अध्याय
44
संतुष्ट
रहें
मनुष्य
किसे अधिक
प्रेम करता है,
सुयश
को या स्वयं
की निजता को?
किसका
अधिक मूल्य है,
स्वयं
की निजता का
या भौतिक
पदार्थों का?
और कौन
बुराई बड़ी है,
स्वयं
की हानि या
पदार्थों का
स्वामित्व?
इसलिए:
जो सर्वाधिक
प्रेम करता है,
वह
सर्वाधिक
खर्च करता है;
जो
बहुत संग्रह
करता है, वह
बहुत खोता है।
संतुष्ट
आदमी को
अप्रतिष्ठा
नहीं मिलती;
जो
जानता है कहां
रुकना है,
उसे
कोई खतरा नहीं
है।
वह
दीर्घजीवी हो
सकता है।
लाओत्से
के सूत्र के
पूर्व प्रेम
के संबंध में
थोड़ी सी बातें
समझ लेनी जरूरी
हैं। पहली बात, जो
व्यक्ति भी
प्रेम करने
में समर्थ हो
पाता है, संपत्ति,
संग्रह, चीजें
इकट्ठा करने
की वृत्ति
उसकी अपने आप
कम हो जाती
है। परिग्रह
प्रेम का
परिपूरक है; जीवन में
प्रेम जितना
कम होगा उतना
ज्यादा परिग्रह
की वृत्ति
होगी। गहरे
कारण हैं।
परिग्रह
आदमी करता है
इसलिए कि
सुरक्षित हो सके।
धन है पास में, मकान
है पास में, पद है, प्रतिष्ठा
है; सुरक्षा
मालूम होती है,
सिक्योरिटी
है। कल का कोई
भय नहीं। कोई
विपदा होगी, संकट होगा, धन रक्षा
करेगा। कल का
जिसे भय है
उसका धन पर
भरोसा होगा।
लेकिन कल की
चिंता उसे ही पैदा
होती है जिसके
जीवन में
प्रेम नहीं
है। जिसके
जीवन में
प्रेम है उसके
लिए आज काफी
है, उसके
लिए कल है ही
नहीं।
भविष्य
की चिंता पैदा
होती है, क्योंकि
वर्तमान
दुखपूर्ण है।
आज मैं दुखी हूं
तो कल की
चिंता मन को पकड़ती है।
आज मैं सुखी
हूं तो कल भूल
जाता है। सुख
के क्षण में
कोई भी भविष्य
नहीं होता; न ही कोई
अतीत होता है।
जब आप आनंद
में हों तो समय
मिट जाता है।
जितना सघन हो
सुख उतना समय
क्षीण हो जाता
है; और
जितना सघन हो
दुख उतना समय
बड़ा हो जाता
है। इसलिए दुख
का एक पल भी काटना
मुश्किल होता
है; बहुत
लंबा मालूम
पड़ता है। घर
में कोई मरता
हो प्रियजन तो
रात भी बीतनी
मुश्किल हो
जाती है। और
आनंद की घड़ी
हो तो ऐसे बीत
जाती है जैसे
आई ही नहीं।
सभी
स्वर्ग
क्षणभंगुर
होंगे और सभी
नरक अनंत।
इसलिए नहीं कि
नरक अनंत है, बल्कि
इसलिए कि दुख समय
को विस्तार
देता है। समय
घड़ी से बंधा
हुआ नहीं है; समय हमारे
मन से बंधा
हुआ है। जब आप
दुखी हैं तो
जीवन कटता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता; और
जब आप सुखी
हैं तो
तीव्रता से बह
जाता हुआ मालूम
पड़ता है। सुख
के क्षण कब
निकल जाते हैं,
बोध भी नहीं
होता। दुख के
क्षण कैसे कटेंगे,
यह समझ में
नहीं आता।
जो आज
दुखी है वह कल
की सोचता है।
दुखी आदमी कल के
आसरे ही जीता
है। आज तो
जीने योग्य
नहीं है, लेकिन
कल की आशा कि
आज बीत जाएगा
और कल सब ठीक होगा।
लेकिन कल तभी
सब ठीक होगा
जब मैं आज
व्यवस्था कर
लूं। तो धन को पकडूं, मकान
बनाऊं, प्रियजन-मित्र
बनाऊं, कुछ
इकट्ठा करूं
जो कल काम आ
जाए।
और आज
उसका दुखी
होगा ही जिसके
जीवन में
प्रेम नहीं।
जहां प्रेम है
वहां सुख है।
और जहां सुख
है वहां
भविष्य मिट
जाता है।
इसलिए प्रेमी
को कल की
चिंता नहीं है; आज
काफी है। एक
क्षण भी अनंत
है, पर्याप्त
है। दूसरा क्षण
न भी हो तो कोई
मांग नहीं। एक
क्षण भी काफी संतुष्टि
दे जाता है।
और इस संतुष्ट
क्षण से ही कल
भी निकलेगा, इसलिए कल का
कोई भय, असुरक्षा
मन को पकड़ती
नहीं। आज जिस
प्रेम ने
संतोष दिया है
वह कल भी संतोष
देगा। और आज
जिस प्रेम से
सुगंध मिली है
वह कल भी
सुगंध देगा।
जिस प्रेम में
आज फूल खिले
हैं कल वे और
बड़े हो
जाएंगे।
जिसका आज का
क्षण सुखद है,
कल इस सुख
से ही निकलेगा;
इसी की धारा
होगी।
तो
जितना ज्यादा
हो जीवन में
प्रेम उतनी
भविष्य की
चिंता कम होती
है। भविष्य की
चिंता कम हो
तो परिग्रह, संग्रह,
वस्तुएं
इकट्ठे करने का
पागलपन छूट
जाता है।
जितने भी कृपण
लोग हैं उनकी
कृपणता उनके
जीवन में
प्रेम की कमी
को भरने का
उपाय है।
प्रेम न हो तो
हम सोने से
भरते हैं गङ्ढे
को। वह कभी भर
नहीं पाता, क्योंकि
सोना मृत है, और कितना ही
मूल्यवान हो
तो भी जीवित
नहीं। और
प्रेम एक
जीवंत अनुभव है।
मनसविद
कहते हैं कि
जिन बच्चों को
बचपन में
प्रेम मिलता
है वे बच्चे
ज्यादा भोजन
नहीं करते।
उनकी मां
परेशान होगी
उन्हें भोजन
कराने को; मां
चिंता करेगी
ज्यादा
खिलाने की और
बच्चे कम भोजन
करेंगे। जैसे
उनका पेट
प्रेम से भरा
है। जिन
बच्चों को
प्रेम नहीं
मिलता वे
बच्चे ज्यादा
भोजन करते हैं,
जरूरत से
ज्यादा।
प्रेम से भीतर
गङ्ढा
खाली है; उसे
किसी भी भांति
भर लेना जरूरी
है। और फिर कल
का कोई भरोसा
नहीं है। छोटे
बच्चे को अगर
मां का प्रेम
मिला है तो वह
जानता है, जिस
मां ने अभी
सम्हाला है, कल भी सम्हालेगी।
लेकिन
जिस बच्चे के
जीवन में
प्रेम नहीं
उसे डर है, आज
रोटी मिलती है,
कल कुछ
पक्का नहीं है,
मिलेगी
नहीं मिलेगी।
ज्यादा खा
लेगा। प्रेम की
कमी भोजन से
लोग पूरी कर
लेते हैं। मनसविद
कहते हैं, प्रेम
जीवन में कम
हो तो हम बाहर
भी इकट्ठा करते
हैं; शरीर
के भीतर भी
मांस, मज्जा
और चर्बी
इकट्ठी कर
लेते हैं। वह
भी कृपणता है।
वह भी डर है, कल का भरोसा
नहीं है।
यह जो
प्रेम की कमी
किसी भी तरह
की वस्तुओं से
पूरी की जाती
है,
यह हम ठीक
से समझ लें।
जीन पेआगे,
अन्ना
फ्रायड, और
दूसरे मनसविद,
जो बच्चों
पर काम किए
हैं, उन्होंने
जो कुछ भी
खोजा है, लाओत्से
हजारों साल
वही बात सूत्र
में कहा है।
लाओत्से की
दृष्टि बड़ी
गहरी है, और
मन की आखिरी
पर्त को छूती
और पकड़ती
है। और उसका
विश्लेषण
अचूक है।
कृपण
आदमी की तकलीफ
कंजूसी नहीं
है। कृपण आदमी
की तकलीफ उसके
जीवन में
प्रेम की कमी
है। जिसके
जीवन में
प्रेम होगा--दूसरी
बात खयाल में
ले लें--वह
कृपण तो हो ही
नहीं सकता है, फिजूलखर्च
हो सकता है।
उलीच सकता है;
इकट्ठा
नहीं कर सकता।
जितना ज्यादा
भीतर प्रेम
होगा उतना
बांटने की
आतुरता पैदा
होती है। इसे
थोड़ा समझें।
जब आप
दुख में होते
हैं तो आप
चाहते हैं, सिकुड़
जाएं, एक अंधेरे
कोने में छिप
जाएं। किसी से
मिलें न, जुलें न,
कोई देखे न।
दुखी आदमी सिकुड़ता
है। दुख संकोच
लाता है। और
अगर दुख बहुत
हो जाए तो आप
मर जाना चाहते
हैं, आत्महत्या
कर लेना चाहते
हैं।
आत्महत्या का अर्थ
है, इस
भांति सिकुड़
जाना चाहते
हैं कि फिर
मिलने का
दूसरे से कोई
उपाय ही न
रहे। जब आप
सुख में होते
हैं तब आप
लोगों से
मिलना चाहते
हैं। जब आप
सुख में होते
हैं तब
मित्रों से, प्रियजनों
से बांटना
चाहते हैं, किसी को
साझीदार
बनाना चाहते
हैं। शेयर
करने का भाव
पैदा होता है।
सुख बंटना
चाहता है। दुख
सिकोड़ता
है; सुख
फैलाता है।
इसलिए
हमने परम आनंद
की जो अवस्था
है उसको इस मुल्क
में ब्रह्म
कहा है।
ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही चला
जाता है, जिसके
विस्तार का
कोई अंत नहीं।
ब्रह्म का अर्थ
है, अनंत
विस्तार वाला,
जो फैलता ही
चला जाता है।
यह ब्रह्म
शब्द बड़ा बहुमूल्य
है। इसका अर्थ
है, जहां
कोई संकोच कभी
घटता नहीं, जिसके
विस्तार की
कोई सीमा नहीं
है, और जो
विस्तीर्ण ही
होता चला जाता
है। आनंद का
यही लक्षण है।
जितना ज्यादा
आनंद होगा, उतना आप
बांटना
चाहेंगे; उतना
आप चाहेंगे कि
कोई आपको उलीच
दे और खाली कर
दे। और जितना
आप बांटेंगे
उतना ही आप पाएंगे
आप ज्यादा
आनंदित हो गए
हैं। आनंद बांटने
से बढ़ता है।
फिर यह
बांटना बहुत
तरह का होगा।
जो कुछ भी आपके
पास होगा, आप
बांटेंगे। धन
होगा तो धन
बांटेंगे, ज्ञान
होगा तो ज्ञान
बांटेंगे, आनंद
होगा तो आनंद
बांटेंगे, प्रेम
होगा तो प्रेम
बांटेंगे। जो
भी आपके पास होगा,
आपके जीवन
की पूरी धारा
बांटने में लग
जाएगी।
देखें!
बुद्ध और
महावीर जब
दुखी हैं तब
वे जंगल भाग
गए,
और जब वे
परम आनंद से
भर गए और
समाधि को
उपलब्ध हुए तो
समाज में वापस
लौट आए। अब तक
ऐसा कभी नहीं
हुआ कि आनंदित
आदमी जंगल में
बैठा रहा हो। दुखी
आदमी जंगल गए,
लेकिन
आनंदित आदमी
सदा समाज में
वापस लौट आया।
क्योंकि जंगल
में बांटने का
कोई उपाय
नहीं। जंगल
में आनंद पैदा
तो हो सकता है,
लेकिन बढ़
नहीं सकता, फैल नहीं
सकता। उसे उलीचेगा
कौन? उसमें
साझीदार कौन
होगा?
तो
चाहे जीसस, चाहे
मोहम्मद, महावीर,
बुद्ध, या
कोई भी, ये
सारे लोग एक
दिन जब दुखी
थे तो जंगल की
तरफ चले गए, और जब
इन्होंने खोज
लिया अपने
जीवन का स्रोत,
और जब इनके
स्वर्ग के
द्वार खुल गए
और जब इनका जीवन
उस अपरिसीम
संगीत से भर
गया जिसे हम
ईश्वर कहते
हैं, तब ये
फिर जंगल में
न रुक सके, फिर
इनके पैर वहां
न थम सके। फिर
जंगल की मौन
और जंगल की
शांति इनको न
रोक सकी। फिर
ये लौट आए
वापस उन लोगों
के बीच जिनसे
ये कल भाग गए
थे। कौन सी
घटना घट रही
है? इनके
वापस लौटने की
कला और क्रिया
क्या है? इनके
वापस लौटने का
राज क्या है?
बहुत
लोगों ने सोचा
है। महावीर
क्यों वन में
चले गए, इस संबंध
में बहुत
चिंतन हुआ है।
लेकिन महावीर
वन से वापस
क्यों लौट आए,
इस संबंध
में कोई भी
चिंतन नहीं
हुआ है। और दूसरी
घटना पहली
घटना से
ज्यादा बड़ी
घटना है। जिस
समाज को छोड़
कर गए थे उस
समाज में वापस
आने का प्रयोजन
क्या है?
प्रयोजन
है: जो मिला है
उसे बांट देना।
फिर ऐसा
व्यक्ति न
पात्र देखता
है,
न अपात्र
देखता है; बांटता
चला जाता है।
पात्र और
अपात्र भी
कंजूस मन
देखता है। वह
देने के पहले
पच्चीस बार सोचता
है, दूं या
न दूं। और न
देने के लिए
जब तक उपाय बन
सके, वह सब
तरह के उपाय
खोजता
है--अपात्र है,
कैसे दूं?
हम अपने
मन को हजार
ढंग से समझाते
हैं,
रेशनलाइज करते हैं, तर्क जुटाते
हैं। एक
भिखमंगा सड़क
पर भीख मांग रहा
हो तो आप यह
नहीं कहते कि
मैं नहीं देना
चाहता हूं; आप यह कहते
हैं कि देने
से भिखमंगापन
बढ़ेगा। आप यह
देखने को कभी
राजी नहीं
होते कि यह
मेरे देने का
डर। वह भी ठीक
होगा, शायद
आपका तर्क सही
ही हो कि आप
देंगे तो भिखमंगापन
बढ़ेगा। लेकिन
उसके कारण आप
नहीं दे रहे हैं,
यह बात गलत
है। आप देना
नहीं चाहते
हैं।
बांटने
में पीड़ा होती
है,
कुछ भी
बांटने में
पीड़ा होती है।
इकट्ठा करने में
सुख मिलता है।
तो जो भी आपके
पास आ जाता है
बांटने के लिए
कि बांटो कुछ
मुझसे, उससे
आपको पीड़ा
होती है, उससे
आप बचना चाहते
हैं। पात्र और
अपात्र, सही
और गलत हमारा
कृपण मन ही
सोचता है। जब
सच में ही
देने योग्य
हमारे पास कुछ
होता है तो फिर
न कोई पात्र
रह जाता, न
कोई अपात्र रह
जाता।
अभी
अगर आप कभी
देते भी हैं
तो प्रयोजन से
देते हैं।
उसके पीछे कोई
शर्त होती है।
चाहे प्रकट, चाहे
अप्रकट; चाहे
कहते हों, न
कहते हों; लेकिन
देने के पीछे
शर्त होती है
और देने के पीछे
सौदा होता है।
देते हैं, पूरी
तरह नहीं
देते। और देते
हैं तो यह भाव
रखते हैं कि
जिसको दिया है
वह अनुगृहीत
अनुभव करे, वह धन्यवाद
तो दे, और
सदा भार से
ग्रस्त रहे, दबे, झुके।
और आशा मन में
बनी रहती है
कि कभी प्रत्युत्तर
भी दे। यह
देना न हुआ, यह सौदा ही
हुआ। जब आप
कुछ चाह रहे
हैं तो आप दे नहीं
रहे हैं। दान
के पीछे अगर
अप्रकट मांग
छिपी है तो
दान दिया नहीं
जा रहा है, इनवेस्टमेंट है; आप एक
नया धंधा खोल
रहे हैं।
जब कोई
प्रेम से, या
ज्ञान से, या
आनंद से भर
जाता है तो
देता है।
इसलिए नहीं कि
आपको जरूरत है,
बल्कि
इसलिए कि उसके
पास ज्यादा है
और उसके प्राण
बोझिल हैं। और
तब देता है तो
आप अनुगृहीत नहीं
होते, वह
खुद ही अनुगृहीत
होता है कि
आपने लिया। आप
इनकार भी कर सकते
थे। इसलिए
प्रेम सदा
अनुगृहीत
होता है कि कोई
मिल गया जिसने
मुझे उलीचने
में सहायता दी,
जिसने मुझे
हलका होने में
सहायता दी, जिसने मेरा
बोझ कम किया, जिसने मुझे
बांटा, जो
राजी हुआ मुझे
लेने को।
अनुग्रह, देने
वाला अनुभव
करता है।
प्रेम
की ऐसी घटना
घटे तो जिसे
हम त्याग कहते
हैं वह त्याग
नहीं रह जाता, वह
महाभोग हो
जाता है।
क्योंकि देने
वाला देने में
आनंदित हो रहा
है, त्याग
का कोई कारण
नहीं है। और
देने वाला
देकर और
ज्यादा पा रहा
है--आपसे नहीं,
देने के
घटने में ही
पाना है। कभी
अगर आपके जीवन
में कोई एकाध
झलक भी देने
की कभी आती है,
तो इसे थोड़ा
समझना। अगर आप
एक गिरे हुए
आदमी को हाथ
का सहारा भी
दे देते हैं
तो एक बड़ी
गहरी शांति और
आनंद की
प्रतीति आपको
होती है।
इसलिए नहीं कि
वह जो गिरा
हुआ आदमी उठ
गया है, वह
लौट कर कुछ
देगा। नहीं, उस उठाते
क्षण में ही
आप फैल कर
ब्रह्म के साथ
एक हो जाते
हैं। जब भी आप
कुछ देते हैं
तब आप फैलते
हैं। और सब
फैलाव का
अनुभव ब्रह्म
का अनुभव है।
लेकिन देना हो
बेशर्त, कोई
मांग छिपी न
हो, अचेतन
में भी कोई
आकांक्षा न
हो। और देते
ही अनुग्रह का
भाव पकड़ ले कि
एक अवसर मिला,
एक
परिस्थिति
बनी कि मैं
कुछ बांट सका
और फैल सका।
मेरे
देखे, प्रेम
ही एकमात्र
वास्तविक
त्याग है।
लेकिन उसे
त्याग कहना
उचित नहीं, क्योंकि
त्याग में ऐसा
लगता है कि
छोड़ते समय कुछ
कष्ट हुआ हो।
त्याग शब्द
में कुछ कष्ट
है। कष्ट इसी
कारण उस शब्द
में जुड़ गया
है कि कंजूसों
ने त्याग किया
है, और
उन्होंने बड़ा
कष्ट पाया है
त्याग करते
वक्त। और हम
सब कंजूस हैं।
और जब हम किसी
को त्यागते
देखते हैं तो
हमें लगता है
कि कितनी पीड़ा
न हो रही होगी!
जैन महावीर की
कथा लिखते हैं
कि इतने हाथी,
इतने घोड़े,
इतने रथ, इतने महल, इतना सब धन, इस सबका
उन्होंने
त्याग किया।
वह एक-एक
घोड़े-हाथी की
संख्या
उन्होंने
शास्त्रों
में लिख रखी
है। यह
जिन्होंने भी
लिखा है, ये
कृपण और कंजूस
रहे होंगे। यह
हिसाब कंजूस का
हिसाब है। और
इन कंजूसों को
लगा होगा कि
कितना कष्ट
महावीर नहीं
उठा रहे हैं!
और महावीर
कष्ट उठा रहे
हों तो त्याग
व्यर्थ हो गया।
महावीर जरा भी
कष्ट नहीं उठा
रहे हैं। महावीर
महल में कष्ट
में रहे हों, महल
छोड़ कर उनके
चेहरे पर कष्ट
की कोई छाया
नहीं देखी गई।
महावीर ने कुछ
छोड़ा हो तो
कष्ट छोड़ा है।
और यह त्याग
किसी और
आंतरिक घटना
से उठ रहा है।
यह बांटने का
अनुभव और आनंद
है।
थोड़ी
सी बातें खयाल
में ले लें, फिर
हम इस सूत्र
में प्रवेश कर
सकेंगे।
"मनुष्य
किसे अधिक
प्रेम करता है,
सुयश को या
स्वयं की
निजता को?'
एक तो
आप हैं, अपनी
निजता में, अपने भीतर।
अगर सारा जगत
खो जाए, सारी
मनुष्यता
तिरोहित हो जाए,
आप अकेले
बचें, उस
क्षण जो बचेगा
वह आपकी निजता
है।
सोचना
भी कठिन है कि
क्या बचेगा
आपके भीतर। साधारणतः
तो आपको लगेगा
कुछ भी नहीं
बचेगा, क्योंकि
निजता का आपको
कोई पता ही
नहीं है। कुछ
लोग हैं जो
आपको कहते हैं,
सज्जन हैं।
अगर वे कल खो
गए और आप
अकेले बचे तो
आप अपने को
सज्जन न कह
सकेंगे। वह
किन्हीं लोगों
की धारणा थी
आपके प्रति, उन्हीं के
साथ खो गई।
कुछ लोग आपको
महात्मा, संत
पुरुष, साधु
मानते होंगे।
अगर वे खो
जाएंगे तो कल
आप उनके बिना
साधु न हो
सकेंगे। वह
उनकी मान्यता थी।
कोई आपको
प्रतिष्ठा
देता है, या
कोई अपमान
करता है; कोई
मित्र है, कोई
शत्रु है; कोई
पक्ष में है, कोई विपक्ष
में है। ये
सारे लोग खो
जाएंगे। और
अभी आप जो कुछ
भी अपने को
मानते हैं, वह इन सबकी
धारणाओं का
जोड़ है। आपके
पास क्या बचेगा?
आपको
लगेगा, बिलकुल
शून्य हो जाऊंगा;
कुछ भी नहीं
बचेगा। शायद
जीने के लिए
कोई सहारा भी
नहीं बचेगा।
जीने का कोई कारण
भी मालूम नहीं
पड़ेगा।
क्योंकि कल तक
धन को इकट्ठा
करने के लिए
जी रहे थे; अब
धन को इकट्ठा
करके क्या
करिएगा? सारी
पृथ्वी का धन
आपका होगा, लेकिन
इकट्ठा करके
क्या करिएगा?
धन का
रस धन में
नहीं है। धन
का रस उन
लोगों में है
जिनके पास
आपसे कम धन
है। धन का रस
निर्धन में
छिपा है। एक
बड़ा महल आप
बना रहे थे।
अब सारे महल
आपके होंगे; सारी
पृथ्वी पर कोई
भी नहीं है।
लेकिन ये सारे
महल बेकार
हैं। क्योंकि
बड़ा महल तब
सुख देता है
जब पास में
छोटा मकान हो।
आप सिंहासनों
पर बैठने के
लिए दौड़ रहे
थे। सिंहासन
सब आपको
उपलब्ध
होंगे। सिंहासन
के ऊपर
सिंहासन, सिंहासन
के ऊपर
सिंहासन रख कर
आप अकेले बैठ
सकते हैं।
लेकिन कोई भी
रस न होगा, सिर्फ
मेहनत मालूम
पड़ेगी, पसीना
बहता हुआ
मालूम पड़ेगा,
कोई सार
मालूम नहीं
होगा।
क्योंकि
सिंहासन पर
होने का मजा
तब है जब
सिंहासन के
नीचे कोई तड़फ
रहा हो, सिंहासन
को पाने के
लिए कोई तड़फ
रहा हो; कतार
लगी हो लाखों
लोगों की
सिंहासन को
पाने के लिए
और आप पा लिए
हों और दूसरे
न पा सके हों।
सिंहासन का रस
दूसरों की
आंखों में है।
निजता
का अर्थ है: आप
अगर सारा जगत
न रह जाए तो जैसे
होंगे। साधक, जगत
के रहते हुए, इस भांति
जीना शुरू
करता है अपने
भीतर कि जैसे
जगत नहीं रह
गया। और उन-उन
बातों को
छोड़ता जाता है,
तोड़ता जाता है, जो
दूसरों से
संबंधित हैं,
और सिर्फ
उसको ही बचाता
है जो सबके खो
जाने पर भी
बचेगा। वही
निजता है, वही
आत्मा है।
लाओत्से
पूछ रहा है, मनुष्य
किसे अधिक
प्रेम करता है,
सुयश को, या अपनी
निजता को? दूसरों
की आंखों में
प्रतिष्ठा को,
मान को, सम्मान
को, या
अपने होने को?
किस बात को
ज्यादा प्रेम
करता है?
दूसरे
मेरे संबंध
में क्या कहते
हैं,
यह मेरे लिए
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है? या मैं
क्या हूं, यह
मेरे लिए
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है? दूसरे
भला मानें तो
मैं भला नहीं
हो जाता; दूसरे
बुरा मानें तो
मैं बुरा नहीं
हो जाता। मेरा
होना दूसरों
की मान्यताओं
से बड़ी पृथक
बात है। मैं
दूसरों की
मान्यताओं को
मूल्य देता हूं
सिर्फ इसलिए
कि मुझे मेरी
निजता का कोई
पता नहीं है।
और जिसको मैं
अपनी निजता
मान रहा हूं
वह केवल
दूसरों से
मिला हुआ
अहंकार है; दूसरों ने
जो कुछ मेरे
संबंध में कहा
है उसी का
संग्रह है।
इसलिए बड़ा डर
होता है। अगर
आप साधु हैं
तो आपको डर
होता है कि
कोई असाधु न
कह दे। इस भय
से न मालूम
कितने लोग
साधु बने रहते
हैं कि कोई
असाधु न कह
दे।
लेकिन
उनकी साधुता
कैसी और कितनी
कीमत की है? इसका
कोई भी मूल्य
नहीं। नपुंसक
है ऐसी साधुता
जो इससे डरती
हो कि कोई
असाधु न कह
दे। उधार है, मांगी हुई
है; किसी
और पर निर्भर
है। इस साधुता
की जड़ें अपने
भीतर नहीं
हैं। यह
साधुता दूसरों
की आंखों में
बनाए हुए
प्रतिबिंब का
जोड़ है; बासी
है, मुर्दा
है। लेकिन
साधु जितने
डरते हैं कि
कोई असाधु न
कह दे, उतने
असाधु भी नहीं
डरते।
मनसविद
कहते हैं कि
चाहे आप साधु
हों या असाधु, अच्छे
हों या बुरे, आपकी नजर
अगर दूसरे पर
ही लगी हुई है,
कि दूसरे
क्या कहते हैं,
तो आप अपने
स्वयं से, अपनी
सत्ता से
अपरिचित ही रह
जाएंगे। और
लाओत्से
पूछता है, प्रेम
किस बात का
है--लोगों के
विचारों का या
अपने शुद्ध
अस्तित्व का?
क्योंकि इन
दोनों बातों
पर निर्भर है
आपके जीवन की
दिशा।
एक बार
आपने यह खयाल
में ले लिया
कि दूसरे मेरे
संबंध में कुछ
अच्छा कहें, दूसरे
मुझे अच्छा
मानें, तो
आप झूठे से
झूठे होते चले
जाएंगे। आपका
सारा जीवन एक
लंबा पाखंड
होगा। हजारों
अच्छे लोगों
का जीवन सिवाय
पाखंड के और
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
एक मौलिक भूल
हो गई है; प्राथमिक
चौराहे से, जहां जीवन
के रास्ते टूटते
थे अलग-अलग, उन्होंने एक
गलत दिशा चुन
ली। पूरे समय
इसकी फिक्र है
कि दूसरा क्या
कहेगा।
हम
बच्चों को यही
समझा रहे हैं।
मां-बाप बच्चों
को कह रहे हैं, देखो,
ध्यान रखो
कि कोई बुरा न
समझे। कोई
क्या कहता है!
तुम बड़े कुल
में पैदा हुए
हो, तुम्हारे
घर की
प्रतिष्ठा है,
मां-बाप का
नाम है। ध्यान
रखना, तुम
क्या करते हो!
कैसे
उठते-बैठते
हो! दूसरे कुछ
गलत न कहें, कोई इशारा न
उठाए, तुम्हारी
तरफ कोई
अंगुली न उठे।
इसी के
लिए हम तैयार
किए जा रहे
हैं। जैसे हम
दूसरों के लिए
पैदा हुए हैं।
और एक बार
जीवन इस दिशा
को पकड़ ले तो
फिर अंत तक
इसी के पीछे
चलता चला जाता
है। फिर वह सब
करता है; अच्छा
भी, श्रेष्ठतम
भी करे तो भी
उसकी दृष्टि
निकृष्ट पर
लगी होती है।
मेरे
एक परिचित और
मित्र हैं, सेठ
गोविंद दास।
आज उनका
वक्तव्य
मैंने देखा।
संसद में उनके
पचास वर्ष
पूरे हुए।
पचास वर्ष तक
निरंतर वे
संसद के सदस्य
थे। शायद ऐसा
जमीन पर और
कहीं कभी नहीं
हुआ। संसद ने
उनका सम्मान
किया। सम्मान
में उन्होंने
जो वचन कहे वे
इस संदर्भ में
सोचने जैसे
हैं। सम्मान
के समय
उन्होंने जो उत्तर
में कहा, उन्होंने
कहा कि मुझसे
कम त्याग करने
वाले लोग
मुझसे ऊंचे
पदों पर पहुंच
गए हैं, मेरे
साथ अन्याय
हुआ है। कोई
घाव होगा
गहरा--मुझसे
कम त्याग करने
वाले लोग
मुझसे ऊंचे
पदों पर पहुंच
गए हैं। तो
जैसे त्याग
पदों पर पहुंचने
के लिए किया
गया है। चाहे
करते वक्त
सचेतन रूप से
उनको खयाल भी
न रहा हो, लेकिन
अचेतन में
कहीं न कहीं
पद छिपा रहा
है। वह अभी भी
पीछा कर रहा
है। और त्याग
को सम्मान
नहीं मिला तो
मेरे साथ
अन्याय हुआ है,
यह भी
प्रतीति है।
तो त्याग
आंतरिक नहीं
है, और
त्याग किसी
प्रसन्नता से
नहीं निकला
है। त्याग भी
एक सौदा है।
उसका प्रतिफल
पूरा न मिले
तो पीड़ा होती
है।
शहीदों
को भी अगर हम कब्र
से निकाल लें
और उनसे पूछें, तो
वे बहुत दुखी
होंगे कि हम
मर गए और
तुमने हमारे
पीछे क्या
किया? न
कोई
प्रतिष्ठा, न कोई पद, न
कोई सम्मान।
मरते वक्त
चाहे सचेतन
रूप से उन्हें
खयाल न रहा हो,
लेकिन सुना
तो उन्होंने
भी होगा कि
शहीदों की चिताओं
पर जुड़ेंगे
हर बरस मेले।
वे मेले नहीं
जुड़ रहे हैं।
जहां उनकी लाशें
दबी हैं वहां
पीड़ा हो रही
होगी--कि उन मेलों
का क्या हुआ? जो शहीद
नहीं हुए उनके
आस-पास मेले
जुड़े हुए हैं।
त्याग
भी आदमी करे
तो भी नजर यह
है कि दूसरे
उसको कैसा आंकते
हैं। दूसरों
के आंकने पर
ही मूल्य जिस
बात का हो वह
मूल्य आंतरिक
नहीं है; वह
मुझसे भीतर से
पैदा नहीं हुआ,
वह मेरे
प्राणों का
आविर्भाव
नहीं है। नहीं
तो बात खत्म
हो गई थी।
मुझे सुखद था,
वह मैंने
किया। मेरा
आनंद था, वह
मैंने किया।
जीना था तो
जीया और मरना
था तो मरा। यह
मेरी प्रतीति
थी--सूली पर चढ़
जाना। यह कोई
मेला जुड़ेगा
मरने के बाद, उसके लिए
नहीं था।
लेकिन
त्यागियों को
पूछें तो भीतर
वही घाव बना
रहता है कि
मैंने इतना छोड़ा।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि मनुष्य
किसे अधिक प्रेम
करता है, सुयश
को या स्वयं
की निजता को?
जो
सुयश को प्रेम
करता है वह
राजनीति के
रास्ते पर है; वह
चाहे धन की
राजनीति हो, चाहे पद की
राजनीति हो, मगर पावर पालिटिक्स।
उसका रास्ता
सत्ता का है।
और जो निजता
को प्रेम करता
है उसका
रास्ता धर्म
का है। जो इस
बात की फिक्र
करता है कि
मैं क्या हूं
मेरी ही आंखों
में। क्योंकि
मुझसे निकट
मुझे कौन देख
सकेगा? आप
मुझे कैसे
देखेंगे और
कैसे पहचानेंगे?
आपकी
सब पहचान थोथी
होगी, उथली
होगी, ऊपर
से होगी। आपको
धोखा दिया जा
सकता है। मैं अभिनय
कर सकता हूं; मैं भले
होने का आचरण
कर सकता हूं।
आपको झुठलाया
जा सकता है, आपको
भ्रांति में
डाला जा सकता
है। लेकिन मैं
अपने को खुद
कैसे भ्रांति
में डालूंगा?
मैं अगर
अच्छा हूं तो
ही मेरे सामने
मैं अच्छा हो
सकता हूं।
दूसरे के
सामने तो धोखे
का उपाय है, इसलिए दूसरे
का कोई भी
मूल्य नहीं
है। दर्पण के
सामने मैं खुद
को कैसा
प्रतीत होता
हूं, अपने
ही भीतर जाकर
मैं अपने को
कैसा पाता हूं,
वही आत्यंतिक
है।
और
लाओत्से कहता
है,
"किससे है
ज्यादा प्रेम,
सुयश से या
स्वयं की
निजता से? किसका
अधिक है मूल्य,
स्वयं की
निजता का या
भौतिक
पदार्थों का?'
जिसकी
नजरों में
दूसरे के
विचारों का
बहुत मूल्य है, उसकी
नजरों में
भौतिक
पदार्थों का
भी बहुत मूल्य
होगा। अभौतिक
अनुभूतियों
का मूल्य उसकी
नजरों में
ज्यादा नहीं
होगा, क्योंकि
अभौतिक
अनुभूतियां
दूसरों के
सामने
प्रदर्शित
नहीं की जा
सकतीं। मैं
कितना शांत
हूं, इसकी
कोई भी
प्रदर्शनी
नहीं बनाई जा
सकती। लेकिन
मेरे पास
कितना शानदार
महल है, इसकी
प्रदर्शनी
निरंतर जारी
रहती है। मेरे
पास क्या है, उसे दूसरे
देख सकते हैं;
मैं क्या
हूं, उसे
तो कोई भी
नहीं देख
सकता। तो
जिसकी भी नजर में
दूसरे की नजर
का मूल्य है, वह भौतिक
पदार्थों के
संग्रह में
लीन रहेगा। और
जितना ही कोई
वस्तुओं को
इकट्ठा करता
है उतना ही
भूलता चला
जाता है कि
वस्तुओं के अतिरिक्त
भी मेरे भीतर
कुछ था। और
जितनी वस्तुओं
का ढेर बढ़ता
जाता है उतना
ही अपने से
संबंध टूटता
चला जाता है।
धीरे-धीरे हम
करीब-करीब अपनी
ही इकट्ठी की
हुई वस्तुओं
के पहरेदार हो
जाते हैं। न
सोते हैं, न
जागते हैं, न जीते हैं; उन वस्तुओं
का पहरा देते
रहते हैं।
कहानियां
हैं पुरानी कि
कृपण आदमी मर
जाए तो मर कर
भी अपने खजाने
पर सांप होकर
बैठ जाता है।
कहानी
अर्थपूर्ण है।
और कृपण आदमी
के मन को हम
समझें तो
कहानी बिलकुल
सच मालूम होती
है। यही होगा।
क्योंकि जिसने
जिंदगी भर
पहरा दिया वह
मर कर एकदम
पहरा नहीं छोड़
सकता। उसकी आत्मा
को कुछ और
करने योग्य
नहीं मालूम हो
सकता। वह पहरा
देकर सांप
होकर खजाने
पर बैठ जाएगा, उसकी
आत्मा प्रेत
बन कर भटकेगी।
जिंदगी भर
उसने यही किया
था। जब वह
शरीर में था
तब भी वह एक
प्रेत की
भांति था। तब
भी वह अपनी
तिजोरी के
आस-पास घूम
रहा था। तब भी
उसके सारे प्राण
तिजोरी में
थे। उसके
प्राण उसके
हृदय में नहीं
थे, उसके
धन में थे; जो
उसके पास था
उसमें थे।
"किसका
अधिक मूल्य है,
स्वयं की
निजता का या
भौतिक
पदार्थों का? और
कौन बुराई बड़ी
है, स्वयं
की हानि या
पदार्थों का
स्वामित्व?'
जीसस
ने भी ठीक ऐसा
वचन कहा है कि
तुम सारी
पृथ्वी को भी
पा लो, लेकिन
अगर तुमने खुद
को खो दिया तो
तुम्हारे पाने
का मूल्य क्या
है? तुमने
सारा
साम्राज्य पा
लिया, और
इस पाने की
दौड़ में तुम
भूल गए उसे जो
तुम थे, तो
तुमने जो पाया
उसे पाना कहें
या खोना कहें?
लेकिन आदमी
किसी गहरी
भ्रांति में
है। भ्रांति
के पैदा होने
के कुछ बड़े
गहरे कारण
हैं। पहला, एक तो आपको
यह भ्रांति
होती है कि
खुद को पाने का
क्या सवाल है;
खुद तो आप
हैं ही। उसे
आपने स्वीकार
ही कर लिया
है। जैसे जन्म
के साथ ही
आत्मा आपको
मिल गई।
मिली
है,
लेकिन बीज
की तरह; उसे
वृक्ष बनाना
आपके हाथ में
है। और वह बीज
की तरह ही सड़
जाए, इसकी
भी संभावना
है। इस सदी का
बहुत
महत्वपूर्ण
व्यक्ति
गुरजिएफ तो
इनकार करने
लगा था। वह कहता
था, सभी
आदमियों के
पास आत्माएं
नहीं हैं।
उसकी बात में
सचाई है।
चौंकाने वाली
बात है।
क्योंकि वह
कहता है, सभी
आदमियों के
पास आत्माएं नहीं
हैं। आत्मा
पैदा हो सकती
है, लेकिन
श्रम करना
पड़ेगा। और कभी
करोड़ में
एकाध आदमी
पैदा कर पाता
है, बाकी
तो वैसे ही मर
जाते हैं।
सिर्फ एक
संभावना है
आदमी की, आत्मा
पैदा हो सके।
बात सच है। आप
सिर्फ एक बीज
की तरह हैं जो
वृक्ष बन भी
सकता है और न
भी बने।
लेकिन
पूरब के
धर्मों ने
प्रचार किया
है कि सभी आदमियों
के भीतर आत्मा
है। इस प्रचार
में सत्य था।
क्योंकि जो
संभव है, वह
है। लेकिन इस
सत्य से भी
नुकसान हुआ।
सारे लोग मान
कर ही बैठ गए
हैं कि जो भी
है वह उनके भीतर
है; कुछ
करने जैसा
नहीं है।
संसार पाने
योग्य है; आत्मा
तो पाई ही हुई
है। और जो
पाया ही हुआ
है, उसके
लिए क्या
चिंता करनी? जो नहीं
पाया है, उसकी
हम फिक्र कर
लें। तो हम
दौड़ते हैं
पदार्थ के
लिए।
पर
ध्यान रहे, आत्मा
आप में हो
सकती है; यह
पोटेंशियलिटी
है। आप जब
पैदा हुए हैं
तो सिर्फ शरीर
और मन की तरह
पैदा हुए हैं।
आत्मा तो बहुत
छिपी है--बहुत
दूर गहरे में।
उससे अभी
अंकुर भी नहीं
फूटा है। यह
शरीर और मन ने
व्यवस्था
जुटाई है। ये
भूमि की तरह
हैं। अंकुर
फूट सकता है।
अगर थोड़ा श्रम
किया जाए तो
वह आत्मा
वृक्ष बन सकती
है और उसमें
फूल लग सकते हैं।
ऐसे जब
किसी वृक्ष
में फूल लग
जाते हैं, तभी
हम कहते हैं, व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ।
सभी लोग बुद्ध
नहीं हैं। सभी
लोग बुद्ध हो
सकते हैं, लेकिन
मुश्किल से
कभी कोई हो
पाता है। यह
प्रतीति कि
हमारे भीतर
आत्मा है ही, खतरनाक है।
कोशिश करनी
होगी। सोया है
जो उसे जगाना
होगा, छिपा
है जो उसे
प्रकट करना
होगा।
पत्थरों में
दबा है जो
झरना उसे
पत्थर हटा कर
राह देनी
होगी। इस कारण
भी हममें से
बहुत लोग जीवन
की ऊर्जा को
पदार्थों को
इकट्ठा करने
में लगा देते
हैं।
दूसरा
भी एक गहरा
कारण है। हमें
आत्मा का कोई अनुभव
भी नहीं है, स्वाद
भी नहीं है।
और जिसका स्वाद
न हो, जिसका
कोई अनुभव न
हो, उसको
पाने के लिए
हम कुछ करें
भी कैसे? उसकी
वासना भी कैसे
जगे? उसके
पाने की प्यास
भी हम कैसे पहचानें?
और चारों
तरफ हमारे
पागलों का
समाज है। वे
सब पदार्थों
को पाने में, दौड़ने में
लगे हैं। उनके
साथ अगर हम न दौड़ें तो
हम पागल मालूम
होते हैं। भीड़
बड़ी है। उस
भीड़ में ही
हमारा जन्म
होता है।
बच्चा इसके
पहले कि होश
से भरे, पागल
उसे ठीक से
पागल बनाने का
पूरा इंतजाम
किए हुए हैं।
छोटे
बच्चों को
जरूर आपकी
चीजों पर हंसी
आती है। छोटे
बच्चों की
निर्दोष
आंखों में
जरूर दिखाई
पड़ता है कि
कुछ पागलपन हो
रहा है।
क्योंकि छोटे
बच्चों की यह
समझ के बाहर
है कि एक आदमी
बड़ा मकान
बनाने में जिंदगी
भर नष्ट कर दे, कि
धन तिजोड़ी
में भरने में
सब कुछ गंवा
दे, अपना
सब कुछ लगा
दे। लेकिन
इसके पहले कि
बच्चे का
निर्दोष भाव
सबल हो पाए, हम सब चारों
तरफ से इकट्ठा
होकर उसकी
गर्दन घोंट
देंगे। हमारी
शिक्षा, हमारा
स्कूल, विश्वविद्यालय,
समाज, सब
महत्वाकांक्षा
सिखा रहा है--दौड़ो, तेजी
से दौड़ो, और जितना
ज्यादा
इकट्ठा कर सको
कर लो; समय
बीता जा रहा
है, और
संपत्ति
एकमात्र
सहारा है। इस
कारण भी प्रत्येक
व्यक्ति इस
मूर्च्छा में
दौड़ना शुरू हो
जाता है।
लेकिन
बुद्धिमान
उसको ही
कहेंगे जो इस
पागलपन, इस आब्सेशन, इस
विक्षिप्तता
से थोड़ा सजग
हो सके।
सोच-विचार
उसके भीतर ही
माना जा सकता
है जो थोड़ा
खड़ा होकर सोचे
कि मैं क्यों
दौड़ रहा हूं!
और जिसे पाने
के लिए दौड़
रहा हूं, अगर
मैंने पा भी
लिया तो क्या होगा!
सिकंदर
आ रहा है
हिंदुस्तान।
वह एक फकीर डायोजनीज
को मिलता है। डायोजनीज
उससे कुछ सवाल
पूछता है।
उसमें एक सवाल
यह है कि तूने
अगर पूरी
दुनिया जीत भी
ली तो फिर, फिर
तू क्या करेगा?
कहते हैं, सिकंदर यह
सुन कर उदास
हो गया। और
उसने कहा कि डायोजनीज,
तुमने ऐसी बात
कही कि तुमने
मुझे बड़ी
निराशा से भर
दिया। सच, अगर
मैं पूरी
दुनिया जीत
लूंगा तो फिर
क्या करूंगा!
यह मैंने कभी
सोचा नहीं। और
दूसरी कोई दुनिया
नहीं है, डायोजनीज ने कहा। तुम
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाओगे।
सिकंदर
जब विदा होने
लगा तो उसने डायोजनीज
को कहा कि अभी
तो रुकना
मुश्किल है; आधी
दुनिया तो मैं
जीत भी चुका।
लेकिन जब मैं पूरी
दुनिया जीत
लूंगा तो मैं आऊंगा।
तुमसे मैं
प्रभावित हुआ
हूं।
तुम्हारी शांति
और तुम्हारा
आनंद मुझे छू
गया है। डायोजनीज
ने कहा कि अगर
तुम प्रभावित
हुए हो तो रुक
जाओ। वही
कसौटी होगी
प्रभावित होने
की। लेकिन
सिकंदर ने कहा,
अब आधी
योजना को
छोड़ना उचित
नहीं है। ऐसे
मैं समझता हूं
कि पूरी
दुनिया जीत कर
भी क्या होगा,
लेकिन अब
आधे काम को
छोड़ना उचित
नहीं है। मैं पूरा
काम करके
लौटूंगा। डायोजनीज
ने कहा, अब
तक कोई अपनी
कोई योजना कभी
पूरी नहीं कर
पाया है। तुम
आधे में ही
मरोगे।
और
संयोग की बात
कि सिकंदर
लौटते वक्त
आधे में ही मर
गया। घर तक
वापस नहीं
पहुंच पाया।
लेकिन कोई भी
आधे में
मरेगा।
योजनाएं इतनी
बड़ी हैं कि
कभी पूरी नहीं
होतीं। और
इसके पहले कि
एक योजना पूरी
हो,
उससे भी बड़ी
योजना हमारा
मन तैयार कर
लेता है। इसलिए
कभी भी कोई
पूरी योजना
करके नहीं
मरता। हरेक
व्यक्ति आधी
योजना में ही
मरता है, और
यह जानते हुए
भी कि अगर
सारी योजनाएं
भी पूरी हो
जाएं तो क्या
होगा।
सिकंदर
ने डायोजनीज
को कहा था कि
अगर मुझे
दुबारा जन्म
मिले तो मैं
परमात्मा से
कहूंगा कि
मुझे डायोजनीज
बना। डायोजनीज
बिलकुल नंगा
फकीर था, ठीक
महावीर जैसा।
कपड़े भी नहीं
थे उसके पास।
भिक्षा-पात्र
भी उसके पास
नहीं था। पहले
वह एक भिक्षा-पात्र
रखता था, पानी
पीने के लिए, या कोई भीख
दे देता। फिर
उसने एक दिन
कुत्तों को
पानी पीते
देखा नदी में।
उसने उसी दिन
भिक्षा-पात्र
भी फेंक दिया।
उसने कहा, जब
कुत्ते इतने
समर्थ हैं कि
बिना एक पात्र
के जी लेते
हैं तो मैं
आदमी होकर
इतना कमजोर!
फिर वह अपने
हाथ से ही
पानी पीने
लगा। फिर वह करपात्री
हो गया।
सिकंदर
ने उससे कहा, अगर
दुबारा मुझे
मौका मिला तो
मैं परमात्मा
से कहूंगा
मुझे डायोजनीज
बना। डायोजनीज
ने कहा, और
अगर मुझे मौका
मिले तो मैं
कहूंगा, तू
कुछ भी बना
देना, यह
मेरा
कुत्ता--उसका
कुत्ता उसके
पास ही बैठा
था--यह कुत्ता
भी मुझे बना
देना तो भी
चलेगा, लेकिन
भूल कर मुझे
सिकंदर मत
बनाना।
सिकंदर
एक प्रतीक है
हमारे भागते
हुए महत्वाकांक्षा
का,
पागल दौड़
का।
लाओत्से
पूछता है, "कौन
बुराई बड़ी है,
स्वयं की
हानि या
पदार्थों का
स्वामित्व? इसलिए...।'
यह बड़े
मजे की बात है; वह
सिर्फ प्रश्न
उठाता है, और
जवाब आप पर
छोड़ देता है।
ये तीन प्रश्न
उसने उठाए हैं;
जवाब दिया
नहीं।
क्योंकि वह
मानता है जवाब
इतना साफ है
कि उसे देने
की कोई जरूरत
नहीं। और जिसको
जवाब साफ नहीं
है उसको कितना
ही दिया जाए
उसे मिलेगा
नहीं। इसलिए
सिर्फ प्रश्न
उठाता है।
मनुष्य
किसे अधिक
प्रेम करता है, सुयश
को या निजता
को? किसका
मूल्य है अधिक,
निजता का या
भौतिक
पदार्थों का?
और कौन
बुराई बड़ी है,
स्वयं की
हानि या
पदार्थों का
स्वामित्व? ये सब
प्रश्नवाची
चिह्न हैं। और
जवाब देता नहीं,
क्योंकि
जवाब साफ है।
और जिसे साफ
नहीं है उसे
देने से भी
कोई फायदा
नहीं है। सीधे
निष्कर्ष पर
पहुंच जाता
है।
और
निष्कर्ष है:
"इसलिए जो
सर्वाधिक
प्रेम करता है
वह सर्वाधिक
खर्च करता है।'
बीच
में खाली जगह
मालूम पड़ती
है। यह देअरफोर, यह
इसलिए एकदम
छलांग लगा कर
आया हुआ मालूम
पड़ता है। अगर
कोई
तर्कशास्त्री
इसको पढ़ेगा
तो वह कहेगा
कि इसमें कुछ
पंक्तियां
बीच में से खो
गईं। क्योंकि यह
इसलिए का क्या
मतलब? पहले
साफ होना
चाहिए, पहले
पूरा तर्कबद्ध
विधि होनी
चाहिए; इसलिए
तो अंतिम चरण
है। पर
लाओत्से
प्रश्न उठाता
है, उत्तर
नहीं देता।
उत्तर साफ है।
और जो व्यक्ति
भी शांति से
इन प्रश्नों
को सोचेगा उसे
उत्तर साफ हो
जाएगा।
इसमें
एक बात और समझ
लेनी जरूरी
है। अगर कोई
भी प्रश्न ठीक
से सोचा जाए
तो उस प्रश्न
में ही उत्तर
छिपा होता है।
और जो लोग
प्रश्न पूछने
की कला जानते
हैं उन्हें
उत्तर खोजने
कहीं भी नहीं
जाना होता; वे
उस प्रश्न की
तलहटी में ही
उत्तर को छिपा
हुआ पाते हैं।
ये प्रश्न
आपसे पूछे हैं,
कोई उत्तर
देने को नहीं;
ये प्रश्न
पूछे हैं, ताकि
आप इन
प्रश्नों को
ठीक से अपने
भीतर उठा सकें,
और आप इन
प्रश्नों के
विस्तार में,
इन
प्रश्नों की प्रगाढ़ता
में अपने जीवन
को नाप सकें।
उत्तर आपके
पास है।
आप भी
भलीभांति
जानते हैं कि
सारे संसार को
पा लेने का भी
कोई मूल्य
नहीं
है--स्वयं को
खोना पड़े अगर।
लेकिन फिर भी
अपने को खोए
चले जाते हैं।
क्योंकि यह प्रश्न
आपने सचेतन
रूप से उठाया
नहीं है; इस
प्रश्न को
आपने अपने मन
के सामने नहीं
रखा है। और यह
प्रश्न ऐसा है
कि प्रतिपल
पूछने जैसा
है। एक-एक कदम
जब आप उठाएं
तब यह पूछने जैसा
है हर बार कि
मैं क्या कर
रहा हूं? इससे
मेरी निजता बढ़ेगी या
मेरी संपत्ति बढ़ेगी? इससे
मैं बढूंगा
या मेरे
आस-पास का
सामान बढ़ेगा?
इससे मेरे
जीवन की ऊंचाई
और गहराई बढ़ेगी
या लोगों की
नजरों में
मेरी
प्रतिष्ठा कम
और ज्यादा
होगी? मैं
यह किसलिए
कर रहा हूं? यह प्रश्न
प्रतिपल
पूछने जैसा
है। यह कोई
तार्किक प्रश्न
नहीं है जिसका
कोई उत्तर
दिया जा सके। यह
प्रश्न तो एक
विधि है, एक
मेथड है
कि अगर आप
इसको पूछते
चले जाएं तो
धीरे-धीरे
आपके जीवन में
वह निखार आ
जाएगा जो कि
उत्तर है।
और
इसलिए
लाओत्से
छलांग लेता
है। वह कहता
है,
"इसलिए: जो
सर्वाधिक
प्रेम करता है
वह सर्वाधिक
खर्च करता है।
जो बहुत
संग्रह करता
है वह बहुत
खोता है।
संतुष्ट आदमी
को
अप्रतिष्ठा
नहीं मिलती।
जो जानता है
कि कहां रुकना
है, उसे
कोई खतरा नहीं
है। वह
दीर्घजीवी हो
सकता है।'
पहली
बात,
"जो
सर्वाधिक
प्रेम करता है
वह सर्वाधिक
खर्च करता है।'
कई
कारणों से।
पहला कारण, क्योंकि
जो प्रेम करता
है उसी के पास
कुछ खर्च करने
को है भी। जो
प्रेम नहीं
करता उसके पास
कुछ खर्च करने
को है भी नहीं,
उसके पास
देने को कुछ
है भी नहीं।
और अगर वह कभी
कुछ देता भी
है तो सिर्फ
अपनी दीनता
छिपाता है।
इसे थोड़ा
समझना जरूरी
है। जिनके
जीवन में
प्रेम नहीं है,
वे भी कुछ
देते हैं। सच
तो यह है कि कई
बार देते हुए
दिखाई पड़ते
हैं। लेकिन तब
वे कुछ दे
नहीं रहे हैं;
कुछ नहीं दे
सकते हैं भीतर
का, इसलिए
बाहर का कुछ
देकर छिपा रहे
हैं।
इसे
थोड़ा जीवन के
रोजमर्रा के
ढांचे में
देखें। अगर
पति पत्नी को
प्रेम नहीं दे
सकता तो
हीरे-जवाहरात
देता है, सोना-चांदी
देता है, आभूषण
देता है।
इसलिए
नहीं--इसलिए
नहीं कि उसके
भीतर कुछ है
जो वह
सोना-चांदी के
बहाने देना चाह
रहा है, बल्कि
इसलिए कि भीतर
देने को कुछ
भी नहीं है। और
अगर वह सोना-चांदी
भी न दे तो
भीतर की दीनता
बड़ी प्रगाढ़
होकर प्रकट हो
जाएगी। वह
छिपा रहा है; भीतर की
दरिद्रता को ढांक रहा
है। अगर प्रेम
देने को हो तो
सोना-चांदी देने
जैसा लगेगा भी
नहीं, निर्मूल्य मालूम होगा,
क्षुद्र
मालूम होगा।
हीरे-जवाहरात
का क्या मूल्य
है अगर प्रेम
का एक टुकड़ा
भी देने को
पास हो? लेकिन
वह नहीं है।
और ऐसा कोई भी
मानना नहीं चाहता
कि मेरे पास
देने को प्रेम
नहीं है। तो हम
कुछ और
देकर...ये
बहाने हैं।
मनसविद तो
यहां तक कहते
हैं कि जिस
दिन पति अपने
को गिल्टी या
अपराधी अनुभव
करता है उस
दिन कोई भेंट
लेकर घर आता
है। किसी
खूबसूरत
स्त्री को
रास्ते पर देख
लिया, तो उस
दिन वह फूल
खरीद कर घर ले
आता है। यह
अपराध, मन
में जो एक, अंतःकरण
को जो एक चोट
लगी है कि कुछ
गलती की, कुछ
भूल की।
तो जब
पति घर फूल
लेकर आए तो
पत्नी को सजग
हो जाना
चाहिए। बिना
अपराध किए वह
ऐसा करेगा नहीं।
कुछ छिपाना न
हो तो देने की
जरूरत नहीं है।
मेरे अनुभव
में सैकड़ों
संपन्न
परिवारों की
महिलाएं हैं, और
जिन का दुख
यही है कि
उनका पति
उन्हें सब कुछ
दे रहा है, फिर
भी उन्हें कुछ
मिल नहीं रहा।
जो भी दिया जा
सकता है दृश्य,
उनके पति
उन्हें सब कुछ
दे रहे हैं।
लेकिन
इस मामले में
स्त्री और
पुरुष के मन
में भी बड़े
बुनियादी
फर्क हैं।
स्त्री और
पुरुष के तर्क
भी बड़े भिन्न
हैं। स्त्री
को धोखा देना
बहुत मुश्किल
है। कितना ही
उसे दिया जाए, अगर
प्रेम को
छिपाने के लिए
दिया जा रहा
है तो स्त्री
उसे उघाड़ ही
लेगी, वह
उसे पहचान ही
जाएगी। प्रेम
पर उसकी पकड़
बड़ी गहरी और
साफ है। कितना
ही जगमगाता
हीरा हो तो भी
वह पहचान लेगी
कि पीछे प्रेम
नहीं है।
इसलिए
पुरुषों को
मैं देखता हूं
कि वे मुझसे
कहते हैं कि
हम सब पत्नी
के लिए कर रहे
हैं, फिर
भी कोई तृप्ति
नहीं है। और पत्नियां
कहती हैं, पति
सब दे रहे हैं,
उसमें कोई
कमी नहीं है, लेकिन जो
मिलना था वह
नहीं मिला है।
पर
प्रेम हम तभी
दे सकते हैं
जब वह हो, और यह
बड़ी जटिल बात
है। इस जगत
में हम किसी
और चीज के
संबंध में ऐसी
गणित की भूल
नहीं करते जैसी
प्रेम के
संबंध में
करते हैं। अगर
आपके पास धन
नहीं है तो आप
जानते हैं कि
कैसे देंगे!
जो आपके पास
नहीं है वह आप
नहीं दे सकते,
आप जानते
हैं। लेकिन
प्रेम के
संबंध में बड़ी
गहरी भूल होती
है। हम कभी
पूछते ही नहीं
कि वह हमारे
पास है; बिना
पूछे हम उसे
देने निकल
पड़ते हैं।
प्रेम
एक बहुत गहरी
कीमिया है। वह
भी कोई पैदा होने
के साथ लेकर
नहीं आता। वह
भी एक जीवन का
संगीत है जिसे
खोजना होता है, जिसे
निर्मित करना
होता है। छिपा
है अनगढ़
पत्थर की
भांति, उसे
छेनी लेकर
निखारना होता
है। तब वह
मूर्ति बन
पाता है। अनगढ़
पत्थर में
मूर्ति छिपी
है, लेकिन
सभी के लिए
नहीं छिपी है;
उसी के लिए
छिपी है जो
उसे निकाल
सके। हम जन्म
के साथ प्रेम
लेकर पैदा
होते हैं एक
पत्थर की
भांति, पर
फिर जीवन भर
उसे निखारना
पड़ता है। और धन्यभागी
हैं वे लोग, अगर जीवन के
अंत तक भी
उनकी प्रेम की
मूर्ति निखर
आए। और जब
हमारे पास हो
तब हम दे सकते
हैं।
पर सब
लोग एक-दूसरे
को प्रेम दे
रहे हैं बिना
यह सवाल उठाए
कि वह हमारे
पास है। इसलिए
सब देते हैं, और
किसी को मिलता
नहीं।
करीब-करीब सब
दे रहे हैं, और जरूरत से
ज्यादा दे रहे
हैं, और सब
यह सोचते हैं
कि हमारे जैसा
देने वाला कोई
भी नहीं है, लेकिन किसी
को मिलता
नहीं। मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, हम
प्रेम देते
हैं। मेरे पास
वह आदमी आता
ही नहीं जो
कहता है, हमें
प्रेम मिलता
है। आप देते
हैं तो किसी
को मिलना
चाहिए। मिलने
में ही प्रमाण
होगा। या फिर
आप खाली हाथ
देने का सिर्फ
स्वांग कर रहे
हैं। शायद
अपने को धोखा
दे रहे हैं कि
आप दे रहे हैं।
सच तो
यह है कि सब
लेना चाहते
हैं। सब लेने
की कोशिश कर
रहे हैं, और
देना केवल
लेने के लिए
आयोजन है।
लेकिन देने के
लिए किसी के
पास कुछ भी
नहीं है। यह
भी समझ लेने
जैसा है कि जब
तक आपके जीवन
में प्रेम को मांगने
की वासना है, जब तक आप
पाते हैं कि
मुझे कोई प्रेम
दे, तब तक
आप देने में
समर्थ न हो
सकेंगे।
क्योंकि आप
खुद भिखमंगे
हैं। देने के
लिए सम्राट
होना जरूरी
है।
यह बड़ी
उलटी बात है।
इस जगत में
केवल वे ही
लोग प्रेम दे
पाते हैं जो
प्रेम मांगते
नहीं, जिनके
लिए प्रेम की
कोई जरूरत न
रही। और जिनको
इस जगत में
प्रेम की
जरूरत है, जो
मांगते हैं, जो चौबीस
घंटे इसी आशा
में रहते हैं
कि कोई प्रेम
देगा और उनके
जीवन में एक
पुलक, एक
नृत्य आ जाएगा,
वे दे नहीं
सकते।
क्योंकि उनके
पास है नहीं।
मैं निरंतर
कहता हूं, हमारी
हालत दो भिखमंगों
जैसी है, जो
एक-दूसरे के
सामने
भिक्षा-पात्र
फैलाए खड़े
हैं। उनमें
कोई भी देने
वाला नहीं है,
वे दोनों
लेने वाले
हैं। दोनों
दुखी होंगे। सारा
जगत दुखी है।
"जो
सर्वाधिक
प्रेम करता है,
वह
सर्वाधिक
खर्च करता है।'
इस
खर्च से संबंध
वस्तुओं का
नहीं है; इस
खर्च से संबंध
अस्तित्व का
है। वह अपने
अस्तित्व को
लुटाता है। इस
अस्तित्व के
लुटाने में
अगर वस्तुएं
हैं तो
वस्तुएं भी
लुटती हैं, लेकिन वे
गौण हैं। वे
केवल बहाने
हैं। उनके सहारे
वह कुछ और
देता है। वह
जो देता है वह
अदृश्य है।
अगर दृश्य भी
कुछ देता है
तो उसके सहारे
कुछ अदृश्य ही
देता है जो
नहीं दिखाई
पड़ता। अस्तित्व
को लुटाया जा
सकता है।
इसे हम दोत्तीन
तरह से समझने
की कोशिश
करें। जब आप
प्रसन्न होते
हैं,
आनंदित
होते हैं, तो
आपको खयाल भी
न होगा कि
आपका पूरा
व्यक्तित्व रेडिएट
करता है, आपका
पूरा
व्यक्तित्व
कुछ अस्तित्व
की किरणों को
अपने चारों
तरफ फेंकता
है। इसे आप एक छोटा
सा प्रयोग
करें तो समझ
में आ जाए। एक
अंधेरे कमरे
में बैठ जाएं।
एक मित्र को
सामने बिठा
लें अंधेरे
कमरे में, जो
आपको दिखाई न
पड़ता हो। और
एक छोटा सा
प्रयोग करें।
और वह प्रयोग
यह हो कि आप
सिर्फ शांत बैठ
कर यह अनुभव
करने की कोशिश
करें कि आपका
अंधेरे में
बैठा हुआ
मित्र इस समय
प्रसन्न है या
दुखी। और एक सात
दिन के प्रयोग
के भीतर आप
अंधेरे में भी
उन किरणों को पकड़ना
शुरू कर देंगे
जिनसे आप
तत्क्षण कह
सकेंगे बेचूक
कि इस वक्त
अंधेरे में
बैठा हुआ
मित्र प्रसन्न
है या दुखी।
अगर दुखी है
तो दुखी आदमी
आपके भीतर से
कुछ खींचता
है। इसलिए
दुखी आदमी के
पास कोई जाना
नहीं चाहता।
जाना पड़े तो
औपचारिक है।
लेकिन दुखी के
पास जाकर आप
भागना चाहते
हैं। जितनी
जल्दी छुटकारा
हो।
किसी
के घर कोई मर
गया हो तो आप
जाते हैं; एक
औपचारिकता
पूरी करनी है।
लेकिन वहां से
आप भागना
चाहते हैं। तो
जल्दी कोई
दो-चार बातें
औपचारिक करके,
सांत्वना
प्रकट करके कि
आत्मा अमर है,
घबड़ाओ मत, और आप
निकल भागते
हैं। वहां
बेचैनी होती
है, वहां
दम घुटती है।
वह दम क्यों
घुट रही है? वह दम इसलिए
घुट रही है कि
जहां भी कोई
दुखी हो, वह
आपके
अस्तित्व को
छीनता है। दुख
हिंसात्मक है,
और आपको
रिक्त करता
है। जबरदस्ती
आपसे कुछ घट जाता
है। इसलिए जब
आप वापस
लौटेंगे तो आप
घर आकर पाएंगे
कि थक गए।
अस्पताल
जाकर देखें; एक
पंद्रह मिनट
अस्पताल में
घूम कर लौटें।
और जैसे आपके
जीवन की ऊर्जा
को किसी ने
चूस लिया हो; खाली हो गए
हैं। डाक्टर,
नर्सेस कठोर हो
जाते हैं। अगर
कठोर न हों तो
वे मर जाएं।
कठोर होना
उनके जीवन की
रक्षा का उपाय
है। अगर वे आप
जैसे कोमल हों
तो चौबीस घंटे
दुखी लोग उनकी
जीवन-ऊर्जा को
खींच रहे हैं,
वे जिंदा
नहीं रह सकते।
इसलिए वे
उपेक्षा से भर
जाते हैं। वह
उपेक्षा उनका
कवच है। उस
कवच के माध्यम
से, एक
आदमी बीमार
पड़ा है, वह
कितना ही दुखी
हो, लेकिन
उसका दुख उनके
भीतर से कुछ
भी खींच नहीं
सकता। वे बहेंगे
नहीं, वे
अपने को
सम्हाले हैं।
इसलिए
बड़े मजे की
बात होती है। महामारियां
फैलती हैं।
कोई भी दूसरा
व्यक्ति
बीमार हो जाए।
संक्रामक
बीमारी
है--मलेरिया
है,
प्लेग है, हैजा है।
लेकिन डाक्टर
वहीं सैकड़ों
मलेरिया के
बीमार, सैकड़ों प्लेग के
बीमारों के
बीच काम करने
में लगा रहता
है, और उसे इनफेक्शन
नहीं पकड़ता।
न पकड़ने
का कारण है।
निरंतर के
अभ्यास से
दुखी आदमियों
के पास रह-रह
कर उसने वह
कवच निर्मित
कर लिया है
जिससे वे उसके
अस्तित्व को
नहीं खींच
पाते। और जब
तक आप कमजोर न
हों तब तक कोई इनफेक्शन
नहीं पकड़
सकता। जैसे ही
आपका
अस्तित्व
बहना शुरू
होता है, द्वार
खुल जाते हैं।
उन्हीं
द्वारों से
संक्रामक
बीमारियां
प्रवेश कर
सकती हैं।
दुखी
आदमी आपको
चूसता है।
इसलिए अगर लोग
आपसे दूर
भागते हों तो
समझना कि आप
दुखी हैं, और
कोई आपके पास
नहीं होना
चाहेगा।
अब ये
बड़े उपद्रव की
बातें हैं।
दुखी आदमी चाहता
है,
लोग मेरे
पास बैठें।
और दुखी आदमी
चाहता है, लोग
सहानुभूति
प्रकट करें।
और दुखी आदमी
चाहता है, कोई
मुझे छोड़े न।
और दुखी आदमी
पाता है कि
कोई उसके पास
नहीं बैठता; अपने भी दूर
भागते हैं। जो
प्रेम करते
हैं वे भी
औपचारिक
बातें करके और
किसी तरह बचना
चाहते हैं। और
जितना वे बचते
हैं, उतना
दुखी आदमी और
दुखी होता है।
जितना दुखी होता
है उतनी उसकी
मांग बढ़ती है
कि कोई मेरे
पास आओ। और
जितना वह दुखी
होता जाता है
उतना पास आना
मुश्किल होता
चला जाता है।
अगर आप पाते
हैं कि लोग
आपसे हटते हैं
तो समझना कि
आप दुखी हैं।
अगर आप पाते
हैं कि लोग
आपसे खिंचते
हैं, आपके
पास आते हैं, तो समझना कि
आप सुखी हैं।
सुख का वह
लक्षण है।
सुख एक मैगनेट
है। जब आप
सुखी होते हैं
तब कोई आपसे
खींचता नहीं, आप
बांटते हैं।
और यह फर्क
बड़ा बुनियादी
है। जब कोई
आपसे खींचता
है और
जबरदस्ती
आपकी जीवन-ऊर्जा
जाती है तो आप
थकते हैं। और
जब आप प्रफुल्लता
से बांटते हैं
तब आप बढ़ते
हैं, थकते
नहीं। वही काम
जबरदस्ती
करवाया जाए तो
पीड़ा लाता है,
और वही काम
आप अपनी
प्रसन्नता से
करें तो आनंद
लाता है। काम
वही है, भौतिक
तल पर कोई
अंतर नहीं है,
लेकिन मन के
तल पर बड़े
बुनियादी
फर्क हो जाते हैं।
यह जो
लाओत्से कहता
है,
इसलिए जो
सर्वाधिक
प्रेम करता है,
वह
सर्वाधिक
खर्च करता है।
वह बांटता है
अपने को, लुटाता
है, उलीचता
है। और जितना
अपने को
लुटाता है, जितना अपने
को उलीचता है,
उतना ही
पाता है कि
जीवन नए
स्रोतों से और
भी ज्यादा
समृद्ध हो
गया। कुएं की
भांति है आदमी
का
व्यक्तित्व।
उससे पानी निकालो,
नया पानी नए
झरनों से भर
जाता है। पानी
मत निकालो,
झरने
धीरे-धीरे बंद
हो जाते हैं।
और जो पानी था
वह सड़
जाता है, गंदा
हो जाता है, दुर्गंध
देने लगता है।
उलीचो कुएं को,
कुआं सदा
ताजा और नया
होता है।
जितना
ही कोई
व्यक्ति अपने
प्रेम को
उलीचता है
उतना ही पाता
है कि प्रेम
के नए झरने
खुल गए। धीरे-धीरे
वैसा व्यक्ति
प्रेम का सागर
हो जाता है।
उसे खाली करने
का कोई उपाय
नहीं। भय के
कारण जो लोग
अपने प्रेम को
सम्हाले रखते
हैं कि कहीं
कम न हो जाए, कहीं
बांटा, किसी
को दिया, तो
व्यय न हो जाए,
उन्हें
जीवन की अनंत
संपदा का कोई
पता नहीं। वे
क्षुद्र
संपत्ति से
परिचित हैं जो
खर्च करने से
घटती है। तिजोड़ी
में से कुछ भी
खर्च करिए तो
घटेगा, क्योंकि
तिजोड़ी
के पास कोई
सागर से जुड़े
हुए झरने नहीं
हैं। आदमी के
हृदय के पास
परमात्मा से
जुड़े हुए झरने
हैं। यहां लुटाओ,
वहां से भर
दिया जाता है।
"जो
बहुत संग्रह
करता है, वह
बहुत खोता है।'
जितना
ही कोई इकट्ठा
करता है वस्तुएं, धन,
उतना ही
अपने को खो
रहा है।
क्योंकि
बांटने की कला
वह भूल जाएगा;
संग्रह
करने की
व्यवस्था में
लुटाने की कला
भूल जाएगा। और
लुटाने से ही
कोई बढ़ता है।
यह खोना
वास्तविक
घटना है। इधर
आप जोड़ते
चले जाते हैं
तो आपको खयाल
में भी नहीं
आता कि आप कुछ
खो रहे हैं।
निकोडेमस, एक
अमीर युवक, एक रात जीसस
के पास गया।
रात में गया, क्योंकि दिन
में गांव के
लोग देख लें
और कोई अड़चन
की बात खड़ी हो
जाए, या
गांव के लोगों
के सामने जीसस
के पास जाना किसी
झंझट में डाल
सकता है। जीसस
से क्या बात हो,
जीसस क्या
कहें, उनका
क्या
प्रत्युत्तर
हो, उससे
भी अड़चन हो
सकती है।
इसलिए रात
अंधेरे में जब
कोई भी न था और
जीसस के शिष्य
जा चुके थे तब वह
जीसस के पास
गया। और उसने
कहा, मुझे
कुछ बताएं!
मैं भी स्वयं
को पाना चाहता
हूं, कोई
रास्ता! और
मैं भला आदमी
हूं। जो भी
नियम हैं समाज
के उनको मैं
पूरी तरह पालन
करता हूं।
चरित्र में
मेरे कोई कमी
नहीं है। धर्म
का जो भी क्रियाकांड
है, उसे
मैं निभाता
हूं। सब पर्व,
उत्सव
मंदिर पर
पहुंचता हूं।
पूजा-पाठ, जैसा
भी शास्त्रोचित
है, वह सब
मैंने किया
है।
तो ऐसे
मेरे जीवन में
कोई बुराई
नहीं है। फिर अब
मैं और क्या
करूं जिससे कि
मैं स्वयं को
पा सकूं? जीसस
ने कहा, इन
सब बातों से
कुछ भी न होगा;
यह सब धोखा
है। तुम एक
काम करो, तुम्हारे
पास जो भी है
तुम उसे बांट
कर आ जाओ। उस
युवक ने कहा, यह जरा
मुश्किल है।
कोई और रास्ता
नहीं है? जीसस
ने कहा कि जब
तक तुम्हारे
पास जो है, उसे
तुम बचाना
चाहते हो, तब
तक तुम स्वयं
को न पा
सकोगे।
यह
युवक सब कुछ
करने को राजी
है। नियम पूरे
पालन करता है।
मंदिर, पूजा-पाठ,
सब पूरे
करता है, जो
भी परंपरा ने
कहा है। लीक
पर चलता है, उसमें कहीं
कोई भूल-चूक
नहीं है। न
शराबघर जाता
है, न
वेश्याघर
जाता है। सब
तरह से, जिसको
हम कुलीन, सच्चरित्र,
सज्जन कहें,
वैसा
व्यक्ति है, जिसमें
भूल-चूक आप
नहीं निकाल
सकते। जिसमें
कोई दोष नहीं
है; जिस पर
कोई कलंक नहीं
है। गांव में
कोई एक व्यक्ति
नहीं कह सकता
कि इस पर कोई
दोष और कलंक
है। उससे भी
जीसस कहते हैं,
इस सबसे कुछ
भी न होगा। यह
सब बेकार है।
यह सब धोखा
है। तेरे पास
जो है, तू
उसको छोड़ कर आ
जा। सब छोड़ कर
आ जा।
यह
सवाल जीसस का
उठाना
महत्वपूर्ण
है। इससे आप
यह मत समझना
कि आप सब छोड़
दें तो आपको
आत्मा मिल
जाएगी। सब आप
नहीं छोड़ सकते
हैं। उस सबको पकड़ने का
यह जो इतना
आग्रह है, वस्तु
का इतना जो मूल्य
है, उसके
कारण आत्मा का
आपके जीवन में
कोई मूल्य नहीं
हो सकता। और
यह निकोडेमस
पूछ रहा है
आत्मा पाने की
बात; उसको
भी और संग्रह
में एक संग्रह
बना लेना चाहता
है। मेरे पास
धन भी है, पद
भी है, चरित्र
भी है, आत्मा
भी मेरे पास
है। वह भी
उसकी लंबी फेहरिस्त
में, उसकी
संपत्ति में,
उसके
स्वामित्व
में एक हिस्सा
बनाना चाहता है।
जीसस उसे सीधे
राह पर खड़ा कर
देते हैं कि
या तो तू यह सब
छोड़ दे। जीसस
ने निकोडेमस
से ही वह वचन
कहा है जो
बहुत
प्रसिद्ध हो
गया कि सुई के
छेद से ऊंट
भला निकल जाए,
लेकिन
स्वर्ग के
राज्य में धनी
आदमी प्रवेश न
कर सकेगा।
यह जो
धनी आदमी का
विरोध है, यह
धन का विरोध
नहीं है; यह
उसकी पकड़ का
विरोध है। इसे
हम ऐसा समझें
कि अगर हम
कहें कि एक
आदमी जो हाथ
में कंकड़-पत्थर
पकड़े हुए
है, यह कभी
भी अपने हाथ
में हीरे-मोती
न पकड़ सकेगा; बस ऐसा ही
मतलब है।
क्योंकि जब तक
यह कंकड़-पत्थर
पकड़े हुए
है तब तक इसे
एक तो
हीरे-मोती
दिखाई नहीं पड़
सकते; यह कंकड़-पत्थर
को हीरे-मोती
समझ रहा है, इसीलिए तो पकड़े हुए
है। और जब तक
इसके हाथ कंकड़-पत्थर
से भरे हैं और
खाली नहीं हैं
कि हीरे-मोती
को सम्हाल
सकें तब तक यह
उनको पकड़ेगा
कैसे? वस्तुओं
पर गहरी पकड़
इस बात की खबर
है कि आत्मा
का कोई भी स्वर
भी सुनाई नहीं
पड़ रहा है, उसका
जरा सा भी
स्वाद नहीं आ
रहा है। नहीं
तो यह पकड़ छूट
जाए। धन छूटे
या न छूटे, यह
बड़ा सवाल नहीं
है; पकड़
छूट जानी
चाहिए।
मैं
समझता हूं कि
अगर निकोडेमस
कहता कि अच्छा, मैं
जाता हूं, सब
लुटा कर आ
जाता हूं; तो
शायद जीसस ने
कहा होता, कोई
जरूरत नहीं।
लेकिन इतनी
हिम्मत निकोडेमस
नहीं जुटा
पाया।
क्योंकि कोई
बात न थी। अगर
जनक धन के बीच
रह कर और
आत्मा को पा
सकते हैं तो निकोडेमस
भी पा सकता
था। लेकिन
सवाल वह नहीं
था। निकोडेमस
ने कहा कि
नहीं, यह मुझसे
न हो सकेगा; कोई और
रास्ता बता
दें। वह तैयार
हो जाता तो मेरी
प्रतीति सदा
यह रही है कि
जीसस ने कहा
होता, तब
फिर कोई जरूरत
नहीं है। तब
धन जहां है
वहां है; तू
स्वयं की खोज
में लग सकता
है। तेरी कोई
पकड़ नहीं है, क्लिंगिंग
नहीं है।
"जो
बहुत संग्रह
करता है, वह
बहुत खोता है।
संतुष्ट आदमी
को
अप्रतिष्ठा नहीं
मिलती।'
जरा
मुश्किल होगी
समझने में।
क्योंकि
प्रतिष्ठा और
अप्रतिष्ठा
तो दूसरों से
मिलती है।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
"संतुष्ट
आदमी को
अप्रतिष्ठा
नहीं मिलती।'
इसका
अर्थ बड़ा और
है। लाओत्से
यह कह रहा है
कि तुम चाहे
उसे कितना ही
अप्रतिष्ठित
करो,
तुम उसे
अप्रतिष्ठित
नहीं कर सकते।
तुम्हारे हाथ
में कोई उपाय
ही नहीं है कि
तुम संतुष्ट आदमी
को
अप्रतिष्ठित
कर सको। तुम
उसे हिला नहीं
सकते; वह
जहां है वहां
से तुम उसे
रत्ती भर नीचे
नहीं उतार
सकते।
संतुष्ट का
मतलब ही यह है
कि कुछ भी हो
जाए, तुम
उसे असंतुष्ट
नहीं कर सकते।
और जिसको तुम असंतुष्ट
नहीं कर सकते
उसको
अप्रतिष्ठित
कैसे करोगे?
संतुष्ट
का अर्थ समझ
लें। जो भी है, वह
उससे राजी है;
और जो भी
नहीं है, उसकी
उसे आकांक्षा
नहीं है। अगर
उसे तुम अप्रतिष्ठित
कर दो तो वह
अप्रतिष्ठा
से राजी हो
जाएगा। तुम
उसे बदनाम करो,
वह बदनामी
से राजी हो
जाएगा। तुम
उसे गाली दो, वह गाली
स्वीकार कर
लेगा।
एक
कहानी मैं
निरंतर कहता
रहा हूं।
जापान के एक
गांव में एक
युवक
संन्यासी पर
आरोप है कि एक युवती
गर्भवती हो गई
है,
उसे बच्चा
हुआ है, और
उसने
संन्यासी का नाम
ले दिया। सारा
गांव इकट्ठा
हो गया। उस
लड़की के पिता
ने उस एक दिन
के बच्चे को
संन्यासी के ऊपर
लाकर रख दिया,
और कहा कि
सम्हालो, यह
बच्चा
तुम्हारा है!
उस संन्यासी
ने इतना ही
पूछा, इतना
ही कहा, इज़ इट सो? क्या
ऐसी बात है? और तब वह
बच्चा रोने
लगा तो वह
बच्चे को
समझाने में लग
गया। भीड़ उसके
झोपड़े
में आग लगा कर
वापस लौट गई।
सुबह-सुबह
यह घटना घटी।
और बच्चा रोने
लगा,
उसका रोना
बढ़ने लगा। वह
भूखा है और उस
बच्चे के लिए
दूध चाहिए। वह
संन्यासी भीख
मांगने गया।
उस गांव में
भिक्षा मिलना
अब मुश्किल
थी। प्रतिष्ठा
खो गई। कोई संन्यासी
को तो भिक्षा
देता नहीं था,
उसकी
प्रतिष्ठा को
देता था।
द्वार उसके
मुंह पर बंद
कर दिए गए।
बच्चे उसके
पीछे दौड़ रहे
हैं। सारे
गांव में
हंसी-मजाक चल
रहा है। ऐसा
कभी भी नहीं
हुआ था कि एक
संन्यासी एक
छोटे बच्चे को
लेकर गांव में
भीख मांगने
निकला हो। फिर
उसने उस घर के
दरवाजे पर भी
जाकर भीख
मांगी, जिसकी
लड़की का यह
बच्चा था। और
उसने कहा कि
मुझे मत दो, मैं भूखा रह
सकता हूं, लेकिन
यह बच्चा मर
जाएगा।
उस
बच्चे की मां
को होश आया।
वह अपने पिता
के चरणों पर
गिर पड़ी। और
उसने कहा कि
मैं झूठ बोली हूं; इस
बच्चे के असली
बाप को बचाने
के लिए मैंने
निर्दोष
संन्यासी का नाम
ले दिया।
मैंने यह नहीं
सोचा था कि
बात यहां तक
बढ़ जाएगी।
मैंने सोचा था,
संन्यासी
को परेशान
करके, गांव
से बाहर करके,
आप वापस लौट
आएंगे। लेकिन
यह बात ज्यादा
हो गई। और
संन्यासी ने
इनकार नहीं
किया, इससे
और मन में चुभती
है बात।
बाप
नीचे आया, बच्चे
को संन्यासी
के हाथ से
वापस लेने
लगा। उस
संन्यासी ने
पूछा, क्यों?
तो उसने कहा,
क्षमा करें,
यह बच्चा
आपका नहीं है।
उस संन्यासी
ने फिर उतने
ही शब्द कहे, इज़
इट सो? क्या
ऐसी बात है?
बस
इतना ही सुबह
भी बोला था
वह। और इतना
ही बाद में भी
बोला। न उसने
कहा कि बच्चा
मेरा है, न
उसने कहा कि
बच्चा मेरा
नहीं है। जो
स्थिति थी, उसके लिए
राजी हो गया।
ऐसे व्यक्ति
की अप्रतिष्ठा
नहीं हो सकती।
क्योंकि ऐसे
व्यक्ति को आप
कुछ भी करें, जैसी भी
स्थिति होगी,
वह उसे पूरी
तरह स्वीकार
करता है। उसकी
स्वीकृति
समग्र है।
"संतुष्ट
आदमी को
अप्रतिष्ठा
नहीं मिलती।'
इससे
उलटा भी सही
है। असंतुष्ट
आदमी कभी प्रतिष्ठित
नहीं होता।
उसे कुछ भी
मिल जाए, वह
कुछ भी पा ले, उसकी भूख
जरा भी कम
नहीं होती, उसकी प्यास
घटती नहीं, उसकी तृषा
का कोई अंत
नहीं है। उसकी
तृष्णा दुष्पूर
है।
"जो
जानता है कहां
रुकना है, उसे
कोई खतरा नहीं
है।'
और
संतुष्ट आदमी
का जीवन-सूत्र
यह है कि वह जानता
है कहां रुकना
है। उसे फिर
कोई खतरा नहीं
है। संतुष्ट
आदमी जानता है
कहां रुकना
है। आवश्यकता
उसकी सीमा है।
आवश्यकता
हमारी सीमा
नहीं है। आप
भोजन करने बैठे
हैं;
आपको कुछ भी
पक्का पता
नहीं चलता, कहां रुकना
है। शरीर की
कितनी जरूरत
है, उससे
आप भोजन नहीं
करते; स्वाद
की कितनी मांग
है, उससे
भोजन चलता है।
स्वाद का कोई
अंत नहीं है, स्वाद की
कोई सीमा नहीं
है। और स्वाद
पेट से पूछता
ही नहीं कि
कहां रुकना
है। स्वाद पागल
है, उस पर
कोई नियंत्रण
नहीं है।
आवश्यकताएं
जरूरी हैं, वासनाएं
जरूरी नहीं
हैं।
आवश्यकता और
वासना में
इतना ही फर्क
है। आवश्यकता
उस सीमा का
नाम है जितना
जीवन के
लिए--श्वास
चले, शरीर
चले, और
खोज चलती रहे
आत्मा
की--उतने के
लिए जो काफी है।
उससे ज्यादा
विक्षिप्तता
है। उससे
ज्यादा का कोई
अर्थ नहीं है।
फिर उस दौड़ का
कोई अंत भी
नहीं हो सकता।
आवश्यकता की
तो सीमा आ
सकती है, लेकिन
वासना की कोई
सीमा नहीं आ
सकती। सीमा का
कोई कारण ही
नहीं, क्योंकि
वह मन का खेल
है। कहां रुकें?
मन कहीं भी
नहीं रुकता।
लाओत्से
कहता है, "जो जानता
है कहां रुकना
है, उसे
कोई खतरा नहीं
है।'
खतरा
उसी जगह शुरू
होता है जहां
हमें पता नहीं
चलता, कहां रुकें। धनपतियों
को देखें। धन
उस जगह पहुंच
गया है जहां
उन्हें अब
उसकी कोई भी
जरूरत नहीं है,
लेकिन रुक
नहीं सकते।
शायद अब उनके
पास जो धन है
उससे वे कुछ
खरीद भी नहीं
सकते।
क्योंकि जो भी
खरीदा जा सकता
था वे खरीद
चुके। अब धन
का उनके लिए
कोई भी मूल्य
नहीं है। धन
का मूल्य कम
होता जाता है,
जैसे-जैसे
धन बढ़ता है।
आपके पास एक
लाख रुपए हैं
तो मूल्य
ज्यादा है, एक करोड़
होंगे तो
मूल्य कम हो
जाएगा।
क्योंकि अब आप
कम चीजें खरीद
सकते हैं; चीजें
नहीं बचतीं
जिनको आप
खरीदें। फिर
दस करोड़
हो जाते हैं
तो धन बिलकुल
फिजूल होने
लगता है। फिर
दस अरब हो
जाते हैं। तो
दस अरब के ऊपर
जो धन आप
इकट्ठा कर रहे
हैं, वह
बिलकुल कागज
है। उसका कोई
भी मूल्य नहीं
है। क्योंकि
उस धन का
मूल्य ही है
कि उससे कुछ
खरीदा जा सके।
अब आपके पास
खरीदने को भी कुछ
नहीं है। जमीन
के पास आपको
बेचने को कुछ
नहीं है। मगर
दौड़ जारी रहती
है। वह मन दौड़ता
चला जाता है।
वह किसी
आवश्यकता को,
किसी सीमा
को नहीं
मानता। मन
विक्षिप्त
है।
"जो
जानता है कहां
रुकना है, उसे
कोई खतरा नहीं
है।'
खतरा
तो वहीं आता
है जब हमें
रुकने के
संकेत सुनाई
नहीं पड़ते, और
हम बढ़ते ही
चले जाते हैं।
जरूरत पूरी हो
जाती है और हम
बढ़ते चले जाते
हैं। खतरे का
मतलब यह है कि
अब हम खो गए
पागलपन में, अब इससे
लौटना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। और अगर
आप लौटना
चाहेंगे तो
आपको खोजना
पड़ेगा वह
स्थान जहां
आपकी
आवश्यकता
समाप्त हो गई
थी, फिर भी
आप दौड़ते चले
गए। अपनी
आवश्यकता पर
लौट आना
संन्यास है।
अपनी
आवश्यकता को
भूल कर बढ़ते
चले जाना
संसार है।
"जो
जानता है कहां
रुकना है, उसे
कोई खतरा नहीं
है। वह
दीर्घजीवी हो
सकता है।'
उसका
यह छोटा सा जीवन
भी फिर छोटा
नहीं है; उसका
यह छोटा सा
जीवन भी काफी
है। इस छोटे
से जीवन में
भी वह वह सब
जान सकता है
जिसके लिए जीवन
अवसर है। इस
शरीर के साथ
जो थोड़े से
दिनों का संबंध
है, इस
संबंध में वह
उस सबको पहचान
लेगा जो अमृत
है, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं है।
लेकिन यह वही
आदमी कर पाएगा,
यह दीर्घ
जीवन उसका ही
हो पाएगा, जो
आवश्यकता पर
रुक गया। और
जो आवश्यकता
पर नहीं रुका,
उसका तो
जीवन अल्प है।
क्योंकि
वासनाएं इतनी हैं,
और समय इतना
कम है। अरबों
तक दौड़ है मन
की और जीवन
छोटा है। और
यह जीवन इस
दौड़ में ही
व्यय हो जाता
है।
जीवन
काफी है। इसे
अगर ठीक से
समझें तो एक
सौ साल का जीवन
पर्याप्त
जीवन हो सकता
है। सत्तर साल
का जीवन बहुत
है। उससे
ज्यादा की कोई
जरूरत नहीं है।
अगर कोई
व्यक्ति सम्यकरूपेण
चले,
सीमा पर
रुकना जाने, व्यर्थ के
साथ न दौड़े, आवश्यक पर
ठहर जाए और
संतुष्ट हो, तो सत्तर
साल का जीवन
काफी है। कोई
सात करोड़
जन्म लेकर
मुक्त होने की
जरूरत नहीं
है। नहीं तो
सात करोड़
जन्म भी कम
हैं। क्योंकि
हर बार वही
दौड़ शुरू हो
जाती है। जो
करने योग्य है
वह हो ही नहीं
पाता और जो न
करने योग्य है
उसमें जीवन
व्यर्थ हो
जाता है। जो
सार है वह हाथ
में आ ही नहीं
पाता और असार
में हम दौड़ कर
समाप्त हो जाते
हैं।
एक
यूनानी कथा
मैंने सुनी
है। एक बहुत
तेज दौड़ने
वाला देवता
था। उसकी जैसी
गति किसी की
भी नहीं थी।
और एक दूसरे
देवता से शर्तबंदी
हो गई। उस
दूसरे देवता
ने कहा कि तुम
मेरे मुकाबले
दौड़ न पाओगे।
दूसरा देवता
होशियार था, और
जीवन के कुछ
सूत्रों को
जानता था। वह
पहला देवता
हंसा, और
उसने कहा कि
मुझसे तेज
दौड़ने वाला
कोई है ही
नहीं। दौड़
हुई। दूसरे
देवता ने एक
काम किया।
उसने रास्ते
पर, जहां
यह
प्रतियोगिता
होने वाली थी,
सोने की ईंटें
पूरे रास्ते
पर डाल दीं।
दौड़
शुरू हुई। पहला
देवता जानता
है कि दुनिया
में कोई उससे
तेज दौड़ने
वाला नहीं है।
और जब उसे
सोने की ईंटें
चारों तरफ पड़ी
दिखाई पड़ने
लगीं तो उसने
कहा कि थोड़ी ईंटें उठा
लेने में हर्ज
नहीं है, और
फिर मैं कभी
भी मिला
लूंगा। एक ईंट
उठाई, तब
तक दूसरा
देवता आगे
निकल गया। पर
उसने फिर उसे
पार कर लिया।
पर ईंटें
पूरे रास्ते
पर थीं। और
ईंटों का बोझ
बढ़ने लगा। और
जो उठा ली थीं, उनको
छोड़ना
मुश्किल।
आपको भी
मुश्किल, उसको
भी मुश्किल।
और ईंटें
पड़ी ही थीं।
और मोह भी
नहीं छूटता
था। तो वह उठाता
भी गया, दौड़ता भी गया।
बहुत बार वह
दूसरे देवता
से आगे निकल
आता, लेकिन
फिर ईंटें
उठाने लगता।
और ईंटें
बढ़ती गईं, और
अंतिम क्षण
में वह हार
गया।
बाद
में यह पता
चला कि जिस
देवता से वह
हार गया है वह
सबसे धीमा
दौड़ने वाला
देवता है। वे
दोनों दो छोर
थे--एक सबसे
ज्यादा दौड़ने
वाला, एक सबसे
कम दौड़ने
वाला। लेकिन
कम, धीमा
दौड़ने वाला
जीत गया। उसने
संसारी मन की
एक तरकीब का
उपयोग कर
लिया।
जहां
पहुंचना है, उसके
लिए तो जीवन
काफी है, दौड़
काफी है।
जितनी दौड़
चाहिए उतनी
आपके पास है।
लेकिन रास्ते
पर बहुत सोने
की ईंटें
हैं, बड़े
प्रलोभन हैं।
और रास्ते से
बहुत सी पगडंडियां
निकलती हैं जो
व्यर्थ
जंगलों में
भटका ले जाती
हैं। लेकिन उन
पगडंडियों पर
सब पर
स्वर्ण-द्वार
हैं, बड़ी
मोहक हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"जो जानता
है कहां रुकना
है, उसे
कोई खतरा नहीं
है। वह
दीर्घजीवी हो
सकता है।'
यह
छोटा सा जीवन
भी उसके लिए
पर्याप्त है।
और जो जानता
नहीं कहां
रुकना है, उसके
लिए कितने ही
जीवन
अपर्याप्त
होंगे।
इस
पूरे सूत्र का
सार-अंश मन
में रख लें:
निजता का
मूल्य है। और
जो भी करें, वह
मेरी निजता
बढ़ती हो, मेरी
आत्मा बढ़ती हो,
मेरा
अस्तित्व सघन
होता हो, उसे
ध्यान में रख
कर करें। और
जिससे भी यह
अस्तित्व
खतरे में पड़ता
हो, खोता
हो, क्षीण
होता हो, उससे
बचें, उससे
रुकें।
और ध्यान रखें,
कहां रुक
जाना है। सुयश
की नहीं, प्रतिष्ठा
की नहीं, महत्वाकांक्षा
की नहीं, अपने
होने की, अपने
अस्तित्व के
आनंद की खोज; इन थोड़े से
शब्दों में
पूरी की जा
सकती है। दूसरे
क्या कहते हैं,
यह
मूल्यवान
नहीं; आप
क्या हैं, यही
मूल्यवान है।
क्या आपके पास
है, यह
मूल्यवान
नहीं; जो
भी आपके पास
है उसमें आप
संतुष्ट हैं,
यह
मूल्यवान है।
क्या मिल
जाएगा, तब
आप संतुष्ट
होंगे, यह
बात फिजूल है।
जो मिल गया है
अगर आप उसमें
संतुष्ट हैं
तो ही आप
निजता को उपलब्ध
हो पाएंगे।
प्रेम
आनंद बांटता
है। और जितना
बांट सकें, उलीच
सकें स्वयं को,
उतनी ही
आपकी सत्ता
समृद्ध होती
है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें