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शनिवार, 25 अगस्त 2018

क्या मनुष्य एक यंत्र है?-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(जाग जाना धर्म है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते तीन दिनों में जीवन में जागरण की संभावना कैसे वास्तविक बन सके, इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं।
मनुष्य एक सोती हुई दशा में है, लेकिन जागरण संभव है। अंधेरा कितना ही घना क्यों न हो, दीया जल सकता है। और अंधेरे का घनापन दीये के जलने में न तो कभी बाधा बना है और न बन सकता है। अंधेरे की कोई शक्ति नहीं होती है कि दीये के जलने में बाधा बन जाए। अंधेरा कितना ही हो और कितना ही पुराना। छोटे से दीये की ज्योति के सामने एकदम न हो जाता है, एकदम समाप्त हो जाता है। जीवन में बहुत निद्रा है, बहुत अंधकार है। जीवन भर शायद हम निद्रा का और अंधकार का ही संग्रह करते हैं। लेकिन इससे निराश हो जाने की कोई भी बात नहीं है। एक छोटी सी किरण जागरण की उस सारे अंधकार को समाप्त कर देगी।
असल में अंधकार तो होता नहीं, केवल प्रकाश का अभाव होता है, प्रकाश की अनुपस्थिति होती है और प्रकाश के आते ही अंधकार नहीं पाया जाता। इस खोज में ही कि वह प्रकाश भीतर कैसे जग जाए, वह ज्योति कैसे उपलब्ध हो जाए, कुछ बातें मैंने कहीं।

स्वभावतः बहुत से प्रश्न उस संबंध में पैदा हुए हैं। उनमें से बहुत से प्रश्न तो वैसे हैं जैसे कि मैं अपेक्षा करता हूं, जो कि नींद में सोए हुए आदमी अक्सर पूछेंगे। जो कि बहुत जरूरी हैं। वे प्रश्न न केवल उनके पूछने की जिज्ञासा को जाहिर करते हैं, बल्कि उनकी नींद की भी घोषणा करते हैं।
एक मित्र ने पूछा हैः कल मैं उतरा ही था मंच से कि उन्होंने पूछा, फिर कृपा करके उन्होंने लिख कर भी भेज दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने कहा कि जीवन को कल पर नहीं छोड़ना चाहिए, जीवन है अभी और आज, लेकिन अंत में आपने कहा कि मैं प्रश्नों के उत्तर कल दूंगा। यह तो बड़ी विरोधी बात है। और मुझे बड़ा संदेह पैदा हो गया है।
तीन दिन की मेरी चर्चाओं के बाद यह संदेह केवल उनके मन में पैदा हुआ है। एक जरूरी बात जो मैंने कही वह यही कही, बाकी तीन दिन में मैंने और कुछ कहा नहीं जो संदेह पैदा करता। और यह संदेह भी बड़े आनंद का है। और ऐसे संदेह नींद में जरूर पैदा होते हैं, इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है।
 मैंने कहा, जिंदा होना और जीवन जितना अभी और यहां इस क्षण में गहरा होगा, उतना हमारे भीतर जागरण विकसित होगा। हम सत्य को जानने में समर्थ हो सकेंगे और स्वयं को जानने में। मैंने यह नहीं कहा कि आप कल दफ्तर जाना है, इसका विचार छोड़ देना। मैंने यह भी नहीं कहा कि कल आपको ट्रेन पकड़नी है तो उसका टाइमटेबल मत देखना। मैंने आपसे यह भी नहीं कहा कि परसों किसी की शादी में जाना है तो उसके लिए समय तय मत करना। यह मैंने आपसे नहीं कहा। तो मैं तो उत्तर कल दे सकता हूं, लेकिन जीवन की जिसे खोज करनी है, उसे अभी और यहीं करनी होगी। उत्तर जीवन की खोज नहीं है। और फिर हम शब्दों को किस पागलों की भांति पकड़ते हैं, यह भी बड़ी हैरानी की बात है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, उससे ही इस बात का उत्तर देना चाहूंगा।
एक बहुत बड़े धनपति के घर में एक नये-नये आदमी को नौकर रखा गया। लेकिन दो-चार दिन में ही पाया गया कि नौकर में कुछ खूबियां हैं। और खूबियां ऐसी हैं कि अगर वे चलें तो नौकरी चलनी बहुत कठिन है। मालिक ने उसे कहाः बड़े आश्चर्य की बात है कि तीन अंडे खरीदने तुम्हें बाजार तीन बार जाना पड़ता है! तीन अंडे एक ही बार में खरीद कर लाए जा सकते हैं, एक-एक अंडे को बार-बार जाकर खरीदने की कोई जरूरत नहीं है। इस भांति काम नहीं चल सकेगा, अपना सुधार कर लो और या विदा ले लो। उस नौकर ने कहाः मालिक, मैंने सुधार कर लिया और ऐसी भूल अब दुबारा नहीं होगी। कोई आठ दिन बाद ही वह मालिक बीमार पड़ गया और उसने कहा कि जाओ डाक्टर को बुला लाओ। वह नौकर गया, डाक्टर को अपने साथ लाया और साथ में एक पूरी भीड़ भी ले आया। और उसने आकर अपने मालिक को कहाः मैं डाक्टर को भी लिवा लाया हूं, और बाकी लोगों को भी लिवा लाया हूं। उसके मालिक ने पूछाः ये बाकी लोग और कौन हैं? तो उसने कहाः डाक्टर निश्चित ही निरीक्षण करेगा और दवाई के लिए कहेगा, तो मैं दवा वाले दुकानदार को भी बुला लाया हूं। और हो सकता है डाक्टर की दवा काम न कर सके, तो मैं कब्र खोदने वाले लोगों को भी बुला लाया हूं। मैं सबको लिवा लाया हूं एक ही बार में, और अब बार-बार जाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जहां तक शब्दों को समझने का अर्थ है, उस नौकर ने कोई गलती नहीं की। और जहां तक मैंने दो दफा यह कहा, मैंने कहा कि कल पर जीवन को मत छोड़ना और मैंने यह कहा कि कल मैं उत्तर दूंगा; आपने भी शब्दों को समझने में कोई भूल नहीं की। लेकिन जिस भांति वह नौकर ने शब्दों को समझा, उसी भांति आपने भी समझा।
हमारा चित्त बहुत अजीब है। अक्सर हम शब्दों से खेलना शुरू कर देते हैं, शब्दों को समझना नहीं। और अक्सर शब्दों में जो इशारे होते हैं, उनको भी जानने की हमारी कोई खोज नहीं होती। हम शब्दों को पकड़ लेते हैं और उनसे चिपक जाते हैं। और जो आदमी जितना शब्दों में चिपकने में समर्थ हो जाता है, उतना बड़ा ज्ञानी हो जाता है, उतना समझदार हो जाता है। सच्चाई यह है कि शब्दों को पकड़ने और शब्दों से चिपके रहने वाले लोगों से ज्यादा नासमझ इस जमीन पर कोई और दूसरे नहीं हैं। शब्दों का अर्थ नहीं है, शब्द तो इशारे हैं। और जो इशारों को पकड़ लेगा, मैं आपको अंगुली उठाऊं और दिखाऊं कि वह चांद है, और आप मेरी अंगुली पकड़ लें और कहें कि कहां है इसमें चांद? तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। अंगुली में चांद बिलकुल नहीं है। अंगुली जिस ओर इशारा कर रही है, वहां है चांद और जो अंगुली को पकड़ लेगा, उसे चांद तक देखने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी। शब्द इशारे हैं, शब्दों में कुछ भी नहीं है। लेकिन किस तरफ वे इशारे कर रहे हैं, उस तरफ देखने की बात है और अगर उस तरफ न देखा और शब्दों को पकड़ कर हिसाब-किताब लगाया, तो न तो कुछ समझ पैदा हो सकती है और न आंखें उस तरफ उठ सकती हैं, जो शब्दों के बिलकुल बाहर है। जीवन शब्दों के बिलकुल बाहर है।
शब्द इशारे कर सकते हैं, लेकिन शब्द जीवन नहीं हैं। मैंने आपसे यह नहीं कहा है कि कल के बाबत आप सब भांति से सोचना-विचारना, योजना करना बंद कर दें। मैंने आपसे यह कहा है कि जीवन में जो पोस्टपोनमेंट की जो हमारी आदत है, जो स्थगित कर देने की हमारी आदत है, और हम बड़े अदभुत हैं, अगर अभी मैं आपको गाली दूंगा तो आप यह नहीं कहेंगे कि कल मैं इसका उत्तर दूंगा, आप अभी इसी वक्त गाली देंगे। और अगर मैं आपको धक्का दूं और आपको क्रोध आ जाए, तो आप यह नहीं कहेंगे कि ठहरिए, दो दिन बाद जब मुझे फुरसत होगी, तब मैं क्रोध करूंगा। अभी मुझे फुरसत नहीं है, अभी मैं काम से जा रहा हूं। नहीं गाली का उत्तर आप अभी देंगे, उसे स्थगित नहीं करेंगे, पोस्टपोन नहीं करेंगे। लेकिन अगर आपको एक अच्छे काम करने का खयाल आ जाए तो आप कहेंगे कल कर लूंगा, परसों कर लूंगा।
असल में जिन चीजों से हम बचना चाहते हैं उन्हें हम कल पर छोड़ देते हैं। और वे हमेशा के लिए छूट जाती हैं। अच्छे काम को आदमी हमेशा कल पर छोड़ देता है, बुरे काम को अभी कर लेता है, इसी वक्त। इसीलिए जिंदगी बुरे कामों में जीने में नष्ट हो जाती है और अच्छे काम के फूल उसमें कभी नहीं लग पाते। तो मैंने यह नहीं कहा है कि कल के केलेंडर को आप घर जाकर आग लगा दें और कल के संबंध में सारी योजना और विचार बंद कर दें। यह मैंने नहीं कहा है, मैं आपको जड़ होने की सलाह नहीं दे रहा हूं। मैं आपको सचेतन जीवन जीने की सलाह दे रहा हूं। और उसका मतलब यह है कि हमारे हाथ में क्षण से ज्यादा कभी उपलब्ध नहीं होता, एक क्षण, एक मोमेंट, एक बार वह उपलब्ध होता है। दो क्षण भी एक साथ उपलब्ध नहीं होते। जब एक क्षण हाथ से गुजर जाता है तो दूसरा क्षण हाथ में आता है।
जो आदमी जीने को, सत्य को, स्वयं की खोज को, आनंद की खोज को हमेशा आगे वाले क्षण पर छोड़ता चला जाएगा, तो जहां वह मिल सकता था इसी क्षण में, वह उससे वंचित रह जाएगा। और उसकी अगर यह आदत बन गई है, अगले क्षण पर छोड़ने की, तो आने वाले क्षण में भी यही आदत काम करेगी, और वह कहेगा आगे वाले क्षण में देखूंगा। यह जीवन भर की कथा हो जाएगी। जो क्षण हाथ में होगा जीवंत उसे हम छोड़ देंगे आगे वाले क्षण के लिए, जो अभी नहीं है। और जब वह हाथ में आएगा तो हमारी आदत के हिसाब से उसको हम छोड़ेंगे उस क्षण के लिए जो अभी नहीं है। और इस भांति निरंतर छोड़ते-छोड़ते एक दिन हम हाथ में पाएंगे कि कोई क्षण नहीं रह गया, मौत सामने खड़ी हो गई। यह जो, यह जो पोस्टपोनमेंट है, जीवन की खोज के लिए स्थगन है, उसके लिए मैंने कहा। मेरे उत्तर कल दिए जाएं या न दिए जाएं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं न भी बचूं और उत्तर न दूं तो कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि मैं उत्तर भी दूंगा तो आपको उत्तर मिल जाएंगे, इस खयाल में आप मत रहना। मैं न भी दूं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, मैं न भी रहूं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है।
मेरे उत्तर कल भी हो सकते हैं, और परसों भी और बिलकुल भी न हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन अगर आपके जीवन की यह दृष्टि और आदत बन गई, खुद के जीने को आपने अगर कल पर छोड़ दिया और हमेशा कल पर छोड़ते गए तो आप पाएंगे कि आप कभी जी ही नहीं पाए। जीवन तो अस्तित्व है और अस्तित्व उस क्षण में है, जो मौजूद है। जो बीत गया वह जा चुका, अब नहीं है और जो आने को है वह अभी आया नहीं है। तो जो हाथ में है उसे पूरा जो निचोड़ लेता है, और जो हाथ में है उसे पूरी तरह जी लेता है, जो हाथ में है उसके सारी की सारी सत्ता को जो अनुभव कर लेता है, उसके भीतर जीवन का जागरण शुरू होता है। फिर जब उसे अनुभव हो जाता है कि जीवित क्षण में मैंने कुछ जाना, अगले क्षण में वह फिर डूबता है और जानता है।
एक रोमन सम्राट ने अपने एक वजीर को दोपहर के समय खबर भेजी कि तुम अपने महल में ही कैद कर लिए गए हो। तुम्हारे महल पर चारों तरफ सैनिक खड़े कर दिए गए हैं। अब तुम वजीर नहीं हो, और न ही तुम स्वतंत्र हो, और यह भी तुम जान रखो कि सांझ सूरज होने के पहले तुम्हारा सिर कटवा कर, तुम्हारी लाश रोम के चैरस्ते पर लटका दी जाएगी। कुछ बात हो गई थी वजीर से और राजा नाराज हो गया था। खाने को जाने को था वजीर, तब यह खबर मिली। उसने अपने कुछ मित्रों को आमंत्रित किया था। उसने उन मित्रों से कहा कि चलो, यह खबर उसने सुनी और उसने अपने मित्रों से कहा कि चलो हम भोजन पर बैठें और भोजन करें।
 उसके मित्र तो एकदम उदास हो गए थे। यह खबर इतनी अनहोनी, इतनी खतरनाक, इतनी बड़ी दुर्घटना होने की, इतने बड़े दुर्भाग्य की। उसके मित्रों की आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने कहा कि चलो, अभी सांझ को बहुत देर है। और जो भोजन सामने लग गया है, उसे छोड़ना नासमझी होगी, अभी हम भोजन करें। वे गए और सारे मित्र तो उदास थे, लेकिन वह उसी भांति भोजन कर रहा था वजीर, जैसे रोज करता था। उसके मित्रों ने उससे कहा, हमें बड़ी हैरानी है! सांझ मृत्यु होने को है और आप अभी भी जी रहे हैं, अभी भी भोजन कर रहे हैं। उस वजीर ने कहाः मौत एक दफा आती है, लेकिन जो आदमी पहले से ही भयभीत होता है उसे कई बार मरना पड़ता है। तो मैं अभी से नहीं मरना चाहता, सांझ को इकट्ठा मर जाएंगे, अभी जब तक जिंदा हूं, तब तक जिंदा हूं। और जो क्षण मेरे हाथ में हैं, उन्हें मैं जीऊं। भोजन के बाद वह सोने चला गया, उसके मित्र तो हैरान थे। वह जाकर सो गया जैसे रोज सोता था, सोने के बाद उठा और उसने कुछ संगीतज्ञों को आमंत्रित कर रखा था, उस दिन के लिए वे आए थे। और वह उनके गीत सुनने बैठ गया।
राजा को यह खबर मिली कि वह भोजन कर रहा है, सो रहा है और गीत सुन रहा है। और उसकी आंखें उदास नहीं हैं। और उसके ओंठों की मुस्कुराहट समाप्त नहीं हुई है। और वह अभी भी जी रहा है, और सूरज ढल रहा है और सांझ करीब आ रही है। राजा उसे देखने आया। वह देख कर हैरान हुआ, वह बैठा हुआ संगीत सुन रहा था। और संगीत की तारीफ कर रहा था। उस राजा ने कहाः तुम पागल हो! सांझ करीब आ रही है, सूरज ढलने को है। उसने कहाः सांझ आएगी, चाहे मैं जीऊं और चाहे मैं जीना बंद कर दूं। और मौत आएगी चाहे मैं जीऊं और चाहे मैं जीना बंद कर दूं। तो जितने क्षण मेरे हाथ में हैं, मैं उन्हेें खोने को राजी नहीं हूं, जो मेरे हाथ में हैं उन्हें मैं जीऊंगा।
राजा ने कहाः तुम्हारी फांसी की सजा मैंने समाप्त कर दी। क्योंकि जो आदमी मौत से डरता नहीं है, उसे मारने से कोई फायदा नहीं है। और जो आदमी आखिरी क्षण तक जीने में समर्थ है, उसकी मृत्यु से कोई मतलब नहीं होता, उसे कोई मतलब नहीं होता, उसे कोई प्रयोजन नहीं उसको मारने से।
एक-एक क्षण जो हमारे हाथ में है, आगे के क्षण का कोई पक्का नहीं है। जो क्षण हमारे हाथ में है उसे जीना है। उसमें जागना! यह मैंने कहा। लेकिन कल शब्द का प्रयोग दो जगह किया, इससे मुसीबत हो गई। हो जानी बिलकुल स्वाभाविक है, इसमें कोई कसूर नहीं है। शब्दों के साथ हमेशा से मुसीबत हुई है। इसीलिए तो कुछ लोग गीता को पकड़ कर बैठे हुए हैं, कुछ लोग बाइबिल को, और कुछ लोग बुद्ध को और कुछ लोग महावीर को। एक ही बात, एक ही सत्य लेकिन इशारे अलग-अलग हैं। और जिन लोगों ने इशारे पकड़ लिए, वे एक-दूसरे के हत्यारे हो गए हैं, उनको यह पता ही नहीं है कि जो बुद्ध कहते हैं, वही महावीर, वही क्राइस्ट। लेकिन क्राइस्ट के शब्द को पकड़ने वाला बुद्ध की हत्या कर सकता है, बुद्ध के शब्द को मानने वाले की। और हिंदू के शब्द को पकड़ने वाला मुसलमान के शब्द के विरोध में खड़ा हो सकता है। और यह पता नहीं कि जो इशारे हैं, वे एक ही चांद की तरफ हैं, अंगुलियां हजार होंगी। अलग-अलग रंगों की होंगी, लेकिन जिस तरफ इशारा है वह एक तरफ इशारा है। लेकिन इशारों को पकड़ लेने वाले लोग हमेशा से खतरा सिद्ध करते रहे हैं। मुझे भी स्वभावतः निरंतर यह खयाल होता है कि शब्द पकड़ लिए न जाएं। हमारा मन शब्दों को पकड़ता है। मैं आपसे निवेदन करता हूं शब्दों को पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। जितनी जल्दी हो सके शब्द को हटा दें और उसके भीतर जो अर्थ हो, उसकी तरफ आंख उठाएं, कहीं देर न हो जाए, नहीं शब्द आपके ऊपर बैठ जाए और फिर अर्थ देखना मुश्किल हो जाए।
शब्दों के संबंध में और भी कुछ शंकाएं हैं। उनकी मैं चर्चा नहीं करूंगा। शब्द के बाबत मुझे जो कहना है, वह यह है कि जो शब्द को पकड़ता है, वह नासमझ है। शब्द का उपयोग करें, शब्द साधन है, इशारा है, लेकिन शब्द सत्य नहीं है। और जब कोई बहुत जोर से शब्द को पकड़ लेता है, उसके सारे प्राण निकल जाते हैं, उसके सारे अर्थ निकल जाते हैं। मुर्दा शब्द हाथ में रह जाता है, और वह मुर्दा शब्द हमें लड़ाता है और परेशान करता है और हैरान करता है।
ये बार-बार कुछ प्रश्न पूछे हैं कि आप जो कहते हैं क्या यही गीता में लिखा हुआ है? क्या आप जो कहते हैं यही बाइबिल में लिखा हुआ है, आप जो कहते हैं यही कृष्ण कहते हैं, यही बुद्ध कहते हैं? इस बात को तौलने की जरूरत क्या है? इस बात को कंपेयर करने की जरूरत क्या है? क्या आपको पक्का पता है कि कृष्ण क्या कहते हैं? क्या आपको पता है इस बात का कि क्राइस्ट क्या कहते हैं? क्या आपको पक्का भरोसा है कि यहां जो मैं कह रहा हूं, वही आप समझ रहे होंगे? क्या आपको इस बात का विश्वास आता है कि मैं जो कह रहा हूं, जितने लोग यहां मौजूद हैं वह एक सा ही समझ रहे होंगे या अलग-अलग समझ रहे होंगे!
कृष्ण की गीता पर एक हजार टीकाएं हैं; क्या कृष्ण के एक हजार अर्थ रहे होंगे? एक हजार अर्थ अगर रहे होंगे तो दिमाग उनका खराब रहा होगा। कृष्ण का अर्थ तो एक ही रहा होगा, लेकिन हर पढ़ने वाला अपना अर्थ निकाल लेता है, और कृष्ण के ऊपर थोपता है कि यह तुम्हारा अर्थ है। मैं जो कह रहा हूं उसका भी अर्थ निकाल लेता है और थोपता है मेरे ऊपर कि यह तुम्हारा अर्थ है। और फिर दोनों के बीच कंपेयर करता है कि क्या दोनों एक हैं, या अलग हैं, या क्या हैं? आप कृपा करें, कृष्ण पर कृपा करें, क्राइस्ट पर कृपा करें, उनको क्षमा कर दें, उनको ज्यादा परेशान न करें। क्योंकि वे जिंदा हों तो आपसे बचने की भी कोशिश करें, वे अब नहीं हैं, आपसे बच भी नहीं सकते, आप उनको बहुत परेशान कर सकते हैं।
आप इसकी फिकर छोड़ दें कि कृष्ण क्या कहते हैं, आपको पता नहीं चल सकता। कृष्ण क्या कहते हैं।।इसे जानने के लिए कृष्ण जैसी ही चेतना चाहिए। वैसी ही कांशसनेस चाहिए। क्राइस्ट क्या कहते हैं।।इसे जानने के लिए वैसी ही कांशसनेस चाहिए, उसके पहले आप नहीं जान सकते कि वे क्या कहते हैं। इसलिए इस निर्णय में और विवाद में न पड़ें कि कौन क्या कहता है? इस बात की फिकर करें कि क्राइस्ट ने जो कुछ कहा, वह किस चेतना में कहा। कृष्ण ने जो कुछ कहा, वह किस चेतना में कहा, वह कौन सी कांशसनेस की स्टेट थी जिसमें उन्होंने ये बातें कहीं। छोड़ दें फिकर उन्होंने क्या कहा, इसकी फिकर करें कि कब कहा, किस स्टेट ऑफ माइंड में कहा। और क्या वह स्टेट ऑफ माइंड मुझे भी उपलब्ध हो सकती है?
और अगर आपको वह स्टेट ऑफ माइंड मिल जाए, जिसकी मैं तीन दिन से चर्चा कर रहा हूं, वह होश, वह जागरण मिल जाए, तो ही आप समझ पाएंगे कि उन्होंने क्या कहाः उसके पहले कोई भी कुछ नहीं समझ सकता है। अगर उसके पहले हम समझ लेते तो सारी दुनिया के धर्मों के झगड़े कभी के समाप्त न हो गए होते! दुनिया के धर्मों के बीच झगड़ों की क्या जरूरत थी? लेकिन झगड़े हैं, रोज बढ़ते जाते हैं; आदमी एक-दूसरे से टूटता जाता है। आदमी, आदमी का दुश्मन होता जाता है। और धर्मों के नाम पर जिनकी शिक्षा है प्रेम की, धर्मों के नाम पर जिनकी शिक्षा है परमात्मा की, धर्मों के नाम पर जो सारे जीवन को जोड़ देना चाहते हैं, क्या वजह है? शब्दों को हमने बहुत जोर दे दिया है, और चेतना की स्थिति की कोई फिक्र नहीं की।
चेतना की स्थिति का सवाल है, इसलिए न गीता का सवाल है, न बाइबिल का; आपकी बड़ी कृपा होगी अगर इन किताबों को आप आराम से विश्राम करने दें। इनको परेशान न करें। बजाए इसके कि इनकी पेरशानी में पड़ें, उस तलाश में लगें कि क्राइस्ट के भीतर कौन सी चीज जाग गई? कौन सी चीज पैदा हो गई? जो क्राइस्ट के मन में संभव हो सका, वह आपके मन में भी संभव हो सकता है। क्योंकि आपके भीतर भी वही बीज है, जो उनके भीतर था। आपके भीतर भी वही आदमी है जो उनके भीतर था, लेकिन आप एक सोए हुए आदमी हैं, और दूसरा एक जागा हुआ आदमी है। एक आदमी नींद में सोया हो और जागे हुए आदमी क्या विचार कर रहे हैं, इसको समझने की कोशिश करें! सपने में उसे न मालूम क्या-क्या सुनाई पड़ेगा, वह न मालूम क्या-क्या अर्थ ले लेगा? और न मालूम क्या-क्या उपद्रव करेगा? अच्छा होगा, वह जागते हुए लोगों की बातचीत का अर्थ निकालने की कोशिश न करे, खुद जाग जाए। इसकी बिलकुल फिकर न करें कि मैं जो कह रहा हूं वह किससे मेल खाता है, और किससे मेल नहीं खाता?

एक मित्र ने चिंता व्यक्त की है कि किसी मेरी किताब पर किन्हीं मित्रों ने छाप दिया है कि मैं आत्म-ज्ञानी हूं, आत्म-द्रष्टा हूं। एक मित्र ने लिखा है कि हमें तो शक होता है कि आप आत्म-ज्ञानी हैं, आत्म-द्रष्टा हैं।

जिन्होंने लिखा है वह और जिनको शक हुआ है, एक ही कोटि के लोग होंगे, दोनों में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि किसको कैसे पता चल गया कि मैं आत्म-द्रष्टा हूं और किसी को कैसे शक हो गया कि मैं आत्म-द्रष्टा नहीं हूं। बड़े मजे की बात यह है कि मेरे बाबत चिंता करने की जरूरत ही क्या है। मैं आत्म-द्रष्टा हूं, यह चिंता करने की भी कोई जरूरत नहीं, इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रयास करने की भी कोई जरूरत नहीं, इस पर शक करने की भी कोई जरूरत नहीं है। दोनों बातें फिजूल हैं। असल में मेरे बाबत चिंता करना फिजूल है।
 सोया हुआ आदमी दूसरों के बाबत चिंता करता है, जागा हुआ आदमी अपने बाबत। ये सोए हुए आदमी के सब लक्षण हैं। जब वह विचार भी करता है तो दूसरों के बाबत। और दूसरों के संबंध में क्यों विचार करता है, अपने से बचना चाहता है, कहीं अपने बाबत विचार न करना पड़े, इससे बचने की एक तरकीब, एक रास्ता दूसरों के बाबत सोचने लगो कि कौन कैसा है, कौन क्या है? मैं कौन हूं, मैं कहां आता हूं आपके बीच में? मैं अगर निपट अज्ञानी हूं, तो कहां आपको तकलीफ होने की जरूरत है। मैं किस जगह आपके बीच में आता हूं। मेरे संबंध में सोचने की आवश्यकता क्या है। बड़ी कृपा होगी, अपने संबंध में सोचें। बड़ी कृपा होगी अपने संबंध में संदेह करें, बड़ी कृपा होगी अपने संबंध में चिंतन करें। क्योंकि जो अपने संबंध में सोचेगा उसका सोच-विचार उसे बताएगा कि वह बिलकुल मशीन की भांति जी रहा है। उसका विचार उसे बताएगा कि वह सोया हुआ है, उसका विचार उसे बताएगा कि वह एक यंत्र से ज्यादा नहीं है। और यह विचार अगर उसे खयाल में आ जाए तो इससे इतनी पीड़ा होगी, इस विचार से कि इस स्थिति को बदलने का एक उपक्रम पैदा हो जाएगा, एक क्रांति उसके भीतर पैदा हो जाएगी। लेकिन मेरे संबंध में निर्णय करने से क्या होगा?
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि क्राइस्ट को ज्ञान मिला था या नहीं? महावीर सर्वज्ञ थे या नहीं? रामकृष्ण परमहंस परमहंस थे या नहीं?
मैं बड़ा हैरान हूं! आपने किस भांति और कब यह ठेका ले लिया है, इन सारे लोगों पर विचार करने का? और किसने आपको यह ठेका दिया है? और आप कैसे निर्णायक बन सकेंगे? जिन्हें अपना कोई होश भी नहीं, वे भी क्राइस्ट और कृष्ण का निर्णायक बनने की हिम्मत करते हैं, कि वे निर्णय करें कि उनको मिला कि नहीं। इसी पागलपन ने तो सारी दुनिया में उपद्रव पैदा किए हैं।
 जिन लोगों ने क्राइस्ट को सूली लगाई उनको शक हो गया कि इस आदमी को ज्ञान हुआ है कि नहीं। फांसी पर लटका दिया। निर्णायक बन गए लोग, और निर्णय लेने में हम इतनी जल्दी करते हैं, दूसरे के बाबत निर्णय लेने में, अपने बाबत निर्णय तो हम कभी लेते ही नहीं, जल्दी का कोई सवाल ही नहीं।
 पूरी जिंदगी बीत जाती है, कोई अपने बाबत निर्णय नहीं लेता कि मैं क्या हूं, और कहां हूं? लेकिन दूसरे के संबंध में एक क्षण नहीं खोते हम। और भी एक मजा है, अगर मैं आपसे कहूं कि फलां आदमी बहुत अच्छा है, तो आप पच्चीस दलीलें करेंगे मुझसे कि नहीं मुझे तो शक है, क्योंकि उस पर एक दफा मुकदमा चला था। और मुझे तो शक है, वह पड़ोसी की स्त्री से बातें करता हुआ देखा गया था। और मुझे तो शक है कि उसने नया मकान बनाया है, उसमें ब्लैक का रुपया जरूर लगाया होगा। लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि फलां आदमी चोर है, आप कहेंगे बिलकुल निश्चित, कोई शक आप नहीं करेंगे। बड़ी हैरानी की बात, अगर किसी की बुराई हम करें तो हम कभी शक नहीं करते। लेकिन हम किसी के बाबत बताएं, उसकी कोई भलाई की चर्चा करें; हम फौरन शक करते हैं, क्यों? यह ऐसा क्यों होता है? किसी की निंदा पर आपने कभी शक किया है? किसी ने किसी की बुराई बताई तो आपने खोज-बीन की है कि यह कहां तक सच है? नहीं, आपने बड़े सरल मन से विश्वास कर लिया है कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, क्यों?
असल में हम जब भी किसी के बाबत सुनते हैं कि वह आदमी गलत है, तो हमें दो फायदे होते हैं। एक फायदा तो यह कि हमें खुद गलत होने की छूट मिल जाती है कि जब सभी लोग गलत हैं तो फिर खुद गलत होने में क्या अड़चन? इसलिए हम बिलकुल चुपचाप मान लेते हैं कि दूसरे आदमी के बाबत जो गलत बात कही गई है, वह ठीक होगी। कोई के भी बाबत हम मान लेते हैं कि ठीक होगी। हमें सुविधा मिल जाती है गलत होने की। फिर हमें बेचैनी नहीं रह जाती, जब सभी लोग गलत हैं तो खुद के गलत होने में कोई बेचैनी, कोई परेशानी नहीं रह जाती।
दूसरी बात दूसरे को गलत जान कर हमें खुद को बड़ा रस आता है कि हम, हम तो इन सबसे बेहतर हैं, अच्छे हैं। एक अहंकार की तृप्ति होती है। लेकिन अगर कोई किसी की प्रशंसा करता हो, तो हमें अड़चन होती है क्योंकि किसी दूसरे का बेहतर होना हमारे अहंकार को चोट लगती है, तो हम पच्चीस छान-बीन करते हैं, खोज-बीन करते हैं। और जिंदगी इतनी अदभुत है कि क्राइस्ट और कृष्ण को जानना तो दूर, आपके पड़ोस में जो आदमी रहता है, उसको जानना भी आसान नहीं है। क्योंकि वह आदमी आपसे बहुत दूर है, खुद को जानना ही कठिन है, जो आप अपने बिलकुल निकट हैं। जिंदगी इतनी मिस्टीरियस है, जिंदगी इतनी रहस्यपूर्ण है कि जो आदमी समझदार है, वह कभी किसी दूसरे के बाबत कोई निर्णय नहीं लेता।
एक रात एक घटना घटी। एक शादी में कोई दो सौ, उस नगर के सारे प्रतिष्ठित लोग इकट्ठे थे। और एक मित्र आया और उसने अपनी जेब से एक सिक्का निकाला जो कोई तीन हजार वर्ष पुराना इजिप्त का सिक्का था। और उसने कहा कि इस तरह के दो ही सिक्के हैं दुनिया में, एक यह है और एक और किसी आदमी के पास। इस सिक्के को मैंने बीस हजार रुपये खर्च करके खरीदा है। तीन हजार वर्ष पुराना सिक्का है, बस ऐसे दो ही सिक्के हैं इतने पुराने। तो मैंने सोचा कि आप शायद देख कर खुश होंगे इसलिए मैं ले आया, कोई दो सौ लोग थे, सिक्का एक हाथ से दूसरे हाथ में चला गया, लोग देखने लगे। और अनेक लोगों ने उसे घेर लिया। और लोग पूछने लगे बीस हजार में खरीदा है, ऐसी इसमें क्या खूबी है? कितना पुराना है, किस राजा के वक्त का है? और किस सन् का है? ये सारी बातें होने लगीं। आधा घंटे बाद उसने फिकर की कि वह सिक्का कहां है? सिक्का मिलना मुश्किल हो गया। जिससे भी पूछा गया, उसने कहा, मैंने देखा तो जरूर, मैंने किसी और को दे दिया। वह सिक्का भीड़ में भटक कर खो गया और मिलना कठिन हो गया। अब सिवाय...परेशानी खड़ी हो गई। शादी का काम तो स्थगित हो गया और सिक्के को खोजना जरूरी हो गया। लोगों ने सलाह दी कि सारे लोग अपनी जेबों की तलाशी दे दें, अब तो और कोई रास्ता नहीं है। सभी लोग राजी हो गए कि हमारी जेबें देख ली जाएं, हमने तो लिया नहीं। लेकिन एक आदमी ने इनकार कर दिया। उसने कहा कि मैं चोर नहीं हूं यह मैं कहे देता हूं, मैंने सिक्का नहीं लिया, यह मैं बता देता हूं, मैं यहां शादी में सम्मिलित होने आया हूं, अपनी जेबों की तलाशी देने नहीं। मैंने आपसे कहा भी नहीं था कि सिक्का दिखलाइए, तो मैं चोर नहीं हूं, यह मैं कहे देता हूं, लेकिन मेरी जेब में हाथ डालने की कोई कोशिश न करें।
अगर आप वहां मौजूद होते तो क्या करते? क्या सोचते? जो लोग मौजूद होते थे, वहां उन्होंने भी यही सोचा कि इस आदमी में जरूर कोई गड़बड़ है। सिक्का अगर इसने नहीं चुराया है तो इतनी जिद्द की क्या बात है कि मैं अपनी जेब नहीं दिखलाऊंगा। आखिर लोगों ने तय किया कि जबरदस्ती करनी पड़ेगी। उस आदमी ने अपनी जेब से पिस्तोल निकाल ली और उसने कहा कि क्षमा करिए, जबरदस्ती का परिणाम खतरनाक हो सकता है।
अब बात बहुत बिगड़ गई। सिवाय इसके कि पुलिस को खबर की जाए, कोई मार्ग न रहा। पुलिस को फोन करके खबर की गई। दरवाजे मकान के बंद कर दिए गए ताकि कोई निकल न सके, और सबसे कहा गया कि जो जहां है, वह वहीं खड़ा रहे। पुलिस आने को ही थी एक नौकर ने मेज पर से कोई बर्तन उठाया और हैरानी हुई वह सिक्का उस बर्तन के नीचे रखा हुआ था। वह सिक्का मिल गया तो सारे लागों ने उस सज्जन को कहा कि तुम कैसे पागल हो? जब तुमने सिक्का नहीं लिया था, तो इनकार करने और पिस्तोल निकालने की क्या जरूरत थी? उसने अपने खीसे में हाथ डाला और दूसरा सिक्का निकाल कर बाहर रख दिया और उसने कहा कि दूसरे सिक्के का मालिक मैं हूं, जिसकी ये चर्चा कर रहे थे। मैं भी यह सोच कर आया था कि दिखा दूंगा अपना सिक्का, लेकिन उन्होंने पहले दिखा दिया, तो फिर मैंने सोचा, अब कोई मतलब नहीं है, मैं चुप रह गया। लेकिन पांच मिनट पहले कौन मेरा विश्वास कर सकता था कि मैं इस सिक्के का मालिक मैं हूं। मैं चोर था। पांच मिनट पहले कौन विश्वास कर सकता था कि मैं इसका मालिक हूं। आपमें से कोई विश्वास कर सकता था पांच मिनट पहले? आपमें से कोई पांच मिनट पहले संदेह करने से बच सकता था कि यह आदमी चोर है?
अगर ऐसा कोई आदमी आपके भीतर हो तो वह समझ ले कि वह जागा हुआ आदमी है, सोया हुआ आदमी नहीं है। लेकिन नहीं! हम सभी शक कर जाते कि यह आदमी चोर है। और अगर सिक्का उसके खींसे से मिल जाता तब तो बात पक्की हो जाती कि यह आदमी चोर है। कोई दुनिया में मानने को राजी नहीं होता कि यह सिक्का इसका है। लेकिन वह सिक्का उसका था। जिंदगी इतनी ही मिस्टीरियस है। जिदंगी इतनी ही रहस्यपूर्ण है। इसलिए जो जानते हैं वे निर्णय नहीं लेते।
सामान्य आदमी के बाबत भी निर्णय लेना अधार्मिक कृत्य है। पाप है। तो किसी और के बाबत निर्णय लेने का तो कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं।
फिकर छोड़ दें, रामकृष्ण की, अरविंद की, रमन की, किसको क्या हुआ, किसको नहीं हुआ? कृपा करें मुझ पर भी दया करें और मेरी भी फिकर छोड़ दें। इससे आपका कोई संबंध नहीं है, कोई वास्ता नहीं है। क्यों यह जानना चाहते हैं? शायद एक कारण जो हम जानना चाहते हैं ; इस तरह की बात कि आपको आत्म-ज्ञान हुआ या नहीं? आपको ईश्वर की उपलब्धि हुई या नहीं, इस तरह के प्रश्न हैं, आपको आत्मसाक्षात्कार हुआ या नहीं? आपको अभी सत्य मिल गया है? यह क्यों जानना चाहते हैं? शायद इसलिए कि अगर मैं कह दूं कि हां, मुझे सत्य मिल गया है, मैंने ईश्वर को पा लिया है, तो शायद आप मेरे पैर पड़ने लगें और मुझसे कान फुंकवाने के लिए प्रार्थना करने लगें कि आप हमारा कान भी फूंक दें, हमको भी सत्य मिलने की राह बता दें। और भगवान आपको मिल गया है तो थोड़ा बहुत, छटाक-आधी छटाक हमको भी देने की कृपा करें। किसलिए? क्यों यह चिंता है? क्यों यह विचार है? मैं आपको कहूं सत्य कोई किसी को दे नहीं सकता, और परमात्मा किसी को मिला हो, न मिला हो, आपको देने में असमर्थ है।
 सत्य की और परमात्मा की खोज अत्यंत निजी और व्यैक्तिक है। इसलिए इसकी चिंता ही छोड़ दें कि किसको मिला और किसको नहीं मिला है। एक बात जान लें कि आपको मिला है या नहीं मिला है, यह सोच लें। मुझे मिला है या नहीं यह मैं सोच लूं, न मिला हो तो खोज पर निकल जाऊं , मिल गया हो तो बात समाप्त हो गई। लेकिन किसी दूसरे के विचार से कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। हम यह विचार इसीलिए करते रहे हैं आज तक कि हमको यह खयाल है कि किसी दूसरे से हमको मिल सकेगा। किसी दूसरे से कभी किसी को नहीं मिलता। और इस जमीन पर करोड़ों लोगों को नहीं मिल सका, उसका एक कारण यह है कि अधिकतम लोग यह सोच रहे हैं कि कोई हमें दे देगा। हम किसी के पैर पड़ेंगे और किसी को आदर देंगे, और किसी को गुरु मान लेंगे तो वह हमको दे देगा। सत्य ऐसी कोई वस्तु नहीं है कि दी जा सके।
सत्य अनुभव है। और परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि मैं आपको ले जाऊं और दिखा दूं कि देखिए ये परमात्मा बैठे हुए हैं। परमात्मा एक अनुभूति है जो आपके प्राणों के प्राण में उदित होगी। वह कहीं आपके बाहर नहीं है कि कोई बता सके कि यह है आ जाओ और इसे ले लो। अगर ऐसा होता तो हमने अब तक जरूर दुकानें खोल दी होतीं जहां हम परमात्मा को बेचते। ऐसे कुछ समझदार लोगों ने खोल दी हैं। मंदिर हैं, मस्जिद हैं, पोप हैं, पादरी हैं, वे क्या कर रहे हैं? वे दुकानें खोले हुए बैठे हैं। जरूर उनसे आप पूछें, तो वे आपके पूछने के पहले खुद ही बताते हैं कि हां मैं ईश्वर का प्रतिनिधि हूं जमीन पर। मैं पैगंबर हूं, मैं ईश्वर का पुत्र हूं। मैं तीर्थंकर हूं। मैं ही हूं ईश्वर का अधिकारी जमीन पर, वह आपके पूछने के पहले ही आपको बता देते हैं। और उनके इस बताने से ही उनका सारा शोषण चलता है। या तो वे लोग इस बात की घोषणा करते हैं कि हां मुझे मिल गया है, आओ, जो आपका किसी भांति शोषण करना चाहते हैं, या वे लोग इस तरह की घोषणा करते हैं जिनके दिमाग खराब हो जाते हैं, और जो पागल हो जाते हैं।
बगदाद में एक खलीफा ने एक आदमी को पकड़वाया जो सड़कों पर यह घोषणा कर रहा था कि मैं पैगंबर हूं। और मोहम्मद के बाद मुझे परमात्मा ने भेजा है कि मैं जाऊं और दुनिया का सुधार कर दूं। दुनिया का सुधार का खयाल जिनको पैदा होता है, उनके दिमागों में जरूर कुछ खराबी होती है। क्योंकि आदमी अपना सुधार कर ले यह काफी है, बहुत काफी है। और अगर उसका सुधार हो जाए तो उससे जो सुगंध फैलनी शुरू होगी वह जरूर दूसरों को सहयोगी होगी। लेकिन दूसरे के सुधार का खयाल अहंकार से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने घोषणा कर दी सड़कों पर कि मैं पैगंबर हूं। अब मुसलमान यह बरदाश्त नहीं कर सकते हैं कि कोई कहे कि मैं पैगंबर हूं। और न हिंदू यह बरदाश्त कर सकते हैं कि कोई कहे कि मैं अवतार हूं। न जैन यह बरदाश्त कर सकते हैं कि मैं आ गया पच्चीसवां तीर्थंकर। कोई यह बरदाश्त नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि मुर्दा तीर्थंकर और पैगंबर बहुत अच्छे होते हैं, वेे कोई गड़बड़ नहीं करते, कोई क्रांति नहीं करते, कोई परेशानी नहीं करते। जिंदा पैगंबर और तीर्थंकर बहुत खतरनाक भी हो सकते हैं। पहला खतरा तो यह होता है कि वह पुराने तीर्थंकरों को और पैगंबरों को उखाड़ना शुरू कर देते हैं कि वे सब गलत थे, सही मैं हूं।
तो मुसलमान खलीफा ने उसको पकड़वा कर बुलवा लिया कि तुम पागल हो गए हो क्या? मोहम्मद के बाद अब कोई पैगंबर होने वाला नहीं है। लास्ट प्रॉफेट परमात्मा भेज चुका अपना अंतिम आदमी। बार-बार भेजने की जरूरत क्या है? परमात्मा कोई भूल-चूक थोड़े ही करता है कि फिर आदमी भेजे कि अब सुधार कर आओ। उसने अपनी फाइनल किताब भेज दी, खबर उसने भेज दी कि मेरी आखिरी किताब है, अब इसके अनुसार जीओ, अब कोई पैगंबरों के आने की जरूरत नहीं है। कल तक विचार कर लो, उसे कैद खाने में बंद करवा दिया। दूसरे दिन सुबह वह गया और हथकड़ियों में बंधे हुए खंभे से, उस पैगंबर से उसने कहा कि मित्र! कुछ समझ आई। छोड़ दो यह खयाल नहीं तो हत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। गर्दन कटवा दी जाएगी, मुफ्त मर जाओगे। सोच लो एक दफा और, कह दो यह बात कि मुझसे गलती हो गई।।मैंने कहा कि मैं पैगंबर हूं।
वह आदमी हंसा, और उसने कहाः मैं तुम्हारी मानंू या भगवान की मानूं? भगवान ने मुझसे कहा कि तुम पैगंबर हो, मैं तुम्हारी मानूं! और रही इस बात की फिकर मत करो कि तुम मुझे फांसी लगा दोगे, पैगंबरों को हमेशा फांसियां लगती रही हैं, कोई नई खबर है? यह तो सबूत होगा मेरा कि मैं पैगम्बर था, कि मुझ पर मुसीबतें आईं। मुसीबतें आती रही हैं पैगंबरों पर। यह कोई नई बात नहीं।।मोहम्मद सताए गए, क्राइस्ट सताए गए, सब पैगंबर सताए गए, मैं भी सताया जाऊंगा, यह तो पहले से पता है। तो तुम इसकी फिकर मत करो, लेकिन मैं पैगंबर हूं। यह बात ही चल रही थी कि पीछे सींखचों के बंद, सींखचों के भीतर से एक आदमी चिल्लाया कि यह आदमी बिलकुल गलत कह रहा है, खलीफा इसकी बात मत मानना। मैंने मोहम्मद के बाद किसी को पैगंबर बना कर भेजा ही नहीं। वह आदमी एक महीने पहले पकड़ा गया था। उस आदमी को यह खयाल थाः मैं स्वयं परमात्मा हूं, पैगंबर-वैगंबर नहीं।।स्वयं परमात्मा। उसने कहाः यह आदमी बिलकुल गलत कह रहा है, मोहम्मद के बाद चैदह सौ साल हो गए, मैंने किसी को भेजा ही नहीं। और भेजूंगा क्यों? मोहम्मद ने सब ठीक काम किया है।
ये लोग इस तरह की घोषणाएं करने वाले लोग, विक्षिप्त हैं। जिसको परमात्मा का अनुभव होगा, उसे सबके भीतर परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। उसे ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा कि मैं परमात्मा हूं, क्योंकि यह खयाल कि मैं परमात्मा हूं किस बात पर खड़ा है? इस बात पर कि तुम परमात्मा नहीं हो। अगर सभी कुछ परमात्मा है तो मैं कहां रह जाता हूं, मैं कहां ठहरता हूं! ये घोषणाएं कि मुझे आत्म-ज्ञान हो गया, यह घोषणा कि मुझे ज्ञान उपलब्ध हो गया, नासमझी की घोषणाएं हैं। क्योंकि जो आदमी जितना गहरा जाएगा, वह पाएगा जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि उसे जाना ही नहीं जा सकता। जो आदमी पूरी गहराई में स्वयं में प्रविष्ट होगा, वह पाएगा कि जानना नासमझी के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जीवन का रहस्य अत्यंत अगम है। सत्य का कोई ओर-छोर नहीं है। परमात्मा की कोई सीमा नहीं है कि मैं उसे जान सकूं। मैं केवल उसमें मिट सकता हूं। और उसके साथ एक हो सकता हूं, लेकिन जान नहीं सकता। जानने का भ्रम अज्ञान के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
एक बूंद सागर में गिर जाती है तो सागर हो जाती है, लेकिन सागर को जान थोड़े लेती है। सागर हो जाती है। एक व्यक्ति जब अपने अहंकार से मुक्त हो जाता है, तो परमात्मा के साथ एक हो जाता है, परमात्मा को जान लेने का क्या मतलब? जान तो हम उसे सकते हैं जो हमसे दूर हो और अलग हो, वह तो हमारे प्राणों का प्राण है। और जान हम उसे सकते हैं जिसकी सीमा हो, जान हम उसे सकते हैं जो क्षुद्र हो। जान हम उसे सकते हैं जो हमसे छोटा हो। हमारी बुद्धि जिससे बड़ी हो, उसको हम जान सकते हैं।
परमात्मा को जानने की घोषणा नासमझी और पागलपन के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति जैसे-जैसे जागता है और भीतर जाता है, और वह पाता है कि जीवन तो है अननोन। अननोन ही नहीं, अज्ञात ही नहीं, अननोएबल, अज्ञेय। और वह जानता है कि जीवन है अज्ञेय। और सत्य है अज्ञेय। और मैं हूं ना-कुछ। नहीं, ना-कुछ, शून्य। कौन जाने, मिट जाता है व्यक्ति। और उस मिटने में हो जाता है एक किसी जीवन के केंद्र के साथ। लेकिन तब वह घोषणा करने, चिल्लाने आता नहीं कि मैंने जान लिया है।
रामकृष्ण कहा करते थे, एक बार समुद्र के किनारे मेला भरा था। उसमें आदमी भी गए देखने और कुछ नमक के पुतले और पुतलियां भी गए। सच तो यह है कि मेलों में आदमी तो शायद ही जाते हों, पुतले-पुतलियां ही ज्यादा जाते हैं। तो नमक के पुतले भी उसको देखने चले गए। और नदी के किनारे, समुद्र के किनारे खड़े होकर विचार करने लगे कि कितना गहरा है यह समुद्र। एक नमक के पुतले ने कहा तुम ठहरो, मैं जाता हूं और अभी थाह का पता लगा कर आता हूं। वह नमक का पुतला उसी तरह का आदमी रहा होगा, जिस तरह आदमियों में नेतागण होते हैं। आगे चलने वाले लोग। वह भी एक लीडर एक नेता रहा होगा पुतलियों का, वह कूद पड़ा। लेकिन मेला उजड़ गया, दिन आए और गए, और वह पुतला वापस नहीं लौटा। बाकी पुतले थक गए और लौट गए। वह पुतला वापस नहीं आया बताने कि समुद्र कितना गहरा है? नमक का पुतला था समुद्र में गया तो खो गया। नमक पिघल गया और समुद्र के साथ एक हो गया। कौन लौटे और कहे कि मैंने जान ली समुद्र की गहराई, कि यह है गहराई!
जो लोग परमात्मा को खोजने जाते हैं, वे परमात्मा को तो नहीं पाते, खुद को जरूर खो देते हैं। और वह जो खो देना है, वही परमात्मा का पा लेना है, लेकिन तब घोषणा करने वाला कोई अहंकार नहीं रह जाता कि मैंने पा लिया है। लेकिन हम इसकी तलाश करते हैं कि कोई कहे, दावे के साथ कि मैंने पा लिया है। हम हैं इतने कमजोर लोग कि जब कोई जोर से टेबल ठोक कर कहता है कि मैंने पा लिया है तो हमारी हिम्मत नहीं पड़ती, हम सोचते हैं जब इतने जोर से कहता है, तो जरूर पा लिया होगा। इसलिए जिसको पा लेने की घोषणा करनी हो उसे धीरे-धीरे नहीं करनी पड़ती, बहुत जोर से करनी पड़ती है। और जब हमें लगता है कि यह आदमी इतने जोर से कह रहा है, तो इसने जरूर पा लिया होगा तो हम उसके पैर पकड़ते हैं और सोचते हैं कि शायद हमको भी दिलवा दे। भगवान से दोस्ताना है इसका, जैसे मिनिस्टरों से किसी का दोस्ताना होता है। कुछ न कुछ रास्ता बना देगा, कुछ रिश्वत की जरूरत होगी, तो हम करेंगे इंतजाम। भगवान की स्तुति करेंगे, प्रार्थना करेंगे कि हे पतित पावन! तुम महान हो, हम छोटे हैं, दया करो, कृपा करो। और इसकी बीच में दलाली होगी, यह बीच में रहेगा, कुछ इंतजाम हो जाएगा; कुछ करवा देगा। सारी गुरुडम हमारी इसी पागलपन पर खड़ी हुई है, सारे गुरुओं का धंधा हमारे इसी पागलपन पर खड़ा हुआ है।
मैं आपका गुरु नहीं हूं इसलिए मुझे यह दावा करने की कोई जरूरत नहीं है कि मैंने आत्मा को पा लिया है, या ज्ञान को पा लिया। और न मैं आपका गुरु होना चाहता हूं। इसलिए आप बिलकुल फिकर छोड़ दें कि मैंने पाया कि नहीं पाया। इसकी कोई भी खोज की जरूरत नहीं है। खोजें इस बात को कि आप कहां खड़े हैं? आप कहां हैं, किस चित्त की दशा में हैं? और उसे तोड़ें। और उसका प्रयास करें। नींद की स्थिति में हम हैं। और नींद टूटनी जरूरी है। बेहोश हम हैं, होश आना जरूरी है। उस संबंध में कुछ प्रश्न पूछे गए हैं।
कैसे यह होश आ जाए? कल मैंने इस संबंध में कुछ बातें आपसे कहीं हैं, शायद वे पूरी तरह स्पष्ट न हुई हों, तो दो बातें और अंत में आपसे कहूंगा। मैंने कहा, जाग्रत चित्त जीवन के प्रतिपल बाहर और भीतर सब तरफ होश से भरा हुआ चित्त चाहिए। कैसे हम होश से भरें? शुरुआत करें तो समझ में आएगा।
 एक आदमी से हम कहें कि तैरना सीखना है, वह कहे कि तैरना मुझे सीखना है। और हम उसे बताएं कि पानी में उतरना पड़ेगा तो वह कहेगा कि पहले मुझे यह बता दें कि तैरना है क्या? फिर मैं पानी में उतरूं। क्योंकि बिना तैरे पानी में मैं न उतरूंगा, खतरनाक है। पहले मैं तैरना सीख लूं फिर मैं पानी में उतरूंगा। तो हम उसको कहेंगे, तब तो बहुत कठिनाई हो गई। तैरना सीखने के लिए भी पानी में उतरना पड़ेगा। अगर कोई यह तय कर ले कि पहले मैं तैरना सीखूंगा फिर पानी में उतरूंगा, तो वह कभी तैरना नहीं सीख सकेगा। तैरना सीखने के लिए पहली जरूरत है कि पानी में उतरे। जरूरी नहीं है कि जाकर समुद्र में उतर जाए एकदम, उथले पानी में ही उतरे, लेकिन पानी में उतरे।
 जागरूकता क्या है? इसे बिना जागरूकता के प्रयोग किए ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता। थोड़ा उतरना पड़ेगा। मैं कितना ही कहूं उससे कुछ भी नहीं जाना जा सकता। लेकिन आप थोड़े से प्रयोग करेंगे, तो जरूर आप खुद जान सकेंगे।
पहली बात, जीवन के सामान्य व्यवहार में जो भी कर रहे हैं, जो भी कर रहे हैं, सवाल नहीं है कि माला फेर रहे हैं, या पूजा कर रहे हैं, जो भी कर रहे हैं, उसे सोए-सोए न करें। उसे बेहोश-बेहोश न करें। उसे सचेत, जागते हुए, देखते हुए अत्यंत सावधानीपूर्वक, अटेंटिवली, स्मृतिपूर्वक कि मैं यह कर रहा हूं, यह हो रहा है, उसे इस भांति करें।
जैसे ही इसके प्रयोग करेंगे, छोटे-छोटे प्रयोग हैं, कोई हिमालय पर तो जाना नहीं है, रास्ते पर बंबई के चलते हैं तो होशपूर्वक चलें। इस बात का ध्यान रख कर चलें कि मैं चल रहा हूं। इस बात का बोध रख कर चलें कि मुझे खयाल है चलने का या नहीं, या कि मैं चला जा रहा हूं और मुझे पता ही नहीं है कि मैं चल रहा हूं। इसका बोध कि मैं चल रहा हूं, मेरा पैर उठ रहा है, मैं आगे बढ़ रहा हूं, इसका एक भीतरी बोध, इसका एक स्मरण, इसका एक खयाल, इसकी एक रिमेंबरिंग। भोजन कर रहे हैं तो इसका एक बोध कि मैं भोजन कर रहा हूं। कपड़े पहन रहे हैं तो इसका एक बोध कि मैं कपड़े पहन रहा हूं। शब्द नहीं देना है इसको कि आप कपड़े पहनते वक्त कहते रहें अपने मन में कि मैं कपड़े पहन रहा हूं, मैं कपड़े पहन रहा हूं, यह सवाल नहीं है। इस फीलिंग, इस भाव की, इस अनुभूति की कि मैं अब खाना खा रहा हूं, स्नान कर रहा हूं, इसका बोध, यह मुझे भूल न जाए। यह मेरी स्मृति में हो, यह मेरे खयाल में हो।
एक छोटी सी कहानी से समझ में आ सके शायद।
एक राजकुमार भिक्षु हो गया। उसने बुद्ध से दीक्षा ले ली। दीक्षा के दूसरे ही दिन वह नगर में भिक्षा मांगने को निकला। बुद्ध ने उससे कहा कि तू सदा राजकुमार रहा है, भीख मांगने की तुझे कोई आदत नहीं, थोड़े दिन रुक जा, फिर भीख मांगना, अभी तो मैंने एक परिवार में कह रखा है, तू वहां चले जाना, और वहां भोजन कर आना। मेरी एक श्राविका है, एक महिला है, जिसका मेरे प्रति आदर और प्रेम है, उससे मैंने कह रखा है, तू वहां जाना।
वह भिक्षु वहां गया। वह भोजन करने बैठा, भोजन करने जैसे ही बैठा, उसे खयाल आया, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, रास्ते में उसने सोचा था कि आज तो मैं भिखारी हो गया, पता नहीं क्या भोजन मिलेगा? उसे जो भोजन प्रिय थे उनकी याद आई थी। जैसे ही भोजन करने बैठा, देखा थाली में वे ही भोजन हैं, जो उसे प्रीतिकर थे, वह बहुत हैरान हो गया। सोचा शायद संयोग है। कोइंसीडेंस हो सकता है। मैंने सोचा वही भोजन बने होंगे। वह भोजन करके उठने को ही था कि तब उसे खयाल आया कि रोज तो मैं भोजन के बाद थोड़ा विश्राम करता था, आज विश्राम नहीं कर सकूंगा। आज तो फिर उठना है और जाना है, धूप में वापस आश्रम की ओर। वह महिला जिसने भोजन कराया था, सामने खड़ी थी, उसने कहा, भिक्षु जी अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे, तो मुझे बहुत आनंद होगा। फिर उसे थोड़ी सी हैरानी हुई, यही उसके मन में खयाल चलता था। लेकिन सोचा, संयोग की बात होगी, शिष्टाचारवश उसने कहा। वह लेट गया, चटाई डाल दी गई, वह लेटा ही था कि उसे खयाल आया कि आज न तो मेरा कोई घर है, न कोई शय्या है, न कोई साया है। अब सब पराया हो गया, कल तक सब मेरा था। वह श्राविका, वह महिला जाती थी, उसने लौट कर कहाः भंते, अगर बुरा न माने तो निवेदन करूं। न शय्या आपकी है, न मेरी है; न मकान आपका है, न मेरा है। हम मेहमानों से ज्यादा नहीं हैं इस जमीन पर।
अब संयोग मानना बहुत कठिन था। अब तो बात सीधी हो गई थी, वह भिक्षु उठ कर बैठ गया और उसने कहा क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मैं जो सोचता हूं, उसे तुम पढ़ लेती हो? उस श्राविका ने कहा, जब अपने विचारों को देखने की निरंतर कोशिश की, निरंतर-निरंतर अपने विचारों के प्रति जागी, तो बड़ी हैरानी हुई। खुद के विचार तो जागने और देखने के कारण धीरे-धीरे समाप्त हो गए और अब मन इतना ज्यादा संवेदनशील हो गया है कि पास में कोई भी कुछ विचार करता है तो उसके विचार पकड़ में आ जाते हैं। वह भिक्षु उठ कर, घबड़ा कर खड़ा हो गया। श्राविका ने कहाः लेटिए, विश्राम करिए, उसने कहा कि नहीं, उसने आंखें नीचे झुका लीं और वह दरवाजे से एकदम निकल भागा। समझ में भी न पड़ा कि बात क्या हो गई? श्राविका ने उसे कहा भी कि आप कैसे चले? लेकिन वह लौटा भी नहीं, उसने लौट कर धन्यवाद भी नहीं दिया।
उसने बुद्ध के पास जाकर कहा कि क्षमा करें, अब उस द्वार पर कल मैं भोजन करने न जा सकूंगा। बुद्ध ने कहा, क्यों? कोई भूल हुई। भोजन ठीक नहीं था? जिसके घर भेजा था, उन्होंने आतिथ्य नहीं किया? स्वागत नहीं किया? उसने कहाः नहीं, स्वागत पूरा हुआ। जो मुझे प्रिय था, वह मुझे मिला। बहुत भले लोग हैं वे, और जिस महिला ने मेरी वहां सेवा की वह अदभुत है, लेकिन वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा। बुद्ध ने कहाः कारण? उस भिक्षु ने कहाः कारण यह है कि वह महिला तो दूसरों के विचार पढ़ लेती है। और उस संुदरी युवती को देख कर मेरे मन में तो और विकार उठे थे, वासना भी उठी थी, वह भी उसने पढ़ ली होगी। मैं कैसे उसको मुंह दिखाऊंगा? उसकी आंख में आंसू आ गए। उसने कहा कि क्षमा करें, उसने तो मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया, लेकिन मुझे क्या पता था कि वह विचार भी पढ़ लेती है? वह क्या सोच रही होगी कि मैंने उसके साथ कैसा व्यवहार किया? मन में तो मैंने न मालूम क्या-क्या सोचा? वह सब पढ़ लिया गया है, मैंने उसके साथ बहुत दुव्र्यवहार किया है। काश! मुझे पता होता कि वह विचार पढ़ती है, तो शायद मैं सचेत रहता। लेकिन मुझे तो यह कोई पता भी नहीं था।
बुद्ध ने कहाः तुम्हें कल भी वहीं जाना होगा, मैंने जान कर तुम्हें वहां भेजा है। नये भिक्षुओं को वहां भेजने की मेरी आदत है, पुरानी। और इसीलिए भेजता हूं वहां, ताकि तुम अपने भीतर सचेत होना सीख सको। तुम कल भी वहां जाना, घबड़ाओ मत। लेकिन आज तुम सोए हुए गए थे भीतर कि भीतर क्या हो रहा है, तुम कोई खयाल ही नहीं कर रहे थे। कल तुम भीतर देखते हुए जाना कि भीतर कौन से विचार उठ रहे हैं? लेकिन जाना वहीं।
मजबूरी में उस भिक्षु को कल भी वहीं जाना पड़ा। उस भिक्षु की जगह थोड़ा अपने को रख कर सोच लेंगे तो आसानी होगी। आपको जाना पड़ रहा है। उस घर की तरफ जहां एक सुंदरी युवती आपके विचार पढ़ सकती है? आप कैसे जाएंगे उस घर की तरफ, सोए हुए जा सकते हैं? नहीं। भीतर एक चेतना होगी कि कौन सा विचार सरक रहा है, वह कहीं पढ़ न लिया जाए। जैसे-जैसे वह भिक्षु उस घर के पास पहंुचने लगा, भीतर जैसे रीढ़ सीधी हो गई। भीतर जैसे चित्त जग गया, भीतर जैसे सब नींद टूट गई। जैसे एक दीया जल गया। जब वह उसकी सीढ़ियों पर पहंुचा तो भीतर एकदम शांत और जागा हुआ था। एक-एक कदम उठा रहा था, तो उसे पता था। हृदय की धड़कन उसे सुनाई पड़ रही थी। कोई विचार सरकता था तो वह जागा हुआ था कि कहीं फिर कोई वैसा विचार खड़ा न हो जाए, देखूं क्या हो रहा है? वह भीतर प्रविष्ट हुआ, बैठा, उसने भोजन किया, उसने विदा ली। वह कल भागता हुआ, पीठ दिखा कर भागा था, आज वह नाचता हुआ वापस आया।
वह बुद्ध के पैरों पर आकर गिर पड़ा, बुद्ध ने पूछा क्या हुआ? उसने कहा कि एक अदभुत घटना घट गई। मैं जानता ही नहीं था कि जागना क्या है? मुझे पता ही नहीं था, आप बार-बार कहते थे भीतर जागो, भीतर जागो, मेरी कुछ समझ में नहीं आता था कि यह भीतर जागो क्या है? आज मैंने पहली दफा देखा कि भीतर जागना क्या है? और न केवल मैंने यह जाना कि जागना क्या है, बल्कि मैंने यह भी देखा कि जब मैं भीतर बिलकुल जाग गया, उसकी सीढ़ियों पर पहुंचा तो जैसे ही मैं जागता गया, वैसे ही विचार विलीन होते गए, समाप्त होते गए। और जब मैं पूरी तरह जागा हुआ था तो मेरे मन में कोई विचार नहीं था। एकदम शंाति थी, एकदम साइलेंस था। और उस शांति में मैंने जो आनंद और अमृत अनुभव किया है, वह अकल्पनीय है, उसे शब्दों में कहना कठिन है।
बुद्ध ने कहा, मेरे मित्र जो सोता है, उसके मन में ही विचार चलते हैं, जो जागता है उसके मन से विचार विदा हो जाते हैं। सोना ही विचार में होना है, जागना विचार के बाहर हो जाना है। जैसे एक घर हो, उस घर में कोई दीया न जलता हो भीतर, तो चोर उस घर की तरफ आकर्षित होते हैं, और एक घर हो जिसके भीतर दीया जलता हो तो चोर उस घर के प्रति आकर्षित नहीं होते।
बुद्ध ने कहाः जिस चित्त में जागरण का दीया जलता है, उसकी तरफ विचार और वासनाएं आकर्षित नहीं होते और जिस चित्त में कोई दीया नहीं जलता और सब अंधेरा होता है और सोया हुआ होता है, तो वहां सब कुछ आकर्षित होता है और घर में न मालूम कौन-कौन से मेहमान, अनचाहे मेहमान निवास करने लगते हैं।
हमारे भीतर भी अनचाहा बहुत कुछ निवास कर रहा है क्योंकि हम सोए हैं और हमारे भीतर का दीया बुझा हुआ है। यह दीया जग सकता है, लेकिन कोई और इसे नहीं जगाएगा। प्रत्येक को स्वयं उसे जगाना है। और प्रत्येक समर्थ है उसे जगाने में। और प्रत्येक की क्षमता है और प्रत्येक की संभावना है, जो भी श्रम करेगा, वह उस संभावना को वास्तविक बना लेता है।
इन तीन दिनों में इस छोटी सी बात को कहने के लिए ही मैंने सारी बातें कहीं कि आपके भीतर का दीया जल सकता है। एक मित्र ने अंतिम प्रश्न पूछा है कि मैं एक शब्द में कह दूं कि मेरा पूरा विचार क्या है? आप खुद भी वह शब्द सोच ले सकते हैं कि मैं क्या कहूंगा?
एक फकीर के पास जाकर किसी ने पूछा कि बहुत संक्षिप्त में बता दें कि आपका विचार क्या है, पूरा? तो उस फकीर ने कहाः जागो! उस व्यक्ति ने कहाः अभी मैं ठीक से नहीं समझा। आप एक शब्द और जोड़ें इसमें ताकि मैं समझ जाऊं । उसने दुबारा कहाः जागो! उस व्यक्ति ने कहाः मैं हैरान हूं, इससे मैं कुछ भी नहीं समझ रहा, आप एक शब्द, कुछ और थोड़ी व्याख्या कर दें। और उस फकीर ने तीसरी बार कहाः जागो! उसने कहाः इसमें और कोई व्याख्या की गंुजाइश नहीं है, इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता, बस यह एक शब्द है। बी अवेक! जागे हुए हो जाओ!
एक सूत्र में पूछा है, तो मैं आपसे यही कहता हूं, जागें। सोए हुए होना दुख है, जाग जाना आनंद है। सोए हुए होना नास्तिक होना है, जाग जाना आस्तिक होना है। सोए हुए कोई आस्तिक नहीं हो सकता। और जाग कर आज तक कोई नास्तिक नहीं हुआ है। सोए हुए कोई सुखी नहीं हो सकता, और जागा हुआ आदमी आज तक दुखी नहीं देखा गया है। सोए हुए किसी के जीवन में संगीत नहीं हो सकता, सुगंध नहीं हो सकती, शांति नहीं हो सकती। जागा हुआ कोई आदमी बिना सुगंध के और बिना संगीत के और सौंदर्य के नहीं देखा गया है।
इतना ही निवेदन करता हूं, सोए हुए होना पाप है, किसी और के प्रति नहीं, अपने प्रति। और जो अपने प्रति पाप करता है, सोने का, उससे रोज सबके प्रति पाप होते हैं। जागना पुण्य है, धर्म है, किसी और के प्रति नहीं, अपने प्रति। और जो अपने प्रति धर्म से भर जाता है, उसका जीवन सबके प्रति धर्म से भर जाता है।
परमात्मा करे, और परमात्मा कहां से करेगा? आपके भीतर से, क्योंकि वहीं वह है। जागने की एक लहर, एक अभीप्सा, एक प्यास पैदा हो जाए। वही प्यास प्रार्थना है, वही प्यास खोज है, इसकी प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को चार दिनों तक बड़े प्रेम और शांति से सुना, जिसकी मैं कोई अपेक्षा नहीं करता हूं, आप प्रेम और शांति से सुनेंगे क्योंकि बहुत सी ऐसी बातें हो सकती हैं जो आपको अशांत करती हों और परेशान करती हों। और बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिनमें आपका मन होता है बजाय प्रेम से सुनने के पत्थर मार कर सुनें; लेकिन फिर भी इतने प्रेम और शांति से उन बातों को सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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