(ओशो)
(‘कहै
कबीर दीवाना’, एवं ‘मेरा
मुझमें कुछ
नहीं’ का
संयुक्त
संस्करण। दिनांक 11-05-1975 से 20-05-1975 तक पूना महाराष्ट्रर)
कबीर
अपने को खुद
कहते है: कहे
कबीर दीवाना।
एक—‘एक
शब्द को
सुनने की,
समझने की
कोशिश करो। क्योंकि
कबीर जैसे
दीवाने
मुश्किल से
मिलते है।
अंगुलियों पर
गिने जा सकते
है। और उनकी
दीवानगी ऐसी
है कि तुम
अपना अहोभाग्य
समझना और उनकी
सुराही की
शराब से एक
बूंद भी तुम्हारे
कंठ में उतर
जाए। अगर उनका
पागल पन थोड़ा
सा भी तुम्हें
पकड़ ले,
तुम भी कबीर
जैसा नाच उठो
और गा उठो,
तो उससे बड़ा
कोई धन्य भाग
नहीं। वही परम
सौभाग्य है।
सौभाग्यशालियों
को ही उपलब्ध
होता है।
कबीर
काशी में रहे
जीवन भर।
पंडितों की
दुनिया!
स्वभावतः उन
सभी पंडितों
ने कहा होगा
पागल है।
काशी...! वहां तो
सबसे ज्यादा
बड़े अंधों की
भीड़ है। वहां
तो सब तरह के मूढ़
प्रतिष्ठित
हैं, जिनके
पास शब्दों का
जाल है। वेद, उपनिषद है, गीता, पुराण
है। जिन्हें
गीता पुराण, वेद, उपनिषद
कंठस्थ हैं।
शब्दों के
अतिरिक्त जिन्होंने
कुछ भी नहीं
जाना।
दीवालों पर
बनी छायाओं को
जिन्होंने
इकट्ठा किया
है--बड़ी मेहनत
से, बड़े
श्रम से, बड़ी
कुशलता से। वे
बड़े निष्णात
हैं तर्क में।
क्योंकि शब्द
तो छाया है
सत्य की। और
तर्क तो सिर्फ
सांत्वना है।
इसलिए
कबीर अपने को
खुद कहते हैं:
कहै कबीर दिवाना।
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