पउड़ी:
27
सो
दरु केहा सो
घरु केहा जितु
बहि सरब
समाले।
बाजे
नाद अनेक
असंखा केते
वावणहारे।।
केते
राग परी सिउ
कहीअनि केते
गावणहारे।
गावहि
तुहनो पउणु
पाणी वैसंतरु
गावे राजा धरम
दुआरे।।
गावहि
चितगुपतु
लिखि जाणहि
लिखि लिखि
धरमु वीचारे।
गावहि
ईसरु बरमा
देवी सोहनि
सदा सवारे।।
गावहि
इंद इंदासणि
बैठे देवतिया
दरि नाले।
गावहि
सिध समाधी
अंदरि गावनि
साध विचारे।।
गावनि
जती सती
संतोखी गावहि
वीर करारे।
गावनि
पंडित पड़नि
रखीसर जुगु
जुगु वेदा
नाले।।
गावनि
मोहणीआ मनु
मोहनि सुरगा
मछ पइआले।
गावनि
रतनि उपाए
तेरे अठसठि
तीरथ नाले।।
गावहि
जोध महाबल
सूरा गावहि
खाणी चारे।
गावहि
खंड मंडल
वरमंडा करि
करि रखे
धारे।।
सेई
तुधनो गावनि
जो तुधु भावनि
रते तेरे भगत
रसाले।
होरि
केते गावनि से
मैं चिति न
आवनि नानकु
किया
विचारे।।
सोई
सोई सदा सचु
साहिबु साचा
साची नाई।
है
भी होसी जाई न
जासी रचना
जिनि रचाई।।
रंगी
रंगी भाती करि
करि जिनसी
माइआ जिनि
उपाई।
करि
करि वेखै कीता
आपणा जिव तिस
दी बडिआई।।
जो
तिसु भावै सोई
करसी हुकमु न
करणा जाई।
सो
पातिसाहु
साहा
पातिसाहिबु
नानक रहणु रजाई।।
एक
सूफी कहानी
है। एक सम्राट
अपने वजीर पर
नाराज हो गया।
और उसने वजीर
को आकाश-छूती
एक मीनार में
कैद कर दिया।
वहां से कूद
कर भागने का
कोई उपाय न
था। कूद कर
भागता तो
प्राण ही खो
जाते। लेकिन
वजीर जब कैद
किया जा रहा
था, तब उसने
अपनी पत्नी के
कानों में कुछ
कहा।
पहली
ही रात पत्नी
मीनार के करीब
गयी। उसने एक साधारण-सा
कीड़ा दीवार पर
छोड़ा। और उस
कीड़े की मूंछों
पर थोड़ा-सा
मधु लगा दिया।
कीड़े को मधु की
गंध आयी। मधु
को पाने के
लिए कीड़ा
मीनार की तरफ, ऊपर की तरफ
सरकने लगा।
मूंछ पर लगा
था मधु, तो
गंध तो आती ही
रही। और कीड़ा
मधु की तलाश
में सरकता
गया। उस कीड़े
की पूंछ से एक
पतला से पतला
रेशम का धागा
पत्नी ने
बांधा हुआ था।
सरकता-सरकता
कीड़ा उस तीन
सौ फीट ऊंची मीनार
के आखिरी
हिस्से पर
पहुंच गया।
वजीर वहां
प्रतीक्षा कर
रहा था। कीड़े
को उठा लिया, पीछे बंधा
हुआ रेशम का
धागा पहुंच
गया। रेशम के
धागे में एक
पतली-सी सुतली
बांधी। सुतली
में एक मोटा
रस्सा बांधा
था। और वजीर
रस्से के
सहारे उतर कर
कैद से मुक्त
हो गया।
कहानी
कहती है कि
वजीर न केवल
इस कैद से
मुक्त हुआ, बल्कि उसे
उस मुक्त होने
के ढंग में
जीवन की आखिरी
कैद से भी
मुक्त होने का
सूत्र मिल
गया।
पतला-सा
धागा भी पकड़
में आ जाए तो
छुटकारे में कोई
बाधा नहीं है।
पतले से पतला
धागा भी मुक्ति
का मार्ग बन
सकता है।
लेकिन धागा
पकड़ में आ जाए!
एक छोटी-सी
किरण पहचान
में आ जाए, तो उसी किरण
के सहारे हम
सूरज तक पहुंच
सकते हैं।
सभी
धर्म, सभी
गुरु किसी
पतले से धागे
को पकड़ कर
परमात्मा तक
पहुंचे हैं।
वे धागे अनेक
हो सकते हैं।
अनेक तरह के
कीड़ों पर धागा
बांधा जा सकता
है। और जरूरी
नहीं कि कीड़े
की मूंछों पर
मधु ही लगाया
जाए, कुछ
और भी लगाया
जा सकता है।
वे गौण बातें
हैं। असली बात
यह है कि धागा
कैदी तक पहुंच
जाए। धागा ही
फिर सेतु बन
जाता है
मुक्ति तक।
नानक
ने जो धागा
पकड़ा है, वह
धागा है बड़ा
साफ और बहुत
स्पष्ट।
लेकिन चूंकि
हम अंधे और
बहरे हैं, इसलिए
हमें सुनायी
नहीं पड़ा।
जीवन
को अगर तुम
गौर से देखोगे
तो अस्तित्व
में जो सबसे
ज्यादा प्रकट
बात दिखायी
पड़ती है, वह
है गीत। पक्षी
अभी भी गा रहे
हैं। सुबह
होते ही गीत
पक्षियों का
शुरू हो जाता
है। हवाओं के
झोंके वृक्षों
से टकराते हैं
और गाते हैं।
पहाड़ों से झरने
गिरते हैं और
नाद उत्पन्न
होता है। आकाश
में बादल आते
हैं और
तुमुल-उदघोष
होता है। नदियां
बहती हैं।
सागर की
तरंगें तटों
से टकराती
हैं। अगर जीवन
को चारों तरफ
गौर से तुम
देखो और सुनो,
तो तुम्हें
पूरा
अस्तित्व
गाता हुआ
मालूम पड़ेगा।
गीत से
ज्यादा
स्पष्ट
अस्तित्व में
और कोई बात
नहीं है।
सिर्फ जब जीवन
शांत हो जाता
है, मृत हो
जाता है, तभी
गीत बंद होता
है। जब कोई मर
जाता है, तभी
ध्वनि खोती
है। अन्यथा
जीवन में तो
ध्वनि है।
लेकिन आदमी
बहरा है।
इसलिए साफ
धागा हाथ में
होते हुए भी
पकड़ में नहीं
आता।
अगर
जीवन इतना गीत
से भरा है, तो इस गीत के
पीछे
परमात्मा का
हाथ होगा। और
इस गीत में
छिपा हुआ कहीं
न कहीं
परमात्मा है। अगर
हम भी गा सकें,
अगर हम भी
इस गीत में
लीन हो सकें, तो धागा हाथ
में आ जाएगा।
गीत में लीन
होना धागा है।
फिर इस संसार
की कैद से
परमात्मा के
मोक्ष तक जाने
में देर नहीं।
नानक
ने गीत को
साधना का
माध्यम बनाया
है। तुम्हें
भी, जब कभी
तुम गाते हो, तब एक मस्ती
पकड़ने लगती
है। तब एक नशा
छाने लगता है।
लेकिन लोग
गाने से डर गए
हैं। कोई पक्षी
इसकी चिंता
नहीं करता है
कि उसकी ध्वनि
मधुर है या
नहीं; आदमी
बहुत भयातुर
हो गया है।
थोड़े-से लोग
गा सकते हैं, जिनकी ध्वनि
बहुत मधुर हो।
बाकी लोग
ज्यादा से
ज्यादा
स्नानगृह में
थोड़ा
गुनगुनाते
हैं। वह भी
डरे-डरे!
स्नानगृह में
गुनगुनाते
हैं, क्योंकि
कोई देखने
वाला नहीं, कोई सुनने
वाला नहीं। और
ध्यान रखना, स्नान से भी
तुम्हें उतनी
ताजगी नहीं
मिलती, जितनी
गुनगुनाने से
मिलती है।
क्योंकि स्नान
तो शरीर को
ऊपर-ऊपर ही
छूता है, गुनगुनाहट
भीतर उतर जाती
है। और जो
आदमी गुनगुनाना
नहीं जानता, उस आदमी के
सभी संबंध
परमात्मा से
टूट गए। वह अस्तित्व
से दूर हो गया,
वह जीते जी
मुर्दा है।
कबीर
ने कहा है, ई मुर्दन के
गांव।
हमारे
गांव के लिए
कहा कि ये
मुर्दों के
गांव हैं।
जिंदगी का गीत
यहां गूंजता
ही नहीं। न कोई
नाचता है
अहोभाव में, न कोई गाता
है आपूर हृदय
से, न कोई
डूब जाता है
अपने गीत में।
यह
सवाल नहीं है
कि स्वर मधुर
है या नहीं।
क्योंकि गीत
कोई बाजार में
बेचने के लिए
नहीं है, गीत
तो अहोभाव के
लिए है। और
गीत की असली
सार्थकता
उसके माधुर्य
में नहीं, उसकी
लीनता में है।
तुम उसमें लीन
हो सकते हो।
तुम उसमें
इतने लीन हो
सकते हो कि
तुम बिलकुल
मिट ही जाओ।
तुम बचो ही न
और गीत ही बचे।
गुनगुनाहट रह
जाए और कर्ता
खो जाए। गीत
ही बचे और
गायक समाप्त
हो जाए। यह हो
सकता है। और यह
सरलतम है।
इससे ज्यादा
सरल धागा तुम
न पा सकोगे।
पक्षी गा लेते
हैं, पौधे
गुनगुनाते
हैं, झरने
गाते हैं। तुम
इतने असमर्थ
हो क्या कि झरनों
का मुकाबला भी
न कर सको? कि
पक्षियों का
मुकाबला भी न
कर सको? कि
वृक्षों से भी
होड़ न ले सको?
लेकिन
तुम डर गए हो।
और तुमने गीत
को बाजार में
खड़ा कर दिया
है। तुम गीत
को बेचते हो।
और फिर एक
मजेदार घटना घटी
है कि जब गीत
बिकता है, तो सभी नहीं
गा सकते।
क्योंकि तब
गीत जीवन का सहज
कृत्य नहीं रह
जाता। बाजार
की सामग्री हो
गयी। फिर तुम
सोचोगे कि
ध्वनि योग्य
है या नहीं!
शिक्षण हुआ या
नहीं! तुमने
संगीत सीखा है
या नहीं!
कोई
पक्षी संगीत
सीखने नहीं
जाता। कोई
झरना संगीत
सीखने नहीं
जाता। संगीत
तो जीवन की
सहज सरिता है।
सीखने का कोई
सवाल नहीं।
संगीत तो वहां
अनसीखा मौजूद
है। सिर्फ
थोड़ी हिम्मत
जुटाने की
जरूरत है।
थोड़े पागल
होने की
हिम्मत चाहिए
और संगीत फूट
पड़ेगा। और जब
पक्षी
विश्वविद्यालय
में नहीं जाते, तो तुम्हें
जाने की क्या
जरूरत है? लेकिन
पक्षियों को
चिंता नहीं है
कि कौन क्या कहता
है? पक्षियों
को विचार नहीं
है कि बाजार
में बिकेगा यह
गीत या नहीं? पक्षी आनंद
से गाते हैं।
चूंकि
हम बेचते हैं
गीत को, धीरे-धीरे
एक दूसरी
दुर्घटना
घटती है। और
वह यह कि फिर
हम गा तो नहीं
सकते, हम
सिर्फ सुन
सकते हैं। तब
पैसिविटी
पैदा होती है।
तब कोई गाता
है और हम
सुनते हैं, कोई नाचता
है और हम
देखते हैं।
तुम सोचो जरा,
यह बड़ी
दीनता है।
किसी दिन ऐसा
जरूर आ जाएगा,
जब कोई
प्रसन्न होगा,
हम
देखेंगे।
तुम
फर्क समझते हो? कोई प्रसन्न
होता है, तुम
देखते हो--इसमें,
और तुम
प्रसन्न होते
हो--अंतर
दिखायी नहीं
पड़ता? कोई
प्रेम कर रहा
है और तुम
देखते
हो--इसमें, और
तुम प्रेम
करते
हो--इसमें
तुम्हें भेद
नहीं मालूम
पड़ता? देखने
से कभी कोई
प्रेम को जान
सकेगा? प्रेम
तो करके ही
जाना जा
सकेगा।
दूसरा
गा रहा हो, कोकिल-कंठ
हो, बड़ा
संगीतज्ञ हो,
लेकिन सुन
कर तुम संगीत
को न जान
सकोगे। यह तो उधार
हो गया। कोई
दूसरा गा रहा
है, तुम
मुर्दे की
भांति बैठे
सुन रहे हो।
इससे संगीत से
तुम्हारा
संबंध न
जुड़ेगा।
संगीत में उतरने
के लिए
तुम्हें
सक्रिय होना
पड़ेगा। नाच कर
ही नाच जाना
जा सकता है, देख कर
नहीं। देखना
तो
सबस्टीटयूट
है, वह तो
परिपूरक है।
वह तो झूठा
है। असली नहीं
है, प्रामाणिक
नहीं है।
और
आदमी
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
सभी चीजें
दूसरों पर छोड़
दिया है। दूसरे
करते हैं, तुम
देख लेते हो।
कोई खेलता है,
लाखों लोग
देखते हैं।
कोई नाचता है,
हजारों लोग देखते
हैं। कोई गाता
है, हजारों
लोग सुनते
हैं। न तुम
गाते हो, न
तुम खेलते हो,
न तुम नाचते
हो। तुम्हारे
जिंदा रहने का
प्रयोजन क्या
है? तुम
जिंदा क्यों
हो? सभी
काम विशेषज्ञ
पूरा कर देते!
और मजे
की बात यह है
कि देखने वाले
को भी उपलब्धि
नहीं हो पाती; और वह जो कर
रहा है, उसे
भी नहीं हो
पाती।
क्योंकि उसकी
नजर भी पैसे
कमाने पर है।
वह भी नाच
आत्मा का नहीं
है। और वह भी
नाच सिर्फ ऊपर
की कुशलता का
है। उसे कोई प्रयोजन
नहीं है। वह
नाच रहा ही
नहीं। उसके भीतर
भी नाच इतना
गहन तक नहीं
उतरता कि
उसमें डूब
जाए। क्योंकि
उसकी नजर पैसे
पर लगी है।
ऐसा
हुआ कि अकबर
ने तानसेन को
पूछा कि
तुम्हारे
गुरु को मैं
मिलना चाहता
हूं। क्योंकि
कल रात जब तुम
गा कर विदा
हुए, तो मेरे
मन में ऐसा
भाव था कि
तुमसे
श्रेष्ठ न तो
गायक कभी हुआ
है, और न
होगा। तुम परम
हो। तुम आखिरी
हो। लेकिन जब
मैं यह सोच
रहा था, तभी
मुझे खयाल आया
कि तुमने भी
किसी से सीखा
होगा! कोई
होगा
तुम्हारा
गुरु! तो मेरे
मन में एक
जिज्ञासा उठ
गयी कि कौन
जाने
तुम्हारा
गुरु तुम से
आगे हो। तो
मैं तुम्हारे
गुरु को मिलना
चाहूंगा। मैं
तुम्हारे
गुरु को भी
सुनना चाहूंगा।
तानसेन
ने कहा, यह
जरा कठिन है।
गुरु मेरे
हैं। और अभी
जीवित हैं।
सुनना भी हो
सकता है, लेकिन
बड़ी कठिनाई
है। उन्हें
दरबार में
नहीं बुलाया
जा सकता।
फरमाइश पर वे
नहीं गाते।
उनका गान तो
पक्षियों
जैसा है। तुम
कोयल से कितनी
ही प्रार्थना
करो कि गाओ।
तुम्हारी
प्रार्थना की
वजह से ही, कोयल
गा रही होगी
तो चुप हो
जाएगी, कि
क्या मामला है?
वे जब गाते
हैं तभी सुना
जा सकता है।
तो अगर आप उनको
सुनना चाहते
हैं, तो
हमें ही उनके
झोपड़े के पास
चलना पड़ेगा।
और वह भी छिप
कर ही सुना जा
सकता है।
क्योंकि हम पहुंचेंगे
तो वे शायद
रुक जाएं। तो
मैं पता लगाऊंगा
कि अभी कब
गाते हैं वे!
क्योंकि जब वे
गाते हैं, तो
हम छिपे
रहेंगे।
पता
चला कि वे तीन
बजे रात उठते
हैं। वे तो
फकीर थे।
हरिदास उनका
नाम था। वे
तीन बजे उठते
हैं। यमुना के
तट पर उनका
झोपड़ा है। अब
वहीं वे अपने
झोपड़े में
गाते हैं।
अपनी मस्ती
में गाते हैं।
वही गीत पक्षियों
का है। उस गीत
का किसी से
कुछ लेना-देना
नहीं है।
अकबर
और तानसेन रात
दो बजे जा कर
झोपड़े के पास छिप
गए। तीन बजे
संगीत शुरू
हुआ। अकबर
मूर्ति की तरह
ठगा रह गया।
आंख से झर-झर
आंसू की धार
लग गयी। जब
वापस लौटे
अपने रथ में, तो रास्ते
भर तानसेन से
कुछ बोल न
सका। ऐसा
भावविभोर हो
गया। भूल ही
गया तानसेन
को। महल में
उतरते वक्त
उसने इतना ही
कहा कि अब तक मैं
सोचता था कि
तेरा कोई
मुकाबला नहीं
है। और आज मैं
सोचता हूं कि
तेरे गुरु के
सामने तू तो कुछ
भी नहीं है।
मैं यह पूछना
चाहता हूं कि
इतना फर्क
क्यों?
तानसेन
ने कहा, फर्क
भी पूछने की
जरूरत है क्या?
मैं आपके
लिए गाता हूं,
मेरे गुरु
परमात्मा के
लिए गाते हैं।
और जब मैं
गाता हूं तो
मेरी नजर लगी
है पुरस्कार
पर कि क्या
मिलेगा? मैं
गाता हूं, ताकि
कुछ मिले।
मेरा गाना
व्यवसाय है।
मेरे गुरु कुछ
पाने के लिए
नहीं गाते
हैं। ठीक
स्थिति उलटी
है। मेरे गुरु
तभी गाते हैं,
जब उन्हें
कुछ मिला होता
है। जब वे
इतने भरे होते
हैं परमात्मा
के भाव से, जब
उन्हें कुछ
मिला होता है,
जब उनका कंठ
भरा होता है, जब उनके
हृदय में
लहरें उठ रही
होती हैं, जब
वे आपूर होते
हैं उसके दान
से, तब
बहते हैं।
उन्हें जब कुछ
मिला होता है,
तब वे गाते
हैं। गाना
उनकी छाया की
तरह है। मिलना
पहले है, गीत
बाद में है।
और मैं गाता
हूं, मिलना
पीछे है। तो
कर्म-फल पर
मेरी नजर लगी
है। और इसलिए
मैं क्षुद्र
हूं। आप ठीक
कहते हैं।
मेरे गुरु से
मेरा क्या
मुकाबला? मैं
कितना ही कुशल
हो जाऊं, मेरे
हाथ कितने ही
सध जाएं, मेरा
गला कितना ही
प्रवीण हो जाए,
लेकिन
आत्मा उसमें
प्रवेश न पा
सकेगी। मैं विशेषज्ञ
रहूंगा और
मेरे गुरु कोई
विशेषज्ञ नहीं
हैं। उनका गीत
एक पक्षी का
गीत है।
तो तुम
जिन्हें
सुनते हो उनका
गीत व्यवसाय
है। सुनने
वाला खाली, व्यर्थ बैठा
है।
निष्क्रिय
है। गाने वाला
व्यवसायी है।
तुम परमात्मा
के गीत से
बिलकुल दूर ही
चले गए। जो
चित्रपट पर
प्रेम का
प्रदर्शन कर
रहा है, उसके
लिए प्रेम
धंधा है। वह
उस प्रेम में
जो भी कर रहा
है, वह
अभिनय है। और
देखने वाला
निष्क्रिय
बैठा है, अपनी
कुर्सी में
बंधा हुआ।
जीवन
के सत्य
सक्रियता से
जाने जाते
हैं। जीवन के
सत्यों में
तुम्हें
उतरना पड़ेगा।
कोई दूसरा
तैरेगा तो
तैरने का आनंद
तुम कैसे ले
पाओगे? थोड़ा
सोचो! जब
देखने से इतना
सुख मिलता है,
तो हो जाने
से कितना सुख
न मिलता होगा!
गाओ, नाचो,
भूल जाओ
सारे जगत को। उसकी
याद ही तो
तुम्हें
नाचने नहीं
देती और गाने
नहीं देती। और
तब तुम
परमात्मा के
द्वार पर खड़े
हो।
नानक
बड़े मधुर
शब्दों में यह
बात कहते हैं।
वे कहते हैं--
सो दरु
केहा सो घरु
केहा जितु बहि
सरब समाले।
वह
द्वार कहां है, वह घर कहां
है, जहां
बैठ कर तू
सबकी सम्हाल
कर रहा है? तेरे
घर का द्वार
कहां खोजूं? जिसके भीतर
छिपा, तू
सबको सम्हाले
हुए है। और
उत्तर देते
हैं--
बाजे
नाद अनेक
असंखा केते
वावणहारे।।
केते
राग परी सिउ
कहीअनि केते
गावणहारे।
वह
द्वार कहां, वह घर कहां, जहां बैठ कर
तू सबकी
सम्हाल करता
है?
यह
प्रश्न है। और
उत्तर देते
हैं--
अनेक
नाद बज रहे
हैं, और कितने
असंख्य बजाने
वाले हैं।
असंख्य गायक
हैं, अनंत
राग-रागिनियां
हैं। पानी और
अग्नि और पवन
यश गा रहे
हैं। धर्मराज
तेरे द्वार पर
बैठ कर गीत गा
रहे हैं।
चित्रगुप्त
भी, शिव, ब्रह्मा, देवी सभी
तेरा गान कर
रहे हैं। इंद्रासन
पर बैठे इंद्र
गाते हैं।
देवता तेरे द्वारों
पर बैठे गाते
हैं। समाधि
में बैठ कर सिद्ध
और ध्यान में
बैठ कर साधु
गाते हैं।
नानक
पूछते हैं, कहां तेरा
द्वार? कहां
तेरा घर? और
तत्क्षण कहते
हैं, अनेक
नाद बज रहे
हैं, कितने
असंख्य बजाने
वाले हैं।
नानक
कह रहे हैं, नाद तेरा
द्वार है। नाद
में छिपा ही
तू सारे जगत
को सम्हाले
हुए है। ओंकार
तेरा द्वार।
उसी में छिपा
हुआ तू सारे
जगत को
सम्हाले हुए
है। और अगर
गीत की एक कड़ी
तुम्हें पकड़
जाए, तो उस
धागे को पकड़
कर तुम उस
परमात्मा के
द्वार तक जा
सकोगे। नाद जब
तुम्हारे
भीतर बजेगा, जब तुम नाद
में लीन हो
जाओगे, उसी
क्षण द्वार के
सामने अपने को
पाओगे।
सो दरु
केहा सो घरु
केहा जितु बहि
सरब समाले।
बाजे
नाद अनेक
असंखा केते
वावणहारे।।
केते
राग परी सिउ
कहीअनि केते
गावणहारे।
कितने
राग, कितनी
रागिनियां, कितने नाद, कितने गायक!
यही तेरा द्वार
है। सुबह से
सांझ तक, सांझ
से सुबह तक
असंख्य राग बज
रहे हैं।
तुम
जीवन में उन
रागों को
पहचानना शुरू
करो। मनुष्य
का सारा संगीत
अस्तित्व के
रागों से पैदा
हुआ है।
मनुष्य के
सारे वाद्य
अस्तित्व की नकल
से पैदा हुए
हैं। पक्षी
गाते हैं, झरने गाते
हैं, हवाएं
गाती हैं, आकाश
में बादल
गरजते हैं, इन्हीं सबसे
नाद पैदा हुए
मनुष्य के।
सारी राग-रागिनियां
पैदा हुईं।
इनसे ही सारे
वाद्य निर्मित
हुए।
अस्तित्व
में राग को
पहचानने की
कोशिश करो। सुबह
उठ कर पहला
ध्यान चारों
तरफ हो रही
ध्वनियों पर
डालना। और अगर
तुम्हें
ध्वनियां सुनायी
पड़ने लगें, तो तुम
पाओगे कि वे
दिनभर
तुम्हें
सुनायी पड़ती
रहेंगी।
क्योंकि वे
सदा जारी हैं।
सिर्फ तुम
बहरे हो।
रात के
सन्नाटे में
बैठ जाना और
सुनना सन्नाटे
को। सन्नाटे
का नाद बहुत
निकट है ओंकार
के। इसलिए जब
भी तुम्हारे
भीतर ओंकार
बजेगा, तो
पहले तो तुम्हें
सन्नाटे का
नाद ही सुनायी
पड़ेगा।
सन्नाटे की
झांई; जैसे
झींगुर बोलते
हों और रात
बिलकुल चुप हो,
वैसी झांई
तुम्हें पूरे
वक्त सुनायी
पड़ने लगेगी--चौबीस
घंटे! बाजार
में, दुकान
पर, दफ्तर
में तुम पाओगे
कि वह झांई
बजती ही जाती है।
क्योंकि वह बज
ही रही है।
बाजार के
शोरगुल में दब
जाती है, बजना
बंद नहीं
होता। उपद्रव
में खो जाती
है, समाप्त
नहीं होती। और
तुम्हें पकड़
में आ जाए, तो
तुम उसे कभी
भी पहचान
लोगे। और
जैसे-जैसे तुम्हारी
पकड़ साफ होती
जाएगी और
पहचान निखरेगी,
वैसे-वैसे
तुम पाओगे
चौबीस घंटे, अहर्निश
उसके द्वार पर
राग-रागिनियों
का मेला लगा
हुआ है।
ध्यान
रखो, जिन्होंने
भी उसे जाना
है, उन्होंने
उसे
सच्चिदानंद
कहा है। जब भी
कोई आनंद से
भर जाता है, तो गीत से भर
जाता है। गीत
और आनंद में
बड़ा नैकटय है।
बड़ी समीपता
है। दुख में
कोई नहीं गाता,
सिवाय
फिल्मों को
छोड़ कर! दुख
में आदमी रोता
है, गाता
नहीं है। दुख
में आंसू बहते
हैं, गीत
नहीं। जब कोई
आह्लादित
होता है, आनंदित
होता है, तब
गाता है। और
तब अगर आंसू
भी बहें, तो
भी उन आंसुओं
में गीत होता
है। आनंद के
क्षण में तुम
जो भी करोगे
उसमें गीत
होगा; उसमें
गीत की भनक
होगी।
तुम्हारे उठने-बैठने
में गीत होगा।
तुम्हारे
चलने-फिरने में
गीत होगा।
तुम्हारे
श्वास लेने और
छोड़ने में गीत
होगा।
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
में नाद होगा।
जैसे-जैसे तुम
आनंद के करीब
पहुंचते हो, वैसे-वैसे
गीत के करीब
पहुंचते हो।
निश्चित ही
गीत उसका
द्वार है।
क्योंकि भीतर
परमानंद है।
ऐसी भी
घड़ी आती है जब
गीत भी बंद हो
जाता है। क्योंकि
गीत द्वार है।
जब तुम द्वार
के भीतर प्रविष्ट
हो जाते हो, तो गीत भी खो
जाता है।
क्योंकि ऐसी
घड़ी भी आती है
जब गीत भी
बाधा मालूम
पड़ता है। तब
उसका ही गीत
चलता है, तुम्हारा
गीत बिलकुल खो
जाता है। तब
तुममें अनंत
ध्वनियां
गूंजती हैं।
तुम्हारी अपनी
कोई ध्वनि
नहीं होती।
तुम सूने घर
हो जाते हो।
हमने
मंदिर इस ढंग
से बनाए थे कि
उनमें आवाज गूंजे।
आवाज गूंजने
को ध्यान में
रखा था। मंदिर
का पूरा
स्थापत्य, उसका पूरा
आर्किटेक्चर
आवाज को
गुंजाने को ध्यान
में रख कर बनाया
गया था। वह इस
खबर को देने
के लिए कि एक
तो मंदिर खाली
है। उसमें हम
कुछ रखते
नहीं। वह खाली
होना ही
चाहिए।
क्योंकि वह
हमारी आखिरी
खाली अवस्था
का प्रतीक है।
जहां हम
बिलकुल खाली हो
जाएंगे और
जहां नाद
गूंजेगा।
मंदिर के द्वार
पर ही हमने
घंटा लटका रखा
था। जो भी आए, पहले घंटे
को बजाए, क्योंकि
द्वार पर नाद
है।
ये सब
प्रतीक हैं उस
परमद्वार के।
बिना घंटा बजाए
कोई मंदिर में
प्र्रवेश न
करे! क्योंकि
नाद में ही
प्रवेश है। और
घंटे की यह
खूबी है कि तुम
बजा दो, तो
भी वह गूंजता
रहता है। और
जब तुम प्रवेश
करते हो मंदिर
के द्वार में
तब घंटे का
नाद गूंजता
रहता है। उस नाद
में ही मंदिर
के द्वार में
प्रवेश करने
की व्यवस्था
है। बिना बजाए
कोई प्रवेश न
करे! क्योंकि
वैसे ही नाद
में, तुम
परमात्मा में
भी प्रवेश
करोगे।
परमात्मा
का घर है यह
मंदिर, उसका
प्रतीक घर है।
वहां तुम्हें
घंटा न बजाना
पड़ेगा, वहां
नाद बज ही रहा
है। लेकिन
हमने प्रतीक
में भी
व्यवस्था की
थी। फिर जब
तुम वापस
मंदिर से लौटो
द्वार पर, फिर
घंटा बजाना।
गूंजते नाद
में ही वापस
लौटना। पूजा
है, प्रार्थना
है, वह
घंट-नाद से ही
शुरू होती है।
नानक
कहते हैं, अनेक नाद बज
रहे हैं। कितने
असंख्य बजाने
वाले हैं।
और
नानक ऐसे नहीं
कह रहे हैं, जैसे कहीं
दूर से वर्णन
कर रहे हों; जैसे द्वार
पर खड़े हैं।
इसलिए जो शब्द
उन्होंने
उपयोग किए हैं,
वे सीधे
हैं।
वह
द्वार कहां? वह घर कैसा? जहां बैठ कर
तू सबकी
सम्हाल कर रहा
है। अनेक नाद
बज रहे हैं, कितने
असंख्य बजाने
वाले हैं।
जैसे
यह सब नानक की
आंख के सामने
है।
असंख्य
गायक, अनंत
राग-रागिनियां,
पवन, पानी,
अग्नि तेरा
यश गाते हैं।
धर्मराज भी
तेरे द्वार पर
बैठ कर गाते
हैं।
थोड़ा
समझें।
क्योंकि
धर्मराज का तो
काम ही धर्म
और अधर्म का
भेद करना है।
धर्मराज का अर्थ
है, नीति की
पराकाष्ठा।
वे नीति के
देवता हैं। क्या
शुभ है, क्या
अशुभ है, उसकी
ही बारीक खोज
करना; शुभ-अशुभ
का निर्णय ही
धर्मराज की
व्यवस्था है।
नानक कहते हैं,
उनको भी मैं
देख रहा हूं
कि वे भी तेरे
द्वार पर बैठे
गीत गा रहे
हैं।
क्योंकि
धर्मराज से
ज्यादा गंभीर
आदमी तो खोजा
नहीं जा सकता।
धर्मराज का अर्थ
ही यह है, बहुत
गंभीर होगा।
इंच-इंच
सोचेगा कि
क्या ठीक, क्या
गलत; क्या
करूं, क्या
न करूं; क्या
करने योग्य, क्या न करने
योग्य! उनको
भी देखता हूं
कि वे भी मस्ती
में गीत गा
रहे हैं। तेरे
द्वार पर धर्मराज
तक गीत गा रहे
हैं।
चित्रगुप्त
भी गीत गा रहे
हैं, जिनका
कि सारा काम
ही पाप-पुण्य
लिखना है। पाप-पुण्य
का जो
हिसाब-किताब
रखता हो, वह
क्या गीत
गाएगा!
अदालत
में देखते हैं, मजिस्ट्रेट
कैसा बैठा
होता है! ये
छोटे-मोटे चित्रगुप्त
हैं! अकड़ कर
बैठा रहता है।
कपड़े भी उसके
हम इस तरह से
बनाते
हैं--काले--कि
गंभीरता की, मौत की खबर
दें। पुरानी
व्यवस्था तो
यही थी कि
मजिस्ट्रेट
अदालत में जब
बैठे, तो
वह सफेद बालों
का विग पहने।
काले कपड़े, सफेद बाल, वह भी विग--सब
झूठा। और
चेहरे पर
गंभीरता; वह
हंसे न। अदालत
में हंसना तो
अदालत की
तौहीन है। सजा
दी जा सकती है,
अगर कोई
अदालत में
हंसे। वहां
गान कैसा! गीत
कैसा! और
चित्रगुप्त
यानी आखिरी
अदालत।
नानक
कहते हैं कि
देखता हूं कि
चित्रगुप्त
भी गीत गा रहे
हैं! जैसे
सारी गंभीरता
मिट गयी तेरे
द्वार पर।
तेरा द्वार
उत्सव का
द्वार है।
इसे
थोड़ा समझ
लेना। क्योंकि
कहीं ऐसा न हो
कि जीवन के
पाप-पुण्य का
हिसाब
लगाते-लगाते
तुम बहुत
गंभीर हो जाओ।
जो गंभीर हुआ, उसने खोया।
कहीं जीवन में
क्या ठीक है, क्या गलत है,
इसी में
उलझे-उलझे तुम
सिकुड़ मत जाना,
सूख मत
जाना।
क्योंकि उसके
द्वार पर सूख
गए, जड़ हो
गए, गंभीर
हो गए लोगों
का प्रवेश
नहीं है।
उदासी का वहां
प्रवेश नहीं
है। वहां तो
नाचते हुए की
गति है। वहां
तो गीत गाता
ही प्रवेश पा
सकेगा। इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
तुम्हारे
तथाकथित साधु
उससे सदा दूर
रह जाते हैं।
क्योंकि वे
अति-गंभीर हो
गए हैं।
एक बात
समझ लें, गंभीरता
हमेशा अहंकार
का हिस्सा है।
गंभीर आदमी और
निरहंकारी न
हो सकेगा।
गंभीर आदमी तो
अहंकारी होगा
ही। और
अहंकारी आदमी
भी गंभीर होगा,
अकड़ा हुआ
होगा। छोटे
बच्चे जैसी
सरलता वहां न होगी।
और
नानक का तो
नाम ही
निरंकारी था।
नानक निरंकारी
उनका पूरा नाम
है। और मरदाना
सदा तैयार है
वाद्य को छेड़
देने को। और
नानक बोलते
नहीं, गाते
हैं। तुम
कितना ही
गंभीर प्रश्न
पूछो, उनका
उत्तर
प्रसन्नता
है। तुम कितनी
ही गहरी बात
पूछो, उनका
उत्तर उत्सव
है। वे गा कर
ही उत्तर देते
हैं। मरदाना
वाद्य छेड़
देता है। और
नानक गाना शुरू
कर देते हैं।
किसी विशेष
कारण से
उन्होंने यह
विधि चुनी।
क्योंकि उसके
द्वार पर
वाद्य बज रहा
है, नाद बज
रहा है।
उत्सव
धार्मिक आदमी
का लक्षण है।
लेकिन तुम साधारणतः
धार्मिक आदमी
को देखो, तो
तुम उन्हें
उत्सव से
बिलकुल
विपरीत पाओगे।
तुम उन्हें
बिलकुल अकड़ा
हुआ पाओगे। और
तुम उनकी
आंखों में गीत
नहीं देखोगे,
क्योंकि
उनकी आंखों
में निंदा है।
बुरे और भले
का विचार
करते-करते वे
जड़ हो गए हैं।
वे इसी सोच-सोच
में मरे जा
रहे हैं--गीत
की फुर्सत
किसे? कि
क्या ठीक है
और क्या गलत!
यह खाना खाएं
या न खाएं? इतने
बजे उठें या न
उठें? यह
कपड़ा पहनना कि
नहीं पहनना? उनका जीवन
चौबीस घंटे
अनुशासन की
जड़ता में जकड़ा
हुआ है।
निश्चित
ही उत्सव का
भी एक अनुशासन
है, लेकिन वह
अनुशासन ऊपर
से थोपा हुआ
नहीं है। उत्सव
का भी एक
अनुशासन है, लेकिन वह
भीतर से
जन्मता है। वह
एक इनर डिसिप्लिन
है। उदासी का
भी एक अनुशासन
है, जो ऊपर
से थोपा जाता
है। भीतर कुछ
भी हो, लेकिन
चेहरे को तुम
गंभीर करके
बैठ जाते हो।
शरीर को तुम
मुर्दा कर
लेते हो। ये
धार्मिक आदमी
के लक्षण नहीं
हैं। सच तो यह
है कि ये बहुत
भयभीत आदमी के
लक्षण हैं। यह
आदमी इतना डरा
हुआ है कि हंस
भी नहीं सकता।
क्योंकि हंसा
तो इसे डर है, यह किसी पाप
में उतर
जाएगा। हंसी
पाप हो गयी है।
और उदासी और
लंबे चेहरे
पुण्य के
प्रतीक हो गए
हैं।
नानक
की विधि में
उत्सव है, संगीत है।
और इसी उत्सव
के सूत्र को
पकड़ कर उसके
द्वार पर कोई
प्रवेश कर
सकता है।
कहते
हैं, समाधि
में बैठ कर
सिद्ध और
ध्यान में बैठ
कर साधु गा
रहे हैं। यती,
सती, संतोषी,
महान
शूरवीर गा रहे
हैं। पंडित, विद्वान, ऋषीश्वर और
उनके वेद
युग-युग से
तुझे ही गाते हैं।
मन को मोहने
वाली स्वर्ग
की अप्सराएं
तेरा गुणगान
करती हैं। और
पाताल की
मछलियां भी तेरे
ही गीत गा रही
हैं। स्वर्ग
से ले कर
पाताल तक तेरे
गीत के
अतिरिक्त और
कोई धुन नहीं
है। तेरे
उत्पन्न किए
चौदह रत्न
गाते हैं, अड़सठ
तीर्थ गाते
हैं, योद्धा,
महाबली, शूरवीर
गाते हैं। चार
योनियों के
जीव गाते हैं।
जो तेरे
द्वारा
उत्पन्न और
धारण किए गए
हैं, वे
खंड, मंडल
और ब्रह्मांड
तेरा ही गीत
गाते हैं। जो
तुझे भाते हैं
और तुझमें
अनुरक्त हैं,
ऐसे रसिक
भक्त तेरा
यशोगान करते
हैं।
नानक
थकते नहीं
कहते कि तेरा
गीत चल रहा है
समस्त में। सब
तरफ से
अस्तित्व एक
सेलीब्रेशन है, एक उत्सव
है। और
परमात्मा हंस
रहा है, रो
नहीं रहा है।
रोती शक्लें
उसे भाती ही
नहीं। उदासी
का अस्तित्व
से क्या
लेना-देना? उदास होने
का अर्थ ही यह
है कि तुम
अस्तित्व से
कहीं टूट गए।
कहीं
परमात्मा के
विपरीत पड़ गए।
जब
तुम्हारे
जीवन में
उदासी छा जाए, तो जानना कि
तुमने कोई कदम
गलत लिया। जब
तुम दुख से भर
जाओ, तो जानना
कि तुम कहीं
भटके। दुख तो
केवल सूचक है।
दुख को तुम
जीवन की विधि
मत बना लेना।
दुख को जीवन
की शैली मत
बना लेना।
आत्मपीड़क मत
बन जाना।
क्योंकि
आत्मपीड़क
होना तो एक
रोग है। मनोवैज्ञानिक
उसको एक खास
नाम देते हैं।
वे कहते हैं, मेसोचिजम।
ऐसे लोग हैं, जो खुद को
दुख देने के
रोग से पीड़ित
हैं।
मैसोच
एक लेखक हुआ, जिसके नाम
पर मेसोचिजम
रोग पैदा हुआ।
मैसोच खुद को
ही मारता था।
कोड़ों से
मारता था, कांटे
चुभाता था, लहू निकाल
लेता था।
मैसोच ने घाव
बना रखे थे अपने
हाथ में, पैरों
में। अपने
जूतों में
उसने खीले लगा
रखे थे अंदर
की तरफ। वह
चलता तो घाव
में चुभते
रहते।
ऐसे
मैसोचिस्ट
तुम सब जगह
पाओगे। काशी
में तुम
उन्हें
कांटों पर
लेटा हुआ
पाओगे। ये
आत्मपीड़क
हैं। ये बीमार
हैं। तुम
इन्हें उपवास
करते हुए, सड़ते-गलते
हुए पाओगे।
जगह-जगह मठों
में, मंदिरों
में इस तरह के
रुग्ण लोग
बैठे हुए हैं।
और लोग उनकी
पूजा भी
करेंगे।
क्यों? क्योंकि एक
दूसरी बीमारी
है। जिसको
मनोवैज्ञानिक
सैडिजम कहते
हैं। दूसरे को
दुख में देखने
में कुछ लोगों
को रस आता है।
इन दोनों का
बड़ा मेल बैठ
जाता है। दुख
देने वाले लोग
हैं, और
दूसरे को दुख
मिले इसमें रस
लेने वाले लोग
हैं। तो तुम
ध्यान रखना।
जब तुम किसी
दुखी, उदास
और अपने को
सताने वाले
आदमी को आदर
देते हो, तो
तुम भी बीमार
हो। वह बीमार
है एक बीमारी
से, और
तुम्हारी
बीमारी दूसरी
बीमारी है।
लेकिन दोनों
बीमारियां
एक-दूसरे से
मेल खाती हैं।
इसलिए तुम इन
दुष्टों के
पास जो अपने को
सता रहे हैं, दूसरे तरह
के दुष्टों की
जमात पाओगे, जो इनको
सताने में मजा
ले रहे हैं।
वे कहेंगे, आहा! कैसी
तपश्चर्या है!
धन्य, कि
आप कांटों पर
लेटे हैं। और
इस तरह वे
उनके अहंकार
को फुसला रहे
हैं। और उनको
सहारा दे रहे
हैं।
ध्यान
रखना, कभी
किसी आदमी को
दुख में देख
कर कोई सहारा
मत देना।
क्योंकि
दूसरे को दुख
में सहारा
देना पाप है।
वह दूसरे को
दुख देने के
बराबर है। वह
बड़ी सूक्ष्म
तरकीब है। मैं
तुम्हारी
छाती में छुरा
भोंकना चाहता
हूं, यह
पाप है। लेकिन
तुम खुद छाती
में छुरा भोंक
लो तो मैं
कहता हूं, बड़ी
कुर्बानी की,
तुम शहीद हो
गए, यह भी
पाप है।
क्योंकि मैं
भी उसमें
भागीदार हूं।
जो
आदमी कांटों
पर लेटा पड़ा
है, वह खुद तो
भागीदार है
ही। वे सब लोग
भी, जो
उसके पैरों
में पैसे चढ़ा
जाते हैं और
फूल रख जाते
हैं, वे भी
पाप के
भागीदार हैं।
क्योंकि वे सब
इस आदमी को
सहारा दे रहे
हैं कि तुम
पड़े रहो। वे
कह रहे हैं कि
तुम बड़े महात्मा
हो।
दो तरह
के रुग्ण लोग
हैं जगत में।
खुद को सताने
वाले, और
दूसरों को
सताने वाले।
ये दोनों ही
चित्त की
अस्वस्थ, परवर्टेड,
विकृत
स्थितियां
हैं। इनसे
सावधान रहना।
स्वस्थ
आदमी न तो
दूसरे को
सताता है, और न अपने को
सताता है।
स्वस्थ आदमी
सताता ही नहीं।
जैसे-जैसे
स्वस्थ होता
है, वैसे-वैसे
आनंदित होता
है। वह अपना
आनंद बांटता
है। और उसका
आदर हमेशा
आनंद के लिए
होगा।
जब तुम
किसी आदमी को
नाचते देखो, तब उसके पैर
में फूल चढ़ा
आना। लेकिन यह
तुमने कभी
नहीं किया है।
नहीं तो
दुनिया के
आश्रम भिन्न
होते। मठ
भिन्न होते।
वहां उत्सव
होता, वहां
गीत होते, वहां
नृत्य होता।
लेकिन वहां
रुग्ण, बीमार
आदमी भरे हैं,
जिनको
पागलखानों
में होना
चाहिए। और
जिनकी मानसिक-चिकित्सा
की जरूरत है, वे भरे हुए
हैं।
तुम्हारे
कारण! क्योंकि
तुमने उनको
आदर दिया, उनके
अहंकार को
फुसलाया, बड़ा
किया। तुमने
कभी प्रसन्न
आदमी को आदर
दिया है?
कल ही
एक
संन्यासिनी
ने मुझे सांझ
आ कर कहा कि एक
बड़ी हैरानी की
घटना घट रही
है। और वह यह
कि जैसे-जैसे
ध्यान गहरा हो
रहा है, मैं
बहुत आनंदित
अनुभव करती
हूं। लेकिन
आनंद के अनुभव
के साथ ऐसा
लगता है कि
कोई गलती हो
रही है, अपराध
हो रहा है।
जैसे कुछ गलत
रास्ते पर जा
रही हूं। आनंद
के भाव के साथ
ऐसा प्रतीत
होता है।
ऐसा
सभी को होगा।
क्योंकि बचपन
से ही तुम्हें
दुखी होने के
लिए तैयार
किया गया है, आनंदित होने
के लिए नहीं।
बच्चा अगर
उदास बैठा है
एक कोने में, तो मां-बाप
कहते हैं, बिलकुल
ठीक! राजा
बेटा। और
बच्चा अगर नाच
रहा है, प्रफुल्लित
हो रहा है, तो
सारा घर उसका
दुश्मन है कि
चुप रहो, शांत
बैठो, यह
क्या कर रहे
हो? बंद
करो आवाज! जब
भी बच्चा
आनंदित है, तब कोई न कोई
कहने वाला मिल
जाता है कि
बंद करो, यह
गलत है। और
आंखें और भी
ज्यादा कहती
हैं, जो
शब्द नहीं कह
पाते। हर जगह
बच्चा पाता है
कि जब भी वह
प्रसन्न होता
है, तभी
कहीं कोई गलती
हो जाती है।
जब उदास होता
है, तब
बिलकुल सब ठीक
चलता है।
धीरे-धीरे यह
बात अचेतन में
बैठ जाती है
कि प्रसन्न
होना कुछ भूल
है। दुखी होने
में कुछ बड़ा
गुण-गौरव है।
तो जब
ध्यान में कोई
गहरा उतरता है
तो उलटी प्रक्रिया
शुरू होती है।
क्योंकि
ध्यान में जैसे-जैसे
कोई जाता है
तो प्रसन्नता
और गीत, और
परमात्मा के
द्वार की तरफ
बढ़ा, उत्सव
पास आता है।
जैसे-जैसे
उत्सव पास आता
है, दबी
हुई वृत्तियां
सदा की, और
दूसरों की
आंखें, और
निंदा, और
निंदा का भाव
बीच में खड़ा
हो जाता है।
वह कहता है, आनंदित हो
रहे हो? वह
हजार तरह की
तरकीबें
खोजता है। वह
दमन का भाव
है।
एक
मित्र ने मुझे
आ कर कहा कि
ध्यान तो ठीक
लग रहा है।
लेकिन एक खयाल
आता है कि जब
सारी दुनिया
दुखी है तो
अपने को
आनंदित करना
क्या स्वार्थ
नहीं?
अब
उन्होंने बड़ी
बौद्धिक
तरकीब खोजी।
वे अपने आनंद
से भयभीत हैं।
छह महीने पहले
आए थे, तब वे
यही कहते आए
थे कि मैं
दुखी हूं, किसी
तरह आनंद
चाहिए। तब
उन्हें
दुनिया से मतलब
न था। अब जब
आनंद के करीब
आने लगे, और
पहला सुराख
खुला, और
पहली धुन बजने
लगी, तब वे
भयभीत हो गए।
उन्होंने
जल्दी से अपने
मन को बंद कर
लिया।
मुझसे
बोले कि मैंने
तो ध्यान
वगैरह बंद कर
दिया है।
क्योंकि यह तो
बड़ा स्वार्थ
मालूम होता है।
तो मैंने कहा, दुखी होओ
खूब! उससे बड़ी
सेवा होगी।
रोओ, छाती
पीटो, अपने
को सताओ, आत्महत्या
कर लो, उससे
जगत का बड़ा
उद्धार होगा!
तुम्हारे
दुखी होने से
कैसे दूसरे का
उद्धार होगा? तुम्हारे
दुखी होने से
दूसरे का दुख
बढ़ेगा। तुम
दुखी हो, तो
तुम इस जगत के
दुख की मात्रा
बढ़ा रहे हो।
तुम अगर सुखी
हो, तो तुम
इस जगत के दुख
की मात्रा कम
कर रहे हो। और
एक भी आदमी
अगर सुखी हो, तो उससे ऐसी
तरंगें
उत्पन्न होनी
शुरू हो जाती
हैं, जो
दूसरे को भी
सुखी होने में
सक्षम बनाती
हैं।
एक घर
में भी दीया
जल रहा हो, तो एक तो
पड़ोसियों को
अपने अंधेरे
का पता चलता
है। और जब एक
दीया जल रहा
हो, तो जले
हुए दीए से
बुझे हुए दीए
को जला लेने
में कितनी
दूरी है? कितनी
कठिनाई है? एक दीया
सारे संसार के
दीए जला सकता
है।
लेकिन
मन दुख के लिए
राजी किया गया
है। और सारा
जगत दो तरह के
दुखी लोगों
में विभक्त
है। एक, जो
चाहते हैं
दुखी किए
जाएं। और
दूसरे, जो
चाहते हैं कि
कोई मिले
जिसको वे
सताएं और दुख
दें। इन दोनों
से धर्म का
कोई संबंध
नहीं।
क्योंकि इन
दोनों में से
किसी को भी
गीत सुनायी
नहीं पड़ेगा।
यह तो एक ही दुख
के सिक्के के
दो पहलू हैं।
और दुख से
परमात्मा का
कोई नाता
नहीं।
तुम्हारा
जब नाता टूटता
है, तभी तुम
दुखी होते हो।
बीमारी का
अर्थ है कि इस
प्रकृति से
तुम्हारा
नाता टूटा।
दुख का अर्थ
है कि
परमात्मा से
तुम्हारा नाता
टूटा। शरीर जब
प्रकृति से
विपरीत चलता है,
तो बीमारी;
और जब चेतना
परमात्मा के
विपरीत चलने
लगती है, तो
दुख। जब शरीर
प्रकृति के
अनुकूल चलता
है और साथ-साथ
बहता है, तो
स्वास्थ्य।
और जब आत्मा
परमात्मा के
साथ-साथ चलती
है, अनुकूल
बहती है, तो
आनंद।
नानक
कहते हैं कि
गीत उसके
द्वार पर हैं।
गीत ही उसका
द्वार है।
उत्सव उसकी
साधना है। यह
सारा
अस्तित्व
नानक कहते हैं, उसके गीत से
भरा है। बहरे
हो तुम।
दिखायी नहीं
पड़ता, सुनायी
नहीं पड़ता।
एक-एक पत्ती
पर, एक-एक
फूल पर वही
लिखा है। इतने
रंग उसने लिए
हैं। इन सभी
रंगों में, इन
इंद्रधनुषी
रंगों में उसी
का तो गान है।
उसी का उत्सव
है।
जो
तुझे भाते हैं
और तुझ में
अनुरक्त हैं, ऐसे रसिक
भक्त तेरा
यशोगान करते
हैं।
नानक
के शब्द
प्यारे हैं--
गावहि तुहनो
पउणु पाणी
वैसंतरु गावे
राजा धरम दुआरे।।
गावहि
चितगुपतु
लिखि जाणहि
लिखि लिखि
धरमु वीचारे।
गावहि
ईसरु बरमा
देवी सोहनि
सदा सवारे।।
गावहि
इंद इंदासणि
बैठे देवतिया
दरि नाले।
गावहि
सिध समाधी
अंदरि गावनि
साध विचारे।।
गावनि
जती सती
संतोखी गावहि
वीर करारे।
गावनि
पंडित पड़नि
रखीसर जुगु
जुगु वेदा
नाले।।
गावनि
मोहणीआ मनु
मोहनि सुरगा
मछ पइआले।
गावनि
रतनि उपाए
तेरे अठसठि
तीरथ नाले।।
गावहि
जोध महाबल
सूरा गावहि
खाणी चारे।
गावहि
खंड मंडल
वरमंडा करि
करि रखे
धारे।।
सेई
तुधनो गावनि
जो तुधु भावनि
रते तेरे भगत
रसाले।
होरि
केते गावनि से
मैं चिति न
आवनि नानकु
किया विचारे।।
नानक
कहते हैं कि
और कितने तेरा
गुणगान करते हैं, इसका अनुमान
मैं नहीं लगा
सकता। मैं
क्या विचार
करूं? वही
और वही सच्चा
साहब है, वही
सत्य है, वही
सत्य नाम है।
वह है, और
वह सदा होगा।
वह न जाता है, न जाएगा।
सोई
सोई सदा सचु
साहिबु साचा
साची नाई।
है भी
होसी जाई न
जासी रचना
जिनि रचाई।।
वह
परमात्मा
एकमात्र सत्य
है, और शेष सब
उस सत्य का
उत्सव है।
नानक, माया में जो
दंश है, उसे
अलग कर लेते
हैं। माया में
जो निंदा का
भाव है, उसे
अलग कर लेते
हैं। और जिस
रहस्य को शंकर
नहीं खोल पाते,
उसे नानक
खोल लेते हैं।
शंकर के लिए
बड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
शंकर बहुत
तर्र्कनिष्ठ
चिंतक हैं। और
उनकी पूरी
आकांक्षा यह
है कि जगत की पूरी
व्यवस्था को
तार्किक ढंग
से समझाया जा
सके, गणित
के ढंग से
समझाया जा
सके। वह बड़ी
कठिनाई में
हैं।
माया
और ब्रह्म...एक
तरफ तो शंकर
जानते हैं कि
माया नहीं है।
क्योंकि जो
नहीं है, उसी
का नाम माया
है। जो दिखायी
पड़ती है और
नहीं है, उसी
का नाम माया
है। और ब्रह्म,
जो दिखायी
नहीं पड़ता और
है। माया सदा
परिवर्तनशील
है, सपने
की भांति।
ब्रह्म सदा
सत्य है, शाश्वत
है।
शंकर
के सामने सवाल
है, पूरे
अद्वैत-वेदांत
के सामने सवाल
है, कि
माया पैदा
कैसे होती? क्यों होती?
अगर बिलकुल
नहीं है, तब
तो सवाल ही
क्या है! तब तो
किसी को यह भी
कहना कि क्यों
माया में उलझे
हो? नासमझी
है। क्योंकि
जो है ही नहीं,
उसमें कोई
कैसे उलझेगा?
तब यह कहना
कि छोड़ो माया,
व्यर्थ की
बकवास है।
क्योंकि जो है
ही नहीं, उसे
कोई छोड़ेगा
कैसे? और
जो है ही नहीं,
उसे कोई
पकड़ेगा कैसे?
तो माया है
तो! तभी छोड़ना
है, तभी
पकड़ना है।
और अगर
माया है तो
बिना
परमात्मा के
कैसे होगी? उसका सहारा
तो होने के
लिए चाहिए।
सपना भी होगा,
तो वह सपना देखता
है इसलिए है।
तो बड़ी कठिनाई
है अद्वैत-वेदांत
के सामने कि
कैसे हल करो
इस बात को? अगर
परमात्मा ही
पैदा कर रहा
है माया, तो
ये महात्मागण
जो लोगों को
समझा रहे हैं,
छोड़ो माया;
ये
परमात्मा के
दुश्मन मालूम
पड़ते हैं। और
अगर परमात्मा
ही पकड़ा रहा
है, तो हम
कैसे छोड़
सकेंगे? हमारा
क्या बस? और
जब उसकी ही
मर्जी है, तो
उसकी मर्जी
ठीक है।
माया
आती कहां से
है? अगर
ब्रह्म से ही
पैदा होती है,
तो जो सत्य
से पैदा होती
है, वह
असत्य कैसे
होगी? सत्य
से तो सत्य ही
पैदा होगा। या
अगर माया असत्य
है, तो जिस
ब्रह्म से
पैदा होती है,
वह असत्य
होगा। दोनों
एक गुणधर्म के
होंगे; या
तो दोनों सत्य,
या तो दोनों
असत्य।
शंकर
सुलझा नहीं
पाते। लेकिन
नानक सुलझा
लेते हैं।
दार्शनिक
जिसको नहीं
सुलझा पाते, उसको भक्त
सुलझा लेते
हैं। क्योंकि
नानक के लिए
माया, ये
जो अनंत
रूप-रंग हैं
चारों तरफ, उसका उत्सव
है। ये जो
राग-रागिनियां
बज रही हैं
इतनी, यह
उसके द्वार पर
चल रहा
अहर्निश नाद
है। ये जो
इतने रंग हैं
तितलियों के,
फूलों के, वृक्षों के,
पत्तों के,
यह उसका
आनंद-भाव है।
वह इतने-इतने
रूपों में प्रकट
हो रहा है। वह
इतने-इतने
रूपों में
प्रसन्न हो
रहा है। इतने-इतने
रंगों में, इतने-इतने
फूलों में खिल
रहा है। यह
उसकी परम-ऊर्जा
का फैलाव है।
तो माया और
ब्रह्म
विपरीत नहीं
हैं। माया
उत्सव है, वह
ब्रह्म का
नृत्य है, या
ब्रह्म का गीत
है!
शंकर
का ब्रह्म
बिलकुल
रूखा-सूखा है।
क्योंकि माया
तो बिलकुल कट
जाती है। वह
तो गणित के
सिद्धांत की
तरह है। उसमें
कोई राग नहीं, रंग नहीं; उसमें कोई
दुख नहीं, कोई
खुशी नहीं; उसमें कुछ
भी नहीं है।
वह एक शून्य
की भांति है।
उससे तुम क्या
प्रेम करोगे?
शंकर के
ब्रह्म से
प्रेम करना
मुश्किल है।
कैसे प्रेम
करोगे? कहीं
तर्क के
सिद्धांतों
से प्रेम होता
है? गणित
के
सिद्धांतों
से कहीं प्रेम
होता है? दो
और दो चार
होते हैं, यह
ठीक है।
सिद्धांत साफ
है। लेकिन
इससे क्या प्रेम
करोगे? शंकर
का ब्रह्म
बिलकुल
रूखा-सूखा है।
गाणितिक है, मैथामेटिकल
है।
नानक
का ब्रह्म
बिलकुल भिन्न
है। वह एक
गणितज्ञ की
धारणा नहीं है।
बल्कि एक
सौंदर्य-प्रेमी
की, एक कवि की
धारणा है।
नानक कवि हैं।
दार्शनिक नहीं
हैं। और
दार्शनिक जो
हल नहीं कर
पाता, वह
कवि हल कर
लेता है।
क्योंकि
दार्शनिक को
तो तर्क
बिठाना होता
है। कवि को
तर्क की कोई
चिंता नहीं।
वह अतर्क हो
सकता है। वह
जोड़ लेता है।
जो नहीं जुड़ता,
वह जुड़ जाता
है कवि की
धारणा में, उसके प्रेम
में, उसकी
भक्ति में।
इसे
खयाल रखना कि
नानक के लिए
माया उसका
उत्सव है।
इसलिए नानक ने
अपने शिष्यों
को, सिक्खों
को संसार
छोड़ने को नहीं
कहा। छोड़ना कहां
है? छोड़ना
क्या है? जो
उसका ही है, उसको छोड़ कर
भागना क्या? इसलिए नानक
ने अपने
शिष्यों को
कहा कि तुम
संसार में ही
रह कर उसे
खोजना, क्योंकि
संसार भी उसी
का है। और तुम
संसार में से
ही उसकी तरफ
यात्रा-पथ
खोजना। माया
से भागना मत, डरना मत। वह
उसी का खेल
है।
इतना
पक्का है कि
तुम खेल में
ही मत खो जाना, खेलने वाले
पर ध्यान रखना;
वह सुरति
है। नृत्य में
ही मत खो जाना,
नृत्य
जिसका चल रहा
है उसका स्मरण
रखना। वृक्षों
को देखना, पक्षियों
के गीत सुनना,
उनमें इतना
मत खो जाना कि
तुम यह भूल
जाओ कि उस गीत
के पीछे कौन
छिपा है! माया
यानी प्रकट
ब्रह्म है।
तुम प्रकट के
भीतर अप्रकट
को खोजते
रहना। दृश्य
के भीतर
अदृश्य को
देखते रहना।
नानक
कहते हैं, और कितने
तेरा गुणगान
करते हैं, इसका
मैं अनुमान भी
नहीं लगा
सकता। मैं
क्या विचार
करूं? वही
और वही सच्चा
साहिब है। वही
सत्य है। वही सत्य
नाम है। वह है,
वह सदा होगा,
वह न जाता
है, न
जाएगा। उसने
ही यह सारी
रचना रची है।
रचना
जिनि रचाई।
उसने
ही यह सारी
रचना रची है।
उसने अनेक रंग, भाव और
प्रकार की
माया की
वस्तुएं
उत्पन्न की हैं।
वह रच-रच कर
अपनी रचना को
देखता है।
उसकी देखभाल
करता है। और
उसे बड़प्पन
देता है।
सोई
सोई सदा सचु
साहिबु साचा
साची नाई।
है भी
होसी जाई न
जासी रचना
जिनि रचाई।।
रंगी
रंगी भाती करि
करि जिनसी
माइआ जिनि
उपाई।
करि
करि वेखै कीता
आपणा जिव तिस
दी बडिआई।।
जो
तिसु भावै सोई
करसी हुकमु न
करणा जाई।
बड़ी
अदभुत बात
नानक कह रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
परमात्मा
बनाता है, बना-बना कर
अपनी सृष्टि
को देखता है।
जैसे
कोई चित्रकार
अपना चित्र
बनाए। तुमने अगर
कभी चित्रकार
को बनाते देखा
है चित्र, तो वह
बनाएगा, फिर
चार कदम पीछे
हटेगा फिर गौर
से देखेगा, फिर बाएं
खड़ा होगा, फिर
दाएं जाएगा, फिर खिड़की
के पास से, फिर
दरवाजे के पास
से, फिर
चित्र को
प्रकाश में
रखेगा, फिर
छाया में
रखेगा। हजार
तरह से
देखेगा। मूर्तिकार
मूर्ति को
बनाएगा, देखेगा
सब दिशाओं से।
नानक
कहते हैं, वह बना-बना
कर अपने कृत्य
को देखता है।
और इस भांति
जिसे उसने
बनाया है, उसे
बड़प्पन देता
है।
तो
परमात्मा
संसार के
विपरीत नहीं
है, नहीं तो
बनाए ही क्यों?
और
परमात्मा
माया का शत्रु
नहीं है, अन्यथा
माया हो ही
क्यों? तर्क
के लिए जो
कठिनाई थी, प्रेम के
लिए कठिनाई
नहीं है। नानक
कहते हैं, न
केवल वह बनाता
है, बल्कि
बना-बना कर
देखता है। और
बनाए हुए को
बड़प्पन देता
है।
ध्यान
रखना, अगर
तुम्हें यह
समझ में आ जाए
कि तुम्हें
परमात्मा ने
बनाया है; और
तुम्हें
बना-बना कर
चारों तरफ से
देखा है और
देखता चला जा
रहा है; और
तुम्हें
बड़प्पन और
महिमा दे रहा
है, क्योंकि
तुम कृत्य
उसके हो; अगर
यह तुम्हें
स्मरण आ जाए, तो तुम्हारे
जीवन से पाप
अपने आप
विसर्जित हो जाएगा।
क्योंकि तब
तुम उस तरह
उठोगे और
चलोगे, जिसको
परमात्मा ने
बनाया है। तुम
उस तरह बोलोगे,
उस तरह
व्यवहार
करोगे, जिसको
परमात्मा ने
बनाया है। और
न केवल परमात्मा
ने बनाया है, परमात्मा
जिसे बचा रहा
है। बहुमूल्य
साज-संवार कर
रहा है। और
बार-बार देख
रहा है, निरख
रहा है।
परमात्मा
तुमसे प्रसन्न
है। और तुम
कितने ही भटक
जाओ, तो भी
उसकी आंख
तुम्हें
देखती रहेगी।
और वह तुम से
उदास नहीं है
और निराश नहीं
है। अन्यथा तुम्हें
अभी मिटा दे।
तुम कितने ही
बुरे हो जाओ, तो भी उसकी
आशा का दीया
नहीं बुझता।
तुम कितने ही
दूर चले जाओ, तुम बिलकुल
उसकी तरफ पीठ
कर लो, तुम
उसे बिलकुल
विस्मरण कर दो,
तो भी वह
तुम्हें देख
रहा है। और
जानता है कि आज
नहीं कल, तुम
वापस लौट
आओगे। जो दूर
गया है, वह
वापस लौटेगा।
लौटना
सुनिश्चित
है। देर-अबेर
और बात!
क्योंकि
जितने तुम दूर
जाओगे, उतने
तुम दुखी
होओगे। उतने
तुम भटकोगे।
जैसे छोटा-सा
बच्चा घर से
भाग जाए...।
एक
छोटा बच्चा, ज्यादा नहीं
चार साल की
उम्र रही होगी;
एक छोटा-सा
बिस्तर और
पोटली बांधे
हुए सड़क पर एक
कोने से दूसरे
कोने आ-जा रहा
है। पुलिस वाले
ने उससे पूछा,
मामला क्या
है? बहुत
बार--कहां जा
रहे हो? उसने
कहा, घर से
भाग रहा हूं।
लेकिन मां ने
मना किया है कि
चौरस्ते के उस
तरफ मत जाना।
और न सड़क के उस
तरफ जाना। और
घर से भाग खड़ा
हुआ हूं।
इसीलिए चौरस्ते
और घर के बीच
आ-जा रहा हूं।
उस तरफ जा भी
नहीं सकता, क्योंकि मां
ने मना किया
है।
छोटा
बच्चा--घर से
भागेगा भी
कितनी दूर! और
मां से नाराज
भी हो जाए, तो भी मां ने
मना किया है।
उस सीमा का
उल्लंघन कैसे
करेगा?
तुम
परमात्मा से
कितने दूर
जाओगे? चौरस्ते
और घर के बीच
में ही
घूमोगे। जा भी
कितने दूर
सकते हो? जाओगे
भी कहां? क्योंकि
जहां भी जाओगे,
वह उसकी ही
सीमा है। जहां
भी होओगे, उसमें
ही होओगे।
तुम्हारी
नाराजगी छोटे
बच्चे की
नाराजगी है, जो कि प्रेम
का हिस्सा है।
तुम्हारी
नाराजगी से
परमात्मा
नाराज नहीं हो
जाता।
नानक
कहते हैं, वह बनाता
है।
करि
करि वेखै कीता
आपणा जिव तिस
दी बडिआई।
और
बड़ाई देता है
और महिमा देता
है। जो उसने
बनाया है, वह उसको
देखता है। जो
कुछ उसे भाता
है, वह वही
करता है। उसके
हुक्म में कोई
दखल नहीं दे
सकता है। वह
बादशाहों का
बादशाह है।
नानक कहते हैं,
उसकी मर्जी
के भीतर ही
रहना।
हुकमु
न करणा जाई।
सो
पातिसाहु
साहा
पातिसाहिबु
नानक रहणु रजाई।।
उसकी
जो रजा है, उसकी जो
आज्ञा है, उसका
जो हुक्म है, उसके भीतर
रहना। बाहर
चले जाने से
वह नाराज नहीं
हो जाएगा; बाहर
चले जाने से
तुम अकारण दुख
पाओगे। दुख पाना
उसके द्वारा
दिया गया दंड
नहीं है। दुख
पाना उससे
विपरीत जाने
का सहज फल है।
जैसे तुम दीवाल
से निकलने की
कोशिश करो और
सिर टूट जाए, तो दीवाल
तुम्हारे सिर
को तोड़ नहीं
रही है। तुम
दीवाल से
निकलने की
कोशिश कर रहे
हो। तुम खुद
ही अपना सिर
तोड़ रहे हो, जब कि
दरवाजा
उपलब्ध है।
नानक
रहणु रजाई।
वह
दरवाजा उसकी
रजाई है। जब
दरवाजा
उपलब्ध है तो
तुम दीवाल से
क्यों निकलना
चाह रहे हो? निकलोगे तो
सिर टूटेगा।
और ध्यान रखना
कि परमात्मा
नाराज हो कर
सिर नहीं तोड़
रहा है। तुम
अपनी ही
नासमझी से सिर
तोड़ रहे हो।
और जब तुम सिर
तोड़ रहे हो, तब भी
अस्तित्व
तुम्हारे लिए
अनुभव करता
करुणा का।
इसलिए तुम
कितना ही सिर
तोड़ो, अस्तित्व
बार-बार
तुम्हारे सिर
को ठीक करता रहता
है। तुम कितने
ही भटको, हाथ-पैर
तोड़ लो, फिर
ठीक हो जाते
हो। अस्तित्व
तुम्हें
सम्हालता है
अनंत तक। न
मालूम तुम
कितने-कितने
जन्मों से
दीवार से सिर
टकरा रहे हो!
फिर भी तुम
हो। और अभी भी
साजे हो, पूरे
हो। अभी भी
कुछ टूट नहीं
गया है। आत्मा
खंडित नहीं
होती। पर व्यर्थ
दुख झेलने का
अपने हाथ से
उपाय हो जाता
है।
इसलिए
नानक कहते हैं, नानक रहणु
रजाई। उसकी
आज्ञा में
रहना, उसके
हुक्म में
रहना।
कैसे
जानो कि उसका
हुक्म क्या है? कैसे पक्का
करोगे कि क्या
है उसकी रजाई?
बड़े-बड़े
चिंतक यहां जा
कर अटक गए
हैं। क्योंकि
यह तो ठीक है, मान लिया, उसकी आज्ञा
में रहना।
क्या है उसकी
आज्ञा? कैसे
तुम निश्चित
करोगे, यही
उसकी आज्ञा है?
उसकी आवाज
उसकी ही है, तुम्हारी
नहीं, किसी
और की नहीं, कैसे
पहचानोगे? इन
हजारों
आवाजों के
मेले में तुम
कैसे पकड़ पाओगे?
रास्ता
है। रास्ता
विचार से नहीं
खुलता। विचार
से तुम कभी तय
न कर पाओगे कि
उसकी आज्ञा क्या
है। रास्ता
खुलता है, जैसे-जैसे
तुम उसकी धुन
में डूबते हो,
जैसे-जैसे
तुम्हारा
अहंकार खोता
है, जैसे-जैसे
तुम लीन होते
हो ध्यान में,
समाधि
में--तत्क्षण
उसकी आवाज
सुनायी पड़ने
लगती है।
तुम्हारा
अहंकार भीतर
शोरगुल मचा
रहा है, इसलिए
तुम आवाज नहीं
सुन पा रहे
हो। तुम्हारा अहंकार
शांत हो जाए, विचारों का
उपद्रव भीतर न
रहे, तत्क्षण
उसकी आवाज
सुनायी
पड़ेगी। वह
आवाज सदा दे
रहा है। एक
क्षण को भी
आवाज से तुम
टूटे नहीं।
मनुष्य
के भीतर
अंतःकरण है।
जैसे आंख से
तुम देखते हो, कान से तुम
सुनते हो, ऐसा
अंतःकरण
तुम्हारे
भीतर एक यंत्र
है, जो
परमात्मा की
आवाज को पकड़ता
है। आंख रोशनी
को पकड़ती है।
अभी तक
वैज्ञानिक
समझ नहीं पाए
कि कैसे पकड़ती
है? अभी तक
वैज्ञानिक हल
नहीं कर पाए
कि आंख से कैसे
खबर जाती है
मस्तिष्क तक
कि बाहर एक
सुंदर स्त्री
खड़ी है, या
फूल खिला है, या सूरज
निकला है? आंख
कैसे रोशनी को
ले जाती है
भीतर? और
कैसे रोशनी से
चित्र बनाती
है? अभी तक
रहस्य खुल
नहीं सका है।
अभी तक रहस्य
है और बड़ा
तिलिस्म जैसा
है।
हाथ
छूते हैं। जब
तुम किसी को
छूते हो तो
हाथ तो छू रहा
है, लेकिन मन
को पता चलता
है छूने का, कि चमड़ी
खुरदरी है, या चिकनी है,
या मुलायम
है, या
कोमल है, या
मखमली है। यह
सारी घटना तो
अंगुली की
चमड़ी पर घट
रही है। लेकिन
यह सारी सूचना
कैसे पहुंच
जाती है
तुम्हारे मन
तक? क्षण
भी नहीं लगता।
जैसे
ये पांच
इंद्रियां
हैं इस जगत से
संबंधित होने
की; एक छठवीं
इंद्रिय है, जिसको हमने
अंतःकरण कहा
है, कान्सियन्स।
वह छठवीं
इंद्रिय भी
तुम्हारे भीतर
है और प्रतिपल
काम कर रही
है। लेकिन तुम
दूसरी चीजों
में उलझे हो।
तुम विचार में
उलझे हो और
उसकी धीमी
आवाज सुनायी
नहीं पड़ती। जब
तुम्हारे
भीतर सब
सन्नाटा हो
जाता है, अचानक
तुम पाते हो
कि उसकी आवाज
सदा मिलती रही
है।
नानक
कह रहे हैं, नानक रहणु
रजाई--उसकी
आज्ञा में
रहना।
लेकिन
उसकी आज्ञा को
पहले खोजना
पड़ेगा। और उस आज्ञा
को खोजना कठिन
नहीं है।
तुम्हारे
सोचने से कोई
संबंध नहीं है
कि क्या ठीक
है, क्या गलत
है! तुम्हारा सोचना
बंद होना
चाहिए। जैसे
ही सोचना बंद
हुआ; क्या
ठीक है, वह
सुनायी पड़ने
लगता है। और
तब तुम्हारी
सारी चिंता खो
जाती है, सारा
दायित्व खो
जाता है। उसकी
जो मर्जी, वही
तुम करते हो।
उसकी
मर्जी, नानक
का मार्ग है।
इसलिए
उन्होंने
जीवन के परम-सूत्र
को हुक्म कहा
है--उसकी
मर्जी। और
उससे जुड़ने का
तुम्हारे पास
उपाय है। वह
उपाय जन्म के
साथ तुम ले कर
पैदा हुए हो।
लेकिन तुमने
अब तक उसका
उपयोग नहीं
किया है।
ध्यान
तुम्हें
अंतःकरण तक ले
जाएगा, बस!
और अंतःकरण
तुम्हें
परमात्मा से
जुड़ाए हुए है।
वह जो अंतस
में जुड़ा हुआ
तार है, वह
प्रतिपल कह
रहा है क्या
करो, क्या
न करो।
नानक
कहते हैं, जब वह
तुम्हें
सुनायी पड़ने
लगे, तो बस,
उसकी सीमा
में रहना। फिर
तुम्हारे
जीवन में कोई
दुख नहीं है।
फिर तुम्हारे
जीवन में
उत्सव की घनी
वर्षा होगी।
उसी
क्षण में कबीर
ने कहा है, गरजे गगन
बरसे अमी!
आनंद का जन्म
हुआ है। आकाश
गरज रहा है।
पानी नहीं बरस
रहा है, अमृत
बरस रहा है।
अंतःकरण
से जुड़ते ही
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच सीधा
संबंध हो गया।
वह अभी भी है।
परमात्मा की
तरफ से अभी भी
है। तुम्हारी
तरफ से अभी नहीं
है। चुप होने
की कला
अंतःकरण से
जुड़ जाने का
उपाय है। मौन
मार्ग है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं