क्षणभंगुर
का आकर्षण—(प्रवचन—दूसरा)
प्रश्न-सार
1—क्या
ज्ञान और भजन
में, ज्ञान
और भक्ति में कोई अंतर्संबंध
है?
2—क्या
सांसारिक
सुखों की
क्षणभंगुरता
ही आकर्षण का
कारण नहीं है?
3—क्या
स्व को
विसर्जित कर
देने पर समूचा
अस्तित्व
रक्षा करता है?
4—क्या
बिना योग्यता
के भी रिक्त
सिंहासन पर भगवान
विराजेंगे?
5—शंकराचार्य
का जोर
स्त्री-पुरुष
के शरीर में वैराग्य
की भावना पर
है, परंतु
आपका
नहीं--कुछ
कहें।
6—मन
घोर
संदेहवादी, पदार्थवादी
है। आप कहते
हैं, सब
परमात्मा
है--क्या इस पर
विश्वास करना
ईमानदारी होगी?
पहला
प्रश्न:
श्री
शंकराचार्य
तत्वज्ञान
सिखाते हैं और
साथ ही
गोविन्द के
भजन भी गाते
हैं। क्या
ज्ञान और भजन
में, ज्ञान
और भक्ति में
कोई
अंतर्संबंध
है?
ज्ञान
निषेधात्मक
है, भक्ति
विधायक।
ज्ञान ऐसा है
जैसे कोई भूमि
तैयार करे, घास-पात अलग
करे, खाद
डाले; और
भक्ति ऐसी है
जैसे कोई बीज
बोए।
ज्ञान
अपने में
अधूरा है।
उससे सफाई तो
हो जाती है, लेकिन बीज
आरोपित नहीं
होते। जरूरी
है, काफी
नहीं है।
क्योंकि
ज्ञान तो है
बुद्धि का, भक्ति है
हृदय की।
परमात्मा के
मार्ग पर जितनी
बाधाएं हैं, वे तो ज्ञान
से काटी जा
सकती हैं; लेकिन
जो सीढ़ियां
हैं, वे
भक्ति से चढ़ी
जाती हैं।
इसलिए
ज्ञान
निषेधात्मक
है; व्यर्थ
को तोड़ने में
बड़ा कारगर है,
सार्थक को
जन्माने में
नहीं।
शंकर
ज्ञान की बात
कर रहे हैं, ताकि
तुम्हारे
भीतर अज्ञान
की जो पर्त दर
पर्त भीड़ लगी
है, कट
जाए। और जब एक
बार मन की भूमि
साफ हो गई, व्यर्थ
का कचरा न रहा,
कूड़ा-करकट न
रहा, तो
फिर भक्ति के
बीज बोए जा
सकते हैं; फिर
भज गोविन्दम्
की संभावना
है। विरोध
नहीं है दोनों
में; भक्ति
ज्ञान की ही
पराकाष्ठा है
और ज्ञान भक्ति
की ही शुरुआत
है। क्योंकि
मनुष्य के
भीतर हृदय भी
है, बुद्धि
भी है। दोनों
को छूना होगा।
दोनों का
रूपांतरण चाहिए।
अगर
तुम सिर्फ
ज्ञान में ही
उलझ गए, तो
कोरे
रेगिस्तान की
भांति हो
जाओगे--साफ-सुथरे,
पर कुछ भी
ऊगेगा नहीं; स्वच्छ, पर
निर्बीज; विस्तीर्ण,
पर न तो कोई
ऊंचाई, न
कोई गहराई।
ज्ञान शुष्क
है, अकेला।
और अगर तुम
अकेले भक्त हो
गए, तो
तुम्हारे
जीवन में
वृक्ष तो
उगेंगे, फूल
तो फलेंगे, हरियाली
होगी, लेकिन
उस हरियाली को
बचाने के
तुम्हारे पास
उपाय न होंगे।
तुम उन पौधों
की रक्षा न कर
पाओगे। अगर
कोई संदेह
जगाने आ गया, तो तुम्हारी
उर्वर भूमि
में संदेह के
बीज भी पड़
जाएंगे, उनमें
भी अंकुर आ
जाएंगे।
भक्त
अगर ज्ञान की
प्रक्रिया से
न गुजरा हो, तो उसका भवन
सदा डगमगाता
रहेगा। कोई भी
संदेह डाल
सकता है। और
भक्त तो
विश्वास करना
जानता है। वह
उन पर भी
विश्वास कर
लेता है जो
उसे ले जा रहे
हैं; वह उन
पर भी विश्वास
कर लेता है जो
उसे भटका रहे हैं।
वह गलत को भी
पकड़ लेता है
उसी तरह, जिस
तरह ठीक को
पकड़ता है।
उसके पास
सोचने-समझने
की क्षमता
नहीं; उसके
पास विवेक
नहीं।
तो
भक्त ऐसे है, जैसे अंधा
हो; ज्ञान
ऐसे है, जैसे
लंगड़ा हो; और
दोनों मिल
जाएं तो परम
संयोग घटित
होता है।
तुमने
कहानी सुनी है
कि जंगल में
लग गई आग और एक
अंधा और एक
लंगड़ा बड़ी
मुश्किल में
पड़े। अंधे को
दिखाई नहीं
पड़ता, कहां
जाए! पैर हैं
उसके पास
स्वस्थ, भाग
सकता है, बच
सकता है; लेकिन
दिशा नहीं है।
लंगड़े को
दिखाई पड़ता
है--कहां है
मार्ग; अभी
जंगल का कौन
सा हिस्सा
अग्नि से नहीं
घिरा है; लेकिन
लंगड़ा है, दौड़
नहीं सकता; निकलने का
उपाय नहीं।
कथा
कहती है, दोनों
मिल गए; अंधे
ने लंगड़े को
कंधे पर ले
लिया। फिर
दोनों की
कमियां भर
गईं। वे जैसे
एक ही व्यक्ति
बन गए; अंधे
के पैर, लंगड़े
की आंखें जुड़
गईं। वे दोनों
जंगल से सुरक्षित
बाहर आ गए।
अग्नि उन्हें
नष्ट न कर
पाई।
बुद्धि
और हृदय जब तक
न मिल जाएं, तुम जीवन की
अग्नि से बच न
पाओगे।
बुद्धि
अंधी है।
अकेले, हृदय
भी पंगु है, बुद्धि भी
पंगु है; जुड़
कर दोनों
पूर्ण हो जाते
हैं। और दोनों
तुम्हारे पास
हैं; दोनों
का उपयोग कर
लेना है।
तो
ज्ञान को
भक्ति का
सहारा बनाओ, भक्ति को
ज्ञान का
सहारा बनाओ; दोनों
तुम्हारे पंख
बन जाएं, तुम
आकाश में उड़
सकोगे। न तो
एक पंख से कभी
कोई पक्षी उड़ा
है, न एक
पैर से कोई
प्राणी चला है,
न एक पतवार
से नाव चलती
है; दोनों
पतवार चाहिए।
कोई विरोध
नहीं है। और
जिन्होंने
तुमसे कहा है
विरोध है, उन्होंने
गलत कहा है।
और गलत कहने
का कारण यही
है कि उन्होंने
भी इस
महासमन्वय को
नहीं जाना। या
तो वे बुद्धि
से घिरे हुए
लोग होंगे, जिनके पास
कोरे विचार
हैं, शुष्क
विचार हैं, तर्क हैं, लेकिन हृदय
का कोई नृत्य
घटित नहीं हुआ
है; और या
फिर वे हृदय
के लोग होंगे,
सीधे-सादे;
नाच तो सकते
हैं, समझ
नहीं है।
उस घड़ी
को परम
सौभाग्य की
घड़ी मानना, जब तुम
समझपूर्वक
नाच सको। उस
घड़ी को परम
सौभाग्य
मानना, जब
तुम
विवेकपूर्वक
प्रेम कर सको।
और परमात्मा
ने तुम्हें जो
भी दिया है, उसमें किसी
का भी
अस्वीकार मत
करना; क्योंकि
उतने ही अंश
में तुम पंगु
हो जाओगे। तुम
पूरे हो, सिर्फ
संयोग बिठाना
है। वीणा रखी
है, तार
पड़े हैं; लेकिन
तारों को वीणा
पर जोड़ना है, तारों को
कसना है, साज
बिठाना है।
तुम्हारे
भीतर सब मौजूद
है, सिर्फ
संयोग मौजूद
नहीं है। उस
संयोग का नाम
ही साधना है
कि तुम्हारे
भीतर की वीणा
और तार मिल
जाएं।
सूफी
कहते हैं, एक आदमी
भूखा मर रहा
था। आटा था घर
में, जल भी
था, चूल्हा
भी था, ईंधन
भी था; लेकिन
उस आदमी को
पता नहीं कि
कैसे आटा
गूंथे, कैसे
आग जलाए, कैसे
आग पर रोटी
सेंके। सब
था--भूख भी थी, भोजन भी
था--संयोग न बन
सका। वह आदमी
भूखा ही मर गया!
यह सभी
आदमियों की
कथा है।
तुम्हारे पास
सब संयोग है
और तुम भूखे
हो! ऐसा कुछ भी
नहीं है जो तुम्हारे
पास मौजूद
नहीं है।
परमात्मा
किसी को इस
तरह भेजता ही
नहीं; सब
साधन देकर
भेजता है।
लेकिन साधनों
को बिठाना
पड़ेगा। उनका
ठीक अनुपात, ठीक समन्वय,
ठीक संगीत
बन जाए, तो
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
प्रकाश हो जाएगा।
न तो बुद्धि
से घिरना, न
हृदय से; दोनों
तटों के बीच
तुम्हारी
चेतना बह सके
नदी की धार की
भांति; तुम
गंगा बन जाना;
फिर सागर
दूर नहीं है।
और जिद मत
करना कि एक ही किनारे
के सहारे
बहेंगे; अन्यथा
गंगा बह ही न
पाएगी; दोनों
ही किनारों का
सहारा चाहिए।
और अंत में दोनों
किनारे छूट
जाएंगे।
लेकिन ध्यान
रखना, वह
अंत सहारे से
ही आएगा।
परम
अवस्था में, परम
सिद्धावस्था
में, न तो
भक्ति रह जाती
है, न
ज्ञान। जब नदी
सागर में
गिरती है तो
फिर कोई भी
किनारा नहीं
रह जाता, फिर
तो नदी सागर
हो गई।
इसलिए
तीन तरह के
लोग संसार में
हैं।
एक, जिन्होंने
बुद्धि को पकड़
लिया--दार्शनिक,
तात्विक।
वे बाल की खाल
ही निकालते
रहते हैं। तर्क
की सूखी रेत
उनके जीवन में
भर जाती है; सोचते बहुत
हैं, पहुंचते
कहीं भी नहीं।
दूसरे
हार्दिक लोग
हैं--गाते
बहुत हैं, नाचते बहुत
हैं। लेकिन सब
गाना-नाचना
विवेकरहित है;
विक्षिप्तता
के करीब
ज्यादा है, विमुक्ति के
करीब नहीं। एक
तरह का पागलपन
है, एक तरह
का नशा है।
जिनके पास
विवेक नहीं, होश नहीं, उनके लिए
धर्म, हृदय
एक तरह की
शराब है।
फिर
तीसरे तरह के
लोग हैं, जिन्होंने
दोनों का उपयोग
कर लिया; और
उपयोग करके
दोनों के पार
हो गए।
उस महा
अतिक्रमण की
आकांक्षा
रखो। उस महा
अतिक्रमण की
अभीप्सा करो।
उस तीसरे
बिंदु पर पहुंच
जाने का
लक्ष्य रखो।
सागर
में गिरना है
गंगा को, तट
दोनों छोड़
देने हैं।
लेकिन जल्दी
मत करना; सागर
तक तो तट के
सहारे ही पहुंचना
होगा; पहुंचते
ही फिर तटों
का त्याग हो
सकता है।
दूसरा
प्रश्न:
धर्म
सांसारिक
सुखों को
अस्थिर और
क्षणभंगुर
बता कर उसके
प्रति हममें
वैराग्य पैदा
करते हैं।
लेकिन क्या
उनकी वही
क्षणभंगुरता
उनके आकर्षण
का कारण भी
नहीं है?
निश्चित
ही, ऐसा ही है;
क्षणभंगुरता
ही आकर्षण का
कारण है। और
धर्म जीवन को
क्षणभंगुर
बता कर
वैराग्य पैदा
नहीं करते
हैं। धर्म तो
कहते हैं: जो
भी क्षणभंगुर
है उसके पीछे
दुख आएगा।
क्षणभंगुरता
नहीं है कारण
वैराग्य का, क्षणभंगुरता
के पीछे दुख
छाया की तरह
आता है। दुख
कारण है
वैराग्य का।
क्षणभंगुरता
तो आकर्षित
करती है, बुलाती
है। जितना
जल्दी जीवन
भागा जाता है,
उतना ही मन
होता है--भोग
लो जल्दी! अब
गया, अब
गया। कब उठ
जाएंगे, पता
नहीं। तो भोग
लो। जितना
ज्यादा भोग
सको, भोग
लो। जितनी
त्वरा से जी
सको, जी
लो। एक क्षण
भी खाली न जाए,
चूस लो।
एक-एक क्षण की
पूरी संभावना
को भोग लो।
क्षणभंगुरता
आकर्षण है।
मौत आ रही है, इसीलिए तो
जीवन को हम
पकड़ते हैं।
अगर मौत आती ही
न हो, कौन
जीवन को
पकड़ेगा? अगर
सुख आते हों
और कभी जाते
ही न हों, कौन
चिंता करेगा?
आकर्षण का
कारण
क्षणभंगुरता
है। जो चीज
जितने जल्दी
विलीन हो जाती
है, उतनी
कीमती मालूम
होती है।
पत्थर पड़ा है,
उसकी उतनी
कीमत नहीं है;
पास ही फूल
खिला है, फूल
की बड़ी कीमत
है। सुबह खिला
है, सांझ
खो जाएगा। देख
लो, रस ले
लो; आंखों
को भर लो, तृप्त
कर लो।
क्योंकि जो
खिला है वह
मुरझाने की
राह पर चल ही
पड़ा है। देर
नहीं लगेगी, सूरज मध्य
आकाश में आ
गया है। आधा
जीवन तो फूल का
जा ही चुका है,
कुम्हलाना
शुरू हो गया
है। इसीलिए तो
सौंदर्य में
इतना आकर्षण
है। अगर
सौंदर्य सदा
रहता हो, कौन
चिंता करेगा?
एक मजे
की बात है:
कुरूपता
ज्यादा
स्थायी है सौंदर्य
से। कुरूप
व्यक्ति जीवन
भर कुरूप बना
रहता है, सुंदर
व्यक्ति जीवन
भर सुंदर नहीं
होता। कुछ क्षण
होते हैं जीवन
के, युवा
अवस्था के, जब सुंदर
होता है; फिर
कुम्हला जाता
है। और क्या
तुमने खयाल
किया--जितना
सुंदर
व्यक्ति हो, उतने जल्दी
कुम्हला जाता
है! जितना
कोमल फूल होगा,
उतने जल्दी
कुम्हला जाएगा।
दौड़ो, भागो, जल्दी
करो! कहां
मंदिरों में
बैठे
भजन-कीर्तन कर
रहे हो। भोग
लो!
भजन-कीर्तन
पीछे भी हो
जाएगा। और
दूसरा ही नहीं
बदल रहा है, तुम्हारी
भोगने की
क्षमता भी
प्रतिपल
क्षीण होती
चली जा रही
है। जल्दी करो,
मन कहे चला
जाता है।
निश्चित
ही
क्षणभंगुरता
आकर्षण का
कारण है। अगर
चीजें शाश्वत
होतीं, कौन
चिंता करता?
शायद
इसीलिए तो
तुमने
परमात्मा की
चिंता नहीं की
है--शाश्वत है, जल्दी भी
क्या है? आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, इस जन्म में
नहीं तो अगले
जन्म में, अगले
जन्म में नहीं
तो और
आगे--परमात्मा
खो न जाएगा, जल्दी क्या
है? जब भी
जाओगे, उसे
अपने घर में
ही पाओगे।
लेकिन ये जीवन
के क्षणभंगुर
फूल, यह
आंखों का
सौंदर्य, ये
चेहरों की
लालिमा, यह
युवावस्था, यह तुम्हारे
भोगने की
क्षमता--यह सब
टूटी जा रही
है, भागी
जा रही है।
देर मत करो, मन कहता है।
निश्चित
ही
क्षणभंगुरता
आकर्षण का
कारण है। जो
भी शाश्वत है, उसमें
आकर्षण नहीं
रह जाता। जो
है ही, और
सदा ही है, उसमें
आकर्षण का
क्या कारण है!
सपने ज्यादा
सुंदर लगते
हैं। अभी आंख
खुलेगी और टूट
जाएंगे।
धर्म
जब तुमसे कहता
है कि
क्षणभंगुर है
जीवन, तो
क्षणभंगुर
बता कर
तुम्हें
वैराग्य नहीं
लाना चाहता।
क्षणभंगुर कह
कर यह इशारा
करना चाहता है
कि क्षण भर के
बाद फिर क्या
करोगे? क्षण
भर नाच लोगे, फिर रोओगे।
क्षणभंगुर है
अगर जीवन; भोग
लोगे क्षण भर,
फिर पीछे
पछताओगे। चुक
जाओगे व्यर्थ
की दौड़ में।
तितलियों के
पीछे जैसे
बच्चे दौड़ रहे
हैं, ऐसे
छोटे-छोटे
भोगों के पीछे
दौड़ते-दौड़ते
थकोगे, गिर
जाओगे, मौत
समा लेगी
तुम्हें। और
यह समय जो
तुमने क्षणभंगुर
की तलाश में
गंवाया, उसमें
तुमने पाया तो
कुछ भी नहीं।
क्योंकि पाने
के पहले ही
चीजें
कुम्हला जाती
हैं; हाथ
में आते-आते
ही फूल मुर्दा
हो जाते हैं; घर लाते-लाते
ही सुख दुख
में
रूपांतरित हो
जाता है।
वैराग्य
का उदबोधन दुख
के कारण है।
धर्म कहता है, देखने की
कोशिश करो कि
जहां तुम्हें
एक क्षण को
सुख दिखाई
पड़ता है, उसके
पीछे अनंत दुख
भरा है। और
तुम भी इसे
भलीभांति
जानते हो। जब
भी तुमने सुख
पाया, पीछे
दुख आया है; जब भी तुम
प्रसन्न हुए,
पीछे आंख
आंसुओं से भरी
है; जब भी
तुम इतराए, तभी तुम
गिरे हो; और
जब भी तुमने
सोचा था
सौभाग्य का
क्षण आ गया, उसके पीछे
ही दुर्भाग्य
की रात्रि
शुरू हो गई है।
धर्म
कहता है, अगर
ऐसा सुख चाहिए
हो जो कभी
खोता नहीं और
कभी दुख में
रूपांतरित
नहीं होता, तो सनातन को
खोजो, शाश्वत
को खोजो; क्षणभंगुर
से जागो।
सपनों में
खोया गया समय,
खोया गया
समय है। सत्य
को खोजो।
सत्य
की परिभाषा
क्या है? सत्य
की इतनी ही
परिभाषा है कि
जो सदा था, जो
सदा है और सदा
रहेगा। असत्य
की इतनी ही
परिभाषा है कि
जो कल नहीं था,
अभी है, कल
फिर नहीं हो
जाएगा। असत्य
का अर्थ है, दो नहीं के
बीच थोड़ी देर
को होना है; दो न होने के
बीच थोड़ी देर
को होने का
भ्रम है। थोड़ा
सोचो, जब
दोनों तरफ
नहीं है, तो
बीच में हो
कैसे सकेगा!
इसलिए
शंकर संसार को
माया कहते
हैं।
माया
का मतलब यह है:
कल नहीं थी, आज है, कल
फिर नहीं हो
जाएगी। तो जो
दो कोनों पर
नहीं है, वह
बीच में हो
नहीं सकती, सिर्फ दिखाई
पड़ती होगी, भास होता
होगा।
क्योंकि 'नहीं'
से 'है' कैसे पैदा
हो सकता है? और जो 'है',
वह फिर 'नहीं'
में कैसे खो
सकता है?
तुम
नहीं थे एक
दिन। जन्म के
पहले तुम कहां
थे? मृत्यु
के बाद तुम
कहां रहोगे? थोड़ी सी देर
का सपना है।
आंख लगी, सपना
देख लिया है; आंख खुलते
ही खो जाएगा।
सहजो
ने कहा है: जगत
तरैया भोर की।
जैसे सुबह का
तारा होता है, आखिरी--अब
डूबा, तब
डूबा।
डबडबाता है।
तुम देखते ही
रहोगे और देखते
ही देखते खो
जाएगा।
जगत
तरैया भोर
की--ऐसा सारा
जीवन है।
महावीर
ने कहा है:
जैसे घास के
पत्ते पर ओस
की बूंद--ऐसा
जीवन है।
घास के
पत्ते पर ओस
की बूंद को
कभी गौर से
देखा? अब
ढलकी, तब
ढलकी।
तुम्हारे
देखते-देखते
ही ढल जाएगी; हवा का जरा
सा झोंका काफी
है। सूरज का
निकलना--भाप
बन जाएगी--काफी
है। जरा सा
धक्का, और
गई। जब होती
है, तब तो
मोतियों कोर्
ईष्या होती
है। जब होती
है बूंद ओस की,
तब तो मोती
भी शरमाते
होंगे, झेंप
जाते होंगे, ऐसी चमकती
है। पर उसका
होना क्या है?
न जैसा है; हुई, न
हुई, बराबर
है।
जीवन
क्षणभंगुर है
तो सत्य नहीं
हो सकता। तुमने
जो भी जाना है, अगर वह जाना
और फिर खो
जाता है, वह
सत्य नहीं हो
सकता। वह मन
की ही भावना
रही होगी; वह
मन की ही
कल्पना रही
होगी; वह
तुम्हारा ही
प्रक्षेपण
रहा होगा।
वैसी सच्चाई
नहीं है, तुमने
मान लिया
होगा। वह
तुम्हारी
मान्यता है।
मान्यता माया
है। तुम्हारे भीतर
की कामना को
तुम जीवन के
पर्दे पर
आरोपित करके
देखते चले
जाते हो।
तुमने
कभी खयाल
किया--एक
स्त्री बहुत
सुंदर लगती है
या एक पुरुष
बहुत सुंदर
लगता है; चार
दिन बाद वही
स्त्री सुंदर
नहीं लगती, वही पुरुष
सुंदर नहीं
लगता! क्या हो
गया? वही
स्त्री है, वही पुरुष है!
चार दिन पहले
तुमने अपनी
कोई कामना
आरोपित कर ली
थी, वह
कामना टूट
गई--पर्दा
खाली है, अब
उस पर कोई
चित्र नहीं
रहा।
तुम जो
देखते हो अपने
चारों तरफ, जब तक तुम मन
में भरी
कामनाओं से
देखते हो, तब
तक तुम वही
नहीं देख सकते
जो है; तब
तक तुम वही
देखते रहोगे
जो तुम देखना
चाहते हो।
शुद्ध आंख वही
देखती है जो
है, अशुद्ध
आंख वही देख
लेती है जो
देखना चाहती
है। तुम
सौंदर्य की
तलाश में हो, तो तुम
सौंदर्य देख
लोगे।
अपनी-अपनी
व्याख्या है
जीवन।
व्याख्या के
कारण जीवन
माया है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
दवाएं बनाता
है और बेचता है।
एक पैकेट पर
उसने लिख रखा
था: फायदा न
होने पर दाम वापस।
मैं उसकी
दुकान पर बैठा
था। एक आदमी
आया, वह बड़ा
नाराज था।
उसने कहा, महीना
भर हो गया दवा
फांकते-फांकते,
कोई फायदा
नहीं हुआ। दाम
वापस चाहिए!
नसरुद्दीन
ने कहा कि
पैकेट पर लिखा
है: फायदा न
होने पर दाम
वापस। तुम्हें
न हुआ हो, हमें
तो फायदा हुआ
है।
अपनी-अपनी
व्याख्या है।
जीवन को तुम
वैसा ही करके
देखते हो, जैसा तुम
देखना चाहते
हो। शब्दों के
अर्थ बदल जाते
हैं; सत्यों
के अर्थ बदल
जाते हैं। तुम
अपने आस-पास
अपनी ही
मान्यताओं का
एक संसार खड़ा
कर लेते हो, फिर तुम उसी
संसार में
जीते हो। और
आदमी अपने ही
कारण खोजता चला
जाता है, और
कारणों के
थेगड़े लगाए
चला जाता है, ताकि
मान्यताएं
टूट न जाएं, फूट न जाएं; जोड़त्तोड़
बिठाता रहता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बाजार में
किसी से झगड़ा हो
गया। वह आदमी
बहुत नाराज था
और उसने कहा, एक ऐसा
झापड़ा
मारूंगा--नसरुद्दीन
को कहा--कि
बत्तीसों
दांत जमीन पर
गिर जाएंगे, बत्तीसी
नीचे गिर
जाएगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन और
जोश में आ गया, उसने कहा कि
तूने समझा
क्या है! अगर
मैंने झापड़ा
मारा तो
चौंसठों दांत
नीचे गिर
जाएंगे।
एक
तीसरा आदमी
पास में खड़ा
था, उसने कहा,
भई बड़े
मियां, इतना
तो खयाल रखो
कि चौंसठ दांत
आदमी के होते ही
नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, मुझे पता
था कि तू भी
बीच में कूद
पड़ेगा, इसलिए
चौंसठ। एक ही
झापड़े में
दोनों के गिरा
दूंगा।
आदमी
अपनी...तुमसे
भूल भी हो जाए, तो भी तुम
भूल स्वीकार
नहीं करते।
तुम अपनी भूल के
लिए भी कारण
खोज लेते हो, तर्क खोज
लेते हो।
भूल को
स्वीकार करना
बड़ा साहस है।
और जिसने भूल
को स्वीकार कर
लिया, धीरे-धीरे
भूलें
तिरोहित हो
जाती हैं।
एक
स्त्री के तुम
प्रेम में हो।
तुम बड़ा सपना बांधते
हो, स्वर्ग
निर्मित करते
हो, बड़ी
कविताएं पैदा
होती हैं--और
तुम सोचते हो,
बस, अब
स्वर्ग मिल
गया। चार दिन
में स्वर्ग
उजड़ जाता है!
तब तुम यह
नहीं देखते कि
मैंने कोई भूल
की थी। तब तुम
देखते हो--यह
स्त्री धोखा
दे गई। तुम यह
नहीं देखते कि
मेरी मन की
धारणा टूटी!
तुम यह नहीं
देखते कि मन
की धारणा
टूटती ही, सुबह
की ओस थी, भोर
की तरैया थी, तुम यह नहीं
देखते। तुम
देखते हो--यह
स्त्री धोखा
दे गई; यह
स्त्री ही गलत
थी; दूसरी
स्त्री
खोजेंगे। फिर
दूसरी स्त्री
खोजते हो! फिर
वही आरोपण!
फिर वही भूल!
फिर वही नशा! फिर
वह भी चार दिन
में टूट जाता
है, तब भी
तुम जागते
नहीं।
महाभारत
में बड़ी
प्राचीन, बड़ी
मीठी कथा है
कि जब पांडव
जंगल में
अज्ञातवास पर
हैं, भटकते
रहे हैं दिन
में--दोपहरी--पानी
नहीं मिला।
सांझ एक भाई
खोजने निकला,
झील मिल गई।
लेकिन जब वह
झील में पानी
भरने को झुका,
तो आवाज
आई--रुको! जब तक
मेरे प्रश्न
का उत्तर न दो,
तब तक पानी
न भर सकोगे।
कोई यक्ष उस
झील पर कब्जा
किए था। पूछा,
क्या है
तुम्हारा
प्रश्न? यक्ष
ने कहा, अगर
उत्तर न दिया
या उत्तर गलत
हुआ, तो
तत्क्षण मृत
हो जाओगे। अगर
उत्तर दिया, तो जल भी
मिलेगा और
अनंत भेंट भी
दूंगा। प्रश्न
था कि मनुष्य
के जीवन का
सबसे बड़ा सत्य
क्या है? जो
उत्तर
दिया--जो भी
दिया हो--वह
ठीक नहीं था।
एक भाई गिरा, मृत हो गया।
ऐसे चार भाई
एक के बाद एक
गए। अंत में
युधिष्ठिर गए
कि हो क्या
रहा है! चारों
भाइयों को मरे
हुए पाया।
यक्ष की आवाज
आई--सावधान! पहले
मेरे प्रश्न
का उत्तर, अन्यथा
वही होगा जो
इनका हुआ है।
पानी एक ही
शर्त पर भर
सकते हो, वह
मेरा ठीक
उत्तर मिल
जाए। क्योंकि
उसी उत्तर पर
मेरी मुक्ति
निर्भर है।
जिस दिन मुझे
ठीक उत्तर मिल
जाएगा, उस
दिन मैं भी
मुक्त हो
जाऊंगा; यह
मेरा बंधन
यक्ष होने का
टूट जाएगा।
प्रश्न है:
मनुष्य के
जीवन का सबसे
बड़ा सत्य क्या
है? युधिष्ठिर
ने कहा, यही
कि चाहे कितने
ही अनुभव
मिलें, मनुष्य
सीख नहीं
पाता। यक्ष
मुक्त हो गया।
चारों भाई
पुनरुज्जीवित
हो गए। उसकी
प्रसन्नता
में, मुक्ति
की प्रसन्नता
में उसने
चारों को पुनरुज्जीवन
दिया।
मनुष्य
को कितने ही
अनुभव हो जाएं, सीख नहीं
पाता। एक
स्त्री से छूटता
है, दूसरी!
दूसरी से
छूटता है, तीसरी!
एक उपद्रव
मिटता है, दूसरा!
एक सफलता का
मार्ग
अवरुद्ध हो
जाता है, तो
दूसरा! एक दौड़
बंद नहीं हो
पाती कि दूसरी
शुरू कर देता
है, दौड़ से
नहीं मुक्त
होता। एक
वासना गिर
नहीं पाती कि
दस खड़ी कर
लेता है।
वासना की
भ्रांति नहीं
दिख पाती। और
हर चीज के
पीछे अपने
तर्क खोज लेता
है, अपने
कारण खोज लेता
है। और कभी यह
नहीं देखता कि
भूल मेरी
होगी। सदा भूल
किसी और पर
थोप देता है।
निश्चिंत
होकर फिर भूल
करने में लग
जाता है।
दूसरे
पर भूल थोपना, भूल को और-और
करने की
व्यवस्था है।
जब भी तुम किसी
को कहते हो कि
तुम
जिम्मेवार हो,
तभी तुम
अपनी
जिम्मेवारी
से इनकार कर
रहे हो। और
वही
जिम्मेवारी
तुम्हें जगा
सकती थी; क्योंकि
उसी
जिम्मेवारी
के क्षण में
तुम्हें
दिखाई पड़ सकता
था कि मैं भूल
कर रहा हूं।
भूल
किसी स्त्री
में नहीं है, न किसी
पुरुष में है;
भूल उस
कामना और
कल्पना में है
जो तुम किसी
स्त्री या
पुरुष पर
आरोपित करते
हो। वह
क्षणभंगुर है;
वह कामना
टूटेगी।
जरा
सोचो तो, मन
का एक विचार
तुम कितनी देर
तक थिर रख
सकते हो? भोर
की तरैया भी
थोड़ी ज्यादा
देर टिकती है।
ओस का कण भी
कभी-कभी देर
तक टिक जाता
है। लेकिन तुम
अपने मन में
एक विचार को
कितनी देर
टिका सकते हो?
क्षण भर है,
और गया।
पकड़ो तो भी
पकड़ में नहीं
आता, मुट्ठी
खाली रह जाती
है। दौड़ो तो
भी कहीं खबर नहीं
मिलती--कहां
गया। हवा के
झोंके की तरह
आता है और खो
जाता है। ऐसे
मन के आधार पर
तुम जो संसार
में जीते हो, वह जीवन
क्षणभंगुर
है।
संसार
क्षणभंगुर है, ऐसा मत समझ
लेना। वह तो
सिर्फ कहने का
एक ढंग है।
संसार
क्षणभंगुर
नहीं है।
संसार तो तुम
नहीं थे, तब
भी था; तुम
नहीं रहोगे, तब भी
रहेगा। संसार
तो शाश्वत है।
लेकिन तुम जो
संसार बना
लेते हो अपने
ही मन के आधार
पर, वह क्षणभंगुर
है। वस्तुतः
संसार तो है
ही नहीं, परमात्मा
है। परमात्मा
के पर्दे पर
तुम जो अपनी
कामना के
चित्र बना
लेते हो, वे
संसार हैं। और
उस संसार में
दुख ही दुख
है।
रोज
तुम्हें दुख
मिलता है, फिर भी तुम
कल के सुख की
आशा में जीए
चले जाते हो।
कितनी बार तुम
गिरते हो, फिर
उठ-उठ कर खड़े
हो जाते हो।
कितनी बार
जीवन तुम्हें
कहता है कि
तुम जो खोज
रहे हो वह
मिलेगा नहीं,
लेकिन तुम
कोई न कोई
बहाना खोज
लेते हो--कोई
और भूल हो गई, कोई और गलती
हो गई--अब की
बार सब ठीक कर
लेंगे, अब
ऐसी भूल न हो
पाएगी।
मैंने
सुना है, कारागृह
से एक कैदी
मुक्त हुआ।
तेरहवीं बार
कारागृह में
बंद हुआ था।
मुक्त करते
क्षण में जेलर
को भी दया आ
गई। उसकी आधी
जिंदगी ऐसे ही
जेल में बीत
गई। उसने कहा,
अब तो समझो!
अब तो कुछ ऐसा
करो कि जेल
आना न हो!
उसने
कहा, कोशिश तो
हर बार करते
हैं, फिर-फिर
आना हो जाता
है। मगर अब की
बार--आप ठीक कह
रहे हैं--अब की
बार फिर न
आऊंगा।
जेलर
बहुत प्रसन्न
हुआ, उसने कहा
कि हम प्रसन्न
हैं।
लेकिन
वह कैदी बोला
कि आपकी
प्रसन्नता से
लगता है आप
समझे नहीं।
मैं यह कह रहा
हूं कि अब तक जो
भूलें करके
मैं पकड़ जाता
था, अब न
करूंगा। चोरी
न करूंगा, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं।
लेकिन जिन
कारणों से मैं
पकड़ जाता था, वे कारण अब न
दोहराऊंगा।
और तेरह बार
अनुभव होते-होते
अब ऐसा कोई
कारण नहीं बचा
है, जिसे
मैंने समझ न
लिया हो। चोरी
तो करूंगा, लेकिन अब
भूल-चूक
बिलकुल न
होगी।
चोरी
भूल-चूक नहीं
है, भूल-चूक
तो उन भूलों
में है जिनके
कारण चोरी पकड़
जाती है। जेल
तुम जिनको
भेजते हो, वे
वहां से और
निष्णात
अपराधी होकर
वापस आ जाते
हैं। क्योंकि
वहां और
दादा-गुरु मिल
जाते हैं, और
भी पुराने
घाघ। उनसे
काफी सोच-समझ
कर, विचार-विमर्श
करके, अनुभव
से सीख कर, शिक्षा
लेकर, गुरुमंत्र
पाकर वापस लौट
आते हैं। फिर
वही करते हैं।
चोरी भूल नहीं
है, ऐसा
लगता है; भूल
पकड़े जाने में
है।
तुम भी
सोचो--अगर तुम
कुछ ऐसी तरकीब
पा जाओ कि तुम
पकड़े न जा सको, फिर तुम
चोरी करोगे या
नहीं? तुम्हारा
मन साफ कहेगा:
फिर करने में
कोई बुराई ही
नहीं है। चोरी
में थोड़े ही बुराई
है, पकड़े
जाने में
बुराई है। और
जब तक तुम ऐसा
समझ रहे हो, तब तक तुम
दुख में
जीओगे।
पकड़े
जाने में दुख
नहीं है, चोर
होने में दुख
है। चोरी करने
में दुख है, पकड़े जाने
में दुख नहीं
है। मगर जब
तुम्हें दिखाई
पड़ेगा कि मेरे
होने के ढंग
में भूल है, तब तुम पाओगे
कि दुख मेरे
होने के गलत
ढंग से पैदा
होता है। यही
अर्थ है सारे
कर्म के
सिद्धांत का,
और कुछ अर्थ
नहीं है। इतना
ही अर्थ है कि
तुम दुख पाते
हो तो
तुम्हारे
अपने ही
कर्मों के कारण;
तुम सुख
पाते हो तो भी
अपने ही
कर्मों के
कारण।
और अगर
तुम आनंद पाना
चाहते हो, तो अकर्म की
दशा
चाहिए--जहां न
सुख रह जाए, न दुख; जहां
परम शांति हो
जाए; जहां
तुम दोनों के
पार हो जाओ; जहां
तुम्हारे
भीतर का
संतुलन
परिपूर्ण हो जाए,
जैसे कि
तराजू के
दोनों पलड़े
बराबर एक रेखा
में आ
जाएं--ऐसा
तुम्हारे
भीतर जब सुख
और दुख दोनों
के पार होने
की क्षमता आ
जाए, तब
तुम महा आनंद
को उपलब्ध
होते हो।
क्षणभंगुर
कह कर धर्म
तुम्हें
संसार से वैराग्य
पैदा नहीं
करवाता, क्षणभंगुर
कह कर तो इतना
ही कहता है कि
पीछे दुख आ
रहा है। क्षण
भर के सुख में
मत भूलो--यह
दुख आया, यह
आया। इधर सुख
प्रवेश किया
कि दूसरे
दरवाजे से दुख
प्रवेश कर ही
गया है; देर-अबेर
दुख से मिलन
हो जाएगा।
क्षणभंगुर
का तो आकर्षण
है, दुख का
आकर्षण तो
नहीं है। अगर
तुम्हें दुख
दिखाई पड़ने
लगे हर सुख के
पीछे, तो
एक क्रांति
घटित
होगी--तुम दुख
से ही मुक्त न
होना चाहोगे,
तुम सुख से
भी मुक्त होना
चाहोगे। यदि
हर सुख के
पीछे दुख
अनिवार्यतया
आता ही है, तो
फिर दुख से
क्या छूटना है,
सुख से
छूटना है!
इतना
ही फर्क है
संन्यासी में
और गृहस्थ
में। गृहस्थ
दुख से छूटना
चाहता है और
सुख को पकड़ना
चाहता है; संन्यासी
समझ लिया कि
हर सुख के
पीछे दुख है। वह
अब दुख से ही
नहीं छूटना चाहता,
सुख से भी
छूटना चाहता
है।
और जो
दोनों से
छूटना चाहता
है, वह छूट
सकता है; जो
एक से छूटना
चाहता है, वह
नहीं छूट
सकता। यह तो
ऐसे ही है
जैसे कि तुम्हारे
हाथ में एक
सिक्का है और
तुम उसके एक
पहलू से छूटना
चाहते हो और
दूसरे पहलू को
बचाना चाहते
हो। तुम जो
बचाओगे, उसमें
पूरा सिक्का
बच जाएगा। या
तो पूरा बचेगा
या पूरा छोड़ना
पड़ेगा। या तो
सुख-दुख दोनों
जाएंगे या
सुख-दुख दोनों
रहेंगे। ऐसी
स्पष्टता जब
तुम्हारे
जीवन में फलित
हो जाएगी--तो
वैराग्य; तो
संन्यास।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि स्व को
विसर्जित कर
देने पर समूचा
अस्तित्व
रक्षा करने
लगता है। फिर
उस फकीर की
अंग्रेज
सिपाहियों के
द्वारा हत्या
क्यों कर दी
गई जो सर्वत्र
निराकार
परमात्मा के
दर्शन करता था?
हत्या
तुम्हें
दिखाई पड़ती है, उसे दिखाई
नहीं पड़ी थी।
और तुम्हें
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
तुम भ्रांत
हो। उसे तो यही
दिखाई पड़ा कि
उस भाले में
परमात्मा
आया। उसे तो
यही दिखाई पड़ा
कि वह मृत्यु
परमात्मा का साक्षात्कार
है। अस्तित्व
ने उसकी इतनी
रक्षा की कि
मृत्यु भी उसे
मृत्यु न रही,
मृत्यु भी
उसे परम आनंद
का द्वार हो
गई। तुम्हें
लगता है वह
मिट गया।
जैसे
गंगा सागर में
गिरती है तो
तुम्हें लगता
है कि मिट गई।
गंगा से पूछो।
गंगा कहेगी:
मिट गई? सागर
हो गई! गंगा
कहेगी: मिटने
का इसके पहले
भय था, वह
भय मिट गया।
इसके पहले दो
किनारों में
बंधी बड़ी
संकीर्ण थी।
मिटना हो सकता
था। सीमा थी; तो मृत्यु
हो सकती थी।
अब असीम हो गई
हूं, अब
कोई मृत्यु
नहीं है। गंगा
सागर हो गई।
उस
संन्यासी से
पूछो। उसने तो
उस सिपाही में
भी, उस
हत्यारे में
भी परमात्मा
को देखा। उस
भाले में भी
परमात्मा का
तीर ही हृदय
में आया और लगा।
मौत तुम्हें
दिखाई पड़ी, उस संन्यासी
को दिखाई नहीं
पड़ी। उसने तो
परम जीवन को
ही पाया।
तुम
पूछते हो कि
आपने कहा, स्व को
विसर्जित कर
देने पर समूचा
अस्तित्व रक्षा
करने लगता
है...।
तुम्हारी
रक्षा नहीं
करेगा। और
रक्षा पाने के
लिए ही अगर
तुमने स्व को
विसर्जित
करने की कोशिश
की, तो वह
विसर्जन भी
सच्चा नहीं
होगा--हो नहीं
पाएगा।
विसर्जन का
अर्थ ही यह होता
है कि अब
रक्षा करने को
हमारे पास कोई
भी न बचा
जिसकी रक्षा
की जानी
चाहिए। अगर
तुमने सोचा कि
मेरी रक्षा
करे परमात्मा,
इसलिए मैं
समर्पण करता
हूं, तो
तुम समर्पण
नहीं कर रहे, सिर्फ
परमात्मा को
सेवा में
नियुक्त कर
रहे हो।
समर्पण
का तो अर्थ ही
यह होता है कि
अब मैं नहीं
हूं, तू है। अब
मेरी रक्षा का
क्या सवाल है!
अब तो मैं एक
कोरा आकाश हूं,
एक सूना गृह
हूं। अब तो
मिटने को कुछ
बचा ही नहीं, मिटेगा कैसे?
मैं पहले ही
मिट गया हूं।
समर्पण का
अर्थ होता है:
मैं मिटा, अब
तुझे मिटाने
की जरूरत न
पड़ेगी; वह
कष्ट मैं तुझे
न दूंगा, वह
मैं अपने ही
हाथ से कर
लेता हूं।
समर्पण
वास्तविक
अर्थों में
आत्महत्या
है--वास्तविक
अर्थों में।
जिसको तुम
आत्महत्या कहते
हो वह
आत्महत्या
नहीं है, वह
तो केवल
शरीरघात है।
आत्मा थोड़े ही
मरती है, शरीर
भर गिर जाता
है, नया
शरीर मिल जाता
है। लेकिन
समर्पण
वस्तुतः आत्मघात
है। तुम अपने
स्व को ही
मिटा देते हो।
तुम उससे कहते
हो, अब मैं
हूं ही नहीं, तू ही है। अब
तुम्हारी
रक्षा का क्या
सवाल है? अब
तुम हो कौन? तुम किसकी
रक्षा चाहते
हो?
और जब
तुम बचे ही
नहीं, तभी
सारा
अस्तित्व तुम्हारी
रक्षा करता
है। अब मिटाने
का मजा भी कहां!
अब मिटाने में
सार भी क्या!
जब तुम खुद ही
मिट गए, तो
मौत व्यर्थ हो
गई।
उस दिन
उस संन्यासी
की छाती में
जब छुरा भोंका
गया, तो
सिपाही को लगा
होगा कि मारा,
देखने
वालों को लगा
होगा कि मर
गया; संन्यासी
से पूछो। उसने
तो यही उदघोष
किया: तत्वमसि
श्वेतकेतु! तू
भी वही है!
उसने तो यही
कहा कि तू
किसी भी रूप
में आए, मुझे
धोखा न दे
पाएगा; मैं
तुझे पहचान ही
लूंगा। तू आज
भाला लेकर आया;
आज तूने मौत
का स्वांग रचा;
मगर मैं
तुम्हें
पहचानता हूं;
मैं तुझे
देख रहा हूं।
तू शत्रु होकर
आए या मित्र
होकर आए, मैं
हर हालत में
तुझे पहचान
लूंगा।
संन्यासी मरा
नहीं, उसकी
गंगा सागर हो
गई।
लेकिन
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम ठीक काम
भी करते हो तो
गलत कारणों के
लिए करते हो; तुम्हारे
कारण ठीक नहीं
होते। तुम अगर
मंदिर भी जाते
हो तो गलत
कारण से जाते
हो। कोई जा
रहा है नौकरी
मांगने, कोई
जा रहा है धन
मांगने, कोई
जा रहा है
पत्नी मांगने,
कोई जा रहा
है बेटा
मांगने। तुम
कभी सोचते ही नहीं
कि तुम बाजार
के बाहर जा ही
कहां रहे हो! यह
कोई मंदिर में
जाने का ढंग
हुआ? यह तो
बाजार पूरा
तुम्हारे साथ
मंदिर में जा
रहा है। अगर
तुम ऐसे हो तो
मंदिर
तुम्हें
पवित्र न कर
पाएगा, तुम
मंदिर को
अपवित्र करके
लौट आओगे।
मंदिर
कोई स्थान
थोड़े ही है, भाव-दशा है।
जब तक मांग है,
तब तक कैसा
मंदिर! जब तक
क्षुद्र
वस्तुएं जो बाजार
में बिक रही
हैं, उन्हीं
को मांगने तुम
परमात्मा के
पास जाते हो, तो तुम शायद
समझते हो कि
परमात्मा कोई
सुपर मार्केट
है; छोटी-मोटी
दुकानों में
चीजें नहीं
मिलीं, चलो
मंदिर में मिल
जाएंगी! संसार
में नहीं मिलीं
तो मोक्ष में
मिल जाएंगी!
लेकिन तुम
मांगते क्या
हो?
मंदिर
वही पहुंचता
है, जिसने
समझ लिया कि
मांगना
व्यर्थ है; जिसने समझ
लिया कि
मांगने से
मिलता ही नहीं
कुछ सिवाय दुख
के; जिसने
समझ लिया कि
कितनी ही
चेष्टा करो, भिखमंगे का
पात्र खाली ही
रह जाता है, भरता नहीं।
मंदिर
वही पहुंचता
है जो धन्यवाद
देने जाता है, मांगने
नहीं। जिस दिन
तुम्हारे
भीतर से अहर्निश
धन्यवाद उठने
लगे--फूल
खिलें और
तुम्हारे
भीतर से
धन्यवाद उठे,
आकाश से
बादल बरसें और
तुम्हारे
भीतर धन्यवाद
उठे, एक
बच्चा
किलकारी मारे
और तुम्हारे
भीतर धन्यवाद
उठे, तुम
श्वास लो और
तुम्हारा
होना ही इतना
शांति का हो
कि धन्यवाद
उठे।
अहर्निश
उठता हुआ
धन्यवाद ही भज
गोविन्दम् है।
भजने
की थोड़े ही
जरूरत है। भज
कर थोड़े ही
कोई भज पाया
है। अहर्निश
भाव की बात
है। जितना
दिया है
परमात्मा ने, वह तुम्हारी
पात्रता से
ज्यादा
है--जिस दिन तुम
ऐसा समझोगे, उस दिन
मांगने जाओगे
कि धन्यवाद
देने जाओगे? जो तुम्हें
मिला है, उसमें
तुमने क्या
अर्जित किया
है? सब
बरसा है
प्रसाद की
भांति। सब
उसने बांटा है
अपने अतिरेक
से। उसके पास
है, इसलिए
दिया है; तुम्हारी
पात्रता थी, इसलिए नहीं।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि परमात्मा
ने संसार क्यों
बनाया?
उनको
लगता है कि
बनाने के पीछे
जरूर कोई
आकांक्षा
होगी।
क्योंकि हम तो
कुछ नहीं
बनाते बिना
आकांक्षा के।
साधारण आदमी
छोटा सा घर भी
बनाता है तो
कारण से बनाता
है। परमात्मा
ने संसार
क्यों बनाया? और ऐसा
छोटे-छोटे
लोगों की बात
हो, ऐसा ही
नहीं। जर्मनी
का एक बहुत
बड़ा संगीतज्ञ,
वेजनर, किसी
ने उससे पूछा
कि तुमने इतना
अनूठा संगीत पैदा
किया--क्यों? उसने कहा, मैं दुखी था;
मैंने मन
बहलाने को, अपने को
उलझाने को, अपने को
व्यस्त रखने
को यह सारा
संगीत पैदा किया
है। और वेजनर
ने कहा कि मैं
तुमसे कहता
हूं, परमात्मा
भी दुखी रहा
होगा, इसलिए
उसने संसार
पैदा
किया--उलझाने
को।
वेजनर
आदमी के संबंध
में जो कह रहा
है, वह सच है।
आदमी कविता
लिखता है
घावों को ढांक
लेने के लिए; गीत गाता है
आंसुओं को
छिपा लेने के
लिए; मुस्कुराता
है कि कहीं
रोने न लगे; सड़क पर
मस्ती से चलता
है, क्योंकि
भीतर की दीनता
काटती है।
भीतर तो कुछ नहीं
है, कहीं
दूसरों को पता
न चल जाए; कहीं
दूसरे इस
रिक्तता को न
जान लें, अन्यथा
बड़ी बदनामी
होगी। तो तुम
हरेक को धोखा देने
में लगे हो; मुस्कुराते
हो। कोई तुमसे
पूछता है--कहो,
कैसे हो? तुम कहते हो,
बड़े आनंद
में हैं!
तुमने कभी
सोचा, तुम
क्या कह रहे
हो? बड़े
आनंद में, और
तुम?
मगर न
कहो, ठीक नहीं
मालूम पड़ता। कहना
शिष्टाचार
है। सच्चाई
थोड़े ही कही
जाती है; जो
कहना चाहिए
वही कहा जाता
है; जो
उचित है वही
कहा जाता है, सत्य नहीं।
हर आदमी
मुखौटे लगाए
हुए है, और
इसके पीछे बड़े
गहरे दुख और
नरक को छिपाए
हुए है। उस
नरक को भुलाने
के लिए हजार
काम करने पड़ते
हैं। कोई
चित्र बनाता
है।
पिकासो
के चित्र देखो, जैसे दुख
फैला है।
पिकासो का
बहुत
प्रसिद्ध चित्र
है--गोएर्निका।
अगर तुम उसे
आधा घंटा बैठ
कर देखते रहो
तो तुम पागल
हो जाओ। जैसे
पागलपन फैला
हुआ है। जो
भीतर है, वही
तो बाहर फैल
जाता है।
वेजनर
ठीक कहता है
आदमी के संबंध
में कि दुख है, इसलिए आदमी
सृजन करता है।
लेकिन
परमात्मा के संबंध
में बात
बिलकुल गलत है;
परमात्मा
ने सृजन किसी
कारण से नहीं
किया है। इसलिए
तो हम इस देश
में इस सृजन
को लीला कहते
हैं।
लीला
का अर्थ है:
अकारण। लीला
का अर्थ है: बस
खेल। लीला का
अर्थ है कि
ऊर्जा इतनी
ज्यादा है कि
करो भी क्या!
आनंद इतना
ज्यादा है कि
न बांटो तो
करोगे क्या!
ओवरफ्लो है।
पानी इतना भर
गया है झील
में कि बाहर
बह रहा है।
कोई कारण से नहीं, इतना ज्यादा
है कि बांटना
ही पड़ेगा! फूल
सुगंध से भरा
है तो खुल
जाता है, गंध
लुट जाती है।
ऐसे ही
परमात्मा
लुटा है संसार
में। ऐसे ही
परमात्मा बहा
है संसार में।
इतना
अतिरिक्त है
उसके पास कि
और कोई उपाय
नहीं है।
सृजन
आनंद है, दुख
नहीं। लेकिन
तुम धन्यवाद
देने तक में
कंजूस हो। तुम
में वह इतना
बहा है, तुम्हें
उसने ऐसे-ऐसे
अनूठे
संभावनाओं के
द्वार दिए
हैं--तुम्हें
आंख दी है कि तुम
रूप देख सको, तुम्हें कान
दिए हैं कि
तुम संगीत सुन
सको, तुम्हें
हाथ दिए हैं
कि तुम जीवन
का स्पर्श कर
सको, तुम्हें
बुद्धि दी है
कि तुम समझ
सको, तुम्हें
हृदय दिया है
कि तुम
हर्षोन्मत्त
हो सको, तुम्हें
जीवन दिया है
ताकि
तुम्हारा
जीवन एक महोत्सव
बन सके--लेकिन
तुम धन्यवाद
देने में भी
कंजूस हो! तुम
मंदिर में
जाकर इतना भी
नहीं कह सकते
कि तूने इतना
दिया है और
बिना कारण! न
देता तो हम
शिकायत भी तो
नहीं कर सकते
थे। न बनाता
तो हम किस
अदालत में
जाते कि हमें
बनाया क्यों
नहीं गया!
तूने जो दिया
है वह बहुत है,
हमारी पात्रता
कुछ भी नहीं।
प्रार्थना
का अर्थ यही
है, भज
गोविन्दम् का
अर्थ यही है
कि तुम अपने
आनंद से भज
रहे हो। तुम
कह रहे हो, तूने
इतना दिया कि
हम तुझे
धन्यवाद भी न
दे सकें, तो
बड़ी अशिष्टता
होगी।
लेकिन
तुम जब भी
मंदिर जाते हो, तुम शिकायत
करने जाते
हो--कि लड़का
बीमार है, अभी
तक ठीक क्यों
नहीं हुआ? कि
नौकरी नहीं लग
रही है लड़के
की; और हम
तेरी भक्ति
करते रहे इतने
दिन तक, सब
बेकार गई? तू
बहरा है? सुनता
नहीं? तुम
जब भी जाते हो
मंदिर, शिकायत
लेकर जाते हो।
और जो शिकायत
लेकर गया, वह
कभी मंदिर
नहीं पहुंचा;
मांग लेकर
गया, वह मंदिर
के बाहर ही
रहा। मांग के
साथ भीतर जाने
का उपाय ही
नहीं है। भीतर
तो केवल वे ही
गए, जो
धन्यवाद देने
गए। तुम अगर
समर्पण भी
करोगे तो
इसीलिए ताकि
तुम्हारी
रक्षा हो। तुम
हो कौन, जिसकी
रक्षा की
जरूरत है? तुम
परमात्मा को
भी बॉडीगार्ड
बनाना चाहते हो--कि
वह भी एक
बंदूक लिए
तुम्हारे
आस-पास खड़ा
रहे, तुम्हारी
रक्षा करे।
समर्पण
का अर्थ ही
यही है--कि
बचाने योग्य
मेरे पास है
क्या? कुछ
भी नहीं है!
मैं अपनी
शून्यता को
तेरे चरणों
में रखता हूं।
और जब
तुम समर्पण
करते हो, तब
तुम्हारे मन
में ऐसा भाव
नहीं उठता कि
मैंने कोई गजब
का काम कर
दिया।
क्योंकि
गोविन्द को
तुम वही
लौटाते हो जो
उसने तुम्हें
दिया था। तेरी
वस्तु तुझे
वापस। और तुम
क्या करते हो?
थोड़ा गंदा
करके लौटाते
होओगे, हो
सकता है।
क्योंकि बहुत
धन्यभागी लोग
ही हैं कबीर
जैसे, जो
कह सकते हैं
कि ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं चदरिया,
बहुत
मुश्किल से।
चादर पर
थोड़े-बहुत दाग
लग ही जाएंगे।
तो जब तुम
रखते हो
परमात्मा के
चरणों में
अपने को, तो
तुम कुछ यह
थोड़े ही आशा
रखते हो कि वह
बड़ा प्रसन्न
होगा और बड़े
धन्यवाद देगा
कि आपकी बड़ी कृपा
कि आप आए।
नहीं, उलटे
तुम बड़ी दीनता
अनुभव करोगे
कि चादर मैली
हो गई है। और
जो तूने दिया
था, वही
तुझे लौटा रहे
हैं; कुछ
जोड़ तो पाए
नहीं; कुछ
हीरे-जवाहरात
न भर पाए उस
चादर में। इस
घड़ी में सारा
अस्तित्व
तुम्हारी
रक्षा करता है।
रक्षा
मांगने के लिए
समर्पण मत
करना; समर्पण
का अनिवार्य
परिणाम है
रक्षा।
चौथा
प्रश्न:
मेरे
भीतर शून्यता
इतनी सघन हो
गई है कि अपनी ही
दृष्टि में
धूल से भी
तुच्छ मालूम
होता हूं। और
जब कोई
योग्यता न रही
तो भरोसा नहीं
आता कि इस
रिक्त
सिंहासन पर
भगवान आकर
विराजेंगे। इस
बोध से जीवन
असुरक्षित
लगता है। लगता
है कि न घर का
रहा, न घाट
का।
'मेरे
भीतर शून्यता
इतनी सघन हो
गई है कि अपनी
ही दृष्टि में
धूल से भी
तुच्छ मालूम
होता हूं।'
अगर
शून्यता सघन
हो जाएगी तो
मेरे होने का
भाव ही
विसर्जित हो
जाएगा। फिर
तुम ऐसा न कह
सकोगे कि मेरे
भीतर शून्यता
सघन हो गई है; तुम इतना ही
कहोगे कि
शून्यता हो गई
है, मेरे
भीतर तुम न कह
सकोगे।
क्योंकि जब तक
तुम हो, तब
तक शून्यता
नहीं हो सकती।
तो तुम ही तो
भरे हुए हो
स्वयं को। और
तुम कहते हो
कि अपनी ही दृष्टि
में धूल से भी
तुच्छ मालूम
होता हूं।
किसने
तुम्हें कहा
कि धूल तुच्छ
है? यह निंदा
तुम्हें
किसने सिखाई?
धूल से
ही बने हो, धूल में ही
गिरोगे--और
धूल तुच्छ है!
आदमी का अहंकार
अदभुत है। धूल
को आदमी तुच्छ
मानता है, क्योंकि
वह पैरों में
है।
लेकिन
धूल ही
तुम्हारा
हृदय भी है और
तुम्हारा
मस्तिष्क भी।
धूल ही
तुम्हारे
कण-कण में है, रोएं-रोएं
में है।
मिट्टी से ही
आना हुआ है, मिट्टी में
वापस लौट जाना
होगा। मिट्टी
मां है।
धूल से
तुच्छ! यह
तुच्छ और
श्रेष्ठ की
भाषा ही अहंकार
की भाषा है।
जिस दिन तुम
शून्य हो जाओगे, उस दिन
तुम्हें धूल
के कण-कण में
परमात्मा दिखाई
पड़ेगा; धूल
तुच्छ है--ऐसा
नहीं। तब तो
तुम्हें
तुच्छ दिखाई
ही न पड़ेगा, क्योंकि वही
विराट, वही
महिमावान सब
तरफ मौजूद है,
सब ढंगों
में मौजूद है।
तब तुम धूल को
भी चूम लोगे
और तुम उसी के
चरण वहां
पाओगे।
धूल
तुच्छ है? यह कहीं न
कहीं
तुम्हारे
भीतर का
अहंकार बोल रहा
है। शून्यता
वगैरह कुछ अभी
हुई नहीं, तुमने
सोच लिया
होगा। आदमी
विचार करने
में बड़ा कुशल
है। शून्य ही
हो जाए तो फिर
कुछ बचता ही
नहीं करने को।
और तुम
पूछते हो: 'और
जब कोई
योग्यता ही न
रही...'
योग्यता
हो भी क्या
सकती है? परमात्मा
को पाने में
योग्यता का
कोई सवाल ही नहीं
है। अगर
परमात्मा भी
योग्यता से
मिलता हो, तो
वह भी कोई
सरकारी नौकरी
हो गई। तो
कबीर को न मिलता।
बेपढ़े-लिखे, एक
सर्टिफिकेट
भी नहीं बता
सकते। तो
मोहम्मद को न
मिलता।
लिखना-पढ़ना भी
मोहम्मद को
नहीं आता। जब
पहली दफे
परमात्मा की
गूंज मोहम्मद
ने सुनी तो वे
घबड़ा गए। वे
कंपने लगे, बुखार आ
गया। क्योंकि
मोहम्मद ने
कहा कि मैं और
मेरे ऊपर
परमात्मा की
वर्षा! असंभव!
कितने योग्य
लोग पड़े हैं
दुनिया में।
मुझको चुना
है--यह हो ही
नहीं सकता!
कोई भ्रांति
हो गई मेरी।
आवाज
गूंजी--पढ़!
मोहम्मद ने
कहा, यह भी
क्या पागलपन
की बात! मैं
पढ़ा-लिखा ही
नहीं हूं! घर आ
गए, कंबल
ओढ़ कर सो रहे।
पत्नी ने पूछा,
क्या हुआ? सुबह
भले-चंगे गए
थे! कहा कि
मुझे कोई
भ्रांति हो गई
है कि
परमात्मा की
आवाज गूंजी; नहीं, यह
हो नहीं सकता,
मेरी कोई
योग्यता नहीं
है।
यही
योग्यता थी।
जब तक तुम
समझते हो
तुम्हारी कोई
योग्यता है, तब तक
अयोग्य हो; तब तक बाधा
है; तब तक
अहंकार खड़ा
है। योग्यता
यानी अहंकार।
तुम परमात्मा
के मंदिर के
सामने खड़े हो,
न कि किसी
एंप्लायमेंट
एक्सचेंज के
आगे। सर्टिफिकेट
वगैरह काम
नहीं आएंगे।
वस्तुतः जितने
सर्टिफिकेट
लेकर जाओगे, भीतर प्रवेश
मुश्किल हो
जाएगा। वहां
तो सिर्फ
अयोग्य ही
प्रवेश करते
हैं।
मेरी
बात को ठीक से
समझ लेना।
क्योंकि तुम
इतनी भ्रांति
में हो कि तुम
अयोग्यता को
भी योग्यता
बना सकते हो।
तुम कहोगे, तो मैं
अयोग्य
हूं--अभी तक
परमात्मा
नहीं मिला।
तुम अयोग्यता
को भी योग्यता
बना सकते हो।
नहीं, योग्यता
को इनकार करने
का अर्थ
है--परमात्मा
का दावा नहीं
किया जा सकता
कि तू क्यों
नहीं मिला अब
तक। दावेदारी
में अहंकार
है। नहीं मिला
तो तुम जानोगे
कि मिलने का
कोई कारण भी
नहीं है कि
मुझे मिले।
मिलेगा तो तुम
नाचोगे
अहोभाव से कि
अकारण मिला, प्रसाद-रूप
मिला।
योग्यता
का तो अर्थ है:
तुम्हें अपने
पर भरोसा है, परमात्मा पर
नहीं।
योग्यता का तो
अर्थ है कि तुम
उसे भी खरीदने
को तत्पर हो।
योग्यता का तो
अर्थ है कि
तुम कहते हो, मैंने
अर्जित कर लिए
हैं गुण, अब
देर क्यों हो
रही है? कितनी
प्रार्थनाएं
कीं, कितनी
पूजा की, कितने
दीप जलाए, कितनी
ऊदबत्तियां
फूंक डालीं, कितने फूल
तेरे चरणों पर
रखे, कितने
उपवास किए, कितने ध्यान
किए, कितना
तप--सब कर चुका,
अब तक तू
नहीं आया?
बस 'अब
तक तू नहीं
आया', उसमें
ही तुम्हारा
अहंकार घोषणा
कर रहा है कि मैंने
अर्जित कर
लिया है और
अन्याय हो रहा
है। और ऐसों
को भी मिल रहा
है तू
जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया। जिनका
कोई दावा नहीं
था उनको तू मिल
गया और हमें
नहीं मिल रहा
है।
यह
दावे में ही
बाधा है।
परमात्मा को
पाने वाले वे
ही लोग हैं, जिन्होंने
सारे दावे छोड़
दिए हैं। जो
कहते हैं, हम
कुछ भी करेंगे,
हमारे करने
में क्या रखा
है! हम जो भी
करेंगे वह
बहुत छोटा-मोटा
होगा, हम
छोटे-मोटे
हैं। हम जो भी
करेंगे वह
साधारण होगा,
हम साधारण
हैं। हम जो भी
करेंगे, उससे
तुझे पाने का
क्या संबंध बन
सकेगा! यह तो ऐसा
ही है हमारा
करना, जैसे
कोई मुट्ठी
में आकाश को
बांधना चाहे।
छोटी मुट्ठी,
विराट
आकाश--बात ही
फिजूल है।
परमात्मा
तो तभी मिलता
है, जब तुम
अपनी
व्यर्थता को,
अपनी असहाय
अवस्था को
उसकी समग्रता
में स्वीकार
कर लेते हो।
तब तुम एक
खाली पात्र रह
जाते हो जिसका
कोई दावा नहीं
है। जो
परमात्मा के
पीछे नहीं पड़ा
है कि मिलो, मिलो! जो
सिर्फ
प्रतीक्षा
करता है।
क्योंकि यह
कहना भी कि तू
मिल, बड़ा
अहंकार है।
तुम
पूछते हो: 'और
जब कोई
योग्यता न रही
तो भरोसा नहीं
आता...'
अगर
योग्यता न रही
हो तो भरोसा
तत्क्षण आ
जाएगा। अभी भी
थोड़ी योग्यता
बाकी है। असल
में यही जिसको
तुम सोच रहे
हो कि शून्यता
सघन हो गई है, इसको तुमने
योग्यता समझ
लिया है। कि
अब मैं धूल से
भी तुच्छ हो
गया--इसको
तुमने
योग्यता समझ
लिया है। अब
तुम बस राह
देख रहे हो कि
मिल जा, अन्यथा
अन्याय हो रहा
है! इतना मैं
कर चुका और अभी
तक तू नहीं
आया, ज्यादती
हो रही है।
ध्यान
रखना, परमात्मा
उतरता है केवल
तुम्हारी
शून्यता में।
और यही प्रतीक
है, लक्षण है।
जब तुम
परिपूर्ण
शून्य हो
जाओगे, तो
क्षण भर की
देर नहीं
होती। शून्य
हुए यहां और
परमात्मा
उतरा। ये
दोनों युगपत
घटती हैं घटनाएं।
इसलिए
जिसे तुमने
शून्यता समझा
है, वह मन का
ही खयाल होगा।
मन के खयालों
से जरा सावधान
रहना। मन बड़ा
चालाक है; बड़ा
कुशल है; बड़ा
हिसाबी-किताबी
है। वह जो भी
करता है, बड़े
गणित से करता
है; खाता-बही
रखता है--धर्म
का भी। इस मन
से थोड़े सावधान
रहना।
यही मन
तुमसे कहता है
कि लगता है, न घर के रहे, न घाट के।
जरूरत
भी क्या है कि
घर के रहो कि
घाट के? बीच
में कौन सी
बुराई है? लेकिन
लगता है कि न
घर के रहे, न
घाट
के--क्योंकि
तुम सोचते हो:
न तो संसार
मिला, न
परमात्मा। यह
मतलब है
तुम्हारा।
मतलब हम समझ
गए। संसार
पाने की
आकांक्षा अभी
भी भीतर दबी
पड़ी है, इसलिए
न घर के, न
घाट के।
अन्यथा बीच
में ही
स्वतंत्रता
है। घर में भी
बंधोगे, घाट
पर भी बंधोगे।
फिर गधा घर पर
रहे कि घाट पर,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
बीच में ही
थोड़ी
स्वतंत्रता
है, वहीं
से भागने का
उपाय है; क्योंकि
धोबी घाट पर
भी बैठा है, घर में भी
बैठा है।
नहीं
लेकिन, मन
में लगता है
कि देखो इतना
ध्यान किया, इतनी देर
दुकान ही कर
लेते तो कुछ
पैसा ही कमा लेते;
कि इलेक्शन
ही लड़ लेते तो
कुछ नेता ही
हो जाते; कि
सारी दुनिया
कुछ किए जा
रही है और हम
ध्यान कर रहे
हैं! और
परमात्मा मिल
नहीं रहा है
और संसार खोया
जा रहा है!
यह
विचार ही
इसलिए उठता है
कि संसार में
अभी लगाव बाकी
है। अच्छा है
लौट जाओ, बाजार
में लौट जाओ। क्योंकि
तुम्हारा
संन्यास झूठा
रहेगा; तुम्हारा
ध्यान सच्चा
नहीं हो सकता;
अभी तुम धन
से चुके नहीं,
ध्यान
सच्चा नहीं हो
सकता। अभी धन
में रस कायम
है। अभी तुम
ध्यान में
उत्सुक हो गए
हो, प्यासे
नहीं हो।
जिज्ञासा आ गई
होगी, कौतूहल
पैदा हुआ
होगा--मुमुक्षा
नहीं है।
इसलिए
मैं इसी पक्ष
में हूं कि
बेहतर है तुम
बजाय खाली बैठ
कर और
परमात्मा के
प्रति अन्याय की
धारणा
तुम्हारे मन
में पैदा हो, इससे बेहतर
है तुम बाजार
में लौट जाओ।
अभी शायद ठीक
समय नहीं आया।
अभी पके नहीं
तुम, अभी
कच्चे हो। अभी
तुम्हें और
दुख झेलने
पड़ेंगे, ताकि
पको। अभी
तुमने काफी
दुख नहीं
झेले।
जब कोई
व्यक्ति जीवन
में दुख ही
दुख झेल लेता है
और दुख के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं पाता, तब फिर उसे
फिक्र नहीं रह
जाती; वह
कहता है, परमात्मा
मिले या न
मिले, संसार
में तो कुछ
मिलने को नहीं
है। एक बात तो तय
हो गई कि
संसार में कुछ
पाने को नहीं
है। रही दूसरी
बात कि
परमात्मा
मिले या न
मिले। लेकिन
अब मिले या न
मिले, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। संसार
में लौटने का कोई
सवाल नहीं रह
गया है। वहां
बात खत्म हो
गई; वह
द्वार बंद हुआ;
वह सेतु
हमने तोड़ दिया;
वह सीढ़ी
गिरा दी; अब
उससे उतरने का
कोई सवाल नहीं
है।
पांचवां
प्रश्न:
शंकराचार्य
स्त्री-पुरुष
के शरीर में
वैराग्य की
भावना करने पर
जोर देते हैं, परंतु आप तो
यहां आश्रम
में
युवा-युवतियों
के मुक्त
साहचर्य का भी
समर्थन करते
से लगते हैं।
इस पर कुछ
कहें।
इसीलिए
ताकि तुम पक
सको। मैं
संसार से तुम्हें
तोड़ना नहीं
चाहता; मैं
संसार से
तुम्हें
मुक्त करना
चाहता हूं, तोड़ना नहीं
चाहता। और
तोड़ना और
मुक्त होना, बड़ी अलग
बातें हैं।
तोड़ना
ऐसा है जैसे
कच्चे फल को
तोड़ो; और
मुक्त होना
ऐसा है जैसे
पका फल गिर
जाए। दोनों
घटनाएं ऊपर से
एक सी लगती
हैं कि दोनों
में ही फल
वृक्ष से अलग
होता है।
लेकिन दोनों
में बड़ा मौलिक
अंतर है।
कच्चे फल को
तोड़ते हो--फल में
भी टीस रह
जाती है और
वृक्ष में भी
घाव छूट जाता
है। पका फल
तोड़ने की
जरूरत ही नहीं
होती--पका फल
अपने से गिरता
है, सहजता
से गिरता है; न तो टीस
रहती कोई, न
पीछे वृक्ष की
याद आती कि
थोड़ी देर और
रह जाते वृक्ष
के साथ। पक ही
गया, बात
ही समाप्त हो
गई; वृक्ष
का काम पूरा
हो गया। और न
वृक्ष में कोई
पीड़ा रह जाती।
पका फल वृक्ष
को पूरी तरह
भूल जाता है, पीछे लौट कर
नहीं देखता।
और वृक्ष भी
पके फल के
गिरने पर
निर्भार हो
जाता है, घाव
नहीं छूटता।
संसार
से तोड़ने की
मेरी तुम्हें
आकांक्षा नहीं
है; क्योंकि
जिन-जिन को
संसार से तोड़ा
गया, वे
बड़े गहरे में
संसार से जुड़े
रहे हैं।
संसार
से मुक्त होना
है, टूटना
नहीं है। टूट
कर जाओगे भी
कहां? पत्नी
है, बच्चे
हैं, परिवार
है, दुकान
है--उसको छोड़
कर तुम जाओगे
कहां?
और तुम
कहीं भी जाओ, अगर
दुकानदार मन
में रह गया, तो तुम नई
दुकान बना
लोगे, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ने वाला।
अगर स्त्री का
रस मन में रह
गया--पत्नी को
छोड़ कर भाग
जाओगे, इससे
कोई अंतर न
आएगा; कोई
और स्त्री
तुम्हारे मन
को लुभा लेगी।
अगर धन में रस
है, और धन
छोड़ दिया, तो
क्या अंतर
पड़ेगा? तुम
किन्हीं और
अर्थों में
सिक्के
जुटाने लगोगे।
हो सकता है
सिक्के त्याग
के हों, तपश्चर्या
के हों। लेकिन
सिक्के
सिक्के ही हैं।
तुम दूसरा धन
जोड़ने लगोगे।
पहले तुम घोषणा
करते फिरते
थे--इतने
रुपये हैं
मेरे पास! अब तुम
घोषणा करोगे--इतना
त्याग है मेरे
पास! मगर अकड़
वही रहेगी।
रस्सी जल भी
जाती है तो भी
अकड़ नहीं जाती।
मैं
तुम्हें
संसार से
मुक्त करना
चाहता हूं, तोड़ना नहीं
चाहता।
इस
आश्रम में मैं
तुम्हें जीवन
से मुक्त करने
की चेष्टा में
संलग्न हूं।
जीवन में रहते
हुए जो मुक्त
हो सकता है, वही मुक्ति
है। पानी में
तुम चलो और
तुम्हारे पैर
जल में न
भीगें। कमल के
पत्ते की
भांति तुम हो
जाओ; छुओ
पानी को, लेकिन
पानी तुम्हें
न छू पाए।
पानी
में ही रहो, फिर भी पानी
से
मुक्त--संन्यास
की यह परम
धारणा है।
संन्यास राग
के विपरीत
वैराग्य नहीं
है; संन्यास
राग और विराग
दोनों के पार
वीतरागता है।
शंकर
तुमसे जिस
संन्यास की
बात कर रहे
हैं, वह
वैराग्य है।
मैं तुमसे जिस
संन्यास की
बात कर रहा
हूं, वह
वीतरागता है।
शंकर का
संन्यास
तुम्हें बहुत
दूर न ले
जाएगा। शंकर
के संन्यास के
बाद भी, जिस
संन्यास की
मैं बात कर
रहा हूं, वह
तुम्हें
खोजना ही
पड़ेगा। शंकर
का संन्यास यात्रा
का प्रारंभ हो
सकता है, अंत
नहीं। मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं, वह
अंत है।
मैं
नहीं कहता कि
तुम भागो
स्त्री
से--जागो स्त्री
से! मैं नहीं
कहता, धन
छोड़ो--धन को
समझो! उस समझ
में ही मुक्ति
है। धन ने
तुम्हें पकड़ा
कब है? तुमने
ही पकड़ा है।
तुमने ही पकड़ा
है, वह
तुम्हारी
भाव-दशा है; वह तुम्हारा
रस है। उस रस
से मुक्त होने
का एक ही उपाय
है कि जीवन का
अनुभव
तुम्हें बता
दे कि वह रस
संभव नहीं है,
व्यर्थ है।
अगर
जीवन के अनुभव
से यह पता न
चला, तो तुम
सोचते रहोगे
मन में--कि सब
व्यर्थ है, संसार में
क्या रखा है।
लेकिन तुम
जानते रहोगे
मन के किसी
कोने में कि
कौन जाने, कुछ
रखा ही हो।
मैं तो छोड़ कर
भाग आया। पता
नहीं, मैंने
भूल तो नहीं
की!
मेरे
पास संन्यासी
आते हैं, जो
जीवन भर से
संन्यासी हैं,
सत्तर-अस्सी
साल की उम्र
के हैं; वे
कहते हैं, पीछे
कभी-कभी शक भी
आता है कि
हमने जिंदगी
ऐसे ही तो
नहीं गंवा दी?
क्योंकि
परमात्मा तो
मिला नहीं, और संसार भी
हमने छोड़
दिया। एक
संदेह मन को
डिगाता है; डगमगाता है।
यह
संदेह इसीलिए
उठता है कि
संसार का रस
कायम था और
छोड़ भागे।
प्रभाव में आ
गए। अनुभव से
नहीं छूटा
संसार, किसी
के प्रभाव से
छूट गया।
अब
बुद्ध और शंकर
जैसे लोग जब
संसार में खड़े
होते हैं, तो उनके
प्रभाव की
महिमा अनंत
है। उनका
आकर्षण
व्यापक है, चुंबक की
तरह वे हजारों
लोगों को खींच
लेते हैं।
उनके जीवन में
तो वीतरागता
है। वे जब
तुमसे कहते
हैं, कुछ
सार नहीं है
स्त्री में या
पुरुष में, या बच्चों
में, या
संसार में, तो वे ठीक ही
कहते हैं। वे
तो वृक्ष के
पके फल हैं।
लेकिन कच्चे
फलों में उमंग
आ जाती है।
कच्चे फल
सोचने लगते
हैं, कोई
सार नहीं
है--छोड़ो! टूट
कर गिर जाते
हैं। तब शक
पैदा होता है।
क्योंकि पके
फल की जो
सुगंध है, वह
भी उनसे नहीं
उठती। पके फल
की एक सुगंध
है, एक
सुवास है--वह
भी दूर, और
वृक्ष से भी
टूट गए। संबंध
भी टूट गया
पृथ्वी से और
आकाश से जुड़े
भी नहीं।
त्रिशंकु की अवस्था
हो गई।
यही तो
पिछले प्रश्न
का सवाल था: न
घर के, न घाट
के। ऐसा बीच
में अटक गए।
यह बीच में
अटकने की दशा
बड़ी दुखदायी
है। इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं, यह
बात ही छोड़ो।
कहीं भागने की
जरूरत
नहीं--जहां हो,
वहीं जागो।
संसार को
छोड़ने की
फिक्र
छोड़ो--परमात्मा
को बुलाओ; परमात्मा
को उतरने दो
तुम्हारे
अंतरतम में। जैसे
ही उसकी
किरणें
तुममें उतरने
लगेंगी, वैसे
ही तुम
पाओगे--पकना
शुरू हो गए
तुम। सूरज पकाता
है फलों को, परमात्मा
पकाएगा
तुम्हें।
और
जीवन से भागो
मत, क्योंकि
उसने जीवन
दिया है तो
जरूर इसके
पीछे कुछ कारण
होंगे। यह
सिर्फ संयोग
नहीं है, इसके
पीछे पूरा
संयोजन है; क्योंकि
जीवन के अनुभव
से गुजरे बिना,
कभी कोई
व्यक्ति
मुक्त नहीं
होता।
उपनिषदों
का महावचन है:
तेन त्यक्तेन
भुंजीथाः।
इससे
ज्यादा
क्रांतिकारी
वचन मुझे
दुनिया के
किसी शास्त्र
में नहीं
मिला। यह वचन
बड़ा अनूठा है।
इसके दो अर्थ
हो सकते हैं।
तेन
त्यक्तेन
भुंजीथाः।
जिन्होंने
त्यागा, उन्होंने
ही केवल भोगा।
एक अर्थ।
दूसरा
अर्थ: तेन
त्यक्तेन
भुंजीथाः।
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
ही त्यागा।
और
दोनों ही अर्थ
बड़े बहुमूल्य
और कीमती हैं।
और दोनों अर्थ
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
ही त्यागा।
क्योंकि जब तक
तुमने भोगा ही
नहीं, तुम
त्यागोगे
कैसे? त्याग
की समझ कहां
से आएगी? भोग
की कीचड़ से ही
उठेगा त्याग
का कमल, कोई
और उपाय नहीं
है। इसलिए भोग
की निंदा मत करना,
क्योंकि
कमल उसी से
आएगा। भोग की
निंदा मत करना,
कीचड़ को छोड़
कर मत भागना, अन्यथा कमल
से भी वंचित
रह जाओगे।
कीचड़ से ही कमल
जागेगा, उठेगा।
और कितना
भिन्न है कमल
कीचड़ से!
तुम्हारे
बीच ही
परमात्मा
उठेगा, उसका
कमल खिलेगा।
कितना भिन्न
है परमात्मा तुमसे!
पत्नी, बच्चे, दुकान,
बाजार--इसी
के बीच में
किसी दिन उसकी
अमृतधारा उतर
आती है। तुम
अपने को बस
उसकी
अमृतधारा के लिए
शून्य करो।
छोड़ने
की फिक्र छोड़ो, पाने की
चेष्टा करो।
छोड़ने पर जोर
मत दो, पाने
पर जोर दो। जब
तुम्हारे हाथ
में हीरे-जवाहरात
उतरने लगेंगे,
कंकड़-पत्थर
तुम खुद ही
फेंक दोगे।
कंकड़-पत्थर फेंक
देने से
हीरे-जवाहरात
उतर आएंगे, यह पक्का
नहीं है।
लेकिन
हीरे-जवाहरात
उतरने पर कौन
पागल
कंकड़-पत्थर
लिए फिरता है?
अपने आप छूट
जाते हैं। और
उस छूटने का
सौंदर्य ही
अलग है; उसका
संगीत ही अलग
है। क्यों? क्योंकि जब
तुम ऐसे छोड़
देते हो कि
तुम्हें पता
ही नहीं चलता,
तो छूटने की
कोई रेखा भी
तुम्हारे
भीतर नहीं रह
जाती, त्याग
का कोई दावा
भी पैदा नहीं
होता।
तुम
रोज सुबह कचरा
झाड़ते हो घर
का और बाहर
फेंक देते हो।
क्या तुम जाते
हो कि जाकर
अखबार वालों
को खबर करें
कि आज इतने
कचरे का त्याग
कर दिया? कचरे
का कोई त्याग
करता है? तुम
जाओगे तो लोग
हंसेंगे। वे
कहेंगे, पागल
हो गए? अगर
कचरा ही था तो
त्याग का क्या
सवाल है! और
अगर कचरा न था
तो तुम पागल
हो--त्यागा ही
क्यों?
जब तुम
त्याग की
घोषणा करते हो, तब तुम यह कह
रहे हो कि था
तो धन, किसी
के प्रभाव में
आकर त्याग
दिया। अभी तुम
राजी न हुए थे;
पके नहीं थे,
अभी तुम
कच्चे थे; जल्दबाजी
कर ली। इस
जल्दबाजी से
कभी कोई व्यक्ति
रूपांतरित
नहीं होता।
मैं
तुम्हें किसी
जल्दबाजी में
लगाना नहीं चाहता।
अगर स्त्री
में रस है, तो अनुभव से
गुजर ही जाओ।
तेन त्यक्तेन
भुंजीथाः।
तुम भोग लोगे,
उसी भोग से
त्याग का जन्म
होगा। जब तुम
भोग-भोग कर
देखोगे कि कुछ
भी नहीं मिलता;
जब तुम
भोग-भोग कर
देखोगे, दुख
ही हाथ आता है;
जब तुम
भोग-भोग कर
देखोगे कि
सिर्फ राख से
भर जाता है
जीवन, कहीं
कोई फूल नहीं
खिलते, तब
तुम्हारे भोग
ने तुम्हें
कुंजी दे दी
त्याग की।
भोग
दुश्मन नहीं
है, भोग
तुम्हारा
मित्र है। जाग
कर भोगो, बस
इतनी मेरी
शर्त है; होशपूर्वक
भोगो, इतनी
मेरी शर्त है।
ऐसा न हो कि
अनुभव भी
गुजरता जाए और
सीख भी पैदा न
हो; बस, सीख
दे जाए अनुभव।
अनुभव करने
योग्य है। नरक
से भी गुजरना
उपयोगी है, अगर तुम
जागे हुए गुजर
जाओ; क्योंकि
उसी जागने में
स्वर्ग का
रास्ता मिलेगा।
इसलिए
मैं तुम्हें
जीवन के किसी
तल से तोड़ना नहीं
चाहता; तुम
जहां हो, वहीं
रहो; वहीं
तुम्हारे
हृदय में नये
होश का
बीजारोपण करो।
इसलिए मेरा
त्याग पर जोर
नहीं है, ध्यान
पर जोर है।
संसार
के विरोध में
मैं कुछ भी
नहीं कहता, परमात्मा के
पक्ष में बहुत
कुछ कहता हूं।
शंकराचार्य
का जोर संसार
के विरोध में
ज्यादा है।
पुराने
संन्यास की
वही धारणा थी
कि लोगों को
संसार से
छुड़ाओ, ताकि
वे परमात्मा
को पा सकें; मेरी धारणा
यह है कि
लोगों को
परमात्मा के
निकट लाओ, ताकि
संसार उनसे
छूट सके।
आखिरी
प्रश्न:
मेरा
मन घोर
संदेहवादी है, इसलिए
प्रयास के बाद
भी ध्यान कहीं
टिकता नहीं।
जन्म से अभी
तक सिर्फ
पदार्थ ही
जाना है, और
आप कहते हैं
कि सब
परमात्मा
है--तो क्या
विश्वास कर
लूं? क्या
वह ईमानदारी
होगी?
समझें!
'मेरा
मन घोर
संदेहवादी
है।'
संदेहवादी
होगा, घोर
संदेहवादी
नहीं।
क्योंकि घोर
संदेहवादी को
संदेह पर भी
संदेह हो जाता
है। वह संदेह
अभी तुम्हें
नहीं हुआ।
संदेह अभी
तुम्हारा
लंगड़ा है, नपुंसक
है। अभी तुमने
संदेह किया है,
लेकिन
संदेह की
पराकाष्ठा
नहीं। संदेह
की पराकाष्ठा
ही आस्था है।
क्योंकि जब
संदेह करते-करते
सब चीजों पर
संदेह हो जाता
है, तो
आखिरी संदेह
संदेह पर होता
है--कि मैं यह
जो संदेह कर
रहा हूं, इससे
कुछ मिलेगा? संदेह से
कुछ पाऊंगा? संदेह से
कभी किसी ने
कुछ पाया है?
जब तुम
संदेह पर भी
संदेह कर लेते
हो, तब घोर
संदेह है।
लेकिन उस दिन
संदेह संदेह
को काट देता
है और एक
कुंआरी आस्था
का जन्म होता है।
तो तुम
संदेहवादी हो, लेकिन लंगड़े;
पूरी
यात्रा नहीं
की। लंगड़े तुम
होओगे ही, नहीं
तो मेरे पास
किसलिए आए? संदेह करना
था तो सारी
दुनिया पड़ी है,
उसके लिए
यहां मेरे पास
आने की कोई
जरूरत नहीं
है। संदेह
तुमने पूरा
नहीं किया और
तुम थक गए हो, और तुम
आस्था करना
चाहते हो, इसलिए
मेरे पास आए
हो।
जल्दी
आ गए, थोड़ा और
रुकना था।
थोड़ा और संदेह
करो। और ध्यान
रखो: संदेह ही
संदेह को काट
देता है, जैसे
कांटे से
कांटा निकाल
लिया जाता है।
'मेरा
मन घोर
संदेहवादी है,
इसलिए
प्रयास के बाद
भी ध्यान कहीं
टिकता नहीं।'
टिकेगा
ही नहीं।
संदेहवादी
कभी त्याग को
उपलब्ध हुआ है? या ध्यान को
उपलब्ध हुआ है?
या
परमात्मा को
उपलब्ध हुआ है?
क्योंकि
संदेहवादी
कुछ भी नहीं
कर सकता; वह
एक हाथ से
रखता है, दूसरे
हाथ से मिटाता
है।
मैंने
सुना है कि एक
बड़ा विचारक
पहले महायुद्ध
में भरती हो
गया।
अनिवार्य
भरती थी; सभी
को युद्ध पर
जाना था, वह
भी गया। लेकिन
बड़ी मुसीबत आ
गई, क्योंकि
वह संदेहवादी
था-- विचारक, चिंतक, दार्शनिक।
जब उसका
कमांडर
कहे--बाएं घूम!
तो सारी
दुनिया बाएं
घूम जाए, वह
वहीं का वहीं
खड़ा है। वह
सोच रहा है कि
घूमना कि नहीं
घूमना! आखिर
उसके कमांडर
ने कहा कि इतनी
देर क्या लगती
है, क्या
तुम बहरे हो? सारी पंक्ति
घूम गई, तुम
वहीं खड़े हो!
उसने
कहा कि क्षमा
करें, मैं
बिना
सोचे-विचारे
कुछ भी नहीं
करता। और सोच-विचार
में समय लगता
है। और पहले
तो सवाल उठता
है कि बाएं
घूमना ही
क्यों? जरूरत
क्या है घूमने
की? फिर
दाएं घूमने
में क्या हर्ज
है? फिर
तुमने कह दिया
बाएं घूम, बस
इसीलिए घूम
जाएं? और
कोई प्रयोजन
भी समझ में
नहीं
आता--बाएं घूम,
दाएं
घूम--व्यर्थ
की कवायद!
आखिर में जहां
हम खड़े हैं, फिर वैसे के
वैसे ही खड़े
हैं। तो हम
पहले से वहीं
खड़े हैं, ये
सब घूम-घाम कर
फिर ऐसे ही
खड़े हो
जाएंगे।
जाहिर
आदमी था, बड़ा
विचारक था, कमांडर को
भी दया आई कि
पुरानी आदत है,
ये
मिलिट्री के
काम का नहीं
है। तो उसको
मिलिट्री का
जो चौका था, उसमें रख
दिया कि कुछ
दूसरे काम
करे। पहले ही दिन
उसको मटर के
दाने दिए और
कहा कि बड़े
दाने एक तरफ
कर लेना, छोटे
दाने एक तरफ।
घंटे भर बाद
जब कमांडर आया,
तो वह बड़ी
विचार की
मुद्रा में
वैसा का वैसा
ही बैठा था, दाने अपनी
जगह थे! उसने
पूछा, क्या
यह भी नहीं कर
सके?
उसने
कहा कि एक बड़ी
उलझन आ गई।
बड़े एक तरफ, छोटे एक
तरफ--कुछ मझोल
हैं, उनको
कहां रखना? और जब बात
पहले से साफ न
हो तो मैं
शुरू ही नहीं करता;
मैं तुम्हारी
राह देखता था
कि मझोल का
क्या करना?
यह, इस तरह का जो
व्यक्तित्व
है, यह कुछ
भी नहीं कर
पाता; कृत्य
इससे हो ही
नहीं सकता।
संदेह जहर की
तरह कृत्य को
घेर लेता है।
ध्यान तो बड़ा
दूर है; क्योंकि
ध्यान तो परम
कृत्य है; वह
तो आखिरी बात
है। जब तुम
अभी डांवाडोल हो,
और बाएं
घूमने में भी
तुम्हें
संदेह होगा, तो भीतर
घूमने में तो
बड़ी मुश्किल
आएगी।
'जन्म
से अभी तक
सिर्फ पदार्थ
ही जाना है।'
यह भी
तुम गलत कहते
हो। अगर
संदेहवादी सच
में होते, तो तुम यह भी
नहीं कह सकते
कि पदार्थ ही
जाना है। असली
संदेहवादी तो
यह भी कहते
हैं--पता नहीं,
पदार्थ भी
है या नहीं?
क्योंकि
क्या पक्का? मैं यहां
बैठा हूं, तुम
मुझे सुन रहे
हो। हो सकता
है तुम एक
सपना देख रहे
होओ। जरूरी
क्या है कि
मैं यहां हूं
ही और तुम
वहां बैठे हो?
तुमने सपने
में भी बहुत
बार लोग देखे
हैं; हो
सकता है यह भी
एक सपना हो।
क्या पक्का है?
और
तुमने पदार्थ
देखा है कभी? तुम तो
खोपड़ी के भीतर
छिपे हो, पदार्थ
खोपड़ी के बाहर
है। कभी तुम
खोपड़ी के भीतर
पदार्थ को ले
गए हो? तुमने
पदार्थ तो कभी
नहीं देखा; सिर्फ
पदार्थ के
चित्र जाते
हैं भीतर।
सामने वृक्ष
लगा है। वृक्ष
तो तुमने कभी
नहीं देखा।
वृक्ष से कुछ
किरणें आती
हैं, आंख
पर पड़ती हैं, वे किरणें
भीतर एक चित्र
को ले जाती
हैं। जैसे
फोटो के कैमरे
में चित्र
जाता है, ऐसे
ही तुम्हारे
मस्तिष्क में
चित्र जाता है।
उस चित्र को
ही तुमने देखा
है। पक्का
नहीं है कि उस
चित्र से
मिलता हुआ
वृक्ष बाहर है
भी। इसका कोई
सबूत भी नहीं
है; कोई
सबूत नहीं है
इसका कि बाहर
है भी।
संदेहवादी
तो पदार्थ पर
भी भरोसा नहीं
कर सकता, परमात्मा
की तो बात
अलग।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
पदार्थ को
जानना मुश्किल
है, परमात्मा
को जानना
आसान।
क्योंकि
पदार्थ बाहर
है और
परमात्मा
भीतर; परमात्मा
निकट है, पदार्थ
दूर; परमात्मा
तुम स्वयं हो,
पदार्थ
संसार।
परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है
जिसे जानना
है। वह कोई
जानने का विषय
नहीं है, वह
जानने वाला
है। वह तुम हो
स्वयं, वह
तुम्हारा
चैतन्य है। वह
जो संदेह कर
रहा है, वही
परमात्मा है।
अब तुम
थोड़ा समझो।
अगर वही
परमात्मा है
जो संदेह कर
रहा है, तो
तुम उस पर
कैसे संदेह
करोगे? क्योंकि
संदेह करने
वाला तो कम से
कम है ही भीतर।
संदेह करो तो
भी है; क्योंकि
संदेह करने के
लिए भी उसकी
जरूरत है। अगर
वह हो ही न तो
संदेह कौन
करेगा? समझो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने मित्रों
को लेकर एक
दिन सांझ घर
आया। होटल में
बैठे-बैठे जोश
चढ़ गया। ऐसे
ही कुछ बात चल
रही थी, किसी
ने कह दिया कि
तुम बड़े कंजूस
हो। उसने कहा,
कौन कहता है?
मेरा जैसा
दानी नहीं!
लोगों ने जोश
पर चढ़ा दिया।
उन्होंने कहा
कि अगर ऐसा है,
तो आज हम
सबको
निमंत्रण
करवा दो
तुम्हारे घर।
उसने कहा, आओ,
जितने लोग
यहां मौजूद
हैं। कोई
तीस-पैंतीस का
जत्था आ गया।
घर
पहुंचते-पहुंचते
होश आया कि यह
क्या कर लिया!
क्योंकि अब तक
तो भूल ही गए
थे जोश में कि
पत्नी घर बैठी
है। अब वह
मुश्किल हो जाएगी।
तीस-पैंतीस!
एक आदमी ले आओ
घर में तो मुसीबत
खड़ी होती है।
तो उसने कहा
कि देखो भई, तुम भी सब
घर-द्वार वाले
हो, तुम भी
जानते हो आदमी
की असलियत।
मैं भी एक साधारण
पति हूं, पत्नी
घर में बैठी
है। तुम जरा
बाहर रुको, पहले मैं
उसे राजी कर
लूं, समझा-बुझा
लूं, फिर
तुम्हें भीतर
बुला लूंगा।
वह
सबको बाहर छोड़
कर दरवाजा बंद
करके भीतर
गया। पत्नी तो
एकदम पागल हो
गई, गुस्से
में आ गई कि
हद्द हो गई, पूरा गांव
लिवा लाए! और
घर में खाना
भी नहीं, सब्जी
भी नहीं। दिन
भर से कहां थे?
आटा पिसा ही
नहीं है।
सब्जी तुम लाए
नहीं--आ कहां
से जाएगी? कोई
आकाश से टपकती
है?
तो
मुल्ला ने कहा, अब तू ही बता,
क्या करें?
अब तो रात
भी हो गई, बाजार
भी बंद हो
गया। इनसे किस
तरह निपटारा
हो?
उसने
कहा, अब तुम ही
समझो; जो
निपटारा करना
हो, करो!
मैंने मुसीबत
बुलाई भी नहीं,
तुम्हीं
लेकर आए हो।
तो
उसने कहा, एक काम कर, तू जाकर
उनसे कह दे कि
मुल्ला घर पर
नहीं है।
वह
बाहर आई पत्नी, उसने उनसे
कहा कि किसकी
राह देख रहे
हो? वे घर
पर नहीं हैं।
यह
कैसे हो सकता
है--उन लोगों
ने कहा--वे
हमारे साथ ही
आए थे, और
हमने उनको
बाहर जाते भी
नहीं देखा, भीतर ही गए
हैं।
वे
पत्नी से जिरह
करने लगे, दलीलबाजी
करने लगे।
आखिर मुल्ला
को भी जोश आ
गया। भीतर सुन
रहा है दलील, वह भूल ही
गया जोश में
फिर, खिड़की
से झांक कर
बोला कि सुनो
जी, पीछे
के दरवाजे से
बाहर निकल गया
हो, यह भी
तो हो सकता
है।
आप
अपना ही खंडन
नहीं कर सकते।
पीछे का
दरवाजा या
बाहर का
दरवाजा, आप
यह नहीं कह
सकते कि मैं
नहीं हूं। कोई
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे, तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं
घर पर नहीं
हूं। इसका
क्या मतलब
होगा? इसका
सिर्फ इतना
मतलब होगा कि
तुम हो; क्योंकि
इनकार करने के
लिए भी
तुम्हारी
जरूरत पड़
जाएगी।
परमात्मा
कोई वस्तु
नहीं है, पदार्थ
नहीं है; वह
तुमसे बाहर
नहीं है; वह
तुम्हारे
भीतर होने का,
तुम्हारा
ही स्वभाव है;
वह
तुम्हारा
भीतरीपन है, वह तुम्हारा
स्वरूप है।
नहीं, मैं कहूं
इसलिए तुम उस
पर विश्वास मत
करना। क्योंकि
वह तो झूठा
होगा, बेईमानी
होगी। मेरे
कहने से नहीं।
तुम खोजना। और
तुम जानते हो...
कल मैं
किसी एक कवि
की पंक्तियां
पढ़ रहा था, मुझे
प्रीतिकर
लगीं।
मुद्दतें
गुजरीं तेरी
याद भी आई न
हमें
और हम
भूल गए हों
तुझे ऐसा भी
नहीं
मुद्दतें
गुजरीं तेरी
याद भी आई न
हमें, और हम
भूल गए हों
तुझे ऐसा भी
नहीं--बस
परमात्मा ऐसा
ही है। कितनी
ही मुद्दतें
गुजर गई हों, तुम्हें याद
भी न आई हो--लेकिन
हम भूल गए हों
तुझे ऐसा भी
नहीं।
थोड़ा
भीतर शांत
होकर बैठने की
बात है, इतना
ही ध्यान है।
ध्यान का इतना
ही अर्थ है कि
थोड़ा तुम शांत
हो जाओ भीतर
और उसे जान लो
जो सब कुछ
जानता है। तुम
अपनी चेतना के
प्रति चेतन हो
जाओ।
परमात्मा
कहीं आकाश में
नहीं बैठा है, तुम्हारे
अंतर-आकाश को
घेरे हुए है।
तुम परमात्मा
हो--यही
उदघोषणा है।
इसी उदघोषणा
का सूत्र
तुम्हें अपने
भीतर खोजना है,
मुझ पर
विश्वास करके
नहीं। तुम जब
इसे खोज लोगे,
तब तुम्हें
मुझ पर आस्था
आएगी।
तुम्हारा अनुभव
आस्था देगा।
मुझ पर आस्था
से अनुभव पैदा
नहीं हो सकता।
जब तुम भीतर
उसकी थोड़ी सी
गंध पा लोगे, थोड़ा सुराग,
बस फिर
तुम्हें मुझ
पर आस्था आ
जाएगी; क्योंकि
फिर तुम समझ
पाओगे मैं
क्या कह रहा
हूं।
मुद्दतें
गुजरीं तेरी
याद भी आई न
हमें
और हम
भूल गए हों
तुझे ऐसा भी
नहीं
आज
इतना ही।
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