बीचवां
प्रवचन,
30
मार्च1978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार :
1-प्रार्थना
क्या है? और
क्या
प्रार्थना
अपने ही लिए
है?
2-अहंकार
के पास भी कोई
संजीवनी है
क्या? जाने
कहां से, कैसे
और क्यों जी—जी
आता है!
3-टी.
यू. अंग्रेजी—विभागाध्यक्ष
तथा शिवपुरी
बाबा के कुछ
शिष्यों के
संदर्भ सहित
नेपाल के एक
मित्र का
भगवान से
प्रश्न—प्रेम
के साथ इतना
गहरा भय क्यों
जुड़ा रहता है?
4-भगवान!
अब तैयार हूं।
तारीख तेरह
अप्रैल को
मेरा इकसठवां
जन्मदिन है—आपके
चरणों में संन्यस्त
होने के लिए आ
गिरूंगा।... आप
ही मेरे शेष
जीवन के एक
मात्र आधार
सदगुरु और इष्टदेव
हो!
5-भगवान!
क्या इस प्यास
का कभी अंत
होगा जिसने मुझे
दीवाना बना
दिया है?... आह!
किसे मैं अपने
हृदय की बात
बताऊं? मैं
एकदम अजनबी और
नितांत अकेला
हूं!
पहला
प्रश्न :
प्रार्थना
क्या है? और क्या
प्रार्थना
केवल अपने ही
लिए है?
प्रार्थना
बेबूझ घटना है।
ध्यान
समझा जा सकता, समझाया जा
सकता।
प्रार्थना न
तो समझायी जा
सकती है, न
समझी जा सकती
है। समझ के
हाथ
प्रार्थना तक
नहीं पहुंचते।
विचार के पंख
प्रार्थना के
आकाश तक उड़ान
नहीं भरते।
बोली जा सके, कही जा सके, ऐसी
प्रार्थना
वस्तु नहीं है।
प्रार्थना है
प्रेम। और
प्रेम सदा से
बेबूझ रहा है।
प्रार्थना है
हृदय का उदगार।
और हृदय के
पास कोई तर्क
नहीं। हृदय के
पास वस्तुत:
कोई भाषा भी
नहीं। हृदय के
पास मौन ही
भाषा है। बोले
कि प्रार्थना
झूठ हुई। जिसे
तुमने आज तक
प्रार्थना
समझा है, वह
प्रार्थना
नहीं है, वह
तो वासना का
ही रूप है।
तुमने कुछ कहा,
तुमने कुछ
मांगा—वासना
हुई।
प्रार्थना
चुप्पी के
अतिरिक्त और
कोई भाषा नहीं
जानती।
प्रार्थना है
मौन में झुक
जाना।
प्रार्थना है,
समर्पण।
प्रार्थना है
इस बात की घोषणा
कि मैं नहीं
हूं तू है।
मैं नहीं हूं
परमात्मा है।
प्रार्थना
परमात्मा से
कुछ मांग नहीं
है। क्योंकि
मांग में 'मैं
' मौजूद ही
होता है। 'मैं'
न हो तो मांग
किसकी, मांग
कैसी? 'मैं '
ही मांगता
है। 'मैं' भिखारी है, भिखमंगा है।
उसकी मार्गो
का कोई अंत
नहीं है।
जितना मिले
उतना ही
ज्यादा
मांगता है। मांगता
ही जीता है, मांगता ही
मरता है। जहा
मैं नहीं, मैं
की मांग नहीं,
वहीं तुम
सम्राट हो गये।
प्रार्थना
सम्राट के
हृदय से उठा
हुआ स्वर है—मौन
का स्वर, संगीत
का स्वर।
प्रार्थना एक
लयबद्धता है,
जो
तुम्हारे
भीतर घटती है।
उसी लयबद्धता
में तुम झुक
जाते हो और
विराट की
लयबद्धता के
साथ एक हो
जाते हो।
तुम्हारी
वीणा विराट की
वीणा के संग
साथ—संगत देने
लगती है।
जुगलबंदी हो
जाती है।
तुममें और
विराट की वीणा
में जरा भी
फासला नहीं रह
जाता, भेद
नहीं रह जाता,
अंतराल
नहीं रह जाता।
तुम्हारे पैर
परमात्मा के
साथ पड़ने लगते
हैं। तुम उसके
साथ नाचते हो,
तुम उसके
साथ मस्त होते
हो, तुम
उसके रस में
डूबते हो।
इसलिए
मंदिरों में
जो
प्रार्थनाएं
की जा रही हैं, और मस्जिदों
में और
गिरजाघरों
में, उन्हें
मैं
प्रार्थना
नहीं कहता हूं।
वे केवल
प्रार्थना की
प्रवचनाएं
हैं।
प्रार्थना के
नाम पर धोखा
हैं।
प्रार्थना के
झूठे सिक्के
हैं वे। असली
सिक्का चुप
होता है। कभी
ऐसे क्षण
तुम्हें आ
जाते हैं, जब
तुम अवाक होते
हों—वें
प्रार्थना के
क्षण है। उन
अवाक क्षणों
में तुम हिंदू
नहीं होते और
मुसलमान नहीं
होते और ईसाई नहीं
होते—सिर्फ
अवाक होते हो।
अवाकता कहीं
हिंदू होती है,
मुसलमान
होती, ईसाई
होती है? सुबह
ऊगते हुए सूरज
को देखकर, या
सफेद बगुलों
की कतार को
उड़ते देखकर, या हवा में
तैरती हुई
फूलों की गंध
को अनुभव करके,
या रात आकाश
को तारों से
भरा देखकर
अवाक नहीं हुए
हो? वही
प्रार्थना है।
क्षण भर को
निस्तब्ध
नहीं हुए हो? वही
प्रार्थना है।
कोयल कुहू—कुहू
करके गीत गाने
लगी है भर
दोपहरी में, एक क्षण को
तुम्हारे
विचारों की
शृंखला नहीं टूट
गयी है? एक
क्षण को
तुम्हारी
धड़कन नहीं रुक
गयी है? उस
कुहू—कुहू ने
एक क्षण को
तुम्हें भर
नहीं दिया है—आपूर
आकंठ? तुम्हें
डुबा नहीं
दिया है—जैसे
बाढ़ आ गयी हो
किसी अज्ञात
लोक से! वही
प्रार्थना है।
या किसी
मनुष्य की आंखों
में झांककर और
क्षणभर को देह
भूल गयी हों—अपनी
भी और उसकी भी।
किसी मित्र का
हाथ हाथ में
लेकर बैठे हो
और वाणी खो
गयी हो, बोलने
को शब्द न
मिलते हों, आंख से आंसू
झरते हों—वहीं
प्रार्थना है।
तुम
शायद सोचते
होओगे मैं
तुम्हें
कहूंगा कि 'रघुपति
राघव राजाराम'
यह
प्रार्थना है।
कि ' अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम', यह
प्रार्थना है।
यह सब
राजनीतिया
हैं। इन सबके
पीछे खेल हैं।
और गंदे खेल
हैं। मस्जिद
से उठती अजान
और मंदिर से
उठते घंटियों
का स्वर, ये
सब खेल हैं, क्रियाकाड़
हैं। वह
पुजारी जो
मंदिर में
घंटा बजा रहा
है, उसके
भीतर कुछ भी
नहीं बज रहा
है। और जिसने
मस्जिद में
जाकर अजान की
है, उसके
भीतर
परमात्मा की
कोई स्मृति
नहीं, कोई
स्मरण नहीं है।
एक कृत्य
दोहरा रहा है।
सदियों से
दोहराया गया
है। संस्कार
है उसे
दोहराने का, दोहरा लेता
है। मूर्ति
देखता है, झुक
जाता है, क्योंकि
बचपन से झुकता
रहा है। एक
तरह की
संस्कारबद्ध
गुलामी पैदा
हो गयी। यह
प्रार्थना
नहीं। चुप्पी
के क्षण, मौन
के क्षण, सौंदर्य
भाव—बोध के
क्षण, प्रीति
की अनुभूति, मैत्री का
भाव, तन्मयता,
विमुखता—इन
शब्दों से मैं
कहना चाहता
हूं कि
प्रार्थना
क्या है। इन
सारे शब्दों
में भी पूरी
नहीं हो जाती,
बस इन
शब्दों में
थोड़े—से इशारे
मिलते हैं।
तुम जानकर
चकित होओगे, हिब्रू भाषा
में
प्रार्थना के
लिए कोई शब्द
नहीं।
रोओ, हंसों, गाओ,
नाचो, पुकारो,
पर
प्रार्थना के
लिए कोई शब्द
नहीं।
क्योंकि
प्रार्थना
शब्दातीत है।
हिब्रू भाषा
ने सदव्यवहार
किया, प्रार्थना
को कोई शब्द
नहीं दिया।
प्रार्थना
क्या—क्या हो
सकती है, उसकी
तरफ इशारे
किये। रोओ, गाओ, नाचो,
हंसों, आनंदमग्न
हो पुकारो, झुकों, गिरो,
असहाय हो
जाओ, अवाक
हो जाओ, विमुग्ध
बनो, तन्मय
हो जाओ, पर
प्रार्थना के
लिए कोई शब्द
नहीं। इन सब
में
प्रार्थना
चुक नहीं जाती,
इन सबसे
सिर्फ इशारे
होते हैं।
प्रार्थना इन
सबसे बड़ी है।
प्रार्थना
इतनी विराट है
जितना विराट
आकाश है।
प्रार्थना
उतनी ही बड़ी
है जितना बड़ा
परमात्मा है।
प्रार्थना
परमात्मा से
छोटी नहीं है,
क्योंकि
प्रार्थना के
क्षण में तुम
परमात्मा के
साथ एक हो
जाते हो।
प्रार्थना का
क्षण सेतु है।
जोड़ता है। तुम
खो गये। भक्त
नहीं बचता। जब
भक्ति
परिपूर्ण
होती है, भक्त
नहीं बचता। और
जब तक भक्त
बचता है तब तक
भक्ति
परिपूर्ण नहीं
है।
शांडिल्य
ने इसी को
भक्ति के दो
रूप कहा। एक
को गौणी—
भक्ति कहा और
एक को
पराभक्ति कहा।
जब तक भक्त
बचता है, तब
तक गौणी—
भक्ति।
नाममात्र को
भक्ति।
वस्तुत: नहीं,
कहने मात्र
को भक्ति।
भक्ति जैसी
लगती है, इसलिए
भक्ति कहा, मगर भक्ति
है नहीं। अभी
भक्त मौजूद है,
भक्ति कहां?
जब भक्त खो
गया, तब
पराभक्ति। तब
असली भक्ति, भगवान ही
बचा! तो
प्रार्थना
उतनी ही बड़ी
है जितना
परमात्मा है।
और तुम
अगर
प्रार्थना को
समझना ही चाहो, तो
प्रार्थना
करनी पड़ेगी, प्रार्थना
होना पड़ेगा।
मेरे समझाने
से नहीं होगी
बात। जब भी मन
को तरंगित पाओ—
और ऐसे क्षण
सभी को आते
हैं, मगर
हम चूक—चूक
जाते हैं। अब
प्रार्थना के
लिए कोई समय
तय मत कर लेना।
ऐसा मत कर
लेना कि रोज
सुबह स्नान
करके प्रार्थना
करेंगे।
जरूरी नहीं है
कि स्नान के
बाद तुम्हारे
मन में प्रार्थना
की तरंग हो ही।
प्रार्थना को
निर्धारित मत
कर लेना।
प्रार्थना कब
आ जाएगी, कब
अचानक बादल फट
जाएंगे और
आकाश खुलेगा,
कोई नहीं
जानता—सुबह कि
सांझ, कि
भर दुपहर, कि
आधी रात! जब भी
ऐसा हो जाए कि
मन तन्मय हो, जब भी ऐसा हो
जाए कि मन में
कोई विचार न
हों, जब भी ऐसा
हो जाए कि मन
में कोई
ऊहापोह न चलता
हो, बवंड़र
न उठते हों, आधिया न हों,
तरंगें न
हों, लहरें
न आती हों— और
ऐसे क्षण सब
को आते हैं, मैं फिर
दोहरा दूं—जब
ऐसे क्षण आएं,
तब झुक जाना।
तब तुम क्या
बोलोगे, इसकी
बताने की
जरूरत नहीं।
कुछ बोलने
जैसा आ जाए तो
बोल लेना, कुछ
कहने का मन हो
जाए तो कह
देना, कोई
शब्द भीतर
दोहरने लगे तो
दोहरा लेना, कोई गीत की
कड़ी गूंजने
लगे तो गूंज
जाने देना, मगर चेष्टा
करके मत करना
ऐसा। ऐसा मत
करना कि अब
राम—राम
दोहराऊं। उसी
दोहराने में
मर जाएगी
प्रार्थना।
प्रार्थना
बड़ी कोमल है, तन्वंगी है।
यह राम—राम का
पत्थर तुमने
पटका कि मर
जाएगी। तुम
कोशिश मत करना।
ही, भीतर
से उठने लगे
राम— राम, अनायास
हो जाए, तो
हो जाने देना।
फिर ठीक है।
अपने से जो हो,
ठीक है, किया
जाए, वही
गलत है।
प्रार्थना के
जगत में यह
नियम है—अपने
से जो हो जाए।
कभी—कभी
अनर्गल शब्द
उठ सकते हैं।
बच्चे, जैसे
छोटे—छोटे
बच्चे कुछ भी
शब्द पकड़ लेते
हैं, दोहराए
चले जाते हैं—कभी
वैसा हो सकता
है।
प्रार्थना
में तो
निर्दोष
बच्चे जैसा हो
जाना है। या
जैसे कभी
तुमने
शास्त्रीय
संगीतज्ञों
को आलाप भरते
देखा है, वैसा
आलाप पैदा हो
सकता है—जिसमें
कोई शब्द भी
नहीं है, सिर्फ
स्वर है। या
सब सन्नाटा हो
सकता है।
प्रार्थना
बड़ी है, सबको
समा लेती है, किसी एक
घटना में
सीमित नहीं है।
कभी सन्नाटा
हो जाएगा इतना
कि हाथ— पैर भी
न हिलेगे। और
कभी ऐसा हो
जाएगा ऐसी
ऊर्जा उतरेगी
कि नाचे बिना
नहीं चलेगा।
फिर जैसा हो!
कभी बुद्ध की
तरह बैठना हो
जाए, तो
बैठ जाना, कभी
मीरा की तरह
नाचना हो जाए,
तो नाच लेना।
चेष्टा करके
नाचना भी मत, चेष्टा करके
बैठना भी मत।
जब तक कृत्य
है तब तक
प्रार्थना
नहीं, क्योंकि
कृत्य में
कर्ता है। और
कर्ता में
अहंकार है।
तुम सिर्फ खुल
जाना। जैसे
सुबह की हवा
आती है और फूल
को नचा जाती
है। और सुबह
का सूरज उगता
है और फूल की
पंखुडिया खिल
जाती हैं—बस
ऐसे! तुम
उपलब्ध रहना।
तुम परमात्मा
कुछ करना चाहे
तो होने देना,
कुछ न करना
चाहे तो
चुपचाप जैसे
हो वैसे ही रह जाना।
जल्दी ही
तुम्हें
प्रार्थना का
स्वाद लगने
लगेग।
प्रार्थना
स्वाद है।
शब्द नहीं, विचार नहीं,
प्रत्यय
नहीं, सिद्धांत
नहीं, प्रार्थना
स्वाद है।
तुम्हारे
भीतर एक मिठास
भर जाएगी।
जैसे भीतर कोई
मधुकलश फूट
गया, रोएं—रोएं
में मस्ती आ
गयी। आंखें
गुलाबी हो
जाएंगी, जैसे
नशे में हो जाती
हैं। पैर कहीं
के कहीं
पड़ेंगे, जैसे
शराबी के पड़ते
हैं। इन
क्षणों की
प्रतीक्षा
करो। ये क्षण
आते हैं। ये
छोटे—छोटे
क्षण हैं। और
अगर तुम पकड़
लो क्षण को, तो क्षण बड़ा
हो जाएगा।
जैसे
बसंत में सारे
वृक्ष खिल
जाते हैं, ऐसे ही इन
प्रार्थनाओं
के क्षणों में
हृदय के फूल
खिलते हैं।
कठिनाई क्या
हो गयी, हमने
नियम बना लिये
हैं। रोज
उठेंगे, स्नान
करके
प्रार्थना कर
लेंगे। जैसे
और कृत्य हैं—स्नान
है, भोजन
है, नाश्ता
है, ऐसा
प्रार्थना भी
एक कृत्य है।
प्रार्थना
ऐसी छोटी बात
नहीं।
प्रार्थना को
तुम मुट्ठी
में बंद न कर
सकोगे। आधी
रात उठ सकती
है। बिस्तर पर
पड़े थे और उठ
आयी। तो बैठ
जाना! या पड़े
रहना। सोचने—विचारने
में भी पड़ने
की जरूरत नहीं
है कि अब मैं
क्या करूं? जो हो होने
देना—सहजस्फूर्त।
और तुम
पराभक्ति को
जल्दी ही जान
लोगे।
ऐसा मत
सोचो कि
परमात्मा ने
तुम्हें छोड़
दिया है।
परमात्मा अभी
भी तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता है।
परमात्मा
निराश नहीं
हुआ है।
परमात्मा अब
भी तुम्हें
तलाशता आता है, टटोलता आता
है, मगर
तुम्हें कभी
घर पाता ही
नहीं। तुम सदा
कहीं गये होते
हो। तुम वहां
होते ही नहीं।
परमात्मा के
आने के क्षण
प्रार्थना के
क्षण हैं। और
परमात्मा सहज
ही आता है।
मगर वे क्षण
बड़े छोटे—छोटे
हैं—पकड़ लो
उन्हें तो
लंबे हो
जाएंगे, जिंदगी
पर फैल जाएंगे,
धीरे— धीरे
बड़े होने लगौ।
और एक घड़ी ऐसी
आती है कि
चौबीस घंटे
प्रार्थना
में डूब जाते
हैं। उसी क्षण
भक्त भगवान हो
जाता है। मगर
सहज—स्फूर्तता
पर ' स्पांटेनिटी'
पर मेरा जोर
है। किसी धर्म
की बंधी—बधायी
प्रार्थना मत
करना।
जीसस
से उनके
शिष्यों ने एक
दिन पूछा कि
हमें समझाएं
कि प्रार्थना
क्या है—जैसा
तुमने पूछा है।
जीसस ने क्या
किया पता है? जीसस वहीं
घुटने टेककर
जमीन पर झुक
गये। शिष्य तो
खड़े रहे गये
कि यह क्या हो
रहा है? और
जीसस
प्रार्थना
करने लगे। वे
भूल ही गये उन
शिष्यों को और
भूल गये उस
नगर को, भूल
गये सड़क पर
लोगों की भीड़
को, भीड़
खड़ी हो गयी और
जीसस भाव—मुग्ध,
आकाश की तरफ
देखकर न—मालूम
किससे बातें
करने लगे।
प्रार्थना है
उससे बातचीत,
जो दिखायी
नहीं पड़ता।
प्रार्थना
है उससे
बातचीत जिससे
उत्तर कभी आता
मालूम नहीं
पड़ता।
प्रार्थना है
उससे बातचीत
जो पता नहीं
है भी या नहीं
है।
पागल
मालूम पड़े
होंगे जीसस।
मगर उनकी आंख
से आंसू बहे
जा रहे हैं!
उनकी मस्ती
देखते बनती
है! उनके
आसपास खड़े हुए
लोगों पर भी
थोड़ा रस छलका
है। उन्हें भी
कुछ द्वार
खुलता—सा
दिखायी पड़ा है।
एक सन्नाटा छा
गया। बाजार
में एक शून्य
उतर आया।
इसीलिए तो मैं
कहता हूं
बाजार को
छोड्कर मत भागो, बाजार में
हिमालय को ले
आना है।
चुप्पी हो गयी।
और जब जीसस
उठे तो
रूपांतरित थे।
उनके चेहरे पर
एक आभा थी, जो
इस पृथ्वी की
नहीं है। और
उन्होंने
पूछा अपने
शिष्यों से—समझें?
शिष्यों ने
कहा—क्या खाक
समझे! हमने
पूछा था
प्रार्थना
क्या है, आप
तो प्रार्थना
करने लगे!
इससे हम क्या
समझेंगे? समझाइये।
जीसस ने कहा, और कोई उपाय
नहीं है।
मैंने
प्रार्थना
में होकर बता
दिया।
तुम भी
ऐसे ही
प्रार्थना
में हो जाओ।
जानोगे तो ही
जानोगे, कोई
और न जना
सकेगा।
इस
परिवार में, इस गैरिक
परिवार में हम
यही कोशिश कर
रहे हैं। यहां
प्रार्थना चल
रही है। नाच—
गान चल रहा है।
इसमें
सम्मिलित हो
जाओ। पूछा—पाछी
छोड़ो, कि
प्रार्थना
क्या है? प्रार्थना
चल रही है, उसी
रौ में बहो।
उस धार के साथ
हो लो, जल्दी
ही तुम डुबकी
खाआगे। डुबकी
खाओगे तो
जानोगे। रस
में भीगोगे तो
जानोगे।
और
तुमने यह भी
पूछा है कि
क्या
प्रार्थना
केवल अपने लिए
है? प्रार्थना
होती ही तब है
जब तुम नहीं
होते हो, तो
अपने लिए ही
तो कैसे हो
सकती है? बुद्ध
ने कहा है, जो
ध्यान, जो
प्रार्थना
अपने लिए हो, वह झूठ हो
गयी। गलत हो
गयी, विकृत
हो गयी, जहरीली
हो गयी।
प्रार्थना
सदा समग्र के
लिए है। वहीं
तो भूल हो रही
है, तुम जब
जाते हो मंदिर
में, अपने
लिए कुछ मांग
लेते हो। वहीं
चूक हो रही है।
एक
प्रसिद्ध झेन
फकीर हुआ है
नान इन। उसके
पास एक
व्यक्ति आता
था, नान इन
उसे
प्रार्थना
सिखाता था।
प्रार्थना, बौद्धों की
प्रार्थना
में यह
अनिवार्य
हिस्सा है कि
पहले
प्रार्थना, भाव— गदगद हो
जाओ, और
फिर कहो कि जो
भी इस
प्रार्थना
में मुझे आनंद
मिला है, वह
समस्त पृथ्वी
पर फैल जाए, सभी
दुखीजनों को
मिल जाए। मेरे
पास रुके नहीं,
सब पर फैल
जाए। यह बौद्ध
प्रार्थना का
अनिवार्य
हिस्सा है।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा :
ध्यान हो और
करुणा में संपूर्ण
न हो, करुणा
में पर्णू न
हो, तो
ध्यान हुआ ही
नहीं। इस आदमी
ने, जो नान
इन के पास आता
था, इसने
कहा और सब तो
ठीक है, सारी
पृथ्वी पर मैं
अपने ध्यान की
संपदा को बांट
सकता हूं
लेकिन एक थोड़ी
आज्ञा चाहता
हूं कि मेरे
पड़ोसी! यह मैं
प्रार्थना
नहीं कर सकता
कि उसको मेरा
आनंद मिल जाए!
यह पड़ोसी को
मैं बर्दाश्त
नहीं कर सकता
हूं। और मैं
प्रार्थना
करूं और मेरा
आनंद इसको मिले!
इसको छोड्कर
सारी पृथ्वी
को मिल जाए, यह मैं कह
सकता हूं।
नान इन
हंसने लगा, उसने कहा : पागल!
यह सवाल
पृथ्वी का
नहीं है, यह
सवाल 'मैं'—
'तू ' को
छोड़ने का है।
तू प्रार्थना
में भी ऐसी
कंजूसी करेगा,
कि इस पड़ोसी
को छोड्कर और
सब को मिल जाए!
तो तू समझा ही
नहीं कि
प्रार्थना
क्या है।
प्रार्थना
में 'मैं' ही नहीं
बचता, इसलिए
प्रार्थना
केवल अपने लिए
ही नहीं हो सकती।
सुनो
इन शब्दों को—
कौन—सी
रात थी जो
अश्क बहाते न
कटी
कौन—सा
दिन गमे—फरदा
में गुजारा न
गया
कब
तबस्सुम मेरा
अश्कों से
संवारा न गया
अग्र—रहमत
से भी किस्मत
की सियाही न
छुटी
आसमां
चांद—सितारों
से संवरता ही
रहा
धुल
सका फिर भी न
तारीक खलाओं
का गुबार
बन न
पायी कोई
तसवीर हसीन—ओ—जरकार
नूर हर
जर्रए— अलम पै
बिखरता ही रहा
छीन भी
लेता है तू
मुझसे अगर गम
अपना
तेरे
गम के सिवा गम
हाय दिगर और
भी हैं
मजरे—दर्द
अभी मुहताजे—नजर
और भी हैं
इतनी
महदूद नहीं
मेरे दुखों की
दुनियां
अगर
तुम्हारा दुख
छिन भी जाए—निश्चित
छिन जाएगा—प्रार्थना
में कोई कभी
दुखी हुआ नहीं।
प्रार्थना
में कहां दुख? जैसे रोशनी
में कहां
अंधेरा? प्रार्थना
में तुम्हारा
दुख तो छिन ही
जाएगा। उस घड़ी
को चूकना मत, उस घड़ी को
बांटने की घड़ी
समझना। अब एक
छलांग और भरना
और इस सारे
आनंद को बिखेर
देना। इस सारी
सुवास को
बिखेर देना।
फूल जब खिलता
है, तो गंध
को बांधकर
थोड़े ही रखता
है। फिर गंध
बंट जाती है।
वही तो फूल का
खिलना है, वही
तो उसका
सौभाग्य है।
और जब आषाढ़ के
बादल घिरते
हैं तो बरसते
हैं। वही उनका
सौभाग्य है।
खाली हो जाने
में ही उनकी
पर्णूता है।
जब ज्ञान
जन्मता है तो
ज्ञान बंटता
है। जब आनंद
जन्मे तो आनंद
बंटे। हम अलग—
अलग नहीं हैं,
हम संयुक्त
हैं, हम सब
जुड़े हैं। 'मैं '— 'तू ' के सारे भेद
कल्पित हैं, झूठे है।
मजरे—दर्द
अभी मुहताजे—नजर
और भी हैं।
अभी और
भी दुखों के
बहुत दृश्य
हैं और अभी
बहुत हैं जो
तेरे दर्शन के
लिए दुखी हैं—और
प्यासे हैं और
पीड़ित हैं।
मजरे—दर्द
अभी मुहताजे—नजर
और भी हैं
इतनी
महदूद नहीं
मेरे दुखों की
दुनिया
मेरे
दुखों की
दुनिया मुझ तक
ही सीमित नहीं
है, इतनी
छोटी नहीं है,
इतनी कृपण
नहीं है। सब
के दुख मेरे
दुख हैं।
प्रार्थना
के क्षण में
यह भाव तो
उठेगा ही।
मेरा दुख मिटा, क्योंकि मैं
मिटा, हे
प्रभु, सबके
दुख मिटें! सब
मिट जाएं।
सबके अहंकार
गले। सब पिघल
जाएं। जब
तुममें स्वर
वह उतरने लगे,
तो तुम
कंजूसी मत कर
लेना। अगर
कंजूसी की, स्वर्ग का
गला घुट जाएगा।
स्वर्ग बाटने
से बढ़ता है, बचाने से घट
जाता है। आनंद
बाटने से बढ़ता
है, रोक
लेने से मर जाता
है। आनंद को
उड़ने देना, फैलने देना,
सुगंध की
भांति। जाने
देना दूर—
दिगंत तक। और
तुम्हारी
प्रार्थना
रोज—रोज घनी
होगी, रोज—रोज
गहरी होगी। और
जल्दी ही तुम
पाओगे, तुम्हारे
बीच और
परमात्मा के
बीच जरा— भी
अंतराल नहीं
रहा, जरा—
भी दूरी नहीं
रही। तुम उसके
हृदय के अंग
हो गये, वह
तुम्हारे
हृदय का अंग
हो गया है।
दूसरा
प्रश्न :
अहंकार
के पास भी कोई
संजीवनी है
क्या? जो
कि मरते—मरते
भी जी— जी जाता
है—जाने कहां
से, जाने
कैसे, जाने
क्यों?
प्रताप!
अहंकार
के पास कोई
संजीवनी नहीं
है।
न तो
अहंकार जी
सकता है, न मर
सकता है। जीने—मरने
की भाषा
अहंकार पर
लगाना ही मत।
अंधेरा कहीं
जीता है, अंधेरा
कहीं मरता है?
अंधेरा
होता ही नहीं,
तो जीएगा
कैसे, मरेगा
कैसे? अंधेरा
अभाव है। ऐसे
ही अहंकार
अभाव है।
तुमने
परमात्मा को
नहीं जाना, यही तुम्हें
अहंकार को
पैदा करने का
कारण बन गया
है।
अहंकार
प्रतीति है
परमात्मा के
गैर—मौजूदगी
की। परमात्मा
नहीं है, इसलिए
'मैं ' हूं।
यह 'मैं' उठता रहेगा,
अगर तुम
इसको गिराने
की कोशिश
करोगे—क्योंकि
गिराने में भ्रांति
बनी ही हुई है।
तुमने यह बात
नहीं देखी अभी
तक कि अहंकार
है ही नहीं।
जब कोई पूछता
हैं, अहंकार
को कैसे
मिटाऊं, तो
गलत प्रश्न
पूछता है।
पूछना चाहिए,
अहंकार को
कैसे जानूं कि
यह क्या है? गिराना, मिटाना,
तो लड़ना
शुरू हो गया।
और जो नहीं है,
उससे लड़ोगे
तो हारोगे।
अपनी छाया से
कोई लड़ने
लगेगा तो
जीतेगा क्या कभी?
मैंने
सुना है, एक
आदमी अपनी
छाया से बहुत ड़र
गया था। रात
अंधेरे में
चलता होगा, रास्ते के
किनारे, लैंपपोस्ट
के नीचे अपनी
छाया देखी, एकांत था, अंधेरा था, बहुत घबड़ा
गया, कि
कौन मेरा पीछा
कर रहा है? भागने
लगा। पागल ही
रहा होगा—जैसे
आदमी पागल
होते हैं!
भागने लगा तो
अपने ही पैरों
की आवाज पीछे
से आती हुई
मालूम होने
लगी। कभी एकांत
में मरघट पर
भागे हो? तो
अपने ही पैरों
की आवाज ऐसी
लगती है कि
कोई पीछे आ
रहा है, किसी
के पैरों की
आवाज आ रही है।
और जब पीछे
कोई आ रहा है
तो लौट कर देखना
भी मुश्किल हो
गया। कि पता
नहीं कौन है? भूत हो कि प्रेत
हो, कि चोर
हो कि हत्यारा
हो? वह और
जोर से भागा, प्राण
छोड्कर भागा।
जितना भागने
लगा, उतने
ही जोर से
भीतर पीछे की
आवाज भी बढ़ने
लगी—कोई पीछा
भी करने लगा।
इस तरह
तो तुम
मुश्किल में
पड़े हो। जरा
लौटकर देखो, पीछे कोई भी
नहीं है। अपनी
ही छाया से
भयभीत हो गये
हो। और जिसे
तुम मिटाने
चले हो, पहले
यह तो जान लो
वह है भी या
नहीं? नहीं
तो तलवारें
उठाकर अगर
छायाओं से
लड़ने लगे, तो
खतरा यही है
कि आज नहीं कल
तलवारों से
अपने ही हाथ—पैर
काट लोगे।
छाया तो कटने
से रही! और यह
हो सकता है कि
अपने हाथ—पैर
काटकर
तुम्हें यह भी
आनंद आए कि
देखो, छाया
का एक हाथ काट
दिया, कि
देखो छाया का
एक पैर काट
दिया—लंगड़ी कर
दी छाया! मगर
छाया लंगड़ी
नहीं हो रही है
तुम लंगड़े हो
गये हो।
तुम्हारे
त्यागी, व्रती
और मुनि इसी
तरह लंगड़े हो
कर बैठ गये हैं।
अपने को ही
काट लिया है, काटने
अहंकार को चले
थे; खुद को
ही मुर्दा बना
लिया है। जड़
हो गये हैं।
जीवन
की तरंग
दिखायी पड़ती
है तुम्हें
तुम्हारे
मुनियों में, तुम्हारे
तपस्वियों
में? मौत
छायी हुई
मालूम होती है।
क्या हो गया
है इन्हें? मस्ती कहां
है? और जो
ज्ञान नाचता न
हो, वह
ज्ञान कैसा? अज्ञानी
दुखी है, समझ
में आता है, तानी क्यों
दुखी है? अज्ञानी
पीड़ित है, परेशान
है, नर्क
में जी रहा है,
समझ में आता
है, मगर ये
तुम्हारी
ज्ञानी, ये
अज्ञानी से भी
ज्यादा पीड़ित
और दुखी मालूम
पड़ते हैं।
अज्ञानी कभी
हंसता भी है, ये तो हंसते
भी नहीं।
अज्ञानी कभी
थोड़ी मस्त चाल
भी चल लेता है,
क्षणभंगुर
ही सही, लेकिन
ये तो क्षणभर
के लिए भी
मस्त चाल नहीं
चलते। ये पहाड़
ढो रहे हैं।
और ये लंगड़े
हो गये हैं।
पक्षाघात
इन्हें लग गया
है। उन्होंने
अपने ही हाथ—पैर
काट लिये हैं।
मगर ये मजा ले
रहे हैं कि
हाथ—पैर काट
कर इन्होंने
अहंकार को काट
दिया है, छाया
को काट दिया
है। भूलकर इस
भ्रांति में
मत पड़ना।
छाया
को काटने की
जरूरत ही नहीं, इतना समझ
लेना
पर्याप्त है
कि छाया छाया
है। बस, इस
समझ में ही
छाया का अंत
हो गया। इस
समझ में ही
छाया की तुम
पर जकड़ खो गयी।
तुम
पूछते हो—अहंकार
के पास कोई
संजीवनी है
क्या? अहंकार
के पास कोई
संजीवनी नहीं
है। लेकिन
तुमने अहंकार
को कभी आमने—
सामने करके
देखा नहीं, बस यही उसका
बल है।
मूर्च्छा, तुम्हारी
मूर्च्छा
अहंकार का बल
है, और
तुम्हारी
जागृति
अहंकार की
मृत्यु हो जाएगी।
जागकर जरा
देखो भी किसे
तुम अहंकार कह
रहे हो? कभी
आंख खोलकर
भीतर तलाशो कि
अहंकार कहां
है? और तुम
नहीं पाओगे—कभी
किसी ने नहीं
पाया; मैंने
खोजा और नहीं
पाया; और
जिन्होंने भी
खोजा
उन्होंने
नहीं पाया।
भीतर जाओगे, जरा तलाश
करोगे, तुम
चकित हो जाओगे—किससे
भयभीत थे, किससे
लड़ते थे, दुश्मन
तो कहीं
दिखायी नहीं
पड़ता।
लेकिन
तूमने अहंकार
तो खोजा नहीं
है, तुमने
संतों की
बातें सुन ली
हैं। साधु—सत्संग
तुमने कर लिया।
तुम
वेद—उपनिषद—गीता—
कुरान पढ़ लिये
हैं, और उन
सब में कहा
गया है : जब तक
अहंकार
समाप्त न हो, तब तक
परमात्मा का
अनुभव न होगा।
इन बातों को
सुनकर
तुम्हें लोभ
पकड़ा कि
अहंकार को
समाप्त करें।
और ध्यान रखना,
शास्त्रों
में जो कहा है,
गलत नहीं
कहा, बिलकुल
ठीक कहा है, कि जब तक
अहंकार
समाप्त न हो, तब तक
परमात्मा का
अनुभव नहीं
होगा। लेकिन
तुम जो समझ
रहे हो, वह
नहीं कहा है।
यह नहीं कहा
है कि अहंकार
को काटो, मारो,
अहंकार को नष्ट
करो, तब
परमात्मा
मिलेगा। इतना
ही कहा है कि
जानो तो
अहंकार
समाप्त हो जाता
है। जानने में
समाप्ति है।
दिया जला लो
जरा ध्यान का,
या
प्रार्थना का,
जरा नाच
होने दो, उसी
रोशनी में
अहंकार नहीं
हो जाता है, समाप्त हो
जाता है।
काटने से नहीं
कटता, देखने
से कट जाता है।
और जहा अहंकार
कट गया, वहां
परमात्मा
विराज मान हो
जाता है।
ठीक
कहा है
शास्त्रों ने, लेकिन तुम
शास्त्रों को
समझते वक्त भी
तो अपने ढंग
से ही समझोगे
न! तुम
व्याख्या
अपनी ही थोपोगे
न! तुम्हारा
शास्त्र, तुम्हारे
ही भीतर जो
पड़ा हुआ है
उसकी गूंज बन जाता
है। तुम्हारा
शास्त्र वह
नहीं कह पाता
जो कहना चाहता
है, वही
तुम समझ लेते
हो तुम समझ
सकते हो।
एक
स्कूल में एक
शिक्षिका ने
एक बच्चे से
पूछा... समझाया
बहुत उसने
हाथी के संबंध
में, कि हाथी
सबसे
विशालकाय
जानकर है।
हाथी की कई
कहानिया
बतायीं।
पंचतंत्र की
पुरानी कहानी
बतायी कि एक
बार सिंह को
यह सनक सवार
हुई कि जाकर
लोगों से पूछ
लूं कि जंगल
का राजा कौन
है? शायद
चुनाव हो रहा
होगा आदमियों
में कहीं! गांव
से खबरें आ
गयी होंगी कि
वहा चुनाव हो
रहा है। उसको
भी वहम पकड़ा
होगा कि पता
नहीं मुझे लोग
राजा मानते
हैं या नहीं
मानते हैं?—जमाने बदल
गये, अब
राजा रहे नहीं।
पूछूं एक बार,
मत ले लूं
जंगल के
जानवरों का।
उसने लोमड़ी से
पूछा कि मैं
राजा हूं या
नहीं, कौन
है राजा? लोमड़ी
ने कहा, आप
को भी शक होने
की बात है
क्या? आप
राजा हैं, सदा
से राजा हैं, सदा राजा
रहेंगे।
यह
पागल आदमियों
की फिक्र छोड़ो, हम इस झंझट
में नहीं पड़ते,
हम
लोकतंत्र
इत्यादि में
नहीं मानते।
तुम
राजाधिराज, तुम महाराजा
हो! और किसी से
पूछा, और
किसी से पूछा,
और फिर हाथी
से जाकर पूछा,
कि गजराज, तुम्हारा
क्या खयाल है?
इस जंगल का
सम्राट कौन है?
हाथी ने
सिंह को अपनी
सूंड़ में
फंसाया और कोई
तीस फीट दूर
उठाकर फेंक
दिया। एक
चट्टान से
उसका सिर
टकराया, जमीन
से उठकर उसने
धूल झाड़ी और
हाथी से कहा
कि यह भी खूब
रही, अगर
तुम्हें ठीक
उत्तर मालूम
नहीं, तो
कह देते! इतना
नाराज हो जाने
की क्या जरूरत
थी?
यह
कहानी
शिक्षिका ने
बच्चों को
सुनायी और फिर
बच्चों से
पूछा—और भी
कहानिया
सुनायी, यह
बात उनके मन
में बिठाने को
कि हाथी बड़ा
शक्तिशाली
हैं—फिर एक
छोटे से बच्चे
से पूछा कि तू
बता लालू? कि
सिंह किससे ड़रता
है? उस
बच्चे ने खड़े
होकर कहां, सिहिनी से।
बच्चों
की अपनी समझ
है। वह देखता
है कि हर आदमी
स्त्री से ड़रता
है। पिता मां
से ड़रते हैं, भाई भाभी से ड़रते
हैं, हर
आदमी स्त्री
से ड़रता है!
उसने अपना एक
निष्कर्ष
लिया हुआ है
कि सिंह और
किससे ड़रेगा?
वह सब
कहानिया
वगैरह जो
सुनायी थीं
हाथी की, व्यर्थ
गयीं। उसकी
अपनी समझ है।
वह अपनी समझ
से ड़गमग नहीं
होता। उसने अपना
एक निर्णय कर
लिया है।
तुम जब
शास्त्र पढ़ते
हो, तुम अपनी
समझ से ड़गमग
नहीं होते।
तुम शास्त्र
में अपनी समझ
थोप देते हो।
और
शास्त्र को
पढ़कर तुम्हें
ज्ञान तो हो
ही नहीं सकता।
शास्त्र को
पढ़कर कहीं
किसी को शान
हुआ है। लेकिन
लोभ होता है।
लोभ से झंझट
खड़ी हो जाती
है। शास्त्र
में सुना—या
सदगुरु से
सुना, शास्ता
से सुना कि
अहंकार छूट
जाए तो
परमात्मा मिल
जाए, परमात्मा
मिलने का लोभ
तुम्हारे
भीतर पकड़ता है,
कि किसी तरह
परमात्मा पा
लूं।
परमात्मा
पाने के लोभ
में अब तुम इस
कोशिश में लग
जाते हो—
अहंकार को
छोड़ना पड़ेगा,
अहंकार
कैसे छोडूं? कैसे मिटाऊं,
कैसे लडूं?
कैसे झगडू?
उपवास करके
मार डालूं
अहंकार को, घर छोड़ दूं? त्याग करके
मार डालूं
अहंकार को, क्या करूं? बस, उपद्रव
शुरू हो गया।
समझ तो पैदा
नहीं हुई, लोभ
ने और नासमझी
खड़ी कर दी।
अहंकार
मिटता है, मिटाने से
नहीं, देखने
से।
साक्षात्कार
से, बोध से,
समझ से।
अहंकार को
समझो। और
समझने के लिए
जरूरी है कि
तुम अहंकार से
भागो भी मत।
क्योंकि
भागने वाला
समझ नहीं सकता।
भयभीत आदमी
कभी नहीं समझ
सकता। जिससे
तुम भयभीत हो
गये, उसे
तुम कभी आंख
भरकर देख भी न
पाओगे। जिससे
तुम भयभीत हो,
उससे तुम आंखें
बचाने लगते हो।
जिससे तुम ड़र
गये, उससे
तुम भागने
लगते हो, छिपने
लगते हो, बचने
लगते हो।
तो मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
अहंकार से भागो
भी मत, अहंकार
को जीओ। है
अभी, तो
जीओ! क्योंकि
जीने से ही
देखा जा सकेगा।
छिपाओ मत, अनुभव
करो। जहां—
जहा अहंकार
सिर उठाता है,
उस सिर
उठाने को जीओ।
झुठलाओ मत।
ऊपर—ऊपर से
झुकों मत, यह
मत कहो कि मैं
तो विनम्र
आदमी हूं; भीतर
अहंकार सिर
उठा रहा है, उसकी तरफ
पीठ किये खड़े
हो, ताकि
दिखायी नहीं
पड़ेगा; न
दिखायी पड़ेगा,
न पता चलेगा;
इस तरह भूल—
भूलकर एक दिन
समाप्त हो
जाएगा। यह
शुतुरमुर्गी—न्याय
काम नहीं
करेगा।
कहते
हैं, शुतुरमुर्ग
का दुश्मन जब
उस पर हमला
करता है तो वह
रेत में सिर
गपा कर खडा हो
जाता है। उस
का तर्क यह है
कि न दिखायी
पडेगा दुश्मन,
न होगा। जो
दिखायी पड़ता
है, वही है।
जो दिखायी
नहीं पड़ता है,
वह कैसे हो
सकता है? यही
तो नास्तिक
कहते हैं। वे
कहते हैं, ईश्वर
दिखायी नहीं पड़ता,
तो होगा
कैसे? दिखा
दो, तो मान
लें। उनका
तर्क भी
शुतुरमुर्ग
का तर्क है।
शुतुरमुर्ग
सिर को रेत
में गडा लिया
है, अब वह
कहता है कि
दिखायी ही
नहीं पड़ता
दुश्मन, तो
हो ही नहीं
सकता। लेकिन
दिखायी पड़ने
से होने की
कोई
अनिवार्यता
नहीं है।
तुमने आंख बंद
कर ली है, इसलिए
दिखायी नहीं पड़ता
है। जिनको तुम
विनम्र कहते
हो, निर—अहकारी
कहते हो, साधु
कहते हो, अक्सर
ऐसे ही लोग
हैं, जिन्होंने
शुतुरमुर्ग
की तरह रेत
में सिर गडा
लिया है। मैं
तुमसे यह नहीं
कहूंगा।
शुतुरमुर्ग
होने से बचना!
शुतुरमुर्ग
काफी हैं इस
समाज में। इस
देश में तो
बहुत! इस देश
में तो
शुतुरमुर्ग इस
तरह फैल गये
हैं कि हर जगह
उन्होंने
अड्डा जमा
लिया है। वे
हमेशा हाथ
जोड़े खड़े हैं,
हमेशा झुके खड़े
हैं, और
भीतर भयंकर
अहंकार की ज्वाला
जल रही है।
इनसे बचना। और
ऐसे बनने से
बचना। मैं
तुमसे कहता
हूं,
अहंकार को जीओ।
अहंकार पीडा
लाएगा, शुभ
है; क्योंकि
पीडा से ही
कोई जागता है।
अहंकार
तुम्हें
जलाएगा, शुभ
है; दग्ध
करेगा, शुभ
है। अहंकार
तुम्हारे
भीतर घाव
बनाएगा, शुभ
है। क्योंकि
यही सारे घाव,
ये सारी
पीडाएं, ये
सारे नर्क झेल—झेल
कर ही एक दिन
तुम्हें
अहंकार की समझ
आएगी कि
अहंकार है
क्या? उस
समझ में ही
अहंकार
तिरोहित हो
जाता है।
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहा है?
नील—नीलम
नभ निमंत्रण
दे किसी को
तो करे
इनकार कैसे
आंख
जिनके, हो
न उनको चांद—सूरज
की
किरण से प्यार
कैसे
ठीक है, दिल पास
रखता हूं
समझता
हूं
सभी कुछ, आज
लेकिन,
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहा है?
आसमानी
स्वप्न
ललचाते उसे
हैं
भूमि
जिसकी जन्म—गोदी,
आग से
खिलवाड़ करने
को तरसता
ही सदा
है जल—विनोदी,
और फिर
डैने मिले,
इनको
थका आ, तोड़
आ, चाहे
जला आ,
बेदिये
कीमत यहां
वरदान कोई
मुफ्त में
पाता कहा है?
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहा है?
है ठहर
तब तक फलक पर
जब तलक है
जोर
बाजू का सलामत,
बिजलियों
की हर लहर, जैसे जमीं
की
और गिरने
की अलामत,
दग्ध
पर की, दग्ध
स्वर की कद्र
केवल
एक
धरती जानती है
लाख
आकर्षित किसी
को भी करे
आकाश अपनाता कहां
है?
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहां है?
अहंकार
से मुक्त होने
के लिए पहले
अहंकार को जी
लेना जरूरी है।
अहंकार को
फैलाने दो
डैने खोलने दो
पंख, उड़ने दो
आकाश में।
अहंकार को
अपनी यात्रा
कर लेने दो।
धन की, पद
की, सब तरह
की। जल्दी न
करो। अहंकार
जो करना चाहता
है, उसे
करने दो। उसी
करने में ही
तो तुम अहंकार
को पहचानोगे।
उसी करने में
ही तो अहंकार
से तुम्हारी
समझ का नाता
जुड़ेगा।
आसमानी
स्वप्न
ललचाते उसे
हैं
भूमि
जिसकी जन्म—गोदी
चुनौतिया
हैं! हम जमीन
पर जन्में हैं, आकाश का
निमंत्रण और
चुनौती हमें
मिलती है। हम
वही तो पाना
चाहते हैं जो
हम नहीं हैं।
यही तो सारा
संसार है—हम
वही पाना
चाहते हैं जो
हम नहीं हैं।
और हम पा केवल
वही सकते हैं
जो हम हैं।
यही तो उपद्रव
है। यही तो
सारा गणित है।
जो हमारा नहीं
है, उसे हम
पाना चाहते
हैं। और उसे
हम कभी पा न
सकेंगे। जो
हमारा है, वह
मिला ही हुआ
है। उसे पाने
की कोई जरूरत
नहीं है। मगर
जो हमारा नहीं
है और उसे
पाने की आकांक्षा
है अभी,
उसके पीछे
दौड़ना होगा, दौड़ना होगा
और गिरना होगा,
फिर उठना
होगा और दौड़ना
होगा। दौड़—
दौड़ कर गिरना
होगा। हर बार
आशा करनी होगी,
हर बार
विषाद से भरना
होगा। बहुत
बार चोट खा— खा
कर एक दिन यह
बोध जागेगा—चोट—पर—चोट,
चोट—पर—चोट—एक
दिन यह बोध
पैदा होगा, तुम्हारे
भीतर, कि जो
मेरा नहीं है,
वह मेरा कभी
नहीं हो सकेगा।
वह हो ही नहीं
सकता। वह
प्रकृति का
नियम नहीं है।
तो अब मैं
उसकी तरफ
मुडूं जो मेरा
है। उसी दिन
अंतर्यात्रा
शुरू होती है।
उसी दिन
सन्यास।
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहां है?
नील—नीलम
नभ निमंत्रण
दे किसी को
तो करे
इनकार कैसे,
आंख
जिनके, हो
न उनको चांद—सूरज
की
किरण से प्यार
कैसे,
ठीक है, दिन पास
रखता हूं
समझता
हूं
सभी कुछ, आज
लेकिन,
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहां है?
लेकिन
जितना अंधेरा
छाया होता है
आकाश, उतनी
ही चुनौती!
जितना शिखर
ऊंचा होता है,
उतनी
चुनौती! जितना
पाना मुश्किल
होता है, उतनी
चुनौती! समझ
लेना इस तर्क
को।
अहंकार
असंभव में
उत्सुक होता
है, संभव में
नहीं। संभव
में अहंकार को
रस ही नहीं
होता है। पूना
की छोटी—सी
पहाड़ी है, उस
पर चढ़ जाओ, इसमें
अहंकार को कोई
रस नहीं। उस
पर जाकर
तिरंगा झंडा
गड़ा दो, कोई
अखबार वगैरह
में तुम्हारी
खबर न छपेगी।
यह भला हो
सकता है कि
कोई जो सुबह—सुबह
घूमने चले आए
हों पहाड़ी पर
वे पुलिस में खबर
करें कि इस
आदमी का दिमाग
खराब हो गया
है। एवरेस्ट
पर चढ़कर अगर
झंडा गड़ाओ, तो तुम जगत—विख्यात
हो जाते हो।
और एवरेस्ट
में और हिमालय
के छोटे—से
टीले में फर्क
गुण का नहीं
है, केवल
परिणाम का है।
यह जरा छोटा
है, वह जरा
बड़ा है लेकिन
हिमालय के
एवरेस्ट शिखर
पर झंडा गाड़
देता है जब
कोई आदमी—हिलेरी
या तेनसिंग
सारे जगत में
ख्याति हो जाती
है। इतिहास
में नाम ठहर
जाता है। और
मजा यह है कि
वहां कुछ और
पाने को नहीं
है। बस झंडा
ही गाड़ने की
जगह है, वहा
ज्यादा जगह भी
नहीं है। वहा
रुकने का भी
कुछ नहीं है, पाने का भी
कुछ नहीं है।
लेकिन फिर
मामला क्या है?
हिलेरी से
किसी ने पूछा—जब
वह एवरेस्ट
शिखर की विजय
करके लौटा—कि वहा
था क्या पाने
का, आप
इतने परेशान
क्यों हुए? उसने कहा, परेशान!
एवरेस्ट की
मौजूदगी
बेचैनी का
कारण थी।
मनुष्य ने
उसको भी जीत
लिया, हमने
एवरेस्ट को भी
हरा दिया।
पाया क्या!
पाने का कोई
सवाल ही नहीं
है। इतना ही
काफी था कि
एवरेस्ट है और
अनजीता पड़ा है।
इसको जीतना ही
होगा!
अहंकार
असंभव में रस
लेता है—जो
नहीं हो सकता।
और क्या नहीं
हो सकता? इस
दुनिया में सब
से असंभव बात
एक है, वह
है—पद से
तृप्ति, धन
से तृप्ति, न कभी हुई है,
न कभी हो
सकती है। सारे
बुद्धों का
जीवन कह रहा
है—नहीं हुई; और सारे
सिकंदरों का जीवन
भी कह रहा है
कि नहीं हुई।
साधु— असाधु
सब एक बात मग
सहमत हैं कि
धन से और पद से
किसी की
तृप्ति नहीं
हुई। बाहर की
यात्रा से कभी
कोई शात नहीं
हुआ, आनंदित
नहीं हुआ।
बाहर
की यात्रा का
कोई अंत ही
नहीं है। चलो—
और चलो, और
गिरो—और गिरो
और मर जाओ।
बाहर के सब
रास्ते कब्र
पर समाप्त
होते हैं, अमृत
तक बाहर का
कोई रास्ता
नहीं जाता।
अमृत
तुम्हारे
भीतर मौजूद है,
लेकिन जो
मौजूद है
उसमें रस नहीं
है। अहंकार का
मजा ही यह है
कि जो मेरे
पास नहीं, वह
पाकर रहूं।
तुमने
देखा नहीं, तुम एक कार
खरीद लेते हो।
जब तक नहीं थी,
तब तक उसके
सपने देखे, विचार किया।
जब रास्ते पर
गुजरती दिख
जाती थी, एक
बिजली कौंध
जाती थी, तड़प
जाते थे। फिर
तुम्हारे
पोर्च में आकर
खड़ी हो गयी।
एकाध दिन झाड़ा—पोंछा,
एकाध दिन
उसके आसपास
बड़ी शान से
घूमे, बाजार
गये, फिर
दो—चार दिन
में सब शात हो
गयी बात, खत्म
हो गयी। रस ही
असल में कार
में नहीं था, रस था—जो
तुम्हारे पास
नहीं है। अब
तुम्हारे पास
है तो रस कैसे
हो सकता है?
तुमने
देखा नहीं कि
जिस स्त्री के
प्रेम में तुम
पड़ जाते हो, उसे पाने
में जितनी
कठिनाई लग जाए,
उतना ही
प्रेम बढ़ता
जाता है।
मजनूं को अगर
लैला मिल गयी
होती, तो
मजनूं का नाम
भी तुमको पता
नहीं होता। वह
तो लैला नहीं
मिली। यही
मजनूं की
कहानी का सारा
सार है। और
बहुत संभव है
कि लैला मिल
गयी होती तो
तलाक भी हुआ
होता।
कहानिया बड़े
अजीब ढंग से
चलती हैं।
असली
कहानियां का
ढंग और है।
नहीं मिली तो
मजनूं रोता ही
रहा, तड़पता
ही रहा, जंगलों—
जंगलों, पहाड़ों,
लैला—लैला
पुकारता रहा!
तुमने किसी
पति को ऐसा
करते देखा है?
अगर किसी
पति से पूछो
शायद उसने बीस
साल से पत्नी
का चेहरा ठीक
से देखा भी
नहीं है।
तुम भी
पति हो, तुम
भी पत्नी हो, कभी आंख बंद
करके अपने पति
का या पत्नी
का चेहरा याद
करने की कोशिश
करना—तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
फिल्म
अभिनेत्रिया
के चेहरे याद
आएंगे, मगर
अपनी पत्नी का
चेहरा याद
नहीं आएगा कि
कैसा है। अगर
जरा ज्यादा
गौर से देखा
तो जो थोड़ी
धुंधली—
धुंधली सी याद
आती थी, वह
भी खो जाएगी।
जो मिल जाता
है, उसमें
रस खो जाता है।
रस ही हमारा
उसमें है जो
हमारे पास
नहीं है। इसका
मतलब हुआ कि
अहंकार तो कभी
भी तुम्हें, कहीं भी
आनंदित नहीं
होने देगा।
उसका रस ही
उसमें है जो
तुम्हारे पास
नहीं— और वही
दुख है।
अहंकार का रस
ही तुम्हारे
जीवन का दुख
है।
आसमानी
स्वप्न
ललचाते उसे
हैं
भूमि
जिसकी जन्म—गोदी
भूमि
को कौन देखता
है? उस पर तो
हम पैदा हुए, चलते, रहते—
भूल ही जाते
हैं। आकाश की
तरफ हम देखते
हैं! आकाश में
हमारा दिल भरमाता
है!
आग से
खिलवाड़ करने
को तरसता ही
सदा है जल—विनोदी
जो पानी में
पैदा हुआ है, वह आग से
खिलवाड़ करने
का रस रखता है।
यही अहंकार है।
तुम जो नहीं
हो, वह
होने की आकांक्षा
अहंकार
है। और यह हो
नहीं सकता, इसलिए
अहंकार विषाद
में ले जाता
है। जिस दिन
विषाद का
अनुभव कर—कर
के तुम सजग हो
जाओगे और यह आकांक्षा
व्यर्थ
हो जाएगी, इसका
तुम मूल सूत्र
देख लोगे, उस
दिन कुछ करना
नहीं पड़ेगा
अहंकार
मिटाने को, बात खत्म हो
गयी। उस
दृष्टि में ही
रूपातरण है।
और फिर
डैने मिले, इनको थका आ,
तोड़ आ, चाहे जला आ
बेदिये
कीमत यहां
वरदान कोई
मुफ्त में
पाता कहा है?
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहा है?
स्मरण
रखो— बेदिये
कीमत यहां
वरदान कोई
मुफ्त में
पाता कहा है?
और यहीं
अड़चन हो जाती
है। उपनिषद पढ
लेते हो : छोडो
अहंकार!
बाइबिल पढ लेते
हो : छोडो
अहंकार! मुझे
सुन लेते हो :
छोडो अहंकार!
और तुम सोचते
हो, तो छोड़
ही दें न! मगर
वह छूटता नहीं।
क्यों? बेदिये
कीमत यहां
वरदान कोई
मुफ्त में
पाता कहा है? तुमने अभी
कीमत नहीं
चुकायी। अभी
अहंकार की
पीडा ही तुमने
नहीं भोगी।
अभी अहंकार का
जहर तुमने
नहीं पीआ। अभी
अहंकार ने
तुम्हें इतना
नहीं सता दिया
है कि तुम छोड़
सको। इसीलिए
प्रताप, तुम
दबा—दबू कर
बैठ जाते हो—सरका
दिया जरा, कपडे
में छिपा दिया
जरा—फिर
अहंकार निकल
आता है।
अहंकार के पास
कोई संजीवनी
नहीं है, सिर्फ
तुम्हारा
अनुभव अभी
अहंकार का
कच्चा है, अपरिपक्व
है।
है ठहर
तब तक फलक पर
जब तलक है
जोर
बाजू का सलामत
तुम
देखते हो, कितने ही बड़े
डैने हों और
कितने ही
बलशाली पंख हों,
आकाश पर
कितनी देर रुक
सकोगे?
है ठहर
तब तक फलक पर
जब तलक है जोर
बाजू का सलामत
जल्दी
ही थकोगे।
थकोगे और
गिरोगे। जोर
बाजू का सीमित
है। तुम देखते
हो, पदों पर
लोग रुक जाते
हैं थोड़ी देर
तक—जब तक जोर
बाजू का सलामत—फिर
जरा सुस्त हुए,
ढीले हुए कि
किसी ने टल खींची!
क्योंकि
दूसरे भी
मौजूद हैं जो
पूरे वक्त
उत्सुक हैं कि
वे सिंहासन पर
बैठें। तुमने
एक मजा देखा, राजनीति में
दुश्मन तो
दुश्मन होता
ही हैं, मित्र
भी दुश्मन
होते हैं।
धर्म में
मित्र तो
मित्र होते ही
हैं, दुश्मन
भी मित्र होते
हैं! और
राजनीति में
ठीक उल्टा है।
जो राजनीतिक
पद पर पहुंच
जाता है, उसका
कोई मित्र
नहीं बचता, उसके सब
शत्रु होते
हैं। क्योंकि
अब उसकी ही
वजह से मित्र
आगे नहीं बढ पा
रहे हैं, अटक
गये हैं। वह
जब तक सिंहासन
पर बैठा है, तब तक वे
अटके हुए हैं।
वे सब
प्रार्थना कर
रहे हैं कि
प्रभु, अब
इनको उठाओ! कि
अब बहुत देर
हुई जा रही है!
कि अब इनको
राजघाट
पहुंचाओ! कि
हम शाही जलसा
करेंगे, सैन्य—विदाई
देंगे—सब
करेंगे—मगर
जल्दी करो, बहुत देर
हुई जा रही है!
राजनीति
में कोई मित्र
हो नहीं सकता।
वहा तो
गलाघोंट
प्रतियोगिता
है। और यह
सारा जगत
राजनीति है।
मेरे देखे
अहंकार का
फैलाव
राजनीति है।
और अहंकार की
समझ से जो
मुक्ति फलित
होती है, वही
धर्म है।
बस, दुनिया में
दो ही खेल हैं।
एक अहंकार का
खेल है और एक
बोध का।
अहंकार का खेल
राजनीति है, बोध का खेल
धर्म है।
अहंकार का खेल
सिर्फ दुख में
ले जाता है, पीडा में—तुम्हें
भी और दूसरों
को भी—और धर्म
का खेल
तुम्हें आनंद
में ले जाता
है और दूसरों
को भी।
है ठहर
तब तक फलक पर
जब तलक है
जोर
बाजू का सलामत
बिजलियों
की हर लहर, तेरे जमीं
की
ओर
गिरने की
अलामत
और
जल्दी ही
बिजली की हर
लहर कहेगी कि—अब
गिरा, अब
गिरा, तब
गिरा!
दग्ध
पर की, दग्ध
स्वर की कद्र
केवल
एक
धरती जानती है
अपनी भूमि
में वापिस लौट
आना होगा।
अपने
में ही गिर
जाना होगा।
लाख
आकर्षित किसी
को भी करे
आकाश अपनाता
कहा है?
व्योम
पर छाया हुआ
तम तोम, हे
हिम हंस, तू
जाता कहा है?
लेकिन
जाना पडेगा!
दूसरों से यह
शान उधार नहीं
लिया जा सकता
है। कहते हैं
न, दूध का
जला छाछ भी
फूंक—फूंक कर
पीता है, लेकिन
दूध से जले तब
न!
तुम
दूध से अभी
जले नहीं हो!
यही तुम्हारी
अड़चन है। तुम
अपने अहंकार
को छिपाओ मत, दबाओ मत—जीओ!
भयभीत मत होओ।
इस जगत में
कुछ भी मुफ्त
नहीं मिलता है।
इस जगत में हर
चीज के लिए
कीमत चुकानी
ही पड़ती है।
और अहंकार से
मुक्त होने की
एक ही कीमत है :
अहंकार का
नर्क जीना
पडेगा।
और तब
तुम अचानक
पाओगे कि न
कोई संजीवनी
है अहंकार के
पास, न कोई
जीवन—ऊर्जा है।
अहंकार है ही
नहीं।
परिपक्व बोध
में, अनुभव
में, अहंकार
अपने— आप गिर
जाता है।
आके
पत्थर तो मेरे
सहन में दो
चार गिरे
जितने
उस पेडू के फल
थे पसे दीवार
गिरे
मुझे
गिरना है तो
मैं अपने ही
कदमों में
गिरूं
जिस
तरह साया—ए—दीवार
पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़
गये दिल में, उजाले के
खतूत
ये
सितारे मेरे
घर टूट के
बेकार गिरे
देखकर
अपने दरोबाम
लरज जाता हूं
मेरे
हमसाये में जब
भी कोई दीवार
गिरे
वक्त
की डोर खुदा
जाने कहा से
टूटे,
किस
घडी सर पे ये
लटकी हुई
तलवार गिरे
क्या
कहूं दीदा—ए—तर, यह तो मेरा
चेहरा है,
संग कट
जाते हैं
बारिश की जहा
धार गिरे,
हाथ
आया नहीं कुछ
रात की दलदल
के सिवा,
हाय
किस मोड़ पे
ख्वाबों के
परस्तार गिरे,
अहंकार
में चलो। चलना
पडेगा! यद्यपि
हाथ कुछ नहीं
आएगा। वही हाथ
आना है।
अहंकार में
चलकर जब तुम
पाते हो—हाथ
कुछ नहीं आया, तो एक बात कम
से कम हाथ में
आ गयी, एक
अनुभव हाथ आ
गया कि अहंकार
की यात्रा
व्यर्थ है।
हाथ
आया नहीं कुछ
रात की दलदल
के सिवा,
हाय
किस मोड़ पे
ख्याबों के
परस्तार गिरे
अहंकार
सिर्फ सपने
देखना जानता
है। और आज
नहीं कल सब
सपने गिर जाते
हैं। जिस दिन
तुम्हारे
सपने सब गिर
जाते हैं—मेरे
कहने से नहीं, तुम्हारे
जीवंत अनुभव
से—उसी दिन
अहंकार से
मुक्ति है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान, विदा की इस
पूर्व—संध्या
में काठमाडू
के एक मित्र
डा. दुर्गा प्रसाद
भंडारी, अंग्रेजी
विभाग
अध्यक्ष, टी.
यू. की बहुत
याद आती है।
पूना से किसी
नये मित्र के
संन्यास लेकर
लौटने पर, वे
आनंद से नाचते
हैं। आपके
विरोध में
बोलनेवाले से
हाथापाई पर
उतर आते हैं।
पर जब कभी
आपके पास आने
का अवसर आता
है, तो
उन्हें बडी घबड़ाहट
होने लगती है।
उसी प्रकार
शिवपुरी बाबा
के कुछ शिष्य
भी आपके प्रेम—दीवाने
हैं। पर उनकी
ऐसी मान्यता
है कि उनके
आपके पास आकर संन्यास
लेने से अपने
पूर्व—गुरु के
प्रति अवज्ञा
होगी। ऐसे
अनेक मित्र
नेपाल में हैं
जो आपके प्रति
गहरे भाव से
भरे हैं, पर
आपके पास आने
से बचते रहते
हैं। भगवान, प्रेम के
साथ इतना गहरा
भय क्यों जुड़ा
होता है?
प्रेम
का अर्थ ही
होता है, तुम्हें
अपना अहंकार
छोड़ना होगा।
वही भय है।
प्रेम का अर्थ
होता है कि
तुम्हें मरना
होगा। वही भय
है। प्रेम
मृत्यु है और
पुनर्जन्म भी।
लेकिन मृत्यु
पहले हैं, पुनर्जन्म
पीछे। सूली
पहले है, सिंहासन
पीछे है। सूली
की आडू में
सिंहासन छिपा
है। तो जो भी
मेरे प्रति
प्रेम से
भरेंगे वे
भयभीत भी
होंगे, वे
आने से ड़रेंगे
भी। क्योंकि
अगर आए तो फिर
लौटना नहीं
होगा। आए तो
फिर लौटना
नहीं हो सकता
है; फिर
मेरे साथ
डुबकी लेनी ही
पड़ेगी। फिर
जिंदगी का
क्या रंग होगा,
क्या ढंग
होगा, कौन
जाने?
सबने
एक तरह की
जिंदगी बना ली
है। एक तरह की
व्यवस्था खड़ी
कर ली है। एक
तरह की
सुरक्षा!
मुझसे संबंध
जुड़ा तो सब अस्तव्यस्त
होगा, अराजकता
हो जाएगी।
इससे भय होता
है। भय
स्वाभाविक है।
भय इसी बात का
सबूत है कि सच
में ही मेरे
प्रति प्रेम
जगा है। जो
मेरे पास बिना
भय के आ जाता
है, वह
इसीलिए आ पाता
है कि या तो
इतना साहसी है
कि भय के
बावजूद आ जाता
है; या, प्रेम
ही नहीं है।
इसलिए भय का
कोई कारण ही
नहीं है। मजे
से आ जाता, जैसे
और जगह जाता
है। ऐसे यहां
भी आ जाता है।
तुम
पूछते हो, डा. दुर्गा
प्रसाद
भंडारी आने
में ड़रते
क्यों हैं? और इतना
प्रेम उन्हें
है कि जब कोई
संन्यास लेकर
लौटता है
काठमांडु तो
वे नाचते हैं
आनंद में। और
मेरे खिलाफ
कोई कुछ बोलता
है तो हाथापाई
पर उतर आते
हैं। पर यहां
आने का अवसर
आता है तो
घबड़ा जाते हैं
और आने से बच
जाते हैं।
उनसे
जाकर कहना कि
अब बचने का
कोई उपाय नहीं
है। वे यहां
नहीं आए, लेकिन
मैं वहा पहुंच
गया हूं। थोड़ी—देर—
अबेर कर सकते
हो। मुझे
चुनने में वे
देर लगा रहे
हैं और मैंने
उन्हें चुन
लिया है। थोड़ी—बहुत
देर से कुछ
फर्क नहीं
पड़ेगा। अच्छा
यही होगा, अब
देर करना
व्यर्थ है। यह
संन्यास का
पागलपन होकर
ही रहेगा।
उनसे कहना, मन तो रंग ही
गया है, अब
तन भी रंग
डालो।
और भय
स्वाभाविक है।
मगर एक बार आ
जाएंगे तो भय
चला जाएगा।
सूली की आडू
में सिंहासन
है, उनको कह
देना।
संन्यास
में पहले तो
मृत्यु घटती
है, शिष्य
अपने को मिटने
की घोषणा करता
है। संन्यास
और क्या है? इस बात की
घोषणा है
शिष्य की तरफ
से कि अब से मैं
नहीं। अब से
गुरु की आज्ञा,
आज्ञा होगी।
अब से गुरु के
चरणचिन्ह
मार्ग के सूचक
होंगे। अब अगर
मेरा मन कुछ
कहेगा तो मैं
नहीं सुनूंगा,
अगर वह गुरु
के विपरीत
जाता होगा। अब
एक ही सुनने
का उपाय रह
गया, वह
गुरु है। अपने
से ज्यादा
मूल्यवान
किसी को बना
लेने का अर्थ
होता है, गुरु
की तलाश। अपने
को इनकार किया
जा सकता है, लेकिन गुरु
को इनकार नहीं
किया जा सकता।
इसलिए
हिम्मतवर, साहसी
और जुआरी ही
शिष्य हो पाते
हैं।
उनसे
कहना, एक
बार आ जाओ! मैं
राह देखता हूं।
आना तो पड़ेगा
ही, जितनी
देर करोगे
उतना समय
व्यर्थ गया।
उतना पीछे
पछताओगे।
क्योंकि जो यहां
आकर डुबकी लगा
लेते हैं, वे
फिर मुझसे
कहते हैं कि
अब हमें भरोसा
नहीं आता कि
हम इतनी देर
तक आए क्यों
नहीं, इतनी
देर तक हम
डूबे क्यों
नहीं, इतनी
देर तक हम
अपने— आप को
रोके कैसे रहे?
बस इतना
उनसे कह देना।
और
उनसे कहना कि
तुम्हें
सिंहासन भी
पीछे छिपा
दिखायी पड़ रहा
है, थोड़ी
हिम्मत जुटाओ।
बस यहां आ जाओ,
बाकी काम
अपने से हो
जाएगा।
और जो
मित्र सोचते
हैं कि
शिवपुरी बाबा
के शिष्य हैं
और मेरे प्रेम
में भी दीवाने
हो रहे हैं, अब उन्हें
भय है कि
संन्यास लेने
से कहीं पूर्व—गुरु
के प्रति
अवज्ञा न हो
जाए। मैं जो
काम कर रहा
हूं, वह वही है
जो शिवपुरी
बाबा का काम
था। वह अगर
मेरे प्रेम
में दीवाने हो
सके हैं तो सिर्फ
इसीलिए कि जो
उन्होंने
शिवपुरी बाबा
में पाया था, वह फिर
उन्हें
मुझमें
दिखायी पड़ा है।
किसी भी
सदगुरु का काम
किसी अन्य
सदगुरु के विपरीत
नहीं है—
असदगुरुओं के
विपरीत है, सदगुरुओं के
विपरीत नहीं
है। शिवपुरी
बाबा से मेरा
लगाव है। इस
सदी के वे उन
थोडे—से लोगों
में एक थे, जिन्होंने
पाया। तो उनको
कहना कि वे
मुझमें
शिवपुरी बाबा
को ही पाएंगे।
जरा भी चिंता
न करें।
अवज्ञा नहीं
होगी। अगर वे
न आए तो
अवज्ञा होगी। थोड़ा
पहचानें, थोड़ा
खोजें। उनके
गुरु प्रसन्न
होंगे जहा भी
होंगे।
संभावना तो
यही है कि
शिवपुरी बाबा
ने ही उनके
भीतर इशारा
किया होगा।
यहां
बहुत लोग हैं, जो इस तरह के
इशारे से आए
हैं।
गुर्जिएफ के
बहुत—से शिष्य
यहां आए हैं।
वे गुर्जिएफ
के इशारे से आ
रहे हैं। झेन—परपरा
को मानने वाले
बहुत से लोग आ
रहे हैं, वे
भी ऐसे ही
इशारों से आ
रहे हैं।
जिनका इस जन्म
में या किसी
और जन्म में
कभी किसी
सदगुरु से साथ
रहा है, वे
आ ही जाएंगे।
उनका
रुकना
तर्कयुक्त
मालूम होता है, लेकिन उसमें
बहुत गहरी समझ
नहीं है। वे
शिवपुरी बाबा
से ही पूछ लें
अपनी
प्रार्थना
में और मैं
उनसे कहता हूं
कि शिवपुरी
बाबा को
स्वीकार होगा।
न केवल
स्वीकार होगा,
बल्कि
शिवपुरी बाबा
आनंदित होंगे।
यहां जो मैं
काम कर रहा
हूं वही काम
है—और बड़े
विराट पैमाने
पर—जो शिवपुरी
बाबा करना
चाहते थे और
नहीं संभव हो
सका। समय पका
नहीं था। अब
समय पक गया है।
कहना
उनसे कि मुझसे
जो प्रेम लग
रहा है, वह
सूचक है।
पड़ता
है पांव ठीक
जो तारीक राह
में
ऐं
चश्म, रोशनी
यह किसी नक्शे—पा
की है
वह जो
मेरी बात में
पगे जा रहे
हैं, रसविमुग्ध
हो रहे हैं, वह सिर्फ
इसीलिए है कि
उन्होंने
पहले किसी और
रोशन व्यक्ति
को जाना और
देखा था।
नेपाल का
धन्यभाग था कि
शिवपुरी बाबा
वहा रहे। अभी
लोग जिंदा हैं
नेपाल में जो
शिवपुरी बाबा
के चरणों में
बैठे हैं। अगर
उन्हें मुझसे
रस लगा जा रहा
है, तो
उसका और कोई
कारण नहीं है।
जो उन्होंने
शिवपुरी बाबा
में पाया था, उसकी भनक
फिर उन्हें
सुनायी पड़ी
है। फिर वही
वीणा छेडी गयी
है।
उनसे
कहना, मैं
प्रतीक्षा
करता हूं।
कहना उनसे—
अब
हेमंत—अंत
नियराया, लौट
न आ तू गगन—बिहारी।
खोल
ऊषा का द्वार
झांकती
बाहर
फिर किरणों की
जाली
अंबर
की ड़चौढी पर
अटकी
रहती
फिर संध्या की
लाली
राह
तुझे देने को
कटते,
छटते, हटते नभ के
बादल,
अब
हेमंत—अंत
नियराया, लौट
न आ तू गगन—बिहारी।
जिन
सूनी, सूखी
साखों में
होता
तू दिन एक गया
था,
मुझको
था मालूम कि
उनको
मिलने
को पहराव नया
था,
नयी—नयी
कोमल कोंपल से
लदी खडी
हैं तरु—मालाएं
फूट
कहीं से पड़ने
को है
सहसा
कोयल की
किलकारी।
अब
हेमंत अंत
नियराला, लौट
न आ तू गगन—बिहारी।
हिम की
चांदर फाडू
उभरती
धरती
फिर से तिनकों
वाली
करती
है अभिसार
कुसुम के
रंगों
से मधुबन की
डाली
जलज
निकलकर जल के
तल पर
जोह
रहे हैं बाट
किसी की
कानों
में कुछ भेद
भरी—सी कह
जाती है वात
बहारी।
अब
हेमंत—अंत
नियराया, लौट
न आ तू गगन—बिहारी।
नीड़ तैयार हो
गया है। और
जिन्हें भी इस
नीड़ में निवास
करना हो, वे
आ जाएं, और
देर न करें।
जिन्हें भी
खोज है वे आ
जाएं, और
प्रतीक्षा न
करें।
प्रतीक्षा
महंगी पड़ सकती
है!
चौथा
प्रश्न :
भगवान, अब तैयार
हूं। तारीख
तेरह अप्रैल
को मेरा
इकसठवां
जन्मदिन है।
आपके चरणों
में संन्यस्त
होने के लिए आ
गिरूंगा। एक
साल से करीब
दफ्तर भी नहीं
जाता; बच्चों
को कारोबार
सौंप दिया है।
गत वर्ष में
ही ले लेता था
संन्यास, लेकिन
रुक गया इस भय
से कि बच्चे
ठीक से कारोबार
चलाएंगे या
नहीं? आप
की कृपा से सब
ठीक चल रहा है।
अब आपके
सान्निध्य
में पूना में
ही ठहरना चाहता
हूं। आप ही
मेरे शेष जीवन
के एकमात्र
आधार, सदगुरु
और इष्टदेव हो।
मेरे ध्यान
में कोई गति
हो रही है, ऐसा
महसूस नहीं
होता। लगता है
कि चिदाकाश
में कोई रंगों
की मिलावट होती
है और मिटती
है। कुछ विचार
के बादल आते
हैं और जाते
हैं। और कुछ
भी नहीं होता।
समर्पण तो
आपको कर चुका
हूं आप जो
कहें वही मेरा
कर्तव्य, वही
मेरा काम।
आज्ञा की
प्रतीक्षा में!
पूछा
है साधु आनंद
चित्त ने।
मैं तो
रोज ही
प्रतीक्षा कर
रहा था कि कब
आओ! ध्यान की
गति की चिंता
न करो, संन्यास
के होते ही
अपूर्व गति
होगी।
संन्यास में
जो बात बाधा
थी, वही
बात ध्यान में
भी बाधा थी।
उसमें भेद
नहीं है। वही
चिंता कि
बच्चे सम्हाल
पाएंगे
कारोबार या
नहीं? बच्चे
घर—द्वार
सम्हाल
पाएंगे या
नहीं, वही
चिंता
संन्यास में
बाधा थी, वही
चिंता ध्यान
में भी बाधा
थी। ध्यान और
संन्यास
भिन्न—भिन्न
थोड़े ही हैं।
संन्यास बाहर
का ध्यान है, ध्यान भीतर
का संन्यास है।
वे एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। जिस दिन
तुम संन्यास
में डूबोगे, उसी दिन
ध्यान में गति
शुरू हो जाएगी।
संन्यास
की तैयारी इस
बात की सूचना
है कि अब इस
जगत की
चिंताओं में
और पड़े रहने
की आकांक्षा नहीं
रही। समय आ
गया है—समय
बहुत देर से
आया हुआ है—तुम्हीं
देर कर रहे थे।
फिक्र न लो! और
मन में यह जो
रंगों कि
मिलावट मालूम
होती है, और
मन में ये जो
विचार के बादल
आते—जाते हैं,
इनके केवल
साक्षी बन
जाना है।
इन्हें सिर्फ
देखना है और
जानना है कि
मैं इनसे पृथक
हूं इनसे अन्य
हूं। जो
व्यक्ति
विचारों से
अपने को अन्य
जान लेगा, वह
एक दिन परमात्मा
से अपने को
अनन्य जान
लेगा। विचार
से अपने को
अन्य जानना, परमात्मा से
अनन्य जानने
का उपाय है। इन
रंगों में
खोना मत, कभी—कभी
रंग बड़े
सुहावने भी हो
सकते हैं, कभी—कभी
बड़े प्यारे भी
हो सकते हैं।
कभी बड़े
मनमोहक। और
ऐसी मूढ्ताएं
प्रचलित हैं
लोगों में कि
शायद ये सब
रंग और
रोशनिया बड़े
आध्यात्मिक
अनुभव हैं!
इनमें कुछ
आध्यात्मिक
नहीं है। ये
सब मानसिक जगत
के खेल हैं।
ये सब सपने
हैं, जिनका
कोई मूल्य
नहीं है।
इनमें उलझना
मत। इनमें कोई
उलझे, तो
इनके रंग
निखरते जाते
हैं। और— और
मीठी—मीठी
अनुभूतिया
होने लगेंगी।
और— और सुंदर
दृश्य खुलने
लगेंगे।
उनमें खो मत
जाना, द्रष्टा
की याद
करो! कोई
दृश्य काम का
नहीं है। बाहर
के दृश्य
व्यर्थ हैं, भीतर के
दृश्य व्यर्थ
हैं। बाहर के
अनुभव व्यर्थ
हैं, भीतर
के अनुभव
व्यर्थ हैं।
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं—
आध्यात्मिक
अनुभव जैसी
कोई चीज होती
ही नहीं। सब
अनुभव
सासारिक हैं।
अध्यात्म का
अर्थ ही है, अनुभव के
पार आ गये।
अध्यात्म का
अर्थ ही है कि
अब अनुभव में
रस नहीं रहा।
अब तो जो
अनुभव जिसको
हो रहा है, उस
द्रष्टा में
ही रस है। जिस
दिन सब दृश्य
खो जाते हैं, सब अनुभव खो
जाते हैं, और
द्रष्टा
अकेला रह जाता
है, उस दशा
को कैवल्य कहा
है। वही दशा
समाधि की है।
यहां संन्यास
के माध्यम से
उसी दशा की
यात्रा चल रही
है।
बस ऐसा
करो कि जल्दी
तेरह अप्रैल आ
जाए! ऐसे तेरह
अप्रैल के लिए
भी रुकने की
कोई जरूरत
नहीं है। हम
कुछ न कुछ
बहाने खोजकर
टालते रहते
हैं। आज का
दिन उतना ही
शुभ है जितना
तेरह अप्रैल का
होगा। अब और
पंद्रह दिन
क्यों सरकाते
हो? और फिर
किस को पता है,
पंद्रह दिन
में क्या हो
जाए! जब शुभ
करने की आकांक्षा
हो तो क्षणभर
मत टालना। और
जब अशुभ करने
की आकांक्षा हो तो
जितना टाल सको,
टालना।
लेकिन हम ऐसा
करते नहीं, इससे उल्टा
ही करते हैं।
क्रोध होता है
तो हम अभी
करते हैं, प्रेम
होता है तो हम
कहते हैं—कल।
किसी को गाली
देनी हो तो हम
अभी दे देते
हैं और किसी
से क्षमा
मतानी हो तो
हम कहते हैं—विचार
करेंगे।
बुरा
करना हो तो रुकना।
क्योंकि जिस
चीज को भी
करने के लिए
तुम रुक जाओगे, शायद होगी
ही नहीं। जैसे—जैसे
समय बीतेगा, वैसे— वैसे
उसका प्रभाव
कम होता जाएगा।
शुभ को करना
हो तो तत्क्षण
कर लेना।
क्योंकि कौन
जाने रुकने से
उसका प्रभाव
कम हो जाए।
अभी
आनंद चित्त
यहां आए हुए
है, एक भाव—रंग
में डूब गये
हैं, अब घर
लौटेंगे... अब
वह कहते हैं
कि आपकी सब
कृपा से ठीक
चल रहा है।
मेरी कृपा का
कोई हाथ नहीं
है, क्योंकि
मैं किसी का
कारोबार नहीं
चलाता हूं!... अब
पंद्रह दिन
में कारोबार
ठीक न चले, कुछ
अड़चन आ आए, कोई
बैंक का
दीवाला निकल
जाए, कोई
आदमी उधार ले
जाए और लौटाए
न—हजार झंझटें
हो सकती हैं।
अब तुम मुझ पर
छोड़ रहे हो! इन
झंझटों से मैं
तुम्हें
निकालना
चाहता हूं तुम
मुझे इन
झंझटों में
खींचना चाहते
हो!
पंद्रह
दिन में बहुत
कुछ हो सकता
है। सब कुछ हो
सकता है।
पंद्रह दिन
में सारी
दुनिया उलटी—सीधी
हो सकती है।
पंद्रह सेकेंड़
का भरोसा मत
करो।
और अब
पुराने
जन्मदिन से
क्या लेना—देना, संन्यास नया
जन्मदिन होगा!
असली जन्मदिन
होगा। इकसठ
साल पहले
तुम्हारी देह
जन्मी थी, मैं
तुम्हारी
आत्मा को जन्म
देने को तैयार
हूं। तुम कहते
हो, पंद्रह
दिन रुको!
शुभ को
जब भी करने का
भाव आ जाए, तत्क्षण कर
लेना। आदमी का
मन बड़ा कमजोर
है। मार्क
ट्वेन ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है कि
मैं एक दिन
चर्च में गया।
और चर्च के
पुरोहित ने जो
प्रवचन दिया,
अदभुत था।
दस मिनिट
सुनने के बाद
मुझे ऐसा लगा,
ऐसा मैंने
कभी सुना नहीं।
जेब में मैंने
टटोल कर देखा
तो सौ डालर का
नोट था। मन
में भाव आया
कि सौ ही डालर
आज दान कर
जाऊंगा। कभी
चर्च को दान
भी नहीं दिया
था, मगर उस
दिन बड़ा भाव
उठा, वह
वाणी ऐसी थी! फिर आधा
घंटा सुनने के
बाद उसे लगा
कि इतना, सौ
डालर देने
जैसा नहीं है।
सौ डालर बहुत
होते हैं। कोई
मुफ्त नहीं
आते! हजार तरह
के विचार उठे।
असल में सौ
डालर देने के
खयाल के कारण
प्रवचन सुनना
बंद ही हो गया।
वह दूसरी
बातों में लग
गया कि यह सौ
डालर! मजाक है!
समझा क्या है!
इसलिए वह
प्रवचन से
उसका तारतम्य
भी टूट गया।
आधे में उसने
सोचा कि नहीं,
सौ बहुत हैं,
दस डालर से
काम चल जाएगा।
थोड़ी
निश्चितता
आयी, थोड़ी
हलकी सांस ली।
मगर
फिर और दस
मिनट सुना, उसने सोचा
कि दस डालर!
सप्ताह भर
मेहनत करो तब दस
डालर मिलते
हैं। और यह
आदमी कर ही
क्या रहा है, लक्काजी कर
रहा है! शब्द—शब्द—शब्द—और
है क्या? जरा
गौर से देखा
कि आदमी है भी
कुछ! कुछ
दिखायी नहीं
पड़ा। वह दस
डालर के कारण
दिखायी भी न
पड़े। क्योंकि
अगर दिखायी
पड़े तो दस
डालर देने
पड़ेंगे। तो
उसने सोचा कि
एक डालर बहुत
है दुनिया में
कोई ऐसा देता
है! यहां इतने
लोग बैठे हैं,
एक डालर भी
कोई पूरा नहीं
देगा। कोई आठ
आने देगा, कोई
चार आने देगा,
इस तरह लोग
देंगे। चर्च
की थाली जब
फिरती है तो
कौन पूरा
सिक्का देता
है! एक से काम
चल जाएगा।
लेकिन
जो चित्त सौ
से दस पर लाया, दस से एक पर
लाया, वह
इतनी जल्दी
राजी तो नहीं
हो जाता!
प्रवचन पूरा
होते—होते
उसने सोचा कि,
मैंने किसी
से कहा तो है
नहीं कि एक
दूंगा ही! यह
तो मेरे भीतर
की बात है। यह
तो मेरी तरंग
थी। कोई
जबर्दस्ती है,
कि देना ही
पड़ेगा? और
तब उसने कहा
कि नहीं देंगे,
कुछ देने की
आवश्यकता
नहीं है। ये
मुफ्तखोर! ये
चर्च और ये सब—यह
सब शोषण है!
बड़ी बातें आने
लगीं खयाल में
कि सब शोषण है।
मार्क्स ने
कहा है कि
धर्म अफीम का
नशा है। और
जितने
नास्तिकों के
वचन मालूम थे
सब उसने दोहरा
लिये—वह एक
डालर की वजह
से दोहराने
पड़े नहीं तो
एक डालर हाथ
से जाता है!
और तब
उसने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैं प्रवचन
पूरा होने के
पहले ही उठ
आया, क्योंकि
मुझे यह ड़र
लगा कि जब तक
थाली मेरे
सामने आएगी, कहीं मैं
उसमें से कुछ
उठा न लूं। कि
बहती गंगा, हाथ धो लो!
ऐसा
आदमी का मन है।
ऐसा हम सब का
मन है। मन का
यह स्वभाव है।
मन तुम्हें उन
सब बातों की
तरफ जाने से
रोकता है जहा
मन को खतरा है।
संन्यास में
खतरा है, ध्यान
में खतरा है।
क्योंकि ये मन
की
आत्महत्याएं
हैं। ये मन के
पार जाने के
उपाय हैं।
तो मैं
तो कहूंगा
आनंद चित्त, रुको मत।
कहां की तेरह
अप्रैल! एक
अप्रैल के बाद
लोग बुद्ध
होना शुरू हो
जाते हैं। एक
अप्रैल को
हालत खराब हो
जाती है, तेरह
तक तो तेरह
गुनी हो जाती
है। तुम
अप्रैल के
पहले ही निपटा
लो!
अंतिम
प्रश्न :
भगवान, क्या इस
प्यास का कभी
अंत होगा, जिसने
मुझे दीवाना
बना दिया है? जिसने
प्राणों को
शूल की भांति
छेद दिया है।
प्रतिक्षण जो
एक ज्वाला की
भांति सीने
में धधकती
रहती है। आह!
किसे मैं अपने
हृदय की बात
बताऊं! इस भीड़—भरी
दुनिया में
मैं एकदम
अजनबी और
नितांत अकेला
हूं। कब उठेगा
उस अज्ञात
रहस्य के
द्वार से वह
पर्दा?
उस
द्वार पर कोई
पर्दा नहीं है, पर्दा
तुम्हारी आंख
पर है। उस
द्वार पर
पर्दा है, यह
तुम्हारे मन
की भ्रांति है
और मन की
तरकीब है।
क्योंकि फिर
तुम्हारे हाथ
के बाहर बात
हो गयी—उसके
द्वार पर
पर्दा है। अब
जब वह उठाएगा,
तब उठेगा।
तुम्हारे
किये तो कुछ
हो नहीं सकता।
इस भांति
तुमने अपने को
बचा लिया।
मैं
तुमसे कहना
चाहा हूं, मैं
तुम्हें बचने
की कोई जगह
नहीं देना
चाहता, तुम्हें
बचने का कोई उपाय
नहीं बचने
देना चाहता।
मैं तुमसे
कहता हूं
तुम्हारी आंख
पर पर्दा है।
सूरज तो निकला
है, तुम आंख
बंद किये खड़े
हो। अब तुम
कहते हो कि हे
प्रभु, कब
सूरज पर से
पर्दा उठेगा!
पर्दा ही नहीं
है। तो उठेगा
कैसे? और
चूंकि पर्दा
है ही नहीं, उठेगा नहीं,
तुम बैठे
राह देखते
रहोगे कि
पर्दा उठे तो
हम सूरज को
देखें। और जरा—
सी पलक उठाने
की बात है, पर्दा—वर्दा
कहीं भी नहीं
है। पलक ही
पर्दा है। यह
तुम्हारी आंख
पर जो पलक है, यही पर्दा
है।
तो
पहले तो यह
स्मरण कर लो
कि परमात्मा
छिपा नहीं है, परमात्मा
प्रकट है। तुम
छिपे हो! तुम
घूंघट डाले
बैठे हो! हटाओ
घूंघट। घूंघट
के पट खोल! कल
मैं एक कवि की
पंक्तिया पढ़ रहा
था— वहां
परदे को
जुंबिश तक
नहीं है
यहां
पहलू में दिल
बस थर्रा रहा
है
थर्राते
रहो! वहा कोई
पर्दा ही नहीं
है,
जुंबिश
कहां से होगी? पर्दा हमारी
आंख पर है।
परमात्मा
मौजूद है।
उसने तुम्हें
घेरा है इस
वक्त सब तरफ
से। ये
पक्षियों के
गीत सुनते हो?
इसमें
उसीने पुकारा
है। यह
वृक्षों का
सन्नाटा
सुनते हो? इसमें
वही चुप होकर
खड़ा है। ये
सूरज की
किरणें देखते
हो? यह
तुम्हारे पास
बैठे हुए इतने
शांत, आनंदमग्न
लोग देखते हो?
इनमें वही
बैठा है। सब
तरफ वही है।
पर्दा आंख पर
है। और पर्दा
कुछ बड़ा नहीं,
दो पलकों का
है। जरा आंख
खोलो।
तुम
पूछते हो, क्या इस
प्यास का कभी
अंत होगा? जब
तक तुम न
मिटोगे तब तक
नहीं अंत होगा।
भक्त न मिटे, तब तक प्यास
का अंत नहीं।
भक्त मिटे, कि बस प्यास
का भी अंत हो
गया। भक्त
मिटा कि
तृप्ति। भक्त
मिटा कि भगवान—पराभक्ति।
तुम अगर चाहो
कि मैं बना
रहूं और
परमात्मा को जान
लूं? तो
अंत कभी भी होनेवाला
नहीं है। आज
तक किसी
मनुष्य ने
अपने को बचाकर
परमात्मा को
नहीं जाना है।
अपने को गंवा
कर जानना होता
है। यही कीमत
है जो चुकानी
पड़ती है।
हालांकि
समझदारी
हमारी कहती है
कि अपने को
बचाकर जानने
की कोई तरकीब
हो तो अच्छा
रहे—खुद भी बच
जाएं, उसे
भी जान लें।
हम दोनों हाथ
लइ चाहते हैं।
यह नहीं हो
सकता। यह नियम
के अनुकूल
नहीं है। तुम
मिटो, तो
परमात्मा होओ।
प्यास तो तुम
जरूर मिटाना
चाहते हो, मगर
प्यासे को
नहीं मिटाना
चाहते। तुम
कहते हो, प्यासा
ही मिट गया कि
सार क्या? फिर
प्यास मिटी कि
नहीं मिटी, हमें पता
कैसे चलेगा? हम ही मिट
गये, फिर
परमात्मा
मिला तो मिलने
में मजा ही
क्या? तुम
कहते हो, हम
भी रहें, और
तू भी रहे—कुछ
ऐसा कर। फिर
नहीं हो पाता।
प्रेम गली अति
सीकरी तामें
दो न समाय।
क्या
इस प्यास का
कभी अंत होगा? तुम जिस दिन
समाप्त होओगे,
उसी दिन
इसका अंत हो
जाएगा। जिसने
मुझे दीवाना
बना दिया है।
जिसने
प्राणों को
शूल की भांति
छेद दिया है।
प्रतिक्षण जो
एक ज्वाला की भांति
सीने में
धधकती रहती है।
क्या इस प्यास
का कभी अंत
होगा? तुम्हारे
अंत के साथ ही!
यह बीमारी ऐसी
है कि बीमार
मरेगा तो
मिटेगी।
इस
संबंध में ठीक
से समझ लेना।
आमतौर
से जब हमारी
बीमारी होती
है तो हम
बीमार को
बचाते हैं और
बीमारी को
मिटाते हैं।
यह बीमारी
साधारण
बीमारी नहीं
है। यह तो
बीमार ही
मरेगा, तो
ही जाएगी। यह
तो ठीक से
समझो तो बीमार
का होना ही
बीमारी है। यह
बीमार से अलग
बीमारी नहीं
है, बीमार
ही बीमारी है
तुम जाओ, तुम
विदा हो जाओ।
तुम अस्त हो
जाओ।
तुम्हारे
अस्त होते ही
परमात्मा
प्रकट हो जाएगा।
सूर्योदय हो
जाएगा। तुम जब
तक रहतौ तब तक
पीड़ा। तब तक
यह काटा
चुभेगा, बुरी
तरह चुभेगा।
और
इतना पक्का है
कि तुम्हारे
भीतर प्यास
गहरी हो रही
है। और अग्नि
भभकेगी! और
ज्वाला
लपटेगी! और
तुम जलोगे! और
मेरा सारा
उपाय यहां यही
है कि तुम्हारी
प्यास को
भड्का दूं—इतना
भड्का दूं,
कि
प्यास में
प्यासा डूब
जाए और समाप्त
हो जाए।
तुम्हारी आग
को इतना भड्का
दूं तुम्हारी
विरह की अग्नि
को ऐसा जला
दूं, कि
विरही उसी
अग्नि में जल
जाए और राख हो
जाए।
तुम्हारी राख
पर ही
परमात्मा का
मंदिर उठता है।
यह
प्यास बुझ
सकती है। यह
ज्वाला भी शात
हो सकती। है।
इस विरह का
अंत है। मिलन
होता है। और
मिलन के लिए
ही हम सब तलाश
कर रहे हैं—कोई
ठीक ढंग से, कोई गलत ढंग
से। और
जो अंतिम भूल
है, वह
तुम्हें
स्मरण दिला
दूं। अंतिम
भूल यही है कि
खोजी अपने को
बचाना चाहता
है।
कबीर
ने कहा है :
हेरत
हेरत है सखी, रहचा कबीर
हिराइ।
जब
कबीर खोजते—खोजते
खो गया.....
बूंद
समानी समुद
में सो कत
हेरी जाइ।।
फिर
बूंद सागर में
गिर गयी।
अब उसे
वापिस कहां
पाया जा सकता
है! जिस दिन
तुम परमात्मा
को पा लोगे, फिर अपने को
वापिस न पा
सकोगे—बूंद
समानी समुद
में सो कत
हेरी जाइ।
इतना ही नहीं,
कबीर ने बाद
में इस वचन
में थोड़ा
सुधार भी किया,
जो बहुत
अपूर्व है।
बाद में
उन्होंने
इसमें सुधार
किया—
हेरत—हेरत
है सखी, रह्या
कबीर हिराइ।
समुद
समाना बूंद
में सो कत
हेरी जाइ।।
पहले
तो ऐसा ही
लगता है कि
बूंद सागर में
गिर गयी, अब
कैसे खोजा जाए?
मगर उससे भी
बड़ी घटना बाद
में पता चलती
है कि सागर
बूंद में गिर
गया। अब तो और
मुश्किल हो
गयी। विराट
क्षुद्र में
समा गया। सागर
बूंद में समा
गया। अब तो
खोजने की कोई
जगह न रही।
सच तो
यह है कि न तो
बूंद सागर में
गिरती है और न तो
सागर बूंद में
गिरता है, दोनों एक—दूसरे
में गिर जाते है।
न तो सागर
बचता है फिर, न बूंद बचती
है। कुछ बचता
है जो अगोचर
है, अदृश्य
है, अवक्तव्य,
अव्याख्य
उसी अव्याख्य
की जिज्ञासा
में हम गये।
उसी अगोचर की,
उसी अदृश्य
की हमने तलाश
की। एक तलाश
पूरी हुई—एक
बौद्धिक तलाश।
अब दूसरी तलाश
तुम शुरू करो—अस्तित्वगत।
वहा मिटना
होगा, चलना
होगा, समाप्त
होना होगा।
मरने को जो
राजी हैं, बस
धर्म उन्हीं
का है। मिटने
को जो राजी
हैं, परमात्मा
उन्हीं को
मिलता है।
अथातो
भक्तिजिज्ञासा!
आज
इतना ही।
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