सत्रहवां
प्रवचन
27
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र
:
फलस्माद्वादरायणो
दृष्टत्वात्।।
91।।
ब्यूत्कमदप्ययस्तथा
दृष्टम्।। 92।।
तदैक्यं
नानात्वकैत्वमुपाधियोगहानादादित्यवत्।।
93।।
पृथगिति
चेन्नापरेणासम्बन्धात्
प्रकाशानाम्।।
94।।
न
विकारिणस्तु
कारणविकारात्।।
95।।
'फलम्
अस्मात्
वादरायण
दृष्टत्वात्।।
वादरायण
कहते हैं कि
कर्म स्वयं
फलदाता नहीं है; ईश्वर ही
कर्मों के
फलदाता हैं।
ऐसा देखने में
भी आता है।
'कर्म
का सिद्धांत अगर
अपनी तार्किक
निष्पत्ति तक
खींचा जाए, तो ईश्वर का
हंता हो जाता
है। फिर ईश्वर
की कोई
आवश्यकता
नहीं रह जाती।
ऐसा ही हुआ
जैन और बौद्ध
दर्शन में।
कर्म के सिद्धांत
को
उसकी तार्किक
निष्पत्ति तक
ले जाया गया।
ईश्वर व्यर्थ
हो गया। ईश्वर
की कोई
आवश्यकता न
रही। कर्म का
नियम ही
पर्याप्त हो
गया, किसी
नियंता की कोई
जरूरत न रही।
कर्म का सिद्धांत
स्वचालित
हो गया। उसके
लिए किसी चालक
की जरूरत न
रही। पाप
करोगे, उसका
अनिवार्य
परिणाम बुरा
होगा।
अनिवार्य, स्मरण
रखना! पुण्य
करोगे, उसका
अनिवार्य
परिणाम शुभ
होगा।
अनिवार्य, स्मरण
रखना! कर्म
अपना फल स्वयं
दे जाता है, ऐसी जैन और
बौद्धों की
दृष्टि है। इस
दृष्टि का ही
परिणाम हुआ कि
दोनों ने ईश्वर—तत्व
को इनकार कर
दिया।
ईश्वर—तत्व
को इनकार करने
के कारण जैन
और बौद्ध दर्शन
ध्यान की तो
बड़ी ऊंचाइयों
पर उठे, लेकिन
प्रार्थना खो
गयी। क्योंकि
परमात्मा के
बिना
प्रार्थना कहां?
ध्यान रूखी—सूखी
बात है। उसमें
रसधार नहीं है।
और ध्यान
अकेला अपंग भी
है। और ध्यान
अकेला अगर अति
बुद्धिमत्ता
पूर्वक ध्यान
की यात्रा न
की जाए तो
अहंकार को
बलिष्ठ करने
का कारण हो
सकता है।
क्योंकि
अहंकार को
समर्पित करने
के लिए कोई चरण
ही न रहे।
इसलिए जैन—मुनि
जितना
अहंकारी होता
है उतना
पृथ्वी पर कोई
दूसरा साधु
नहीं होता। हो
नहीं सकता।
कारण?
जैन—मुनि
को समर्पित
होने के लिए
कोई स्थल नहीं
है, जहा वह
माथा टेक दे; जहा सब्दा
करे, ऐसे
कोई चरण नहीं
हैं।
परमात्मा ही
नहीं है
अस्तित्व में
तो प्रार्थना
कैसे हो सकेगी?
और
परमात्मा ही
नहीं है
अस्तित्व में,
तो तुम
अकेले रह गये—द्वीप
की भांति। अपने
में बंद। अपने
से बाहर जाने
का उपाय न रहा।
अपने से पार
जाने का उपाय
भी न रहा। और
जीवन की सारी
महिमा अपने से
पार जाने की
है। परमात्मा
से निमित्त
मात्र है कि
से पार जा सकोसीढ़ी
है। कि तुम
धीरे— धीरे
अपने को भी
अतिक्रमण कर
जाओ। मनुष्य
की तुम अपने—
गरिमा
यही है कि वह
अपना
अतिक्रमण कर ले।
फ्रेड़रिक
नीत्से का
प्रसिद्ध वचन
है अभागे
होंगे वे दिन
जब मनुष्य
अपना
अतिक्रमण
करना बंद कर
देंगे। अभागे
होंगे वे दिन
जब मनुष्य
अपने होने से
तृप्त हो
जाएंगे। जब
उनके भीतर आग
जलेगी अपने से
पार जाने की
अपने से ऊपर
उठने की।
मनुष्य की यही
महिमा है।
इस जगत
में कोई और
पशु—पक्षी, कोई पौधा, कोई पत्थर—पहाड़
अपने से पार
जाने के लिए आकांक्षा
नहीं करता। और
सब आकांक्षा एं
समान हैं, सिर्फ
एक आकांक्षा मनुष्य
में विशिष्ट
है। नीम का
वृक्ष नीम का
वृक्ष ही रहना
चाहता है।
इसके पार जाने
की उसकी कोई
अभीप्सा नहीं
है। सिंह सिंह
रहना चाहता है।
सिंह होने से
परितृप्त है।
कुछ और होने
की आवश्यकता
नहीं है, न आकांक्षा
है, न
स्वप्न है।
मनुष्य अकेला
प्राणी है जो
स्वप्न देखता
है— अपने से
ऊपर जाने के, अपने से
भिन्न होने के।
अपने को ही
सीढ़ी बनाकर
अपने ऊपर चढ़
जाने की अपूर्व
आकांक्षा मनुष्य
के प्राणों को
झकझोर देती है।
इसी आकांक्षा का
नाम संन्यास
है।
लेकिन
ऊपर जाने को
कोई लक्ष्य
होना चाहिए।
ऊपर जाने के
लिए कोई आयाम
होना चाहिए।
परमात्मा उसी
आयाम का नाम
है।
अगर
परमात्मा
नहीं है, तो
फिर आदमी बचा।
उपनिषद का
प्रसिद्ध वचन
है : ' अहं
ब्रह्मास्मि'। अगर
ब्रह्म नहीं
है, तो अहं
बचा। और अहं
को मिटाने का
कोई उपाय भी न
बचा। ब्रह्म
में ही डूबकर
मिट सकता था।
अब डूबेगा कहां?
अब इससे
उबरतौ कैसे? अब इतना ही
हो सकता है कि
यह पाप की जगह
पुण्य में लग
जाए। बस इतना
ही उपाय रहा।
इतना ही उपाय
रहा कि सोने
की जंजीरें आ
जाएं, लोहे
की जंजीरें
चली जाएं।
इतना ही उपाय
रहा— धन की अकड़
मिट जाए, त्याग
की अकड़ आ जाए।
वही जैन—मुनि
में उपलब्धि
हो जाती है।
धन की अकड़ चली
जाती है, त्याग
की अकड़ पकड़
जाती है।
कृत्य पर बहुत
भरोसा आ जाता
है। संकल्प सब
कुछ हो जाता
है। समर्पण की
कोई संभावना
नहीं रह जाती।
और भक्ति तो
समर्पण के
बिना हो न
सकेगी। और
भक्ति के बिना
आदमी अपने
अहंकार से
मुक्त नहीं हो
सकता।
इसलिए
वादरायण कहते
है—और वादरायण
का सूत्र शांडिल्य
ने यहां
उल्लेख किया
है। वादरायण
उन थोड़े—से
मनीषियों में
से एक हैं
जिन्होंने
जाना।
जिन्होंने
जागकर देखा, उन थोड़े—से
बुद्धपुरुष
में एक हैं।
'फलम्
अस्मात्
वादरायण
दृष्टवात्।।
कर्म
स्वयं फलदाता
नहीं है।
ईश्वर ही
कर्मों का
फलदाता है।
ऐसा देखने में
भी आता है। ' ईश्वर
को स्वीकार
करने का क्या
अर्थ होता है?
उसे ठीक से
समझ लेना, अन्यथा
तुम्हारी
ईश्वर के
प्रति बड़ी
बचकानी धारणाएं
हैं। उन्हीं
धारणाओं को
जैनों और
बौद्धों ने
आसानी से तोड़
दिया और खंडित
कर दिया। इस
जगत में एक
बड़ा अदभुत खेल
चलता है। तर्क
का जो जाल है, वह उस पर ही
आधारित है। वह
खेल यह है।
जो लोक—सामान्य
में, पृथकजनों
में, सामान्य
लोगों में जो
धारणाएं
प्रचलित होती हैं,
उनका खंड़न
बड़ी आसानी से
किया जा सकता
है। क्योंकि
उनके पीछे न
तो कोई अनुभव
होता है, न
कोई दृष्टि
होती है। उनके
पीछे मनुष्य
की सामान्य
बुद्धि होती
है। जरा—सी
असामान्य
बुद्धि
तुम्हारे पास
हो, उनका
खंड़न किया जा
सकता है।
लेकिन उनका खंड़न
से धारणा का
वास्तविक रूप
खंडित नहीं
होता। जैसे कि
तुमने सोच रखा
है कि ईश्वर
कहीं आकाश में
बैठा कोई
व्यक्ति है, तो तुम्हारी
धारणा बचकानी
है। ईश्वर
कहीं कोई
व्यक्ति की
तरह नहीं बैठा
हुआ है। और
अगर तुमने
ईश्वर को
व्यक्ति माना,
तो तुम
नास्तिकों या
अनीश्वरवादियो
के किसी न
किसी तर्क जाल
से तोड़ दिये
जाओगे। तुम बच
न सकोगे।
ईश्वर
व्यक्ति नहीं
है, ईश्वर
ऊर्जा है। वह
जो बुद्धि की
ऊर्जा है, उसका
नाम ईश्वर है।
इस जगत में जो
बुद्धिमत्ता
दिखायी पड़ती
है, उसका
नाम ईश्वर है।
'इंटेलिजेंस'। इस जगत में
जो प्रतिभा का
आभास होता है,
उसका नाम
भगवत्ता है।
भगवान कोई
व्यक्ति ही है।
व्यक्ति को
खोजने
निकलोगे, तो
कहीं भी न
पाओगे।
जिन्होंने
भगवान का
अनुभव किया है,
उन्होंने
भी नहीं कहा
कि भगवान
व्यक्ति है।
उन्होंने भी
कहा कि भगवान
की अनुभूति है।
तुम्हारी
चैतन्यदशा जब
इतनी निखार को
उपलब्ध हो
जाती है कि उस
पर कोई सीमा
के बंधन नहीं
रह जाते, सब
उपाधिया जब
गिर जाती है, जब तुम निर—उपाधि
हो जाते हो, जब तुम्हारी
चैतन्य की दशा
इतनी शात और
इतनी आनंदमग्न
हो जाती है कि
विचार की एक
तरंग नहीं
उठती, झील
परिपूर्ण
शांत होती है,
तब तुम्हें
अनुभव होता है
कि तुम्हारी
झील कहीं भी
समाप्त नहीं
होती; तुम्हारी
झील किसी
विराट झील का
हिस्सा है; तुम्हारा यह
छोटा—सा
चैतन्य का
दीया किसी
विराट
महासूर्य की
किरणों का
हिस्सा है। उस
विराट चैतन्य
का नाम
परमात्मा है।
तुम्हारे
भीतर उसकी ही
एक किरण है।
तुम उसके ही
एक रूप हो।
तुम तक वह आया
हुआ है। परमात्मा
व्यक्ति नहीं
है, बल्कि
समष्टि में
छिपी हुई
चैतन्य की
शक्ति का नाम
है। जड़ में भी
वही है।
क्योंकि जड़ भी
चैतन्य की ही
एक अवस्था है—सोयी
हुई अवस्था।
तुम्हारे
शरीर में भी
वही है। वह
उसकी सोयी हुई
अवस्था है। और
तुम्हारे बोध
में भी वही है,
वह उसकी
थोड़ी—सी जागती
हुई अवस्था है।
और जिस दिन
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाओगे, परम
जाग्रत हो
जाओगे, उस
दिन भी वही
होगा। वह उसकी
परिपूर्ण
जाग्रत
अवस्था है।
जिसके पार फिर
और जागना शेष
नहीं रह जाता।
संक्षिप्त
में, परमात्मा
व्यक्ति नहीं,
इस जगत में
छिपी हुई
बुद्धिमत्ता
है। और
बुद्धिमत्ता
के प्रमाणों
की कमी नहीं
है। यहां हर
चीज इतनी
बुद्धिमत्ता
से चल रही है
कि क्या उसके
लिए प्रमाण
देना पड़ेगा? तुम एक बीज
बोते हो, बीज
में निश्चित
ही कोई
बुद्धिमत्ता
है, क्योंकि
बीज भलीभांति
जानता है उसे
क्या होना है!
आम होना है कि
नीम होना है।
बीज भलीभांति
जानता है कि
किन पत्तों को
उगाना है। वे
हरे होंगे, कि लाल
होंगे, कि
पीले होंगे।
बीज भलीभांति
जानता है, आकाश
में कितने ऊपर
तक शाखाओं को
भेजना है। बीज
भलीभांति
जानता है कि
जड़ें कितनी
दूर गहराई में
जलस्रोत की
तलाश में जानी
चाहिए तब मैं
जीवित रह
सकूंगा। तुम
वृक्ष की एक
शाखा काट दो, तत्क्षण
वृक्ष दूसरी
शाखा पैदा कर
देता है। कमी
हो गई, उसे
पूरी कर लेता
है। रात वृक्ष
भी सो जाता है, दिन जागता
है। और अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वृक्ष की संवेदना
भी है। अब तो
वैज्ञानिकों
के पास इस बात
के प्रमाण हैं।
जो सर
जगदीशचंद्र
बसु ने सबसे
पहली दफे
प्रमाणित
किया था, वह
धीरे—धीरे इन
पचास वर्षों
में रोज—रोज
सघनता से
प्रमाणित
होता गया। आज
अगर
जगदीशचंद्र
बसु होते, तो
उनके आनंद का
पार न होता, पारावार न
होता! क्योंकि
पश्चिम में
बहुत—सी खोजें
इस बीच हुई
हैं। उन खोजों
को देखकर
चमत्कार होता
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जब कुल्हाड़ी
लेकर कोई वृक्ष
को काटने आता
है, तो
कुल्हाड़ी
लाने वाले
व्यक्ति को
दूर से ही देखकर
और वृक्ष में
तरंगें भय की
पैदा हो जाती
हैं। अभी काटा
नहीं गया है, अभी यह भी
पक्का नहीं है
कि इसी को
काटेगा।
लेकिन वृक्ष
की तरफ आ रहा
है कुल्हाड़ी
लेकर। दूर से।
अभी आ भी नहीं
गया है, अभी
कुल्हाड़ी की
चोट भी नहीं
पड़ी, और
वृक्ष भय से
कंपने लगता है,
जैसे तुम भय
से कंपने
लगोगे कोई अगर
तलवार लेकर
तुम्हारी तरफ आने
लगे। हो सकता
है सिर्फ मजाक
कर रहा हो, तुम्हें
मारने न आया
हो, लेकिन
तुम्हारे
भीतर भय समा
जाएगा।
अब
वृक्षों के
भीतर किस तरह
के कंपन होते
हैं उनको
नापने के
यंत्र बन गये
हैं। जैसे
कॉर्डियोग्रॉम
होता है और
तुम्हारे हृदय
की धड़कन नापी
जाती है। और
तुम्हारे
हृदय की
तरंगें नापी
जाती हैं, ठीक वैसे ही
सूक्ष्म
यंत्र बन गये
हैं जो वृक्षों
के हृदय की
धड़कन को मापते
हैं।
कुल्हाड़ी
लेकर आते हुए
लकड़हारे को
देखते ही वृक्ष
के प्राण कैप
जाते हैं।
यंत्र
तत्क्षण
घबड़ाहट की
खबरें देता है,
कि वृक्ष
घबड़ा रहा है।
माली को आते
देखकर वृक्ष
प्रफुल्लित
हो जाता है, यंत्र खबर
देता है कि
वृक्ष
प्रफुल्लित
हो रहा है, माली
आ रहा है, पानी
आ रहा है, प्रेम
करने वाला पास
आ रहा है।
तुम
अगर किसी
वृक्ष के पास
रोज—रोज जाकर
बैठते हो, उसको सहलाते
हो, उससे
दो बातें करते
हो, तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वह वृक्ष
तुम्हारी प्रतीक्षा
करने लगता है।
वह रोज उतने
वक्त राह
देखता है।
उसकी आंखें—जों
हमें दिखायी
नहीं पड़ती ऊपर
से लेकिन यंत्र
बताता है कि
उसकी आंखें
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करती हैं।
उसके कान—जों
हमें दिखायी
नहीं पड़ते, यंत्र बताता
है—तुम्हारी
पगध्वनि को
सुनते। आते हो
कि आज नहीं? नहीं आते हो
तो उदास हो
जाता है। आ
जाते हो तो
अपूर्व आनंद
से भर जाता है।
तुम्हें
देखकर झुलने
लगता है, मस्ती
में डोलने
लगता है।
अभी तक
हमने ठीक से
अस्तित्व के
प्राणों में
उतरना शुरू भी
नहीं किया है, लेकिन इतने
प्रमाण अभी
मिल गये हैं
कि सारा अस्तित्व
बुद्धिमत्ता
से भरा हुआ है।
संवेदना है, चेतना है।
और जो आज
वृक्ष में सच
हो गया है, वही
कल चट्टान में
भी सच होने को
है। और
सूक्ष्म
यंत्र चाहिए
होंगे, जो
चट्टान के भीतर
भी उठती हुई
तरंग—धाराओं
को माप सकें।
परमात्मा
का इतना ही
अर्थ है कि यह
पूरा जगत संवेदनशील
है। यह जगत
संवेदनशून्य
नहीं है। और
इस जगत के
पीछे एक
बुद्धिमत्ता
है, जो चीजों
का नियोजन कर
रही है।
वादरायण
कहते हैं—और शांडिल्य
वादरायण का
उल्लेख कर रहे
हैं, अपनी बात
के पक्ष में—कि
कर्म अपने—आप
में फलदायी
नहीं है। कोई
कर्म अपने—आप
में कैसे
फलदायी हो
सकता है? इस
जगत की
बुद्धिमत्ता
फल देती है।
यह जगत
प्रतिसंवेदन
करता है। यह
जगत तुम जो
इसके साथ करते
हो, वही
तुम्हारे साथ
करता है। कर्म
अपने—आप में
फलदायी नहीं
हो सकते। कर्म
फलदायी हैं, क्योंकि जगत
में एक
बुद्धिमत्ता
छिपी है, जो
प्रत्येक
कर्म के लिए
पुरस्कार
देती है और दंड़
देती है।
चार
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं।
पहली
बात, कि तुम जब
भला करते हो, तो भला करने
के कारण ही
तुम्हें
अच्छे परिणाम नहीं
आते। तुम भला
करते हो, इससे
परमात्मा, इससे
छिपी हुई जगत
की
बुद्धिमत्ता
तुम्हारे साथ
भला करती है।
अगर जगत
बुद्धिहीन
होता, तो
तुम करते रहते
भला, कुछ
परिणाम नहीं
हो सकता था।
और तुम
इसे अनुभव से
भी देख सकते
हो।
तुम
किसी बुद्ध के
साथ भला करो, और तुम उतना
ही भला किसी
बुद्धिमान के
साथ करो, तुम
पाओगे दोनों
में फल का भेद
पड़ गया।
क्योंकि
बुद्ध शायद
समझे ही नहीं
कि तुमने भला
किया। या कभी
यह भी हो सकता
है कि बुद्ध
तुम्हारे भले
को बुरा समझ
ले और तुम्हें
नुकसान
पहुंचा दे।
बुद्धिमान
समझेगा।
बुद्धओं को
देखकर ही
समझदारों ने
कहा होगा—नेकी
कर और कुएं
में डाल।
फिक्र ही मत
करना। इन
बुद्धओं के
साथ अगर अच्छा
भी किया है तो
अच्छे की
अपेक्षा मत
करना। इनसे
अच्छा शायद ही
हो। अकसर ऐसा
हो जाता है कि
बुद्ध? बुद्धिहीन
आदमी से अगर
तुम अच्छा
व्यवहार करो,
तो वह
निश्चित
तुमसे बुरा
व्यवहार
करेगा।
क्यों
ऐसा हो जाता
है?
तुम जब
अच्छा
व्यवहार करते
हो किसी
बुद्धिहीन से, तो उसके
अहंकार को चोट
लगती है कि
अच्छा! तो तुम
बड़े अच्छे
होने की कोशिश
कर रहे हो। तो
तुमने अपने को
समझा क्या है?
बड़े साधु
होना
प्रमाणित कर
रहे हो! वह
तुम्हारी
साधुता को
बिखेरने के
लिए उत्सुक हो
जाएगा। वह तुम्हें
नीचा दिखाने
को उत्सुक हो
जाएगा। अगर
तुम
बुद्धिमान के
साथ अच्छा
व्यवहार करोगे,
तो अनंत
गुना परिणाम
होगा। यह तो
रोज देखने में
आता है।
वादरायण कहते
हैं— 'ऐसा
देखने में भी
आता है' तुम
जितनी जड़
स्थिति में
अपनी भलाई
डालोगे, उतना
ही छोटा
परिणाम होगा।
जैसे— जैसे
तुम ज्यादा
समझदार
व्यक्ति के
साथ व्यवहार
करोगे, उतने
ज्यादा
परिणाम होने
लगेंगे।
तो इस
जगत में बुरे
का फल बुरा
होता है, ऐसा
देखा गया; भले
का फल भला
होता है, ऐसा
देखा गया; लेकिन
इससे यह मत
समझ लेना कि
कर्म अपना ही
फल खुद को दे
लेते हैं।
कर्मों की
क्या क्षमता?
कर्मों के
फल होते हैं, क्योंकि
यहां छिपी हुई
बुद्धिमत्ता
प्रत्येक
कर्म के उत्तर
में संवेदित
होती है, झंकृत
होती है। वही
झंकार तुम तक
आती है—शुभ की
तरह, या
अशुभ की तरह।
अगर
अस्तित्व जड़
हो और
अस्तित्व में
कोई परमात्मा
न हो और
अस्तित्व को
बिलकुल
उपेक्षा हो, तुम्हारे
प्रति—जड़ ही
हो तो उपेक्षा
होगी ही—फिर
तुम अच्छा करो
या बुरा, परिणाम
केवल सायोगिक
होंगे। उनमें
कोई
अपरिहार्यता
नहीं रह जाएगी।
क्योंकि
दूसरी तरफ कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है जो कि
परिणामों को
सुनिश्चितता
दे सके।
वादरायण
की बात में
बड़ा बल है।
जिन्होंने
देखा है, उन्होंने
ऐसा ही देखा
है। इतना ही
देखकर मत रुक
जाना कि अच्छे
कर्म का अच्छा
फल हुआ और
बुरे कर्म का
बुरा फल हुआ।
जरा और गहरे
खोजना, तो
तुम पाओगे कि
अच्छे कर्म के
पीछे अच्छा फल
आया है
क्योंकि कोई
बुद्धिमान
शक्ति चारों
तरफ से उस
अच्छे फल को
सराही है। उस
अच्छे कर्म का
स्वागत हुआ है।
फिर ऐसा भी हो
जाता है कि
तुम कभी अच्छा
करते— सोचते
हो कि तुम
अच्छा कर रहे
हों—लेकिन
परिणाम बुरे
होते हैं।
तुम्हारे शुभ
कर्म का शुभ
फल मिलता हुआ
नहीं
दिखायी पड़ता।
लोग बड़े
चिंतित भी हो
जाते हैं।
मेरे पास लोग
आकर कहते हैं
कि हमने अच्छा
किया, कहते
हैं कि अच्छे
का फल अच्छा
होगा लेकिन
हुआ नहीं। तो
मैं उनसे कहता
हूं—कि तुम
अपनी अच्छाई
को खोजना। थे
तुमने अच्छा
किया, लेकिन
वह अच्छा था
नहीं। इसलिए
अस्तित्व ने
तुम्हें जो
प्रतिकार दिया
है तुम सोचते
वह अच्छा नहीं
है। तुम जरा
अपनी अच्छाई
में और गौर से
उतरना।
तुम्हारी
अच्छाई में
कोई गहरी
बुराई छिपी होगी।
तुम इस जगत की
बुद्धिमत्ता
को धोखा नहीं
दे सकते!
जैसे
तुमने दान
दिया किसी को।
अब दान दो
कारणों से
दिया जा सकता
है—या अनेक
कारणों से भी
दिया जा सकता
है—लेकिन
मौलिक रूप से
दो कारण हो
सकते हैं। एक, कि तुमने
दया के कारण
दिया।
तुम्हें
दूसरे दुख
दूसरे के की
बात छू गयी।
तुम्हारी आंखों
में आंसू आ
गये। तुम्हें
लगा कि कुछ
करना जरूरी है।
तुम्हें का
दुख छुआ।
तुमने दूसरे
का दुख हरने
को कुछ किया।
या यह भी हो
सकता है कि
दूसरे को दुखी
देखकर तुम्हारे अहंकार
को आनंद आया
और तुमने अहंकार
के कारण कुछ
किया कि ले भई!
तू दुखी है, देख! हम दानी
है! हमारी तरफ
देख, याद
रखना, कि
जब तू दुखी था
तो मैंने तेरी
सहायता की थी।
दान या तो
दूसरे के दुख
के कारण
सहजस्फूर्त
हुआ, या, अहंकार से
जन्मा कि
तुम्हें दानी
होने का मौका
मिला। कुछ लोग
हैं जो दानी
होने की तलाश
में होते हैं।
उनकी आकांक्षा
यही है कि कोई
न कोई कहीं न
कहीं दुखी हो।
एक
ईसाई मिशनरी
ने मुझसे कहा
कि आपके देश
में सेवा को
कोई मूल्य
नहीं दिया गया
है। न महावीर
ने, बुद्ध ने,
न कृष्ण ने,
सेवा को कोई
मूल्य नहीं
दिया है।
उपनिषदों में,
वेदों में
सेवा की कोई
चर्चा नहीं है।
जैसा कि
ईसाइयत में है।
सेवा धर्म है।
सेवा के बिना
कोई मोक्ष जा
ही नहीं सकता,
मुक्त हो ही
नहीं सकता।
मैंने उससे
पूछा कि अगर
दुनिया में सब
सुखी हो जाएं,
फिर तुम
क्या करोगे? फिर तुम
कैसे मोक्ष
जाओगे? कोई
दुखी ही न
होगा, किसी
को सेवा की
जरूरत न होगी—
थोड़ी देर
कल्पना कर लो,
दुनिया में
सारे लोग सुखी
हो गये—फिर तो
मोक्ष का
द्वार बंद हो
जाएगा! वह
थोड़ा चौंका।
इस तरह उसने
कभी सोचा नहीं
था। कहने लगा,
नहीं, ऐसा
हो ही नहीं
सकता कि
दुनिया में सब
सुखी हो जाएं।
मैंने कहा, सिर्फ इसलिए
नहीं हो सकता
क्योंकि
तुम्हें मोक्ष
जाने का उपाय
टूट जाएगा? तब तो तुम
दूसरे का दुख
भी शोषण कर
रहे हो।
तुम्हारी
सेवा में नजर
स्वार्थ की है।
तुम दूसरे की
सेवा कर हो
ताकि स्वर्ग
मिल जाए।
तुम्हें
दूसरे के दुख
पर दया नहीं
है, तुम्हीं
अपने सुख की
चाह है, अपने
स्वर्ग की चाह
है। अगर
स्वर्ग दूसरे
के दुख में
सेवा करने से
ही मिलता है, तो निश्चित
ही सेवक
चाहेगा
दुनिया में
दुख बना रहे।
यह तो बड़ी
अजीब बात हो
गयी, कि
सेवक चाहे कि
दुनिया में
दुख बना रहे।
नहीं तो उसकी
सेवा टूट
जाएगी। यह तो
बड़ा
विरोधाभास हो
गया। लेकिन
यही हालत है।
अगर
तुमने सेवा
इसलिए की है
कि तुम्हें
स्वर्ग जाना
है, और तुमने
दान इसलिए
दिया है कि
इससे
प्रतिष्ठा
मिलती है, अखबार
में नाम छपता
है, समाज
में आदर मिलता
है, पुण्य
अर्जित होता
है, स्वर्ग
में उसका
प्रतिकार
मिलेगा, प्रतिफल
मिलेगा, तो
तुमने शुभ
कर्म नहीं
किया। गहरे
में तो
तुम्हारा
स्वार्थ है, परार्थ जरा
भी नहीं है।
गहरे में तो
तुम्हारा
अहंकार है।
इसमें दूसरे
के दुख से कुछ
लेना—देना
नहीं है। तब
निश्चित तुम
इस जगत की
बुद्धिमत्ता
को धोखा न दे
पाओगे।
अगर जड़
नियम होता जगत
में तो शायद
तुम्हें इससे
पुण्यफल भी
मिल जाता।
लेकिन जड़ता
नहीं है, यहां
जगत में छिपी
बुद्धिमत्ता
है। तुम क्या
करते हो उसको
ही नहीं देखती,
तुम्हारे
करने के भीतर
छिपी हुई
अभीप्सा को
देखती है। तुम
क्या करते हो
उसको ही नहीं
देखती, तुम
क्यों करते हो
उसको भी देखती
है। तुम्हारा
कृत्य और
तुम्हारा
कर्म क्या है,
यह बात गौण
है, तुम
क्या हो, यह
बात
महत्वपूर्ण
है। इस
बुद्धिमत्ता
को तुम धोखा
नहीं दे पाते।
इसलिए तुम
पाओगे। और
अक्सर तुमने
देखा होगा कि
कभी— कभी भला
आदमी जो सब
तरह से भला
करता है और
बड़ा दुख पाता
है। और कभी—कभी
ऐसा भी हो
जाता है कि
बुरा आदमी
जिसके संबंध
में तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं उसने कभी
भला किया है, वह भी कभी
बड़े आनंद में
पाया जाता है।
ये भेद इसलिए
पड़ जाते हैं।
ये भेद इसीलिए
पड़ जाते हैं
कि जगत में
बुद्धिमत्ता
काम कर रही है।
परमात्मा
विराजमान है।
उन आंखों को
तुम धोखा न दे
पाओगे। उस बोध
के साथ तुम
चालाकी न कर
पाओगे।
तुम्हारी सब
चालाकिया पड़ी
रह जाएंगी।
तुम्हारी सब
होशियारिया
दो कौड़ी की
हैं।
इसलिए
खयाल रखना, पुण्य के
पीछे भी पाप
का भाव हो
सकता है। और
कभी— कभी ऊपर
से दिखायी
पड़नेवाले पाप
के पीछे भी पुण्य
की ऊर्जा हो
सकती है। असली
बात अभिप्राय
की है।
अब ऐसा
समझो कि एक
आदमी के सिर
में वर्षों से
दर्द था।
तुम्हारा
उससे झगड़ा हो
गया, तुमने एक
पत्थर उठाकर
उसके सिर में
मार दिया।
पत्थर की क्या
चोट लगी, उसका
दर्द ठीक हो
गया। तुम बुरा
करने चले थे, हो गया भला।
क्या तुम
सोचते हो इससे
तुम्हें
पुण्य—फल
मिलेगा? तुम्हारा
अभिप्राय तो
भले का नहीं
था। और यह
उदाहरण तुम
ऐसा मत समझना
कि सिर्फ काल्पनिक
है। ऐसा कोई
दफे हो गया है।
चीन में आक्यूपंक्वर
नाम का पूरा
शास्त्र खोजा
गया है इसी तरह।
एक आदमी को
पक्षाघात लग
गया था, पैरॉलिसिस
हो गयी थी, और
वह एक रास्ते
से अपने पैर
को घसीटता चल
रहा था कि
उसके दुश्मन
ने उसको एक
तीर मारा। वह
उसके पैर में
लगा। उसके पैर
में लगते ही
उसका
पक्षाघात चला
गया। फिर
इसमें बड़ी
खोजबीन करनी
पड़ी कि मामला
क्या हुआ? इलाज
काम नहीं किये,
औषधि काम
नहीं की और
तीर के लगने
से हुआ क्या! खोज
से पता चला कि
तीर सयोगवशात
ऐसी जगह लगा
जहां विद्युत
का मार्ग है, शरीर की
विद्युत जहा
से बहती है।
उस तीर के
लगने से
विद्युत का
मार्ग बदल गया।
मार्ग के
बदलने से उसका
पक्षाघात बदल
गया। इसी आधार
पर
ऑक्यूपंक्वर
की खोज हुई।
इसलिए
तुम अगर
ऑक्यूपंक्चरिस्ट
के पास जाओगे, तुम कहते हो
सिर में दर्द
है, हो
सकता है कि
तुम्हारे हाथ
में सुई गड़ाए,
कि
तुम्हारे पैर
में सुई गड़ाए।
तुम सोचोगे भी
कि यह मामला
क्या है? यह
होश में है? मेरे सिर
में दर्द है
और यह पैर में
सुई गड़ा रहा!
लेकिन
चमत्कार होता
है। पैर में
सुई गड़ती है, सिर का दर्द
खो जाता है।
क्योंकि पैर
से जो विद्युत
की ऊर्जा सिर
की तरफ बह रही
है, उसको
रूपांतरित
करने के लिए
सुई काफी है।
सुई की चोट से
विद्युत का
प्रवाह बदल
जाता है। फिर कहां—कहां
बिंदु हैं
विद्युत के
प्रवाह को बदल
के, इसकी
खोज की गयी।
सात सौ बिंदु
पाये गये।
मनुष्य के
शरीर में सात
सौ बिंदु हैं।
उन बिंदुओं से
सारी
बीमारियों का
इलाज हो सकता
है। मगर
आविष्कार तो
हुआ था एक
आकस्मिक घटना
से। जिसने तीर
मारा था, वह
कोई
ऑक्यूपंक्चर
को जन्म देने
की इच्छा नहीं
रखता था उसे
कुछ पता भी
नहीं था। वह
तो मार डालना
चाहता था इस
आदमी को। क्या
तुम सोचते हो
उसको पुण्य
हुआ! हालांकि
उसके कृत्य का
परिणाम तो
बहुत अच्छा
हुआ? आदमी
बचा। एक आदमी
नहीं बचा, पांच
हजार साल में
लाखों लोग
उसके तीर की
वजह से
स्वास्थ्य—लाभ
किये। लेकिन
उसका
अभिप्राय तो
बुरा था। फल
तो बुरा ही
होगा। कभी—कभी
तुम्हारा
अभिप्राय
अच्छा होता है
और कृत्य ऊपर
से दिखायी
पड़ता है बुरा
है। तो भी
तुम्हें
पुण्य का
अर्जन होता है।
कृत्य नहीं
देखे जाते, कृत्य ऊपर
हैं, देखे
अभिप्राय
जाते हैं।
अभिप्राय कौन
देखता होगा? उसके लिए
बड़ी ही गहन
प्रतिभा
चाहिए जगत में
छिपी हुई, जो
तुम्हारे
अभिप्रायों
को भी परख
लेती हो। शायद
तुम्हें भी
अपने
अभिप्राय का
पता न हो।
तुमसे बड़ी कोई
बुद्धिमत्ता
चाहिए, जो
तुम्हारे
सामने भी छिपे
अभिप्रायों
को पता कर
लेती हो। जो
तुम्हारे
अंतस्तल में
पैठ जाती हो।
जो तुम्हारे
केंद्र में
प्रवेश कर
जाती हो। जो
तुम्हारे
भीतर से भीतर
को पकड़ लेती
हो और पहचान
लेती हो। और
ऐसा ही हो रहा
है।
जब
तुम्हें अपने
किसी अच्छे
काम के लिए
बुरा फल मिले, तो नाराज मत
होना और
शिकायत मत
करना, इतना
ही समझना कि
कृत्य तो
अच्छा था
लेकिन अभिप्राय
भीतर बुरा था।
इससे तुम यह
मत समझ लेना
कि जगत में
कोई अन्याय हो
रहा है। और
कभी तुम किसी
व्यक्ति को
बुरा कृत्य
करते देखो और
फल अच्छा होते
देखो, तो
भी यह मत सोच
लेना कि जगत
में बड़ी
बेईमानी चल
रही है, परमात्मा
तक अन्यायी हो
गया है। वह
कृत्य ऊपर से
बुरा दिखायी
पड़ रहा है, लेकिन
भीतर उसका
अभिप्राय
अच्छा होगा।
अभिप्राय
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता, हो
सकता है स्वयं
उसे भी दिखायी
न पड़ता हो।
लेकिन जो हमें
भी नहीं
दिखायी पड़ता,
उसे भी
देखनेवाली आंखें
इस जगत में
छिपी हैं। उन आंखों
का नाम
परमात्मा है।
वे आंखें सदा
तुम्हारा
पीछा कर रही
हैं। वे हर
घड़ी तुम्हें
देख रही हैं।
यह तो एक अर्थ।
दूसरा
यह भी अर्थ, जो इसीसे
निष्पन्न
होता है और और
भी गहरा हो जाता
है। कर्म करो,
फल की चिंता
न करो। कृष्ण
ने गीता में
कहा है कि तुम
सिर्फ कर्म करो,
फल की चिंता
मत करो। फल
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, फल परमात्मा
के हाथ में है।
और मजा ऐसा है
कि हम कर्म तो
कम करते हैं, फल की चिंता
बहुत करते हैं।
हम चाहते हैं
कि कर्म तो
करना ही न पड़े
और फल हो जाए।
या कर्म कम से
कम करना पड़े
और फल बड़ा से
बड़ा हो जाए।
कोई शॉर्टकट
मिल जाए। कोई
तंत्र— मंत्र
हो जाए। कोई
जादू का उपाय
हो जाए। कर्म
तो करना न पड़े
और फल पूरा
मिल जाए।
हमारी यही
बेईमानी है, ऐसा नहीं हो
सकता।
फल उसी
अनुपात में
मिलता है जिस
अनुपात में कर्म
किया जाता है।
कर्म कर के ही
तुम जगत में
छिपी
बुद्धिमत्ता
को उत्पेरित
करते हो फल
देने के लिए।
तुम्हारा
कर्म
तुम्हारी
पात्रता है।
लेकिन फल
तुम्हारे हाथ
में नहीं है।
इसलिए फल की
चिंता व्यर्थ
है। और फल की
ही चिंता होती
है और कोई
चिंता नहीं जगत
में। जिसने यह
समझ लिया कि
फल परमात्मा
के हाथ में है, वह चिंतित
नहीं रह जाता,
वह निश्चित
हो जाता है।
उसकी मनोदशा
बड़ी शांत हो
जाती है। कर्म
करता रहता है,
फल की कोई
चिंता ही नहीं—जों
होगा। जो होना
चाहिए, वह
होगा। जब होना
चाहिए तब होगा।
उसे इस विश्व
की सत्ता पर
भरोसा है, श्रद्धा
है। वह जानता
है अन्याय
नहीं होता। और
अगर देर लग
रही है, तो
वह भी मेरे
हित में ही
होगी। और अगर
कभी बुरा
परिणाम भी
होता है उसको
अच्छे कृत्य
का, तो भी
उसकी श्रद्धा
इतनी गहरी है
कि वह मानता है
कि मेरे कृत्य
में जरूर कोई
बुराई रही
होगी जो मुझे
दिखायी नहीं
पड़ती, लेकिन
उन आंखों को
दिखायी पड़ती
है। अब मैं
अपने कृत्य को
बदल लूं। और
कभी अगर उसे
बहुत दुख भी
मिलता है, तो
भी वह जानता
है, यह भी
मेरी परीक्षा
होगी, अग्निपरीक्षा
होगी। तो भी
वह जानता है, इस दुख के
पीछे भी उस
बुद्धिमत्ता
के ही हाथ हैं,
इसलिए निश्चित
ही इस दुख से
भी कुछ लाभ
होने को होगा मैं
मौजा जाऊंगा,
निखारा
जाऊंगा, मेरी
अशुद्धिया
जलायी जाएंगी।
भूल के
भी न दर्द को
दिल से कभी
जुदा समझ
शाहिदे—दिलनवाज
की यह भी कोई
अता समझ
भूल के
भी न दर्द को
दिल से कभी
जुदा समझ
शाहिदे—दिलनवाज
की यह भी कोई
अता समझ
उस परम
प्रेमी की यह
भी कोई कृपा
है अगर दर्द हो, अगर पीड़ा हो।
यह पीड़ा भी
निखारने की ही
उपाय है। यह
पीड़ा भी
परिष्कार का
ही उपाय है।
मंजिलें—हस्रों—बूद
में तेरा
मुकाम है
बुलंद
महरों—महो—नजूम
को अपने
निशाने—पा समझ
चिंता
जरा भी न करो।
उस विराट के
हृदय में
तुम्हारी जगह
है। और जो भी
हो रहा है, ठीक ही हो
रहा होगा। गलत
होता ही नहीं
है। गलत हो ही
नहीं सकता। जब
परमात्मा कण—कण
में व्याप्त
है, तो गलत
कैसे हो सकता
है? अगर
हमें गलत
दिखायी पड़ता
है तो हमारी आंख
की कहीं भूल
होगी। इस गहन
आस्था का नाम
धर्म है। जहा
गलत भी हमें
दिखायी पड़ता
है, जहां
हमारा तर्क
कहता है गलत
हो रहा है, वहां
भी श्रद्धा
जानती है—हमारी
ही कोई भूल है।
देखने में
दृष्टि में
कोई दोष है।
हमारी आंख में
ही पड़ी है।
हमारा दर्पण
ही झलका गलत
रहा है। गलत
तो हो ही नहीं
सकता। कैसे
गलत हो सकता
है!
जगत
तुम जैसे
बुद्धिमान
व्यक्तियों
को पैदा किया
है; निश्चित
ही तुम जिससे
आए हो, वह
तुमसे ज्यादा
बुद्धिमान
होना चाहिए।
तुम्हारी
बुद्धि तो
छोटी—सी है।
एक बूंद समझो।
और इस जगत की
बुद्धिमत्ता
सतर जैसी है।
जब एक बूंद को
कुछ भूल
दिखायी पड़ रही
है, तो
सागर को तो
कभी की दिखायी
पड़ जाती। भूल
नहीं होगी।
बूंद होने के
कारण ही शायद
दिखायी पड़ रही
है, क्योंकि
हमारी सीमा है।
हमारी समझ की
सीमा कितनी!
हमारी समझ
क्षुद्र है।
हम विराट को
ठीक से नहीं
झलका पाते।
जौहारे—दर्द
है अगर गौहरे—अश्क
में तेरे
दामने—
कायनात को
मोतियों से
भरा समझ
जौहारे—दर्द
है अगर गौहरे—
अश्क में तेरे
अगर
तेरे आंसू
रूपी मोती में
दर्द का अंश
है।
जौहरे—
दर्द है अगर
गौहरे— अश्म
में तेरे
दामने—
कायनात को
मोतियों से
भरा समझ
फिर
चिंता मत करो।
फिर इस संसार
का दामन, इस
संसार का आचल
मोतियों ही
मोतियों से
भरा है। सिर्फ
एक बात की
फिक्र कर लो
कि तुम्हारा आंसू
आंसू भी
प्रार्थना
में गिरे। बस
तुम्हारे
दर्द के आंसू
में मोती की झलक
आ जाए।
तुम्हारे भाव
में श्रद्धा
की झलक आ जाए।
फिर सारा जगत,
इस जगत का
आचल मोतियों
ही मोतियों से
भरा है।
कर्म
करो, कर्म की
चिंता मत करो।
वह चिंता
अकारण है।
उसके कारण तुम
व्यर्थ टूट
जाते हो। और
उस चिंता में
तुम इतनी
शक्ति लगा
देते हो कि
कर्म में
लगाने को
शक्ति बचती ही
ही। वह सारी
शक्ति अगर
कर्म में लग
जाए, तो इस
जगत में
प्रत्येक
व्यक्ति
अपूर्व आनंद को
उपलब्ध हो। और
अपूर्व विजय
की फल की
चिंता में
जाती है और एक
प्रतिशत कर्म
में लगती है।
बीज तो तुम एक
प्रतिशत बोते
हो और
निन्यानबे प्रतिशत
तुम अपेक्षा
करते हो फसल
काटने की। फिर
फसल नहीं काट
पाते कौन
जिम्मेवार है?
जिन्होंने
देखा
उन्होंने ऐसा
ही देखा है, इसके दो
अर्थ हो सकते हैं।
एक तो साधारण
अर्थ है, जो
अब तक टीकाएं
की गयी हैं
लिखा हुआ है।
वह साधारण
अर्थ है— 'ऐसा
देखने में भी
आता है। ' कैसा
देखने में आता
है? जो
साधारण
टीकाएं लिखी
गयी हैं। अब
तक, शांडिल्य
के सूत्रों पर,
उन सभी
टीकाओं में यह
लिखा है कि
जैसे तुम कोई अच्छा
काम करते हो
तो राजा
तुम्हें
पुरस्कार
देता है। कर्म करो, कर्म की
चिंता मत करो।
वह चिंता
अकारण है।
उसके कारण तुम
व्यर्थ टूट
जाते हो। और
उस चिंता में
तुम इतनी
शक्ति लगा
देते हो कि
कर्म में
लगाने को
शक्ति बचती ही
नहीं। वह सारी
शक्ति अगर
कर्म में लग
जाए, तो इस
जगत में
प्रत्येक
व्यक्ति
अपूर्व आनंद
को उपलब्ध हो।
और अपूर्व
विजय की
यात्रा हो जाए
जीवन। सफलता
ही सफलता है
फिर मगर
निन्यानबे
प्रतिशत को फल
की चिंता में
जाती है और एक
प्रतिशत कर्म
में लगती है।
बीज तो तुम एक
प्रतिशत बोते
हो और
निन्यानबे प्रतिशत
तुम अपेक्षा
करते हो फसल
काटने की। फिर
फसल नहीं काट
पाते तो कौन
जिम्मेवार है?
जिन्होंने
देखा है
उन्होंने ऐसा
ही देखा है, इसके दो
अर्थ हो सकते
हैं। एक तो
साधारण अर्थ
है, जो अब
तक टीकाएं की
गयी हैं उनमें
लिखा हुआ है।
वह साधारण
अर्थ है— 'ऐसा
देखने में भी
आता है'।
कैसा देखने
में आता है? जो साधारण
टीकाएं लिखी
गयी हैं। अब
तक, शांडिल्य
के सूत्रों पर,
उन सभी
टीकाओं में यह
लिखा है कि
जैसे तुम कोई अच्छा
काम करते हो
तो राजा
तुम्हें
पुरस्कार देता
है। तुम कोई
बुरा काम करते
हो तो राजा
तुम्हें दंड़
देता है। राजा
के बिना कौन पुरस्कार
देगा, कौन
दंड़ देगा? मजिस्ट्रेट
के बिना कौन
तुम्हें सजा
देगा? कृत्य
अपने— आप में
निर्णायक
नहीं हो सकता,
कृत्य का
निर्णय करने
को पीछे कोई
चेतना चाहिए।
यह तो
बड़ी साधारण
व्याख्या हुई।
यह मेरे
मनपसंद
व्याख्या
नहीं। इस
व्याख्या में
भूलें भी बहुत
हैं। क्योंकि
जिन्होंने
कर्म के सिद्धांत
को
माना है, वे
इतनी आसानी से
राजी नहीं हो
जाएंगे। वे
कहते हैं, हम
आग में हाथ
डालते हैं, कौन हमारा
हाथ जलाता है?
आग में हाथ
डालना, यह
हमारा कृत्य;
और हाथ का
जल जाना, यह
उस कृत्य का
फल। न कोई
राजा है बीच
में और न कोई
मजिस्ट्रेट
है बीच में।
आग में हाथ
डाला कि जलोगे।
कर्म ही अपना
फल ले आएगा।
तो ऐसे उदाहरण
दिये जा सकते
हैं जहा कर्म
अपना फल खुद
ही ले आता है।
तुमने जहर पीआ,
मरोगे। अगर
जहर पीने से
मृत्यु हो
जाती है और आग
में हाथ डालने
से जल जाता है,
तो कर्म का सिद्धांत
माननेवाले
लोग कहते हैं,
इसी तरह
प्रेम करने से
प्रेम मिलता
है और घृणा
करने से घृणा
मिलती है।
बुद्ध ने कहा :
वैर से वैर
बढ़ता है, और
प्रेम से
प्रेम बढ़ता है।
नहीं, कोई
राजा इत्यादि
की बात सार्थक
नहीं है।
फिर
मैं क्या अर्थ
करता हूं?
'फलम्
अस्मात्
वादरायण
दृष्टत्वात्।।
'ऐसा
देखने में भी
आता है। ' मैं
यही अर्थ करता
हूं।
जिन्होंने
देखा।
वादरायण ने
देखा, शांडिल्य
ने देखा। मैं
तुमसे कहता
हूं : मैं भी
देख रहा हूं।
तुम भी देख
सकते हो।
जिनकी भीतर की
आंख खुलती है
और जो यह
देखना शुरू
करते हैं कि
जगत जड़ नहीं
है, जड़ता
सिर्फ हमारी
धारणा है, हर
जड़ता में
चैतन्य, सुप्त
पड़ा है, और
सारा जगत
चैतन्य से
आप्लावित है,
उसकी बाढ़
आयी हुई है, जिन्होंने
ऐसा देखा है
वे कहते हैं
कि हमारे कर्मों
का जो फल
मिलता है वह
कर्मों के कारण
नहीं मिलता, न हमारे
कारण मिलता है,
वरन इस
चैतन्य के
सागर के कारण
मिलता है जो
हमें सब तरफ
से घेरे हुई
है।
तुम भी
खोलो आंख और
देखो। यह
दिखायी पड़
सकता है। यह
कोई सिद्धांत मात्र
नहीं है। यह
कोई
दर्शनशास्त्र
मात्र नहीं है।
भक्तों को
दर्शनशास्त्र
में बहुत
जिज्ञासा
नहीं रही है।
उनका सारा रस
भाव में है, विचार में
नहीं। लेकिन
आज के सूत्र
बड़े विचार के
सूत्र भी हैं।
जो भाव को
नहीं समझ सकते
और जो अभी
विचार के जगत
में जी रहे
हैं, उनके
लिए कहे गये
सूत्र हैं।
समझ में आ
जाएंगे तो वे
भी भाव भी
यात्रा पर निकलेंगे।
'व्यात्कमात्
आप्यय तथा
दृष्टम्।।
'विलोम
रीति से लय
हुआ करता है। '
यह सूत्र
बड़ा अपूर्व है।
इसे खूब गहरे
हृदय में बिठा
लेना।
इस
सूत्र का अर्थ
समझो।
दो
क्रम
शास्त्रों
में कहे गये
हैं अनुलोम और
विलोम।
अनुलोम का
अर्थ होता है—विस्तार।
जैसे बीज से
वृक्ष होता है।
बीज तो बिलकुल
छोटा है, जरा—सा
है। फिर टूटता
है, पल्लव
फूटते हैं, अंकुर
निकलते हैं, शाखाएं
फैलती हैं, बड़ा वृक्ष
खड़ा हो जाता
है—सैकड़ों लोग
उसकी छाया में
बैठ सकें, हजारों
पक्षी उस पर
सांझ बसेरा
करें, राहगीर
अपनी
बैलगाड़ियां
खोल दें, विश्राम
करें—बड़ा हो
जाता है। कोई
सोच भी नहीं
सकता था कि इस
छोटे—से बीज
में इतना बड़ा
वृक्ष छिपा
होगा। इस
प्रक्रिया का
नाम अनुलोम, 'एवलूशन,' विकास,
फैलाव, विस्तार।
दूसरा
क्रम कहलाता
है—विलोम।
विलोम का अर्थ
होता है—वृक्ष
फिर बीज बन
गया। फिर
वृक्ष ने बीज
पैदा कर दिया।
संकोच, सिकुडाव।
अगर अनुलोम को
हम कहें 'एवलूशन'—फैलाव, विस्तार,
तो विलोम को
हना होगा— 'इनवलूशन';
सिकुडाव, संक्षिप्त
हो जाना।
और यही
लयबद्धता है।
बीज
वृक्ष बनता है, वृक्ष फिर
बीज बन जाते
हैं।
परमात्मा
संसार बनता है,
संसार फिर
परमात्मा बन
जाता है।
संसार
परमात्मा का
विस्तार है।
परमात्मा
सूक्ष्म बीज
की भांति है
और संसार उसका
फैलाव है।
ब्रह्म शब्द
का अर्थ ही
होता है—फैलता
है जो, विस्तीर्ण
होता है जो।
ब्रह्म और
ब्रह्मांड़
एक ही ऊर्जा
की दो दशाएं
हैं। ब्रह्म,
बीज और
ब्रह्मांड़, वृक्ष।
दुनिया
के किसी धर्म
ने विलोम—
क्रम का विचार
नहीं किया।
इसलिए दुनिया
का कोई धर्म
पूरा धर्म
नहीं कहा जा
सकता। अनुलोम—क्रम
का विचार तो
बहुत हुआ है; ईसाई, मुसलमान,
यहूदी, सभी
अनुलोम—क्रम
की बात कहते
हैं कि
परमात्मा ने
सृष्टि की; लेकिन प्रलय
की बात नहीं, कि परमात्मा
सृष्टि को
मिटा भी देगा।
सृजन हुआ तो
अंत भी होगा।
जन्म हुआ तो
मृत्यु भी
होगी। जो चीज
फैली, वह
कब तक फैलेगी?
अभी वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जगत फैलता जा
रहा है— 'एक्सपैडिंग
यूनिवर्स'—फैलता
ही जा रहा है।
लेकिन कब तक
फैलेगा? तुम
गुब्बारे में
हवा भरते हो, वह फैलता
जाता है, फैलता
जाता है, फैलता
जाता है, लेकिन
कब तक? एक
सीमा आएगी, उसके आगे
फैलाओगे, गुब्बारा
फूट जाएगा—फिर
सिकुड़ जाएगा।
यह विस्तार
फैलता जा रहा
है, फैलता
जा रहा है, इसकी
एक सीमा है।
उस सीमा के
बाद सिकुडाव
शुरू होता है।
बच्चा जवान
होता है, फिर
जवानी के बाद
बुढ़ापा आता है।
फिर सिकुडाव
होने लगा।
बच्चा आया था
किसी अज्ञात
लोक से एक दिन,
जन्मा था।
फिर एक दिन
मृत्यु घटेगी,
फिर अज्ञात
लोक में
प्रवेश कर
जाएगा।
पैंतीस वर्ष
की उस तक
अनुलोम और
पैतीस वर्ष के
बाद विलोम। 'जिन लोगों
ने जीवन को
सिर्फ एक ही
आधार पर खड़ा किया
है— अनुलोम—वे
पागल हैं, वे
विक्षिप्त
हैं। यही आज
के जगत की बड़ी
से बड़ी भूल है,
आधुनिक
मनुष्य की बड़ी
से बड़ी भूल है,
उसका सारा
जीवन एक ही
क्रम पर बना
है—अनुलोम—क्रम।
फैलते जाओ—और
धन, और पद, और
प्रतिष्ठा, और मकान, और,
और, और...।
यह जो ' और' है, अनुलोम—क्रम
है। यह संसार।
संन्यास
कब?
संन्यास
की धारणा ही
खो गयी है।
संन्यास की
बात ही घबड़ाती
है। संन्यास
का हम विचार
ही नहीं करते।
तो बीज वृक्ष
हो गया, फिर
बीज कब होगा? संन्यास
विलोम—क्रम है।
अनुलोम
कहता है, यह
भी मेरा हो
जाए, वह भी
मेरा हो जाए—सब
मेरा हो जाए।
विलोम कहता है,
न यह मेरा है,
न वह मेरा
है—कुछ भी
मेरा नहीं।
सिकुड़ता है, शांत होता
है।
अनुलोम
के साथ अशांति
स्वभाविक है।
छीना—झपटी
होगी, प्रतिस्पर्धा
होगी, मारकाट
होगी, युद्ध
होगा। विलोम
के साथ शांति
होती चली जाती
है। व्यक्ति
अपने भीतर
बैठने, अपने
भीतर ठहरने
लगा। बीच में
रुकने लगा।
संसार को मैं
कहता हूं
अनुलोम, संन्यास
को कहता हूं
विलोम। और
जिसने दोनों
साध लिये, कही
पूरा मनुष्य
है। जो कोई
साधता रहा, वह पागल है।
आर ध्यान रखना,
अगर
विस्तार नहीं
आधा, तो
संकोच कैसे
साधोगे? अगर
संसार नहीं
साधा, तो
संन्यास कैसे
साधोगे?
इसलिए
मैं तुमसे कहता
हूं—संसार से
भागो मत।
संसार को
साधते रहो—फैलने
दों—लेकिन जब
तुम्हारी समझ
में बात आ जाए
कि अब फैलना
काफी हो गया, अब फैलाने
में कोई अर्थ
न रहा, तब
अपने भीतर से
फैलने का भाव
चले जाने देना।
रहना
यहीं—जाना
कहां है!
जाओगे कहां? जहा जाओ
वहीं संसार है।
नये— नये ढंग
से संसार
फैलने लगता है।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
तुम किस ढंग
से फैलाओगे।
जब तक और की आकांक्षा
है, संसार
फैलता रहेगा।
पहाड़ पर बैठे
जाओगे एकांत
में जा कर, तो
कहेगा— और लगे
ध्यान, और
लगे समाधि, और हो पुण्य,
और हो त्याग,
और हो उपवास।
मन कहेगा कि
और मिले
स्वर्ग, और
मिले आनंद।
मगर ' और' तो जारी रहा!
कुछ फर्क न
पड़ा। जिस दिन '
और' से
तुम ऊब जाते
हो, उस दिन
संन्यास! कहीं
जाने की जरूरत
नहीं। ' और '
से
परिपूर्ण रूप
से ऊब जाने
में संन्यास
का जन्म हो
जाता है। फिर
तुम जहा हो
वहीं रहते हो,
सब चलता
रहता है—संसार
ही चलता रहेगा—लेकिन
तुम्हारे
भीतर संन्यास
फलित हो जाता
है।
अनुलोम
का अर्थ है, होऊं, बहुत
होऊं।
शास्त्रों
में कथाएं हैं
कि परमात्मा
अकेला था और
उसने सोचा कि
मैं अनेक होऊं।
फिर जब
परमात्मा
सोचने लगता है,
बहुत अनेक
होगा, अब
मैं फिर एक
होऊं—तो विलोम।
'व्युक्रमात्
आप्यय तथा
दृष्टम्।।'
यह
सूत्र क्यों शांडिल्य
ने दिया! 'विलोम
रीति से लय
हुआ करता है'। क्योंकि
इसमें सारा
संन्यास का
सूत्र आ जाता है।
तुम्हें ऊपर
से इस सूत्र
में कुछ
दिखायी न पड़ेगा।
सूत्र का अर्थ
ही यह होता है
कि उसमें बड़ी
संक्षिप्त
में बात कह दी
गयी है। जो
समझेंगी, वही
समझेंगे। जो
समझ सकते हैं,
वही समझ
सकते हैं।
इसलिए
सूत्रों की
व्याख्या
करनी जरूरी
होती है, अन्यथा
सूत्र अपने—
आप में बिलकुल
बेबूझ होते
हैं।
जैसे, मैं होऊं, और होऊं, ज्यादा
से ज्यादा
होता जाऊं; धन मेरे पास
बहुत हो राज्य
मेरे पास बड़ा
हो, प्रतिष्ठा
मेरी फैले—यश,
नाम, कीर्ति—यह
संसार। फिर एक
दिन यह दिखायी
पड़ता है—यह सब
तो व्यर्थ है।
न कीर्ति में
कुछ सार है—पानी
के बबूले
इकट्ठे कर रहा
हूं—न नाम में
कुछ अर्थ है—क्योंकि
मैं बिना नाम
का हूं, बिना
नाम का आया था
और बिना नाम
के जाऊंगा। न
धन में कोई
अर्थ है—सब
यहीं का यहीं
पड़ रह जाएगा।
साथ में कुछ
भी न ले जा
सकूंगा। मौत
आएगी, तो
मैं क्या साथ
ले जा सकूंगा?
जिसको तुम
मौत में साथ
ले जा सकोगे, बस संन्यासी
उतना ही हो
जाता है, उसी
का नाम
संन्यास है।
मरने के पहले
मर जाने का
नाम संन्यास
है।
मरते
सभी हैं, धन्यभागी
हैं वे जो
मरने के पहले
मर जाते हैं।
जो समझ लेते
हैं कि जो
अपना नहीं है
वही मौत छीन
लेगी। जो अपना
है उसे कोई भी
छीन सकता। 'नैनं छिदति
शस्त्राणि,' मुझे शस्त्र
नहीं छेद सकते,'
नैनं दहति
पावक :,' न
मुझे आग जला
सकती है। तो
मैं यह कौन
हूं जिसको आग नहीं
जला सकती, और
जिसे शस्त्र
नहीं छेद सकते।
यह अमृतधर्मा
मैं कौन हूं? बस इतना ही
मैं हूं। उससे
ज्यादा की कोई
जरूरत नहीं है।
तो
संसार का अर्थ
होता है—यह भी, यह भी, और
संन्यास का
अर्थ होता है—नेति—नेति।
न यह, न वह।
छोड़ता जाता है
भाव और धीरे—
धीरे वहीं आ
जाता है जहा
शाश्वत अमृत
तुम्हारे
भीतर बीज की
तरह पड़ा है।
जहा से सब
विकास हुआ था।
वापस अपने घर
लौट आना हो
जाता है।
यह दशा
ही मोक्ष है।
इस दशा का नाम
ही निर्वाण है।
बच्चे
का विकास
देखने की
कोशिश करो। जो—
जो बच्चे में
आता है, वही—वही
एक दिन छोड़ना
पड़ता है।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है कि
अंतिम अवस्था
में सिद्ध
पुरुष छोटे
बच्चे की भांति
फिर से हो
जाता है। छोटा
बच्चा पैदा
हुआ। अभी इसके
पास कोई ज्ञान
नहीं है, इसे
कुछ पता नहीं
है। परम
अवस्था में
फिर यही हो
जाएगा। छोटे
बच्चे जैसी
सरलता हो
जाएगी। छोटा
बच्चा पैदा
हुआ है, इसमें
संदेह नहीं है,
इसमें
श्रद्धा ही
श्रद्धा है, यह बात मान
लेता हैं, मां
जो कहती है वह
मान लेता है, पिता जो
कहता वह मान
लेता है। इसकी
श्रद्धा
अछूती है, क्यारी
है। सभी संदेह
का काटा नहीं
ऊगा, अभी
श्रद्धा का ही
फूल है। जल्दी
ही संदेह का
काटा ऊ—गेगा, यह संदेह
करना शुरू
करेगा, इसके
शक आना शुरू
होगा कि पिता
जो मेरे कहते
हैं, ठीक
कहते हैं!
इसे
संदेह आना
शुरू होगा कि
मेरी मां हर
हालत में ठीक
है! और धीरे—
धीरे इसे
अश्रद्धा
पैदा होगी, क्योंकि यह
पाएगा कि पिता
में भी कमिया
हैं, पिता
में भी सीमाएं
हैं, मां
से भी भूलें
होती हैं।
इसकी श्रद्धा
क्षीण होती
जाएगी। यह
संदेह से भर
जाएगा। यह
अनुलोम चल रहा
है। संदेह आ
गया। संदेह
पीछे पीछे
अहंकार आएगा।
संदेह के साथ—साथ
इनकार का भाव
गया। सदेह के
पीछे—पीछे
अहंकार आएगा।
संदेह के साथ—साथ
इनकार का भाव
आएगा, नास्तिकता
आएगी—नहीं।
हर
बच्चा अपने
मां—बाप से एक
दिन कहता है
कि नहीं
करूंगा ऐसा।
तुमने देखा है, कभी छोटा
बच्चा जिद्द
कर के खड़ा हो
जाता है कि नहीं
करूंगा! नहीं
जाऊंगा स्कूल!
यह इतने जोर का
नहीं कैसे
उठता है इतने
छोटे—से बच्चे
में? और जब
कोई छोटा
बच्चा 'नहीं'
कहता है, तो उसका बल
देखो! जैसे सब
दाव पर लगा
देने को तैयार
है। रहे कि न
रहे, लेकिन
'नहीं' का
मतलब 'नहीं'
है। जब
जिद्द पकड़
लेता है कि यह
खिलौना लेकर
रहूंगा, तो
नाक में दम कर
देता है। जब
तक कि ले ही न
ले। और सब
बच्चे समझ
जाते हैं कि
कितनी सीमा है
मां—बाप के
सहने की। वे
लगे ही रहते
हैं, चोट
ही किये चले
जाते हैं। एक
दफे बाप न
कहता है, दो
दफा, तीन
दफा, फिर
देखता है कि
यह महंगा पड़ा
जा रहा सौदा, अब यह काम
करने ही न
देगा, मजबूरी
में ही कहना
पड़ता है।
बच्चे
समझ जाते हैं
कि तुम्हारी
एक सीमा है, उस सीमा तक
खिंचना जरूरी
है।
इस 'नहीं'
के आधार से
बच्चा अपनी
अस्मिता को
पैदा करता है,
अहंकार को
पैदा करता है।
यह अनुलोम चल
रहा है।
अहंकार आएगा,
फिर अहंकार
कहेगा अब धन
चाहिए, पद
चाहिए, प्रतिष्ठा
चाहिए, यश
चाहिए—दौड़
शुरू हुई। जिस
दिन तुम्हें
यह दिखायी पड़
जाएगा यह सब
व्यर्थ उस दिन
विलोम का क्रम
तुम्हें
सीखना होगा।
फिर उसी क्रम
से छोड़ना होगा,
एक—एक कर के।
इसलिए
आस्तिकता का
अर्थ होता है, जिसमें 'हां'
कहने की
क्षमता फिर से
आ गयी। आस्तिक
का अर्थ है, 'हां' का
भाव। नास्तिक
का अर्थ है, 'नहीं' का
भाव, नकार
का भाव। इसलिए
सारी आस्तिक
परंपराएं
कहती हैं—
अहंकार छोड़ना
होगा, क्योंकि
अहंकार
अनुलोम का
आधार है, फैलाव
का आधार है।
अहंकार छोड़ना
होगा। अहंकार
छोड़ते ही
विलोम घट जाता
है। संदेह
छोड़ना होगा, संघर्ष
छोड़ना होगा।
समर्पण सीखना
होगा।
संसार की
पूरी यात्रा
जैसी तुमने की
है, बचपन से
लेकर जवानी तक,
उससे ठीक
विपरीत
तुम्हें जाना
होगा। एक—एक
चीज छोड़ते
जानी होगी।
फिर उस जगह
पहुंच जाना
होगा जहां मां
के पेट से
जन्मे थे पहले
दिन। जैसे सरल
थे, निर्दोष
थे; न कोई
पक्ष था, न
विपक्ष था; न हिंदू थे, न मुसलमान
थे; न चीनी
थे, न
पाकिस्तानी
थे, न काले
थे, गोरे
थे; न
सुंदर थे न
असुंदर थे; न स्त्री थे,
न पुरुष थे;
कोई भाव ही
न था। एक
निर्भाव दशा
थी। और एक परम
स्वीकार था।
कोई इंकार न
था। 'मैं' की कोई
धारणा ही पैदा
न हुई थी। मैं
जन्मा नहीं था।
दर्पण कोरा था।
कोई विचार
पैदा ही नहीं
हुआ था। अभी
निर्विचार था।
फिर से ऐसा ही
हो जाएं तो
विलोम। और
विलोम ही
मोक्ष का
मार्ग है।
इसलिए ये शब्द
बड़े बहुमूल्य
हैं, इनको
याद रखना।
अनुलोम यानी
संसार, विलोम
यानी संन्यास।
कहीं जाना
नहीं है, कुछ
बाहर से
रूपांतरित
नहीं करना है,
लेकिन भीतर
से यह क्रांति
घट जानी चाहिए।
शामे
गम है करार
किसको है
दर्द
पर इख्तियार
किसको है
मेरी
किस्मत में ओ
है वरना
चांदनी
नागवार किसको
है
दर्द
ही जिंदगी का
हासिल है
मौत का
इंतजार किसको
है
अपनी आंखों
से प्यार करती
हूं
तेरे
जल्वे से
प्यार किसको
है
देखें 'शबनम'
को गुल में
चुन—चुनकर
देता
गुलशन ये हार
किसको है।
' अपनी
आंखों से
प्यार करती
हूं?।
तुमने
खयाल किया? अहंकार न तो
धन से प्यार
करता हूं न पद
से प्यार करता
है, अहंकार
का प्यार तो
अपने से है।
लेकिन धन हो
तो अहंकार की
शोभा बढ़ती है।
पद हो तो
ऊंचाई बढ़ती है।
अहंकार
सौंदर्य से भी
प्रेम नहीं
करना, लेकिन
अहंकारी एक
सुंदर स्त्री
को अपने साथ सजावट
की तरह लेकर
चलना चाहता है।
अहंकार सब तरह
से अपने
अहंकार को
भरने का आयोजन
खोजता है।
अपनी आंखों
से प्यार करती
हूं
तेरे
जल्वे से
प्यार किसको
है
और
किसी चीज का
रस नहीं है इस
संसार में। एक
ही बात का रस
है कि मैं
सिद्ध कर दूं
कि विशिष्ट
हूं। मेरी
विशिष्टता
प्रमाणित हो
जाए। और मजा
ऐसा है कि
जितना तुम
अपनी
विशिष्टता प्रमाणित
करने चलते हो, उतने ही छेद
निकल आते हैं।
उतनी ही
विशिष्टता
टूटने लगती है।
दया योग्य
स्थिति हो
जाती उनकी, जो अपनी
विशिष्टता
सिद्ध करने
चलते हैं। उसी
सिद्ध करने से
सब असिद्ध हो
जाता है। जो
लड़ते हैं यहां,
हार जाते
हैं। जो यहां
साम्राज्य
बनाते हैं, भिखारी की
तरह मरते हैं।
सिकंदरों से
पूछो। जीवन भर
की दौड़— धूप, आपाधापी हाथ
लगता क्या है?
सब गंवा कर
जाते हैं।
जो
अनुलोम को पकड़
कर लता रहता
है, वह गंवा
कर जाएगा।
उसने जिंदगी
का राज नहीं
समझा। उसने
जिंदगी की
पूरी
लयबद्धता
नहीं समझी। वह
एकागी है, अधूरा
है। जिसने
विलोम भी समझ
लिया, उसका
जीवन पूर्ण हो
गया। अनुलोम
आधा जीवन रहे
और आधा जीवन
विलोम हो जाए।
मरते समय तुम
उसी जगह पहुंच
जाने चाहिए
जहा से तुम आए
थे। उसी जगह, जहा तुम
पैदा हुए थे।
ठीक उसी क्षण
में—जन्म का
क्षण जैसा
पवित्र
क्वारा था, वैसा ही
मृत्यु का
क्षण भी
क्वारा और
पवित्र हो जाए
वर्तुल पूरा
हो और जिसने
इस वर्तुल को
पूरा कर लिया,
वही
पूर्णपुरुष
है।
और ऐसा
नहीं है कि
तुम्हें याद
नहीं आती। ऐसा
भी नहीं है कि
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता कि जो
तुम कर रहे हो
वह व्यर्थ है।
मगर आदतें!
भीड़—भाड़! सारे
लोग वही कर
रहे हैं।
इसलिए ऐसा
भ्रम बना रहता
है कि ठीक ही
होगा, जब
इतने लोग कर
रहे हैं तो
ठीक ही होगा।
एक भीड़ का
सम्मोहन है जो
तुम्हें चलाए
जाता है।
तुम्हें भी कई
दफे दिखायी पड़
गया है कि कब
तक धन इकट्ठा
करता रहूंगा!
सार क्या है? लेकिन और सब
लोग इकट्ठे कर
रहे हैं, तुम
न इकट्ठे
करोगे इससे सब
लोग तो रुक न
जाएंगे, पड़ोसी
तो इकट्ठा
करते ही
रहेंगे; तुम
नयी कार न खरीदोगे,
पड़ोसी तो
खरीदते ही
रहेंगे; तुम
नया मकान न
बनाओगे, पड़ोसी
तो बनाते ही
रहेंगे; फिर
उसमें दीनता
मालूम होगी कि
मैं पिछड़ गया,
तो दौड़े
जाओ! जब सभी
दौड़ जाओ! जो सब
कर रहे हैं वही
किये चले जाओ।
आदमी नकली की
तरह जीता है।
आदमी अनुकरण
करता रहता है।
जिस दिन भी तुम
समझोगे कि
अनुकरण करना
व्यर्थ है, मैं यहां
किसी और का
जीवन जीने को
पैदा नहीं हुआ
हूं अपना जीवन
जीने को पैदा
हुआ हूं उसी
दिन क्रांति
घट जाती है।
उसी क्षण को
मैं जीवन का
सबसे
बहुमूल्य
क्षण कहता हूं।
क्योंकि उसी
दिन एक सीमा
खिंच जाती है—उसके
पहले का जीवन अनुलोम,
उसके बाद का
जीवन विलोम हो
जाता है।
इक
वक्त फिर आता
है कि मर जाती
है उम्मीद
फुर्सत
नहीं मिलती कि
सिए चाके—गरीबां
होती
नहीं मानूस
किसी शै से
तबीयत
खातिर
भी परेशान, तखैथ्युल भी
परीशां
बढ़
जाती है
अफकारे—मईशत
की कशायशं
दोजख—सी
नजर आती है यह
जन्नते—दौरां
छुट
जाता है जौके—
अमनो— जोशे—तमन्ना
बढ़
जाती है
मायूसिए—दिल
ताजदे—इमकां
एक ऐसी
घड़ी आती है जब
सब उम्मीदें
टूट जाती हैं।
सब के जीवन
में यह घड़ी
आती है। इक
वक्त फिर आता
है कि मर जाती
है उम्मीद
आशा
टूट जाती है।
मगर तुम किसी
तरह अपनी आशा
को फिर
खींचतान कर खड़ा
कर लेते हों—कोड़े
मारकर अपनी
आशा को फिर
खड़ा कर लेते
हो। फिर दौड़ने
लगते हो।
तुमने लोगों
को देखा, कोई
घोड़ागाड़ी चला
रहा है, घोड़ा
ठिठक गया है
और वह कोड़े
मार रहा है! और
जितना घोड़ा
ठिठकता है वह
उतने ही कोड़े
मारता है। और
किसी तरह घोड़े
को घसीट ले
जाता है। यही
तुम जिंदगी
में कर रहे हो।
बहुत बार
तुम्हारी आशा
का घोड़ा ठिठका
है, बहुत
बार तुम्हारी
उम्मीद मर गयी
है, बहुत
बार तुम्हें
लगा है कि कि
सब व्यर्थ है,
मगर फिर
तुमने कोड़े
फटकारे हैं।
तुमने फटकार,
तुम्हारे
संगी—साथियों ने
फटकारे; तुम
अगर पति हो तो
तुम्हारी
पत्नी ने
धक्का दिया, तुम्हारे
बेटो न धक्के
दिये?
यहां
रोज ऐसी घटना
घट जाती है।
कोई संन्यासी
हो जाता है, उसकी पत्नी
रोती आ जाती
है कि नहीं—नहीं,
अभी नहीं!
कोई बेटा
संन्यासी हो
जाता है, बाप
घबड़ाकर आ जाता
है, कि यह
क्या हो गया? कोई बाप
संन्यासी हो
जाता है, बेटा
घबड़ाकर आ जाता
है, कि
हमारे पिता को
आपने क्या कर
दिया? सम्मोहित
कर लिया? अगर
खुद तुम बचो, तुम्हारे
संगी—साथी, परिवार, प्रियजन,
वे कोड़े
मारते हैं, वे आरे
चुभाते हैं।
वे कहते हैं—चलते
रहो, चलते
रहो; अभी
सारी दुनिया
चल रही है, तुम
क्यों रुक गये?
वे कहते हैं—चलते
रहो, जब तक
कि मौत ही
तुम्हें न
गिरा दे। मगर
तब मिट्ठी पड़ी
रह जाएगी
तुम्हारे
मुंह में, कब्र
में दबे रह
जाओगे, और
जीवन अकारथ
गया। पानी पर
लकीरें
खींचते गया।
इक
वक्त फिर आता
है कि मर जाती
है
उम्मीद
फुर्सत नहीं मिलती
कि सिए चाके—गरीबां
ऐसा
वक्त आ जाता
है, सब की
जिंदगी में आ
जाता है, जब
होश जगता है।
और ऐसा बार—बार
होता है, लेकिन
तुम उस होश को
झुठला लेते हो।
तुम अपने मन
को और कहीं
उलझा लेते हो।
तुम हजार
बहाने खोज
लेते हो। तुम
कहीं न कहीं
अपने मन को
लगा देते हो।
कि चलो आज
सिनेमा देख
आएं। कि चलो, आज शराब पी
लें। कि चलो
नाच होता है
कहीं, नाच
देख आएं। मन
जरा बेचैन है,
उम्मीद जरा
टूटी है, आशा
जरा उखड़ी—उखड़ी
है, फिर से
पैर जमा लें।
फिर
तुम्हारा मन
कहता है कि
अभी तक नहीं
हुआ, माना, लेकिन
कल हो सकता है।
अभी रुको मत, अभी बढ़े चले
जाओ। कभी कहीं
होता। कभी
नहीं हुआ है।
इस संसार में
जिसने सिर्फ
अनुलोम जाना,
उसने शांति नहीं
जानी, आनंद
नहीं जाना, उपलब्धि
नहीं जानी, संतुष्टि
नहीं जानी, समाधि नहीं
जानी। और
समाधि नहीं तो
समाधान कहां?
जिसने
विलोम भी सीख
लिया, उसीने
समाधि जानी, समाधान जाना।
और जितनी
जल्दी विलोम
की कला आ जाए, तुम प्रमाण
दोगे कि तुम
बुद्धिमान हो।
बुद्ध
अटठाईस वर्ष
के थे तब
अनुलोम छोड़
दिया, विलोम
में लग गये।
अटट्ठाईस
वर्ष की उस
कोई बड़ी उस
नहीं होती।
बड़े
बुद्धिमान
रहे होंगे।
क्योंकि यहां
तो अठत्तर—
अठत्तर साल हो
जाते हैं और
विलोम नहीं
आता।
शंकराचार्य
अदभुत बुद्धि
के धनी रहे
होंगे। नौ साल
की उस में
विलोम आ गया!
संन्यास लेना
चाहा। मां
रोने लगी।
स्वाभाविक है,
नौ साल का
बच्चा
संन्यास लेना
चाहे! यह कोई
बता हुई! सुना
है कभी! नौ साल
का बच्चा और
संन्यास लेना
चाहे! अपूर्व
प्रतिभा रही
होगी। नब्बे
साल में लोग
इतना अनुभव
नहीं कर पाते
जितना नौ साल
में अनुभव कर
लिया। इसको
प्रतिभा कहते
हैं। जड़ता
नहीं रही होगी।
देख ली बात!
देखने की
क्षमता हो तो
नौ साल में भी
देखी जा सकती
है। मोजेर्ट
ने तीन साल की
उस में ऐसा
संगीत बजाया
जो लोग नब्बे
साल की उस में
नहीं बजा सकते।
प्रतिभा।
शंकर
की कहानी बड़ी
प्यारी है।
लेकिन मां तो
रोने लगी, उसनने कहा
कि यह नहीं हो
सकता। कहानी
ऐसी है शंकर
नदी पर स्नान
करने गये और एक
मगर ने उनका
पैर पकड़ लिया।
और मां किनारे
पर खड़ी चिल्ला
रही है, कि
बचाओ मेरे
लड़के को!
लेकिन कौन
बचाए? शंकर
ने कहा अब एक
ही उपाय है, मां तू कह दे
कि अगर मैं बच
जाऊंगा तो
संन्यास। तो
मैं परमात्मा
से प्रार्थना
करूं, तो
बचने में कुछ
सार है। अगर
संन्यास होना
ही नहीं है, तो मौत
बराबर।
जिंदगी में
क्या रखा है!
फिर मौत में
हर्ज क्या है?
जब जिंदगी
में कुछ है ही
नहीं तो मौत
में कुछ खो
नहीं रहा है
अगर तू कह दे
कि संन्यास
लेने की आज्ञा
देती है, अगर
बच गया तो
संन्यास लेने
देगी, तो
मैं
प्रार्थना
करूं भगवान से।
अब ऐसी घड़ी
में कौन आज्ञा
नहीं देगा? कम से कम
बचेगा तो, संन्यासी
ही सही! जिंदा
तो रहेगा! मौत
और संन्यास, ऐसा विकल्प।
और
ध्यान रखना, यह कहानी
चाहे सच हो
चाहे न हो, मगर
यही विकल्प सब
के सामने है—मौत
या संन्यास।
या तो तुम
सिर्फ करोगे,
या तुम
संन्यासी
होओगे। बस दो
ही विकल्प हैं।
और कहानी मधुर
है, प्रीतिकर
है, कि
शंकर ने
प्रार्थना की
और मगर ने पैर
छोड़ दिया। फिर
तो मजबूरी थी!
संन्यास की
आशा देनी पड़ी।
मगर
तुम्हारे भी
पैर पकड़े हुए।
जरा गौर से
अपने को देखना।
मगरे बहुत तरह
की हैं, कोई
नदियों में ही
नहीं पायी
जाती। सच तो
यह है कि
नदियों में तो
कभी—कभी पायी
जाती हैं, सड्कों
पर पायी जाती
हैं, घरों
में पायी जाती
है; दुकानों
में पायी जाती
हैं, बाजारों
में पायी जाती
हैं; तरह—तरह
की मगरे हैं।
किसी के पैर
को राजनीति की
मगर ने पकड़ा
है, किसी
के पैरा को धन
की मगर ने
पकड़ा हैं, किसी
के पैर को
किसी और मगर
ने पकड़ा हैं, मगर सब मगरे
हैं। और
तुम्हारा पैर
छूट सकता है
एक ही
प्रार्थना
तुम्हारे
जीवन में उठ
आए अगर—विलोम
की प्रक्रिया।
नहीं तो यह
मगर तुम्हें
चबा जाएगी। यह
धीरे— धीरे
चबा ही रही है।
अंश— अंश तुम
मरते जा रहे
हो रोज। जब से
पैदा हुई हो
मरने के सिवाय
और किया क्या है?
रोज—रोज मर
रहे हो, मरते
जा रहे हो। एक
दिन यह
प्रक्रिया
पूरी हो जाएगी।
यह मगर
तुम्हें पूरा
चबा जाएगी। यह
समय की मगर है।
विलोम
की प्रक्रिया
को समझ लो।
विस्तार एक
सीमा तक ठीक।
समझने के लिए
ठीक, अनुभव के
लिए ठीक। मगर
फिर लौटना है,
फिर अपने घर
जाना है।
'तदैक्य
नानात्वैकत्वम्
उपाधियोगहानाआदित्यवत्।।
वह एक
ही है; क्योंकि
उपाधि के नाश
होने पर सूर्य
की भांति नाना
रूप एक हो
जाते हैं।
जब तक
अनुलोम चलता
है, संसार
चलता है,।
तब तक अनेक
दिखायी पड़ता
है। जैसे ही
विलोम की
प्रक्रिया
शुरू हुई कि
एक दिखायी
पड़ना शुरू हो
जाता है। एक
ही है।
वस्तुत: एक ही
है तरंगें
कितनी ही अनेक
दिखायी पड़ रही
हों, सागर
एक है, और यहां
जीव कितने ही
दिखायी पड़ रहे
हों, जीवन
एक है। यहां
रूप कितने ही
दिखायी पड़ रहे
हों, सब
रूप के भीतर ऊर्जा
एक है। मगर जब
तक तुम अपने ' मैं से भरे
हो और 'मैं'
के फैलाव
में उत्सुक हो,
जब तक यह 'मैं' का
विस्तारवाद
चल रहा है, तब
तक तुम्हें इस
एक का अनुभव न
हो पाएगा। और
उस एक में ही
विश्राम है।
और उस एक में
ही आनंद है।
अनेक
में दुख है, पीड़ा है, संताप।
क्योंकि अनेक
में झूठ है, अनेक में
मिथ्या है।
तुम अपने भवन
को रेत पर खड़ा
कर रहे हो। यह
गिरेगा। अनेक
की रेत पर खड़ा
कर रहे हो।
जिस तरह तुमने
सोचा है, जब
भी तुमने सोचा
है मैं अलग
हूं—और संसार
में अलग सोचना
ही पड़ेगा। यहां
प्रतिस्पर्धा
नहीं हो सकेगी
नहीं तो। मैं
अलग हूं र
पृथक हूं? मुझे
सिद्ध करना है,
मुझे लड़ना
है, सब यहां
बाकी मेरे
दुश्मन हैं और
प्रतियोगी
हैं। संसार का
अर्थ क्या
होता है? मैं
भर मेरे लिए
हूं और सब
मेरे दुश्मन
हैं।
संन्यास
का क्या अर्थ
होता है? मैं
हूं ही नहीं; और मेरे
मित्र हैं। जब
मैं हूं ही
नहीं तो
दुश्मन कैसा!
मैं से दुश्मन
पैदा होता है।
मैं दुश्मन
पैदा करता है।
मैं सूत्र है
सारी शत्रुता
का। जब मैं ही
गया, तो
मैत्री का उदय
हो जाता है।
फिर कोई दूसरा
नहीं, पराया
नहीं, अन्य
नहीं, लड़ना
किससे, जूझना
किससे? फिर
दुख कैसा, पीड़ा
कैसी? हार
कैसी, जीत
कैसी? सफलता
कैसी, असफलता
कैसी? सब
गया। सब
द्वंद्व गये।
एक बचा। वही
सच्चिदानंद
है।
अनेक
अर्थात संसार, माया, श्रम,
उपाधि।
जैसे घड़े में
जल भर लिया।
कभी नदी गये, या कुएं के
घाट पर गये!
मिटी का एक
घड़ा ले गये और नदी
में भरा। जब
तुम नदी में
घड़े को भर
लिये—अभी घड़ा
नदी में ही—पानी
भर गया, लेकिन
घड़े की पतली—सी
मिट्टी की
दीवाल ने नदी
के जल से घड़े
के जल को तोड़
दिया। क्षण भर
पहले तक नदी
का जल और घड़े
का जल एक था।
अब एक नहीं है।
मिट्टी की
दीवाल बीच में
आ गयी। इस
दीवाल का नाम
उपाधि।
मगर
लोग उपाधियां
बड़ी उत्सुकता
से खोजते हैं।
लोगों की
जिंदगी भर
उपाधि की तलाश
चलती है। धन
एक उपाधि है, एक उपाधि है,
प्रतिष्ठा
एक उपाधि है।
नाम, यश, कीर्ति
उपाधियां हैं।
इन सबसे
तुम्हारा घड़ा
मोटा होता
जाता है।
मजबूत होता
जाता है।
मिट्ठी का ही
नहीं, लोहे
का होता जाता
है। और वह जो
बाहर का जल है,
जिसके तुम
एक अंग हो, उससे
तुम टूटते चले
जाते हो। घड़े
को फोड़ दो, फिर
भीतर का जल
बाहर का जल एक
हो गया। तो
अनेक का अर्थ,
संसार, समाधि,
घड़े में जल।
एक का अर्थ, ब्रह्म, मोक्ष,
विश्राम, निरुपाधि।
घड़े फट गये, जल से जल जा
मिला। बीच में
कोई बाधा, कोई
सीमा न रही।
सीमाओं
में रस लेना
बंद करो! हम
बड़ी सीमाओं में
रस लेते हैं।
हिंदू अलग, मुसलमान अलग—सीमा
बना ली। फिर
हिंदू को भी
चैन नहीं है
इतने से। फिर
ब्राह्मण अलग,
क्षत्रिय
अलग, वैश्य
अलग, शूद्र
अलग— और
सीमाएं बना
लीं। उतने से
भी हल नहीं
होता! फिर
ब्राह्मण में
भी कान्यकुब्ज
ब्राह्मण अलग,
और चितपावन,
और न—मालूम
क्या—क्या!
उसमें भी सीमा
बना ली। सीमा
पर सीमाएं
बनाते चले
जाते हो!
उपाधि पर उपाधिया
खड़ी करते चले
जाते हो! फिर
अगर अकेले हर
जाते हो और
सारे
अस्तित्व से
टूट जाते हो
और उखड़े—उखड़े
अनुभव करते हो
और जड़ें नहीं
मिलतीं और अर्थ
खो जाता है और
जीवन में कोई
संगीत नहीं
झरता है, तो
कुछ आश्चर्य
है! यह
तुम्हारे ही
श्रम का फल है!
सीमाएं तोड़ो!
जो
अपने को कहता
है, मैं
ब्राह्मण हूं
वह तो
ब्राह्मण हो
ही नहीं सकता।
ब्राह्मण का
अर्थ होता है,
जिससे
ब्राह्म को
जाना, असीम
को जाना।
जिसने सारी
सीमा छोड़ी। जो
कहता है, मैं
हिंदू हूं उसे
धर्म का कुछ
पता ही नहीं।
क्योंकि वह
मुसलमान से, ईसाई से, जैन
से, बौद्ध
से अपने को
अलग कर रहा है।
धार्मिक
व्यक्ति का न
कोई देश होता
है, न कोई
जाति होती है,
न कोई धर्म
होता है।
धार्मिक
व्यक्ति की
सीमा ही नहीं
होती।
धार्मिक
व्यक्ति ने
घड़ा तोड़ दिया।
भीतर का जल
बाहर से मिल
गया। घटाकाश
आकाश से मिल
गया। उस एक
में विश्राम
है। उस
निरुपाधि की
तलाश संन्यास
है। वही विलोम
की प्रक्रिया
है। वहीं से
हम आए हैं, वहीं
हमें वापस लौट
जाना है।
मूलस्रोत में
वापस लौट जाना
ही लक्ष्य है।
लक्ष्य स्रोत
से भिन्न नहीं
है।
मिट्टी
का तुमने एक
घडा बना लिया, फिर घडा
टूटेगा तो
क्या होगा? वापिस
मिट्टी में
गिर जाएगा और
मिल जाएगा। हर
चीज अपने
स्रोत में
वापस लौट जाती
है। हम भी
अपने स्रोत
में वापस लौटन
लगे, तो बस
जीवन में धुन
अपनी शुरू हो
जाती है।
मुहब्बत
के तराने गा
रही हूं
फजा
में आग—सी
भड्का रही हूं
यह मैं, यह हादसाते—जिंदगानी
किसी
तूफा में बहती
जा रही हूं
किसी
की याद में
नग्में
लुटाकर
दिले—कोनों
मकाम धड़का
रही हूं
खिरद
मुझे जितना
समझा रही है
मैं
उतनी और खोई
जा रही हूं
मसाइब
घूरते हैं हर
तरफ से
मगर
मैं कहकहे
बरसा रही हूं
न
मंजिलें है न
कोई राहे—मंजिल
मगर
मैं एक धुन
में जा रही
हूं
एक बार
तुम्हें यह
खयाल में आ
जाए कि
मूलस्रोत ही
अंतिम लक्ष्य
है प्रथम ही
अंतिम है, बस उसी दिन
से जीवन में
एक धुन आ
जाएगी। फिर
जीवन में एक
संगीत सुना
जाएगा।
भक्तों में
में वही मस्ती
दिखायी पड़ती
है। अगर भक्त
में मस्ती न
हो, तो
भक्त ही नहीं।
अगर धुन पैदा
हो रही हो, अगर
उसके पास जाकर
तुम्हें
संगीत का
अनुभव न हो, अगर उसके
पास जाकर तुम
भी किसी लय
में न बंध जाओ
और तुम्हारे
भीतर भी नृत्य
शुरू न हो जाए,
तो भक्त
भक्त ही नहीं
है। जिसके पास
जाकर तुम्हें
भी पैरों में
पूंघर बांध
लेने की आकांक्षा
जगने
लगे, जिसके
पास बैठकर
तुम्हारे
भीतर भी छिपा
हुआ गीत प्रकट
होने के लिए
आतुर हो उठे, जिसके पास
बैठकर, जिसकी
हवा में
तुम्हारे फूल
भी जो कभी
नहीं खिले थे,
खिलने लगें,
तुम्हारी
कलिया भी फूल
बनने के लिए
अभीप्सु हो
जाएं, वही
भक्त है।
वह एक
ही है; क्योंकि
उपाधि के नाश
होने पर सूर्य
की भांति
नानारूप एक हो
जाते हैं।
उसके
प्रतिबिंब
अलग— अलग हैं, सूर्य की
भांति, आदित्यवत।
जैसे सूरज
निकला, आज सूरज
निकला, कितनी
पृथ्वी पर
नदिया हैं, सबमें उसकी
झलक बनेगी; और कितने
तालाब हैं, सबमें उसकी
झलक बनेगी; और कितने
सागर हैं, सब
में उसकी झलक
बनेगी; और
छोटे—छोटे ड़बरे
जो रास्तों के
किनारे भर गये
होंगे वर्षा के
जल से, उनमें
उसकी झलक
बनेगी; और
मटको में, मटकियां
में सब, में
उसकी झलक
बनेगी—और सूरज
एक है, और
झलक बहुत बनेंगी।
ऐसे ही
सत्य एक है, परमात्मा एक
है, झलकें
भर भिन्न हैं।
झलकों में
सत्य कहा!
झलकों से
इशारा ले लो
असली का और
असली की तरफ
चल पड़ो।
मैंने
सुना है कि एक
कुत्ता एक
राजमहल में
प्रवेश कर गया।
भूल—चूक से
रात वहीं बंद
रह गया। सुबह
मरा हुआ पाया।
क्योंकि
राजमहल के जिस
कमरे में बंद
रह गया था, वह दर्पणों
से बना था; उस
कमरे में
दर्पण ही
दर्पण लगे थे।
सारी दीवालें
दर्पण से ढकी
थी; जब उस
कुत्ते ने आंख
खोली और चारों
तरफ देखा तो
वह घबड़ा गया।
इतने कुत्ते
उसने अपने जीव
में कभी देख
नहीं थे।
स्वभावत: घबड़ाहट
में भौंका।
कुत्ता था और
करता भी क्या?
सारे
कुत्ते भौंके!
फिर तो उसने
होश खो दिया।
फिर तो वह इस
कुत्ते की तरफ
झपटे कि सारे
कुत्ते उसकी
तरफ झपटे। वह
रात भर भौंकता
रहा और
दर्पणों से लड़ता
रहा। सुबह
लहूलुहान, दर्पणों
पर भी उसके
खून के चिंह
थे और उसकी लाश
पड़ी थी कमरे
में।
तुम
किससे लड़ रहे
हो? और यहां
दुश्मन है? तुम किससे
भौंक रहे हो? किसके लिए
भौंक रहे हो? यहां दर्पण—दर्पण
हैं। एक ही
बहुत रूपों
में झलक रहा
है। आर वह एक
तुम्हारे
भीतर विराज
मान है।
तुम्हारे
बाहर भी, तुम्हारे
भीतर भी। जरा
उपाधि से
मुक्त हो जाओ
और उसे देखो।
और उपाधि से
मुक्त होने मग
क्या अड़चन है!
क्योंकि
उपाधि सिर्फ
थोपी हुई है।
जैसे तुमने
वस्त्र पहन
रखे हैं, फिर
भी भीतर तो
तुम नंगे ही
हो न! कितने ही
वस्त्र पहन लो,
नंगापन मिट
नहीं जाता
वस्त्रों से,
सिर्फ अंदर
छिप जाता है।
ऐसे ही
उपाधिया ऊपर—ऊपर
होती हैं, भीतर
तो तुम नग्न
ही हो। भीतर
तो तुम दिगंबर
ही हो।
उपाधियों के
पार तुम अभी
भी निरुपाधि
हो। मनुष्य के
भीतर भी अभी
तुम परमात्मा
हो। स्त्री के
भीतर, पुरुष
के भीतर, हिंदू—मुसलमान
के भीतर तुम
वही एक हो।
आदित्यवत। जैसे
सूर्य अलग—अगल
जल सरोवरों
में झलकता है,
ऐसे ही वह
एक अलग—अलग
उपाधियों के
दर्पण में
झलका है। उस
एक कोई पहचानो।
उस एक के
पहचानते ही
युद्ध मिट
जाता है, हिंसा
मिट जाती है, वैमनस्य मिट
जाता है, वैर,
क्रोध, सब
मिट जाता है।
उस एक ही
पहचान के साथ
फिर आनंद के
सिवाय और बचता
क्या है! फिर
रास ही रास है।
फिर रंग ही
रंग है। रस ही
रस। 'रसौ
वै सः '।
उसका रस
तुम्हें तभी
अनुभव होगा।
और जब तक उसका
रस अनुभव न हो,
तब तक सारे
अनुभव व्यर्थ
हैं।
'पृथक
इति चेत् न
परेण
असम्बन्धात्
प्रकाशानाम्।।
पृथक
भी नहीं कह
सकते, क्योंकि
वैसा कहने में
प्रकाश की भांति
ईश्वर से
असंबंध होगा। '
उस
परमात्मा को
तुमसे पृथक तो
कहा ही नहीं
जा सकता। पृथक
होते ही हमारा
संबंध हो
जाएगा। फिर तो
जुड़ ने का कोई
उपाय न रह
जाएगा। तुम
अभी भी जुड़े
हुए हो, इसीलिए
जुड़ सकते हो।
सेतु टूटा
नहीं है सिर्फ
भूल गया है, विस्मरण हुआ
है। उस
परमात्मा को
खोजने कहीं
जाना नहीं है,
सिर्फ
स्मरण करना है।
प्रत्यभिज्ञा
करनी है। याद
करनी है। याद
ही से हो
जाएगा।
क्योंकि हम
उससे टूट नहीं
हैं। उससे कभी
नहीं टूटे हैं।
जैसे वृक्ष का
पत्ता वृक्ष
से नहीं टूटा
है, अहंकार
से भर गया है
और वृक्ष को
भूल गया है, मगर अभी भी
जुड़ा है वृक्ष
से। अभी भी
रसधार वृक्ष
से ही बह रही
है। तुम कैसे
जी सकोगे
परमात्मा के
बिना? उसके
बिना कहां
श्वास होगी, कहां हृदय
की धड़कन हतोाई?
उसके बिना
कैसा जीवन!
वही जीवन है।
टूटे
तो तुम नहीं
हो। असंबंधित
नहीं हुए हो।
फिर क्या हो
गया है? भूल
गये हो, विस्मरण
हुआ है। इसलिए
सारे भक्तों
ने स्मरण को
इतना जोर दिया
है। स्मरण का
अर्थ होता है,
याद करो; याद करो फिर,
कौन
तुम्हारे
भीतर बैठा है?
याद करो फिर,
खोजो अपने
भीतर, किससे
तुम जुड़े हो? कौन तुम्हें
जीवन दे रहा
है? कहां
से तुम्हारी
चेतना
प्रवाहित हो
रही है? अगर
कुआ में खोज
लग जाए कि
जलस्रोत कहां
से आ रहे हैं, तो सागर तक
पहुंच जाएगा।
अगर तुम भी
अपनी चेतना के
कुएं में थोड़े
उतरो, तो
तुम सागर को
पा लोगे—झरने
अब भी जुड़े
हैं; वहीं
से धार बह रही
है। पृथक भी
नहीं कह सकते,
क्योंकि
वैसा कहने में
प्रकाश की
भांति ईश्वर
से असंबंध
होगा।
तुमने
सुना है? झेन
गुरुओं के वचन
तुम्हें याद
हैं? झेन
गुरु कहते हैं,
संसार और
निर्वाण एक।
चोट करती है
बात! थोड़ी घबड़ाती
भी है। कि
संसार और
निर्वाण एक!
झेन गुरु कहते
हैं, ज्ञान
और अज्ञान एक।
चोट करती है
बात! घबड़ाती
है। कि हमने
सदा सोचा, ज्ञान
अलग, अज्ञान
अलग—विपरीत; संसार अलग, निर्वाण अलग—विपरीत;
ये झेन गुरु
क्या कह रहे
हैं? ये
ठीक कह रहे
हैं। यह परम
स्थिति से
देखी गयी बात
है। संसार
निर्वाण से
अलग हो कैसे
सकता है! यहां
अलग कुछ भी
नहीं हो सकता।
यहां सब
इकट्ठा है, सब जुड़ा है।
एक झेन
गुरु से एक
साधक ने आकर
पूछा कि युद्ध
यानी क्या? बुद्ध यानी
कौन? बुद्धत्व
का क्या अर्थ
है? सामने
ही एक वृक्ष
की तरफ सदगुरु
ने इशारा किया
और कहा, यह
वृक्ष देखते
हो? यही
बुद्ध। साधक
तो चौंका होगा।
वृक्ष और
बुद्ध। मगर
झेन गुरु
इशारा कर रहा
है, संसार
और निर्वाण एक।
पदार्थ और
परमात्मा एक।
सोया हुआ और
जागा हुआ एक।
फर्क
क्या है सोए
हुए और जागे
हुए में?
जरा—से
होश का फर्क
है और तो कुछ
फर्क नहीं है।
पतंजलि ने योग—सूत्रों
में कहा है—समाधि
और सुषुप्ति में
कोई ज्यादा
फर्क नहीं है, जरा—सा फर्क
है। सुषुप्ति
में तुम सोए
होते हो, समाधि
में तुम जागे
होते हो, बस
इतना ही फर्क
है। अन्यथा
विश्राम एक
जैसा, विराम
एक जैसा
आह्लाद एक
जैसा, आनंद
एक जैसा।
'न
विकारिण: तु
कारणविकारात्।।
विकार
भी नहीं कह
सकते; क्योंकि
ऐसा कहने से
मूल कारण में
विकार होने का
ड़र पैदा हो
जाएगा।। '
संसार
को परमात्मा
से भिन्न नहीं
कह सकते हैं, यह शांडिल्य
बड़े जोर से कह
रहे हैं। यह
उदघोषणा बड़ी क्रांतिकारी
है। विकार भी
नहीं कह सकते
हैं। कुछ
दार्शनिक ने
यह समझाने की
कोशिश की है
कि भिन्न तो
नहीं, लेकिन
विकार है। कुछ
बात गड़बड़ हो
गयी है। जैसे
दूध का विकार
दही। भिन्न तो
नहीं है, दूध
का ही रूप है, लेकिन विकृत
हो गया। लेकिन
शांडिल्य
कहते हैं, विकार
भी नहीं कह
सकते, क्योंकि
उस निर्विकार
परमात्मा में
विकार कैसे
पैदा होगा! उस
परम में विकार
की कल्पना ही असंभव
है। संसार
परमात्मा ही
है। विकार
नहीं है, भिन्न
नहीं है। तुम
भी उसके विकार
नहीं हो, तुम
भी उससे भिन्न
नहीं हो।
फिर
क्या भेद है
दोनों में?
इतना
ही भेद है कि
तुम सो गये हो
और सपने देख
रहे हो। यहां
हम पांच सौ
लोग हैं, हम
सब सो जाएं, हम सब अलग—अलग
सपने देखेंगे।
जागकर तो जो
हम देखते हैं
वह एक दुनिया
है। तुम भी
इन्हीं
वृक्षों को
देख रहे हो।
जिनको मैं देख
रहा हूं। और
तुम भी इन्हीं
पक्षियों को
सुन रहे हो
जिनको मैं सुन
रहा हूं।
लेकिन अगर हम
सब सो जाएं, तो यहां
पांच सौ जगत
होंगे, एक
जगत नहीं
रहेगा। फिर
तुम्हारे
सपने के वृक्ष
तुम्हारे हों
और मेरे सपने
के वृक्ष मेरे
होंगे।
तुम्हारे
सपनों के
वृक्षों को
मैं न देख
सकूंगा, तुम
मेरे सपनों के
वृक्षों को न
देख सकोगे।
तुम्हें
मेरी याद न
रहेगी, मुझे
तुम्हारी याद
रहेगी। यहां
पांच सौ जगत
पैदा हो
जाएंगे अगर यह
पांच सौ लते
सो जाएं। जागे
थे तो एक था, सो गये तो
पांच सौ हो
गये। और सब
अपने सपने
देखेंगे; कोई
साधु हो जाएगा,
कोई चोर हो
जाएगा, कोई
हत्यारा हो
जाएगा, कोई
दुकानदार हो
जाएगा, कोई
कुछ हो जाएगा,
सबके सपने
अपने अपने
होंगे। अपनी
मौज होगी। और
फिर जब सुबह
हम जागेंगे, तो हम सब
सपनों पर
हंसेंगे।
क्या हम यह
कहेंगे कि तुम
चारे हो गये
थे सपने में, साधु हो गया
था, तो हम
और तुम भिन्न
हो गये थे? कि
तुम सच में ही
चोर हो गये थे,
मैं सच में
ही साधु हो
गया था।
न तो
कोई साधु हुआ
था, न कोई चोर
हुआ था।
कल्पनाएं जगी
थीं।
कल्पनाओं का
खेल हुआ था।
सपने पैदा हुए
थे। सबने अपना—
अपना नाटक रचा
था। रचनेवाले
भी तुम्हीं थे,
नाटक में
अभिनय
करनेवाले भी
तुम्हीं थे, निर्देशक
भी तुम्हीं थे—और
दर्शक भी
तुम्हीं थे।
बिलकुल नाटक
पूरा का पूरा
तुम्हारा था,
सभी
तुम्हीं थे।
मंच पर भी
तुम्हीं और
बैठे हुए
दर्शक भी तुम्हीं।
देखनेवाले भी
तुम्हीं और
दृश्य भी
तुम्हीं।
कहानी तुमने
लिखी
थी, गीत
भी तुमने बनाए
थे, संगीत
भी तुमने डाला
था, सब
तुम्हारा ही
था। सपने में
तुम बड़े
स्रष्टा हो
गये थे! बड़ी
कल्पना को
विस्तार मिल
गया था।
यह जगत
परमात्मा से
भिन्न नहीं है, सिर्फ हम
सोए हैं। हम
सोए हैं तो
हमने अपने—
अपने जगत
निर्माण कर
लिये हैं।
अपना— अपना
सपना देख रहे
हैं।
सपने
निजी होते हैं।
सत्य निजी
होता। सत्य
सार्वभौम
होता है, 'युनिवर्सल'
होता है।
सत्य मेरा अलग
और तुम्हारा
अलग, ऐसा
नहीं होता। सत्य
में तो मैं और
तुम भी अलग
नहीं होते, सत्य कैसे
अलग होगा? सत्य
बस एक होता है।
जहा अनेकता है,
वहा असत्य
है। जहा भेद
है, वहा
असत्य है।
करें
फिर क्या? शांडिल्य
कहना क्या
चाहते हैं?
इतनी
ही बात याद
दिलाना चाहते
हैं—जागो!
कैसे जागोगे? स्मरण करो, पुकारो; रोओ,
गाओ, गुनगुनाओ,
भजन करो!
वही भजन जिस
दिन प्रगाढ हो
जाएगा, उसकी
चोट से ही तुम
जग जाओगे। वह
प्रार्थना
जिस दिन
प्राणों की
चीख की तरह उठेगी,
उसी चीख से
तुम जग जाओगे।
आंसू अगर गहन
होते गये, गहन
होते गये, तो
आंसू ही
तुम्हारी आंखों
से सपनों को
भी बहा ले
जाएंगे। तुम
स्वच्छ हो
जाओगे।
लेकिन
लोग सपनों में
खूब खोए हैं।
अपने—अपने
मधुर सपने देख
रहे हैं।
हर रात
तुम्हारे पास
चला मैं आता
हूं।
जब घन
अधियाला
तारों से ढल
धरती पर
आ जाता
है
जब दर—परदा—दीवारों
पर भी नींद—नशा
छा
जाता है
तब
यंत्र—सदृश
अपने बिस्तर
से हो बाहर
चुपके—चुपके
हर रात
तुम्हारे पास
चला मैं आता
हूं।
समतल
भूतल, बत्ती
की पांतों के
पहरे
में
सुप्त नगर, अंबर को
दर्पण
दिखलाते सरवर,
सागर,
मधुबन, बंजर
हिम—तरु—मंडित, नंगी पर्वत—
माला, मरुथल
जंगल
दलदल--
सब की
दुर्गमता के
ऊपर मुसकाता
हूं।
हर रात
तुम्हारे पास
चला मैं आता
हूं।
पर कभी—
कभी क्या
निद्रा को हो
जाता है
रूठा
करती,
तुमको
पाने के मेरे
सारे यत्नों
को
झूठा
करती
तब भाव—जलद
पर इंद्रधनुष—रूपक
घर कर
छंदों
से कस
तुम तक
गीतों के सौ—सौ
सेतु बनाता
हूं।
हर रात
तुम्हारे पास
चला मैं आता
हूं।
सपने
देख रहे हैं
लोग, मधुर
सपने देख रहे
हैं। तुमने जो
अब तक किया है,
वह स्वप्न
है। स्वप्न
यानी अनुलोम
प्रक्रिया।
स्वप्न का
फैलाव हो रहा
है। स्वप्न की
माया फैलती
चली जा रही है।
जागो!
विलोम करो अब, स्वप्न को
सिकोडो! साझ
हो गयी, बाजार
उठाने का वक्त
हो गया। खूब
पसारा किसा था
दुकान का, अब
समेटो, द्वार—दरवाजे
बंद करो, साझ
हो गयी!
और
ध्यान रखना, सुबह का
भूला साझ भी
घर आ जाए तो
भूला नहीं कहाता
है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें