दिनांक 20
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार :
1--कार्ल
मार्क्स के एक
प्रसिद्ध वचन
पर प्रश्न।
2--आपके
पास बैठने से
जितने शून्य व
खाली होते हैं
उतना ध्यान
करने से नहीं
होते हैं। फिर
भी
क्या ध्यान की
जरूरत है?
3--आपको
समझने में
मुझसे बहुत
भूल हुई।
क्षमा मांगता
हूं। आपकी
देखना का
सारसूत्र
क्या हैं?
4--परमात्मा
की
सर्वव्यापकता
पर एक मित्र
का प्रश्न।
स्वामी
ब्रह्म वेदाaत के संबंध
में प्रश्न। कुछ
भी नया करने
में भयभीत
होता हूं। इस
भय से मुक्त
कैसे होऊं?
पहला
प्रश्न :
कार्ल
मार्क्स का एक
प्रसिद्ध वचन
है— धर्म एक
भ्रमात्मक
सूर्य है, जो मनुष्य
के गिर्द तब
तक घूमता रहता
है, जब तक
कि मनुष्य
मनुष्यता के
गिर्द नहीं
घूमता। क्या
धर्म और
मनुष्यता अलग—
अलग है?
धर्म
है मनुष्य के
पार जाने का
विज्ञान।
धर्म है
अतिक्रमण की
कला। धर्म न
हो तो मनुष्य
मनुष्य रह
जाएगा। और
मनुष्य का
मनुष्य रह
जाना ही दुख
है, पीड़ा है,
संताप है।
क्योंकि
मनुष्य अधूरा
है। अधूरेपन
में पीड़ा है।
मनुष्य होकर
कोई तृप्त
नहीं हो सकता।
मनुष्य के
होने में ही
अतृप्ति छिपी
है।
मनुष्य
ऐसे है जैसे
कली। कली जब
तक फूल न हो, तब तक
परेशान होगी।
कली फूल होगी
तो ही खुलेगी।
और खिलेगी।
कली फूल होगी
तो ही आनंद को
उपलब्ध होगी।
कली सिर्फ
मार्ग पर है—फूल
होने के मार्ग
पर है। कली
अंत नहीं, कली
मंजिल नहीं।
ऐसा ही मनुष्य
है।
मनुष्य
का दुख भी यही
है, मनुष्य
की गरिमा भी
यही है। दुख
यह है कि
मनुष्य पूरा
नहीं है। और
पशु—पक्षी
पूरे मनुष्य
हैं। पूरे से
अर्थ, वे
यात्रा पर
नहीं है। वे
जैसे हैं, जहां
हैं, वहीं
समाप्त हो
जाएंगे।
कुत्ता
कुत्ते की तरह
ही रहेगा और
मर जाएगा।
कुत्ते में
कोई प्रगति
नहीं है। तुम
किसी कुत्ते
से यह न कह
सकोगे कि तुम
कम कुत्ते हो।
सब
कुत्ते
बराबर कुत्ते
हैं। लेकिन
आदमी से तुम
कह सकते हो कि
तुम थोड़े कम आदमी
हो। क्यों कह
सकते हो? क्योंकि
कोई आदमी थोड़ा
कम आदमी होता
है और कोई
आदमी थोड़ा
ज्यादा आदमी
होता है। कोई
आदमी इतना
पूर्ण आदमी हो
जाता है; कोई
बुद्ध, कोई
महावीर—कि
हमें उसे
भगवान कहना
पड़ता है—वस्तुत:
बात इतनी घटी
है कि बुद्ध
का फूल खिल गया;
और कुछ नहीं
हुआ है। हमारी
कली बंद थी, बुद्ध का
फूल खिल गया
है।
हम जहां
हैं, जैसे हैं,
वहा से आगे
जाना होगा।
आगे जाने की
कला का नाम
विज्ञान है, धर्म है।
तो
धर्म और
मनुष्यता एक
ही नहीं हैं।
अगर साधारण
मनुष्य को हम
मनुष्य समझें, तो धर्म
मनुष्य के पार
जाने का
विज्ञान है।
अगर हम बुद्ध
और महावीर को
मनुष्य समझें
और साधारण
आदमी को समझें
कि अभी मनुष्य
नहीं है, तो
फिर धर्म
मनुष्य होने
का वितान है।
कार्ल
मार्क्स की
उक्ति
बुनियादी रूप
से गलत है।
लेकिन
मार्क्स और
साम्यवादियों
की यह धारणा रही
है कि मनुष्य
के पार कुछ और
नहीं है; मनुष्य
अंत है। यह
बड़ी खतरनाक भ्रांति
है। अगर ऐसा
मान लिया जाए
कि मनुष्य के
पार कुछ भी नहीं
है तो फिर
रोटी—रोजी पर
सब समाप्त हो
जाता है। फिर
आजीविका जीवन
हो जाती है।
फिर सुबह रोज
उठो, दफ्तर
जाओ, कमा
लो, खा लो, पी लो, बच्चे
पैदा कर दो और
मर जाओ। फिर
इसके पार कुछ
बचता नहीं।
फिर जीवन में
कोई गहराई
पैदा नहीं हो
सकती। जीवन
छिछला और उथला
रह जाएगा।
धर्म
है मनुष्य के
भीतर गहराई
पैदा करने का
उपाय, मनुष्य
के भीतर डुबकी।
और गहराइयों
पर गहराइयां
हैं। एक गहराई
छुओगे, दूसरी
गहराई के
दर्शन शुरू
होंगे। एक
द्वार खोलोगे,
नया द्वार
सामने आ जाएगा।
द्वार—पर—द्वार
हैं। इस रहस्य
की अनंतता है।
धर्म के बिना
मनुष्य
नाममात्र को
मनुष्य होगा।
न तो फूल
खिलेगा और न
सुवास होगी।
लेकिन
मार्क्स को
धर्म का कुछ
पता नहीं था।
हो भी नहीं
सकता था।
कभी
ध्यान तो किया
नहीं।
मार्क्स का
वक्तव्य धर्म
के संबंध में
ऐसा ही है, जैसे किसी
बहरे का
वक्तव्य
संगीत के
संबंध में, या किसी
अंधे का
वक्तव्य
प्रकाश के
संबंध में। हां,
मार्क्स ने
बाइबिल पढ़ी थी,
ईसाइयों की
किताबें पढ़ी
थी, उनसे
धर्म का कुछ
लेना—देना
नहीं है।
किताबों में
धर्म नहीं है।
अगर किताबों
के धर्म को
धर्म समझा जाए,
तो मार्क्स
ठीक कहता है
कि धर्म एक
भ्रमात्मक सूर्य
है; अच्छा
है कि आदमी
इससे मुक्त हो
जाए। अगर
चर्चों में और
मंदिरों में
और मस्जिदों में
धर्म समझा जाए,
तो मार्क्स
ठीक कहता है, अच्छा है
इनसे मुक्त हो
जाया जाए। अगर
पुरोहितों और
पंडितों में
धर्म समझा जाए,
तो मार्क्स
ठीक कहता है
कि इनके जाल
के बाहर हो
जाना बेहतर है।
लेकिन वहा
धर्म है नहीं।
जिसको
मार्क्स धर्म
समझ रहा है, वह धर्म
नहीं है। धर्म
बुद्धों में
है। मस्जिद
में नहीं है, न मंदिर में
है। धर्म तो
ध्यानी में है,
जहा समाधि
फलती है, वहा
धर्म है।
मार्क्स
को कोई
समाधिस्थ
व्यक्ति का
सत्संग तो
मिला नहीं।
मार्क्स के
धर्म के संबंध
में जो भी
विचार थे, किताबी थे।
उसने संगीत के
संबंध में
किताबों में
पढ़ा था और
प्रकाश के
संबंध में
औरों से सुना
था; अपना
कोई निजी
अनुभव नहीं था।
निजी अनुभव न
होने के कारण
अगर कोई अंधा
यह कह दें कि सुर्य
की सारी बात
बकवास है, मुझे
तो दिखाई नहीं
पड़ता; और
यह संगीत सब
झूठ है, मैंने
कभी सुना नहीं;
जो मुझे
नहीं सुनाई
पड़ता, वह
कैसे हो सकता
है? ऐसे ही
वक्तव्य हैं
मार्क्स के।
उनका कोई
मूल्य नहीं है।
धर्म
के संबंध में
मूल्य तो उसके
वक्तव्य का है
जिसने ध्यान
जाना हो।
जिसने ध्यान
की गहराई छुई
हो, ध्यान का
अमृत पिया हो,
उसके
वक्तव्य का
कोई मूल्य है
जो अपने भीतर
गये हों, जिन्होंने
भीतर डुबकी
मारी हो, जिन्होंने
भीतर का रस
पिया हो, जिन्होंने
भीतर की रोशनी
देखी हो, जो
अंतर— आकाश
में उड़े हों।
उन सबने कहा
है कि धर्म के
बिना आदमी
आदमी ही नहीं
है। आदमी फिर
कली हर जाएगा।
और कली कितनी
भी सुंदर हो, कुछ कमी है।
अभी तक फूल
नहीं हुई। और
जब तक फूल न हो,
तब तक
नाचेगी कैसे?
और जब तक
फूल न हो, तब
तक सुवास को
लुटाकी कैसे?
और जब तक
फूल न हो, तब
तक तृप्ति कहां,
आनंद कहां?
धर्म
मनुष्य के पार
जाने की सीढ़ी
है। ऐसा कहो, या ऐसा कहो
कि असली
मनुष्य होने
की कला है।
दोनों का मतलब
एक ही होता है।
अगर तुम असली
मनुष्य हो, तो मनुष्यता
के पार जाने
की कला है
धर्म।
तुम्हारे तो
पार जाना ही
होगा। तुम
जैसे हो इससे
ऊपर उठना ही
होगा। तुम तो
परिधि पर जी
रहे हो, तुम्हारे
जीवन में कोई
केंद्र नहीं
है। और अगर
बुद्ध और
महावीर, कृष्ण
और क्राइस्ट
को हम मनुष्य
की परिभाषा मानें,
तो फिर धर्म
का अर्थ होगा :
पूर्ण मनुष्य
होने की कला।
यह मनुष्य की
परिभाषा पर
निर्भर होगी।
लेकिन
मार्क्स से
पूछने मत जाओ।
मार्क्स को
कुछ पता नहीं
है। ब्रिटिश
म्यूजियम की
लाइब्रेरी
में बैठ—बैठ
कर उसने जो भी
जाना था, वह
धर्म नहीं है।
धर्म जानने के
लिए
प्रार्थना
में उतरना
पड़ता है। वह
काम हिम्मतवर
का है। पागल
होना पड़ता है।
मस्ती में
डूबना पड़ता है।
किताबी नहीं
है काम, शब्दों
का नहीं है, शून्य के
अनुभव में
जाना होता है।
और जो उस
अनुभव में
जाएगा, वह
पाएगा— धर्म
के अतिरिक्त
मनुष्य के
जीवन में कभी
सुगंध नहीं
आती।
फिर, उस धर्म का
अर्थ ईसाइयत,
हिंदू र
इस्लाम नहीं
होता। उस धर्म
का अर्थ होता
है : तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
स्वभाव की
अभिव्यक्ति; तुम्हारे
भीतर पड़े हुए
गीत का प्रकट
होना।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान, आपके पास
बैठते हैं और
जितने शून्य
होते हैं, खाली
होते हैं, उतना
ध्यान करने से
नहीं होते हैं।
फिर भी ध्यान
करने की जरूरत
है? और मैं
बहुत—बहुत अनुगृहीत
हूं। हृदय में
जो है, उसे
दिखा नहीं
पाती हूं।
समाधि!
सत्संग और
ध्यान
अन्योन्याश्रित
हैं। ध्यान
बढ़ेगा तो
सत्संग में रस
बढ़ेगा।
सत्संग में रस
बढ़ेगा तो
ध्यान की
गहराई बढेगी।
दोनों दो पंख
की भांति हैं।
इनमें एक पंख
को भी काट
डाला तो
नुकसान होगा।
एक पंख से फिर
आकाश में उड़ न
सकोगी। ध्यान
में उतरोगी, फिर जब मुझे
सुनोगी, मेरे
पास बैठोगी, तो नयी
गहराई आएगी।
ध्यान ने
रास्ता बनाया।
ध्यान ने सफाई
कर दी, मार्ग
के पत्थर हटा
दिये, अवरोध
हटा दिये। फिर
मेरे पास
बैठना, तो
झरना बहेगा।
फिर झरना
बहेगा तो और
नये रास्ते
टूटेंगे। नये
रास्ते
टूटेंगे तो
नये पत्थरों
का आविष्कार
होगा। फिर
ध्यान में
जाओगी, उन
पत्थरों को
हटाने का
आनंद!
ये
दोनों
अन्योन्याश्रित
हैं।
ऐसा
अक्सर हो जाता
है। कुछ लोग
सोचते हैं कि
जब यहां आपके
पास बैठकर ही
आनंद आ जाता
है, तो फिर
ध्यान क्या
करना? उनका
आनंद रुक
जाएगा। उसमें
गति नहीं होगी
फिर। फिर रोज—रोज
नयी सीढ़िया तय
नहीं होंगी।
फिर जहां तक आ
गया है, वहीं
बात ठहर जाएगी।
और वहीं ठहरी
नहीं रहेगी, थोड़े दिन
में पाएंगे कि
वहां से भी
पीछे हटने लगी।
कुछ
विपरीत
सोचनेवाले भी
लोग हैं। वे
सोचते हैं, ध्यान में
तो बड़ा मजा आ
रहा है, अब
सत्संग में
क्या आना? अब
सुनने में
क्या है? अब
तो हम खुद ही
ध्यान में
उतरने लगे। अब
गुरु के पास
बैठने की क्या
जरूरत है? उनका
ध्यान भी
जल्दी ड़गमगा
जाएगा। और न ड़गमगाया
तो भी अवरुद्ध
हो जाएगा।
स्मरण
रहे, जितने
प्रयोगों से
संभव हो सके, चोट करो, जितनी
दिशाओं से
हमला हो सके, हमला करो।
प्रार्थना भी
करो, पूजा
भी करो, ध्यान
भी, प्रेम
भी, सत्संग
भी, भजन—कीर्तन
भी। सब दिशाओं
से हमला करो।
इस दुश्मन को
मिटा ही देना
है। इस अंधेरे
को तोड़ ही
देना है।
इसमें एक ही
तरफ से हमला
किया, तो
शायद जीत संभव
न हो। दुश्मन
किसी और
दरवाजे पर छिप
जाए, किसी
और कोने में
बैठ जाए।
अंधेरा कहीं
और अपने लिए
गुफा बना ले।
तुम सब तरफ से
रोशनी लाओ। सब
द्वार—दरवाजे,
खिड़किया
खोल दो। इसमें
कंजूसी मत करो।
एक ही दरवाजे
से रोशनी आए, ऐसा क्या, सब दरवाजों
से रोशनी आने
दो। ध्यान भी
करो, सत्संग
भी करो। नाचो
भी, गाओ भी।
मौन भी बैठो।
जितना संभव हो
सके, उतना
इस रसधार को
अनेक— अनेक
रूपों में
बहने दो। और
तुम पाओगे, इसकी
सम्मिलित
प्रक्रिया का
परिणाम गहन
होता है।
अच्छा
हो रहा है कि
सत्संग में
शून्यता आ
जाती है। 'समाधि'
को मैं देख
रहा हूं। कोई
फल पकने के
करीब आने लगा
है यहीं खतरा
है। जब फल
पकने के करीब
आने लगता है, तो मन कहता
है अब तो सब हो
गया, अब और
क्या करना है?
अक्सर ऐसा
हो जाता है कि
लोग मंदिर के
ठीक द्वार पर
आते— आते लौट
जाते है।
मंजिल जहा
पूरे होने के
करीब होती है,
वहीं ठहर
जाते हैं।
सोचते हैं—आ
तो गया!
जिंदगी
बड़ी है।
जिंदगी
तुम्हारी आकांक्षा
ओं से बड़ी है।
और जिंदगी में
ऐसे खजाने पड़े
हैं जिनके
तुमने सपने भी
नहीं देखे।
इसलिए इस भ्रांति
में तो कभी
पड़ना ही मत कि
आ गया। कितना
ही मिल जाए, यात्रा जारी
रहे, यात्रा
चलती रहे, क्योंकि
और मिलने को
है, और
मिलने को है।
तुम्हारी
आकांक्षाएं
भी बड़ी दीन—दरिद्र
हैं। तुम
सोचते हो, मन थोड़ा शात
हो गया, बस
हो गया। अभी
बहुत होने को
है! और ऐसा तो
कभी नहीं होता
जब कि कुछ
होने को न बचे।
इसीलिए तो
कहते हैं
परमात्मा का
रहस्य अनंत है।
जानो, और
जानो, और
जानो, फिर
भी अनजाना रह
जाता है।
पहचानो, और
पहचानो, फिर
भी पहचान कहां
हो पाती है!
सागर जैसा
विराट है।
खोजते— खोजते,
खोजी खो ही
जाता है; समग्र
रूप से लीन हो
जाता है।
जब तक
तुम समग्र रूप
से मिट न जाओ, तुम्हारे
भीतर कहीं भी 'मैं' का
कोई स्वर न रह
जाए, तब तक
सत्संग भी
चलने दो, ध्यान
भी चलने दो, प्रार्थना
भी चलने दो।
परा— भक्ति का
जन्म न हो जाए,
तब तक चलने
दो गौणी—
भक्ति। और
इसमें कृपणता
की कोई जरूरत
नहीं है। कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि तुम मान
लेते हो कि सब
हो गया। और
अक्सर जब सब
होने के करीब
होता है, तभी
ऐसा होता है।
मंजिल सामने
दिखायी पड़ने
लगती है, आदमी
बैठ जाता है।
तुमने देखा? यात्रा करके
तुम आए हो—दूर
लंबी, पहाड़
की यात्रा—चलते
रहे, चलते
रहे, थके
थे तो भी चलते
रहे, अब
सामने मंदिर आ
गया तो तुम
बैठ जाते हो।
तुम कहते हो, अब तो
सुस्ता लें; अब तो यह रहा
मंदिर! मंजिल
पर आकर लोग
सुस्ताने
लगते हैं। दूर
होते हैं तो
चलते रहते हैं।
'समाधि'
में कुछ
घटने के करीब
है, इसीलिए
प्रश्न उठा है।
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है, औरों
के काम का भी
है। क्योंकि
बहुतों के
भीतर बहुत कुछ
घटने के करीब
आ रहा है। यह
जो फसल लगायी
जा रही है, इसके
काटने के दिन
भी करीब आएंगे
ही। ये जो बीज
बोए जा रहे
हैं, ये
अंकुर भी हो
गये हैं, इनमें
फूल भी लगेंगे।
स्मरण
रखना, तुम्हें
पता ही नहीं
है कितने फल
लगेंगे? अनंत
फल लगेंगे।
एकाध फल से
राजी मत हो
जाना। सच तो
यह है, साधक
जितने सिद्धि
के करीब आता
है, उतनी
ही साधना और
भी गहरानी
पड़ती है।
शुभ है
कि सत्संग में
शून्यता फलती
है, मन मौन हो
जाता है।
लेकिन सत्संग
में तुम मेरे
साथ जुड़े हो।
सत्संग में
तुम मेरे
पंखों के
सहारे उड़ रहे
हो। सत्संग
में तुम्हारी आंख
मेरी आंख से
देख रही है।
सत्संग में
मेरा हृदय
तुम्हारे
हृदय के साथ धड़क
रहा है। ध्यान
में भी इतना
ही होना चाहिए।
नहीं तो कल
अगर मैं चला
गया, फिर
तुम क्या
करोगे? कल
अगर मैं न हुआ
तो फिर तुम
क्या करोगे? और एक दिन तो
आएगा कि मैं
नहीं होऊंगा।
तो जिसने
सत्संग पर ही
निर्भर किया,
वह एक दिन
कठिनाई में पड़
जाएगा। जिसने
सत्संग से लाभ
लिया और ध्यान
की गहराई को
बढ़ाता गया, वही मेरे
जाने पर रोएगा
नहीं; अनुग्रह
से भरेगा।
मेरे
साथ एक संगीत
सध जाता है।
उसमें कितना
तुम्हारा है, कितना मेरा
है, कहना
कठिन है। जब
ध्यान में
सधता है संगीत,
तो
तुम्हारा ही
तुम्हारा है—सुनिश्चित
तुम्हारा है!
और जो
तुम्हारा है,
उसी पर
अंतिम भरोसा
करना।
ऐसा हो
जाता है, हिमालय
पर जाओगे, शात
बैठोगे, बड़ी
शांति मालूम
होगी; मगर
उस शांति में
बहुत कुछ
हिमालय का है,
तुम्हारा
नहीं है। जब
ऐसा ही बीच
बाजार में बैठ
कर हो सकेगा, तब तुम्हारा
है। हिमालय से
उतरोगे, जैसे—
जैसे पहाड़ से
नीचे आने
लगोगे, भीड़—
भाड़ बढ़ने
लगेगी, वैसे—वैसे
शांति खो
जाएगी। रोज तो
लोग पहाड़ जाते
हैं और शांति
का अनुभव करते
हैं और लौट
आते हैं— और
फिर वही अशांति!
तो हिमालय पर
बैठ कर जो शांति
तुम्हें
अनुभव होती है,
उसमें
निन्यानबे
प्रतिशत
हिमालय का है,
एकाध
प्रतिशत
तुम्हारा
होगा। एक
प्रतिशत जरूर
तुम्हारा
होगा।
क्योंकि ऐसे
भी लोग हैं, जो हिमालय
पर बैठ जाते
हैं और वहां
भी शांति
अनुभव नहीं
होती। उनका
बाजार जारी ही
रहता है। उनकी
भीड़ खड़ी ही
रहती है।
दिखता हिमालय
है, मगर वे
देखते रहते
हैं उन्हीं को
जिनको पीछे
छोड़ आए हैं।
सोचते रहते
हैं उन्हीं की।
लोग
अखबार लेकर
हिमालय चले
जाते हैं, रेड़िओ लेकर
हिमालय चले
जाते हैं ताकि
दिल्ली की खबरें
वहा बैठकर सुन
सकें। फिर तुम
गये ही किसलिए?
लोग
मित्रों को
लेकर हिमालय
चले जाते हैं,
और उनके साथ
वही बातचीत
जारी रहती है
जो यहां जारी
थी। वही भीड़—भाड़,
वही बकवास!
तो ऐसे भी लोग
हैं जो हिमालय
जाकर भी अनुभव
नहीं करते शांति
का।
तो एक
प्रतिशत तो
तुम्हारा
होगा।
यहां
भी ऐसे लोग
हैं, जो
सत्संग में
बैठेंगे और शांति
का अनुभव नहीं
करेंगे।
तो जब
तुम मेरे साथ शांति
में डूब जाते
हो, मेरे पास
बैठे—बैठे
मेरी और
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
कभी—कभी एक हो
जाती है, तुम
मेरे साथ
श्वास लेने
लगते हो, तुम्हारा
मेरे प्रति
सारा
प्रतिरोध टूट
जाता है, तुम
अपनी रक्षा
नहीं करते, तुम मेरे
साथ हो लेते
हो—बेशर्त—बिना
आगे—पीछे की
फिक्र किये, तुम चल पड़ते
हो मेरे साथ
कि देखें क्या
है, तुम
हिम्मत कर
लेते हो, तुम
साहसी होते हो,
तुम जुए पर
दाव लगा देते
हों—कभी— कभी
वैसे क्षण आ
जाते हैं, जब
तुम अपूर्व शांति
से भर जाओगे, अपूर्व आनंद
से भर जाओगे।
लेकिन
ध्यान रखना, उसमें बहुत
कुछ मेरा है।
जैसे ही तुम
घर लौटोगे, वह खो जाएगा।
उस पर निर्भर
मत रहना। उसका
लाभ लो। उससे
तुम्हारे
भीतर क्या हो
सकता है, इसकी
झलक मिलेगी।
फिर उस लाभ का
उपयोग ध्यान
में करो। फिर
ध्यान में
खुदाई करो, फिर अपनी
कुदाली उठाओ
और अकेले में
खोदो। और जब
तक वही आनंद न
मिलने लगे जो
सत्संग में मिला
था, तब तक
रुकना मत—खोदे
जाना, खोदे
जाना। जब वही
आनंद एकांत
अकेले में घर
बैठे हुए, मुझसे
दूर मिलने लगे,
तब फिर तुम
समझना कि अब
सत्संग के लिए
फिर जरूरत आ
गयी; अब
थोड़ा और आगे
के दृश्य
देखें, ताकि
आगे की यात्रा
हो सके।
सत्संग
और ध्यान का
ऐसा उपयोग करोगे, तो निश्चित
पहुंच जाओगे।
लेकिन मन ऐसा
होने लगता है;
मन कहता है
जब सत्संग में
आनंद आता है, तो सत्संग
ही कर लें। या
मन कहता है, जब ध्यान
में आनंद आता
है तो सत्संग
क्यों करें?
दो तरह
के लते हैं।
जो लोग
स्त्रैण—वृति
के हैं—सरल, ग्राहक, अंगीकार
करनेवाले—उन्हें
सत्संग
ज्यादा
रुचेगा बजाय
ध्यान के। यह
आकस्मिक नहीं
है कि
स्त्रिया
सत्संग में ज्यादा
दिखायी पड़ती
हैं। सरल हैं।
सरलता से किसी
के भी साथ
उनका हृदय धड़क
सकता है।
उन्हें एक कला
स्वाभाविक है
कि प्रेम में
पड़ सकती हैं।
और बिना प्रेम
में पड़े
सत्संग नहीं
होता। प्रेम
में पड़ते ही
तरंगें एक सी
हो जाती हैं।
गुरु के साथ
शिष्य की तरंग
एक हो जाती है।
दोनों के तार
मिल जाते हैं।
ऐसे क्षण आ
जाते हैं जब
दो नहीं रह
जाते शिष्य और
गुरु। कभी—कभी
दोनों बस एक
हो जाते हैं।
उसी घड़ी
अपूर्व
शून्यता आ
जाती है।
अपूर्व
पूर्णता आ
जाती है।
अपूर्व आनंद
बरस जाता है।
मेघ घिर जाते
हैं। मल्हार
बज उठती है।
वीणा पर टंकार
पड़ जाती है।
कोई नृत्य
भीतर होने
लगता है।
स्त्रियों को
यह आसानी से
हो जाएगा।
'समाधि'
को हो रहा
होगा— आसानी
से हो रहा
होगा। स्त्री
झुकने की कला
जानती है। वही
स्त्री होने
का लक्षण है।
वह समर्पण
जानती है।
जरूरी
नहीं है कि
सभी
स्त्रियों को
हो, क्योंकि
स्त्रियों
में बहुत
स्त्रिया
नहीं हैं, पुरुष
जैसी हैं। और
जरूरी नहीं है
कि पुरुषों को
न हो, क्योंकि
पुरुषों में
बहुत हैं
जिनके पास उतना
ही कोमल हृदय
है जितना
स्त्रियों के
पास। इसलिए
स्त्री पुरुष
से तुम
शारीरिक
स्त्री—पुरुष
का भेद मत
समझना, मैं
आंतरिक भेद की
बात कर रहा
हूं।
लेकिन
जो पुरुष है, जो पुरुष है
उसी को तो
पुरुष कहते
हैं। पुरुष
यानी कठोर।
पथरीला, दंभी,
अहंकारी, झुकने को
राजी नहीं।
टूट जाए, वह
कहता है, मगर
झुकेंगे नहीं।
वह अगर सत्संग
में आता भी है
तो अपनी म्यान—तलवार
लेकर आता है।
वह सत्संग में
आता भी है तो
अपनी ढाल के
पीछे छिपा
रहता है। कहता
है कहीं झुकने
न पड़े। वह
झुकने से डरा
रहता है। उसे
ध्यान ज्यादा
रुचेगा, क्योंकि
ध्यान में वह
अकेला है, किसी
के सामने
झुकना नहीं है।
तो
पुरुषों को
अक्सर यह हो
जाता है कि वे
ध्यान की तरफ
ज्यादा झुक
जाएंगे और
सोचेंगे, सत्संग
की अब क्या
जरूरत है? इतना
तो सुन लिया
गुरु को, अब
सुनने की क्या
जरूरत है? अब
तो अपने एकांत
में ध्यान
संभालो!
स्त्रियों को
अक्सर ऐसा होने
लगेगा कि और
सुनो और सुनो,
ध्यान की
क्या जरूरत है?
मगर दोनों
गलत हैं।
दोनों की
जरूरत है।
दोनों पंख
चाहिए उस
यात्रा के लिए।
और जब
कोई व्यक्ति
संतुलित होता
है तो वह पचास
प्रतिशत
स्त्री होता
है और पचास
प्रतिशत पुरुष
होता है।
इसलिए तो
अर्धनारीश्वर
की हमने मूर्ति
बनायी है। वह
संतुलन की मूर्ति
है। देखी है न
अर्धनारीश्वर
की मूर्ति!
आधे शिव
पार्वती हैं,
और आधे
पुरुष हैं। एक
स्तन है, आधा
चेहरा स्त्री
का है, आधे
अंग पुरुष के
हैं। वह
अपूर्व
प्रतिमा है, दुनिया में
किसी ने वैसी
प्रतिमा नहीं
गढी, क्योंकि
दुनिया में
किसी जाति ने
मनुष्य के भीतर
इतने समन्वय
की बात नहीं
खोजी। आधा
पुरुष, आधी
स्त्री। ये
दोनों पंख
पूरे हो गये—समर्पण
और ध्यान।
अर्धनारीश्वर
का अर्थ है :
समर्पण और
ध्यान, स्त्री
और पुरुष
दोनों साथ—साथ
झुको भी कि
समर्पण हो जाए;
और अपने पर
निर्भर भी हो
जाओ, ताकि
ध्यान हो जाए।
दोनों में
चुनना नहीं है,
दोनों को जोड़ना
है। जो रहा है
शुभ है, मगर
उसकी वजह से
ध्यान को मत छोड़
देना। जो हो
रहा है, वह
समर्पण है
शबे—गम
सदा उनकी आने
लगी है
मेरी
रात फिर
गुनगुनाने
लगी है
गुल
उनका तबस्सुम
चुराने लगे
हैं
सबा
उनका पैगाम
लाने लगी है
मेरी
आह की नारसाई
तो देखो
सितारों
से आगे भी
जाने लगी है
जो
डूबी हुई थी
अंधेरे में गम
के
वह
कौसे—कुजह
मुस्कुराने
लगी है
नयी एक
झंकार उठी
साजे—दिल से
उम्मीद
एक नग्मा—सा
गाने लगी है
उलट दी
जुनूने
बिसाते—मुहब्बत
खिरद
मात पर मात
खाने लगी है
इस दशा
में है 'समाधि'। इस दशा में यहां
बहुत मेरे
संन्यासी हैं।
दूर की आवाज
करीब आने लगी
है। कोई गीत
भीतर फूटने
लगा है। कोई
नग्मा जगने
लगा है। कोई
सुगंध प्रकट
होने लगी है।
उलट दी जुनूने
बिसाते—मुहब्बत।
मस्ती, मादकता,
पागलपन का
आविर्भाव हो
रहा है।
धन्यभागी हैं
वे, जिनके
जीवन में
प्रभु का
पागलपन आ जाए।
और पागलपन के
आते ही सारा
खेल बदल जाता
है। उलट
दी जुनूने
बिसाते—मुहब्बत
खिरद
मात पर मात
खाने लगी है
बुद्धि
हारने लगती है, हृदय जीतने
लगता है। भाव
जीतने लगते
हैं। विचार
हारने लगते
हैं।
शुभ है।
सत्संग का लाभ
लो, लेकिन
ध्यान को मत छोड़
देना। यह
सत्संग का लाभ,
समाधि, तू
इसीलिए ले शुभ
पा रही है कि
ध्यान किया है।
और हर सत्संग
के बाद ध्यान
की गहराई बढती
जाएगी। दोनों
एक—दूसरे को
सहारा देते
हैं। दोनों एक—दूसरे
के सहारे ऊपर
उठते जाते हैं।
इन्हीं दोनों
के सहारे किसी
दिन गौरीशंकर
का शिखर
तुम्हारे
भीतर प्रकट
होता है। इन
दोनों को
मिलने दो। इस
दोनों के मिल
जाने का नाम
योग है।
तुम्हारे
ध्यान और
तुम्हारी
प्रीति को
मिलने दो।
तुम्हारे
पुरुष और
तुम्हारी
स्त्री को
मिलने दो।
अर्धनारीश्वर
बनो।
मिलन
की मन में जोत
लगा ले,
मिलन
का करले ज्ञान
आप ही
अपने दिये
बुझाकर,
घर को
करें जुल्मात
अपने
चमन को आप ही
फूके,
आप ही
सेंके हाथ
आप ही
खोटी चालें
सोचें,
आप ही
खायें मात
अपने
चप्पू आप ही
तोड़े
तूफान
में दिन— रात
अपनी
नैया आप डुबोए
बन कर
खुद तूफान
मिलन
की मन में जोत
लगा ले,
मिलन
का करले शान
ये चप्पू हैं।
तुमने
देखा, चप्पू
दो रखने पड़ते
हैं। एक चप्पू
से नाव नहीं
चलती। कभी एक
चप्पू से नाव
चला कर देखी, गोल चक्कर
खाने लगेगी।
यात्रा नहीं
होगी कोल्ह का
बैल बन जाएगी।
कभी चलाना जा
कर नदी में
जाकर एक चप्पू
से चलाना। बस
नाव गोल— गोल
घूमने लगेगी
अपनी ही जगह
पर। उस पार
जाना हो तो दो
चप्पू चाहिए।
सत्संग और
ध्यान में
चुनना नहीं है,
दोनों के
पंख बना लेने
हैं, दोनों
के सहारे उड़
जाना है।
तीसरा
प्रश्न :
क्षमा
करें, आपको
समझने में
मुझसे बहुत
भूल हुई। बहुत
बार संदेह ने
मेरा पीछा
किया। फिर
क्षमा मांगता
हूं। आपने
अनेक मार्गों
का प्रतिपादन
किया है। क्या
मैं पूछ सकता
हूं कि आपकी
देशना का सार—सूत्र
क्या है?
मिटो।
किस बहाने
मिटते हो, फर्क नहीं
पड़ता—बस मिटो।
प्रार्थना
में मिटो कि
पूजा में, कि
भजन में कि
कीर्तन में, कि ध्यान
में कि सत्संग
में—मिटो।
विधियां अलग
हैं। कोई जहर
खा कर आत्मघात
कर लेता है।
कोई गोली मार
कर आत्मघात कर
लेता है। कोई
रस्सी से लटक
जाता है, आत्मघात
कर लेता है।
कोई नदी में
कूद जाता है, आत्मघात कर
लेता है। कोई
रेल की पटरी
पर सो जाता है,
आत्मघात कर
लेता है। वे
विधियां अलग
हैं, मगर
आत्मघात एक है।
ऐसे ही ये सब
विधियां अलग
है, लेकिन
मूल में तो
आत्मघात है।
मिटो!
अहंकार
समाप्त हो जाए।
यह असली
आत्मघात है, जो मैं
तुम्हें सिखा
रहा हूं। शरीर
को मिटा कर तो
कुछ खास मिटता
नहीं, फिर
लौट आओगे—और
फिर ऐसे ही
शरीर में
लौटोगे।
क्योंकि तुम्हारी
चेतना तो बदली
नहीं। चेतना
के खास ढंग के
कारण ही तो
तुमने यह शरीर
लिया था।
चेतना का ढंग
तो बदला नहीं।
तुम फिर इसी
शरीर में आ
जाओगे। तुम
फिर ऐसा ही
शरीर चुन लोगे,
ऐसा ही गर्भ
चुन लोगे।
आत्मघात
असली आत्मघात
नहीं है, असली
आत्मघात
संन्यास है, इसमें तुम्हारी
चेतना ही अपना
व्यक्तित्व
खो देती है, अपना अहंकार
खो देती है।
फिर लौटना
नहीं है।
जो मिट
गया, वह हो गया।
जिसने अपने को
बचाया, उसने
खोया। इसलिए
मेरी देशना का
सार—सूत्र है :
'मिटो'।
फिर जो
विधि तुम्हें
रुच जाए। सारी
विधियों की
जरूरत नहीं है।
एक विधि काफी
हो सकती है—सम्यकरूपेण
की जाए। यहां
इतनी विधियों
पर बोल रहा
हूं क्योंकि
अलग— अलग लोग
है, अलग— अलग
विधियां
रुचेंगी।
किसको कौन ठीक
पड़ जाएगी, वह
उस ढंग से मर
जाए। वह उस
ढंग से अपने
को मिटा ले।
तुम इसकी
फिक्र मत करो,
क्योंकि
मिटना मिटना
एक जैसा है।
जहर खा कर मरे
कि गोली मार
कर मरे, मरना
एक जैसा है।
और सबका
इंतजाम मत
करना, क्योंकि
उसमें कभी—कभी
भूल हो जाती
है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
मरने गया।
होशियार आदमी!
उसने सोचा कि
सभी इंतजाम कर
लेना चाहिए।
उसने ठीक ऊंची
एक पहाड़ी चुनी।
उसके नीचे नदी
भी चुनी, कि
ऊपर से
कूदूंगा, कूदने
में मर गया तो
ठीक, नहीं
कूदने में मरा
तो डूब कर मर
जाऊंगा। उस
पहाड़ी के ऊपर
एक वृक्ष लगा
था, उसकी
शाखा में उसने
रस्सी बांधी,
कि अगर
इसमें भी चूक
हो जाए तो गले
में फंदा लगा
लंगूा; फंदा
लगा कर मर
जाऊंगा। मगर
इसमें भी चूक
हो जाए—गणित
वाला आदमी सब
हिसाब कर लेता
है—तो वह
मिट्टी के तेल
का एक कनस्तर
भी लाया था कि
ऊपर उंडेल
लूंगा और आग
लगा दूंगा। और
कौन जाने
इसमें भी चूक
हो जाए तो
पिस्तौल भी ले
आया था। और
फिर इसी में
चूक हो गयी।
रस्सी पर लटका,
तेल डाला, झूला, गोली
मारी। गोली
लगी रस्सी में।
सो रस्सी कट
गयी। नदी में
गिरा सो आग
बुझ गयी।
मैंने पूछा, जब वह लौटकर
चला आ रहा था
दुखी, मैंने
पूछा—क्यों
मुल्ला, क्या
हुआ? उसने
कहा—क्या करें,
अगर आज
तैरना न आता
होता तो मारे
गये थे। सारे
इंतजाम करने
की जरूरत भी
नहीं है।
समग्रता
से एक इंतजाम
काफी है।
चौथा
प्रश्न :
यदि
परमात्मा
सर्वव्यापी
है, सबमें
हैं, तो
कोई भी गलत
काम नहीं होना
चाहिए। तब
क्यों होती है
चोरी—डकैती और
हत्या और न
जाने क्या—क्या?
और अगर वही
कराता है सब, तो फल भी वही
क्यों नहीं
भोगता है? अगर
शेर में भी
परमात्मा है
तो फिर शेर
हत्या क्यों
करता है?
कोई
ज्ञानी आ
पहुंचे! यहां
अज्ञानियों
का जमघट है। यहां
इतने ज्ञान की
बात नहीं
पूछनी चाहिए। इस तरह
के बचकाने
प्रश्नों का
कोई मूल्य
नहीं है।
लेकिन पूछा है, तो अब तुम
समझो! पूछा है,
तो उत्तर
मिलेगा।
पहली
बात, इस संसार
में न कोई गलत
काम कभी हुआ
है, न होगा।
हो ही नहीं
सकता। असंभव
है। क्योंकि
परमात्मा
सर्वव्यापी
है।
तुम जिसको
गलत कहते हो, वह तुम्हारी
धारणा है। तुम
जिसको सही
कहते हो, वह
तुम्हारी
धारणा है।
तुम्हारी तुम
धारणा के कारण
सही और गलत
दिखायी पड़ता
है। धारणा को
छोड़ो, फिर
क्या सही और
क्या गलत है!
ध्यानी को कुछ
गलत नहीं
दिखायी पड़ता
और कुछ सही
नहीं दिखायी
पड़ता, क्योंकि
ध्यानी की
धारणा छूट गयी।
एक बात
तुम्हें ठीक
दिखायी पड़ती
हैं, दूसरे
को वही गलत
दिखायी पड़ती
है।
समझो
तुम कहते हों—चोरी
पाप है।
लाओत्सू
वजीर हो गया
था अपने देश
का। एक आदमी
चोरी करके
पकड़ा गया।
उसने चोर को
और साहूकार को, दोनों को छह—छह
महीने की सजा
दे दी।
साहूकार
चिल्लाया कि
तुम होश में
हो कि शराब पीए
हो, मामला
क्या है? साहूकार
को सजा! कभी
सुनी?
लेकिन
लाओत्सु ने
कहा : अगर तुम
इतना धन इकट्ठा
न करते, तो
चोरी होती न।
तुमने सारे
गांव का धन
इकट्ठा कर
लिया, चोरी
न हो तो क्या
हो? सच तो
यह है कि
मैंने खुद ही
कई बार सोचा
है। यह आदमी
तो नंबर दो का
कसूरवार है, नंबर एक के
तुम कसूरवार
हो। न तुम
इतना धन
इकट्ठा करते,
न चोरी होती।
सम्राट
के पास बात
गयी। सम्राट
भी बहुत हैरान
हुआ कि इस तरह
की सजा! लेकिन
लाओत्सू की
बात में बल तो
था।
चोरी
ठीक है या गलत? चोरी गलत—
अगर तुम यह
मानते हो कि
लोगों का धन
इकट्ठा करना
बिलकुल ठीक है।
तो गलत है।
अगर लोगों का
धन इकट्ठा
करना ही गलत
है, तो फिर
चोरी कैसे गलत
होगी? चोरी
तो एक तरह का
साम्यवाद है।
यह व्यक्तिगत
रूप से
साम्यवाद
फैला रहा है
आदमी; बांट
रहा संपत्ति
लोगों की। जहा
ज्यादा
इकट्ठी हो गयी
है, वहा से
छुटकारा दिला
रहा है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
पुरूधो ने
लिखा है : सब
संपत्ति चोरी
है। संपत्ति
मात्र चोरी है।
तुम्हारे पास
इकट्ठी कैसे
होती है? किसी
न किसी की जेब
खाली होगी तो
इकट्ठी होगी।
तो साहूकार और
चोर में फर्क
क्या है।
पुरूधो के
हिसाब से? चोर
छोटा—मोटा चोर
है, साहूकार
बड़ा चोर है—बस
इतना फर्क है।
क्या ठीक है, क्या गलत है?
हिंदुस्तान
में तेरापंथी
जैन हैं। वे
कहते हैं कि
राह में पड़ा
हुआ आदमी अगर
प्यासा मर रहा
हो तो पानी भी
मत पिलाना।
क्यों? तुम
कहोगे यह तो
बात बड़ी गड़बड़
हो गयी। पानी
पिलाना
प्यासे को तो
पुण्य है, अच्छा
कार्य है न!
इसको तो कोई
बुरा कार्य
नहीं कहेगा।
तेरापथियो से
पूछो। वे कहते
हैं कि अगर
तुमने इसको
पानी पिलाया और
यह आदमी मर
रहा था, पानी
की वजह से बच
गया और कल अगर
इसने किसी की
हत्या कर दी
तो तुम भी
जिम्मेवार
होओगे। न तुम
इसको पानी
पिलाते, न
यह बचता, न
हत्या होती।
तुम्हारा हाथ
तो है इसमें, इससे तुम बच
न सकोगे।
इसलिए झंझट
में न पड़ो, अपना
रास्ता निकल
जाओ, चुपचाप
निकल जाओ।
विचार
की बात तो है
ही। तुमने
किसी आदमी को
रुपये दिये, कि वह भूखा
था, और
उसने जाकर
शराब पी ली। न
तुम रुपये
देते, न वह
शराब पीता।
शराब पी कर
आया और अपनी
पत्नी को मार
डाला।
तुम्हारी दया
ने बड़ी हानि
कर दी।
क्या
ठीक है! क्या
गलत है!
और एक
बात विचारणीय
है कि क्या
जिसको तुम ठीक
कहते हो, वह
गलत के बिना
बच सकेगा? जरा
सोचो! रामायण
में से रावण
को निकाल दों—वह
गलत है—राम को
बचा लो।
बचेंगे राम? रावण को
निकालते ही
उनकी जान निकल
जाएगी। उनमें
कुछ न बचेगा।
भूसा रह जाएगा।
ऐसा लगता है
गेहूं तो फिर
रावण ही था। न
सीता की चोरी
होगी, न
राम—रावण
युद्ध होगा—कथा
आगे ही नहीं
बढेगी। कथा को
आगे बढ़ाने के
लिए रावण एकदम
जरूरी है।
यहूदा
को हटा लो और
जीसस की कहानी
बेकार हो जाती
है, क्योंकि
यहूदा के कारण
ही जीसस को
सूली लगती है।
तो ही कहानी
में रस है।
तुम
जरा बुरे को
अलग कर लो
जीवन से, असाधु
को अलग कर लो—तुम्हारे
साधु कहां
बचेंगे? बुरे
को अलग करते
ही तुम्हारे
महात्माओं
में कितना
महात्मापन रह
जाएगा? किस
कारण रह जाएगा?
संयुक्त है
जैसे दिन और
रात जुड़े हैं।
राम और रावण
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। न तो
रावण हो सकता
है राम के
बिना, न
राम हो सकते
हैं रावण के बिना।
महर्षि
रमण ने ठीक
उत्तर दिया था।
एक जर्मन
विचारक ने
उनसे पूछा—यही
पूछा था, जैसे
तुमने पूछा है—कि
दुनिया में
इतना पाप
क्यों है, इतनी
बुराई क्यों
है? पता है
रमण ने क्या
कहा? बड़ा
अदभुत उत्तर
दिया, शायद
ही किसीने
दिया हो? कोई
ज्ञानी ही दे
सकता है। रमण
ने कहा— 'टू
थिकेन द
प्लाँट। ' कहानी
को जरा
रसपूर्ण
बनाने के लिए।
सघन करने के
लिए। कहानी
में थोड़ा मजा
लाने के लिए।
तुमने
देखा, तुम
कोई कहानी बना
सकते हो
जिसमें बुराई
न हो? सच तो
यह है, कहा
जाता है अच्छे
आदमी की
जिंदगी में
कहानी होती ही
नहीं। अच्छा
आदमी बिलकुल
सपाट कोरे
कागज की तरह
होता है।
बुराई कुछ की
नहीं, अच्छाई
ही अच्छाई है।
बैठकर घर में
भजन ही करते
रहे; कहानी
कहां? तुमने
अच्छे आदमी की
कहानी देखी है?
अगर अच्छे
आदमी की भी
कहानी होगी तो
बुरे आदमी को
लाना पड़ेगा, जो उनकी
कहानी को जान
देगा, प्राण
देगा। नहीं तो
रामचंद्र जी
अपने लेकर
सीता जी को और लक्ष्मण
जी को घूमते
रहते। अभी तक
घूम ही रहे
होते! वह तो
भला रावण का...!
तो घूमते रहो
सीता जी को
लेकर। कहां
रुकोगे? कैसे
रुकोगे?
इस
जगत में बुराई
और भलाई
विपरीत नहीं
है—परिपूर्वक
हैं। रात के
बिना दिन नहीं
है, दिन के
बिना रात नहीं
है। स्त्री के
बिना पुरुष
नहीं है, पुरुष
के बिना
स्त्री नहीं
है। सर्दी के
बिना गर्मी
नहीं है, गर्मी
के बिना सर्दी
नहीं है। यहां
जितने
द्वंद्व हैं,
वे ऊपर से
दिखायी पड़ रहे
हैं, भीतर
जुड़े हैं। यह
तुम्हें
स्मरण आ जाए, तो तुम
समझोगे कि बड़ी
प्यारी कहानी
चल रही है।
फिर बुरे से
भी तुम नाराज
नहीं हो; तुम
जानते हो, वह
भी अनिवार्य
है। रावण की
अनुकंपा है, इसलिए राम
इतने प्रगाढ़
होकर प्रकट
हुए हैं।
काले
ब्लैकबोर्ड
पर लिखना पड़ता
है न सफेद खड़िया
से!
ब्लैकबोर्ड न
हो तो सफेद
खड़िया से लिख
न सकोगे। रावण
ब्लैकबोर्ड
है, राम सफेद
खड़िया की तरह
उभरते हैं।
रावणों को
इसलिए तो काला
पोता गया है।
जितना काला
रावण को
पोतेगे, उतने
ही राम सफेद
हो कर प्रकट
होते हैं।
जीवन की यह
अनिवार्यता
है। यह खेल है।
यहां न कुछ
बुरा है न कुछ
भला है।
तुम
पूछते हो, 'यदि
परमात्मा
सर्वव्यापी
है'... निश्चित
सर्वव्यापी
है... 'सब में
है, तो फिर
कोई भी काम
गलत नहीं होना
चाहिए। ' हुआ
ही नहीं—मैं
तुमसे कहता
हूं— अभी तक।
खेल ही हो रहा
है यहां—क्या
गलत और क्या
सही! नाटक हो
रहा है। तुम
नाटक में बहुत
ज्यादा भ्रम
में पड़ गये हो।
बंगाल
के एक बहुत
बड़े विद्वान, ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
एक नाटक देखने
गये। उसमें एक
आदमी है जो
बड़ा बुरा
चरित्र है—
भ्रष्टाचारी,
बलातकारी।
और उसमें एक
स्त्री है जो
बिलकुल
पवित्र है, प्रार्थना
की तरह पवित्र
है, फूलों
की तरह क्यारी
है। वह उस
स्त्री को पकड़
लेता है एक
जंगल में और
बलात्कार
करना चाहता है।
सन्नाटा छा
जाता है सभा
में। और अचानक
लोग चकित हो
जाते हैं, ईश्वरचंद्र
छलांग लगाकर
पहुंच गये मंच
पर, निकाल
लिया जूता और
लगे पीटने
उसको! किसी की
समझ में नहीं
आया कि यह हुआ
क्या, मामला
क्या है! उस
आदमी ने जूता
उनका हाथ में
ले लिया और
सिर से लगा
लिया। जब उसने
सिर से लगाया,
तब उन्हें
होश आया, कि
यह नाटक है।
अच्छे—बुरे
की आदत! भले
आदमी! यह
बर्दाश्त के
बाहर हो गया।
उस आदमी ने
कहा : जूता मैं
दूंगा नहीं।
यह मेरा
पुरस्कार है।
आप जैसा आदमी
धोखे में आ
गया, इससे बड़ा
प्रमाणपत्र
और और क्या होगा
मेरे नाटक का?
उसने जूता
नहीं दिया सो
नहीं दिया। वह
जूता अब भी
सुरक्षित है
कलकत्ते में।
उसका परिवार
उसे संभाल कर
मंजूषा में
रखे हुए हैं
कि
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
धोखा खा गये, यह प्रमाण
है कि जरूर यह
अभिनेता कुशल
रहा होगा, अदभुत
रहा होगा! ऐसी
स्थिति पैदा
कर दी कि लगा
कि बिलकुल सच
हो रहा है।
इतना सच कि
बचाने कि
जरूरत आ गयी।
जो
जानते हैं
उनके लिए यह
पृथ्वी बड़ा
मंच है। यहां
न बुरा कभी
हुआ है, न
होता है। यहां
बुरा— भला सब
नाटक का
हिस्सा है— 'टू थि केन द
प्लाँट'।
कही को जरा
रसपूर्ण
बनाने के लिए।
राम अकेले—
अकेले आएंगे,
दिखायी भी न
पड़ेंगे, रावण
को लाना पड़ता
है। रावण
अकेला आएगा तो
भी राम के
बिना कोई रस
नहीं होगा उसके
जीवन में। जो
इस तरह देखेगा,
वह मुक्त हो
जाएगा—शुभ—
अशुभ दोनों से।
और शुभ— अशुभ
से मुक्त हो
जाना संतत्व
है। साधु—
असाधु से
मुक्त हो जाना
संतत्व है।
इसलिए
ध्यान रखना, संत का अर्थ
साधु मत करना।
साधु तो संत
है ही नहीं।
साधु कैसे संत
होगा?— अभी
असाधु से लड़
रहा है। संत
तो वह है, जिसे
दिखायी पड़ गया
साधु— असाधु
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। अब न जो
साधु रहा, न
असाधु रहा, जो दोनों के
पार खड़ा हो
गया, साक्षी
हो गया, द्रष्टा
हो गया।
वही
द्रष्टा होना
मैं तुम्हीं यहां
सिखा रहा हूं।
इसलिए बहुतों
को अड़चन होती
है। वे यहां
आकर सोचते हैं
कि अरे! यहां
बुरा— भला सब
चल रहा है! वे
सोच कर आए थे
कि लोग बैठे
होंगे झाडों
के नीचे अपनी—
अपनी माला
लिये, राम—राम
जप रहे होंगे।
यहां हजार काम
हो रहे हैं। यहां
रामचंद्र जी
सीता को लिये
जा रहे हैं।
यहां रावण जी
पीछे लगे हैं,
यह सीता को
भगाने का
आयोजन कर रहे
हैं! यहां
पूरी रामलीला
हो रही है!
तुम
आते हो, तुम
बड़ी बेचैनी
में पड़ जाते
हो। तुम सोचते
थे रामचंद्र
जी बैठे होंगे,
सीता जी
बैठी होंगी—सीता
जी चरखा चला
रही होंगी, खादी बुन
रही होंगी; रामचंद्र जी
मक्खी उड़ा रहे
होंगे।
करेंगे क्या
बैठे—बैठे!
मेरी
दृष्टि में
जीवन जैसा है, स्वीकार्य
है। जीवन
प्यारा है; उसमें बुरा—
भला सब
अंगीकार होना
चाहिए। उसमें
खट्टा— मीठा
सब चाहिए।
नहीं तो जीवन
एक स्वाद का
होगा तो उसके
आयाम खो
जाएंगे। जीवन
बहु— आयामी
होना चाहिए। हां,
इस सब के
भीतर साक्षी
जगना चाहिए।
सब चलता रहेगा
ऐसा, साक्षी
जग जाना चाहिए।
और
निश्चित ही
रावण का
साक्षी जगा
होगा—उतना ही, जितना राम
का। इसलिए
लक्ष्मण को
भेजा है—रावण
से शिक्षा
लेने! कि जा, मरते रावण
से कुछ सीख ले!
कहा कि वह
महाज्ञानी था।
क्या बात होगी?
क्या राज
होगा? साक्षी
था। सीता को
चुराकर तो ले
गया था, लेकिन
सीता के साथ
कुछ
दुर्व्यवहार
किया नहीं।
सीता को
सुरक्षित रखा
था। एक खेल था,
जैसे पुरा
कर रहा था। एक
खेल था, उसका
पार्ट निभा
रहा था। लेकिन
कहीं दूर खड़ा
सब देख भी रहा
होगा। राम के
हाथ से मर कर
प्रसन्न था, आनंदित था।
कहते हैं राम
के हाथ से
मरने के कारण
मुक्त हो गया।
राम के हाथ से
मरना यानी
गुरु के हाथ
से मरना।
जिस
आत्महत्या की
मैं तुम्हें
अभी बात सिखा
रहा था, रावण
ने राम को
उकसा कर, राम
के हाथ से
अपनी हत्या
करवा ली। इससे
शुभ और क्या
हो सकता है?
कहानी
को जरा नये
ढंग से देखो, जरा मेरी आंखों
से देखो! और तब
तुम पाओगे : यहां
कुछ बुरा नहीं
है, कुछ
भला नहीं है। यहां
काटे फूलों की
रक्षा कर रहे
हैं, उनके
दुश्मन नहीं
हैं। यहां फूल
काटो के संगी—साथी
हैं, सखा
हैं, उनमें
कोई शत्रुता
नहीं है। यह
आदमी की
बुद्धि है, जो निर्णय
कर लेती है—यह
अच्छा, यह
बुरा। निर्णय
एक दफा कर
लिया, तो
फिर वैसा
दिखायी पड़ने
लगता है। फिर
वैसा दिखायी
पड़ने लगता है,
फिर सवाल
उठता है कि
परमात्मा
बुरे— भले को
क्यों मौका दे
रहा है, भला
ही भला होना
चाहिए।
परमात्मा
तुम्हारी
बुद्धि के
अनुसार नहीं चल
रहा है।
तुम्हारी
बुद्धि बड़ी
छोटी है।
तुम्हें क्या
बुरे का पता
है, क्या भले
का पता है?
अब तुम
परेशान हो रहे
हो कि एक सिंह
आया और आदमी
को झपट कर खा
गया, तो यह बड़ा
बुरा हो रहा
है। क्यों
बुरा हो रहा
है? सिंह
को भूखा मारना
है? सिंह
की भी तो सोचो!
वह सिर्फ अपना
नाश्ता कर रहा
है।
अब
आदमी बड़ा
होशियार है।
जब सिंह को
मारता है, उसको कहता
है—शिकार, खेल।
और जब सिंह
मारता है तब
नहीं कहता
शिकार, तब
खेल नहीं
मानता। यह तो
बड़ी बेईमानी
हो गयी। तुम
सिंह को मारो,
तो खेल
खेलने गये थे—
आखेट, क्रीड़ा!
ऐसे तुमने नाम
बना रखे हैं।
और जब सिंह
कभी शिकार कर
जाए, तो नर
भक्षी है।
क्यों साहब, उनको भी कुछ
खेलने दोगे कि
नहीं!
सब खेल—खेल
में हो रहा है।
तुम्हारा भी
खेल में हो
रहा है, उनको
भी खेल चल रहा
है।
जिस
दिन तुम
साक्षी— भाव
से देखोगे...
आदमी की तरह
मत देखो, क्योंकि
उसमें तो
पक्षपात हो
गया। तुम जब
आदमी की तरह
देखते हो, तो
पक्षपात हो
गया; फिर
तुम सिंह की
तरह नहीं
देखते।
पक्षपात छोड़
कर साक्षी—
भाव से देखो, तो तुम
देखोगे, क्या
फर्क पड़ता है,
तुमने सिंह
खाया है कि
सिंह ने तुमको
खाया है? राम
ही राम को खा
रहा है! राम ही
राम को पचा
रहे हैं! ठीक
चल रहा है।
कुछ अड़चन नहीं
है।
परम
ज्ञानी को अगर
सिंह खा जाएगा, तो वह यही
जानता है कि
ठीक है, परमात्मा
ने मुझसे
आत्मसात कर
लिया—सिंह के
द्वारा; सिंह
के रूप में
आया और मुझे
ले गया।
अठारह
सौ सत्तावन की
गदर में ऐसा
हुआ। एक
संन्यासी तीस
वर्ष से मौन
था और नग्न भी
था। चांदनी
रात थी, अपनी
मस्ती में
घूमता हुआ जा
रहा था। वह
भूल से
अंग्रेजों की
छावनी में
पहुंच गया। वे
तो समझे कि
कोई जासूस है।
उन्होंने उसे
पकड़ लिया। और
तब वह बोले
नहीं, तब
तो पक्का समझ
गये कि जासूस
है, और
नग्न है। उनको
तो बड़ा क्रोध
आया। किसी ने
एकदम संगीन
खींच कर उसकी
छाती से लगा दी।
बस वह आखिरी
शब्द एक बोला।
जैसे ही उसे
मारा गया, उसकी
छाती में
संगीन भोंक दी
गयी, उसने
आखिरी शब्द जो
बोला, वह
महावाक्य था
उपनिषद का— 'तत्वमसि', तू भी वही है।
क्या कह रहा
है यह
संन्यासी यह
कह रहा है : मैं
तुझे पहचानता
हूं तू किसी
रूप में आ। तू
आज हत्यारे के
रूप में आया
है, तू
मुझे धोखा न
दे पाएगा— 'तत्त्वमसि'!
उस
संन्यासी ने
कसम ली थी कि
जब परमात्मा
से मिलन होगा, तभी बोलूंगा।
तीस साल नहीं
बोला था, आज
बोला।
परमात्मा ने
खूब ढंग चुना
आने का।
साक्षी
के लिए कुछ
बुरा नहीं, कुछ भला
नहीं। सब
लहरें है। और
सब एक की ही
लहरें हैं।
तुम
पूछते हो, ' और अगर वही
कराता है सब
कुछ, तो फल
भी वही क्यों
नहीं भोगता?' तुम क्या
सोचते हो, तुम
भोग रहे हो? वही भोग रहा
है। कराता भी
वही भोगता भी
वही। कर्ता भी
वही, भोक्ता
भी वही।
तुम्हारी भ्रांति
है कि तुम कर
रहे हो और
तुम्हारी
भ्रांति है कि
तुम भोग रहे
हो। तुम हो कहां?
तुम्हारा
होना भ्रांती
है, भ्रम
है, माया
है। तुम तो
लहर हो उसीकी।
जो कुछ भी हो
रहा है, उस
पर ही हो रहा
है। ऐसा ध्यान
जब तुम्हारा
खुलेगा, साफ
होगी दृष्टि,
तो दिखायी
पड़ेगा।
लेकिन
इस तरह के
प्रश्नों को
उठाकर तुम
कहीं न
पहुंचोगे। इन
प्रश्नों का
कोई बौद्धिक
उत्तर नहीं है।
अनुभूति ही
उत्तर हो सकती
है। थोड़े
साक्षी बनो।
थोड़े ध्यान
में जाओ।
तुम्हें
दिखायी पड़ने
लगेगा जो मैं
कह रहा हूं।
मेरी बात मान
लेने से हल
नहीं होगा, क्योंकि
तुम्हारा
अनुभव तो
विपरीत ही
रहेगा। एक
बिच्छू आकर
काट जाएगा और
सब भूल जाएगा।
तुम कहोगे—यह
बिच्छू! इसमें
कैसे
परमात्मा
देखें! और फिर
परमात्मा ने
इसमें जहर क्यों
रखा है? 'टू
थिकेन द
प्लाँट'।
नहीं तो मजा
ही क्या होता
है? वह जो
डंक दे गया है
तुम्हें जोर
से, इसमें
मजा ही नहीं
रह जाता। तुम
क्या सोचते हो
उसमें काँफी
या चाय रख देता?
सब पोच हो
जाता, खेल
का मजा ही चला
जाता। उसके
डंक में रखा
है जहर, कि
दे जाए मजा तुम्हें!
मगर वही है।
वही जहर है, वही अमृत है।
जरा—सा
कांटा चुभ
जाता है और
तुम्हें सवाल
उठने लगते हैं—बड़े
दार्शनिक
सवाल तुम
सोचते हो—कि
कांटा क्यों
चुभा? अगर
परमात्मा
सर्वव्यापी
है, तो कांटा
क्यों चुभा?
कांटे
में भी वही
चुभ रहा है, लेकिन हम
भेद किये बैठे
हैं। हमारा
परमात्मा से
मतलब कुछ ऐसा
होता है कि जो—
जो हम चाहें, वही होना
चाहिए, तो
परमात्मा है।
तो सब ईसाई
चाहते हैं, हिंदू
समाप्त हो
जाएं, ईसाई
होने चाहिए, तो वे
मानेंगे कि
परमात्मा है।
और हिंदू
चाहते हैं, कि सब ईसाई
समाप्त हो
जाएं, तो
परमात्मा है।
मस्जिद जो
जाता है वह
सोचता है, सब
मस्जिद जाएं
तो परमात्मा
है। मंदिर
क्यों हैं? ये मंदिर
नहीं होने
चाहिए। और
मंदिर
जानेवाला
सोचता है, सब
मस्जिदें गिर
जाएं। अगर
तुम इस तरह
सोचोगे, तो
तुम पाओगे कि
ऐसी कोई चीज
नहीं है, जिसको
ठीक मानने
वाले सारे लते
राजी हो जाएं,
या गलत
मानने के लिए
सारे लोग राजी
हो जाएं।
परमात्मा
किसकी सुने?
मैंने
सुना है कि
पहले वह यहीं
जमीन पर रहता
था। बीच बाजार
में ही रहता
था। मगर लोगों
ने उसे बहुत
परेशान कर
दिया। लोग
सुबह से शाम
तक कतार लगाए, उसके सामने
खड़े रहें। रात
उसको जगा—जगा
कर कहें कि इस
वक्त ऐसा होना
चाहिए, इस
वक्त ऐसा होना
चाहिए। आज
पानी गिराओ!
और दूसरा आकर
उसी वक्त कहता
है कि आज पानी
मत गिराना, आज मैंने
घड़े बनाए हैं,
सूख जाने
दो! और एक कहता
है, आज
मैंने बीज
डाले हैं, खेत
में, पानी
गिराओ। और कोई
कहता है, धूप
निकालो, आज
कपड़े सुखाने
हैं। घबड़ा गया
होगा—पागल गया
होगा! भाग खड़ा
हुआ। तब से
लौट कर नहीं
देखा उसने यहां।
और जहा—जहा
आदमी पहुंच
जाता है, वहा
से भाग जाता
है। यहां से
गया तो हिमालय
पर रहने लगा।
फिर आदमी
हिमालय पहुंच
गया, उसने
हिमालय छोड़
दिया। फिर वह
चांद पर रहने
लगा। अब आदमी
चांद पर पहुंच
गया, उसने
चांद छोड़ दिया।
तुम यह मत
सोचना कि चांद
पर वह रहता
नहीं था—रहता
था, तुम्हारे
पहुंचने की
वजह से भाग
गया। तुम जहा
जाओगे, वहीं
से भाव जाएगा।
तुमसे ड़रता
है। तुम ऐसे
सवाल उठाते
हो!
इन
सवालों का कोई
बौद्धिक हल
नहीं है।
साक्षी बनो।
तुम्हारे
साक्षी में ये
सारे सवाल गिर
जाएंगे। और
जिस दिन
तुम्हें राम
और रावण में
एक दिख जाएगा, उस दिन
जानना कि कुछ
हुआ। जब तक
रावण तुम्हें
दुश्मन
दिखायी पड़े और
राम तुम्हें
प्यारे
दिखायी पड़े, तब तक समझना,
अभी कुछ हुआ
नहीं। फूल और
कांटा जिस दिन
एक हो जाएं, सुख और दुख
जिस दिन एक हो
जाएं, उस
दिन जानना, कुछ हुआ है।
उसी दिन सारे
प्रश्न
समाप्त हो
जाते हैं।
पांचवां
प्रश्न :
आपके
संन्यासी, स्वामी
ब्रह्म वेदांत,
दूसरे
संन्यासियों
तथा लोगों को
गुमराह कर रहे
हैं। वे अपना
वर्चस्व
जमाने के लिए
आपका
दुरुपयोग कर
रहे हैं। वे
आपकी दी हुई
माला भी नहीं
पहनते, और
न गैरिक
वस्त्र ही
पहनते हैं, और इसके
बचाव में कहते
हैं कि भगवान
ने ऐसा करने
की मुझे आज्ञा
दी है, क्योंकि
मैं परम—
अवस्था को
उपलब्ध हो गया
हूं र इसलिए
माला या गैरिक
वस्त्र की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
भगवान ने
इन्हें मुझसे
मुक्त कर दिया
है। वे महीने
में एक—दों
स्थानों पर
जाकर शिविर
लेते हैं। वहा
न आपके प्रवचन
सुनाए जाते
हैं, न
आपके बताए
ध्यान ही कराए
जाते हैं।
श्री ब्रह्म
वेदांत जी को
देश के अन्य
भागों में भी
आपके संन्यासी
शिविरों में
बुलाते हैं।
उनके साथ—साथ
पोरबंदर के
श्री अनंत जी
तो और भी गजब
ढाते हैं। वे
अपना पेशाब
सबके ऊपर
छिड़कते हैं।
और वहा दारू, गांजा, चरस
की महफिल जमती
है। और यह सब
आपके नाम पर
होता है, जिसके
बारे में
लोगों में
गलतफहमी पैदा
होती है। क्या
हम यह सब चुपचाप
देखते रहें? हम क्या
करें प्रभु?
समाधि, ब्रह्म वेदांत
पर मुझे दया
आती है! कुछ
होने के करीब
ब्रह्म वेदांत
की चेतना आती
थी और चूक गये।
करुणा के
पात्र हैं।
इस
प्रश्न का
उत्तर इसलिए
दे रहा हूं कि
यह औरों के भी
काम का होगा।
अक्सर ऐसा हो
जाता है, जब ध्यान
की थोड़ी—सी भी
झलक मिलती है,
तो अहंकार
उस पर कब्जा
कर लेता है।
ऐसा निर्मला
श्रीवास्तव
को हुआ, अब
ब्रह्म वेदांत
को हो गया है।
ऐसा औरों को
भी हुआ है।
कुछ दों—चार
पश्चिम गये है
संन्यासी, उनको
हो गया है। अब
पचास हजार
संन्यासी हैं
मेरे, यह
बिलकुल
स्वाभाविक है,
दो— चार—पांच
को यह झंझट
होनेवाली है।
जब
ध्यान की पहली
झलक आती है तो
लगता है, हो
गया है। अब
क्या करना है
और? अब
पूजा लेने का
क्षण आ गया।
अब पूजा करने
का वक्त गया।
अब घोषणा कर
दो कि मैं
पहुंच गया हूं, सिद्ध हो
गया हूं
भगवत्ता पा ली
है।
अहंकार
बैठा है पीछे।
तुम जो भी
पीओगे, अहंकार
उसके ही
द्वारा अपने
को सिद्ध करने
की कोशिश
करेगा। और दया
इसलिए आती है
कि ब्रह्म
वेदांत सरल
व्यक्ति हैं।
बेईमान नहीं
हैं, धोखेबाज
नहीं हैं।
लेकिन अहंकार
के चक्कर में
पड़ गये। और जब
अहंकार पीछे
से आता है, तो
वह सब करवाएगा।
वह कहेगा, छोड़ो
माला! क्योंकि
अहंकार यह
बर्दाश्त
नहीं कर सकता,
कि तुम किसी
और की माला
पहनो! छोड़ो
गैरिक वस्त्र!
अब तो तुम परम
मुक्त हो गये।
और
मैंने कभी
उनसे नहीं कहा
कि तुम माला
छोड़ दो। और न
ही कभी कहा कि
तुम गैरिक
वस्त्र छोड़ दो।
और न ही मैंने
उनसे कहा है
कि तुम पहुंच
गये।
मेरी
प्रतीक्षा
करो थोड़ा। तुम
में से भी कई
को ये
भ्रांतियां
आएंगी, तब
थोड़ी
प्रतीक्षा
करना। मैं यहां
हूं! जब मैं
समझूंगा कि अब
तुम अहंकार की
सीमा के बाहर
हो गये और कोई
खतरा नहीं, तो मैं
कहूंगा कि तुम
पहुंच गये। तुम्हें
इतनी जल्दी
क्या है? तुम
इतना अधैर्य
क्यों कर रहे
हो? मैं तो
चाहूंगा कि
तुम सब
भगवत्ता को
उपलब्ध हो जाओ,
एक भी पीछे
न छूटे। लेकिन
तुम जल्दबाजी
करोगे तो चूक
जाओगे। और जो
मेरे माध्यम
से मेरे साथ
चलकर भगवत्ता को
उपलब्ध होगा,
मैं उससे
कहूंगा भी कि
तू माला छोड़
दे तो नहीं
छोड़ सकता। मैं
उससे कहूंगा
कि अब छोड़ दे
ये गैरिक
वस्त्र, तो
वह मेरी नहीं
सुनेगा। वह
कहेगा कि जिस
सहारे मैं आया
हूं, उसके
प्रति
कृतज्ञता, उसके
प्रति
अनुग्रह का
भाव। बुद्ध के
शिष्य
सारिपुत्र, मोदगलान, महाकाश्यप ज्ञान
को उपलब्ध हो
गये, तो
बुद्ध ने उनको
कहा कि अब तुम
जाओ और खबर
पहुंचाओ लोगों
तक। उन्होंने
अपने
पीतवस्त्र
नहीं छोड़ दिये।
सारिपुत्र को
जब भेजा तो
सारिपुत्र
रोता हुआ गया।
और जब उसके
साथियों ने
पूछा, आप
रोते क्यों
हैं, क्योंकि
बुद्ध ने कहा
कि तुम भी
बुद्ध हो गये—उन्होंने
कहा, वह तो
ठीक है कि मैं
हो गया, लेकिन
जिसके द्वारा
हुआ हूं उससे
दूर जाना पड़ रहा
है। उससे तो
अच्छा था, अभी
न होता बुद्ध!
सारिपुत्र
के वचन बड़े
बहुमूल्य हैं!
'इससे तो
अच्छा था अभी
न होता बुद्ध,
अगर मुझे यह
पता होता कि
बुद्ध को छोड़
कर जाना पड़ेगा
मुझे बुद्ध
होते ही तो
मैंने इसको
टाला होता।
उनके चरणों
में बैठने का
मजा ऐसा था, आनंद ऐसा था।
बुद्धत्वता
एक दफे छोड़ दी
होती। यह तो
फिर भी हो
सकती थी कभी, लेकिन बुद्ध
का संग—साथ, उनका
सत्संग...
गया—आज्ञा
दी थी बुद्ध
ने तो गया।
लेकिन जहां भी
होता था, सुबह—सांझ
जिस तरफ बुद्ध
होते, उसी तरफ
साष्टाग दंड़वत
करता। उसके
शिष्य पूछते,
अब आप स्वयं
बुद्ध हो गये
हैं, आप
किसको दंड़वत
करते हैं? कोई
दिखायी तो
पड़ता नहीं। तो
वह कहता, मेरे
गुरु उस दिशा
में होंगे, उनके तरफ
अनुग्रह का
भाव। रोता! जब
बुद्ध का शब्द
आ जाता उसके
मुंह पर उसकी आंखों
से झड़ी लग
जाती।
तो
जिसको हो
जाएगा, मैं
कहूंगा। तुम
जल्दी मत करो।
अब
ब्रह्म वेदांत
व्यर्थ की
झंझट में पड़
गये हैं।
उपद्रव में पड़
गये हैं। याद
दिलाओ उन्हें, कि इस
भ्रांति को
छोड़े। अभी कुछ
हुआ नहीं है।
होने के करीब
था और हो सकता
था— और इस
उपद्रव ने
सारे होने को
अवरुद्ध कर
दिया है।
पूछा
तुमने : आपके
संन्यासी
स्वामी
ब्रह्म वेदांत
दूसरे
संन्यासियों
तथा लोगों को
गुमराह कर रहे
हैं।
गुमराह
वे कर सकते
हैं। इससे
दूसरों को
सावधान होना
चाहिए। इस तरह
की घटनाएं रोज
घटेगी। ये
बिलकुल
स्वाभाविक
हैं, सदा घटती
रही हैं।
बुद्ध का
चचेरा भाई, देवदत्त, घोषणा कर
दिया था। जब
उसने देखा
सारिपुत्र और
मोदगलान और
महाकाश्यप
जैसे लोग
ज्ञान को
उपलब्ध हो गये,
तो देवदत्त
से बर्दाश्त
नहीं हुआ—वह
चचेरा भाई था।
बुद्ध के साथ
बड़ा हुआ उसी
राजमहल में
बड़ा हुआ, उसी
राजकुल का था,
भाई ही था, और दूसरों
की घोषणा हो
गयी, और
मेरी घोषणा
नहीं की बुद्ध
ने! अब बुद्ध
कैसे घोषणा
करें, अभी
घोषणा की बात
ही नहीं आयी
थी! तो उसने
खुद ही घोषणा
कर दी। वह
पांच सौ बुद्ध
के भिक्षुओं
को अपने साथ
लेकर अलग हो
गया। पांच सौ
भिक्षु उसके
साथ चले गये।
तो लोग
भ्रांति में
पड़ सकते हैं।
और उसने घोषणा
कर दी कि मैं ' और
बुद्ध के पास
जाने की अब
कोई जरूरत
नहीं है।
खुद
बुद्ध हूं।।
फिर
उसने इतना ही
नहीं किया, उसने बुद्ध
को मार डालने
की भी चेष्टा
की। क्योंकि
बुद्ध जब तक
मौजूद हैं, तब तक वह
कितना ही कहे,
दस—पचास, सौ—दों—सौ, पांच सौ
लोगों को भी
अपने साथ
इकट्ठा कर ले,
तो भी
हजारों लोग तो
बुद्ध के पास
जा रहे थे। वह
उसके कष्ट का
कारण था। उसने
पागल हाथी
बुद्ध पर
छुड़वाया।
बड़ी
प्यारी घटना
घटी—जब पागल
हाथी बुद्ध के
सामने आया, वह ठिठक कर
खड़ा हो गया और
झुक गया। उसने
सिर बुद्ध के
चरणों में लगा
लिया। पागल
हाथियों में
भी इतनी समझ
होती है, कहानी
का इतना ही
अर्थ है। मगर
अहंकार पागल
हाथियों से भी
ज्यादा पागल
होता है।
तो
सावधान रहें
मेरे
संन्यासी! इस
तरह के लोगों
को कोई साथ देने
की जरूरत नहीं।
इस तरह के
लोगों को
समझाओ। उनको
चूक मत जाने
दो; उन पर दया
करना, उन
पर नाराज मत
होना, उनके
दुश्मन मत हो
जाना, उनको
समझाना।
भूलों को घर
वापस लाना।
उनका विरोध
नहीं करना है।
लेकिन उनको
सहयोग भी मत
देना, क्योंकि
वे खुद भ्रांति
में हैं और
तुम्हें
भ्रांति में
डालेंगे।
'वे
अपना वर्चस्व
जमाने के लिए
आपका
दुरुपयोग कर
रहे हैं, यह
होगा। कुछ
संन्यासियों
की खबरें आती
हैं, कोई
मेरे नाम पर
जाकर पैसे
इकट्ठे कर
लेता है, कोई
मेरे नाम पर
जाकर लोगों को
समझाता है कि
मैंने उसे
सिद्धपुरुष
घोषित कर दिया
है। अब चूंकि
संख्या
संन्यासियों
की बड़ी है— और
रोज बढ़ती
जानेवाली है,
इस पूरी
पृथ्वी को
गैरिक कर देना
है—तो ये सारी
कठिनाइयां
आएगी। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
इनके लिए
तुम्हारे
सामने सूत्र
भी होने चाहिए
साफ कि तुम
क्या करो।
इसलिए 'समाधि'
का प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। उसने पूछा
है, हम
क्या करें?
पहली
तो बात : क्रोध
मत करना! दया
करना।
तुम्हारा
संगी—साथी कोई
भटक जाए तो
उसे रास्ते पर
वापस लाने की
फिक्र लेना।
उसे एकांत में
प्रेम से
समझाना। उसे
मेरे पास ले
आना।... वह
ब्रह्म वेदांत
यहां भी आने
से बचते हैं।
उनको मैंने
खबरें
भिजवायीं कि
तुम यहां आ
जाओ, मेरे
सामने थोड़ी
बात कर लो। तो
वह आंख से आंख
मिलाने से डरते
हैं। वह यहां
आएं कैसे? आएंगे
तो कहेंगे
क्या? उत्तर
क्या होगा? जो झूठ वह
दूसरों से कह
रहे हैं, वह
मुझसे तो नहीं
कह सकेंगे।
मैंने तो उनसे
कभी कहा नहीं
कि माला छोड़
दो, कि
गैरिक वस्त्र
छोड़ दो। मैंने
कभी कहा नहीं
कि तुम पहुंच
गये हो।
उनको
समझाओ।
और
ध्यान रखो कि
उनके द्वारा
किसी और
संन्यासी को
व्यर्थ का
भटकावा पैदा न
किया जाए।
उनके शिविर
इत्यादि लेना
बंद करो! अब
मेरे संन्यासी
सोचते हैं कि
मैंने कह दिया
है ब्रह्म
वेदांत पहुंच
गये हैं, इसलिए
अब इनका शिविर
ले लो, इनका
सत्संग करो।
ब्रह्म वेदांत
लोगों को
लिखते हैं कि
भगवान ने मुझे
आशा दी है कि
मैं प्रचार
करूं। मैंने
उन्हें कोई
आज्ञा नहीं दी
है।
इस
संबंध में
स्मरण रखो कि
जब भी कोई
आदमी इस तरह
की बात तुमसे
आकर कहे, तो
जब तक उसके
पास आश्रम का
पत्र न हो
मेरी तरफ से
तब तक तुम कभी
सुनना मत। न
तो पैसा दो, न सम्मान दो,
न किसी तरह
के शिविर
आयोजित करो।
क्योंकि बहुत
झंझट खड़ी हो
रही है। रोज
लोग आकर यहां
खबर लाते हैं,
कि हमसे
फलां
संन्यासी दस
हजार रुपये ले
गया; उसने
कहा मैं फाउंडेशन
की तरफ से, आश्रम
की तरफ से आया
हूं, बड़ी
जरूरत है। अब
यह कठिन होगा
इसको तय करना
कि कौन, कहां
से, किससे
मांग कर ले
जाएगा।
और लोग
सरल है, और
लोगों का
मुझसे प्रेम
है; वे
सोचते हैं कि
जरूरत होगी, संन्यासी को
भेजा है, तो
दे दो, पैसे
दे दो; चलो
ले जाने दो, कोई बात
नहीं।
मैंने
किसी को पैसा
लेने नहीं
भेजा है। पैसे
के संबंध में
तुम चिंता ही
मत करो। पैसे
से मेरी कुछ
दोस्ती है। आ
ही जाता है।
तुम उसकी
फिकिर ही मत
करो। तुमसे
लेना ही नहीं
है। तुमसे कोई
लेने आए, उसको
देने की जरूरत
नहीं है। और न
ही मैंने किसी
को अधिकार
दिया है। हां,
जिनको मैं
भेजता हूं
आश्रम से, उनका
खयाल रखो। 'मृदुला' आती
है आश्रम की
तरफ से, 'चैतन्य
भारती'। दो
व्यक्ति
आश्रम की तरफ
से आते हैं; कोई तीसरा
व्यक्ति नहीं
आता। और जब भी
कोई आए, उससे
तुम पत्र
मांगना; ताकि
इस तरह की
गलतियों को
रोका जा सके।
' श्री
ब्रह्म वेदांत
जी को देश के
अन्य भागों
में भी आपके
संन्यासी
शिविरों में
बुलाते हैं।
उनके साथ—साथ
पोरबंदर के
श्री अनंत जी
तो और भी गजब
ढाते हैं '।
' अनंत
जी' मालूम
होता है श्री
मोरारजी
देसाई के
शिष्य हो गये।
वे अपना पेशाब
सबके ऊपर
छिड़कते हैं।
अनंत की तो
कोई क्षमता
नहीं है। अनंत
तो व्यर्थ
उपद्रवी है।
ब्रह्म वेदांत
की तो कुछ
क्षमता थी।
ब्रह्म वेदांत
तो ध्यान के
करीब आ रहे थे।
बात जमी जाती
थी कि अपने
हाथ से उखाड़
ली। फिर जम
सकती है। कुछ
बिगड़ा नहीं
गया है। और
उनकी बात
बिगाड़ने में
अनंत का हाथ
है। अनंत
उपद्रवी है।
गांजा, चरस,
यह सब जमता
होगा। इसी को
जमाने के लिए
ब्रह्म वेदांत
को आडू बना
लिया है।
ब्रह्म वेदांत
सीधे आदमी हैं।
अनंत उपद्रवी
है। तो वह तो
कई खेल करेगा,
कई तरह के
उपद्रव करेगा।
इस तरह
की बातों को
सहारा मत दो।
इस तरह की
बातों के
बिलकुल रोक दो।
इनको जड़ से
काट दो। शुरू
से ही काट दो।
यह मेरे बाद
तो इस तरह की
बहुत बातें
चलेंगी, तब
बहुत मुश्किल
हो जाएगा।
इसलिए अच्छा
है कि मेरे
रहते तुम ये
सारे सूत्र
खयाल में ले
लो। मेरे
सामने ही मत
चलने दो, ताकि
मेरे बाद भी न
चल सके।
और जब
मैं मौजूद हूं
तो सीधे मुझसे
पूछ ले सकते
हो। अब यह
क्या पगलपन है? किसी मादक
द्रव्य से, कोई आदमी
समाधि को
उपलब्ध नहीं
होता। लेकिन
सदियों से इस
देश में यह
भ्रांति रही है,
क्योंकि
मादक
द्रव्यों में
एक है बात, कि
उनसे झूठी
समाधि पैदा हो
जाती है।
इसलिए सस्ता
जिनको प्रचार
करवाना हो... अब
करते वे यह
होंगे... ऐसा
बहुत दफे किया
गया है, किया
जाता रहा है।
इस तरह की
धोखेधड़ी बड़ी
प्राचीन है।
साधुओं के
अखाड़ों में यह
कोशिश रही है,
प्रसाद में
भाग मिला
देंगे। भक्त
प्रसाद लेकर
भाग खा जाएंगे,
और फिर जब
भजन होगा तो
भक्त मस्ती
में आ जाएंगे।
और भक्त को पता
ही नहीं कि वह
भाग खा गया है!
वह सोचेगा कि
ध्यान की
मस्ती है। वह
सोचेगा, गुरुकृपा
हो रही है। वह
सोचेगा, सत्संग
का लाभ मिल
रहा है।
यह सदा
से चलता रहा
है। सोमरस से
लेकर अभी तक।
वेद से लेकर
अब तक। साधु
इस उपद्रव को
फैलाते रहे
हैं। यह सस्ता
मामला है।
किसी को ध्यान
में ले जाना
तो कठिन
प्रक्रिया है।
लेकिन किसी को
ध्यान में
पहुंच जाने का
धोखा दे देना
बहुत सरल
मामला है। अब
तो पश्चिम में
तो गांजा—चरस
से भी और
ज्यादा
विकसित चीजें
पैदा हो गयी
हैं— एल. एस. डी.।
जरा—सी मात्र
एल. एस. डी. की
पानी में डाल
दी जाए और
सैकड़ों लोग
मस्ती में आ
जाएंगे।
सरकारें
विचार कर रही
हैं कि जहा
लोग उपद्रवी हैं, बगावती हैं,
वहा के
जलस्रोतों
में एल. एस. डी.
डाल दिया जाए।
तो लोग गड़े
मस्त हो
जाएंगे, उनका
उपद्रव खो
जाएगा। उनकी
बगावत चली
जाएगी।
सरकारें
विचार कर रही
हैं इस तरह का
कि आज नहीं कल,
जब बच्चा
पैदा हो
अस्पताल में,
तभी उसके
भीतर कुछ तत्व
डाल दिया जाए,
जिसके कारण
उसके भीतर कभी
बगावत न हो।
वह हमेशा 'जी
हुजूर रहे।
ये
सारे मादक
द्रव्य 'जी
हुजूरी, पैदा
करवा देते हैं।
ये तुम्हारी
जीवन—चेतना को
निखारते नहीं,
और न
तुम्हें
ध्यान की तरफ
ले जाते हैं।
और इस तरह के
सब उपद्रव
चलते रहे हैं।
पेशाब छिड़की
जाती रही है, पेशाब
प्रसाद में दी
जाती रही है।
और जितनी मूढ़तापूर्ण
बात हो, उतनी
ही लोगों को
जंचती है। कुछ
मूढ़ता में भी
बड़ा आकर्षण है।
इसको समझने की
कोशिश करना।
तुम्हारे
तथाकथित
परमहंस
मलमूत्र सेवन
भी करते रहे
हैं, प्रसाद
में भी मिलाते
रहे हैं। ये
विक्षिप्तता
के लक्षण हैं।
इसलिए मैं
मोरारजी
देसाई को
फिफ्टी
परसेंट परमहंस
कहता हूं। ये
विक्षिप्तता
के लक्षण हैं।
ये रुग्णता के
लक्षण हैं। यह
चित की स्वस्थ
दशा नहीं है।
इस तरह
का कोई कृत्य
कहीं होता हो, तत्क्षण
रोकना। इस तरह
के कृत्य में
मत पड़ना। और
इस तरह के
कृत्य
करनेवाले बड़े
उपाय से चलाते
हैं व्यवस्था।
अब मुझे पता
चला है कि वहा
वे करते क्या
हैं? जो भी
पहुंचता है, उसी को कहते
हैं— ' आओ
भगवान!' उसके
पैर पड़ते हैं।
अब जब
तुम्हारा कोई
पैर पड़ेगा—कभी
तुम्हारा
किसी ने पैर
पड़ा नहीं—और
तुम से कहेगा :
भगवान! एकदम
से तुम्हें ही
भरोसा नहीं
आता। और जब
तुमसे जो ' भगवान'
कह रहा है, और तुम्हारे
पैर पड़ रहा है,
अब यह
बिलकुल
स्वाभाविक हो
गया कि तुम
वहा किसी भी
बात में कोई
एतराज न
उठाओगे।
तुम्हें भोजन
कराया जाएगा,
तुम्हारे
हाथ—पैर दबाए
जाएंगे, तुम्हारी
सेवा की जाएगी।
और तुम बड़े
प्रसन्न हो
गये, तुम
बड़े आनंदित हो
गये— अब जो भी
चल रहा है, चलने
दो। अब तुम
इसमें विरोध
नहीं कर सकते।
कैसे विरोध
करणै? जिन्होंने
इतना सम्मान
तुम्हें दिया
है, उत्तर
में तुम भी तो
सम्मान ही
दोगे न! ये
सब चालबाजिया
हैं।
और ये
उपद्रव सदा
आते हैं। हर
बुद्धपुरुष
के साथ यह
उपद्रव खड़ा हो
जाता है। नया
कुछ नहीं है; मगर सावधानी
बरतनी जरूरी
है।
पूछा
है, ' और यह सब
आपके नाम पर
होता है।
जिससे आपके
बारे में
लोगों में
गलतफहमी पैदा होती
है। ' गलतफहमी
की कोई चिंता
नहीं है, वह
तो मैं खुद ही
काफी पैदा कर
लेता हूं।
उसकी कोई
चिंता नहीं है।
गलतफहमी की
फिक्र मत करना।
फिक्र इस बात
की करना कि
मेरे
संन्यासियों
को कोई भ्रांत
दिशा न मिल
जाए। लोगों
में गलतफहमी
की कोई फिक्र
नहीं है। लोगो
की फिक्र कौन
करता है, वे
क्या कहते हैं!
लेकिन
संन्यासी, जो
कि धीरे— धीरे
ध्यान की तरफ
उत्सुक हुए
हैं, इनको
कोई गलत
रास्तों पर ले
जानेवाले लोग
पैदा न हो
जाएं, इसका
खयाल रखना। इस
तरह के लोग
कहीं भी हों, उनको पकड़ कर यहां
ले आना। उनको
कहना, पहले
वहां चलो।
उनको रास्ते
पर लाने की
चेष्टा करना
सब तरह से। और
जाने— अनजाने
किसी तरह का
सहारा मत देना।
'क्या
हम यह सब
चुपचाप देखते
रहें?'
नहीं, जरा भी
चुपचाप देखने
की जरूरत नहीं
है। इसका मतलब
यह नहीं कि
तुम डंडे लेकर
और ब्रह्म
वेदांत या
अनंत की कुटाई
में लग जाओ।
उससे कुछ लाभ
नहीं होगा।
चुपचाप नहीं
देखना है। बड़ी
करुणा से, बड़े
प्रेम से, कोई
साथी— संगी
तुम्हारा भटक
रहा है, उसे
वापस लाना है।
करना तो कुछ
होगा। और अगर
सजग संन्यासी
रहे, तो इस
तरह के उपद्रव
नहीं हो
सकेंगे। नहीं
होने चाहिए!
इनका रोका
जाना एकदम
अनिवार्य है।
छठवां
प्रश्न :
मैं
कुछ भी नया
करने से भयभीत
होता हूं। मैं
इस भय से
मुक्त कैसे
होऊं?
नया
सदा ही भयभीत
करता है।
अपरिचित डराता
है। लेकिन
अपरिचय में ही
विकास है।
अनजान में ही
यात्रा है।
रोज—रोज
पुराने को
छोड़ना है, रोज—रोज नये
में गति करनी
है।
जैसे
रोज नया सूरज
उगता है सुबह, रोज नये फूल
खिलते हैं
सुबह, ऐसे
ही तुम्हारे
जीवन में भी
रोज नयी रोशनी
चाहिए, नये
फूल चाहिए।
किताबों में
दबे हुए
मुर्दा फूलों
को लेकर मत
बैठे रहो।
तुम्हारी
स्मृतियां
किताबों में
दबे मुर्दा
फूल हैं। अतीत
के साथ मत
उलझे रहो।
सुविधापूर्ण
है। साहस की
कोई जरूरत
नहीं है अतीत
के साथ जीने
में। कमजोर के
लिए बडी
सुरक्षा है।
लेकिन अतीत
में ही डूबे
रहना, तो
फिर विकास
कैसे करो? विकसित
कैसे होओगे?
नया
पुकारता है
रोज—रोज।
परमात्मा नित
नया है, नित
नूतन है। जो
नये में उतर
सकता है, वही
परमात्मा को
जान सकता है।
पुराने के
प्रति रोज
मरना है और
नये के प्रति
रोज जन्मना है।
और यह समय की
धारा, जो
जा रही है
तुम्हारे पास
से, फिर
नहीं लौट कर
आएगी। एक क्षण
भी खोना मत।
अतीत के साथ, पुराने के
साथ गंवाया
गया हर क्षण
व्यर्थ होगा।
हे मन
के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे, क्षार
बनोगे। जल्दी
करो, अगर
तुम्हारी
जीवन एक
ज्योति नहीं
बन सकता है, अगर अंगार
लपट कर लौ
नहीं बन सकता
है, तो
जल्दी ही राख
हो जाएगा। फिर
एक अवसर गया।
ऐसे ही बहुत
अवसर तुमने
खोए हैं। अब
इस अवसर को मत
खोओ। मेरे साथ
होने का पूरा
लाभ ले लो। हे
मन के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे, क्षार
बनोगे।
जो न
करेगा सीना
आगे
पीठ
उसे खींचेगी
पीछे
जो ऊपर
को उठ न सकेगा
उसको
जाना होगा
नीचे;
अस्थिर
दुनिया में
स्थिर होकर
कोई
वस्तु नहीं
रहती है,
हे मन
के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे, क्षार
बनोगे।
ध्यान
रखना, यहां
कुछ भी थिर
नहीं है। या
तो आगे जाओ या
पीछे जाओ।
जाना तो पडेगा
ही। वैज्ञानिक
कहते हैं : थिर
होना असंभव है।
कोई चीत थिर
नहीं है। या
तो रोज—रोज
नये जीवन में
प्रवेश करो, या रोज—रोज
पुरानी
मृत्यु में
दबते जाओगे।
छोडो भय! भय से
भर भय करो, और
किसी चीज से
भय मत करो।
जलना
अर्थ उन्हीं
का रखता
जो कि
अंधेरे में
खोयों को
हाथों
के ऊपर
अवलंबित आकुल,
शंकित
दृग कोयों को
आशा का
आश्वासन देकर
जीवन
का संदेश
सुनाते,
जो न
किरण की रेख
बनोगे, धूल—
धुएं की धार
बनोगे।
हे मत
के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे, क्षार
बनोगे।
हृदय
मिला है, उसमें
चाहो
तो सारा
संसार बसा लो,
जिसका
चाहो जी बहलाओ
जिससे
चाहो जी बहलाओ
कंठ
मिला है, जो
भीतर से
उठता
है बाहर
बिखराओ,
भार
बनोगे मन के
ऊपर,
जो न
सहज उदगार
बनोगे।
है मन
के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे, क्षार
बनोगे।
राख
हुआ जाता है
जीवन, प्रतिपल
राख की पर्त—पर—पर्त
जमी जाती है।
अंगार को
लपटने दो।
अंगार को लौ
बनने दो। नये
का भय क्या? नया जो जीवन
है। नये का भय
क्या? नया
तो परमात्मा
है। लेकिन
बहुत लोग राख
होने में
सुविधा पाते
हैं। बहुत लोग
मरने के पहले
मर जाते हैं।
बहुत लोग ऐसे
जीते हैं जैसे
कब्र में हों।
खोलो
द्वार—दरवाजे
मन के।
परमात्मा रोज
दस्तक देता है।
उसकी दस्तक
सुनो।
नये के
साथ जाने में
ही तुम्हारा
विकास है। नये
के साथ ही तुम
आकाश में उड़
सकोगे। भूलें
होंगी। और वही
कारण है डर का।
हर एक
आदमी को यही
समझाया गया है
बचपन से—
भूलें मत करना।
उसके कारण भय
पैदा हो गया है, कहीं भूल न
हो जाए।
पुराने काम
में भूल नहीं
होती, क्योंकि
जाना— माना है।
वही—वही तुम
करते रहते हो,
करते ही रहे
हो, वही—वही
करते रहते हो,
भूल नहीं
होती। एक बात
तय होती है कि
भूल नहीं होती।
मगर सबसे बड़ी
भूल हो गयी, कि तुम
मुर्दा हो गये,
तुम जिंदा न
रहे। मैं
तुमसे कहता
हूं भूलों से
भय मत खाओ।
भूलें करने
वाले ही जीवन
में कुछ सीख
पाते हैं। एक
ही बात याद
रहे : वही भूल
बार—बार न हो।
नयी भूल रोज
करो। नयी भूल
ईजाद करो। जाग
कर भूल करो, ताकि भूल के
कुछ सीख लो और
भूल का कुछ
परिणाम हो जाए।
भूल तो पीछे
छूट जाएगी, लेकिन भूल
से सीखी जो
बात तुमने
उसकी सुगंध
तुम्हारे साथ
सदा रह जाएगी।
भूलें करके ही
आदमी सीखता है।
परसों
एक जर्मन
संन्यासी ने
मुझसे पूछा...
ईसाइयों की
कहानी है कि
एक बाप के दो
बेटे थे।
दोनों बेटे
आपस में बड़े
विपरीत थे।
बेटा तो बड़ा
पुरातन—पंथी, रूढ़िग्रस्त।
छोटा बेटा बड़ा
बगावती, विद्रोही।
दोनों में
बनती भी नहीं
थी। बड़ा बेटा
तो लीक—लीक
चला, लकीर—लकीर
चलता; लक्ष्मण—रेखा
के बाहर कभी न
जाता। छोटा
बेटा लक्ष्मण—रेखा
के भीतर ही न
आता; वह
बाहर ही बाहर
जाता। आखिर
झगड़ा इतना बढ़
गया कि बूढ़े
बाप ने उन
दोनों को अलग
कर दिया।
संपत्ति
बांट दी गयी।
छोटा बेटा
अपनी संपत्ति
लेकर शहर चला
गया। छोटे
गांव में क्या
संपत्ति का
करोगे? सुविधा
नहीं है। चला
गया होगा उन
दिनों की बंबई,
उन दिनों के
कलकत्ता। खूब
लुटाया, जुआ
खेला, शराब
पी, वेश्यागमन
किया, सब
तरह के पाप
किये, सब
तरह की भूले
की। जल्दी ही
भिखारी हो गया।
बड़ा
बेटा खेत पर
काम करता रहा।
गायों की
देखभाल करता
रहा। संपत्ति
बढ़ाता रहा। दस
साल में बड़े
बेटे ने
संपत्ति कोई
पांच गुनी कर
ली। छोटा बेटा
बिलकुल
भिखारी हो गया, भीख मांगने
लगा। एक दिन
रास्ते पर भीख
मांगते—मांगते
उसे याद आया—एक
द्वार के
सामने खड़ा था,
संयोग की
बात कि उस
मकान का द्वार
ठीक वैसा था जैसा
उसके बाप के
मकान का द्वार,
उसे याद आया,
कि हद हो
गयी, मैं
भीख मांग रहा
हूं। मेरे घर
में सैकड़ों
नौकर हैं। यदि
मैं जाऊं तो
मेरे पिता
मुझे अब भी
माफ कर सकेंगे,
मुझे उनके
प्रेम का
भरोसा है। और
अब मैं यह
नहीं चाहता कि
मुझे बेटे की
तरह स्वीकार
करें। वह हक
तो मैंने गंवा
दिया। अब मैं
उसका पात्र
नहीं हूं।
लेकिन एक नौकर
की तरह तो
स्वीकार कर ही
सकते हैं। जहां
और सैकड़ों
नौकर हैं, मैं
भी एक पड़ा
रहूंगा, नौकरी
करता रहूंगा।
गायों को चरा
लाऊंगा, कि
खेत पर बीज बो
दूंगा, या
फसल काट
लाऊंगा; या
जो भी होगा।
इस भीख मांगने
से तो बेहतर
होगा। अपने
पिता के घर तो
रहूंगा।
वह उसी
दिन लौटा अपने
गांव। खबर
पहुंच गयी
उसके लौटने की।
रोज—रोज खबरें
पहुंचती थी।
पिता पूछता था, क्या हो रहा
है? क्या
हो रहा है? कहां
तक बात पहुंची?
कहां तक बात
बिगड़ी कि बनी?
अब तक दुखद
समाचार ही आए
थे। आज समाचार
आया कि बेटा आ
रहा है। बाप
ने बड़ा उत्सव
किया। सारे
गाव को भोजन
पर निमंत्रण
दिया। बैंड़—बाजे
बजवाए। फूल
लगवाए। दीये
जलवाए
दीपमाला! सबसे
कीमती और
महंगी शराब
तलघरों से
निकाली।
बहुमूल्य से
बहुमूल्य
भोजन तैयार
करवाए।
बड़ा
बेटा तो खेत
में काम कर
रहा था, उसे
कुछ पता नहीं
था। दिन भर की
धूप—दोपहरी
में काम करके
जब वह लौट रहा
था, रास्ते
पर गांव में
उसे किसी ने
कहा कि हद हो
गयी। अन्याय
की भी एक सीमा
होती है!
तुम्हारे बाप
ने बहुत
अन्याय किया
है तुम्हारे
साथ। तुम इसके
पास रहे, इसकी
सेवा की, आशा
का पालन किया—तुम्हारे
लिए कभी बैंड़—बाजे
न बजे। और
तुम्हारे लिए
कभी गांव को
भोज न दिया
गया। और
तुम्हारे लिए
कभी शराब की
कीमती बोतलें
न निकाली गयीं।
आज तुम्हारा
छोटा भाई, वह
सपूत, वापिस
लौट रहा है, उसके स्वागत
में यह सारा
आयोजन है। और
तुझे कुछ पता
है?
बेटे
ने सुना तो
उसकी छाती धक
से हो गयी।
उसने कहा, यह अन्याय
है। आज तक
मैंने कभी
पिता की किसी
बात का विरोध
नहीं किया, लेकिन आज
बर्दाश्त मैं
भी न कर
सकूंगा।
यह आया
बड़े क्रोध में, अपने बाप से
बोला, कि
यह क्या हो
रहा है? मेरे
लिए कभी
स्वागत नहीं!
बाप ने कहा, तू तो मेरे
पास है। लेकिन
जो भटक गया था,
वह वापिस
लौट रहा है।
तूने कभी कोई
भूल ही नहीं
की। लेकिन
जिसने बहुत
भूलें की, वह
भूलों से जाग
गया है, वापिस
लौट रहा है।
इसलिए इसका
स्वग़ात जरूरी
है।
जर्मन
सन्यासिन ने
मुझसे पूछा—वह
एक ईसाई पादरी
की पत्नी है, वह भी मेरे
संन्यासी है—उसनें
पूछा कि मेरे
मन में सदा यह
सवाल उठता है
कि बड़े बेटे
के संबंध में
क्या? छोटे
बेटे का
स्वग़ात हो रहा
है, यह तो
ठीक है; मगर
बड़े बेटे के
संबंध में
क्या?
मैंने
उससे कहा, बड़ा बेटा
सिर्फ कहानी
को पूरा करने
के लिए है।
बड़े बेटे का
जन्म ही नहीं
हुआ। क्योंकि
जिसने भूलें
नहीं की, उसने
कुछ सीखा ही
नहीं। जो कभी
दूर नहीं गया,
वह पास भी
नहीं आ सकता।
बड़ा बेटा पास
है, मगर
पास नहीं आ
सकता—क्योंकि
दूर ही नहीं
गया।
यह
जीसस की कहानी
बड़ी प्यारी है।
यह कह रही है, भूल करो, डरो
मत। क्योंकि
भूल से ही तो
सीखोगे। भूल
जब शूल बनकर
चुभेगी, तभी
तो तुम जागोगे।
और हर भूल कुछ
सिखा जाएगी।
उसी भूल को
दोहराना मत।
दोहराने में
क्या सार है? फिर भूल को
ही दोहराने
में लकीर के
फकीर मत हो जाना।
जो आदमी रोज—रोज
नित नयी भूले
करता जाए, और
साहसपूर्वक
करता जाए, और
हर भूल से कुछ
सीखता जाए।
उसकी संपदा
विकसित होने
लगती है। वही
व्यक्ति किसी
दिन प्रज्ञा
को उपलब्ध होता
है। उसी
व्यक्ति के
जीवन में
बुद्धिमत्ता
के मेघ घिरते
हैं। उसी के
जीवन में
ज्ञान की
वर्षा होती है।
एक तो
ज्ञान है, जो किताबों
से मिलता है; वह कचरा है।
और एक ज्ञान
है, जो
जीवन से मिलता
है; वही
बहुमूल्य है।
तुम
ध्यान रखना, जिसने पाप
ठीक से नहीं
पहचाना, वह
कभी पुण्य को
नहीं पहचान
पाएगा। और
जिसने संसार
को ठीक से
नहीं देखा, वह परमात्मा
के पास नहीं आ
पाएगा। यह
संसार
परमात्मा के
पास आने के
लिए ईजाद की गयी
भूल है। यह
परमात्मा के
द्वारा ही
ईजाद की गयी
भूल है। यह
उपाय है, यह
अवसर है—तुम्हें
भटकाने का, तुम्हें
भुलाने का। और
तब भूल— भूल कर
तुम जब याद
करोगे, चूक—चूक
कर जब तुम फिर
वापस लौट
जाओगे, तो
हर बार
तुम्हारी प्रौढ़ता
बढ़ेगी। हर बार
तुम्हारा
केंद्रीकरण
बढ़ेगा। हर बार
तुम्हारी
चेतना ज्यादा
प्रखर होती जाएगी।
ध्यान रहे—
हे मन
के अंगार,
अगर
तुम लौ न
बनोगे,
क्षार
बनोगे।
जो न
करेगा सीना
आगे
पीठ
उसे खींचेगी
पीछे,
जो ऊपर
को उठ न सकेगा,
उसको
जाना होगा
नीचे
अस्थिर
दुनिया में
थिर हो कर
कोई
वस्तु नहीं
रहती है,
हे मन
के अंगार,
अगर
तुम लौ न
बनोगे,
क्षार
बनोगे।
जो न
किरण की रेख
बनोगे,
धूल—
धुएं की धार
बनोगे।
भार
बनोगे।
मन के
ऊपर जो न सफल
उदगार बनोगे।
हे मन
के अंगार, अगर तुम लौ न
बनोगे,
क्षार
बनोगे।
भूल से
भयभीत न होओ।
वही भय है, कि कहीं भूल
न हो जाए; इसलिए
घर के भीतर
छिपे रहो।
गोबर—गणेश बने
बैठे रहो, कहीं
भूल न हो जाए।
मैं
तुमसे कहता
हूं : भय छोडो।
निकलो घर के
बाहर! भूलें
होने दो। बस
एक भूल दुबारा
न हो, इतना
स्मरण रहे।
जल्दी ही
भूलें चुक
जाएंगी। और
जल्दी ही तुम
पाओगे; सद्य—स्नात,
ताजे तुम हो
गये। अभी—अभी
नहाये तुम हो
गये। और तब
जीवन एक नया
ही आविर्भाव
लेता है। एक
नया रंग! जीवन
एक नयी धुन
लेता है। एक
नया गीत! जीवन
आनंद बन जाता
है।
जीवन
के उस आनंद बन
जाने का नाम
ही ईश्वर का
अनुभव है।
भूल और
भूल और भूल, शूल और शूल
और शूल, और
सब तरह से
चुभा हुआ आदमी,
और सब तरह
से चेष्टा
करके हार गया
आदमी, सब
तरफ से अपने
अहंकार को
सिद्ध करने की
यात्रा में
चला आदमी और
सिद्ध नहीं कर
पाया, विफल
हो गया ही
समर्पण करने
में समर्थ हो
पाता है।
समर्पण कमजोर
की बात नहीं।
गोबर—गणेश की
बात नहीं है
समर्पण। घर
में ही जो
बैठा रहा, उसकी
बात नहीं है।
समर्पण उसकी
बात है, जिसने
जीवन को जाना—सब
तरह से जाना।
सब तरह से लडा,
संघर्ष
किया; सब
तरह से जुझा, युद्ध किया
और हारा; और
एक दिन पाया
हार—हार कर, कि जितने की
चेष्टा में
हार है। तो अब
हार का भी
प्रयोग करके
देख लूं। अब
अपने से हार
जाऊं। और तभी
जीत फलित होती
है।
एक तरफ
शाने—खुदी
मानए—इजहार भी
है
जब्ते—गम
दिल की नजाकत
पै मगर बार भी
है
लुक
दोनों से
उठाते हैं
उठानेवाले
जिंदगी
निकहते—गुल भी, खलिशे—खार
भी है
फूल भी
है और कांटा
भी
जिंदगी
निकहते—गुल भी, खलिशे—खार
भी है
लुत्फ
दोनों से
उठाते हैं
उठानेवाले
लेकिन
जो जानता है, वह दोनों से
ही रस लेता है।
दोनों का ही
मजा ले लेता
है।
दोनों
का स्वाद ले
लेता है।
एक तरफ
शाने—खुदी
मानए—इजहार भी
है
जब्ते—गम
दिल की नजाकत
पै मगर बार भी
है
लुक
दोनों से
उठाते हैं
उठानेवाले
जिंदगी
निकहते—गुल भी, खलिशे—खार
भी है
मनहसिर
हांसिलए—दिल
पै है साबुत
कदमी
जादहे
शौक तो आसां
भी है, दुश्वार
भी है
खुद को
खोया है तो
पाई है
मुहब्बत तेरी
जिंदगी
में यह मेरी
जीत भी है, हार भी है
जीवन का
परम
विरोधाभास
यही है, कि
वहा जो जीतने
की चेष्टा
करता है, करते—करते
हार जाता है।
सब
महत्वाकाक्षाएं
विचलित हो
जाती है। सब
आशाएं एक न एक
दिन राख होकर
गिर पड़ती हैं।
उस दिन एक नया
प्रयोग जीवन
में उठता है—अब
हारकर देख
लूं! अब
स्वेच्छा से
हारकर देख लूं!
वही समर्पण है
और उसी हार
में जीत हैं।
बाण—बिद्ध
मसल सा मैं आ
गिरा हूं अब
तुम्हारी ही शरण
में।
बादलों
के देश तक जब चढ़
गया था
जानता
था लौट आना,
जानता
था, है असंभव
नीड़ बिजली
की
लताओं पर
बनाना,
मैं
गगन को भूमि
की आकांक्षाए
कुछ
बताना चाहता
था,
बाण—बुद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं अब
तुम्हारी ही
शरण में।
किंतु
पश्चात्ताप
करने के लिए
तो
मैं
नहीं तैयार
होता,
नभ न
मुझ को खींच
लेता तो धरा
के
वास्ते
मैं भार होता,
सिद्ध
गिर कर दिया
मैंने कि अपनी
शक्ति
भर ऊपर उठा
मैं,
आज
कमजोरी नहीं, कूअत बडी
मेरी,
तुम्हारे
जो चरण में,
बाण—बिद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं; अब तुम्हारी
ही शरण में।
कामना
मेरी बडी
मुझसे कि उससे
मैं बड़ा, यह जानना था
आदमी
के तन नहीं, मन—हौसले का
कद
मुझे पहचानना
था,
रेख
लोहू की लगा
कर आ रहा हूं
मैं
अधर की मेखला
पर,
शक्ति
अंबर में
परीक्षित,
भक्ति
की लूंगा
परीक्षा मैं
धरणि में
बाण—बिद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं अब
तुम्हारी ही
शरण में।
उडो
जितने दूर तक
उड़ सको। जाओ, जितने दूर
परमात्मा से
जा सको। एक
दिन गिरोगे।
बाण—बिद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं अब
तुम्हारी ही
शरण में।
और तब
गिरने का मजा
और। जो गया ही
नहीं, उसके
गिरने में बल
नहीं होता। जो
लडा ही नहीं, उसकी हार
में जीवन नहीं
होता। जो पास
ही बैठा रहा, वह पास हो ही
नहीं सकता।
पास होने के
लिए दूर जाना
अनिवार्य है।
बाण—बिद्ध मसल
सा मैं आ गिरा
हूं अब
तुम्हारी ही शरण
में।
बादलों
के देश तक जब चढ़
गया था
जानता
था, लौट आना
जानता था,
है
असंभव नीड़
बिजली की
लतइओं पर
बनाना,
साफ है
इस जगत में
कोई घर नहीं
बना सकता।
जाएगा
तो हारेगा।
बादलों
के देश तक जब चढ़
गया था।
और साफ
है, कि बिजली
की लताओं पर
नीड़ बनाने
कोई
जानता
था लौट आना,
लौटना
भी पता था।
लेकिन तब तक
क्या लौटना, जब तक आगे
जाने की
सुविधा हो।
लौटना तो तभी
सार्थक होता
है, जब आगे
जाने का उपाय
ही न रहा।
आखिरी सीमा तक
अहंकार जाता
है तो ही
टूटता है, गिरता
है, समर्पित
होता है।
जानता
था, है असंभव
नीड़ बिजली
की लताओं
पर बनाना, कौन नहीं
जानता! पानी
पर रेखाएं
खींच रहे हैं
हम। कागज की
नावें तेरा
रहे हैं हम।
लेकिन तैराना
जरूरी है। वे
नावें डूबे तो
हमें अनुभव हो।
वे लकीरें
मिटें, तो
हमें पता चले।
मैं
गगन को भूमि
की आकांक्षाएं
कुछ
बताना चाहता
था,
वह जो
दूर उड़ रहा
था आकाश में, इस भूमि की आकांक्षाओं
की खबर आकाश
को देना चाहता
था।
किंतु
पश्चात्ताप
करने के लिए
तो
मैं
नहीं तैयार
होता
समझ
लेना यह बात।
जो सच में ही
जीवन को जीकर, जीवन में
जागकर लौटे
हैं उन्हें
पश्चात्ताप नहीं
होता। वे
परमात्मा से
यह नहीं कहते
कि हम
पश्चात्ताप
कर रहे हैं, हमसे भूलें
हुई।
पश्चात्ताप
क्या? क्योंकि
उन्हीं भूलों
के कारण तो
परमात्मा
मिला, पश्चात्ताप
कैसा? अंधेरे
में गये, अंधेरे
को भोगा, उसी
से तो प्रकाश
की तलाश पैदा
हुई, पश्चात्ताप
कैसा? पाप
किया, उसी
पाप से पुण्य
की यात्रा
शुरू हुई, पश्चात्ताप
कैसा?
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं :
पश्चात्ताप
मत करना।
पश्चात्ताप
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
पश्चात्ताप
का तो मतलब
होता है, हमने
कोई भूल की थी।
नहीं करनी थी,
ऐसी कोई बात
की थी। ऐसी
कोई बात नहीं
है, जो
नहीं करनी है।
सारी बात कर
लेनी है। कर
लेने से ही
बोध है। बोध
से मुक्ति है।
पश्चात्ताप
नासमझ करते
हैं। समझदार
जीवन को जीते
हैं और जानते
हैं, कि
जीवन
परमात्मा ने
दिया है, उसके
पीछे राज है।
यह पाठशाला है।
किंतु
पश्चात्ताप
करने के लिए
तो
मैं
नहीं तैयार
होता,
नभ न
मुझको खींच
लेता तो धरा
के
वास्ते
मैं भार होता,
वह जो
आकाश ने खींच
लिया था,
उसी ने
मुझे पहली बार
धरा पर आने की
सुविधा दी; अब मैं भार
नहीं हूं।
नभ न
मुझको खींच
लेता,
तो धरा
के वास्ते मैं
भार होता,
सिद्ध
गिर कर कर
दिया मैंने
कि
अपनी शक्ति
भार ऊपर—उठा
मैं,
आज
कमजोरी नहीं,
कूअत
बडी मेरी
तुम्हारे जो
चरण में,
यह
कमजोरी के
कारण नहीं
गिरा हूं; जितनी शक्ति
थी, उतना
तो मैं उठा था
आकाश में।
शक्ति चुक गयी।
सीमा आ गयी।
अब जो गिरा
हूं कमजोरी के
कारण नहीं
गिरा हूं—शक्ति
की उडान के
कारण ही गिरा
हूं। यह जो
मेरी समर्पण
की दशा है, यह
अहंकार की
अंतिम
निष्पत्ति है।
यह परम
विरोधाभास है।
जो इसे समझ
लेता है, उसे
जीवन में
समझने की कुछ
भी नहीं रह
जाता। बाण—बिद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं
अब
तुम्हारी ही
शरण में।
कामना
मेरी बड़ी
मुझसे कि उससे
मैं
बड़ा, यह जानना
था
यह
जानना ही
पड़ेगा।
पश्चिम
का एक बहुत बड़ा
धनी एंड्रू
कारनेगी मरा
तो उसके एक
मित्र ने पूछा
कि तुम्हें
कौन—सी चीज
कमाने में
लगाए रही? इतना तुमने
कमाया! कहते
हैं, सबसे बड़ा
धनपति था वह
सारी पृथ्वी
का। कोई दस
अरब रुपया छोड़
कर मरा। कौन
बात तुम्हें
दौड़ती रही? चौबीस घंटे
धन में ही लगा
था! और एक सीमा
आ जाती है, उसके
बाद धन का कोई
मूल्य नहीं
होता, क्योंकि
जितना ज्यादा
धन होता है, उतना मूल्य
कम होता जाता
है, खयाल
रखना। 'ला
ऑफ डिमिनिशिग 'रिटर्न्स'। 'मनोवैज्ञानिक
भी उसे
स्वीकार करते
हैं—अर्थशास्त्र
के नियम को।
तुम्हारे पास
जब एक रुपया
होता है, तो
उस एक रुपये
की कीमत
ज्यादा होती
है। जब
तुम्हारे पास
हजार रुपये
होते हैं, और
फिर एक रुपया
होता है, उस
एक रुपये की
कीमत बहुत कम
होती है। फिर
तुम्हारे पास
दस लाख रुपये
हैं, और एक
रुपया होता है,
उसकी कीमत न
के बराबर होती
है। अगर
तुम्हारे पास
दस अरब रुपये
हैं, एक
रुपये की क्या
कीमत? यह
वही रुपया है!
लेकिन एक आदमी
के पास एक ही
रुपया है, उसके
पास बडी कीमत
है। यह उसका
सर्वस्व हैं।
एक
सीमा आ जाती
है, जब रुपये
का मूल्य
समाप्त हो
जाता है। वह
सीमा कभी आ
गयी और गयी, और एंड्रू
कारनेगी
कमाने में लगा
ही रहा, लगा
ही रहा। पूछा
किसी ने, कौन—सी
चीज तुम्हें
दौडाती रही? उसने कहा, मैं यह
जानना चाहता
था कि मेरी
कामना हारती
है कि मैं
हारता हूं? अभी तक मेरी
कामना नहीं
हारी। और मैं
उसके पहले
हारने को
तैयार नहीं।
फिर लौटूंगा।
फिर कमाऊंगा।
कामना
मेरी बडी
मुझसे कि उससे
मैं बड़ा, यह जानना था,
आदमी
के तन नहीं, मन हौसले का
कद
मुझे पहचानना
था,
रेख
लोहू की लगाकर
आ रहा हूं
मैं
अधर की मेखला
पर,
शक्ति
अंबर में
परीक्षित
..
मैंने अपनी
शक्ति, अपने
संकल्प को
परीक्षा तो
आकाश में कर
ली है...
शक्ति
अंबर में
परीक्षित, भक्ति की
लूंगा
परीक्षा मैं
धरणि में,
अब
भक्ति की
परीक्षा होगी।
शक्ति की
परीक्षा के
बाद ही भक्ति
की परीक्षा है।
संकल्प की
परीक्षा के
बाद ही समर्पण
की परीक्षा है।
शक्ति
अंबर में
परीक्षित, भक्ति की
लूंगा
परीक्षा में
धरणि में
बाण—गिद्ध
मसल—सा मैं आ
गिरा हूं अब
तुम्हारी ही
शरण में।
भय न
करो। जीवन को
जीओ। यह
परमात्मा का
वरदान है। रोज—रोज
जीओ, गहनता से
जीओ, सघनता
से जीओ। जरा
भी भय न करो।
अभय होकर जीओ।
भूलें करो और
खूब करो, बस
वही—वही भूलें
बार—बार मत
करो। और जल्दी
ही वह घडी आ
जाएगी, सब
भूलें चुक
जाएंगी।
भूलों की सीमा
है।
और जिस
दिन सब भूलें
चुक जाती हैं, उस दिन तुम लौटोगे।
परमात्मा भी
तुम्हारे लिए
उस दिन
दीपमालाए सजाता
है।
परमात्मा
भी उस दिन
तुम्हारे लिए
फूल के हार तैयार
करता है।
उस दिन
परमात्मा के
द्वार पर
तुम्हारा स्वागत
है।
मगर
जाना तो होगा
दूर! दूर जो
गया, वही पास आ
सकता है।
आज
इतना ही।
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