दिनांक 21
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र
:
लध्वपि
भक्ताधिकारे
महत्वक्षेपकमपरसर्वहानात्।।
76।।
तक्मानत्वादनन्यधर्म:
खले बालीवत्।।
77।।
अनिन्द्ययोन्यधिक्रियतेपारम्पर्यात्
सामान्यवत्।।
78।।
अतोह्यविपक्कभावानामपि
तल्लोके।।79
।।
क्रमैकणत्युपपत्तेस्तु।।
80 ।।
मुझे
अपना नीड़ बना
लो
कह रही
है पेडू की हर
शाख,
अब तुम
आ रहे अपने
बसेरे।
आज
दक्खिन की हवा
ने
आ
अचानक द्वार
मेरे खड़खडाए,
हलचली
है मच गई उन
बादलों में
जो कि
थे आकाश छाए,
जो कि
सुन सौ प्रश्न
मेरे चुप खडी
थी
आज
बारंबार झुक—झुक
कह रही
है पेड़ की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
सूर्य
की किरणें
प्रखरतम घन
तहों के
बीच
होतीं, पार
करतीं,
कालिमा
पर ज्योति का
विस्तार
करतीं।
चूमती
जैसे कि धरती;
हे रजत
पक्षी, तिमिर
को भेदने से,
जो
तुम्हारी राह
छेंके
अब
नहीं रुकते
तुम्हारे पांख, अब तुम आ रहे
अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
हे रजत
पक्षी, तिमिर
को भेदने से,
जो
तुम्हारी राह
छेके
अब
नहीं रुकते
तुम्हारे पाख,
अब तुम
आ रहे अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख,
अब तुम
आ रहे अपने
बसेरे।
आज
हीरे ले लहर
आती, बिछाती
है
कहीं मरकत
किनारे,
आज
उज्ज्वल
मोतियों से
हाथ अपने है
कहीं सरसिज
संवारे,
पर
तुम्हारा मन
प्रलोभन दे
लुभाना
है
असंभव, आज
कोई
पंथ
में वैभव
बिछाए लाख, अब तुम आ रहे
अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
मैं
तुम्हें
बुलाता हूं और
तुम आ जाते हो।
दूर दिशाओं से।
दूर नगरों से, दूर देशों
से एक प्रीति
तुम्हें
खींचे लाती है।
और मेरे पास
देने को सिवाय
शून्य के और
कुछ भी नहीं
है। छीनूंगा
तुमसे, मिटाऊंगा
तुम्हें; क्योंकि
तुम्हारे
मिटने में ही
परमात्मा के होने
की संभावना है।
तुम शून्य हो
जाओ तो पूर्ण
तुम्हारे
भीतर उतरे।
तुम शून्य बनो
तो मंदिर बनो।
फिर पूर्ण तो
अपने से आ
जाता है।
अवकाश चाहिए,
तुम्हारे
हृदय में आकाश
चाहिए।
मैं
तुमसे छीनता
हूं। मैं
तुम्हें ही
तुमसे छीनता
हूं। फिर भी
तुम आ जाते हो।
तुम्हारा
प्रेम गहन
होगा। तुम
दुस्साहसी
हो। पंडित—पुरोहितों
के पास जाना
एक बात है, मेरे पास
आना दूसरी ही
बात है। तुम
दुस्साहस कर
रहे हो। तुम
आग से खेलने
चले हो। अगर
जलने की
हिम्मत दिखाई,
तो तुम फूल
होकर निखरोगे।
अगर मिटने का
साहस किया, तो तुम पहली
बार हो पाओगे।
कोई प्रीति
तुम्हें
खींचे लिए आती
है—जनम—जनम की
प्रीति। वह आज
की नहीं हो
सकती। आज की
कभी इतनी गहरी
नहीं होती।
जिसके लिए हम
मिटने को
तैयार हो जाएं
वह प्रीति
पुरातन होती
है, जनमों—जनमों
की होती है।
जीवन
से भी जब किसी
का बड़ा मूल्य
हो जाए, तभी
तुमने गुरु
पाया। जिसके
लिए तुम जीवन
भी गंवाने को
तैयार हो जाओ,
तभी तुमने
गुरु पाया।
गुरु पाना
दुर्लभ है, क्योंकि
शिष्य होना
अति कठिन है।
शिष्य होने के
लिए जुआरी
चाहिए।
तुम सब
जुआरी हो।
वहां तुम जाओ
जहां तुम्हें
कुछ मिलता हो, तर्क समझ
में आता है। यहां
तुम आओ जहां
सब छीन जाता
हो, अतर्क्य
हो जाती है
बात। लेकिन
प्रेम सदा से
अतर्क्य है।
आए हो तो
शून्य लेकर ही
जाना।
आए हो
तो खाली होकर
जाना। गुरु
इतना ही कर
सकता है कि
तुम्हारे
भीतर स्थान
निर्मित कर दे; फिर शेष सब
परमात्मा
करता है। गुरु
भूमि तैयार कर
सकता है; फिर
शेष अपने से
हो जाता है।
परमात्मा को
खोजने जाना
नहीं पड़ता।
जिस परमात्मा
को खोजने जाना
पड़े, वह
परमात्मा
झूठा होगा।
जिस परमात्मा
को खोजने एक
कदम भी उठाना
पड़े, वह
परमात्मा सच
नहीं रहा।
मनुष्य
की सामर्थ्य
भी क्या है कि
परमात्मा को
खोजे? रो
सकता है, गिर
सकता है, बिलख
सकता है, खोजेगा
कैसे? खोज
तो उसकी हो
सकती है जिससे
हमारी पहले से
ही पहचान हो।
अपरिचित की, अनजान की, अज्ञात की
खोज कैसी? जिसे
कभी देखा नहीं,
जिसे कभी
छुआ नहीं, जिससे
कभी आलिंगन
नहीं हुआ, स्पर्श
नहीं हुआ, जिससे
कभी दरस—परस
नहीं हुआ, उसे
खोजोगे कहां?
उसका पता कहां
है? उसका
ठिकाना कहां
है? तुम
जाओगे कहां, किस दिशा
में, किस
देश? नहीं,
परमात्मा
को खोजने कोई
कभी नहीं जा
सकता है।
फिर
करना क्या
होगा?
भक्त
अपने को मिटा
लेता है, परमात्मा
उसे खोजता आता
है। तुम मिटने
में थोड़ी
कठिनाई अनुभव
करते हो, तो
गुरु की जरूरत
पड़ती है। तुम
अपने हाथ से
नहीं मिट पाते
हो, इसलिए
गुरु की जरूरत
पड़ती है। गुरु
के प्रेम में
मिटने का साहस
जुटा लेते हो।
गुरु को देखकर
तुम्हें यह
भरोसा आ जाता
है कि मिटकर
भी मिटना नहीं
तुम होता।
गुरु को देखकर
यह श्रद्धा
उमगती है कि
मिटकर ही होना
होता है। जैसे
बीज वृक्ष को
देखकर इस
श्रद्धा से भर
जाए कि मिटू? कोई फिक्र
नहीं, टूटूं
भूमि में, बिखर
जाऊं। वृक्ष
हो जाते हैं
बीज, जब
टूट जाते हैं।
बीज अकेला ही
हो, किसी
वृक्ष से
पहचान न हो, किस भरोसे
टूटेगा? किस
आशा में
टूटेगा? सम्हालेगा
अपने को, बचाएगा
अपने को। गुरु
तुम्हारी
सुरक्षाएं
छीन लेता है, तुम्हारे
बचाव छीन लेता
है, तुमने
जो आरक्षण की
व्यवस्था कर
रखी है, तुमसे
छीन लेता है।
गुरु तुम्हें
असहाय छोड़
देता है—निरालंब,
मझधार में।
यह किनारा भी
गया, वह
किनारा भी गया।
कोई किनारा
कहीं दिखाई भी
नहीं पड़ता है।
सब तरफ आधी और
तूफान, और
नाव डूबने लगी,
और पतवार
हाथ से छूट गई।
गुरु तुमसे सब
छीन लेता है।
मगर जो
इस मझधार में
डूबने को राजी
हो जाते हैं, उन्हें
किनारा मिल
जाता है।
किनारा मझधार
के विपरीत
नहीं, मझधार
में छिपा है।
जो परिपूर्ण
रूप से असहाय
हो जाता है, उसे
परमात्मा का
सहारा मिल
जाता है। उसके
पहले सहारा
मिलता भी नहीं
है। तो मुझे
छीन लेने दो
तुम्हारी
पतवार; मुझे
डूबा देने दो
तुम्हारी नाव।
मुझे ले लेने
दो तुम्हारे
शास्त्र, तुम्हारे
सिद्धांत , तुम्हारे
संप्रदाय।
तुम्हारा
हिंदू धर्म, तुम्हारा
मुसलमान धर्म,
तुम्हारा
जैन धर्म मुझे
छीन लेने दो।
कर देने दो
तुम्हें
मुक्त शब्दों
से, सिद्धातों
से, तुम्हारे
सहारों से।
फिर उसी असहाय
अवस्था में, दो बूंद आंसू
की टपकेगी
तुम्हारी आंखों
से, और
प्रार्थना
पूरी हो जाएगी।
धीरे—
धीरे जो बीज
बोने शुरू किए
थे, अंकुराने
लगे हैं। धीरे—
धीरे जो
गंगोत्री की
धार की तरह
शुरू हुई थी—गैरिक
गंगा—बड़ी होने
लगी है, गंगा
बनने लगी है।
दूर—दूर देशों
तक गैरिक
संन्यासी
दिखाई पड़ने
लगा है। कुछ
होने को है।
तुम्हें शायद
पता भी न हो कि
तुम किसी एक
बड़े, महत
आयोजन में
हिस्सेदार हो,
भागीदार हो।
तुम्हें अपने
सौभाग्य का भी
शायद ठीक—ठीक
पता न हों—किसी
को कभी नहीं
था। जो बुद्ध
के साथ चले थे,
उनको पता
नहीं था कि वे
किस
महत्वपूर्ण
इतिहास के
हिस्से हो रहे
हैं। जो
महावीर के साथ
उठे—बैठे थे, उन्हें कुछ
पता न था कि सदियों
तक मनुष्य की
चेतना आंदोलित
रहेगी। वे दस—बारह
शिष्य जो जीसस
के साथ खड़े
हुए थे, उन्हें
क्या पता हो
सकता था?
और फिर
उनका मसीहा, उनका गुरु
सूली पर चढ़
गया। उन्हें
तो लगा कि सब
समाप्त हो गया;
अब क्या बचा?
उन्हें पता
नहीं था कि
पृथ्वी पर
इतना बड़ा आंदोलन
इसके पहले कभी
हुआ नहीं था।
जीसस का सूली
पर चढ़ जाना इस
पृथ्वी के
इतिहास में
अपूर्व घटना
है। उस दिन
समय दो
हिस्सों में
बंट गया : जीसस—पूर्व
और जीसस—
पश्चात। बीच
में खड़ा हो
गया समय की
धार में जीसस
का क्रास। उस
दिन से आदमी
दूसरा हुआ। उस
दिन से आदमी
ने कुछ नई बात
सीखी। चेतना
के कुछ नए
आयाम खुले, कुछ नए
द्वार खुले।
तुम्हें
शायद ठीक—ठीक
पता भी न हो।
मुझे पता है
कि तुम एक
विराट आयोजन
के भागीदार हो
रहे हो—
अनजाने। तुम
जो अपनी छोटी—सी
ईंट रख रहे हो
इस मंदिर में, यह किसी
विराट मंदिर
का हिस्सा
बनेगी।
तुम्हारी ईंट
के बिना यह
मंदिर उठ भी
नहीं सकता।
तुम्हारी ईंट
कितनी ही छोटी
हो, तुम्हारी
ईंट अनिवार्य
है। तुम
धन्यभागी हो!
जो जितना
ज्यादा मेरे
पास आकर मिट
सकेगा, उतना
धन्यभागी
होगा, क्योंकि
उतनी ही उसकी ईंट
इस उठते हुए
मंदिर के काम
आ जाएगी।
अहंकार की ईंट
का उपयोग नहीं
हो सकता।
अहंकार की ईंट
को तो हमें
त्यागना होगा।
निरहंकार की ईंट
से बनेगा यह
मंदिर। और इस
मंदिर की बड़ी
जरूरत आ गई है।
पृथ्वी बेचैन
है। मनुष्य की
चेतना बहुत
बड़े संकट में
है। ऐसे संकट
में जैसा कि
शायद पहले कभी
भी नहीं था।
क्या
है संकट?
संकट
है धर्म की
पुरानी
भाषाएं इतनी
पुरानी हो गई
हैं कि मनुष्य
के काम की
नहीं रहीं।
उनके कहने और
बताने के ढंग
इतने
जराजीर्ण हो गए
कि मनुष्य और
उनके बीच कोई
तालमेल नहीं
रहा, कोई
संवाद नहीं
रहा। आदमी
प्रौढ़ हुआ है
और धर्म अभी
भी बचकानी भाषा
बोल रहे हैं।
वे धर्म बच्चों
के लिए विकसित
किए गए थे। तो
परमात्मा
पिता था। या
मां था। अब
आदमी को पिता
और मां की
जरूरत नहीं है।
अब आदमी के
सामने
परमात्मा का
नया रूप, गहरा
रूप प्रगट
होना चाहिए।
नहीं कि
पुराना रूप
गलत था—कोई
रूप गलत नहीं
होता—लेकिन
जैसे—जैसे
मनुष्य की
चेतना
रूपांतरित होती
है, नए
रूपों की
जरूरत पड़ जाती
है। अब आज आकाश
की तरफ हाथ
उठाकर किसी
परमात्मा को,
किसी
परमपिता को
आकाश में बैठे
हुए मानने में
कठिनाई होती
है, कहीं
अड़चन आती है।
तुम्हारी
चेतना गवाही
नहीं देती।
तुम कर भी
लेते हो अगर
आदतवश, तो
भी तुम आस्तिक
नहीं हो पाते।
आज की
सदी में
नास्तिकता
तर्कसंगत
मालूम पड़ती है, आस्तिकता
तर्क—विपरीत
मालूम पड़ती है।
यह बात
उचित नहीं है।
आस्तिकता जिस
दिन तर्क—विपरीत
मालूम पड़ने
लगे, उस दिन
खोने लगेगी।
आस्तिकता
तर्कातीत
जरूर है, लेकिन
तर्क—विपरीत
होने की कोई
जरूरत नहीं है।
आस्तिकता
नास्तिकता से
ज्यादा बड़ा
तर्क है।
यद्यपि तर्क
पर आस्तिकता
समाप्त नहीं
होती, और
आगे जाती है।
उसकी यात्रा
बड़ी है, तर्क
से आगे जाती
है—तर्क की
सीढ़ी पर चढ़
जाती है—लेकिन
तर्क के
विपरीत नहीं
है।
नास्तिकता जब
भी तर्क के
अनुकूल मालूम
पड़ने लगे, तो
उसका सिर्फ एक
ही अर्थ होता
है कि धर्म की
भाषा पुरानी
पड़ गई। भाषा
को नया
परिमार्जन
चाहिए, नया
परिष्कार
चाहिए, नई
चमक। भाषा को
नया ढंग, नई
शैली चाहिए।
भाषा को नया
जीवन चाहिए।
धर्म
को प्रतिदिन
नया होना पड़ता
है—मनुष्य की
चेतना के साथ—साथ
चलना होगा।
तुम बच्चे थे, तुमने जो
कपड़े पहने थे
वे बिलकुल ठीक
थे। लेकिन अब
तुम बड़े हो गए।
अब तुम उन्हीं
कपड़ों को पहने
रखोगे तो
तुम्हें बंधन
मालूम होगा; वे कपड़े
तुम्हें जकड़
लेंगे, वे
कारागृह बन
जाएंगे। अब
तुम्हें और
अन्य कपड़ों की
जरूरत पड़ेगी।
सारी
पृथ्वी पर
धर्म हैं, लेकिन इस
सदी का धर्म
कोई भी नहीं।
वे सब पुराने
हैं।
जिन्होंने
विकसित किए थे,
जिनके लिए
विकसित किए गए
थे, वे सब
जा चुके हैं।
उन धर्मों को
भी चले जाना
चाहिए। कोई
धर्म यहां
शाश्वत होकर
नहीं रह सकता।
और ध्यान रखना,
धर्म की, आत्यंतिक
धर्म की गहराई
शाश्वत है, लेकिन धर्म
का कोई रूप
शाश्वत नहीं
हो सकता।
आत्मा शाश्वत
है, देह
शाश्वत नहीं
है। धर्म का
शाश्वत रूप
किसी को पता
नहीं है। धर्म
का शाश्वत रूप
जब भी पता
होता है, तब
भाषा में बंध
जाता है। और
जब भाषा में
बंध जाता है, तो शाश्वत
नहीं रह जाता,
सामयिक हो
जाता है। समय—समय
के धर्म हैं।
और क्रांति
इस अर्थ में
भी अनूठी होने
वाली है। पहले
भी नए धर्म
पैदा हुए थे।
हिंदू धर्म था, फिर बुद्ध
धर्म आया।
बुद्ध धर्म
नया धर्म था।
यहूदी धर्म था,
फिर ईसाइयत
आई। ईसाइयत
नया धर्म थी।
अब तो एक और नई
छलता घटने
वाली है। वह
छलता है : अब
धर्म भविष्य
में विशेषण
वाला धर्म
नहीं होगा।
हिंदू और
मुसलमान और
ईसाई, ऐसा
नहीं, धार्मिकता
होगी। और
धार्मिकता
विशेषणशून्य
हो, यह
मेरा प्रयास
है। यह जो
तुम्हें
गैरिक
वस्त्रों में
रंगे जाता हूं
यह जो गैरिक
अग्नि फैलाए
चला जाता हूं, इस अग्नि के
पीछे एक ही
लक्ष्य है कि
इस अग्नि में
सारे विशेषण
जल जाएं—हिंदू
के, मुसलमान
के, ईसाई
के। इस अग्नि
में ब्राह्मण
के, शूद्र
के, क्षत्रिय
के विशेषण जल
जाएं। इस
अग्नि में
स्त्री के, पुरुष के
विशेषण जल
जाएं। यह
अग्नि सबको एक
रंग में रंग
दे। यह पृथ्वी
को एक बना दे।
यह पहली बार
धर्म हो
विशेषण से
मुक्त; मात्र
धार्मिकता का
नाम हो।
और समझ
लेना बात को—
अगर
धर्म विशेषण
से मुक्त हो
जाए तो
नास्तिक भी
धार्मिक हो
सकता है। सच
तो यह है, सभी
नास्तिक
धार्मिक होने
की तलाश में
ही नास्तिक हो
गए हैं। धर्म
उन्हें तृप्त
नहीं कर पाते।
शायद उनकी
प्यास
तथाकथित
आस्तिकों से
ज्यादा गहरी
है। जिससे
आस्तिक तृप्त
हो जाता है, उससे
नास्तिक
तृप्त नहीं हो
पाता।
नास्तिक
चाहता है
अनुभव।
नास्तिक
मांगता है—जब
तक मैं न जान
लूं? मानूंगा
नहीं।
नास्तिक
चाहता है
कसौटी सत्य की,
प्रमाण।
तुम्हारे
प्रमाण छोटे
पड़ गए हैं; तुम्हारे
प्रमाण ओछे पड़
गए हैं।
तुम्हारे
प्रमाण
पुराने पड़ गए
हैं। वे
पुराने
नास्तिकों के
काम आ गए
होंगे, नया
नास्तिक, नए
तर्क लेकर आया
है। नया
नास्तिक नए
विचार लेकर
जनमा है। उन
नए विचारों का
उत्तर कहां है?
उन नए
विचारों का उत्तर
चाहिए। यह
गैरिक अग्नि
उस नए विचार
को उत्तर देगी।
मेरे
पास आकर
नास्तिक भी
स्वीकृत हो
जाता है। अभी
कुछ ही दिन
पहले किसी ने
कहा कि मैं
नास्तिक हूं
क्या मैं भी
संन्यासी हो
सकता हूं? मैंने कहा, नास्तिक के
लिए ही यह
संन्यास है।
मैं
नास्तिकों की
तलाश में हूं।
उसने कहा, मैं
ईश्वर को नहीं
मानता। मैंने
कहा, इस
संन्यास में
ईश्वर को
मानने की कोई
शर्त नहीं है।
तुम मानते तो
गलत होते।
बिना जाने जो
मान लेता है, वह आदमी
बेईमान है।
उसको तुम
आस्तिक कहते
हो? संन्यास
जानने की
प्रक्रिया है।
तो संन्यास
लेने के लिए
ईश्वर को
मानना शर्त कैसे
हो सकती है? संन्यास तो
प्रक्रिया है
ईश्वर को
जानने की।
संन्यास तो आकांक्षा
है, अभीप्सा
है ईश्वर को
जानने की।
जानने की
अभीप्सा के
पहले मानने की
शर्त तो बेईमानी
हो जाएगी।
एक
आदमी कहता है, मैं प्रकाश
को नहीं जानता
हूं; हम
कहते हैं, पहले
मानो। पहले
मानो! तो यह
आदमी कैसे
मानेगा? मान
भी लेगा तो
ऊपर—ऊपर
मानेगा। भीतर
इसकी
अंतरात्मा तो
कहती रहेगी कि
मुझे प्रकाश
का कोई पता
नहीं है; मैं
यह क्या कर
रहा हूं? तुमने
खयाल किया, तुम मंदिर
में झुक जाते
हो, ऊपर—ऊपर
झुकते हो, भीतर
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
भीतर तुम कभी—
कभी सोचते भी
हो, कभी
तुममें भी
बुद्धि जगती
है, तुम्हें
खयाल आता है—मैं
क्या कर रहा
हूं? मुझे
पता है कि
ईश्वर है? मैं
किसके सामने
झुक रहा हूं?
नहीं, संन्यास में
कोई शर्त
मानने की नहीं
है। संन्यास
जानने की आकांक्षा
है, मानने
का भाव नहीं।
जानकर मानना।
जानकर मानोगे,
सत्य—
निष्ठा होगी।
वही परम
आस्तिकता
होगी।
नास्तिक
मैं उसे कहता
हूं जो ईश्वर
की तलाश कर
रहा है, आस्तिक
उसे कहता हूं
जिसकी तलाश
पूरी हुई। तो
तथाकथित
आस्तिक मेरे
लिए झूठे
नास्तिक हैं।
वस्तुत: तो
नास्तिक हैं,
ऊपर से
उन्होंने राम—नाम
की चदरिया ओढ़
रखी है। उनके
प्राणों में
गहन
नास्तिकता है।
अनुभव के बिना
स्वीकार हो ही
नहीं सकता। जब
तक आमने—सामने
परमात्मा से
मिलन न हो जाए,
जब तक जीवन
के अमृत का
स्वाद न आ जाए,
तब तक मानना
भी मत। हर
व्यक्ति को
नास्तिक होना
चाहिए, ताकि
हर व्यक्ति
आस्तिक हो सके।
मेरे संन्यास
में नास्तिक
का स्वागत है।
फिर, परमात्मा की
अगर कोई धारणा
आरोपित करो कि
कृष्य को
मानना, कि
क्राइस्ट को
मानना, कि
राम को, कि
बुद्ध को, महावीर
को, तो
अड़चन खड़ी होनी
शुरू हो जाती
है। उस धारणा
में
संकीर्णता है।
मैं तुमसे
कहता हूं
परमात्मा
तुम्हारे
सामने जब
प्रगट होगा तो
सामने—प्रगट
नहीं होगा, तुम्हारे
अंतस्तल में
प्रगट होगा।
दृश्य की तरह
प्रगट नहीं
होगा, द्रष्टा
की तरह प्रगट
होगा। तुम उसे
बाहर खड़ा हुआ
नहीं पाओगे, तुम उसे
अपने भीतर खड़ा
हुआ पाओगे।
तुम उसे अपनी
तरह पाओगे।
अहं
ब्रह्मास्मि।
तुम उसे पाओगे
: मैं
परमात्मा हूं।
चैतन्य
परमात्मा है।
तत्वमसि
श्वेतकेतु।
वह तू है। फिर
कोई विवाद
नहीं रह जाता।
फिर परमात्मा
मुसलमान नहीं
रह जाता, हिंदू
नहीं रह जाता,
ईसाई नहीं
रह जाता। उसकी
कोई प्रतिमा
नहीं रह जाती,
उसका कोई
मंदिर नहीं रह
जाता। चैतन्य।
चैतन्य कहीं
हिंदू हुआ, मुसलमान हुआ?
साक्षी, साक्षी
कहीं जैन हुआ,
बौद्ध हुआ?
साक्षी तो
बस साक्षी है।
दर्पण की भांति
झलकाता है। उस
दर्पण के
अनुभव से ही
तुम्हारे
जीवन में पहली
दफा
विशेषणरहित
धर्म का जन्म
होगा।
यह आग
फैले, यह आग
तुम्हारी
सारी
परंपराओं को
जला दे, यह
आग तुम्हारी
सारी रूढ़ियों
को तोड़ दे, यह
आग तुम्हें
शब्दों और
संस्कारों से
मुक्त कर दे, यह आग
तुम्हारे
साक्षी को
निखार दे, इसलिए
तुम्हें बार—बार
हूं। अनेक
बहानों से
बुलाता हूं।
और तुम आ जाते
हो। तुम्हारा
आना इस बात की
गवाही है कि
तुम्हारे
बुलाता हृदय
की वीणा मुझसे
तरंगित होनी
शुरू हुई है।
इस संगीत को
पूरा होने दो।
यह संगीत जब
पूरा होगा, तो धर्म की
एक अभिनव
व्याख्या का
जन्म होगा।
मैं यह
व्याख्या
शब्दों में ही
नहीं करना चाहता
हूं। मैं चाहता
हूं यह
व्याख्या
तुम्हारे
जीवन में फूले—फले।
तुम इसके
प्रतीक बनो।
क्या
व्याख्या है
मेरे हृदय में
जो मैं चाहता हूं
फैल जाए? और
अब समय आ गया
है कि मैं
तुमसे कहूं।
क्योंकि अब
समय आ गया है
कि तुम बढ़ते
जाते हो, तुम
फैलते जाते हो।
जल्दी ही इस
पृथ्वी पर कोई
भी संन्यास से
अपरिचित नहीं
रह जाएगा।
क्या मेरी
व्याख्या है
जो मैं धर्म
को देना चाहता
हूं?
अतीत
के धर्म जीवन—विरोधी
धर्म थे। उनकी
भाषा जीवन के
प्रति
शत्रुता की
भाषा थी। मैं
तुम्हें जीवन—स्वीकार का धर्म
देना चाहता
हूं। अतीत के
धर्म शरीर—विरोधी
थे। मैं
तुम्हें शरीर
को सम्मान
करने वाला
धर्म देना
चाहता हूं।
अतीत के धर्म
घर और गृहस्थी
के विरोधी थे, परिवार और
प्रेम के
विरोधी थे।
मैं तुम्हें
एक धर्म देना
चाहता हूं जो
इतना विराट हो
कि सब उसमें
समा जाए। छोटे
थे अतीत के
धर्म। उनमें
पत्नी नहीं
समा सकती थी, उनमें पति
नहीं समा सकता
था। संकीर्ण
थे। उनमें
तुम्हारा
बेटा नहीं समा
सकता था, तुम्हारी
बेटी नहीं समा
सकती थी।
इसलिए उन
धर्मों में वे
ही लोग उत्सुक
हो सके जो बड़े
कठोर थे। मेरी
बात को ठीक से
समझो तो इसका
अर्थ यह हुआ, उन धर्मों
में वे ही लोग उत्सुक
हो सके जो
वस्तुत:
धार्मिक नहीं
थे, कठोर
थे, दुष्ट
थे, हिंसक
थे। जो
आदमी अपनी
पत्नी को
बिलखता
छोड्कर भाग
गया है, इसको
तुम अब तक
धार्मिक कहते
रहे हो, संन्यासी
कहते रहे हो।
यह एक दिन
डोला सजाकर, बैंड़—बाजे
बजाकर इसे
किसी भरोसे पर
अपने घर ले
आया था। इसने
अपना वचन तोड़
दिया है। इसने
अपनी
प्रतिबद्धता
तोड़ दी है।
इसने प्रेम का
नाता नहीं
निभाया है।
उसे ले आया था
किसी दिन
सम्हालकर
अपने घर, फिर
उसके बच्चे
जन्म गए हैं, और अब यह भाग
गया है! अतीत
में कितने लोग
जीवित स्त्रियों
को विधवा करके
भाग गए। उन
विधवाओं के आंसुओ
का कुछ हिसाब
है? उन
विधवाओं के आंसुओ
ने इनके मोक्ष
में बाधा नहीं
डाली होगी, मैं तुमसे
पूछता हूं? उनके बच्चे
तड़पे होंगे, भूखे सोए
होंगे, भीख
मांगी होगी—पति
तो संन्यासी
हो गए थे, शायद
पत्नी को
वेश्या हो
जाना पड़ा हों—यह
कैसा संन्यास?
इसमें कहीं
कोई बुनियादी
रोग है, कहीं
कोई भ्रांति
है।
संन्यास
बड़ा होना
चाहिए, विराट
होना चाहिए, सबको समा ले।
संन्यास
हार्दिक होना
चाहिए, प्रेमल
होना चाहिए।
संन्यास में
कहीं भी कोई
कदम ऐसा उठे
जो प्रेम के
विपरीत जाता
हो तो वह
संन्यास नहीं
है। यह मैं
तुम्हें
कसौटी देना
चाहता हूं। जब
तुम प्रेम की
तरफ बह रहे हो
तो समझना सब
ठीक है; और
जब तुम प्रेम
के विपरीत
जाने लगो, समझना
कुछ भूल हो गई,
कहीं कोई भ्रांति
हो गई। अपने
को सुधारना, सम्हालना
अपने को वापस
लौटाना। जीवन
का सम्मान
चाहिए। यह
परमात्मा की
देन है। उसकी
भेंट है। इसे
तुम छोड्कर
भाग गए! इसका
तुमने
तिरस्कार
किया!
और मजा
यह है कि यही
सारे धार्मिक
लोग कहते रहे, परमात्मा ने
सृष्टि बनाई
है, वह
स्रष्टा है।
उसकी सृष्टि
को तुम छोड्कर
भागते हो? तुम
कवि की कविता
का अपमान करोगे,
यह कवि का
सम्मान होगा?
तुम
संगीतज्ञ के
संगीत का
इनकार करोगे,
यह
संगीतज्ञ का
आदर होगा? सृष्टि
को छोड्कर
भागोगे, यह
स्रष्टा के
प्रति
तुम्हारा
समर्पण होगा?
अगर
चित्रकार का
सम्मान करना
है, उसके
चित्र का
सम्मान करो।
और अगर
मूर्तिकार का
सम्मान करना
है, उसकी
मूर्ति का
सम्मान करो।
अगर स्रष्टा
का तुम्हारे
मन में कोई भी
सम्मान उठा है,
तो उसकी यह
विराट सृष्टि,
ये फूल, ये
पक्षी, ये
पत्ते, ये
लोग, ये
पत्थर, इन
सबका सम्मान
करो। इस सब पर
उसके
हस्ताक्षर
हैं।
एक
जीवन—विधेय का
धर्म देना
चाहता हूं। एक
ऐसा धर्म जो
संकीर्ण न हो, आकाश जैसा
विराट हो, जिसमें
सब समा जाए।
एक ऐसा धर्म
जिसमें दमन न
हो, जिसमें
उत्सव हो; जिसमें
उदासी न हो, जिसमें
नृत्य हो, गीत
हो, गायन
हो। एक ऐसा
धर्म जिसमें
लते
सृजनात्मक
हों। जाकर
गुफाओं में न
बैठ जाएं
मुर्दों की भांति।
वह तो तुम
कब्र में कर
लेना, अभी
जल्दी क्या है?
कनफ्यूसियस
से उसके एक
शिष्य ने पूछा
कि मैं शात
कैसे हो जाऊं?
मैं बिलकुल
शात हो जाना
चाहता हूं।
कनफ्यूसियस
ने कहा—जल्दी
क्या है, जब
तू कब्र में
सोए तब शांति
से सो जाना।
अभी जी ले, अभी
नाच ले; अभी
जीवन के साथ
उत्सव मना ले।
शांति
से भी ज्यादा
बड़ा मूल्य
आनंद का है।
और निश्चित ही
आनंद के पीछे
एक तरह की शांति
आती है छाया
की भांति।
लेकिन तब वह
मुर्दा शांति
नहीं होती है, मरघट की शांति
नहीं होती है।
शांति होती है
जैसी संगीत को
सुनने के बाद
आती है। शांति
होती है जैसे
नृत्य के बाद
आती है। एक
आनंद का भाव शांति
को भी अपने
साथ बहा लाता
है, लेकिन
वह जीवन की
तरंग पर चढ़कर
आती है।
अतीत
के धर्म
व्यक्ति—विरोधी
धर्म थे।
उन्होंने
व्यक्तियों
को
स्वतंत्रता
नहीं दी; उन्होंने
व्यक्तियों
को
व्यक्तित्व
नहीं दिया।
उन्होंने
व्यक्तियों
को भेद बनाने
की कोशिश की।
मैं तुम्हें
स्वतंत्रता
देना चाहता
हूं। मैं
तुम्हें
तुम्हारी
निजता देना
चाहता हूं।
तुम अद्वितीय
हो। यहां कोई
एक व्यक्ति
दूसरे
व्यक्ति जैसा
नहीं है।
तुम्हें किसी
दूसरे की नकल
होने की
आवश्यकता नहीं
है। तुम तुम
जैसे हो, और
तुम्हें तुम
जैसा ही होना
है। ऐसे होकर
ही तुम
परमात्मा को
प्रसन्न कर
सकोगे। तुम
गुलाब हो तो
गुलाब की तरह
खिलो, और
चमेली हो तो
चमेली की तरह
खिलो; तुम्हें
कमल होने की
जरूरत नहीं है।
तुम कमल हो तो
कमल की तरह
खिलो, कमल
को गुलाब होने
की जरूरत नहीं
है। तुम अपने
को स्वीकार
करो, अपने
को अंगीकार करो।
न तुम्हें
बुद्ध बनना है;
न तुम्हें
महावीर बनना
है; न
तुम्हें
रजनीश बनना है।
तुम्हें तुम
ही बनना है और
तुम जिस दिन
तुम ही बनोगे,
उसी दिन
तुम्हारे
जीवन में
उल्लास होगा।
नया
धर्म
विशेषणमुक्त
हो। नया धर्म
दमनमुक्त हो।
नया धर्म सिद्धांत
मुक्त हो। नया
धर्म निजता का, व्यक्ति के
परम सम्मान का
धर्म हो। और
नया धर्म सृजन
का धर्म हो।
परमात्मा
स्रष्टा है।
तुम भी कुछ
रचो, कुछ
बनाओ, तो
तुम भी उसके
साथ हो लोगे।
स्रष्टा होकर
ही तुम
स्रष्टा के
साथ अपना सरगम
बिठा सकोगे।
फिर
स्रष्टा होने
के लिए कुछ
ऐसा नहीं है
कि तुम पिकासो
होओ, या
वानगाग, या
कालिदास, या
भवभूति, कि
तुम कोई बड़ा
महाकाव्य
लिखो, कि
तुम कोई बड़ा
संगीत जनमाओ।
बड़े और छोटे
का सवाल नहीं
है। उसकी
महफिल में बड़े
और छोटे का
हिसाब नहीं हैं।
तुम अगर अपने
छोटे से फूल
को भी चढ़ाने
गए तो वहां
उतना ही
सम्मान है।
तुम सोने का
ही फूल चढ़ाओ, ऐसी कोई बात
नहीं है। वहां
सोने में और
मिट्टी में
कोई फर्क नहीं
है।
सृजनात्मकता
चाहिए। और
सृजनात्मकता
जीवन का अंग
बन सकती है।
तुम भोजन पकाओ,
लेकिन
उसमें
सृजनात्मकता
हो। तुम
बुहारी लगाओ
घर में, उसमें
सृजनात्मकता
हो, उसमें
प्रार्थना हो।
तुम परमात्मा
की पृथ्वी को झाडू
रहे हो। बस
तभी फर्क हो
जाएगा।
तुम्हारा
बेटा भोजन
करने आ रहा है,
तुम्हारा
बेटा भी
परमात्मा है।
तुम्हारा पति
भोजन करने आ
रहा है, तुम्हारा
पति भी
परमात्मा है।
तुम अपनी
पत्नी के लिए
कुछ तैयार कर
रहे हो, तुम्हारी
पत्नी में
परमात्मा
छिपा है। तुम
ऐसे जीओ कि सब
तरफ से
परमात्मा के
प्रति तुम्हारा
समादर प्रगट
हो। मंदिरों—मस्जिदों
में जाओ या न
जाओ, फर्क
नहीं पड़ता। यहां
चलते—फिरते
मंदिर हैं
चारों तरफ। यहां
हर आंख में
परमात्मा
छिपा है।
झांकों थोड़ा,
और इस ढंग
से जीओ कि
तुम्हारा
पूरा जीवन
परमात्मा की
सेवा बन जाए।
उसे मैं
सृजनात्मकता
कह रहा हूं।
कुछ
करो। भाव से, समग्रता से।
और हर समग्रता
तुम्हें
परमात्मा के
करीब लाने लगेगी।
मैं
तुम्हें एक
ऐसा धर्म देना
चाहता हूं जो
मधुशाला का
धर्म हो। रस
का। रसों वै
सः। वह
परमात्मा
रसरूप है, आनंदरूप है।
तुम रस में
निमग्न होओ।
सुनो इन
शब्दों को :
हंसने
का वक्त है, यह हंसाने
का वक्त है
यानी
चमन में फूल
खिलाने का
वक्त है
आई है, फिर बहार—ब—अंदाजे—दिलबरी
सर को
हुजूरे—दोस्त
झुकाने वक्त
है
माना, खिरद है, शमए—रहे—जिंदगी
मगर
ऐ
बेखबर! यह होश
में आने का
वक्त है
कब से
है इंतजार नजर
को न पूछिए
काशानाए—हयात
बसाने का वक्त
है
अब बन
रही है, अपनी
यह धरती ही
आस्मां
खुर्शीदो—माहताब
उगाने का वक्त
है
छिटकी
है फिर चमन
में बहारों की
चांदनी
तारीकिए—हयात
मिटाने का
वक्त है
ले आ
गए हैं, बज्म
में मीना—बदोश
वह
हर— हर
कदम पै जाम
लुढाने का
वक्त है
कब तक
रहेगी ईद
मुहर्रम बनी
हुई
आओ कि
जश्ने—शौक
मनाने का वक्त
है
नजरों
के साथ दिल भी
करो फशें—राह
तुम
'रखशां'!
यह उनके
बज्म में आने
का वक्त है
हर घडी
परमात्मा के
आने का समय है।
'रखशां'!
यह उनके
बज्म में आने
का वक्त है
हंसने
का वक्त है, यह हंसाने
का वक्त है
यह
पूरा जीवन
हंसने और
हंसाने का
जीवन होना चाहिए।
रसो वै सः। वह
रसरूप है। तुम
भी रसरूप हो
जाओ।
उदास
मत बैठो।
कब तक
रहेगी ईद
मुहर्रम बनी
हुई
आओ कि
जश्ने—शौक
मनाने का वक्त
है
धर्म
मुहर्रमी हो
गए हैं। वहा
उदासी छा गई
है। वहा लोग
मुर्दों की भांति
बैठे हैं। वहा
समय के पहले
मर गए हैं।
मंदिरों में
फिर से नाच को
ले आओ।
मंदिरों में
फिर गीत को ले
आओ। फिर बजने
दो वीणा, फिर
थिरकने दो पाव।
फिर ताल पड़ने
दो। देखते
नहीं चारों
तरफ परमात्मा
सदा उत्सव में
है? तुम
उदास होकर इस महोत्सव
से टूट जाते
हो।
ले आ
गए हैं, बज्म
में मीना—बदोश
वह
परमात्मा
सदा ही मधु की
मटकी भरे हुए
आ रहा है।
ले आ
गए हैं बज्म
में मीना—बदोश
वह
हर—हर
कदम पै जाम
लुढाने का
वक्त है
तुम
जरा आंख खोलकर
देखोगे तो
फूलों में
दिखाई पडेगा
उसका मधु।
सूरज में
दिखाई पडेगा, चांद—तारों
में दिखाई
पडेगा। सब तरफ
दिखाई पडेगा।
मगर तुम्हारी आंखों
पर धूल जम गई
है। तुम्हारी आंखों
को उदासी के
पाठ पढ़ाए गए
हैं। उन पाठों
ने तुम्हारे
जीवन को विकृत
कर दिया है।
तुम्हें इतने
काटो के पाठ पढ़ाए
गए हैं कि
तुम्हें फूल
दिखाई पड़ने
बंद हो गए हैं।
इस जमीन को
आसमान बनाना
है। यह मेरा
संदेश है आज
के दिन।
अब बन
रही है, अपनी
यह धरती ही
आस्मां
खुर्शीदो—माहताब
उगाने का वक्त
है
अब
चांद—तारों को
उगाने का समय
आ गया है।
धरती को आसमान
बनाना है।
बहुत दिन खोज
चुके हम आसमान
में स्वर्ग को, अब स्वर्ग
को यहीं उतार
लाना है।
और
परमात्मा
प्रतिपल
तैयार है। तुम
जरा मौका दो।
तुम जरा अपने
हृदय की वीणा
को उसके सामने
करो, तुम जरा
पुकारो। और
अचानक तुम
पाओगे, एक
दिन तुम्हारी
वीणा पर
किन्हीं
अज्ञात अंगुलियों
ने आकर अपना
रास रचाना
शुरू कर दिया
है। कोई आ गया
अज्ञात, चुपचाप,
कब किस गली—कोने
से, कब किस
गली—द्वार से
और तुम्हारी
वीणा बजने
लगी! मगर पुकारो।
शांडिल्य
के सूत्रों का
यही सार है।
भक्ति का
शास्त्र इतने
में ही निचोड़ा
जा सकता है कि
वीणा मेरी पड़ी
है, मैं
पुकारता हूं
वीणावादक, तू
आ और इसे बजा!
तुम
छेड़ो मेरी बीन
कसी, रसराती।
बंद
किवाडे कर—कर
सोए
सब
नगरी के वासी,
वक्त
तुम्हारे आने
का यह,
मेरे
राग—विलासी,
आहट भी
प्रतिध्वनित
तुम्हारी
इस पर
होती आई,
तुम
छेडो मेरी बीन
कसी, रसराती।
इसके
गुण— अवगुण
बतलाऊं?
क्या
तुमसे अनजाना?
मिला
मुझे है इसके
कारण
गली—गली
का ताना,
लेकिन बुरी—
भली, जैसी भी,
है यह
देन तुम्हारी,
मैंने
तो सेई एक
तुम्हारी
थाती।
तुम
छेडो मेरी बीन
कसी, रसराती।
तुम
पैरों से
ठुकरा देते
यह बलि—बलि
हो जाती,
कहा
तुम्हारी
छाती की भी
धड़कन
यह सुन पाती,
और
चुकी हैं चूम उंगलियां
मधु
बरसाने वाली,
अचरज
क्या इतनी आज
बनी मदमाती।
तुम
छेडो मेरी बीन
कसी, रसराती।
मेरी
उर—वीणा पर
तुम जो
चाहो
राग उतारो,
उसके
जिन भावों—
भेदों को
तुम
चाहो उदगारो,
जिस
पर्दे को चाहो
खोलो,
जिसको
चाहो मूंदो,
यह आज
नहीं है
दुनिया से
शरमाती।
तुम
छेडो मेरी बीन
कसी, रसराती।
प्रत्येक
व्यक्ति एक
वीणा है, जो
कसी है, तैयार
है, जनमों—जनमों
से, रस से
भरी है। पर
वीणावादक को
तुमने बुलाया
नहीं; तुमने
पुकारा नहीं।
और वीणावादक न
आए तो जीवन
संताप रह जाता
है। मैं
तुम्हें
वीणावादक को
पुकारने के
लिए कहता हूं।
भक्ति का इतना
ही सारसूत्र
है। जिस दिन
तुम कह सकोगे
अनन्यभाव से—तुम
छेडो मेरी बीन
कसी रसराती, उसी क्षण क्रांति
घटनी शुरू हो
जाती है।
आज के
सूत्र—
'लघु
अपि
भक्ताधिकारे
महत्क्षेपकम
अपर सर्वहानात्।।
'
अपूर्व
सूत्र है।
' थोड़ी—सी
भक्ति उदय
होने पर भी
महापातक का
नाश हो जाता
है।
' थोड़ी—सी!
अंधेरे को
मिटाने के लिए
कोई सूरज ही
थोड़े चाहिए? एक मोमबत्ती
भी, एक
छोटा—सा
मिट्टी का
दीया भी। शांडिल्य
कहते हैं, तुम
इस फिक्र में
मत पड़ो कि
बहुत आयोजन
करना पड़ेगा, तब तुम्हारे
पाप कटेंगे, तब।
तुम्हारा
अंधेरा
मिटेगा। शांडिल्य
कहते हैं, थोड़ी—सी
भक्ति उदय होने
पर भी महापातक
का नाश हो
जाता है।
भक्ति
आणविक शक्ति
है। एक छोटे
से अणु में
छिपी विराट
शक्ति है।
प्रेम से बड़ी
कोई शक्ति इस
जगत में नहीं
है। प्रेम से
ही घूमती है
पृथ्वी, प्रेम
से ही चांद—तारे
चलते हैं।
प्रेम के
धागों से ही
बंधा है
अस्तित्व।
तुम यहां हो, प्रेम की
अनंत धारा के
कारण।
तुम्हारे
बच्चे यहां
होंगे, प्रेम
की अनंत धारा
के कारण। अनंत
काल तक जीवन
बहता रहता है।
प्रेम
सम्हाले है
उसे, कोई
और सम्हालने
वाला नहीं।
भक्ति उसी
प्रेम की
अपूर्व ऊर्जा
का उपयोग है।
तुम्हारे पास
जो सबसे बड़ी
शक्ति है, वह
प्रेम है।
तुम्हारे
प्रेम को ही
ईश्वर के
उन्मुख कर देने
का नाम भक्ति
है।
शांडिल्य
कहते हैं, थोड़ी—सी
भक्ति उदय हो
जाने पर भी
महापातक का
नाश हो जाता
है। कैसे यह
होता होगा? क्योंकि
तुमने जनम—जनम
तक न मालूम
कितने पाप किए
हैं, न
मालूम कितने
कर्म किए हैं,
उन सबका बोझ
है। गणित जो
बिठाते हैं, हिसाब जो
लगाते हैं, दुकानदार जो
हैं, वे
कहते हैं—यह
कैसे होगा? भक्ति मात्र
से कैसे होगा?
अशुभ
कर्मों का
इतना जाल है, उसे तोड़ना
पड़ेगा। लेकिन
तुमने सुनी न
कहावत, 'सौ
सुनार की, एक
लोहार की। ' सुनार को
समझ में भी
नहीं आता कि
एक चोट से कैसे
कुछ होगा? वह
तो खटखट—खटखट—खटखट
करता ही रहता
है। उसे भक्ति
का सार पता
नहीं है। एक
चोट काफी है!
तुम्हारे
घर में अंधेरा
है, सदियों
पुराना
अंधेरा है।
क्या तुम
सोचते हो जब
तुम दीया
जलाओगे तो अंधेरा
कहेगा—मैं
बहुत पुराना
हूं इतनी
जल्दी नहीं जा
सकता हूं? एक
छोटे से
मिट्टी के दीए
को जलाकर तुम
समझ क्या रहे
हो? अपने
को समझ क्या
लिया है! सूरज
चाहिए। और
जन्मों—जन्मों
तक लाओगे, जलाओगे,
तब हटूगा।
नहीं, अंधेरा
तो हट जाता है।
अंधेरा कहने
के लिए समय भी
नहीं पाता कि
नहीं हटना
चाहता हूं।
इधर दीया जला,
उधर अंधेरा
गया।
ठीक
वैसी ही घटना
भक्त की है।
यहां प्रेम का
दीया जला, वहा सब पातक
सरि गए।
सारे
पापों का सार
क्या है?
सारे
पापों का सार
अहंकार है।
कोई और पाप
नहीं है।
अहंकार की
छायाएं हैं
पाप। 'मैं
हूं?, यही
पाप की जड़ है।
दूसरे लोग जो
कर्मों का
हिसाब— किताब
रखते हैं, वे
पत्ते काटते
रहते हैं। वे
लेकर कैंची
लगे रहते हैं
पत्ते काटने
में, शाखाएं
छाटने में।
उनके छाटने और
काटने का एक
ही परिणाम
होता है—वृक्ष
और घना होता
जाता है। वे
एक पत्ता
काटते हैं, तीन पत्ते
निकल आते हैं।
आखिर वृक्ष भी
जवाब देना
जानता है! कि
तुमने समझा
क्या है? इसीलिए
तो वृक्ष को
घना करने के
लिए कलम करते हैं।
कलम करते ही
से वृक्ष घना
होने लगता है।
लेकिन अगर जड़
काट दो, तो
बस बात समाप्त
हो गई। जड़
छिपी है, पत्ते
दिखाई पड़ते
हैं। इसीलिए
लोग पत्ते
काटने में
जल्दी उत्सुक
हो जाते हैं।
भक्त जड़ काटता
है भक्त कहता
है, मुझसे
भूलें हुइ, मुझसे बहुत
पाप हुए, लेकिन
इन सारे पापों
के होने का
मूल कारण क्या
है, मूल जड़
क्या है? सारे
पापों के भीतर
घूमकर, खोजकर
पाओगे,
'मैं' बैठा
हुआ है। क्रोध
किया था वह भी 'मैं' से
पैदा हुआ था।
जितना अहंकार,
उतना क्रोध।
लोभ किया था, वह भी
अहंकार से हुआ
था। जितना
अहंकार, उतना
लोभ। आसक्ति
थी, वह भी
अहंकार से थी।
जितना अहंकार,
उतनी
आसक्ति।
तुम
जरा अपने जीवन
के सारे पापों
का लेखा लो।
तुम अचानक
पाओगे, सबके
भीतर एक ही
छिपा बैठा है।
रूप अनेक हैं,
ढंग अलग हैं,
लेकिन सबके
भीतर
सारसूत्र एक
है। परिधि पर
बड़ी बातें
दिखाई पड़ती
हैं—क्रोध, लोभ, मोह,
माया, मत्सर—लेकिन
बहुत गहरे में
सिर्फ एक ही
दिखाई पड़ता है
केंद्र पर
बैठा हुआ—अहंकार।
वह जड़ छिपी
हुई है।
भक्ति
का अर्थ इतना
ही है :
अब मैं
नहीं हूं
परमात्मा तू
है। अहंकार के
कटते ही सारा
वृक्ष सूख
जाता है, सारे
कर्म—संस्कार
गलित हो जाते
हैं।
'तत्
स्थानत्वात्
अनन्य धर्म :
खले बालीवत्।।'
' भागवत
भक्तों की
भक्ति
क्षुद्र होने
पर भी अनन्यता
के कारण खरल
में बाला की भांति
महापाप भी
नष्ट कर देती
है।
' तुमने
वैद्य को देखा?
खरल लिए
कूटता रहता है
अपनी औषधि।
उसमें जो भी
पड़ जाता है, पिस जाता है।
छोटी औषधि हो,
बड़ी औषधि हो,
सब पिस जाता
है। शांडिल्य
कह रहे हैं, ठीक वैसे ही
भक्ति का खरल
है, उसमें
सब पाप पिस
जाते हैं, सब
पाप जीर्ण—शीर्ण
होकर मिट जाते
हैं। सबका
चूर्ण बन जाता
है।
भक्ति
छोटी दिखाई
पड़ती हो, छोटी
नहीं है।
तुम देखते, दूसरा
महायुद्ध
समाप्त हुआ है
हिरोशिमा पर।
अणु बम का
विस्फोट हुआ।
अब अणु छोटी
से छोटी तुम
चीज है।
विज्ञान को
इसके पहले पता
नहीं था कि
छोटे में इतना
विराट छिपा हो
सकता है। अणु आंख
से दिखाई नहीं
पड़ता। अगर हम
एक लाख अणुओं
को एक के ऊपर
एक रखते जाएं
तो बाल की
मोटाई के
होंगे। एक बाल
की मोटाई
बनेगी—एक लाख
अणुओं को एक
के ऊपर एक
रखने से। इतना
छोटा अणु, और
हिरोशिमा में
एक लाख
आदमियों को
क्षण में राख
कर दिया! यह
मामला क्या है?
जिन्होंने
परमात्मा को
तलाशा है, उन्हें यह
राज बहुत पहले
से पता रहा है।
जैसे पदार्थ
में अणु की
शक्ति विराट
है, ऐसे ही
चेतना में
प्रेम की
शक्ति विराट
है। प्रेम
चेतना का अणु
है। जैसे
पदार्थ
विद्युत से
बना है, ऐसे
चेतना प्रेम
से बनी है।
अगर हम उस अणु
को पा लें, तो
हमारे हाथ में
विराट शक्ति आ
गई।
इसलिए
कृष्ण ने कहा
है गीता में
अर्जुन को :
'सर्वधर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज'।
तू सब
छोड़— छाड़; तेरे
धर्म इत्यादि,
कर्म
इत्यादि, जप—
तप, योग—याग,
सब छोड़। तू
मुझ एक की शरण
आ जा। 'मामेकं
शरणं व्रज। ' मुझ एक की।
यह कौन
एक है? यह
कृष्ण किसकी
तरफ से बोल रहे
हैं? यह उस
परम एक की तरफ
से बोला गया
वक्तव्य है।
यह कृष्ण अपने
लिए नहीं बोल
रहे हैं। यह
कृष्ण यह नहीं
कह रहे हैं, कि तू मेरी
शरण आ। कोई
सदगुरु यह
नहीं कहता, तुम मेरी
शरण आओ। और जब
कोई सदगुरु
कहता है, तुम
मेरी शरण आओ, तो उसका
मतलब यही होता
है कि अब वह नहीं
है, अब
उसके भीतर से
परमात्मा बोल
रहा है— 'मामेकं
शरणं व्रज'।
कृष्ण तो
बांसुरी हो गए
हैं, अब जो
स्वर आ रहा है
वह परमात्मा
का है। कृष्ण
शुद्ध हो गए
हैं, शांत
हो गए हैं, मौन
हो गए हैं। अब
उनके भीतर से
वह परमवाणी
सुनाई पड़ रही
है। जब कृष्ण
ने यह कहा
अर्जुन को, 'सर्वधर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज', तब
यह कृष्ण के
संबंध में
नहीं कहा है, यह उस परम
अवस्था के
संबंध में कहा
है जो भीतर कृष्ण
के सघन हो गई
है।
उस एक
की शरण आते ही
सब हो जाएगा? फिर किसी
धर्म, योग
इत्यादि की
कोई जरूरत
नहीं है? कोई
जरूरत नहीं है।
क्योंकि उस एक
के शरण जाने
में जड़ कट
जाती है। उसके
शरण जाने का
मतलब है, तुमने
अपने अहंकार
को पोंछा, अलग
किया।
और
कृष्ण ने यह
भी कहा : ' अहं
त्वा
सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि
मा शुचः '।
हे अर्जुन, तू वैध और
अवैध, सब
कामों का
त्याग करके
मेरी शरण आ जा;
मैं तुझे सब
पापों से
मुक्त करूंगा।
मैं तुझे
मोक्ष दूंगा।
कृष्ण मोक्ष
देंगे? इतना
ही अर्थ है
कृष्ण के कहने
का कि अगर तू
सब छोड्कर आ
जाए, गिर
जाए एक की शरण
में, तो
मोक्ष हो गया।
कोई देता थोड़े
ही है। यहां
लेना—देना
कहां? लिया—दिया
मोक्ष किसी
बड़े मूल्य का
हो भी नहीं सकता।
कृष्ण
को आज मौज आ गई, दे दिया और
कल दिल फिर
गया, ले
लिया।
क्योंकि जो
दिया जा सकता
है, वह
लिया जा सकता
है। नहीं रही
दोस्ती, कह
दिया कि अब
बहुत हो गया, वापस कर दो; या मैं लिए
लेता हूं।
नहीं, मोक्ष
न दिया जाता
है, न लिया
जाता है। फिर कृष्ण
का अर्थ क्या
है? कृष्ण
इतना ही कह
रहे हैं, अगर
तू अपने को छोड़
दे तो मोक्ष
हो गया। और एक
बार तुझे समझ
में आ जाए कि 'मैं'
के छोड़ते
ही मोक्ष हो
जाता है, फिर
कोई पागल है
जो कारागृह
में जाए 'मैं
' की वापस? फिर कौन उस
अंधेरी कोठरी
में बंद होगा?
' अहं
त्वासर्वपापेभ्योमोक्षयिष्यामि
मा शुचः '।
आ जा, मुक्त हो जा।
एक ही काम कर
ले। एक जड़
काट दे।
भक्त
से इतनी ही
अपेक्षा है, और कुछ
ज्यादा नहीं,
कि वह इस
मैं भाव को छोड़
दे।
मैं
खुद फरेब सही, दिल
उम्मीदवार तो
है
वफा हो, या न हो वादे
पै ऐतबार तो
है
बला से
पाएं न मंजिल
मगर यह क्या
कम है
भटकते
फिरने में इस
दिल को कुछ
करार तो है
छोटी—सी
भक्ति। भक्त
कहता है, न
मिले सूरज, छोटी—सी
किरण। न पहुंच
पाएं मंजिल तक,
लेकिन
मंजिल की तलाश
में भटक रहे
हैं, इससे
भी बडी राहत
है।
तुम धन
पा लो तो भी
कुछ सार नहीं।
और ध्यान को
पाने वाला, ध्यान न भी
पा सके, लेकिन
पाने की
यात्रा पर लगा
रहे, तो
काफी है। इसे
मैं फिर से
तुमसे कह दूं
ध्यान के
रास्ते पर तुम
हार जाओ तो भी
जीत गए, और
धन के रास्ते
पर जीत भी गए
तो क्या जीते?
जीतकर भी
हार हो जाती
है धन के
रास्ते पर।
ध्यान के रास्ते
पर हारकर भी
जीत हो जाती
है। मैं खुद
फरेब सही, दिल
उम्मीदवार तो
है।
उसकी आकांक्षा
, इतना ही
क्या कम है? उसकी आशा, 'दिल
उम्मीदवार तो
है। ' परमात्मा
की आकांक्षा का
अंकुरण हुआ है,
इतना ही
बहुत है। उतनी
आकांक्षा भी रूपांतरकारी
है।
मैं
खुद फरेब सही, दिल
उम्मीदवार तो
है
वफा हो, या न हो वादे
पै ऐतबार तो
है
बला से
पाएं न मंजिल
मगर यह क्या
कम है
भटकते
फिरने में इस
दिल को कुछ
करार तो है
गुमाने—तकें—तअत्सुक
न कीजियो
नासेह
जो
उनकी बज्म
नहीं, उनकी
रहगुजर तो है
नहीं
पहुंचे उनकी
महफिल तक, कोई फिक्र
नहीं, लेकिन
उनके रास्ते
पर हैं। जिस
रास्ते से वे
आते—जाते हैं,
उस रास्ते
पर हैं। इतनी
भक्ति भी काफी
है। इतनी
भक्ति भी क्रांतिकारी
है।
जो
उनकी बज्म
नहीं, उनकी
रहगुजर तो है
गिला
नहीं मुझे
बेकैफिए—हयात
का अब
खटकते
रहने को सीने
में कोई खार
तो है
अब कोई
फिक्र नहीं है, शिकायत भी
नहीं। एक काटा
चुभ गया है
परमात्मा को
पाने का, एक
उसके वियोग का
काटा चुभा है,
वह भी काफी
है।
उसकी
याद तड़पाती
है, वह भी
काफी है।
विदाए—मौसमे—गुल
का न गम कर ऐ
बुलबुल
वह इक
नवा कि जो है
रुकसे—बहार तो
है
चमक के
कहती है, जुल्मत
से इक यकीं की
किरन
सहर न
आई तो क्या, उसका इंतजार
तो है
रात के
अंधेरे से
आस्था की, श्रद्धा की
एक छोटी—सी
किरण कहती है :
चमक के
कहती है, जुल्मत
से इक यकीं की
किरन
सहर न
आई तो क्या, उसका इंतजार
तो है
सुबह न
आई तो भी
चलेगा; सुबह
का इंतजार भी
तो सुबह है।
छोटी—सी भक्ति,
थोड़ी—सी
आस्था, जरा
सा बीज, और
विराट फल होता
है।
हुए जो
अश्क रवा उन
पर इख्तियार न
था
तो
उनको तुझसे
छुपाने पै
इख्तियार तो
है
मनुष्य
परमात्मा की
यात्रा पर दो
ढंग से निकल सकता
है। एक तो अकड़
से, कि पाकर
रहूंगा; संकल्प
से; वह
अहंकार की ही
यात्रा है। वह
अहंकार का ही
सूक्ष्म रूप
है। और दूसरा
मार्ग है कि
अपने को मिटा
दूंगा, तेरी
राह पर अपने
को मिटा दूंगा,
तेरी राह पर
गर्दे—गुबार
होकर मिट
जाऊंगा; वह
समर्पण का
मार्ग है। और
जो समर्पण
करने को राजी
है, उनके
हाथ में वह
विराट ऊर्जा
लग जाती है जो प्रेम
में छिपी है।
इस दिल
की कायनात है
तेरी नजर के
साथ
गुंचे
की जिंदगी है
नसीमे—सहर के
साथ
आएगी
हाथ मंजिले—मकसूद
खुद—ब—खुद
देखो
तो चलके चार
कदम राहबर के
साथ
सिर्फ
चार कदम भी
चलकर देखो।
इस दिल
की कायनात है
तेरी नजर के
साथ
भक्त
की तो सारी
दुनिया उसकी एक
नजर में है।
उसकी एक
दृष्टि हो जाए, सब हो गया।
ज्यादा की
उसकी माग नहीं
है। उसकी मांग
बडी छोटी है।
छोटी है, इसीलिए
जल्दी पूरी हो
जाती है।
सिर्फ मांगता
है इतना, एक
दफा मेरी तरफ
देखभर लो—दूर
से सही, पलभर
को सही, एक
बार खयाल कर
लो कि मैं भी यहां
हूं। और
तुम्हें
पुकारता हूं
और तुम्हारी
चाहत में मर
रहा हूं।
इस दिल
की कायनात है
तेरी नजर के
साथ
गुंचे
की जिंदगी है
नसीमे—सहर के
साथ
जैसे
सुबह की हवा
के साथ फूल की
जिंदगी है, ऐसे
परमात्मा की
एक नजर के साथ
भक्त की
जिंदगी है।
आएगी
हाथ मंजिले—मकसूद
खुद—ब—खुद भक्त
कहता है, मुझे
फिक्र नहीं है
आखिरी मंजिल
की, मुझे
अंतिम लक्ष्य
की कोई चिंता
नहीं है। मुझे
मोक्ष की कोई
चिंता नहीं है।
आएगी
हाथ मंजिले
मकसूद खुद—ब—खुद
वह
अंतिम मंजिल
तो अपने आप आ
जाएगी। मुझे
तो फिक्र तेरी
दृष्टि की है।
तू एक बार देख
ले!
देखो
तो चलके चार
कदम राहबर के
साथ
किसी
पथप्रदर्शक
के साथ चार
कदम भी चलकर
देख लो, किसी
गुरु के साथ थोड़ा
सत्संग कर लो,
और
तुम्हारे
भीतर भी यह
भक्ति का बीज
पड़ जाएगा। और
यह छोटा—सा
बीज बड़े
विराट को अपने
में छिपाए हुए
है। जैसे एक
छोटी—सी बूंद
में पूरा सागर
छिपा है। ऐसे
ही भक्ति की
छोटी—सी बीज
में पूरा
भगवान छिपा है।
' आनिद्ययोनि
अधिक्रियते
पारपर्यात्
सामान्यवत्।।
'
' भक्ति
में चांडाल
आदि का भी
अधिकार है, क्योंकि
भक्त भक्ति की
मर्यादा से सब
समान हैं। ' उन पुराने
दिनों में जब शांडिल्य
ने ये अपूर्व
सूत्र लिखे, बडी मूढ़ता
थी। अब भी
समाप्त नहीं
हो गई है।
शूद्र को
मंदिर में
प्रवेश का
अधिकार नहीं
था। और चांडाल
तो शूद्र से
भी गया—बीता
है। तुमने चार
वर्ण सुने हैं
: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
एक पाचवां
वर्ण भी है
जिसको वर्णों
में गिना नहीं
गया है। उसको
चांडाल कहते
हैं। वह इतना
बाहर है कि
उसकी गिनती भी
नहीं की है।
वह गिनने के
योग्य भी नहीं
है। लेकिन शांडिल्य
की हिम्मत देखते
हो! हजारों
साल पहले यह
कहने की
हिम्मत कि
भक्ति के
मार्ग पर हम
कोई भेद नहीं
करते—कौन
ब्राह्मण है,
कौन शूद्र
है, कोई भेद
नहीं करते।
भक्ति के
मार्ग पर सब
मनुष्य समान
हैं। भक्ति के
मार्ग पर
चांडाल भी
उतना ही
अधिकारी है
जितना कोई और।
भगवान
की करुणा
अपरंपार है।
ब्राह्मण पर
कुछ ज्यादा
होगी, शूद्र
पर कुछ कम
होगी, चांडाल
पर बिलकुल न
होगी, तो
यह तो करुणा
की सीमा हो
जाएगी। करुणा का
अर्थ ही यह
होता है कि
जिसे जितनी
ज्यादा जरूरत
है उतनी
ज्यादा उसे
उपलब्ध होगी।
ब्राह्मणों
को न भी मिले
तो चलेगा, चांडाल
को तो मिलनी
ही चाहिए।
पुण्यात्मा
को न मिले, चलेगा,
लेकिन पापी
को तो मिलनी
ही चाहिए।
पुण्यात्मा
को तो पुण्य
भी है सहारे
के लिए, पापी
के लिए तो
सिर्फ
परमात्मा ही
है सहारे के
लिए। इसलिए
अक्सर ऐसा हो
गया है कि
पापी तो पहुंच
गए हैं और
पुण्यात्मा
भटक गए हैं।
अकड़ है
पुण्यात्मा
को कि मेरा
किया— धरा, मैंने
इतना किया, इतना किया, इतना किया, उसके सहारे
जीना चाहता है।
पापी कहता है,
मेरे किए तो
सब गलत हुआ।
मैं ही गलत
हूं तो मेरे
किए कुछ ठीक
कैसे होगा? मैं अंधकार
हूं तेरी किरण
उतरेगी—करुणा
से उतर सकती
है, मेरी
पात्रता से
नहीं।
' भक्ति
में चांडाल
आदि का भी
अधिकार है, क्योंकि
भक्त भक्ति की
मर्यादा से सब
समान हैं।
' भक्ति
की मर्यादा, मर्यादा ही
नहीं मानती।
सब समान हैं।
कोई सीमा नहीं
मानती।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, ज्ञान
के और कर्म के
मार्ग
क्षुद्र हैं
भक्ति का
मार्ग विराट
है। शान और
कर्म के मार्ग
पर बड़ा हिसाब—किताब
है। कौन
अधिकारी? कौन
अनधिकारी? भक्ति
के मार्ग पर
कोई अधिकार—
अनधिकार का
हिसाब नहीं है।
जो रोका, जो
पुकारेगा, जो
झुकेगा, वही
अधिकारी है।
झुकने के पहले
अधिकार नहीं
है। यह नहीं
पूछा जाएगा कि
तू पहले झुकने
का अधिकारी है
या नहीं; कि
ऐसे ही झुक
रहे हो; पहले
पुण्य तो करो,
फिर झुकना;
पहले व्रत—उपवास
करो, फिर
झुकना! सच तो
यह है, व्रत—उपवास
और पुण्य करने
वाला झुक ही
नहीं पाता। वे
व्रत—उपवास ही
लोहे की तरह
उसकी छाती में
समा जाते हैं,
झुकने नहीं
देते। उसकी
रीढ़ मजबूत हो
जाती है, झुकती
नहीं।
झुकने
के लिए अपनी
असहाय अवस्था
का बोध चाहिए।
पापी से
ज्यादा किसको
होगा? परमात्मा
के पास तुम
अपनी पात्रता
से नहीं
पहुंचते हो, अपनी असहाय
अवस्था की
पुकार से
पहुंचते हो।
तुम्हारी आह
तुम्हें
पहुंचाती है, तुम्हारा
अहंकार नहीं।
' अत:
हि
अविपक्कभावाना
अपि तल्लोके।।
'
'इस
कारण
पराभक्ति का
लाभ नहीं होने
पर भी साधक का
निवास भागवत
लोक में ही
हुआ करता है। '
बड़े
अपूर्व सूत्र
हैं।
सम्हालकर रख
लेना हृदय में।
शांडिल्य का
वक्तव्य यह कह
रहा है, पराभक्ति
का लाभ होगा
तब होगा, अंतिम
मंजिल जब
मिलेगी तब
मिलेगी, परमात्मा
जब पूरा—पूरा
उतरेगा तब
उतरेगा, लेकिन
भक्त जिस दिन
से आंसू
गिराना शुरू
करता है, उसी
दिन से उसका
निवास भागवत
लोक में हो
जाता है। इस
भेद को थोड़ा
खयाल में लेना,
भेद थोड़ा
बारीक है।
भक्त
के भीतर भागवत
लोक कब आएगा, यह तो
पराभक्ति में
होगा, लेकिन
भक्त तो पहले
दिन से ही
भागवत लोक में
प्रवेश कर
जाता है।
ये दो
बातें हुई।
तुम यहां
बैठे हो, दो
घटनाएं घट
सकती हैं।
मेरा तुममें
प्रवेश हो
सकता है, एक
घटना।
तुम्हारा
मुझमें
प्रवेश हो
सकता है, दूसरी
घटना।
तुम्हारा
मुझमें
प्रवेश उसी
क्षण हो जाता
है जिस क्षण
तुम आकांक्षा करते
हो। मेरा
प्रवेश होते—होते
होगा। तुम जिस
दिन से पहला
कदम उठाते हो
अपनी यात्रा
का, उसी
दिन से तुम
मंजिल के
हिस्से हो गए।
मंजिल तो पीछे
मिलेगी, मंजिल
आते— आते आएगी—आ
जाएगी जब आनी
होगी; भक्त
को उसकी चिंता
भी नहीं है कि
आज आ जाए कि कल
आ जाए; भक्त
को भरोसा है, आएगी तब
आएगी—लेकिन
जिस दिन तुमने
पहला कदम
उठाया
परमात्मा की
तरफ, तुम
परमात्मा के
हिस्से हो गए।
तुम्हारे
भीतर भागवत
लोग कभी आएगा,
लेकिन तुम
भागवत लोक के
हिस्से हो गए।
भक्त पहले दिन
से ही भगवान
में लवलीन हो
जाता है।
ज्ञानी
को तो अंत में
ही मिलता है—इसलिए
ज्ञानी उदास
दिखाई पड़ते
हैं, स्वाभाविक
है। अभी चल ही
रहे हैं, चल
ही रहे हैं, धक्के खा
रहे हैं, परेशान
हो रहे हैं, पहुंचेंगे
जब कहीं आखिर
में आनंद शायद
हो; लंबी
यात्रा है, और यात्रा
बिलकुल
निर्जन है, और रास्ते
पर कहीं फूल
नहीं खिलते, और कोई
पक्षी गीत
नहीं गाते, जिस दिन
उनकी पात्रता
पूरी होगी, तब उनके
जीवन में आनंद
होगा। लेकिन
अक्सर ऐसा हो
जाता है—तब तक
उदासी की आदत
इतनी सघन हो
जाती है कि
आनंद भी हो
जाता है मगर
होंठ नहीं
मुस्कुराते।
भूल ही गए
भाषा
मुस्कुराने
की। मीरा पहले
दिन से ही
नाचने लगती है।
महावीर अंतिम
दिन नाचते हैं।
मगर तब तक
नाचना भूल गए!
तो फिर नाच
भीतर ही भीतर
होता है। फिर
बाहर किसी को
दिखाई नहीं
पड़ता। फिर
चेतना का ही
होता है, फिर
देह तो जड़ हो
गई। देह तो
भूल गई भाषा।
देह को तो याद
ही नहीं रही
कभी नाचने की—कभी
नाची नहीं।
तुम
समझते हो न
बात को?
जब
परमात्मा
उतरेगा तब
तुम्हारे
भीतर उतना ही
तो प्रगट होगा
जितना
तुम्हारा
अभ्यास होगा।
जो आदमी हंसने
का अभ्यास
करता रहा था
पूरे रास्ते
पर, परमात्मा
उतरेगा तो
शायद
खिलखिलाकर
हंसेगा।
बोधिधर्म को
ऐसा ही हुआ था।
जब परमात्मा
उतरा तो वह
खिलखिलाकर
हंसा। हंसने
का बड़ा अभ्यास
रहा होगा।
हंसता रहा था;
जिंदगी को
गंभीरता से
नहीं लिया था।
जिंदगी एक
बहुमूल्य
मजाक थी, एक
प्यारा मजाक
थी। हंसता रहा
था। तो आखिर
में जब
परमात्मा
उतरा तो हंसी
में फूटा।
महावीर नहीं
नाचे। रास्ता
शान का है।
रास्ता
कर्मशुद्धि
का है। रास्ता
आत्मशुद्धि
का है। तो जिस
दिन परमात्मा
उतरा, उस
दिन हाथ—पैर
में कोई लहर न
उठी। उठ नहीं
सकती! मीरा
पहले दिन से
नाची और अंतिम
दिन तक नाची।
भक्त
के लिए मार्ग
भी मंजिल है।
पहले ही कदम
से मंजिल शुरू
हो जाती है।
यह अपूर्वता
है भक्ति की, यह
विलक्षणता है।
'इस
कारण
पराभक्ति का
लाभ नहीं होने
पर भी साधक का
निवास भागवत
लोक में हुआ
करता है। ' यह
सूत्र अपूर्व
है। इसलिए फिर
कहता हूं, इसे
सम्हालकर
हृदय में रख
लेना और पहले
दिन से ही
आनंदित हो जाओ।
परमात्मा है,
मिलन जब
होगा तब होगा;
उसकी राह पर
चल पड़े, मगन
हो जाओ, मस्त
हो जाओ!
सब्रो—जप्त
के लेंके
बेशुमार
नजराने
तेरी
याद आई थी आज
मुझको समझाने
पा गए
हैं मंजिल को
खुद—ब—खुद ही
दीवाने
अक्ल
के दोराहे पै
खो गए हैं
फरजाने।
समझदार
तो अक्ल के
दोराहे पर खो
गए हैं, और
दीवाने पहुंच
गए हैं।
पा गए
हैं मंजिल को
खुद—ब—खुद ही
दीवाने
अक्ल
के दोराहे पै
खो गए हैं
फरजाने
तुमने
बात कह डाली, कोई भी न
पहचाना
हमने बात
सोची थी, बन
गए हैं अफसाने
उन नई
बहारों पर उन
नए नजारों
पर एक
रिंद ही क्या
हैं, रो रहे
हैं मैखाने
हाय
क्या मुसीबत
है, हाय क्या
कयामत है
हम ही
खा गए धोखा, हम चले थे
समझाने
यहां
समझने—समझाने
को कुछ भी
नहीं है। यहां
नाचने—गाने को
बहुत कुछ है, समझने—समझाने
को कुछ भी
नहीं है।
पा गए
हैं मंजिल को
खुद—ब—खुद ही
दीवाने
अक्ल
के दोराहे पै
खो गए हैं
फरजाने
बुद्धिमान
बनकर मत चलना।
पागल बनो, दीवाने बनो,
मस्त बनो।
ऐसे चलो जैसे
पीए हो।
परमात्मा के
रास्ते पर
पहला कदम ही
पीने वाले का
कदम होना
चाहिए, लड़खड़ाकर
उठना चाहिए।
डोलकर चलो।
परमात्मा तो
है, सब तरफ
है, जब
हमारी समझ
होगी, जब
हमारी पहुंच
होगी, तब
समझ लेंगे।
मगर नाच तो हम
अब भी सकते
हैं। नाच तो
अज्ञानी भी
सकता है न!
नाचने के लिए
कोई ज्ञान तो
शर्त नहीं है।
और नाच तो
पापी भी सकता
है न! नाचने के
लिए पुण्य तो
कोई शर्त नहीं
है। तो नाचो।
और जो नाचते—नाचते
नाच में खो
जाता है, वह
पहुंच जाता है।
'क्रमैकगत्युपपत्ते:
तु।। '
'ऐसा
मानने से
क्रमगति और एक—गति
का प्रतिपादन
करने वाले
वचनों की
संगति होती है।
' शांडिल्य
कह रहे हैं, भक्ति में
दोनों बातें
मिल गयीं।
दुनिया में दो
तरह के विचार
रहे हैं।
क्रमिक—गति, धीरे— धीरे
मिलता है
निर्वाण, 'ग्रेजुअल,'
क्रमश:—एक।
और दूसरा, 'सड़न
एनलाइटेंनमेंट,
तत्क्षण, अक्रम से, एक गति से, एक ही छलांग
में मिल जाता
है। शांडिल्य
कहते हैं कि
भक्ति में
दोनों बातें
पूरी हो गयीं,
दोनों में
संगति हो गई, दोनों का
विरोध जाता
रहा। ऐसे तो
मिल जाता है
पहले ही कदम
पर, और
वैसे मिलता है
आखिरी कदम पर।
भक्त नाचना तो
शुरू कर देता
है पहले ही
कदम पर, फिर
नाच का ही
सिलसिला है; अंतिम पर भी
नाचता है। अगर
तुम्हें मीरा
से मिलन हो
जाए, तो
तुम पहचान न
सकोगे कि मीरा
कब अज्ञानी थी
कब तानी हुई।
वह घटना तो
भीतरी है, मीरा
ही जानेगी।
नाच बाहर चल
रहा है सो चल
रहा है। और
बाहर के नाच
में कोई फर्क
न पड़ेगा। पहले
दिन भी नाच
में वही
माधुर्य और
अंतिम दिन भी
नाच में वही
माधुरी।
पहला
कदम अंतिम कदम
भी है। भीतर
बहुत फर्क पड़
जाएगा। पहले
कदम पर मीरा
भागवत लोक का
हिस्सा हो गई।
अंतिम कदम पर
भागवत लोक
मीरा का
हिस्सा हो जाएगा।
बस इतना ही
फर्क है। और
यह फर्क बारीक
है। और यह
फर्क भीतरी है।
बाहर से पकड़
में भी न आएगा।
आने की कोई
जरूरत भी नहीं
है।
शास्त्र
कहते हैं :
अनेक जन्मससिद्धिस्ततोयाति
परा गतिं।।
अनेक
जन्मों के
साधन, अति
साधन से सदगति
की प्राप्ति
होती है।
भक्ति उस
शास्त्र को
उलट देती है।
भक्ति कहती है,
यह क्या
बकवास लगा रखी
है? समय का
कोई संबंध
सत्य से नहीं
है। पहले ही
कदम पर हो
जाती है और
अंतिम कदम पर
भी होती है। दोनों
में थोड़ा अंतर
है। वह अंतर
आतरिक है।
बाहर से उसको
तौलने का कोई
उपाय नहीं है।
और कब तराजू
दूसरी तरफ डोल
जाता है, यह
भीतर भी
पहचानना बड़ा
मुश्किल होता
है।
नाचने
वाले को फुरसत
भी कहां?
इसलिए
तुम देखते हो, महावीर को
कब निर्वाण
उपलब्ध हुआ, हमें मालूम
है तारीख।
मुझे कब
निर्वाण
उपलब्ध हुआ, उस तारीख पर
आज तुम इकट्ठे
हो गए हो।
मीरा को कब
निर्वाण
उपलब्ध हुआ, तुम्हें कोई
तारीख मालूम
है? वहा
तारीख नहीं है।
तारीख का पता
मीरा ही को
नहीं है! कब
बात होते—होते
हो गई, कब
चुपचाप यह
भीतर घटना घट
गई, कब
पेंडुलम
संसार से सत्य
में डोल गया, यह नाचने
वाले को पता
भी नहीं हो
सकता है। यह
ध्यान करने
वाले को पता
हो सकता है।
वह जो ध्यान
में बैठा है, सजग होकर
देख रहा है एक—एक
चीज को, जांच
रहा है एक—एक
चीज को, उससे
कोई चीज
चूकेगी नहीं।
उसको साफ पता
चल जाएगा कि
यह गई रात, यह
सुबह हुई। अब
जो नाच रहा है
मस्ती में, रात भी नाचा
था, सुबह
भी नाच रहा है,
उसे कहां
पता चलेगा कब
सुबह हो गई, कब सूरज
निकल आया? इसलिए
भक्तों को कब
शान उपलब्ध
हुआ, इसका
कोई उल्लेख
नहीं है। इसका
राज यही है।
पहले कदम पर
ही वे आखिरी
कदम जैसे हो
गए थे। और
आखिरी कदम पर
भी पहले कदम
ही जैसे थे।
वहा एक गहरा
तारतम्य है।
'क्रमैकगत्युपपत्ते
तु।। '
'ऐसा
मानने से
क्रमगति और एक—गति
का प्रतिपादन
करने वाले
वचनों की
संगति होती है।
' अदभुत
किया शांडिल्य
ने। इन दोनों
के बीच कोई
संगति कभी
बिठा पाया नहीं!
झेन में दो
परंपराएं हैं।
बड़ा विवाद है
उनमें। जो
मानते हैं कि
क्रमिक है, वे मानते
हैं क्रमिक ही
होगा। एक—एक
कदम, एक—एक
कदम उठाकर ही
तो मंजिल पर
पहुंचोगे। और
जो मानते हैं 'सड़न' है,
अक्रमिक है,
एक ही छलांग
में हो जाता
है, वे
मानते हैं—एक
ही छलांग में
हो जाता है।
कदम उठाकर
पहुंचने का
मतलब तो यह
हुआ कि सत्य भी
खंड़—खंड़
किया जाएगा।
थोड़ा—सा मिला,
फिर थोड़ा—सा
मिला, फिर
थोड़ा— सा मिला।
सत्य के कोई
खंड़ नहीं हो
सकते, इसलिए
कदम नहीं हो
सकते। बस
एकबारगी मिल
जाता है। या
तो आदमी
अज्ञानी होता
है, या
ज्ञानी बीच
में कोई और
स्थितिया
नहीं होतीं।
इन
दोनों का
विवाद ऐसा है
कि हल नहीं हो
सकता।
क्योंकि जो
कहता है धीरे—
धीरे मिलेगा, वह भी पूछता
है उससे जो
कहता है
एकबारगी में मिल
जाता है, कि
फिर तुम बीस
साल तक ध्यान
क्यों कर रहे
थे? अगर
एकबारगी में
मिल जाता है
तो पहले ही
दिन छलांग क्यों
नहीं लगा गए
थे? झेन
में इस तरह की
कथाएं हैं कि
किसी साधक ने
गुरु के पास
जाकर कुछ पूछा
और गुरु ने
चांटा मार
दिया और चाटा
मारते ही वह
निर्वाण को
उपलब्ध हो गया।
इस तरह की
कहानियां
पश्चिम में इस
समय बहुत प्रचलित
हो गई हैं, क्योंकि
पश्चिम में
बड़ी जल्दबाजी
है। कहते हैं,
यह बड़ा
अच्छा है, कोई
मिल जाए गुरु
और मार दे एक
चाटा, चलो
एक दफा, झंझट
मिटी। मगर
तुम्हें
मालूम नहीं है
कि वह कहानी
अधूरी है, उसके
पहले वह सज्जन
छब्बीस साल तक
ध्यान कर रहे
थे, जिनको
चांटा मारा
गया है। यह मत
सोचना कि यह
चले आ रहे थे
अभी उठकर बिस्तर
से और मारा एक
चांटा और
ध्यान को
उपलब्ध हो गए।
वे छब्बीस साल
से ध्यान कर
रहे थे। यह
चाटा तो बस
आखिरी—कहते
हैं न, ऊंट
पर आखिरी
तिनका—चढ़ाई तो
बहुत दिन से
चल रही थी, सामान
चढ़ाया जा रहा
था, आखिरी
तिनके ने ऊंट
बिठा दिया।
लेकिन
पश्चिम में जो
कहानियां
प्रचलित हो
रही हैं झेन
के संबंध में, वे पूरी
नहीं हैं।
क्योंकि पूरी
कहानी में कौन
राजी होगा? सुनते ही से
कि छब्बीस साल
पहले ध्यान
करना पड़ेगा, उन्होंने
कहा कि छोड़ो, एक तो चांटा
खाओ, छब्बीस
साल के बाद!
किसी तरह राजी
थे कि चलो, एक
चांटा लग जाए
एक दफा, झंझट
मिटे। पहले
छब्बीस साल
ध्यान करो!
इतनी देर के
लिए कोई राजी
नहीं है।
तो वे
जो कहते हैं
क्रमिक होती
है उपलब्धि, उनकी बात
में भी बल
मालूम होता है—फिर
छब्बीस साल तक
क्या कर रहे
थे? लेकिन
जो कहता है कि
अक्रमिक है
गति, उसकी
बात में भी बल
है। वह कहता
है, छब्बीस
साल तक ध्यान
कर रहे थे, मगर
ध्यान हुआ
नहीं था। हो
ही जाता तो
फिर जरूरत
क्या थी करने
की? हुआ तो
जब चाटा मारा
तब हुआ। ऊंट
पर चढ़ाया जा
रहा था सामान,
लेकिन बैठा
नहीं था। और
जब तक बैठा
नहीं है तब तक
खड़ा ही है न, यही कहोगे।
तब तक यह नहीं
कह सकते कि
बैठ गया। इतने
सेर बैठ गया, अब इतने सेर
बैठ गया, अब
इतने सेर, अब
इतने मन बैठ
गया। वह तो
खड़ा ही है। वह
जो आखिरी
तिनका पड़ा, एक चांटा
लगा, तब
बैठा। जब बैठा
तभी बैठा न।
तो दोनों की
बात में बल है।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि जीवन के
सत्य विरोधाभासी
हैं और इसलिए
जब उस
विरोधाभास के
एक—एक अंग को
दो तरह के
पक्ष पकड़ लेते
हैं तो उनमें
विवाद सदियों
तक चलता है, और हल नहीं
होता। लेकिन शांडिल्य
ने अदभुत किया।
शांडिल्य
कहते हैं, यह
विवाद समाप्त
करो। भक्त के
जीवन में यह
विवाद उठता ही
नहीं है। उसने
दोनों को एक
साथ अपने बीच
जोड़ लिया है।
उसका पहला कदम
अंतिम भी है—
और अंतिम पहला
कैसे हो सकता
है? भक्त
विरोधाभासी
है। वह अज्ञान
में भी नाचता
है, वह
ज्ञान में भी
नाचता है।
उसका नाचना एक
है। अंधेरे
में भी नाचता
है, रोशनी
में भी नाचता
है। घनी अमावस
की रात थी तब
भी वह नाच रहा
था, और
उसके नाचने
में कोई फर्क
न था। और फिर
पूर्णिमा की
रात आ गई, और
वह अब भी नाच
रहा है। उनका
नाचना सतत है।
वह गंगा की
धारा की तरह
अविच्छिन्न
बह रहा है।
उसे कहां
फिक्र है कि
कब अमावस और
कब पूर्णिमा
हो गई? कौन
है हिसाब
लगाने को वहा?
वहां कोई
अहंकार पीछे
बैठा हुआ
हिसाब—किताब
नहीं कर रहा
है। नाच में
सब खो गया। और
जब नाच में
नाचने वाला खो
जाए, तो
कैसी अमावस? अमावस ही
पूर्णिमा हो
जाती है। फिर
कैसी
पूर्णिमा? फिर
भेद कहां? सब
भेद अहंकार से
पैदा होते हैं।
जड़ ही कट गई। किस कदर
हुस्ने—नजर है
तेरे दीवानों
में
कलिया
दामन की सजाई
हैं गरेबानों में
हुस्न
को खींच के ले
आई मुहब्बत की
कशिश
आके
खुद शमअ को
जलना पड़ा
परवानों में
'हुस्न
को खींच के ले
आई मुहब्बत की
कशिश।
' परमात्मा
को खोजने नहीं
जाता है भक्त।
'हुस्न को
खींच के ले आई
मुहब्बत की
कशिश, उसका
प्रेम ही बुला
लाता है, खींच
लाता है।
हुस्न
को खींच के ले
आई मुहब्बत की
कशिश
आके
खुद शमा को
जलना पड़ा
परवानों में
परवाने
की तरह भक्त
नहीं जाता है
परमात्मा को खोजने, शमा ही
परवाने को
खोजती हुई आती
है—यह अपूर्व
घटना घटती है।
' आके खुद शमा
को जलना पड़ा
परवानों में। '
क्या
खबर हमको हरम
क्या है, कलीसा
क्या है
जिंदगी
हमने गुजारी
इन्हीं
मैखानों में
भक्त
कहता है कि हम
तो मधुशाला
में ही रहे, हमें मंदिर
और मस्जिद का
कुछ पता नहीं।
'क्या खबर
हमको हरम क्या
है, कलीसा
क्या है '! काबा
क्या और गिरजा
क्या, हमें
कुछ पता नहीं।
हमें भेद नहीं
है। हमें समझ
नहीं है। हम
बेहोश हैं। हम
मस्त हैं। 'जिंदगी हमने
गुजारी
इन्हीं
मैखानों में। '
भक्त तो
भक्ति की शराब
पीता है।
हमने
देखी है तेरी
मस्त जवानी की
अदा
हंसते
फूलों में, छलकते हुए
पैमानों में
फूल
खिलता है जो
कोई तो खयाल
आता है
यह भी
शायद है तेरे
चाक गरेबानों
में
दिले—नाकाम
के उजड़े हुए
गेसू तौबा
एक
महफिल भी थी
शायद उन्हीं
दीवानों में
हमको 'बिलकीस'
तकल्लुफ की
जरूरत क्या है
पी
लिया करते हैं
टूटे हुए
पैमानों में
भक्त
को इसकी बहुत
फिक्र नहीं कि
पैमाना टूटा है
या पूरा है।
भक्त को मतलब
पीने से है।
भक्त को
पात्रता से
मतलब नहीं है, पात्र से
मतलब नहीं। 'पी लिया
करते हैं टूटे
हुए पैमानों
में '।
भक्त को
अंधेरे से
मतलब नहीं है,
नाच लिया
करता है। भक्त
को एक ही बात
से मतलब है।
कि मैं जैसा
हूं जहा हूं
वैसा ही तुझको
अर्पित हूं
समर्पित हूं।
भक्त
हो सको तो फिर
कुछ और होने
की जरूरत नहीं
है। भक्त न हो
सको तो मजबूरी
में कोई और
रास्ता चुनना
पड़ता है। भक्त
हो सको तो
धन्यभागी हो!
मैं तुम्हें
भक्त बना
सकूं! और
ध्यान रहे कि
मैं भक्त नहीं
था, इसलिए
सारी तकलीफ
मैं जानकर
तुमसे कह रहा
हूं। मुझे
रेगिस्तान का
अनुभव है, इसलिए
तुमसे कह रहा
हूं। इसलिए
तुमसे कह सकता
हूं कि बच सको
रेगिस्तान से
तो बच जाना।
प्रेम के
मरूद्यान से
उपलब्ध हो
सकता हो तो मरुस्थल
में क्यों
जाना? मुझे
कोई कहने को
नहीं था, इसलिए
भटकना पडा।
तुम्हें
भटकने की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम जैसे हो, जहा हो, वहीं
से पुकारो। अब
आ ही गए हो तो
पूरे आ जाओ!
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
मुझे
अपना नीड़ बना
लो। मुझे अपना
बसेरा बना लो।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
आज
दक्खिन की हवा
ने आ अचानक
द्वार
मेरे खडूखडाए,
हलचली
है मच गई उन
बादलों में
जो कि
थे आकाश छाए,
जो कि
सुन सौ प्रश्न
मेरे चुप खडी
थी आज बारंबार
झुक—झुक
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
सूर्य
की किरणें
प्रखरतम घन
तहों के
बीच
होतीं, पार
करतीं,
कालिमा
पर ज्योति का
विस्तार
करतीं
चूमती
जैसे कि धरती;
हे रजत
पक्षी, तिमिर
को भेदने से
जो
तुम्हारी राह
छेके
अब
नहीं रुकते
तुम्हारे पाख, अब तुम आ रहे
अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
हे रजत
पक्षी, तिमिर
को भेदने से
जो
तुम्हारी राह
छेके
अब
नहीं रुकते
तुम्हारे पाख, अब तुम आ रहे
अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
आज
हीरे ले लहर
आती, बिछाती
है
कहीं मरकत
किनारे
आज
उज्ज्वल
मोतियों से
हाथ अपने
है
कहीं सरसिज
संवारे,
पर
तुम्हारा मन
प्रलोभन दे
लुभाना
है
असंभव, आज
कोई
पंथ
में वैभव
बिछाए लाख, अब तुम आ रहे
अपने बसेरे।
कह रही
है पेडू की हर
शाख, अब तुम आ
रहे अपने
बसेरे।
आज
इतना ही।
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