दिनांक
28 जनवरी, 1977;
ओशो आश्रम
पूना।
पहला
प्रश्न :
आपने
एक कथा कही है, 'स्वर्ग
के रेस्टारेंट
में एक बार जब
लाओत्से, कस्फशियस
और बद्ध आये
तो कालसंदरी स्वर्णपात्र
में लबालब
जीवनरस भरकर
लाई, पर
बुद्ध ने जीवन
दुख है कहकर
जीवनरस से
मुंह मोड़ लिया।
कन्फ्यूशियस
ने कहा कि
जीवनरस ले ही
आई हो तो लाओ, जरा चख लूं।
और लाओत्से ने
कहा कि जीवनरस
को चखना क्या,
पूरा पात्र
ही ले आ, सभी
पी लूं।’ अब
इस
रेस्टारेंट
में
अष्टावक्र भी
आ गये है। वे
कालसुंदरी से
जीवनरस
स्वीकार
करेंगे या
नहीं? कृपा
करके कहिये।
अष्टावक्र
की न पूछो!
जीवनरस
तो स्वीकार
करेंगे ही, उसे तो पी
ही लेंगे
कालसुंदरी को
भी पी जायेंगे।
अष्टावक्र
का स्वीकार
बेशर्त और
पूरा है। यहां
जो भी है, एक ही है।
इसलिए
द्वंद्व का, निषेध का
उपाय नहीं है।
विष भी अमृत
है।
अष्टावक्र
जिस परम
प्रज्ञा की
बात कर रहे
हैं वहां
संसार ही
निर्वाण है।
वहां पदार्थ
ही परमात्मा
है। वहां
बांटने का
उपाय नहीं है।
वहां निषेध की
संभावना नहीं
है, विरोध
की संभावना
नहीं है।
इसलिए
तो पतंजलि
जहां निषेध, योग, तप—जप
की बात करते
हैं वहां
अष्टावक्र
कहते हैं न
त्याग, न
जप, न तप, न विधि, न
विधान।
वैराग्य की
जरूरत ही नहीं
है। वैराग्य
तो राग से
बचने की
चेष्टा है।
राग और
वैराग्य
दोनों ही
द्वंद्व हैं।
अष्टावक्र की
वीतरागता चरम
है।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं अगर
अष्टावक्र आ
गये हों तो वे
जीवनरस की
पूरी सुराही
तो पी जायेंगे, वे कालसुंदरी
को भी पी
जायेंगे।
और कालसुंदरी
का अर्थ समझते
हो? कालसुंदरी
का अर्थ होता
है, समय।
यह जो छोटी—सी
कहानी है चीन
की, बड़ी
महत्वपूर्ण
है। कालसुंदरी
का अर्थ होता
है, समय की
देवी जीवन का
रस लेकर
उपस्थित हुई।
और जिस
व्यक्ति ने
समय को ही
पीना न सीखा
वह जीवन के रस
को पी ही न
पायेगा। जीवन
का रस समय की
प्याली में ही
भरा है। यह
चारों तरफ जो
भी तुम्हें रस
भरा दिखाई पड़
रहा है, यह समय की
प्याली में ही
भरा है। यह
सारा संसार
समय की प्याली
में भरा है।
और
अष्टावक्र
इसे पीने में
संकोच न
करेंगे; जरा भी
संकोच न
करेंगे।
क्योंकि
अष्टावक्र ने
उसे जान लिया
जो समयातीत है,
कालातीत है।
कालातीत
जानता वही है
जो काल को पी
जाये; जो
कालजयी हो
जाये। जो समय
को जीत ले वही
शाश्वत को
जानता है।
और
जीतने का कोई
उपाय लड़ना
नहीं है।
जिससे तुम लड़े
उसे तुम कभी
भी जीत न
पाओगे। जिससे
तुम लड़े वह
तुम्हारे
विरोध में बना
ही रहेगा। उसे
तुम कभी
आत्मसात न कर
पाओगे। और अगर
एक ही है जगत
में तो तुम
जिससे भी लड़े, अपने ही
अंग से लड़े।
अपने ही अंग
को काट
दिया, अपंग
रहोगे।
इसलिए
मैं कहता हूं
अष्टावक्र
अगर आ गये हों
तो मधु —प्याली, मधु की
सुराही, वह
जो काल की
देवी है उसके
सहित उसे पी
जायेंगे।
ध्यान की
प्रक्रिया
समय को पी जाने
की प्रक्रिया
है। इसलिए
समस्त ध्यान
की परिभाषाओं
में एक बात निश्चितरूपेण
आयेगी—कालातीतता;
समय के पार
हो जाना। चाहे
जैन व्याख्या
करें, चाहे
बौद्ध, चाहे
हिंदू चाहे
ईसाई।
जीसस
से उनके एक
शिष्य ने पूछा
है अंतिम
क्षणों में—जब
वे विदा होने
लगे, जब
उन्हें
दुश्मन पकड़ने
लगे—तों उसने
पूछा, आपने
बहुत बार
समझाया है
ईश्वर के
राज्य के संबंध
में, एक
बार और पूछते
हैं, कोई
एक ऐसा सूत्र
बता दें कि हम
पहचान लें, भूल न हो।
पहुँचें तो
पहचान लें कि
यह प्रभु का
राज्य आ गया।
तो जीसस ने
कहा, एक
बात खयाल रखना—देयर
शैल बी टाइम
नो लीगर। वहां
समय नहीं होगा।
बस जहां
तुम्हें ऐसी
घड़ी आ जाये कि
पाओ कि अब समय
नहीं है, समझ
लेना आ गया
प्रभु का
राज्य। जहां
काल को पी जाओ;
जहां अकाल
हो जाओ।
सिक्खों
का मंत्र है. 'सत श्री
अकाल।’ उसका
अर्थ होता है,
सच वहीं है
जहां काल मर
गया, जहां
अकाल, कालातीतता
आ गई। वह
ध्यान का
सूत्र है, समाधि
का सूत्र है।
उस सूत्र में
सारा ध्यान
भरा है। लेकिन
सिक्ख जिस ढंग
से उसको
उच्चारण करते
हैं उससे लगता
है कि वे मरने —मारने
को उतारू हैं।’सत श्री
अकाल!' तब
वे अपनी तलवार
निकाल लेते
हैं। जैसे यह
कोई युद्ध का
नारा हो। यह
युद्ध का नारा
नहीं है, यह
अंतर्यात्रा
का नारा है।
यह तलवार में
हाथ रखने का
नारा नहीं है।
यह कोई
राजनैतिक
नारा नहीं है,
यह तो धर्म
का मूल सार है।
और जब नानक ने
इसे चुना होगा
तो क्या सोचकर
चुना होगा? यही सोचकर
चुना था कि यह
याद दिलाता
रहेगा कि समय
के भीतर मन है,
समय के पार
हम हैं।
समय को
पी जाओ।
दूसरा
प्रश्न :
हर कोई
ढूंढ़ता है, एक
मुट्ठी आसमान
हर कोई
चाहता है, एक
मुट्ठी आसमान
जो
सीने से लगा
ले हो ऐसा एक जहान
हर कोई
ढूंढ़ता है, एक
मुट्ठी आसमान।
हर कोई
प्रेम और
सुरक्षा के
लिए दौड़ रहा
है लेकिन वे
दोनों चीजें मृगमरीचिका
बनी रहती हैं।
आखिर सुरक्षा
है कहां? आप कहते हैं
कि स्वयं को
अस्तित्व के
हाथों में छोड़
दो। लेकिन वह
स्थिति तो और
भी असुरक्षित
दिखती है।
प्रेम और
सुरक्षा को
कैसे उपलब्ध
होवे?
ठीक पूछा है।
आदमी दो ही
चीजें खोज रहा
है प्रेम मिल
जाये और
सुरक्षा मिल
जाये।
सुरक्षा के
लिए धन इकट्ठा
करता है, प्रेम के
लिए संबंध
बनाता है।
सुरक्षा के
लिए मकान
बनाता है, किले
की दीवालें
उठाता है,
तिजौडियां
खड़ी करता है।
प्रेम के लिए
पत्नी, पति,
बेटे, बेटियां,
मित्र, प्रियजन,
परिवार
इनका निर्माण
करता है।
सुरक्षा
और प्रेम की खोज
से ही तो सारा
संसार
निर्मित होता
है। जिसको तुम
संसार कहते हो
वह है क्या? सुरक्षा
और प्रेम को
पाने की प्रबल
आकांक्षा। और
मिलती नहीं।
दौड़ जारी रहती
है।
कितना
ही धन हो तो भी
सुरक्षा नहीं
आती हाथ। सच
तो यह है, पहले तुम
अपने लिए डरे
थे कि कैसे
अपनी सुरक्षा करें;
अब इस धन की
भी सुरक्षा
करनी पड़ती है।
असुरक्षा
दुगुनी हो गई।
पहले अपने को
बचाते थे अब
यह धन भी है, इसको भी
बचाना है।
कहानियां
कहती हैं न! कि
आदमी मर भी
जाता है तो
मरकर सांप होकर
अपने धन की
तिजोड़ी के पास
फन मारकर बैठ
जाता है।
जिंदा भर भी
फन मारे बैठा
रहता है, मरकर भी फन
मारकर बैठ
जाता है।
जिनको तुम धन
के मालिक कहते
हो, धन के
चौकीदार कहो।
मालिक तो कभी—कभार
कोई होता है।
मालिक तो वह, जो देना
जानता है।
मालिक तो वह, जो देने में
समर्थ है।
गुरजिएफ
ने कहा है, जो मैंने
बचाया, पाया
कि खो गया। और
जो मैंने दिया,
आखिर में
पाया कि बच
रहा है।
दिया
हुआ ही बचता
है। देनेवाला
ही मालिक है।
लेकिन जो धन
में सुरक्षा
खोज रहा है वह
देगा कैसे? वह तो एक—एक
पैसे को पकड़े
हुए है, जकड़े
हुए है।
सुरक्षा है।
और फिर इस धन
की भी सुरक्षा
करनी पड़ती है।
फिर ऐसे एक पर
एक सुरक्षा की
दौड़ बड़ी होती
जाती है।
प्रेम
को तुम पाने
की दौड में
कितने संबंध
बना लेते हो!
संबंध तो बन
जाते हैं, प्रेम कहां
मिलता? तुमने
यह मजा देखा? जिस स्त्री
से तुम दूर हो
उसके प्रति
प्रेम मालूम
पड़ता है। जैसे
ही तुम्हारे
कब्जे में आई,
प्रेम
छलांग लगाकर
किसी और
स्त्री पर
सवार होने
लगता है।
प्रेम
छलांग लगाता
है। जो मिल
गया उससे हट
जाता है। किसी
और पर खोज
शुरू हो जाती
है। क्योंकि
जो मिल गया, पता चलता
है, कहां
प्रेम है? हड्डी,
मांस, मज्जा
मिल गई। एक
स्त्री मिल गई,
एक पुरुष
मिल गया।
प्रेम कहां
है! फिर
आकांक्षा पर
मारने लगती है।
फिर सपने
फैलने लगते
हैं। फिर खोज
जारी है। मिला
नहीं कोई कि
खोज जारी नहीं
हुई। हर मिलन
फिर नई खोज पर
निकल जाना हो
जाता है। हर
द्वार और नये
द्वार खोल
देता है।
यात्रा बंद
नहीं होती।
मृग—मरीचिका
का यही अर्थ
होता है।
तुमने ठीक
पूछा कि प्रेम
को खोजते हैं, सुरक्षा
को खोजते हैं
और दोनों मृग—मरीचिका
बनी रहती हैं।
और आप कहते
हैं कि अपने
को अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ दो। उसमें
तो और
असुरक्षा
मालूम होती है।
निश्चित
ही। क्योंकि
असुरक्षा ही
सुरक्षित हो
जाने का उपाय
है। जिसने
बचाया उसने
खोया। जिसने
खोया उसने बचा
लिया।
तुम
किस चीज की
सुरक्षा कर
रहे हो? जिस चीज की
तुम सुरक्षा
कर रहे हो वह
बचनेवाली
नहीं है। शरीर
को बचाओगे? यह जाकर
रहेगा। धन को
बचाओगे? यह
जाकर रहेगा।
घर को बचाओगे?
तुम नहीं थे
तब भी था, तुम
नहीं होओगे तब
भी होगा। इस
घर को तुमसे
कुछ लेना—देना
नहीं है।
किसको बचाओगे?
न देह बचती,
न धन बचता।
सब खो जाते।
और मौत तो एक
दिन आकर सब
मटियामेट कर
देती।
तुम्हारे
बनाये हुए
घरपूले, रेत
के घर सब गिरा
देती है। क्या
बचाओगे? जहां
मौत है वहां
सुरक्षा हो
कैसे सकती है?
जहां मौत है
वहां सुरक्षा
हो ही नहीं
सकती।
तो फिर
क्या सुरक्षा
का कोई उपाय
नहीं? सुरक्षा
की खोज में ही
भ्रांति है।
तुम
असुरक्षित हो
जाओ। तुम
असुरक्षित
होने को
स्वीकार कर लो।
यही है, जब
मैं कहता हूं
कि अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ दो।
असुरक्षा
जीवन का
स्वभाव है।
इसे बदला नहीं
जा सकता।
बच्चे
थे एक दिन तुम, बचपन गया,
रोक सके? क्या करते? कैसे रोकते?
जवान थे तुम,
जवानी गई, रोक सके? बुढ़ापा
भी चला जायेगा।
देह थी, देह
भी चली जायेगी।
जो भी है सब बह
रहा है। यहां
कुछ रुकेगा
नहीं। यहां
कुछ रुकता ही
नहीं। सब जल
की धार है। इस
जल की धार में
तुमने रोकना
चाहा तो दुखी
होओगे, बस।
और तुमने जान
लिया कि यह
धार का स्वभाव
है कि यहां
कुछ रुकता
नहीं—उसी क्षण
दुख गया। अब
दुख होने का
कोई कारण न
रहा। तुमने
माना कि रुकता
है, तो
अड़चन आई।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है।
किसा गौतमी
नाम की एक
सुंदरी युवती
का इकलौता
बेटा मर गया।
उसे बहुत
चाहती थी। वही
उसका सब कुछ
था। वह उसकी
लाश को लेकर
गांव में
घूमने लगी। वह
द्वार—द्वार
दस्तक देने
लगी कि कोई
औषधि हो, कोई तंत्र—मंत्र,
किसी का
आशीष।
लोग
रोते, उस
पर दया करते।
सारा गांव उसे
प्रेम करता था।
वह प्यारी
महिला थी।
उसका पति भी
मर गया था।
इसी बेटे के
सहारे जीती थी।
और यह बेटा भी
चल बसा। वह
बिलकुल अकेली
हो गई। उसने
किसी तरह जहर
का घूंट पीकर
पति के मर जाने
को स्वीकार कर
लिया था।
लेकिन अब यह
बहुत ज्यादा
हो गया। अब
उसका आखिरी
सहारा भी गया।
उसका आखिरी
भविष्य भी छिन
गया। अब सब
तरफ अंधेरा था।
किसी
ने उसको कहा
कि पागल, हमारे
द्वारों पर
दस्तक देने से
क्या होगा? हम खुद दुखी
हैं। तू ऐसा
कर, बुद्ध
आये हुए हैं, तू उनके पास
जा। बुद्ध
गांव के बाहर
ठहरे हैं।
शायद उन
महात्मा के
आशीष से कुछ
हो जाये। तो
वह अपने बेटे
की लाश को
लेकर गई।
बुद्ध के
चरणों में लाश
रख दी और कहा, आप आये हैं, यह देखें, मैं अभी
जवान हूं,मेरा
पति चला गया।
यह मेरा बेटा
भी गया। आप
कुछ करें।
मेरे दुख को
देखें। और वह
जार—जार रो
रही है। बुद्ध
ने कहा, ठहर,
कुछ करूंगा।
कुछ करना ही
पड़ेगा। उसकी
हिम्मत लौट आई।
उसके आंसू सूख
गये। उसने कहा,
कितनी देर लगेगी?
बुद्ध ने
कहा, थोड़ी
ही देर लगेगी।
तेरे गांव में
तू जा। किसी
भी घर से किसी
भी घर से चार
दाने चावल के
मांग ला।
लेकिन ऐसे घर
से मांगना, जहां कोई
मौत कभी घटित
न हुई हो।
वह
भागी। वह तो
भूल ही गई कि
यह क्या बात
बुद्ध ने कही
है। यह कहीं
होनेवाली है!
लेकिन जब आदमी
अपने दुख में
डूबा होता है
तो कौन गणित
लगाता? शायद कोई घर
हो, जहां
मौत कभी न हुई
हो। और जब
बुद्ध कहते
हैं तो जरूर
कोई घर होगा।
वह घर—घर
द्वार—द्वार
मांगने लगी कि
चार दाने चावल
के मुझे दे दो।
लोग बोरियां
खोल दिये।
उन्होंने कहा,
पूरी बोरी
की बोरी ले जा।
हम सारा
खलिहान तेरे
घर पर उड़ेल
दें लेकिन
क्षमा कर, हमारे
दाने काम न
आयेंगे।
हमारे घर में
तो बहुत मौतें
हो चुकीं।
जिंदा तो बहुत
कम हैं, मरे
बहुत हैं।
हमारे बाप मरे,
बाप के बाप
मरे, मां
मरी, मां
की मां मरी, हमारे भाई
मरे, किसी
की पत्नी मरी,
किसी के पति
मरे, किसी
के बेटे, किसी
की बेटी।
मुर्दों की
संख्या
ज्यादा है, वे लोग कहने
लगे, जिंदा
तो बहुत कम
हैं, दो —चार
बचे हैं।
लाखों मरे हैं।
घर—घर
घूमते—घूमते
लेकिन एक बात
उसकी समझ में
साफ होने लगी
कि मौत तो
घटती ही है।
हर घर में
घटती है। हर
आदमी को घटती
है,।
मेरे साथ
अपवाद नहीं हो
सकता। पूरे
गांव में
मांगते—मांगते
किसा गौतमी
समाधि को
उपलब्ध हो गई।
जब वह लौटकर
आई तो परम शांत
थी।
भिक्षु
द्वार पर खड़े
थे, इस
रहस्यपूर्ण
लीला को देख
रहे थे कि
बुद्ध ने क्या
किया। अब क्या
होगा? क्या
इसे चावल मिल
जायेंगे? क्या
बेटा जी उठेगा?
और किसा
गौतमी जब शांत,
परम मौन में,
बड़े प्रसाद
से भरी आने
लगी तो वे
समझे कि मिल गये
दाने।
चमत्कार होकर
रहेगा।
दौड़े।
बुद्ध को
उन्होंने कहा
कि किसा गौतमी
आ रही है, बिलकुल शांत
है। आंसू
बिलकुल जा
चुके हैं। जरा
भी बेचैनी, दुख की कोई
छाया नहीं है।
लगता है, वे
चावल जो आपने
कहे थे, मिल
गये। बुद्ध ने
कहा, पागलों,
ठहरो, रुको,
उसे आने दो।
उसे चावलों से
बडी कोई चीज
मिल गई है।
उसे जीवन का
अर्थ मिल गया
है। वह समझ कर
आ रही है।
उसके भीतर
किरण उतरी है।
उसका अंधेरा
कट गया है।
और जब
किसा गौतमी
आकर उनके
चरणों में
गिरी और उसने
कहा, मुझे
दीक्षा दें।
और उसने आंख
भी उठाकर न
देखी उस बेटे
की लाश की तरफ।
उसने लोगों से
कहा, ले
जाओ। मरघट पर
जला दो।
क्योंकि एक
बात साफ हो गई
कि यहां मौत
तो घटती ही है।
सभी की घटती
है, देर—
अबेर अभी—कभी
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
आज कि कल, दो दिन पहले
कि दो दिन बाद,
मौत तो यहां
सुनिश्चित है।
जो सुनिश्चित
है उससे लड़ना
व्यर्थ है।
मैंने मौत को
स्वीकार कर
लिया। और मौत
को स्वीकार
करते ही मेरे
भीतर एक ऐसी किरण
उतरी है जो
अमृत की है; जिसकी कोई
मृत्यु नहीं
होगी।
ऐसा
जीवन का
विरोधाभास से
भरा हुआ
स्वर्ण नियम
है। तुम
सुरक्षा खोजो, तुम असुरक्षित
होते जाओगे।
तुम प्रेम
खोजो, और
तुम विषाद से
भरते जाओगे।
फिर क्या करें?
मैं कहता हूं,असुरक्षा है।
जीवन का सत्य
है। सत्य को
झुठलाया नहीं
जा सकता।
तुम्हारी
वांछाओं से
थोड़े ही सत्य
चलता है, जैसा
है वैसा रहेगा।
तुम लाख कहो
कि ये वृक्ष
के पत्ते पीले
हो जायें, हरे
न हों, सफेद
हो जायें काले
हो जायें। कौन
सुनने वाला है
भू: ये वृक्ष
के पत्ते हरे
हैं। तुम ये
सारे पत्ते
काट डालो, फिर
नये पत्ते
निकलेंगे, फिर
हरे निकलेंगे।
क्योंकि
वृक्ष के
पत्ते
तुम्हारी आकांक्षाओं
से संचालित
नहीं होते।
वृक्ष के
पत्ते किसी
महानियम को
मानकर चलते हैं,
जहां से वे
सदा हरे
निकलते हैं।
जो
पैदा हुआ वह
मरेगा। जो
जवान है वह कल
बूढ़ा होगा। जो
आज अकड़ा है, कल
टूटेगा। जो आज
आकाश छू रहा
है, कल
कब्र में
गिरेगा। यह
होनेवाला है।
इसे बदलने का
कोई उपाय नहीं
है। तुम असंभव
को मांगो मत।
बस, जैसे ही
तुमने इसे
स्वीकार कर
लिया, फिर
मैं तुमसे
पूछता हूं? कहां है
असुरक्षा? अब
यह बड़े मजे की
बात है।
सुरक्षा को
खोजो, असुरक्षा
निर्मित होती
है। क्योंकि
जितनी तुम
सुरक्षा की
मांग करते हो
उतनी घबड़ाहट
बढ़ती है। और
उतना ही
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि सुरक्षा
होनेवाली
नहीं, असुरक्षा
हो रही है। तो
असुरक्षा बड़ी
होती चली जाती
है। तुम्हारी
सुरक्षा के
अनुपात में ही,
तुम्हारी
सुरक्षा की
आकांक्षा का
जो अनुपात है
उसी अनुपात
में असुरक्षा
बड़ी होकर
दिखाई पड़ने
लगती है।
तुम्हें अपनी
हार दिखाई
पड़ने लगती है।
तुम्हें लगता
है कि जीत न
पायेंगे, हार
निश्चित है।
मैं
तुमसे कह रहा हूं,तुम जान
लो कि
असुरक्षा तो
है ही जीवन का
स्वभाव; और
सुरक्षा की
चेष्टा छोड़ दो।
जब सुरक्षा की
कोई आकांक्षा
ही न रही तो
फिर कैसी
असुरक्षा? असुरक्षा
को कैसे
तौलोगे? सुरक्षा
की मांग अड़चन
डालती है। जिस
आदमी के जीवन
में धन की
वासना न रही
वह क्या गरीब
हो सकता है? कैसे होगा? धन की वासना
के बिना गरीब
होने का कोई
उपाय ही न रहा।
वह सम्राट हो
गया। स्वामी
राम ने कहा है,
एक घर छोड़ा
तो सारे घर
मेरे हो गये।
एक आयन क्या
छोड़ा, सारा
आकाश मेरा आंगन
हो गया। जब तक
कुछ मेरे पास
था, मैं
दरिद्र था। अब
कुछ भी मेरे
पास नहीं है
और मैं सम्राट
हूं।
ऐसी ही
है बात। जिनके
पास कुछ है वे
दरिद्र हैं।’कुछ' में
तो दरिद्रता
है ही। फिर वह
कुछ किसी के
पास थोड़ा है, किसी के पास
ज्यादा है।
किसी के पास
दो गज जमीन है,
किसी के पास
हजार गज जमीन
है, किसी
के पास हजारों
मील की जमीन
है, लेकिन
कुछ तो कुछ ही
है। थोड़ा हो
कि बड़ा हो, दरिद्रता
तो दरिद्रता
है। मात्रा के
भेद से क्या
फर्क पड़ेगा? तुम्हारे
सम्राट भी तो
दीन—हीन
भिखारी हैं, जैसे तुम हो।
अंतर कुछ बहुत
नहीं है। उनके
भिक्षापात्र
बड़े होंगे, तुम्हारे
भिक्षापात्र
छोटे हैं, बस
इतना ही फर्क
है।
भिक्षापात्र
के बड़े होने
से कोई सम्राट
होता है?
नहीं, सम्राट
तो वही है
जिसने
भिक्षापात्र
ही हटा दिया।
जिसने कहा कि
जीवन जैसा है
उससे अन्यथा
की हमारी कोई
मांग नहीं। हम
सुरक्षा मलते
नहीं।
असुरक्षा है
तो असुरक्षा स्वीकार।
असुरक्षा है
तो असुरक्षा
से हम राजी
हैं। मौत
आयेगी, तैयार
हैं। बुढ़ापा
आयेगा, उत्सुकता
से प्रतीक्षा
करेंगे।
जिनके
जीवन में
विरोध न रहा
सत्य का, तथ्य का, उनके
जीवन में
असुरक्षा
अपने आप खो गई।
यह तुम्हें
हैरानी की
लगेगी बात, मैं फिर
दोहरा दूं.
सुरक्षा
मांगी, असुरक्षा
पैदा होती है।
असुरक्षा है
नहीं, तुम्हारी
सुरक्षा की
मांग से पैदा
हो रही है।
सुरक्षा की
मांग गई, असुरक्षा
भी गई। और तब
जो शेष रह
जाता है वही
वास्तविक
सुरक्षा है।
तुम
पूछते हो, ' आप कहते
हैं, अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ दें, इससे
तो स्थिति और भी
असुरक्षित हो
जायेगी।’
तुम
बिना छोडे ही
पूछ रहे हो।
छोड्कर देखो।
इधर मैंने
छोड्कर देखा
और मैं तुमसे
कहता हूं? सब
असुरक्षा खो
जाती है। मैं
कोई पंडित
नहीं हूं। मैं
किसी शास्त्र
के सिद्धांत
को समझाने
नहीं बैठा हूं।
यह मैं तुमसे
अपने अनुभव से
कहता हूं। यह
मैं जानकर
कहता हूं कि
जिस दिन
सुरक्षा छोड़ी, उसी दिन
असुरक्षा भी
गई। असुरक्षा
सुरक्षा की ही
छाया है। मूल
ही चला गया तो
अब पत्ते कहां
लगेंगे? जड़
ही न रही तो अब
अंकुर कहां
फूटेगा?
नहीं, तुम सोच—सोचकर
कह रहे हो।
तुम कह रहे हो
कि हम तो वैसे
ही परेशान हैं।
सुरक्षा खोज—खोजकर
तो मिल नहीं
रही, और आप
मिल गये
महाजन! आप
कहते हैं, खोज
भी छोड दो।
खोज—खोजकर तो
मिलती नहीं और
आप कहते हैं, खोज भी छोड़
दो। खोज—खोजकर
तो मिलती नहीं
और आप कहते
हैं इस अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ दो। और
असुरक्षित हो
जायेंगे। फिर
तो गये! मारे
गये! फिर बचाव
का कोई उपाय न
रहा। बच—बचकर
नहीं बच पा
रहे हैं और आप
कहते हैं, बचाओ
ही मत। छोड़ो
यह ढाल, छोड़ो
यह तलवार। छोड़
ही दो।
तुम्हारी
बात भी मेरी
समझ में आती
है। अगर तुम
तर्क से ही
सोचोगे तो ऐसा
लगेगा; सुनिश्चित
लगेगा। लेकिन
यह अनुभव की
बात है, तर्क
की बात नहीं।
तुम
थोड़ा स्वाद
लेकर देखो।
छोड्कर ही
देखो। और ऐसा
मत छोड़ना शर्त
के साथ कि जरा
देखें छोड्कर, क्या
होता है। तो
तुमने छोड़ा ही
नहीं।
यह
अनुभव वस्तुत:
हो तो तुम
अचानक पाओगे, न कोई
असुरक्षा है,
न सुरक्षा
की कोई जरूरत
है। तुम
परमात्मा हो।
तुम परमपद पर
विराजमान हो।
जो मिटता है
वह तुम नहीं
हो। जो आता—जाता
है वह तुम
नहीं हो। जो
सदा है वही
तुम हो।
तत्वमसि। वही
एक, जो न
कभी आया, न
कभी गया। जो
शाश्वत, सनातन;
चिर पुरातन,
चिर नूतन; सदा से है और
सदा रहेगा।
यद्यपि बहुत—से
रूप बनते और
बिगड़ते हैं, लेकिन रूप
के भीतर जो
रूपायित है, वह अखंड, अविच्छिन्न
बहता रहता है।
और
दूसरी बात, पूछा है.
प्रेम। तो
असुरक्षा को
मिटाने का तो
उपाय है, सुरक्षा
की वासना छोड़
दो। और प्रेम
को पाने का
उपाय है कि
प्रेम को पाने
मत जाओ, देने
जाओ। तुम जब
भी प्रेम को
पाने जाते हो
तभी चूक जाते
हो। तुम कहते
हो मिल जाये यहां
से, मिल
जाये वहां से।
प्रेम
कोई दे थोड़े
ही सकता
तुम्हें!
प्रेम कोई ऐसी
चीज थोड़े ही
है कि बाहर
रखी है कि
जाकर कब्जा कर
लिया, कि
भर ली
तिजोडिया।
प्रेम कोई
वस्तु नहीं है।
प्रेम तो एक
चैतन्य की दशा
है। प्रेम कोई
संबंध नहीं है,
जो
तुम्हारे और
तुम्हारी
पत्नी के बीच
होता; या
तुम्हारे और
तुम्हारे
बेटे के बीच
होता है।
प्रेम तो एक
चैतन्य की दशा
है। जब तुम
परम आनंदित
होते हो, तुमसे
प्रेम झरता है।
जैसे फूल जब
खिलते हैं तो
सुगंध झरती।
सूरज निकलता
है तो रोशनी
झरती। ऐसे तुम
जब परम शांति
को उपलब्ध
होते हो तो
तुमसे प्रेम
झरता है।
और तुम
बाहर भटक रहे
हो। तुम कहां
खोजने चले हो? किससे
मांगने जा रहे
हो? जो
तुम्हारे
भीतर की संपदा
है, किसी
और से नहीं
मिलेगी। किसी
और से मांगने
गये तो चूकते
ही रहोगे, चूकते
ही चले जाओगे।
एक से न
मिलेगी तो
दूसरे के पास,
दूसरे से
नहीं तो तीसरे
के पास।
जन्मों—जन्मों
में ऐसे ही तो
तुमने आवागमन
किया है।
कितने घरों के
द्वार पर
तुमने भीख
नहीं मांगी!
भिक्षापात्र
तो देखो, खाली
का खाली है।
अब जरा
उनकी भी सुनो, जो कहते
हैं, मांगने
की जरूरत ही
नहीं है। जिस
हीरे को तुम
खोजने चले हो
वह तुम्हारे
ही अंतरतम में
पड़ा है। प्रेम
तुम्हारी
संपदा है।
प्रेम मिला
बुद्ध को, प्रेम
मिला महावीर
को, प्रेम
मिला जीसस को,
प्रेम मिला
मोहम्मद को।
और उन्होंने
किसी में जाकर
प्रेम खोजा नहीं,
प्रेम के
संबंध नहीं
बनाये। भीतर
झांका, अंतर
में झांका और
प्रेम के झरने
फूटे।
प्रेम
एक चित्त की
आखिरी दशा है, खिला हुआ
फूल, जिसको
हम सहस्रार
कहते हैं। वह
हजार
पंखुरियों
वाला कमल जब
तुम्हारे भीतर
खुलता है, उससे
जो सुगंध बहने
लगती है वही
सुगंध प्रेम है।
प्रेम संबंध
नहीं, प्रेम
स्वभाव है।
इसलिए तुम चूक
रहे हो। अगर
तुम भीतर
झांको तो तुम
नाच उठो जैसे
मोर नाच उठते
हैं, जब
आषाढ़ के पहले
मेघ घिरते हैं।
अभी तो
तुम्हारी
हालत ऐसी है
कि जैसे कौवे
का पंख रखे हो
और मोर का पंख
मान बैठे हो।
समझाते —बुझाते
बहुत अपने को
कि नहीं, है मोर का ही,
लेकिन
जानते तो हो
कि है कौवे का।
फिर गौर से देखते
हो, फिर
कौवे का पंख
दिखाई पड़ जाता
है। मोर का
पंख कौवे के
पंख को लीप—पोतकर
नहीं बनाया जा
सकता, रंग—रोगन
करके नहीं
बनाया जा सकता।
जिस दिन तुम
भीतर झांकोगे
उस दिन
तुम्हारा मोर
नाच उठेगा। मन—मयूर
नाचे। मयूरी
नाच!
आषाढ़
के मेघ बादल
में जैसे घिर
जायें, जैसे पहली—पहली
वर्षा गिरती
है। और सूखे
पत्ते हरे
होने लगते हैं
और सूख गये वृक्षों
के प्राण फिर
संजीवना से भर
जाते हैं, भूखी
धरती, प्यासी
धरती तृप्त हो
जाती है और सब
तरफ एक हरियाली,
एक संतोष, एक परितोष
छा जाता।
हरी
चूनर पहनकर आ
गई वर्षा
सुहागन फिर
कहीं
वन—बीच फूलों
में पड़ी थी
स्वप्न में
सोई
उलझते
बादलों की लट
पिया छलका गया
कोई
तिमिर
ने राह कर दी, राह
कच्ची धूप की
धोई
पवन की
रागिनी मोती
भरे आकाश में
खोई
पहन
धानी लहरिया आ
गई वर्षा
सुहागन फिर
मयूरी
नाच! और ये
बादल बाहर के
आकाश में नहीं
घिरते, और यह वर्षा
बाहर के बादलों
की वर्षा नहीं
है। यह
तुम्हारे
भीतर की घटना
है—अंतरतम की।
प्रेम
तुम्हारे
अंतर्गृह का
देवता है। इसे
तुम कहां खोज
रहे हो?
अब यह
सोचो, जिनके
पास भीतर
प्रेम नहीं है
वे दूसरों के
पास प्रेम खोज
रहे हैं। और
जो तुम्हारे
प्रेम में पड़ता
है वह भी
इसलिए प्रेम
में पड़ा है कि
शायद
तुम्हारे पास
प्रेम मिल
जाये। देखते
इस बात का मजा?
तुम एक
स्त्री के
प्रेम में पड़
गये, स्त्री
तुम्हारे
प्रेम में पड़
गई। न
तुम्हारे पास
प्रेम है, न
उसके पास
प्रेम है।
होता ही तो
तुम भटकते
क्यों? मांगते
क्यों त्र: दो
भिखमंगे एक
दूसरे के सामने
भिक्षापात्र
लेकर खड़े हैं
कि कुछ मिल
जाये। दोनों
इस आशा में
हैं कि दूसरे
पर होगा।
दोनों में
नहीं है। थोड़ी
देर में
भिक्षापात्र
खड़खड़ाने लगते
हैं, झगड़ा
शुरू हो जाता
है। जल्दी ही
झगड़ा शुरू हो
जाता है!
प्रेमी जल्दी ही
लड़ने लगते हैं।
क्योंकि
कितनी देर
धोखा खाओगे? जल्दी ही
लगने लगता है
कि अरे, तो
दूसरा धोखा दे
रहा है! कुछ
मिल नहीं रहा।
और दूसरे को
भी लगता है, तुम भी कुछ
दे नहीं रहे।
तो यह व्यर्थ
गई बात। यह
मिलन फिर
बेकार गया।
फिर कहीं और
खोजें, कोई
और द्वार
खटखटाये। ऐसे
ही चलता।
नहीं, इस तरह
प्रेम नहीं
मिलेगा। प्रेम
को जगाना हो, प्रेम की
ज्योति को
आविर्भूत
करना हो तो भीतर
जाना पड़े।
प्रेम है
तुम्हारे
अंतरतम की
पहचान। जब
तुमने अपने
जीवन का
मूलस्रोत पा
लिया, झरना
पा लिया तो
वहां से जो
धार बहती है, वही प्रेम
है।
फिर
तुम जहां भी
बैठोगे वहीं
तुम प्रेम को
पाओगे।
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारे साथ
है। हर आदमी
अपना स्वर्ग
और अपना नर्क
अपने भीतर लेकर
चलता है। तुम
लिये तो नर्क
हो और स्वर्ग
की तलाश कर
रहे हो, यहीं भूल हो
रही है। लिये
तो दुख के बीज
हो और सुख की
तलाश कर रहे
हो, यहीं
भूल हो रही है।
तुम फसल दुख
की कांटोगे
क्योंकि बीज
जो हैं वही तो
उगेंगे।
कितना ही तुम
मांगो सुख, कांटोगे फसल
दुख की। प्रेम
के नाम पर तुम
घृणा को ही
पाओगे, क्रोध
को ही पाओगे।
और— और नई—नई
पीड़ाएं, नये—नये
घाव बना लोगे।
और नासूर पैदा
होंगे।
नहीं, यह कोई
उपाय नहीं है।
प्रेम के नाम
पर मवाद ही
पैदा होगी, कुछ भी और पैदा
न होगा। इसलिए
तुमसे कहता
हूं. तुम कहते
हो—
'हर
कोई ढूंढता है
एक मुट्ठी
आसमान
हर कोई
चाहता है एक
मुट्ठी आसमान
जो
सीने से लगा
ले हो ऐसा एक जहान
हर कोई
ढूंढता है एक
मुट्ठी आसमान'
मुट्ठी
आसमान? तुम्हारे
भीतर पूरा
आसमान मौजूद
है, पूरा
आकाश।
मुट्ठियों की
बातें छोड़ो।
ये दीन—दरिद्रों
की बातें छोड़ो।
मुट्ठियों से
कहीं आकाश
नापे गये? मुट्ठियों
से कहीं आकाश
मांगे गये? मुट्ठी जोर
से बांध ली तो
आकाश बाहर
निकल जाता है।
मुट्ठी खुली
हो तो आकाश
पूरा हाथ में
है, मुट्ठी
बाधी कि गया।
और जो
आकाश बाहर
दिखाई पड़ता है
यही थोड़े ही
पूरा आकाश है!
असली आकाश
भीतर है। भीतर
चलो। भीतर के
इस शून्य से
थोड़ा संबंध
बनाओ। जिस
व्यक्ति ने
भीतर के शून्य
के साथ भांवर
डाल ली, उसके जीवन
में प्रेम
खिलता। खूब
खिलता। न केवल
उसे मिलता, उसके आसपास
जो आकर बैठ
जायें वे भी
अनायास धन्यभागी
हो जाते हैं।
उन पर भी आशीष
की वर्षा हो
जाती है।
तीसरा
प्रश्न :
तंत्र
को आपने कहा, आकाश
से
आकाश में उड़ान।
क्या यही
तंत्र का मूल
स्वर
है? इसमें
जीवन का परम
स्वीकार किस
भांति
समाहित है? कृपा
करके समझायें।
मैं ने कहा, अक्षर से
क्षर की
यात्रा यंत्र
क्षर से अक्षर
की यात्रा मंत्र
अक्षर से
अक्षर की
यात्रा तंत्र
देह है यंत्र।
दो देहों के
बीच जो संबंध
होता है वह है
यांत्रिक।
सेक्स
यांत्रिक है।
कामवासना
यांत्रिक है।
दो मशीनों के
बीच घटना घट
रही है।
मन है
मंत्र। मंत्र
शब्द मन से ही
बना है। जो मन
का है वही
मंत्र। जिससे
मन में उतरा
जाता है वही
मंत्र। जो मन
का मौलिक
सूत्र है वही
मंत्र। मन और
मंत्र की मूल
धातु एक ही है।
तो देह
है यंत्र। देह
से देह की
यात्रा
यांत्रिक—कामवासना, सेक्स।
मन है
मंत्र। मन से
मन की यात्रा
मांत्रिक।
जिसको तुम
साधारणत:
प्रेम कहते हो—दो
मनों के बीच
मिल जाना। दो
मनों का मिलन।
दो मनों के
बीच एक संगीत
की थिरकन। दो
मनों के बीच
एक नृत्य। देह
से ऊपर है।
देह है भौतिक, मंत्र है
मानसिक, मनोवैज्ञानिक,
सायकॉलॉजिकल।
और
आत्मा है
तंत्र। दो
आकाशों का
मिलन। अक्षर
से अक्षर की
यात्रा। जब दो
आत्मायें
मिलती हैं तो तंत्र—न
देह, न मन।
तंत्र ऊंचे से
ऊंची घटना है।
तंत्र परम
घटना है।
तो
इससे ऐसा समझो
देह—यंत्र, सेक्यूअल,
शारीरिक।
मन—मंत्र, सायकॉलॉजिकल,
मानसिक।
आत्मा—तंत्र, कॉस्मिक,
आध्यात्मिक।
ये तीन
तल हैं
तुम्हारे
जीवन के।
यंत्र का तल, मंत्र का
तल, तंत्र
का तल। इन
तीनों को ठीक
से पहचानो। और
तुम्हारे हर
काम तीन में
बंटे हैं।
कोई
व्यक्ति भोजन
करता यंत्रवत।
न उसे स्वाद
का पता है, न वह भोजन
करते वक्त
भोजन कर रहा
है; डाल
रहा है किसी
तरह। हिसाब
लगा रहा है
दुकान का, ग्राहकों
से बात कर रहा
है, हिसाब—किताब,
बही—खाते कर
रहा है भीतर, इधर भोजन
डाले जा रहा
है। यह भोजन
हुआ यांत्रिक।
तो भोजन भी
यंत्रवत हो
गया।
फिर
कोई व्यक्ति
बड़े मनोभाव
से.. किसी ने बड़े
प्रेम से भोजन
बनाया है।
तुम्हारी मां
ने बड़े प्रेम
से भोजन बनाया
है, कि
तुम्हारी
पत्नी दिन भर
तुम्हारी
प्रतीक्षा की
है, ऐसा
अपमान तो न
करो उसका!
इतने भाव से
बनाये गये
भोजन का ऐसा
तिरस्कार तो न
करो कि तुम
खाते —बही कर
रहे हो, कि
तुम भीतर—
भीतर गणित
बिठा रहे हो, कि तुम यहां
हो ही नहीं।
कोई मन
से भोजन करता
है तो भोजन भी
मांत्रिक हो
जाता है। तब
सब हटा दिया।
कहीं और नहीं, यहीं है।
बड़े
मनोभावपूर्वक,
बड़ी
तल्लीनता से,
बड़े
ध्यानपूर्वक,
बड़ी
अभिरुचि से, स्वाद से, सम्मान से।
और कोई
ऐसा भी भोजन
करता जो
आध्यात्मिक।
उपनिषद कहते
हैं, अन्न
ब्रह्म—अन्न
ब्रह्म है। यह
ऋषियों ने
भोजन भी
आध्यात्मिक
ढंग से किया
होगा—तांत्रिक।
क्योंकि भोजन
भी वही है। हम
उसी को तो
पचाते हैं। हम
भोजन में उसी
का तो स्वाद
लेते हैं।
भोजन में वही
तो हमारे भीतर
जाकर जीवन का
नवसंचार करता,
नये रस से
भरता, पुनरुज्जीवित
करता। जो
मुर्दा कोष्ठ
हैं उन्हें
बाहर फेंक
देता, नये
जीवित कोष्ठ
निर्मित कर
देता। तो परमात्मा
भोजन से भीतर
आता है—तांत्रिक।
ऐसे
तुम समझो
प्रत्येक
क्रिया तीन तल
पर है। कोई
आदमी रास्ते
पर घूमने गया
और हजार—हजार
विचारों में
उलझा—यांत्रिक।
कोई रास्ते पर
घूम रहा, विचारों में
उलझा हुआ नहीं।
सुबह की हवा
उसे छूती, संवेदनशील,
सुबह का
सूरज अपनी किरणें
बरसात।, पक्षी
गुनगुनाते।
वह इन सबको
सुन रहा
मंत्रमुग्ध।
मस्ती में जा
रहा—मांत्रिक।
और फिर कोई
ऐसे भी जा
सकता है कि हर
हवा का झोंका
परमात्मा का
झोंका मालूम
पड़े। और हर
किरण उसकी ही
किरण मालूम
पड़े। और हर
पक्षी की
गुनगुनाहट
उसके ही वेदों
का उच्चार, उसके ही
कुरान का
अवतरण—तो
तांत्रिक।
तुम
अपने जीवन की
प्रत्येक
क्रिया को तीन
में बांट सकते
हो। ध्यान
रखना, यंत्र
में ही मत मर
जाना। अधिक
लोग यंत्र की
तरह ही जीते, यंत्र की
तरह ही मर
जाते। बहुत
थोड़े —से
धन्यभागी
मांत्रिक हो
पाते हैं—कवि,
संगीतज्ञ, नर्तक। बहुत
थोड़े —से लोग!
और वे भी बहुत
थोड़े —से
क्षणों में, चौबीस घंटे
नहीं। चौबीस
घंटे तो वे भी
यांत्रिक
होते हैं। कभी—कभी
किसी क्षण में,
किसी पुलक
में, जरा—सा
द्वार खुलता,
जरा—सा
झरोखा खुलता
और उस तरफ का
जगत झांकता; उस आयाम का
प्रवेश होता।
क्षण भर को एक
कविता लहर
जाती, फिर
द्वार बंद हो
जाते हैं।
फिर
बहुत विरले
लोग हैं —कृष्ण
और बुद्ध और
अष्टावक्र—बहुत
विरले लोग हैं, करोड़ों
में कभी एक
होता, जो
तांत्रिक रूप
से जीता।
जिसका
प्रतिपल दो
आकाशों का
मिलन है—प्रतिपल!
सोते, जागते,
उठते, बैठते
जो भी उसके
जीवन में हो
रहा है, उसमें
अंतर और बाहर
मिल रहे हैं, परमात्मा और
प्रकृति मिल
रही है, संसार
और निर्वाण
मिल रहा है।
परम मिलन घट
रहा है। परम
उत्सव हो रहा
है। रसो वै सः।
वैसी ही
अवस्था में
किसी ने कहा
है, परमात्मा
रसरूप है।
महोत्सव हो
रहा है।
तो तुम
अपनी प्रत्येक
क्रिया को
यात्रिक से
तांत्रिक तक
पहुंचाना।
मंत्र बीच का
द्वार है।
इसलिए
मंत्रों का
इतना उपयोग
धर्मों में
हुआ है। वह तो
प्रतीकात्मक
है। अगर तुम
पूरी बात को
समझो तो मंत्र
सेतु है।
मंत्र का मतलब
केवल इतना ही
नहीं होता कि
तुम बैठे राम —राम
—राम दोहरा
रहे हो तो
मंत्र हो गया।
वह बड़ा छोटा
अर्थ है, बड़ा एक आशिक
अर्थ है। जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं यह
अर्थ है
मांत्रिक का
कि तुम मन से
जीने लगे।
तुम्हारा
जीवन
मनपूर्वक हो
गया।
तुम्हारे
जीवन में मनन
उतरा तो तुम
मांत्रिक।
यह राम—राम
दोहराने से
कुछ न होगा।
क्योंकि फिर
फर्क समझ लेना; एक आदमी
बैठा—बैठा राम—राम
दोहरा सकता हो
और यांत्रिक
हो, मांत्रिक
बिलकुल न हो।
दोहरा रहा है
तोते की तरह।
तोते को तुम
रटवा दो राम—राम—राम—राम,
तोता
दोहराता रहता
है। अनेक इसी
तरह के तोते
रामनाम की
चदरिया ओढ़े बैठे
हैं। अभी तुम
जाओ तो कुंभ
में मिल जायेंगे
तुमको. सब
तोते इस मुल्क
के। वे बैठे
दोहरा रहे हैं,
राम—राम—राम—राम।
कुछ मतलब नहीं
है, लेकिन
इतने दिन से
दोहरा रहे हैं
कि अब यह दोहराना
उनकी आदत हो
गई है। इस
दोहराने से
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। भीतर और
सब विचार चल
रहे हैं और ये
ऊपर—ऊपर राम—राम—राम—राम
दोहरा रहे हैं।
और भीतर सब चल
रहा है। पूरा
व्यवसाय चल
रहा है, पूरी
दूकान चल रही
है, पूरा
बाजार चल रहा
है, सब चल
रहा है।
बचपन
में मेरे घर
के सामने एक
मिठाईवाले की
दूकान थी।
मिठाईवाला था, जैसे
मिठाईवाले
होने चाहिए
वैसा था। काफी
बड़ा पेट! उठ भी
नहीं सकता था
ज्यादा, तो
ज्यादा काम का
भी नहीं था।
वह अपना मंच
पर ही बैठा
रहता, वहीं
से मिठाई
तौलता रहता।
खाली वक्त में
जब कुछ न होता,
तो वह माला
फेरता रहता. 'राम—राम—राम—राम।’
मैं
बड़ा हैरान
होता था। बचपन
से ही उसको
मैं देखता
रहता सामने ही।
ऐसा राम—राम
भी करता रहता, ग्राहक
आता तो उसको
इशारे भी कर
देता, पांच
उंगली बता
देता। जो नौकर
काम कर रहा है
दूकान पर उसको
बता देता कि
जोर से चला, आग बुझी जा
रही है। और
इधर राम—राम
चल रहा है।
इसमें कोई
फर्क ही नहीं
पड़ रहा है।
वह राम—राम
तो बिलकुल
यंत्रवत है।
उससे कुछ लेना—देना
नहीं है।
फिर एक
मांत्रिक
होती अवस्था, जब तुम
बड़े भाव से
राम कोई ऐसा
शब्द थोड़े ही
है कि उच्चार
दिया, कि
हर कहीं कह
दिया, कि
हर किसी से कह
दिया, कि
हर किसी ढंग
से कह दिया!
किसी बड़े
विशिष्ट क्षण
में, पवित्र
क्षण में, ठीक
आयोजनपूर्वक,
धूप—दीप
बालकर, स्नान
करके शरीर का
ही नहीं, मन
का भी थोडी
देर के लिए
स्नान करके
तुम बैठे। उस
पूत क्षण में,
उस पावन
क्षण में
तुमने प्रभु—स्मरण
किया। चाहे
राम—राम कहा
या नहीं कहा, यह कोई सवाल
नहीं है।
प्रभु का
स्मरण किया, उसकी याद से
भरे
मनःपूर्वक तो
मंत्र हुआ।
लेकिन
यह भी कोई
आखिरी बात
नहीं है। क्योंकि
मन ही आखिरी
बात नहीं तो
मंत्र कैसे आखिरी
बात होगी? फिर
तंत्र है। वह
आखिरी उड़ान है।
वहां तुम डूब
गये, अलग
भी न रहे अब।
याद भी कौन
करे? याद
किसकी करे? उसी घडी में
तो मंसूर ने
कहा, उनलहक!
मैं स्वयं
परमात्मा हूं।
मुसलमान न समझ
सके, नाराज
हो गये।
मंसूर के
जीवन में बड़ी
मजेदार घटना
है। मंसूर
पहले एक सूफी
फकीर के पास
था। और जब
मंसूर की यह
तांत्रिक
घटना घटी—मंत्र
तक तो ठीक थी, क्योंकि
मैत्र तक तो
सभी धर्म आशा
देते हैं कि
ठीक है। तंत्र
की मुश्किल
खड़ी हो जाती
है, क्योंकि
तंत्र की
घोषणा बड़ी
अनूठी है।
जब तक
मंसूर मंत्र
साध रहा था तब
तक तो गुरु
राजी था।
लेकिन जब
अनलहक—सी ये
घोषणायें
उठने लगीं—मैं
ईश्वर हूं मैं
सत्य हूं तो
गुरु ने कहा
सुन, तू
झंझट में
पड़ेगा, हमको
भी झंझट में
डालेगा—गुरु
कुछ बड़ा गहरा
गुरु न रहा
होगा—तू यहां
से जा, या
बंद कर। इस
तरह के वचन
बोलना बंद कर।
लेकिन मंसूर
ने कहा, मैं
बोलता हूं तो
बंद कर दूं।
यह जो बोल रहा
है, वह
जाने। मैं तो,
जब भी भीतर
मेरे तार जुड़
जाते हैं तो
बस, फिर
मैं नहीं
जानता क्या हो
रहा है। फिर
तुम मुझसे कहो
ही मत। अपनी
तरफ से कोशिश
करूंगा, लेकिन
मेरी कोशिश
मंत्र तक जाती
है। जब तक मैं
दोहराता हूं
कुछ, तब तक
ठीक है। लेकिन
एक ऐसी घड़ी
आती है कि मैं
तो होता ही
नहीं, फिर
कौन मेरे भीतर
बोलता है उसके
लिए मैं कैसे
जिम्मेवार?
तो
गुरु ने कहा, तू यहां
से जा, नहीं
तो हम फंसेंगे।
क्योंकि यह
बात मुसलमान
देशों में तो
बड़ी कुफ्र की
है कि कोई आदमी
कह दे, 'मैं
ईश्वर।’ वे
तो बरदाश्त
नहीं कर सकते।
यह तो बात ही
गलत हो गई।
इस्लाम धर्म
मंत्र के ऊपर
नहीं बढ़ सका। मंसूर
जैसे लोग उसे
ले जाते तंत्र
तक लेकिन नहीं
ले जाने दिया।
सूफी छिप—छिप
कर करने लगे
अपनी
साधनायें
क्योंकि प्रगट
होकर फांसी
लगने लगी। तो मंसूर
दूसरे गुरु के
पास गया। कुछ
दिन रहा, फिर
उस गुरु ने भी
कहा कि भाई तू
जा, क्योंकि
सिलसिला बिगड़
रहा है। खलीफा
तब खबर पहुंच
गई है। और
पुरोहित तेरे
खिलाफ फतवा
देनेवाला है।
और तेरे साथ
हम भी फंसेंगे।
तो
मंसूर ने कहा, कोई जगह
भी होगी ऐसी
कि नहीं? कि
मैं सभी जगह
भटकाया
जाऊंगा? किसी
ने कहा कि तू
ऐसा कर, एक
बहुत बड़े फकीर
हैं—पहुंचे
हुए औलिया, पीर, उनके
पास चला जा।
तो वह वहां
चला गया।
लेकिन वहां भी
अड़चन आनी शुरू
हो गई। गुरु
ने बहुत
समझाया; बड़े
प्रेम से
समझाया कि मत
बोल। इसको
रखना हो तो
भीतर रख, मगर
इसको बोल मत, क्योंकि
चारों तरफ
दुश्मन हैं।
उलझ जायेंगे।
उसने
कहा कि मैं
कोशिश करता
हूं लेकिन एक
ऐसी घड़ी आती
है कि मैं तो
होता ही नहीं, फिर
कोशिश कौन करे?
ऐसा बहुत
बार गुरु ने
समझाया लेकिन
एक दिन नहीं
माना मंसूर।
और गुरु के
सामने ही बैठा
था, आंख
बंद की और जोर
से बोला, अनलहक!
तो गुरु ने
कहा, अब
बहुत हो गया।
तू मुझे झंझट
में डाल देगा।
जल्दी ही तेरे
खिलाफ फतवा
आयेगा। और
गुरु ने कहा, देख मैं यह
भविष्यवाणी
करता हूं कि
जल्दी ही लकड़ी
का एक टुकड़ा
तेरे खून से
रंगा जायेगा,
तेरी फांसी
लगेगी। तो
मंसूर ने कहा,
फिर मैं भी
एक भविष्यवाणी
करता हूं कि
जिस दिन खून
से मेरे लकड़ी
का टुकड़ा रंगा
जायेगा उस दिन
तुम्हें यह
सूफी का वेश
उतारकर
मुल्ला का वेश
पहनना पड़ेगा।
लोगों
ने समझा ऐसे
ही मजाक में
वह कह रहा है।
उसका कोई
भरोसा भी नहीं
करता था। वह
आदमी ही कुछ
अजीब था।
लेकिन दोनों
की
भविष्यवाणियां
पूरी हुईं।
छह बार
खलीफा के पास
यह खबर
पहुंचाई गई।
बार—बार, छह बार खबर
पहुंचाई गई कि
मंसूर को फांसी
दे दी जाये
क्योंकि यह
कुफ्र की
बातें कह रहा है।
यह इस्लाम के
खिलाफ है।
लेकिन खलीफा
ने कहा, अगर
ऐसा हो तो
उसके गुरु का
दस्तखत चाहिए।
अगर गुरु भी
कह दे कि
इस्लाम के
खिलाफ है, तो
ठीक।
तो
गुरु के पास
छह बार
दस्तावेज लाई
गई और गुरु ने
कहा कि नहीं, मैं
दस्तखत नहीं
करूंगा।
सातवीं बार
खबर आई कि अगर
अब गुरु
दस्तखत न करे
तो तब गुरु भी
जिम्मेवार है।
फिर वह भी
हिस्सेदार है।
तो गुरु को भी
शर्म लगी कि
अब सूफी का
वेश पहने कैसे
दस्तखत करूं?
यह तो सूफी
के वेश की भी
बदनामी हो
जायेगी। तो वह
भूल गया
भविष्यवाणी
मंसूर की।
उसने कहा, अगर
इस पर मुझे
दस्तखत करने
हैं तो मैं
मौलवी के कपड़े
पहनकर ही
दस्तखत कर
सकता हूं। यह
मौलवी को ही
शोभा देता है
इस तरह की
मूढूतापूर्ण
बातें, सूफियों
को नहीं शोभा
देता। तो उसने
कपड़ा अपना
फेंक दिया, मौलवी के
कपड़े पहने और
दस्तखत किये।
और जब मंसूर
को खबर मिली
तो वह हंसा।
उसने कहा, मैंने
कहा था न! अब
रंगा जायेगा
खून से मेरे।
अब तक नहीं
रंगा जा सकता
था। लेकिन यह
कैसी बुरी
दुनिया आ गई
कि सूफी भी
मौलवी के कपड़े
पहनने लगे।
तांत्रिक
स्वर का अर्थ
होता है, तुम्हारे
भीतर
परमात्मा की
उदघोषणा।
शरीर तक तो
तुम्हारा ही
स्वर नहीं है।
मंत्र में
तुम्हारा
स्वर है, तंत्र
में परमात्मा
का स्वर है।
अक्षर से
अक्षर तक की
यात्रा।
शरीर
में यंत्रवत—तुम
भी नहीं बोले
अभी, परमात्मा
की तो बोलने
की बात ही दूर,
तुम ही नहीं
बोले। अभी तो
बोल ही नहीं
फूटा। पहले तो
तुम बोल का
अभ्यास करो।
पहले तो तुम
सितार के तार
बिठाओ, ठोंका
—ठाकी करो, सब
व्यवस्था कर
लो, तब
परमात्मा
बोलता है।
पहले तुम बोलो
तो परमात्मा
बोलता है।
अभी
तुम्हीं नहीं
बोले। अभी
तुम्हीं
मुर्दा की तरह
जी रहे हो; मिट्ठी
के ढेर हो एक, तो परमात्मा
कैसे बोले?
मंत्र
में तुम बोले।
तुम्हारा बोल
उठा।
तुम्हारी
वाणी खिली।
तुम्हारा फूल
खिला। तुम
तैयार हुए।
मंत्र से तुम
तैयार होओगे।
मंत्र सचेष्ट, जागरूक
चेष्टा है।
मैं मंत्र के
खिलाफ नहीं
हूं। मैं
यांत्रिक
मंत्र के
खिलाफ हूं।
इसलिए कई बार
तुम्हें
हैरानी होती
है कि मैं मंत्रों
के खिलाफ बोल
देता हूं।
इसीलिए बोल
देता हूं कि
तुम्हारे
मंत्र भी तुम
जैसे हैं।
जैसे तुम
दूकान करते, भोजन करते, वैसे तुम
राम—राम जपते
या अल्लाह—
अल्लाह जपते,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता।
जागरूकता से
अगर तुम जप
सको अगर जब
तुम राम—राम
जप रहे हो या
अल्लाह—अल्लाह
जप रहे हो तब
तुम्हारे
भीतर
जागरूकता भी
बनी रहे, इधर
यह वाणी चलती
रहे और उधर
तुम
होशपूर्वक, समग्र रूप
से जागे ध्यानपूर्वक
इस वाणी को
सुनते रहो, तुम बोलो भी,
सुनो भी; और दूसरी
कोई
प्रक्रिया न
हौती हो तो
फिर मांत्रिक।
और जब
ऐसा हो जाये
तो एक दिन तुम
पाओगे तुम तो
जागे रह गये, वाणी
धीरे — धीरे
क्षीण हुई..
क्षीण हुई, सो गई। तुम
जागे रह गये।
तुम जागे रह
गये और वाणी
सो गई, तभी
तुम्हारे
भीतर जो इलहाम
होता है, जो
तुम्हारे
भीतर उदघोष
होता है, वह
परमात्मा का
उदघोष है, वह
तांत्रिक।
ये तीन
तल हैं।
और
तुमने पूछा है
कि इसमें जीवन
का परम स्वीकार
किस भांति
समाहित है?
इस
भांति समाहित
है
देह, यंत्र
में तो सिर्फ
दैहिक है।
मन, मंत्र में
सिर्फ
मांत्रिक
नहीं है, दैहिक
भी समाहित है।
क्योंकि
मंत्र
तुम्हें
बोलना हो तो
देह के सहारे
की जरूरत है।
दैहिक में तो
केवल दैहिक है।
मांत्रिक में
देह और मन
दोनों हैं।
खयाल रखना
क्षुद्र में
विराट नहीं
समाता, विराट
में क्षुद्र
समा जाता है।
मन देह से बड़ा
है। देह उसमें
समा गई।
मांत्रिक का
अर्थ है—देहस्मन।
दोनों उसमें
हैं। और देह
और सुंदर होकर
आ गई, क्योंकि
अब उसकी
यंत्रवत्ता
चली गई। अब
देह में भी
प्रसाद आया।
अब देह भी
जीवंत हुई।
और
तांत्रिक में, आत्मा
में—आत्मा का
अर्थ इतना ही
नहीं होता कि
तुम सिर्फ
आत्मा हो। वह
तो फिर तुम
भूत—प्रेत हो
गये। आत्मा का
अर्थ होता है,
उसमें मन
समाहित है, उसमें देह
भी समाहित है।
त्रिवेणी
पूरी हो गई
मन पर
गंगा और यमुना
तो हैं, सरस्वती
नहीं है।
सरस्वती अभी
दिखाई नहीं पड़
रही है।
जब तुम
आत्मा पर
पहुंचे, तंत्र पर
पहुंचे तो
सरस्वती भी प्रगट
हुई। अदृश्य
भी दृश्य हुआ।
अगोचर गोचर
हुआ।
आत्मा
का अर्थ होता
है, मन
और शरीर दोनों
समाहित हो गये,
और भी
श्रेष्ठतर
पैदा हो गया।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
तंत्र में सब
समाहित है।
तंत्र में
सर्व स्वीकार
है —मन का भी, देह का भी।
जैसे मांत्रिकता
देह को शुद्ध
कर देती है, वैसे तांत्रिकता
मन को भी
शुद्ध कर देती
है, और
शुद्धि की एक
वर्षा हो जाती
है। एक परम
निर्मलता, एक
परम निर्दोष
भाव उत्पन्न
होता है। सब
शुद्ध हो जाता
है।
ऐसी
साधना क्या, जो सिर्फ
आत्मा को ही
शुद्ध करे? साधना तो
वही, जो
सर्व को शुद्ध
कर जाये, जो
क्षुद्र को भी
विराट कर जाये,
जहां पत्थर
भी, पाषाण
भी परमात्मा
हो जाये, वही
साधना।
चौथा
प्रश्न :
भगवान
क्या हैं? और अगर
हैं
तो
कहाँ है? और अगर
नही हैं तो हम
किसके
पीछे
भाग रहे हैं?
भगवान कोई
वस्तु नहीं है, जो तुम्हें
कोई
दिखा दे
अंगुलि के
इशारे से कि ये
रहे। भगवान
तुम्हारे ही
भीतर छिपी दुई, तुम्हारी
ही आखिरी परम
शुद्धि की
अवस्था है।
तुम्हारे ही
भीतर प्रेम का
प्रगट हो जाना
परमात्मा का
प्रगट होना है।
इसलिए तुम अगर
बाहर कहीं खोज
रहे हो तो कभी
न खोज पाओगे।
खोजो मंदिर—मस्जिद
में, काबा—कैलाश
में, तुम न
खोज पाओगे।
तुम गलत खोज
रहे हो। वहां
परमात्मा
नहीं है। तुम
अगर सोच रहे
हो कि
परमात्मा
कहीं आकाश में
बैठा है तो
तुम
मूढ़तापूर्ण
बातें सोच रहे
हो। तुम्हारे
परमात्मा की
धारणा बहुत
बचकानी है।
तुम
पूछते हो, भगवान
क्या हैं?
'क्या'
का प्रश्न
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जिसने यह
प्रश्न पूछा
है, तुम्हारे
भीतर से जो
मुझे सुन रहा
है, तुम्हारे
भीतर से जो
मुझे देख रहा
है, उसको
ही पहचान लो
और भगवान से
पहचान हो
जायेगी। अपने
ही चैतन्य के
साथ थोड़ी
दोस्ती बनाओ,
मैत्री
बनाओ।
यह कौन
तुम्हारे
भीतर चैतन्य
है? बस
इसी को तुम
खोज लो। यह एक
किरण जो
तुम्हारे
भीतर चेतना की
है, होश की
है, इस एक
किरण का सहारा
पकड़ लो, फिर
तुम परमात्मा
तक पहुंच
जाओगे।
मैंने
सुना है, एक सम्राट
अपने वजीर से
नाराज हो गया।
और उसने वजीर
को एक बहुत
ऊंचे मीनार पर
कैद करवा दिया।
उस मीनार से
कूदने के
सिवाय और कोई
बचने का उपाय
न था। लेकिन
कूदना
मरना था।
मीनार बड़ी
ऊंची थी। उससे
कूदे तो मरे।
कोई हथकड़ियां
नहीं डाली थीं।
वजीर को
हथकड़ियां
डालने की
जरूरत न थी।
वह मीनार के
ऊपर कैद था।
सीढ़ियों पर
सख्त पहरा था।
सीढ़ियों से आ
नहीं सकता था।
हर सीढ़ी पर
सैनिक था।
द्वारों पर कई
द्वार थे, द्वारों
पर ताले पड़े
थे। मगर उसे
खुला छोड़ दिया
था मीनार पर।
जब सब
रो रहे थे, प्रियजन
उसे विदा दे
रहे थे, उसकी
पत्नी ने कहा,
हम इतने रो
रहे हैं और
तुम इतने शांत
हो। बात क्या
है? उसने
कहा, फिक्र
न कर। अगर तू
एक रेशम का
पतला धागा भी
मुझ तक पहुंचा
देगी तो बस, मैं निकल
आऊंगा।
वह तो
चला गया वजीर, कैद हो
गया। पत्नी और
मुश्किल में
पड़ गई कि रेशम
का धागा! पहले
तो पहुंचाना
कैसे? सैकड़ों
फीट ऊंची
मीनार थी, उस
पर रेशम का
धागा
पहुंचाना
कैसे? और
फिर यह भी सोच—सोच
परेशान थी कि
रेशम का धागा
पहुंच भी जाये
समझो किसी तरह,
तो रेशम के
धागे से कोई
भागा है?
बहुत
सोच—विचार में
पड़ गई, कुछ
उपाय न सूझा
तो वह गांव
में के
बुद्धिमानों
की खोज करने
लगी। एक फकीर
ने कहा कि
इसमें कुछ खास
मामला नहीं है।
भृंग नाम का
एक कीड़ा होता
है, उसको
तू पकड़ ला।
उसकी मूंछ पर
शहद लगा दे।
और भृंग की
पूंछ में पतला
धागा बांध दे
रेशम का। उसने
कहा, फिर
क्या होगा? उसने कहा, भृंग को
मीनार पर छोड़
दे। अपनी मूंछ
पर शहद की गंध
पाकर वह आगे
बढ़ता जायेगा।
वह मिलनेवाली
तो है नहीं
गंध, वह
मिलती रहेगी।
शहद मिलेगा तो
नहीं, उसकी
मूंछ पर है।
तो वह हटता
जायेगा.. हटता
जायेगा। और
भृंग सीधा
जाता है। वह
रुकता नहीं जब
तक वह खोज न ले,
जहां से
सुगंध आ रही
है। जब तक वह
खोज न ले, रुकता
नहीं। तू
फिक्र मत कर।
वह ऊपर पहुंच
जायेगा। और
तेरे पति को
पता है। जब एक
दफा रेशम का
पतला धागा
पहुंच जाये तो
फिर पतले धागे
में थोड़ा मोटा
धागा बांधना,
फिर उसमें
और थोड़ा मोटा
बांधना। फिर
पति तेरा
खींचने लगेगा।
फिर रस्सी
बांध देना, फिर मोटे
रस्से बांध
देना, फिर
रास्ता खुल
गया।
पत्नी
को बात समझ
में आ गई। यह
गणित बहुत
सीधा है। भृंग
कीड़े को पकड़
लिया, उसकी
मूंछ पर मधु
लगा दिया, पूंछ
में पतले से
पतला धागा
बांध दिया।
क्योंकि इतने
दूर तक भृंग
को जाना है, इतना लंबा
धागा खींचना
है तो पतले से
पतला धागा था।
और भृंग चल
पड़ा एकदम।
उसको तो गंध
मिलने लगी मधु
की तो वह तो
पागल होकर
भागने लगा। वह
रुका ही नहीं।
वह ऊपर पहुंच
गया। और जब
पति ने देखा
कि भृंग कीड़ा
चढ़कर आ गया है
ऊपर और उसकी
मूंछों पर लगे
हैं मधु के
बिंदु, खुश
हो गया। धागे
को पकड़ लिया, बस। थोड़ी ही
देर में धागे
से मोटी रस्सी,
मोटी से और
मोटी रस्सी, और मोटी
रस्सी, रस्सा.
निकल भागा।
यही
सूत्र है
परमात्मा तक
जाने का।
तुम्हारे
भीतर जो अभी
छोटा—सा रेशम
का धागा जैसा
है, बड़ा
महीन है, पकड़
में भी नहीं
आता, वह जो
तुम्हारे
भीतर होश है, बस उस होश को
पकड़ लो। वह जो
तुम्हारे
भीतर चैतन्य
है उसको पकड़
लो। ध्यान कुछ
और नहीं, इस
होश के धागे
को पकड़ लेने
का नाम है।
फिर इसको
पकड़कर तुम चल
पड़ो। जिस दशा
से यह आ रहा है
उसी दिशा में
मुक्ति है।
उसी दिशा में
परमात्मा है।
और यह
भीतर से आ रहा
है। तो
तुम्हें भीतर
की तरफ जाना
पड़ेगा। और
जैसे—जैसे तुम
भीतर
जाओगे, तुम
अचानक पाओगे
यह धारा
प्रकाश की
गहरी होने लगी,
बड़ी होने
लगी बड़ी होने
लगी। छोटे में
बड़ा धागा, बड़े
में और बड़ा
धागा, और
एक दिन तुम
पाओगे, आ
गये प्रकाश के
स्रोत पर। वही
है ईश्वर।
ईश्वर शब्द
मात्र है, यह
परम चैतन्य का
दूसरा नाम है।
यह तुम्हारे
भीतर है। तुम
पूछते हो कहां
है? जो पूछ
रहा है उसी
में छिपा है।
अन्यथा खोजा
तो कभी न पा
सकोगे।
और अब
पूछते हो कि
अगर नहीं है
तो हम किसके
पीछे भाग रहे
हैं?
परमात्मा
तो है। वही तो
भाग रहा है।
वही तो खोज
रहा है, खोजनेवाले
में छिपा है।
ही, अभी
तुम जिसके
पीछे भाग रहे
हो वह
परमात्मा नहीं
है। अभी तो
तुम अपनी
धारणाओं के
पीछे भाग रहे
हो। कोई मंदिर
जा रहा है, कोई
शंकर जी की
पूजा कर रहा
है, कोई
रामचंद्र जी
की पूजा कर
रहा है, कोई
गुरुद्वारा
जा रहा है, कोई
मस्जिद जा रहा,
कोई चर्च जा
रहा। यह तुम
अपनी धारणाओं
के पीछे भाग
रहे हो। अपने
भीतर चलो, वहीं
असली मस्जिद,
वहीं असली
मंदिर है।
अपने भीतर चलो।
ये मंदिरों के
घंटे इत्यादि
बहुत बजा चुके,
इनसे कुछ
सार नहीं है।
बजाते रहो
जितना बजाना
हो! बहरे हो
जाओगे बजाते—बजाते,
कुछ भी न
पाओगे। भीतर
चलो।
शब्दों, शास्त्रों,
सिद्धांतों
में नहीं, स्वयं
में।
अभी तो
तुम जिनके
पीछे भाग रहे
हो, ये
पंडित हैं।
शानी वही है
जो तुम्हें
तुम्हारे ही
भीतर पहुंचने
का मार्ग बता
दे। पंडित
तुम्हें ऐसे
मार्ग बताते
हैं कि चले जाओ
काशी, कि
चले जाओ काबा,
कि गिरनार,
कि
जेरुसलेम, वहां
मिल जायेगा।
लाख
चले जाओ काशी, नहीं
मिलेगा। काशी
में जो रह रहे
हैं उनको नहीं
मिला तो तुम्हें
क्या मिलेगा?
भीतर जाओ।
सदगुरु का
अर्थ है, जो
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर पहुंचा
दे।
और तब
तुम पाओगे कि
जैसे —जैसे
तुम भीतर जाने
लगे, तुम
तो भीतर जाते
हो, परमात्मा
पास आता है।
तुम जितने
भीतर जाते हो
उतना
परमात्मा पास
आता है। एक
दिन तुम अपने
केंद्र पर खड़े
हो जाते हो, उसकी वर्षा
हो जाती है।
जलते —जलते
फट गया हिया
घरती का पर
सावन
जब आया अपनी
मर्जी से आया
बादल
जब बरसा अपनी
मर्जी से बरसा
नभ ने
जब गाया तब
अपनी मर्जी से
गाया
इच्छा
का ही चल रहा
रहट हर पनघट
पर
पर
सबकी प्यास
नहीं बुझती है
इस तट पर
तू
क्यों आवाज
लगाता है हर ग्यारी
को?
आनेवाला
तो बिना
बुलाये आता है।
परमात्मा
भीतर छिपा है
और राह देखता
है। तुम जरा
बुलाना तो बंद
करो। तुम हर
गगरी को
चिल्लाये जा
रहे हो। तुम
हर तरह के
पानी से प्यास
बुझाने को
उत्सुक हो।
चातक बनो।
चकोर बनो।
स्वाति की
प्रतीक्षा
करो। हर जल से
काम नहीं होगा।
और हर गगरी
तृप्त न कर
पायेगी। और
प्रतीक्षा
करो उस महत
क्षण की।
क्योंकि
तुम्हारी
मर्जी से कुछ
होनेवाला नहीं
है।
तुम
दूकान चलाते, तुम धन
कमाते, तुम
पद पर जाते, इसी तरह तुम
सोचते हो एक
दिन परमात्मा को
भी पकड़ लें।
तुम्हारी
मर्जी से कुछ
होने वाला
नहीं।
तुम्हारी
मर्जी से ही
तो सब उपद्रव
मचा हुआ है।
तुम मर्जी
छोड़ो।
जलते—जलते
फट गया हिया
घरती का पर
सावन
जब आया अपनी
मर्जी से आया
तो
प्रतीक्षा
सीखो। भागदौड़
छोड़ो, बैठो,
प्रतीक्षा
करो। जो
प्रतीक्षा
करने में कुशल
हो जाता वह
परमात्मा को
पा लेता।
प्रतीक्षा
में ही आ जाता
है।
बादल
जब बरसा अपनी
मर्जी से बरसा
नभ ने
जब गाया अपनी
मर्जी से गाया
इच्छा
का ही चल रहा
रहट हर पनघट
पर
और तुम
अपनी इच्छा के
रहट को ही
चलाये जा रहे
हो। की के
चरखे के जैसे
घुमाये चले
जाते। इच्छा
का ही चल रहा
रहट हर पनघट
पर
पर
सबकी प्यास
नहीं बुझती है
इस तट पर
तू
क्यों आवाज
लगाता है हर
गगरी को?
आनेवाला
तो बिना
बुलाये आता
है!
हर घट
से अपनी प्यास
बुझा मत ओ
प्यासे!
प्याला
बदले तो मधु
ही विष बन
जाता है!
हर
गगरी को मत
चिल्लाओ। हर
इच्छा के पीछे
मत दौड़ो। और
परमात्मा को
भी एक बाहर की
खोज मत बनाओ।
परमात्मा
बाहर की खोज
नहीं है, बाहर की
सारी खोज जब
विफल हो जाती
है और तुम लौट
अपने घर आते
हो, और तुम
कहते, हो
चुका। बहुत हो
चुका अब नहीं
खोजना। अब कुछ
भी नहीं खोजना।
अब मोक्ष भी
नहीं खोजना।
यही तो
अष्टावक्र कह
रहे हैं बार—बार।
मोक्ष भी नहीं
खोजता है ज्ञानी।
परमात्मा को
भी नहीं खोजता
है ज्ञानी।
खोजता ही नहीं
है। जहां सब
खोज समाप्त हो
गई, वहीं
मिलन है।
क्योंकि
खोजनेवाले
में ही वह
छिपा है जिसे
तुम खोज रहे
हो।
और जिस
दिन यह मिलन
होता है उस
दिन सारे जीवन
पर अमृत की
छाप लग जाती
है। अभी तो
मृत्यु ही
मृत्यु के दाग
हैं। कितनी
बार नहीं तुम
जन्मे और
कितनी बार
नहीं तुम मरे!
अभी तो तुम
मरघट हो। अभी
तो तुम न
मालूम कितनी
अर्थियों का
जोड़ हो! तुम्हारे
पीछे
अर्थियों की
कतार लगी है
और तुम्हारे
आगे अर्थियों
की कतार लगी
है। तुम तो
अभी जीवित भी
नहीं। कबीर
कहते हैं, 'ई मुर्दन
के गांव।’ ये
मुर्दे रह रहे
हैं इन गौवों
में। ये
बस्तियां
थोड़े ही हैं, मरघट हैं।
तुम
अपने को ही
देखो।
तुम्हारे हाथ
में आखिर मौत
ही लगती है।
लेकिन जिसने
रुककर अपने
भीतर के सत्य
का जरा—सा भी
स्वाद ले लिया
उसके जीवन में
एक नई कथा का
प्रारंभ होता
है।
दूर
कहीं पर अमराई
में कोयल बोली
परत लगी
चढ़ने झिंगुर
की शहनाई पर
वृद्ध
वनस्पतियों
की टूटी
शाखाओं में
पोर—पोर
टहनी—टहनी का
लगा दहकने
टूसे
निकले, मुकुलों के
गुच्छे
गदराये
अलसी के
नीले फूलों पर
नभ मुसकाया
मुखर
हुई बासुरी
गालिया लगीं
थिरकने
टूट पड़े
भौरे रसाल की
मंजरियों पर
पहली
अषाढ़ की
संध्या में
नीलांजन बादल
बरस गये
फट गया
गगन में
नीलमेघ पय की
गगरी ज्यों
फूट गई
बौछार
ज्योति की बरस
गई, झर
गई बेल से
किरन जूही
मधुमयी
चांदनी फैल गई, किरनों
के सागर बिखर
गये
एक बार
तुम अपने में
आ जाओ, ज्योति
ही ज्योति! रस
ही रस! आनंद ही
आनंद!
पहली
अषाढ़ की
संध्या में
नीलाजन बादल
बरस गये
उस
प्रभु के नीले
बादल फिर
तुम्हारे
अंतराकाश में
बरस जाते हैं।
फट गया
गगन में
नीलमेघ पय की
गगरी ज्यों
फूट गई
बौछार
ज्योति की बरस
गई, झर
गई बेल से
किरन जूही
मधुमयी
चांदनी फैल गई, किरनों
के सागर बिखर
गये
तुम
परमात्मा को
जड़ शब्दों में
मत पकड़ो, जड़ सिद्धांतों
में मत पकड़ो।
यह तुम्हारे
ही भीतर की
छिपी संभावना
है। ऐसे
प्रश्न मत
पूछो। यह
पूछने की बात
ही नहीं है।
इस तरह पूछने
में ही भूल है।
इसी तरह पूछने
के कारण
तुम्हें गलत
उत्तर मिले
हैं। कोई मिल
गया, जिसने
कहा कि वहां
है।
पहले
हिमालय पर हुआ
करता था
परमहमा, क्योंकि
हिमालय पर
चढ़ना मुश्किल
था। फिर आदमी
वह। चढ़ गया।
फिर उसको वहां
से हटाना पड़ा।
फिर चांद पर
बिठा दिया। अब
आदमी वहां चढ़
गया, अब वहां
से हटाना पड़ा।
जहां आदमी
पहुंच जाये
वहीं से हटाना
पड़ता है। यह
झूठी बकवास है।
परमात्मा
बाहर नहीं है।
और एक
तो हैं जो
कहते हैं वहां
है। और फिर जब वहां
नहीं पाते तो
दूसरा वर्ग है
जो कहता है, कहां है
बोलो! पहले ही
कहा था कि
नहीं है। ऐसे
आस्तिक और
नास्तिक लड़ते
हैं।
जब
यूरी गागरिन
पहली दफा लौटा
चांद का चक्कर
लगाकर तो जो
बात उसने पहली
रूस के
टेलीविजन पर
कही वह यह, कि मैं
देख आया चक्कर
लगाकर; वहां
कोई ईश्वर
नहीं है। और
उन्होंने एक
बड़ा म्मुजियम
बनाया है
मास्को में, जिसमें सारी
अंतरिक्ष की
यात्रा की
चीजें इकट्ठी
की हैं—साधन, यंत्र, उस
पर यह वचन
म्मुजियम के
प्रथम द्वार
पर लिखकर टांगा
है यूरी
गागरिन का, कि मैं देख
आया आकाश में,
घूम आया
चांद तक, वहां
कोई ईश्वर
नहीं है। इससे
सिद्ध होता है
कि ईश्वर नहीं
है।
एक तो
मूढ़ आस्तिक
हैं जो कहते
हैं, वहां।
फिर मूढ़
नास्तिक हैं
जो कहते हैं, वहां नहीं।
वे दोनों एक
जैसे हैं। मैं
तुमसे कहता हूं,वह न तो बाहर
है, न बाहर
नहीं है, वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
यूरी गागरिन
को जानना हो
तो चांद—तारों
पर चक्कर
लगाने की
जरूरत नहीं, अपने
अंतराकाश में
उतरने की
जरूरत है।
वहां
नहीं खोजता
आदमी और सब
जगह खोजता है।
लेकिन उसको भी
मैं कसूर नहीं
दूंगा।
क्योंकि
जो करोड़ आदमी
कुंभ मेला में
इकट्ठे हुए
हैं ये यूरी
गागरिन से
भिन्न थोड़े ही
हैं! ये भी
बाहर खोज रहे
हैं। वे जो
करोड़ों
यात्री हज की
यात्रा पर
जाते हैं
मक्का—मदीना, वे भी
बाहर खोज रहे
हैं। यूरी
गागरिन से
भिन्न थोड़े ही
इनका तर्क है!
वे जो गिरनार
जाते हैं, शिखरजी
जाते हैं, इनका
तर्क कोई
भिन्न थोड़े ही
है! ये भी बाहर
खोज रहे हैं।
तुम जो
पूछते हो, ईश्वर
कहां है? तुमने
गलत प्रश्न
पूछ लिया। इस
प्रश्न के दो
गलत उत्तर हैं
एक कि कहीं भी
नहीं है, और
एक कि वहां
रहा। ये दोनों
गलत उत्तर हैं।
मैं तुमसे
कहता हूं
खोजनेवाले
में छिपा है।
मत पूछो कि
ईश्वर क्या है?
इतना ही
पूछो कि मैं
कौन हूं। जिस
दिन तुम जान
लोगे कि मैं
कौन हूं उसी
दिन तुमने
परमात्मा को
भी जान लिया
है। उसके पहले
किसी ने कभी
नहीं जाना है।
पांचवां
प्रश्न :
संत
कबीर आर्थिक
रूप से बहुत
संपन्न न थे
लेकिन जब अनेक
लोग प्रतिदिन उनके
घर सत्संग व
भजन के लिए
इकट्ठे होते
थे तो वे
उन्हें भोजन
का आमंत्रण
अवश्य देते थे।
पत्नी व बेटे
कमाल की बड़ी
कठिनाई थी।
आखिर एक दिन
कमाल ने
उन्हें
चेताया; कहा, अब
तो चोरी करने
के अलावा कोई
चारा नहीं।
कबीर बड़े प्रसन्न
हुए। कहा, अरे!
यह सुझाव तूने
इतने दिन तक
क्यों न दिया?
फिर कबीर और
कमाल चोरी
करने भी गये।
सेंध मारी, गेहूं के
बोरे खिसकाये।
कबीर ने कहा, कमाल, घर
के लोगों को
जगाकर खबर कर
दे कि हम
गेहूं ले जा
रहे हैं।
इस
प्रकार यह कथा
आगे चलती है।
कबीर के लिए
अपने—पराये का
भेद न रह गया
था, सब
परमात्मा का
था। भगवान, कृपया
बतायें कि
कबीर के स्थान
पर आप होते तो क्या
करते?
इतनी ही
तरमीम करता, इतना ही
फर्क करता कि
कमाल को कहता,
आहिस्ता—
आहिस्ता
निकलना, घर
के लोग जाग न
जायें।
क्योंकि एक तो
उनका गेहूं ले
चले और
बेचारों की
नींद भी खराब
करो! शांति से
सो रहे हैं, कम से कम
सोने तो दो!
इतना
फर्क; और
कुछ ज्यादा
फर्क न करता।
छठवां
प्रश्न :
संसार
की चिंता मुझे
सताती है।
लोग
अति दुखी हैं।
मैं उनके लिए
क्या कर
सकता
हूं? शास्त्रों
में भी बहुत
खोजता हूं पर
कहीं
कोई मार्ग
नहीं सूझता।
शास्त्रों
में किसको कब
मार्ग मिला? खोना हो
मिला—मिलाया
मार्ग तो
शास्त्रों
में खोजो। तुम
जीवन को ही
नहीं समझ पाते,
शास्त्र को
क्या समझोगे?
जीवन इतनी
खुली हुई
किताब सामने
पड़ी है—इतनी
प्रगट, इतनी
स्पष्ट, परमात्मा
के हाथों लिखी
सामने पड़ी है,
वही समझ में
नहीं आती तो
शब्दों में
संजोये शास्त्र
तो तुम्हारी
समझ में न आ
सकेंगे।
तुम
इसी को चूक
जाते हौ।
गुलाब खिलता
है, उसमें
तुम्हें
परमात्मा
नहीं दिखता।
तुम्हारे
भीतर चैतन्य
की धारा बह
रही है, उसमें
परमात्मा
नहीं दिखता।
तुम मुर्दा
किताबों में,
कागज पर
स्याही के
धब्बों में
क्या खोज लोगे?
वहां तो भटक
जाओगे। वहां
से तुम न खोज
पाओगे। ही, जिसे जीवन
में दिखने
लगता है उसे
शास्त्र में भी
मिल जाता है।
और जिसको जीवन
में ही नहीं
दिखता ऐसे
अंधे को शास्त्र
में क्या
मिलेगा?
तुमने कहानी
सुनी है न? पांच
अंधे गये हाथी
को देखने।
जिंदा हाथी
सामने खड़ा।
उन्होंने
टटोलकर भी
देखा, फिर
भी गड़बड़ हो गई।
कोई कहने लगा,
खंभे की तरह
है, जिसने
पैर छुआ। कोई
कहने लगा, सूप
की तरह है, जिसने
कान छुआ—और
इसी तरह।
अब तुम
समझो कि इन
अंधों को तुम
शास्त्र दे दो, जिसमें
हाथी के संबंध
में चित्र बना
हुआ है। जो
असली हाथी के
साथ चूक गये, कागज पर बनी
हाथी की
तस्वीर पर हाथ
फेरकर कुछ समझ
पायेंगे? बहुत
मुश्किल है।
बहुत असंभव है।
तो
पहली तो बात.
शास्त्रों
में मत खोओ
समय, स्वयं
में लगाओ। हा,
स्वयं का
शास्त्र खुल
जायेगा तो सब
शास्त्र समझ
में आ जायेंगे।
और
दूसरी बात
संसार की
चिंता अभी न
करो। अभी तो
तुम अपनी कर
लो। अभी तो
तुम अपनी ही
कर लो तो बहुत।
अभी तो
तुम्हारी ही
हालत बड़ी गड़बड़
है। अपनी ही
नाव डूबी जा
रही है, तुम किसकी
नाव बचाने जा
रहे 3: तुम्हें
ही तैरना नहीं
आता, किसी
और दूसरे को
बचाने मत चले
जाना, नही
और उसको डुबकी
लगवा दोगे, नहीं डूबता
होगा तो डुबा
दोगे।
चिंता
तुम्हें होती
है लोगों की? कभी अपनी
हालत देखी
भीतर? कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि लोगों
की चिंता
सिर्फ अपने से
बचने की एक
तरकीब, पलायन
का एक उपाय हो?
अक्सर ऐसा
है।
मेरे
पास समाजसेवक
आ जाते हैं।
वे कहते हैं, हम
समाजसेवा में
लगे हैं। मैं
उनसे पूछता
हूं तुमने
अपनी सेवा
पूरी कर ली? वे कहते हैं,
फुरसत कहां?
वे कहते हैं,
ध्यान
इत्यादि की
हमें फुरसत
नहीं। पहले हम
समाज की सेवा
कर लें।
तुमने
ध्यान ही नहीं
किया तो
तुम्हारी
सेवा झूठी होगी।
इसके पीछे कुछ
और प्रयोजन
होगा। यह सेवा
भी सच्ची नहीं
हो सकती। यह
सेवा भी एक
तरह की शराब
है, जिसमें
तुम अपने को
भुलाये रखते
हो, डुबाये
रखते हो।
पहले
अपने को तो
जान लो। थोड़ी
अपने से पहचान
कर लो, फिर
तुम्हारे
भीतर से जो
प्रेम उठे, करुणा उठे
वह बहेगा।
जरूर बहेगा।
मैं उसको
रोकने को नहीं
कहता, मगर
हो तब न! अभी तो
तुम जबरदस्ती
बहा रहे हो।
अभी इस बहाने
में कुछ सार
नहीं है।
क्षितिजों
तक मत जा रे ऐ
नासमझ, समझ
बिन
समझे —जूझे
यूं व्यर्थ मत
उलझ
रे हठी
तुनकमिजाज, शोर मत
मचा
कुछ
तुक की बातें
कर, पागल
मत बन
ओ मेरे
मन!
मिल—जुलकर
बैठ तनिक, रार मत
बढ़ा
चढ़ती
दुपहरी को और
मत चढ़ा
अपने
को देखभाल, दुनिया
को छोड़
इतना
कुछ पढ—लिखकर
पागल मत बन
ओ मेरे
मन!
पहले
अपने को जरा
देखभाल कर लो।
तुम अगर रुग्ण
हो तो तुम एक
रुग्ण
मनुष्यता के
निर्माता हो।
तुम अगर दुखी
हो तो तुम इस
जगत में दुख
को पैदा करने
का कारण हो।
तुम अगर
आनंदित नहीं
हो तो तुम
पापी हो। अगर
तुम मुझसे
पूछो तो मेरे
लिए एक ही पाप
है और वह है, आनंदित न
होना। अगर तुम
आनंदित हो तो
तुम
पुण्यात्मा
हो। फिर
तुम्हें सब
क्षम्य है।
फिर तुम जो
करो, ठीक।
एक दफे तुम
आनंदित हो जाओ।
आनंद ने कभी
कुछ गलत किया
नहीं, कर
नहीं सकता। और
दुख ने कभी
कुछ ठीक किया
नहीं; कर
नहीं सकता।
दुख से जो
होगा, गलत
होगा। नाम
कितने ही
अच्छे हों।
मुखौटे कैसे
ही पहनो। दुख
से कभी कुछ
अच्छा नहीं
हुआ है।
तो
अक्सर ऐसा
होगा कि तुम
जिसकी सेवा
करने जाओगे
उसको भी हानि
पहुंचाओगे।
अभी तुम जहर
से भरे हो।
अभी तुम दूसरे
में हाथ
डालोगे तो जहर
ही फैलाओगे।
पहले अमृत से
तो भर लो। फिर
तुम्हें जाना
भी न पड़े।
शायद तुम बैठे—बैठे
भी रहो तो भी
इस जगत में
तुमसे तरंगें
उठें, जो
लोगों को सत्य
की तरफ, सच्चिदानंद
की तरफ 'ले
जायें।
लोग
दुखी हैं उसका
कुल कारण इतना
है कि लोग
ध्यानी नहीं
हैं, और
कोई कारण नहीं
है। और अभी
तुम्हीं
ध्यानी नहीं
हो। और इस जगत
को सुखी करने
का एक ही उपाय
है कि किसी
तरह ध्यान.
ध्यान फैलता
जाये। लोग
शांत हों, स्वस्थ,
स्वयं में
केंद्रित हों
तो जीवन से
दुख मिट जाये।
दुख हम पैदा
करते हैं, कोई
और पैदा नहीं
कर रहा है।
आखिरी
प्रश्न :
यदि
संसार लीला है, खेल है
तो
इसमें इतना
दुख क्यों है? तपेदिक
और
कैंसर
महामारी और
मृत्यु भी
क्या लीला के
अंग है?
निश्चित
ही, सभी
कुछ लीला का
अंग है। अब
थोडा सोचना
पड़े।
कहते
हैं, एक
सूफी फकीर को हृदय
में एक घाव हो
गया था और
उसमें कीडे पड़
गये। और जब वह
नमाज पढ़ने
झुकता था तो
कीडे गिर जाते।
उसने नमाज
पढ़नी बंद कर
दी। और लोगों
ने उससे कहा
कि क्या अब
आखिरी वक्त, मरते वक्त
नास्तिक हो
गये? धर्म
छोड़ रहे? जिंदगी
भर नमाज पढ़ी, मस्जिद आये,
अब तुम आते
क्यों नहीं? उसने कहा, कैसे आऊं 2: जब
झुकता हूं तो
ये कीड़े गिर
जाते हैं। इन
कीड़ों का भी
जीवन है।
एक तरफ
से देखने पर
यह नासूर है
और आदमी दुखी
है। दूसरी तरफ
से देखने पर
यह आदमी नासूर
के कीड़ों के
लिए जीवन है।
कीड़े बड़े सुखी
हैं।
तुम
सोचते हो कि
तुम जब
वृक्षों से फल
तोडते हो तो
वृक्ष बहुत
प्रसन्न होते
हैं! तुम उनके
लिए रोग हो।
आदमी को आते
देखकर वृक्ष
कहते हैं, यह आया
रोग। जैसे
कीड़े
तुम्हारे ऊपर
पलते हैं और
तुम परेशान
होते हो, वैसे
ही तो तुम
वृक्षों पर पल
रहे हो—पैरासाइट!
शोषक! तुम
पूरी प्रकृति
को नष्ट कर रहे
हो। पहाड़ खोदकर
मिटा रहे हो, झीलें भर
रहे हो, अब
तुम चांद—तारों
पर भी जाने
लगे, वहां
भी तुम उपद्रव
पहुंचाओगे।
यह आदमी नाम
की बीमारी
बढ़ती चली जाती
है। तुमने
कितने पशु मार
डाले! तुम
कहते हो अपने
जीवन के लिए, अपने भोजन
के लिए। जो
तुम्हारा
भोजन है वह
पशु का तो
भोजन नहीं हो
रहा, वह तो
कोई बड़ा
प्रसन्न नहीं
हो रहा है। वह
तो मर रहा है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, तुम अगर
जंगल जाओ और
किसी शेर को
मार लो तो लोग फूलमाला
पहनाते हैं कि
गजब बहादुर
आदमी! शेर को
मारकर चला आ
रहा है।
राजासाहब ने
शेर मारा। और
शेर राजासाहब
को मार ले तो
कोई फूल नहीं
पहनाता शेर को
कि गजब! कि शेर
ने राजासाहब
मारा। मगर शेर
पहनाते होंगे
कि गजब! ठीक
किया। एक
दुश्मन
मिटाया, एक
सफाई की। तुम
एक ही तरफ से
देखते हो—आदमी
के पहलू से, तो अड़चन
होती है।
मैंने
सुना है, एक आदमी के
खून में दो
क्षयरोग के
कीटाणु चौराहे
पर मिले खून
की धारा में
दौड़ते —दौड़ते।
नमस्कार
इत्यादि होने
के बाद एक ने
कहा, लेकिन
तुम्हारा
चेहरा बड़ा
उदास है और
पीले —पीले
मालूम पड़ते हो।
बात क्या है, पेनिसिलिन
लग गई क्या?
क्षयरोग
के कीड़ों को
पेनिसिलिन
बीमारी है।
तुम यह मत
समझना कि औषधि
है! तुम्हारे
लिए होगी। यह
जीवन विराट
है! इस जीवन को
सब पहलुओं से
देखो। अपने को
आदमी के पहलू
से मुक्त करो।
क्योंकि वह
सिर्फ एक कोण
है, वह
सिर्फ एक
दृष्टिकोण है।
लीला
का अर्थ होता
है, तुम
जीवन को समस्त
दृष्टिकोणों
से देखो। तब यहां
कुछ भी गलत
नहीं है। तब
सब हो रहा है।
एक विराट खेल
है। कोई हारता,
कोई जीतता।
जीत होगी कैसे
बिना हार के? तुम कहते हो,
क्या हार भी
खेल का हिस्सा
है? तो ऐसा
कोई खेल बना
सकते हो
जिसमें जीत ही
जीत हो, हार
हो ही नहीं।
तो खेल कैसे
होगा।
तुम
कहते हो, दुख भी क्या
जीत का हिस्सा
है? क्या
दुख के बिना
सुख हो सकता
है? क्या
असफलता के
बिना सफलता हो
सकती है? क्या
मृत्यु के
बिना जीवन हो
सकता है? क्या
बुढापे के
बिना जवानी हो
सकती है? कोई
उपाय नहीं है।
खेल तो
द्वंद्व से ही
होता है, दो में
टूटकर ही होता
है। खेल तो
विरोधों में
ही होता है।
अगर एकरस रह
जाये स्थिति
तो खेल बंद हो
गया। उसी
एकरसता को तो
हम निर्वाण
कहते हैं।
संसार खेल है
और निर्वाण
खेल के बाहर
हो जाना। जो
समझ गया राज, और जिसने
देख लिये सब
पहलू और उसने
कहा, इसमें
कुछ नहीं है, इसमें हार—जीत
सब बराबर? है।
कोई हारता, कोई जीतता, लेकिन अंततः
हिसाब में सब
बराबर है। न
कोई जीतता, न कोई हारता।
कोई जागता, कोई सोता।
कोई पैदा होता,
कोई मरता।
लेकिन अंततः
खेल सब बराबर
है। आखिर में
न कोई मरता, न कोई जीता; न कोई जागता,
न कोई सोता।
अंतिम
रूप में एक ही
बचता है, दो नहीं।
जिसने ऐसा देख
लिया वह खेल
के बाहर हो
गया। या हो
सकता है
परमात्मा
उसको खेल के
बाहर कर देता
है कि बाहर
निकलो। अब तुम
बड़े हो गये।
अब तुम खेलने
के लायक नहीं
रहे। अब तुम
बुद्धपुरुष
हो गये। अब
तुम हटो।
बच्चों को
खेलने दो, बीच—बीच
में न आओ। तो
उनको हटा लेता
है। मगर है तो
खेल ही।
हो न
फरियाद भी
सैयाद की
मर्जी यह है
जुल्म
पर जुल्म सहे
मुंह से कुछ
भी न बोलें
वह जो
खिला रहा है, उसकी
मर्जी यह है
कि तुम दुख को
भी पी जाओ ऐसे,
जैसे सुख है।
जहर को भी पी
जाओ ऐसे, जैसे
अमृत है।
हो न
फरियाद भी
सैयाद की
मर्जी यह है
जुल्म
पर जुल्म सहे
मुंह से कुछ
भी न बोलें
शिकायत
चली जाये।
लीला मानने का
अर्थ है, अब हमारी
कोई शिकायत
नहीं है। खेल
ही है न! तो
गंभीरता से
लेने की कोई
जरूरत नहीं।
हारे —जीते सब
बराबर है।
हारे तो हम
हारे, जीते
तो हम हारे।
जीते तो हम
जीते, हारे
तो हम जीते।
यहां कोई
दूसरा है ही
नहीं। यहां एक
ही अपने को दो
में बांटकर
खेल खेल रहा है!
यह जो छिया—छी
हो रही है, एक
के ही बीच हो
रही है।
परमात्मा ही
भाग रहा है, छिप रहा है।
परमात्मा ही
भाग रहा, खोज
रहा। यहां
खोजनेवाला और
खोजा
जानेवाला दो
नहीं हैं।
सुख के
दिवस दिये थे
जिसने
देन
उसी की ये दुख
के भी दिन
जिस घट
से छलकी थी
मदिरा
शेष
उसी घट के ये
विषकण
यह
अचरज की बात न
कोई
सीधा—सादा
खेल प्रकृति
का
मधु
ऋतु से विक्रय
पतझर का
सदा
किया करता है
मधुबन
यह कम
निश्चित इसे न
कोई
बदल
सका है, बदल सकेगा
इससे
ही तो कहता
हूं? हैं
व्यर्थ
अश्रु और
व्यर्थ रुदन
भी
हंस कर
दिन काटे सुख
के
हंस—खेल
काट फिर दुख
के दिन भी
दुख को
भी स्वीकार कर
लो वैसा, जैसा सुख को
स्वीकार किया।
स्वीकार परम
हो जाये तो
खेल शांत हो
जाता है।
और कोई
उपाय भी नहीं
है। दो ही
मार्ग हैं. या
तो लड़ो। लड़ों
तो बंट जाते
हो। लड़ो तो
कभी हार होती
है, कभी
जीत होती है।
कभी सुख, कभी
दुख। कभी
पराजय, कभी
विजय। कभी
सेहरा बंधता,
कभी धूल में
चारों खाने
चित पड़ जाते।
या तो लड़ो—एक
उपाय। लड़ों तो
द्वंद्व है।
या मत
लड़ों और
साक्षी हो जाओ।
तो फिर न कोई
हार है, न कोई जीत है।
साक्षी का
अर्थ है, खेल
के बाहर हो
गये। कर्ता का
अर्थ है, खेल
के हिस्से।
भोक्ता का
अर्थ है, खेल
के हिस्से।
साक्षी का
अर्थ है, खेल
के बाहर हो
गये। दूर
बैठकर दर्शक
की तरह देखने
लगे। रहे यहां
खड़े भी तो भी
दर्शक मात्र
की तरह ही रह
गये। और यहां
तो सब बदल रहा
है, सिर्फ
एक ही नहीं बदल
रहा है : साक्षी।
कल जिस
ठौर खड़ी थी
दुनिया आज
नहीं उस ठांव
है
जिस आंगन
थी धूप सुबह
उस अपान में
अब छांव है
प्रतिपल
नूतन जन्म यहां
पर प्रतिपल
नूतन मृत्यु
है
देख आंख
मलते —मलते ही
बदल गया सब गांव
है
रूप
नदी—तट तू
क्या अपना
मुखड़ा मल—मल
धो रही है
न
दूसरी बार
नहाना संभव
बहती धार में
कोई
मोती गूंथ
सुहागन तू
अपने गलहार
में
मगर
विदेशी रूप न
बंधनेवाला है
सिंगार में
यहां
रूप बन ही
नहीं पाता।
बनते—बनते
बिगड़ जाता है।
कोई
मोती गूंथ
सुहागन तू
अपने गलहार
में
मगर
विदेशी रूप न
बंधनेवाला है
सिंगार में
यहां
कुछ ठहरता ही
नहीं तो
सिंगार बने
कैसे! यहां
कुछ ठहरता ही
नहीं तो जीत
अंतिम कैसे हो? यहां जीत
हार में बदल
जाती है, हार
जीत में बदल
जाती है। यहां
किसी भी चीज
को उसकी अंतिम
सीमा तक खींचकर
ले जाओ, वह
अपने से
विपरीत में
बदल जाती है।
जीते चले जाओ,
आखिर में मौत
आ जाती है।
कल जिस
ठौर खड़ी थी
दुनिया आज
नहीं उस ठांव
है
प्रतिपल
सब भागा जा
रहा है, बदला जा रहा
है।
जिस आंगन
थी धूप सुबह
उस अपान में
अब छांव है
जहां
सफलता थी वहां
असफलता के आंसू।
जहां मरण का
रुदन था, वहां अब
उत्सव है, विवाह
हो रहा है, मंडप
सजे हैं।
प्रतिपल
नूतन जन्म
यहां पर
प्रतिपल नूतन
मृत्यु है
यहां
तो प्रतिपल
मौत घट रही है, प्रतिपल
जीवन घट रहा
है। बड़ी
भागदौड़ है।
पूप—छांव का
बड़ा खेल है।
देख आंख
मलते —मलते ही, बदल गया
सब गांव है
तुम
जरा देखो तो, आंख मलते
ही मलते सब
बदला जा रहा
है।
इस
बदलाहट को, इस रूपांतरण
को हम कहते
हैं लीला, खेल।
इसे गंभीरता
से लिया तो
उलझे। इसे
गंभीरता से
लिया तो फंसे।
गंभीरता से
लिया तो गलफास
हो जाती है।
और गंभीरता से
न लिया खेल—खेल
में लिया, हंस—हंसकर
लिया, बात
बदल गई। तुम
बाहर हो गये।
रूप
नदी—तट तू
क्या अपना
मुखड़ा मल—मल
धो रही
है न
दूसरी बार
नहाना संभव
बहती धार में
हेराक्लतु
ने कहा न? दुबारा एक
ही नदी में
नहीं उतरा जा
सकता। यहां
कोई भी चीज
दुबारा नहीं
मिलती। जो गया
सो गया, फिर
नहीं लौटता।
जो आया वह भी
जाने की
तैयारी कर रहा
है। फूल खिल
भी नहीं पाता
कि कुम्हलाना
शुरू हो जाता
है। यहां तुम
सुख—दुख के
हिसाब मत लगाओ।
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
कोई
मोती गूंथ
सुहागन तू
अपने गलहार
में
मगर
विदेशी रूप न
बंधनेवाला है
सिंगार में
यहां
कुछ भी बंध
नहीं पाता।
कुछ भी थिर
नहीं हो पाता।
इस अथिर लहरों
के जाल को
हमने लीला कहा
है। लीला का
इतना ही अर्थ
है, गंभीरता
से न लेना।
खेल है।
अगर
लीला समझो तो
द्रष्टा हो
सकोगे। अगर
गंभीरता से
लिया तो कर्ता
हो जाओगे।
कर्ता हुए कि
दुख में पड़े, सुख में
पड़े, भोक्ता
हुए। कर्ता
हुए कि अहंकार
की खोज ने
तुम्हें घेरा।
जाल शुरू हुआ।
फंसे। कर्ता न
रहे, सिर्फ
देखा, सिर्फ
देखते रहे.
देखते रहे; कुछ भी भाव न
जोड़ा अच्छे
बुरे का, शुभ
का, अशुभ
का, पक्ष—विपक्ष
का, ऐसा हो,
ऐसा न हो—ऐसा
कुछ भी भाव मन
में संगृहीत न
किया, बस
देखते रहे, जैसे अपना
कुछ लेना—देना
नहीं।
निरपेक्ष!
तटस्थ! वहीं
से सूत्र मिल
जाता।
वहीं
से तुम भृंग
कीड़े के पीछे
बंधे हुए रेशम
के धागे को
पकड़ लेते हो।
और वहीं से
तुम एक दिम उस
परम ज्योति के
द्वार तक
पहुंच जाते
जिसका नाम
परमात्मा है।
आज
इतना ही।
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