अध्याय
45
निश्चल
प्रशांति
श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है,
और
इसकी
उपयोगिता कभी
कम नहीं होती।
सर्वाधिक
प्रचुरता
स्वल्प की
भांति है,
और
इसकी
उपयोगिता कभी
समाप्त नहीं
होगी।
जो
सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई देता है;
सर्वश्रेष्ठ
कौशल अनाड़ीपन
जैसा मालूम
देता है;
सर्वश्रेष्ठ
वाग्मिता
तुतलाहट जैसी
लगती है।
गति
से ठंडक दूर
होती है,
लेकिन
अगति से गर्मी
परास्त होती
है।
जो
निश्चल और
प्रशांत है, वह
सृष्टि का
मार्गदर्शक
बन जाता है।
अति
सरल,
लेकिन अति
जटिल भी यह
सूत्र है।
अतियां
समान हो जाती
हैं। शून्य और
पूर्ण बिलकुल
एक जैसे हैं।
जो शून्य की
परिभाषा है
वही पूर्ण की
भी। शून्य भी
अनादि और अनंत
है;
पूर्ण भी
अनादि और अनंत
है। न तो
शून्य की कोई सीमा
है; न
पूर्ण की कोई
सीमा है।
शून्य की
इसलिए सीमा नहीं
हो सकती कि वह
छोटे से छोटा
है। और सीमा
बनानी हो तो
उतने छोटे पर
कोई सीमा नहीं
बनती। पूर्ण
इसलिए असीम है
कि वह बड़े से
बड़ा है। सीमा
बनानी हो तो
उतने विराट पर
कोई सीमा नहीं
बनती।
देखने
में दोनों
विपरीत मालूम
होते हैं; देखने
में एक-दूसरे
के निषेध
मालूम होते
हैं। लेकिन चाहे
कोई शून्य में
उतर जाए और
चाहे कोई
पूर्ण में, वे एक ही जगह
पहुंच
जाएंगे।
शंकर
पूर्ण की बात
करते हैं, बुद्ध
शून्य की। और
जो केवल
शास्त्र में
ही उलझे रहते
हैं उन्हें
लगेगा कि शंकर
और बुद्ध विपरीत
हैं। लेकिन
जिन्होंने
अनुभव से जाना
है, शंकर
और बुद्ध
उन्हें एक ही
बात कहते हुए
मालूम
पड़ेंगे। उनके
शब्दों का
चुनाव भिन्न
है; उनका
इशारा एक है।
शंकर कहते हैं,
सब कुछ। और
बुद्ध कहते
हैं, कुछ
भी नहीं।
लेकिन दोनों
असीम की ओर
इशारा करते
हैं, अपरिभाष्य
की ओर, अव्याख्य
की ओर।
जन्म
और मृत्यु
हमें विपरीत
दिखाई पड़ते
हैं। लेकिन
जन्म और
मृत्यु
बिलकुल एक
जैसे हैं।
जन्म के पहले
आप क्या थे, वही
आप मृत्यु के
बाद हो
जाएंगे। जन्म
के पहले देह न
थी; मृत्यु
के बाद भी देह
न होगी। जन्म
के पहले का भी
आपको कोई
स्मरण नहीं है
अभी, मृत्यु
के बाद का भी
आपको कोई बोध
नहीं। जन्म के
पहले जैसे
असीम के साथ
एक थे, वैसे
मृत्यु के बाद
भी असीम के
साथ एक हो
जाएंगे। जैसा
जन्म
व्याख्या के
पार है, वैसे
ही मृत्यु भी
व्याख्या के
पार है। जन्म
हमें पहले
मालूम पड़ता है,
मृत्यु बाद
में; सिर्फ
इतने से कोई
फर्क नहीं पड़
जाता।
ऐसा ही
समझें कि जैसे
कोई एक वर्तुल
में यात्रा
शुरू करे, एक
सर्कल में, तो जिस
बिंदु से
यात्रा शुरू
होगी उसी
बिंदु पर
यात्रा का अंत
भी होगा। जो
प्रथम बिंदु
होगा चलने का
वही अंतिम
बिंदु भी होगा
पहुंचने का।
और इस जगत में
सभी कुछ
वर्तुलाकार
है। न केवल पृथ्वी,
चांद, तारे,
सूरज; जीवन
की सारी गति
वर्तुलाकार
है। मौसम
घूमते हैं एक
वर्तुल में, पृथ्वी एक
चक्कर लगाती
वर्तुल में, सूर्य किसी महासूर्य
का परिभ्रमण
करता है। और
आइंस्टीन के
हिसाब से सारा
ब्रह्मांड भी
किसी केंद्र
का परिभ्रमण
कर रहा है।
सारा
परिभ्रमण
वर्तुलाकार
है। जहां से
यात्रा शुरू
होती है वहीं
यात्रा का अंत
है।
आदमी
का जीवन भी
भिन्न नहीं हो
सकता। जन्म और
मृत्यु एक
हैं। लेकिन
जन्म को हम
प्रेम करते हैं, आकांक्षा
करते हैं; मृत्यु
से हम भयभीत
होते हैं, बचना
चाहते हैं।
बुद्ध ने कहा
है, जिसने
जन्म को चाहा
उसने मृत्यु
को मांग ही लिया।
और जिसे
मृत्यु से
बचना हो उसे
जन्म की चाह
छोड़ देनी
होगी।
क्योंकि वे
दोनों एक हैं।
हमें भिन्न
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
हमें जीवन का
वर्तुल नहीं
दिखाई पड़ता।
लेकिन बचपन, जवानी, बुढ़ापा--एक
वर्तुल का अंग
हैं। बूढ़ा
व्यक्ति फिर
से बच्चों
जैसा हो जाता
है। उसकी समझ,
उसका
व्यवहार सब
बच्चों जैसा
हो जाता है।
बच्चे बूढ़ों
से
मिलते-जुलते
होते हैं।
जवानी जैसे
वर्तुल का
ऊपरी हिस्सा है,
और जवानी के
बाद फिर
वर्तुल उतरने
लगता है। जन्म
और मृत्यु एक
ही जगह के नाम
हैं।
लाओत्से
का इस पर बहुत
जोर है। और
इसे जो समझ लेगा
उसे इस जगत
में फिर कोई
भी चीज विपरीत
नहीं दिखाई
पड़ेगी। और
जिसको भी ऐसा
हो जाए कि जगत
में कुछ
विपरीत न
दिखाई पड़े, वह
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएगा।
क्योंकि विपरीत
भ्रांति है, विरोध
अज्ञान में ही
दिखाई पड़ता है;
ज्ञान में
कोई भी विरोध
नहीं। रास्ते
कितने ही
भिन्न हों, दृष्टियां
कितनी ही अलग
हों, लेकिन
जहां-जहां
हमें विरोध
दिखाई पड़ता है
वहां-वहां
विरोध हमारे
अज्ञान के
कारण ही दिखाई
पड़ता है।
जगत
में इतने धर्म
हैं--ज्ञान के
कारण नहीं, मनुष्य
के अज्ञान के
कारण। उनमें
बड़ी विपरीतता
दिखाई पड़ती
है। हिंदू
महर्षि, उपनिषद
और वेदों के
ज्ञाता कहते
हैं, परमात्मा
है। जगत को
उसने ही रचा
है, स्रष्टा
है। और
स्रष्टा के
बिना तो धर्म
की कोई धारणा
ही नहीं हो
सकती। महावीर
कहते हैं, कोई
स्रष्टा नहीं
है। और महावीर
कहते हैं, अगर
कोई स्रष्टा
है तो धर्म के
होने का कोई
उपाय नहीं है।
बड़ी विपरीत
बातें हैं।
महावीर कहते
हैं, आत्मा
ही परम है; उपलब्ध
करने योग्य
है। और बुद्ध
कहते हैं, जिसने
आत्मा की
भ्रांति छोड़
दी वह परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
गया। जब तक
आत्मा का खयाल
है तब तक अज्ञान
होगा, बुद्ध
कहते हैं। और
महावीर कहते
हैं, जब तक
आत्मा का पता
नहीं तभी तक
अज्ञान है। बड़ी
विपरीत बातें
हैं।
लेकिन
मैं कहना
चाहूंगा, बुद्ध
और महावीर एक
ही बात कहना
चाह रहे हैं, क्योंकि
शून्य और
पूर्ण एक ही
अर्थ रखते
हैं। या तो
पूरे आत्मवान
हो जाएं और या
आत्मा से बिलकुल
शून्य हो जाएं;
एक ही
अवस्था में
पहुंच
जाएंगे। वह
अवस्था इन दोनों
शब्दों से
प्रकट की जा
सकती है।
लाओत्से
के इस सूत्र
को समझेंगे तो
बहुत सी गहराइयां
और रहस्य
प्रकट होंगे।
"श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है।'
इससे
ज्यादा
विरोधाभासी
कोई वक्तव्य
नहीं हो सकता!
"श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है।'
एक
बहुत प्राचीन
विवाद है, सारे
जगत के
धर्मशास्त्री
उस विवाद में
संलग्न रहे
हैं; लेकिन
उत्तर शायद
लाओत्से के
पास है। थियोलाजी,
धर्मशास्त्र
निरंतर एक
समस्या से
उलझा रहता है,
और वह यह कि
यदि परमात्मा
पूर्ण है तो
फिर जगत में
कोई विकास
नहीं हो सकता।
क्योंकि
पूर्ण में
विकास का क्या
उपाय है? पूर्ण
का तो अर्थ है
जो हो चुका जो
हो सकता था।
इंच भर भी
विकास की कोई
संभावना नहीं
है।
इसलिए
ईसाइयत ने
पश्चिम में
डार्विन के
विकासवादी
सिद्धांत का
विरोध किया।
विरोध का कारण
यह था।
क्योंकि
डार्विन ने
कहा कि जीवन
विकसित हो रहा
है,
हम आगे जा
रहे हैं; कुछ
नया घटित हो
रहा है, जो
अतीत में नहीं
था वह भविष्य
में होगा।
ईसाइयत इसे
स्वीकार न कर
सकी। क्योंकि
ईसाइयत का खयाल
है कि जगत
परिपूर्ण
परमात्मा का
निर्माण है, इसमें कुछ
भूल-चूक तो हो
नहीं सकती।
इसमें कोई कमी
भी नहीं हो
सकती। तो
विकास कैसे
होगा? इवोल्यूशन
कैसे होगी? जहां कुछ
कमी हो, जहां
कुछ भूल-चूक
हो, वहां
विकास हो सकता
है। लेकिन
पूर्ण हाथों
ने रचा हो इस
जगत को तो
विकास का कोई
उपाय नहीं है।
और अगर विकास
का उपाय है तो
इसका अर्थ यही
हुआ कि वे हाथ
पूर्ण नहीं थे
जिसने जगत को
रचा; वे
अपूर्ण थे।
अपूर्णता में
विकास हो सकता
है। पूर्णता
में कैसा
विकास? इसलिए
ईसाइयत मानती
है, जगत की
सृष्टि हुई है,
विकास नहीं
हो रहा है।
क्रिएशन
और इवोल्यूशन
में विरोध है।
परमात्मा ने
जगत को
एकबारगी बना
दिया। उसमें
कोई विकास
नहीं हो रहा
है। और न कोई
विकास हो सकता
है। क्योंकि
विकास का मतलब
ही यह होगा कि
परमात्मा को
भूलें पता चल
रही हैं, और वह
उनको बदल रहा
है, बेहतर
कर रहा है।
अपूर्ण
व्यक्ति के
साथ तो माना
जा सकता है।
एक चित्रकार
एक चित्र बनाए, फिर
दूसरा बनाए, और तीसरा
बनाए, और
परिष्कार
करता चले--और
हर नए चित्र
में ज्यादा
सुधार होता
चला
जाए--क्योंकि
चित्रकार अपूर्ण
है। लेकिन
परमात्मा जगत
बनाए तो फिर
उसमें कैसे
विकास की
संभावना है? और अगर
विकास हो रहा
है तो
परमात्मा
अपूर्ण है। और
परमात्मा अगर
अपूर्ण है तो
फिर पूर्ण कोई
कैसे होगा!
अगर स्वयं
परमात्मा
अपूर्ण है तो पूर्णता
का फिर कोई
उपाय न रहा।
और अपूर्ण परमात्मा
को माना भी
नहीं जा सकता।
अपूर्णता ही
उसके परमात्मत्तत्व
को छीन लेती
है। परमात्मा
पूर्ण तो होना
ही चाहिए। यदि
है तो पूर्ण
होगा। अगर
अपूर्ण है तो
बेहतर है कहना
कि वह नहीं
है।
ईसाइयत
के सामने
डार्विन ने
बड़ी समस्या
खड़ी कर दी।
जगत विकसित हो
रहा है तो
परमात्मा
अपूर्ण हो
जाता है। और
अपूर्ण
परमात्मा को
स्वीकार नहीं
किया जा सकता।
और भी
मजे की कुछ
बातें हैं जो
समझ लेनी
जरूरी हैं।
अगर परमात्मा
भी अपूर्ण है
और आदमी भी अपूर्ण
है तो दोनों
में कोई फर्क
नहीं; पूजा का
कोई अर्थ नहीं;
प्रार्थना
व्यर्थ है। और
अपूर्ण
अपूर्ण से मांगे
भी, हाथ भी
जोड़े, प्रार्थना
भी करे, तो
क्या पाएगा? अगर
परमात्मा
अपूर्ण है तो
सर्वशक्तिमान
नहीं हो सकता।
अपूर्णता
सर्वशक्तिशाली
नहीं हो सकती।
परमात्मा
अपूर्ण है तो सर्वज्ञाता
नहीं हो सकता।
अपूर्णता सब
तरफ अपूर्णता
होगी। और अगर
परमात्मा भी
अब तक पूर्ण
नहीं हो पाया
तो फिर मनुष्य
के सपने
व्यर्थ हैं कि
कभी कोई
मनुष्य पूर्ण
हो जाएगा; कि
कोई महावीर, कोई बुद्ध
कभी पूर्ण हो
सके। फिर
पूर्णता इस जगत
में हो ही
नहीं सकती।
पूर्णता
न हो सके तो
धर्म की धारणा
गिर जाती है।
क्योंकि धर्म
है खोज पूर्ण
होने की--कैसे
अपूर्णता कटे, और
कैसे चेतना
पूर्ण हो जाए;
कैसे हम उस
जगह पहुंच
जाएं जहां से
आगे जाने का
और कोई भी
उपाय नहीं रह
जाता, कैसे
हम उस बिंदु
को पा लें
जिसके आगे
पाने की कोई
वासना नहीं रह
जाती। अगर
परमात्मा
अपूर्ण है तो वासनामुक्त
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
अपूर्ण तो
वासना करेगा
ही; पूर्ण
होने की वासना
करेगा; जहां-जहां
कमी है
वहां-वहां
पूरा होना
चाहेगा। अगर
परमात्मा के
ज्ञान में कमी
है तो ज्ञान की
खोज जारी
रहेगी। अगर
परमात्मा के
प्रेम में कमी
है तो प्रेम
की खोज जारी
रहेगी। अगर
परमात्मा के
होने में, बीइंग
में कमी है, तो होने की खोज
जारी रहेगी।
और अगर
परमात्मा भी
वासना कर रहा
हो तो इस जगत
में लोगों को
समझाना कि तुम
निर्वासना
में उतर जाओ, निहायत
व्यर्थ है।
परमात्मा
को पूर्ण होना
ही चाहिए, अगर
वह हो। अपूर्ण
परमात्मा
वासना से भरा
होगा। और
वासना से भरे
परमात्मा का
क्या अर्थ? फिर वह संसार
का ही हिस्सा
है। फिर वह
वैसे ही
अज्ञान में
दबा है जैसे
हम दबे हैं।
और भी
एक बात समझ
लेनी जरूरी है
कि अज्ञान अगर
हो तो पूरा ही
होता है; ज्ञान
हो तो पूरा ही
होता है। ठीक
वैसे ही जैसे
कोई आदमी
जिंदा हो तो
पूरा ही जिंदा
होता है; मरा
हो तो पूरा ही
मरा होता है।
आप ऐसा नहीं
कह सकते कि
आदमी थोड़ा सा
जिंदा, थोड़ा
सा मरा है। वह
बेहोश भी पड़ा
हो तो भी पूरा ही
जिंदा है। जब
तक जिंदा है
पूरा जिंदा है;
और जब मरा
है तो पूरा
मरा है। जैसे
मृत्यु और जीवन
में कोई
विभाजन नहीं
हो सकता ऐसे
ही ज्ञान और
अज्ञान में भी
कोई विभाजन नहीं
हो सकता। या
तो आप जानते
हैं, या आप
नहीं जानते।
थोड़ा-थोड़ा
जानने का कोई
भी अर्थ नहीं
है। परमात्मा
अगर अपूर्ण है
तो है ही
नहीं।
पूर्णता उसका
अनिवार्य
लक्षण है। अपूर्ण
तो संसार है।
फिर परमात्मा
की धारणा की कोई
जरूरत नहीं; अपूर्ण तो
संसार ही काफी
है।
लेकिन
लाओत्से बड़े
अदभुत वचन बोल
रहा है।
लाओत्से
कहता है, "श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है।'
लाओत्से
के लिए अड़चन
नहीं है।
लाओत्से कहता
है कि जब
पूर्णता
पूर्ण होती है
तब भी विकसित
होती है; वैसी
ही विकसित
होती है जैसी
अपूर्णता में
विकास होता
है। समझने में
कठिनाई होगी,
क्योंकि
यहां तर्क
बहुत काम नहीं
देगा। यह हिसाब
गणित के बाहर
हो गया। यह
हिसाब वही है
जो उपनिषदों
ने कहा है। ईशावास्य
ने कहा है कि
उससे पूर्ण भी
निकाल लो तो
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है। यह
गणित के बाहर
है। क्योंकि
गणित का तो
सीधा नियम है
कि अगर आप कुछ
भी निकाल
लेंगे तो
जितना था उससे
कम हो जाएगा, और अगर
पूर्ण ही
निकाल लेंगे
तो पीछे शून्य
रह जाएगा, कुछ
भी नहीं
बचेगा। लेकिन ईशावास्य
कहता है, उस
पूर्ण से
पूर्ण को भी
निकाल
लो--थोड़ा
निकालने में
तो कोई डर ही
नहीं है, पूर्ण
भी निकाल
लो--तो भी
पूर्ण ही पीछे
शेष रहता है।
यह बात गणित
के बाहर की हो
गई। तर्क इसे
सिद्ध न कर
पाएगा। लेकिन
अनुभव इसे
सिद्ध करता
है।
हमारे
अनुभव में
प्रेम एक तत्व
है जिसे हम
पहचान सकते
हैं,
जो गणित के
बाहर है। आप
कितना ही
प्रेम अपने बाहर
निकाल दो, कितना
ही प्रेम
लोगों को बांट
दो, इससे
आपके भीतर
प्रेम में
रत्ती भर भी
कमी नहीं होगी।
या कि कमी हो
जाएगी? गणित
के हिसाब से
तो कमी होनी
चाहिए, क्योंकि
जो भी बाहर
निकाल दिया
उतना घट जाएगा।
लेकिन अनुभव
कहता है कि
प्रेम घटता
नहीं, जितना
करो उतना बढ़ता
है।
तो एक
तो तर्क का
जगत है, जहां जोड़ने से
चीजें बढ़ती
हैं, घटाने
से घटती हैं।
एक प्रेम का
भी, काव्य
का और हृदय का
जगत है, जहां
घटाने से भी
चीजें घटती
नहीं, विपरीत
बढ़ती भी हैं, और जहां
रोकने से घटती
हैं। अगर कोई
व्यक्ति अपने
प्रेम को रोके
तो सड़ जाए;
थोड़े दिन
में पाएगा कि
प्रेम
तिरोहित हो
गया, नहीं
बचा। प्रेम तो
जितना बांटा
जाए उतना ही
बढ़ता है।
लाओत्से
कहता है, "श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है।'
अपूर्णता
का एक ही
लक्षण है कि
वह विकासमान
है,
डायनामिक है, गतिमान
है, बहती
है, आगे
बढ़ती है। इस
जगत की जो
पूर्णता है वह
भी आगे बढ़ने
वाली पूर्णता
है--पूर्णता
से और पूर्णता
की ओर, और
सदा पूर्णता
से और पूर्णता
की ओर। तब
परमात्मा
पूर्ण भी हो
सकता है और
विकासमान भी
हो सकता है।
और जब तक वह
दोनों न हो तब
तक परमात्मा की
धारणा जगत को
समझाने में
सहयोगी नहीं
हो सकती।
इसे हम
जीवन के और
पहलुओं से
समझने की
कोशिश करें। क्योंकि
परमात्मा को
हम जानते नहीं
हैं;
उससे हमारा
सीधा कोई
परिचय नहीं
है। इसलिए सीधा
उसको समझना भी
आसान नहीं है।
किन्हीं और पहलुओं
से देखें, जहां
पूर्णता
अपूर्णता के
समान होती है।
बड़े चित्रकार
कहते हैं कि
जब कोई
संपूर्ण रूप
से चित्रकला
में पारंगत हो
जाता है तो वह
बच्चों की तरह
चित्र बनाने
लगता है। पिकासो
के चित्र
देखें। इस सदी
में ही नहीं, मनुष्य-जाति
के पूरे
इतिहास में
वैसी सधी
हुई अंगुलियां,
वैसा
चित्रकार
खोजना
मुश्किल है।
लेकिन उसके
चित्र बच्चों
जैसे हैं।
छोटे बच्चे
जैसा बनाएंगे
वैसा पिकासो
बनाता है। और
आप सोचते
होंगे कि
कोशिश करें तो
आप भी बना सकते
हैं! आप न बना
सकेंगे। जो
लोग चित्रों
की नकल करने
का धंधा करते
हैं, वे
बड़े से बड़े
चित्रकार के
चित्रों की
नकल कर लेते
हैं; लेकिन
पिकासो
के चित्रों की
नकल बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि वे
इतने सरल हैं,
उनकी नकल
बहुत मुश्किल
है। जटिल
चित्रों की
नकल की जा
सकती है; सरल
चित्रों की
नकल बहुत
मुश्किल है। पिकासो
ऐसे बनाता है
जैसे बनाना
जानता ही
नहीं। चित्रकला
तभी पूरी होती
है कि जो भी
आपने सीखा हो
जब आप भूल
जाएं।
जापान
में,
चीन में, जहां
चित्रकला को
ध्यान के लिए
उपयोग में लाया
गया, और
जहां ध्यान को
खोजने के लिए
बहुत तरह के
आयामों में
चित्रकला भी
एक आयाम बनी, वहां झेन
गुरु जब किसी
को चित्रकला
सिखाता है तो
दस या बारह
साल साधना
चलती है। फिर
कुछ वर्षों के
लिए, वह
कहता है, फेंक
दो तूलिका, फेंक दो रंग
और भूल जाओ; तुम अब फिर
उस जगह पहुंच
जाओ जब तुम
चित्र बनाना
बिलकुल भी
नहीं जानते
थे। और जब
चित्रकार
बिलकुल भूल
जाएगा तब गुरु
कहेगा कि अब
तुम बनाओ, अब
तुमसे कुछ बन
सकता है।
क्योंकि अब
तुम्हारी
पूर्णता
अपूर्णता
जैसी हो गई।
अब तुम सरलता से
बनाओगे। अब
तुम्हारे
बनाने में
टेक्नीक नहीं
होगा।
बड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
अक्सर लोग
आर्ट और टेक्नीक
को एक ही समझ
लेते हैं, कला
और विधि को एक
ही समझ लेते
हैं। तो कोई
व्यक्ति
तूलिका को ठीक
से पकड़ना
जानता है, रंगों
की ठीक समझ है,
और वर्षों
तक अभ्यास
किया है उसने,
वह भी चित्र
बना सकेगा।
कुशल है, तकनीकी
दृष्टि से समझदार
है; लेकिन
उसके चित्र
वैसे ही होंगे
जैसे किसी तुकबंद
की कविता होती
है, जो कि ग्रामर से
परिचित है, व्याकरण से
परिचित है, मात्रा-छंदों
से परिचित है
और तुकबंदी
बना लेता है।
उसकी कविता
में भूल
निकालनी
मुश्किल है, लेकिन उसकी
कविता में
प्राण नहीं
होंगे। उसकी
कविता बिलकुल
ही गणित के
हिसाब से सही
है, लेकिन
पीछे कोई
आत्मा नहीं
होगी। जैसे एक
आदमी की लाश
पड़ी हो। शरीर
की दृष्टि से
बिलकुल पूरी
है। एक-एक
हड्डी, एक-एक
मांस-मज्जा, सब पूरा है।
लेकिन फिर भी
लाश है; भीतर
आत्मा नहीं।
टेक्नीक
शरीर देता है।
टेक्नीक से
कोई भी आदमी
किसी भी विधा
का शरीर
निर्मित कर
लेता है।
लेकिन आत्मा, आत्मा
टेक्नीक से
पैदा नहीं
होती। पर
आत्मा को भी
प्रकट करना हो
तो टेक्नीक तो
जानना जरूरी
है। कोई सोचता
हो कि आप बिना सीखे और पिकासो
जैसा चित्र
बना सकेंगे तो
आप गलती में
हैं। पहले
सीखना होगा और
फिर भूलना
होगा; तब
आप पिकासो
की हालत में आ
पाएंगे।
आदमी
संगीत सीखता
है,
सितार
सीखता है तो
वर्षों लग
जाते हैं।
सारी विधि ठीक
से सीख लेगा। अंगुलियां
सध जाएंगी, पूरा गणित
खयाल में आ
जाएगा। लेकिन
उससे कोई सितारवादक
पैदा नहीं
होता। इतना
काम तो कंप्यूटर
भी कर सकेगा।
कंप्यूटर को
भी फीड कर
दिया जाए, पूरी
जानकारी दे दी
जाए, तो
कंप्यूटर भी
सितार बजा
देगा--बिलकुल
विधिवत, शास्त्रीय
ढंग से, जरा
भी भूल-चूक
नहीं होगी।
लेकिन आत्मा
पीछे नहीं
होगी। कोई
व्यक्ति
कलाकार तब हो
पाता है जब
सितार बजाना
पूरी तरह सीख
लेता है, और
फिर इस पूरे
तकनीक को भूल
जाता है; फिर
सरल हो जाता
है बच्चे की
भांति, जैसे
कुछ भी नहीं
जानता। फिर
उसने जो भी
जाना है वह
सहज हो गया
होता है। उस
सहजता से कला
का जन्म होता
है।
इसलिए
टेक्नीशियन
और आर्टिस्ट
में बड़ा फर्क है।
हजार
टेक्नीशियन
होते हैं तो
कभी कोई एक आर्टिस्ट
होता है।
साधारणतः
पहचानना भी
मुश्किल है।
लेकिन फर्क
इतना ही होता
है कि जो
आर्टिस्ट है
वह बच्चे की
तरह सरल होगा; उसकी
पूर्णता
अपूर्णता
जैसी होगी।
टेक्नीशियन
बिलकुल परफेक्ट
होगा; उसमें
अपूर्णता
होगी ही नहीं।
उससे भूल-चूक
हो ही नहीं
सकती; रत्ती-रत्ती
ठीक होगा।
लेकिन
आर्टिस्ट, कलाकार
से भूल-चूक हो
सकती है। वह
छोटे बच्चे की
भांति होगा।
उसकी जो भी
जानकारी है वह
उसके खून और
मांस में मिल
कर एक हो गई।
वह जानकारी उसके
मस्तिष्क में
नहीं है, और
वह उस जानकारी
के माध्यम से
नहीं चलता है।
कला हो, कि
संगीत हो, कि
नृत्य हो, या
बुद्ध, जीसस
के वचन हों, इन सारी
दिशाओं में
लाओत्से की
बात बिलकुल ही
सही है--सौ
प्रतिशत।
बुद्ध के वचन
बच्चों जैसे
हैं। जीसस के
वचन में कोई
पांडित्य
नहीं है। जीसस
के वचन बिलकुल
ग्राम्य हैं,
जैसे गांव
का आदमी बोलता
हो; उसमें
पंडित की
कुशलता
बिलकुल नहीं
है। न ही
शास्त्रों का
बोझ है; न
कोई तर्क है।
जीसस पैरेबल
और छोटी-छोटी
कहानियां
लोगों से कह
रहे हैं। छोटी
कहानियां, जिनको
बच्चे भी समझ
लें, और
बूढ़ों को भी
समझना
मुश्किल पड़े।
कहानियां, जिनमें
बहुत तल हैं, जिनके बहुत
अर्थ हो सकते
हैं। और जितना
गहरा व्यक्ति
होगा उतने
गहरे अर्थ को पकड़ने में
समर्थ हो
जाएगा। लेकिन
अपने आप में
बात बिलकुल
सीधी-सादी है।
जीसस
को जिस दिन
सूली हुई, पांटियस
पायलट ने, रोमन
गवर्नर ने--जो
उन्हें सूली
की आज्ञा दिया--वह
दर्शन-शास्त्र
का
विद्यार्थी
था और उसने दर्शन-शास्त्र
में बड़े ग्रंथ
पढ़े थे।
और यह जीसस के
संबंध में लोग
कहते हैं कि
यह ईश्वर का
पुत्र है; और
इसी गलत बात
कहने के कारण
उसे फांसी हो
रही है। पर
पांटियस
पायलट को भी
जीसस को देख
कर लगा कि इस
आदमी में कुछ
बात तो
ईश्वरीय
है--इतना सरल
और सीधा आदमी!
तो इससे एक
सवाल तो पूछ
ही लूं। उसने
पढ़ा था
शास्त्रों
में, और
वही सवाल है
सारे दर्शन का,
कि सत्य
क्या है? व्हाट
इज़ ट्रुथ?
तो मरते
वक्त--कहीं यह
आदमी ईश्वर को
बेटा ही न हो--इससे
एक सवाल तो
पूछ ही लेना
चाहिए। पायलट पास
गया और सूली
के ठीक क्षण
भर पहले उसने
जीसस से पूछा
कि इसके पहले
तुम सूली पर
जाओ, मुझे
बताओ, व्हाट
इज़ ट्रुथ?
सत्य क्या
है?
जीसस
जो बोलने से
कभी थकते नहीं
थे,
जीसस जो रात
भर बोला करते
थे, गांव
के ग्रामीण, नासमझ लोगों
में समझाते
रहते थे, वे
एकदम चुप हो
गए, और
पायलट के
प्रश्न का कोई
उत्तर नहीं
दिया।
नीत्शे
ने व्यंग्य
में लिखा है
कि पायलट का
उत्तर नहीं
दिया, क्योंकि
जीसस को उत्तर
पता नहीं था।
पायलट बुद्धिमान,
शास्त्र का
ज्ञाता, सुसंस्कृत,
पढ़ा-लिखा
आदमी था, रोमन
वाइसराय था।
जीसस ग्रामीण,
बेपढ़े-लिखे, बढ़ई
के लड़के थे।
शायद जीसस को
समझ में ही
नहीं आया होगा
कि पायलट क्या
पूछ रहा है, सत्य क्या
है?
जीसस
से पूछने का
तो कोई उपाय
नहीं कि तुम
चुप क्यों रह
गए। यह पहला
ही मौका है
जीसस के पूरे जीवन
में जब किसी
ने कुछ पूछा
हो और वे चुप
रह गए। अन्यथा
तो वे खोजने
जाते थे लोगों
को कि कोई
पूछे और वे
उसको कहें।
नीत्शे की बात
तो मानी नहीं
जा सकती, क्योंकि
जीसस ने सत्य
की पहले बहुत
चर्चा की है।
परम सत्य की
ही चर्चा की
है, और तो
कोई चर्चा
नहीं की। ऐसा
भी नहीं माना
जा सकता कि यह
सवाल समझ में
न आया होगा।
लेकिन कारण
दूसरा है।
कारण इतना है
कि पायलट एक
टेक्नीशियन
की तरह पूछ
रहा है कि
सत्य क्या है।
इसमें कोई
हृदय का भाव
नहीं है, इसमें
कोई जिज्ञासा
नहीं है। एक
पंडित का सवाल
है, जो
किताबों में
उत्तर खोजने
का आदी रहा
है। इस सवाल
में जीसस को
कोई हृदय की
भावना नहीं
दिखाई पड़ी। यह
कहीं हृदय से
आया हुआ नहीं
है; यह
सिर्फ बुद्धि
की खुजलाहट
है। इसलिए
जीसस चुप रह
गए।
इस
चुप्पी से उन्होंने
एक जवाब भी
दिया कि जब
बुद्धि पूछती
हो तो चुप
रहना ही जवाब
है। और जब
बुद्धि पूछती हो
तो बुद्धि के
द्वारा कभी
कोई उत्तर
नहीं पाया जा
सका है। और जब
तक बुद्धि चुप
न हो जाए, जैसा
जीसस चुप रह
गए, तब तक
सत्य की कोई
प्रतीति संभव
नहीं है।
जीसस
की पूर्णता बड़ी
अपूर्ण मालूम
होती है। जीसस
के भक्तों का
खयाल था कि जब
वे सूली पर चढ़ेंगे
तो कोई
चमत्कार घटित
होगा।
क्योंकि
पूर्ण पुरुष
चमत्कार
प्रकट करेगा।
जीसस के छूने
से मरीज कभी
ठीक हो गए।
जीसस के छूने
से कथा थी कि
लजारस मुर्दा
था और जिंदा
हो गया। और
जीसस ने किसी
अंधे की आंखों
पर हाथ फेरा
और आंखें खुल
गईं। तो जिस
जीसस के
आस-पास ऐसी सैकड़ों
घटनाएं घटी
थीं,
यह
स्वाभाविक
अपेक्षा थी कि
सूली पर कोई
चमत्कार घटित
होगा। लेकिन
जीसस सूली पर
चुपचाप मर गए,
जैसा कोई भी
साधारण आदमी
मर जाता। जरा
भी असाधारणता
प्रकट न हुई।
और
अकेले ही जीसस
को सूली न लगी
थी;
साथ में दो
चोर दोनों तरफ,
उनको भी
सूली दी थी।
तीन आदमी एक
साथ सूली पर लटकाए
गए थे। जैसे
दो चोर मर गए
वैसे ही जीसस
मर गए। जरा भी
कुछ विशेष
घटित न हुआ।
धक्के की बात
थी। भक्तों को
भारी धक्का
लगा होगा।
क्योंकि
भक्तों का
गुरु गुरु
नहीं होता, चमत्कार ही
गुरु होता है।
निराश हो गए
होंगे। इतनी
आशाएं बांधी
थीं। जिसने
ईश्वर के
पुत्र होने का
दावा किया था
वह आखिर में
साधारण मनुष्य
का ही पुत्र
सिद्ध हुआ।
लेकिन
मेरे देखे, लाओत्से
के इस वचन को
ठीक से समझें
और फिर जीसस
को सोचें, श्रेष्ठतम
पूर्णता अपूर्णता
के समान है।
श्रेष्ठतम
पूर्णता दावा
नहीं करेगी
पूर्ण होने
का। यही
असाधारण घटना
है कि जीसस
साधारण
मनुष्य की तरह
मर गए। उनकी
जगह कोई भी
होता तो
थोड़ा-बहुत कुछ
करने की कोशिश
करता। कोई
मदारी भी होता
तो थोड़ा-बहुत
कुछ करता।
जीसस ने कुछ
भी न किया। यह
पूर्णता, यह
असाधारणता
बड़ी साधारण
आदमी जैसी थी।
"श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है, और
इसकी
उपयोगिता कभी
कम नहीं होती।'
निश्चित
ही,
अगर आप
पूर्ण ही हो
गए हों और फिर
से अपूर्णता को
आप जी न सकें, तो आप मर गए।
वैसी पूर्णता
मृत्यु होगी।
पूर्ण
पूर्णता
मृत्यु होगी।
क्योंकि उसके
आगे फिर कोई
अंकुरण नहीं
हो सकता।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ, फिर
भी वे चालीस
वर्ष जीवित
थे। ज्ञान के
बाद इन चालीस
वर्षों में
निरंतर फूल
खिलते ही चले गए।
यह पूर्णता
मुर्दा
पूर्णता नहीं
है, यह
पूर्णता
विकसित हो
सकती है। यह
पूर्णता और पूर्णतर
होती चली जाती
है। और इसका
कोई अंत नहीं
है; इसकी
उपयोगिता का
कोई अंत नहीं
है। अगर मेरी
बात समझ में
आए तो मैं
निरंतर ऐसा ही
जानता हूं कि
बुद्ध जहां भी
होंगे अभी भी
पूर्णतर होते
जा रहे हैं।
वह फूल खिलना
बंद नहीं हो
सकता। बुद्धत्व
फूल की तरह कम
और खिलने
की तरह ज्यादा
है। वह खिलना
होता ही
रहेगा। इस
पृथ्वी पर
नहीं, कहीं
और; इस देह
में नहीं, कहीं
और; रूप
में नहीं, कहीं
और। लेकिन वह
खिलना तो जारी
ही रहेगा। अस्तित्व
से उस खिलने
की घटना के
खोने का कोई
उपाय नहीं है।
लाओत्से
कहता है, "और
इसकी
उपयोगिता कभी
कम नहीं होती।'
बुद्ध
अभी भी हो रहे
हैं। विकास, उत्क्रांति अस्तित्व
का स्वभाव है।
लेकिन हम
आमतौर से ऐसा
ही सोचते हैं
कि कोई
व्यक्ति
पूर्ण हो गया,
बात समाप्त
हो गई। अब
क्या बचा होने
को!
बर्ट्रेंड
रसेल ने इस पर
व्यंग्य किया
है। और व्यंग्य
करने जैसा है।
रसेल ने कहा
है कि हिंदू
और हिंदुओं का
जो मोक्ष है
उससे मुझे डर
लगता है। क्योंकि
वहां सब पूर्ण
हो गए हैं; वहां
कुछ करने को
नहीं बचा।
वहां क्या हो
रहा होगा? जैनों
का मोक्ष, वहां
सारे
सिद्ध-पुरुष
सिद्ध-शिलाओं
पर बैठे हुए
हैं। वहां कुछ
नहीं हो रहा।
वहां हवा भी
नहीं चल सकती।
वहां कोई कंपन
भी नहीं हो
सकता, क्योंकि
जो भी हो सकता
था वह हो
चुका। रसेल कहता
है कि वैसी
अवस्था तो बड़ी
बोर्डम
की हो जाएगी, बड़ी ऊब की हो
जाएगी।
आत्यंतिक ऊब
पैदा होने लगेगी।
और यह कोई
एक-दो दिन का
मामला नहीं है,
यह शाश्वत
होगा।
क्योंकि
मोक्ष से
लौटने का उपाय
नहीं है।
मुक्त हो गए, तो बंधन से
तो छूटने का
उपाय है, मुक्ति
से छूटने का
कोई उपाय नहीं
है। वहां से
वापस नहीं आ
सकते; वहां
से आगे नहीं
जा सकते।
फांसी लग गई।
और वहां कुछ
भी नहीं होगा,
क्योंकि
होता तभी है
जब कुछ कम हो।
सब पूरा हो गया।
रसेल कहता है,
ऐसा मोक्ष
तो आत्मघात
मालूम होगा।
अगर
ऐसा ही मोक्ष
है तो आत्मघात
है। तब संसार ज्यादा
जीवंत है, और
तब नरक भी
चुनने जैसा
है। लेकिन
मोक्ष फिर सिर्फ
वे ही लोग चुनेंगे
जिनके पास
बुद्धि
नाममात्र को
भी नहीं है।
मोक्ष सिर्फ
वे ही चुनेंगे
जो जड़ हैं, क्योंकि
यह पूर्णता जड़ता के
समान हो जाएगी।
इस पूर्णता
में और जड़ता
में क्या फर्क
होगा?
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि पूर्णता, अंतिम
पूर्णता
अपूर्णता की
भांति होती
है।
काश, रसेल
को कोई
लाओत्से की
खबर दे पाता।
मोक्ष में भी
विकास जारी
रहेगा, क्योंकि
विकास होने का
अनिवार्य
लक्षण है। इसका
कोई संबंध
संसार से नहीं
है। यह आपके
होने का ढंग
है। इसमें खिलना
होता ही रहेगा,
और उसका कोई
अंत नहीं है।
वह शाश्वत है।
शाश्वतता कोई
एक जड़ता
की स्थिति
नहीं है, बल्कि
विकास का
अपरंपार
फैलाव है।
मुश्किल
है लेकिन, क्योंकि
हमारे भाषा के
हिसाब में
पूर्ण का मतलब
है, विराम
आ गया, पूर्णविराम हो गया।
उसके आगे कुछ
जाने को नहीं
बचता। अगर हमारी
समझ की
पूर्णता जगत
में कहीं घटती
होती, तो
यह जगत कभी का
जड़ हो चुका
होता। अनंत
काल से यह जगत
है; इसमें
अभी तक सभी
कभी के पूर्ण
हो गए होते।
लेकिन
इस अर्थ में
पूर्णता कभी
होती ही नहीं।
पूर्णता घटती
है। किस अर्थ
में?
इस अर्थ में
पूर्णता घटती
है कि आपको
अपूर्णता का
कोई भाव नहीं
रह जाता; कुछ
पाने जैसा
नहीं रह जाता;
कोई वासना
नहीं रह जाती
पाने की।
लेकिन आपके होने
का ढंग ऐसा है
कि खिलता चला
जाता
है--निर्वासना
से भरा हुआ
विकास। कोई
दौड़ नहीं होती,
कहीं पहुंचने
का कोई
उतावलापन
नहीं होता, कोई मंजिल
नहीं होती।
जैसे नदियां
बहती हैं ऐसे
आप भी पूर्णता
से और पूर्णता
की तरफ बहते
चले जाते हैं।
सिद्धत्व
कोई जड़ता
नहीं है, शाश्वत
जीवंतता है।
"श्रेष्ठतम
पूर्णता
अपूर्णता के
समान है।'
इतनी
ही समानता है
उसकी
अपूर्णता से
कि उसमें
विकास सदा बना
रहता है।
"और
इसकी
उपयोगिता कभी
कम नहीं होती।
सर्वाधिक
प्रचुरता
स्वल्प की
भांति है, और
इसकी
उपयोगिता भी
कभी समाप्त
नहीं होगी।'
सर्वाधिक
प्रचुरता
स्वल्प की
भांति, यह
थोड़ा समझें।
जिनके पास
थोड़ा होता है
उनको ही यह
खयाल होता है
कि उनके पास
काफी है; जिनके
पास बहुत होता
है उन्हें यह
खयाल कभी भी
नहीं होता कि
उनके पास काफी
है।
अज्ञानियों को
ही भ्रांति
पैदा हो जाती
है कि वे
ज्ञानी हैं; ज्ञानियों
को यह भ्रांति
कभी पैदा नहीं
होती। दरिद्र
ही अपनी
संपत्ति की
गणना रखते हैं;
अगर सम्राट
भी रखता हो गणना
तो दरिद्र है,
भिखारी है।
गणना दरिद्र
मन का लक्षण
है। वह भिखारी
के मन की
पहचान है कि
वह गिन रहा है,
कितना मेरे
पास है। और
जितना उसके
पास हो उससे
सदा वह ज्यादा
बतलाता है।
अगर आप
गरीब के घर
जाएं तो गरीब
अपनी गरीबी को
छिपाने की सब
तरफ से कोशिश
करता है। पड़ोसियों
से सोफा मांग
लाएगा, दरी
मांग लाएगा; घर को सजा
लेगा। गरीब सब
तरह से अपनी
गरीबी को छिपाने
की कोशिश करता
है, और
दिखलाना
चाहता है कि
मैं अमीर हूं।
अमीर घर में
जाएं तो घर
जैसा है वैसा
ही होगा। तो
ही अमीर का घर
है। अगर
इंतजाम करना
पड़े तो वह
गरीब का ही घर
है। बड़े मजे
की बात है कि
गरीब को सादा
होने में बड़ी
कठिनाई होती
है, क्योंकि
सादा होने में
गरीबी साफ हो
जाएगी। सिर्फ
अमीर ही सादे
हो सकते हैं।
और जब तक अमीरी
में सादगी न
आने लगे तब तक
समझना कि अभी
गरीब मिटा
नहीं। अमीर
सादा होगा ही।
दिखावे का कोई
सवाल न रहा। दिखावा
छिपाने का
उपाय है।
जिन्हें
छोटा-मोटा कुछ
पता है वे उसे
बजाते रहते
हैं। जिनके
खीसे में कुछ
थोड़े से फुट
कर पैसे पड़े
हैं,
वे रास्ते
पर उनको बजाते
हैं। उससे ही
पता चलता है
कि उनके पास
कुछ है। कभी
आपने सोचा कि
जिस चीज की
आपके पास कमी
होती है उसको
आप ज्यादा
करके दिखाते
हैं। आप खुद
भयभीत होते
हैं, किसी
को पता न चल
जाए कि इतनी
कम है। इसलिए
ज्यादा करते
हैं। लेकिन जो
चीज आपके पास
होती ही है, जिसका आपको
भरोसा होता है,
उसे आप
दिखाते भी
नहीं।
क्योंकि उसको
दिखाने का कोई
प्रयोजन नहीं
है। गरीब अपनी
अमीरी दिखलाता
है। अज्ञानी
अपना ज्ञान
दिखलाता है।
भोगी अपना त्याग
दिखलाता है।
कंजूस अपना
दान दिखलाता
है। जो हम
नहीं हैं वह
हम दिखलाते
हैं; जो हम
हैं उसे
दिखलाने का
भाव ही पैदा
नहीं होता।
"सर्वाधिक
प्रचुरता
स्वल्प की
भांति है, और
इसकी
उपयोगिता कभी
समाप्त नहीं
होगी।'
इतना
है आपके पास
कि जरा भी भय
नहीं पकड़ता
कि कोई सोचेगा, नहीं
है। तो ज्ञानी
चुप भी हो
सकता है। शायद
जीसस चुप रह
गए पायलट के
पूछने पर...।
आपसे
कोई पूछता कि
सत्य क्या है
तो चुप रहना बहुत
मुश्किल
होता।
हालांकि आपको
पता नहीं है।
आपसे कोई पूछ
ही ले, कुछ भी
पूछ ले, आप
चुप नहीं रह
सकते। जिस
संबंध में
आपको कुछ भी
पता नहीं है, उस संबंध
में भी आप कुछ
कहेंगे। मैं
लोगों से पूछता
हूं, ईश्वर
है? कोई
कहता है, है;
कोई कहता है,
नहीं है।
लेकिन ऐसा
आदमी कभी नहीं
मिलता जो कहता
है, मुझे
पता नहीं। वह
ईमानदार का
लक्षण है; ये
बेईमानों के लक्षण
हैं। ईश्वर का
कोई भी पता
नहीं है और
जोर से कहते
हैं, है।
या कहते हैं, नहीं है। ये
दोनों ही
बेईमान के
लक्षण हैं।
बेईमान
ही इस जगत में
आस्तिक और
नास्तिकों में
बंटे हुए हैं।
ईमानदार आदमी
कैसे आस्तिक
हो सकता है? कैसे
नास्तिक हो
सकता है? ईमानदार
आदमी तो इस
बात को पहले
समझेगा कि
मुझे कुछ भी
पता नहीं है, तो मैं कैसे
चुनाव करूं कि
मैं इस तरफ
हूं कि उस तरफ
हूं? ईश्वर
है या नहीं है?
मुझे अपने
होने का भी
कुछ पता नहीं
है; ईश्वर
के होने के
संबंध में मैं
कैसे कोई वक्तव्य
दूं? ईमानदार
आदमी एग्नास्टिक
होगा।
ईमानदार आदमी
स्वीकार
करेगा, मुझे
पता नहीं है।
वह कहेगा कि
अज्ञात है, मुझे कुछ
पता नहीं है, मैं अज्ञानी
हूं। और ऐसा
व्यक्ति शायद
कभी सत्य को
पाने में
समर्थ हो जाए।
मगर वे
बेईमानों की
दो कोटियां, वे कभी भी
सत्य को नहीं
पा सकतीं।
लाओत्से
कहता है, "सर्वाधिक
प्रचुरता स्वल्प
की भांति है।'
जितना
ज्यादा होता
है उतना ही
उसका बोध खोने
लगता है। अगर
सब कुछ आपके
पास हो तो
आपको पता भी नहीं
रह जाएगा कि
मेरे पास कुछ
है। जब तक
आपको पता है
तब तक जाहिर
है कि आपके
पास बहुत अल्प
है,
और उससे
कष्ट हो रहा
है। पीड़ा का
ही बोध होता है।
पैर में कांटा
चुभता है तो
पैर का पता
चलता है। सिर में
दर्द होता है
तो सिर का पता
चलता है। सिर
में दर्द न हो
तो सिर का पता
नहीं चलता; पैर में
कांटा न चुभा
हो तो पैर का
पता नहीं
चलता। शरीर
स्वस्थ हो तो
पता ही नहीं
चलता कि है; अस्वस्थ हो,
पीड़ा हो, तो पता चलता
है। पीड़ा का
ही पता चलता
है।
अगर
आपको अपने धन
का पता चल रहा
है तो धन के
साथ कहीं पीड़ा
जुड़ी है, कहीं
कोई कष्ट जुड़ा
है, कहीं
कोई कांटा चुभ
रहा है, कहीं
कोई दर्द है, कोई घाव
छिपा है। जिन
लोगों के पास
नया-नया धन होता
है उन्हें
पहचानने में
जरा भी कठिनाई
नहीं है, क्योंकि
वे धन को
उछालते चलते
हैं। कुलीन
घरों का
पुराने दिनों
में यही लक्षण
था कि जिनके पास
धन बहुत हो और
जो उसे उछालते
न हों। उसका मतलब
था कि उनके
पास धन परंपरा
से है, सदियों
से है, पीढ़ियों
से है; धन
का उन्हें पता
नहीं रह गया
है। जो आज ही
धन कमा ले, उसका
धन पागल हो
जाता है; वह
सब तरफ उसे
दिखाने की
कोशिश में
लगता है। उसे
अभी अपनी
गरीबी भूली
नहीं है।
इसलिए नए अमीर
का पता चलने
में कोई
कठिनाई नहीं
है।
अमीरी--किसी
भी आयाम
में--तभी फलित
होती है जब उसके
पीछे जुड़ी हुई
पीड़ा खो जाती
है। अगर बुद्ध
और महावीर
अपना राज्य
छोड़ सके तो
इसीलिए छोड़
सके। हमें
लगता है कि
उनके पास इतना
ज्यादा था, क्योंकि
हम गणना करते
हैं; उन्हें
उसका पता ही
नहीं रहा
होगा। वह इतना
स्वल्प हो गया
था कि उसे
छोड़ना, न
छोड़ना बराबर
था।
महावीर
के जीवन में
बड़ा मधुर
उल्लेख है।
महावीर ने
चाहा कि मैं
संन्यास ले
लूं। तो
महावीर की मां
ने कहा, जब तक
मैं जिंदा हूं,
तुम बात ही
मत करना।
आमतौर से
संन्यास लेने
वाला बेटा इस
तरह रुक नहीं
सकता; बल्कि
अगर इस तरह
बाधा डाली जाए
तो संन्यास लेने
वाला बेटा कल
लेता हो तो आज
ले लेगा। बाप
और बेटों में,
पीढ़ियों
में, बड़ा
गहरा तनाव और
संघर्ष है।
लेकिन महावीर
ने बात ही
नहीं उठाई।
मां भी चिंतित
हुई होगी। उसने
भी सोचा होगा,
यह किस
भांति का
संन्यास था; जो एक दफा
पूछा और मैंने
कहा कि जब तक
मैं हूं मत
लेना, महावीर
बात ही बंद कर
दिए।
फिर
मां चल बसी।
पिता भी चल
बसे। तो मरघट
से लौटते वक्त
महावीर ने
अपने बड़े भाई
को कहा कि अब
मैं संन्यास
ले लूं? बड़े
भाई ने कहा कि
तू पागल है! घर
में इतनी बड़ी
विपत्ति आ गई
है कि
माता-पिता चल
बसे, हम
अनाथ हो गए; तू यह बात ही
मत उठाना।
मेरे ऊपर और
आघात मत कर।
महावीर फिर
चुप हो गए। यह
भी हो सकता था
कि महावीर कभी
संन्यास न
लेते, क्योंकि
इस तरह जो चुप
हो जाए! लेकिन
दो वर्ष बाद
घर के लोगों
को लगा कि हम
व्यर्थ ही रोक
रहे हैं।
महावीर घर में
हैं और नहीं
हैं। उठते हैं,
बैठते हैं,
चलते हैं, लेकिन जैसे
हवा का झोंका
आए और चला जाए
और किसी को
पता भी न चले।
न किसी का विरोध
करते हैं; न
किसी बात में
सलाह देते हैं;
न कहीं बीच
में अड़ंगा
डालते हैं।
जैसे घर में उनका
होना न होने
के बराबर है, अनुपस्थित।
तो घर के
लोगों ने
महावीर से
प्रार्थना की
कि जब ऐसे घर
में रहना हो
कि तुम जैसे यहां
हो ही नहीं तो
फिर हम अकारण
तुम्हें संन्यास
से रोकने का
पाप अपने ऊपर
न लेंगे। तुम
जाओ! महावीर
उसी दिन घर से
चले गए।
किसी
राज्य को
छोड़ने जैसी
कोई घटना नहीं
मालूम होती।
राज्य राज्य
है,
ऐसा भी कोई
सवाल नहीं है।
वहां कुछ
मूल्यवान है,
ऐसा भी कोई
सवाल नहीं है।
महावीर
के लिए वह
सारा
साम्राज्य, वह
सारी सुख-सुविधा,
वह सारा
धन-वैभव
स्वल्प रहा
होगा। उसे
छोड़ना ऐसे ही
था जैसे कि
कोई कौड़ी
छोड़ कर और चला
जाए। उसे पीछे
लौट कर देखने
योग्य भी नहीं
था। हमें लगता
है कि बड़ा
राज्य छोड़ा, क्योंकि हम
हिसाब रखने
वाले लोग हैं।
हम अपने से
तौलते हैं।
जिन्होंने
भी छोड़ा है
उनके पास इतना
ज्यादा था कि
वह स्वल्प हो
गया। और जब ज्यादा
स्वल्प हो जाए
तो त्याग फलित
होता है। जब
ज्यादा को
दिखाने का भाव
न रह जाए, जब
ज्यादा
ज्यादा है ऐसी
प्रतीति भी न
रह जाए।
उपनिषद कहते
हैं कि जो
कहता हो कि
मैं जानता हूं
परमात्मा को,
समझ लेना कि
वह नहीं
जानता।
क्योंकि जो
जान लेगा वह
अपने इस जानने
की घोषणा भी
नहीं करेगा।
इसकी घोषणा का
कोई मूल्य नहीं
है। यह घोषणा
व्यर्थ है।
घोषणा में
कहीं पीछे
दर्द है।
"सर्वाधिक
प्रचुरता
स्वल्प की
भांति है, और
इसकी
उपयोगिता कभी
समाप्त नहीं
होगी। जो सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई देता
है।
सर्वश्रेष्ठ
कौशल अनाड़ीपन
जैसा मालूम
होता है।
सर्वश्रेष्ठ
वाग्मिता तुतलाहट
जैसी लगती है।'
एक-एक
बिंदु समझने
जैसा है।
"जो
सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई देता
है।'
ऐसा
क्यों होता है? सीधापन
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई ही देगा,
क्योंकि हम
सब टेढ़े-मेढ़े
हैं। हम सब टेढ़े-मेढ़े
हैं और हम नार्मल
हैं।
अंग्रेजी का
शब्द नार्मल
अच्छा है, नार्म।
हम मापदंड हैं,
हम औसत हैं।
हमारे बीच अगर
कोई भी सीधा
आदमी होगा तो टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई पड़ेगा।
ऐसा ही
समझें कि जहां
सभी लोग
शीर्षासन कर
रहे हों वहां
कोई एक आदमी
पैर के बल खड़ा
हो जाए, वे सब
कहेंगे यह
आदमी उलटा है।
और उनके कहने
में गलती भी
नहीं है।
उन्होंने
अपने को सीधा
माना हुआ है, उससे यह
उलटा है। हम
सब अपने को
सीधा मान रहे
हैं। हम
बिलकुल तिरछे
हैं, हमारा
इंच-इंच तिरछा
है।
आपने
शायद सुनी हो
कहानी
अष्टावक्र
की। जनक ने एक उदघोषणा
की। वह ज्ञान
की तलाश में
था और जानना
चाहता था सत्य
क्या है। तो
उसने सारे देश
के बड़े पंडितों
को निमंत्रण
भेजा कि वे
आएं,
विवाद करें
और निर्णय
करें। वह कोई
निष्पत्ति
चाहता है। और
बड़ा पुरस्कार
था। हजार गौओं
के सींगों को
उसने स्वर्णमंडित
करवा कर
दरवाजे पर खड़ा
कर रखा था।
अष्टावक्र को
कोई निमंत्रण
भी नहीं मिला,
क्योंकि वह
दीन-हीन आदमी
था। और नाम
अष्टावक्र था,
क्योंकि
शरीर उसका आठ
जगह से टेढ़ा-मेढ़ा
था। लेकिन सुन
कर कि इतना
बड़ा विवाद हो
रहा है और कोई
बड़ी सत्य की
खोज हो रही है,
वह भी चला
आया। जैसे ही
वह सभा में
आया तो जो
पंडित थे वे
देख कर उसे
हंसने लगे। वह
आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा
था। खुद जनक
को भी हंसी आ
गई होगी। और
सारे पंडित
जोर से हंसने
लगे। तो
अष्टावक्र भी,
कहते हैं, जोर से
हंसा। वह इतने
जोर से हंसा
कि लोग सहम गए।
और जनक ने
पूछा कि तुम
क्यों हंसते
हो? तो
उसने कहा कि
मैं तो सोचता
था कि पंडितों
की सभा है; यहां
चमार इकट्ठे
हुए हैं, जिन्हें
शरीर दिखाई
पड़ता है। ये
सत्य की कैसे खोज
करेंगे? और
ये सब टेढ़े-मेढ़े
हैं हजार तरह
से, मेरा
सिर्फ शरीर ही
टेढ़ा-मेढ़ा
है। पर इनको
इतना ही दिखाई
पड़ता है। वह
जो भीतर की
सरलता है, उसका
इन्हें कोई भी
पता नहीं।
लाओत्से
कहता है, "जो
सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई देता
है।'
क्योंकि
हम सीधे हैं
नहीं, पर हम
सीधे मालूम
पड़ते हैं।
हमने ढोंग कर
रखा है कि हम
सीधे हैं।
हमारी हर चाल
तिरछी है। हम जो
भी करते हैं, वह तिरछा
है। हम कहते
कुछ हैं, सोचते
कुछ हैं, करते
कुछ हैं; वह
हमारा
तिरछापन है।
आपने कभी खयाल
किया कि आप
में कितनी
पर्तें हैं।
आप जो कह रहे
हैं वह आप
सोचते नहीं
हैं; जो आप
सोच रहे हैं
वह आप कह नहीं
रहे हैं। और
जो आप करेंगे
वह तो तीसरी
ही बात होने
वाली है। लेकिन
आपको यह साफ
नहीं दिखाई
पड़ता कि यह सब
क्या है। भीतर
इतने खंड हैं!
इतना धोखा है!
और जब भी आप
कुछ करने जाते
हैं तो आप कभी
सीधा नहीं
जाते। आप बड़े
गोल चक्कर
लेते हैं। अगर
उत्तर जाना है
तो आप दक्षिण
जाने से शुरू
करते हैं।
लेकिन आस-पास
भी सब तिरछे
लोग हैं, और
उनके साथ शायद
ऐसे ही जीना
संभव है। कभी
कोई सीधा-सरल
आदमी हो तो वह
भी अड़चन में
पड़ता है और
आपको भी अड़चन
में डालता है।
छोटे
बच्चे इसीलिए
हमारे साथ
दिक्कत में पड़
जाते हैं। बाप
बच्चों को
समझाता है कि
झूठ नहीं
बोलना। और घर
कोई आया है
बाहर, और वह
अपने बेटे से
कहता है: जाकर
कह दो कि पिता घर
पर नहीं हैं।
यह बच्चे की
समझ के बाहर
है। यह उसकी
बिलकुल समझ के
बाहर है कि यह
क्या हो रहा
है। बाप बेटे
से कहता है कि
नाराज होना
बुरा है। और
बाप बेटे पर
इसी बात पर
नाराज हो सकता
है कि तुम क्यों
नाराज हुए।
मैं एक
घर में मेहमान
था। बाप बेटे
को पीट रहा था; और
उससे कह रहा
था, मैंने
हजार दफे कहा
कि छोटे भाई
को मत मारा कर;
अपने से
छोटे को मारना
बहुत बुरा है।
और वह पीट रहा
है अपने बेटे
को। और अगर
छोटे भाई को
मारना बुरा है
तो यह बाप से
यह बेटा और भी
छोटा है, बहुत
छोटा है, अनुपात
में और ज्यादा
छोटा है।
लेकिन हमें खयाल
नहीं है।
और
हमारे भीतर जो
सबसे ज्यादा आड़े-तिरछे
होते हैं वे
सबसे ज्यादा
सफल हो जाते हैं।
चाहे धन की
दौड़ हो, चाहे
राज्य की दौड़
हो, हमारे
भीतर जो सबसे
ज्यादा तिरछे
लोग हैं वे सबसे
ज्यादा सफल हो
जाते हैं। मैं
बहुत से राजनीतिज्ञों
को जानता हूं;
उनकी सफलता
का राज सिवाय
बेईमानी, धोखाधड़ी के और कुछ भी
नहीं है।
जितना भी कपट
हो सकता है और
जितना लोगों
को पीछे से
उनकी गर्दन
काटी जा सकती
है और छुरे
मारे जा सकते
हैं, वे सब
करते हैं।
लेकिन एक बार
जब वे पद पर
पहुंच जाते
हैं तो वे
उपदेश देने
लगते हैं पूरे
मुल्क
को--ईमानदारी
का, सचाई
का, सच्चरित्रता
का। और वे
रोने लगते हैं
पदों पर बैठ
कर कि देश का
चरित्र-ह्रास
हो रहा है। और
चरित्र का
ह्रास न हो तो
वे पद पर हो
नहीं सकते थे।
वे चरित्र के
ह्रास की वजह
से ही पद पर
हैं। अगर देश
चरित्रवान हो
तो उनको कौन? एक वोट देने
वाला उनको कोई
नहीं मिल
सकता। देश भी
मजे से सुनता
है। और सब
उन्हें जानते
हैं; वे
सबको जानते
हैं। लेकिन एक
समझौता मालूम
पड़ता है, एक
कांसपिरेसी
है, एक
चुप्पी का
वातावरण है कि
अगर तुम ताकत
में हो तो तुम
जो भी कहो वह
ठीक है। जैसे
ही वे पद से नीचे
होंगे कि
चर्चाएं शुरू
हो जाएंगी, उन्होंने
क्या-क्या धोखाधड़ी,
क्या-क्या
गोलमाल किया।
जब तक वे पद पर
हैं तब तक वे
बिलकुल
सच्चरित्र
हैं, साधु
हैं। सत्ता
में होना
साधुता है।
सत्ता के बाहर
आप असाधु हो
जाते हैं।
यह जो
हमारा जगत है, जहां
तिरछा चलना ही
सीधा चलना हो
गया है। और जहां
हम सिखाते ही
हैं सिर्फ एक
बात कि कुशलता
से चलो; कितने
ही तिरछे चलो,
लेकिन
मंजिल पर
पहुंचने का
ध्यान रखो, कहीं से भी
जाओ, येन
केन प्रकारेण,
कैसे भी।
तुमसे कोई
नहीं पूछेगा
कि तुम कैसे पद
तक पहुंचे।
तुम धन तक
कैसे पहुंचे,
तुमसे कोई
नहीं पूछने
वाला है। न
पहुंच पाए तो
तुम मुसीबत
में पड़ोगे। तब
हरेक जानता है
कि तुम बेईमान
हो। अगर तुम
सफल हो गए तो
सफलता सारे
पाप को धो देती
है। तो सिर्फ
एक पाप है, वह
है असफलता। सब
पाप करो, सफल
भर हो जाना।
तो जिंदगी के
आखिर में
तुम्हें कोई
बुरा कहने को
नहीं मिलेगा।
और तुम कितना
ही ठीक चलो, अगर असफल हो
गए, तो लोग
जानते हैं कि
तुम बुरे हो।
असफलता, सफलता,
इनसे सब
तौला जा रहा
है। हमारे बीच
अगर कोई आदमी
सीधा हो तो
कठिनाई में
पड़ेगा। या तो मूढ़ मालूम
पड़ेगा, बुद्धू
मालूम पड़ेगा।
और हम उसे
सुधारने की कोशिश
करेंगे। और
अक्सर हम सफल
हो जाते हैं।
लेकिन अगर कोई
जिद्दी
हुआ--कोई जीसस
और बुद्ध जैसा
हुआ कि लगा ही रहा
पीछे और नहीं
माना उसने
हमारा--तो
आखिर में हम
उसको पूजा
देते हैं।
लेकिन तब भी
हम जानते हैं
कि तुम हमारे
जगत के हिस्से
नहीं हो; तुम
अपवाद हो, तुम
कोई नियम नहीं
हो। तुम्हें
मान कर नहीं
चला जा सकता।
"जो
सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई देता
है।
सर्वश्रेष्ठ
कौशल अनाड़ीपन
जैसा मालूम
होता है।'
जो
कुशलता दिखाई
पड़े वह कुशलता
नहीं है। वह
दिखाई नहीं पड़नी
चाहिए। वह भूल
जानी चाहिए; उसका
स्मरण भी नहीं
होना चाहिए।
"सर्वश्रेष्ठ
वाग्मिता
तुतलाहट जैसी
लगती है।'
उपनिषद
तुतलाहट जैसे
लगते हैं। ऋषि
जो कह रहे हैं, कहते
वक्त उन्हें
साफ है कि वे
उसे कह न
पाएंगे।
क्योंकि जिसे
वे कहने की
कोशिश कर रहे
हैं वह कहे
जाने के बाहर
है; एक
असंभव प्रयास
है, जो
नहीं कहा जा
सकता उसको
कहने का।
लाओत्से
के वचन खुद
तुतलाहट जैसे
लगते हैं। साफ
नहीं दिखता कि
लाओत्से क्या
कह रहा है; लड़खड़ाता लगता है। और
हर चीज के
विपरीत को
भीतर जोड़ देता
है। इधर कहता
है कि ईश्वर
पास है तो
तत्क्षण कहता
है कि ईश्वर
दूर है। वह जो
भी कहता है
उसको खंडित
करता है
तत्क्षण।
क्योंकि डर है
कि जो कहा जा
रहा है कहीं
गलत न समझ
लिया जाए।
इसलिए विपरीत
को जोड़ दो, ताकि
संतुलन बना
रहे।
जितने
भी महान वचन
हैं,
वे सभी
तुतलाहट जैसे
हैं। वेद के
वचन हैं, उपनिषद
के वचन हैं, बिलकुल
तुतलाहट जैसे
हैं। जैसे
जिन्होंने कहा
है उन्हें
कहना आता ही न
हो। ऐसी बात
नहीं है। कहना
उन्हें खूब
आता है। लेकिन
जो वे कह रहे
हैं वह कहे
जाने योग्य
नहीं है। वह
शब्द से इतने
दूर है कि जब खींचत्तान
कर उसे शब्द
तक लाते हैं
तो अधमरा हो
जाता है। शब्द
में प्रवेश
करवाते हैं, तब तक वे
पाते हैं, उसकी
सांस टूट गई।
और जब तक वह
शब्द आपके पास
पहुंचता है तब
आपके चेहरे पर
जो दिखाई पड़ता
है, उससे
और, जो
कहने की कोशिश
कर रहा है, उसे
लगता है, बेहतर
है चुप हो
जाए।
जीसस
बार-बार कहते
हैं,
तुम्हारे
पास कान हैं
तो मैं जो
कहता हूं उसे सुनो;
तुम्हारे
पास आंखें हैं
तो जो मैं
दिखा रहा हूं
उसे तुम देख
लो।
बुद्ध
ने एक प्रवचन
में कहा है कि
तुम अगर यहां
मौजूद हो तो
मैं जो कहता
हूं उसे सुन
लो।
तुम
यहां मौजूद
हो! जो लोग
मौजूद थे, मौजूद
थे ही। लेकिन
आप बैठे हुए
हैं, इससे
पक्का नहीं
होता कि आप
मौजूद हैं। आप
हजार जगह हो
सकते हैं। आप
इतने कुशल हैं
हजार जगह होने
में। संभावना
तो यह है कि
जहां आप होंगे
वहां आप न
होंगे।
मैं एक
सैनिक के
संस्मरण पढ़
रहा था। दूसरे
महायुद्ध में
उसने अपनी
डायरी में
लिखा है कि जब शुरू-शुरू
में युद्ध के
मैदान पर गया, जहां
बम गिर रहे
हैं, गोलियों
की बौछार हो
रही है, तो
जब बमबार्डमेंट
शुरू हो, बम
गिरना शुरू
हों, तो
बड़ा मुश्किल
होता है--कहां
खड़े हो जाओ? क्योंकि कुछ
पता नहीं बम
कहां गिरेगा।
तो पुराने
सैनिकों ने
कहा, एक
बात खयाल में
रखो, जहां
बम गिर चुका
हो वहीं खड़े
हो जाओ; वहां
दुबारा नहीं
गिरेगा। इसकी
संभावना सबसे
कम है कि वहां
दुबारा गिरे।
और कहीं भी
गिर सकता है, वहां नहीं
गिरेगा जहां
गिर चुका है।
करीब-करीब
आपकी हालत ऐसी
है कि जहां आप
हैं वहां आप
नहीं होंगे।
वहां तो आप
हैं ही। वहां
गिर चुके
समझिए। कहीं
और होंगे, वहां
आप नहीं पाए
जाएंगे।
निश्चित ही, जो आपसे बात
कर रहे हैं
उनकी हालत
तुतलाहट जैसी
हो जाएगी।
क्योंकि आप
वहां मौजूद
नहीं हैं। खींच-खींच
कर आपको भी
लाना पड़ता है।
और जो वे कह रहे
हैं, उसे
भी खींच-खींच
कर लाना पड़ता
है। इसमें
वाणी तुतला
जाती है।
इसलिए
ऋषियों के वचन
बच्चों जैसे
मालूम पड़ते हैं।
जैसे छोटे
बच्चे जो भाषा
नहीं जानते और
पहली दफे भाषा
का प्रयोग
करना सीख रहे
हैं। या छोटे
बच्चे, जो
चलना नहीं
जानते, पहली
दफे चल रहे
हैं, डगमगा
रहे हैं। छोटे
बच्चे भी
बेहतर हालत
में हैं। उस
अज्ञात के जगत
में जब किसी
व्यक्ति का
पहले प्रवेश
होता है तो
वहां पैर
बिलकुल नहीं
टिकते; वहां
अपनी ही
बुद्धि पकड़
में नहीं आती;
वहां अपने
ही सारे
संस्थान से
बुद्धि के
संबंध छूट
जाते हैं। और
जिसे मौन में
जाना हो उसे
शब्द में कैसे
कहा जाए? इसलिए
वाणी कंपती है;
इसलिए शब्द
तुतलाहट बन
जाते हैं।
"जो
सर्वाधिक
सीधा है, वह
टेढ़ा-मेढ़ा
दिखाई पड़ता
है।
सर्वश्रेष्ठ
कौशल अनाड़ीपन
जैसा मालूम
होता है।
सर्वश्रेष्ठ
वाग्मिता तुतलाहट
जैसी लगती है।
गति से ठंडक
दूर होती है, लेकिन अगति
से गर्मी
परास्त होती
है।'
यह
सूत्र साधना
के लिए बड़ा
जरूरी और
उपयोगी है:
"गति से ठंडक
दूर होती है।'
जब भी
आप ठंड से भरे
होते हैं तो
आप किसी तरह
की गति करते
हैं। बुखार
में आदमी
कंपने लगता
है। वह कंपना
शरीर का इंतजाम
है,
ताकि कंपने
से गति पैदा
हो जाए और
शरीर को जो ठंड
लग रही है वह
कम हो जाए।
अगर सर्दी जोर
से पड़ी हो तो
आपके दांत कटकटाने
लगते हैं, हाथ-पैर
कंपने लगते
हैं। वह शरीर
का इंतजाम है।
ऐसा शरीर कंपन
पैदा करके
गर्मी पैदा कर
रहा है, ताकि
ठंडक से लड़
सके। अगर ठंड
जोर से पड़ रही
हो, बर्फ
गिर रही हो, और आपके
दांत न कटकटाएं
और हाथ न कंपें,
तो आप मर
जाएंगे; फिर
आप बच नहीं
सकते। शरीर
कंपन पैदा
करके शरीर में
खून की गति बढ़
जाती है; खून
की गति बढ़ने
से गर्मी बढ़
जाती है। आप
सुरक्षा का
उपाय कर लेते
हैं।
"गति
से ठंडक दूर
होती है।'
यह
सामान्य जीवन
का अनुभव है।
"अगति
से गर्मी
परास्त होती
है।'
उसका
हमें खयाल
नहीं है। वह
साधक का अनुभव
है। आप जैसी
हालत में हैं
वहां शरीर ही
उत्तप्त नहीं
है,
आपका मन भी
उत्तप्त है।
उस मन की
उत्तप्तता का
नाम ही अशांति
है। लोग मेरे
पास आते हैं।
वे कहते हैं, मन अशांत है,
पीड़ा है, बेचैनी है।
वह कुछ नहीं
है, वह
सिर्फ गर्मी
है। अति गति
का परिणाम है।
आप चौबीस घंटे
गति कर रहे
हैं मन से।
शरीर तो कभी बैठ
भी जाता है, मन बैठता ही
नहीं। रात आप
तो सो भी जाते
हैं, लेकिन
मन नहीं सोता,
चलता ही
रहता है। आधे
तो आप जगे
ही रहते हैं।
एक
मछली होती है
पैसिफिक
महासागर में।
बड़ी अजीब मछली
है,
मगर आदमी की
बिलकुल
प्रतीक है। उस
मछली के मस्तिष्क
की व्यवस्था
बड़ी अनूठी है।
और किसी दिन अगर
वैज्ञानिक
इंतजाम कर सके
तो आदमी भी
वैसी व्यवस्था
चाहेगा। वह
व्यवस्था यह
है कि मछली रात
एक आंख बंद करके
सोती है और एक
से देखती रहती
है। उसका आधा
मस्तिष्क
सोता है और
आधा जगा रहता
है। ऐसा रात
में पाली
बदलती है। फिर
आधी रात के
बाद दूसरी आंख
बंद कर लेती
है, आधा
हिस्सा सो
जाता है, और
बाकी हिस्सा
जग जाता है।
सुरक्षा के
लिए वह तैरती
भी रहती है, क्योंकि आधा
मस्तिष्क
उसका जगा रहता
है। और कोई
हमला नहीं कर सकता,
कोई दुश्मन
उस पर हमला
नहीं कर सकता।
बड़ी कुशल मछली
है। और उसका
मस्तिष्क दो
हिस्सों में
बंटा हुआ है।
एक आंख जब बंद
होती है तो
आधा मस्तिष्क
सो जाता है, आधा जगा
रहता है।
आपकी
आंखें इस तरह
नहीं बंटी हैं, लेकिन
खोपड़ी ऐसी ही
बंटी है। आप
कभी पूरे नहीं
सो रहे हैं।
मस्तिष्क चल
रहा है। बल्कि
अक्सर तो यह
होता है कि जब
आप बिस्तर पर
सोते हैं तब
जिस गति से
चलता है वैसा
दिन भर नहीं
चलता।
क्योंकि दिन
भर तो शरीर भी
चलता है तो
शक्ति शरीर
में भी लगी
रहती है। रात
शरीर की शक्ति
भी मस्तिष्क
को मिल जाती
है, फिर वह
जोर से दौड़ता
है। फिर वह
हजारों मील की
यात्राएं
करता है, अंतरिक्ष
में जाता है।
और न मालूम
कितनी योजनाएं
हैं, भविष्य
है, अतीत
है; वह सब
करता है। और
ऐसा नहीं कि
आप स्वेच्छा
से कर रहे हैं;
आप बिलकुल
विवश हैं। आप
रोकना भी चाहें
तो वह रुकता
नहीं। आप
कितना ही कहें,
मत जाओ, मत
दौड़ो, कोई
आपकी सुनता
नहीं। आपका मन
भी आपका नहीं
है, कोई
मालकियत नहीं
है।
यह जो
मन की अति गति
है,
इसकी वजह से
आप इतने
उत्तप्त और
अशांत हैं।
लाओत्से
कहता है, "लेकिन
अगति से गर्मी
परास्त होती
है।'
तो गति
तो आप करना
जानते हैं।
ठंड लगे शरीर
को तो आप गति कर
लेते हैं। दौड़
सकते हैं, व्यायाम
कर सकते हैं।
कुछ न करेंगे
तो शरीर का
अपना
नैसर्गिक
इंतजाम है, शरीर कंपने
लगेगा। और
कंपन से गति
पैदा हो जाएगी।
और गति से
ठंडक परास्त
हो जाएगी।
लेकिन
इससे उलटी कला
भी है--वही योग
है--कि आप जब
उत्तप्त
ज्यादा हो
जाएं, मन बहुत
गति कर ले, शरीर
बहुत गति कर
ले, तो
अगति में कैसे
उतरना, कैसे
अक्रिया में
डूब जाना।
सारे ध्यान की
प्रक्रियाएं
अगति के
द्वारा
मस्तिष्क की
गर्मी कम करने
के उपाय हैं।
और जैसे-जैसे
मस्तिष्क की
गर्मी कम होती
है और शीतलता
बढ़ती है, वैसे-वैसे
शांति बढ़ती
है। शांति और
शीतलता पर्यायवाची
हैं--भीतर की
दुनिया में।
और जब पूर्ण
शांति हो जाती
है तो शून्यता
फलित होती है।
हम
कहते हैं कि
शिव का निवास
कैलाश पर है; वह
परम शीतल
स्थान है, इसलिए।
आपके भीतर भी
शिव का निवास
कैलाश पर ही
है। लेकिन
कैलाश जैसी
शीतलता आपके
भीतर पैदा होगी
तब आपको भीतर
के शिवत्व
का कोई अनुभव
होगा। भीतर
कैलाश
निर्मित हो जाता
है; इतनी
शीतलता हो
जाती है।
लेकिन अगति
चाहिए; मस्तिष्क
का कोई भी
तंतु गति न
करता हो, कंपित
न होता हो। सब
ठहर जाए। और
एक बार आपको खयाल
में आना शुरू
हो जाए कि
अक्रिया कैसे
शीतलता लाती
है तो फिर आप
उस शीतलता के
सूत्र को पकड़
कर उसको ही साधते
चले जाएं।
क्रमशः
सूक्ष्म से
सूक्ष्म, गहरे
से गहरे में
उतरना होने
लगेगा। और आप
अपने भीतर ही
पाएंगे कि सीढ़ियां
दर सीढ़ियां
कैलाश तक जाने
का उपाय है।
एक काम
करें। जैसा
मैंने कहा
पीछे, एक घंटा
अक्रिया में
उतरना शुरू कर
दें। अक्रिया
में उतरने के
लिए उपयोगी
होगा कि शरीर
भी बिलकुल
निष्क्रिय हो,
क्योंकि
शरीर और मन
जुड़े हैं। और
जब शरीर गति करता
है तो मन भी
गति करता है।
जब मन गति
करता है तो
शरीर भी गति
करता है। जो
कुछ मन में
होता है वह
शरीर में भी
प्रतिफलित
होता है। और
जो कुछ शरीर
में होता है
वह मन में
प्रतिफलित
होता है। तो
पहले तो बैठ
जाएं, अगर
सिद्धासन में
बैठ सकते हों
तो बहुत अच्छा
है। लेकिन
अनिवार्यता
नहीं है।
उसमें अड़चन मालूम
हो तो आरामकुर्सी
पर बैठ जाएं।
महत्वपूर्ण
इतना है कि
शरीर बिलकुल
शिथिल छोड़
दें।
एक दस
मिनट इतना ही
भाव करते रहें
जैसे शरीर बिलकुल
मुर्दा हो गया
है,
अब मैं
उठाना भी
चाहूं तो हाथ
उठेगा नहीं, मैं हिलाना
भी चाहूं तो
पैर हिलेगा
नहीं। शरीर को
बिलकुल
ढीला-ढीला
छोड़ते जाना
है। थोड़े ही
दिन में सूत्र
पकड़ में आ
जाता है कि
शरीर ढीला
छोड़ने से ढीला
हो जाता है।
जैसे-जैसे
शरीर ढीला
छोड़ें
वैसे-वैसे
श्वास को भी
धीमा छोड़ दें।
क्योंकि
श्वास भी
जितनी धीमी हो
जाए,
जितनी कम हो
जाए, उतनी
गति कम हो
जाएगी। देखें,
अगर दौड़ते
हैं, शरीर
की गति होती
है, तो
श्वास की गति
बढ़ जाती है। साधारणतः
अगर आप एक
मिनट में बारह
श्वास ले रहे
हैं तो दौड़ेंगे
तो चौबीस
श्वास लेने
लगेंगे। और
तेजी से दौड़ेंगे
तो छत्तीस
श्वास लेने
लगेंगे।
श्वास तेज हो
जाएगी, झटके
से चलेगी, जल्दी
आएगी-जाएगी।
कारण है, क्योंकि
शरीर को
ज्यादा
आक्सीजन की
जरूरत है। जब
आप दौड़ रहे
हैं तो आप
शरीर की
आक्सीजन पचा
रहे हैं। ज्यादा
आक्सीजन
चाहिए तो
श्वास तेज
चलेगी।
जब आप
कुर्सी पर बैठ
कर ढीला छोड़
देंगे या सिद्धासन
में बैठ कर
ढीला छोड़
देंगे, तो
ठीक दौड़ने से
उलटी घटना घट
रही है। अगर
साधारणतः एक
मिनट में बारह
श्वास चलती
हैं तो शिथिल
बैठने पर छह
श्वास
चलेंगी। और
शिथिल होते
जाएंगे तो चार
श्वास
चलेंगी। जो
लोग भी शरीर
को शिथिल करने
की कला जान
जाते हैं उनकी
एक मिनट में
चार श्वास
चलने लगती
हैं। धीमी सी
श्वास जाएगी,
धीमी सी
वापस लौट
आएगी।
क्योंकि शरीर
को आक्सीजन की
जरूरत कम है।
शरीर का जो मेटाबोलिज्म
है उसको अब
आक्सीजन की
कोई जरूरत
नहीं है। धीमी
सी श्वास काफी
है। जब कोई
बिलकुल भीतर
शीतल हो जाता
है तो श्वास न
के बराबर हो
जाती है। दूसरे
आदमी को भी
पहचानना हो कि
श्वास चल रही
है या नहीं, तो सामने
दर्पण रख कर
ही पहचाना जा
सकता है, नहीं
तो पता नहीं
चलेगी। और खुद
तो बिलकुल पता
नहीं चलेगा।
मेरे
पास कई मित्र
आकर कहते हैं
कि घबड़ाहट
होने लगती है
कि कहीं श्वास
बंद तो नहीं
हो गई?
घबड़ाएगा
कौन अगर बंद
हो जाएगी? बिलकुल
मत घबड़ाओ,
क्योंकि
तुम हो। लेकिन
कम हो गई, और
इतनी कम हो
जाती है कि
उसकी पहचान
नहीं होती।
अल्प, अति
अल्प चलती है।
कभी-कभी ऐसे
क्षण आते हैं
जब भीतर ठीक
केंद्र पर कोई
पहुंचता है
शीतलता के तो
श्वास बिलकुल
ठहर जाती है।
उस एक क्षण में
ही आपको इतनी
भीतर शीतलता
की प्रतीति
होगी जैसे
हिमालय पर आ
गए। बाहर के
हिमालय की खोज
से कुछ बहुत
होने वाला
नहीं है; भीतर
का हिमालय
चाहिए।
शरीर
को छोड़ कर फिर
श्वास को धीमा
छोड़ दें। और श्वास
के साथ भाव
करते जाएं कि
कम होती जा
रही है, कम
होती जा रही
है, कम
होती जा रही
है। थोड़ी देर
में आप पाएंगे
कि शरीर
विश्राम की
हालत में आ
गया, और मन
में एक शांति
और ताजगी
मालूम होने
लगी। अब इस शांति
के सूत्र को
पकड़ लें और
भीतर भी इसी
धारणा को
गहराते जाएं
कि शांत होते
जा रहे
हैं--शाब्दिक
रूप से नहीं, अनुभव के
रूप से। वह जो
आपको अनुभव हो
रहा है, संवेदना
हो रही है
शांति की, आनंद
की, उसको
पकड़ लें, और
सिर्फ उसको
गहराते जाएं।
शुरू
में कठिन
होगा। और मैं
कह रहा हूं
इतने से समझ
में नहीं आ
जाएगा, लेकिन
करेंगे तो
बिलकुल आ
जाएगा। कुछ ही
दिन में आपके
पास वह भीतरी
कुंजी हो
जाएगी जिससे
जब आप चाहें, शिथिल और
शांत होकर, अगति में
उतर जाएं। और
जब आप पूरी
अगति में उतर
जाते हैं तो
आप बिलकुल
ताजे होकर
वापस लौटेंगे।
यह ताजगी नींद
से भी गहरी
होगी। नींद
इतनी गहरी नहीं
जाती।
हमने
इस मुल्क में
मन की--साधारण
मन की--तीन अवस्थाएं
मानी हैं:
जाग्रत, स्वप्न
और सुषुप्ति।
सुषुप्ति तक
हम पहुंचते
हैं जब स्वप्न
नहीं होता।
चौथी अवस्था
हमने तुरीय
मानी है।
तुरीय वह
अवस्था है
जिसमें अगति
में, ध्यान
में आदमी
पहुंचता है।
वह सुषुप्ति
से भी गहरी
है। नींद में
जैसे शरीर
ताजा हो जाता
है, नया हो
जाता है। सुबह
आप अनुभव करते
हैं कि शक्ति
वापस लौट आई।
जो सेल्स टूट
गए थे, कोष्ठ
मिट गए थे, वे
पुनः निर्मित
हो गए। शरीर
फिर जवान है।
जो थकान, जो-जो
यंत्र में
खराबियां आ गई
थीं, रात
के विश्राम ने
उनको फिर ठीक
कर दिया। ठीक चौथे
चरण में, तुरीय
में पहुंच कर,
इस अगति में
पहुंच कर ऐसा
ही मन भी ताजा
हो जाता है।
और बड़े गहरे
स्रोत से, सारे
शरीर की जो भी
विकृति है, मन की जो भी
बेचैनी है, जहां-जहां
व्यर्थ का कूड़ा-करकट
और कचरा
इकट्ठा है, वह सब
समाप्त हो
जाता है, तिरोहित
हो जाता है।
जब आप वहां से
वापस आते हैं
तो आप इस शरीर
को, इस जगत
को बिलकुल
दूसरी आंख और
दूसरे ढंग से
देखेंगे और पहचानेंगे।
इस गति
के जगत से
अगति के जगत
में उतरने की
कला जो सीख ले
और निरंतर गति
से अगति में
जाए,
अगति से फिर
गति में लौट
आए, और
जैसे दिन और
रात होते हैं
ऐसा गति और
अगति में
संतुलन साध ले,
तो लाओत्से
कहता है कि जो
दो अतियों के
बीच संतुलन और
संगीत को पकड़
लेता है वह
परम ताओ को, परम स्वभाव
को उपलब्ध हो
जाता है।
अगति
में जाने का
यह अर्थ नहीं
है कि फिर आप
अगति में ही
बैठे रहें।
अगति में जाने
का यही अर्थ
है कि आप वापस
गति में लौट
आएं,
सारी ताजगी
और सारे आनंद
को लेकर।
धीरे-धीरे, क्रिया करते
हुए भी भीतर
अक्रिया बनी
रहेगी। धीरे-धीरे,
काम करते
हुए भी भीतर
बिलकुल कोई
काम नहीं होगा।
आप दौड़ते
रहेंगे, और
भीतर कोई भी
नहीं दौड़ेगा;
भीतर सब
ठहरा रहेगा।
जिस दिन दोनों
बातें एक साथ
सध जाती हैं
उस दिन मुक्ति
फलित हो जाती
है।
दो तरह
के लोग हैं।
और लाओत्से
चाहता है, आप
तीसरे तरह के
व्यक्ति हों।
एक तो वे लोग
हैं जो गति
में पड़े हैं
और अगति में
नहीं जा सकते।
कुछ इनमें से
ही भाग कर
अगति में चले
जाते हैं तो
गति से डरने लगते
हैं। फिर वे
जंगल में छिप
जाते हैं, गुहा
में, गुफा
में बैठ जाते
हैं। फिर वे
भयभीत होते
हैं कि अगर हम
यहां से बाहर
निकले तो गति
फिर पकड़ लेगी।
ये दोनों एक
जैसे लोग हैं।
इन्होंने जीवन
के एक पहलू को
पकड़ लिया।
लेकिन
ये दोनों
दरिद्र हैं।
क्योंकि
समृद्धि उसी
के पास होती
है जिसके पास
जीवन के दोनों
पहलू होते हैं; जो
अगति में उतर
सकता है और
गति में आ
सकता है--निर्भीक।
उसको अगति के
खोने का कोई
डर नहीं है।
वह संपदा उसकी
भीतरी है। जो
युद्ध के
मैदान पर भी
खड़ा हो सकता
है, और
जिसके ध्यान
में रत्ती भर
फर्क नहीं
पड़ेगा। जो
दुकान पर बैठ
सकता है, और
जिसके मंदिर
में इससे कोई
हलचल नहीं
आती। जब कोई
व्यक्ति इन
दोनों में आता
है, जाता
है, धीरे-धीरे-धीरे
इतनी सहज हो
जाती है यह
घटना, जैसे
अपने मकान के
बाहर आना और
भीतर जाना, बाहर आना और
भीतर जाना।
"गति
से ठंडक दूर
होती है, लेकिन
अगति से गर्मी
परास्त होती
है। जो निश्चल
और प्रशांत है,
वह सृष्टि
का
मार्गदर्शक
बन जाता है।'
निश्चल
और प्रशांत!
जो इस भीतर के
तत्व को पकड़ लेता
है जो न कभी
चला और न चलता
है,
चलना जिसके
आस-पास हो रहा
है, सारा
परिवर्तन का
चाक जिस कील
के आस-पास घूम
रहा है, लेकिन
जो कील ठहरी
हुई है, वह
जो अनमूविंग
सेंटर है
जिसके आस-पास
सारी गति और
परिवर्तन हो
रहा है, उस
परम स्थिर को
जो पहचान लेता
है, वह
प्रशांत हो
गया, वह
निश्चल हो
गया।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि वह जड़ हो
गया। इसका यह मतलब
नहीं है कि वह
बैठ गया, पत्थर
की मूर्ति हो
गया। वह काम
के जगत में होगा,
क्रिया के
जगत में होगा,
वह संसार
में खड़ा होगा।
लेकिन अब
संसार ही चलेगा,
वह नहीं
चलेगा। उसका
शरीर चलेगा, वह नहीं
चलेगा। उसका
यंत्र काम
करेगा, लेकिन
यंत्र के भीतर
छिपा हुआ
मालिक शांत ही
रहेगा।
लाओत्से
कहता है, ऐसा
व्यक्ति, ऐसी
चेतना सृष्टि
की
मार्गदर्शक
हो जाती है।
सहज, स्वभावतः,
ऐसे
व्यक्ति के
पास लोग आने
लगते हैं। कोई
अनजानी शक्ति
उन्हें
खींचने लगती
है; कोई
अदृश्य पुकार
उन्हें उसके
पास लाने लगती
है। वह उसके
भीतर जो
प्रशांति
घटित हुई है वह
मैग्नेटिक
फोर्स हो जाती
है। उसके पास,
जैसे कोई
घने वृक्ष की
छाया में
राहगीर चलता हुआ
विश्राम करने
को रुक जाता
है। न तो
वृक्ष बुलाता,
न वृक्ष
निमंत्रण
देता, लेकिन
वृक्ष का होना
ही निमंत्रण
बन जाता है; थका राही
उसके नीचे रुक
कर विश्राम कर
लेता है। ठीक
वैसे ही
प्रशांत हुए
व्यक्ति के
पास भी अनजाने
अनेक-अनेक
रास्तों से, अनेक-अनेक
कारणों से लोग
आने लगते हैं।
स्वाभाविक है
कि प्यासा
कुएं के पास
चला जाए। वैसा
ही स्वाभाविक
है कि जो
अशांत है और
जिसका मन उत्तेजना
और गर्मी से
भरा है, वह
उसके पास चला
आए जहां शांति
मिल सकती है, जहां एक हवा
का शीतल झोंका
मिल सकता है, जहां दो
घूंट उस शांति
को पीया
जा सकता है।
"जो
निश्चल और
प्रशांत है, वह सृष्टि
का
मार्गदर्शक
बन जाता है।'
और वही
केवल
मार्गदर्शक
बन सकता है; मार्गदर्शक
जो बनना चाहते
हैं वे नहीं।
क्योंकि कुछ
बनने की
चेष्टा अशांति
का लक्षण है।
जो गुरु बनना
चाहते हैं वे
गुरु होने की
योग्यता खो
देते हैं।
क्योंकि उस
बनने में भी
महत्वाकांक्षा
है; उस
बनने में भी
अभी उत्ताप है;
वह बनना भी
एक बेचैनी है।
वह एक नया
आयाम है, लेकिन
वासना का ही। सदगुरु
वही है जो
गुरु बनना
नहीं चाहता, लेकिन जिसके
पास लोग आकर
शिष्य बनना
चाहते हैं।
हालतें
उलटी हैं।
शिष्य कोई
बनना नहीं
चाहता; गुरु
काफी हैं। और
गुरुओं में
बड़ी कलह रहती
है कि कोई
किसी का शिष्य
न खींच ले।
गुरु बड़ी चेष्टा
में लगे रहते
हैं कि उनका
शिष्य कहीं और
न चला जाए, किसी
और की बात न
सुन ले, कहीं
भटक न जाए।
भटकने का मतलब
किसी और के
पास न चला
जाए। उनके
अतिरिक्त सब
जगह भटकाव है।
तो गुरु बड़ीर्
ईष्या से, बड़ी
जलन से
सुरक्षा में
लगे रहते हैं।
इससे ही
संप्रदाय खड़े
होते हैं।
संप्रदायों
के खड़े होने
का कारण
गुरुओं कीर्
ईष्याएं हैं।
लेकिन जिस
गुरु मेंर्
ईष्या हो और
जो भयभीत हो
कि कहीं कोई
चला न जाए, वह
गुरु ही नहीं
है।
एक
मित्र ने मुझे
आकर कहा कि
उनके गुरु ने
उन्हें कहा है
कि अगर वे
मेरे पास आए
तो ठीक नहीं होगा; यह
वैसे ही है
जैसे कोई अपने
पति को छोड़ कर
पत्नी किसी के
पास चली जाए।
पति-पत्नी
का संबंध
गुरु-शिष्य
बना कर बैठ
जाते हैं।
गुरु समझा रहा
है कि कहीं
जाना मत! यह तो
वही है जैसे
पत्नी पति को
छोड़ कर कहीं
चली जाए; जब एक
गुरु बना लिया
तो बस यहीं
रुकना।
रोकने
की चेष्टा
क्या है? जरूरत
क्या है? प्रयोजन
क्या है? और
रोकने से कहीं
कोई रुकता है?
पर
रोकने में कोई
वासना है।
गुरु भयभीत है, क्योंकि
शिष्यों के
बिना वह गुरु
न हो सकेगा। इसलिए
उसकी गुरुता
शिष्यों पर
निर्भर है।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
जिस गुरु की
लाओत्से बात
कर रहा है
उसकी उस
गुरुता के लिए
शिष्यों का
होना जरूरी
नहीं है; उस
गुरुता के लिए
भीतर की
प्रशांति का
होना जरूरी
है। कोई एक भी
शिष्य न हो तो
वह व्यक्ति
गुरु है। और
भीतर की
प्रशांति न हो
और लाखों
शिष्य हों तो
भी वह व्यक्ति
गुरु नहीं है।
क्योंकि नासमझों
की भीड़ को
इकट्ठा कर
लेने में जरा
भी कठिनाई नहीं
है। थोड़ी सी
होशियारी, थोड़ी
सी दुकानदारी,
और लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं। वह
तो बड़ा सरल
काम है। इसलिए
बिलकुल
बुद्धिहीन
लोग भी कर
लेते हैं।
इसलिए गुरुओं
में ढेर
मिलेंगे जो
निपट
बुद्धिहीन
हैं, मगर
इतने कुशल हैं
कि शिष्य
इकट्ठे कर
लेते हैं।
लाओत्से
कह रहा है कि
जो व्यक्ति
निश्चलता को, भीतर
की अगति को
उपलब्ध हुआ, प्रशांत हुआ,
वह सृष्टि
का
मार्गदर्शक
बन जाता है।
यह
बनने की घटना
स्वाभाविक
घटती है। उसकी
छाया में लोग
विश्राम करने
लगते हैं।
उसके अस्तित्व
को लोग ठंडे
जल की तरह
पीने लगते
हैं। उसकी
निश्चलता और
उसकी
प्रशांति
दूसरों में
प्रवेश करने
लगती है। लोग
उसके आस-पास
बदलने लगते
हैं--बिना
उसकी किसी
चेष्टा के।
उसका होना ही, उसका
होना मात्र ही,
मार्गदर्शक
बन जाता है।
आज
इतना ही।
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