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सोमवार, 13 अगस्त 2018

उपासना के क्षण-(प्रवचन-02)

 दूसरा प्रवचन--विसर्जन की कला

प्रश्नः आज सबेरे जो आपने बात किया, उस ईश्वर ने का योग जो गीता का मूल-मंत्र जो है उसमें इनसे पहली यही बात बताई है कि जिसका यह सुख और दुख इससे जो ‘पर’ होने की बुद्धि है वह ‘पर’ से जो आसक्ति उठा सकता है और जो उसमें भी समान भाव रख सकता है वही बड़ा पात्र बनता है, यह तत्व-ज्ञान है। यह आत्मा का पात्र ही वहां से शुरू होता है।
ये जो मन में विचारते हैं वही बात आती है। हमारे मन में जो मंथन चल रहा है वही बात आपके लेक्चर में आती है।
हूं, आपके प्रश्न भी दोहरा लें, हां।...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, आप भी बोलिए।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
ठीक।
हूं, और कोई प्रश्न हों तो वे सब पूछिए।...
हूं, पूछिए, पूछिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हूं-हूं, और कुछ तो नहीं है न अब बात?


आपने एक प्रश्न पूछा है कि आनंद का थोड़ी देर को अनुभव होता है फिर वह आनंद चला जाता है, तो वह आनंद और अधिक देर तक कैसे रहे?
यह बहुत महत्वपूर्ण है पूछना, क्योंकि आज नहीं कल जो लोग भी आनंद की साधना में लगेंगे, उनके सामने यह प्रश्न खड़ा होगा।
आनंद एक झलक की भांति उपलब्ध होता है, एक छोटी सी झलक, जैसे किसी ने द्वार खोला हो और बंद कर दिया हो। हम देख भी नहीं पाते उसके पार कि द्वार खुलता है और बंद हो जाता है। तो वह आनंद बजाय आनंद देने के और पीड़ा का कारण हो जाता है। क्योंकि जो कुछ दिखता है, वह आकर्षित करता है, लेकिन द्वार बंद हो जाता है। उसके बाबत चाह और भी घनी पैदा होती है। और फिर द्वार खुलता नहीं। बल्कि फिर जितना हम उसे चाहने लगते हैं, उतना ही उससे वंचित हो जाते हैं।...
ये सारी चीजें ऐसी हैं कि चाही नहीं जा सकतीं। अगर मैं किसी व्यक्ति से चाहूं कि उसने इतना प्रेम दिया है मुझे, और प्रेम दे, तो जितना मैं चाहने लगूंगा, उतना मैं पाऊंगा कि प्रेम उससे आना कम हो गया है। प्रेम उससे आना बंद हो जाएगा। ये चीजें छीनी नहीं जा सकतीं। ये जबरदस्ती पजेस नहीं की जा सकतीं। जो आदमी इनको जितना कम चाहेगा, जितना शांत होगा, उतनी अधिक उसे उपलब्धि होगीं।
एक बहुत पुरानी कथा है। मैं पिछली बार कहा भी आपको। एक हिंदू कथा है। एक काल्पनिक ही कहानी है। नारद एक गांव के करीब से निकले। एक वृद्ध साधु ने उनसे कहा कि तुम भगवान के पास जाओ तो उनसे पूछ लेना कि मेरी मुक्ति कब तक होगी? मुझे मोक्ष कब तक मिलेगा? मुझे साधना करते बहुत समय बीत गया। नारद ने कहाः मैं जरूर पूछ लूंगा। वे आगे बढ़े तो बगल के बरगद के दरख्त के नीचे एक नया-नया फकीर जो उसी दिन फकीर हुआ था, अपना तंबूरा लेकर नाचता था, तो नारद ने उससे मजाक में पूछा, नारद ने खुद उससे पूछा, तुमको भी पूछना है क्या भगवान से कि कब तक तुम्हारी मुक्ति होगी? वह कुछ बोला नहीं।
जब वे वापस लौटे, उस वृद्ध फकीर से उन्होंने जाकर कहा कि मैंने पूछा था, भगवान बोले कि अभी तीन जन्म और लग जाएंगे। वह अपनी माला फेरता था, उसने गुस्से में माला नीचे पटक दी। उसने कहा, तीन जन्म और! यह तो बड़ा अन्याय है। यह तो हद्द हो गई।
नारद आगे बढ़ गए। वह फकीर नाचता था उस वृक्ष के नीचे। उससे कहा कि सुनते हैं, आपके बाबत भी पूछा था, लेकिन बड़े दुख की बात है; उन्होंने कहा कि वह जिस दरख्त के नीचे नाचता है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने जन्म उसे लग जाएंगे।
वह फकीर बोला, तब तो पा लिया। और वापस नाचने लगा। वह बोला, तब तो पा लिया, क्योंकि जमीन पर कितने पत्ते हैं! इतने ही पत्ते, इतने ही जन्म न? तब तो जीत ही लिया, पा ही लिया। वह वापस नाचने लगा। और कहानी कहती है, वह उसी क्षण मुक्ति को उपलब्ध हो गया, उसी क्षण।
यह जो नाॅन-टेंस, यह जो रिलैक्स माइंड है, जो कहता है कि पा ही लिया। इतने जन्मों के बाद की वजह से भी जो परेशान नहीं है और जो इसको भी अनुग्रह मान रहा है प्रभु का, इसको भी उसका प्रसाद मान रहा है कि इतनी जल्दी मिल जाएगा, वह उसी क्षण सब पा लेगा।
तो हमारे मन की दो स्थितियां हैं। एक तो टेंस स्थिति होती है, जब हम कुछ चाहते हैं कि मिल जाए और एक नाॅन-टेंस स्थिति होती है, जब कि हम चुपचाप जो मिल रहा है, उसको रिसीव करते हैं; कुछ झपटते नहीं। टेंस स्थिति एग्रेसिव है, वह झपटती है। नाॅन-टेंस स्थिति रिसेप्टिव है, वह छीनती नहीं, वह चुपचाप ग्रहण करती है।
ध्यान जो है वह एग्रेसन नहीं है, रिसेप्शन है। वह आक्रमण नहीं है, वह आमंत्रण है। वह झपटता नहीं कुछ; जो आ जाता है, उसे स्वीकार कर लेता है।
तो आनंद के क्षणों को, शांति के क्षणों को झपटने की, पजेस करने की कोशिश न करें। वे ऐसी चीजें नहीं हैं कि पजेस की जा सकें। वह कोई फर्नीचर नहीं है जो अपन बस से उठा कर कमरे में रख लें। वह तो उस प्रकाश की तरह है कि द्वार हमने खोल दिया, बाहर सूरज उगेगा तो प्रकाश अपने आप भीतर आएगा। हमारे लिए प्रकाश को बांध कर भीतर लाना नहीं पड़ता है, सिर्फ द्वार खोल कर प्रतीक्षा करनी होगी। वह आएगा। वैसे ही मन को शांत करके हम चुपचाप प्रतीक्षा करें और जो मिल जाए उसके लिए धन्यवाद करें और जो नहीं मिला, उसका विचार न करें; तो आप पाएंगे कि रोज-रोज आनंद बढ़ता चला जाएगा, बिना मांगे कोई चीज मिलती चली जाएगी, बिना मांगे कोई चीज गहरी होती चली जाएगी। और अगर मांगना शुरू किया, जबरदस्ती चाहना शुरू किया, तो पाएंगे कि जो मिलता था, वह भी मिलना बंद हो गया।
समस्त साधकों के लिए, जो आत्मिक आनंद की तलाश में चलते हैं, सबसे बड़े खतरे के क्षण तब आते हैं, जब उनको थोड़ा-थोड़ा आनंद मिलने लगता है। बस, अक्सर वहीं रुकना हो जाता है। वह मिला कि उनका मन होता है और मिल जाए। और जहां उनका यह मन हुआ कि और मिल जाए, वह जहां एग्रेसिव हुए पाने के लिए, वह जो मिलता है, उसके दरवाजे भी बंद हो जाएंगे।
तो इतना स्मरण रखें कि जो मिलता है, उसके लिए भगवान का धन्यवाद करें; और जो नहीं मिलता है, उसकी फिकर न करें; और अपने भीतर शांत होने के प्रयास में संलग्न रहें। क्या मिलता है, इसकी चिंता छोड़ दें; हम क्या बन रहे हैं, शांत कैसे हो रहे हैं, इसकी चिंता करें। जिस मात्रा में आप शांत हो जाएंगे, उस मात्रा में आनंद मिलना अनिवार्य है। उसकी फिकर छोड़ दें। यानी इसकी बिलकुल फिकर छोड़ दें कि क्या मिला, क्योंकि वह जो भी मिलने की आपकी क्षमता पैदा हो जाएगी, उसके आप हकदार हैं, वह आपको मिलेगा ही।
इसी संदर्भ में आपने पूछा कि हम बुरा कर्म करते हैं तो लोग कहते हैं कि बुरा परिणाम मिलेगा, अच्छा काम करेंगे तो अच्छा परिणाम मिलेगा।
यह जो हम सोचते हैं, मिलेगा, फ्यूचर की भाषा में, यह गलत है। हमने बुरा काम किया, उसी क्षण बुरा हो गया, कुछ आगे नहीं मिलेगा, उसी क्षण हमारे भीतर कुछ बुरा हो गया। हमने कुछ भला किया, उसी क्षण हमारे भीतर कुछ भला हो गया। हम अपने को कांस्टेंटली क्रिएट कर रहे हैं। हमारा प्रत्येक कर्म हमको बना रहा है। बनाएगा नहीं, इसी क्षण बना रहा है। हम अगर ठीक से जिसको जीवन कहते हैं, वह जीवन ही नहीं है, वह एक सेल्फ क्रिएशन भी है। जो-जो हम कर रहे हैं, उससे हम बन रहे हैं, हमारे भीतर कुछ बन रहा है, कुछ घना हो रहा है, कुछ अपने ही भीतर हम अपने चैतन्य का निर्माण कर रहे हैं। तो हम जो-जो कर रहे हैं, उसके, ठीक उसके अनुकूल या उसके जैसा हमारे भीतर कुछ बनता चला जा रहा है।
तो लोग कहते हैं कि नरक में आप चले जाएंगे या स्वर्ग में चले जाएंगे। वे कुछ इस तरह की बात करते हैं जैसे नरक और स्वर्ग कोई ज्योग्राफी में कहीं होंगे। लोग जिस तरह की बात करते हैं, मैं ऐसा नहीं करता, नरक और स्वर्ग ज्योग्राफी में नहीं हैं, साइकोलाॅजी में हैं। वह भौगोलिक धारणाएं नहीं हैं, मानसिक धारणाएं हैं। जब आप बुरा करते हैं, उसी क्षण नरक में चले जाते हैं।
मेरी धारणा मैं आपको कह रहा हूं। जब मैं क्रोध करता हूं, तो मैं उत्तप्त हो जाता हूं और अग्नि की लपटों में अपने आप चला जाता हूं, उसी वक्त। तो नरक में आप कभी चले जाएंगे, ऐसा नहीं है या स्वर्ग में आप कभी चले जाएंगे, ऐसा नहीं है। चैबीस घंटे में आप अनेक बार नरक में होते हैं और अनेक बार स्वर्ग में होते हैं। जब-जब आप क्रोध से भरते हैं, उत्ताप तीव्र वासना से भरते हैं, तब-तब आप अपने भीतर नरक को आमंत्रित कर लेते हैं।
तो लोग कहते हैं, आप नरक में चले जाएंगे या स्वर्ग में चले जाएंगे; मेरा मानना ऐसा है कि आपमें नरक और स्वर्ग अनेक बार आ जाता है। वह आपकी मानसिक घटना है। कहीं जमीन फोड़ कर नीचे नरक नहीं मिलेगा और कहीं आकाश में खोजने से कहीं कोई स्वर्ग नहीं मिल जाएगा। और आप हैरान होंगे कि सारी दुनिया के लोगों की स्वर्ग-नरक की धारणाएं बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि वे तो साइकोलाॅजिकल हैं।
तिब्बत है, तिब्बत में जो नरक है, उनकी जो कल्पना है नरक की, वह बड़े ठंडे स्थान की है। क्योंकि तिब्बत में ठंडक बहुत कष्टप्रद है। तिब्बत में ठंडक बहुत कष्टप्रद है। ठंडक से कष्टप्रद तिब्बत में कुछ भी नहीं है। तो तिब्बत की जो कल्पना है नरक की, कि जो पापी होंगे, वे एक ऐसे स्थान में जाएंगे, जहां इतनी ठंडक है, उनकी मुसीबत हो जाएगी। यह ठंडक से बड़ी मुसीबत नहीं है कोई। हमारे मुल्क की जो कल्पना है नरक की, वह अग्नि की लपटों वाली है, वहां ठंडक नहीं है, नहीं तो हमको तो वह हिल-स्टेशन साबित होगा।
तो हमारे मुल्क में हम सोचते हैं कि जो नरक है, वहां तो अग्नि की लपटें जल रही हैं और उसमें डाला जाएगा और कड़ाइयां जल रही हैं तेल की, उनमें पटका जाएगा। ये हमारी कल्पनाएं हैं। क्योंकि गर्मी हमें कष्ट देती है तो हम सोचते हैं पापी को कष्ट देने के लिए गरम जगह होगी। और तिब्बत में ठंडी जगह है और भारत में गरम जगह है। ऐसा नरक नहीं हो सकता या उसमें ऐसे खंड नहीं हो सकते, वहां ठंडे और नरक...
असल में ये तो हमारी कष्ट की कल्पनाएं जो हैं, उनको हम इस भांति प्रवेश में कल्पित कर लेते हैं।
कष्ट मानसिक घटना है, भौगोलिक घटना नहीं है। अभी भी आप जब बुरा करते हैं तो आपके भीतर अत्यंत कष्टप्रद स्थितियों का निर्माण होता है। तो अभी कभी-कभी होता है, अगर आप निरंतर बुरा करते जाएंगे तो वह सतत होने लगेगा। और करते चले जाएंगे तो एक घड़ी ऐसी आ सकती है कि आप चैबीस घंटे नरक में होंगे।
तो आदमी, आम आदमी कभी नरक में होता है, कभी स्वर्ग में होता है। फिर बहुत बुरा आदमी अधिकतर नरक में रहने लगता है। फिर बिलकुल बुरा आदमी चैबीस घंटे नरक में रहने लगता है। भला आदमी स्वर्ग में रहने लगता है। और भला आदमी और स्वर्ग में रहने लगता है। बिलकुल भला आदमी बिलकुल स्वर्ग में रहने लगता है। जो भले और बुरे दोनों से मुक्त है, वह आदमी मोक्ष में रहने लगता है। मोक्ष में रहने लगने का मतलब यह है, कोई स्थान नहीं है यह, कहीं स्पेस में खोजने पर ये जगह नहीं मिलेंगी कि यह रहा स्वर्ग और यह रहा नरक। यह मनुष्य की जो साइकोलाॅजी है, उसका जो मानसिक जगत है, उसके विभाजन हैं।
तो मानसिक जगत के तीन विभाजन हैंः नर्क और स्वर्ग और मोक्ष। नरक से, जिसको मैंने आज सुबह कहा दुख; स्वर्ग से, जिसको मैंने आज सुबह कहा सुख; और मोक्ष से मेरा मतलब हैः न सुख, न दुख, वह जो आनंद है।
तो यह मत सोचिए कि कल कभी ऐसा होगा कि हम बुरा करेंगे तो उसका बुरा फल होगा। यह मत सोचिए कि हम भला करेंगे तो उसका भला फल होगा।:जो भी हम कर रहे हैं, साइमलटेनियसली, उसी वक्त, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता कि मैं अभी क्रोध करूं और अगले जन्म में मुझे उसका फल मिले, यह बड़ी डीलेड हो जाएगी, यह बात फिजूल हो जाएगी। क्योंकि इतनी देर क्या होगा? मैं अभी क्रोध करूं, अगले जन्म में मुझे फल मिले, यह बात बड़ी फिजूल हो जाएगी। इतनी देर क्यों होगी?
मैं जब क्रोध कर रहा हूं, क्रोध करने में ही मैं क्रोध का फल भोग रहा हूं। क्रोध के बाहर क्रोध का फल नहीं है। क्रोध ही मुझे वह पीड़ा दे रहा है, जो क्रोध का फल है। और जब मैं अक्रोध कर रहा हूं तो मुझे उसी क्षण फल मिल रहा है, क्योंकि अक्रोध का जो आनंद है, वही उसका फल है। जब मैं किसी की हत्या करने जा रहा हूं तो हत्या करने में ही मैं वह कष्ट भोग रहा हूं जो कि हत्या करने का है और जब मैं किसी की जान बचा रहा हूं तो उस जान बचाने में ही मुझे वह सुख मिल रहा है जो कि उसमें छिपा है। मेरी आप बात समझ रहे हैं न?
कर्म ही फल है। कर्म का कोई फल नहीं होता, कभी भविष्य में नहीं। कर्म ही, प्रत्येक कर्म अपना फल स्वयं है।
तो बुरा कर्म मैं उसको नहीं कहता जिसके बाद में बुरे फल मिलेंगे। बुरा कर्म मैं उसको कहता हूं जिसका बुरा फल उसी क्षण तुम्हें मिल रहा है। उस फल को जांच कर ही अनुभव कर लेना कि कर्म बुरा है या भला है। जो कर्म अपनी क्रिया के भीतर ही दुख देता हो वही कर्म बुरा है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, मेरी धारणा मैं आपको बताऊं।

प्रश्नः आपने बोला न कि जो हैबिच्युअल हो जाता है, उसको कैसा असर होगा?

जी?

प्रश्नः जो हैबिच्युअल हो गया, बुरा करने के लिए, अच्छा करने के लिए; उसको पीछे असर कैसा होगा?

उसी क्षण हो रहा है। फर्क इतना ही है।

प्रश्नः हैबिच्युअल होने पर।

हां, मैं आपको बताता हूं। आप कितने ही हैबिच्युअल हो जाएं, आप कितने ही हैबिच्युअल हो जाएं, जैसे समझ लीजिए, एक आदमी निरंतर क्रोध करने की आदत हो जाए उसे, तो क्या आप सोचते हैं क्रोध उसे पीड़ा नहीं देगा? उसे तो और भी पीड़ा देगा। आप ऐसा समझिए कि आपमें से कुछ कभी-कभी क्रुद्ध होते हैं, कुछ फिर क्रुद्ध रहने ही लगते हैं। यानी इतनी आदत हो जाती है कि वे चैबीस घंटे क्रुद्ध हैं और वे मौके की तलाश में हैं कि कभी आप कुछ मौका दें और वे क्रोध जाहिर कर दें। वे क्रुद्ध हैं। वे चढ़े ही हुए हैं क्रोध में। वे घूम रहे हैं चारों तरफ कि आप मौका दें और वे क्रोध को जाहिर करें। बाकी वे क्रुद्ध हैं, उनके चेहरे, उनके भीतर घूम रहा है क्रोध।
उनकी पीड़ा आप अनुभव नहीं कर सकते। बड़ी पीड़ा तो यह है कि वे सारे सुख और शांति के सब क्षणों से वंचित हो गए। क्योंकि जो निरंतर चैबीस घंटे भीतर क्रुद्ध है, वह किसी शांति के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा। वह किसी प्रेम के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा। वह किसी आनंद के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा। वे सब तो द्वार उसने अपने क्रोध से ही बंद कर लिए। वह जो टेंशन चल रहा है चैबीस घंटे क्रोध का उसने सारे महत्वपूर्ण क्षणों को बंद कर दिया। बड़ा तो उसे दंड यह मिल गया। और फिर क्रोध की जो अग्नि है वह अलग उत्ताप दे रही है उसे। उसके शरीर को भी कष्ट दे रही है, उसके मन को भी कष्ट दे रही है और निरंतर उसे नीचे लेती चली जाएगी।
दो तरह के इमोशंस हैं, निगेटिव और पाजिटिव। कुछ इमोशंस हैं, जैसे क्रोध है, घृणा है, इनको करके आपको तत्क्षण नुकसान हो जाता है। आगे नहीं कभी, उसी वक्त आपमें से कुछ खो जाता है, आप खंडित हो जाते हैं, आप नीचे हो जाते हैं। आप कभी अनुभव करें, क्रोध के बाद एक क्षण विचार कर अनुभव करें कि क्या हुआ? आप पाएंगे कि आप कहीं ऊंचे तल पर थे, नीचे आ गए। आप कहीं शांति में थे, वह शांति गई, आप बड़ी अशांति में आ गए। आप पाएंगे, कुछ अगर ताजगी थी भीतर, वह ताजगी खो गई और सब बासा-बासा हो गया। आपमें अगर कोई शक्ति अनुभव होती थी, वह शक्ति चली गई और बहुत थके-थके मालूम हो रहे हैं।
जो-जो चित्त की प्रक्रियाएं आपको थकान लाती हों, कष्ट लाती हों, उदासी लाती हों, नीचे उतरे का भाव लाती हों, अशांति लाती हों, वे सब निगेटिव हैं। पाजिटिव भी हैं, कि जिनको करने के बाद आप अनुभव करते हैं कि आप और ताजे हो गए; जिनको करने के बाद आप अनुभव करते हैं कि शक्ति और अनुभव हो रही है; जिनको करने के बाद आपको अनुभव होता है कि शांति घनी हो गई; जिनको करके आपको अनुभव होता है आप कोई दो सीढ़ियां अपने आंतरिक जीवन में ऊपर चढ़ आए। निरंतर आपको अनुभव होगा। दोनों तरह के काम आप कर रहे हैं और दोनों तरह के काम का हरेक को अनुभव है।
तो मेरी जो धारणा है, कोई कर्म भविष्य में फल नहीं लाता। कर्म ही फल है। उसी क्षण। क्योंकि हिसाब-किताब कौन रखेगा कि किस...इससे मतलब क्या है। यह तो फिजूल का पागलपन का खयाल है कि कोई हिसाब-किताब रखेगा और फिर आपको नरक भेजेगा और आपको स्वर्ग भेजेगा।

प्रश्नः खयाल ऐसा है कि जो कर्म के, जैसे बैंक में क्रेडिट व डेबिट की तरह होता है और पीछे इसका हिसाब-किताब करते हैं।

कोई हिसाब कहीं...मेरी धारणा मैं आपको कहता हूं कि एक-एक कर्म हमने किया, करने में ही हमने उसे भोग लिया। तो बुरा कर्म नरक में नहीं ले जाएगा, बुरा कर्म नरक है। भला कर्म स्वर्ग में नहीं ले जाएगा, भला कर्म स्वर्ग है। और वह तीसरी स्थिति की मैंने बात कही, जो कि कर्म के बाहर है, वह आनंद है, वह मोक्ष है। न वहां शुभ कर्म हैं, न वहां अशुभ कर्म हैं। न वहां क्रोध है, न क्रोध का क्षमा करना है, वहां वह कुछ भी नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, वह कुछ भी नहीं है। वहां वे दोनों बातें नहीं हैं। वहां परम शांति है।
तो वह आप जो पूछे कि उस क्रोध को हम क्या करें? वह जो हममें उठता है, वह जो हममें घना होता है, हम उसको क्या करें?
हम दो ही काम करते हैं, क्रोध उठेगा तो हम दो काम करते हैं। एक काम तो हम यह करते हैं कि जैसे ही क्रोध उठता है, हम उसे किसी को बिंदु बना कर निकालते हैं। तो मुझे क्रोध उठा तो मैं किसी को बिंदु बनाऊंगा और निकालूंगा। एक तो यह है। दूसरा यह काम है कि जब क्रोध उठता है तो मैं किसी को बिंदु नहीं बनाता, अपने को बिंदु बनाता हूं और उसे दबा लेता हूं। मतलब दो हैं, या तो मैं उसे निकालता हूं और या दबा लेता हूं। या तो क्रोध करता हूं या सप्रेस कर लेता हूं, उसे दमन कर लेता हूं।
दोनों स्थितियों में भारी गलती हो जाती है। जब मैं किसी पर उसे निकालता हूं, जब मैं उस वेग को किसी पर निकालता हूं तो मुझे उसे निकालने की आदत पड़ती है। यानी कल मैं उसे और जल्दी निकालूंगा, परसों फिर और जल्दी निकालूंगा। एक दिन ऐसी हालत आएगी कि मैं उसे बिना कारण भी निकालने लगूंगा। एक दिन ऐसी हालत आएगी कि मुझे इससे मतलब ही नहीं रहेगा कि उसमें कुछ संबंध भी था कि नहीं और मैं निकालूंगा।
हम चैबीस घंटे जो क्रोध कर रहे हैं, उसमें अनेक बार उन लोगों पर क्रोध कर रहे हैं, जिनका कोई संबंध नहीं था। अक्सर हम उन लोगों का क्रोध जिनका संबंध था, उन पर भी निकालते हैं, जिनका कोई संबंध नहीं था। हो सकता है आप दुकान पर किसी से क्रुद्ध हुए हैं और नहीं निकाल सकते, घर में बच्चे पर निकाल सकते हैं, पत्नी पर निकाल सकते हैं। फिर क्रोध कहीं भी निकलने लगेगा। फिर वह धीरे-धीरे बिलकुल इररेशनल हो जाएगा, उसमें यह भी फिकर नहीं रहेगी कि इसने कुछ किया या नहीं।
आप हैरान होंगे, आप चीजों तक पर क्रोध निकाल लेते हैं। दरवाजा नहीं खुलता तो उसको इतने जोर से धक्का देते हैं, गाली भी देते हैं। और कभी-कभी सोचने की बात है कि दरवाजे को गाली देने या दरवाजे को धक्का देने में कौन सी अकल हो सकती है। मैं लोगों को देखता हूं, कलम स्याही नहीं फेंक रही, उसको गाली देकर पटक देते हैं। मैं बड़ा हैरान हूं कि इस कलम पर भी इनका क्रोध निकल रहा है, जो कि बेचारी बिलकुल ही, जिसे क्रोध से कोई मतलब नहीं है। तो जो आदमी कलम पर क्रोध निकाल रहा है, उसके क्रोध से क्या घबड़ाना। मतलब वह आप पर भी ऐसे ही निकाल रहा है, उसे कोई मतलब थोड़े ही है। वह तो उसके लिए मुद्दा चाहिए, कहीं भी निकाल रहा है। कहीं भी निकाल रहा है।
जापान में एक साधु हुआ, उससे एक जर्मन विचारक मिलने गया था। जब वह उससे मिलने गया तो वह एक आदमी से कह रहा था कि जाकर जूते से क्षमा मांग कर आओ, तुमने जूते गुस्से में निकाले हैं। वह जर्मन विचारक बड़ा हैरान हुआ कि यह क्या पागलपन हो रहा है! वह उससे कह रहा है कि तुम जूते से क्षमा मांग कर आओ। और वह आदमी पागल गया भी। वह तो बड़ा हैरान हुआ विचारक कि यह क्या कर रहा। वह आदमी गया और उसने जूते से जाकर क्षमा मांगी कि महानुभाव क्षमा करिए। तो उसने उससे पूछा साधु से कि यह पागलपन, हमने सुना था कि पूरब के साधु बड़े पागल होते हैं। यह क्या पागलपन है? जूते से क्षमा मंगवाते हैं?
वह बोला कि इस आदमी ने जूता क्रोध से उतारा। अगर आप जूते को क्रोध से उतारने के योग्य मानते हैं तो फिर क्षमा मांगने योग्य भी मानना चाहिए। इसने ऐसे जूते को उतारा कि जैसे कि वह उस पर क्रोध कर रहा है।
उस आदमी ने कहाः हां, मैंने क्रोध किया था। मैं क्रुद्ध तो किसी और बात से था, जूते ने जरा देर की उतरने में तो मैंने उसे गुस्से से उतारा था। तो यह साधु ने मुझसे क्षमा मंगवाई है उससे कि तुम क्षमा मांग कर आओ। तो ही अंदर आओ, नहीं तो क्या तुम्हारा फायदा अंदर आने का।
हम अनुभव करें अगर तो हम पाएंगे कि क्रोध निकास लेता है। जो उसे निकालने की निरंतर आदत में पड़ जाएगा, वह धीरे-धीरे उसे निकालता रहेगा और जितना क्रोध निकालेगा उतनी आत्म-शक्ति हीन होती चली जाएगी।
तो क्रोध को निकालने का रास्ता तो गलत है क्योंकि उससे क्रोध और घना होगा। और एक रास्ता यह है कि क्रोध को दमन करो। जो लोग भी क्रोध से बचना चाहते हैं, फिर वे दूसरे रास्ते का उपयोग करते हैं। जब क्रोध आए तो ऊपर तो मुस्कुराहट कायम रखो और क्रोध को भीतर दबा लो। हममें से अधिक लोग यह करते हैं। अनेक कारणों से। कुछ लोग करते हैं धार्मिक वजह से कि क्रोध करना बुरा है, इससे नरक में जाना पड़ेगा। कुछ लोग शिष्टाचार के वश कि कैसे क्रोध करें। कुछ लोग कुछ सामाजिक संबंधों के कारण कि कैसे क्रोध करें। कुछ इसलिए कि मालिक के साथ नौकर कैसे क्रोध करे। तो हम अपने को दबाते हैं, दमन करते हैं, रिप्रेशन करते हैं।
जब आप क्रोध को दबाते हैं, तब भी आप नुकसान कर रहे हैं। क्योंकि दमित क्रोध जाएगा कहां, वह भीतर घूमेगा। वह कांशस माइंड से दब जाएगा तो अनकांशस माइंड में घूमेगा। आप ऐसे सपने देखोगे जिसमें आपने किसी की हत्या कर दी। आप मन ही मन में ऐसी कल्पना करोगे कि उसके मकान में आग लगा दी या उसको जूते मार रहे हैं या कुछ कर रहे हैं। मन में ही चलेगा यह अब। यह आपके भीतर सरकेगा। और आपके चित्त को अंदर से विकृत करेगा और घुन लगा देगा।

प्रश्नः यह भी क्रोध है।

यह भी क्रोध है। यह आंतरिक दमन हुआ, वह चल रहा है भीतर। पहले से नुकसान था कि आदत पड़ती, इससे नुकसान यह है कि आप धीरे-धीरे क्रोध से उत्तप्त रहने लगोगे। उसके वेग निकलेंगे नहीं, वे वेग भीतर घुमड़ेंगे।
ऐसा आदमी बड़ा घातक है, वह कभी इतना खतरनाक क्रोध करेगा जो कि पहले वाला आदमी कभी नहीं कर सकता। इसलिए कई दफे बहुत सीधे-सादे दिखने वाले लोग हत्याएं कर देते हैं। आमतौर से बहुत क्रोधी लोग हत्या नहीं करते। क्योंकि उनका रोज-रोज क्रोध निकलता है। लेकिन जो क्रोध को दमन करता चला जाएगा, कई दफा यह अनुभव हुआ कि यह आदमी तो बड़ा सीधा था, इसने यह काम कैसे किया? उसने बहुत दिन दमन किया। वेग बहुत इकट्ठा हो गया। फिर किसी चीज से वह क्रुद्ध हो गया और सारा वेग इकट्ठा निकल गया। और तब वह बहुत खतरनाक काम कर सकता है। यह वेग किसी दिन निकल सकता है। ऐसा आदमी पागल हो सकता है। यह वेग इतना ज्यादा दमित हो जाए कि इसके निकलने का रास्ता न रहे तो दिमाग खराब हो जाएगा।
कोई भी वासना, कोई भी वेग किया जाए तो आदत बनती है, दमन किया जाए तो विक्षिप्त कर सकता है। तो दूसरा भी रास्ता रास्ता नहीं है।
तो न तो मैं निकालने को कहता हूं, न दबाने को कहता हूं, मैं कुछ तीसरी बात कहता हूं। मैं उसे विसर्जन करने को कहता हूं। एक है क्रोध का भोगना, एक है क्रोध का दमन करना और एक है क्रोध का विसर्जन करना।
विसर्जन करने को समझने की बात है। जब क्रोध उठे, तो न तो उसे किसी पर प्रकट करिए, क्योंकि आपमें क्रोध उठा इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं है, आप ही जिम्मेवार हैं। इसको स्मरण रखिए। हम आमतौर से बोझ दूसरे पर टाल देते हैं कि मुझे इसलिए क्रोध उठा कि उस आदमी ने गाली दी। लेकिन किसी की गाली मुझमें क्रोध को नहीं उठा सकती अगर मुझमें क्रोध न हो। मेरे भीतर जो है, वही कोई दूसरा मुझमें उठा सकता है।
यहां हम पर्दा खोलें, यहां इतने लोग बैठे दिखाई पड़ें, तो पर्दा खोलने वाला इतने लोगों को पैदा थोड़े ही कर रहा है। वह पर्दा खोल भर रहा है। यहां इतने लोग दिखाई पड़ते हैं, ये यहां मौजूद हैं। जब एक आदमी आपको गाली देता है तो आपमें क्रोध थोड़े ही पैदा करता है, आपके भीतर पर्दा खोलता है, क्रोध आपके भीतर मौजूद है। अगर वहां क्रोध मौजूद न हो, गाली क्रोध नहीं ला सकती।
मेरी आप बात समझे न? वहां क्रोध मौजूद है इसलिए गाली क्रोध लाती है। वहां अभिमान मौजूद है इसलिए सम्मान सुख लाता है।
एक आदमी आपका बड़ा आदर करता है, आप बड़े सुखी हो गए। आप सोचते हैं, सुख उसने दिया! वहां तो अभिमान मौजूद था, उसने पर्दा भर खोल दिया सम्मान करके। वहां अब बड़ा अच्छा लगने लगा। उसने गाली दे दी, अपमान हो गया, वहां अभिमान तो मौजूद था, आप क्रुद्ध हो गए।
आपके भीतर चीजें मौजूद हैं, बाहर के लोग केवल जो मौजूद हैं उसी को प्रकट करने का कारण बन सकते हैं। आपके भीतर पैदा कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता है।
इसे स्मरण रखें कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में कुछ भी पैदा नहीं कर सकता है। सिर्फ जो उसमें मौजूद है, उसको दिखला सकता है। तो दूसरे पर तो क्रोध को कभी कारण न मानें कि दूसरे ने क्रोध करवा दिया है। फिर इसलिए दूसरे का तो चिंतन सवाल नहीं रखता।
और फिर मैंने जैसा परसों रात आपको कहा, कि जब-जब आप उसका चिंतन करने लगेंगे, तब-तब क्रोध को आप देख नहीं पाएंगे। आप उसको देखने लगे जिसने गाली दी। मैं उसका विचार करने लगा। उसी बीच क्रोध मुझे पकड़ लेगा और मथ डालेगा। उसी बीच मैं नरक में उतर जाऊंगा। तो जब वह उसने गाली दी तब उसकी तो फिकर छोड़ें, आंख बंद करके अपने क्रोध को देखें।
तो एक रास्ता तो निकालने का था, वह तो उपयोग का नहीं है। दूसरा रास्ता दमन करने का था, वह भी उपयोग का नहीं है। तीसरा रास्ता हैः न तो निकालें, न दमन करें। आंख बंद कर लें। क्रोध का साक्षात करें, उसके साक्षी बनें, उसके विटनेस बनें, उसको देखें, सिर्फ देखें। उसे पूरा उठने दें। उससे कह दें कि उठो और हम तुम्हें देखते हैं, तुम क्या हो। न तो हम निकालेंगे, न हम दमन करेंगे, हम तुम्हें देखेंगे।
एकांत कोने में बंद हो जाएं, साधना का बड़ा अदभुत क्षण है। क्रोध पकड़े, साधना के लिए अदभुत क्षण समझें। मंदिर जाने से वह लाभ न होगा, जो क्रोध में आ जाने से हो सकता है। दरवाजा बंद कर दें। एकांत में शांत होकर बैठ जाएं। आंख बंद कर लें और कृपा समझें उस आदमी की जिसने इस क्रोध को देखने का आपको मौका दिया, जो आपके भीतर था। इस नरक का आपको मौका दिया। आंख बंद कर लें, अब इस पूरे को उठने दें और चुपचाप इसे देखें। इसे कुछ न करें, इसे छेड़ें-छाड़ें नहीं। एक जस्ट अवेयरनेस भर इसके बाबत पैदा करें कि देख रहे हैं हम उसे, उसे उठने दें, उसके पूरे रूप को फैलने दें, चुपचाप देखते रहें। न तो उसे किसी पर अभी चित्त में भी निकालने की कोशिश करें और न दबाने की।

प्रश्नः फर्क इतना है कि एक सेकेंड में क्रोध आ जाता है तो एक सेकेंड में इसका दमन कैसे करने का है?

नहीं-नहीं, दमन को तो मैं नहीं कह रहा, दमन को मैं नहीं कह रहा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

एकांत, हां। अपने को बंद कर लें कहीं, चुपचाप और जो उठता है उसे देखें। सिर्फ देखें। कुछ न करें। एक क्षण को उठेगा, उसको ही देखें। कोई फिकर नहीं है। आप गलत खयाल में हैं कि क्रोध एक क्षण को उठता है। उसका उभार बड़ी देर तक रहता है। उठता एक क्षण को होगा, उसकी सरकती धुएं की रेखा बहुत देर तक चलती है। कोई फिकर नहीं अगर वह अपनी पूरी जवानी में न दिखाई पड़े, बुढ़ापे में दिखाई पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है। उसकी अंतिम लकीर भी दिखाई पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है। देखने का प्रयोग शुरू करें। देखने का अभ्यास घना होगा तो किसी दिन वह बिलकुल अपने जन्म में भी पकड़ा जा सकेगा। अभी तो ऐसा ही होगा कि वह आखिरी लकीर उसकी दिखाई पड़ेगी।
अभी तो ऐसा होगा कि क्रोध करने की जो पुरानी आदतें हैं, उसमें अगर बैठें भी एकांत निरीक्षण को तो उसकी आखिरी जाती हुई लकीर दिखाई पड़ेगी। कोई हर्ज नहीं। पर वह भी शुरुआत अच्छी है, कुछ तो दिखा। और कुछ दिखेगा, और कुछ दिखेगा। किसी दिन पूरा क्रोध आपको दिखाई पड़ेगा।
और एक बड़ा अदभुत अनुभव होगा। जब इसका अभ्यास थोड़ा घना हो जाएगा और आप क्रोध को देखने में समर्थ हो जाएंगे, तो आप देखेंगे कि न तो क्रोध किसी के ऊपर जा रहा है और न दमित हो रहा है; वह विसर्जित हो रहा है, एवोपरेट हो रहा है। न तो किसी पर जा रहा है, किसी आदमी के प्रति अब नहीं है वह और न अपने भीतर दमन हो रहा है। अब वह तो भाप की तरह, जैसे भाप उड़ती जा रही है, वह ऐसा उठ रहा है और निकलता जा रहा है। वह क्रोध उठता हुआ, निकलता हुआ मालूम होगा, किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, वह विलीन होता हुआ मालूम होगा, वाष्पीभूत होता हुआ मालूम होगा।
और इतनी परम शांति का अनुभव होगा उसके वाष्पीभूत होने पर कि जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। जो क्रोध आपको नरक में ले जाता है, वही क्रोध आपको स्वर्ग में ले जाएगा। उसका दमन करते तो नरक में जाते हैं और उसको किसी पर प्रकट करते हैं तो नरक में जाते हैं। उसे कुछ भी नहीं करते, इन दोनों पर कुछ भी नहीं करते, न दमन करते, न प्रकट करते हैं, उसके साक्षी बनते, उसका आॅब्जर्वेशन करते हैं, उसको देखते हैं कि यह क्या है वेग। और जो मैं क्रोध के संबंध में कह रहा हूं, वह सब चीजों के संबंध में ठीक है। सेक्स हो, लोभ हो और कुछ और हो। जो भी वेग पकड़ते हों चित्त को, उनके निरीक्षक बनें। उनका एक सेल्फ-आॅब्जर्वेशन शुरू करें।
आॅब्जर्वेशन में और थिंकिंग में फर्क समझ लें। क्रोध को विचारने को नहीं कह रहा हूं कि आप विचार करें कि क्रोध क्या है, पुराने ग्रंथों में क्या लिखा है क्रोध के बाबत। वह मैं नहीं कह रहा। उसमें तो फिर आप निरीक्षण नहीं कर पाएंगे। क्रोध के संबंध में सोचने को नहीं कह रहा हूं, क्रोध को देखने को कह रहा हूं। यह मत सोचिए कि क्रोध बड़ी बुरी चीज है और फलानों ने कहा है कि क्रोध नहीं करना चाहिए, यह मैं नहीं कह रहा आपसे। यह तो सोचना होगा। क्रोध को देखने को कह रहा हूं, अंतर्दृष्टा बनें, उसको देखें, आंख गड़ाएं उसके ऊपर और जानें कि यह क्या है। कोई निर्णय न लें। वही मैं परसों कहता था। उसके बाबत यह निर्णय न लें कि वह अच्छा है कि बुरा है। इतना ही जानें कि कुछ है जिसे हम देखें कि क्या है।
आप हैरान हो जाएंगे, अगर ऐसा निरीक्षण किया, तो पहले ही निरीक्षण के अनुभव में आपको एक अदभुत बात मालूम होगी कि जितना हिस्सा आप क्रोध का निरीक्षण कर लोगे, उतना हिस्सा विलीन हो जाएगा। वह आपके भीतर सरकेगा नहीं। देख लेने के बाद, उसके विलीन हो जाने के बाद वह आपका पीछा नहीं करेगा, जो अभी करता है।
अभी मैंने ऐसा अनुभव भी किया, ऐसे लोग हैं जिनको बीस साल पहले का क्रोध भी पीछा कर रहा है अभी। ऐसे भी लोग हैं कि उनके बाप को किसी ने क्रोधित किया था और वह उनको उनका पीछा कर रहा है जन्म से। यानी पुश्तैनी दुश्मनी भी चलती है, कि वह हमारे बाप का उनसे झगड़ा था, वह भी चल रहा है। वह क्रोध अभी उनका पीछा कर रहा है। अजीब सी बात है। और आपको भी क्रोध पीछा करता है, वर्षों तक। उस आदमी को देख कर आप फिर उत्तप्त हो जाते हैं, वह तो रखा है भीतर। वह दो वर्ष पहले आपको गुस्सा दिलाया था, वह आदमी एक दिन दिखाई पड़ जाए और आप पाएंगे कि आप फिर भीतर से कोई चीज जग गई है, कोई सांप भीतर उठ खड़ा हुआ और परेशान कर रहा है।
तो जितना आप निरीक्षण कर लोगे, उतने से आप बाहर हो जाओगे, वह आपका पीछा नहीं करेगा। जितना क्रोध की पूरी घटना का निरीक्षण करने में समर्थ हो जाओगे, उस दिन आप पाओगे क्रोध गया। थोड़े दिन निरीक्षण करने पर क्रोध विलीन हो जाएगा। इसके बाद क्रोध आना कठिन हो जाएगा। जब निरीक्षण परिपूर्ण हो जाएगा, आॅब्जर्वेशन पूरा हो जाएगा, तो क्रोध आना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि इसके पहले वह आए और आप आॅब्जर्वेशन में लग जाओगे। अभी मैंने कहा कि वह जाता हुआ आखिरी हिस्सा आपको दिखाई पड़ेगा। निरंतर अभ्यास से वह आने के पहले आपको दिखने की घटना शुरू हो जाएगी। किसी ने गाली दी, वह गाली दे रहा है और आप देखने लगोगे भीतर कि कहां है, वह उठता है कि नहीं। और आप हैरान हो जाओगे, अगर उसके पहले ही निरीक्षण की क्षमता आ जाए, वह आएगा ही नहीं, वह पैदा ही नहीं होगा।
निरीक्षण क्रोध की मृत्यु है। पूर्व-निरीक्षण क्रोध का जन्म ही नहीं होना है। वह जन्म ही नहीं होगा उसका। तब उस निरीक्षण के माध्यम से जब क्रोध का जन्म नहीं होगा, तो जो आपके चित्त की स्थिति होगी, उसका नाम अक्रोध है। वह क्रोध को दबाने से नहीं आती, क्रोध को निकालने से नहीं आती, क्रोध के विसर्जन से आती है।

प्रश्नः क्रोध करने के बाद माफी मांग लें तो विसर्जन हो जाएगा।

नहीं, उससे कोई संबंध नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न-न, माफी मांगें या नहीं मांगें, वह मैं नहीं कह रहा, वह मैं नहीं कह रहा। वह निकलती हो, जरूर मांग लें। नहीं निकलती हो, शिष्टाचार के लिए मांगना हो तो भी कोई...उसको मैं नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूं कि माफी क्रोध को नहीं मिटाती, क्रोध के परिणाम को फीका करती है।
मैंने आपको क्रोध में गाली दे दी और मैंने जाकर आपसे माफी मांग ली। मेरा क्रोध इससे नहीं मिटता माफी मांगने से; आप पर मैंने जो गाली दे दी थी क्रोध में, उसका जो आप पर घातक प्रभाव हुआ था, वह थोड़ा सा कम हो जाएगा। अगर मैंने बहुत गहरी माफी मांग ली तो और कम हो जाएगा। अगर सच में उनके पैर पकड़ लिए और काफी...यानी जो-जो मैंने क्रोध में किया था, उसके बिलकुल विपरीत किया। क्रोध में मैंने क्या किया था, उनके अहंकार को चोट पहुंचाई थी, और माफी में मैं क्या करूंगा, उनके अहंकार को फुसलाऊंगा और खुशामद करूंगा।
माफी क्या है? खुशामद है। माफी क्या है आखिर? आप जो कल मुझे गाली दे गए और आज आकर मेरा पैर पकड़ लिए और कहने लगे क्षमा कर दें, तो कल जो गाली मुझे दे गए थे, उससे मेरे अहंकार को चोट लगी थी, मेरे ईगो को चोट लगी थी; आज आकर मेरा पैर पकड़ रहे हैं, मेरे ईगो की परितृप्ति होती है।
अगर उसी मात्रा में मेरे ईगो को आपने परितृप्त कर दिया जिस मात्रा में चोट लगी थी, तो मेरे पर परिणाम खत्म हो जाएगा। समझे न? पर आपका थोड़े ही कुछ होने वाला है।

प्रश्नः जो नुकसान हुआ वह तो हुआ ही।

हां?

प्रश्नः जब क्रोध किया तब अहं का बोध हुआ, माफी मांगते हैं तब अपने अहं का पता...थोड़ा सा अंधापन में हो जाता है। नहीं तो आदमी माफी भी नहीं मांगे।

नहीं-नहीं, मैं तो आपको कहूंगा...

प्रश्नः जो नुकसान हुआ उसकी पूर्ति तो होती नहीं।

अपना जो नुकसान हुआ उसकी कोई पूर्ति नहीं होती। और यह जो आप सोच रही हैं कि जब क्रोध किया हमने और किसी को गाली दी थी तो अपने अहंकार का पोषण हुआ था। अब हम क्षमा मांग रहे हैं तो हमारे अहंकार का विसर्जन हुआ। इस भूल में मत पड़ना। अब शायद और अहंकार का पोषण हुआ। तब आप क्रोधी थे, अब क्षमावान भी होकर घर लौटे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, तब आपने अहंकार का जो मजा लिया था, वह क्रोध में लिया था, कि तुमने मुझे गाली दी तो मैं तुमको दुगुनी वजनी गाली देता हूं। अब आप घर यह सोच कर लौट रहे हैं कि मैं कितना क्षमाशील प्राणी, कितना क्षमावान प्राणी हूं कि उनसे क्षमा मांग कर...तब जो था दंभ, वह बहुत जिसको कहें नेचरल था, अब बहुत सोफिस्टिकेटिड है। जो फर्क है, वह बड़ा सहज वाला दंभ था कि आपने गाली दी, हमने भी गाली दी। अब जो दंभ है, वह बड़ा विकसित दंभ है। उसका पता पड़ जाता, इसका पता पड़ना कठिन होगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं आपको कहूं, उसको बुरा नहीं कह रहा, उसको मैं बुरा नहीं कह रहा। माफी मांगी, बुरी बात नहीं है। माफी मांगी, वह सच्ची थी, इसका लक्षण यह नहीं है कि वह हिसाब से निकली या अपने आप निकली, इसका लक्षण यह है कि अगर वह सच्ची थी तो दुबारा क्रोध नहीं पैदा होना चाहिए। क्योंकि सवाल यह है कि अगर वह सच्ची थी तो फिर दुबारा, अगर फिर दुबारा वैसा ही क्रोध पैदा होता है और फिर वैसी ही माफी मांगी जाती है, तो इसका मतलब क्या है। तब तो मतलब यह हुआ कि क्रोध भी एक मैकेनिकल रिएक्शन है और माफी भी एक मैकेनिकल रिएक्शन है। क्रोध भी निकलता, फिर माफी भी मांग लेते हैं। क्रोध भी निकलता, फिर पश्चात्ताप भी कर लेते हैं। हम पूरी जिंदगी इसी चक्कर में हैं। वही काम करते हैं, उसके लिए दुखी हो लेते हैं। फिर वही करते हैं, फिर दुखी हो लेते हैं, फिर वही...
अगर कोई आपकी जिंदगी उठा कर देखे पूरी तो बड़ा हैरान होगा कि आप वही-वही काम, आखिर कर क्या रहे हैं? काम क्या है आपका, आप कोई चक्कर लगा रहे हैं कि कहीं चल रहे हैं? वही काम, फिर वही माफी; फिर वही काम, फिर वही माफी। फिर पश्चात्ताप, फिर दुख, फिर पश्चात्ताप। करीब-करीब दिन-रात की तरह हमारी जिंदगी में कुछ बातें बंधी हैं, बिलकुल रूटीन, उन्हीं-उन्हीं को हम कर रहे हैं।
मेरा कहना, इस रूटीन को तोड़िए। रूटीन को तोड़ने का मतलब यह है कि अगर क्षमा मांगने जाते हैं तो इस विचार के साथ जाइए कि अब क्रोध नहीं, नहीं तो क्षमा नहीं मांगूंगा। क्या क्षमा मांगने से फायदा है। जब कल फिर क्रोध करना ही पड़ेगा, इस पर नहीं किसी और पर करेंगे, तो क्षमा मांगने से क्या फायदा। पश्चात्ताप मत करिए अगर कल फिर क्रोध करने की स्थिति है। तो तय करिए कि पश्चात्ताप नहीं करेंगे। क्योंकि कल फिर क्रोध करना ही है। अगर यह अनुभव आपमें आए कि पश्चात्ताप नहीं करेंगे, क्षमा नहीं मांगेंगे। उस आदमी से कह दीजिए कि हम क्षमा नहीं मांगेंगे क्योंकि क्षमा मांगने से कोई फायदा नहीं। कल अगर तुमने फिर हमारे साथ ऐसा ही किया तो हम फिर क्रोध करेंगे। इसलिए हम क्या क्षमा मांगे आपसे। क्षमा नहीं मांगेंगे।

प्रश्नः नहीं, लेकिन मैं यह पूछता हूं कि सारा संसार तो ऐसा मानसिक द्वारा नहीं हो सकता...

नहीं, सारे संसार को मैं कह ही नहीं रहा।

प्रश्नः थोड़ा सा ऐसा है कि समाज और सेक्शन हो सकता है कि जिसकी वजह से हमारा डेली नीड, फस्र्टः क्लाथ, फूड, वाॅटर, परफेक्शन, एवरी डे डेली न्यूज एक्सट्रा दिमाग से पैदा हो सके। यह जो हम पैदा करने के लिए जाते हैं, तब यह क्रोध करना पड़ता ही है। अगर बिना क्रोध करने से ऐसी ही कोई हमारी रोज की अलौकिक चर्या पैदा हो सकती हो, तो ऐसा कोई सेक्शन एक्झिटेंट है कि जिसकी वजह से हम उसको कवर कर सकें?

यह जो मेरी जो बात है, वह समझ में आ जाए तो फिर इन प्रश्नों को मैं ले लूं। मैंने कहा कि दमन नहीं, भोग नहीं, विसर्जन मार्ग है। क्रोध विसर्जित किया जा सकता है आॅब्जर्वेशन, निरीक्षण से। जितने शांत होकर आप किसी वासना का निरीक्षण करेंगे, वासना उतनी विलीन हो जाएगी। जितने अशांत होकर आप वासना का निरीक्षण न करके वासना के प्रति मूच्र्छित होंगे और बाहर के कारणों का निरीक्षण करेंगे, वासना उतनी प्रगाढ़ हो जाएगी।
मूच्र्छा क्रोध का प्राण है और निरीक्षण क्रोध की मृत्यु है।
और मूच्र्छा के रास्ते और तरकीबें हैं। रास्ता यह है कि जब क्रोध आएगा तो हम क्रोध का निरीक्षण नहीं करेंगे; उसका निरीक्षण करेंगे, जिसने क्रोध हममें दिलवा दिया। हम समझेंगे कि उस आदमी की गलती है कि उसने हमको गाली दी, तो हमें क्रोध आया, नहीं तो हमको क्यों क्रोध आता। अगर कोई हमको गाली न दे, तो हम क्यों क्रोध होने वाले हैं। क्रोध तो हमको उस आदमी ने करवाया। अगर सारे लोग ऐसे हों कि कोई हमको गाली न दें, तो हम क्रोध नहीं करेंगे। इसलिए हमारा तो कोई सवाल ही नहीं है। उसने गाली क्यों दी या उसने हमको परेशान क्यों किया या उसने अपमान क्यों किया।
हम उस वक्त क्रोध को न देख कर उसको देख रहे हैं जिसने क्रोध दिलवाया। और इस भांति हमारी नजर और निरीक्षण उस पर लगा रहेगा। इसी स्थिति में जब हम निरीक्षण किसी और का कर रहे हैं, भीतर हम स्थिति में मूच्र्छित हैं। हम, वहां हमारा ध्यान लगा है, यहां ध्यानहीन हैं। इस मूच्र्छा की स्थिति में क्रोध हमारे जीवन को पकड़ लेगा।
जब हम क्रोध कर चुकेंगे और हमारी शक्ति व्यय हो जाएगी क्रोध में, धक्का लगेगा, तब अचानक उस पर से ध्यान हट कर जिस पर हम क्रोधित हो रहे थे, अपने पर ध्यान आएगा। इस शक्ति के खोने की वजह से, पीड़ा की वजह से, ध्यान अपने पर आएगा। तब हम पछताएंगे कि यह तो बड़ा, यह तो नहीं करना था, यह तो फिजूल किया, इससे क्या फायदा था।
जब मूच्र्छा टूटती है, पश्चात्ताप होता है। लेकिन तब तक क्रोध चला गया। फिर निरीक्षण करने को कुछ है नहीं। तूफान जा चुका, अब वहां सब चीजें टूटी-फूटी पड़ी हैं, उनका ही निरीक्षण करो, उससे दुखी होओ और तय करो कि अगली बार क्रोध नहीं करेंगे। जब फिर क्रोध आएगा, तब फिर आप निरीक्षण करने को मौजूद नहीं रहेंगे, बाहर कहीं चले जाएंगे, फिर सब खंडित होगा। फिर लौट कर देखेंगे, फिर पश्चात्ताप होगा। क्रोध और पश्चात्ताप का यूं घेरा चलेगा।
और ये जो हमारी बातें हैं कि हम कहते हैं कि करना ही पड़ता है, यह जो हम कहते हैं कि क्रोध करना ही पड़ता है, स्थिति ऐसी, समाज ऐसा, ये सब जस्टिफिकेशंस हैं, जो हम अपनी गलतियों के लिए निरंतर खोजते हैं।
मेरी बात समझें। समाज जैसा हम चाहते हैं, वैसा कभी नहीं होगा। कभी नहीं होगा। आप समाप्त हो जाएंगे और समाज जैसा है वैसा रहेगा।
अगर महावीर या बुद्ध यह सोचें कि जब समाज अच्छा हो जाएगा, तब हम शांत हो जाएंगे, तो वे कभी शांत नहीं होते। इस जगत में समाज के तल पर ऐसी स्थिति कभी नहीं आएगी कि सारे लोग इतने शांत हों कि आपको क्रोध का मौका न दें। और मेरा मानना है कि अगर ऐसी स्थिति कभी आ जाए तो वह बिलकुल डेड लोगों की होगी, मुर्दा लोगों की, कि वे ऐसा कुछ भी न करें कि आपमें क्रोध पैदा हो। यह तो असंभव है।
दुनिया में यह तो असंभव है कि बाहर की कोई भी स्थितियां, क्योंकि मैंने आपको कहा कि आप तो कलम में स्याही न चले तो क्रोधित हो जाते हैं। आपका तो रास्ते में चलते में चप्पल टूट जाए तो क्रोधित हो जाते हैं। तो यह तो असंभव है कि चप्पलों को राजी किया जाए कि वे कभी रास्ते में चलते में न टूटें। यह तो असंभव है कि कलमों को समझाया जाए कि तुम कभी जब कोई खत लिखता हो तो देख लेना कि कोई मतलब का काम कर रहा है तो इस वक्त स्याही बंद न हो। यह तो बड़ा असंभव है। आदमियों को भी समझा-बुझा कर अगर राजी कर लिया, तो भी तो असंभव है, क्योंकि यह तो बहुत और दुनिया है। तो इसमें कुछ तय करना कठिन है कि यहां गर्मी पड़ रही है और पंखा बंद हो जाए, तब इसको समझाना बड़ा कठिन है कि अब इस वक्त गर्मी पड़ती है, और हम क्रुद्ध हो जाएंगे और हम गुस्से में आ जाएंगे।
दुनिया कभी ऐसी नहीं होगी कि उसमें क्रोध को पैदा करने के कारण विलीन हो जाएं। लेकिन व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि उसमें क्रोध के कारणों के रहते हुए, क्रोध की शक्ति विलीन हो जाए। यानी दो ही तो बातें हैं कि क्रोध के कारण विलीन हो जाएं तो हम अक्रोधी हो जाएंगे। या फिर हममें क्रोध करने की क्षमता विलीन हो जाए तो हम अक्रोधी हो जाएंगे।
एक रास्ता है कि बाहर सब ठीक हो जाए तो हम क्रोध नहीं करेंगे। यह असंभव है। यह कभी नहीं होगा। यह हो ही नहीं सकता।
अभी मैं एक सफर में था। मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन थे। उनसे मेरी कुछ क्रोध के बाबत बात होती थी, तो जो आपने पूछा उन्होंने भी कहा कि भई, बाहर ऐसी चीजें हैं कि हम क्या कर सकते हैं। बाहर लोग सब गड़बड़ कर देते हैं। मैंने उनसे कहा कि अगर लोग ही होते दुनिया में, तो भी ठीक था, समझाते-बुझाते। अब वह भी आसान काम नहीं था, तीन अरब लोग हैं जमीन पर। आप एक को समझाने की बात करता हूं तो वह भी तो वह कहता है कि बाकी एक को छोड़ कर तीन अरब जो लोग हैं, वे गड़बड़ कर रहे हैं। वह दूसरे को समझाऊंगा, वह कहेगा कि बाकी लोग गड़बड़ कर रहे हैं, जब तक वे ठीक न हो जाएं, तो हम कैसे ठीक हो सकते हैं। अगर ये सारे लोग यह कहते हैं कि बाकी लोग ठीक न हो जाएं, तो हम कैसे ठीक हो सकते हैं। तब तो ठीक होने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि एक ही क्षण में सारे लोग ठीक हो जाएं, यह असंभव। फिर चीजें हैं दुनिया में।
फिर क्या हुआ कि वह ट्रेन चली और एक स्टेशन के बीच आकर खड़ी हो गई। और कोई दो घंटे खड़ी रही। उनके क्रोध का तो ठिकाना नहीं रहा। वे डिब्बे के बाहर झांकें, अंदर आएं कि मेरा तो मुकदमा गड़बड़ हुआ जा रहा है। मुझे तो यह है, मुझे तो वह है। और मुझे तो इतने वक्त पहुंचना ही चाहिए था। फिर तो वे इतने उत्तप्त होने लगे, तो मैंने उनसे कहा कि आप देखिए, अब यह ट्रेन खड़ी हो गई, अब यह बड़ा कठिन है कि यह ट्रेन बिलकुल खड़ी हो ही नहीं कभी जब कोई आदमी मुकदमे के लिए जा रहा हो। बड़ा कठिन है। इस ट्रेन को कोई पता नहीं। और आपके मुकदमे से इसे कोई मतलब नहीं। इसको पता भी नहीं, इसको आपके मुकदमे से मतलब भी नहीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां। तो अब यह जो आदमी है, यह कहता है कि अगर ट्रेन कभी खड़ी न हो तो हम क्रोधित नहीं होंगे। तो यह तो असंभव है। यह संभव नहीं है।
सवाल दुनिया का बिलकुल नहीं है। सवाल निपट व्यक्ति का है। और हम दुनिया के नाम उठा कर अपनी कमजोरियां छिपाते हैं। हम यह कमजोरी छिपा लेते हैं, अपने को समझा लेते हैं कि हमारा थोड़े ही कसूर है। जो आदमी अपनी गलतियों को जस्टीफिकेशन खोज लेगा, वह आदमी कभी परिवर्तित नहीं होगा। क्योंकि जस्टीफिकेशन तो बहुत हैं।
अपनी गलतियों के लिए कोई एक्सप्लेनेशन, कोई जस्टीफिकेशन, कोई तर्कबद्ध रेशनेलाइजेशन मत खोजिए। अपनी गलती को अपनी गलती समझिए, उसे दूसरे पर मत टालिए। क्योंकि टालने से वह कभी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। टालना तरकीब है, जिसके माध्यम से हम अपने को मुक्त कर लेते हैं कि हमारी है ही नहीं, हम क्या कर सकते हैं इसमें।
हम सारे लोग और हमारी सारी बुराइयां इसीलिए जीती चली जाती हैं कि हम कभी उनको अपना ही नहीं मानते। जिस बुराई को हम अपना न मानेंगे, उस बुराई से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं। बुराई से मुक्त होने का पहला कदम यह है कि पूरी तरह उसको अपने लिए जिम्मेवार समझो कि मैं उसका जिम्मेवार हूं। पहले तो, पहले यह पूरा अनुभव करो कि पूरी रिस्पांसिबिलिटी मेरी है। पहली तो बात यह है और फिर दूसरी बात यह कि उस बुराई को गाली मत दो, उसका निरीक्षण करो। और तब धीरे-धीरे अनुभव होगा, जिम्मेवारी ले लेने से कि मेरी बुराई, बुराई को दूर करने के प्रयत्न शुरू होते हैं।
इस दुनिया की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हर आदमी अपनी सारी बुराइयों के लिए किसी और को जिम्मेवार समझता है। हर आदमी। हर आदमी अपनी बुराई के लिए किसी और को जिम्मेवार समझता है। कोई आदमी अपनी बुराई के लिए अपने को जिम्मेवार नहीं समझता। जो जिम्मेवार नहीं समझेगा, वह उसे दूर करने के उपाय क्यों करने लगा। सवाल ही नहीं उठता। वह जिम्मेवार ही नहीं उसके लिए।
तो आत्मिक साधना का पहला चरण तो यह है कि समस्त बुराइयां जो तुममें हैं, उसके लिए तुम जिम्मेवार हो, इसे अंगीकार करो; दूसरे पर बोझ मत टालो, दूसरे का बहाना मत लो। इसके लिए बड़ा साहस चाहिए। क्योंकि हम अपनी आंखों में अपनी एक तस्वीर बनाए हुए हैं, जो बड़ी खूबसूरत होती है। उसमें यह मानना कि हम पर भी दाग और धब्बे हैं, बड़ा कठिन होता है। हम सारे लोग अपनी-अपनी एक तस्वीर बनाए हुए हैं, अपने मन में। एक-एक इमेजिनेशन, एक-एक चित्र हमारा दिल में है, जो हम अपना बनाए हुए हैं कि हम ऐसे आदमी हैं। और उसमें यह मानना कि हम क्रोध करते हैं, उस चित्र को खंडित करता है। वह जो कल्पना है, उसको तोड़ता है। बड़ा बुरा लगता है।
जिस आदमी को आत्मिक जीवन में जाना है, उसे अपनी तस्वीर बिलकुल खंडित कर लेनी होगी। उसे हिम्मत करनी होगी कि मैं जैसा हूं, वैसा ही अपने को जानूं। वैसा नहीं जैसा कि मैं होना चाहता हूं या दिखना चाहता हूं।
हम अपने भीतर कोई तीन तरह के आदमियों को लिए हुए हैं। एक तो जैसे हम हैं, जिसका हमें पता ही नहीं पड़ता। एक जैसे हम दिखना चाहते हैं, जिसको हम रोज-रोज सम्हालते रहते हैं। और एक जैसे हम लोगों को दिखाई पड़ते हैं। तो कोई तीन पर्तें हमारे भीतर हैं। एक तो वह जैसा हम लोगों को दिखाई पड़ते हैं, उसकी भी हम फिकर रखते हैं कि लोगों को हम कैसे दिखाई पड़ते हैं। हम उसकी बहुत फिकर करते हैं। पूछते रहते हैं, पता लगाते रहते हैं कि लोगों को हम कैसे दिखाई पड़ते हैं, वे हमको ठीक समझते हैं कि नहीं। कौन आदमी हमें देख कर हंसता है, कौन आदमी हमें देख कर क्या करता है, वह हम सब पता रखते हैं, उस सबका हिसाब रखते हैं। उसका हम हिसाब रखते हैं और एक तस्वीर बनाए रखते हैं कि लोग हमें क्या समझते हैं। और एक हम अपनी तस्वीर बनाए रखते हैं और भीतरी हृदय में, जिसको हम चाहते हैं कि लोग हमें ऐसा समझें।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, आप यह कहती हैं कि कुछ लोग हैं, जो अपनी भूलों को, अपने पापों को जाकर कनफेश करेंगे और सोचते हैं कि उनके पाप जो हैं, वे क्षमा कर दिए गए।
यह जो बात है, अगर सच में उन्होंने कनफेश किया है, और उनके पाप क्षमा हो गए, तो वे ही पाप उनसे फिर दुबारा नहीं होने चाहिए। लेकिन जब दूसरे दिन सुबह चर्च के बाहर लौट कर वे फिर वैसे ही पाप करते हुए दिखाई पड़ते हैं, तो उन्होंने वह कनफेशन को भी एक तरकीब बना लिया। वह एक मतलब हो गया। वह पुरानी तरकीब यहां भारत में भी थी इस तरह की कि लोग सोचते गंगा-स्नान कर आए तो पाप से मुक्त हो गए। फिर गंगा से लौट आए फिर वही पाप करेंगे। फिर यह भी सुविधा हो गई कि जब मन होगा, गंगा में जाएंगे स्नान कर लेंगे।
रामकृष्ण परमहंस से किसी ने पूछा कि लोग कहते हैं कि गंगा में जाने से पाप मिट जाते हैं, आप क्या कहते हैं? वे बड़े सीधे-सादे आदमी थे, वे यह भी नहीं कहना चाहते थे कि गंगा में जाने से पाप नहीं मिटते। उन्होंने कहा, पाप तो एकदम मिट जाते हैं, लेकिन गंगा के किनारे जो दरख्त होते हैं, आप पानी में डूबे, वे लोग दरख्त पर बैठ जाते हैं, पाप उठ कर दरख्त पर बैठ जाते हैं। आप नहा कर वापस निकले, वे फिर सवार हो जाते हैं। वह गंगा दूर कर सकती है, गंगा दूर कर सकती है, लेकिन गंगा में कब तक डूबे रहिएगा, वह तो निकलना ही पड़ेगा। वे फिर वापस सवार हो जाएंगे। इसलिए उसमें कोई सार नहीं गंगा में जाने से।
टाल्सटाय ने, लीयो टाल्सटाय ने एक घटना लिखी है कि मैं एक दिन सुबह-सुबह चर्च गया। एक बहुत बड़ा करोड़पति, एक बड़ा प्रख्यात आदमी वहां कनफेश कर रहा था, सुबह पांच या चार बजे एकांत में जाकर अपने पापों के बाबत। अंधेरा था, मैं भी एक कोने में खड़े होकर सुनता रहा। मैं बड़ा हैरान हुआ। मैं उसको बड़ा अच्छा आदमी समझता था। और वह कह रहा था कि मैं पापी हूं और मैं दुराचारी हूं और मैं यह हूं और वह हूं। और वह बड़ा रो रहा था और कह रहा था, हे प्रभु! मुझे क्षमा करो मेरे पापों के लिए। टाल्सटाय ने लिखा कि मैं तो उसे बड़ा अच्छा आदमी समझता था। उस दिन पता चला कि अरे, यह तो दुष्ट बड़ा दुराचारी है।
वह आदमी निकला, उसको पता नहीं था कि यहां और भी कोई खड़ा है। उसने मुझे देखा, वह बड़ा घबड़ा गया। मैं भी उसके पीछे-पीछे चला। जब हम चैगड्डे पर पहुंचे, तो मैंने कहा कि भाई सुनते हो, एक आदमी से, ये जो सज्जन हैं, जिनको अपन अब तक ठीक समझते रहे, यह पक्का पापी है, अभी मैं इसका सुन कर आया सब कनफेशन। तो उस आदमी ने गुस्से से टाल्सटाय को देखा और कहा कि देखो, वह बात मंदिर की थी और मुझे पता नहीं कि तुम मौजूद थे। वह बाजार में कहने की नहीं है। और अगर तुमने किसी से कहा तो अपमान का मुकदमा चलवाऊंगा। ये मुझे पता नहीं कि तुम वहां थे। और फिर तुमसे मैंने कही भी नहीं, वह तो भगवान और मेरे बीच की बात है।
ये जो हमारी धारणाएं हैं, इनमें कोई अर्थ नहीं हैं। कनफेशन का जो मूलतः अर्थ है, वह बहुत दूसरा है। उसका अर्थ यही है, जो मैंने कहा। अगर व्यक्ति अपने परिपूर्ण पाप को, अपनी परिपूर्ण बुराई का निरीक्षण करे, उसे दिख जाए सब, तो वह प्रभु के सामने निवेदन कर देगा। निवेदन यह कि ये-ये मुझमें हैं। ये-ये मुझमें, पूरा आॅब्जर्वेशन करे, तो वह निवेदन कर देगा कि मेरे, जो प्रभु को मानते उस भांति, वे निवेदन कर देंगे कि हमारे भीतर है। वह निरीक्षण से निवेदन आएगा। निरीक्षण में ही मौत हो जाएगी। निवेदन तो औपचारिक है। पाप की मृत्यु तो निरीक्षण में ही हो जाएगी। निवेदन औपचारिक है कि यह मुझमें दिखाई पड़ा, यह मैं प्रभु से कह दूं। वह आदमी मुक्त हो जाएगा। वह निरीक्षण से मुक्त हो रहा है। क्योंकि बिना निरीक्षण के तो निवेदन नहीं कर सकता।
तो दुनिया में जो कौमें ईश्वर को मानती हैं, वे अपने पाप को जाकर उनके सामने निवेदन कर देंगी। लेकिन निवेदन के पहले निरीक्षण चाहिए। जब तो वे कहेंगे कि मुझमें क्या पाप है।
जो कौमें ईश्वर को नहीं मानतीं, वे निरीक्षण से ही पाप से बाहर हो जाएंगी। वह निवेदन से पाप से बाहर नहीं हो रहे, वे तो निरीक्षण से ही पाप के बाहर हुए जा रहे हैं।
पर अकेला कनफेशन, जैसा वह हो गया है एक फार्मेलिटी, कि लोग सोचते हैं कि कह दिया भगवान से, मामला खत्म हो गया। इससे कोई हल नहीं। क्योंकि कल दूसरे दिन वही काम तो फिर कर रहा है वह आदमी। उसको कहीं पीड़ा ही नहीं है इस बात की कि मैंने जो किया वह बुरा था। वह तो डर के वश कि यह रास्ता अच्छा है, आसान है। यह तो बहुत ही आसान रास्ता है कि आप जाकर कनफेश कर दें, मामला खत्म हुआ। फिर करें, फिर कनफेश कर दें। यह तो बहुत सस्ता हो गया।
मैं ऐसा नहीं मानता। इतना सस्ता जीवन नहीं है कि गंगा में नहाने से या चर्च में जाकर कनफेश करने से आप बाहर हो सकते हैं। कोई बाहर, इतने भर से कोई बाहर नहीं हो सकता। इतने भर से कोई बाहर नहीं हो सकता। उसके लिए तो किसी और आंतरिक साधना में लगना होगा। किसी और गहरे निरीक्षण में लगना होगा। एक इनर आॅब्जर्वेशन में प्रविष्ट होना होगा। और तब उसके माध्यम से अगर कनफेशन निकले तो ठीक है। अगर किसी की वैसी निष्ठा हो तो वह जाकर भगवान को निवेदन कर दे, बाहर हो जाएगा। लेकिन कनफेशन अकेला बाहर नहीं कर सकता। अगर कनफेशन अलग करता हो, बाहर करता हो, तब बहुत आसान बात है। जिंदगी भर लोग यही सोचते हैं, और पापियों के लिए बड़ी राहत हो जाती है। उनको बड़ी राहत हो जाती है कि कितने ही पाप करो, जाकर भगवान से कह देंगे, सब बाहर हो जाएंगे। नहीं हो सकते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह जो मैं कह रहा था, समझ में आया? जो मैं चर्चा कर रहा हूं, यह समझ में आई? नहीं-नहीं, मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि कई दफा मुझे ऐसा लगता है कि...जैसे कि मैं क्रोध के बाबत चर्चा कर रहा हूं, अगर वह समझ में आ जाए तो उसका कोई परिणाम होगा। नहीं तो क्रोध की बात आपने एक तरफ रखी, अब आप पूछते हैं कि पुनर्जन्म होते हैं या नहीं। या यह होता है या नहीं। मैं पुनर्जन्म समझा भी नहीं पाऊंगा और आप शायद पूछेंगे कि यह आत्मा क्या है। तो होता क्या है, मेरा मानना यह है, किसी एक भी प्रश्न की पूरी आंतरिक गहराई में उतर जाएं, आपके सारे प्रश्न हल हो जाएंगे। एक भी प्रश्न की पूरी गहराई में उतर जाएं, सारे प्रश्न हल हो जाएंगे। और एक प्रश्न को छुएं और दूसरे पर कूद जाएं, कोई प्रश्न हल नहीं होगा, कोई प्रश्न हल नहीं होगा।
मेरी बात समझे? मेरी बात समझे न आप? कोई भी एक प्रश्न को परिपूर्णरूपेण, उसकी पूरी जड़ तक उतर जाएं, तो शायद आप हर प्रश्न की जड़ में उतर जाएंगे। क्योंकि प्रश्न शायद एक ही है आदमी का, उसके रूप भर अनेक हैं। वह बातें करता है यह और वह, यह और वह। प्रश्न शायद एक ही है। कभी इस पर सोचिए।
यह जो क्रोध के बाबत इतनी उत्सुकता से मैंने बात की, उसका कुल कारण इतना ही है कि वह बात हर चीज के बाबत वैसी की वैसी है। उतनी की उतनी लागू है। क्योंकि हमारे सारे वेग चाहे चिंता का हो, चाहे क्रोध का हो, चाहे किसी और कामना का हो, किसी और इच्छा का हो, एक से हैं। और जो आदमी क्रोध को हल करने में सफल हो जाएगा, वह एक पूरा का पूरा टेक्नीक जान गया, जो किसी भी दूसरे वेग पर प्रयोग करने से वहां भी सफल हो जाएगा। और तब जो निर्वेग स्थिति होगी चित्त की, उसमें आप जानिएगा, उसमें आपको अनुभव होगा इस बात का कि आप आज ही नहीं हो जगत में। उस शांत स्थिति में आपको अनुभव होगा, आपका पीछे भी होना है। उस शांत स्थिति में आपको अनुभव होगा कि आप बड़े अनंत जीवन के मालिक हो। उसमें आपको अनुभव होगा, उस निर्वेग, निद्र्वंद्व चित्त की स्थिति में, चैतन्य की स्थिति में, आपको अनुभव होगा कि मैं शरीर नहीं हूं।
और जिसको मैंने सेल्फ-आॅब्जर्वेशन कहा, आत्म-निरीक्षण कहा, अगर उसका प्रयोग करें, तो आप दंग रह जाएंगे कि आपके भीतर आपके पिछले जन्मों की स्मृतियां भी मौजूद हैं, वे मेमोरी.ज भी मौजूद हैं। अगर आप बहुत गहराई से निरीक्षण करने में समर्थ हो जाएं, तो आप अपने पिछले जन्मों की सारी स्मृतियों को वापस देख ले सकते हैं। लेकिन उसके पहले मैं कहूं कि पुनर्जन्म होता है, कोई अर्थ नहीं रखता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

उससे क्या मतलब है? उससे क्या हल होगा? अगर तारीख का भी पता चल जाए, तारीख का भी पता चल जाए, समय का भी पता चल जाए, वजह का भी पता चल जाए, तो उससे आपको क्या होगा? यानी उससे आपको क्या, मैं यह पूछता हूं, उससे क्या होगा? उससे तो कुछ भी नहीं होगा। आप कहेंगे ठीक है। यानी सवाल जो है, मेरा जोर जो है, मैं कोई विचारक नहीं हूं, जरा भी। मेरा इससे भी कोई मतलब नहीं है कि यह फलां सिद्धांत कैसा, ढिकां सिद्धांत कैसा। मुझे इससे कोई मतलब नहीं है।
अभी मैं एक गांव में ठहरा था। गांव के दो वृद्धजन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि बीस साल से एक झंझट और झगड़ा हमारे बीच है। हम दोनों मित्र हैं। एक जैन थे, एक ब्राह्मण थे। एक झंझट हमेशा है, जो हमेशा बकवास में आ जाती है, विवाद हो जाता है। तो आपकी बातें कुछ अच्छी लगीं, तो हम पूछने आए हैं कि आप शायद हमारा हल कर दें। इस बुढ़ापे में हल हो जाए तो अच्छा। हम दोनों पुराने मित्र हैं, लेकिन वह एक बात। मैंने पूछा कि वह कौन सी बात है जो बीस साल से आपको परेशान किए हुए है? तो उन्होंने कहा कि यह सवाल है कि जगत को भगवान ने बनाया या कि नहीं बनाया? ये ब्राह्मण जो हैं, ये कहते हैं कि बनाया भगवान ने और हम कहते हैं कि ये भगवान ने बनाया नहीं, यह तो अनादि है। तो इस मुद्दे पर हमारे झगड़े हैं और वे कभी खत्म ही नहीं होते, बस यूं बकवास शुरू हो जाती है।
तो मैंने उनसे पूछा, अगर यह तय भी कर दूं बिलकुल या कोई भी तय कर दे बिलकुल कि भगवान ने बनाया, तो आप क्या करिएगा? या यह तय हो जाए कि भगवान ने नहीं बनाया, तो आप क्या करिएगा? वे बोलेः करना क्या है, बस तय हो जाएगा।
थोड़ी देर हम यह सोचें कि जिन-जिन प्रश्नों का हमारे जीवन के ट्रांसफार्मेशन से कोई वास्ता न हो, वे, वे प्रश्न, जिसको हम कहें, वह कल बिजुभाई कहते थे, प्रास्टिट््यूशन आॅफ माइंड, वह और उसमें कोई मतलब नहीं है। वह हम दिमाग के साथ व्यर्थ नासमझी का काम कर रहे हैं। कोई फायदा नहीं, कोई मतलब नहीं।
मैं कोई विचारक नहीं हूं। मेरी दृष्टि इससे बिलकुल संबंधित नहीं कि क्या है, क्या नहीं है। मेरी दृष्टि कुल इस बात से संबंधित है कि आप जो हो इस क्षण, वह क्षण आपका दुख से भरा है। अगर वह दुख से नहीं भरा है, तब तो कोई दिक्कत ही नहीं है। फिर आपको कोई प्रश्न ही नहीं है।
बुद्ध के जीवन में एक घटना घटी। एक व्यक्ति ने, मौलुंकपुत्त नाम के एक व्यक्ति ने जाकर उनसे ग्यारह प्रश्न पूछे। उन प्रश्नों में सारे प्रश्न आ जाते हैं। यह प्रश्न भी आ जाता उसमें कि आत्मा जगत में क्यों आई। यह जगत किसने बनाया। ये सारे प्रश्न आ जाते हैं। करीब-करीब वह ग्यारह प्रश्नों के आस-पास सारी फिलासफी घूमती है, सारे जगत की।
बुद्ध ने मौलुंकपुत्त से कहा कि तुम उत्तर चाहते हो? सच में चाहते हो?
वह बोलाः उत्तर चाहता हूं, तब तो मैं पूछता हूं। मैं तो अनेक वर्षों से पूछता हूं।
तो बुद्ध ने कहाः जिन-जिन से तुमने पूछा, उन्होंने उत्तर दिए थे?
उसने कहाः सबने उत्तर दिए थे।
तो बुद्ध ने कहाः तुम्हें उत्तर फिर मिला क्यों नहीं? बुद्ध ने पूछा कि जब अनेक से पूछ चूके, उन सबने उत्तर दिए, तुम्हें उत्तर क्यों नहीं मिला? क्या वे उत्तर गलत थे? अगर वे उत्तर गलत थे, तो तुम्हें क्या सही उत्तर का पता है? तभी तुम उनको गलत समझ सकते हो। बुद्ध ने बड़ी अदभुत बातें उससे कहीं। उससे कहा कि आप मुझे यह कहो, इतने लोगों से पूछा, उत्तर उन्होंने दे दिए, तो वे उत्तर तुम्हें तृप्त क्यों नहीं किए? क्या वे उत्तर गलत थे? अगर वे गलत थे तो अर्थ हुआ कि तुम्हें सही का पहले से पता है। अगर सही का पहले से पता है तो पूछते क्यों हो? अगर सही का पता नहीं तो फिर उनको तुमने गलत क्यों माना?
तो बुद्ध ने कहाः मैं भी तुम्हें उत्तर दे दूंगा, फिर भी तुम किसी से पूछोगे। आखिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूं, फिर तुम किसी से पूछोगे। तो बुद्ध ने कहाः मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता, उत्तर जानने की विधि देता हूं।
बुद्ध ने एक अदभुत बात कही। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता कि आत्मा है क्या और कब आई और नहीं आई और पीछे जन्म था कि नहीं और आगे जन्म होगा कि नहीं और आगे बैकुंठ में जाएंगे कि कहां जाएंगे, यह मैं कुछ नहीं देता उत्तर। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता। क्योंकि उत्तर जिन्होंने दिए, तुमने उनके उत्तरों के साथ जो व्यवहार किया, वही तुम मेरे उत्तर के साथ भी करोगे। तो मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता। तुम एक छह महीने रुक जाओ, मैं जो करने को कहता हूं, करो। और मुझसे मत पूछना बीच-बीच में। छह महीने के बाद मैं ही तुमसे पूछूंगा कि अब पूछना हो तो पूछ लो।
तो बुद्ध का एक शिष्य था आनंद, उसने मौलुंकपुत्त से कहाः इनकी बात में मत आना। मैं कोई दस-बारह वर्ष से इनके करीब हूं, और यह धोखा इन्होंने कई लोगों को दिया। जो भी इनसे आकर प्रश्न पूछता है, उससे ये कहते हैं कि छह महीने रुको, साल भर रुको, फिर तुम्हें उत्तर दूंगा। फिर न मालूम उन लोगों को क्या हो जाता है कि वे पूछते ही नहीं।
तो बुद्ध के पास जो संघ बैठता था, उसमें ऐसे हजारों भिक्षु थे जिन्होंने कभी नहीं पूछा, जो सामने ही बैठे रहते थे। एक दफा और प्रसेनजित ने बुद्ध से पूछा कि ये सामने के लोग क्या हैं? बिलकुल समझ नहीं आता, ये हमेशा ही बैठे रहते हैं। न कभी कुछ पूछते, न कभी सिर हिलाते, न कुछ कहते, चुपचाप बैठे सुनते रहते हैं। ऐसा मालूम होता है कि पता नहीं ये सुनते भी कि नहीं सुनते। न कुछ पूछते, न कोई विवाद करते, न कभी कोई उत्तर, न कोई, बस बैठे रहते, सुनते हैं और चले जाते हैं। बुद्ध ने कहाः ये बड़े पहुंचे हुए लोग हैं, ये बामुश्किल आगे आ पाते हैं। ये पीछे, जब तक पूछते रहते हैं, पीछे ही रहते हैं। फिर जैसे-जैसे इनका पूछना खत्म होता चला जाता है, ये आगे आ पाते हैं। ये बड़े छंटे हुए लोग हैं। ये इसलिए नहीं पूछते कि इनका प्रश्न ही नहीं है कोई। प्रश्न गिर गए।
तो वह मौलुंकपुत्त से आनंद ने कहा कि तुम अगर रुके छह महीने, आशा कम है कि पूछो। फिर वह छह महीने रुका। बुद्ध ने उसे जो करने को कहा, उसने किया। छह महीने के बाद बुद्ध ने भरे संघ में, भिक्षुओं के बीच में कहा कि मौलुंकपुत्त, तुम प्रश्न लेकर आए थे, पूछ लो। वह आदमी खड़ा हो गया और बोला, मेरे कोई प्रश्न नहीं हैं। छह महीने में वे तो हवा हो गए। बुद्ध ने कहाः कोई उत्तर मुझसे पूछना हो तो पूछ लो। उसने कहाः कोई उत्तर आपसे नहीं पूछना, क्योंकि यह तय हो गया, उत्तर अपना आ गया। उत्तर अपना आ गया।
तो जीवन-सत्य के संबंध में उत्तर किसी से नहीं मिलेंगे। उत्तर तो भीतर मौजूद है, उस भीतर तक पहुंचने की विधि मिल सकती है।
मैं नहीं कहता कि क्रोध क्या है। मैं नहीं कहता, अक्रोध क्या है। मैं इतना ही कहता हूं कि जो भी हो क्रोध, उसका निरीक्षण करो। निरीक्षण विधि है। उससे क्रोध का पता चलेगा। उसके ही माध्यम से अक्रोध का पता चलेगा। निरीक्षण विधि है। अपने भीतर विचार का निरीक्षण करो, उससे विचार का पता चलेगा। उसी से धीरे-धीरे निर्विचार का पता चलेगा। निरीक्षण विधि है। उसका निरीक्षण करो, धीरे-धीरे शरीर का पता चलेगा।
अभी तो शरीर का भी आपको पता क्या है। अभी आपने शरीर को भी ऐसे देखा है जैसे अपने बाहर से देख रहे हों। अभी आप शरीर के इस ऊपरी तल से ही परिचित हैं, यह जो ऊपर से दिखाई पड़ता है। अभी आपने शरीर को ऐसा थोड़े ही देखा है जैसे शरीर के भीतर बैठ कर शरीर को देख रहे हों। अभी शरीर को ऐसा देखा जैसे बाहर से खड़े होकर देख रहे हों। अभी अपने शरीर से भी आपका जो परिचय है, वह ऐसा जैसे एक आदमी मकान के बाहर खड़े होकर मकान को देख रहा हो वह। और एक आदमी मकान के भीतर बैठ कर मकान को देख रहा हो। अभी आपने भीतर बैठ कर शरीर को भी नहीं देखा। जरा निरीक्षण में गहरे उतरेंगे तो भीतर बैठ कर शरीर को देखेंगे। तब आपको पता चलेगा यह ज्योति का पिंड भीतर और यह बाहर खोल घिरी हुई है। यह साफ दिखेगा।
अभी मन को भी नहीं देखा, और भीतर उतरेंगे तब आपको मन दिखाई पड़ेगा कि ज्योति भीतर और चारों तरफ विचार की मक्खियां घूम रही हैं। उसके पार शरीर की चमड़े की हड्डी की खोल चढ़ी हुई है।
वह निरीक्षण आपको धीरे-धीरे भीतर ले जाएगा, आंतरिक में ले जाएगा। और तब केवल शुद्ध उसका अनुभव होगा, जो निरीक्षण करता रहा, उसका अनुभव होगा और उसके अनुभव से सारे प्रश्न, सारे प्रश्न हल हो जाएंगे।
तो मैं आपको प्रश्न के उत्तर देता हूं तो मुझे हमेशा यह खयाल बना रहता है कि कहीं कोई बौद्धिक ही बात न रह जाए कि ऐसा लगे कि मैं कुछ अच्छे से उत्तर दे रहा हूं। उनका कोई मतलब नहीं है। मेरे अच्छे-बुरे उत्तर का कोई मतलब नहीं है। मेरी सारी चेष्टा इस बात की है, इसकी नहीं कि आपका थोड़ा सा एकेडेमिक ज्ञान बढ़ जाए, कि आपको कुछ और अच्छी-अच्छी बातें पता चल जाएं। इससे मुझे क्या मतलब है। मेरी पूरी चेष्टा यह है कि आपको उस बात का एक दिशा खुल जाए, जहां आप शांत हो सकें और सत्य को जान सकें।
तो मैं नहीं कहता कुछ कि कब आत्मा आई या नहीं आई, मैं कुछ नहीं कहता। इतना मैं आपसे कहता हूं कि अभी आपमें कुछ है जो आत्मा है। और अभी आपको अपने तक उतरने का रास्ता है। उसको व्यर्थ प्रश्नों में खोकर समय और जीवन को व्यय न करें।
एक पिछली बार बात किया, एक भिक्षु ने जाकर एक संन्यासी के पास, वह चीन में घटना घटी, वह एक संन्यासी के पास गया। वहां रिवाज था कि संन्यासी के तीन चक्कर लगाओ, उसको प्रणाम करो, फिर प्रश्न पूछो। वह सीधा जाकर पहुंचा, उसने उसके हाथ पकड़े और उसने उससे प्रश्न पूछा। वह संन्यासी बोला, तुमको इतना भी पता नहीं है, रिवाज का भी पता नहीं कि पहले विधिवत दक्षिणा करो, फिर बैठो, नमस्कार करो, फिर जगह पर बैठो, फिर पूछो। तुम ऐसा हाथ पकड़ कर पूछते हो जैसे कोई झगड़ा हो गया मेरा तुमसे। उसने तो जाकर हिला दिया और पूछा।
और वह आदमी बोला, मैं तीन नहीं, मैं तीन हजार चक्कर लगा लूं, लेकिन जीवन का भरोसा नहीं है। अगर मैं तीन ही चक्कर लगाने में समाप्त हो जाऊं तो जिम्मा तुम्हारा। उसने कहाः मैं अगर तीन ही चक्कर लगाने में गिर जाऊं और मर जाऊं, किसी क्षण तो मरूंगा ही, अगर तीन ही चक्कर में गिर जाऊं और मर जाऊं, और नमस्कार करने में ही मेरा प्राण निकल जाए, तो फिर जिम्मा किसका? फुरसत मुझे नहीं है। और उसने एक बड़ी अजीब बात कही। तो उसने पूछा, तुम पूछना क्या चाहते हो? उसने कहा कि यह भी मैं तय नहीं कर पाता कि क्या पूछूं। मैं तुमसे यही पूछने आया हूं कि क्या पूछना चाहिए?
यह बड़ी अजीब, मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी। उसने कहाः मुझे यह भी पक्का नहीं गलत-सलत पूछूंगा क्योंकि मैं तो गलत आदमी हूं, मुझे कुछ हिसाब-किताब है नहीं। मैं इतना ही पूछने आया हूं, क्या पूछना चाहिए, यह मुझे बता दो। बड़ा रेयर, उसने पूछाः क्या पूछना चाहिए यह मुझे बता दो। और फुर्सत मुझे है नहीं, नहीं तो मैं तीन हजार चक्कर लगा लूं, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।
यह जो आदमी है, ये प्रश्न नहीं हैं इसके पास, प्यास है। और हमारे पास अक्सर प्रश्न हैं, प्यास नहीं है। प्यास को घनीभूत करो और प्रश्नों के विस्तार में मत जाओ, प्यास की गहराई में जाओ। प्रश्न गहरे नहीं होते, प्रश्न विस्तृत होते हैं। प्यास विस्तृत नहीं होती, प्यास गहरी होती है। प्रश्नों का एक्टेंशन होता है, प्यास इंटेंसिव होती है। एक प्रश्न, दो प्रश्न, पचास प्रश्न और लाख प्रश्न हो सकते हैं। प्यास लाख नहीं होती, प्यास एक ही होती है। और गहरी हो जाएगी, और गहरी हो जाएगी, और गहरी हो जाएगी।
मेरी बात समझे न? प्रश्न लंबे होते चले जाएंगे, बहुत हो सकते हैं। प्यास एक ही होती है, गहरी होती चली जाती है। एक सीमा पर इतनी प्यास घनी हो जाती है कि तब तुम प्रश्न नहीं चाहते, तब तुम कुछ जानना नहीं चाहते। यह कोई चीज आपको तृप्त नहीं कर सकती कि कोई बता दे कि ऐसा है, वैसा है।
तो मैंने यह अनुभव किया, और पूरे मुल्क में अनेक लोगों से मिल कर मुझे यह अनुभव आया कि सारे प्रश्न करीब-करीब ऐसे हैं, जैसे स्कूलों में होते हैं; जैसे परीक्षा के प्रश्न होते हैं, एकेडेमिक; जिनका जीवन से कोई संबंध नहीं है। फिजूल, जिनसे कोई मतलब नहीं है। उनका कोई मूल्य नहीं है। मैं उनके उत्तर में उत्सुक नहीं हूं। हों पिछले जन्म, न हों, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है।
मतलब मुझे इससे है कि अभी तुम्हें एक जन्म है, एक जीवन है हाथ में, अभी एक क्षमता है, इस क्षमता के बीच तुम्हें बोध है कि दुख भरा है, अशांति है, पीड़ा है, परेशानी है, इसको दूर करने के उपाय की फिकर करो। उसको ही पूछो, जगह-जगह से, तरफ-तरफ से उसको ही खोदो। उसी पर सारे का सारा चैतन्य, सारा केंद्रीकरण, उसी पर लगा दो। और अपने भीतर जो सबसे बड़ा, जो तुम्हें कारण दिखाई पड़ता हो दुख का, उस पर निरीक्षण करने लग जाओ।
किसी को क्रोध मालूम होगा, किसी को लोभ मालूम होगा। वह जो खास केरेक्रिस्टीक हो तुम्हारे दुख की, जिसके केंद्र पर तुम्हारी सारी पीड़ा घूम रही है, जिसके केंद्र की वजह से तुम अशांत हो, उस पर निरीक्षण को लगा दो। उस पर पूरे केंद्रित होकर काम करने में लग जाओ। तो उसी काम से तुम्हें उत्तर आने शुरू होंगे। और उनके भी उत्तर आ जाएंगे, जिनका उस काम करने से सीधा संबंध नहीं मालूम होगा।
अगर उत्तर चाहने हैं, तो प्रश्नों की फिकर छोड़ो और कुछ साधना के क्रम में थोड़े से अपने को संयुक्त कर लो। और अगर उत्तर नहीं चाहने हैं, तो फिर बहुत ग्रंथ हैं, और बहुत उत्तर देने वाले हैं, उन सबके उत्तर इकट्ठे करो। तुम एक पंडित होकर मर जाओगे, जो बहुत से उत्तर जानता था, लेकिन जिसके पास उत्तर नहीं था; जो बहुत उधारी की बातें जानता था, लेकिन जिसके पास अपना कुछ भी नहीं था। तथाकथित ज्ञानी और पंडित से दरिद्र आदमी दूसरा नहीं होता है। ये जो सो-काॅल्ड विचारक समझे जाते हैं, इनसे ज्यादा गरीब और दयनीय आदमी दूसरा नहीं होता। इनका कोई उत्तर अपना नहीं है। ये सब सुना हुआ, सब पढ़ा हुआ दोहरा रहे हैं, दोहरा रहे हैं। यह सब मुर्दा, इसमें कोई अर्थ नहीं है, कोई अर्थ नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं, आप बाद में आए मालूम होता है कुछ।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां-हां, मैं यह कह रहा था कि हम अपने भीतर एक चित्र बनाए हुए हैं अपना ही। बड़ा भव्य, बड़ा भव्य एक चित्र बनाए हुए हैं अपने भीतर। वह भव्य चित्र हमारा, हमें जीवन भर धोखा देता है। उसकी वजह से हम अपने में कभी कोई बुराई स्वीकार नहीं कर पाते, कोई गलती नहीं देख पाते, कोई दाग नहीं देख पाते। तो अपनी कल्पना से अपने भव्य चित्र को खंडित कर दें, उसे उठा कर फेंक दें। क्या मुझे होना चाहिए, इसकी फिकर छोड़ दें; क्या मैं हूं, उसको जानें। हम सब एक आदर्श से पीड़ित हैं और इसलिए एक अभिनय में पड़े हुए हैं। हम सब एक आदर्श कल्पना अपनी बनाए हुए हैं कि मैं ऐसा आदमी हूं, मैं वैसा आदमी हूं। वही कल्पना हमको धोखा दिए रहती है। क्योंकि हम उस कल्पना के कारण, जब भी हममें कोई बुराई होती है तो हम मान ही नहीं सकते कि हममें है। हम समझते हैं कि किसी और की वजह से हममें है।
अभी मैं एक प्रोफेसर से बात करता था। वे बोले, कुछ क्रोध ऐसे होते हैं, राइच्युअस इनडिग्नेशन, वे बोले, कुछ तो क्रोध ऐसे होते हैं कि जो तो क्रोध ही नहीं हैं। यह तो बिलकुल ही ठीक है। मैंने कहाः क्रोध तो कोई ठीक नहीं हो सकता है। इस शब्द से झूठा शब्द कोई नहीं हो सकता। कोई क्रोध ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि कोई अंधेरा कहे कि कुछ अंधेरे ऐसे होते हैं, जो प्रकाश होते हैं; यह तो नासमझी की बात हो गई। कुछ अंधे ऐसे होते हैं, जिनको दिखता है; यह तो बिलकुल फिजूल की बात हो गई। यह तो कोई मतलब की बात नहीं है। ये तो विरोधी शब्द हैं। राइच्युअस और इनडिग्नेशन में तो विरोध है।

प्रश्नः बेसिस होगा, वह क्रोध करने के लिए बेसिस उसका अच्छा है, सच्चा है बेसिस।

हां, सभी क्रोध करने को आप कोई न कोई बेसिस मानते हैं जो सच्चा है। और सच्चा मानते हैं इसलिए क्योंकि क्रोध करने की तरकीब खोज रहे हैं। यानी तरकीब जो हमारे दिमाग की है, वह यह है कि क्रोध हमें करना है और अपना जो कल्पना में हमने चित्र बना रखा है भव्य और दिव्य, उसको भी कायम रखना है। तो फिर हम वह जो बेसिस है, उसको कहेंगे कि वह बिलकुल ठीक है और हमारे योग्य ही है कि हम क्रोध करें इस वक्त। हमारी दिव्यता क्रोध करने से खंडित न हो इसलिए क्रोध करने के कारण को हम ठीक है, यह दावा करेंगे। यहीं तो भूलें छिपी हैं।
तो मेरा कहना यह है कि पहले अपने भीतर जो एक प्रतिमा बना रखी है अपनी, वह खंडित कर दें। उसकी फिकर छोड़ें, उसको जानने लगें जो कि आप असलियत में हैं। और तब आप बड़े अजीब मालूम होंगे।
हो सकता है आप सोचते हों कि मेरा जैसा अच्छा पति नहीं है। जरा गौर से अपने भीतर देखिएगा तो आप पाएंगे आप कौन से पति हैं और काहे के अच्छे हैं। शायद आप सोचते हों कि मुझसे बेहतर कोई पिता नहीं है। जरा गौर से देखिए आपमें पिता जैसा क्या है और कहां के पागलपन में पड़े हैं। ये जो भ्रम हम कहे हुए हैं कि हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं, इसको थोड़ा हटा कर पर्दे को उसको देखिए जो आप हैं। तो आप पाएंगे शायद वहां पिता जैसा कुछ भी नहीं है, पति जैसा वहां कुछ भी नहीं है। और घबड़ाहट इसलिए होगी कि आपका चित्र टूटना शुरू हो जाएगा।
लेकिन साधक को इससे गुजरना होगा। यही तपश्चर्या है। यही कष्ट है जो सहना पड़ेगा उसे। और अपनी सारी दिव्य प्रतिमा को खंडित करके, वह जैसा नग्न और नैतिक जैसा है, उसको जानना होगा। जब वह अपने को जानेगा, जैसा वह है, तो उसमें फर्क होने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि जो बुराई उसमें दिखाई पड़ेगी अब, उसको सहना कठिन हो जाएगा। दिखती नहीं थी इसलिए सहता था; दिखेगी, सहना कठिन हो जाएगा। यानी किसी बुराई को देखने लगना, उससे मुक्त होने का रास्ता बन जाता है। तो अपने को हमेशा हम, उलटा काम में लगे हुए हैं, हम हमेशा यह सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि हमारी जो आदर्श कल्पना है अपने बाबत, बड़ी सच है। चैबीस घंटे हम उसी को सिद्ध करने में सब तरफ लगे हुए हैं।
अगर कोई हमारी निंदा करे तो हम उसका विरोध करेंगे। अगर कोई हमें गाली दे तो हम उसका प्रतिवाद करेंगे। अगर कोई हमारे विरोध में कुछ कहे तो हम उसका प्रतिरोध करेंगे ताकि हमारी वह प्रतिमा खंडित न हो।
एक साधु था, वह एक गांव के बाहर ठहरा हुआ था। युवा था और सुंदर था। गांव में एक स्त्री, एक युवती गर्भवती हो गई। और उससे लोगों ने पूछा, दबाव डाला, उसने कहा कि यह साधु का बच्चा है। बच्चा उसे हुआ, सारा गांव कुपित हो गया। उसने जाकर बच्चा उस साधु के ऊपर पटक दिया। उसने पूछा, क्या बात है? तो उन लोगों ने कहा कि यह तुम्हारा बच्चा है। वह बोलाः इ.ज इट सो? ऐसा है क्या? वह बच्चा रोने लगा तो उसे वह सम्हालने में लग गया। लोग गाली बके, अपमान किए और चले गए।
वह दोपहर को भीख मांगने गया उस बच्चे को लेकर, उसको कौन भीख देता। तो सारे गांव में अफवाह और सारे गांव में उसकी हंसी-मजाक और व्यंग्य। जहां से निकले लोग भीड़ बना कर खड़े हैं और देख रहे हैं और हंसी उड़ा रहे हैं कि यह साधु और अपने बच्चे को भी लिए हुए। अब उसको भोजन भी चाहिए और बच्चे के लिए दूध भी चाहिए। बच्चा रो रहा है और वह बेचारा सारे गांव में मांग रहा है। कौन उसको भिक्षा देगा। कोई भिक्षा नहीं दिया। वह उस घर के सामने भी गया जिस घर की लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां भी आवाज दी। उसने कहाः मुझे भीख न दो, बस इस बच्चे को भीख दे दो, इसको दूध मिल जाए तो बहुत है।
तो जिस लड़की का यह बच्चा था, उसके लिए सहना कठिन हो गया। वह इनटालरेबल हो गया अब। उसने अपने पिता से कहा कि मुझे क्षमा करें, मैंने झूठ कह दिया। साधु का तो कोई संबंध नहीं है इससे। मैंने असली बाप को बचाने के लिए साधु का नाम ले दिया। मैंने सोचा था कि मामला खत्म हो जाएगा। साधु को आप भगा-वगा कर वापस लौट आओगे। यह जो हालत हो रही है, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। यह तो साधु पर बहुत ज्यादा हो गया।
पिता बोला, अरे, और उसने कहा भी तो नहीं कि यह मेरा बच्चा नहीं है। उस नासमझ को कहना तो चाहिए था। वे सारे लोग नीचे गए, उसके हाथ-पैर जोड़े। वह बोलाः क्या बात है? उससे जब वे बच्चा छीनने लगे तो वह बोला, क्या बात है? तो उन्होंने कहाः यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। वह बोलाः इ.ज इट सो? ऐसा मामला है क्या, बच्चा मेरा नहीं है? जब सांझ को लोगों ने उससे पूछा कि तुम कैसे पागल हो, तुमने सुबह ही क्यों नहीं कह दिया। वह बोला कि जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही होगा।
असल में अपनी कोई उसकी कल्पना ही नहीं है, कोई प्रतिमा ही नहीं है, जिसको बचाना है। यह कोई प्रतिमा नहीं है कि मैं बाल-ब्रह्मचारी हूं और मेरा यह कैसे हो सकता है। यह कोई प्रतिमा ही नहीं है अपनी। तुम कहते हो तो यही ठीक होगा। तुम गलती पर होओगे तो तुम्हीं अपनी गलती ठीक कर लेना; मैं कहां जिम्मेवार हूं उसको ठीक करने का। अगर तुम मुझे व्यभिचारी और दुराचारी समझोगे तो यह भी ठीक है क्योंकि मुझे इसकी भी रक्षा नहीं करनी है।
जो आदमी इस भांति अपने चित्रों और प्रतिमाओं को छोड़ दे, उसको मैं साधु कहता हूं। आमतौर से जो हम साधु देखते हैं, वह बड़ी अपनी प्रतिमा रखता है। वह कुछ है, इसकी पूरी फिकर रखता है। वह यह सिद्ध करने की चैबीस घंटे कोशिश में है कि वह कुछ है। जिसने यह कोशिश छोड़ दी सिद्ध करने की कि मैं कुछ हूं और जैसा निपट है, वैसा ही होने को राजी हो गया, उसको मैं साधु कहता हूं। उस दिशा से जो चलेगा और आत्म-निरीक्षण में गतिमान होगा, वह एक दिन जरूर उसको जान लेगा। झूठा दंभ और मिथ्या व्यक्तित्व अपने में खड़ा करने की बात नहीं है। इससे बड़ी दिक्कत होगी। इससे मैं देखता हूं कि हमारे प्रश्न जो हैं, जिन्यून नहीं हो पाते हैं।
अभी मैं कई दफा देखता हूं, आप कुछ पूछना चाहते हैं, कुछ और पूछते हैं। क्योंकि जो पूछना चाहते हैं, कहीं उससे ऐसा पता न चल जाए कि आपमें यह मामला भी है।
मैं बड़ा हैरान हूं, मुझे, मैं कलकत्ता एक मीटिंग में बोलता था, एक सज्जन ने ब्रह्मचर्य पर किताब लिखी है। बड़ी किताब लिखी और बड़ी प्रशंसित हुई। वे मुझे एक किताब भेंट किए मीटिंग में। ब्रह्मचर्य पर मैंने कुछ कहा, जो मेरी अपनी धारणा थी, कही। उनको अब कुछ प्रश्न पूछना था, लेकिन बड़ी मुसीबत में पड़ गए। तो वे खड़े होकर बोलेः मेरे एक मित्र हैं, वे ब्रह्मचर्य साधना चाहते हैं, लेकिन उनसे सधता नहीं, तो क्या करें? तो मैंने पूछा कि वे मित्र हैं आपके कि आप ही हैं, पहले मैं यह समझ लूं। वे बहुत घबड़ा गए। बोले कि नहीं, मेरे एक मित्र हैं। मैंने कहा कि मित्र की फिकर छोड़िए, उन मित्र को लाइए। रास्ता जरूर है, रास्ता जरूर है लेकिन उन मित्र को ले आइए। क्योंकि मैं आपको समझाऊं, आप उनको समझाएं, बड़ा गड़बड़ हो जाएगा। आप मित्र को ले आइए, मैं उनको समझा दूंगा। वे बड़े बेचैन हुए। जब मैं चला आया, उन्होंने मुझे एक चिट्ठी लिखी कि क्षमा करें, तकलीफ मेरी है लेकिन मैं साहस नहीं कर सका पूछने का।
तो मैंने उनको लिखा कि साहस आप कर सकते थे, अगर वह ब्रह्मचर्य पर आपने किताब न लिखी होती। वह दिक्कत हो गई न। वह जो किताब लिखी है, जो एक प्रतिमा हो गई कि मैं जो कि इतना जानने वाला ब्रह्मचर्य का हूं, तो मैं पूछूं किसी से तो कोई कहेगा अरे, अभी आपको साधने की आपको खुद ही दिक्कत है!
हमें जो तकलीफ है, मैं साधुओं से मिलता हूं, साधु मुझसे सबके सामने बात नहीं करना चाहते। भीड़ हो तो मुझसे मिलना नहीं चाहते। चाहते हैं एकांत में, अलग, मैं उनसे मिलूं। क्योंकि उनकी तकलीफें वही की वही हैं, जो कि वे सबके सामने नहीं कह सकते। अकेले में वे मुझसे यही पूछते हैं कि ब्रह्मचर्य कैसे सधे? चित्त अशांत रहता है तो कैसे? चित्त में क्रोध आता है तो क्या करें? यह वे अगर सबके सामने मुझसे पूछेंगे तो वह जो प्रतिमा उन्होंने अपनी खड़ी कर रखी हैं चारों तरफ कि वे बड़े शांत चित्त हैं, वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे; क्योंकि वे पूछते हैं कि अशांति कैसे मिटे, तो लोग समझेंगे कि अभी शांत चित्त नहीं हुए।
तो हम एक असली आदमी अगर सामने हम न रख सकें, तो हम उस असली आदमी में फर्क कैसे कर सकेंगे? हम एक झूठे आदमी को सामने रखे हुए हैं और असली आदमी को पाना चाहते हैं। आत्मा को पाना चाहते हैं, और एक नकल, एक अभिनय, एक एकिं्टग चारों तरफ खड़ी किए हुए हैं, तो नहीं हो सकेगा।
मेरा मानना है कि इसमें घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी के सीधे प्रश्न पूछना बंद हो गए हैं। कोई पूछेगा आत्मा है या नहीं, परमात्मा है या नहीं। यानी इनसे कोई मतलब नहीं है आपको। आपके मतलब के प्रश्न कुछ और हैं, जो आपकी जिंदगी को पीड़ित किए हुए हैं और परेशान किए हुए हैं। जिनकी वजह से आप दिक्कत में पड़े हुए हैं। जिनका आप परिवर्तन अगर आपको समझ में आ जाए तो क्रांति हो जाए। लेकिन वह कोई नहीं पूछेगा। क्योंकि उनको कैसे पूछें, क्योंकि वे तो हमारी, वह हमको खोल देंगे और हमारे बाबत जाहिर कर देंगे।
जिंदगी के असली प्रश्न हम पूछते ही नहीं और नकली प्रश्न पूछे चले जाते हैं। मेरा जोर ही इसी बात पर है कि जिंदगी के असली प्रश्न पकड़ें। यह सब बकवास है, इससे कोई मतलब नहीं है। असली प्रश्न पकड़ें। मेरी मुसीबत क्या है? मेरी दिक्कत क्या है? मैं कहां उलझा हूं? मैं कहां परेशान हूं? मेरा दुख कहां है? उसको केंद्रित करें, उसको पकड़ें, उसके बाबत सोचें, उसके बाबत विधि को समझें, उस पर प्रयोग में लग जाएं।
और बड़े मजे की बात यह है कि इस भांति जो प्रयोग में लगेगा, वह हो सकता है एकदम से ऐसा भी न दिखे कि धार्मिक है, क्योंकि न आत्मा की बात करता, न परमात्मा की बात करता, न पुनर्जन्म की बात करता। लेकिन बड़े रहस्य की बात यह है कि जो इस भांति जिंदगी को पकड़ कर काम में लग जाएगा, वह एक दिन उस जगह पहुंच जाएगा जहां आत्मा और परमात्मा सब जान लिए जाते हैं।
अभी कल रात जो मैंने कहा, वह मैंने यही कहा कि महावीर ने किसी से जाकर नहीं पूछा कि आत्मा है या नहीं, पुनर्जन्म है या नहीं। तो वहां बैठ कर जंगल में क्या यह सोचते होंगे कि आत्मा है या नहीं। कभी यह सोचा आपने, क्या सोचते होंगे? यह बैठ कर सोचते होंगे कि आत्मा है या नहीं, कि पुनर्जन्म हैं या नहीं। नहीं, यह कुछ नहीं सोचते। क्रोध पर काम कर रहे हैं, सेक्स पर काम कर रहे हैं। काम इन पर चल रहा है। काम आत्मा-वात्मा पर थोड़े ही चलता है कुछ।
वह बारह वर्ष की जो तपश्चर्या है, काम किस पर कर रहे हैं, कोई आत्मा पर काम कर रहे हैं, कि कोई पुनर्जन्मों का पता लगा रहे हैं, कि निगोध का पता लगा रहे हैं, कि अनादि जगत कब बना इसका पता लगा रहे हैं। कुछ नहीं लगा रहे हैं, काम कर रहे हैं क्रोध पर; काम कर रहे हैं सेक्स पर; काम कर रहे हैं लोभ पर। वहां काम कर रहे हैं। उसी काम के माध्यम से एक दिन स्थिति आती है कि ये सब विसर्जित हो जाते हैं। ये सब जब विसर्जित हो जाते हैं तो उसका अनुभव होता है जो आत्मा है।
बातचीत आत्मा की है। काम आत्मा पर नहीं करना है कुछ। काम किसी और ही चीज पर करना है। पर हम आत्मा के बाबत पूछे चले जाएंगे। उसका कोई मतलब नहीं है, कोई मतलब नहीं है।

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