ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र:
हिरण्मयेन
पात्रेण
सत्यस्यापिहितं
मुखम्।
तत्व
पूषन्नपावृणु
सत्यधर्माय
दृष्टये।।
14।।
आदित्य
मण्डलस्थ
ब्रह्म का मुख
ज्योतिर्मय
पात्र से ढंका
हुआ है।
हे
पूषन्! मुझ
सत्यधर्मा को
आत्मा की
उपलब्धि
कराने
के लिए तू उसे
उघाड़ दे।। 14।।
सहज
ही खयाल में न
आ सके, सहज
ही समझ में न आ
सके, ऐसा
यह सूत्र कई
अर्थों में
बहुत असाधारण
अभिप्राय को
लिए हुए है।
पहली तो बात
यह, साधारणत:
सोचते हैं हम,
मानते हैं
ऐसा कि सत्य
अगर ढंका होगा
तो अंधकार से
ढंका होगा। पर
यह सूत्र कहता
है कि ज्योति
से, प्रकाश
से ढंका है
सत्य।
हे
प्रभु, तू
उस प्रकाश के
पर्दे को अलग
कर ले। यह
बहुत ही, बहुत
ही गहरी जिसने
खोज की हो
सत्य के आयाम
में, उसकी
प्रतीति है।
जिन्होंने
केवल सोचा
होगा, वे
सदा कहेंगे कि
अंधकार में
ढंका है सत्य।
लेकिन
जिन्होंने
जाना है, वे
कहेंगे, प्रकाश
में ढंका है
सत्य। और अगर
अंधकार मालूम
होता है, तो
वह प्रकाश का
आधिक्य है।
प्रकाश
के आधिक्य में
आंखें अंधी हो
जाती हैं।
प्रकाश बहुत
हो तो अंधकार
जैसा हो जाता
है। आंखों की
कमजोरी के
कारण। सूरज को
देखें। आंख
खोलें सूरज की
तरफ। थोड़ी देर
में अंधकार हो
जाएगा। इतना
ज्यादा है
प्रकाश, आंखें झेल
नहीं पातीं, इसलिए
अंधकार हो
जाता है।
तो
जिन्होंने
दूर—दूर से
जाना, सोचा
है, वे तो
कहेंगे, अंधकार
में छिपा है
सत्य। प्रभु
का मंदिर
अंधकार में
छिपा है।
लेकिन
जिन्होंने
जाना है, वे
कहेंगे कि
प्रकाश में
छिपा है। हे
प्रभु, तू
प्रकाश के इस
पर्दे को अलग
कर ले।
और
प्रकाश के
आधिक्य के
कारण ही
अंधकार का भ्रम
पैदा होता है।
आंखें हमारी
कमजोर हैं
इसलिए।
पात्रता
हमारी कमजोर
है इसलिए।
जैसे—जैसे
सत्य की तरफ
यात्रा बढ़ती
है, वैसे—वैसे
प्रकाश बढ़ता
जाता है। जो
लोग भी ध्यान
में थोड़ी सी
गति कर रहे
हैं, वे
जानते हैं कि
जैसे—जैसे, जैसे—जैसे
ध्यान गहरा
होता है, प्रकाश
बढ़ता चला
जाता है।
आज
इटालियन
साधिका
वीतसंदेह ने
मुझे आकर कहा कि
इतना प्रकाश
हो गया है
भीतर कि ऐसा
लग रहा है, भीतर से
किरणें आ रही
हैं और पूरा
शरीर जल रहा है।
जैसे भीतर कोई
सूरज बैठा है।
बाहर से नहीं
आ रही है
गर्मी, भीतर
से आ रही है।
और प्रकाश
इतना ज्यादा
है कि रात
सोना मुश्किल
हो गया है। आंख
झपती है, तो
प्रकाश ही
प्रकाश है।
जैसे
ही कोई ध्यान
में गहरा
उतरेगा, प्रकाश घना
और गहरा होने
लगेगा, तीव्र
और प्रखर होने
लगेगा। और एक
ऐसी घड़ी आती
है कि जब
प्रकाश का
आधिक्य इतना
हो जाता है कि
करीब—करीब महा
गहन अंधकार
मालूम होने
लगता है। ईसाई
फकीरों ने उस
क्षण को —
सिर्फ ईसाई
फकीरों ने ही
उस क्षण को
ठीक नाम दिया
है — उसे
उन्होंने कहा
है, डार्क
नाइट आफ दि
सोल, आत्मा
की
अंधकारपूर्ण
रात्रि।
लेकिन
अंधकारपूर्ण
रात्रि है वह
प्रकाश के आधिक्य
के कारण।
और
जब इतना
प्रकाश हो
जाता है कि
भीतर लगता है कि
अंधेरा हो गया
है प्रकाश के
ज्यादा होने
के कारण, उस क्षण में
की गई
प्रार्थना है,
हे प्रभु, इस प्रकाश
के पर्दे को
हटा ले। ताकि
मैं इसके पीछे
छिपे सत्य के
मुख को देख सकूं।
और
उचित ही है कि
सत्य के मुख
के आसपास इतना
प्रकाश
आधिक्य हो कि आंखें
अंधी और
अंधेरी हो
जाएं। उचित
यही है, सम्यक भी
यही है कि
प्रकाश के
वर्तुल के
भीतर ही सत्य
छिपा हो। और
अंधकार अगर
मालूम पडता हो,
तो वह हमारी
भ्रांति हो।
सत्य के आसपास
कैसे अंधकार
हो सकता है? और अगर सत्य
के आसपास भी
अंधकार हो
सकता है, तो
फिर इस जगत
में प्रकाश
कहां हो सकेगा?
सत्य के
आसपास अंधकार
टिकेगा कैसे?
सत्य के
निकट अंधकार के
टिकने की कोई
संभावना, कोई
उपाय नहीं।
सत्य है जहां
वहां तो
प्रकाश ही
होगा। लेकिन
हमें अंधकार
जैसा मालूम हो
सकता है, इतना
आधिक्य हो
जाए..।
अगर
सूफी फकीरों
से पूछे, तो वे कहते
हैं कि जब
उतरते हैं उस
जगह तो एक सूरज — नहीं, काफी नहीं
इतना कहना, हजार सूरज
भी काफी नहीं —
अनंत सूर्य एक
साथ जलने लगे
भीतर, इतना
आधिक्य हो
जाएगा कि
अंधकार छा
जाएगा। लेकिन
सत्य के आसपास
अंधकार हो
नहीं सकता।
सत्य छिपा है
प्रकाश में।
और स्मरण रखें,
अंधकार में आंख
खोलनी आसान है,
प्रकाश के
आधिक्य में आंख
का खोलना अति
कठिन है।
अमावस की रात
में आंख खोलने
में कौन सी
बाधा है? लेकिन
सूर्य सामने
पड़ जाए तो आंख
खोलने में बड़ी
कठिनाई है।
जो
सत्य के निकट
जाएंगे, अंतिम
संघर्ष
प्रकाश से
होगा, अंतिम
संघर्ष
अंधकार से
नहीं। अंतिम
संघर्ष, प्रकाश
की इतनी बाढ़ आ
जाती है कि आंख
खोलनी
मुश्किल हो जाती
है। उस पीड़ा
के क्षण में
यह सूत्र कहा
गया है।
उस
पीड़ा के क्षण
में यह
प्रार्थना है
कि हे प्रभु, हटा ले इस
प्रकाश को, ताकि मैं
तेरे सत्य मुख
को देख सकूं।
स्वाभाविक
है कि कोई कहे, अंधकार
से ले चल मुझे
दूर, अंधकार
से बाहर ले चल।
लेकिन प्रकाश
को हटा ले!
और
दूसरी बात है
कि प्रकाश के
लिए जो शब्द
प्रयोग किया
है — वह प्रकाश
ऐसा भी नहीं
है कि हटाने
का मन होता हो।
स्वर्ण जैसा
है, बहुत
प्रीतिकर भी
है। वही
कठिनाई है।
इतना
प्रीतिकर है
कि यह भी मन
नहीं होता कि
यह प्रकाश हट
जाए। और जब तक
यह प्रकाश न
हटे, तब तक
सत्य का दर्शन
नहीं हो सकता।
इसलिए दूसरी
बात भी समझ
लें।
अशुभ
को छोड़ना बहुत
आसान है, जब शुभ को
छोड़ने की घड़ी
आती है तब
असली कठिन घड़ी
आती है। लोहे
की जंजीरों को
छोड़ने में कौन
सी अड़चन है? लेकिन जब
स्वर्ण की
जंजीरें
छोड़नी पड़ती
हैं तब कठिनाई
होती है।
क्योंकि
स्वर्ण की
जंजीरों को
जंजीरें मानना
ही मुश्किल
होता है। वे
आभूषण मालूम
होती हैं।
असाधुता को
छोड़ना बहुत
आसान है, लेकिन
अंतिम घड़ी में
जब साधुता भी
बंधन हो जाती
है और उसे भी
छोड़ देना पड़ता
है, तब
असली कठिनाई
आती है। और
आखिरी घड़ी में
शुभ भी छोड़
देना पड़ता है,
क्योंकि
उतनी पकड़ भी
परतंत्रता है।
और सत्य के
समक्ष उतनी
परतंत्रता भी
बाधा है। वहां
चाहिए परम
स्वातंत्र्य।
इसलिए
यह भी मजे की
बात है कि ऋषि
अंधेरे से खुद
लड़ लिया है, लेकिन
प्रकाश को
कहता है
परमात्मा से
कि तू दूर कर
दे। अंधेरे से
खुद लड़ लेंगे,
अड़चन नहीं
है बहुत।
लेकिन जब
प्रकाश से
लड़ने की घड़ी
आएगी तब बहुत अड़चन
मालूम होती है
— प्रकाश से और
लड़ना! और
प्रकाश को अलग
करने की बात
ही पीड़ा देती
है। प्रकाश
इतना सुखद है,
इतना
स्वर्गीय है,
इतना
शांतिदायी है,
इतना
उत्कुल्ल
करता है, इतना
प्राणों को भर
जाता है अमृत
से, उसे
हटाने की बात
ही पीड़ा देती
है।
इसलिए
ऋषि कहता है, हे प्रभु,
तू हटा ले।
यह मैं हटा
पाऊं — इसकी
सामर्थ्य
नहीं मालूम
पड़ती। मेरा तो
मन करेगा, इसी
में डूब जाऊं।
ध्यान रहे, प्रकाश का
जब ध्यान में
गहरा अनुभव हो
तो प्रकाश से
भी बचना पड़ेगा।
उससे भी आगे
है यात्रा।
उसके भी पार
जाना है। उसके
भी ऊपर उठना
है। अंधेरे से
ऊपर तो उठना
ही है, प्रकाश
से भी ऊपर
उठना है। और
जब अंधकार और
प्रकाश दोनों
के ऊपर चेतना
चली जाती है, तभी द्वैत
के ऊपर अद्वैत
का प्रारंभ
होता है। तभी
उस एक का
दर्शन होता है
जो न प्रकाश
है और न अंधकार
है। जो न रात
है, न दिन
है। न जीवन है,
न मृत्यु।
जो सदा सब
द्वैत के पार
है। उस अद्वैत
की प्रतिष्ठा
के पहले अंतिम
संघर्ष
प्रकाश के साथ
होगा।
ऐसा
भी समझ लें कि
दुख को छोड़ना
सदा आसान है, दुख से हम
लड़ते हैं, लेकिन
अगर सुख आ जाए,
तो सुख से
लड़ना बहुत
मुश्किल है।
करीब—करीब
असंभव मालूम
पड़ता है। सुख
से कैसे लड़
पाएंगे? लेकिन
अगर सुख ने भी
पकड़ लिया तो
भी मोक्ष संभव
नहीं है। सुबह
मैंने कहा कि
सुख भी स्वर्ग
ही बनाएगा, वह भी नए
बंधन निर्माण
कर जाएगा — सुखद, प्रीतिकर, बड़े मनोरम, मन को भाएं
ऐसे, लेकिन
फिर भी मुक्ति
नहीं है। इस
प्रकाश के
पर्दे को हटा
लेने के लिए, इस ज्योति
से ढंके हुए
तेरे मुख के
दर्शन करने की
जो आकांक्षा
ऋषि ने की है, वह मनुष्य
के मन की
आखिरी दीनता
की खबर है।
मनुष्य
का मन प्रकाश
से नहीं मुक्त
होना चाहता है।
मनुष्य का मन
सुख से नहीं
मुक्त होना
चाहता है।
मनुष्य का मन
स्वर्ग से
नहीं मुक्त
होना चाहता है।
लेकिन उससे भी
मुक्त तो होना
ही है। इसलिए
द्वार पर खड़ा
है ऋषि। एक
तरफ उसकी
मनुष्यता है, जो कहती
है कि प्रकाश
आह्लादकारी
है, नाचो, एक हो जाओ, डूब जाओ और
लीन हो जाओ।
और एक ओर उसके
भीतर वह सत्य
की जो अभीप्सा
है, वह
कहती है, इसके
भी पार, इसके
भी पार। ऐसी
कठिनाई के
क्षण में, ऐसे
चुनाव के क्षण
में, ऐसे
डिसीसिव
मोमेंट में
कहा गया सूत्र
है कि हे
प्रभु, हटो
ले अपने इस
ज्योति के
पर्दे को! इस
सुख, इस
स्वर्गीय रूप
को हटा ले, ताकि
मैं उसे देख
लूं जो निपट
नग्न सत्य है,
जो तू है!
दुख
में जो जीते
हैं, उन्हें
पता ही नहीं
कि सुख का भी
अपना दुख है।
शत्रुओं में
जो जीते हैं, उन्हें पता
ही नहीं है कि
मित्रों की भी
अपनी शत्रुता
है। नर्क में
जो जीते हैं, उन्हें पता
ही नहीं कि
स्वर्ग की भी
अपनी पीड़ा है।
अंधकार में जो
जीते हैं, उन्हें
अनुमान ही
कैसे हो कि एक
दिन प्रकाश भी
कारागृह बन
जाता है। जहा
तक द्वैत है
वहां तक
अमुक्ति है।
जहां तक द्वैत
है वहां तक
बंधन है।
पर
क्या बचेगा
प्रकाश भी जब
हट जाएगा? अंधकार
भी जब हट
जाएगा तो सत्य
का मुख होगा
कैसा? बचेगा
क्या?
अधिकतम
जो हम सोच
सकते हैं, विचारणा
जहां तक जाती
है, जहां
तक विचार के
पंख उड़ान ले
सकते हैं, जहां
तक मन की सीमा
है, अधिकतम
जो हम सोच
सकते हैं, वह
लगता है कि
सत्य का चेहरा
अगर होगा तो
प्रकाश जैसा
होगा, आलोक
होगा। क्यों
ऐसा लगता है? एक—दों बात
खयाल में ले
लें।
हमने
अभी तक प्रकाश
देखा नहीं है।
आप कहेंगे, प्रकाश
देखा नहीं है!
प्रकाश देख
रहे हैं। सुबह
सूरज निकलता
है और हम
प्रकाश देखते
हैं। और रात
चांद आता है
और चांदनी छा
जाती है और हम प्रकाश
देखते हैं।
प्रकाश हमने
देखा है। नहीं,
फिर भी मैं
आपसे कहता हूं
प्रकाश अभी
आपने देखा
नहीं है। अभी
केवल
प्रकाशित
चीजें देखी
हैं। जब सूरज
निकलता है तब
आप प्रकाश
नहीं देखते हैं,
सिर्फ
प्रकाशित
चीजें देखते
हैं — पहाड़, नदी,
झरने, वृक्ष,
लोग। अभी
यहां बिजली के
बल्व जल रहे
हैं। आप
कहेंगे, हम
प्रकाश देखते
हैं। आप
प्रकाश नहीं
देखते। बिजली
का बल्व दिखाई
पड़ता है लोगों
पर पड़ता हुआ।
लोग जो
प्रकाशित हैं,
वे दिखाई
पड़ते हैं।
आब्जेक्ट्स
दिखाई पड़ते
हैं।
प्रकाश
का अनुभव बाहर
के जगत में
होता ही नहीं।
बाहर के जगत
में केवल
प्रकाशित
चीजें दिखाई पड़ती
हैं। और जब
प्रकाशित
चीजें नहीं
दिखाई पड़ती
हैं, तो
हम कहते हैं, अंधकार है।
इस कमरे में
कब अंधकार हो
जाता है? जब
इस कमरे में
कोई चीज दिखाई
नहीं पड़ती है,
तो हम कहते
हैं, अंधकार
है। और जब
चीजें दिखाई
पड़ती हैं, तो
हम कहते हैं, प्रकाश है।
प्रकाशित
चीजों को देखा
है हमने, सीधे
प्रकाश को नहीं
देखा है।
अगर
कोई भी चीज इस
कमरे में न हो
तो आपको प्रकाश
दिखाई नहीं
पड़ेगा। चीज से
टकराता है
प्रकाश, चीज का आकार
दिखाई पड़ता है,
तो आपको
लगता है
प्रकाश है।
चीज अगर
बिलकुल
स्पष्ट दिखाई
पड़ती है, तो
आप कहते हैं, ज्यादा
प्रकाश है।
अस्पष्ट दिखाई
पड़ती है, तो
कहते हैं, कम
प्रकाश है।
नहीं दिखाई
पड़ती है, तो
कहते हैं, अंधकार
है। बिलकुल
अंदाज नहीं
आता, तो
कहते हैं, महा
अंधकार है।
लेकिन न तो
आपने प्रकाश
देखा है, न
आपने अंधकार
देखा है।
अनुमान है
हमारा कि जब
चीजें दिखाई
पड़ रही हैं तो
प्रकाश होगा।
असल
में प्रकाश
इतनी सूक्ष्म
ऊर्जा है कि
बाहर उसके
दर्शन नहीं हो
सकते। प्रकाश
के दर्शन तो
भीतर ही होते
हैं, क्योंकि
भीतर कोई चीज
नहीं होती, जिसको
प्रकाशित
किया जा सके।
भीतर कोई
आब्जेक्ट्स
नहीं हैं जो
प्रकाशित हो
जाएं और उनको
आप देख लें।
भीतर जब
प्रकाश का
अनुभव होता है
तो शुद्ध
प्रकाश का, सीधे प्रकाश
का, इमीजिएट,
बिना किसी
चीज के माध्यम
के प्रकाश का
ही अनुभव होता
है। सिर्फ
प्रकाश!
और
एक फर्क। बाहर
जो भी हम
देखते हैं, मैंने
कहा, प्रकाशित
चीजें देखते
हैं और दूसरी
बात प्रकाश का
स्रोत देखते
हैं और
प्रकाशित
चीजें देखते
हैं। बीच में
जो प्रकाश है,
वह हम कभी
नहीं देखते।
सूरज दिखाई
पड़ता है, यह
बिजली का बल्व
दिखाई पड़ता है,
इधर नीचे
चमकती हुई
प्रकाशित
चीजें दिखाई
पड़ती हैं।
दोनों के बीच
में जो प्रकाश
है, वह
दिखाई नहीं
पड़ता। स्रोत
दिखाई पड़ता है
प्रकाश का।
जिन चीजों पर
पड़ता है, वे
चीजें दिखाई पड़ती
हैं।
लेकिन
भीतर जब
प्रकाश दिखाई
पड़ता है तो न
तो वहां चीजें
होती हैं और न
वहा सोर्स
होता है —
सोर्सलेस
लाइट। वहां
कोई सूरज नहीं
होता, जिसमें
से प्रकाश आ
रहा है। वहां
कोई दीया नहीं
जलता, जिसमें
से प्रकाश आ
रहा है। वहां
सिर्फ प्रकाश
होता है
— सोर्सलेस, उदगमरहित।
उदगमरहित
प्रकाश।
वस्तुएं—शून्य
जगत। उस शून्य
में जब प्रकाश
पहली दफा
दिखाई पड़ता है,
तब अगर कबीर,
तब अगर
मोहम्मद, और
तब अगर सूफी
फकीर या बाउल
फकीर या झेन
फकीर नाचने
लगते हैं और
कहते हैं कि
तुम जिसे
प्रकाश कहते
हो, वह
अंधेरा है...।
अरविंद
ने लिखा है कि
जब तक भीतर
नहीं देखा था
तब तक जिसे
बाहर प्रकाश
समझा था, भीतर देखने
के बाद पता
चला, वह
अंधकार है। जब
तक भीतर नहीं
देखा था तब तक
बाहर जिसे
जीवन समझा था,
जब भीतर
देखा तो पता
चला, वह
मृत्यु है।
भीतर
जब प्रकाश —
उदगमरहित, वस्तु—शून्य,
निराकार, अंतस आकाश
में प्रगट
होता है, तो
उसकी आभा को
झेलना बड़ा
कठिन है। सबसे
बड़ी कठिनाई यह
है कि मन होता
है कि आ गई मंजिल,
पहुंच गए।
साधक
को इंद्रियां
बड़ी भारी
बाधाएं नहीं
हैं। उनसे पार
हो जाता है।
विचार बड़ी
बाधाएं नहीं
हैं, उनसे
पार हो जाता
है। लेकिन जब
भीतर के
प्रीतिकर
अनुभव के फूल
खिलने शुरू
होते हैं और
जब भीतर
सिद्धि के
आनंद प्रगट
होने शुरू
होते हैं, तब
पैर उठते ही
नहीं। छोड़ने
का मन नहीं
होता। पार
जाने की
हिम्मत, पार
जाने का साहस
नहीं होता। लगता
है, आ गई
मंजिल।
उस
क्षण में ऋषि
ने कहा है, हे प्रभु!
हटा ले इस
प्रकाश को भी।
मैं तो वही
जानना चाहता
है जो प्रकाश
के भी पार है।
अंधकार के पार
मैं आ गया, प्रकाश
के पार तू
मुझे ले चल।
और
ध्यान रहे, अंधकार
के पार तक
जाने में
संकल्प काम कर
देता है, लेकिन
प्रकाश के पार
जाने में
समर्पण काम
करता है।
अंधकार के पार
जाने में
संघर्ष काम कर
देता है। हम
भी जूझ सकते
हैं। आदमी भी
काफी सबल है
अंधकार से
लड़ने में।
लेकिन जब
प्रकाश से
लड़ने की बात
उठती है तो आदमी
एकदम निर्बल
है। नहीं है, न के बराबर
है। वहा
संकल्प काम
नहीं करता, वहां समर्पण
काम करता है।
यह
सूत्र समर्पण
का है। हार
गया ऋषि। यहां
तक तो आ गया, जहां कि
परम प्रकाश
प्रगट होता है।
यहां तक उसने
प्रार्थना
नहीं की। यहां
तक उसने प्रभु
से नहीं कहा
कि तू ऐसा कर दे।
यहां तक वह
अपने भरोसे
चला आया। यहां
तक आदमी आ
सकता है।
संकल्प
से जो चलते
हैं, वे
इससे आगे कभी
न जा सकेंगे।
समर्पण की
जिनकी तैयारी
है, सरेंडर
की जिनकी
तैयारी है —
टोटल सरेंडर
की — वे ही जा
सकेंगे। इसे
इस तरह कहें
तो शायद जल्दी
समझ में आ जाए।
यहां तक ध्यान
ले जाता है, यहां तक।
प्रकाश के परम
अनुभव तक
ध्यान ले जाता
है। लेकिन
प्रकाश के पार
प्रार्थना ले
जाती है। उसके
बाद ध्यान काम
नहीं कर पाता।
इसलिए
जिन्होंने
ध्यान नहीं
किया और
प्रार्थना कर
रहे हैं, वे
नासमझ हैं।
वहां
प्रार्थना की
कोई भी जरूरत
नहीं है। और
जिन्होंने
ध्यान कर लिया
और ऐसा सोचा
कि अब
प्रार्थना की
क्या जरूरत है,
वे भी नासमझ
हैं। क्योंकि
ध्यान प्रकाश
तक ले जाएगा, द्वार तक
खड़ा कर देगा, लेकिन अंत
में तो
प्रार्थना की
पुकार ही सहारा
बनेगी। अंतत:
तो कहना पड़ेगा
कि मैं तेरे
हाथ में हूं तू
ले चल। यहां
तक मैं आ गया।
और
ध्यान रखें, जो ध्यान
की इस सीमा तक
चला आता है, उसने
पात्रता
अर्जित कर ली।
उसने पात्रता
अर्जित कर ली
कि अब अगर वह
कह भी दे कि
मैं नहीं जाता,
तो ईश्वर
उसे ले जाए।
वह इस योग्य
हुआ जहां से
प्रभु की
अनुकंपा शुरू
हो। जहां से
प्रभु की कृपा
बरसे। आ गया
उस जगह तक
जहां तक आदमी
आ सकता था।
इससे ज्यादा
परमात्मा भी,
इससे
ज्यादा
परमात्मा भी
आदमी से
अपेक्षा नहीं
कर सकता है।
आखिरी घड़ी आ
गई, आदमी
की क्षमता का
छोर आ गया। अब
अगर परमात्मा
भी इससे
ज्यादा आदमी
से मांग करे
तो ज्यादती है।
इससे ज्यादा
का कोई सवाल
भी नहीं है।
प्रार्थना, अब
प्रार्थना —
अब तो सिर्फ
इतना कहना कि
तेरे हाथों
में छोड़ते हैं,
तू हटा दे
इस पर्दे को।
प्रार्थना
ध्यान का
अंतिम समापन
है। समर्पण
संकल्प की
अंतिम
निष्पत्ति है।
जहां तक कर
सकें, स्वयं
करना। लेकिन
जिस घड़ी ऐसा
लगे कि अब न हो
सकेगा, उस
क्षण
प्रार्थना को
स्मरण कर लेना।
उस क्षण प्रभु
को पुकार लेना।
उस क्षण कहना
कि मैं जहां
तक आ सकता था
अपने कमजोर
कदमों से, आ
गया हूं। अब
बस, अब
मेरे वश के
बाहर है, अब
तू सम्हाल।
इसीलिए
ऋषि ने उस घड़ी
में इस
प्रार्थना को
दोहराया है कि
हे प्रभु, प्रकाश
को तू हटा ले, अपने सत्य
मुख को उघाड़
दे।
कैसा
होगा सत्य? जब
प्रकाश भी हट
जाएगा तो सत्य
कैसा होगा? इसे थोड़ा सा
खयाल में ले
लेना जरूरी है।
कठिन है बहुत,
गहन है बहुत,
लेकिन फिर
भी थोड़ा सा
खयाल में ले
लेना जरूरी है,
वह कभी काम
पड़ सकता है।
कहा
मैंने कि बाहर
प्रकाशित
वस्तुएं हैं
और प्रकाश का
उदगम स्रोत है।
प्रकाश का कोई
अनुभव नहीं
होता बाहर।
भीतर प्रकाश
का अनुभव होता
है, न
उदगम स्रोत रह
जाता है, न
वस्तुएं रह
जाती हैं। फिर
अंततः प्रकाश
भी खो जाता है।
हमारे मन में
खयाल आएगा कि
जब प्रकाश खो
जाएगा तो
अंधेरा हो
जाएगा। हमारा
अनुभव यही है।
हम कहेंगे कि
ऋषि भी कैसी
नासमझी की
प्रार्थना कर
रहा है। अगर
प्रकाश का
पर्दा हट गया
तो फिर अंधेरा
हो जाएगा, फिर
प्रभु के
चेहरे को
देखेगा कैसे?
लेकिन
अंधकार के तो
पार आ गई है
बात। अब
प्रकाश के
हटने से
अंधकार नहीं
होगा। अंधकार
तो छूट चुका
बहुत पीछे।
प्रकाश का
पर्दा आ गया
है। अब प्रकाश
भी हट जाएगा
तो फिर बचेगा
क्या?
संध्या
को जब सूरज
डूब जाता है
और अभी रात
नहीं आई होती, जब
प्रकाश का
स्रोत खो जाता
और अभी अंधेरे
का अवतरण नहीं
हुआ होता, वह
जो बीच का पल
है संध्या का,
वैसा ही पल
है। इसीलिए
प्रार्थना और
संध्या का जोड़
बन गया। इसलिए
धीरे— धीरे
लोग
प्रार्थना को
संध्या कहने
लगे कि संध्या
कर रहे हैं।
और लोगों ने
समझा कि
संध्या कर
लेनी है। जब
सूरज डूबता है
तब संध्या हो
जाती है या जब
सुबह सूरज
नहीं उगा होता
है तब संध्या
होती है।
संध्या की
घड़ियां हो गईं।
मिड
प्याइंट्स!
दिन जा चुका, रात नहीं आई।
रात जा चुकी, दिन आने को
है। वह जो बीच
की छोटी सी
घड़ी है, जो
गैप है, उसको
हम संध्या
कहते हैं।
उसको हमने
पूजा और
प्रार्थना का
क्षण बना लिया।
लेकिन असली
बात दूसरी है।
असली
बात यह है कि
जब अंधकार भी
खो चुका होता
है और जब
प्रकाश भी खो
चुका होता है, तब
संध्या का
क्षण आता है
अंतर—आकाश से।
वहां संध्या आ
जाती है।
अंधेरा भी
नहीं होता, प्रकाश भी
नहीं होता —
आलोक। भाषा—कोश
में जाएंगे तो
आलोक का अर्थ
प्रकाश ही लिखा
हुआ पाएंगे।
वह गलत है।
आलोक का अर्थ
होता है. न
प्रकाश, न
अंधकार, ऐसा
क्षण। भोर में
सूरज नहीं
निकला है, रात
जा रही है, जा
चुकी है। भोर
के क्षण में
वह आलोक का
क्षण है।
उदाहरण
के लिए कह रहा
हूं ताकि आपके
खयाल में आ
जाए। क्योंकि
भीतर के लिए
तो और कोई
खयाल दिलाने का
उपाय नहीं है।
जहां न अंधकार
है, जहां
न प्रकाश है, वहां आलोक
रह जाता है।
और जैसा मैंने
कहा कि बाहर
से भीतर जाते
वक्त वस्तुएं
खो जाती हैं, प्रकाश का
उदगम खो जाता
है, प्रकाश
रह जाता है।
वैसे ही जब
प्रकाश और
अंधकार खो
जाते हैं और
सिर्फ आलोक रह
जाता है तो
जानने वाला और
जानी जाने
वाली चीज
दोनों खो जाते
हैं। द्रष्टा
और दृश्य खो
जाते हैं। फिर
ऐसा नहीं होता
है कि ऋषि खड़ा
है और सत्य को देख
रहा है। फिर
ऋषि सत्य हो
जाता है। फिर
सत्य ऋषि हो
जाता है। फिर
कोई जानने
वाला और जानी
गई चीज, कोई
ज्ञाता और कोई
ज्ञेय, कोई
नोअर और कोई
नोन, ऐसे
दो सूत्र नहीं
रह जाते, वे
दोनों खो जाते
हैं।
आलोक
में अंधकार और
प्रकाश भी खो
जाते हैं और जानने
वाला और जानी
गई चीज भी खो
जाती है। तब
अनुभोक्ता
नहीं रह जाता
और अनुभव नहीं
रह जाता —
अनुभुति रह
जाती है।
कृष्णमूर्ति
अंग्रेजी में
एक शब्द का
उपयोग करते
हैं, एक्सपीरिएसिंग।
एक्सपीरिएंस
नहीं, अनुभव
नहीं।
क्योंकि
अनुभव जहां
होता है, वहां
अनुभोक्ता, अनुभव करने
वाला भी मौजूद
होता है। और
जिस चीज की
अनुभूति होती
है, वह भी
मौजूद होता है।
नहीं, न तो
अनुभव करने
वाला रह जाता
है, न
अनुभव जिसका
हो रहा है, वह
रह जाता है।
अनुभूति ही रह
जाती है।
एक्सपीरिएसिंग
ही रह जाती है।
ऋषि भी खो
जाता है, परमात्मा
भी खो जाता है।
भेद गिर जाते
हैं। प्रेमी
खो जाता है, प्रेम—पात्र
खो जाता है।
भक्त खो जाता
है, भगवान
खो जाता है।
यह परम मुक्ति
का क्षण है।
यहां ऐसा नहीं
है कि हम कुछ
जान लेते हैं,
बल्कि ऐसा
है कि हम पाते
हैं, हम
नहीं हैं। और
हम यह भी पाते
हैं कि कुछ
जानने को भी
नहीं है।
ज्ञान ही रह
जाता है।
इसलिए
महावीर ने जिस
शब्द का उपयोग
किया है वह
बहुत अदभुत है।
महावीर ने कहा
है, केवल—ज्ञान,
ओनली नोइंग —
दि नोअर इज
नाट, दि
नोन इज नाट, बट ओनली
नोइंग। वह
ज्ञाता भी खो
गया, ज्ञेय
भी खो गया, सिर्फ
बचा ज्ञान।
दोनों छोर खो
गए। जैसा सूरज
खो गया, मूल
स्रोत, वस्तुएं
खो गईं जिन पर
प्रकाश पड़ता
था। ऐसे ही
जानने वाला खो
गया, मूल
स्रोत। जो
जाना जाता है
ज्ञेय, वह
खो गया, वस्तु
खो गई। जानना
बचता है। केवल
शान बचता है।
मात्र जानना
बचता है।
इस
जानने की दिशा
में मैंने कहा, पहला कदम
संकल्प का है,
दूसरा कदम
समर्पण का है।
पहला कदम
ध्यान का है, दूसरा कदम
प्रार्थना का
है। और दोनों
कदम जो उठा
लेता है, उसे
फिर जानने को,
पाने को, अनुभव करने
को कुछ भी शेष
नहीं रह जाता।
पूषन्नेकर्षे
यम सूर्य
प्राजापत्य
व्यूह
रश्मीन्समूह।
तेजो
यत्ते रूपं
कल्याणतम
तत्ते
पश्यामि
योध्सावसौ
पुरुष:
सोध्हमस्मि।।
15।।
हे जगत्पोषक
सूर्य! हे
एककिा गमन
करने वाले! हे यम!
हे सूर्य!
हे
प्रजापति—नंदन!
तू अपनी
किरणों को हटा
ले। तेरा जो
अतिशय
कल्याणतम
रूप है, उसे मैं
देखता हू यह
जो
आदित्यमंडलस्थ
पुरुष है, वह मैं
हूं। 15।।
एक
सूर्य है
जिससे हम
परिचित हैं।
लेकिन जिसे हम
सूर्य कहते
हैं वैसे अनंत
सूर्य हैं। और
रात आकाश जब
तारों से भर
जाता है तो
शायद ही हमें
खयाल आता हो
कि जिन्हें हम
तारे कहते हैं
वे सभी सूर्य
हैं। बहुत दूर
हैं, इसलिए
छोटे दिखाई
पड़ते हैं।
हमारा सूर्य
बहुत बड़ा
सूर्य नहीं है।
हमारा सूर्य
सूर्यों के इस
अनंत विस्तार
में बहुत ही
मध्यमवर्गीय
सूर्य है।
उससे बहुत बड़े
सूर्य हैं।
वैज्ञानिक अब
तक जितनी गणना
कर पाते हैं
उससे अंदाज है
कोई चार करोड़
सूर्यों का।
वैज्ञानिक
गणना से।
संतों
की अनुभूति तो
अनंत सूर्यों
की है। लेकिन
इस सूत्र में
जिस सूर्य की
बात कही गई है, वह उस परम
सूर्य की बात
है, जिसे
इन सब सूर्यों
को भी प्रकाश
मिलता है। वह
उस परम सूर्य
की बात है, जो
कि प्रकाश का
आदि—उदगम है।
जहां से कि
समस्त किरणों का
जाल फैलता है।
जहां से कि
समस्त जीवन
आविर्भूत
होता है।
यह
भी खयाल में
ले लें कि
सूर्य किरणों
से जीवन बहुत
अनिवार्य रूप
से बंधा है।
अभी तो
वैज्ञानिक
बहुत चितिंत
होते हैं, क्योंकि
डर लगता है कि
तीन—चार हजार
वर्ष में
हमारा सूर्य
ठंडा हो जाएगा।
उसने काफी
विकीरण कर
दिया, उसका
रेडिएशन चुका।
वह अब एक
बुझता हुआ
सूर्य है, जिसमें
से रोज किरणें
क्षीण होती
चली जाएंगी।
ज्यादा से
ज्यादा चार
हजार वर्ष वह
और प्रकाश
देगा, फिर
एक दिन ठंडी
राख हो जाएगा।
वहां
सूर्य ठंडा हो
जाएगा, तो यहां सब
जीवन शांत हो
जाएगा।
क्योंकि
समस्त जीवन सूर्य
की किरणों पर
ही यात्रा कर
रहा है। चाहे
फूल खिलता हो
और चाहे पक्षी
गीत गाता हो और
चाहे मनुष्य
के प्राण
थिरकते हों, सारा जीवन
सूर्य की किरणों
से बंधा है।
यहां
जिस सूर्य की
बात की जा रही
है, वह
उस महासूर्य
की बात की जा
रही है, जिससे
सब सूर्यों का
जीवन भी बंधा
है। यह
महासूर्य
बाहर की यात्रा
और खोज से कभी भी
मिलने वाला
नहीं है।
जैसा
मैंने सुबह
कहा, एक
प्रगट ब्रह्म
है — ये सारे
सूर्य प्रगट
ब्रह्म हैं —
जिस महासूर्य
ही बात की जा
रही है, वह
अप्रगट
ब्रह्म है। वह
बीज ब्रह्म है।
वह अप्रगट है।
उस अप्रगट से
ही, उस
अप्रगट स्रोत
से ही यह सारा
प्रगट जीवन—विस्तार,
यह सारा
सगुण, यह
साकार, यह
सब फैलता और
निर्मित होता
है।
यहां
ऋषि ने कहा है
कि हे सूर्य, अपनी
किरणों के जाल
को तू सिकोड़
ले।
इस
किरणों के जाल
के सिकोड़ने
में बहुत सी
बात कही गई
हैं। क्योंकि
किरणों के साथ
जीवन का
विस्तार है।
यहां
ऋषि कहता है, मृत्यु
को हम पार कर
आए। हे सूर्य,
तू अपने
जीवन के
विस्तार को भी
सिकोड़ ले।
जैसा
मैंने कहा, अंधकार
हम पार कर आए, अब तू
प्रकाश भी
सिकोड़ ले। इस
सूत्र में ऋषि
कहता है, जीवन
के विस्तार को
भी तू सिकोड़
ले। मृत्यु के
मैं पार हुआ, अब जीवन के
भी पार हो
जाऊं।
असल
में सब द्वैत
के पार होने
की अभीप्सा है।
क्योंकि जहां
तक द्वैत है
वहां तक हम
कुछ भी पा लें, दूसरा
सदा मौजूद है।
हम कितना ही
जीवन पा लें, मौत सदा
मौजूद रहेगी।
वह द्वैत है, वह उसी
सिक्के का
दूसरा पहलू है।
हम ऐसा नहीं
कर सकते कि एक
रुपए के
सिक्के के एक
पहलू को बचा
लें और दूसरे
को फेंक दें।
हम इतना ही कर
सकते हैं कि
एक पहलू को
दबा दें और
दूसरे को ऊपर
कर लें। लेकिन
नीचे दबा हुआ
पहलू
प्रतीक्षा कर
रहा है। मौजूद
है। हाथ में
ही मौजूद है, कहीं गया
नहीं है। ऐसा
आप न कर
सकेंगे कि एक
पहलू फेंक दें
और कहें कि
दूसरे को हम
बचा लें।
हालांकि
जिंदगीभर
आदमी इसी
नासमझी में
पड़ा रहता है।
एक पहलू को
फेंकता है और
एक को बचाता
है। कहता है, दुख से छुड़ा लो
भगवन, सुख
मुझे दे दो।
वह एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। सुख
को बचाता है, दुख उसके
पीछे बच जाता
है। कहता है, सम्मान मुझे
दे दो, अपमान
मुझसे ले लो।
सम्मान को
बचाता है, अपमान
उसके साथ चला
आता है। कहता
है, मृत्यु
मुझे नहीं
चाहिए, मुझे
जीवन चाहिए।
लेकिन जीवन को
मांगा कि
मृत्यु पीछे
खड़ी हो जाती
है।
इस
जगत में जिसने
एक मांगा उसे
दूसरा बिना
मांगे मिल
जाता है। या
तो दोनों को
राजी हो जाओ
या दोनों को
छोड़ने को राजी
हो जाओ। जो
दोनों को राजी
हो जाता है, वह भी
दोनों से
मुक्त हो जाता
है। जो दोनों
को छोड़ने को
राजी हो जाता
है, वह भी
दोनों से
मुक्त हो जाता
है।
क्योंकि
दोनों से राजी
होने का अर्थ
क्या होता है? जो
मृत्यु और
जीवन दोनों से
राजी है, उसे
मृत्यु में
कोई वैराग्य न
रहा और जीवन
में कोई राग न
रहा, मुक्त
हो गया। जो
सुख— दुख
दोनों से राजी
है, उसे
सुख में क्या
सुख रहा और
दुख में क्या
दुख रहा!
दोनों से राजी
होते, दोनों
एक—दूसरे को
काट देते हैं,
निगेट कर
देते हैं।
दोनों से राजी
होते, दोनों
कटकर शून्य हो
जाते हैं।
या
जो दोनों को
छोड़ने को राजी
है, जो
कहता है, दुख
भी छोड़ देता
हूं सुख भी
छोड़ देता हूं।
मन कहता है, दुख को छोड़
दो, सुख को
बचा लो। मन को
तोड़ना हो तो
दो ही उपाय
हैं, या तो
दोनों से राजी
हो जाओ या
दोनों से ना—राजी
हो जाओ। दोनों
स्थितियों
में कट जाती
है — दोनों की
जो पोलेरिटी
है, दोनों
की जो ध्रुवता
है, दोनों
का जो विरोध
है। और दोनों
विरोध एक साथ
हैं, वे एक
ही अस्तित्व
के हिस्से हैं।
इसलिए
ऋषि कहता है, सिकोड़ ले
अपनी सूर्य की
किरणों को, सिकुड़ जाए
उनके साथ ही
सब जीवन।
और
इस महासूर्य
से ही सब कुछ
निकलता है।
इसलिए ऋषि की
आकांक्षा अगर
हम ठीक से
समझें तो ऋषि
की आकांक्षा
यह है कि मैं
उसे देखना चाहता
हूं जहां से
सब निकलता है
या जहां सब
सिकुड़ जाता है।
मैं मूल देखना
चाहता हूं।
मैं वह देखना
चाहता हूं
जहां से सारी
सृष्टि प्रगट
होती है और
जहां सारी
प्रलय लीन
होती है। मैं
उस जगह को
देखना चाहता
हूं जहां से
सब आता और
जहां सब विलीन
हो जाता है।
जहां से जीवन
का यह विराट
फैलाव होता और
जहां से फिर
सब महामृत्यु
सिकोड़ लेगी।
इसलिए सूर्य
को यम भी कहा
है। वह भी
ध्यान देने की
बात है।
यम
तो मृत्यु का
देवता है।
सूर्य तो जीवन
का! लेकिन
ध्यान रहे, जहां से
जीवन आता है, वहीं से
मृत्यु आती है।
मृत्यु कहीं
और से नहीं आ
सकती। जहां से
जीवन आता है, वहीं से
मृत्यु आती है।
क्योंकि
दोनों अलग
नहीं हो सकते।
ऐसा नहीं होता
है कि मृत्यु
कहीं और से आए
और जीवन कहीं
और से आए। अगर
ऐसा होता तो
हम जीवन को बचा
लेते, मृत्यु
को छोड़ देते।
सूर्य को ही
यम भी कहा है।
यम
शब्द और भी
अर्थों में
उपयोगी है।
जिन्होंने
मृत्यु को यम
कहा, बड़े
अदभुत लोग थे।
यम का अर्थ
होता है, नियमन
करने वाला, दि कंट्रोलर।
बड़े मजेदार
लोग थे।
मृत्यु को
जीवन का नियमन
करने वाला कहा
है। अगर मृत्यु
जीवन का नियमन
न करे तो बड़ी
अव्यवस्था
हो जाए, अराजकता हो
जाए। मृत्यु
आकर सब उपद्रव
को शांत करती
चली जाती है।
मृत्यु
विश्राम है।
जैसे दिनभर के
श्रम के बाद
रात आ जाती है
और रात की गोद
में आदमी सो
जाता है
विश्राम में।
कभी
आपने खयाल
किया, दस—पांच
दिन नींद न आए
तो बड़ा अनियमन
हो जाएगा।
चित्त बड़ा
भ्रांत हो
जाएगा।
उद्विग्न हो
जाएगा। अराजक
हो जाएगा। दस
दिन नींद न आए
तो आप
विक्षिप्त हो
जाएंगे। रात
आकर आपकी
विक्षिप्तता
को बचा जाती
है। रात आकर
व्यवस्था दे
जाती है, सुबह
आप फिर ताजे
होकर जागकर खड़े
हो जाते हैं।
गहरे
अर्थों में, विस्तीर्ण
अर्थों में, पूरे जीवन
के उपद्रव के
बाद, पूरे
जीवन की दौड़—
धूप के बाद
मृत्यु रात का
विश्राम है।
वह फिर नियमन
दे देती है।
वह फिर जीवन
के सब शूल, जीवन
की सब चिंताएं,
जीवन के सब
उपद्रव, जीवन
के सब भार छीन
लेती है। फिर
नई सुबह, फिर
नया जीवन!
इसलिए मृत्यु
के देवता को
कहा है यम। वह
जीवन को
नियमित करता
रहता है। वह न
हो तो जीवन
विक्षिप्त हो
जाए। मृत्यु
जीवन की शत्रु
नहीं है। यम
का अर्थ हुआ
कि मृत्यु
जीवन की मित्र
है। और जीवन
पागल हो जाए, अगर मृत्यु
न हो तो। जीवन
विक्षिप्त हो
जाए, अगर
मृत्यु न हो
तो।
इसे
अगर और आयामों
में भी फैलाकर
देखेंगे तो बहुत
हैरान हो
जाएंगे।
क्योंकि
इसमें बड़े
अर्थों के फूल
खिल सकते हैं।
अगर सुख मिल
जाए इतना कि
दुख कभी न
मिले, तो
भी आदमी पागल
हो जाए। यह
बात अजीब
लगेगी। यह बात
समझ में नहीं
पड़ेगी। लेकिन
सुख अगर मिल
जाए अमिश्रित,
जिसमें दुख
बिलकुल न हो, तो सुख
विक्षिप्त कर
जाएगा। इसलिए
बड़े मजे की
बात है कि दीन,
दरिद्र, दुखी
समाजों में
लोग कम पागल
होते हैं।
सुखी, समृद्ध
समाजों में
लोग ज्यादा
पागल होते हैं।
आज जमीन पर
अमरीका सबसे
बड़ा पागलखाना
है। दीन, दरिद्र
से दरिद्र
मुल्क भी इतने
पागल पैदा
नहीं करता, जितना
अमरीका पैदा
कर देता है।
क्या बात होगी?
दुख
का भी अपना
नियमन है। असल
में गुलाब में
जब फूल लगते
हैं, तो
हमें लगता
होगा कि कांटे
बड़े दुश्मन
हैं। लेकिन सब
कांटे फूलों
की सुरक्षा
हैं, नियमन
हैं। जीवन
विरोध के
द्वारा नियमन
करता है। पोलेरिटी
के द्वारा, विपरीत के
द्वारा जीवन
संतुलन करता
है।
कभी
आपने नट को
देखा है रस्सी
पर चलते वक्त? तो एक
बहुत
मेटाफिजिकल
सत्य, एक
बहुत
पारलौकिक
सत्य नट के
रस्सी पर चलते
वक्त दिखाई पड़
सकता है।
लेकिन हम तो
कुछ देखते
नहीं। नट को
तो देखा होगा।
नट जब रस्सी
पर चलता है, तो आपने
खयाल किया कि
पूरे वक्त हाथ
में डंडा लिए
दोनों तरफ
झूलता रहता है।
लेकिन आपने
खयाल न किया
होगा कि जब वह
बाएं झूलता है,
तब क्यों
झूलता है बाएं?
बाएं झूलता
है कि कहीं
दाएं गिर न
जाए। जब दाएं
गिरने को होता
है, तब
बाएं झुकता है।
और जब बाएं
गिरने को होता
है, तब
दाएं झुकता है।
बाएं गिरने का
डर दाएं झुककर
संतुलित कर
लेता है। दाएं
गिरने का डर
बाएं झुककर
संतुलित कर
लेता है।
विपरीत झुकना
पड़ता है
संतुलन के लिए।
जीवन
का संतुलन
होता है
मृत्यु से।
सुख का संतुलन
होता है दुख
से। प्रकाश का
संतुलन होता
है अंधकार से।
चैतन्य का
संतुलन होता
है पदार्थ से।
इसलिए अदभुत
लोग होंगे, मैंने
कहा, जिन्होंने
मृत्यु को यम
कहा। निश्चित
ही मृत्यु के
साथ उनकी कोई
शत्रुता न रही।
उन्होंने
मृत्यु के
सत्य को पहचान
लिया।
उन्होंने कहा
कि हम जानते
हैं कि तू
जीवन का नियमन
करने वाली है,
तू न हो तो
बहुत मुश्किल
हो जाए। थोड़ा
सोचें। दो—चार
सौ साल किसी
घर में ऐसा हो
जाए कि कोई न
मरे, तो उस
घर में से
किसी को
पागलखाने न
भेजना पड़ेगा,
पागलखाने
को उसी घर में
ले आना पड़ेगा।
इधर के विदा
होते हैं, उधर
बच्चे आते हैं।
और नट की तरह
एक संतुलन चल
रहा है। पूरे
समय एक संतुलन
हो रहा है।
तो
कहता है ऋषि, हे
महासूर्य! हे
यम! जीवन को
देने वाले, मृत्यु से
जीवन को
संतुलित करने
वाले! तू अपनी
सब किरणें
सिकोड़ ले। तू
अपने जीवन को
भी सिकोड़ ले, तू अपनी
मृत्यु को भी
सिकोड़ ले। मैं
तो उस तत्व को
जानना चाहता
हूं जो जीवन
और मृत्यु
दोनों के पार
है। जो न कभी
जन्मता और न
कभी मरता है।
मैं तो उस मूल
उदगम को जानना
चाहता हूं या
उस मूल विलय, अंतिम विलय
को। या तो उस
प्रथम क्षण को
जानना चाहता
हूं जब कुछ भी
नहीं था और उस
कुछ भी नहीं
से सब पैदा
हुआ। और या उस
अंतिम, अल्टीमेट
क्षण को जानना
चाहता हूं जब
सब कुछ फिर
लीन हो जाएगा,
कुछ भी नहीं
होगा। उस
शून्य को
जानना चाहता
हूं जिससे
जन्मता है सब,
या उस शून्य
को जानना
चाहता हूं
जिसमें लीन हो
जाता है सब।
तू सिकोड़ ले
अपने सारे जाल
को।
निश्चित
ही, यह
बाहर किसी
सूर्य से की
गई प्रार्थना
नहीं है। यह
तो भीतर उस
जगह पहुंचकर
की गई
प्रार्थना है,
जहां अंतिम,
अंतिम पड़ाव
आ जाता है।
जहां से छलांग
लगती है। जहां
से शून्य में
छलांग लगती है।
जहां से अनादि,
अनंत में
छलांग लगती है।
उस घड़ी की गई
प्रार्थना है —
हे आदित्य, सिकोड़ ले
अपना सब।
बड़े
साहस की जरूरत
है इस प्रार्थना
के लिए। आखिरी
साहस की जरूरत
है। क्योंकि
जहां जीवन और
मृत्यु सिकुड़
जाएंगी और
जहां उस
महासूर्य की
सभी किरणें
सिकुड़ जाएंगी, वहां मैं
बचूंगा? वहां
मैं भी नहीं
बचूंगा।
लेकिन ऋषि की
अभीप्सा यह है
कि मैं बचूं न
बचूं यह सवाल
नहीं है, मैं
तो वह जानना
चाहता हूं जो
सदा ही बच
रहता है। सबके
नष्ट हो जाने
पर भी जो बच
रहता है, उसे
ही मैं जानना
चाहता हूं।
मैं भी नष्ट
हो जाऊंगा, तब जो बच
रहता है, उसे
ही मैं जानना
चाहता हूं।
कहना
चाहिए कि जगत
में अनेक—अनेक
युगों में, अनेक—अनेक
लोगों ने सत्य
की खोज की है।
लेकिन जैसी खोज
इस जमीन के
टुकड़े पर, जैसी
आत्यंतिक, अल्टीमेट
खोज और जैसे
आखिरी साहस का
परिचय इस जमीन
के टुकड़े पर
कुछ लोगों ने
दिया है, वैसा
बहुत मुश्किल
से समानांतर
परिचय कहीं भी
दिया जा सका
है। बहुत खोज
करने पर भी
मैं वैसे लोग
नहीं खोज पाता
हूं जो अपने
को खोकर सत्य
पाने को राजी
हों।
सारे
जगत में सत्य
के खोजी हुए
हैं, लेकिन
एक शर्त बचाकर,
मैं बचा
रहूं और सत्य
को जान लूं।
लेकिन जब तक
मैं बचा
रहूंगा, तब
तक मैं संसार
को ही जानूंगा,
क्योंकि
मैं संसार का
हिस्सा हूं।
और अगर उन
खोजियो से कोई
कहे — अगर कोई
अरस्तु से कहे,
अफलांतू से
कहे या हीगल
या कांट से
कहे — कि तुम
अपने को खोओगे
तभी सत्य को जान
सकोगे, तो
वे कहेंगे, ऐसे सत्य को
जानने की
जरूरत क्या है?
जब हमीं न
बचेंगे तो
सत्य को जानकर
भी क्या करना
है?
न, एक शर्त
के साथ उनकी
खोज है। एक
कंडीशन के साथ,
हम बचें और
सत्य को जान
लें। इसलिए
जितने खोजियो
ने स्वयं को
बचाकर सत्य को
जानने की
कोशिश की है, उन्होंने
सत्य को नहीं
जाना, सत्य
को फेब्रीकेट
किया।
उन्होंने
सत्य को बनाया।
इसलिए हीगल
बड़ी से बड़ी
किताबें लिखे
या कांट बड़े
से बड़े, गहरे
से गहरे
सिद्धांतों
की बात करे।
वह चूंकि मैं
को खोने की
कोई तैयारी
नहीं है, उनके
सिद्धातों की,
उनके बड़े से
बड़े
शास्त्रों की
कोई कीमत, कोई
मूल्य नहीं है।
अगर कांट और
हीगल से पूछें
कि उनका इस
उपनिषद के ऋषि
के बाबत क्या
खयाल है, तो
वे कहेंगे, पागल है!
क्योंकि अपने
को खोकर, अपने
को खोकर सत्य
को पाकर क्या
करना है?
लेकिन
ऋषि की पकड़
गहरी है। वह
कहता है कि
मैं हूं असत्य
का ही हिस्सा, मैं हूं
संसार का ही
हिस्सा। अगर
मैं चाहता हूं
कि बाहर से तो
संसार हट जाए और
सत्य आ जाए और
मेरे भीतर मैं
पूरी तरह मौजूद
रहूं तो मैं
असंभव कामना
कर रहा हूं
इंपासिबल।
संसार जाएगा
तो पूरा जाएगा
— बाहर भी, भीतर
भी। यहां बाहर
पदार्थ खो
जाएगा, यहां
भीतर मैं खो
जाएगा। यहां
बाहर
आकृतियां खो
जाएंगी, यहां
भीतर भी आकार
खो जाएगा।
बाहर भी शून्य
होगा, भीतर
भी शून्य होगा।
इसलिए अगर
सत्य को खोजना
है तो स्वयं
को खोने की
तैयारी
अनिवार्य
शर्त है।
सब
सिकोड़ ले
महासूर्य — सब —
अनकडीशनली, बेशर्त।
जो भी तेरा
फैलाव है, पूरा
तू वापस ले ले।
अपने सारे
विस्तार को
सिकोड़ ले। तू
अपने बीज में
लौट जा, तू
अपने महा अंग
में लौट जा, तू वापस लौट
जा वहां, जहां
कुछ भी नहीं
था। ताकि मैं
उसे जान लूं
जिससे सब आता
है।
यह
अल्टीमेट जंप है, आत्यंतिक
छलांग है। इस
छलांग का साहस
जब कोई जुटाता
है, तब परम
सत्य के साथ
एक हो जाता है।
बिना स्वयं
मिटे परम सत्य
के साथ कोई
एकता संभव
नहीं है।
इसलिए
पश्चिम का
दार्शनिक
खोजता है सत्य
को, तो
उसके सत्य
मानवीय सत्य
से ज्यादा
नहीं हो पाते,
धमन टुप्स।
आदमी की ही
खोजबीन होते
हैं।
एक्सिस्टेंशियल
नहीं, अस्तित्वगत
नहीं, मानवीय।
पूरब का संत
जब खोजने
निकलता है, तो उसके
सत्य मानवीय
नहीं, उसके
सत्य
अस्तित्वगत
हैं, एक्सिस्टेंशियल
हैं। वह अपने
को डुबाकर। वह
कहता है, सागर
को किनारे खड़े
होकर क्या
जानेंगे! हम
तो डूबकर जानेंगे।
पर
डूबने में भी
हम पूरे कहां
डूबते हैं!
सागर अलग रह
जाता है, हम अलग रह
जाते हैं।
तो
ऋषि कहते हैं
कि अगर ऐसा है, तो हम नमक
के पुतले होकर
डूब जाएंगे।
लेकिन हम सागर
को ऐसा
जानेंगे —
सागर होकर। एक
हो जाएंगे
सागर के साथ।
उसके खारेपन
के साथ खारे
हो जाएंगे।
उसके पानी के
साथ पानी हो
जाएंगे। उसकी
लहरों के साथ
लहर बन जाएंगे।
उसकी अनंत
गहराई के साथ
अनंत गहराई हो
जाएंगे। एक हो
जाएंगे उसके
साथ तभी, तभी
जानेंगे।
उसके पहले
जानना नहीं हो
सकता। उसके
पहले
एकेनटेंस हो
सकता है, नालेज
नहीं; उसके
पहले परिचय हो
सकता है, ज्ञान
नहीं। तट के
किनारे खड़े
होकर परिचय हो
सकते हैं।
ज्ञान तो
डूबकर होता है।
इस डूबने की
आकांक्षा इस
सूत्र में है।
आज
के लिए इतना
ही। अब हम
सागर में
डूबने की
तैयारी करें।
दो—तीन
बातें आपसे कह
दूं दो—तीन
बातें खयाल
में ले लें।
एक तो कोई भी
व्यक्ति
देखने के लिए
भीतर न रहे।
अपनी
ईमानदारी से
चुपचाप बाहर
हो जाएं।
देखने वाले
बिलकुल भीतर न
रहें।
दूसरी
बात, नीचे
जो मित्र हैं,
वे सब खड़े
रहेंगे। तो
जिन्हें
तीव्रता से
करना है, वे
नीचे रहेंगे।
जिनको बैठकर
करना है, वे
ऊपर आ जाएंगे।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं