अध्याय 41 :
खंड 2
ताओपंथी के
गुणधर्म
श्रेष्ठ
चरित्र घाटी
की तरह खाली
प्रतीत होता
है;
निपट
उजाला धुंधलके
की तरह दिखता
है;
महा
चरित्र
अपर्याप्त
मालूम पड़ता है;
ठोस
चरित्र
दुर्बल दिखता
है;
शुद्ध
योग्यता दूषित
मालूम पड़ती
है।
महा
अंतरिक्ष के
कोने नहीं
होते;
महा
प्रतिभा
प्रौढ़ होने
में समय लेती
है;
महा
संगीत धीमा
सुनाई देता है;
महा
रूप की
रूप-रेखा नहीं
होती;
और
ताओ अनाम छिपा
है।
और
यह वही ताओ है
जो दूसरों को
शक्ति
देने
और आप्तकाम
करने में पटु
है।
दर्शन
दृष्टि पर
निर्भर है। हम
वही देख पाते
हैं जो हम देख
सकते हैं। जो
हमें दिखाई
पड़ता है उसमें
हमारी आंखों
का दान है। हम
जैसे हैं वैसा
ही हमें दिखाई
पड़ता है, और हम
जैसे नहीं हैं
उससे हमारा
कोई भी संबंध नहीं
जुड़ पाता। यह
स्वाभाविक भी
है। लेकिन इसका
हमें स्मरण
नहीं है। इसलिए
जो हम देखते
हैं, हम
सोचते हैं वह
सत्य है। बहुत
संभावना यही
है कि वह
हमारी आंखों
का ही
प्रतिबिंब
है।
सत्य
को तो वही देख
पाता है जो
सभी तरह की
दृष्टियों से, सभी
तरह की आंखों
से मुक्त हो
जाता है। आंख
पर रंगीन
चश्मा हो तो
जगत रंगीन
दिखाई पड़ने
लगता है। और अगर
चश्मा भूल जाए
तो हम सोचेंगे
कि जगत इसी रंग
का है। अंधे
को प्रकाश
दिखाई नहीं
पड़ता तो अंधे
के लिए यही
सत्य है कि
प्रकाश नहीं
है। लेकिन
अंधे को न
दिखाई पड़ने से
प्रकाश का न
होना सिद्ध
नहीं होता।
हर
प्राणी के पास
भिन्न तरह की
आंखें हैं।
वैज्ञानिक
निरंतर विचार
करते हैं कि
जगत विभिन्न
शरीरों से
कैसा दिखाई
पड़ता होगा।
मनुष्य जैसा
जगत को देखता
है,
वैसा जगत है?
या वैसा
इसलिए दिखाई
पड़ता है कि
मनुष्य के पास
एक खास तरह की
आंख है? मनुष्य
के पास ही और
पशुओं की लंबी
कतार है। उन
पशुओं को भी
जगत दिखाई
पड़ता है, लेकिन
उन्हें ऐसा
दिखाई नहीं पड़
सकता जैसा
मनुष्य को
दिखाई पड़ता
है। उनकी
आंखें भिन्न
हैं; उनके
देखने का ढंग
भिन्न है।
उनकी वासनाएं
भिन्न हैं; उनके
व्यक्तित्व
का ढांचा
भिन्न है। उस
पूरी भिन्नता
के बीच से जगत
बिलकुल अलग ही
दिखाई पड़ता
होगा।
लेकिन
हमारे पास कोई
उपाय भी नहीं
कि हम जान
सकें कि
पशु-पक्षी या
पौधे जगत को
कैसा जानते
हैं। हम अपने
भीतर बंद हैं।
हर आदमी अपने
शरीर के यंत्र
के भीतर बंद
है--हर पशु, हर
पक्षी, हर
पौधा। और जगत
से हमारा उतना
ही संबंध होता
है जितनी
हमारे पास
इंद्रियां
हैं, और
जैसी
इंद्रियां
हैं।
यह बात
ठीक से समझ
में आ जाए तो
हमारा आग्रह
क्षीण हो जाए, तो
फिर हम अपनी
दृष्टि को ही
सत्य करने की
कोशिश छोड़
दें। फिर हम
ऐसा ही कहें
कि ऐसा मुझे
दिखाई पड़ता है;
मुझे पता
नहीं ऐसा है
भी या नहीं।
जिस व्यक्ति
को यह खयाल
में आ जाए, उसका
आग्रह, मतांधता,
अंधता कम हो
जाएगी। और एक
ऐसी घड़ी भी आ
जाएगी जब
धीरे-धीरे वह
सभी दृष्टियों
को छोड़ देगा, सभी
पक्षपातों को,
सभी
धारणाओं को।
और जब कोई
व्यक्ति सारी
धारणाएं, सारे
पक्षपात, सारी
दृष्टियों को
छोड़ कर देखने
में समर्थ हो पाता
है, तब उसे
वह दिखाई पड़ता
है जो है।
दृष्टियों से मुक्त
होकर जो दर्शन
होता है वही
सत्य का दर्शन
है।
लाओत्से
के ये सूत्र, सामान्य
तृतीय श्रेणी
के मनुष्य को
जैसा दिखाई
पड़ता है, उसकी
खबर देते हैं।
"श्रेष्ठ
चरित्र घाटी
की तरह खाली
प्रतीत होता
है।'
वह जो
सामान्य
बुद्धि है, वह
जो हम सबकी
बुद्धि है, उस बुद्धि
के अनुसार हमें
श्रेष्ठ
चरित्र खाली
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि हम
जिसे चरित्र
कहते हैं वह
तो चरित्र है
ही नहीं। हम
जिसे चरित्र
कहते हैं उसे
ही हम एक शिखर
की भांति
देखने के आदी
हो गए हैं।
ताओ का जो
चरित्र है, वस्तुतः
निर्मल धर्म
का जो चरित्र
है, वह तो
हमें घाटी की
तरह दिखाई पड़ेगा।
क्योंकि हम
उलटे खड़े हैं।
वह जो शिखर की भांति
है, हमें
घाटी की तरह
दिखाई पड़ेगा।
ऐसे ही जैसे
आप उलटे खड़े
हों, शीर्षासन
करते हों, और
सारा जगत आपको
उलटा चलता हुआ
मालूम पड़े। अगर
आप भूल जाएं
कि आप
शीर्षासन कर
रहे हैं तो सारा
जगत उलटा चलता
हुआ मालूम
पड़े। स्मरण आ
जाए कि मैं
शीर्षासन कर
रहा हूं और आप
सीधे खड़े हो
जाएं तो सारा
जगत आपके साथ
एक क्षण में
सीधा हो जाता
है।
आप
कैसे खड़े हैं, इस
पर निर्भर है।
क्यों शुद्ध
चरित्र, निर्मल
चरित्र, श्रेष्ठ
चरित्र घाटी
की भांति खाली
दिखाई पड़ेगा?
थोड़ा
सूक्ष्म है; समझना जरूरी
है।
अगर एक
व्यक्ति
प्रेम का ऊपर
से आचरण कर
रहा हो, उसके
हृदय में
प्रेम का
आविर्भाव न
हुआ हो--जैसा
कि सभी आम
व्यक्तियों
के जीवन में
होता है, वे
केवल प्रेम का
आचरण करते हुए
मालूम होते हैं,
प्रेम का
अंतस उनके पास
नहीं होता--तो
जो व्यक्ति
प्रेम का आचरण
करता है उसका
प्रेम हमें
शिखर की भांति
मालूम पड़ेगा। क्योंकि
वह अपने प्रेम
को सब भांति
प्रकट करेगा।
प्रेम अगर
भीतर हो तो
प्रकट करने की
जरूरत भी नहीं
है। प्रेम
भीतर न हो तो
प्रकट किए बिना
उसके होने का
कोई उपाय नहीं
रह जाता। तो
जिस व्यक्ति
के भीतर प्रेम
नहीं है, वह
प्रेम का बहुत
ज्यादा
व्यवहार
करेगा; शब्दों
से, विचार
से, सब
भांति जतलाएगा
कि उसे प्रेम
है। और इस जतलाने
वाले व्यक्ति
का प्रेम हमें
दिखाई भी
पड़ेगा। क्योंकि
हम आचरण को ही
देख सकते हैं,
अंतस को
नहीं। जो ऊपर
प्रकट होता है
उस तक ही हमारी
पहुंच है; जो
भीतर गहरे में
छिपा होता है
उस तक हमारी
पहुंच नहीं
है। हम बीज को
नहीं देख सकते,
हम तो केवल
फूल को ही देख
सकते हैं, जो
प्रकट हो गए
हैं। फिर चाहे
वह फूल नकली
ही क्यों न हो,
कागज का ही
क्यों न हो, चाहे उस फूल
पर सुगंध ऊपर
से क्यों न छिड़की
गई हो। लेकिन
हमें बीज में
छिपा फूल
दिखाई नहीं पड़
सकता। उसके
लिए बड़ी गहरी
आंखें चाहिए।
उतनी गहरी आंख
तृतीय कोटि के
मनुष्य के पास
नहीं है।
ऊपर-ऊपर देख
सकता है।
आपको
भी अंदाज होगा
कि जब आपका
किसी से प्रेम
नहीं होता, और
आप प्रेम
जतलाना चाहते
हैं, प्रेम
जतला कर
कोई फायदा
उठाना चाहते
हैं, तब आप
प्रेम में
बहुत ही मुखर
हो जाते हैं, तब आप प्रेम
की
अभिव्यक्ति
में बड़ी
तीव्रता दिखलाते
हैं। भीतर की
कमी को छिपाने
के लिए बाहर
की
अभिव्यक्ति
करते हैं। जिस
दिन आपको डर
होता है कि
आपने कुछ ऐसा
काम किया है
कि आपकी पत्नी
अगर जान जाए
तो उपद्रव
होगा, उस
दिन आप भेंट
लेकर घर
पहुंचते हैं,
फूल ले जाते
हैं, आइसक्रीम
ले जाते हैं।
उस दिन आप
प्रेम को प्रकट
करते हैं। कुछ
है जिसे
छिपाना है; भीतर कोई
जगह खाली है
जहां प्रेम
नहीं है, उसे
बाहर के किसी
आवरण से भरना
है।
यह जो
ऊपर की
अभिव्यक्ति
है,
इस पर बहुत
जोर बढ़ता जा
रहा है। पश्चिम
में तो रोज
किताबें लिखी
जाती हैं--कैसे
प्रेम करें।
उसमें सभी
किताबों में
अनिवार्यतः
एक बात होती
है कि प्रेम
को छिपाए मत
रखें, प्रकट
करें।
क्योंकि जो
छिपा है उसे
कोई भी नहीं
जानता। उसे
बोल कर कहें, उसे आचरण से जतलाएं, उसे व्यवहार
से दिखाएं। आप
अपनी पत्नी को
प्रेम करते
हैं, पश्चिम
में लिखी जाने
वाली किताबें
कहती हैं, इतना
काफी नहीं है।
आप इसे कहें
भी कि मैं प्रेम
करता हूं। इसे
आप रोज दोहराएं
भी, और इसे
आप किसी न
किसी भांति
व्यवहार से भी
जाहिर करें।
ये
किताबें इस
बात की खबर
देती हैं कि
आदमी के भीतर
से प्रेम मर
चुका है, या
आदमी समर्थ ही
नहीं रहा
प्रेम को
समझने में। जब
प्रेम होता है
तो जतलाने
की कोई भी
जरूरत नहीं
होती। जब
प्रेम होता है
तो यह कहना कि
मैं प्रेम
करता हूं, बेहूदा
मालूम पड़ेगा,
ओछा मालूम
पड़ेगा, क्षुद्र
मालूम पड़ेगा,
व्यर्थ
मालूम पड़ेगा।
इसे उठाना, इसकी चर्चा
भी उठानी, नीचे
गिरना मालूम
पड़ेगा।
व्यवहार से भी
प्रकट करने की
आवश्यकता तभी
है जब प्रेम
गहरा न हो।
अगर प्रेम
गहरा हो तो
मौन में भी
प्रकट है। अगर
प्रेम हो तो
व्यवहार में
भी न आए तो भी
प्रकट है।
लेकिन तब
दूसरी तरफ भी
आंखें चाहिए
जो उतना गहरा
देख सकें।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
श्रेष्ठ
चरित्र खाली
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि श्रेष्ठ
चरित्र प्रकट
करने की
चेष्टा ही नहीं
करता।
श्रेष्ठ
चरित्र होने
के खयाल में
होता है, प्रकट
करने के खयाल
में नहीं। पर
श्रेष्ठ चरित्र
फिर हमें
दिखाई नहीं पड़
सकता। हमें तो
जो शोरगुल करे,
काफी
उपद्रव मचाए,
सब तरफ से दिखलाए, वही दिखाई
पड़ता है। ठीक
प्रेमी को हम
पहचान ही न
पाएंगे। हम
केवल अभिनेता
को पहचान सकते
हैं, और
ठीक प्रेमी
अभिनय नहीं
करेगा। अभिनय
जैसी क्षुद्रता
ठीक प्रेमी
नहीं करेगा।
अभिनय तो वही
करेगा जिसके
पास प्रेम
नहीं है।
अभिनय उसका सब्स्टीटयूट
है, उसका
परिपूरक है।
तो जिस
प्रेमी ने
आपसे कभी कहा
ही नहीं कि
मैं प्रेम
करता हूं, जिसने
कभी आपके पास
प्रेम की कोई
भेंट नहीं भेजी,
जिसने
प्रेम को
पार्थिव नहीं
बनाया...। भेंट
पार्थिव है; प्रेम
अपार्थिव है।
इसलिए प्रेमी
भेंट देते हैं
ताकि पता चल
जाए कि प्रेम
है। उसे
पदार्थ तक
लाना पड़ता है।
क्योंकि
पदार्थ हमें
दिखाई पड़ता
है। भेंट का
अर्थ है
पदार्थ में ले
आना। लेकिन
प्रेम अगर चुप
रहे, न
पदार्थ तक
लाया जाए, न
व्यवहार से
प्रकट करने की
कोशिश की जाए,
सहज जो बहाव
हो, होने
दिया जाए, तो
इस जगत में
कितने लोग उस
तरह के प्रेम
को पहचान
पाएंगे? प्रेम
का भी प्रचार
करना होता है।
उसके लिए भी
विज्ञापन
करना होता है।
उसके लिए भी
सब भांति
शोरगुल और
आवाज पैदा
करनी होती है।
क्योंकि मौन
के संगीत को
कोई सुन ही
नहीं पाता; कान इतने
बहरे हो गए
हैं। जब तक
बहुत उपद्रव न
मचाया जाए तब
तक पता ही
नहीं चलता कि
कुछ हो रहा
है।
जैसा
प्रेम है, वैसे
ही जीवन के
सारे चरित्र
की दिशाएं
हैं। अगर कोई
आदमी
सत्यवादी है,
अगर कोई
आदमी शीलवान
है, अगर
कोई आदमी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध है,
तो भी हमें
तभी पता चलेगा
जब इसका
प्रचार किया
जाए।
मैंने
सुना है, डेल कार्नेगी
ने अपने
संस्मरणों
में कहीं लिखा
है कि वह एक विज्ञापन
कंपनी का काम
करता था। और
एक धनपति के
पास गया, और
धनपति से उसने
कहा कि आप कभी
अपने सामान का,
जो आप बेचते
हैं और बनाते
हैं, उसका
कोई विज्ञापन
नहीं करते
हैं। आप बहुत
पुराने ढंग से
चल रहे हैं।
दुनिया बदल
गई। अब बिना
विज्ञापन के
कोई खबर नहीं
हो सकती। उस
धनपति ने कहा
कि हमारा काम
सौ वर्ष
पुराना है, और हमें
किसी
विज्ञापन की
जरूरत नहीं
है। लोग जानते
हैं, लोग
भलीभांति
जानते हैं, और लोग
श्रेष्ठ चीज
को पहचानते
हैं। इसलिए क्षमा
करें, हमारी
कोई उत्सुकता
विज्ञापन में
नहीं है।
तभी
सांझ हो गई और
पहाड़ी के ऊपर
बने चर्च की घंटियां
बजने लगीं। तो
डेल कार्नेगी
ने कहा उस
धनपति से कि
आप ये चर्च की घंटियां
सुनते हैं? यह
चर्च कितना
पुराना है? उस धनपति ने
कहा, कम से
कम पांच सौ
वर्ष पुराना
है। तो डेल कार्नेगी
ने कहा, अभी
तक यह घंटियां
बजाता है; तभी
लोगों को पता
चलता है कि
चर्च है। यह घंटियां
बजाना बंद कर
दे, लोग
भूल जाएंगे।
डेल कार्नेगी
ने लिखा है, उस
धनपति ने
तत्काल अपने
विज्ञापन का
आर्डर लिख कर
दिया।
कितने
पुराने हैं, इससे
कोई सवाल नहीं;
प्रचार तो
करना ही होगा।
लेकिन अक्सर
लोग भूल जाते
हैं। इसीलिए
पति-पत्नी को
धीरे-धीरे
लगता है कि
उनके बीच
प्रेम नहीं रहा।
क्योंकि वे
प्रचार कम कर
देते हैं। जो
प्रचार शुरू
में किया था, यह सोच कर कि
अब तो तीस साल
पुराना हो गया
प्रेम, अब
क्या रोज-रोज
सुबह-सुबह उठ
कर कहना है कि
तुझ जैसी कोई
स्त्री जगत
में नहीं, तेरे
सौंदर्य की
कोई तुलना
नहीं, तू
मुझे मिल गई
तो सब कुछ मिल
गया, अब यह
रोज-रोज क्या
कहना है? लेकिन
हमारी आंखें
इतना गहरा
नहीं देख
पातीं। न
हमारा इतना
प्रेम गहरा है
और न इतनी
आंखें गहरी
हैं कि बिना
प्रचार के चल
जाए। इसलिए
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक
सलाह देते हैं
कि चाहे तीस
साल, और
चाहे तीन सौ
साल हो जाएं, तो भी रोज
सुबह उठ कर घंटियां
बजाना और
प्रचार करना।
क्योंकि
सिर्फ प्रचार
ही दिखाई पड़ता
है। और प्रचार
करते-करते ही
असत्य भी सत्य
हो जाते हैं।
एडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि सत्य
का कोई और
अर्थ नहीं है; ऐसा
असत्य जिसका
काफी दिनों से
प्रचार किया गया
है सत्य हो
जाता है। और
एडोल्फ हिटलर
ने अपने जीवन
से ही सिद्ध
कर दिया कि
असत्य को दोहराए
चले जाओ, फिक्र
मत करो, दोहराए
चले जाओ, आज
नहीं कल वह
सत्य हो
जाएगा।
दोहराने वाले
की क्षमता पर
निर्भर है कि
असत्य सत्य
होगा या नहीं।
कान पर पड़ता
ही रहे, पड़ता
ही रहे, तो
सुनते-सुनते,
सुनते-सुनते
भरोसा आ जाता
है।
आप
हिंदू हैं।
आपने कभी खोज
की है कि
हिंदू होने
में क्या सत्य
है?
या आप
मुसलमान हैं।
क्या कभी आपने
खोज की है कि
मुसलमान होने
का क्या अर्थ
है? नहीं, सिर्फ
प्रचार है, लंबा प्रचार
है। और प्रचार
इतना लंबा है
कि पीढ़ी
दर पीढ़ी
चला आया है; आपके खून और
हड्डी में
प्रवेश कर गया
है। और जब आप
पैदा होते हैं
तब से प्रचार
शुरू हो जाता है।
जब आप होश
सम्हालते हैं
तब तक प्रचार
काफी भीतर
प्रवेश कर गया
होता है। और आपको
खुद ही लगने
लगता है कि
मैं हिंदू हूं;
अगर हिंदू
धर्म खतरे में
है तो मैं जान
दे दूंगा।
प्रचार सत्य
हो जाता है।
हम जी
ही रहे हैं
बाह्य से, और
बाहर से जो
हमारे भीतर
डाल दिया जाता
है वही हमें
दिखाई पड़ता
है। भीतर को
देखने की
क्षमता हमारी
न के बराबर है
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"श्रेष्ठ
चरित्र घाटी
की तरह खाली
प्रतीत होता
है।'
क्योंकि
हम अश्रेष्ठ
चरित्र से
परिचित हैं जो
कि शिखर की
तरह अपना
प्रचार करता
है। और हम शब्दों
से जीते हैं, और
श्रेष्ठ मौन
होता है। और
हम बाहर को
देखते हैं, और श्रेष्ठ
भीतर होता है।
इसलिए श्रेष्ठ
हमें दिखाई ही
नहीं पड़ता।
इसलिए अगर हम रोज
धोखा खाते हैं
तो किसी और का
कसूर नहीं है;
हम खुद ही
धोखा खाने को
तैयार हैं।
क्योंकि हम
जहां से देखते
हैं वहां धोखा
ही होगा। उससे
गहरी हमारी
आंख प्रवेश
नहीं करती।
"निपट
उजाला धुंधलके
की तरह दिखता
है।'
क्योंकि
हमारी आंखें
जब तक
उत्तेजना
तीव्र न हो तब
तक देख नहीं
पातीं। सुबह
जब सूरज नहीं
निकलता तब जो
उजाला होता है
वह निपट उजाला
है। उसमें चकाचौंध
नहीं है, उसमें
उत्तेजना
नहीं है, उसमें
तीव्रता नहीं
है, उसमें
चोट और आक्रमण
नहीं है; अनाक्रामक,
अहिंसक
उजाला है।
लेकिन वह हमें
धुंधलके
की तरह दिखता
है। जब सूरज
उग आता है और
उसकी प्रखर
किरणें हमारी
आंखों को
भेदने लगती
हैं तब हमें
लगता है कि
उजाला हुआ।
हमारी
सभी संवेदनशीलताएं
क्षीण हो गई
हैं,
मंद हो गई
हैं। जैसा
हमारा स्वाद
मंद हो गया है।
तो जब तक
मिर्च जाकर
हमारी जीभ को
झकझोर न दे तब
तक हमें पता
नहीं चलता कि
कोई स्वाद है।
और जो आदमी
मिर्च खाने का
आदी हो गया, उसके सब
स्वाद खो जाते
हैं। क्योंकि
इतने तीव्र
स्वाद के बाद
फिर जो मंदिम
स्वाद हैं, भद्र स्वाद
हैं, वे
फिर खयाल में
नहीं आते।
हमारी जीभ फिर
उनसे संबंधित
ही नहीं हो
पाती। हम
हिंसा के इतने
आदी हो गए हैं
कि कुछ भी
अहिंसक घटना
हमें दिखाई
नहीं
पड़ती--उत्तेजना,
सेंसेशन,
जितना तेज
हो।
देखते
हैं आप, संगीत
रोज तेज होता
चला जाता है।
युवकों का जो
संगीत है; जब
तक बिलकुल
पागल करने
वाला न हो, इतने
जोर-शोर से न
हो कि आपकी
सभी
इंद्रियां चोट
खाकर
अस्तव्यस्त
हो जाएं, तब
तक युवकों को
लगता है, यह
कोई संगीत ही
नहीं है। धीमे
स्वर, भद्र
स्वर, शांत
स्वर सुनाई ही
नहीं पड़ेंगे।
कान भी हमारे
उत्तेजना
मांगते हैं; वस्त्र भी।
जब तक कि रंग
ऐसे न हों कि
जो आंखों को
भेद दें, ऐसे
न हों कि
तिलमिलाहट
पैदा कर दें, तब तक रंग
नहीं मालूम
पड़ते।
हमारा
पूरा जीवन ही
गहरी
उत्तेजना, तेज
स्वाद, चोट
पहुंचाने
वाले स्वर, चोट
पहुंचाने
वाली घटनाएं,
इनकी मांग
करता है। सुबह
उठ कर आप
अखबार देखते
हैं, उसमें
आप नजर डालते
हैं--कहां
कितने लोग मरे,
कहां युद्ध
शुरू हुआ, कहां
आगजनी हुई, कहां उपद्रव
हुआ, कहां हत्याएं, बलात्कार, कितनी
स्त्रियां
भगाई गईं। और
अगर अखबार में
ऐसी कोई खबर न
हो तो आप
कहेंगे आज कुछ
हुआ ही नहीं।
आप अखबार को
नीचे रख देंगे
उदास चित्त से
कि आज कोई खबर
नहीं है। भद्र,
शांत छूता
ही नहीं।
अभद्र और
अशांत ही छूता
है। अगर आप फिल्म
देखते हैं तो
हत्या चाहिए,
जासूसी
चाहिए, युद्ध
चाहिए, खून
चाहिए। तब
आपकी रीढ़ थोड़ी
कुर्सी पर
सीधी होकर
बैठती है जब
कुछ होने लगता
है। कुछ होने
का मतलब यह
होता है कि
कुछ उपद्रव
होने लगता है।
अगर सब
ठीक-ठीक चलता
हो, जैसा
चलना चाहिए, तो वह फिल्म
चल नहीं सकती।
फिल्म तभी चल
सकती है जब एक्साइटमेंट
हो, जब
आपका खून खौलने
लगे।
और
आपको पता नहीं
है,
अभी
मनोवैज्ञानिक
एक प्रयोग
हार्वर्ड
विश्वविद्यालय
में कर रहे
थे। तो
उन्होंने
चूहों का एक
समूह--बारह
चूहे--दो
हिस्सों में
बांट दिया। छह
चूहों को
चूहों की एक
फिल्म दिखाई गई,
जिसमें
चूहे लड़ते हैं,
खून करते
हैं, एक-दूसरे
की चमड़ी फाड़
देते हैं, हड्डियां
खींच लेते
हैं। दूसरे छह
चूहों को एक
साधारण फिल्म
दिखाई गई, जिसमें
सामान्य चूहे
अपनी खोलों
में जाते हैं,
बाहर
निकलते हैं, दाना चुनते
हैं; सामान्य
जीवन, कहीं
कोई खून-हत्या
नहीं।
जिन छह
चूहों ने खून
और हत्या की
फिल्म देखी उनका
ब्लड-प्रेशर
बढ़ गया, और वे
लड़ने-मारने को
उतारू हो गए।
जिन छह चूहों
ने सामान्य
फिल्म देखी
उनमें से अधिक
सो गए देखते-देखते
ही। उसमें कुछ
सार नहीं था; उसमें कोई
समाचार नहीं
था। उनका
ब्लड-प्रेशर सामान्य
रहा। रात, जिन
छह चूहों ने
शांत फिल्म
देखी थी, वे
निश्चिंत भाव
से सोए; उनकी
नींद में कोई
व्याघात न था।
उन्होंने कोई
खतरनाक सपने
नहीं देखे।
क्योंकि अब तो
चूहों के भी
मस्तिष्क को
रात में जांचने
का उपाय है।
क्योंकि जब
सपना देखा
जाता है तो मस्तिष्क
में तनाव आ
जाता है, नसें
फूल जाती हैं,
खून तेजी से
बहता है, और
तरंगें
ज्वरग्रस्त
हो जाती हैं; उनका ग्राफ
बन जाता है।
जिन छह चूहों
ने फिल्म देखी
उपद्रव की, खून की, हत्या
की, उनकी
रात बेचैन
रही।
उन्होंने
ज्यादा करवटें
बदलीं, अनेक
बार उनकी नींद
टूटी। और
उन्होंने
सपने देखे और
सपने सब तीव्र
थे, भयभीत
करने वाले थे,
दुख-स्वप्न,
नाइटमेयर थे।
आप जब
एक तेज फिल्म
देख कर आते
हैं तो ऐसा मत
सोचना कि चूहे
से भिन्न आप
व्यवहार
करेंगे। आप देखने
ही इसलिए गए
हैं कि खून
ठंडा-ठंडा
मालूम पड़ता है, उसमें
चाल नहीं
मालूम पड़ती, उसमें थोड़ी
चाल आ जाए, खून
में थोड़ी गति
आ जाए, थोड़ा
खून का
व्यायाम हो
जाए, थोड़ा
मस्तिष्क
झकझोर उठे। आप
करीब-करीब सो
गए हैं। वही
दफ्तर, वही
पत्नी, वही
बच्चे, वही
मकान; जो
फिल्म आपके
चारों तरफ चल
रही है उससे
आप बिलकुल ऊब
गए हैं। इस ऊब
में से कोई
झकझोर कर बाहर
निकाल ले।
तो अगर
जीवन जैसा कि
बुद्ध या
लाओत्से कहते
हैं वैसा हो
तो आपको बड़ा
उबाने वाला
होगा; जैसा
जीवन हिटलर, चंगेज खां
और तैमूरलंग
चाहते हैं
वैसा हो तो ही
आपको रसपूर्ण
होगा। फिर भी
आप बुद्ध की
पूजा करते हैं
और तैमूर
को गाली दिए
जाते हैं।
लेकिन आप
अनुयायी तैमूर,
हिटलर, नेपोलियन
के हैं। बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट
से आपका कुछ
लेना-देना
नहीं है। यह भी
आपकी तरकीब है
अपने को धोखा
देने की कि
चलते हैं पीछे
हिटलर के और
पूजा करते हैं
बुद्ध के मंदिर
में। इससे
आपको भरोसा
बना रहता है
कि हम भी
बुद्ध के पीछे
चलने वाले
हैं। लेकिन
बुद्ध के जीवन
में आपको क्या
रस होगा?
एक
मित्र अभी
मेरे पास आए।
जैन हैं, बड़े
उद्योगपति
हैं, धनपति
हैं।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
महावीर की पच्चीस
सौवीं
वर्षगांठ आ
रही है
चौहत्तर में,
तो आप कुछ
सुझाव दें कि
हम महावीर के
लिए क्या करें।
तो मैंने
उन्हें कहा कि
महावीर के
जीवन पर एक
फिल्म बनाएं।
उन्होंने कहा,
उसको कौन
देखेगा? उनके
जीवन में ऐसा
कुछ है ही
नहीं।
उन्होंने ठीक
कहा। वे
बिलकुल उदास
हो गए।
उन्होंने कहा,
देखेगा कौन
उस फिल्म को? वह चलेगी
कैसे? क्योंकि
महावीर बैठे
हैं आंख बंद
किए, इसको
कितनी देर तक दिखाइए? इसमें कोई
हत्या, इसमें
कोई प्रेम का
उपद्रव, कोई
ट्रायंगल,
कुछ भी नहीं
है--कि दो
स्त्रियां लड़
रही हों उनके
लिए, खींचतान
हो रही हो, कुछ
उपद्रव
हो--कुछ भी
नहीं है। जीवन
बिलकुल शांत
है। तो इस
शांत धार को
कौन देखेगा? वे ठीक कहते
हैं।
जब
महावीर की
फिल्म को कोई
देखने को राजी
नहीं है तो
महावीर के
जीवन को कौन
स्वीकार
करेगा? और
लोग अगर
महावीर जैसा
जीवन जीने
लगें तो हम सब
ऊब जाएंगे, बुरी तरह ऊब
जाएंगे। रस
उत्तेजना से
है।
लेकिन
उत्तेजना में
इतना रस क्यों
है?
इसे थोड़ा
समझना जरूरी
है। इसका अर्थ
है कि हमारी
संवेदनशीलता
कम है, सेंसिटिविटी
कम है। और
संवेदनशीलता
जितनी कम हो, जीवन उतना
ही कम होता
है। मृत्यु का
नाम है संवेदनशीलता
का खो जाना।
तो जितनी आपकी
संवेदनशीलता
कम होती चली
जाती है उतनी
उत्तेजना की मांग
बढ़ती है। और
जितनी
उत्तेजना की
मांग बढ़ती है,
वह इस बात
की सूचक है, आप उतने ही
मर चुके हैं।
मुर्दा आदमी
को आप कितनी
ही उत्तेजना
दें तो भी
उत्तेजित
नहीं होगा।
कितना ही
बैंड-बाजा बजाएं,
कितना ही
शोरगुल करें,
तो भी वह चौंकेगा
नहीं। उसका
अर्थ यह है कि
संवेदनशीलता
बिलकुल ही
समाप्त हो गई।
मृत्यु का
अर्थ है, संवेदना
बिलकुल खो गई।
आपको
जब बहुत
उत्तेजना
मिलती है तब
कभी आप थोड़ा
सा चौंकते
हैं। इसका अर्थ
है कि आप भी
काफी दूर तक
मर चुके हैं, डेड
हो गए हैं।
आपके तंतु भी
अब हिलते नहीं
हैं साधारणतः,
जब तक कि
कोई झकझोर न
दे। तब थोड़ा
सा कंपन होता है।
आपके तंतु भी
सूख गए हैं।
जितना
ज्यादा जीवित
व्यक्ति होगा
उतनी कम
उत्तेजना की
जरूरत होगी।
और जब व्यक्ति
परिपूर्ण
जीवित होता है, जैसा
महावीर या
बुद्ध, तो
किसी
उत्तेजना की
जरूरत नहीं
होती। जीवन का
होना ही काफी
आनंदपूर्ण
होता है; उसमें
फिर किसी
उत्तेजना की
कोई जरूरत
नहीं।
आखिर
बुद्ध और
महावीर अगर
अपने वृक्षों
के नीचे ऐसा
दिनों बैठे
रहते तो क्या
आप सोचते हैं, अगर
आपको बैठना
पड़े तो क्या
गति हो? क्या
आप सोचते हैं
कि बुद्ध और
महावीर बड़े ऊब
गए होंगे
बैठे-बैठे? उनके चेहरे
पर ऊब कभी
नहीं देखी गई।
वे जीवन में
इतने रसलीन
हैं, और
स्वाद उनका
इतना सूक्ष्म
है कि हवा का
थोड़ा सा कंपन
भी उनके लिए
काफी
आनंदपूर्ण है,
श्वास का
थोड़ा सा चलना
भी उनके लिए
काफी जीवन है।
होना अपने आप
में इतनी बड़ी
घटना है कि अब
किसी और घटना
की कोई जरूरत
नहीं--जस्ट
टु बी, सिर्फ
होना। आपके
लिए सिर्फ
होना तो कोई
अर्थ ही नहीं
रखता, जब
तक कि आपके
होने पर कोई
उपद्रव और न
होता रहे।
लाओत्से
का कहना बहुत
विचारणीय है।
लाओत्से कह
रहा है, "निपट
उजाला धुंधलके
की तरह दिखता
है।'
क्योंकि
हमारी आंखें
लपटों की आदी
हो गई हैं; मंद
प्रकाश, सौम्य
प्रकाश हमें
धुंधलका
मालूम होता
है।
"महा
चरित्र
अपर्याप्त
मालूम होता
है।'
क्योंकि
क्षुद्र चरित्र
के हम आदी हो
गए हैं। और
जितना
क्षुद्र चरित्र
हो उतना हमारी
समझ में आता
है। क्योंकि हमारी
समझ के बिलकुल
समानांतर
होता है। जितना
श्रेष्ठ होता
चला जाए उतना
ही हमारी समझ
के बाहर होता
जाता है। और
जो हमारी समझ
के बाहर है, वह
हमें दिखाई भी
नहीं पड़ता।
श्री
अरविंद को
किसी ने एक
बार पूछा कि
आप भारत की
स्वतंत्रता
के संघर्ष में, भारत
की आजादी के
युद्ध में
अग्रणी
सेनानी थे; लड़ रहे थे।
फिर अचानक आप
पलायनवादी
कैसे हो गए कि
सब छोड़ कर आप
पांडिचेरी
में बैठ गए
आंख बंद करके?
वर्ष में एक
बार आप निकलते
हैं दर्शन
देने को। आप
जैसा
संघर्षशील, तेजस्वी
व्यक्ति, जो
जीवन के घनेपन
में खड़ा था और
जीवन को रूपांतरित
कर रहा था, वह
अचानक इस
भांति
पलायनवादी
होकर अंधेरे
में क्यों छिप
गया? आप
कुछ करते
क्यों नहीं
हैं? क्या
आप सोचते हैं
कि करने को
कुछ नहीं बचा,
या करने
योग्य कुछ
नहीं है? या
समाज की और
मनुष्य की
समस्याएं हल
हो गईं कि आप विश्राम
कर सकते हैं? समस्याएं तो
बढ़ती चली जाती
हैं; आदमी
कष्ट में है, दुख में है, गुलाम है, भूखा है, बीमार
है; कुछ
करिए!
यही
लाओत्से कह
रहा है। श्री
अरविंद ने कहा
कि मैं कुछ कर
रहा हूं। और
जो पहले मैं
कर रहा था वह
अपर्याप्त था; अब
जो कर रहा हूं
वह पर्याप्त
है।
वह
आदमी चौंका
होगा जिसने
पूछा। उसने
कहा,
यह किस
प्रकार का
करना है कि आप
अपने कमरे में
आंख बंद किए
बैठे हैं!
इससे क्या
होगा?
तो
अरविंद कहते
हैं कि जब मैं
करने में लगा
था तब मुझे
पता नहीं था
कि कर्म तो
बहुत ऊपर-ऊपर
है,
उससे
दूसरों को
नहीं बदला जा
सकता। दूसरों
को बदलना हो
तो इतने स्वयं
के भीतर
प्रवेश कर जाना
जरूरी है जहां
से कि सूक्ष्म
तरंगें उठती
हैं, जहां
से कि जीवन का
आविर्भाव
होता है। और
अगर वहां से
मैं तरंगों को
बदल दूं तो वे
तरंगें जहां
तक जाएंगी--और
तरंगें अनंत
तक फैलती चली
जाती हैं।
रेडियो
की ही आवाज
नहीं घूम रही
है पृथ्वी के चारों
ओर,
टेलीविजन
के चित्र ही
हजारों मील तक
नहीं जा रहे
हैं, सभी
तरंगें अनंत
की यात्रा पर
निकल जाती
हैं। जब आप
गहरे में शांत
होते हैं तो
आपकी झील से शांत
तरंगें उठने
लगती हैं; वे
शांत तरंगें
फैलती चली
जाती हैं। वे
पृथ्वी को छुएंगी,
चांदत्तारों को छुएंगी,
वे सारे
ब्रह्मांड
में व्याप्त
हो जाएंगी। और
जितनी
सूक्ष्म तरंग
का कोई मालिक
हो जाए उतना
ही दूसरों में
प्रवेश की
क्षमता आ जाती
है।
तो
अरविंद ने कहा
कि अब मैं महा
कार्य में लगा
हूं। तब मैं
क्षुद्र
कार्य में लगा
था;
अब मैं उस
महा कार्य में
लगा हूं
जिसमें मनुष्य
से बदलने को
कहना न पड़े और
बदलाहट हो
जाए। क्योंकि
मैं उसके हृदय
में सीधा
प्रवेश कर
सकूंगा। अगर
मैं सफल होता
हूं--सफलता
बहुत कठिन बात
है--अगर मैं
सफल होता हूं
तो एक नए
मनुष्य का, एक महा मानव
का जन्म
निश्चित है।
लेकिन
जो व्यक्ति
पूछने गया था
वह असंतुष्ट ही
लौटा होगा। यह
सब बातचीत
मालूम पड़ती
है। ये सब पलायनवादियों
के ढंग और रुख
मालूम पड़ते
हैं। खाली
बैठे रहना
पर्याप्त
नहीं है, अपर्याप्त
है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"महा
चरित्र
अपर्याप्त
मालूम पड़ता
है।'
इसलिए
हम पूजा जारी
रखेंगे गांधी
की;
अरविंद को
हम धीरे-धीरे
छोड़ते
जाएंगे।
लेकिन भारत की
आजादी में
अरविंद का
जितना हाथ है
उतना किसी का
भी नहीं है।
पर वह चरित्र
दिखाई नहीं पड़
सकता।
आकस्मिक नहीं
है कि पंद्रह
अगस्त को भारत
को आजादी मिली;
वह अरविंद
का जन्म-दिन
है। पर उसे
देखना कठिन
है। और उसे
सिद्ध करना तो
बिलकुल असंभव
है। क्योंकि
उसको सिद्ध
करने का क्या
उपाय है? जो
प्रकट, स्थूल
में नहीं
दिखाई पड़ता
उसे सूक्ष्म
में सिद्ध
करने का भी
कोई उपाय नहीं
है। भारत की
आजादी में
अरविंद का कोई
योगदान है, इसे भी
लिखने की कोई
जरूरत नहीं
मालूम होती।
कोई लिखता भी
नहीं। और
जिन्होंने
काफी शोरगुल
और उपद्रव
मचाया है, जो
जेल गए हैं, लाठी खाई है,
गोली खाई है,
जिनके पास
ताम्रपत्र है,
वे इतिहास
के निर्माता
हैं।
इतिहास
अगर बाह्य
घटना ही होती
तो ठीक है; लेकिन
इतिहास की एक
आंतरिक कथा भी
है। तो समय की
परिधि पर
जिनका शोरगुल
दिखाई पड़ता है,
एक तो
इतिहास है
उनका भी। और
एक समय की
परिधि के पार,
कालातीत, सूक्ष्म में
जो काम करते
हैं, उनकी
भी एक कथा है।
लेकिन उनकी
कथा सभी को
ज्ञात नहीं हो
सकती। और उनकी
कथा से
संबंधित होना
भी सभी के लिए
संभव नहीं है।
क्योंकि वे
दिखाई ही नहीं
पड़ते। वे वहां
तक आते ही
नहीं जहां
चीजें दिखाई पड़नी शुरू
होती हैं। वे
उस स्थूल तक, पार्थिव तक
उतरते ही नहीं
जहां हमारी
आंख पकड़ पाए।
तो जब तक
हमारे पास
हृदय की आंख न
हो, उनसे
कोई संबंध
नहीं जुड़
पाता। इतिहास
हमारा झूठा है,
अधूरा है, और क्षुद्र
है। हम सोच भी
नहीं सकते कि
बुद्ध ने
इतिहास में
क्या किया। हम
सोच भी नहीं
सकते कि
क्राइस्ट ने
इतिहास में
क्या किया।
लेकिन हिटलर
ने क्या किया,
वह हमें साफ
है; माओ ने
क्या किया, वह हमें साफ
है; गांधी
ने क्या किया,
वह हमें साफ
है। जो परिधि
पर घटता है वह
हमें दिख जाता
है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"महा
चरित्र
अपर्याप्त
मालूम पड़ता
है। ठोस चरित्र
दुर्बल दिखता
है।'
गहरी
दृष्टि
चाहिए। ठोस
चरित्र
दुर्बल दिखता
है;
दुर्बल
चरित्र बड़ा
ठोस दिखता है;
इस
मनोविज्ञान
को थोड़ा खयाल
में ले लें।
असल में, दुर्बल
चरित्र का
व्यक्ति
हमेशा ठोस
दीवारें अपने
आस-पास खड़ी
करता है; ठोस
चरित्र का
व्यक्ति
दीवार खड़ी
नहीं करता। उसकी
कोई जरूरत
नहीं है; पर्याप्त
है वह स्वयं।
जैसे
देखें, कमजोर
चरित्र का
व्यक्ति हो तो
नियम लेता है,
व्रत लेता
है, संकल्प
लेता है; ठोस
चरित्र का
व्यक्ति
संकल्प नहीं
लेता। लेकिन
जो व्यक्ति
संकल्प लेता
है वह हमें
ठोस मालूम
पड़ेगा।
एक
आदमी तय करता
है कि मैं तीन
महीने तक जल
पर ही जीऊंगा, अन्न
नहीं लूंगा; और अपने
संकल्प को
पूरा कर लेता
है। हम कहेंगे,
बड़े ठोस
चरित्र का
व्यक्ति है।
स्वभावतः, दिखाई
पड़ता है, अब
इसमें कुछ
कहने की बात
भी नहीं है।
कोई प्रमाण
खोजने की
जरूरत नहीं
है। तीन महीने
तक, नब्बे
दिन तक जो
आदमी बिना
अन्न के, जल
पर रह जाता है,
हम जानते
हैं कि इसके
पास चरित्र है,
संकल्प है,
बल है, दृढ़ता
है।
लेकिन मनसविद से
पूछें। यह
आदमी भीतर
बहुत दुर्बल है; इसको
अपने पर भरोसा
नहीं है।
भरोसा लाने के
लिए यह सब तरह
के उपाय कर
रहा है। यह
तीन महीने तक संकल्प
को पूरा करना
भी स्वयं में
भरोसा पैदा करने
की चेष्टा है।
यह आदमी
निर्बल न हो
तो संकल्प ही
नहीं लेगा।
संकल्प ही
निर्बलता को
मिटाने की, छिपाने की, दबाने की चेष्टा
है। अगर इसे
भोजन नहीं
लेना है तो
नहीं लेगा; तीन महीने
नहीं, तीन
साल नहीं लेना
है तो नहीं
लेगा। लेकिन
इसका संकल्प
नहीं लेगा।
भोजन नहीं
लेना है तो
इसे अपने पर
भरोसा है, संकल्प
खड़ा करने की
जरूरत नहीं
है।
संकल्प
का मतलब यह है
कि मुझे अपने
पर भरोसा तो
है नहीं, तो
मैं एक संकल्प
खड़ा करता हूं,
मैं दांव
लगाता हूं, मैं संकल्प
की घोषणा कर
देता हूं। अब
दूसरे लोग भी
मेरे लिए
सहारा होंगे।
अगर मैं भोजन
करने का तीन
दिन बाद विचार
करने लगूं तो
मुझे खुद ही
ग्लानि लगेगी
कि अब यह तो
बड़ी मुश्किल
बात हो गई।
इज्जत का भी
सवाल है।
अहंकार का
सवाल है।
संकल्प
अहंकार का सवाल
है। अब लोग
क्या कहेंगे?
इसलिए
संकल्प लेने
वाले जाहिर
में संकल्प लेते
हैं, एकांत
में नहीं।
क्योंकि
एकांत में तो
उन्हें डर है,
टूट जाएगा।
जैन
उपवास करते
हैं। उनके
पर्युषण के
दिन करीब आ
रहे हैं, तब।
तब वे
करीब-करीब दिन
मंदिर में
गुजार देते
हैं। क्योंकि
मंदिर में, कितना ही
विचार आए भूख
का, भोजन
का, तो भी
कोई उपाय नहीं
है। और फिर
चारों तरफ उन्हीं
जैसे लोग
इकट्ठे हैं, जो एक-दूसरे
से सहारा मांग
रहे हैं। फिर
उनके मुनि और
उनके साधु
बैठे हुए हैं
जो उन पर दृष्टि
रखे हुए हैं
और वे उन पर
दृष्टि रखे
हुए हैं कि
कोई चूक न जाए
पथ से।
चूकने
का सवाल क्या
है?
अगर आदमी
सबल है, अगर
आदमी सच में
ही सबल है, तो
चूकने का सवाल
क्या है? और
किसके सहारे
की जरूरत है?
ये
सारे संकल्प
निर्बलता के
लक्षण हैं।
लेकिन इन
संकल्पों को
पूरा किया जा
सकता है।
क्योंकि
निर्बल आदमी
का भी अहंकार
है। सच तो यह
है कि निर्बल
आदमी का ही
अहंकार होता
है;
सबल आदमी को
अहंकार की कोई
जरूरत नहीं
होती। वह अपने
में इतना
आश्वस्त होता
है कि अब और
किसी अहंकार
की जरूरत नहीं
होती। अहंकार
की जरूरत का
अर्थ है कि
मैं अपने में
आश्वस्त नहीं
हूं, तुम
मुझे आश्वस्त
करो; तुम
कहो कि तुम
महान हो। लोग
कहें कि तुम
चरित्रवान हो;
लोग कहें कि
अदभुत है
तुम्हारा
संकल्प; लोग
स्वागत-समारंभ
करें; उसके
बल से मैं जी
सकता हूं, उसके
बल से मैं दृढ़
हो सकता हूं।
मेरी दृढ़ता
दूसरों के
हाथों से मुझे
मिलती है; दूसरों
की आंखों से
मुझे मिलती
है।
लेकिन
जो आदमी सच
में संकल्पवान
है,
सच में सबल
है, वह
हमें दुर्बल
दिखाई पड़ेगा।
दुर्बल इसलिए
दिखाई पड़ेगा
कि कभी वह
अपनी शक्ति को
प्रदर्शित
करने की
चेष्टा नहीं
करेगा, कभी
अपनी शक्ति के
लिए बाह्य
आयोजन नहीं
करेगा, और
कभी अपनी शक्ति
के लिए हमसे
सहारा नहीं मांगेगा।
कठिन
है। क्योंकि
जहां हम जीते
हैं वहां हम
सभी निर्बल
हैं। और हम
सभी इंतजाम
करके जीते हैं, इंतजाम
हमारी सबलता
होती है। और
अक्सर, आपको
पता होगा अपने
ही अनुभव से
कि दुर्बलता के
क्षण में आप
बाहर से बड़े
सबल दिखलाई
पड़ने की कोशिश
करते हैं। जब
लगता है कि
भीतर कहीं टूट
न जाऊं तब आप
बाहर से
बिलकुल
हिम्मत जुटा
कर खड़े रहते
हैं। लेकिन जब
आप भीतर
आश्वस्त होते
हैं तो बाहर
आपको हिम्मत
जुटाने की
जरूरत नहीं
होती। आप
निश्चिंत
विश्राम कर
सकते हैं।
एक
महिला को मेरे
पास लाया गया।
युनिवर्सिटी में
प्रोफेसर है।
पति की मृत्यु
हो गई तो वह रोई
नहीं। लोगों
ने कहा, बड़ी
सबल है!
सुशिक्षित है,
सुसंस्कृत
है! जैसे-जैसे
लोगों ने उसकी
तारीफ की
वैसे-वैसे वह
अकड़ कर पत्थर
हो गई। आंसुओं
को उसने रोक
लिया। जो
बिलकुल
स्वाभाविक था,
आंसू बहने
चाहिए। जब
प्रेम किया है,
और जब प्रेम
स्वाभाविक था,
तो जब
प्रियजन की
मृत्यु हो जाए
तो आंसुओं का बहना
स्वाभाविक
है। वह उसका
ही अनिवार्य
हिस्सा है।
लेकिन लोगों
ने तारीफ की
और लोगों ने कहा,
स्त्री हो
तो ऐसी! इतना
प्रेम था, प्रेम-विवाह
था, मां-बाप
के विपरीत
विवाह किया था,
और फिर भी
पति की मृत्यु
पर अपने को
कैसा संयत रखा,
संयमी रखा! संकल्पवान
है, दृढ़ है,
आत्मा है इस
स्त्री के
पास! इन सब
बकवास की बातों
ने उस स्त्री
को और अकड़ा
दिया।
तीन
महीने बाद उसे
हिस्टीरिया
शुरू हो गया, फिट
आने लगे।
लेकिन किसी ने
भी न सोचा कि
इस हिस्टीरिया
के जिम्मेवार
वे लोग हैं
जिन्होंने
कहा, इसके
पास आत्मा है,
शक्ति है, दृढ़ता है। वे ही
लोग हैं।
क्योंकि भीतर
तो रोना चाहती
थी, लेकिन
कमजोरी प्रकट
न हो जाए तो
अपने को रोके रखा।
यह रोकना उस
सीमा तक पहुंच
गया जहां रोकना
फिट बन जाता
है, यह
सीमा उस जगह आ
गई जहां कि
फिर अपने आप
कंप पैदा
होंगे। सारा
शरीर कंपने
लगता और वह
बेहोश हो
जाती। यह
बेहोशी भी मन
की एक
व्यवस्था है।
क्योंकि होश
में जिसे वह
प्रकट नहीं कर
सकती, फिर
उसे बेहोशी
में प्रकट
करने के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं रह
गया। शरीर तो
प्रकट करेगा
ही।
हिस्टीरिया
की हालत में
लोटती-पोटती,
चीखती-चिल्लाती।
लेकिन उसका
जिम्मा उस पर
नहीं था, और
कोई उससे यह
नहीं कह सकता
कि तेरी
कमजोरी है। यह
तो बीमारी है।
और होश तो खो
गया, इसलिए
जिम्मेवारी
उसकी नहीं है।
होश में तो वह
सख्त रहती।
जब
मेरे पास उसे
लाए तो मैंने
कहा कि उसे न
कोई बीमारी है, न
कोई
हिस्टीरिया
है। तुम हो
उसकी बीमारी।
तुम जो उसके
चारों तरफ
घिरे हो। तुम
कृपा करके उसके
अहंकार को
पोषण मत दो; उसे रो लेने
दो। वह जो
बेहोशी में कर
रही है उसे
होश में कर
लेने दो। उसे
छाती पीटनी
है, पीटने
दो; उसे
गिरना है, लोटना
है जमीन पर, लोटने दो।
स्वाभाविक
है। जब किसी
के प्रेम में
सुख पाया हो
तो उसकी
मृत्यु में
दुख पाना भी
जरूरी है। सुख
तुम पाओ, दुख
कोई और थोड़े
ही पाएगा?
तो
मैंने उस
स्त्री को कहा
कि तू सुख पाए, तो
दुख मैं पाऊं?
या कौन पाए?
मैंने उससे
पूछा कि तूने
अपने पति से
सुख पाया?
उसने
कहा,
बहुत सुख
पाया; मेरा
प्रेम था
गहरा।
तो फिर
मैंने कहा, रो!
छाती पीट, लोट!
बेहोशी में
जो-जो हो रहा
है, वह
संकेत है। तो
हिस्टीरिया
में जो-जो हो
रहा है, नोट
करवा ले
दूसरों से, और वही तू
होशपूर्वक कर;
हिस्टीरिया
विदा हो
जाएगा।
एक
सप्ताह में
हिस्टीरिया
विदा हो गया।
स्त्री स्वस्थ
है। और अब
उसके चेहरे पर
सच्चा बल
है--प्रेम का, पीड़ा
का। अब एक
सहजता है।
इसके पहले
उसके पास जो
चेहरा था वह
फौलादी मालूम
पड़ता था, लोहे
का बना हो।
लेकिन वह
निर्बलता का
सूचक है।
क्योंकि
चेहरे को
फौलाद का होने
की जरूरत भी
नहीं है।
फौलाद का
चेहरा उन्हीं
के पास होता
है जिनको अपने
असली चेहरे को
प्रकट करने में
भय है। तो वे
एक चेहरा ओढ़
लेते हैं; उस
चेहरे के पीछे
से वे ताकतवर
मालूम होते
हैं। आप भी
लोहे का एक
चेहरा पहन कर
लगा लें। तो
दूसरों को
डराने के काम
आ जाएगा। और
लोग कहेंगे, हां, आदमी
है यह। लेकिन
भीतर? भीतर
आप हैं जो कंप
रहे हैं, भय
से घबरा रहे
हैं। उसी के
कारण तो चेहरा
ओढ़ा हुआ
है।
वह
लोहे की फौलाद
तो गिर गई, उसके
साथ
हिस्टीरिया
भी गिर गया।
आंसुओं के साथ,
वह सब जो
झूठा था, बह
गया। रुदन में,
वह सब जो
कृत्रिम था, जल गया, समाप्त
हो गया। अब उस
स्त्री का
अपना चेहरा प्रकट
हुआ। लेकिन
इसके पहले जो
उसे
शक्तिशाली कहते
थे, अब
कहते हैं, साधारण
है; जैसी
सभी
स्त्रियां
होती हैं, निर्बल
है। वे जो उसे
शक्तिशाली
कहते थे, अब
उसे
शक्तिशाली
नहीं कहते।
लेकिन उनके
शक्तिशाली
कहने से
हिस्टीरिया
पैदा हुआ था, इसका उन्हें
कोई भी बोध
नहीं है।
लाओत्से
कहता है, ठोस
चरित्र
दुर्बल दिखता
है। क्योंकि
ठोस चरित्र
सहज होता है।
ठोस चरित्र
इतना आश्वस्त
होता है अपने
प्रति कि
सहज-स्फूर्त
होता है, स्पांटेनियस होता है।
कृत्रिम नहीं
होता, कोई
सुरक्षा का
उपाय नहीं होता,
सहज धारा
होती है।
देखें, हम
किनको
शक्तिशाली
कहते हैं? लोकमान्य
तिलक के जीवन
में मैंने पढ़ा
है। पत्नी मर
गई। तो वे
अपने दफ्तर
में काम करते
थे, केसरी
के दफ्तर में
काम करते थे।
तो जब खबर पहुंची
कि पत्नी की
मृत्यु हो गई
तो उन्होंने
लौट कर घड़ी की
तरफ देखा और
उन्होंने कहा,
अभी तो मेरे
दफ्तर से उठने
का समय नहीं
हुआ। तो जिस
व्यक्ति ने यह
घटना लिखी है
उसने लिखा है
कि इसको कहते
हैं ठोस
चरित्र!
फौलाद!
मगर
मेरे सोचने के
ढंग उलटे हैं।
यह फौलाद नहीं
है,
यह कृत्रिम
चेहरा है, जो
खतरनाक है।
क्योंकि जो
आदमी घड़ी को
ज्यादा मूल्य
दे रहा है
प्रेम से, दफ्तर
को ज्यादा
मूल्य दे रहा
है पत्नी से, इस आदमी ने
अपने
व्यक्तित्व
की जो सहजता
है, उसको
दबा लिया है।
जब कर्तव्य
बड़ा हो जाए
प्रेम से तो
समझना कि असली
आदमी दब गया
और नकली आदमी
ऊपर आ गया।
लेकिन यह बात
कोई और नहीं
कहेगा। क्योंकि
सारी दुनिया
में डयूटी, कर्तव्य
महान चीज है।
और जो आदमी
प्रेम की भी कुर्बानी
दे दे कर्तव्य
के लिए, उसको
हम
कहेंगे--शहीद
है! इसको कहते
हैं कर्तव्य!
सेवा!
राष्ट्र!
लेकिन
जिसके हृदय
में प्रेम की
सहज स्फुरणा न
हो उसका सारा
व्यक्तित्व
जड़ हो जाएगा, सूख
जाएगा। और जिसके
मन में प्रेम
की स्फुरणा न
हो उसके मन में
बाकी कोई
स्फुरणा नहीं
हो सकती। हम
सैनिक को
तैयार करते
हैं इस तरह से
कि वह बिलकुल
लोहे का आदमी
हो जाए। और
जरूरत है
सैनिक की कि
वह लोहे का
आदमी हो; क्योंकि
उसे जो काम
करने हैं, वह
अगर उसके पास
हृदय हो तो वह
नहीं कर
पाएगा। इसलिए
सैनिक को हम
कर्तव्य
सिखाते हैं, सेवा सिखाते
हैं, आज्ञा
सिखाते हैं।
और हमने सैनिक
को लक्ष्य बना
लिया है बहुत
जीवन के
हिस्सों में,
और हम हर
आदमी को चाहते
हैं कि वह
सैनिक जैसा हो,
सहज न हो।
क्योंकि सारा
जीवन संघर्ष
है और युद्ध
है।
लोकमान्य
के जीवन में
अगर ऐसी घटना
घटी हो तो
उसका मतलब यह
है कि जो लोग
प्रशंसा कर
रहे हैं वे
लोकमान्य के
सैनिक की
प्रशंसा कर
रहे हैं। उनका
कुछ लक्ष्य
है। क्योंकि
उनको
लोकमान्य को, और
लोकमान्य
जैसे लोगों को,
इस घटना के
आधार पर ऐसी
दिशा में ले
जाना है जहां
लोग हृदय को छोड़
कर संलग्न हो
जाएं। फिर वह
चाहे राष्ट्रभक्ति
का नाम हो, चाहे
कोई और नाम हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
नजर यह है कि आदमी
सहजता को खो
दे, असहज
हो जाए।
यह जो
असहजता है, बड़ी
शक्तिशाली
मालूम पड़ेगी।
अगर लोकमान्य
रोने लगते और
आंसू बहने
लगते, और
भूल जाते दफ्तर
और केसरी
को--भूलने
जैसा था--और उठ
कर दौड़ गए
होते पत्नी की
तरफ, तो
हमको लगता
अरे! शायद हम
उनको
लोकमान्य भी कहना
बंद कर देते
कि आखिर
साधारण आदमी
ही सिद्ध हुए।
रिंझाई
जापान में एक
फकीर हुआ।
उसका गुरु मर
गया। और जब
गुरु मर
गया...तो
रिंझाई की बड़ी
ख्याति थी, इतनी
ख्याति थी
जितनी गुरु की
भी नहीं थी।
गुरु की भी
ख्याति
रिंझाई की वजह
से थी कि वह
रिंझाई का
गुरु है।
रिंझाई को लोग
समझते थे कि
वह निर्वाण को
उपलब्ध हो गया,
परम ज्ञान
उसे हो गया, वह बुद्ध हो
गया। लाखों
लोग इकट्ठे
हुए। जो रिंझाई
के बहुत निकट
थे बड़े चिंतित
हो गए, क्योंकि
रिंझाई की
आंखों से आंसू
बह रहे हैं। वह
सीढ़ियों पर
बैठा रो रहा
है छोटे बच्चे
की तरह। तो
निकट के लोगों
ने कहा, रिंझाई,
यह तुम क्या
कर रहे हो? तुम्हारी
प्रतिष्ठा को
बड़ा धक्का
लगेगा। क्योंकि
लोग यह सोच ही
नहीं सकते कि
तुम और रोओ! तुम
तो परम ज्ञान
को उपलब्ध हो
गए हो। और
तुमने तो हमें
समझाया है कि
आत्मा अमर है,
तो कैसी
मौत! तो तुम किसलिए
रो रहे हो?
रिंझाई
ने कहा कि
रोने के लिए
भी किसलिए
का सवाल है!
क्या मैं किसी
के लिए
उत्तरदायी हूं? क्या
मैं रोने के
लिए भी
स्वतंत्र
नहीं हूं? निश्चित
ही, आत्मा अमर
है। मैं आत्मा
के लिए रो भी
नहीं रहा। मेरे
गुरु का शरीर
भी इतना
प्यारा था, मैं उसके
लिए रो रहा
हूं। आत्मा के
लिए रो कौन रहा
है? मैं तो
उस शरीर के
लिए रो रहा
हूं। अब वह
कभी भी नहीं
होगा, अब
वैसा शरीर कभी
भी नहीं होगा।
और अगर मेरी प्रतिष्ठा
को धक्का लगता
हो तो लगने
दो। क्योंकि
ऐसी
प्रतिष्ठा का
क्या मूल्य जो
गुलामी बन जाए,
कि मैं रो
भी न सकूं।
और
रिंझाई ने कहा
कि मैं तो वही
करता हूं जो
होता है; अपनी
तरफ से तो मैं
कुछ करता
नहीं। अभी
रोना हो रहा
है; तो मैं
इसे रोकूंगा
नहीं। यह रुक
जाए तो मैं इसे
चलाऊंगा
नहीं।
हम बड़े
अजीब लोग हैं।
हम ऐसे अजीब
लोग हैं कि जब
रोना चल रहा
हो तब उसे रोक
लें और जब न चल
रहा हो तब
रोकर भी दिखा
दें। मेरे
परिवार की एक
महिला की
मृत्यु हो गई
थी। तो उनके
अकेले पति बचे।
मैं उनके घर
था। तो मैं था, उनके
पति थे, और
तीन-चार
महिलाएं और जो
उनकी मृत्यु
की वजह से कुछ
दिन रहने के
लिए आ गई थीं।
उनको देख कर
मैं बड़ा चकित
होता। वे गपशप
कर रही हैं, बातचीत कर
रही हैं, हंस
रही हैं, और
कोई बैठने आ
जाता--एकदम
घूंघट काढ़
कर वे एकदम
रोना शुरू कर
देतीं। इसमें
क्षण भर की
देर न लगती।
वह आदमी गया, उनके घूंघट
उठ जाते, आंसू
पुंछ जाते, और फिर वह
गपशप जहां टूट
गई थी वहां से
शुरू हो जाती।
मैंने उन
महिलाओं को
कहा कि
तुम्हारी कुशलता
अदभुत है, तुम
धन्य हो।
पर हम
यह कर रहे
हैं। जहां
रोना हो वहां
हम रोक सकते
हैं;
जहां न रोना
हो वहां हम रो
सकते हैं। हम
झूठे हैं।
लेकिन यह
हमारी शक्ति
मालूम पड़ती
है। संयम को
हम शक्ति कहते
हैं। और
श्रेष्ठ
चरित्र सहज
होता है, संयमी
नहीं। उसकी
सहजता ही अगर
संयम बन जाए
तो बात अलग
है। लेकिन सहज
उसका मूल आधार
है। संयम
हमारा मूल
आधार
है--कंट्रोल, नियंत्रण।
तो जो आदमी
जितना
नियंत्रण कर
सकता है, उसको
हम उतना
बलशाली, शक्तिशाली,
श्रेष्ठ
मानते हैं।
लेकिन
वास्तविक
लाओत्से के
अनुसार, ताओ
के अनुसार जो
अंतिम जीवन का
लक्ष्य है, वह इतनी
सहजता है कि
जहां न कोई
नियंत्रण है,
न कोई
नियंत्रण
करने वाला है;
जो हो रहा
है उसे होने
दिया जा रहा
है। क्योंकि
उसके विपरीत
कोई भी नहीं
है। जब तक
विपरीत भीतर
है तब तक आप
बंटे हुए हैं।
कुछ हो रहा है
और कुछ रोकने
वाला भी खड़ा
है तो आप
खंड-खंड हैं।
और खंड-खंड
व्यक्ति
कितना ही दृढ़
मालूम पड़े, खंडित
व्यक्ति
कमजोर है। इंटिग्रेशन
नहीं है; अभी
एक अखंडता
पैदा नहीं
हुई। अखंडता
ही शक्ति और दृढ़ता है। लेकिन
अखंडता तो तभी
पैदा होगी कि
जो मेरे भीतर
हो उसको रोकने
वाला कोई भी न
हो। अहंकार
बचे ही न, मैं
बच्चे की तरह
हो जाऊं, जो
हो वह हो।
बड़ा
कठिन है।
क्योंकि हमें
खुद ही अड़चन
मालूम पड़ेगी
कि यह बात तो
ठीक नहीं है, चार
आदमियों के
सामने कैसे
रोना? लोग
कहेंगे, क्या
मर्द होकर
स्त्रियों
जैसा व्यवहार
कर रहे हो? तो
आदमी पुरुषों
ने तो रोना ही
बंद कर दिया
है। लेकिन
प्रकृति बड़ी
जिद्दी है। वह
आंसू की ग्रंथि
बनाए चली जाती
है। आप रोएं
चाहे न रोएं,
आंसू की
ग्रंथि बनाए
चली जाती है।
आपकी आंखें रोने
को सदा आतुर
हैं, चाहे
आप पुरुष हों
चाहे स्त्री।
लेकिन बच्चों
को हम सिखा रहे
हैं--छोटे से
बच्चे को--कि
क्या लड़कियों
जैसा रो रहा
है! वह फौरन
रुक जाता है
कि ठीक, मैं
लड़की नहीं हूं;
रोक लेता
है। लेकिन
हमने उस बच्चे
को विकृत करना
शुरू कर दिया।
उसके आंसू जहर
बन जाएंगे, क्योंकि
रुके हुए आंसू
जहर हो जाने
वाले हैं।
इसलिए
आप जान कर
हैरान होंगे, स्त्रियों
की बजाय पुरुष
मानसिक रूप से
ज्यादा पीड़ित
होते हैं।
आमतौर से होना
चाहिए स्त्रियां,
क्योंकि वे
ज्यादा कमजोर
मालूम पड़ती
हैं। लेकिन
पुरुष ज्यादा
मानसिक रूप से
बीमार होते हैं।
स्त्रियों की
बजाय पागलखानों
में पुरुषों
की संख्या
ज्यादा है।
कारण क्या होगा?
पुरुष को
ज्यादा
नियंत्रण
सिखाया जा रहा
है। स्त्री को
क्षम्य मान कर,
हम समझते
हैं: कमजोर है,
रोती है, रोने दो।
स्त्री ही है,
स्वीकृत
है। पुरुष
जैसे ही रोने
लगे वैसे ही अड़चन
शुरू हो जाती
है। हमने
पुरुष को
कृत्रिम
नियंत्रण, सैनिक
बनाने की
कोशिश की है; उसमें वह
झूठा हो गया।
उसके आस-पास
एक आर्मर,
एक झूठा कवच
हमने खड़ा कर
दिया है। वह
उस कवच के भीतर
खड़ा है। कोई
मर जाए तो भी
उसे अकड़े
रहना है। कुछ
भी हो जाए, उसे
अपने को
सम्हाले रखना
है।
यह
सम्हालने
वाला कौन है? यही
हमारा अहंकार
है। इसलिए
जितना बड़ा
अहंकारी हो
उतना हमें दृढ़
मालूम होगा।
और जितना निरहंकारी
हो उतना ही
हमें लगेगा कि
यह आदमी दृढ़ नहीं
है।
निरहंकारी
व्यक्ति सरल
होगा, सहज
होगा; जैसे
पानी बहता है,
हवा चलती है,
इस तरह
होगा।
"ठोस
चरित्र
दुर्बल दिखता
है। शुद्ध
योग्यता
दूषित मालूम
पड़ती है।'
शुद्ध
योग्यता का तो
हमें खयाल ही
नहीं है कि क्या
है। हमें तो
सिर्फ सीमित
योग्यता का, अशुद्ध
योग्यता का
पता है। ऐसा
समझें। एक आदमी
है, वह
इंजीनियर है,
और कुशल
इंजीनियर है।
तो हम कहते
हैं, योग्य
है। क्योंकि
कुशल
इंजीनियर है,
एक दिशा में
बहुत आगे चला
गया। तो हम
कहते हैं, योग्य
मनुष्य है।
लेकिन क्या यह
उचित है कहना?
क्योंकि
इंजीनियर
होने से
मनुष्यता का
क्या संबंध है?
इंजीनियरिंग
एक कुशलता है।
उससे मनुष्य
योग्य नहीं
होता, उससे
मनुष्य
उपयोगी होता
है। एक आदमी
डाक्टर है, और कुशल
डाक्टर है।
मैं एक
डाक्टर को
जानता हूं, एक
बड़े सर्जन को।
उनकी ख्याति
थी दूर-दूर।
देश के
कोने-कोने से
लोग उनके पास
आपरेशन के लिए
आते थे। और वे
आपरेशन की
टेबल पर आदमी
को रख लेते, चीर-फाड़
शुरू कर देते,
और तब उसके
रिश्तेदारों
को कहते कि
पचास हजार रुपया!
नहीं तो आदमी
बचेगा नहीं।
और वह आदमी
आपरेशन की
टेबल पर रखा
हुआ है, बेहोश
पड़ा है, चीर-फाड़ शुरू
कर दी गई; तब
वे कहते।
तो
कुशल सर्जन थे, पर
आदमी की
योग्यता का
क्या संबंध है?
और कुशल
इतने थे कि यह
लोग जानते थे,
फिर भी लोग
जाते। हाथ
उनका अदभुत
था। जब वे बूढ़े
हो गए, सत्तर
वर्ष के, तब
भी उनका हाथ
कंपता नहीं
था--जरा सा
नहीं कंपता
था। वही उनकी
कुशलता थी।
लेकिन मनुष्य
की कुशलता, उससे कोई
संबंध नहीं
है। मनुष्य वे
बड़े खतरनाक थे,
बिलकुल
योग्य नहीं
थे। मनुष्य वे
ऐसे थे कि चोर-डाकू
होना था; भूल-चूक
से वे सर्जन
हो गए थे। अगर
वे डाकू होते
तो हमें पता
नहीं चलता, हम कभी न
कहते कि योग्य
हैं। लेकिन
उनका निशाना
तब भी अचूक
होता, क्योंकि
हाथ उनका
हिलता नहीं।
वह जो डाकू की
योग्यता थी, सर्जन की
योग्यता बन
गई। लेकिन
आदमी का क्या
संबंध है? आदमी
तो वहीं का
वहीं खड़ा है।
आदमी
की योग्यता
शुद्ध
योग्यता है; बाकी
कुशलताएं
हैं। तो आप
अच्छे सर्जन
हो सकते हैं, अच्छे
शिक्षक हो
सकते हैं, अच्छे
राज हो सकते
हैं, अच्छे
चित्रकार, अच्छे
कवि हो सकते
हैं, साहित्यकार
हो सकते हैं, राजनीतिज्ञ
हो सकते हैं; ये सब
योग्यताएं
नहीं हैं, ये
उपयोगिताएं
हैं, कुशलताएं हैं, एफीशिएंसीज हैं।
शुद्ध
योग्यता क्या
है?
शुद्ध
योग्यता
शुद्ध मनुष्य
होना है। बड़ा
कठिन है लेकिन,
हम शुद्ध
योग्यता को
पहचान ही नहीं
सकते। अगर एक
आदमी ऐसा है
जिसमें कोई
सामाजिक
उपयोगिता नहीं
है, आप
उसको कहेंगे,
बेकार। न
सर्जन है, न
चित्रकार है,
न
मूर्तिकार है,
न राजनीतिज्ञ
है, कुछ भी
नहीं है; कवि
तक नहीं है।
कम से कम
तुकबंदी करता;
वह भी नहीं
कर सकता, खाली
बैठा है।
बुद्ध
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे
हुए। कौन सी
योग्यता है
उनमें, बताइए?
क्या कर
सकते हैं? कुछ
भी नहीं कर
सकते हैं। एक
साइकिल का
पंक्चर नहीं
जोड़ सकते। किस
मतलब के हैं?
बुद्ध
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे हुए
शुद्ध योग्यता
में हैं; जहां
योग्यता किसी
दिशा में नहीं
जाती; जहां
योग्यता का
कोई व्यवहार
नहीं है; जहां
योग्यता की
सिर्फ
उपस्थिति है।
और जब सभी
दिशाओं से
योग्यता हट कर
भीतर बैठ जाती
है तो शुद्धता
का जन्म होता
है, शुद्ध
मनुष्य का
जन्म होता है।
भीतर की
मनुष्यता का
कोई भी उपयोग
एक अर्थ में
अशुद्धि है।
क्योंकि
उपयोग में
अशुद्ध होना
ही पड़ेगा; पदार्थ
में उतरना
पड़ेगा।
तो
लाओत्से कहता
है,
"शुद्ध
योग्यता
दूषित मालूम
पड़ती है।'
हम
कितनी ही पूजा
बुद्ध की करें, भीतर
हमें लगता ही है
कि यह आदमी
कुछ कर नहीं
रहा; किसी
काम का नहीं
है।
मेरे
घर में ऐसा
हुआ कि मुझे
धीरे-धीरे घर
के लोग ही
समझने लगे कि
मैं किसी काम
का नहीं हूं। ऐसा
भी हो जाता
कभी कि मैं घर
में बैठा हूं
और मेरी मां
मेरे ही सामने
कहती कि यहां
कोई दिखाई
नहीं पड़ता, सब्जी
लेने किसी को
भेजना है। मैं
सामने बैठा
हूं; कहती
कि यहां कोई
दिखाई नहीं
पड़ता, किसी
को सब्जी लेने
बाजार भेजना
है। मैं सुन रहा
हूं। मगर उसका
कहना ठीक है, वहां सच में
कोई नहीं है; सब्जी लेने
की मुझमें कोई
योग्यता नहीं
है।
एक दफा
भेज कर वह भूल
में पड़ गई, फिर
उसने दुबारा
मुझे नहीं
भेजा। एक बार
उसने मुझे
भेजा सब्जी
लेने। आम का
मौसम था और
मुझे कहा, आम
ले आओ। मैं
गया। मैंने
दुकानदार से
पूछा कि सबसे
श्रेष्ठ आम
कौन सा है? मेरी
शक्ल देख कर
ही वह समझ गया
और मेरे पूछने
के ढंग को देख
कर समझ गया कि
इस आदमी ने आम
कभी खरीदे
नहीं हैं। जो
रद्दी से
रद्दी आम था, उसने कहा कि
यह सबसे
श्रेष्ठ आम
है। और दाम उसने
सबसे ज्यादा
उसके बताए। तो
मुझे लगा कि
ठीक ही है, जब
दाम इसके सबसे
ज्यादा हैं तो
सबसे श्रेष्ठ होना
ही चाहिए। शक
तो मुझे होता
था कि वह सड़ा-गला
दिखता था, लेकिन
मैंने सोचा कि
जब मैं खुद
उससे पूछ ही
लिया हूं और
जितने दाम
मांगता है
उतने देने को
राजी हूं तो
धोखा देने का
कोई कारण नहीं
है। लेकर आम
मैं घर आ गया।
मेरी मां ने
तो देख कर आंख
बंद कर लीं।
पड़ोस में एक
बूढ़ी भिखारिन
रहती थी, मुझसे
कहा कि यह
जाकर उसको दे
आ। उस बूढ़ी
भिखारिन ने
मुझसे कहा कि कचराघर पर
फेंक दो। बस
फिर मेरी
बाजार जाने की
यात्रा बंद हो
गई।
कुशलता
पहचानी जाती
है,
दिखाई पड़ती
है। उसका
उपयोग है।
शुद्धता का क्या
उपयोग हो सकता
है? निरुपयोगी
है। उसका
आर्थिक जगत
में कोई मूल्य
नहीं है, उसकी
कोई कीमत नहीं
है। और ध्यान
रहे, जिस
चीज में हमें
कोई कीमत न
दिखाई पड़े
उसमें मूल्य
भी कैसे दिखाई
पड़े? जब
कीमत ही नहीं
है तो मूल्य
भी हमारे लिए
नहीं रह जाता।
शुद्धता
निरुपयोगी
तत्व है। निरुपयोगी
इस अर्थ में
कि
व्यवहार-बाजार
की दुनिया में
उसका हम कुछ
भी नहीं कर
सकते। लेकिन
परम आनंद का
स्रोत है। और
जिसको मिलती
है उसको तो
परम आनंद है
ही; अगर
आपको भी दिखाई
पड़नी
शुरू हो जाए
तो आप भी उसके
आनंद में
सहभागी हो जाते
हैं।
अगर
बुद्ध बैठे
हैं
बोधिवृक्ष के
नीचे और आप वहां
से निकलें
और सोचें कि
बेकार! तो
आपका संबंध
टूट गया। अगर
आप सोचें कि
कुछ जरूर घट
रहा है, कुछ
परम घट रहा है,
जो दिखाई
नहीं पड़ता, जो जगत तक
नहीं आता, जो
किसी मूल
स्रोत में घट
रहा है, बीज
में घट रहा है,
और आप बुद्ध
के पास बैठ
जाएं और एक
दीवार खड़ी न करें
कि यह बेकार
बैठा हुआ है
आदमी, आप
सोचें कि कुछ
घट रहा है, और
आप रिसेप्टिव
हो जाएं, ग्राहक
हो जाएं। तो आप
पाएंगे कि
बुद्ध की
आनंद-किरण
आपको भी हिलाने
लगी। आप
पाएंगे कि
बुद्ध की वह
शून्यता आपके
भीतर भी छाने
लगी। आप
पाएंगे कि
बुद्ध के भीतर
जो अमृत बरस रहा
है, उसकी
कुछ झलक, कुछ
स्वाद आपके
भीतर भी आने
लगा। आप खुले
हों, आपका
पात्र खुला
हो। लेकिन
आपने कहा कि
बेकार, आपका
पात्र बंद हो
गया। फिर
निश्चित ही
बिलकुल बेकार
है। क्योंकि
आप कैसे
उपयोगिता जान
सकते हैं? यह
उपयोगिता
किसी और ही
ढंग की है, किसी
और ही आयाम
में, एक
नया ही
डायमेंशन है
इसका, जहां
बाजार का
मूल्य काम
नहीं आ सकता; जहां केवल
आत्मा की
ग्राहकता हो
तो हम समझ
सकते हैं क्या
घट रहा है।
शुद्धता
आनंद है, सुविधा
नहीं है, उपयोगिता
नहीं है, कुशलता
नहीं है।
सिर्फ मनुष्य
का होना अपनी
शुद्धता में!
इसका अर्थ हुआ
कि जहां कोई
वासना नहीं है,
जहां कोई
विचार नहीं है,
जहां कोई
दौड़, कोई
तनाव, कोई
अशांति नहीं
है, ऐसी
चेतना की दशा
का नाम
शुद्धता है।
वह है प्योरिटी,
इनोसेंस, वहां
निर्दोष होना
मात्र है। पर
इसकी हमें प्रतीति
तभी हो सकती
है जब हम कभी
ऐसे होने की
घटना जहां घट
रही हो ऐसे
व्यक्ति के
पास ग्राहक होकर
बैठ जाएं।
शायद एक क्षण
में आपको पता
भी न चले, वर्षों
भी लग सकते
हैं। लेकिन
अगर आप ग्राहक
बने बैठे
रहें...।
बुद्ध
से कोई एक दिन
पूछता है कि
ये दस हजार भिक्षु
आपके आस-पास
इकट्ठे रहते
हैं;
ये क्या
करते हैं यहां?
तो बुद्ध
कहते हैं, ये
कुछ करते नहीं
हैं; ये
सिर्फ मेरे
पास होते हैं।
वर्षों तक ये
सिर्फ मेरे
पास होते हैं।
ये मुझे पीते
हैं। ये मेरे
प्रति खुलते
हैं। जैसे
सुबह कमल
खिलता है, सूरज
के लिए उन्मुख
हो जाता है; खोल देता है
अपनी पंखुड़ियां।
ऐसा ये खुलते
हैं। कुछ मेरे
भीतर घटा है, कुछ ऐसा जो
जगत के बाहर
है, ये भी
उसके साझीदार
होने की कोशिश
में लगे हैं।
एक बार इन्हें
स्वाद आ जाए
तो इनके भीतर
भी घटना शुरू
हो जाएगा।
बुद्धत्व
संक्रामक है, इनफेक्शस है। अगर आप
तैयार हों तो
बुद्धत्व के
कीटाणु आपके
भीतर प्रवेश
कर सकते हैं, आपको
रूपांतरित कर
सकते हैं।
बीमारियां ही
संक्रामक
नहीं होतीं, स्वास्थ्य
भी संक्रामक
होता है। दुख
ही संक्रामक
नहीं होता, महा सुख भी
संक्रामक
होता है।
लेकिन
हम बड़े अदभुत
लोग हैं। हम
दुख के लिए तो बिलकुल
खुले हैं और
आनंद के लिए
बिलकुल बंद हैं।
कहीं दुख मिल
रहा हो तो हम
जल्दी से खुल
जाते हैं, तैयार
हैं। दुख को
लेने को हम
बिलकुल
प्यासे हैं, तत्पर हैं।
आनंद कहीं मिल
रहा हो तो हम
इनकार करने के
सब उपाय करते
हैं।
असल
में,
हमें भरोसा
ही नहीं रहा
है कि आनंद
संभव है। इसलिए
हम मान ही
नहीं पाते कि
बुद्धत्व
संभव है, या
क्राइस्ट
होना संभव है।
हम मान ही
नहीं पाते। और
जब हम कहते
हैं कि ये सब
कथाएं हैं, तो हम असल
में यह नहीं
कह रहे हैं कि
बुद्ध और
क्राइस्ट कभी
हुए नहीं; हम
यह कह रहे हैं
कि हम मान
नहीं सकते कि
ये हो सकते
हैं, क्योंकि
हम इतने दुख
में हैं और
सुख की हमें कोई
किरण नहीं
मिली। हमें
अपने पर भरोसा
खो गया है।
शुद्ध
योग्यता हमें
दूषित मालूम
पड़ती है।
"महा
अंतरिक्ष के
कोने नहीं
होते।'
आकाश
का कोई कोना
है?
लेकिन हम
अपने घरों में
रहने के आदी
हैं, और
हमारे कमरे का
कोना होता है।
कोनों के कारण
ही हम कह पाते
हैं, यह
हमारा कमरा
है। अगर कोने
न हों तो
हमारा कमरा खो
जाए। लेकिन
महा आकाश का
कोई कोना नहीं
है। इसलिए महा
आकाश हमें
दिखाई नहीं
पड़ता।
योग्यता
के कोने होते
हैं--छोटे-छोटे
कमरे। शुद्धता
का कोई कोना
नहीं
होता--महा
आकाश! इसलिए
शुद्धता हमें
दिखाई नहीं
पड़ती। जब तक
आकाश दीवारों
में बंद न हो
जाए तब तक
हमें उपयोगी
नहीं मालूम
पड़ता। यह कमरे
में हम बैठे
हैं। दीवार में
तो हम नहीं
बैठे हैं, बैठे
तो हम आकाश
में ही हैं; जो खाली जगह
है उसी में
बैठे हैं।
लाओत्से बार-बार
कहता है, मकान
का उपयोग
दीवार में
नहीं, खाली
जगह में है।
दीवार केवल
खाली जगह को
घेरती है।
लेकिन जब
दीवार खाली
जगह को घेरती
है, हम
आश्वस्त हो
जाते हैं; हम
कहते हैं, भवन
निर्मित हो
गया। बैठते खाली
जगह में ही
हैं, बैठते
आकाश में ही
हैं, लेकिन
जब दीवार घेर
लेती है तो हम
सुरक्षित अनुभव
होते हैं।
अपना आकाश घेर
लिया; लगता
है, अब कुछ
अपना है। सीमा
है तो हमें
दिखाई पड़ता है।
दीवारें खो
जाएं--अभी
यहां
बैठे-बैठे ऐसा
चमत्कार हो कि
दीवारें खो
जाएं--तो आप
जहां बैठे हैं
वही बैठे
रहेंगे, कोई
भी फर्क आपको
नहीं पड़ेगा।
लेकिन आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे, बेचैनी शुरू
हो जाएगी।
खुले आकाश के
नीचे आ गए; अज्ञात
के नीचे आ गए।
जहां सीमाएं
नहीं और कोने
नहीं, वहां
हमारी पकड़
नहीं बैठती, वहां हम
भयभीत हो जाते
हैं। आदमी ने
मकान सिर्फ
इसलिए ही नहीं
बना लिया है
कि शरीर के लिए
सुरक्षा है।
वह तो है ही।
बड़ी तो मानसिक
सुरक्षा है।
क्योंकि जो
हमें दिखाई
पड़ता है उसके
हम मालिक
मालूम पड़ते
हैं। जिसकी हम
सीमा बांध
लेते हैं उसके
हम मालिक
मालूम पड़ते
हैं। जिसकी
कोई सीमा नहीं
उसके सामने हम
क्षुद्र हो
जाते हैं, और
वह मालिक होता
हुआ मालूम
पड़ता है। वहां
भय शुरू हो
जाता है।
"महा
अंतरिक्ष के
कोने नहीं
होते। महा
प्रतिभा
प्रौढ़ होने
में समय लेती
है।'
लोग
मुझसे पूछते
हैं आकर, ध्यान
कितने समय में
हो जाएगा? महीना,
दो महीना, तीन महीना? वे जो भी
योग्यताएं जानते
हैं, सभी
बहुत थोड़ा समय
लेती हैं।
किसी आदमी को
इंजीनियर
होना है, कुछ
वर्ष में हो
जाएगा। किसी
को डाक्टर
होना है, कुछ
वर्ष में हो
जाएगा। वे
पूछते हैं, ध्यान--समय
कितना लगेगा?
उपनिषद और
वेद कहते हैं,
अनंत जन्म
लगेंगे। अगर
आपसे कहा जाए
अनंत जन्म
लगेंगे, आप
प्रयास ही न
करेंगे कि
जाने दो। आप
प्रयास ही न
करेंगे।
एक बार
बुद्ध एक गांव
से गुजर रहे
हैं। रास्ता
भटक गया है।
संगी-साथी, भिक्षु
भूखे-प्यासे
हैं। घनी
दोपहर हो गई
है। जंगल से
रास्ता
निकलता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता। जिस
गांव पहुंचना
है, वह
कितनी दूर है,
कुछ पता नहीं।
राह में एक
आदमी मिलता
है। बुद्ध का
शिष्य आनंद उस
आदमी से पूछता
है, गांव
कितनी दूर है?
वह आदमी
कहता है, बस
दो मील, एक
कोस।
एक कोस
निकल जाता है; गांव
का फिर भी कोई
पता नहीं। फिर
एक आदमी मिलता
है। आनंद
पूछता है, गांव
कितनी दूर है?
वह आदमी
कहता है, बस
एक कोस, दो
मील। आनंद
थोड़ा बेचैन
होता है। एक
कोस पहले भी
था; एक कोस
चल चुके, शायद
ज्यादा ही चल
चुके। लेकिन
बुद्ध मुस्कुराते
रहते हैं।
फिर एक
कोस बीत जाता
है। लेकिन
गांव का कोई
पता नहीं। और
अब सांझ होने
के करीब आने
को है। और भूख
और प्यास और
सब परेशान
हैं। और फिर
एक आदमी, एक लकड़हारा
मिलता है; और
उससे पूछते
हैं, गांव
कितनी दूर है?
वह कहता है,
बस दो मील, एक कोस।
आनंद खड़ा हो
जाता है। वह
कहता है, यह
किस तरह की, यह किस तरह
की यात्रा हो
रही है? यह
एक कोस कितना
लंबा है?
बुद्ध
कहते हैं, तू
खुश हो, कम
से कम एक कोस
से ज्यादा तो
नहीं बढ़ता
गांव। इतना भी
क्या कम है कि
अपना एक कोस
ठहरा हुआ है, उससे ज्यादा
नहीं हो रहा।
हमने जितना था
उससे खोया
नहीं है, इतना
पक्का है। हम
जहां थे कम से
कम वहीं थिर हैं;
वहां से
पीछे नहीं
हटे। और ये
लोग भले लोग
हैं। ये प्रेमवश
कहते हैं एक
कोस, ताकि
तुम चल सको।
और बुद्ध ने
कहा, मेरी
खुद की हालत
तुम्हारे साथ
यही है। तुम
मुझसे पूछते
हो, कितनी
दूर है बोध? कितनी दूर
है बुद्धत्व?
मैं कहता
हूं, एक
कोस। तुम एक
कोस चल कर फिर
पूछते हो; मैं
कहता हूं, एक
कोस। यह लंबी
यात्रा है; यह अनंत
यात्रा है; अनंत जन्म
लग जाते हैं।
ये भले लोग
हैं। ये
तुम्हारे
चेहरे की थकान
देख कर एक कोस
कहते हैं। एक
कोस से इनका कोई
लेना-देना
नहीं है। ये
दयावान हैं।
अच्छा
था,
पुराने
दिनों में सड़क
के किनारे
पत्थर नहीं थे।
क्योंकि
पत्थर आपका
चेहरा नहीं
देख सकते; पत्थर
कठोर हैं; जितनी
दूरी है उतनी
ही कह
देंगे--चाहे
यात्री थक कर
वहीं गिर पड़े,
घबड़ा जाए।
एक-एक
कोस करके हजार
कोस भी पूरे
हो जाते हैं। लेकिन
काफी समय लगता
है। क्योंकि
जितनी महा प्रतिभा
की खोज हो
उतनी ही प्रौढ़ता
में समय लगता
है। इसे जरा
ऐसा समझें।
वैज्ञानिक
इसे स्वीकार
करने लगे हैं
अब,
एक दूसरी
दिशा से।
आपने
देखा, आदमी
अकेला प्राणी
है जिसको
प्रौढ़ होने
में बहुत समय
लगता है।
कुत्ते का
बच्चा पैदा
होता है; कितनी
देर लगती है
प्रौढ़ होने
में? घोड़े
का बच्चा पैदा
होता है; कितनी
देर लगती है
प्रौढ़ होने
में? घोड़े
का बच्चा पैदा
होते से ही
चलने और दौड़ने
लग सकता है।
प्रौढ़ हो गया।
प्रौढ़ पैदा
होता है।
सिर्फ आदमी का
बच्चा असहाय
पैदा होता है।
उसको प्रौढ़
होने में
बीस-पच्चीस
वर्ष लग जाते
हैं। पच्चीस
वर्ष का हो
जाता है तब भी
मां-बाप जरा
डरे रहते हैं
कि अभी चल
सकता है अपने
पैर से कि
नहीं। इतना
लंबा समय
मनुष्य को
क्यों लगता है
प्रौढ़ होने
में? अगर
आदमी के बच्चे
को असहाय छोड़
दिया जाए वह मर
जाएगा, बच
नहीं सकता।
बाकी पशुओं के
बच्चे बच
जाएंगे।
क्योंकि वे
पैदा होते ही
काफी प्रौढ़
हैं। आदमी भर
अप्रौढ़ पैदा
होता है।
क्योंकि आदमी
के पास बड़ी
प्रतिभा की
संभावना है।
उस प्रतिभा को
प्रौढ़ होने
में समय लगता
है। घोड़े के
बच्चे के पास
प्रतिभा की
बड़ी संभावना
नहीं है; प्रौढ़
होने में कोई
समय नहीं
लगता।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर आदमी की
उम्र बढ़ाई गई, बढ़
जाएगी, तो
हमारा बचपन भी
लंबा होने
लगेगा। लेकिन
उस लंबे बचपन
के साथ ही
आदमी की
प्रतिभा भी
बढ़ने लगेगी।
अगर समझें कि
दो सौ साल
आदमी की औसत
उम्र हो जाए
तो फिर इक्कीस
वर्ष में बच्चा
जवान नहीं
होगा, प्रौढ़
नहीं होगा।
फिर वह
पचास-साठ वर्ष
में प्रौढ़ता
के करीब आएगा।
युनिवर्सिटी
से जब निकलेगा
तो साठ वर्ष
के करीब
शिक्षित होकर
बाहर आएगा। लेकिन
तब मनुष्य की
प्रतिभा बड़े
ऊंचे शिखर छू
लेगी।
स्वभावतः!
क्योंकि
प्रौढ़ होने के
लिए जितना समय
मिलता है उतना
ही प्रतिभा
पकती है।
ध्यान
तो प्रतिभा की
अंतिम अवस्था
है। एक जन्म
काफी नहीं है; अनेक
जन्म लग जाते
हैं, तब
प्रतिभा पकती
है। और कोई
व्यक्ति अनंत
जन्मों तक अगर
सतत प्रयास
करे तो ही।
अन्यथा कई बार
प्रयास छूट जाता
है; अंतराल
आ जाते हैं; जो पाया था
वह भी खो जाता
है, भटक
जाता है; फिर-फिर
पाना होता है।
अगर सतत
प्रयास चलता
रहे तो अनंत
जन्म लगते हैं,
तब समाधि
उपलब्ध होती
है।
इससे
घबड़ा मत जाना, इससे
बैठ मत जाना
पत्थर के किनारे
कि अब क्या
होगा। अनंत
जन्मों से आप
चल ही रहे हो; घबड़ाने की कोई
जरूरत नहीं
है। हो सकता
है, आ गया
हो वक्त। तो
जब कोई कहता
है एक ही कोस
दूर, तो हो
सकता है आपके
लिए एक ही कोस
बचा हो। क्योंकि
कोई आज की
यात्रा नहीं
है; अनंत
जन्म से आप चल
रहे हैं। इस
क्षण भी ध्यान
घटित हो सकता
है अगर पीछे
की परिपक्वता
साथ हो, अगर
पीछे कुछ किया
हो। कोई बीज
बोए हों तो
फसल इस क्षण
भी काटी जा
सकती है।
इसलिए भयभीत
होने की कोई
जरूरत नहीं।
और न भी पीछे
कुछ किया हो तो
भी बैठ जाने
से कुछ हल
नहीं है। कुछ
करें, ताकि
आगे कुछ हो
सके।
लाओत्से
कहता है, "महा
प्रतिभा
प्रौढ़ होने
में समय लेती
है। महा संगीत
धीमा सुनाई
पड़ता है।'
क्षुद्र
संगीत ही
शोरगुल वाला
होता है। महा
संगीत धीमा
होने लगता है।
परम संगीत की
अवस्था तो वही
है,
जब शून्य रह
जाता है; स्वर
बिलकुल शून्य
हो जाते हैं।
जो शून्य को सुन
सकता है, वह
महा संगीत को
सुनने में
समर्थ हो गया।
इसलिए हम तो
ओंकार को ही
महा संगीत
कहते हैं।
क्योंकि जब
व्यक्ति
पूर्ण शून्य
हो जाता है तब
ओंकार की
ध्वनि सुनाई
पड़ती है। और
वह ध्वनि ध्वनिरहित
है, साउंडलेस साउंड। उसे
रिकार्ड नहीं
किया जा सकता।
चाहे हृदय में
ही टेप रिकार्डर
हम लगा लें तो
भी उसे
रिकार्ड नहीं
किया जा सकता।
वह कोई ध्वनि
नहीं है स्थूल
अर्थों में।
वह महा शून्य
की गूंज है।
जब सारी ध्वनियां
खो जाती हैं
तो उनके खो
जाने से जो
गूंज रह जाती
है, उस
गूंज का नाम
ओंकार है।
"महा
संगीत धीमा
सुनाई पड़ता
है।'
इसलिए
धीमे से धीमे
सुनने की
क्षमता
विकसित करनी
चाहिए। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
जितना धीमा
सुन सकें, जितना
सूक्ष्म सुन
सकें, उसकी
फिक्र करनी
चाहिए।
शोरगुल चल रहा
है बाजार का; आंख बंद
करके दीवार पर
लगी घड़ी को
सुनने की कोशिश
करनी चाहिए।
आप हैरान
होंगे, जैसे
ही आपका ध्यान
दीवार की घड़ी
पर जाएगा, थोड़ी
देर में उसकी
टिक-टिक सुनाई
पड़ने लगेगी। बाजार
का शोरगुल खो
गया; टिक-टिक
सुनाई पड़ने
लगी। फिर
धीरे-धीरे और
नीचे हटना
चाहिए। आंख
बंद करके, बाजार
का शोरगुल चल
रहा है, हृदय
की धड़कन सुननी
चाहिए। अगर
बाजार का शोरगुल
चलता रहे और
आपको अपने हृदय
की धड़कन सुनाई
पड़ने लगे, आप
समझना कि
मंजिल बहुत
करीब आ रही
है। सूक्ष्म
को सुनने की
कोशिश बढ़ाए
जाना चाहिए।
स्थूल से
हटाते रहना
चाहिए अपने को।
स्थूल घटता
रहेगा, लेकिन
परिधि पर; और
केंद्र पर
सूक्ष्म की
प्रतीति होने
लगे।
"महा
रूप की
रूप-रेखा नहीं
होती।'
जिस
रूप की
रूप-रेखा होती
है वह सीमित
ही है। इसलिए
परमात्मा की
कोई प्रतिमा
नहीं हो सकती।
इसलिए हमने
परमात्मा का
जो गहनतम
प्रतीक बनाया
है वह शिवलिंग
है। उसमें कोई
रूप नहीं है; अरूप
है। एक
अंडाकार
आकृति है।
अंडाकार आकृति
जीवन की गति
का प्रतीक है।
सभी जीवन की
गति
वर्तुलाकार
है, अंडाकार
है। शिवलिंग
सिर्फ एक
अंडाकार आकृति
है जिसमें कोई
रूप नहीं है।
अरूप है।
परमात्मा का
कोई रूप नहीं
हो सकता; क्योंकि
रूप सीमा
देगा। और जहां
सीमा है वहां बंधन
है। जहां सीमा
है वहां
मृत्यु है।
जहां सीमा है
वहां अज्ञान
है, अविद्या
है।
"महा
रूप की
रूप-रेखा नहीं
होती; और
ताओ अनाम है, छिपा है।'
स्वभाव
अनाम है, और
छिपा है। सत्य
अनाम है, और
छिपा है।
"और यह
वही ताओ है जो
दूसरों को
शक्ति देने और
आप्तकाम करने
में पटु है।'
यह जो
छिपा हुआ मूल
स्रोत है धर्म
का,
सत्य का, इसी से ही
सारी ऊर्जा
उठती है। इसी
से फूल खिलते
हैं, इसी
से पक्षी आकाश
में उड़ते हैं,
इसी से तारे
चलते हैं, सूर्य
प्रकाशित
होता है। इसी
से चेतना
आविर्भूत
होती है; इसी
से चेतना
समाधि तक
पहुंचती है।
सभी का स्रोत,
सभी
शक्तियों का
मूल उदगम; लेकिन
अनाम, छिपा
हुआ। जैसे बीज
जमीन में छिप
जाते हैं, फिर
जड़ें बनती हैं
और वृक्ष आकाश
की तरफ उठता है।
आकाश की तरफ
उठता हुआ
वृक्ष जमीन
में छिपी हुई
जड़ों पर
निर्भर होता
है। नीचे से
जड़ें काट दो, ऊपर से
वृक्ष
तिरोहित हो
जाएगा। जो भी
प्रकट है, वह
अप्रकट में
उसकी जड़ें
होती हैं।
सत्य
या परमात्मा
या ताओ--या जो
भी नाम हम
देना
चाहें--वह
हमारा अप्रकट
मूल स्रोत है।
उस मूल स्रोत
में ही सारी
शक्ति का उदगम
है। और जब तक
हम ऊपर-ऊपर
शक्ति को
खोजते हैं तब तक
हम निर्बल बने
रहते हैं। और
जब हम उतरते
हैं गहरे
वृक्ष की जड़ों
में तो महा
शक्ति मिल जाती
है,
जिसका कोई
अंत नहीं, जो
अनंत है।
जो
दिखाई पड़ता है, उससे
उस तरफ चलें
जो दिखाई नहीं
पड़ता। जो सुनाई
पड़ता है, उससे
उस तरफ चलें
जो सुनाई नहीं
पड़ता। जिसका रूप
है, उससे
उस तरफ चलें
जिसका कोई रूप
नहीं है। जिसका
नाम है, उससे
उस तरफ चलें
जो अनाम है।
तो आप
परमात्मा के
मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाएंगे। वह
मंदिर बहुत
दूर नहीं, यहीं
छिपा है।
लेकिन छिपा
है। इसलिए जो
उसे प्रकट
मंदिरों में
खोजता है वह
व्यर्थ ही
भटकता है। जो
उसे अप्रकट के
मंदिर में
खोजने लगता है
उसे राह मिल
गई और उसकी
मंजिल दूर
नहीं है।
पांच
मिनट रुकें, कीर्तन
करें, और
फिर जाएं।
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