ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
सम्भूतिं
च विनाश च
यस्तद्वेदोभयं
सह।
विनाशेन
मृत्यु
तीर्त्वा
सम्भूत्याध्मृतमश्नुते।।
16।।
जो
असंभूति और
कार्य—ब्रह्म
— इन दोनों को
साथ—साथ जानता
है; वह
कार्य—ब्रह्म
की उपासना से
मृत्यु को पार
करके असंभूति
के
द्वारा
अमरत्व
प्राप्त कर
लेता है।। 16।।
एक
वर्तुल
खींचें हम, एक
सर्किल बनाएं
तो बिना
केंद्र के
नहीं बना सकेंगे।
केंद्र के
चारों ओर
परिधि को
खींचेंगे।
केंद्र से
परिधि जितनी
दूर होती
जाएगी उतनी बड़ी
होती चली
जाएगी। अगर
परिधि पर हम
दो बिंदुओं को
लें तो उनमें
फासला होगा।
अगर दोनों
बिंदुओं से दो
रेखाएं
खींचें, जो
केंद्र को
जोड़ती हों, तो जैसे—जैसे
केंद्र की तरफ
बढ़ेंगे, वैसे—वैसे
फासला कम होता
चला जाएगा।
ठीक केंद्र पर
आकर फासला
समाप्त हो
जाएगा। परिधि
पर कितना ही
फासला रहा हो
दो बिंदुओं के
बीच में, खींची
गई रेखाएं
वहां से
केंद्र की ओर
क्रमश: निकट
आती चली
जाएंगी। और
केंद्र पर आकर
बिलकुल ही
दूरी समाप्त
हो जाएगी।
केंद्र पर एक
हो जाएंगी।
अगर परिधि की
ओर उन रेखाओं
को और आगे
बढ़ाते चले
जाएं, तो
जितनी बड़ी
परिधि होती
चली जाएगी
उतना ही दोनों
रेखाओं के बीच
का फासला बड़ा
होता चला
जाएगा।
ज्यामिति के
इस उदाहरण से
दो—तीन बातें
इस सूत्र को
समझाने के लिए
आपसे कहना
चाहता हूं।
पहली
बात तो यह कि
जिसे असंभूति
ब्रह्म कहा है, वह
केंद्र
ब्रह्म है।
जहां से सारे
जीवन का
विस्तार
निकलता है।
जहां से जीवन
की परिधि
फैलती चली
जाती है, फैलती
चली जाती है।
अभी विगत
पंद्रह
वर्षों की गहन
खोज ने विज्ञान
को एक नई
धारणा दी है —
एक्सपैंडिंग
युनिवर्स की,
फैलते हुए
विश्व की। सदा
से ऐसा समझा
जाता था कि
विश्व जैसा है,
वैसा है।
नया विज्ञान
कहता है, विश्व
उतना ही नहीं
है जितना है, रोज फैल रहा
है, जैसे
कि कोई
गुब्बारे में
हवा भरता चला
जाए।
गुब्बारे में
कोई हवा भरता
चला जाए और
गुब्बारा बड़ा
होता चला जाए।
ऐसा यह जो
विस्तार है
जगत का, यह
उतना ही नहीं
है जितना कल
था। चौबीस
घंटे में यह
करोड़ों—अरबों
मील बड़ा हो
गया है। यह
फैल रहा है।
ये जो तारे
रात हमें दिखाई
पड़ते हैं, ये
एक—दूसरे से
प्रतिपल दूर
जा रहे हैं।
यह
बड़े मजे की
बात है कि
एक्सपैंडिंग
युनिवर्स, फैलता
हुआ विश्व, इसके दो
अर्थ हुए — कि
एक क्षण ऐसा
भी रहा होगा, जब यह विश्व
इतना सिकुड़ा
रहा होगा कि
शून्य केंद्र
पर रहा होगा।
पीछे लौटें।
समय में जितने
पीछे लौटेंगे,
विश्व छोटा
होता जाएगा, सिकुड़ता
जाएगा। एक
क्षण ऐसा जरूर
रहा होगा, जब
यह सारा विश्व
बिंदु पर
सिकुड़ा रहा
होगा। फिर
फैलता चला गया।
आज भी फैल रहा
है। परिधि बड़ी
होती चली जाती
है रोज।
वैज्ञानिक
कहते हैं, हम
कुछ कह नहीं
सकते कि यह कब
तक बड़ी हो
सकती है। यह
अंतहीन
विस्तार है।
यह बड़ी होती
ही चली जाएगी।
एक
दूसरी बात भी
खयाल में ले
लेनी जरूरी है
कि विज्ञान ने
यह शब्द अभी
उपयोग करना
शुरू किया है, एक्सपैंडिंग
युनिवर्स।
लेकिन उपनिषद
जिसे ब्रह्म
कहते हैं, ब्रह्म
का मतलब होता
है, दि
एक्सपैंडिंग।
ब्रह्म शब्द
का ही मतलब वह
होता है।
ब्रह्म का
मतलब
परमात्मा
नहीं होता।
ब्रह्म का
अर्थ होता है,
फैलता हुआ।
ब्रह्म का
अर्थ होता है,
जो फैलता ही
चला जाता है।
ब्रह्म और
विस्तार एक ही
मूल धातु से
निर्मित होते
हैं, एक ही
शब्द के रूप
हैं। ब्रह्म
का मतलब है, जो सदा
विस्तीर्ण
होता चला जाता
है।
विस्तीर्ण है,
ऐसा नहीं; स्थिति में
विस्तीर्ण है,
ऐसा नहीं —
प्रक्रिया
में
विस्तीर्ण है।
जो होता ही
चला जाता है, कास्टेंटली
एक्सपैंडिंग।
ब्रह्म का
मतलब होता है,
निरंतर
विस्तीर्ण
होता हुआ जो
है।
अब
ब्रह्म के दो
अर्थ हुए, वैज्ञानिक
अर्थों में भी।
एक तो ब्रह्म
का वह रूप हुआ,
जिसको
असंभूति कहता
है उपनिषद का
ऋषि। असंभूति
ब्रह्म का
अर्थ है, शून्य
ब्रह्म। जब वह
नहीं फैला था,
उस क्षण की
हम कल्पना
करें, जब
फैलाव का
बिलकुल
प्राथमिक
क्षण, जब
बीज टूटा नहीं
था। बीज के
टूटने के बाद
तो अंकुर
फैलता ही चला
जाएगा — वृक्ष
होगा। जरा
छोटे से बीज
से इतना बड़ा
वृक्ष होगा कि
हजारों
बैलगाड़ियां
उसके नीचे
विश्राम कर
सकेंगी। और
फिर उस वृक्ष
में अनंत बीज
लगेंगे। और
अनंत बीज में
से एक—एक बीज
फिर इतना ही
बड़ा वृक्ष हो
जाएगा। और फिर
एक—एक वृक्ष
में अनंत बीज
लग जाएंगे। और
अनंत बीजों
में से एक—एक
बीज में फिर
इतने ही वृक्ष
और फिर इतने
ही अनंत बीज...!
एक छोटा सा
बीज भी फैलकर
अनंत बीज होता
चला जा रहा है।
असंभूत
ब्रह्म का
अर्थ है
बीजरूप
ब्रह्म, बिंदुरूप
ब्रह्म।
कल्पना ही कर
सकते हैं हम, क्योंकि
बिंदु की
कल्पना ही
होती है। अगर
युक्लिड से
पूछेंगे, जो
कि सबसे बड़ा
जानकार है, तो वह कहेगा,
बिंदु हम
उसे कहते हैं
जिसमें न कोई
चौड़ाई है, न
कोई लंबाई।
ऐसा बिंदु
आपने देखा
नहीं होगा।
डेफिनीशन यही
है, परिभाषा
यही है बिंदु
की, जिसमें
लंबाई और
चौड़ाई न हो। क्योंकि
अगर लंबाई और
चौड़ाई है तो
वह बिंदु नहीं
रहा। वह तो
दूसरी आकृति
हो गई। फैलाव
शुरू हो गया।
जिसमें लंबाई
और चौड़ाई आ गई,
उसमें
फैलाव आ गया।
बिंदु
तो वह है, जो अभी फैला
नहीं, फैलने
को है। इसलिए
युक्लिड कहता
है कि बिंदु की
सिर्फ
व्याख्या हो
सकती है, बिंदु
को खींचा नहीं
जा सकता। छोटे
से छोटे बिंदु
को भी जब आप
पेंसिल की नोक
से कागज पर
रखते हैं, तो
उसमें लंबाई—चौड़ाई
आ गई। बिना
लंबाई—चौड़ाई
के कागज पर
बिंदु बनेगा
नहीं। तो जो
बिंदु दिखाई
पड़ता है, वह
तो विस्तार हो
गया। जो बिंदु
दिखाई नहीं
पड़ता, सिर्फ
परिभाषा में है,
वही बिंदु
है।
असंभूत
ब्रह्म का
अर्थ है —
युक्लिड जिसे
बिंदु कहता है, वही
असंभूत है —
जिसमें अभी
होना शुरू
नहीं हुआ।
जिसमें अभी
भूत प्रकट
नहीं हुआ —
असंभूत। अभी
एक्सिस्टेंस
आया नहीं, पोटेंशियल
है, अभी
छिपा है। अभी
प्रगट होगा, बस होने को
है, लेकिन
अभी बिंदु है,
व्याख्या
का बिंदु है।
इस असंभूत
ब्रह्म की एक
स्थिति हुई।
लेकिन
इसे हम नहीं
जानते। हम तो
सैफ ब्रह्म को
जानते हैं, जो हो गया।
हम तो
वृक्षरूप
ब्रह्म को
जानते हैं, जो हो गया।
और हो ही नहीं
गया, होता
ही चला जा रहा
है। फैलता ही
चला जा रहा है।
हमारा
विश्व रोज बड़ा
हो रहा है —
प्रतिपल। रोज
कहना बहुत
ज्यादा है, क्योंकि
रोज तो बहुत
बड़ा हो जाता
है। प्रतिपल
बड़ा हो रहा है।
सूर्य की
प्रकाश की
किरणों की जो
गति है, उसी
गति से तारे
एक—दूसरे से
दूर हट रहे
हैं, केंद्र
से दूर हट रहे
हैं। सूर्य की
किरणों की गति
है प्रति
सेकेंड एक लाख
छियासी हजार
मील। प्रति
सेकेंड! एक
मिनट में साठ
गुना। एक लाख
छियासी हजार
मील प्रति
सेकेंड! साठ
सेकेंड में, एक मिनट में,
एक लाख
छियासी हजार
मील में साठ
का गुणा कर दें।
फिर एक घंटे
में उसमें भी
साठ का गुणा
कर दें। फिर
चौबीस घंटे
में उसमें
चौबीस का गुणा
कर दें। इतनी
ही गति से
परिधि केंद्र
से दूर जा रही
है। अनंत काल
से इस तरह दूर
जा रही है।
वैज्ञानिक भी
तय नहीं कर
पाते कि समय
के उस क्षण को
हम कैसे तय
करें, जब
यह शुरू हुई
होगी यात्रा।
जब पहला कदम
उठाया होगा
बीज ने वृक्ष
होने का। और
हम यह भी नहीं
कह सकते कि
क्या होगी
अंतिम यात्रा।
विज्ञान
बड़ी कठिनाई
में पड़ गया है।
क्योंकि
एक्सपैंडिंग
युनिवर्स
कन्सीवेबल नहीं
है कि कहां
जाकर रुकेगा
और क्यों
रुकेगा।
रुकने का कोई
कारण क्या है।
क्योंकि
रुकने के लिए
जरूरत है कि
कोई और चीज बाधा
बन जाए।
एक
पत्थर को मैं
फेंकता हूं
हाथ से। अगर
इस पत्थर को
अब कोई बाधा न
मिले तो यह
कहीं भी नहीं
रुकेगा। तो
बाधा मिल जाती
है। एक वृक्ष
से टकरा जाता
है। वृक्ष से
न टकराए तो
जमीन की कशिश
उसे खींच रही
है पूरे वक्त।
जैसे ही मेरे
हाथ की फेंकी
गई ताकत कम
पड़ेगी और जमीन
की ताकत
ज्यादा होगी, वह नीचे
गिर जाएगा।
लेकिन अगर
जमीन में कोई
कशिश न हो, रास्ते
में कोई
व्यवधान न आए
और मैं एक
पत्थर फेंक
दूं एक छोटा
सा बच्चा भी
एक पत्थर फेंक
दे, तो वह
कहीं भी नहीं
रुकेगा।
क्योंकि
रुकने का कोई
कारण होना
चाहिए, कोई
बाधा आनी चाहिए,
तब रुकेगा।
यह
जो हमारा
विश्व फैलता
चला जा रहा है, यह जो
सक्त ब्रह्म
है, यह
कहां रुकेगा 2:
इसको कोई बाधा
आनी चाहिए।
लेकिन बाधा
आएगी कहां से,
क्योंकि
सभी कुछ इसके
भीतर है, इसके
बाहर कुछ भी
नहीं है। अगर
बाहर कुछ है
तो उसका मतलब
है कि वह भी
इसका हिस्सा
हो गया, संभूत
ब्रह्म का
हिस्सा हो गया।
इसलिए बाधा तो
कहीं आएगी
नहीं, यह
रुकेगा कहां?
यह रुकेगा
कैसे? यह
बढ़ता ही चला
जाएगा?
इसलिए
आइंस्टीन और
प्लांक, जो इस पर
काफी काम किए,
इस
एक्सपैंडिंग
विश्व के ऊपर
बड़ी उलझन में
पड़ गए। उनको
आखिर यहीं
इसको रहस्य की
तरह छोड़ देना
पड़ा। रुकने का
कोई कारण
दिखाई नहीं
पड़ता, और न
रुके यह
इनकन्सीवेबल
मालूम पड़ता है
कि फैलता ही
चला जाए। अगर
यह इसी तरह
फैलता चला गया
तो एक दिन
तारे इतने दूर
हो जाएंगे कि
एक तारे से
दूसरा तारा दिखाई
नहीं पड़ेगा।
लेकिन
उपनिषद कुछ और
ढंग से सोचते
हैं, और
उस और ढंग को
समझ लेना
चाहिए। एक दिन,
आज नहीं कल,
वैज्ञानिक
को उस ढंग से
सोचना शुरू
करना पड़ेगा।
लेकिन अब तक
पश्चिम के
विज्ञान को वह
धारणा नहीं है।
न होने का
कारण है। न
होने का कारण
है कि पश्चिम
का पूरा
विज्ञान ग्रीक
फिलासफी से, यूनानी
दर्शन से
विकसित हुआ।
और यूनानी
दर्शन की जो
मूल
मान्यताएं
हैं, उन पर
खड़ा है।
यूनानी दर्शन
की एक मूल
मान्यता यह है
कि समय जो है, वह सीधी
रेखा में गति
करता है। इससे
पश्चिम का
विज्ञान बड़ी
मुश्किल में
पड़ा है।
भारतीय दर्शन
की धारणा बड़ी
भिन्न है।
भारतीय दर्शन
की धारणा है
कि सभी गति
वर्तुलाकार
है, सर्कुलर
है। कोई गति
सीधी रेखा में
नहीं होती।
इसको
समझें। बच्चा
पैदा हुआ। तो
साधारणत: अगर
हम यूनानी
चिंतक से
पूछें, तो बच्चे और
बूढ़े के बीच
में सीधी रेखा
खींची जा सकती
है। भारतीय
दार्शनिक
कहेगा, नहीं।
बच्चे और
बूढ़े के बीच
एक वर्तुल
बनाया जा सकता
है। क्योंकि
बूढ़ा वहीं
पहुंच जाता है
मरते वक्त, जहां से
बच्चे ने शुरू
किया था।
सर्किल।
इसलिए के अगर
बच्चों जैसा
व्यवहार करने
लगते हैं, तो
बहुत ईराक की
बात नहीं है।
सीधी रेखा
नहीं है। बचपन
और बुढापे के
बीच वर्तुल है,
एक गोल घेरा
है। जवानी
वर्तुल का बीच
का हिस्सा है,
उठाव है।
फिर जवानी के
बाद वापस
लौटनी शुरू हो
गई यात्रा।
ऐसा
समझें, जैसे कि
ऋतुएं घूमती
हैं। भारतीय
धारणा समय की
ऋतुओं के
घूमने जैसी है,
मंडलाकार।
फिर वर्षा आती
है, फिर
ग्रीष्म आता
है, फिर
सर्दी आती है,
फिर वर्तुल।
सीधा नहीं है,
एक वर्तुल
है। सुबह होती
है, साझ
होती है। फिर
सुबह आती है, फिर सांझ
होती है। एक
वर्तुल है।
पूर्वी
मनीषी की
धारणा ऐसी है
कि समस्त
गतियां
वर्तुलाकार
हैं। पृथ्वी
भी गोल घूमती
है, ऋतुएं
भी गोल घूमती
हैं, सूर्य
भी गोल घूमता
है, चांद—तारे
भी गोल घूमते
हैं। गति
मात्र वर्तुल
है। कोई गति
सीधी नहीं है।
जीवन भी गोल
घूमता है।
यह
जो
एक्सपैंडिंग
युनिवर्स है, यह वैसे
ही है, जैसे
बच्चा जवान हो
रहा है। लेकिन
अगर बच्चा
जवान ही होता
जाए तो बड़ी
मुश्किल
पड़ेगी। कहां
होगा रुकाव? लेकिन जब तक
बच्चा जवान हो
रहा है, थोडी
ही देर में
वर्तुल डूबना
शुरू हो जाएगा
और जवान का
होने लगेगा।
अगर जन्म
फैलता ही चला
जाए और मृत्यु
के बिंदु पर
वापस लौट न आए,
तो कहां
रुकेगा? इसलिए
भारत का जो
चिंतन है, वह
कहता है कि यह
जो फैलता हुआ
ब्रह्म है, यह फैलकर
बच्चा होगा, जवान होगा, बूढ़ा होगा, वापस असंभूत
ब्रह्म में
गिर जाएगा।
वापस शून्य हो
जाएगा। जहां
से आया है, वहीं
वापस लौट
जाएगा। बड़ा
लंबा वर्तुल
होगा इसका।
हमारे
जीवन का
वर्तुल सत्तर
साल का है।
लेकिन छोटे
वर्तुल के
जीवन भी हैं।
एक पतिंगा
सुबह पैदा
होता है, सांझ वर्तुल
पूरा हो जाता
है। इससे भी
छोटे वर्तुल
हैं। क्षणभर
जीने वाले प्राणी
भी हैं। क्षण
के शुरू में
पैदा होते हैं,
क्षण के बाद
में डूब जाते
हैं। और आप यह
मत सोचना कि
जो क्षणभर
जीता है, वह
सत्तर साल
वाले से कम
जीता है। आप
यह मत सोचना।
क्योंकि
क्षणभर के
वर्तुल में
सत्तर साल में
जो वर्तुल आप
पूरा करते हैं,
वह पूरा हो
जाता है। बचपन
आता है, जवानी
आती है, प्रेम
होता है, बच्चे
पैदा हो जाते
हैं, बुढ़ापा
आ जाता है, मौत
हो जाती है।
क्षणभर के
वर्तुल में भी
इटेंसली
सत्तर साल पूरे
हो जाते हैं।
सत्तर
साल कोई बड़ा
वर्तुल नहीं
है। पृथ्वी
हमारी, वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
चार अरब वर्ष
पहले पैदा हुई।
हमारे पास कोई
पता लगाने का
उपाय नहीं है
कि पृथ्वी अब
किस अवस्था
में होगी।
लेकिन कई
हिसाब से लगता
है कि की होती
है। भोजन कम
पड़ता जाता है,
आदमी
ज्यादा होते
चले जाते हैं।
मौत निकट
मालूम होती है,
सब चीजें
चुकती जाती
हैं। सब चीजें
चुकती जाती
हैं, सब
चीजें चुकती
जाती हैं।
कोयला चुकता
जाता है, पेट्रोल
चुकता जाता है,
भोजन चुकता
जाता है। जमीन
के सब
रासायनिक
द्रव्य चुकते
जाते हैं।
जमीन की होती
है। जल्दी ही
मरेगी। जल्दी
का मतलब हमारे
हिसाब से नहीं,
क्योंकि
जिसको चार अरब
वर्ष लगे हों
बूढ़ा होने में,
उसको मरने
में भी अरब
वर्ष लग जाएं,
आश्चर्य
नहीं। लेकिन
जमीन.. लेकिन
हमें जमीन का
पता नहीं चलता।
क्योंकि हमें
पता नहीं है।
आपके
शरीर में, एक—एक
शरीर में
अंदाजन सात
करोड़ जीवाणु
हैं। उन
जीवाणुओं को
आपका कोई पता
नहीं कि आप भी
हैं। आपके
शरीर में सात
करोड़ जीवाणु
हैं। एक आदमी
के शरीर में
सात करोड़ जीव—जीवन
हैं। उनको कोई
पता नहीं कि
आप भी हैं। वे
पैदा होंगे, जवान होंगे,
बूढ़े होंगे,
बच्चे छोड़
जाएंगे, मर
जाएंगे, उनकी
कब्र बन जाएगी
आपके भीतर।
आपको उनका पता
नहीं चलेगा।
उनको तो आपका
बिलकुल पता
नहीं है। आप
सत्तर साल
जीएंगे, इस
बीच आपके भीतर
करोड़ों जीवन
पैदा होंगे और
विदा हो जाएंगे।
ठीक
ऐसे ही पृथ्वी
को हमारा कोई
पता नहीं है, हमें
पृथ्वी के
जीवन का कोई
पता नहीं है।
अरबों वर्ष का
उसका जीवन—वर्तुल
है। पृथ्वी का
चार—पांच अरब
वर्ष का जीवन—
वर्तुल है।
पूरे ब्रह्म
का, ब्रह्मांड
का, संभूत
ब्रह्म का, कितने
वर्षों का है,
कहना कठिन
है। लेकिन एक
बात तय है कि
इस जगत में
नियम का कोई भी
उल्लंघन नहीं
है। देर—अबेर
नियम पूरा
होता है।
इसलिए
उपनिषद के ऋषि
कहते हैं, इस सूत्र
में कहा है, दो हिस्से
कर लें ब्रह्म
के —
संभूत, जो
है; असंभूत,
जिससे हुआ
है और जिसमें
लीन हो जाएगा।
बिंदु ब्रह्म
और विस्तीर्ण
ब्रह्म।
विस्तीर्ण
ब्रह्म को जो
जान लेता है, वह मृत्यु
को पार करता
है। बिंदु
ब्रह्म को जो
जान लेता है, वह अमृत को
उपलब्ध होता
है। क्योंकि
विस्तीर्ण
ब्रह्म जो है,
वह मृत्यु
का घेरा है।
मृत्यु घटेगी
ही। वर्तुल को
पूरा होना
पड़ेगा। जन्म
हुआ है, मृत्यु
होगी। क्यों
ऋषि कहता है
कि वह मृत्यु
को जीत लेता है?
मृत्यु
को जीतने का
क्या अर्थ है? क्या ऋषि
मरते नहीं? सब ऋषि मर
जाते हैं। सब
ज्ञानी मर
जाते हैं।
निश्चित ही, मृत्यु को
जीतने का अर्थ
न मरना नहीं
है। जिस ऋषि
ने यह गाया है
कि संभूत
ब्रह्म को जो
जान लेता है, वह मृत्यु
को जीत लेता
है, वह भी
अब नहीं है, मर चुका है।
तो या तो उसने
बिना जाने कह
दिया और गलत
कह दिया। और
अगर ठीक कहा, तो मरना
नहीं था उसे।
नहीं, लेकिन
मृत्यु को जीत
लेने का अर्थ
और है। मृत्यु
को जीतने का
अर्थ है कि जो
व्यक्ति यह
जान लेता है, गहरे में
अनुभव कर लेता
है कि जन्म के
साथ मृत्यु
जुड़ी ही है, अनिवार्य है;
जो यह जान
लेता है कि
जन्म पहली
शुरुआत है वर्तुल
का, मृत्यु
अंत है; जो
इस बात को
इतनी
प्रगाढ़ता से
जान लेता है
कि मृत्यु
अनिवार्यता
है, नियति
है, वह
मृत्यु के भय
से मुक्त हो
जाता है।
अनिवार्य से
क्या भय? जिससे
निवारण न हो
सकता है, उसका
भय कैसा? जो
होगा ही, जो
होना ही है, उसकी चिंता
भी क्या? चिंता
तो उसकी होती
है, जिसमें
परिवर्तन हो
सके। चिंता
सिर्फ उसी की
होती है, जिसमें
परिवर्तन हो
सके।
इसलिए
मजे की बात है
कि पश्चिम में
जितनी मृत्यु
की चिंता है, उतनी
पूरब में कभी
नहीं थी। जब
कि पश्चिम को
ऐसा लगता है
कि मृत्यु को
जीतने के उपाय
उसके पास हैं
और पूरब को
कभी नहीं लगा
कि ऐसे जीतने
के कोई उपाय
हैं। कारण है।
अगर ऐसा लगे
कि मृत्यु को
बदला जा सकता
है, तो
चिंता पैदा
होगी। जो भी
चीज बदली जा
सकती है, चिंता
आएगी। जो नहीं
बदली जा सकती,
तो चिंता का
कोई उपाय नहीं।
चिंता करिएगा
क्या? चिंता
किसलिए? अगर
मृत्यु
सुनिश्चित है,
अगर जन्म के
साथ ही तय हो
गई, तो अब
चिंता का क्या
कारण?
युद्ध
के मैदान पर
सिपाही जाते
हैं, तो
जब तक युद्ध
के मैदान पर
नहीं पहुंचते,
तब तक भयभीत
और पीड़ित और
चिंतित होते
हैं। जैसे ही
युद्ध के
मैदान पर
पहुंचते हैं,
दिन दो दिन
के भीतर सब
चिंता मिट
जाती है। कायर
से कायर सैनिक
भी युद्ध के
मैदान पर पहुंचकर
बहादुर हो
जाता है। क्या
कारण होगा न:
मनोवैज्ञानिक
बहुत चिंतन
करते रहे कि
बात क्या है g: यह आदमी
इतना भयभीत था
कि रात इसे
नींद नहीं आती
थी, डर था
कि इसको कल
युद्ध के
मैदान पर जाना
है। पागल हुआ
जाता था, कंपता
था। यही आदमी
युद्ध के
मैदान पर आकर
लगता था कि भाग
खड़ा होगा। यही
आदमी युद्ध के
मैदान पर आकर
मजे से सोता
है रात को।
बात क्या हो
गई?
जब
तक आया नहीं
था युद्ध के
मैदान पर, तब तक ऐसा
लगता था कि
बचाव हो सकता
है। कोई
रास्ता निकल
सकता है।
परिवर्तन हो
सकता है। कोई
और भेजा जा
सकता है, मैं
रोका जा सकता
हूं। लेकिन जब
युद्ध के
मैदान पर ही आ
गया और बम गिरने
लगे सिर के
ऊपर, तो
बात समाप्त हो
गई। अब कोई
उपाय न रहा।
जब उपाय न रहा,
तो चिंता न
रही। जब
परिवर्तन की
संभावना न रही,
तो
परिवर्तन की
आकांक्षा न
रही।
परिवर्तन की
आकांक्षा
चिंता पैदा कर
जाती है।
जब
ऋषि कहता है
कि सद्य
ब्रह्म को
जानकर ज्ञानी
मृत्यु को जीत
लेता है, तो उसका मतलब
यह है कि फिर
मृत्यु उसे
भयभीत नहीं
करती। मृत्यु
बिलकुल उसके
बगल में भी
आकर खड़ी हो जाए,
तो भयभीत
नहीं करती।
पाणिनि
के संबंध में
एक छोटी सी
मीठी कथा है।
पाणिनि उन
ऋषियों में से
एक, जिसने
इस सूत्र को
पूरा किया है।
अपने
विद्यार्थियों
को बिठाकर
पाणिनि व्याकरण
पढ़ा रहा है।
जंगल है, एक
सिंह दहाड़ता
हुआ आ जाता है।
पाणिनि कहता
है, सुनो
सिंह की दहाड़
और इस दहाड़ का
क्या व्याकरण—रूप
होगा वह समझो।
सिंह दहाड़ रहा
है बगल में
खड़े होकर, और
किसी को भी खा
जाए! बच्चे
कैप रहे हैं।
और पाणिनि
सिंह की दहाड़
की क्या
व्याकरण—व्यवस्था
होगी, वह
समझा रहा है।
कहते हैं, पाणिनि
के ऊपर सिंह
ने हमला कर
दिया, तब
भी वह व्याकरण
समझा रहा है।
पाणिनि को
सिंह खा गया, तब भी वह —
सिंह मनुष्य
को खाता है, तो इसका
भाषागत रूप
क्या है, इसकी
व्याकरण क्या
है — वह समझा
रहा है।
नहीं, पाणिनि
भी भागकर बचाव
तो कर ही सकता
था — ऐसा हमें
लगता है, कि
कुछ उपाय किया
जा सकता था।
लेकिन पाणिनि
जैसे लोगों की
समझ यह है कि
आज मरे कि कल, मरना जब
सुनिश्चित है,
तो आज और कल
से क्या फर्क
पड़ता है! समय
के व्यवधान से
कोई फर्क पड़ता
है? जब मृत्यु
होनी ही है, तो आज होगी
कि कल होगी कि
परसों होगी, उसकी
स्वीकृति है।
इस स्वीकृति
में विजय है।
दिस
एक्सेप्टबिलिटी,
यह स्वीकार
कि हम जन्म के
साथ ही मृत्यु
को स्वीकार कर
लिए हैं।
फैलाव के साथ
ही सिकुड़ने को
स्वीकार कर
लिए हैं। फैले
हैं, उसी
दिन जाना कि
सिकुड़ जाएंगे।
जन्मे हैं, उसी दिन
जाना कि विदा
हो जाएंगे।
प्रगट हुए हैं,
उसी दिन
जाना कि
अप्रगट हो
जाएंगे।
वर्तुल पूरा
होकर रहेगा।
ऐसी स्वीकृति
मृत्यु से
मुक्ति है।
फिर मरना कैसा?
मरने वाला
तो पार हो गया।
उसे तो कोई
जन्म का मोह न
रहा और मृत्यु
का कोई भय न
रहा। वह तो
पार हो गया।
ध्यान
रहे, हमारे
जीवन में
मृत्यु और
जन्म दो छोर
हैं। जीवन के
बाहर हैं।
जन्म हमारा
जीवन के बाहर
है, क्योंकि
जन्म के पहले
हम नहीं थे।
मृत्यु हमारे
जीवन के बाहर
है, क्योंकि
मृत्यु के बाद
हम नहीं होंगे।
ये बाउंड्री
लाइंस हैं, सीमांत हैं।
लेकिन
जो जानता है, उसके लिए
ये सीमांत
नहीं हैं, मृत्यु
और जन्म जीवन
के बीच में
घटी दो घटनाएं
हैं। क्योंकि
वह कहता है कि
जन्म किसका? मैं पहले था,
तभी तो मैं
जन्म सका, नहीं
तो मैं जन्मता
कैसे? मैं
अप्रगट था, तभी तो मैं
प्रगट हो सका,
अन्यथा मैं
प्रगट कैसे
होता? बीज
में अगर वृक्ष
नहीं छिपा था,
तो कोई उपाय
नहीं था कि वह
पैदा हो जाए।
और मैं मर
सकूंगा तभी, क्योंकि मैं
हूं नहीं तो
मृत्यु किसकी
होगी? जन्म
के पहले मैं
था, तो
जन्म हो सका।
मृत्यु के बाद
भी मैं रहूंगा,
तो ही
मृत्यु हो
सकती है, नहीं
तो मृत्यु
होगी किसकी? जो जानता है,
उसके लिए
मृत्यु अंत
नहीं है, जीवन
के बीच घटी एक
घटना है। जन्म
भी जीवन के
बीच घटी एक
घटना है, प्रारंभ
नहीं है। जीवन
वर्तुल के
बाहर है।
लेकिन वह जीवन
असंभूत है। वह
अप्रगट है, अनभिव्यक्त
है, अनएक्सप्रेस्त,
अनमेनीफेस्ट
है। वह असंभूत
जीवन संभूत
बनता है जन्म
से, फिर
असंभूत बन
जाता है
मृत्यु से। जो
जान लेता है
सद्य जगत की
इस व्यवस्था
को — ध्यान रहे,
इस
व्यवस्था को
जो जान लेता
है — वह
फिर व्यवस्था
से पीड़ित नहीं
होता।
एक
मकान के भीतर
आप हैं। आप
जानते हैं कि
यह दीवार है
और यह दरवाजा
है। तो फिर आप
दीवार से सिर
नहीं टकराते।
फिर आप दीवार
से निकलने की
कोशिश नहीं
करते। निकलना
होता है, दरवाजे से
निकल जाते हैं।
लेकिन फिर
इसके लिए
बैठकर रोते
नहीं कि दीवार
दरवाजा क्यों
नहीं है।
लेकिन जिसे
दरवाजे का पता
नहीं है, वह
बेचारा दीवार
से सिर
टकराएगा और
बहुत बार चिल्लाएगा
कि दीवार
दरवाजा क्यों
नहीं है!
दरवाजे का पता
न हो तो।
दरवाजे का पता
हो, तो
दीवार दीवार
है, दरवाजा
दरवाजा है।
दीवार से
निकलने की आप
कोशिश नहीं
करते, दरवाजे
से निकलने की
कोशिश करते
हैं।
व्यवस्था
को पूरा जो
जान लेता है, वह
व्यवस्था से
मुक्त हो जाता
है। जो
व्यवस्था को
अधूरा जानता
है, वह
संघर्ष में
पड़ा रह जाता
है। जानते हुए
कि जन्म है, तो मृत्यु
है। यह जानना
इतना—इतना साफ
है और इतना
चरम है, इतना
अल्टीमेट है,
इसमें अब
फर्क का कोई
उपाय नहीं।
इसी का नाम
नियति है — संभूत
की नियति, संभूत
के बीच भाग्य।
लेकिन
भाग्य से हमने
बड़े गलत अर्थ
लिए हैं। असल
में हम गलत
आदमी हैं, इसलिए हम
सब चीजों के
गलत अर्थ ले
लेते हैं।
अर्थ सही और
गलत हो जाते
हैं, गलत
और सही
आदमियों के
साथ।
भाग्य
का अर्थ अगर
निराशा बन जाए, तो आप
समझे नहीं।
हाथ पर हाथ
रखकर बैठ जाए
आदमी भाग्य को
समझकर, तो
आप समझे नहीं।
भाग्य का अर्थ
परम आशावान है।
बड़ी मुश्किल
मालूम पड़ेगी
बात। भाग्य का
मतलब ही यह है
कि अब दुख का
कोई कारण ही न
रहा। अब तो
निराशा की कोई
जगह ही न रही।
मृत्यु है, और है।
इसमें दुख
कहां है? इसमें
पीड़ा कहां है?
दुख और पीड़ा
तो वहीं थे, जब स्वीकार
न था। तो
निराशा कहां
है?
बुद्ध
कहते हैं कि
जो बना है, वह
बिखरेगा। जो
मिला है, वह
छूटेगा। मिलन
के क्षण में
जानना कि विदा
मौजूद हो गई है।
हम उदास हो
जाएंगे।
प्रेमी से
मिले, उसी
क्षण खयाल आ
गया कि यह तो
विदा का क्षण
उपस्थित हो
गया। अब थोड़ी
देर में विदा
होगी। हमारा
मिलन भी नष्ट
हो जाएगा।
मिलन में जो
थोड़ी—बहुत सुख
की भ्रांति
पैदा होती है,
वह भी गई।
क्योंकि
विदाई दिखाई
पड़ने लगी।
जन्म हुआ, बैंड—बाजे
बजे, उसी
वक्त किसी ने
कहा कि मौत
निश्चित हो गई।
मरेगा यह
बच्चा। हम
कहेंगे, ऐसे
अपशकुन की
बातें मत बोलो।
इससे बड़ा मन
उदास होता है।
इससे चित्त को
बड़ा धक्का
लगता है।
लेकिन
बुद्ध जब कहते
हैं कि मिलन
में विदा उपस्थित
हो गई, तो
वे मिलन के
सुख को नहीं
काट रहे हैं, केवल विदा
के दुख को काट
रहे हैं।
इसमें फर्क
समझ लेना।
नासमझ मिलन के
सुख को काट
डालेगा, समझदार
विदा के दुख
को काट डालेगा।
क्योंकि जब
मिलन में ही
विदा उपस्थित
है, तो
विदा का दुख
कैसा? वह
तो मिलन चाहा
था, उसी
दिन विदा भी
चाह ली थी। जब
जन्म में ही
मौत उपस्थित
है, तो
मृत्यु का दुख
कैसा? वह
तो जिस दिन
जन्म चाहा था,
उसी दिन मौत
भी मिल गई थी।
नासमझ जन्म के
सुख को काट
देगा, समझदार
मृत्यु के दुख
को काट देगा।
संभूत
ब्रह्म को, विस्तीर्ण
ब्रह्म को, प्रगट
ब्रह्म को
जानकर
व्यक्ति
मृत्यु के पार
हो जाता है।
मृत्यु के, दुख के, पीड़ा
के, संताप
के, सबके
पार हो जाता
है। ध्यान रहे,
दुख, पीड़ा,
संताप, चिंता,
सब मृत्यु
की छायाएं हैं
— शैडोज आफ डेथ।
जो व्यक्ति
मृत्यु से
मुक्त हो गया,
उसके लिए न
कोई दुख है, न कोई चिंता
है, न कोई
पीड़ा है।
कभी
आपने ठीक से
खयाल नहीं
किया होगा कि
जब भी आप
चिंतित होते
हैं, तो
किसी न किसी
कोने में मौत
खड़ी होती है।
उसी वजह से
चिंतित होते
हैं। एक आदमी
के घर में आग
लग गई, वह
चिंतित होता
है। एक आदमी
का दिवाला
निकल गया, वह
चिंतित है।
क्यों? क्योंकि
दिवाला
निकलने से
जीवन अब कष्ट
में पड़ेगा और
मौत आसान हो
जाएगी। मकान
जल जाने से अब
जीवन
असुरक्षित हो
जाएगा और मौत
सुगमता पाएगी।
अंधेरे में
अकेला खड़ा
आदमी चिंतित
होता है, क्योंकि
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता और
मौत अगर आ जाए
तो अभी दिखाई
भी नहीं पड़ेगी।
जहां—जहां
आप चिंतित
होते हों, फौरन
पहचानना, आसपास
कहीं मौत को
खड़ा हुआ
पाएंगे। मौत
की छाया है
चिंता। जहां—जहां
दुख? और
पीड़ा मन को
पकड़ते हों, फौरन समझ
लेना कि कहीं
सद्य ब्रह्म
के संबंध में
नासमझी हो रही
है। अनिवार्य
को आप निवार्य
मान रहे हैं।
बस, वहीं
से दुख शुरू
हो रहा है। जो
होना ही है, उसके बाबत
भी आप आशा किए
जा रहे हैं कि
शायद न हो।
वहीं से चिंता
शुरू होती है।
वहीं संताप और
एंग्विश पैदा
होता है।
नहीं, जो होना ही
है, अगर
वही हो रहा है,
वही होता है,
अन्यथा का
कोई उपाय नहीं
है — तब इस
स्वीकृति के
साथ, इस
तथाता के साथ,
सद्य
ब्रह्म की इस
व्यवस्था की
स्वीकृति के साथ,
तथाता के
साथ, भीतर
सब शांत हो
जाता है।
अशांति का
उपाय नहीं रह
जाता।
इसलिए
कहा है ऋषि ने, सद्य
ब्रह्म को
जानकर मृत्यु
से मुक्ति हो
जाती है।
लेकिन
यह आधी बात है, यह आधा
सूत्र है। अभी
एक और जानने
को छूट गया है,
जो और गहन
है। हम तो
इसको ही नहीं
जान पाते, इसी
से उलझकर
परेशान हो
जाते हैं।
अज्ञान में
नाहक दीवारों
से सिर फोड़ते
रहते हैं।
जहां दरवाजा
नहीं है, वहां
नाहक टकराते
रहते हैं। ताश
के घर बनाते
रहते हैं, पानी
पर रेखाएं
खींचते रहते
हैं और उनके
मिटने को
देखकर रोते
रहते हैं। जिस
क्षण पानी पर
रेखा खींचें,
उसी दिन जान
लेना, उसी
क्षण जान लेना
कि पानी पर
खींची गई रेखा
खींचते ही
मिटना शुरू हो
जाती है। इधर
आपने खींची नहीं,
उधर वह
मिटने लगी।
पानी पर रेखा
खींचिएगा और
स्थायी करने
की कोशिश
करिएगा, तो
इसमें कसूर
पानी का है कि
रेखा का कि
आपका? इसमें
दोष किसको
दीजिए, पानी
को, रेखा
को! जो आदमी
पानी को दोष
देगा, रेखा
को दोष देगा, वह दुखी
होगा। जो
समझेगा अपनी
नासमझी, हंसेगा।
जान लेगा कि
पानी पर खींची
गई रेखा मिटती
है। मिटनी ही
चाहिए। खिंच
जाए तो ही
झंझट है।
संभूत
ब्रह्म को ही
हम नहीं समझ
पाते, असंभूत
को तो कैसे
समझ पाएंगे।
प्रगट जो है
बिलकुल, सामने
जो खड़ा है.. मौत
से ज्यादा
प्रगट कोई चीज
है? धोखा
दिए जाते हैं
अपने
को, डिसेपान
दिए जाते हैं।
कोई दूसरा
मरता है, तो
बेचारा मर गया।
खयाल ही नहीं
आता कि अपने
मरने की खबर
आई है।
एक
पंक्ति मुझे
याद आती है एक
अतल कवि की।
कोई मर जाता
है गांव में
तो चर्च की
घंटी बजती है।
उस पंक्ति में
कहा है — किसी
को भेजो मत
पूछने कि घंटी
किसके लिए बजती
है। इट टाल्स
फार दी।
तुम्हारे लिए
ही बजती है।
पूछो मत जानने
को किसी को कि
चर्च की घंटी
किसके लिए
बजती है।
तुम्हारे लिए
ही बजती है।
बिना पूछे ही
जानो कि
तुम्हारे लिए
ही बजती है।
मौत
जैसा प्रगट
तत्व ऐसा हम
छिपाकर चलते
हैं कि अगर
कोई मंगल ग्रह
का यात्री
हमारे बीच उतरे
और दो—चार दिन
हमारे घर में
रहे, तो
दो चीजों का
उसको पता नहीं
चलेगा। दो
चीजों का, दोनों
जुड़ी हैं।
खयाल में ले
लें। उसे पता
नहीं चलेगा कि
मौत होती है।
उसे पता नहीं
चलेगा कि
सेक्स होता है।
दो चीजों का
उसको पता नहीं
चलेगा। सेक्स
को भी हम
छिपाए हैं।
मौत को भी हम
छिपाए हैं।
ध्यान रखें, सेक्स जन्म
का सूत्र है।
वह संभूत
ब्रह्म का
पहला चरण है।
और मौत आखिरी
सूत्र है, वह
आखिरी चरण है।
मृत्यु
के भय की वजह
से ही सेक्स
का दमन शुरू हुआ।
वह पहला सूत्र
है। अगर मौत
को दबाना है, तो जन्म
की प्रक्रिया
को भी भुला
देना होगा। क्योंकि
जन्म के साथ
मौत जुड़ी हुई
है। इसलिए
जन्म हम
अंधेरे में
छिपा देते हैं।
जन्म की
प्रक्रिया को
पर्दों में
डाल देते हैं।
और मौत को हम
गांव के बाहर
निकाल देते
हैं।
कब्रिस्तान
बना देते हैं
दूर — जो मौत से
बहुत ज्यादा
भयभीत है, उसकी
वजह से। कब्र
पर फूल बो
देते हैं कि
कोई निकले भी
कब्र के पास
से भूल—चूक से,
तो फूल
दिखाई पड़े, कब्र दिखाई
न पड़े। लाश को
ले जाते हैं, तो फूलों
में ढांक लेते
हैं। वह मरा
हुआ दिखाई न
पड़े, खिला
हुआ दिखाई पड़े।
कितने
ही फूलों में
ढांकों, लेकिन जो मर
गया, वह मर
गया। और कितनी
ही खूबसूरत
कब्रें बनाओ
और कब्रों पर
कितने ही
मजबूत पत्थर
लगाओ और उन पर
नाम लिखो, जब
कब्र के भीतर
जो पड़ा है आज
वह न बच सका, तो पत्थरों
पर लिखे हुए
नाम कितनी देर
बचेंगे? और
कब्रों को
कितना ही गांव
के बाहर सरकाओ,
मौत गांव
में ही घटती
रहेगी, कब्रिस्तान
में नहीं
घटेगी।
इधर
हम सेक्स को
दबाते हैं, छिपाते
हैं, क्योंकि
वह जन्म है।
उसको भी दबाने
और छिपाने के
पीछे अचेतन
कारण हैं।
कारण यही है
कि वह पहला
सूत्र है। अगर
उसको उघाड़कर
रखा तो मौत भी
उघड़ जाएगी।
वह भी बच नहीं
सकती ज्यादा
देर।
इसलिए
बड़े मजे की
बात है कि जिन
समाजों में
सेक्स
सप्रेशन
समाप्त हुआ है, जिन
समाजों में, जहां—जहां
समाज ने सेक्स
को मुक्त कर
दिया, प्रगट
कर दिया, वहां—वहां
मौत की चिंता
बढ़ गई है। जिन
समाजों ने
सेक्स को
बिलकुल ही दबा
दिया, भुला
दिया, जैसे
है ही नहीं...।
मैंने
सुना है, यहूदी बच्चा
एक दिन अपने
घर लौटा है।
स्कूल में
समझकर आया है
कि बच्चों का
जन्म कैसे
होता है। नए
ज्ञान से बहुत
आह्लादित है।
किसी को बताने
को उत्सुक है।
घर आकर उसने
अपनी मां को
पूछा कि मेरा
जन्म कैसे हुआ?
उसकी मां ने
कहा कि
परमात्मा ने
तुझे भेजा।
मेरे पिताजी
का जन्म कैसे
हुआ? उनको
भी परमात्मा
ने भेजा। उनके
पिताजी का
जन्म कैसे हुआ?
मां थोड़ी
हैरान हुई, उसने कहा कि
उनको भी
परमात्मा ने
भेजा। वह
पूछता ही चला
गया, और
उनके पिता? सात पीढ़ियां
आ गईं। मां ने
कहा, उत्तर
एक ही है। तो
उस लड़के ने
कहा कि इसका
क्या मतलब
होता है? हाट
डज़ दिस मीन? सेक्स हैज़
नाट
एक्सिस्टेड
इन फेमिली फार
सेवेन जेनरेशंस!
सात पीढ़ियों
से सेक्स
हमारे घर में
है ही नहीं!
क्योंकि मैं
तो स्कूल में
पढ़कर आ रहा
हूं कि बच्चे
ऐसे पैदा होते
हैं।
नहीं, बहुत
अचेतन भय है
सेक्स को
दबाने का। वह
जन्म का पहला
सूत्र है। अगर
उसको उघाड़ा और
प्रगट किया.।
जब तक बच्चों
को पता नहीं
है कि कैसे
पैदा होता है
आदमी, तब
तक वे यही
पूछते चले
जाते हैं, कैसे
पैदा होता है?
जिस दिन पता
चल जाएगा, कैसे
पैदा होता है,
वे पूछेंगे,
मरता कैसे
है? ध्यान
रहे, जिस
दिन पता चल
गया कि पैदा
ऐसे होता है, वे पूछेंगे
कि मरता कैसे
है? पैदा
होने वाले
सूत्र को ही
छिपाए चले जाओ,
वे उसी के
आसपास घूमते
रहेंगे और
पूछते रहेंगे,
और कभी मौका
नहीं आएगा कि
पूछें कि मरता
कैसे है? अभी
यही पता नहीं
चला कि पैदा
कैसे होता है,
तो मरने का
सवाल ही नहीं
उठता।
ध्यान
रहे, पैदा
होने का सूत्र
साफ हो तो
दूसरा सवाल
मौत के सिवाय
दूसरा नहीं हो
सकता। इसलिए
दबा दिया काम
को, छिपा
दिया। उधर
कब्र को, उधर
मृत्यु को
छिपा दिया। उन
दोनों के बीच
हम जीते हैं
अंधेरे में।
निश्चित ही, बहुत भयभीत
जीते हैं। न
जन्म का पता, न मौत का पता,
भय तो होगा
ही।
संभूत
ब्रह्म, जो इतना
प्रगट है, इतना
साफ है, उसको
भी हम झुठलाते
हैं। तो
असंभूत, जो
अप्रगट है, छिपा है, अनभिव्यक्त
है, उसका
तो कहना ही
क्या। वहां तक
तो हम
पहुंचेंगे
कैसे g:
जन्म
और मृत्यु को
ठीक से जान
लें। एक ही
चीज के दो छोर
हैं। एक ही
वर्तुल का
प्रारंभ है
जन्म, उसी
वर्तुल का अंत
है मृत्यु।
मृत्यु उसी
जगह पहुंचकर
होती है, जहां
से जन्म होता
है। मृत्यु की
घटना और जन्म
की घटना एक ही
घटना है। क्या
होता है जन्म
में? शरीर
निर्मित होता
है। पुरुष और
स्त्री के
अणुओं से एक
नया कंपोजिट बाडी
निर्मित होता
है। आधे—आधे
तत्व दोनों के
पास हैं।
इसीलिए
स्त्री—पुरुष
का इतना तीव्र
आकर्षण है।
आधे—आधे हैं, इसलिए
इतना आकर्षण
है। दोनों के
बीच आधा—आधा
तत्व है। आधा
इधर आधा उधर, इसलिए वे
आधे तत्व
दोनों खिंचते
हैं। पूरा
होना चाहते
हैं। इसलिए
इतनी कशिश है।
इतना आकर्षण
है। इसलिए सब
विधि—विधान, सब नियम, सब
सिद्धांत, सब
शिक्षकों को
छोड्कर बच्चे
पैदा होते चले
जाते हैं। सब
ब्रह्मचर्य
की शिक्षाएं
देने वाले लोग
आते हैं और
चले जाते हैं,
कोई परिणाम
दिखाई नहीं
पड़ता। आकर्षण
इतना गहरा है
कि सब
शिक्षाएं ऊपर
ही रह जाती
हैं। आकर्षण
एक ही चीज के
आधे—आधे
तत्वों का है।
जैसे हमने एक
चीज को दो
टुकड़ों में
तोड़ दिया हो
और वह वापस
मिलना चाहती
हो। मिलते ही
नया शरीर
निर्मित हो
जाता है। आधे
अणु स्त्री
देती है, आधे
अणु पुरुष
देता है।
जन्म
का मतलब है, पुरुष और
स्त्री के आधे—आधे
अणुओं से
मिलकर पूरे
शरीर का
निर्माण।
जैसे ही यह
शरीर निर्मित
होता है, एक
आत्मा उसमें
प्रवेश कर
जाती है। जिस
आत्मा की
आकांक्षाएं
उस शरीर से
पूरी होती हैं,
वह आत्मा
प्रवेश कर
जाती है। यह
प्रवेश वैसा
ही सहज, स्वचालित
है, जैसे
कि यहां पानी
गिरता है और
गड्डे में
प्रवेश कर
जाता है। उतना
ही नियमित है।
अपने अनुकूल
गर्भ को आत्मा
खोजकर प्रवेश
कर जाती है।
मृत्यु
में क्या होता
है? वे
जो आधे—आधे
तत्व मिले थे,
वापस
बिखरने लगते
हैं और टूटने
लगते हैं। कुछ
और नहीं होता।
वे जो आधे—आधे
अणु मिलकर
शरीर कंपोजिट
हुआ था, वे
फिर टूटने
लगते हैं, फिर
बिखरने लगते
हैं। भीतरखे
जोड़ फिर शिथिल
होने लगता है।
बुढ़ापे का
अर्थ है, जोड़
शिथिल हो गया।
भीतर की जो
कंपोजिट बाडी
थी, वह
डिकपोज होने
लगी। जो जुड़ा
था, वह फिर
बिखरने लगा।
उसके
बिखरने का
सूत्र जन्म के
दिन ही तय हो
गया।
ज्योतिषी के
ढंग से नहीं, वैज्ञानिक
के ढंग से तय
हो गया। असल
में जब भी दो
स्त्री और
पुरुष के अणु
मिलते हैं, उनके मिलते
ही समय... अभी
हमारा ज्ञान
कम है वितान
का, लेकिन
बढ़ता जा रहा
है। आज नहीं
कल, बच्चे
के जन्म के
साथ ही हम कह
सकेंगे कि
इसकी बिल्ट इन
प्रोसेस
कितने दिन चल
सकती है। यह
सत्तर साल चल
सकता है कि
अस्सी साल चल
सकता है कि सौ
साल चल सकता
है। ठीक वैसे
ही, जैसे
हम एक घड़ी को
गारंटी देते
हैं कि दस साल
चल सकती है।
क्योंकि इसके
कल—पुर्जों की
परख कहती है
कि यह दस साल
तक के संघर्ष
को झेल लेगी — हवा के,
ताप के, गति
के। दस साल के
संघर्ष को
झेलकर बिखर
जाएगी।
जिस
दिन बच्चा
पैदा होता है, उस दिन
दोनों के अणु
मिलकर यह तय
कर देते हैं —
उसी दिन — कि यह
कितने दिन तक
हवा—पानी, गर्मी—वर्षा,
धूप—दुख, पीड़ा—संघर्ष,
मिलन— विरह,
मित्रता—शत्रुता,
आशा—निराशा,
रात—दिन, इन सबको
कितने दिन झेल
सकेगा? और
झेलते—झेलते,
झेलते—झेलते,
झेलते—झेलते
बिखरने लगेगा।
और वह दिन कब आ
जाएगा, जब
ये जो मिले थे
अणु, वे
बिखरकर अलग हो
जाएंगे। उनके
अलग होते से
ही आत्मा को
शरीर को छोड़
देना पड़ेगा।
मृत्यु
और यौन, सेक्स और
डेथ एक ही चीज
के दो छोर हैं।
यौन जिसे
मिलाता है, मृत्यु उसे
बिखरा देती है।
यौन जिसे
संयुक्त करता
है, मृत्यु
उसे वियुक्त
कर देती है।
यौन अगर
सिंथेटिक है,
तो मृत्यु
एनालिटिक है।
यौन
संश्लिष्ट
करता है, मृत्यु
विश्लिष्ट कर
देती है। घटना
एक ही है।
घटना में कोई
फर्क नहीं है।
यह
संभूत ब्रह्म
को जो ठीक से
जान ले, वह इसकी
स्वीकृति को
उपलब्ध होता
है — स्वीकृति
को। स्वीकृति
विजय है। जिस
चीज को आपने
स्वीकार कर
लिया, उसके
आप मालिक हो
गए। अगर आपने
गुलामी को भी
स्वीकार कर
लिया, तो
आप मालिक हो
गए, गुलाम
न रहे।
अगर
मेरे हाथ में
आप जंजीरें
डाल दें और
मैं राजी से
डलवा लूं। और
आप मुझे जाकर
कारागृह में
बंद कर दें और
मैं नाचता हुआ
बंद हो जाऊं।
और क्षणभर को
भी मेरे मन
में यह कभी
खयाल न उठे कि
बाहर भी हो
सकता था, जानूं कि जो
हो सकता था, वह हुआ है।
तो आप मुझे
गुलाम बनाने
में समर्थ
नहीं हुए। आप
हार गए। मालिक
हूं मैं अब भी।
उलटे आप मेरे
गुलाम हो
जाएंगे।
क्योंकि ताला—चाबी
भी रखनी पड़ेगी,
दरवाजे पर
पहरा भी देना
पड़ेगा, सारा
इंतजाम करना
पड़ेगा! और मैं
अगर स्वीकार कर
सकता हूं ताला—चाबी
को और सामने
खड़े दरवाजे पर
पहरेदार को कि
ठीक है, नियति
है, तो मैं
अपना गीत गा
सकता हूं भीतर।
और आप बंदूक
लिए खड़े हुए
गंभीर बने रह
सकते हैं।
गुलामी
भी अगर पूर्ण
स्वीकृत हो
जाए तो
मालकियत है और
मालकियत भी
अगर पूरी
स्वीकृत न हो
तो गुलामी है।
असल में पूर्ण
स्वीकृति
मुक्ति है।
किसी भी तथ्य
की पूर्ण
स्वीकृति
मुक्ति है।
संभूत
ब्रह्म को
जानकर
व्यक्ति
पूर्ण स्वीकार
को उपलब्ध
होता है।
दूसरी
बात भी खयाल
में ले लें।
खयाल के लायक
नहीं है दूसरी
बात। खयाल में
लेने से आएगी
भी नहीं। पहली
बात खयाल में
आ जाए तो
पर्याप्त।
दूसरी बात तो
और गहन अनुभव
की है। असंभूत
ब्रह्म को
जानने के लिए
या तो जन्म के पहले
जाना पड़े या
मृत्यु के बाद
जाना पड़े।
उसके
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए झेन
फकीर जापान
में, जब
कोई साधक उनके
पास जाता है, तो उससे वे
कहते हैं कि
तू जा और
ध्यान कर और
पता लगा कि
जन्म के पहले
तेरा चेहरा
कैसा था 2: जन्म
के पहले तेरा
चेहरा कैसा था,
इस पर ध्यान
कर — हाट इज योर
ओरिजनल फेस!
ओरिजनल
— यह नहीं जो
अभी है, यह नहीं जो
कल था, यह
नहीं जो परसों
था। ओरिजनल —
जो जन्म के
पहले था, जो
तेरा चेहरा है,
वह बता।
क्योंकि यह
चेहरा तो तेरे
मां—बाप से
मिला है, तेरा
नहीं है। यह
चेहरा तो तेरे
मां—बाप से
मिला है, तेरा
नहीं है। यह आंख
का रंग तेरे
मां—बाप से
मिला है, तेरा
नहीं है। यह
नाक—नक्शा
तेरे मां—बाप
से मिला है, तेरा नहीं
है। यह चमड़ी
का रंग तेरे
मां—बाप से
मिला है, तेरा
नहीं है। अगर
नीग्रो मां—
बाप होते, तो
यह काला हो
जाता। अगर
अंग्रेज मां—बाप
होते, तो
यह भूरा हो
जाता। यह
पिगमेंट, जो
शरीर के रंग
का है, यह
तो तेरे मां—बाप
से मिला है।
तेरा रंग नहीं
है। अपना रंग
क्या है तेरा,
उसका पता
लगा! अपने
चेहरे की
फिक्र कर, यह
तो मां—बाप का
दिया हुआ
चेहरा है। दिए
हुए चेहरे छीन
लिए जाएंगे।
यह मुखौटे से
ज्यादा नहीं
है। सत्तर साल
चलता है, इसलिए
हम सोचते हैं,
चेहरा है!
एक
आदमी के चेहरे
पर अगर एक
फिक्स चेहरा, लगा दिया
जाए मुखौटा और
नट—कील इस तरह
कस दिए जाएं
कि इस जिंदगी
में न छूट सके,
थोड़े दिन
में वह अपना
चेहरा समझने
लगेगा।
क्योंकि जब भी
आईने के सामने
जाएगा, वही
दिखाई पड़ेगा।
एक
आदमी ने
अमरीका में एक
बहुत अनूठा
प्रयोग किया
है अभी।
प्रयोग उसने
यह किया कि — वह
एक अमरीकन
युवक लेखक —
उसने यह
प्रयोग किया
कि मैं
वैज्ञानिक
प्रक्रिया से
नीग्रो हो
जाऊं।
वैज्ञानिक
प्रक्रिया से
चमड़ी को काला
करवा लूं। और
फिर अमरीका
में जीकर
देखूं कि
नीग्रो पर क्या
गुजरती है।
क्योंकि
नीग्रो पर
क्या गुजरती
है, यह
सफेद चमड़ी के
आदमी को कभी
ठीक पता नहीं
चल सकता।
क्योंकि बिना
नीग्रो हुए
कैसे पता चल
सकता है! और जो
भी पता चलेगा,
वह सफेद
चमड़ी वाले का
अनुभव है, नीग्रो
का अनुभव नहीं।
बड़ी
हिम्मत का
प्रयोग था।
पहले तो
वैज्ञानिकों
ने इनकार किया।
क्योंकि
खतरनाक भी था।
पर वह आदमी
मानने को राजी
नहीं था और
उसने धीरे—
धीरे तीन
वैज्ञानिकों
को राजी कर
लिया। छह
महीने की लंबी
प्रक्रिया, इंजेक्यांस
और शरीर में
नए पिगमेंट्स
डालकर उसकी
चमड़ी नीग्रो
की हो गई।
चमड़ी काली हो
गई। बाल
घुंघराले
कृत्रिम रूप
से तैयार कर
दिए गए।
उस
आदमी ने लिखा
है अपने
संस्मरण में
कि जब पहली
बार
वैज्ञानिकों
ने कहा कि
प्रक्रिया पूरी
हो गई, अब
तुम अपने
प्रयोग पर
निकल सकते हो,
तो मैं
बाथरूम में
गया, अपना
चेहरा तो
देखूं! लेकिन
मेरी हिम्मत
बिजली के बटन
को दबाने की न
हुई। पता नहीं
क्या दिखाई
पड़ेगा! बड़े
डरते हुए बिजली
का बटन दबाया।
सोचा था पहले
कि रंग ही बदल
जाएगा, मैं
तो मैं ही
रहूंगा।
लेकिन जब आईने
में देखा तो
रंग ही नहीं
बदला था, मैं
भी बदल गया था।
समझ में ही
नहीं पड़ा कि
यह क्या हो
गया है, यह
कौन आदमी खड़ा
है। सब कुछ और
था। सोचा था
कि इस भांति
नीग्रो होकर
छह महीने नीग्रो
के बीच रहकर
जान लूंगा कि
नीग्रो कैसा
अनुभव करते
हैं। हालांकि
मैं तो नीग्रो
नहीं हूं सो
नीग्रो नहीं
रहूंगा।
लेकिन
संस्मरण में
लिखा है कि
चार—छह दिन
नीग्रो के बीच
रहकर मैं यह
भूलने लगा कि
मैं अतल हूं
अमरीकन हूं।
मैं गोरा हूं
यह मैं भूलने
लगा। रोज सुबह—सांझ
आईने में वही
तस्वीर अपनी दिखाई
पड़ने लगी।
फोटो
निकलवाकर
देखे। नीग्रो
ऐसे व्यवहार
करने लगे, जैसे मैं
नीग्रो हूं।
रास्ते पर जो
सदा नमस्कार
करते थे सफेद
चमड़ी के लोग, वे ऐसे निकल
जाने लगे कि
जैसे कोई पास
से निकला ही न
हो। एक दिन
सुबह जाकर
द्वार पर खड़ा
हुआ अपनी पत्नी
के, तो
पत्नी ने देखा
और नहीं देखा।
नीग्रो
को कोई देखता
है? नौकर
द्वार पर खड़ा
हो जाए, भंगी
आकर द्वार पर
खड़ा हो जाए, सच में आप
देखते हैं? कौन देखता
है? दिखाई
पड़ जाता है, देखता कोई
नहीं है। जिस
अंग्रेज जूते
बनाने वाले और
जूते पर पालिश
करने वाले से
वह सदा जूते
पर पालिश
करवाता था, जब जाकर
उसकी टिकटी पर
उसने अपना
जूता रखा तो उस
आदमी ने ऊपर
देखा और कहा
कि होश है? पैर
नीचे हटाओ!
उसने
लिखा है कि तब
मुझे ऐसा नहीं
लगा कि मैं सफेद
चमड़ी का आदमी, असली में
सफेद आदमी हूं
तो हंसूं। यह
नीग्रो के साथ
व्यवहार हो
रहा है। तब
मुझे लगा, मेरे
साथ व्यवहार
हो रहा है। और
मुझे वही पीड़ा
हुई। छह महीने
की निरंतर
प्रक्रिया के
बाद — क्योंकि
छह महीने में
पिगमेंट खराब
हो जाएगा और
चमड़ी वापस
सफेद होनी
शुरू हो जाएगी
— छह महीने की
प्रक्रिया के
बाद, उसने
लिखा है कि अब
जब मैं याद
करता हूं वे
छह महीने तो
मुझे ऐसा नहीं
लगता कि वे
मैंने जीए।
ऐसा लगता है, कोई एक
स्वप्न देखा।
वह अलग ही
आदमी था, मैं
अलग ही आदमी
हूं। क्योंकि
चेहरों से ही
तो हमारे जोड
होते हैं।
लेकिन
यह चेहरा आपका
नहीं है। न वह
चेहरा उसका था, छह महीने
के लिए...।
लेकिन मजा यह
है कि वह
सोचता है कि
वह छह महीने के
लिए जो चेहरा
था वह उसका नहीं
था, उसके
पहले जो चेहरा
था वह उसका था
और उसके बाद जो
चेहरा है वह
उसका है। वह
भी उसका नहीं
है।
वह
छह महीने के
लिए
वैज्ञानिक से
मिला था चेहरा।
यह सत्तर साल
के लिए मां—बाप
से मिला है
चेहरा। लेकिन
यह अपना नहीं
है। यह खुद का
चेहरा नहीं है।
खुद का चेहरा
तो जन्म के
पहले मिल सकता
है या मौत के
बाद मिल सकता
है। जन्म के
पहले लौटना
बहुत मुश्किल
है।
असंभूत
ब्रह्म को
जन्म के पहले
जानना बहुत मुश्किल
है। पहले तो
मैंने कहा कि
असक्त ब्रह्म
को संभूत ब्रह्म
के मुकाबले
जानना बहुत मुश्किल
है। अब मैं
आपसे कहता हूं
दो उपाय हैं, या तो
जन्म के पहले
रिग्रेस कर
जाएं। ध्यान
में इतने पीछे
चले जाएं
उतरकर कि जन्म
के पहले पहुंच
जाएं, तो
असंभूत
ब्रह्म का
अनुभव हो।
दूसरा उपाय यह
है कि ध्यान
में इतने आगे
बढ़ जाएं कि मर
जाएं और मौत
के आगे निकल
जाएं, तो
असंभूत
ब्रह्म का
अनुभव हो जाए।
इन दोनों में
मरने का
प्रयोग आसान
है। क्योंकि
वह भविष्य है।
पीछे
लौटना असंभव
है, आगे
ही जाना संभव
है। आगे ही
छलांग ली जा
सकती है। पीछे
लौटना बड़ा
मुश्किल है, बड़ा मुश्किल
है। बचपन के
वस्त्र पहनने
बहुत मुश्किल
हैं। गर्भ में
वापस लौटना
बहुत अति कठिन
है, क्योंकि
बहुत संकरा
होता जाता है
मार्ग। लेकिन
ढीले वस्त्र —
मौत के ढीले
वस्त्र पहनने
बहुत आसान हैं।
मार्ग
विस्तीर्ण
होता चला जाता
है। ध्यान रहे,
जन्म का
द्वार बहुत
छोटा है, मृत्यु
का द्वार बहुत
बड़ा है।
मृत्यु आसान
है। जन्म भी
संभव है, जन्म
के पार भी
जाना संभव है।
उसकी भी
प्रक्रियाएं
हैं, उसके
भी मार्ग हैं,
लेकिन अति
कठिन हैं।
मैं
जिस ध्यान की
बात कर रहा
हूं वह मृत्यु
का प्रयोग है।
वह मृत्यु में
छलांग है।
अपने हाथ से
मरकर देखना है।
अपने हाथ से
मरकर देखना है।
अपने हाथ से
मरे जैसे हो
जाना है। अगर
घटना घट जाए
और जानते हुए
आप मृत्यु में
उतर जाएं; ऐसे हो
जाएं जैसे
नहीं हैं, तो
असंभूत
ब्रह्म का
चेहरा दिखाई
पड़ेगा। तो
उसका चेहरा
दिखाई पड़ेगा,
जो जन्म के
पहले है और
मृत्यु के बाद
है। वह एक ही
चेहरा है, प्रक्रिया
भले दो हो
जाएं।
क्योंकि
बिंदु वह एक
ही है। आप
चाहे पीछे
लौटकर उस
बिंदु को
देखें, या
आगे जाकर उस
बिंदु को
देखें। लेकिन
सरल है आगे
जाना।
इसलिए
मेरा आग्रह
मृत्यु पर है।
तो मैं यह
नहीं कहता कि
आप लौटकर
देखें, जन्म के
पहले क्या
चेहरा था। मैं
कहता हूं जरा
आगे बढ़कर झांककर
देखें कि
मृत्यु के बाद
क्या चेहरा
होगा। मृत्यु —
स्वेच्छा से,
स्वीकृत —
ध्यान बन जाती
है। और अगर
कोई व्यक्ति
इस मृत्यु को
सिर्फ थोड़े ही
क्षणों में न
जीना चाहे, बल्कि पूरे
जीवन में जीना
चाहे तो
संन्यास बन जाती
है।
संन्यास
का अर्थ है, जीते—जी
इस तरह से जीना,
जैसे मर गए।
संन्यास
का अर्थ है, जीते—जी
इस भांति जीना,
जैसे मर गए।
एक झेन
फकीर हुआ है —
बोकोजू।
संन्यास लिया
उसने। गांव से
गुजरता था, किसी आदमी
ने गालियां
दीं। उसने खड़े
होकर सुनीं।
पास की दुकान
के मालिक ने
उससे कहा, क्या
खड़े होकर सुन
रहे हो! वह गालियां
दे रहा है।
बोकोजू ने कहा,
बट नाउ आई
एम डेड, लेकिन
मैं मरा हुआ
आदमी हूं। अब
मैं जवाब कैसे
दूं! उस आदमी
ने कहा, मरे
हुए आदमी? पूरी
तरह जीते हुए
दिखाई पड़ रहे
हो! तो बोकोजू ने
कहा कि जब मर
ही जाऊंगा, फिर मरने
में मेरा क्या
गुण होगा? जीते—जी
मर रहा हूं इसमें
कुछ मेरा गुण
है। जब मर ही
जाऊंगा, तब
तो मरूंगा ही।
तब तो मरूंगा
ही, तब तो
सभी मरते हैं,
मैं जीते—जी
मर गया हूं।
उस
होटल के मालिक
ने कहा कि हम
कुछ समझे नहीं।
तो बोकोजू ने
कहा कि जन्म
तो अनजाने में
हो गया, अब मृत्यु
में जानकर
गुजरना चाहता
हूं। जन्म तो अनजाने
में हो गया, अब कोई उपाय
नहीं है।
लेकिन अभी
मृत्यु आगे है,
मैं जानकर
गुजरना चाहता
हूं। जन्म के
वक्त तो चूक
गया एक मौका, जब कि उसे
जान सकता था, जो जन्म के
पहले था। वह
चूक गया। ए
अपर्चुनिटी
हैज बीन मिस्ट।
एक अवसर और है —
वह है मृत्यु।
लेकिन
ध्यान रहे, अगर
मृत्यु अचानक
आएगी, जैसा
कि जन्म आया
था, तो
उसको भी चूक
जाएंगे।
लेकिन अगर
आपने तैयारी
करके मृत्यु
को दरवाजा
दिया, आप
तैयार रहे, मरते गए, मरते
रहे...।
संन्यास
का मतलब ही
यही है : मरना
अपनी तरफ से, स्वेच्छा
से — वालंटरी
डेथ। मरते
जाना, ऐसे
होते जाना
जैसे मर ही गए।
जब कोई गाली
दे, तो
जानना कि मैं
मर गया हूं।
जब आप मर
जाएंगे और
आपकी कब्र पर
खड़े होकर कोई गाली
देगा, तब
आप क्या
करेंगे? वही
करना। जब आप
मर जाएंगे और
आपकी खोपड़ी
कहीं पड़ी होगी
और कोई लात
मारेगा, तो
जो उस वक्त
करें, वही
अभी भी करना।
संन्यास का
अर्थ यही है।
तो
हम असंभूत
ब्रह्म में
उतर जाएंगे, और नहीं
तो मौत का
अवसर भी चूक
जाएगा। और ऐसा
नहीं कि एक
दफे, कई
दफे चूक चुका
है। जन्म का
कई दफा चूका
है। इस बार तो
चूका ही है, इसके पहले
जन्म का अनेक
बार चूका है
और मृत्यु का
अनेक बार चूका
है। हम कोई नए
नहीं हैं मरने
और जीने में, पुराने
अभ्यासी हैं।
बहुत बार जन्म
ले चुके, बहुत
बार मर चुके —
आदतन है, एडिक्टेड
है। यह ढंग हो
गया है हमारा।
पर यह ढंग आगे
भी चलाना है, नहीं चलाना
है, यह
निर्णय लेना
चाहिए। अभी एक
अवसर आगे आ
रहा है मौत का।
उस अवसर के
लिए तैयारी
करते जाना चाहिए,
तो असंभूत
में प्रवेश हो
जाएगा। जो
असंभूत में
प्रवेश करता
है, ऋषि
कहता है, वह
अमृत को जान
लेता है। जो
संभूत को
जानता है, वह
मृत्यु को जीत
लेता है। जो
असंभूत में
प्रवेश करता
है, वह
अमृत को जान
लेता है।
ध्यान
रहे, मृत्यु
में प्रवेश
करके ही अमृत
जाना जाता है।
क्योंकि जब आप
मृत्यु में
पूरी तरह
प्रवेश कर
जाते हैं, सब
भांति मर जाते
हैं और फिर भी
पाते हैं कि
नहीं मरे, तो
अमृत की
उपलब्धि हो गई।
जब कोई गाली
देता है और आप
मुर्दे की
भांति होते
हैं और फिर भी
जानते हैं कि
मैं हूं और
गाली का उत्तर
नहीं आता; और
जब कोई आपका
हाथ काट दे या
गर्दन काट दे,
और गर्दन
कटती हो और तब
भी आप जानते
हैं कि गर्दन
कट रही है, फिर
भी मैं हूं तो
अमृत का द्वार
खुल गया।
मृत्यु से जो
बचेगा, अमृत
से वंचित रह
जाएगा। मृत्यु
में जो उतरेगा,
वह अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है।
असंभूत
ब्रह्म को
जानकर अमृत की
उपलब्धि है, क्योंकि
असंभूत अमृत
है। वह जन्म
के पहले है और
मृत्यु के बाद
है, इसलिए
अमृत है। न वह
कभी जन्मता है,
इसलिए उसके
मरने का कोई
उपाय नहीं है।
हम भी वही हैं।
शरीर ही
जन्मता है, वही कंपोजिट
होता है, मां—बाप
से वही मिलता
है। हम बहुत
पहले से आते
हैं। जब शरीर
नहीं था, तब
भी हम थे। पर
शरीर में
प्रवेश करते
ही शरीर से
तादात्मय बन
जाता है। फिर
शरीर में
तादात्म्य बन
जाता है, तो
शरीर मरता है
तो लगता है, मैं मर रहा
हूं। और जब
अचानक मौत
आएगी —
और मौत अचानक
आती है। मौत
आपको खबर देकर
नहीं आती है।
खबर देकर आए
तो आप बहुत
मुसीबत में पड़
जाएं, उसकी
बड़ी करुणा है
इसलिए। खबर
देकर मौत आए
तो आप बड़ी
मुसीबत में पड़
जाएं, इसलिए
बड़ी
करुणापूर्ण
व्यवस्था है
कि बिना खबर
दिए आती है।
सोचें, चौबीस
घंटे पहले
आपको मौत बता
जाए कि आती
हूं चौबीस
घंटे बाद। तो
मौत में तो जो होगा
सो होगा, इस
चौबीस घंटे
में जो होगा
उसका हिसाब
लगाना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन मौत की
करुणा महंगी
पड़ती है। खबर
देकर आ जाए तो
पीड़ा तो होगी
लेकिन शायद मौत
को जानते हुए
गुजरना हो जाए।
अगर चौबीस
घंटे पहले मौत
खबर दे दे कि
आती हूं तो
तकलीफ तो भारी
होगी। करुणा है
उसकी कि नहीं
खबर देती आपको।
लेकिन अगर खबर
दे दे तो पीड़ा
तो भारी होगी
और चौबीस घंटे
में न मालूम
कितने नर्क से
गुजरना हो
जाएगा। एक—एक
पल बीतना
मुश्किल हो
जाएगा। बिना
धड़कते हुए
हृदय के जीना
पड़ेगा, चौबीस
घंटे। नाड़ी खो
जाएगी, बुद्धि
खो जाएगी — ऐसे
वैसे भी बहुत
ज्यादा है
नहीं। लेकिन
शायद — शायद
कहता हूं —
जानते हुए
गुजरना हो जाए।
शायद इसलिए
कहता हूं
क्योंकि बहुत
संभावना यह है
कि चौबीस घंटे
पहले पता चल
जाए तो आप
चौबीस घंटे
पहले बेहोश हो
जाएंगे। होश
में नहीं
रहेंगे, बेहोश
हो जाएंगे।
चौबीस घंटे
बेहोशी में, कोमा में
पड़े रहेंगे, और मरेंगे।
शायद इसीलिए
कोई सार्थकता
नहीं है कि
मृत्यु की खबर
पहले मिल जाए
तो कुछ फायदा
हो सके।
संन्यास
अपने ही हाथ
से मृत्यु की
खबर को अपने
को दे देना है।
कह देना है कि
बस, जो
चर्च में घंटी
बज रही है, मेरे
लिए ही बज रही
है। वह जो
रास्ते पर जो
लाश गुजर रही
है, वह
मेरी गुजर रही
है। वह जो
मरघट में आदमी
जल रहा है, वह
मैं जल रहा, मैं ही जल
रहा हूं। इसकी
खबर दे देनी
है।
इसीलिए
तो संन्यासी
का सिर घुटा
देते थे, जैसा मुर्दे
का घुटा देते
हैं। पहले तो
संन्यास की जो
प्रक्रिया और
दीक्षा थी, उसमें आदमी
का सिर घुटाकर,
घर के लोग
वैसे ही रो— धो
लेते थे, जैसे
मरता है आदमी
तब रो— धो लेते
हैं। हालांकि
अभी भी आप
संन्यास लोगे
तो थोड़ा रोना—
धोना घर के
लोग करेंगे, वह आपके
मरने की वजह
से कर रहे हैं
कि यह आदमी अब
मरने का
निर्णय कर रहा
है। उनको रो—
धो लेने देना।
क्योंकि मरते
वक्त तो आप
कोई बचाव न कर
सकेंगे उनके
रोने— धोने का।
हालांकि अभी
का रोना— धोना
दिन दो दिन
में चला जाएगा,
क्योंकि वे
जानेंगे कि
भला यह आदमी
मरने का निर्णय
लिया हो, लेकिन
जिंदा है। दो
दिन में निपट
जाएगा, वे
पार हो जाएंगे।
और अच्छा है
कि अपने जानते
ही, अपने
सामने ही अपनी
मृत्यु की
पीड़ा से भी
उनको गुजार
देना।
क्योंकि कल जब
मैं मरूंगा और
वे मृत्यु की
पीड़ा से
गुजरेंगे, तब
मैं कुछ
सहानुभूति
प्रकट करने को, सांत्वना? भी नहीं
रहूंगा।
दीक्षा
देते थे
संन्यासी को
तो चिता पर
चढ़ाते थे। तो
बहुत सरल दिन
थे वे। बहुत
भोले, इनोसेंट
लोग थे। चिता
पर चढ़ा देते
थे, नीचे
आग लगा देते
थे। और गुरु
चिल्लाता था
कि तुम मर गए —
स्मरण करो कि
तुम मर गए, अब
तुम वही नहीं
हो, जो तुम
कल तक थे। फिर
जलती हुई चिता
से उस आदमी को
उठाकर उसे नया
नाम दे देते
थे, ताकि
वह पुराना नाम
गया, वह
पुराना आदमी
गया। पर वे
बहुत सरल दिन
थे। इस छोटी
सी प्रक्रिया
से, इस
छोटे से मंत्र
से, चिता
पर चढ़ाने से, आदमी मान
लेता था कि मर
गया, दूसरा
आदमी हो गया।
आज
इतनी सरलता
नहीं है। आज
यदि चिता पर
भी आपको चढ़ा
दें, तो
भी आप चिता से
वही उतर आएंगे,
जो चढ़े थे।
आपका सिर भी
घुटा दें, तो
आप फोटो
उतारकर उसी
अलबम में लगा
देंगे, जिसमें
बिना सिर घुटी
लगी है।
कंटीन्यूटी
जारी रहेगी।
आदमी
ज्यादा चालाक
हुआ है। इसलिए
संन्यास कठिन
हुआ है। लेकिन
संन्यास के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है असंभूत
ब्रह्म को
जानने का।
सक्त ब्रह्म
तो संसारी भी
जान सकता है, लेकिन
असंभूत
ब्रह्म सिर्फ
संन्यासी ही
जान सकता है।
आज
के लिए इतना
ही। रात हम
बात करेंगे।
अब
हम चलें
असंभूत की
यात्रा पर —
मरें!
thank you guruji
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