दिनांक
28 दिसम्बर, 1973; संध्या।
वुडलैण्डस,
बम्बई।
प्रश्न
सार:
1—मनुष्य
के लिए दो ही विकल्प
हैं—पागलपन या
ध्यान। तो क्या
मनुष्य अब तक
वहाँ पहुंच चुका
है?
2—यदि
सम्यक ज्ञान का
केंद्र मन के
भीतर है, तो
उससे वास्तविक
तथ्यो का स्पष्ट—दर्शन
कैसे संभव है?
और यह केंद्र
सम्बोधि के पश्चात
सक्रिय होता है
या पहले?
3—ध्यान में
घटित होने
वाले दिव्य
अनुभवों की प्रमाणिकता
कैसे जांची
जाए?
4—
क्या जागरूकता
भी मन की ही
वृत्ति है?
5—विचारों
के स्रोत मस्तिष्क
की कोशिकाओं
में अंकित संस्कार
हैं। कृपया
समझाएं कि
साक्षी का
प्रयोग इनसे
मुक्ति कैसे
लाता है।
6—ताओ, तंत्र,
भक्ति और
योग आदि
विषयों पर आप
इतनी
आत्मीयता से
कैसे बोल पाते
हैं?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि मनुष्य
के लिए केवल
दो विकल्प हैं
पागलपन या ध्यान
लेकिन पृथ्वी
के लाखों लोग
दोनों में से
किसी तक नहीं
पहूंच पाये
हैं। क्या आप
सोचते हैं वे
पहूंचेंगे?
वे पहुंच
चुके! वे
ध्यान में
नहीं पहुंचे, पागलपन
में पहुंच
चुके है। और
वे पागल जो
पागलखानों
में हैं : और वे
पागल जो बाहर
हैं इनमें
अंतर केवल
मात्रा का है।
कोई गुणात्मक
अंतर नहीं है,
मात्रा का
ही अंतर है।
हो सकता है
तुम थोड़े कम
पागल हो, वे
ज्यादा पागल
होंगे, लेकिन
जैसा मनुष्य
है, पागल
मैं
क्यों कहता
हूं कि जैसा
मनुष्य है, पागल
है? पागलपन
का अर्थ बहुत
सारी चीजों से
है। एक है—तुम
केंद्रित
नहीं हो। और
यदि तुम
केंद्रित
नहीं हो तो
बहुत से स्वर
होंगे तुम्हारे
भीतर। तुम
अनेक हो, तुम
भीड़ हो। घर
में कोई मालिक
नहीं है और घर
का हर नौकर
मालिक होने का
दावा करता है।
वहां है
अस्तव्यस्तता,
द्वंद्व और
एक अनवरत
संघर्ष। तुम
निरंतर
गृहयुद्ध में
रहते हो। यदि
यह गृहयुद्ध
नहीं चल रहा
होता, तब
तुम ध्यान में
उतरते। लेकिन
यह दिन—रात
चौबीसों घंटे
चलता रहता है।
कुछ क्षणों तक
जो कुछ भी
तुम्हारे मन
में चलता हो
उसे लिख लेना,
और पूरी
ईमानदारी से
लिखना। जो
चलता है उसे
ठीक—ठीक लिख
देना और तुम
स्वयं अनुभव
करोगे कि यह विक्षिप्तता
है।
मेरे
पास एक खास
विधि है जिसका
प्रयोग मै कई
व्यक्तियों
के साथ करता
हूं। मैं उनसे
कहता हूं कि
एक बंद कमरे
में बैठ जाओ और
जो कुछ
तुम्हारे मन
में आये उसे
जोर से बोलने
लगो। उसे इतने
जोर से कहो, ताकि
उसे तुम सुन
सको। केवल
पंद्रह मिनट
की बातचीत—और
तुम अनुभव
करोगे कि जैसे
तुम किसी पागल
आदमी को सुन
रहे हो।
निरर्थक, असंगत,
असम्बद्ध
टुकड़े मन में
तैरने लगते
हैं। और यही
है तुम्हारा
मन।
तो
तुम शायद
निन्यानबे
प्रतिशत पागल
हो। दूसरा कोई
व्यक्ति सीमा
पार कर चुका
हो,
वह सौ
प्रतिशत के भी
पार चला गया
हो। जो सौ
प्रतिशत के
पार चले गये
हैं उन्हें हम
पागलखाने में
डाल देते हैं।
लेकिन
तुम्हें
पागलखाने में
नहीं रखा जा
सकता क्योंकि
यहां इतने
ज्यादा
पागलखाने
नहीं हैं; और
हो भी नहीं
सकते। तब तो
यह सारी
पृथ्वी
पागलखाना बन
जायेगी!
खलील
जिब्रान ने
लिखी है एक
छोटी—सी
बोधकथा। वह
कहता है कि
उसका एक मित्र
पागल हो गया, इसलिए
उसे पागलखाने
में डाल दिया
गया। तब प्रेम
और करुणावश ही
वह उसे देखने
गया, उसे
मिलने गया।
पागलखाने
के बाग में एक
पेडू के नीचे
वह बैठा हुआ था, बगीचा
एक बहुत बड़ी
दीवार से घिरा
हुआ था। खलील
जिब्रान वहां
गया, अपने
दोस्त के पास
एक बेंच पर
बैठ गया और
उससे पूछने
लगा, 'क्या
तुमने कभी इस
बारे में सोचा
है कि तुम यहां
क्यों हो?' वह
पागल आदमी हंस
दिया। वह बोला,
'मैं यहां
हूं क्योंकि
मैं बाहर के
उस बड़े पागलखाने
को छोड़ देना
चाहता था। मैं
यहां शांति से
हूं। इस
पागलखाने में,
जिसे तुम
पागलखाना
कहते हो, कोई
पागल नहीं है।’
पागल
आदमी नहीं सोच
सकते कि वे
पागल हैं। यह
पागलपन का एक
बुनियादी
लक्षण है। यदि
तुम पागल हो, तो
तुम नहीं सोच
सकते कि तुम
पागल हो। यदि
तुम सोच सको
कि तुम पागल
हो, तब
तुम्हारे लिए
कोई संभावना
है। यदि तुम
सोच सको और
समझ पाओ कि
तुम पागल हो, तो तुम थोडे
स्वस्थचित्त
हो। पागलपन
अपनी समग्रता
में घटित नहीं
हुआ है। तो
यही है
विरोधाभास. जो
कि वास्तव में
स्वस्थचित्त
हैं वे जानते
हैं कि वे
पागल हैं, और
वे जो पूरी
तरह पागल हैं,
नहीं सोच
सकते कि वे
पागल हैं।
तुम
कभी नहीं
सोचते कि तुम
पागल हो। यह
पागलपन का ही
हिस्सा है।
यदि तुम
केंद्रित
नहीं हो, तो
तुम
स्वस्थचित्त
नहीं हो सकते
हो। तुम्हारी
स्वस्थचित्तता
केवल सतही है,
आयोजित है।
मात्र सतह पर
ही तुम स्वस्थ
लगते हो, और
इसलिए
तुम्हें अपने
आस—पास के
संसार को
निरंतर धोखा
देना पड़ता है।
तुम्हें बहुत
कुछ छुपाना
पड़ता है, तुम्हें
बहुत कुछ
रोकना होता है।
तुम हर चीज को
बाहर नहीं आने
देते। तुम
सोचोगे कुछ, लेकिन कहोगे
कुछ और ही।
तुम ढोंग रच
रहे हो और इसी
आडम्बर के
कारण तुम्हारे
आस—पास
न्यूनतम सतही
मानसिक
स्वास्थ्य तो
हो सकता है, लेकिन भीतर
तुम उबल रहे
हो।
कई
बार विस्फोट
होते हैं।
क्रोध में तुम
फूट पडते हो
और वह पागलपन
जिसे तुम
छिपाये रहे, बाहर
आ जाता है। यह
तुम्हारी
सारी
व्यवस्थाएं
तोड़ देता है।
इसलिए मनसविद
कहते हैं कि
क्रोध
अस्थायी पागलपन
है। तुम फिर
से संतुलन पा
लोगे; तुम
फिर अपनी
वास्तविकता
छिपा लोगे; तुम फिर
अपना बाहरी हिस्सा
संवार लोगे।
तुम फिर
स्वस्थचित्त
हो जाओगे। और
तब तुम कहोगे,
'यह गलत था।
अपने न चाहने
के बावजूद भी
मैंने ऐसा
किया। मेरा
ऐसा इरादा न
था। इसलिए
मुझे माफ करो।’
लेकिन
तुम्हारा
वैसा इरादा था।
वह ज्यादा
असली था।
क्षमा की यह
मांग केवल एक
ढोंग है। तुम
फिर अपना
बाहरी रंग—स्वप्न,
अपना
मुखौटा ठीक
बना रहे हो।
एक
स्वस्थचित्त
व्यक्ति का
कोई मुखौटा
नहीं होता।
उसका चेहरा
मौलिक होता है।
जो कुछ भी वह
है,
वह है।
लेकिन एक पागल
आदमी को
लगातार अपने
चेहरे बदलने
पड़ते हैं। हर
घड़ी उसे अलग
स्थिति के लिए,
भिन्न
संबंधों के
लिए भिन्न
मुखौटा
इस्तेमाल
करना पड़ता है।
जरा अपने को
ही देखना अपने
चेहरे बदलते
हुए। जब तुम
अपनी पत्नी के
पास जाते हो, तुम्हारा एक
चेहरा होता है;
जब तुम अपनी
प्रेमिका के
पास जाते हो, तुम्हारा
बिलकुल ही अलग
चेहरा होता है।
जब
तुम अपने नौकर
से बातें करते
हो,
तो तुम पर
अलग मुखौटा
लगा होता है।
और जब तुम
अपने किसी
अधिकारी से
बातें करते हो,
तो
तुम्हारा
मुखौटा
बिलकुल ही अलग
होता है। यह
हो सकता है कि
तुम्हारा
नौकर
तुम्हारी दायीं
ओर खड़ा हुआ है
और तुम्हारा
मालिक
तुम्हारी बायीं
ओर। तब एक साथ
तुम्हारे दो
चेहरे होते
हैं। बायीं ओर
कोई एक चेहरा
होता है और
दायीं ओर
तुम्हारा कोई
अलग चेहरा
होता है।
क्योंकि तुम
नौकर को वही
चेहरा नहीं
दिखी सकते।
तुम्हें जरूरत
नहीं। वहां
तुम बॉस हो।
तो तुम्हारे
चेहरे का एक
पहलू मालिक
होगा।
लेकिन
तुम वह चेहरा
अपने बॉस को
नहीं दिखा सकते
क्योंकि तुम
उसके नौकर हो, तो
तुम्हारा
दूसरा पहलू
चाटुकारी—वृत्ति
दर्शायेगा।
निरंतर
यही होता जा
रहा है। तुम
ध्यान से नहीं
देख रहे हो और
इसीलिए तुम्हें
इसका बोध नहीं
है। यदि तुम
ध्यान से देखो, तो
तुम्हें बोध
होगा कि तुम
पागल हो।
तुम्हारे पास
कोई एक चेहरा
नहीं है।
मौलिक चेहरा खो
चुका है। और
ध्यान का अर्थ
है कि मौलिक
चेहरे को फिर
से पा लेना।
झेन
गुरु कहते हैं, 'जाओ
और अपना मौलिक
चेहरा ढूंढ
निकालो।
तुम्हारा वह
चेहरा, जो
पैदा होने से
पहले था। वह
चेहरा, जो
तुम्हारा
होगा जब तुम
मर जाते हो।’ जन्म और
मृत्यु के बीच
तुम्हारे पास
झूठे चेहरे
होते हैं। तुम
लगातार धोखा
दिये चले जाते
हो। और केवल
दूसरों को ही
नहीं, जब
तुम दर्पण के
सामने खड़े
होते हो तुम
स्वयं को भी
धोखा देते हो।
तुम दर्पण में
अपना
वास्तविक
चेहरा कभी
नहीं देखते।
तुम्हारे पास
इतनी हिम्मत
नहीं कि अपने
ही सामने हो
पाओ! दर्पण
में दिखता
चेहरा भी झूठा
है। तुम इसे
बनाते हो, तुम
इसमें रस लेते
हो, लेकिन
यह एक रंगा
हुआ मुखौटा है।
हम
केवल दूसरों
को धोखा नहीं
दे रहे, हम
अपने को भी
धोखा दे रहे
हैं। वस्तुत:
यदि हमने
स्वयं को ही
धोखा नहीं
दिया है तो
दूसरों को
धोखा नहीं दे
सकते हैं।
हमें अपने ही
झूठ में
विश्वास करना
होता है; केवल
तभी हम उसमें
दूसरों का
विश्वास बना
सकते हैं। यदि
तुम अपने झूठ
में विश्वास
नहीं करते, तो कोई
दूसरा भी धोखे
में आने वाला
नहीं है।
और
यह सारा
उपद्रव, जिसे
तुम अपना जीवन
कहते हो, कहीं
नहीं ले जाता
है। यह एक
पागल मामला है।
तुम बहुत
ज्यादा काम
करते हो। तुम
अत्यधिक
परिश्रम करते
हो, तुम
चलते और दौड़ते
हो। सारी
जिंदगी तुम
संघर्ष करते
हो और कभी भी
नहीं पहुंचते।
तुम नहीं
जानते तुम
कहां से आ रहे
हो और तुम नहीं
जानते कि तुम
किधर बढ़ रहे
हो, कहां
जा रहे हो।
यदि तुम सड़क
पर किसी आदमी
से मिलो और
तुम उससे पूछो,
'तुम कहां
से आ रहे हो
श्रीमान?' और
वह कहे, 'मैं
नहीं जानता।’
और तब तुम
उससे पूछो, 'कहां जा रहे
हो?' और वह
फिर कहता है, 'मैं नहीं
जानता।’ लेकिन
तब भी वह कहता
है, 'मुझे
रोको मत, मैं
जल्दी में हूं।’
तो तुम उसके
बारे में क्या
सोचोगे? तुम
सोचोगे कि वह
पागल है।
यदि
तुम जानते
नहीं कि तुम
कहां से आ रहे
हो और तुम
कहां जा रहे
हो तो फिर
जल्दी क्या है? लेकिन
हर व्यक्ति की
यही स्थिति है
और हर व्यक्ति
सड़क पर है।
जीवन एक सड़क
है और तुम
हमेशा इसके
बीच में होते
हो। तुम नहीं
जानते कि तुम
कहां से आ रहे
हो; तुम
नहीं जानते कि
तुम जा कहां
रहे हो।
तुम्हें
स्रोत का कोई
ज्ञान नहीं है;
तुम्हें
लक्ष्य का कोई
बोध नहीं है।
तो भी तुम हर
कोशिश कर रहे
हो, बहुत
जल्दी में हो— 'कहीं नहीं' पहुंचने के
लिए!
किस
प्रकार की
स्वस्थचित्तता
है यह? और इस
सारे संघर्ष
में से सुख की
झलकियां तक
तुम तक नहीं
आतीं।
झलकियां भी
नहीं। तुम बस
आशा करते हो
कि किसी दिन, कहीं—कल, परसों
या मृत्यु के
उपरांत किसी
परलोक में सुख
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है! यह एक
तरकीब है
स्थगित करने
की, ताकि
तुम अभी बहुत
दुख अनुभव न
करो।
तुम्हारे
पास आनंद की
झलकियां तक
नहीं हैं। किस
प्रकार की
स्वस्थचित्तता
है यह? तुम
अनवरत दुख में
हो, और वह
दुख किसी
दूसरे के
द्वारा
निर्मित किया हुआ
नहीं है। तुम
स्वयं अपना
दुख निर्मित
करते हो। किस
प्रकार की
स्वस्थचित्तता
है यह? लगातार
तुम अपना दुख
निर्मित कर
रहे हो। मैं इसे
पागलपन कहता हूं।
स्वस्थचित्तता
यह होगी कि
तुम जागरूक हो
जाओगे कि तुम
केंद्रित
नहीं हो। तो
पहली जो बात करनी
है वह यह है कि
केंद्रीभूत
हो जाना है।
तुम्हें अपने
भीतर एक
केंद्र पाना
है,
जहां से तुम
अपना जीवन आगे
ले जा सको, जहां
से तुम अपने
जीवन को
अनुशासित कर
सको। अपने भीतर
एक मालिक पाना
है जिससे तुम
निर्देश पा
सको; जिससे
तुम आगे बढ़
सको। पहली बात
है, भीतर
एकजुट और
संगठित हो
जाना और फिर
दूसरी चीज
होगी, अपने
लिए दुख का
निर्माण न
करना। उस सबको
गिरा दो जो
दुख का
निर्माण करता
है—वे सारे
उद्देश्य, इच्छाएं
और आशाएं जो
दुख का निर्माण
करती हैं।
लेकिन
तुम्हें होश
नहीं है। तुम
तो बस दुख को ही
निर्मित किये
जाते हो।
लेकिन तुम
समझते नहीं हो
कि तुम्हीं
इसका निर्माण
कर रहे हो। जो कुछ
भी तुम करते
हो,
उससे भीतर
तुम कोई बीज
बो रहे होते
हो। फिर पीछे
वृक्ष
आयेंगे। जो
कुछ भी तुमने
बोया है, उसी
की फसल काटनी
होगी। और जब
भी तुम कोई
फसल काटते हो,
दुख वहां
होता है, लेकिन
तुम कभी विचार
नहीं करते यह
समझने के लिए
कि बीज
तुम्हारे
द्वारा बोये
गये थे। जब भी तुम्हें
दुख होता है, तुम सोचते
हो यह कहीं और
से आ रहा है।
तुम सोचते हो
यह कोई
दुर्घटना है
या कि कुछ दुष्ट
शक्तियां
तुम्हारे
विरुद्ध काम
कर रहो हैं।
तुमने
शैतान को
निर्मित किया
है। लेकिन
शैतान केवल एक
तर्कसंगत
बहाना है। तुम
शैतान हो। तुम्हीं
अपना दुख
बनाते हो।
लेकिन जब भी
तुम व्यथित
होते, तुम
इसका दोष
शैतान पर ही
मढ़ देते हो कि
वह शैतान कुछ
कर रहा है। तो
तुम अपने
मूर्खतापूर्ण
जीवन—शैली के
प्रति कभी जागरूक
नहीं होते हो।
या
तुम इसे भाग्य
कहते हो, या
तुम कहते हो
कि विधाता का
खेल है। लेकिन
तुम इस
बुनियादी
तथ्य को टालते
जाते हो कि जो
कुछ भी
तुम्हें होता
है, तुम्हीं
उसके एकमात्र
कारण हो, और
कुछ भी
आकस्मिक नहीं
है। हर चीज का
कारण होता है
और तुम हो वह
कारण।
उदाहरण
के तौर पर, तुम
प्रेम में पड़
जाते हो।
प्रेम
तुम्हें एक अनुभूति
देता है—एक
अनुभूति कि
आनंद कहीं पास
ही है। तुम
पहली बार
अनुभव करते हो
कि किसी के द्वारा
तुम्हारा
स्वागत किया
गया है। कम से
कम एक व्यक्ति
तुम्हारा
स्वागत करता
है। तुम खिलना
शुरू कर देते
हो। केवल एक
व्यक्ति
द्वारा
तुम्हारा
स्वागत करने
से, तुम्हारी
प्रतीक्षा
करने, तुम्हें
प्रेम करने, तुम्हारा
ध्यान रखने से
तुम खिलना
आरंभ कर देते
हो। लेकिन ऐसा
केवल आरंभ में
होता है, और
फिर तुरंत
तुम्हारा
अपना गलत ढांचा
कार्य करने
लगता है। तुम
फौरन प्रेयसी
के, प्रिय
के मालिक हो
जाना चाहते
हो।
लेकिन
मालिक होना
घातक है। जिस
क्षण तुम प्रेमी
पर कब्जा
जमाते हो, तुम
प्रेम को मार
चुके होते हो।
तब तुम दुख उठाते
हो। तब तुम
रोते और चीखते
हो और फिर तुम
सोचते हो कि
तुम्हारा
प्रेमी गलत है,
कि किस्मत
गलत है, कि
भाग्य की तुम
पर कृपा नहीं
है। लेकिन तुम
नहीं जानते कि
तुमने
आधिपत्य
द्वारा, कब्जा
जमाकर प्रेम
को विषाक्त कर
दिया है।
लेकिन
हर प्रेमी यही
कर रहा है। और
हर प्रेमी इसके
कारण दुख
भोगता है।
प्रेम, जो
तुम्हें
गहनतम वरदान
दे सकता है, वह गहनतम
दुख बन जाता
है। इसलिए
सारी संस्कृतियों
ने, विशेषकर
पुराने समय के
भारत ने, प्रेम
की इस घटना को
पूरी तरह नष्ट
कर दिया।
उन्होंने
बच्चों के लिए
पर—नियोजित
विवाहों की
व्यवस्था दे
दी, ताकि
प्रेम में
पड़ने की कोई
संभावना ही न
रहे, क्योंकि
प्रेम दुख की
ओर ले जाता है।
यह एक इतना
शात तथ्य है
कि यदि तुम
प्रेम होने देते
हो, तो
प्रेम दुख की
ओर ले जाता है।
ऐसा माना गया
कि संभावना की
भी गुंजाइश न
होने देना
बेहतर है।
छोटे बच्चों
का विवाह हो
जाने दो। इससे
पहले कि
उन्हें प्रेम
हो जाये, उनका
विवाह कर दिया
जाये। वे कभी
नहीं जान
पायेंगे कि
प्रेम क्या है,
और तब वे
दुखी न होंगे!
लेकिन
प्रेम कभी दुख
का निर्माण
नहीं करता है।
यह तुम हो, जो
इसमें विष घोल
देते हो।
प्रेम सदा
आनंद है, प्रेम
सदा उत्सव है।
प्रेम
तुम्हें
प्रकृति
द्वारा मिला
गहनतम आनंदोल्लास
है। लेकिन तुम
इसे नष्ट कर
देते हो। ताकि
कहीं दुख में
न पड़ जाओ।
भारत में और
दूसरे पुराने,
पुरातन
देशों में, प्रेम की
संभावना पूरी
तरह से समाप्त
कर दी गयी थी।
तब तुम दुख
में न पड़ोगे, लेकिन तब
तुमने
प्रकृति
द्वारा मिला
वह एकमात्र आनंदोल्लास
गंवा दिया
होगा। केवल एक
सामान्य जीवन
होगा वहां।
कोई दुख नहीं,
कोई
प्रसन्नता
नहीं, बस
किसी तरह जीवन
को खींचे जाना
है! और यही है जो
कुछ विवाह का
अर्थ रहा है
अतीत में।
अब
अमरीका
प्रयत्न कर
रहा है, पश्चिम
प्रयत्न कर
रहा है प्रेम
को पुनजीवित
करने के लिए, पर उसमें से
बहुत दुख चला
आ रहा है। और
देर—अबेर पश्चिमी
देशों को फिर
से बाल—विवाह
का निर्णय
लेना होगा।
कुछ
मनोवैज्ञानिक
सुझाव दे ही
चुके हैं कि
बाल—विवाह को
वापस लाना
होगा क्योंकि
प्रेम इतना अधिक
दुख पैदा कर
रहा है। लेकिन
मैं फिर कहता
हूं कि यह
प्रेम नहीं है।
प्रेम दुख की
रचना नहीं कर
सकता। यह तुम
हो, तुम्हारे
पागलपन का
ढांचा है, जो
दुख को रचता
है। और केवल
प्रेम में ही
नहीं, हर
कहीं। हर कहीं
तुम अपना मन जरूर
ले जाओगे।
उदाहरण
के लिए, बहुत—से
लोग मेरे पास
आते हैं, वे
ध्यान करना
आरंभ करते हैं।
शुरू में
आकस्मिक
झलकियां
कौंधती हैं, लेकिन केवल शुरू
में! एक बार उन्होंने
निश्चित
अनुभवों को
जान लिया, एक
बार उन्हें
निश्चित
झलकियां मिल
गयीं, फिर
हर चीज रुक
जाती है। तब
वे रोते—चीखते
मेरे पास आते
हैं और पूछते
हैं, 'क्या
हो रहा है? कुछ
हो रहा था, कुछ
घटित हो रहा
था, लेकिन
अब हर चीज रुक
गयी है। हम
अपनी पूरी
कोशिश लगा रहे
हैं, लेकिन
अब कुछ भी
घटित नहीं
होता है!'
मैं
उनसे कहता हूं
'पहली बार
वैसा हुआ
क्योंकि तुम
अपेक्षा नहीं कर
रहे थे। अब
तुम आशा कर
रहे हो, जिससे
कि सारी
स्थिति बदल
गयी है।’ जब
पहली बार
निर्भार होने
की अनुभूति
तुम्हें हुई
थी, किसी
अज्ञात
द्वारा पूरित
होने की वह
अनुभूति, अपने
मुर्दा जीवन
से दूर हो
जाने की वह
अनुभूति, भाव—विभोर
क्षणों की वह
अनुभूति, तब
तुम उसकी
अपेक्षा नहीं
कर रहे थे।
तुमने ऐसे
क्षणों को कभी
जाना न था। वे
पहली बार
तुममें उतर
रहे थे। तुम
बेखबर थे, अपेक्षाशून्य।
ऐसी थी स्थिति।
अब
तुम स्थिति
बदल दे रहे हो।
अब हर रोज तुम
ध्यान करने
बैठते, और
किसी चीज की
आशा करते रहते
हो। अब तुम हो
चालाक, होशियार,
हिसाब
लगाने वाले।
जब पहली बार
तुम्हें कोई
झलक मिली थी, तब तुम
निर्दोष थे एक
बच्चे की
भांति। तुम
ध्यान के साथ
खेल रहे थे, लेकिन वहा
कोई अपेक्षा न
थी। और तब घटना
घट गयी थी। और
वह फिर घटेगी,
लेकिन तब
तुम्हें फिर
निर्दोष होना
होगा।
अब
तुम्हारा मन
तुम्हारे लिए
दुख ला रहा है।
और यदि तुम
यही आग्रह
किये चले जाते
हो कि बारंबार
वही अनुभव
मिलना चाहिए, तो
तुम इसे हमेशा
के लिए गंवा
दोगे। यदि तुम
उसे पूरी तरह
भूल न जाओ, इसमें
वर्षों लग
सकते हैं। यदि
तुम पूरी तरह
से असंबंधित
हो जाओ इससे, कि कहीं
अतीत में ऐसी
घटना हुई थी, तो फिर से वह
संभावना
तुम्हारे लिए
प्रकट हो पायेगी।
इसे
मैं कहता हूं
पागलपन। तुम
हर चीज नष्ट
कर देते हो।
जो कुछ भी
तुम्हारे हाथ
में आता है, तुम
फौरन उसे नष्ट
कर देते हो।
और ध्यान रखना,
जीवन बहुत
से उपहार देता
है जो बिन
मांगे मिलते
हैं। तुमने
कभी जीवन से
मांगा नहीं, और जीवन
तुम्हें बहुत
से उपहार देता
है। लेकिन तुम
हर देन को
नष्ट कर देते
हो। और वरदान
लगातार फैलता
जाता है; वह
विकसित हो
सकता है, क्योंकि
जिंदगी तुम्हें
कभी कोई
मुर्दा चीज
नहीं देती है।
यदि प्रेम
तुम्हें दिया
गया है, वह
विकसित हो
सकता है। वह
अज्ञात
आयामों तक विकसित
हो सकता है, लेकिन पहले
ही क्षण से
तुम उसे नष्ट
कर देते हो।
यदि
ध्यान तुममें
घटित हो गया
है,
तो उसे भूल
जाओ और केवल
धन्यवाद
अनुभव करो उस दिव्यता
के प्रति।
केवल कृतज्ञ
अनुभव करो। और
अच्छी तरह से
याद रखना कि
तुम्हारे पास
उस पर दावा
करने की
क्षमता नहीं
है; तुम्हें
किसी भी तरह
से अधिकार
नहीं दिया गया
है उसे पाने
का। वह एक देन
है। वह
भगवत्ता का एक
प्रवाह है।
उपलब्धि को
भूलो। उसकी
अपेक्षा मत
बनाओ, उसकी
मांग मत करो।
अगले दिन वह
फिर आयेगा
कहीं ज्यादा
गहरे, ऊंचे,
विराट रूप
में। वह फैलता
चला जायेगा, लेकिन हर
रोज उसे मन से
ज्जा हो जाने
देना।
संभावनाओं
का कहीं कोई
अंत नहीं है।
वह असीम है।
सारा
ब्रह्मांड
तुम्हारे लिए
आनंदमग्न हो
जायेगा।
लेकिन
तुम्हारे मन
को मिटना ही
होगा।
तुम्हारा मन
एक पागलपन है।
इसलिए जब मैं
कहता हूं कि
केवल दो
विकल्प हैं, पागलपन
या ध्यान, तो
मेरा मतलब
होता है—मन और
ध्यान। यदि
तुम्हारा
होना मन तक ही
सीमित रहता है,
तो तुम पागल
ही रहोगे। जब
तक तुम मन का
अतिक्रमण
नहीं करते, तब तक तुम
पागलपन का
अतिक्रमण
नहीं कर सकते।
अधिक से अधिक
तुम समाज के
काम—चलाऊ
सदस्य हो सकते
हो, बस
इतने ही। और
तुम समाज के
काम—चलाऊ, उपयोगी
सदस्य हो सकते
हो क्योंकि यह
सारा समाज तुम
जैसा ही है।
हर कोई पागल
है, इसीलिए
पागलपन
सामान्य
स्थिति है।
होश
में आओ। और मत
सोचो कि दूसरे
पागल हैं, गहराई
से अनुभव करो
कि तुम पागल
हो और इसके लिए
कुछ करना ही
है। तत्क्षण!
यह एक
संकटकालीन
स्थिति है।
इसे स्थगित मत
करो क्योंकि
एक ऐसी घड़ी आ
सकती है जब
तुम कुछ नहीं
कर सकते। शायद
तुम इतने पागल
हो जाओ कि तुम कुछ
भी करने के
योग्य न रही
अभी
ही तुम कुछ कर
सकते हो। अभी
तक तुम सीमा
में हो। कुछ
किया जा सकता
है;
कुछ प्रयास
किये जा सकते
है; ढांचा
बदला जा सकता
है। लेकिन एक
घड़ी आ सकती है
जब तुम कुछ कर
नहीं सकते; जब तुम पूरी
तरह से
टूट—फूट जाते
हो और जब तुमने
होश भी गंवा
दिया होता है।
यदि
तुम अनुभव
करते हो कि तुम
पागल हो, तो यह
बहुत
आशापूर्ण
लक्षण है। यह
संकेत है कि
तुम अपनी
वास्तविकता
के प्रति सचेत
हो। द्वार
वहां है। तुम
वास्तव में
स्वस्थचित्त
हो सकते हो।
कम से कम इतनी
स्वस्थचित्तता
वहां है कि
तुम स्थिति
समझ सकते हो।
दूसरा
प्रश्न:
सम्यक
ज्ञान की
क्षमता मन की
पांच
क्षमताओं में
से एक है
लेकिन यह अ—मन
की अवस्था
नहीं है फिर
यह कैसे संभव
है कि जो कुछ इस
केंद्र
द्वारा देखा
जाता है वह
सत्य होता है?
क्या सम्यक
ज्ञान का यह
केंद्र
संबोधि के पश्चात
कार्य करता है
' क्या एक
ध्यानी एक
साधक भी इस
केंद्र में
उतर सकता है?
हां, सम्यक
ज्ञान का
केन्द्र—प्रमाण—अभी
मन के भीतर
है। अज्ञान मन
का होता है।
और जान भी मन
का होता है।
जब तुम मन के
पार चले जाते
हो, वहां
कुछ नहीं होता?
न तो अज्ञान
होता है और न
ही ज्ञान।
ज्ञान भी एक
बीमारी है। यह
एक अच्छी
बीमारी है, एक सुनहरी
बीमारी, लेकिन
यह एक बीमारी
है। इसलिए
वास्तव में यह
नहीं कहा जा
सकता है कि
बुद्ध जानते
हैं। यह नहीं
कहा जा सकता
कि वे नहीं
जानते। वे पार
चले गये हैं। किसी
चीज का दावा
नहीं किया जा
सकता कि वे
जानते हैं या
नहीं जानते
हैं।
जब
कोई मन ही
नहीं, तुम
कैसे जान सकते
हो या नहीं
जान सकते हो ' जानना मन के
द्वारा होता
है। मन के
द्वारा तुम
ठीक ढंग से
जान सकते हो, मन के
द्वारा ही तुम
गलत ढंग से
जान सकते हो।
लेकिन जब मन
नहीं है, शान—अज्ञान
दोनों समाप्त
हो जाते हैं।
ऐसा समझना
कठिन होगा, लेकिन यह
आसान है यदि
तुम समझ लेते
हो कि मन जानता
है इसलिए मन
अज्ञानी हो
सकता है।
लेकिन जब मन न
हो तो कैसे
तुम अज्ञानी
हो सकते हो और
कैसे जानी हो
सकते हो! तुम
हो, लेकिन
जानना और न
जानना दोनों
समाप्त हो गये
हैं।
मन
के दो केंद्र
हैं। एक सम्यक
जान का है।
यदि वह केंद्र
क्रियाशील
होता है.. और यह
क्रियान्वित
होने लगता है
एकाग्रता, ध्यान,
मनन, प्रार्थना
के द्वारा; तब जो कुछ भी
तुम जान लेते
हो सत्य होता
है। एक मिथ्या
जान का केंद्र
भी है। यह
कार्य करता है
यदि तुम
उनींदे होते
हो, यदि
तुम सम्मोहित
होने जैसी
अवस्था में
होते हो, किसी
न किसी चीज
द्वारा मदहोश
होते
हो—कामवासना,
संगीत, नशे
या किसी चीज
से।
तुम
आदी हो सकते
हो भोजन के; तब
यह नशा हो
जाता है। शायद
तुम बहुत
ज्यादा खाते
हो। शायद तुम
खाने के लिए
पागल और
भोजन—ग्रसित
हो सकते हो।
तब खाना शराब
की भांति हो
जाता है। कोई
चीज जो
तुम्हारे मन
पर स्वामित्व
जमा लेती है, कोई चीज जिसके
बिना तुम जी
नहीं सकते, नशा देने
वाली बन जाती
है। और यदि
तुम नशों द्वारा
जीते हो तब
तुम्हारा
मिथ्या शान का
केंद्र कार्य
करता है और जो
कुछ भी तुम
जानते हो मिथ्या
है, असत्य
है। तुम झूठ
के संसार में
जीते हो।
लेकिन
ये दोनों
केंद्र मन से
ही संबंध रखते
हैं। जब मन
छूट जाता है
और ध्यान अपनी
समग्रता में
पहुंच जाता है, तब
तुम अ—मन तक
पहुंच जाते
हो। संस्कृत
में हमारे पास
दो शब्द हैं :
एक शब्द तो है
ध्यान। दूसरा
शब्द है
समाधि।’समाधि'
का अर्थ
होता है, ध्यान
की
परिपूर्णता; जहां ध्यान
तक अनावश्यक
बन जाता है, जहां ध्यान करना
अर्थहीन है।
तुम उसे करते
नहीं हो, तुम
वही बन गये हो,
तब यह समाधि
है।
समाधि
की इस अवस्था
में मन नहीं
बचता। वहां न शान
होता है और न
ही अजान। वहां
केवल शुद्ध अस्तित्व
होता है। यह
शुद्ध होना
बिलकुल ही अलग
आयाम है। यह
जानने का आयाम
नहीं है। यह
होने का आयाम
है।
यदि
बुद्ध या जीसस
जैसे पुरुष भी
तुम्हारे साथ
संपर्क करना
चाहें, तो
उन्हें भी मन
का उपयोग करना
होगा। संवाद
के लिए उन्हें
मन का उपयोग
करना ही होगा।
यदि तुम उनसे
कोई प्रश्र
करते हो, तो
उन्हें अपने
सम्यक ज्ञान
वाले केंद्र
का उपयोग करना
होगा। मन
संपर्क बनाने
का, सोच—विचार
करने का, जानने
का उपकरण है।
लेकिन
जब तुम कुछ
पूछ नहीं रहे
हो और बुद्ध
अपने बोधि—वृक्ष
के नीचे बैठे
हुए हैं, तब वे
न अज्ञानी
होते हैं और न
ही तानी। वे
तो बस वहां
होते हैं।
वास्तव में तब
बुद्ध और
वृक्ष में कोई
अंतर नहीं
होता है। एक
अंतर है, लेकिन
एक तरह से कोई
अंतर नहीं
होता है। वे
वृक्ष की
भांति हो गये
हैं, वे
केवल हैं।
वहां कोई
प्रवृत्ति
नहीं जानने की
भी नहीं।
सूर्योदय
होगा, लेकिन
वे नहीं 'जानेंगे'
कि
सूर्योदय हो
गया है। ऐसा
नहीं है कि वे
अज्ञानी बने
रहेंगे—नहीं।
यह केवल ऐसा
है कि जानना
अब उनकी
क्रिया न रही।
वे इतने मौन
हो गये हैं, इतने निश्चल
कि उनमें कुछ
नहीं हिलता—डुलता।
वे
वृक्ष की
भांति हैं।
तुम कह सकते
हो कि वृक्ष
पूर्णतया अज्ञानी
होता है। या
तुम कह सकते
हो कि वृक्ष
मन से नीचे
होता है। उसके
मन ने अभी
कार्य करना शुरू
नहीं किया है।
वृक्ष किसी
जन्म में एक
व्यक्ति बन
जायेगा।
वृक्ष किसी
जन्म में
तुम्हारी तरह
पागल बन जायेगा।
और वृक्ष किसी
जन्म में
ध्यान करने का
प्रयास करेगा
और वृक्ष एक
दिन बुद्ध भी
हो जायेगा।
वृक्ष मन के
नीचे है और
वृक्ष के नीचे
बैठे हुए
बुद्ध मन से
ऊपर हैं।
दोनों मनविहीन
हैं। एक को
अभी मन को
प्राप्त करना
है,
और एक ने
उसे प्राप्त
कर लिया है और
उसके पार हो
गया है।
इसलिए
जब मन का अतिक्रमण
होता है, जब अ—मन
उपलब्ध हो
जाता है, तब
तुम शुद्ध
अस्तित्व हो—सच्चिदानंद।
तुममें कुछ
घटित नहीं हो
रहा है। न तो
क्रिया वहां
है और न ही ज्ञान
वहां है।
लेकिन हमारे
लिए यह कठिन
होता है। शाख
बताते रहे हैं
कि सारे द्वैत
का अतिक्रमण
हो जाता है।
जान
भी द्वैत का
हिस्सा है—अज्ञान
और ज्ञान।
लेकिन तथाकिथित
संत कहे चले
जाते हैं कि
बुद्ध
जाननेवाले हो
गये हैं। यह
है द्वैत से
चिपकना।
इसीलिए बुद्ध
कभी उत्तर न
देते थे। कई
बार,
लाखों बार
उनसे यह पूछा
गया, 'क्या
घटित होता है
जब एक व्यक्ति
बुद्ध हो जाता
है? ' वे मौन
ही रहते। वे
कहते, 'हो
जाओ और जानो।’
क्या घटित
होता है, इसके
बारे में कुछ
नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि
जो कुछ कहा जा
सकता है, वह
तुम्हारी
भाषा में कहा
जायेगा। और
तुम्हारी
भाषा बुनियादी
तौर से
द्वैतवादी है।
अत: जो कुछ कहा
जा सकता है, भ्रांतिपूर्ण
होगा।
यदि
यह कहा जाता
है कि वे
जानते हैं तो
यह गलत होगा।
यदि यह कहा
जाता है कि वे
अमर हो गये
हैं तो यह गलत
होगा। यदि यह
कहा जाता है
कि अब उन्हें
परम आनंद उपलब्ध
हो गया, तो यह
असत्य होगा, क्योंकि
सारे द्वैत
मिट जाते है।
दुख मिट जाता
है, सुख
मिट जाता है।
अज्ञान मिट
जाता है, ज्ञान
मिट जाता है।
अंधकार मिट
जाता है, प्रकाश
मिट जाता है।
मृत्यु मिट
जाती है, जीवन
मिट जाता है।
कुछ नहीं कहा
जा सकता है।
या केवल इतना
ही कहा जा सकता
है, कि जो
कुछ तुम सोच
सकते हो, वह
वहां नहीं
होगा। जो कुछ
धारणा तुम बना
सकते हो, वह
वहां नहीं
होगी। और
एकमात्र
तरीका है कि
वही हो जाओ।
केवल तभी तुम
जानोगे।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि यदि हम राम
की झलकियां देख
पाते है या
कल्पना करते हैं
कि हम कृष्ण के
साथ नृत्य कर
रहे हैं तो
ध्यान रखें कि
यह केवल कल्पना
हो लेकिन अभी पिछली
एक रात आपने कहा
कि यदि हम ग्रहणशील
हैं तो हम बिलकुल
अभी बुद्ध या जीसस
या कृष्ण से संपर्क
बना सकते हैं।
तो क्या यह मिलन
भी कल्पना है, या
ऐसी ध्यानमग्न
अवस्थाएं हैं
जिनमें
क्राइस्ट या
बुद्ध वास्तव
में वहां होते
हैं?
पहली
बात—सौ में से, निन्यानबे
घटनाएं तो
कल्पना
द्वारा
होंगी। तुम
कल्पना कर
लेते हो
इसीलिए कृष्ण
ईसाई को कभी
दिखाई नहीं
पड़ते और
मोहम्मद कभी
हिंदू को नहीं
दिखाई पड़ते।
हम मोहम्मद और
जीसस को भूल
सकते हैं, वे
बहुत दूर है।
जैन के सामने
राम के दर्शन
की झलकियां
कभी प्रकट नहीं
होतीं, वे
नहीं दिख
सकते। हिंदू
के सामने
महावीर कभी प्रकट
नहीं होते।
क्यों? क्योंकि
महावीर की
तुम्हारे पास
कोई कल्पना नहीं
यदि
तुम जन्म से
हिदू हो, तो
तुम राम और
कृष्ण की
अवधारणा पर
पले हो। यदि
तुम जन्म से
ईसाई हो, तब
तुम पले
हो—तुम्हारा
कम्प्यूटर, तुम्हारा मन
पला है जीसस
की धारणा, जीसस
की प्रतिमा के
साथ। जब कभी
तुम ध्यान करना
शुरू करते हो,
वह पोषित
प्रतिमा मन
में चली आती
है, वह मन
में
प्रक्षेपित
हो जाती है।
जीसस
ईसाई व्यक्ति
को दिखते हैं, लेकिन
यहूदियों को
कभी दिखाई
नहीं देते
जीसस। और वे
यहूदी थे।
जीसस यहूदी की
तरह जन्मे और
यहूदी की तरह
मरे। लेकिन वे
यहूदियों को
दिखाई नहीं
देते, क्योंकि
उन्होंने
उनमें कभी
विश्वास नहीं
किया। वे लोग
सोचते थे जीसस
मात्र एक
आवारा है।
उन्हें एक
अपराधी की तरह
सूली पर चढ़ा
दिया उन्होंने।
इसलिए जीसस
यहूदियों को
कभी नहीं
जँचे। लेकिन
वे यहूदियों
के संबंधी थे।
उनकी धमनियों
में यहूदी खून
था।
मैंने
एक मजाक सुना
है कि नाजी
जर्मनी में
हिटलर के
सिपाही एक शहर
में यहूदियों
को मार रहे थे।
वे बहुतों को
मार चुके थे
लेकिन कुछ
यहूदी बचकर
भाग निकले थे।
वह एक रविवार
की सुबह थी, इसलिए
जब वे बचकर
भागे, तो
वे एक चर्च
में चले गये
क्योंकि
उन्होंने सोचा
था कि वह
छुपने के लिए
सबसे अच्छी
जगह रहेगी—स्व
ईसाई चर्च। वह
चर्च ईसाइयों
से भरा था। वह
इतवार की सुबह
थी, और
लगभग एक दर्जन
यहूदी वहां
छिपे हुए थे।
लेकिन
सिपाहियों को
भी खबर मिल
गयी कि कुछ
यहूदी चर्च
में जा छिपे
हैं तो वे
चर्च में गये।
उन्होंने
पादरी से कहा, अपना
धार्मिक
अनुष्ठान बंद
करो।’ सिपाहियों
का नेता मंच
पर गया और
बोला, 'तुम
हमें धोखा
नहीं दे सकते।
कुछ यहूदी
यहां छिपे हुए
हैं। जो कोई
यहूदी है उसे
बाहर आकर पंक्ति
में खड़े हो
जाना चाहिए।
यदि तुम हमारा
आदेश माने तो
तुम बच सकते
हो, लेकिन
यदि कोई हमें
धोखा देने की
कोशिश करेगा तो
फौरन मार दिया
जायेगा।’
धीरे—धीरे
यहूदी चर्च से
बाहर आ गये और
वे एक पंक्ति
में खड़े हो
गये। तब अचानक
चर्च की सारी भीड़
को ध्यान आया
कि जीसस लुपा
हो गये थे।
गायब हो गयी
वह मूर्ति
जीसस की। वे
भी यहूदी थे
इसलिए वे बाहर
उसी पंक्ति में
खड़े हुए थे।
लेकिन
जीसस यहूदियों
के सामने कभी
प्रकट नहीं
होते और वे
ईसाई न थे। वे
किसी ईसाई
चर्च से
संबंधित न रहे
थे। यदि वे
वापस आ जायें, वे
ईसाई चर्च को
पहचानेंगे भी
नहीं। वे
सिनागोग की ओर
बढ़ जायेंगे।
वे यहूदी
संप्रदाय में
जा
पहुंचेंगे।
वे किसी रबाई
से मिलने चले
जायेंगे। वे
कैथोलिक या
प्रोटेस्टेंट
पादरी से
मिलने नहीं जा
सकते। वे
उन्हें नहीं
जानते। लेकिन
यहूदियों को
वे कभी दिखाई नहीं
पड़ते क्योंकि
उनकी
कल्पनाओं में वे
कभी बीज की
तरह पड़े नहीं।
उन्हें
अस्वीकृत कर दिया
था उन्होंने,
तो बीज वहां
नहीं है।
इसलिए
जो कुछ घटित
होता है, निन्यानबे
संभावनाएं
ऐसी हैं कि वह
केवल तुम्हारा
पोषित शान, धारणाएं और
प्रतिमाएं
होती होंगी।
वे तुम्हारे
मन के सामने
झलक जाती हैं।
और जब तुम
ध्यान करने
लगते हो, तो
तुम इतने
संवेदनशील हो
जाते हो कि
तुम स्वयं
अपनी
कल्पनाओं के
शिकार हो सकते
हो। और तुम्हारी
कल्पनाएं
बहुत
वास्तविक
लगेंगी। और इसे
जांचने का कोई
रास्ता नहीं
है कि वे
वास्तविक
होती हैं या
अवास्तविक।
केवल
एक प्रतिशत
मामलों में यह
काल्पनिक न होगा, लेकिन
पता कैसे चले?
उन एक
प्रतिशत
मामलों में
वास्तव में
वहां किसी
धारणा की कोई
छबि होगी ही
नहीं। तुम यह
अनुभव नहीं
करोगे कि जीसस
सूली पर चढ़े
हुए तुम्हारे
सामने खड़े हैं;
तुम नहीं
अनुभव करोगे
कि कृष्ण
तुम्हारे सामने
खड़े हैं या
तुम उनके
सामने नाच रहे
हो। तुम उनकी
उपस्थिति को
अनुभव करोगे,
लेकिन कोई
प्रतिमा न
होगी, इसे
ध्यान में
रखना। तुम एक
दिव्य
उपस्थिति का
अवतरण अनुभव
करोगे। तुम
किसी अज्ञात
द्वारा भर
जाओगे, लेकिन
वह बिना किसी
आकार का है।
वहां नृत्य करते
हुए कृष्ण न
होंगे; सूली
पर चढ़े हुए
जीसस न होंगे
और न सिद्धासन
में बैठे हुए
बुद्ध होंगे
वहां। नहीं, वहां तो
केवल एक
उपस्थिति
होगी। एक
जीवंत उपस्थिति
तुममें
लहराती
हुई—भीतर और
बाहर। तुम उससे
अभिभूत हो
जाओगे, तुम
उसकी अथाह
जलराशि में
उतर जाओगे।
जीसस
तुममें नहीं
होंगे, तुम
जीसस में
होओगे—यह होगा
अंतर। कृष्ण
प्रतिमा की
तरह तुम्हारे
मन में न
होंगे, तुम
कृष्ण में
होओगे। लेकिन
कृष्ण
निराकार होंगे।
वह एक अनुभव
होगा, कल्पनात्मक
धारणा नहीं।
तब
उसे कृष्ण
क्यों कहा
जाये? वहां
कोई आकृति
नहीं होगी।
उन्हें जीसस
क्यों कहा
जाये? ये
तो केवल
प्रतीक हैं; भाषा—विज्ञान
के प्रतीक हैं।
तुम इस शब्द 'जीसस' के
साथ घुल—मिल
गये हो, इसलिए
जब वह
उपस्थिति
तुममें भर
जाती है और तुम
उसका एक
हिस्सा बन
जाते हो—उसका
एक आंदोलित हिस्सा,
जब तुम उस
महासागर की एक
बूंद बन जाते
हो, तो इसे
व्यक्त कैसे
करो? शायद
तुम्हारे लिए
सबसे सुंदर
शब्द हो. 'जीसस',
या सबसे
सुंदर शब्द
होगा 'बुद्ध'
या 'कृष्ण',
ये शब्द मन
में पलते रहे
हैं इसलिए तुम
कुछ निश्चित
शब्द चुन लेते
हो उस
उपस्थिति को
बताने के लिए।
लेकिन
वह उपस्थिति
मात्र छाया
नहीं है, वह स्वप्न
नहीं है। वह
कोई मनोछबि
नहीं है। तुम
जीसस का उपयोग
कर सकते हो, तुम कृष्ण
का उपयोग कर
सकते हो, तुम
क्राइस्ट का
उपयोग कर सकते
हो या जो भी कोई
नाम तुम्हें
अच्छा लगे। जो
भी नाम
प्रीतिकर हो।
यह तुम पर है।
वह शब्द और वह
नाम और वह रूप
तुम्हारे मन
से आयेगा, लेकिन
वह अनुभव
स्वयं अरूप
है। वह कल्पना
नहीं है।
एक
कैथोलिक
पादरी एक झेन
गुरु नान—इन
से मिलने जा
रहा था।
नान—इन ने
जीसस के बारे
में कभी सुना
नहीं था तो इस
कैथोलिक पादरी
ने सोचा, यह
अच्छा होगा
यदि मैं जाकर 'दि सरमन ऑन
दि माउंट' का
कुछ हिस्सा
पढ़कर सुनाऊं।
और मैं
देखूंगा कि
नान—इन क्या
प्रतिक्रिया
करता है। लोग
कहते हैं कि
वह बुद्ध—पुरुष
इसलिए
कैथोलिक
पादरी नान—इन
के पास गया और
बोला, 'गुरुदेव,
मैं ईसाई
हूं और मेरे
पास एक पुस्तक
है जो मुझे
प्यारी है।
मैं इसमें से
कुछ पढ़कर आपको
सुनाना
चाहूंगा, केवल
यह जानने के
लिए कि आप उसे
कैसे
प्रतिसंवेदित
करते हैं, क्या
प्रतिक्रिया
दिखाते हैं।’
उसने कुछ
पंक्तियां 'दि सरमन ऑन
दि माउंट' में
से पढ़ी……..न्यू
टेस्टामेंट
से। और उसने
उनका अनुवाद
जापानी में
किया क्योंकि
नान—इन केवल
जापानी समझ
सकता था।
जब
उसने अनुवाद
करना आरंभ
किया, नान—इन
का सारा चेहरा
बिलकुल ही बदल
गया। उसकी आंखों
से आंसू बहने
लगे और वह
बोला, 'ये
बुद्ध के वचन
हैं।’ वह
ईसाई पादरी
कहने लगा, 'नहीं—नहीं,
ये जीसस के
वचन हैं।’ नान—इन
बोला, 'कोई
बात नहीं, तुम
जो नाम दे दो, मैं अनुभव
करता हूं कि
ये बुद्ध के
वचन हैं क्योंकि
मैं केवल
बुद्ध को
जानता हूं और
ये वचन केवल
बुद्ध के
द्वारा आ सकते
हैं। और यदि तुम
कहते हो, ये
जीसस के
द्वारा आये
हैं तो जीसस
बुद्ध थे।
इससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता है।
तो मैं अपने
शिष्यों से
कहूंगा जीसस
बौद्ध
यही
होगा बोध। यदि
तुम दिव्य
उपस्थिति को
अनुभव करते हो
तो फिर नाम
नगण्य है। नाम
तो अलग होंगे
ही हर एक के
लिए क्योंकि
नाम शिक्षा
द्वारा
पहुंचते हैं, नाम
सभ्यता
द्वारा आते
हैं, नाम
जाति से आते
हैं, जिससे
तुम संबंधित
होते हो।
लेकिन अनुभव
समाज से संबंध
नहीं रखता।
अनुभव तो किसी
सभ्यता से
संबंध नहीं
रखता। अनुभव
तुम्हारे
कम्प्यूटर—मन
से संबंधित
नहीं है। वह
तुम्हारा
अपना ही है।
इसलिए
खयाल रहे, यदि
तुम दृश्य
देखते हो, तो
वे कल्पनाएं
हैं। लेकिन
यदि तुम
उपस्थिति को
अनुभव करने
लगते हो—
आकारहीन, अस्तित्वगत
अनुभूतियां; स्वयं को
उनमें लपेट
देते हो, उनमें
विलीन हो जाते
हो, उनमें
घुल जाते हो
और तब तुम
वास्तव में
संपर्क पा
लेते हो।
तुम
उस उपस्थिति
को जीसस कह
सकते हो या
तुम उस
उपस्थिति को
बुद्ध कह सकते
हो। यह तुम पर
निर्भर करता
है,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जीसस
बुद्ध हैं और
बुद्ध
क्राइस्ट हैं।
वे, जो मन
के पार चले
गये हैं, व्यक्तित्व
के भी पार चले
गये हैं। आकार
व स्वप्न के
भी पार चले
गये हैं। यदि
जीसस और बुद्ध
एक साथ खड़े हो
जायें, तो
वहां दो शरीर
होंगे, पर
आला एक ही।
वहां दो शरीर
होंगे, लेकिन
दो मौजूदगिया
नहीं; केवल
मौजूदगी ही।
यह
ऐसा है जैसे
कि तुम दो
लैम्प एक कमरे
में रख दो।
लैम्प दो हैं, वे
मात्र शरीर
हैं, लेकिन
प्रकाश एक है।
तुम निर्धारित
नहीं कर सकते
कि यह प्रकाश
इस लैम्प का
है और वह
प्रकाश उस लैम्प
का है। प्रकाश
मिल गये है।
लैम्पों का
भौतिक भाग अलग
बना रहा है
लेकिन अभौतिक
भाग एक हो गया
है।
यदि
बुद्ध और जीसस
समीप आ जायें
यदि वे एक साथ खड़े
हो जायें, तो
तुम दो अलग
लैम्प देखोगे,
लेकिन उनके
प्रकाश मिल ही
चुके हैं। वे
एक हो गये हैं।
वे सब जिन्हें
सत्य का बोध
हुआ है, एक
हो गये हैं।
उनके नाम अलग
हैं उनके
अनुयायियों
के लिए, लेकिन
उनके लिए अब
कोई नाम नहीं
रहे हैं।
चौथा
प्रश्न:
कृपया
समझाइए कि
क्या जागरूकता
भी मन की एक
वृत्ति है?
नहीं, जागरूकता
मन का हिस्सा
नहीं है। वह
मन के द्वारा
प्रवाहित
होती है लेकिन
वह मन का
हिस्सा नहीं
है। यह बल्व
की भांति है, जिसके
द्वारा
विद्युत
प्रवाहित
होती है, लेकिन
विद्युत बल्व
का हिस्सा
नहीं है। यदि
तुम बल्व को
तोड़ते हो, तो
तुमने बिजली
को नहीं तोड़ा
है। उसकी
अभिव्यक्ति
में रुकाव आ
जायेगा, लेकिन
क्षमता
प्रच्छन्न
रहती है। यदि
तुम दूसरा
बल्व रखते हो,
तो बिजली
प्रवाहित
होने लगती है।
मन
केवल एक उपकरण
है। जागरूकता
उसका हिस्सा
नहीं है, लेकिन
जागरूकता
उसके द्वारा
प्रवाहित
होती है। जब
मन का अतिक्रमण
हो जाता है, जागरूकता
अपने आप बनी
रहती है।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
बुद्ध को भी
मन का प्रयोग
करना होगा, यदि उन्हें
तुमसे बात
करनी हो, यदि
उन्हें तुमसे
संबंधित होना
हो। क्योंकि
तब उन्हें एक
प्रवाह की
आवश्यकता होगी—उनके
आंतरिक स्रोत
का प्रवाह।
उन्हें
प्रयोग करना
पड़ेगा
उपकरणों का, माध्यमों का,
और फिर मन
कार्य करेगा।
लेकिन मन केवल
एक वाहन है, एक साधन।
तुम
वाहन में
घूमते—फिरते
हो लेकिन तुम
वाहन नहीं हो।
तुम कार में
जाते हो, हवाई
जहाज द्वारा
उड़ान करते हो,
लेकिन तुम
वाहन नहीं हो।
मन वाहन मात्र
है। और तुम मन
की पूरी
क्षमता का
उपयोग नहीं कर
रहे हो। यदि
तुम इसकी पूरी
क्षमता का
उपयोग करो, तो यह सम्यक
ज्ञान हो
जायेगा।
हम
मन का उपयोग
ऐसे कर रहे
हैं जैसे कोई
हवाई जहाज का
उपयोग बस की
भांति कर रहा
हो। तुम हवाई
जहाज के पंख
काट सकते हो
और सड़क पर उसे
बस की तरह चला
सकते हो; वह
काम करेगा। वह
बस की तरह काम
करेगा। लेकिन
तुम मूर्ख हो।
वह बस उड सकती
है! तुम उसकी
भरपूर क्षमता
का उपयोग नहीं
कर रहे।
तुम
अपने मन का
उपयोग कर रहे
हो सपनों, कल्पनाओं
और पागलपन के
लिए। तुम ठीक
से इसका उपयोग
नहीं कर रहे; तुमने इसके
पंख काट दिये
हैं। यदि तुम
पंख सहित इसका
उपयोग करो, तो यह सम्यक ज्ञान
बन सकता है।
यह प्रज्ञा बन
सकता है।
लेकिन वह भी
मन का ही
हिस्सा है, वह भी एक
साधन है।
उपयोग करने
वाला पीछे बना
रहता है, उपयोग
करने वाले का
उपयोग नहीं
किया जा सकता।
तुम मन का
उपयोग कर रहे
हो। तुम स्वयं
जागरूकता हो।
और ध्यान की
सारी कोशिशों
का अर्थ है
इसी चैतन्यता
को इसकी
शुद्धता में
जान लेना, बिना
किसी माध्यम
के। तुम्हें
इसका बोध हो
सकता है बिना
किसी साधन के।
तुम्हें इसका
बोध हो सकता
है। लेकिन
इसका बोध केवल
तभी हो सकता
है जब मन ने कार्य
करना बंद कर
दिया हो। जब
मन ने कार्य
करना बंद कर
दिया हो, तब
तुम सचेत हो
जाओगे कि
चैतन्यता
वहां है। तुम
इससे भरे हुए
हो, मन तो
केवल एक वाहन
था, एक
मार्ग। अब यदि
तुम चाहो, तुम
मन का उपयोग
कर सकते हो।
यदि तुम न
चाहो, तो
तुम्हें कोई जरूरत
नहीं इसके
उपयोग की।
शरीर
और मन दोनों
वाहन हैं। तुम
वाहन नहीं हो।
तुम वाहन के
पीछे छिपे
मालिक हो।
लेकिन तुम इसे
पूरी तरह से
भूल चुके हो।
तुम बैलगाड़ी
बन गये हो, तुम
वाहन बन गये
हो। इसे ही
गुरजिएफ ने तादात्म्य
कहा है, इसे
ही भारत में
योगियों ने
कहा तादात्म्य—तादात्म्य
बना लेना किसी
उस चीज के साथ,
जो तुम नहीं
हो।
पाँचवाँ
प्रश्न:
कृपया
समझाइए यह कैसे
संभव है कि
केवल देखने
द्वारा
साक्षी द्वारा
मस्तिष्क की
कोशिकाओं की
रेकार्डिग्ज,
विचार—प्रक्रिया
के स्रोत
समाप्त हो
सकते हैं
वे समाप्त
कभी नहीं होते
लेकिन साक्षी होने
से तादात्म्य
टूट जाता है।
संबोधि पाने के
बाद बुद्ध चालीस
वर्ष तक अपने शरीर
में रहे। शरीर
समाप्त नहीं हुआ।
चालीस वर्ष तक
वे बोलते रहे
थे,
लगातार समझाते
रहे, लोगों
को समझाते रहे
कि उन्हें क्या
घटित हुआ था
और वही उन्हे कैसे
घटित हो सकेगा।
वे इसी मन का उपयोग
कर रहे थे, यह
मन समाप्त
नहीं हो गया
था। और जब
बारह वर्ष बाद
वे अपने शहर
में वापस आये,
तो
उन्होंने
अपने पिता को
पहचान लिया, पली को
पहचाना, बेटे
को पहचाना। मन
था वहां, स्मृति
थी उसमें, वरना
पहचान असंभव
हो गयी होती।
मन
वास्तव में
समाप्त नहीं
हो जाता। जब
हम कहते हैं
कि मन समाप्त
हो जाता है, हमारा
मतलब होता है
कि इसके साथ
बना तुम्हारा तादात्म्य
टूट जाता है।
अब तुम जानते
हो कि वह मन है
यह 'मैं' हूं। पुल
टूट चुका है।
अब मन मालिक
नहीं है। यह
तो बस एक
उपकरण हो गया
है, यह
अपने सही
स्थान पर जा
पड़ा है। जब
कभी तुम्हें
इसकी जरूरत हो,
तुम इसका
उपयोग कर सकते
हो। यह तो
पंखे की तरह
है। यदि तुम
इसका उपयोग
करना चाहते हो,
तुम इसे चला
देते हो, और
तब पंखा चलने
लगता है। अभी
तुम पंखे का
उपयोग नहीं कर
रहे हो इसलिए
यह गैर—क्रियात्मक
है। लेकिन यह
वहां है, इसका
होना समाप्त
नहीं हुआ है।
किसी क्षण तुम
इसका उपयोग कर
सकते हो। यह
विलीन नहीं
हुआ है।
साक्षीभाव
द्वारा केवल तादात्म्य
विलीन हो जाता
है,
मन नहीं।
लेकिन जब तादात्म्य
विलीन हो जाता
है, तुम
बिलकुल ही नयी
सत्ता हो।
पहली बार तुम
जान लेते हो
अपनी
वास्तविक
सत्ता को, अपनी
सही
वास्तविकता
को। पहली बार
तुम जान पाते
हो कि तुम कौन
हो। अब मन
तुम्हारे आस—पास
घिरी एक यंत्र—रचना
का हिस्सा भर
होता है।
यह
तो ऐसा है
जैसे तुम
पाइलट बन हवाई
जहाज चलाते हो।
तुम बहुत से
यंत्रों का
इस्तेमाल
करते हो, तुम्हारी
आंखें कई
यंत्रों के
साथ कार्य
करती हैं। वे
लगातार इस और
उस चीज का होश
रखती हैं।
लेकिन तुम
नहीं हो यंत्र।
यह
मन,
यह शरीर और
शरीर—मन के कई
कार्य, चारों
ओर हैं
तुम्हारे।
यही संरचना है।
इस संरचना में
तुम दो ढंग से
हो सकते हो।
होने का एक
तरीका है कि
स्वयं को भूल
जाओ और अनुभव
करो कि तुम
मैकेनिज्य हो।
यह है बंधन, यह है दुख, यही है जगत, संसार।
क्रियाशील
होने का दूसरा
तरीका यह है—सचेत
हो जाओ कि तुम
पृथक हो, कि
तुम भिन्न हो।
तब तुम यंत्र—रचना
का उपयोग किये
चले जा सकते
हो, तो भी
यह पृथक ही है।
तब तुम वह
नहीं हो। और
यदि यांत्रिक—बनावट
में कुछ गलत
हो जाता है, तुम इसे ठीक
करने की कोशिश
कर सकते हो, लेकिन
घबराओगे नहीं।
यदि पूरी
यंत्र—रचना
विलीन भी हो
जाये, तो
तुम्हारी
शांति पा न
होगी।
बुद्ध
का मरना और
तुम्हारा
मरना दो अलग
घटनाएं हैं।
जब बुद्ध मरते
हैं,
तो वे जानते
हैं कि केवल
यंत्र—रचना मर
रही है। इसका
उपयोग हो चुका
है और अब इसकी
और जरूरत नहीं
रही। बोझ हट
गया है; वे
मुक्त हो रहे
हैं। अब वे
बिना स्वपाकार
के घूमेंगे—फिरेंगे।
लेकिन जब तुम
मरते हो तो वह
बिलकुल अलग
होता है। तुम.
दुखी होते हो,
तुम चीखते
हो, क्योंकि
तुम अनुभव
करते हो कि 'तुम' मर
रहे हो, यंत्र—रचना
नहीं। वह 'तुम्हारी'
मृत्यु है।
तब .वह गहन
पीड़ा बन जाती
है।
केवल
साक्षीभाव
द्वारा मन
समाप्त नहीं
होता है और
मस्तिष्क की
कोशिकाएं
समाप्त न होंगी।
बल्कि वे
अधिक जीवंत हो
जायेंगी
क्योंकि उन
में द्वंद्व
कम होगा और
ऊर्जा ज्यादा
होगी। वे
ज्यादा ताजी
हो जायेंगी।
तुम ज्यादा
सही ढंग से
उनका उपयोग कर
पाओगे, ज्यादा
ठीक—ठीक।
लेकिन तुम
उनके द्वारा
बोझिल नहीं होओगे।
और वे कुछ
करने के
लिएतुम्हें
विवश नहीं
करेंगी। वे
तुम्हें इधर—उधर
धकेलेंगी और
खींचेंगी
नहीं। तुम
मालिक हो
जाओगे।
लेकिन
केवल
साक्षीभाव
द्वारा यह
कैसे घटित होता
है?
वह विपरीत,
वह बंधन
घटित हुआ है
साक्षी न होने
से। बंधन घटित
हुआ है, क्योंकि
तुम जागरूक नहीं
हो। तो बंधन
छूट जाये, यदि
तुम जागरूक हो
जाओ। बंधन
केवल अचेतनता
है। किसी और
चीज की जरूरत
नहीं है सिवाय
इसके कि जो
कुछ तुम करो
उसमें और भी
सजग हो जाओ।
तुम
यहां बैठे हुए
मुझे सुन रहे
हो;
तुम जागरूकता
से सुन सकते
हो या तुम
बिना जागरूकता
के सुन सकते
हो। बिना जागरूकता
के भी सुनना
हो जायेगा, लेकिन वह एक
दूसरी चीज
होगी। गुण में
अंतर होगा। तब
तुम्हारे कान
सुन रहे होंगे,
लेकिन
तुम्हारा मन
कहीं और ही
कार्य कर रहा
होगा।
तब
किसी तरह कुछ
शब्द तुममें
भर जायेंगे।
वे मिल—जुल कर
उलझ जायेंगे।
और तुम्हारा
मन अपने ढंग
से उनकी
व्याख्या कर
लेगा। वह अपने
विचार उनमें
रख देगा। हर
चीज गड़बड़ और
धुंधली हो
जायेगी।
तुमने सुन
लिया होगा, लेकिन
बहुत बातें
बाहर से ही
गुजर जायेगी
और बहुत—सी बातों
को तुम सुन न
पाये होगे।
तुम चुनोगे।
तब सारी बात
ही विकृत हो
जायेगी।
यदि
तुम सजग होते
हो,
जिस घड़ी तुम
सजग होते हो, सोचना
समाप्त हो
जाता है।
सजगता के साथ
तुम सोच नहीं
सकते। यदि
पूरी ऊर्जा
सचेत हो जाती
है, तब
विचार के लिए
ऊर्जा बची ही
नहीं। यदि तुम
एक क्षण के
लिए भी सजग हो
जाते हो, तो
तुम केवल
सुनते हो। कोई
बाधा नहीं
रहती। जो
मैंने कहा है,
उसके साथ
मिश्रित होने
के लिए
तुम्हारे
अपने शब्द
नहीं रहे।
तुम्हें अर्थ
लगाने की जरूरत
न रही। प्रभाव
सीधा है।
यदि
तुम सजगता से
सुन सकते हो, तब
मैं जो कह रहा
हूं वह
अर्थपूर्ण हो
सकता है, या
अर्थपूर्ण
नहीं भी हो
सकता है, लेकिन
तुम्हारा
सजगता के साथ
सुनना
महत्वपूर्ण
अर्थ रखेगा।
यह सजगता ही
तुम्हारी
चेतना को एक
शिखर तक ले जायेगी।
अतीत विलीन हो
जायेगा, भविष्य
मिट जायेगा।
तुम कहीं और न
होओगे। तुम
होओगे केवल
अभी और यहीं।
और मौन के उसी
क्षण में जब
सोचना नहीं
रहा, तुम
अपने स्रोत के
साथ गहरा
संपर्क पा
जाओगे। और वह
स्रोत है आनंद।
वह स्रोत
दिव्य है।
इसलिए करना है
तो केवल यही
कि हर बात
सजगता के साथ
करनी है।
छठवां
प्रश्न:
जब
लाओत्सु पर
बात कर रहे
हों तो आप एक
ताओवादी संत
बन जाते हैं
जब तंत्र पर
बोल रहे हों
तो आप
तांत्रिक बन
जाते हैं जब
भक्ति की बात
कर रहे हों तो
आप संबोधि पाए
हुए भक्त बन
जाते हैं जब
योग पर बोल
रहे हैं लेई
आप एक पूर्ण
योगी बन गये
है क्या आप
कृपया स्पष्ट
करेंगे कि किस
तरह यह अद्भुत
घटना संभव हो
पायी है?
जब तुम
नहीं होते
केवल तभी यह
संभव होता है।
यदि तुम हो, तब
वह संभव नहीं
हो पाता। यदि
तुम नहीं हो, यदि मेजबान
बिलकुल चला
जाता है, तभी
मेहमान
मेजबान बनता
है। वे मेहमान
लाओत्सु हो
सकते हैं, वे
मेहमान हो
सकते हैं
पतंजलि।
मेजबान वहां
नहीं है, इसलिए
मेहमान
पूर्णतया
उसकी जगह ले
लेता है, वह
मेजबान बन
जाता है। यदि
तुम न रहो, तब
तुम पतंजलि हो
सकते हो, उसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। तुम
कृष्ण बन सकते
हो, तुम
क्राइस्ट बन
सकते हो।
लेकिन यदि तुम
रही वहां, तब
यह बहुत कठिन
है। यदि तुम
हो वहां, तब
जो कुछ तुम
कहते हो
भ्रांतिपूर्ण
होगा।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि ये
व्याख्याएं
नहीं हैं। मैं
पतंजलि पर
चर्चा नहीं कर
रहा। मैं तो
अनुपस्थित
हूं;
पतंजलि को
आने दे रहा
हूं। इसलिए यह
कोई व्याख्या
या टीका—टिप्पणी
नहीं है।
व्याख्या का
अर्थ होता है
कि पतंजलि कुछ
पृथक हैं, मैं
कुछ पृथक हूं
और मैं पतंजलि
पर चर्चा कर रहा
हूं। तब यह
विकृत होगा ही।
क्योंकि कैसे
मैं पतंजलि पर
टीका कर सकता
हूं? जो
कुछ मैं कहता
हूं वह मेरा
कहना होगा। और
जो कुछ भी मैं
कहता हूं वह
मेरा अर्थ—निर्णय
होगा। वह
पतंजलि का
अपना नहीं हो
सकता। और वह
शुभ नहीं है।
यह ध्वंसात्मक
है। इसलिए मैं
व्याख्या
नहीं कर रहा।
मैं केवल होने
दे रहा हूं।
और यह होने
देना संभव
होता है यदि
तुम न रही।
यदि
तुम साक्षी हो
जाते हो, तो
अहंकार विलीन
हो जाता है।
जब अहंकार
विलीन हो जाता
है, तब तुम
वाहन बन जाते
हो, तुम एक
मार्ग बन जाते
हो। तुम एक
बास की पोंगरी
बन जाते हो।
और बांसुरी
पतंजलि के
अधरों पर रखी
जा सकती है, बांसुरी
कृष्ण के
अधरों पर रखी
जा सकती है।
वह बांसुरी
वही रहती है
लेकिन जब यह
बुद्ध के
होठों पर होती
है तब बुद्ध
प्रवाहित हो
रहे होते हैं।
इसलिए
यह कोई
व्याख्या
नहीं है। यह
समझना
मुश्किल है
क्योंकि तुम
तैयार नहीं हो
कि होने देओ।
तुम भीतर इतने
विद्यमान हो
कि तुम किसी
और को वहां
होने नहीं
देते। पतंजलि
व्यक्ति नहीं
हैं—एक
उपस्थिति हैं।
यदि तुम मौजूद
नहीं होते हो, तो
उनकी
उपस्थिति
कार्य कर सकती
है।
यदि
तुम पतंजलि से
पूछो, तो वे
यही कहेंगे।
यदि तुम
पतंजलि से
पूछो तो वे
नहीं कहेंगे
कि ये सूत्र
उनके द्वारा
रचे गये हैं।
वे कहेंगे, ये बहुत
प्राचीन हैं—सनातन।
वे कहेंगे, लाखों और
लाखों ऋषियों
ने यह देखा है।
मैं तो केवल
एक वाहन हूं।
मैं
अनुपस्थित
हूं और वे बोल
रहे हैं। यदि
तुम कृष्ण से
पूछो, वे
कहेंगे, 'मैं
नहीं बोल रहा
हूं। ये
अत्यंत
प्राचीन
संदेश हैं। ये
सदा से ऐसे
रहे हैं।’ और
यदि तुम जीसस
से पूछो, वे
कहेंगे, मैं
तो हूं ही
नहीं। मैं
नहीं हूं।
यह
आग्रह क्यों? कोई
भी जो
अनुपस्थित हो
जाता है, जो
अहंकारशून्य
हो जाता है, वाहन की
भांति कार्य
करने लगता है—एक
मार्ग की तरह—वह
सब जो सत्य है
उसका एक मार्ग;
वह सब जो
अस्तित्व में
छिपा हुआ है
और जो प्रवाहित
हो सकता है
उसका मार्ग।
और जो कुछ मैं
कहता हूं उसे
तुम केवल तभी
समझ पाओगे जब
तुम
अनुपस्थित हो
जाओ, चाहे
कुछ क्षणों के
लिए ही।
यदि
तुम वहां बहुत
ज्यादा होते
हो,
यदि
तुम्हारा
अहंकार वहां
हैं, तो जो
कुछ मैं कह
रहा हूं वह
तुममें
प्रवाहित नहीं
हो सकता है।
यह केवल एक
बौद्धिक
संप्रेषण
नहीं है। यह
कुछ है जो
अधिक गहरा है।
यदि
तुम एक क्षण
के लिए भी
अहंकारशून्य
हो जाते हो, तब
घनिष्ठ
संपर्क अनुभव
होगा, तब
कुछ अज्ञात
तुममें प्रवेश
कर चुका होगा
और उस क्षण
में तुम समझ
पाओगे। और
दूसरा कोई
रास्ता नहीं
है समझने का, जानने का।
It is just amazing.
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