भज गोविंदम मूढ़मते—(आदि
शंक्राचार्य)
(दिनांक 11-11-1975 से 20-11-1975 तक ओशो आश्रम पूना में बोले गये श्री आदि शंकराचार्य के सूत्रो पर ओशो जी दस अमृत प्रवचन।)
(दिनांक 11-11-1975 से 20-11-1975 तक ओशो आश्रम पूना में बोले गये श्री आदि शंकराचार्य के सूत्रो पर ओशो जी दस अमृत प्रवचन।)
इस
मधुर गीत का पहला पद शंकर
ने तब लिखा, जब
वे एक गांव से
गुजरते थे, और उन्होंने
एक बूढ़े आदमी
को व्याकरण के
सूत्र रटते
देखा। उन्हें
बड़ी दया आई, मरते वक्त
व्याकरण के
सूत्र रट रहा
है यह आदमी!
पूरा जीवन भी
गंवा दिया, अब आखिरी
क्षण भी गंवा
रहा है! पूरे
जीवन तो परमात्मा
को स्मरण नहीं
किया, अब
भी व्याकरण
में उलझा है!
व्याकरण के
सूत्र रटने से
क्या होगा?
शंकर
की सारी वाणी
में 'भज गोविन्दम्'
से
मूल्यवान कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि शंकर
मूलतः
दार्शनिक
हैं।
उन्होंने जो
लिखा है, वह
बहुत जटिल है;
वह शब्द, शास्त्र, तर्क, ऊहापोह,
विचार है।
लेकिन शंकर
जानते हैं कि
तर्क, ऊहापोह
और विचार से
परमात्मा
पाया नहीं जा
सकता; उसे
पाने का ढंग
तो नाचना है, गीत गाना है;
उसे पाने का
ढंग भाव है, विचार नहीं;
उसे पाने का
मार्ग हृदय से
जाता है, मस्तिष्क
से नहीं।
इसलिए शंकर ने
ब्रह्म-सूत्र
के भाष्य लिखे,
उपनिषदों
पर भाष्य लिखे,
गीता पर
भाष्य लिखा, लेकिन शंकर
का अंतरतम तुम
इन छोटे-छोटे
पदों में
पाओगे। यहां
उन्होंने
अपने हृदय को
खोल दिया है।
सूत्र:
भज गोविन्दम्
भज गोविन्दम्
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते
काले न हि
न हि रक्षति
डुकृग्करणे।।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां
कुरु सद्बुद्धिं
मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं
वित्तं
तेन विनोदय
चित्तम्।।
नारीस्तनभरनाभीदेशं दृष्ट्वा
मा गा मोहावेशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचिन्तय
वारं वारम्।।
नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं
लोकं शोकहतं
च समस्तम्।।
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।
यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति
कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये
भार्या बिभ्यति
तस्मिन्काये।।
बालस्तावक्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः
परे ब्रह्मणि
कोऽपि न सक्तः।।
सत्य
मिलता है
शून्य में और
खो जाता है
शब्दों में।
सत्य
मिलता है मौन
में,
बिछुड़ जाता है
मुखरता में।
सत्य
की कोई भाषा
नहीं है। सारी
भाषा असत्य है।
भाषा मात्र
मनुष्य का
निर्माण है।
सत्य मनुष्य
का निर्माण
नहीं, आविष्कार
है। सत्य तो
है ही, उसे
बनाना नहीं है,
न उसे
प्रमाणित
करना है, सिर्फ
उघाड़ना है। और
उघाड़ने
की घटना, जब
मनुष्य के
भीतर सारी
भाषा का
ऊहापोह शांत
हो जाता है, तभी घटती
है। क्योंकि
भाषा के ही
परदे हैं, विचार
से ही बाधा
है।
यह
बहुत
बुनियादी और
प्राथमिक
सूत्र है समझ
लेने का।
बच्चा
पैदा होता है; कोई
भाषा उसके पास
नहीं होती। न
कोई शास्त्र लेकर
आता है, न
कोई धर्म; न
कोई जाति, न
कोई राष्ट्र।
उतरता है
शून्य की
भांति। शून्य
की पवित्रता
अनूठी है।
शून्य
एकमात्र
कुंआरापन है,
बाकी तो सभी
विकृत है।
उतरता है एक
ताजे फूल की
भांति। चेतना
पर एक लकीर भी
नहीं होती।
जानता कुछ भी
नहीं। लेकिन
बच्चे की
जानने की
क्षमता शुद्ध
होती है।
दर्पण है; अभी
कोई प्रतिबिंब
भी नहीं बना।
लेकिन दर्पण
की क्षमता
पूरी है, शुद्ध
है। बाद में
प्रतिबिंब तो
बहुत बन जाएंगे,
जानना तो बढ़
जाएगा, जानने
की क्षमता कम
होती जाएगी; क्योंकि वह
जो शून्य था, वह शब्दों
से भर जाएगा; उसकी
रिक्तता
समाप्त हो
जाएगी। जैसे
दर्पण पर
प्रतिबिंब
बनें और
चिपकते चले
जाएं, अलग
न हों, तो
दर्पण की झलकाने
की क्षमता कम
हो जाएगी।
बच्चा
पैदा होता है, जानता
कुछ भी नहीं, लेकिन जानने
की क्षमता
उसकी
परिशुद्ध
होती है।
इसीलिए तो
बच्चे जल्दी
सीख लेते हैं,
बूढ़े
मुश्किल से
सीख पाते हैं;
क्योंकि
सीखने की
क्षमता ही
बूढ़े की कम हो
गई--मन भर गया; स्लेट पर
बहुत कुछ लिखा
जा चुका; कागज
अब कोरा नहीं
है। पहले कागज
को कोरा करना
पड़े, तभी
कुछ नया लिखा
जा सके।
बच्चा
जैसा पैदा
होता है, यदि
तुम पुनः वैसे
ही हो जाओ, तो
ही सत्य को पा
सकोगे।
तो एक
जन्म तो बच्चे
का है और एक
जन्म संतत्व का।
जिसके जीवन
में दूसरा
जन्म घट गया, जो
द्विज हो गया,
वही
ब्राह्मण है।
शास्त्र
कहते हैं:
पैदा सभी
शूद्र की
भांति होते
हैं,
कभी कोई
विरला
ब्राह्मण हो
पाता है; शेष
सब शूद्र की
भांति ही पैदा
होते हैं, शूद्र
की भांति ही
मर जाते हैं।
ब्राह्मण
कौन है? वह
नहीं जो वेद
को जानता है; क्योंकि वेद
को तो कोई भी
जान ले सकता
है। वह नहीं
जिसे शास्त्र
कंठस्थ है; शास्त्र तो
कंठस्थ कोई भी
कर ले सकता है;
शास्त्र की
जानकारी तो
स्मृति है, ज्ञान नहीं।
ब्राह्मण वह
है जिसने
ब्रह्म को जाना।
यहां
तुम आ गए हो, तुम्हें
शायद पता भी न
हो, यह खोज
ब्राह्मण
होने की खोज
है--ब्रह्म को
जानने की खोज
है।
इस
मधुर गीत का
पहला पद शंकर
ने तब लिखा, जब
वे एक गांव से
गुजरते थे, और उन्होंने
एक बूढ़े आदमी
को व्याकरण के
सूत्र रटते
देखा। उन्हें
बड़ी दया आई, मरते वक्त
व्याकरण के
सूत्र रट रहा
है यह आदमी!
पूरा जीवन भी
गंवा दिया, अब आखिरी
क्षण भी गंवा
रहा है! पूरे
जीवन तो परमात्मा
को स्मरण नहीं
किया, अब
भी व्याकरण
में उलझा है!
व्याकरण के
सूत्र रटने से
क्या होगा?
स्वामी
राम अमेरिका
से वापस लौटे।
अमेरिका में
उनका गहरा
प्रभाव पड़ा।
आदमी अनूठे
थे। अत्यंत
जीवंत वेदांत
था उनमें। नगद
था परमात्मा, उधार
नहीं। एक
ज्योतिर्मय
पुंज थे।
अमेरिका के
सरल हृदय पर
उनकी बड़ी छाप
पड़ी। अमेरिका
का हृदय बहुत
सरल है। सरल
होने का कारण
है, क्योंकि
अमेरिका का
कोई अतीत नहीं,
कोई परंपरा
नहीं, कोई
इतिहास नहीं।
कुल तीन सौ
वर्ष पुराना
देश है। बच्चे
जैसा सरल
चित्त है।
बहुत पर्तें
समझ की, ज्ञान
की, शास्त्र
की नहीं हैं।
राम को लोगों
ने पूजा। उनके
वचनों को ऐसे
सुना, जैसे
वे अमृत का
संदेश लाए
हों। लोग उनके
साथ नाचे और
गाए।
राम
भारत वापस
लौटे, तो
उन्होंने
सोचा कि
अमरीका जैसे
देश में, जहां
धर्म की कोई
परंपरा नहीं
है, जहां
लोग बिलकुल ही
भौतिकवादी
हैं--जब वहां
मेरे वचनों का
ऐसा प्रभाव
हुआ और मेरे
व्यक्तित्व
ने ऐसी लहर
पैदा की, तो
भारत में तो न
मालूम क्या हो
जाएगा! लौटता
हूं अपने घर, जहां की
परंपरा
हजारों साल
पुरानी है। कब
प्रारंभ हुआ
जहां का
इतिहास--सब
अंधकार में खो
गया है--इतना
लंबा है। जहां
वेद लिखे गए, उपनिषद रचे
गए, गीता
निर्मित हुई;
जहां बुद्ध,
महावीर और
शंकर जैसे लोग
पैदा हुए, वहां
मेरी बात तो
ऐसी पकड़ी
जाएगी जैसे
मैं हीरे
बांटता होऊं।
जब अमरीका में--जहां
लोग
पदार्थवादी
हैं, जो
ईश्वर को समझ
ही नहीं पाते,
जिनके
ईश्वर से सारे
संबंध टूट गए
हैं--जब वहां ऐसा
चमत्कार हुआ,
तो भारत में
क्या न होगा!
लेकिन
भारत में जो
हुआ,
वह राम ने
सोचा भी न था।
यह सोच कर कि
उचित होगा कि
भारत में
प्रवेश मैं
काशी से
करूं--क्योंकि
वही नगरी है; भारत के
सारे सौभाग्य
का इतिहास
काशी के कण-कण
में छिपा है; बुद्ध ने
अपना पहला
प्रवचन वहां
दिया; शंकर
ने अपनी विश्वविजय
की घोषणा वहां
की; वहां
जैन तीर्थंकर
हुए। काशी से
पुराना कोई नगर
सारे संसार
में नहीं है। जेरुसलम
भी नया है।
मक्का और
मदीना भी बहुत
नये हैं। काशी
प्राचीनतम
तीर्थ
है--पृथ्वी पर
सबसे पहला सभ्य
हुआ नगर है।
तो राम पहले
काशी पहुंचे।
और उन्होंने
पहला प्रवचन
काशी में
दिया।
लेकिन
बीच प्रवचन
में एक पंडित
खड़ा हो गया और उसने
कहा कि रुकें!
संस्कृत आती
है?
राम कुछ
समझ न पाए। वे
एक मस्त आदमी
थे। उन्हें
संस्कृत आती
भी नहीं थी; उर्दू-फारसी
जानते थे। यह
उन्होंने
सोचा भी न था
कि संस्कृत का
और वेद से, और
ब्रह्म से, और ज्ञान से
कोई संबंध है।
कोई भी
भाषा न आती हो
तो भी आदमी
परमात्मा को जान
सकता है। कबीर
भी जान लेते
हैं बिना पढ़े-लिखे; मोहम्मद
भी जान लेते
हैं बिना पढ़े-लिखे;
बढ़ई के बेटे
जीसस के जीवन
में भी वे फूल
खिल जाते हैं।
कुछ पंडित
होना शर्त तो
नहीं है।
राम चौंके!
कहा,
नहीं, संस्कृत
तो नहीं आती।
वह
पंडित हंसने
लगा। और लोग
भी उठ गए।
उन्होंने कहा, जब
संस्कृत ही
नहीं आती, तो
वेदांत कैसे
आएगा! पहले
संस्कृत सीखो,
फिर सिखाने
आना।
राम
उसके बाद
हिमालय चले
गए। और एक बड़ी
उदास घटना है
कि राम ने
संन्यासी का
वेश छोड़ दिया।
जब वे मरे तो
गैरिक
वस्त्रों में
नहीं थे। क्योंकि
उन्होंने कहा, जो
धर्म शब्दों
में अटक गया
हो, और
जिसका
संन्यास केवल
पांडित्य हो
गया हो, और
संस्कृत
जानने से जहां
वेदांत जाना
जाता हो, उस
समूह का क्या
अपने को अंग
मानना! जब वे
मरे, तब वे
गैरिक
वस्त्रों में
न थे।
उन्होंने संन्यास
का भी त्याग
कर दिया।
परंपरा
ने संन्यास तक
को दूषित कर
दिया है।
अमेरिका
समझ सका, भारत
न समझ पाया।
अमेरिका
नासमझ है
इसलिए समझ
सका। भारत बहुत
समझदार
है--जरूरत से
ज्यादा
समझदार है--बिना
जाने बहुत कुछ
जान लेने की
भ्रांति भारत
को पैदा हो गई
है; पंडित
तो हो गया है
मन, प्रज्ञावान
नहीं हो पाया
है; शब्द
तो भर गए हैं, निःशब्द के
लिए जगह नहीं
बची है। और
धर्म का कोई
संबंध शब्दों
से नहीं है।
इसलिए
मैं जो तुमसे
कहूं, उससे भी
ज्यादा ध्यान
उस पर देना जो
मैं तुमसे न
कहूं।
बोलूं--शब्द
पर बहुत ध्यान
मत देना; दो
शब्दों के बीच
में जो खाली
जगह होती है, उस पर ध्यान
देना। जो
बोलूं, वह
छूट जाए, हर्जा
नहीं है; लेकिन
जो अनबोला है,
वह न छूट
पाए।
पंक्तियों
के बीच पढ़ना
पड़ता है
ब्रह्म को।
शब्दों के बीच
खोजना पड़ता है
ब्रह्म को।
अंतराल में
घटता है। जब
मैं चुप रह
जाऊं क्षण भर
को,
तब तुम
जागना; तब
तुम गौर से
मुझे देखना; तब तुम मुझे
मौका देना कि
मैं तुम्हारे
करीब आ जाऊं
और तुम्हारे हृदय
को सहला सकूं।
धर्म
व्याकरण के
सूत्रों में
नहीं है, वह तो
परमात्मा के
भजन में है।
और भजन, जो
तुम करते हो, उसमें नहीं
है। जब भजन भी
खो जाता है, जब तुम ही
बचते हो; कोई
शब्द आस-पास
नहीं रह जाते,
एक शून्य
तुम्हें घेर
लेता है। तुम
कुछ बोलते भी
नहीं, क्योंकि
परमात्मा से
क्या बोलना
है! तुम्हारे
बिना कहे वह
जानता है।
तुम्हारे
कहने से उसके
जानने में कुछ
बढ़ती न हो
जाएगी। तुम
कहोगे भी क्या?
तुम जो
कहोगे वह रोना
ही होगा। और
रोना ही अगर कहना
है तो रोकर ही
कहना उचित है,
क्योंकि जो
तुम्हारे
आंसू कह देंगे,
वह
तुम्हारी वाणी
न कह पाएगी।
अगर अपना
अहोभाव प्रकट
करना हो, तो
बोल कर कैसे
प्रकट करोगे?
शब्द छोटे
पड़ जाते हैं।
अहोभाव बड़ा
विराट है, शब्दों
में समाता
नहीं, उसे
तो नाच कर ही
कहना उचित
होगा। अगर कुछ
कहने को न हो, तो अच्छा है
चुप रह जाना, ताकि वह
बोले और तुम
सुन सको।
भजन--कीर्तन, गीत
और नाच है। वे
भाव को प्रकट
करने के उपाय
हैं।
बिना
कहे तुम भजन
हो जाओ, तुम
गीत हो जाओ, इस तरफ शंकर
का इशारा है।
ये पद बड़े सरल
हैं, सूत्र
बड़े सीधे
हैं--और शंकर
जैसे मेधावी
पुरुष ने लिखे
हैं। शंकर की
सारी वाणी में
'भज गोविन्दम्'
से
मूल्यवान कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि शंकर
मूलतः
दार्शनिक हैं।
उन्होंने जो
लिखा है, वह
बहुत जटिल है;
वह शब्द, शास्त्र, तर्क, ऊहापोह,
विचार है।
लेकिन शंकर
जानते हैं कि
तर्क, ऊहापोह
और विचार से
परमात्मा
पाया नहीं जा
सकता; उसे
पाने का ढंग
तो नाचना है, गीत गाना है;
उसे पाने का
ढंग भाव है, विचार नहीं;
उसे पाने का
मार्ग हृदय से
जाता है, मस्तिष्क
से नहीं।
इसलिए शंकर ने
ब्रह्म-सूत्र
के भाष्य लिखे,
उपनिषदों
पर भाष्य लिखे,
गीता पर
भाष्य लिखा, लेकिन शंकर
का अंतरतम तुम
इन छोटे-छोटे
पदों में
पाओगे। यहां
उन्होंने
अपने हृदय को
खोल दिया है। यहां
शंकर एक पंडित
और एक विचारक
की तरह प्रकट
नहीं होते, एक भक्त की
तरह प्रकट
होते हैं।
'हे मूढ़,
गोविन्द को भजो, गोविन्द
को भजो, क्योंकि
अंतकाल के आने
पर व्याकरण की
रटन तुम्हारी
रक्षा न
करेगी।'
'हे मूढ़,
गोविन्द को भजो।'
मूढ़ता
क्या है? शंकर
तुम्हें मूढ़
कह कर कोई
गाली नहीं दे
रहे हैं।
अत्यंत प्रेमपूर्ण
वचन है उनका
यह।
भज गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।
'हे मूढ़,
भगवान को भज,
गोविन्द को
भज।'
मूढ़ता का
क्या अर्थ है? मूढ़ता
का अर्थ समझो।
मूढ़ता का
अर्थ अज्ञानी
नहीं है; मूढ़ता का अर्थ है:
अज्ञानी होते
हुए अपने को
ज्ञानी
समझना। मूढ़ता
पंडित के पास
होती है, अज्ञानी
के पास नहीं।
अज्ञानी को
क्या मूढ़
कहना! अज्ञानी
सिर्फ
अज्ञानी
है--नहीं
जानता, बात
सीधी-साफ है।
और कई बार ऐसा
हुआ है कि
नहीं जानने
वाले ने जान
लिया और जानने
वाले पिछड़
गए; क्योंकि
जो नहीं जानता
है, उसका
अहंकार भी
नहीं होता; जो नहीं
जानता है, वह
विनम्र होता
है; जो
नहीं जानता है,
नहीं जानने
के कारण ही
उसका कोई दावा
नहीं होता।
लेकिन, पंडित
बिना जाने
जानता है कि
जानता है।
शब्द सीख लिए
हैं उसने; ग्रंथों
का बोझ उसके
सिर पर है। वह
दोहरा सकता है
व्याकरण के
नियम। उन्हीं
में डूब जाता
है।
सूफियों
की एक कथा है।
एक
सूफी फकीर
अपनी रोटी
कमाने के लिए
एक नदी पर
लोगों को नाव
से पार करवाता
था। एक दिन
गांव का पंडित
उस पार जाना
चाहता था। तो
उस सूफी फकीर
ने कहा, आपसे
क्या पैसे
लेने! पैसे भी
वह एक-दो पैसे
लेता था। आपको
ऐसे ही पार
करा देंगे।
पंडित नाव में
बैठा; वे
दोनों चले।
दोनों ही थे
नाव में, पंडित
ने पूछा--कुछ पढ़ना-लिखना
आता है?
पंडित
और पूछ भी
क्या सकता है!
जो वह जानता
है,
वही सोचता
है, दूसरों
को भी जना दे।
हम वही दूसरों
को दे सकते
हैं, जो
हमारे पास है।
सूफी
फकीर का तेज
उसे दिखाई न
पड़ा। पंडित
अपने ज्ञान
में अंधा होता
है। उसने तो
समझा एक
साधारण मांझी
है। वह एक
असाधारण
पुरुष था।
पंडित जिस
परमात्मा की
बात सोचता रहा
है,
सुनता रहा
है, वह
परमात्मा उस
असाधारण
पुरुष में
मौजूद था; जिसकी
पंडित ने अब
तक चर्चा की
थी, वह उस
फकीर में से
झांक रहा था।
अगर आंख होती
तो फकीर में वह
सब मिल जाता, जिसके सपने
देखे हैं, जिसके
शास्त्र पढ़े
हैं।
प्रत्यक्ष था
वहां कोई।
लेकिन
पंडित ने पूछा, पढ़ना-लिखना
आता है?
पंडित
को अगर
परमात्मा भी
मिल जाए तो वह
पूछेगा--सर्टिफिकेट? कहां
तक पढ़े-लिखे
हो? उसकी अपनी
दुनिया है; वह अपने ही
शब्दों में, अपने ही
शास्त्र में
जीता है।
उस
फकीर ने कहा
कि नहीं, पढ़ना-लिखना तो
बिलकुल नहीं
आता; मैं
बिलकुल गंवार
हूं, नासमझ
हूं।
उसने
जब ये शब्द
कहे,
तब अगर
पंडित के पास
जरा भी होश
होता तो देख
लेता कि कितनी
गहरी
विनम्रता है।
अपने अज्ञान
को स्वीकार कर
लेना, ज्ञान
की तरफ पहला
कदम है। और
अगर कोई
समग्रता से
अपने अज्ञान
को स्वीकार कर
ले, तो वही
अंतिम कदम भी
हो सकता है।
क्योंकि जब तुम
पूरे भाव से
जानते हो कि
कुछ भी नहीं
जानता हूं, तब तुम्हारा
अहंकार कहां
टिकेगा? कहां
खड़ा रहेगा? भूमि खो जाएगी
पैर के तले से,
गिर जाएगा
भवन अहंकार का,
तुम
निरहंकार में
उतर जाओगे।
वही द्वार है;
वहीं से कोई
परमात्मा से जुड़ता है।
फकीर
ने कहा, मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं, बिलकुल बेपढ़ा-लिखा
हूं।
पंडित
ने कहा, तो
फिर तुम्हारी
चार आना
जिंदगी बेकार
गई।
नाव
थोड़ी आगे बढ़ी।
पंडित ने पूछा, और
गणित तो आता
ही होगा कम से
कम? हिसाब-किताब
के लिए जरूरी
है।
फकीर
ने कहा, अपने
पास कुछ है ही
नहीं, हिसाब-किताब
क्या करना!
खाली हाथ हैं;
जो दिन में
मिल जाता है, वह सांझ तक
समाप्त हो
जाता है, क्योंकि
रोटी से
ज्यादा कमाना
नहीं है कुछ।
रात तो हम फिर
फकीर हो जाते
हैं, सुबह
उठ कर फिर कमा
लेते हैं। और
परमात्मा अब तक
देता रहा है
तो कल का
हिसाब क्या
रखना! और किसी
ने दे दिया तो
ठीक है और
किसी ने न
दिया तो भी ठीक
है; क्योंकि
अब तक जी लिए
हैं, आगे
भी जी लेंगे।
न तो देने
वाले से कुछ
ऐसा मिल जाता
है कि सदा काम
आ जाए, और न न देने
वाला कुछ छीन
लेता है कि
सदा के लिए
कोई नुकसान हो
जाए--सब खेल
है।
पंडित
ने कहा, तुम्हारी
आठ आना जिंदगी
बेकार गई।
और तभी
अचानक तूफान आ
गया;
और नाव डगमगाने
लगी; और
नाव अब डूबी, तब डूबी
होने लगी।
फकीर हंसा, क्योंकि
पंडित बहुत
घबड़ा गया। मौत
सामने देख कर
कौन न घबड़ा
जाएगा! ऐसे पंडित
अमृत की बातें
करते
था--आत्मा अमर
है--लेकिन जब
मौत सामने आती
है तब
पांडित्य की
आत्मा काम
नहीं आती, न
पांडित्य की
अमरता काम आती
है। घबड़ा गया;
हाथ-पैर
कंपने लगे।
फकीर
ने पूछा, तैरना
नहीं आता?
उसने
कहा कि बिलकुल
नहीं आता।
फकीर
ने कहा, तुम्हारी
सोलह आना
जिंदगी बेकार
गई। अब मैं तो
कूदता हूं; हम तो चले; ये नाव तो डूबेगी।
'हे मूढ़,
गोविन्द को भजो, गोविन्द
को भजो, क्योंकि
अंतकाल के आने
पर...'
संभवतः, शंकर
उस कहानी को
जानते रहे हों
जो मैंने तुमसे
कही।
'क्योंकि
अंतकाल के आने
पर व्याकरण की
रटन तुम्हारी
रक्षा न
करेगी।'
जब
डूबना आएगा
सामने, जब
मौत घेरेगी,
तब अगर
तैरना आता हो
तो ही काम आ
सकेगा। मौत में
तैरना आता हो!
और अगर मौत
में तैरना
नहीं आता तो
मौत डुबा
लेगी। बहुत
बार पहले भी
उसने डुबाया--तुम
अभी तक भी सजग
नहीं हुए हो; तुमने अब तक
भी तैरना नहीं
सीखा।
अंतकाल
के आने पर, मृत्यु
के आने पर, कितनी
तुम भाषा
जानते हो या
कितनी भाषाएं
जानते हो, कितना
व्याकरण
जानते हो--कुछ
भी तो काम न
पड़ेगा।
जो मौत
में काम आ जाए, वह
प्रज्ञा; और
जो मौत में
काम न आए, वह
पांडित्य।
मौत कसौटी है।
तो जो भी तुम
जानते हो, उसको
इस कसौटी पर
कसते रहना, कहीं भूल न
हो। यह कसौटी
सदा सामने
रखना। जैसे
सर्राफ कसता
रहता है पत्थर
पर सोने को, ऐसे इस
कसौटी को रखे
रहना सदा: जो
मौत में काम आए,
उसी को
ज्ञान मानना;
जो मौत में
काम न आए, धोखा
दे जाए, दगा
दे जाए, उसे
पांडित्य
समझना।
और जो
मौत में काम न
आए,
वह जीवन में
क्या खाक काम
आएगा! जो मौत
तक में काम
नहीं आता, वह
जीवन में कैसे
काम आ सकता है?
क्योंकि
मौत जीवन की
पूर्णाहुति
है; वह
जीवन का चरम
शिखर है; वह
जीवन का समारोप
है। जो मौत
में काम आता
है, वही
जीवन में भी
काम आता है।
यद्यपि जीवन
में धोखा देना
आसान है, लेकिन
मौत में धोखा
देना असंभव
है। मौत तो सब उघाड़
कर सामने रख
देगी।
शंकर
किसे मूढ़
कहते हैं? उसे
मूढ़ कहते
हैं, जो
जानता तो नहीं
है, लेकिन
व्याकरण को रट
लिया है; शब्द
का ज्ञाता हो
गया है; शास्त्र
से जिसकी
पहचान हो गई
है; जो
शास्त्र को
दोहरा सकता है,
पुनरुक्त
कर सकता है; शास्त्र की
व्याख्या कर
सकता है।
पंडित
को मूढ़ कह
रहे हैं शंकर।
अगर पंडित को मूढ़ न कहते
होते, तो 'हे
मूढ़, गोविन्द
को भजो, गोविन्द को भजो, क्योंकि
अंतकाल के आने
पर व्याकरण की
रटन तुम्हारी
रक्षा न करेगी',
अचानक
व्याकरण को
याद करने की
जरूरत नहीं
थी। मूढ़
थोड़े
ही--जिनको हम मूढ़ कहते
हैं, अज्ञानी--वे
थोड़े ही
व्याकरण रट
रहे हैं। पंडित
रट रहा है। और
भारत में यह
बोझ काफी गहरा
हो गया है। यह
इतना गहरा हो
गया है कि
करीब-करीब हर आदमी
को यह खयाल है
कि वह
परमात्मा को
जानता है, क्योंकि
परमात्मा
शब्द को जानता
है।
ध्यान
रखना, परमात्मा
शब्द
परमात्मा
नहीं है, न
पानी शब्द
पानी है। और
प्यास लगी हो
तो शब्द काम न
आएगा, पानी
चाहिए। और मौत
सामने खड़ी हो
तो अमरत्व के
सिद्धांत काम
न आएंगे, अमृत
का स्वाद
चाहिए।
मैं एक
यात्रा में
था। गर्मी के
दिन थे और उस
वर्ष वर्षा
नहीं हुई थी
उस इलाके में।
स्टेशन पर
गाड़ी रुकी थी, एक
आदमी दस-दस
पैसे में एक
गिलास पानी
बेच रहा था।
दस पैसे में
एक गिलास ठंडा
पानी, कहता
हुआ वह बढ़ता
जाता, पैसे
इकट्ठे करता
जाता। एक आदमी
जो मेरे पास ही
बैठा था
डिब्बे में, उसने कहा, आठ पैसे में
न दोगे? वह
पानी बेचने
वाला रुका ही
नहीं, उसने
कहा, फिर
तुम्हें
प्यास ही नहीं
लगी।
जब
प्यास लगी हो, तो
कोई दस पैसे, आठ पैसे की
बात करता है!
यह तो प्यास न
लगे हुए लोगों
की बातें हैं।
वह मुझे जंच
गई बात; उसने
ठीक कहा कि दो
पैसे की फिक्र
करोगे तुम, जब प्यास
लगी हो? तब
आदमी सब देने
को तैयार हो
सकता है।
हिसाब-किताब
तभी तक चलता
है जब तक
प्यास न लगी
हो।
तुम
कहते हो तुम
हिंदू हो, मुसलमान
हो, ईसाई
हो--ये सब
प्यास न लगे
होने की बातें
हैं। जब प्यास
लगती है तो
कौन हिंदू, कौन मुसलमान,
कौन ईसाई? जब प्यास
लगती है तो
तुम परमात्मा
को मांगते
हो--मंदिर, मस्जिद
और
गुरुद्वारे
से कोई
लेना-देना
नहीं रह जाता।
इनसे कहीं
प्यास बुझी है?
और जब प्यास
लगती है तो
तुम
हिसाब-किताब
नहीं लगाते।
त्याग
का यही अर्थ
है,
संन्यास का
यही अर्थ है
कि तुम्हें
प्यास लगी है
और तुम सब कुछ
दांव पर लगाने
को तैयार हो।
लोग
कहते हैं--हां, परमात्मा
को भी जानना
है, लेकिन
अभी और दूसरे
काम करने को
भी बाकी हैं; अभी और
उलझनें हैं, उनको सुलझा
लें। लोग
परमात्मा को
आखिर में टालते
जाते हैं। वह
तुम्हारी
जरूरतों के
क्यू में
बिलकुल अंत
में खड़ा है।
और जरूरतों का
क्यू कभी पूरा
नहीं होता, वह अंत में
ही खड़ा रह
जाता है। तुम
समाप्त हो जाओगे,
तुम उसके
पास कभी पहुंच
न पाओगे। एक
जरूरत पूरी
नहीं होती कि
दस पैदा हो
जाती हैं; एक
आकांक्षा भर
नहीं पाती कि
हजार पैदा हो
जाती हैं; वह
हमेशा पीछे ही
खड़ा रहता है; वह इंच भर
नहीं सरक पाता।
तुम्हारे
जो जीवन की फेहरिस्त
है,
उस पर
परमात्मा
अंतिम है या
प्रथम है, इस
पर सब कुछ
निर्भर
करेगा। जिसकी फेहरिस्त
में वह अंतिम
है, वह मूढ़
है; और
जिसकी फेहरिस्त
में वह प्रथम
है, वह अमूढ़
है; वह
जागने लगा; उसने एक बात
ठीक से समझ ली
है कि इस जीवन
में मैं कुछ
भी इकट्ठा कर
लूं, मौत
उसे छीन लेगी।
और जो छिन ही
जाना है, उसे
इकट्ठा करने
में समय
गंवाना
व्यर्थ है।
'हे मूढ़,
गोविन्द को भजो।'
भजना--इसे
भी समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि तुम्हें
भजन करते लोग
मिल जाएंगे, और
भजन वे नहीं
कर रहे हैं; उनका भजन भी
ऊपर-ऊपर है।
मनोरंजन होगा
शायद; जीवन
को दांव पर
नहीं लगाया
है। मजा ले
रहे होंगे
शायद। किसी और
गीत से भी
इतना मजा मिल
सकता था। किसी
और संगीत में
भी इतनी ही
खुशी हो सकती
थी।
लेकिन
भजन का अर्थ
है: तुम्हारे
पूरे प्राण से
कोई आह उठती
है! तुम्हारे
पूरे प्राण से
कोई आवाज उठती
है! तुम्हारे
पूरे प्राण
दांव पर लगे
हैं--जैसे जीवन-मरण
का सवाल हो!
गोविन्द
को भजना हो तो
खुद को गंवाना
जरूरी है। खुद
को बचाना चाहा
और गोविन्द को
भजना चाहा, तो
तुम अपने को
ही धोखा दोगे।
भजन की
बड़ी
आत्यंतिकता
है,
चरमता है।
रामकृष्ण
को कोई राम का
नाम भी ले
देता--सिर्फ नाम!
रास्ते पर
चलते वक्त
शिष्यों को
खयाल रखना
पड़ता कि कोई जयरामजी न
कर ले। कोई
अजनबी आदमी जयरामजी
कर ले, वे वहीं
खड़े हो जाते--भावाविष्ट
हो जाते; हर्षोन्माद
हो जाता; नाचने
लगते बीच सड़क
पर। शिष्यों
की बड़ी फजीहत हो
जाती; पुलिसवाला
आ जाता कि हटाओ
यहां से! यह
क्या मचाया
हुआ है?
किसी
के शादी-विवाह
में कोई
निमंत्रण कर
लेता, तो
दूल्हा-दुल्हन
पीछे हो जाते।
किसी ने ऐसे ही
नाम ले दिया!
एक मित्र के
घर बुला लिया
था लोगों ने; भक्त था
उनका, बुला
लिया कि शादी
में आशीर्वाद
दे देंगे।
लड़की की शादी
थी, समारोह
था। शादी होने
के ही करीब थी
कि किसी आदमी
का नाम
गोविन्द था और
किसी ने
बुलाया गोविन्द
को--कि
गोविन्द कहां
है? भीड़भाड़। तो उसने
जोर से
चिल्लाया--गोविन्द
कहां है? रामकृष्ण
नाचने लगे!
गोविन्द का
भजन शुरू हो गया!
वह बरात बरात
न रही, विवाह
विवाह न
रहा, एक
दूसरा ही समां
बंध गया।
भजन का
अर्थ है:
चौबीस घंटे
तुम्हारे
भीतर एक सतत
धारा
प्रभु-स्मरण
की बनी रहे।
वह सतत धारा
थी भीतर, इसलिए
बाहर अगर कोई
जरा भी राम का
या कृष्ण का या
गोविन्द
का--परमात्मा
का नाम ले
देता--भीतर तो
धारा मौजूद ही
थी, भीतर
तो नाच चलता
ही था--बाहर की
चोट पड़ जाती, भीतर का नाच
बाहर बिखर
जाता; भीतर
चोट पड़ती, वह
जो भीतर चल
रही थी धारा, वह बाहर आ
जाती। जैसे जल
तो भरा ही था
कुएं में, किसी
ने बालटी डाल
दी और पानी भर
के बाहर आ गया।
किसी ने राम
का नाम ले
दिया--भजन तो
चल ही रहा था। भजन
कोई ऐसी चीज
नहीं है कि
तुम कभी कर
लो। जब भजन
शुरू होता है
तो अंत नहीं
होता, चलता
ही रहता है; एक सतत
स्मरण है
भीतर।
'हे मूढ़,
गोविन्द को भजो, क्योंकि
अंतकाल के आने
पर व्याकरण की
रटन तुम्हारी
रक्षा न
करेगी।'
कितना
तुम शास्त्र
जानते हो--मौत
यह न पूछेगी।
कितना तुमने
सत्य जाना? मौत
तुम्हारे
सामने प्रकट
कर देगी--जो
तुमने जाना है,
वही बच
रहेगा; जो
दूसरे ने जाना
है और दूसरे
से तुमने उधार
जाना था, वह
सब खो जाएगा।
शास्त्र अगर
उधार है, तो
व्यर्थ है; और शास्त्र
अगर तुममें
आविर्भूत हुआ
है, तुम भी
उसी स्रोत पर
पहुंच गए जहां
उपनिषद के ऋषि
पहुंचे थे, तुमने भी
उसी जलस्रोत
से अपनी प्यास
बुझा ली जिससे
उपनिषद के
ऋषियों ने
बुझाई थी, तब
उपनिषद
शास्त्र नहीं
है, तब
तुम्हारे लिए
उपनिषद
तुम्हारे ही
बोध की अभिव्यक्ति
है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि मैं क्यों
शंकर पर बोलता
हूं या बुद्ध
पर या
क्राइस्ट पर? मैं
सीधा भी बोल
सकता हूं।
मैं
सीधा ही बोल
रहा हूं--उनसे
मैं कहता
हूं--क्योंकि
शंकर के इस
गीत में शंकर
ने वही कहा है
जो मैं कहना
चाहूंगा। और
इतने सुंदर
ढंग से कहा है
कि अब उसे और
सुधारा नहीं
जा सकता।
आखिरी बात कह
दी है। कोई
जरूरत नहीं है
अब उसे
दोहराने की।
शंकर पर मैं
इसलिए नहीं बोल
रहा हूं कि
मुझे लगता है
शंकर जानते
हैं। लगने का
सवाल नहीं है।
मेरा कोई
विश्वास नहीं
है शंकर में।
उसी जलस्रोत
से मैंने भी
जल पीया
है,
जहां से
पीकर यह गीत
उनमें पैदा
हुआ होगा।
'हे मूढ़,
धन बटोरने
की तृष्णा को छोड़ो; सदबुद्धि को जगाओ और
मन को
तृष्णा-शून्य
करो; तथा
उसी से
संतुष्ट और
प्रसन्न रहो,
जो अपने
श्रम से मिलता
है। हे मूढ़,
सदा
गोविन्द को भजो।'
'धन
बटोरने की
तृष्णा को छोड़ो।'
धन से
केवल अर्थ उस
धन का नहीं है
जिसे तुम धन कहते
हो;
धन से उस सब
का अर्थ है
जिसको तुम बटोरते
हो। जिसको भी
बटोरने की
तुम्हारे
भीतर तृष्णा
है, वह सभी
धन है--फिर वह
ज्ञान ही
क्यों न हो।
जब तुम ज्ञान
भी बटोरते हो,
तुम धन ही
बटोर रहे हो।
एक आदमी रुपये
गिनता जाता है,
कितने उसकी
तिजोरी में हो
गए। एक आदमी
ज्ञान गिनता
जाता है कि
कितना ज्ञान
उसने बटोर
लिया, कितनी
सूचनाएं उसके
पास हो गईं, कितने
शास्त्र उसने
पढ़ लिए। पर
दोनों बटोर रहे
हैं। तीसरा
आदमी हो सकता
है त्याग बटोर
रहा हो--कि
कितने उपवास
उसने किए।
चौथा आदमी हो
सकता है यश
बटोर रहा
हो--कि कितने
लोग उसे मानते
हैं, कितने
लोग उसे पूजते
हैं, कितने
लोग उसके पीछे
चलते हैं।
जहां भी तुम
बटोरते हो, जो भी बटोरा
जाता है, वह
सब धन है। और
धन बड़े धोखे
का है; क्योंकि
भीतर तो तुम
निर्धन ही बने
रहते हो, और
बाहर तुम
बटोरते चले
जाते हो। जो
बाहर इकट्ठा
किया है, वह
भीतर न ले
जाया जा
सकेगा। और
जिसे तुम अपने
भीतर न ले जा
सके, मौत
उसे छीन लेगी;
क्योंकि
तुम ही मौत से
पार जा सकोगे,
और कुछ भी
नहीं। केवल
तुम्हारा
होना ही गुजरेगा,
लपटें उसे
जला न सकेंगी,
शस्त्र उसे
बेध न
सकेंगे--नैनं छिंदन्ति
शस्त्राणि, नैनं दहति
पावकः।
सिर्फ तुम
गुजर पाओगे
मौत के द्वार
से--शुद्ध तुम,
और कुछ भी
नहीं।
अगर
तुमने बाहर का
ही धन बटोरा, तो
तुम निर्धन गुजरोगे
मौत के द्वार
से। और जब मौत
तुम्हें
निर्धन बता
देगी, तो
जीवन में भी
धन का सिर्फ
धोखा ही हुआ।
वह धन क्या
जिसे हम साथ न
ले जा सकें? संपत्ति वही
है जो साथ जा
सके, अन्यथा
शेष सब
विपत्ति है।
जिसे तुम
बटोरते हो, वह संपत्ति
लगती है, संपत्ति
है नहीं; है
तो विपत्ति।
और तुम भी
जानते हो।
बटोर लेने के
बाद पता चलता
है कि और
विपत्ति बढ़
गई। संपत्ति
से तो संतोष
आता, संपत्ति
से तो शांति
आती, संपत्ति
से तो
निर्भयता आती,
संपत्ति से
तो तुम्हारे
जीवन में एक
स्वर गूंजता--कि
पा लिया, पहुंच
गए, घर आ
गया; एक
विश्राम की
सुगंध
तुम्हारे
जीवन में उठती।
लेकिन वह तो
उठती दिखाई
नहीं पड़ती।
संपत्ति बढ़ती
है, वैसे
तुम्हारे
जीवन में और
भी दुर्गंध
उठती है, और
भी तुम्हारे
जीवन में भय
उठता है।
संपत्ति क्या
इकट्ठी होती
है, हजार
चिंताएं
इकट्ठी होती
हैं। संपत्ति
से शांति तो
नहीं मिलती, अशांति के
द्वार खुल
जाते हैं।
'हे मूढ़,
धन बटोरने
की तृष्णा को छोड़ो।'
बटोरने
की ही तृष्णा
को छोड़ो।
बटोरने का
इतना पागलपन
क्यों है?
मैं एक
घर में रहता
था। उस घर के
जो मालिक थे, वे
बटोरने के
शुद्ध अवतार
थे। कोई भी
चीज, जो
व्यर्थ भी हो
गई, उसे भी
सम्हाल कर रख
लेते! उनका घर
एक कबाड़खाना
था। उसमें वे
कैसे जीते थे,
यही बड़ा
मुश्किल; कैसे
रहते थे, यही
बड़ा मुश्किल।
एक दिन मैं
सामने बगीचे
में खड़ा था।
वे मुझसे बात
कर रहे थे और
उनका छोटा
लड़का एक
बुहारी--टूटी;
किसी काम की
नहीं; सिर्फ
पिछली ठूंठ ही
बची थी--उसे
बाहर फेंक गया।
तत्क्षण
मैंने देखा कि
वे बेचैन हो
गए। मुझसे बात
चलती रही, लेकिन
नजर उनकी उस
बुहारी पर लगी
रही। मैंने सोचा
कि मेरी
मौजूदगी उनको
बाधा बन रही
है। तो मैंने
कहा, मैं
अभी आया।
मैं घर
के भीतर गया।
जब मैं लौटा, बुहारी
नदारद थी, वे
भी नदारद थे।
वे ले गए उसे
भीतर। मैं
उनके पीछे ही
गया। मैंने
कहा कि अब बात
जरा सीमा के बाहर
हो गई। रंगे
हाथ वे पकड़ गए;
बुहारी लिए
अंदर खड़े थे।
मैंने पूछा कि
यह किसलिए
उठा लाए?
उन्होंने
कहा,
कुछ नहीं, कभी काम पड़
जाए!
यह
कैसे? इसका
कोई काम भी
नहीं समझ में
आता।
वे
कहने लगे, नहीं,
कभी क्या
काम पड़ जाए
क्या पता। फिर
फेंकने से फायदा
क्या? रखी
रहेगी।
बटोरने
की एक
विक्षिप्तता
है। किस कारण
होगी? क्यों
आदमी बटोरना
चाहता है? भीतर
एक बड़ा खालीपन
है, उसे
भरना है। किसी
भी चीज से
भरना है, नहीं
तो आदमी बहुत खाली
लगेगा। तुम
थोड़ा सोचो, तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं है, तो
तुम्हें भीतर
बड़ा खालीपन
लगेगा।
यहां
ध्यान
में...रोज मेरे
पास मित्र आते
हैं;
थोड़े दिन
ध्यान करते
हैं--महीने, डेढ़
महीने--तो
भीतर खालीपन
दिखाई पड़ने
लगता है। वह
है तो सदा, ध्यान
नहीं किया तो
दिखाई नहीं
पड़ता। ध्यान
करने से बोध
थोड़ा जगता है,
होश थोड़ा
आता है, भीतर
खालीपन दिखने
लगता है। और
एक अनूठी घटना
घटती है: जिस
व्यक्ति को भी
वह भीतर
खालीपन दिखाई
पड़ता है, वह
अतिशय भोजन
करना शुरू कर
देता है। रोज
एक-दो मामले
मेरे पास आते
हैं कि वे
कहते हैं, हम
क्या करें? यह क्या हुआ?
इतना भोजन
हम कभी भी
नहीं करते थे!
यह ध्यान ने तो
हमें बड़ी
मुश्किल में
डाल दिया, बस
भोजन की ही
धुन सवार रहती
है। तो मैं
उनको कहता हूं,
कारण है।
कारण यह है कि
ध्यान ने
तुम्हें भीतर
की रिक्तता
दिखाई। अब
रिक्तता को
भरना है; रिक्तता
काटती है--कुछ
भी नहीं है
भीतर? तो
आदमी कुछ भरना
चाहता है। धन
से, पद से, प्रतिष्ठा
से तुम अपने
को भरते हो।
चारों तरफ चीजें
इकट्ठी कर
लेते हो, उनके
बीच बैठ जाते
हो निश्चिंत
होकर। लगता
है--कुछ
तुम्हारे पास
है।
जिनके
पास कुछ भी
नहीं है, उन्हें
बटोरने की
आकांक्षा
पैदा होती है;
जिनके पास
कुछ है, उन्हें
बटोरने का कोई
सवाल नहीं है,
वे अपने में
काफी हैं। खुद
का होना ही
इतना भराव है
कि अब और कुछ
बटोरने का
सवाल नहीं है।
इसलिए तो हमने
बुद्ध को पूजा,
महावीर को
पूजा, शंकर
को पूजा; क्योंकि
हमने देखा
इनमें कि इनकी
संपदा इनके भीतर
है। कुछ है
इनके भीतर कि
उसके कारण
खालीपन मिट
गया है। कोई
प्रकाश है
भीतर, जिसके
कारण अब भीतर
की रिक्तता
पूर्णता हो गई
है; भीतर
का शून्य सत्य
हो गया है।
ध्यान
शून्य लाता
है। अगर तुमने
जल्दबाजी की तो
शून्य को भरने
की तृष्णा
पैदा होगी।
अगर जल्दबाजी
न की और तुम
शून्य के साथ
रहने को राजी
हो गए, तुमने
उसे स्वीकार
कर लिया, तो
तुम पाओगे
धीरे-धीरे
शून्य अपने आप
भर दिया गया।
क्योंकि
प्रकृति
शून्य को
बरदाश्त नहीं
करती; शून्य
तुम करो, भर
देती है
प्रकृति। न
परमात्मा
शून्य को बरदाश्त
करता है। तुम
शून्य पैदा
करो, परमात्मा
भर देता है।
शून्य भर
चाहिए, पूर्ण
तो उतर आता
है। जैसे कहीं
गङ्ढा हो,
वर्षा हो, तो सारा
पानी चारों
तरफ से दौड़ कर गङ्ढे में
भर जाता है।
ऐसे ही तुम जब
शून्य होते हो,
परमात्मा
चारों तरफ से
तुम्हारी तरफ
दौड़ने लगता
है। तुमने गङ्ढा
बना दिया, अब
भरना उसे है।
आधा तुम करते
हो, आधा
परमात्मा
करता है। और
तुम्हारा
करना कुछ खास
नहीं, असली
करना तो उसी
का है।
तुम्हारा
करना इतना ही
है कि तुम
खाली होने को
राजी हो जाओ।
इसलिए सारे बुद्धपुरुष--भरने
की तृष्णा से
बचो, बटोरने
की तृष्णा से
बचो--इसका
इतना आग्रह
करते हैं।
क्योंकि अगर
तुमने स्वयं
ही भर लिया, तो तुम
परमात्मा को
भरने का मौका
ही नहीं देते
हो।
मैंने
एक कहानी सुनी
है कि कृष्ण
भोजन को बैठे, रुक्मिणी
ने थाली लगाई।
एक कौर लिया
होगा मुश्किल
से कि हड़बड़ा
कर भागे।
रुक्मिणी
समझ न
पाई। लेकिन द्वार
तक गए, वापस
लौट आए; फिर
बैठ गए थाली
पर। रुक्मिणी
ने कहा, बेबूझ
हो गई बात। किसलिए
भागे? और
फिर क्यों
द्वार से वापस
लौट आए? भागे
तो ऐसे जैसे
कहीं आग लग गई
हो--कि अब भोजन
कैसे किया जा
सकता है, आग
पहले बुझानी
होगी। और लौट
आए ऐसे जैसे
कुछ भी न हुआ
था। यह क्या
किया?
कृष्ण
ने कहा, जरूर
आग लग गई थी; भागा। लेकिन
द्वार तक
पहुंचा कि आग
बुझ गई, लौट
आया। मेरा एक
भक्त एक
राजधानी की
सड़क से गुजर
रहा है, लोग
उस पर पत्थर
फेंक रहे हैं,
लहू बह रहा
है उसके माथे
से और वह
गोविन्द-गोविन्द
किए जा रहा
है। वह न तो
उत्तर दे रहा
है, न बचाव
कर रहा है; उसने
अपने को
बिलकुल मेरे
हाथों में छोड़
दिया। भागना
एकदम
अनिवार्य था।
जो इस
भांति असहाय
हो जाए, भगवान
को उसकी तरफ
भागना ही पड़ता
है। जो इतना शून्य
हो जाए कि
पत्थर पड़ रहे
हैं, उनसे
बचाव भी न करे,
भागे भी न, उत्तर भी न
दे, तो
सारा
अस्तित्व
उसकी रक्षा के
लिए आ जाता है।
गङ्ढा हो
गया; चारों
तरफ से जलधार
बहने लगती
है--उसे भरने
को, उसे
झील बनाने को।
फिर, रुक्मिणी
ने पूछा, लौट
क्यों आए?
कृष्ण
ने कहा, लेकिन
जब तक मैं
द्वार पर
पहुंचा, उसने
अपना चित्त ही
बदल लिया; उसने
खुद ही पत्थर
हाथ में उठा
लिया; अब
वह खुद ही
जवाब दे रहा
है, मेरी
कोई जरूरत न
रही।
परमात्मा
की जरूरत वहीं
है,
जहां तुम
असहाय हो। और
तुम्हारी
असहाय अवस्था
से
गोविन्द-गोविन्द
का नाम निकल
जाए, भजन
हो गया। कोई
शब्द कहने की
जरूरत नहीं कि
तुम
गोविन्द-गोविन्द
चिल्लाओ।
भीतर भाव--कि
वे भाव भरी
आंखें आकाश की
तरफ उठ जाएं, कि तुम्हारा
हृदय आकाश की
तरफ खुल
जाए--और तुम
अपने तईं कुछ
भी न करो; उसी
क्षण
परमात्मा
तुम्हारी तरफ
दौड़ पड़ता है।
तुम गङ्ढे
बनो, परमात्मा
भरने को सदा
राजी है।
मोहम्मद
कहा करते थे:
तुम एक कदम
चलो उसकी तरफ, वह
हजार कदम चलता
है।
पर तुम
एक कदम ही
नहीं चलते। और
वह एक कदम
अत्यंत जरूरी
है। क्योंकि
जब तक
तुम्हारी तरफ
से संकेत न
मिले कि
निमंत्रण है, तब
तक परमात्मा
कैसे आए? आना
भी चाहे तो
कैसे आए? जिसे
तुमने
निमंत्रण ही
नहीं दिया है,
जिसे तुमने
बुलावा ही
नहीं भेजा है,
वह आ भी जाए
तुम्हारे
द्वार पर, तो
तुम्हारे
द्वार खुले न
पाएगा। वह दस्तक
भी दे, तो
तुम समझोगे
हवा का झोंका
है। वह
चिल्लाए, पुकारे
भी, तो तुम
अपने भीतर के
शोरगुल के
कारण उसकी
आवाज न सुन
पाओगे।
'हे मूढ़,
धन बटोरने
की तृष्णा को
छोड़, सदबुद्धि को जगा।'
बुद्धि
तुम्हारी
चालाकी का नाम
है;
सदबुद्धि तुम्हारी
समझदारी का।
इसलिए दुनिया जितनी
बुद्धिमान
होती जाती है,
उतनी चालाक
होती जाती है।
चकित होते हैं
लोग यह देख कर
कि लोग जितने
शिक्षित हो
जाते हैं, उतने
चालाक हो जाते
हैं। सोचा
जाता था कि
लोग शिक्षित
हो जाएंगे तो
सरल होंगे; लोग
सुशिक्षित हो
जाएंगे तो
निर्दोष हो
जाएंगे।
लेकिन जितनी
शिक्षा बढ़ती
है, उतनी
चालाकी बढ़ती
है, उतना
आदमी बेईमान
होने लगता है;
उतना
पाखंडी हो
जाता है; उतना
दूसरे को कैसे
चूसना, इसकी
कला में
पारंगत हो
जाता है।
बुद्धि
यानी संसार
में कुशलता; सदबुद्धि यानी
परमात्मा में
कुशलता।
और
ध्यान रखना, सदबुद्धि वाला आदमी, हो सकता है, सांसारिकों को बुद्धू
मालूम पड़े।
पड़ेगा ही।
क्योंकि सांसारिक
कहेगा, यह
तुम क्या कर
रहे हो?
बुद्ध
ने घर छोड़ा, वह
सदबुद्धि
के अवतरण की
घटना थी--महल
छोड़ा, राज्य
छोड़ा। जो
सारथी उन्हें
छोड़ने गया था
राज्य की सीमा
के पार, वह
तो साधारण
नौकर था, उससे
भी न रहा गया। उसने
कहा कि सुनो, यह छोटे
मुंह बड़ी बात
है, लेकिन
कहे बिना नहीं
रह सकता। तुम
जो कर रहे हो, यह बिलकुल
बुद्धूपन है;
नासमझी है।
पागल हुए हो? सारी दुनिया
राजमहल चाहती
है, साम्राज्य
चाहती है।
सौभाग्य से
तुम्हें मिला
है, और
अभागे तुम कि
तुम छोड़ कर जा
रहे हो! तुम्हारी
जैसी सुंदर
पत्नी कहां
पाओगे? यह
धन, सुख-सुविधा,
यह राजमहल,
यह परिवार,
यह सम्मान
कहां पाओगे? लौट चलो!
बूढ़ा
सारथी, वह भी
बुद्ध से
ज्यादा
समझदार है; वह भी सलाह
दे रहा है!
बुद्ध
ने कहा, तुम्हारी
बात मैं समझता
हूं। लेकिन
तुम जहां महल
देखते हो, वहां
मैं सिवाय आग
लगी लपटों के
और कुछ भी
नहीं देखता; और जहां तुम
सौंदर्य
देखते हो, वहां
मैं मौत को
छिपा देख लिया
हूं; और
जहां तुम धन
देखते हो, वहां
सिर्फ धन का
धोखा है। मैं
असली धन की
खोज में जाता
हूं। सुनो, मैं असली घर
की खोज में
जाता हूं।
क्योंकि यह घर
तो छीन लिया जाएगा।
मैं उस घर की
तलाश में हूं
जो छीना न जा सके।
और जब तक वह न
मिल जाए, तलाश
नहीं रुकेगी।
उसके लिए मैं
सब गंवाने को
तैयार हूं।
क्योंकि यह तो
छिन ही जाएगा;
इसको दांव
पर लगाने में
हर्ज क्या है?
दिन, समय
की बात है; आज
है, कल छिन
जाएगा। जो कल
छिन ही जाएगा,
अगर उसको
दांव पर लगाने
से कुछ ऐसा
मिलता हो जो कभी
न छिने, तो यह सौदा
मंहगा नहीं
है।
बुद्ध
को सदबुद्धि
पैदा हुई है; सारथी
बुद्धिमान
है।
बुद्ध
लौटे घर बारह
वर्ष बाद--सदबुद्धि
का दीया पूरा
जल चुका है; वे
रौशन हो गए
हैं; लेकिन
बाप नाराज है।
बाप ने कहा, नासमझी छोड़ो,
घर वापस लौट
आओ! तुमने
मुझसे धोखा
किया है; तुमने
अपनी पत्नी से
धोखा किया है;
तुमने अपने
नवजात बेटे से
धोखा किया है;
लेकिन फिर
भी मैं
तुम्हें माफ
कर दूंगा, क्योंकि
पिता का हृदय।
मैं तुम्हें
माफ कर दूंगा;
तुम वापस
लौट आओ! यह
शोभा नहीं
देता--यह भीख
मांगना सड़कों
पर। किसके तुम
बेटे हो? और
तुम्हें भीख
मांगने की
जरूरत क्या है?
तुम्हें
अगर इसी तरह
का शौक हो, तो
हजारों लोगों
को तुम रोज
भीख बांट सकते
हो, मांगने
की क्या जरूरत
है?
बुद्ध
अभी भी, बुद्ध
के पिता को
बुद्धू ही
मालूम पड़ रहे
हैं।
सांसारिक
बुद्धि को
धार्मिक सदबुद्धि
नासमझी मालूम
पड़ती है। लोग
समझते हैं कि
यह तो पागलपन
है,
यह क्या कर
रहे हो! लेकिन
जिसको सदबुद्धि
जगती है, उसे
लगता है कि
बुद्धि
बिलकुल
नासमझी है। और
तुम्हें
निर्णय करना
होगा; क्योंकि
इस निर्णय के
बिना कोई आदमी
धर्म के जगत
में प्रवेश
नहीं कर सकता।
जब तक तुम्हें
सांसारिक
बुद्धि मूढ़ता
न मालूम पड़ने
लगे, तब तक सदबुद्धि
की किरण
तुम्हें मिल न
सकेगी।
सांसारिक
बुद्धि जब
तुम्हें मूढ़ता
मालूम होने
लगे, सांसारिक
चालाकी जब
तुम्हें अपने
को ही धोखा देना
मालूम होने
लगे; और
सांसारिक यश,
पद, प्रतिष्ठा
जब तुम्हें असफलता
दिखाई पड़ने
लगें, तब
तुम्हारे
भीतर सदबुद्धि
का अंकुरण
होगा।
'सदबुद्धि को जगाओ और
मन को
तृष्णा-शून्य
करो; तथा
उसी से
संतुष्ट और
प्रसन्न रहो
जो अपने श्रम
से मिलता है।'
यह सभी धनों के
संबंध में सच
है। बाहर के
धन में भी, जो
अपने श्रम से
मिल जाए, जो
उससे तृप्त हो
गया, उसके
जीवन में
नैतिकता होगी;
और भीतर के
जगत में भी, भीतर का जो
धन अपने श्रम
से मिले, उसके
चित्त में
धार्मिकता
होगी। तुम
शास्त्र को जब
कंठस्थ कर
लेते हो तो
तुम चोरी कर
रहे हो। वह जो
शास्त्र में
छिपा ज्ञान है,
वह तुमने
श्रम से नहीं
पाया है; वह
तुम सिर्फ
चुरा रहे हो।
वह उधार है, बासा है।
तुम किसी
दूसरे की बात
पकड़ लिए हो। उस
पर अपने भवन
को मत बनाना, वह रेत पर
खड़ा किया हुआ
भवन है। हवा
का एक छोटा सा
झोंका उसे
गिरा देगा।
अभी
कुछ दिन पहले, मैं
एक झेन कहानी
कह रहा था। एक
झेन आश्रम के
द्वार पर एक
संध्या एक
भिक्षु ने
दस्तक दी।
जापान में झेन
आश्रमों का यह
नियम है कि
अगर कोई
भिक्षु, यात्री-भिक्षु,
विश्राम
करना चाहे, तो उसे कम से
कम एक प्रश्न
का उत्तर देना
चाहिए। जब तक
वह एक प्रश्न
का ठीक उत्तर
न दे दे, तब तक वह
अर्जित नहीं
करता विश्राम
के लिए। वह
आश्रम में रुक
नहीं सकता, उसे आगे
जाना पड़ेगा।
आश्रम का
प्रमुख द्वार
पर आया, द्वार
खोला और उसने
झेन फकीरों
की एक बहुत
पुरानी पहेली
इस अतिथि के
सामने रखी।
पहेली है कि
तुम्हारा
असली चेहरा
क्या है? मूल
चेहरा कौन सा
है? वैसा
मूल चेहरा, जो तुम्हारे
मां और बाप के
पैदा होने के पहले
भी तुम्हारा
ही था।
यह
आत्मा के
संबंध में एक
प्रश्न है; क्योंकि
मां और बाप से
जो मिला, वह
शरीर है; शरीर
का चेहरा भी
उनसे मिला।
तुम्हारी
ओरिजिनल, मौलिक
मुखाकृति
क्या है? तुम्हारा
स्वभाव क्या
है? और झेन
फकीर कहते हैं,
इसका उत्तर
शब्दों से
नहीं दिया जा
सकता; इसका
उत्तर तो
जीवंत
अभिव्यक्ति
होनी चाहिए।
जैसे
ही यह सवाल
पूछा गया, उस
अतिथि फकीर ने
अपने पैर से
जूता निकाला
और पूछने वाले
के चेहरे पर
जूता मारा।
पूछने वाला
पीछे हट गया, झुक कर उसने
सलाम की, नमस्कार
किया, और
कहा: स्वागत
है; भीतर
आओ।
दोनों
ने भोजन किया, फिर
जलती हुई
अंगीठी के पास
बैठ कर दोनों
रात बात करने
लगे। मेजबान
ने मेहमान से
कहा, तुम्हारा
उत्तर अदभुत
था।
मेहमान
ने पूछा, तुम्हें
स्वयं इस
उत्तर का
अनुभव है?
मेजबान
ने कहा, नहीं,
मुझे तो
अनुभव नहीं है,
लेकिन बहुत
मैंने
शास्त्र पढ़े
हैं। और
शास्त्रों से
यह पाया है कि
ठीक उत्तर
देने वाला
डगमगाता नहीं,
झिझकता
नहीं। तुम
बिना झिझके
उत्तर दिए। और
तुम्हारे
उत्तर में बात
छिपी थी।
शास्त्रों के
आधार से मैं
जानता हूं, मैं पहचान
गया कि
तुम्हें
उत्तर मिल गया
है। क्योंकि
तुमने जो
उत्तर दिया, वह उत्तर यह
था कि नासमझ, शब्द में
प्रश्न पूछता
है, निःशब्द
में उत्तर
चाहता है!
नासमझ, मूल
चेहरे की बात
पूछता है, और
मूल चेहरा तो
तेरे पास भी
है! इसलिए मैं
जूते मार कर
तेरे चेहरे को
उत्तर दे रहा
हूं कि यह चेहरा
मूल नहीं है, जूता मारने
योग्य है।
मेजबान
ने कहा कि मैं
समझ गया तेरा
उत्तर, शास्त्र
मैंने पढ़े
हैं और उसमें
ऐसे उत्तर
लिखे हैं।
मेहमान
कुछ बोला न, चुपचाप
चाय की चुस्की
लेता रहा। तब
जरा मेजबान को
शक हुआ, उसने
गौर से इसके
चेहरे को देखा,
इसके चेहरे
में उसे कुछ
प्रतीत हुआ जो
बड़ा असंतोषदायी
था। उसने फिर
से पूछा कि
मित्र, मैं
एक बार फिर
पूछता हूं, तुझे भी
वस्तुतः
उत्तर मिल
चुका है या
नहीं?
मेहमान
ने कहा, मैंने
भी बहुत
शास्त्र पढ़े
हैं। और जहां
से तुमने मुझे
पहचाना कि
उत्तर मिल गया,
वहीं से
मैंने यह
उत्तर पढ़ा है;
उत्तर तो
मुझे भी नहीं
मिला है।
शास्त्र
भयंकर धोखा हो
सकता है, क्योंकि
शास्त्र में
उत्तर लिखे
हैं। लेकिन
शास्त्र के
उत्तर को
दोहराना वैसे
ही है, जैसे
गणित की किताब
के पीछे उत्तर
दिए होते हैं।
तुम गणित पढ़ो,
उलटा कर
किताब के पीछे
उत्तर देख लो।
तो उत्तर तो
तुम सही दे
दोगे, लेकिन
उस प्रश्न से
उत्तर तक
पहुंचने का जो
मार्ग है, जो
विधि है, वह
तुम्हारे पास
न होगी। उत्तर
कितना ही सही
हो, तुम
गलत ही रहोगे;
क्योंकि
तुम तो विधि
से गुजरते, तभी निखरते।
उत्तर
दूसरे का काम
नहीं आ सकता; उत्तर
अपना ही
चाहिए। और
परमात्मा
तुम्हारी शास्त्रीय
परीक्षा न
लेगा--अस्तित्वगत
परीक्षा है।
क्या तुमने
सुना, क्या
तुमने पढ़ा, यह न
पूछेगा--क्या
तुमने जीया? अगर
तुम्हारे
जीवन में ही
तुम्हें
उत्तर मिला हो,
तो
तुम्हारे
श्रम से मिला
है।
तो
चाहे धन बाहर
का हो; अगर
बाहर के धन को
तुम श्रम से कमाओ, तो
तुम्हारे
जीवन में
नैतिकता होगी;
और अगर भीतर
के धन को तुम
श्रम से कमाओ,
तो
तुम्हारे
जीवन में
धार्मिकता
होगी--प्रामाणिक
धर्म होगा।
इसी को स्वामी
राम ने नगद
धर्म कहा है।
उधार धर्म; नगद धर्म।
उधार
धर्म ऐसा है:
उत्तर तो सब
सही,
लेकिन
नपुंसक, कोरे,
खाली; चली
हुई कारतूस
जैसे। उसको
बंदूक में रख
कर चलाने की
कोशिश मत करना,
हंसी होगी जगत
में। वह चली
हुई कारतूस
है।
लेकिन
अधिकतर लोग
यही कर रहे
हैं--दूसरों
के उत्तर
दोहरा रहे
हैं। यंत्रवत
दोहराए चले जा
रहे हैं। अपना
प्रश्न भी
उन्होंने अब
तक नहीं खोजा
है,
अपना उत्तर
तो बहुत दूर।
अभी उन्हें यह
भी पता नहीं
है कि हमारे
अस्तित्व का
प्रश्न क्या है
जिसकी हम खोज
कर रहे हैं।
हम क्या जानना
चाहते हैं, इसका भी अभी
ठीक-ठीक पता
नहीं है।
'हे मूढ़,
धन बटोरने
की तृष्णा छोड़,
सदबुद्धि को जगा। उसी
से संतुष्ट और
प्रसन्न रह जो
श्रम से मिलता
है। हे मूढ़,
सदा
गोविन्द को भजो।'
'नारी
के रूप, स्तन
और नाभिप्रदेश
को देख कर मोहाविष्ट
मत हो जाओ। वे
सब मांस के
विकार मात्र
हैं, ऐसा
विचार मन में
बार-बार करो।
और हे मूढ़,
सदा
गोविन्द को भजो।'
पुरुष
के मन में
नारी का
आकर्षण है, नारी
के मन में
पुरुष का
आकर्षण है।
विपरीत का
आकर्षण होता
है। और विपरीत
के आकर्षण में
एक सम्मोहित
अवस्था हो
जाती है।
इसे
थोड़ा समझना
जरूरी है।
जब
बच्चा पैदा
होता है, तो
पहला संपर्क
संसार से उसका
मां का स्तन
है। पहला
संपर्क--पर से,
दूसरे से
मां का स्तन
है। मां के
स्तन से ही परिचित
होकर वह संसार
में यात्रा
शुरू करता है।
इसलिए स्त्री
के स्तन में
पुरुष की सदा
ही वासना बनी
रहती है; वह
पहला संस्कार
है मन पर, उससे
गहरा कोई भी
संस्कार नहीं
है। इसलिए चित्र,
मूर्तियां,
फिल्में, कहानियां, सब स्त्री
के स्तन के
आस-पास घूमती
हैं। और पुरुष
के मन में
स्त्री के
शरीर में सबसे
ज्यादा मोहाविष्ट
होने की जो
जगह है, वह
स्तन है। स्त्रियां
स्तनों को
छिपाने में
लगी रहती हैं,
पुरुष उनको उघाड़ने
में लगे रहते
हैं। क्योंकि
स्त्रियों को
भी पता है कि
पुरुष का
आकर्षण कहां
है; पुरुष
को भी पता है
कि स्त्री में
उनका रस कहां
है।
और
जितनी सभ्यता
विकसित होती
है,
उतनी ही यह
कठिनता बढ़ती
जाती है।
असभ्य जातियों
में स्तन के
प्रति कोई
आकर्षण नहीं है;
क्योंकि
स्त्रियां उघाड़ी हैं,
स्तन उघड़ा
ही हुआ है। और
हर बच्चे को, जितनी देर
तक उसे दूध
पीना हो मां
का, पीने
की पूरी
स्वतंत्रता
है। वह दस साल
का भी हो जाए
और पीता रहे
तो कोई अड़चन
नहीं है।
सभ्य
समाजों में
जल्दी से
जल्दी बच्चे
से स्तन छुड़ाने
की आकांक्षा
है। और जितने
जल्दी स्तन छुड़ा लिया
जाए,
उतना ही
स्तन में रस
शेष रह जाता
है। फिर कविताएं
करते हैं लोग
स्तन की, चित्र
बनाते हैं, मूर्ति गढ़ते
हैं; हजार
उपाय करते
हैं। लेकिन
उनका मन स्तन
के आस-पास
घूमता रहता
है। बच्चा तृप्त
नहीं हो पाया,
अतृप्त रह
गया है। वह
अतृप्ति सपने
बनाती है। अतृप्ति
में भीतर का
एक सम्मोहन
पैदा होता है।
और इसकी
तृप्ति का अब
कोई उपाय नहीं
है, जब तक
कि सदबुद्धि
न जगे।
इसे
सतत स्मरण
करना जरूरी
है--शंकर कहते
हैं। बार-बार
इसका स्मरण
होता रहे, तो
ही वह जो पहला
संस्कार पड़ा
है, वह टूट
सकता है।
वैज्ञानिकों
ने कुछ खोजें
की हैं। उनकी
एक खोज बड़ी
महत्वपूर्ण
है। एक
वैज्ञानिक
मुर्गियों पर
प्रयोग कर रहा
था। मुर्गी के
अंडे से बच्चा
पैदा हुआ, तो
उसने उस बच्चे
को मुर्गी को
न देखने दिया,
एक बतख
को पास रख
दिया। बच्चे
ने जब आंख
खोली अंडे के
बाहर आकर, तो
उसने बतख
को देखा। यह
पहला संस्कार
हुआ।
फिर एक
बड़ी मजेदार
घटना घटी: वह बतख के
पीछे दौड़े, मुर्गी
से उसकी कोई
पहचान ही न
रही। बतख
उसे मारे
भी--क्योंकि बतख को
बरदाश्त नहीं
यह कि मुर्गी
का बच्चा नाहक
उसके पीछे
भागे--उसे
मारे भी, तो
भी वह उसी के
साथ जाए!
मुर्गी उसे फुसलाए भी,
तो वह उसके
पास न आए, दूर
खड़ा डरे। बतखों
का जो कठघरा
था, उसमें
वह सोना चाहे
रात को, और बतखें उसे
मार-मार कर
बाहर निकाल
दें। और
मुर्गी उसे
फुसला कर अपने
कठघरे
में ले जाना
चाहे, जहां
सभी मुर्गियां
उसका स्वागत
करने को तैयार
हैं, लेकिन
वह वहां जाने
को तैयार
नहीं।
पहला इम्प्रिंट, पहला
संस्कार बड़ा
बहुमूल्य है।
वह जीवन भर पीछा
करता है।
मनुष्य के
जीवन में जो
भी पहली घटना
घटती है, वह
सदा पीछा करती
है। और फिर
जीवन भर चित्त
उसके आस-पास
सपने गूंथता
है।
स्त्री
के शरीर में
या पुरुष के
शरीर में ऐसा
क्या है
जिसमें इतना
आकर्षण है?
निश्चित
कुछ है, क्योंकि
तुम्हारा
शरीर भी
स्त्री और
पुरुष के शरीर
के मिलन से
बना है; आधा
स्त्री ने दान
किया है, आधा
पुरुष ने दान
किया है। हर
व्यक्ति आधा
पुरुष है, आधा
स्त्री है; दोनों का
मेल है।
तुम्हारा
रोआं-रोआं आधा
स्त्री है, आधा पुरुष
है; अधूरा-अधूरा
है। वह जो
तुम्हारे
भीतर स्त्री का
हिस्सा है, वह पुरुष की
आकांक्षा
करता रहता है;
वह जो
तुम्हारे
भीतर पुरुष का
हिस्सा है, वह स्त्री
की आकांक्षा
करता रहता है।
मनोविज्ञान
की नवीनतम
खोजें ये कहती
हैं कि हर
पुरुष के भीतर
अचेतन में
छिपी स्त्री
है और हर
स्त्री के
भीतर अचेतन
में छिपा
पुरुष है। जब
तक तुम्हारे
भीतर की
स्त्री तुम्हारे
भीतर के पुरुष
से न मिल जाए, तब
तक तुम बाहर
खोजते रहोगे।
जब तक
तुम्हारे भीतर
का पुरुष
तुम्हारे
भीतर की
स्त्री के साथ
एक न हो जाए, जब तक
तुम्हारा
चेतन मन अचेतन
मन संयुक्त
होकर एक न हो
जाएं, तब
तक तुम्हारे
जीवन में
विजातीय
का--स्त्री का
पुरुष के लिए,
पुरुष का
स्त्री के
लिए--आकर्षण
शेष रहेगा।
तुमने
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
देखी--जिसमें
शंकर आधे हैं
स्त्री और आधे
पुरुष? जब तक
तुम्हारे
भीतर भी आधे
पुरुष और आधी
स्त्री की अर्धनारीश्वर
प्रतिमा
निर्मित न हो
जाए, जब तक
तुम अपने भीतर
ही पूरे न हो
जाओ, तब तक
तुम्हारी
तलाश बाहर
जारी रहेगी।
तुम चाहोगे, स्त्री से
मिल कर शायद
पूर्णता हो
जाए। कुछ खोया-खोया
लगता है।
स्त्री
तुम्हारे
भीतर ही तुम्हारे
अचेतन में पड़ी
है।
इसलिए
समस्त योग, तंत्र,
मौलिक रूप
से तुम्हारे
भीतर की
शक्तियों को मिलाने
की प्रक्रिया
है। जब तुम
भीतर जुड़ कर
एक हो जाते हो,
तब
तुम्हारे
भीतर बाहर की
आकांक्षा
समाप्त हो
जाती है।
लेकिन बाहर की
आकांक्षा
समाप्त हो, तो ही तुम
अपने भीतर मिल
कर एक हो सकते
हो। ये दोनों
बातें एक-दूसरे
पर निर्भर हैं,
अन्योन्याश्रित हैं।
इसलिए
शंकर कहते
हैं: 'नारी के रूप,
स्तन और नाभिप्रदेश
को देख कर मोहाविष्ट
मत होओ।'
शंकर
पुरुषों से
बोल रहे हैं, क्योंकि
उन
दिनों--विशेषकर
इस देश
में--धर्म मूलतः
पुरुष का एकाधिपत्य
था। लेकिन यही
बात
स्त्रियों के
लिए भी कह
देनी जरूरी है
कि पुरुष के
शरीर में भी
कुछ नहीं है
जिसमें मोहाविष्ट
होने की जरूरत
हो।
शंकर
के ये वचन या
इस तरह के और
संतों के वचन
एक बड़ी
भ्रांति का
कारण बन गए
हैं। ऐसा लगता
है कि स्त्री
के शरीर में
कुछ नहीं है
और तुम्हारे
शरीर में बहुत
कुछ है। शरीर
में ही कुछ
नहीं है, यह
खयाल रखना।
नहीं तो पुरुष
सोचने लगते
हैं कि स्त्री
के शरीर में
कुछ नहीं है, सब
हड्डी-मांस-मज्जा
है। और
तुम्हारे
शरीर में
सोना-हीरा-चांदी
है? जब तक
तुम अपने ही
शरीर में
हड्डी-मांस-मज्जा
न देख पाओगे, तब तक तुम
स्त्री के
शरीर में भी न
देख पाओगे। इससे
स्त्री की
निंदा करने की
एक परंपरा बन
गई। पुरुष
सोचने लगे कि
जैसे स्त्री
ने उन्हें बंधन
में डाला है।
तो फिर स्त्री
को किसने बंधन
में डाला है? पुरुष सोचने
लगे कि स्त्री
ही मोक्ष में
बाधा है। अगर
स्त्री मोक्ष
में बाधा है, तो स्त्री
के लिए मोक्ष
में कौन बाधा
है? स्त्रियां
तो फिर बिना
ही बाधा के
मोक्ष पहुंच
जाएंगी। थोड़ा
सोचो तो! जब
उनके जीवन में
कोई बाधा ही
नहीं है, तो
मोक्ष में कोई
अड़चन नहीं, वे तो ऐसे ही
पहुंच जाएंगी!
नहीं, स्त्री
और पुरुष का
सवाल ही नहीं है।
विपरीत में जो
आकर्षण है, वह व्यर्थ
है।
'वे सब
मांस के विकार
मात्र हैं, ऐसा विचार
मन में
बार-बार करो।'
क्योंकि
संस्कार जो पड़
चुका है, उसको
तोड़ने के लिए
बार-बार विचार
की जरूरत है।
सतत स्मरण रहे,
तो जैसे
जलधार पत्थर
को तोड़ देती
है--बड़े मजबूत
पत्थर को। जब
पहली दफा
जलधार गिरती
है, कौन
सोचेगा कि
जलधार पत्थर
को तोड़ पाएगी!
लेकिन एक वक्त
आता है कि
जलधार तो बनी
रहती है, पत्थर
रेत के कण-कण
होकर बह जाता
है।
संस्कार
बड़ा कठोर है, बड़ा
गहरा है, लेकिन
अगर विचार की
जलधार
बूंद-बूंद भी
टपकती रही, तो एक दिन
तुम अचानक
पाओगे कि
पत्थर टूट गया
और बह गया। और
जिस दिन तुम्हारे
संस्कार बह
जाते हैं, तुम
मुक्त हो जाते
हो।
'और हे मूढ़, सदा
गोविन्द को भजो।'
और
गोविन्द के
भजन को, शंकर
कह रहे हैं, निरंतर साधे
रहो। कुछ भी
करो, लेकिन
लौट-लौट कर
गोविन्द के
भजन
को...गोविन्द के
भजन का अर्थ
है: जो दिखाई
पड़ रहा है, वह
काफी नहीं है,
पर्याप्त
नहीं है, पूरा
नहीं है; जो
नहीं दिखाई पड़
रहा है, वह
भी है--उसे याद
रखो। कहीं ऐसा
न हो कि दृश्य
में अदृश्य खो
जाए; अदृश्य
को याद रखो।
तुम
मुझे देख रहे
हो,
मैं
तुम्हें देख
रहा हूं। तुम
मुझे जहां तक
देख पाओगे, वह दृश्य
है। लेकिन
मेरे भीतर अगर
तुम्हें अदृश्य
की भी याद बनी
रहे। रास्ते
पर तुम चलो और
जो आदमी
तुम्हें मिले,
जानवर मिले,
वृक्ष
मिले--तो जो
दिखाई पड़ रहा
है, वह तो
ठीक है; जो
दिखाई पड़ रहा
है, वह
संसार है; लेकिन
हर दिखाई पड़ने
वाले के भीतर
जो अदृश्य छिपा
है, वही
गोविन्द है।
गोविन्द को भजने का
अर्थ है:
दृश्य
तुम्हें भुला
न पाए, दृश्य
तुम्हें धोखा
न दे पाए; तुम
अदृश्य को याद
रखते ही रहो।
एक
संन्यासी को
गलती से, भ्रांतिवश,
एक सिपाही
ने मार डाला।
अठारह सौ
सत्तावन की बात,
क्रांति के
दिन, एक
मौन संन्यासी,
नग्न
संन्यासी
गुजर रहा है
अंग्रेजों की
छावनी के पास
से। सिपाहियों
ने उसे पकड़
लिया, उससे
पूछा, कौन
हो? लेकिन
वह मौन है, इसलिए
वह उत्तर नहीं
दिया। उत्तर
नहीं दिया तो
शक बढ़ा, संदेह
हुआ। तो एक
अंग्रेज
सिपाही ने
भाला उठा कर
उसकी छाती में
भोंक दिया। उस
संन्यासी ने व्रत
लिया था कि
सिर्फ मरते
वक्त एक बार
बोलेगा, उसके
पहले नहीं।
ऐसा तीस साल
से वह मौन था।
जब भाला उसकी
छाती में छिदा,
खून का
फव्वारा फूट
पड़ा, तब
उसने सिर्फ एक
वचन उपनिषद का
कहा: तत्वमसि
श्वेतकेतु! तू
भी वही है
श्वेतकेतु!
भीड़
इकट्ठी हो गई, लोगों
ने पूछा, तुम्हारा
क्या मतलब है?
उसने
कहा कि मेरा
मतलब इतना ही
है कि
परमात्मा
किसी भी रूप
में आए, मुझे
धोखा न दे
पाएगा। आज वह
भाला मारने के
लिए आया है; भाला हाथ
में लेकर आया
है; भाला
छाती में चुभ
गया है; लेकिन
मैं देख रहा
हूं कि भीतर
तू वही है। तत्वमसि
श्वेतकेतु! तू
मुझे धोखा न
दे पाएगा।
छाती
से खून बहते
हुए वह
संन्यासी
नाचने लगा, क्योंकि
वह अपने
हत्यारे में
भी परमात्मा
को देख सका।
'भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।'
इसका अर्थ
है कि कहीं
कुछ भी हो जाए,
हर हालत में
परमात्मा तो
दिखाई पड़ता ही
रहे। दुश्मन
में भी दिखाई
पड़े; और जब
मौत द्वार पर
आए, तो मौत
में भी दिखाई
पड़े। मित्र
में तो दिखाई पड़े
ही, शत्रु
में भी दिखाई
पड़े।
अभी तो
ऐसा है कि
मित्र में भी
दिखाई नहीं
पड़ता। अभी तो
तुम जिससे
प्रेम करते हो, उसमें
भी दिखाई नहीं
पड़ता--प्रेयसी
में, प्रेमी
में भी दिखाई
नहीं पड़ता; अभी तो अपने
बेटे में, अपने
बच्चे में भी
दिखाई नहीं
पड़ता--शत्रु
की तो बात ही
बहुत दूर है।
अपने में नहीं
दिखाई पड़ता तो
पराए में कैसे
दिखाई पड़ेगा?
'भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते' का अर्थ है
कि चाहे कुछ
भी हो, एक
परमात्मा तो
सब जगह दिखाई
पड़ता ही रहे।
चट्टान में भी
दिखाई पड़े।
होगा, बहुत
गहरा सोया
है--लेकिन है
तो! वृक्ष में
भी दिखाई पड़े;
माना कि
गूंगा है--है
तो! पागल में
भी दिखाई पड़े;
माना कि
विक्षिप्त
है--लेकिन है
तो! किसी भी रूप
में आए वह, तुम्हारी
पहचान न चूके।
साईंबाबा के
जीवन में एक
उल्लेख है। एक
हिंदू
संन्यासी, जिस
मस्जिद में साईंबाबा
रहते थे, उससे
कोई तीन मील
दूर रहता था।
वह रोज आता
साईं के दर्शन
को। और जब तक
उनके दर्शन न
हो जाते, तब
तक वापस जाकर
भोजन न करता।
कभी-कभी बड़ी
भीड़ होती, वह
मस्जिद में
भीतर ही न घुस
पाता। कभी-कभी
पूरा दिन बीत
जाता, तब
दर्शन होते।
लेकिन जब तक
वह पैर न छू ले,
तब तक वह
भोजन न करता।
कभी-कभी रात
हो जाती तो फिर
भोजन करना
मुश्किल हो
जाता, उपवासा ही रह जाता; क्योंकि दिन
में ही भोजन
करने का नियम
था।
साईंबाबा ने
उससे कहा, नासमझ,
तुझे यहां
आने की जरूरत
भी नहीं, मैं
वहीं आ जाऊंगा।
मगर पहचानना!
ऐसा न हो कि
मैं आऊं और तू
पहचाने न। ठीक
जब तेरा भोजन
तैयार होगा, मैं आ जाऊंगा;
तू वहीं
दर्शन कर लेना
और भोजन कर
लेना। तीन मील
आना-जाना, फिर
कभी-कभी
उपवासे रह
जाना, मुझे
भी पीड़ा होती
है।
उसने
कहा,
यह तो बड़े
सौभाग्य की
बात है। तो कल
मैं राह देखूंगा।
कल
उसने खाना
जल्दी बना
लिया; बड़ी
खुशी से राह
देखने लगा।
कोई नहीं आया,
एक कुत्ता
आया। कुत्ते
को भोजन की
गंध मिल गई होगी।
उसने उठाया
डंडा और कहा, भाग यहां से!
हम साईं की
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, आए
तुम! दो डंडे
मारे, कुत्ते
को भगा दिया।
फिर कोई नहीं
आया। दोपहर हो
गई, तो भागा
हुआ मस्जिद
पहुंचा। वहां
भीड़ लगी है।
जाकर कहा कि
यह क्या मामला
है? बोल कर,
वचन देकर, आए नहीं? तुम
तो यहां जमे
हो, भीड़-भाड़
में बैठे हो।
आओगे कैसे?
साईं
ने कहा, मैं
आया, दो
डंडे भी खाए, तुम पहचाने
नहीं।
घबड़ाया
संन्यासी--दो
डंडे! उसने
कहा,
कुत्ता आया
था महाराज!
साईं
ने कहा, वह
मैंने पहले ही
कह दिया
था--पहचानना, आऊंगा जरूर। किस
रूप में आऊंगा,
उस समय कौन
सा रूप
सुलभ-सरल होगा
आने के लिए, यह तो
समय-समय की
बात है। उस
समय यही मौजूं
था कि कुत्ते
की शक्ल में
आऊं। कोई
दूसरा रूप उस
वक्त भर
दोपहरी में
उपलब्ध भी न
था। वह कुत्ता
ही वहां था, सो हम उसी पर
सवार हुए।
रोने
लगा
संन्यासी।
उसने कहा, अब
एक दफा भूल हो
गई, एक
मौका और! कल, चाहे कुछ भी
हो, पहचान
लूंगा।
कुत्ता
अगर आता दूसरे
दिन तो पहचान
लेता, लेकिन
कुत्ता आया ही
नहीं। अब उसको
पता था। वह दो
की प्रतीक्षा
कर रहा था--साईंबाबा
सीधे आ जाएं
तो ठीक, नहीं
तो कुत्ते की
राह देख रहा
था। कुत्ता
आया ही नहीं!
अब कुत्ते भी
कोई भरोसे के
थोड़े ही हैं!
मौज की बात--आ
गए, आ
गए--नहीं आया।
आया एक
भिखमंगा, कोढ़ी।
चूक हो गई
फिर। उसकी बास
आ रही थी।
भयंकर दुर्गंध
थी। यह तो
भोजन को भी
खराब कर देगा,
इसकी बास आ
रही है। यह तो
खाने का भी मन
नहीं रह जाएगा।
वमन की इच्छा
होने लगी उसको
देख कर। कहा
कि भाई, जा!
यहां आने की
कोई जरूरत
नहीं है; यहां
अंदर प्रवेश
भी मत करना।
थोड़ा शक भी
हुआ कि कहीं
भूल तो नहीं
हो रही। लेकिन
यह कोढ़ी
और साईंबाबा--कोई
तालमेल नहीं दिखता;
कुत्ता कम
से कम स्वस्थ
तो था।
सांझ
फिर गया, कहा
कि आप आए नहीं;
आपकी भी राह
देखी, कुत्ते
की भी राह
देखी।
साईंबाबा ने
कहा,
आया था, लेकिन
दुर्गंध तुझे जंची ही
नहीं; तूने
दूर-दूर
दुतकार दिया।
रोने
लगा
संन्यासी।
कहा,
एक बार और!
साईंबाबा ने
कहा,
हजार बार भी
आऊं, तू न
पहचानेगा।
पहचान
तब संभव हो
पाती है जब
तुम जागते हो, जागे
हुए होते हो।
गोविन्द
को भजने
का यही अर्थ
है कि जो भी
तुम्हें
दिखाई पड़े, गोविन्द
का भजन बन जाए;
जहां से भी
खबर आए, उसकी
ही खबर आए।
हवा बहे, तो
उसकी याद; जल
में कलकल नाद
हो, तो
उसकी याद; पक्षी
गीत गाएं, तो
उसकी याद; सन्नाटा
हो, तो
उसका; शोरगुल
हो, तो
उसका; बाजार
हो, तो
उसका; शून्य
हिमालय हो, तो उसका।
लेकिन उसकी
याद हर जगह से
आए--पत्ती, फूल,
पत्थर--सब
तरफ से उसकी
याद आए। उसकी
याद ही चारों
तरफ बरसने लगे
और तुम्हें
घेर ले; जब
भी तुम किसी की
आंखों में
झांको, उसी
में झांको।
और यह
कोई कल्पना या
काव्य नहीं है, यह
तथ्य है; क्योंकि
हर आंख से वही
झांक रहा है।
तुमने नहीं
देखा, यह
तुम्हारी भूल
है; तुमने
नहीं पहचाना,
यह
तुम्हारी
नासमझी है; लेकिन हर
आंख से वही
झांक रहा है।
लौट कर अपनी पत्नी
की आंख में ही
झांक कर देखना;
या अपने
छोटे बच्चे को
पास बैठा लेना,
उसकी आंख
में गौर से
झांकना।
जल्दी ही तुम
पाओगे--बच्चा
तो खो गया, निराकार
मौजूद है। तुम
जहां भी गहरे देखोगे, उसी को
पाओगे; जहां
भी तुम उथला देखोगे, चूक जाओगे।
'कमल
के पत्ते पर
जैसे तरल और
अस्थिर होता है
जल, वैसे
ही यह जीवन
अतिशय चपल और
अस्थिर है। यह
ठीक से समझ लो
कि संसार
अहंकार के रोग
से ग्रस्त है
और दुख से
आहत। अतः हे मूढ़, सदा
गोविन्द को भजो।'
यहां
तो सब बहा जा
रहा है, प्रतिपल
भागा जा रहा
है; यहां
कुछ भी थिर
नहीं है। इस
अस्थिर पर भवन
मत बनाना।
इससे तो रेत
भी कहीं
ज्यादा थिर
है। यह संसार
तो जल की धार
है, इस पर
भवन मत बनाना;
अन्यथा
पछताओगे।
थिर को
खोजो; सदा उस
पर नजर रखो जो
सब बहाव के
बीच में भी
ठहरा है। गाड़ी
चलती है, चाक
घूमता है, लेकिन
कील ठहरी रहती
है। कील पर
नजर रखो। कील में
तुम उसे
पाओगे। चाक
में संसार है;
संसार का
अर्थ ही चाक
है। इसलिए तो
हम उसे संसार-चक्र
कहते हैं। वह
घूमता चला
जाता है। लेकिन
जिसके सहारे
घूमता है, वह
कील थिर है।
अस्थिर को भी
होने के लिए
थिर का सहारा
चाहिए; झूठ
को भी जीने के
लिए सत्य का
सहारा चाहिए।
स्वप्न के
घटने के लिए
भी सच्चा द्रष्टा
चाहिए, अन्यथा
स्वप्न भी न
घट सकेगा।
'कमल
के पत्ते पर
जल जैसे तरल
और अस्थिर
होता है, ऐसा
ही यह जीवन
अतिशय चपल और
अस्थिर है।'
इससे
बहुत अपने को
मत जकड़ लेना; अन्यथा
तुम जकड़ोगे,
पछताओगे, दुखी होओगे।
क्योंकि यहां
कुछ रुक नहीं
सकता; तुम
रोकना भी
चाहोगे, न
रुकेगा। सब
बहा जा रहा
है।
जवान
हो,
जवानी बह
जाएगी। पकड़ोगे,
कोशिश
करोगे, पकड़
न
पाओगे--पछताओगे।
पकड़ने
में ही समय
व्यय हो
जाएगा। यह
शरीर है, कल
नहीं होगा।
ऐसे बहुत शरीर
हुए और नहीं
हो गए। संसार
एक चंचलता है,
एक चपलता है,
एक
परिवर्तन है।
यहां तुम अपना
घर मत बनाना।
ज्यादा से
ज्यादा सराय
है। रात ठहरे,
सुबह फिर चल
पड़ना है।
और यहां तुमने
अगर घर बनाया
तो दुख परिणाम
है। इसलिए तुम
दुखी हो।
लोग
मुझसे पूछते
हैं,
हम दुखी
क्यों हैं?
इसलिए
तुम दुखी हो
कि तुम भवन
अपना वहां बना
रहे हो जहां
बनाया नहीं जा
सकता; और जहां बनाया
जा सकता है, या जहां बना
ही है, वहां
तुम देख ही
नहीं रहे हो।
तुम्हारी
आंखें गलत
दिशा में हैं,
इसलिए दुख
है। दुख, गलत
के साथ जुड़ने
का परिणाम है,
गलत के साथ
संग-साथ कर
लेने का
परिणाम है।
आनंद सत्संग
है।
'जब तक
धन अर्जित
करने की शक्ति
है, तभी तक
अपना परिवार
भी अनुरक्त
रहता है। बाद बुढ़ापा
आने पर जब
शरीर जर्जर हो
जाता है, तब
घर में कोई
बात भी नहीं
पूछता। अतः हे
मूढ़, सदा
गोविन्द को भजो।'
अगर
परिवार ही
बनाना है तो
उसके साथ बना
लो। अगर विवाह
ही रचाना है
तो उसके साथ
रचा लो। इस जगत
के सब विवाह
गहरे में तलाक
हैं। इस जगत
के सब संबंध
बस ऊपर-ऊपर
नाममात्र हैं, भीतर
कुछ भी नहीं
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक लखपति बाप
की बेटी के
प्रेम में था
और कहता था:
चाहे जीवन रहे
कि जाए, तुझे
नहीं छोड़
सकता। मरने को
तैयार हूं, अगर उसकी भी
जरूरत हो; शहीद
हो सकता हूं, लेकिन तुझे
नहीं छोड़ सकता।
बड़ी बातें
करता था।
एक दिन
लड़की बड़ी उदास
थी और उसने नसरुद्दीन
से कहा कि
सुनो, मेरे
पिता का
दिवाला निकल
गया!
नसरुद्दीन ने
कहा,
मुझे पहले
से ही पता था
कि तेरा बाप
जरूर कोई न कोई
गड़बड़ खड़ी
करेगा और
हमारा विवाह न
होने देगा।
विवाह
ही जिस कारण
से कर रहे थे, वही
खतम हो गया!
तुम्हारे
संबंध, तुम
कहते कुछ और
हो, कारण
उनका कुछ और
ही होता है।
तुम बताते कुछ
और हो...और मजा
ऐसा है कि तुम
जो बताते हो, हो सकता है
तुम ऐसा मानते
भी होओ कि यही
सच है। तुम
अपने को भी
धोखा दे लेते
हो; दूसरे
को ही देते हो,
ऐसा नहीं
है। आदमी बड़ा
कुशल है, अपने
को भी धोखा दे
लेता है।
'जब तक
शरीर में
प्राण बचते
हैं, तभी
तक घर के लोग
कुशलक्षेम
पूछते हैं।
प्राण निकलने
पर शरीर का
पतन हुआ कि
फिर अपनी
पत्नी भी उस
शरीर से भय
खाती है। अतः
हे मूढ़, सदा गोविन्द
को भजो।'
जो सदा
साथ रह सके, उसी
का साथ कर लो।
जिनका साथ
नदी-नाव संयोग
है, उनका
साथ भी क्या
साथ है? राह
पर चलते हुए
जैसे यात्री
मिल जाते हैं
घड़ी भर को, साथ
हो लेते हैं, फिर अलग-अलग
मार्ग हो जाते
हैं, बिछुड़ जाते हैं।
ऐसा ही घड़ी भर
का साथ है। इस
साथ को बहुत
मूल्य मत
देना। और इस
साथ को सत्य
मत मान लेना।
स्वप्न में
जैसे किसी से
मिलन हो गया
है, नींद
टूटते ही छूट
जाएगा।
'बालक
खेलकूद में
आसक्त रहता है,
युवक तरुणी
के प्रेम में
आसक्त है, और
वृद्ध
चिंताओं में
आसक्त रहते
हैं। कभी तो
मनुष्य
परमात्मा के
प्रति संलग्न
नहीं होता।
अतः हे मूढ़,
सदा
गोविन्द को भजो।'
बचपन
गुजर जाता है
खेलकूद में, क्रीड़ा-आसक्ति
में; जवानी
गुजर जाती है
प्रेम के नाम
पर चलते हुए खेल
में; बुढ़ापा अतीत की
चिंताओं में,
अतीत का
हिसाब बिठाने
में, लगाने
में; और
जीवन यूं ही
चला जाता है।
परमात्मा की
याद ही नहीं आ
पाती। और
परमात्मा को
हम टालते चले जाते
हैं, स्थगित
करते चले जाते
हैं--कल, और
कल! और कल आती
है सिर्फ मौत।
परमात्मा की
याद भी नहीं
कर पाते और
मौत आ जाती
है।
'हे मूढ़,
सदा
गोविन्द को भजो।'
इसके
पहले कि मौत आ
जाए--जब भी होश
आ जाए--जगाओ
अपने को। थोड़ा
देखो, क्या
तुम कर रहे हो?
कहां तुम
उलझे हो? तुम्हारे
कृत्यों का
क्या परिणाम
हो सकता है? तुम्हारे
कृत्य, तुम्हारा
धन, तुम्हारी
प्रतिष्ठा, सब पड़ी रह
जाएगी। जो पड़ा
ही रह जाएगा, उसके साथ
बहुत समय व्यय
मत करो; जितने
जल्दी जाग जाओ,
उतना
अच्छा।
जीवन
के प्रति
जिसकी आसक्ति
नहीं टूटी, परमात्मा
से उसकी
आसक्ति नहीं
जुड़ पाती। जीवन
के प्रति अगर
तुम बहुत
अनुरक्त हो, तो तुम
परमात्मा को न
पहचान पाओगे।
रूप के प्रति
जिसकी आसक्ति
है, वह
अरूप को कैसे
पहचानेगा? पदार्थ
की जिसकी पकड़
है, वह
निराकार को
कैसे पकड़ेगा?
पृथ्वी पर
जिसका सब कुछ
लगा है, वह
आकाश की तरफ
आंख भी नहीं
उठाता।
तुम्हारी आसक्ति
जहां है अभी, जब तक वहां
उसकी जड़ें न
टूट जाएं, जब
तक तुम जाग कर
न देख लो कि
सिवाय दुख के
वहां और कुछ
भी नहीं है, जब तक
तुम्हें जीवन
का सार-निचोड?
दुख न दिखाई
पड़ जाए...। सुख
का कितना ही
प्रलोभन हो, मिलता सदा
दुख है। सुख
के कितने ही
आश्वासन हों,
मिलता सदा
दुख है। सुख
की तुम कितनी
ही योजनाएं
बनाओ, वे
योजनाएं ऐसी
हैं, जैसे
कोई तेल
निकालने की
चेष्टा कर रहा
हो रेत को निचोड़
कर। हाथ में
कुछ भी नहीं
आता, हाथ खाली
रह जाते हैं।
खाली
हाथ संसार से
जाने की
तैयारी हो, तो
परमात्मा की
फिक्र करने की
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन
बहुत रोते हुए
जाओगे।
अगर
भरे हाथ, भरे
हृदय जाने की
तैयारी हो, आकांक्षा हो,
तो जितने
जल्दी
परमात्मा का
स्मरण करो, और जितने
जल्दी उसमें
लीन हो जाओ, और जितना
ज्यादा से
ज्यादा समय और
शक्ति उसके स्मरण
में लग जाए, उतना ही शुभ
है।
एक ही
चीज तुम्हें
भर सकती है, वह
परमात्मा है।
और उसकी भर
तुम चिंता
नहीं करते हो।
और जिनसे तुम
कभी न भर
सकोगे, उनकी
तुम चिंता किए
चले जाते हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी मरने
के करीब थी।
वह बिस्तर पर
पड़ी है। आंख
उसने खोली और
उसने कहा, सुनो
जी, क्या
तुम सच कहते
हो कि मैं मर
जाऊंगी तो तुम
पागल हो जाओगे?
नसरुद्दीन ने
कहा,
सौ फीसदी; तू मरेगी तो
मैं निश्चित
पागल हो जाऊंगा।
पत्नी
हंसने लगी।
कहा,
झूठ बोलते
हो। जहां तक
मैं जानती हूं,
मैं मरूंगी
और तुम दूसरी
शादी कर लोगे।
नसरुद्दीन ने
कहा कि पागल
हो जाऊंगा, यह
सच है, लेकिन
इतना पागल
नहीं कि फिर
शादी कर लूं।
अगर
जीवन को तुम
गौर से देखो, तो
तुम दुबारा
जन्म न लेना
चाहोगे, तुम
फिर शादी न
करना चाहोगे।
क्योंकि
सिवाय दुख के
और तुमने पाया
क्या? यही
तो सारे पूरब
की खोज है:
आवागमन से
कैसे छुटकारा
हो जाए!
जिन्होंने
जीवन को देखा,
उनकी एक ही
आकांक्षा बची
कि जीवन से
छुटकारा कैसे
हो जाए!
मैंने
सुना है कि एक
बहुत अनूठा
संन्यासी, बोधिधर्म,
जब चीन गया
बुद्ध का
संदेश लेकर, तो सम्राट
वू ने उससे
पूछा कि
संक्षिप्त में
मुझे बता दें,
मेरे पास
ज्यादा समय
नहीं है--तुम
देख ही रहे हो
कि साम्राज्य
बड़ा है और मैं
ज्यादा
सत्संग नहीं
कर सकता--मुझे
संक्षिप्त
में बता दो कि
जीवन की सबसे
बहुमूल्य बात
क्या है? सबसे
बड़ा सौभाग्य
क्या है?
बोधिधर्म
ने कहा, तुम
समझ न पाओगे।
सबसे बड़ा सौभाग्य
यह है कि तुम
पैदा ही न
होते।
वू
थोड़ा
चौंका--यह कोई
सौभाग्य की
बात कर रहा है
आदमी कि तुम
पैदा ही न
होते! पर
निश्चित ही बोधिधर्म
सौभाग्य की ही
बात कर रहा
है। बुद्धों की
यही तो
आकांक्षा है
कि पैदा न
होते।
पर, बोधिधर्म
ने कहा, वह
बात तो हो
नहीं सकती--खतम।
तुम हो ही गए
पैदा। वह तो
नंबर एक का सौभाग्य
है। इसलिए
नंबर दो की
कहता हूं कि
जितने जल्दी
मर जाओ।
कहते
हैं,
वू फिर कभी
मिलने नहीं
आया बोधिधर्म
को--कि यह भी
कोई ज्ञानी
है! लेकिन मैं
भी तुमसे कहता
हूं, नंबर
एक का सौभाग्य
कि तुम पैदा न
हुए होते। लेकिन
उस पर तो अब
कोई बस नहीं, हो ही गए। तो
अब दूसरा
सौभाग्य है कि
तुम जीते जी
मर जाओ; जीवन
से तुम्हारा
राग-रंग छूट
जाए। यह जीते
जी मरने का
अर्थ है: तुम
ऐसे जीने लगो,
जैसे तुम हो
ही नहीं। बैठो
बाजार में, क्योंकि
कहीं तो
बैठोगे ही; लेकिन ऐसे
जैसे हो ही
नहीं। पालो
पत्नी-बच्चों
को, पालना
ही पड़ेगा; लेकिन
ऐसे जैसे तुम
हो ही नहीं।
तुम अनुपस्थित
हो जाओ। और
जल्दी ही तुम
पाओगे कि
तुम्हारी अनुपस्थिति
रिक्त नहीं
रही, परमात्मा
उसमें
धीरे-धीरे उतर
आया है।
भज गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।
आज
इतना ही।
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