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रविवार, 9 नवंबर 2014

भज गोविंदम मुढ़मते (आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--03

सत्संग से निस्संगता—(प्रवचन—तीसरा)
सूत्र :

का ते कांता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः
कस्य त्वं कः कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः।।
सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्
निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं निश्चलचित्ते जीवनमुक्तिः।।
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।।
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम्
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा।।
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुग्चत्याशावायुः।।
का ते कांताधनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका भवति भवावितरणे नौका।।



सूत्र के पूर्व, मनुष्य-मन की एक अत्यंत अनिवार्य ग्रंथि समझ लेनी जरूरी है। उस ग्रंथि के कारण ही बहुत से लोग समझ कर भी चूक जाते हैं। उस ग्रंथि के कारण ही खाई से तो बचते हैं, खड्ड में गिर जाते हैं; एक अति से तो मन बच जाता है, उस बचने की प्रक्रिया में ही दूसरी अति पर चला जाता है।
कोई अतिशय भोजन करता है, भोजनपटु है; सारा रस भोजन के पास है। आज नहीं कल, किसी के बिना समझाए भी उसे समझ में आ जाएगा कि वह अपने शरीर को कष्ट दे रहा है। पीड़ा होगी; बीमारी होगी; यह देखने में कोई कठिनाई न होगी कि अतिशय भोजन स्वास्थ्यदायी नहीं है। लेकिन तब एक खतरा है कि वह उपवास करना शुरू कर दे; अति भोजन से दूसरी अति पर चला जाए कि भोजन-त्याग ही कर दे।
संसार में राग है। धन में मोह है। दूसरी अति पर जाना बड़ा सुलभ है। संसार छोड़ कर भाग जाए। जहां राग था, वहां विराग आ जाए। और जहां मोह था, वहां मोह के प्रति विरोध, शत्रुता पैदा हो जाए। जिन्हें अपना माना था, उन्हें शत्रु मानने की वृत्ति पैदा हो जाए। तब खाई से तो बचे, खड्ड में गिर गए; कोई बहुत भेद न हुआ।
शंकर के ये सूत्र वैराग्य समझाने के लिए नहीं हैं, सिर्फ राग की व्यर्थता बताने को हैं। राग व्यर्थ हो जाए, बस काफी है; राग गिर जाए, बस काफी है। कहीं राग गिरे और वैराग्य पकड़ जाए, तो चूक हो गई। राग का गिर जाना ही बस वैराग्य है; वैराग्य कोई राग के गिर जाने से अतिरिक्त बात नहीं है।
लेकिन होता उलटा है। इन सूत्रों को पढ़ कर न मालूम कितने लोगों ने--असंख्य लोगों ने--राग को तो न गिराया, वैराग्य को पकड़ लिया! राग तो बना ही रहा--वैराग्य की शक्ल में बना रहा। पहले पैर के बल चलते थे, फिर वे शीर्षासन करके खड़े हो गए; लेकिन कुछ बदला नहीं। कहीं शीर्षासन करने से कुछ बदलता है? सिर ऊपर हो कि नीचे, क्या फर्क पड़ता है? जब राग शीर्षासन करता है तो वैराग्य बन जाता है--साधारण आदमी का वैराग्य; तथाकथित संन्यासियों का वैराग्य। लेकिन जब राग गिर जाता है तो महावीर, बुद्ध और शंकर का वैराग्य पैदा होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक मानसिक बीमारी थी कि जब भी उसकी फोन की घंटी बजे, तो वह घबड़ा जाए, डरे--कि पता नहीं, मकान मालिक ने किराए के लिए फोन न किया हो; कि जिस दफ्तर में नौकरी करता है, कहीं उस मालिक ने नौकरी से अलग न कर दिया हो--हजार चिंताएं पकड़ें; फोन उठाना उसे मुश्किल हो जाए। तो मैंने उसे कहा कि तू किसी मनोचिकित्सक को दिखा ले।
दोत्तीन महीने उसने इलाज लिया। एक दिन मैं उसके घर गया, वह फोन कर रहा था। और उसे कंपते भी मैंने नहीं देखा, डरते भी नहीं! फोन करने के बाद मैंने पूछा कि मालूम होता है, चिकित्सा काम कर गई! अब डर नहीं लगता?
नसरुद्दीन ने कहा, डर की बात है; चिकित्सा जरूरत से ज्यादा फायदा की।
तो मैंने पूछा कि जरूरत से ज्यादा फायदा का क्या मतलब? फायदा काफी है; जरूरत से ज्यादा से तुम्हारा क्या प्रयोजन है?
उसने कहा, अब तो ऐसी हिम्मत आ गई कि घंटी नहीं भी बजती तो भी मैं फोन करता हूं। पहले घंटी बजने से डरता था; अब अभी-अभी जो फोन कर रहा था, घंटी बजी ही नहीं थी और मैंने मकान मालिक को डांट दिया। वह इतना डर गया है कि बोलता भी नहीं उस तरफ से। चुप! सांस की आवाज का भी पता नहीं चलता है।
एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत सुगम है। और मनुष्य-जीवन की यह बड़ी से बड़ी विडंबना है। कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। वह दूसरी अति हो गई। दूध का जला जैसे छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है, वैसा संसार से डरा हुआ व्यक्ति बहुत गहरे में परमात्मा से भी डर जाता है। संसार का जला हुआ परमात्मा को भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है।
संसार तो छूटना चाहिए--भय के कारण नहीं; क्योंकि जिसे भी तुम भय के कारण छोड़ोगे, वह छूटेगा नहीं; जिससे तुम भयभीत होओगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा; जिससे तुम डरोगे, वह तुम्हें और डराएगा; जिससे तुम भागोगे, वह तुम्हारे पीछे आएगा। क्योंकि भय तो भीतर है, भागोगे कहां? किससे भागोगे? संसार अगर बाहर होता तो भाग जाते। जहां जाओगे, वहीं संसार पाओगे। हिमालय की गुफा में भी तुम तो रहोगे--वही, जैसे तुम यहां हो।
इसलिए असली सवाल स्थान बदलने का नहीं है; न असली सवाल रंग-ढंग बदलने का है; असली सवाल तो भीतर की चित्त-दशा बदलने का है। अभी तुम्हारी जो चित्त की दशा है, वह एक तरफ अतिशय झुकी है। इसे दूसरी तरफ अतिशय मत झुका लेना, क्योंकि अतिशय ही रोग है। मध्य में जो संतुलित हो गया, वह मुक्त हो गया। इसलिए बुद्ध ने तो अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा--मध्य का मार्ग।
जो बीच में आ गया, वह पहुंच गया; जो न इस तरफ झुकता, न उस तरफ। जब तक झुकोगे एक तरफ, तब तक जीवन में कंपन रहेगा, थिरता न आएगी; तब तक स्वस्थ न हो सकोगे; तब तक डांवाडोल ही रहोगे। ठीक मध्य में ही, जैसे दीये की ज्योति ठहर जाए, हवा का कोई झोंका न हिलाए, ऐसी ही चेतना की ज्योति जब ठीक मध्य में ठहर जाती है--न वासना हिलाती है, न वैराग्य हिलाता है; न पूरब, न पश्चिम; न इस तरफ, न उस तरफ--कुछ कंपता ही नहीं। इसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है। उठो, बैठो--तुम्हारे भीतर कोई उठता नहीं, बैठता नहीं; भोजन करो, उपवास करो--तुम्हारे भीतर न कोई भोजन करता है, न उपवास करता है; संसार में रहो कि संन्यास में--न तुम्हारे भीतर संन्यास है और न संसार है। ऐसी परम मध्यावस्था ही वैराग्य है।
वैराग्य राग के विपरीत हो तो गलत है; वैराग्य राग से मुक्ति हो तो सही है। और यह बड़ा बारीक भेद है। वैराग्य राग के विपरीत हो तो समझ लेना कहीं चूक हो गई; क्योंकि जो राग के विपरीत है, वह राग से जुड़ा है।
सभी विपरीत आपस में जुड़े होते हैं। किसी से प्रेम करो तो उसकी याद आती है; किसी को घृणा करो तो भी उसकी याद पीछा नहीं छोड़ती। प्रेम और घृणा विपरीत हैं; लेकिन जुड़े हैं। मित्र तो भूल भी जाए, शत्रु नहीं भूलता। कांटा चुभता ही रहता है। मित्र से भी संबंध है और शत्रु से भी संबंध है।
तुम ऐसा मत समझना कि शत्रु वह है जिससे हमारे सब संबंध टूट गए। नहीं, अगर सभी संबंध टूट गए तो वह शत्रु कैसे होगा? शत्रु वह है जिससे मित्रता के संबंध न रहे, शत्रुता के संबंध बन गए; संबंध टूटे नहीं। संबंध टूट जाएं--न तो मित्र फिर मित्र है, न शत्रु फिर शत्रु है। संबंध बदल जाएं तो मित्र शत्रु बन जाता है, शत्रु मित्र बन जाते हैं।
मित्र को शत्रु बनाने में कितनी देर लगती है? एक क्षण में हो सकता है। शत्रु को मित्र बनाने में कितनी देर लगती है?
देर क्यों नहीं लगती? क्योंकि दोनों ही संबंध हैं। जरा सा रुख बदला--पूरब जाते थे, पश्चिम जाने लगे; पश्चिम जाते थे, पूरब जाने लगे; दोनों ही गतियां हैं, सिर्फ चेहरे को जरा सा बदलने की जरूरत है।
मैंने सुना है, इंग्लैंड में एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, एडमंड बर्क। लंदन के पास एक छोटे गांव में प्रवचन देने के लिए उसे बुलाया था, चर्च में बोलना था। थोड़ा भुलक्कड़ स्वभाव का आदमी था। तो यह अक्सर भूल हो जाती थी, समय पर नहीं पहुंचता, तारीख पर न पहुंचता, दूसरे दिन पहुंच जाता। तो उसने उस बार बड़ा हिसाब रखा, क्योंकि निमंत्रण देने वाले बहुत समझा-समझा कर कह गए थे कि आप ठीक समय पर, ठीक दिन पर पहुंच जाना; आप पर ही सब निर्भर है। चर्च की कोई वर्षगांठ थी।
तो शाम को सात बजे पहुंचना है तो दो बजे घर से निकल पड़ा। मुश्किल से घंटे भर का रास्ता था। अपने घोड़े पर बैठा। तीन बजे पहुंच गया। चर्च में तो कोई था ही नहीं। जलसा तो रात सात बजे होने को था। तो द्वार पर ही खड़ा था। अब क्या करना, तो उसने अपनी सिगरेट निकाली, मुंह से लगाई, माचिस जलाई; लेकिन हवा का रुख विपरीत था। तो उसने घोड़े को घुमा कर खड़ा कर लिया, ताकि सिगरेट जलने में बाधा न पड़े। सिगरेट तो जल गई और घोड़ा चल पड़ा। तीन बजे चर्च पहुंचा था, चार बजे अपने घर के सामने खड़ा था। उसने बड़े गौर से देखा कि चर्च का क्या हुआ? तब उसे याद आया कि सिगरेट जलाने को घोड़े का रुख बदल लिया था। वह सिगरेट पीने में लग गया और घोड़ा अपने घर की तरफ चल पड़ा।
इतना ही फर्क है दिशा के बदलने में। कोई जरा सी घटना--सिगरेट जलाने की घटना, रुख बदलने का कारण हो सकती है। मित्र शत्रु बन जाए, शत्रु मित्र बन जाए। पूरब से पश्चिम मुड़ जाएं, पश्चिम से पूरब मुड़ जाएं। कोई छोटी सी घटना--दिवाला निकल गया, कि पत्नी मर गई, कि बच्चे की मृत्यु हो गई--और आदमी घर छोड़ दे, त्यागी हो जाए। ये घटनाएं भी सिगरेट जलाने से ज्यादा मूल्य की नहीं हैं। पर रुख बदल सकता है। पर यह त्याग झूठा होगा। इस त्याग में घृणा होगी, समझ नहीं; इस त्याग में असफलता होगी, बोध नहीं; इस त्याग में विषाद होगा, मुक्तता नहीं।
एक और त्याग है, जिसमें हम रुख नहीं बदलते; संसार को ही गौर से देखते हैं, संसार की तरफ पीठ नहीं करते। पर उस गौर से देखने में ही संसार तिरोहित हो जाता है। उस बोध में ही, उस ध्यान की दशा में ही हम देख लेते हैं कि संसार का सारा संबंध व्यर्थ है। कोई नया संबंध निर्मित नहीं करते संसार से, कि अब तक हम आकर्षण से जुड़े थे, अब हम विकर्षण से जुड़ेंगे; अब तक हम संसार की तरफ दौड़ते थे, अब संसार के विपरीत दौड़ेंगे। नहीं, अगर ऐसा हुआ तो वैराग्य गलत हो गया। वह नया रोग है अब। और तब इस रोग से भी छुटकारा पाना पड़ेगा। वह स्वास्थ्य नहीं बना।
ऐसा समझो कि एक आदमी बीमार है। बीमारी तो चली गई, दवा पकड़ गई। अब वह दवा की बोतलें लिए घूमता रहता है। अब दवा की बोतलें नहीं छोड़ सकता।
बुद्ध कहते थे कि ऐसा समझो कि पांच नासमझों ने नदी पार की थी। फिर उन्होंने नाव को उठा कर सिर पर रख लिया। लोगों ने उनसे पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, इस नाव का हम पर बड़ा उपकार है; इसके बिना हम नदी पार न किए होते; हम इस नाव को कैसे छोड़ सकते हैं? हम ऐसे कृतघ्न नहीं हैं। वे नाव को सिर पर बाजार में ढोकर आ गए। लोगों ने कहा कि यह नाव पार करने वाली न हुई, यह तो बोझ हो गई। अब तुम जिंदगी भर इसको ढोते रहोगे! अब तुम कुछ और कर ही न पाओगे।
तुम जिन्हें संन्यासियों की तरह जानते हो--तुम्हारे तथाकथित महात्मागण--अगर गौर से देखो तो उनके सिर पर तुम नाव पाओगे। राग तो छूटा, वैराग्य चढ़ बैठा! क्योंकि राग की विपरीतता को उन्होंने पोषित किया।
शंकर जो कह रहे हैं, यह बात कुछ और है। वे इतना ही कह रहे हैं कि राग को गौर से देखो, ध्यानपूर्वक देखो, विवेकपूर्वक देखो। तुम्हारी बोध की अवस्था में राग के बादल छितर-बितर हो जाएंगे। कोई उनकी जगह वैराग्य आ जाएगा, ऐसा नहीं।
वैराग्य, राग का अभाव है, राग की शत्रुता नहीं। ऐसा नहीं कि तुम्हारे हृदय से राग चला जाएगा और वैराग्य आकर विराजमान हो जाएगा। नहीं, राग तो चला जाएगा, और कोई नहीं आएगा विराजमान होने को; राग तो हट जाएगा, उसका स्थान कोई भी नहीं लेगा। यही परम वैराग्य है।
इसलिए इन सूत्रों को समझने में भूल मत कर लेना; क्योंकि यह भूल बड़ी आसान है।
'कौन तुम्हारी कांता है? कौन तुम्हारा पुत्र है? यह संसार अत्यंत विचित्र है। तुम किसके हो? कौन हो? कहां से आए हो? मन में इन तत्व की बातों पर विचार तो करो।'
शंकर विचार करने को कह रहे हैं; चिंतन करने को कह रहे हैं; जागने को कह रहे हैं; होशपूर्वक देखने को कह रहे हैं। जल्दी वैराग्य मत ओढ़ लेना, अन्यथा ओढ़ा हुआ वैराग्य किसी काम न आएगा। विचारपूर्वक! तुम्हारे हृदय में प्रकाश हो समझ का, तो राग गिरेगा, कटेगा। अंधेरे को निकालने मत लग जाना, सिर्फ दीया जलाना काफी है।
इसलिए शंकर कहते हैं: 'कौन तुम्हारी कांता है?'
कौन है तुम्हारी पत्नी? कौन तुम्हारा पुत्र है? राह पर मिले अजनबी हैं। जिसे तुम अपना पुत्र कहते हो--नहीं पैदा हुआ था, कोई परिचय था? तुमने इसी पुत्र को पुकारा था पैदा हो जाने के लिए? जानते भी न थे, पुकारते कैसे? पता-ठिकाना भी तो मालूम न था; शक्ल-सूरत भी तो पहचानी हुई न थी। अनजान मिलन, अपरिचित लोगों का मिलन है।
लेकिन आदमी का मन भ्रांतियां खड़ी करता है। मेरा पुत्र है, मेरी पत्नी है, मेरा भाई है, बहन है--ये जो तुम संबंध जोड़ते हो, ये तुम कैसे जोड़ लेते हो, यह बड़ी विचित्र घटना है। जैसे राह पर चलते हुए दो लोग साथ हो जाते हैं। अपरिचित थे एक क्षण पहले, अब थोड़ी देर को साथ हो लिए। साथ थोड़ी देर का है, फिर अपनी-अपनी राह पर विदा हो जाएंगे। लेकिन उस थोड़ी देर में ही बड़े नाते-रिश्ते बना लेते हैं। कारण होगा कोई गहरा इसके पीछे। नाते-रिश्ते सच तो नहीं हैं; क्योंकि हम सब अपरिचित हैं--और वर्षों साथ रह कर भी परिचित नहीं हो पाते।
तुम अपनी पत्नी से परिचित हो? तीस-चालीस वर्ष साथ रह लिए हो। क्या सच में तुम कह सकते हो, तुमने उसे पूरा जान लिया? क्या तुम यह कह सकते हो कि वह जो भी कल करेगी, तुम उसकी भविष्यवाणी कर सकते हो?
एक क्षण बाद तुम्हारी पत्नी क्या करेगी, चालीस साल साथ रहने के बाद भी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। अभी मुस्कुराती थी, प्रसन्न थी; अभी नाराज है! कौन सी ऋतु आ जाएगी, कुछ कहना कठिन है; कौन सी चित्त-दशा पकड़ लेगी, कहना कठिन है।
पत्नी तुम्हें जानती है? ऊपर-ऊपर की पहचान है। भीतर कौन किसके जा सकता है? अपने ही भीतर जाना इतना मुश्किल है, दूसरे के भीतर जाना कैसे आसान होगा? लेकिन कारण कोई गहन होना चाहिए, क्यों हम नाते-रिश्ते बना लेते हैं?
आदमी अकेला है, इसलिए; अकेले में डर लगता है, इसलिए; अकेले में चिंता पकड़ती है, भय पकड़ता है, इसलिए। अकेले होने में बड़ी पीड़ा है। हम अकेले हैं। जमीन भरी-पूरी हो, पर प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। भीड़ में भी तुम हो, तब भी अकेले हो। यह अकेलापन काटता है। इस अकेलेपन से ऐसा लगता है कि कैसे बाहर निकलें। संबंध बनाते हो, संबंध रास्ते हैं जिनसे तुम अपने को भूलते हो और अपने अकेलेपन को भूलते हो। थोड़ी देर के लिए ऐसा लगता है, अकेले नहीं हैं।
तुमने कभी ख्याल किया? अंधेरी गली से गुजरते हो, अकेलापन डराता है, तो गीत गुनगुनाने लगते हो। ऐसे लोग तुमसे गीत गुनगुनाने को कहें तो तुम बहुत झेंपते हो, गीत न गाओगे। अकेली गली हो, सन्नाटा हो, रात हो, अंधेरा हो--गीत गुनगुनाने लगते हो! क्या कारण होगा गीत गुनगुनाने का? सीटी बजाने लगते हो! क्या कारण होगा? गीत गुनगुना कर अपनी ही आवाज को सुन कर ऐसा लगता है--अकेले नहीं हैं, कोई साथ है। अपने ही गीत में भूल कर क्षण भर को ऐसी भ्रांति हो जाती है कि कोई डर नहीं है। गीत हिम्मत देता है, जोश देता है।
अकेले में आदमी अपने से ही बात करने लगता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को परिपूर्ण एकांत में रखा जाए, तो तीन सप्ताह के बाद वह अपने से ही बातचीत शुरू कर देता है। करते तो तुम भी हो अपने से बातचीत, जोर से नहीं करते हो। अगर तुम खाली बैठे हो तो खाली नहीं होते, अपने से बात करते हो तो भीतर-भीतर। अगर कोई गौर से देखे तो तुम्हारे ओंठों का कंपन भी देख सकता है; क्योंकि जब तुम भीतर भी बात करते हो, तब भी ओंठ कंपते हैं। लेकिन अगर तीन सप्ताह तुम्हें निर्जन में रख दिया जाए, तो निर्जन इतना भयावह है--अकेले, इस विराट संसार में! इस महाशून्य में बिलकुल अकेले! घबड़ाहट होती है; प्राणों का रोआं-रोआं कंपने लगता है। तुम अपने से ही बात करने लगते हो।
तुमने पागलों को खुद से बात करते देखा है। वे तुम्हारे ही थोड़े बढ़े हुए रूप हैं। उनमें और तुममें मात्रा का ही भेद है, गुण का नहीं। तुम धीरे-धीरे करते हो, वे जरा हिम्मतवर हैं, उन्होंने जोर से चर्चा शुरू कर दी है। पागल भी इसीलिए अपने से बात करता है, वह बड़ा घबड़ा गया है। अपने से बात करके थोड़ी देर को भूल जाता है।
ये सब भुलाने के उपाय हैं, आत्म-विस्मरण के उपाय हैं।
एक जर्मन लेखक का संस्मरण मैं पढ़ रहा था। हिटलर के कारागृह में वह बंद था। उसने लिखा है कि मैं बहुत हैरान हुआ कि मुझे हमेशा छिपकलियों से डर लगता था, लेकिन मेरी उस कोठरी में सिर्फ एक छिपकली थी और मैं था--कारागृह में। छिपकली से, वह कहता है, मुझे सदा डर लगता रहा है; छिपकली मुझे कभी भायी नहीं; छिपकली को देख कर ही मन में कुछ वितृष्णा हो जाती थी। मगर उस कोठरी में छिपकली को पाकर भी मैं प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो है, मैं अकेला नहीं हूं। इस अंधेरी सीलन भरी कोठरी में कोई संगी-साथी है। और धीरे-धीरे, उसने लिखा है कि मैं छिपकली से बातें करने लगा। हंसता भी था कि यह भी क्या पागलपन है! लेकिन आखिर में ऐसी भी घड़ी आई कि मुझे यह भी शक होने लगा कि छिपकली उत्तर देती है। तब मैं अपनी तरफ से भी बोलता और छिपकली की तरफ से भी बोलता।
आदमी अकेला है; बहुत अकेला है। और इस अकेलेपन के साथ दो ही उपाय हैं: या तो तुम संसार बना लो, या तुम संन्यास बना लो।
संसार बनाने का अर्थ है: संबंध बनाओ, ताकि अकेलापन भूल जाए। और संन्यास बनाने का अर्थ है: इस अकेलेपन को स्वीकार कर लो, क्योंकि यह तुम्हारा स्वभाव है। इससे भागो मत, बचो मत; राजी हो जाओ, अंगीकार कर लो; यह तुम्हारा स्वभाव है। इससे भाग कर तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे। जन्मों-जन्मों यही तुमने चेष्टा की है और हारे, हार के सिवाय हाथ में कुछ भी न लगा।
संन्यास का अर्थ है: जो अपने अकेलेपन से राजी हो गया। अब न सीटी बजाता है, न गीत गाता है, न संबंध बनाता है--अपने से परिपूर्ण तृप्त है।
और एक बड़े मजे की घटना है: जितना तुम अपने से भागोगे, उतना ही और-और भागना पड़ेगा, उतना ही एकांत भयभीत करेगा; जितने तुम अपने से राजी हो जाओगे, उतना ही धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जिसे तुमने अकेलापन समझा था, वह अकेलापन नहीं है, एकांत है।
अकेलापन और एकांत में फर्क है। अकेलेपन का अर्थ है कि दूसरे की याद आती है; एकांत का अर्थ है, अपना होना काफी है। अकेलेपन में पीड़ा है, एकांत में आनंद है।
शंकर जब अकेले हैं, तो एकांत में हैं; तुम जब कहते हो, एकांत में हो, तब भी अकेले हो।
अकेले का मतलब है: दूसरे की गैर-मौजूदगी खलती है। एकांत का अर्थ है: अपने होने में बड़ा रस आता है। एकांत का अर्थ है: तुम अपने साथ प्रेम में पड़ गए।
ध्यान का अर्थ है: अपने ही प्रेम में पड़ जाना।
ध्यान का अर्थ है: अपने साथ ऐसे संबंध बना लेना कि अब दूसरे से संबंध बनाने की कोई जरूरत न रही।
ध्यान का अर्थ है: अपने में परिपूर्ण हो जाना।
तुम्हारा संसार, पूरा संसार तुम्हारे भीतर है; कुछ कमी नहीं है। तुम पूरे हो, परिपूर्ण हो, परमात्मा हो; अब कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसी भाव-दशा का नाम संन्यास है।
संसार हम बनाते हैं--अकेलापन खलता है। अकेलेपन को भरने के लिए हम बहुत उपाय करते हैं--धन से भरते हैं, मित्र से भरते हैं, परिवार से भरते हैं; धर्म, जाति, राष्ट्र से भरते हैं--न मालूम कितने उपाय करते हैं कि किसी तरह भीतर का यह गङ्ढ भर जाए; यह घाव पीड़ा देता मालूम पड़ता है। लेकिन यह घाव है, यहीं भ्रांति है; यह घाव नहीं है।
कल रात्रि ही एक संन्यासिनी मेरे पास आई। उसने कहा, जब से ध्यान करना शुरू किया है, तो ऐसा लगता है--हृदय मर गया; किसी से संबंध बनाने की कोई आकांक्षा नहीं रही; प्रेम में कोई रस नहीं मालूम होता; मित्रता भी व्यर्थ मालूम होती है।
उदास थी बहुत। क्योंकि पश्चिम से आई है। पश्चिम में अगर प्रेम मरने लगे तो लोग समझते हैं, जीवन गया; अगर भावनाएं छूटने लगें और संबंध टूटने लगें, तो लोग सोचते हैं: अब जीवन में सार क्या रहा? यह व्याख्या है उनकी, इसलिए उदास थी।
हमने पूरब में कुछ और गहरी खोज की है। हमने तो यह खोज की है कि जब कोई व्यक्ति परिपूर्ण अपने में ठहर जाता है, तो सब संबंध अपने आप बिखर जाते हैं। और यह महासौभाग्य की घटना है; इसमें कुछ दुखी होने का कारण नहीं है। जब व्यक्ति अपने में थिर होता है, कामवासना विसर्जित हो जाती है; संबंध बनाने की आतुरता चली जाती है। इतना धन्यभाग मालूम होता है भीतर कि अब किससे क्या संबंध बनाना! अब वह भिखारी की भांति लोगों के सामने हाथ नहीं फैलाता--कि तुम्हारे संबंध के लिए भिक्षा मांगता हूं, कि तुम्हारे बिना मैं न जी सकूंगा। अब वह जी सकता है अकेला। और जो अकेला जी सकता है, वही जी सकता है; बाकी सब जीना धोखा है, माया है। जो अकेला नहीं जी सकता, वह किसी के साथ भी कैसे जीएगा?
तो मैंने उस युवती को, संन्यासिनी को कहा--भयभीत न हो, दुखी भी मत हो, यह तेरी व्याख्या गलत है; पश्चिम की व्याख्या गलत है। आह्लादित हो कि तेरा धन्यभाग है, अहोभाग है कि अब कोई संबंध की आकांक्षा न रही।
संबंध सिवाय पीड़ा के और कुछ लाते भी नहीं, सिवाय दुख के और कुछ लाते भी नहीं। ठीक भी है कि दुख ही लाएंगे; क्योंकि दो दुखी लोग जब मिलते हैं तो एक-दूसरे को सुख कैसे दे पाएंगे! गणित भी तो थोड़ा सा साफ करो। जब दो दुखी व्यक्ति मिलते हैं, तो दुख दो गुना नहीं होता, अनंतगुना हो जाता है, गुणनफल हो जाता है।
तुम सुखी नहीं हो, इसलिए दूसरे को खोज रहे हो; तुम अपने अकेले में आनंदित नहीं हो, इसलिए दूसरे को खोज रहे हो। दूसरा भी तुम्हें इसीलिए टटोल रहा है; वह भी अपने साथ आनंदित नहीं है। ऐसे दो दुखीजन मिल जाते हैं--इस आशा में कि मिलन से सुख होगा। सुख कभी नहीं होता। हो नहीं सकता; क्योंकि दो भिखारी एक-दूसरे के सामने भिक्षापात्र फैलाए खड़े हैं। उनमें दाता कोई भी नहीं है, दोनों भिखारी हैं। दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं कि दूसरा कुछ दे।
तुमने जिनसे भी प्रेम किया है, आशा की है--कुछ दे; दूसरा कुछ दे।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि हम तो बहुत प्रेम करते हैं, लेकिन दूसरा हमें प्रेम नहीं करता।
तुम कैसे प्रेम करोगे? प्रेम तो केवल आनंद के शिखर से ही बहता है; वह गंगा तो आनंद के ही शिखर से बहती है। तुम आनंदित ही नहीं हो। तुम मांगने गए हो, दूसरा भी मांगने आया है; तुम छीनने गए हो, दूसरा भी छीनने आया है; न तुम्हारे पास कुछ है, न उसके पास कुछ है--दोनों प्रतीक्षा कर रहे हो कि दान मिले। प्रतीक्षा लंबी होने लगती है, और हताशा घिरने लगती है।
व्यक्ति अपने भीतर जब तक आनंदित न हो जाए, तब तक उसे कोई आनंदित कर भी नहीं सकता।
बड़ी प्राचीन कथा है कि परमात्मा ने आदमी को बनाया। आदमी अकेला था; अकेलापन उसे काटने लगा; अकेलेपन से वह घबड़ाया। उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि कोई संगी-साथी दो, मैं अकेला हूं। लेकिन परमात्मा के पास जितनी भी चीजें थीं, जो भी साज-सामान था, वह सब उपयोग कर चुका था; कुछ बचा न था। जंगल बनाए, पहाड़ बनाए, पशु-पक्षी बनाए; आदमी आखिरी बात थी। मजबूरी थी, कोई सामान नहीं बचा था, सामग्री नहीं बची थी।
पर आदमी बहुत रोया, चीखा-चिल्लाया, तो उसने कहा कि रुको। उसने स्त्री को बनाने की कोशिश की। सामान नहीं था तो उसने अलग-अलग पशु-पक्षियों से, फूलों से, पौधों से मांगा। चांद से कहा कि तेरी थोड़ी रोशनी दे दे, मोर से कहा कि तेरी थोड़ी अकड़ दे दे, कबूतरों से कहा कि तुम्हारी थोड़ी गुनगुनाहट दे दो, तोतों से कहा कि तुम्हारी थोड़ी वाणी दे दो, नदियों से कहा कि तुम्हारी थोड़ी चंचलता, गति दे दो, कोमल फूलों से कहा कि तुम्हारी थोड़ी कोमलता दे दो। ऐसा उसने मांगा सारे संसार से और स्त्री बनाई।
सात दिन बाद आदमी वापस पहुंचा, उसने कहा, यह भी क्या मुसीबत कर दी! हम तो सोचते थे साथ मिलेगा; यह स्त्री तो एक उपद्रव है। यह चौबीस घंटे चख-चख लगाए रखती है।
वह तोतों से मांगी थी वाणी। कोमल तो है बहुत, जब प्रेम करती है तो बड़ी कोमल है। लेकिन अकड़ भी इसकी बहुत है। वह मोरों से अकड़ मांगी थी। दयालु बहुत है, लेकिन कठोर भी बहुत है। अलग-अलग जगह से सामान इकट्ठा किया था।
बड़ी विरोधाभासी है। मैं तो घबड़ा गया--आदमी ने कहा--इससे तो अकेले बेहतर थे; लाख गुना बेहतर थे। इसे आप वापस ले लो।
परमात्मा ने स्त्री वापस ले ली। लेकिन सात दिन बाद आदमी फिर खड़ा था! उसने कहा कि माना कि वह उपद्रव भी करती है, लेकिन उसकी बड़ी याद आती है; अब उसके बिना मैं रह नहीं सकता। ये सात दिन न तो सो सका, न ठीक से खा-पी सका; कुछ भी करता हूं, याद उसकी ही मन में गूंजती रहती है। मुझे वापस लौटा दो।
फिर सात दिन बाद द्वार पर खड़ा था! कहने लगा, यह तो बड़ी मुसीबत है; न उसके साथ रह सकता हूं, न उसके बिना रह सकता हूं।
कहते हैं, परमात्मा ने पीठ मोड़ ली। उसने कहा कि अब यह बकवास मैं कब तक सुनूंगा? अब तुम जाओ, अपना निपटारा खुद ही करो। हर सात दिन बाद तुम आ जाओगे। न साथ रह सकते हो, न बिना उसके रह सकते हो। तो अब तुम ही निपटारा करो!
तब से आदमी निपटारा कर रहा है; अभी तक सुलझा नहीं। कभी सुलझेगा भी नहीं। क्योंकि जब तुम अकेले हो, तब तुम्हें अपना अकेलापन भयभीत करता है। जब तुम किसी के साथ हो, तो उसकी मौजूदगी काटने लगती है। जब तुम साथ हो, तब तुम अकेले होना चाहते हो; जब तुम अकेले हो, तब तुम साथ होना चाहते हो। जब तुम साथ हो, तब दूसरे की बुराइयां दिखाई पड़ने लगती हैं, दूसरा चुभने लगता है; जब तुम अकेले हो, तब खालीपन दिखाई पड़ता है, शून्य घेर लेता है। शून्य मौत जैसी मालूम होती है। साथ में भी दुर्गति होती है, एकांत में भी मुसीबत हो जाती है।
इसलिए आदमी हजार तरह के संबंध बनाता है। पत्नी को घर लाता है, ताकि अकेला न रहे। फिर पत्नी से बचने को होटल में बैठा रहता है। क्लबघर में बैठा है, क्लबघर का सदस्य बनता है कि वह पत्नी से बचना है। एक भूल करता है, फिर एक भूल से बचने को दूसरी भूल करता है, फिर दूसरी से बचने को तीसरी भूल करता है। एक शृंखला भूलों की हो जाती है। उसी को तुम जीवन कहते हो!
'कौन तुम्हारी कांता है? कौन तुम्हारा पुत्र? यह संसार अत्यंत विचित्र है।'
यहां तुम बिलकुल अजनबी हो; एक-दूसरे से कोई पहचान भी नहीं है। अपने से ही पहचान नहीं है, दूसरे से पहचान कैसे संभव होगी? जिसने अपने को जाना, वह दूसरे को भी जान लेगा। जिसने अपने को ही नहीं जाना, वह किसी को भी नहीं जान पाएगा। बिना जाने तुमने संबंध बना लिए हैं। सब संबंध सांयोगिक हैं। और तुम्हारी पूरी जिंदगी, तुम्हारा पूरा संसार संयोग पर खड़ा है।
तुम एक लड़की के प्रेम में पड़ गए। और तुम जब उसके प्रेम में पड़ गए तो तुम कहते हो--हम दोनों को परमात्मा ने एक-दूसरे के लिए बनाया है। और कुल मामला इतना है कि तुम दोनों एक ही मकान में रहते थे, और कोई खास मामला नहीं। या एक ही स्कूल में पढ़ने चले गए थे; संयोग की बात है। संयोग ही था कि मिलन हो गया, कोई सिद्धांत नहीं है पीछे। कोई किसी के लिए बनाया गया है, ऐसा नहीं है। पर आदमी संयोग में भी सिद्धांत खोजता है, नियति खोजता है, भाग्य खोजता है!
मुल्ला नसरुद्दीन अफ्रीका गया शिकार करने। वहां से वापस लौटा, तो मित्र इकट्ठे हुए उसकी कहानी सुनने को कि क्या हुआ। उसने बढ़ा-चढ़ा कर काफी कहानी सुनाई। और उसने कहा कि एक ऐसा जानवर भी वहां पाया कि जब नर जानवर को अपनी मादा को बुलाना होता है, तो वह जोर से चिंघाड़ता है; मादा कहीं भी हो, कितनी ही दूर हो जंगल में, सीधी भागी चली आती है। किसी मित्र ने आग्रह किया कि तुम, कैसी आवाज करता है, वह भी करके बताओ। तो उसने बड़े जोर से चिंघाड़ कर आवाज बताई। जब वह चिंघाड़ा, तभी बगल का दरवाजा खुला और उसकी पत्नी ने कहा, कहो जी क्या बात है? तो उसने कहा, देखो! सिद्धांत समझ में आया?
संयोग की बात है, कोई सिद्धांत नहीं है।
लेकिन आदमी को अगर लगे कि मेरा प्रेम भी संयोग है, तो कविता मर जाती है। संयोग? तुम मजनू से कहो कि लैला से मिलना संयोग है। कविता मर जाती है, रोमांस मर जाता है। नहीं, मजनू कहेगा, यह हो ही नहीं सकता। लैला मेरे लिए बनाई गई; मैं लैला के लिए बनाया गया। और सारा संसार बाधा डाले तो भी मिलन होकर रहेगा।
मजनू किसी दूसरे गांव में होते, तो कोई दूसरी लैला होती। यह पक्का है कि मजनू कोई न कोई लैला खोजते, लेकिन वह यही लैला होने वाली नहीं थी।
जिसको तुमने जीवन का ढांचा समझा है, वह ढांचा नहीं है, केवल संयोग है; घटनाएं हैं, सांयोगिक हैं। जो बेटा तुम्हारे घर में पैदा हो गया है, वह भी तुमने पैदा किया है, इस भूल में मत पड़ो--संयोग है। तुम संभोगरत थे और एक आत्मा पुनर्जन्म लेने को उत्सुक थी, और तुम निकट थे, और वह आत्मा गर्भ में उतर गई; तुम उपलब्ध थे और एक आत्मा पास थी, वह तुम्हारे गर्भ में उतर गई। एक गङ्ढा तुमने खोद कर रखा था, वर्षा हो रही थी, पानी बहा और गङ्ढे में भर गया। पास जो पानी था, वह भर गया; दूर जो था, वह किन्हीं और गङ्ढों में चला गया। संयोग है।
किसी का बेटा होना संयोग है, मां होना संयोग है, बाप होना संयोग है; मित्रता संयोग है, शत्रुता संयोग है। अगर इसे तुम ठीक से देख पाओ तो तत्क्षण, तुमने जो प्रगाढ़ संबंध बना रखे हैं, वे क्षीण हो जाएंगे; उनकी प्रगाढ़ता चली जाएगी।
'कौन तुम्हारी कांता? कौन तुम्हारा पुत्र? यह संसार अत्यंत विचित्र है। तुम किसके हो? कौन हो? कहां से आए हो? मन में इन तत्व की बातों पर विचार तो करो। और हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो'
क्योंकि अकेले विचार से कुछ भी न होगा। विचार अकेला पंगु है। सोचो जरूर, लेकिन सोचने भर से पहुंच न पाओगे। सोचने से बाधाएं तो कट जाएंगी, यात्रा न होगी; यात्रा तो भजन से होगी। यात्रा तो भावना से होगी, विचारणा से नहीं।
'सदा गोविन्द को भजो'
'सत्संग से निस्संगता पैदा होती है और निस्संगता से अमोह। अमोह से चित्त निश्चल होता है और निश्चल चित्त से जीवन-मुक्ति उपलब्ध होती है।'
इसे समझें, यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है।
'सत्संग से निस्संगता पैदा होती है।'
इसे तुम सत्संग की परिभाषा समझो। सत्संग वही है, जहां निस्संगता पैदा हो। जहां संबंध पैदा हो जाए, राग बन जाए, वह सत्संग न रहा; वह असत्संग हो गया। सत्संग का अर्थ ही यही है कि तुम्हें सत्य दिखाई पड़े; सत्संग का अर्थ यही है कि तुम्हारा सपना टूटे, आंखें खुलें
गुरु की खोज बस इसी बात के लिए है कि कोई तुम्हें जगा दे तुम्हारे सपने से। और तुमने जो संबंध बना रखे हैं, कोई तुम्हें उठा दे और बता दे कि ये सब भ्रांत हैं। इन सपनों में खोकर अपने जीवन को मत गंवा देना और इन संबंधों में अपनी आत्मा को मत डुबा देना। सब कामचलाऊ हैं, इन्हें अतिशय मूल्य मत दे देना। इतना मूल्य मत दे देना कि अपने को ही मिटाने को तत्पर हो जाओ। जानते रहना, औपचारिक हैं। आवश्यक हो सकते हैं संसार में, लेकिन अंतस-जगत में बिलकुल भी आवश्यक नहीं हैं। वहां तुम न तो अपने पिता को साथ ले जा सकोगे, न अपने बेटे को, न अपने भाई को, न मित्र को, न पत्नी को। वहां तुम अकेले ही जाओगे। इसलिए संबंधों में रहते हुए भी जानना कि तुम्हारा शुद्ध स्वरूप तो अकेला होना है। वह कहीं भूल न जाए; कहीं एकांत का सूर्य संबंधों की बदलियों में बहुत ज्यादा दब न जाए, खो न जाए।
'सत्संग से निस्संगता पैदा होती है और निस्संगता से अमोह।'
और जब तुम पाते हो कि तुम अकेले हो, फिर कैसा मोह?
'अमोह से चित्त निश्चल होता है।'
और जब कोई मोह नहीं होता, तो चित्त डांवाडोल नहीं होता।
मैंने सुना है, एक भवन में आग लगी। जिसका मकान था, वह छाती पीट कर रोने लगा। लेकिन भीड़ में से किसी ने कहा, मत रोओ, व्यर्थ रो रहे हो। तुम्हें शायद पता नहीं, तुम्हारे बेटे ने कल यह मकान बेच दिया।
आंसू रुक गए, रोना बंद हो गया। मकान अब भी जल रहा है, आग की लपटें अब भी पकड़ रही हैं, लेकिन अब कोई रोना नहीं है, क्योंकि मकान अपना नहीं है।
लेकिन तभी बेटा भागा हुआ आया; उसने कहा, बातचीत हुई थी, अभी बेचा नहीं है।
फिर आंसू बहने लगे; फिर वह आदमी छाती पीट कर रोने लगा कि लुट गए। मकान अब भी वही है। मकान में लगी आग से थोड़े ही रो रहा है; मकान से जो संबंध है, वही रुलाता है, वही उलझाता है। मकान में आग लगे तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारा न हो, तो क्या फर्क पड़ता है?
बेटा मरे, तुम्हारा न हो, तो क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारा है, इससे फर्क पड़ता है। बेटे के मरने से थोड़े ही आंसू आते हैं आंखों में। मेरा मरा, इससे आंसू आते हैं।
अगर तुम्हें पता चल जाए कि मेरा कोई भी नहीं है, दुख गया। मोह के साथ ही दुख चला जाता है। अगर तुम्हें साफ-साफ हो जाए कि मेरा कोई भी नहीं है, मैं बिलकुल अकेला हूं, तो चित्त निश्चल हो जाता है; फिर चित्त में चंचलता नहीं रह जाती; तब तुम थिर हो जाते हो। वही थिरता परम अनुभूति है। उसी थिरता में तुम जान पाते हो तुम कौन हो। जीवन का आत्यंतिक प्रश्न सुलझता है कि मैं कौन हूं। ज्योति थिर होते ही उत्तर मिल जाता है, समाधान हो जाता है। उस थिरता को ही हमने समाधि कहा है। समाधि--क्योंकि सब समाधान हो जाता है।
'और निश्चल चित्त से जीवन-मुक्ति उपलब्ध होती है। हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो'
'उम्र बीतने पर कामवासना क्या? पानी के सूख जाने पर तालाब कहां? और धन के नष्ट हो जाने पर परिवार कौन है? वैसे ही तत्वज्ञान होने पर संसार कहां? अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो'
'तत्वज्ञान होने पर संसार कहां?'
इसे समझ लें। जब भी शंकर, बुद्ध या महावीर संसार की बात करते हैं, तो तुम समझ लेते हो कि यह जो चारों तरफ फैला हुआ है, इस विस्तार की बात कर रहे हैं, तो गलती कर देते हो। इस विस्तार से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। जब भी वे कहते हैं 'संसार', तो उनका अर्थ है: तुम्हारे मोह ने जो जाना; तुम्हारे मोह ने जो बनाया; तुम्हारे अज्ञान से जो उपजा; तुम्हारी मूर्च्छा से जो पैदा हुआ--वही संसार। ये वृक्ष तो फिर भी रहेंगे; ये पहाड़-पत्थर, चांदत्तारे तो फिर भी रहेंगे। तुम जाग जाओगे, तब भी रहेंगे; ये नहीं मिट जाएंगे।
इसलिए लोग पूछते हैं कि जब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है और संसार मिट जाता है, तो फिर ये वृक्ष, पहाड़-पत्थर, चांदत्तारे, सूरज--इनका क्या होता है?
ये नहीं मिट जाते। वस्तुतः पहली दफा ये अपनी शुद्धता में प्रकट होते हैं। वही शुद्धता परमात्मा है। तब चांद नहीं दिखता तुम्हें, चांद में परमात्मा की रोशनी दिखती है; तब वृक्ष नहीं दिखते, वृक्षों में परमात्मा की हरियाली दिखती है; तब फूल नहीं दिखते, परमात्मा खिलता दिखता है; तब यह सारा विराट परमात्मा हो जाता है।
अभी तुम्हें परमात्मा नहीं दिखता, संसार दिखता है। और संसार एक नहीं है--यहां जितने मन हैं, उतने ही संसार हैं; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अपना संसार है। तुम्हारी पत्नी मरेगी तो तुम रोओगे, कोई दूसरा न रोएगा। दूसरे उलटे तुम्हें समझाने आएंगे कि आत्मा तो अमर है, क्यों रो रहे हो? दूसरे उलटे समझाने आएंगे; यह मौका न चूकेंगे वे ज्ञान बघारने का। ऐसे मौके कम ही मिलते हैं। तुमको ऐसी दीन-दशा में देख कर वे थोड़ा उपदेश जरूर देंगे। वे कहेंगे, कौन अपना है, कौन पराया है! क्यों रो रहे हो? कल उनकी पत्नी मरेगी, तब तुमको भी मौका मिलेगा; तुम जाकर उनको उपदेश दे आना कि कौन किसका है! यह संसार तो सब माया है!
प्रत्येक व्यक्ति का अपना संसार है। तुम्हारे चित्त के जो मोह हैं, तुम्हारी जो मूर्च्छा है, तुम्हारा जो अज्ञान है, तुम्हारी जो आसक्ति है, राग है--वही तुम्हारा संसार है। उस आसक्ति, राग, मोह, मूर्च्छा के माध्यम से तुमने जो देखा है, वह सब झूठ है, वह सच नहीं है। आंख पर जैसे परदे पड़े हैं, धुएं के बादल घिरे हैं।
शंकर कहते हैं: 'तत्वज्ञान हो जाने पर संसार कहां?'
सत्य बचता है; लेकिन सत्य में तुमने जितना जोड़ दिया था, वह खो जाता है।
'सदा गोविन्द को भजो'
'धन, जन और युवावस्था का गर्व मत करो, क्योंकि काल उन्हें क्षण मात्र में हर लेता है। इस संपूर्ण मायामय प्रपंच को छोड़ कर तुम ब्रह्मपद को जानो और उसमें प्रवेश करो।'
मैं एक गीत पढ़ रहा था आज सुबह ही; उसकी कुछ पंक्तियां मुझे प्रीतिकर लगीं।
जोर ही क्या था, जफाए-बागवां देखा किए
आशियां उजड़ा किया, हम नातवां देखा किए
कोई जोर नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं, कोई शक्ति नहीं। बगीचा उजड़ता रहेगा और तुम्हें खड़े होकर सिर्फ देखना पड़ेगा, तुम कुछ कर न सकोगे। घर उजड़ता रहेगा और तुम निरीह और असहाय देखते रहोगे, कुछ कर न सकोगे।
जोर ही क्या था, जफाए-बागवां देखा किए
आशियां उजड़ा किया, हम नातवां देखा किए
पूरी जिंदगी ऐसी ही कथा है। रोज उजड़ेगा बगीचा। यह वसंत सदा न रहेगा। यह युवावस्था सदा न रहेगी। यह गति और यह शक्ति सदा न रहेगी। रोज शक्ति क्षीण होती चली जाएगी। घर उजड़ेगा। और धीरे-धीरे मौत करीब आएगी। जीवन थोड़ी देर का सपना है। मौत प्रतिपल पास सरकती आती है। जिस दिन से पैदा हुए हो, उसी दिन से मर भी रहे हो। जन्म का दिन ही मौत का दिन भी है। टाल न सकोगे, भाग न सकोगे, मौत पास चली आती है।
'धन, जन और युवावस्था का गर्व मत करो।'
वह अहंकार थोथा है। सभी अहंकार थोथे हैं। थोथापन ही अहंकार का स्वभाव है। जो अपना नहीं है, उसे अपना मान लेता है; जो टिकना नहीं है, उसे स्थायी मान लेता है; जो बहा जा रहा है, आंख बंद किए मानता चला जाता है कि बह नहीं रहा है, ठहरा है।
झूठ तुम दूसरों से ही नहीं बोलते, अपने से भी बोलते चले जाते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया। द्वार पर दस्तक दिया; घर में सन्नाटा रहा, कोई जवाब नहीं। फिर दस्तक दी, कोई उत्तर नहीं मिला। तब उसने चिल्ला कर कहा कि मैं हूं नसरुद्दीन, कोई मकान मालिक नहीं कि किराया मांगने आया हूं; और न ही दूध वाला हूं, न सब्जी वाला; दरवाजा खोलो। फिर भी सन्नाटा रहा। उसने कहा कि सुनो, मैं हूं असली नसरुद्दीन
घर के लोगों को समझा रखा है कि कोई भी दरवाजे पर दस्तक दे तो बोलना मत, क्योंकि हजार उधारियां फैला रखी हैं। अब अपने ही घर के दरवाजे पर दस्तक देता है, खुद के लिए दरवाजा नहीं खुलता। तो बताना पड़ता है कि मैं हूं असली नसरुद्दीन। मगर फिर भी कैसे पक्का हो? कहने से कहीं कुछ होता है?
हम दूसरे को ही धोखा नहीं दे रहे हैं, हम धोखे का एक संसार खड़ा कर रहे हैं। हम अपने चारों तरफ झूठ बो रहे हैं। और उस झूठ में हम खुद घिर जाते हैं। एक अप्रामाणिकता है जो हमें पकड़ लेती है। फिर जीवन में हम जो भी करते हैं, वह सब झूठ होता चला जाता है।
जिस व्यक्ति को जागना है, उसे अपने पास झूठ बोने बंद कर देने चाहिए; और अपने पास जिन-जिन झूठों पर आस्था कर रखी है, उन आस्थाओं को विदा कर देना चाहिए। जानना चाहिए, यह शरीर टिकेगा नहीं। टिक नहीं रहा है; अभी भागा जा रहा है; प्रतिपल मर रहा है; मौत कल नहीं आएगी, अभी हो रही है। हम मर ही रहे हैं। मरना कोई घटना नहीं है कि सत्तर साल बाद घटेगी; सत्तर साल बाद घटने को कुछ न बचेगा, धीरे-धीरे चुकता होते जाएंगे। सत्तर साल बाद कुछ भी नहीं बचेगा घटने को, उसको तुम मौत कहते हो।
एक-एक बूंद करके जीवन चुकता जाता है, खाली होता जाता है। इसको तुम जीवन मत कहो, अन्यथा झूठ हो जाएगा। इसको तुम धीरे-धीरे आती मौत कहो, आहिस्ता आती मौत कहो। जन्मदिन मत मनाओ, सभी मौत के दिन हैं। और जिस दिन तुम अपने जन्मदिन में मौत को देख लोगे और जीवन में मृत्यु की पगध्वनि सुन लोगे, उस दिन तुमने सत्य जाना। वही सत्य मुक्तिदायी है। उस सत्य को जानते ही तुम किसी और खोज में लग जाओगे। धन व्यर्थ मालूम होगा; शरीर व्यर्थ मालूम होगा; धन और शरीर के संबंध व्यर्थ मालूम होंगे; धन और शरीर के आधार पर खड़ा हुआ संसार व्यर्थ मालूम होगा। और सत्य को जानने के पहले असत्य को असत्य की भांति जान लेना जरूरी है।
'दिन और रात, संध्या और सुबह, शिशिर और वसंत, फिर-फिर आते हैं और जाते हैं। इसी तरह काल का खेल चलता है और अनजाने उम्र समाप्त होती जाती है। फिर भी आशा रूपी वायु पीछा नहीं छोड़ती।'
आशा जहर है। उसी जहर के सहारे तुम मरने को जीवन समझे बैठे हो। आज दुख है, मन कहता है, कल सब ठीक हो जाएगा। आज सुख नहीं है, मन कहता है, जरा रुको; कल आता है, सब ठीक हो जाएगा। और ऐसे ही मन तुम्हें अब तक चलाए लाया है--आशा के सहारे। जिस दिन तुम आशा छोड़ दोगे, उसी दिन जाग जाओगे। आशा सपना है।
तुमने कभी खयाल किया कि आशा का क्या काम है जीवन में?
आशा कहती है, आज की फिक्र छोड़ो! आज जो हो गया, हो गया; लेकिन कल निश्चित स्वर्ग मिलने को है। इसी आशा ने यहां तक भी तुम्हें समझा दिया है कि यह जीवन अगर गया तो कोई फिक्र नहीं, मरने के बाद स्वर्ग है। वह भी सब आशा का ही विस्तार है।
आशा कहती है--कल! आशा कहती है--भविष्य!
और जीवन और जीवन की क्रांति यदि घटनी है, तो अभी घटनी है और यहीं घटनी है। कल के भरोसे मत बैठो। कल कभी आता नहीं। कल झूठ है। और कल का जो भरोसा दिला रही है आशा तुम्हारे भीतर, वही सपने का सूत्र है; उससे ही सपनों का ताना-बाना फैलता है। आज ही करना है जो करना है; आज ही होना है जो होना है। आज से ज्यादा की आशा मत रखो।
पहले तो बड़ा धक्का लगेगा, क्योंकि आशा टूटेगी तो तुम्हें लगेगा कि तुम बिलकुल निराश हो गए। तुम कहोगे, यह तो बड़ी निराशा घेर ली। लेकिन अगर तुम निराशा के साथ रहने को राजी हो जाओ, तुम जल्दी ही पाओगे--जिसके जीवन से आशा चली गई, उसके जीवन में निराशा ज्यादा देर नहीं रह सकती; क्योंकि निराशा आशा का ही दूसरा पहलू है, वह आशा के साथ ही जाएगा। जिसके जीवन से आशा चली गई, उसके जीवन से निराशा भी चली जाती है। फिर न आशा होती है, न निराशा। वही थिरता है। वहीं ज्योति बीच में ठहर जाती है। फिर कोई कंपन नहीं होता। वही निष्कंप चेतना की दशा है।
'दिन और रात, संध्या और सुबह आते और जाते हैं। इसी तरह काल का खेल चलता है। अनजाने उम्र समाप्त होती है। फिर भी आशा रूपी वायु पीछा नहीं छोड़ती। अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो'
'हे पागल, पत्नी और धन की चिंता में क्यों पड़ा है? क्या तुझे मालूम नहीं कि सज्जन का क्षण भर का संग इस संसार से पार जाने की एकमात्र नाव है?'
कौन है सज्जन? वही, जिसके पास तुम्हारी नींद टूटे। जिसके पास तुम्हारी नींद और सघन हो जाए, वही दुर्जन है; जो तुम्हारे माया और मोह को बढ़ाने में सहायता दे, वही दुर्जन है।
लेकिन हालत उलटी है। जो तुम्हें जगाएगा, वह मित्र मालूम नहीं होता; जो तुम्हें सुलाता है, वही मित्र मालूम होता है। जो तुम्हें शराब पिलाता है, वह मित्र मालूम होता है; और जो तुम्हें होश में लाने की कोशिश करता है, वह शत्रु मालूम होता है। इसीलिए तो शराबखानों में भीड़ है, मंदिर खाली पड़े हैं। शराबखानों में क्यू लगा है, मंदिर के भगवान प्रतीक्षा करते हैं, कोई नहीं आता। पुजारी आता है, वह भी नौकर है; वह भी तनख्वाह पाता है, इसलिए पूजा कर जाता है। उसकी पूजा हार्दिक नहीं है; पेशेवर है। वह कोई प्रेमी नहीं है। क्या मामला है?
जहां-जहां नशा है, वहां-वहां तुम भीड़ देखोगे! सिनेमागृह के सामने भीड़ लगी है। तीन घंटे को नशा छा जाता है; खो जाते हो तस्वीरों में। भूल जाते हो अपना दुख-दर्द, अपनी पीड़ा; भूल जाते हो अपनी परेशानियां, चिंताएं; तीन घंटे के लिए अपने से छुटकारा हो जाता है। यह कोई छुटकारा कुछ काम आने वाला नहीं है। तीन घंटे बाद रोशनी होती है, पर्दा बंद होता है, तुम फिर अपनी जगह खड़े हो जाते हो--वही चिंता, वही दुख।
शराब भुला देती है दो-चार घंटों को, फिर होश आता है; फिर वही दुख, फिर वही पीड़ा। तुम अगर मंदिरों में भी जाते हो तो तुम्हारा इरादा शराब पाने का ही होता है।
यहीं फर्क है। भजन भी तुम दो तरह से कर सकते हो: एक तो शराब की तरह कि भजन में खो गए--चिंता मिटी, दुख-दर्द मिटा; उतनी देर तो याद न रही कि घर लौटना है, कि पत्नी-बच्चे हैं, कि पत्नी बीमार है, कि बच्चों को स्कूल में भर्ती कराना है, पैसे पास नहीं हैं--सब चिंता भूल गई; एक घंटे भर, दो घंटे भजन में डूब गए। अगर तुम भजन में भी डूब रहे हो, तो वह भी शराब है। भजन जगाए तो ही भजन है। तो मंदिर के नाम पर भी शराबखाने खुले हैं; और धर्म के नाम पर भी लोग बेहोशी खोजते हैं, होश नहीं खोजते।
ध्यान रखना, जहां होश मिलता हो, जहां तुम जगाए जाते होओ--और निश्चित ही जहां तुम जगाए जाओगे, वहां परेशानी होगी। क्योंकि नींद में बड़ी महिमा है, नींद में बड़े सुंदर सपने चल रहे हैं; जागना कठोर है। और जीवन के सत्य के साथ परिचय बनाना चुनौती है। मुश्किलें खड़ी होंगी। संघर्ष करना होगा। साधना से गुजरना होगा। तपश्चर्या होगी। वास्तविकता के साथ तो सिर्फ आंख बंद करके काम नहीं हो सकता, आंख खोल कर ही यात्रा करनी होगी। और रास्ता कंटकाकीर्ण है। और रास्ता भटका सकता है। जो कभी चलते ही नहीं, उनके भटकने का डर भी नहीं। जो अपने बिस्तर पर ही पड़े रहते हैं, उनके जीवन में कोई दुर्घटना तो हो ही नहीं सकती। लेकिन जो रास्ते पर चलेगा--दुर्घटना भी है, भटकने का उपाय भी है। और कठिनाई भी है, यात्रा श्रमपूर्ण है; क्योंकि यात्रा चढ़ाई की है; पहाड़ के शिखर की तरफ जाना है।
परमात्मा की तरफ जाने का अर्थ है शिखर की तरफ जाना। प्रतिपल कठिनाई बढ़ती जाएगी। और जो उस कठिनाई से पार होने को राजी है, वही शिखर के आनंद को उपलब्ध होगा।
आनंद मुफ्त नहीं मिलता, अर्जित करना होगा, श्रम करना होगा। यद्यपि श्रम से ही नहीं मिलता है; श्रम करने के बाद मिलता है, लेकिन मिलता तो प्रसाद से है। पर जिसने श्रम किया, जिसने अपने को तैयार किया, उस पर ही परमात्मा बरस सकता है।
'आशा रूपी वायु पीछा नहीं छोड़ती।'
तुम परमात्मा में भी आशा बांध लेते हो।
मेरे पास लोग आते हैं; मैं उनसे कहता हूं, आशा छोड़ कर ध्यान करो। वे कहते हैं, आशा ही छोड़ दें, तो फिर हम ध्यान ही क्यों करेंगे! आशा से ही ध्यान करने आए हैं--कि ध्यान से मन को शांति मिलेगी, परमात्मा मिलेगा, समाधि होगी।
अब बड़ी जटिलता है। आशा से बाधा पड़ेगी। क्योंकि जब तुम आशा कर रहे हो, तब तुम ध्यान नहीं करोगे, आशा ही करोगे; दोनों साथ-साथ नहीं कर सकते। थोड़ी देर ध्यान करोगे, लेकिन भीतर कोई झांक-झांक कर देखता ही रहेगा कि अभी तक शांति नहीं मिली, अभी तक कुछ हुआ नहीं! तीन दिन गुजर गए, अभी तक कुछ हुआ नहीं! अभी तक आनंद का कोई अनुभव नहीं हुआ!
तुम ऐसा ही समझो कि मैं तुमसे कहूं कि आओ, नदी चलें, तैरने में बड़ा आनंद है। तुम कहो निश्चित! तैरने में आनंद है? मैं भी आता हूं। लेकिन तुम तैरो कम और भीतर आशा बनाए रखो कि आनंद कब मिलेगा? अभी तक नहीं मिला! आधी नदी भी पार कर ली, अभी तक नहीं मिला! यह तो दूसरा किनारा भी करीब आने लगा, अभी तक नहीं मिला!
मिलेगा ही नहीं। क्योंकि आनंद का एक स्वभाव है कि तुम जब उसे नहीं खोजते, तभी वह तुम्हें खोजता है। जब तक तुम उसे खोजते हो, तब तक वह तुम्हें नहीं मिलता। क्योंकि जब तक तुम खोजते हो, तब तक तुम वर्तमान में नहीं होते, तुम्हारा मन तो कहीं और है--भविष्य में--अब मिलेगा, अब मिलेगा। और वह अभी मिलता है। जब तुम खोजते ही नहीं, जब तुम शुद्ध इस क्षण में होते हो--न कोई आशा, न कोई अपेक्षा, न कोई आकांक्षा, न कोई अभीप्सा--जब तुम इस क्षण में होते हो, तभी तुम पाते हो: सब तरफ से बरस गया। बरस ही रहा था, तुम मौजूद न थे; तुम गैर-मौजूद थे; तुम अनुपस्थित थे; तुम भविष्य में भटकते थे आशा के सहारे, और आनंद यहां बंट रहा था, तुम कहीं और भटक रहे थे, मेल न हो पाया।
जिस दिन तुम वर्तमान में होते हो--और वर्तमान में होने का एक ही उपाय है: सारी आशा, सारी आकांक्षा छूट जाए।
तो मैं उनको कहता हूं--ध्यान करो, आशा मत रखो; ध्यान को साधन मत बनाओ, ध्यान को साध्य समझो; करने में ही आनंद मानो, और आनंद मत मांगो; फल की आकांक्षा मत करो। अगर तुम कोई भी कृत्य बिना फल की आकांक्षा के कर सको, वही कृत्य ध्यान हो जाएगा।
कृष्ण ने अर्जुन को गीता में इतनी सी ही बात कही है, बार-बार दोहरा कर रही है, अनेक-अनेक रूपों में कहीं है--कि तू फलाकांक्षा मत कर। बस फलाकांक्षा ही संसार है। फलाकांक्षा का त्याग मोक्ष है। संसार से भागने की कोई भी जरूरत नहीं, बस फलाकांक्षा गिर जाए; तब तुम यहीं रहोगे और संसार मिट जाएगा।
'हे पागल, पत्नी और धन की चिंता में क्यों पड़ा है? क्या तुझे नहीं मालूम कि सज्जन का क्षण भर का संग इस संसार-सागर से पार ले जाने की एकमात्र नाव है?'
लेकिन मरते क्षण तक लोग व्यर्थ की चिंता में पड़े रहते हैं। सभी चिंताएं व्यर्थ की हैं। सार्थक का चिंतन होता है, चिंता नहीं होती।
मैंने सुना है, एक मारवाड़ी मर रहा था; मरणशय्या पर है। उसने अपनी पत्नी को पूछा कि बड़ा बेटा कहां है?
वह पास ही खड़ा है, पत्नी ने कहा, आप चिंता न करें।
अच्छा, और मंझला बेटा?
वह भी पास है, उसने कहा।
और छोटा बेटा?
वह पैर के पास खड़ा है, आप बिलकुल चिंता न करें, आप शांति से सोएं
मारवाड़ी उठा, उसने कहा, शांति से सोऊं--क्या मतलब? फिर दुकान कौन चला रहा है? सभी यहीं मौजूद हैं!
बाप मर रहा है, यह सोच कर सब बेटे वहां आ गए थे, दुकान बंद कर आए थे। लेकिन मरते बाप को भी मौत का कोई सवाल नहीं है--दुकान कौन चला रहा है? वह इसलिए भी नहीं पूछ रहा है कि कोई प्रेम है कि बड़ा बेटा कहां है, कि मंझला बेटा कहां है, कि छोटा बेटा कहां है। वह इसलिए पूछ रहा है कि दुकान का क्या हुआ! सभी यहीं मौजूद हैं? दुकान नहीं चल रही?
मौत के आखिरी क्षण तक भी तुम्हारे मन में दुकान ही चलती रहती है। चलेगी भी, क्योंकि जो जीवन भर चला है, वही मौत में भी चलेगा; तुम मौत में अचानक बदल न पाओगे अपने को।
तुम उन झूठी कथाओं में मत पड़ जाना, जिनमें कहा है कि कोई आदमी मरता था और उसके बेटे का नाम नारायण था, और उसने अपने बेटे को बुलाया कि नारायण, और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। इस धोखे में तुम मत पड़ना। ये कथाएं पंडितों ने गढ़ी हैं पापियों को सांत्वना देने के लिए। इन कथाओं के आधार पर पंडित थोड़ा-बहुत पैसा पापियों से छिटक लेते हैं। और कुछ होने का नहीं है।
ऊपर का नारायण धोखे में आ जाए, तो नारायण ही न रहा। और इस आदमी को स्वर्ग हो गया, क्योंकि मरते वक्त इसने नारायण को पुकारा। इतना सस्ता नारायण पाने योग्य भी न रह जाएगा। ऐसा मोक्ष दो कौड़ी का है, झूठ है। यह कहानी सच नहीं हो सकती।
जीवन भर का निचोड़ मौत में फलित होता है। तुमने जो जीवन भर गिना है, तुम मौत में वही गिनते हुए मरोगे। अगर तुम रुपये ही गिनते रहे हो, मरते वक्त भी संख्या चलती रहेगी; क्योंकि मौत तुम्हारे जीवन का सार-निचोड़ है। अगर जीवन भर अशांत रहे हो, अशांत मरोगे; अगर जीवन भर शांत रहे हो, तुम्हारी मौत महाशांति होगी।
हर व्यक्ति अलग ढंग की मौत मरता है, ध्यान रखना; क्योंकि हर व्यक्ति अलग ढंग का जीवन जीता है। न तो तुम्हारा जीवन एक सा है और न तुम्हारी मौत एक सी होगी।
जब बुद्ध मरते हैं तो उनकी मौत की महिमा और है। उनकी मौत की महिमा तुम्हारे तथाकथित जीवन से करोड़ गुना ज्यादा है। तुम्हारा जीवन भी उनकी मौत के मुकाबले नहीं है, उनकी मौत भी तुम्हारे जीवन से करोड़ गुना ज्यादा है। क्योंकि उस मौत के क्षण में सारा जीवन पास सिकुड़ आता है, सारे जीवन का संगीत सघनभूत हो जाता है--जैसे सारे जीवन के फूल निचोड़ लिए गए और इत्र बना लिया। मौत के क्षण में बुद्ध से जो सुगंध उठती है, वह जीवन भर के फूलों का निचोड़ है; और तुमसे जो दुर्गंध उठेगी, वह भी तुम्हारे जीवन भर के कूड़े-कर्कट का निचोड़ होगा।
मौत में अचानक न बदल सकोगे। इसलिए तुम पंडितों की बातों में मत पड़ना, जो तुमसे कहते हैं, धर्म आखिर में कर लेना। धर्म अगर करना है तो अभी और यहीं, आखिर के लिए मत स्थगित करना। क्योंकि आज से ही सम्हालोगे तो सम्हाल पाओगे, आज से ही जागोगे तो जागते जागते जाग पाओगे; आज से ही गुनगुनाओगे गोविन्द का नाम तो शायद मरते क्षण भी तुम्हारे ओंठ पर गोविन्द का नाम हो। और तभी ऊपर का गोविन्द सुन सकेगा।
तुम यह मत सोचना कि उधार पंडित तुम्हारे कान में मंत्रोच्चार कर देगा, कि गंगाजल तुम्हारे मुंह में डाल देंगे, और गीता तुम्हें सुना देंगे मरते वक्त। वह पंडित दोहराता रहेगा गीता, तुम्हें भीतर बिलकुल सुनाई न पड़ेगी। जिसने जीवन भर श्रवण की कला सीखी, वही मरते क्षण में गीता को सुन सकता है; जिसने जीवन भर गोविन्द को भजा है, मरते क्षण किसी उधार नौकर-चाकर को, पेशेवर को बुला कर गोविन्द का भजन न करवाना पड़ेगा; तुम्हारे भीतर के प्राण, तुम्हारी श्वास-श्वास, तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन गोविन्द को भजेगी
मौत के उस क्षण में तुम महाधन्यभाग से भरे, नाचते हुए परमात्मा की तरफ जाओगे। तुम्हारी मौत महाजीवन का द्वार बन जाएगी; तुम मौत को बदल डालोगे। अभी मौत तुम्हें मारती है, तब तुम मौत को मार डालोगे। और धर्म मौत को मारने की कला है; वह अमृत होने का विज्ञान है।
'इसलिए हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो'
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते

आज इतना ही।


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