ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू राजस्थान।
सूत्र
:
कुर्वन्नेवेह
कर्माणि
जिजीविषेच्छतं
शता:।
एवं
त्वयि
नान्यथेतोऽस्ति
न कर्म
लिप्यते नरे।।
2।।
इस
लोक में कर्म
करते हुए ही
सौ वर्ष जीने
की इच्छा करे।
इस
प्रकार
मनुष्यत्व का
अभिमान रखने
वाले तेरे लिए
इसके सिवाय
और कोई
मार्ग नहीं है, जिससे
तुझे कर्म का
लेप न हो।। 2।।
संसार
में कोई ऐसा
दूसरा मार्ग
नहीं है जिससे
चलकर कर्म का
लेप न हो। जिस
मार्ग
ईशावास्य ने
चर्चा की है
वह मार्ग है —
सब प्रभु को
अर्पित करके
जीना। सब उसके
ही चरणों में
छोड़ देना। सब
उसको ही
समर्पित कर
देना। स्वयं
के कर्ता का
समस्त? छोड्कर
कर्मों से जो
गुजरने को
राजी है, उसे
इस संसार में
कर्म का कोई
लेप नहीं होता
एक ही मार्ग
है, दूसरा
कोई मार्ग
नहीं है।
एक
तो संसार में
जीना और कर्म
से लिप्त न
होना बड़ी ही
कीमिया, बड़ी बुद्धिमत्ता
बड़ी विज़डम की
बात है। करीब—करीब
ऐसे ही है, जैसे
कोई काजल की
कोठरी से
निकले और उसे
काजल न लगे।
फिर घड़ी दो
घड़ी की बात
नहीं है, अगर
एक जीवन को भी पूरा
लें, तो कम
से कम सौ वर्ष।
और अगर अनेक
जीवन को स्मरण
करें, तो
अनेक सौ वर्ष।
लाखों वर्ष की
यात्रा है।
एक
ही जीवन की
बात की है इस
सूत्र में कि
जहां कम से कम
सौ वर्ष जीवन
है,
सौ वर्ष
काजल की कोठरी
से कोई गुजरे
निरंतर — जागे,
सोए, उठे,
बैठें, जीए
— और काजल से
अछूता रह जाए,
बड़ी ही
बुद्धिमत्ता,
बड़े योग की
बात है।
अन्यथा यही
आसान और सहज
है कि काजल
पकड़ ले। इतना
ही नहीं कि
काजल ही छू
जाए, बल्कि
व्यक्ति काजल
हो जाए, यही
साधारणत: संभव
है। छूना तो
स्वाभाविक
मालूम होता है,
लेकिन सौ
वर्ष काजल के
साथ रहना पड़े,
तो कठिन
लगती है यह
बात कि
व्यक्ति ही
काजल न हो
काला न हो जाए।
जो
भी हमें करना
पड़े उससे हम
अछूते गुजर
कैसे पाएंगे? करते
हैं तभी, तभी
हम उससे जुड़
जाते हैं।
क्रोध करते
हैं तो क्रोध
से जुड़ जाते
हैं। प्रेम
करते हैं तो
प्रेम से जुड़
जाते हैं।
लड़ते हैं तो
लड़ने से जुड़
जाते हैं।
भागते हैं तो
भागने से जुड़
जाते हैं। भोग
करते हैं तो
भोग पकड़ लेता
है। और मजा तो
ऐसा है जकड़न
का कि त्याग
करते हैं तो त्याग
भी पकड़ लेता
है। वह उससे
भी काजल ही
हाथ में आता
है।
भोग
की तो अकड़
होती ही है कि
मेरे पास इतना
धन है, त्याग
की भी अकड़
होती है कि
मैंने इतना धन
त्यागा! वह
अकड़ काजल बन
जाती है, वह
अकड़ अहंकार है।
आदमी एक जीवन
के सौ वर्ष भी
कैसे भी
गुजारे, कुछ
तो करेगा। जो
भी करेगा, वही
उसके काले
होने का
रास्ता बन
जाएगा।
ईशावास्य
का यह सूत्र
कहता है, लेकिन
एक मार्ग है।
उसी मार्ग की
बात की जा रही
है। जिस मार्ग
से सौ वर्ष इस
काली कोठरी से
गुजरकर भी
व्यक्ति अपनी
शुभता को
लेशमात्र भी
नहीं खोता और
व्यक्ति को
कर्मों का कोई
लेप नहीं होता
है।
असंभव
लगती है बात।
लेकिन इस जगत
में,
जिस सूत्र
की ईशावास्य
बात कर रहा है,
अगर हम ठीक
से समझ लें तो
असंभव नहीं रह
जाएगी बात।
सूत्र यह कह
रहा है कि
व्यक्ति कुछ
भी करे तो काजल
तो लग जाएगा —
कर्ता हुआ कि
काला हुआ। एक
ही रास्ता रह
जाता है कि
व्यक्ति
कर्ता ही न
बने। कर्म से
तो बचा नहीं
जा सकता।
जीएंगे तो
कर्म तो होगा
ही। इसलिए अगर
कोई कहता है, कर्म को छोड़
दें, तो
फिर तो कोई
लेप नहीं
होगा! लेकिन
जीना है, तो
कर्म तो होगा
ही। श्वास भी
लेनी है तो
कर्म हो जाएगा।
दुकान
जो करता है
वही कर्म करता
है,
ऐसा नहीं, जो भिक्षा
मांगता है वह
भी कर्म करता
है। और जो घर
बसाता है वही
कर्म करता है,
ऐसा नहीं है,
जो घर
छोड्कर वन में
चला जाता है
वह भी कर्म करता
है। उनके कर्म
भिन्न हो सकते
हैं, लेकिन
एक कर्म और
दूसरा अकर्म
है, ऐसा
नहीं, दोनों
ही कर्म हैं।
यहां
तो जीना ही
जहां कर्म है, छोड़ना
भी जहां कर्म
बन जाएगा, वहां
कर्म को
छोड्कर अगर
कोई सोचता हो
कि हम काले
काजल से बच
जाएंगे, तो
व्यर्थ सोचता
है। उस सोचने
से कभी भी कोई
घटना घटने
वाली नहीं है।
कर्मों को
छोड्कर कोई
भाग सकता है, और तब पलायन
ही उसका कर्म
बन जाता है।
भागना ही उसका
कर्म बन जाता
है। वह भी पकड़
लेता है।
एक
ही रास्ता
दिखाई पड़ता है, वह
यह कि कर्म से
तो छूटने का
उपाय नहीं है,
लेकिन
कर्ता से छूटा
जा सकता है।
लेकिन अगर
कर्म जारी
रहेंगे तो
कर्ता से कोई
छूटेगा कैसे ई
जब मैं कर्म
करूंगा, तो
कर्ता तो हो
ही जाऊंगा!
लेकिन
ईशावास्य कहता
है, कर्म
तो कर सकते हो,
कर्ता से
छूट सकते हो।
साधारणत: हमें
दिखाई पड़ता है
कि कर्म से
छूट जाऊं तो
शायद कर्ता से
छूट जाएं हम।
न करूंगा कर्म,
न बनूंगा
कर्ता। लेकिन
ईशावास्य कहता
है, यह
संभव नहीं है।
संभव इससे
उलटी बात है।
और वह यह है कि
कर्म तो तुम
करते रहो और
कर्ता से छूट
जाओ। यह कैसे
होगा?
ऐसे
कर्म से हम
थोड़ा—बहुत
परिचित हैं।
जब भी हम
अभिनय करते
हैं तब हमें
खयाल में आती
है बात कि
कर्म हो सकता
है और कर्ता
नहीं हो। राम
की सीता खो
जाए तो राम
रोते हैं वन
में;
वृक्षों को
पकड़—पकड़कर
चिल्लाते हैं;
पूछते हैं,
सीता कहां
है? रामलीला
के मंच पर भी
किसी राम की
सीता खो जाती
है। वह भी
रोता है। वह
भी वृक्षों से
पूछता है, सीता
कहां है? और
शायद राम से
कहीं ज्यादा
ही जोर से
चिल्लाकर पूछता
है। शायद राम
से ज्यादा
कुशलता से भी
पूछता है।
क्योंकि राम
को रिहर्सल का
कोई मौका मिला
नहीं। उसने
काफी अभ्यास
किया होता है।
कर्म तो करता
है वही जो राम
ने किया —
पूछता है, सीता
कहां है? लेकिन
पीछे कोई
कर्ता नहीं
होता, अभिनेता
होता है।
ध्यान
रहे,
कर्म दो तरह
से हो सकता है —
कर्ता होते
हुए भी हो
सकता है, अभिनेता
होते हुए भी
हो सकता है।
कर्ता की जगह
अभिनेता आ जाए
तो कर्म तो
बाहर जारी
रहेगा, लेकिन
भीतर कर्ता की
जगह अभिनेता
हो जाए तो समस्त
रूपांतरण हो
जाता है।
अभिनय बांधता
नहीं है।
अभिनय बाहर ही
बाहर रह जाता
है, भीतर
उसका प्रवेश
नहीं होता।
अभिनय गहरे
में नहीं
उतरता, सतह
पर घूमता है
और विदा हो
जाता है।
कितना ही रोता
हो अभिनेता
राम, और
कितना ही आंसू
टपकाता हो, उसके आंसू
प्राणों से
नहीं आते।
अक्सर तो उसे आंखों
में अंजन
लगाना पड़ता है
कि आंसू आ
जाएं। अंजन न
भी लगाए, अभ्यास
से भी ले आता
हो, तो भी आंसू
सतह से आते
हैं, गहराई
से नहीं आते।
चिल्लाता है।
आवाज आती है, पर कंठ से ही
आती है, हृदय
से नहीं आती।
भीतर सब अछूता
रह जाता है।
भीतर कुछ भी
छूता नहीं।
भीतर
अस्पर्शित रह
जाता है।
निकलता है
काजल की कोठरी
से, लेकिन
भीतर कर्ता
नहीं है, अभिनेता
है।
ध्यान
रहे,
कर्ता
पकड़ता है काजल
को, कर्म
नहीं पकड़ता।
अगर कर्म ही
पकड़ता है काजल
को, तब तो
फिर ईशावास्य
जो कहता है वह
नहीं हो सकता।
गीता जो कहती
है वह नहीं हो
सकता। फिर तो
कर्म करते हुए
कर्म से कोई
छुटकारा नहीं
है। फिर तो
जीते जी कर्म
से कोई
छुटकारा नहीं
है। फिर तो
मरने पर ही
कर्म से
छुटकारा हो
सकता है। फिर
तो जीवित
मुक्ति नहीं
मालूम होती।
और जो जीते जी
मुक्त नहीं हो
सका, वह
मरकर कैसे
मुक्त हो
सकेगा? जो
जीते जी नहीं
मुक्त हो सका,
वह मरकर तो
हो नहीं सकता
है।
कर्म
को अगर पकड़ता
हो वह जो काजल
है जीवन का, अगर
कर्म पर लेप
चढ़ जाता हो
उसका, तब
तो असंभव है।
लेकिन जो गहरे
खोजते हैं, वे कहते हैं,
कर्म को
नहीं कर्ता को
पकड़ता है। जब
भी कोई कहता
है, मैं
कर्ता हूं बस
तभी। जब कर्म
और मैं का जोड़
होता है, तभी।
जब मैं और
कर्म की
आइडेंटिटी, तादात्म्य
होता है, तभी।
जब मैं कर्म
के साथ अपने
को एक कर लेता
हूं और कहता
हूं मैं कर्ता
हूं बस तभी, तभी वह काजल
पकड़ लेता है।
और तभी जीवन
अंधेरे से और
कालिमा से भर
जाता है।
अगर
भीतर कोई कहने
वाला न हो कि
मैं कर्ता हूं
और भीतर अगर
कोई जानने
वाला हो कि
अभिनय हो रहा
है,
कि मंच पर
नाटक के
इकट्ठे हुए
हैं — होगी, बड़ी
मंच होगी, पूरी
पृथ्वी मंच हो
सकती है, मंच
के बड़े होने
से कोई अंतर
नहीं पड़ता; और पर्दा एक
ही बार उठता
होगा जन्म के
वक्त और मृत्यु
के वक्त गिरता
होगा, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है; एकांकी
है, लंबा
है, एक ही
बार पर्दा
गिरता है, इससे
अंतर नहीं
पड़ता — लेकिन
अगर भीतर
अभिनय का खयाल
है, ऐक्टिंग
का खयाल है, ऐक्टर का
नहीं; भीतर
करने वाले का
खयाल नहीं है,
अभिनय का
खयाल है, तो
सारा जगत एक
लीला, एक
नाटक, जीवन
एक मंच, एक
कथा, एक
कहानी हो गयी।
फिर हम पात्र
हैं और पात्रों
को कुछ भी
नहीं छूता है।
ईशावास्य
के इस सूत्र
में कहा हैं, एक
ही मार्ग है
कि मनुष्य
जीते जी कर्म
से गुजरते हुए
भी कर्म में
लिप्त न हो।
वह मार्ग है, जीवन को एक
अभिनय में
रूपांतरित कर
लेना।
लेकिन
हम बहुत अदभुत
लोग हैं। हम
अभिनय को तो
जीवन में
रूपांतरित कर
लेते हैं, लेकिन
जीवन को अभिनय
में
रूपांतरित
नहीं कर पाते।
अभिनय को जरूर
हम बहुत बार
जीवन बना लेते
हैं। बहुत बार
तो हमारा जीवन,
हमारे सीखे
हुए अभिनय का
बहुत मजबूती
से हमारे ऊपर
लद जाना होता
है।
अगर
हम मनस्विद से
पूछें तो
मनस्विद कहते
हैं कि कोई भी
व्यक्ति का जो
भी हमें आचरण
दिखाई पड़ता है, वह
सब सिखाया हुआ
आचरण है। सब
कल्टीवेटेड, कंडीशनिंग
है। जिसे हम
मनुष्य का
स्वभाव कहते
हैं, कहते
हैं, इस
आदमी का यह
स्वभाव है; मनस्विद
कहता है, आदमी
का कोई भी
स्वभाव नहीं।
अगर आदमी का
कोई भी स्वभाव
है, तो वह
इनफिनिट लिक्विडिटी
है, वह
अंतहीन तरलता
है। मनुष्य
ऐसा है, जैसे
हम पानी को एक गिलास
में भर दें तो
वह गिलास जैसा
हो जाए। और एक
लोटे में भर
दें तो वह
लोटे जैसा हो
जाए। और एक
गागर में डाल
दें तो वह
गागर जैसा हो
जाए। और जैसा
हो बर्तन का
आकार, वैसा
ही पानी आकार
ले ले। पानी
का कोन सा
स्वाभाविक
आकार है? पानी
का कोई
स्वाभाविक
आकार नहीं है।
पानी का
स्वभाव अनंत
आकार लेने की
क्षमता है।
इसलिए जो भी
रूप होगा, पानी
तत्काल वही
आकार ले लेगा।
पानी जिद्दी
नहीं है। पानी
हठी नहीं है।
वह यह नहीं
कहता है कि
मैं इसी आकार
में रहूंगा।
वह कहता है, कोई भी आकार
हो, हम
राजी हैं।
मनुष्य
का भी कोई
स्वभाव नहीं
है। जिसे भी
हम स्वभाव
कहते हैं वह
भी सिखाई गई
व्यवस्था, सीखे
हुए वर्तन में,
संस्कार के
ढांचे में
किया गया आचरण
है। इसलिए एक
व्यक्ति
मांसाहारी के
घर में पैदा होता
है तो
मांसाहार
करने लगता है।
स्वभाव नहीं
है। उसे ही हम
शाकाहारी के
घर में पाले, वह शाकाहार
करेगा और मांस
देखकर उसे
उल्टी हो जाएगी,
वमन हो
जाएगा, घबराहट
हो —जग़)गी।
नहीं, ऐसा
मत समझ लेना
कि शाकाहारी
के घर में जो
बड़ा हुआ तो
बड़ा गुणी हें।
अगर
मांसाहारी के
घर में बड़ा
हुआ तो बड़ा
दुर्गुणी है।
नहीं, बड़े— होने
के भेद हैं।
बर्तन का आकार
है, वह पकड़
लिया गया है।
बचपन
से हम हर एक
व्यक्ति को
कुछ सिखा रहे
हैं। वह
सिखावन अगर
ठीक से समझें
तो जीवन में
जो अभिनय उसे
करना हे, उसकी
तैयारी है।
जिन्हें —हम
शिक्षालय
कहते हैं, वह
हमारे
रिहर्सल के, जहां हम जीवन
के अभिनय की
तैयारी करते
हैं, उसके
प्रशिक्षण हे
स्थल हैं।
परिवार, समाज
स्कुल, विश्वविद्यालय
— वहां हम
तैयार करते
हैं एक व्यक्ति
को एक ढंग से
ऐक्ट करने के
लिए।
एक
व्यक्ति को हम
हिंदू की तरह
तैयार: करते—
है। एक
व्यक्ति को हम
अमरीकन की तरह
तैयार करते हैं।
एक व्यक्ति को
हम ईसाई की
तरह तैयार
करते हैं। एक
को हम चीनी की तरह
तैयार करते
हैं। और फिर
वे तैयार हो
जाते हैं, और
कल, कल जब
ढांचे उनके
मजबूत हो जाते
हैं, तो
ऐसा लगता है
कि यह उनका
स्वभाव है। ये
सब सिखाए गए
अभिनय हैं, जो इतने
मजबूती से पकड़
लिए गए कि
उनको करते
वक्त व्यक्ति
को खयाल नहीं
आता कि मैं अभिनय
कर रहा हूं।
कभी
आपको खयाल आया
कि आप जैन, हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
ये आपके
सिखाए गए
अभिनय हैं! जो
आपको न सिखाए
गए होते तो
आपने कभी न
सीखे होते।
लेकिन जब आप
कहते हैं, मैं
हिंदू हूं तब
आप कर्ता बन
जाते हैं। तब
तलवारें चल
सकती हैं। तब
जान ली और दी
जा सकती है।
और अगर कोई कह
दे कि हिंदू
नहीं हैं आप, तो उपद्रव
हो सकता है।
मनस्विद
कहते हैं कि
वह जो आदत है
वह दूसरा स्वभाव
है,
ऐसा पुराने
मनस्विद कहते
थे। हैबिट इज
दि सेकेंड
नेचर। ऐसा
पुराने
मनस्विद कहते
थे। नए
मनस्विद कहते
हैं, नेचर
इज दि फर्स्ट
हैबिट। वह जो
स्वभाव है
पहली आदत है।
सुना है हमने
निरंतर कि आदत
जो है वह
दूसरा स्वभाव
है। लेकिन
जितनी ज्यादा
खोज होती है
आदमी के स्वभाव
की उतना ही
पता चलता है
कि जिसे हम
स्वभाव कहते
हैं वह पहली
आदत है — बहुत
गहरे में बैठ
गई। फिर इतनी
मजबूत हो गई
कि व्यक्ति
भूल गया कि
मैं अभिनय कर
रहा हूं।
अगर
आपको याद रहे
कि आप अभिनय
कर रहे हैं तो
छुरेबाजी
नहीं होगी।
क्योंकि आप
कहेंगे, क्या
पागलपन है!
मैं हिंदू
होने का खेल
खेल रहा हूं
आप मुसलमान
होने का खेल
खेल रहे हैं, इसमें झगडा
कहां है? नहीं,
झगड़ा वहां आ
जाता है, क्योंकि
यह खेल नहीं
है, ये
गंभीर बातें
हैं। यह मामला
खेल का नहीं
है।
एरिक
बर्न ने एक
किताब लिखी है
— गेम्स दैट
पीपुल प्ले, खेल
जो लोग खेलते
हैं। उसमें
उसने फुटबाल
और हाकी और
ताश और कैरम
और शतरंज ही
नहीं गिनाए, उसमें उसने
हिंदू
मुसलमान, ईसाई
भी गिनाए हैं।
रो भी खेल हैं
जो लोग खेलते
हैं — महंगे पड़
जाते हैं। कभी—कभी
शतरंज में भी
तलवार चल जाती
है, तो अगर
हिंदू—मुस्लिम
में चल जाती
है तो कोई
बहुत हैरानी
की बात नहीं
है।
गंभीरता
से पकड़ लिए
अभिनय लगते
हैं कि जीवन
हो गए। और जो—जो
सिखा दिया
जाता है वह पकड़
लिया जाता है।
सारी दुनिया
में
स्त्रियों को
सिखा दिया गया
कि वे पुरुष
से हीन हैं, पकड़
लिया। सीख
गयीं।
हालांकि ऐसे
समाज भी हैं
मातृ—सत्ताक,
जहां
सिखाया गया है
कि पुरुष
स्त्रियों से
हीन हैं, तो
वहां वैसी बात
लोग सीख गए
हैं। ऐसे
कबीले भी हैं
जहां स्त्री
श्रेष्ठ है और
पुरुष हीन है।
और बड़े मजे की
बात तो यह है
कि जिन कबीलों
में यह सिखाया
गया कि स्त्री
श्रेष्ठ है
पुरुष हीन है,
वहां पुरुष
हीन हो गया है
और स्त्री
श्रेष्ठ हो गई
है। और जहां
सिखाया गया कि
स्त्री हीन है,
वहां
स्त्री हीन हो
गई है और
पुरुष
श्रेष्ठ हो गया
है।
नहीं, पानी
की तरह हम
बर्तनों में
ढाल देते हैं
आदमियों को।
फिर अभिनय
इतने मजबूती
से पकड़ लेते
हैं अहंकार को
कि फिर वह यह
नहीं कहता कि
मैं अभिनय कर
रहा हूं वह
कहता है, यह
मैं हूं। यह
हिंदू होना
मेरा खेल नहीं
है, यह मैं
हूं। और जिस
क्षण आपने कहा
कि मैं हूं उस
दिन आपके ऊपर
कालिख लगनी
शुरू हो गई।
और आप पर ही
लगे तो भी कम
है, जिस
आदमी पर कालिख
खुद पर लगनी
शुरू होती है,
वह दूसरों
पर भी कालिख
फेंकना शुरू
कर देता है।
कालिख ही होती
है हाथ में, वही हम लेन—देन
करते हैं। फिर
हम खुद भी
काले होते हैं,
दूसरों को
भी काले करते
चले जाते हैं।
फिर सारी
जिंदगी
कालिमा से भर
जाती है।
हम
अभिनय को भी
कर्ता की तरह
करने की
तैयारी कर लिए
हैं। अब कैसे
खेल हैं, लेकिन
गहरे बैठ गए
हैं। दो छोटे
बच्चे एक
गुड्डा और
गुड्डी का
विवाह करवाते
हैं, तो हम
कहते हैं, खेल
खेल रहे हैं।
लेकिन कभी खयाल
किया कि एक
स्त्री—पुरुष
का विवाह भी
थोड़े बड़े
पैमाने पर, ऑन ए लार्ज
स्केल, गुड्डा
और गुड्डियों
के विवाह से
ज्यादा नहीं
है! सब रीति—रस्म
वही हैं। सब
हिसाब वही है,
सब
व्यवस्था, ढोल—बाजे
वही हैं। सब
ढोंग, सब
इंतजाम वही है।
हा, लेकिन
फर्क इतना है
कि उसे छोटी
उम्र के बच्चे
खेलते हैं, इसे बड़ी
उम्र के बच्चे
खेलते हैं।
छोटी उम्र के
बच्चे जल्दी
भूल जाते हैं।
सांझ को भूल
जाते हैं, सुबह
शादी की थी।
ये बड़ी उम्र
के बच्चे
अदालतों तक
में लड़ते हैं,
भूलते नहीं
हैं, मजबूती
से पकड़ लेते
हैं।
लेकिन
कोई मानने को
राजी न होगा कि
विवाह एक खेल
है। कठिनाई
मालूम पड़ेगी।
क्योंकि अगर
विवाह एक खेल
हो जाए तो
उसके आसपास
बना परिवार भी
एक खेल हो
जाएगा। और उस
परिवार के
आसपास बना हुआ
समाज भी एक
खेल हो जाएगा।
और उस समाज के
आसपास फैला
हुआ सारे
मनुष्य का जगत
एक खेल हो
जाएगा। इसलिए
एक— एक कदम हमको
मजबूत रखना
पड़ता है।
विवाह खेल
नहीं है, गंभीर
बात है, जीवन—मरण
की समस्या है।
परिवार खेल
नहीं है, समाज
खेल नहीं है।
फिर एक—एक कदम
चीजें मजबूत
पत्थर की तरह
होती चली जाती
हैं। फिर सब
सख्त हो जाता
है। और जो
आदमी इसको खेल
की तरह लेगा
हम उसकी जान ले
लेंगे।
क्योंकि वह
हमारी सारी
गंभीर
व्यवस्था को
तोड़ रहा है।
वह हमारे खेल
के नियमों को
नहीं मान रहा
है। हम उससे
बदला लेंगे।
जिंदगी
हमारी पूरी की
पूरी एक लंबा
अभिनय है।
लेकिन अभिनय
को हमने ऐसा
ढाल लिया है
कि हम कहते
हैं,
हमारा
कर्तृत्व है
यह।
ईशावास्य
उलटी बात कहता
है। वह कहता
है,
अभिनय को तो
अभिनय जानो ही,
ऐसी कोई भी
घटना नहीं है
जगत में जिसके
लिए तुम कर्ता
बनने के
पागलपन में
पड़ो। पागल हो
तुम जो कर्ता
बनो। कर्ता तो
तुम परमात्मा
को ही बनने दो।
उस पर ही छोड़
दो — जो
सदा है, तुम
नहीं थे तब भी
था, तुम
नहीं होओगे तब
भी होगा। उस
पर ही छोड़ दो।
करना उस पर ही
छोड़ दो। तुम
करने के बोझ
को मत लो। वह
बोझ बहुत
ज्यादा पड़
जाएगा, तुमसे
ज्यादा पड़
जाएगा।
तुम्हारी
सामर्थ्य से
ज्यादा है वह
पत्थर, वह
बोझ बड़ा है।
उसके नीचे
दबोगे और मर
जाओगे। उससे
उबर न पाओगे।
लेकिन
हमारे अहंकार
को कठिनाई होती
है। हमारे
अहंकार को रस
आता है, जितना
बड़ा पत्थर
हमारी छाती पर
हो उतना रस
आता है। जितना
बड़ा पत्थर कोई
आदमी छाती पर
उठा ले उतनी
अकड़ आती है।
लगता है कि
मैं इतना बड़ा
पत्थर उठा रहा
हूं! तुम तो कुछ
भी नहीं उठा
रहे हो। मैं
बहुत बड़ा
पत्थर उठा रहा
हूं।
राष्ट्रपति
हैं, प्रधानमंत्री
हैं, ये
बड़े पत्थरों
का मजा लेते
हैं। हजार
गाली खाते हैं,
हजार
मुसीबत में
पड़ते हैं —
लेकिन बड़ा
पत्थर उठाने
के लिए! बड़ा
पत्थर छाती पर
हो! इतना बता
पाएं कि
तुम्हारी
छाती पर बहुत
छोटा पत्थर है
— कि आप ग्राम—पंचायत
के प्रमुख हो
न बस! कहां हम
राष्ट्रपति, कहां तुम
ग्राम—पंचायत
के प्रमुख! दि
सेम प्ले ऑन ए
लार्जर स्केल।
वह ग्राम—पंचायत
का पागलपन भी
वही हो रहा है,
वह जरा छोटी
मंच है। और
राष्ट्रपति
की जरा बड़ी
मंच है। वह
ग्राम—पंचायत
का जो सरपंच
है वह भी
पीडित है कि
कब पहुंच जाए,
वह भी कोई
बड़ा पत्थर उठा
ले। इस सारी
जिंदगी में
जितना बड़ा
पत्थर छाती पर
है आदमी के, हम उतना बड़ा
आदमी कहते हैं
उसे।
सच्चाई
उलटी है। जो
जानते हैं, वे
कहते हैं, जिसकी
छाती पर पत्थर
ही नहीं है
वही आदमी फूल की
तरह हल्का है;
जिसके ऊपर
कोई बोझ नहीं।
लेकिन ऐसा
आदमी खोजना मुश्किल
है। छोटे में
छोटा बोझ तो
आदमी रखे ही
रहता है। नहीं
होगा ग्राम—पंचायत
का सरपंच तो
अपने घर का तो
प्रमुख होगा
ही! और ऐसा भी
नहीं है कि घर
में बाप ही
प्रमुख होता
है। जरा बाप
बाहर चला जाए
तो छोटा बच्चा
अपने से छोटे
बच्चों का
प्रमुख हो
जाता है।
डामिनेट करने
लगता है फौरन।
आपके सामने लड़
रहा होगा आपका
बच्चा छोटे
भाई से। आप हट
जाएं, आप
अचानक पाएंगे
कि वह डामिनेट
करने लगा। वह
वही रोल अदा
करने लगा जो
आप कर रहे थे।
पैमाना छोटा
होगा, हैसियत
कम होगी, लेकिन
खेल वही होगा।
अनुपात के
फर्क होंगे, आप दो सौ और
चार सौ के बीच
में खेल खेलते
हैं, वह दो
और चार के बीच
में खेलेगा, लेकिन
प्रपोर्शन
वही होगा। दो
और चार, और
दो सौ और चार
सौ में कोई
फर्क नहीं है,
अनुपात का
कोई फर्क नहीं
है, आकड़ों
का फर्क है।
छोटे बच्चे
छोटा खेल
खेलेंगे, बड़े
बच्चे बड़ा खेल
खेलेंगे। के
और बड़ा खेल
खेलते चले
जाएंगे। आदमी
को बड़ी कठिनाई
होती है अगर
वह यह न बता पाए
कि मेरी छाती
पर कोई पत्थर
है। तो यह भी
मजे की बात है
कि जितना बड़ा
पत्थर होता है,
हम अक्सर
उससे ज्यादा
बड़ा बताते हैं।
मैं
जिस
विश्वविद्यालय
में था, एक
महिला मेरे
साथ प्रोफेसर
थीं। उनकी
बीमारियां
सुन—सुनकर मैं
बहुत हैरान हो
गया था। इतनी
बीमारियां एक
महिला को हो
भी नहीं सकती हैं!
जब भी मुझे
मिलतीं वह, कुछ बड़ी
बीमारी! छोटी
बीमारी
उन्हें होती
ही नहीं। फिर
मैं उनके पति
को पूछा कि
इतनी
बीमारियां! ऐसे
तो पत्नी ही
काफी बीमारी
होती है, फिर
इतनी
बीमारियां! आप
कैसे चला लेते
हैं? उन्होंने
कहा कि आप
बातों में मत
पड़ना। उसे
छोटी बीमारी
होती ही नहीं।
सर्दी—जुकाम
भी हो तो क्षय
रोग से, टीबी.
से कम की वह
बात नहीं करती।
मैं हैरान हुआ
कि बीमारी को
बड़ा करके
बताने में
क्या राज होगा?
है
राज। बड़ी
बीमारी है तो
बड़ा पत्थर
छाती पर है।
छोटी बीमारी
है तो दो कोड़ी
के आदमी हैं
आप। बीमारी भी
है तो भी छोटी
है,
कोई हैसियत
की बीमारी
नहीं हुई।
इसलिए तो हम
बड़ी
बीमारियों को
राजरोग कहते
थे। जैसे
यक्ष्मा था, या क्षयरोग
था, तो
राजरोग था।
छोटे गरीबों
को नहीं होता
था, सिर्फ
राजाओं को
होता था।
मैं
अभी पढ़ रहा था
कि एक महिला
ने एक डाक्टर
के पास जाकर
कहा कि मेरा
अपेंडिक्स
निकाल डालिए।
पर उसने कहा
कि तुम्हारे
अपेंडिक्स
में कोई तकलीफ
भी होनी
चाहिए! उसने
कहा,
हो या न हो।
मैं जिस क्लब
की मेंबर हूं
वहां सब
स्त्रियां —
किसी का
अपेंडिक्स
निकल गया, किसी
का कुछ निकल
गया, मेरा
कुछ नहीं
निकला है।
वहां कुछ बात
करने को ही
नहीं मिलता।
आदमी
की छाती पर
पत्थर चाहिए।
इसलिए फूल
जैसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जो
कह सके, मेरे
ऊपर कोई बोझ
नहीं है।
लेकिन जिंदगी
में बोझ है। कोन
कह सकेगा? वही
कह सकता है जो
सारा बोझ
परमात्मा को
दे दे। और मजे
की बात यह है
कि सारा बोझ
परमात्मा पर है।
आप व्यर्थ ही
बीच के
मध्यस्थ बन
जाते हैं।
हमारी
हालत उस
देहाती जैसी
है जो ट्रेन
में बैठ गया
था। अपना
बिस्तर सिर पर
रखे हुए था।
पास—पड़ोस के
लोगों ने बहुत
कहा कि नीचे
रख दो, क्यों
कष्ट उठाते
हो! उसने कहा
कि टिकट लेकिन
मैंने सिर्फ
अपनी ही दी है।
भला आदमी था, सज्जन था।
उसने कहा, टिकट
मैंने सिर्फ
अपनी दी है।
बोझ की टिकट
दी नहीं। तो
इस पेटी को, इस बिस्तर
को मैं नीचे
कैसे ट्रेन पर
रख दूं? यह
तो सरकार के
साथ धोखा होगा।
इसलिए इसको
मैं सिर पर
रखे हुए हूं।
अब
उस देहाती को
पता नहीं है
कि वह अपने
सिर पर भी रखे
रहे तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता, ट्रेन
को तो बोझ
ढोना ही पड़ता
है। बोझ तो
परमात्मा ही
ढोता है। सारा
कर्तुत्व तो
परमात्मा ही
ढोता है।
लेकिन हम बीच—बीच
में परमात्मा
की ट्रेन पर
सवार अपना—अपना
बिस्तर अपने—अपने
सिर पर रखे
हुए बड़ा सुख
लेते हैं
रास्ते में।
और जिनके ऊपर
छोटे हैं वजन,
उनको कहते
हैं कि
तुम्हारी
जिंदगी बेकार
गई। कुछ बोझ
तो बड़ा कर
लेते। मरते
वक्त इतना बोझ
तो होता कि
लोग कहते कि
कुछ छोड़ गया
है। इसलिए जब
कोई मर जाता
है, तो जो
नहीं भी छोड़
गया, उसकी
भी हम चर्चा करते
हैं। जो बोझ
उस पर नहीं था,
उसकी भी
चर्चा करते
हैं।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी मर गया।
और जब गांव का
पादरी उसकी
कब्र के पास
खड़े होकर उसके
ताबूत को कब
में उतारने
लगा तो बातें
करने लगा बड़ी —
उसके गुणों की, उसके
कामों की, उसने
जो किया, उसकी
सेवाएं। उसकी
पत्नी थोड़ी
चिंतित हुई।
उसने अपने
बेटे से कहा
कि सोनी, जरा
झुककर देख, ताबूत में
तेरे पिता का
ही चेहरा है न?
क्योंकि ये
बातें कभी
हमने सुनी
नहीं कि उन्होंने
किए हों!
रात
जाकर उसने
पादरी से पूछा
कि आप ये
बातें कह रहे
थे?
जहां तक मैं
जानती हूं
मेरे पति ने
इस तरह के कोई
काम कभी नहीं
किए। पादरी ने
कहा, न किए
हों। लेकिन मर
गया जो आदमी, उस पर अगर
कुछ काम न
बताए जा सकें
तो लोग क्या कहेंगे?
कोई बोझ
बताना जरूरी
है।
वोल्तेयर
का एक मित्र
था,
वह मरा। मरा,
तो मित्र
ऐसा था कि
जिंदगीभर वोल्तेयर
को गाली देता
रहा। हर तरह
से वोल्तेयर
की आलोचना
करता रहा। वोल्तेयर
की हर चीज की
खिलाफत करता
रहा। आदमी
अच्छा भी नहीं
था। मरा तो
कुछ लोग वोल्तेयर
के पास आए और
कहा कि कुछ भी
हो, आखिर
तुम्हारा
मित्र था।
माना कि
तुम्हें बहुत
गालियां दीं,
तुम्हें
बहुत भला—बुरा
कहा, जिंदगीभर
तुम्हारी
जड़ें काटीं, लेकिन फिर
भी अब मर गया
है, तो तुम
दो शब्द तो
उसकी प्रशंसा
में लिख दो।
तो वोल्तेयर
ने लिखा कि ही
वाज़ ए गुड मैन,
एंड ए ग्रेट
वन —
प्रोवाइडेड, ही इज रिअली
डेड; बड़ा
आदमी था, बड़े
काम किए, लेकिन
अगर पक्का हो
कि मर गया है, तो हम यह कह
सकते हैं।
प्रोवाइडेड
ही इज रिअली
डेड। अगर
जिंदा हो तो
यह बात हम
नहीं कह सकते।
तो
मरे हुए आदमी
की हमें
प्रशंसा करनी
पड़ती है। जो
पत्थर उसने
नहीं भी उठाए, वे
भी उससे
उठवाने पड़ते
हैं। ऐसा भी
क्या आदमी
जिसके बाबत
कहने को कुछ न
हो पीछे!
ईशावास्य
लेकिन उसी
आदमी की बात
कर रहा है। वह
कह रहा है कि
जिसने सारा
कर्तृत्व
परमात्मा पर
छोड़ दिया। जो
कहता है, मैं
तो हूं ही
नहीं, है
तू। कर्ता है
तो तू। मैं
ज्यादा से
ज्यादा तेरे
खेल का एक
मोहरा हूं। तू
जहां चल दे
चाल। तू जो
बना ले, तू
जो करवा दे।
तू हरा दे तो
हार जाऊं, तू
जिता दे तो
जीत जाऊं। न
जीत मेरी है, न हार मेरी
है। हार भी
तेरी, जीत
भी तेरी। ऐसा
जिसका पूरा
समर्पण है, जो कहता है, सब परमात्मा
का है — मैं भी
उसी का, सब
कृत्य उसका।
फिर भी जीएगा,
श्वास लेगा,
चलेगा, उठेगा,
बैठेगा, काम
भी करेगा, खाना
भी खाएगा, रात
सोएगा भी। यह
सब होगा, लेकिन
भीतर कर्ता
नहीं होगा। और
यह एक ही
मार्ग है।
और
मैं भी कहता
हूं कि
ईशावास्य का
ऋषि ठीक कहता
है। यह एक ही
मार्ग है। आज
तक पृथ्वी पर
जो लोग भी सच
में ही पूरी
तरह इस जीवन
से अलिप्त
गुजर गए हैं — अछूते, ताजे
के ताजे, जैसे
के तैसे, आए
थे वैसे ही
सरल — वे वे ही
लोग हैं
जिन्होंने
किसी तरह के
अहंकार को बीच
की यात्रा में
अर्जित नहीं
किया। जो बिना
अहंकार के जी
लिए। और
अहंकार
अर्थात कर्ता
का भाव। और
निरहंकार
अर्थात
समर्पण, सरेंडर,
उस प्रभु के
चरणों में सब
दे देने की
भावना।
असुर्या
नाम ते लोका:
अन्धेन
तमसावृता :।
तास्ते
प्रेत्याभिगच्छन्ति
ये के चात्महनो
जना:।। 3।।
वे
असुर संबंधी
लोक आत्मा के
अदर्शन रूप
अज्ञान से
आच्छादित
हैं।
जो कोई भी
आत्मा का हनन
करने वाले लोग
हैं,
वे मरने के
अनतर
उन्हें
प्राप्त होते
हैं।। 3।।
उपनिषद
मनुष्यों के
दो विभाजन
करते हैं। एक
तो वे लोग जो
आत्मा का हनन
करने वाले हैं।
अपनी ही आत्मा
के हंता हैं, स्यूसाइडल
हैं। और एक वे
लोग जो अपनी
ही आत्मा के
विज्ञाता हैं,
जानने वाले
हैं।
आत्मज्ञानी
और आत्महंता।
ध्यान
रहे,
आत्महत्या
शब्द का हम
प्रयोग करते
हैं, लेकिन
ठीक अर्थों
में उपनिषद ने
प्रयोग किया
है, हम ठीक
अर्थों में
प्रयोग नहीं
करते। अगर कोई
आदमी अपने
शरीर को मार डाले,
तो हम कहते
हैं, आत्महत्या
की है उसने, आत्महंता है
वह, स्यूसाइड
किया। ठीक
नहीं है यह
बात। क्योंकि
शरीर को मार
डालना आत्मा
को मार डालना
नहीं है; शरीर
की हत्या
आत्महत्या नहीं
है। स्वयं ने
की है, फिर
भी स्वयं की
नहीं है।
वस्त्र का, आवरण का ही
बदलाहट है।
शरीर—घात है, आत्महत्या
नहीं है।
उपनिषद
तो उसे
आत्महंता
कहता है, जो
अज्ञान से
आच्छादित
अपने को बिना
जाने ही जी
लेता है। वह
स्यूसाइडल है।
वह आदमी अपनी
आत्मा की
हत्या कर रहा
है। अपने को
बिना जाने
जीना
आत्महत्या है।
अपने को बिना
जाने जीना..।
और
हम सब अपने को
बिना जाने
जीते हैं। हम
जीते हैं जरूर, लेकिन
यह बिलकुल पता
नहीं होता कि
हम कोन हैं, कहां से हैं,
क्यों हैं,
किसलिए हैं?
किस ओर हैं,
कहां जाते
हैं, क्या
प्रयोजन है २
क्या अर्थ है
इस होने का? नहीं, हमें
कुछ भी पता
नहीं है। हमें
अपना कोई भी
पता नहीं है।
हमें
और बहुत सी
बातें शायद
पता हैं। एक
बात तो
सुनिश्चित
पता नहीं है, वह
अपना हमें कोई
पता नहीं है।
हमें उपनिषद
कहेगा — हम
आत्महंता लोग
हैं, असुर
हैं। हम अपने
को जब तक
जानते नहीं, तब तक हम
जाने—अनजाने
अपने को ही
काटते हैं।
अज्ञान दूसरे
को तो बाद में
पीड़ा देता है,
पहले तो
अपने को ही
पीड़ा देता है।
ध्यान रहे, अज्ञानी
दूसरे पर हमला
तो बाद में
करता है, पहले
तो अपने पर ही
हमला करता है।
असल में दूसरे
पर हमला करना
संभव ही नहीं
है, जब तक
हमने अपने पर
हमला न कर
लिया हो। और
दूसरे को दुख
देना असंभव है,
जब तक हमने
अपने को दुख न
दे लिया हो।
और जिसने अपने
पैरों में
कांटे न बो
दिए हों, वह
दूसरे के
मार्गों पर
कांटे बोने
कभी नहीं जाता
है। और जिसने
अपने लिए आंसुओ
की व्यवस्था न
की हो, वह
कभी दूसरों के
दुखों का
इंतजाम नहीं
करता है।
असल
में सबसे पहले
हम अपने लिए
पीड़ा बोते हैं
और जब पीड़ा
इतनी घनीभूत
होकर हम पर
प्रगट होने
लगती है तब हम
उसे बांटना
शुरू करते हैं।
सिर्फ दुखी
लोग ही दूसरों
को दुख देते
हैं। ठीक भी
है,
जो हमारे
पास होता है
वही हम दे
सकते हैं।
लेकिन वह नंबर
दो की घटना है।
नंबर एक की
घटना तो अपने
को ही पीड़ा
देना है।
क्या
हम सारे लोग
अपने को पीड़ा
नहीं देते? देंगे
ही। चाहे हम
कोशिश करते
हों आनंद देने
की, लेकिन
सफल हो पाते
हैं सिर्फ
पीड़ा देने में।
नरक का रास्ता
बहुत
शुभकामनाओं
से भरा है। और
अपने ही नरक
का रास्ता
अपने ही लिए
किए गए शुभकामनाओं
के प्रयासों
से निर्मित हो
जाता है।
असली
सवाल नहीं है
कि मेरी
आकांक्षा
क्या है। अपने
को हम सभी
आनंद देना
चाहते हैं, लेकिन
स्वयं को जाने
बिना अपने को
कोई आनंद दे
नहीं सकता।
क्योंकि जिसे
यही पता नहीं
है कि मैं कोन
हूं उसे यह
कैसे पता होगा
कि मेरा आनंद
क्या है! मेरा
आनंद क्या हो
सकता है, यह
तो मुझे तभी
पता हो जब
मेरा स्वभाव,
मेरा
स्वरूप, मेरी
निजता मुझे
पता हो जाए।
जब तक मेरी
गहरी जड़ों का
मुझे कोई पता
न हो जाए कि वे
क्या हैं, तब
तक मैं कैसे
तय करूं कि कोन
से फूलों के
लिए मैं हूं
जो मुझ में
लगेंगे। मेरा
बीज जब तक
पूरा निर्णीत
मेरे लिए न हो
जाए कि क्या
है, तब तक
मैं किन फूलों
की आकांक्षा
करूं? मैं कोन
सा फूल बनना
चाहूं?
अगर
मुझे मेरे बीज
का ही पता
नहीं है, तो
मैं जो भी
बनना चाहूंगा
उससे दुख आएगा।
क्योंकि वह मैं
बन नहीं
पाऊंगा। और
नहीं बन
पाऊंगा तो
पीड़ा पाऊंगा,
संतापग्रस्त
हो जाऊंगा, चिंता से
भरूंगा, तनाव
से भरूंगा।
सारी जिंदगी
एक दौड़ तो हो
जाएगी, पहुंचना
नहीं होगा।
यात्रा तो
बहुत होगी, मंजिल कहीं
नहीं होगी।
क्योंकि
मंजिल मेरे
स्वभाव में
छिपी है, मेरी
निजता में
छिपी है।
पहले
मुझे पता हो
जाना चाहिए, मैं
कोन हूं। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि जो मैं
हूं उसके लिए
मैं कोई खोज
ही नहीं कर
रहा हूं। और
जो मैं नहीं
हूं उसके लिए
मैं खोज कर
रहा हूं। वह
नहीं मिलेगा
तो मैं दुख
पाऊंगा। और
मिल जाएगा तो
भी मैं दुख
पाऊंगा। यह और
मजे की बात है।
इस
जिंदगी में वे
लोग तो दुखी
होते ही हैं
जो असफल हो
जाते हैं, लेकिन
उन लोगों के
दुख का भी कोई
अंत नहीं है जो
सफल हो जाते
हैं। माना, असफल आदमी
दुखी हो जाए, समझ में आता
है। लेकिन सफल
आदमी भी दुख
को ही उपलब्ध
होता है।
पूछें, सफल
लोगों से
पूछें। तब तो
जिंदगी बड़ी
विडंबना
मालूम पड़ती है।
यहां असफल तो
दुखी होते ही
हैं, उनका
दुखी हो जाना
तर्कयुक्त
मालूम होता है,
न्यायसंगत
दिखाई पड़ता है।
लेकिन जो सफल
होते हैं वे
भी दुखी होते
हैं। तब तो यह
जगत बहुत ही
पागलपन मालूम
होता है। अगर
यहां सफल को
भी दुखी हो
जाना है और
असफल को भी
दुखी हो जाना
है, तो फिर
तो सुख का कोई
उपाय नहीं।
पूछें
सफल लोगों से।
और पहले सफल
लोगों से ही
पूछ लें।
क्योंकि असफल
लोगों के दुखी
हो जाने में
कोई विशेषता
नहीं है।
पूछें सफल
लोगों से —
पूछें सिकंदर
से पूछें
स्टैलिन से।
पूछें
अरबपतियों से —
कार्नेगी से
या फोर्ड से।
पूछें उन
लोगों से, जिन्होंने
जो चाहा था वह
उन्होंने पा
लिया है। फिर
पूछें कि सुख
मिला? तो
बड़ी हैरानी की
बात मालूम
पड़ती है। वे
कहते हैं, सफल
तो हो गए, लेकिन
सफल हुए सिर्फ
दुख पाने में।
असफल
जो होते हैं, वे
भी कहते हैं, असफल हुए
सुख पाने में।
दुख हाथ आया।
सफल जो होते
हैं, वे
कहते हैं, सफल
हुए दुख पाने
में। दुख हाथ
आया। जो दौड़कर
मंजिल पर
पहुंचते हैं,
वे भी दुख
में पहुंच
जाते हैं। जो
कहीं नहीं
पहुंचते, भटकते
हैं विलडरनेस
में, अरण्य
में, वे भी
दुख में भटकते
हैं। तो फिर
मंजिल में और
मार्ग में फर्क
क्या है? फिर
भटकाव में और
पहुंचने में
अंतर क्या है?
कोई
अंतर नहीं
मालूम पड़ता है।
नहीं मालूम
पड़ेगा।
क्योंकि
जिसने नहीं
जाना कि मैं कोन
हूं उसकी
सफलता भी दुख
लाएगी। वह जिस
दिन सफल हो
जाएगा उस दिन
पाएगा कि जो
मकान उसने
बनाया वह खुद
के रहने के
योग्य ही नहीं
है। वह उसके
स्वभाव के
अनुकूल नहीं
है। मकान तो
बन गया, धन तो
इकट्ठा हो गया,
यश—कीर्ति
तो अर्जित हो
गई, लेकिन
प्राणों का
कोई हिस्सा
उससे भरता
नहीं, पूरा
नहीं होता। यह
तो पहले जान
लेना था कि
मेरी प्यास
क्या है, अभीप्सा
क्या है? मैं
चाहता क्या
हूं? कितनी
चाहें हैं
हमारी, बिना
इस बात को
जाने कि सच
में मेरी चाह
क्या है!
फ्रायड
ने मरने के
कुछ दिन पहले
अपने एक मित्र
को एक पत्र
में लिखा है
कि इतनी
जिंदगीभर लाखों
लोगों के दुख
को सुनने के
बाद मैं इस
नतीजे पर
पहुंचा हूं कि
आदमी सदा ही
दुखी रहेगा, क्योंकि
आदमी को यही
पता नहीं है
कि क्या चाहता
है। फ्रायड
जैसा आदमी जब
कहता है तो
सोचने जैसी बात
है। कहता है, लाखों दुखी
लोगों की
पीड़ाओं, चिंताओं,
मानसिक
क्लेशों के
अध्ययन के बाद
मैं इस नतीजे
पर पहुंचा हूं
कि किसी आदमी
को यही पता
नहीं है कि वह
चाहता क्या है।
वह
पता होगा भी नहीं।
आदमी को उसके
पहले यही पता
नहीं है कि वह कोन
है। मैं कपड़े
बनवाने निकल
जाऊं, मुझे
यही पता नहीं
है कि मैं कोन
हूं। कपड़े बन
जाएंगे। और
मैंने कभी, मेरे शरीर
का मुझे पता
नहीं, मेरे
शरीर के नाप
का मुझे कोई
पता नहीं, मेरे
शरीर की जरूरत
का मुझे कोई
पता नहीं। मेरे
शरीर का मुझे
कोई पता नहीं,
मुझे मेरा
कोई पता नहीं,
कपड़े
बनवाने निकल
जाता हूं। एक
दिन कपड़े बन
जाते हैं और
मैं पाता हूं
कि वे मुझ पर
नहीं आते। वह
अनफिट — वह
कहीं कुछ
तालमेल टूटा
हुआ मालूम
पड़ता है।
कपड़े
बनवाने जरूर
निकल जाइए, लेकिन
पहले उसकी तो
जांच—परख कर
लें कि वह कोन
है जिसके लिए
कपड़े हैं, जिसके
लिए मकान है, जिसके लिए
सुख खोजना है।
और बड़े मजे की
बात है कि जो
व्यक्ति इसको
जान लेता है
कि मैं कोन
हूं उसके सारे
जीवन की
यात्रा और
सारे जीवन की
व्यवस्था
रूपांतरित हो
जाती है। हम
जिन चीजों को
खोजने जाते
हैं उनको वह
खोजने जाता ही
नहीं। हम जिन
चीजों को पाने
के लिए श्रम
करते हैं उनको
पाने के लिए
वह श्रम क्या
अगर कोई हंसी
के मूल्य पर
भी देने को
राजी हो तो
हंसने को भी
राजी नहीं
होगा। अगर कोई
मुफ्त में भी
देने को राजी
हो तो वह उस रास्ते
से हट जाएगा
कि कहीं इसमें
कोई मेरे ऊपर
डाल ही न दे।
वह कुछ और ही
खोजने निकल
जाता है। वह
कुछ और ही
पाने निकल
जाता है।
और
बड़े मजे की
बात है कि
स्वयं को
जानने वाले लोग
कभी असफल नहीं
होते। आज तक
नहीं हुए। और
स्वयं को न
जानने वाले
लोग कितने ही
सफल हो जाएं, फिर
भी सफल नहीं
होते मालूम
पड़ते। आज तक
नहीं हुए।
स्वयं को
जानने वाला
सफल हो ही
जाता है।
क्योंकि
स्वयं को
जानते ही वह
उस रहस्य और
राज और उस
द्वार को खोल
लेता है जहां
आनंद है। वह
स्वयं में ही
कहीं छिपा है।
इसलिए
उपनिषद कहते
हैं,
दो तरह के
लोग हैं — आत्म—ज्ञानी,
वे जो स्वयं
को जान लेते
हैं; और
आत्म—अज्ञानी,
वे जो स्वयं
को नहीं जानते
और नहीं जानने
में ही दौड़े
चले जाते हैं।
नहीं जानने
में ही कुछ न
कुछ किए चले
जाते हैं।
नहीं जानने
में ही कुछ न
कुछ पाए चले
जाते हैं।
नहीं जानने
में ही कुछ न
कुछ निर्माण
किए चले जाते
हैं। नहीं
जानने से कोई
अंतर नहीं
पड़ता, उनकी
दौड़ और तेज
होती चली जाती
है।
अक्सर
तो जिंदगी में
ऐसा ही लगता
है कि जो मुझे
पाना था वह
मुझे मिल नहीं
रहा,
क्योंकि
मैं थोड़ा तेजी
से नहीं दौड़
रहा हूं। और
थोड़ा तेजी से
दौडूं तो मिल
जाएगा, और थोड़ा
तेजी से दौडूं
तो मिल जाएगा।
शायद दांव
पूरा नहीं
लगाया इसलिए
नहीं मिल रहा
है। दांव पूरा
लगा दूं तो
मिल जाएगा।
कभी यह सोचते
नहीं कि जो हम
खोजने निकले
हैं उसकी कोई
इनरहार्मनी, उसका कोई
अंतरसंगीत
हमारी निजता
से है! अगर
नहीं है, तो
मिल जाए तो भी
बेकार है। न
मिले तब तो
बेकार है ही ' और जो समय
जाएगा मिलने
या न मिलने
में, वह
व्यर्थ गया।
उतनी हमने
हत्या की अपनी।
हम आत्महंता
हुए। हम असुर
हुए।
असुर
का अर्थ है, अंधकार
में जीने वाले।
असुर का अर्थ
है, अंधेरे
में जीने वाले।
असुर का अर्थ
है, जहां
सूर्य का कोई
प्रकाश नहीं
पहुंचता, ऐसे
लोक में जीने
वाले। जहां
रोशनी नहीं है
— अंधकार—जीवी।
अंधकार में ही
टटोलते और
सरकते, अंधेरे
के कीड़े—मकोड़ों
की तरह। और
जिन्होंने
स्वयं को नहीं
जाना वे
अंधकार में
होंगे ही।
क्योंकि
स्वयं को
जानना ही
सूर्य बन जाना
है। वह स्वयं
का उदघाटन, स्वयं की
पहचान ही वह
सूरज बनती है,
जिससे
रोशनी फैल
जाती है चारों
तरफ। फिर जहां
भी कदम पड़ते
हैं, वहीं
रोशनी होती है।
फिर जहां भी आंख
पड़ती है, वहीं
रोशनी होती है।
फिर जहां भी
हाथ जाते हैं,
वहीं रोशनी
होती है। फिर
उस आदमी के
भीतर से धारा
बहने लगती है
प्रकाश की। वह
जहां होता है,
वहीं
प्रकाशित होता
है। ऐसे
व्यक्ति की
यात्रा
प्रकाश—लोकों
की यात्रा है।
और
एक वे हैं
जिनके भीतर का
दीया बिलकुल
बंद और बुझा
हुआ है, अंधेरे
में डूबा हुआ
है। और जो
दौड़ते रहते
हैं, टटोलते
रहते हैं, भागते
रहते हैं, अंधे
अंधों का पीछा
करते रहते हैं,
अंधे अंधों
का नेतृत्व
करते रहते हैं।
जो थोड़े वाचाल
अंधे होते हैं
वे कम बोलने
वाले अंधों को
पीछे कर लेते
हैं। दौड़ जारी
रहती है। जो
जरा हिम्मतवर
अंधे होते हैं
वे गैर—
हिम्मतवर
अंधों को पीछे
इकट्ठा कर
लेते हैं। वे
कहते हैं, आ
जाओ।
खलील
जिब्रान ने
लिखा है कि एक
आदमी गांव—गांव
घूमकर कहता था
कि मेरे पीछे
आ जाओ, मैं
तुम्हें
ईश्वर से मिला
दूंगा। कभी
कोई पीछे उसके
गया नहीं, इसलिए
कभी कोई
उपद्रव हुआ
नहीं। गांव के
लोगों ने कहा
कि अभी हम
बहुत दूसरे कामों
में उलझे हैं,
तुम फिर आना।
जरा अभी तो
फसल खड़ी है, कट जाए, फिर
तुम आना। फिर
वह आया तो
उन्होंने कहा
कि इस बार तो
फसल ठीक हो
नहीं सकी, तंगी
है, तकलीफ
है, अगले
वर्ष आना। वह
गांव—गांव
घूमता रहा।
उसको जल्दी भी
न थी कि कोई
उसके पीछे चले।
लेकिन
एक गांव में
एक पागल मिल
गया। उसने कहा
कि मेरे पीछे
आओ,
जिसको
ईश्वर के पास
जाना हो। उसने
अपनी कुदाली
फेंक दी, उसने
कहा, मैं
आया। वह बहुत
घबड़ाया। पर
उसने सोचा कि
साल दो साल
में भाग जाएगा,
कितना पीछा
करेगा! लेकिन
वह आदमी पीछे
ही पड़ गया।
वर्ष बीता। वह
आदमी पीछे ही
रहा। उसने कहा
कि बोलो, कहां
ले चलते हो, वहीं चलूंगा।
दो वर्ष बीते,
अब वह नेता
घबराने लगा, अब वह गुरु
घबराने लगा, वह उससे
बचने लगा।
लेकिन वह उसके
सदा पीछे ही
खड़ा रहे और
बोले कि तुम
बोलो, कहां!
तुम जहां
कहोगे हम वहीं
चलेंगे। तुम
जो कहोगे हम
वही करेंगे।
छह
साल बीत गए।
उसने उसकी
गर्दन पकड़ ली, उसके
शिष्य ने।
उसने कहा कि
अब बहुत देर
हुई जा रही है,
तुम बोलो।
उसने कहा, तू
माफ कर। तेरे
सत्संग में
मेरा तक
रास्ता खो गया।
तू जिस दिन से
पीछे लगा है, हम खुद ही
रास्ता भटक गए।
पहले रास्ता बिलकुल
साफ था। सब
चीजें दिखाई
पड़ती थीं।
मंजिल पास थी,
ईश्वर
सामने था।
तेरा क्या साथ
किया कि मुझे
तक डुबा दिया!
तू अपना
रास्ता पकड़, तू मेरा
पीछा छोड़।
तो
उस आदमी ने
कहा कि दोबारा
हमारे गांव से
मत गुजरना अब।
उसने कहा, बाबा,
हम माफी
मांगते हैं।
तेरे गांव से
नहीं
गुजरेंगे।
लेकिन और गांव
हैं, उन
में तो हम जा
सकते हैं। और
फिर सब गांव
में तेरे जैसे
लोग कहां हैं!
वे सुन लेते
हैं, हम
अपने पार हो
जाते हैं।
आदमी
खुद तो अंधेरे
में जीता ही
है,
लेकिन खुद
अंधेरे में जी
रहा है, इस
बात को भुलाने
के लिए अक्सर
दूसरों से
प्रकाश की बात
करने लगता है।
इससे थोड़े
सावधान होने
की जरूरत है।
आपको पता ही
नहीं होता वह
बात भी आप
दूसरे को बताने
लगते हैं। तब
आप इतनी हानि
पहुंचाते हैं
जिसका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
लेकिन ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
इतना नियम
मानता हो, इतना
संयम और
मर्यादा रखता
हो कि जो
जानता है वही
बताएगा, जो
नहीं जानता है
नहीं बताएगा।
नहीं, मौका
मिल जाए तो
टेंपटेशन
भारी है दूसरे
को बताने का।
भारी, बहुत
भारी। कोई मिल
भर जाए। जो
जरा दिखा कि
कमजोर है, उसकी
गर्दन दबाई जा
सकती है, तो
फिर आप दबा
देंगे। फिर
उसको बता
देंगे कि यह
रहा रास्ता, पहुंच जाओ
सीधे, चले
जाओ।
रास्ता
बताने का मजा
है,
उससे अपने
को भ्रम पैदा
होता है कि
रास्ता पता है।
और बताते—बताते
आदमी धीरे—
धीरे भूल भी
जाता है कि
हमें खुद ही
पता नहीं है।
बहुत
कम लोग हैं
जिन्हें पता
है। लेकिन
बहुत लोग हैं
जो बता रहे
हैं। और इस
दुनिया में जो
नहीं जानते और
बता रहे हैं, अगर
चुप हो जाएं, तो बड़ा शुभ
फलित हो।
लेकिन बहुत
कठिन है उनका
चुप होना।
उनको चुप करना
कठिन है। उनको
चुप करो तो वे
और जोर से
चिल्लाने
लगेंगे।
क्योंकि जोर
से बताने में
ही वे अपने को
धोखा दे पाते
हैं। जोर से
अपनी ही आवाज
सुनकर, अपने
ही कान में
पड़ती अपनी ही
आवाज भरोसा
दिला देती है
कि ठीक है, मुझे
मालूम है।
उपनिषद
कहते हैं, दो
तरह के लोग
हैं। आप ठीक
से सोच लेना
कि दो में किस
तरह के लोग हैं?
आप किस कोटि
में हैं? और
ईमानदारी से
निर्णय अपने
बाबत लेना
जरूरी है, तो
ही अगला कदम
ईमानदारी का
उठ सकता है।
आत्महंता हैं
कि
आत्मज्ञानी
हैं?
आत्मज्ञानी
हैं तब तो कोई
सवाल ही नहीं, बात
ही समाप्त हो
गई। तब तो कोई
यात्रा ही
नहीं है।
आत्महंता हैं
तो यात्रा है।
बात शुरू भी
नहीं हुई, समाप्त
होना तो दूर
है। लेकिन
अपने आपको
आत्मज्ञानी
मान लेना सरल
है। उपनिषद
पढ़े हैं सभी
ने, गीता
पढ़ी है, बाइबिल
पढ़ी है, कुरान,
महावीर, बुद्ध
के वचन सभी को
याद हैं। इतना
महंगा पड़ गया
है जिसका कोई
हिसाब नहीं।
सब. कंठस्थ हो
गए हैं, सबको
सब मालूम है।
किसी को कुछ
भी मालूम नहीं
है और सबको सब
मालूम होने का
भ्रम है।
कंठस्थ हैं।
मुझे
लोग पत्र
लिखकर भेज
देते हैं कि
आपने यह बात
कही,
यह ठीक नहीं
मालूम पड़ती
क्योंकि
फलानी किताब में
ऐसा लिखा हुआ
है। अगर
तुम्हें पता
ही है कि ठीक
क्या है, तो
मेरी बात
सुनने की कोई
जरूरत ही नहीं।
और अगर पता
नहीं है, तो
मेरी बात ठीक
है कि फलानी
किताब में
लिखा ठीक है, यह सिर्फ
सोच—विचारकर
तय नहीं होगा।
कुछ करना पड़ेगा।
कल
मैं यहां से
गुजरा। एक
मित्र ने कार
पर आकर कहा कि
यही तो योगसार
में भी कहा है
न, जो मैं कह
रहा हूं।
योगसार पढ़े
बैठे होंगे!
जो मैं कह रहा
हूं उसे करने
की फिक्र करो।
क्योंकि
योगसार में जो
कहा है अगर
किया होता, तो यहां
मेरे पास आने
की जरूरत न
होती। तो
योगसार पर
आपकी बड़ी कृपा
है, कुछ
किया नहीं।
मुझ पर भी वही
कृपा मत करो।
और अब मुझसे
पूछते हो, यही
योगसार में
कहा है? कहा
है कि नहीं
कहा है, इससे
क्या फर्क
पड़ेगा? योगसार
आपने पढ़ लिए, मेरी बात
सुन ली, करिएगा
कब?
वह
जो मित्र
पूछते थे कोई
बच्चे नहीं थे।
बच्चे ऐसी
नासमझी की
बातें नहीं
पूछते। वृद्ध
थे। अगर
नासमझी की
गहरी बातें
पता लगानी हों
तो को के पास, क्योंकि
नासमझी भी
परिपक्व हो गई
होती है।
एक्सपीरिएंस्ड़
इग्नोरेंस
होती है, अनुभवी
अज्ञान होता
है, मजबूत,
भारी। सब
शास्त्र देख
लिए। सब जो—जो
कहा गया है, जान लिया।
आत्मज्ञानी
बन गए। बन गए
तो हर्जा नहीं।
बहुत अच्छा है,
शुभ है। हम
सब प्रसन्न
होंगे — कोई
बने। लेकिन
फिर मेरे पास
आने की कोई
जरूरत न रही।
लेकिन आए हैं,
तो मैं
जानता हूं कि
योगसार बेकार
गया। आए हैं
तो मैं जानता
हूं जो भी अब
तक पढ़ा है बेकार
गया। और जब
इतनों को
बेकार कर दिया
है तो बहुत
संभावना तो यह
है कि मुझे भी
बेकार करके
रहेंगे। उसी
चेष्टा में
लगे हैं। मैं
कह दूं कि
योगसार में
कहा है, तो
ठीक है, मालूम
ही है, बात
खतम हो गई।
अगर मैं कहूं
नहीं कहा है
योगसार में, तो विवाद
करने के लिए
सुविधा मिल
जाएगी। यह
विवाद
जिंदगीभर कर
लिया है।
मैं
किसी विवाद
में उत्सुक
नहीं, किसी
वाद में
उत्सुक नहीं।
एक बात में
छोटी सी
उत्सुक हूं कि
आप निर्णायक
रूप से तय कर
पाएं —
आत्महंता हैं,
आत्मज्ञानी
हैं? आत्मज्ञानी
हैं तो आप
बाहर हिसाब के
हो गए। आपसे
मुझे कुछ लेना—देना
नहीं है। बात
खतम हो गई।
आत्महंता हैं
तो कुछ किया
जा सकता है।
वह क्या किया
जा सकता है, वही आपसे कह
रहा हूं। और
ध्यान रखें, मैं कह रहा
हूं इसलिए वह
सही नहीं हो
जाएगा। मेरे
कहने से कोई
चीज सही नहीं
हो जाएगी। जब
तक कि आप उसे
करके न जान
लें, तब तक
किसी तरह सही
न हो जाएगी।
उसे करके जान
लें।
धर्म
प्रयोग है, विचार
नहीं। धर्म
प्रक्रिया है,
चितना नहीं।
धर्म विज्ञान
है, दर्शन
नहीं। धर्म
फिलासफी नहीं
है, साइंस
है। निश्चित
ही
प्रयोगशाला
कोई बाहरी
प्रयोगशाला
नहीं है कि
जहां आप जाएं
और टेस्ट—टयूब
और सामान
जुटाकर
प्रयोग करने लगें।
आप ही
प्रयोगशाला
बनेंगे। आपके
भीतर ही सारा
का सारा
प्रयोग फलित
होने वाला है।
आज
के लिए इतनी
बात। फिर कल
हम और सूत्रों
पर बात करेंगे।
अब
प्रयोग की बात
आपसे थोड़ी सी
कर लूं फिर हम
प्रयोग में
लगेंगे।
मैं
तो मानकर चलता
हूं कि आप
आत्महंता हैं।
इससे बुरा लग
सकता है। लगे
तो भी अच्छा।
थोड़ी चोट लगे
तो भी अच्छा।
कई बार तो ऐसे
आदमी इतने मर
गए होते हैं
कि चोट भी
नहीं लगती।
उनको
आत्महंता कहो, वे
कहेंगे, ठीक
है। वे कहेंगे,
ठीक कह रहे
हैं।
स्वीकार्य है —
स्वीकार कर
लेंगे।
अभी
तक अपने को
बिना जाने जी
रहे हैं, यह
आपसे मैं कहता
हूं। चाहता
हूं कि आप खुद
अपने भीतर
जानें और अपने
से कह पाएं कि मैं
अपने को बिना
जाने जी रहा
हूं। क्योंकि
स्वयं को न
जानने की पीड़ा
इतनी घनी है
कि वही आपको
प्रयोग में ले
जाएगी, अन्यथा
नहीं ले जाएगी।
और
ध्यान रखें कि
धर्म कुछ ऐसा
प्रयोग है कि
आप करेंगे तो
ही जानेंगे।
पड़ोसी करेगा
तो आप नहीं
जान लेंगे।
इसलिए आज
दोपहर के मौन
में मैं देखा
कि दस—पांच
पक्के नासमझ, वे
देख रहे हैं
कि दूसरे क्या
कर रहे हैं।
क्या देखेंगे!
दौड़ रहा है एक
आदमी, नाच
रहा है एक
आदमी, चिल्ला
रहा है एक
आदमी, आप
क्या देख रहे
हैं? आप
सोच रहे होंगे,
यह पागल है!
मैं आपसे कहता
हूं फिर से
सोचना, पागल
आप हैं। वह तो
कुछ कर रहा है।
आप पागल को
देखने आए हैं?
आप किसलिए आ
गए हैं? कोई
नाचेगा इसको
देखने? बेकार
की मेहनत की।
इतनी लंबी
यात्रा बेकार
की। पागल ही
देखने थे, तो
आपके गांव में
ही मिल जाते।
उसके लिए इतनी
दूर इस पहाड़
पर चढ़कर आने
की कोई जरूरत
न थी।
फिर
दूसरे के भीतर
क्या हो रहा
है,
आप कभी नहीं
जान पाएंगे।
अगर वह हंस
रहा है तो
आपको हंसी की
आवाज सुनाई पड़ेगी,
लेकिन उसके
भीतर कोन सा
झरना बह रहा
है, यह
आपको पता नहीं
चलेगा। अगर वह
रो रहा है तो
उसके आंसू
आपको दिखाई
पड़ेंगे, लेकिन
उसके भीतर कोन
सी चीज इतनी
ओवरफ्लो हो गई
है, कोन सी
चीज ऐसी बाढ़
में आ गई कि आंसुओ
से बह रही है, उसका आपको
कभी पता नहीं
चलेगा। अगर वह
नाच रहा है तो
ठीक है, नाच
रहा है। देख
लेंगे कि हाथ—पैर
उठा रहा है, कूद रहा है।
लेकिन उसके
भीतर कोन सी
धुन बजने लगी,
उसके भीतर कोन
से तार झनझना
उठे, वह
आपको कभी पता
नहीं चलेगा।
कितना ही उसकी
छाती पर कान
लगा लें, तो
भी उसकी
अंतर्वीणा का
कोई स्वर आपको
सुनाई पड़ने
वाला नहीं है।
इसलिए दूसरे
को बिलकुल भूल
जाएं, दूसरे
का स्मरण ही
छोड़ दें।
तो
कल के मौन के
लिए आपसे कह
दूं कि मौन
में भी आप आंख
पर पट्टी ही
बांधें, वही
उचित है। मौन
में भी कोई
बिना पट्टी के
न बैठे, पट्टी
ही बांधकर
बैठें। कान
में भी रूई
डाल लें।
पट्टी डाल लें
आंख पर। देखने
की फिक्र छोड़
दें। देखने से
कुछ मिलने
वाला नहीं है।
रात
का जो प्रयोग
है,
यह खुली आंख
का प्रयोग है।
और जिन्होंने
आज दिन ज्यादा
से ज्यादा आंख
बंद रखी होगी,
वे इस
प्रयोग में
ज्यादा से
ज्यादा गहरा
जा सकेंगे।
इसलिए
जिन्होंने
नहीं रखी हो, कल वे खयाल
रखकर ज्यादा
से ज्यादा आंख
को बंद रखें।
यह रात का
प्रयोग खुली आंख
का है। ध्यान
रहे, आंख
के खुले होने
पर पूरे समय आंख
की ऊर्जा बाहर
जाती है। इस
प्रयोग को अगर
पूरी शक्ति से
करना है, तो
ज्यादा से
ज्यादा आंख
दिन में बंद
रहेगी तो
एनर्जी
इकट्ठी होगी।
और आंख रात के
इस प्रयोग में
उसका उपयोग कर
पाएगी; अन्यथा
नहीं उपयोग कर
पाएगी।
तो
आप कल पूरा
खयाल रखें।
अधिकतम आंख को
बंद रखें, कान
को बंद रखें, मौन रहें।
सुबह तो आंख
बंद करके ही
प्रयोग होगा,
दोपहर के
मौन में भी आंख
पर पट्टी
रहेगी। रात
चालीस मिनट
पूरी आंख खुली
रखनी है।
चालीस
मिनट अभी हम
यहां बैठेंगे, तो
आप सिर्फ मुझे
देखते रहेंगे
चालीस मिनट। आंख
की पलक भी
नहीं झपानी है।
चालीस मिनट आंख
के द्वार को
बिलकुल खुला
रखना है। थोड़ी
ही देर में
बहुत से अनुभव
आने शुरू हो
जाएंगे। और
जिन्होंने आज
दिन में
प्रयोग किया
है — और बहुत से
मित्रों ने
बहुत ही ठीक
से प्रयोग किया
है — उनके लिए
परिणाम भारी
होंगे। जिनको
ऐसा खयाल हो
कि उनके लिए
खड़े होकर आसानी
होगी, क्योंकि
उछलेंगे, कूदेंगे,
नाचेंगे, तो वे बाहर
की परिधि पर
चारों तरफ खड़े
हो जाएंगे। इस
कोने से लेकर
मेरे चारों
तरफ बीच में
बैठे हुए लोग
रह जाएंगे।
खड़े हुए लोग
चारों तरफ हो
जाएंगे।
जिनको भी जरा
भी खयाल हो कि
उनको आसानी
खड़े होकर
पड़ेगी, वे
हट जाएं। फिर
बीच में न
उठें। फिर बीच
में आप नहीं
उठ सकेंगे।
फिर बीच में
आपको बैठकर ही
डोलना पड़ेगा,
हिलना
पड़ेगा। इसलिए
चुपचाप — बात
कोई नहीं
करेगा — बाहर
के गोल घेरे
में चारों तरफ
मेरे खड़े हो जाए।
और चालीस मिनट
मुझे आपको
देखना पड़ेगा।
मैं चुप यहां
बैठा रहूंगा।
फिर जो भी
आपको हो, होने
देना है। गहरी
श्वास का मन
हो, गहरी
श्वास लें।
नाचने का मन
हो, नाचे।
लेकिन ध्यान
मेरी तरफ रहे,
आंख मुझ पर
अटकी रहे।
चिल्लाने का
मन हो, चिल्लाएं।
नाचे, रोएं,
हंसे, जो
भी करना हो।
लेकिन आंख
मेरी तरफ रहे।
दो
और सूचनाएं
आपको दे दूं।
जब मुझे लगेगा
कि आप ठीक
स्थिति में आ
गए,
तो मैं अपने
दोनों हाथ ऊपर
की तरफ
उठाऊंगा। उस
वक्त आपको
पूरी शक्ति
लगा देनी है।
वह मेरा इशारा
है कि आपके
भीतर की
कुंडलिनी उठ
रही है, आप
पूरी शक्ति
लगा दें। और
जब मुझे ऐसा
लगेगा कि आप
इतनी शक्ति से
भर गए हैं कि
आपके ऊपर परमात्मा
की शक्ति उतर
सकती है, तो
मैं ऊपर से
हाथ नीचे की
तरफ लाऊंगा।
तब आप पूरी, जितनी आपके
पास शक्ति हो,
पूरी लगा
देंगे। और तब
बहुत परिणाम
होंगे।
हट
जाएं। जिनको
खड़े होना है, वे
मेरे चारों
तरफ आ जाएं।
जिनको बैठना
है, वे
सामने...। बस, जल्दी; ज्यादा
देर न करें, चुपचाप हट
जाएं। बीच में
किसी को फिर
उठने का मौका
नहीं रहेगा, इसलिए अभी
बाहर निकल आएं।
और
किसी को आपको
देखना नहीं है।
माइक तो हट
जाएगा। मैं
चुपचाप यहां
बैला, आंख मुझ
पर गड़ी रहे।
चालीस मिनट, अपलक, बिना
आंख झपके मेरी
तरफ देखते
रहें। आंसू
गिरे, गिरने
दें, आंख
जलने लगे, जलने
दें, कोई
फिक्र न करें।
और जो आपके
भीतर होने लगे,
उसको प्रगट
होने दें।
उसको रोकना
नहीं है।
बातचीत
न करें। बाहर
आ जाएं। खड़े
हो जाएं। खड़े
होने में जो
आनंद होगा
उसकी बात ही
और है। कंजूसी
न करें। खड़े
होने का जो
मजा है, उसकी
बात और है।
क्योंकि आपको
पूरा मौका
मिलेगा खुलकर
अपनी शक्ति को
प्रगट करने का।
अ
thank you guruji
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