं, फिर भी जाऊं। वह गया। पीछे से पहुंचा, भीड़ बढ़ गई थी। वह मस्जिद में नीचे बैठ गया। सामने वाले आदमी का कुर्ता उसने ऐसा खींचा। उस आदमी ने लौट कर पीछे देखा। उसने कहा कि इस मस्जिद का ऐसा नियम है कि सामने वाले का कुर्ता खींचना पड़ता है। बस उस आदमी ने आगे वाले का कुर्ता खींचा। उस आदमी ने चैंक कर पीछे देखा। उस आदमी ने कहाः यहां का ऐसा नियम मुझे बताया गया, आदमी का कुर्ता, आगे का, खींचना। पूरे मस्जिद के लोग एक-दूसरे का कुर्ता खींचने लगे, वह खड़ा हो गया और उसे कहा कि गोबर-गणेशो, तुर्म ईश्वर को खोजने आए हो?
हम एक-दूसरे को देख कर हजारों तरह की प्यासें पैदा कर रहे हैं। जो बिल्कुल झूठी हैं और दुनिया भर के विज्ञापनदाताओं को और दुकानदारों को यह पता चल गया है कि आदमी नासमझ है और आदमी में झूठी प्यास, फाल्स थस्र्ट पैदा की जा सकती है। और वह विज्ञापन जोर से करता है। और प्यास पैदा हो जाती है। और इस तरह की हजारों प्यास हमारे ऊपर हैं। और इन प्यासों के कारण, वह जो प्यास है, जो जन्म से मिली है, वह दबी है और तड़प रही है।
सवाल उस प्यास के कम होने का नहीं है, सवाल इन प्यासों के ज्यादा होने का है। मगर इन प्यासों का दायरा बहुत ज्यादा है। अब एक आदमी को अगर मिनिस्टर होना है, तो परमात्मा की प्यास को तो दबाना ही पड़ेगा, एक तरफ रखना पड़ेगा। क्योंकि मिनिस्टर होने की दौड़, तो परमात्मा की दौड़ एक तरफ रखनी पड़ेगी। परमात्मा से कहना पड़ेगा, थोड़ी देर ठहरिए, मैं पहले मिनिस्टर हो जाऊं, फिर आप पर नजर करेंगे। और यह मामला है ही कि मिनिस्टर हो जाओ तो और नई मुसीबत, फिर चीफ मिनिस्टर होना पड़ता है। फिर चीफ मिनिस्टर हो जाओ तो और मुसीबत, क्योंकि पीछे के लोग आगे धक्का देते हैं, और आगे और लोग दिखाई पड़ते हैं। और उनको देख कर ऐसा लगता है कि और आगे जाना एकदम जरूरी है।
मैंने सुना है, एक कारागृह था, एक जेलखाना था, और उस जेलखाने में एक छोटा अस्पताल है कैदियों के लिए। वे सारे कैदी जो बीमार हो जाते हैं, उस अस्पताल में भर्ती किए जाते हैं। जेलखाने का अस्पताल है, बड़ी ऊंची दीवालें हैं और कैदी, हथकड़ियां बंधी हैं और अपनी-अपनी खाट से बंधे हैं, हिल भी नहीं सकते, सिर्फ एक दरवाजा है। उस दरवाजे पर नंबर एक की खाट है।
नंबर एक का कैदी रोज सुबह उठके ऐसा बाहर झांकता है और कहता हैः अदभुत आकाश! ऐसा आकाश कभी दिखाई नहीं पड़ा। आह! कैसे रंगीन बादल हैं, कैसे फूल खिले हैं। गुलमोहर ने तो छा दिया है पूरे आसमान की रेखा को, सुर्ख कर दिया है, लाल अंगारे फैल गए हैं। कभी कहता है कि गुलाब की सुगंध आ रही है। कभी रात को कहता है कि चांदनी बरस रही है। रात-रानी हवा से भर गई और सारे अस्पताल के कैदी तड़प उठते हैं कि नंबर एक की खाट पर हम कब पहुंचे। नंबर एक की खाट पर क्या-क्या हो रहा है। चांद भी आया है, सूरज भी निकलता है। गुलमोहर भी खिलते हैं, रात-रानी भी खिलती है। कभी एकदम कान लगा कर वह कहने लगता हैः आह! कौन गीत गा रहा है, ऐसा गीत कभी नहीं सुना।
चाहती है तबीयत कि दिल्ली कब पहुंच जाए। पता नहीं राष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठे आदमी को क्या दिखाई पड़ रहा है। कौन से गुलमोहर खिल रहे हैं, कौन सी चांदनी खिल रही है। क्या हो रहा है, कब जाएं, लेकिन खाटें हैं और हथकड़ियां। वेे अस्पताल में भी सब बंधे, वे सब रोज प्रार्थना करते हैं हे भगवान! यह नंबर एक का आदमी कब मर जाए। नंबर एक का आदमी एक ही फायदे में रहता हैै कि सारा मुल्क प्रार्थना करता है कि कब यह मर जाए। शायद भगवान को इसलिए दया आ जाती हो तो बात दूसरी है कि इतने लोग जिसको मारने के लिए कहते हैं, उसको कुछ दिन बचाओ। और तो कोई फायदा नहीं दिखाई पड़ता।
वह सारा अस्पताल, फिर आखिर वह आदमी मर जाता है। कई बार मरने का धोखा देता है। आदमी एकदम से थोड़े मरते हैं। आदमी कई दफा धोखा देते हैं। कई दफा उसके फिट आ जाता है। सब खुश हो जाते हैं। हालांकि ऊपर से सब दुखी हो जाते हैं और कहते हैंः बड़ा दुख हो रहा है। तुम चले जाओगे तो हमारा क्या होगा। और भीतर से कहते हैं, कहीं रुक ही मत जाना।
नंबर एक की खाट और हर मरीज डाक्टरों की खुशामद करता है। जब वह बीमार पड़ता है, तब सब मरीज एकदम खुशामद करने लगते हैं, उसका बीमार पड़ना डाक्टरों के लिए, बड़ा मौसम आ जाता है। सब रुपये सरकाने लगते हैं कि जरा ख्याल रखना, नंबर एक की जगह खाली हो तो हमें पहुंचा देना। जहां नंबर एक के आदमी के मरने की बात उठती है, वहीं सब तरफ रुपये खिसकने लगते हैं। सब तरफ आदमी चलने लगते हैं। सब तरफ गड़बड़ शुरू हो जाती है। कौन नंबर एक।
आखिर मर जाता है। आखिर आदमी कब तक धोखा देगा, मरना ही पड़ता है। कितनी बार बीमारी से लौटोगे, एक बार तो जाना ही पड़ेगा। वह भी बेचारा मर गया। मर गया और एक दूसरा कैदी जीत गया डाक्टरों को रिश्वत देने में। उसकी हथकड़ियां खोली गईं। सारे कैदी ताली पीट रहे हैं, कि अब हम तुम्हारे जन्म-दिन पर कैदी दिवस मनाएंगे। क्योंकि तुम प्रथम हो गए। पहली बार ऐसे हमारी आंखों में दिखाई पड़ा है कि हमारे बीच से कोई कैदी पहली नंबर की खाट पर जा रहा है। और वह कैदी अकड़ कर गया, पहली नंबर की खाट पर बैठा और बाहर देखा। वहां पत्थर की एक बड़ी दीवाल के सिवाय और कुछ भी नहीं है। मगर उसने कहाः यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। अगर लौट कर मैं कहता हूं कि सिर्फ पत्थर की दीवाल है, तो सिर्फ मैं ही मूढ़ बन जाऊंगा, और अब फायदा भी क्या है? लौट कर वह कहता हैः धन्य हुआ! कैसा सूरज खिला है, कैसे फूल खिले हैं। कैसा आनंद बरस रहा है। मित्रो, कब तुम्हें यह मौका मिलेगा।
और फिर सारा अस्पताल प्रार्थना करता है कि कब तुम मरो, तभी यह मौकष मिल सकता है। हे भगवान! नंबर एक की जगह खाली करो। और वह चलता है और उस अस्पताल में हमेशा से चल रहा है। और न मालूम कितने कैदी उस नंबर एक की खाट पर आते हैं, मरते हैं और खतम हो जाते हैं, लेकिन कोई कैदी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि कह दे, बाहर, बाहर कुछ भी नहीं हैै, सिर्फ एक पत्थर की दीवाल खड़ी है। और दौड़ जारी है।
हम इस तरह की न मालूम कितनी दौड़ों में संलग्न हैं। कितनी प्यासें हैं हमारी, और कैसी फिजूल की प्यासें हैं। एक आदमी थोड़ा अच्छा कपड़ा पहने हुए है, तो मैं अच्छा कपड़ा पहनने की प्यास से भर जाता हूं। एक आदमी थोड़े बड़े मकान में है, तो मैं मकान की प्यास से भर जाता हूं। एक आदमी नये मॉडल की कार में है, तो पिछले वर्ष की कार एकदम बैलगाड़ी मालूम पड़ने लगती है। यह सारी दौड़, यह सारी प्यास उस प्यास को दबा रही है। और इसलिए वह प्यास नहीं मालूम पड़ती। इसे मुझसे मत पूछो कि वह प्यास तो हममें है नहीं। प्यास तो है लेकिन और प्यासें उसे दबाती होंगी। और हमारी शक्ति अगर बहुत सी प्यासों की दिशाओं में भटक जाए, तो फिर मौलिक, केंद्रीय, वह जो जड़ में प्यास है, वह वंचित रह जाती है। वह सूख जाती है। धीरे-धीरे हम भूल ही जाते हैं, सच तो यह है कि हम भूलना चाहते हैं, हम भुला देते हैं। हम धीरे-धीरे बिल्कुल ही भुला देते हैं कि और भी कोई प्यास हो सकती है। कमाओ धन, बनाओ मकान, बच्चे पैदा करो पर्याप्त है। जीवन पूरा हो जाता है।
जो आदमी समझता है कि इन प्यासों में जीवन है, उसके लिए अभी देर है। उसके लिए बहुत देर है। उसकी परमात्मा की प्यास के अंकुर को बाहर फूटने में बहुत समय लग जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, इसमें किसी और को जिम्मेदार मत समझना। जिम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं है।
तो अपने भीतर खोल कर देखना कि मैंने कोई झूठी प्यासें तो नहीं पकड़ रखी हैं, कहीं मैं उनमें तो नहीं जी रहा हूं। अगर उनमें मेरी चेतना खो गई है, तो मूल प्यास का सिंचन बंद हो जाएगा। उस प्यास की जड़ें कमजोर पड़ जाएंगी। वह प्यास दब जाएगी। करीब-करीब, मरी-मरी हो जाएगी। मनुष्य के जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज है, वह मृत पड़ी है और जीवन में जो बिल्कुल व्यर्थ की खोजें हैं, वे सबकी सब सबल होकर सबके प्राणों को अवशोषित कर रही हैं।
धार्मिक प्यास से प्रभु की प्यास को जगा लेने का एक ही रास्ता है कि उन प्यासों से सावधान रहना, जो झूठी हैं। और जो केवल पड़ोसी को देख कर पैदा हो जाती हैं, उन प्यासों से सावधान रहना, जो सिर्फ नकल से पैदा होती हैं। जिनका कोई मौलिक कारण नहीं है भीतर। जिनके लिए भीतर सच में कोई बेचैनी नहीं है। जो बेचैनी क्रिएटिड है, बाहर से पैदा की गई। और अब तो बाहर से पैदा करने के ऊपर सारा व्यवसाय है, सारा व्यापार है। आदमी की इतनी जरूरतें नहीं हैं, जितनी जरूरतें दिखाई पड़ रही हैं। और जो जरूरतें होनी चाहिए, उनका कोई पता ही नहीं है, वे एक तरफ रखी हुई हैं।
एक गांव में बुद्ध गए हैं और गांव के कुछ लोगों ने आकर कहा कि आप तीस साल से आते हैं हमारे गांव में, लेकिन अब तक कितने लोगों को मोक्ष मिला है? कितने लोगों ने सत्य पाया? बुद्ध ने कहाः इसका उत्तर मैं सांझ को दूंगा। अभी मैं एक जरूरी काम में हूं। तुम थोड़ी मेरी सहायता करो। यह कागज ले जाओ। और गांव में जाकर लिख लाओ, कितने लोग मोक्ष जाना चाहते हैं, आज की रात वे आ जाएं। उस आदमी ने कहाः क्या मतलब? बुद्ध ने कहाः वह बाद में बताऊंगा, तुम जाओ।
छोटा सा गांव है। तीन-चार सौ लोग होंगे। वह आदमी एक-एक के घर गया। उसने पूछा कि आज बुद्ध का आदेश हुआ है कि जो भी मोक्ष जाना चाहते हों, आज सांझ उनके दरख्त के पास इकट्ठा हो जाएं। आज वे उसे मोक्ष भेेज देंगे। और अपना नाम लिखा दें। लोगों ने कहाः जाओ अभी अपना काम करो, हमें और काम नहीं है जो मोक्ष जाएं। किसी ने कहाः कैसे अपशकुन की बात करते हो, हम कोई मरने के करीब हैं। अभी हम जवान हैं। यह सब बूढ़ों के पास जाओ। बूढ़ों के पास भी वह आदमी गया। बूढ़ों ने कहाः तुम क्या समझते हो, हम बूढ़े हो गए, तो मर जाएं। शर्म भी नहीं आती आते, जाओ कहीं और, अभी हमें दूसरे काम हैं।
वह आदमी तो हैरान हो गया। गांव में एक नाम नहीं मिला और रोज बुद्ध की सभा में बहुत लोग आते थे। उस रात कोई नहीं आया। क्योंकि सब डरे कि कहीं मोक्ष मिल ही न जाए।
आप ही सोचिए, अगर कल मैं एक सभा और रखूं, रखूंगा नहीं। और यह कह दूं कि कल सिर्फ वही लोग आएं, जो मोक्ष जाना चाहते हैं, क्योंकि मोक्ष चले ही जाएंगे वे यहीं से, फिर कोई नहीं आएगा। आने की बात दूर, इस रास्ते से कोई नहीं निकलेगा। पहचाना हुआ आदमी, झंझट कहीं कोई हवा लग जाए, कुछ बात हो जाए, कुछ-कुछ हो जाए। कोई नहीं आया। वह आदमी खुद नहीं आया। लिस्ट लेकर। उस आदमी ने सोचा कि सुबह दे देंगे यह कागज, खाली तो ठहरा। हम क्यों जाएं। सुबह बुद्ध उसके घर गए और कहा कि महाशय तुम आए नहीं। उसने कहाः मैं डरा कि कोई तो जा नहीं रहा, हम भी क्यों जाएं। सुबह दे देंगे, कागज में कुछ है भी नहीं, नाम तो कोई मिला नहीं। बुद्ध ने कहाः अब भी तुम मुझसे पूछते हो, तीस साल से समझा रहा हूं, कितने लोग मोक्ष गए। मैं किसी को जबरदस्ती धक्के देकर मोेक्ष में भेज दूं। सत्य की प्यास, कोई धक्का देकर तो आपको नहीं दे सकता। लेकिन मैं कहता हूं, सत्य की प्यास है। धीमी जल रही है। मंदी जल रही है, दबी-दबी है। पता नहीं चलता कहां है, क्योंकि उसके आस-पास बहुत कुछ जल रहा है। बड़े-बड़े नियोन लाइट लगा रखे हैं उसके आस-पास। वह छोटा सा दीया पता नहीं चलता। उसकी कोई पहचान नहीं होती, उसकी कोई खबर नहीं मिलती। वह किरण दब गई है, वह आवाज दब गई है।
थोड़ा खोजें, थोड़ा अपनी प्यासों को हटाएं और कभी देेखें कि सच में ये सारी प्यासें जो मैं चाहता हूं कि पूरी हो जाएं, अगर पूरी हो गईं; फिर क्या। क्या फिर मेरी यात्रा पूरी हो जाएगी? मैं हो जाऊंगा आप्तकाम, आ जाएगा फुलफिलमेंट, कह सकूूंगा पा लिया सब, मिल गई वह गाड़ी, मिल गया वह मकान, वह स्त्री, वह बच्चा सब? फिर तो शायद ख्याल आए असली प्यास यह नहीं हो सकती, क्योंकि जिसके पूरे होने पर फिर प्यास बाकी रहती है, वह प्यास असली नहीं हो सकती। तो फिर शायद
एक अंतिम बात, फिर मैं चर्चा पूरी कर दूंगा। कुछ मित्रों ने कहा है कि आप कुछ ऐसी बातें कह देते हैं कि मन को बड़ा धक्का लगता है, बहुत शॉकिंग हो जाती है।
अब बड़ा मुश्किल है, आपका मन बड़ा कमजोर है, इसमें हम क्या करें। ऐसा मन लेकर ऐसी खतरनाक जगह जाते क्यों हो। लेकिन मेरा कोई जरूर प्रयोजन, मैं धक्का मारना चाहता हूं।
हम ऐसे जड़ हो गए हैं कि कहीं से कोई धक्का ही नहीं लगता। जड़ हो गए हैं पत्थर की तरह। हिलते ही नहीं, और कभी हवा का झोंका जोर से आए और पत्थर को थोड़ा हिलाए, तो पत्थर बहुत नाराज होता है। फूल बहुत खुश होता है, क्योंकि जिंदगी है हवाओं में, नाचने में। पत्थर बहुत नाराज होता है। यह क्या गड़बड़ करते हो। यह कैसी हवा चलती है कि हम हिल जाते हैं, हमारी जगह से हिल जाते है, चोट लगती है मन को बहुत। एक छोटी सी कहानी से समझाऊं।
एक फकीर था। बड़ा अदभुत आदमी था। उसका नाम था, बहाउद्दीन नक्सबंद। न मालूम कितने लोग उसके पास आते थे। एक आदमी आया। दस-पच्चीस लोग उसके पास बैठे हैं। एक आदमी आया। पैर में झुक गया और कहने लगा कि मुझे सत्य की खोज करनी है। मैं आध्यात्मिक जिज्ञासु हूं। आप मुझे रास्ता बताएं। और उस फकीर ने कहा कि इसी वक्त बाहर निकल जा और अब से अध्यात्म की बात छोेड़ दे। अब अध्यात्म की बात ही मत करना, लौट कर यहां आना मत, बाहर निकल, उठ!
सारे लोग जो बैठे थे, बहुत हैरान हो गए। यह क्या मामला है? यह आदमी कैसा है? इतना क्रोधी! जिसको हम समझते थे ज्ञानी, इतना अभिमानी! जिसको हम समझते थे शांत! दो-चार उठ कर चल दिए। उन्होंने कहाः इस आदमी का तो गड़बड़ हो गया। यह आदमी गड़बड़ है। हम समझे थे क्या, निकला क्या। डिसइलुजन में दो-चार तो उठ कर चले गए। दो-चार उठना चाहे उनके पीछे, लेकिन कुछ संकोच, कुछ उसमें रुक गए। दो-चार इसलिए रुक गए कि यह पूछ लें, फिर जाएं, यह मामला क्या है? आदमी के साथ ऐसा व्यवहार करना पड़ता है। जब वह आदमी चला गया, तो उन्होंने पूछा कि हम बहुत दुखी हैं, आपकी बात सुन कर हमको बहुत पीड़ा हुई। आपने ऐसा दुव्र्यवहार किया। आपने उस आदमी को ऐसा धक्का दिया। इस तरह की बात कही। यह एक संत के लिए उपयोगी है?
उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि मैं तुमको निकालूूं। निकालूंगा मैं तुमको, तुम देख चुके हो। तुमको अभी निकालता हूं। लेकिन इससे पहले कि मैं तुमको निकालूं, मैं तुम्हें बता दूं कि बात क्या है। तुम्हें उदाहरण से समझा दूूं। दो क्षण के लिए वह चुप हो गया।
खिड़की से एक पक्षी आया। और कमरे में चक्कर काटने लगा। और वह निकलना चाहता है और निकल नहीं पाता और आप जानते ही हैं कि पक्षी अगर कमरे में घुस जाए, तो खुले दरवाजे को छोड़ कर सब जगह रास्ता खोजता है।
दिमाग आदमियों में थोड़े ही ख़राब है, पक्षियों का भी ऐसा ही है। खुला दरवाजा है उसको छोड़ देगा, दीवाल पर चोंच मारेगा, पर फड़फड़ाएगा और जितना घबड़ाने लगेगा, निकलने का रास्ता नहीं पाएगा, उतना ही खुले दरवाजे के पास नहीं जाएगा और सब तरफ, और वह फकीर चुप बैठा है और वे सारे लोग देख रहे हैं कि बात क्या है।
वह फकीर पक्षी को देख रहा है। वह कई चक्कर लगा कर, उस खुले दरवाजे की पट्टी पर आकर बैठ गया। जैसे ही वह बैठा उस फकीर ने जोर से ताली बजाई। वह पक्षी फड़फड़ाया और दरवाजे के बाहर हो गया। उस फकीर ने कहाः देखो मित्रो, उस पक्षी को जब मैंने ताली बजाई, तो जरूर लगा होगा कि कौन दुष्ट आदमी है, मैं तो वैसे ही थका-मांदा बैैठा हूं। और ताली बजा कर मुझे शॉक कर रहा है। लेकिन वही ताली उसे बाहर ले गई। अब वह खुले आकाश में है। लेकिन जो ताली समझ सकेंगे, वे खुले आकाश में चले जाएंगे। जो ताली नहीं समझ सकेंगे, वे अपने और चूहों के बिलों में घुस जाएंगे। दरवाजा बंद कर लेंगे कि अब इस आदमी के पास नहीं आना है। सब गड़बड़ हो गया।
जिनको आप शॉक समझ रहे हैं, आपके लिए परमात्मा से की गई मेरी प्रार्थना है। जिनको आप चोट समझते हैं, जिनसे आप क्रोधित हो जाते हैं, आपके लिए परमात्मा से किए गए मेरे निवेदन हैं।
जब आप खिड़की पर बैठे होते हैं, तब मैं जोर से ताली बजाता हूं कि शायद उड़ जाएं, लेकिन वह पक्षी बड़ा समझदार था। इतने समझदार आदमी खोजने बहुत मुश्किल हैं, लेकिन इस आशा में कुछ नासमझ घूमते ही रहते हैं कि शायद इतने समझदार आदमी भी कहीं मिल जाएं। उसी की खोज में घूमता रहता हूं। कोई मिल जाए ठीक, नहीं मिला तो यह तो कहने को न होगा परमात्मा के सामने कि जब पक्षी बैठा था स्वतंत्र होने के करीब, तो मैंने ताली नहीं बजाई थी। मैंने ताली बजा दी थी, अब यह पक्षी की बात कि वह बाहर न गया हो और भीतर आ गया हो।

इन तीन दिनों में मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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