ध्यान
योग शिविर,
मांउट
आबू, राजस्थान।
सूत्र:
यस्तु
सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु
चात्मान ततो न
विजुगुप्सते।।
6।।
जो
संपूर्ण
भूतों को
आत्मा में ही
देखता है और
समस्त भूतों
में भी
आत्मा
को ही देखता
है,
वह इसके
कारण ही किसी
से घृणा नहीं
करता।।
6।।
मनुष्य
की गहरी से
गहरी उलझनों
में घृणा
आधारभूत है।
कहें कि घृणा
का जहर ही
मनुष्य की और
समस्त विषाक्त
अभिव्यक्तियों
में प्रगट
होता है।
घृणा
का अर्थ है.
दूसरे के
विनाश की
आतुरता।
प्रेम का अर्थ
है : दूसरे के
जीवन की
आकांक्षा।
घृणा का अर्थ
है दूसरे की
मृत्यु की
आकांक्षा।
प्रेम का अर्थ
है,
जरूरत पड़े
तो दूसरे के लिए
स्वयं को
समाप्त कर
देने की
तैयारी। घृणा
का अर्थ है :
जरूरत न भी
पड़े तो भी
स्वयं के लिए
दूसरे को
समाप्त कर
लेने की
तैयारी।
और
हम सब जैसे
जीते हैं
उसमें प्रेम
का कोई स्वर
नहीं होता, घृणा
का ही विस्तार
होता है।
वस्तुत: तो
जिसे हम प्रेम
कहते हैं, वह
भी हमारी घृणा
का ही एक रूप
होता है। हम
प्रेम में भी
दूसरे को साधन
बना लेते हैं।
और जब भी कोई
दूसरे को साधन
बनाता है, तभी
घृणा शुरू हो
जाती है। हम
प्रेम में भी
अपने लिए जीते
हैं। और अगर
दूसरे के लिए
कुछ करते हुए
मालूम पड़ते हैं,
तो सिर्फ
इसलिए कि उससे
हमें कुछ मिलने
को है। दूसरे
के लिए हम कुछ
करते हैं तभी,
जब उससे कुछ
मिलने की आशा,
फल की
आकांक्षा
होती है।
अन्यथा हम
नहीं करते हैं।
इसीलिए
हमारा प्रेम
किसी भी क्षण
घृणा बन सकता
है। बन जाता
है। घड़ीभर
पहले जिसे
हमने प्रेम
किया था, घड़ीभर
बाद वही प्रेम
घृणा बन सकता
है। जरा सी
हमारी
आकांक्षा में
बाधा पड़ी कि
प्रेम घृणा
में
रूपांतरित
हुआ। जो प्रेम
घृणा में बदल
सकता है, वह
घृणा का ही
छिपा हुआ रूप
है। भीतर घृणा
ही है, ऊपर
आवरण है प्रेम
का।
ईशावास्य
एक बहुत
बहुमूल्य
सूत्र की बात
कर रहा है। वह
सूत्र यह है —
और तभी प्रेम
संभव है, अन्यथा
प्रेम संभव
नहीं है; तभी
प्रेम का फूल
खिल सकता है; इस सूत्र के
अतिरिक्त
प्रेम के फूल
की कोई संभावना
नहीं है — वह
सूत्र यह है
कि जब कोई
व्यक्ति
समस्त भूतों
में स्वयं को
देखने लगता है
और स्वयं में
समस्त भूतों
को देखने लगता
है, तभी
घृणा का अंत
होता है।
ध्यान
रहे,
ईशावास्य
यह नहीं कहता
कि तभी प्रेम
का जन्म होता
है। कहता है, तभी घृणा का
अंत होता है।
ऐसा कहने का
बहुत
सुविचारित
कारण है।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
प्रेम के जन्म
में सिवाय
घृणा की
मौजूदगी के और
कोई बाधा नहीं
है। घृणा न हो
तो प्रेम
खिलता है अपने
आप। वह
स्पाटेनियस
है,
वह सहज
खिलता है। उसे
खिलाने के लिए
फिर और कुछ
करना नहीं
पड़ता। ठीक ऐसे
ही जैसे किसी
झरने के ऊपर
एक पत्थर रखा
हो और हम
पत्थर को हटा
लें और झरना
फूट पड़े। ऐसे
ही घृणा का
पत्थर हमारे
ऊपर है।
घृणा
के पत्थर का
क्या अर्थ
होगा? हम
दूसरों में
स्वयं को नहीं
देख पाते और
स्वयं में
दूसरों को भी
नहीं देख पाते।
न तो हमें
दिखाई पड़ता है
कि समस्त
भूतों में हमारी
ही छवि है और न
हमें यह दिखाई
पड़ता है कि समस्त
भूत हम में भी
छविमान हैं। न
तो समस्त भूत
हमारे लिए
दर्पण बन पाते
हैं कि हम
अपने चेहरे को
उनमें देखें।
और न ही हम
दर्पण बन पाते
हैं कि समस्त
भूतों का
चेहरा हममें
प्रतिफलित हो
जाए। ये दोनों
घटनाएं एक साथ
घटती हैं। जो
व्यक्ति
समस्त भूतों
में, समस्त
प्राणियों
में, समस्त
अस्तित्व में
अपने को देख
लेगा, वह
प्राणी
अनिवार्यत:
सबको अपने में
भी देख पाएगा।
जिसके लिए जगत
दर्पण बन
जाएगा, वह
स्वयं भी जगत
के लिए दर्पण
बन जाता है।
यह घटना एक ही
साथ घटती है।
एक ही घटना के
दो पहलू हैं।
और
उपनिषद कहता
है कि ऐसा
होते ही घृणा
गिर जाती है।
तो
फिर क्या पैदा
होता है? अब
प्रेम पैदा
होता है, ऐसा
उपनिषद ने
नहीं कहा है।
क्योंकि
प्रेम शाश्वत
है, वह
हमारा स्वभाव
है। वह न तो
पैदा होता है,
न मरता है।
जैसे, वर्षा
के दिन हैं और
आकाश में बादल
घिर गए हैं, सूरज ढंक
गया। तो क्या
हम यह कहेंगे
कि जब बादल हट
जाएंगे तो सूरज
पैदा होगा? नहीं, तब
हम इतना ही
कहेंगे कि
बादल हट
जाएंगे तो सूरज
तो सदा था, प्रगट
होगा। बादल जब
आ गए हैं तब भी
सूरज नष्ट
नहीं हो गया है,
सिर्फ दब
गया, आच्छादित
हो गया। दिखाई
नहीं पड़ता, छिप गया, आडू
में हो गया।
बादल हट
जाएंगे, सूरज
प्रगट हो
जाएगा।
बादलों का
जन्म होता है
और बादलों की
मृत्यु होती
है — सूरज सदा
है। उसका न कोई
जन्म होता है,
न मृत्यु
होती है।
प्रेम
है जीवन का
स्वभाव, इसलिए
प्रेम का कोई
जन्म नहीं है,
कोई मृत्यु
नहीं है। घृणा
के बादल
जन्मते हैं और
मरते हैं।
जन्म जाते हैं
तो प्रेम
आच्छादित हो
जाता है।
विसर्जित हो
जाते हैं, मर
जाते हैं, तो
प्रेम प्रगट
हो जाता है।
लेकिन प्रेम
शाश्वत है।
इसलिए प्रेम
के जन्मने की
बात उपनिषद
नहीं कर रहा
है। उपनिषद कह
रहा है, बस
घृणा मर जाती
है, घृणा
गिर जाती है।
पर
कैसे?
सूत्र
तो सरल दिखाई
पड़ता है, इतना
सरल नहीं है।
बहुत बार जो
चीजें बहुत
कठिन दिखाई
पड़ती हैं, कठिन
नहीं होती हैं।
बहुत बार जो
चीजें बहुत
सरल दिखाई
पड़ती हैं, सरल
नहीं होती हैं।
अधिकांशत: तो
सरलता के भीतर
बहुत गहराई
होती है और
बहुत जटिलता
होती है।
अब
यह सूत्र सीधा
सा है। दो
पंक्तियों
में पूरा हो
गया है कि
जिसे समस्त
भूतों में
स्वयं का
दर्शन हो जाए, या
समस्त भूतों
का दर्शन स्वयं
में होने लगे,
उसकी घृणा
नष्ट हो जाती
है। लेकिन
सबको दर्पण
बना लेना या
सबके लिए
स्वयं दर्पण
बन जाना, सबसे
बड़ी कीमिया और
कला है। उससे
बड़ी कोई आर्ट
नहीं।
सुनी
है मैंने एक
छोटी सी कहानी, वह
मैं आपसे कहूं।
सुना है मैंने
कि एक ईरानी
बादशाह के
दरबार में एक
चीनी
चित्रकार ने
निवेदन किया
कि मैं चीन से
आया हूं। बहुत
बड़ी कला का
धनी हूं।
चित्र बना
सकता हूं ऐसे,
जैसे कि
आपने कभी न
देखे हों।
सम्राट ने कहा,
जरूर बनाओ।
लेकिन हमारे
दरबार में
चित्रकारों
की कमी नहीं
है और बहुत
अनूठे चित्र
मैंने देखे
हैं। उस चीनी
चित्रकार ने
कहा तो मैं
प्रतियोगिता
के लिए भी
तैयार हूं।
जो
श्रेष्ठतम
कलाकार था
सम्राट के
दरबार का, वह
प्रतियोगिता
के लिए चुना
गया। और
सम्राट ने
कहाकि पूरी
शक्ति लगाना
है, यह
साम्राज्य की
प्रतिष्ठा का
सवाल है। एक
परदेशी
तुम्हें हरा न
जाए। छह महीने
का उन्हें समय
मिला था।
ईरानी
चित्रकार बड़ी
मेहनत में लग
गया। दस—बीस
सहयोगियों को
लेकर उसने एक
भवन की पूरी
दीवार को
चित्रों से भर
डाला। उसकी
मेहनत की खबर
दूर—दूर तक
पहुंच गई। लोग
दूर—दूर से
उसकी मेहनत को
देखने आने लगे।
लेकिन उससे भी
ज्यादा
चमत्कार: की
बात तो यह थी
कि वह चीनी
चित्रकार ने
कहा कि मुझे
किसी उपकरण की
जरूरत नहीं और
न रंगों की कोई
जरूरत है।
सिर्फ मेरा
इतना ही आग्रह
है कि जब तक
चित्र पूरा न
बन जाए तब तक
मेरी दीवार के
सामने से पर्दा
नहीं उठाया जा
सके।
वह
रोज अपने
पर्दे के पीछे
चला जाता।
सांझ को थका—मादा
लौटता, माथे
पर पसीने की
बूंदें होतीं।
लेकिन बड़ी
कठिनाई और बड़ी
हैरानी और बड़ी
अचंभे की बात
यह थी कि वह न
तो तूलिका ले
जाता, न
रंग ले जाता
पर्दे के पीछे।
उसके हाथों
में रंग के
कोई निशान न
होते। उसके
कपड़ों पर रंग
के कोई दाग न
होते। उसके
हाथ में कोई
तूलिका न होती।
सम्राट को शक
होने लगा कि
वह पागल तो
नहीं है! क्योंकि
प्रतियोगिता
होगी कैसे? लेकिन छह
महीने
प्रतीक्षा
करनी जरूरी थी।
शर्त पूरी
करनी जरूरी थी।
छह
महीने बडी
मुश्किल से
कटे। दूर—दूर
तक ईरानी
चित्रकार के
चित्रों की
खबर पहुंवी।
साथ ही यह खबर
भी पहुंची कि
एक पागल
प्रतियोगी भी
है,
जो बिना
किसी रंग के
प्रतियोगिता
कर रहा है। छह
महीने लोग ऐसी
आतुरता से
प्रतीक्षा
किए कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं। वह छह
महीने बाद
पर्दा उठने को
था।
सम्राट
गया। ईरानी
चित्रकार के
चित्र देखकर
वह दंग हो गया।
बहुत चित्र
उसने जीवन में
देखे थे।
लेकिन नहीं, ऐसा
श्रम शायद ही
कभी किया गया
हो! फिर उसने
चीनी
चित्रकार से
कहा। चीनी
चित्रकार ने
अपनी दीवार के
सामने का पर्दा
हटा दिया।
सम्राट तो
बहुत हैरान हो
गया। ठीक वही
चित्र! जो
ईरानी
चित्रकार ने
बनाया था, वही
चित्र चीनी
चित्रकार ने
भी बनाया था।
पर एक और खूबी
थी कि वह
चित्र दीवार
के ऊपर नहीं, दीवार के
भीतर बीस फीट
अंदर दिखाई
पड़ता था।
सम्राट ने
पूछा, तुमने
किया क्या है!
क्या जादू है?
उसने
कहा,
मैंने कुछ
किया नहीं।
मैं सिर्फ
दर्पण बनाने
में कुशल हूं।
तो मैंने
दीवार को दर्पण
बनाया। वह छह
महीने दीवार
को घिस—घिसकर
मैंने दर्पण
बनाया। और जो
चित्र आप देख
रहे हैं दीवार
में, वह तो
ईरानी
चित्रकार का
ही है सामने
की दीवार पर।
मैंने सिर्फ
दीवार दर्पण
बनाई है।
जीत
गया वह
प्रतियोगिता।
क्योंकि
दर्पण में
झलककर वही
ईरानी चित्र
इतना गहरा हो उठा, जैसा
वह खुद स्वयं
में नहीं था।
क्योंकि
ईरानी चित्र
तो दीवार के
ऊपर था। दर्पण
में जाकर वह
भीतर गहरे हो
गया। डेप्थ, थी
डायमेंशनल हो
गया। ईरानी
चित्र तो टू
डायमेंशन में
था, दो
आयाम में था।
उसमें गहराई न
थी। चीनी
चित्रकार का
चित्र तीन
डायमेंशन में
हो गया, उसमें
गहराई भी थी।
सम्राट
ने कहा कि
तुमने पहले
क्यों न कहा
कि तुम सिर्फ
दर्पण बनाना
जानते हो! उस
चीनी चित्रकार
ने कहा कि मैं
कोई चित्रकार
नहीं हूं फकीर
हूं। उसने कहा, और
मजे की बात है।
पहले तुमने यह
न बताया कि
तुम दर्पण
बनाते हो, अब
तुम बताते हो
कि तुम फकीर
हो! तो फकीर को
दर्पण बनाने
से क्या प्रयोजन?
उस चीनी
चित्रकार ने
कहा कि मैंने
अपने को दर्पण
बनाकर जो
चित्र देखा
जगत का, तब
से मैं दर्पण
ही बनाता हूं।
जैसे इस दीवार
को मैंने घिस—घिसकर
दर्पण कर दिया
है, ऐसे ही
मैंने अपने को
घिस—घिसकर भी
दर्पण कर लिया
है। और मैंने
इस जगत की जो
सुंदर
प्रतिमा फिर
अपने में देखी
है, वैसी
बाहर कहीं भी
नहीं है।
लेकिन जिस दिन
मैं दर्पण बन
गया, उस
दिन मैंने
सारे जगत को
अपने में
समाया हुआ देखा
और जाना। सब
भूत मेरे भीतर
समा गए।
जिस
दिन हमारा
हृदय दर्पण की
तरह बनता है, उस
दिन हम प्रभु
को देख पाते
हैं, समग्रीभूत
अपने ही भीतर।
और जिस दिन हम
यह देख पाते
हैं, उसी
दिन सारा जगत
भी दर्पण बन
जाता है। फिर
हम अपने को भी
प्रतिपल सब
जगह देख पाते
हैं। लेकिन
जगत को दर्पण
नहीं बनाया जा
सकता। बनाया
तो जा सकता है
दर्पण स्वयं
को ही। इसलिए
यात्री
— साधना का
यात्री — अपने
को ही दर्पण
बनाने से शुरू
करता है।
अपने
को दर्पण
बनाने की
कीमिया और कला
— तीन बातें
समझ लेनी
चाहिए।
एक, शायद
दर्पण बनाना
कहना ठीक नहीं
है, दर्पण
हम हैं, लेकिन
धूल से दबे
हुए हैं। सब
धूल झाड़नी—पोंछनी
और साफ कर
देनी है।
दर्पण पर धूल
जम जाए तो धूल
से भरा दर्पण
दर्पण नहीं रह
जाता। फिर वह
किसी चीज को
प्रतिफलित
नहीं करता।
उसका
प्रतिफलन मर
जाता है, धूल
से दब जाए तो।
हम
भी धूल से दबे
हुए दर्पण हैं।
धूल भी हमारी
अर्जित की हुई
है। राह चलते
जैसे धूल
इकट्ठी हो जाए
दर्पण पर, ऐसे
ही जीवन चलते,
राह चलते
जीवन की, अनंत—अनंत
जीवन में
यात्रा करते,
न मालूम
कितने—कितने
मार्गों पर, न मालूम
कितने कर्मों
और कर्ताओं के
होने की वासना
में, न
मालूम कितनी
धूल हम इकट्ठी
कर लेते हैं।
कर्म की धूल
है, कर्ता की
धूल है, अहंता
की धूल है।
विचारों की, वासनाओं की,
वृत्तियों
की धूल है। वह
बड़ी गहरी धूल
की पर्त हमारे
ऊपर है। उसे
हटा देने की
बात है। वह हट
जाए तो हम
दर्पण हैं। और
जो स्वयं
दर्पण है उसके
लिए सब दर्पण
जैसा हो जाता
है। क्यों?
क्योंकि
एक और गहरा
सूत्र खयाल
में ले लेना
चाहिए कि जो
हम हैं, वही
हमें चारों
तरफ दिखाई
पड़ता है। हम
वही देखते हैं,
जो हम हैं, उससे अन्यथा
कभी भी नहीं
देखते। जो
हमें बाहर
दिखाई पड़ता है,
वह हमारा ही
प्रोजेक्यान
है, वह
हमारा ही
प्रक्षेपण है।
वह हम ही हैं।
वह हमारी ही
शकल है। इसलिए
अगर बाहर बुरा
दिखाई पड़ता है,
तो जानना कि
कहीं भीतर बुरे
का बीज है।
बाहर अगर
कुरूपता
दिखाई पड़ती है,
तो जानना कि
कोई अग्लीनेस,
कोई
कुरूपता भीतर
जड़ जमाकर बैठी
है। बाहर अगर
बेईमानी
दिखाई पड़ती है,
तो जानना कि
बेईमान कहीं
भीतर है।
प्रोजेक्टर
भीतर है, बाहर
तो पर्दा है।
उस पर हम
प्रोजेक्ट
करते चले जाते
हैं। जो हमारे
भीतर है, हम
फैलाए चले
जाते हैं।
अगर
बाहर
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता, तो उसका
मतलब सिर्फ
इतना ही है कि
भीतर हमारे परमात्मा
जैसा हमें कुछ
भी अनुभव नहीं
होता है। जिसे
भीतर
परमात्मा
अनुभव होता है,
उसी क्षण
उसे सब जगह
परमात्मा
अनुभव होने
लगता है। फिर
कोई उपाय नहीं
है। फिर उसे
पत्थर में भी
परमात्मा है।
अभी हमें
परमात्मा में
भी पत्थर
दिखाई पड़ता है।
मेटिरियलिस्ट
जिसे हम कहते
हैं,
पदार्थवादी
जिसे कहते हैं,
उसका कोई और
मतलब नहीं है
मेरे लिए —
जिसके भीतर
हृदय में
पत्थर है, वह
मेटिरियलिस्ट
है। जिसके
भीतर हृदय
पत्थर जैसा है,
उसे सारे
जगत में
पदार्थ दिखाई
पड़ता है।
जिसको
अध्यात्मवादी
हम कहें, स्यिचुअलिस्ट
कहें, मेरे
लिए वही है
आदमी, जिसके
भीतर हृदय
पत्थर जैसा
नहीं है, हृदय
जैसा ही है —
धड़कता हुआ, जीवंत, प्राणवान।
वैज्ञानिक
कहेगा कि वह
हमारे भीतर जो
हृदय धड़क रहा
है,
वहां हृदय
जैसा कुछ भी
नहीं है।
फेफड़ा है, फुस्फुस।
पंपिंग
सिस्टम से
ज्यादा कुछ भी
नहीं है। जिस
हृदय की हम
बात करते हैं,
वैज्ञानिक
कहेगा, हम
बहुत काट—पीट
करके देखते
हैं, लेकिन
वहां हम सिर्फ
एक पंपिंग
सिस्टम, जो
सिर्फ वायु के
दबाव को डालकर
खून को शरीर में
चलाती रहती है।
इससे ज्यादा
वहां कुछ भी
नहीं है। अगर
यह सच है, तो
फिर बाहर के
जगत में कभी
भी जीवन और
चेतना का कोई
अनुभव नहीं हो
सकेगा। अगर
भीतर से खून
के दबाव को
डालने वाला
हृदय एक यंत्र
है, तो
बाहर भी एक
यांत्रिक
विस्तार होगा —
बस। जगत एक
यांत्रिकता
होगी। पदार्थ।
पत्थर ही रह
जाएंगे बाहर।
नहीं, लेकिन
भीतर जाने के
और भी उपाय
हैं।
वैज्ञानिक का
उपाय अकेला
उपाय होता तो
बड़ी मुश्किल
हो जाती। फिर
वैज्ञानिक
जीत गया होता।
वह जीत नहीं
सकता। उसकी
हार
सुनिश्चित है।
देर—अबेर हो
सकती है।
क्योंकि भीतर
जाने के और
उपाय भी हैं।
अब जैसे कि
कोई वीणा को
बजाए! लेकिन
वीणा को जानने
का एक और उपाय
भी है कि वीणा
को तोड़—फोड़
करके कोई भीतर
देखे। सब तार
उखाड़ दे, वीणा
को तोड़कर
टुकड़े—टुकड़े
कर दे और फिर
भीतर झांके और
कहे कि संगीत
बिलकुल नहीं
है! कोन कहता
था? यह
वीणा सामने
रखी है खंड—खंड,
विश्लिष्ट।
कहीं उसमें
कोई संगीत
नहीं है।
अगर
यह एक ही
रास्ता होता
वीणा को जानने
का,
तो
संगीतज्ञ हार
चुका था।
लेकिन 'वीणा
को एक जानने
का और भी
रास्ता है।
निश्चित ही वह
कठिन है।
क्योंकि वीणा
को तोड़ना बहुत
आसान है, वीणा
को बजाना बहुत
कठिन है।
बजाकर भी वीणा
के हृदय में जो।
छिपा है, वह
जाना जाता है।
निश्चित ही वह
इतना सूक्ष्म
है कि पकड़ में
नहीं आता। और न
हो, सिर्फ
बुद्धि की ही
समझ हो, तो
फिर सुनाई भी
पड़ जाए तो भी
समझ में नहीं
आता। क्योंकि
संगीत सिर्फ
उन्हें समझ
में आ जाता हो
जो सुन लेते
हैं, तो वे
गलती में हैं।
सुनने भर से
सिर्फ
ध्वनियां समझ
में आती हैं —
आवाज, शोरगुल।
संगीत सुनने
से कुछ ज्यादा
है। उस सुनने
में कुछ और भी
जोड़ना पड़ता है।
हृदय भी डालना
पड़ता है, तब
ध्वनियां
संगीत बनती
हैं। नहीं तो
सिर्फ शोरगुल
रह जाता है।
आवाजें रह
जाती हैं।
हृदय
को भी जानने
का अगर एक ही
रास्ता होता —
काट—पीट करके, जैसा
सर्जन जानता
है अपनी
आपरेशन थिएटर
की टेबल पर —
अगर वही एक
रास्ता होता
तब तो ठीक था।
लेकिन और भी
एक रास्ता है।
धार्मिक भी
जानता है, संत
भी जानता है।
उसने हृदय को
बजाकर जाना है,
तोड़कर नहीं।
उसने हृदय में
संगीत को पैदा
करके जाना है।
तो वह कहता है
कि भीतर, भीतर
तुम किस
फुफ्फुस, किस
फेफड़े की बात
कर रहे हो! तुम
वैसे ही नासमझ
और पागल हो
जैसे कि कोई
बिजली के बल्व
को तोड़ ले, कांच
के टुकड़ों को
घर ले जाए और
कहे कि यह
रोशनी है।
माना कि रोशनी
इससे प्रगट
होती थी, लेकिन
कांच के टुकड़े,
जो घर ले गए
हैं आप बीनकर,
वे रोशनी
नहीं हैं, न
थे। और यह भी
सच है कि उन
कांच के
टुकड़ों को तोड़
देने पर रोशनी
गुप्त हो गई, विलीन हो गई,
यह भी सच है।
इसलिए तर्क
ठीक मालूम
पड़ता है कि जब
हमने तोड़ दिया
बल्व तो रोशनी
खतम हो गई, निश्चित
ही बल्व ही
रोशनी था।
नहीं तो तोड़ने
से रोशनी को
खतम नहीं होना
था। टुकड़े हम
घर ले आए हैं, यही रोशनी
है कुल जमा।
सच है यह भी कि
बल्व टूट जाए
तो रोशनी
विलीन हो जाती
है। नष्ट नहीं,
सिर्फ
विलीन हो जाती
है, अप्रगट
हो जाती है।
प्रगट होने का
माध्यम टूट
जाता है। अगर
फेफड़े को हम
तोड़ डालें तो
हृदय के प्रगट
होने का
माध्यम टूट
जाता है। बल्व
टूट जाता है।
तोड़कर फिर
हृदय नहीं
मिलता, जैसे
कि बल्व तोड़कर
फिर रोशनी
नहीं मिलती।
हृदय पीछे छिप
जाता है।
फेफड़ा सिर्फ
हृदय को प्रगट
करता है।
लेकिन
हममें से बहुत
कम लोग हैं, जिन्होंने
हृदय को जाना
है। फेफड़े को
ही हम जानते
हैं, जहां
हवा चलती है, वायु का
स्पंदन होता
है, प्राण
संचालित होते
हैं। उस
यांत्रिक
व्यवस्था को
ही हमने जाना
है, तो फिर
बाहर भी यंत्र
का विस्तार है।
भीतर
जिस दिन हम
जानेंगे
चैतन्य को, उस
दिन बाहर भी
चैतन्य का
विस्तार हो
जाता है। भीतर
हम बनेंगे
दर्पण, तो
बाहर भी सारा
जगत दर्पण है।
पत्थर के पास
खड़े होंगे तो
भी स्वयं को
पत्थर में देख
पाएंगे। तब
पत्थर को भी
इस कठोरता से
न देखेंगे
जैसे अभी आदमी
को देखते हैं।
तब पत्थर पर
भी हाथ ऐसे ही
रखेंगे जैसे
किसी ने अपने
प्रेमी को छुआ
हो। क्योंकि
तब पत्थर पत्थर
नहीं है, परमात्मा
ही है। तब
जमीन पर पैर
भी ऐसे
रखेंगे—
सम्हलकर, विवेक
से, होशपूर्वक।
वहां भी जीवन
छिपा है। वहां
भी जीवन का विस्तार
है। वहां भी
जीवन स्पंदित
है। वहां भी
कोई नाच रहा
है। अलग—अलग
आयामों में, अलग—अलग
रूपों में, अलग— अलग
दिशाओं में
जीवन का नृत्य
है। हम अकेले
ही जीवन के
मालिक नहीं
हैं। हम नहीं
होंगे तो भी
जीवन होगा।
अनंत हैं उसके
रूप। हम भी एक
रूप हैं — अनंत
में एक। एक
छोटी सी हमारी
भी दिशा है।
लेकिन हमें
अपने भीतर के
ही जीवन की
दिशा का कोई
परिचय नहीं है।
दर्पण
कैसे बनें? इस
धूल को हटाना
पड़े, इस
धूल को फेंकना
पड़े। न केवल
हटाना पड़े, बल्कि नया
संग्रह भी
रोकना पड़े।
नहीं तो ऐसा
हो कि हम इधर
धूल पोंछते
चले जाएं और
धूल इकट्ठा
करने की जो
व्यवस्था है,
वह जारी रहे,
तो भी दर्पण
नहीं बनेगा।
दोहरे, काम
करने पड़ेंगे।
पुरानी धूल को,
अर्जित धूल
को हटा देना
पड़ेगा और नई
धूल को अर्जित
करना बंद कर
देना पड़ेगा।
पुरानी
धूल अर्जित
हुई है
स्मृतियों
में,
मेमोरी में,
और नई धूल
अर्जित होती
है डिजायर मे,
वासना में।
पुरानी धूल
टिकती है
स्मृति में और
नई धूल आती है
वासना से।
दोहरे काम
करने पड़ेंगे।
स्मृति से
मुक्त होना
पड़ेगा। वासना
से भी मुक्त
होना पड़ेगा।
वासना को कहना
पड़ेगा, नहीं
पाना है कुछ
आगे। कोई आगे
की यात्रा
नहीं है कहीं।
और स्मृति से
कहना पड़ेगा, पीछे जो हुआ,
सब स्वप्न
था, अब
व्यर्थ इस बोझ
को न ढोओ।
ढोते
हैं स्मृति के
बोझ को। हम
कुछ भूलते ही
नहीं, सब
सम्हालकर
चलते हैं। सब
पकड़कर रखते
हैं। कचरे को
इकट्ठा करते
हैं और पकड़कर
रखते हैं छाती
के साथ।
जन्मों—
जन्मों का
कचरा इकट्ठा
है। स्मृति को
विदा करना
पड़ेगा। कहना
पड़ेगा, वह
जो बीत गया, बीत गया, अब
मैं वह नहीं
हूं। बीते कल
से अपने को
तोड़ लेना
पड़ेगा। अतीत
से छूट जाना
होगा और
भविष्य से भी —
बस यही दो — और
चित्त दर्पण
हो जाएगा।
मैं
जिसको
संन्यास कहता
हूं ऐसे ही
व्यक्ति को
संन्यासी
कहता हूं जो
कहता है, अतीत
से मैं अपने
को तोड़ता हूं।
अब मैं वही
नहीं रहूंगा
जो मैं कल तक
था। वह
आइडेंटिटी
समाप्त करता
हूं। इसलिए
नाम परिवर्तन
करते हैं। नाम
परिवर्तन
सिंबालिक है,
सांकेतिक
है, सूचक
है इस बात का
कि वह जो
पुराना नाम था,
वह जो
पुराना मैं था,
अब नहीं
रहूंगा। अब
उससे छुटकारा
करता हूं। अब
वे सब
स्मृतियां, वह सारा जाल
अतीत का, वह
उस पुराने नाम
के साथ दफना
देता हूं। अब
मैं नया आदमी
होता हूं। मैं
अ ब स से
यात्रा शुरू
करता हूं। नया
होता हूं आज
से, इस बात
का संकल्प
संन्यास है।
और अब आज से
कभी भी पुराना
नहीं होऊंगा,
इस बात का
संकल्प भी
संन्यास है।
ध्यान
रहे,
कल से छूट
जा सकता हूं
लेकिन कल अगर
फिर पुरानी
आदत जारी रखी
तो कल फिर पुराना
पड़ जाऊंगा।
नाम कितनी देर
नया रहेगा, क्षणभर भी
तो नया नहीं
रहेगा।
पुराने से
तोड़कर अगर
मैंने पुरानी
आदत जारी रखी,
तो मैं नए
नाम के आसपास
फिर
स्मृतियां
इकट्ठी कर
लूंगा। कल फिर
वही बोझ खड़ा
हो जाएगा, दर्पण
फिर दब जाएगा।
इसलिए
संन्यास
दोहरा संकल्प
है। अतीत से
छुटकारा, कि
अब मैं वह
नहीं हूं जो
मैं कल था।
डिसकंटिन्यूटी,
तोड़ता हूं
उस सातत्य को।
कहता हूं अब
मैं नया आदमी
हूं। न ही अब
वह मेरा नाम
है, न ही अब
वे मेरे पिता
हैं, न ही
अब वह मेरा
वंश है। नहीं,
अब वह अतीत
मेरा कुछ भी
नहीं। मैं आज
से फिर से
शुरू होता हूं
— रिबॉर्न।
निकोडेमस
नाम का एक
युवक गया जीसस
के पास। और
उसने कहा कि
मैं क्या करूं
कि तुम जिस
आनंद की बात
करते हो वह
मुझे मिल जाए? तो
जीसस ने कहा, यू विल हैव
टु बी बॉर्न
अगेन —
तुम्हें फिर
से जन्म लेना
पड़ेगा।
निकोडेमस ने
कहा, अब यह
कैसे हो सकता
है? यह आप
कैसी बात करते
हैं? यह हो
कैसे सकता है?
जन्म तो मैं
ले चुका। अब
जवान भी हो
चुका। अब फिर
से जन्म कैसे
ले सकता हूं? जीसस ने कहा
कि तुम समझे
नहीं। वह जन्म
तुमने कभी
लिया ही नहीं
था। मैं तुमसे
कहता हूं
तुम्हें फिर
से जन्म लेना
पड़ेगा।
तुम्हें नया
आदमी होना
पड़ेगा।
तुम्हें अपने
पुराने वह जो
संबंधों का
स्मृति—जाल है,
उससे
छुटकारा पाना
होगा।
इस
मुल्क में, हम
अपने मुल्क
में, उस
आदमी को द्विज
कहते थे, रिबॉर्न
को। द्विज का
मतलब यह नहीं
था कि जनेऊ
डाल दिया तो वह
द्विज हो गया।
द्विज का अर्थ
है, दुबारा
जन्मा, ट्वाइस
बॉर्न, जिसका
दूसरा जन्म
हुआ। संन्यास
के पहले कोई
भी द्विज नहीं
हो सकता। जनेऊ
डालने से कोई
द्विज नहीं हो
सकता।
ब्राह्मण
होने से कोई
द्विज नहीं हो
सकता।
द्विज
का मतलब है, जिसने
दूसरा जन्म
लिया। एक जन्म
तो वह है, जो
मां—बाप दे
देते हैं। और
एक जन्म वह है,
जो स्वयं के
संकल्प से
होता हो। यह
जन्म दोहरा है।
अतीत से तोड़ता
हूं अपने को
और अब भविष्य
में उस पुरानी
व्यवस्था को
भी तोड़ता हूं
जिससे मैं रोज—रोज
पुराना पड़
जाता था। अब
मैं रोज—रोज
नया ही रहूंगा।
अब मेरे दर्पण
पर कोई धूल
नहीं जमेगी।
अब यह नाम
ताजा और ताजा
ही रहेगा। अब
इसके साथ मैं
कोई स्मृति न
जोडूगा। अब
मैं कभी न
कहूंगा कि
मैंने यह किया
और मैंने यह
नहीं किया। अब
मैं कभी न
कहूंगा कि मैं
कर्ता हुआ। अब
मैं कभी न
कहूंगा कि
मकान मेरा है,
कि धन मेरा
है, कि
संपत्ति मेरी
है।
ध्यान
रहे,
संन्यासी
का यह अर्थ
नहीं है कि वह
मकान छोड्कर
चला जाए और आश्रम
को कहने लगे
कि मेरा है।
संन्यासी का
मतलब है, वह
मेरा कहना बंद
कर दे। वह
कहां रहता है,
इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। वह दुकान
में बैठा रहे,
बस मेरी
दुकान न रह
जाए। फिर बात
पूरी हो गई।
लेकिन
दुकान छोड़ने
की आदत है
हमें, छोड़
सकते हैं। फिर
जाकर आश्रम
में वही
पुरानी आदत
काम करती है, वह कहती है, मेरा आश्रम।
उससे कोई अंतर
नहीं पड़ता।
नाम बदला, बेकार
हो गया। वैसा
ही बेक हो गया
जैसा कि अक्सर
हम देखते हैं,
हाथी स्नान
कर लेता है और
स्नान करके
बाहर निकलकर
धूल फेंक लेता
है ऊपर। इससे
कोई प्रयोजन
हल नहीं होता।
व्यर्थ श्रम
हो जाता है।
उपनिषद
का यह सूत्र
कह रहा है, दर्पण
बन जाओ।
संन्यस्त
चित्त दर्पण
है। जिसने कहा
कि न मेरा कोई
अतीत है अब, न मेरा कोई
भविष्य है।
अभी और यहां —
हियर एंड नाऊ —
बस, इसी
क्षण में मैं
हूं। यह क्षण
ही मेरा होना
है। बस, जिसने
ऐसा जाना, वह
तत्काल दर्पण
बन जाता है।
और
जब सब भूतों
में,
जब सब भूतों
की प्रतिकृति
अपने दर्पण
में बनने लगती
है, तो फिर
कैसी घृणा? और जब स्वयं
की प्रतिकृति
सब भूतों में
बनने लगती है,
तो फिर कैसी
घृणा? घृणा
खो जाती है।
वह घृणा का
धुआ विलीन हो
जाता है। वे
धुएं के बादल
विदा हो जाते
हैं। और तब जो
प्रगट होता है
सूर्य, वह
प्रेम है।
ध्यान
रहे,
घृणा के
रहते हम जिस
प्रेम को करते
हैं, करते
चले जाते हैं,
वह घृणा का
ही रूप होता
है। घृणा के
मूल रूप से
विदा हो जाने
पर, आधारभूत
विदा हो जाने
पर जिसका जन्म
होता है, वही
प्रेम है।
सिर्फ
संन्यासी ही
प्रेम कर सकता
है। सिर्फ
आत्मा से ही
प्रेम की धारा
बहती है। शरीर
से तो घृणा ही
बहेगी। मन से
तो घृणा ही
बहेगी। मेरे—तेरे
के भाव से तो
घृणा ही बहेगी।
साधक
के लिए दर्पण
की यह कला ठीक
से खयाल में ले
लेनी चाहिए।
और जितनी
शीघ्रता से हो
सके उतनी
शीघ्रता से वर्तमान
के क्षण को ही
अस्तित्व बना
लेना चाहिए।
अतीत से
छुटकारा, भविष्य
से भी छुटकारा।
स्मृति से
मुक्ति, वासना
से भी मुक्ति।
फिर पिछली धूल
भी चली जाएगी
और आगे धूल
आने का उपाय
भी नहीं रह
जाता।
यस्मिन्
सर्वाणि
भूतान्यात्मैवाशुद्वइजानत:।
तत्र
को मोह: क: शोक:
एकत्वमनुपश्यत:।।
7।।
जिस
समय ज्ञानी
पुरुष के लिए
सब भूत आत्मा
ही हो गए, उस
समय
एकत्व देखने
वाले को क्या
शोक और क्या
मोह हो सकता
है।।
7।।
जाना
जिसने सब
भूतों में
स्वयं को, या
जाना जिसने
स्वयं में सर्व
भूतों को, उस
विद्वान
पुरुष को, उस
ज्ञानी
व्यक्ति को
कैसा शोक? कैसा
मोह?
तीन—चार
बातें इस
सूत्र में समझ
लेनी चाहिए।
एक तो, उपनिषद
किसे विद्वान
कहते हैं? विद्वान
उसी मूल शब्द
से निर्मित
होता है, जिससे
वेद। वेद का
अर्थ होता है
जानना। विद का
अर्थ होता है जानना।
विद्वान का
अर्थ है जो
जानता है।
क्या जानता है?
कोई गणित
जानता है, कोई
केमिस्ट्री
जानता है, कोई
फिजिक्स
जानता है।
हजार जानने की
चीजें हैं।
हजार बातें
लोग जानते हैं।
कोई
धर्मशास्त्र
भी जानता है।
कोई, संतों
ने जो—जो
रहस्य की
बातें कही हैं,
उनसे
परिचित है।
लेकिन उपनिषद
उसे विद्वान
नहीं कहते।
बहुत अदभुत और
मजे की बात है
कि उपनिषद
सूचनाओं के
संग्रह को
विद्वान होना
नहीं कहते।
उपनिषद तो
सिर्फ एक ही
तत्व को जानने
वाले को विद्वान
कहते हैं, जो
स्वयं को
जानता है।
क्योंकि जो
स्वयं को जान
लेता है वह
सर्व को जान
लेता है।
स्वयं को
जानता है, तो
दर्पण बन जाता
है। दर्पण
बनता है, तो
सबकी
प्रतिछवि
बनने लगती है।
लेकिन, सर्व
को जान लेता
है, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि जिसने
स्वयं को जान
लिया, वह
बड़ा गणितज्ञ
हो जाएगा
स्वयं को जानने
से, कि
स्वयं को
जानने से वह
बहुत बड़ा
रसायनविद हो
जाएगा; कि
स्वयं को जान
लेने से वह
कोई बहुत बड़ा वैज्ञानिक
हो जाएगा।
नहीं, यह
अर्थ नहीं है।
स्वयं
को जान लेने
से वह सर्व को
जान लेता है, इसका
अर्थ यही है
सिर्फ कि जैसे
ही वह स्वयं को
जानता है, सबके
भीतर जो छिपा
है, जो
गहनतम, गूढ़तम,
वह जो
पवित्रतम, जो
गुह्यतम, दि
आकल्ट, वह
जो सबके भीतर
छिपा है रहस्य,
उसे जान
लेता है। उस
सूत्र को जान
लेता है जिसका
सब खेल है। उस
नियति को जान
लेता है जिसका
सब फैलाव है।
उस नियंता को
जान लेता है
जो सबके भीतर,
सबके भीतर
सब गुड्डे और
गुड़ियों के
पीछे, जिसके
हाथ में सबके
धागे हैं, उसे
जान लेता है।
वह
कोई विशेषत
नहीं होता, कोई
एक्सपर्ट
नहीं होता।
उसका कोई
स्पेशलाइजेशन
नहीं है। वह
बिलकुल ही
विशेषत नहीं
है। अगर कोई
एक चीज आप
उससे पूछने
जाएं तो वह
बिलकुल नहीं
जानता। वह तो
समस्त के भीतर
जो सारभूत है,
उसे जान
लेता है — दि एसेशियल।
वह पत्ते—पत्ते
को नहीं जानता,
वह तो जड़ को
पकड़ लेता है।
वह तो जो गहरा
प्राण है, महाप्राण
है, उसे
जान लेता है।
और उसे जानकर
वह समस्त शोक
और मोह से
मुक्त हो जाता
है। वह लक्षण
है, वह
विद्वान का लक्षण
है।
विद्वान
का लक्षण बड़ा
अजीब है। वह
यह नहीं है कि
आप उससे सवाल
पूछें, तो वह
जवाब दे सके।
वह यह नहीं है
कि कोई समस्या
खड़ी हो जाए, तो वह उसका
समाधान कर सके।
वह यह है कि वह
शोक और मोह से
मुक्त हो जाता
है। कोई कितना
ही बड़ा
गणितज्ञ हो
जाए, शोक
और मोह से मुक्त
नहीं हो जाता।
और कोई कितना
ही मनस्विद हो
जाए.. फ्रायड
जैसे मनस्विद
पृथ्वी पर कम
ही हुए हैं।
इतना मन के
संबंध में
जानकर भी
फ्रायड का मन
ठीक वैसा ही
है, जैसा
किसी
साधारणजन का।
उसमें कोई
फर्क नहीं है,
उसमें
रत्तीभर की
कोई क्रांति
नहीं हुई। वह
उसी तरह चिंता
से चिंतातुर
होता है। उसी
तरह भय से
भयभीत होता है।
उसी तरह क्रोध
से जलता है।
उसी तरह
ईर्ष्या से
भरता है। उसी
तरह मोह, उसी
तरह शोक, सब
वही। और मजा
यह है कि भय के
संबंध में वह
बहुत जानता है।
ईर्ष्या के
संबंध में
बहुत जानता है,
जितना शायद
मनुष्य जाति
में किसी
दूसरे आदमी ने
नहीं जाना। वह
कामवासना के
संबंध में
बहुत जानता है।
लेकिन का होकर
भी कामवासना
वैसे ही मन को
आंदोलित कर
जाती है, जैसे
किसी और को।
उपनिषद
इसको विद्वान
नहीं कहते। वह
तो इसको
विद्या भी
नहीं कहेंगे।
वह तो कहेंगे, यह
सूचनाओं का
संग्रह है।
एक्सपर्ट है
यह आदमी, विशेषज्ञ
है यह आदमी, जो—जो भय के
संबंध में
जाना गया है, यह जानता है।
ही नोज अबाउट
दि फियर, नॉट
दि फियर
इटसेल्फ। भय
के संबंध में
जो—जो कहा गया
है वह जानता
है, भय को
नहीं जानता।
भय को जान
लेता तो भय से
मुक्त हो
जाएगा।
एक
थियॉलाजियन
है,
धर्मशास्त्री
है, वह
धर्म के संबंध
में सब जानता
है। धर्म के
संबंध में, धर्म को
नहीं। क्या
कहते हैं वेद,
क्या कहते
हैं उपनिषद, क्या कहती
है गीता, क्या
कहता है कुरान,
बाइबिल — वह
जानता है। जो
कहा गया है, वह जानता है।
लेकिन जिसके
लिए कहा गया
है, जिस
भांति कहा गया
है, जो
जानकर कहा गया
है, वह
नहीं जानता।
फर्क
ऐसा ही है
जैसे कोई आदमी
तैरने के
संबंध में
जानता है और
तैरना नहीं
जानता। यह
तैरने के
संबंध में
जानने में कोई
कठिनाई नहीं
है। तैरने की
किताब पढ़ी जा
सकती है।
तैरने के
संबंध में
जितने
शास्त्र हैं, सब
कंठस्थ किए जा
सकते हैं। एक
आदमी तैरने के
संबंध में बड़ा
विशेषज्ञ हो सकता
है। और कोई
तैरने के
संबंध में
कैसा ही सवाल
ले जाए, उत्तर
दे सकता है।
लेकिन फिर भी
भूलकर भी उसे
नदी में धक्का
मत दे देना।
क्योंकि
तैरना जानना
बिलकुल दूसरी
बात है। और
जरूरी नहीं है
कि जो तैरना
जानता है वह
तैरने के
संबंध में सब
जानता हो।
सिर्फ तैरना
ही जानता हो।
लेकिन जब
जिंदगी
मुसीबत में
पड़ी हो और नाव
डूब रही हो, तो तैरने के
संबंध में
जानने वाले का
सारा ज्ञान
जरा भी काम
नहीं आएगा। उस
वक्त तो वह
अज्ञानी तैर
कर निकल जाएगा
जो तैरने के
संबंध में कुछ
नहीं जानता, लेकिन तैरना
जानता है।
इसलिए
उपनिषद का ऋषि
बहुत ठीक
सूत्र पीछे
लक्षण के गिना
देता है। वह
कहता है, विद्वानजन,
जो
सर्वभूतों
में स्वयं को
और स्वयं में
सर्वभूतों को
जान लेते हैं,
वे शोक और
मोह इन दो से
मुक्त हो जाते
हैं।
इन
दो को क्यों
एक साथ गिनाने
की बात आ गई?
ये एक ही हैं, एक ही
मनोदशा के
अनिवार्य अंग
हैं। इन दो
में से एक कभी
नहीं होता साथ,
एक अकेला
कभी नहीं होता।
इसलिए इसे ठीक
से समझ लें।
जिस
चित्त में मोह
है,
उसी चित्त
में शोक हो
सकता है। जिस
चित्त में मोह
नहीं है, उसमें
शोक नहीं हो
सकता। असल में
शोक होता ही
मोहभंग से। और
तो कोई शोक का
कारण नहीं।
किसी से मुझे
मोह है, वह
मर गया, तो
मैं
शोकग्रस्त
हुआ। शोक पीछे
की छाया है।
मोह की छाया
है। अगर मुझे
किसी से मोह
नहीं है, तो
शोक असंभव है।
चाहूं तो भी
नहीं कर सकता।
एक मकान है, जिससे मुझे
मोह है। उसमें
आग लग गई, तो
फिर मुझे शोक
होगा। जहां
मोह असफल होगा,
जहां मोह
व्यवधान
पाएगा, जहां
मोह को अड़चन
होगी, जहां
मोह टूटेगा, जहां मोह
टकराएगा, वहीं
शोक खड़ा हो
जाएगा। और
ध्यान रहे, जब भी शोक
खड़ा होगा, तब
उससे बचने को
आपको नए मोह
निर्मित करने
पड़ेंगे। जब भी
शोक खड़ा होगा,
उससे बचने
के लिए, उसके
बाहर निकलने
के लिए आपको
नए मोह
निर्मित करने
होंगे।
अगर
मैं किसी को
प्रेम करता
हूं वह मर गया, तो
मैं तब तक उसे
न भूल पाऊंगा
जब तक मैं
सल्लीटधूट
प्रेम करने
वाला न खोज
लूं। जब तक
मैं उसकी जगह
किसी और प्रेम
करने वाले को
न बिठा लूं और
अपने सारे मोह
को उससे हटाकर
नए व्यक्ति पर
न लगा दूं तब
तक, तब तक
कठिन होगा।
मोह खंडित
होता है, तो
शोक पैदा होता
है। शोक से
पलायन करना हो
तो फिर मोह
पैदा करना पड़ता
है। फिर एक
वीसियस
सर्किल, फिर
एक दुष्टचक्र
चलता है। हर
मोह शोक लाता
है। हर शोक को
फिर नए मोह से...।
बीमारी
आती है, दवा
देनी पड़ती है,
दवा नई
बीमारियां
पैदा करती है।
फिर दवा देनी
पड़ती है, फिर
दवा नई
बीमारियां
पैदा करती है।
और एक चक्र
चलता चला जाता
है।
इन
दोनों को साथ
गिनाना बहुत
सुविचारित है।
इसलिए कहा कि
शोक और मोह
दोनों से, जो
जान लेता है, वह मुक्त हो
जाता है।
क्योंकि जो
समस्त भूतों
को अपने में
देख लेता है
और अपने को
समस्त भूतों
में देख लेता
है, फिर कोन
मेरा और कोन
तेरा? फिर
मोह कैसे
निर्मित हो?
मोह
तभी निर्मित
होता है, जब
मैं किसी के
साथ अपने को
बांधता हूं और
कहता हूं यह
मेरा और शेष
मेरे नहीं। जब
मैं कहता हूं
यह मकान मेरा,
बाकी मकान
मेरे नहीं।
अभी
एक महिला, मैं
आ रहा था, उसी
दिन मुझे
मिलने आई। और
उसने कहा कि
आपकी बड़ी कृपा
कि मेरे लड़के
की दुकान बच
गई। ठीक बगल
तक, करीब
तक आग आ गई थी।
आग लगी दूसरे
के मकान में।
वह ठीक करीब
तक आ गई, पर
मेरे लड़के की
दुकान बच गई।
मिठाई लाई थी
मुझे भेंट
करने को। बड़ी
प्रसन्न थी कि
मेरे लड़के की
दुकान बच गई।
दस फीट तक आग आ
गई थी, और
सब खाक हो गया
चारों तरफ।
मेरे लड़के की
दुकान बच गई, तो मिठाई
लाई।
नहीं, जरा
भी शोक न पकड़ा
इस बात का कि
जो मकान जल गए
हैं, उनके
लिए। कोई शोक
न पकड़ा, क्योंकि
उनसे कोई मोह
न था। खुशी आई,
मकानों के
जलने से। खुशी
आई, क्योंकि
जिस मकान से
मोह था, वह
बच गया।
मोह
सदा
एक्सस्मृसिव
है,
वह
एक्सक्यूड
करता है। वह
किसी के साथ
होता है और
शेष को बाहर
छोड़ देता है।
वह कहता है, यह रही मेरी
पत्नी, यह
रहे मेरे पति,
यह मेरा
बेटा, यह
मेरा मकान, यह मेरी
दुकान, यह
मैं, बाकी
मैं नहीं हूं।
तो बाकी का
कुछ भी हो जाए,
उससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता। बस, इतना
बच जाए। फिर
इस मोह के भी
विस्तार में
निश्चित ही
मात्रा कम
होती चली जाती
है। सबसे
ज्यादा मोह
हमें स्वयं से
होता है, क्योंकि
उससे ज्यादा
मेरा कुछ भी
नहीं मालूम पड़ता।
इसलिए
अगर ऐसी
स्थिति आ जाए
कि नाव डूब
रही हो, और
पत्नी और पति
दोनों हों और
सवाल उठे कि
एक ही बच— सकता
है, तो
दोनों बचना
चाहेंगे।
मकान में आग
लग गई हो, तो
आदमी भागकर
पहले बाहर
निकल जाएगा, फिर सोचेगा
कि अपने वाले
और भी आ सके या
नहीं। लेकिन
आग लगी हो तब
पहले स्वयं
बाहर आ जाएगा।
तो
मोह जो है, सर्वाधिक
मैं के निकट
कनसनट्रेटेड
होगा, सबसे
ज्यादा मैं के
पास घना होगा।
सबसे ज्यादा
मैं के पास
घना होगा। फिर
जैसे—जैसे
मेरे का फैलाव
बढ़ेगा, वैसे—वैसे
कम होता चला
जाएगा। फिर
परिवार पर कम
होगा। फिर
गांव पर और कम
हो जाएगा। फिर
देश पर और कम
हो जाएगा। फिर
मनुष्यता पर
और कम हो
जाएगा। और अगर
कहीं और भी
किन्हीं
ग्रहों पर लोग
होंगे, तो
उनके लिए कुछ
मालूम नहीं
पड़ता।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
पचास हजार
ग्रहों पर
जीवन है। उनके
लिए कुछ मालूम
नहीं पड़ता है।
मनुष्यता के
लिए भी कुछ
बहुत नहीं
मालूम पड़ता, बहुत ज्यादा
नहीं मालूम
पड़ता।
पाकिस्तान
में सात लाख
लोग मर गए, तो
अपने गांव में
सात भी मर
जाते तो
ज्यादा मालूम
पड़ते सात लाख
से। और अपने
घर में एक भी
मर जाता तो
सात लाख से
ज्यादा मालूम
पड़ता। और अपनी
एक अंगुली भी
टूट जाती, तो
सात लाख से
ज्यादा मालूम
पड़ती —
कनसनट्रेटेड।
जैसे—जैसे मैं
के पास आएंगे,
मेरा घना
होता चला
जाएगा। जैसे—जैसे
मेरे से दूर
जाएंगे, छाया
विरल होती चली
जाती।
मोह
मैं की छाया
है। जहां—जहां
मैं देखता हूं
कि मैं हूं
वहां—वहां मोह
पकड़ जाता है।
लेकिन मैंने
कहा,
मोह
एक्सक्लूसिव
होता है। वह
किसी को छोड़ता
है, वर्जित
करता है, तभी
निर्मित होता
है।
इसलिए
ऋषि कहता है
कि जिसने
समस्त भूतों
को अपने में
देखा! अब नान—
एक्सक्लूसिव
हो गया, अब
सभी मेरे हैं —
सभी, आल
इनस्मृसिव —
तो फिर मोह
निर्मित नहीं
हो सकता।
क्योंकि अब
कोई मतलब ही न
रहा। सभी मेरे
हैं, तो अब
किसी को भी
मेरे कहने का
कोई प्रयोजन
नहीं। मेरे
कहने का
प्रयोजन तभी
तक था जब तक
कोई तेरा भी
था। कोई था, जो मेरा
नहीं था। तब
मैं सीमा
बनाता था, रेखा
खींचता था कि
ये मेरे रहे।
एक दीवार बना
लेता था, एक
सीमांत था
मेरा। उसके
पार वह दुनिया
शुरू होती थी,
जो मरे, समाप्त
हो, दुख
में पड़े, तो
मुझे कुछ मतलब
नहीं। इधर
मेरी दुनिया
थी, जो
दुखी न हो, पीड़ित
न हो। उसके
दुख से मेरा
दुख था।
समस्त
प्राणियों
में,
समस्त जीवन
में, समस्त
भूतों में!
प्राणी भी
नहीं कहा है, कहा है, सर्वभूत
में।
भूत
का अर्थ होता
है,
एक्सिस्टेट।
वह सब जो है —
रेत का टुकड़ा
है, कण, वह
भी भूत है। जो
भी है, उस
सबमें अपने को
जो देख लेता
है, फिर
उसका मोह गिर
जाता है। फिर
मोह नहीं बचता।
मोह खड़ा हो
सकता था सीमा
बनाकर। अब कोई
सीमा न रही।
असीम मोह नहीं
होता, ध्यान
रखें। असीम
मोह असंभव है।
मोह सदा सीमा
बनाकर जीता है।
और जितनी बड़ी
सीमा बनाता है,
मैंने कहा,
उतना ही
विरल हो जाता
है। जितनी
छोटी सीमा
बनाता है, उतना
घना होता है।
लेकिन अगर
असीम हो तो
विलीन हो जाता
है। और जहां
मोह विलीन हो
गया, वहां
शोक कैसे पैदा
होगा? वह
मोह के बिना
पैदा नहीं
होता। मोह ही
नहीं तो शोक
भी नहीं।
तो
विद्वान उसे
कहते हैं
उपनिषद, जो
शोक और मोह के
बाहर चला गया।
और चला कैसे
गया? समस्त
भूतों में
स्वयं को
देखकर। भूत तो
चारों तरफ
मौजूद हैं।
चारों तरफ
अस्तित्व
फैला हुआ है।
लेकिन हमें
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता कि
मैं भी हूं
वहां।
रवींद्रनाथ
ने एक छोटी सी
घटना लिखी है।
रवींद्रनाथ
ने लिखी
गीतांजलि तो
प्रभु के गीत
गाए। नोबल
प्राइज भी
मिली और सारी
दुनिया में
चर्चा हो गई।
लेकिन
रवींद्रनाथ
के घर के पास—पड़ोस
में ही एक का
रहता था। वह
रवींद्रनाथ
को बहुत सताने
लगा। वह जहां
भी
रवींद्रनाथ
को मिल जाता, तो
उनको जोर से
पकड़कर कहता कि
सच—सच बताओ, ईश्वर को
जाना है?
गीतांजलि
लिखी थी। नोबल
प्राइज भी
मिली। और यह
एक आदमी है, हठी
मालूम पड़ता है।
और ईमानदार
आदमी थे
रवींद्रनाथ, तो झूठ बोल
भी नहीं सकते
थे। वह ऐसे
जोर से आंख
गड़ाकर, आंख
में डालकर
पूछता था, ईश्वर
को जाना? कि
हाथ—पैर कैप
जाते उनके।
कहां नोबल
प्राइज विनर
कवि! जहां भी
गया, वहां
सम्मान मिला;
जहा भी गया,
वहां लोगों
ने कहा, उपनिषद
के ऋषियों ने
जैसा कहा है
वैसा ही महर्षि
है यह। और
पड़ोस का एक का
दिक्कत देने
लगा! और एक आज
नहीं, सुबह—सांझ
नहीं, कब
तक उससे बचकर
निकलो! पड़ोस
में ही वह
बैठा रहे अपनी
कुर्सी डालकर
दरवाजे पर ही।
का आदमी, उसको
कोई काम भी
नहीं।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
मेरा घर से
निकलना मुश्किल
कर दिया। मैं
देख लूं कि वह
का बैठा तो
नहीं है!
क्योंकि मैं
वहां से निकला
और उसने पूछा, सुनना,
ईश्वर को
जाना है? तो
मेरे प्राण
कैप जाएं, क्योंकि
ईश्वर का मुझे
कुछ पता नहीं।
और वह
खिलखिलाकर हंसे।
और उसकी
खिलखिलाहट
मेरी नींद को
खराब कर दे।
और उसकी हंसी
मेरा पीछा
करने लगी। हांटिंग
पैदा हो गई।
और मुझे डर
लगने लगा, भय
लगने लगा।
मैंने कहा, यह गीतांजलि
लिखकर एक
मुसीबत कर ली।
यह नोबल
प्राइज क्या
मिली, इस
के को क्या हो
गया है? उसने
कभी नहीं पूछा
था, कभी
ध्यान नहीं
दिया था इस
आदमी की तरफ।
लेकिन इस आदमी
का इतना नाम
हुआ, तो
उसने पूछना
शुरू कर दिया।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
मैं ईश्वर को
खोजने के लिए
इतना लालायित
कभी न था, जितना
उस के से बचने
के लिए
लालायित हो
गया। किसी तरह
ईश्वर मुझे
पता चल जाए और
किसी दिन इस
के को मैं
आश्वस्त भाव
से कह सकूं कि
हां मैंने
जाना है।
निश्चित
ही का कुछ
जानता रहा
होगा, नहीं तो
इतनी हांटिग
पैदा नहीं कर
सकता था। उसकी
आंखों में कुछ
बात रही होगी
कि
रवींद्रनाथ आंख
उठाकर कह न
सके उसके
सामने, कि
गीतांजलि का
एक पद दोहरा
देते। पूरी
गीतांजलि तो
ईश्वर का ही
गीत है, एक
गीत दोहरा
देते। नहीं
दोहरा सके।
वर्ष बीते और
वह का पीछा
करता ही रहा।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
जिस दिन उस के
को मैं कह
पाया, उस
दिन मेरे मन
से ऐसा बोझ हट
गया! किस दिन
कह पाए? एक
दिन वर्षा के
दिन थे। नई—नई
वर्षा आई।
आषाढ़ का महीना
और पहले मेघ
बरसे। डबरे, तालाब, पोखरों
पर नया पानी
भर गया है।
सड़क के किनारे
जगह—जगह गड्डे
भर गए हैं।
मेंढक बोलने
लगे हैं।
रवींद्रनाथ
सुबह ही उठे
हैं, मेंढक
की पुकार, वर्षा
की आवाज, मिट्टी
की गंध, प्राण
उनके खिंचे
बाहर को। देखा
कि वह का तो
नहीं है। अभी
वह शायद उठा
नहीं होगा।
दरवाजे पर
नहीं था।
वे
भागे वहां से।
चल पड़े समुद्र
की तरफ। सूरज
निकला।
समुद्र के तट
पर खड़े थे, सूरज
निकला।
समुद्र में
सूरज की छाया
बनी, प्रतिबिंब
बना। सूरज
समुद्र में
झलकने लगा।
दर्शन किया
सूरज का, दर्शन
किया
प्रतिबिंब का।
लौटने लगे घर
को। एक—एक
पोखरे में
सूरज झलकता था।
एक—एक छोटे से
डबरे में, सड़क
के किनारे
गंदा पानी भरा
था, वहां
भी सूरज झलकता
था। सब तरफ
सूरज झलकता था।
गंदे डबरे में
भी, सागर
में भी, स्वच्छ
पोखर में भी, सब तरफ सूरज
झलकता था। कोई
धुन, कोई
स्वर भीतर छिड़
गया। नाचते
हुए लौटे।
वे
नाचते हुए लौट
रहे थे। नाच
रहे थे इस बात
से कि
प्रतिबिंब
गंदा नहीं
होता। नाच रहे
थे इस बात से
कि सूरज का
प्रतिबिंब स्वच्छतम
पानी में भी
पड़ा है तो भी
उतना ही ताजा और
स्वच्छ है, और
गंदे से गंदे
पानी में भी
पड़ रहा है तो
भी उतना ही
ताजा और
स्वच्छ है।
प्रतिबिंब, प्रतिबिंब
तो गंदा नहीं
हो सकता।
रिफ्लेक्यान
तो कैसे गंदा
होगा! गंदा
पानी हो सकता
है, पर जो
सूरज की छाया
उसमें बन रही
है, जो
सूरज उसमें
झांक रहा है, वह तो गंदा
नहीं है। वह
तो बिलकुल
ताजा है, वह
तो बिलकुल
स्वच्छ है।
उसे तो कोई
पानी गंदा
नहीं कर सकता।
इस
अनुभव को.. यह
एक बड़ा
रिविलेशन है।
इसका मतलब यह
हुआ कि बुरे
से बुरे आदमी
के भीतर भी जो
परमात्मा है, वह
तो गंदा नहीं
हो सकता। पापी
से पापी के
भीतर जो
प्रतिबिंब है
प्रभु का, वह
तो उतना ही
शुद्ध है, जितना
पुण्यात्मा
के भीतर है।
इसलिए नाचते
लौट रहे थे कि
एक द्वार खुल
गया था।
नाचते
लौट रहे थे, वह
का बैठा था
अपने दरवाजे
पर। पहली दफा
उस के को
देखकर डर नहीं
लगा। और पहली
दफा उस के ने
कहा, अच्छा!
तो मालूम होता
है तुमने जाना।
और वह का आया
और
रवींद्रनाथ
को गले लगा
लिया और कहा
कि आज, आज
तेरी मस्ती
कहती है कि
तूने जाना। आज
तेरा आनंद
कहता है कि
तूने जाना।
मैं तो अब
तुझे
पुरस्कार दे
सकता हूं।
अभी
कुछ कहा भी
नहीं। और तीन
दिन फिर
रवींद्रनाथ
की जिंदगी बड़ी
पागल की
जिंदगी थी। घर
के लोग डर गए।
पर सिर्फ एक
वह बूढ़ा बार—बार
घर के लोगों
से आकर कहने
लगा,
प्रसन्न
होओ, आनंदित
होओ। पास—पड़ोस
में खबर करने
लगा कि उसने
जान लिया।
लेकिन घर के
लोग डर गए, क्योंकि
रवींद्रनाथ
एक अजीब काम
करने लगे।
खंभा मिले, तो खंभे से
गले लगें।
रास्ते से गाय
निकल रही है, तो गाय से
गले मिलें।
दरख्त खड़ा है,
तो दरख्त से
आलिंगन कर रहे
हैं। घर के
लोग समझे कि
पागल हो गए।
वह एक का, वह
कहने लगा कि
घबराओ मत। यह
पागल अब तक था,
अब यह ठीक
हुआ। अब इसको
सर्वभूतों
में दिखाई
पड़ने लगा, अब
इसे वही दिखाई
पड़ने लगा
जिसको दिखाई
पड़े बिना यह
सब जो गा रहा
था, सब
बेकार था, तुकबंदी
थी। अब इसके
जीवन में
संगीत का जन्म
हुआ। अब इसके
जीवन में गीत
आया है।
रवींद्रनाथ
ने खुद भी लिखा
है कि बहुत
धीरे— धीरे, धीरे—
धीरे— धीरे
मैं अपने को
संयमी बना
पाया। धीरे—
धीरे— धीरे
अपने को रोक
पाया। नहीं तो
जो मिले, लगे
कि गले मिलो।
प्रभु द्वार
पर आ गया। तब
तक मैं खोजता
था कि प्रभु, तेरा द्वार
कहां है? और
तब जहां मैंने
देखा, वहीं
उसका द्वार था।
अब तक मैं
खोजता था कि
तू छिपा कहां
है? और अब
मेरी मुश्किल
हो गई, क्योंकि
वही—वही था, और कुछ भी न
था।
सर्वभूतों
में दिखाई पड़
जाए जिसे
स्वयं का होना
या स्वयं में
सर्वभूतों का
होना, वही
विद्वान है।
और ऐसा
विद्वान मोह
और शोक के
अतीत उठ जाता
है। उसके जीवन
में न दुख है, न सुख है, उसके
जीवन में है
आनंद। ध्यान
रहे, उसके
जीवन में न
सुख है, न
दुख, उसके
जीवन में है
आनंद। उसके
जीवन में न
मोह है, न
शोक, उसके
जीवन में है
नृत्य। उसके
जीवन में
सिर्फ शुद्ध
जीवन का नृत्य
है। सिर्फ
जीवन ही
कीर्तन कर रहा
है उसके जीवन
में। सिर्फ
जीवन का ही
संगीत है। और
सब, वह सब
जो पीड़ा लाए, वह सब जो
बांधे, वह
सब जो बंधन
बनाए, वह
सब जो आज सुख
देता मालूम
पड़े, कल
दुख का
निमंत्रण बन
जाए — वह सब
उसके जीवन में
नहीं है। वह
दर्पण की
भांति ही हो
जाता है।
दर्पण
में एक आखिरी
बात आप से कह
दूं कभी खयाल
की हो न की हो।
दर्पण के सामने
आप खड़े होते
हैं,
तो दिखाई
पड़ते हैं कि
दर्पण में हैं।
हट जाते हैं, तब दर्पण
तत्काल आपको
छोड़ देता है।
पकड़ता नहीं।
इधर आप गए, उधर
दर्पण खाली
हुआ। जब थे, तब दिखाई
पड़ते थे। जब
हट गए, तो
दर्पण खाली हो
गया। दर्पण ने
कोई मोह नहीं
किया। इसलिए
जब आप हटते
हैं, तो
दर्पण आपके
दुख में चूर—चूर
नहीं हो जाता।
तब दर्पण खंड—
खंड, टुकड़े—टुकड़े
होकर बिखर
नहीं जाता। तब
दुख में हृदय
उसके टुकड़े—टुकड़े
नहीं हो जाते।
वह यह नहीं
कहता कि अब
हृदय के टुकड़े—टुकड़े
हो गए हैं। अब
तुम चले गए, तुम्हारे
बिना मैं कैसे
जीऊंगा। थे तो
बड़े सुंदर थे।
थे तो बड़े
अच्छे थे। थे
तो बड़ी कृपा
थी, बड़ा
अनुग्रह था।
चले गए तो
कृपा में कोई
अंतर नहीं।
दर्पण खाली भी
उतना ही
आनंदित है
जितना भरकर आनंदित
था।
ऐसा
विद्वान जीता
है जगत में
दर्पण की
भांति। जो भी
आता है सामने, प्रसन्न
है। फूल आए तो
आनंदित है। तो
उनका
प्रतिबिंब बन
जाता है, तो
उनमें
परमात्मा को
देख लेता है।
कांटे आए तो
आनंदित है।
उनका
प्रतिबिंब वन
जाता है, उनमें
परमात्मा को
देख लेता है।
नहीं कोई आया,
सब खाली हो
गया, तो
खालीपन भी
परमात्मा है।
दि वेरी
एंपटीनेस — वह
खालीपन, वह
रिक्तता भी
परमात्मा है।
फिर वह उस
खालीपन में भी
नाच रहा है उस
खालीपन में भी
प्रफुल्लित
है।
आज
इतना ही।
अब
हम दर्पण बनने
की कोशिश में
लगें। कोन
जाने जो
रवींद्रनाथ
को हुआ, वह आज
बहुतों को हो
जाए! जिनको
बैठना है वे
सामने मेरे
रहेंगे, जिनको
खड़े होना है
वे पीछे हट जाएं।
और ध्यान रखें,
कल एक—दो
मित्र बीच में
मेरे मना करने
पर भी बाद में खड़े
हो गए। मुझे
मालूम है, उनको
पता भी नहीं
चला होगा कि
कब वे खड़े हो
गए, लेकिन
फिर पीछे के
लोग मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। इसलिए
अगर बीच में
भी कोई खड़ा हो
जाए तो तत्काल
बाहर निकल जाए,
बीच में न
खड़ा रहे। और
अभी से, पहले
ही हट जाएं और
चारों तरफ फैल
जाएं।
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