अध्याय
13 : खंड 1
निंदा
और प्रशंसा
सम्मान
और अपमान, दोनों
से हमें
निराशा मिलती
है;
हम
जिसे
मूल्यवान
समझते हैं और
जिससे भयभीत होते
हैं,
वे
दोनों ही
हमारे स्वयं
के भीतर हैं।
सम्मान
और अपमान के
संबंध में ऐसा
कहने का क्या
अर्थ है?
सम्मान-प्राप्ति
के बाद निम्न
स्थिति में होना
ही अपमान है।
सम्मान
की उपलब्धि से
उसे खोने का
भय पैदा होता
है;
और
उसे खोने पर
और अधिक
संकटों के भय
का जन्म होता
है।
"निंदा
और प्रशंसा, सम्मान
और अपमान, दोनों
से हमें
निराशा मिलती
है। हम जिसे
मूल्यवान
समझते हैं और
जिससे भयभीत
होते हैं, वे
दोनों ही
हमारे स्वयं
के भीतर हैं।
सम्मान और
अपमान के
संबंध में ऐसा
कहने का क्या
अर्थ है? सम्मान-प्राप्ति
के बाद निम्न
स्थिति में होना
ही अपमान है।
और सम्मान की
उपलब्धि से
उसे खोने का
भय भी पैदा
होता है। और
उसे खोने पर
और अधिक संकटों
के भय का जन्म
होता है।'
इस
सूत्र को
समझने के पहले
इस सूत्र के
आस-पास और इस
सूत्र की
प्रतिध्वनि
में छिपी बहुत
सी बातों को
समझ लेना
जरूरी है।
सबसे
पहली बात तो
यह समझ लेना
जरूरी है कि न
तो सम्मान
तथ्य है और न
असम्मान। न तो
प्रशंसा तथ्य
है और न
निंदा। प्रशंसा
तब हमें अनुभव
होती है, जब
हमारे अहंकार
को कोई फुसलाए,
सहलाए। और निंदा
हमें तब मालूम
होती है, जब
हमारे अहंकार
को कोई गिराए,
चोट
पहुंचाए।
सम्मान
और अपमान, दोनों
ही अहंकार के
अनुभव हैं। और
अहंकार एक असत्य
है। अहंकार
जीवन में सबसे
बड़ा झूठ है।
जो हम हैं, उसका
हमें कोई भी
पता नहीं है।
जो हम हैं और
जिसका हमें
पता नहीं, उसी
को हम आत्मा
कहेंगे। और जो
हम नहीं हैं
और मानते हैं
कि हम हैं, उसी
का नाम अहंकार
है। अहंकार एक
काल्पनिक इकाई
है। इसके बिना
हम जी नहीं
सकते, क्योंकि
वास्तविक
इकाई हमारे
पास नहीं है।
यह परिपूरक
इकाई है।
हमारा असली
मालिक तो हमें
पता नहीं, इसलिए
हमने एक झूठा
मालिक
निर्मित कर
लिया है।
हमारे असली
केंद्र का तो
हमें कोई
अनुभव नहीं
है। लेकिन
बिना केंद्र
के जीना बहुत
मुश्किल है, असंभव है।
इसलिए हमने एक
झूठा केंद्र
निर्मित कर
लिया है। और
उसी के पास हम
अपने को चलाए
रखते हैं, जिलाए
रखते हैं।
इस
झूठे केंद्र
का नाम अहंकार
है। इस झूठे
केंद्र को जिन
बातों से आनंद
मिलता है, उन
बातों को हम
प्रशंसा
कहेंगे; और
जिन बातों से
दुख मिलता है,
उन्हें हम
निंदा
कहेंगे।
क्योंकि
अहंकार स्वयं
ही एक असत्य
है, उससे
होने वाले सभी
अनुभव असत्य
हैं।
तो
लाओत्से कहता
है,
जब कोई
प्रशंसा करता
है, तब
हमें लगता है
सुख मिल रहा
है; और जब
कोई निंदा
करता है, तो
लगता है कि
दुख मिल रहा
है। और ऐसा
लगता है कि
कोई दूसरा सुख
दे रहा है, या
कोई दूसरा दुख
दे रहा है।
लेकिन सुख और
दुख का मूल
कारण हमारे
भीतर है--वह
हमारा अहंकार
है। जिस
व्यक्ति का
कोई अहंकार
नहीं है, उसे
न तो कोई सुख
दे सकता है और
न कोई दुख। और
जिसे कोई भी
सुख-दुख नहीं
दे सकता, वही
व्यक्ति आनंद
में स्थापित
हो जाता है।
हमें
तो कोई भी सुख
दे सकता है और
कोई भी दुख।
हम तो दूसरों
के हाथों में
कैद हैं। हम
तो दूसरों के
हाथों में
बंधे हैं।
हमारी लगाम सब
दूसरों के
हाथों में है।
जरा सा इशारा, और
दुख पैदा हो
जाता है। और
जरा सा इशारा,
हम सुखी हो
जाते हैं। जरा
सी बात, और
आंखें आंसुओं
से भर जाती
हैं। और जरा
सी बात की
बदलाहट, कि
चेहरे पर
मुस्कान फैल
जाती है।
हमारे आंसू, हमारी
मुस्कान, बाहर
से कोई
संचालित करता
है।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
यह जो बाहर
से संचालन हो
रहा है, इसका
भी गहरा कारण
हमारे भीतर
है। वह हमारा
अहंकार है।
अहंकार के
कारण ही हम
दूसरों से
प्रभावित होते
हैं। चाहे
मित्र, चाहे
शत्रु, चाहे
प्रशंसा करने
वाले और चाहे
निंदा करने वाले,
दूसरा हमें
प्रभावित कर
लेता है, क्योंकि
हमारे पास
अपनी कोई
वास्तविक
आत्मा नहीं है,
एक झूठा
केंद्र है, एक सूडो
सेंटर है, एक
मिथ्या
केंद्र है। उस
मिथ्या
केंद्र की बनावट
ही ऐसी है कि
वह दूसरे के
कब्जे में
रहेगा।
इसे
थोड़ा समझ लें।
अहंकार आपके
कब्जे में नहीं
है। यह सुन कर
हैरानी होगी, क्योंकि
हम सब सोचते
हैं कि अहंकार
मेरा है तो
मेरे कब्जे
में है। इस
भ्रांति में
कभी आप मत पड़ना।
अहंकार आपके
कब्जे में
नहीं है।
अहंकार दूसरों
के कब्जे में
है। इसलिए
दूसरे के
एक-एक शब्द का
मूल्य है।
रास्ते पर चार
लोग नमस्कार
कर लेते हैं, तो आपकी
छाती फूल जाती
है। और चार
लोग गालियां
दे देते हैं, तो छाती
सिकुड़ जाती
है। चार लोग
आपकी तरफ देख लेते
हैं प्रशंसा
की आंखों से, तो आपके
भीतर फूल खिल
जाते हैं। और
चार लोग आपकी
तरफ प्रशंसा
की आंखों से
नहीं देखते, निंदा की
आंखों से देख
लेते हैं, आपके
भीतर की सब
खुशी मर जाती
है, सब
सुगंध
दुर्गंध हो
जाती है, सब
फूल कुम्हला
कर गिर जाते
हैं। यह
अहंकार आपके
भीतर है, लेकिन
आपके हाथों
में नहीं है।
अहंकार दूसरों
के हाथों में
है। इसलिए
अहंकार सदा
दूसरों पर
निर्भर है।
इसलिए अहंकार
सदा ही दूसरों
की खोज करता
है। अहंकार
अकेला नहीं रह
सकता। अगर
जंगल के एकांत
में आपको घबड़ाहट
होती है, तो
वह आपकी घबड़ाहट
नहीं, वह
आपके अहंकार
की घबड़ाहट
है। अगर कमरे
के एकांत में
आपको घबड़ाहट
होती है और
चेष्टा होती
है कि साथी
खोजें, तो
वह आपकी घबड़ाहट
नहीं, आपके
अहंकार की घबड़ाहट
है। एकांत में
अहंकार को
मुश्किल हो
जाता है जीना।
अहंकार को
प्रतिपल
सहारा चाहिए।
और यह
मजे की बात है, अहंकार
निंदा सह सकता
है, एकांत
नहीं सह सकता।
अहंकार निंदा
में भी जी सकता
है, एकांत
में नहीं जी
सकता। अहंकार
को प्रशंसा
मिले, तब
तो कहना क्या!
लेकिन अगर
प्रशंसा न
मिले, तो
निंदा भी
बेहतर है।
लेकिन एकांत
एकदम खतरनाक
है। क्योंकि
निंदा में भी
दूसरा आपको
मूल्य तो देता
ही है। अगर
कोई मुझे गाली
देता है, तो
भी मुझे
स्वीकार तो
करता ही है।
और अगर वह
मुझे गाली दिए
ही चला जाता
है, तो
मेरी महत्ता
को भी अंगीकार
करता है--मैं
कुछ हूं! अगर
अखबार में एक
अपराधी की तरह
भी मेरा नाम
छपता है, तो
भी अहंकार जी
सकता है। अगर
सड़क से मेरे
हाथों में
जंजीरें डाल
कर मुझे
कारागृह ले
जाया जाता है,
तो भी मेरा
अहंकार जी
सकता है।
लेकिन अकेले
में अहंकार
नहीं जी सकता।
मोहम्मद, महावीर
या बुद्ध या
जीसस के एकांत
में जाने का
जो मौलिक कारण
है, वह इस
बात की खोज है
कि उनके भीतर
अहंकार अभी भी
बचा है या
नहीं। अगर वे
अकेले में जी
सकते हैं और
उन्हें दूसरे
की कोई याद
नहीं आती, तो
उसका अर्थ है,
अहंकार
विसर्जित हो
गया।
महावीर
बारह वर्षों
तक एकांत में
थे। साधारणतः
महावीर को
मानने वाले
सोचते हैं कि
समाज को छोड़
कर गए थे। वह
बहुत ऊपरी नजर
है। समाज से
महावीर को कुछ
लेना-देना
नहीं। महावीर
बारह वर्ष इस
परख के लिए
एकांत में थे
कि मेरे भीतर
अब भी कोई अहंकार
का केंद्र है
या नहीं, जो
समाज के लिए
तड़पता हो, जो
मांग करता हो
दूसरे की। जब
बारह वर्ष के
निरंतर
परीक्षण से
उन्हें खयाल
में आ गया कि
अब उनके भीतर
दूसरे की कोई
मांग नहीं है,
तब वे वापस
समाज में लौट
आए। अब उनके
पास अपनी आत्मा
थी। अब सड़कों
पर कोई फूलमालाएं
उनके ऊपर
फेंके, या
पत्थर मारे, इससे उनके
भीतर कोई भी
फर्क नहीं पड़
सकता। अब वे
अपने मालिक
थे।
इसलिए
महावीर ने कहा
है कि अब मैं
जिन हो गया। जिन
का अर्थ है, अब
मैंने अपने को
जीत लिया। अब
तक मैं गुलाम
था दूसरों का,
अब मैं जीता
हुआ आदमी हूं।
अब तुम कुछ भी
करो, तुम
मेरे भीतर कोई
फर्क न कर
पाओगे। मैं
तुम्हारी पकड़
के बाहर हूं।
इसे हम
ऐसा समझें।
आपके भीतर जो
अहंकार है, वह
आपके चारों
तरफ के लोगों
के हाथ हैं
आपके भीतर
फैले हुए।
समाज के हाथ
हैं आपके भीतर
फैले हुए।
इसलिए समाज हर
आदमी में
अहंकार को
पैदा करवाता
है। यद्यपि
मजे की बात है,
सभी समाज
लोगों को
सिखाते हैं
विनम्र होने
के लिए, लेकिन
सभी समाज
अहंकार की
शिक्षा देते
हैं। और मजे
की बात यह है
कि विनम्रता
भी समाजों के
द्वारा
अहंकार की ही
एक व्यवस्था
है।
बाप
अपने बेटे से
कहता है, विनम्र
रहो, तो ही
तुम्हें
सम्मान मिलेगा।
गुरु अपने
शिष्यों को
समझाते हैं, तुम जितने
विनम्र रहोगे,
जितने सरल
रहोगे, उतने
प्रशंसा के
पात्र बनोगे।
यह बड़े मजे की
बात है।
क्योंकि
प्रशंसा का पात्र
तो अहंकार
बनता है।
विनम्रता को
भी हम अहंकार
का ही आभूषण
बनाते हैं। हम
उस आदमी को समाज
में
प्रतिष्ठा
देते हैं, जो
विनम्र है। और
प्रतिष्ठा
देते हैं, इसलिए
उसे विनम्र
होने में
सुविधा भी
मिलती है।
क्योंकि
विनम्रता
अहंकार का
आभूषण बन जाती
है।
समाज
बिना अहंकार
को परिपुष्ट
किए नहीं जी
सकता।
क्योंकि समाज
चाहता है, आपके
भीतर समाज के
हाथ होने
चाहिए। अगर
समाज के हाथ आपके
भीतर नहीं हैं,
तो आप समाज
से मुक्त हो
जाते हैं।
इसलिए छोटे से
बच्चे से लेकर
बूढ़े तक, हम
हर आदमी को
अहंकार सिखा
रहे
हैं--बहुत-बहुत
रूपों में।
भले आदमी का
अहंकार है, बुरे आदमी
का अहंकार है।
साधु का
अहंकार है, असाधु का
अहंकार है। और
हम भीतर एक
केंद्र निर्मित
कर रहे हैं, जिस पर
हमारा कब्जा
होगा--बाहर के
लोगों का।
लाओत्से
कहता है कि
प्रशंसा हो या
निंदा, बाहर
से आती मालूम
पड़ती है, लेकिन
उसका मौलिक
कारण हमारे
भीतर होता है।
जब कोई मुझे
गाली देता है,
तो उसकी
गाली नहीं
अखरती; मुझे
देता है, इसलिए
अखरती है। और
जब कोई
प्रशंसा करता
है, तो
उसकी प्रशंसा
से मेरा क्या
प्रयोजन है? मेरी
प्रशंसा करता
है, इसलिए
प्रयोजन है।
प्रशंसा
हमारा भोजन
है। निंदा भी
नकारात्मक
भोजन है।
बर्नार्ड
शॉ ने कहा
है--मजाक में
ही सही, लेकिन
हम सबके भीतर
ऐसा भाव
है--बर्नार्ड
शॉ ने कहा है
कि मैं स्वर्ग
को भी इनकार
कर दूंगा, अगर
मुझे नंबर दो
का स्थान
मिले। मैं
नर्क जाना भी
पसंद करूंगा,
अगर मैं
नंबर एक होऊं।
आप भी अपने मन
से पूछें कि
स्वर्ग में
नंबर दो जगह
मिलती है, तो
पसंद करिएगा?
कि नर्क में
नंबर एक जगह
मिलती हो, तो
पसंद करिएगा?
तो आपके
भीतर से भी
वही बात खयाल
में आएगी कि
नंबर एक होना
ही बेहतर है, चाहे वह
नर्क ही क्यों
न हो।
और ऐसा
नहीं है कि यह
कोई काल्पनिक
सवाल है। जिंदगी
में हम सब यही
कर रहे हैं।
नंबर एक होने की
कोशिश में
पूरा नर्क
पैदा कर रहे
हैं। लेकिन
नंबर एक होना
जरूरी है। तो
नर्क को हम
झेल लेते हैं।
एक आदमी धन
कमा रहा है, वह
कितना नर्क
अपने आस-पास
पैदा कर लेता
है! एक आदमी
राजनीति की सीढ़ियां
चढ़ रहा है, वह
कितना नर्क
अपने आस-पास
पैदा कर लेता
है! लेकिन वह
नर्क दिखाई
नहीं पड़ता। एक
ही बात दिखाई
पड़ती है कि
मैं नंबर एक
कैसे हो जाऊं?
लेकिन
लाओत्से कहता है
कि नंबर एक भी
हो जाओ, प्रशंसा
भी मिल जाए, सम्मान भी
मिल जाए, तो
भी दुख के
बाहर न जा
सकोगे। क्यों?
क्योंकि
जितनी
प्रशंसा
मिलती है, उतनी
ही अहंकार की
मांग बढ़ जाती
है। जितनी प्रशंसा
मिलती है, उतनी
तो मैं
स्वीकार कर
लेता हूं, वह
टेकेन
फॉर ग्रांटेड
हो जाती है।
जितना सम्मान
मुझे मिल जाता
है, उतना
तो मैं मान
लेता हूं कि
मिलना ही
चाहिए था।
आदमी ही मैं
ऐसा हूं। मांग
आगे चली जाती
है।
आज तक
दुनिया में
ऐसा आदमी नहीं
हुआ,
जिसे ऐसा
अनुभव हुआ हो
कि जितना
सम्मान उसे मिलता
है, वह
उसके लिए काफी
हो। सदा लगता
है कि मैं तो बहुत
ज्यादा हूं, लोग अभी समझ
नहीं पा रहे
हैं। जब लोग
पूरा समझेंगे,
तब! मेरी
अपनी प्रतिमा
मेरी अपनी
आंखों में सदा
उन सब
प्रतिमाओं के
जोड़ से बड़ी
होती है, जो
दूसरों की
आंखों में
दिखाई पड़ती
हैं। और मेरी
यह प्रतिमा
कोई स्थिर बात
नहीं है।
जितना इसे
बढ़ावा मिलता है,
उतनी यह
बढ़ती चली जाती
है। जितनी इसे
प्रशंसा मिलती
है, उतना
इसे पानी
मिलता है, खाद
मिलती है। और
यह प्रतिमा
बड़ी होती चली
जाती है। एक
बात निश्चित
है कि जो भी इस
प्रतिमा को
दिया जाए
सम्मान, यह
प्रतिमा उसे
आत्मसात कर
लेती है। और
आगे की मांग
शुरू हो जाती
है।
यह मजे
की बात है कि
जितना भी
सम्मान मुझे
मिले, उससे
मुझे आनंद तो
नहीं मिलेगा,
क्योंकि
उसे मैं
स्वीकार कर
लूंगा; उससे
मुझे दुख जरूर
मिलेगा, अगर
फिर उतना
सम्मान मुझे न
मिले। आज आपने
नमस्कार की और
कल मुझे
नमस्कार नहीं
की। तो आज जब नमस्कार
आप करेंगे, तब तो मैं
मान लूंगा कि
मैं आदमी ही
ऐसा हूं कि
नमस्कार आपको
करनी पड़ी।
लेकिन कल जब
आप नमस्कार
नहीं करेंगे,
तब मैं दुख
जरूर पाऊंगा।
अहंकार से, जो मिलता है,
उससे
तृप्ति नहीं
होती; और
जो नहीं मिलता,
उससे दुख
होता है। जो
मिलता है, उसे
तो अहंकार
स्वीकार कर
लेता है, राजी
हो जाता है।
फिर जो नहीं
मिलता, उससे
पीड़ा आनी शुरू
होती है।
फिर जो
मिल जाता है, उसे
बचाने का भी
बड़ा भारी
आकर्षण पैदा
होता है।
जितनी
प्रशंसा मुझे
मिल जाए, कम
से कम उतनी
प्रशंसा
मिलती रहे, इसकी फिर
सतत चेष्टा
शुरू हो जाती
है। और तब भय
पैदा होता है:
कहीं छिन न जाए!
जो आदर मुझे
आज मिल रहा है,
कल मिले न
मिले! तो जो
मिल जाता है, उसे बचाना
है, सुरक्षा
करनी है। फिर
भय पकड़ता
है। और अगर वह
न मिले तो दुख
आता है।
तो
लाओत्से कहता
है,
सम्मान मिल
जाए तो भी
शांति तो नहीं
मिलती, और
अशांत हो जाता
है मन, और
दुखी हो जाता
है मन। और
निंदा मिले, तब तो पीड़ा
होती ही है।
निंदा तो पीड़ा
देगी ही। यह
भी थोड़ा समझ
लेना चाहिए कि
निंदा भी उसी
मात्रा में
पीड़ा देती है,
जिस मात्रा
में सम्मान की
अपेक्षा होती
है।
चौदह
सौ साल पहले
बोधिधर्म चीन
में प्रवेश किया, एक
भारतीय
भिक्षु।
लाखों लोग उसे
लेने के लिए
चीन की सीमा
पर इकट्ठे हुए
थे। चीन का
सम्राट भी
उसके चरणों
में सिर रख कर
लेटा था। लेकिन
जब उसने आंख
उठा कर देखा, तो सम्राट
हैरान हुआ। और
वे लाखों लोग
भी परेशानी
में पड़ गए।
बोधिधर्म एक
जूता अपने पैर
में पहने था
और एक जूता
अपने सिर पर
रखे हुए था।
सम्राट वू ने
कहा कि मैं
समझ नहीं पा
रहा हूं कि यह
आपने एक जूता
अपने सिर पर
क्यों रख लिया
है?
बोधिधर्म
ने कहा, संतुलन
की दृष्टि से।
मुझे पता चला
कि सम्राट मेरे
चरणों में सिर
रखेगा, तो
संतुलित कर
लेना उचित है।
कहीं संतुलन
खो न जाए, इसलिए
एक जूता मैंने
अपने सिर पर रख
लिया।
तुम्हारे
सम्मान को मैं
अपने ही हाथों
अपनी निंदा
करके पोंछ
डालता हूं।
तुमने जो सम्मान
दिया है, उसे
मैं ही मिटाए
डालता हूं। यह
लेन-देन पूरा हो
गया। मैंने
तुम्हारी
प्रशंसा
स्वीकार नहीं
की। और तुम
भलीभांति जान
लो कि अगर कल
तुम मेरे सिर
पर जूता भी
मार दोगे, तो
निंदा से मुझे
कुछ प्रयोजन
नहीं है। यह
जूता रख कर
मैं प्रवेश ही
कर रहा हूं।
हमारी
अपेक्षा ही
हमारी निंदा
का वजन है।
मैं जितनी
अपेक्षा करता
हूं सम्मान की, उतनी
ही निंदा में
पीड़ा होगी।
अगर मेरी कोई
भी अपेक्षा
नहीं, तो
निंदा में कोई
भी पीड़ा नहीं
रह जाती।
इसलिए इसे ऐसा
भी समझ लें:
निंदा की पीड़ा
निंदा में
नहीं है, निंदा
की पीड़ा
सम्मान की
अपेक्षा में
है। जब आप
मुझे गाली
देते हैं, तो
आपकी गाली में
पीड़ा नहीं है।
मैंने सोचा था
कि आप नमस्कार
करेंगे और
गाली मिली, इसलिए पीड़ा
है। सम्मान
दुख देता है, भय देता है।
और सम्मान की
अपेक्षा
निंदा में वजन
ला देती है, निंदा को
भारी कर देती
है।
लाओत्से
कहता है, सम्मान-अपमान
दोनों से हमें
निराशा मिलती
है। निंदा से
तो मिलेगी ही,
क्योंकि
अहंकार के पैर
उखड़ जाते हैं।
सम्मान से भी
निराशा मिलती
है, क्योंकि
वही निंदा का
भी मूल कारण है।
लाओत्से ने
कहा है कि अगर
तुम चाहो कि
कोई तुम्हारी
निंदा न करे, तो तुम किसी
से सम्मान मत
मांगना। वहां
बड़ी कठिनाई
होती है मन
को। यह तो हम
भी चाहते हैं
कि कोई निंदा
न करे; लेकिन
दूसरी शर्त
मानने का मन
नहीं होता। यह
कौन नहीं
चाहता कि
निंदा न की
जाए? लेकिन
लाओत्से कहता
है, अगर
चाहते हो कि
कोई तुम्हारी
निंदा न करे, तो सम्मान
की अपेक्षा मत
करना। यह
दूसरी शर्त मानने
का मन नहीं
होता। मगर इस
दूसरी शर्त पर
ही सब कुछ
निर्भर है।
जरा सी इंच भर
आकांक्षा सम्मान
की, और
हजार इंच
निंदा का उपाय
हो जाता है।
लाओत्से
ने कहा है, तुम
सिंहासन पर
बैठना ही मत; नहीं तो
नीचे गिराए
जाओगे। और
लाओत्से ने
कहा है, असफल
होने में भी
राजी हो जाना;
फिर
तुम्हें कोई
असफल न कर
सकेगा। और हार
को ही जीत समझ
लेना; फिर
इस जगत में
तुम्हें
हराने की किसी
की क्षमता
नहीं है।
लेकिन यह शर्त
कठिन है।
लेकिन यह शर्त
मौलिक जरूर है,
गहरी जरूर
है, जड़ों
की बात है।
अगर निंदा न
चाहिए हो, तो
सम्मान मत
मांगना।
हम भी
कोशिश करते
हैं कि निंदा
न मिले। हम
किस तरह से
कोशिश करते
हैं?
हमारी
कोशिश
आत्मघाती है।
निंदा न मिले,
इसकी हमारी
कोशिश यह होती
है कि हम
सम्मान की और
व्यवस्था कर
लें। निंदा न
मिले, इसका
मतलब यह होता
है कि सम्मान
की जितनी-जितनी
जरूरतें हैं,
वे हम पूरी
कर दें। लोग
जिस ढंग से
सम्मान देते
हैं, हम उस
ढंग के आदमी
हो जाएं। लोग
जिस आचरण को
सम्मान देते
हैं, वैसा
हमारा आचरण हो
जाए। लोग जिस
तरह के ढोंग को
सम्मान देते
हैं, वैसा
ढोंग हम भी
आरोपित कर
लें। लोग जो
चाहते हैं, वह हम पूरा
कर दें, ताकि
सम्मान मिले।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि जितनी
तुमने यह व्यवस्था
की,
उतनी ही तुम
कठिनाई में पड़
जाओगे।
क्योंकि पहली
तो बात यह है
कि दूसरों के
हिसाब से कोई
भी व्यक्ति
अपने को कभी
निर्मित नहीं
कर सकता। सब
इस भांति का
निर्माण
अभिनय हो जाता
है, थोथा
पाखंड हो जाता
है। और भीतर
से असली आदमी बार-बार
प्रकट होता
रहता है। फिर
दूसरों की इच्छा
से जो अपने को
निर्मित करता
है, वह अगर
सम्मान भी पा
ले, तो भी
अहंकार के
अतिरिक्त और
कोई तृप्ति
नहीं होती। और
अहंकार की कोई
तृप्ति नहीं
है। अहंकार
भिखारी का
पात्र है। उसे
हम कितना ही
भरें, वह
भरता नहीं।
उसकी मांग आगे
बढ़ जाती है।
"हम
जिसे
मूल्यवान
समझते हैं और
जिससे भयभीत होते
हैं, वे
दोनों ही
हमारे स्वयं
के भीतर मौजूद
हैं।'
हम
जिसे
मूल्यवान
समझते हैं और
जिससे भयभीत
होते हैं!
प्रलोभन
और भय एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। ऐसा
हम आमतौर से
देखते नहीं; ऐसा
हमें
सीधा-सीधा
खयाल नहीं
आता। लेकिन जो
आदमी लोभ से
भरा है, वह
आदमी भय से भी
भरा हुआ होगा।
लोभी भयभीत न
हो, ऐसा
असंभव है। और
जो आदमी भयभीत
है, वह
बिना लोभ के
भयभीत नहीं हो
सकता। इसलिए
भयभीत आदमी के
भीतर लोभ न हो,
यह असंभव
है। फिर वह भय
कोई भी क्यों
न हो।
अगर एक
आदमी
परमात्मा से
भी भयभीत है, तो
उसका कारण लोभ
है। कुछ
धर्मों ने
आदमी को भयभीत
करके ही
परमात्मा की
तरफ ले जाने
की कोशिश की
है।
ईश्वर-भीरु, गॉड-फियरिंग
हम धार्मिक आदमी
को नाम देते
हैं। गलत है
वह नाम। ईश्वर
का भय! तो जरूर
किसी लोभ के
कारण ही होगा।
कुछ पाने का
लोभ, कुछ
खो न जाए, इस
बात का लोभ ही
भय पैदा
करेगा। कहीं
नर्क में न
डाल दिया जाऊं,
कहीं
जन्मों-जन्मों
तक दुख न
झेलना पड़े, इस भय से, कि
ईश्वर नाराज न
हो जाए, इस
भय से--ये सब
लोभ के ही रूप
हैं। ईश्वर के
भय से ही जो
संचालित हो
रहा है, वह
लोभ से ही
संचालित हो
रहा है। और
लोभी का ईश्वर
से कोई संबंध
नहीं हो सकता।
भीरु का भी कोई
संबंध नहीं हो
सकता।
ईश्वर
से तो संबंध
उसका हो सकता
है,
जिसके भीतर
लोभ और भय का
कोई उपाय न
रहा हो। और
मैंने जैसा
कहा, अहंकार
हमारे लोभ और
भय का आधार
है। लोभ और भय जिसके
भीतर नहीं हैं,
उसके और
ईश्वर के बीच
कोई दीवार न
रही। इसी क्षण
द्वार खुल जा
सकता है।
लेकिन
लोभ और भय को
हम एक ही शक्ल
में नहीं देखते, एक
ही चीज के दो
पहलू की तरह
नहीं देखते।
लोभ विधायक
हिस्सा है और
भय
निषेधात्मक
हिस्सा है।
किसी को हम
पुरस्कार की
बात करते हैं,
वह लोभ है।
और किसी को
दंड की बात
करते हैं, वह
भय है। और
जहां भी
पुरस्कार है,
वहां दंड
है। और जहां
भी दंड है, वहां
पुरस्कार है।
स्वर्ग
पुरस्कार है,
नर्क दंड
है। सम्मान
पुरस्कार है,
अपमान दंड
है।
समाज
आपकी लगाम को
इसी लोभ और भय
के आधार पर संचालित
करता है। समाज
देगा सम्मान
उस व्यक्ति को, जो
समाज की माने।
समाज देगा दंड
उस व्यक्ति को,
समाज की जो
न माने। समाज
सम्मानित
करेगा, अगर
आप समाज की
छाया बन जाएं।
समाज अपमानित
करेगा, अगर
आप समाज से
भिन्न और ऊपर
होने की
चेष्टा करें।
इसलिए समाज
सुकरात को या
जीसस को या
महावीर को या
मोहम्मद को
कष्ट देगा ही।
वह कष्ट
बिलकुल
स्वाभाविक है;
क्योंकि ये
व्यक्ति समाज
से ऊपर होने
की चेष्टा कर
रहे हैं। समाज
से ऊपर होने
की चेष्टा का अर्थ
है लोभ और भय
से ऊपर होने की
चेष्टा। समाज
का तो सारा
ताना-बाना लोभ
और भय से
निर्मित है।
जो भी व्यक्ति
इन दोनों के ऊपर
होना चाहेगा,
समाज को
खतरा दिखाई
पड़ेगा।
महावीर
कहते हैं, मैंने
सब लोभ छोड़
दिया। और
महावीर कहते
हैं, मैंने
सब भय भी छोड़
दिया। यह कब
संभव है? यह
लोभ और भय का
छूटना कब संभव
है? यह तभी
संभव है जब
मुझे दूसरे से
कोई मांग न रह जाए--कोई
भी मांग न रह
जाए। जब मैं
अपने भीतर इतना
आप्तकाम हो
जाऊं, जब
अपने भीतर
इतना पूरा हो
जाऊं कि मुझे
पूरा करने के
लिए किसी की
भी जरूरत न
रहे। फिर मैं
जीऊं या मर
जाऊं, लेकिन
मेरी पूर्णता
मेरे भीतर हो,
तो मेरा लोभ
और भय
विसर्जित हो
जाए।
लेकिन
हम तो हर
छोटी-बड़ी बात
में दूसरे पर
निर्भर हैं।
अगर कोई प्रेम
से मेरी तरफ
देख लेता है, तो
मेरे भीतर
दीया जल जाता
है। कोई घृणा
से देख लेता
है, दीया
बुझ जाता है।
मेरे पास कोई
अपनी रोशनी नहीं
है। मेरे पास
जो कुछ भी है, वह सब
दूसरों से
मिला हुआ, उधार
है। मैं एक
उधारी हूं, जिसमें
दूसरों ने कुछ
दान दिया है।
इसलिए भयभीत
ही रहना पड़ता
है। कभी भी
अपनी ईंटें
वे खींच लें, तो मेरा भवन
गिर जाए।
इसलिए
जिन्होंने
मुझे दिया है,
उनसे मुझे
भयभीत रहना
पड़ता है। और
जो उन्होंने
अभी मुझे नहीं
दिया है, उसके
लोभ से भरा
रहता हूं कि
वह भी मुझे
मिल जाए। इस
भांति कभी
अपने को सोचने
की कोशिश करें
कि आप भी एक
मकान हैं, जिसमें
दूसरे लोगों
ने दान दिया
है।
कुछ
पुरानी यहूदी
बस्तियों में
एक नियम था कि जब
भी कोई नया
यहूदी बस्ती
में आए, तो
सारा गांव
एक-एक रुपया
उसे भेंट कर
दे--प्रत्येक
व्यक्ति। तो अगर
दस हजार लोग
होते तो दस
हजार रुपए उसे
मिल जाते।
उसकी जिंदगी
गतिमान हो
जाती। मकान बन
जाता, उसकी
दूकान खुल
जाती। फिर
दुबारा कभी
कोई नगर में
नया आदमी आएगा,
तो इस आदमी
को भी उसे एक
रुपया देना
होगा।
यह
बढ़िया सामाजिक
व्यवस्था थी।
गांव में कोई
आदमी गरीब
नहीं रह सकता
था। लेकिन इस
घटना को मैं
किसी दूसरे प्रयोजन
से कह रहा
हूं। हम भी इस
जिंदगी में आते
हैं और चारों
तरफ से
थोड़े-थोड़े
टुकड़े हमें दिए
जाते हैं।
उन्हीं टुकड़ों
के आधार पर हम
भीतर अहंकार
का भवन
निर्माण करते
हैं। कुछ पिता
देते हैं, कुछ
मां देती है, कुछ भाई-बहन
देते हैं, कुछ
संगी-साथी, गांव के लोग,
पड़ोस के लोग
देते हैं। और
उन सबसे हमारे
भीतर अहंकार
का भवन
निर्मित होता
है। फिर भय
बना रहता
है--कोई भी कभी
एक ईंट खींच
ले! इसलिए
जिनसे हमें
मिलता है, उनसे
हमें भय भी
लगा रहता है, डर भी लगा
रहता है। कभी
भी, जो
दिया है, वह
वापस लिया जा
सकता है। और
जो नहीं दिया
है, उस पर
आंख भी लगी
रहती है कि वह
भी हमें मिल
जाए।
ये लोभ
और भय हमारे
भीतर हैं। और
इस लोभ और भय से
हम जो भी
संबंध
निर्मित करते
हैं जीवन में, वे
सभी हमें दुख लाएंगे।
उनसे किसी से
भी सुख आने का
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
परतंत्रता
गहरे से गहरा
दुख है। और
अगर मेरी
आत्मा भी उधार
है और केवल
दूसरों के टुकड़ों
से निर्मित
हुई है...।
पिकासो ने
एक
राजनीतिज्ञ
का बहुत समय
पहले एक चित्र
बनाया था। वह
चित्र खूबी का
था। उस चित्र
में उसने रंगों
का उपयोग नहीं
किया था, केवल
अखबार की
कतरनों का
उपयोग किया
था। अखबार के
टुकड़े काट-काट
कर कैनवास पर
चिपका दिए थे और
राजनीतिज्ञ
का चित्र बना
दिया था।
गहरी
बात है!
राजनीतिज्ञ
के पास अखबार
की कतरन के
अलावा कुछ
होता भी नहीं
है। वही उसकी
आत्मा है। कभी
आपने खयाल
किया है, एक
राजनीतिज्ञ
पद से उतर
जाता है, अखबारों
में उसकी खबर छपनी बंद
हो जाती है, तब आपको यह
भी पता लगाना
मुश्किल है कि
वह आदमी कहां
खो गया! आपको
अब आखिरी बार
उसकी खबर तभी लगेगी,
जब वह
मरेगा। इस बीच
आपको यह भी
पता लगाना मुश्किल
है कि वह आदमी
जिंदा है या
मर गया! अब एक
ही खबर और
छपेगी उसकी।
अखबार के टुकड़ों
का जोड़ है वह।
लेकिन
राजनीतिज्ञ
ही ऐसा है, ऐसा
नहीं। हम भी
सब इसी तरह के
जोड़ हैं। अगर
मैं आपसे कह
दूं कि आप
सुंदर नहीं
दिखाई पड़ते मुझे,
तो आपको
इतनी पीड़ा
क्यों हो जाती
है? या मैं
कह दूं कि आप
कुरूप हैं, तो आपको
इतनी पीड़ा
क्यों हो जाती
है?
आपको
आपके सौंदर्य
का कोई भी पता
नहीं है। लोगों
ने जो कहा है, वही
आपका सौंदर्य
है। मैं अपनी
ईंट वापस खींच
लेता हूं, मैं
कहता हूं कि
नहीं, मुझे
आप सुंदर नहीं
मालूम पड़ते।
और आपके भवन में
दरार पड़ जाती
है। और भय
पैदा हो जाता
है: आज एक आदमी
ने खींचा है, कल दो आदमी
खींच लेंगे, परसों तीन
आदमी खींच
लेंगे।
सौंदर्य का
क्या होगा?
मैं
आपको
बुद्धिमान
मानता हूं, तो
आप बुद्धिमान
हैं। और अगर
मैं आपको
बुद्धू कह दूं,
तो आप
बुद्धू हो
जाते हैं।
नाराजगी
क्यों पैदा
होती है? नाराजगी
इसलिए पैदा
होती है कि आप
मेरे ही सहारे
बुद्धिमान
हैं। अगर
बुद्ध को कोई
कह दे कि बुद्धिमान
नहीं हो, तो
बुद्ध हंस कर
उस गांव से
निकल जाएंगे।
क्योंकि
बुद्ध किसी और
के कारण
बुद्धिमान
नहीं हैं; अपने
ही कारण हैं, जो भी हैं।
हमारी
पीड़ा क्या है
निंदा में? हमारी
पीड़ा यही है
कि हम अपने
भीतर कुछ भी
नहीं हैं।
दूसरों ने जो
बनाया है, वही
हैं। तो चार
आदमियों के मत
पर निर्भर है
हमारा होना।
यह हमारा
अहंकार लोगों
के मतों से तय
हुआ है। लोग
कहते हैं।
इसलिए हम बहुत
डरते हैं इस
बात से कि लोग
क्या कहेंगे!
क्योंकि हम और
कुछ हैं ही
नहीं।
ध्यान
करने लोग मेरे
पास आते हैं, तो
वे कहते हैं
कि अगर हमने
ऐसा किया, तो
लोग क्या
कहेंगे?
ये लोग
कौन हैं? ये
लोग वे ही हैं,
जिन्होंने
आपका अहंकार
निर्मित किया
है। आपको भय
है उनका, कहीं
वे अपने खयाल
न बदल दें, कहीं
वे यह न कहने
लगें कि अब
तुम पागल
मालूम पड़ते
हो। यह तुम
क्या कर रहे
हो? तो
हमारी आत्मा
उनके हाथ उधार
रखी है। वे जो
कहेंगे, वही
हम हो जाएंगे।
वे जो कह रहे
हैं, वही
हम हैं।
हमारा
अपना कोई होना
है?
हमारी कोई
प्रामाणिक
सत्ता, कोई
आथेंटिक
एक्झिस्टेंस
है? या
सिर्फ हम कागज
की कतरन हैं? लोगों के
मतों का
संग्रह हैं?
लेकिन
अभी जैसे हम
हैं,
वह हमारी
स्थिति यही
है। इसलिए
निंदा पीड़ा देती
है। क्योंकि
निंदा हमें
चुभती है, हमारे
भवन को गिराती
है। प्रशंसा
सुख देती मालूम
पड़ती है, क्योंकि
भवन मजबूत
होता है।
मैंने
सुना है, बैनिटो मुसोलिनी
एक रात एक सिनेमागृह
के पास से
गुजरता था।
सहज ही खयाल
हो आया; फिल्म
तो शुरू हो
चुकी थी, अंधेरे
में ही जाकर
वह सिनेमागृह
में बैठ गया।
जब फिल्म
समाप्त हुई, तो मुसोलिनी
को सम्मान
देने के लिए
इटली की
फिल्मों में
आखिर में मुसोलिनी
का चित्र आता
था और सारे
लोग खड़े होकर मुसोलिनी
का जय-जयकार
करते थे--सारे
लोग खड़े होकर मुसोलिनी
का जय-जयकार
किए।
स्वभावतः, मुसोलिनी तो बैठा रहा,
बहुत
प्रसन्न हुआ
कि सारे लोग
जय-जयकार कर
रहे हैं। पड़ोस
के व्यक्ति से
उसने पूछा कि
बहुत आनंद तुम्हें
आ रहा है
जय-जयकार करने
में? उस
आदमी ने कहा
कि बेहतर होगा
कि तुम भी खड़े
होकर आनंद
मनाओ।
क्योंकि आनंद
न मनाना बहुत
मंहगा और
खतरनाक है।
भीतरी इच्छा
तो मेरी भी
यही है कि जिस
शान से तुम
बैठे हो, उसी
शान से मैं भी
बैठा रहूं।
लेकिन तुम हो
कौन? तुम्हें
शायद पता नहीं
कि तुम इटली
में हो और मुसोलिनी
का जय-जयकार
किए बिना जीना
मुश्किल है।
इच्छा तो मेरी
भी यही होती
है कि जैसे
तुम शान से
पैर पसारे
बैठे हो, मैं
भी बैठा होता।
एक और
मुझे स्मरण
आता है कि
चर्चिल बोलने
जा रहा था
पार्लियामेंट
में। उसकी
गाड़ी बिगड़ गई
है रास्ते पर।
उसने एक
टैक्सी ली।
लेकिन टैक्सी
वाले ने कहा
कि मैं नहीं
ले जा सकूंगा; क्योंकि
अभी-अभी
रेडियो पर, चर्चिल का
व्याख्यान
पार्लियामेंट
में हो रहा है,
वह आने वाला
है। मैं खुद
उसको सुनने के
लिए रुका हूं।
चर्चिल के
प्राण
स्वभावतः फूल
गए होंगे, खुशी
का अंत न रहा, कि ड्राइवर
इनकार कर रहा
है ले जाने से
सवारी को!
चर्चिल ने एक
बड़ा नोट निकाल
कर उसके हाथ
में दिया और
कहा कि खुश
हूं तुम्हारी
बात से, लेकिन
चलना जरूरी
है। उस आदमी
ने चर्चिल को
बिठा कर गाड़ी
शुरू कर दी।
चर्चिल ने
पूछा कि व्याख्यान
का क्या करोगे?
तो उस आदमी
ने कहा, भाड़
में जाए
चर्चिल!
एक
क्षण पहले इस
आदमी ने
चर्चिल को
जैसा फुला
दिया होगा, एक
क्षण बाद...।
लेकिन शायद
चर्चिल को भी
खयाल में न
आया हो कि यह
आत्मा का फूल
जाना और सिकुड़
जाना एक
टैक्सी
ड्राइवर के
हाथ में है।
यह कुंजी
चर्चिल के
अपने हाथ में
नहीं है। यह
टैक्सी
ड्राइवर के
हाथ में है।
हमारी
सब कुंजियां
बदल गई हैं।
सब कुंजियां बदल
गई हैं। और
जिसे हम मालिक
कहते हैं, वह
भी अपने
गुलामों के
हाथ में अपनी
कुंजियां दिए
हुए है।
यह जो
स्थिति है, इस
स्थिति के लिए
ही यह सूत्र
है: "हम जिसे
मूल्यवान
समझते हैं और
जिससे भयभीत
होते हैं, वे
दोनों ही
हमारे स्वयं
के भीतर हैं।
सम्मान और
अपमान के
संबंध में ऐसा
कहने का यह
अर्थ है कि
सम्मान-प्राप्ति
के बाद निम्न
स्थिति में होना
अपमान है।'
अपमान
का अर्थ ही
क्या है? तुलनात्मक
है, रिलेटिव
है। अगर कोई
व्यक्ति
सम्मान की एक
स्थिति में
रहा है, तो
फिर उससे नीचे
की स्थिति में
उसका अपमान है।
तो जब भी हम
कोई स्थिति
खोज रहे हैं, हम साथ ही
अपमान की
स्थिति भी खोज
रहे हैं। जब भी
हम ऊपर चढ़ रहे
हैं, तब हम
नीचे गिरने की
स्थिति भी खोज
रहे हैं। जब
भी हम किसी भी
दिशा में, किसी
भी मार्ग से, किसी भी ढंग
से अपने
अहंकार को भर
रहे हैं, तभी
हम इसके
विपरीत भी
रास्ता
निर्मित कर
रहे हैं।
वह जो
विपरीत
रास्ता
निर्मित होता
है,
वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता। जब मैं
सम्मान के सिंहासनों
पर चढ़ता
हूं, तो
मुझे यह दिखाई
नहीं पड़ता कि
मैं अपने
गिरने का उपाय
भी कर रहा
हूं। मैं ही
कर रहा हूं।
और जब मैं गिरूंगा,
तब मैं
जिम्मेवारी
दूसरों पर
रखूंगा। और जब
मैं चढ़ रहा था,
तब
जिम्मेवारी
मेरी थी।
हर
ऊंचाई के बाद
नीचाई है। और
हर पहाड़ के
बाद खाइयां
हैं। और हर
शिखर, खाइयों
के बिना कोई
भी शिखर खड़ा
नहीं हो सकता।
जब कोई पहाड़
बहुत ऊंचा
होने की कोशिश
कर रहा है, तब
उसके पास खाई
निर्मित होती
चली जाती है।
जब कोई सफलता
का शिखर चढ़ता
है, तो
अपने चारों
तरफ असफलता की
खाई भी खोद
लेता है। वह
प्रतिपल चल
रही है। इससे
बचने का कोई उपाय
नहीं है। इससे
बचने का एक ही
उपाय है कि शिखर
पर चढ़ने
की बात ही न
हो। जो गिरने
से बचना चाहता
हो, वह चढ़े
ही नहीं।
यह
थोड़ा कठिन है।
क्योंकि चढ़ना
हम सब चाहते
हैं,
गिरना हम
नहीं चाहते।
दूसरे हिस्से
को हम स्वीकार
नहीं करते।
जन्म होता है,
तो हम
मृत्यु को
स्वीकार नहीं
करते। जन्म के
साथ ही मृत्यु
मौजूद हो गई।
जन्म लिया, उसी दिन
मैंने मरने को
भी स्वीकार कर
लिया। लेकिन
जीवन भर मैं
कोशिश करूंगा
कि मौत न हो।
मेरी कोशिश से
कोई फल होने
वाला नहीं है।
क्योंकि जन्म
के साथ ही मौत
घट गई। वह
भविष्य की
घटना नहीं है
अब। वह भी
अतीत का ही
हिस्सा हो गई।
मौत हो ही
चुकी। क्योंकि
एक छोर नहीं
हो सकता, दूसरा
छोर भी होगा
ही। सफलता के
साथ ही असफलता
भी घटित होती
है और सम्मान
के साथ ही
निंदा भी।
इसलिए
बहुत मजे की
बात है कि
जितने ज्यादा
लोग सम्मानित
होते हैं, ठीक
उसी अनुपात
में निंदा
चारों तरफ
व्याप्त हो
जाती है। कोई
और उपाय नहीं
है। संतुलन
है। ऐसा आदमी
खोजना कठिन है
इस जगत में, जिसने
प्रशंसा ही
पाई हो और
निंदा नहीं।
सम्राटों को
छोड़ दें, राजनीतिज्ञों
को छोड़ दें, धनपतियों को छोड़ दें, उन्हें तो
निंदा मिलती
है। लेकिन
महावीर, बुद्ध
या कृष्ण और
क्राइस्ट को
ही सोचें। चाहे
उन्होंने
सम्मान न चाहा
हो और चाहे
उन्हें निंदा
से कोई भी
फर्क न पड़ा हो,
लेकिन
लोगों ने
सम्मान दिया,
तो लोगों ने
अपमान भी
दिया। और उन
दोनों की मात्रा
बराबर थी। उस
मात्रा में
कमी नहीं हो
सकती।
इसलिए
कृष्ण को अगर
एक तरफ भगवान
मानने वाले लोग
हुए,
तो एक तरफ
कृष्ण को नर्क
में डालने
वाले लोग भी
होंगे ही। अगर
एक ओर बुद्ध
को लोग कहेंगे
परम ज्ञानी, तो बुद्ध को
परम अज्ञानी
कहने वाले लोग
भी होंगे ही।
और अगर एक तरफ
जीसस को लोग
ईश्वर का पुत्र
कहेंगे, तो
ठीक दूसरी तरफ
जीसस को सूली
पर लटका देने
वाले लोग भी
होंगे ही।
और जब
जीसस को सूली
पर लटकाया, तो
लटकाने वालों
ने दो और
लोगों को भी
साथ में
सूलियां दी
थीं--दो चोरों को।
जीसस को बीच
में लटकाया था,
दोनों
चोरों को
दोनों तरफ
लटकाया था।
चोरों के साथ
सूली दी थी, ताकि यह भी
वहम न रह जाए
कि जीसस को हम
कोई पैगंबर
मान कर सूली
नहीं दे रहे
हैं। एक आवारा,
समाज-बहिष्कृत,
एक उपद्रवी,
एक विक्षिप्त
आदमी समझ कर
सूली दे रहे
हैं।
और
लाओत्से से
अगर कोई
पूछेगा, तो
लाओत्से
कहेगा कि यह
होना ही था; यह होगा ही।
जीसस को कोई
प्रयोजन नहीं
है, इसलिए
जीसस सुखी और
दुखी नहीं
होते। लेकिन
जीसस के शिष्य
बहुत दुखी हुए
जब जीसस को
सूली लगी।
क्योंकि जीसस
के शिष्यों का
खयाल था, ईश्वर
का पुत्र!
उसको सूली
कैसे लग सकती
है? लेकिन
उन्हें पता
नहीं था कि जब
उन्होंने ईश्वर
का पुत्र
घोषित किया, तभी दूसरा
वर्ग भी
संतुलन करने
को जगत में
निर्मित हो
जाता है।
जगत एक
गहन संतुलन
है। यहां
प्रत्येक चीज
हमेशा
संतुलित होती
रहती है। असंतुलन
कभी भी नहीं
हो पाता। क्या
है उपाय?
लाओत्से
के हिसाब से
एक ही उपाय
है। और वह उपाय
यह है कि जो
हमारी खोज है, उसमें
हम विपरीत को
भी देख लें।
और जब आप सम्मान
खोजते हों, तो ठीक से
समझ लें कि आप
अपमान भी खोज
रहे हैं। जब
आप लोभ करते
हों, तब
ठीक से सोच
लें कि भय को
पैदा कर रहे
हैं। जब आप
प्रेम पाने चलते
हों, तो
ठीक से समझ
लें कि आपने
घृणा की भी
मांग उपस्थित
कर ली। जब आप
जीवन को जोर
से पकड़ें,
तब समझ लेना
कि अब आप मौत
को जोर से पकड़
रहे हैं।
विपरीत
का दर्शन
लाओत्से का
बुनियादी
सूत्र है।
लाओत्से कहता
है,
हर घड़ी वह
जो विपरीत है,
उसे भी देख
लेना। एक को
ही मत देखना।
जीवन द्वंद्व
है। दूसरे को
भी ठीक से देख
लेना। और वह दूसरे
से बच न
सकोगे। जिसने
एक को चुना, उसने दोनों
को चुन लिया।
और जिसको
दोनों से बचना
हो, उसे एक
को भी नहीं
चुनना चाहिए।
लाओत्से
को उसके मुल्क
का सम्राट
प्रधानमंत्री
बना लेना
चाहता था।
लाओत्से भागता
फिरता था एक
गांव से दूसरे
गांव। जब दूसरे
गांव में
सम्राट के लोग
पहुंचते, तो
पता चलता कि
वह तीसरे गांव
चला गया।
सम्राट भी
हैरान था।
प्रधानमंत्री
बनाने के लिए
उत्सुकता थी
उसकी। और यह
आदमी भाग
क्यों रहा है?
आखिर
सम्राट ने एक
संदेशवाहक
भेजा और
लाओत्से से कहा,
व्यर्थ मत भागो, परेशान
मत होओ। इतना
ही मुझे बता
दो कि मैं तुम्हें
एक महान
सम्मान के पद
पर बिठाना
चाहता हूं, इस राष्ट्र
का बड़े से बड़ा
सम्मान कि
तुम्हें मैं
प्रधानमंत्री
बनाना चाहता
हूं, तुम
भाग क्यों रहे
हो? लाओत्से
ने खबर भिजवाई
कि सम्मान से
मैं नहीं भाग
रहा हूं। मैं
उस अपमान से
भाग रहा हूं, जो हर
सम्मान के
पीछे छिपा है।
लेकिन
वह दूसरा हमें
दिखाई नहीं
पड़ता। उस दूसरे
को देख लेना
ही
बुद्धिमत्ता
है। हर जगह--कोई
एक आयाम में
नहीं, सभी
आयाम में
दूसरा सदा
मौजूद है। अगर
कोई व्यक्ति
जीवन को ऐसा
बना ले कि उसे
हर जगह यह
द्वंद्व
दिखाई पड़
जाए...। और
ध्यान रहे, अगर द्वंद्व
का दर्शन हो
जाए, तो
वासना क्षीण
हो जाएगी।
बहुत
लोग समझाते
हैं कि वासना
छोड़ दो, इच्छा
छोड़ दो। लेकिन
लाओत्से का
सूत्र बहुत गहरा
है। वह नहीं
कहता इच्छा
छोड़ दो। वह
कहता है, इच्छा
के जो विपरीत
है, उसको
भी ठीक से देख
लो। इच्छा छूट
जाएगी। अगर मुझे
सच में यह
दिखाई पड़ जाए
कि मित्र
बनाना शत्रु
बनाने का उपाय
है, अगर यह
सच में मुझे
दिखाई पड़ जाए,
इसमें धोखा
न हो, यह
बौद्धिक समझ न
हो, यह
ऊपरी-ऊपरी न
हो, यह
गहरा और प्राणों
में उतर जाए
और मुझे दिखाई
पड़ जाए कि
मित्र बनाना
शत्रु बनाने
का पहला चरण
है, तो
मित्र न बनाऊं,
ऐसी कोई
चेष्टा न करनी
पड़ेगी।
इस
संबंध में एक
मजे की बात
खयाल में लेनी
चाहिए।
मित्र
बनाना मेरे
हाथ में है, शत्रु
न बनाना मेरे
हाथ में नहीं
है। अगर मैंने
पहला कदम उठा
लिया, तो
दूसरा कदम
मेरे हाथ में
नहीं है। पहला
कदम हम सब उठा
लेते हैं। और
चाहते हैं, दूसरा कदम
उठने से रुक
जाए। वह हमारे
हाथ में नहीं
है। सफलता
मैंने मांग
ली। वह मैं न
मांगता, वह
मेरे हाथ में
थी। लेकिन
असफलता फिर
मेरे हाथ के
बाहर है।
सम्मान मैंने
चाह लिया, वह
मेरे हाथ में
था। दूसरी चीज
मेरे हाथ में
नहीं है।
बुद्ध
ने बहुत मजे
की बात कही
है। बुद्ध ने
कहा है, मृत्यु
की फिकर छोड़ो,
जन्म से
बचने की कोशिश
करो। क्योंकि
जन्म ले लिया,
तो फिर
मृत्यु हाथ
में नहीं है।
तो बुद्ध के पास
एक ब्राह्मण
आया है। और वह
ब्राह्मण कह
रहा है, मुझे
जन्म-मरण से
कैसे छुटकारा
मिले? तो
बुद्ध ने कहा,
मरण तो तू
मरण पर छोड़; तू जन्म से
ही छुटकारा पा
ले।
आमतौर
से हम कहते
हैं,
जन्म-मरण से
कैसे छुटकारा
मिले? मरण
आपके हाथ में
नहीं है। उससे
आप छुटकारा नहीं
पा सकते। आपके
हाथ में पहला
सूत्र है--जन्म।
उससे आप
छुटकारा पा
सकते हैं। और
जन्म न हो, तो
मरण का कोई
उपाय नहीं रह
जाता। जन्म
होगा, तो
ही मृत्यु हो
सकती है।
तो
बुद्ध ने उससे
कहा,
तू यही
फिक्र कर कि
जन्म कैसे न
हो। जन्म क्यों
होता है?
उस
आदमी की समझ
में नहीं आया।
क्योंकि वह जो
कह रहा था, जन्म-मरण
से छुटकारा हो,
उसमें जन्म
का उसे खयाल
ही नहीं था।
असल में, मरण
से ही छुटकारा
चाहता था।
उसने कहा कि
मृत्यु से
बहुत भय लगता
है, बड़ी घबड़ाहट
होती है, इसीलिए
तो छुटकारा
चाहता हूं।
वह
आदमी जन्म से
छुटकारा नहीं
चाहता, वह
असल में ऐसा
जन्म चाहता है,
जहां फिर
मृत्यु न हो।
वह ऐसा जीवन
चाहता है, जिसमें
मृत्यु न हो।
वह जन्म से
छुटकारा नहीं चाहता,
वह मृत्यु
से छुटकारा
चाहता है।
हम भी, हमारे
सब के सोचने
का यही भ्रांत
ढंग है। लोग मेरे
पास आते हैं, वे कहते हैं,
दुख से कैसे
छुटकारा हो? नहीं हो
सकता उनका, जब तक कि वे मुझसे
पूछने न आएं
कि सुख से
कैसे छुटकारा
हो? क्योंकि
सुख चुनाव है;
दुख परिणाम
है। सुख मेरे
हाथ में है; दुख मेरे
हाथ में नहीं
है।
ऐसा
समझें कि मैं दौडूं और
फिर मैं कहूं
कि मेरे पीछे
जो छाया दौड़ती
है,
वह न दौड़े।
इस छाया के
दौड़ने से कैसे
छुटकारा हो? तो मैं कहूंगा,
मेरा दौड़ना
न दौड़ना मेरे
हाथ में है, लेकिन मेरी
छाया का दौड़ना
न दौड़ना मेरे
हाथ में नहीं
है। मैं न दौडूं,
छाया न दौड़ेगी।
मैं दौडूं,
तो फिर छाया
को नहीं रोका
जा सकता।
दुख
छाया है; सुख
चुनाव है।
सम्मान चुनाव
है; अपमान
छाया है, परिणाम
है। हम सभी
परिणाम से
बचना चाहते
हैं। हम बीज
बोते हैं, पानी
डालते हैं, खाद डालते
हैं। और पौधा
अंकुरित न हो,
इसकी
चेष्टा में
लगे रहते हैं।
सारी चेष्टा करते
हैं कि पौधा
अंकुरित हो और
मन में रहता
है कि पौधा
अंकुरित न हो।
बोते हैं सुख।
दुख उसका ही
अंकुर है।
लेकिन ये
दोनों इकट्ठे
नहीं दिखाई
पड़ते। जिसे
दिखाई पड़ते
हैं, वह
आदमी धार्मिक
हो जाता है।
धार्मिक की
मेरी परिभाषा
यही है कि
जिसे द्वंद्व
में दो नहीं दिखाई
पड़ते, एक
ही दिखाई पड़ने
लगता है। सुख
और दुख एक ही
चीज के छोर हो
जाते हैं।
सम्मान-अपमान
एक ही चीज के
छोर हो जाते
हैं।
और
ध्यान रहे, यह
जैसे ही दिखाई
पड़ता है, वैसे
ही मुझे पता
चल जाता है कि
मैं क्या कर
सकता हूं और
क्या नहीं कर
सकता हूं!
कहां तक मेरी सामर्थ्य
है और कहां से
मेरी
सामर्थ्य
समाप्त हो
जाती है!
मैं
अपने हाथ में
एक धनुष-बाण
लिए खड़ा हूं।
जब तक तीर
मैंने नहीं
छोड़ा है, मेरे
हाथ में है।
छोड़ देने के
बाद फिर मेरे
हाथ में नहीं
है। मेरे भीतर
एक शब्द घना
हुआ। जब तक
मैंने नहीं
बोला है, तब
तक मैं मालिक
हूं। मैंने
बोल दिया, फिर
मेरी मालकियत
खो गई।
पहला
कदम सुख, सम्मान,
सत्ता के
चुनाव का है।
दूसरा कदम
अनिवार्य है।
फिर दूसरे कदम
से नहीं बचा
जा सकता।
लाओत्से
कहता है कि
अगर ये दोनों
दिखाई पड़ जाएं, तो
क्या होगा
परिणाम?
अगर ये
दोनों एक साथ
दिखाई पड़ जाएं, एक
ही दिखाई पड़
जाएं, तो
जीवन से वासना
तिरोहित हो
जाएगी।
क्योंकि कोई
भी दुख नहीं
चाहता, हालांकि
सभी को दुख
मिलता है। और
कोई भी दुख नहीं
चाहता। सभी
सुख चाहते हैं,
और किसी को
सुख मिलता
नहीं है। और
आदमी बहुत अदभुत
है, गणित
भी नहीं
लगाता। कोई
दुख नहीं
चाहता जगत में,
और सभी दुखी
हैं। और सभी
सुख चाहते हैं,
और कोई आदमी
छाती पर हाथ
रख कर नहीं कह
पाता कि मैं
सुखी हूं। तो
जरूर कहीं न
कहीं कोई
बुनियादी भूल
हो रही है। और
वह बुनियादी
भूल एक से
नहीं हो रही
है, शायद
सभी से हो रही
है।
वह भूल
यही है: दुख को
कोई भी नहीं
चाहता, सुख
को सभी चाहते
हैं। सुख को
चुनते हैं, और दुख
परिणाम बन
जाता है। सुख
की तरफ दौड़ते
हैं, और
दुख हाथ में
आता है। जिसे
दुख से बचना
है, उसे सुख
से बचना सीखना
पड़े। यही
साधना है। और
सुख से बचना
सीखना बड़ा
कठिन मालूम
पड़ेगा। लेकिन
इतना कठिन
नहीं है जितना
दुख। जब
रास्ते पर
मुझे कोई
नमस्कार करे,
तभी मुझे बच
जाना चाहिए।
तभी मुझे देख
लेना चाहिए कि
कहीं
कोने-किनारे
पर गाली भी
खड़ी होगी। तभी
उस नमस्कार
में मुझे उसकी
प्रतिध्वनि
भी सुन लेनी
चाहिए, जो
विपरीत है, तो मैं बच जाऊंगा।
जरूरी नहीं है
कि गाली न
मिले, गाली
फिर मिल सकती
है। लेकिन तब
मेरे लिए अर्थहीन
है। मेरे भीतर
उससे कोई अंतर
नहीं पड़ेगा। तब
गाली देने
वाले की और
नमस्कार करने
वाले की
क्रियाएं
होंगी, वे
उनकी ही होंगी;
उनसे मेरा
कोई संबंध
नहीं जुड़ेगा।
मेरा संबंध न
जुड़े, तो
मैं मुक्त हो
गया। और ऐसी
मुक्ति में ही
आनंद की धारा
अवतरित होती
है।
तो
लाओत्से बहुत
गहराई में
मनुष्य के
बंधन की चर्चा
कर रहा है।
यदि मुझे इन
दोनों
में--सुख और
दुख में, सम्मान
और अपमान में,
प्रशंसा और
निंदा में--एक
का ही दर्शन
होने लगे, जन्म
और मृत्यु में
एक की ही झलक
मिलने लगे, तो जगत के
प्रति दौड़ती
हुई वासना के
लिए कोई गति
नहीं रह
जाएगी।
एलिस
नाम की लड़की
स्वर्ग में
पहुंच गई
है--परियों के
देश में। रानी
के पास खड़ी है
वृक्ष के
नीचे। खड़ी
कहना ठीक नहीं, दोनों
दौड़ रही हैं।
रानी भी दौड़
रही है, एलिस भी दौड़ रही
है। घंटों
दौड़ने के बाद एलिस ऊपर
देखती
है--वृक्ष
जहां था, वहीं
है। और वे
दोनों भी जहां
थीं, वही
हैं। कहीं कोई
फर्क नहीं
हुआ। और
पसीने-पसीने
हो गई हैं। तो एलिस रानी
से पूछती है, दिन भर हो
गया दौड़ते-दौड़ते,
थक गए हम, अजीब है
तुम्हारा
मुल्क, इतना
दौड़ कर भी और
कहीं पहुंचना
नहीं हो रहा है!
वृक्ष वहीं के
वहीं, हम
वहीं के वहीं।
तो रानी उससे
कहती है, इतने
दौड़ने के कारण
ही वहीं के
वहीं हैं; अगर
न दौड़ते, तो
सोच, क्या
हालत होती? इतना दौड़ने
के कारण ही
वहीं के वहीं
हैं; सोच, न दौड़ते, तो
क्या हालत
होती?
हम
सारे लोग भी
दौड़ते हैं
जिंदगी भर और
वहीं के वहीं
खड़े रहते हैं।
और हमारे मन
में भी यही तर्क
होता है कि
इतना दौड़ कर
भी जब वहीं के
वहीं खड़े हैं; अगर
न दौड़ते, तो
और फजीहत
होती। इतनी
सम्मान की
कोशिश की, तब
भी इतना अपमान
मिला; अगर
सम्मान की
कोशिश न करते,
तो क्या
हालत होती!
इतना धन खोजा,
फिर भी
निर्धन के
निर्धन बने
हैं; अगर
खोजते ही न, तब तो नर्क
में पड़ जाते।
लेकिन
लाओत्से से
अगर एलिस
पूछती, तो
लाओत्से कहता
कि मत दौड़, और
रुक कर देख!
क्योंकि जब
दौड़ कर भी
यहीं की यहीं
बनी है और
कहीं पहुंचना
नहीं होता, तो रुक कर भी
देख लेना
चाहिए।
सारी
दुनिया में बस
दो ही तरह के
तर्क हैं। एक तो
यह एलिस
को परियों की
रानी ने जो
तर्क दिया। यह
सामान्य
बुद्धि का
तर्क है, जो
सदा यही कहती
है। वह यही
कहती है कि
इतनी मेहनत
उठा कर, इतना
दौड़ कर ये कंकड़-पत्थर
हाथ लगे हैं; अगर बिलकुल
न दौड़ें, तो बहुत
मुसीबत हो
जाएगी। दौड़ते
तो रहो। दूसरा
तर्क बुद्ध और
महावीर और
लाओत्से का
है। वे कहते
हैं, रुक
कर भी देखो! दौड़ो
ही मत।
रानी
से एलिस
फिर पूछती है, तो
इस वृक्ष से
आगे जाने के
लिए क्या किया
जाए? रानी
ने बहुत
मजेदार बात
कही। और वह
बात यह है, रानी
ने उससे कहा
कि जितनी
तुममें ताकत
हो, जितनी
तुम दौड़ सकती
हो, अगर
उतनी ताकत से
तुम दौड़ो,
तो इस वृक्ष
के नीचे बने
रहने के लिए
काफी है। जितनी
तुममें ताकत
है, अगर
उतनी पूरी
ताकत लगा कर दौड़ो, तो
तुम इस वृक्ष
के नीचे बनी
रहोगी। अगर
इससे आगे जाना
है, तो
उससे दुगुनी
ताकत से दौड़ना
जरूरी है।
लेकिन
उससे दुगुनी
ताकत हो कैसे
सकती है? रानी
ने कहा कि
जितनी तुममें
ताकत है, अगर
पूरी ताकत से दौड़ो, तो
इस वृक्ष के
नीचे बनी
रहोगी। अगर
इससे आगे जाना
है, तो
दुगुनी ताकत
से दौड़ना
जरूरी है। एब्सर्ड
है, बेमानी
है, कोई
अर्थ नहीं है।
क्योंकि
दुगुनी ताकत
का कोई
प्रयोजन न
रहा। जब पूरी
ताकत से दौड़
कर यहीं बने
रहोगे, तो
दुगुनी ताकत
कहां से आएगी?
लेकिन एलिस
को भी तर्क
जंचा। और उसने
कहा, यह
बात ठीक है।
तो हम दुगुनी
ताकत से दौड़ने
की कोशिश
करें।
हमको
भी यही जंचता
है। जब हम इस
जीवन में
सम्मान की
बहुत कोशिश करते
हैं और सम्मान
नहीं मिलता, तो
हम सोचते हैं,
और दुगुनी
ताकत से कोशिश
करें। यश
चाहते हैं और
नहीं मिलता, तो सोचते
हैं, और
पूरी ताकत लगा
दें; शायद
ताकत कम लगाई
जा रही है।
लेकिन ध्यान
रहे कि जितनी
ज्यादा ताकत
यश के लिए
लगाई जाएगी, उतना ज्यादा
अपयश मिलेगा।
और जितनी
सत्कार और
सम्मान के लिए
चेष्टा की
जाएगी, उतना
ही असम्मान और
असत्कार
मिलेगा।
क्योंकि जीवन
द्वंद्व के
बीच एक संतुलन
है।
तो
क्या हम खड़े
रह जाएं? क्या
हम रुक जाएं
इस दौड़ से?
लाओत्से
नहीं कहता कि
रुक जाएं। यह
थोड़ी बारीक
बात है, इसे
भी थोड़ा खयाल
में ले लेना
चाहिए कि
लाओत्से नहीं
कहता कि हम
रुक जाएं।
क्योंकि
लाओत्से कहता
है कि अगर हम रुकेंगे
भी, तो वह
भी हमारी एक
दौड़ होगी, किसी
लोभ के कारण रुकेंगे।
अगर हम रुकेंगे
भी, तो इस
वजह से कि ठीक
है, फिर
निंदा नहीं
मिलेगी, अपमान
नहीं मिलेगा,
असफलता
नहीं मिलेगी।
अगर हम रुकेंगे
भी, तो
हमारे मन में
वही लोभ
सम्मान का, यश का, प्रतिष्ठा
का, सफलता
का, धन का, अमरत्व का
बना रहेगा।
लाओत्से
कहता है, मैं
रुकने के लिए
नहीं कहता।
मैं तो दौड़ने
की व्यर्थता
को देखने के
लिए कहता हूं।
उसके परिणाम
में रुकना हो
जाता है; रुकने
के लिए चेष्टा
नहीं करनी
पड़ती।
बुद्ध
से कोई पूछता
है,
क्या हम
इच्छाओं को
छोड़ दें, तो
शांति मिलेगी?
तो बुद्ध
कहते हैं, यह
एक नई इच्छा
है। यह एक नई
इच्छा है। तो
बुद्ध कहते
हैं, मैं
तुम्हें
इच्छाएं
छोड़ने को नहीं
कहता, इच्छाओं
को समझने को
कहता हूं।
क्योंकि अगर
तुम समझ लोगे,
तो तुम
इच्छा नहीं कर
पाओगे। तब तुम
ऐसा नहीं पूछोगे
कि क्या मैं
इच्छाएं छोड़
दूं, तो
मुझे शांति
मिलेगी? यह
शांति भी
इच्छा का एक
विषय बन जाती
है। इच्छा जब
नहीं होती, तब जो होता
है, उसका
नाम शांति है।
और जब सुख-दुख
की कोई खोज
नहीं होती, तब जो होता
है, उसका
नाम आनंद है।
लाओत्से
का सूत्र
बहुमूल्य है।
और इस सूत्र को
प्रयोग करने
के लिए न तो
किसी विशेष
साधना में
लगने की जरूरत
है,
न किसी क्रियाकांड
में पड़ने की
जरूरत है। इस
सूत्र को तो
आप चलते, उठते,
बैठते, काम
करते, सोते,
खाना खाते,
बाजार में
निकलते, दुकान
पर बैठते पूरा
कर सकते हैं।
सिर्फ इतना ही
खयाल रखें:
पहला कदम आप न
उठाएं, तो
दूसरा कदम कभी
नहीं उठेगा।
पहले कदम पर
सजग हो जाएं, दूसरे कदम
से छुटकारा हो
जाएगा। पहले
कदम उठाने से
अपने को देख
लें कि कहां
आप जा रहे हैं।
च्वांगत्से के
घर बच्चा पैदा
हुआ--वह
लाओत्से का
शिष्य था--च्वांगत्से
के घर बच्चा
पैदा हुआ। और च्वांगत्से
बाहर अपने
दरवाजे पर बैठ
कर छाती पीट
कर रोने लगा।
गांव के लोग
धन्यवाद देने
आए थे। उन्होंने
कहा,
च्वांगत्से,
यह तुम क्या
कर रहे हो? तो
च्वांगत्से
ने कहा कि
मेरे गुरु ने
कहा है, पहला
कदम ही जब उठे,
तभी सम्हल
जाना। मैंने
जन्म में
मृत्यु देख ली,
इसलिए रो
रहा हूं।
फिर उस च्वांगत्से
की पत्नी मरी, कई
वर्षों बाद।
सम्राट आया।
तब वह अपने
झाड़ के नीचे
बैठ कर ढपली
बजा कर गीत गा
रहा था। सम्राट
शोक प्रकट
करने आया है।
उसने कहा कि
पागल हो च्वांगत्से!
दुखी मत हो, इतना ही
काफी है।
लेकिन गीत
गाने का यह
कोई मौका है? च्वांगत्से ने कहा, एक
बार मैंने
जन्म में
मृत्यु देखी
थी, इस बार
मैंने मृत्यु
में जन्म को
भी देख लिया।
इस
सूत्र को जीवन
के सारे
पहलुओं पर हम
देखते रहें।
और धीरे-धीरे
आप पाएंगे कि
बहुत कुछ बिना
छोड़े छूट गया, बहुत
कुछ बिना
प्रयास के ही
गिर गया। और
एक दिन अचानक
आदमी पाता है
कि वह खड़ा है, दौड़ बंद हो
गई। और एक दिन
अचानक पाता है,
वह अहंकार,
जो दूसरों
के सहारे
निर्मित था, बिखर गया।
और उसके
बिखरते ही
उसकी प्रतीति
शुरू होती है,
जो हमारा
वास्तविक
अस्तित्व, हमारी
आत्मा है।
आज
इतना ही।
लेकिन अभी
पांच मिनट रुकेंगे।
सब कीर्तन
करेंगे। फिर
आप जाएं। जिन
मित्रों को भी
कीर्तन में
आना है, वे
ऊपर आ जाएं।
और आप लोगों
में से भी कोई
सम्मिलित
होना चाहें, तो नीचे मंच
के नीचे आ
जाएं। बैठे मत
रहें कोई, ताली
बजाएं और
कीर्तन में
साथ दें।
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