दिनांक
2 फरवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
सारसूत्र
:
निर्मम:
शोभते धीर:
समलोष्टाश्मकांचन:।
सुभिन्नहृदयग्रंथिर्विनिर्धूतरजस्तम:।।
264।।
सर्वत्रानवधानस्थ
न
किचिद्वासना
हृदि।
मुक्तात्मनो
विस्तृप्तस्थ
तुलना केन
जायते।। 265।।
जानन्नपि
न जानाति
पश्यन्नयि न
पश्यति।
ब्रूवन्नपि
न च ब्रूते
कोऽन्यो
निर्वासनाद्वते!।
266।।
भिमुर्वा
भूयतिर्वायि
यो निष्काम: स
शोभते।
भावेषु
गलित) यस्य
शोभनाशोभना
मति:।। 267।।
क्य
स्वाच्छंद्य
क्य संकोच: क्य
वा
तत्त्वविनिश्चय:!
निर्व्याजार्जवभूतस्थ
चरितार्थस्य
योगिन:।। 268।।
आत्मविश्रांतितृप्तेन
निराशेन
गतार्तिना।
अंतर्यदनुभूयेत
तत्कथं
क्रस्ट
कथ्यते।। 269।।
निर्मम: शोभते
धीर:
समलोष्टाश्मकांचन,
सुभिन्नहृदयग्रथिर्विनिर्धूतरजस्तम:।।
'जो ममतारहित
है, जिसके
लिए मिट्टी, पत्थर और
सोना समान है,
जिसके हृदय
की ग्रंथि टूट
गयी और जिसका
रज, तम धुल
गया, वह
धीरपुरुष ही
शोभता है।’
बहुत—सी
बातें इस
सूत्र में
समझने जैसी
हैं।
पहली
बात, 'जिसकी
हृदयग्रंथि
टूट गयी है..।’
हृदय
है गांठ, जहां राम और
काम बंधे हैं।
और जब तक हृदय
की गाठ न टूट
जाए, राम
और काम की
मुक्ति नहीं
होती। हृदय है
गांठ, जहां
संसार और
निर्वाण बंधे
हैं। जब तक
वहा गांठ न
टूट जाए, तब
तक संसार और
निर्वाण पृथक
नहीं होते।
हृदय
सबसे
महत्वपूर्ण
गांठ है। और
ग्रंथि शब्द
का अर्थ गांठ
है।
मनोवैज्ञानिक
जिसे
काप्लेक्स
कहते हैं। जहां
चीजें उलझ गयी
हैं। जहां
सुलझाना
पड़ेगा।
मनुष्य
के शरीर में
दोनों का मिलन
हो रहा है, काम और
राम का। दोनों
का मिलन हो
रहा है, ब्रह्म
और माया का।
मनुष्य के
शरीर में
छुद्र विराट
से मिल रहा है।
निम्न
श्रेष्ठ से
मिल रहा है।
अंधेरा और
प्रकाश एक—दूसरे
से हाथ मिला
रहे हैं।
प्रकृति और
परमात्मा साथ —साथ
खड़े हैं।
मनुष्य एक
अपूर्व संगम
है। और इस
संगम की जो
सबसे आधारभूत
कड़ी है, वह
हृदय है। हृदय
की ग्रंथि जब
तक न टूट जाए, सुभिन्नहृदयग्रंथि:,
जब तक
भलीभांति
हृदय की
ग्रंथि छिन्न—भिन्न
न हो जाए, तब
तक कोई मुक्ति
नहीं है। तब
तक कोई
बुद्धत्व
नहीं है।
हृदयग्रंथि
का यौगिक नाम
है, अनाहत
चक्र। तीन
चक्र नीचे हैं
अनाहत के और
तीन चक्र ऊपर
हैं। अनाहत
चक्र पर ठीक
तराजू के दो
पलड़े अलग— अलग
बंट जाते हैं।
अनाहत चक्र पर
तराजू का काटा
है। नीचे जाओ
तो अंततः अंत
में मिलता है
मूलाधार।
कामवासना का
गहन अंधकार।
मूर्च्छा, गहरी
बेहोशी। जहां
चैतन्य सब तरह
से डूब जाता
है। जहां होश
जरा भी नहीं
रह जाता।
इसलिए
कामवासना का
इतना प्रभाव
है। जब भी
आदमी अपने को
भुलाना चाहता
है, तो
कामवासना
उसके भीतर
निर्मित
होनेवाली
शराब है। उसे
पीकर भूल जाता
है। थोड़ी देर
को ही भूल
पाता है
स्वभावत:,
क्षण
भर को ही भूल
पाता है, क्योंकि
उतने नीचे तल
पर सदा बना
रहना संभव नहीं
है। उस नीचे
तल को छू तो
सकता है, जैसे
कोई आदमी पानी
में डुबकी
लगाए और चला
जाए नीचे
तलहटी को छू
ले, लेकिन
कितनी देर
रुकेगा? क्षणभर
बाद भाग—दौड़
मच जाती है, लौटता है
वापिस, सतह
पर आना पड़ता
है।
तो
कामवासना में
डुबकी तो लगती
है क्षण भर को, भूल भी
जाता है अपने
को, भूल
जाता है संसार,
विस्मरण हो
जाता है
चिंताओं का; न कोई उलझन
रह जाती, न
कोई समस्या रह
जाती, न
कोई विषाद—संताप
रह जाता, क्षण
भर को सब कुछ
भूल जाता है।
लेकिन बस क्षण
भर को। लौटकर
फिर सब वैसा
का वैसा खड़ा
है। शायद पहले
से भी ज्यादा
विकृत होकर
खड़ा है।
क्योंकि इतना
समय और गंवाया
और इतनी ऊर्जा
भी खोयी।
स्थिति
बदलेगी नहीं।
विस्मरण
से कुछ
रूपांतरण
नहीं होता है।
तो
नीचे है
मूलाधार।
मूलाधार में
गिरकर आदमी
पशुवत हो जाता
है। इसलिए
पुराने
शास्त्र कहते
हैं, अगर
कामवासना ही
तुम्हारे
जीवन का
लक्ष्य है तो
तुममें और पशु
में फिर कोई
भेद नहीं। पशु
शब्द बड़ा
बहुमूल्य है।
इसका अर्थ
होता है, जो
कामवासना की
जंजीर में
बंधा, पाश
में बंधा, वह
पशु। जिसके
गले में
कामवासना की
जंजीर बंधी है,
जो नीचे की
तरफ खींचा जा
रहा है पाश से,
वह पशु। पाश
से जो मुक्त
हो जाए, वही
पशुता से
मुक्त हुआ।
हृदयग्रंथि
के नीचे पशु
का संसार है।
अंधेरा।
यद्यपि
अंधेरे की
अपनी एक तरह
की विश्रांति
है। विस्मरण
से भरा।
यद्यपि
विस्मरण में
एक तरह का सुख
है। कम—से —कम
सुख का आभास
तो है ही। दुख
भूल जाता है
इतना तो
निश्चित है, न मिटता
हो! थके—हारे
आदमी को उतना
विस्मरण भी
काफी है।
हृदयग्रंथि
के ऊपर, अनाहत के
ऊपर यात्रा
करो, तो
अंत में मिलता
है सहस्रार।
जैसे निम्नतम
है मूलाधार, वैसे
श्रेष्ठतम है
सहस्रार।
सहस्रार का
अर्थ होता है,
सहस्रदलों
वाला कमल। वह
मनुष्य के
चैतन्य का
आखिरी
प्रस्फुटन है,
जहां फूल
खिला मनुष्य
की आत्मा का।
वहा पहुंचकर
मनुष्य
मनुष्य नहीं
रह जाता, परमात्मा
हो जाता है।
मूलधार पर
गिरकर मनुष्य
मनुष्य नहीं
रह जाता, पशु
हो जाता है, सहस्रार पर
उठकर मनुष्य
फिर मनुष्य
नहीं रह जाता,
परमात्मा
हो जाता है।
मनुष्य तो एक
उलझन है, एक
गांठ है।
मनुष्य तो
मनुष्य रहता
है, क्योंकि
हृदय की
ग्रंथि बंधी
है। हृदय की
ग्रंथि में ही
मनुष्यता है।
मनुष्यता में
एक अनिवार्य
विषाद और
संताप है।
मनुष्य
होकर कोई सुखी
हो ही नहीं
सकता। या तो
पशु सुखी हैं, क्योंकि
उन्हें दुख का
पता नहीं हो
सकता। बोध ही
नहीं है। या
परमात्मा
सुखी है, क्योंकि
इतना बोध है
कि उस बोध में
दुख संभव नहीं
है। इतना
प्रकाश है कि
उस प्रकाश में
अंधेरा टिक नहीं
सकता। पशु को
दिखायी नहीं
पड़ता अंधेरा,
क्योंकि
पशुता अंधी है।
और जब दिखायी
नहीं पड़ता तो
पशु सोचता है,
नहीं होगा।
परमात्मा की
दशा में, परमात्म—दशा
में—बुद्धत्व
कहो, जिनत्व
कहो, अरिहंत
की अवस्था कहो,
जो भी नाम तुम्हें
पसंद हों—लेकिन
वे सब एक ही
बात कहते हैं
कि उस दशा में
फिर दुख नहीं
है। क्योंकि
इतना प्रबल
चैतन्य का
प्रवाह आता, ऐसा ज्वार
आता प्रकाश का,
हजार—हजार
सूरज एक साथ
ऊग गये, कहां
अंधेरा
टिकेगा!
अंधेरे को
टिकने की जगह
नहीं होती। और
जहां अंधेरा
नहीं टिक सकता,
वहाँ दुख
नहीं टिक सकता—दुख
एक तरह का
अंधेरा है।
वहा परम आनंद
है।
दोनों
स्थितियों
में मनुष्य
समाप्त हो
जाता है।
तो
मनुष्य कहां
है? मनुष्य
हृदय की
ग्रंथि में है।
मनुष्य के
नीचे की जो
दुनिया है, वह भी हृदय
से ही नीचे है
और मनुष्य से
ऊपर की जो
दुनिया है वह भी
हृदय के ऊपर
है। और तुम
जहां हो, वह
जगह हृदय है
और वहीं गांठ
उलझी है। हृदय
चौराहा है, जहां से या
तो नीचे जाओ
या ऊपर जाओ।
तो हृदय से ही
आदमी ऊपर उठता
है और हृदय से
ही नीचे गिरता
है। इस बात को
समझ लेना।
जब
हृदय ऐसे
प्रेम से भरता
है जो
वासनापूर्ण है, तो नीचे
की यात्रा
शुरू हो जाती
है। जब हृदय
ऐसे प्रेम से
भरता है जो
प्रार्थनापूर्ण
है, जो ऊपर
की यात्रा
शुरू हो जाती
है। लेकिन
हृदय से ही
नीचे और हृदय
से ही ऊपर।
हृदय ही साथी
है और हृदय ही
शत्रु है।
होगा भी ऐसा
ही। क्योंकि
हृदय सीढ़ी है।
तुम सीढ़ी से
नीचे जाओ तो
भी वही सीढ़ी
काम आती है, ऊपर जाओ तो
भी वही सीढ़ी
काम आती है।
ऊपर के लिए
कोई अलग सीढी
थोड़े ही होती
है, नीचे
के लिए कोई
अलग सीढ़ी थोड़े
ही होती है!
सीढ़ी एक ही
होती है, सिर्फ
तुम्हारी
दिशा बदल जाती
है।
प्रार्थना
का अर्थ है, आंखें
ऊपर की तरफ
लगी हैं।
इसीलिए तो आदमी
आकाश की तरफ
हाथ उठा कर
प्रार्थना
करता है।
वासना का अर्थ
है, आंखें
नीचे गड़ गयी
हैं। इसीलिए
तो जब भी तुम
वासना से भरते
हो, तुम
शर्म से आंखें
नहीं उठा पाते,
आंखें नीचे
झुक जाती हैं।
जहां वासना है,
वहां आंखें
नीचे झुक गयीं।
वहा तुम जमीन
में गड़ गये।
जहां प्रार्थना
है, आंखें
ऊपर उठ गयीं।
वहां तुम आकाश
में उड़ने लगे।
ठीक ऐसी ही
घटना भीतर
घटती है। जब
तुम वासना में
होते हो, तुम्हारी
दिशा नीचे की
तरफ होगी। चले
पशु की तरफ! जहां
से आए थे, उसी
पुरानी
परिपाटी पर
फिर वापिस
दौड़ने लगे। वह
जाना—माना
मार्ग है।
इसलिए सुगम
मालूम होता है।
परिचित है
जन्मों —जन्मों
का, हम वहा
से होकर आए
हैं, इसलिए
उस रास्ते पर
जाने में
अडूचन नहीं
मालूम होती।
आगे, जब
तुम भीतर आंखें
उठाते हो और
सहस्रार की
तरफ देखते हो,
तब अड़चन हो
जाती है। तब
नया रास्ता है,
अपरिचित है,
पता नहीं
कहां ले जाए, क्या परिणाम
हो, शुभ हो
कि अशुभ हो, भय लगता है।
फिर
नीचे के
रास्ते पर
सारी भीड़
तुम्हारे साथ है।
वहां तुम
अकेले नहीं हो।
जब तुम वासना
में डूबते हो, सारा
संसार
तुम्हारे साथ
है। जब तुम
प्रार्थना
में जाते हो, तुम अकेले।
वह एकाकी पथ
है।
प्रार्थना
में कौन किसका
साथी हो सकता
है!
इसे
तुमने खयाल
किया? कामवासना
में कम—से —कम
एक व्यक्ति तो
साथी हो ही
सकता है। जिस
स्त्री के तुम
प्रेम में, जिस पुरुष
के प्रेम में,
वह तो साथी
हो ही सकता है।
कामवासना में
साथ संभव है।
लेकिन
प्रार्थना तो
बिलकुल निपट
अकेली है।
वहां तो दूसरा
साथ नहीं हो
सकता। वहा तो
तुम अकेले रह
गये, आत्यंतिक
रूप से अकेले
रह गये। भय
लगता, घबड़ाहट
होती।
फिर
ऊपर जाने में
गिरने का भी
डर है। नीचे
जाने में
गिरने का कोई
डर ही नहीं है, नीचे तो
जा ही रहे हैं,
गिरने का
सवाल ही कहां
है? घाटियों
में जो जीते
हैं, वे
गिरेंगे कैसे!
शिखरों पर जो
जीते हैं, वे
गिर सकते हैं।
इसलिए तुमने
कभी
भोगभ्रष्ट
शब्द नहीं
सुना होगा, योगभ्रष्ट
शब्द सुना
होगा। भोगी तो
भ्रष्ट हो ही
नहीं सकता। अब
और क्या
भ्रष्ट होना
है! अब भ्रष्ट
होने को जगह
कहां बची है? योगी भ्रष्ट
होता है—हो
सकता है।
क्योंकि योग
एक शिखर है।
ऊंचाई पर जो
उड़ते हैं, वे
खतरा मोल लेते
हैं। जितनी
बड़ी ऊंचाई, उतना ही बड़ा
खतरा।
पहाड़ों
पर चढ़े हो कभी? जैसे —जैसे
ऊंचाइयों पर
चढ़ने लगते हो
वैसे—वैसे
खतरा बढ़ने
लगता है। जैसे
ऊंचाई बढ़ने
लगती है, जैसे
गौरीशंकर
करीब आने
लगेगा, वैसे
—वैसे खतरा
तुम मोल ले
रहे हो, चुनौती
तुम मोल ले
रहे हो। जरा—सी
चूक और मौत हो
जाएगी। ऐसी
चूक अगर घाटी
में होती तो
कुछ भी नहीं
होने वाला था।
चूक यही होती,
ज्यादा—से —ज्यादा
पैर में मोच
लग जाती और
क्या होता? कि गिर—पड कर
थोड़ा घुटना
छिल जाता और
क्या होता? लेकिन अगर
यही चूक
गौरीशंकर पर
हुई, तो
प्राणांत
होगा। जितनी
ऊंचाई, उतना
ही महंगा सौदा
है। इसलिए
सिर्फ
दुस्साहसी ही
धर्म के जगत
में प्रवेश कर
पाते हैं।
अपूर्व साहस
चाहिए।
कायर
वासना में ही
जीते हैं, वासना
में ही समाप्त
हो जाते हैं।
महावीरों की
ही क्षमता है
कि ऊपर की
यात्रा पर उड़े।
वहा पंख
फैलाएं जहां
सूना आकाश है।
जहां बिलकुल
अकेला रह जाता
है प्राणों का
पक्षी। जहां
कोई संगी—साथी
नहीं, कोई
समाज नहीं, कोई
संप्रदाय
नहीं। उस
स्वात में ही
खिलता है कमल
सहस्रार का।
तुमने देखा
होगा, जब
कोई व्यक्ति
ध्यान की
गहराई में
जाता है, तो
उसकी आंखें
ऊपर खिंच जाती
हैं। अगर तुम
ध्यानी की पलक
खोलकर देखो तो
तुम चकित
होओगे, उसकी
आंखें ऊपर
खिंची हुई हैं,
ऊपर चढ़ी हुई
हैं। ध्यान की
गहराई में आंखें
सहस्रार की
तरफ खिंच जाती
हैं, दिशा
ऊपर की तरफ हो
गयी। इसे तुम
भीतर अनुभव
करना, जब
कामवासना तुम्हारे
भीतर उठेगी और
तुम्हारे
कामयंत्र में स्फुरण
होगा, तो
तुम्हारी आंखें
भीतर नीचे झुक
जाएंगी। भीतर।
चाहे बाहर से
तुम न भी
झुकाओ, लेकिन
भीतर से तुम
जानते हो, ऊर्जा
नीचे की तरफ
बहने लगी। आंखों
का प्रवाह
नीचे की तरफ
हो गया। इसे
तौलते रहना।
गांठ
है हृदय की। वहीं
से नीचे गिरता
आदमी, वहीं
से ऊपर उठता।
प्रेम ही
उठाता है और
प्रेम ही
गिराता है।
इसलिए प्रेम
बड़ा खतरनाक
शब्द है। और
जरा भी उसको
गलत समझा तो
चूके।
मैं
निरंतर प्रेम
की बात करता
हूं। प्रेम
शब्द का उपयोग
करना अंगार से
खेलने जैसा है।
मैं जिस प्रेम
की बात करता
हूं बहुत
संभावना है
तुम वही नहीं
समझोगे। तुम
वही प्रेम समझ
लोगे जो तुम
समझ सकते हो।
मैं जब प्रेम
की बात करता हूं, तब
प्रार्थना की
बात कर रहा
हूं। तुम जब
प्रेम शब्द
सुनोगे, तत्क्षण
तुम कामना की
और वासना की
बात समझ लोगे।
तुम अपना
प्रेम समझ
लोगे। अगर
तुम्हारे
प्रेम से ही
मोक्ष हो सकता
था, तब तो
फिर मेरे पास
आने की कोई
जरूरत नहीं थी।
वैसा प्रेम
तुम कर ही रहे
हो। उससे
मोक्ष नहीं
हुआ है, उससे
संसार ही
निर्मित हुआ
है। उससे तुम
जरा भी ऊपर
नहीं गये हो, उससे तुम
नीचे गिरे हो।
उससे तुम भटके
हो, वही तो
तुम्हारा
भटकाव है।
लेकिन मेरी
बात सुनकर हो
सकता है तुम
अपने पुराने
ढांचे के लिए
सहारा खोज लो
और तुम सोचो, मैं
तुम्हारे
प्रेम की बात
कर रहा हूं।
तुम एक
बात सदा ही
स्मरण रखना, मेरे
शब्दों को तुम
कभी अपनी भाषा
में अनुवादित
मत करना, अन्यथा
चूक हो जाएगी।
तुम अपने को
जरा अलग ही
रखना। और जब
भी मैं उन
शब्दों का
उपयोग करूं
जिनके उपयोग
करने के तुम
भी आदी हो, तो
बहुत सावधानी
से सुनना, क्योंकि
भूल होने की
बहुत संभावना
है। तुम वही
अर्थ डाल दोगे
जो तुम्हारा
अर्थ है। और
वहीं चूक हो
जाएगी। तुम
कुछ सुन लोगे
जो नहीं कहा
गया था। तुम
कुछ समझ लोगे
जो प्रयोजन
नहीं था। कुछ
का कुछ
हो
जाएगा। अनर्थ
होगा, अर्थ
नहीं होगा।
हृदय
की ग्रंथि के
नीचे भी एक
प्रेम है—पाशविक
प्रेम, अंधा प्रेम,
वासना, देह
का प्रेम; प्रेम
नाममात्र को
है। प्रेम
कहना भी नहीं
चाहिए। शोषण
है एक—दूसरे
की देहों का।
अपने को
भुलाने के
उपाय हैं।
मूर्च्छा है,
मदिरा है।
एक प्रेम है, जो हृदय की
ग्रंथि के ऊपर
है। वहां
प्रेम अति
कोमल है। वहां
प्रेम पराग
जैसा है। वहां
प्रेम पदार्थ
नहीं है, सुगंध
जैसा है।
सुवास जैसा है।
मुट्ठी
बाधोगे तो पकड़
में नहीं आएगा।
मुट्ठी बांधी
तो चूक जाओगे।
वहा प्रेम
किसी और आयाम
में प्रवेश
करता है। वहां
तुम देह को
नहीं चाहते।
वहां देह से
कुछ प्रयोजन न
रहा। वहां मन
की चाहत पैदा
होती है। और
धीरे— धीरे मन
की चाहत से भी
पार हो जाते
हो। प्राणों
का प्राणों से
मिलन होता है।
शरीर
तो अलग— अलग
हैं। मन इतने
अलग नहीं। और
आत्मा तो
बिलकुल अलग
नहीं है। मैं
जिस प्रेम की
बात कर रहा
हूं वह ऐसा
प्रेम है, जहां
तुम्हें इस
सारे
अस्तित्व में
एक ही प्राण
का स्पंदन
अनुभव होता है।
जहां पत्ते—पत्ते
में, जहां
कंकड़—कंकड़ में
एक ही प्रेम, एक ही ऊर्जा
तुम्हें
प्रवाहित
मालूम होती है
और तुम बूंद
की तरह इस
विराट सागर
में डूबने को
आतुर हो जाते
हो।
प्रार्थना का
यही अर्थ है।
ग्रंथि
तोड़नी है हृदय
पर, इसलिए
यह पहला सूत्र
समझो—
'जो
ममतारहित है,
जिसके लिए
मिट्टी, पत्थर
और सोना समान
है।’
यह भी
खयाल में लेना।
इस सूत्र की
जो
व्याख्याएं
की जाती रही
हैं, वे
बड़ी भ्रांत
हैं। जिसके
लिए मिट्टी, पत्थर और
सोना समान है,
इसका तुम यह
अर्थ मत समझ
लेना कि अगर
ज्ञानी के
सामने तुम
सोना रखो तो
उसे सोना
दिखायी नहीं
पड़ेगा और
मिट्टी
दिखायी पड़ेगी।
ऐसा मत समझ
लेना अर्थ।
सोना सोना
दिखायी पड़ेगा,
मिट्टी
मिट्टी
दिखायी पड़ेगी,
पत्थर
पत्थर दिखायी
पड़ेगा, पर
तीनों के
मूल्य में कोई
भेद नहीं है।
अगर किसी
ज्ञानी को
सोना सोना न
दिखायी पड़े और
मिट्टी
दिखायी पड़े तो
यह तो भ्रांति
हुई। यह कोई
जागरण न हुआ।
जागरण में तो
भेद और स्पष्ट
हो जाएंगे।
सोना सोना
दिखायी पड़ेगा,
मिट्टी
मिट्टी
दिखायी पडेगी;
लेकिन
मूल्य— भेद
समाप्त हो
जाएगा। कि
मिट्टी का कोई
मूल्य नहीं है
और सोने का मूल्य
है, ऐसा
भेद समाप्त हो
जाएगा। मूल्य
मनुष्य—
आरोपित है।
तुम
ऐसा सोचो कि
कोई मनुष्य
पृथ्वी पर न
रहा, मिट्टी
का ढेर लगा है
और सोने का
ढेर लगा है, सोने का ढेर
मूल्यवान
होगा? सोना
फिर भी सोना
होगा, मिट्टी
फिर भी मिट्टी
होगी, लेकिन
अब सोना
मूल्यवान
नहीं होगा। अब
आदमी ही न रहा
जो मूल्य देता
था, अब
आदमी ही न रहा
जिसके मन में
मूल्य था, तो
अब सोने का
क्या मूल्य
है! मूल्य
निर्मूल्य हो
गया, मूल्य
शून्य हो गया।
मिट्टी
मिट्टी है, सोना सोना
है। आदमी के
हटने से न तो
मिट्टी सोना
हो जाएगी, न
सोना मिट्टी
हो जाएगा, लेकिन
अब मिट्टी और
सोने में
मूल्य का भेद
न रहने से कोई
भेद नहीं रह
गया।
इस बात
को खयाल में
रखना। नहीं तो
पागलों को लोग
परमहंस समझ
लेते हैं।
जिनको कोई भेद
नहीं, ऐसा
समझ लेते हैं।
पागलपन और
परमहंस में
बड़ा बुनियादी
अंतर है।
परमहंसत्व का
तो अर्थ है, मूल्य— भेद
नहीं रहा।
मूल्य समान हो
गये। लेकिन
वस्तुओं के
गुणधर्म तो
भिन्न —भिन्न
हैं सो भिन्न—भिन्न
रहेंगे।
जब
अष्टावक्र
कहते हैं, जिसके
लिए मिट्टी, पत्थर और
सोना समान हैं
तो इसका अर्थ
है, स्म—मूल्यवान
हैं। समान हैं,
इसका अर्थ
है, आत्यंतिक
अर्थों में
समान हैं।
व्यावहारिक
अर्थों में
समान नहीं हैं।
नहीं तो
परमहंस को भूख
लगे तो मिट्टी
खा ले। ऐसे
पागल हैं, जो
मिट्टी खा
लेते हैं और
लोग समझते हैं
कि परमहंस हैं।
बुद्धों ने
ऐसा तो नहीं
किया! महावीर
के संबंध में
ऐसा तो उल्लेख
नहीं है! न
कृष्ण के
संबंध में
उल्लेख है कि
तुम मिट्टी
परोस दो और वे
खा लें। तो
मिट्टी
मिट्टी है, भोजन भोजन
है।
व्यावहारिक
अर्थों में तो
भेद है, लेकिन
आत्यंतिक
अर्थों में
भेद नहीं है।
क्योंकि आखिर
जिसको तुम भोजन
कहते हो वह
मिट्टी से ही
पैदा होता है।
जिसको तुम आज
भोजन कह रहे
हो, वह कल
फिर मिट्टी हो
जाएगा। फिर
मिट्टी से
पैदा होगा, फिर मिट्टी
में मिलता
रहेगा। इसलिए
आत्यंतिक
अर्थों में तो
कोई भेद नहीं
है, लेकिन
व्यावहारिक
अर्थों में तो
भेद है।
तुमने
बीज बोया, मिट्टी
में बोया।
मिट्टी से बीज
फूटा, अंकुरित
हुआ और हजार
बीज लगे।
तुमने फसल
काटी। जिसको
तुम गेहूं
कहते हो, यह
मिट्टी का ही
रूपांतरण है।
जिसको तुम
गेहूं का पौधा
कहते हो, इस
पौधे ने
तुम्हारे लिए
एक अदभुत काम
कर दिया जो
तुम नहीं कर
सकते थे। अगर
तुम मिट्टी को
सीधा खा लो तो
खून नहीं बनेगी।
लेकिन अब तुम
गेहूं को
चबाओगे और
गेहूं को पचाओगे
तो खून बनेगी।
इस गेहूं के
पौधे ने एक
चमत्कार कर
दिया। इसने
मिट्टी में से
वे —वे हिस्से
छांट दिये, जिनके कारण
खून बनने में
बाधा पड़ सकती
थी। और वे —वे
हिस्से चुन
लिए, जिनके
खून बनने में
अब कोई बाधा
नहीं है।
गेहूं के पौधे
का धन्यवाद
मानो। उसने
मिट्टी को
तुम्हारे
शरीर में पचने
योग्य बना
दिया। उसने
योग्य बना
दिया, ताकि
अब तुम उसको
पचा सको।
इसीलिए
तो मैं कहता
हूं कि सारी
प्रकृति जुड़ी है, संयुक्त
है। अगर गेहूं
के पौधे न हों,
तुम जीवित न
रह जाओ। तो
गेहूं के
पौधों का आभार
तो होना चाहिए।
गेहूं के पौधे
तुम्हारे लिए
बड़ा काम कर
रहे हैं।
ऐसा ही
समझो कि सागर
का पानी है, तुम पी लो—दिखता
तो पानी है
लेकिन पी लो
तो मर जाओगे।
प्यास तो नहीं
बुझेगी, प्राण
ही चले जाएंगे।
सागर का पानी
पानी जैसा
दिखता है, लेकिन
पीया नहीं जा
सकता। फिर यही
सागर का पानी
हजारों मील
मिट्टी में से
छन—छन कर
तुम्हारे
कुएं में आ
रहा है। तब
तुम पी लेते
हो, तब कोई
हर्जा नहीं है,
तब
तुम्हारी
प्यास बुझ
जाती है। वह
जो हजारों मील
की मिट्टी की
परतें हैं, उन्होंने
सागर के उन
सारे लवण
रासायनिक—द्रव्यों
को छांट लिया,
छान दिया, जिनके कारण
मौत घट सकती
थी। पानी अब
भी पानी है।
लेकिन इस
मिट्टी ने बड़ा
काम कर दिया।
इसने सब नमक
रोक लिये। जो—जो
चीजें
तुम्हारे
शरीर में घातक
हो सकती थीं, वे अलग कर
दीं। पानी छन—छन
कर, छन—छन
कर, शुद्ध
हो—होकर
तुम्हारे
कुएं में आ
गया। है सागर
का ही पानी, लेकिन अब
तुम पी सकते
हो।
जो काम
कुएं ने किया, वही काम
गेहूं के पौधे
ने भी किया।
उसने मिट्टी
को छान—छानकर
गेहूं बना
दिया। वही काम
नाशपाती और
नींबू के
वृक्ष कर रहे
हैं, छान—छानकर।
मिट्टी एक है,
उसी से
नींबू पैदा
होता, उसी
से नाशपाती
पैदा होती, उसी से आम
पैदा होता।
मिट्टी एक है,
लेकिन अलग—
अलग पौधे अलग—अलग
ढंग से छानते
हैं। इसलिए
अलग— अलग फल
पैदा हो जाते
हैं। ये फल
हैं तो मिट्टी
ही, लेकिन
फिर भी मैं
तुमसे यह न
कहूंगा कि
मिट्टी खा लो।
और न
अष्टावक्र
तुमसे कहेंगे।
मिट्टी खायी
होती
अष्टावक्र ने,
तो यह
महागीता कभी
पैदा न होती।
कभी के मिट्टी
में मिल
गये
होते, ये
वचन बोलने के
पहले।
नहीं, लेकिन
आत्यंतिक
अर्थों में तो
तुम मिट्टी ही
खा रहे हो।
चाहे गेहूं? चाहे चावल, चाहे
नाशपाती, चाहे
अगर, चाहे
संतरे, तुम
जो भी खा रहे
हो, आत्यंतिक
अर्थों में तो
मिट्टी ही खा
रहे हो।
क्योंकि है तो
यह सब मिट्टी
का ही खेल। और
मजा तो यह है
कि मिट्टी का
खेल तुम भी हो।
एक दिन तुम
गिरोगे और
मिट्टी में खो
जाओगे।
मिट्टी से ही
पैदा हुए, मिट्टी
में ही
विसर्जित हो
जाओगे। इसलिए
सब आत्यंतिक
अर्थों में
मिट्टी है।
जिसको
तुम सोना कहते
हो, वह
भी मिट्टी का
ही एक रूप है।
जिसको चांदी
कहते हो, वह
भी मिट्टी का
ही एक रूप है।
तुम्हें
जानकर हैरानी
होगी, जिसे
तुम हीरा कहते
हो, वह
कोयले का एक
रूप है। कोयला
ही लाखों वर्ष
जमीन में पड़ा—पड़ा
हीरा बन जाता
है। अब कोयले
को तो कोई
छाती में लटका
कर नहीं चलेगा
कि कोहनूर है।
कितना ही बड़ा
कोयला लटका लो,
कोई तुमको न
कहेगा कि आप
बड़े
बुद्धिमान
हैं। लोग
कहेंगे, पागल
हो गये हो? माना
कि विज्ञान की
किताबें कहती
हैं कि कोयले
और कोहनूर में
कोई फर्क नहीं
है, सिर्फ
समय का फर्क
है—लाखों वर्ष
तक मिट्टी में
दबा रह—रह कर, मिट्टी के
दबाव से, रासायनिक
प्रक्रियाओं
से कोयला ही
हीरा बन जाता
है—लेकिन फिर
भी हीरा हीरा
है, कोयला
कोयला है। तुम
कोयले को तो
लटका कर न
घूमोगे। हीरा
मिल जाए तो
लटकाओगे।
माना कि भेद
व्यावहारिक
है, लेकिन
आत्यंतिक
अर्थों में, अल्टीमेट
अर्थों में
कोई भेद नहीं
है। इसको
स्मरण रखना।
जहां —जहां
शास्त्रों
में ऐसे वचन
आते हैं कि
सोना, मिट्टी,
पत्थर सब एक,
इसका मतलब
है—आत्यंतिक
अर्थों में एक।
व्यावहारिक
अर्थों में एक
जरा भी नहीं।
'जो
ममतारहित है,
जिसके लिए
मिट्टी, पत्थर
और सोना समान
है, जिसके
हृदय की
ग्रंथि टूट
गयी है और
जिसका रज—तम
धुल गया है, वह धीरपुरुष
ही शोभता है।’
इन
सूत्रों में
बार—बार
अष्टावक्र
उसकी प्रशंसा
कर रहे हैं, उस तत्व
की जिसकी शोभा
है। उस
सिंहासन की, जिस पर
विराजमान हुए
बिना तृप्ति
नहीं होगी। वे
कहते हैं, आत्यंतिक
शोभा किसकी है?
गरिमा
किसकी है? गौरव
किसका है? उसका
है, जो
ममता से मुक्त
हो गया। ममता
नीचे ले जाती
प्रेम को। जो
ममता से मुक्त
हो गया, उसका
प्रेम ऊपर को
जाने लगता।
ममता जैसे
प्रेम के गले
में बंधे हुए
पत्थर—चट्टानें
हैं। ममता का
अर्थ होता है,
मेरे हो
इसलिए प्रेम
करता हूं।
मेरे बेटे हो,
इसलिए
प्रेम करता
हूं। कि मेरे
पति हो, इसलिए
प्रेम, कि
मेरी पत्नी हो,
इसलिए।
मेरे हो, इसलिए।
जहां मेरे से
प्रेम मुक्त
हो गया, वहा
फिर तुम यह
नहीं कहते कि
इसलिए प्रेम
करता हूं। तुम
कहते हो, प्रेम
मेरे भीतर बह
रहा है, तुम
मौजूद हो, तुम्हें
मिल रहा है, कोई और
मौजूद होता तो
उसे मिलता।
कोई न मौजूद
होता तो शून्य
में बिखरता।
जैसे कहीं दूर
स्वात में
पहाड पर कोई
फूल खिले, तो
गंध तो
बिखरेगी।
स्वात में
बिखरेगी, कोई
राहगीर भी न
निकलता होगा
तो भी बिखरेगी।
ऐसे ही जब
तुम्हारा
प्रेम ऊपर की
तरफ जाना शुरू
होता है तो
तुम्हारे
जीवन में एक
सुगंध उठती है,
जो बिखरती
है। जो भी आ
जाए उसको मिल
जाती है, कोई
न आए तो वह
शून्य में
बिखरती है।
प्रेम तब एक
स्थिति है
चैतन्य की।
ममता
का अर्थ है, प्रेम एक
संबंध है।
मेरे हो, इसलिए।
मेरा होना
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, प्रेम
का मूल्य कुछ
भी नहीं है।
अगर मेरे न
रहे तो मैं ही
हत्या करने को
तैयार हो
जाऊंगा। जिस
पत्नी के लिए तुम
जान दे रहे हो,
उसी की जान
लेने को कल
तैयार हो सकते
हो, अगर यह
पक्का हो जाए
कि मेरी नहीं,
किसी और की
हो रही है। जिस
पति के लिए मर
जाते, उसी
पति को जहर
पिला सकते हो
अगर पक्का पता
चल जाए कि वह
अब किसी और का
हो गया। तो यह
जो मेरे का
फैलाव है, यह
तो अहंकार का
ही रोग है। यह
तो घूम—फिरकर
अपने को ही
प्रेम करना है,
यह दूसरे को
प्रेम करना
थोड़े ही है!
इसलिए उपनिषद
कहते हैं, कहां
पति पत्नी को
प्रेम करता है,
पत्नी के
बहाने अपने को
ही प्रेम करता
है! कहां बाप
बेटे को प्रेम
करता है, बेटे
के बहाने अपने
को ही प्रेम
करता है!
ऐसा
समझो कि जैसे
तुम दर्पण
रखकर अपनी
तस्वीर देखते
हो। दर्पण
थोड़े ही देखते
हो। दर्पण कौन
देखता है! लोग
कहते हैं कि
दर्पण देख रहे
थे, कहना
नहीं चाहिए।
तुम अगर दर्पण
में देख रहे
हो और कोई
पूछे क्या कर
रहे हो, तो
तुम कहते हो, दर्पण देख
रहे थे। बात
गलत कह रहे हो।
दर्पण को कौन
देखता है!
दर्पण में तुम
अपने को देख
रहे थे, दर्पण
तो बहाना था।
देख तो अपने
को रहे थे, दर्पण
तो बहाना था।
दर्पण को कौन
देखता है!
किसको पड़ी
दर्पण देखने
की! दर्पण में
अपने को देखते
हैं लोग।
दर्पण में
अपनी छाया
दिखायी पड़ती
है, अपना
प्रतिबिंब।
जिनको
तुम कहते हो, मेरे हैं
इसलिए प्रेम
करता हूं उनसे
तुम्हारा कोई
प्रेम नहीं है।
तुम उनकी आंखों
में अपने को
देख रहे हो।
जब तुम्हारी
पत्नी तुमसे
कहती है, तुमसे
सुंदर कोई
पुरुष नहीं, तुमसे
बलशाली कोई
पुरुष नहीं, तब तुम बड़े
प्रसन्न होते
हो। तुम इस
स्त्री को
प्रेम करते हो
इस बात के कहने
के कारण।
क्योंकि इसकी आंखों
में वह
प्रतिबिंब
बना, जो
तुम चाहते थे
बने। जब कोई
किसी स्त्री
से यह कहता है
कि तू इस जगत की
सबसे सुंदर
स्त्री है, मैं सोच ही
नहीं सकता कि
इससे सुंदर भी
कोई स्त्री हो
सकती है, तब
वह
प्रफुल्लित
होती है। वह
कहती है, तुम्हारे
प्रेम ने मुझे
बड़ा आनंदित
किया।
तुम्हारे
प्रेम से कुछ
लेना—देना
नहीं है, अपना
गुणगान सुनने
को अहंकार
उत्सुक था।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
औरत के प्रेम
में था और एक
रात उसने उससे
कहा कि तुझसे
ज्यादा सुंदर
स्त्री
पृथ्वी पर कोई
दूसरी नहीं। न
कभी हुई, न कभी होगी।
सभी प्रेमी
कहते हैं। वह
स्त्री बहुत
आनंदित हो गयी,
उसने कहा, सच
नसरुद्दीन! तो
नसरुद्दीन
थोड़ा डरा, ईमानदार
आदमी, उसने
कहा क्षमा कर,
यह बात मैं
और स्त्रियों
से भी पहले कह
चुका हूं। और
आगे भी औरों
से नहीं
कहूंगा, इसका
वायदा नहीं कर
सकता हूं। मगर
तभी वह स्त्री
उदास हो गयी।
औरों से भी कह
चुके हो! और
आगे भी किसी
से कहोगे इसका
पक्का नहीं है,
कहोगे कि
नहीं कहोगे, बात समाप्त
हो गयी। बात
व्यर्थ हो गयी।
अब इसमें कोई
मूल्य नहीं
रहा।
हम एक—दूसरे
की आंखों में
अपनी ही
तस्वीरें
देखते हैं। जो
भी हमारी
तस्वीर को खूब
रंगीन बनाकर
बता देता है, उसी को हम
कहते हैं
प्रेम। जिससे
भी तुम्हारे
अहंकार की
पुष्टि होती
है, उसी को
तुम कहते हो
प्रेम। ममता,
अहंकार की
सेवा में
संलग्न प्रेम।
ममता का अर्थ
है, मेरा, मम। मैं की
छाया। जिन—जिन
में दिखायी
पड़ती है मेरे
मैं की छाया
और जिन—जिन के
सहारे मेरा
मैं खड़ा हो
पाता है, जिन—जिन
की बैसाखियों
से मेरे लंगड़े
मैं को चलाने में
सुविधा हो
जाती है, उन
सबसे मेरा
प्रेम है।
लेकिन यह
प्रेम झूठा।
शोभा
तो उसकी है, अष्टावक्र
कहते हैं, जिसका
प्रेम ममता से
मुक्त हुआ, और जिसकी
हृदयग्रंथि
का भेदन हो
गया। टूट ही
गयी वह ग्रंथि
जहां से राम
और काम जुड़ते
हैं। काम नीचे
गिर गया, राम
ऊपर आकाश में
उड़ गया। टूट
गयी वह ग्रंथि,
जहां संभोग
और समाधि
जुड़ते हैं।
'ऐसा
व्यक्ति
जिसका रज—तम
धुल गया है।’
यह बात
भी समझना। रज
का अर्थ होता
है, कर्म
का पागलपन। तम
का अर्थ होता
है, आलस्य,
सुस्ती। तम
का अर्थ होता
है, अकर्म
में आसक्ति और
रज का अर्थ
होता है, कर्म
में आसक्ति।
कुछ लोग हैं
जो बिना किये
नहीं बैठ सकते,
कुछ—न—कुछ
चाहिए, कुछ—न—कुछ
खटर—पटर करते
ही रहेंगे—बैठ
नहीं सकते। यह
जो उनके भीतर
रज की
प्रवृत्ति है,
यह उन्हें
कभी शात न
होने देगी। यह
एक तरह का रोग
है। इस तरह
अपने को उलझाए
रखते हैं, कुछ—न—कुछ
करते रहते हैं।
छुट्टी के दिन
भी तुम उनको
घर में शांत
बैठे नहीं
पाओगे, कुछ—न—कुछ
करेंगे। ऐसे
छ: दिन रास्ता
देखेंगे कि कब
छुट्टी का दिन
आए और आराम
करें, और
छुट्टी के दिन
तुम देखोगे वह
सबसे ज्यादा काम
करेंगे, जितना
वह कभी दफ्तर
में नहीं करते।
दफ्तर में तो
लोग सोते हैं।
विश्राम करते
हैं। और
रास्ता देखते
हैं कि सातवें
दिन जब छुट्टी
होगी तब घर
जाकर विश्राम
करेंगे।
लेकिन
विश्राम बड़ा
कठिन मालूम
होता है।
विश्राम करने
की कला बहुत
कम लोगों को
आती है। और
जिनको तुम
विश्राम करते देखते
हो, उनको
भी विश्राम की
कला नहीं आती,
वे आलसी हैं।
या तो लोग
पागल की तरह
कर्मठ हैं, या पागल की
तरह आलसी हैं।
कुछ हैं जो
बैठ नहीं सकते
और कुछ हैं जो
उठ नहीं सकते।
ये दोनों
अपाहिज हैं, दोनों अपंग
हैं।
जो
सत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति है, जब जरूरत
होती तब काम करता
है, जब
जरूरत नहीं
होती, तब
विश्राम करता
है। उसके लिए
दोनों आयाम
मुक्त हैं। वह
किसी आयाम से
बंधा नहीं है।
कोई मजबूरी
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि जब
कोई काम नहीं
है तब भी उसे
करना पड़ेगा, क्योंकि वह
बिना काम के
बैठ नहीं सकता।
और ऐसा भी
नहीं है कि जब
काम है तब वह
पड़ा रहेगा, क्योंकि वह
आलसी है और उठ
नहीं सकता।
सत्य को
उपलब्ध
व्यक्ति संयम
को उपलब्ध
व्यक्ति है।
उसके जीवन से
अतियां चली
गयीं। संतुलन
आया है। उसकी
तुला मध्य में
ठहर गयी। उसके
दोनों बालू
दोनों पलड़े
बराबर हो गये।
जब काम, तब
वह काम करता
है, जब
आराम, तब आराम
करता है। जब
श्रम की जरूरत
हो, तब
अपने को पूरा
श्रम में डुबा
देता है, जब
विश्राम की
जरूरत हो तब
अपने को पूरा
विश्राम में
डुबा देता है।
ऐसा आदमी ही
शोभायमान है।
तुम्हें
ये दो तरह के
आदमी जगह—जगह
मिल जाएंगे।
कुछ लोग हैं
जो रात नींद
में भी काम
जारी रखते हैं।
तुम उनको सोते
देखो तो तुमको
समझ में आ
जाएगा। सोना
भी, बड़ा
काम करते हैं,
हाथ—पैर
फटकते हैं, पैर चलाते
हैं, बोलते
हैं, बड़बड़ाते
हैं, चादर
खींचते हैं, कई काम करते
हैं।
मैं
कुछ दिन पहले
एक
चिकित्साशास्त्र
की किताब पढ
रहा था, तो मैं चकित
हुआ, जितनी
कैलोरीज आदमी
दिन में खर्च
करता है—काम
करने में, उससे
आधी कैलोरीज
रात में खर्च
करता है—सोते
में भी! आधी
कैलोरीज! दिन
भर मेहनत करके
जितना श्रम
होता है उससे
आधा वह सोने
में भी कर रहा
है।
और
सपने भी देखते
हैं वह ऐसे ही।
लोगों के सपने
तो देखो! तो
मार— धाड़, वही सब योजनाएं
जो उनकी
जिंदगी में
हैं, उनके
सपनों में
जारी रहती हैं।
जो महल यहां
नहीं बना पाए,
वह सपनों
में बनाते हैं।
जो गड्डे यहां
नहीं खोद पाए,
वहा खोदते
हैं। मगर कुछ—न—कुछ
जारी रखते हैं।
तुम्हारे
सपने
चाहे
अलग— अलग हों, लेकिन
बहुत गौर से
देखोगे तो तुम
दो तरह के सपने
पाओगे। या तो
रज से भरे, या
तम से भरे। और
एक का सपना
दूसरे की समझ
में नहीं आएगा।
मैंने
सुना है, एक बिल्ली
एक वृक्ष पर
बैठी सुबह—सुबह—सर्दी
के दिन—और धूप
ले रही थी। और
नीचे एक
कुत्ता भी
बैठा था।
कुत्ता झपकी
खा रहा था—सुबह
की धूप!
बिल्ली ने
पूछा क्या कर
रहे हो? तो
उसने आख खोली,
उसने कहा, एक बड़ा
अदभुत सपना
आया। कि बड़ी
वर्षा हुई! और
वर्षा में
पानी नहीं गिरा,
हड्डियां
गिरी।
हड्डियां ही
हड्डियां।
कुत्ते का
सपना कुत्ते
का ही होगा न!
बिल्ली ने कहा,
हद्द हो गयी।
कभी सुना नहीं।
न शास्त्रों
में लिखा है।
शास्त्रों
में तो ऐसा
लिखा है कि
कभी—कभी ऐसा
होता है कि जब
वर्षा होती है
तो पानी नहीं
गिरता, चूहे
गिरते हैं। ये
हड्डियां कभी
सुनी नहीं! और
न शास्त्रों में
लिखी हैं।
बिल्ली के
सपनों में तो
चूहे ही गिरते
हैं। और
बिल्ली के
शास्त्रों
में भी चूहे
ही लिखे होंगे।
कुत्ते के
शास्त्रों
में हड्डियां
लिखी हैं।
कुत्ता हंसने
लगा, उसने
कहा, छोड़
भी, मुझे
समझाने चली है।
मैं पढ़ा—लिखा
कुत्ता हूं, मैंने भी
शास्त्र पढ़े
हैं। मगर
कुत्तों ने
कुत्तों के
शास्त्र पढ़े
हैं।
हड्डियों का
ही वर्णन है, चूहों का
कहीं वर्णन
आया ही नहीं।
तुम हंसते
हो, क्योंकि
न तुम कुत्ता
हो, न तुम
बिल्ली हो, तुम आदमी हो,
इसलिए तुम
हंस रहे हो।
क्योंकि
तुम्हारे
शास्त्रों
में कुछ और ही
लिखा है। तुम
हंस रहे हो कि
यह पागल
कुत्ता और
पागल बिल्ली!
हमसे पूछो कि
सपनों में
क्या आता है!
तुम्हारे
सपने अलग हैं, मगर बहुत मौलिक
रूप से अलग
नहीं है। अगर
तुम दो
हिस्सों में
तोड़ दो मनुष्य—जाति
को, तो रज
और तम। या तो
राजसी सपने
हैं—जों कर्म
तुम दिन में
नहीं कर पाए
उसको करने की
आकांक्षा है,
या जो
सुस्ती और
आलस्य तुम दिन
में बिताना
चाहते थे, नहीं
बिताए, उसके
सपने हैं। मगर
बस दो ही हैं।
या तो
बहिर्मुखी का
सपना या
अंतर्मुखी का
सपना। या तो
पुरुष का सपना
या स्त्री का
सपना। निष्क्रिय
या सक्रिय। बस
दो ही तरह के
सपने हैं। और
दो ही तरह के
लोग हैं। और
ये दो ही तरह
के असंतुलन
हैं और दो ही
तरह की विक्षिप्तताएं
हैं।
यह
सूत्र कहता
है. जो व्यक्ति
हृदय की
ग्रंथि से
मुक्त हो गया, टूट गयी
जिसके हृदय की
ग्रंथि और
जिसका रज—तम
धुल गया है।
दोनों धुल गये
हैं। न अब रज
बचा, न तम
बचा। न जो
पुरुष रहा और
न स्त्री। न
जो सक्रिय और
न निष्कि्रय।
न जो
बहिर्मुखी, न अंतर्मुखी।
जो बीच में
ठहर गया।
जिसके जीवन
में संयम का
वह परम—बिंदु
आ गया। जो
जरूरी है, करेगा।
जब करेगा, तो
जरा भी ना—नुच
नहीं है। जब
जरूरी नहीं है,
तो नहीं
करेगा।
गुरजिएफ
ने अपने
शिष्यों को
कहा है—कुछ
सूत्र दिये
हैं, उनमें
एक सूत्र यह
भी है कि जो
गैरजरूरी हो,
वह मत करना।
ऑस्पेंस्की
गुरजिएफ से
पूछने लगा कि
जो गैरजरूरी
है, वह हम
करेंगे ही
क्यों! यह
सूत्र आप
क्यों देते
हैं? इसको
इतना मूल्य
क्यों देते
हैं? गुरजिएफ
ने कहा कि मैं
लोगों को
देखता हूं,
सौ में
निन्यानबे
गैरजरूरी
बातें लोग कर
रहे हैं।
उन्हीं में
जीवन व्यतीत
हो रहा है
उनका। जरूरी बातें
तो बहुत थोड़ी
हैं, गैरजरूरी
बातें बहुत
हैं।
तुम
जरा खयाल करना।
चौबीस घंटे
तुम जितनी
बातें बोलते
हो, उसमें
विचार करना
कितनी जरूरी
थीं? कितनी
न बोलते तो चल
जाता?
सच तो
यह है कि अगर
तुम बहुत गौर
से देखोगे तो
बड़ी थोड़ी—सी
बातें रह
जाएंगी जो
जरूरी
थीं।
तुम्हारी
वाणी
टेलीग्रैफिक
हो जाएगी। चुन—चुनकर।
और तुम्हारी
वाणी का मूल्य
भी बढ़ जाएगा।
तुम्हारी
वाणी में वजन
भी आ जाएगा!
तुम्हारी वाणी
में एक चमक आ
जाएगी। धार आ
जाएगी।
क्योंकि जो
थोड़े —से शब्द
तुम बोलोगे, उनमें
विचार होगा, विवेक होगा,
ध्यान होगा,
प्रेम होगा
अनिवार्यता
होगी। और एक
चमत्कार तुम
पाओगे कि जो
गैरजरूरी
बातें तुम बोल
रहे थे, उनके
कारण हजार
झंझटें पैदा
हो रही थीं।
वह हजार
झंझटों से तुम
बच जाओगे। जो
गैरजरूरी
बातें तुम बोल
देते थे, उनके
कारण हजार काम
भी तुम्हें
करने पड़ते थे।
बोलकर ही थोड़े
छुटकारा है। बोले
कि फंसे। वह
हजार काम से
भी तुम बच गये।
तुम्हारे
जीवन में एक
शाति
प्रविष्ट
होने लगेगी, एक प्रसाद
उतरने लगेगा।
तुम सौम्य हो
जाओगे। वहीं
शोभा है जहां
सौम्यता है, जहां प्रसाद
है; जहां
संतुलन का
संगीत है, जहां
सौदर्य है। अब
तुम मुझसे
पूछो तो मैं
इसी को सौंदर्य
कहता हूं, स्वंतुलन
को।
जब
तुम्हें किसी
चेहरे में भी
सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है तो उसका
कारण यही होता
है कि चेहरे में
एक संतुलन
होता है।
अनुपात होता
है। जब तुम
किसी देह में
भी सौंदर्य
देखते हो तो उसका
कारण क्या है? एक
अनुपात होता
है। सब अंग
अनुपात में होते
हैं। जैसे
होने चाहिए
वैसे होते हैं।
गैर— अनुपाती
नहीं होते कि
एक हाथ लंबा, एक हाथ छोटा;
एक आख बड़ी, एक छोटी, नाक
एक तरफ एक ढंग
की, दूसरे
तरफ दूसरे ढंग
की। जब ऐसा
होता है तो
तुम कहते हो, आदमी कुरूप।
क्या अर्थ हुआ
कुरूप का? कुरूप
का अर्थ हुआ, अनुपात नहीं
है। संतुलन
नहीं है।
संगीत नहीं है।
तुला के पलड़े
अलग— अलग हैं—एक
बहुत झुका है,
एक बिलकुल
नहीं झुका है,
बेढंगापन
है। बेडौल है।
सौंदर्य
का अर्थ होता
है, संतुलन।
यह तो शरीर की
बात हुई, ठीक
ऐसा ही मन का
सौंदर्य भी है।
जब मन भी तुला
होता है।
तुम्हारे
जीवन में जब
मन का सौंदर्य
आता है तो
तुम्हारे देह
के भीतर से एक
आभा प्रगट
होने लगती है।
जैसे कोई दीया
जल गया भीतर
और उसकी रोशनी
तुम्हारी देह
को भी पार
करके झलकने
लगती है। फिर
एक और अंतिम
सौंदर्य है, आत्मा का
सौंदर्य, जहां
सब सम्यकत्व
को उपलब्ध हो गया,
सब सम हो
गया—समाधि घट
गयी।
सम
यानी समाधि।
विषमता यानी
उपद्रव।
विषमता यानी
संसार, समता यानी
समाधि, निर्वाण
मोक्ष। जहां
इतनी समता आ
गयी कि
तुम्हारे
जीवन में एक
रत्ती भर भी
व्यर्थ नहीं
बचा, सब
सार्थक ही बचा।
जो करना है, वही तुम
करते हो, उससे
इंच भर ज्यादा
नहीं। जितना
करना है, बस
उतना ही करते
हो, उससे
रत्ती भर
ज्यादा नहीं।
और जो नहीं
करना है, वह
तुम नहीं करते।
जितना श्रम
चाहिए उतना
श्रम, जितना
विश्राम
चाहिए उतना
विश्राम।
तुम्हारे दिन
और रात बराबर
हो गये।
तुम्हारी
स्त्री और
पुरुष तुल गये।
तुम्हारा रज
और तम, दोनों
तुल गये। अब
जो बच रहा वही
सत्व है। अब
जो बच रहा वही
संतत्व है। अब
जो बच रहा वही
परम शुद्धि, साधुता—या
जो नाम
तुम्हें
प्रीतिकर हो।
थे यहां
मधुकलश सारे
विष भरे
असलियत
मालूम हुई जब
पी लिये
देह पर
तो लग गये
टीके मगर
रह गये
सब घाव मन के
अनसिये
जहां—जहां
तुम्हें
दिखायी पड़ रहे
हैं मधुकलश, पी लोगे
तब मालूम
पड़ेगा जहर था।
फिर देह पर
लगी चोटें तो
जल्दी भर जाती
हैं, मन पर
पड़ी चोटें
बहुत मुश्किल
हो जाती हैं।
घाव पर तो
टाके लग जाते
हैं शरीर पर, लेकिन मन पर
टाके भी नहीं
लग पाते।
देह पर
तो लग गये
टीके मगर
रह गये
सब घाव मन के
अनसिये
थे यहां
मधुकलश सारे
विष भरे
असलियत
मालूम हुई जब
पी लिये
तब
बहुत देर हो
जाती है।
लेकिन और कोई
उपाय नहीं है, क्योंकि
पीकर ही तो
अनुभव आता है।
तुम सब जहर
पीए बैठे हो।
तुम सब नीलकंठ
हो। सब के
कंठों में जहर
है। आकंठ जहर
से भरे हो।
मगर अभी तक होश
नहीं आया।
इतना कठिन
जीवन जीते हो,
फिर भी होश
नहीं आता, चमत्कार
है! इतने दुख
में जीते हो, फिर भी होश
नहीं आता।
इतनी पीड़ा
भोगते हो, काटे
—ही—काटे, फिर
भी न—मालूम
किन सपनों के
फूलों की आशा
में जीए चले जाते
हो! वे फूल कभी
खिलते नहीं, मिलते नहीं,
मिलते सदा काटे
हैं, आशा
सदा फूलों की
लगाए रखते हो।
दौड़— धाप में, आपा— धापी
में होश ही
नहीं आता, खयाल
ही नहीं आता
हम क्या कर
रहे हैं! थोड़ा
बैठकर थोड़ा
विमर्श करो।
थोड़ा अपनी
स्थिति पर
विचार करो।
उसमें जो—जो
व्यर्थ हो, काट दो। जो —जो
सार्थक हो, बचने दो।
तुम धीरे—
धीरे पाओगे, जैसे —जैसे
व्यर्थ कटने
लगा, तो
व्यर्थ आलस्य
भी कट जाएगा
और व्यर्थ
कर्मठता भी कट
जाएगी। धीरे —
धीरे
तुम्हारे
भीतर एक नाद
बजने लगेगा।
एक अपूर्व
नाद! ऐसा नाद
तुमने कभी
सुना नहीं, वह तुम्हारे
भीतर मौजूद है,
वही सत्व का
नाद है। उस
नाद को जो
उपलब्ध हो गया,
उसी को संत
कहो। संतुलन
की परमदशा का
नाम संतत्व है।
'जो सर्वत्र
उदासीन है और
जिसके हृदय
में कुछ भी
वासना नहीं है,
ऐसे तृप्त
हुए
मुक्तात्मा
की किसके साथ
तुलना हो सकती
है!'
सर्वत्रानवधानस्य
न
किचिद्वासना
हृदि।
मुक्तात्मनो
विस्तृप्तस्य
तुलना केन
जायते।।
'जो सर्वत्र
उदासीन है और
जिसके हृदय
में कुछ भी वासना
शेष नहीं है, ऐसे तृप्त
हुए
मुक्तात्मा
की किसके साथ
तुलना हो सकती
है!'
अष्टावक्र
कहते हैं, वही है
परम सिंहासन
पर विराजमान।
अतुलनीय, अद्वितीय,
अपूर्व, बेजोड़।
उसकी तुलना ही
नहीं हो सकती
किसी से।
तुम्हारे
सिकंदर और
तुम्हारे
नेपोलियन और
तुम्हारे
सम्राट भी
उसके लिए कोई
तुलना का कारण
नहीं बनते। यह
तो ऐसा होगा
जैसे कोई
चुल्ल भर पानी
से सागरों की
तुलना देने
लगे। नहीं, कोई तुलना
नहीं बनती, अतुलनीय है।
इस सूत्र को
समझो—
'जो
सर्वत्र
उदासीन है।’
उदासीन
बड़ा अदभुत
शब्द है। लेकिन
बुरी तरह
विकृत हो गया।
शब्दों के साथ
भी कभी—कभी
समय बड़ा
दुर्व्यवहार
करता है।
अच्छे —अच्छे
शब्द भी कभी
धूल— धूसरित
हो जाते हैं।
और कभी पददलित
शब्द भी
सिंहासनों पर
बैठ जाते हैं।
संयोग की
बातें हैं।
दुर्घटनाएं
घटती हैं।
उदासीन बड़ा
अदभुत शब्द है, बड़ा अर्थपूर्ण।
लेकिन
दुर्गति हो
गयी इसकी।
कुसंगति में
पड़ गया। अब तो
उदासीन का
अर्थ होता है,
जो उदास है।
निराश है, हताश
है, विरक्त
है, ऐसा
अर्थ होता है।
लेकिन यह
उदासीन का
केवल
नकारात्मक
पहलू है, यह
असली बात नहीं
है।
उदासीन
का अर्थ होता
है, उद
आसीन। जो अपने
भीतर बैठ गया।
जो भीतर विराज
गया। वह उसका
विधायक अर्थ
है। जो उपवास
का अर्थ है, वही उदासीन
का अर्थ है।
उपवास का अर्थ
है, जो
भीतर निवास
करने लगा। उप
वास। उससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है उदासीन।
क्योंकि
उपवास का अर्थ
है, जो
अपने निकट आया,
उदासीन का
अर्थ है, जो
अपने में
प्रतिष्ठित
हो गया। उपवास
उदासीन की तरफ
जाने की सीढ़ी
है। अपने पास
बैठ रहा तो
उपवास और अपने
में ही बैठ रहा,
तो उदासीन।
आसन जिसने लगा
लिया अपने
भीतर। जो अपनी
चेतना के
केंद्र में
विराजमान हो
गया। स्वस्थ
का जो अर्थ है,
स्व: स्थित
जो हो गया, वही
अर्थ उदासीन का
है।
लेकिन
जो अपने में
स्थित हो जाता
है, वह
बाहर की हजार
चीजों के
प्रति उदास हो
जाता है। इससे
भूल हो गयी।
समझना इस बात
को, क्योंकि
यह इसी संबंध
में नहीं हुई
है, यह भूल
बहुत—बहुत
आयामों में
हुई है। जब
कोई व्यक्ति
अपने भीतर
विराजमान हो
जाता है, तो
इस जगत की
बहुत—सी बातों
में जिनमें कल
उसे रस था, अब
रस नहीं रह
जाता। लोगों
को उसके भीतर
का सिंहासन तो
दिखायी नहीं
पड़ता, उनको
तो इतना ही
दिखायी पड़ता
है, अरे, यह आदमी
विरस हो गया!
अब इसको कोई
रस नहीं। कल
देखो कैसा नाच—रंग
में रस लेता
था, अब
जाता ही नहीं!
कल कैसा उचका—उचका
फिरता था, कूदा—कूदा
फिरता था, अब
कहीं जाने की
इसकी कोई
उत्सुकता
नहीं रही। कल
कैसा धन कमाने
में आतुर था, अब जरा भी
आतुर नहीं। कल
पद के लिए
कितना श्रम
करता था, कैसा
गिड़गिड़ाता
फिरता था
द्वार—द्वार
कि चुनाव आ
गया अब, मत
दो, वोट दो,
अब इसका कोई
रस नहीं रहा।
अब इसको तुम
जाकर भी कहो
कि चुनाव में
खड़े हो जाओ, तो यह कहता
है, क्षमा
करो, हमने
कोई पाप थोड़े
ही किये पिछले
जन्म में! हमें
किन कर्मों की
सजा देने आए
हो! हमें छोड़ो,
बख्यये! और
पागल बहुत हैं,
किसी को पकड
लो। तो लोग
कहेंगे, उदासीन
हो गया, बेचारा!
लोग दयाभाव से
कहते हैं कि
बेचारा
उदासीन हो गया।
हार गया
जिंदगी से!
लेकिन
बात कुछ और
घटी है। बाहर
से इसने जो
छोड़ा है, यह गौण है।
भीतर जो इसे
मिला है, वही
प्रमुख है। और
भीतर इसे इतना
रस मिल रहा है,
वह तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ रहा है। यह
रसलीन है।
रसलीन होने के
कारण बाहर की
व्यर्थ बातें
अब रसपूर्ण
नहीं मालूम
पड़ती। इसे बड़ा
रस उपलब्ध हुआ
है। अब जिसको
हीरे—जवाहरात
मिल गये हों, वह अगर कंकड़—पत्थरों
पर मुट्ठी छोड़
दे, तो तुम
उदासीन कहोगे!
इसमें क्या
उदासीन की बात
है! कंकड़—पत्थर
नहीं छोड़ेगा
तो हीरे—जवाहरात
किन मुट्ठियों
में भरेगा? और हीरे —जवाहरात
मिल गये हैं
तो कंकड—पत्थर
तो छूट ही
जाएंगे। जिसे
भीतर की रसधार
में डुबकी लग
गयी, अब वह
बाहर की
व्यर्थ बातों
में नहीं जाता—वहा
रस था भी नहीं।
भीतर रस नहीं
था, इसलिए
बाहर दौड़ता
फिरता था।
अपना घर नहीं
मिला था, इसलिए
दूसरे घरों के
सामने भीख
मांगता फिरता
था। अब अपना
घर मिल गया, अब क्यों
जाए? अब
कहौ जाना बचा?
उदासीन का
अर्थ है —विधायक
अर्थ—अपने रस
में तल्लीन।
अपने परम रस
में लीन।
इसलिए अब बाहर
नहीं जाता। इस
फर्क को खयाल
में लेना।
यही
उपवास के साथ
उपद्रव हुआ।
महावीर ने
उपवास किये, जैन मुनि
अनशन करते, उपवास नहीं।
महावीर के
उपवास का अर्थ
है, वे
ध्यान में ऐसे
डूब जाते कि
कभी दिन—दिन
बीत जाते और
उन्हें भोजन
की याद न आती।
यह एक बात है।
यह बड़ी और बात
है। भोजन की
याद न आए।
अपने
भीतर
इतने डूब गये
कि शरीर ही
भूल गया कि
शरीर को भूख
भी लगती है, यह भी भूल
गया। यह तो
बड़ी अनूठी
घटना है। इसका
गौरव है। इसको
अष्टावक्र
कहेंगे, इसकी
शोभा है।
फिर एक
दूसरा आदमी है
जो अनशन किये
बैठा है। भोजन
नहीं करेगा, क्योंकि
आज उपवास है—पर्यूषण
आ गये—व्रत
करना है। वह
व्रत कर रहा
है। व्रत! तो
वह रोक रहा है
अपने को भोजन
नहीं करने से।
मन तो होता है,
चौके में
पहुंच जाए, जाता मंदिर
है। मन तो
होता है किसी
रेस्तरा में
घुस जाए, लेकिन
कैसे घुसे, और जैनियों
की दुकानें
आसपास हैं, वे देख रहे
हैं—क्योंकि
वे सब भी अनशन
कर रहे हैं—कोई
छूट न जाए
इसमें से। हम
कष्ट भोग रहे
हैं, तुम
कैसे निकल
जाओगे! सब एक —दूसरे
पर नजर रखे
हैं। जाता
मंदिर है, जाना
होटल है! बैठा
मंदिर मेँ है,
मन कहीं
भोजनालय में
संलग्न है, सपने देख
रहा है। यह
भोजन तो इसने
नहीं किया, लेकिन इसका
आत्मा के पास
वास कहां हो
रहा है! भोजन न
करने से इसका
वास तो चौके
के पास हो रहा
है। यह तो
भोजनालयों के
आसपास भटक रहा
है। यह तो
वैसे अच्छा था,
कम—से—कम दो
बार भोजन कर
लेता था फिर
भूल तो जाता
था! अब तो
भूलता ही नहीं।
अब तो चौबीस
घंटे रात भी
उसे वही खयाल
बना रहता है।
वही सपना चलता
है। राजमहल
में निमंत्रण
मिल जाता है
रात के सपने
में। खूब भोजन
हो रहा है, सब
तरह के व्यंजन
तैयार हुए हैं।
यह तो भोजन के
पास हो गया और
इससे तो पहले
ही कहीं
ज्यादा दूरी
थी। यह उपवास
नहीं है। यह
उपवास का धोखा
है। यह अनशन
है।
ऐसे ही
तुम्हें
उदासीन भी मिल
जाएंगे, जिन्होंने
देखा कि
सत्युरुष हुए
जिनका बाहर
में कोई रस न
रहा, तो वे
सोचते हैं, हम भी अगर
बाहर में रस
छोड़ दें तो हम
भी उसी संतत्व
को उपलब्ध हो
जाएंगे। खयाल
लेना, बाहर
रस छोड़ने से
कोई भीतर रस
को उपलब्ध
नहीं होता, भीतर रस को
उपलब्ध हो जाए
तो बाहर रस
छूटता है।
छूटता ही है।
छोड़ना नहीं
पड़ता, छूटता
है। पर
संस्कृत में
जो शब्द है, वह और भी
अदभुत है।
जिसका उदासीन
अनुवाद किया
है, यह
शब्द तो अदभुत
है ही, लेकिन
संस्कृत में
जो शब्द है वह
तो और भी अदभुत
है। शायद
हिंदी अनुवाद
करनेवालों को
डर लगा होगा कि
उस शब्द को
वैसा का वैसा
रखेंगे तो
कहीं भूल—चूक
तो न हो जाएगी।
शब्द है.
सर्वत्र
अनवधानस्य।
अनवधान का
अर्थ होता है,
ध्यान से
मुक्त हो जाना।
अवधान का अर्थ
होता है, ध्यान।
अनवधान का
अर्थ होता है,
ध्यान से
मुक्ति। जो
सर्वत्र
ध्यान से
मुक्त हो गया
है, यह है
संस्कृत का
मूल शब्द।
इससे डर लगा
होगा अनुवाद
करनेवाले को कि
अगर ऐसा कहें
कि जो सर्वत्र
ध्यान से
मुक्त हो गया,
तो यह तो
बडी गड़बड़ हो
जाएगी। इसलिए
उसको उदासीन
कर दिया।
समझो।
मगर
बात संस्कृत
शब्द में और
भी गहरी है।
उदासीन होना
उसका एक
अंगमात्र है।
ध्यान का अर्थ
ही क्या होता
है? ध्यान
से अर्थ, एकाग्रता।
ध्यान से अर्थ
कनसंट्रेशन
है यहा। तुम
ध्यान कब देते
हो? तुम
ध्यान तभी
देते हो जब
वासना से
चित्त भरा होता
है। एक स्त्री
जा रही है, सुंदर
है स्त्री और
तुम एकदम
ध्यानमग्न हो
गये। अनवधान
मुश्किल है, अवधान हो
गया। अब तुम
लाख उपाय करो
मन यहां—वहां
नहीं जाता, एकदम बंध
गया। जा रहे
थे कहीं और, चल पड़े
स्त्री के
पीछे। वह जिस
दुकान में
सामान खरीदने
गयी वहा तुम भी
पहुंच गये—नहीं
खरीदना था तो
भी कुछ खरीदने
लगे। यह
तुम्हारा
अवधान है।
तुमने
खयाल किया, अगर
क्रोध मन में
हो तो बड़ा
अवधान लग जाता
है। सब भूल
जाता है संसार,
कैसे मार
डालें इस आदमी
को, कैसे
खतम कर दें, इस पर ऐसा
ध्यान लग जाता
है कि जिसका
हिसाब नहीं।
महावीर ने तो
इसलिए ध्यान
के चार रूप
बताए, उसमें
दो रूप हैं—आर्त,
रौद्र
ध्यान।
महावीर ने कहा,
कुछ लोग हैं,
जो दुख में
ही ध्यान को
उपलब्ध होते
हैं—आर्त
ध्यान। कोई मर
गया, तब वे
रो रहे हैं
छाती पीट कर।
तो अब सारी
दुनिया भूल
जाती है उनको,
बड़े
ध्यानमग्न हो
जाते हैं, वह
एक ही काम में—से
रहे हैं छाती
पीटकर। या
किसी ने गाली
दे दी। तब वह
रौद्ररूप
प्रगट होता है
उनका। खींच ली
तलवार। उस
वक्त संसार
भूल गया। एक
चीज पर एकाग्र
हो गये।
खयाल
करना, जहां
वासना होती है
वहीं
एकाग्रता
होती है।
इसीलिए तो तुम
भगवान पर
ध्यान करने
बैठते हो लेकिन
ध्यान नहीं
लगता। बैठते
भगवान पर
ध्यान करने, ध्यान दुकान
पर जाता।
जाएगा वहा
जहां वासना है।
ध्यान तो
वासना का
अनुगामी है।
फरीद
से किसी ने
पूछा कि मैं
प्रभु को कैसे
पाऊं? तुमने
कैसे पाया? तो फरीद ने
कहा, तू आ, ये नदी
स्नान करने जा
रहा हूं,
तुझे वहीं बता
दूंगा। स्नान
करने में बता
दूंगा। वह
आदमी थोड़ा डरा
भी कि यह आदमी
थोड़ा झक्की है
या पागल! हम
पूछते हैं कि
परमात्मा
कैसे पाना और
यह कह रहा है
कि स्नान करने
में। स्नान से
इसका क्या
लेना—देना! पर
होगा कुछ मतलब,
रहस्यवादी
है, चलो।
वह चल पड़ा, उसे
पता नहीं। जब
वह दोनों
स्नान करने
बैठे तो फरीद
एकदम झपटा और
उसको पानी के
भीतर दबा लिया।
फरीद था तगड़ा
फकीर। वह आदमी
किलबिलाने
लगा, मगर
वह उसको छोड़े
नहीं, वह
उसको दबाए
नीचे पानी
में! आदमी तो
दुबला—पतला था,
लेकिन जब
ऐसी हालत आ
जाए तो दुबले —पतले
में भी बल आ
जाता है। आखिर
उसने एक
हुंकार मारी,
एक धक्का
देकर वह उठ
आया और उसने
कहा कि तुम, हम तो सोचते
थे कि संत
आदमी हो, तुम
क्या जान लौगे
मेरी! फरीद ने
कहा, उत्तर
दिया है। एक
बात पूछनी है,
जब मैं तुझे
पानी के नीचे
दबाए था तो
कितने विचार
तेरे मन में
थे? उसने
कहा, खाक
विचार, एक
ही विचार था
कि कैसे छूटें?
कैसे श्वास
मिले? और
यह भी थोड़ी
दूर तक ही
विचार रहा, फिर तो यह भी
विचार नहीं
रहा, यह तो
प्राण—प्राण
की प्यास हो
गयी, सब
विचार खो गये,
बस छूटने का
एक उपक्रम रहा।
एकदम ध्यान लग
गया।
फरीद
ने कहा, बस ऐसा जिस
दिन परमात्मा
को पाने में
ध्यान लगेगा,
उस दिन
परमात्मा मिल
जाएगा। और
देखा तूने
ध्यान से कैसी
ताकत आती है!
मैं तुझसे
दुगुना वजनी,
मुझे उठाकर
तूने फेंक
दिया!
एक
कुत्ता अपने
पड़ोसी
कुत्तों में बड़ी
डीग मारा करता
था—जैसे कि
सभी मारा करते
है—कि मुझसे
ज्यादा तेज
दौड़ने वाला
कोई कुत्ता है
ही नहीं
दुनिया में।
ये ओलंपिक
वगैरह कुछ भी
नहीं। वह तो
कुत्तों को
देते नहीं
प्रतियोगिता
में मौका नहीं
तो सबको हराकर
रख दूं। जानते
थे पड़ोस के
कुत्ते भी कि
है तो वह मजबूत, दौड़ता भी
तेज है। लेकिन
एक दिन ऐसा
हुआ, एक
खरगोश निकल
गया और
उन्होंने कहा
देखो, चूको
मत मौका। और
वह तो मजबूत
कुत्ता जो था
वह भागा उस
खरगोश के पीछे।
लेकिन खरगोश
ने भी गजब की
दौड़ मारी। एक
छलांग में, एक हवा में, एक तेज
बिजली की कौंध
की तरह खरगोश
निकल गया और
कुत्ता खड़ा रह
गया। बाकी
कुत्तों ने
कहा, कहो
महाराज, तुम
तो ओलंपिक में
भर्ती होने की
सोचते थे! उसने
कहा भई, यह
भी तो विचारों,
वह अपने
प्राणों के
लिए दौड़ रहा
था, मैं
केवल नाश्ते
के लिए। फर्क
भी तो सोचो!
मेरी आकांक्षा
तो कुल नाश्ते
की थी, उसके
प्राणों का सवाल
था। तो दौड़ तो
बराबर नहीं थी।
मिल जाता तो
ठीक, नहीं
मिला तो कोई
बात नहीं।
उसके लिए तो
मामला इतना
आसान नहीं था।
वैसी
हालत फरीद के
नीचे हुई होगी
उस दिन उस आदमी
की, दुबले—पतले
आदमी की। फरीद
तो ऐसा उत्तर
ही दे रहे थे, कोई बड़ा
भारी मामला
नहीं था, उनके
लिए कोई
प्राणों पर बन
नहीं आयी थी, लेकिन उस
आदमी के तो
प्राणों पर
संकट था। उसने
दुगुने मजबूत
आदमी को फेंक
दिया।
फरीद
ने कहा, देखी ध्यान
की ताकत? एकाग्रता
में बडी शक्ति
है। और अभी तो
तुम्हारी
एकाग्रता का
सारा उपयोग वासना
कर रही है।
अभी तो
तुम्हारा
ध्यान वहीं लग
जाता है जहां
तुम्हारी
वासना का तीर
होता है।
इस
सूत्र को समझो
अब:
सर्वत्रानवधानस्य।
जिस
व्यक्ति ने
अपनी सारी
वासनाओं से
मुक्ति पा ली, अब उसका
ध्यान कहां
लगे? अब तो
ध्यान लगने की
कोई जगह न रही।
अब तो पाने को
ही कुछ न रहा, तो ध्यान
कहां जाए! अब
उसकी कोई एकाग्रता
नहीं, कोई
कनसन्ट्रेशन
नहीं, क्योंकि
सब एकाग्रता
वासना की छाया
है। खयाल रखना,
अष्टावक्र
कहते हैं, परमात्मा
को पाने की
वासना भी
वासना है और
मोक्ष को पाने
की वासना भी
वासना है। जब
तक वासना है
तब तक ध्यान
है, जब
वासना ही नहीं
तब ध्यान
कैसा!
तो दो
शब्द हैं
अंग्रेजी में.
कनसन्ट्रेशन
और सेटरिंग।
कनसन्ट्रेशन—एकाग्रता।
और सेंटरिंग
का अर्थ होता
है, केंद्रण।
जब तुम किसी
चीज पर
एकाग्रता
करते हो तो
जिस चीज पर
एकाग्रता
करते हो, वह
तुमसे बाहर
होती है। तो
सब एकाग्रता
बहिर्गामी है,
सांसारिक
है। और जब
तुम्हारे
चित्त का कहीं
भी कोई आवागमन
नहीं होता, कहीं जा ही
नहीं रहे, बहिर्गमन
रुक गया और
अपने केंद्र
पर बैठ गये —सेंटरिंग,
केंद्रण।
केंद्रण की
अवस्था असली
अवस्था है।
एकाग्रता
असली बात नहीं
है। केंद्रण
है असली बात।
अब कहीं चित्त
जाता ही नहीं।
इसका ही एक
उपांग
उदासीनता है।
जब चित्त कहीं
नहीं जाता तो
अब बाहर से
उदासीनता हो
गयी।
यह
संस्कृत शब्द 'अनवधानस्य'
— सर्वत्रानवधानस्य
न
किचिद्वासना
हृदि—जिसके
हृदय में
किंचित् भी
वासना न रही, उसका सब तरह
के अवधान से
छुटकारा हो
गया। अब उसकी आंखें
कहीं भी नहीं
लगी हैं।
मुक्तात्मनो
वितृप्तस्य
तुलना केन
जायते।
और ऐसी
दशा ही मुक्त
ही दशा है।
इसकी तुलना
किससे करें? कैसे
करें 3: यह
अतुलनीय दशा
है।
हम
निजी घर में
किरायेदार से
रहते रहे
दर्द
दिल का बस दरो —दीवार
से कहते रहे
दूर तक
फैला हुआ एक
रेत का सैलाब—सा
जिस
तरफ सागर समझ
जलधार से बहते
रहे
यह
जिसको तुम
संसार कह रहे
हो और बहे जा
रहे हो—यह
पाना, वह
पाना, मिलता
कभी किसी को
कुछ यहां! सब
मृगमरीचिका
है।
दूर तक
फैला हुआ एक
रेत का सैलाब
सा
जिस
तरफ सागर समझ
जलधार से बहते
रहे
और इस
सागर में, रेत के
सागर में तुम
छोटी सी जलधार
की तरह अपने
ध्यान को बहाए
जा रहे हो कि
यहां कहीं
सागर होगा, मिल जाएगा, तृप्ति होगी,
मिलन होगा।
खो जाओगे इस
मरुस्थल में!
यहां कोई
मरूद्यान भी
नहीं है।
हम
निजी घर में
किरायेदार से
रहते रहे
दर्द
दिल का बस दरो—दीवार
से कहते रहे
और तुम
अपने ही घर
में ऐसे रह
रहे हो जैसे
किरायेदार! तुम
अपने मालिक हो, यह
तुम्हारा
मंदिर है, मगर
उस तरफ ध्यान
नहीं जाता।
ध्यान तो बाहर
भटक रहा है।
यह ध्यान का
पंछी तो सब
जगह जा रहा है,
सिर्फ भीतर
नहीं आता।
अनवधान का
अर्थ हुआ, अब
ध्यान का पंछी
कहीं नहीं
जाता, अपने
भीतर आ गया, तुमने पहचान
लिया कि हम इस
घर के मालिक
हैं, गुलाम
नहीं। मन
भटकाता है, मन हमें
गुलाम बनाता
है, हम मन
के पार हैं।
जैसे ही तुमने
यह उदघोषणा की,
तुम्हारी
सारी बाहर की
दौड़ समाप्त हो
जाएगी। और ऐसी
दशा ही मुक्त
की दशा है।
'वासनारहित
पुरुष के
अतिरिक्त
दूसरा कौन है
जो जानता हुआ
भी नहीं जानता
है, देखता
हुआ भी नहीं
देखता है और
बोलता हुआ भी
नहीं बोलता
है!'
जानन्नपि
न जानाति
पश्यन्नपि न
पश्यति।
बूवन्नपि
न च बूते
कोउन्यो
निर्वासनादृते।।
ऐसा
पुरुष जिसकी
अब कोई वासना
नहीं, जिसे
पाने को कुछ
शेष नहीं, जिसने
भविष्य को
त्याग दिया, अब जिसका
कोई भविष्य
नहीं, जो
यहां और अभी
परितृप्त, परितुष्ट,
इस क्षण
जिसका मोक्ष
है, ऐसा जो
वासनारहित
पुरुष है, उसके
अतिरिक्त
दूसरा कौन है
जो जानता हुआ
भी नहीं
जानता! और ऐसा
पुरुष देखता
भी है और फिर
भी देखता नहीं,
क्योंकि अब
देखने की कोई
वासना नहीं
रही। सुनता है
और सुनता नहीं।
अब सुनने की
कोई वासना
नहीं रही।
छूता है और
छूता नहीं, क्योंकि
छूने की अब
वासना नहीं
रही। एक सुंदर
स्त्री बुद्ध
के सामने से
निकलेगी तो
ऐसा थोड़े ही
कि उन्हें
दिखायी नहीं
पडेगी! दिखायी
पड़ती और नहीं
दिखायी पड़ती।
बात को
समझ लेना।
तुम तो
कई दफे ऐसा
करते हो कि
सुंदर स्त्री
जाती है तो
तुम देखते ही
नहीं उसकी तरफ।
लेकिन
तुम्हारे न
देखने में भी
वह दिखायी पड़ती
है। तुम ऐसा
आख चुराते हो
कि कोई देख न
ले कि इसे देख
रहे थे। या
तुम अपने से
बचना चाहते हो
कि यह झंझट
में न पड़े, इसे न
देखें; तुम
इधर—उधर आख
करते हो, लेकिन
इससे क्या फर्क
पड़ता है, तुम्हारी
इधर—उधर होती
आख से भी तुम
देखते तो उसी
को हो। तुमने
देख तो लिया, तुम देख तो
रहे ही हो।
बुद्धपुरुष
के सामने से
कोई स्त्री
निकलेगी तो
देखते हैं—आख
भी नहीं
छिपाते, क्योंकि आख
छिपाने का तो
कोई प्रश्न
नहीं, क्या
चुराने का
क्या सवाल है—जो
आख के सामने आ
जाता है
दिखायी पड़ता
है, और फिर
भी नहीं देखते
क्योंकि
देखने की कोई
वासना नहीं है।
बुद्धपुरुष
लौटकर नहीं
देखते। तुम
लौट—लौटकर
देखते हो। तुम
देखने में बड़े
आतुर हो।
बुद्धपुरुष
की आंखें
शून्यवत होती
हैं। दर्पण की
तरह होती हैं, कोई
सामने आया तो तस्वीर
बन जाती है, कोई चला गया
तो तस्वीर मिट
जाती है। फिर
दर्पण सूना हो
गया।ं कोई पकड़
नहीं है।
'वासनारहित
पुरुष के
अतिरिक्त
दूसरा कौन है
जो जानता हुआ
भी नहीं जानता
है, देखता
हुआ भी नहीं
देखता है और
बोलता हुआ भी
नहीं बोलता
है!'
ब्रूवन्नपि
न च बूते।
इसीलिए
तो कल मैंने
तुमसे कहा कि
बुद्ध बोले
चालीस साल, फिर भी
नहीं बोले।
महावीर
के संबंध में
दिगंबर जैनों
की धारणा बड़ी
अदभुत है। पर
समझ नहीं पाए
.दिगंबर जैन
भी। दिगंबर
जैनों की
धारणा है कि
महावीर बोले
नहीं, बोले
ही नहीं।
इसलिए दिगंबर
जैनों के पास
कोई शास्त्र
नहीं है। जो
शास्त्र हैं
वे श्वेतांबर
जैनों के पास
हैं। और
दिगंबर जैनों
का उन
शास्त्रों
में कोई भरोसा
नहीं।
क्योंकि वे तो
महावीर तो कभी
बोले ही नहीं!
ये शास्त्र
तुमने बना
लिये। ये सब
बनाए हुए
शास्त्र हैं,
महावीर तो
चुप रहे। बात
तो बडी सच है
कि महावीर कभी
नहीं बोले। और
फिर भी मैं
तुमसे कहता
हूं कि
श्वेतांबरों
के जो ग्रंथ
हैं, वे
झूठ नहीं हैं।
दिगंबर
बात तो बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं कि कभी नहीं
बोले, लेकिन
बस इसको
उन्होंने
जड़ता से पकड़
लिया कि कभी
नहीं बोले। वे
समझे नहीं, उन्हें अष्टावक्र
का यह सूत्र
समझना चाहिए।
इसमें पूरे
महावीर के
जीवन की
व्याख्या है।
बूवन्नपि
न च बूते।
बोलकर
भी नहीं बोलता
है। नहीं
बोलने की बात
तो सच है, मगर इसको
जड़ता से मत
पकड़ लेना कि
मौन रहता है।
फिर तुम चूक
गये। फिर तुम
फिर पुरानी
दुनिया में
वापस आ गये—बोलने
का मतलब बोलना
और न बोलने का
मतलब न बोलना।
ऐसी परमदशा
में विपरीत
मिल जाते हैं।
और विपरीत
विपरीत नहीं
रह जाते।
बोलकर भी नहीं
बोलता है। और
कभी—कभी नहीं
बोलकर भी
बोलता है। कभी—कभी
मौन से भी
बोलता है। और
कभी—कभी शब्द
का उपयोग करके
भी मौन रहता
है। इस परम मुक्तावस्था
में जो —जो
विपरीत है जगत
में, जहां—जहां
द्वंद्व है, वह सब
समाहित हो
जाता है, शात
हो जाता है।
'जिसकी
सब भावों में
शोभन, अशोभन
बुद्धि गलित
हो गयी है और
जो निष्काम है,
वही
शोभायमान है
चाहे वह
भिखारी हो या
भूपति।’
भिक्षुर्वा
भूपतिर्वापि
यो निष्काम: स
शोभते।
भावेगु
गलिता यस्य
शोभनाशोभना
मति:।।
न तो अब
ऐसी दशा में
कुछ शोभन है, और न कुछ
अशोभन। न तो
कुछ शिष्ट है
और न कुछ
अशिष्ट है। न
शुभ, न
अशुभ। न करने
योग्य, न
ना करने योग्य।
गये द्वंद्व,
गये द्वैत,
गये वे भेद
पुराने कि यह
बुरा और यह
भला, सब
गये भेद, अब
तो अभेद ही
बचा। और ध्यान
करना, अभेद
से जो जन्मे
वही
शोभायुक्त है।
अब यह बड़ी
विचारणीय बात
है। साधारणत:
तुम उसको
शोभायुक्त
कहते हो जो
अशोभन के
विपरीत है।
तुम कहते हो, कैसा शोभन
व्यक्ति है, क्योंकि
अशोभन इसमें
कुछ भी नहीं।
लेकिन जिसमें
अशोभन नहीं है,
उसके लिए
शोभायुक्त
बने रहने में
चेष्टा करनी
पड़ेगी। चेष्टा
का अर्थ हुआ, भीतर अभी
मौजूद है, अभी
दबाना पड़ रहा
है।
तुमने
देखा, स्त्रियों
के सामने
पुरुष बात
करते हैं तो
ज्यादा शोभन
ढंग से करते
हैं। वे कहते
हैं, अभी
स्त्रियां
मौजूद हैं।
स्त्रियों के
हटते ही अशोभन
शुरू हो जाता
है। अशोभन तो
भीतर पड़ा है।
बेटे के सामने
बाप बड़े शोभन
ढंग से
व्यवहार करता
है। अपने
मित्रों के
साथ तो वैसा
शोभन व्यवहार
नहीं करता।
मित्रों में
तो जब तक गाली—गलौज
न हो, तब तक
मित्रता ही
कहां! गाली—गलौज
से ही पता
चलता है कितनी
गहरी मित्रता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
राह पर चलते
एक आदमी की पीठ
पर जोर से धौल
जमायी और कहा, कहो
चंदूलाल, कैसे
हो? वह
आदमी गिर पड़ा
एकदम! उस आदमी
ने उठकर कहा
कि बड़े मियां,
मैं
चंदूलाल नहीं
हूं! और अगर
होऊं भी, तो
क्या इस तरह
धक्का मारा
जाता है! तो
नसरुद्दीन ने
कहा कि तुम
कौन हो
रोकनेवाले, चंदूलाल को
मैं कितने ही
जोर से धक्का
मारूं! तुम
बीच में
बोलनेवाले
कौन हो? अब
वह आदमी
चंदूलाल है भी
नहीं, धक्का
भी खा गया, मगर
वह उसका, मुल्ला
नसरुद्दीन का
कहना भी ठीक
है कि चंदूलाल
को मैं कितने
ही जोर से
धक्का मारूं,
पुराने
दोस्त हैं, तुम बीच में
बोलनेवाले
कौन होते हो?
दोस्ती
का पता ही तब
चलता है, जब कुछ
अशोभन भी चले।
दोस्ती कैसी
जहां गाली—गलौज
न हो। तो हम तो
शोभन का अर्थ
अशोभन के
विपरीत करते हैं।
हम कहते हैं, फलां आदमी
कितना
शोभायुक्त है।
लेकिन
अष्टावक्र
कहते हैं, अगर
अशोभन पीछे
पड़ा है, दबा
है, प्रगट
हो सकता है
किसी अवसर पर,
दबाया गया
है, चेष्टा
से रोका गया
है, तो मिट
नहीं गया है, उसकी छाया
पड़ती ही रहेगी।
यह परम शोभा
की दशा नहीं
है। परम शोभा
की दशा तो वह
है, अब याद
ही नहीं आता
है कि क्या
अशोभन है, क्या
शोभन है। सहज
दशा ही परम
शोभा की दशा
है। निसर्ग की
दशा।
स्वस्फूर्त
स्वच्छंदता
की दशा।
इसे
खयाल में लेना, सारी
दुनिया में—
भारत को
छोड्कर—जीवन
की व्यवस्था
को द्वंद्व
में ही बांटा
गया है, स्वर्ग
—नर्क। भारत
एक और नया
शब्द रखता है,
मोक्ष। सुख—दुख,
भारत एक
तीसरा शब्द
लाता है, आनंद।
दुर्जन—सज्जन,
भारत एक नया
शब्द लाता है,
जीवनमुक्त।
साधु— असाधु, भारत एक नया
शब्द लाता है,
संत। इनका
फर्क समझ लेना।
साधु का अर्थ
संत नहीं होता।
साधु का अर्थ
है, जो
असाधु के
विपरीत। और
संत का अर्थ
होता है, जहां
साधु — असाधु
दोनों के पार
हो गया।
स्वर्ग का
अर्थ होता है,
नर्क के
विपरीत, मगर
नर्क से बंधा।
स्वर्ग से
नर्क में
गिरने की
सुविधा है।
गिरेगा ही, कोई भी।
इसलिए पुराने
शास्त्र भी
यही कहते हैं
जब स्वर्ग में
पुण्य चुक
जाता है तो
आदमी को गिरना
पड़ता है।
अप्रतिष्ठा
हो जाती है
स्वर्ग से।
स्वर्ग
और नर्क अलग—
अलग नहीं हैं।
विपरीत हैं, जुड़े हैं।
मोक्ष, वहां
से फिर गिरने
का कोई उपाय
नहीं। वहां से
फिर
अप्रतिष्ठा
नहीं होती। और
जहां से
अप्रतिष्ठा
हो ही न सकती
हो, वहीं
शोभा है। जहां
से
अप्रतिष्ठा
हो सकती हो, वहां कैसी
शोभा! जहां से
गिरना हो सकता
हो, वहा
पहुंचने का
क्या अर्थ!
इसलिए
सारी दुनिया
के धर्म
द्वंद्व के
पार नहीं गये
हैं। ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी धर्म
स्वर्ग और नर्क
की बात करते
हैं, लेकिन
मोक्ष की कोई
धारणा नहीं है।
पदार्थ और
परमात्मा की
बात करते हैं,
लेकिन
ब्रह्म की कोई
धारणा नहीं है।
भारत की खोज
अनूठी है।
जहां —जहां
द्वंद्व है, भारत वहां
एक तीसरी बात
का भी उपयोग
करता है।
क्योंकि भारत
कहता है, द्वंद्व
के पार एक
तीसरी दशा है।
जहां न आदमी
सज्जन है, न
दुर्जन, वहां
संतत्व, वहा
जीवनमुक्ति।
जहां न बुरा, न भला, वहां
जीवनमुक्ति।
बुरे और भले
तो एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जहां
पूरा सिक्का
ही छोड दिया, वहीं सरलता।
'निष्कपट,
सरल और
कृतार्थ योगी
को कहां
स्वच्छंदता
है, कहां
संकोच है और
कहां तत्व का
निश्चय है।’
क्य
स्वाच्छंद्य
क्य संकोच:
क्य वा
तत्वविनिश्चय।
निर्व्याजार्जवभूतस्य
चरितार्थस्य
योगिन:।।
ऐसी
दशा है योगी
की अंतिम दशा
जहां इतनी
निष्कपटता हो
गयी कि अब
बुरे— भले में
भी भेद नहीं
होता। शुभ—
अशुभ भी अब
भिन्न नहीं
मालूम होते।
अब आंखें इतनी
स्वच्छ हो
गयीं कि काले
बादल तो उठते
ही नहीं आंखों
के आकाश में, सफेद
बादल भी नहीं
उठते, शुभ्र
बादल भी नहीं
उठते। अब हाथ
में जंजीरें
लोहे की तो
रहीं ही नहीं,
सोने की
जंजीरें भी
नहीं रहीं।
मुक्ति परम
हुई।
'निष्कपट, सरल और
कृतार्थ योगी
को कहां
स्वच्छंदता!'
अब एक
और अदभुत बात
कहते हैं आखिर—
आखिर में। अब
ये सूत्र
अंतिम चरण ले
रहे हैं और
अष्टावक्र
आखिरी ऊंचाई
भर रहे हैं! अब
तक उन्होंने
स्वच्छंदता
का ही गीत गया, अब कहते
हैं, स्वच्छंदता
भी कहौ!
स्वच्छंदता
भी तो तभी तक है
जब तक हमें
दूसरे का और
अपने का भेद
है, फासला
है! मैं और तू
का भेद है, तो
परतंत्रता और
स्वतंत्रता।
पर के अधिकार
में रहे तो
परतंत्रता, स्व के
अधिकार में
रहे तो
स्वतंत्रता।
दूसरे का छंद
गाया तो परछंद
और अपना छंद
गुनगुनाया तो
स्वच्छंद।
लेकिन अब अपना—पराया
भी कहां!
'निष्कपट, सरल और
कृतार्थ योगी
को कहां
स्वच्छंदता!'
अब
उन्होंने अब
तक की धारणा
को भी खंडित
किया। यही
भारत की अनूठी
खोज है, नेति—नेति।
यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं।
अंततः सबको
निषेध कर देना
है, ताकि
वही बच रहे
जिसका निषेध न
हो सके। वही
है परम, वही
है सत्य।
'कहां
स्वच्छंदता, कहां संकोच
और कहां तत्व
का निश्चय!'
अब तक
इसका कितना
गीत गाया।’इतितत्व
निस्वै: ', 'इति
निस्वै: '।
अब तक कितना
गीत गाया इसका
कि ऐसा जिसको
निश्चय हो गया
तत्व का, वही
ज्ञानी। और अब
कहते हैं—
क्य वा
तत्वनिश्चय।
अब तो
वह बात भी गयी।
जब अनिश्चय
गया, निश्चय
भी गया। अब तो
तत्व का
निश्चय, यह
कहना भी ठीक
नहीं, इसमें
भी संदेह
मालूम पड़ता है।
जब कोई कहता
है मैं बिलकुल
निश्चित हूं
तो तुम जानना
कि थोड़ा संदेह
मौजूद होगा।
जब कोई कहता
है कि मैं
बिलकुल दृढ़ हूं, तो उसका
मतलब है थोड़ा
कंपा हुआ है, नहीं तो
क्यों कहेगा!
जब तुमसे कोई
कहता है, मुझे
तुमसे बहुत—बहुत
प्रेम है, तो
समझना कि कुछ
कम होगा नहीं
तो बहुत—बहुत
क्यों कहता!
मुझे प्रेम है,
इतने से बात
पूरी हो जाती
है। बहुत—बहुत
से कुछ जुड़ता
थोड़े ही, कुछ
घटता है। और
जब कोई आदमी
बार—बार कहने लगे
कि मैं तुमसे
निश्चित
प्रेम करता हूं, बिलकुल
निश्चित
प्रेम करता
हूं तो संदेह
उठना
स्वाभाविक है
कि यह आदमी
इतनी बार
क्यों कहता है?
एक बार कह
दिया, ठीक
है; सच तो
यह है, हो
तो कहना ही
नहीं पड़ता। हो
तो सारे जीवन
से उसकी सुवास
उठती है, कहना
थोड़े ही पड़ता
है। कहना तो
वही पड़ता है
जो हम जीवन से
नहीं कह पाते।
अब
तत्व का
निश्चय कहा!
अनिश्चय गया, निश्चय
गया। सब जा
रहा है, खयाल
रखना। जैसे
कोई गौरीशंकर
की यात्रा पर
चला है और बोझ
को कम करना पड़
रहा है। पहले
बहुत सामान
लेकर चले थे
कि यह भी रख
लें—ट्रांजिस्टर
रेडिओ भी रख
लें, पोर्टबॅल
टेलीविजन भी
रख लें और
थर्मस भी और भोजन
भी और सब
सामान लेकर
चले थे और
कैमरा और यह, अब बोझ बढ़ने
लगा। पहाड़ की
ऊंचाई उठने
लगी, अब
धीरे— धीरे
छोड़ना पड़ेगा।
एक—एक चीज
छोड़नी पड़ेगी।
अब छोड़ो यह
टेलीविजन, अब
नहीं ढोया जा
सकता। अब छोड़ो
यह
ट्रांजिस्टर
रेडियो, अब
छोड़ो यह कैमरा
भी ऐसे—ऐसे, ऐसे—ऐसे, शायद
अंत तक थर्मस
को बचाना पड़े।
लेकिन आखिरी
क्षण में
थर्मस भी छोड़
देनी पड़ेगी।
अब इसकी भी
क्या जरूरत, घर आ गया! अब
थर्मस भी छोड़ो।
जब तुम
बिलकुल निपट
सरल अकेले, नग्न बचे,
निर्वस्त्र,
कुछ भी न
हाथ में रहा, शून्य बचे
वहीं, वहीं
है मिलन।
निर्व्याजार्जवभूतस्य।
अब
जिसके मन में
कोई कपट, कोई द्वंद्व,
कोई चाल, कोई हिसाब, कोई गणित न
रहा—
निर्व्याज, आर्जव—जो
सीधी रेखा
जैसा सरल हो
गया। इरछा—तिरछापन
न रहा।
चरितार्थस्ययोगिन:।
और
जिसके जीवन
में अंतस आचरण
बन गया।
चरितार्थस्ययोगिन:।
जैसा
भीतर, वैसा
बाहर; जैसा
बाहर, वैसा
भीतर; यह
बाहर— भीतर की
बात भी गयी, अब न कुछ
बाहर, न
कुछ भीतर, अब
एक ही बचा।
मैंने
सुना है, एक जैन साधु
ने स्वप्न
देखा। देखा
स्वप्न में कि
अपने हाथ में
दो ऊंचे डंडे
लेकर मोक्ष—महल
की ऊपरी मंजिल
पर चढ़ने का
प्रयास कर रहा
है। लेकिन हार—हार
जाता है, गिर—गिर
जाता है। बार—बार
अपनी जगह पर
लौट आता है।
कुछ समझ नहीं
आता कि अड़चन
कहां हो रही है,
उठ क्यों
नहीं पाता ऊपर?
तब पास खड़े
एक बुजुर्ग की
तरफ देखा, जो
खड़े हंस रहे
हैं। वे
बुजुर्ग और
जोर से हंसने
लगे और
उन्होंने कहा
कि तुम यह कर
क्या रहे हो!
तो उस जैन—साधु
ने कहा, मेरे
पास सम्यक—ज्ञान
और सम्यक—दर्शन
के दो डंडे
हैं, मैं
इनके सहारे
मोक्ष—महल की
ऊपरी मंजिल पर
पहुंचना
चाहता हूं।
लेकिन न—मालूम
क्या अड़चन हो
रही है, मैं
फिसल—फिसल आ
रहा हूं। डंडे
मेरे पास हैं,
चढ़ाई नहीं
हो पा रही है।
आप खड़े हंसते
हैं! कुछ
मार्गदर्शन
दें।
बुजुर्ग
ने कहा, सम्यक—ज्ञान
और सम्यक—दर्शन
के सहारे तुम
अपने लक्ष्य
तक न पहुंच सकोगे।
डंडों के
सहारे कोई
इतनी ऊंची
चढ़ाई होती है!
ये तुम्हें
चढ़ने का धोखा
तो दे सकते
हैं, लेकिन
लक्ष्य
दिलाना इनकी
सामर्थ्य के
बाहर है। तो
वह साधु बोला,
फिर मैं
क्या करूं? इन्हें
मैंने बड़ी
मेहनत से
प्राप्त किया
है। जन्मों —जन्मों
की खोज से। और
ये बेकार हैं,
तुम कहते
हो! मेरा सारा
श्रम व्यर्थ
गया?
उस
बुजुर्ग ने
कहा, नहीं,
तुम्हारा
श्रम व्यर्थ
नहीं गया, न
व्यर्थ जाएगा,
लेकिन
सम्यक—ज्ञान
और सम्यक—दर्शन
के इन दो खड़े
डंडों में
सम्यक—चारित्र्य
की आड़ी
सीढियां लगा
सको तो बात हो!
अभी तुमने जाना,
सुना, समझा,
लेकिन जीया
नहीं। और बिना
जीये कोई सीढ़ी
थोड़े ही बनती
है। विचार से
थोड़े ही कोई
यात्रा होती
है। मात्र
विचार से थोड़े
ही कोई यात्रा
होती है, अस्तित्व
होना चाहिए।
अस्तित्ववान
होना चाहिए।
जो अंतस में
है, वह
आचरण में। जो
बाहर है वह
भीतर, जो
भीतर है वह
बाहर। काश, तुम सम्यक—चारिव्य
की आड़ी
डंडियां इन दो
डंडों के बीच
में लगा सको
तो सीडी बन
जाए! सम्यक—शान
और सम्यक—दर्शन
के दो खड़े
डंडों में
सम्यक —चारिन्य
की आड़ी सीढ़िया
लगाने से
नसैनी तैयार हो
सकती है। और
फिर एक —एक कदम
उठाकर तुम उस
परम मंजिल को
भी पा सकते हो।
चरितार्थस्ययोगिन:।
जिसके
जीवन में, जिसके
अस्तित्व में
सरलता
समाविष्ट हो
गयी है। फर्क
समझना।
तुम
ऊपर से आरोपित
करके भी सज्जन
बन सकते हो।
ऐसे ही तो
तुम्हारे सब
सज्जन हैं।
इनके
अस्तित्व में
सरलता नहीं, अस्तित्व
में तो बड़ी
जटिलता है।
बड़ी चालबाजी
है। अस्तित्व
में तो बड़ा
गणित है, हिसाब
है। अस्तित्व
इनका निष्कपट
नहीं है, आर्जव
नहीं है इनके
अस्तित्व में।
मैं एक
यात्रा में था
और एक बड़े
स्टेशन पर एक
साधु को लोग
छोड़ने आए। वह
साधु ने केवल
टाट लपेटा हुआ
था। और कुछ भी
न था, और
एक टोकरी थी।
टोकरी में फल
इत्यादि रख
गये थे लोग।
बड़ी भीड़ आयी
थी उन्हें
भेजने। जिस
कंपार्टमेंट
में मैं था, उसी में
उनको भी बिठा
गये थे, हम
दोनों ही थे।
जब
ट्रेन चली और
मैं आख बंद
करके लेट रहा
तो उन साधु ने
जल्दी से अपनी
टोकरी देखी, फल गिने।
मैं देखता रहा
उनको थोड़ी—
थोड़ी खोल आख
कि क्या कर
रहे हैं? जल्दी
से फल गिने।
और फलों के
नीचे नोट
छिपाए हुए थे,
वे नोट भी
गिने। जब वह
नोट गिन रहे
थे तो आख
खोलकर मैं बैठ
गया, उन्होंने
जल्दी से नोट
छिपा लिए, मैं
फिर लेट गया।
जब मैं फिर
लेट गया, उन्होंने
समझा कि मैं
फिर सो गया, तब उन्होंने
फिर अपने नोट
गिनने शुरू
किये। मैं फिर
उठकर बैठ गया,
मैंने कहा,
आप
बेफिक्री से
गिनो, क्योंकि
नोट गिनने में
कोई पाप ही
नहीं है। और
फिर आपके ही
गिन रहे हो, कोई मेरे तो
आप गिन भी
नहीं रहे हो, इसमें इतनी
बेचैनी क्या
है? इसको
छिपा क्यों
रहे हैं? वह
बड़े बेचैन हो
गये, पसीना—पसीना
हो गये। टाट
ओढ़े हुए हैं!
फिर
उनसे मेरी
बातचीत हुई।
भोपाल जाते थे
वह। मुझसे
पूछा कि यह
ट्रेन भोपाल
कब पहुंचेगी, मैंने
कहा यह छ: बजे
पहुंचेगी, आप
बिलकुल
निश्चित सोए।
बीच—बीच में
आप चिंता मत
करना, क्योंकि
यह डिब्बा
वहीं कट जाएगा।
मैं भी भोपाल
चल रहा हू र तो
आप घबडाएं
नहीं। मगर
बारह बजे मैंने
देखा कि वह
खिड़की से
खोलकर, कोई
स्टेशन आयी है,
पूछ रहे हैं
कि भोपाल
कितनी दूर? उन्हें मुझ
पर भरोसा नहीं
आया कि यह
आदमी कुछ अजीब—सा
मालूम पड़ता —है।
जब मैं नोट
गिनता हूं
एकदम बैठ जाता
है! और मुझे
नोट नहीं
गिनने देता।
पता नहीं, मजाक
कर रहा हो, कि
झूठ कह रहा हो,
कि सच कह
रहा हो, यह
डिब्बा कटे कि
न कटे! जब
उन्हें मैंने
तीन बजे फिर
एक स्टेशन पर.
तो मैंने कहा
देखो, न
तुम खुद सोते
हो न मुझे
सोने देते हो।
तुम साधु आदमी,
तुम इतनी—सी
बात का भरोसा
नहीं कर सकते!
और तुम दो दफे
पूछ भी चुके
और लोगों ने
तुम्हें बता
दिया छ: बजे, और यह
डिब्बा वहीं
कटेगा, तुम
बाहर जाकर देख
सकते हो, इस
पर लिखा है कि
यह डिब्बा
वहीं कटेगा, फिर भी
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता!
फिर
पांच बजे से
उन्होंने
तैयारी शुरू
कर दी। तैयारी
देखकर मैं बड़ा
हैरान हुआ।
क्योंकि कोई
और कोई तैयारी
करे, समझ
में आता है। अब
इनके पास
तैयारी करने
को कुछ था भी
नहीं। एक टाट
लपेटे थे, एक
टाट टोकरी में
रखा हुआ था।
मगर उनको
मैंने देखा कि
वह आईने के
सामने खड़े होकर
टाट जमा रहे
हैं, बार—बार
उसको देख रहे
हैं कि ठीक आ
गया कि नहीं।
क्या
फर्क हुआ? टाट
बांधने से तो
सरलता नहीं हो
जाएगी! टाट
बांधने में भी
जटिलता है।
दरिद्र हो
जाने से तो
सरलता नहीं हो
जाएगी! दरिद्रता
में भी लोभ तो
छिपा है। साधु
होने से सरलता
तो नहीं हो
जाएगी! क्योंकि
इतना भी भरोसा
नहीं है कि
इतने लोग कह
रहे हैं कि छ:
बजे पहुंचेगी,
तो
पहुंचेगी।
इतनी क्या
घबड़ाहट! और
साधु इधर—उधर
चला भी गया
आगे—पीछे तो
क्या फर्क
पड़ता है। है
भी क्या, न
पहुंचे भोपाल
तो क्या
बिगड़ता है!
इतनी क्या घबड़ाहट
है! नहीं
लेकिन, हिसाब—किताब
है। और वह जो
सरलता भी है, टाट बांध जो
रखा है, उसमें
भी आयोजन है।
अब तुम
फर्क समझना।
एक
स्त्री अपने
साथ बैग रखे
होती है, आईना रखे
होती है, पाउडर
रखे होती है, समझ में आती
है बात। लेकिन
इस वेनिटी बैग
में और इन
सज्जन के टाट
को संभालने
में क्या भेद
है? ऊपर से
भेद बड़ा दिखता
है! संभालने
को मखमल नहीं
है, लेकिन
टाट भी संभाला
जा सकता है।
टाट का भी
श्रृंगार हो
सकता है। टाट
के पीछे भी
विशिष्ट होने
की आकांक्षा
हो सकती है।
तो सब व्यर्थ
हो गया।’निष्कपट,
सरल और
कृतार्थ योगी.।’
सरलता
साधी नहीं जा
सकती, चेष्टित
नहीं हो सकती,
सरलता तो
समझ से आए तो
ही। इसलिए
अष्टावक्र का
पूरा जोर है
बोध पर, होश
पर। समझो, जागकर
जीवन को देखो
और सरलता अपने
— आप आती है।
तुम उसे
आयोजित मत
करना। आयोजित
सरलता सरलता
नहीं रह जाती।’
आत्मा में
विश्राम कर
तृप्त हुए और
निस्पृह और
शोकरहित
पुरुष के अंतस
में जो अनुभव
होता है, उसे
किसको और कैसे
कहा जाए!'
बड़ा
अनूठा वचन है।
आत्मविश्रातितृप्तेन
निराशेन
गतार्तिना।
अंतर्यदनुभूयेत
तत्कर्थ कस्य
कथ्यते।।
जो
अपनी आत्मा
में विश्राम
को उपलब्ध हो
गया, जो
पहुंच गया
अपने भीतर, जो चैतन्य
के क्षीरसागर
में हो गया, विष्णु बनकर
लेट गया अंतस
के क्षीरसागर
में, जो
विश्राम को
उपलब्ध हो गया
है।
आत्मविश्रातितृप्तेन।
और
वहीं है
तृप्ति—उसी
विश्रांति
में, उसी
विराम में; उसी विराम
में है आनंद, परितोष।
निराशेन
गतार्तिना।
और जो
अब बाहर की सब
स्पृहा से, सब आशाओं
से मुक्त हो
गया।
निराशेन
गतार्तिना
अंतर्यदभूयेत।
अब
उसके भीतर ऐसे—ऐसे
अनुभव होंगे, ऐसे —ऐसे
अनुभव के
द्वार
खुलेंगे, ऐसा
गीत बजेगा, ऐसा नाद
उठेगा.।
तत्कथं
कस्य कथ्यते।
कि अब
उसे किससे
कहें और कैसे
कहें! अब न तो
कोई पात्र
मिलेगा उसे
जिससे कह सके।
क्योंकि जो भी
पात्र हो, उसको
कहने की जरूरत
न होगी; जो
भी पात्र होगा,
वह तभी
पात्र होगा जब
उसने भी उस
नाद को सुन लिया
हो, उसको
क्या कहना, वह तो
पुनरुक्ति होगी।
और जिसने अभी
उस नाद को
नहीं सुना वह
अपात्र है, उससे क्या
कहना, वह
तो समझेगा
नहीं। उसे
किसको और कैसे
कहा जाए!
तत्कर्थ
कस्य कथ्यते।
कहो तो
कैसे! और कहो
तो किससे कहो!
कोई पात्र नहीं
मिलता।
दो
बुद्धपुरुष
मिलें तो
बोलने को कुछ
नहीं।
क्योंकि
दोनों का
अनुभव एक है, अब बोलना
क्या! दो
बुद्धपुरुष
तो ऐसे होंगे
जैसे तुमने दो
शुद्ध दर्पण,
शुद्धतम
दर्पण एक—दूसरे
के सामने रख
दिये। कोई
प्रतिबिंब न
बनेगा। दर्पण
में दर्पण
झलकेगा, क्या
प्रतिबिंब
बनेगा! कुछ भी
प्रतिबिंब न
बनेगा। दो
स्वच्छतम
दर्पण अगर एक—दूसरे
के सामने रखे
हों तो कुछ
प्रतिबिंब
नहीं बनेगा।
दर्पण में
दर्पण, दर्पण
में दर्पण
झलकता रहेगा,
लेकिन
प्रतिबिंब
कुछ भी न
बनेगा, आकृति
कुछ भी न
उठेगी। दो
बुद्धपुरुष
अगर मिलें, तो कह सकते
हैं, लेकिन
कहने में कोई
सार नहीं।
और अगर
बुद्धपुरुष
को अशानी से
मिलन हो जाए, तो कहने में
सार है, लेकिन
कह नहीं सकते।
सार तो है!
क्योंकि यह
अज्ञानी अभी
जानता नहीं, इसे अगर
जनाया जा सके
तो शायद इसके
जीवन में अंकुरण
हो, यात्रा
शुरू हो, प्यास
जगे, मगर
कैसे इसे
जनाओ! क्योंकि
जो अनुभव हुआ
है वह
शब्दातीत है।
जो भीतर, भीतर,
भीतर जाकर
जाना है, वह
कुछ ऐसा है कि
अब किसी इंगित
में बंधता
नहीं, किसी
शब्द में
समाता नहीं, किसी ढंग से
उसे कहा नहीं
जा सकता।
अकथ्य है।
अंतर्यदनुभूयेत।
जो
भीतर जाना है
उसे बाहर लाने
का .उपाय नहीं।
वह भीतर का है
और भीतर ही है
और बाहर नहीं
आता। बाहर लाओ
कि गड़बड़ हो
जाती है।
ऐसा
समझो कि सागर
के भीतर कितनी
शाति है, एक भी लहर
नहीं उठती। अब
उस शाति को
तुम बाहर ले
आओ सतह पर तो
लहर ही लहर हो
जाती है। यह
शांति बाहर
नहीं लायी जा
सकती, वह
तो तुम जाओ
सागर की गहराई
में तो ही
जानोगे।
लहरों के जगत
में सागर की
गहराई को कैसे
लाएं? वह
भी लहर हो जाएगी,
वह भी बाहर
बन कर बिखर
जाएगी। शब्द
के तल पर उसे
कैसे लाएं जो
शून्य में जाना
गया है? जो
मिटकर जाना
गया है, जो
न होकर जाना
गया है। जहां
सब नेति—नेति
करते —करते जो
बोध हुआ है, अब उसे फिर
कैसे भाषा और
द्वंद्व के
जगत में प्रगट
करें!
तो
अष्टावक्र
कहते हैं, आत्मविश्रातितृप्तेन
हो
जाता है तृप्त
आत्मा में
विश्रांति को
पाकर।
निराशेन
गतार्तिना।
सब
संसार की आशा
से मुक्त, स्पृहा
से मुक्त, शोक
से रहित, पर
बड़ी अड़चन होती
है। एक अड़चन
होती है
ज्ञानी को भी,
एक अड़चन ही
होती है बस कि
अब जो मिला है
इसे कैसे
बांटे? अब
जो पा लिया, उसे कैसे
फैलाएं? कैसे
निवेदन करें?
जो अंधेरे
में भटक रहे
हैं, उन्हें
यह प्रकाश की
खबर कैसे
पहुंचाएं?
अंतर्यदनुभूयेत।
इतने
भीतर का अनुभव
कैसे बाहर
लाएं।
तत्कथं
कस्य कथ्यते।
किससे
कहें? वे
कान कहां जो
सुनेंगे। वे आंखें
कहां जो
देखेंगी? वे
प्राण कहां जो
समझेंगे? किससे
कहें? और
अगर कभी कोई
जानने—समझने
वाला मिल जाए,
तो कहने का
कोई अर्थ नहीं।
ऐसी दुविधा है
परमबुद्धों
की।
बस एक
ही दुविधा रह
जाती है
बुद्धत्व में
और वह दुविधा
है, जो
मिला है उसे
कैसे बांटे? वह दुविधा
भी करुणा की
दुविधा है।
आज
इतना ही।
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