प्रश्न-सार
01-हम
आनंद की खोज
क्यों नहीं
करते?
02-क्या
चेतना तोड़ती
भी है और
जोड़ती भी?
03-बुद्ध
पुरुष से कौन
लोग बचते हैं?
04-क्या
संश्लेषण से
भी सत्य पाया
जाता है?
05-सहजता
के साथ अथक
श्रम क्यों?
06-सत्य
और धर्म का संगठन
क्यों होता है?
07-मैं
प्रश्नों के
उत्तर किसलिए
देता हूं?
पहला
प्रश्न:
हम
दुख जानते हैं; बुद्ध
आनंद जानते
हैं। क्या हम
सच ही दुख को जानते
हैं? यदि
हम सच ही दुख
को जानते हैं
तो क्यों कर
आनंद की दिशा
में नहीं जाते?
निश्चय
ही,
जो दुख को
जान लेगा वह
दुख से मुक्त
होना शुरू हो
जाता है। हम
दुख को भोगते
हैं, जानते
नहीं। भोगना
जानना नहीं
है। हमारा भोगना
भी मूर्च्छित,
सोया हुआ, बेहोश है।
और इस बेहोशी
का लक्षण, बुनियादी
लक्षण उसे समझ
लेना जरूरी
है।
हम दुख
भोगते भी हैं
तो हमें यह
स्मरण नहीं आता
कि हम सुख की
तलाश में दुख
भोगते हैं।
चाहते तो हम
सुख हैं, मिलता
दुख है। चाहते
तो हम स्वर्ग
हैं, उपलब्ध
जो होता है वह
नरक है। और जो
सुख को चाहेगा
वह दुख भोगेगा
ही। सुख की
चाह से ही दुख
का जन्म है।
यदि हम समझ
जाएं कि हम
दुख भोग रहे
हैं, और यह
भी समझ जाएं
कि क्यों भोग
रहे हैं, और
दुख क्या है, तो हम सुख की
चाह छोड़
देंगे। सुख की
चाह के छूटते
ही दुख से
मुक्ति होनी
शुरू हो जाती
है। दुख है
इसलिए कि सुख
की मांग है।
इसलिए जितनी
ज्यादा सुख की
मांग होगी
उतना ज्यादा
दुख होगा।
बहुत
आश्चर्य की
घटना है कि
दीन-दरिद्र
इतने दुखी
नहीं होते हैं
जितने समृद्ध
और धनी हो
जाते हैं।
क्योंकि दीन
और दरिद्र की
सुख की बहुत
मांग नहीं
होती। वह सोच
भी नहीं सकता
बहुत सुख के
लिए,
स्वप्न भी
नहीं देख सकता
बहुत सुख के
लिए। उसके सुख
की मांग उसके
दायरे में
होती है।
लेकिन जिसके
पास सारी
सुविधाएं हैं,
उसकी सुख की
मांग असीम हो
जाती है। उसके
पास सब है; सुख
को वह खरीद
सकता है। तो
मांग भी
स्वभावतः खड़ी
हो जाती है।
इसलिए धनी
जितने दुखी
होते हैं उतने
दरिद्र दुखी
नहीं होते।
दरिद्र कष्ट में
हो सकते हैं, लेकिन दुख
में नहीं
होते। धनी
कष्ट में नहीं
होते, लेकिन
महादुख
में होते हैं।
कष्ट
तो भौतिक अभाव
है। एक भूखा
आदमी है, कष्ट
में है। एक
नंगा आदमी है,
सर्दी है, गर्मी है; कष्ट में
है। एक बीमार
आदमी है, दवा
का इंतजाम
नहीं; कष्ट
में है। लेकिन
एक भरा पेट
आदमी है; कपड़े
हैं, दवा
है, सुविधा
है, सब कुछ
है, और
भीतर पाता है
कि सब व्यर्थ
है; कुछ
सार नहीं, कुछ
उपलब्ध नहीं
हो रहा। बाहर
सब है; भीतर
खालीपन है। यह
आदमी दुख में
है। दुख समृद्धि
का लक्षण है।
इसलिए
दुखी होना हो
तो समृद्ध
होना जरूरी
है। और दुख का
अनुभव न हो तो
हमारी सुख की
वासना नहीं
छूटती। दुख के
प्रगाढ़
अनुभव से ही
यह प्रतीति
होनी शुरू होती
है कि दुख
क्यों है।
हमने विपरीत
मांगा है। जो
हम मांगते हैं, न
मिले, तो
दुख पैदा होता
है। और मजा तो
यह है कि मिल
जाए तो भी सुख
पैदा नहीं
होता। जीवन की
सारी जटिलता
और पहेली यही
है कि जो हम
चाहते हैं, मिल जाए, तो
सुख नहीं
मिलता; और
न मिले तो दुख
मिलता है। धन
चाहते हैं; मिल जाए तो
धन हाथ में आ
जाता है, लेकिन
सुख हाथ में
नहीं आता। महल
चाहते हैं, मिल जाए; राज्य
चाहते हैं, साम्राज्य
चाहते हैं, मिल जाए; मिल
गया बहुत
लोगों को।
लेकिन सिकंदर
ने कहा है कि
मैं खाली हाथ
मर रहा हूं; मेरे हाथ
खाली हैं।
इतना
बड़ा साम्राज्य
हो और हाथ
खाली हों; क्या
अर्थ होगा
इसका? साम्राज्य
तो मिल गया, लेकिन जिस
सुख का सपना
संजोया था वह
पूरा नहीं
हुआ। वह अभी
भी खाली का
खाली है। जो
चाहें वह मिले
तो सुख नहीं
मिलता; सिर्फ
ऊब पैदा होती
है। और न मिले
तो दुख पैदा होता
है। सुख की
वासना के दो
छोर हैं।
मिलने वाला
आदमी ऊबा हुआ
होता है।
इसलिए धनी
आदमी बोर्ड
हैं, ऊबे
हुए हैं, त्रस्त
हैं। कुछ
सूझता नहीं कि
जीवन में क्या
अर्थ है, क्या
रस है!
जिन्हें नहीं
मिल पाता, न
मिलने की पीड़ा
सताती है।
यह
दिखाई पड़ने
लगे कि दुख
कोई बाहरी
घटना नहीं है; कष्ट
बाहरी घटना
है। स्मरण
रखें, कोई
दूसरा आदमी
चाहे तो आपको
कष्ट दे सकता
है, दुख
नहीं दे सकता।
दुख तो आप ही
अपने को दे
सकते हैं। वह
निजी घटना है।
कष्ट दूसरे पर
निर्भर है।
बुद्ध
को भी किसी ने
जहर दे
दिया--भूल से
सही--तो भी
कष्ट तो दिया।
शरीर पीड़ित
हुआ;
मृत्यु भी
उसी घटना से
घटी। लेकिन
बुद्ध को कोई
दुख नहीं दे
सकता है। कष्ट
बाहर से आता
है; दुख
भीतर का
दृष्टिकोण
है। इसलिए
कष्ट से भी हम
दुख पा सकते
हैं; और
चाहें तो कष्ट
से भी दुख न
पाएं।
क्योंकि वह
भीतर की
व्याख्या है।
बुद्ध को जहर
दिया, भूल
से दिया। किसी
गरीब आदमी ने
निमंत्रण
दिया, भोजन
कराया। लेकिन
भोजन में
विषाक्त
सब्जी थी।
बिहार में लोग
कुकुरमुत्ते
इकट्ठे कर लेते
हैं। गरीब
आदमी वर्षा
में
कुकुरमुत्ते
इकट्ठे कर
लेते हैं, उनको
सुखा लेते हैं;
फिर उनका
भोजन करते हैं
साल भर तक।
गरीब आदमी था।
कुकुरमुत्ते
की सब्जी उसने
बुद्ध के लिए
बनाई थी।
बुद्ध ने खाई
तो जहर थी।
लेकिन एक ही
सब्जी थी, और
उस आदमी ने
वर्षों
इंतजार किया
था बुद्ध का।
और वह इतने
आनंद से बैठ
कर उन्हें
खिला रहा था
कि बुद्ध को
यह कहना ठीक न
मालूम पड़ा कि
सब्जी कड़वी
है। उसे दुख
होगा। और वह
इतना गरीब था
कि दूसरी कोई
सब्जी नहीं
थी। और बुद्ध
भूखे घर से
लौटें तो उसकी
पीड़ा अनंत हो
जाएगी। इसलिए
बुद्ध चुपचाप
उस जहरीली, कड़वी सब्जी को
खाते रहे।
वह तो
उसे बाद में
पता चला। जब
सब्जी उसने
बुद्ध के जाने
के बाद चखी तो
वह तो हैरान
हो गया। वह तो
जहर थी! वह
भागा हुआ आया।
बुद्ध को
चिकित्सकों
ने देखा।
उन्होंने कहा, यह
विषाक्त था
भोजन और जहर
खून में पहुंच
गया है; बचना
बहुत मुश्किल
है। तो बुद्ध
ने जो पहला काम
किया वह यह, अपने
भिक्षुओं को
बुला कर कहा
कि बुद्ध के
जीवन में दो
व्यक्ति
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
होते हैं।
पहला वह
व्यक्ति, मां,
जो पहला
भोजन देती है,
दूध; और
अंतिम, जो
अंतिम बुद्ध
को भोजन कराता
है। तो इस
व्यक्ति का
तुम स्वागत
करना, इस
व्यक्ति का
सम्मान करना
और इतिहास में
इसका उल्लेख
करना कि यह
बुद्ध को
अंतिम भोजन
देने वाला
व्यक्ति है।
आनंद ने कहा, आप क्या कह
रहे हैं!
भिक्षु तो
बहुत रुष्ट
हैं और डर है
कि लोग उस पर
हमला न बोल
दें। बुद्ध ने
कहा, इसीलिए
मैं कह रहा
हूं। उसका तुम
सम्मान करना,
उसका कोई
कसूर नहीं है।
लेकिन अनायास
ही वह महाभाग
को उपलब्ध हुआ
है कि बुद्ध
को उसने अंतिम
भोजन दिया है।
बुद्ध
दुख को भी दुख
की भांति नहीं
लेते; कष्ट को
भी दुख की भांति
नहीं लेते।
इससे विपरीत
भी होता है।
हम सुख को भी
दुख की भांति
ले सकते हैं।
क्योंकि वह
हमारी
व्याख्या पर
निर्भर है।
मैंने
सुना है, अमरीका
के एक महानगर
में एक होटल
का मालिक अपने
मित्र से रोज
की शिकायतें
कर रहा था कि
धंधा बहुत
खराब है, और
धंधा रोज-रोज
नीचे गिरता जा
रहा है; होटल
में अब उतने
मेहमान नहीं
आते। उसके
मित्र ने कहा,
लेकिन तुम
क्या बातें कर
रहे हो? मैं
तुम्हारे
होटल पर रोज
ही नो वेकेंसी
की तख्ती लगी
देखता हूं--कि
जगह खाली नहीं
है। उसने कहा,
वह तख्ती छोड़ो एक
तरफ। आज से
चार महीने
पहले कम से कम
सौ ग्राहकों
को रोज वापस
लौटाता था, अब मुश्किल
से पंद्रह-बीस
को लौटा रहा
हूं। धंधा रोज
गिर रहा है।
आदमी
की
व्याख्याएं
हैं। धंधा
उतना ही है, लेकिन
ग्राहक कम लौट
रहे हैं, इससे
भी पीड़ा है।
धंधे में
रत्ती भर का
फर्क नहीं पड़ा
है, लेकिन
वह आदमी दुखी
है। और उसके
दुख में कोई
शक करने की
जरूरत नहीं, उसका दुख
सच्चा है; वह
भोग रहा है
दुख।
दुख
हमारी
व्याख्या है।
कष्ट बाहर से
मिल सकता है।
इसलिए कष्ट से
तो बुद्ध भी
पार नहीं हो सकते।
जब तक शरीर है, तब
तक कष्ट दिया
जा सकता है।
लेकिन दुख
देने का कोई
उपाय नहीं।
क्योंकि कष्ट
बाहर ही रह
जाएगा। उसकी
दुख की भांति
व्याख्या
नहीं की
जाएगी।
तो दो
बातें स्मरण
रखें। हम दुख
जानते हैं, ऐसा
मत कहें; हम
दुख भोगते
हैं। बुद्ध
आनंद भोगते
हैं। दुख को
जो पहचान लेता
है वह आनंद के
भोग के लिए
तैयार हो जाता
है। दुख के
पूरे यंत्र को
जिसने समझ
लिया वह दुख के
बाहर होना
शुरू हो जाता
है। और पूछा
है कि हम आनंद
की दिशा में
क्यों नहीं
जाते?
अपनी
तरफ से तो हम
जाते ही हैं, पहुंचते
नहीं। अपनी
तरफ से तो
प्रत्येक
व्यक्ति आनंद
की ही तलाश
करता है। ऐसा
आदमी तो खोजना
मुश्किल है जो
आनंद की तलाश
न करता हो। यह
दूसरी बात है
कि उसकी तलाश
भ्रांत हो; वह जहां
खोजता हो वहां
आनंद न मिलता
हो; वह जिन
ढंगों से
खोजता हो वे
ढंग दुख में
ले जाते हों।
आनंद को सभी
खोजते हैं। उस
संबंध में कोई
भेद नहीं है
बुद्ध में और
अबुद्ध में, ज्ञानी में,
अज्ञानी
में। भेद विधि
का है। बुद्ध
इस ढंग से
खोजते हैं कि
पा लेते हैं, और हम इस ढंग
से खोजते हैं
कि नहीं पाते।
ढंग का फर्क
है, खोज का
कोई फर्क नहीं
है। लक्ष्य का
कोई फर्क नहीं
है। चाहते तो
हम भी आनंद ही
हैं। लेकिन चाह
कर भी दुख
पैदा होता है
तो जरूर कहीं
कोई भूल चाह
में हो रही
है। इसे दोत्तीन
हिस्सों में
समझ लेना
जरूरी है।
पहली
बात,
जो बहुत
महत्वपूर्ण
है: हमारा सुख,
या जिसे हम
आनंद कहते हैं,
वह सदा
भविष्य में
होता है; आने
वाले कल में
होता है।
ध्यान रहे, भूल शुरू हो
गई। अस्तित्व
अभी और यहीं
है, और
आपने कल की
वासना शुरू कर
दी जो कि नहीं
है। आप
अस्तित्व के
बाहर भटक गए।
जो भी मिल
सकता है वह
अभी और यहीं
मिल सकता है।
कल तो कुछ भी
नहीं मिल सकता;
क्योंकि कल
कभी आता ही
नहीं। कल का
कोई अस्तित्व
ही नहीं है।
वह नासमझ आदमी
की दौड़ है।
नासमझ अपनी
वासना के कारण
कल को सोचता
रहता है।
बुद्ध
से उनके एक
भिक्षु सारिपुत्त
ने पूछा है कि
मैं आनंद को
कैसे खोजूं? तो
बुद्ध ने कहा,
तू खोज छोड़,
अभी और यहीं
सिर्फ मौजूद
रह। खोज की
कोई जरूरत
नहीं। आनंद
यहीं है। तू
भागा हुआ है, इसलिए जो
यहीं है उससे
तेरा मिलन
नहीं हो पाता।
आनंद
कोई वस्तु
नहीं है जो
भविष्य में
मिल जाएगी; वह
हमारे जन्म के
साथ हमारे
हृदय की धड़कन
में बसी है।
आनंद हमारा
स्वभाव है।
उसे खोजने की
कोई जरूरत ही
नहीं है। खोजने
की वजह से ही
हम उससे चूकते
हैं। खोजें मत;
उसे अभी इसी
क्षण में पकड़ें।
उसे कल पर मत टालें।
दुखी आदमी वही
आदमी है जो
सुख को कल
खोजता है, और
आनंदित आदमी
वही आदमी है
जो उसे कल पर
नहीं टालता, अभी इसी
क्षण में
डूबता है। इस
डूबने का नाम
ध्यान है, समाधि
है।
तो जब
आप इसी क्षण
में डूबने की
कला सीख जाते
हैं तो आपको
आनंद का स्रोत
उपलब्ध हो
जाता है, एक।
दूसरी बात
ध्यान रखनी
जरूरी है कि
सुख खोजने
वाले लोग सदा
दूसरे से सुख
पाने की
चेष्टा में
लगे होते हैं।
जैसे कोई और
देगा--पत्नी
देगी, पति
देगा, धन
देगा, समाज
देगा, बेटा
देगा--कोई
देगा, कोई
और देगा। वहां
भूल हो रही
है। आनंद आपके
भीतर है; दुनिया
में कोई भी
उसे आपको दे
नहीं सकता।
उसे देने का
कोई उपाय नहीं
है। तो जब तक
हम सोचते हैं
सुख कोई और
देगा तब तक हम
दुख पाएंगे।
जिस दिन हम इस
बात पर आ
जाएंगे कि
आनंद कोई दे
नहीं सकता, आज तक पूरे
इतिहास में
कभी किसी ने
किसी को आनंद
नहीं दिया।
आनंद तो स्वयं
ही पाना होता
है। वह स्वयं
का स्वयं से
संबंध है। वह
अंतर्यात्रा
है, बहिर्यात्रा
नहीं। क्षण
में डूबें
और अपने में डूबें।
और
तीसरी बात, जब
भी दुख मिले
तब दुख में
डूब कर
तादात्म्य न कर
लें; दुखी
न हो जाएं। जब
भी दुख मिले
तो साक्षी बने
रहें और उसे
देखें। भोगने
की बजाय उसे
जानें। उसमें
डूबने की बजाय
तटस्थ होकर
साक्षी बनें,
द्रष्टा
बनें। दुख का
मूल सूत्र है--तादात्म्य,
आइडेंटिटी।
क्रोध आया, दुख के बादल
उठने लगे। आप
तत्काल एक हो
जाते हैं। आप
भूल ही जाते
हैं कि मैं
कुछ हूं जो
क्रोध से अलग
हूं। निश्चित
ही आप अलग
हैं। क्योंकि
जब क्रोध नहीं
था तब भी आप
थे। और थोड़ी
देर बाद क्रोध
नहीं रह जाएगा
तब भी आप
होंगे। तो क्रोध
एक बादल की
तरह आपके
आस-पास आया
है। लेकिन
आपका सूरज उस
बादल से एक हो
जाने की कोई
भी जरूरत
नहीं। सूरज को
दूर रखा जा
सकता है। इस
दूर रखने की
कला को हमने
साक्षी-भाव
कहा है, विटनेसिंग कहा है।
तो जब
भी दुख पकड़े
तब थोड़ा दूर
खड़े होकर
देखने की
कोशिश करें। कठिन
होगा प्रारंभ
में,
क्योंकि
जन्मों-जन्मों
से हमने एक
होकर ही देखने
की कोशिश की
है। लेकिन जरा
सा भी प्रयास
करके देखेंगे
तो तत्क्षण
दूरी हो
जाएगी। क्योंकि
दूरी है।
तादात्म्य
झूठ है; दूरी
सत्य है। आपके
और आपके
अनुभवों के
बीच एक फासला
है। कुछ भी
घटता है, वह
आपके बाहर घट
रहा है। आप
चाहें, उससे
अपने को जोड़
लें। और जोड़ने
की आदत बन गई
हो तो तोड़ना
मुश्किल भी
मालूम पड़े।
लेकिन
वस्तुतः आप
टूटे हुए हैं
और अलग हैं।
आपका स्वभाव
भोगना नहीं है,
जानना है।
भोगना भूल है;
भोगना एक
भ्रांति है।
जानना सत्य
है। जो सत्य है
वह सरलता से
हो जाएगा।
लेकिन पुरानी
आदत थोड़ा समय
ले सकती है।
तो जब
भी दुख पकड़े
तब शांत बैठ
जाएं, आंख बंद
कर लें और दुख
को दूर से
देखने की कोशिश
करें, जैसे
वह किसी और को
घटता हो। इस
एक वचन को
बहुत गहरे में
उतर जाने
दें--जैसे वह
किसी और को
घटता हो। किसी
ने गाली दी है और
भीतर पीड़ा
घूमने लगी है।
बैठ जाएं आंख
बंद करके और
देखें कि जैसे
किसी और को घट
रहा है; आप
दूर हैं।
धीरे-धीरे यह
दूरी साफ होने
लगेगी, धुंधलका
अलग हो जाएगा,
और स्पष्ट
दिखाई पड़ेगा
कि दुख घट रहा
है और आप देख
रहे हैं। जिस
क्षण आप देखने
वाले हो जाएंगे
उसी क्षण से
आपका दुख से
संबंध टूट
गया। द्रष्टा
हो जाना दुख
से अलग हो
जाना है। ये
तीन बातें
खयाल में रखें
तो बुद्धत्व
बहुत दूर नहीं
है। बुद्ध होना
आपका अधिकार
है। आप नहीं
होते, यह
आपकी मौज है।
बुद्ध होना
प्रत्येक के
लिए सुगम है।
नहीं होते, यह आपकी
चेष्टा का फल
है। आप सब तरह
से रोक रहे
हैं अपने को।
तो ऊपर से तो दिखता
है कि आप आनंद
की खोज कर रहे
हैं, लेकिन
जो भी आप कर
रहे हैं उससे
ही आनंद की
हत्या हो रही
है।
आनंद
की खोज का अगर
इन तीन
सूत्रों के
अनुसार चलना
हो तो आप
शीघ्र ही
पाएंगे कि वह
किरण उतरनी
शुरू हो गई
जिसके सहारे
मुक्त हुआ जा
सकता है, और
जिसके सहारे
सच्चिदानंद
तक पहुंचा जा
सकता है।
दूसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि विकसित
चेतना के कारण, विचार
के कारण, मनुष्य
निसर्ग से
विच्छिन्न हो
गया। फिर यह भी
कहा कि इसी
चेतना के
विस्तार के
द्वारा फिर निसर्ग
से, स्वभाव
से या ताओ से जुड़
सकता है। एक
ही चेतना तोड़ती
है और जोड़ती
भी, इसमें
विरोधाभास
मालूम पड़ता
है।
मालूम
पड़ता है; है
नहीं। आप जिस
रास्ते से इस
भवन तक आए हैं
उसी रास्ते से
आप अपने घर तक
वापस भी
लौटेंगे। जो
रास्ता यहां
तक लाया है
वही वापस भी
ले जाएगा।
फर्क थोड़ा सा
ही होगा--आपकी
दिशा में फर्क
होगा; रास्ता
वही होगा।
रास्ता बदलने
की जरूरत नहीं
कि आप दूसरे
रास्ते से घर
पहुंचें।
सिर्फ दिशा
बदलने की
जरूरत है कि
आपका मुंह घर
की तरफ होगा।
अभी आते वक्त
आपकी पीठ घर
की तरफ थी।
चेतना
का विकास ही
मनुष्य को
प्रकृति से
दूर ले जाता
है,
क्योंकि पीठ
प्रकृति की
तरफ है। और
चेतना का ही
अंतिम विकास
मनुष्य को
प्रकृति में
ले जाता है, तब मुंह
प्रकृति की
तरफ हो जाता
है। अगर मेरी बात
ठीक से खयाल
में ली हो, तो
मैंने कहा, जीवन का
विकास
वर्तुलाकार
है। जब आप
चलना शुरू
करते हैं
चेतना के जगत
में, जैसा
मनुष्य प्रकृति
से टूटता चला
जाता है, अगर
यह विकास पूरा
हो जाए तो
वर्तुल पूरा
हो जाएगा और
मनुष्य
प्रकृति से
पुनः जुड़
जाएगा। यह
विकास बीच में
रुक जाता है, यही अड़चन
है। आदमी पूरा
आदमी नहीं हो
पाता, यही
अड़चन है।
अधूरा रह जाता
है। अधूरे से
कठिनाई है। आप
पूरे चेतन हो
जाएं या पूरे
अचेतन हो जाएं
तो प्रकृति से
जुड़ जाएंगे।
पूरे अचेतन
में भी आप
प्रकृति से
जुड़ते हैं, पूरे चैतन्य
में भी।
क्योंकि
पूर्णता
प्रकृति से
जोड़ती है। और
अपूर्णता
प्रकृति से तोड़ती है।
इसलिए
मैंने कहा कि
दो ही उपाय
हैं। या तो
बेहोश हो जाएं
तो बेहोशी के
क्षण में थोड़ी
देर को
प्रकृति के
साथ एकता सध
जाती है।
इसलिए गहरी
नींद में सुख
मिलता है।
सुबह जब आप
उठते हैं गहरी
नींद के बाद
तो कहते हैं, बड़ा
आनंदपूर्ण था,
रात बड़ी
आनंदपूर्ण
थी। क्या था
रात में जो
आनंदपूर्ण था?
क्या हुआ
क्या? कुछ
आप बता नहीं
सकते कि कुछ
हुआ। लेकिन
सुबह एक हलकी
झलक छूट जाती
है; एक
पूरे चित्त पर,
शरीर पर एक
छाया छूट जाती
है सुख की। पर
हुआ क्या?
हुआ
इतना ही कि
रात की गहरी
निद्रा में आप
गिर गए वापस, अचेतन
हो गए; जहां
पौधे जी रहे
हैं, वहां
आप पहुंच गए।
जहां पत्थर
जीता है वहां
आप पहुंच गए।
प्रकृति की अचिंता
में लीन हो गए;
धारा में खो
गए। वह जो
व्यक्ति की
चेतना थी वह न
रही। उससे ही
सुबह इतना
सुखद मालूम
पड़ता है। यह
सुख प्रकृति
में डूब कर
वापस लौटने के
कारण है। आप
ताजे होकर आ
गए। फिर युवा
हो गए। थकान मिट
गई, बासापन चला गया।
इसलिए
जो आदमी रात
ठीक से सो
नहीं पाता, उसका
जीवन बड़ा
बोझिल हो जाता
है। क्योंकि
उसके संबंध
टूट गए
प्रकृति से जुड़ने के।
बेहोश होकर
जुड़ जाता था, वे संबंध
टूट गए। लेकिन
कृष्ण ने गीता
में कहा है कि
योगी जागता
है। लेकिन
आपको अनिद्रा
की जब बीमारी
हो जाती है तब
आप योगी नहीं
हो जाते।
अनिद्रा की बीमारी
में तो आप
रुग्ण होने
लगते हैं।
सुबह आप पाते
हैं कि आप
थके-मांदे हैं,
उससे भी
ज्यादा जितने
आप सांझ को
थे। रात भी थकान
ही बनी है।
करवट बदलने
में ही और
ज्यादा बेचैनी
हो गई। और
सुबह आप उठते
हैं टूटे हुए,
मुर्दा।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं,
योगी रात को
जागता है। वे
ठीक कहते हैं।
लेकिन वह घटना
तभी घट सकती है
जब पूरी चेतना
उपलब्ध हो
जाए। क्योंकि
पूरी चेतना
उपलब्ध होने
पर फिर
प्रकृति से
संबंध हो जाता
है। पूरी
चेतना होने पर
भी व्यक्ति खो
जाता है, परमात्मा
रह जाता है।
और पूरी
अचेतना होने
पर भी व्यक्ति
खो जाता है और
प्रकृति रह
जाती है।
दोनों ही हालत
में अहंकार मिट
जाता है। और
जहां अहंकार
मिट जाता है
वहां निद्रा
की कोई
आवश्यकता न
रही। शरीर
विश्राम कर
लेगा; चेतना
जागी रहेगी।
ऐसा नहीं कि
बुद्ध सोते नहीं,
और ऐसा नहीं
कि कृष्ण सोते
नहीं। शरीर ही
सोता है लेकिन,
भीतर दीए की
तरह चेतना
जलती ही रहती
है। और निद्रा
में भी क्या
घट रहा है, उसका
भी बोध बना
रहता है। हम
तो जागे हुए
भी सोए रहते
हैं; बुद्ध
या कृष्ण सोए
हुए भी जागे
रहते हैं।
लेकिन
यह जागरण तभी
संभव है--नहीं
तो बुद्ध और कृष्ण
पागल हो
जाएंगे--यह
जागरण तभी
संभव है जब उस
परम ऊर्जा के
स्रोत से
मिलने की कोई
दूसरी विधि
खोज ली गई हो।
उससे मिलने का
एक ही उपाय है:
आप नहीं होने
चाहिए। या तो
आप बेहोशी में
मिट जाएं, या
इतने होश से
भर जाएं कि
अहंकार टिके
न।
पर
अहंकार बड़े
जोर से पकड़े
हुए है। वही
हमारा रोग है।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी फकीर की
मृत्यु हो रही
थी। वह अपनी
शय्या पर पड़ा
था। उसके बहुत
भक्त थे, वे
सब इकट्ठे हुए
थे। खबर
दूर-दूर तक
पहुंच गई थी।
मृत्यु करीब
आती जाती थी
और भक्त
गुणगान कर रहे
थे अपने गुरु
का। कोई कह
रहा था, ऐसा
ज्ञानी न तो
पृथ्वी ने
पहले देखा और
न पृथ्वी बाद
में देखेगी। एक-एक
शब्द कंठस्थ
था। कहीं से
भी पूछो
प्रश्न, कभी
कोई अड़चन न
थी। शास्त्र
धारा की तरह
बहने लगते थे।
कोई कह रहा था,
ऐसा दयालु
आदमी जीवन में
देखा नहीं; सारा जीवन
दया और सेवा
से भरा हुआ
था। कोई कह रहा
था, ऐसा
तपस्वी! ऐसा
कठोर साधक!
अपने साथ इतना
संयमी और
दूसरों के साथ
इतना दयालु!
अपने साथ इतना
कठोर और दूसरों
के साथ इतना
सदय! ऐसी
चर्चा चलती
थी। मरता हुआ
आदमी आंख बंद
किए सब सुनता
होगा। आखिरी क्षण
में उसने आंख
खोली और कहा
कि सुनो, कोई
मेरे
निरहंकारी
होने की भी तो
बात करो। यह
सब तो ठीक है, लेकिन कोई
मेरे
निरहंकारी होने
की भी तो बात
करो।
अहंकार
बड़ी सूक्ष्म
बात है।
तपश्चर्या
में भी बच
जाता है; शास्त्र
के ज्ञान में
भी बच जाता
है। दया-सेवा
में भी बच
जाता है।
परिपुष्ट
होता रहता है
वहां भी। अब
यह आदमी मरते
क्षण में भी
अहंकार से भरा
है। पर इसका
अहंकार बड़ा
उलटा है। एकदम
से पकड़ में न
आए। कह रहा है
कि मेरे
निरहंकारी होने
की भी तो कोई
चर्चा करो।
असल में, अहंकार
का अर्थ ही है
कि मेरी कोई
चर्चा करे, मुझे कोई
जाने, मुझे
कोई पहचाने।
मैं हूं, मैं
कुछ हूं, उसकी
ही तो सारी
विक्षिप्तता
अहंकार है।
इस
अहंकार को
खोने के दो
उपाय हैं--या
तो पशु की
भांति निद्रा
में खो जाएं
और या फिर संतों
की भांति
परिपूर्ण
जागरण में
प्रतिष्ठित
हो जाएं।
दोनों ही
स्थिति में आप
मिट जाएंगे।
आप दोनों के
बीच में हैं।
अहंकार मध्य
बिंदु है।
अर्ध-मूर्च्छा, अर्ध-जागृति;
कुछ जागे, कुछ सोए।
वहां अहंकार
खड़ा रहता है।
पूरे जागे, अहंकार चला
जाता है। पूरे
सो गए, तो
भी अहंकार चला
जाता है।
इसलिए जब
चेतना बिलकुल
प्रसुप्त
होती है तब भी
प्रकृति के
साथ हम एक
होते हैं, और
जब चेतना
परिपूर्ण
बुद्धत्व को
उपलब्ध होती
है तब हम पुनः
प्रकृति के
साथ एक हो
जाते हैं।
रास्ता
एक ही है, लेकिन
दिशाएं बदल
जाती हैं। जब
हम अहंकार की
तरफ बढ़ रहे होते
हैं तो पीठ
होती है
प्रकृति की
तरफ, और जब
हम अहंकार से
हट रहे होते
हैं तो मुंह
होता है
प्रकृति की
तरफ। और वापस
उसी घर में
लौट आना होश
से भर कर, यही
जीवन का
लक्ष्य है।
जहां से हम
बेहोशी में जनमे हैं, वहीं होश से
भर कर लौट आना
जीवन की सारी
कला है। उसी
घर में वापस
पहुंच जाना, जहां से हम
बेहोश पैदा
हुए थे, होश
को सम्हाल कर।
मनुष्य वहीं
पहुंचता है जहां
से आया है।
मूल स्रोत ही
अंत है। लेकिन
भिन्न होकर
पहुंचता है।
इसलिए
संसार का
शिक्षण बड़ा
अदभुत और
जरूरी है।
परमात्मा
अकारण ही
संसार को नहीं
चलाए जाता है।
गहन कारण हैं
भीतर कि जो
आपके पास है
वह छीना जाना
चाहिए और आपको
तब तक नहीं
मिलना चाहिए
जब तक आप पूरे
होश से न भर
जाएं। वह
छीनने का क्रम
आपको होश से
भरने की
प्रेरणा है।
होश से भर कर
आपको वही मिल
जाएगा जिस
आनंद में पशु
और पक्षी
आनंदित हैं, वृक्ष
आनंदित हैं, आकाश के
तारे आनंदित
हैं। पूरा जगत
जिस उत्सव में
डूबा है, आप
भी डूब
जाएंगे।
लेकिन आपके
डूबने में मजा
ही अलग होगा।
बोधि-वृक्ष के
नीचे बुद्ध
बैठे हैं।
बुद्ध जिस
आनंद में हैं,
वृक्ष भी
उसी आनंद में
है, लेकिन
वृक्ष को कोई
होश नहीं आनंद
का। और उस
आनंद का अर्थ
ही क्या जिसका
कोई होश न हो? जिस आनंद का
पता न चलता हो
उसके होने न
होने में फर्क
क्या है? उसी
के नीचे बुद्ध
बैठे हैं। वे
भी उसी आनंद में
हैं, लेकिन
अब पूरे
होशपूर्वक
जागे हुए हैं।
ऐसा
समझें कि आपको
बेहोश एक बगीचे
में ले जाया
जाए स्ट्रेचर
पर रख कर।
फूलों की
सुगंध जरूर
आपके
नासापुटों तक
आएगी।
क्योंकि फूल
इसकी फिक्र
नहीं करते कि
आप होश में
हैं कि बेहोश हैं।
पक्षियों के
गीत भी आपके
कान पर झंकार
करेंगे।
क्योंकि
पक्षियों को
कोई मतलब नहीं
कि आप सुन रहे
हैं कि नहीं
सुन रहे हैं।
ठंडी हवाएं
आपको छुएंगी।
लेकिन आप
बेहोश हैं। और
इसी बेहोशी
में आपको बगीचे
का पूरा भ्रमण
करवा कर वापस
ले आया जाए।
तो जब आप होश
में आएंगे तब
शायद आप कहें
भी कि कुछ अच्छा-अच्छा
लगता है, कुछ
ताजगी मालूम
पड़ती है।
क्योंकि वह
बगीचा कुछ
अनजान छाया तो
छोड़ ही गया
होगा। लेकिन
आपको कुछ पता
नहीं; न
फूलों के उस
आनंद का, न
फूलों के खिलने
का, न
पक्षियों के
गीत का, न
उस संगीत का
जो उन हवाओं
में था जो
वृक्षों से
गुजरती थीं, न उस शांति
का, न उस
हरियाली का।
नहीं, आपको
उस सबका कुछ
भी पता नहीं
है। फिर उसी बगीचे में
आप होशपूर्वक
जाएं; जागे
हुए।
ठीक
प्रकृति में
सभी कुछ आनंद
में डूबा हुआ
है,
लेकिन होश
नहीं है। आदमी
वापस होश का
अनुभव करके
डूबता है। इस
अनुभव की
प्रक्रिया
में दुख उठाना
पड़ता है।
क्योंकि जो
बेहोशी में
मिलता था, बेहोशी
छूटते ही खोने
लगता है; होश
आते ही छूटने
लगता है हाथ
से, विलीन
होने लगता है।
तो आदमी
जैसे-जैसे होश
से भरता है
वैसे-वैसे
दुखी होता चला
जाता है। बच्चे
कम दुखी हैं; बूढ़े बहुत
ज्यादा दुखी
हो जाते हैं।
क्योंकि बूढ़े
को कुछ होश आ
गया। जिंदगी
की सब चीजें
दिखाई पड़ने
लगीं--सब
व्यर्थ था। सब
दायित्व, सारी
दौड़-धूप, सारी
थकान, सारी
ऊब साफ हो गई।
बूढ़ा ज्यादा
दुखी है। बच्चा--अभी
पता नहीं है
उसे। बच्चा
अभी भी
प्रकृति से
ज्यादा दूर
नहीं गया है।
अभी बहुत करीब
ही खेल रहा
है। लेकिन अभी
होश नहीं है।
इसलिए
जीसस ने कहा
है,
जो पुनः
बच्चे की
भांति हो जाते
हैं, वे धन्यभागी
हैं। पुनः! जो
बूढ़े होकर फिर
बच्चे जैसे हो
जाते हैं। पर
इस होने का
अर्थ ही यह
हुआ कि अब
होशपूर्वक
बच्चे जैसे हो
जाते हैं, जागे
हुए बच्चे
जैसे हो जाते
हैं। लौटना है
गंगोत्री पर
ही, मूल
उदगम पर ही, लेकिन होश
को कमा कर
लौटना है।
संसार
जागरण की एक
प्रक्रिया
है।
तीसरा
प्रश्न:
विपरीत
विपरीत को
आकर्षित करता
है। इस नियम के
अधीन, बुद्ध
पुरुषों के
इर्द-गिर्द मूढ़
व्यक्ति
इकट्ठे हो
जाते हैं। तो
क्या वे सब ज्ञानीजन
हैं जो उनके
सान्निध्य से
दूर ही रहते
हैं?
वे महामूढ़
हैं। क्योंकि
जो बुद्ध के
करीब आते
हैं...करीब आते
हैं,
मूढ़ हैं इसीलिए
करीब आएंगे।
क्योंकि
बुद्ध के पास
कोई बुद्ध
पुरुष तो किसलिए
करीब आएगा? कोई जरूरत
ही न रही।
चिकित्सालय
में कोई जाता है
इसलिए कि
रुग्ण है।
बुद्ध के पास
कोई आता है
इसलिए कि
अज्ञानी है और
ज्ञान की तलाश
है। लेकिन जो
अज्ञानी
ज्ञान की तलाश
में लग गया, ज्ञान का जन्म
शुरू हो गया।
इसलिए जो दूर
रह जाते हैं
उनको मैं कहता
हूं, महामूढ़ हैं। रुग्ण
हैं, और
फिर भी
चिकित्सक के
पास नहीं जाना
चाहते। रुग्ण
हैं, फिर
भी अहंकार
रोकता है यह
भी कहने से कि
मैं बीमार
हूं। क्योंकि
चिकित्सक को
इतना तो कहना ही
पड़ेगा कि मैं
बीमार हूं।
बुद्ध के पास
इतना तो कहना
ही पड़ेगा कि
मैं अज्ञानी
हूं। तभी तो
ज्ञान की
प्रक्रिया
शुरू हो सकती
है। इतना भी
स्वीकार करना
पीड़ा देता है।
इसलिए महामूढ़
बुद्ध के पास
नहीं पहुंच
पाते। मूढ़
पहुंचते हैं।
लेकिन
इन मूढ़ों
में भी कई तरह
के मूढ़
होंगे, तरहत्तरह के होंगे।
कुछ होंगे जो
सजग हो जाएंगे
अपनी मूढ़ता
के प्रति और
बुद्ध के निकट
अपनी मूढ़ता
को काटने का
उपाय करेंगे।
कुछ होंगे जो
सजग न होंगे, बल्कि बुद्ध
की बातों से
अपनी मूढ़ता
को ही भरने का
उपाय करेंगे।
बुद्ध का
उपयोग भी अपनी
मूढ़ता के
लिए ही करने
वाले लोग भी
हैं। उनसे ही
खतरा है।
स्वभावतः, जब
एक मूढ़जन
ज्ञानी के पास
आता है तो वह
उसकी पूरी
बातें तो नहीं
समझ सकता।
असंभव है।
लेकिन अगर उसे
खयाल हो कि
मैं समझ तो
नहीं सकता, इतनी
विनम्रता हो
और समझने की
चेष्टा करता
रहे, तो
ठीक। लेकिन
अगर, जो भी
वह समझ लेता
है, समझता
हो कि मैंने
समझ लिया, और
फिर हठाग्रही
हो, तो
खतरा है। तब
खतरा है; तब
फिर वह जिद्द
बांधेगा। और
बुद्ध कितने
दिन होंगे? आज नहीं
कल--इस तरह का
बड़ा वर्ग
है--उसके हाथ
में बातें पड़
जाती हैं।
बुद्ध के मरते
ही बुद्ध की
बातों पर कोई
एकमत न रहा, पच्चीस
धाराएं पैदा
हो गईं। हर
धारा के लोग
कहने लगे, यही
बुद्ध ने कहा
था।
बुद्ध
की तो बात छोड़
दें;
मैंने सुना
है कि सिग्मंड
फ्रायड के
जीवन में ऐसा
घटा। वह जिंदा
था, लेकिन
बूढ़ा हो गया
था। और एक बड़ा
आंदोलन उसके आस-पास
चल रहा था, मनोविश्लेषण
का, साइकोएनालिसिस का। सारी
अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति थी, हजारों उसके
शिष्य थे। तो
कुछ दस उसके
विशेष शिष्य
उसके बुढ़ापे
को निकट देख
कर उससे मिलने
के लिए इकट्ठे
हुए थे। सांझ
को भोजन के
लिए फ्रायड के
साथ टेबल पर
बैठे हैं।
बातचीत चलने
लगी; उन
दसों में
विवाद छिड़
गया--फ्रायड
क्या कहता है
इस संबंध में।
और फ्रायड
बैठा है जिंदा,
उससे कोई
पूछता ही
नहीं। उनमें
विवाद इतना बढ़
गया कि वे भूल
ही गए कि अभी
इतने विवाद की
जरूरत क्या
है! आदमी
जिंदा है, सामने
मौजूद है, उससे
हम पूछ लें कि
तुम्हारा
क्या मंतव्य
था। वे
अपना-अपना
मंतव्य सिद्ध
कर रहे हैं।
फ्रायड ने
उनसे कहा, मित्रो, अभी मैं जिंदा
हूं। अभी तुम
मुझसे सीधा
पूछ ले सकते
हो कि मेरा
मंतव्य क्या
था। लेकिन तुम
मुझसे नहीं पूछते;
मेरे मरने
के बाद तुम
क्या करोगे!
तब तो तुम्हीं
निर्णायक हो
जाओगे।
तो
जैसे ही एक
ज्ञानी की
मृत्यु होती
है,
उसके आस-पास
अज्ञानियों
का जो समूह है
वह पच्चीस तरह
के मत-मतांतर
खड़े कर लेता
है। करेगा ही।
धर्म तो ज्ञानियों
से पैदा होते
हैं, संप्रदाय
मूढ़ों से
पैदा होते
हैं। और ऐसी
क्षुद्र
बातों पर लड़ेगा
कि जिसकी हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
अब
दिगंबर और
श्वेतांबरों
से पूछो कि
किस बात से
तुम्हारा झगड़ा
है महावीर के
बाबत? श्वेतांबर
कहते हैं कि
वे कपड़े पहनते
थे; दिगंबर
कहते हैं वे
नग्न थे। कहां
की क्षुद्र बातों
पर झगड़ा
है--कि
श्वेतांबर
कहते हैं कि
उनकी शादी हुई
थी और दिगंबर
कहते हैं कि
उनकी शादी
नहीं हुई। श्वेतांबर
कहते हैं कि
उनकी एक लड़की
भी हुई थी और
उनका दामाद भी
था, और
दिगंबर कहते
हैं कि उनकी
कोई न लड़की
हुई, न कोई
दामाद था।
ये
झगड़े हैं।
इनमें से कुछ
भी सच हो, इसका
महावीर से
क्या
लेना-देना है?
कपड़े पहनते
हों तो क्या
फर्क पड़ता है?
नहीं पहनते
हों तो क्या
फर्क पड़ता है?
उन्होंने
जो कहा है, उससे
कोई लेना-देना
नहीं है। बड़े
अजीब लोग हैं!
लेकिन इस पर
झगड़े हजारों
वर्ष तक चलते
हैं। और झगड़े
बड़े
पांडित्यपूर्ण
चलते हैं, उसमें
बड़े
शास्त्रों का
और विवाद का
और तर्क का
जाल फैलाया
जाता है। और
करने वाले
सोचते हैं कि
बड़ा
महत्वपूर्ण
काम कर रहे
हैं, क्योंकि
बड़े धर्म की
रक्षा की बात
है। अब महावीर
नग्न थे कि कपड़ा
पहनते थे, इससे
धर्म की रक्षा
का क्या सवाल
है? कपड़े
के भीतर भी
नग्न ही
होंगे। कपड़ा
इतना
मूल्यवान है
नहीं। महावीर
की शादी हुई या
नहीं हुई, इससे
क्या
लेना-देना है?
इन व्यर्थ
की बातों में
इतना क्या सार
है?
लेकिन
नहीं, इनमें
सार मालूम
पड़ता है।
क्योंकि मूढ़ों
का अहंकार
इनसे जुड़ जाता
है--उनकी बात
ठीक है। सत्य
से मूढ़ को
कोई संबंध
नहीं होता, अपने मत से
संबंध होता
है। ज्ञानी, जो सत्य है, उसको अपना
मत बनाता है। मूढ़, जो
उसका मत है, उसको सत्य
सिद्ध करता
है। ज्ञानी
सदा तैयार है
अपने मताग्रह
को छोड़ने को, सत्य जहां
ले जाए वहां
जाने को।
अज्ञानी कहता
है, सत्य
को मेरे पीछे
चलना पड़ेगा; जहां मैं
जाता हूं, वहां
सत्य को जाना
पड़ेगा।
जो
बुद्ध
पुरुषों के
पास इकट्ठे
होते हैं वे धन्यभागी
हैं--मूढ़
हों तो भी।
क्योंकि वहां
उपाय है कि
उनकी मूढ़ता
विसर्जित हो
जाए। लेकिन
जरूरी नहीं है
कि पास
पहुंचने से
आपकी मूढ़ता
विसर्जित हो
जाएगी। आपको
बहुत सजग रहना
पड़ेगा।
क्योंकि मूढ़ता
की बड़ी गहरी
जड़ें हैं और
बड़ी तरकीबों
से वह आपको पकड़े
हुए है।
भागवत
में एक घटना
है। पूर्णिमा
की एक रात है और
कृष्ण रास कर
रहे हैं। उनकी
प्रेमिकाएं, उनकी
सखियां उनके चारों
तरफ नाच रही
हैं। हर
प्रेमिका को
लगता है कि
कृष्ण उसी को
प्रेम करते
हैं। ऐसा
लगेगा ही। वह
भी अहंकार का
ही हिस्सा है।
हर प्रेमिका
को लगता है कि
कृष्ण मुझे ही
प्रेम करते
हैं। लेकिन
जैसे ही किसी
प्रेमिका को
लगता है कि कृष्ण
मेरे ही हैं
वैसे ही उसे
कृष्ण दिखाई
नहीं पड़ते।
नाच तो चलता
है, लेकिन
कृष्ण बीच से
तिरोहित हो
जाते हैं। जिस
सखी को भी ऐसा
लगता है कि
कृष्ण बस मेरे
हैं, और पजेशन,
और मालकियत
का भाव पैदा
होता है, वैसे
ही उसे कृष्ण
दिखाई पड़ने
बंद हो जाते
हैं।
यह
बहुत मीठी कथा
है। खूबसूरत, बड़ी
सुंदर और बड़ी प्रतीकपूर्ण।
और जैसे ही
उसको दिखाई
नहीं पड़ते, वह बेचैन हो
जाती है, परेशान
हो जाती है, प्रार्थना
करने लगती है,
और भूल जाती
है इस भाव को
कि कृष्ण मेरे
हैं, बस
मेरे हैं।
इसको भूल जाती
है। प्यास
जगती है, प्रेम
जगता है; विह्वल
होकर रोने
लगती है, चिल्लाने
लगती है। तब
उसको फिर
कृष्ण दिखाई
पड़ने लगते
हैं। लेकिन
जैसे ही कृष्ण
दिखाई पड़ते
हैं, उसे
फिर खयाल होता
है कि मेरी
पुकार पर आ गए,
मेरी प्यास
पर आ गए; मैंने
चाहा और दिखाई
पड़े; बस
मेरे हैं।
कृष्ण फिर
तिरोहित हो
जाते हैं।
बस
गुरु और शिष्य
के बीच ऐसा ही
खेल चलता है।
जिस क्षण लगता
है बुद्ध के
किसी भक्त को
कि बस मेरे
हैं,
और मैं समझ
गया, और बस
असली चाबी
मेरे हाथ आ गई;
बुद्ध खो
गए। मूढ़ता
अहंकार है। और
जहां अहंकार पकड़ता है
वहीं कठिनाई
शुरू हो जाती
है।
बुद्ध
के जीवन में
घटना है कि
आनंद उनके
मरने तक ज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हुआ।
चालीस साल
उनके साथ था, और
ज्ञानी पुरुष
था--जिनको हम
ज्ञानी कहते
हैं--जानकार
था, योग्य
था, प्रतिभाशाली
था। बुद्ध का
बड़ा भाई था
रिश्ते में, चचेरा भाई
था। लेकिन
चालीस साल
चौबीस घंटे साथ
रह कर भी
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हुआ। और कथा कहती
है कि बुद्ध
के मरने के बाद
वह ज्ञान को
उपलब्ध हुआ।
बुद्ध से मरने
के पहले वह
रोने लगा और
कहने लगा कि
आप जाते हैं!
मेरा क्या
होगा? चालीस
साल भटकते हो
गए और मुझे
कुछ तो हुआ
नहीं।
बुद्ध
ने कहा, जब तक
मैं न मिट
जाऊं, तुझे
कुछ होगा भी
नहीं। मेरा
समाप्त हो
जाना तेरे
होने के लिए
जरूरी है, ताकि
तेरी मुट्ठी
खाली हो जाए, तेरी पकड़ खो
जाए।
कथा
बड़ी मधुर है
कि जब आनंद
आया पहली दफा
बुद्ध के पास
दीक्षा लेने, तो
वह उनका बड़ा
भाई था रिश्ते
में। तो उसने
कहा कि दीक्षा
लेने के बाद
तो मैं
तुम्हारा
शिष्य हो जाऊंगा
और तुम जो
आज्ञा दोगे वह
मुझे माननी
पड़ेगी। लेकिन
अभी तुम मेरे
छोटे भाई हो
और मैं तुम्हारा
बड़ा भाई हूं; अभी मैं
तुम्हें जो
आज्ञा दूंगा
वह तुम्हें माननी
पड़ेगी। तो
पहले तीन
शर्तें मेरी
पूरी कर दो, फिर मैं
दीक्षा लेता
हूं। पहली
शर्त यह कि
सदा, जब तक
जीवित हूं, तुम्हारे
साथ रहूं; तुम
मुझे कहीं अलग
न भेज सकोगे; तुम यह न कह
सकोगे कि जाओ,
कहीं और
बिहार करो।
मैं सदा छाया
की भांति तुम्हारे
साथ रहूंगा।
चौबीस घंटे!
रात सोऊंगा
भी तुम्हारे
ही कमरे में।
तुम मुझे क्षण
भर को अलग न कर
सकोगे। दूसरी
बात, जिस
व्यक्ति को भी
मैं तुमसे
मिलाना
चाहूं--आधी
रात में भी--तो
तुम इनकार न
कर सकोगे। और
तीसरी बात, कोई भी सवाल
मैं पूछूं,
वह सवाल
कैसा ही हो, तुम्हें
जवाब देना ही
पड़ेगा।
बुद्ध
छोटे भाई थे।
तो बुद्ध ने
कहा कि जो आज्ञा
दे रहे हो बड़े
भाई की हैसियत
से वह मैं
स्वीकार कर
लेता हूं। फिर
आनंद की
दीक्षा हुई।
लेकिन यह जो
अकड़ थी बड़े
भाई होने की
यह बाधा बन
गई। और बुद्ध
ने पूरे जीवन
निभाया; जो
कुछ आनंद ने
मांगा था वह
पूरे जीवन
पूरा किया।
लेकिन वह जो
अकड़ थी, वह
कठिनाई हो गई,
और बुद्ध से
सीखने में
बाधा बन गई।
वह जो बड़ा भाई
होना था, वह
जो बुद्ध को
आज्ञा देने का
अहंकार था, वह अड़चन हो
गया। बुद्ध के
मरने के बाद
पकड़ छूटी और
आनंद को होश आया
कि मैंने गंवा
दिए चालीस
वर्ष! जिसके
पास था वहां
एक क्षण में
घटना घट सकती
थी, लेकिन
मैं अपनी तरफ
से ही बंद था।
वह कभी भी मन के
गहरे में
बुद्ध को बड़ा
नहीं मान
पाया। छोटा
भाई था, तो
छोटा भाई। सिर
झुकाता था, पैर में सिर
रखता था, लेकिन
भीतर वह जानता
था कि मेरा
छोटा भाई है। तो
वह झुकना, वह
समर्पण, सब
झूठा हो गया।
बुद्ध
के पास
स्वभावतः जो
जाएंगे, वे
अज्ञानी हैं।
लेकिन वे धन्यभागी
अज्ञानी हैं,
क्योंकि
उन्हें जाने
का खयाल आ
गया। इतना भी
ज्ञान कुछ कम
नहीं। जो नहीं
जाते, वे महामूढ़
हैं। वे अपने
में बंद हैं, उनके खुलने
का उपाय नहीं
है। कहीं से
चोट जरूरी है;
नहीं तो आप
अपनी खोल में
बंद रह सकते
हैं जन्मों-जन्मों
तक। कहीं से
चिनगारी पड़नी
जरूरी है। और
बड़ी जरूरत इस
बात की है कि
कोई आनंदित
व्यक्ति आपके
जीवन-अनुभव का
हिस्सा हो
जाए। क्योंकि
आपको आनंद की
कोई खबर नहीं।
जिसकी खबर ही
नहीं है उसकी
खोज भी कैसे
हो? और
जिसका कोई
स्वाद नहीं, वह होता भी
है, इसका
भरोसा भी कैसे
हो?
बुद्ध
आपको आनंद
नहीं दे सकते
और न ज्ञान दे
सकते हैं, लेकिन
बुद्ध की
मौजूदगी आपको
स्वाद दे सकती
है। आपको इतना
तो लग सकता है
कि कुछ इस
आदमी को हुआ
है जो अगर मुझे
भी हो जाए तो
जीवन सार्थक
है। बुद्ध की
छाया में आपको
जो शांति की
झलक मिले वह
आपकी अपनी शांति
की खोज बन
सकती है। तो
बुद्ध प्यास
दे सकते हैं।
परमात्मा तो
दुनिया में
कोई किसी को नहीं
दे सकता; लेकिन
परमात्मा की प्यास
किसी के
सान्निध्य
में जग सकती
है। वह जग जाए
और अज्ञानी
अपने अज्ञान
के प्रति सचेत
हो तो
धीरे-धीरे
अज्ञान
विसर्जित हो
जाता है।
लेकिन
अगर अज्ञानी
अपने अज्ञान
को ही बुद्ध से
भरने लगे तो
कठिनाई हो
जाती है। आप
भर सकते हैं।
बुद्ध
निरुपाय हैं, कुछ
भी नहीं कर
सकते। आप अपने
अज्ञान को भर
सकते हैं उनसे
भी। उनसे जो
बातें सुनें,
वे आपकी
स्मृति में
चली जाएं, आपका
जीवन-आचरण न
बनें; तो
खतरा है। तो
आप पंडित हो
जाएंगे, ज्ञानी
नहीं हो
पाएंगे। और
अज्ञानी जब
पंडित हो जाता
है तो भयंकर
रोग से ग्रस्त
हो जाता है।
चौथा
प्रश्न:
नागसेन ने
कहा है, नागसेन नहीं है।
विश्लेषण से
यह सत्य
निरूपित हुआ।
क्या
संश्लेषण के
द्वारा भी इसी
तथ्य का निरूपण
होना संभव है?
स्पष्ट
करें।
कथा
मैंने कही कि नागसेन
आया सम्राट के
पास और उसने
कहा कि रथ का
एक-एक अंग अलग
कर लो। अंग
अलग होते चले
गए,
रथ खोता चला
गया। जब सारे
अंग अलग हो गए
तो पीछे शून्य
बचा; वहां
कोई रथ न था।
और नागसेन
ने कहा, अब
रथ कहां है? ऐसा ही मैं
भी हूं। मेरे
एक-एक अंग अलग
कर लो, मैं
खो जाऊंगा।
यह विश्लेषण
की प्रक्रिया
है, एनालिसिस की। एक-एक
चीज को अलग कर
लिया।
प्रश्न
कीमती है--कि
चीजें अलग कर
लेने से तो
सिद्ध हुआ कि नागसेन
नहीं है, लेकिन
क्या
संश्लेषण से,
सिंथीसिस से भी यही
सत्य सिद्ध
होगा?
यही
सिद्ध होगा।
क्योंकि जो
सत्य है वह
विश्लेषण और
संश्लेषण पर
निर्भर नहीं
होता। सत्य सिद्ध
नहीं होता, सिर्फ
आविष्कृत
होता है। इस
विश्लेषण की
प्रक्रिया से
सिद्ध हुआ कि नागसेन
नहीं है; एक-एक
हिस्से को अलग
करते गए तो
पता चला कि नागसेन
खो गया।
यह
बौद्धों की
प्रक्रिया है; शून्य
की प्रक्रिया
है। इसलिए
बुद्ध कहते हैं,
कोई आत्मा
नहीं है। और
इस आत्मा के न
होने को जान
लेना ही सत्य
की उपलब्धि है,
निर्वाण
है। वेदांत की
प्रक्रिया
संश्लेषण की
प्रक्रिया है।
वेदांत कहता
है, जोड़ते जाओ, और
इतना जोड़ो
कि जोड़ के
बाहर कुछ भी न
बचे।
नागसेन है, पास
में वृक्ष है,
पास में
सम्राट खड़ा है,
आकाश है, बादल हैं; सब को जोड़ते
चले जाओ। जब
सब जुड़ जाएगा
तब भी नागसेन
बचेगा नहीं, क्योंकि तब
परमात्मा ही
बचेगा, ब्रह्म
बचेगा। अगर हम
सब जोड़ते
चले जाएं तो
एक बचेगा। नागसेन
के बचने के
लिए तो अनेक
की जरूरत है; कम से कम दो
की जरूरत है।
कम से कम दो तो
चाहिए कि
सम्राट अलग हो
और नागसेन
अलग हो। इतना
फासला तो
चाहिए। अगर हम
जोड़ते ही
चले जाएं तो
एक ही बचेगा--ब्रह्म।
टोटैलिटी
हो जाएगी; एक
समग्रता हो
जाएगी। उसमें
सम्राट भी खो
जाएगा, नागसेन भी खो
जाएगा।
बूंद
को अगर हम
सागर में डाल
दें तो भी खो
जाती है और
बूंद को अगर
हम भाप बना
दें तो भी खो
जाती है। भाप
बनने में बूंद
मिटती है, शून्य
हो जाता है; पीछे कुछ
बचता नहीं।
सागर में बूंद
को डाल दें, बूंद रहती
है, लेकिन
सागर बचता है,
बूंद खो
जाती है। तो
या तो शून्य
की तरफ चलें, अपने को
काटते जाएं, काटते जाएं
और भीतर अनुभव
करें कि मैं
नहीं हूं। और
या फिर पूर्ण
की तरफ चलें
और जोड़ते
जाएं और जोड़ते
जाएं, और
ऐसा अनुभव
करते जाएं कि
सब कुछ मैं ही
हूं। दोनों ही
स्थिति में नागसेन खो
जाएगा, आप
खो जाएंगे।
अहंकार बीच
में बच सकता
है--कुछ जुड़ा, कुछ टूटा।
पूरा तोड़ दें
तो खो जाता है,
पूरा जोड़
दें तो खो
जाता है।
पूर्ण के साथ
अहंकार का कोई
संबंध नहीं बन
पाता; अपूर्ण
के साथ ही
अहंकार का
संबंध बनता
है।
इसलिए
वेदांत और
बुद्ध का
विचार बड़े
विपरीत मालूम
होते हैं; ब्रह्म-अनुभूति
और निर्वाण, शून्यता बड़े
विपरीत मालूम
होते हैं।
विपरीत मालूम
होते हैं
शब्दों की वजह
से, प्रक्रिया,
विधि की वजह
से। लेकिन
अंतिम परिणाम
बिलकुल एक है।
इसलिए जिनको
जैसा रुचिकर
लगता हो! कुछ
लोग हैं जो
विश्लेषण में
ज्यादा रस ले
पाएंगे, नेति-नेति,
इनकार करने
में; ठीक
है। इसलिए जब
कोई नास्तिक
मेरे पास आता
है तो उससे
मैं नहीं कहता
कि तू ईश्वर
को मान। उससे
मैं कहता हूं
कि फिक्र छोड़,
ईश्वर है ही
नहीं; अब
तू इसकी ही
फिक्र कर कि
तू भी नहीं है।
ईश्वर को
छोड़ने की तूने
हिम्मत की, काफी किया; अब इतनी
हिम्मत और कर
कि तू भी नहीं
है। आत्मा भी
नहीं है, अहंकार
भी नहीं है।
नास्तिक को
मैं कहता हूं,
न करने का
तेरा रस है तो
फिर पूरा ही न
कर दे; कह
दे कि कुछ भी
नहीं है। तो
भी वहीं पहुंच
जाएगा।
आस्तिक होने की
कोई जरूरत
नहीं है। अगर
आपका रुझान
आस्तिक का है
तो बात अलग
है। तो
नास्तिक होने
की कोई जरूरत
नहीं है।
नास्तिक
भी पहुंच सकता
है;
यह इस भारत
की ही खोज है।
यह जान कर आप
हैरान होंगे,
दुनिया में
कोई नास्तिक
धर्म नहीं है,
सिर्फ भारत
में दो धर्म
नास्तिक हैं,
जैन और
बौद्ध।
दुनिया में
कोई धर्म
नास्तिक नहीं है।
दुनिया में, भारत के
बाहर, समझ
में भी नहीं
आता उनको कि
नास्तिक का
कैसे धर्म हो
सकता है!
नास्तिक और
धर्म उलटे
मालूम पड़ते
हैं। लेकिन
हमने नास्तिक
का धर्म भी
खोज लिया।
क्योंकि धर्म
परम सत्य है; उसे न करके
भी पाया जा
सकता है, उसे
हां करके भी
पाया जा सकता
है। अगर सत्य
को हां करके
ही पाया जा
सकता है तो
सत्य अधूरा हो
गया, तो
सत्य कमजोर हो
गया; न को
झेलने की
उसमें हिम्मत
न रही। तो
सत्य अधूरा हो
गया। सिर्फ
हां वालों को
मिलेगा, न
वालों को नहीं
मिलेगा, तो
सत्य भी फिर
इतना
परिपूर्ण
नहीं है कि
सभी उसमें समा
जाएं। तो उस
मंदिर में भी
कुछ के लिए
जगह है और कुछ
के लिए जगह
नहीं है।
भारत
अदभुत है।
आस्तिक धर्म
तो बिलकुल सहज
बात है।
ईसाइयत है, इसलाम
है; सब
आस्तिक धर्म
हैं। उनकी
कल्पना के ही
बाहर है कि
कोई धर्म हो
सकता है, जो
कहता है ईश्वर
नहीं, और
हो सकता है।
और कोई धर्म
हो सकता है, जो यहां तक
कहता है कि न
कोई परमात्मा
है, न कोई
आत्मा है, और
फिर भी धर्म
हो सकता है।
लेकिन
हमारा धर्म का
अर्थ ही और
है। धर्म का हमारा
अर्थ है: वह जो
परम है उसको
पा लेना। उसको
पाने के दो
ढंग हैं। या
तो कोई इतनी
हां करे कि
उसकी हां
विराट हो जाए
और उसमें कहीं
भी न को
गुंजाइश न
रहे। तो पूर्ण
हो गया। या
कोई इतना न
करे कि हां की
जरा भी
गुंजाइश न
रहे। तो न
पूर्ण हो गया।
या तो यस
पूर्ण हो जाए
या नो पूर्ण
हो जाए। जहां
भी दोनों में
से कोई एक
पूर्ण हो जाता
है,
परम सत्य की
उपलब्धि हो
जाती है।
इसलिए
बुद्ध
नास्तिक हैं।
ईश्वर नहीं है, आत्मा
नहीं है। बड़ा
मुश्किल है
पश्चिम को समझना
कि ऐसा आदमी! एच.जी.वेल्स
ने लिखा है कि
बुद्ध इस
पृथ्वी पर
सबसे ज्यादा ईश्वरविहीन
और सबसे
ज्यादा ईश्वर
जैसे व्यक्ति
हैं। गॉडलेस
एंड गॉडलाइक,
दोनों एक
साथ। एच.जी.वेल्स
ने लिखा है कि
समझ झकझोर
जाती है कि इस
आदमी को समझो
कैसे! क्योंकि
इससे ज्यादा
ईश्वर जैसा आदमी
खोजना
मुश्किल है।
और यह आदमी
कहता है, ईश्वर
नहीं है।
हम इसे
अगर इस तरह
समझ पाएं तो
बात बहुत सरल
हो जाएगी।
सत्य को पाने
के दो उपाय
हैं: विश्लेषण
और संश्लेषण, इनकार
या स्वीकार।
लेकिन दोनों
हालत में एक शर्त
है--पूर्णता, टोटैलिटी। नास्तिक
होना है तो
पूरे ही
नास्तिक हो
जाएं, और
आप ब्रह्म को
उपलब्ध हो
सकेंगे।
अधूरी नास्तिकता
से नहीं
चलेगा।
आस्तिक होना
है तो पूरे
आस्तिक हो
जाएं। अधूरी
आस्तिकता से
नहीं चलेगा।
लेकिन
जमीन पर अधूरे
लोगों की भीड़
है। अधूरे आस्तिक, अधूरे
नास्तिक; सब
तरह के
आधे-आधे लोग
हैं। जब भी
कोई आदमी किसी
भी दृष्टि में
पूरा उतर जाता
है तो समस्त अपूर्णताओं
से मुक्त हो
जाता है, समस्त
दृष्टियों से
मुक्त हो जाता
है। दोनों ही
स्थितियों
में पता चलेगा,
आप नहीं
हैं। या तो
बूंद को भाप
बना कर उड़ा
दें, शून्य
में डूब जाएं,
या बूंद को
सागर में उतार
दें और विराट
के साथ एक हो
जाएं। बस आप
मिट जाएं।
आपके
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
पांचवां
प्रश्न:
लाओत्से
पहले कहते थे
कि ताओ के
मानने वाले हवा-पानी
की तरह जीते
हैं--सहज और
अनायास। और उस
दिन लाओत्से
ने कहा कि
श्रेष्ठ कोटि
के श्रावक ताओ
के अनुसार
जीने की अथक
चेष्टा करते
हैं। इस विरोध
को स्पष्ट
करें।
विरोध
नहीं है। ताओ
को उपलब्ध
व्यक्ति तो
हवा-पानी की
तरह जीता है, लेकिन
ताओ की तरफ
चलने वाला
व्यक्ति
हवा-पानी की
तरह कैसे जी
सकता है? हवा-पानी
की तरह जीने
के लिए भी उसे
पहले प्रयास
करना पड़ेगा।
यात्रा के
प्रारंभ में
आप पूरी मंजिल
को कैसे
उपलब्ध हो
सकते हैं? आपको
पुरानी आदतें तोड़नी
पड़ेंगी; पुरानी
कंडीशनिंग है,
संस्कार
हैं, उनको
नष्ट करना
पड़ेगा। वे
जगह-जगह आपको
घेरे हुए हैं।
आप जान भी
लेंगे कि वह
गलत है तो भी वे
पीछा करेंगे।
क्योंकि
सिर्फ जान
लेना काफी नहीं
है। आपने
वर्षों, जन्मों
तक उनकी साधना
की है।
एक
आदमी है; वह तय
कर लेता है, समझ लेता है
कि सिगरेट
पीना बुरा है;
धूम्रपान
बंद कर दूं।
लेकिन उसके
खून ने निकोटिन
की आदत बना ली
है। उसके खून
में इतनी
बुद्धि अभी नहीं
पहुंच सकती है
एकदम से। आपके
निर्णय करने
का पता खून को
नहीं चलेगा।
उसके हृदय की
धड़कन भी निकोटिन
की मांग करती
है। वह आदी हो
गया है। निकोटिन
उसके शरीर का
भोजन हो गया
है। अब अगर निकोटिन
नहीं
पहुंचेगा तो
वह सुस्त
मालूम पड़ेगा।
और जब सुस्त
मालूम पड़ेगा
तो शरीर मांग
करेगा कि मुझे
धूम्रपान दो।
किसी काम में
रस नहीं मालूम
पड़ेगा। कुछ भी
करने जाएगा, तो
लुंज-पुंज
होगा। हाथ-पैर
उठते हुए
मालूम नहीं
पड़ेंगे। शरीर
बगावत करेगा।
शरीर कहेगा, मेरा भोजन
मुझे दो।
शरीर
को कुछ पता
नहीं कि आपकी
बुद्धि को
क्या पता चल
गया है कि
सिगरेट पीना
बुरा है, पाप
है। किसी
साधु-संन्यासी
को सुन कर
आपने भावावेश
में कसम खा ली,
संकल्प कर
लिया कि अब
नहीं पीऊंगा।
अब आप मुश्किल
में पड़े। शरीर
को पता नहीं
है आपके साधु
का, संन्यासी
का, शास्त्र
का। आपने सुन
लिया और आपने
निर्णय ले
लिया। शरीर से
आपने पूछा ही
नहीं कि मैं
चालीस साल से
सिगरेट पीता
था, तो
चालीस साल में
निकोटिन
की जो आदत बन
गई है, वह
भोजन का
हिस्सा हो गई
है, उसको
कैसे अलग करूं?
तो जब तक, आप कितना ही
निर्णय कर लें,
जब तक यह
आदत न बदलेगी
तब तक आपको
संघर्ष जारी
रखना पड़ेगा।
आप
हवा-पानी की
तरह अभी नहीं
हो सकते; हवा-पानी
की तरह हुए कि
फौरन सिगरेट
जला लेंगे।
अगर आपने कहा
कि सहज जीएंगे,
तो शरीर
कहेगा, पीयो। अगर सहज ही
जीना है तो
फिर यह क्यों
कहते हो कि
नहीं पीएंगे?
जब सहज ही
जीना है तो
उठाओ सिगरेट;
फिर बाधा
क्या है?
सहज
जरूर जीना है, लेकिन
जब असहज आदतें
टूट जाएंगी
तभी आप सहज जी
सकेंगे।
इसलिए
लाओत्से जब
कहता है कि
संत हवा-पानी
की तरह होता, तो यह अंतिम
बात है; उपलब्ध,
सिद्ध की
बात है। और
अपने को सिद्ध
मत मान लेना, नहीं तो
खतरा है। अपने
को साधक ही
मान कर चलना।
खतरा है अगर
सिद्ध अपने को
मान लें।
क्योंकि आपका मान
लेने का तो मन
होगा, क्योंकि
बिना कुछ किए
अगर सिद्ध हो
जाएं तो इससे
सरल और क्या
बात होगी?
मेरे
पास लोग आते
हैं वे कहते
हैं कि
लाओत्से की
बात बहुत जंचती
है। मैं जानता
हूं,
क्यों जंचती
है। कुछ नहीं
करना, सब
स्वीकार है।
सब झंझट मिट
गई; कुछ
करना नहीं, सब स्वीकार।
आप जैसे हैं
वैसे ही रहे
आएं। इसलिए
लाओत्से की
बात जंचती
है। मगर
लाओत्से को आप
समझेंगे नहीं,
अगर इसलिए
आप जंचा रहे
हैं। तो आप
गलत आदमी लाओत्से
के पास आ गए।
और आपको
नुकसान होगा।
आप अभी असहज
हैं; अभी
आप क्षण में
सहज नहीं हो
सकते। निर्णय
तो आप कर सकते
हैं, लेकिन
यात्रा, अथक
चेष्टा पीछे
करनी होगी। और
अगर आपने चेष्टा
नहीं की पीछे
तो निर्णय
व्यर्थ पड़ा रह
जाएगा।
साधक
और सिद्ध का
फासला खयाल
में रहे तो
विरोधाभास
नहीं दिखाई
पड़ेगा। बुद्ध
भी कहते हैं
कि कुछ करना
नहीं है; वह
स्वभाव है।
लेकिन बुद्ध
भी छह साल तक
तपश्चर्या कर
रहे हैं। छह
साल तक
तपश्चर्या
करने के बाद
ही उनको पता
चलता है कि
कुछ करना
जरूरी नहीं
है। और आपको
किताब में पढ़
कर या सुन कर
पता चल जाता
है कि कुछ
करना जरूरी
नहीं है। तो
वह छह साल की
तपश्चर्या
में उनकी पुरानी
आदतें टूटीं,
वे तो आपकी
नहीं टूटीं।
डी-कंडीशनिंग
नहीं हुई।
पावलव ने
बहुत प्रयोग
किए रूस
में--संस्कारित
करने के।
कुत्ते को
रोटी देगा।
रोटी देख कर
कुत्ते की लार
टपकने लगती है, तो
घंटी बजाएगा
साथ में। अब
घंटी से लार
टपकने का कोई
संबंध नहीं
है। लेकिन रोज
जब रोटी देगा
तभी घंटी बजाएगा।
पंद्रह दिन
ऐसा करने के
बाद रोटी नहीं
दी, सिर्फ
घंटी बजाई।
कुत्ते की जीभ
बाहर निकल आई
और लार टपकने
लगी। घंटी और
रोटी में
संबंध जुड़ गया
मन के भीतर, कंडीशनिंग
हो गई। अब
कुत्ता भी
जानता है कि
रोटी नहीं है।
कुत्ता भी देख
रहा है और बेचैनी
अनुभव करता है,
लेकिन लार
टपके चली जाती
है। क्योंकि
लार पर आपका
कोई कंट्रोल
नहीं है। या
आप सोचते हैं
है? जरा
सोचें नीबू के
संबंध में, और भीतर से
लार आनी शुरू
हो गई। अभी
सोच ही रहे हैं;
नीबू है
नहीं। पर
कंडीशनिंग है;
नीबू के साथ
जुड़ गया है।
तो कुत्ते का
बिचारे का!
आपका जुड़ गया
तो कुत्ते का
क्यों नहीं
जुड़ जाएगा? तो घंटी के
साथ जुड़ गई।
तो अब उसको
रोज घंटी बजाई
जा रही है, उसकी
लार टपकती है।
वह सीख गया; उसके शरीर
ने आदत सीख
ली।
अब
इसको महीना, पंद्रह
दिन लगेंगे
भुलाने में।
रोज घंटी बजे,
लार टपके, रोटी से संबंध
टूटता चला जाए;
रोज लार कम
होती चली
जाएगी। महीना
भर लगेगा। और
या फिर एक
उपाय है कि जब
इसकी लार टपके
तब इसको बिजली
का एक शॉक
दिया जाए तो
यह घबड़ा जाए।
तो नया संबंध
जुड़ जाए कि
बिजली का शॉक
लगा तो लार एकदम
बंद होने लगी।
तो घंटी और
बिजली का साथ
जुड़ जाए।
तो दो
उपाय हैं
आदतों को
तोड़ने के। या
तो किसी आदत के
प्रति
उपेक्षा रखें
ताकि
धीरे-धीरे
संबंध टूट
जाए। सिगरेट
एकदम मत छोड़ें, उपेक्षा
से पीएं। पीएं, और
बड़े उपेक्षित
रहें कि ठीक
है, पीयी तो, नहीं पीयी तो। इनडिफरेंट।
तो धीरे-धीरे
संबंध टूट
जाए। और या
फिर--अभी पश्चिम
में वे इसको
री-कंडीशनिंग
कहते हैं--कि
जब भी आप
सिगरेट पीएं,
आपको शॉक
दिया जाए
बिजली का। दोत्तीन
दिन में छूट
जाए। क्योंकि
आप सिगरेट पास
ले जाएंगे, आपका पूरा
शरीर इनकार
करने लगेगा। निकोटिन
से भी ज्यादा
नई आदत बन गई
कि अब शॉक
लगेगा। तो अभी
पश्चिम में इस
पर बहुत
प्रयोग चलता
है, और
सरलता से छूट
जाती हैं।
वर्षों की
आदतें किसी
दुखद चीज से
जोड़ देने से
एकदम छूट जाती
हैं।
लेकिन
यह दूसरा
प्रयोग अच्छा
नहीं है।
क्योंकि यह
घातक है। और
इसमें चोट
पहुंच रही है, और
इसमें आपका मन
स्वतंत्रता
से मुक्त नहीं
हो रहा; एक
दुख के कारण
मुक्त हो रहा
है। जैसे एक
छोटे बच्चे को
हम चांटा मार
देते हैं, वह
कोई गलत
काम--हमको
लगता है--गलत
कर रहा है। चांटा
हम क्यों
मारते हैं? हम उसको कंडीशन
कर रहे हैं कि
वह समझने लगे
कि जब भी ऐसा
करेगा चांटा
पड़ेगा; अगर
चांटा नहीं
चाहिए तो नहीं
करेगा। लेकिन
यह कोई सुखद
नहीं हुआ, यह
कोई ज्ञान
नहीं हुआ, यह
कोई बोध नहीं
हुआ। और जिस
दिन बच्चे को
पता चल जाए कि
अब उसका चांटा
आपसे मजबूत हो
गया, उस
दिन वह फिर
करेगा और अब
वह जानता है
कि अब कोई डर
नहीं है।
इसलिए जो
मां-बाप बच्चे
को रोक लेते
हैं थोड़े
दिनों तक वे
पाते हैं कि
आखिर में वह
वही सब कर रहा
है जिसको
उन्होंने रोका
था। क्योंकि
मुक्ति ज्ञान
से होती है, बोध से होती
है।
तो आप
आज साधक की
तरह ही चलना
शुरू करेंगे, सिद्ध
की तरह नहीं।
और साधक की
तरह चलने का
मतलब है कि जो
भी स्थिति है,
पहले उसको
पहचान लें और
समझ लें कि
कितने लंबे
समय से आपने
इसको बनाया
है। इसकी
प्रक्रिया को
समझ लें कि
किस-किस भांति
आपने इसको साधा
है। फिर
धीरे-धीरे
एक-एक हिस्से
को उतारना शुरू
करें, हटाना
शुरू करें। और
लंबे क्रम में
हटाएं, ताकि कहीं
कोई घाव न छूट
जाए। अगर
आदतों को कोई
तोड़ने की कला
ठीक से सीख ले
तो जिस दिन
आदतों का जाल
टूट जाता है
चारों तरफ से
उस दिन जैसे
पक्षी के
चारों तरफ से
पिंजरा गिर
गया। पक्षी अब
उड़ सकता है।
लेकिन
जो पक्षी आकाश
में बहुत
वर्षों से
नहीं उड़ा, उसके
पंख भी जड़ हो
जाते हैं।
उसका भी
अभ्यास करना
पड़ता है। आपका
तोता ऐसे ही
छूट जाए तो
उसको
पशु-पक्षी खा
जाएंगे। उड़ भी
नहीं पाएगा।
उससे तो
कारागृह
बेहतर था।
क्योंकि पंख
को आदत ही छूट
गई है उड़ने
की। पंख को
आदत जुटानी
पड़ेगी। फिर से
पंख को फैलना
पड़ेगा। फिर से
पंख में खून
दौड़ना चाहिए,
फिर से पंख
ताजा और जवान
होना चाहिए।
ऊंचाई पर उड़ने
के लिए हृदय
की धड़कन को अब
सम्हलना
चाहिए। सब फिर
से निर्मित
करना पड़ेगा।
और जैसा तोते
के लिए कठिन
है पिंजड़े
से बाहर निकल
कर उड़ जाना।
सिर्फ पिंजड़ा
तोड़ देना भी
काफी नहीं, फिर बाहर उड़
कर अपने शरीर
को उस योग्य
लाना पड़ेगा।
इसलिए
लाओत्से की जो
बात है वह
बहुत
बहुमूल्य है।
पर आप अपने को
सिद्ध मान कर
चलेंगे तो आप
सिर्फ नुकसान
उठाएंगे, फायदा
नहीं। और
नासमझ औषधि को
भी जहर बना
लेते हैं; समझदार
जहर का भी
औषधि की तरह
उपयोग करते
हैं। इसे
ध्यान में
रखना। अन्यथा
परम सत्य बड़े
खतरनाक हो
जाते हैं।
जैसे
यहां हुआ।
शंकर की हमने
बात सुनी; परम
सत्य शंकर ने
कहा, सब
जगत माया है।
हमने कहा, जब
सब माया ही है
तो अब अड़चन ही
क्या है! अब जो
भी करो, सब
ठीक है, क्योंकि
जब सब माया ही
है। शंकर के
इस विचार ने--जो
कि बड़ा गहरा
सत्य है कि सब
जगत माया
है--इस मुल्क
को धार्मिक
पतन में उतार
दिया।
क्योंकि मुल्क
को लगा जब
माया है तो
ठीक है। झूठ
बोलो, कि
चोरी करो, कि
बेईमानी करो,
कि रिश्वत
खाओ--संसार
माया है।
स्वप्न में
आपने चोरी की
या नहीं की, क्या फर्क
पड़ता है? कि
पड़ता है? सुबह
जब आप उठेंगे,
पाएंगे, सब
स्वप्न
था--चोरी की तो,
और संत हो
गए तो, सपने
में। सुबह उठ
कर पाया सब शांत
है। कुछ सार
नहीं है, सब
एक खयाल था।
अगर जगत पूरा
माया है तो
फिर कुछ भी
करो।
तो आज
जो भारत की जो
अनैतिक दशा है
उसमें शंकर के
परम सत्य का
हाथ है। वह
लाओत्से ठीक
कहता है कि
पैगंबर, तीर्थंकर
ज्ञान के फूल
भी हैं और मूढ़ता
के स्रोत भी।
शंकर का हाथ
है। जान कर
नहीं। शंकर
कभी सोच भी
नहीं सकते कि
ऐसा हो। लेकिन
जो विचार
उन्होंने
दिया और उस
विचार का इस
मुल्क ने जो
उपयोग किया वह
यह था कि ठीक
है। इसलिए सब
बात, सब
चरित्र, सब
नैतिकता, सब
जीवन की
पवित्रता का
कोई मूल्य
नहीं रहा। सब
असार है।
दोनों चीजें
असार हो
गईं--शुभ भी, अशुभ भी। और
तब आदमी कोई
संत नहीं हो
गया, कोई
समाज संत नहीं
हो गया। समाज
बहुत नीचे गिर
गया। इस माया
के सिद्धांत
ने भारत को
बहुत नीचे
गिराया।
परम
सत्य के साथ
एक खतरा है कि
वह बहुत ऊंचा
होता है; वहां
तक आप पहुंच
नहीं पाते।
इसलिए जगत में
सदा से धर्म
के दो पहलू
रहे हैं। एक
पहलू है, जिसको
हम भारत में
कहते हैं
सद्यः मुक्ति,
सडन
एनलाइटेनमेंट।
यह कभी करोड़
में एकाध
व्यक्ति को
होता है, कभी
करोड़ में
एकाध व्यक्ति
को होता है।
एक क्षण में
सब कुछ घट
जाता है।
दूसरा एक जीवन
की धारा है, क्रमिक
मुक्ति, ग्रेजुअल,
आहिस्ता-आहिस्ता।
अधिक लोगों को
वैसे ही चलना
होता है एक-एक
कदम। पर एक-एक
कदम चल कर भी
हजारों मील की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
और
ध्यान रखें, क्रमिक
से ही शुरू
करें, क्षण
में मुक्त
होने का खयाल
मत लाएं। हो
भी सकते हैं, लेकिन
क्रमिक से
शुरू करें।
कोई बाधा नहीं
है। अगर आपकी
योग्यता बन
जाएगी तो आप
क्षण में भी
मुक्त हो
जाएंगे, क्रमिक
प्रयास से कोई
बाधा नहीं
पड़ेगी। लेकिन
अगर आपने क्षण
में मुक्त
होने की कोशिश
की और क्रमिक
की भी योग्यता
नहीं थी, तो
आप व्यर्थ ही
समय गंवाएंगे
और बहुत तरह
की
भ्रांतियों
में भी पड़
सकते हैं।
निश्चित
ही,
सिद्ध
हवा-पानी की
तरह सरल हो
जाता है।
लेकिन साधक को
इस जगह तक
पहुंचने के
लिए बड़े उपाय
करने पड़ते
हैं। सरल होना
इतना सरल नहीं
है, और सहज
होना सहज नहीं
है। सहज होने
के लिए साधना
और सरल होने
के लिए बड़े
जटिल रास्तों
से गुजरना
पड़ता है।
छठवां
प्रश्न:
यदि संगठन
और संप्रदाय
से धर्म व ताओ
का पतन होता है
तो कृपया
समझाएं कि
बुद्ध या
महावीर जैसे लोग
संगठन की नींव
क्यों कर
डालते हैं? आप
भी इस बात के
प्रति सचेत
होते हुए नव
संन्यास
अंतर्राष्ट्रीय
जैसे संगठन की
नींव क्यों
डाल रहे हैं?
जैसा
मैंने कहा, जन्म
के साथ मृत्यु
जुड़ी है, और
जब भी सत्य
पैदा होगा तो
संगठन पैदा
होगा। इससे
बचा नहीं जा
सकता।
क्योंकि जैसे
ही सत्य दूसरे
से कहा जाएगा,
संगठन शुरू
हो गया। या तो
बुद्ध को जो
हुआ है, वे
चुप रह जाएं
पीकर, किसी
को न कहें।
वह
उन्होंने
सोचा था। जब
उन्हें ज्ञान
हुआ तो सात
दिन तक वे चुप
रहे;
सोचा कि कोई
सार नहीं है
कहने में। जो
पहुंच सकते
हैं वे बिना
कहे भी पहुंच
जाएंगे; और
जिनको
पहुंचना नहीं
है, कहने
से कोई फायदा
नहीं है, कहने
में भी वे
गड़बड़ पैदा
करेंगे। उचित
है कि चुप ही
रहूं। लेकिन
मीठी कथा है
कि देवताओं ने,
खुद
ब्रह्मा ने आकर
उनके चरणों
में निवेदन
किया कि आप
ऐसा मत करें!
क्योंकि न
मालूम
कितने-कितने
हजार वर्षों
के बाद कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है; उसने
जो जाना है वह
लोगों को कहे,
संवादित
करे, साझीदार
बनाए। बुद्ध
ने कहा, लेकिन
जो पा सकते
हैं उसे वे पा
ही लेंगे मेरे
बिना, और जो
नहीं पा सकते
उनको कहने में
मेरा समय
क्यों लगाऊं!
मेरी व्यर्थ
शक्ति क्यों
लगाऊं!
ब्रह्मा
भी थोड़ी
दिक्कत में
पड़े। तर्क
बहुत सीधा था
और साफ था। पर
देवताओं ने
आपस में बैठक की।
कहीं षडयंत्र
किया, सोचा-विचारा
और एक नतीजे
पर आए। आकर
उन्होंने बुद्ध
से कहा, आप बिलकुल
ठीक कहते हैं।
कुछ हैं जो
पहुंच जाएंगे
आपके बिना; कुछ हैं जो
आपके कहने से
भी न
पहुंचेंगे।
लेकिन कुछ
दोनों के बीच
में भी हैं जो
आपके न कहने से
जन्मों-जन्मों
तक भटकेंगे
और जो आपके
कहने से पहुंच
जाएंगे। आप
उनके लिए
कहें। हो सकता
है, सौ में
वैसा एक भी आदमी
हो तो भी कहने
का मूल्य है।
बुद्ध राजी
हुए।
लेकिन
जैसे ही कोई
किसी से कहेगा, संगठन
शुरू हो गया।
अगर मैंने
आपसे कोई बात
की और आपको
समझाया, उसका
मतलब ही क्या
होता है? उसका
मतलब यह होता
है कि या तो आप
मुझसे राजी होंगे
या न राजी
होंगे। राजी
होंगे तो मेरे
करीब आ जाएंगे;
संगठन शुरू
हो गया। न
राजी हुए तो
मेरे विपरीत
हो जाएंगे; और मेरे
खिलाफ संगठन
शुरू कर
देंगे। लेकिन
जैसे ही बात
कही गई, संगठन
शुरू हो गया।
तब
सवाल यह है कि
अगर संगठन
शुरू भी होता
हो तो बुद्ध
को या महावीर
को
कृष्णमूर्ति
जैसा करना
चाहिए था कि
संगठन नहीं
करते। मैं
आपसे कहूंगा, बुद्ध
और महावीर ने
कृष्णमूर्ति
से ज्यादा समझदारी
का काम किया।
क्योंकि जब
संगठन होना ही
है तो दो ही
उपाय हैं: या
तो बुद्ध खुद
कर दें, या
बुद्ध के बाद
दूसरे
करेंगे। वे
दूसरे और भी
खतरनाक
होंगे। दो ही
उपाय हैं।
कृष्णमूर्ति न
करें संगठन, लेकिन संगठन
हो रहा है।
लोग हैं जो
अपने को उनका
अनुयायी
मानते हैं।
लोग हैं जो
उनसे सहमत हैं;
वे उनके
अनुयायी हैं।
कृष्णमूर्ति
के हटते ही सब
कुछ हो जाएगा।
और अभी भी
शुरू हो गया।
जैसे-जैसे वे
बूढ़े हो रहे
हैं और
जैसे-जैसे
लगता है कि अब
उनका अंतिम
दिन करीब आ
रहा है, उनके
शिष्य कसते जा
रहे हैं।
ट्रस्ट बना
रहे हैं, स्कूल
बना रहे हैं, फाउंडेशंस खड़ी कर रहे
हैं। संगठन
शुरू हो गया।
उनके हटते ही
संगठन मजबूत
हो जाएगा। और
वे संगठन के
खिलाफ।
निश्चित
ही,
बजाय
कृष्णमूर्ति
के अनुयायी
संगठन करें, यही बेहतर
होगा कि कृष्णमूर्ति
खुद कर दें।
उसमें ज्यादा
समझ होगी। वह
ज्यादा गहरा
होगा; ज्यादा
देर तक
टिकेगा। कम
नुकसान
करेगा--नुकसान
तो करेगा
ही--कम नुकसान
करेगा। लेकिन
उनके पीछे जो
लोग संगठन खड़ा
करेंगे, वे
ज्यादा
नुकसान
करेंगे।
इसलिए
बुद्ध, महावीर
या मोहम्मद
उचित समझे कि
संगठन वे खुद
ही कर दें।
जितनी दूर तक
हो सके उतनी
दूर तक भी
सत्य अपनी
शुद्धता में
पहुंचाने की
चेष्टा की
जाए। और संगठन
अनिवार्य है;
वह बच नहीं
सकता, वह
होगा। अगर आप
मेरी बात
सुनेंगे और
राजी हो जाएंगे
तो आप चाहेंगे
कि किसी और को
कहें, किसी
और तक पहुंचाएं।
जो आपको अच्छा
लगता है, सुखद
लगता है, आनंदपूर्ण
लगता है, आप
उसको बांटना
भी चाहते हैं।
इसमें कुछ
बुरा भी नहीं
है। यह मनुष्य
का धर्म है।
तो दस आदमियों
को अगर मेरी
बात अच्छी
लगती है तो दस
इकट्ठे बैठ कर
सोचेंगे कि
क्या करें कि
यह बात और लोगों
तक
पहुंचे--संगठन
शुरू हो जाएगा।
उचित यही है।
संगठन सड़ेगा,
खराब होगा,
उससे
नुकसान होगा,
वह सब ठीक
है। लेकिन
उससे लाभ भी
होगा, फायदा
भी होगा, हित
भी होगा, वह
भी उतना ही
ठीक है। और इस
डर से औषधि न
बनाई जाए कि
कुछ लोग
ज्यादा पीकर
जहर बना कर
आत्महत्या कर
लेंगे, तो
जिनको औषधि से
लाभ पहुंच
सकता है, उनके
बाबत कोई
ध्यान नहीं
रखा जा रहा
है। तो एक
नासमझ जो कि
जहर बना
लेगा--मगर मैं
मानता हूं कि
जो औषधि का
जहर बना लेगा
वह और भी कोई
तरकीब आत्महत्या
की खोज ही
लेगा; कोई
इसी औषधि के
लिए नहीं रुका
रहेगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि आप संगठन मत
बनाएं।
मगर मैं देखता
हूं कि वे खुद
किसी संगठन
में हैं। कोई
जैन है, कोई
हिंदू है, कोई
बौद्ध है, कोई
ईसाई है। मेरे
बनाने से कुछ
फर्क नहीं पड़ जाएगा।
वे कहीं न
कहीं हैं।
मेरी दृष्टि
यह है कि
संगठन तो
बनाना ही होगा;
इस बोध से
बनाना जरूरी
है कि वह सड़ेगा,
और यह बोध
देना जरूरी है
कि जब वह सड़
जाए तो उसे
छोड़ने की
हिम्मत रखनी
चाहिए।
बुद्ध
ने हिम्मत की
है,
लेकिन कोई
सुनता नहीं।
बुद्ध ने कहा
है कि मैं जो
सत्य दे रहा
हूं वह पांच
सौ साल से
ज्यादा नहीं
चलेगा। असल
में, अगर
बुद्ध के
मानने वाले सच
में उनको
प्रेम करते
हैं तो पांच
सौ साल के बाद
बुद्ध के सब
संगठन विसर्जित
हो जाने
चाहिए। लेकिन
वे राजी नहीं
हैं। अब वे सब
दुश्मन का काम
कर रहे हैं।
इसीलिए नए धर्मों
की जरूरत होती
है, ताकि
पुराने जो सड़
गए हैं वे
विदा हो सकें।
तो एक
संगठन अगर मैं
बनाता हूं तो
इसी खयाल से कि
जब वह सड़
जाएगा तो कोई
दूसरा बनाएगा
और उस सड़े
से जो लोग
मुक्त हो सकते
हैं उनको
मुक्त कर लेगा, बाहर
कर लेगा। जो
मरने को ही तय
किए बैठे हैं
वे कहीं भी
उपाय खोजते, वे इसी में
मरेंगे, इसी
में उपाय
खोजेंगे। पर
एक बात तय है
कि दो उपाय
हैं जीवन के
संबंध में
सोचने के। या
तो हम गलत के
संबंध में
सोचें कि क्या
गलत होगा। तब
कुछ करना संभव
नहीं है। या
हम ठीक के
संबंध में
सोचें कि क्या
लाभ होगा। तो
कृष्णमूर्ति
निरंतर यही
सोचते रहते
हैं कि नुकसान
क्या होगा।
बहुत नुकसान
हैं। आप एक
मकान बनाते
हैं। आप जानते
हैं कि मकान
बनाने में
कितने खतरे
हैं--भूकंप आ
सकता है, मकान
गिर सकता है, जान ले ले
किसी की। अगर
ऐसा सोचते
रहें तो आप मकान
नहीं बना
सकते। लेकिन
मकान क्या कर
सकता है, उस
पर अगर ध्यान
रखें तो इतनी
चिंता की
जरूरत नहीं
है। लेकिन
चिंता पकड़ती
है। मैं एक
छोटी सी कहानी
कहूं। एक अणु
वैज्ञानिक, एक एटामिक
साइंटिस्ट
समझा रहा था
अणु के खतरे
के संबंध में।
जैसे आप यहां
इकट्ठे हैं
ऐसे लोग
इकट्ठे थे। और
उसने खतरे बड़े
साफ समझाए।
सामने ही बैठा
हुआ एक आदमी
कंपने लगा। वह
वैज्ञानिक भी
थोड़ा चिंतित
हुआ उस आदमी
को देख कर। वह
एकदम पीला पड़ा
जा रहा है। वह
वैज्ञानिक भी
डरा। उसने कहा,
इतने मत घबड़ाएं।
अगर बम आपके
नगर पर भी
गिरे तो भी
बचने के उपाय
हैं। और ऐसी
अभी कोई
संभावना भी
नहीं है। मैं
तो सिर्फ
सैद्धांतिक
खतरा समझा रहा
हूं। पर वह
आदमी घबड़ाए
ही चला जा रहा
है। तो उसने
कहा कि बिलकुल
मत घबड़ाएं,
एक करोड़
में एक ही मौका
है कि आपकी
हत्या एटम बम
से हो। वह
आदमी एकदम बेहोश
होने लगा, उसने
कहा कि अवसर
की तो बात ही
मत करें, डोंट
टाक एबाउट
चांसेस।
क्योंकि
पिछले ही साल
एक करोड़
आदमियों ने
टिकट खरीदी
लाटरी की और
मुझको इनाम
मिल गया है।
नहीं, यह
तो बात ही मत
करें। इससे तो
मेरी छाती और
फटी जाती है
कि यह तो खतरा
है ही। एक करोड़
में एक मुझे
इनाम मिला है।
संगठन
का खतरा है, शब्द
का खतरा है, शास्त्र का
खतरा है; लेकिन
उसके लाभ भी
हैं। और खतरा
उठाने जैसा है।
बस एक ही बात
खयाल में रहनी
चाहिए कि सब
चीजें मरणधर्मा
हैं। धर्म हों,
संगठन हों,
शास्त्र
हों, शब्द
हों, सब मरणधर्मा
हैं। और जब
कोई मर जाए तो
उसकी लाश नहीं
ढोनी
चाहिए। बुद्ध
ने कहा है कि
जब तुम पार हो
जाओ नदी के तो
मेरे शब्दों
को, मेरे
धर्म को, मेरे
विचारों को
ऐसे ही छोड?
देना जैसे
कोई नाव को
छोड़ देता है।
उसको सिर पर
मत ढोना। यही
बुद्धिमत्तापूर्ण
मालूम होता
है। जो चीज सड़
जाए उसे छोड़
देना।
अब
बच्चा आपके घर
में पैदा होता
है। पक्का है कि
यह बूढ़ा भी
होगा और मरेगा
भी। तो आप एक
बच्चे को पैदा
करके दुनिया
में एक मरने
की घटना के कारण
बन रहे हैं।
तो बच्चा पैदा
मत करें। यह हम
जानते हैं कि
बूढ़ा होगा, मरेगा।
इसलिए
समझदारी
इसमें है कि
पैदा करें, बच्चे को
बड़ा भी करें, लेकिन जब वह
मर जाए तो
उसकी लाश को
घर में सम्हाल
कर मत रखें।
उसको जाकर, मरघट है
उसके लिए भी, वहां उसको
विश्राम करवा
दें।
धर्म
भी मरने चाहिए, संगठन
भी मरने चाहिए,
शास्त्र भी
मरने चाहिए।
नए तो पैदा
होते जाते हैं;
पुरानी
लाशें हम ढोए
चले जाते हैं।
उससे उपद्रव
है। नए के
पैदा होने में
कोई खतरा नहीं,
पुराने के
ढोने में खतरा
है। जब आपको
लगने लगे कि
कोई चीज मृत
हो गई तो उसे
छोड़ने का साहस
जीवन का लक्षण
है।
किसको
अच्छा लगता है, मां
मर जाए तो
उसको जलाना? लेकिन फिर
भी जलाना पड़ता
है। पिता मर
जाते हैं तो
किसको अच्छा
लगता है? रोते
हैं, छाती
पीटते हैं, फिर भी मरघट
पर पहुंचा कर
जला ही आते
हैं। लेकिन
धर्म भी मर
जाते हैं। बड़े
प्यारे थे कभी,
जीवित थे।
कभी उनसे
अनेकों को
जीवन मिला था,
सुगंध मिली
थी; जीवन
में प्रकाश मिला
था। पर अब
नहीं मिलता, अब अंधेरा
है सब वहां।
लेकिन हम छाती
पर ढोए चले
जाते हैं।
व्यक्ति
पैदा होते हैं, मरते
हैं।
संस्थाओं के
साथ एक खतरा
है। वे पैदा
तो होती हैं, लेकिन न
मरने की जिद्द
करती हैं।
उससे खतरा है।
संस्थाएं
जितनी चाहें
पैदा करें, लेकिन जान
कर कि वे मरेंगी,
उनको मरना
भी चाहिए। यही
नैसर्गिक है।
अगर यह बोध
रहे और मरे को
हटा कर जलाने
की समझ रहे और
नए को अंगीकार
और स्वागत
करने का साहस
रहे तो कोई भी
खतरा नहीं है।
सवाल
और हैं।
सवालों का कोई
अंत भी नहीं
है। और जब मैं
आपको जवाब
देता हूं तो
इस खयाल से नहीं
देता कि किसी
खास प्रश्न का
उत्तर आपके खयाल
में आ जाए। वह
सिर्फ इसीलिए
देता हूं ताकि
आपको एक
दृष्टिकोण
खयाल में आ
जाए प्रश्नों
को हल करने
का। खास
प्रश्न से
मेरा कोई
प्रयोजन नहीं
है। आपके पास
एक समझ आ जाए
कि आप प्रश्नों
को हल कर
पाएं। इसलिए
सभी प्रश्नों
का उत्तर देना
ठीक भी नहीं
है। जितनों का
मैं देता हूं, इसी
आशा में कि
शेष जो रह गए
हैं उनका आप
भी खोज सकेंगे।
और आप खुद
उत्तर खोजने
में समर्थ हो
जाएं, यही
आशा से जवाब
दे रहा हूं।
मेरे जवाब आप
पकड़ लें तो
मुर्दा
होंगे। उनका
भी आपकी छाती
पर बोझ हो
जाएगा। आप खुद
जीवन के
प्रश्नों का
उत्तर खोजने
में क्रमशः
सफल होने लगें,
और
धीरे-धीरे आप
मेरे पास सवाल
न लाएं और एक
दिन ऐसा हो कि
आप कोई सवाल
ही यहां लेकर
न आएं और मुझसे
पूछें ही न
कुछ।
इसको
खयाल में
रखें। एक तो
उत्तर होता है, इसलिए
दिया जाता है
कि आपको एक रेडीमेड
उत्तर दे दिया
गया, अब आप
इसको पकड़ लें;
अब आपको कुछ
करने की जरूरत
नहीं। नहीं, ऐसा उत्तर
मैं आपको नहीं
देना चाहता
हूं। जो देते
हैं, वे
दुश्मन हैं।
क्योंकि वे
आपकी प्रतिभा
को विकसित
नहीं होने
देते। मेरे
लिए उत्तर और
सवाल तो सिर्फ
एक प्रयोग है
आपकी चेतना को
उस दिशा में
खींचने का
जहां सवाल आप
हल कर पाएं। धीरे-धीरे
जब प्रश्न उठें
तो आपके भीतर
उत्तर भी उठने
लगें। अगर यह
कला आपके खयाल
में आ जाए तो
वह कला आपके
साथ जाएगी।
मेरे उत्तर
आपके काम नहीं
आ सकते।
सुना
है मैंने कि
एक अंधे आदमी
ने एक सदगुरु
को पूछा कि इस
गांव में नदी
की तरफ जाने
का रास्ता
कहां है? बाजार
की तरफ जाने
का रास्ता
कहां है? मैं
अजनबी हूं। उस
सदगुरु
ने कहा, तू
रुक! रास्ते
बहुत हैं, गांव
बहुत हैं, और
तू कितने
रास्ते याद
करेगा और
कितने गांव याद
करेगा? आज
यहां अजनबी है,
कल दूसरी
जगह अजनबी
होगा। जीवन
लंबी यात्रा
है। तो मैं
तुझे जवाब
नहीं देता।
मैं थोड़ा आंख
का इलाज जानता
हूं; मैं
तेरी आंख का
इलाज किए देता
हूं। तो फिर
तू जहां
जाए--गांव
अजनबी हो, अपरिचित
हो कि
परिचित--तू
खुद ही देख
पाएगा कि नदी
की तरफ रास्ता
कौन सा जाता
है। पर उस
आदमी ने कहा
कि यह तो लंबा
मामला होगा, आंख का
इलाज। आप तो
मुझे अभी बता
दें। पर उस सदगुरु
ने कहा कि
मेरी वह आदत
ही नहीं।
प्रश्नों
के उत्तर मैं
नहीं देता
हूं। मैं केवल
विधि देता हूं
जिससे प्रश्न
हल किए जा
सकते हैं।
ध्यान रखें इस
बात को। मैं
जो आपके प्रश्नों
के उत्तर देता
हूं,
उत्तरों
में मुझे कोई
मोह नहीं है।
उनको आप पंडित
की तरह याद मत
रख लें। आप तो
सिर्फ
प्रक्रिया
समझें कि एक प्रश्न
में कैसे उतरा
जा सकता है, और एक
प्रश्न से
कैसे जीवंत
लौटा जा सकता
है बाहर, समाधान
लेकर। और जिस
दिन आपके
प्रश्न आपके
भीतर ही गिरने
लगें और आपकी
चेतना से
उत्तर उठने
लगें, उस
दिन समझना कि
आप मेरे
उत्तरों को
समझ पाए हैं, उसके पहले
नहीं।
पांच
मिनट रुकेंगे, कीर्तन
करें, और
फिर जाएं।
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