श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार :
1-वेदों
में वर्णित
होमापक्षी की
कथा का आशय समझाने
के लिए भगवान
से निवेदन।
2-क्या
कैवल्य में
साक्षी भी
प्रकाश के साथ
समाहित हो
जाता है?
3-हे
भंते! मा शीला
के मन में भाव
उठा दीजिए न!...
4-अब
हद से गुजर
चुकी मुहब्बत
तेरी!
5-प्रार्थना
है कि अब रंग चढ़ा
दें!
6-संसार
क्या है?
पहला
प्रश्न :
वेदों
में
होमापक्षी की
कथा है। यह
चिड़िया आकाश
में बहुत ऊंचे
पर रहती है।
वहीं पर अंडे
देती है। अंडा
देते ही वह
गिरने लगता है।
परंतु इतने
ऊंचे से गिरता
है कि गिरते—गिरते
बीच में ही
फूट जाता है।
तब बच्चा
गिरने लगता है।
गिरते—गिरते
ही उसकी आंखें
खुलती हैं और
पंख निकल आते
हैं। आंखें
खुलने से जब
वह बच्चा
देखता है कि
मैं गिर रहा हूं
और जमीन पर
गिर कर चूर—चूर
हो जाऊंगा, तब वह एकदम
अपनी मां की
ओर फिर ऊंचे
चढ़ जाता है।
इस कथा का आशय
समझाने की
अनुकंपा करें।
नरेंद्र
! यह कथा किसी
पक्षी की कथा
नहीं, मनुष्य
की कथा है।
मनुष्य के पतन,
मनुष्य के
बोध की कथा है।
ऐसा ही मनुष्य
है। आकाश में
हमारा घर है, ऊंचाइयों पर
हमारा घर है, लेकिन जन्म
के साथ ही हम
गिरना शुरू हो
जाते हैं।
गिरने का कोई
अंत नहीं है।
क्योंकि खाई
अतल है। कोई
तल नहीं है
खाई का। हम
गिरते जा सकते
हैं और गिरते
जा सकते हैं।
ऐसी कोई सीमा
नहीं है जहां
अनुभव में आए
कि बस इसके
आगे गिरना और
नहीं हो सकता।
और भी हो सकता
है, और भी
हो सकता है।
अंतिम
पापी कभी हुआ
नहीं। कभी
होगा नहीं।
क्योंकि पाप
में और
परिष्कार हो
सकते हैं। पाप
में और नई
ईजाद हो सकती
है पाप में और
नई कलाएं जोड़ी
जा सकती हैं।
गिरने
का कोई अंत
नहीं है।
गिरते ही
गिरते किसी
दिन आंख खुलती
है। गिरने की
चोट से ही आंख
खुलती है।
गिरने की पीड़ा
से ही आंख
खुलती है। और
उसी आंख के
खुलने में
मनुष्य को
अपने घर की
याद आनी शुरू होती है।
उस आंख का
खुलना है—दर्शन, दृष्टि।
नहीं तो हम
अंधे हैं। ये
बाहर की आंखें
खुली हैं इससे
यह मत सोच
लेना कि
तुम्हारे पास आंखें
हैं। अगर
तुम्हारे पास आंखें
हैं तो फिर
बुद्ध के पास
क्या था? तुम्हारे
पास आंखें हैं
तो फिर महावीर
के पास क्या
था? तुम्हारे
पास आंखें हैं
तो फिर जिनको
हमने द्रष्टा
कहा है, उनके
पास क्या था? नहीं
तुम्हारे पास आंख
नहीं है।
तुम्हारे पास
सिर्फ आंख की भ्रांति
है।
हमारी आंखें
वैसी ही हैं
जैसे तुमने
मोर के पंख पर
बनी आंखें
देखी हों।
उनसे दिखाई
कुछ नहीं पड़ता, आंखें भर
हैं। हमारी आंखें
मोरपंखी हैं।
चित्रित हैं।
दिखता कुछ
नहीं है, सूझता
कुछ नहीं है, बुझता कुछ
नहीं है। टटोल—टटोल
कर गिरते—उठते
हम चलते रहते
हैं। आंख तो
तब है जब
तुम्हें अपने
घर की याद आ
जाए।
आंख तो
तब है जब
तुम्हें
ऊंचाई का
स्मरण आ जाए।
तुम कहां से
आए हो, किस
स्रोत से आए
हो, जब
उसकी प्रतीति
सघन हो जाए, तब समझना कि आंख
खुली। और उसी
क्षण क्रांति
शुरू हो जाती
है। उसी क्षण
अनुलोम
समाप्त हुआ, विलोम
प्रारंभ हुआ।
उसी क्षण अदम
क्राइस्ट बन
जाता है। उसी
क्षण हम
परमात्मा से
दूर जाने के
बजाय उसके पास
आने शुरू हो
जाते हैं। और
पंख हमारे पास
हैं, आंख
हमारे पास
नहीं है। आंख
हो तो हम
पंखों का
सम्यक उपयोग
कर लें। शक्ति
हमारे पास है,
दृष्टि
हमारे पास
नहीं है।
इसलिए हमारी
शक्ति
आत्मघाती हो
जाती है। हम
अपनी ही तलवार
से अपने को ही
छिन्न—भिन्न
कर लेते हैं।
किसी और ने
तुम्हें थोड़े
ही काटा है, किसी और ने
तुम्हें
खंडित थोड़े ही
किया है, तुमने
ही अपने को
खंडित किया है,
तुमने ही
अपने को काटा
है। कोई और
तुम्हें नहीं
मार रहा है, तुम्हीं
अपने को मार
रहे हो।
महावीर ने कहा
है, मनुष्य
ही अपना मित्र
और मनुष्य ही
अपना शत्रु है।
शत्रु तब तक
जब तक आंख
नहीं। तब तक
हाथ में आई
हुई ऊर्जा भी
आत्मघाती
सिद्ध होती है।
और मित्र उस
दिन से जिस
दिन आंख खुली।
आंख बंद और आंख
खुलने के बीच
जो घटना है, उसको मैं
संन्यास कह
रहा हूं। आंख
खुले, इसकी
आकांक्षा संन्यास
है। आंख बंद
है इसकी
प्रतीति होने
लगे, तो आंख
खुल जाए इसकी आकांक्षा
भी
पैदा होने
लगती है।
यहां
पूरी चेष्टा
यही है कि
तुम्हें यह
स्मरण आ जाए
कि तुम्हारे
पास आंख अभी
है नहीं।
तुम्हें
स्मरण आ जाए
कि तुम्हारा
जो ज्ञान है
थोथा है, झूठा
है। तुम्हें
ये स्मरण आ
जाए कि जिसे
तुमने जीवन
समझा है, वह
सपने से
ज्यादा नहीं
है और इससे
तुम कुछ निकाल
न पाओगे। जैसे
कोई रेत से
तेल निकालने
की कोशिश कर
रहा है, ऐसे
ही जीवन में
हारोगे।
विषाद में
मरोगे। ये
आशाएं जो
तुमने संजो
रखी हैं, कोई
भी काम
आनेवाली नहीं
हैं। क्योंकि
इन आशाओं का
अस्तित्व से
कोई सामंजस्य
नहीं है। ये
तुम्हारे
निजी सपने हैं।
ये सपने पूरे
नहीं हो सकते।
अस्तित्व का
सहयोग मिले तो
कोई चीज पूरी
हो सकती है।
और अस्तित्व
का सहयोग तभी
मिलता है कि
जब तुम्हारा
अहंकार मरता
है। अहंकार
गिराता है, निर—अहंकार
उठाता है।
अहंकार
अंधापन है, निर— अहंकार आंख
है।
यह
होमापक्षी की
कथा मनुष्य की
अंतर कथा है।
अंतर—व्यथा भी।
और इसे तुम
ठीक से समझ लो
तो मनुष्य का
पूरा यात्रापथ
समझ में आ जाए।
फिर से
सुनो—
यह
होमा बहुत
ऊंचे आकाश में
रहता है। ये
तो प्रतीक हैं।
हम ऊंचाई से
आते हैं।
चार्ल्स
डार्विन ने
पश्चिम में एक
विचार प्रतिपादित
किया—विकासवाद
का। वह विचार
समस्त धर्मों
के विपरीत है।
विकासवाद का
अर्थ होता है—हम
नीचाई से ऊपर
की तरफ आ रहे
हैं। पतन नहीं
हो रहा है, विकास हो
रहा है। समस्त
बुद्धों ने
इससे भिन्न
बात कही है।
उन्होंने कहा
है—मनुष्य का
पतन हुआ है, हम ऊंचाई से
नीचाई की तरफ
आ रहे हैं।
बुद्धों ने
कहा है कि हम
परमात्मा से
नीचे गिरे
हैं! यह हमारा
पतन है।
डार्विन ने
कहा है—हम
बंदरों से ऊपर
उठे हैं। यह
हमारा विकास
है। बुद्धों
ने कहा, परमात्मा
हमारा पिता है
और चार्ल्स डार्विन
कहता है—बंदर
हमारे पिता
हैं। चार्ल्स
डार्विन की
बात के पीछे
भी थोड़ा बल है;
नहीं तो
जीतती नहीं
बात। ऊपर से
देखने में ऐसा
ही लगता कि
डार्विन ही ठीक
है, विकास
हो रहा है, देखो
बैलगाड़ी की
जगह हवाई जहाज,
तो विकास हो
गया। यह जीवन
को एक तरह से
देखने का ढंग
हुआ। तलवार की
जगह एटम बम, यह विकास हो
गया। लेकिन
बुद्धों से
पूछो। बुद्ध
कहते हैं—तलवार
जिसने खोजी थी
और जिसने एटम
बम खोजा है, इनमें विकास
नहीं हुआ है, पतन हो गया, क्योंकि
तलवार छोटी—मोटी
हिंसा की खबर
देती थी, एटम
बम विराट
हिंसा की खबर
देता है।
जिन्होंने
तलवार से काम
चला लिया था, वे बहुत बड़े
हिंसक नहीं थे।
हमारा तो एटम
बम से भी काम
नहीं चलता है।
तो हाइड्रोजन
बम! और अब और
आगे बात चल
रही है कि हम
और भी नए बम
खोज लें।
हमारी चेष्टा
यह है कि एक ही
बम सारी
पृथ्वी को
डुबाने में
समर्थ हो जाए।
ये विकास है?
एक तरफ
से देखो तो
विकास है—तलवार
से एटम बम बड़ा
विकास मालूम
होता है।
तलवार एकाध को
मार सकती थी, एटम बम
लाखों को मार
सकता है।
हाइड्रोजन
बम करोड़ों को
मार सकता है।
मारने की कला
में बड़ा विकास
हो गया। लेकिन
मारनेवाला
आदमी विकसित
हुआ? हिंसा
विकास है? हिंसा
तो पतन है।
आदमी
और विकृत हो
गया।
जिंदगी
को देखने के
ढंग पर सब
निर्भर करता
है, तुम कैसे
देखते हो।
आज लोग
ज्यादा पढ़े—लिखे
हैं, निश्चित।
आज से दस हजार
साल पहले गैर
पढ़े—लिखे लोग
थे। कोई लिखना
नहीं जानता था,
कोई पढ़ना
नहीं जानता था।
इस हिसाब से
देखो तो आज का
आदमी विकसित
है। किताब पढ़
लेता है, अखबार
पढ़ लेता है।
लेकिन दस हजार
साल पहले जो
आदमी था, वह
ज्यादा शात था,
ज्यादा
आनंदित था, ज्यादा
प्रफुल्लित
था। उसके जीवन
में एक राग था,
एक छंद था।
वह सब छंद खो
गया। उस छंद
को देखो तो
पतन हो गया है।
अखबार की
कतरनें बढ़ती
चली गई हैं, छंद खोता
चला गया है।
पढ़ाई—लिखाई हो
गई बहुत, मस्तिष्क
में बहुत—सी
सूचनाएं
संगृहीत हो गई
और हृदय
बिलकुल सिकुड़
गया है। अगर
मस्तिष्क को
देखो, तो
मात्रा बढ़ी है,
मात्रा का
विकास हुआ है।
लेकिन अगर
हृदय को देखो
तो गुण गिरा
है गुण का पतन
हुआ है।
मूल्यवान
क्या है—गुण
या मात्रा? क्याटिटी या
क्वालिटी?
अगर
आदमी को देखो
तो कभी झोपड़ी
में रहता था, फिर अच्छे
मकानों में
रहा, अब
महलों में रह
रहा है। आज
गरीब से गरीब
आदमी जो कपड़े
पहने हुए हैं,
वे
सम्राटों को
उपलब्ध नहीं
थे। अशोक और
अकबर के पास
तुम जैसे
अच्छे कपड़े
नहीं थे।
बिजली का पंखा
नहीं था। न
रेडियो था, न टेलीविजन
था। आज गरीब
से गरीब आदमी
भी एक अर्थ
में अशोक और अकबर
से ज्यादा आगे
हैं—विकसित
हैं। चीजें बढ़
गइ।
आदमी
के पास
परिग्रह का
विस्तार बढ़
गया। लेकिन
परिग्रह के
विस्तार को
बढ़ाने वाला
आदमी विकसित
आदमी है? यह
सवाल है।
क्योंकि
जितना
परिग्रह बढ़ता
है, उतनी
चिंता बढ़ती है।
उतनी अशांति
बढ़ती है, उतनी
बेचैनी बढ़ती
है, उतनी
विक्षिप्तता
बढ़ती है।
चीजों की
गिनती कर रहे
हो, तो
विकास मालूम
होता है।
लेकिन चीजों
का विकास क्या
आदमी का विकास
है?
लोग
कहते हैं जीवन—स्तर
बढ़ गया। स्टैंड़र्ड
आफ लाइफ।
अच्छा मकान है।
अच्छी सड़कें
हैं, अच्छे
कपड़े हैं, अच्छी
दवाइयां हैं—जीवन
स्तर बढ़ गया।
इसको जीवन—स्तर
कहते हो? बस,
इतने पर
जीवन समाप्त
हो जाता है? जीवन गुण की
बात है। क्या
इसीलिए तुम
बुद्ध का जीवन—
स्तर नीचा
कहोगे, क्योंकि
वह
भिक्षापात्र
लेकर सड़क पर
भीख मांगते
हैं? तुम्हारे
बड़े से बड़े
अरबपति—तुम्हारे
राकफेलर, तुम्हारे
मार्गन, तुम्हारे
फोर्ड—सोचते
हों कि बुद्ध
से उनके पास
बड़ा जीवन—स्तर
है? महावीर
नग्न खड़े हैं,
इसलिए क्या
उनका जीवन—
स्तर तुमसे
नीचा है? उनके
पास वस्त्र
नहीं हैं, आत्मा
है, गुणवत्ता
है, भगवत्ता
है।
डार्विन
की बात अगर हम
केवल मात्रा
को सोचें तो
ठीक मालूम
होती है। अगर
भीतर के गुणों
को सोचें तो
ठीक नहीं मालूम
होती।
यह
होमा की कथा
मनुष्य की
चेतना के
निरंतर पतन की
कथा है।
इसलिए
इस देश में हमने
जो विभाजन
किया है, वह
देखते हो? चार
कालों में समय
को बांटा है।
पहला काल, सतयुग।
फिर द्वापर।
फिर त्रेता।
फिर कलि।
श्रेष्ठतम
युग पहले। फिर
प्रतिक्षण
पतन होता जाता
है। फिर एक—एक
टाग टूटती
जाती है। आदमी
अपंग होकर गिर
पड़ता है कलि
में। दोनों
हाथ, दोनों
पैर, सब
टूट गए। इसके
पीछे बड़ा गहरा
मनोविज्ञान
है। इसे तुम
एक—एक आदमी की
जिंदगी में भी
देख सकते हो।
बच्चा
पैदा होता है, तब वह सतयुग
में होता है।
बच्चे के जीवन
में श्रद्धा
होती है, सरलता
होती है, निर्दोष
भाव होता है।
सौंदर्य होता
है। आह्लाद
होता है।
आश्चर्यविमुग्ध
बच्चा जीता है।
छोटे बच्चे को
देखो, अभी—
अभी ताजे पैदा
हुए बच्चे को
देखो! वह
सतयुग में है।
सतयुग के लिए
तुम्हें
दार्शनिक
सिद्धातों में
जाने की जरूरत
नहीं है, छोटे
बच्चे को देखो,
वह सतयुग
में है। फिर
धीरे— धीरे
पतन शुरू होता
है। अहंकार
पैदा होगा।
पतन शुरू हुआ।
फिर परिग्रह
बढ़ेगा। पतन और
शुरू हुआ। और
आखिर में तुम
एक आदमी को
देखो, बुढ़ापे
में, वह
कलियुग है। सब
यंत्रवत हो
जाता है।
जिंदगी बोझ हो
जाती है। बूढ़ा
आदमी मशीन की
तरह हो जाता
है। जीता है
किसी तरह, सांस
लेता किसी तरह,
अब मरने की
तैयारी है, मरने के
सिवाय और कोई
भविष्य नहीं
है।
इसलिए
इस देश में
हमने कहा है
कि कलियुग के
बाद प्रलय हो
जाएगी।
मृत्यु!
कलियुग के बाद
फिर कोई और
समय नहीं बचता, मृत्यु ही
बचती है। यह
आदमी के
सामान्य
प्रत्येक
व्यक्ति के
जीवन की कहानी
है। और जो
प्रत्येक
व्यक्ति के
जीवन की कहानी
है, वही
मनुष्य जाति
की भी कहानी
है।
होमापक्षी
गिरना शुरू
होता है ऊंचाई
से, परमात्मा
के घर से।
पहले अंडे में
छिपा होता है।
फिर अंडा भी
टूट जाता है—गिरते—गिरते—गिरते।
फिर पंख भी
निकल आते हैं—गिरते—गिरते—गिरते।
फिर आंख भी
खुल जाती है—गिरते—गिरते।
और जब आंख
खुलती है तब
उसे समझ में
आता है कि
क्या हो रहा है!
जब तक आंख
नहीं खुली थी,
तब तक शायद
वह सपना देखता
हो कि मैं
ऊंचाइयों पर
जा रहा हूं, विकास हो
रहा है। कि
मैं अपनी मां
को कितना पीछे
छोड़ आया! हर
बच्चा ऐसा ही
सोचता है कि
मैं अपने मां—बाप
को कितना पीछे
छोड़ आया!
पश्चिम
के बहुत हंसोड़
लेखक मार्क
टवेन ने लिखा
है कि मैं जब
सत्रह साल का
था और
विश्वविद्यालय
से पहली दफा
घर आया, तो
मुझे लगा—अरे,
मेरे माता—पिता
कितने गंवार
हैं! फिर जब
मैं चौबीस
वर्ष का हो
गया और
विश्वविद्यालय
से सारी
शिक्षाएं
पूरी कर के
लौटा, तब
मैं बड़ा चकित
हुआ कि इन सात—आठ
सालों में
मेरे मां—बाप
ने बड़ा विकास
कर लिया, ये
बड़े
बुद्धिमान हो
गए। जैसे—जैसे
समझ बढ़ी वैसे—वैसे
माता—पिता में
बुद्धिमत्ता
दिखाई पड़ी।
जितनी समझ कम
थी, उतने
माता—पिता
बुद्ध मालूम
होते थे।
जवानी में हर
युवक सोचता है
कि मां—बाप
मेरे मूढ़ हैं।
क्यों?
सोचता
है मैं विकास
कर रहा हूं।
मैं आगे जा
रहा हूं। मेरे
मां—बाप को
पता क्या है? ये अभी भी
पुराने ढर्रे
के लोग अभी भी
पुरानी रूढ़ि
में चल रहे
हैं और जी रहे
हैं। इन्हें
कुछ पता नहीं
है। जिंदगी कहां
से कहां चली
गई, इन्हें
कुछ पता नहीं
है। जवानी में
हर आदमी क्रांतिकारी
होता है और
सोचता है कि
मैं जिंदगी को
बड़े आगे ले जा
रहा हूं। वह
सिर्फ जवानी
का भ्रम है।
पक्षी जब तक
उसकी आंखें
बंद हैं यही
सोचता होगा कि
मैं आगे बढ़ता
जा रहा हूं
कितना आगे
बढ़ता जा रहा
हूं! कितना
दूर निकल आया,
मां बाप को
कितने पीछे
छोड़ आया!
बेचारी मां, वहीं के
वहीं हैं। जब आंख
खुलती है, तब
उसे पता चलता
है कि मैं दूर
तो निकल आया
लेकिन आगे
नहीं निकल आया
हूं। दूर निकल
आना
अनिवार्यरूप
से आगे निकल
जाना नहीं है।
दूर निकल जाना
गिरना भी हो
सकता है, उठना
भी हो सकता है।
और उठना तो आंख
खुलने के बाद
ही संभव है।
क्योंकि आंख
खुली हो तभी
पंखों का
सदुपयोग हो
सकता है।
तुम हो
होमापक्षी!
प्रत्येक
व्यक्ति
होमापक्षी है।
वेदों
में दो शब्द
बड़े बहुमूल्य
हैं—होमा और
सोमा। दोनों
समझने जैसे
हैं। दोनों
प्रतीक हैं।
शायद दोनों का
जन्म एक ही
शब्द से हुआ
होगा।
क्योंकि कुछ
लोग स को ह
उच्चारण करते
हैं। तो होमा
और सोमा हो
सकता है एक ही
शब्द से आए हों, सिर्फ
उच्चारण— भेद
हो गया है। इस
स और ह के कारण
ही तो
हिंदुस्तान
का नाम पड़ा।
जब आर्य भारत
में आकर बसे
तो उनका ही एक
हिस्सा ईरान
में बसा। उनका
एक कबीला ईरान
में बसा। ईरान
का पुराना नाम
है—आयरान।
आयरान से ही
ईरान बना।
आर्यों का एक
कबीला ईरान
में बस गया और
एक कबीला भारत
में आकर बस
गया। भारत का
पुराना नाम है—
आर्यावर्त्त।
और ईरान का
पुराना नाम है—
आयरान। ईरान
में जो आर्य
बसे, वे स
का उच्चारण ह
की तरह करते
थे। इसलिए जब
उन्होंने
पहली दफा भारत
की यात्राएं
कीं— अपने
मित्रों से
मिलने आए
होंगे, अपने
सगे—संबंधियों
से मिलने आए
होंगे—तो
सिंधु नदी को
उन्होंने
हिंदू नदी कहा।
उसी से हिंदू
शब्द पैदा हुआ।
उसी से
हिंदुस्तान
शब्द पैदा हुआ।
और उसी से
इंडिया शब्द
पैदा हुआ।
उन्होंने
इसको हिंदू
कहा और जब इसे
वे वापिस ले
गए और उनके
द्वारा यह
शब्द जाकर
पश्चिम की तरफ
यात्रा पर
निकला, तो
कुछ जातिया
थीं, जो ह
का उच्चारण इ
की तरह करती
हैं, तो
उन्होंने
हिंदू को इंदु
उच्चारण करना
शुरू किया।
इंदु से इंड़स।
इसलिए
अंग्रेजी में
सिंधु नदी का
नाम है—इंड़स।
और फिर इंड़स
से इंडिया।
भारत का नाम
इंडिया हो गया।
ये सारी बात
पैदा हुई
सिर्फ इसी बात
से कि कुछ लोग
ह की तरह
उच्चारण करते
थे स का।
होमा
और सोमा एक ही
शब्द होंगे, सिर्फ
उच्चारण भेद
हो गया है।
सोमा का अर्थ
होता है—वह
परम मादक
द्रव्य, जिसे
पीकर आदमी सदा
के लिए मस्त
हो जाता है।
वह आखिरी शराब,
जिसे पी
लेने पर फिर
नशा नहीं
उतरता।
वेदों
में सोमा की
बड़ी प्रशंसा
है। और यह मान
कर कि सोमा
नाम की कोई
जड़ी—बूटी होती
होगी—जैसे भंग
और गाजा होता
है—क्योंकि
नशे की बात है, न मालूम
कितने लोग
सोमा की तलाश
करते रहे हैं सदियों
से।
अभी भी
तलाश जारी है।
अभी पश्चिम के
एक बहुत बड़े
वैज्ञानिक ने
कोई बीस वर्ष
हिमालय में
तलाश करके
किताब लिखी—बड़ी
किताब लिखी कि
मैंने खोज ली
वह जड़ी—बूटी।
वह जड़ी—बूटी
है ही नहीं, खोजोगे कैसे?
सोमा तो
सिर्फ प्रतीक
है, जैसे
होमा एक
प्रतीक है।
अब तुम
होमापक्षी को
खोजने मत निकल
जाना! नहीं तो
कहीं नहीं
मिलेगा। यह
बात हो ही
नहीं सकती कि
इतनी ऊंचाई पर
मा अंडा दे।
ऊंचाई पर
रहेगी कैसे? घोंसला कहां
बनाएगी? अंडे
को रखेगी कहां?
इतनी ऊंचाई
तो कोई भी
नहीं है जहां
से अंडा गिरे
और गिरते ही
गिरते, गिरते
ही गिरते
पक्षी निकल आए;
और गिरते ही
गिरते, गिरते
ही गिरते पंख
निकल आएं; और
गिरते ही
गिरते, गिरते
ही गिरते आंखें
खुल जाएं, ऐसी
तो कोई ऊंचाई
नहीं है। यह
प्रतीक कथा है।
सोमा भी कोई
जड़ी—बूटी नहीं
है, वह
परमात्मा को
पी जाने का
नाम है। वह
परम औषधि को
पी जाने का
नाम है। ये
प्रतीक हैं।
जब कोई
व्यक्ति
सोमरस पी लेता
है—सोमरस यानी
प्रभु—रस; रसों
वै सः—जब
प्रभु के रस
को कोई पी
लेता है, तो
फिर जो मस्ती
आती है, वह
कभी टूटती
नहीं। यहां तो
जितने भी रस
उपलब्ध हैं
सबकी मस्ती
टूट ही जाती
है।
क्षणभंगुर है।
अभी है, अभी
समाप्त हो
जाएगी।
कीमती
से कीमती शराब
भी कितनी देर
काम आएगी? थोड़ी देर
विस्मरण हो
जाता है, फिर
सब वही जाल
शुरू हो जाता
है। मगर भक्ति
का एक ऐसा रस
है, एक ऐसी
मधुशाला है, जहा अगर
तुमने पी लिया,
तो बस पी
लिया। उसको
पीते ही तुम
मिट जाते हों—विस्मरण
नहीं होते, मिट ही जाते
हो, गल ही
जाते हो, खो
ही जाते हो।
सोमा
प्रतीक है परम
रस का। और
होमा प्रतीक
है उस परम गृह
का, उस
मातृगृह का, उस मातृभूमि
का जहां से हम
आए हैं। हम
बड़ी ऊंचाइयों
से आ रहे हैं।
हम अगम्य
ऊंचाइयों से आ
रहे हैं।
हमारे
तथाकथित
गौरीशंकर
इत्यादि कुछ
भी नहीं हैं, बच्चों के
खिलौने हैं, जिन
ऊंचाइयों से
हम आ रहे हैं।
हम परमात्मा
से आ रहे हैं।
कोई अभी अंडे
में ही है। जो
अंडे में ही
है, उसे
धर्म शब्द
अर्थहीन
मालूम होता है।
उसे हैरानी
होती है लोग
जब धर्म चर्चा
के लिए जाते
हैं, या
सत्संग के लिए
जाते हैं, वह
कहता है—क्या
करते हो? मैं
सिनेमा जा रहा
हूं चलो वहा!
वहा कुछ रस है,
कुछ आनंद; तुम जाते
कहां हो? धर्म
में रखा क्या
है? अभी वह
अंडे में है।
जो अंडे में
है, उसे
अंडे के बाहर
क्या है यह
पता नहीं हो
सकता। अभी वह
कहता है— धन
कमाओ, राजनीति
में उतरो, चुनाव
लड़ों, पद—प्रतिष्ठा
बनाओ, इसमें
कुछ सार है।
यह तुम किस
धुन में पड़ गए
हो? तुम
गलत रास्ते पर
जा रहे हो।
जिंदगी में
कुछ कर जाओ, कुछ निशान
छोड़ जाओ, हस्ताक्षर
छोड़ जाओ। कि
तुम्हारी लते
याद करें, इतिहास
में तुम्हारी
याद रह जाए।
यह धर्म
इत्यादि में
लग कर तो तुम
खो जाओगे। और
धर्म इत्यादि
सब झूठ हैं।
मार्क्स
ने कहा है कि
धर्म अफीम का
नशा है। मार्क्स
अंडे में ही
रहा होगा। जो
अंडे में है, अगर उससे
तुम आकाश की
बात करोगे, चांद—तारों
की बात करोगे,
वह कहेगा—पागल
हो तुम? सपने
देख रहे हो।
तुम कोई नशे
में हो। कहां
का आकाश? मुझे
तो कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। जो
मुझे नहीं
दिखाई पड़ता, वह हो कैसे
सकता है? इस
दुनिया में
अधिक लोग अंडे
में हैं। अभी
अंडा भी नहीं
टूटा, वे
गिरते ही जा
रहे हैं गिरते
ही जा रहे हैं।
कुछ लोग अंडे
में ही रह कर
मर जाते हैं।
अंडा
भी तभी टूट
सकता है जब
तुम थोड़े पंख
फड़फड़ाओ। तुम
जरा भीतर से
चोंच मारो!
तुम अंडे से
राजी मत हो
जाओ! तुम अपनी
सुरक्षा से
राजी मत हो
जाओ! तुम थोड़े—से
अभियान करो, थोड़ी खोजबीन
करो, थोड़ी
जिज्ञासा करो—
अथातो भक्ति
जिज्ञासा!
अंडा टूटेगा,
मगर तुम कुछ
भीतर से करोगे
तो टूटेगा।
बाहर तो कोई
तोड़ नहीं सकता।
बाहर से यह
अंडा तोड़ा
नहीं जा सकता,
इसकी कुंजी
भीतर से ही
तोड़ी जा सकती
है। बाहर से
तो कोई तोड़ेगा
तो और कठिन हो
जाता है, क्योंकि
तुम भीतर से
रक्षा करने
लगते हो। तुम
आत्मरक्षा
में लग जाते
हो। तुम भयभीत
हो जाते हो।
तुम्हीं साहस
जुटाओगे तो
अंडा टूटेगा।
कुछ का
अंडा टूट जाता
है, मगर उनकी आंखें
नहीं खुलतीं।
फिर वे बंद आंखों
से गिरना शुरू
हो जाते हैं।
ऐसे लोग धर्म
के संबंध में
विचार तो करते
हैं, लेकिन
धर्म का आचरण
नहीं करते।
सोचते हैं।
कहते हैं, धर्म
अच्छी बात है,
ईश्वर
इत्यादि की
सैद्धातिक
चर्चा करते
हैं, गीता
इत्यादि पढ़ते
हैं, कुरान
पढ़ते हैं, शब्द
कंठस्थ कर
लेते हैं, लेकिन
उनके जीवन में
कोई रंग नहीं
होता। जीवन को
नहीं रंगते।
बातचीत ही
होता है धर्म।
बकवास होता है
धर्म। बहुत
लोग ऐसे ही
बकवास करते
समाप्त हो
जाते हैं।
बहुत
थोड़े से
सौभग़यशाली
लोग हैं जो आंख
खोलने की
चेष्टा में
संलग्न होते
हैं। भजन से
खुलती है आंख।
भजन की ऊर्जा
में ही आंख के
खुलते की
संभावना—या
ध्यान से
खुलती है आंख।
एक ही बात को
कहने के दो
ढंग। ध्यान से
या भजन से आंख
खुलती है। भजन
के संबंध में
मत सोचते रहो, भजन करो।
धर्म
तुम्हारा
कृत्य हो तो आंख
खुलेगी। और आंख
खुलते ही क्रांति
घट जाती है। आंख
खुलते ही
दिखाई पड़ता है—तुम
गिर रहे हो।
रोज—रोज गिरते
जा रहे हो। हम
सब मृत्यु के
मुंह में
गिरते जा रहे
हैं। वही है
जमीन से
टकराकर टूट
जाना।
देखते
नहीं कितने
लोग टूटकर गिर
गए हैं और अपनी
कब्रों में
पड़े हैं? तुम
भी कितनी देर
चलोगे? जल्दी
ही टकरा जाओगे,
टूटोगे और कब्र
में समा जाओगे।
कोई भी खो गई
घडी वापस नहीं
मिलती। जो समय
गया, गया। आंख
खुलते ही
दिखाई पड़ता है
कि बहुत मैं
गंवा चुका हूं।
अब और गंवाने
की जरूरत नहीं।
तत्सण दिशा
रूपातरित हो
जाती है।
पंख तो
तुम्हारे पास
ही हैं, आंख
न हो तो अपने
पंख भी नहीं
दिखाई पड़ते। आंख
न हो तो मैं
कितनी संपदा
लेकर पैदा हुआ
हूं यह भी
दिखाई नहीं
पड़ता। आंख न
हो तो पता ही
नहीं चलता कि
मेरे भीतर
हीरे—जवाहरातों
की खदानें हैं।
प्रभु का
राज्य मेरे
भीतर है।
परमात्मा ने
पूरा पाथेय
देकर भेजा है।
मगर आंख तो
चाहिए ही
चाहिए। कहते
रहते हैं
बुद्ध और
क्राइस्ट और
कृष्ण कि
परमात्मा का
राज्य तुम्हारे
भीतर है, तुम
सुन भी लेते
हो फिर अपनी
दुकान पर बैठ
जाते हो। सुन
लेते हो और
अनसुना कर
देते हो।
क्राइस्ट ने
बहुत बार अपने
शिष्यों से कहा है
कि अगर आंखें
हों तो देख लो,
मैं
तुम्हारे
सामने खड़ा हूं।
कान हों तो
सुन लो मैं
चिल्ला रहा
हूं। जिनसे
कहा था, उनके
पास तुम जैसी
ही आंखें थीं,
तुम जैसे ही
कान थे। अंधों
से बात नहीं
कर रहे थे।
लेकिन साधारण
आदमी अंधा ही
तो है, बहरा
ही तो है, लंगड़ा
ही तो है।
सोचता ही है, करता नहीं।
और कृत्य से
जीवन
रूपांतरित
होता है।
कुछ
लोग
सौभाग्यशाली
हैं, जिनकी आंख
खुलती है। बस आंख
खुलने का क्षण
संन्यास का
क्षण है। फिर
उसके बाद
रूपांतरण हो
जाता है।
विलोम शुरू
हुआ, वापसी
की यात्रा
शुरू हुई।
बेटा बाप की
तरफ वापिस
लौटने लगा। जो
अदम प्रभु के
राज्य से
निष्कासित हो
गया था, वह
फिर प्रभु की
तलाश में चल
पड़ा। अपने घर
की खोज।
इस
होमापक्षी की
कथा को कथा
मान कर तुम पढ़
लोगे तो चूक
जाओगे इसका रस।
इसमें पूरी
प्रक्रिया
छिपी हुई है।
चंचला
के बाहु का
अभिसार बादल
जानते हों,
किंतु
वज़ाघात केवल
प्राण मेरे, पंख मेरे।
कब
किसी से भी
कहा मैंने कि
उसके रूप—मधु
की
एक
नन्ही बूंद से
भी आंख अपनी
सार आया,
कब
किसी से भी
कहा मैंने कि
उसके पंथरज का
एक लघु
कण भी उठाकर
शीश पर मैंने
चढ़ाया,
कम
नहीं जाना अगर
जाना कि इसका
देखने को
स्वप्न
भी क्या मूल्य
पड़ता है
चुकाना
जिंदगी को,
चंचला
के बाहु का
अभिसार बादल
जानते हों,
किंतु
वज़ाघात केवल
प्राण मेरे, पंख मेरे।
जब भरे—भूरे
घनों के बीच
में दामिनी
दमकती
तब
अचानक एक
बिजली दौड़
जाती है परों
में,
धन्यभागी
हैं वे, बिजली
की चमक जब
आकाश में गज
जाती है तो
जिनके पर
फडूफडा उठते
हैं। बुद्ध
में और कृष्ण
में और
क्राइस्ट में
हुआ क्या? बिजली
चमकी। जिनमें थोड़ा
भी प्राण था, जो थोडे भी
जीवंत थे, उनके
पंख फडूफडा गए।
जो मुर्दा थे,
उनको कुछ भी
न हुआ। वे
जैसे थे वैसे
ही बैठे रहे।
जब भरे—भूरे
घनों के बीच
में दामिनी
दमकती
तब
अचानक एक
बिजली दौड़
जाती है परों
में,
और जब
नभ है गरजता
इस तरह लगता
कि कोई
दुर्निवार
पुकारता
अधिकार, आज्ञा
के स्वरों में,
पुकारे
तुम गये हो
बहुत बार, पुकारे तुम
जा रहे हो,
पुकारे
तुम अभी जा
रहे हो, मैं
तुम्हें
पुकार रहा हूं
लेकिन तुम
सिकुडे बैठे
हो। तुम अपना
छोटा—मोटा
संसार बना
लिये हो। तुम
उसी संसार में
जकडे बैठे हो।
तुमने दो कौडी
की चीजें
इकट्ठी कर ली
हैं, उनको
संपदा मान ली
है, वहीं
अटके हो, और
गिर रहे हो
रोज और गिर
रहे हो हर पल, और जल्दी ही
टकराओगे
श्रइम से और
चूर—चूर हो
जाओगे।
और जब
नभ है गरजता
इस तरह लगता
कि कोई
दुर्निवार
पुकारता अधिकार, आशा के
स्वरों में,
कब धरा
छुटी, हवा
में कब उठा, पैठा गगन
में,
धंस
गया कितना, किधर को, कुछ
नहीं मालूम
होता,
मैं
स्वयं खिंचता
कि मुझको
खींचता आकाश,
इससे
सर्वथा अनजान
बेकल प्राण
मेरे,
पंख
मेरे चंचला के
बाहु का
अभिसार बादल
जानते हों,
किंतु
वज़ाघात केवल
प्राण मेरे, पंख मेरे।
सुनते
हो?
और जब
नभ में गरजता
इस तरह लगता
कि कोई
दुर्निवार
पुकारता
अधिकार, आज्ञा
के स्वरों में
जब भी
सत्य उतरता है
तो दुर्निवार
आज्ञा के स्वरों
में उतरता है।
बुद्धों के
वचन अधिकार
पूर्ण वचन हैं।
दार्शनिक के
वचनों में
झिझक होती है।
दार्शनिक
कहते हैं—शायद
ऐसा हो!
बुद्धपुरुष
कहते हैं—ऐसा
है! मैं रहा
प्रमाण। और
तुम चलो, आओ
मेरे साथ और
तुम भी बन
जाओगे प्रमाण।
दार्शनिक
कहता है, मैं
सोचता हूं
अनुमान करता
हूं शायद ऐसा
हो, शायद
ईश्वर हो, होना
चाहिए, होगा
ही। दार्शनिक
जीवन को नहीं
बदल पाता।
दार्शनिकों
में और
द्रष्टाओं
में यही फर्क
है। दार्शनिक
अंधे आदमी की
तरह है रोशनी
के संबंध में
वक्तव्य दे
रहा है। जो कह
रहा है कि
होनी चाहिए।
इतने लोग कहते
हैं तो ठीक ही
कहते होंगे।
रोशनी जरूर
होनी चाहिए, बिना रोशनी
के कैसे जीवन
होगा? अनुमान
लगाता है, तर्क
करता है, विचार
करता है, शास्त्र
उल्लेख करता
है।
द्रष्टा
में क्या फर्क
है? जिसने
रोशनी देखी।
बुद्धपुरुष
और उनके
वक्तव्य
अधिकार के
वक्तव्य होते
हैं। वहा झिझक
नहीं होती।
वहा जैसा है
उसको वैसा ही
कहा जाता है।
जब भरे—भूरे
घनों के बीच
में दामिनी
दमकती
तब
अचानक एक
बिजली दौड़
जाती है परों
में,
और जब
नभ है गरजता
इस तरह लगता
कि कोई
दुर्निवार
पुकारता
अधिकार, आशा
के स्वरों में,
कब धरा
छूटी, हवा
में कब उठा, पैठा गगन
में,
धंस
गया कितना, किधर को, कुछ
नहीं मालूम
होता,
और तब
जिनके पास थोड़ा
भी साहस है, थोड़ी भी
आत्मा है, जिनके
भीतर सब मर ही
नहीं गया है, सब सड़ ही
नहीं गया है, वे उठ चल
पड़ते हैं। वे
पंख फैला देते
हैं। वे
अज्ञात की
यात्रा पर
निकल जाते हैं।
कब धरा
छूटी, हवा
में कब उठा, पैठा गगन
में
धंस
गया कितना, किधर को, कुछ
नहीं मालूम
होता
एक
दुर्निवार आकांक्षा
का जन्म होता
है। एक
अभीप्सा पैदा
होती है, जिस
पर सब दाव लगा
देने का मन हो
जाता है।
मैं
स्वयं खिंचता
कि मुझको
खींचता आकाश,
और तब
यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं खिंच रहा
हूं आकाश की
तरह कि आकाश
मुझे खींच रहा
है। इतनी
तल्लीनता
होती है उस
खिंचाव में, इतना
एकात्मा होता
है, कि तय
करना मुश्किल
हो जाता है।
जो मेरे पास
आकर सच में ही
संन्यास की
यात्रा पर
निकल गये हैं,
उनको तय
करना निश्चित
हो मुश्किल है
कि उन्होंने
संन्यास लिया
है, या
मैंने उन्हें
संन्यास दिया
है।
कब धरा
छूटी, हवा
कब उठा, पैठा
गगन में
धंस
गया कितना, किधर को, कुछ
नहीं मालूम
होता,
मैं
स्वयं खिंचता
कि मुझको
खींचता आकाश,
इससे
सर्वथा अनजान
बेकल प्राण
मेरे, पंख
मेरे।
इसका
कुछ पता नहीं
चलता मगर
यात्रा शुरू
हो जाती। यहां
ऐसे लोग हैं
जिनको सब पता
है और यात्रा नहीं
करते। और यहां
ऐसे लोग हैं
जिन्हें कुछ
पता नहीं और
यात्रा कर
लेते हैं। जो
यात्रा कर
लेंगे, वे
ही वस्तुत:
जानेंगे। जो
अपनी सड़ी—गली
सूचनाओं को, उधार और
बासी सूचनाओं
को लिए बैठे
रहेंगे, वे
कितना ही बड़ा
पाडित्य
इकट्ठा कर लें,
उनका
पाडित्य उनके
अज्ञान को छिपाने
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं।
मैं
स्वयं खिंचता
कि मुझको
खींचता आकाश,
इससे
सर्वथा अनजान
बेकल प्राण
मेरे, पंख
मेरे।
चंचला
के बाहु का
अभिसार बादल
जानते हों
किंतु
वज़ाघात केवल
प्राण मेरे, पंख मेरे।
जीवन
का आघात, वज़ाघात
अनुभव करो!
खोलो आंख! अगर
अपने अंडे में
बंद हो अब तक
सुरक्षा के, तो तोड़ो
अपने अंडे को,
खोलो आंख, देखो अपने
पंख! तुम्हारा
पंख ही आकाश
का प्रमाण है।
पंख है तो
आकाश जरूर
होगा। और पंख
हैं तो
ऊंचाइयां
जरूर होंगी, नहीं तो पंख
होते किसलिए?
पंख होते
कैसे? इस
जगत में कुछ
भी अकारण नहीं
है! तुम्हारे
भीतर अगर
ईश्वर को
खोजने की आकांक्षा
है तो
ईश्वर होना ही
चाहिए। नहीं
तो आकांक्षा न
होती। पंख ही
न होते अगर
आकाश न होता।
कैसे पंख होते?
किसलिए पंख
होते? कहां
से पंख होते, उनका
प्रयोजन क्या
होता? निष्प्रयोजन
तो कुछ नहीं
है। तुम्हारा
पंख इस बात का
प्रमाण है कि
आकाश है, ऊंचाइयां
हैं, जो
जाननी हैं। और
जिन्हें बिना
जाने कोई
तृप्ति नहीं
हो सकती।
बनो
होमापक्षी! और
तुम
होमापक्षी
बनो तो एक दिन
सोमा का पान
होगा। तुम
होमापक्षी
बनो तो एक दिन
सोमरस
तुम्हारे कंठ
से उतरेगा।
तुम उस
परमात्मा को
पी सकोगे। उसे
बिना पीए
तृप्ति नहीं।
इस जगत का जल
कितना ही पीओ, फिर—फिर
प्यास लग आती
है। उस जगत का
एक बूंद भी
कंठ से उतर
जाए, तो
प्यास सदा को
समाप्त हो
जाती है।
दूसरा
प्रश्न :
भंते!
सात जुलाई
उन्नीस सौ
सतहत्तर को
दिन की दुपहरी
में पहली बार
पता लगा कि
बिना आंखों के
भी देखा जा
सकता है। आंखें
बंद थीं, होश में था, पूरी
विश्रांति
में था, देखा
कि एकाएक
अदभुत प्रकाश
ही प्रकाश है
चारों ओर उस
प्रकाश में
पीठ के पीछे
चीजें भी दिखायी
दे रही थीं।
उस समय न ही
मैंने तर्क
उठाया कि यह
क्या हो रहा
है, जो हो
रहा उसका मैं
सिर्फ साक्षी
था। क्या
कैवल्य में
साक्षी भी
प्रकाश के साथ
समाहित हो
जाता है?
पूछा
है शुभकरण
पुगलिया ने।
शुभ
हुआ, शुभकरण!
सत्य हुआ। और
यह जो भाव, यह
जो प्रश्न मन
में उठा कि
क्या कैवल्य
में साक्षी भी
प्रकाश के साथ
समाहित हो
जाता है, यह
बहुमूल्य है।
उस अंतिम घड़ी
में द्वैत
नहीं रह जाता।
कौन साक्षी? किसका
साक्षी? उस
अंतिम घड़ी में
भक्त और भगवान
नहीं रह जाता।
कौन भक्त? कौन
भगवान? कौन
दृश्य? कौन
द्रष्टा? वहा
एक ही बचता है।
न दृश्य रह जाता
है, न
द्रष्टा रह
जाता है, सिर्फ
दर्शन रह जाता
है। न ताता रह
जाता, न
ज्ञेय रह जाता,
सिर्फ
ज्ञान—ऊर्जा
रह जाती।
प्रकाश मात्र
ही रह जाता है,
साक्षी
नहीं बचता।
जब तक
साक्षी है, तब तक कितना
ही गहरा अनुभव
हो, अंतिम
अनुभव नहीं
हुआ। जब तक
तुम
देखनेवाले
मौजूद नहीं हो।
तब तुम जो देख
रहे हो, वह
तुमसे अलग है,
तुमसे
भिन्न है। वह
आत्म— अनुभव
नहीं है। तुम
द्र ष्टा हो
और तुम्हारे
पास कोई चीज
घट रही है।
फिर वह कितनी
ही सूक्ष्म
हो! एक
मोमबत्ती जल रही
है तुम्हारे
कमरे में, उसकी
रोशनी तुम
देखे रहे हो, यह साधारण, स्थूल रोशनी
है। फिर
तुम्हारे
भीतर कोई दिया
जल उठा—बिन
बाती बिन तेल,
न तेल है न
बाती है लेकिन
दिया जल उठा, लेकिन तुम
देखनेवाले
अभी भी हो, तो
बहुत भेद नहीं
है। पहला दिया
स्थूल था, दूसरा
दिया सूक्ष्म
है। पहला दिया
शरीर के बाहर
था, दूसरा
दिया शरीर के
भीतर है, लेकिन
अभी भी तुम
इससे अलग खड़े
हो। क्योंकि
तुम द्रष्टा
हो। तुम देख
रहे हो कि
रोशनी है।
रोशनी दिखायी
पड़ रही है।
स्मरण
रखना, आध्यात्मिक
अनुभव अनुभव
जैसा होता ही
नहीं। इसलिए
सभी अनुभव या
तो शारीरिक
होते हैं, या
मानसिक होते
हैं। यह बहुत
गहरा मानसिक
अनुभव हुआ।
प्यारा अनुभव
हुआ, मगर
उस पर रुक
नहीं जाना है।
पहुंचना तो
वहा है जहा
अनुभव और
अनुभोक्ता एक
हो जाएं, जहा
दृश्य और
द्रष्टा और एक
हो जाएं। उस
आखिरी घड़ी को
ही कैवल्य कहा
है। कैवल्य का
अर्थ ही यही
होता है—केवल
एक बचा, केवल
बचा।
प्यारा
शब्द है, जैनों
का, कैवल्य।
वह एक ही
सूचना देता है।
मात्र एक बचा।
शुद्ध एक बचा।
वहा फिर कोई
अनुभव नहीं रह
जाते। इसलिए
अंतिम अनुभव
अनुभव जैसा
नहीं होता है।
और
बिना आंखों के
देखा जा सकता
है। क्योंकि आंखों
से देखा ही
क्या है? आंखों
से किसने कब
क्या देखा है?
ये चमड़े की आंखें
देखने की भ्रांति
भर देती हैं।
इनसे काम चल
जाता है बाहर
के जगत में, तुम एक
दूसरे से
टकराते नहीं
हो, रास्ते
से गुजर कर
अपने घर आ
जाते हो, दीवाल
से नहीं
निकलते हो, दरवाजे से
निकल जाते हो,
ऐसा इनका
उपयोग है, लेकिन
और क्या
दिखायी पड़ता
है? ऊपर की
टकराहट बच
जाती है, भीतर
की टकराहट तो
नहीं बचती इन आंखों
से। ऊपर से
तुम देखकर
निकल जाते हो,
भाई, यहां
एक आदमी खड़ा
है, इससे
बचकर निकल
जाएं लेकिन
भीतर? भीतर
तो आदमी— आदमी
में टकराहट
चलती है।
महत्वाकाक्षा,
गला घोंट
टकराहट चलती
है। पत्नी—पति
से, बाप—बेटे
से, भाई—
भाई से, टकराहट
चल रही है।
भीतर की आंख
आती है तो यह
टकराहट भी चली
जाती है।
टकराहट ही
नहीं बचती।
कोई वैमनस्य
नहीं बचता, कोई वैर
नहीं बचता।
प्रेम ही
प्रेम शेष रह
जाता है।
और अभी
इस आंख से
तुम्हें
दूसरे थोड़े—
बहुत दिखायी
पड़ जाते हैं, थोड़े—बहुत
ही, क्योंकि
उनका भी
वास्तविक अंग
दिखायी नहीं
पड़ता।
तुम्हें जब
कोई आदमी
दिखायी पड़ता
है तो उसकी देह
ही दिखाई पड़ती
है, उसकी
आत्मा दिखायी
नहीं पड़ती।
वही उसका असली
अंग है। देह
तो ऊपर की खोल
है। जैसे किसी
ने किताब का
कवर भर देखा
हो, किताब
के भीतर क्या
है कुछ दिखायी
नहीं पड़ता।
असली चीज तो
किताब के भीतर
है, कवर
में तो नहीं।
कवर कैसा ही
प्यारा हो तो
भी असली चीज
तो किताब के
भीतर है। विषय—वस्तु
तो भीतर है।
देह तो केवल
ढक्कन है।
आवरण है।
आत्मा तो भीतर
है। वह तो इन आंखों
से दिखायी
नहीं पड़ती।
अपनी ही आत्मा
नहीं दिखायी
पड़ती इन आंखों
से, तो
दूसरे की तो
कैसे दिखायी
पड़ेगी। इसलिए
सम्यक—दृष्टि,
ठीक आंख
आत्म— अनुभव
का नाम है। जब
तुम्हें भीतर
स्वयं का भाव
समझ में आ जाए
कि मैं कौन
हूं उस भाव के
साथ तुम्हें
औरों के भीतर
भी दिखायी पड़ने
लगेगा कि वे
भी कौन हैं।
और तब तुम
पाओगे कि एक
ही फैला हुआ
है। कैवल्य का
विस्तार है।
दूसरा
प्रश्न पूछा
है शुभकरण
पुंगलिया ने
ही—
पंद्रह
वर्षों से
आपके चरण
स्पर्श करने
की उत्कट
इच्छा है। और
अभी मैं आपके
पास हूं।
मैंने आपके
चरण स्पर्श के
लिए मा शीला
से प्रार्थना
भी की। मा
शीला ने कहा
कि भाव उठेगा
तो भगवान से
मिलवा दूंगी।
हे भंते! मा
शीला के मन
में भाव उठा
दीजिए न! ताकि
मेरा अंतराय—कर्म
टूटे और आपके
चरणों में
गिरकर
समुदघात चैतन्य
का समस्त
अस्तित्व में
फैलाव कर सकूं।
शीला
में भाव उठाने
से कुछ भी न
होगा! और शीला
का मतलब भी
यही था। उसका
मतलब यह नहीं
था कि शीला
में जब भाव उठेगा, तब; उसका
मतलब यही था
कि जब तुममें
भाव उठेगा, तब।
तुम्हारे
भीतर इच्छा तो
है पैर छूने
की, भाव
अभी नहीं उठा
है। इच्छा और
भाव में बड़ा
फर्क है। भाव
का अर्थ होगा
कि तुम सच में
ही झुकने को
तैयार हो गए।
लेकिन तुमने
अभी संन्यास
भी नहीं लिया
है। भाव तो
नहीं उठा है, इच्छा है, एक वासना है।
और बाहर के
चरण छूकर होगा
भी क्या? जब
तक कि
तुम्हारे
भीतर झुक जाने
की ऐसी भाव दशा
न आ जाए कि
समर्पित हो
जाऊं, तब
तक असली
समर्पण, असली
झुकाव नहीं
घटा। शीला का
मतलब वही था।
शीला बडी
रहस्यवादी है।
उसने ठीक बात
कही कि जब भाव
उठेगा?
उसने
इतना ही कहा
कि तुम्हारी
इच्छा तो है, जाहिर है, पंद्रह साल
से तुम कहते
हो तो झूठ न
कहते होओगे, ठीक ही कहते
हो, लेकिन
भाव, भाव
बडी और बात है।
भाव का मतलब
है कि अब ऊपर
ही ऊपर से
क्या झुकना, ऊपर के चरण
क्या छूने, अब भीतर से
ही एकता बना
लें। संन्यास
का और क्या
अर्थ होता है?
इतना ही
अर्थ। और अब
तो तुम्हारे
जीवन में थोडे
भीतर के अनुभव
भी लगने लगे।
अब तो संन्यास
की घडी आ गई।
पंद्रह वर्ष
बाहर के चरण
छूने का ही
विचार करते
रहे, क्या
पंद्रह जन्म
भीतर के चरण
छूने का विचार
करोगे?
ऐसा
समय मत गवाओ।
बहारे—जा
फजा जाकर चमन
से फिर भी आती
है
घटा
काली बरस कर
एक दफा फिर भी
तो छाती है
सितारे
दिन को बुझ
जाते हैं फिर
शब को चमकते हैं
फलक पर
रात भर शोखी
से हंस—हंसकर
दमकते हैं
सफक की
झील में
खुर्शीद शब को
डूब जाता है
दरे
कसरे उफक से
झाक कर फिर
मुस्कुराते
हैं
अगर
मुरझा गए हैं
फूल और गुंचे
तो क्या परवा,
खिजां
के बाद ही ये
फूल और गुंचे
फिर भी
महकेंगें
बाहर
आते ही तायर
डालियों पे
फिर भी
चहकेंगें
अगर
तारीक रात आती
है ऐ हमदम तो
आने दे
अगर
जंगल की नदी
खुश्क होती है
तो हो जाए
कभी तो
चांदनी रात
आकर यह जुल्मत
मिटाएगी
यह नदी
के फिर सुरीले
और शीरीं गीत
गाएगी
निशा
गुजरी हुई
घडियों का
लेकिन फिर
नहीं मिलता
कमल
मुरझा के दिल
का एक दफे फिर
से नहीं खिलता।
इतना
खयाल रखो, सब लौट आता
है, सब
वापिस आ जाता
है, निशा
गुजरी हुई
घड़ियों का
लेकिन फिर
नहीं मिलता, लेकिन जो
समय बीत गया, फिर उसका
निशान भी नहीं
मिलता। तुम
यहां हो, तुम
इतने से ही
राजी हो जाओगे
कि मेरे चरण
छू के चले जाओ?
इतने से हल
हो जाएगा? इतने
से हल होता है
तो शीला को
मैं कहे देता
हूं कि शुभकरण
को आज भेज
देना। इतने से
क्या होगा? और जब मैं
तुम्हें सब
देने को राजी
हूं तब तुम
इतना सा लेने
को क्यों? मैं
कृपण देने में
नहीं हूं तुम
लेने में कृपण
हो रहे हो! हद
हो गई कंजूसी
की भी!
निशा
गुजरी हुई
घड़ियों का
लेकिन फिर
नहीं मिलता।
कल की
कौन जाने? मैं होऊं, तुम न होओ, तुम होओ, मैं
न होऊं, हम
दोनों हों और
फिर मिलना न
हो सके।
चीन की
एक बड़ी पुरानी
कथा है। एक
वजीर को
सम्राट ने फांसी
की सजा दे दी।
नाराज हो गया
था, कुछ बात
ऐसी हो गई।
ऐसे वजीर से
प्रेम भी बहुत
था, लेकिन
राजा तो राजा
थे। जरा—सी
बात हो गई और
इतना नाराज हो
गया कि
नाराजगी में
कह दिया कि
फासी लगा दो।
सात दिन बाद
फासी लग जाए।
लेकिन नियम था
उस राज्य का
कि फासी के एक
दिन पहले
सम्राट जिस को
भी फासी होती
थी उससे मिलने
जाता था। फिर
यह तो उसका
वजीर था। तो
वह गया मिलने।
वजीर
बहादुर आदमी
था, अनेक
युद्धों में
लड़ा था, छाती
पर बड़े घाव थे
उसके। कभी
उसकी आंख में आंसू
नहीं देखा गया
था। राजा को
देखते ही उसकी
आंख से आंसू
झर—झर गिरने
लगे। राजा ने
कहा— आश्चर्य!
क्या तुम
मृत्यु से ड़र
गए हो? मैं
तुम्हें जन्म
भर से जानता
हूं र तुम
जैसा हिम्मतवर
आदमी इस राज्य
में दूसरा
नहीं, तुम्हें
मैंने कभी
रोते नहीं
देखा, तुम
रो क्यों रहे
हो? बात
क्या है? तुम
कहो मुझसे, बात क्या है?
उसने कहा—कुछ
भी बात नहीं, अब कहने से
कुछ सार नहीं।
अब जो हो गया
हो गया। लेकिन
मैं मौत के
कारण नहीं रो
रहा हूं र मैं
तुम्हारे
घोड़े के कारण
रो रहा हूं।
वह जो घोड़ा
सम्राट चढ़कर
आया है। बाहर
बौध दिया है, सींखचों से
दिखाई पड़ रहा
है। सम्राट ने
कहा—घोड़े के
कारण? घोड़े
के कारण क्यों
रोओगे तुम? पहेली मत
बूझो, मुझे
बात सीधी—सीधी
कहो। वजीर ने
कहा—अब आप
नहीं मानते तो
कहे देता हूं।
मैंने जिंदगी
भर एक कला
सीखी, बड़ी
मेहनत से कला
सीखी कि मैं
घोड़े को आकाश
में उड़ना सिखा
सकता हूं। मगर
एक खास जाति
के घोड़े को ही
वह उड़ना
सिखाया जा
सकता है, और
वह घोड़ा मुझे
न मिला सो न
मिला। आज जब
कि मरने का
दिन आ गया, यह
घोड़ा सामने
खड़ा है! आप जिस
घोड़े पर बैठ
कर आए हैं, इसकी
मैं तलाश में
जिंदगी भर से
था। इस जाति
का घोड़ा उड़ना
सीख सकता है।
सम्राट को तो आकांक्षा
जगी कि
अगर घोड़ा उड़ना
सीख जाए! तो उन
दिनों तो घोड़ा
सबसे बड़ी ताकत
थी, और अगर
घोड़ा उड़ता हो,
तब तो कहना
क्या? तो
यह सम्राट का
साम्राज्य
सारे जगत में
फैल जाएगा।
उसने कहा, तू
फिकिर मत कर, कितना समय
लगेग घोड़े को
उड़ना सीखने
में? वजीर
ने कहा—एक साल
लगेग। सम्राट
ने कहा—तों एक
साल के लिए
तुझे हम जेल
से बाहर निकाल
लेते हैं। अगर
घोड़ा उड़ना सीख
गया तो आधा
राज्य भी तुझे
दूंगा और अपनी
बेटी से विवाह
भी कर दूंगा।
और अगर घोड़ा
उड़ना नहीं
सीखा, तो
ठीक है, अभी
सूली लगती है,
साल भर बाद
लग जाएगी।
वजीर
तो उस घोड़े पर
बैठकर अपने घर
लौट आया। घर
तो पत्नी रो
रही थी, बच्चे
रो रहे थे, मां
रो रही थी, बाप
रो रहा था, कि
आखिरी दिन आ
गया और अभी तक
कुछ आसार नहीं
है क्षमा के।
बेटे को लौटा
देखकर बाप तो
समझ ही नहीं
सका। पत्नी तो
एकदम दीवानी
हो गई खुशी
में। सबने घेर
लिया कि कैसे
बचे? क्या
हुआ? वह
हंसा और उसने
कहा कि ऐसे
बचा, ये
घटना घटी।
पत्नी और जोर
से रोने लगी, मां और छाती
पीटने लगी, उसने कहा—तुमने
यह क्या किया?
हमें सब पता
है कि तुम्हें
कुछ पता नहीं,
तुम उड़ना
कुछ सिखा नहीं
सकते घोड़े को।
तुमने कब सीखा?
कहां सीखा?
इसकी तुमने
कभी बात ही
नहीं की। उस
वजीर ने कहा—मैं
कुछ जानता
नहीं घोड़ा
उड़ने इत्यादि
के संबंध में,
यह तो एक
कहानी गढ़ी है।
उन्होंने कहा
अब मुझे यह और
मुसीबत में
डाल दिया। ये
सात दिन हमारे
इतने कष्ट से
कटे हैं, अब
यह साल और
कष्ट से कटेगा।
इससे तो बेहतर
था तुम मर ही
जाते। हमें
लटका दिया फांसी
पर साल भर के
लिए और। और
अगर मांगा ही
था तो कम से कम
दस साल तो
मांगते। उस
वजीर ने कहा—पागल
हो गए हो! एक
साल का क्या
भरोसा? राजा
मर सकता है, मैं मर सकता
हूं, और कम से
कम घोड़ा तो मर
ही सकता है।
एक साल का
भरोसा क्या है?
कुछ भी हो
सकता है।
फिकिर न करो!
और
आश्चर्य की
बात यह है कि
ऐसा हुआ कि
तीनों ही मर
गए। राजा भी
मर गया, वजीर
भी मर गया, घोड़ा
भी मर गया।
निशा
गुजरी हुई
घड़ियों का
लेकिन फिर
नहीं मिलता
तुम्हारे
भीतर फूल
खिलने शुरू
हुए हैं। अवसर
मत चूको!
झुकने की आकांक्षा
है तो झुक ही
जाओ! फिर झुके
तो उठना क्या? संन्यास का
इतना ही तो
अर्थ है, झुके
तो झुके, फिर
उठना क्या? फिर लाख
अड़चनें हों, फिर लाख
झंझटें आएं, फिर लाख
बदनामी हो, लाख लोग
पागल समझें!
बस शुभकरण को
वही अड़चन होगी,
कलकत्ता
में रहते हैं,
वहा लोग
पागल समझेंगे।
फिकिर क्या है?
यही
कलकत्ते के
लोग कल परसों
तुम्हें
अर्थी सजाकर मरघट
पहुंचा आएंगे।
इनकी चिंता
क्या है? इनके
पागल समझने से
हर्ज क्या है?
शुभकरण
जैन मालूम
होते हैं, उनकी भाषा
से। जैनों से ड़र
रहे होंगे।
मुनि, साधु
इत्यादि पीछा
करेंगे कि यह
तुम्हें क्या
हो गया? स्वीकार
कर लेना कि
भ्रष्ट हो गए,
पागल हो गए,
अब करें
क्या? कुछ
पता नहीं।
जब भरे—
भूरे घनों के
बीच में
दामिनी दमकती
तब
अचानक एक
बिजली दौड़
जाती है परों
में,
और जब
नभ है गरजता
इस तरह लगता
कि कोई
दुर्निवार
पुकारता
अधिकार, आशा
के स्वरों में
मैं
तुम्हें
पुकार रहा हूं—दुर्निवार
अधिकार, आज्ञा
के स्वरों में।
कब धरा
छूटी, हवा
में कब उठा, पैठा गगन
में
धंस
गया कितना, किधर को, कुछ
नहीं मालूम
होता,
मैं
स्वयं खिंचता
कि मुझको
खींचता आकाश,
इससे
सर्वथा अनजान
बेकल प्राण
मेरे, पंख
मेरे।
चंचला
के बाहु का
अभिसार बादल
जानते हों
किंतु
वज़ाघात केवल
प्राण मेरे, पंख मेरे।
कह
देना, पागल
हो गया हूं।
कह देना, मैं
क्या करूं? मैं खिंचा
कि आकाश ने
खींचा, क्या
हुआ, कुछ
पता नहीं। कह
देना, मैं
करता क्या, बिजली ऐसी
चमकी कि मेरे
पंख फड़के, कि
उड़े बिना नहीं
रहा जा सका।
लोगों के
मंतव्यों के
कारण लोग रुके
हैं। लोगों का
मूल्य क्या? उनके
मंतव्यों का
मूल्य क्या? उनके
मंतव्यों से
तुम्हें
मिलेगा क्या?
उनके
मंतव्यों से
किसको कब कुछ
मिला है? साहस
करो! शीला को
तो मैं भाव
उठा देता हूं
मगर उससे कुछ
भी न होगा, तुम्हीं
भाव उठाओ! समय
आ गया। ठीक
घड़ी है, उसे
चूको मत।
कभी तो
बीच से उठेगा
शर्म का पर्दा
कभी तो
उनकी मेरी
बेतकुल्लुफी
होगी
घड़ी आ
गई।
बेतकल्लुफी
हो सकती है।
मेरा
निमंत्रण।
पर्दा उठ सकता
है। लेकिन
पर्दा मैंने
नहीं डाला है।
न पर्दा शीला
ने डाला है।
पर्दा
तुम्हीं डाले
हो। तुम्हीं
उठाओगे तो
उठेगा।
मैंने
सुना है, एक
नाटककार के
परिश्रम से
लिखे गए अनेक
नाटक मंच पर
असफल हो गए।
वह बहुत
चिंतित रहने
लगा। एक दिन
उसने अपनी
प्रेमिका से
कहा कि मैं
आत्महत्या की
सोचता हूं। अब
जीने में कुछ
सार नहीं।
मैंने जितने
नाटक लिखे, जितने नाटक
रचे, सब
असफल हो गए।
मेरी असफलता
बड़ी गहरी है।
मैं बिलकुल
विजड़ित हो गया
हूं मैं टूट
गया हूं। उसकी
प्रेमिका ने
कहा— आशा न
छोड़ो! अब तुम
नाटक लिखना
बंद करो, हम
तुम दोनों मंच
पर नाटक
खेलेंगे।
कैसे, नाटककार
ने पूछा! उसकी
प्रेमिका ने
कहा—पहले
दृश्य में मैं
गीत गाऊंगी, फिर पर्दा
उठेगा। फिर, नाटककार ने
पूछा? दूसरे
दृश्य में मैं
नृत्य करूंगी।
फिर, नाटककार
ने पूछा? उसने
कहा—फिर, फिर
पर्दा उठेगा!
और? तीसरे
दृश्य में, तब नाटककार
ने पूछा, और
तू ही तू ही
दृश्य दिखा
रही है, और
मैं क्या
करूंगा? तो
उसकी प्रेयसी
ने कहा—आप
क्या समझते
हैं पर्दा
अपने— आप उठ
जाएगा? तुम
पर्दा उठाना!
पर्दा
अपने— आप नहीं
उठता, यह तो
सच है। मगर
शीला के उठाए
भी न उठेगा, शुभकरण!
तुम्हीं को
उठाना पड़ेगा,
तुम्हीं ने
डाला है।
मैं तो
तैयार हूं कि
पर्दा उठे। और
तुम्हारी
आत्मा भी भीतर
तैयार हो गई
है, और
तुम्हारी आकांक्षा
भी जगी
है, लेकिन
तुम कुछ भयभीत
हो, कुछ
संकोच से भरे
हों—कुछ छोटे—मोटे
ड़र। जाने दो
अब उन छोटे—मोटे
ड़रो
को। इस जगत
में कुछ भी
चिंता योग्य
नहीं है। जहां
सभी खो जाना
है, वहा
क्या चिंता!
तीसरा
प्रश्न :
हां, नाम तो धर
चुकी मुहब्बत
तेरी
बदनाम
तो कर चुकी
मुहब्बत
तेरी
कहते
हैं जो लोग हम
समझते भी नहीं
अब
हद से गुजर
चुकी मुहब्बत
तेरी
पूछा
है स्वामी
शिरीष भारती
ने।
अभी हद
से गुजरी नहीं
होगी! अभी
थोड़ी— थोड़ी
कमी होगी।
अन्यथा पूछने
को कौन बचता, कहने को कौन
बचता? ऐसी
घड़ी आती है
जरूर जब हद से
मुहब्बत गुजर
जाती है। तब
तो पता ही
नहीं चलता।
पता करने वाला
ही डूब जाता
है। तुम प्रेम
में तो हो, लेकिन
कुछ—कुछ. अपने
को बचा रहे
होओगे। अपने
को समझा भी
रहे होओगे कि
प्रेम अब हद
से आगे गुजर
गया।
प्रेम
बड़ी अनूठी
घटना है। इस
जगत में प्रेम
सबसे बड़ा
पशलपन है। मगर
सबसे बड़ी
बुद्धिमत्ता
भी। प्रेम बड़ा
विरोधाभास है।
प्रेम की बड़ी
पीड़ा भी है और
बड़ा आनंद भी।
पीड़ा है कि
अहंकार को
मरना पड़ता है।
और आनंद है, क्योंकि निर—
अहंकार में ही
आनंद अवतरित
होता है। फिर
जिसको हमने अब
तक प्रेम समझा
है इस दुनिया
में, वह तो
क्षणभंगुर का
प्रेम होता है।
वह तो जैसे प्याली
में तूफान। जो
प्रेम मैं
तुम्हें सिखा
रहा हूं र वह
क्षणभंगुर का
प्रेम नहीं है,
वह शाश्वत
का प्रेम है।
उसकी कहां हद
है? तुम
अपनी हद से
गुजर जाओगे, मगर उस
प्रेम की कहां
हद है? वह
प्रेम बेहद है।
अनहद उसका नाम
है। उसकी कोई
सीमा नहीं है।
जिस प्रेम की
सीमा होती है,
वह प्रेम
सासारिक। जिस
प्रेम की कोई
सीमा नहीं
होती, वही
प्रेम
आध्यात्मिक।
मगर, तुम्हारी
अड़चनें मैं
समझता हूं।
तुमने इन
पंक्तियों
में अपनी अड़चन
की तरफ ही इशारा
किया है।
आखिर
हमें कहना ही
पड़ा हाले—दिल
अपना
अच्छे
हैं वही लोग
जो उल्फत नहीं
करते
तुमने
निवेदन किया
है कुछ इन
पंक्तियों
में। पीड़ा तो
है प्रेम की।
बड़ी पीड़ा तो
यही है कि तुम
मिटते जाते हो।
तुम धीरे—धीरे
गलते जाते हो।
तुम मेरे पास
आते हो तब
तुम्हें यह
पता भी नहीं
होता। तुम तो
मेरे पास आते
हो और सबल
होने को, तुम
तो मेरे पास
आते हो अपने
अहंकार को और
भर लेने को।
कि थोड़ा ज्ञान
बढ़े, थोड़ा
ध्यान बढ़े, संसार में
तो थोड़ा कब्जा
है ही, थोड़ा
परलोक में भी
कब्जा हो जाए।
थोड़ा पुण्य
बढ़े। यहां तो
सब ठीक—ठाक
जमा लिया है, स्वर्ग में
भी इंतजाम कर
लूं—जाने के
पहले तैयारी
कर लूं—आरक्षण
करवा लूं।
इधर तो
जीत की काफी
पताकाएं फहरा
दी हैं, अब
वहा स्वर्ग
में भी बड़ा
झंडा गड़ा दूं।
तुम आते इस
तरह की आकांक्षाओं
से। और मैं
धीरे— धीरे
तुम्हारे
झंडे गिराने
लगता हूं। और
मैं धीरे—
धीरे
तुम्हारी
धारणाओं को
बदलने लगता
हूं। एक बार
तुम मेरे
प्रेम में पड़
गए तो फिर
धीरे— धीरे
धीरे तुम राजी
होते जाते हो।
एक दिन
तुम्हारा
सारा अहंकार
खो जाता है।
मगर अहंकार
बिना जद्दो—जहद
के नहीं जाता।
बड़ी पीड़ा देता
है।
लेकिन
अगर प्रेम लग
गया तो जाना
ही पड़ता है चाहे
कितना ही लड़े।
उसकी हार फिर
सुनिश्चित है।
प्रेम का एक
छोटा सा बीज
भी अहंकार के
पहाड़ को मिटा
देने को काफी
है। प्रेम की
एक छोटी बूंद
भी अहंकार के
समुद्रों को
हरा देने के
लिए पर्याप्त
है।
आह वह
बात कि जिस
बात पे दिल दे
बैठे
याद
करने पर भी
आती नहीं याद
मुझे
ऐसा भी
हो जाएगा एक
दिन कि जब
अहंकार
बिलकुल चला
जाएगा, ये
पहाड़ टूट
जाएगा, तब
तुम्हें याद
भी न आएगा कि
कौन—सी बूंद
गिरी थी? कौन—सी
बूंद इस पहाड़
को गला गई? किस
बात पर दिल दे
बैठे थे? शायद
उसका पता भी न
चले, वह
इतनी सूक्ष्म
रही हो, इतनी
छोटी रही हो।
पीडा
उठती होगी
अहंकार के
गलने से। और
पीडा उठती
होगी लोग
चारों तरफ
तुम्हारे संबंध
में न मालूम
क्या—क्या
कहने लगे
होंगे? हंसना
उनकी बातों पर,
क्योंकि सच
पूछो तो वे ही
पागल हैं। वे
क्षुद्र के
साथ प्रेम किए
बैठे हैं। आज
नहीं कल जब
नींद टुटेगी,
बहुत
पछताके।
तुमने विराट
से दोस्ती
बांधी। आज तुम
कितने ही पागल
लगते हो, आखिर
में तुम्हीं
विजेता सिद्ध
होओगे। अंततः
विजय
तुम्हारी है।
सत्यमेव जयते।
छोटी—मोटी
जीते झूठ भी
कर लेता है, लेकिन आखिरी
विजय सत्य की
है। भय मत
करना।
तू रह
न सकी फूलों
में ऐ फूल की
खुशबू
कांटो
में रहे और
परेशान न हुए
हम
प्रेम
के कांटे
चुभेंगे, पीडा
भी देंगे,
मगर
भयभीत मत होना, घबड़ाना मत।
तू रह
न सकी फूलों
में ऐ फूल की
खुशबू
कांटो
में रहे और
परेशान न हुए
हम
परेशान
मत होना। ये
काटे जो अभी
काटो जैसे लग
रहे हैं, यही
फूलों में
रूपांतरित हो
जाते हैं।
जीवन की बडी
अपूर्व
कीमिया है।
बडी
रहस्यपूर्ण
रसायन है। यहां
दुख सुख हो
जाते हैं। यहां
नर्क स्वर्ग
हो जाते हैं। यहां
मृत्यु
महाजीवन का
द्वार बन जाती
है।
और
कठिनाइयां
बढेगी, तुम्हारा
प्रेम जैसे—जैसे
लगेगा
परमात्मा की
तरफ, जैसे—जैसे
तुम उस रस में
विभोर होओगे,
वैसे—वैसे
तुम संसार में
बहुत अर्थों
में बेकाम होने
लगोगे।
तुम्हारा रस
वहा कम होगा।
दौडूधूप कम हो
जाएगी। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
जितने से काम
चल जाए, उतने
से तृप्ति हो
जाएगी।
दूसरों को
लगेगा, तुम
हार गए।
दूसरों को
लगेगा, तुमने
पराजय
स्वीकार कर ली।
दूसरों को
लगेगा, तुम
उदास हो गए।
दूसरों की कही
गई बातों पर
बहुत ध्यान मत
देना। तुम तो
अपने भीतर
देखना, और
देखना कि क्या
तुम हार गए हो,
या जीत अब
शुरू हुई?
मुहब्बत
में वही है
काम का दिल
जिसे
नाकाम समझा जा
रहा है
यहां
जगत में जो
नाकाम होता
जाता है, वही
परमात्मा में
सफल होता है।
और यह
कोई साधारण
प्रेम नहीं है।
साधारण प्रेम
भी बडी पीडाएं
देता है, तो
असाधारण
प्रेम तो
असाधारण
पीडाएं देगा।
लेकिन साधारण
प्रेम के सुख
भी साधारण हैं,
असाधारण
प्रेम के सुख
भी असाधारण
हैं।
प्रेम
का राग न गाना
पगले
प्रेम
नगर मत जाना
पगले
राह यह
है पुरखार, पगले
प्रेम बड़ा
आजार
कंटकाकीर्ण
रास्ता है
प्रेम का।
और
प्रेम बड़ा
दुखदाई है।
प्रेम
का राग न गाना
पगले
प्रेम
नगर मत जाना
पगले
राह यह
है पुरखार, पगले
प्रेम बड़ा
आजार
प्रेम
में रोना ही
होता है
जीवन
खोना ही होता
है
जीत हो
कि हार, पगले
प्रेम बड़ा
आजार
इस
संसार में
प्रीति नहीं
है
कोई
किसी का मीत
नहीं है
झूठा
जग का प्यार, पगले
प्रेम बड़ा
आजार
तू ही
बता क्या पाया
आखिर
प्रीति
किए पछताया
आखिर
अब
रोना बेकार,
पगले
प्रेम बड़ा
आजार
इस जगत
का प्रेम, साधारण
प्रेम भी बड़ा
पीडादायी है।
सुख की तो थोड़ी—सी
झलक है, कहीं,
कभी। एक
सुगंध आती और
खो जाती। दुर्गंध
ज्यादा है। एक
अंश में कभी
कहीं कोई आनंद
का भाव उठता
है, निन्यानबे
प्रतिशत तो
अंधेरा ही
अंधेरा है। एक
किरण कभी
फूटती है। मगर
उस एक किरण के
लिए लोग कितना
दुख झेल लेते
हैं!
मैं
तुम्हें जिस
प्रेम की तरफ
ले जा रहा हूं
वहा शत—प्रतिशत
प्रकाश की
संभावना है, सौ प्रतिशत
किरणें तुम पर
बरसेंगी।
स्वभावत: बहुत
निखरना होगा,
बहुत जलना
होगा, बहुत
आग से गुजरना
होगा। हिम्मत
चाहिए, पागल
की हिम्मत
चाहिए।
हिम्मत चाहिए,
जुआरी की
हिम्मत चाहिए।
लेकिन, यह आधी बात
है, कि
प्रेम दुख है,
कि प्रेम
पीडा है।
प्रेम आनंद भी
है, प्रेम
मस्ती भी है।
वह दूसरा
हिस्सा है
प्रेम का। और
जितनी बडी
पीडा उतने ही बड़े
आनंद की
संभावना है।
पीडा ही पीडा
का हिसाब
रखोगे तो
जल्दी ही घबड़ा
जाओगे, आनंद
का भी हिसाब
रखना।
आगाजे—मुहब्बत
में वह इक
सुबह खरामां
आंखों
में समेटे हुए
सौ रंग के
तूफां
अब तक
है तसब्यूर
में वह बेदार
नजार
वह
मस्त समा अब
भी आंखों में
है रक्सां
दुजदीदा
निगाहों में
वोह दुजदीदा
तबस्सुम
वोह
बर्क
मुजस्सिम कभी
पिन्हा कभी
उरियां
अंगड़ाई—सी
लेकर हुई
बेदार
मुहब्बत
जज्वात
की मस्ती हुई
खुशाँद—गुलिस्तां
खूब
फूल खिल रहे
हैं। नजर काटो
पर ही मत अटका
लेना। काटो की
ही गिनती मत
करते रहना। और
ध्यान रखना, हजार काटो
में भी एक फूल
खिले, तो
एक फूल की
कीमत हजार
काटो की पीडा
से बहुत ज्यादा
है! फिर मैं
तुमसे कहता
हूं—हजारों
फूल खिल रहे
हैं। इसलिए
नकारात्मक
दृष्टि को
छोडो। कुछ लोग
ऐसे हैं जो
नकार को ही
गिनती करते
रहते हैं। वे
रास्ते के कंकड़—पत्थर
गिनते रहते
हैं। और
रास्ते पर जो
आनंद की वर्षा
होती है, उसकी
उन्हें चिंता
ही नहीं है।
वे क्षुद्र
अड़चनों का
हिसाब—किताब
रखते हैं और
विराट का
प्रसाद बरसता
है, उसको
ऐसे स्वीकार
कर लेते हैं
जैसे वह उनका
जन्मसिद्ध
अधिकार था।
इस भ्रांति
से बचना। तो
जल्दी ही
तुम्हें साफ
हो जाएगा कि
मुहब्बत एक
तरफ से मारती
है, दूसरी
तरफ से जिलाती
है। एक तरफ से
मिटाती है, दूसरी तरफ
से बनाती है।
अहंकार को गला
देती है, और
आत्मा को
जन्मा देती है।
मृत्यु
जैसा है प्रेम।
और जन्म जैसा
भी। सूली पर
चढ़ना है, और
सिंहासन पर
विराजमान
होना भी।
सिंहासन को
मृत्यु जैसा
देखो, सूली
को तो सीढ़ी
बनाओ। सूली
सीढ़ी है
सिंहासन की।
और मृत्यु
द्वार है नये
जन्म का!
चौथा
प्रश्न :
भगवान, आपने यह
क्या गोलमाल
कर दिया है? रविवार के
प्रश्नोत्तर में
आपने मेरे
प्रश्न के
उत्तर में कहा
कि पूरे रंग
जाओ। उसके एक
दिन पहले मैं
संन्यास में
दीक्षित हुआ
था।
प्रार्थना है
कि अब रंग चढ़ा
दें!
पूछा
है स्वामी
कृष्ण वेदात
ने।
संन्यास
रंगे जाने की
शुरुआत है, अंत नहीं।
कपड़ों को
रंगने से शुरू
करते हैं, क्योंकि
उसकी भी
हिम्मत नहीं
रह गई है
लोगों में, फिर देह को
लोगे, फिर
मन को लोगे, फिर आत्मा
को रंगौ। जैसे—जैसे
तुम्हारी
हिम्मत बढ़ती
जाएगी, वैसे—वैसे
रंग फैलता
जाएगा।
रंगरेज के हाथ
में पड़ गए हो।
घबड़ाओ मत।
कपड़े से तो
सिर्फ शुरुआत
है। उंगली पकड़
में आ गई है तो
पहुंचा बहुत
दूर नहीं है।
एक बार तुमने
इशारा दे दिया
कि मैं रंगे
जाने को तैयार
हूं— और तुमने
तो शायद इसलिए
दिया हो इशारा
कि कपड़े ही तो
रंगने हैं, और क्या
होना है—मगर
तुम्हारी तरफ
से इशारा क्या
मिल जाता है मुझे
कि रंगने के
लिए तुम तैयार
हो, फिर तो
मैं तुमसे
दुबारा नहीं
पूछता! फिर तो
मैं रंगता ही
चला जाता हूं।
फिर यह
लंबी यात्रा
है। बहुत
डुबकियां
देनी होंगी
तुम्हें रंग
की गागर में।
डुबकी पर
डुबकिया देनी
होंगी।
क्योंकि जन्मों—जन्मों
से तुम्हारे
रंग उड़ गए हैं।
तुम्हें
परमात्मा की
कोई याद ही
नहीं रही है।
तुम कहां छोड़
दिए हो
परमात्मा को
तुम्हें
स्मरण भी नहीं
है। डुबकी पर
डुबकिया, बार—बार
चोट पर चोट, हर तरह से
तुम्हें
जगाने का उपाय—
ध्यान से, भक्ति
से, प्रेम
से, भजन से,
गीत से, नृत्य
से, शब्द
से, शून्य
से, शास्त्र
से, सत्संग
से, हर तरह
के उपाय किए
जा रहे हैं।
परेशान न होओ।
रंगने की
अंतिम घड़ी भी
करीब आ जाएगी।
तुमने पहले की
हिम्मत की है,
तो तुम
आखिरी के
अधिकारी भी हो
गए।
तुम्हारे
प्रश्न के
उत्तर में जो
मैंने कहा कि
पूरे रंग जाओ, कपड़े का रंग
जाना पूरा रंग
जाना तो नहीं
है। कपड़े के
रंगे जाने से
तो सिर्फ
तुम्हारी तरफ
से एक
भावभंगिमा
सूचित हुई कि
मैं तैयार हूं।
फिर तुम्हारी
आत्मा को एकदम
रंगा जाए तो
शायद तुम झेल
भी न पाओ।
झेलने की
क्षमता धीरे—
धीरे विकसित
होती है। एकदम
से आकाश टूट
पड़े, तो
तुम शायद दब
ही जाओ।
आहिस्ता—
आहिस्ता। शनै:—
शनै:।
तुम्हारी
हिम्मत बढ़ती
जाती है और
प्रसाद बढ़ता
जाता है।
क्रमिक।
जल्दबाजी कुछ
आवश्यक भी
नहीं है। और
पूरा रंगना, तो उसका
अर्थ होता है—सिद्ध
हो जाना। जब
रंगने को कुछ
न बचा तो उसका
अर्थ हुआ कि
तुम परमात्मा
हो गए। लंबी
यात्रा है।
लेकिन ध्यान
रखना, लाओत्सू
का प्रसिद्ध
वचन है कि
हजारों मील की
यात्रा एक—एक
कदम चल कर
पूरी हो जाती
है। और दो कदम
तो कोई भी एक
साथ नहीं चल
सकता, एक
कदम ही एक बार
में चलना पड़ता।
और हजारों मील
की यात्रा एक—एक
कदम चलकर पूरी
हो जाती है।
तो
कृष्ण वेदात, तुमने पहला
कदम उठा लिया।
अगर तुम मुझसे
पूछो तो मैं
पहले कदम को
आधी यात्रा
कहता हूं।
सबसे कठिन
पहला कदम है।
फिर दूसरा कदम
तो सहज होता
है, क्योंकि
वह भी पहले
जैसा होता है।
फिर तीसरा भी
सहज होता है, क्योंकि वह
भी पहले जैसा
होता है। एक
कदम उठा लिया
तो कला आ गई।
अब तुम रंगरेज
के हाथ में पड़
ही गए हो, पूरे
रंग दिए जाओगे।
गोलमाल
इसलिए हुआ कि
तुमने अपने
संन्यास का नाम
नहीं लिखा था
प्रश्न में।
तो दो ही कारण
हो सकते थे।
एक कारण तो हो
सकता था कि
तुमने प्रश्न
संन्यास लेने
के पहले लिखा
हो। तो प्रश्न
गैर—संन्यासी
मन से उठा था, इसलिए मुझे
कहना पड़ा कि
रंगों।
प्रश्न गैर—संन्यासी
मन से उठा था, इसलिए मुझे
कहना पड़ा कि
संन्यासी बनो।
या दूसरी
संभावना यह है
कि तुमने
प्रश्न तो संन्यास
लेने के बाद
ही लिखा हो, लेकिन
पुरानी आदतवश
पुराना नाम
लिख गए हो। तो
भी जरूरी है
कि तुम्हें
याद दिलाया
जाए, कि
पुराने को अब
छोड़ो, नहीं
तो रंग में बाधा
पड़ेगी। अब
पुराने को
जाने दो; अब
पुराने को
विदा, अलविदा।
अब पुराने से
नाता तोड़ लो।
नए नाम
का यही तो
अर्थ है कि
तुम्हारा नया
जन्म हो। अतीत
तुम जिए हो
तीस साल, चालीस
साल, पचास
साल, उसकी
बड़ी धूल जम गई
है। एक खंड़हर
पड़ा है पचास
साल का। कुछ
लोग तो उसी खंड़हर
में सुधार
करते रहते हैं—रिनोवेशन
करते रहते हैं।
वे उसी में
इधर—उधर सहारे
लगाते रहते
हैं, इंटे
चुनते रहते
हैं, कहीं
पलस्तर गिर
गया है तो
पलस्तर कर
दिया, कहीं
रंग उड़ गया है
तो रंग कर
दिया, कहीं
छप्पर टूट गया
है तो छप्पर
नया बिठा दिया।
उसी पुराने
में सारा करते
रहते हैं। मगर
पुराना
पुराना है, खंड़हर खंड़हर
है। मैं खंड़हरों
के
पुनरुद्धार
में विश्वास
नहीं करता।
मैं कहता हूं
गिरा दो जमीन
तक, हटा दो
इसे बिलकुल, नया ही बना
लेंगे।
और
पुराने में
छोटे—छोटे
फर्क करते रहो
तो कभी हो
नहीं पाते
फर्क, क्योंकि
पुराने की
ताकत बड़ी होती
है। सौ चीजें
पुरानी, उसमें
तुम एक नई डाल
देते हो, वे
निन्यानबे
पुरानी उस एक
को भी पुरानी
कर लेती हैं।
उनका बल
ज्यादा होता
है। इसलिए
उचित यही है
कि पुराना
अध्याय बंद!
इसलिए नया नाम
देता हूं ताकि
तुम संन्यास
के क्षण से
सोचने लगो कि
यह तुम्हारा
जन्म हुआ।
बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं को
कहा था—संन्यास
के बाद अपनी
उस संन्यास के
दिन में गिनना।
वह ठीक बात थी।
एक दिन
बहुत मजा हो
गया। एक बूढ़ा
संन्यासी
बुद्ध के
चरणों में सिर
झुकाने आया—कोई
होगा सत्तर
साल का आदमी।
और बुद्ध
अक्सर पूछते
थे कि हे
भिक्षु, तेरी
उस कितनी है? सम्राट
प्रसेनजित
बुद्ध से
मिलने आया था,
वह उनके पास
ही बैठा हुआ
था। जब बुद्ध
ने उस भिक्षु
से पूछा, हे
भिक्षु तेरी
उस कितनी है, तो उसने कहा—चार
वर्ष।
प्रसेनजित तो
बड़ा चौंका।
सत्तर साल—
अस्सी साल का
बूढ़ा, कह
रहा है—चार
वर्ष! कहीं
मेरे सुनने
में भूल तो
नहीं हो गई? उसने बुद्ध
को फिर कहा कि
जरा फिर से
पूछिए, मैं
जरा सुनने में
चूक गया; यह
कितना कह रहा
है? बुद्ध
ने कहा, यह
कहता है—चार
वर्ष। और आप
इसमें कोई
प्रश्न नहीं
उठा रहे हैं, प्रसेनजित
ने कहा, यह
चार वर्ष कह
रहा है! यह कम
से कम सत्तर
का तो है ही।
अस्सी का भी
हो सकता है।
बुद्ध
हैसे, उन्होंने
कहा—तुम्हें
पता नहीं, हम
इस तरह ही
गणना करते हैं।
यह चार वर्ष
पहले
संन्यासी हुआ।
उसके पहले जो
छियासठ वर्ष
जीया, उनकी
क्या गिनती
है! वे तो सपने
में गए, उनको
क्या गिनना है?
सपने के
कृत्यों का
तुम हिसाब तो
नहीं रखते हो।
कोई तुमसे
पूछे कि
तुम्हारे पास
कितना धन है, तो तुम उतना
ही बताते हो
जितना जागने
में तुम्हारे
पास है। तुम
उसमें वह नहीं
जोड़ते जो तुम
सपनों में भी
होते हो। सपने
में तुम्हारे
पास करोड़ों
होते हैं। और
तुम यह नहीं
कहते कि भाई, जागने में
तो बस ये सौ
रुपए हैं, मगर
सपने में करोड़
भी होते हैं, तो सौ धन
करोड़। सपने का
धन तुम नहीं
जोड़ते।
क्यों
नहीं जोड़ते?
सपने
का धन धन ही
नहीं है। मूर्च्छा
का धन धन ही
नहीं है।
मूर्च्छा का
जीवन भी जीवन
नहीं है।
जाने
दो अतीत को।
और मैं जानता
हूं कि आदत
आदत है, छूटते—छूटते
ही छूटती है।
जाते—जाते ही
जाती है। देर
लगती है।
अचानक कोई
तुमसे
तुम्हारा नाम
पूछेगा संन्यास
के बाद, तुम्हें
फिर पुराना
नाम याद आ जाएगा।
कुछ दिन तक
आता रहेगा।
संन्यास के
बाद भी कोई
पूछेगा—तुम्हारी
जाति, तुम्हारा
धर्म, तुम्हें
फिर पुराना
याद आ जाएगा, कि मैं जैन
हूं र कि मैं
हिंदू हूं कि
मैं बौद्ध हूं।
भूलते— भूलते
भूलेगा।
इसलिए भी कहा
कि पूरे रंग
जाओ, संन्यस्त
हो जाओ।
संन्यास
लेने से ही
संन्यास नहीं
हो जाता है।
कोई संन्यास
लेकर भी
संन्यास से
वंचित रह सकता
है; संन्यास
को अगर ऐसे ही
औपचारिकता के
ढंग से ले
लिया हो। कुछ
लोग ले लेते
हैं, मैं
बड़ा चकित हूं
विशेषकर
भारतीय। झूठा
संन्यास ले
लेते हैं!
विदेश से
आनेवाले लोग
झूठा नहीं
लेते हैं। उसका
कारण है।
उन्हें
संन्यास का
कुछ पता ही
नहीं है।
समझते हैं, समझने की
चेष्टा करते
हैं, सोचते—विचारते
हैं, पूछते
हैं कि
संन्यास क्या
है? क्यों
लेना? क्या
होगा? विचार
करते, मंथन
करते। लेकिन
भारतीय को तो
पता ही है कि
संन्यास अच्छी
चीज है। और उस
अच्छे
संन्यास में
कुछ थोड़े काटे
थे, वे भी
मैंने अलग कर
दिए हैं। न घर
छोड़ना है, न
द्वार छोड़ना
है, न
पत्नी, न
बच्चा। तो मन
कहता है, फिर
संन्यासी
होने का मजा
भी क्यों न ले
लिया जाए? कुछ
खोना भी नहीं
है और संन्यास
भी मिलता हो, इतनी सुगमता
से मिलता हो
तो ले ही लो।
तो एक
तो भारतीय मन
को पता है कि
संन्यास क्या है? संन्यास की
महिमा पता है।
और फिर मैंने
संन्यास के
बीच की सारी
बाधाएं अलग कर
दी हैं, तो
सोचता है लेने
में हर्ज क्या
है? ले
लेता है।
या, किन्हीं और
कारणों से भी
ले लेता है।
ऐसे अक्सर
मौके आ जाते
हैं। कोई
संन्यास लेकर,
मैं पूछता
हूं उससे कि
ध्यान करो, वह कहता है
कि ध्यान तो
अभी मैं क्या
करूं, असली
में इसलिए
मैंने
संन्यास लिया
है कि मेरी
तबीयत ठीक
नहीं रहती।
मैंने सोचा कि
आपसे जुड़ जाऊं,
तो शायद
तबियत ठीक हो
जाए। इसलिए
संन्यास लिया
है। सब इलाज
करवा चुका। तो
संन्यास एक
इलाज है! सोचा
कि अब सब करवा
चुका, अब
यह आखिरी भी
करके देख लेना
चाहिए।
एक
महिला एक
बच्चे को लेकर
आ गई। वह
बच्चा आ ही
नहीं रहा है, वह उसको
घसीट रही है, कि इसको
संन्यास दे
दें! इसका
दिमाग खराब है,
और हम सब
इलाज करवाकर
देख लिए, अब
सोचा कि चलो
संन्यास ही
दिलवा दें। अब
यह तो संन्यास
नहीं होगा! यह
तो कैसा संन्यास
होगा? भारतीय
मन धर्म के
साथ इतने दिन
रहा है कि धर्म
के साथ भी
बेईमानी करने
में कुशल हो
गया है।
फिर
ऐसे भी लोग
हैं जो यहां
आकर संन्यास
ले लेते हैं...
एक भाव में आ
गए, यहां सब
गैरिक लोगों
को देखकर तरंग
आ गई, आंसू
बहे, मग्न
हुए, सुना,
समझा। मगर
जब ट्रेन में
बैठते हैं
वापिस, तो
घबड़ाहट शुरू
होती है कि अब
घर वापिस जा
रहे हैं! कुछ
ऐसे भी हैं जो
रास्ते में ही
कपड़ा अपना
पेटी में छिपा
लेते हैं। घर
जाकर खबर ही
नहीं देते।
मुझे पत्र लिखते
हैं कि हम बड़े
अपराधी हैं, लेकिन क्या
करें, हिम्मत
नहीं जुटा पा
रहे हैं कि
पत्नी को बता दें,
कि दफ्तर
में बता दें, कि लोगों को
पता चल जाए कि
संन्यासी हो
गए हैं। मुझसे
लोग संन्यास
लेते वक्त
पूछते हैं कि
अगर माला को
भीतर छिपाए
रखें तो कुछ
हर्ज तो नहीं
है? माला
बाहर और भीतर
का सवाल नहीं
है, मगर
भीतर छिपाने
का भाव! वहा
हर्ज है। किसी
को पता न चले।
एक सज्जन
संन्यास लेकर
गए, जब वह
कोई दो—तीन
महीने बाद
वापिस आए तो
मैंने उनसे
पूछा, गैरिक
वस्त्रों का
क्या हुआ? और
मेरी आंखें
खराब नहीं हैं।
उन्होंने कहा,
आप देखते
नहीं, यह
गैरिक वस्त्र
तो पहने हुए
हूं। तब मैंने
बहुत गौर से
देखा, तो
पता चला—हां, सफेद रंग
में थोड़ी—सी
झलक है! तो कोई
खोजे बहुत, चश्मा लगाकर,
तो शायद समझ
में आए कि ही, थोड़ी—सी झलक
है।
ऐसा
धोखा चलता!
वे
कपड़े बिलकुल
सफेद मालूम पड़
रहे हैं; थोड़ा—सा
रंग, एक
रत्ती भर रंग
बाल्टी भर
पानी में
डालकर और कपड़े
उन्होंने
हिला लिए
होंगे! जब
मैंने बहुत गौर
से देखा, मैंने
कहा जरा करीब
आओ, मैं और
गौर से देखूं—हालांकि
मेरी आंखें
खराब नहीं हैं—तब
मैंने कहा कि
ही, मालूम
तो होता है।
मैं तो समझा
कि कपड़े दो—चार
दिन से धोए
नहीं हैं, यात्रा
में थोड़ी
सफेदी खो गई
है।
इसलिए
संन्यास ले
लेने से ही
संन्यास हो
गया, ऐसा मत
मान लेना।
शुरुआत हुई।
फिर बहुत कुछ
करना है।
बुनियाद रखी
गई, फिर
भवन उठाना है।
आखिरी
प्रश्न :
संसार
क्या है?
सोये—सोये
देखा गया
परमात्मा।
मूर्छित
अवस्था में
देखा गया
परमात्मा। मन
के माध्यम से
देखा गया
परमात्मा
संसार है। और
चूंकि मन
क्षणभंगुर है, इसलिए मन
में बनते
प्रतिबिंब भी
क्षणभंगुर होते
हैं। तुमने
देखा, रात
पूर्णिमा का
चांद निकला हो,
झील शांत हो,
तो झील पर
पूर्णिमा का
चांद बनता है,
प्रतिबिंब
बनता है। जरा—सी
एक कंकड़ी
फेंकना, जरा—सी
कंकड़ी और झील
कैप गई, और
झील डोल गई, और लहरें उठ
गइ, तरंगें
उठ गई और चांद
हजार टुकड़ों
में टूट गया।
चांद नहीं
टूटता है हजार
टुकड़ों में, ध्यान रखना,
सिर्फ लहर
में जो
प्रतिबिंब
बनता था वही
टूटता है। झील
का बना
प्रतिबिंब
टूटता है हजार
टुकड़ों में, चांद नहीं
टूटता।
प्रतिबिंब
क्षणभंगुर है,
चांद तो
क्षणभंगुर
नहीं है।
हम मन
की झील के
द्वारा
परमात्मा को
देखते हैं, तो जो
प्रतिबिंब
बनता है—और वह
प्रतिबिंब
क्षणभंगुर
होगा, क्योंकि
मन में हजारों
विचार की
तरंगें चल रही
हैं—इसलिए टूट—टूट
जाता है, खंड़—खंड़
हो जाता है।
इसलिए संसार
में कभी सुख
संभव नहीं है,
क्योंकि
सुख बन भी
नहीं पाता और
उखड़ जाता है। यहां
झील में कंकड़
पड़ते ही जाते
हैं। तुम बड़े
प्रसन्न जा
रहे थे रास्ते
पर, आज बड़े
खुश थे, सुबह
से ही ताजे थे,
घर में भी
कोई झंझट नहीं
हुई थी, घर
से मस्ती से
निकले थे और
एक आदमी
तुम्हारे पास
से गुजर गया—उसने
कुछ खास नहीं
किया, सिर्फ
नमस्कार नहीं
की, रोज
नमस्कार करता
था, आज
नहीं की—बस, एक कंकड़ पड़
गया। कंकड़ डाल
भी नहीं और पड़
गया। उसने कुछ
किया नहीं, सिर्फ कुछ
करता था जो आज
उसने नहीं
किया, मुंह
फेर कर निकल
गया, बस
चिंता पैदा हो
गई, लहरें
उठने लगीं, बदला लेने
का भाव होने
लगा कि यह
आदमी, इसके
साथ मैंने
कितना भला
किया—सारी झील
लहरों से पट
गई! खो गया सब
सुख, तरंग
भूल गई। जरा—सी
बात तुम्हारे
मन को
डावांडोल कर
जाती है।
इसलिए
इस मन के
द्वारा कभी
सुख तो मिल
नहीं सकता।
सुख तो शाश्वत
में है। मन को
हटाकर जगत को
देख लेते ही
परमात्मा मिल जाता
है। झील में
मत देखो चांद
को, झील से आंखें
हटाओ, चांद
को ही देखो।
परमात्मा और
संसार दो नहीं
हैं, संसार
परमात्मा की
ही छाया है।
इसलिए उसे
माया कहते हैं।
मैं
हसीन कलियों
से आगोश सजा
लूं तो क्या
अपने
गमखानों में
इक शमअ जला
लूं तो क्या
मुस्कुरा
लूं भी तो
क्या साज बजा
लूं तो क्या
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
ये समय
की जो कड़वाहट
है, ये तो
मिटती ही नहीं
है।
मैं
हसीन कलियों
से आगोश सजा
लूं तो क्या
मैं
अपनी गोदी में
फूल ही फूल भर
लूं तो भी क्या
होगा? फूल
जल्दी ही
कुम्हला
जाएंगे।
अपने
गमखानों में
इक शमअ जला
लूं तो क्या
और
अपनी दुख से
भरी जिंदगी
में एक दिया
भी जला लूं तो
क्या? दिया
जल्दी ही बुझ
जाएगा, तेल
चुक जाएगा, बाती मिट
जाएगी।
मुस्कुरा
लूं भी तो
क्या.......
कितनी
देर
मुस्कुराओगे? मुस्कुराहट
आई और गई।
... साज
बजा लूं तो
क्या
और
कितनी देर
वीणा छेड़ोगे? गीत उठेंगे,
संगीत के
स्वर उठेंगे
और खो जाएंगे।
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
को मिटने से
रही
यह जो
समय का उपद्रव
है— और समय
यानी मन। खयाल
करना, मन के
कारण ही समय
पैदा हुआ है।
जैसे ही मन
चला जाता है, समय चला
जाता है। जीसस
से उनके एक
शिष्य ने पूछा
कि तुम्हारे प्रभु
के राज्य में
सबसे खास बात
क्या होगी? जीसस ने कहा,
देयर शैल बी
टाइम नो लंणर,
वहा समय
नहीं होगा।
महावीर
कहते हैं, समाधि में
समय नहीं होगा;
समयातीत, कालातीत।
सारे
ज्ञानियों ने
कहा है, काल
मिट जाता है, समय मिट
जाता है। और
जहा काल मिट
जाता है, समय
मिट जाता है, वहा मृत्यु
भी मिट जाती
है। इसलिए तो
हमने काल के
दोनों अर्थ
किए हैं—समय
और मृत्यु।
दोनों मिट
जाते हैं।
अमृत का अनुभव
हो जाता है।
शाश्वत
जहां मिल गया
वहा समय भी
नहीं रहा, मृत्यु भी
नहीं रही।
मिटने वाली
कोई चीज ही न
रही तो मृत्यु
कैसे रहेगी? अमिट से
मिलन हो गया, नित्य से
मिलन हो गया।
मैं
हसीन कलियों
से आगोश सजा
लूं तो क्या
अपने
गमखानों में
इक शमअ जला
लूं तो क्या
मुस्कुरा
लूं भी तो
क्या साज बजा
लूं तो क्या
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
चूम
लूं चांद के
शक्काक
किनारे भी अगर
तोड़
लूं उड़कर यह
रंगीन सितारे
भी अगर
मोड़
दूं जीस्त के
बहते हुए धारे
भी अगर
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
पी भी
लूं मस्त
निगाहों के
इशारों से अगर
तल्सिए—जीस्त
मिटा भी दूं
उठाकर सागर
मजरे—गमको
बना भी लूं जो
फिरदौसे—नजर
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
यह
रविश और यह
हालात बदल भी
जाएं
यह
तसब्यूर यह
खयालात बदल भी
जाएं
यह शऊर
और यह जज्वात
बदल भी जाएं
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
घुटके
रह जाएगी इक
दिन यह सिसकती
आवाज
मुंतसिर
टूटके हो
जाएगा शीराजए—राज
जल्वए—नाज
से भर जाएगी
आगोशे—नियाज
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
सब
छिन्न—भिन्न
हो जाएगा।
कितना ही गोद
भरो फूलों से, सब छिन्न—भिन्न
हो जाएगा।
कितने ही दिए
जलाओ, सब
बुझ जाएंगे।
आकाश के तारे
भी तोड़ लाओ, सब व्यर्थ
हो जाएगा।
घुट के
रह जाएगी इक
दिन यह सिसकती
आवाज
और
कितने ही गीत
गाओ, और कितनी
ही वीणा बजाओ...
घुटके
रह जाएगी इक
दिन यह सिसकती
आवाज
मुंतसिर
टूट के हो
जाएगा शीराजए—राज
सब टूट
जाएगा, सब
बिखर जाएगा।
जल्वए—नाज
से भर जाएगी
आगोशे—नियाज
वक्त
की तल्सिए—गुफ्तार
तो मिटने से
रही
कितने
ही सुख यहां
बना लो, सब
उजडू जाएंगे।
और कितने ही
घर यहां बना
लो, सब गिर
जाएंगे। यहां
सब रेत पर
बनाए हुए घर
हैं, और
पानी में चलाई
गई कागज की
नावें हैं। और
समय की तल्सी,
समय की कड़वाहट,
समय का जहर
कायम रहता है।
संसार
का अर्थ है—समय।
समय अर्थात मन।
मन और समय एक
ही ऊर्जा के
दो नाम हैं।
इधर मन गया...
तुम जरा
देखना! अगर
किसी समय में
ऐसा हो जाए कि
मन में कोई
विचार न हों, तो उसी के
साथ तुम पाओगे—समय
भी न रहा। घडी
चलती रहेगी, तुम्हारे
भीतर की घडी
ठहर जाएगी।
ध्यान में
घंटों बीत
जाते हैं और
पता नहीं चलता
कि कितना समय
बीत गया।
ध्यान में कुछ
बीतता ही नहीं।
ध्यान में
उसका पता चलता
है जो सदा है
और कभी बीतता
नहीं। बीतना
सिर्फ मन में
होता है।
संसार
सत्य की झलक
है। और झलक मन
की झील में।
और मन की झील
जरा—से कंकड़ों
से डोल जाती
है। इसलिए मन
के सहारे तुम
जो भी बसाओगे, टूट जाएगा, उखड़ जाएगा, बिगड़ जाएगा,
छिन्न—भिन्न
हो जाएगा।
मन से
हटो। मन से
मुक्त हो जाओ।
अ—मन की दशा
खोजो। नो माइंड़।
उस अ—मन की दशा
में मुक्ति है, मोक्ष है, ब्रह्म है।
और फिर से
तुम्हें
दोहरा दूं कि
संसार और परमात्मा
दो नहीं हैं।
एक ही हैं।
लेकिन
परमात्मा को
ही मन के
द्वारा देखने
से संसार की
भ्रांति पैदा
होती है। और
बिना मन के
देखने से सारी
भ्रांतिया
मिट जाती हैं।
सत्य का अनुभव
हो जाता है।
सत्य का
साक्षात्कार
हो जाता है।
आज
इतना ही।
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