पउड़ी:
28
मुंदा
संतोखु सरमु
पतु झोली धिआन
की करहि बिभूती।
किंथा
कालु कुआरी
काइआ जुगति
डंडा
परतीति।।
आई
पंथी सगल
जमाती मनि
जीतै जगु
जीत।।
आदेसु
तिसै आदेसु।।
आदि
अनीलु अनादि
अनाहति। जुगु
जुगु एको वेसु।।
पउड़ी:
29
भुगति
गिआनु दइआ
भंडारणि घटि
घटि बाजहि
नाद।
आपि
नाथु नाथी सभ
जा की रिधि
सिधि अवरा
साद।।
संजोगु
विजोगु दुइ
कार चलावहि
लेखे आवहि भाग।।
आदेसु
तिसै आदेसु।।
आदि
अनीलु अनादि
अनाहति। जुगु
जुगु एको वेसु।।
एक-एक
शब्द
बहुमूल्य है।
और एक-एक शब्द
को गहरे में
समझने की कोशिश
करें।
मुंदा
संतोखु सरमु
पतु झोली धिआन
की करहि बिभूती।
'हे
योगी, संतोष
और लज्जा की
मुद्रा बनाओ।
प्रतिष्ठा की
झोली धारण
करो। और ध्यान
की विभूति
लगाओ।'
निरंतर
ऐसा हुआ है, और सदा ऐसा
होता भी रहेगा;
क्योंकि
आदमी के मन की
कुछ बुनियादी
भूलें हैं, जो बार-बार
पुनरुक्त
होती हैं। जब
भी किसी धर्म
का जन्म होता
है, तो
अनेक विधियां,
अनेक उपाय,
अनेक
प्रयोग, परमात्मा
तक पहुंचने के
खोजे जाते
हैं। धर्म के
मूल-स्रोत के
निकट तो वे
केवल प्रतीक
होते हैं, सहारे
होते हैं।
लेकिन
जैसे-जैसे
मूल-स्रोत दूर
होता जाता है
और धर्म एक परंपरा
बन जाती है, वैसे-वैसे
प्रतीक जड़ हो
जाते हैं।
उनका अर्थ खो
जाता है। फिर
लोग लाश की
तरह उन्हें
ढोते रहते
हैं। फिर
धीरे-धीरे यह
भी भूल जाता
है कि किसलिए,
क्यों
प्रथम इन्हें
स्वीकार किया
था? एक
औपचारिकता हो
जाती है, जिसे
निभाना
सामाजिक
कृत्य बन जाता
है।
समझें।
मैंने आपको
संन्यास दिया, गैरिक-वस्त्र
दिए। थोड़े ही
दिनों में
गैरिक-वस्त्रों
का भीतरी अर्थ
खो जाएगा।
जैसे-जैसे मुझसे
दूर होंगे, वैसे-वैसे
गैरिक-वस्त्र
एक बाहरी
प्रतीक हो जाएगा।
लेकिन वस्त्र
रंग लेने से
कहीं आत्मा रंगी
है! वस्त्र
रंग लेना तो
केवल एक सुरति
का उपाय था, कि अब आत्मा
को भी रंगना
है।
वह तो
ऐसे था, जैसे
कोई आदमी
बाजार जाता है,
कुछ खरीद कर
लाना है, भूल
न जाए, तो
अपने कुरते
में एक गांठ
लगा लेता है।
गांठ थोड़े ही
बाजार से खरीद
कर लानी है!
गांठ का कोई अपने
आप में थोड़े
ही अर्थ है!
तुम हजार
गांठें लगा लो,
इससे क्या
होगा? वह
तो स्मरण के
लिए एक सहारा
है। दिन भर
बाजार में काम
में उलझा
रहेगा, बार-बार
गांठ पर ध्यान
जाएगा, खयाल
आ जाएगा कि
कुछ खरीद कर
घर ले जाना
है। सुरति बनी
रहेगी।
संभावना कम
रहेगी भूलने
की। हजार
कामों में
उलझा हुआ भी, जो चीज खरीद
कर लानी थी, उसे खरीद कर
ले आएगा।
लेकिन गांठ
अपने आप में कुछ
अर्थ रखती
नहीं।
उसका
बेटा, हो
सकता है यह
देख कर कि बाप
जब भी बाजार
जाता था, तो
अक्सर अपने
कुरते में
गांठ बांध
लेता था, जरूर
इसमें कुछ राज
होगा; जब
बेटा भी बाजार
जाएगा, तो
कुरते में
गांठ बांध कर
जाएगा। न तो
कुछ स्मरण
रखने को है, न गांठ का
कोई संबंध
स्मरण से रहा।
अब तो गांठ एक
औपचारिक
परंपरा हो
गयी। उसका
बेटा भी ऐसा करेगा।
और तब हजारों
साल तक यह बात
चलती रहेगी।
उस घर में
गांठ बांधना
परंपरा हो
जाएगी। जो तोड़ेगा,
नहीं
मानेगा, वह
अधार्मिक
समझा जाएगा।
जो मानेगा, वह धार्मिक
समझा जाएगा।
जो मानेगा, वह पुरखों
का आदर करता
है। जो नहीं
मानेगा, वह
बगावती है, विद्रोही
है। लेकिन न
मानने वाला
बता सकेगा कि
यह गांठ
किसलिए? और
न न मानने
वाला बता
सकेगा कि गांठ
किसलिए नहीं?
सभी
धर्मों में इस
तरह का उपद्रव
स्वाभाविक है।
क्योंकि मन
थोथे को पकड़
लेता है, गहरे
को भूल जाता
है। मन की कोई
गहराई नहीं है।
मन गहरे को
याद रख ही
नहीं सकता।
मैंने
तुम्हें
गैरिक-वस्त्र
दिए हैं। वह
तो सिर्फ
तुम्हारे
भीतर एक याद
बनी रहे चौबीस
घंटे कि तुम
संन्यस्थ हो।
और तुम्हें
ऐसे उठना, ऐसे बैठना, ऐसे चलना है,
जैसे एक
संन्यासी को
उठना चाहिए, बैठना चाहिए,
चलना
चाहिए।
तुम्हें वही
बोलना है, जो
एक संन्यासी
को बोलना
चाहिए।
तुम्हारा इस जगत
में व्यवहार
एक कैदी का न
हो, एक
मालिक का
हो--इसलिए
मैंने
तुम्हें 'स्वामी'
कहा--एक
बंधे हुए
व्यक्ति का न
हो, मुक्त
आचरण हो। माना
कि आज तुम
अचानक मुक्त
नहीं हो जाओगे,
लेकिन कहीं
से तो शुरुआत
करनी होगी। ये
तो कपड़े
तुम्हारे
शरीर पर एक
गांठ की तरह
हैं। इनका उपयोग
है कि इनके
कारण सुरति
बनी रहेगी। और
सुरति अभी
बनाए रखना सब
से ज्यादा
महत्वपूर्ण है।
नानक
ये जो वचन कह
रहे हैं, ये
नाथ-संप्रदाय
के साधुओं को
संबोधित कर के
कहे हैं। उस
समय नाथ-संप्रदाय
के साधुओं का
बड़ा प्रभाव
था। देश के
कोने-कोने में
उनके मठ थे।
और जिससे जन्म
हुआ था
नाथ-संप्रदाय
का, वह
आदमी बड़ा
अनूठा
था--गोरखनाथ।
लेकिन जैसे ही
गोरखनाथ खोया,
वैसे ही
साधारण आदमी
के हाथ में
उसकी विधियां
पड़ गयीं। वे
सब थोथी हो
गयीं।
नाथ-संप्रदाय
के साधु अपने
कान को छेद
लेते हैं, नाथ लेते
हैं। अब वह भी
गांठ है। और
बड़ी उपयोगी
है।
आक्युपंक्चर
चीन में एक
बहुत पुरानी
साइंस है। और
अब पश्चिम में
भी उसको
स्वीकार किया
जाता है।
आक्युपंक्चर
मनुष्य के
शरीर में सात
सौ बिंदु
मानता है जहां
जीवन ऊर्जा
प्रवाहित होती
है। दोनों
कानों का
लटकता हुआ
हिस्सा, एक
बड़ा
महत्वपूर्ण
आक्युपंक्चर
का केंद्र है।
और इस केंद्र
से भीतर की
स्मृति का बड़ा
गहरा संबंध
है। अगर कान
छेद दिया जाए,
तो उस भीतर
की ऊर्जा में
चोट लगती है।
गहरी चोट लगती
है। मस्तिष्क
के कुछ
विकारों को
दूर करने का
चीन में एक ही
उपाय है कि
कान छेद दिया
जाए। कान छिदते
ही विकार दूर
हो जाते हैं।
इस
गहरी अनुभूति
के कारण
नाथ-संप्रदाय
के साधु कान
छेदते हैं। और
उनका एक वर्ग
तो कनफटा होता
है। वे छेदते
ही नहीं, कान
को बिलकुल फाड़
लेते हैं।
क्योंकि शरीर
की ऊर्जा के
बिंदु हैं। और
जब कान फट
जाता है, तो
वहां जो चोट
पड़ती थी, वह
खो जाती है।
वहां से जीवन
की
विद्युत-धारा,
सीधी
मस्तिष्क की
तरफ बहने लगती
है। बीच का एक
अवरोध अलग हो
जाता है। यह
भीतरी स्मृति
को जगाने में
बड़ा कीमती
उपाय है।
तुम
कभी थोड़ी
कोशिश करना।
कान छेदने की
कोई जरूरत
नहीं है, लेकिन
जब भी
तुम्हारा मन
उदास हो, चिंतित
हो, उद्विग्न
हो, क्रोध
से भरा हो, तुम
दोनों कानों
के नीचे
हिस्से को पकड़
कर जोर से
रगड़ना। सिर्फ
रगड़ने से ही
तुम पाओगे कि
भीतर चित्त की
दशा बदलने
लगी।
पर
इतना तो साफ
ही है कि कान
फाड़ने से कोई
सिद्ध न हो
जाएगा। और कान
छेद लिया तो
सब कुछ हो गया, ऐसा भी नहीं
है।
भारत
में बहुत
पुरानी
ग्रामीण
परंपरा है। अभी
भी कुछ लोग
गांव में मिल
जाएंगे। अगर
तुम्हें कभी
कोई आदमी मिले
जिसका नाम हो
कनछेदी लाल, या जिसका
नाम हो
नत्थूलाल, तो
तुम पूछना कि
यह नाम क्यों
रखा गया? जिन
घरों में
बच्चे मर जाते
हैं, दो
चार बच्चे हुए
और मर गए, तो
बहुत पुरानी
परंपरा है कि
फिर जो बच्चा
पैदा हो, तत्क्षण
या तो उसकी
नाक छेद दो या
कान छेद दो। अगर
नाक छेदा तो
उसका नाम
नत्थूलाल, कान
छेदा तो उसका
नाम कनछेदी
लाल।
और यह
बात बड़ी अनुभव
की है कि फिर
नाक या कान
छेदने के बाद
बच्चे नहीं
मरते। उनकी
जीवन-ऊर्जा में
कुछ बुनियादी
अंतर आ जाता
है। बच्चा बच
जाता है। यह
हजारों सालों
के अनुभव के
बाद लोगों ने
धीरे-धीरे
प्रयोग खोजा
है।
अब तो
इस पर रूस में
बड़ी खोज हुई
है। और किरलियान
फोटोग्राफी
ने बड़े
महत्वपूर्ण
निष्कर्ष
निकाले हैं, कि मनुष्य
के शरीर में
जो विद्युत का
प्रवाह है, सारा खेल
स्वास्थ्य का,
बीमारी का,
जन्म का, मरण का, उस
विद्युत के
प्रवाह पर
निर्भर है। और
उस प्रवाह को
कुछ बिंदुओं
से बदला जा
सकता है। उस
प्रवाह के
मार्ग को
रूपांतरित
किया जा सकता
है। उस प्रवाह
को एक तरफ जाने
से रोका जा
सकता है, दूसरी
तरफ ले जाया
जा सकता है।
आक्युपंक्चर
की सारी कला
यही है कि जब
कोई आदमी
बीमार होता है, तो किन्हीं
शरीर के खास
बिंदुओं पर वे
गर्म सुई
चुभोते हैं।
और जरा सा सुई
का चुभन, और
भीतर की
विद्युत धारा
बदल जाती है।
उस विद्युत
धारा के बदलने
से सैकड़ों
बीमारियां
तिरोहित हो
जाती हैं। चीन
में तो कोई
पांच हजार
सालों से वे
इसका प्रयोग
करते हैं।
उन्होंने जो
शरीर में माने
हैं बिंदु, अब तो
विज्ञान ने भी
स्वीकृति दे
दी है कि वे बिंदु
हैं। और यह भी
स्वीकार हो गया
है--रूस में कम
से कम! और रूस
के तो
अस्पतालों
में भी
आक्युपंक्चर
का प्रयोग
शुरू हो गया है।
और अब तो
उन्होंने
यंत्र भी खोज
लिए हैं कि मरीज
को वे यंत्र
में खड़ा कर
देते हैं। तो
जैसे एक्स-रे
से पता चलता
है कि भीतर
कहां खराबी है,
उस यंत्र से
पता चलता है
कि शरीर में
घूमने वाली
इलेक्ट्रिक
करंट कहां बीमार
पड़ गयी है। तो
जहां बीमार पड़
गयी है वहां इलेक्ट्रिक
का शाक उसे
देते हैं।
इलेक्ट्रिक का
शाक देते ही
विद्युतधारा
प्रवाहित हो
जाती है और
बीमारी
तिरोहित हो
जाती है।
कान
छेदना, नाथ-संप्रदाय
के योगियों ने
बड़े महत्वपूर्ण
शाक की तरह
खोजा था। वह
शाक था। इस
तरह के शाक
बहुत तरह खोजे
गए हैं।
तुम्हें पता
है कि यहूदी
और मुसलमान
खतना करते
हैं। वह खतना
भी इसी तरह का
शाक है और बड़ा
महत्वपूर्ण
है। यहूदी तो,
बच्चा पैदा
होता है, उसके
चौदह दिन के
भीतर उसका
खतना करते
हैं। और
जननेंद्रिय
के ऊपर की
चमड़ी को काट
कर अलग कर
देते हैं।
इस
संबंध में
बहुत अध्ययन
चलता आ रहा है
कि इससे क्या
लाभ होते
होंगे? और
लाभ प्रगाढ़
मालूम होते
हैं। क्योंकि
यहूदियों से
ज्यादा
प्रतिभाशाली
कौम खोजना
कठिन है। उनकी
संख्या तो
थोड़ी है, लेकिन
जितनी
नोबल-प्राइज
यहूदी ले जाते
हैं, उतनी
कोई दूसरी
जाति नहीं ले
जाती। और
यहूदी जिस
दिशा में भी
काम करेगा, हमेशा
अग्रणी हो
जाएगा। आगे
पहुंच जाएगा।
दूसरों को
पीछे खदेड़
देगा। यहूदी
के पास प्रतिभा
तो ज्यादा
मालूम पड़ती
है।
इस सदी
में जिन लोगों
ने बड़े प्रभाव
पैदा किए हैं
वे सब यहूदी
हैं। कार्ल
माक्र्स, सिगमन
फ्रायड और
अलबर्ट
आइंस्टीन, तीनों
यहूदी हैं। और
इन तीनों ने
इस सदी को निर्मित
किया है। और
यहूदियों ने
जितने प्रगाढ़ विचारक
पैदा किए हैं,
वैज्ञानिक
पैदा किए हैं,
किसी ने
पैदा नहीं
किए। उनका कोई
मुकाबला नहीं
है। और अभी इस
संबंध में
विचार शुरू
हुआ है कि हो
सकता है, चौदह
दिन के भीतर
जो खतना किया
जाता है, उसका
कुछ न कुछ
गहरा संबंध
प्रतिभा से
है।
मुसलमान
वह नहीं कर
पाए, क्योंकि
वे खतना बड़ी
देर से करते
हैं। यहूदियों
का खयाल है कि
चौदह दिन के
भीतर बच्चे को
जो पहला शाक
मिलता
है--क्योंकि
खतना जननेंद्रिय
की चमड़ी का
किया जाता
है--तो पहला
शाक जननेंद्रिय
के पास जो
इकट्ठी ऊर्जा
है, जो
विद्युत-ऊर्जा
है, उसको
लगता है। और
वह शाक इतना
गहरा है कि वह
विद्युत-ऊर्जा
उस जगह से हट
कर सीधी
मस्तिष्क पर
चोट करती है।
और छोटे बच्चे
को वह जो चोट
है, सदा के
लिए महत्वपूर्ण
हो जाती है।
उसकी
जीवन-धारा बदल
जाती है।
इस बात
की संभावना
है। किरलियान
भी इससे राजी है
रूस में। और
आक्युपंक्चर
का तो बहुत
पुराना खयाल
है कि यह बात
सच है।
क्योंकि
जननेंद्रिय
सर्वाधिक
संवेदनशील
जगह है। उससे
ज्यादा संवेदनशील
कोई हिस्सा
शरीर में नहीं
है। और छोटे
से बच्चे की
चमड़ी काट देना, उसके लिए
भारी शाक है।
और उस धक्के
के लगते ही ऊर्जा
छटक कर
मस्तिष्क में
प्रवेश कर
जाती है।
जब कभी
ये चीजें खोजी
गयीं, तो
इनका उपयोग
शुरू हुआ। फिर
उपयोग का अर्थ
खो जाता है।
तब ऊपर-ऊपर
चीजें लोग
ढोते रहते हैं।
उन्हें भी पता
नहीं होता, वे क्यों कर
रहे हैं?
गोरखनाथ
ने बहुत-सी
चीजें खोजीं।
गोरखनाथ अनूठा
अन्वेषक था।
और उसका
प्रभाव पड़ा।
और लाखों लोग
नाथ-संप्रदाय
में सम्मिलित
हुए। क्योंकि
परिणाम साफ
थे। लेकिन
नानक के वक्त
तक आते-आते
चीज धुंधली हो
गयी। लोग ढो
रहे थे। लेकिन
गोरख ने जो
अर्थ दिए थे
वे खो गए थे।
तो
नानक कहते हैं, 'हे योगी, संतोष
और लज्जा की
मुद्रा बनाओ।'
क्योंकि
गोरखनाथ ने
बहुत सी
मुद्राएं
खोजीं।
मुद्राएं बड़ी
महत्वपूर्ण
हैं। तुम्हें
भी शायद कभी
जीवन में
अनुभव होता हो
कि तुम्हारी मन
की दशा
तुम्हारी
मुद्रा से
जुड़ी होती है।
जब तुम शांत
होते हो तब
तुम्हारे
चेहरे, तुम्हारे
हाथ, तुम्हारे
शरीर की
मुद्रा अलग
होती है। जब
तुम क्रुद्ध
होते हो, तब
अलग होती है।
जब तुम किसी
के प्रति
करुणा से भरे
होते हो, तब
अलग होती है।
तुम करुणा के
समय घूंसा तो
बांध कर किसी
के सिर के
सामने खड़े
नहीं हो
जाओगे।
क्योंकि
बेतुकी होगी
मुद्रा।
करुणा के समय
तो तुम्हारे
हाथ में भी
करुणा होगी।
हाथ में भी
अभय होगा। हाथ
में भी दान का
भाव होगा। हाथ
भी देगा।
घूंसा तो किसी
को नष्ट करने
के लिए है।
मुट्ठी बंधी
नहीं हो सकती,
क्योंकि
बंधी मुट्ठी
तो कृपण की
है। मुट्ठी खुली
होगी करुणा के
क्षण में।
तुमसे कुछ भी
दिया जा सकता
है।
मन और
मन के भाव और
शरीर की
स्थितियों का
गहरा संबंध
है। तो
गोरखनाथ ने
बहुत सी
मुद्राएं खोजीं, जिनको साधने
से योगी की
भीतर की चित्त
दशा बदलती है।
तुम
समझो कि तुम
बिलकुल क्रोध
की मुद्रा साध
कर खड़े हो जाओ।
क्रोध बिलकुल
नहीं है, लेकिन
तुम क्रोध की
मुद्रा साध
लो। ठीक वैसी
ही लाल आंखें
कर लो, घूसा
तान लो, जैसे
किसी की जान
लेने जा रहे
हो, तैयार
हो जाओ, बिलकुल
हमला करना है।
तो तुम अचानक
पाओगे कि तुम्हारे
भीतर क्रोध की
सरसराहट शुरू
हो गयी। सिर्फ
मुद्रा तुमने
बनायी, और
क्रोध पैदा हो
गया।
अमरीका
में इस सदी
में दो बड़े
मनोवैज्ञानिक
हुए, जेम्स और
लेंगे। उन
दोनों ने मिल
कर एक सिद्धांत
विकसित किया
जो
जेम्स-लेंगे
सिद्धांत कहलाता
है। उन्होंने
बड़ी उल्टी बात
कही। उन्होंने
यह सिद्ध करने
की कोशिश की
कि लोग कहते
हैं भय लगता
है, इसलिए
भयभीत आदमी
भागता है।
जेम्स और
लेंगे ने
सिद्ध किया कि
आदमी भागता है
इसलिए भय लगता
है। जेम्स और
लेंगे ने कहा
कि मुद्रा
महत्वपूर्ण
है। हम कहते
हैं कि आदमी
डर गया इसलिए
भाग रहा है।
और जेम्स और
लेंगे कहते
हैं, वह
भाग रहा है
इसलिए डर रहा
है। अगर वह
भागना रोक दे,
तो डर खो
जाए। अगर
मुद्रा बदल दे,
तो भीतर की
स्थिति बदल
जाए।
चित्त
की हर स्थिति
के साथ जुड़ी
मुद्रा है। इसका
यह अर्थ हुआ
कि चित्त और
शरीर एक
पैरेलल, समानांतर
धारा में चलते
हैं। जब तुम
आनंदित होते
हो, तब
तुम्हारे
शरीर की एक
स्थिति होती
है। जब तुम
दुखी होते हो,
तब दूसरी
होती है।
तुम
अध्ययन करना, जब तुम
प्रसन्न हो, प्रफुल्लित
हो, खुश हो,
तो तुम
पाओगे कि जैसे
तुम्हारा
शरीर फैल रहा
है। जैसे तुम
बड़े हो गए हो।
एक
विस्तीर्णता
उपलब्ध होती
है। तुम फैलते
चले जाते हो।
जब तुम दुखी
हो, परेशान
हो, तब तुम
सिकुड़ते हो।
जैसे भीतर तुम
सिकुड? कर
बंद होते जा
रहे हो। जैसे
वृक्ष बीज में
बंद हो जाना
चाहे। ऐसे तुम
अपने भीतर
सिकुड़ते जाते
हो। और तुम
ध्यान रखना, दुखी आदमी
का अगर तुम
शरीर देखोगे,
तुम उसे भी
सिकुड़ा हुआ
मुद्रा में
पाओगे।
अगर
तुम मुद्राओं
का अध्ययन करो
तो तुम शरीर की
स्थिति को देख
कर बता सकते
हो कि भीतर की
स्थिति क्या
होगी! जब आदमी
प्रसन्न होता
है, तो शरीर
फैलाव की हालत
में होता है।
दुखी, तो
सिकुड़ा होता
है। जब क्रोध
होता है तो
माथे की अलग
अवस्था होती
है, रेखाएं
बदल जाती हैं।
जब तुम चिंतित
होते हो, तो
माथे पर अलग
बल पड़ते हैं।
जब तुम
निश्चिंत
होते हो, बल
खो जाते हैं।
इस
रहस्य की खोज
जेम्स-लेंगे
ने नहीं की, इस रहस्य की
खोज भारत में
बहुत पुरानी
है। हठयोग-प्रदीपिका
से ले कर
गोरखनाथ तक, लाखों-लाखों
योगियों ने
अनुभव किया।
योगियों से
ज्यादा किसी
ने मनुष्य के
शरीर और चित्त
पर प्रयोग भी
नहीं किए हैं,
इतना
अन्वेषण भी
नहीं किया है,
इतना
निरीक्षण भी
नहीं किया है।
तो
उन्होंने
पाया कि एक-एक
चित्त की दशा
के साथ शरीर
की मुद्रा का
जोड़ है। तब एक
सूत्र हाथ लग
गया। अगर
चित्त को
बदलना हो तो
मुद्रा के बदलने
से चित्त को
बदलने में
सहायता मिलेगी।
तुम मुद्रा
बदल लो। जब
क्रोध आ रहा
हो, तब तुम
मुद्रा ऐसी
करो जो कि
शांत-चित्त की
मुद्रा है।
तुम अचानक
पाओगे कि भीतर
की ऊर्जा में
रूपांतरण
हुआ। वह जो
शक्ति क्रोध
बनने जा रही
थी, वही
शक्ति शांति
बन गयी।
शक्ति
निरपेक्ष है।
तुम जैसा
ढांचा उसे
देते हो, वैसी
ही ढल जाती
है। शक्ति तो
जल की भांति
तरल है। तुम
गिलास में
उसको भर देते
हो तो उसका
ढंग गिलास का
हो जाता है।
तुम लोटे में
भर देते हो तो
उसका रूप लोटे
का हो जाता
है। मुद्राओं
से तुम रूप
देते हो।
शक्ति तो
निरपेक्ष है।
जब तुम क्रोध
का रूप दे
देते हो तो
शक्ति क्रोध
बन जाती है।
मुद्रा ढांचा
है। और जब तुम
प्रेम का रूप
दे देते हो, वही शक्ति
प्रेम बन जाती
है। यह बड़ी
गहरी से गहरी
खोज है।
तो अगर
तुम शरीर की
मुद्राओं को
समझ लो, तो
तुम पाओगे कि
तुमने भीतर के
मन को बदलना
शुरू कर दिया।
लेकिन खतरा
क्या है? खतरा
यह है कि तुम
भूल ही जाओ और
तुम शरीर की
मुद्रा के ही
अभ्यास में
लगे रहो। और
तुम यह भूल ही
जाओ कि भीतर
के मन को
बदलने का इससे
कोई संबंध है।
तो ऐसा हो
सकता है कि
तुम शरीर की
मुद्रा का तो
बिलकुल
अभ्यास कर लो
और भीतर कुछ
भी न हो।
यह तो
केवल सहारा
है। असली
क्रांति तो भीतर
करनी है। बाहर
से जितने
सहारे लिए जा
सकें उतना
अच्छा है।
जैसे कोई आदमी
नया मकान
बनाता है, तो मकान
बनाने के लिए
पहले एक
स्ट्रक्चर
खड़ा करता है।
लेकिन अगर
स्ट्रक्चर ही
खड़ा कर के तुम
रह जाओ, ढांचा
ही खड़ा करके
रह जाओ, मकान
कभी बनाओ ही न,
तो वह ढांचा
मकान नहीं है।
उसमें रहा
नहीं जा सकता।
वह ढांचा
सहयोगी था। जब
मकान बन जाता
तो ढांचा हटा
देना था। ढांचा
रहने के लिए
नहीं है।
मुद्रा
तो ढांचा है।
नानक के समय
आते-आते तक ढांचे
को ही लोग
मकान समझ कर
रहने लगे। तो
योगी बैठा है
एक मुद्रा
में। उसने
मुद्रा तो
करुणा की बना
रखी है, लेकिन
उसे याद ही
नहीं कि करुणा
के लिए कुछ भीतर
भी करना जरूरी
है। तो मुद्रा
करुणा की है और
भीतर क्रोध
उबल रहा है।
हाथ-पैर तो वह
अभय के बनाए
हुए हैं और
अगर तुम उसके
भीतर झांको, तो वह
खतरनाक है और
तुम्हें
नुकसान
पहुंचा सकता
है। द्वार पर
खड़ा मांग तो
भीख रहा
है...नाथ-योगियों
से लोग डरने
लगे थे। अगर वह
भीख मांगे और
न दें तो वे
अभिशाप दे
दें। तो भिखारी
का रूप उसका
झूठा है।
बुद्ध
ने, गोरख ने,
अपने
संन्यासियों
को भिखारी
बनने के लिए
कहा है, क्योंकि
उससे
विनम्रता
आएगी। जब तुम
मांगोगे तो
कैसी अकड़
बचेगी? जब
तुम भिक्षापात्र
ले कर किसी के
द्वार पर खड़े
रहोगे, तो
कैसा अहंकार?
कर्तृत्व
से अहंकार
मिलता है।
भिखारी हो गए,
अब कैसा
अहंकार? भिखारी
का अर्थ है, मैं ना-कुछ
हूं। मेरा कोई
मूल्य नहीं।
यह भिक्षापात्र
ही मेरा सब
कुछ है। और
तुम दे दोगे
तो मैं राजी
हूं। तुम
कहोगे कि चले
जाओ, हट
जाओ, तो
मैं चुपचाप हट
जाऊंगा।
क्योंकि
भिखारी का क्या
बल? मांग
पर
जोर-जबर्दस्ती
क्या? देने
वाला दे दे, उसकी मर्जी;
न दे, उसकी
मर्जी।
तो
बुद्ध ने तो
अपने
भिक्षुओं को
कहा था कि तुम
द्वार पर खड़े
हो जाना, मांगना
भी मत।
क्योंकि
मांगने से भी
हो सकता है, जोर पड़े।
मांगने से हो
सकता है कि उस
आदमी को इनकार
करना मुश्किल
हो जाए। लाज, शर्म में दे
दे। लेकिन वह
तो लेना न
हुआ। वह तो हिंसा
हो गयी। तो
तुम सिर्फ
द्वार पर खड़े
हो जाना। अगर
उसे देना होगा
तो दे देगा।
अगर नहीं देना
होगा तो तुम
चुपचाप हट
जाना। तुम उसे
किसी पशोपेश
में मत डालना।
अगर तुमने
मांगा भी, तो
कम से कम उसे न
तो कहना
पड़ेगा। हो
सकता है कि संकोची
आदमी हो, न
देना चाहता हो,
लेकिन 'न'
कहना
मुश्किल पाए,
तो उसके
संकोच का शोषण
मत कर लेना।
तुम चुपचाप
खड़े रहना, आंख
बंद किए। थोड़ी
देर
प्रतीक्षा
करना और हट जाना,
ताकि उसे 'न' कहने
का भी कष्ट न
उठाना पड़े। और
मजबूरी में देने
की स्थिति मत
बना देना। और
तुम इतने
विनम्र रहना
कि मेरा क्या
मूल्य! दे
दिया तो उसकी
मर्जी, नहीं
दिया तो उसकी
मर्जी। और हर
हालत में तुम आशीर्वाद
देना। उसके
देने और न
देने से तुम्हारे
आशीर्वाद का
कोई संबंध न
हो।
बुद्ध
का एक भिक्षु
था, पूर्ण।
जब वह निष्णात
हो गया, बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गया, तो
बुद्ध ने कहा,
अब तू जा।
और दूसरों को
दे, जो
मैंने तुझे
दिया है। बहुत
दीए बुझे हैं,
उनको जला।
अब तेरी मेरे
पास रहने की
कोई जरूरत
नहीं, तू
पा गया है। तो
पूर्ण ने कहा
कि मुझे आज्ञा
दें कि--बिहार
का एक इलाका
था, जिसका
नाम सूखा
था--मैं वहां
जाऊं। बुद्ध
ने कहा, वहां
न जा तो अच्छा,
क्योंकि
वहां के लोग
बहुत कठिन हैं,
कठोर हैं।
वे तुझे
गालियां
देंगे, अपमान
करेंगे।
पूर्ण ने कहा,
लेकिन जहां
लोग बीमार हैं,
वहीं तो
चिकित्सक की
जरूरत है। तो
मुझे आज्ञा
दें कि मैं
वहीं जाऊं। उन
लोगों को
जरूरत है।
तो
बुद्ध ने कहा, मुझे तीन
जवाब जाने के
पहले दे दे।
पहला, अगर
वे गालियां
देंगे, अपमान
करेंगे, तो
तुझे क्या
होगा? तो
पूर्ण ने कहा
कि मुझे होगा
कि कितने भले
लोग हैं!
सिर्फ
गालियां ही
देते हैं, अपमान
ही करते हैं, मारते तो
नहीं हैं। मार
भी सकते थे।
तो
बुद्ध ने कहा, और अगर वे
मारें, पत्थर
फेकें, जूतों
से स्वागत
करें, फिर
तुझे क्या
होगा? तो
पूर्ण ने कहा,
कितने भले
लोग हैं! कि
सिर्फ मारते
हैं, मार
ही नहीं
डालते। मार
डाल भी सकते
थे।
तो
बुद्ध ने कहा, आखिरी सवाल
और। अगर वे
मार ही डालें,
तो उस मरते
क्षण में तुझे
क्या होगा? तो पूर्ण ने
कहा, यही
होगा कि कितने
भले लोग हैं!
कि उस जीवन से
छुटकारा दिला
दिया, जिसमें
कोई भूल-चूक
हो सकती थी।
बुद्ध
ने कहा, अब
तू पूर्ण
भिक्षु हुआ।
अब तू जा सकता
है।
इतनी
विनम्रता हो, तो ही कोई
भिक्षु है।
लेकिन नानक के
समय आते-आते, गोरख के
भिक्षु
दरवाजे पर खड़े
हो जाते थे।
अभी भी कभी
गोरखपंथी
साधु खड़ा हो
जाए, तो वह
खड़ा नहीं रहता,
वह आगे-पीछे
हटता है। और
अपने डंडे को
हिलाता है, या अपने
चिमटे को
बजाता है।
चिमटे को
बजाता है और
आगे-पीछे हटता
है। खड़ा नहीं
रहता एक जगह
पर वह, घबड़ा
देता है घर के
लोगों को। और
उसकी अकड़, उसकी
आंख। जैसे अगर
'न' कहा,
तो भयंकर
उत्पात कर
देगा।
तो
नाथ-संप्रदाय
के साधुओं ने
ऐसा घबड़ा दिया
था लोगों को
कि लोग उनको
डर कर देते
थे। क्योंकि
अभिशाप पक्का
था। हालत
बिलकुल उल्टी
हो गयी थी।
आशीर्वाद तो
नाथ-संप्रदाय
का योगी देता
ही नहीं था।
तुमने दिया, इसमें कुछ
आशीर्वाद का
सवाल ही न था।
तुम ही अनुगृहीत
हो कि उसने
लिया।
आशीर्वाद तो
देगा ही नहीं।
आशीर्वाद
क्या? उसका
जैसे हक! और
अगर न दिया तो
अभिशाप देगा।
गोरख ने कहा
था, कोई दे,
कोई न दे, तो
आशीर्वाद।
लेकिन हालत
बिलकुल उलटी
हो गयी थी। और
वह मुद्राएं
बांध कर खड़ा
था।
ऐसे
नाथ-योगी अब
भी हैं, जो
खड़े हैं, तो
दस साल से खड़े
ही हैं। हिले
नहीं हैं।
इसका मूल्य तो
था कभी।
क्योंकि अगर
तुम बहुत देर
तक बिलकुल थिर
हो कर खड़े रहो
और भीतर की
याद रहे, तो
चेतना भी खड़ी
हो जाएगी। अगर
तुम्हारा
शरीर बिलकुल
थिर हो गया, तो चेतना भी
थिर हो जाएगी।
लेकिन यह खयाल
रहे! नहीं तो
शरीर तो जड़ हो
जाएगा और
चेतना चलती रहेगी।
और खड़े-खड़े
तुम जमाने भर
की यात्रा
करोगे। सपने
आएंगे हजार, विचार
चलेंगे।
सहारा
मिल सकता है
मुद्राओं से।
लेकिन
मुद्राएं अंत
नहीं हैं।
नानक के समय
में आ कर सब
मुद्राएं
भ्रष्ट हो
गयीं। सब पंथ
विकृत हो गए।
तो
नानक कह रहे
हैं, 'हे योगी,
संतोष और
लज्जा की
मुद्रा बनाओ।'
मुद्राओं
से न चलेगा।
संतोष ही
मुद्रा है। लज्जा
मुद्रा है।
'प्रतिष्ठा
की झोली धारण
करो।'
यह
झोली जो कंधे
पर टांग कर चल
रहे हो, यह
काम न देगी।
समझें।
संतोष बड़ा
महत्वपूर्ण
शब्द है, और
विकृत हो गया
है। कोई आदमी
जब अपने को
असहाय पाता है
तो संतोष कर
लेता है। उसका
संतोष कंसोलेशन
है, सांत्वना
है। उसका
संतोष
कंटेंटमेंट
नहीं है। जब
वह असहाय है, जब कुछ भी
नहीं किया जा
सकता, जब
जो भी किया जा
सकता था कर
चुका और अपने
को असफल पाता
है, तब वह
कहता है, सब
ठीक! यह संतोष
की मुद्रा न
हुई। यह तो
मजबूरी की
हालत हुई।
यह तो
ऐसा हुआ कि
रामकृष्ण के
पास एक भक्त
आता था, जो
हमेशा काली के
उत्सव में
बकरे चढ़ाता
था। सैकड़ों
बकरे काटता
था। फिर अचानक
बकरों का
काटना बंद कर दिया।
और रामकृष्ण
ने बहुत बार
उसे कहा भी था,
पर उसने कभी
सुना नहीं। तो
रामकृष्ण ने
पूछा कि क्या
मामला हुआ? अब बकरे
कटने बंद हो
गए? और
मैंने पहले
कहा तो तुमने
कभी सुना
नहीं। उसने
कहा कि पहले
मैं सुन नहीं
सकता था। अब
दांत ही न
रहे। तो बकरे
कोई काली के
लिए थोड़े ही
काटता है!
अपने दांतों
के लिए काटता
है। अब दांत
ही न रहे तो
मैंने संतोष
कर लिया है।
बुढ़ापे
में लोग संतोष
कर लेते हैं।
गरीबी में लोग
संतोष कर लेते
हैं। पर वह
संतोष झूठा
है। क्योंकि
संतोष शक्ति
है, निर्बलता
नहीं। संतोष
विधायक, पाजिटिव
एनर्जी है, नकारात्मक
नहीं। संतोष
कोई असहाय, हेल्पलेसनेस
नहीं है।
संतोष तो परम
सहाय है। वह
तो बड़ी ऊंची
अवस्था है।
संतोष का तो
मतलब है कि
जितना मुझे
चाहिए, उससे
ज्यादा मेरे
पास है। जो
मेरी जरूरत है,
उससे
ज्यादा मेरे
पास है। जो
मैंने मांगा
था, जो
मैंने नहीं
मांगा था, वह
भी मुझे मिला
है। संतोष का
अर्थ तो
अनुग्रह का
भाव है कि
परमात्मा
तेरी मर्जी
बड़ी अदभुत है।
तूने इतना
दिया है।
वह
किसी असहाय
अवस्था में, किसी हारी, पराजित
चित्त की दिशा
में पकड़ ली
गयी सांत्वना
का स्वर नहीं
है। वह तो बड़ी
विजय की
यात्रा है।
वहां तो हार
का कोई सवाल
ही नहीं। वह
तो केवल
विजेताओं को
उपलब्ध होती
है, योद्धाओं
को उपलब्ध
होती है।
महावीर ने कहा
है, जिनों
को उपलब्ध
होती है। जिन
यानी
जिन्होंने
जीत लिया सब, उन्हीं को
संतोष उपलब्ध
होता है।
नानक
कहते हैं, 'योगी, संतोष
की मुद्रा
बनाओ।'
यह
हाथ-पैर की
मुद्राएं
साधते-साधते
बहुत समय हो
गया। इनसे कुछ
हो नहीं रहा
है। छोड़ो
इन्हें। भीतर
की मुद्रा
साधो। और सबसे
बड़ी मुद्रा है
संतोष।
क्यों? क्योंकि जो
संतुष्ट हुआ
उसकी सब
चिंताएं गिर गयीं।
सब चिंताएं
असंतोष से
पैदा होती
हैं। सभी
चिंताएं इस
बात से पैदा
होती हैं कि
जो मुझे मिलना
चाहिए, वह
नहीं मिला है।
अभाव से पैदा
होती हैं। जिस
दिन तुम
संतुष्ट हुए,
उस दिन तुम
घोड़े बेच कर
सो जाओगे। फिर
कोई चिंता
नहीं है। फिर
रात कोई सपना
भी न आएगा, क्योंकि
सभी सपने
असंतोष से
पैदा होते
हैं। दिन भर
जो असंतोष तुम
पालते हो, वह
रात सपना बन
जाता है।
असंतोष
का अर्थ है, भिखारीपन।
संतोष का अर्थ
है, मालिक
हो गए, स्वामी
हो गए। वही
संन्यासी का
लक्षण है। वह
संतुष्ट है हर
हाल। तुम ऐसी
कोई स्थिति
पैदा नहीं कर
सकते, जहां
तुम उसे
असंतुष्ट कर
दो। क्योंकि
हर स्थिति में
वह शुभ को
देखेगा। और हर
स्थिति में
उसके हाथ को पहचान
लेगा। दुख की
गहरी से गहरी
अवस्था में भी,
तुम उसकी
सुख की किरण न
छीन सकोगे।
क्योंकि अंधेरे
से अंधेरे में
भी वह जानता
है कि सुबह आ रही
है, सुबह
करीब है। गहन
से गहन जब
अंधेरा होता
है, तब वह
हंसता है, प्रसन्न
होता है, कि
यह सुबह के
करीब आने का
लक्षण है। तुम
उसे अंधेरे
में नहीं डाल
सकते। उसे हर
अंधेरे बादल में
भी चमकती हुई
बिजली की
शुभ्रता
दिखायी पड़ती
है। गहरी से
गहरी दुख की
अवस्था में भी,
तुम उसका
सूत्र नहीं
छीन सकते।
उसके संतोष का
धागा उसके हाथ
में है। वह
सभी को
स्वीकार करता
है। उसने परम
स्वीकार धारण
किया है।
इसको
नानक कहते हैं, मुद्रा बनाओ
योगी। हाथ-पैर
को साध लेने
से कुछ भी न
होगा। शरीर के
अभ्यास से कुछ
भी न होगा। अभ्यास
करो चैतन्य
का। और चैतन्य
के अभ्यास का पहला
सूत्र है, संतोष।
मगर
ध्यान रखना, गलत संतोष
भी है। गलत
संतोष असहाय
अवस्था का है।
मजबूरी है, अपनी तरफ से
सब कर लिया...।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
जंगल से
यात्रा कर रहा
था। एक मित्र
साथ थे। दोनों
अपनी बैलगाड़ी
में जा रहे थे
कि अचानक
डाकुओं ने
हमला किया।
कोई पचास कदम
पर डाकू खड़े
थे बंदूकें
लिए। और उन्होंने
कहा, रुक जाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
तत्क्षण अपने खीसे
से पांच सौ
रुपए निकाले
और मित्र को
दिए, कि
भाई! तुम से जो
कर्ज लिया था,
निपटारा कर
लें। हिसाब
साफ हो गया।
तुम्हारा
संतोष ऐसी ही
अवस्था में
होता है। जब
तुम पाते हो, अब कुछ करने
को बचा नहीं।
सब जा रहा है।
जब जा ही चुका
होता है, तभी
तुम छोड़ते हो।
असल में तुम
छोड़ते नहीं, तुमसे छीना
जाता है। और
जब तुमसे छीना
जाता है, तब
कैसा संतोष!
जो छोड़ता है, वह संतुष्ट
हो सकता है।
जिससे छीना
जाता है, वह
ऊपर से कितनी
ही मुद्रा
साधे, भीतर
तो असंतोष है।
वह ऊपर से
कितना ही कहे,
सब ठीक है!
लेकिन उसके सब
ठीक में भी
तुम स्वर को
सुन लोगे कि
वह कह रहा है, कुछ भी ठीक
नहीं है।
संतोष
की सही
रूपरेखा है, कि पहला तो
यह भाव कि जो
मुझे मिला है,
वह पहले से
ही जरूरत से
ज्यादा है।
इससे ज्यादा
हो भी क्या
सकता है? जो
सुख मैंने
पाया है, उसके
लिए मेरा अहोभाव
है, धन्यवाद
है। जो दुख
हैं, उन
दुखों के पीछे
भी छिपा हुआ
सुख है। कांटे
हैं, कहीं
गुलाब खिल रहे
होंगे। कांटे
पर नजर न रहे, गुलाब पर
नजर रहे। कोई
आदमी गाली भी
दे जाए, तो
संतोषी
व्यक्ति
सोचेगा कि या
तो उसने ठीक ही
कहा, तब
मुझे धन्यवाद
देना चाहिए कि
उसकी गाली सच
है। और या
सोचेगा कि
गाली सच नहीं
है, बिचारे
ने नाहक मेहनत
की, कष्ट
उठाया, इतनी
दूर तक आया।
अगर सच है तो
धन्यवाद होगा,
अगर झूठ है
तो दया का भाव
होगा। लेकिन
क्रोध किसी
स्थिति में
संतोषी
व्यक्ति को
नहीं हो सकता।
वह हर हाल में
कुछ खोज लेगा।
दो
फकीरों की
कहानी मुझे
बड़ी प्रीतिकर
रही है। जापान
में हुए।
दोनों वर्षा
काल के लिए
अपने झोपड़े पर
वापस लौट रहे
थे। आठ महीने
घूमते थे, भटकते थे
गांव-गांव, उस परमात्मा
का गीत गाते
थे। वर्षा काल
में अपने
झोपड़े पर लौट
आते थे। गुरु
बूढ़ा था। जवान
शिष्य था।
जैसे ही वे
करीब पहुंचे
झील के किनारे
अपने झोपड़े के,
देखा कि
छप्पर जमीन पर
पड़ा है। जोर
की आंधी आयी
थी रात, आधा
छप्पर उड़ गया
है। छोटा सा
झोपड़ा! उसका
भी आधा छप्पर
उड़ गया है।
वर्षा सिर पर
है। अब कुछ करना
भी मुश्किल
होगा। दूर
जंगल में यह
निवास है।
युवा
संन्यासी
शिष्य ने कहा, देखो, हम
प्रार्थना
कर-कर के मरे
जाते हैं, हम
उसकी याद
कर-कर के मरे
जाते हैं, और
उसकी तरफ से
यह फल! इसलिए
तो मैं कहता
हूं कि कुछ
सार नहीं है।
प्रार्थना, पूजा--मिलता
क्या है? दुष्टों
के महल साबित
हैं, हम
गरीब फकीरों
की झोपड़ी गिरा
गयी आंधी। और
यह आंधी उसी
की है।
जब वह
क्रोध से ये
बातें कह रहा
था, तभी उसने
देखा कि उसका
गुरु घुटने
टेक कर, बड़े
आनंदभाव से
आकाश की तरफ
हाथ जोड़े बैठा
है। उसकी
आंखों से परम
संतोष के आंसू
बह रहे हैं। और
वह गुनगुना कर
कह रहा है कि
परमात्मा
तेरी कृपा!
आंधी का क्या
भरोसा! पूरा
ही छप्पर ले जाती।
जरूर तूने बीच
में रोका होगा
और आधे को बचाया।
आधा छप्पर अभी
भी ऊपर है।
आंधी का क्या
भरोसा? आंधी
आंधी है। पूरा
ले जाती। जरूर
तूने बाधा डाली
होगी। और आधा
तूने बचाया
होगा।
फिर वे
दोनों गए। एक
ही झोपड़े में
वे प्रवेश कर
रहे हैं, लेकिन
दो भिन्न तरह
के लोग हैं।
एक असंतुष्ट,
एक
संतुष्ट।
स्थिति एक ही
है, लेकिन
दोनों के भाव
अलग हैं।
इसलिए दोनों
अलग झोपड़े में
जा रहे हैं।
ऊपर से तो
दिखायी पड़ता है
कि एक ही
झोपड़े में जा
रहे हैं।
रात
दोनों सोए। जो
असंतुष्ट था, वह तो सो ही न
सका। उसने
अनेक करवटें
बदलीं और बार-बार
कहा कि क्या
भरोसा, कब
वर्षा आ जाए।
अभी वर्षा आयी
नहीं। लेकिन
वह चिंतित और
परेशान है।
उसने कहा, नींद
नहीं आती।
नींद आ कैसे
सकती है? यह
कोई रहने की
जगह है? और
उसका क्रोध...।
लेकिन
गुरु रात बड़ी
गहरी नींद
सोया। जब चार
बजे उठा तो
उसने एक गीत
लिखा।
क्योंकि आधे
झोपड़े में से
चांद दिखायी
पड़ रहा था। और
उसने लिखा कि
परमात्मा, अगर हमें
पहले से पता
होता, तो
हम तेरी आंधी
को भी इतना
कष्ट न देते
कि आधा छप्पर
अलग करे। हम
खुद ही अलग कर
देते। अब तक हम
नासमझी में
रहे। सो भी
सकते हैं, चांद
भी देख सकते
हैं। आधा
छप्पर दूर जो
हो गया! तेरा
आकाश इतने
निकट और हम
उसे छप्पर से
रोके रहे।
तेरा चांद
इतने निकट, कितनी बार
आया और गया, और हम उसे
छप्पर से रोके
रहे। हमें पता
ही न था। तू
माफ करना।
अन्यथा हम
तेरी आंधी को
यह कष्ट न
देते, हम
खुद ही आधा
अलग कर देते।
यह जो
गीत गा सकता
है, यह संतोष
है। मजबूरी
में नहीं, असहाय
अवस्था में
नहीं। वह तो
नपुंसकों का
मार्ग है। वे
तो हमेशा ही
ऐसा करते हैं।
जब सब छिन
जाता है, तब
वे संतोष करते
हैं। काश, उन्होंने
संतोष पहले कर
लिया होता! तो
कुछ भी छिन
नहीं सकता था।
क्योंकि
संतोषी से तुम
कुछ भी छीन ही
नहीं सकते।
तुम छीनो, लेकिन
तुम संतोषी से
कुछ छीन नहीं
सकते। तुम उसका
संतोष नहीं
छीन सकते, तुम
क्या छीनोगे
उससे कुछ? तुम
उससे सब छीन
लोगे, लेकिन
संतोषी वहीं
रहेगा जहां
था। क्योंकि उसकी
संपदा भीतरी
है।
नानक
कहते हैं, 'संतोष की
मुद्रा बना, लज्जा की
मुद्रा बना
योगी!
प्रतिष्ठा की
झोली बना।'
वे
भीतर के संकेत
दे रहे हैं।
असल में
गोरखनाथ ने भी
वही कहा था।
बाहर के संकेत
भीतर की याददाश्त
के लिए थे।
भीतर की बात
तो भूल गयी।
कमीज में लगी
गांठ हाथ में
रह गयी। यह
भूल ही गए कि बाजार
लेने क्या आए
थे? यह भी भूल
गए कि गांठ
इसलिए लगायी
थी कि बाजार
में कुछ याद
रखना है। बस, गांठ हाथ रह
गयी। अब गांठ
को ढो रहे
हैं। गांठ अपने
आप में बोझ
है।
लज्जा
शब्द को समझने
की कोशिश
करें।
क्योंकि शब्द
बहुत गहरा है
और बहुत
पूर्वीय है।
पश्चिम की
भाषाओं में
ऐसा कोई शब्द
नहीं है।
क्योंकि
लज्जा एक पूरब
की अपनी अनूठी
खोज है। लज्जा
को हमने
स्त्रैण
व्यक्तित्व की
आखिरी परम
अवस्था माना
है।
वेश्या
को हम
निर्लज्ज
कहते हैं, क्योंकि वह
शरीर को बेच
रही है। शरीर
को बेचना
निर्लज्ज दशा
है। क्योंकि
शरीर
परमात्मा का मंदिर
है, बेचने
के लिए नहीं
है। यह तो
आराधना के लिए
है। यह ठीकरों
के लिए गंवाने
के लिए नहीं
है। यह तो
परम-धन के पाने
की सीढ़ी है।
तो जो भी शरीर
को बेच रहे
हैं, चाहे
वेश्याएं हों,
और चाहे
दुकानदार हों,
और चाहे तुम
हो, अगर
तुम शरीर को
बेच रहे हो और
ठीकरे कमा रहे
हो, तो
निर्लज्ज हो।
निर्लज्ज
का एक ही अर्थ
होता है कि जो
शरीर को
परमात्मा के
खोजने के
अतिरिक्त और
किसी तरह से
बेच रहा है।
उसके जीवन में
कोई लज्जा
नहीं है। तुम
वेश्या की तो
निंदा करते हो, लेकिन दूसरे
लोगों की क्या
हालत है? फर्क
क्या है? अगर
तुम शरीर को
बेच रहे हो धन
कमाने के लिए,
इस संसार
में इज्जत
कमाने के लिए,
तो वेश्या
और तुम में
फर्क क्या है?
वेश्या भी
शरीर को बेच
रही है धन
कमाने के लिए,
तुम भी बेच
रहे हो शरीर
को धन कमाने
के लिए।
लज्जा
की अवस्था का
अर्थ है, शरीर
को धन के लिए
नहीं बेचना
है। वह
परमात्मा का
मंदिर है।
उसमें
परमात्मा कभी
अतिथि बनेगा।
उसे परमात्मा
के लिए प्रतीक्षा
सिखानी है। और
वह प्रतीक्षा
निश्चित ही
वैसी ही होगी,
जैसी
प्रेयसी अपने
प्रेमी के लिए
करती है। और जब
प्रेमी पास
आता है तो
प्रेयसी
घूंघट डाल लेती
है। छिपती है।
प्रेमी के
सामने अपने को
प्रगट नहीं
करती, क्योंकि
प्रगट करना तो
निर्लज्ज
अवस्था है। छिपाती
है, अवगुंठित
होती है।
प्रेमी के लिए
प्रतीक्षा करती
है, प्रेमी
को निमंत्रण
भेजती है, जब
प्रेमी पास
आता है तो
अपने को
छिपाती है। क्योंकि
प्रेमी के
सामने प्रकट
करना तो अहंकार
होगा। सब
प्रकट करने की
इच्छा
एक्जीबिशन, अहंकार है।
परमात्मा
के सामने क्या
तुम अपने को
प्रगट करना
चाहोगे? तुम
परमात्मा के
सामने तो छिप
जाओगे, जमीन
में गड़ जाओगे।
तुम तो
परमात्मा के
सामने घूंघटों
में छिप
जाओगे।
परमात्मा के
सामने अपने को
प्रकट करने का
भाव तो अहंकार
है। वहां तो
तुम प्रेयसी
की भांति
जाओगे, पंडित
की भांति
नहीं। वहां तो
तुम ऐसे जाओगे
कि पदचाप भी
पता न चले।
वहां तो तुम
छुपे-छुपे
जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारे पास
है क्या जो
दिखाएं? लज्जा
का अर्थ है, है क्या
हमारे पास जो
दिखाएं? कुछ
भी तो नहीं है
दिखाने को, इसलिए
छिपाते हैं।
इसलिए
भारत में जो
स्त्री का परम
गुण हमने माना
है, वह लज्जा
है। इसलिए
भारत की
स्त्रियों
में जो एक
ग्रेस, एक
प्रसाद मिल
सकता है, वह
पश्चिम की
स्त्रियों
में नहीं मिल
सकता। क्योंकि
पश्चिम की
स्त्री को कभी
लज्जा सिखायी
नहीं गयी।
लज्जा
दुर्गुण
मालूम होती
है। उसे
दिखाना है, प्रदर्शन
करना है, उसे
बताना है, उसे
आकर्षित करना
है बता कर।
जैसे बाजार
में खड़ी है।
पूरब
में हमने
स्त्री को
लज्जा सिखायी
है। छिपाना
है। इससे
घूंघट विकसित
हुआ। घूंघट
लज्जा का
हिस्सा था।
फिर घूंघट खो
गया। और जैसे
ही घूंघट खोया, लज्जा भी
खोने लगी।
क्योंकि
घूंघट लज्जा
का हिस्सा था।
वह उसका बाह्य
अंग था। अब
हमारी स्त्री
भी प्रकट कर
के घूम रही
है। वह चाहती है
लोग देखें।
सज-संवर कर
घूम रही है।
और जब तुम
सज-संवर कर
घूम रहे हो, लोग देखें
यह भीतर
आकांक्षा है,
तो तुम
बाजार में खड़े
हो गए।
नानक
कहते हैं, परमात्मा के
सामने हमारी
लज्जा वैसी ही
होगी, जैसी
प्रेमी के
सामने
प्रेयसी की
होती है। वह अपने
को छिपाएगी।
दिखाने योग्य
क्या है? इसलिए
लज्जा। बताने
योग्य क्या है?
इसलिए
लज्जा। इसलिए
घूंघट है।
और
ध्यान रखना, जितनी
स्त्री
लज्जावान
होगी, उतनी
आकर्षक हो
जाती है।
जितनी प्रगट
होगी, उतना
आकर्षण खो
जाता है। पश्चिम
में स्त्री का
आकर्षण खो गया
है। खो ही जाएगा।
क्योंकि जो
चीज बाजार में
खड़ी है, उसका
आकर्षण
समाप्त हो
जाएगा।
और
परमात्मा के
सामने तो हम
बेचने को नहीं
गए हैं अपने
को। और
परमात्मा के
सामने तो
हमारे पास
क्या है
दिखाने को? इसलिए
परमात्मा के
सामने तो हम
प्रेयसी की
तरह जाएंगे।
कंपते पैरों
से, कि पता
नहीं स्वीकार
होंगे या
नहीं! संकोच
से, कि पता
नहीं उसके
योग्य हो
पाएंगे कि
नहीं! लज्जा
से, क्योंकि
दिखाने योग्य
कुछ भी नहीं
है।
लज्जा
बड़ी विनम्र
दशा है। और
उतनी
विनम्रता से
कोई उसके पास
जाएगा तो ही
अंगीकार
होगा। और जो
भक्त जितना
अपने को
छिपाता है, उतना आकर्षक
हो जाता है
परमात्मा के
लिए। और जो
भक्त अपने को
जितना खोलता
है और ढोल
पीटता है कि
देखो मैं पूजा
कर रहा हूं, देखो मैं
प्रार्थना कर
रहा हूं, कि
देखो मैं
मंदिर जा रहा
हूं, कि
देखो मैंने
कितने जपत्तप
किए, वह
उतना ही दूर
हो जाता है।
क्योंकि यह
कोई अहंकार
नहीं है, परमात्मा
से मिलन एक
निरअहंकार
चित्त की बात है।
तो
नानक कहते हैं, 'संतोष और
लज्जा की
मुद्रा बनाओ।
प्रतिष्ठा की
झोली धारण
करो।'
किस
प्रतिष्ठा की? जैसे ही
किसी व्यक्ति
को यह एहसास
होना शुरू होता
है कि मैं
शरीर नहीं, आत्मा हूं; प्रतिष्ठा
मिली।
आत्म-भाव
प्रतिष्ठा
है। क्योंकि
शरीर में तो
तुम
प्रतिष्ठित
हो ही नहीं सकते।
वह रास्ते का
पड़ाव है, मंजिल
नहीं है। वहां
कैसी
प्रतिष्ठा? वहां क्षण
भर रुक सकते
हो, वह घर
नहीं बन सकता।
प्रतिष्ठित
का अर्थ है, जिसने उसको
पा लिया जो शाश्वत
है। जिसने
उसमें अपनी
जड़ें जमा लीं
जो कभी न
मिटेगा। आदि
सचु जुगादि
सचु--जो सदा सच
है। जिसने
उसमें जड़ डाल
दी, वह
प्रतिष्ठित
हुआ। और जो
सदा झूठ है, जो उसके साथ
तिरता रहा, उसकी कैसी
प्रतिष्ठा?
तुम जब
तक परमात्मा
के साथ खड़े न
हो जाओ तब तक प्रतिष्ठित
नहीं हो। तब
तक तुम
राज-सिंहासनों
पर बैठ जाओ
भला, कोई
प्रतिष्ठा न
मिलेगी। इस
संसार की कोई
प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठा
नहीं है।
क्योंकि इस
संसार में तो
सब लहरों का
खेल है। चार
दिन बाद कौन तुम्हें
याद रखेगा? आज भी जब तुम
सिंहासन पर हो,
कौन
तुम्हारी
फिक्र करता है?
सिंहासन
पर बैठे लोगों
की हालत देखो!
जहां जाएं
वहां जूते
फेंके जाएं, जहां जाएं
वहां पत्थरों
से स्वागत हो।
अगर तुमने फूल
चाहे तो पत्थर
मिलते हैं।
अगर तुमने आदर
चाहा तो अपमान
मिलता है। तुम
जबर्दस्ती पद पर
बैठे, तो
कोई न कोई
तुम्हारी
टांग नीचे
खींचता ही रहता
है। राजनीतिज्ञों
से पूछो, अखबारों
में भला नाम
छपते हों, चर्चा
होती हो, लेकिन
उसी मात्रा
में निंदा
चलती है। उसी
मात्रा में
अपमान चलता
है। इस जगत
में तुमने अगर
जीतना चाहा तो
तुम हार ही
पाओगे। और
तुमने आदर
चाहा तो अपमान
पाओगे।
प्रतिष्ठा तो
सिर्फ परमात्मा
के साथ होने में
है।
तो
नानक कहते हैं, 'प्रतिष्ठा
की झोली धारण
करो।'
यह अकड़
और अहंकार की
झोली ले कर मत
चलो। निरअहंकार, लज्जा और
संतोष--और
तुम्हारी
जड़ें
परमात्मा में
पहुंचने
लगेंगी।
'ध्यान
की विभूति
बनाओ, योगी।
राख लपेटने से
कुछ भी न
होगा।'
भीतर
ध्यान को
उपलब्ध करो।
वही तुम्हारी
राख हो। उसी
को तुम लपेटो।
'मृत्यु
को गुदड़ी बनाओ
कि उसकी याद
बनी रहे सदा।'
जिसको
मृत्यु की याद
बनी रहती है, वह परमात्मा
को नहीं भूल
सकता। और
जिसको मृत्यु
भूल गयी, वह
परमात्मा को
भूल जाता है।
और हम सब
मृत्यु को
बिलकुल भूल कर
रहते हैं। हम
ऐसा मान कर
चलते हैं कि
हमें मरना ही
नहीं है।
इसलिए तो परमात्मा
की याद भूल
जाती है।
'मृत्यु
को गुदड़ी बनाओ,
योगी। काया
को कुमारी।'
नाथ-संप्रदाय
और
तांत्रिकों
के बहुत से
संप्रदाय हैं, जो साधना के
लिए किसी
कुंवारी
स्त्री को
खोजते हैं।
क्योंकि
कुंवारी
स्त्री से
विशेष तांत्रिक-संभोग
के माध्यम से
ध्यान की
उपलब्धि हो
सकती है। यह
बात ठीक है।
यह हो सकता
है। तंत्र ने
उसका मार्ग
खोजा है।
लेकिन
आदमी तो
बेईमान है।
तंत्र के नाम
पर हजारों
योगी और
तांत्रिक
कुंवारियों
को ले कर घूम
रहे थे। लाखों
लोग थे जिनको
तंत्र की आड़
मिल गयी।
बताने को भी
हो गया कि हम
तांत्रिक हैं, और यह जो
कुंवारी है
हमारे साथ है,
यह हमारे
तंत्र की
साथिनी है। और
इस नाम से बहुत
व्यभिचार
चला। बौद्ध
उखड़े इस
व्यभिचार के कारण।
नाथ-संप्रदाय
मिटा इस
व्यभिचार के
कारण। और
तांत्रिकों
की एक बड़ी
महत्वपूर्ण
परंपरा
बिलकुल खो गयी
इस व्यभिचार
के कारण। आदमी
तो बड़ा
होशियार है।
वह हर चीज में
आड़ खोज लेता
है। उसने देखा
कि यह तो बड़ी
गहरी आड़ मिल
गयी कि हम
तंत्र के साधक
हैं। तो हम
किसी भी
कुंवारी
स्त्री को ले
कर साथ चल
सकते हैं।
नानक
कहते हैं, 'काया की
कुंवारी बनाओ,
योगी।'
नानक
बड़ी महत्वपूर्ण
बात यहां कह
रहे हैं। और
वह तंत्र का
ही गहरे से
गहरा सूत्र
है। वह यह है
कि तुम्हारी
काया ही
तुम्हारी
साथिनी बन
जाए। और
तुम्हारी आत्मा
पुरुष हो और
तुम्हारी
काया कुमारी
हो। इन दोनों
के बीच भी
संभोग हो सकता
है। और वह जो
संभोग है, वह परम
संभोग है।
उससे ही कोई
मुक्ति को
उपलब्ध होगा।
तंत्र का भी
सूत्र तो यही
था कि बाहर की
कुंवारी तो
केवल सहारा है।
उस सहारे से
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
तुम्हें भीतर
की कुंवारी को
खोज लेना है।
हर
पुरुष के भीतर
छिपी स्त्री
है। हर स्त्री
के भीतर छिपा
पुरुष है। और
जब तुम्हारे
दोनों स्त्री
और पुरुष का
भीतर मिलन
होता है, तो
समाधि की
आखिरी अवस्था
फलित होती है।
अब
आधुनिक
मनोविज्ञान
भी इसे
स्वीकार कर
रहा है कि
आदमी
बाई-सेक्सुअल
है। होगा भी।
क्योंकि हरेक
का जन्म मां
और बाप के
मिलन से हुआ
है। तो
तुम्हारे
भीतर मां का
हिस्सा भी है, और बाप का
हिस्सा भी है।
तुम्हारे
भीतर स्त्री
भी है, पुरुष
भी है। और अगर
दोनों
ऊर्जाएं भीतर
मिल जाएं, तो
बाहर का संभोग
तो क्षण भर का
है, यह
संभोग शाश्वत
हो सकता है।
तो
नानक तंत्र की
बड़ी गहरी बात
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं, 'योगी, काया
की कुंवारी
बनाओ।
प्रतीति को
युक्ति का डंडा
बनाओ। सारी
जमात को एक
समझना ही
नाथ-पंथ है।
मन को जीतना
ही जगत का
जीतना है। यदि
प्रणाम ही
करना हो, उसको
ही प्रणाम
करो। वह आदि
है, शुद्ध
है, अनादि
है, अनाहद
है, और
युग-युग से एक
ही वेश वाला
है।'
मुंदा
संतोखु सरमु
पतु झोली धिआन
की करहि बिभूती।
किंथा
कालु कुआरी
काइआ जुगति
डंडा
परतीति।।
आई
पंथी सगल
जमाती मनि
जीतै जगु
जीत।।
आदेसु
तिसै आदेसु।।
आदि
अनीलु अनादि
अनाहति। जुगु
जुगु एको वेसु।।
जो सदा
एक ही वेश में
है। जो सदा एक
सा है, उसको
ही प्रणाम
करो। किसी और
को प्रणाम
करने से कुछ
भी न होगा।
मंदिरों में,
मस्जिदों
में कितने ही
प्रणाम करो, लेकिन अगर
प्रणाम उस एक
की तरफ ही
नहीं जा रहे हैं
तो व्यर्थ है।
कहीं भी
प्रणाम करो, प्रणाम उसी
को हो। वह याद
बनी रहे।
इसे
थोड़ा खयाल
रखना। जब गुरु
को भी प्रणाम
करो, तब भी
ध्यान रखना कि
गुरु के
माध्यम से
प्रणाम उसी को
है--आदेसु
तिसै आदेसु।
मंदिर की
मूर्ति के
सामने झुको, तो भी याद
रखना कि
प्रणाम उसी को
है--आदेसु तिसै
आदेसु। उसी को
प्रणाम है। तो
फिर मूर्ति भी
सहयोगी है।
फिर गुरु भी
सहयोगी है।
अन्यथा
मूर्ति भी
खतरा है और
गुरु भी खतरा
है। अगर
प्रणाम उसको
ही नहीं है, तो जिसको भी
तुम प्रणाम
करोगे, वहीं
बंधन पैदा हो
जाएगा। वहीं
रुकावट खड़ी हो
जाएगी। और अगर
उसको ही
प्रणाम करना
तुम जान जाओ, तो हर पत्थर
से द्वार है।
क्योंकि
प्रणाम है उसको,
कहां से तुम
कर रहे हो
इसका क्या
मतलब है? कहीं
भी तुम झुको; मस्जिद हो, गुरुद्वारा
हो, मंदिर
हो, चर्च हो;
पर एक बात
खयाल रहे
कि--आदेसु
तिसै आदेसु।
प्रणाम उसको
ही है।
'उसको,
जो आदि है, शुद्ध है, अनादि है, अनाहद है।
युग-युग से एक
ही वेश वाला
है।'
'ज्ञान
को भोग बनाओ, योगी! और दया
को भंडारी।
घट-घट में जो
अनाहद नाद
बजता है उसे
शंख बनाओ। वही
नाथ है जिसमें
सब नथे-गुथे
हैं।
ऋद्धि-सिद्धि
तो घटिया
स्वाद हैं। संयोग
और वियोग ये
दोनों समस्त
कार्य चलाते हैं।
और भाग्य-लेख
के मुताबिक
अपना-अपना दाय
प्राप्त होता
है। यदि
प्रणाम ही
करना हो तो
उसको ही
प्रणाम करो।
वह आदि है, शुद्ध
है, अनादि
है, अनाहद
है, और
युग-युग से एक
ही वेश वाला
है।'
'ज्ञान
को भोग बनाओ, दया को
भंडारी।'
ज्ञान
और दया, प्रज्ञा
और करुणा, दो
पंख हैं।
जिसने दोनों
साध लिए, वह
परमात्मा के
आकाश में उड़ने
लगा। भीतर
ज्ञान, बाहर
दया। क्योंकि
खतरा है कि
भीतर अगर
अकेला ज्ञान
हो और बाहर
दया न हो, तो
भी तुम पूर्ण
न हो पाओगे।
तो भी तुम
अधूरे रह
जाओगे। एक पंख
से कोई कभी उड़ा
है? अगर
बाहर दया हो
और भीतर ज्ञान
न हो, तो भी
तुम अधूरे रह
जाओगे। एक पैर
से कोई कभी चला
है?
ज्ञान
का अर्थ है, स्वयं को
जानना; और
दया का अर्थ
है, दूसरों
को पहचानना।
तब पूरी घटना
घट जाती है। क्योंकि
ज्ञान स्वयं
को जानता है, जानते ही
पाता है कि
मैं ही सब के
भीतर हूं। जिस
ज्ञान ने यह न
पाया कि मैं
ही सब के भीतर
हूं, वह
ज्ञान ज्ञान
ही नहीं है।
तो जब
ज्ञान का
वास्तविक
दीया जलेगा, तो दया का
प्रकाश सब पर
पड़ेगा ही।
दीया जलेगा, तो दीया कोई
अपने को ही
थोड़ा
प्रकाशित करेगा!
दूसरों पर भी
रोशनी पड़ेगी।
वह जो दीए की
रोशनी दूसरों
पर पड़ रही है, उसी का नाम
दया है। एक
अपरंपार
करुणा पैदा
होगी, जब
ज्ञान पैदा
होगा। तब तुम
लुटाओगे, बांटोगे।
तब तुम सब तरह
का सहारा दोगे
दूसरे को। तब
तुमसे जो भी
बन सकेगा, दूसरे
को भी ले जाने
की प्रक्रिया
करोगे, उस
परमात्मा तक
पहुंचाने की।
सभी भटक रहे
हैं। तब तुम
अपने ज्ञान
में ही विलीन
न हो जाओगे। क्योंकि
वह भी स्वार्थ
होगा। वह भी
होगा कि अभी
तुम पुराने से
बंधे हो। अभी
अहंकार गया
नहीं। मगर यह
घटना घटती है,
इसलिए नानक
याद दिलाते
हैं।
ऐसे
लोग हैं, जो
ज्ञान में डूब
गए हैं। जैसे
जैनों के
संन्यासी हैं,
मुनि हैं।
उनका मतलब
अपने से है।
उन्हें कोई मतलब
नहीं किसी से।
क्या हो रहा
है बाहर, क्या
घट रहा है
दूसरों को, इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। वे अपने
में बंद हैं।
वे अपना ही
साध रहे हैं, अपनी ही
मुक्ति साध
रहे हैं। अपना
ही उनका घेरा
है, बस!
इससे बाहर
इन्हें रत्ती
भर फिक्र नहीं
है। और उनकी
दया भी अगर है,
तो वह भी
ज्ञान ही
साधने के लिए।
दया भी उनकी झूठी
है।
अगर
जैन मुनि पांव
सम्हाल कर
चलता है कि
चींटी भी न मर
जाए, तो तुम यह
मत सोचना कि
चींटी पर दया
के कारण वह ऐसा
कर रहा है।
महावीर ने दया
के कारण किया
था। जैन मुनि
नहीं कर रहा
है। वह तो
इसलिए
सम्हाल-सम्हाल
कर चल रहा है
कि कहीं पाप न
हो जाए।
फर्क
समझ लेना।
उसको डर यह है
कि चींटी मर
गयी तो पाप
होगा। पाप
होगा तो भटकना
पड़ेगा। लेकिन नजर
अपने पर है, चींटी पर
नहीं। अगर
चींटी के मरने
से पाप न होता
हो तो उसको
रत्ती भर
फिक्र नहीं।
लेकिन पाप
होता है, इसलिए
वह पानी भी
छान कर पी रहा
है। पानी छान
कर इसलिए नहीं
पी रहा है कि
पानी के
कीटाणु मर जाएंगे
तो उनको कष्ट
होगा। नजर
उसकी यह है कि
किसी को कष्ट
देने से पाप
होता है। और
पाप होने से
आदमी भटकता
है। तो ऊपर से
वह ठीक वैसे
ही कर रहा है जैसा
महावीर करते
थे; लेकिन
भीतर उसकी नजर
अलग है, उसका
स्वार्थ
भिन्न है। वह
यही देख रहा
है चौबीस घंटे
कि वही करो
जिससे अपनी
मुक्ति हो। वह
मत करो, जिससे
कि नरक हो
जाए।
तो
इसमें दया भी
उसकी झूठी है, वास्तविक
नहीं।
क्योंकि दया
तो वास्तविक
तभी होगी कि
अगर तुम्हें
पहुंचाने में
मुझे नर्क भी
जाना पड़े, तो
भी तैयार हूं।
दया तभी
वास्तविक
होगी। अभी यह
तो अपना ही
स्वार्थ का
हिसाब है। वह
तो गणित बिठा
रहा है कि वही
करो जिससे
अपना आनंद मिले,
मोक्ष
मिले। ऐसा कोई
काम भूल कर मत
करना, जिससे
मोक्ष खो जाए।
तो यह तो ठीक
व्यापारी की
नजर है।
और
इसलिए कुछ
आश्चर्य नहीं
कि महावीर के
पीछे जो लोग
चले, वे सभी
व्यापारी हो
गए। महावीर
खुद तो क्षत्रिय
थे। लेकिन
उनके पीछे की
जमात बनिया हो
गयी। थोड़ी
हैरानी की बात
है! क्या हुआ? जैनों के
चौबीस तीर्थंकर
क्षत्रिय थे।
और जमात क्यों
बनिया हो गयी?
क्या कारण
हुआ? कौन
सी दुर्घटना
घटी कि पूरी
जमात कायर, डरपोक और
दूकान पर सिमट
गयी?
इस
घटना में घटना
छिपी है, कि
महावीर की दया
तो दया थी, लेकिन
होशियार और
पीछे चलने
वाले लोगों की
दया गणित हो
गयी, व्यवसाय
हो गयी।
उन्होंने
व्यवसाय कर
लिया। उन्होंने
वे सब काम छोड़
दिए जिनसे पाप
हो सकता था।
खेती छोड़ी दी,
क्योंकि
उसमें पौधे
मरेंगे। पौधे
उखाड़ने पड़ेंगे।
युद्ध के
मैदान पर जाना
छोड़ दिया, क्योंकि
उसमें हिंसा
होगी। तो फिर
कुछ बचा नहीं
उपाय। एक ही
उपाय बचा कि वे
व्यवसायी हो
जाएं। वे
उसमें सिमट
गए।
यह
बहुत सोचने
जैसी बात है
कि भारत में
जितने ज्ञानी
पुरुष हुए, उनमें से
नब्बे
प्रतिशत
क्षत्रिय
हैं। नानक खुद
भी क्षत्रिय
हैं। नब्बे
प्रतिशत!
कृष्ण, राम,
महावीर, बुद्ध
सब क्षत्रिय
हैं।
क्षत्रिय में
कुछ गुण हैं, जिसके कारण
ज्ञान तक
पहुंचने में
कुछ आसानी
मालूम होती है।
वह गुण है
साहस का, हिम्मत
का। वह खतरा
मोल ले सकता
है, और
दांव पर लगा
सकता है। इतने
ब्राह्मण भी
नहीं पहुंचे।
इतने कोई जाति
के लोग नहीं
पहुंचे परम
सत्य तक, जितने
क्षत्रिय
पहुंचे।
कारण
इतना ही है कि
क्षत्रिय दांव
पर लगा सकता
है। वह खतरा
मोल ले सकता
है। और क्षत्रिय
को मौत भूलनी
संभव नहीं है।
क्योंकि मौत
हर क्षण द्वार
पर खड़ी है। और
मौत की जिसे याद
है, उसे
परमात्मा की
याद आनी शुरू
हो जाती है।
क्षत्रिय का
धंधा तो मौत
का धंधा है।
वहां तो काम ही
मौत से है। वह
व्यवसाय ही
मौत का है।
वहां प्रतिपल,
किसी भी
क्षण मौत हो
सकती है। और
जिसको मौत की याद
है, उसे
परमात्मा का
विस्मरण नहीं
हो सकता। क्योंकि
परमात्मा की
याद करनी ही
पड़ेगी। वह
एंटीडोट है।
जब मौत की याद
गहरी हो तो
क्या करोगे? किसको याद
करोगे? किसको
पुकारोगे? कौन
बचाएगा? तब
अमृत की
स्मृति आनी
स्वाभाविक हो
जाती है।
'ज्ञान
को भोग बनाओ, दया को
भंडारी।'
ये ऊपर
के भंडार
चलाने से कुछ
भी न होगा।
लेकिन ऊपर के
ही भंडार चल
रहे हैं।
नाथ-संप्रदाय
भंडार चलाते
थे, सिक्ख
लंगर चलाते
हैं। बाकी है
सब मामला ऊपर
का। भंडार को
लंगर कहो, क्या
फर्क पड़ेगा?
नानक
कहते हैं, दया को लंगर
बनाओ।
तुम्हारे
जीवन में दया
हो प्रतिपल।
तुम दूसरे का
भी विचार करो।
तुम दूसरे पर
भी ध्यान दो।
तुम जो भी कर
रहे हो, उसमें
यह भी खयाल
रखो कि दूसरे
का भी हित हो, कल्याण हो, मंगल हो।
तुम अपना
ज्ञान खोजो, लेकिन दूसरे
के ज्ञान खोजने
में भी सहयोगी
बनो। तुम
मोक्ष की तरफ
जाओ, लेकिन
दूसरों को भी
साथ ले चलो।
और
ध्यान रखना, जितना ही
तुमने दोनों
साधे--बाहर
दया, भीतर
ज्ञान--उतने
ही शीघ्र तुम
पहुंच जाओगे।
क्योंकि एक
पंख से कोई
कभी नहीं
पहुंचा। और ये
दोनों पंख
साधने जरूरी
हैं।
दूसरी
तरफ ईसाई हैं।
एक तरफ जैन, दूसरी तरफ
ईसाई हैं। वे
सेवा में लगे
हैं। अस्पताल,
स्कूल
खोलते चले
जाते हैं सारी
दुनिया में। उन
जैसी सेवा कोई
भी नहीं करता।
लेकिन ज्ञान
की उन्हें
फिक्र ही नहीं
है। और उन्हें
भी फिक्र न
होने का कारण
है। क्योंकि
उनको यह
भ्रांति हो
गयी है--जैसे
जैनों को
भ्रांति है कि
अपने को
सम्हाल लेना
काफी है--उनको
यह भ्रांति हो
गई है कि सेवा
कर देना काफी
है। जिसने
सेवा की, वह
मोक्ष पा
लेगा। उनको भी
फिक्र नहीं है
कि जिस कोढ़ी
के वे पैर दबा
रहे हैं, या
जिस बीमार का
इलाज कर रहे
हैं, या
जिस अनाथ
बच्चे को पढ़ा रहे
हैं, इसको
पढ़ाने से कुछ
लाभ होने वाला
है? उनको
भी इसकी फिक्र
नहीं है। उनको
फिक्र इसकी है
कि जितना तुम
दूसरों को लाभ
दोगे, उतना
तुम्हारा
मोक्ष
निश्चित है।
आदमी का स्वार्थ
बड़ा अदभुत है।
ज्ञान में से
स्वार्थ निकाल
लेता है। दया
में से
स्वार्थ
निकाल लेता है।
एक बड़ी
पुरानी चीनी
कथा है। एक
गांव में मेला
भरा हुआ था।
और एक छोटा सा
कुआं था उस
मेले में, जिसमें एक
आदमी भूल से
गिर गया। वह
आदमी चिल्लाने
लगा कि मुझे
बचाओ। लेकिन
मेले में बड़ा
शोरगुल था, कौन सुने? लोग अपने
काम-धंधे में
लगे हुए थे।
चीजें बेची जा
रही थीं, खरीदी
जा रही थीं।
और सांझ होने
के करीब थी।
लोग जल्दी में
थे। मेला बंद
होने को जा
रहा था। कौन
सुने? लेकिन
एक
कंफ्यूशियस
को मानने वाला
संन्यासी
कुएं के पास आ
कर बैठा। उसे
आवाज सुनायी
पड़ी।
उसने
कहा, भाई, चुप
रह! मैं अभी
जाता हूं और
पूरी कोशिश
करूंगा।
क्योंकि यह
बात कानून के
विपरीत है कि
बिना दीवाल के
और कुआं बनाया
जाए। उस पर
कोई घाट नहीं
था कुएं पर।
इसलिए तू गिर
गया है। लेकिन
पक्का भरोसा
रख कि हम
क्रांति कर
देंगे पूरे
मुल्क में, और हर कुएं
पर घाट बनवा
देंगे।
क्योंकि
कंफ्यूशियस
नियम को मानने
वाला है। समाज, व्यवस्था, नियम--कंफ्यूशियस
रिफार्मर है,
रिवोल्यूशनरी
है। सुधारक, क्रांतिकारी
है। उसने कहा
कि तू बिलकुल
फिक्र मत कर।
उस
आदमी ने कहा, इससे क्या
होगा कि कुओं
पर घाट बन
जाएंगे! मैं तो
मर रहा हूं।
उस
कंफ्यूशियस
को मानने वाले
ने कहा, सवाल
तेरा नहीं है।
सवाल सब का
है। और एक-एक
आदमी का सवाल
नहीं है, समाज
का सवाल है।
व्यक्ति को
बचाने का कहां
उपाय है? समाज
को बचाना होगा,
तो ही
व्यक्ति
बचेंगे।
वह गया
कि क्रांति
फैला दे। और
खड़ा हो कर
मेले में
चिल्लाने लगा
कि हर कुएं पर
घाट होना चाहिए।
उसके पीछे एक
बौद्ध-भिक्षु
आ कर उस घाट पर
बैठा। वह आदमी
अभी भी चिल्ला
रहा था।
बौद्ध-भिक्षु
नीचे झुक कर
देखा और उसने
कहा, भाई, तुमने
पिछले जन्मों
में कुछ कर्म
किए होंगे, जिसका फल
भोग रहे हो।
और अपना-अपना
फल सभी को भोगना
पड़ता है।
इसमें कुछ
किया नहीं जा
सकता।
उस
आदमी ने कहा, यह तुम पीछे
समझा देना। मुझे
कुएं के बाहर
निकाल लो।
पर
उसने कहा, मैं तो
कर्मों का
त्याग कर चुका
हूं। क्योंकि कर्मों
से बंधन होता
है। बंधन से
आदमी संसार में
भटकता है। और
मैं सब कर्मों
का त्याग कर
दिया हूं। मैं
तो आवागमन से
छूटना चाहता
हूं। अब तुझे
बचा कर मैं और
झंझट नहीं
लूंगा। और फिर
क्या पक्का है
कि तू बच कर न
मालूम क्या करे!
तू किसी की
हत्या कर दे
तो उसमें मैं
भागीदार हो
गया। न तुझे
बचाता, न
तू हत्या
करता। किसी के
घर में आग लगा
दे। तो मैं
तेरे पीछे
कहां फंसने
जाऊं? और
तू शांत रह, क्योंकि इस
कुएं पर मैं
ध्यान करने
रुका हूं। और
तू व्यर्थ
उपद्रव न मचा।
तू अपना भोग, मुझे अपना
भोगने दे।
अपना-अपना!
कोई किसी के मार्ग
पर न आता है, न आ सकता है।
ज्यादा
शोरगुल सुन कर
भिक्षु वहां
से चला गया।
क्योंकि वह
ध्यान नहीं
करने देगा। और
ध्यान बड़ी चीज
है। अब ऐसे
एक-एक कुएं
में बचाने
जाने लगोगे तो
कितने कुएं
हैं! कितने
लोग हैं, कितने
मेले हैं! तुम
क्या कर पाओगे?
अपना ध्यान
ही सम्हाल
लिया कि सब
सम्हल गया।
उसके
पीछे एक ईसाई
मिशनरी आ कर
उस कुएं पर
रुका। उसने
आवाज सुनी और
उसने जल्दी
अपने झोले से
एक रस्सी
निकाली, कुएं
में डाली।
कुएं में उतर
कर गया। और उस
आदमी को बाहर
निकाल कर
लाया। उस आदमी
ने उसके पैर पकड़
लिए और कहा कि
भाई, तू ही
एक सच्चा
धार्मिक है।
बाकी
कंफ्यूशियस को
मानने वाला
गया, बुद्ध
को मानने वाला
गया, किसी
ने हमारी सुनी
भी नहीं।
उस
ईसाई ने कहा
कि भाई, तुमसे
एक ही
प्रार्थना है
कि तू सदा
गिरते रहना
ताकि हम बचाते
रहें। हम
हमेशा रस्सी
अपने झोली में
रखते हैं।
क्योंकि न तुम
गिरोगे, न
हम बचाएंगे, तो मोक्ष
कैसे जाएंगे?
किसी
को किसी से
मतलब नहीं है।
आदमी का
स्वार्थ बड़ा
गहन है। बचाने
वाला भी अपने
लिए बचा रहा है।
नहीं बचाने
वाला भी अपने
लिए नहीं बचा
रहा है। ध्यान
करने वाला
अपनी फिक्र कर
रहा है। सेवा
करने वाला भी
अपनी फिक्र कर
रहा है।
और दया
का अर्थ है, दूसरे की
फिक्र।
केयरिंग फार
अदर्स। दूसरा
भी जीवंत है।
उसका भी मूल्य
है। उसका
मूल्य उतना ही
है, जितना
तुम्हारा
मूल्य है।
रत्ती भर कम
नहीं, रत्ती
भर ज्यादा
नहीं। और दूसरे
से परमात्मा
प्रकट हुआ है।
तो तुम अपने
भीतर के
परमात्मा को
देखना, वह
ज्ञान है। और
तुम दूसरे के
परमात्मा को
मत भूलना, वह
करुणा, वह
दया है।
नानक
कहते हैं, 'ज्ञान को
भोग बना, दया
को भंडारी।
घट-घट में जो
अनाहद नाद
बजता है, उसे
ही शंख बनाओ, योगी।'
तो
शंखों को
फूंकने से
क्या होगा? वह जो अंतर
नाद बज रहा है
सतत, जो
अनाहद, बिना
किसी कारण के,
जो सदा भीतर
बज ही रहा है, उसी को
बजाओ। और
शंखों को
बजाने से क्या
होगा?
'वही
नाथ है, जिसमें
सब नथे-गुथे
हैं। उसकी ही
याद करो। ऋद्धि-सिद्धि
तो घटिया
स्वाद हैं।'
तुमने
कुछ चमत्कार
कर लिए, कि
हाथ से राख
पैदा कर दी, कि सत्य
साईं बाबा हो
गए, कि
ताबीज निकाल
कर किसी को दे
दिया, इससे
क्या होगा?
'ऋद्धि-सिद्धि
तो घटिया
स्वाद हैं।'
क्यों? क्योंकि
ऋद्धि-सिद्धि
भी अहंकार को
ही भरते हैं।
उनसे भी
तुम्हारी अकड़
मजबूत होती है
कि मैं कुछ
विशेष हूं, मैं कुछ खास
हूं। तो धर्म
की सिद्धि तो
एक ही है कि
मैं ना-कुछ
हूं। और जिसने
इस ना-कुछ
होने को जान
लिया, वह
सब कुछ हो
गया। जो इधर
मिटा, वह
परमात्मा हो
गया। उससे कम
पर राजी मत
होना। उससे कम
पर राजी हुए
तो घटिया
स्वाद पर राजी
हो गए।
क्या
होगा, कितने
ही ताबीज हाथ
से पैदा कर दो?
क्या होगा
तुम्हारी
मदारीगिरी से?
न तुम्हारा
कोई हित है, न किसी
दूसरे का कोई
हित है। हां, इस बाजार
में थोड़ी-बहुत
प्रतिष्ठा
मिल जाएगी।
लेकिन इस
बाजार की
प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठा ही कहां
है? और उस
परमात्मा के
सामने
तुम्हारे हाथ
से निकली हुई
ताबीजों का
क्या मूल्य
होगा? तुम्हारे
हाथ से पैदा
हुई राख का
क्या मूल्य है?
जिस
परमात्मा से
सारी सृष्टि
पैदा हो रही
है, वहां
तुम अपनी राख
पैदा करके
सोचते हो
परमात्मा में
तुम्हारी
प्रतिष्ठा हो
जाएगी? तुम्हारी
तरकीबें
मनुष्य को भला
धोखा देने में
समर्थ हो जाएं
और तुम्हारे
अहंकार को
थोड़ी तृप्ति
मिल जाए, लेकिन
इससे कुछ
आत्मज्ञान
नहीं होगा।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'ऋद्धि-सिद्धि
तो घटिया
स्वाद हैं।
संयोग और वियोग,
ये दोनों
समस्त कार्य
चलाते हैं।'
तो एक
ही सिद्धि है
कि संयोग और
वियोग से मुक्त
हो जाना। जो चीजें
जुड़ती हैं, वे अलग
होंगी। जो
चीजें बनती
हैं, वे
मिटेंगी।
जिसका जन्म
हुआ है, वह
मरेगा। जो
पाया है, वह
खो जाएगा। जो
आज संपत्ति है,
वह कल
विपत्ति हो
जाएगी। जो आज
सुख है, कल
दुख हो जाएगा।
हर चीज अपने
विपरीत में
चली जाती है।
संयोग और
वियोग से यह
चाक चलता है।
जिससे आज मिलन
हुआ है, कल
वह छूट जाएगा।
जो इस सत्य को
समझ लेता है
कि संसार का
चाक संयोग और
वियोग से चलता
है, विपरीत
से चलता है, अपोजिट से।
और दोनों के
पार अपने को
संभाल लेता
है--न तो संयोग
में सुखी होता
है और न वियोग
में दुखी होता
है--यही एक
सिद्धि है। इसको
ही साध लो।
'और
भाग्य के लेख
के मुताबिक
अपना-अपना दाय
प्राप्त होता
है।'
इसलिए
जो मिले, जो
घटे, उसमें
शांत रहो। वह
तुम्हारे
भाग्य का
हिस्सा है।
ऐसा होना था, इसलिए हुआ
है। जो होना
था, वही
हुआ है, इसलिए
क्या असंतोष?
इसलिए कैसा
रोना-धोना? इसलिए किससे
शिकायत? कैसी
शिकायत? इसलिए
जो भाग्य में
हो, उसे
चुपचाप
स्वीकार कर
लो। और संयोग
और वियोग से
अपने को मुक्त
करते चले जाओ।
यही सिद्धि है।
बाकी सब घटिया
स्वाद हैं।
'यदि
प्रणाम ही
करना हो तो
उसको ही
प्रणाम करो।
वह आदि है, शुद्ध
है, अनादि
है, अनाहद
है, और
युग-युग से एक ही
वेश वाला है।'
आज
इतना ही।
thank you guruji
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