अध्याय
13 : सूत्र 2
प्रशंसा
और निंदा
इसका
क्या अर्थ है
कि सम्मान और
अपमान दोनों ही
स्वयं
के भीतर हैं?
हम
इस कारण भयभीत
होते हैं,
क्योंकि
हमने अहंकार
को ही अपना
होना समझ लिया
है।
जब
हम अहंकार को
ही अपनी आत्मा
नहीं मानते,
तो
डर किस बात का
होगा?
इसलिए
जो व्यक्ति
संसार को उतना
ही सम्मान दे,
जितना
कि स्वयं को, तो
ऐसे व्यक्ति
के
हाथ
में संसार का
शासन सौंपा जा
सकता है।
और
जो संसार को
उतना ही प्रेम
करे, जितना
स्वयं को,
तो
उसके हाथों
में संसार की
सुरक्षा
सौंपी जा सकती
है।
कल
के सूत्र के
संबंध में एक
प्रश्न है।
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है,
मात्र
जिज्ञासा के
कारण नहीं, बल्कि साधना
की दृष्टि से
भी।
पूछा
है,
सुख की
कामना का
त्याग ही
दुखों से
निवृत्ति है।
सुख का, सम्मान
का, जीवन
का चुनाव
हमारे हाथ में
है। दुख, अपमान
तथा मृत्यु
परिणाम मात्र
हैं, उनसे
बचना हमारे बस
की बात नहीं
है। जीवन का चुनाव
हमारे हाथ में
है, यह
कैसे संभव है?
यह जानना
चाहता हूं।
मुझे इतना ही
जानना है कि
मेरा
पुनर्जन्म न
हो, यह
मेरे हाथ में
कैसे है?
इस
संबंध में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए। पहली
तो बात यह, सुख
की कामना का
त्याग, ऐसा
मैंने नहीं
कहा। कल के
सूत्र को
समझाते समय
आपकी बहुतों
की समझ में
ऐसा ही आया
होगा कि मैंने
कहा है, सुख
की कामना का
त्याग। ऐसा
मैंने नहीं
कहा, ऐसा
लाओत्से का
प्रयोजन भी
नहीं है। ऐसा
बुद्ध और
महावीर का भी अर्थ
नहीं है। ऐसा
क्राइस्ट का
भी अभिप्राय नहीं
है। लेकिन
क्राइस्ट हों,
कि बुद्ध, कि लाओत्से,
जब भी वे इस
तरह की बात
कहते हैं, तो
हमारी समझ में
यही आता है।
तो पहली बात
तो यह समझ लें
कि बुद्ध क्या
कहते हैं, वह
अक्सर हमारी
समझ में नहीं
आता। और जो
हमारी समझ में
आता है, वह
अक्सर बुद्ध
का कहा हुआ
नहीं होता।
सुख की
कामना का
त्याग, ऐसा
लाओत्से का
अभिप्राय
नहीं है। सुख
को दुख की तरह
जान लेना, ऐसा
लाओत्से का
अभिप्राय है।
इन दोनों में
फर्क है।
क्योंकि
त्याग भी आदमी
तभी करता है, जब कुछ
मिलने का
प्रयोजन हो।
त्याग भी एक सौदा
है। और त्याग
के गहरे में
भी लोभ छिपा
है।
एक
आदमी संसार का
त्याग कर सकता
है मोक्ष पाने
के लिए। लेकिन
उस आदमी से
कहो,
मोक्ष है ही
नहीं, मोक्ष
मिलेगा नहीं;
फिर संसार
का त्याग? फिर
संसार का
त्याग असंभव
है। एक आदमी
सुख का त्याग
कर सकता है
आनंद पाने के
लिए। लेकिन
सुख का त्याग
आनंद पाने के
लिए सुख का त्याग
ही नहीं है।
क्योंकि आनंद
में हमारी समस्त
वासना पुनः
शेष रह गई; सिर्फ
और नए आयाम
में प्रवेश कर
गई। सुख का त्याग
नहीं; सुख
दुख है, ऐसा
जान लेना। और
जब कोई ऐसा
जान लेता है
कि सुख दुख है,
तो त्याग
करना नहीं पड़ता,
त्याग हो
जाता है।
त्याग
करना और त्याग
हो जाना, बुनियादी
रूप से भिन्न
बातें हैं। जो
करता है, वह
तो लोभ के
कारण ही करता
है, किसी
और सुख की
कामना में ही
करता है।
इसलिए कर ही
नहीं पाता।
लेकिन हो जाए,
तब फिर बिना
कामना के हो
जाता है। मेरे
हाथ में कंकड़-पत्थर
रखे हुए हूं
मैं। अगर कोई
मुझसे कहे कि
इनका त्याग
करो, तो
मैं जरूर पूछूंगा,
किसलिए?
क्योंकि
त्याग का कोई
अर्थ ही नहीं
है, अगर किसलिए
का उत्तर न
दिया जा सके।
इसलिए
तथाकथित
धार्मिक
साधु-संन्यासी,
संत, लोगों
को समझाते
रहते हैं कि छोड़ो, और
तत्काल बताते
रहते हैं कि किसलिए।
लाओत्से
यह नहीं कह
रहा है। मेरा
भी अभिप्राय यह
नहीं है। हाथ
में कंकड़-पत्थर
हैं। लाओत्से
कहता है, जानो
कि ये कंकड़-पत्थर
हैं, पहचानो
कि ये पत्थर
हैं। लाओत्से
नहीं कहता कि त्यागो।
क्योंकि
त्याग की बात
उठाते ही
प्रश्न उठेगा,
क्यों?
लेकिन
हाथ में कंकड़-पत्थर
हैं,
उन्हें मैं
हीरे-जवाहरात
समझ रहा हूं।
हीरे-जवाहरात
समझ रहा हूं, इसलिए पकड़े
हुए हूं। अगर कंकड़-पत्थर
दिख जाएं, तो
उन्हें मुझे
छोड़ना नहीं
पड़ेगा, मेरी
मुट्ठी खुल
जाएगी।
उन्हें छोड़ने
के लिए मुझे
रंच-मात्र भी
चेष्टा नहीं
करनी पड़ेगी। उनके
छोड़ने की नई
वासना भी नहीं
बनानी पड़ेगी
कि इन्हें छोडूं,
त्याग
करूं। नहीं, कोई प्रयत्न
नहीं होगा।
अप्रयास, एफर्टलेसली,
निष्प्रयत्न,
पत्थर
पत्थर दिखाई
पड़ जाए, तो
मुट्ठी खुल
जाएगी। पत्थर
नीचे गिर
जाएगा। और अगर
पत्थर इस
भांति नीचे
गिरा हो, तो
क्या मैं पीछे
किसी से कह
सकूंगा कि
मैंने
पत्थरों का
त्याग कर दिया?
अगर पत्थर
ही थे, तो
त्याग का कोई
सवाल न रहा।
और अगर मैं
पीछे कहता हूं
कि मैंने
त्याग कर दिया,
तो मुझे वे
पत्थर अभी भी
स्वर्ण ही थे,
हीरे-जवाहरात
ही थे।
भोगी
और त्यागी की
दृष्टि में
बहुत फर्क
होता नहीं।
भोगी और
त्यागी एक-दूसरे
की तरफ पीठ
करके खड़े रहते
हैं,
उनकी
दृष्टि में
कोई फर्क नहीं
होता। भोगी भी
मानता है कि
हीरे-जवाहरात
हैं, इसलिए
पकड़े हुए
हूं। त्यागी
भी मानता है
कि
हीरे-जवाहरात
हैं, इसलिए
छोड़ रहा हूं।
अगर
हीरे-जवाहरात
नहीं हैं, तो
छोड़ने का कोई
मूल्य नहीं रह
गया। लेकिन
त्यागी भी
कहता फिरता है
कि मैंने
कितना त्याग
किया। त्यागी
भी हिसाब रखता
है उतना ही, जितना भोगी
रखते हैं।
भोगी हिसाब
रखता है, कितने
लाख मेरे पास
हैं। त्यागी
हिसाब रखता है,
कितने लाख
मैंने छोड़े।
लेकिन वे लाख
अभी लाख हैं, इसमें कोई
भेद नहीं है।
मूल्यवान हैं,
इसमें भी
कोई भेद नहीं
है।
बल्कि
सच तो यह है कि
भोगी कभी भी
वस्तुओं को उतना
मूल्य नहीं
देता, जितना
त्यागी देता
है--तथाकथित
त्यागी। क्यों?
क्योंकि
भोगी तो पीड़ित
भी रहता है मन
में कि वस्तुओं
को पकड़े
हूं, भोग
रहा हूं, अज्ञानी
हूं, पापी
हूं। त्यागी
भी वस्तुओं को
ही भोगता है, त्याग के
नाम से।
क्या-क्या
उसने छोड़ा है,
वह उसके
अहंकार का
हिस्सा हो
जाता है।
लेकिन अब पाप
का, अब
अहंकार को चोट
पहुंचने का भी
कोई कारण नहीं।
त्यागी के पास
जो सिक्के हैं,
वे और भी
चमकदार हो
जाते हैं।
भोगी के
सिक्के तो चोर
भी चुरा ले, त्यागी के
सिक्के कोई भी
चुरा नहीं
सकता। भोगी की
संपदा में तो
कोई भागीदार
भी बन जाए, त्यागी
की संपदा में
कोई भागीदार
नहीं बन सकता।
त्यागी की
संपदा बहुत
सुरक्षित है।
नहीं, लाओत्से
का यह अर्थ
नहीं है कि
सुख की कामना
का त्याग
करें।
लाओत्से कह
रहा है कि सुख
क्या है, इसे
जानें। जानते
ही सुख छूट
जाता है, त्याग
हो जाता है।
जो त्याग करते
हैं, वे
अज्ञानी हैं।
जिनसे त्याग
हो जाता है, वे ज्ञानी
हैं।
ज्ञानियों
ने कभी भी कोई
त्याग नहीं
किया है। यह
सुन कर थोड़ी
कठिनाई होगी
मन को।
क्योंकि हमारे
सोचने का ढंग
यह हो गया है
कि हम सोचते
हैं,
त्याग करने
से आदमी
ज्ञानी होता
है। बात उलटी है,
ज्ञानी
होने से त्याग
घटित होता है।
ज्ञानियों ने
त्याग कभी
नहीं किया।
ज्ञानियों से
त्याग होता है
सहज।
इसलिए
उसकी कोई पीछे
रूप-रेखा भी
नहीं छूट जाती, कोई
घाव भी नहीं
छूट जाता।
जैसे सूखा
पत्ता वृक्ष
से गिरता है, ऐसे ज्ञानी
के पास जो
व्यर्थ है, वह गिर जाता
है। सूखे
पत्ते के
गिरने की खबर
वृक्ष को होती
ही नहीं; क्योंकि
घाव कोई छूटता
नहीं। पता ही
नहीं चलता, कब पत्ता
गिर गया।
लेकिन
कच्चा पत्ता
तोड़ें वृक्ष
से,
तो वृक्ष को
भी चोट पता
चलती है।
जिसको भी त्याग
का पता चलता
हो, जान
लेना कि अभी
वह त्याग की
स्थिति में
पहुंचा नहीं
था। जिसे खयाल
भी आता हो कि
मैंने त्याग
किया, समझ
लेना, अभी
भोग के वर्तुल
से बाहर वह
नहीं हुआ है।
लाओत्से
कहता है, सुख
में देख लेना
दुख को, जन्म
में देख लेना
मृत्यु को, सम्मान में
अपमान को। विपरीत
की झलक को
खोजना। मिल
जाएगी; वहीं
मौजूद है, छिपी
है। जरा आंख गड़ा कर
देखने की बात
है, जरा
ध्यानपूर्वक
खोजने की बात
है। सुख दुख
हो जाएगा। फूल
के पीछे कांटा
निकल आएगा।
फिर छोड़ना
नहीं पड़ेगा।
छोड़ने की बात
ही लाओत्से
नहीं करता।
छोड़ने की भी
कोई बात करनी
है! अगर फूल
में कांटा
निकल आए, तो
छूट गया।
इसलिए
पहली बात तो
यह समझ लें कि
सुख की कामना का
त्याग ही
दुखों से
निवृत्ति है, ऐसा
नहीं। सुख को
दुख जान लेना
ही--दुखों से
निवृत्ति है,
ऐसा
नहीं--सुख-दुख
दोनों से
निवृत्ति है।
हमारा
मन बहुत अदभुत
है। हम सुख को
भी छोड़ने को
तैयार हो सकते
हैं,
अगर दुख से
निवृत्ति
मिलती हो।
लेकिन ध्यान रखें,
दुख से
निवृत्ति
अकेली नहीं
होती, सुख
और दुख दोनों
से निवृत्ति
होती है। दुख
को छोड़ने को
तो कोई भी
तैयार है। दुख
को छोड़ने के लिए
कोई प्रश्न ही
नहीं है। हम
सुख को भी
छोड़ने को
तैयार हो जाते
हैं कभी, अगर
दुख से
निवृत्ति
मिलती हो।
लेकिन वह भी
दुख को ही
छोड़ने की
चेष्टा है।
सुख और दुख एक
ही सिक्के के
दो पहलू
हैं--ऐसा जो
जानेगा, वह
यह भी जान
लेगा: या तो
दोनों बचेंगे,
या दोनों
छूट जाएंगे।
निवृत्ति
होगी, तो
दोनों से; और
प्रवृत्ति
रहेगी, तो
दोनों की।
तीसरी
बात,
"मुझे तो
इतना ही जानना
है कि मेरा
पुनर्जन्म न
हो।'
लेकिन
क्यों? पुनर्जन्म
क्यों न हो? क्योंकि
जीवन में दुख
है, जीवन
में पीड़ा और
संताप है, इसलिए
पुनर्जन्म न
हो? सुख की
दौड़ जारी ही
बनी रहती है।
और पुनर्जन्म
न हो, यह
भविष्य की
आकांक्षा हो
गई। और वासना
सदा ही भविष्य
में होती है।
किसी भी तरह की
वासना हो, सदा
भविष्य में
होती है। कल
मुझे कुछ हो!
वासना सदा कल
के बाबत होती
है।
कभी
आपने सोचा कि
वासना
वर्तमान में
हो नहीं सकती।
वासना का
वर्तमान में
होने का उपाय
नहीं है।
क्योंकि
वासना को जगह
चाहिए, स्पेस
चाहिए।
वर्तमान में
कोई जगह तो
नहीं होती, एक क्षण
आपके हाथ में
होता है। वह
इतना कम होता
है और वासना
आपके पास इतनी
होती है, उसमें
नहीं फैल
सकती। इसलिए
वासना भविष्य
खोजती है--कल, परसों, आने
वाले वर्ष।
लेकिन यह तो
हद्द हो गई
वासना की--आने
वाला जन्म! तो
बहुत भविष्य
का विस्तार
है।
न; आने
वाला जन्म न
हो, यह भी
वासना है। और
जब तक वासना
है, तब तक
जन्म होता ही
रहेगा।
यही
दुविधा है
धर्म की। धर्म
की गहरी से
गहरी दुविधा
यही है कि हम
जब भी धर्म को
समझते हैं, तब
तत्काल अपनी
वासनाओं की
भाषा में
रूपांतरित कर
लेते हैं।
धर्म ऐसा नहीं
कहता कि
पुनर्जन्म न
हो, इसकी
कोशिश करो।
धर्म ऐसा कहता
है कि जीवन
क्या है, इसे
समझ लो, तो
पुनर्जन्म
नहीं होगा। वह
सिर्फ कांसीक्वेंस
है, परिणाम
है। फल नहीं, परिणाम! फल
की तो कामना
करनी होती है,
परिणाम की
कामना नहीं
करनी होती।
कुछ और करना होता
है, परिणाम
घटित हो जाता
है।
बुद्ध
का पुनर्जन्म
नहीं होता; इसलिए
नहीं कि बुद्ध
जीवन भर यह
चेष्टा करते रहे
कि मेरा
पुनर्जन्म न
हो। अगर यह
चेष्टा होती,
तो बुद्ध का
पुनर्जन्म
होता ही।
क्योंकि जिसका
मन भविष्य में
दौड़ रहा है, उसका मन
वासना में दौड़
रहा है। अगर
ठीक से समझें,
तो भविष्य
का कोई
अस्तित्व जगत
में नहीं है--सिवाय
मनुष्य की
वासना के।
भविष्य समय का
हिस्सा नहीं
है, मनुष्य
की वासना का
हिस्सा है।
इसलिए जब भी
कोई व्यक्ति वासनाशून्य
हो जाता है, उसके लिए
भविष्य मिट
जाता है।
भविष्य ही
नहीं, समय
ही मिट जाता
है।
जीसस
से कोई पूछता
है,
तुम्हारे
स्वर्ग में
सबसे खास बात
क्या होगी?
तो
जीसस कहते हैं, देयर
शैल बी टाइम
नो
लांगर--वहां
समय नहीं होगा।
जिसने
पूछा था, वह
पूछ रहा था, कल्पवृक्ष
होंगे? वह
पूछ रहा था, अप्सराएं
होंगी? वह
पूछ रहा था, सुख ही सुख
होगा? शराब
के झरने, चश्मे
होंगे? कुछ
ऐसी बात पूछ
रहा था कि
क्या होगी खास
बात, जिसके
लिए यह सब
छोड़ने का
उपद्रव मुझे
करना पड़े? उसको
जीसस की बात
बिलकुल न जंची
होगी कि देयर शैल
बी टाइम नो
लांगर--समय
नहीं होगा। न
केवल नहीं
जंची होगी, बल्कि बहुत
भयभीत भी कर
गई होगी।
क्योंकि जहां
समय नहीं होगा,
वहां कोई
वासना नहीं हो
सकती, कोई
कल्पवृक्ष
नहीं हो सकता।
हम तो स्वर्ग
भी बनाते हैं,
तो हमारी
वासना का ही
विस्तार है।
हम तो जो भी करते
हैं--हमारा
धर्म, हमारा
मोक्ष, हमारा
स्वर्ग--हमारी
वासना का
विस्तार है।
वे सब हमारे
संसार के ही
परिशिष्ट
हैं। उनमें बहुत
भेद नहीं है।
मित्र
पूछते हैं, मेरा
पुनर्जन्म न
हो।
क्यों? क्यों
न हो
पुनर्जन्म? यही कारण न
कि जीवन में
दुख है! अगर
जीवन में दुख
है, तो
पुनर्जन्म की
फिक्र छोड़ें;
जीवन के
पूरे दुख को
समझ लें। जीवन
के दुख को जो
समझेगा, उसके
भीतर
धीरे-धीरे
वासना क्षीण
होने लगेगी।
क्योंकि सब ओर
दुख है, चाहूं
भी तो क्या
चाहूं? चाहने
योग्य कुछ भी
नहीं है। सब
चाह दुख में ले
जाती है।
सब चाह
दुख की ही चाह
जिस दिन मालूम
पड़ने लगे, जिस
दिन कहीं से
भी यात्रा
करूं और दुख
में पहुंच
जाऊं, कुछ
भी सोचूं और
दुख में गिर
जाऊं, कुछ
भी चाहूं और
दुख में पहुंच
जाऊं, जिस
दिन सब तरफ से
सब यात्रा-पथ
दुख में ही ले
जाने वाले
दिखाई पड़ने
लगें, उस
दिन क्या मैं
चाहूंगा कि
पुनर्जन्म न
हो? फिर वह
भी एक चाह
होगी; और
सभी चाह दुख
में ले जाती
हैं। क्या मैं
चाहूंगा कि
परमात्मा
मुझे मिल जाए?
वह भी एक
चाह होगी; और
सभी चाहें दुख
में ले जाती
हैं।
नहीं, तब
मैं चाहूंगा
ही नहीं। बस
इतना ही होगा
कि मैं कुछ भी
न चाहूंगा।
जिस क्षण कोई
भी चाह नहीं, उसी क्षण
समय मिट जाता
है, भविष्य
टूट जाता है, अतीत बिखर
जाता है। यह
वर्तमान का
क्षण ही रह जाता
है सब कुछ। उस
क्षण में
अस्तित्व तो
है, जीवन
नहीं है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
उस क्षण में
अस्तित्व तो
है,
जीवन नहीं
है। और जिस
व्यक्ति ने
जीवन में छिपे
अस्तित्व को
जान लिया, उसका
फिर कोई
पुनर्जन्म
नहीं है।
क्योंकि पुनर्जन्म
जीवन का है।
इसे हम ऐसा
समझें कि जीवन
है समस्त
वासनाओं का
जोड़। अस्तित्व
के ऊपर, बीइंग
के ऊपर जो
वासनाओं का
जोड़ है, वही
जीवन है।
पुनर्जन्म
आपके इसी जीवन
का सिलसिला
है। वह कोई नई
बात नहीं है।
शरीर नया है, आपकी वासना
पुरानी है। और
वासना इतनी
तीव्र है अभी
भी कि उसे नए
शरीर की जरूरत
पड़ती है। इसलिए
नया शरीर मिल
जाता है।
जिस
क्षण कोई भी
वासना न रही, उस
क्षण नए शरीर
की जरूरत न
रही। तो
पुनर्जन्म
असंभव हो जाता
है। लेकिन
पुनर्जन्म न
हो, ऐसी
चाह मत बनाएं।
अन्यथा वह कभी
भी असंभव न
होगा। चाह को
समझें, चाह
के तथ्य को पहचानें
और चाह के
तथ्य में गहरे
उतरें, तो
पाएंगे कि चाह
ही दुख है।
इसलिए
मैंने कहा कि
जीवन का चुनाव
हमारे हाथ में
है। पुनर्जन्म
हमारे हाथ में
नहीं है। अगर
हम जीवन में
चुनाव करते
चले जाते हैं, वासना
को जगाते चले
जाते हैं, तो
पुनर्जन्म
होगा ही। उसका
कोई उपाय नहीं
है। अगर मैं
सुख को पकड़े
चला जाता हूं,
तो दुख आएगा
ही। अगर मैं
सम्मान मांगे
चला जाता हूं,
तो अपमान
निष्पत्ति
बनेगी ही।
दूसरी बात के
संबंध में
सोचना व्यर्थ
है। पहली ही
बात मेरे हाथ
में है।
उसका
अर्थ हुआ कि
अगर मैंने चाह
की,
तो मैं दुख
पाऊंगा ही।
अगर मैंने चाह
ही न की...। लेकिन
खयाल रखना, बारीक बात
है थोड़ी सी, वहीं भूल हो
जाती है। तो
हम सोचते हैं
कि चलो, अब
हम ऐसा करें
कि चाह न
करें। तब
हमारी यही चाह
बन जाती है: तो
चलो, अब हम
चाहें उस
स्थिति को
जहां कोई चाह
नहीं होती।
इच्छारहित हो
जाऊं, यही
चाह बन जाती
है। तब हम
पुनः चक्कर के
भीतर खड़े हो
गए।
नहीं, सिर्फ
समझें, सिर्फ
पहचानें,
अपनी एक-एक
चाह के पीछे
चल कर देख
लें। दुख उठाएं,
अनुभव
करें। और किसी
दिन जब यह
अनुभव गहरा
उतर जाएगा और
सब चाहें
व्यर्थ हो
जाएंगी, उस
क्षण नई चाह
पैदा नहीं
होगी कि मैं
अचाह कैसे हो
जाऊं। उस दिन
कोई चाह न
होगी। अचाह
चाहों का अभाव
है, नई चाह
नहीं। मुक्ति
नया बंधन नहीं
है, समस्त
बंधनों का
व्यर्थ हो
जाना है। चाह
है जीवन, अचाह
है मुक्ति। और
यह हमारे हाथ
में है। यह जाग
जाना हमारे
हाथ में है।
यह जब भी कोई
चाहे, तब
जाग सकता है।
मजे की बात है
कि चाह तो
हमें बहुत दुख
देती है; फिर
भी हम नहीं
चाहते, इसलिए
नहीं जागते।
चाह बहुत दुख
देती है। सब
सुख दुख देते
हैं। और सभी
फूल कांटे की
तरह छाती में चुभ जाते
हैं और घाव बन
जाते हैं।
लेकिन हम उनकी
तरफ देखते भी
नहीं; हम
नए फूलों की
तलाश में लग
जाते हैं उनको
भूलने के लिए।
एक जगह से दुख
मिलता है, तो
हम सुख का
दूसरा दरवाजा
खोलने लगते हैं।
एक दरवाजे से
नर्क खुलता है,
तो हम दूसरा
दरवाजा
स्वर्ग का
खोजने लगते
हैं।
हम
फिक्र ही नहीं
करते कि जहां
नर्क का
दरवाजा खुला, एक
क्षण रुकें
और सोचें कि
कल इस दरवाजे
को भी स्वर्ग
का समझ कर ही
खोला था। यह
नर्क हो गया।
और भी पहले
जो-जो दरवाजे
स्वर्ग के समझ
कर खोले थे, वे नर्क हो
गए। अब मैं
फिर नए स्वर्ग
के दरवाजे को
खोलने चला।
अगर यह मुझे
दिखाई पड़ जाए।
यह मेरे कहने
से नहीं दिखाई
पड़ सकता आपको।
लाओत्से के
कहने से आपको
दिखाई नहीं पड़
सकता। यह आपके
ही जीवन का
निरंतर दुख का
अनुभव ही गहन
हो, तो
दिखाई पड़ सकता
है।
लेकिन
हमारे मन की
तरकीब यह है
कि हम दुख को
भूलना चाहते
हैं और सुख को
याद रखना
चाहते हैं। हम
दुख को भूलना
चाहते हैं।
लोग शराब पी
रहे हैं, सिनेमागृह में बैठे
हुए हैं, संगीत
सुन रहे हैं, नाच देख रहे
हैं। पूछें, क्या? तो
वे कहते हैं
कि भुला रहे
हैं। कुछ भुला
रहे हैं; दुख
भुला रहे हैं।
दुख
भुलाने योग्य
नहीं है, दुख
ठीक से जानने
योग्य है। जो
दुख को ठीक से
जान लेता है, वह सुख से
छूट जाता है।
जो दुख को ठीक
से जान लेता
है, वह चाह
से छूट जाता
है। जिसकी कोई
चाह नहीं, उसका
फिर कोई जन्म
नहीं है।
अस्तित्व
होगा उसका--शुद्धतम।
वही शुद्धतम
अस्तित्व
आनंद है।
लेकिन
भूल मत करना
आप। उस आनंद
का आपके सुख
से कोई भी
संबंध नहीं
है। उस आनंद
में दुख तो खो
ही जाते हैं, सुख
भी खो जाता
है। इसलिए
बुद्ध ने तो
उस शब्द का
प्रयोग करना
भी पसंद नहीं
किया, आनंद
शब्द का।
क्योंकि आनंद
से सुख का
आभास मिलता
है। अगर
शब्दकोश में
जाएंगे खोजने,
तो आनंद का
कुछ भी अर्थ
किया जाए, उसमें
सुख रहेगा ही।
पारलौकिक सुख
होगा, अनंत
सुख होगा, शाश्वत
सुख होगा, लेकिन
सुख होगा ही।
तो शब्दकोश
ज्यादा से ज्यादा
इतना ही भेद
कर सकता है कि
यह क्षणभंगुर
सुख है, वह
शाश्वत होगा।
लेकिन होगा
सुख। बुद्ध ने
शब्द ही छोड़
दिया था।
बुद्ध कहते थे
शांति, आनंद
नहीं। वे कहते
थे, सब
शांत हो जाएगा,
सब शांत हो
जाएगा। उस
शांत क्षण को
आप जो भी चाहें
कहें। उस शांत
क्षण में कोई
भविष्य नहीं,
कोई यात्रा
नहीं है।
अस्तित्व के
केंद्र-बिंदु
से मिलन है।
यह हाथ
में है। यह
हाथ में इसलिए
है कि समझ
आपके पास है।
यह हाथ में
इसलिए है कि
समझ की धारा
को आप चाहें
तो अभी दुख पर
केंद्रित कर
सकते हैं। उसी
का नाम ध्यान
है। समझ की
धारा को दुख
पर फोकस करने
का नाम ध्यान
है। और जो भी
व्यक्ति अपने
जीवन के
अनुभवों पर
अपनी समझ की
धारा को
नियोजित कर
लेता है, वह
त्याग को
उपलब्ध हो
जाता है, और
उस स्थिति को,
जहां फिर
कोई पुनरागमन
नहीं है।
आज का
सूत्र: "इसका
क्या अर्थ है
कि सम्मान और अपमान, दोनों
ही स्वयं के
भीतर हैं? हम
इस कारण भयभीत
होते हैं, क्योंकि
हमने अहंकार
को ही अपना
होना समझ लिया
है। जब हम
अहंकार को ही
अपनी आत्मा
नहीं मानते, तो फिर डर
क्या?'
यह
सूत्र थोड़ा
कठिन है। इसे
थोड़ा दोत्तीन
दिशाओं से
समझना पड़े।
लाओत्से
किसी
व्यक्तिगत
आत्मा में
भरोसा नहीं
रखता, वह ठीक
बुद्ध जैसा
है। और यह मजे
की बात है; इसीलिए
बुद्ध के पैर
हिंदुस्तान
में न जम सके, लेकिन
लाओत्से के
चीन में जम
गए। बुद्ध के
पैर
हिंदुस्तान
में न जमे।
बुद्ध ने गहरी
से गहरी बात
कही, जो
किसी मनुष्य
ने कभी कही
हो। लेकिन बात
इतनी गहरी हो
गई कि हम
किनारे पर खड़े
लोगों को बिलकुल
भी समझ में न
आई। वह इतनी
गहरी आवाज हो
गई कि वह आवाज
हमारे पास तक
न पहुंची। और
पहुंची, तो
बिलकुल विकृत
हो गई। और
हमने जो अर्थ
निकाले, वे
हमारे अर्थ
थे।
बुद्ध
ने कहा कि यह
आत्मा की
बातचीत भी बंद
करो;
क्योंकि यह
खयाल भी कि
मैं आत्मा हूं,
मुझे
अस्तित्व से
तोड़ देता है
और अलग कर
देता है।
कठिन
हुआ। क्योंकि
अगर आत्मा भी
नहीं है, तो
हमें तो लगा
कि सब खो गया।
बुद्ध से लोग
जाकर पूछते थे
कि अगर आत्मा
भी नहीं है, तो फिर किसलिए
शील? और किसलिए
समाधि? और किसलिए
साधना? और
यह इतना उपाय किसलिए? अगर आत्मा
है, तो समझ
में आता है कि
आत्मा को पाने
के लिए। वही
लोभ की भाषा
हमारी काम करती
है। आत्मा को
पाने के लिए
एक आदमी त्याग
कर रहा है, तपश्चर्या
कर रहा है, समझ
में आता है।
बुद्ध से लोग
पूछते हैं कि
आत्मा भी नहीं
है, तो फिर
त्याग किसलिए?
तपश्चर्या किसलिए? बुद्ध से
लोग पूछते हैं,
अगर आत्मा
भी नहीं है, तो मोक्ष
किसका होगा? और अगर
मुक्त भी हो
गए और आत्मा
ही नहीं है, तो बचेगा
क्या?
लोगों
का पूछना भी
ठीक है, क्योंकि
लोग लोभ की
भाषा के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
समझ सकते।
बुद्ध
ने कहा है, तुम्हारा
होना ही
तुम्हारा दुख
है; तुम हो,
तब तक तुम
दुखी रहोगे।
यह
बहुत कठिन हो
गया। चाह छोड़
देना भी समझ
में आ सकता
है। कम से कम
मैं तो
बचूंगा। चाह
भी छोड़ दूं, मैं
तो बचूंगा, चाहने वाला
तो बचेगा। सब
छोड़ दूं, लेकिन
कम से कम मैं
तो बचूंगा। और
बुद्ध कहते हैं
कि तुम अगर
बचे, तो सब
बच गया।
क्योंकि
तुम्हारे
होने में ही सारा
संसार है। तुम
हो ही चाहों
का एक जोड़!
कभी सोचा
आपने कि अगर
आप अपनी सब
चाहें निकाल
कर अलग-अलग रख
दें,
तो क्या
आपकी हालत
वैसी न हो
जाएगी, जैसे
प्याज के
छिलके कोई
छीलता चला
जाए। अपनी सब
चाहें अलग रख
दें, आप
बचेंगे पीछे?
एक बात
पक्की है कि
आप जो भी अपने
को समझते हैं,
वह तो नहीं
बचेगा। और जो
बचेगा, उसका
आपको कोई भी
पता नहीं है।
आपकी तरफ से
तो शून्य ही
बचेगा। आप तो
खो जाएंगे।
इसलिए
भारत में भी
बुद्ध की बात
की गहराई में जड़ें
नहीं पकड़
पाईं।
क्योंकि जब
बुद्ध ने आत्मा
को ही इनकार
कर दिया और कह
दिया कि आत्मा
भी नहीं
है--तुम हो ही
नहीं, यही जान
लेना ज्ञान है,
बुद्ध ने
कहा--तो कठिन
हो गया। चीन
में लाओत्से के
कारण ही, बुद्ध
की बात जब
पहुंची
लाओत्से के
बाद, तो
चीन पकड़ पाया।
क्योंकि
लाओत्से ने
बीज बोए थे, जिसमें
लाओत्से ने
कहा था: हम इस
कारण ही भयभीत
हैं, इस
कारण ही लोभ
से भरे हैं कि
हमने अहंकार
को ही अपना
होना समझ लिया
है। यह जो
मेरे भीतर मैं
का भाव है, मैं
हूं, यही
हमारे दुख, लोभ, भय
का कारण है।
वस्तुतः
मैं नहीं हूं; सब
है। उसमें मैं
भी हूं, मैं
की तरह नहीं।
जैसे एक लहर
सागर में है, उस तरह। लहर
है सागर में; अलग नहीं, भिन्न नहीं।
फिर भी भिन्न
दिखाई पड़ती है,
फिर भी भिन्न
है। लहर जुड़ी
है सागर से
भीतर, फिर
भी बाहर से
आकृति अलग
मालूम पड़ती
है। यह जानते
हुए भी कि लहर
सागर है, फिर
भी लहर को हम
अलग ही जानते
हैं। मैं लहर
हूं। लेकिन
अगर कोई लहर
समझ ले कि मैं
अलग हूं, तो
कष्टों की
यात्रा शुरू
हो गई। अगर
लहर समझ ले कि
मैं अलग हूं, तो फिर लहर
का जन्म
महत्वपूर्ण
हो गया, फिर
लहर की मृत्यु
महत्वपूर्ण
हो गई। और अब
लहर के सिवाय
कौन बचाएगा
उसे मृत्यु के
भय से?
लहर
देखेगी चारों
तरफ: लहरें
गिर रही हैं, मिट
रही हैं, समाप्त
हो रही हैं।
कब्रें बनती
जा रही हैं उसके
चारों तरफ। वह
भी जानती है
कि मेरी कब्र
करीब है, मैं
भी मिटने के
करीब हूं। जब
लहर आकाश को
छूने के
उद्दाम वेग से
भरी है, तब
भी उसे पता है
कि पैर खिसके
जा रहे हैं, जमीन मिटी
जा रही है, जल्दी
ही कब्र मेरी
बन जाएगी।
चारों तरफ
कब्रें बनती
चली जा रही
हैं। अभी जो
लहर आकाश छूती
मालूम पड़ती थी,
वह खो गई और
मिट गई। मैं
भी मिटूंगी।
यह लहर को
मिटने का जो
डर है, यह
मौत का जो भय
है, यह किस
कारण है?
यह इस
कारण नहीं है
कि लहर
मिटेगी। यह इस
कारण है कि
लहर ने अपने
को सागर से
अलग जाना। अगर
लहर अपने को
सागर से एक
जाने, तो फिर
कैसा मिटना? फिर तो जब
लहर नहीं थी, तब भी थी; और
जब नहीं रहेगी,
तब भी होगी।
फिर तो यह बीच
का जो खेल है, यह खेल ही हो
गया। इसे
गंभीरता से
लेने की कोई जरूरत
न रही। लहर
सागर है, अगर
ऐसा जानें, तो फिर कोई
भय नहीं है।
भय तो
एक ही बात का
है कि मैं अलग
हूं। तो फिर
मुझे बचाना
पड़ेगा, इंतजाम
करना पड़ेगा।
लड़ना पड़ेगा
मृत्यु से। और
लड़-लड़ कर भी तो
आदमी मिट ही
जाएगा। बचने
का तो कोई
उपाय नहीं है।
तो
लाओत्से कहता
है,
"इसका क्या
अर्थ है कि
सम्मान और
अपमान, दोनों
ही स्वयं के
भीतर हैं? हम
इस कारण भयभीत
होते हैं, क्योंकि
हमने अहंकार
को ही अपना
होना समझ लिया
है।'
अच्छा
हो कि हम इसको
कहें, अंग्रेजी
का वाक्य
ज्यादा बेहतर
है: वी हैव फियर्स,
बिकाज वी हैव ए
सेल्फ। हम
भयभीत होते
हैं, क्योंकि
हमें लगता है
कि हम आत्मा
हैं। व्हेन वी
डू नॉट रिगार्ड
दि सेल्फ एज
दि सेल्फ--और
जब हम आत्मा
को आत्मा नहीं
मानते, जब
मैं मैं को मैं
नहीं
मानता--व्हाट
हैव वी टु फियर?
और तब भय
कहां? फिर
भयभीत होने की
क्या जगह रही?
मैं हूं, यही हमारे
भय का आधार
है।
क्यों? क्योंकि
अगर मैं हूं, तो मुझे
मेरे मिटने का
डर समा ही
जाएगा। अगर मैं
हूं, तो
नहीं हो सकता
हूं, यह
बात मौजूद हो
गई। इसे थोड़ा
समझें। अगर
मैं हूं, तो
मैं नहीं भी
हो सकता हूं।
फिर भय पकड़ेगा।
बुद्ध
कहते हैं कि
तुम नहीं ही
हो,
ऐसा जान लो;
फिर इस जगत
में कोई भय
नहीं है।
क्योंकि
मिटने का ही
भय एकमात्र भय
है। और सारे
भय उससे ही पैदा
होते हैं, उसकी
ही उप-उत्पत्तियां
हैं, उसके
ही शाखा-पल्लव
हैं। बुद्ध
कहते हैं कि
तुम हो ही
नहीं, इसे
जान लो। फिर
कैसा भय? और
लाओत्से भी
यही कहता है:
आत्मा है, अस्मिता
है, अहं है,
मैं हूं, तो भय है। और
अगर तुम नहीं
ही हो, तो
फिर कैसा भय?
यहां
फिर एक बात
खयाल में ले
लें। यह क्या
हम मान लें कि
मैं नहीं हूं?
मानने
से कुछ भी न
होगा। कौन
मानेगा? जो
मानेगा, वह
तो पीछे बचा
रहेगा। अगर
मैं मान ही
लूं कि मैं
नहीं हूं, तो
भी मैं हूं।
कौन मानता है?
यह भी मेरी
मान्यता है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, मानने
की बात नहीं
है। इसे खोजो
कि सच में तुम हो?
इसे खोजो, कहां हो तुम?
शरीर में हो,
तो शरीर में
खोजो। विचार
में हो, तो
विचार में
खोजो। भाव में
हो, तो भाव
में खोजो।
खोजो भीतर
अथक: कहां हो
तुम? और
बुद्ध कहते
हैं, तुम
खोज-खोज कर
पाओगे कि तुम
खो गए, तुम
नहीं हो।
यह न
होना मान्यता
और विश्वास और
सिद्धांत नहीं
है। यहीं भूल
हुई। भारत के
पंडित को बुद्ध
को समझने में
भूल हुई; क्योंकि
भारत के पंडित
ने कहा, यह
सिद्धांत है
बुद्ध का कि
आत्मा नहीं
है। तो भारत
के पंडित ने
कहा कि हम
सिद्ध कर सकते
हैं कि आत्मा
है। बुद्ध के
लिए यह
सिद्धांत
नहीं था, यह
गहन अनुभूति
थी। अगर यह
सिद्धांत है,
तो यह गलत
है।
नागार्जुन
ने,
बुद्ध के एक
शिष्य ने, मूल
माध्यमिक
कारिका नाम का
अपना शास्त्र
लिखा। अनूठा
है। संभवतः
पृथ्वी पर
वैसी दूसरी कोई
किताब नहीं
है।
नागार्जुन
जैसा आदमी भी
खोजना पृथ्वी
पर दुबारा
मुश्किल है।
नागार्जुन ने
उसमें सिद्ध
किया है कि
कुछ भी नहीं
है। न मैं हूं,
न तुम हो, न संसार है, कुछ भी नहीं
है। स्वभावतः
नागार्जुन
बड़ी दिक्कत
में पड़ गया; क्योंकि
उसको गलत करना
तो बहुत आसान
है। कोई भी
आकर गलत कर
देता कि अगर
कुछ भी नहीं
है, तो यह
किताब किसके
लिए लिखी है? अगर तुम भी
नहीं हो, तो
कौन लिखता है
ये बातें? कौन
विवाद करता है?
और यह सुनने
वाला भी नहीं
है, तो तुम
किसको समझा
रहे हो?
नागार्जुन
की कठिनाई है।
नागार्जुन जो
कह रहा है, वह
एक गहन अनुभव
है। वह असल
में यह कह रहा
है कि व्यक्तिशः
कोई भी नहीं
है। एज इंडिविजुअल
नथिंग एक्झिस्ट्स--व्यक्तिशः
कुछ भी नहीं
है। लहर की
भांति कुछ भी
नहीं है; सागर
है। लेकिन जब
हम कहते हैं
सागर है, तब
सागर की भी
सीमा बन जाती
है। इसलिए
नागार्जुन
कहता है, जो
है, उसके
लिए कोई भी
शब्द हम उपयोग
करेंगे तो
उसकी सीमा बन
जाएगी। तो
नागार्जुन
कहता है कि हम,
जो-जो नहीं
है, वह बता
देंगे; और
जो है, उसे
छोड़ देंगे। तो
नहीं-नहीं-नहीं
को जान लेना, पहचान लेना।
और जब नहीं की
पूरी यात्रा
समाप्त हो जाए,
तो जो बच
रहे, जो बच
रहे--दि रिमेनिंग--वही
है, बाकी
कुछ भी नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, हमारा
भय क्या है? हमें निंदा
अप्रीतिकर
क्यों लगती है?
और प्रशंसा
प्रीतिकर
क्यों लगती है?
प्रशंसा का
मतलब है, कोई
कह रहा है कि
तुम बड़ी लहर
हो। निंदा का
अर्थ है, कोई
कह रहा है, क्षुद्र
सी लहर! और
लाओत्से कह
रहा है कि तुम
हो ही नहीं।
लहर तुम हो ही
नहीं। जब तक
तुम लहर मानोगे
अपने को, तब
तक प्रशंसा
सुख देती
मालूम पड़ेगी;
निंदा दुख
देगी। मित्र
होंगे, जो
तुम्हारी लहर
को बचाएं।
शत्रु होंगे,
जो
तुम्हारी लहर
को मिटाएं।
बुद्ध
को भूल से
अंतिम जीवन के
क्षणों में
किसी ने जहर
दे दिया--भूल
से। किसी गरीब
आदमी ने निमंत्रण
किया था। और
बिहार में
कुकुरमुत्ते
को लोग बरसात
में इकट्ठा कर
लेते हैं।
लकड़ी पर, गीली
लकड़ी पर जो
फूल उग आते
हैं, उनको
इकट्ठा कर
लेते हैं, सुखा
लेते हैं।
कभी-कभी वे
विषाक्त हो
जाते हैं।
गरीब आदमी ने
निमंत्रण
दिया था।
विषाक्त फूल
थे; बुद्ध
ने खा लिए।
जहर था कडुवा;
लौट कर आए, तो खून में
जहर फैल गया।
फूड पायजन
से बुद्ध की
मृत्यु हुई।
मित्रों ने
कहा कि आप कह
तो देते कि
कड़वा है!
बुद्ध ने कहा,
कड़वा तो था,
लेकिन कहता
कौन? लोगों
ने कहा, ये
बातें मत
करिए। यह जीवन
और मृत्यु का
सवाल है!
बुद्ध ने कहा,
अगर मैं
होता, तो
मर भी सकता
था। मैं हूं
ही नहीं। मैं
हूं ही नहीं, इसलिए
मृत्यु का कोई
सवाल नहीं है।
अगर
हैं,
तो मरेंगे।
मगर क्या इसे
हम मान लें? यहीं सारी
कठिनाई है।
मान भी सकता
है कोई आदमी।
करोड़ों-करोड़ों
बौद्ध बुद्ध
को मान कर ही
चल रहे हैं कि
नहीं है। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। इससे
कोई बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं
होता। कितने करोड़ हैं!
करोड़ों बौद्ध
हैं जमीन पर, वे मान कर ही चल
रहे हैं कि
नहीं है। वे
ऐसे ही मान कर
चल रहे हैं कि
नहीं है, जैसे
कोई मान कर चल
रहा है कि है।
यह नहीं है और है,
दोनों
मान्यताएं
हैं। इनका कोई
मूल्य नहीं।
जानना
है। प्रवेश
करें भीतर, खोजें:
मैं हूं? जैसे-जैसे
खोज गहरी होगी,
सतह पर तो
लगता है मैं
शरीर हूं।
आत्मवादी
लोगों को
समझाते हैं कि
अपने को शरीर
मत मानो, समझो
कि तुम आत्मा
हो। एक कदम ले
जाते हैं। मनसविद
हैं, या मन
तक मानने वाले
लोग हैं, वे
कहते हैं, आत्मा
तो कुछ पता
नहीं चलती।
शरीर नहीं है,
यह ठीक है।
मैं मन हूं, यहां तक बात
जाती मालूम
पड़ती है।
बुद्ध आखिरी
कदम उठाते
हैं। लाओत्से
भी आखिरी कदम
उठाता है। ये
मनुष्य-जाति
के अत्यधिक
हिम्मतवर लोग
हैं।
साधारणतः
आदमी मानता है
मैं शरीर हूं।
उसको हम
नास्तिक कहते
हैं। जो मानता
है मैं शरीर
नहीं हूं, आत्मा
हूं, उसको
हम आस्तिक
कहते हैं।
बुद्ध कहते
हैं, जो
मानता है कि मैं
हूं, उसे
अभी कुछ पता
ही नहीं--चाहे
शरीर, चाहे
आत्मा। जो
जानता है कि
मैं हूं ही
नहीं!
फिर भी
होना तो है! जब
मैं कहता हूं
मैं नहीं हूं, तब
भी होना तो
है। पर उस
होने का मैं
से कोई जोड़ नहीं
है। जब मैं
कहता हूं लहर
नहीं है, तब
भी लहर तो है।
लेकिन उस लहर
का लहर होने
का कोई आग्रह
नहीं है। वह
सागर है। अगर
एक लहर खोज
में निकले, अपने भीतर
जाए और पता
लगाए कि मैं
हूं? तो
जल्दी ही
पाएगी कि लहर
तो खो गई, सागर
मिल गया। जब
भी कोई अपने
भीतर प्रवेश
करता है, तो
बहुत जल्दी
पाता है कि
व्यक्ति तो खो
गया और
परमात्मा मिल
गया।
लाओत्से
उसे परमात्मा
का नाम भी
नहीं देता। क्योंकि
वह नाम भी
आदमी की भाषा
में बहुत जूठा
हो गया है। और
हमने
इतने-इतने
ओंठों से
परमात्मा का
नाम लिया है, और
इतनी-इतनी नासमझियों
से उस नाम को
जोड़ा है और उस
नाम के लिए
हमने इतने
उपद्रव किए
हैं कि
लाओत्से चुप
ही रह जाता है,
परमात्मा
का नाम नहीं
लेता। वह कहता
है, इतना
ही जान लो कि
तुम नहीं हो, तो फिर
तुम्हें
प्रशंसा भी
नहीं छुएगी।
क्योंकि
किसकी
प्रशंसा? फिर
तुम्हें
निंदा भी नहीं
छुएगी।
क्योंकि
किसकी निंदा?
फिर
तुम्हें जीवन
भी नहीं
छुएगा। किसका
जीवन? तुम
अछूते, अस्पर्शित
सागर के साथ
एक हो जा
सकोगे।
जब हम
अहंकार को ही
अपनी आत्मा
नहीं मानते, तो
फिर भय किस
बात का है? भय
का अर्थ हुआ, अपने को
आत्मा, अहंकार,
अस्मिता, ईगो, अपने
को अलग-थलग
मानना ही भय
है।
"इसलिए
जो व्यक्ति
संसार को उतना
ही सम्मान दे,
जितना कि
स्वयं को...।'
और यह
कब होगा? यह
तभी होगा, जब
मेरे भीतर कोई
अहंकार न हो, कोई आत्मा
का भाव न हो।
अगर मैं हूं, तो मैं आपको
उतना ही
सम्मान नहीं
दे सकता जितना
अपने को।
क्यों?
नीत्शे
ने कहा है और
ठीक कहा है।
अजीब से शब्दों
में कहा है, लेकिन
सच कहा है।
नीत्शे ने कहा
है कि अगर कहीं
भी कोई ईश्वर
है, तो
मुझसे नंबर दो
ही हो सकता
है। क्योंकि
मैं अपने से
ऊपर किसी को
कैसे रख सकता
हूं?
यह
बहुत मजेदार
बात है। आप
चाहें भी, तो
भी नहीं रख
सकते। आप
चाहें भी किसी
को अपने से
ऊपर रखना, तो
भी नहीं रख
सकते हैं।
उपाय नहीं है।
भीतरी असुविधा
है। और अगर आप
रख भी लें
किसी को अपने
से ऊपर, तो
भी वह आपके
द्वारा ही ऊपर
रखा गया है।
और जिसके
द्वारा ऊपर
रखा गया है, वह सदा ऊपर
रह जाता है।
अगर मैं किसी
के चरणों में
जाकर सिर भी
रख दूं और
कहूं कि मैं
समर्पण करता
हूं सब अपना, तो भी
समर्पण मैं ही
करता हूं।
समर्पण का
मालिक मैं
हूं। समर्पण
मेरा कृत्य
है। और कल अगर
मैं चाहूं, तो अपना
पूरा समर्पण
वापस ले सकता
हूं। कौन रोकेगा?
तो जिसके
चरणों में
मैंने अपना
सिर भी रखा है,
वह भी मेरा
ही निर्णय है।
अंततः मैं ही
निर्णायक
हूं। और कल
सिर उठा लूं, तो कोई उपाय
तो नहीं है
रोकने का।
समर्पण में भी
संकल्प तो
मेरा है। तो
मैं किसी को, चरणों में
सिर रख कर भी, अपने से ऊपर
नहीं रख सकता।
इसकी दुविधा
भीतरी है। यह
असंभावना है।
लेकिन
क्या इसका यह
अर्थ हुआ कि
कभी समर्पण इस
जगत में घटित
नहीं हुआ है?
समर्पण
घटित हुआ है।
लेकिन वह तब
घटित होता है, जब
मुझे पता चलता
है कि मैं हूं
ही नहीं। जब
तक मैं हूं, तब तक तो
समर्पण भी
मेरा संकल्प
है।
बुद्ध
के बड़े भाई, चचेरे
भाई आनंद ने
बुद्ध से
दीक्षा ली। तो
बुद्ध से कहा
कि दीक्षा के
बाद तो फिर
मैं नहीं बचूंगा।
तुम्हारी
आज्ञा मेरे
लिए अंतिम
आज्ञा होगी।
लेकिन अभी
अज्ञानी हूं,
अभी
तुम्हारा बड़ा
भाई हूं।
दीक्षा के
पहले तुमसे
दो-चार वचन ले
लेता हूं।
दीक्षा के
पहले, बड़े
भाई की हैसियत
से छोटे भाई
के दिए गए वचन
हैं; इनका
तुम पालन
करना। और उसने
तीन वचन ले
लिए बुद्ध से।
बहुत प्यारी
घटना है। और
जिसने दीक्षा
ली थी, आनंद
ने, उनके
चचेरे भाई ने,
वह बहुत
अदभुत
आदमियों में
से एक था।
बुद्ध ने उससे
कहा, इतनी
भी क्या जल्दी
है! पीछे भी
तुम कहोगे, तो मैं मान
लूंगा। लेकिन
आनंद ने कहा, मैं बचूंगा
कहां? कहेगा
कौन? अभी
ही तय कर लेना
उचित है। अभी
मैं हूं।
वचन
मांग लिए।
बुद्ध ने वचन
दे दिए; जीवन
भर उन तीन
वचनों का
बुद्ध ने पालन
किया। और बड़े
आश्चर्य की
बात है कि
आनंद इसके बाद
चालीस वर्ष तक
बुद्ध के पीछे
छाया की तरह
रहा। बुद्ध के
सर्वाधिक
निकट वही था।
उतना निकट कोई
दूसरा
व्यक्ति कभी
नहीं रहा। फिर
बुद्ध की मृत्यु
हो गई। फिर
बुद्ध के वचन
संगृहीत करने
के लिए संघ
बैठा। तो आनंद
सर्वाधिक निकट
बुद्ध के रहा
था। सबसे
ज्यादा
प्रामाणिक वक्तव्य
उसका ही था कि
बुद्ध ने कब
किससे क्या कहा।
रात बुद्ध के
कमरे में ही
वह सोता था।
चौबीस घंटे
उनके साथ रहता
था। ऐसी कोई
भी घटना नहीं
घटी थी चालीस
वर्षों में, जो आनंद के
सामने न घटी
हो। सबसे
ज्यादा
प्रामाणिक
आदमी वही था।
लेकिन संघ ने
आनंद को भवन
के भीतर लेने
से इनकार कर
दिया, भिक्षुओं
ने। उन्होंने
कहा कि अभी
आनंद को ज्ञान
उपलब्ध नहीं
हुआ। आनंद गिड़गिड़ाता
है दरवाजे पर,
लेकिन
भिक्षुओं ने
द्वार बंद कर
दिए। और अन्य भिक्षुओं
ने कहा कि
आनंद को ज्ञान
उपलब्ध नहीं
हुआ। कारण? आनंद ने
पूछा, कारण?
तो पता चला
कि वे जो तीन
वचन तुमने
बुद्ध से लिए
थे, वह
तुम्हारे
अहंकार की जरा
सी रेखा--जरा
सी रेखा!
मिटने के पहले
भी, मिटने
के पूर्व जरा
सी तुमने जो
रेखा खींच ली थी,
वह बाधा बन
गई है।
और
आनंद ने
स्वीकार किया
कि वह बाधा है
और मैं योग्य
नहीं कि भीतर
आ सकूं। जब
मैं योग्य हो जाऊंगा, तब
मैं द्वार खटखटाऊंगा।
चौबीस
घंटे आनंद
ध्यान में
बैठा रहा।
भीतर सभा चलती
रही,
वक्तव्य
संगृहीत किए
जाते रहे।
चौबीस घंटे बाद
आनंद ने द्वार
खटखटाया।
दरवाजा खोल
दिया गया।
पूछा
भिक्षुओं ने,
आनंद, तुम
बिलकुल बदल कर
आ रहे हो!
तुम्हारे
चेहरे की आभा
और, तुम्हारे
पैर की भनक और,
तुम्हारे
चलने का ढंग
और। चालीस साल
से तुम्हें
देखा है, लेकिन
यह तुम आदमी
ही दूसरे हो!
तो
आनंद ने कहा, इस
ध्यान में
मुझे पता चला
कि कैसा छोटा
भाई, कैसा
बड़ा भाई! कैसा
वचन, कैसा
आश्वासन! मेरा
समर्पण भी
सशर्त था।
उसमें जरा सी
शर्त थी, एक
कंडीशन
थी! आज मैंने
क्षमा मांग ली
है। और आज
मैंने वह शर्त
छोड़ दी है। और
आनंद ने कहा
कि अब मेरा
कोई आग्रह
नहीं है। भीतर
आने दो तो ठीक,
भीतर न आने
दो तो ठीक।
मैं बाहर ही
बैठा रहूंगा।
तो संघ
ने कहा कि अब
तुम्हें भीतर
आने में कोई बाधा
न रही। वह
तुम्हारा
पहले
आग्रह--कि
मुझे भीतर लो, क्योंकि
मैं ही
प्रामाणिक
व्यक्ति हूं,
चालीस साल
मैं ही निकट
था--उसी कारण
हमें दरवाजे
बंद करने पड़े
थे। अब तुम
भीतर आ सकते
हो, क्योंकि
बाहर और भीतर
में अब कोई
फर्क नहीं है।
समर्पण
भी अगर शर्त
से हो, समर्पण
में भी अगर
कृत्य हो, तो
मालिक तो मैं
ही बना रहता
हूं। यह जो
मेरा होना है,
इसके
द्वारा
समर्पण नहीं
होता। यह नहीं
हो, तो जो
होता है, उसी
का नाम समर्पण
है।
लाओत्से
कहता है कि यह
मेरा होना ही
मेरे सारे दुख
की जड़ है।
लेकिन
कैसे, इसे मिटाएं
कैसे? बहुत
लोग इसे
मिटाने की
कोशिश करते
हैं। मिटा तो
नहीं पाते, यह और मजबूत
हो जाता है।
जो है ही नहीं
चीज, उसे
मिटाया नहीं
जा सकता। एक
बात पक्की समझ
लें: अगर हो, तो मिटाया
भी जा सके; जो
नहीं है, उसे
मिटाया नहीं
जा सकता। जो मिटाने
चलेगा, वह
भूल में
पड़ेगा। उसे
जाना जा सकता
है, खोजा
जा सकता
है--कहां है?
महर्षि
रमण के ध्यान
की पद्धति थी, जिसमें
वे साधकों को
कहते थे, पूछो:
मैं कौन हूं? हू एम आई?
अगर हम
लाओत्से की
ध्यान की
पद्धति बनाना
चाहें, तो
उसमें हमें
कहना पड़ेगा:
मैं कहां हूं?
व्हेयर एम
आई? "हू' बेमानी है, कौन का कोई
मतलब नहीं है।
अगर लाओत्से
की ध्यान की
पद्धति बनानी
पड़े, तो
पूछा जाएगा
भीतर: व्हेयर
एम आई? व्हेयर?
कहां हूं
मैं? मैं
कौन हूं, इसमें
यह तो मान ही
लिया गया कि
मैं हूं। अब
रह गया कि कौन
हूं, यह
जानना है।
लाओत्से
कहता है, पहले
यह तो खोजो कि
तुम हो? तो
खोजो--कहां हो?
एक-एक इंच
अपने भीतर
प्रवेश करो और
एक-एक इंच पर
पूछो कि कहां
हूं?
और मजे
की बात है, वह
मैं कहीं भी
नहीं पाया
जाता। और जब
आदमी अपने
भीतर सब खोज
लेता है--शरीर,
मन, प्राण,
आत्मा--और
कहीं भी नहीं
पाता कि मैं
हूं, तब भी
पाता तो है
कुछ है। कुछ
है, यह तो
पाता है; लेकिन
मैं को नहीं
पाता। वह जो
कुछ है, एक्स,
अज्ञात, वह
सागर है। और
अगर हम पा
लेते हैं कि
मैं यह हूं, तो वह लहर है,
चाहे वह
कितनी ही गहरी
हो।
कोई
कहे मैं शरीर
हूं,
तो भी
नास्तिक। कोई
कहे मैं मन
हूं, तो भी
नास्तिक। कोई
कहे मैं आत्मा
हूं, तो भी
नास्तिक।
लाओत्से और
बुद्ध के
हिसाब से एक
कदम और: मैं
हूं ही नहीं।
सब कट जाए, नेति-नेति
हो जाए। कुछ
भी न बचे, तब
जो बच रहता है!
बच तो रहता ही
है। उस कुछ
अज्ञात का नाम
नहीं है। और
उस अज्ञात में
प्रवेश करते
ही फिर भय
नहीं है। फिर
कोई प्रलोभन
भी नहीं है।
"इसलिए
जो व्यक्ति
संसार को उतना
ही सम्मान दे,
जितना
स्वयं को...।'
कब? संसार
को उतना ही
सम्मान तभी
दिया जा सकता
है जितना
स्वयं को, जब
स्वयं का होना
बिलकुल खो गया
हो। स्वयं के रहते
मैं सदा ही
मूल्यवान
रहूंगा। कोई
कितना ही मूल्यवान
हो, मैं भी
खुद कहूं कि
तुम मुझ से
बहुत
मूल्यवान, मैं
तुम्हारे
चरणों की धूल,
तो भी मैं
ही मूल्यवान
रहूंगा। मेरा
कोई भी वक्तव्य
मेरे मूल्य का
खंडन नहीं कर
सकता। मेरा खुद
का ही वक्तव्य
कि मैं जमीन
की धूल हूं
तुम्हारे
चरणों की, मेरे
तुमसे ऊपर
होने के आधार
को मिटा नहीं
सकता। मैं ऊपर
रहूंगा ही।
मैं का होना अनिवार्यतया
ऊपर होना है।
मैं है, तो
सर्वोपरि है।
वह कितनी ही घोषणाएं
करे, उससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। मैं की
घोषणा अनिवार्यरूपेण
सर्वोपरि
घोषणा है।
तो किस
दिन यह घटना
घट सकती है जब
कि मैं संसार को
उतना ही सम्मान
दूं जितना
स्वयं को?
उसी
दिन,
जिस दिन
मेरा मैं न
हो। उस दिन
संसार और मेरे
बीच फासला न
रहा। उस दिन
ऐसा कहें कि
मैं ही फैल कर
सबके भीतर
प्रकट होने
लगा। या सब
मेरे भीतर बढ़
कर प्रकट होने
लगे। उस दिन
मेरे और तू के
बीच कोई दीवार
न रही। उस दिन
सब का होना ही
मेरा होना है।
उस दिन सम्मान
हो सकता है
सबका समान। उस
दिन सम्मान हो
सकता है, उतना
ही जितना मैं
अपने को दूं।
जीसस ने कहा है,
पड़ोसी को
उतना ही प्रेम,
जितना तुम
स्वयं को करते
हो। लेकिन जब
तक स्वयं है, तब तक पड़ोसी
को उतना ही
प्रेम नहीं हो
सकता। स्वयं
मिटे, तो
ही पड़ोसी को
उतना ही प्रेम
हो सकता है
जितना मैं स्वयं
को करता हूं।
"तो
ऐसे व्यक्ति
के हाथ में
संसार का शासन
सौंपा जा सकता
है।'
बड़ी
मुश्किल है।
लाओत्से की
व्यवस्था बड़ी
कठिन है।
लाओत्से कहता
है,
ऐसे
व्यक्ति के
हाथ में संसार
का शासन सौंपा
जा सकता है।
ऐसे व्यक्ति
के हाथ में
शक्ति खतरनाक
नहीं होगी।
लेकिन ऐसा
व्यक्ति
शक्ति चाहता
नहीं। और जैसे
व्यक्ति
शक्ति चाहते
हैं, उनके
हाथ में
अनिवार्य रूप
से खतरनाक
होती है।
बहुत
प्रसिद्ध
उक्ति है बेकन
की: पावर करप्ट्स।
शक्ति, सत्ता
लोगों को
व्यभिचारी
बनाती है।
यह
अधूरी है। शक्ति
व्यभिचारी
इसलिए बनाती
है कि सिर्फ
व्यभिचारी ही
शक्ति को
खोजते हैं।
शक्ति करप्ट
नहीं करती है, लेकिन
करप्टेड
शक्ति को
खोजते हैं।
हां, अगर
आपके भीतर
व्यभिचार है,
तो शक्ति के
बिना प्रकट
नहीं हो सकता।
इसलिए जब
शक्ति मिल
जाती है, तो
व्यभिचार
प्रकट होता
है।
इसलिए
लोग अक्सर
चमत्कृत होते
दिखाई पड़ते
हैं,
कि बड़े
आश्चर्य की
बात है, जो
आदमी इतना बड़ा
सेवक था, वह
सत्ता में
पहुंच कर ऐसा
विकृत हो गया!
सत्ता सभी को
खराब कर देती
है।
ऐसा
नहीं है। वह
सेवक तभी तक
था,
जब तक कमजोर
था। वह सेवक
होना कोई
भीतरी गुण न था,
वह सिर्फ
कमजोरी थी।
सत्ता में
पहुंचते ही
पता चलता है
कि वह आदमी
असली क्या था।
इसलिए जिस
आदमी का असली
चेहरा देखना
हो, उसे
सत्ता दिए
बिना नहीं पता
चल सकता।
सत्ता मिलते
ही उसे
स्वतंत्रता
मिलती है अब
वही होने की, जो वह होना
चाहता है। अब
उसे दिखावा
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। इसलिए
सत्ता नहीं करप्ट
करती किसी को,
व्यभिचारी
नहीं बनाती; लेकिन सत्ता
व्यभिचारी को
मुक्त कर देती
है प्रकट होने
के लिए।
लाओत्से
कहता है, ऐसा
व्यक्ति ही इस
योग्य है कि
संसार का शासन
उसे सौंपा जा
सके, जिसके
भीतर मैं
विसर्जित हो
गया। क्योंकि
मैं और सत्ता
का जोड़ हो जाए,
तो
व्यभिचार
फलित होता है।
अगर भीतर मैं
खो जाए, तो
सत्ता
व्यभिचार
पैदा नहीं कर
सकती है। क्योंकि
जो व्यभिचारी
हो सकता है, वह मैं है, वह अहंकार
है।
"और जो
संसार को उतना
ही प्रेम करे
जितना स्वयं
को, तो
उसके हाथों
में संसार की
सुरक्षा
सौंपी जा सकती
है।'
लेकिन
यहीं कठिनाई
है। ऐसा
व्यक्ति
सत्ता न चाहे।
और ऐसे
व्यक्ति के
हाथ में सत्ता
सौंपी जा सकती
है। लाओत्से
क्या कहना
चाहता है? लाओत्से
यह कहना चाहता
है, जो
सत्ता चाहे, उसके हाथ
में सत्ता
नहीं सौंपी जा
सकती। जो आदर
चाहे, उसके
हाथ में आदर
देना खतरनाक
है। जो
प्रतिष्ठा
चाहे, उसे
प्रतिष्ठा
देना उसकी
बीमारी को
पानी सींचना
है।
प्रतिष्ठा
उसे देना, जो
प्रतिष्ठा न
चाहे। और
सत्ता उसे
सौंप देना, जिसके भीतर
सत्ता को पकड़ने
और पीने वाला
अहंकार न रह
गया हो। तो
ही...।
इस
सूत्र के
संदर्भ में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
जरूरी हैं।
विगत
ढाई हजार
वर्षों में, लाओत्से
के बाद, सारी
दुनिया में सैकड़ों
तरह की
क्रांतियां
हुईं; और
सभी
क्रांतियां
असफल हो जाती
हैं। हर क्रांति
दावा करती है
कि सत्ता अब
ठीक हाथों में
जाएगी। लेकिन
सत्ता जिन
हाथों में भी
जाती है, वे
गलत हाथ सिद्ध
होते हैं।
जरूर कहीं न
कहीं मामला
क्रांति का
नहीं है।
क्रांति से
कोई संबंध
नहीं है। क्योंकि
सब
क्रांतियां
असफल हो गईं।
अब तक कोई क्रांति
सफल नहीं हो
सकी। और होगी
भी नहीं। क्योंकि
लाओत्से का
सूत्र कोई भी
क्रांति पूरा
नहीं कर पाती।
सत्ता चाहने
वाले के हाथ में
ही सत्ता आती
है।
इसलिए
कुछ लोग तो
इतने पीड़ित और
परेशान हो गए, जैसे
क्रोपाटकिन
या बाकुनिन,
वे कहते हैं
कि अब सत्ता
चाहिए ही नहीं,
किसी के भी
हाथ में नहीं।
अराजकता
चाहिए, अनार्की चाहिए।
क्योंकि बहुत
देख ली सत्ताएं,
सभी सत्ताएं
मंहगी पड़ जाती
हैं। और सभी सत्ताओं
को उलटने के
लिए पुनः-पुनः
क्रांति करनी
पड़ती है।
क्रांति से
जिन सत्ताओं
को निर्मित
करते हैं, उनको
भी मिटाने के
लिए कल
क्रांति करनी
पड़ती है।
जिन्हें आज
बड़ी मेहनत से
सिंहासन पर चढ़ाते हैं,
कल उतनी ही
मेहनत से
उन्हें
सिंहासन से
उतारना पड़ता
है
और लोग
ढाई हजार साल
से--आगे का
नहीं कहता, क्योंकि
उसके पहले का
इतिहास साफ
नहीं है--ढाई
हजार साल से
दुनिया की
जनता एक ही
काम कर रही है।
सही आदमियों
को चढ़ाती
है सिंहासन तक;
सिंहासन पर
पहुंचते ही
पता चलता है
कि गलत आदमी
चढ़ गया, फिर
उसे उतारना
पड़ता है। यह
वर्तुल चलता
ही रहता है।
लाओत्से
कहता है, यह
वर्तुल
क्रांतियों
से मिटने वाला
नहीं है। यह
वर्तुल
व्यक्तियों
से मिटेगा, क्रांतियों
से नहीं।
लेकिन ऐसे
व्यक्ति के हाथ
में जिस दिन
भी जगत की
सत्ता हो
सके--किसी भी दिशा
की, किसी
भी आयाम
की--उसी दिन
सत्ता खतरनाक
और मंहगी नहीं
होती।
शायद
परमात्मा के
हाथ में सारे
जगत की सत्ता
इसीलिए मंहगी
और खतरनाक
नहीं है।
क्योंकि वह इस
भांति है, जैसे
हो ही नहीं।
परमात्मा की
मौजूदगी कहीं
पता चलती है? गैर-मौजूद
होना ही उसकी
मौजूदगी है।
अनुपस्थित
होकर ही वह
उपस्थित है।
कितनी दफे
लोगों ने
चिल्ला कर
नहीं कहा है
कि अगर हो, तो
एक दफा प्रकट
होकर बता दो!
कितनी चुनौतियां
नहीं लोगों ने
दी हैं! लेकिन
कोई चुनौती उस
तक नहीं
पहुंचती।
क्योंकि जो
चुनौती सुन
सके, वह
अस्मिता, वह
केंद्र वहां
नहीं है।
इसलिए
परमात्मा गैर-मौजूद
बना रहता है, अनुपस्थित
बना रहता है।
यह सारा विराट
उसके हाथ से
संचालित होता
रहता है, सिर्फ
इसीलिए कि
वहां कोई
संचालक नहीं
है। वहां कोई
अहंकार नहीं
है।
और
लाओत्से जैसे
लोगों की
कल्पना रही है
यह कि
मनुष्य-जाति
उसी दिन उस
व्यवस्था को
उपलब्ध हो
सकेगी जिसकी
सतत चेष्टा
रही है, वह
व्यवस्था उस
दिन फलित हो
सकती है जिस
दिन हम ऐसे
व्यक्ति के
हाथ में सत्ता
दें।
लेकिन
यहां तो और
प्रयोजनों से
भी उसने कहा
है। बड़ा
प्रयोजन उसने
यह कहा है कि
जिसके भीतर कोई
अहंकार नहीं
है,
उसे संसार
के सबसे बड़े
सिंहासन पर भी
बिठा दें, तो
अंतर नहीं
पड़ता है। वह
धूल में पड़ा
रहे तो और
सिंहासन पर
बैठ जाए तो, भीतर अंतर
नहीं पड़ता है।
अगर इस बात को
खयाल में ले
लें, तो
फिर अपने भीतर
अंतर को जरा
देखते रहना
चाहिए, कब-कब
पड़ता है। और
उसे धीरे-धीरे
जागरूक होकर पहचानते
जाना चाहिए।
एक
आदमी ने गाली
दी है और एक
आदमी ने
फूलमाला पहना
दी है। भीतर
इतनी छलांग से
टेंपरेचर
में अंतर पड़ता
है--इतनी
छलांग से--कि
जिसका कोई हिसाब
नहीं। उसे
थोड़ा देखना
चाहिए। और जिस
दिन आपको
फूलमाला और
भेंट की गई
गालियां, दोनों
एक सी मालूम
पड़ने लगें...।
लाओत्से
के
साधना-सूत्रों
में एक गुप्त
सूत्र आपको
कहता हूं, जो
उसकी किताबों
में उल्लिखित
नहीं, लेकिन
कानों-कान
लाओत्से की
परंपरा में
चलता रहा है।
वह सूत्र है
लाओत्से की
ध्यान की पद्धति
का। वह सूत्र
यह है।
लाओत्से कहता
है कि पालथी
मार कर बैठ
जाएं और भीतर
ऐसा अनुभव
करें कि एक
तराजू है, बैलेंस,
एक तराजू।
उसके दोनों पलड़े आपकी
दोनों
छातियों के पास
लटके हुए हैं
और उसका कांटा
ठीक आपकी दोनों
आंखों के बीच,
तीसरी आंख
जहां समझी
जाती है, वहां
उसका कांटा
है। तराजू की
डंडी आपके
मस्तिष्क में
है। दोनों
उसके पलड़े
आपकी दोनों
छातियों के
पास लटके हुए
हैं। और लाओत्से
कहता है, चौबीस
घंटे ध्यान
रखें कि वे
दोनों पलड़े
बराबर रहें और
कांटा सीधा
रहे।
लाओत्से
कहता है कि
अगर भीतर इस
तराजू को साध लिया, तो
सब सध जाएगा।
लेकिन
आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे। जरा
इसका प्रयोग
करेंगे, तब
आपको पता
चलेगा। जरा सी
श्वास भी ली
नहीं कि एक पलड़ा
नीचा हो जाएगा,
एक पलड़ा
ऊपर हो जाएगा।
अकेले बैठे
हैं, और एक
आदमी बाहर से
निकल गया
दरवाजे से।
उसको देख कर
ही, अभी
उसने कुछ किया
भी नहीं, एक
पलड़ा
नीचा, एक
ऊपर हो जाएगा।
लाओत्से
ने कहा है कि
भीतर चेतना को
एक संतुलन!
दोनों विपरीत
द्वंद्व एक से
हो जाएं और
कांटा बीच में
बना रहे।
लाओत्से
का शिष्य लीहत्जू
मर रहा था, मृत्युशय्या
पर पड़ा था।
लोग बहुत
इकट्ठे थे अंतिम
विदा के लिए। लीहत्जू
लाओत्से की
परंपरा के
खास-खास लोगों
में, दो-चार
लोगों में एक
है। दो ही
लोगों में! च्वांगत्से
और लीहत्जू
उसके दो बड़े
शिष्य हैं। लीहत्जू
मर रहा है।
लोग इकट्ठे
हैं। कोई सवाल
पूछता है, लीहत्जू जवाब देता
है। लेकिन बीच
में ही आंख
बंद कर लेता
है, फिर
मुस्कुराता
है, फिर
जवाब देता है।
फिर किसी ने
पूछा कि लीहत्जू,
यह वक्त कम
है, समय
थोड़ा है, मौत
करीब मालूम
पड़ती है, तुम
बीच-बीच में
आंख बंद मत
करो, तुम
हमारी पूरी
बातों का जवाब
दे दो।
लीहत्जू ने
कहा कि
तुम्हारी
बातें तो ठीक
हैं;
तुमने
जिंदगी भर ये
सवाल पूछे और
जिंदगी भर मैंने
जवाब दिए, फिर
भी तुम्हें
कुछ सुनाई
नहीं पड़ा।
मरते वक्त
मुझे मेरे
तराजू पर तो
ध्यान रखने
दो।
तो वह
बीच-बीच में
आंख बंद करके
अपना तराजू देख
लेता है कि वे
दोनों पलड़े
बराबर हैं या
नहीं। और हंस
लेता है कि
बिलकुल ठीक।
फिर वह जवाब
देने लगता है।
तो एक आदमी ने
पूछा कि इस वक्त, तुम्हारा
तराजू तो सदा
से सध गया है, अभी जांच का
कोई मौका भी
कहां है? न
कोई तुम्हें
गाली दे रहा
है, न कोई
सम्मान कर रहा
है। मौत करीब
है और हम जिज्ञासु
हैं।
लीहत्जू ने
कहा कि वही, तुम्हारे
चेहरे मेरे
पहचाने हुए
हैं। पचास साल,
साठ साल से
कोई मुझे
सुनता है। मैं
अपने तराजू को
देखता हूं कि
कोई हलचल तो
नहीं होती कि
पचास साल से
जो बहरे सुन
रहे हैं, वे
फिर पूछ रहे
हैं, उनको
मैं फिर जवाब
दे रहा हूं।
कहीं भीतर
मेरा तराजू तो
नहीं हिलता इस
बात से कि इन नासमझों
को समझाना कि
नहीं समझाना।
तराजू नहीं
हिलता है, मुझे
बड़ी हंसी आती
है। फिर मैं
तुम्हें जवाब
दे देता हूं।
लेकिन
तुम्हारी तरफ
देखता हूं, तो मुझे
खयाल आता
है--एक दफे
तराजू को फिर देखूं, वह
हिलता तो नहीं
है!
जीवन
में सुख हो या
दुख,
सम्मान या
अपमान, अंधेरा
या उजाला, भीतर
के तराजू को
साधते चला जाए
कोई, तो एक
दिन उस परम
संतुलन पर आ
जाता है, जहां
जीवन तो नहीं
होता, अस्तित्व
होता है; जहां
लहर नहीं होती,
सागर होता
है; जहां
मैं नहीं होता,
सब होता है।
इतना
ही आज। लेकिन
पांच मिनट बैठें; कीर्तन
संन्यासी
करेंगे, उनके
साथ सम्मिलित
हों।
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