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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-13)

मरिलै रे मन द्रोहीप्रवचन—तेहरवां

दिनांक: 13 नवंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

अवधू मास भषत दया धरम का नास। मद पीवत तहां प्राण निरास।
भलि भषत ज्ञानं ध्यानं षोवंत। जम दरवारी ते प्राणी रोवंत।।
जीव क्या हतिये रे प्यंडधारी। मारिलै पंचभू मृगला।
चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया—दाण।।
कथत गोरख मुकति लै मानवा, मारिलै रे मन द्रोही।
जाके बप वरण मांस नहीं लोही।।
पावडिया पग फिलसै अवधू लोहै छीजत काया।
नागा द्वी आधारी, स्पा जोग न पाया।।
हिरदा का भाव हाथ में जाणिये, यह कलि आई षोटी।
बदंत गोरख सुणौ रें अवधू करवै होइ सु निकसै टोटी।।
कोई बादी कोई विवादी, जोगी कौं बाद न करना।
अठसठि तीरथि समदि समावै, यूं जोगी को गुरुमुषि जरनां।।
अवधू मन चंगा तौ कठौती ही गंगा। बांध्या मेला तो गात्र चेला।
बदंत गोरख सति सरूप। तत विचारै ते रेख न रूप।।
यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पांच तत्त का जीव।
यहु मन ले जे उनमन रहै। तौ तीनि लोक की बातां कहै।।
दाबि न मारिबा खाली न राषिबा, जानिबा मानि का भेवं।
की ही थै गुरबाणी होइगी, सति सति भाषति श्री गोरख देवं।।
राति गई अधराति गई, बालक एक पुकारै।
है कोई नगर मैं सूरा, बालक का दुख निबारै।।
देवल जात्रा सुंनि जात्रा, तीरथ जात्रा पाणी।
अतीत जात्रा सुफल जात्रा, बोलै अमृत वाणी।।





का सूरज, प्रतीची की सजीली गोद में सोया,
किसी से नीड़ में बिछुडा हुआ पंछी मिला, खोया;
मगर मैं हूं कि सूनी राह पर चुपचाप चलता हूं
थके पग, पर परिश्रम के प्रहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?

लिये प्रतिबिंब कूलों का, अंधेरे में नदी सोई,
भ्रमर के प्यार की तड़पन कमल के अंक में खोई!
थकी लहरें हुईं खामोश गिर करके किनारों पर,
दृगों में, किंतु, आंसू की लहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?

पवन ने पी लिया आसव कुमुद की स्निग्ध पाखों का।
किसी ने भी न पोंछा नीर मेरी क्षुब्ध आंखों का
तिमिर का विष गई पी रात चांदी के कटोरे से
मगर मेरी निराशा के जहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?

डगर का अंत भी आता है; लेकिन जब तक मन है, तब तक नहीं आता। मन ही डगर है। और सब राहें तो बस नाममात्र की राहें हैं, असली राह तो मन की राह है। दिन आयेंगे और जायेंगे। जन्म होंगे और मृत्युएं होंगी। लेकिन मन अगर शेष रहा, तो दिवस का अंत तो आता रहेगा बार—बार, लेकिन डगर का अंत न आयेगा।
डगर बाहर नहीं है। डगर है भीतर। डगर है वही जिस पर विचार चलते हैं, वासनाएं चलती हैं, कल्पनाएं—कामनाएं चलती हैं, स्मृतियां चलती हैं, भविष्य के स्वप्न चलते हैं। डगर है वही, पहचान लेना ठीक से। बाहर के रास्तों पर असली डगर नहीं है। बाहर के रास्तों पर भी लोग चल रहे हैं, क्योंकि भीतर की डगर ने उन्हें बाहर के रास्तों पर चलाया है।
चीन की एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर को सम्राट ने आमंत्रित किया था अपने महल पर। वे दोनों छत पर खड़े होकर साझ डूबते सूरज को देखते थे। सामने ही सागर है। उत्ताल उसकी तरंगें हैं। सागर में डूबता हुआ सूरज का अग्नि का गोला है। और सैकड़ों जहाज आ रहे, जा रहे हैं। सम्राट ने कहा फकीर को : देखते हैं, कितने जहाज आते हैं, कितने जहाज जाते हैं! वह फकीर बोला कि नहीं, कितने नहीं देखता, बस दो ही देखता हूं। दो ही जहाज हैं।
सम्राट ने कहा : आप होश में हैं? मुझे गिनती नहीं आती? सैकड़ों जहाज हैं; गिने भी न जा सकें, इतने जहाज हैं।
लेकिन फकीर फिर भी बोला कि नहीं, दो ही जहाज हैं। एक धन की यात्रा पर निकला है, एक पद की यात्रा पर निकला है। बाकी सब बहाने हैं। बाकी फिर उन्हीं के रूपांतरण हैं; उन्हीं के रूप हैं; उन्हीं की आकृतियां हैं। जहाज तो दो हैं : एक धन की यात्रा, एक पद की यात्रा। लेकिन अगर इन दोनों को भी ठीक से समझो, तो ये दोनों जहाज भी एक ही लकड़ी से बने हैं; वह लकड़ी है अहंकार की लकड़ी। और अगर बहुत खोज करो, तो ये जहाज बाहर नहीं चलते, ये भीतर तुम्हारे मन के सागर में चलते हैं। मन की डगर है। मन ही डगर है। और जब तक मन चल रहा है, तब तक थको, गिरो; फिर—फिर उठोगे, फिर—फिर चलोगे—मन चलाता ही रहेगा।
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया!
साधारणत: नहीं आता। कभी—कभी आता है। किसी बुद्ध को, कबीर को, गोरख को, नानक को.. कभी—कभी आता है। आ सबका सकता है। पर इतना हम होश ही नहीं सम्हालते। हमें यह पता ही नहीं कि हमारी असली यात्रा बाहर नहीं हो रही है, भीतर हो रही है। और जिन यात्रियों से हम बाहर मिल रहे हैं, वे असली यात्री नहीं हैं; जिनसे हम मन की डगर पर मिलते हैं, वे ही असली यात्री हैं। वहां तुम किस—किससे मिलते हो? मिलते हो अतीत की स्मृतियों से, भविष्य की कल्पनाओं से, न मालूम कितनी वासनाओं से, न मालूम कितने विचारों से!
भीड़ वहां इकट्ठी है। राह चलती ही रहती है। जागो तो चलती है, सोओ तो चलती है। राह चलती ही रहती है। जन्मते हो तो चलती है। मरते हो तो चलती रहती है। मरते—मरते भी मन की राह बंद नहीं होती। देह छूट जाती है, मन नयी देह पर सवार हो जाता है। एक वाहन टूट गया, मन नये वाहन निर्मित कर लेता है; मगर यात्रा जारी रहती है। इस यात्रा का नाम ही संसार है।
संसार से तुम अर्थ मत समझना, वह जो बाहर फैला हुआ है। वैसा अर्थ समझा तो भूल हो जायेगी। फिर तो संसार को छोड़ न सकोगे कभी। जहां भी जाओगे, वहीं बाहर कुछ होगा। पहाड़ पर भी होगा, वन—कंदराओं में भी होगा। संसार से अर्थ है, वह जो भीतर चलता है। उसे तोडा जा सकता है। उसे रोका जा सकता है। और मन गिर जाये तो संसार गिर जाता है। और मन गिर जाये तो फिर और जन्म नहीं है।
      मन गिर जाये तो फिर कोई मृत्यु नहीं है। फिर अमृत से मिलन है। सूत्र—
अवभू मांस भषंत दया धरम का नास। मद पीवत तहां प्राण निरास।
भांगि भर्षत ज्ञानं ध्यानं षोवंत। जम दरवारी ते प्राणी रोवंत।।
एक दिन मृत्यु के द्वार पर रोओगे, बुरी तरह रोओगे, जार—जार रोओगे! लेकिन तब बहुत देर हो चुकी होगी। इसके पहले कि मृत्यु के द्वार पर रोना पड़े, सम्हल जाओ। सम्हलने के सूत्र ये रहे। पहला सूत्र : करुणा।
जीवन में इतना उपद्रव क्यों है, इतनी हिंसा क्यों है, इतना वैमनस्य क्यों है, इतना विद्वेष क्यों है? करुणा खो गयी है। और ऐसा नहीं है कि करुणा दूसरे के हित में है। करुणा तुम्हारा हित है, स्व—हित है। एक बुनियादी सूत्र समझ लेना : जो तुम दूसरे के साथ करते हो, वही तुम पाओगे। जो बोओगे, वही काटोगे। अगर चाहते हो कि अमृत को काटो, तो मौत को मत बोओ। अगर चाहते हो शाश्वत जीवन मिले, तो फिर जीवन का विनाश न करो। अगर चाहते हो कि प्रेम तुम पर बरसे, तो घृणा के कांटे दूसरों के रास्तों पर मत डालो। जो गड्डे तुमने दूसरों के लिए खोदे हैं, वे अपने लिए ही खोदे हैं। सब तुम्हीं पर वापिस लौट आता है।
यह जगत तो ऐसा है जैसे कोई पहाड़ों में जा कर, घाटियों में जोर से आवाज लगाये, और सारी घाटियों से आवाज लौट कर उसी पर बरस जाये। यह जगत एक प्रतिध्वनि है।
करुणा का अर्थ होता है. दो प्रेम, ताकि पा सको प्रेम। और प्रेम पाने की सभी की आकांक्षा है। ऐसा कौन है जो प्रेम नहीं पाना चाहता? पाना तो सभी प्रेम चाहते हैं, लेकिन कीमत कोई भी चुकाना नहीं चाहता। इसलिए छीना—झपटी बहुत, मिलता कुछ भी नहीं। प्रेम दो और प्रेम मिलता है, और हजार गुना होकर मिलता है।
अवधू मांस भर्षत दया धरम का नास।
यह तो असंभव है, थोड़े—से समझदार, बोधपूर्ण व्यक्ति को, जो जीवन को समझने की चेष्टा में संलग्न है, कि अपने स्वाद के लिए लोगों की, पशुओं की हत्या कर सके। आदमियों को खानेवाले कबीले हुए हैं। अभी भी कुछ लोग हैं, अमेजान के कछार में, जो आदमियों को खा जाते हैं। उनकी संख्या खुद ही कम होती जाती है, क्योंकि कबीला अपने को ही खाता जाता है। मनुष्य को खानेवाले लोग जमीन पर थे। वे हमारे ही पूर्वज थे। फिर किसी तरह समझाया—बुझाया; पशुओं को खाने लगे। और समझाया—बुझाया। बामुश्किल आदमी को आदमी बनाने की चेष्टा की जा सकी है, फिर भी आदमी अभी पूरा आदमी नहीं बन पाया।
हिंसा जब भी तुम कर रहे हो, फिर किसी भी कारण से कर रहे हो, तुम इस हिंसा के माध्यम से कभी भी आनंद को उपलब्ध न कर सकोगे। दुख दोगे, दुख पाओगे। वैर बोओगे, वैर काटोगे।
महावीर ने कहा है : वैरं मज्‍झि न केव। जिसने शत्रुता बांधी, उसने शत्रुता के अतिरिक्त और कभी कुछ न पाया। तो महावीर कहते हैं : मैं किसी से वैर नहीं करता। बुद्ध ने कहा है : शत्रुता से शत्रुता नहीं मिटती। हिंसा से हिंसा नहीं मिटती। हिंसा से हिंसा और बढ़ती है।
जीवन जहां तक बन सके, हिंसा से विमुक्त करो। और किन छोटी—छोटी बातों पर हिंसा में लगे हो? स्वाद है, स्वाद जैसी छोटी बात के लिए जीवन के परम धन को खो रहे हो? स्वाद क्षणभंगुर है। परिणाम बहुत लंबे होंगे। जन्मों—जन्मों तक कष्ट भोगना पड़ सकता है। कष्ट दिया है, कष्ट भोगना ही पड़ेगा। और ऐसा मत सोचना कि यह बात सिर्फ मांसाहार के लिए की जा रही है, किसी भी तरह की हिंसा, किसी भी तरह का दुख। और ऐसा ही नहीं है कि दूसरों को मत देना, अपने को भी मत देना। दुख देना ही मत। क्योंकि तुम किसी को भी दुख दो, तुमने परमात्मा को ही दुख दिया। तुम एक वृक्ष को दुख दो, तो भी तुमने 'उसी' को दुख दिया। क्योंकि 'वही' था हरा वृक्ष में। और तुमने एक पक्षी मार डाला, तुमने 'उसी' को मारा। क्योंकि वही उड़ता था पक्षी में। और तुमने अपने को दुख दिया तो भी तुम ने 'उसी' को दुख दिया, क्योंकि 'वही' तुम्हारे भीतर भी विराजमान था। उस एक का ही विस्तार है। उस एक के ही सागर की हम सब अनंत तरंगें हैं। वह जो तरंग दूसरी मालूम पड़ रही है, वह भी दूसरी नहीं है; जुड़ी है हम से। हम सब संयुक्त हैं; हम सब एक अस्तित्व हैं—इस घोषणा का नाम अहिंसा है।
अवधू मांस भषत दया धरम का नास! मद पीवत तहां प्राण निरास।
और ऐसे भी लोग हैं जो जीवन के इस अमूल्य अवसर को बेहोशी में गंवा रहे हैं। और साधारण बेहोशी भी उन को काफी नहीं मालूम पड़ती; उन्हें शराब चाहिए। ऐसे ही बेहोश हैं, लेकिन इस बेहोशी को और घना करने की कोशिश में लगे हैं। होश जगाओ, कौन तुम्हारे भीतर बैठा है! होश में ही उससे पहचान होगी। ध्यान की तरफ चलो। थोड़ी जागृति की बेला आये। प्रभात हो। जागे तुम्हारे भीतर का सूरज। तुम रोशनी से भरों। उल्टे तुम बेहोशी की तरफ जा रहे हो।
लेकिन लोगों ने तरह—तरह की शराबें खोज ली हैं। शराब से इतना ही मत समझना कि जो शराबखाने में बिकती है। और भी सूक्ष्म शराबें हैं। वह तो सब से सस्ती शराब है जो शराबखाने में बिकती है, और मंहगी शराबें हैं—धन का मद है, पद का मद है।
देखते हो, एक आदमी पद पर पहुंच जाता है, तो उसकी चाल ही बदल जाती है, उसकी अकड़ ही बदल जाती है! उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। शराबी तो लड़खड़ाता है, मगर तुमने पद के मद से भरे लोगों को देखा, कोई शराबी इतना नहीं लड़खड़ाता। पद में पहुंचते ही सारी बात बदल जाती है। धन पाते ही सारी बात बदल जाती है। ये सब नशे हैं। ज्ञान का भी नशा है, थोड़ा—सा ज्ञान हो जाये तो सिर भारी हो उठता है, फूल जाता है। त्याग का भी नशा है, थोड़ा—सा त्याग हो जाये तो उसकी भी अकड़ आ जाती है। नशे का सार समझ लो। नशे का सार है : जहां भी अहंकार अकड़ जाये वहीं नशा। और जहां भी तुम होश खोकर काम करने लगो वहीं नशा। जहां तुम्हारे जीवन में मूर्च्छा और तंद्रा सघन होने लगे वहीं नशा। एक तो ऐसे लोग हैं जो जागे भी जागे नहीं हैं। और इसी पृथ्वी पर ऐसे भी लोग हुए हैं जो सोये थे तो भी जागे थे। ये दो छोर हैं। चुन लो, जो तुम्हें चुनना हो। जो नींद को चुनेगा वह मौत के दरवाजे पर बहुत बुरी तरह तड़फेगा और रोयेगा, लेकिन तब कुछ किया नहीं जा सकता। अवसर बीत गया।
रवींद्रनाथ की एक कथा है : एक भिक्षु सुबह—सुबह घर से निकला। और जैसे भिखारी अपनी झोली में थोड़े से दाने डाल लेते हैं घर से निकलते समय, उसने भी चावल के थोड़े दाने डाल लिये थे। क्योंकि झोली खाली हो तो कोई देता नहीं। झोली भरी हो तो लोगों को थोड़ा लाज—संकोच आता है। तुम्हारे द्वार पर भिक्षु दस्तक देता है और तुम देखते हो उसके पात्र में, उसकी झोली में कुछ है, तो तुम्हें ऐसा लगता है कि पड़ोसी ने दिया है, अब मैं न दूं तो जरा अहंकार को चोट लगती है। तुम दया के कारण तो भिक्षु को देते नहीं, अहंकार के कारण देते हो। तो सभी भिखारी अपने पात्र में थोड़े—से दाने, थोड़े पैसे, घर से डालकर चलते हैं। पैसा पैसे को खींचता है, दाना दाने को खींचता है।
उस भिखारी ने भी अपनी झोली में डाल लिये हैं कुछ चावल के दाने और चला, लेकिन चौंक गया। राह पर आया नहीं था कि राजा का रथ आकर रुका। उसके आनंद का तो पारावार न रहा। बहुत बार राजद्वार तक गया था, लेकिन पहरेदार भीतर ही न जाने देते थे। राजा के सामने झोली फैलाने का अवसर ही न मिला था। आज मिल गया अवसर। उसके आनंद का तो पारावार नहीं। वह तो भूल ही गया, ठगा ही खडा रह गया। तभी उतरा राजा और राजा ने अपनी झोली उस भिखारी के सामने कर दी। और भिखारी तो बहुत घबड़ा गया। देने की तो उसे आदत ही न थी, दिया तो उसने कभी था ही नहीं, मांगा ही मांगा था। और सम्राट ने कहा कि सुन भाई, माना कि तू भिखारी है और तुझसे मैं मांगूं यह योग्य भी नहीं, लेकिन ज्योतिषियों ने कहा है कि राज्य पर बड़ा संकट है। संकट टल सकता है, अगर मैं आज निकलूं सुबह—सुबह सूरज के उगने के समय, जो भी व्यक्ति पहली बार रास्ते पर मुझे मिल जाये उसी से भीख मांग लूं तो राज्य का संकट टल सकता है। ना मत कर देना। चार दाने भी देगा तो चलेगा। नाममात्र को कुछ भी दे दे। यह भी कैसी अड़चन हो गई कि मैं एक भिखमंगे के सामने पड़ गया हूं!
अब भिखमंगा खड़ा है हतप्रभ। सोचा था कि राजा से मांग लूंगा, सोने से भर जायेगी झोली, यह तो उल्टा हो गया, और पास के दाने भी चले। मुट्ठी भरता है और नहीं निकाल पाता झोली से। आदतें पुरानी हैं; लिया ही है, दिया तो कभी नहीं। बामुश्किल, बड़ी हिम्मत करके, एक दाना, सिर्फ एक दाना चावल का राजा की झोली में डाल दिया। पर औपचारिकता पूरी हो गई, राजा तो बैठा रथ पर, स्वर्ण—रथ जा भी चुका, धूल उड़ती राह पर रह गई और भिखारी के मन में पश्चात्ताप रह गया। कुछ मिलता, वह तो मिला नहीं; पास था कुछ, वह भी गया। गांठ का भी कुछ गया!
उस दिन उसे बहुत दान मिला, इतना कभी न मिला था। देनेवाले को मिलता है। यह जगत चारों तरफ से बांटता है, अगर हम देने को तैयार हों। ज्यादा दिया नहीं था उसने, मगर जितना दिया था वह भी भिखारी के मन से बहुत था। साम्राज्य ही दे दिया था भिखारी ने। बहुत मिला, झोली भर गई, मगर चित्त में पश्चात्ताप था उस एक दाने का जो कम था। कहीं राजा न मिला होता तो एक दाना और ज्यादा होता।
हम ऐसे ही हैं. जो मिल जाता है उसके लिये धन्यवाद नहीं देते, जो नहीं मिलता उसके लिये शिकायत जरूर करते रहते हैं। तुम्हें कितना मिला है, तुमने कभी मंदिर में जाकर परमात्मा को धन्यवाद दिया है? नहीं, लेकिन जो नहीं मिला है, उसकी शिकायत तो हर घड़ी तुम्हारी श्वास—श्वास में भरी है। कहो या न कहो, तुम्हारे प्राण शिकायतों से भरे हैं। वह आदमी भी थका—मादा लौटा और आकर झोली पटक दी। पत्नी ने कहा. उदास दिखते हो! इतनी झोली तो कभी न भरी थी। उसने कहा कि क्या खाक भरी, आज जैसा दुर्दिन कभी नहीं आया! सुबह ही सुबह, बोहनी ही बिगड़ गई। कभी मैंने दिया न था, आज देना पड़ा। खुद सम्राट मांगने खड़ा था। आज इस झोली में एक दाना कम है। आज चित्त मेरा पश्चात्ताप से भरा है।
पत्नी ने झोली उडेली, दोनों चौंक कर खड़े रह गये! चावल के दाने गिरे ढेर, उसमें एक दाना सोने का था। एक ही दाना उसने दिया था, वही सोने का हो गया था। यह कथा प्यारी है। जो हम देते हैं वही सोने का हो जाता है, जो हम बचा लेते हैं वही मिट्टी हो जाता है। जीवन में जितना जो देता है उतना ही उसका जीवन स्वर्णिम हो जाता है। मगर अब तो बहुत देर हो गई थी। अब तो बहुत पछताने लगा, छाती पीट—पीट कर भिखारी पछताने लगा कि काश मैंने पूरी मुट्ठी भर कर दे दी होती, तो सब दाने सोने के हो गये होते! मैं भी कैसा अभागा हूं!
      लेकिन अब तो अवसर बीत चुका था। यह जो कथा रवींद्रनाथ ने एक कविता में लिखी है, उसका शीर्षक है. अवसर बीत गया!
जीवन के बीतने पर बहुतों के जीवन का शीर्षक यही होता है, अवसर बीत गया!
मत ऐसा करना। तुम्हारी झोली सोने से भर सकती है; मगर दोगे तो भरेगी, बाटोगे तो भरेगी। जोड़ोगे तो मिट्टी ही हाथ रह जायेगी। और जो भी अहंकार से भरे हैं, वे जोड़ते हैं—धन जोड़ते, पद जोड़ते, प्रतिष्ठा जोड़ते, ज्ञान, त्याग, जो भी मिल जाये हर चीज को संपदा बना लेते हैं; हर चीज के ऊपर अकड़ कर, फन मारकर बैठ जाते हैं।
और फिर बहुत तरह के मद हैं—धन का मद है, पद का मद है, ज्ञान—मद है, त्याग—मद भी है। देखते हो त्यागी को अकड़ा हुआ! जहां अकड़ है वहां नशा है। जहां नशा है वहां आत्मज्ञान संभव नहीं। इसलिये कहा है कि अहंकार हो तो आत्मज्ञान संभव नहीं, क्योंकि अहंकार ही असली मदिरा है। अगरों से नहीं निकलती असली शराब, असली शराब तो अहंकार से निचुड़ती है। और घर—घर में लोगों ने भट्टियां खोल रखी हैं—अहंकार से शराब निचोड़ने की भट्टियां।
अवधू मांस भषंत दया धरम का नास मद पीवत तहां प्राण निरास
और जो—जो भी मद से भरेंगे, उनके प्राण सिवाय निराशा के और कुछ भी न जानेंगे। उनके प्राणों में कभी सुबह न होगी, सदा रात ही रहेगी। वे निद्रा जानेंगे, तंद्रा जानेंगे, जागरण का उन्हें कभी कोई अनुभव न होगा। सूरज से उनका मिलन न होगा। उनके जीवन में कभी प्रभात न होगा, कभी प्रभाती के स्वर न गूंजेंगे।
भांगि भर्षत ज्ञानं ध्यानं षोवंत।
और लोग हैं कि खोज में लगे हैं, ऐसी खोज में लगे हैं कि किसी तरहं सस्ता ध्यान हो जाये। वेदों से लेकर अब तक आदमी ने बड़े सस्ते ध्यानों की खोजें की हैं। सोमरस से लेकर एल. एस. डी. तक आदमी की तलाश यह रही कि कोई रासायनिक तत्व मिल जाये, जिससे ध्यान लग जाये—कि गांजे की दम मार लें, कि भांग पीसकर पी जायें, कि एल. एस. डी. की टिकिया गटक लें, कि किसी रासायनिक द्रव्य का इंजेक्यान लगा लें। कोई ऐसी सस्ती तरकीब मिल जाये कि यात्रा बिना किये पूरी हो जाये। यह कोई नई खोज नहीं है, यह सदियों पुरानी खोज है। और आदमी ने इस तरह के बहुत—से रासायनिक द्रव्य खोज निकाले हैं, जिनके माध्यम से झूठे ध्यान का धोखा पैदा हो जाता है। जो ध्यान जैसे ही मालूम पड़ते हैं।
तुमने अगर भंग पी ली है तो तुम आकाश में उड़ते मालूम होने लगते हो; हो जमीन पर ही, मगर आकाश में उडुते मालूम होने लगते हो। ध्यान में भी वैसी उड़ान होती है—बड़ी ऊंची उड़ान होती है! तुमने अगर एल. एस. डी. लिया तो सारा जगत तुम्हें ऐसा रंगीन मालूम होने लगता है जैसा कभी नहीं था। हरे वृक्ष खूब हरे मालूम होते हैं। गुलाब के फूल खूब गुलाबी मालूम होते हैं। पक्षियों की आवाजें अति मधुर हो जाती हैं। छोटे—छोटे रास्ते के किनारे पड़े हुए कंकड़—पत्थर हीरे—जवाहरातों जैसे चमकने लगते हैं। सारा अस्तित्व एक अपूर्व सौंदर्य से भर जाता है।
ऐसी ही घटना ध्यान में भी घटती है। मगर जो ध्यान में घटती है घटना, वह तो थिर हो जाती है, और जो एल एस. डी. से घटती है वह घड़ी— भर को है, और फिर गई। और जब जाती है तो बहुत अंधेरे में छोड़ जाती है। आंखें बिलकुल फीकी हो जाती हैं। एल. एस. डी. के प्रभाव में तो हर चीज रोशन मालूम होती है, पत्ते—पत्ते में रोशनी झरती मालूम पड़ती है।




सोमरस से लेकर एल एस. डी. तक आदमी ने जितने रासायनिक द्रव्य खोजे हैं—गांजा है, भांग है, मारिजुआना है, और—और न मालूम क्या—क्या अलग—अलग देशों में अलग—अलग चीजें खोज ली हैं—इन सबके पीछे तलाश है इस बात की कि कोई शार्ट—कट, कोई सीधा—सा रास्ता, बिना श्रम किये, बिना साधना किये, परमात्मा के अनुभव का मिल जाये। जगत के सत्य को और सौंदर्य को हम देख लें, जान लें। रास्ते मिल भी गये हैं, मगर वे सब रास्ते झूठे हैं, और उनमें गंवाया गया समय सिर्फ गंवाया गया समय है। तुम कल्पना—जाल में खो जाते हो। और छोटे—मोटे लोगों की बात छोड़ दो, बड़े—बड़े विचारशील लोग तक धोखे में आ जाते हैं।
पश्चिम का बहुत बड़ा विचारक अल्डुअस हक्सले जब पहली दफा एल एस. डी. लिया, तो एल. एस. डी. के बाद उसने अपनी डायरी में लिखा कि अब मैं जानता हूं कि यही बुद्ध को हुआ, यही कबीर को हुआ। अल्डुअस हक्सले जैसा विचारशील आदमी, इस सदी के दो—चार इने—गिने विचारशील लोगों में एक, मगर उसको भी भ्रांति हो गई कि यही कबीर को हुआ था। क्योंकि कबीर ने भी खूब बात कही न : ' अमी रस बरसे! खूब घनघोर आनंद के मेघ घिरे हैं और आनंद की वर्षा हो रही है! और भीतर दीयों पर दीये जले हैं, जैसे हजार—हजार सूरज एक साथ उगे हों!' ऐसा ही अल्डुअस हक्सले को हुआ एल. एस. डी. के प्रभाव में—खूब अमृत की वर्षा होने लगी, दीये पर दीये जलने लगे! स्वभावत: लौटकर उसने प्रभाव से कहा कि अब मैं जानता हूं कि यही कबीर को हुआ था।
और उसने यह भी लिखा कि अब जैसे पुराने दिनों में आदमी बैलगाड़ी से चलता था और सौ मील चलने के लिये कितना समय लग जाता था। और अब तो सौ मील ऐसे पहुंच जाते हो क्षण में हवाई जहाज से। जैसे बैलगाड़ी और हवाई जहाज का फर्क है ऐसा ही अल्डुअस हक्सले ने लिखा कि बुद्ध ने जो ध्यान की प्रक्रिया की वह बैलगाड़ी जैसी थी, छह साल लगे। महावीर की और भी पुरानी रही होगी बैलगाड़ी, बारह साल लगे। अब एल. एस डी हमें मिल गया है। अब यह जेट—युग की चीज है। अब इसकी तो जरा—सी, जरा—सी मात्रा, आंख से भी दिखाई न पड़े ऐसी जरा—सी मात्रा ले लेने से समाधि लग जाती है। तो हमने खोज लिया राज। और उसने लिखा कि जल्दी ही हम उस परम औषधि को खोज लेंगे जिसकी तलाश सदा से चलती रही है।
ऋग्वेद के स्मरण में उसने उस परम औषधि को सोमा नाम दिया। इस सदी के पूरे होते—होते उसकी आशा थी कि सोमा की खोज हो जायेगी। वैज्ञानिक इंजेक्यान निकाल लेंगे, जिसको जब चाहिये समाधि तब समाधि ले ले।
पर ऐसी समाधि दो कौड़ी की है। अल्डुअस हक्सले कितना ही बड़ा विचारक रहा हो, समाधि और ध्यान के जगत का उसे कोई अनुभव नहीं था, इसलिये धोखा खा गया। शब्दों का तालमेल बैठ गया और उसने सोचा कि हो गई बात। शब्दों का तालमेल तो स्वप्न और यथार्थ में भी कभी—कभी बैठ जाता है। कभी तो तुम स्वप्न में भी ऐसे सौंदर्य का अनुभव कर लेते हो कि जाग कर सारा जगत फीका लगे, तो भी तुम यह तो नहीं कहते कि वह सत्य था। तुम जानते हो कि सपना आखिर सपना था।
रासायनिक द्रव्यों से तो शरीर की भीतर की रासायनिक प्रक्रियाएं बदली जा सकती हैं, लेकिन चेतना का आरोहण नहीं होता। चेतना पर तो रासायनिक द्रव्यों का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। चेतना तो वही है जो रासायनिक द्रव्यों के पार है। उसे पाने के लिये तो कुछ और करना होगा।
भागि भषंत ज्ञान ध्यानं षोवंत।
और जो लोग रासायनिक द्रव्यों में पड़ गये हैं वे ध्यान खो देते हैं, ज्ञान खो देते हैं; और इस मजे में रहते हैं कि मिल गया, पा लिया। इस देश में हजारों साधु हैं—दम मारो दम.. और यह कोई नई बात नहीं है इस देश में। इस देश में साधु और गाजा न पीये तो साधु ही क्या—सधुक्कड़ा! साधु तो वही है जो दिल भर कर पीये। असली साधु तो वही—जो पीता ही रहे! नब्बे प्रतिशत साधु इस देश के गाजा, भांग, अफीम, और न मालूम क्या—क्या। रासायनिक द्रव्यों में उलझे रहे हैं। और तुम इन्हें साधु की तरह पूजते भी रहे हो।
पश्चिम में तो यह रोग नया है। पूरब में तो यह रोग बड़ा प्राचीन है। पश्चिम को तो लोग गालियां देते हैं। अगर गोआ में जाकर हिप्पी आकर और मारीजुआना और एल. एस. डी. लेते हैं तो सारी भारतीय संस्कृति को धक्का लगता है। और तुम्हारे साधु—संन्यासी पांच हजार साल से यही कर रहे हैं और तुम्हारी संस्कृति को धक्का नहीं लगा! तुम्हारे साधुओं के अखाड़ों में हो क्या रहा है? मगर गांजा, भांग पीकर राम की धुन लगा दी उन्होंने, बस चित्त प्रसन्न हो गया। तुम भी प्रसन्न हुए कि देखो कैसे राम की धुन लगी है! गाजे के नशे में बकवास चल रही है; तुम समझ रहे हो राम की धुन लगी है। राम—राम जपने की आदत बन गई तो जब गाजा पी लेते हैं तब भी राम—राम जपने की आदत जारी रहती है, और जोर—जोर से जपने लगते हैं। और उछलने—कूदने लगते हैं। मगर यह कोई समाधि की अवस्थायें तो नहीं हैं।
समाधि की अवस्था तो बड़ी शांति की अवस्था है। उसमें नृत्य भी होता है तो उस नृत्य में भी एक समता होती है, एक संतुलन होता है। उसमें गीत भी पैदा होते हैं तो सम स्वर होते हैं। समवेत होते हैं। उसके गीत भी ध्यान—आपूरित होते हैं। वह नृत्य भी कोई तांडव नृत्य नहीं होता। मगर लोगों ने तो अपने हिसाब से इंतजाम कर लिये हैं; खुद ही नहीं पीते, वे तो शिवजी तक को पिला रहे हैं! भंगेड़ी, गजेड़ी, उनकी जमातें... वे सोचते हैं कि शिवजी से चल रही है यह परंपरा, कोई नई थोड़ी है। इसलिये बम भोले...! भोले का स्मरण करते हैं, फिर दम लगती है।
धर्म के नाम पर चलता रहा तो किसी को कोई अड़चन नहीं है, तो हमने बिलकुल स्वीकार कर लिया है। हम ऐसे अंधे हैं कि धर्म के नाम पर कुछ भी चलता हो तो हम स्वीकार कर लेते हैं, बस धर्म की आडू होनी चाहिये। धर्म की आडू हो तो सब ठीक है।
तुम्हारे देश के निन्यानबे प्रतिशत साधु साधु नहीं हैं, साधु कहे जाने के हकदार भी नहीं हैं। मगर उनकी पूजा चल रही है, तुम उनके पैरों पर गिर रहे हो। तुम कभी कुंभ के मेले में अपने साधुओं की जमातें तो जाकर देखो! तुम्हें देशभर के और सब दादा इत्यादि छोटे मालूम पड़ेंगे। इन्हीं की जमात इकट्ठी हो जाती है तो तुम इसको साधुओं की जमात कहते हो। चित्रकूट के घाट पर भई लुच्चन की भीर! मगर धर्म की आड़ है, तो तुम कहते हो : संतन की भीड़ लगी है। आंखें खोलो। गोरख वही कह रहे हैं, नहीं तो फिर आखिरी घड़ी में बहुत पछताओगे।
जम दरवारी ते प्राणी सेवत धोखे आसानी से हो जाते हैं। धोखे सस्ते होते हैं।

नागहां शोर हुआ
लो शबे—तार गुलामी की सहर आ पहुंची
उंगलिया जाग उठीं
बरबत—ओ—ताऊस ने अंगड़ाई ली
और मुतरब हथेली से शुआएं फूटीं
खिल गये साज में नग्मों के महकते हुए फूल
लोग चिल्लाये कि फरियाद के दिन बीत गये
सहजन हार गये
राहरव जीत गये
काफिले दूर थे मंजिल से बहुत दूर, मगर
खुद—फरेबी की घनी छांव में दम लेने लगे
चुन लिया राह के रोड़ों को, खजफ—रेजों को
और समझ बैठे कि बस लालो—जवाहर हैं यही
सहजन हंसने लगे छुप के कमींगाहो में
हमने आजुर्दगीए—शौक को मंजिल जाना
अपनी ही गर्द—सरे—राह को महमिल जाना
अब जिधर देखो उधर मौत ही मंडराती है।

धोखा खाना बड़ा आसान है। जरा—सी बात को तूल दे देना बहुत आसान है। झूठ को सच के आवरण पहना देना बहुत आसान है।
काफिले दूर थे मंजिल से बहुत दूर, मगर
खुद—फरेबी की घनी छाव में दम लेने लगे
आदमी आत्मवचक है।
खुद—फरेबी की घनी छाव में.......
अपने को ही धोखा देने के लिये छाव बना लेता है। अपने ही धोखे में डूब जाता है।
चुन लिया राह के रोड़ों को, खजफ—रेजों को!
कंकड़—पत्थर बीन लेता है रास्ते के किनारे के—
और समझ बैठे कि बस लालो—जवाहर हैं यही।
सहजन हंसने लगे छुप के कमींगाहो में
हमने आजुर्दगीए—शौक को मंजिल जाना
अपनी ही गर्द—सरे—राह को महमिल जाना
अब जिधर देखो उधर मौत ही मंडराती है
जो व्यक्ति सत्य की खोज में निकला है, उसे बहुत सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। सत्य के मार्ग पर बड़े धोखे हैं। सत्य के मार्ग पर बहुत पगडंडियां हैं, जो भटका ले जाती हैं। उनकी तरफ सचेत कर रहे हैं गोरख।
जीव क्या हतिये रे प्यंडधारी। मारिलै पंचभू मृगला।
चरै थारी बुधि बाडी। जोग का मूल है दया— दस
जीव क्या हतिये रे प्यंडधारी।
तुम खुद ही जीव हो, तुम खुद ही शरीरधारी, क्यों दूसरे शरीरधारियों को सता रहे हो? तुम उन जैसे हो, वे तुम जैसे हैं। तुम जैसे असहाय, वे भी असहाय हैं। जरा सोचो, तुममें और उनमें भेद क्या है?
मारिलै पंचभू मृगला।
लेकिन लोग जाते हैं शिकार खेलने। आदमी को छोड्कर दुनिया में कोई जानवर शिकार नहीं खेलता। जानवर मारते हैं एक—दूसरे को, लेकिन तभी जब भूख लगी हो। भूख के लिये मारते हैं। और क्षमा के योग्य हैं, क्योंकि उन्हें कुछ और पता भी नहीं कि पेट कैसे भरें। वही उनका प्रकृतिगत भोजन है। लेकिन बिना भूख के कोई जानवर नहीं मारता। सिंह के पास खरगोश बैठा रहता है; अगर भूख न लगी हो सिंह को, तो कोई हर्जा नहीं, गुफ्तगू चलती है, बातचीत होती है। जंगल की बातें, अफवाहें, कहां क्या हो रहा है! भूख न लगी हो तो कोई अड़चन नहीं है। एक आदमी अकेला ऐसा है कि बिना भूख के मारता है, खिलवाड़ में मारता है। यह हद हो गई।
तुम जाते हो जंगल खिलवाड़ करने सिंह से, बंदूकें लेकर, मचाने बांधकर। यह भी कोई खिलवाड़ है? और सिंह अगर तुम पर हमला मार दे तो यह दुर्घटना है, और तुम अगर उसे मार लो तो यह खेल है, मृगया है! और तुम सारे साज—सामान से जाते हो और सिंह निहत्था। और तुम दूर मचान पर बंदूकें लेकर बैठे हो और सिंह के पास कोई भी आयोजन नहीं सुरक्षा का, और यह खेल चल रहा है। थोड़ा विचारों। गोरख कहते हैं : अगर मारने का ही कुछ मजा है तो यह जो पंचभूतों से बनी हुई देह है, इसकी गुलामी को मार डालो, इसके मालिक बन जाओ। अगर कुछ खेल का ही मजा है, अगर कुछ वीरता ही सिद्ध करनी है तो इस देह को जीत लो।
मारिलै पंचभू मृगला चरै थारी बुधि कड़ी
या उस मन को मारो जो तुम्हारे बुद्धि की बाड़ी को चरे जाता है। लेकिन न तो मन को मारते, न तन को मारते; न तन को जीतते, न मन को जीतते। इनके तो तुम गुलाम बने हो और निरीह, असहाय पशुओं की हत्या करने चले जाते हो। लोग बैठे हैं, घंटों मछलियां मार रहे हैं। आदमी घंटों बैठकर मछलियां मारता रहता है, इतनी देर में तो मन मार लिया जाये! और जितनी एकाग्रता से लोग मछली मारते हैं... जरा देखो, लगाकर बंसी लटका कर जैसा बैठते हैं एकाग्र, दत्तचित्त होकर, इतने दत्तचित्त होकर अगर बैठ जायें तो मन को जीत लें, मन की मछली को मार लें। मगर मन की मछली को मारने में उत्सुकता किसकी है, ध्यान ही नहीं है। एक मछली मार लायेंगे तो बड़ी अकड़ से लौटेंगे, कंधे पर लटका कर उसको।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन आया, मछलियों की दुकान पर खड़ा हुआ, बाहर से ही कहा कि जरा तीन चार बड़ी—बड़ी मछलियां तौलकर मेरी तरफ फेंक दो। दुकानदार ने कहा, फेंक दो! क्या हाथ में नहीं ले सकते? उसने कहा कि नहीं, फेंक ही दो। बात असल ऐसी है कि तुम तो मुझे जानते हो कि मैं झूठ बोलना कभी पसंद नहीं करता, पत्नी से जाकर कहूंगा कि मछलियां पकड़ी हैं। तुम फेंकोगे तो मैं पकडूगा। झूठ तो मैं बोल ही नहीं सकता। तो तुम जरा फेंक ही दो, ताकि मैं पकड़ लूं।
लोग बाजार से मछलियां खरीद लाते हैं—यह बताने को कि मछलियां मारकर लौटे हैं! मछली मारने वालों की बातें सुनी हैं कभी बैठकर, बड़ी लस्तड़ाम हो जाती हैं। दो मछलीमार बैठे बात कर रहे थे। एक ने कहा : आज तो हद हो गई, एक ऐसी मछली पकड़ी कि जिसके भीतर सिकंदर जिस पात्र से जल पीता था, वह पात्र निकला। दूसरे ने कहा : यह कुछ भी नहीं, मैंने आज एक मछली पकड़ी, जब उसको काटा तो नेपोलियन रात में जिस लालटेन को जला कर पढ़ता था, वह लालटेन निकली और जलती हुई! तो पहले ने कहा कि देखो भाई, ऐसा करो, मैं सिकंदर का पात्र वापिस लिये लेता हूं लेकिन तुम कम—से—कम लालटेन बुझा दो। छोड़ो, नहीं था सिकंदर का पात्र, मगर कम—से—कम लालटेन बुझा दो। यह तो हद हो गई!
पर लोग शिकार भी इसलिये कर रहे हैं कि वह भी अहंकार की दौड़ है। पशुओं के सामने अपने को श्रेष्ठ करने की चेष्टा चल रही है। मछलियों के सामने! शर्म भी नहीं आती! श्रेष्ठ ही करना हो तो मनुष्यों के सामने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध कर लो। और श्रेष्ठ होने का तो एक ही उपाय है, दूसरा तो कोई उपाय नहीं कि तुम मन के मालिक हो जाओ, कि तुम अपने तन के मालिक हो जाओ, कि तुम जान लो उसे जो मन और तन के पार है।
कथंत गोरख मुकति लै मानवा मारिलै रे मन द्रोही।
एक ही है मुक्ति का द्वार, एक ही है परम स्वतंत्रता की उपलब्धि :
मारिलै रे मन द्रोही।
यह जो मन है, यह जो द्रोही मन है, इसे मार ले। द्रोही क्यों? मन नास्तिक है। समझना इसे। मन कभी आस्तिक होता ही नहीं। मन जीता ही 'नहीं' पर है। मन का वातावरण 'नहीं' है। 'नहीं' मन का भोजन है। इसलिये मन 'ही' कहने में बड़ा सकुचाता है, बड़ी अड़चन डालता है। अगर कभी कहना भी पड़े तो मजबूरी में 'ही' कहता है। 'ना' कहने में बड़ा प्रसन्न होता है। 'ना' कहने में बड़ा आदोलित, आनंदित होता है। तुम जरा जांच करना। जब भी तुम 'नहीं' कहने में समर्थ हो जाते हो तब मजा आ जाता है, रस आ जाता है। ऐसी बातों में तुम 'नहीं' कह देते हो जिनमें 'नहीं' कहने का कोई कारण ही नहीं था। सोचना कि क्यों तुमने 'नहीं' कही? छोटा बच्चा है मां से कह रहा कि बाहर खेल आऊं? नहीं! कोई कारण नहीं है  'नहीं' कहने का। बाहर सूरज निकला है, स्वच्छ हवायें हैं, वृक्ष हैं, पक्षी गीत गा रहे हैं, 'नहीं' कहने का कोई कारण नहीं है। लेकिन 'नहीं' तत्काल आती है। नौकर तनखाह मांगता है कि आज तनखाह मिल जाये... कल ले लेना! जैसे कि आज देना असंभव है। नहीं, लेकिन अभी तो 'नहीं' कहनी ही होगी।
'नहीं' कहने से तुम्हें बल मिलता है। इसलिये छोटा—छोटा आदमी भी, छोटे—छोटे पद पर भी जो बैठा है, वह भी मौका पाकर 'नहीं' कहने का मौका नहीं छोड़ता। चपरासी बैठा है दफ्तर के सामने, तुम पहुंचे : 'साहब हैं?' वह कहता है : 'नहीं! फिर आना!' वह यह दिखलाना चाह रहा है कि समझा क्या है अपने को! होओगे लाट साहब अपने घर के, अभी लाट साहब मैं हूं! चपरासी भी ऐसे बोलता है। स्टेशन गये हो टिकिट खरीदने, टिकिट बाटनेवाला क्लर्क कुछ काम भी न हो तो भी रजिस्टर खोल कर उलटने—पलटने लगता है। वह यह कह रहा है कि खड़े रहो, ऐसे कई खड़े रहते हैं! ऐसे तुम जैसे आते ही रहते हैं। क्या समझ रखा है अपने— आप को? ये सब बातें कही जा रही हैं, जब वह बिना कहे चुपचाप अपना रजिस्टर पलट रहा है।
तुम खुद भी अपनी जांच करना, तुम भी यही करते हो। रास्ते पर खड़ा हुआ पुलिसवाला रोक देगा तुम्हें कि रुको, चाहे अभी रुकने का कारण हो या न हो, चाहे जरूरत हो चाहे जरूरत न हो।
तुम आदमी के जरा मन को पहचानो। मन जीता है 'नहीं' पर; 'नहीं' उसका पोषण है; नकार उसकी आत्मा है। इसलिये मन संदेह करता है, इंकार करता है, विरोध करता है। गोरख ने उसे द्रोही कहा है। और वही तुम्हारे जीवन को धीरे— धीरे निषेध से भर देता है। और जहां निषेध है वहां अंधकार है। जहां निषेध है वहा निराशा है। जहां निषेध है वहा मृत्यु के सिवाय कभी कुछ भी न घटेगा। विधेय में होती है सुबह।
विधेय में प्रकाश का जन्म है। विधेय में ही परमात्मा का अनुभव है।
आस्तिकता का अर्थ होता है : 'ही' कहने की क्षमता। यह सवाल ईश्वर को ही 'ही' कहने का नहीं है। ऐसा मत सोचना कि ईश्वर को 'ही' कह दिया, अब सारी दुनिया को 'ना' कहने के तुम हकदार हो गये। यह कोई आस्तिकता नहीं है।
आस्तिक का अर्थ होता है : 'हां' जिसको सुगम हो गई; जिससे 'ही' सरलता से बहती है; जिसे 'ना' मुश्किल हो गई। नास्तिक का अर्थ है : सौ में निन्यानबे मौके पर वह 'नहीं' कहेगा। और अगर 'हा' कहना भी पड़ेगा तो इस ढंग से कहेगा कि उसके 'ही' में भी 'नहीं' का स्वर होगा, 'नहीं' का स्वाद होगा। और जब भी मौका मिल जायेगा तो वह 'हा' को बदल कर 'नहीं, कर देगा।
फिर आस्तिक कौन है? आस्तिक वह है जो सौ में निन्यानबे मौके पर 'ही' कहेगा, सरलता से कहेगा, सुगमता से कहेगा, बेझिझक कहेगा, बिना नानुच कहेगा, बेशर्त कहेगा। और अगर सौवीं बार उसे 'नहीं' कहनी भी पड़ी तो मजबूरी में कहेगा, क्षमा मांगते हुए कहेगा। और जैसे ही अवसर आ जायेगा  'हा' में बदलने का, वह 'नहीं' को 'हां' में बदल लेगा। यह आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा है। ईश्वर को मानना न मानना गौण है। आत्मा को मानना न मानना गौण है। अगर तुमने 'ही' कहने की क्षमता जुटा ली, तुम आत्मा को भी जान लोगे। परमात्मा को भी जान लोगे। और अगर तुम 'ना' कहने में कुशल होते गये, निष्णात होते गये, तो आत्मा—परमात्मा तो दूर, तुम जीवन को भी जानने से वंचित रह जाओगे। आकाश तारों से भरा रहेगा, लेकिन तुम्हारी आंखों में अंधेरा होगा। सुबह ऊगेगी लेकिन तुम अंधे रहोगे, क्योंकि 'नहीं' की परतें आदमी को अंधा करती हैं।
कोई 'नहीं' में जी थोड़ी ही सकता है। 'नहीं' का अर्थ ही होता है जो नहीं है, उसमें कैसे जीयोगे? और अधिक लोग नहीं में जीने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिये उनका जीवन छिन्न—भिन्न है, खिन्न है, उदास है, रूखा—सूखा है, रस—विहीन है। उनका जीवन बस कामचलाऊ जीवन है; उसमें फूल नहीं खिलते; उसमें साज नहीं बजते; उसमें नृत्य नहीं होता; उसमें प्रेम नहीं पकता; उसमें प्रार्थना नहीं लगती। ये सब लगें कैसे? रसधार ही नहीं तो प्रार्थन्त के फल कैसे लगें? रस ही नहीं बहता, जड़ें रस ही नहीं लेतीं पृथ्वी से, तो फूल कैसे खिलें, नृत्य कैसे हो, गान कैसे हो?
जिस व्यक्ति के जीवन में 'हा' आ जाती है उसके जीवन में काव्य आ जाता है। अब तुम फर्क समझना। 'नहीं' है मन का स्वभाव और 'हा' है हृदय का स्वभाव। इसलिये जो 'ही' कहता है, वह धीरे— धीरे हृदय में सरक जाता है; और जो 'नहीं' कहता है, वह धीरे— धीरे सिर में ही वास करने लगता है।  'नहीं' है तर्क, 'नहीं' है संदेह; 'हा' है श्रद्धा, 'हा' है भरोसा। और उस भरोसे में ही जीवन का प्रभात है।
कथंत गोरख मुकति लै मानवा..।
अगर मुक्ति चाहिये हो, स्वातैव्य चाहिये हो, क्योंकि स्वतंत्रता तो सबसे बड़ी विधायकता है।
मारिलै मन द्रोही तो इस द्रोही मन को, नास्तिक मन को, नकार करनेवाले मन को जीत लो, मार लो।
जाके बप वरण मांस नहीं लोही।
और इसे मारने में कोई हिंसा नहीं होगी, क्योंकि न तो इसमें मांस है, न लहू है, न देह है। यह मन तो केवल एक धारणा है। इसको मारने में कोई हिंसा नहीं होगी। इसलिये गोरख कहते हैं : मारो! इसको मारने में कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि कोई मरेगा नहीं। यह तो केवल तुम्हारी धारणा है, तुम्हारी भ्रांति है, तुम्हारी




   मान्यता है। छोड़ दोगे, गिर जायेगी। छोड़ दोगे, बिखर जायेगी। और इसके बिखरते ही तुम मुक्त हो जाओगे।
तुम उन जंजीरों में बंधे हो जो हैं नहीं। तुम उन कारागृहों में कैद हो, जो हैं नहीं; लेकिन तुमने मान रखे हैं, तुमने भरोसा कर लिया है।
गुरजिएफ बहुत दिनों तक कजाकिस्तान में रहा। कजाकिस्तान में अब भी यह प्रक्रिया है। छोटे बच्चों को लेकर कजाकिस्तान की स्त्रियां जंगल में काम करने जाती हैं, खेत में काम करने जाती हैं, तो स्त्रियों को कुछ—न—कुछ उपाय करने पड़ते हैं बच्चों के लिये। उन्होंने एक बड़ी अदभुत प्रक्रिया खोज निकाली है, सदियों से वहां चल रही है और वह कारगर है। वे छोटे बच्चे को बिठा देती हैं और उसके चारों तरफ खड़िया से एक लकीर खींच देती हैं और उस बच्चे को कह देती हैं, इसके बाहर तू नहीं निकल सकेगा, कोई कभी नहीं निकल सका है। अब बचपन से ही यह बात कही जाती है और गांव भर के बच्चों को कही जाती है। सब बच्चे यह जानते हैं कि खड़िया की रेखा के बाहर नहीं निकला जा सकता। कोई बच्चा नहीं निकलता। निकल ही नहीं सकते, तो कैसे निकलोगे? ये सम्मोहित हो जाते हैं बच्चे। और बच्चों तक ही बात नहीं है, गुरजिएफ ने लिखा है कि तुम किसी बड़े आदमी के पास खड़िया खींच दो और वह नहीं निकलेगा। गुरजिएफ तो चौंका जब उसने देखा कि उसने कोशिश की लोगों को कि निकल आओ, हिम्मत दी कि आ जाओ, मत घबडाओ—वे निकलने की कोशिश भी करते हैं तो कोई अदृश्य दीवाल ठीक लकीर के ऊपर खड़ी हुई उनको वापिस लौटा देती है। वे उससे आकर टकरा जॉते हैं। कोई अदृश्य दीवाल, जो वहां है ही नहीं! गुरजिएफ मजे से भीतर—बाहर आ—जा रहा है। वे देख भी रहे हैं, मगर फिर भी उनके लिये है दीवाल।
तुमने कभी सम्मोहन का कोई खेल देखा? सम्मोहन करनेवाला जो भी कह देता है सम्मोहित व्यक्ति को, वह वैसा ही व्यवहार करने लगता है। तुम्हारा मन एक तरह का सम्मोहन है। और तुम हंसना मत कि ये कजाकिस्तान के लोग नासमझ हैं; तुम्हारी भी हालत वही है। अगर गीता को पैर लग जाये तो जल्दी से नमस्कार करते हो। बचपन से कहा गया है कि गीता को पैर लग जाये, फप हो जायेगा। मुसलमान का लग जाता है, उसे कोई फिक्र नहीं होती, मजा आ जाता है कि एक पुण्य का कृत्य हुआ! तुम्हारा कुरान से पैर लग जाये, तुम्हें भी कोई अड़चन नहीं होती। तुम मंदिर के सामने से निकलते हो, तुम्हारे हाथ अपने—आप जुड़ जाते हैं, जोड़ने नहीं पड़ते, यंत्रवत। मस्जिद के सामने तुम्हें याद ही नहीं आती कि मस्जिद थी और हाथ जोड़ने थे। ये सब सम्मोहित प्रक्रियायें हैं। ये तुम्हारे भीतर बैठ गई हैं।
मन एक तरह का सम्मोहन है; है नहीं, बस भरोसे में है। मान लिया है तो है, छोड़ दोगे तो गिर जायेगा। हत्या नहीं होगी कुछ, इसलिये कहते हैं गोरख कि ऐसा मत सोच लेना कि मैं मारने— धारने की बातें कर रहा हूं। इसमें न मांस है, न खून है, न जीवन है, एक थोथी धारणा है। और दुनिया में अलग—अलग तरह के मन हैं। जितनी जातियां हैं, जितनी संस्कृतियां हैं, जितने समाज हैं, अलग—अलग तरह का मन पैदा करते हैं। फिर जैसा मन पैदा हो जाता है, वह उसी के अनुसार चलता है; उससे भिन्न चलने में अड़चन हो जाती है। उससे भिन्न का भरोसा ही नहीं आता कि मैं चल सकता हूं।
तुम अपनी ही जांच करना और तुम पाओगे कि तुम्हारा मन समाज के द्वारा दिया गया एक संस्कार है, और कुछ भी नहीं। तुम जिस दिन समझोगे उसी दिन गिरा सकते हो।
पावडिया पग फिलसै अवश्र लोहै छीजत काया।

और कहते हैं गोरख कि ऊपर के वेश इत्यादि बदल लेने से कुछ भी न होगा, क्योंकि हमने खडाउं, से भी पैर फिसलते देखा है। बड़ी प्यारी बात कहते हैं :
पावडिया पग फिलसै अवधू!
खड़ाऊं तक से पैर फिसल जाते हैं, हमने देखा है। खड़ाऊं यानी साधु—संन्यासी बजाते फिरते हैं न खड़ाऊं! खड़ाऊं से भी पैर को फिसलते देखा है। खड़ाऊं नहीं बचा सकती, भीतर का बोध ही बचा सकता है। ऊपर के उपचार, ऊपर के क्रियाकांड नहीं बचा सकते; केवल अंतर की ज्योति ही बचा सकती है।
पावडियां पग फिलसै अवधू लोहै छीजत काया।
और तुम शरीर को कितना ही सम्हाल लो—योग, तप, व्यायाम—लोहे जैसा बना लो शरीर को, तो भी छीज ही जायेगा एक दिन, देर— अबेर।
लोहै छीजत काया
हमने तो लोहे जैसे शरीर को भी छीजते देखा है, मरते देखा है। इसलिये इस पर व्यर्थ समय खराब मत करो। सुंदर से सुंदर देह भी सड़ जायेगी। सबल से सबल देह भी गल जायेगी।
और तुम हैरान होओगे यह जानकर कि जितनी सबल देह बनाने की कोशिश की जाती है, उतनी बुरी तरह गलती है, क्योंकि जबर्दस्ती हो जाती है। गामा के पास सबल देह थी, और क्या देह चाहिये, लेकिन सड़—सड़कर मरा गामा। क्षय—रोग से मरा। जरूरत से ज्यादा शरीर को बांधने की कोशिश की, अनाचार हो गया। दुनिया के पहलवान अक्सर बुरी तरह से मरते हैं, बुरी बीमारियों से मरते हैं। अस्वाभाविक चेष्टा का परिणाम बुरा होता है। तुम सोचते हो, पहलवानों की देह स्वाभाविक है? नहीं, जरा भी स्वाभाविक नहीं है। वे जो मसलें उठती हुई दिखाई पड़ती हैं, वे स्वाभाविक नहीं हैं, चेष्टागत हैं, हजार—हजार दंड—बैठक रोज लगा—लगा कर के, जबर्दस्ती कर—करके मसलों को उभारा गया है। उनके उभारने में ऊपर से तो बड़ी ताकत मालूम होने लगी, लेस्कइन भीतर सब खोखा हो गया है। यह स्वाभाविक नहीं है प्रक्रिया।
गोरख कहते हैं कि लोहै छीजत काया... हमने तो ऐसे लोगों की देह को भी आखिर छीजते देखा, जो लोहे जैसे मालूम पड़ते थे। इसलिये व्यर्थ की चेष्टाओं में मत लगो। योगी लग जाते हैं इस तरह की चेष्टाओं में—कि काया को पवित्र करें, काया को दृढ़ करें, काया को मजबूत करें, काया को ऐसा करें वैसा करें। काया में ही उलझ जाते हैं। काया की माया के ऊपर उठ ही नहीं पाते। साक्षी तक पहुंचने का तो सवाल ही नहीं। घर की सफाई में ही लग गये, मालिक की तो याद ही भूल गई। और घर तो सभी गिर जायेंगे, झोपड़े भी गिरते हैं और महल भी गिर जाते हैं।
पावडिया पग फिलसै अवधू..।
बड़ा प्यारा प्रतीक लिया है कि खड़ाऊं से भी पैर फिसलते देखे हैं। हम सब जानते हैं, खड़ाऊं से भी पैर फिसल जाते हैं। सच तो यह है खड़ाऊं से जितने जल्दी फिसलते हैं, और किसी चीज से नहीं फिसलते। खड़ाऊं पर चलकर देखना जरा। खड़ाऊं से और जल्दी फिसल जाते हैं। क्यों? क्योंकि खड़ाऊं एक अस्वाभाविक चीज है। पकड़—पकड़ कर चलना होता है। अंगुलियों के बल पर ही खड़ाऊं को सम्हालना होता है, वजनी भी होती है, लकड़ी की भी होती है।
औपचारिक रूप से जो लोग जीते हैं, ऊपर—ऊपर का आडंबर करके जो जीते हैं, उनके गिर जाने की संभावना बहुत ज्यादा है। इससे तो सीधे—सादे सरल लोग अच्छे हैं। उनके गिरने का डर नहीं है। वे खड़ाऊं पर चलते ही नहीं हैं। उनके गिरने का डर नहीं है, क्योंकि वे कोई धोखा और पाखंड करते ही नहीं हैं; वे तो सीधे—साफ हैं। प्रकृति के अनुकूल चलते हैं तो गिरने का कोई डर नहीं है।
गोरख सहज—योग के पक्षपाती हैं। वे कहते हैं. जहां तक बन सके प्रकृति के अनुकूल ही परमात्मा को साधना, प्रतिकूल साधने की कोशिश कठिनाइयों में ले जायेगी। सम्यक आहार करना, न कम न ज्यादा, तो फिसलोगे नहीं। कुछ हैं जो कम आहार करते हैं, कुछ हैं जो ज्यादा आहार करते हैं; दोनों के फिसलने का डर है। जो कम आहार करता है वह भी चौबीस घंटे आहार की सोचता रहेगा और जिसने ज्यादा कर लिया है, वह चौबीस घंटे ज्यादा करने के कारण पीड़ित, बोझिल रहेगा। जिसने कम किया है उसके भीतर बेचैनी रहेगी, क्योंकि भूख कायम है, भूख मांग करेगी और जिसने ज्यादा कर लिया है, वह बोझिल हो गया है, उस पर तंद्रा छा जायेगी, मूर्च्छा छा जायेगी, उसे ध्यान मुश्किल हो जायेगा।
दोनों के लिये ध्यान मुश्किल है। जो भूखा ध्यान करने बैठा है, उसे भूख की याद आयेगी। भूखे भजन न होई गुपाला! और जो ज्यादा भोजन करके बैठ गया है, उसको नींद आयेगी। क्योंकि जैसे ही ज्यादा भोजन कर लिया, शरीर कहता है कि अब विश्राम करो ताकि पचा सको, सब काम बंद करो, अब सारी शक्ति पचाने में ही लगानी जरूरी है। इसीलिये तो भोजन करने के बाद एकदम नींद आने लगती है। ज्यादा कर लोगे तो उसका अर्थ इतना हुआ कि अब पेट कहता है, अब सारी शक्ति पचाने में लगानी है। बुद्धि से भी पेट अपनी शक्ति को वापिस ले लेता है। इसलिये नींद आती है। नींद का वैज्ञानिक कारण यही है भोजन के बाद, कि जो शक्ति बुद्धि में काम करती है, मस्तिष्क को जगाकर रखती है, पेट उसको भी वापिस बुला लेता है, क्योंकि संकटकाल की स्थिति पैदा कर दी तुमने। अब कहीं भी शक्ति जा नहीं सकती, पेट में ही होनी चाहिये तभी पच सकेगा। नहीं तो पचेगा नहीं, तो बोझ हो जायेगा, शरीर पर जहर हो जायेगा। और जब मस्तिष्क की शक्ति पेट में चली जाती है तो तुम्हें नींद आने लगती है। नींद का और कोई मतलब नहीं होता। इसलिये उपवास करोगे तो रात नींद नहीं आयेगी, क्योंकि जब उपवास किया तो पेट को शक्ति की जरूरत ही नहीं है पचाने के लिये। तो शक्ति लौट—लौट कर मस्तिष्क में चली जायेगी, रात— भर तुम्हें जगाये रखेगी।
सम्यक आहार चाहिये, न कम न ज्यादा। सम्यक व्यायाम चाहिये, न कम न ज्यादा। सारी चीजें सम्यक चाहिये। सम्यक शब्द को स्मरण रखना, क्योंकि वह सहज—योग की आधारशिला है।
पावडियां पग फिलसै अवधू लोहै छीजत काया
नागा मूनी दूधाधारी एता जोग न पाया।
गोरख कहते हैं. तुमसे स्पष्ट कहे देता हूं कि नग्न रहने से किसी ने कभी परमात्मा नहीं पा लिया है। नग्न तो सारी प्रकृति है, तुम भी नग्न हो जाओगे तो क्या होगा? मौन रहने से किसी ने परमात्मा नहीं पा लिया है। मौन तो पत्थर भी हैं, पहाड़ भी हैं, वृक्ष भी हैं। मौन रहने से कोई परमात्मा को नहीं पा लिया है।
नागा मूनी दूधाधारी......।
और तुम दूध ही दूध पी कर रहोगे तो भी परमात्मा को नहीं पा लोगे, क्योंकि सभी बच्चे दूध ही पी कर रहते हैं, कोई परमात्मा को नहीं पा लेता। इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि गोरख कह रहे हैं कि मौन अच्छा नहीं है, कि गोरख कह रहे हैं कि नग्नता में कोई पाप है।
नहीं, गोरख इतना ही कह रहे हैं कि नग्न रहने में तुम्हें सुखद मालूम पड़ता हो, प्रीतिकर लगता हो, स्वाभाविक लगता हो, मजे से रहना; मगर यह मत सोच लेना कि नग्न रहने से ही कोई परमात्मा को पा लेता है। कपड़े पहने—पहने भी परमात्मा पाया जाता है। परमात्मा और आदमी के बीच कपड़े बाधा नहीं हैं—बाधा मन है। इसलिये कपड़ों को गिरा कर यह मत सोच लेना कि हो गया काम पूरा।
दिगंबर जैन मुनि यही कर लेते हैं। सारी जिंदगी का अभ्यास यही होता है। पांच सीढ़ियां पार करते हैं। एक—एक सीढ़ी के पार करने में दो—दो, तीन—तीन, चार—चार साल लग जाते हैं। पांचवीं सीढ़ी पर जाकर नग्न हो पाते हैं। पंद्रह—बीस साल की लंबी चेष्टा और कुल परिणाम इतना कि नग्न हो गये। इससे कुछ मिल न जायेगा। तुम जरा जैन दिगंबर मुनि को देखना। उसके चेहरे पर तुम कोई प्रतिभा की आभा न पाओगे, आनंद का अहोभाव न पाओगे। सब सूखा—सूखा, सब रूखा—रूखा.. जैसे कोई वृक्ष सूख गया हो, जिसमें अब पत्ते नहीं लगते, फूल भी नहीं आते, जिस पर अब पक्षी भी अपना नीड़ नहीं बनाते। लेकिन जो मानते हैं जैन मुनि को, वे तो कहेंगे. अहा, कैसा वैराग्य! अपूर्व वैराग्य!
हमारी मान्यतायें ऐसी हैं कि अगर हमारे चित्त में धारणायें बैठी हों तो हम उन्हीं धारणाओं के अनुसार देखते हैं। तुम जा कर देखोगे तो तुम्हें कुछ भी न दिखाई पड़ेगा कि कौन—सा आनंद है, कौन—सा परमात्मा का अनुभव हुआ, कौन—सी समाधि है। न तो कोई समाधि का संगीत बजता सुनाई पड़ता है...। यह आदमी बिलकुल मुर्दे जैसा हो गया है। लेकिन जो मानते हैं वे कुछ और कहेंगे। उनका देखने का ढंग, उनकी आंख पर एक चश्मा है। सबकी आंखों पर चश्मे हैं। और चश्मे उतारने जरूरी हैं। और जो सब चश्मे उतार देता है वही मन से मुक्त होता है। मन सारे चश्मों का नाम है—हिंदू चश्मा, मुसलमान चश्मा, जैन चश्मा। चश्मे ही चश्मे हैं। और जब आंख नग्न हो जाती है, स्वच्छ होकर देखती है, बिना किसी चश्मे के, तो वह दिखाई पड़ता है, जो है।
नग्न होने का कोई विरोध नहीं है गोरख को, न मौन होने से कोई विरोध है। इतना ही कह रहे हैं कि इसी को सब मत समझ लेना, क्योंकि कोई आदमी मौन तो हो सकता है और भीतर सारा पागलपन चल रहा है। ऊपर से मौन बैठ गये। सच तो यह है कि ऊपर से मौन बैठ जाओगे तो जो—जो कह कर निकाल लेते थे वह भी भीतर— भीतर घूमेगा, निकलने की भी जगह न रही, निकास भी न रहा। जैसे घर की नाली थी, उसको भी बंद कर दिया, उसमें से कुछ बाहर निकल जाता था कूड़ा—कचरा, अब वह भी बाहर नहीं जाता, वह भीतर ही भीतर घूमेगा। बातचीत करके इसीलिये तो लोग हलका अनुभव करते हैं। मिल बैठे दो यार, जरा बातें हो गईं, कुछ तुमने कहीं कुछ उनने कहीं, कुछ तुमने सुनीं कुछ उनने सुनीं, दोनों हलके होकर घर आते हैं। कहते हैं : जरा मित्र मिल गया, बड़ा आनंद आ गया। आनंद कुछ भी नहीं आया; कुछ कचरा तुमने उसमें डाला, कुछ कचरा उसने तुम में डाला। तुम भी हल्के हुए कुछ, वह भी हल्का हुआ कुछ। फिर नया कचरा पुराने से बेहतर लगता है। जैसे आदमी मरघट ले जाता है न किसी को कंधे पर रखकर, तो रास्ते में कंधे बदल लेते हैं। इस कंधे से अर्थी हटा ली, उस कंधे पर रख ली। अर्थी का वजन तो वही है, लेकिन नये कंधे पर थोड़ा कम मालूम पड़ता है। फिर थक जायेंगे तो फिर दूसरे कंधे पर रख लेंगे। ऐसे तुम कचरे का लेन—देन करते रहते हो। नया कचरा थोड़ा अच्छा लगता है—अपरिचित है। पुराने कचरे से तुम ऊब गये थे; किसी की खोपड़ी में डाल देना चाहते थे।
जो आदमी मौन होकर बैठ गया, उसकी मुसीबत समझो। अब सारा कचरा उसी के भीतर घूमेगा। ऊपर से तो मौन, भीतर विक्षिप्त होने लगेगा। मौन पर्याप्त नहीं है, पहले ध्यान। ध्यान का अर्थ होता है. भीतर अब शाति आ गई। अब भीतर कुछ है ही नहीं। फिर तुम अगर मौन रहो तो उस मौन में एक सौंदर्य होगा। और ऐसा ही नग्नता के संबंध में भी समझना। भीतर तुम निर्मल हो गये, छोटे बच्चे की भांति हो गये। फिर तुम नग्न हो गये तो उस नग्नता में सौंदर्य होगा। अपूर्व सौंदर्य होगा, निर्दोषता होगी।
हिरदा का भाव हाथ में जाणिये यह कलि आई षोटी।
यह जमाना बुरा आया है। अब तो एक ही उपाय है कि जो तुम्हारे हृदय में हो उसको तुम्हारे आचरण में बहने दो। अब वे दिन गये, जब लोग सूक्ष्म में जीते थे। अब तो स्थूल में बताना होगा। यह स्थूल युग आया। यह कलि आई षोटी! यह जमाना स्थूल का है। लोग शरीर को मानते हैं, आत्मा को तो मानते ही कहां? लोग संसार को मानते हैं, परमात्मा को तो मानते ही कहां? लोग तो पत्थर को मानते हैं, प्रेम को मानते ही कहां? यह जमाना तो खोटा आया। यहां तो लोग जिसका दर्शन हो सके, स्पर्श हो सके, इंद्रियों से पकड़ में आ सके, उसको मानते हैं। तो अब तुम्हें धर्म को भी इस योग्य लाना होगा।
हिरदा का भाव हाथ में जाणिये..।
इसलिये अब हृदय में ही रखने की बात नहीं है, इसे अपने हाथ में लाना होगा। अगर हृदय में प्रेम है तो हाथ से प्रेम बांटना होगा। अगर हृदय में देने का भाव है तो हाथ से देना होगा। अगर हृदय में सेवा है तो हाथ से करनी होगी। अब हृदय से ही काम पूरा न हो पायेगा। अब तुम जो सोचते हो, जो भीतर जीते हो, उसे बाहर भी अभिव्यक्ति देनी होगी। यह जगत तो अब आचरण को ही पकड़ सकेगा। अब यह हृदय के भाव न पकड़ सकेगा।
पुराने दिन और थे। गोरख बड़ी ठीक बात कह रहे हैं।
बुद्ध बैठ गये बोधिवृक्ष के नीचे और हम सबने पहचान लिया था। जो पहचान सकते थे, उन्होंने पहचान लिया था। उस सन्नाटे में, उस चुप्पी में भी बुद्ध को पहचान लिया था। हृदय का भाव हृदय में ही रहा था, बाहर नहीं आया था, हाथ में प्रगट नहीं हुआ था। बुद्ध ने करुणा बरसाई, मगर वह हृदय की थी; अस्पताल नहीं खोले, नहीं तो हाथ की हो जाती। प्याऊयें नहीं खोलीं, नहीं तो हाथ की हो जाती। बीमारों के हाथ—पैर नहीं दबाये, नहीं तो हाथ की हो जाती। इस अर्थ में जीसस ज्यादा कलियुग के करीब हैं; जो हृदय का था उसे हाथ में लाये। अंधों को आंखें दीं, कि लंगड़ों को पैर दिये, कि बीमारों की सेवा की। अगर इस दुनिया में ईसाइयत का प्रभाव बढ़ता जाता है तो इसका और कुछ कारण नहीं है; उसका कारण यह है कि ईसाइयत के पास स्थूल की पकड़ है। और जो पुराने धर्म हैं—हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं—इनकी पकड़ अभी स्थूल पर नहीं है। इनकी पकड़ अभी भी सूक्ष्म पर है। ये पुराने दिनों की बातें कर रहे हैं। ये सतयुग की बातें कर रहे हैं। मगर यह कलि आई षोटी! अब जमाना और है। जो चीज तुल सकती है तराजू पर, वही मानी जायेगी।
हिंदू बहुत परेशान रहते हैं कि लोग ईसाई क्यों बनाये जा रहे हैं, लोगों को रिश्वत दी जा रही है, लोगों को ईसाई बनाया जा रहा है। यह सब बकवास है। कोई किसी को जबर्दस्ती ईसाई नहीं बना रहा है। लेकिन ईसाइयत इस युग के बड़े अनुकूल मालूम पड़ती है। गरीब को लगता है कि कुछ सहारा मिला। बुद्ध ध्यान की बात करते हैं, गरीब को ध्यान से कुछ लेना—देना नहीं है। गरीब कहता है : ध्यान की बात पीछे, भोजन कहां है? ईसाई मिशनरी आता है, वह पहले भोजन की बात करता है। ध्यान की तो वह कभी बात करता ही नहीं, वहा सिर्फ भोजन ही भोजन है; अस्पताल खोल देता है, स्कूल खोल देता है, कारखाना लगा देता है, अच्छे कपड़े लोगों को मिल जाते हैं, नौकरी मिल जाती है, शिक्षा मिल जाती है। लोगों को लगता है कि यह बात ठीक है, यह धर्म की बात हो रही है।
ईसाइयत बढ़ती चली गई है। आज दुनिया में एक तिहाई ईसाई हैं। सारे धर्मों पर छाती चली गई है। और उसका कुल कारण इतना है कि इस देश के धर्म सतयुग की भाषा ही बोले चले जाते हैं। अभी भी हम कहते हैं कि साधु की सेवा करो और ईसाई कहता है कि साधु वह जो सेवा करे। इन दोनों का फर्क समझ लो। साधु आ जाये, हम सब उसके पैर दबाने जाते हैं। जैन तो कहते ही हैं, अगर उनसे पूछो, कहा जा रहे हो, वे कहते हैं : साधु महाराज की सेवा करने जा रहे हैं! यह तो हम सोच ही नहीं सकते कि साधु और हमारी सेवा करे। साधु अगर तुम्हारे पैर दबाने लगे, तुम एकदम उचक कर खड़े हो जाओगे, तुम कहोगे. यह क्या करते महाराज! नरक भिजवाओगे? आप और मेरा पैर दबाते हैं! मुझसे कोई कसूर हुआ? आप नाराज हैं? पैर मैं दबाऊंगा।
मगर ये बातें बदल गई हैं। यह भाषा सतयुग की है, जब साधु के पैर दबाये जाते थे, क्योंकि तब लोगों के पास आंखें भी थीं कि सूक्ष्म को देख सकें; हृदय प्रगट था, पारदर्शी था। अब हालत ऐसी नहीं है। गोरख के जमाने में भी न रही होगी। तब तो गोरख कहते हैं—
हिरदा का भाव हाथ में जाणिये यह कलि आई षोटी।
बदंत गोरख सुणौ रे अवश्र करवै होड़ सु निकसै टोटी।।
अब तो प्रमाण देना होगा। जैसे कि हम नल खोलते हैं न, तो टोंटी में से पानी निकलता है; अंदर हो तो ही निकलता है, अंदर न हो तो अकेले टोंटी खोलने से कुछ नहीं होता।
मैंने सुना है, लारेंस ने अरब के लोगों की बड़ी सेवा की। लारेंस एक अदभुत आदमी था। उसने जितनी अरब—जाति को उठाने की कोशिश की, किसी दूसरे आदमी ने नहीं की। वह कुछ अरबी लोगों को लेकर विश्व—प्रदर्शनी होती थी पेरिस में, तो गया दिखाने। बड़ी होटल में उनको ठहराया। मगर वह बड़ा हैरान हुआ, उनको किसी और चीज में मजा ही नहीं था, वे तो एकदम बाथरूम में घुस जायें। अरब के निवासी, पानी की मुश्किल, वर्षों पानी न मिले, ऐसी हालत। नहाना— धोना कहां, और यहां एकदम टोंटी खोलो कि बस फव्वारा जारी.. पानी—पानी, पानी—पानी..। जैसे ही वे.. प्रदर्शनी में एक—से—एक चीजें थीं, मगर वे अरब कहें कि बस अब चलो होटल वापिस। और जैसे ही वे होटल में आयें कि वे गये बाथरूम में और जो घुसे तो निकलें ही न। लारेंस ने कहा कि ठीक है, करने दो, इनको नहा लेने दो, मजा कर लेने दो जितना पानी का करना है, बेचारों को पानी की तकलीफ है।
आखिरी दिन बड़ा अजीब मामला हुआ। सब सामान तो रख दिया गया कारों में। लारेंस जाकर बैठ गया, रास्ता देख रहा, मगर वे सब नदारद। उसने आदमी भिजवाये। कहा कि भई जाकर देखो, वे बाथरूम में होंगे। आखिरी सोच रहे होंगे, एक दफे और। वहां गये तो बड़ी हैरानी हुई, वे सब टोंटिया निकाल रहे थे। लारेंस ने पूछा. यह तुम क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा ये टोंटिया तो हम घर ले जायेंगे। ये टोटिया बड़ी गजब की हैं! जहां दिल चाहो, खोलो, बस पानी ही पानी!
उन गरीब अरबों को क्या पता कि टोंटियों के पीछे बड़ा जाल है। टोंटिया दिखाई पड़ रही हैं; उनके अंदर पीछे और पाइप लगे हैं, और पाइप दूर सरोवरों से जुड़े हैं, इस सबका उनको क्या पता? वे तो समझे कि यह टोंटी का ही मजा है, यह टोंटी बड़ी जादू की है! खोलकर अपने खीसे में रख लो, छोटी—सी टोंटी, किसको पता चलेगा? वे बड़ी कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह टोंटी खुल जाये, वह खुल भी नहीं रही थी, इसलिये देर भी लग रही थी।
गोरख कहते हैं कि टोंटी खोलोगे तो वही निकलता है जो भीतर है। तुम्हारे हाथ प्रमाण होने चाहिये तुम्हारे हृदय के।
कोई बादी कोई विवादी जोगी कौ बाद न करना।
वे कहते हैं : पक्ष—विपक्ष में मत पड़ना। यह ठीक वह ठीक, इस झंझट में मत पड़ना। क्योंकि बिना जाने ठीक तय होता ही नहीं। ईश्वर है या नहीं, इस बात में भी मत पड़ना। ऐसा है वैसा है, इस विवाद में भी मत पड़ना। क्योंकि उस विवाद में जितना समय गया व्यर्थ ही गया।
अठसठि तीरथि समदि समावै..!
और जैसे सारे तीर्थ अंततः समुद्र में ही गिर जाते हैं—गंगा हो कि यमुना हो कि सरस्वती हो, कि गोदावरी हो कि नर्मदा हो; जैसे सारे तीर्थों को बनाने वाली नदियां अंततः जाकर समुद्र में गिर जाती हैं— यूं जोगी को गुरुमुषि जरनां।
ऐसे गुरु के मुंह से जो झर रहा है बस उसको योगी पी ले, पर्याप्त है। उसे वाद—विवाद में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे सारे तीर्थ समुद्र में गिर जाते हैं, ऐसे ही सारे तीर्थ गुरु की वाणी में गिर रहे हैं। गुरु को खोज लिया, फिर कोई चिंता वाद—विवाद की नहीं करनी चाहिये। फिर रसलिप्त, फिर रसविमुग्ध, फिर उसके साथ एक ताल में आबद्ध हो जाना चाहिये।
अवधू मन चंगा तौ कठौती ही गंगा!
और सारी बात मन के चंगे होने की है, आनंदमग्न होने की है, फिर तुम्हें गंगा जाने की जरूरत नहीं, तुम्हारे घर की कठौती में ही गंगा है।
अवधू मन चंगा तौ कठौती ही गंगा। बांध्या मेला तो जगत्र चेला।
और एक दफा बंधन से छूट जाये तुम्हारा मन तो सारा जगत तुम्हारा चेला हो जाये। तुम एक बार मुक्त हो जाओ। तुम मत फिरो इस फिक्र में कि इसको समझायें, उसको समझायें; इससे विवाद करें, उससे विवाद करें; इसको जीते, उसको अपने पक्ष में लायें। इस सब में समय खराब मत करो। तुम मन से मुक्त हो जाओगे तो सारा जगत तुम्हारा चेला हो जायेगा। फिर जिन्हें भी सत्य की चाह है, वे अपने से खिंचे चले आयेंगे, तुम्हें बुलाने भी उनके घर जाना न होगा। वे तुम्हें खोजते चले आयेंगे।
बदंत गोरख सति सरूप। तत विचारै ते रेख न रूप।
और गोरख कहते हैं कि जिसकी न कोई रेखा है, न कोई रूप है, न कोई परिभाषा है, उसका तुम विचार कैसे करोगे? उसका तो अनुभव ही हो सकता है।
गुरु में डूबो। जिसने जाना है उससे जुडो। जिसने पहचाना है उसमें डुबकी मारो। जो स्वयं भी अपरिभाष्य हो गया है, उसका स्वाद लो।
यहु मन सकती यहु मन सीव।
यही मन शक्ति है, यही मन शिव।
यहु मन पांच तत का जीव।
यही मन पांच तत्व हैं, पांच तत्वों से बना हुआ जीव है। यह सारा खेल मन का है। मन अगर बंधन में पड़ा है वासना के, तो तुम संसार में उलझे रहोगे। और मन अगर वासना से उठ गया ऊपर, तो तुम मुक्त हो गये।
यहु मन ले जे उनमन रहै...।
बस इतना ही कर लो कि इसी मन के रहते—रहते तुम उनमन हो जाओ, अमन हो जाओ। जिसको झेन फकीर कहते हैं—नो माइंड, वह उनमन शब्द का ही अनुवाद है। उनमन रहै.। ऐसे रहो जैसे मन है ही नहीं। न कोई विचार, न कोई वासना, न कोई भाव। निर्विचार, निर्भाव, निर्वासना, चुप, सन्नाटे में जीयो। यही ध्यान है।
यहु मन ले जे उनमन रहै तौ तीनि लोक की बातां कहै।।
फिर तुम्हारे भीतर से तीनों लोकों के अदृश्य सत्य प्रगट होने शुरू हो जायेंगे।
दाबि न मारिबा.....।
और इस मन को तुम दबा कर न मार सकोगे।
दाबि न मारिबा खाली न राषिबा...।
और तुम चाहो कि इसको सदा खाली रख लें, तो भी संभव नहीं है। खाली कोई चीज रह ही नहीं सकती। बड़ा प्यारा सूत्र है। जैसे तुम जल भरते हो नदी से, तुमने अपनी मटकी भरी, गड्डा हो जाता है वहां, लेकिन तत्‍क्षण चारों तरफ से जल दौड़कर उस गड्डे को भर देता है। तुम हवा खाली कर लो एक जगह की, चारों तरफ से हवा दौड़कर वहा आ जाती है। इसलिये तो गर्मी के दिनों में अंधड़ चलते हैं। क्योंकि गर्मी में कहीं ज्यादा धूप पड़ जाती एं सूरज की, तो हवा विरल हो जाती है, स्थान रिक्त हो जाता है। स्थान के रिक्त होते ही आस—पास से हवायें दौड़ पड़ती हैं। इतनी तेजी से दौड़ती हैं कि अंधड़ मालूम होता है। प्रकृति खालीपन को पसंद नहीं करती, तत्‍क्षण भर देती है। परमात्मा भी खालीपन को पसंद नहीं करता, तत्‍क्षण भर देता है। तुम खाली तो होओ... इधर मन खाली हुआ कि उधर परमात्मा भरा।
यह सूत्र बड़ा अदभुत है :
दाबि न मारिबा!
एक तो यह खयाल रखना कि मन को दबा—दबा कर मारने की कोशिश में मत लग जाना, नहीं तो मुश्किल हो जायेगी, कभी न मार पाओगे। जिसको दबाओगे वह बना ही रहेगा, वह भीतर बना रहेगा, और भीतर सरक जायेगा। उसका जहर और तुम्हारे प्राणों में फैल जायेगा।
दौबि न मारिबा खाली न राषिबा..
और एक बात पक्की है कि तुम इसे खाली करो, घबड़ाओ मत, यह मत सोचो कि कहीं ऐसे हो गये इस मन को तो छोड़ दिया, फिर रह गये खाली के खाली, शून्य। नहीं, ऐसा होता ही नहीं। तुम शून्य हुए कि पूर्ण आया। इधर शून्य, उधर पूर्ण। शून्य और पूर्ण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जानिबा मानि का भेवं
और यही भेदों का भेद है। यह तुमसे रहस्य की बात कहते हैं गोरख, कि यह भेदों का भेद है। यही उस परम अग्नि का भेद है जिसकी शास्त्रों में चर्चा है, कि जल मिटो, मर मिटो। जल जाओ बिलकुल कि तुम बचो ही न। जैसे ही तुम नहीं बचोगे, वैसे ही परमात्मा अवतरित हो जायेगा।
मरौ हे जोगी मरौ मरौ मरन है मीठा।
तिस मरनी मरौ जिस मरनी मरि गोरख दीठा।।
मर जाओ, शून्य हो जाओ, मिट जाओ, आ जायेगा परमात्मा अपने—आप। तुम्हें उसे खोजने भी जाना न पड़ेगा।
दाबि न मारिबा खाली न राषिबा जानिबा मानि का भेवं।
बूढ़ी ही थै गुरबाणी होइगी सति सति भाषति श्री गोरख देवं।।
और बड़ी मधुर बात कहते हैं कि जिस दिन तुम भर जाओगे परमात्मा से—मन से खाली और आत्मा से भरे—उस दिन तुम पाओगे




            बूढ़ी ही थै गुरबाणी होइगी!
तब यह माया ही, यह की माया.. बहुत पुरानी है यह माया, कोई नई तो नहीं... यह माया ही तब तुम्हें गुरु का संदेश देने लगेगी। इसी के कण—कण से वेदों का जन्म होने लगेगा। इसी माया से उपनिषद प्रगट हो उठेंगे। इसी संसार से तुम्हें सत्य का संदेश मिलने लगेगा। क्योंकि है तो यह संसार उसी का। छिपा वही है इसमें। कण—कण पर उसी का हस्ताक्षर है। मगर तुम्हारे पास अभी देखनेवाली आंख नहीं है।
राति गई अधराति गई बालक एक पुकारै।
और दिन बीते जा रहे हैं, समय बीता जा रहा है, और तुम्हारे भीतर कोई पुकार है, सुनो उसे! तुम्हारे भीतर से कोई पुकार रहा है कि खोज लो, समय मत गंवाओ।
राति गई अधराति गई बालक एक पुकारै।
है कोई नगर मैं सूरा बालक का दुख निबारै।।
कोई है, जो इस भीतर की पुकार का दुख निबार दे? अगर तुम पुकारोगे, जरूर कोई सूरा मिल जायेगा। उसी को गुरु कहते हैं। तुम पुकारोगे तो जरूर कोई मिल जायेगा जो इस बालक का दुख निबार दे।
देवल जात्रा सुंनि जात्रा.....।
कहते हैं कि देवल गये, मंदिर गये—यह तो सूनी व्यर्थ की यात्रा है, तुम नाहक ही परेशान हुए।
देवल जात्रा सुंनि जात्रा........
यह तो व्यर्थ की यात्रा है। इसका कोई मूल्य नहीं है।
तीरथ जात्रा पली।
और गये तीरथ, यह तो पानी की यात्रा है, इससे क्या होने वाला है? फिर कहां जायें?
अतीत जात्रा सफल जात्रा बोलै अमृत वाणी।।
अपने से पार जाओ। अपना अतिक्रमण करो। मनातीत।
अतीत जात्रा सफल जात्रा बोलै अमृत वाणी
और जिस दिन तुम अपने ऊपर उठ जाओगे—अपना अतिक्रमण करोगे—उस दिन तुम पाओगे तुम्हारी वाणी से अमृत बहने लगा; तुम्हारी वाणी वेद उचारने लगी। वेद कंठस्थ नहीं करने पड़ते। जब कोई अतिक्रमण कर जाता है, तो वह जो भी बोलता है, वही वेद है।
इस संसार में पाया क्या है?
दो डगों में ही सिहरने लग गये संकल्प सारे,
बन गई बोझा जवानी, आस टूटी, स्वप्न हारे!
विश्व—उपवन कंटकों से युक्त वन पाया पगों ने,
भूल थी मेरी कि मैंने कह दिया नंदन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है!

आज का सत्कार है कल की उपेक्षा का प्रथम पग,
जग लुटा दो, किंतु, अपना हो नहीं सकता कभी जग!
फाग से जब लौटकर आया, दिखी तब राख सिर पर,




            भूल थी मेरी कि मैंने कह दिया चंदन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है!

आज का गलहार कल की अग्नि—माला का निमंत्रण,
एक क्षण की तृप्ति से तो है भला तृष्णा—नियंत्रण।
, अभागे प्राण—चातक! मिट रहा किसके लिये तू?
रूप ऐसा मेघ जिसमें नीर कम गर्जन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है।

इस संसार में तुमने जो प्रेम बांधा, आसक्ति बांधी, वहां पाया क्या है? पुनर्विचार करो। वहां कुछ भी तो मिला नहीं, राख ही मिली है। चाहा था आनंद, मिला दुख। चाही थी स्वतंत्रता, मिला संताप। चाहा था आकाश, मिले पींजडे। सींकचों में बंद तुम जी रहे हो।
लेकिन हम देखते नहीं, हम दौड़े चले जाते हैं। देखें तो अभी क्रांति हो सकती है। और परमात्मा से तुम व्यर्थ की चीजें मांग रहे हों—धन मांग रहे, पद मांग रहे। मांगना हो तो कुछ ऐसा मांगो—

            दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।

इस अमावस की निशा में
घिर गया उर में अंधेरा
हो गया ऐसा कि मानों
फिर नहीं होगा सवेरा 
मैं जलाता क्षीण सा—
फिर भी प्रणय का दीप अपना
चांदनी की छवि न दो
केवल किरण का हास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।

तृप्ति मिल पाई न कोकिल—
को विरह के गीत गाते
क्षण मिले मधुमास के जो
वे शर्तें से वेध जाते
इन स्वरों की दीर्घ व्यापी
मृदु जलन फूटी गगन में;

दो न छाया मेघ की
केवल सजल आभास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।

देखते हो क्या नहीं वह
बह रही लहरी विकल है
प्रश्न सी आतुर प्रतीक्षामय—
मिला जिसको न हल है
सिंधु के प्रतिबंध देते
हैं तड़पने भी न जी भर
मुक्ति दो चाहे न, केवल
ज्वार का उल्लास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।

मांगते हो धन, मांगते हो पद, मांगते हो प्रतिष्ठा, मिला क्या? मांगो आस्था, मांगो आस्तिकता, मांगो कि हृदय कह सके : हा! मांगो कि अब यह हो चुकी ना बहुत, अब इंकार नहीं। अब यह चित्त का नकार नहीं। तो जरूर तुम्हारे भीतर अमृत—वाणी का जन्म हो। तुम भी जान सकी उसे, जो किसी गोरख ने जाना। तुम भी पहचान सको उसे, जो किसी कबीर ने जाना। और ध्यान रखना पुन: पुन:, यह वाद और विवाद की बात नहीं, शास्त्र—शास्त्रार्थ की बात नहीं, शब्द—सिद्धात की बात नहीं।

तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?

जिनके मन—मधुवन में
कलिका भी खिली नहीं
जिनको पलभर पतझर से
फुरसत मिली नहीं,
कोयल की स्वरलहरी में
नहीं नहाये जो—
वे मधुऋतु के मदमस्त प्रहर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?

जो सुन न सके संगीत
हवा की पायल का
जो देख न पाये खेल
चांद से बादल का।
जिनकी किस्मत में
मावस का अभिनंदन है,
वे ऊषा की रंगीन नजर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?

थोथी मर्यादाओं में
जो पलते आये
सांसों का बोझ उठाये
जो चलते आये!
जिनके नभ में बदली न घिरी,
बिजली न हंसी,
वे पी—पी रटते हुए अधर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग लहर को क्या जानें?

मधु और गरल कुछ नहीं
समर्पण के पथ में,
फूलों तक जाना है
शूलोंवाले रथ में!
बसते आये जो सदा
घृणा की बस्ती में,
वे प्रेम—नगर या प्रेम—डगर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग लहर को क्या जानें?

पर किनारे पर बैठे लोग विवाद खूब करते हैं। लहरों की चर्चा करते हैं। मझधारों की चर्चा करते हैं। उस पार की चर्चा करते हैं। इस विवाद में समय मत गंवाना। हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, विवाद में समय मत गंवाना। वेद सही कि कुरान कि बाइबिल, समय मत गंवाना। खोज लेना कहीं कोई जीवंत उपनिषद, कोई जीवंत कुरान। जहां अभी पैदा हो रही हो अमृत की वाणी, वहां डुबकी लेना।
देवल जात्रा सुंनि जात्रा तीरथ यात्रा पाणी
अतीत जात्रा सुफल जात्रा बौलै अमृत वाणी?

आज इतना ही

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