कुल पेज दृश्य

सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-13)

प्रवचन-तैहरवां--भावातीत की अनुभूति

बंबई, रात्रि, दिनांक 1 जून, 1972
सर्वत्र भावना गंधः।
सब जगह उसी की अनुभूति ही एकमात्र गंध है।
भारतीय दर्शन अस्तित्व को दो भागों में बांटता है। एक तो है यह-जिसकी तरफ कि संकेत किया जा सके। और दूसरा है-वह-जो कि इसके पार है, जिसकी और कि संकेत न किया जा सके। ट्रुथ के लिए, वास्तविकता के लिए संस्कृत में एक शब्द है-सत्य-यह संस्कृत का शब्द बड़ा ही अर्थपूर्ण और बड़ा ही सुंदर है। यह दो शब्दों से मिल कर बना हैः सत और तत। सत का मतलब होता है यह और तत का अर्थ होता है वह। सत्य का अर्थ होता हैः यह  धन  वह।। इसलिए पहले हम यह समझ लें कि यह और वह क्या हैं।
वह जो कि जाना जा सके, वह जो कि समझा जा सके, मन में उतारा जा सके, जिसकी ओर कि उंगली से संकेत किया जा सके, जिसे कि दिखलाया जा सके और जो कि देखा जा सके, वह सब यह में आ जाता है।
और वह जो कि देखा तो नहीं जा सकता, किंतु जिसकी सत्ता हो; वह जिसे कि जाना न जा सके, किंतु फिर भी जिसका अस्तित्व है; वह जिसका कि चिंतन न किया जा सके, पर फिर भी जो विद्यमान है, वह सब वह में समाहित है। अतः यह का अर्थ होता है ज्ञान व ज्ञेय, और वह मतलब होता है-अज्ञात व अज्ञेय। सत्य का अर्थ होता है ज्ञात धन अज्ञात। इस तरह सत्य का अर्थ हुआ-यह धन वह।
यह विभाजन बड़ा अर्थपूर्ण है। इसका मतलब हुआ कि उसे बिना कोई भी नाम दिए, हम उसे सिर्फ यह और वह कह कर पुकारते हैं। जो कुछ भी विज्ञान जान सकता है वह यह है और जो कुछ भी विज्ञान नहीं जान सकता वह वह है। विज्ञान का संबंध इससे है और धर्म का संबंध उससे। इसीलिए विज्ञान और धर्म के कोई मिलन नहीं होता। और हो भी नहीं सकता। इन दोनों का मिलन एक तरफ से असंभव ही है। यह वह नहीं हो सकता। उसका-वह का मतलब होता है जो कि सदैव पार है, जो कि अतिक्रमण कर जाता है। उस पार होना ही वह है। इसलिए उनका मिलना नहीं हो सकता और फिर भी वे दोनों अलग नहीं हैं, उनमें कोई अंतराल नहीं है, उनके बीच कोई खाई नहीं है। तो फिर इसे कैसे समझें?
यह ऐसा हैः प्रकाश और अंधकार कभी नहीं मिलते, फिर भी वे अलग नहीं है। जहां प्रकाश खतम होता है, अंधकार शुरू होता है। कोई अंतराल नहीं है, फिर भी वे कभी नहीं मिलते, एक दूसरे पर कभी नहीं पड़ते। वे पड़ ही नहीं सकते। जहां प्रकाश खतम होता है, अंधेरा शुरू होता है। जहां प्रकाश है, वहां अंधेरा नहीं है। जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश नहीं है। वे एक दूसरे पर नहीं पड़ते वे कभी नहीं मिलते, और फिर भी उनमें कोई अंतराल नहीं, कोई दूरी नहीं है। वे एक दूसरे से कभी नहीं मिलते, फिर भी बहुत पास हैं। एक की सीमा दूसरे की भी सीमा देखा है वस्तुतः उनमें जरा भी जो अंतराल नहीं है।
यही घटना यह और वह के साथ घटती है। यह जगत-यह और सत्य-वह-ये कभी नहीं मिलते, वे कभी एक दूसरे पर नहीं गिरते। फिर भी उनमें कोई अंतराल नहीं है। एक तरफ से वे सदा ही कहीं न कहीं मिल रहे हैं, क्योंकि जहां एक समाप्त होता है, दूसरा प्रारंभ होता है। फिर भी कोई मिलन नहीं होता। प्रकाश और अधिक बड़ सकता है, तब फिर अंधकार थोड़ा और आग सरक जाता है। विज्ञान और जान ले सकता है, किंतु जो कुछ भी वह जान लेता है, यह हो जाता है। वह और आगे सरक जाता है वह उसे कभी नहीं छू सकता, फिर भी वह सीमा पर ही है। वह वहीं है कोने में जहां कि यह समाप्त होता है। उसे वह कहने का मतलब होता है कि वह और आगे हैं-पार, अतिक्रमण करता हुआ।
यह जो यह है, यह बहुत ही निकट है, और वह बहुत दूर है। यह हमारी इंद्रियों द्वारा, बुद्धि के द्वारा, मन के द्वारा जाना जाता है। हम इसे जानते ही हैं। हमारे ज्ञान का हमारे मन का एक फोकस होता है, घेरा होता है। जिस प्रदेश पर यह फोकस गिरता है, वह यह है। इसके पार है वह। परंतु भारतीय योगियों ने उसे परमात्मा भी नहीं कहा, क्योंकि एक बार आप ऐसे कोई भी शब्दों का उपयोग करें जैसे कि परमात्मा, आत्मा, निर्वाण, मोक्ष, तो उससे ऐसी प्रतीति होती है जैसे कि आपने उस अज्ञात को जान लिया। यह शब्द-वह-तत यह बतलाता है कि अज्ञात अभी भी अज्ञात ही है। आप उसे अनुभव तो करते हैं, फिर भी आप उसे व्यक्त नहीं कर सकते। वह कहीं आपके लिए भीतर प्रवेश तो करता है, फिर भी आप ऐसा नहीं कह सकते कि वह मुझे ज्ञात हो गया है, मेरा अनुभूत हो गया है।
जब कभी कोई कहता है कि परमात्मा मेरा अनुभूत हो गया है, तो उसका मतलब हुआ कि वह परमात्मा के भी पार चला गया, क्योंकि जो कुछ भी आप जान गए हैं, वह आपसे छोटा हो गया। आपका अनुभव कभी भी आपसे बड़ा नहीं हो सकता। आपका अनुभव आपके हाथों में है। वह कुछ है जो कि आपका है, आपकी अपनी संपत्ति है। परंतु परमात्मा को संपत्ति नहीं बनाया जा सकता, सत्य पर कभी भी अधिकार नहीं जमाया जा सकता। वह कभी भी आपके हाथ में नहीं है। वह ऐसा कुछ नहीं है जो कि आपकी स्मृति बन जाए। वह ऐसा कुछ नहीं है कि जिससे कि आप निपट जाए। इसलिए वह ऐसा है, जिसकी आप कोई परिभाषा कर सकें।
आप किसी चीज की परिभाषा तभी कर सकते हैं, जब आपने उसको समग्र रूप से जान लिया हो। तभी न आप उस की व्याखया कर सकते हैं और उसमें विश्वास कर सकते हैं! तब आप कह सकते हैं कि यह यह है। परंतु परमात्मा अव्याखया ही रह जाता है। ऐसे क्षण कभी नहीं आता, जब आप कह सकें कि मैंने जान लिया। परमात्मा इस अर्थ में कभी भी अनुभव नहीं बनता। वह एक विस्फोट है, वह कोई अनुभव नहीं है। वह जो जानना सदैव बड़ता हुआ होता है। वह सतत बड़ता जाता है। ज्ञान तो रुक जाना है पूरी तरह, डैड स्टाप। जब आप कहते हैं कि मैं जानता हूं, तो इसका अर्थ होता है कि आप रुक गए। अब कोई वृद्धि आगे नहीं होगी, अब कोई बहाव नहीं होगा, अब कोई अज्ञात आयाम नहीं होगा। अब आप नदी की भांति एक जीवंत अनुभव कभी भी न हो पाएंगे।
जानने का अर्थ होता हैः नदी की भांति बहता हुआ अस्तित्व। आप जानते हैं, किंतु एक ज्ञान की तरह से नहीं, ऐसे नहीं कि चलो खतम हुआ, पूरा हुआ, और मृत हो गया आपके हाथों में। आप एक ओपनिंग की तरह, एक द्वार की तरह जानते हैं-एक सतत बड़ा होता हुआ द्वार, एक सतत फैलता हुआ द्वार सागर में, एक सतत खुलता हुआ द्वार असीम में। जानना एक निरंतर खुलता हुआ द्वार है, ज्ञान एक बंद दरवाजा है। इसलिए जिन्होंने ऐसा अनुभव किया है कि ज्ञान मृत हो जाता है, उन्होंने उस अनुभूति को परमात्मा नहीं कहा। उन्होंने उसे कोई नाम नहीं दिया। कोई नाम देने का अर्थ होता ज्ञान, नालेज। जब आप किसी अनुभव को कोई नाम दे देते हैं, तो उसका अर्थ होता है कि आपने उसे पूर्णरूप से जान लिया अब आप उसके चारों ओर घेरा बना सकते हैं। अब आप उसे कोई शब्द दे सकते हैं। शब्द का मतलब होता है एक सीमा। इसलिए भारतीय मनीषा कहती है कि वह तत है। तत कोई शब्द नहीं है, वह तो इशारा है, एक संकेत, एक इंगित।
लुडविग विटगिन्टीस ने कहीं पर कहा है कि कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो कि कही नहीं जा सकतीं, किंतु वे बतलाई जा सकती हैं। आप बतला सकते हैं, आप कह नहीं सकते। आप दिखला सकते हैं, आप इशारा कर सकते हैं। यह शब्द तत एक संकेत है। यह तो मात्र अंगुली है जो कि उस पार की ओर संकेत कर रही है। यह कोई शब्द नहीं है, यह कोई सीमा नहीं बनाती। यह ऐसा नहीं बतलाती कि आप जान गए। यह इतना ही बतलाती है कि आपने अनुभव किया है।
ज्ञान की सीमा होती है, किंतु अनुभव निस्सीम होता है। और जब हम कहते हैं वह तब हम और भी बहुत सी बातें कहते हैं। एक तो यह कि वह बहुत दूर है। यह का अर्थ होता है निकट, यहां। हम जानते है उसे। यह हमारी सामर्थ्य में है कि हम उसे जान सकते हैं। उस का मतलब होता है दूर-बहुत दूर। एक अर्थ में वह बहुत दूर है। विश्लेष्ण करें, तो वह निकट से भी निकट है। किंतु यह निर्भर करता है कि आप कहां से प्रारंभ करते हैं। हम यहां बैठे हैं, सब से निकट का बिंदु वह है, जहां कि आप बैठे हैं। कुछ भी उसकी तुलना में आपसे दूर है। परंतु आप जा सकते हैं और यात्रा कर सकते हैं सारी पृथ्वी की और लौट कर उसी बिंदु पर वापस आ सकते हैं। तब वह दूर का बिंदु हो जाएगा। अतः यह सब निर्भर करता है।
मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव के बाहर ही बैठा हुआ था और अजनबी मुल्ला के गांव का रास्ता पूछ रहा था कि वह कितनी दूर है। मुल्ला ने उसे कहा कि यह कई बातों पर निर्भर करता है! अजनबी उसकी बात का मतलब नहीं समझ सका। उसने पूछा कि तुम्हारा क्या मतलब है निर्भर करने की बात से! मुल्ला कहता है कि यदि तुम जिस तरफ जा रहे हो उसी दिश में बड़ते ही चले जाओ, तो मेरा गांव बहुत दूर है। तुम्हें सारी पृथ्वी का चक्कर लगाना होगा। तुमने गांव तो जरा ही पीछे छोड़ दिया। परंतु यदि तुम वापस लौट सको, यदि तुम पीछे मुड़ने को राजी हो, तो फिर गांव सब से निकट है।
इसलिए यह निर्भर करता है कि हम कहां हैं। यह निर्भर करता है उस बिंदु पर जहां कि हम हैं, चेतना के उस बिंदु पर जहां कि हम अभी खड़े हैं, यदि हम वह बिंदु देख सके और उस बिंदु के भीतर प्रवेश कर सकें, तो यह फिर बहुत दूर है और वह सर्वाधिक निकट है। परंतु यदि हम केंद्र पर नहीं देख सकते जहां कि हम हैं और आंखों व इंद्रियों की दिशा में बड़ते चले जाएं, तो यह बहुत निकट है और वह सबसे अधिक दूर की बात है। किंतु दोनों दशाओं में ही वह यह के पार चला जाता है। यदि आप भीतर जाए यदि आप अपने स्वरूप के केंद्र पर पहुंच जाए, तब भी आप इसके, यह के पार चले जाते हैं-यह जो कि आपके चारों तरफ विरा है, और वह उपलब्ध कर लिया जाता है अथवा यदि आप बाहर जाए, तो आपको बहुत लंबी यात्रा पर जाना पड़ेगा, अनंत यात्रा पर, और आप उसे छू सकते हैं, जब यह समाप्त होता है।
इसीलिए विज्ञान एक लंबी यात्रा है-बहुत लंबी। एडिंगटन अपने आखिरी दिनों में, और आइंस्टीन भी अपने अंतिम दिनों में जगत की एक बहुत ही रहस्यात्मक झलक को महसूस कर सके। एडिंगटन ने तो कहा बताते हैं कि जब मैंने अस्तित्व की खोज प्रारंभ की, तब मैंने सोचा था कि यह अस्तित्व एक बड़ा यांत्रिक अस्तित्व है-एक बड़ी मशीन। किंतु जितना ही मैं इसमें भीतर प्रवेश करता गया, उतना ही कम यह मशीन की तरह दिखाई पड़ा। और अब मैं अधिक गहन और दूर मेरे प्रारंभिक बिंदु से आ गया हूं। मैं कह सकता हूं कि यह विचार की तरह से अधिक दिखलाई पड़ता है, बजाय एक मशीन के।
यह झलक विज्ञान के द्वारा लगी है। विज्ञान खोज है इस में यह में। यदि आप खोज करते ही चले जाए तो एक बिंदु आता है, तब यह समाप्त हो जाता है। वह एक बहुत लंबी यात्रा है। केवल एडिंगटन जैसे दिमाग के लोग ही उसकी झलक पा सकते हैं। सामान्य वैज्ञानिक इस झलके को कभी भी नहीं पा सकेंगे। केवल आइंस्टीन के जैसे दिमाग ही इस रहस्य तक पहुंच सकते हैं-जहां कि यह समाप्त होता है और उस की उस वह की झलक मिलती है।
आइंस्टीन ने कहा है कि जगत मेरे लिए एक रहस्य है, न कि गणित की समस्या। किंतु गणित के रास्ते से यह निष्कर्ष एक बहुत ही लंबी यात्रा है-बहुत ही लंबी यात्रा गणित के सवालों को हल करते हुए वह एक ऐसे बिंदु पर पहुंचा जहां कि सभी कुछ गिर जाता है। आपकी गणित बिल्कुल बेकार हो जाती है, आपके सब हल किसी काम के नहीं। आपका तर्क भी इसके मुकाबले में गिर जाता है, आप इसके आगे कुछ भी नहीं सोच सकते। चिंतन असंभव हो जाता है, क्योंकि विचार का भी एक क्षेत्र होता है। वह भी किसी विशेष ढांचे में, किसी खास व्यवस्था में ही काम करता है।
उदाहरण के लिए, आइंस्टीन गणित के द्वारा ही क्यों उस रहस्य को अनुभव कर सका? गणित एक तर्क का आयाम है। वह एक तर्क के खास ढांचे में काम करता है। जैसे कि गणित में अ अ होता है और ब ब होता है और अ ब नहीं हो सकता है। यह एक तर्क का आयाम है। यदि अ ब हो जाए और ब अ हो सके, तो फिर यह काव्य हो गया, न कि गणित। गणित को साफ रेखाए चाहिए, स्पष्ट विभाजन, न कि घुलता-मिलता। यदि अ बहे और ब हो जाए, तब फिर गणित असंभव है। अ अब है उसे अ ही रहना चाहिए। ब ब है और उसे भी ब ही रहना चाहिए। केवल तभी गणित काम कर सकता है। विभाजन सुस्पष्ट होने चाहिए, कोई मिश्रण, कोई गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए।
आइंस्टीन ने गणित पर काम किया किंतु एक खास बिंदु के बाद कठिनाइयां आने लगीं। और इन पचास वर्षों में भौतिक शास्त्र ने ऐसी कठिनाइयों का अनुभव किया है जैसी कि पहले कभी महसूस नहीं को गई। उदाहरणों, पदार्थ पदार्थ था पचास साल पहले। पदार्थ पदार्थ था, अ अ था, एनर्जी एनर्जी थी, ब ब था। किंतु इन पचास वर्षों में, जितना भौतिक शास्त्र ने भीतर गहरे प्रवेश किया, सारे विभाजन एक उलझन को चीज होने लगे और पदार्थ अचानक खो गया, पूरी तरह। वह कहीं भी नहीं मिला। बल्कि पाया गया कि यह जो विभाजन है पदार्थ और एनर्जी का, यह ही गलत है। पदार्थ ऊर्जा है। तब सारा गणित जो कि तर्क के विभाजनों पर खड़ा था, गिर गया।
अस्तित्व में इस अ-गणित के ढंग से प्रवेश के लिए क्या करें? अब पदार्थ तो कहीं भी नहीं है और स्मरण रहे, यदि पदार्थ नहीं है, तो ऊर्जा की परिभाषा नहीं हो सकती, क्योंकि पुराने दिनों में ऊर्जा का मतलब था वह जो कि पदार्थ नहीं है। अब पदार्थ तो है नहीं, तो फिर यह ऊर्जा क्या है? आपने शायद यह परिभाषा सुनी होगी-माइंड इज नाट मेटर, मेटर इज नाट माइंड-मन पदार्थ नहीं है, पदार्थ मन नहीं है। किंतु अब पदार्थ तो कुछ है ही नहीं, अतः फिर मन की परिभाषा क्या होगी?
जब पदार्थ अचानक ही गिर गया, तो मन भी गिर गया। खाली ऊर्जा ही बची-ऊर्जा का प्रकटीकरण बिना किसी विभाजन के। और तब भौतिक शास्त्र में एक बहाव घूस गया। अब अ अनिवार्यतया अ नहीं है। जितना गहरे आप अ में जाए, आप वहां ब को पाएंगे। जितना गहरे पदार्थ में जाएंगे, उतनी ही ऊर्जा होगी और बहुत सी बातों का, बहुत से विचित्र तथ्यों का उदघाटन होगा।
हम जानते हैं कि एक कण-कण है और वह एक तरंग कभी भी नहीं है, और एक तरंग तरंग है, और वह एक कण कभी नहीं है। परंतु आइंस्टीन को एक विचित्र रहस्य का सामना करना पड़ा। अस्तित्व के बहुत गहरे प्रदेशों में, एक पार्टीकल, एक कण कभी-कभी तरंग की तरह से व्यवहार कर सकता है-बहुत ही अनिश्चयात्मक ढंग से-और एक तरंग भी एक कण की तरह से व्यवहार कर सकता है। यह कठिन है, इसलिए इसे रेखा-गणित के द्वारा समझना अच्छा होगा।
हम जानते हैं कि एक बिंदु एक रेखा नहीं है। कैसे एक बिंदु ए रेखा हो सकता है? एक रेखा के लिए एक के बाद एक बहुत से बिंदु चाहिए। एक बिंदु एक रेखा कभी भी नहीं हो सकता। एक रेखा का अर्थ होता हैः बहुत सार बिंदु एक के बाद एक आते हुए। अतः एक रेखा एक बिंदु की तरह से व्यवहार नहीं कर सकती, और एक बिंदु, एक रेखा की तरह व्यवहार नहीं करते हैं। वे, रेखा-गणित में जैसे होता है, उस तरह से व्यवहार नहीं करते, क्योंकि यामिति तो मनुष्य के द्वारा बनाई गई है, परंतु अस्तित्व में इस तरह व्यवहार करते हैं कभी-कभी एक बिंदु एक रेखा की भांति व्यवहार करता है, और एक रेखा एक बिंदु की तरह से व्यवहार करती है, अतः क्या करें? तब फिर कैसे यह परिभाषा करें कि बिंदु क्या है और रेखा क्या है।
तब परिभाषा असंभव हो जाती है कि एक बिंदु रेखा की तरह ये व्यवहार कर सकता है। और परिभाषाएं असंभव हो जाती हैं, तो दो वस्तुएं फिर दो नहीं हैं। तब आइंस्टीन कहता है कि अच्छा हो कि कहें एक्स है, नहीं कहें कि रेखा है। न कहें कि बिंदु है, क्योंकि वे असंत हैं और अर्थहीन हैं। कहें एक्स है। एक्स कभी रेखा की तरह से और कभी बिंदु की तरह से व्यवहार करता है। यह एक्स फिर वह है। एक्स का मतलब हुआ कि आप फिर कोई शब्द का प्रयोग नहीं कर रहे। एक्स का मतलब होता है-वह दैट, तत।
यदि आप कहते हैं, बिंदु, तो मतलब हुआ यह यदि आप कहते हैं, रेखा, तो मतलब हुआ वह। यदि आप कहें-एक्स, तो अज्ञात का प्रवेश हुआ। जब आप कहते हैं एक्स, तो आप कहते हैं कि यह रहस्य है, न कि गणित। इसलिए यदि कोई गहरे जाए, तो वह दैट को, तत पहुंचेगा, किंतु केवल बहुत ही थोड़ी से मस्तिष्क आइंस्टीन जैसे। वह एक बहुत लंबी यात्रा है। लाखों-लाखों वर्षों में, एक या दो आदमी उस तक पहुंच पाते हैं इस के द्वारा क्योंकि आप पृथ्वी का चक्कर लगाने जा रहे हैं अपने बिंदु पर पहुंचने के लिए।
धर्म कहता है कि कोई यात्रा नहीं है। कोई भी यात्रा नहीं है। आप यहीं और अभी पा सकते हैं। आप वह हो सकते हैं बिना कहीं भी गए। वह तो यही है। यदि आप आंतरिक केंद्र को खो देते हैं, तो फिर आप इस में होते हैं। यदि आप इस का अतिक्रमण कर सकें, तो आप फिर से उस में होंगे। इसलिए वह यह के पार है, भीतर या बाहर। पार का मतलब होता है वह; और किसी विशेष नाम का उपयोग नहीं करने का मतलब है कि वह एक रहस्य है।
दर्शनशास्त्र कोई गणित नहीं है, वह कोई लाजिक भी नहीं है। वह तो रहस्य है। इसलिए अच्छा होगा कि यह समझना कि रहस्य का क्या अर्थ होता है। उसका अर्थ होता है, आपकी कोटियां, आपकी सामान्य चिंतन की कोटियां, अलग-अलग ढंग वहां काम नहीं देंगे। यदि आप अपने ही विभाजनों में सोचते चले गए, तो आप गोल-गोल घूमते ही चले जाएंगे, पर आप उस बिंदु को कभी भी नहीं पहुंचेंगे। चारों तरफ ही आप घूमते रहेंगे, परंतु आप उस बिंदु पर कभी भी नहीं पहुंचेंगे। तर्क की कोटियां भी वर्तुलाकार होती हैं। आप चलते चले जाते हैं। आप बहुत कुछ करते हैं, किंतु आप पहुंचते कभी भी नहीं। केंद्र परिधि नहीं है, अन्यथा आप पहुंच जाते। यदि आप इर्द-गिर्द घूमते ही जाए घेरे में, तो आप केंद्र को कभी भी नहीं पहुंच सकते। यदि आप धीमी गति से चल रहे हैं, तो आप सोचेंगे कि चूंकि मैं धीरे-धीरे चल रहा हूं, इसलिए नहीं पहुंच रहा हूं। आप दौड़ सकते हैं, फिर भी आप नहीं पहुंचेंगे। आप किसी भी गति का उपयोग करें, गति असंगत है, आप नहीं पहुंचेंगे। जितनी तेज गति होगी, उतने ही अधिक आप घबड़ा जाएंगे। परंतु आप पहुंच नहीं पाएंगे, क्योंकि केंद्र वृत्त की परिधि पर नहीं है। वह तो वृत्त के भीतर है, न कि वृत्त के ऊपर। आपको वृत्त को छोड़ना होगा। आपको परिधि पर से केंद्र पर गिरना पड़ेगा।
तार्किक ढांचे वर्तुलाकार होते हैं। तर्क से आप कभी भी किसी नए सत्य को नहीं पहुंचेंगे, कभी भी नहीं। जो कुछ भी सीमा पर है, बिल्कुल स्पष्ट है, बिल्कुल साफ है, किंतु आप सत्य को कभी नहीं पहुंचते। तर्क के द्वारा आप कभी भी नये अनुभव को उपलब्ध नहीं होते। वह वर्तुलाकार है। निष्कर्ष सदा ही मौजूद है, वह स्पष्ट हो जाता है, वह दूर था, वही अंतर है। परंतु तर्क द्वारा आप कभी भी किसी नई घटना को उपलब्ध नहीं हो सकते, और आप तर्क से कभी भी अज्ञेय को नहीं पहुंच सकते। रहस्य तक कभी भी तर्क के द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता, क्योंकि तर्क रहस्य के खिलाफ है, तर्क बांटता है और निर्भर करता है साफ-सुथरे, ठोस विभाजनों पर, और वास्तविकता तरल है।
उदाहरण के लिए, आप कहते हैं कि फलां व्यक्ति बहुत दयालु है; यह एक सम्मान करना है। और संभव है इसी बीच जबकि आप वक्तव्य दे रहें हैं, वह व्यक्ति जो दयालु था, दयालु न रहा हो; वह बदल गया हो। आप कहते हैं, मैं किसी कोप्रेम करता हूं। यह एक वक्तव्य है। किंतु इसी वक्तव्य के दौरान ही सकता है आपका प्रेम खो गया हो। इस क्षण आप प्रेम कर रहे हैं, दूसरे क्षण आप क्रोधित भी हो सकते हैं। इस क्षण आप दयालु हैं, दूसरे क्षण निर्दयी हो सकते हैं।
शब्दकोश में, दयालुता कभी निर्दयता नहीं बनती-कभी नहीं। किंतु वास्तविक जीवन में वह बदलती रहती है। दयालुता निर्दयता हो जाती है, निर्दयता दयालुता हो जाती है। प्रेम घृणा हो जाता है, घृणा प्रेम हो जाती है। वास्तविकता, में चीजें बदल जाती हैं, शब्दकोश में वे स्थिर हैं। वास्तविकता गत्यात्मक है, गति करती हुई है। आप उसे स्थिर नहीं कर सकते। आप उससे नहीं कह सकते-ठहर जाओ यहां। और वस्तुएं बदलती ही नहीं जाती हैं बल्कि अपनी विरोधी सीमाओं को जाती रहती हैं। वे दूसरे छोर को जाती रहती हैं-बिल्कुल दूसरे छोर को। प्रेम घृणा हो सकता है, किंतु यह कोई सामान्य परिवर्तन नहीं है। यह एक तत्वगत परिवर्तन है। एक बिल्कुल विरोधी सत्य अस्तित्व में आ गया है। एक मित्र शत्रु बन सकता है।
एक शब्द मित्र कभी भी शब्दकोश में शत्रु नहीं हो सकता। कैसे हो सकता है यह? शब्द तो स्थिर हैं। तर्क स्थिर तथ्यों के साथ काम कर सकता है और जीवन कभी स्थिर नहीं है। आप कहते हैं-यह परमात्मा है। परंतु परमात्मा शैतान में बदल सकता है। आप कोई लेबल नहीं लगा सकते। वास्तविकता के साथ लेबल लगाना बेकार है, क्योंकि जब आप लेबल लगा रहे हो, तभी वह बदली जा रही हो। यह संभव है। समय काफी है बदलने के लिए। किंतु तर्क और मन बिना लेबल लगाए काम नहीं कर सकते।
हम जानते हैं कि कैसे प्रेम घृणा हो जाता है और कैसे बहुत अधिक स्थिर कोटियां बदल सकती हैं। आप कहते हैं, यह व्यक्ति आदमी है, पुरुष है; वह व्यक्ति औरत है, स्त्री है। ये फिर वर्गीकरण हुए, लेबल लगाना हो गया। सचमुच में ऐसा नहीं है। जब मैं कहता हूं सचमुच में, वास्तव में ऐसा नहीं है, तो मेरा मतलब है कि आप सुबह पुरुष हो सकते हैं और शाम कोस्त्री हो सकते हैं। यह निर्भर करता है। ऐसी मनोदशाएं होती हैं, जब आप स्त्री होते हैं, और ऐसी भी मनोदशाएं होती हैं, जब आप पुरुष होता हैं। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य बाई-सेक्सुअल है-द्वै-लैंगिक है। तर्क कभी विश्वास नहीं करेगा। कोई भी पुरुष नहीं है और कोई भी स्त्री नहींहै। प्रत्येक दोनों है। अंतर केवल डिग्री का है, मात्रा का है। वह गुण का कभी भी नहीं है, वह सदैव मात्रा का है और मात्रा बदलती रहती है।
वास्तविकता पर हम कोई लेबल नहीं लगा सकते, उसे कोई नाम नहीं दे सकते। किंतु फिर भी हमें लेबल लगाना पड़ता है। यह एक अनिवार्यता है। मन काम ही नहीं कर सकता बिना लेबल लगाए। इसलिए मन वस्तुओं को नाम देता चला जात है। यह जो लेबल लगाया हुआ है संसार है, यही यह है-यह संसार जो कि नामों से निर्मित हुआ है। और जो जगत बिना किसी लेबल के, बिला नामों के है, वही वह है-बिना नाम का, अनाम अव्याखयेय, असीम।
आपका नाम है। यही लेबल लगाना है, अतः आपका नाम इस का हिस्सा हुआ। आप पुरुष हैं या स्त्री हैं-यह भी लेबल है, इसलिए आपका पुरुष होना, स्त्री होना भी इस का हिस्सा हुआ। यदि आपके लेबल समाप्त न हों, तो फिर कोई वह नहीं है। परंतु यदि आप ऐसा अनुभव करते हैं कि आप हैं लेबल के भी पार; यदि आप ऐसा महसूस करते हैं कि आपका लेबल लगाना केवल परिधि पर है और कोई केंद्र है जो बिना किसी लेबल के है, अनछुआ है; यदि आपको लगता है कि स्त्री अथवा पुरुष होना भी केवल लेबल लगाना ही है, यह युवा और बुद्ध होना भी लेबल लगाना ही है; यह सुंदर और कुरूप भी लेबल लगाना ही है; यह स्वस्थ और अस्वस्थ भी लेबल लगाना ही है; यदि आप अपने भीतर कुछ ऐसा अनुभव कर सकते हैं जो कि बिना लेबल का है, तो फिर आपने उस का, दैट का आयाम स्पर्श किया है।
अतः लेबल लगाया हुआ, नाम वाला संसार है यह, और वह, दैट बिना लेबल वाला, अनाम है। यह मन का प्रदेश हैः कर्म, चिंतन, तर्क, गणित, हल। वह तो रहस्य का जगत है। यदि आप उस तक तर्क से पहुंचने की कोशिश करें, तो आप नहीं पहुंच सकते, क्योंकि तर्क रहस्य के खिलाफ है-एंटी-मिस्ट्री। और जब मैं कहता हूं एंटी-मिस्ट्री तो मेरा मतलब है कि तर्क रहस्य के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। वह केवल स्थिर, मृत, नाम वाले संसार में ही काम कर सकता है।
एलिस वंडरलैंड में गई तो वह बहुत घबड़ा गई। एक घोड़ा आ रहा है और अचानक घोड़ा गाय में बदल जाता है, वैसे ही जैसे सपने में होता है। आप सपने में कभी ऐतराज नहीं करते। क्या कभी ऐतराज किया है आपने? आप कुछ देखते हैं और अचानक वह बदल जाता है बिना किसी कारण के। कारण की बात सपने में कभी भी पैदा नहीं होती। एक घोड़ा गाय हो सकता है और आप कभी भी नहीं पूछते कि क्यों और कैसे ऐसा हुआ। कोई भी सपने में नहीं पूछता। आप पूछ ही नहीं सकते। यदि आप पूछ लग, तो आप सपने से बाहर आ जाएंगे; नींद टूट जाएगी। किंतु सपने में संदेह कभी पैदा नहीं होता।
क्यों? यदि आप किसी सड़क पर जा रहे हों और अचानक एक घोड़ा गाय हो जाए और एक कुत्ता आदमी हो जाए, यदि आपको पति या पत्नी कुत्ता हो जाए, तो आप उसको स्वीकार नहीं करेंगे। वह मन के लिए असंभव बात होगी। परंतु सपने में आप बिना किसी हिचकिचाहट के मान लेते हैं-बिना किसी संदेह के, बिना किसी प्रश्न के स्वीकार कर लेते हैं। क्यों? स्वप्न में तार्किक कोटियां काम नहीं कर रही होती हैं। क्यों वहां अनुपस्थित है, संदेह वर्जित है, नामों का संसार गैरहाजिर है। इसलिए, सचमुच, एक घोड़ा गाय होता है और कोईप्रश्न भी नहीं उठता। घोड़ा ऊंट बन सकता है और गाय हो सकता है। वह एक बहता हुआ जगत है।
इसलिए उस वंडरलैंड में एलिस बहुत घबड़ा गई। प्रत्येक चीज दूसरी चीज में बह रही थी-कुछ की कुछ हो रही थी। इसलिए उसने रानी से पूछा-यह सब क्या है? क्यों चीजें बदल रही है? और मैं यहां कैसे रह सकूंगी? कुछ भी तो निश्चित नहीं है यहां पर-कोई भी वस्तु कुछ भी हो सकती है और किसी भी क्षण वह बदल सकती है। कुछ भी तो तय नहीं है, फिर मैं यहां कैसे काम करूं, कैसे रहूं? रानी कहती है-यह जीवंत संसार है। यह मृत नहीं है। तुम एक मृत संसार आ रही हो, इसीलिए तुमको यह कठिनाई मालूम हो रही है। यहां चीजें जीवंत हैं। अ यहां ब हो सकता है। यहां पर कोई वर्ग ही नहीं है। सब कुछ बड़ता हुआ है और सब कुछ में बहता हुआ है। यह एक जिंदा जगत है, तुम एक मरे हुए संसार से आ रही हो।
हम भी एक मृत संसार में रहते हैं। वह मृत संसार ही यह है। यदि आप उस जीवंत धारा को इस मृत संसार के पार अनुभव कर सकें, तो समझ लें आपने उस को अनुभव किया। किंतु ऋषियों ने उसे कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि नाम देना फिर एक लेबल लगाना हो जाता है। यदि आप कहते हैं कि वह परमात्मा है, तो आपने लेबल लगा दिया, तक फिर परमात्मा भी इस का हिस्सा हो जाता है।
शंकर ने कहा है कि परमात्मा भी माया का ही हिस्सा है। यह सोचा भी नहीं जा सकता एक ईसाई अथवा यहूदी मस्तिष्क के द्वारा जिसके लिए कि परमात्मा का मतलब होता है सुप्रीम रीयालिटी-सर्वश्रेष्ठ सत्य। परंतु हिंदू के लिए परमात्मा सब से बड़ा सत्ता नहीं है, क्योंकि उस सुप्रीम को, उस सर्वश्रेष्ठ को कोई भी नाम नहीं दिया जा सकता। जैसे ही आप कोई नाम देते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ नहीं रहता। आपने उसे नाम दिया और वह इस का हिस्सा हुआ। हिंदुओं ने बड़ी चेष्टा की है और इंगित करने की कोशिश की है, किंतु परिभाषा करने का प्रयत्न कभी नहीं किया।
वह तत, दैट एक संकेत है। यदि आप कहते हैं कि यह परमात्मा है, तो आपने परिभाषा कर दो। वह एक वर्ग में शामिल हो गया। इसीलिए बुद्ध चुप ही रहे। उन्होंने तो वह का भी उपयोग नहीं किया, क्योंकि उन्होंने कहा कि यदि आप वह का भी उपयोग करें, तब भी वह इस का ही इशारा करता है। उस का दैट का, उपयोग करना भी इस का ही संकेत देता है और वह जो आत्यंतिक सत्ता है, अल्टीमेट रीयालिटी है, वह किसी के भी संदर्भ में नहीं हो सकती। यदि हम कहते हैं कि वह प्रकाश है, तो वह अंधेरे की ओर इशारा हो जाता है, वह अंधकार से संबंधित है। उसका अर्थ केवल अंधकार के संदर्भ में है, इसलिए वह भी पार की बात नहीं है। इसलिए बुद्ध चुप ही रहे। उन्होंने वह भी नहीं कहा।
वह अंतिम शब्द है जिसका कि उपयोग किया गया है। परंतु बुद्ध ने महसूस किया कि वह कहना भी ठीक नहीं है, इसलिए वे इस को मना करेंगे, इस को नष्ट करेंगे और कभी भी उस, को खड़ा नहीं करेंगे। वे जोर देंगे कि इस को नष्ट कर दो, पर उसके बाद क्या? किंतु तब चुप हो जाएंगे। इसके बाद फिर, तब वे चुप, मौन हो जाएंगे। वे कहेंगे-इस को मिटा दो और फिर-फिर कुछ घटित होगा। परंतु तब कोई नहीं जानता कि क्या घटित होता है। तब, उसके बाद बुद्ध भी नहीं जानते। वे कहा कहते थे कि उसके बाद तो बुद्ध भी नहीं जानते कि क्या होता है, क्योंकि तब कोई बुद्ध ही नहीं रहते, जानने के लिए। इस को मिटाओ, और उस के बारे में न पूछो।
जब वे किसी नई जगह पर पहुंचते थे, तब उनके भिक्षु गांव में घोषणा करने चले जाते थे कि ग्यारह प्रश्न हैं जिनके कि बुद्ध उत्तर नहीं देंगे। इसलिए कृपया उन्हें न पूछें। पहेली बात जो वे कहते, वह यह थी कि उस के बारे में न पूछें, क्योंकि इसका उत्तर दिया जा सकता है। इस के बारे में प्रश्न पूछें, उस के बारे में कोईप्रश्न न पूछें।
मुझे एक सूफी रहस्यवादी बायजीद के बारे में स्मरण है। एक दिन वह कह रहा था कि उस के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसका गुरु यह सुनकर कमरे से बाहर चला गया। उसका गुरु बहुत बूड़ा वे बिना पड़ा-लिखा आदमी था। इसलिए बहुत से शिष्य जो कि वहां बैठे थे, उन्होंने सोचा कि बूड़ा चूंकि कुछ समझ न सका इतनी गहरी बात को, इसलिए उठकर बाहर चला गया। बायजीद रुका उसी क्षण, गुरु के पीछे भागा और उससे पूछा कि क्या मुझसे कोई भूल हो गई? गुरु ने कहा-हां! इतना कहना कि उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, कुछ कहना हो गया! तुमने कुछ बतला सकते हैं? किंतु मैंने सुना है, प्रश्नकर्ता ने कहा कि उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, शब्द उपयोग में नहीं लाए जा सकते, भाषा बेकार है। इसलिए मुझे कुछ इस तरह से कहो उसके बारे में कि वह बिना शब्दों के हो। मारपा हंसने लगा और बोला-मैं तुम्हें जरूर कहूंगा, किंतु बना शब्दों के ही पूछो, उस के बारे में बिना शब्दों के ही पूछो और मैं तुम्हारा उत्तर अवश्य दूंगा। परंतु प्रश्न पूछने वाले ने कहा कि मैं बिना शब्दों के कैसे पूछ सकता हूं? मारपा ने कहा कि वह तुम्हारी समस्या है न कि मेरी। मेरी तो तब शुरू होगी, जब कि मैं उत्तर दूंगा। इसलिए जाओ और पहले पता लगाओ।
यह गंभीर मामला था, यह कोई मजाक नहीं था। जो आदमी पूछने आया था, इस बारे में गंभीर था। वह चला गया और उसने सोचा प्रयत्न किया। उसने हर तरह से विचार किया कि कैसे बिना शब्दों के पूछे। सचमुच, मारपा सही है। यदि आपको उत्तर निःशब्द में ही चाहिए, तो आपकोप्रश्न भी निःशब्द में ही पूछना पड़ेगा। उसने ध्यान किया, चिंतन किया, विचार किया उसके लिए, परंतु यह असंभव है। बिना शब्द के कैसे पूछे? साल गुजरे, और इस जगत खोज के कारण कि कैसे बिना शब्द के पूछे, उसके विचार गिर गए। वह आदमी खाली हो गया।
एक दिन अचानक मारपा उसके घर का दरवाजा खटखटा रहा था, उस आदमी ने दरवाजा खोला। मारपा वहां खड़ा हुआ हंस रहा था, मुस्कुरा रहा था। मारपा कहता है, तुमने पूछ लिया है और मैंने उत्तर दे दिया है। और वे दोनों हंस पड़े। और उस दिन से वह पूछने वाला मारपा के पीछे-पीछे चलने लगा उसकी परछाइृध! को तरह, लगातार हंसता हुआ। मारपा एक गांव से दूसरे गांव जाता और वह व्यक्ति उसके पीछे-पीछे उसकी छाया की तरह हंसता हुआ जाता। जो कोई उनको मिला उसने पूछा-यह आदमी क्यों हंस रहा है? मारपा कहता-इसने पूछ लिया है बिना शब्दों के और मैंने उत्तर दे दिया है बिना शब्दों के। इसलिए हंसी आ रही है।
तर्क की कोटियां, तार्किक वर्ग काम नहीं देंगे, क्योंकि तर्क विचार में होता है; रहस्य होता है निर्विचार में। आप रहस्य तक पहुंच ही तब सकते हैं, जब कोई विचार न हो। जब आप रहस्य से संबंधित होते हैं, तो सारे सेतु गिर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। सारे अंतराल मिट जाते हैं, कोई भी विचार तब नहीं होता। इसलिए एक दूसरे आयाम से इस का अर्थ होता है विचार का संसार और उस का मतलब होता है निर्विचार का जगत। यदि आप निर्विचार की अवस्था में हों, तो उस में होते हैं। यदि आप विचार में हैं, तो आप इस में हैं। जब आप विचार में हैं, तब आप अपनी सत्ता में, बीइंग में नहीं है। जब आप विचार में हैं, तो आप स्वयं से दूर की यात्रा पर हैं। जितने गहरे आप विचार में जाते हैं, उतने ही आप अपने से अधिक दूर चले जाते हैं। अतः एक विचारक कभी भी जानने वाला नहीं होता-कभी भी नहीं। एक विचारक केवल सपना देख रहा होता है।
आपने राडिन की बनाई मूर्ति देखी होगी जिसका कि नाम है दि थिंकर-विचार करने वाला। एक आदमी बैठा है और विचार में डूबा हुआ है। उसका एक हाथ उसके सिर पर है, सिर नीचे झुका हुआ है। यह एक धारणा है-विचारक की-पश्चिमी धारणा। आदमी बहुत चिंतित है, तना हुआ है, परेशान है, उसकी हर एक नस तनी हुई है। वह सोच में डूबा है। भीतर किसी भारी चिंता में संलग्न है, और कठिन प्रयास चल रहा है। वह चिंतन कर रहा है। उसकी हर एक मांसपेशी, हर एक नस तनाव में है। वह बहुत दूर चला गया है।
एक दूसरी तस्वीर है, एक झेन, एक चीनी चित्र है विचारक का। अच्छा हो कि उन दोनों को साथ-साथ रखकर ध्यान किया जाए। विचारक का चीनी चित्र तनाव से भरा हुआ नहीं है, विश्राम में है। कुछ भी नहीं हो रहा है। और चीनी शीर्षक है-यह एक विचारक है। यह एक विचारक है, क्योंकि यह कुछ भी हनीं सोच हर है। कोई विचार नहीं चल रहे हैं। केवल चेतना बची है, कोई समस्या, कोई संघर्ष कहीं भी नहीं चल रहा है। वह सोच नहीं रहा है; वही विचारक है। केवल विचार करने वाला ही बचा है, न कि विचार। राडिन की प्रतिमा, में विचार है, चिंतन चल रहा है, किंतु विचार करने वाला नहीं है; केंद्र नहीं है, केवल परिधि है। जहां बहुत कुछ है काम, प्रयत्न, किंतु केंद्र ढका हुआ है, धूमिल है।
विचारक के चीनी चित्र में केवल केंद्र ही केंद्र है-अपने में ठहरा हुआ, कोई यात्रा नहीं है। चेतना कहीं नहीं गई है। वह अपने में ठहरी हुई है। राडिन की विचारणा की धारणा में आप इस को स्पर्श करेंगे और चीनी झेन चित्र में आप उस को स्पर्श करेंगे। यदि आप विचार कर रहे हैं, तो जानना संभव नहीं है, क्योंकि आप एक ही बात कर सकते हैंः या तो विचार कर सकते हैं अथवा जान सकते हैं। मस्तिष्क एक साथ दो बातें नहीं कर सकता। या तो आप विचार कर सकते हैं या आप जान सकते हैं। यह ऐसा ही है कि या तो आप दौड़ सकते हैं, या खड़े हो सकते हैं। आप दोनों एक साथ नहीं कर कसते। यदि कोई कहता है कि मैं खड़ा हुआ हूं जब दौड़ रहा हूं, तो वह वैसी ही मूर्खतापूर्ण बात कह रहा है, जब हम सोच रहे हैं या कह रहे हैं-मैं जान रहा हूं, जबकि मैं विचार कर रहा हूं।
आप जान ही नहीं सकते, क्योंकि जानना खड़े होना है और विचार करना दौड़ना है, एक विचार से दूसरे पर। वह एक प्रक्रिया है। आप दौड़ते और कूदते जाते हैं; कूदते और दौड़ते जाते हैं। यदि आप भीतर स्थिर खड़े हो जाए, कोई दौड़ना नहीं हो, तो वह केंद्र पर होना होगा। जैसे कि, उदाहरण के लिए, बैठने में होता हैः जापान में इसे वे जा-झेन कहते हैं। इसका अर्थ होता है-मात्र बैठना। ध्यान के लिए जापानी शब्द है-जा-झेन। इसका मतलब होता है-केवल बैठना और कुछ नहीं करना, यहां तक कि ध्यान भी करना। क्योंकि यदि आप ध्यान भी कर रहे हों, तो वह भी कुछ करना हो गया। जापानी कहते हैं, यदि तुम ध्यान भी कर रहे हो, तो तुम दौड़ रहे हो। ध्यान भी मत करो, कुछ भी न करो। केवल हो। यदि आप बिना कुछ किए हो सकते हो, तो आप उस में गिर जाते हैं, क्योंकि सोचना-विचारना, विचार की प्रक्रिया, तर्क आदि सब यह हैं।
सोचना अज्ञान की प्रक्रिया है। आप सोचते हैं, क्योंकि जानते नहीं हैं। यदि आप जानते ही हैं, तो सोचने की कोई जरूरत नहीं है। आप सोचते ही इसलिए हैं कि जानते नहीं हैं। यह अंधेरे में टटोलने जैसा हुआ। सोचना एक बहुत ही तनाव की प्रक्रिया है-बहुत ही अधिक तनाव की स्थिति। और जितने अधिक आप भीतर तनावपूर्ण होते हैं, उतने ही कम आप केंद्र से संबंधित होते हैं। केवल हो, विश्राम में हों। कहीं भी न जाए, अपने में रुक जाए, और अचानक आप उस में होते हैं।
यह सूत्र कहता है-उसी की प्रतीति सब जगह, केवल यही एकमात्र सुगंध है। एकमात्र भागवत सुगंध-उसी की प्रतीति सब जगह। किंतु आप सब जगह उसी को कैसे अनुभव कर सकते हैं? यदि आपने अपने भीतर से ही उसका अनुभव न किया हो, यदि आपने अपने अंतर में ही उसे महसूस न किया हो, तो आप सब कहीं उसे कैसे अनुभव करेंगे? सबसे पहले उसकी प्रतीति आपके केंद्र पर होनी चाहिए, तभी वह बाहर जा सकती है, तरंगों में चारों तरफ, सब कहीं। एक बार आपने इस सुगंध को भीतर लिया, तो अचानक आप उसे सब जगह पाएंगे। तब यह तो ऊपरी दिखावा है और वह ही सब जगह छिपा है। अतः इसे समझ लेना चाहिए कि जब तक आप उसे भीतर नहीं जान लेते, आप उसे बाहर नहीं जान सकते। जब तक कि आप उसे भीतर नहीं पा लेते, आप उस तक बाहर भी नहीं पहुंच सकते। इसलिए आपको सर्व प्रथम भीतर ही गिरना पड़ेगा-उस में, अन्यथा आप एक बड़ी भारी भ्रांतिपूर्ण स्थिति निर्मित कर लेंगे।
बहुत से धार्मिक लोग कही कर रहे हैं। बिना अंतर को जाने आप सोचने लग जाते हैं कि वह तो सब जगह है-वृक्षों में, घरों में, आकाश में, तारों में, सूरज में, सब जगह। आप सोचते चले जाते हैं, किंतु वह केवल सोचना मात्र है। आप विचार करते चले जाते हैं कि वह सब कहीं है और आप एक मिथ्या प्रतीति को उपलब्ध होते हैं सतत यह सोचकर कि वह सब कहीं हैं।
यह एक आरोपण है, एक प्रक्षेपण है-और मन समर्थ है इसके लिए। वह प्रक्षेपित कर सकता है। किंतु प्रक्षेपण आपको उस तक नहीं ले जाएगा। आप उस का सपना देख रहे हैं, बिना उसे जाने, बिना उसे अनुभव किए, बिना उसे जिए। इसलिए बार-बार पुनरुक्त करके आप अपने को आत्म-सम्मोहित कर सकते हैं कि वह सब जगह उपस्थित है। आप सोचते चले जाते हैं, आप दोहराए चले जाते हैं कि उसे हर पत्थर में अनुभव कर रहे हैं।
इसका परीक्षण करें; यह एक अच्छा प्रयोग है। इक्कीस दिन तक लगातार कोशिश करें और ऐसा अनुभव करें कि वह परमात्मा सब जगह है-हर पत्ते में, हर पत्थर में। जो कुछ भी आपके दिमाग में आए, स्मरण रखें कि यह वह है, लगातार तीन सप्ताह तक, और आप अपने चारों ओर एक विशेष भ्रांति निर्मित कर लेंगे। आप एक बहुत ही तीव्र इफोरिया दृर्षोन्माद की स्थिति में होंगे जैसे कि एल एस डी या मेस्केलीन या मारिजुआना आदि लेने से हो जाती है। किसी अनुभव के बार-बार होने पर आप बिना रासायनिक मादक द्रव्य के भी प्रक्षेपण कर सकते हैं। मन स्वयं अपने रासायनिक द्रव्य बना सकता है।
किंतु यह बहुत कठिन है। मादक द्रव्यों से बहुत सरल है। परंतु प्रक्रिया वही है, आप एक गोली लेते हैं और स्वर्ग तुरंत चला आता है। इसका क्या मतलब होता है? इसका इतना ही मतलब है कि आपके जो रक्षा के उपाय थे उन्हें मादक द्रव्यों ने गिरा दिया, आपकी तर्कणा, आपकी विचारने की शक्ति को गिरा दिया। आप एक जाग्रत-स्वप्न की हालत में रासायनिक शक्ति की भांति। आप एक जाग्रत सपने में हैं। एल एस डी में भी आप जागते हुए सपना देखते हैं।
टिमोथी लियरी ने एक पुस्तक लिखी है, तिब्बती रहस्य वादियों की तुलना एल एस डी लेने वाली के साथ करते हुए, और उसने कहा है कि ऐसा ही अनुभव होता है। वह मारपा और मिलरेपा के बाबत कहता है-और कबीर, इकहार्ट, हुआंग-पो या हुई-हाई और बायजीद व राबिया के बारे में कहता है कि जो कुछ भी वे जानते थे अथवा जाना, वह बिल्कुल एल एस डी के अनुभव के सदृश है। और टिमोथी लियरी ठीक कहता है एक तरीके से, फिर भी वह आधारतया गलत है। वह सही है एक तरह से, क्योंकि अनुभव एक जैसे होते हैं, किंतु वही नहीं होते।
जब आप एक मादक पदार्थ लेते हैं जो कि आपके मन को, तर्क को, बुद्धि को नीचे गिरा देता है, तो आप वैसे ही हालत में होते हैं, जैसी कि आप रात नींद में होते हैं। अंतर केवल इतना ही होता है कि आप जाग्रत स्वप्न की अवस्था में होते हैं। आप जाग रहे हैं, फिर भी सपना देख रहे हैं, इसलिए यदि कोई घोड़ा गाय बन जाता है, तो कोई समस्या खड़ी नहीं होती। और यह जाग्रत-स्वप्न सारी वास्तविकता को नया ही इंद्रधनुषी रंग दे देता है। प्रत्येक चीज ताजा हो जाती है। सारे लेबल गिर जाते हैं आपका सपना सारे विश्व पर फैल गया होता है। अब जो कुछ भी भीतर रासायनिक रूप से ही रहा होता है, वही बाहर भी प्रक्षेपित हो जाता है।
बाहर जो रंग आप देखते हैं, वे आपके ही मन के द्वारा भीतर प्रक्षेपित किए गए हैं। सब जगह आपके सपने प्रक्षेपित होगा। और इसलिए एल एस डी सब को एक जैसा अनुभव नहीं देगी। एक कवि बहुत ही काव्यात्मक अनुभूतियां प्राप्त करेगा। किंतु एक हत्यारा वही अनुभव नहीं करेगा कोई एकदम ही स्वर्ग को पा सकता है, और कोई नर्क में गिर सकता है। जो कुछ भी भीतर होगा, वही अब बाहर प्रक्षेपित होगा।
वही बात लगातार दोहराने से वास्तविक जैसी हो सकती है। यदि आप किसी भाव को लगातार दोहराते चले जाए, आप उसे प्रक्षेपित कर सकते हैं। आप इस संसार में ऐसे ही रह सकते हैं, जैसे कि यह संसार वास्तविक है। परंतु जब तक कि आपने उसे भीतर से नहीं जान लिया, वह एक झूठी घटना होगी। किसी दिन भी जब दोहरना बंद करेंगे, आपका सम्मोहन गिर जाएगा।
आप इस प्रक्रिया में जन्मों-जन्मों तक रह सकते हैं। यह स्वयं के द्वारा ही शुरू की गई है, इसीलिए यह इतनी सुंदर है। इसलिए उसे याद रखें-कि आपकोप्रक्षेपण नहीं करना है। आपको तो भीतर से जानना है, न कि बाहर प्रक्षेपित करना है। प्रक्षेपण के लिए विचारने की आवश्यकता पड़ेगी। जिसे कि वास्तविकता पर आरोपित करना पड़ेगा। वह वास्तविकता के साथ बलात्कार होगा। और आप अपने को आत्म सम्मोहित भी कर सकते हैं। किंतु यह एक सपना ही है। वास्तविक चीज तो है-आंतरिक विचारणा व सोचना बंद होना। बादलों कोफेंक दिया जाना चाहिए। आपका आंतरिक केंद्र बादलों रहित आकाश को पहुंचना चाहिए। आपका भीतरी केंद्र बिना किसी कृत्य के होना चाहिए, और सोचना विचारना एक कृत्य है।
परंतु यदि आप समग्र रूप से अचेत हो जाते हैं, तब भी विचारना रुक जाता है। यदि आप मूर्च्छित हो जाते हैं, तो फिर यह किसी उपयोग का नहीं। आप केवल एक गहरी निद्रा में चले गए। बाहर प्रक्षेपण करके आप जाग्रत-स्वप्न की अवस्था में गिर गए। किंतु यदि आप भीतर के सारे विचारों को रोक सकें और मूर्च्छित हो जाए, तो आप एक गहरी निद्रा में पड़ गए। इससे कुछ नहीं होगा।
एक तीसरी बात करनी होगी-कोई विचारना नहीं, व कोई मूर्च्छा नहीं। यही आधारभूत सूत्र है-कोई विचारना नहीं और कोई मूर्च्छा नहीं। पूरे जाग्रत हों, बिना किन्हीं विचारों के। तब आप केवल उसे जान ही नहीं पाते, बल्कि वही हो भी जाते हैं। आप उसके साथ एक हो जाते हैं। और एक बार उस का स्वाद मिल गया, तो फिर वह स्वाद कभी नहीं छोड़ता। एक बार अनुभव में आ जाए वह, फिर कभी नहीं छोड़ती, क्योंकि तब आप रूपांतरित हो गए होते हैं। आप वही फिर नहीं होते हैं। और जब आपने उसे जान लिया, उसे भीतर अनुभव कर लिया, तब आंख खोलें और बाहर वही वही सब जगह होता है। अब सब कुछ आपके लिए मात्र दर्पण हो जाता है। आपको उसके लिए सोचना नहीं पड़ता, उसकी कोई जरूरत नहीं है। आपको याद रखने की आवश्यकता नहीं है कि वह सब जगह है।
उसकी आंतरिक अनुभूति सब जगह प्रतीत होने लगती है। वस्तुतः भीतर और बाहर गिर जाता है। तब आपका अंतर ही बाहर भी होता है। तब फिर सारा भेद भीतर और बाहर का अर्थहीन हो जाता है। एक बार आपने उस असीम अंतर को जान लिया, वही बाहर भी हो जाता है। तब एक बहुत ही अलग भाव आता है। तब ऐसा नहीं होता कि आप भीतर हैं और आप बाहर नहीं हैं; तब आप सब कहीं हैं। भीतर और बाहर दोध्रुव हैं एक ही वास्तविकता के-उस के। एक ध्रुव पहले भीतर की तरह जाना जाता था, और दूसरा ध्रुव बाहर की तरह जाना जाता था। आप दोनों में फैल गए हैं। वे दोनों ही आपके ध्रुव हैं। यह भीतर का जानना ही सच्चा प्रामाणिक धर्म है।
और यह सूत्र कहता है कि सब कहीं उसकी अनुभूति ही गंध है, एकमात्र सुगंध है। यदि किसी को जानना हो, यदि किसी को उस भागवत सुगंध में जीना हो, उस आनंद में, तो यह उसके लिए मार्ग है। ऋषि क्यों कहता है कि उसकी सब जगह प्रतीति ही सुगंध है? यदि आप पूजा करने भी जाते हैं, तब आप पुष्प ले जाते हैं। यह एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। सामान्य फूल पूजा के लिए काम नहीं देंगे। यह सुगंध अपने साथ ले जाए-यह उसी की अनुभूति सब कहीं-तभी केवल आपकी पूजा प्रामाणिक होगी। अन्यथा वह एक झूठा प्रदर्शन होगा। साधारण फूल से काम नहीं चलेगा।
इस सुगंध को अपने साथ ले जाए, जब आप पूजा के लिए जा रहे हों। किंतु तब कोई जाना नहीं है, क्योंकि तब कोई मंदिर नहीं है। तब सब कुछ ही मंदिर हो गया है। यदि आप उसे सब जगह महसूस करते हैं, तब कहां है मंदिर? तक कहां है मक्का, कहां है काशी? तब वह सब जगह है। तब सारा अस्तित्व ही मंदिर बन जाता है। इस सुगंध को
परंतु वास्तव में, ऋषि बहुत गहरी बात कर रहा है अपनी प्रतीकात्मकता में भी। वह नहीं कहता कि पुष्प; वह कहता है कि सुगंध, क्योंकि फूल फिर उसी सुगंध के हिस्से हैं, उस के हिस्से हैं। एक फूल पैदा होता है और मर जाता है, एक सुगंध तो सदैव ही है। आप उसे जान सकते हैं और नहीं भी जान सकते हैं।
एक फूल तो भौतिक जगत का ही प्रकट रूप है, सुगंध उसका आध्यात्मिक रूप है। आप फल को हाथ में पकड़ सकते हैं, किंतु आप सुगंध को हाथ में नहीं पकड़ सकते। एक फूल खरीदा जा सकता है, किंतु सुगंध कभी भी नहीं। फूल सीमित है, किंतु सुगंध असीम है। फूल तो कहीं एक स्थान पर है, परंतु सुगंध तो सब जगह बड़ती है। आप नहीं कह सकते कि वह यहां है, आप नहीं कह सकते कि वहां है। वह तो सभी जगह है। वह तो आती चली जाती है। इसीलिए ऋषि कहता है फूल नहीं, किंतु गंध। इस गंध को अपने साथ ले जाओ, तभी केवल तुम वास्तविक मंदिर में प्रवेश कर सकोगे, क्योंकि मंदिर की प्रामाणिकता मंदिर पर निर्भर नहीं है, वह तुम पर निर्भर करती है। यदि तुम प्रामाणिक हो, तो मंदिर भी प्रामाणिक हो जाता है। तब कोई भी मंदिर, कोई भी स्थान काम दे देगा। उससे फिर कोईफर्क नहीं पड़ता है।
मैंने हसन के बाबत सुना है, कि उनसे एक मस्जिद में सत्तर वर्ष तक इबादत की। सारा गांव हसन की सत्तर वर्ष की इबादत से इतना अवगत था कि वास्तव में मस्जिद व इबादत करने वाला एक ही हो गए थे। गांव का कोई भी व्यक्ति हसन के बिना मस्जिद और मस्जिद के बिना हसन के बार में सोच भी नहीं सकता था। वह पांच बार दिन में वहां जाता। वह अपने गांव से कभी नहीं हिला-कभी भी नहीं, क्योंकि यदि वह कहीं भी जाए, तो दूसरी तो कोई मस्जिद थी नहीं, तो अपने प्रार्थना कहा करता? और पांच बार, सारे दिन वह अपने इबादत में डूबा रहता। यहां तक कि यदि वह कभी बीमार भी होता, तो भी वह नहीं चूकता, वह मस्जिद तो आता ही।
एक दिन सुबह जब उसे मस्जिद में नहीं देखा गया, तो सारे दुआ करने वालों ने सोचा कि एक ही बात संभव है कि हसन मर गया है, दूसरी कोई संभावना ही नहीं। उसने सालों-सालों में कभी नमाज नहीं छोड़ी थी। नमाज के वक्त हसन मस्जिद में होता। इसलिए सारा समुदाय दुआ करने वालों का हसन की झोपड़ी पर गया। उन्होंने सोचा था कि यह तो पक्का ही है कि हसन मर गया है, वरना कुछ भी ऐसा नहीं है जो किस उसे रोक रखता। किंतु हसन मरा नहीं था। वह बूड़ा आदमी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था।
लोग बिल्कुल नहीं समझ सके। उन्होंने कहा-तुम यहां क्या कर रहे हो? क्या तुम बुड़ापे में सठिया गए हो? क्या तुमने नमाज पड़ना छोड़ दिया है? तुम क्यों नहीं आए? हमने सोचा कि तुम मर गए हो, किंतु तुम तोजिंदा हो! यदि हमने तुम्हें मरा हुआ भी पाया होता, तो भी इतना आश्चर्य नहीं होता, परंतु तुम तो जीवित हो। यह बड़ा आश्चर्यजनक है और हम कुछ समझ नहीं पा रहे। हसन ने कहा कि मैं रोज मस्जिद जा रहा था, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि उसका मंदिर कहा है। किंतु मुझे पता चल गया है। उसका मंदिर यहां ही आ गया है, देखो। वह यहां है-सब जगह।
परंतु वे गांव वाले नहींदेख पाए। उन्होंने सोचा कि वह पागल हो गया है। परंतु मंदिर की प्रामाणिकता, मंदिर की वास्तविकता तो तुम पर निर्भर करती है। एक झूठा भक्त वास्तविक मंदिर नहीं खोज सकता। जहां कहीं भी वह जाता है, वह अपने ही झूठ में चलता है। सारे मंदिर झूठे हो गए हैं इन झूठे पूजा करने वालों के कारण से। जहां कहीं भी वे जाते हैं, वे अपना सारा झूठ अपने साथ ले जाते हैं।
ऋषि कहता है-उसकी प्रतीति सब जगह, यही एक मात्र गंध है। उसके पास जाओ, उसके चरणों में पड़ जाओ, इस गंध के साथ। किंतु तब कोई जाना नहीं होता। तब जहां कहीं भी आप होते हैं, आप उसी की उपस्थिति में हैं। यदि गंध भीतर मौजूद है, तो उसकी उपस्थिति बाहर है। यदि आप उसकी भावना के भाव से भरे हैं, तो फिर कोई खोज नहीं है।
बोकूजू, एक जैन गुरु ने कहा है कि संसार की निर्वाण है-यह संसार ही अंतिम है, उल्टीमेट है। जब उसने पहली बार ऐसा कहा, तो खुद के शिष्य बड़े मुश्किल में पड़े। और वे कहने लगे-आप क्या कह रहे हैं? यह संसार ही निर्वाण है! यह संसार ही अंतिम है। यह संसार ही ब्रह्म है। आप कह क्या रहे हैं? बोकुजू ने कहा कि जब मैं नहीं जानता था, जब मैं अनभिज्ञ था, तब ही सारा भेद था। किंतु अब जब मैंने जान लिया है उसे, तो सारे भेद, सारे विभाजन विलीन हो गए हैं। अब सभी कुछ वही है।
अतः अंतिम बात यह और वह के विभाजन भी अज्ञानी के लिए हैं और उसी के बनाए हैं। आप केवल इसे ही जानते हैं, और वह की, उसकी तो केवल धारणा है। जब आपको उसका पता चल जाता है, तो इसकी धारणा रोजमर्रा की बात हो जाती है-एक वास्तविकता। यदि आप केवल इसे ही जानते हैं, तब वह केवल एक धारणा ही होती है-एक दार्शनिक धारणा। यदि आप उसको जान लें, तो यह विलीन हो जाता है। उसको जान लेने का मतलब यह भी नहीं होता कि संसार वहीं खो जाता है, वह तो रहेगा, परंतु आपके लिए वह यह नहीं रहेगा वह ‘वह’ हो जाएगा।
मोहम्मद के एक शिष्य अली को किसी ने पिटा, तो वह बेहोश हो गया। उसे इतना पीटा गया कि वह बेहोश हो गया। जिस व्यक्ति ने उसे पीटा था, वह निकल गया। जब दूसरे लोग आए, तो अली को उन्होंने वहां नहीं पाया। तब उन्होंने उसे गली में बेहोश पड़े पाया। सब ने उसकी सेवा की; कोई पानी लाया, कोई कुछ और इस तरह सब ने सेवा की। फिर अली होश में आ गया। कोई पंखा कर रहा था, कोई उसके पास बैठा उसका सिर थपथपा रहा था। जो आदमी उसके पास बैठा था, उसने उससे पूछा-क्या तुम होश में आ गए हो? क्या तुम इस आदमी को पहचानते हो, जो कि तुम्हें पंखा कर रहा है? वह इसलिए पूछ रहा था कि पता चले कि क्या अली होश में आ गया था।
अली ने कहा कि मैं इसे कैसे नहीं पहचान सकता? मैं जानता हूं कि यह वही है, जो मुझे पीट रहा था। जिसने पूछा था उसने सोचा कि अली अभी भी बेहोश है, क्योंकि वह आदमी तो भाग गया था और जो आदमी उसे पंखा कर रहा था और उसे होश में लाने के लिए सेवा कर रहा था, कैसे वही आदमी हो सकता था! उस आदमी ने कहा-अली, तुम अभी भी बेहोश हो। यह वह आदमी नहीं है। अली ने कहा-कैसे यह वही नहीं है! मैं सिवा उसके किसी और को देख ही नहीं सकता हूं। इसलिए जब वह मुझे पीट रहा था, तो मैं जानता था कि वह कौन था, और जब कि वह मेरी सेवा कर रहा है तब भी मैं जानता हूं कि वह कौन है। वे दोनों ही वही हैं!
यह अद्वैत धारणा है, अद्वैत भावना। जब आप उसे जानते हैं तो यह गिर जाता है। जब आप इसे जानते हैं, तो वह सिर्फ एक धारणा ही होता है कहीं। किंतु आपको तो वहीं से शुरू करना होगा, जहां से आपकोप्रतीति होती है। कहीं और उसको खोजने मत जाना, अन्यथा यात्रा बहुत लंबी हो जाएगी। और आप बहुत पहुंच सकते हैं, और नहीं भी पहुंच सकते हैं। पूरे के पूरे पीछे मुड़ जाएं, और अपने ही केंद्र में उसे खोजें।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, रात्रि, दिनांक 1 जून, 1972

1 टिप्पणी: