दूसरा प्रवचन--(जो मिटेगा, वही पायेगा)
कल संध्या एक बात मैंने आपसे कही थी। उस संबंध में बहुत-से प्रश्न उपस्थित हुए हैं। मैंने कल आपको कहा कि ईश्वर मर गया है और वह घटना सौभाग्यपूर्ण है, क्योंकि जो ईश्वर मर गया है, वह ईश्वर ही नहीं था। जो मर सकता है, वह ईश्वर ही नहीं है। जो अविरत है। सदा है और शाश्वत है, वही ईश्वर है। उस शाश्वत ईश्वर को जानने के लिए, मनुष्य को स्वयं ही मिटना पड़ता है, ईश्वर को बनाना नहीं पड़ता है। उस शाश्वत ईश्वर को पाने के लिए मनुष्य को ईश्वर निर्मित नहीं करना होता है, वरन स्वयं को ही प्रेरणा देनी होती है और स्वयं को मिटा देना होता है। मनुष्य मिटता है तो ईश्वर उपलब्ध होता है। मनुष्य जब स्वयं को खोता है तो परमात्मा को पाता है। जो ईश्वर मर गया है, वह मनुष्य के द्वारा निर्मित ईश्वर था। मनुष्य ने जिसे बनाया है, वह मिटेगा। उस अनबनाए को, अनिक्रियेटेड को जानना है, जो कि नहीं मिटता है तो मनुष्य को स्वयं को खोना जरूरी है।रामकृष्ण एक छोटी-सी कहानी कहा करते थे। वह कहते थे कि समुद्र के किनारे एक बार बहुत लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई। कोई मेला था और वे सभी लोग यह विचार करने लगे कि समुद्र की गहराई कितनी है। और तभी एक नमक का पुतला भी वहां आया और उसने कहा--ठहरो! मैं जाता हूं और गहराई का पता लगाकर अभी आता हूं। वह नमक का पुतला सागर में कूद गया। दिन आये और गये। सूरज उगा और डूबा। धीरे-धीरे मेला उजड़ने लगा, भीड़ छंट गयी, लोग अपने घरों को वापस लौट गये। वह पुतला वापस नहीं लौट सका। बहुत प्रतीक्षा रही कि वह लौटे और बताये कि सागर की कितनी गहराई है। लेकिन वह नहीं लौटा, वह नहीं लौट सका। अगर लौट आता तो उसका अर्थ होता कि सागर का उसके साथ स्पर्श नहीं हुआ और सागर की गहराई उसने जानी तो उस जानने में विलीन हो गया। नमक का पुतला था वह तो!
मनुष्य भी परमात्मा में उतरते समय नमक के पुतले से ज्यादा नहीं है। सागर नमक से बना है, नमक सागर से बनता है। मनुष्य परमात्मा से बना है। मनुष्य खोजने जाएगा, परमात्मा को खोजेगा, वैसे ही जैसे नमक का पुतला सागर में खोजता है। इसलिए मनुष्य ने एक तरकीब ईजाद की ईश्वर से बचने की और वह यह कि ईश्वर को खोजना उसने बंद कर दिया और ईश्वर को बनाना उसने शुरू कर दिया। ऐसे मनुष्य भी बच गया और ईश्वर भी निर्मित कर लिया गया।
स्वभावतः बहुत प्रकार के ईश्वर निर्मित हो गये--हिंदू के, मुसलमान के, ईसाई के, जैन के, बौद्ध के। हजार-हजार प्रकार के ईश्वर निर्मित हो गये। अपनी-अपनी रुचि के भगवान सभी लोगों ने बना लिए। ये जो ईश्वर हैं--मैंने कल कहा, ये मर गये हैं और यह शुभ है! मुझसे बहुत-से प्रश्न पूछे गए हैं, जिनमें से अधिक इसी बात से संबंधित हैं। उनका पहले मैं आपको उत्तर दूंगा।
पूछा है कि कैसे पता चला है कि यह ईश्वर मर गया है?
मनुष्य को देखकर यह पता चलता है कि ईश्वर मर गया है। कहीं खोजने से ईश्वर की लाश नहीं मिलेगी और न किसी कब्र पर लगा हुआ पत्थर ही मिलेगा कि यहां दफनाया गया है। और न जमीन के कोने-कोने में खोज लेने पर यह पता लगेगा कि कौन से लोग गवाह हैं जिनके सामने वह मरा है। नहीं, ईश्वर के मर जाने की गवाही तो हम सारे लोग हैं। एक-एक आदमी के जीवन में इतना दुख, इतना अहंकार, इतनी पीड़ा और अशांति किस बात की सूचना है? इस बात की कि यह आनंद का स्रोत था जो जीवन में प्रकाश का स्रोत था, उससे हमारे संबंध विच्छिन्न हो गये हैं। वह संबंध टूट गया है।
एक रात एक घर में एक अंधा आदमी मेहमान हुआ। आधी रात बीत जाने पर वह विदा होने लगा तो घर के लोगों ने कहा--रास्ता अंधेरा है। अमावस की रात है। तुम एक लालटेन हाथ में लेते जाओ। अंधा आदमी हंसने लगा, जैसा कि स्वाभाविक था। उसने कहा--मेरे हाथ में लालटेन होने और न होने से क्या फर्क पड़ेगा? मैं तो अंधा हूं। रात अंधेरी है या उजाली और दिन है या रात, इससे भी फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए तो सब अंधेरा है और हाथ में लालटेन होगी तो क्या होगा? आकाश में सूरज होगा, तब भी कुछ नहीं होगा। बात तो उसकी ठीक थी, लेकिन उस घर के लोग भी बड़े तार्किक थे। वह मानने को राजी न हुए। उन्होंने कहा--यह तो सच है कि तुम्हारे हाथ में, तुम्हारी आंखों के लिए, लालटेन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन अंधेरे में आते हुए दूसरे लोगों को तो लालटेन दिखायी पड़ेगी, वह तो कम-से-कम तुमसे टकराने से बच जाएंगे। इतना क्या कम है? और इस दलील के सामने उस अंधे आदमी को झुक जाना पड़ा और वह लालटेन लेकर निकला। लेकिन वह कोई सौ कदम नहीं गया होगा कि कोई आदमी उससे टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ। उसने पूछा--मेरे मित्र! क्या आप भी अंधे हो, मेरे हाथ की लालटेन दिखायी नहीं पड़ती? तो दूसरे आदमी ने कहा--महानुभाव! आपकी लालटेन कहीं बीच में बुझ गयी।
अंधे आदमी को कैसे पता चले कि लालटेन बुझ गयी है। आप पूछते हैं कि हमें कैसे पता चले कि ईश्वर मर गया है! अंधे आदमी को कैसे पता चले कि लालटेन बुझ गयी है। इस बात से पता चलेगा कि टक्कर हो गयी। टक्कर होना इस बात का सबूत है कि लालटेन बुझ गयी और हम सब की एक-दूसरे से टक्कर हो रही है। क्या यह ईश्वर के मर जाने का सबूत नहीं है? क्या यह लालटेन के बुझ जाने का सबूत नहीं है? यह लालटेन के बुझ जाने का ही सबूत है। हम जिंदगी में कर क्या रहे हैं? जी रहे हैं या लड़ रह हैं।? प्रेम कर रहे हैं या क्रोध कर रहे हैं? एक-दूसरे को दे रहे हैं या छीन रहे हैं? एक-दूसरे के जीवन में सहयोगी हैं या शत्रु हैं? इस बात से सबूत मिलेगा कि ईश्वर मर गया है या नहीं मर गया है। इसे पूछने किसी और से मत जाना कि ईश्वर मर गया है कि नहीं? अपनी जिंदगी को देख लेना और अगर वह आस-पास टकराहट पैदा करती हो, क्रोध और हिंसा पैदा करती हो तो जान लेना कि हाथ की लालटेन बुझ गई । और तुम्हारे संबंध टूट गये हैं जीवन के स्रोत से। इसे खोजने या कहीं और जाने की किसी को भी कोई जरूरत नहीं है। मुझे कैसे पता चला है कि ईश्वर मर गया है? आदमी को देखकर पता चलता है। आदमी ईश्वर की कब्र बन गया है। इससे बड़ी और क्या खबर हो सकती है कि आदमी एक मुर्दे की भांति जी रहा है। उसके भीतर राख है, जीवन की कोई आग नहीं। उसके भीतर सब मुर्दा है। जीवन और जलता हुआ कुछ भी नहीं, सब बुझा-बुझा है। यह खबर है, यही सूचना है। और अगर यह भी सूचना नहीं है तो फिर और क्या इससे सूचनाएं बंद हो सकती हैं?
पूछा है कि अगर ईश्वर मर गया है तो क्या हम निराश हो जाएं?
नहीं! ईश्वर के मरने से निराश होने का कोई संबंध नहीं है। यदि झूठा ईश्वर, जिसे हम ईश्वर समझते रहे हैं, समाप्त हो गया हो तो सच्चे ईश्वर की खोज शुरू हो सकती है। हीरों के दुश्मन पत्थर नहीं हैं, नकली हीरे हैं। पत्थरों ने हीरों से कोई दुश्मनी नहीं की है। उनसे उनका कोई नाता-रिश्ता नहीं है। नकली हीरे, असली हीरों के दुश्मन हैं। ईश्वर से उन लोगों का विरोध नहीं, जो कहते हैं ईश्वर नहीं है। ईश्वर की शत्रुता वे लोग कर रहे हैं, जिन्होंने झूठे ईश्वर गढ़ लिये हैं। उन्होंने मनुष्य को सच्चे ईश्वर तक जाने के लिए, हमेशा के लिए रोक लिया है। इसलिए नास्तिकों से मत घबराना। नास्तिक तो एक दिन अपनी नास्तिकता की पीड़ा से आस्तिक हो जाएगा। कोई अगर नास्तिक है पूरा-पूरा तो बहुत दिन तक नास्तिक नहीं रह सकता। उसकी नास्तिकता ही उसे आस्तिकता में ले जाएगी नास्तिकता तो सीढ़ी है। लेकिन जो झूठे आस्तिक हैं, वे कभी आस्तिक नहीं हो सकेंगे, क्योंकि उन्हें नास्तिकता की सीढ़ी उपलब्ध नहीं हुई, जिसे पार करके कोई आस्तिकता आ सकती है। जिसने कभी पूरे मन से ईश्वर की प्रचलित धारणाओं पर संदेह नहीं किया, वह आदमी कभी भी सच्चे ईश्वर की तरफ गतिमान नहीं हो सकेगा, क्योंकि संदेह ही वह शक्ति थी, जो झूठे ईश्वर को गिरा देती है। उसने संदेह की उस शक्ति का प्रयोग नहीं किया। उसने झूठे ईश्वर का विश्वास कर लिया, जैसे और सारे लोग विश्वास कर रहे हैं, उसने भी विश्वास कर लिया है।
पूछा है, यदि हम इस तरह से संदेह से भर जाएं, तब विश्वास कैसे पैदा होगा?
क्या आपको यह पता नहीं है कि केवल उन्हीं लोगों को जीवन में और भाग्य में विश्वास की संपदा मिलती है, जो सम्यक रूप से संदेह करना जानते हैं। "राइट डाउट' करना जो जानते हैं वे ही लोग विश्वास की संपदा को उपलब्ध होते हैं। वे लोग नहीं जो संदेह करने से डरते हैं, क्योंकि जो संदेह करने से डरता है, उसका विश्वास झूठा होगा। इसलिए वह संदेह करने से डरता है, क्योंकि वह जानता है कि संदेह किया कि विश्वास गया। इसलिए झूठे विश्वास वाले लोग दूसरे लोगों को समझाते हैं कि संदेह मत करो, क्योंकि संदेह की आग में उनके विश्वास, जो बिलकुल कागजी हैं, जिंदा नहीं रह सकेंगे, जल जाएंगे। इसलिए जो भी यह समझता हो कि विश्वास करो, संदेह नहीं, समझ लेना कि उसका विश्वास झूठा है। संदेह की अग्नि-परीक्षा में से गुजरने को राजी नहीं है। जो विश्वास संदेह की अग्नि-परीक्षा में से गुजरने को तैयार है, वही सत्य है। इसलिए इसके पहले कि आपके पास विश्वास आए, जान रखना कि संदेह की पगध्वनियां, उसके पहले सुननी जरूरी हैं। जो समग्र हृदय से संदेह करता है, उस संदेह में विश्वास जम जाते हैं जो असत्य हैं और केवल वे ही सत्य निखर कर वापस लौट आते हैं, जिन पर कि जीवन को आधारित किया जा सकता है, गतिमान किया जा सकता है। इसलिए संदेह से भयभीत मत होना। संदेह से जो भी भयभीत हो जाता है वह कभी धार्मिक नहीं हो पायेगा।
पूछा है कि मैंने कहा कि पुजारियों ने, पंडितों ने, धर्मपुरोहितों ने, मनुष्य को ईश्वर की तरफ, ईश्वर के ज्ञान की तरफ जाने से रोका है तो क्या पुजारी कुछ भी नहीं जानते? क्या हजारों साल से उन्होंने कुछ भी नहीं जाना है? क्या वे बिलकुल अज्ञानी हैं?
नहीं, पुजारी बहुत कुछ जानते हैं। यही तो खतरा है। अगर वे अज्ञानी होते तो उतना खतरा नहीं होता। वे बहुत कुछ जानते हैं, उनके जानने में ही खतरा है। एक छोटी-सी कहानी कहूं तो उससे मेरी बात शायद समझ में आ जाए।
एक राजा ने दरबार में सुबह ही सुबह दरबारियों को बुलाया। उसका दरबार भरता ही जाता था कि एक अजनबी यात्री वहां आया। वह किसी दूर देश का रहने वाला होगा। उसके वस्त्र पहचाने हुए से नहीं मालूम पड़ते थे। उसकी शक्ल भी अपरिचित थी, लेकिन वह बड़े गरिमाशाली और गौरवशाली व्यक्तित्व का धनी मालूम होता था।सारे दरबार के लोग उसकी तरफ देखते ही रह गए। उसने एक बड़ी शानदार पगड़ी पहन रखी थी। वैसी पगड़ी उस देश में कभी नहीं देखी गयी थी। वह बहुत रंग-बिरंगी छापेदार थी। ऊपर चमकदार चीजें लगी थीं। राजा ने पूछा--अतिथि! क्या मैं पूछ सकता हूं कि यह पगड़ी कितनी महंगी है और कहां से खरीदी गई है? उस आदमी ने कहा--यह बहुत महंगी पगड़ी है। एक हजार स्वर्ण मुद्रा मुझे खर्च करनी पड़ी हैं। वजीर राजा की बगल में बैठा था। और वजीर स्वभावतः चालाक होते हैं, नहीं तो उन्हें कौन वजीर बनायेगा? उसने राजा के कान में कहा--सावधान! यह पगड़ी बीस-पच्चीस रुपये से ज्यादा की नहीं मालूम पड़ती। यह हजार स्वर्ण मुद्राएं बता रहा है। इसका लूटने का इरादा है।
उस अतिथि ने भी उस वजीर को, जो राजा के कान में कह रहा था, उसके चेहरे से पहचान लिया। वह अतिथि भी कोई नौसिखिया नहीं था। उसने भी बहुत दरबार देखे थे और बहुत दरबारों में वजीर और राजा देखे थे। वजीर ने जैसे ही अपना मुंह राजा के कान से दूर हटाया, वह नवागंतुक बोला--क्या मैं फिर लौट जाऊं? मुझे कहा गया था कि इस पगड़ी को खरीदने वाला सारी जमीन पर एक ही सम्राट है। एक ही राजा है। क्या मैं लौट जाऊं इस दरबार से। और मैं समझूं कि यह दरबार, वह दरबार नहीं है जिसकी कि मैं खोज में हूं? मैं कहीं और जाऊं? मैं बहुत से दरबारों से वापस आया हूं। मुझे कहा गया है कि एक ही राजा है इस जमीन पर, जो पगड़ी को एक हजार स्वर्ण मुद्राओं में खरीद सकता है। जो क्या मैं लौट जाऊं? क्या यह दरबार वह दरबार नहीं है?
राजा ने कहा--दो हजार स्वर्ण मुद्राएं दो और पगड़ी खरीद लो। वजीर बहुत हैरान हुआ। जब वजीर चलने लगा तो उस आए हुए अतिथि ने वजीर के कान में कहा--मित्र! यू मे बी नोइंग द प्राइस आफ द टर्बन,बट आइ नो वीकनेसेस आफ द किंग्स। तुम जानते हो कि पगड़ी के दाम कितने हैं, लेकिन मैं राजाओं की कमजोरियां जानता हूं।
पादरी, पुरोहित और धर्मगुरु ईश्वर को तो नहीं जानते हैं, आदमी की कमजोरियों को जानते हैं और यही उनसे खतरा है। उन्हीं कमजोरियों का शोषण चल रहा है। आदमी बहुत कमजोर है और बड़ी कमजोरियां हैं उसमें। उसकी कमजोरियां का शोषण हो रहा है।
स्मरण रखें--जो परमात्मा की शक्ति को जानता है, उसके लिए जमीन पर कोई कमजोरी नहीं रह जाती और जो परमात्मा को पहचानता है, उसके लिए शोषण असंभव है।
लेकिन मनुष्य का शोषण चल रहा है, धर्म के नाम पर, मंदिर और मस्जिद के नाम पर। और हजारों-हजारों वर्षों से यह शोषण चलता है। और हम सब इस शोषण में सहभागी हैं। यह भी हो सकता है कि हम उस शोषण को न कर रहे हों, लेकिन अगर हम उस शोषण को अपने पर होने दे रहे हैं तो हम उस शोषण को बनाए रखने में साथी हैं, संगी हैं। जमीन पर जो भी पाप हो रहे हैं, कोई यह न समझे कि वह उनसे बच जाएगा। जमीन पर हुए पाप हम सबके सहभागी में घटित हुए हैं। जमीन पर जो कुछ हो रहा है, वह सब एक-एक आदमी उसके लिए जिम्मेदार है। कोई यह न सोचे कि वह बच जाएगा। कोई नहीं बच सकता। हम जाने-अनजाने साथ दे रहे हैं, हम सहयोगी हैं।
मनुष्य की कमजोरियों का शोषण राजनीतिज्ञ कर रहे हैं, धर्मगुरु कर रहे हैं और न मालूम किस-किस तरह के लोग कर रहे हैं। लेकिन सबसे गहरा शोषण धर्मगुरुओं ने किया है। अभी राजनीतिज्ञ तो बहुत पीछे से आये हैं उस दौड़ में। बहुत पीछे से उसको यह बात समझ में आई कि धर्मगुरु क्या कर रहा है? राजनीतिज्ञ अभी पीछे-पीछे आया है और इसलिए पीछे-जनों की जो राजनीति है, वह धर्मगुरुओं के विरोध में खड़ी है। उसका कोई और कारण नहीं है। दो चार एक ही आदमी की संपत्ति पर आंख लगाए हुए हैं।
इसलिए पिछला जो राजनीतिज्ञ है, अभी-अभी, नया-नया, जो सारी दुनिया में राजनीति है, चाहे वह कम्यूनिज्म हो, चाहे वह फासिज्म हो, चाहे वह कुछ और हो, उन सब की टक्कर धर्मगुरुओं से है। क्यों? एक ही आदमी पर दोनों का हमला है। दोनों का शिकार एक ही आदमी को बनना है, वही कमजोर आदमी है। इन दोनों के बीच टक्कर पुरानी है, लेकिन अभी बहुत प्रगाढ़ हो गई है। और राजनीतिज्ञ धर्म को हटा देने की कोशिश में हैं। कई मुल्कों से धर्म को हटा दिया गया है। मंदिर से ईश्वर को विदा कर दिया गया है। उनकी जगह नये ईश्वर गढ़ना शुरू कर दिये, नई मूर्तियां वहां स्थापित हो गईं, नये प्रतिमान वहां बन गये हैं। लेकिन आदमी का शोषण जारी रहेगा, क्योंकि आदमी की कमजोरी बरकरार है। एक ने शोषण बंद किया तो दूसरा उस शोषण को शुरू कर देगा।
मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं कि धार्मिक लोग वे ही हैं, जो मनुष्य की कमजोरियों को समझें। और उस मनुष्य की कमजोरियों में चल रहे शोषणों के विरोध में एक विश्वव्यापी चेतना को जन्म दें। क्या हैं कमजोरियां मनुष्य की? और किस भांति उस मनुष्य की कमजोरियों का शोषण हो रहा है? इसे कुछ विस्तार में कहने की बात नहीं है। हम सब अपनी कमजोरियां जानते हैं और उस कमजोरी के लिए क्या-क्या प्रलोभन हमें दिये जा सकते हैं, वह भी हम जानते हैं। हम आदमी की, व्यक्ति की कमजोरी जानते हैं। हर आदमी मृत्यु से डरता है, इसलिए सभी धर्म, मृत्यु का बड़े पैमाने पर शोषण करते हैं। मनुष्य डरता है कि मैं मर न जाऊं और धर्म समझाते हैं कि आत्मा अमर है तो कोई फिक्र नहीं। शरीर चला जाएगा, चला जाने दो। आत्मा तो बचेगी। मैं तो बचूंगा। हम सब बचना चाहते हैं।
यह जो हम विश्वास करते हैं कि आत्मा अमर है तो आप यह मत समझ लेना कि आपको पता है कि आत्मा अमर है। नहीं, आप मृत्यु से भयभीत हैं, इसलिए जल्दी में विश्वास कर लिया है कि आत्मा अमर है। सबको पता है कि कोई नहीं मरना चाहता। यह दुनिया के सभी धर्म-पुरोहित यह समझाने की कोशिश करते हैं कि घबराते क्यों हो--कोई मरता ही नहीं, आत्मा बिलकुल अमर है। और मृत्यु से भयभीत मनुष्य यह विश्वास कर लेना चाहता है कि आत्मा अमर है। इसीलिए जवान आदमी कम धार्मिक होता है, बूढ़ा आदमी ज्यादा धार्मिक होता है। मौत जितनी करीब आती है, उतना मृत्यु का भय भी करीब आता है और आदमी को आत्मा की अमरता को मान लेने में मन तीव्र हो जाता है। जल्दी होती है कि मान लो, विश्वास कर लो। कोई भी मरना नहीं चाहता। यही कमजोरी है हमारे भीतर और इसीलिए जो कौम जितनी मृत्यु से भय करने वाली होती है, वह कौम उतनी ही आत्मा की विश्वासी होती है, अमरता की विश्वासी होती है।
हमीं हैं जमीन पर, हमसे ज्यादा मौत से कौन डरता होगा? आत्मा की अमरता करने वाले लोग भी जमीन पर और कहीं नहीं हैं। इन दोनों बातों में संबंध है। यह दोनों बातें अलग-अलग नहीं हैं। ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो सोचेंगे मृत्यु को, उसके भय को कि आदमी असुरक्षित है। यह उसकी "सिक्योरिटी' है। सब तरह की। कहीं कोई सुरक्षा नहीं मालूम होती, जिंदगी डांवाडोल है। कहीं कोई सहारा नहीं मिलता है। आदमी बेसहारा है। आदमी का बेसहारा होना एक कमजोरी है। उस कमजोरी का शोषण धर्म करता है। पंडित, पुरोहित करते हैं, मंदिर और गिरजे करते हैं। वे कहते हैं बेसहारा क्यों हो? भगवान का सहारा लो। भगवान का हाथ थामो। और क्योंकि भगवान का हाथ थामने के बीच वे मध्यस्थ हैं, इसीलिए वे उनकी दलाली करते हैं। वह उनका वेद है। तुम भगवान का हाथ थाम लो।
आदमी अकेले में डरा हुआ है। घबराया हुआ है अकेले में। भय मालूम होता है। जिंदगी बड़ी अकेली है। कोई संगी-साथी नहीं मालूम होता। क्षण आते हैं, जब पत्नी अपनी नहीं मालूम होती, लड़का अपना नहीं मालूम होता मित्र अपने नहीं मालूम होते, कमजोरियां, बीमारियां आती हैं, मौत करीब आती है। तब लगता है, सब छूट जाएगा! धन-संपत्ति कोई अपना नहीं मालूम होता। तब पुरोहित पास आता है और कहता है, मित्र! घबराओ मत। परमात्मा साथी है, उसका नाम जपो। वह तो तुम्हारे साथ है। उसका नाम जपो और तब इस कमजोरी का शोषण किया जामा है और यह जो परमात्मा का जाप, आप कर लेते हैं तो यह मत समझ लेना कि परमात्मा से बहुत प्रेम आपका पैदा हो गया है, इसीलिए आप जाप कर रहे हैं। आप भयभीत हैं, जिंदगी में अकेले हैं इसीलिए परमात्मा का साथ खोज रहे हैं और ऐसा कोई साथ नहीं मिलेगा, क्योंकि जो भयभीत है उसका प्रेम से कभी कोई संबंध नहीं हो सकता है।
जो अभय है, फियरलेसनेस में जिसका चित्त है, वही केवल प्रेम कर सकता है, भयभीत लोग कैसे प्रेम करेंगे? परमात्मा को कैसे प्रेम करेंगे? परमात्मा को कैसे जानेंगे? फियर तो कुछ भी जानने नहीं देता। लेकिन हमारे भय का शोषण किया जा रहा है, हमें समझाया जा रहा है कि भयभीत हो जाओ। "गाड फियरिंग' "ईश्वर से डरो,' क्यों? क्योंकि अगर ईश्वर से नहीं डरोगे तो पुजारी से कैसे डरोगे, धर्मपुरोहित से कैसे डरोगे? ईश्वर से भयभीत हो जाओ जितने ही भयभीत हो जाओगे, उतना ही शोषण किया जा सकता है। अभय से व्यक्ति का शोषण किया जा सकता है। इसलिए धर्म के नाम पर बचपन से ही भय सिखाया जाता है कि डरो हर चीज से, भयभीत हो जाओ। यह सब शोषण है, हमारी सारी कमजोरियों का शोषण है। यह जो मौत का डर है, हम सब डरे हुए हैं। कहीं आग में हमें न जलाया जाए, कहीं हमें जलते कड़ाहों में न सेका जाए, कहीं हमें सताया न जाए। हम सब डरे हुए हैं। नरक का भय खड़ा हुआ है। स्वर्ग के प्रलोभन में हम सब तिरोहित हैं।
एक जगह से मैं निकलता था। एक महिला ने लाकर मुझे कागज दिया। उसके ऊपर लिखा हुआ था कि क्या आप बहुत अच्छे बंगले में रहना चाहते हैं, जहां कि मनोरम हवाएं बहती हों, पास में झरने हों, बड़े-बड़े छायादार वृक्ष हों। मैं हैरान हुआ कि ऐसी जगह कहां पर है? कौन नहीं रहना चाहेगा? मैंने दूसरा पन्ना पलटा तो उसमें पीछे लिखा था--फिर जीसस क्राइस्ट को स्वीकार कर लो। मैं बहुत हैरान हुआ जो जीसस क्राइस्ट को स्वीकार कर लो। मैं बहुत हैरान हुआ जो जीसस क्राइस्ट को स्वीकार कर लेगा परमात्मा के लोभ में वह "किंगडम आफ गाड' में है। उसको अच्छे-अच्छे मकान, झरनों के किनारे, छायादार वृक्षों के नीचे मिलेंगे और जो नहीं विश्वास करेंगे, उनका स्थान नरक में है।
यह जीसस क्राइस्ट के पीछे शैतान जो लगे हैं, उनकी ही यह करतूत है, ऐसा नहीं। राम के पीछे भी लगे हैं, कृष्ण के पीछे भी लगे हैं, मोहम्मद के, महावीर के, बुद्ध के पीछे, सबके पीछे लगे हैं। और वे ईजाद कर रहे हैं आदमी की कमजोरी का शोषण करने को। किसका मन नहीं हो जाएगा ठंडी-ठंडी हवाओं वाली दुनिया में रहने का? जहां कोई दुख न व्यापता हो, जहां कोई कष्ट न आता हो। और कितने सस्ते हैं? बहुत सस्ते हैं कि मंदिर में जाओ, थोड़े से पैसे चढ़ाओ या एक ब्राह्मण को गाय दान कर दो, कितने सस्ते हैं? कौन पागल होगा, कौन नासमझ होगा, जो यह मौका चूक जाएगा?
जो हमारा प्रलोभन है, उसका शोषण है। हमारा भय है, उसका शोषण है। हमारी मृत्यु है, उसका शोषण है। पुजारी बहुत कुछ जानते हैं, हृयूमेन वीकनेसेस जानते हैं। और आदमी को अब तक इस बात का पता नहीं है कि उसकी कमजोरियों का कितना शोषण हुआ है और कितना शोषण हो रहा है।
दुनिया में सच्चे धर्म का जन्म तभी होगा जब मनुष्य को, उसकी कमजोरियों से मुक्त करने में लगें, न कि उसकी कमजोरियों का शोषण चलने दें। मनुष्य को उसकी कमजोरी से मुक्त करना है। मनुष्य को अभय अलोभ, स्वतंत्रता, विचार, यह सब देने हैं, ताकि उसके भीतर एक गरिमा, चिंतन, चेतना, एक गौरवपूर्ण जीवन खड़ा हो सके, ताकि वह हर शोषण के विरोध में, उसके भीतर एक बगावत, एक विद्रोह खड़ा हो सके। ऐसे लोग एक धार्मिक दुनिया की शुरुआत बनेंगे। ये डरे हुए भयभीत लोग नहीं। ये घुटने टेककर जमीन पर बैठे हुए, हाथ जोड़े आकाश की तरफ बच्चे मांगते हुए, बीमारी ठीक करने की प्रार्थनाएं करते हुए लोग नहीं, ये नरक से बचने की कोशिश में लगे हुए लोग नहीं, ये मंदिर बनाकर स्वर्ग में अपना रिजर्वेशन करने वाले लोग नहीं। इन लोगों से दुनिया धार्मिक नहीं होती। इनसे ईश्वर का अवतरण जमीन पर नहीं हो सकता, जो कि सच्चा ईश्वर है। उसके लिए चाहिए समस्त कमजोरियों से मुक्त मनुष्य। और यह पुरोहितों और धर्मगुरुओं ने नहीं होने दिया है और वे कोशिश में लगे हुए हैं कि आगे भी न होने दें।
यह निश्चित है। उनकी कोशिश उनके व्यवसाय का प्राण है। उनके सारे प्रयास परमात्मा से बचाने के प्रयास नहीं हैं। खुद को बचाने के प्रयास हैं। लेकिन यह तो आपको ज्ञात होगा ही कि हम जब भी कोई गलत काम करना चाहते हों तो अच्छे नारे याद कर लेने चाहिए। जब हमें कोई बुरा काम करना हो तो किसी अच्छी फिलासफी की आड़ ले लेनी चाहिए। और जब हमें किसी की हत्या करनी हो तो हमें उसके ही हित में हत्या करने का प्रचार शुरू कर देना चाहिए। और अगर पुरोहितों को अपने व्यवसाय बचाने हैं तो उन्हें परमात्मा को बचाने की घोषणा करनी चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि परमात्मा खतरे में है। परमात्मा खतरे में है, अगर यह बात फैला दी जाए तो पुरोहित बच सकता है।
पुरोहित बचेगा तो धर्म नहीं बचेगा।
सामने विकल्प सीधा है। या तो जमीन पर आने वाले दिनों में धर्मगुरुओं का यह पुराना व्यवसाय जारी रहेगा और परमात्मा के लिए स्थान नहीं बनाया जा सकेगा या फिर यह व्यवसाय बंद होगा और हम एक ज्यादा मुक्त, ज्यादा स्वतंत्र चित्त से सत्य की खोज में संलग्न हो सकेंगे। इसलिए ठीक पूछा है कि क्या पुरोहित कुछ भी नहीं जानते हैं? पुरोहित बहुत कुछ जानते हैं। उनकी चालाकी, उनकी होशियारी बड़ी गहरी है। वे आदमी के आखिरी कोने तक की कमजोरी जानते हैं और इसका उन्होंने फायदा उठाया है, यह फायदा चल रहा है।
पूछी हैं और बहुत-सी बातें। पूछा है कि मैंने कहा कि शास्त्र को न मानें। शब्द को न मानें। तब तो फिर हम अकेले छूट जाएंगे तो हम क्या मानेंगे?
अकेले छूटने से इतने भयभीत क्यों होते हैं? और न मानने की स्थितियां इतना डर क्यों जाती हैं? क्या यह खयाल में कभी नहीं आता कि न मानने को अगर एक क्षण की स्थिति में भी एक क्रांति हो जाएगी। न मानने के एक क्षण की स्थिति में भी एक क्रांति हो सकती है। न मानने का क्या मतलब है? न मानना, नान एक्सेप्टेंस का मतलब क्या है? उसका मतलब यह है कि मैं बाहर से आए हुए किसी भी ज्ञान को स्वीकार करने को राजी नहीं हूं। क्यों? इसलिए कि मैं उस ज्ञान का प्यासा हूं जो कि भीतर से आया हो, इसलिए मैं ठहरूंगा।
यह बाहर के ज्ञान का अनादर नहीं है। यह बाहर के ज्ञान का तिरस्कार नहीं है। गीता-पुराण का अनादर नहीं है। सिर्फ इतना निवेदन है खोजी का कि मैं उस ज्ञान को पाना चाहता हूं, जो प्राणों के प्राणों से उठता है। मैं उसे खोजना चाहता हूं, जो मेरे भीतर कहीं है। इसलिए ठहरो। जो बाहर का है, चाहे महावीर कहते हों, चाहें बुद्ध, चाहे कोई, मैं कह रहा हूं--कोई भी जो बाहर से कह रहा है, उससे कहो कि वह ठहर जाए। वह विचार बाहर रुक जाए। कहीं ऐसा न हो कि बाहर का विचार आए और मेरे सारे चित्त को घेर ले और मैं बाहर के विचार में इस भांति कैद हो जाऊं कि मैं यह भूल जाऊं कि भीतर मेरे भी ज्ञान है। यह हुआ है। पांडित्य को ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाना बिलकुल रोज की घटना है। जब बहुत-सी बातें हमें मालूम हो जाती हैं, बहुत-सी इनफॉरमेशन, बहुत-सी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं तो हमें खयाल पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं।
और यह खयाल, जो भीतर ज्ञान बैठा हुआ है, जहां हम कुछ भी नहीं जानते हैं, कुछ भी नहीं पता है कि कैसे जन्म हुआ है, कैसे मृत्यु हो जाएगी। पता भी नहीं है कि जो जीवन चल रहा है वह क्या है? यह भी पता नहीं है कि श्वास क्यों चल रही है? क्या है? यह भी पता नहीं कि श्वास क्यों चल रही है? कुछ भी पता नहीं। "इग्नोरेंस' गहरा है। अज्ञान बहुत गहरा है। कुछ भी पता नहीं है। क्या पता है आपको? किसी को? एक-एक श्वास भी अपरिचित है, लेकिन फिर भी हम ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं और ज्ञान की छाया में और भ्रम में भूल जाते हैं इस गहरे अज्ञान को। यह खतरनाक स्थिति हो जाएगी, मौत उस सारे ज्ञान को छीन लेगी और रह जाएगा साथ में केवल अज्ञान। इसलिए समझदार वे नहीं हैं जो ज्ञान को पकड़ कर ज्ञानी हो जाते हैं, जो बाहर के ज्ञान को कहते हैं कि ठहरो! अज्ञान मेरा है, यह ज्ञान तो पराया है। जिस दिन मेरा ज्ञान होगा, वही मेरे अज्ञान को तोड़ सकेगा।
स्मरण रखिए--अज्ञान मेरा है। ज्ञान दूसरों का है। दूसरों का ज्ञान मेरे अज्ञान को कैसे तोड़ सकता है? मेरा ज्ञान ही मेरे अज्ञान को तोड़ सकता है। मेरा ज्ञान कैसे पैदा होगा? उसकी पहली शर्त तो यह है कि मैं पराए और उधार ज्ञान को स्वीकार न करूं। स्वीकार कर लिया तो खोज ही बंद हो जाएगी। अगर मैं स्वीकार न करूं और अपने अज्ञान में ठहर जाऊं तो क्या होगा? पूछा है, फिर तो हम अज्ञानी ही रह जाएंगे। नहीं।
अगर एक मकान में आग लगी हो और आप मकान के भीतर हों और आपको पता लग जाए कि बाहर आग लगी है, लपटें आपको दिखाई पड़ने लगें तो क्या आप पूछेंगे कि अब मैं क्या करूं? क्या आप आलमारियां खोलकर कोई शास्त्र निकालेंगे और विचार करेंगे कि जब आग लगी हो चारों तरफ तो क्या करना चाहिए? या आप उस भवन में किसी गुरु की तलाश करेंगे और उसके चरणों में बैठेंगे और कहेंगे कि हे गुरुदेव! अब तो मुझे सच्चा मार्ग सुझाइये कि जब आग लगी हो तो क्या करना चाहिए? नहीं, गुरुदेव भी उसी मकान के भीतर रहेंगे। वह शास्त्र वहीं जलकर रहेगा और आप, आग को देखते ही बाहर हो जाएंगे। फिर आप किसी से पूछने नहीं जाएंगे कि क्या करूं। आपको दिखाई पड़ना कि आग लगी है, आपके सारे प्राणों को इकट्ठा कर देती हैं। आपकी सारी जीवंत ऊर्जा संगठित हो जाती है। आप एक क्षण भी नहीं पाते हैं कि कोई शैथिल्य है, कोई आलस्य है, कोई निद्रा है। एक क्षण में आप पाते हैं कि कोई प्रमाद नहीं, कोई सुस्ती नहीं। एक क्षण में आप पाते हैं कि विचार सचेत है, चेतना जाग्रत है और आप पूछते नहीं किसी से मार्ग। लपटों में मार्ग खोजते हैं, बाहर निकल जाते हैं। बाहर निकल कर शायद आपको खयाल आ जाए कि गुरुदेव भीतर रह गए हैं, शास्त्र भीतर रह गए हैं, जिनको हम ला नहीं पाए और जिनको हम देख भी नहीं पाए कि उनमें क्या लिखा है। हम क्या करें?
आग लगी हो और उसका पूरा तथ्य दिखाई पड़ जाए तो उस तथ्य के दर्शन से जीवन में एक क्रांति घटित होगी। अज्ञान का पूरा दर्शन हो जाए तो वह आग लगी होने से भी ज्यादा भयानक, ज्यादा तीव्र, ज्यादा उत्कट पीड़ा और ताप उत्पन्न करती है। और यह खयाल आ जाए कि मैं बिलकुल अज्ञान में हूं तो सब ज्ञान के बाहर निकलने की, एक तीव्र ज्वलंत अभीप्सा, आकांक्षा, प्राणों के कण-कण में पैदा हो जाती है, वही आकांक्षा, अभीप्सा बाहर ले आती है। कोई गुरु बाहर नहीं लाता।
लेकिन अगर अज्ञान का बोझ उतर जाए। घर में आग लगी हो और कोई हमें बैठकर समझा रहा हो कि कहां आग लगी है, यह सब तो माया है। तुम तो राम-राम तपो और हम आंख बंद करके राम-राम जप रहे हैं और मन में सोच रहे हैं कि कहां आग लगी है! आग तो लगी ही नहीं है। यही हम वहां बैठे सोचते रहेंगे तो फिर जरूर बाहर निकलना असंभव हो जाएगा। आग हमें लेकर ही समाप्त होगी। यही हुआ है, जीवन में यही हो रहा है।
उधार का ज्ञान हमें सुला देता है, जागता नहीं है। निद्रा लाता है, जागृति नहीं लाता।
खुद के ज्ञान का बोध, एक जागृति लाता है, एक खोज लाता है, एक अवेयरनेस पैदा होती है और एक तीव्रता पैदा होती है और एक तीव्रता का बोध पैदा होता है कि मैं कैसे बाहर निकल जाऊं। सारे प्राण संलग्न हो जाते हैं और जिस व्यक्ति के भीतर सारे प्राण संलग्न हो जाएं किसी प्यास से तो प्राप्ति निश्चित है। वह प्यास को पार कर जाएगा, उसका अतिक्रमण कर जाएगा।
एक फकीर था। उनका नाम था फरीद। एक नदी के किनारे, एक झोपड़े में रहता था। एक आदमी सुबह आया और उसने कहा--मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं। कई लोगों को फितूर पैदा हो जाता है ईश्वर के दर्शन करने का। कई लोगों को सनक चढ़ जाती है ईश्वर के दर्शन करने की। उस आदमी को भी चढ़ गई होगी। कई कारण हैं चढ़ जाने के। वह गया फरीद के पास और कहा कि मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं।
फरीद ने कहा--अभी तो मैं नदी में स्नान करने जाता हूं, तुम भी आओ। थोड़ा स्नान कर लो। फिर किनारे पर बैठकर तुम्हें बताऊंगा और यह भी हो सकता है कि मौका लग जाए तो नदी की धार में भी बता दूंगा। वह आदमी थोड़ा हैरान हुआ कि नदी की धार में क्या बताएगा? लेकिन फकीरों की बात है, हो सकता है कोई मतलब हो।
वह गया। दोनों स्नान करने उतरे और जैसे ही उस जिज्ञासु ने पानी में डुबकी लगाई, फरीद ने उसकी गर्दन पानी के नीचे दबा दी। उसके सिर को न उठने दिया। फरीद तगड़ा आदमी था। जिज्ञासु मुश्किल में पड़ गया। सारे प्राणपण से चेष्टा करने लगा, लेकिन फरीद दबाये चला जाता था, दबाये चला जाता था। लेकिन थोड़ी देर में फरीद ने पाया कि उसकी ताकत, खुद की ताकत, दबाने के वक्त कम पड़ गई है और वह उठने वाला आदमी पूरी ताकत से ऊपर उठ रहा है।
फरीद मजबूत था और जिज्ञासु दुबला-पतला और कमजोर आदमी था, लेकिन फरीद को उठाकर वह आदमी ऊपर निकल आया। फरीद ने उससे पूछा--मेरे मित्र! कुछ समझे?
तो उस आदमी ने कहा कि क्या खाक समझता? आप मेरी जान लिये लेते थे, मेरे प्राण लिये लेते थे। समझने की इसमें कहां बात थी? मैं किस पागल के पास आ गया? शक तो मुझे तभी हुआ था, जब आपने कहा कि मौका लगा तो नदी की धार में ही बता दूंगा। शक तो मुझे तभी हुआ था कि मैं गलत जगह आ गया, लेकिन एकदम जा भी नहीं सकता था तो आपके साथ चला आया। आप तो प्राण ही लिये लेते रहे। परमात्मा के दर्शन तो रहे दूर। अपने ही प्राण समाप्त हुए जाते थे। कौन दर्शन करता?
फरीद ने कहा--एक बात मैं तुमसे पूछूं? जब भीतर मैंने तुझे दबाया था तो कितने-कितने विचार तुम्हारे मन में थे? तो उसने कहा--क्या मजाक करते हो? कोई विचार नहीं था, एक ही खयाल था कि किस तरह एक सांस, हवा मिल जाए।
फरीद ने पूछा कि कितनी देर तक वह खयाल रहा?
उसने कहा--वह भी थोड़ी देर तक रहा। और जब सारे प्राण संकट में पड़ गये तो वह खयाल भी मिट गया। फिर खयाल कोई भी न रहा। बस, एक अनजानी-अबूझ प्रेरणा थी, जो ऊपर उठा रही थी। कोई खयाल नहीं था, कोई विचार नहीं था। कुछ ऊपर उठ रहा था, भीतर से। सारे प्राण संलग्न थे। एक-एक कण संलग्न था। इसका कोई खयाल नहीं था। यह हो रहा था। इसका कोई खयाल नहीं था। इसका कोई विचार नहीं था, इसका कोई "आयडिया' नहीं था कि यह मैं करूं। यह कुछ भी नहीं था। यह हो रहा था। कोई प्राणों में जग गया था और ऊपर उठ रहा था। और जब मेरी सारी शक्ति इकट्ठी हो गई थी और जैसे ही मेरी सारी शक्ति इकट्ठी हुई, मैंने पाया कि आप बहुत कमजोर हैं। आपके हाथ ढीले पड़ने लगे, मैं ऊपर आ गया।
फरीद ने कहा--जिस दिन ईश्वर की खोज में इतने ही
गहरे अज्ञान में डूबोगे, उतने ही गहरे जिस दिन प्यास में डूबोगे, उस दिन कोई ताकत तुम्हें रोक नहीं पाएगी। तुम पाओगे कि तुम अतिक्रमण कर गए। तुम पार कर गए हो उस सीमा को, जहां तुम मिट जाते हो और परमात्मा शुरू हो जाता है।
शास्त्रों से नहीं मिलता है ज्ञान! ज्ञान मिलता है प्राणों की समग्र भूख-प्यास से, इंटीग्रेटेड, जब सारे प्राण इकट्ठे हो जाते हैं किसी प्यास में तो ज्ञान उपलब्ध होता है। ज्ञान शास्त्र से सीखा गया उपक्रम नहीं है, बल्कि प्राणों की प्यास में और अभीप्सा में पाई गई अनुभूति है। ज्ञान इसीलिए बाहर से उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि प्यास भीतर है और भीतर कोई प्यास बाहर के किसी पानी से नहीं बुझ सकेगी। और बाहर के पानी से जो बुझ जाती हो, जान लो कि यह प्यास भी बाहर की रही होगी। वह जो प्राणों की प्यास है, उस प्यास के ही इकट्ठे हो जाने में उसकी तृप्ति है।
लेकिन हम बाहर "ज्ञान' खोजते हैं और उसको पकड़ लेते हैं और जब पकड़ लेते हैं तो द्वार बंद हो जाते हैं, खोज बंद हो जाती है, प्यास शिथिल हो जाती है, प्राण इकट्ठे नहीं हो पाते और इस शिथिलता में इस दुर्बलता में इस खंड-खंड बंटे होने में हम भटकते हैं। स्मरण कर-कर शब्द दोहराते हैं, जीते हैं, हल नहीं हो पाता। बंगाल में ऐसा ही हुआ है।
एक युवक अपने पिता के पास बैठा था। उसके पिता की उम्र साठ को पार कर गई थी। उसके पिता ने उस युवक को कहा कि हो सकता है कि मैं कुछ ही दिन का मेहमान और होऊं। लेकिन मैंने तुम्हें न तो कभी मंदिर जाते देखा, न कभी धर्म की पुस्तक पढ़ते देखा, न कभी सत्संग करते देखा। तो मैं तुम्हें अंत में यह कहूं कि तुम उस तरफ भी कुछ ध्यान दो।
उस युवक ने कहा--कुछ ध्यान? कैसी बातें करते हैं आप? परमात्मा भी कुछ ध्यान से पाया जा सकता है? कुछ ध्यान से? उसने फिर कहा--मैं तो जहां तक सोचता हूं वह यही कि कुछ ध्यान तो आपको देते हुए मैं रोज देखता हूं। रोज सुबह आप मंदिर जाते हैं! कुछ ध्यान मंदिर में देते हैं। शेष ध्यान दुनिया में देते हैं। और मुझे शक यह है कि जो तेईस घंटे दुनिया में रहता हो, वह एक घंटे मंदिर में कैसे रह सकता है?
और जो मंदिर की सीढ़ियों पर फिल्मी गाने गुनगुनाता हो, वह मंदिर में भजन कैसे गा सकता है? हो सकता है मंदिर के भीतर भजन ही गाता हो, लेकिन उनका मूल्य फिल्मी गाने से ज्यादा नहीं हो सकता, क्योंकि गुनगुनाने वाला वही है, जो सीढ़ियों के बाहर था। वही सीढ़ियों के भीतर भी है। सवाल गुनगुनाने वाले का है। सवाल यह नहीं है कि वह क्या गुनगुनाता है। आप क्या पढ़ते हैं यह सवाल नहीं है। आप क्या हैं, यह सवाल है। आप चाहे वेद-शास्त्र पढ़िए या कोकशास्त्र पढ़िए या चाहे कुछ और पढ़िए। आप, आप हैं, और आप पर ही निर्भर है सारी बात! किताबें वैसी ही हो जाएंगी जैसे आप हैं। जिस मंदिर में आप प्रवेश करेंगे, वह मंदिर आप जैसा हो जाएगा और जिस भगवान का हाथ पकड़ लेंगे, पाएंगे कि वह भगवान आप जैसा होगा, क्योंकि आप असली बात हैं।
तो उसने कहा अपने पिता से कि मैं देखता हूं इधर आपको। तीस वर्षों से ऊपर भी देखता हूं, लेकिन न तो आपकी प्रार्थनाओं में कोई अर्थ निकला और न आपकी पूजा में और न आपके किसी ध्यान में। उस लड़के ने आगे कहा कि कभी मैं भी स्मरण करूंगा, लेकिन एक ही बार स्मरण करूंगा, क्योंकि दो बार स्मरण करने का क्या फायदा? अगर एक बार स्मरण से नहीं होगा तो दूसरी बार स्मरण से क्या होगा? क्योंकि स्मरण करने वाला तो मैं ही रहूंगा और तीसरी बार करने से क्या होगा? हजार बार करने से क्या होगा? एक बार करूंगा। एक बार मंदिर जाऊंगा। एक बार परमात्मा के द्वार पर खड़ा होना है, लेकिन प्रतीक्षा में हूं मैं उस दिन की, जिस दिन मैं पूरे का पूरा खड़ा हो सकूं। जब तक अधूरा खड़ा होऊंगा, तब तक कुछ होने वाला नहीं है।
और बड़े रहस्य और आनंद की बात यह है कि आपका पूरा इकट्ठा हो जाना ही, आपकी तरफ परमात्मा की उपलब्धि है। और तो कोई परमात्मा है नहीं बाहर। आपका पूरा इकट्ठा हो जाना, आपका एक जुट हो जाना, आपके सारे प्राणों का समग्र हो जाना, खंड-खंड नहीं! डिसइंटिग्रेटेड नहीं, टूटा हुआ नहीं, इकट्ठा हो जाना। वही तो आपका जान लेना है और वह हो रहा है।
पिता कोई अस्सी वर्ष के हुए तो वे जीवित थे और उनका लड़का मंदिर तब तक नहीं गया था। साठ वर्ष का लड़का भी हो गया था और एक दिन उन लोगों ने देखा कि वह सुबह-सुबह मंदिर की तरफ जा रहा है। सारे लोग हैरान हो गए। वह जिंदगी भर का नास्तिक था। कभी मंदिर नहीं गया था और मंदिर जा रहा था। लेकिन वह मंदिर गया तो फिर वापस नहीं लौटा मंदिर से। और मंदिर में वह हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और सब समाप्त हो गया। सांस जो बाहर थी, वह बाहर रह गई, जो भीतर थी, भीतर रह गई। उसके प्राण उड़ गए। उसके पास उसके खीसे में एक पत्र लिखा हुआ मिला। उसमें लिखा था--आज मैं उस अवस्था में हूं कि मेरी प्यास पूरी-पूरी जग गई है और मैं अपने अज्ञान से समग्ररूपेण दुखी हो गया हूं। और आज, जबकि आग मेरे चारों तरफ लगी है, शायद मैं बाहर निकल सकूं।
क्या किया उसने उस मंदिर में जाकर? खड़े होकर? और क्या उस करने का संबंध उस मंदिर से है? क्योंकि मंदिर में तो वहां रोज खड़े होते थे जाकर। नहीं, उस मंदिर से, उस करने का कोई संबंध नहीं है। वह आदमी कहीं भी खड़ा होकर यह करता तो हो जाता, जो उस मंदिर में हुआ है। उस बात के करने का संबंध उसके अपने भीतर से है। उसके प्राण किन्हीं कारणों से आकर इकट्ठे हो सके हैं किसी की प्यास में। उस प्यास में कोई बात घटित हो सकती है। कोई क्रांति, कोई विस्फोट, कोई एक्सप्लोजल हो सकता है।
धर्म एक एक्सप्लोजन है एक विस्फोट है। और केवल उन्हीं के भीतर होता है, जो अपने अज्ञान की पूरी पीड़ा में जीते हैं और झूठे ज्ञान में उसको छिपाते नहीं हैं।
इसलिए मैंने कहा कि न ही किताब में, न ही शास्त्र, वेद और कुरान और बाइबिल, न ही महावीर और बुद्ध के वचन में, किसी के भी वचन नहीं ले जा सकेंगे वहां, जहां परमात्मा है। वहां तो ले जाएगी वह प्यास, जहां आप हैं। तो यह शब्द और शास्त्र इस प्यास को शिथिल न कर दें, इस प्यास को ढंक न दें, इस चिंगारी के ऊपर राख न बन जाएं। बन गए हैं राख। इसलिए ज्ञानी मुश्किल से ही, यह तथाकथित ज्ञानी मुश्किल से ही सत्य को जान पाते हैं। अब तक सुना तो नहीं कि किसी पंडित ने सत्य जाना हो। अब तक ऐसा हुआ नहीं है और होगा भी नहीं।
तो पूछा है क्या यह सब व्यर्थ है? क्या इन सबको फेंक दें? अगर इनको फेंकने गए तो उसका मतलब होगा कि इनमें कुछ-कुछ अर्थ है, तभी तो फेंकने गए। अगर इनमें आग लगाने गए तो उसका मतलब यह हुआ कि उससे भयभीत हैं, इसलिए आग लगाने गए हैं। नहीं! दोनों स्थितियों में हम बाहर की चीज को बहुत मूल्य दे देते हैं। या तो हम कहते हैं हम पूजा करेंगे या हम कहते हैं कि आग लगा देंगे। लेकिन दोनों हालत में हम पूजा करें या आग लगाएं तो बाहर से ही बंधे रहते हैं।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पूजा मत करिए, आग लगा दीजिए, क्योंकि आग लगाने वाला भी इस शास्त्र को मानने वाला है, तभी तो उसने इतनी मेहनत की है कि आग लगाने जा रहा है। नहीं, आग लगाने का सवाल नहीं है और न पूजा करने का सवाल है। सवाल इस सीधे सत्य को जानने का है कि क्या जो भी बाहर से सीख लेता हूं, वह मेरा ज्ञान बन सकता है। नहीं, वह केवल मेरी स्मृति बनती है। "मेमोरी' बनती है, ज्ञान नहीं, नालेज नहीं। स्मृति कितनी ही ज्यादा संग्रहीत हो जाए वे उत्तर झूठे हैं। किसी ने कहा है कि अगर बचपन में हमें गीता और वेद और उपनिषद की कथाओं का बोध नहीं होता और हमारी मां ने और हमारे पिता ने हमें शिक्षा न दी होती तो हम आपकी बात सुनने ही नहीं आते।
यह हो सकता था कि मेरी बात सुनने आप न आते। आने की कोई बड़ी जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इन बातों को सीखकर अगर आप मेरी बात सुनने आए हैं तो एक बात का स्मरण रखना, सुनने के भ्रम होंगे, सुन नहीं पाएंगे, क्योंकि ये बातें बीच में आ जाएंगी और सुनने नहीं देंगी और यह भी खयाल में मत रखना। यह पूछा है प्रश्न--कि अगर हमने यह गीता और यह सब बातें न पढ़ी होतीं तो हमारे मन में ईश्वर का खयाल ही कैसे पैदा हो सकता था? कैसा पागलपन है?
अगर सारी किताबें नष्ट हो जाएं तो क्या आप सोचते हैं कि ईश्वर ही नष्ट हो जाएगा? अगर सारी दुनिया की किताबें जला दी जाएं, खाक कर दी जाएं तो क्या आप सोचते हैं कि दुनिया में वे लोग पैदा न होंगे जो ईश्वर की खोज करेंगे? तो ईश्वर फिर बड़ा कमजोर है कि किताबों पर निर्भर है। ईश्वर बड़ा कमजोर है। और तब तो यह ईश्वर बढ़ जाना चाहिए, क्योंकि प्रेस की ताकत बहुत बढ़ गई है। छपाई बहुत है। कोई पांच हजार किताबें हर सप्ताह छपती हैं तो दुनिया में थोड़े दिन में ईश्वर खूब बढ़ जाएगा।
लेकिन क्या आपको पता है कि जितनी किताबें बढ़ती हैं, उतना ही ईश्वर कम होता है? उलटा संबंध है दोनों के बीच कुछ। जगत में ईश्वर की खोज की प्रेरणा किताबों से नहीं हो सकती। ईश्वर की खोज की प्रेरणा तो जीवन के दुख से आती है, जीवन की पीड़ा से आती है, अशांति से आती है। जब तक हृदय में दुख है, पीड़ा है और अशांति है, तब तक ईश्वर की खोज पैदा होती रहेगी। चाहे शास्त्र रहें, चाहे जाएं। बल्कि शास्त्रों के कारण सस्ते संतोष मिल जाते हैं। अगर शास्त्र न हों तो सस्ते संतोष मिलने असंभव हो जाएंगे। तब तो आदमी को अपनी ही खोज करनी पड़ेगी और अपने ही श्रम से कुछ पाना पड़ेगा और उसी से कुछ संतोष मिल सकेगा। मेरा निवेदन है--आग लगाने की नहीं कहता हूं, क्योंकि आप जो पूजा करते हैं, अगर आप ने आग भी लगाई तो वह आपकी पूजा से भिन्न नहीं होगी। शास्त्र के साथ कुछ करने को नहीं कह रहा हूं। मेरी बात को गलत न समझ लेना। "आपके साथ' कुछ करने को कह रहा हूं। सवाल गीता के साथ नहीं है, आपके साथ। कुरान और बाइबिल के साथ नहीं, आपके साथ है। आपका चित्त ऐसा होना चाहिए, जो शब्द से और शास्त्र से मुक्त हो, जो शब्द और शास्त्र से बंधा हुआ न हो, जो स्वतंत्र हो, क्योंकि स्वतंत्रता ही सत्य की खोज की पहली शर्त है।
एक-दो छोटे-छोटे गैर-गंभीर प्रश्न हैं। उनकी मैं भी बात कर लूं, फिर जो कुछ प्रश्न रह जाएंगे उनकी मैं परसों बात करूंगा। किसी ने मुझसे पूछा है--कल मैंने कहा कि एक बंदर ने मुझे कहा है कि आदमी का पतन बंदरों से हुआ है, यह विकास नहीं है तो उस व्यक्ति ने मुझसे पूछा है कि क्या बंदर भी बोलते हैं?
मैं यह निवेदन करना चाहूंगा कि बंदरों का बोलना तो बिलकुल स्वाभाविक है, न बोलना बहुत कठिन है। बंदर चुप रह ही नहीं सकते और जो चुप रह जाए और ऐसा बंदर अगर मिल जाए तो शक होगा कि कहीं यह आदमी तो नहीं है। चुप रह जाए! मौन, साइलेंस, असंभव है। बंदर तो खूब बोलते हैं। दूसरी बात है कि आपको उनकी भाषा समझ में न आती हो, लेकिन जिन बंदरों की भाषा आपकी समझ में आती हो, उनको देखकर, उनकी बाबत भी आप समझ सकते हैं, जिनकी समझ में नहीं आता हो। मुझे किसी ने एक घटना बतायी थी, यह खयाल आ गई है।
एक गधा, आदमी की संगत में रहते-रहते बोलना सीख गया था। आदमी की संगत किसको नहीं बिगाड़ देती है। वह गधा भी बिगड़ गया। वह बोलना सीख गया। और जब वह बोलना सीख गया तो उसने पहला काम यह किया कि बाकी गधों को इकट्ठा किया और उनका नेता हो गया। जो भी बोलना सीख सकता है, वह नेता हो जाएगा। फिर वह गधा हो, इससे क्या फर्क हो पड़ता है? वह गधा बोलना सीखा और बोलना सीखने के बाद जो दूसरी सीढ़ी थी, वह नेता हो गया। और स्वभावतः इसके बाद तीसरी पीढ़ी थी और उसने दिल्ली की यात्रा की।
उसने पहला काम--वह पुरानी बात है, वह पंडित नेहरू से मिलने चला। दरवाजे पर संतरी खड़ा था, लेकिन जैसे सभी संतरी सोये रहते हैं, वह संतरी भी सोया हुआ था। जैसा कि सभी पहरेदारों का काम है कि वह सोये रहते हैं। वह संतरी भी सोया हुआ था और फिर कोई आदमी जाता तो वह संतरी थोड़ा सचेष्ट होता। आदमी से डर होता। लेकिन एक गधा जा रहा था, उसने कोई फिक्र नहीं की। वह गधा बिना प्रवेश-पत्र के भीतर चला गया।
सुबह-सुबह का वक्त था और नेहरू अपनी बगिया में घूम रहे थे। वह गधा पीछे गया उनके और नेहरू तो बड़ी तेज चाल से घूम रहे थे, चल क्या रहे थे, दौड़ना ही था करीब-करीब, गधा भी किसी तरह हांफता हुआ पीछे गया और उसने कहा--पंडित जी! नेहरू बहुत घबराये, क्योंकि वे भूत-प्रेत में विश्वास नहीं करते थे। वहां कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता था जो बोलता हो। उन्होंने चारों तरफ गौर से देखा। वहां कोई दिखाई न पड़ा! सिर्फ एक गधा खड़ा हुआ था। उन्होंने बहुत जोर से कहा--कौन है? मेरे सामने आए? मैं भूत-प्रेत में विश्वास करने वाला नहीं हूं! जो भी हो, सामने आओ। उस गधे ने कहा--माफ करे, मैं तो सामने खड़ा हूं। सिर्फ एक ही भूल मेरी है कि मैं जरा बोलता हूं। आप नाराज तो नहीं होंगे?
नेहरू ने कहा--तू बिलकुल बेफिक्र रह। मैं बोलते हुए गधों से इतना ज्यादा रोज-रोज परिचित हूं कि तू बिलकुल फिक्र मत कर। तू बोल। गधे ने कहा--मैं तो डरता था कि पता नहीं, आप मुझसे मिलना पसंद करेंगे या नहीं! नेहरू ने कहा कि यहां गधों के सिवाय मिलने और आता कौन है?
फिर पता नहीं, उन दोनों में क्या बातें हुई। वह तो मुझे पता नहीं। बात जरूर कोई कुछ गुप्त रूप से ही हुई होगी, क्योंकि इसे किसी अखबार ने अब तक छापा नहीं। कोई सीक्रेसी, कोई कांफीडेंशियल बात होगी। किसी अखबार ने छापी नहीं अब तक।
लेकिन आदमी इस भ्रम में न रहे कि वही बोलना जानता है। बोलते तो सभी हैं। आदमी ही अकेला समर्थ है जो कि न बोलने की स्थिति को उपलब्ध हो सकता है। अकेला आदमी समर्थ है। न बोलने की स्थिति हो। नानस्पीकिंग की स्थिति को उपलब्ध हो सकता है। उसी अबोल, उसी शांत स्थिति से वह द्वार खुलता है जो परमात्मा का है। यह तो मैंने बंदर की बात मजाक में कही थी और अगर आप मजाक भी नहीं समझ पाए तो धर्म क्या समझ पाएंगे? बड़ी मुश्किल हो जाएगी। लोग इतने गंभीर हो गए हैं दुनिया में कि मजाक भी नहीं समझ पाते, वे परमात्मा को क्या समझ पाएंगे? बहुत कठिन है।
यह जो थोड़ी-सी बात मैंने अभी आपको कही है तथा कल और परसों जो बातें कहूंगा, यह इस खयाल से नहीं कि मैं आपको कोई ज्ञान दे रहा हूं। इस भ्रम में बिलकुल नहीं रहना। यह खयाल हो तो आना ही मत कि मुझसे कोई ज्ञान मिल सकता है। नहीं, मेरी सारी कोशिश इस बात के लिए नहीं है कि आपको कुछ
ज्ञान दूं, बल्कि इस बात के लिए है कि जो ज्ञान का भ्रम आपको है उसको तोड़ दूं। परमात्मा करे आपका झूठा ज्ञान टूट जाए और इस अज्ञान को आप जान सकें, उस ओरिजिनल इग्नोरेंस को, जो कि है। उस मौलिक अज्ञान को, जो कि भीतर तो शायद उस अज्ञान में वह पीड़ा, वह ताप, वह घबराहट पैदा हो, वह संताप, वह एंग्विश पैदा हो। प्राण इतने तड़फड़ा जाएं कि उस तड़फड़ाहट से आपके जीवन में क्रांति हो जाए। उसी अज्ञान के लिए चार दिन कोशिश करूंगा।
मैं तो अज्ञान सिखाता हूं। इसलिए मेरी बातें अगर ठीक न लगती हों तो काई हैरान होने की बात नहीं, क्योंकि अज्ञान सिखाने वाला ठीक नहीं लग सकता। ज्ञान सिखाने वाला ठीक लग सकता है, क्योंकि उससे आप कुछ सीखकर लौटते हैं। अज्ञान सिखाने वाला तो आपसे कुछ और छीन लेता है। आप घर जाते हैं तो कुछ खोकर जाते हैं। परमात्मा करे कि किसी दिन आप घर ऐसे जाएं कि आप सब खोकर चले जाएं तो शायद उसी दिन घर पहुंचने पर आपको जो मिले, वह परमात्मा हो।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है। उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें