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बुधवार, 12 नवंबर 2014

महावीर वाणी (भाग--2) प्रवचन--06

अकेले ही है भोगना—(प्रवचन—छठवां) 

दिनांक 18 सितम्बर, 1972;
द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

अशरण-सूत्र:

जमिणं जगई पूढ़ो जगा,
कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो
सयमेव कडेहि गाहई,
नो तस्स मुच्चेज्ज पुट्ठयं।।
न तस्य दुक्खं विभयन्ति नाइओ,
भित्तवग्गासुया न बंधवा।
एक्को सयं पच्चणुहोई दुक्खं,
कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं।।


संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता।
पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र वर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्धु। जब दुख आ पड़ता है, तब वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योंकि कर्म अपनेर् कत्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं।


पहले कुछ प्रश्न।

एक मित्र ने पूछा है--कल आपने समझाया कि मनुष्य की जीवेषणा ही उसके पुनर्जन्म को, संसार के दुख-चक्र को चलाये रखने का कारण है। लेकिन आप हमेशा कहते हैं कि "जीवन ही है परमात्मा' और आपकी पूरी देशना जीवन स्वीकार पर केंद्रित है। जीवेषणा का दुख मूल कारण है, ऐसा कहना जीवन-निषेधक लगता है।
जीवेषणा है कल, भविष्य में, और जीवन है अभी और यहीं। जो जीवेषणा से घिरा है वह जीवन से वंचित रह जाता है। और जिसे जीवन को जानना हो उसे जीवेषणा छोड़ देनी पड़ती है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
वासना कभी भी वर्तमान में नहीं होती, हमेशा भविष्य में होती है। और अस्तित्व सदा वर्तमान में होता है। आपका होना तो सदा होता है, अभी और यहीं। लेकिन आपकी वासना सदा होती है कहीं और, कहीं दूर। आप हैं अभी और यहीं, और आपका मन है कहीं और। आपकी आकांक्षा, अभीप्सा, वासना सदा भविष्य में है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है, सिवाय आपकी वासना को छोड़कर। भविष्य है ही आपकी वासना का विस्तार। अतीत है, आपकी स्मृतियों का संग्रह, भविष्य है आपकी वासनाओं का विस्तार। समय तो सदा वर्तमान है।
हम आमतौर से समय का विभाजन करते हैं--वर्तमान, अतीत, भविष्य--तीन टुकड़ों में तोड़ देते हैं समय को, वह भ्रांत है। अतीत और भविष्य समय के खण्ड नहीं हैं। अतीत है हमारी स्मृति और भविष्य है हमारी वासना। समय तो सदा वर्तमान है। समय तो सदा अभी है। समय के तीन टुकड़े नहीं हैं, समय तो एक अखण्ड धारा है, जो अभी है।
साधारणतः हम कहते हैं, समय बीत जाता है। ज्यादा अच्छा हो कहना कि हम बीत जाते हैं। समय को आपने कभी बीतते देखा है? कभी अतीत से आपका मिलना हुआ है? कभी भविष्य से आपकी मुलाकात हुई है? जब भी मिलन होता है, वर्तमान से ही होता है। लेकिन कभी आप बच्चे थे, अब आप जवान हैं--आप बीत गये। अभी आप जवान हैं, कल आप बूढ़े हो जायेंगे, और भी बीत जायेंगे। कभी पैदा हुए थे, कभी मर जायेंगे। कभी भरे थे, कभी चुक जायेंगे।
आदमी बीतता है। समय नहीं बीतता। हम खर्च होते हैं, समय खर्च नहीं होता। घड़ी चलकर यह नहीं बताती कि समय चल रहा है। घड़ी चलकर यह बताती है कि आप चूक रहे हैं, आप समाप्त हो रहे हैं। घड़ी आपके संबंध में कुछ बताती है, समय के संबंध में कुछ भी नहीं।
अगर इसे ठीक से समझ लें तो खयाल में आ जायेगा कि जीवेषणा और जीवन में क्या फर्क है। जीवेषणा का मतलब है, कल जीऊंगा। मुझे कल चाहिए जीने के लिए। आज नहीं जी सकता हूं। आज जो भी है, व्यर्थ है। जो भी सार्थक है, वह कल होगा। जो भी सुन्दर है, जो भी सुखद है, वह कल में छिपा है। जो भी दुखद है, अप्रीतिकर है, वह आज में प्रगट हुआ है। लेकिन कल तो कभी आता नहीं, जब भी आता है, आज ही आता है। कल भी आज ही आयेगा। और आज सदा व्यर्थ मालूम पड़ता है, और कल सदा सपनों से भरा मालूम पड़ता है।
तो हम ऐसे जीवन को स्थगित करते हैं। हम कहते हैं, कल जी लेंगे। आज तो जीने में असमर्थ पाते हैं अपने को, आज तो जीवन से जुड़ने की कला नहीं जानते, आज तो जीवन में डूबने और सराबोर होने का रास्ता नहीं जानते, आज तो जीवन ऐसे ही बीत जाता है; कल जी लेंगे, इस आशा में, इस भरोसे में आज को हम बिता देते हैं। लेकिन कल कभी आता नहीं, कल फिर आज आ जाता है। उस आज को भी हम वही करेंगे जो हमने आज किया, आज के साथ। कल फिर हम वही करेंगे। फिर हम आगे, कल पर टाल देंगे।
ऐसे आदमी टालता चला जाता है। मौत जब आती है, तो हमें जो दुख और पीड़ा होती है, वह मृत्यु की नहीं है। जो असली पीड़ा है, वह कल के समाप्त हो जाने की है। मौत जब द्वार पर खड़ी हो जाती है तो आज ही बचता है, कल नहीं बचता। मौत आपको नहीं मारती, भविष्य को मार देती है। मौत आपका अन्त नहीं है, भविष्य की समाप्ति है। अब आप अपनी वासना को आगे नहीं फैला सकते, अब कोई कल नहीं है। वह कल कभी भी नहीं था, लेकिन जो आपको जिन्दगी न बता सकी वह आपको मौत बताती है कि अब कल नहीं है। तब दीवार के किनारे आप अटके खड़े हो गये, अब यही क्षण बचा। अब क्या करें? जीवनभर की आदत है। आज तो जी नहीं सकते, कल ही जी सकते हैं। अब क्या करें?
इसलिए मौत की दीवार से टकराते लोग स्वर्ग की, मोक्ष की, पुनर्जन्म की भाषा में सोचने लगते हैं। उसका मतलब? अब वह कल को फिर फैला रहे हैं। अब वह यह कह रहे हैं, मरने के बाद भी शरीर ही मरेगा, आत्मा तो रहेगी। हम फिर जियेंगे, भविष्य में जियेंगे। उसका यह मतलब नहीं है कि आत्मा मर जाती है। लेकिन जितने लोग यह सोचते हैं कि आत्मा रहेगी, उनमें से शायद ही किसी को पता है, आत्मा के रहने का। उनके लिए यह फिर एक ट्रिक, एक तरकीब है मन की, वे फिर भविष्य को निर्मित कर रहे हैं।
एक बात तय है कि हम आज जीना नहीं जानते। वही अधर्म है। पर हम कैसे आज जीना जानेंगे? एक ही उपाय है कि हम कल की आशा में न जीयें, और आज चेष्टा करें जीने की, अभी। यह जो समय हमारे साथ अभी जुड़ा है, इसमें ही हम प्रवेश कर जायें, इस क्षण में हम उतर जायें।
जो आदमी बुद्धिमान है, वह ऐसा मानकर चलता है कि दूसरे क्षण मौत है। है भी। एक क्षण मेरे हाथ में है, दूसरे क्षण का कोई भरोसा नहीं। इस क्षण का मैं क्या उपयोग करूं, इस क्षण को मैं कैसे उसकी परिपूर्णता में निचोड़ लूं, कैसे इस क्षण को मैं पूरा जी लूं, कैसे यह क्षण व्यर्थ न चला जाये? ऐसी चिंता है बुद्धिमान की।
बुद्धिहीन की चिंता यह है कि इस क्षण को अगले क्षण के विचार में खो दूं, अगले क्षण को और अगले क्षण के विचार में खो दूंगा। ऐसे पूरे जीवन भ्रम होगा कि जीया, और जीऊंगा बिलकुल भी नहीं। हम सिर्फ पोस्टपोन करते हैं, स्थगित करते हैं--कलकलकल। एक दिन पाते हैं, मौत आ गयी। अब आगे कोई कल नहीं। तब छाती पर धक्का लगता है कि पूरा अवसर व्यर्थ खो गया।
जीवेषणा का अर्थ है, जीवन चूकने की तरकीब। इसलिए जीवन तो प्रभु है, जीवेषणा संसार है। जीवन तो धर्म है, जीवेषणा पाप है। क्या यह नहीं हो सकता कि हम इस क्षण से ही जुड़ जायें, डूब जायें, इसमें ही लीन और एक हो जायें? अगला क्षण भी आयेगा। लेकिन जो व्यक्ति इस क्षण में डुबकी लगाने में समर्थ है, वह अगले क्षण में भी डुबकी लगा लेगा।
जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, देखो! खेतों में खिले हुए लिली के फूलों को, वे कल की चिन्ता नहीं करते। वे अभी और यहीं खिल गये हैं। ऐसे ही तुम भी हो जाओ। डू नाट थिंक आफ टुमारो। कल की मत सोचो। लिली का फूल भी अगर कल की सोच सके, अगर किसी तरकीब से हम उसमें भी जीवेषणा पैदा कर दें, तो अभी कुम्हला जायेगा। आदमी का कुम्हलाना कल की चिन्ता का परिणाम है। बच्चे फूल की तरह खिले मालूम पड़ते हैं। क्या है कारण, क्या है राज! बच्चों के लिए अभी जीवेषणा नहीं है, जीवन ही है। अभी वे खेल रहे हैं, तो जैसे यहीं सब समाप्त हो गया, इसी खेल में सब पूरा है। इस खेल में वे अपनी समग्र आत्मा से उतर गये हैं, कल नहीं है। जिस दिन बच्चा कल की सोचने लगता है, समझना कि वह बूढ़ा होना शुरू हो गया।
जब तक बच्चा आज में जीता है, अभी में जीता है, तब तक समझना, अभी वह बचपन का सौंदर्य है। जिस दिन वह कल की सोचने लगे, समझो कि बुढ़ापे ने उसे पकड़ लिया। अब दुबारा बचपन बहुत मुश्किल हो जायेगा।
जीसस ने कहा है, वही मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे, जो बच्चों की भांति हैं। बच्चों की भांति होने का एक ही अर्थ है कि जो अभी और यहीं जीने में समर्थ हैं, वे स्वर्ग में प्रवेश कर जायेंगे। स्वर्ग कहीं और नहीं है, इसी क्षण में है। नरक कहीं और नहीं है, स्थगित जीवन में है, कल में है। अस्तित्व पास खड़ा है।
स्वामी राम एक कहानी कहा करते थे, वे कहते कि एक प्रेमी दूर चला गया। जो समय दिया था, नहीं लौट सका। पत्र उसके आते रहे, आऊंगा, जल्दी आता हूं, जल्दी आता हूं। वह टालता रहा आना। फिर प्रेयसी थक गयी प्रतीक्षा करते-करते और एक दिन उसके द्वार पर पहुंच गयी। सांझ हो गयी थी, अंधेरा उतर रहा था, छोटा सा दीया जलाकर वह अपने कमरे में बैठकर कुछ लिख रहा था। प्रेयसी ने बाधा न डालनी उचित समझी। वह सामने बैठ गयी। वह पत्र लिखता रहा--वह पत्र ही लिख रहा था। इसी प्रेयसी को लिख रहा था!
प्रेमियों के पत्र, उनका अंत नहीं आता। वह लम्बा होता चला गया। रात आगे बढ़ती चली गयी। उसने आंख भी न उठायी, आंख से आंसू बह रहे हैं। और वह पत्र लिख रहा है, और फिर समझा रहा है कि आऊंगा, जल्दी आऊंगा। अब ज्यादा देर नहीं है। और जिसके लिए पत्र लिख रहा है, वह सामने बैठी है। पर आंसुओं से धूमिल आंखें, पत्र में लीन उसका मन, भविष्य में डूबी हुई उसकी वासना, जो मौजूद है उसे नहीं देख पा रहा है।
फिर आधी रात गये उसका पत्र पूरा हुआ। आंखें उसने ऊपर उठायीं, भरोसा न आया। जिस दिन आप भी आंखें उठायेंगे भरोसा न आयेगा कि जीवन सामने ही बैठा है। वह घबरा गया। घबराकर उसने पूछा। अभी यही सोच रहा था कि कब देखूंगा अपनी प्रेयसी को, कब होंगे दर्शन? और अब दर्शन सामने हो गये हैं तो वह घबरा गया। समझा कि कोई भूत है, प्रेत है। घबराकर जोर से पूछा, कौन है तू?
उसकी प्रेयसी ने कहा, "क्या मुझे भूल ही गये? मैं बड़ी देर से आकर बैठी हूं। तुम लिखने में लीन थे, सोचा, बाधा न डालूं'
उसने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, "मैं तुझे ही पत्र लिखता था।'
हम सब भी, जिसे पत्र लिख रहे हैं जिस जीवन को, वह अभी और यहीं मौजूद है। जिसकी हम कामना कर रहे हैं, वह यहीं बिलकुल हाथ के पास निकट ही खड़ा है, लेकिन आंखें हमारी दूर भटक गयी हैं, कल्पना हमारी दूर चली गयी है, इसलिए पास नहीं देख पाती।
हम पास के लिए सभी अंधे हो गये हैं। दूर का हमें दिखायी पड़ता है, पास का हमें बिलकुल दिखायी नहीं पड़ता। पास देखने की क्षमता ही हमारी खो गयी है। अभ्यास ही हमारा दूर के देखने का है। जितना दूर हो, उतना साफ दिखायी पड़ता है। जितना पास हो उतना धुंधला हो जाता है।
जीवन है अभी और जीवेषणा है कल। जो अपने प्राणों को कल पर लगाये हुए है, उस विक्षिप्त चेतना का नाम जीवेषणा है। जो जीवेषणा को छोड़ देता है और अभी जीता है, यहीं, कल जैसे मिट ही गया। समय समाप्त हुआ। यह क्षण ही सारा जीवन हो गया। वह व्यक्ति उस द्वार को खोल लेता है जो जीवन का द्वार है।
जीवेषणा का विरोध जीवन का विरोध नहीं है, जीवेषणा का विरोध जीवन का स्वीकार है। यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। क्योंकि पश्चिम के विचारकों को भी ऐसा लगा कि महावीर, बुद्ध, ये सब जीवन विरोधी हैं। इन सबकी चिन्तना लाइफ निगेटिव है। अलबर्ट श्वाइत्जर ने बहुत गहरी आलोचना की है, भारतीय चिंतन की, चिंतना की; समस्त भारतीय विचारधारा की। और कहा है, कि कितनी ही सुन्दर बातें उन्होंने कही हों, लेकिन जीवन निषेधक, लाइफ निगेटिव हैं। जीवन के दुश्मन हैं ये लोग।
और श्वाइत्जर विचारशील मनुष्यों में से एक है। उसके कहने में अर्थ है। वह भी यही समझा कि सब छोड़ दो। जीवन की कामना ही छोड़ दो, तब तो जीवन की दुश्मनी हो गयी, शत्रुता हो गयी। तो धर्म फिर जीवन का साथी न रहा। फिर तो ऐसा लगता है कि अधर्म ही जीवन का साथी है और धर्म मृत्यु का।
इसलिए श्वाइत्जर ने कहा है, बुद्ध और महावीर और इस तरह के सारे चिंतक मृत्युवादी हैं। और कहीं न कहीं शत्रु हैं वे जीवन के, और जीवन को उजाड़ डालना चाहते हैं, नष्ट कर देना चाहते हैं।
फिर फ्रायड ने एक बहुत महत्वपूर्ण खोज की है इस सदी की। इस सदी में मनुष्य के मन के संबंध में जो महत्वपूर्ण जानकारियां मिली हैं, उनमें बड़ी से बड़ी जानकारी फ्रायड की यह खोज है। फ्रायड ने पूरे जीवन, जीवन की कामना पर श्रम किया है। लिबिडो वह नाम देता था, वासना को, कामना को--यौन, सेक्स, लेकिन इनसे भी बेहतर शब्द उसने खोज रखा था, लिबिडो। उसे हम जीवेषणा कह सकते हैं।
सब आदमी जीवेषणा से चल रहे हैं, और जिस दिन जीवेषणा बुझ जायेगी, उसी दिन आदमी बुझ जायेगा। लेकिन जीवन के अन्त-अन्त में फ्रायड को लगा कि यह आधी ही बात है। आदमी में जीवन की इच्छा तो है ही, यह बड़ी प्रबल कामना है। लेकिन उसे लगा कि यह अधूरी बात है, इसका दूसरा छोर भी है, क्योंकि इस जगत में कोई भी सत्य बिना द्वंद्व के नहीं होता, डायलेक्टिकल होता है। जब जन्म होता है तो मृत्यु भी होती है। तो अगर जीवन की वासना गहरे में है तो कहीं न कहीं मृत्यु की वासना भी होनी चाहिए, अन्यथा आदमी मरेगा कैसे? अगर जीवन की वासना से जन्म होता है तो फिर मृत्यु की भी कोई गहरी छिपी कामना होनी चाहिए।
तो जीवन की वासना को फ्रायड ने कहा, लिबिडो, और मृत्यु की वासना को उसने एक नया नाम दिया, थानाटोस--मृत्यु की आकांक्षा। क्योंकि एक आदमी आत्महत्या भी कर लेता है। एक आदमी बूढ़ा होकर सोचने लगता है, जीवन व्यर्थ है, नहीं जीना है। सिकोड़ लेता है अपने को। एक घड़ी आ जाती है जब लगता है, अब नहीं जीना है। ऐसा नहीं कि किसी विषाद से आ जाती हो, किसी फ्रसट्रेशन से। नहीं, सारे जीवन को देखकर ही ऊब हो जाती है और आदमी सोच लेता है, बस ठीक है, देख लिया, जान लिया। पुनरुक्ति है, वही-वही है, बार-बार वही-वही है। उठो सुबह, सांझ सो जाओ। खाओ-पियो, लेकिन अर्थ क्या है?
एक दिन आदमी को लगता है कि वह सब बचपना था, जिसमें मैंने अर्थ समझा, अभिप्राय देखा, कुछ भी न था वहां, राख सब हो जाती है। नहीं, कि असफल हो गया आदमी, हार गया, इसलिए मरने की सोच रहा है, कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो इसलिए मरने की सोचते हैं कि उनके जीवन की कामना बहुत प्रबल है।
आप एक स्त्री को चाहते थे, वह नहीं मिल सकी, आप कहते हैं कि हम नहीं जीयेंगे। इसका मतलब यह नहीं कि आप जीवन से उदास हो गये। आपका जीवन सशर्त जीवन था, एक कन्डीशन थी कि यह स्त्री मिलेगी तो ही जीयेंगे। यह मकान बनेगा तो ही जीयेंगे, यह धन मिलेगा तो ही जीयेंगे, नहीं तो नहीं जीयेंगे।
आप जीवन के प्रति बड़े मोह-ग्रस्त थे। आपने शर्त बना रखी थी। शर्त पूरी नहीं हुई, इसलिए मर रहे हैं। आप जीवन के विरोधी नहीं हैं, आप जीवन के बड़े मोही थे। और मोह ऐसा भारी था कि ऐसा होगा तो ही जीयेंगे। यह लगाव इतना गहरा हो गया था, यह विक्षिप्तता इतनी तीव्र थी, इसलिए आप मरने की तैयारी कर रहे हैं।
यह नहीं है थानाटोस। यह मृत्यु-एषणा नहीं है। मृत्यु-एषणा तो तब है जब कि जीवन में न कोई असफलता है, न जीवन में कोई विषाद है, लेकिन सब चीजें पूरी हो गयीं और सूर्यास्त हो रहा है। शरीर भी डूब रहा है, और मन भी अब जीने की बात से ऊब गया और मन भी डूब रहा है। ऐसा आदमी आत्महत्या नहीं करता, ध्यान रखना। आत्महत्या तो वही करता है जो अभी जीवन की आकांक्षा से भरा था। यह उल्टा मालूम पड़ेगा। लेकिन जितने आत्महत्यारे हैं, बड़े जीवन-एषणा से भरे हुए लोग होते हैं।
ऐसा आदमी आत्महत्या नहीं करता, आत्महत्या भी व्यर्थ मालूम पड़ती है। जिसे जीवन ही व्यर्थ मालूम पड़ रहा है, उसे आत्महत्या सार्थक नहीं मालूम पड़ती। वह कहता है, न जीवन में कुछ रखा है, न जीवन के मिटाने में कुछ रखा है। ऐसा आदमी चुपचाप डूबता है, जैसे सूरज डूबता है। झटके से छलांग नहीं लगाता, डूबता चला जाता है। लेकिन डूबने का कोई विरोध नहीं करता।
अगर ऐसा आदमी पानी में डूब रहा हो तो हाथ-पैर भी नहीं चलायेगा। न बचने में कोई अर्थ है, न ही वह अपने हाथ से डुबकी लगाकर मरना चाहेगा, गला घोटेंगा। न घोंटने में कोई अर्थ है। पानी के साथ हो जायेगा कि डुबाये तो डुबाये, डुबाये तो न डुबाये। जो हो जाये। सब बेकार है, इसलिए कुछ करने का भाव नहीं रह जाता।
इसको फ्रायड ने थानाटोस कहा है। बूढ़ी उम्र के, ज्यादा उम्र के लोगों को अकसर यह आकांक्षा पकड़ लेती है। यह आकांक्षा बूढ़ी उम्र के लोगों को भी पकड़ती है, और फ्रायड का कहना है, बूढ़ी सभ्यताओं को भी पकड़ती है। जब कोई सभ्यता बूढ़ी हो जाती है, जैसे, भारत। बूढ़ी से बूढ़ी सभ्यता है इस जमीन पर। हम इसमें गौरव भी मानते हैं।
सीरिया अब कहां है? मिस्र की पुरानी सभ्यता अब कहां है? यूनान कहां रहा? सब खो गये। बेबीलोन कहां है अब? खंडहरों में, सब खो गये। पुरानी सभ्यताओं में एक ही सभ्यता बाकी है--भारत। बाकी सब सभ्यताएं जवान हैं। कुछ तो बिलकुल अभी दुधमुंही, दूध पीती हुई बच्चियां हैं--जैसे अमेरिका। अभी उम्र ही तीन सौ साल की है। तीन सौ साल की कुल सभ्यता है। तीन सौ साल हमारे लिए कोई हिसाब ही नहीं होता। दस हजार साल से तो हम अपना स्मरण और अपना इतिहास भी सम्भालते रहे हैं। लेकिन तिलक ने कहा है कि कम से कम भारत की सभ्यता नब्बे हजार वर्ष पुरानी है। और बड़े प्रामाणिक आधारों पर कहा है। सम्भावना है कि इतनी पुरानी है।
तो फ्रायड कहता है, जैसे आदमी बूढ़ा होता है, ऐसे सभ्यताएं भी बच्ची होती हैं, जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं। जब सभ्यताएं बचपन में होती हैं तब खेल-कूद में उनकी उत्सुकता होती है, जैसे अमेरिका है। अमेरिका की सारी उत्सुकता मनोरंजन है, खेल-कूद है, नाच-गान है। हमें बहुत हैरानी होती है, उनका जाज, उनके बीटल, उनके हिप्पी, हमें देखकर बड़ी हैरानी होती है, लेकिन हमको समझ में नहीं आता। छोटे-छोटे बच्चे जैसे होते हैं, ऐसे छोटी सभ्यताएं होती हैं।
आज हिप्पी लड़के और लड़कियों को देखें ! उनके रंगीन कपड़े, उनके घूंघर, उनके गले में लटकी हुई मालाएं, यह सब छोटे बच्चों का खेल है। सभ्यता अभी ताजी है। बूढ़ी सभ्यताएं बहुत हिकारत से देखती हैं। जैसे बूढ़े बच्चों को देखते हैं--नासमझ।
फिर जवान सभ्यताएं होती हैं। जवान सभ्यताएं जब होती हैं, तब वे युद्धखोर हो जाती हैं, क्योंकि जवान लड़ना चाहता है, जीतना चाहता है। जैसे अभी चीन जवान हो रहा है, वह लड़ेगा, जीतेगा। अभी भाव विजय-यात्रा का है। फिर बूढ़ी सभ्यताएं होती हैं।
तो फ्रायड ने कहा है, जैसे व्यक्ति के जीवन में बचपन, जवानी, बुढ़ापा होता है, ऐसे सभ्यताओं के जीवन में भी होता है। अगर हम श्वाइत्जर और फ्रायड दोनों के खयालों को ध्यान में ले लें तो ऐसा लगेगा कि महावीर और बुद्ध की बातें एक बूढ़ी सभ्यता की बातें है जो अब मरने के लिए उत्सुक हो गयी हैं। जो कहती हैं, कुछ सार नहीं है जीवन में, कुछ अर्थ नहीं जीवन में। जीवन असार है। छोड़ो आशा, छोड़ो सपने, मरने के लिए तैयार हो जाओ।
और निर्वाण शब्द ने और भी सहारा दे दिया। बुद्ध का निर्वाण शब्द मृत्युसूचक है। निर्वाण का अर्थ होता है, बुझ जाना, मिट जाना, समाप्त हो जाना। निर्वाण का अर्थ होता है, दीये का बुझना। जब दीया बुझता है, तब हम कहते हैं, दीया निर्वाण को उपलब्ध हो गया। ऐसे ही जब अदमी के भीतर जीवेषणा की ललक, जीवेषणा की आकांक्षा, जीवेषणा की ज्योति बुझ जाती है, खो जाती है; उसको बुद्ध ने कहा है निर्वाण।
तो स्वभावतः श्वाइत्जर और फ्रायड को लगे कि यह कौम बूढ़ी हो गयी है। और केवल बूढ़ी नहीं हो गयी है, इतनी बूढ़ी हो गयी है कि जीने की कोई आकांक्षा नहीं रह गयी। फिर महावीर की, संथारा की धारणा ने और भी खयाल दे दिया। अकेले महावीर ही ऐसे व्यक्ति हैं पूरी पृथ्वी पर, जिन्होंने संन्यासी को मरने की सुविधा दी है और जिन्होंने कहा है कि अगर कोई संन्यासी मरना चाहे, तो हकदार है मरने का। इतनी हिम्मत की बात किसी और ने नहीं कही।
महावीर कहते हैं कि अगर कोई मरना चाहे, तो यह उसका हक है, अधिकार है। हम न मानना चाहेंगे, हम कहेंगे, पुलिस पकड़ेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा। अगर पकड़ लिए गये, अगर असफल हो गये, और हम असफल करने का सारा उपाय करेंगे। इसका तो मतलब हुआ, महावीर ने स्युसाइड की, आत्महत्या की आज्ञा दी, कि कोई संन्यासी मरना चाहे तो मर सकता है। किसी को हक नहीं है उसे जबर्दस्ती रोकने का।
इससे और भी खयाल साफ हो गया कि यह धारणा मृत्युवादी है, डेथ ओरिएंटेड है। जीवन से इसका संबंध कम और मृत्यु से संबंध ज्यादा है। तो यह लिबिडो के खिलाफ है। इसलिए ब्रह्मचर्य के पक्ष में है, काम के खिलाफ है। सिकोड़ने के पक्ष में है, फैलने के खिलाफ है। प्रेम के खिलाफ है, विरक्ति के पक्ष में है और अन्ततः मृत्यु के पक्ष में है, और जीवन के खिलाफ है। और महावीर से तो सहारा पूरा मिल गया, क्योंकि महावीर कहते हैं, आदमी को हक है मरने का।
लेकिन भूल हो गयी है। महावीर और बुद्ध जैसे व्यक्तियों को समझना सिर्फ ऊपर से, आसान नहीं है, भीतर उतरना बहुत जरूरी है। महावीर ने आत्महत्या की आज्ञा नहीं दी है, क्योंकि महावीर की शर्तें हैं। महावीर कहते हैं, वह आदमी मरने का हकदार है जिसको जीवन की कोई भी आकांक्षा शेष नहीं रह गयी, कोई भी।
इसलिए महावीर ने नहीं कहा कि जहर लेकर मर जाना। क्योंकि धोखा हो सकता है। एक क्षण में कभी ऐसा लग सकता है कि सब आकांक्षा खत्म हो गयी और आदमी मर सकता है। इसलिए महावीर ने कहा है कि जहर लेकर मत मर जाना। क्योंकि क्षण में धोखा हो सकता है। महावीर ने कहा, उपवास कर लेना। उपवास करके कोई मरेगा तो कम से कम नब्बे दिन लग जाते हैं। नब्बे दिन सोच विचार के लिए लम्बा अवसर है।
दुनिया में कोई आदमी नब्बे दिन तक आत्महत्या के विचार पर थिर नहीं रह सकता, और अगर रह जाये तो अपूर्व ध्यान को उपलब्ध हो गया। नब्बे दिन की बात अलग, वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सैकेंड भी आत्महत्या में चूके कि चूक गये। उसी वक्त कर लो तो कर लो। क्योंकि वह भावावेश में होती हैं, तीव्र भावावेश में। कोई दुख लगा और एक आदमी छलांग लगाकर छत से कूद गया। फिर अब बीच में समझ में भी पड़े तो कोई उपाय नहीं है। अब कूद ही गये, अब मरना ही पड़ेगा।
जितने लोग आत्महत्या करके मरते हैं, अगर हम उनको जिला सकें तो वे सभी कहेंगे कि हमसे गलती हो गयी। क्षण के आवेश
अकेले ही है भोगना
में आदमी कुछ भी कर लेता है। इसलिए महावीर ने कहा, आवेश नहीं चलेगा, नब्बे दिन का वक्त चाहिए। भोजन त्याग कर दो, पानी का त्याग कर दो।
जिस आदमी को जीवन का सब रंग चला गया है, उसको प्यास की पीड़ा भी अखरेगी नहीं। अगर अखरती है, तो अभी जीवन को जीने का रस बाकी है। जिस आदमी को जीवन का ही अर्थ चला गया, वह अब यह नहीं कहेगा कि मुझे भूख लगी है और पेट में बड़ी तकलीफ होती है, क्योंकि पेट की तकलीफ जीवन का अंग थी। वे सारी चीजें कि तकलीफ हो रही है, पीड़ा हो रही है, वह जीवेषणा को ही हो रही थी। अगर जीवेषणा नहीं रही तो ठीक है; भूख भी ठीक है, भोजन भी ठीक है, प्यास भी ठीक है, पानी भी ठीक है। न मिला तो भी ठीक है। मिला तो भी ठीक है। ऐसी विरक्ति आ जायेगी।
तो महावीर ने कहा है, नब्बे दिन तक जो शांतिपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा कर सके, अशांत न हो जाये, इसमें भी जल्दबाजी न करे, उसे आज्ञा है कि वह मर सकता है।
यह आत्महत्या नहीं है। यह जीवन से मुक्त होना है, जीवन की मृत्यु नहीं है। और जीवन से मुक्त होना कहना भी ठीक नहीं है, यह जीवेषणा से मुक्त होना है। लेकिन समझना कठिन है। और उन्होंने जो जो बातें कही हैं, जिनमें हमें लगता है कि निषेधक हैं, वे कोई भी निषेधक नहीं हैं। महावीर तो कहते ही यह हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने ही मन से मृत्यु को अंगीकार करता है, तभी परिपूर्ण जीवन को समझ पाता है।
इसे थोड़ा हम समझ लें। है भी यही बात। जब हमें सफेद लकीर खींचनी होती है तो हम काले ब्लैकबोर्ड पर खींचते हैं, सफेद दीवार पर नहीं। सफेद दीवार पर खींची गयी सफेद लकीर दिखायी भी नहीं पड़ेगी। जितना होगा काला तख्ता, उतनी उभरकर दिखायी पड़ेगी। जब बिजली चमकती है पूर्णिमा की रात में, तो पता भी नहीं चलती। और जब बिजली चमकती है अमावस को, तभी पता चलती है।
महावीर की समझ यह है कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु को अपने हाथ से वरण कर लेता है, मृत्यु को स्वीकार कर लेता है, तो मृत्यु का जो दंश है, दुख है, पीड़ा है वह तो खो गयी। मृत्यु एक काली रात्रि की तरह चारों तरफ घिर जाती है। और जब कोई व्यक्ति इसका कोई निषेध नहीं करता, कोई इनकार नहीं करता; तो मृत्यु पृष्ठभूमि बन जाती है, बैकग्राउंड बन जाती है। और पहली दफे जीवन की जो आभा है, जीवन की जो चमक है, बिजली है, जीवन की जो ज्योति है, इस चारों तरफ घिरी हुई मृत्यु के बीच में दिखायी पड़ती है।
जो जीवेषणा से घिरा है, वह जीवन को कभी नहीं देख पाता, क्योंकि वह सफेद दीवार पर लकीरें खींच रहा है। जो मृत्यु से घिरकर जीवन को देखने में समर्थ हो जाता है, वही जान पाता है कि मैं अमृत हूं, मेरी कोई मृत्यु नहीं है। यह जरा उल्टा मालूम पड़ता है, लेकिन जीवन के नियम के अनुकूल है।
मृत्यु की सघनता में घिरकर ही जीवन भी सघन हो जाता है। मृत्यु जब चारों तरफ से घेर लेती है तो जीवन भी अखण्ड होकर बीच में खड़ा हो जाता है। और जब हम मृत्यु में भी जानते हैं कि "मैं हूं', जब हम मृत्यु में डूबते हुए भी जानते हैं कि "मैं हूं', जब मृत्यु सब तरफ से हमें घेर लेती है, तब भी हम जानते हैं कि "मैं हूं', जब मृत्यु हमें शरीर के बाहर भी ले जाती है, तब भी हम जानते हैं कि "मैं हूं', तभी कोई जानता है कि मैं के होने का क्या अर्थ है। क्या है जीवन? वह हम मृत्यु में ही जानते हैं।
मरते हम सब हैं, लेकिन हमारी मृत्यु बेहोश है। मरते हम सब हैं, लेकिन नहीं मरने की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि मृत्यु को हम दुश्मन की तरह लेते हैं। और जब दुश्मन की तरह लेते हैं तो हम मृत्यु से लड़ते हैं। हम मरते नहीं, हम लड़ते हुए मरते हैं। हम मरते नहीं--शांत, मौन, ध्यानपूर्वक देखते हुए। हम इतना लड़ते हैं, इतना उपद्रव मचाते हैं, इतना बचना चाहते हैं कि उस चेष्टा में बेहोश हो जाते हैं।
मृत्यु की एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। जैसे कि सर्जन आपकी कोई हड्डी काट रहा हो तो अनस्थिसिया दे देता है, बेहोशी की दवा दे देता है। क्योंकि डर है कि जब वह हड्डी काटेगा तो आप लड़ेंगे काटने से कि न काटी जाये। घबरायेंगे, पीड़ित होंगे, परेशान होंगे । रेसिस्टेंस खड़ा होगा। तो आपके शरीर में दो तरह की धाराएं हो जायेंगी, एक तरफ काटने की बात है, और एक तरफ आप बचाने की चेष्टा करेंगे। अगर आपको सुई भी चुभाई जाये तो आप बचाने की चेष्टा करेंगे अपने को। स्वाभाविक है। तो बेहोश करना जरूरी है, ताकि आप उपद्रव खड़ा न करें।
मृत्यु सबसे बड़ी सर्जरी है। एक हड्डी नहीं कटती, सारी हड्डियों से संबंध कटता है। एक मांस-पेशी नहीं कटती, सारे मांस से संबंध टूट जाता है। जिस शरीर के साथ आप सत्तर वर्ष तक एक होकर जीये थे, और जिसके खून-खून और रोयें-रोयें में आपकी चेतना समाविष्ट हो गयी थी, और जिसमें समाविष्ट ही नहीं हो गयी थी, आपने एकात्म बना लिया था कि मैं शरीर हूं, उससे अलग होना बड़ी से बड़ी सर्जरी है।
आप होश में तभी रह सकते हैं, जब आपका मृत्यु से विरोध न हो। अगर विरोध न हो, आप मौन और शांति स्वीकारपूर्वक अगर मृत्यु में डूबें--उसी को महावीर ने संथारा कहा है, आत्म-मरण कहा है--तो आप बेहोशी में नहीं होंगे, तो मृत्यु को अनस्थिसिया की जरूरत नहीं पड़ेगी।
लेकिन हम इतने घबरा जाते हैं और इतने तनाव से भर जाते हैं और इतना बचना चाहते हैं और अपनी खाट को इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि कहीं मृत्यु छीनकर न ले जाये। इतने तनाव में भर जाते हैं कि वह तनाव एक सीमा पर आ जाता है। उस सीमा के आगे जाना असम्भव है। तत्काल शरीर अनस्थिसिया को छोड़ देता है और हम बेहोश हो जाते हैं। अधिक लोगअधिकतम लोग बेहोशी में मरते हैं, इसलिए हमें मृत्यु की फिर नये जन्म में कोई याद नहीं रह जाती। जो लोग होश में मरते हैं, उनको दूसरे जन्म में याद रह जाती है। क्योंकि याद हमेशा होश की रह सकती है, बेहोशी की याद नहीं रह सकती।
यह जो बेहोशी की घटना घटती है मृत्यु में, यह हमारी ही जीवेषणा का परिणाम है। तो महावीर कहते हैं, जीवेषणा छोड़ दो, जीयो। और जो जीवन को जीता है, अभी और कल की फिक्र नहीं करता, वह मृत्यु को भी जी लेगा, जब मृत्यु आयेगी, और कल की फिक्र नहीं करेगा। मृत्यु भी उसे जीवन की परिपूर्णता बन जायेगी, विरोध नहीं। वह मृत्यु को भी देख लेगा, पहचान लेगा। और जिसने होश से मृत्यु को देख लिया, उसने जीवन को भी देख लिया, क्योंकि वह होश, जो मृत्यु के मुकाबले भी टिक गया, वही है जीवन। वह जागृति जो मृत्यु भी न बुझा सकी, वह समझ जो मृत्यु भी मिटा न सकी, वह बोध जो मृत्यु भी धुंधला न कर सकी, वही बोध है जीवन।
महावीर जीवन विरोधी नहीं हैं, जीवेषणा विरोधी हैं। और जीवेषणा मिटे, तो ही जीवन का अनुभव सम्भव है।
अब हम उनके सूत्र को लें।
"संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता।'
"पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र, न पुत्र, न भाई, न बंधु। जब दुख आ पड़ता है तब अकेला ही उसे भोगना है, क्योंकि कर्म अपने कर्ता के पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं।'
इसमें कुछ क्रमिक रूप से हम बिन्दु समझ लें।
संसार में जितने प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं-- पहली बात। यह आधारभूत है। अगर आप दुखी होते हैं तो अपने ही कारण। लेकिन हम सभी सोचते हैं कि दूसरे के कारण। कभी आपने ऐसा समझा है कि दुखी आप हो रहे हैं, अपने कारण?
कभी भी नहीं। क्योंकि जिस दिन आप ऐसा समझ लेंगे, उस दिन आपके जीवन में क्रांति घटनी शुरू हो गयी, उस दिन आपने धर्म के मन्दिर में प्रवेश करना शुरू कर दिया।
हम सदा सोचते हैं, दुखी हो रहे हैं दूसरे के कारण। कभी ऐसा नहीं लगता कि अपने कारण दुखी हो रहे हैं। न वह गाली देता, न हम दुखी होते। न उस आदमी ने हमारी चोरी की होती, न हम दुखी होते। न वह आदमी पत्थर मारता, न हम दुखी होते। साफ ही है बात कि दूसरे हमें दुख दे रहे हैं इसलिए हम दुखी हो रहे हैं। अगर कोई हमें दुख न दे तो हम दुखी न होंगे।
यह बात इतनी तर्कपूर्ण लगती है हमारे मन को कि दूसरी बात का खयाल ही नहीं आता कि हम अपने कारण दुखी हो रहे हैं। पति पत्नी के कारण, बेटा मां के कारण, भाई भाई के कारण, हिन्दुस्तान पाकिस्तान के कारण, पाकिस्तान हिन्दुस्तान के कारण, हिन्दू मुसलमान के कारण, मुसलमान हिन्दुओं के कारण; सब किसी और की वजह से दुखी हो रहे हैं।
राजनीति का मौलिक आधार यह सूत्र है, कि दुख दूसरे के कारण है। और धर्म का यह मौलिक सूत्र है, कि दुख अपने कारण है। सारी राजनीति इस पर खड़ी है कि दुख दूसरे के कारण है। इसलिए दूसरे को मिटा दो, दुख का कारण मिट जायेगा। या दूसरे को बदल डालो, दुख का कारण मिट जायेगा। या परिस्थिति को दूसरा कर लो, दुख मिट जायेगा।
दुनिया में दो तरह की बुद्धियां हैं--राजनीतिक और धार्मिक। और ये दो सूत्र हैं उनके आधार में, अगर आप सोचते हैं कि दूसरे के कारण दुखी हैं तो आप राजनीतिक चित्तवाले व्यक्ति हैं।
आपको कभी खयाल भी न आया होगा, कि पत्नी सोच रही है, पति के कारण दुख है। इसमें कोई राजनीति है। पूरी राजनीति है। इसलिए राजनीति में जो होगा, वह यहां भी होगा। कलह खड़ी होगी। संघर्ष खड़ा होगा, एक दूसरे को बदलने की चेष्टा होगी, एक दूसरे को अपने ढंग पर लाने का प्रयास होगा, एक दूसरे को मिटाने की चेष्टा होगी।
हम इस भाषा में कभी सोचते नहीं। क्योंकि भाषा अगर सख्त हो तो हमारे भ्रम तोड़ सकती है। इसलिए हम ऐसा कभी नहीं कहते कि हम एक दूसरे को मिटाने की चेष्टा में लगे हैं, हम कहते हैं, एक दूसरे को बदल रहे हैं।
बदलने का मतलब क्या है?
तुम जैसे हो, वैसे मेरे दुख के कारण हो। तुमको मैं बदलूंगा। जब तुम अनुकूल हो जाओगे मेरे, तो मेरे सुख के कारण हो जाओगे।
दूसरी बात ध्यान में ले लें। चूंकि हम सोचते हैं कि दूसरा दुख का कारण है, इसलिए हम यह भी सोचते हैं कि दूसरा सुख का कारण है। न दूसरा दुख का कारण है, न दूसरा सुख का कारण है। सदा कारण हम हैं। जिस दिन आदमी इस सत्य को समझना शुरू कर देता है, उस दिन धार्मिक होना शुरू हो जाता है।
क्यों? यह जोर इतना क्यों है महावीर का कि दुख या सुख के कारण हम हैं। इसके जोर के गहरे अवलोकन पर निर्भर यह बात है। और यह कोई महावीर अकेले का कहना नहीं है। इस पृथ्वी पर जिन लोगों ने भी मनुष्य के सुख-दुख के संबंध में गहरी खोज की है, निरपवाद रूप से वे इस सूत्र से राजी हैं। इसलिए मैं नहीं कहता कि ईश्वर का मानना धर्म का मूल सूत्र है। क्योंकि बहुत धर्म ईश्वर को नहीं मानते खुद महावीर नहीं मानते। बुद्ध नहीं मानते। ईश्वर मूल आधार नहीं है धर्म का। कोई सोचता हो, वेद मूल आधार है तो गलती में है, कोई सोचता हो बाइबिल मूल आधार है तो गलती में है। कोई सोचता हो कि यह है मूल आधार धर्म का कि दुख और सुख का कारण मैं हूं, तो गलती में नहीं। तो धर्म की मौलिक पकड़ उसकी समझ में आ गयी। यह निरपवाद सत्य है।
वेद माने, कोई कुरान, कोई बाइबिल, महावीर, बुद्ध, जीसस, मुहम्मद, किसी को माने, अगर इस सूत्र पर उसकी समझ आ गयी है तो कहीं से भी रास्ता मिल जायेगा। अगर यह सूत्र उसके खयाल में नहीं आया तो वह किसी को भी मानता रहे, कोई रास्ता मिल नहीं सकता।
क्यों? मैं ही क्यों जिम्मेदार हूं अपने सुख और दुख का? जब कोई मुझे गाली देता है, स्वभावतः दिखायी पड़ता है कि वह गाली दे रहा है और मैं दुखी हो रहा हूं। लेकिन यह पूरी श्रृंखला नहीं है। आप आधी श्रृंखला देख रहे हैं।
मेरा कोई अपमान करता है, गाली देता है, मुझे दुख होता है। लेकिन यह श्रृंखला अधूरी है। यह दुख असली में इसलिए होता है कि मैं मान चाहता था, सम्मान चाहता था और कोई गाली देता है, अपमान करता है। जो मैं चाहता था, वह नहीं होता। दुखी होता हूं। मेरे दुख का कारण आपका अपमान करना नहीं है, मेरी मान की आकांक्षा है। मान की आकांक्षा जितनी ज्यादा होगी, उतना ही अपमान का दुख बढ़ता जायेगा। मान की आकांक्षा न होगी, अपमान का दुख कम होता जायेगा। मान की आकांक्षा शून्य हो जायेगी, अपमान में कोई भी दुख नहीं रह जाता।
तो दुख अपमान में नहीं है, मान की आकांक्षा में है। और ध्यान रहे, अपमान तो कोई बाद में करता है, पहले मान की आकांक्षा मेरे पास होनी चाहिये। मेरे पास मान की आकांक्षा हो तो ही कोई अपमान कर सकता है। जो मैंने चाहा ही नहीं है, उसके न मिलने पर कैसा दुख?
अगर चोर आपको दुख देता है, आपकी चीज छीन ले जाता है, तो ऊपर से साफ दिखता है कि चोर की वजह से दुख हो रहा है। लेकिन चीज को पकड़ने का मोह, परिग्रह का जो भाव था, उसके कारण दुख हो रहा है, वह खयाल में नहीं आता। मूल में चोर नहीं है, मूल में आप ही हैं। मूल में पकड़ना चाहते थे, यह चीज मेरी है। इसे कोई न छीने। और फिर कोई छीन लेता है तो दुख होता है। अपना ही लोभ, अपना ही परिग्रह चोर को दुख देने के लिए अवसर बनता है।
इसे हम खोजें ठीक से तो जहां भी हम दुख पायेंगे, वहां श्रृंखला की एक कड़ी हम देखते नहीं। उसे हम छोड़ जाते हैं। हम अपने को बचाकर सोचते हैं सदा। दूसरे से शुरू करते हैं, जहां से कड़ी की शुरुआत नहीं है। वहां से शुरू नहीं करते जहां से कड़ी की असली शुरुआत है।
कौन-सी चीज आपकी है? प्रूधो ने कहा है, सब सम्पत्ति चोरी है। इस अर्थ में कहा है कि आप नहीं थे तब भी वह सम्पत्ति थी, आप नहीं होंगे तब भी होगी। कोई सम्पत्ति आपकी नहीं है। आपने नहीं चुरायी होगी, आपके पिता ने चुरायी होगी। पिता ने नहीं चुरायी होगी, उनके पिता ने चुरायी होगी। लेकिन सब सम्पत्ति चोरी है, छीना-झपटी है। फिर कोई दूसरा चोर आपसे छीन ले जाता है। आप दुखी हो रहे हैं। चोरों का समाज है, उसमें एक चोर दूसरे चोर को सुखी कर रहा है, दुखी कर रहा है।
इसे अगर कोई ठीक से देखेगा कि जिसको भी मैं कहता हूं, मेरा, वहीं मैंने दुख की शुरुआत कर दी, क्योंकि मेरा कुछ भी नहीं है। मैं आता हूं खाली हाथ, बिना कुछ लिए और जाता हूं खाली हाथ, बिना कुछ लिए। इन दोनों के बीच में बहुत कुछ मेरे हाथ में होता है। इसमें कुछ भी मेरा नहीं है। जब मेरा कुछ भी नहीं है, ऐसा जिसको दिखायी पड़ जाये, चोर उसे दुखी नहीं करेगा।
रिन्झाई के बाबत सुना है मैंने, एक रात चोर उसके घर में घुस गया। कुछ भी न था घर में। रिन्झाई बहुत दुखी होने लगा। अकेला एक कम्बल था, जिसे वह ओढ़कर सो रहा था। वह बड़ा चिन्तित हुआ कि चोर आया, खाली हाथ लौटेगा। रात ठंडी है, इतनी दूर आया, गांव से पांच मील का फासला है। और फकीर के घर में कहां चोर आते हैं! और जो चोर फकीर के घर में आया, उसकी हालत कैसी बुरी न होगी। तो वह बड़ा चिन्तित होने लगा, और कैसे इसकी सहायता करूं, एक कम्बल है, वह मैं ओढ़े हूं। तो जो मैं ओढ़े हूं, वह तो यह ले न जा सकेगा। तो कम्बल को दूर रखकर सरककर सो गया।
चोर बड़ा हैरान हुआ कि आदमी कैसा है ! घर में कुछ है भी नहीं, एक कम्बल ही दिखायी पड़ता है, वह भी अलग रखकर अलग क्यों सो गया मुझे देखकर। वह लौटने लगा तो रिन्झाई ने कहा, ऐसे खाली हाथ मत जाओ। मन में पीड़ा रह जायेगी। कभी तो कोई चोरी करने आया। ऐसा अपना सौभाग्य कहां कि कोई चोरी करने आये ! है ही नहीं कुछ, यह कम्बल लेते जाओ। और अब जब दुबारा आओ तो जरा पहले से खबर करना। गरीब आदमी हूं, कुछ इंतजाम कर लूंगा।
चोर तो घबराहट में कम्बल लेकर भागा कि कहां के आदमी के चक्कर में पड़ गया हूं। लेकिन रास्ते में जाकर उसे खयाल आया कि भागने की कोई जरूरत न थी। पुरानी आदत से भाग आया हूं। इस आदमी से भागने की क्या जरूरत थी? वापस लौटा। वापस लौटा तो नग्न रिन्झाई लंगोटी लगाये खिड़की पर बैठा था, चांद को देख रहा था और उसने एक गीत लिखा था। चोर वापस आया तो वह गीत गुनगुना रहा था। उसका गीत बहुत प्रसिद्ध हो गया। उस गीत में वह चांद से कह रहा है कि मेरा वश चले तो चांद को आकाश से तोड़कर उस चोर को भेंट कर दूं।
चोर ने गीत सुना। वह चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा, "तुम कह क्या रहे हो? मैं चोर हूं, मुझे तुम चांद भेंट करना चाहते हो? मैं गलती से भाग गया, मुझे पास ले लो। कब ऐसा दिन आयेगा कि मैं भी तुम जैसा हो जाऊंगा ! अब तक जिनके घर में मैं गया, वे भी सब चोर थे। मालिक, मुझे पहली दफा मिला।'
कोई बड़े चोर हैं, कोई छोटे चोर हैं। कोई कुशल चोर हैं, कोई अकुशल चोर हैं। कुछ न्यायसंगत चोरी करते हैं, कुछ न्याय-विपरीत चोरी करते हैं।
पर उस चोर ने कहा, जिनके घर में भी गया, सब चोर थे। एक दफा पहला आदमी मिला है जो कि चोर नहीं है। और वे सब भी मुझे शिक्षा देते रहे हैं कि चोरी मत करो, लेकिन उनकी बात मुझे जंची नहीं, क्योंकि वह चोरों की ही बात थी। तुमने कुछ भी न कहा, लेकिन मेरी चोरी छूट गयी। मुझे अपने जैसा बना लो कि मैं भी चोर न रह जाऊं।
क्या हम अनुभव करते हैं, वह हम पर निर्भर है। यह रिन्झाई की करुणा चोर के प्रति, रिन्झाई की ही बात है। चोर के प्रति आपमें दुख पैदा होता, क्रोध पैदा होता, घृणा पैदा होती, लेकिन करुणा पैदा नहीं हो सकती थी। जो हममें पैदा होता है वह हमारे भीतर है। दूसरा तो सिर्फ बहाना है, दूसरा है सिर्फ बहाना। जो निकलता है वह हमारा है, लेकिन हमें अपना कोई पता नहीं; इसलिए जब बाहर आता है तब हम समझते हैं कि दूसरे का दिया हुआ है।
अगर आपके बाहर दुख आता है तो दूसरा केवल बहाना है। दुख आपके भीतर है। दूसरा तो सिर्फ सहारा बन जाता है बाहर लाने का। इसलिए जो आपके दुख को बाहर ले आता है, उसका अनुग्रह मानना। क्योंकि वह बाहर न लाता तो शायद आपको अपने भीतर छिपे हुए दुख के कुओं का पता ही न चलता। सुख भी दूसरा बाहर लाता है, दुख भी दूसरा बाहर लाता है, सिर्फ निमित्त है।
निमित्त शब्द का महावीर ने बहुत उपयोग किया है। यह शब्द बड़ा अदभुत है। ऐसा कोई शब्द दुनिया की दूसरी भाषा में खोजना मुश्किल है, निमित्त। निमित्त का मतलब है, जो कारण नहीं है और कारण जैसा मालूम पड़ता है।
आपने मुझे गाली दी, दुख हो गया, तो महावीर नहीं कहते कि गाली देने से दुख हुआ। वे कहते हैं निमित्त, गाली निमित्त बनी, दुख तैयार था, वह प्रगट हो गया। गाली कारण नहीं है, कारण तो सम्मान की आकांक्षा है। गाली निमित्त है। निमित्त का मतलब--सूडो कॉज, झूठा कारण, मिथ्या कारण। दिखायी पड़ता है यही कारण है, और यह कारण नहीं है। निमित्त का मतलब--कारण को छिपाने की तरकीब। असली कारण छिप जाये भीतर, और झूठा कारण बना लेने का उपाय।
इसलिए महावीर कहते हैं, संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने ही कारण दुखी होते हैं। और यह कारण क्यों उनके भीतर इकट्ठा हुआ है? कृतकर्मों के कारण। जो-जो उन्होंने पीछे किया है, उससे उनकी आदतें निर्मित हो गयी हैं। जो-जो उन्होंने पीछे किया है उससे उनके संस्कार निर्मित हो गये हैं, उनकी कंडीशनिंग हो गयी है। जो उन्होंने किया है, वही उनका चित्त है। जो-जो वे करते रहे हैं वही उनका चित्त है। उस चित्त के कारण वे दुखी होते हैं। चित्त है हमारे अनंत-अनंत कर्मों का संस्कार।
समझें--कल भी आपने कुछ किया, परसों भी आपने कुछ किया, इस जन्म में भी, पिछले जन्म में भी, वह जो सब आपने किया है उसने आपको ढांचा दे दिया है, एक पैटर्न। एक सोचने, समझने, व्याख्या करने की एक व्यवस्था आपके मन में दे दी। आप उसी व्याख्या से चलते हैं और सोचते हैं। उसी व्याख्या के कारण आप सुखी और दुखी होते रहते हैं और उस व्याख्या को आप कभी नहीं बदलते। सुख-दुख को बदलने की बाहर कोशिश करते हैं और भीतर की व्याख्या को पकड़कर रखते हैं। और आपकी हर कोशिश उस व्याख्या को मजबूत करती है। आपके चित्त को मजबूत करती है, आपके माइंड को और ताकत देती चली जाती है। जिसके कारण दुख होता है, उसको आप मजबूत करते जाते हैं और निमित्त को बदलने की चेष्टा में लगे रहते हैं। कारण छिपा रहता है, निमित्त हम बदलते चले जाते हैं। फिर बड़े मजे की घटनाएं घटती हैं--कितना ही निमित्त बदलो, कारण नहीं बदलता।
एक मित्र परसों मेरे पास आये। अमरीका में उन्होंने शादी की। काफी पैसा कमाया शादी के बाद। वह सारा का सारा पैसा अमरीका के बैंकों में अपनी पत्नी के नाम से जमा किया। खुद के नाम से कर नहीं सकते जमा, पत्नी के नाम से वह सारा पैसा जमा किया। अचानक पत्नी चली गयी और उसने वहां से जाकर खबर दी कि मुझे तलाक करना है। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गये। पत्नी भी हाथ से जाती है, वह जो चार लाख रुपया जमा किया है, वह भी हाथ से जाता है। अब किसी को कह भी नहीं सकते कि चार लाख जमा किया है, क्योंकि उसमें पहले यहां फंसेंगे कि वह चार लाख वहां ले कैसे गये। वह जमा कैसे किया?
मेरे पास वे आये। वे कहने लगे कि मैं पत्नी को इतना प्रेम करता हूं कि उसके बिना बिलकुल नहीं जी सकता। तो कोई योग में ऐसा चमत्कार नहीं है कि मेरी पत्नी का मन बदल जाये? वह खिंची चली आये? लोग योग वगैरह में तभी उत्सुक होते हैं जब उनको कोई चमत्कार खिंची चली आये, ऐसा कुछ कर दें।
मैंने उनसे कहा कि पहले तुम सच-सच मुझे बताओ कि पत्नी से मतलब है कि चार लाख से? क्योंकि योग में अगर पत्नी को खींचने का चमत्कार है तो चार लाख खींचने का भी चमत्कार हो सकता है। तुम सच-सच बताओ।
उन्होंने कहा, क्या कह रहे हैं, रुपया अकेला आ सकता है? तो पत्नी से कोई लेना-देना नहीं है। भाड़ में जाये, रुपया निकल आये। कहने लगे कि मैं तो उससे बहुत प्रेम करता था, क्यों मुझे छोड़कर चली गयी, समझ में नहीं आता। क्यों मुझे इतना दुख दे रही है? समझ में नहीं आता।
मैंने कहा, बिलकुल साफ समझ में आ रहा है, पत्नी को कभी तुमने भूलकर भी प्रेम नहीं किया होगा। तुमने भी पत्नी को शायद यह रुपया जमा करने के लिए ही चुना होगा। और पत्नी भी इन रुपयों के कारण ही तुम्हारे पास आयी होगी। मामला बिलकुल साफ है। वे कहने लगे, एक अवसर मुझे मिल जाये, पत्नी वापस आ जाये। तो मैंने, जो-जो भूलें आप बताते हैं, अब दुबारा नहीं करूंगा। आप मुझे समझा दें, कैसा व्यवहार करूं, क्या प्रेम करूं; लेकिन एक अवसर तो मुझे मिल जाये सुधरने का।
यह जो आदमी कह रहा है, एक अवसर मुझे मिल जाये सुधरने का, इसे अवसर मिले, यह सुधरेगा? यह हो सकता है पत्नी की हत्या कर दे। इसके सुधरने का आसार नहीं है कोई, सुधरना यह चाहता भी नहीं है। यह मान भी नहीं रहा है कि यह गलत है।
वह जो हमारे भीतर मन है, उसको तो हम मजबूत किये चले जाते हैं। मैंने उनसे कहा कि दूसरी शादी कर लो, छोड़ो भी। दूसरी शादी कर लो, इस बात को छोड़ो। पैसा फिर कमा लोगे। लेकिन अब दुबारा जमा मत करना अमेरिका में। तुम भी चोर थे, पत्नी भी चोर साबित हुई, चोर चोरों को खोज लेते हैं। लेकिन यह मत सोचो कि इसमें दुख का कारण पत्नी है। वे बड़े दुखी हैं, आंसू निकल-निकल आते हैं। ये वह चार लाख पर निकल रहे हैं, पत्नी से कोई लेना-देना नहीं है। बड़े दुखी हैं, लेकिन दुख का कारण वे सोच रहे हैं, पत्नी का दगा है। और दगा यह आदमी पत्नी को पहले से ही दे रहा है। इसका कोई लेना-देना नहीं है पत्नी से। वह रुपया ही सारा--सारा हिसाब-किताब है। यह मन तो भीतर वही का वही है। अगर यह कल फिर शादी कर ले तो फिर यही करेगा।
पश्चिम में मनसविद जिन लोगों के तलाकों का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, आदमी एक स्त्री से शादी करता है, तलाक देकर दूसरी से शादी करता है। फिर दूसरी बार भी वैसी ही स्त्री चुन लेता है जैसी पहली बार चुनी थी। एक आदमी ने आठ बार तलाक किया। सॉल्टर ने उसकी पूरी जिन्दगी का विवरण दिया है, और हर बार उसने सोचा कि अब दुबारा ऐसी पत्नी नहीं चुनूंगा। और हर बार फिर वैसी ही पत्नी चुन ले। छह महीने बाद उसे पता चला कि वह फिर वैसी ही पत्नी चुन लाया है।
भारतीय इसलिए कुशल थे कि नाहक परेशान क्यों करना! एक ही पत्नी चुननी है बार-बार, तो एक से निपटा लेने में हर्जा क्या है? कम से कम इतनी राहत तो रहेगी कि मौका मिलता तो दूसरी भी चुन सकते थे। चुन नहीं सकते हैं आप। और इसलिए भारतीय बड़े अदभुत थे कि वे पत्नी के चुनाव का काम खुद को नहीं देते थे, मां-बाप से करवा लेते थे, जो ज्यादा अनुभवी थे। जो जिन्दगी देख चुके थे और जिन्दगी की नासमझियां समझ चुके थे। इसलिए हमने व्यक्तियों के ऊपर नहीं छोड़ा था चुनाव।
अमरीका में सॉल्टर ने कहा कि इस आदमी ने आठ दफा शादी की और हर बार वैसी ही पत्नी फिर चुन लाया। कारण क्या है? चुनाव जिस मन से होता है वह तो वही है। इसलिए मैं दूसरा चुन भी कैसे सकता हूं? मुझे एक स्त्री की आवाज अच्छी लगती है, आंख अच्छी लगती है, चलने का ढंग अच्छा लगता है, शरीर की बनावट अच्छी लगती है, अनुपात पसन्द पड़ता है, उठना-बैठना पसन्द पड़ता है, व्यवहार पसंद पड़ता है, इसलिए मैं चुनता हूं।
जब मैं एक स्त्री को चुनता हूं तो मैं अपने मन को ही चुनता हूं, उसको नहीं चुनता, मेरी पसन्दगी को चुनता हूं। फिर यह स्त्री उपद्रवी मालूम पड़ती है, झगड़ालू मालूम पड़ती है। फिर इसमें दूसरे गुण दिखायी पड़ने शुरू होते हैं, तब मैं इसे तलाक देता हूं। फिर दुबारा मैं एक स्त्री चुनता हूं। मैं फिर वही गुण खोजूंगा जो मैंने पहली स्त्री में खोजे थे, और हर गुण के साथ जुड़ा हुआ दुर्गुण है। जो स्त्री एक खास ढंग से चलती है उसमें खास तरह का दुर्गुण होगा, और जो स्त्री एक खास तरह से मुझे पसन्द पड़ती है, उसका दूसरा पहलू भी खास ढंग का होगा, जो मुझे दिक्कत देगा। पहली स्त्री में मैंने उसका चेहरा चुन लिया, मैंने पूर्णिमा चुन ली, लेकिन अमावस भी है। और वह अमावस भी आयेगी। और जब अमावस आयेगी तब मुझे तकलीफ होगी। तब मैं कहूंगा, यह मैंने फिर भूल कर ली। लेकिन फिर तीसरी बार मैं चुनूंगा, लेकिन फिर मैं पूर्णिमा चुनूंगा। फिर अमावस होगी।
हर व्यक्तित्व के कैरेक्टर हैं। जो मुझे पसन्द पड़ता है उसके साथ जुड़ी हुई बात भी है। वह बात मुझे दिखायी नहीं पड़ रही है। वह जब दिखायी पड़ेगी, तब समझ में आयेगा। वह आदमी आठ दफा हर बार एक-सी स्त्रियां चुन लेता है।
इसे समझें। एक आदमी को ऐसी स्त्री पसन्द है जो बिलकुल दब्बू हो। हर बात में उसकी मानकर चले। लेकिन दब्बूपन भी एक तरकीब है दूसरे को दबाने की। दब्बू भी बिलकुल दब्बू नहीं होते। वह अपने दब्बूपन से भी दबाते हैं।
तो एक स्त्री आपने चुन ली कि दब्बू है, मानकर चलेगी, सब ठीक है। लेकिन यह पहला चेहरा है। यह सिर्फ शुरुआत है, यह खेल का प्रारंभ है, नियम हैं खेल के। आपको दब्बू स्त्री पसन्द है तो पसन्द पड़ गयी, लेकिन कोई आदमी दब्बू नहीं है भीतर से। कोई हो ही नहीं सकता दब्बू। तो जैसे ही काम पूरा हो गया, शादी हो गयी, रजि*सटरी हो गयी, अब वह दब्बूपन खिसकना शुरू हो जायेगा। वह तो सिर्फ तरकीब थी। वह उस व्यक्ति की तरकीब थी आपको पकड़ने की। वह तो मछली के लिए कांटे पर जो आटा लगा था, वही था।
लेकिन कोई आटा खिलाने के लिए नहीं बैठा रहता जाकर मछलियों को। वह कांटा खिलाने के लिए बैठा रहता है। जरूरी नहीं कि उसको भी पता हो, वह भी शायद सोचता हो कि आटा खिला रहे हैं मछलियों को। लेकिन आटा जब मुंह में चला जायेगा तो कांटा अटक
जायेगा। वह जो दब्बू मालूम पड़ रही थी, वह धीरे-धीरे शेर होने लगेगी। हालांकि उसके शेर होने के ढंग में भी दब्बूपन होगा। जैसे, अगर दब्बू स्त्री आपको सताना चाहे तो रोयेगी, चिल्लायेगी नहीं, क्रोध नहीं करेगी; लेकिन रोना भी जानखाऊ हो जाता है। और कभी-कभी तो क्रोधी स्त्री कम जानखाऊ मालूम पड़ेगी, निपट जायेगी। रोनेवाली स्त्री ज्यादा कुशलता से सताती है। आप यह भी नहीं कह सकते कि वह गलत है, क्योंकि रोनेवाले को क्या गलत कहो। वह आपको दोहरी तरह से मारती है। नैतिक रूप से भी आपको लगता है कि आप गलती कर रहे हैं। वह आपको अपराधी सिद्ध कर देगी। लेकिन तब, तब लगेगा कि फिर वही चुन लाये।
दुबारा फिर चुनने जायेंगे, फिर आपकी पसन्द, आपका जो मन है वह भीतर बैठा है। वह फिर दब्बू स्त्री पसन्द करता है। अब की दफा वह और भी ज्यादा दब्बू खोजेगा, क्योंकि पहली दफा भूल हो गयी, उतनी दब्बू साबित नहीं हुई। ध्यान रखना, और बड़ी दब्बू खोजेंगे तो और बड़ी उपद्रवी स्त्री मिल जायेगी। मगर यह चलेगा। क्योंकि हम जो मूल कारण है, उसे नहीं देखते, बाहर के निमित्त देखते हैं। और बाहर के निमित्त काम नहीं पड़ते।
महावीर कहते हैं, "अपने ही कृतकर्मों के कारण हम दुखी होते हैं।' अब अगर मैं दब्बू स्त्री पसन्द करता हूं तो यह मेरे लम्बे कर्मों, विचारों, भावों का जोड़ है। लेकिन मैं पसन्द क्यों करता हूं दब्बू स्त्री? मैं किसी को दबाना पसन्द करता हूं, इसलिए जब कोई मुझसे नहीं दबेगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा। असल में दबाना पसन्द करना ही पाप है। किसी को दबाना पसन्द करना ही हिंसा है। यह मैं गलत कर रहा हूं कि मैं किसी को दबाया हुआ पसन्द करूं।
स्वभावतः मैं भी दबाना चाहता हूं, दूसरे भी दबाना चाहते हैं। फिर कलह होगी, फिर दुख होगा और दुख मैं दूसरे पर थोपने चला जाऊंगा
"अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसके फल को भोगे बिना छुटकारा नहीं है।'
कैसा भी कर्म हो, कर्म का फल होकर ही रहता है। उसका कोई उपाय ही नहीं। उसका कारण? क्योंकि कर्म और फल दो चीजें नहीं हैं, नहीं तो बचना हो सकता है। कर्म और फल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं एक रुपये को उठाकर मुट्ठी में रख लूं और मैं कहूं कि मैं तो सिर्फ सीधे पहलू को ही मुट्ठी में रखूंगा, और वह जो उल्टा हिस्सा है वह मुट्ठी में नहीं रखूंगा, तो मैं पागल हूं। क्योंकि सिक्के में दो पहलू हैं। और कितना ही बारीक सिक्का बनाया जाये, कितना ही पतला सिक्का बनाया जाये, दूसरा पहलू रहेगा ही। कोई उपाय नहीं है एक पहलू के सिक्के को बनाने का। कोई उपाय नहीं है कर्म को फल से अलग करने का। कर्म और फल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्म एक बाजू, फल दूसरी बाजू छिपा है, पीछे ही खड़ा है। हम सब इसी कोशिश में लगे हैं कि फल से बच जायें। और कभी-कभी जिन्दगी की व्यवस्था में हम बचते हुए मालूम पड़ते हैं।
एक आदमी चोरी कर लेता है, अदालत से बच जाता है तो वह सोचता है कि वह फल से बच गया। वह फल से नहीं बचा, समाज के दण्ड से बच गया। फल से नहीं बचा। फल तो आत्मिक घटना है। अदालतों से उसका कोई लेना-देना नहीं है। कानून से उसका कोई संबंध नहीं है। फल से कोई नहीं बच सकता। सामाजिक व्यवस्था से बच सकता है, छूट सकता है। लेकिन बचने और छूटने का जो कर्म कर रहा है, उसके फल से भी नहीं बच सकता। भीतर तो बचाव का कोई उपाय ही नहीं है। मैंने किया क्रोध और मैंने भोगा फल, मैंने किया मोह और मैंने भोगा फल। मैंने किया ध्यान और मैंने भोगा फल। उससे बचने का कोई उपाय ही नहीं है। नहीं है उपाय इसलिए कि कर्म और फल दो चीजें नहीं हैं। नहीं तो हम एक को अलग कर सकते हैं, दूसरे को अलग कर सकते हैं। वे पहलू हैं।
इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। कुछ लोग सोचते हैं कि मैंने एक बुरा कर्म किया। फिर एक अच्छा कर्म कर दिया तो बुरे को काट देगा। वे गलत सोचते हैं। कोई अच्छा कर्म किसी बुरे कर्म को नहीं काट सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगना पड़ेगा। ऐसी काट-पीट नहीं चलती। यह कोई लेन-देन नहीं है कि मैंने आपको--आपने मुझे पांच रुपये उधार दिये, मैंने आपको पांच रुपये लौटा दिये, हिसाब-किताब साफ हो गया। इधर मैंने चोरी की, उधर दान कर दिया, मामला खत्म हो गया। इधर मैंने किसी की हत्या की, वहां एक बेटे को जन्म दे दिया, मामला खत्म हो गया।
आपके अच्छे और बुरे कर्म एक दूसरे को काट नहीं सकते, क्योंकि अच्छा कर्म अपने में पूरा है, बुरा कर्म अपने में पूरा है। बुरे कर्म का आपको दुखद फल और अच्छे कर्म का सुखद फल मिलता रहेगा। आप यह नहीं कह सकते कि हमने एक आम का बीज बो दिया, पहले एक नीम का बीज बोया तो नीम का कड़वा वृक्ष लग गया, फिर हमने एक आम का वृक्ष बो दिया तो आम का मीठा वृक्ष लग गया तो अब नीम का फल कड़वा नहीं होगा।
दोनों अलग-अलग हैं। नीम का फल अब भी कड़वा होगा। आम का फल अब भी मीठा होगा। आम की मिठास नीम की कड़वाहट को नहीं काटेगी। नीम की कड़वाहट आम की मिठास को नहीं काटेगी। बल्कि यह भी होगा कि जिसने नीम को भी चखा--अकेला नीम को चखा, शायद नीम उतनी कड़वी न मालूम पड़े, जिसने आम को भी चखा, नीम ज्यादा कड़वी मालूम पड़ेगी। जिसने नीम को भी चखा, आम ज्यादा मीठा मालूम पड़ेगा। कंट्रास्ट होगा, लेकिन कटाव नहीं होगा। दोनों साथ-साथ होंगे।
इसलिए महावीर कहते हैं, अच्छे का फल अच्छा है, बुरे का फल बुरा है। अच्छा बुरे को नहीं काटता, बुरा अच्छे को नष्ट नहीं करता। इसलिए हमें मिश्रित व्यक्ति मिलते हैं जिनको देखकर मुसीबत होती है। एक आदमी में हम देखते हैं कि वह चोर भी है, बेईमान भी है, फिर भी सफल हो रहा है। तो हमें बड़ी अड़चन होती है कि क्या मामला है? क्या भगवान चोरों और बेईमानों को सफल करता है? और एक आदमी को हम देखते हैं कि ईमानदार है, चोर भी नहीं है और असफल हो रहा है और जहां जाता है, तो ऐसे आदमी कहते हैं, सोना छुओ तो मिट्टी हो जाता है; कहीं भी हाथ लगाओ, असफलता हाथ लगती है। क्या मामला है?
मामला इस वजह से है, क्योंकि प्रत्येक आदमी अच्छे और बुरे का जोड़ है। जो आदमी चोर है, बेईमान है वह सफल हो रहा है, क्योंकि सफलता के लिए जिन अच्छे कर्मों का होना आवश्यक है साहस, दांव, असुरक्षा में उतरना, जोखिम--वे उसमें हैं; जिसको हम कहते हैं, ईमानदार आदमी और अच्छा आदमी असफल हो रहा है। न जोखिम, न दांव, न साहस, वह घर बैठकर सिर्फ अच्छे रहकर सफल होने की कोशिश कर रहे हैं। वह बुरा आदमी दौड़ रहा है। अच्छा आदमी बैठा है। वह बुरा आदमी पहुंच जायेगा। दौड़ रहा है, कुछ कर रहा है, और ये दोनों मिश्रित हैं।
हर आदमी एक मिश्रण है, इसलिए इस जगत में इतने विरोधाभास दिखायी पड़ते हैं। अगर कोई बुरा आदमी भी सफल हो रहा है और किसी तरह का सुख पा रहा है तो उसका अर्थ है कि उसके पास कुछ अच्छे कर्मों की सम्पदा है। और अगर कोई अच्छा आदमी भी दुख पा रहा है तो जान लेना, उसके पास बुरे कर्मों की सम्पदा है। और एक दूसरे का कटाव नहीं होता।
इसलिए महावीर कहते हैं, अच्छे कर्म कर करके कोई मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि अच्छे कर्म का फलबुरे कर्म केवल छोड़ देने से कोई मुक्त नहीं हो सकता। अच्छा और बुरा जब दोनों छूट जाते हैं तब कोई मुक्त होता है। इसलिए महावीर कहते हैं, पुण्य से मुक्ति नहीं होती, पुण्य से सुख मिलता है। पाप के छोड़ने से मुक्ति नहीं होती, केवल दुख नहीं मिलता। लेकिन पाप और पुण्य जब दोनों छूट जाते हैं--न अच्छा, न बुरा--तब आदमी मुक्त होता है।
मुक्ति, अच्छे और बुरे से मुक्ति है। मुक्ति, द्वंद्व से मुक्ति है। मुक्ति, विरोध से मुक्ति है। मोक्ष का अर्थ--अच्छे कर्मों का फल नहीं है। मोक्ष फल नहीं है।
महावीर की भाषा में स्वर्ग फल है, अच्छे कर्मों का। नरक फल है बुरे कर्मों का। और हर आदमी स्वर्ग और नरक में एक-एक पैर रखे हुए खड़ा है, क्योंकि हर आदमी मिश्रण है बुरे और अच्छे कर्मों का। आदमी की एक टांग नरक तक पहुंचती है और एक टांग स्वर्ग तक पहुंचती है। और निश्चित ही स्वर्ग और नरक के फासले पर जो आदमी खड़ा है उसको बड़ी बेचैनी, खिंचावआज नरक, कल स्वर्ग, सुबह नरक, सांझ स्वर्ग, इसमें तनाव, चिंता पैदा होगी।
महावीर कहते हैं, ये दोनों पैर हट जाते हैं स्वर्ग और नरक से, जब आदमी के सारे कर्म शून्य हो जाते हैं। कर्म की शून्यता मोक्ष है, कर्म का फल नहीं; शून्यता, जब सब कर्म क्षीण हो जाते हैं।
इसलिए महावीर कहते हैं, पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र, न पुत्र, न भाई, न बंधु। दुख आता है, तब अकेले ही भोगना है। क्योंकि कर्मर् कत्ता के पीछे लगते हैं, अन्य के नहीं। कर्म का फल आपको ही भोगना पड़ेगा, क्योंकि कर्म आपका है। कर्म दूसरे का नहीं है। मेरी पत्नी का कर्म नहीं है, मेरा कर्म मेरा है, मुझे भोगना पड़ेगा।
इस अर्थ में महावीर मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति परम स्वत*नतर है, दूसरे से बंधा नहीं है। और इसलिए कोई लेन-देन का उपाय नहीं है कि मैं दुख आपको दे दूं। हालांकि हम कहते हैंहम कहते हैं किसी को प्रेम करते हैं तो हम कहते हैं कि सब दुख मुझे दे दो। कोई उपाय नहीं है। और शायद इसीलिए आसानी से कहते हैं, क्योंकि कोई उपाय नहीं है। अगर ऐसा हो सके तो मैं नहीं मानता कि कोई किसी से कहेगा कि सब दुख मुझे दे दो। तब प्रेमी ऐसा सोचेंगे कि कब दूसरा मांग ले सब दुख। अभी हम बड़े मजे से कहते हैं कि तुम्हारी पीड़ा मुझे लग जाये, मेरी उम्र तुम्हें लग जाये। वह लगती-वगती नहीं है, इसलिए। लगने लगे तो फिर कोई कहनेवाला नहीं मिलेगा।
असल में प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। भीड़ में भी अकेला है। कितने ही संगसाथ में हो, अकेला है। वह जो चैतन्य की भीतर धारा है उसकी अपनी निजता है, इंडिविजुएलिटी है। और जो भी उस चेतना की धारा ने किया है, उसी धारा को भोगना पड़ेगा।
गंगा बहती है एक रास्ते से, नर्मदा बहती है दूसरे रास्ते से। तो गंगा जिन पत्थरों से बहती है, जिस मिट्टी से बहती है उसका रंग गंगा को मिलेगा। और नर्मदा जिस मिट्टी से बहती है, जिन पत्थरों से बहती है, उनका रंग नर्मदा को मिलेगा। और कोई उपाय नहीं है, कोई उपाय नहीं है। हम सब धाराएं हैं, हम सब के जीवन पथ अलग-अलग हैं। कितने ही पास-पास और कितने ही एक दूसरे को हम काटते मालूम पड़े, और कितने ही चौरस्तों पर मुलाकात हो जाये, हमारा अकेलापन नहीं कटता। हम अकेले हैं और दूसरे पर बांटने का कोई उपाय नहीं है।
इस पर बहुत जोर है महावीर का, क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण है। अगर यह खयाल में आ जाये तो व्यक्ति अपनी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। और जिस व्यक्ति ने समझा कि सारी जिम्मेदारी मेरी है, वह पहली दफे मेच्योर, प्रौढ़ होता है। नहीं तो हम बच्चे बने रहते हैं।
प्रौढ़ता का एक ही अर्थ हैबच्चा सोचता है, मां की जिम्मेदारी, बाप की जिम्मेदारी--पढ़ाओ-लिखाओ, बड़ा करो। प्रौढ़ आदमी सोचता है, अपने पैरों पर खड़ा होऊं। एक आध्यात्मिक प्रौढ़ता है। उस प्रौढ़ता का अर्थ है कि कोई के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं, कोई मेरे लिए जिम्मेदार नहीं है। मैं बिलकुल अकेला हूं। और कोई उपाय नहीं है कि हम बांट सकें, साझा कर सकें। तो जो भी मैं हूं, उसे मुझे स्वीकार कर लेना है और जो भी मैं हूं उसको ही मुझे रूपांतरित करना है, और जो भी परिणाम आयें, किसी की शिकायत का कोई कारण नहीं है। जो भी फल आयें, उनका बोझ मुझे ही ढो लेना है।
यह जोर इसलिए है कि अगर दूसरे हमारे लिए जिम्मेदार हैं तो फिर हम कभी मुक्त न हो सकेंगे। जब तक सारा जगत मुक्त न हो जाये, तब तक मेरी मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।
अगर मैं ही जिम्मेवार हूं तो मैं मुक्त भी हो सकता हूं। अगर दूसरे भी जिम्मेवार हैंअगर आप मुझे दुख दे सकते हैं, सुख दे सकते हैं, अगर आप मुझे आनंदित कर सकते हैं और पीड़ित कर सकते हैं तो फिर मेरी मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। फिर आपके ऊपर मैं निर्भर हूं। आप मेरी मज पर निर्भर हैं, मैं आपकी मज पर निर्भर हूं। तब तो सारा संसार एक जाल है। उस जाल में से कोई हिस्सा नहीं छूट सकता।
महावीर कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति कितने ही संसार के बीच में खड़ा हो, अकेला है, टोटली अलोन, एकांतरूपेण, अकेला है। इस अकेलेपन को समझ ले तो संन्यास फलित हो जाता है, वह जहां भी है। इस अकेलेपन के भाव को समझ ले तो संन्यास फलित होता है, चाहे वह कहीं भी हो। अपने को अकेला जानना संन्यास है, अपने को साथियों में जानना संसार है। मित्रों में, परिवार में, समाज में, देश में, बंधा हुआ अंश की तरह जानना संसार है। मुक्त, अलग, टूटा हुआ, अकेला, आणविक, एटामिक, अकेला अपने को जानना संन्यास है।

आज इतना ही।
पांच मिनट कीर्तन करें।







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