वह पूर्ण है—पहला प्रवचन
ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू, राजस्थान।
सूत्र
:
ओम
पूर्णमद:
पूर्णमिद
पूर्णात्पूर्णमुदव्यते।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते।।
ओम
शांति: शांति:
शांति:।
ओम वह
पूर्ण है और
यह भी पूर्ण
है;
क्योंकि
पूर्ण से
पूर्ण की ही
उत्पत्ति
होती है। तथा
पूर्ण का
पूर्णत्व लेकर
पूर्ण ही बच
रहता है।
ओम
शांति, शांति,
शांति।
यह
महावाक्य कई
अर्थों में
अनूठा है। एक
तो इस अर्थ
में कि
ईशावास्य
उपनिषद इस महावाक्य
पर शुरू भी
होता है और
पूरा भी। जो
भी कहा जाने
वाला है, जो भी
कहा जा सकता
है, वह इस
सूत्र में
पूरा आ गया है।
जो समझ सकते
हैं, उनके
लिए ईशावास्य
आगे पढ़ने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। जो
नहीं समझ सकते
हैं, शेष
पुस्तक उनके
लिए ही कही गई
है।
इसीलिए
साधारणत: ओम
शांति: शांति:
शांति: का पाठ, जो
कि पुस्तक के
अंत में होता
है, इस
पहले वचन के
ही अंत में है।
जो जानते हैं,
उनके हिसाब
से बात पूरी
हो गई है। जो
नहीं जानते
हैं, उनके
लिए सिर्फ
शुरू होती है।
इसलिए
भी यह
महावाक्य बहुत
अदभुत है कि
पूरब और
पश्चिम के
सोचने के ढंग
का भेद इस
महावाक्य से
स्पष्ट होता
है। दो तरह के
तर्क, दो तरह
की लाजिक सिस्टम्स
विकसित हुई
हैं दुनिया
में—एक यूनान
में, एक
भारत में।
यूनान
में जो तर्क
की पद्धति
विकसित हुई
उससे पश्चिम
के सारे
विज्ञान का
जन्म हुआ और
भारत में जो
विचार की
पद्धति
विकसित हुई उससे
धर्म का जन्म
हुआ। दोनों
में कुछ
बुनियादी भेद
हैं। और सबसे
पहला भेद यह
है कि पश्चिम
में,
यूनान ने जो
तर्क की
पद्धति
विकसित की, उसकी समझ है
कि निष्कर्ष,
कनक्सन
हमेशा अंत में
मिलता है।
साधारणत: ठीक
मालूम होगी बात।
हम खोजेंगे
सत्य को, खोज
पहले होगी, विधि पहले होगी,
प्रक्रिया
पहले होगी, निष्कर्ष तो
अंत में हाथ
आएगा। इसलिए
यूनानी चिंतन
पहले सोचेगा,
खोजेगा, अंत
में निष्कर्ष
देगा।
भारत
ठीक उलटा
सोचता है।
भारत कहता है, जिसे
हम खोजने जा
रहे हैं, वह
सदा से मौजूद
है। वह हमारी
खोज के बाद
में प्रगट
नहीं होता, हमारे खोज
के पहले भी
मौजूद है। जिस
सत्य का
उदघाटन होगा
वह सत्य, हम
नहीं थे, तब
भी था। हमने
जब नहीं खोजा
था, तब भी
था। हम जब
नहीं जानते थे,
तब भी उतना
ही था, जितना
जब हम जान
लेंगे, तब
होगा। खोज से
सत्य सिर्फ
हुमारे अनुभव
में प्रगट
होता है। सत्य
निर्मित नहीं
होता। सत्य
हमसे पहले
मौजूद है।
इसलिए
भारतीय
तर्कणा पहले
निष्कर्ष को
बोल देती है
फिर
प्रक्रिया की
बात करती है—दि
कनक्लजन
फर्स्ट, देन
दि मैथडलाजी
एंड दि
प्रोसेस।
पहले
निष्कर्ष, फिर
प्रक्रिया।
यूनान में
पहले
प्रक्रिया, फिर खोज, फिर
निष्कर्ष।
इससे एक बात
और खयाल मैं
ले लेनी चाहिए।
जो लोग सोच—विचार
करके सत्य को
पाएंगे, उनके
लिए यूनान की
तर्क—पद्धति
ठीक मालूम
पड़ेगी। सोचना—विचारना
ऐसे है जैसे
मैं एक छोटे
से दीए को लेकर
महा अंधकार से
घिरी हुई
रात्रि में
कुछ खोजने को
निकलूं। रात
है बड़ी, अंधेरा
है बहुत, दीए
की रोशनी बहुत
कम, दो—चार
कदमों तक पड़ती
हैं। कुछ
दिखाई पड़ता है,
बहुत कुछ
अनदिखा रह
जाता है। जो
दिखाई पड़ता है,
उसके बाबत
जो भी
निष्कर्ष लिए
जाते हैं, वे
टेन्टेटिव, अस्थायी
होंगे।
क्योंकि थोड़ी
देर बाद कुछ
और भी दिखाई
पड़ेगा, जिसके
दिखाई पड़ने के
बाद निष्कर्ष
को बदलना जरूरी
होगा। फिर
थोड़ी देर बाद
कुछ और दिखाई
पड़ेगा, और
निष्कर्ष को
पुन: बदलना
जरूरी होगा।
इसलिए
पश्चिम का
विज्ञान, चूंकि
यूनान के तर्क
को मानकर चलता
है, उसका
कोई भी
निष्कर्ष
अंतिम नहीं हो
सकता। उसके
सभी निष्कर्ष
अस्थायी, कामचलाऊ,
अभी जितना
जानते हैं उस
पर आधारित हैं।
कल जो जाना
जाएगा उससे
बदलाहट हो
जाएगी।
इसलिए
पश्चिम का कोई
भी सत्य
निरपेक्ष, एब्सौल्युट
नहीं है, पूर्ण
नहीं हैँ। सभी
सत्य अपूर्ण
हैं। और यह
बड़े मजे की
बात है कि
सत्य अपूर्ण
हो नहीं सकता।
जो भी अपूर्ण
होगा वह असत्य
ही होगा। और
जिसे हमें कल
बदलना पड़ेगा
वह आज भी सत्य
नहीं था, सिर्फ
मालूम पड़ता था।
जिसे हमें कभी
भी नहीं बदलना
पड़ेगा वही
सत्य हो सकता
है। इसलिए
पश्चिम में
जिसे वे सत्य
कहते हैं, वह
केवल आज जितना
हम जानते हैं
उस जानने पर
निर्भर असत्य
है, जो कि
कल के जानने
से रूपांतरित
होगा, परिवर्तित
होगा।
भारत
की पद्धति
सत्य को दीया
लेकर खोजने की
नहीं है। भारत
कीं पद्धति
ऐसी है जैसे
अंधेरी रात हो, गहन
अंधकार हो और
बिजली कौंध
जाए। बिजली
कौंधे और सभी
कुछ एक साथ, साइमलटेनियसली
दिखाई पड़ जाए।
थोड़ा पहले
दिखाई पड़े, थोड़ा बाद
मैं दिखाई पड़े,
फिर थोड़ा
बाद में दिखाई
पड़े, ऐसा
नहीं है—
रिविलेशन हो
जाए, सब
एकदम से उघड़
जाए। सब
रास्ते — दूर
क्षितिज तक
फैलें हुए —
सभी कुछ जौ है,
बिजली की
कौंध में
इकट्ठा दिखाई
पड़ जाए। फिर
उसमें बदलने
का कोई उपाय न
रह जाए, पूरा
ही जान लिया
गया।
यूनान
में जिसे वै
तर्क कहते हैं, वह
विचार के
द्वारा सत्य
की खोज है।
भारत में हम जिसे
अनुभूति कहते
हैं, प्रज्ञा
कहते हैं —
कहें पश्चिम
मैं जिसे हम
लाजिक कहते
हैं और पूरब
में जिसे
इंटयूशन कहते
हैं — यह
प्रज्ञा
बिजली की कौंध
की तरह सारी
चीजों को एक
साथ प्रगट कर
जाने वाली है।
इसलिए सत्य
पूरा का पूरा
जैसा है वैसा
ही प्रतिफलित
होता है। फिर
उसमें कुछ
परिवर्तन
करने का उपाय
नहीं रह जाता।
इसलिए
महावीर ने जो
कहा है, उसमें
बदलने की कोई
जगह नहीं हैं।
कृष्ण ने जो
कहा है, उसमें
बदलने की कोई
जगह नहीं है।
बुद्ध ने जो
कहा हूँ, उसमें
बदलने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए कभी—कभी
पश्चिम के लौग
चिंतित और
विचार मैं पड़
जाते हैं कि
महावीर को हुए
पच्चीस सौ साल
हुए, क्या
उनकी बात अभी
भी, सही है?
ठीक है उनका
पूछना। क्योंकि
पच्चीस सौ साल
में अगर दीए
से हम सत्य को
खोजते हो तो
पच्चीस हजार
बार बदलाहट
हों जानी
चाहिए। रोज नए
तथ्य
आविष्कृत
होंगे और
पुराने तथ्य को
हमें
रूपांतरित
करना पड़ेगा।
लेकिन
महावीर, बुद्ध
या कण के सत्य
रिविलेशन हैं।
दीया लेकर
खोजे गए नहीं —
निर्विचार की कौंध,
निर्विचार
की बिजली की
चमक में देखे
गए और जाने गए,
उघाड़े गए
सत्य हैं। जो
सत्य महावीर
ने जाना उसमें
महावीर एक—एक
कदम सत्य को
नहीं जान रहे
हैं, अन्यथा
पूर्ण सत्य कभी
भी नहीं जाना
जा सकेगा।
महावीर पूरे
के पूरे सत्य
को एक साथ जान
रहे हैं।
इस
महावाक्य से
मैं यह आपको
कहना चाहता
हूं कि इस
छोटे से दौ
वचनों के
महावाक्य में
पूरब की प्रज्ञा
ने जो भी खोजा
है,
वह सभी का
सब इकट्ठा
मौजूद है। वह
पूरा का पूरा
मौजूद है।
इसलिए भारत
में हम
निष्कर्ष
पहले, कनक्लज्न
पहले, प्रक्रिया
बाद में। पहले
घोषणा कर देते
हैं, सत्य
क्या है, फिर
वह सत्य कैसे
जाना जा सकता
है, वह
सत्य कैसे
जाना गया है, वह सत्य
कैसे समझाया
जा सकता है, उसके विवेचन
मैं पड़ते हैं।
यह घोषणा है।
जो घोषणा से
ही पूरी बात
समझ ले, शेष
किताब बेमानी
है। पूरे
उपनिषद में अब
और कोई नई बात
नहीं कही जाएगी।
लेकिन बहुत—बहुत
मार्गो से इसी
बात को पुन—पुन
कहा जाएगा।
जिनके पास
बिजली कौंधने
का कोई उपाय
नहीं है, जो
कि जिद पकड़कर
बैठे हैं कि
दीए से ही
सत्य को
खोजेंगे, शेष
उपनिषद उनके
लिए है। अब
दीए को पकड़कर,
बाद की
पंक्तियों
में एक—एक
टुकड़े के सत्य
की बात कीं
जाएगी। लेकिन
पूरी बात इसी
सूत्र पर हो
जाती है।
इसलिए मैंने
कहा कि यह
सूत्र अनूठा
है। सब इसमें
पूरा कह दिया
गया है। उसे
हम समझ लें, क्या कह
दिया गया है!
कहा
है कि पूर्ण
से पूर्ण पैदा
होता है, फिर
भी पीछे सदा
पूर्ण शेष रह
जाता है। और
अंत में, पूर्ण
में पूर्ण लीन
हो जाता है, फिर भी
पूर्ण कुछ
ज्यादा नहीं
हो जाता है, उतना ही
होता है, जितना
था।
यह
बहुत ही गणित—विरोधी
वक्तव्य है, बहुत
एंटी—मेथमेटिकल
है।
पीडी
आस्पेंस्की
ने एक किताब
लिखी है।
किताब का नाम
है,
टर्शियम
आर्गानम।
किताब के शुरू
में उसने एक
छोटा सा
वक्तव्य दिया
है। पीडी
आस्पेंस्की
रूस का एक
बहुत बड़ा
गणितज्ञ था।
बाद में, पश्चिम
के एक बहुत
अदभुत फकीर
गुरजिएफ के
साथ वह एक
रहस्यवादी
संत हो गया।
लेकिन उसकी
समझ गणित की
है — गहरे गणित
की। उसने अपनी
इस अदभुत
किताब के पहले
ही एक वक्तव्य
दिया है, जिसमें
उसने कहा है
कि दुनिया में
केवल तीन
अदभुत
किताबें हैं;
एक किताब है
अरिस्टोटल की —
पश्चिम में जो
तर्क—शास्त्र
का पिता है, उसकी — उस
किताब का नाम
है : आर्गानम।
आर्गानम का
अर्थ होता है,
ज्ञान का
सिद्धांत।
फिर
आस्पेंस्की
ने कहा है कि
दूसरी
महत्वपूर्ण
किताब है रोजर
बैकन की, उस
किताब का नाम
है ' नोवम
आर्गानम —
ज्ञान का नया
सिद्धांत। और
तीसरी किताब
वह कहता है
मेरी है, खुद
उसकी, उसका
नाम है :
टर्शियम
आर्गानम — शान
का तीसरा
सिद्धांत। और
इस वक्तव्य को
देने के बाद
उसने एक छोटी
सी पंक्ति
लिखी है जो
बहुत हैरानी
की है। उसमें
उसने लिखा है,
बिफोर दि
फर्स्ट
एक्सिस्टेड, दि थर्ड वाज़।
इसके पहले कि
पहला
सिद्धांत
दुनिया में
आया, उसके
पहले भी तीसरा
था।
पहली
किताब लिखी है
अरस्तु ने दो
हजार साल पहले।
दूसरी किताब
लिखी है तीन
सौ साल पहले
बैकन ने। और
तीसरी किताब
अभी लिखी गई
है कोई चालीस
साल पहले।
लेकिन आस्पेंस्की
कहता है कि
पहली किताब थी
दुनिया में
उसके पहले
तीसरी किताब
मौजूद थी। और
तीसरी किताब
उसने अभी
चालीस साल
पहले लिखी है!
जब भी कोई
उससे पूछता कि
यह क्या
पागलपन की बात
है?
तो
आस्पेंस्की
कहता कि यह जो
मैंने लिखा है,
यह मैंने
नहीं लिखा, यह मौजूद था,
मैंने
सिर्फ
उदघाटित किया
है।
न्यूटन
नहीं था, तब भी
जमीन में
ग्रेविटेशन
था। तब भी
जमीन पत्थर को
ऐसे ही खींचती
थी जैसे न्यूटन
के बाद खींचती
है। न्यूटन ने
ग्रेविटेशन
के सिद्धांत
को रचा नहीं, उघाड़ा। जो
ढंका था, उसे
खोला। जो
अनजाना था, उसे परिचित
बनाया। लेकिन
न्यूटन से
बहुत पहले
ग्रेविटेशन
था, नहीं
तो न्यूटन भी
नहीं हो सकता
था।
ग्रेविटेशन
के बिना तो
न्यूटन भी
नहीं हो सकता,
न्यूटन के
बिना
ग्रेविटेशन
हो सकता है।
जमीन की कशिश
न्यूटन के
बिना हो सकती
है, लेकिन
न्यूटन जमीन
की कशिश के
बिना नहीं हो
सकता। न्यूटन
के पहले भी जमीन
की कशिश थी, लेकिन जमीन
की कशिश का
पता नहीं था।
आस्पेंस्की
कहता है कि
उसका तीसरा
सिद्धांत पहले
सिद्धांत के
भी पहले मौजूद
था। पता नहीं
था,
यह दूसरी
बात है। और
पता नहीं था, यह कहना भी
शायद ठीक नहीं।
क्योंकि
आस्पेंस्की
ने अपनी पूरी
किताब में जो
कहा है, वह इस
छोटे से सूत्र
में आ गया है।
आस्पेंस्की
की टर्शियम
आर्गानम जैसी
बड़ी कीमती
किताब...। मैं
भी कहता हूं
कि उसका दावा
झूठा नहीं है।
जब वह कहता है
कि दुनिया में
तीन
महत्वपूर्ण किताबें
हैं और तीसरी
मेरी है, तो
किसी अहंकार
के कारण नहीं
कहता। यह तथ्य
है। उसकी किताब
इतनी ही कीमती
है। अगर वह न
कहता, तो
वह झूठी
विनम्रता
होती। वह सच
कह रहा है।
विनम्रतापूर्वक
कह रहा है।
यही बात ठीक
है। उसकी
किताब इतनी ही
महत्वपूर्ण
है। लेकिन
उसने जो भी
कहा है पूरी
किताब में, वह इस छोटे
से सूत्र में
आ गया है।
उसने
पूरी किताब
में यह सिद्ध
करने की कोशिश
की कि दुनिया
में दो तरह के
गणित हैं। एक
गणित है, जो
कहता है, दो
और दो चार
होते हैं।
साधारण गणित
है। हम सब
जानते हैं।
साधारण गणित
कहता है कि
अगर हम किसी
चीज के अंशों
को जोड़े, तो
वह उसके पूर्ण
से ज्यादा कभी
नहीं हो सकते।
साधारण गणित
कहता है, अगर
हम किसी चीज
को तोड़ लें और
उसके टुकड़ों
को जोड़े, तो
टुकड़ों का जोड़
कभी भी पूरे
से ज्यादा
नहीं हो सकता
है। यह सीधी
बात है। अगर
हम एक रुपए को
तोड़ लें सौ नए
पैसे में, तो
सौ नए पैसे का
जोड़ रुपए से
ज्यादा कभी
नहीं हो सकता।
या कि कभी हो
सकता है? अंश
का जोड़ कभी भी
अंशी से
ज्यादा नहीं
हो सकता, यह
सीधा सा गणित
है।
लेकिन
आस्पेंस्की
कहता है, एक और
गणित है, हायर
मैथमेटिक्स।
एक और ऊंचा
गणित भी है और
वही जीवन का
गहरा गणित है।
वहां दो और दो
जरूरी नहीं है
कि चार ही
होते हों। कभी
वहां दो और दो
पांच भी हो
जाते हैं। और
कभी वहां दो
और दो तीन भी
रह जाते हैं।
और वह कहता है
कि कभी—कभी
अंशों का जोड़
पूर्ण से
ज्यादा भी हो
जाता है। इसे
थोड़ा समझना
पड़ेगा। और इसे
हम न समझ पाएं,
तो
ईशावास्य के
पहले और अंतिम
सूत्र को भी
नहीं समझ
पाएंगे।
एक
चित्रकार एक
चित्र बनाता
है। अगर हम
हिसाब लगाने
बैठें, तो
रंगों की
कितनी कीमत
होती है? कुछ
ज्यादा नहीं।
कैनवस की
कितनी कीमत
होती है? कुछ
ज्यादा नहीं।
लेकिन कोई भी
श्रेष्ठ कृति,
कोई भी
श्रेष्ठ
चित्र, रंग
और कैनवस का
जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ
ज्यादा है —
समथिंग मोर।
एक
कवि एक गीत
लिखता है।
उसके गीत में
जो भी शब्द
होते हैं, वे
सभी शब्द
सामान्य होते
हैं। उन
शब्दों को हम
रोज बोलते हैं।
शायद ही उस
कविता में
एकाध ऐसा शब्द
मिल जाए जो हम
न बोलते हों।
न भी बोलते
हों, तो
परिचित तो
होते हैं। फिर
भी कोई कविता
शब्दों का
सिर्फ जोड़
नहीं है।
शब्दों के जोड़
से कुछ ज्यादा
है — समथिंग
मोर।
एक
व्यक्ति
सितार बजाता
है। सितार को
सुनकर हृदय पर
जो परिणाम
होते हैं, वे
केवल ध्वनि के
आघात नहीं हैं।
ध्वनि के आघात
से कुछ ज्यादा
हम तक पहुंच
जाता है।
इसे
ऐसा समझें — एक
व्यक्ति आंख
बंद करके आपके
हाथ को प्रेम
से छूता है, स्पर्श
वही होता है, वही व्यक्ति
क्रोध से भरकर
आपके हाथ को
छूता है, स्पर्श
वही होता है।
जहां तक
स्पर्श के
शारीरिक
मूल्यांकन का
सवाल है, दोनों
स्पर्श में
कोई बुनियादी
फर्क नहीं होता।
फिर भी जब कोई
प्रेम से भरकर
हृदय को छूता
है, तो उसी
छूने में से कुछ
निकलता है जो
बहुत भिन्न है।
और जब कोई
क्रोध से छूता
है, तो कुछ
निकलता है जो
बिलकुल और है।
और कोई अगर
बिलकुल
निष्पक्षता
से, तटस्थता
से छूता है, तो कुछ भी
नहीं निकलता
है। छूना एक
सा है, स्पर्श
एक सा है।
अगर
हम
भौतिकशास्त्री
से पूछने
जाएंगे, तो वह
कहेगा कि हाथ
पर एक आदमी ने
हाथ को छुआ, कितना दबाव
पड़ा, दबाव
नापा जा सकता
है। हाथ पर
कितना
विद्युत का
आघात पड़ा, वह
भी नापा जा
सकता है। एक
हाथ से दूसरे
हाथ में कितनी
ऊष्मा, कितनी
गर्मी गई, वह
भी नापी जा
सकती है।
लेकिन वह
ऊष्मा, वह
हाथ का दबाव, किसी भी
रास्ते से बता
न सकेगा कि
जिस आदमी ने छुआ
उसने क्रोध से
छुआ था कि
प्रेम से छुआ
था। फिर भी
स्पर्श के भेद
हम अनुभव करते
हैं। निश्चित
ही स्पर्श, केवल हाथ की
गर्मी, हाथ
का दबाव, विद्युत
के प्रभाव का
जोड़ नहीं है, कुछ ज्यादा
है।
जीवन
कुछ
श्रेष्ठतर
गणित पर
निर्भर है।
यहां जिन
चीजों को हमने
जोड़ा था, उनसे
नई चीज पैदा
हो जाती है, उनसे
श्रेष्ठतर का
जन्म हो जाता
है, उनसे
महत्वपूर्ण
पैदा हो जाता
है।
क्षुद्रतम से
भी
महत्वपूर्ण
पैदा हो जाता
है।
जिंदगी
साधारण गणित
नहीं है। बहुत
श्रेष्ठतर, गहरा,
सूक्ष्म
गणित है। ऐसा गणित
है जहां आंकड़े
बेकार हो जाते
हैं। जहां
गणित के जोड़
और घटाने के
नियम बेकार हो
जाते हैं। और
जिस आदमी को
गणित के पार, जिंदगी के
रहस्य का पता
नहीं है, उस
आदमी को
जिंदगी का कोई
भी पता नहीं
है।
इस
महावाक्य मे
बड़ी अजीब
बातें कही गई
हैं,
हायर
मैथमेटिक्स
की। कहा है कि
पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है, फिर
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। साधारण
गणित के हिसाब
से बिलकुल गलत
बात है। अगर
हम किसी भी
चीज में से
कुछ निकाल
लेंगे, तो
उतना ही शेष
नहीं रह सकता
जितना था। कुछ
कम हो जाएगा।
हो ही जाना
चाहिए; अन्यथा
हमारे निकाले
हुए का क्या
हुआ? अगर
मैं एक तिजोरी
में से दस
रुपए निकाल
लूं उसमें
अरबों रुपए
भरे हों, तो
भी कम हो गए।
दस पैसे भी
निकाल लूं तो
भी कम हो गए।
उतना ही शेष
नहीं रह सकता
जितना पहले था।
कितनी ही बड़ी
तिजोरा हो —
कुबेर का
खजाना हो कि
सोलोमन का —
अगर दस नार
पैसे भी हमने
उसमें से
निकाले, तो
अब तिजोरी
उतनी ही नही
है जितनी थी, कुछ कम हो गई।
और कितना ही
बड़ा खजाना हो,
अगर हम दस कोड़ी
भी उसमें डाल
दें, तो अब
उतनी ही नहीं
रही जितनी थी।
कुछ जुड़ गई और
ज्यादा हो गई।
लेकिन
यह सूत्र कहता
हूँ कि पूर्ण
सै पूर्ण निकल
आता है, थोड़ा
भी नहीं — दस
पैसे नहीं
निकालते, पूरी
तिजोरी ही
बाहर निकाल
लेते हैं —
पूर्ण से
पूर्ण ही बाहर
निकाल लेते
हैं, फिर
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है। या
तो किसी पागल
ने कहा है, जिसे
गणित का कोई
भी पता नहीं।
पहली कक्षा का
विद्यार्थी
भी जानता है
किं हम कुछ
निकालेंगे, तो पीछे कमी
हो जाएगी। और
थोड़ा
निकालेंगे, तो भी कमी हो
जाएगी। अगर
पूरा निकाल
लेगे, तब
तो पीछे कुछ भी
नहीं बचना
चाहिए। पर यह
सूत्र कहता है
कि कुछ नहीं, पूरा ही बच
जाता है। तब
निश्चित ही, तिजोरी को
ही जो समझते
हैं, वे
इसे नहीं समझ
पाएंगें। तब
किसी और दिशा
से समझना
पड़ेगा।
जब
आप किसी को
प्रेम देते
हैं,
तो आपके पास
प्रेम कम होता
है? आप
पूरा ही प्रेम
दे डालते हैं,
तब भी आपके
पास कुछ कमी
हो जाती है? नहीं। आदमी
के पास इस
सूत्र को
समझने के लिए
जो निकटतम
शब्द है वह
प्रेम है।
उससे ही हमें
पकड़ना पड़ेगा।
सच तो यह है कि
प्रेम आप
कितना ही दे
डालें, उतना
ही बच रहता है
जितना था।
उसमें कोई भी
कमी, नहीं
आती। बल्कि
कुछ तो कहते
हैं कि वह और
बढ़ जाता है।
जितना आप
देतें हैं, उतना बढ़
जाता है।
जितना आप
बांटते हैं, उतना गहन
होता चला जाता
है। जितना
लुटाते हैं, उतना ही
पाते हैं कि
और—और उपलबध होता
चला जा रहा है।
जों अपने सारे
प्रेम को फैंक
दे बाहर, वह
अनंत प्रेम का
मालिक हो जाता
है। पूर्ण से
पूर्ण निकल आए
और पीछे पूर्ण
ही शेष रह जाए,
तो इसका
अर्थ हुआ कि यh
गणित सै
नहीं समझाया
जा सकेगा, प्रेम
से समझना
पड़ेगा। इसलिए
जो आइंस्टीन
के पास समझने जाएंगे,
वे नहीं समझ
पाएंगे। मीरा
के पास समझने
जाएं, तो
शायद समझ मैं
आ जाए। चैतन्य
के पास समझने
जाएं तो शायद
समझ में आ जाए।
क्योंकि यह
किसी और ही
आयाम, किसी
और ही
डायमेंशन की
बात है, जहां
देने से घटता
नहीं।
आपके
पास सिवाय
प्रेम के और
कोई ऐसा अनुभव
नहीं है जिससे
समझने की पहली
चोट हो सके।
पता नहीं, प्रेम
का अनुभव भी
है या नहीं, क्योंकि सौ
में से
निन्यानबे को
वह भी नहीं है।
अगर आपको
प्रेम दे देने
से कुछ कमी
मालूम पड़ती हो,
तो आप समझ
लेना कि आपको
प्रेम का कोई
अनुभव नहीं
हैं। अगर आप
प्रेम किसी को
देते हों और
भीतर लगता हो
कि कुछ खाली
हुआ, तो आप
समझ लेना कि
जो आपने दिया
है वह कुछ और
होगा, प्रेम
नहीं हो सकता।
वह फिर तिजोरी
की ही दुनिया
की कोई चीज
होगी। वह पैसे
लगते में
तुलने वाली
चीज होगी। आंकड़ों
में आकी जा
सके, तराजू
में तोली जा
सके, गजों
से नापी जा
सके, ऐसी
कोई चीज —
मेजरेबल..।
क्योंकि
ध्यान रहे, जो
मेजरेबल है वह
घट जाएगा। जो
भी नापा जा
सकता है, उसमें
से कुछ भी
निकालिएगा, तो घट जाएगा।
जो
इम्मेजरेबल
है, जो
नहीं नापा जा
सकता, अमाप
है, वही
केवल कितना ही
निकाल लीजिए,
तो पीछे
उतना ही बचेगा
जितना था।
अगर
आपको ऐसा कभी
भी लगा हो कि
आपके प्रेम के
देने से कुछ
प्रेम कम हो
जाता है
— और आप सबको
लगा होगा, करीब—करीब
सबको। इसीलिए
तो हम प्रेम
पर मालकियत
करते हैं। अगर
मुझे कोई
प्रेम करता है,
तो मैं
चाहता हूं कि
वह किसी और को
प्रेम न करे।
क्योंकि बंट
जाएगा, कम
हो जाएगा —
पजेशन। इसलिए
मैं चाहता हूं
कि जो मुझे
प्रेम करता है
वह दूसरे की
तरफ प्रेम की
नजर से भी न
देखे। उसकी
प्रेम की नजर
किसी को मेरे
लिए जहर बन जाती
है। क्योंकि
मैं जानता हूं
कि घटा जाता
है, कम हुआ
जाता है। और
अगर घट रहा हो,
कम हो रहा
हो, तो
समझना कि
प्रेम का कोई
पता ही नहीं
है। अगर मुझे
प्रेम का पता
हो, तो
जिसे मैं
प्रेम करता
हूं उससे मैं
चाहूंगा कि वह
जाए और लुटाए
सारी
टत्रनिया को।
क्योंकि
जितना वह
लुटाका, उतना
ही गहन उसको
प्रगट होगा।
जितना गहन उसे
प्रगट होगा, उतना ही वह
मेरे प्रति भी
प्रेम से गहन
और भरपूर हो
जाएगा।
लेकिन
नहीं, हम हायर
मैथमेटिक्स
को नहीं जानते।
हम एक लोअर
मैथमेटिक्स
मैं हैं। एक
बहुत ही
साधारण गणित
की दुनिया में
जीते हैं, जहां
देने से सब
चीजें कम हो
जाती है।
इसलिए डर
स्वाभाविक है।
पत्नी डरती है
कि पति किसी
को प्रेम न दे
दे। पति डरता
है कि पत्नी
किसी को प्रेम
न दे दे। किसी
और की तो दूर
है बात, घर
में बच्चा भी
पैदा होता है,
तो भी पति
और पत्नी में
कलह शुरू हो
जाती है। बैटा
भी प्रेम
बांटता है अगर
मां का, तो
पति को अड़चन
होती है। अगर
बेटी बाप के
प्रेम को
बांटती है, तो मां को
तकलीफ होती
हैं। क्योंकि
जिस प्रेम को
हम जानते हैं,
वह प्रेम
नहीं है। उसकी
कसौटी यह है
कि जो बांटने
से घटता है, उसे आप
भूलकर भी
प्रेम मत
जानना।
और
कठिनाई यह है
कि प्रेम के
अलावा और कोई
अनुभव नहीं है
जो
इम्मेजरेबल
है। और तो सब
मेजरेबल है, जो
भी हमारे पास
है सब नापा जा
सकता है।
हमारा क्रोध
नापा पा सकता
हैँ, हमारी
घृणा नापी जा
सकती है, हमारा
सब नापा जा
सकता है।
सिर्फ एक अनुभव
है प्रेम का, जो कि अमाप
है। वह भी हम
सबके पास नहीं
है। इसीलिए तो
हम परमात्मा
को समझने में
बड़ी कठिनाई
अनुभव करते
हैं।
जो
आदमी प्रेम को
समझ लेगा, वह
परमात्मा को
समझने की
फिक्र ही छोड़
देगा।
क्योंकि
जिसने समझा
प्रेम को, उसने
समझा
परमात्मा को।
वे एक ही गणित
के हिस्से हैं।
वे एक ही
डायमेंशन, एक
ही आयाम की
चीजें हैं।
जिसने
पहचाना प्रेम
को,
वह कहेगा, परमात्मा न
भी मिले तो
चलेगा।
क्योंकि
प्रेम मिल गया,
तो काफी है।
बात हो गई।
परिचित हो गए
हम उस
श्रेष्ठतर
जगत से, जहां
ऐसी चीजें
होती हैं जो
बांटने से
घटती नहीं, बढ़ती हैं।
कितना ही दे
डालो, उतनी
ही शेष रह
जाती हैं, जितनी
थीं।
और
ध्यान रहे, जिस
दिन ऐसा अनुभव
होता है कि
मेरे पास ऐसा
प्रेम है, जो
मैं दे डालूं
तो भी उतना ही
बचता है जितना
था, उसी
दिन दूसरे से
प्रेम की मांग
क्षीण हो जाती
है। क्योंकि
कितना ही
प्रेम मिल जाए,
मेरा बढ़
नहीं सकता।
ध्यान रहे, जिस चीज को
देने से घट
नहीं सकता, उस चीज को
लेने से बढ़ाया
नहीं जा सकता।
यह एक ही साथ
होगा। जब तक
मैं दूसरे से
प्रेम मांगता
हूं — और हम सब
मांगते हैं, बच्चे ही
नहीं के भी
मांगते हैं।
हम सब प्रेम
मांगे चले
जाते हैं।
हमारी पूरी
जिंदगी प्रेम
की भिक्षा है।
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि हमारी सारी
तकलीफ एक है, हमारा
सारा तनाव, हमारी सारी
एंग्जाइटी, हमारी सारी
चिंता एक है।
और वह चिंता
इतनी है कि
प्रेम कैसे
मिले! और जब
प्रेम नहीं
मिलता तो हम
सल्लीटयूट
खोजते हैं
प्रेम के, हम
फिर प्रेम के
ही परिपूरक
खोजते रहते
हैं। लेकिन हम
जिंदगीभर
प्रेम खोज रहे
हैं, मांग
रहे हैं।
क्यों
मांग रहे हैं? आशा
से कि मिल
जाएगा, तो
बढ़ जाएगा।
इसका मतलब फिर
यह हुआ कि हमें
फिर प्रेम का
पता नहीं था।
क्योंकि जो
चीज मिलने से
बढ़ जाए, वह
प्रेम नहीं है।
कितना ही
प्रेम मिल जाए,
उतना ही
रहेगा जितना
था।
जिस
आदमी को प्रेम
के इस सूत्र
का पता चल जाए, उसे
दोहरी बातों
का पता चल
जाता है। उसे
दोहरी बातों
का पता चल
जाता है। एक, कितना ही मैं
दूं घटेगा
नहीं। कितना
ही मुझे मिले,
बढ़ेगा नहीं।
कितना ही!
पूरा सागर
मेरे ऊपर टूट
जाए प्रेम का,
तो भी
रत्तीभर बढ़ती
नहीं होगी। और
पूरा सागर मैं
लुटा दूं तो
भी रत्तीभर
कमी नहीं होगी।
पूर्ण
से पूर्ण निकल
आता है, फिर
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। परमात्मा
से यह पूरा
संसार निकल
आता है। छोटा
नहीं — अनंत, असीम। छोर
नहीं, ओर
नहीं, आदि
नहीं, अंत
नहीं — इतना
विराट सब निकल
आता है। फिर
भी परमात्मा
पूर्ण ही रह
जाता है पीछे।
और कल यह सब
कुछ उस परम
अस्तित्व में
वापस गिर जाएगा,
वापस लीन हो
जाएगा, तो
भी वह पूर्ण
ही होगा। नहीं
कोई घटती होगी,
नहीं कोई
बढ़ती होगी।
इसे
एक दिशा से और
समझने की
कोशिश करें।
सागर
हमारे अनुभव
में — दिखाई
पड़ने वाले
अनुभव में, आंखों,
इंद्रियों
के जगत में — घटता—बढ़ता
मालूम नहीं
पड़ता। घटता—बढ़ता
है। बहुत बड़ा
है। अनंत नहीं,
विराट है।
नदियां गिरती
रहती हैं सागर
में, बाहर
नहीं आतीं।
आकाश से बादल
पानी को भरते
रहते है, उलीचते
रहते हैं सागर
को। कमी नहीं
आती, अभाव
नहीं हो जाता।
फिर भी घटता
है। विराट है —
अनंत नहीं है,
असीम नहीं
है। विराट है
सागर, इतनी
नदियां गिरती
हैं, कोई
इंचभर फर्क
मालूम नहीं
पड़ता।
ब्रह्मपुत्र,
और गंगाएं,
और
ह्वांगहो, और
अमेजान, कितना
पानी डालती
रहती हैं
प्रतिपल! सागर
वैसा का वैसा
रहता है। हर
रोज सूरज
उलीचता रहता
है किरणों से
पानी को।
आकाश
में जितने
बादल भर जाते
हैं,
वे सब सागर
से आते हैं।
फिर भी सागर
जैसा था वैसा
रहता है। फिर
भी मैं कहता
हूं कि सागर
का अनुभव सच
में ही घटने—बढ़ने
का नहीं है।
घटता—बढ़ता है,
लेकिन इतना
बड़ा है कि
हमें पता नहीं
चलता। आकाश
हमारे अनुभव
में एक दूसरी
स्थिति है। सब
कुछ आकाश में
है। आकाश का
अर्थ है, जिसमें
सब कुछ है।
अवकाश, स्पेस,
जिसमें
सारी चीजें हैं।
ध्यान रहे, इसलिए आकाश
किसी में नहीं
हो सकता। और
अगर हम सोचते
हों कि आकाश
को भी होने के
लिए किसी में
होना पड़े, तो
फिर हमें एक
और महत आकाश
की कल्पना
करनी पड़े। और
फिर हम
मुश्किल में
पड़ेंगे। फिर
जिसको
तार्किक कहते
हैं, इनफिनिट
रिग्रेस, फिर
हम अंतहीन
नासमझी में पड़
जाएंगे।
क्योंकि फिर
वह जो महत
आकाश है, वह
किस में होगा?
फिर इसका
कोई अंत नहीं
होगा। फिर और
महत आकाश — फिर—फिर
वही सवाल होगा।
नहीं, इसलिए
आकाश में सब
है और आकाश
किसी में नहीं
है। आकाश सबको
घेरे हुए है
और आकाश
अनघिरा है।
आकाश का अर्थ
है जिसमें सब
हैं और जो
किसी में नहीं
है। इसलिए
आकाश के भीतर
सब कुछ
निर्मित होता
रहता है, आकाश
उससे बड़ा नहीं
हो जाता। और
आकाश के भीतर
सब कुछ
विसर्जित
होता रहता है,
आकाश उससे
छोटा नहीं हो
जाता। आकाश
जैसा है वैसा
है — जस का तस — ऐज
इट इज। आकाश
अपनी सचनेस
में, अपनी
तथाता में
रहता है।
आप
मकान बना लेते
हैं,
आप महल खड़ा
कर लेते हैं।
आपका महल गिर
जाएगा, कल
खंडहर हो
जाएगा, मिट्टी
होकर नीचे गिर
जाएगा। आकाश
चूमने वाले
महल जमीन पर
खो जाएंगे
वापस, आकाश
को पता भी
नहीं चलेगा।
आपने जब महल
बनाया था, तब
आकाश छोटा
नहीं हो गया
था। आपका जब
महल गिर जाएगा,
तो आकाश बड़ा
नहीं हो जाएगा।
आकाश में ही
बनता है महल
और आकाश में
ही खो जाता है।
आकाश में कोई
अंतर पैदा
इससे नहीं
होता है। शायद,
आकाश और भी
निकटतर — जिस
बात को मैं
आपको समझाना
चाहता हूं
उसके और
निकटतर है।
फिर
भी,
आकाश कितना
ही अछूता मालूम
पड़ता हो, कितना
ही अस्पर्शित
मालूम पड़ता हो
हमारे निर्माण
से, फिर भी
हमारे साधारण
अनुभव में ऐसा
आता है कि आकाश
कम—ज्यादा
होता होगा।
क्योंकि जहां
मैं बैठा हूं
अगर आप वहीं
बैठना चाहें,
तो नहीं बैठ
सकेंगे। इसका
मतलब यह हुआ
कि जिस आकाश
को मैंने घेर
लिया... अन्यथा
आप भी मेरी
जगह बैठ सकते
हैं। एक जगह
हम एक ही मकान
बना सकते हैं,
उसी जगह
दूसरा मकान न
बना सकेंगे, उसी जगह
तीसरा तो
बिलकुल न बना
सकेंगे।
क्यों? क्योंकि
जो एक मकान
हमने बनाया
उसने आकाश को
घेर लिया। अगर
आकाश को उसने
घेर लिया, तो
आकाश किसी खास
अर्थ में कम
हो गया।
इसीलिए
तो मकान हमें
ऊपर उठाने पड़
रहे हैं। मकान
इसीलिए ऊपर
उठाने पड़ रहे
हैं कि जमीन
की सतह पर जौ
आकाश है वह कम
पड़ता जा रहा
हें। जमीन के
दाम बढ़ते चले
जाते हैं, तो
मकान ऊपर उठने
शुरू हो जाते
हैं। क्योंकि
नीचे दाम बढ़ने
लगते हैं, नाचे
का आकाश महंगा
होंने लगा, भरने लगा र
ज्यादा भरने
लगा, अब
वहां जगह कम
रह गई, तो
मकान को ऊपर
उठाना पड़ता है।
जल्दी ही हम
मकान को जमीन
के नीचे भी ले
जाना शुरू
करेंगे।
क्योंकि ऊपर
उठाने की भी
सीमा है। ऊपर
का आकाश भी
भरा जाता है।
आकाश
भी भरता मालूम
पड़ता है। और
जब भरता है, तो
उसका अर्थ है
कि उतनी जगह
कम हो गई।
उतना रिक्त
स्थान कम हो
गया। उतनी
एम्पटी स्पेस
कम हो गई। जिस
जमींन पर हम
बैंठे हैं, इस जगह पर अब
दूसरी जमीन
पैदा नहीं हो
सकती। माना कि
अनंत आकाश
चारों तरफ
शून्य की तरह
फैला हुआ है, कोई कमी
नहीं है, लेकिन
इतनी जगह पर
तो रुकावट हो
गई। इतना आकाश
तो कम हुआ, भर
गया।
नहीं, परमात्मा
इतना भी नहीं
भरता। सागर
मैंनै कहा कि
बहुत छोटा है —
परमात्मा के
हिसाब से।
हमारे हिसाब
से बहुत बड़ा
है। गंगाओं और
ब्रह्मपुत्रों
के हिसाब से
बहुत बड़ा है।
कोई अंतर नहीं
पड़ता उनके
गिरने से। फिर
भी अंतर पड़ता
है। नाप—तोल
में नहीं आता,
लेकिन अंतर
पड़ता है। आकाश
और भी बड़ा है —
हमारे सागरों—महासागरों
से बहुत बड़ा
है। फिर भी, आकाश भी भर
जाता मालूम
होता है।
परमात्मा
पर एक छलांग
और लगानी
पड़ेगी, वहां
तर्क सारा तोड़
देना पड़ेगा।
परमात्मा
यानीं
अस्तित्व र जो
हैं। सिर्फ
हैं। इज़नेस, होना जिसका
गुण है। हम
कुछ भी करें, उसके होने
में कोई अंतर
नहीं पड़ता।
इसे
वैज्ञानिक
किसी और ढंग से
कहते हैं। वे
कहते हैं, हम
किसी चीज को
नष्ट नहीं कर
सकते। इसका
मतलब हुआ कि
हम किसी चीज
को है—पन के
बाहर नहीं
निकाल सकते।
अगर हम एक
कोयले के
टुकड़े को मिटाना
चाहें, तो
हम राख बना
लेंगे। लेकिन
राख रहेगी। हम
उसे चाहे सागर
में फेंक दें —
वह पानी में
घुलकर डब
जाएगीं, दिखाई
नहीं पडेगी, लेकिन रहेगी।
हम सब कुछ
मिटा सकते हैं,
लेकिन उसकी,
इज़नेस, उसके
होने को नहीं
मिटा सकते।
उसका होना
कायम रहेगा।
हम कुछ भी करते
चले जाएं, उसके
होने में कोई
अंतर नहीं
पड़ेगा। होना
बाकी रहेगा।
हां, होने
को हम शकल दे
सकते हैं। हम
हजार शकलें दे
सकते हैं। हम
नए—नए रूप और
आकार दे सकते
हैं। हम आकार
बदल सकते हैं,
लेकिन जो
हैं उसके भीतर,
उसे हम नहीं
बदल सकते। वह
रहेगा। कल
मिट्टी थी, आज राख है।
कल लकडी थी, आज कोयला है।
कल कोयला था, आज हीरा है।
लेकिन है में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। 'है'
कायम रहता
है।
परमात्मा
का अर्थ है :
सारी चीजों के
भीतर जो है—पन, वह
जो इज़नेस, जो
एक्सिस्टेंस
है, जो
अस्तित्व है र
होना हैँ — वही।
कितनी ही
चीजें बनती
चलीं जाएं, उस होने में
कुछ जुड़ता
नहीं। और
कितनी ही
चीजें मिटती
चली जाए, उस
होंने मैं कुछ
कम होता नहीं।
वह उतना का ही
उतना, वहीं
का वही —
अलिप्त और
असंग, अस्पर्शित।
नहीं, पानी
पर भी हम रेखा
खींचते हैं तो
कुछ बनता है, मिट जाता है
बनते ही।
लेकिन
परमात्मा पर
इस सारे
अस्तित्व सै
इतनी भी रेखा
नहीं खिंचती।
इतना भी नहीं
बनता है।
इसलिए उपनिषद
का यह वचन
कहता है कि
पूर्ण सै, उस
पूर्ण सै यह
पूर्ण निकला।
उस पूर्ण से यह
पूर्ण निकला।
वह अज्ञात है,
यह ज्ञात है।
जो हमें दिखाई
पड़ रहा है, वह
उससे निकला, जो नहीं
दिखाई पड़ रहा
है। जिसे हम
जानते हैं, वह उससे
निकला, जिसे
हम नहीं जानते
हैं। जो हमारे
अनुभव में आता
है, वह
उससे निकला, जो हमारे
अनुभव में नही
आता है।
इस
बात को भी ठीक
से खयाल में
ले लेना चाहिए।
जो भी हमारे
अनुभव में आता
है,
वह सदा उससे
निकलता है, जौ हमारे
अनुभव में
नहीं आता। और
जो हमे दिखाई
पड़ता है, वह
उससे निकलता
है, जो
अदृश्य हैँ।
और जो हमें
ज्ञात है, वह
अज्ञात से
निकलता है। और
जो हमें
परिचित है, वह अपरिचित
से आता है। एक
बीज हम बो
देते हैं और
बीज से एक
वृक्ष निकल आता
है। और बीज को
हम तोड़े और
तोड़े और खंड—खंड
कर डालें, और
कहीं भी वृक्ष
का कोई पता
नहीं चलता।
कहीं कोई पता
नहीं चलता।
कहीं वे फूल
नहीं मिलते जो
कल निकल आएंगे।
कहीं वे पत्ते
नहीं दिखाई
पड़ते जो कल
निकल आएंगे।
वे कहां से
आते हैं? वे
अदृश्य से आते
हैं। वे
अदृश्य से
निर्मित हो
जाते हैं।
प्रतिपल
अदृश्य दृश्य
मैं
रूपांतरित
होता रहता है
और दृश्य
अदृश्य मैं
खोता चला जाता
है। प्रतिपल
सीमाओं में
असीम आता है
और प्रतिपल सीमाओं
से असीम वापस
लौटता है। ठीक
ऐसे ही जैसे
हमारी श्वास
भीतर गई और
बाहर गई। पूरा
अस्तित्व ऐसे
ही श्वास ले
रहा है। इस
अस्तित्व की
श्वास को जों
जानते हैं वे
कहते हैं, सृष्टि
और प्रलय। वे
कहते हैं कि
अस्तित्व की
एक श्वास जब
भीतर आती है, तो सृष्टि
का निर्माण
होता है, दि
क्रिएशन। और
जब अस्तित्व
की श्वास बाहर
जाती है, तो
प्रलय होती
हैं, दि
अनाइलेशन। और
अस्तित्व की
एक श्वास
हमारे लिए तो
अनंत अस्तित्व
हैं। उस बीच
तो हम अनंत
जन्म लेते हैं,
आते हैं और
जाते हैं।
इस
सूत्र में
दोनों बातें
कही हैं, पूर्ण
से पूर्ण निकल
आता है, फिर
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रहता
है। पूर्ण में
पूर्ण लीन हो
जाता है, फिर
भी पूर्ण
पूर्ण ही रहता
है। वह पूर्ण
अछृता, क्वांरा
का क्यारा ही
रह जाता है।
उसके
क्यांरेपन
में कुछ भी
फर्क नहीं
पड़ता, उसकी
वर्जिनिटी
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
बड़ी
मुश्किल बात
है। मां से
बेटा पैदा हो
जाए और वह
क्वांरी रह
जाए! सिर्फ जीसस
की मां के
बाबत ऐसी बात
कही जाती है
कि जीसस पैदा
हुए और मरियम
क्यारी रह गई।
वह इसीलिए कही
जाती है वह
इसीलिए कही
जाती है कि जीसस
और मरियम को
जिन्होंने
जाना और
पहचाना जीसस
को,
क्या—होने
कहा, यह तो
ठीक वैसा ही अस्तित्व
का जन्म है
जैसे कि पूर्ण
से पूर्ण आता
है। इसलिए
ईसाई नहीं
समझा पाते।
ईसाई बड़ी
मुश्किल में
पड़ते हैं इस
बात को पकड़कर
कि मरियम
क्वांरी कैसे
रह गई! उन्हें
पता ही नहीं है
उस गणित का
जहां कि मां
से बच्चा भी
पैदा हो जाए
और मां
क्वांरी रह
जाए। उस गणित
का उन्हें कोई
पता नहीं है।
हायर
मैथमेटिक्स
का उन्हें कोई
पता नहीं है।
बड़ी कठिनाई
में है ईसाइयत,
क्योंकि वे
कहते हैं कि
इसे कैसे समझाएं!
यह हो नहीं
सकता, इसलिए
मिरेकल है, चमत्कार है।
यह हो तो नहीं
सकता, लेकिन
भगवान ने कोई
चमत्कार
दिखाया है।
लेकिन
इस जगत में
भगवान जो भी
चमत्कार
दिखाता है वह
हर क्षण दिखा
रहा है। इस
जगत में कोई
चमत्कार नहीं
होते और या
फिर हर क्षण
जो हो रहा है वह
सब चमत्कार है, सब
मिरेकल है। जब
भी एक बीज से
वृक्ष पैदा
होता है, तब
चमत्कार होता
है। और जब भी
एक मां से
बेटा पैदा
होता है, तब
चमत्कार होता
है।
नहीं, कठिनाई
नहीं है। अगर
कोई मां अपने
को इस सूत्र
में लीन कर ले
कि पूर्ण से
जब इतना बड़ा
संसार निकल
आता है और
पीछे पूर्ण अछूता
रह जाता है, तो कोन सी
कठिनाई है? अगर मां इस
सूत्र के साथ
अपने को एक कर
ले, तो मां
बन सकती है, बेटे को
जन्म दे सकती
है और क्वांरी
बच सकती है।
इस
सूत्र को ठीक
से कोई साधक
समझ ले... और मैं
तो आपको
इसीलिए कह रहा
हूं कि आपको
साधना की
दृष्टि से
खयाल में आ जाए।
अगर साधना की
दृष्टि से
खयाल में आ
जाए,
तो आप सब
करके भी
अकर्ता रह
जाते हैं।
आपने जो भी
किया, अगर
परमात्मा
इतना करके और
पीछे अछूता रह
जाता है, तो
आप भी सब करके
पीछे अछूते रह
जाते हैं। लेकिन
इस सत्य को
जानने की बात
है, इसको
पहचानने की
बात है।
अगर
इतना बड़ा
संसार बनाकर
परमात्मा
पीछे गृहस्थ
नहीं बन जाता, तो
एक छोटा सा घर
बनाकर एक आदमी
गृहस्थ बन जाए,
पागलपन है!
इतने विराट
संसार के जाल
को खड़ा करके
अगर परमात्मा
वैसे का वैसा
रह जाता है
जैसा था, तो
आप एक दुकान
छोटी सी चलाकर
और नष्ट हो
जाते हैं? कहीं
कुछ भूल हो रही
है। कहीं कुछ
भूल हो रही
है। कहीं
अनजाने में आप
अपने कर्मों
के साथ अपने
को एक
आइडेंटिटी कर
रहे हैं, एक
मान रहे हैं, तादात्म्य
कर रहे हैं।
आप जो कर रहे
हैं, समझ
रहे हैं कि
मैं कर रहा
हूं बस कठिनाई
में पड़ रहे
हैं। जिस दिन
आप इतना जान
लेंगे कि जो
हो रहा है वह
हो रहा है, मैं
नहीं कर रहा
हूं उसी दिन
आप संन्यासी
हो जाते हैं।
गृहस्थ
मैं उसे कहता
हूं जो सोचता
है,
मैं कर रहा
हूं।
संन्यासी मैं
उसे कहता हूं
जो कहता है, हो रहा है।
कहता ही नहीं,
क्योंकि
कहने से क्या
होगा? जानता
है। जानता ही
नहीं, क्योंकि
अकेले जानने से
क्या होगा? जीता है।
इसे
देखें। मेरे
समझाने से
शायद उतना
आसानी से
दिखाई न पड़े
जितना प्रयोग
करने से दिखाई
पड़ जाए। कोई
एक छोटा सा
काम करके
देखें और पूरे
वक्त जानते
रहें कि हो
रहा है, मैं
नहीं कर रहा
हूं। कोई भी
काम करके
देखें। खाना
खाकर देखें।
रास्ते पर चलकर
देखें। किसी
पर क्रोध करके
देखें। और
जानें कि हो
रहा है। और
पीछे खड़े
देखते रहें कि
हो रहा है। और
तब आपको इस
सूत्र का राज
मिल जाएगा। इसकी
सीक्रेट—की, इसकी कुंजी
आपके हाथ में
आ जाएगी। तब
आप पाएंगे कि
बाहर कुछ हो
रहा है और आप
पीछे अछूते
वही के वही
हैं जो करने
के पहले थे, और जो करने
के बाद भी रह
जाएंगे। तब
बीच की घटना
सपने की जैसी
आएगी और खो
जाएगी।
संसार
परमात्मा के
लिए एक स्वप्न
से ज्यादा नहीं
है। आपके लिए
भी संसार एक
स्वप्न हो
जाए,
तो आप भी
परमात्मा से
भिन्न नहीं रह
जाते। फिर
दोहराता हूं —
संसार
परमात्मा के
लिए एक स्वप्न
से ज्यादा
नहीं है, और
जब तक आपके
लिए संसार एक
स्वप्न से ज्यादा
है, तब तक
आप परमात्मा
से कम होंगे।
जिस दिन आपको भी
संसार एक
स्वप्न जैसा
हो जाएगा, उस
दिन आप
परमात्मा
हैं। उस दिन
आप कह सकते हैं,
अहं
ब्रह्मास्मि! मैं
ब्रह्म हूं।
यह
बड़े मजे का
सूत्र है। इस
सूत्र में न
मालूम कितनी
बातें कही गई
हैं। इस सूत्र
में यह कहा
गया है कि वह पूर्ण
आ जाता है
निकलकर पूरा
का पूरा।
ध्यान रहे, पीछे
पूरा रह जाता
है, यह तो
कहा ही है, साथ
में यह भी कहा
है कि वह पूरा
का पूरा बाहर
आ जाता है।
इसका क्या
मतलब हुआ? इसका
यह मतलब हुआ
कि एक—एक
व्यक्ति भी
पूरा का पूरा परमात्मा
है। एक—एक
व्यक्ति भी, एक—एक अणु भी
पूरा का पूरा
परमात्मा है।
ऐसा नहीं कि
अणु आशिक
परमात्मा है —
पूरा का पूरा।
थोड़ा
कठिन है, क्योंकि
हमारे गणित के
लिए अपरिचित
है। अगर यह
समझ में आया
कि पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है और
पीछे पूर्ण रह
जाता है, तो
मैं और एक बात
कहता हूं कि
से अनंत पूर्ण
निकल आते हैं,
तो भी पीछे
पूर्ण रह जाता
है। एक पूर्ण
निकलकर अगर
दूसरा पूर्ण न
निकल सके, तो
उसका मतलब हुआ
कि एक के
निकलने के बाद
पीछे कुछ कम
हो गया है। एक
पूर्ण के बाद
दूसरा पूर्ण
निकले, तीसरा
पूर्ण निकले
और पूर्ण
निकलते चले
जाएं और पीछे
सदा ही पूर्ण
निकलने की
उतनी ही
क्षमता बनी
रहे, तभी
पीछे पूर्ण
शेष रहा।
इसलिए
ऐसा नहीं है
कि आप
परमात्मा के
एक हिस्से
हैं। जो ऐसा
कहता है, वह
गलत कहता है।
जो ऐसा कहता
है कि आप एक
अंश हैं परमात्मा
के, वह गलत
कहता है।। छ
फिर लोअर
मैथमेटिक्स
की बात कर रहा
है। वह वही
दुनिया की बात
कर रहा है जहां
दो और दो चार
होते हैं। वह
नापी—जोखी
जाने वाली दुनिया
की बात कर रहा
है। मैं आपसे
कहता हूं और
उपनिषद आपसे
यह कहते हैं, और
जिन्होंने भी
कभी जाना है
वह यही कहते
है कि तुम
पूरे के पूरे
परमात्मा हो।
इसका
यह अर्थ नहीं
कि पड़ोसी पूरा
परमात्मा नहीं
है। नहीं, इससे
कोई अंतर ही
नहीं पड़ता
है। इससे कोई
अंतर ही नहीं
पड़ता है। एक
वृक्ष पर
गुलाब खिला है,
पूरा खिल
गया है। पड़ोस
में एक दूसरी
कली पूरी खिल
गई है। इस गुलाब
के पूरे खिल जाने
से बगल की कली
के पूरे खिलने
में कोई बाधा
नहीं पड़ती।
सहयोग भला
मिलता हो, बाधा
कोई नहीं
पड़ती। हजार
फूल खिल सकते
हैं, पूरे
के पूरे खिल
सकते हैं।
परमात्मा
की पूर्णता
अनंत पूर्णता
है। अनंत पूर्णता
का अर्थ है कि
उसमें से अनंत
पूर्ण प्रगट
हो सकते हैं।
एक—एक व्यक्ति
पूरा का पूरा
परमात्मा है।
एक—एक अणु
पूरा का पूरा
विराट है।
पूर्ण में और
उसमें रत्ती
मात्र का भी
कोई फर्क नहीं
है। अगर फर्क
है तो फिर कभी
पूरा न हो
सकेगा। फिर
पूरा करने का
कोई उपाय
नहीं। और अगर
कभी पूरा हो
जाता है तो वह
अभी ही पूरा
है,
सिर्फ हमें
पता नहीं है।
सिर्फ हमारे
बोध की कमी
है।
इस
सूत्र को इन
साधना के आने
वाले दिनों
में सदा स्मरण
रखना।
दोहराते रहना
मन में कि
पूर्ण से
पूर्ण आ जाता
है,
पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। पूर्ण में
पूर्ण लीन हो
जाता है, फिर
भी पूर्ण
पूर्ण का
पूर्ण ही होता
है, कहीं
कोई अंतर नहीं
पड़ता है। इसे
स्मरण रखना, इसे श्वास—श्वास
मैं भीतर
घूमने देना।
रोज हम इसकी
अलग— अलग
व्याख्याएं, अलग— अलग
रूपों में अलग—अलग
मार्गों से
करेंगे। आप
इसका स्मरण
रखना। यहां हम
व्याख्या
करेंगे, वहां
आप स्मरण को
गहरा करते चले
जाना। ये
दोनों चोटें
भीतर इकट्ठी
होती चली
जाएंगी। और
किसी क्षण —
इन्हीं सात
दिन में वह
घटना घट सकती
है — कि किसी
क्षण अचानक यह
सूत्र आपके
मुंह से निकलेगा।
और आपको लगेगा
कि पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है 'और
पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है, पूर्ण
श्री में लीन
हो जाता है और
फिर भी पूर्ण
पूर्ण का पूर्ण
ही होता है।
कहीं कोई अंतर
नहीं पड़ता।
स्वप्न की
भांति सब हो
जाता है, फिर
भी कुछ होता
नहीं। अभिनय
की भांति सब
घटित हों जाता
है, फिर भी
पीछे सब
क्वांरा और
अछूता रह जाता
है।
इसे
स्मरण — जितना
ज्यादा स्मरण
रख सकें, उतना
उपयोगी होगा।
चौबीस घंटे
इसकी स्मृति
में जीने की
कोशिश करें।
उपनिषदों में
जो है, वह
सिर्फ समझने
से समझ में
आने वाला नहीं
है। उसे जीने से
ही समझ में
आने वाला है।
ये सूत्र
किन्हीं
सिद्धांतों
की घोषणा नहीं
करते, किन्हीं
साधनाओं की
घोषणा करते
हैं। ये सूत्र
सिर्फ
निष्पत्तियाँ
नहीं हैं ज्ञान
की, अनुभूतिया
हैं। और
इन्हें जब कोई
अपने भीतर जीए,
इन्हें
अपने भीतर
जन्म दे, इन्हें
अपने भीतर खून,
हड्डी, मांस,
मज्जा में
प्रवेश करने
दे, इन्हें
श्वासों में
समा जाने दे; इन्हें
जागते, उठते,
बैठते, सोते
इनकी सुरति, इनकी स्मृति
मैं, इनकी
गज में जीए; तब, तब
कहीं इनका राज,
इनका रहस्य,
इनका द्वार
खुलना शुरू
होता है।
यह
सुत्रों में, प्राथमिक
वक्तव्य आपको
दिया। अदभुत
लोग रहे होंगे।
पहले ही सूत्र
पर खतम कर दी
है सारी बात।
कहा है कि
तीनों ताप की
शांति हो जाए।
इस
सूत्र से
त्रिताप की, शांति
का क्या संबंध
हो सकता हैँ? किन्हीं
सिद्धांतों
से किन्हीं के
दुखों का कोई
अंत हुआ है? नहीं, लेकिन
ऋषि कहता है, ऊँ — बात पूरी
हो गई।
तुम्हारे सब
दुख शात हो
जाएं, तुम्हारे
सब दुखों से
मुक्ति हो जाए।
क्या इस सूत्र
को पढ़ने से
यह हों सकता
है?
सच
में जो पढ़ ले, तो
हो सकता है।
किताब से जो
पढ़े, तो
कभी नहीं हो
सकता। वह तो
पढ़ लिया हमने।
वह तो सुन
लिया हमने।
लेकिन
जिन्होंने
इतनी हिम्मत
और साहस से
कहा है कि बस ओम,
हो गई बात
समाप्त। इतनी
बात जिसने जान
ली, उसके
सब दुखों का 'अंत
हो जाता है।
उसके शरीर के,
उसके मन के,
उसके आत्मा
के सब ताप
नष्ट हो जाते
हैं। वह समस्त
संतापों के
बाहर हो जाता
है। इतने
आश्वासन से, इतने भरोसे
से जो आदमी कह
रहा है, तो
मतलब कुछ है।
मतलब
है कि इसे जो
जीएगा, इसे
जो अपने भीतर
जन्म देगा, वह पाएगा कि
सारे दुखों के
बाहर हो गया।
क्योंकि दुख
एक ही बात का
है, चाहे
किसी तल पर हो —
चाहे शरीर के
तल पर, चाहे
मन के तल पर और
चाहे आत्मा के
तल पर, दुख
एक ही है — वह
दुख अहंकार है।
वह दुख यह हैं
कि मैं कर रहा
है, यह मुझ
पर हो रहा है।
यह मुझसे किया
जा रहा है। यह
गाली मुझे दी
गई, यह
गाली मैंने दी
है। बस वह
सारी चीजें
मेरे थे, पर
आकर इकट्ठी हो
जाती हैं।
लेकिन
जब परमात्मा
पर कोई अंतर
नहीं पड़ता है
इतने विराट से, तो
इन सब छोटी—
छोटी बातों से
मुझ पर अंतर
क्यों पड़े।
मैं भी अछूता
रह जाऊं, मैं
भी दूर खड़ा रह
जाऊं। मैं
कहूं कि गाली
दी गई, मुझे
नहीं दी गई है।
मैंने जो किया
वह किया गया, मैंने नहीं
किया है। अगर
मैं मुझ पर
आते कर्म और
मुझ से जाते
कर्मों के
प्रति साक्षी
रह जाऊं, विटनेस
रh जाऊं, कर्ता न रह
जाऊं। तो बड़े
जल्दी ही
अदभुत रहस्य
खुलने शुरू हो
जाते हैं।
इन
सात दिन इस
सुत्र में
जाने की कोशिश
करे। इसी
सूत्र के अलग—अलग
आयामों में
ईशावास्य
उपनिषद में हम
व्याख्या
करेंगे। यहां
जो मैं
व्याख्या
करूं, अगर आप
उसे जीएंगे भी,
तो ही समझ
में आएगी, अन्यथा
समझ में नहीं
आएगी बात।
इस
सूत्र के
संबंध मैं
इतना ही।
ध्यान के
संबंध में कुछ
सूचनाएं आपको
दे दूं।
क्यौंकि करन
सुबह से हम
ध्यान में
प्रवेश करेंगे।
पहली
बात,
पूरे समय
आने वाले
दिनों में जितनी
तीव्र श्वास
ले सकें दिनभर,
चौबीस घंटे,
जब तक होश
रहे, जितनी
गहरी श्वास ले
सकें उतनी
गहरी श्वास ले।
हाइपर
आक्सीजनेशन!
जितनी ज्यादा
प्राणवायु भीतर
जा सके उतना
आपकी साधना के
लिए ऊर्जा
उपलब्ध होगी,
एनर्जी
उपलब्ध होगी।
आपके शरीर में
बहुत सी
ऊर्जाएं छिपी
पड़ी हैं। पर
उन्हें जगाने
की और ध्यान
की दिशा मे
सक्रिय करने
की, चैनेलाइज
करने कीं
जरूरत है।
तो
पहला सूत्र
आपको देता हूं
कि उस शक्ति
को जगाने का
जो निकटतम और
सरलतम उपाय
आदमी के पास उपलब्ध
है,
वह श्वास
हें। सुबह उठते
ही जैसै ही
होश आए बिस्तर
पर, गहरी
श्वास लेनी
शुरू कर दें।
रास्ते पर
चलते हों तो
गहरी श्वास
लें, जितनी
गहरी...।
आहिस्ता ले, परेशान नहीं
हो जाना है, गहरी लेनी, है। शांति
से लेनी है, आनंद से
लेनी है, पर
लेनी गहरी है।
और पूरे वक्त
खयाल रखना है
कि जितनी
ज्यादा प्राणवायु
भीतर जा सके —
आपके खून में,
आपकी श्वास
मैं, आपके
हृदय में
जितनी
प्राणवायु जा
सके — और जितनी
कार्बन
डाइआक्साइड
बाहर फेंकी जा
सके, उतना
हीं, जो
ध्यान हम करने
जा रहे हैं, उसमें सरलता
हो जाएगी।
जितनी
ज्यादा प्राणवायु
भीतर होती है, उतनी
ही शारीरिक
अशुद्धि कम हो
जाती है। और
बड़े मजे की
बात हैं कि
शारीरिक
अशुद्धि का आधार
अगर छूट जाए, तो मन को
अशुद्ध होने
में कठिनाई
पड़नी शुरू हे
जाती है।
जितनी ताजी
हवा भीतर होगी,
उतने ..आपके
मन के दूषित
विचार को
पनपने की सभांवना
कम हो जाएगी।
और जैसा मैंने
कहा, यह
पूर्णमिर्द
ऐसे सूत्रों
के भीतर खिलने
की, इनके
फूल बनने की
संभावना
ज्यादा हो
जाएगी।
तो
पहला, हाइपर
आक्सीजनेशन —
प्राणवायु
आधिक्य — इस पर
खयाल रखें, सात दिन
पूरे।
इसमें
दो—तीन बातें
होगी, उनसे
घबराएं न। अगर
गहरी श्वास
लेंगे तो नींद
कम हो जाएगी।
उससे जरा भी
चिंता न लेंगे।
नींद कम हो
जाती है, जब
भी नींद गहरी
हों जाती है।
तो
जितनी गहरी
श्वास लेंगे, श्वास
की गहराई के
साथ नींद की
गहराई बढ़ती है।
इसीलिए तो जो
लोग मेहनत
करते हैं, वे
रात गहरी नींद
सोते हैं। जो
मेहनत नहीं कर
पाते, वे
रात गहरी नींद
नहीं सो पाते।
जितनी श्वास
की गहराई होगी
भीतर, उतनी
नींद की गहराई
बढ़ जाएगी।
लेकिन नींद की
अगर गइराई
बढ़ेगी, इंटेंसिटी
बढ़ेगी तो
इक्सटेंशन कम
हो जाएगा, लंबाई
कम हो जाएगी।
उसकी चिंता
नहीं लेंगे।
अगर आप सात
घंटे सोते हैं,
तो चार घंटे
में पूरी हो
जाएगी, पांच
घंटे में पूरी
हो जाएगी।
उसकी कोई
फिक्र नहीं।
लेकिन पांच
घंटे में आप
आठ घंटे की
बजाय ज्यादा
ताजे और
ज्यादा
आनंदित और
ज्यादा
स्वस्थ सुबह
उठेंगे।
इसलिए
जब सुबह नींद
टूट जाए — और
जल्दी नींद
टूटने लगेगी, अगर
आपने गहरी
श्वास ली तो जल्दी
नींद टूटने
लगेगी — तो जब
नींद टूट जाए,
उठ आएं।
सुबह के उस
आनदपूर्ण
क्षण को न खोए।
उसका ध्यान के
लिए उपयोग कर
लेंगे। पहली
बात।
दूसरी
बात जितना कम
भोजन ले सकें
और जितना हल्का
ले सकें, उतना
हितकर है।
जितना अल्प ले
सकें और जितना
हल्का ले सकें।
जो जितना कर
सके, जिसको
जितनी सुविधा
हो, वह
उतना कम कर ले।
जितना कम कर
लेंगे, उतना
ध्यान की गति
तीव्र, सुगम
हो जाएगी।
क्यों? कुछ
गहरे कारण हैं।
हमारे
शरीर की कुछ
सुनिश्चित
आदतें हैं।
ध्यान हमारे
शरीर की आदत
नहीं है।
ध्यान हमारे
लिए नया काम
है। शरीर के
बंधे हुए
एसोसिएशन हैं।
शरीर की बंधी
हुई आदतों को
अगर कहीं से
तोड़ दिया जाए, तो
शरीर और मन नई
आदत को पकड़ने
में आसानी
पाते हैं। कई
दफे तो आप
हैरान होंगे
कि अगर आप
चिंतित होते
हैं और सिर
खुजलाने लगते
हैं, अगर
आपका हाथ नीचे
बांध दिया जाए
और आप सिर न खुजला
पाएं, तो
आप चिंतित न
हो सकेंगे। आप
कहेंगे कि सिर
खुजलाने से
चिंता का क्या
संबंध है? एसोसिएशन
है। शरीर की
निश्चित आदत
हो गई है। वह
अपनी पूरी की
पूरी अपनी आदत
को, अपनी
व्यवस्था को
पकड़कर पूरा कर
लेता है।
शरीर
की जो सबसे
गहरी आदत है, वह
भोजन है — सबसे
गहरी, क्योंकि
उसके बिना तो
जीवन नहीं हो
सकता है। तो
डीप मोस्ट, डीपेस्ट।
ध्यान रहे, सेक्स से भी
ज्यादा गहरी।
जीवन में
जितनी भी
गहराइयां हैं
हमारे, उनमें
सबसे ज्यादा
गहरी आदत भोजन
है। जन्म के
पहले दिन से
शुरू होती है
और मरने के आखिरी
दिन तक चलती
है। जीवन का
अस्तित्व उस
पर खड़ा है, शरीर
उस पर खड़ा है।
इसलिए अगर
आपको अपने मन
और शरीर की
आदतें बदलनी
हैं, तो
उसकी गहरी आदत
को एकदम शिथिल
कर दें। उसके
शिथिल होते से
ही शरीर का जो
कल तक का इंतजाम
था, वह सब
अस्तव्यस्त
हो जाएगा। और
उसकी
अस्तव्यस्त
हालत में आप
नई दिशा में प्रवेश
करने में
आसानी पाएंगे,
अन्यथा आप
आसानी नहीं
पाएंगे।
तो
जितना कम बन
सके! किसी को
उपवास करना हो, उपवास
कर सकता है।
किसी को एक
बार भोजन लेना
हो, एक बार
ले सकता है।
आपकी मर्जी पर
है, नियम
बनाने की
जरूरत नहीं है।
अपनी मर्जी से
चुपचाप जितना
कम से कम —
न्यूनतम, मिनिमम
— इसका खयाल
रखें। तो
दूसरी बात, स्वल्प—आहार।
तीसरी
बात. एकाग्रता।
चौबीस घंटे
में आप गहरी
श्वास लेंगे
ही,
साथ ही
श्वास पर
ध्यान भी रखें,
तो
एकाग्रता सहज
फलित हो जाएगी।
रास्ते पर चल
रहे हैं, श्वास
ले रहे हैं, श्वास बाहर
से भीतर गई, तो देखते
रहें, बी
अटेंटिव।
देखते रहें कि
श्वास भीतर
गई। फिर श्वास
बाहर जा रही
है, तो
बाहर गई। भीतर
गई, फिर
बाहर गई।
ध्यान रखेंगे।
तो गहरा भी ले
पाएंगे। नहीं
तो जैसे ही
भूलेंगे वैसे
ही श्वास धीमी
हो जाएगी। और
गहरा लेते
रहेंगे तो
ध्यान भी रख
पाएंगे, क्योंकि
गहरा लेने के
लिए ध्यान
रखना ही पड़ेगा।
तो ध्यान को
श्वास के साथ
जोड़ लें।
कुछ
काम करते वक्त
अगर ऐसा लगे
कि अभी ध्यान
श्वास पर नहीं
रखा जा सकता
हे,
तो जिन
कामों को करते
वक्त ऐसा लगे
कि अभी ध्यान
श्वास पर नहीं
रखा जा सकता, तब उन कामों
पर
कनसनट्रेशन
रखें, उन
कामों पर
एकाग्र रहें।
खाना खा रहे
हैं तो खाने
को पूरी
एकाग्रता से
खाएं। एक—एक कोर
पूरे
ध्यानपूर्वक
उठाएं। स्नान
कर रहे हैं, तो पानी। न
एक—एक कतरा भी
ऊपर पड़े तो
पूरे
ध्यानपूर्वक।
रास्ते पर चल
रहे हैं, तो
पैर एक—एक उठे तो
ध्यानपूर्वक।
ये
सात दिन आप
चौबीस घंटे
ध्यान में लीन
हो जाएं। तो
यहां तो हम
ध्यान करेंगे
वह अलग, यह मैं
आपको बाकी समय
पूरी
पृष्ठभुमि
आपकी बनाने के
लिए कह रहा
हूं।
तो
तीसरी बात, जो
भी करें, बहुत
ध्यानपूर्वक,
बहुत
एकाग्रचित्त
से करें। और
ज्यादातर तो
श्वास पर ही
एकाग्रता
रखें, क्योंकि
वह चौबीस घंटे
चलने वाली चीज
है। न तो
चौबीस घंटे
खाना खा सकते
हैं, न
स्थान कर सकते
हैं, न चल
सकते हैं।
श्वास चौबीस
घंटे चलेगी उस
पर चौबीस घंटे
ध्यान रखा जा
सकता है। उस
पर ध्यान रखें।
भूल जाएं
दुनिया में
कुछ भार हो
रहा है। बस एक
ही काम हो रहा
है कि श्वास
भीतर आ रही है
और श्वास बाहर
जा रही है। बस,
इस श्वास का
बाहर और भीतर आना
आपके लिए माला
की गुरिया बन
जाए, इस पर
ही ध्यान को
ले जाएं।
तीसरा सूत्र।
चौथा
सूत्र
इंद्रिय—उपवास, सेस
डिप्राइवेशन।
वह तीन बातें
इसमें करनी
हैं। एक तो जो लोग
पूरे दिन मौन
रख सकें, वे
पूरे दिन के
लिए मौन हो
जाएं। जिनको
कठिनाई मालूम
पड़े, वे
भी
टेलीग्रैफिक
हो जाएं। जो
भी बोलें, तो
समझें कि एक—एक
शब्द की कीमत।
सानी पड़ रही
है। तो दिन
में दस—बीस
शब्द से
ज्यादा नहीं।
बहुत जरूरी
मालूम पड़े,
जान पर ही आ
बने, तो ही
बोलें। जो
पूरा मौन रख
सकें, उनके
फायदे का तो
कोई हिसाब
नहीं पूरा मौन
रख सकें, कोई
कठिनाई नहीं
है। एक कागज—पेंसिल
रख लें, जरूरत
पड़े तो लिखकर
बता दें — कुछ
जरूरत पड़े तो।
पूरे मौन हो
जाएं। मौन से
आपकी सारी
शक्ति भीतर
इकट्ठी हो
जाएगी, जिसे
हमें ध्यान
में आगे ले
जाना है।
आदमी
की कोई आधे से
ज्यादा शक्ति
उसके शब्द ले
जाते हैं।
शब्द को तो
बिलकुल छोड़ दें। तो
खयाल कर लें, जिसकी
जितनी
सामर्थ्य हो
उतना मौन हो
जाए। और इतना
तो ध्यान ही
रखें कि आपके
द्वारा किसी
का मौन न टूटे।
आपका टूटे, आपकी किस्मत,
आप जिम्मेवार।
लेकिन आपके
द्वारा किसी
का न टूटे।
अकारण बातें
किसी से न
पूछें। अकारण
जिज्ञासाएं न
करें, व्यर्थ
के सवाल न
उठाएं। किसी
को बातचीत में
डालने की आप
कोशिश न करें।
सहयोगी बनें
दूसरे को मौन
करवाने मैं।
कोई पूछे तो
उसको भी मौन
करने का इशारा
दै दें। उसे
भी याद दिला
दे कि मौन
रहना है।
बातचीत
छोड़ दें
बिलकुल सात
दिन। फिर बाद
में करिए, पीछें
तो आपने की है
बहुत। सात दिन
बिलकुल छोड़
दें। जिससे
जितना बन सके।
पूरा बन सके, बहुत ही
हितकर होगा।
फिर आपको कहने
को नहीं बचेगा
कि ध्यान नहीं
होता है। मैं
जो पांच बातें
आपसे कहने जा
रहा हूं वे आप
पूरी कर लेते
हैं, तो
आपको कहने का
कारण नहीं
आएगा कि ध्यान
नहीं होता है।
और आए कारण, तो आप जानना
आपके सिवाय और
कोई
जिम्मेवार नहीं
है। फिर मुझे
आकर आप मत
कहना।
मौन
रखें।
न्यूनतम।
जिनसे न बन
सके,
कमजोर हों,
संकल्पहीन
हों, मन
दुर्बल हो, बुद्धि
कमजोर हों, वे थोड़ा—
थोड़ा बोलकर
चलाएं।
जिनमें थोड़ी
भी
बुद्धिमत्ता
हो, संकत्य।
हो, शक्ति
हो, थोड़ा
भी अपने पर
भरोसा हों, वे बिलकुल
चुप हो जाएं।
इंद्रिय—उपवास
में पहला मौन।
दूसरा, आपकी आंख
के लिए विशेष
पट्टियाँ बना?
हैं। वे
पट्टियां आप
ले लेंगे और
कल सुबह से
उनका प्रयोग
शुरू करें।
पूरी आंख को
बांध लेना है।
आंख ही आपको
बाह्र ले जाने
का द्वार है।
जितनी ज्यादा
देर बांध रख
सकें उतना
अच्छा है। जब
भी खाली बैठे
है आंख पर
पट्टी बधी
रहने दें।
उससे दूसरे
दिखाई भी नही
पड़ेंगे, बातचीत
का भी मौका
नहीं आएगा। और
आपको अंधा
मानकर दूसरे
भी छोड़ देंगे
कि ठीक है, जाने
दें, व्यर्थ
उनकों परेशान
न करें। अंधे
हो जाएं। मौन
होना तो आपने
सुना ही है न, तो अंधे भी
हो जाएं।
मौन
होना भी एक
तरह की मुक्ति
है और अंधा
होना और भी
गहरी।
क्यौंकि आंख
ही हमें चौबीस
घंटे बाहर
दौडा रही है। आंख
के बंद होते
से ही आप
पाएंगे, बाहर
जाने का उपाय न
रहा। भीतर
चेतना
वर्तुलाकार
घूमने लगेगी।
तो आंख पर
पट्टी बांध
लें। चलते
वक्त थोड़ा सा
ऊपर सरका लें,
नीचे देखें,
बस। चलते
वक्त थोड़ा ऊपर
सरका लें और
नीचे देखें, एक चार फीट
आपको दिखाई
पड़ता रहे
रास्ता, उतना
काफी है। उसे
बांधकर ही
पूरा वक्त
गुजार दें। जो
रात उसको
बांधकर ही सौ
सकें, वे
बांधकर ही सोए।
जिनको अड़चन
मालूम हो, वे
निकाल दें।
बांधकर
सोएंगे, नींद
की गहराई में
फर्क पड़ेगा।
यह
जो पट्टी है, वह
आप बाकी समय तो
बांधे ही
रखेंगे। सुबह
यहां जब ध्यान
होगा, तब
पट्टी बंधी
रहेगी सुबह के
ध्यान में।
दोपहर के मौन
में पट्टी
खुली रहेगी, लेकिन आप
वहां से पट्टी
बांधकर ही
आएंगे। यहां
चुपचाप पट्टी
खोलकर रख लगे।
दोपहर के
घंटेभर के मौन
में पट्टी
खुली रहेगी।
रात भी आप
पट्टी बांधकर
ही आएंगे। फिर
रात के ध्यान
में भी पट्टी
खुली रहेगी।
सुबह जब मैं
बोलूंगा तब
आपकी पट्टी
खुली रहेगी, दोपहर मौन
में खुली
रहेगी, रात
के ध्यान में
खुली रहेगी।
इतना आपकी आंख
के लिए मौका
दूंगा। यह भी
मौका इसलिए
दूंगा कि यह
भी आपको भीतर
ले जाने में
सहयोगी बन सके
तभी आपकी आंख
को बाहर देखने
का मौका देना
है, अन्यथा
आपकी आंख को
बंद ही रखना
है। और सात
दिन में आप
हैरान हो
जाएंगे कि मन
के कितने तनाव
आंख के बंद
रहने से विदा
हो जाते हैं, जिसकी आप
अभी कल्पना
नहीं कर सकते।
मन
के अधिकतम
तनाव आंख से
प्रवेश करते
हैं और आंख का
तनाव ही मन के।
स्नायुओं के
लिए सबसे बड़े
तनाव का कारण
है। अगर आंख
शांत और शिथिल
और। रिलैक्स
हो जाए, तो
मस्तिष्क के
निन्यानबे
प्रतिशत रोग
विदा हो जाते
हैं। तो इसका
आप पूरे ध्यानपूर्वक
इसका उपयोग
करना है। और
ऐसा नहीं कि
उसमें बचाव
करें। बचाव
करें तो मेरा
कोई हर्जा
नहीं है, बचाव
से आपका हर्जा
होगा। ध्यान
यही रखना है
कि अधिकतम आपको
बिलकुल ब्लाइंड
हो जाना है, आप बिलकुल
अंधे हो गए
हैं। आंख है
ही नहीं। सात
दिन के लिए
उसे छुट्टी दे
देना है। सात
दिन के बाद आप
पाएंगे कि आंख
ऐसी शीतल।।
सकती है और आंख
की शीतलता के
पीछे इतने
आनंद के रस
झरने बह सकते
हैं, यह
आपकी कल्पना
में अभी नहीं
हो सकता।
लेकिन अगर आपने
बीच—बीच में
आपके साथ बेईमानी
की तो मेरा
जिम्मा नहीं
है। वह आप पर
निर्भर है।
यहां कोई भी
किसी दूसरे के
लिए
जिम्मेवार
नहीं है। आप
अपने को धोखा
दे सकते हैं।
चाहें तो अपने
को धोखा देने
से बच सकते
हैं।
आंख
की पट्टी के
साथ ही आपके
कान के लिए भी
कपास मिलेगा।
वह दोनों कान
पर लगा देना
है। कान को भी
छुट्टी दे
देनी है। आंख, कान
और मुंह तीनों
को छुट्टी मिल
जाए, तो
आपकी
इंद्रियों का
उपवास हो जाता
है। उसी पट्टी
के नीचे कान
को भी बंद
करके ऊपर से
बांध लेना है।
तो दूसरे आपके
मौन में भी
बाधा नहीं दे
सकैंगे, देना
भी चाहे तो भी
नहीं दे
सकेंगे। आप भी
देना चाहें तो
नहीं दे
सकेंगे।
क्योंकि
दूसरे को अवसर
देने का। तप
भी नहीं देना
चाहिए। आपके
कान खुले हैं,
तो किसी को
बोलने का
टेंप्टेशन
होता है। कान
ही बंद हैं, वह बोले भी
तो भी नहीं
सुन सकते, तों
टेंप्टेशन
नहीं होता। तो
कान भी बंद
रखने हैं।
यह
इंद्रिय—उपवास।
मौन,
आंख और कान,
ये तो पूरे
समय। सिर्फ
सुबह यहां जब
मैं बोलूंगा
तब आपको कान
और आंख खुली
रखनी हैं।
दोपहर के
ध्यान में
आपको कान बन
रखना है, आंख
खुली रखनी है।
रात के ध्यान
में आपको आंख
खुली रखनी है,
कान बंद
रखने हैं।
और
पांचवीं बात।
ये चार और
पांचवीं
अंतिम और
सर्वाधिक
जरूरी है।
ध्यान
रहे,
परमात्मा
के मंदिर में
केवल वे ही
लोग प्रवेश करते
हैं, जो
नाचते हुए प्रवेश
करते हैं, जो
हंसते हुए
प्रवेश करते
हैं, जो
आनंदित
प्रवेश करते
हैं। रोते हुए
लोगों ने
परमात्मा के
द्वार पर कभी
भी मार्ग नहीं
पाया है।
इसलिए उदासी
सात दिन के
लिए छोड़ दें।
प्रसन्न
रहें, हंसे,
नाचे, आह्लादित
रहें।
चियरफुत्ननेस
पूरे वक्त
आपके साथ हो।
उठते—बैठते एक
मगन, एक
धुन में मस्त,
एक
हर्षोन्माद, एक एक्सटेसी,
चढ़ा है एक
नशा। चल रहे
है, तो ऐसे
नहीं कि जैसे
हर कोई चलता है।
चल रहे हैं, तो ऐसे जैसे
कि फकीर को, साधक न ने
चलना चाहिए —
नाचते हुए
आनंद में।
दूसरे की
फिक्र छोड़ दें
यहां। यहां हम
आए ही इसलिए
हैं ताकि हम
दूसरे की
फिक्र छोड़
सकें। कोई
आपको पागल
समझेगा, बस।
आप पहले ही
समझ लें कि
इतना ही
समझेगा, इससे
ज्यादा कोई और
हर्जा नहीं है।
तो
इस पूरे शिविर
को एक
आनंदमग्न —
मौन,
लेकिन आनंद
से उबलता हुआ;
चुप,
लेकिन
आह्लाद से
नाचता हुआ; शांत,
लेकिन भीतर
ऊर्जा नृत्य
करती हुई —
आह्लाद से भरे
हुए रहें, नाचे,
हंसे।
यहां
ध्यान में भी, सुबह
का जो ध्यान
है, उसमें
भी पूरे आनंद
से भरे हुए
रहें। जब
नाचने का मन
आए ध्यान में
तो नाचे, कूदे,
हंसे। रोएं,
तो वह रोना
भी आपके आनंद
से ही आए।
आपके आंसू भी
आपकी खुशी को
ही लाते हों।
इसे ध्यान में
रखें। दोपहर
के मौन में भी
आपको नाचने का
मन है, नाचे।
डोलने का मन
है, डोले।
रात के ध्यान
में भी नाचना
चाहते हैं, नाचे। डोलना
है, डोले।
हंसना है, हंसे।
लेकिन आनंद की
किरन आपके साथ
बनी रहे।
ये
पांच बातें कल
सुबह से शुरू
कर देनी हैं।
इसलिए आज रात
ही आप आंख की
पट्टी, कान
के लिए, वह
सारा इंतजाम
आप कर लेंगे।
कल सुबह सूरज
उगने के साथ
आप वह नहीं
हैं जो आए थे।
फिर आपसे वह
अपेक्षा नहीं
है। फिर आपसे
अपेक्षा जो
मैंने कही वह
है। और अगर आप
अपनी अपेक्षा
पूरी करते हैं,
तो कोई कारण
नहीं है — कोई
कारण नहीं है —
कि यहां से
जाते वक्त आप
न कह सकें, ओम
शांति: शांति:
शांति:। आप यह
कहते हुए, आपका
हृदय यह कहता
हुआ जाए, इसमें
कुछ भी कठिनाई
नहीं है।
तो
आज तो ये
सूचनाएं ही
आपको देनी थीं।
कल
सुबह पहले हम
घंटेभर
ईशावास्य पर
चर्चा करेंगे, फिर
घंटेभर ध्यान
करेंगे। फिर
दोपहर घंटेभर
मौन। फिर रात
घंटेभर तीसरे
प्रकार का
ध्यान। और
बाकी समय तो
आपको ध्यान
में लीन रहना
ही है।
रात
की बैठक पूरी
हुई।
शायद
एक—दो सूचनाएं
कुछ होंगी, तो
वह मित्र आपको
दे देंगे, फिर
हम विदा होंगे।
thank you guruji
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