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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

उपासना के क्षण-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन--(अलोभ की दृष्टि)

 लाभ की दृष्टि से जाना ही छोटी चीज के लिए जाना है। यह बड़ा सवाल नहीं है कि आप किस लाभ की दृष्टि से जाते हैं। आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से जाना भी लोभ ही ले जा रहा है।
प्रश्नः थोड़ा लोभ ही है।
हां। और इसलिए साधु के पास आप पहुंच न पाएंगे। साधु के पास तो आप जब अत्यंत सहज, बिना किसी कारण के जाते हैं, तभी आप लाभांवित होते हैं। लाभ का कारण भी मन में हो, तो भी बाधा पड़ जाती है। असल में, जैसे हम किसी को प्रेम करते हैं, तो कोई भी दृष्टि नहीं होती, लाभ की दृष्टि भी नहीं होती। लाभ मिलता है, यह दूसरी बात है। हम प्रार्थना करते हैं, तो लाभ की दृष्टि हो, तो प्रार्थना नहीं हो पाएगी।
साधु के पास हम जाते हैं, पहुंच नहीं पाते। वह लाभ चाहे धन का हो, चाहे स्वास्थ्य का हो, चाहे अध्यात्म का हो। इतना ही मैं कहूंगा कि आप छोटे लाभ को इनकार कर रहे हैं बड़े लाभ को इनकार नहीं कर रहे हैं। लेकिन छोटा लाभ अगर लोभ है तो बड़ा लाभ बड़ा लोभ है।
और लोभ की दृष्टि से साधु के पास जाकर खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा। हां, अगर बिना लोभ की दृष्टि के जाते हैं तो शायद भरे हाथ भी लौट सकते हैं। और फिर जरूरी नहीं कि साधु के पास से ही भरे हाथ लौटें, अगर खाली हाथ वृक्ष के पास भी खड़े हो जाएं, और सुबह उगते सूरज के पास भी खड़े हो जाएं, तो भी हाथ भर सकते हैं।
तो दूसरी बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अगर अलोभ की हमारी दृष्टि हो, और कहीं तो जीवन में कोई जगह होनी चाहिए जहां हमारा कोई भी लोभ नहीं है। दुकान पर हम जाते हैं, बाजार में हम जाते हैं, मित्र के पास जा रहे हैं, वोटर के पास जा रहे हैं, सब जगह कुछ न कुछ कारण हैं। साधु को मैं वह जगह कहता हूं जहां हम सब कारणों से थके हुए लोग जा रहे हैं। जहां हम सब कारणों से थक गए हैं और कहीं अकारण संबंध भी बनाना चाहते हैं। जहां, इसलिए अगर कोई साधु आपसे पूछे कि कैसे आए, तो मैं कहता हूं, वह साधु नहीं है। और आप अगर बता पाएं कि इसलिए आया, तो आप साधु के पास गए नहीं। जिंदगी कारण से इतनी परेशान है, लोभ से इतनी पीड़ित है, हमारे सारे संबंध कंडीशनल हैं, शर्त के साथ हैं। साधुता का संबंध ही अनकंडीशनल है।
मेरे एक प्रोफेसर थे, वे फिलासफी के प्रोफेसर थे, और नये-नये आए थे। तो मैं उनके घर मिलने गया। बूढ़े आदमी थे। तो उन्होंने मुझसे पूछा, कैसे आए? तो मैंने कहाः बताना मुश्किल है। मैंने कहाः बताना मुश्किल है। और अगर दुबारा भी आप पूछेंगे यह, तो अब मैं नहीं आऊंगा। मुझे यह पता नहीं था कि कारण हो तभी आना आवश्यक है। तो मैंने कहाः मैं जाता हूं, क्योंकि मैं बिलकुल बिना कारण आया। मेरा खयाल ऐसा था कि कम से कम फिलासफी का प्रोफेसर इतना समझेगा कि अकारण मिलने में भी एक रस है। सच तो यह है कि अकारण मिलने में ही रस है। और जीवन में जब भी हम किसी से अकारण मिल पाते हैं, तो जो फूल खिलता है दोनों के बीच में, वही मैत्री है, वही प्रेम है। तो आपकी बात से मैं राजी ही हूं, आपकी बात तो बिलकुल ठीक ही है। इतना ही कहूंगा कि दूसरी बात जो आप कह रहे हैं, वह पहली बात का ही दूसरे तल पर फैलाव है।
रामकृष्ण के साथ ऐसी एक घटना है कि विवेकानंद के घर पर बहुत तकलीफ थी, पिता मर गए तो बहुत कर्ज छोड़ कर मर गए थे। और घर में ऐसी हालत थी कि एक ही बार का खाना होता, और वह भी इतना होता कि या तो मां खा ले या विवेकानंद खा ले। तो मां को वे यह कह कर गांव में चले जाते कि किसी मित्र ने आज निमंत्रण भेजा है, तो मैं वहां खाना खाने जा रहा हूं। सड़कों के चक्कर लगा कर लौट आते; न तो कोई निमंत्रण था, न किसी मित्र ने बुलाया था। लेकिन मां भोजन कर ले, अन्यथा वह उनको खिला देती और खुद भूखी रह जाती।
रामकृष्ण को पता लगा कि वे कई दिन से भूखे हैं, तो उन्होंने कहाः तू कैसा पागल! तू जाकर मंदिर में परमात्मा से क्यों नहीं मांग लेता। तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं। उन्हें जबरदस्ती भीतर भेज दिया। घंटे भर बाद वे लौटे, बड़े आनंद से भरे हुए थे। तो रामकृष्ण ने कहा कि मांग लिया? मिल गया?
तो विवेकानंद ने कहाः कौन सी चीज?
तो रामकृष्ण ने कहाः मैंने तुझे भेजा था कि अपनी मुसीबत के लिए प्रार्थना कर लेना।
तो विवेकानंद ने कहाः मैं तो भूल गया। परमात्मा के सान्निध्य में पेट कोई याद रख पाता, तो परमात्मा से सान्निध्य नहीं बन सकता। मैं तो भूल गया। यह दो-चार दिन हुआ। फिर तो रामकृष्ण बहुत नाराज हुए और उन्होंने कहाः तू आदमी पागल तो नहीं है!
पर विवेकानंद ने कहा कि जैसे ही मैं मंदिर के भीतर जाता हूं, जैसे ही उनका सान्निध्य मुझे मिलता है, वैसे ही न मैं रह जाता, न मेरा पेट रह जाता, न मेरी भूख रह जाती, न मेरी कोई मांग रह जाती। तो मैं देकर लौट आता हूं, मांग नहीं पाता। विवेकानंद ने कहा कि मैं अपने को देकर लौट आता हूं, मांग नहीं पाता हूं।
साधु सत्संग अकारण है। वह ऐसे ही जैसे आप एक फूल के सौंदर्य को देखने के लिए रुक गए, नहीं कुछ मिलेगा। ऐसे ही है जैसे चांद-तारे रात को निकलें और आपने आंख उठा कर देख लिया, नहीं कुछ मिलेगा। ऐसे ही मनुष्य के भीतर भी जो फूल खिलते उनका नाम साधु है। इनके पास आप अगर कारण से गए, अगर फूल के पास कोई कारण से गया कि बाजार में बेच लूंगा या भगवान को चढ़ा दूंगा, तो भी फूल का जो सौंदर्य-संबंध है, फूल से जो संबंध है वह पैदा होने वाला नहीं। क्योंकि वह तो निपट काव्य का संबंध है, जहां कोई लाभ नहीं है, कोई लोभ नहीं है।
तो वह तो आप ठीक ही कहते हैं पागेजी कि अगर कोई बीमारी ठीक करवाने जा रहा हो, कोई धन पाने जा रहा हो, कोई चुनाव जीतने जा रहा हो, ये सारे कारणों से जा रहा है तो वह तो पागल है ही, वह गलत जगह तो जा ही रहा है। न, मैं तो यह कह रहा हूं कि अगर वह किसी भी कारण से जा रहा, मोक्ष पाने भी जा रहा है, परमात्मा को भी पाने जा रहा है, तो भी गलत जा रहा है। क्योंकि कारण से गया हुआ आदमी साधु के पास नहीं पहुंचता। साधु की जगह वैसी जगह है जहां हम अकारण जाते हैं।
एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। तो जापान का सम्राट उससे मिलने गया। और उसने कहा कि मैंने बड़ी प्रशंसा सुनी है, तो मैं यहां आया हूं। तुम मुझे सारा आश्रम घूमा कर दिखाओ, कहां क्या करते हो? तो बीच में बड़ा मंदिर है, विशाल, और जिसके शिखर दूर से, मीलों से चमकते हैं। और वह रिंझाई इस सम्राट को लेकर एक-एक छोटी-छोटी कोठरी में गया कि यहां साधु स्नान करते हैं, यहां भोजन करते हैं, यहां पुस्तकालय है, यहां पढ़ते हैं। बार-बार सम्राट ने पूछा कि मुझे व्यर्थ की जगह में मत घुमाओ, उस बीच के भवन में क्या करते हैं? यह जैसे ही वह सम्राट पूछता कि रिंझाई चुप हो जाता, जैसा बहरा हो गया। पूरा आश्रम घुमा दिया--पाखाने, शौचालय, स्नानगृह, सब दिखा दिए। सम्राट ने कहाः या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। मैं तुमसे पूछता हूं, एक बीच में जो बड़ा भवन है यहां क्या करते हो?
बस वह चुप हो जाता। फिर दरवाजे पर विदा का भी वक्त आ गया, वह अपने घोड़े पर बैठने लगा, तब उसने फिर कहा कि तुम आदमी कैसे हो, मैं कुछ समझ नहीं पाया। तो उसने कहा कि अब आप मानते ही नहीं तो मुझे कहना पड़े, आप गलत सवाल पूछते हैं। आपने मुझसे पूछा था कि साधु जहां जो करते हों वह जगह मुझे बता दो। वहां तो साधु वह जो बीच में भवन है तब जाता है जब उसे कुछ नहीं करना होता। वह हमारी प्रार्थना की जगह है। वहां हम कुछ करने नहीं जाते, जब हम करने से थक गए होते हैं और न करने की इच्छा होती है, नाॅन-डूइंग की इच्छा होती है, तब हम वहां जाते हैं। और तुमने पूछा था कि साधु जहां जो करते हैं वह तो मैंने सब जगह बता दी--यहां स्नान करते हैं, यहां भोजन करते हैं, यहां सोते हैं, यहां अध्ययन करते हैं--वह है मंदिर, वहां हम कुछ करते नहीं। और जो करने जाएगा वह मंदिर में जा नहीं सकता। वहां तो हम करने से थके हुए लोग न करने के लिए जाते हैं। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं, वहां हम न होने में लीन हो जाते हैं।
साधु वह जगह है जहां हम मांगने, पाने, किसी भी लोभ के वश जाएं, तो हमारा संबंध ही नहीं हो पाता। संबंध हो ही नहीं सकता। फिर हम किसी दुकान की तलाश में हैं। फिर किसी डाक्टर की तलाश में हैं, किसी ज्योतिषी की तलाश में हैं। वह बेहतर आप कहते हैं कि वह हमें वहीं खोजना चाहिए जहां डाक्टर है।

प्रश्नः यह जैन-बुद्धिज्म की बात आपने कही है। मैंने जो बुद्धिज्म के बारे में पढ़ा है, एक-दो लोगों से बातें भी हुई हैं। वह एक सहजभाव की प्रक्रिया है। और किसी धर्म में जाकर1हिंदू धर्म में तो यही बात है, आखिरी बात है सहजभाव। और उन्होंने यह सही कहा, हम यहां करते नहीं हैं कुछ। इसकी मानी यह है कि वैल्यूएशन नहीं है, मन की इच्छा नहीं है, एक्शन नहीं है, लेकिन आॅल रिएक्शन, प्रतिक्रिया वाले रिएक्शन। मैंने जो कहा कि आध्यात्मिक बात पाने के लिए, तुम्हारी जिंदगी है कोई इच्छा रख कर जाना चाहिए। लेकिन मेरा अनुभव यह हुआ कि वह आखिरी अवस्था का हम कल्पना करते हैं1सहज अवस्था की1वह कभी अनुभूति होती है, कभी नहीं। चैबीस घंटा अनुभूति तो होती नहीं है, उसी अवस्था में हम हैं। आगे का मुझे मालूम नहीं, मैं तो इसी अवस्था में हूं। तो हमेशा टेंस ही रहती है, और देर, देर से वैसे हो जाते हैं। तो यह सही है कि कोई इच्छा रख कर जाना नहीं है। इच्छा है तो क्रिया होती है। जैसे मैंने कहा, एक्शन, राइट रिएक्शन जहां यह तय हो। रिएक्शन का मानी जैसे सहजभाव हो। कोई दूसरी वस्तु है, परिस्थिति है, विचार है, विचार नहीं, कुछ भी हो, जिसे रिएक्शन का सवाल रहता है। तो सहजभाव ऐसे आखिरी चीज है जैसे जैन-बुद्धिज्म लोग मानते हैं। और हम भी मानते हैं आखिर। साधो, सहज समाधि भली। लेकिन उसके बीच में बहुत सारी कई अवस्थाएं होती हैं। यह अवस्था आत्मा की भी, यह भी मन की अवस्था होती है। आत्मा तो हमेशा सहज अवस्था में ही है। लेकिन हमारा मन, हमारा शरीर, हमारा कर्म, ये सब सहज अवस्था में आज है नहीं, होना चाहिए। यह कैसे हो सकता है1इसका एक सबूत हमें मिलता है साधुओं के पास। इच्छा हमें नहीं रहती कि उनके पास से कुछ लेना है, लेकिन एक सबूत मिलता है कैसे2देख-देख कर सहज लाभ यहां भी होता है।

बड़ी कठिन बात है। और आप जो कहते हैं बड़ी उलटी बात कहते हैं। दो बातें हैं। एक तो सहज अवस्था अंतिम अवस्था नहीं है। क्योंकि अगर सहज अवस्था अंतिम अवस्था होगी, तो असहज अवस्था प्राथमिक अवस्था होगी। और असहज से सहज तक पहुंचा नहीं जा सकता। सहज अवस्था अगर हो सकती है तो उसे प्रथम ही होना पड़ेगा।

प्रश्नः इसलिए मैंने कहा कि अंतिम अवस्था कि मानी वह तो हमेशा सहज-आत्म पराई है, पहले से आज तक कुछ छिपाना नहीं है, होना नहीं है, अंतिम नहीं है, आदि नहीं है, कुछ नहीं है, बात यह है कि है ऐसा सहज आत्मा।

वही न। ऐसा अगर सिर्फ धारणा कर रहे हैं ऐसी, तो यह धारणा सहज नहीं है। नहीं, यह धारणा भी सहज नहीं है अगर धारणा कर रहे हैं।

प्रश्नः नहीं, यह धारणा नहीं सहज होती कि जो मन करता रहता है वह करने की उनकी क्रिया, उसके एक्शन की क्रिया बंद हो जाना है। इसकी मानी यह निगेटिव वाइज प्रोसेस है।

नहीं, यह जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि एक तो यह अगर हमारी धारणा है कि आत्मा सहज अवस्था में पड़ी है, है ही, अगर यह धारणा है तो यह धारणा कभी सहज नहीं होती। धारणा तो हमेशा मन की ही होती है, और सहज नहीं हो सकती। अगर यह अनुभव है तो सहज हो सकता है। और धारणा और अनुभव में बड़ा फर्क है।

प्रश्नः न, ये दोनों हैं। अनुभव है, हमेशा अनुभव नहीं रहता।

अब यह भी सोचने जैसी बात है, यह सोचने जैसी बात है कि जो अनुभव हमेशा रहता है वही केवल सहज हो सकता है, जो चला जाता है, आता है, वह सहज नहीं हो सकता। सहज का मतलब ही यह है कि जो आता, न जाता। इसलिए हम ऐसा कभी नहीं कह सकते कि सहज अनुभव मुझे कभी-कभी होता है और बाकी समय नहीं होता।

प्रश्नः वह तो ठीक है। और मेरी धारणा ऐसी है, गलत हो, सही हो, जहां तक शरीर है और पूरी तरह से ऐसी धारणा होनी चाहिए। और न किसी की हुई है, बातों से कहते हैं हुई या नहीं हुई। बड़े-बड़े भी हो, उनकी हुई है यह कहने के लिए कोई सबूत नहीं है। और उनके शब्द देखोगे तो वे भी कहते हैं, वह नाइनटी नाइन परसेंट है, हंड्रेड परसेंट है ही नहीं।

नहीं। यह जो बात है न, यह जो बात है, जैसे ही हम इस बात को पकड़ लेते हैं, अगर हम शरीर को एक दुश्मन की तरह देख लें, तब तो1

प्रश्नः कोई दुश्मन नहीं।

नहीं, तब फिर कठिनाई नहीं रह जाती।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, अगर हम शरीर को किसी शत्रुभाव से न देखें, तो शरीर तो सदा ही सहज अवस्था में है, वह तो असहज कभी होता ही नहीं। मैं जो कह रहा हूं वह यह कि शरीर तो असहज होता ही नहीं, वह तो सहज है ही। उसे तो भूख लगती है, तो भूख लगती है; ठंड लगती है, तो ठंड लगती है; बीमारी आती है, तो बीमारी आती है; रोता है, तो रोता है; हंसता है, तो हंसता है। शरीर तो असहज हो नहीं सकता, असहज सिर्फ मन हो सकता है। आत्मा असहज हो नहीं सकती, शरीर असहज हो नहीं सकता। ये तो दोनों ही सहज हैं। असहजता जो आती है, जो जटिलता है, कांप्लेक्सिटी है वह तो मन की है। और मन की भी क्यों है? जो हम कह रहे हैं वही तो आधार है। मन की असहजता इसलिए है कि मन सदा कुछ मांग रहा है, जो है उसके लिए राजी नहीं है, सदा कुछ मांग रहा है। वह यह भी मांग रहा है कि कल मुझे सहज अवस्था मिल जाए आत्मा की, तो कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि जब तक मैं यह कह रहा हूं कि कुछ मुझे मिल जाए कल। और सहज मिलना है तो अभी और यहीं है, कल का कोई प्रश्न नहीं है।

प्रश्नः इसलिए मैंने कहा निगेटिव प्रोसेस है करके।

निगेटिव ही होने वाली है। सारा अध्यात्म निगेटिव है। सारा अध्यात्म निगेटिव है।

प्रश्नः इसीलिए मैंने कहा कि मन जो एक्शन कर रहा है1सम डिजायर। इच्छा की वजह से कोई क्रिया कर रहा है मन। तो इच्छा की वजह से वह क्रिया करता है, तो इच्छा समाप्त हो जाना और क्रिया उनकी समाप्त हो जाना ही यही सहज अवस्था है।

नहीं, जब आप कहते हैं, समाप्त हो जाना, तब आप सहज के लिए भी शर्त लगाते हैं, जो कि गलत है। क्योंकि अगर सहज किसी कंडीशन पर होता होगा तो सहज नहीं रह जाएगा। अगर आप यह कहते हैं कि इच्छाएं समाप्त हो जाएंगी, तब जो होगा वह सहज है। तो इसका मतलब यह हुआ कि इच्छाओं का समाप्त होना एक कंडीशन है, जिसके बिना सहज नहीं हो सकेगा। तब तो सहज बड़ा कमजोर है, इच्छाएं बड़ी मजबूत। फिर यह कभी नहीं होगा। नहीं, यह जो बात है, इच्छाओं के समाप्त हो जाने से नहीं सहज होगा।

प्रश्नः मैं मेरे अनुभव की बात कहता हूं, दो तरह की इच्छा को मैंने अनुभव किया है। एक इच्छा ऐसी होती है कि मिटाने का प्रयास करके नहीं मिट सकती है। अनुभव की बात है, यह शास्त्र की बात नहीं है। उस इच्छा को मैं कहता हूं, वासना, आज तक। और एक इच्छा ऐसी है कि दूर हटाने से हटती है इसी प्रकार। वह जो हटती नहीं वह सहज इच्छा है2आर्टिफिशियल लाई गई है न उधर से, तो दूर हो सकती है।

हां, मैं जो कह रहा हूं वह और बात कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि सहज का अर्थ यह है कि जो बेशर्त है। उसमें इतनी शर्त भी नहीं लगाई जा सकती कि इच्छा हटेगी तब वह होगा।

प्रश्नः हां, शर्त को हटाना कि मानी यह होती है कि आज जो चला है शर्त से जीवन, वह शर्त को हटाने के लिए नहीं होता है।

न, हटाने की बात नहीं है, इसलिए मैं कह रहा हूं आपसे कि सहज जीवन स्वीकार का जीवन है, हटाने का जीवन नहीं। अगर आपमें इच्छा है तो है, इसे स्वीकार करें, हटाने की क्या बात है। और जैसे ही पूर्ण स्वीकृति होगी, सहजता फलित होगी।
मेरे भीतर क्रोध है, तो एक उपाय तो यह है कि इसको मैं हटाऊं, तब सहज जीवन फलित होगा। लेकिन क्रोध के हटाने की शर्त पर जो सहज जीवन फलित होगा वह सहज नहीं हो सकता। मुझमें क्रोध है इसके लिए मैं राजी हूं, क्योंकि कोई उपाय नहीं। क्रोध है इसे मैंने पाया1जैसे मैंने आंख पाईं, जैसे मैंने हाथ पाया1ऐसा क्रोध भी पाया। क्रोध है, इसे मैं न दबाता, न इसे मैं हटाता, यह है, इसे मैं स्वीकार करता हूं। और जैसे ही मैं इसे स्वीकार करता हूं, यह हटता है, हटाया नहीं जाता, तब बेशक सहजता फलित होती है। हटाए जाने में तो शर्त है, हट जाना और बात है। अगर मैं क्रोध को स्वीकार कर लेता हूं और कहता हूं कि परमात्मा ने दिया है, जो है वह है, ऐसा मैं हूं। क्रोधी मैं आदमी हूं। बुरा मैं आदमी हूं। और मैं नहीं कहता कि कल मैं अच्छा आदमी हो जाऊंगा, क्योंकि जो आज बुरा है उससे ही तो कल निकलने वाला है। मेरा कल मुझसे ही निकलेगा। वह मुझसे, बाहर से आने वाला नहीं है, यह मेरा ही एक्सटेंशन है, वह मेरी ही कंटीन्युटी है। तो मैं कल अच्छा हो जाऊंगा इसकी मैं कैसे कामना करूं। क्योंकि जो मैं हूं इसी बीज से मेरा कल निकलेगा, परसों निकलेगा, भविष्य निकलेगा; इसी से मेरा आत्मा, मेरा परमात्मा, मेरा मोक्ष निकलेगा जो मैं हूं। इस ‘मैं’ के खिलाफ लड़ कर जो चलेगा वह कभी सहज नहीं हो सकता। हां, सहज होने का दिखावा कर सकता है, ढांचा भी सहज होने का बना सकता है।
तो जिन साधु-संतों का आप कह रहे हैं, अगर आप ठीक कह रहे हैं, जो कहते हैं कि हम निन्यानबे परसेंट कर पाए लेकिन पूरा नहीं हो पाता, तो वे इस तरह के लोग होंगे जिन्होंने सहज होने की कोशिश की है। लेकिन जिसने जीवन को स्वीकार कर लिया है1क्रोध को, काम को, जो भी है। यह कहेगा हंड्रेड परसेंट सहज है, क्योंकि अगर यह क्रोध में आ जाए, तो आप इससे यह नहीं कह सकते कि अरे तुम क्रोध में आ गए, तुम कैसे सहज हो। वह कहेगा कि सहज क्रोध आ रहा है। सहज का मतलब ही और है। जब कबीर जैसा आदमी कहता हैः साधो, सहज समाधि भली! तो उसका मतलब यह नहीं होता कि किसी शर्त से पूरी होगी, वह यही कह रहा है कि सहज समाधि का मतलब ही इतना है कि मैंने लड़ाई छोड़ी और मैं समर्पित हूं, मैं लड़ता नहीं। जीवन जैसा है वैसा स्वीकार कर लेता हूं--बुरा है तो बुरा है, नरक है तो नरक, उसे मैं स्वीकार कर लेता हूं। इस स्वीकृति में से सहज का जन्म होता है। इस टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में से सहज का जन्म होता है। और वह जो सहज है, वह अनकंडीशनल है। अनकंडीशनल इस अर्थों में है कि न तो हमने उसके लिए कोई चेष्टा की, न हमने कोई उसके लिए प्रयास किया, न हमने उसके लिए कोई उपाय किया। क्योंकि एक बड़े मजे की बात है, जिस चीज के लिए हम उपाय करेंगे वह उपाय के छोड़ने पर खो जाएगी, और जिस चीज को हम साधेंगे, कल अगर नहीं साधेंगे तो वह नष्ट हो जाएगी।
एक सूफी फकीर को मेरे पास लाए, पागेजी, तो उनके भक्त मुझे कहे कि उन्हें सब जगह परमात्मा दिखाई पड़ता है1वृक्ष में, पत्थर में, पौधे में, सब जगह परमात्मा दिखाई पड़ता है। तो मैंने उनसे पूछा कि दिखाई पड़ता है या आप देखते हैं? उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, मुझे दिखाई पड़ता है। पर उन्होंने इतने घबड़ा कर कहा कि नहीं-नहीं, मुझे दिखाई पड़ता है। तो मैंने कहा कि आप फिर एक दफा सोचें, आपने कभी देखना तो शुरू नहीं किया था? उन्होंने कहा कि शुरू तो किया, नहीं तो दिखाई कैसे पड़ता। तीस साल पहले देखने की साधना शुरू की थी, हर चीज में देखने की कोशिश की थी, फिर धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगा। तो मैंने उनसे कहाः आप आठ दिन मेरे पास रुको, और अब कोई कोशिश न करें देखने की, तीस साल आपने देखने की कोशिश की और अब दिखाई पड़ता है, आठ दिन इस कोशिश को छोड़ दें। तो उन्होंने कहाः आप नास्तिक तो नहीं हो, आप कैसी गलत बात कर रहे हैं। अगर मैं एक घंटे को भी छोड़ दूंगा, तो वह दिखाई नहीं पड़ेगा।
तो अब यह जो दिखाई पड़ रहा है यह कोई सहज अनुभव नहीं है। यह एफर्ट बेस है, एक प्रयास है देखने का, तब फिर यह हमारा ही अनुभव है। इससे परमात्मा का कोई लेना-देना नहीं है। यह हम थोप रहे हैं अनुभव जगत के ऊपर। यह एक क्षण को भी हम थोपना बंद कर दें, तो प्रोजेक्शन खो जाएगा। और जगत जैसा पत्थर पत्थर दिखाई पड़ने लगेगा, परमात्मा उसमें से खो जाएगा। पत्थर का पत्थर दिखाई पड़ना तो सहज है, पत्थर का परमात्मा दिखाई पड़ना असहज है। जिस दिन पत्थर का पत्थर दिखाई पड़ना कोशिश हो जाए, और पत्थर का परमात्मा दिखाई पड़ना घटित हो, उस दिन हम कहेंगे, सहज अनुभव हुआ। लेकिन वैसे अनुभव को खोया नहीं जा सकता है। जिस अनुभव को सम्हालना पड़ता है वह अनुभव असहज है। और जिस अनुभव के लिए में चेष्टा करनी पड़ती है, चाहे हमने अतीत में की हो और हम भूल गए हों, आज भी खोने से खो जाएगी।
तो जिन साधुओं की आप बात कर रहे हैं1अगर वे कहते हैं कि सहज जीवन हो नहीं पाया, और जब तक शरीर है तब तक सहज हो न पाएगा, तब तक शरीर से उनकी एक शत्रुता है, शरीर स्वीकार नहीं हुआ। नहीं तो परमात्मा का ही शरीर है, तुम्हें क्या बाधा देगा। और परमात्मा इतने बड़े जगत के रहते हुए सहज हो पाए, और मैं इतने से शरीर के रहते हुए सहज न हो पाऊं, तो मैं नहीं मान सकता कि यह सहजता हुई। अगर वह कहता है कि जब तक क्रोध है तब तक सहज न हो पाऊंगा, जब तक काम है तब तक सहज न हो पाऊंगा, तब फिर वह लड़ेगा और काटेगा, मिटाएगा इन सबको। और जो भी बनेगा आखिर में वह उसका खुद का निर्माण होने वाला है, वह सहज होने वाला नहीं है। सहज का तो अर्थ ही यह है कि हमने लड़ाई छोड़ी, हम लड़ते नहीं, हमारा कोई प्रयास नहीं।

प्रश्नः इसलिए निरोध का निरोध होता है।

हां।

प्रश्नः पतंजलि महाराज ने तो कहाः निरोधत्तः पे निरोधः। वह निरोध के निरोध की बात है आखिरी।

आखिर कहते हैं वहीं जरा दिक्कत पड़ जाती है।

प्रश्नः देखिए, आखिर की मानी यह है1लेकिन निरोध का निरोध है तो सहज नहीं है। वे समझ पाते हैं तो सहज हो जाता है आखिर वह, समझता है तो हो जाएगा। नहीं तो हरेक आदमी किसी ने किसी बात के लिए कोशिश करता ही रहता है। अगर वह सहज अवस्था का कोशिश न करे तो दूसरी प्रपंच की बात का कोशिश करता है।

कोशिश करना ही प्रपंच है, पागेजी।

प्रश्नः कोशिश करना ही प्रपंच है, यह मैं कहता हूं। अगर यह प्रपंच के बारे में कोशिश करता रहता है हमेशा, तो जैसे मैंने कहा निरोध की सहज होता है। उनकोे निरोध ही करने के लिए मौके आते हैं, वह निरोध ही करता है, कोशिश भी करता है, निरोध भी करता है, यह सब डुप्लीकेट चलता है। तो चलते, चलते, चलते, निरोध का भी निरोध हो जाए।

यह जो आप कहते हैं, चलते, चलते, चलते, ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं होगा। क्योंकि आप जिस तरह सोच रहे हैं उसका मतलब यह हुआ कि वह एक कनक्लुजन है बहुत सी क्रियाओं का। जब आप कहते हैं, चलते, चलते।

प्रश्नः नहीं, क्रिया का कनक्लुजन नहीं है।

तो उसका मतलब क्या होता है?

प्रश्नः इवेंट्स का कनक्लुजन।

हां-हां, उसका मतलब यह हुआ कि बहुत सी इवेंट्स का, एक चेन का, एक शृंखला का1कृत्यों की, सोच की, विचार की साधना का वह अंतिम निष्कर्ष है। तब वह ऐसे ही है जैसे हम पानी को गरम करते हैं, वह सौ डिग्री पर भाप बनता है। लेकिन जो पानी सौ डिग्री पर भाप बना है वह अस्सी डिग्री पर फिर पानी बन जाएगा, शून्य डिग्री पर फिर बर्फ बन जाएगा। पानी का भाप बन जाना कंडीशन है, उस कंडीशन से वापस गिर जाएगा तो फिर वही हो जाएगा। जब हम कहते हैं, चलते-चलते, तब हम, हम सहज को भी एक मंजिल बनाते हैं कहीं दूर। और सहज वह है जो दूर नहीं है, जो इसी वक्त है, अभी है, यहीं है। और जब हम मंजिल बनाते हैं और हम कहते हैं, चलते-चलते, धीरे-धीरे, करते-करते वह मिलेगा, उसका मतलब ही यह है कि वह मिला हुआ नहीं है, कभी मिलेगा।

प्रश्नः इसलिए मैंने कहा कि आत्मा की अवस्था तो सहज है। और अगर यह भय है ऐसा मान कर बैठेंगे।

हां, यह जो डर है।

प्रश्नः डर नहीं है, डर की बात में यह है, दुनिया में हुई हुई बात है। समाज में इसका प्रचार बुद्ध भगवान के समय में यही प्रचार हुआ था कि सब लोग ब्रह्म ही हैं। न होते हुए भी हैं, ऐसा सब लोग मानने लगे। और आखिरी ब्रह्म में रहमान होने लगे। अनुभव की बात हो तो ठीक। इसलिए मैंने कहा कि साधुओं के अनुभव की बात उचित है। और2विभूति नहीं है। जितने बैठे उनके अनुभव की नहीं है। आप उनसे कहिए तो कि यह अदभुद है, तो एक दफे यह अनुभव नहीं होता।

प्रश्नः नहीं, यह सवाल नहीं है, सवाल बड़ा यह है कि वह अनुभव की कैसे होगी। अनुभव की नहीं है यह तो तय है। क्योंकि अनुभव की हो तो फिर तो बात नहीं है।

प्रश्नः बात वह नहीं है। तो अनुभव की सुनी है, तो मैंने कहा निरोध से निरोध के निरोध से होती है।

हां, वही मैं कह रहा हूं कि नहीं होती। अगर अनुभव की होनी है तो इस सत्य की समझ से होगी कि सहज किसी भी व्यवस्था और किसी भी प्रक्रिया और किसी भी साधना से नहीं पाया जा सकता। यह अनुभव जीवन में हजार-हजार विफलताओं के अनुभव से होगी, सफलताओं के अनुभव से नहीं। यह होते-होते नहीं हो जाएगी। यह हम रोज-रोज सब करके देखेंगे और हम पाएंगे कि नहीं होती है, वह नहीं होती है।

प्रश्नः इसके मानी निरोध के बारे में और निरोध के निरोध के बारे में ध्यान ही बाधा है1समझ से होगी, ज्ञान से होगी।
प्रश्नः तो ठीक, यह भी मैं मानता हूं। बोलने के तरीके हैं और कोई नहीं।

नहीं, अगर कहेंगे बोलने के तरीके हैं2

प्रश्नः मेरा अर्थ यह है ऐसे ही बोलते हैं ध्यान के मौके पर।

यह जो, यह जो हमारी कठिनाई है2

प्रश्नः क्योंकि चलने वालों में से ऐसा भाव अंदर के दूसरे रहते हैं2

यह जो, यह भी हमारे मुल्क में एक दुर्घटना हो गई है। हमारे मुल्क में एक दुर्घटना हो गई है। और वह दुर्घटना बड़ी है। और वह यह है कि करीब-करीब सब जो हो सकता है वह शब्दों से हमें ज्ञात है। और दूसरा, जीवन के बहुत गहरे अनुभव को हम शब्दों के फासले में भी बांट पाते हैं। यह सिर्फ शब्दों का फासला है। और तीसरा, कुछ बातें हम मान लेते हैं और इस भांति मान लेते हैं कि फिर उन पर चर्चा की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और उनका हमें कोई पता नहीं होता। जैसे हम कहते हैं, आत्मा सहज है ही। अब यह बिलकुल मान्यता हुई। इसके मान लेने से बड़ी कठिनाई खड़ी होगी, इसको मान कर हम सारा इंतजाम करना शुरू कर देंगे। यह अनुभव ही बन सकता है कि आत्मा सहज है या नहीं, यह मान्यता नहीं बन सकती। और जिस दिन अनुभव बनेगी, उस दिन हमें दिखाई पड़ेगा कि इसे हम कभी भी मान्यता बना कर पा नहीं सकते थे। यह हम पर उतरी हुई घटना होगी। और यह जो उतरने की घटना बनेगी, उसके लिए मैं कह रहा हूं कि फर्क पड़ेगा। अगर कनक्लुजन में फर्क हो तो बहुत दिक्कत नहीं है। अगर निष्कर्ष में फर्क हो तो वह शब्दों का फर्क होता है। लेकिन उस तक पहुंचने की भी बात है।
एक हेरिगल, एक जर्मन विचारक, जर्मनी से, जापान था तीन साल तक। और वह जिस झेन फकीर के पास सीख रहा था1उससे वह सीख रहा था, धनुर्विद्या। और उस फकीर का कहना था कि धनुर्विद्या के माध्यम से मैं तुझे इशारे करवा दूंगा ध्यान के। क्योंकि झेन फकीर कहता है कि जो सहज है उसका डायरेक्ट इंडिकेशन नहीं हो सकता। इसलिए मैं सीधा ध्यान नहीं करवा सकता तुझे। तू कर कुछ और, इस करने में किसी दिन न करने का कोई क्षण होगा तो वह मैं तुझे इशारा करूंगा कि ध्यान ऐसा है। अभी एक, क्योंकि कठिनाई है जो चीज न करने से होने वाली है उसको कैसे इशारा किया जाए। इशारा भी करना बन जाएगा। तो यह व्यक्ति हेरिगल इतनी निष्ठा से धनुर्विद्या सीखने लगा कि डेढ़ साल में इसके सब सत-प्रतिशत निशाने अचूक लगने लगे। तब इसने अपने गुरु से कहा कि निशाने अचूक लगने लगे हैं, अब मुझे कुछ दे दो।
तो उसके गुरु ने कहाः निशाने तो अचूक लगने लगे, लेकिन वह क्षण अभी नहीं आ रहा जिस पर मैं इशारा करूं कि ध्यान कैसा होता है।
तो उसने कहाः वह क्षण कब आएगा, अब निशाने तो सब पूरे लगने लगे। मैं तो सोचता था धनुर्विद्या सीख लूंगा, तो ध्यान की तरफ इशारा हो जाएगा। तो उसके गुरु ने कहा कि नहीं, वह मौका ही नहीं आ रहा। तू अभी भी तीर चलाता है, अभी भी तुझसे तीर चल नहीं रहा है। अभी भी एफर्ट है। अभी भी तू साधता है, निशाना लगाता है। अभी भी तेरा चित्त तीर के चलाते वक्त खिंचता है। मैं उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा हूं किसी दिन तुझसे तीर चलता हो, तू चला न रहा हो, सहज चल रहा हो, तेरे मन में कोई खिंचाव न हो, तो मैं तुझे इशारा करूं कि ध्यान कुछ ऐसा होता है।
डेढ़ साल और बीत गया और रोज वह हेरिगल कहने लगा कि निशाना मेरा बिलकुल ठीक लग रहा है और सब ठीक है, अब कोई भूल-चूक भी नहीं रह गई, अब वह इशारा कब होगा? उसके गुरु ने कहा कि तू बात ही नहीं समझ पा रहा है, निशाना लगाने से हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन यह है कि तू तीर ऐसे चला सके1जैसे आकाश मैं चील कभी तैरती है पंखों को छोड़ कर, तैरती नहीं फिर, कोई प्रयास नहीं करती, बस छोड़ देती है। तरती है, तैरना नहीं कहना चाहिए। बस हवा में तरती है। ऐसा किसी क्षण की मैं तलाश में हूं।
तीन साल बीत गए, वह थक गया। और जर्मन दिमाग जो एफर्ट के अतिरिक्त कुछ सोच नहीं सकता। और नो-एफर्ट की बात जिसके पकड़ के बाहर है। आखिर हेरिगल ने कहाः मुझे क्षमा करें, मैं वापस लौट जाऊं, क्योंकि मेरे बस के बाहर है। और मुझे यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ता है। क्योंकि जब मैं तीर चलाऊंगा तो मैं चलाऊंगा ही, बिना चलाए मेरा तीर चलेगा कैसे? और जब मैं निशाना लगाऊंगा तो लगाऊंगा ही। और डूअर तो मौजूद रहेगा, करने वाला मौजूद रहेगा। तो कल मैं वापस जाता हूं, क्षमा करें, आप एक सर्टिफिकेट तो लिख देंगे न कि मैं तीर चलाना सीख गया।
उसके गुरु ने कहाः मैं न लिख सकूंगा। मैं न लिख सकूंगा, क्योंकि अभी तुझसे तीर चला नहीं है। अभी तू चलाए ही चला जा रहा है, अभी सिर्फ अभ्यास ही है। तो अभी मैं तुझको तीरंदाज नहीं कह सकता। तीरंदाज तो वह है जो तीर न चलाए और तीर चल जाए। तब तो वह और हैरान हो गया, दूसरे दिन सुबह वह विदा लेने गया, तो वह गुरु दूसरों को सिखा रहा था। वह कुर्सी पर बैठ गया और देखता रहा। आज पहली दफा वह सीखने नहीं आया था, जाने की तैयारी मैं था, विदा लेने आया था। इसलिए बैठा था रिलैक्स। उसने गुरु को कमान उठाते देखा, उसने तीर चलाते देखा। आज पहली दफा वह करने के खयाल में नहीं था। और उसे दिखाई पड़ा कि फर्क गहरा है। वह आदमी कमान उठा नहीं रहा है, कमान जैसे उठ रही है। वह आदमी तीर चला नहीं रहा है, तीर जैसे चल रहा है। जैसे चलाने वाला और चलने वाले में कोई फासला नहीं है, वह एक ही घटना है। डूअर नहीं है पीछे, सिर्फ हैपनिंग ही रह गई है। वह उठा वहां से, उसने गुरु के हाथ से कमान लिया, तीर लिया और चलाया। और उसके गुरु ने कहा कि सर्टिफिकेट तेरे लिए मैं दे दूंगा। आज, आज तू नहीं है और तीर चला।
ध्यान ऐसी घटना है। जब हम प्रक्रिया की बात में पड़ते हैं, तो निश्चित ही आप जो कहते हैं एक अर्थ में ठीक है कि चलते-चलते होगा, लेकिन चलते-चलते से नहीं होगा, चलते-चलते की जो असफलता है, चलते-चलते की जो विफलता है, चलते-चलते हर बार जो लगेगा कि चलते हैं और मंजिल नहीं मिलती है। और किसी दिन आप थक कर बैठ जाएंगे और कह देंगे, अब नहीं चलता है, न कोई रास्ता है, न कोई मंजिल है, और न मैं हूं, और कुछ नहीं होने वाला है। जिस दिन इतनी हेल्पलेस, असहाय अवस्था होगी, उस दिन हो जाता है। उस दिन जो होता है, उस दिन जो होता है वह आपके चलने का परिणाम नहीं है।

प्रश्नः वह तो बराबर है न। असफलता से आगे चलेंगे, सफलता हो तो आगे जाएंगे कैसे। असफलता है तो आगे जाइए, सफलता नहीं तो2

आगे जाने को नहीं कह रहा हूं, रुकने को कह रहा हूं। वह बात वही की वही है, उसमें फर्क नहीं पड़ रहा है। मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि आप आगे जाकर सहज हो जाएंगे, सहज तो आप हैं ही। जब तक आप आगे जाते रहेंगे तब तक सहज न हो पाएंगे।

प्रश्नः वह तो बराबर है, लेकिन पहले असफलता हो तो आगे जाएगा, भूल से जाएगा, आगे जाएगा तो असफलता होगा, आगे जाएगा, आखिर रुक जाएगा न। आखिरी यह है तो यकायक बोलने से आज ही आज नहीं होता है वह।

न, किसी को आज भी आज हो सकता है। किसी को आज भी आज हो सकता है।

प्रश्नः इसलिए शास्त्र में सद्यो-मुक्ति, क्रमो-मुक्ति रखी है।

न, वह जो क्रम-मुक्ति रखी है, वह जिनको हो सकता है वे भी क्रम-मुक्ति के आलस्य में पड़ते हैं, और नहीं हो पाता। होती क्या है कठिनाई कि हम सोच लेते हैं कि मुझको नहीं हो सकता, अभी कैसे हो सकता है। और अभी नहीं हो सकता, अगर यह माइंड का टेंªड है, तो किसी भी क्षण, अभी नहीं हो सकता, यही माइंड का टेंªड होने वाला है। दस साल बाद के क्षण में भी यही माइंड होगा, वह कहेगा अभी नहीं हो सकता। क्रम-मुक्ति होगी। क्योंकि मेरा जो माइंड है, जो कह रहा है, अभी नहीं हो सकता, यह माइंड दस साल बाद भी मेरा ही माइंड होगा। कहेगा, अभी नहीं हो सकता। और जिस माइंड ने कहा है कि कल होगा, वह कल भी कहेगा कि कल होगा। वह जो पोस्टपोनिंग माइंड है, वह करता चला जाता है।

प्रश्नः ठीक है। पर यह आगे होगा इसे कहने वाले का भी होता नहीं है।

यह सवाल नहीं है, यह बड़ा सवाल नहीं है, क्योंकि तब कोई हानि नहीं हो रही। यानी मैं जो कह रहा हूं1

प्रश्नः नहीं होता यह मान कर बैठेंगे।

न, मान कर बैठ नहीं सकता। क्योंकि जिंदगी झूठ नहीं मानने देती, जिंदगी चैबीस तरफ से पकड़ती है और झूठ नहीं मानने देती। जिंदगी झूठ नहीं मानने देती।

प्रश्नः मानने नहीं देगी, आखिर में देखो वहां आकर बैठेगा।

नहीं। नहीं मान कर बैठ सकते हैं। कितना ही मान कर बैठ जाएं। ब्रह्म में एक जरा सा पत्थर लगेगा और पता चलेगा कि नहीं उससे फर्क नहीं पड़ता है। जिंदगी नहीं मानने देती।

प्रश्नः आकर बैठेगा तो समझेगा कैसे?

मान कर बैठ सकते नहीं। भूख लगेगी और पता चल जाएगा। कोई गाली देगा और पता चल जाएगा। जरा सा धक्का लगेगा और पता चल जाएगा।

प्रश्नः क्यों? वह कहेगा, गाली देगा तो गुस्सा आता है, तो गुस्सा तो सहज है, पता कैसे चलेगा?

न, अगर इतना वह कह सके, अगर इतना वह कह सके, अगर इतना कह सके कि गुस्सा सहज है, भूख सहज है, बीमारी सहज है, मौत सहज है, अगर इतना वह कह सके, तो आप फिकर मत करिए कि उसको हुआ कि नहीं हुआ। क्योंकि आपको कोई हर्जा नहीं कर रहा है वह, एक बात। आपको कोई हर्जा नहीं कर रहा। अगर हर्जा भी करेगा तो अपने को करेगा। और मजा यह है कि जिस दिन1

प्रश्नः नहीं, मैं उनकी बात नहीं कहता, मैं मेरी कहता हूं, अगर मैं ऐसा कहूं तो भूल में पड़ जाऊंगा, कि न अनुभव होते हुए भी सहज है, करके मान कर बैठूं, तो वह अदभुत बात नहीं होगी।

जिंदगी आपको नहीं मानने देगी। और मजा यह है कि धोखा सदा आप दूसरे को दे सकते हैं अपने को दे नहीं सकते।

प्रश्नः इसलिए मैंने कहा।

नहीं, आप दे न सकेंगे।

प्रश्नः नहीं, मैं यह बोल रहा हूं कि अगर मैं ऐसे मान कर बैठूंगा2

नहीं, ऐसा मान कर पागेजी बैठ नहीं सकते हैं।

प्रश्नः इसलिए बैठ नहीं सकते, लेकिन कहते जाएंगे।

दूसरे को कह सकते हैं। दूसरे को कह सकते हैं। आप तो पूरे वक्त जानते रहेंगे कि पीड़ा कहां है। यानी मजा यह है कि हम आत्मज्ञान का धोखा सिर्फ दूसरे को दे सकते हैं, अपने को तो नहीं दे सकते। और जब अपने को नहीं दे सकते, और आत्मज्ञान का मामला निपट निजी है। और दूसरे मामले में दूसरे को धोखा देने में नुकसान है। आत्मज्ञान के मामले में किसी को धोखा देने का कोई अर्थ नहीं। मैं कहता हूं मैं आत्मज्ञानी हूं, इससे आपको तो कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता। पहुंचा सकता हूं तो अपने को पहुंचा सकता हूं। और मजा यह है कि अपने को डिफिट किया नहीं जा सकता इस मामले में। इस मामले में मैं पूरे वक्त जब-जब कह रहा हूं मैं आत्मज्ञानी हूं तब3ब भी मैं जान रहा हूं कि मैं नहीं हूं। सच तो यह है कि मेरा यह कहना भी मेरे न होने का ही गहरा सबूत है, अन्यथा इसके कहने की भी कोई जरूरत नहीं।
अगर एक पुरुष रोज-रोज चिल्ला-चिल्ला कर सड़क पर कहता है कि मैं पुरुष हूं स्त्री नहीं हूं, तो सबूत देता है कि उसे शक है। पुरुष जानता है कि है और बात खत्म हो गई, उसको याद भी नहीं आता। पुरुष को भी अपने पुरुष होने की याद तभी आता है जब किसी क्षण में वह पाता है कि पुरुष नहीं है। नहीं तो याद नहीं आता। स्वास्थ्य, हमें स्वास्थ्य की कोई खबर नहीं आती सिर्फ बीमारी में पता चलता है। स्वस्थ आदमी को पता ही नहीं चलता कि मैं स्वस्थ हूं। सिर्फ बीमार आदमी को ही पता चलता है कि हूं कि नहीं। स्वस्थ आदमी का मतलब यह है कि जिसे पता नहीं चलता कि शरीर है। तो आत्मज्ञान तो इतना गहरा स्वास्थ्य है कि वह आपको पता चलता है। रह गई यह घटना, जैसे ही हम इसको क्रमिक दृष्टि से सोचना शुरू करते हैं वैसे ही हम पोस्टपोन कर पाते हैं। खतरा वहां है। जैसे ही हम सोचते हैं कि धीरे-धीरे होगा, कल होगा। तो मैं यह कहता हूं कि कोई आज मान कर बैठ जाए, हो गया, तो मैं कहता हूं, खतरा नहीं, क्योंकि वह धोखा दे नहीं सकता अपने को। लेकिन जो मान कर बैठा है कल होगा, यह अनंत जन्मों तक बैठा रह सकता है। इसलिए बैठा रह सकता है क्योंकि कल का कोई अंत नहीं है। यह कल भी कहेगा कि कल होगा। यह रोज टालता रहेगा। इसे रोज टालने की सुविधा है, जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि पहले के खतरे हैं, जो आप बता रहे हैं वह खतरा है। कि कोई आदमी मान कर बैठ सकता है। लेकिन बैठ जाए, मान कर बैठ सकता नहीं, भीतर जानता है कि नहीं हो सका। लेकिन यह दूसरा खतरा बहुत ही वास्तविक है। कल पर टाल सकता है, जांचने की परीक्षा नहीं, कल आएगा तभी तो पता चलेगा न। और कल से फिर कल पर टाल देगा। और कल आएगा तभी पता चलेगा। यह जन्म-जन्म टाल सकता है।
इस मुल्क में, खतरा जैसा आप कहते हैं कि लोग मान कर बैठ गए ब्रह्मज्ञानी हैं, उससे नहीं हुआ, इस मुल्क को खतरा पुनर्जन्म के पक्के भरोसे से हुआ। इस मुल्क को जो खतरा हुआ वह इस बात से हुआ कि बहुत जन्म हैं, जल्दी क्या है। अगले जन्म में पा लेंगे, और अगले जन्म में पा लेंगे, जल्दी इतनी नहीं है। इतनी जल्दी क्या है, पोस्टपोनमेंट करने की इटरनल सुविधा है हमें। वह जो सुविधा हमारे दिमाग में है1इस जन्म में नहीं हुआ अगले जन्म में हो जाएगा, अगले जन्म में नहीं और अगले जन्म हो जाएगा। अगर मुझे पता चल जाए कि समय की इतनी सुविधा है कि कभी भी हो जाएगा, तो खतरा है, तो मैं कल पर टाल दूंगा। फिर जो कल का भरोसा नहीं वह आज कर लूं। स्त्री को भोगना है, वह आज भोग लूं, ब्रह्म को कल भोग लूंगा। धन कमाना है, वह आज कमा लूं, ब्रह्म को कल कमा लूंगा। मकान बनाना है, वह आज बना लूं, मोक्ष को कल बना लूंगा।
हमारे मुल्क में जो खतरा हुआ है वह ब्रह्मज्ञान से नहीं हुआ। हमारे मुल्क का गहरा खतरा टाइम का एक बहुत लंबा कंट्रेक्शन है कि अनंत जन्म पड़े हैं, हो जाएगा, कभी भी हो जाएगा। और कल पर टाल देंगे, और यह कोई आज तो होने वाला नहीं है, धीरे-धीरे होगा। और हम तो कमजोर हैं, एकदम से कैसे हो जाएगा, यह धीरे-धीरे होता रहेगा, हम करते रहेंगे।
यह जो टालने की एक वृत्ति क्रमिक खयाल से पैदा होती है, उसके खतरे हैं। और इसलिए मैं कहना चाहता हूं निरंतर कि क्रमिक होगा ही नहीं। हालांकि मैं जानता हूं कि आज सबको नहीं हो जाएगा। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, क्रमिक होगा ही नहीं। आज ही होगा। और आज ही होने का जो इंटेंसिटी है अगर वह खयाल में पड़ जाए, तो कल भी हो सकता है, परसों भी हो सकता है। लेकिन जब भी होगा तब आज ही होगा। जब भी होगा तब आज ही होगा।

प्रश्नः यह भी ठीक है सोचने की। शब्द से हम कहेंगे, मन के एटिट्यूट से एक ही चीज है। इसके माने यह है कि हजारों जन्म हैं, कल हो जाएगा, यह तो कोई साधक की चीज नहीं है। ऐसे वे बोल सकते, नहीं, ऐसा नहीं है। साधक ऐसा नहीं हो सकता कि अगले जन्म में करेंगे ऐसा।

कर ही रहा है। कर ही रहा है।

प्रश्नः ऐसे कोई साधक नहीं है।

साधक का नहीं। आदमी के मन का सोचने का ढंग पोस्टपोनमेंट है। साधक का सवाल नहीं है। आदमी के मन का सोचने का जो ढंग है वह टालने का है।

प्रश्नः वह तो अच्छा ढंग नहीं है। मैं इस पर विश्वास नहीं करता, मेरा भी ऐसा नहीं है। वह पोस्टपोन जो करता है वे चाहते ही नहीं हैं इसके माने यह है। अगर वे चाहते हैं तो पोस्टपोन नहीं करेंगे।

हां।

प्रश्नः सच्चे रूप से चाहते हैं तो पोस्टपोन करने का क्या हो,2

सच्चे रूप से चाहते हैं तो आज ही चाहेंगे।

प्रश्नः चाहने के मानी यह है, इसलिए आज ही चाहिए।

हां, वही मेरा मतलब।

प्रश्नः तो मतलब चाह ही बात अलग है। इसलिए मैंने कहा कि वह पोस्टपोन नहीं करता है, लेकिन जैसा आपने कहा जिस दिन पाएंगे उस दिन आज ही पाएंगे। लेकिन वह आज आज का आज है कि नहीं। यह अनुभव से समझना है शब्दों से नहीं। और अनुभव से दूसरे का नहीं, अपने थोड़ा अनुभव से।

हां-हां।

प्रश्नः अपने अनुभव को कैसा समझा जाए? कैसा हो ऐसा?

वह तो अपने को खुद समझना है।

प्रश्नः नहीं, लेकिन हो कैसा? उसका वह, यह तो चर्चा का विषय है।

नहीं, चर्चा का विषय है। और यह जो हम कहते हैं कि दूसरे से नहीं समझा जाएगा, इसमें हम अपने को बड़ा छोटा कर रहे हैं। क्योंकि दूसरा इतना दूसरा नहीं है जितना हम मान लेते हैं। और जब हम कहते हैं अपने से ही होगा, तो हमने बहुत गहरे सत्य का बहुत दुरुपयोग कर लिया। अपने से ही होगा इसका अर्थ कोई ईगोइस्ट होना नहीं है, कोई अहं और अस्मिता नहीं है। अपने से होने का मतलब इतना ही स्मरण रखना है कि दूसरे के अनुभव को हम अपना अनुभव न समझ बैठें। लेकिन दूसरे का अनुभव भी बिलकुल दूसरे का अनुभव नहीं है। दूसरे के अनुभव में भी हम जुड़े हैं। दूसरे के अनुभव में भी हम जुड़े हैं। और यहां एक आदमी मर जाए, तो सिर्फ वही नहीं मरता, बहुत गहरे में मेरे मरने की खबर भी मुझे दे जाता है। मरता तो दूसरा ही है, लेकिन मैं भी मरता हूं अगर थोड़ी भी समझ है, और थोड़ी भी देखने की दृष्टि है। तो दूसरा ही मरता है ऐसा कहना गलती होगी, मैं भी मरता हूं। और मेरी मृत्यु भी दूसरे की मृत्यु में खड़ी हो जाती है।

प्रश्नः यही दृष्टि है साधुओं के पास जाने की बल्कि।

हां।

प्रश्नः कि मरे हुए आदमी को देख कर अपने मरण का स्मरण होता है। वैसे वह सहज होने वाले साधुओं का दर्शन होता है तो अपने को भी सहज होने का मौका मिलता है।

हां-हां, बिलकुल।

प्रश्नः इसलिए सत्संग जरूरी है इसके माने। सत्संग जरूरी है।

असल में जब हम उन चीजों को सिद्धांत बना लेते हैं तो कठिनाई में पड़ जाते हैं।

प्रश्नः हो गया कठिनतर।

हां, कठिनाई में पड़ जाते हैं। सत्संग जरूरी है कि गैर-जरूरी यह सवाल नहीं है बड़ा।

प्रश्नः यही दृष्टि से मैंने कहा, पहले जो मैंने कहा यही दृष्टि से कि किसी सहज भाव हुए आदमी को देखते हैं तो अपने को भी सहज भाव की स्मृति होती है। जैसे मरे हुए आदमी को देख कर अपने मरण की स्मृति होती है।

वह इसलिए हो जाती है कि दूसरा निपट दूसरा नहीं है। कहीं न कहीं हम दूसरे से भी गहरे में जुड़े हैं। और गहरी कठिनाई जब दूसरे पर घटित होती है तो उनका संस्पर्श, उनका कंपन, उनकी तरंग हमको भी स्पर्श कर जाती है। कोई आदमी आइलैंड नहीं है।

प्रश्नः इ.ज नाॅट ए एक्सेप्शन। यूनिवर्स में एक एक्सेप्शन नहीं है।

हां, अलग कोई आइलैंड नहीं, हम सब कांटिनेंट्स हैं। और कांटिनेंट्स बड़े हैं। जितने हम हैं उससे बहुत बड़े हैं। और उसमें बहुत कुछ दूसरे भी समाए हुए हैं। और यह जो, इसलिए सीखा जा सकता है। पकड़ा नहीं जा सकता, सीखा जा सकता है। और सीखना बड़ी और बात है, पकड़ना बड़ी और बात है। किसी को आॅथेरिटी बना लेने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जितना हम जानते हैं, उतना ही जानने की सीमा है, ऐसे पागलपन में पड़ जाने की भी कोई जरूरत नहीं है।
इसलिए जिंदगी बहुत बारीक, डेलिकेट बैलेंस है। उसमें जब हम चीजों को सीधे हिस्सों में दो में तोड़ कर खड़े हो जाते हैं। कोई कहता सत्संग जरूरी है, तब कोई कहने वाला मिल जाता है कि बिलकुल जरूरी नहीं है, घातक है। कोई कह देता है, गुरु बिलकुल अनिवार्य है, गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा, तब कोई कहने वाला मिल जाता है कि गुरु से ज्ञान होगा ही नहीं। और जिंदगी ऐसी नहीं है। जिंदगी ऐसी नहीं है। यहां गुरु से कुछ भी नहीं होता और यहां गुरु से बहुत कुछ हो भी जाता है। यानी जिंदगी जो है बहुत नाजुक है। और उसको हम जब ऐेसे डेड कंपार्टमेंट्स में बांटते हैं, तो मुश्किल हो जाती है। जब कोई कहता है, सत्संग से सब हो जाएगा, तब भी खतरा हो जाता है। तब लोग आंख बंद करके सत्संग करते रहते हैं। फिर वे सिर्फ आंख बंद करके बैठ जाते हैं, सोचते हैं सत्संग से सब हो जाएगा। और जब कोई कहता है, सत्संग से कुछ नहीं होगा, तब दरवाजे बंद कर लेते हैं दूसरों के लिए, अपने घर के भीतर बैठ जाते हैं कि जो होना है वह अपने से होगा। तो तब भी खतरा हो जाता है।
जिंदगी जो है वह बहुत मृत सिद्धांतों में नहीं बांटी जा सकती। और सब जीवित सिद्धांत अपने विरोधी को समाहित करते हैं, सब जीवित सिद्धांत। जो भी लिविंग ट्रुथ है, वह अपने विरोधी को अपने में समा लेता है, वह उस विरोधी के खिलाफ नहीं खड़ा होता, वह उसको आत्मसात ही कर जाता है। वह कहता है, वह छोर भी मेरा है। तब जरूर सोचा जा सकता है कि कैसे, वह आज कैसे आ जाए। वह घटना कैसे घट जाए। उस दिशा में बहुत कुछ सोचा जा सकता है। और दूसरे से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। लेकिन पहले तो यह है कि हम दूसरे को दूसरा मान लें तो सीखने में बाधा पड़ जाती है। क्योंकि जैसे हमने दूसरे को दूसरा माना रेसिस्टेंट शुरू हो जाता है। और तब संवाद की संभावना कम और विवाद की संभावना बढ़ जाती है। जैसे हमने दूसरे को दूसरा माना, हम आत्मरक्षा में लग जाते हैं। वह जो दूसरा है उससे तो बचना ही पड़ेगा। तो जिसको डायलाग कहें वह फिर संभव नहीं हो पाता।
दूसरा दूसरा इतना नहीं है, वह भी मेरा ही एक छोर है। या हो सकता है मेरे ही मन का एक कोना है जो दूसरे से बोलता है। मेरे मन में भी वह कोना है जो पागेजी बोलते हैं। पागेजी के मन में भी वह कोना है जो मैं बोलता हूं। और जब उनमें से अपने ही मन के कोने की एक आवाज समझ पाते हैं, तब समझना बहुत आसान हो जाता है। तब समझना बहुत आसान हो जाता है। तब ये हमारे ही स्वर हैं, चाहे कितने ही विरोधी दिखाई पड़ते हों। चाहे कितने ही विरोधी स्वर हों, सभी संगीत का निर्माण करते हैं। ऐसा खयाल हो तब बड़ी सीखने की संभावना है। और ऐसा जरूरी नहीं है कि शब्द से ही सीखने की संभावना है। और सत्संग का मतलब1

प्रश्नः खाली शब्द से ही नहीं है।

बात अलग है, हां, बात शब्द से है न। सत्संग से मतलब सिर्फ2से है, पास बैठने से है। उपनिषद शब्द जो बना वह ऐसे ही बना। उसका मतलब है, पास बैठना।

प्रश्नः नजदीक बैठना।

नजदीक बैठना। किसी ने जिसने जाना है उसके नजदीक बैठना। उसके नजदीक बैठने से जो मिला है वह उपनिषद बन गया। उसके नजदीक बैठने से। जस्ट सीटिंग बाय।

प्रश्नः शब्द का होकर तुम्हारा-हमारा दोनों का ही हो जाए।

हां, हो जाए।

प्रश्नः पर खाली बैठे हैं। पर बेचारे बेकार हो जाएंगे।

नहीं, संभावना इसी की है कि इनको ज्यादा हो जाए। क्योंकि यह बात ऐसी है1बातचीत तो दूर ले ही जाती है। बातचीत दूर ले जाती है। तो सबसे ज्यादा दूर पागेजी और हम हैं। इनके लिए दूर होने का कोई कारण नहीं है। ये ज्यादा निकट हो पाते हैं। शब्द दूर ले ही जाता है। शब्द बोला नहीं गया कि दूर ले गया। क्योंकि शब्द बोला नहीं गया कि विचार शुरू करवा देता है। इधर मैंने कुछ बोला कि आपने सोचा। आपने सोचा कि आप दूर यात्रा पर निकले। मौन निकट ले आता है।
इसलिए सत्संग का गहरा अर्थ तो पास ही बैठना है। और कई बार जो हम नहीं शब्दों से कह पाते वह निकट बैठ कर ही अनुभव में उतर आता है। और तब दूसरा दूसरा नहीं होता, तब दूसरा दूसरा नहीं होता, मौन में दूसरा दूसरा नहीं होता। मौन में जो बाउंड्रीज हैं हमारी, सीमाएं हैं वे इंटर पैनीट्रेट कर जाती हैं। जब हम बहुत चुप किसी के पास बैठते हैं, चुप ही बैठे हैं, अगर आंख भी बंद रख ली और सिर्फ बैठे ही हैं, तो थोड़ी ही देर में उस कमरे में दो आदमी नहीं रह जाते।
क्वेकर्स की जो बैठक होती है वह मुझे बड़ी प्रीतिकर है। वे चुप ही बैठेंगे। पच्चीस आदमी इकट्ठे हो जाएंगे, तो चुप बैठ जाएंगे। और नियम यही है कि किसी को कभी बोलने जैसा लगे तो वह खड़े होकर बोल दे। लेकिन इसका कभी पहले से कोई सूचना नहीं होगी कि कौन बोलेगा, किस विषय पर बोलेगा, यह कोई सवाल नहीं है। कई दफा ऐसा होगा कि महीनों बैठते रहेंगे और कोई नहीं बोलेगा, बैठेंगे घंटे भर और चले जाएंगे। फिर किसी दिन किसी को लगेगा बोलने जैसा है, तो बोल देगा, और नहीं लगेगा तो फिर उठ जाएंगे। सत्संग का मतलब यही है1मौन में बैठना है, पास बैठना है। और तब सत्संग कहीं भी घटित हो सकता है, जहां भी आप मौन में बैठ सकते हैं। तब फिर ऐसा जरूरी नहीं है कि वह किसी संत के पास ही घटित हो। वह एक वृक्ष के पास भी घटित हो सकता है। एक समुद्र के तट पर भी घटित हो सकता है। पर सत्संग का मौलिक अर्थ खो गया। और उसका मतलब हो गया है कि हम बैठें, बात करें, चर्चा करें। वह मौलिक अर्थ खो गया।

प्रश्नः आपने जो भी कहा है कि सहज स्वीकृति करना है। सहज अवस्था में बहुत तरह की बात पकड़ी। जब सहज स्वीकृति हो गई, तो वे दृष्टा कौन थे, जो अंदर से जाकर के उस दिन तथाकथित पहंुचने की प्रक्रिया शुरू हो गई।

असल में हमारे जो भी शब्द हैं वे सभी क्रमिक भाषा के हैं। जैसे ही आपने स्वीकार किया, सब स्वीकार कर लिया, कोई इनकार ही नहीं है आपको। बुरा जो आपको लगता है वह भी स्वीकृत है, अच्छा जो लगता है वह भी स्वीकृत है। तो एक तो जैसे ही बुरा और अच्छा लगने का फ्रेम टूटा वैसे ही आपके भीतर इंट्रीग्रेशन पैदा होता है। क्योंकि आपके भीतर खंड की अब कोई जरूरत न रही। नहीं तो बच्चू भाई दो आदमी हैं, एक तो वे बच्चू भाई हैं जो धार्मिक हैं, अच्छे हैं, और एक वे बच्चू भाई हैं जो कंडेम्ड हैं, जिनको कि ठीक करना है। और यह काम आप ही कर रहे हैं, यानी ये दोनों काम आप ही कर रहे हैं। वह बुरा होने का काम भी आपका एक हिस्सा कर रहा है, और यह अच्छा करने का काम भी आपका ही हिस्सा कर रहा है।
यह जैसे मैं अपने दोनों हाथ लड़ा रहा हूं, तो बायां हाथ भी मेरा, दायां हाथ भी मेरा, ताकत भी मेरी, तो इनमें से जीत होने वाली नहीं है। हां, सिर्फ कलह होने वाली है। और अंत में मैं थक कर मर जाऊंगा, क्योंकि दोनों हाथ मेरे हैं। किसी दिन मुझे पता चल जाए कि ये दोनों हाथ मेरे हैं, तो मैं जीता किसको रहा हूं, हरा किसको रहा हूं, तो हाथ की मुट्ठी खुल जाएगी और लड़ाई बंद हो जाएगी। और भीतर एक होलनेस, एक इंटिग्रेशन, एक समग्रता पैदा होगी, आप एक हो जाएंगे, पहली दफा। और जो व्यक्ति एक है, उसकी जिंदगी में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। और जो व्यक्ति दो है, उसकी जिंदगी में उपद्रव ही घटते रहते हैं। क्योंकि वह जो दो का होना है वही हमारा उपद्रव है।
कठिनाई क्या है कि एक बच्चू भाई अच्छे और एक बच्चू भाई बुरे। तो हमारी जिंदगी सिर्फ पाप और पश्चात्ताप की होने वाली है और कुछ होने वाला नहीं है। बुरा काम करेगा वह एक हिस्सा और फिर अच्छा हिस्सा पछताएगा। और अच्छा हिस्सा पछताता रहेगा और बुरा हिस्सा बुरा काम करता रहेगा। और यह जिंदगी भर चलेगा। और पछता कर हम जो करेंगे, पश्चात्ताप करके जो हम करेंगे वह इतना ही करेंगे कि बुरे हिस्से को फिर बुरा करने का तैयार करवा देंगे। जब भी मैं क्रोध कर लूं, तो मेरा अच्छा हिस्सा दुखी हो जाता है और वह कहता है फिर वही गलत काम कर लिया। अब नहीं करना है। तब मेरा अहंकार फिर हो जाता है ठीक कि बुरा काम किया सो तो ठीक, लेकिन पछताया भी। मैं बुरा आदमी नहीं हूं, बुरा काम हो गया यह दूसरी बात है। ऐसे मैं आदमी अच्छा हूं। पछता कर मैं फिर पुरानी जगह वापस लौट गया, कल मैं फिर क्रोध कर लूंगा। और यह जारी रहेगा। एक विशेष सर्किल है जो जारी रहेगा।
तो जब तक आप लड़ रहे हैं तब तक आप एक न हो सकेंगे। क्योंकि लड़ किसी आप दूसरे से नहीं रहे हैं अपने से ही लड़ रहे हैं। जैसे ही लड़ाई बंद हुई और आपने अपनी पूर्णता को स्वीकार किया जैसी भी है, इंच भर अस्वीकार नहीं रहा, तो आप पहली दफा इकट्ठे हो जाएंगे। और यह बड़े मजे की बात है कि इकट्ठे होकर रूपांतरण करना नहीं पड़ता, होना शुरू हो जाता है। वह जो प्रोसेस शुरू होती है वह फिर आपका एक्ट नहीं है, वह घटना है।

प्रश्नः स्वाभाविक।

हां, वह घटना घटनी शुरू हो जाती है। आप अचानक पाते हैं, आप अचानक पाते हैं कि पूरा आदमी क्रोध नहीं कर पाता, अधूरा आदमी ही क्रोध कर पाता है। पूरा आदमी क्रोध नहीं कर पाता, क्योंकि पूरा आदमी इतना शक्तिशाली हो जाता है। तो क्रोध हमेशा कमजोर का ही लक्षण है।
मैं अभी एक कहानी पढ़ रहा था। एक बूढ़ी औरत1आक्सफर्ड में एक युनिवर्सिटी का विद्वानों का डिबेटिंग क्लब है1उसमें एक बूढ़ी औरत रोज आकर बैठ जाती है। वह कोई ढाई सौ साल पुरानी घटना है। और सारी चर्चा लेटिन में होती है वहां। और वह बूढ़ी औरत रोज सुनती है और चली जाती है। तो एक दिन एक आदमी ने उससे पूछा कि यहां लेटिन में चर्चा हो रही, तुम लेटिन समझ पाती हो? उसने कहाः नहीं, लेटिन में नहीं समझ पाती। तुम क्या समझ पाती हो फिर यहां? उसने कहाः इतना मैं समझ जाती हूं कि जो आदमी डिस्कस करने में क्रोध में आ जाता है, मैं समझती हूं वह हार गया। मैं वापस चली जाती हूं। हार-जीत का मुझे पता चल जाता। तुम्हारी भाषा का पता नहीं चलता। तुम्हारी भाषा मैं बिलकुल नहीं समझती, लेकिन हार-जीत का मुझे पता चल जाता है कि कौन आदमी हार गया।
वह जो क्रोध है वह कमजोरी का ही लक्षण है। और वह जो आनंद है वह शक्ति का अभिव्यक्ति है। जितना कमजोर आदमी होगा उतना गलत में उतरता चला जाएगा। जितनी शक्ति भीतर इकट्ठी होगी, उसका गलत में जाना मुश्किल हो जाएगा। शक्तिशाली गलत में जाता ही नहीं। जितनी बड़ी शक्ति उतना ही गलत आपके लिए बचकाना मालूम पड़ने लगता, आपके योग्य नहीं रह जाता। बुरा नहीं होता आपके योग्य नहीं रह जाता। जस्ट इररिलेवेंट हो जाता कि आप कर पाएं यह बात ही नहीं रह जाती। और यह जो शक्ति का संग्रह है, यह आपके भीतर कांफ्लेक्ट बंद हो जाए तो होना शुरू होता है। आपके भीतर एक रिजवार्यर होता है, उसकी ओवरफ्लोइंग शुरू हो जाती है। और ये जो परिवर्तन शुरू होते हैं ये आपके किए हुए नहीं हैं, ये बच्चू भाई के किए हुए नहीं हैं, यह बच्चू भाई से ज्यादा जो आपके भीतर है उसका काम है। और तब आप एक दिन पाते हैं कि बच्चू भाई बह गए हैं। वे तभी तक रह सकते थे जब तक दो में थे, नहीं तो रह नहीं सकते, वे गए।

प्रश्नः तो भी दिखता यह है साक्षीभाव में2इस बात का पहले स्वीकृति कर ली है। न कानून है,2कोई भी नहीं, बिलकुल स्वीकृत है। लड़ना बंद कर दिया। तो फिर स्वाभाविक साक्षीभाव खड़ा हो गया। जो अंदर की प्रक्रिया2

बिलकुल हो जाएगी।

प्रश्नः कि प्रक्रिया शुरू हो गई1तो अंदर से जो काम आता है, क्रोध आता है, उसे देखते जाते हैं और अपने सामने अपना भाव बदल जाता है और2जाता। और उनका2बहुत बड़ी दूर से आते हैं कभी-कभार।

आएंगे ही। आएंगे ही।

प्रश्नः दूर हो तो दबाएं और जितना दबाएं उतना कल ज्यादा2

उतना ही आने की2

प्रश्नः और फिर स्थिति ऐसी आती है कि जिसके अंदर वह साक्षीभाव भी मिट जाता, सरल अवस्था हो जाती है।

मिट ही जाता है। मिट ही जाता है।

प्रश्नः तो वह दिखता है जैसा दिखता है। उसमें से भी निकल नहीं सकते हैं।

आप मत निकलिए। वह अगर आप निकलने की कोशिश करते हैं तो कभी न निकल पाएंगे, क्योंकि तब द्वंद्व जारी है।

प्रश्नः द्वंद्व तो चालू है, चलता ही रहता है।

नहीं, आप मेरी बात नहीं समझे। आप मेरी बात नहीं समझे। तब स्वीकार पूरा नहीं है। जब हम यह कहते हैं कि स्वीकार कर लिया। तब फिर दुबारा यह प्रश्न उठाने की गुंजाइश नहीं है कि इस क्रोध से छुटकारा कब होगा, इस काम से छुटकारा कब होगा। अगर यह प्रश्न उठ सकता है तो स्वीकृति पूरी नहीं है।

प्रश्नः प्रोसेस तो आता है न।

नहीं, आप मेरी बात नहीं समझे। मेरी आप बात नहीं समझे। यानी मैं यह कह रहा हूं, अक्सर होता क्या है कि हम साक्षी और स्वीकार भी लड़ने के साधन की तरह स्वीकार करते हैं। हमारी क्या कठिनाई है, हमारा यह लड़ने का चित्त इतना गहरा है कि अगर मैं आपसे कहूं कि स्वीकार करने से क्रोध चला जाएगा, तो आप कहते हैं कि ठीक है, हम स्वीकार करते हैं, लेकिन क्रोध जाना चाहिए। तो आप स्वीकार को भी लड़ने का एक यंत्र ही बनाते हैं। तब यह स्वीकार कभी पूरा नहीं हो सकता।
नहीं, जब मैं यह कह रहा हूं कि स्वीकार करने से क्रोध चला जाएगा, तो यह नहीं कह रहा हूं कि स्वीकार अगर आप कर लेंगे तो क्रोध को अलग करने में सफल हो जाएंगे। मैं यह कह रहा हूं कि स्वीकार करने का सहज परिणाम है क्रोध चला जाना। अगर परिणाम नहीं आ रहा, तो आप समझिए कि स्वीकार में कमी है। अगर परिणाम नहीं आ रहा, तो आप समझिए कि स्वीकार में कमी है। और अगर आप परिणाम लाना चाह रहे हैं तो भी सबूत है कि स्वीकार में कमी है। क्योंकि आप परिणाम क्यों लाना चाह रहे हैं? अस्वीकार है इसीलिए। कहते हैं कि क्रोध नहीं रह जाना चाहिए, काम नहीं रह जाना चाहिए। आपने बताया था कि स्वीकार करने से नहीं रह जाएगा, लेकिन वह है। वह अभी भी उठ रहा है। तो फिर आप स्वीकार नहीं किए। तब स्वीकार की बात ही खयाल में नहीं आई। दमन वाला चित्त जारी है और दमन वाला चित्त ही बड़े सूक्ष्म रूप से स्वीकार का भी उपयोग कर रहा है। और तब और ही जटिल जाल हो गया। लड़ाई जारी है। सिर्फ लड़ाई ने ढंग बदल दिया। अभी भी आप मौके-बेमौके देख लेते हैं कि देखो अभी तक क्रोध आ रहा है। नहीं, स्वीकार का मतलब यह है कि अब मैं देखने की फिकर छोड़ता हूं, आ रहा है तो आ रहा है, राजी हूं।
जिस दिन आप पूरे राजी हैं, उसी दिन आप पाएंगे कि अचानक क्रोध नहीं आ रहा है। क्योंकि आपके पूरे होते ही क्रोध की संभावना समाप्त हो जाएगी। लेकिन वह कांसीक्वेंस है, रिजल्ट नहीं है। वह फल नहीं है किसी प्रक्रिया का। वह किसी घटना के पीछे आई हुई छाया है।
जैसे कि मैं कहता हूं, आप यहां आ जाएंगे तो आपकी छाया यहां आ जाएगी। यह छाया का आ जाना जैसे सहज होगा, ठीक ऐसे ही स्वीकृति के पीछे साक्षी, और साक्षी के पीछे तथाता सहज होंगे। उसमें आपको कुछ करना नहीं, आपके करने का मेरी दृष्टि में मनुष्य के करने का दो ही शब्द हम उपयोग कर सकते हैं। अगर बौद्धों का शब्द उपयोग करना हो, तो स्वीकार है। अगर उपनिषद, भक्तों और सूफियों का शब्द स्वीकार करना हो, तो समर्पण है। यह शब्द का भेद है। स्वीकार का मतलब हैः ईश्वर के मानने की कोई जरूरत नहीं, जो है उसे हम स्वीकार करते हैं। लेकिन अगर स्वीकार न बन सकता हो, तो फिर समर्पण संभव हो सके।

प्रश्नः इसलिए समर्पण में कहा है, मिथलाचार समर्पण का।

हां, हां।

प्रश्नः बुरे और अच्छे।

हंू-हूं, सब तरफ। सब तरफ।

प्रश्नः नारद-भक्ति सूत्र ने कहा है, अच्छे और बुरे दोनों आचार का समर्पण करना यह सच्चा समर्पण है।

तभी, तभी हो पाए, नहीं तो नहीं हो पाए। तो वह जो आप पूछते हैं उसमें स्वीकार की कमी है। उसको पूछिए ही मत। या तो समर्पण कर दीजिए।

प्रश्नः देखना तो जारी रहता है।

नहीं, देखना जारी रहेगा, रहने दीजिए।

प्रश्नः देखने में जब वह काम आता है, क्रोध आता है उनकी घटना महसूस भी होता नहीं1काम आए या क्रोध आए इसका ठोस आयाम नहीं अपने पर, तो हावी हो गया।

हां, यह जो, यह जो आपने सोचा न कि अपने पर हावी हो गया, तो आपने दो हिस्से कर लिए तत्काल। नहीं, अगर स्वीकार है तो आप ऐसा मत कहिए कि मुझे क्रोध आया, आप ऐसा कहिए कि मैं क्रोध हो गया। आया का सवाल नहीं है। आप क्रोध हो गए। और अगर आप सच में क्रोध के क्षण को देखेंगे तो क्रोध आता नहीं, आप क्रोध हो जाते हैं। यू आर द एंगर। ऐसा नहीं कि आप अलग खड़े हैं और एंगरी हो गए हैं, ऐसी दो चीजें नहीं होती हैं। और जब प्रेम आता है तो ऐसा नहीं होता कि प्रेम में भीतर अलग खड़ा है और इधर प्रेम है, आप प्रेम ही होते हैं। यह जो दो में आप तोड़ रहे हैं, यह पीछे का लौट कर सोचा हुआ खयाल है। जिस क्षण में क्रोध आएगा, जिस क्षण में क्रोध आएगा अगर उसकी1

प्रश्नः उसी क्षण में आप देख नहीं पाते, आप पीछे1

उसी क्षण में आप नहीं देख पाते।

प्रश्नः उसी क्षण में पाता है दिखता है कि आया।

यह पीछे से।

प्रश्नः अपने आप में पकड़ में भी बैठता वहां तक देखते हैं।2मिल जाए तो उसे छुड़ा लोगे। चिंता हो जाती इसलिए सुधारना चाहते हैं।

यह जो हम भाषा का उपयोग कर रहे हैं न, यह हमारी व्याख्या है जो पीछे से पकड़ी गई है। यह व्याख्या जैसी कि जब आपको भूख लगती है, तो आप फिर से देखें, क्रोध को जरा छोड़ दें, क्योंकि क्रोध के साथ हमारे एसोसिएंस हैं, और मन में ऐसा है कि वह बुरा है, उसको स्वीकार करना एकदम आसान मामला नहीं है। वह बुरा है ही। ऐसा हमें इतना पक्का है गहरे में कि हम कितना ही ऊपर-ऊपर स्वीकार कर लें, भीतर उसकी बुराई का डंक, कांटा चुभता ही रहता। वह लाखों साल की दिमाग पर बैठी हुई संस्कार है, वह एक दिन में मिट भी नहीं जा सकता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां। भूख को आप पकड़ें, वह उसमें जरा हमें बुरे का खयाल नहीं होता है। जब भूख आपको पकड़े तब आप देखें तो आपको ऐसा पता नहीं लगेगा कि मुझे भूख लगी है, आपको ऐसा ही पता लगेगा मैं भूख हूं। शब्दों को छोड़ दें और जरा भीतर भूख में उतरें, तो आप पाएंगे भूख आपका अस्तित्व बन गई है, भूख आपका अस्तित्व बन गई है, लेकिन भाषा में तो हमको चीजें तोड़नी पड़ती हैं। भाषा में हमें कुछ चीजें तोड़नी पड़ती हैं, क्योंकि भाषा में, भाषा के साथ एक कठिनाई है, वह कठिनाई थी, जैसे हम यहां इतने लोग बैठे हैं, हम साथ यहां सब साइमलटेनियस बैठे हैं। लेकिन अगर हम बोलना शुरू करें, तो मैं बोलूंगा, फिर आप बोलेंगे, फिर आप बोलेंगे। भाषा जो है, वह साइमलटेनियस नहीं हो सकती, उसमें क्रम हो जाएगा फौरन। हमारा होना साइमलटेनियस हो सकता है, लेकिन हमारा बोलना नहीं हो सकता। बोलने में एक बोलेगा, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और एक लंबी वन डायमेंशन बात बनेगी। जब आप बाहर दरवाजे पर खड़े होकर देखते हैं1आकाश, चांद, वृक्ष, फूल, सुगंध, सड़क की आवाजें, तब ये साइमलटेनियस होती हैं, ये एक ही साथ युगपत होती हैं। लेकिन जब आप सोचते हैं तब युगपत नहीं होती। आप कहेंगे, चांद देखा, तारे देखे, सड़क पर आवाज थी, सुगंध आई, यह वन डायमेंशन हो गई। इनमें शृंखला हो गई।
तो जैसे ही आप किसी भीतरी अनुभव को विचार से देखते हैं वैसे ही वह लंबा दिखाई पड़ने लगता है। उसमें लगता है, भूख लगी है, मुझे भूख लगी है, मैंने अनुभव की कि भूख लगी है, फिर मैंने खाना खाया, फिर भूख मिटी। जब आप भूख के क्षण में एक्झिस्टेंसियल, भूख के क्षण में उतरेंगे तो आप पाएंगे कि आप भूख हैं। और यह जो अनुभव हो तो बड़ा कीमती है, तब अस्वीकार करने वाला ही है नहीं कोई, क्योंकि कोई पीछे बचा नहीं, भूख ही है। न स्वीकार करने वाला, न अस्वीकार करने वाला, तभी स्वीकार पूरा है। क्योंकि अगर स्वीकार करने वाला भी मौजूद है तो अस्वीकृति चल रही है। अगर मैं यह भी कहता हूं कि मैं आपको बिलकुल स्वीकार करता हूं, तो यह इसी बात की गवाही दे रहा हूं कि मेरे मन में अस्वीकृति है, उसे हटा कर मैं आपको स्वीकार कर रहा हूं। नहीं तो इसका कोई मतलब नहीं है।
और क्रोध और काम के साथ कठिनाई है, क्योंकि वे शब्द जो हैं बड़े लोडेड, उनके साथ हमारा भारी भार है। तो उनको तो देखने में और कठिनाई पड़ती है। हमारा मन कहे ही चला जाता है कब छुटकारा पाओगे, कब छुटकारा पाओगे। नहीं, एक ज्यादा दिन का नहीं, पंद्रह दिन का प्रयोग करें। और पंद्रह दिन यह कर लें कि छुटकारा पाना ही नहीं, इसको पहले निर्णय कर लें। कि छुटकारा पाना ही नहीं, जो है उसे जानना है कि वह क्या है। हमें सिर्फ जानना ही है अभी। अभी हम पंद्रह दिन के बाद सोचेंगे कि छुटकारा करना कि नहीं करना। पंद्रह दिन, सालेड पंद्रह दिन मैं सिर्फ जानता ही रहूंगा कि क्या-क्या है1क्रोध है, काम है1कैसा है, क्या है, कैसी प्रतीति होती है, कैसा अनुभव होता है, क्या घटना घटती है, सिर्फ जानता ही रहूंगा।
जैसे कि आदमी एक अजनबी द्वीप पर छोड़ दिया गया है और अभी कुछ तय नहीं करता कि कहां मकान बनाना है, किससे दोस्ती करनी है, किससे दुश्मनी करनी है, अभी सिर्फ घूम कर देखता है कि क्या है। एक एक्वेंटेंस भर करने के लिए हम पूरे क्या हैं, कहां क्रोध है, कहां प्रेम है, कहां घृणा है। इसका अभी स्वीकार की भी फिकर न करें, सिर्फ इसको जानने की। और जानने में ही आप पाएंगे कि स्वीकार आता है। और उस स्वीकार में ही आप पाएंगे कि साक्षी आता है। और उस साक्षी में ही आपकी तरफ से जो एक कदम जरूरी है वह सिर्फ स्वीकार का ही है, बाकी सब आता है।
यह मैं निरंतर कहता हूं कि जैसे एक आदमी छत से कूद पड़े, तो एक ही कदम उसको उठाना पड़ता है। फिर वह आदमी पूछे कि कूदने के बाद फिर और क्या करना है मुझे, तो हम कहेंगे, तुम कुछ मत करो, फिर बाकी काम जमीन कर लेगी, वह तुम्हें खींच लेगी। फिर तुम्हें कुछ करने की बात नहीं है। तुम एक कदम उठा लेना, क्योंकि वही कदम तुम्हें जमीन की खिंचावट से रोके हुए है, बस। एक कदम आदमी की तरफ से और हजार कदम परमात्मा की तरफ से। एक कदम हमारी तरफ से स्वीकार या समर्पण या कोई भी नाम दें1साक्षी दें, एक कदम जिसमें हमने अपने को पूरे के पूरे हम राजी हैं, हममें कोई शिकायत नहीं है, किसी चीज को काटने का कोई भाव नहीं है। इसको ही मैं आस्तिक कहता हूं, ऐसे आदमी को। यह एक दफा उठ जाए तो दूसरे कदम अपने से उठते हैं, वे आपको उठाने नहीं हैं। मगर इसमें ध्यान रखने की जरूरत यही है कि अगर इस कदम को भी आप सिर्फ क्रोध को, काम को अलग करने के लिए उठा रहे हैं, तो कदम उठाया ही नहीं गया है, वह उपद्रव जारी रहेगा।

प्रश्नः संध्या जो प्रक्रिया हुई साक्षीभाव की या उसकी संवेदना की, तो इससे ही हुई या इससे भी छुटकारा पाना है।

हां, वह इससे ही हुई। इससे हुई लेकिन इससे पूरी न हो पाएगी। इससे ही होगी, पहला खयाल इससे ही उठेगा, लेकिन वह असफल होगी। अब दूसरी प्रक्रिया उसकी असफलता से शुरू करिए, इससे हो नहीं पाएगा। उससे ही होती है। कोई भी आदमी जब शुरू करेगा तो ऐसे ही शुरू करेगा कि यह बुरा है, परेशान कर रहा है, दुख दे रहा है, नरक में डाल रहा है, इससे कैसे बाहर हो जाएं। लेकिन बाहर होने की कोशिश ही1(एक उदाहरण, फिर अपन उठें) एक, जैसे एक आदमी को नींद नहीं आ रही, तो स्वभावतः वह नींद लाने की कोशिश करेगा। और कोशिश से कभी नींद नहीं आ सकती। क्योंकि वह बिलकुल ही एंटी-थेटिकल है। सब तरह की कोशिश नींद को तोड़ती है, नींद लाने की कोशिश भी। क्योंकि जब आप नींद लाने की कोशिश कर रहे हैं तब आपका जागना बढ़ता जाएगा, क्योंकि हर कोशिश जगाती है। लेकिन आप कहेंगे कि जिसको नींद नहीं आती वह तो नींद लाने के लिए ही कोशिश शुरू करेगा, यह तो बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन एक दिन उसको अनुभव करना पड़ेगा कि नींद लाने की कोशिश से नींद नहीं आती।

प्रश्नः कोशिश की थकावट से नींद आएगी।

हां, कोशिश की थकावट से नींद आएगी। जब कोशिश असफल हो जाएगी और एक दिन वह कहेगा, भाड़ में जाने दो इस नींद को, और भाड़ में जाने दो इस कोशिश को, और पड़ा रह जाएगा, तो नींद आ जाएगी। तो अभी दूसरा कदम उठाना पड़ेगा आपको, जब कि कोशिश भी बेकार मालूम होती है, नहीं तो नहीं होता है।


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