सरल, तुम अंजान आए—प्रवचन—बीसवां
दिनांक:
20 नवंबर, 1978;
प्रश्न
सार:
1—भगवान, दो
नावों में
पांव, नदिया
कैसे होगी पार?
2—भगवान, ऐसे
भाव उठते हैं
कि कलम उठाती
हूं तो समझ
नहीं
पाती—कैसे
लिखूं क्या
लिखूं? भीतर
एक तूफान उठा
है! इधर आती
हूं तो एक
अनोखी मस्ती
छा जाती है।
घर पर भी वही
मस्ती छाई रहती
है। लेकिन
उससे बच्चों
को ऐसा लगता
है कि हमारे
प्रति मां थोड़ी
बेध्यान हो
रही है। और
मुझे यह खुद
को भी कभी—कभी
लगता है कि यह
बच्चों के
प्रति अन्याय
हो रहा है; मेरी
मस्ती बच्चों
के लिए विघ्न
नहीं बननी
चाहिए। यह
समझने पर भी
उनको समग्रता
से प्यार नहीं
कर पाती हूं।
इस हालत में
बड़ी बेचैनी
उठती है, तो
मैं क्या करूं?
मार्गदर्शन
करने की कृपा
करें।
3—भगवान, भटका
बहुत सत्य की
खोज में, या
सत्य के भ्रम
में।
आज
से दो महीना
पहले नैरोबी
में आपके
आश्रम आनंद
नीड़ में
प्रकाश की
किरण दिखाई दी, मैं
प्रकाश के
स्रोत के पास
चला आया।
संन्यास लेने
का भाव हुआ।
फिर सोचा :
आत्मिक
संन्यास तो हो
ही गया, अब
भौतिक—संबंध
यानी माला की
क्या
आवश्यकता?
4—परमात्मा
की तलाश है, लेकिन
प्रकृति का
आकर्षण नहीं
छोड़ पाता हूं।
क्या करूं?
5—आपके
प्रवचनों से
अंतर में सवाल
उठा है कि भगवान
क्या आप
धर्मयुद्ध की
तैयारी कर रहे
हैं? यदि यह
सच हो, तो
आपके
महाकार्य के
लिए मैं तैयार
हूं।
पहला
प्रश्न:
भगवान
दो नावों में
पांव नदिया
कैसे होगी पार?
चितरंजन!
न तो कोई नदी
है,
न कोई नाव
है, न पार
होना है, न
कोई पार होने
वाला है। सारे
भेद बुद्धि
खड़े कर लेती
है और फिर
भेदों में उलझ
जाती है। न कहीं
जाना है, न
कोई जाने वाला
है; सब
यहां है, अभी
है। तुम्हें
जहां पहुंचना
है, तुम
वहीं हो। यही
किनारा दूसरा
किनारा है। डूबने
का कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
तुम शाश्वत
हो।
भटकने
का कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
परमात्मा के
सिवाय और कुछ
भी नहीं है।
भटकोगे तो भी
उसमें ही
रहोगे। दूर भी
जाओगे, तो रत्ती—
भर, इंच— भर
दूर नहीं जा
सकते। दूर
जाओगे कहां? ज्यादा से
ज्यादा सो
सकते हो या
जाग सकते हो; बस इतना ही
भेद है। पहुंच
गये और न
पहुंचे हुओं
में इससे
ज्यादा भेद
नहीं है—एक
जाग गया, एक
सोता; दोनों
एक ही मंदिर
में हैं। जागा
हुआ भी वहीं है,
सोने वाले
के पास ही
बैठा है।
यह
पहुंचने की
धारणा अहंकार
की ही धारणा
है—मैं
पहुंचूं! और
जहां, 'मैं' खड़ा
हुआ, वहां
डर पैदा होता
है कि कहीं
राह में भटक
तो न जाऊंगा।
फिर हजार
दुविधाएं खड़ी
होती हैं। फिर
डर लगता है कि
दो—दो नावों
पर सवार हूं।
खास कर मेरे
संन्यासी को
तो डर लगेगा
ही। पुराना
संन्यास तो
एकंगा था।
संसारी संसारी
होता था और
संन्यासी
संन्यासी
होता था। साफ—सुथरा
था मामला।
मेरा
संन्यास इतना
एकंगा नहीं
है। मेरे संन्यास
में जीवन के
सारे रंग
सम्मिलित हैं, जीवन
की सारी
विविधता
सम्मिलित है।
इसमें संसार
भी है और
संन्यास भी
है। इसलिए
प्रश्न
चितरंजन ठीक
है.
'दो नावों
में पांव
नदिया कैसे
होगी पार।'
अगर
नदिया होती, तो
मैं भी तुमसे
न कहता कि दो
नावों में
पांव रखो।
नदिया है
नहीं। कहीं
जाना नहीं है।
तुम जहां हो
वहीं जाग जाना
है, जैसे
हो वैसे ही
जाग जाना है।
तुम जैसे हो
वैसे ही
परमात्मा में
हो, वैसे
ही परमात्मा
हो।
लेकिन
मन का गणित और
है। मन का
गणित हमेशा
आकांक्षा में
जीता है। मन
यानी
आकांक्षा : धन
मिले, पद मिले,
प्रतिष्ठा
मिले। फिर अगर
इससे छूट जाता
है तो मन कहता
है. मोक्ष
मिले, वैकुण्ठ
मिले, निर्वाण
मिले! मगर मन
जीता है किसी
चीज के मिलने
में। क्योंकि
अगर कुछ मिलने
की बात भविष्य
में हो तो मन
को फैलने की
सुविधा है।
फिर उपाय खोजो,
ठीक उपाय
खोजो। ठीक
विधियां
तलाशो। सपने
देखो।
योजनायें
बनाओ। कल जब
घड़ी घट जायेगी
सौभाग्य की, तो आनंदित
होंगे। और आज?
दुख भोगो।
और आज? सडो।
आज किसी तरह
टालो, कल
होगा सूरज का
उदय।
मन
तुम्हें आज से
नहीं मिलने
देता, और आज
परमात्मा
मौजूद है—अभी,
यहीं, इसी
क्षण! इससे न
तो कभी कम
होगा
परमात्मा मौजूद
और न इससे कभी
ज्यादा होगा
मौजूद। इतना
का इतना है, सदा से इतना
है। और जागना
चाहो तो अभी
जाग जाओ। और
अगर आज टालोगे,
तो क्या भरोसा
कि कल भी नहीं
टालोगे?
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं
फिक्र ही छोड़ो
चितरंजन! न तो
नदी है, न दो
नाव हैं; न
कोई पार होने
वाला है, न
कहीं जाना है।
वही है, एक
है। वही है
नदी, वही
है नाव, वही
है यात्री; वही है
मांझी। उसके
अतिरिक्त कोई
भी नहीं है।
इसलिए
ज्ञानियो ने
इस जगत को
सपने की भांति
कहा है। सपने
की भांति का
अर्थ होता है, यदि
तुम अपने सपने
का विश्लेषण
करोगे तो तुम्हें
यह बात समझ
में आ सकेगी।
सपने में
तुम्हीं तो
देखने वाले
होते हो और
तुम्हीं
दिखाई पड़ने
वाले होते हो,
कोई और तो
होता नहीं।
तुम्हीं दुख
भोगते हो, तुम्हीं
सुख भोगते हो,
तुम्हीं
दुख देते हो
तुम्हीं सुख
देते हो। सारा
नाटक
तुम्हारा है।
अभिनेता भी
तुम हो, दिग्दर्शक
भी तुम, दर्शक
भी तुम, मंच
भी तुम, कथा
लेखक भी तुम, गीतकार भी
तुम, संगीतज्ञ
भी तुम—सारा
नाटक
तुम्हारा है।
और जिस क्षण
जागोगे उस
क्षण पाओगे कि
सब खो गया, एक
ही बचा; एक
चैतन्य बच
रहता है। वही
चैतन्य सोने
में भी है, लेकिन
बहुत खंडों
में विभाजित
हो कर नाटक कर
रहा है। इसलिए
जगत माया है, जगत स्वप्न
है।
किस
नाव की बात
करते हो
चितरंजन? सब
सपने हैं! किस
नदी की बात
करते हो? सब
सपने हैं! और
जिसको तुम सोच
रहे हो कि
तुम्हारे
भीतर बैठा है
और पार ले
जाना है इसे, वह भी
तुम्हारा
सपना है।
क्योंकि जो
असली में है
वह तो पार ही
है; वह तो
सदा से पार
है। तुम्हारी
आत्यंतिक
अवस्था सदा ही
सिद्ध की है।
तुम सदा बुद्ध
हो। यही उदघोषणा
समझ में आ
जाये, तो
सब जाल कट
जाते हैं।
मैं
तुम्हें कुछ
करने को नहीं
कह रहा
हूं—सिर्फ समझने
को कह रहा
हूं। करने की
बात ही नहीं
है। और समझ
में आ जाये तो
बड़ी सरलता से
बात हो जाती
है। जब करने
की बात ही
नहीं, तो कठिन
तो हो नहीं
सकती। भावना!
सरल!
तुम अनजान आए।
भावना
में कल्पना से
वेदना
में साधना से
मधुर
स्मृति की
पुलक से
हृदय
में छिप
मुस्कुराए।
सरल!
तुम अनजान आए।
विरह
का वरदान लेकर
विकल
उर का गान
लेकर
आंख
मुझसे ही चुरा
कर
मौन
आंखों में
समाए।
सरल!
तुम अनजान आए।
मैं
न था पहचान
पाया
किंतु
जीवन— धन
बनाया
मान
कर सर्वस्व
तुमको
हैं
तुम्हारे गान
गाए।
सरल!
तुम अनजान आए।
प्रेम
की ज्वाला
जलाई
ज्योति
जीवन में जगाई
स्वप्न
के संसार से
मैं—
दूर
था,
तुम पास
लाए।
सरल!
तुम अनजान आए।
परमात्मा
बड़ी सरल घटना
है और चुपचाप
घट जाती है; पगध्वनि
भी सुनाई नहीं
पड़ती। जरा
शोरगुल नहीं
होता, मौन
सन्नाटे में
घट जाती है।
जरा आंख खोलो।
कुछ करने को
नहीं है। कुछ
करने की कभी कोई
जरूरत नहीं
थी। तुम वही
हो—तत्वमसि!
इस
जगत के जो
सर्वाधिक
अमृतमय वचन
हैं,
उनमें सबसे
ऊंची कोटि पर
रखा जा सके—तो
यह उदघोषणा
करनेवाला वचन
है. तत्वमसि!
तुम वही हो! तुम
जरा भी अन्यथा
नहीं हो। इसे
ही दूसरे ढंग
से कहा है : अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं! मुझ में
और ब्रह्म में
जरा भी भेद
नहीं है।
और
खयाल रखना, जरा
भी भेद नहीं
है। भेद हो ही
नहीं सकता।
हालांकि
तुम्हें भेद
दिखाई पड़ रहा
है। आभास—मात्र
है। जैसे
रस्सी में
सांप दिख गया
हो सांझ के धुंधलके
में। दीया जला
लिया, रस्सी
रस्सी हो गयी।
फिर तुम यह भी
नहीं पूछते कि
सांप कहां गया,
क्योंकि
तुम जानते हो
सांप था ही
नहीं। जो जागे
हैं, उन्होंने
पाया है कि
संसार था ही
नहीं, परमात्मा
ही था। इसलिए
तुमसे मैं
कहता हूं : कहीं
भागो मत, यहीं
जागो। और यहीं
जागने को कहता
हूं इससे अड़चन
शुरू होती है।
इससे लगता है
कि 'दो
नांव में पांव
नदिया कैसे
होगी पार!'
यह
तुम्हारे
गणित को
अस्तव्यस्त
कर जाती है बात।
क्योंकि मैं
कहता हूं :
दुकान पर ही, बाजार
में ही
संन्यस्त हो
जाओ; जैसे
हो वहीं
संन्यस्त हो
जाओ। क्योंकि
संन्यास मेरे
हिसाब में
जीवन की शैली
नहीं है,
संन्यास
जागने का
दूसरा नाम है।
पुराना संन्यास
जीवन की एक
शैली थी, एक
आचरण की
विधि—व्यवस्था
थी—संसार से
विपरीत।
संसारी ऐसा
करता है तो
संन्यासी
वैसा नहीं करेगा।
संसारी धन
कमाता है, संन्यासी
धन नहीं
कमायेगा।
संसारी मकान
बनाता है, संन्यासी
मकान नहीं
बनायेगा—अगृही
होगा। संसारी
एक जगह रहता
है, संन्यासी
परिव्राजक
होगा। जो—जो
संसारी करता
है उससे
विपरीत
संन्यासी
करेगा।
खयाल
रखना, वह
संन्यास जो
पुराना था, संसार की
प्रतिक्रिया
थी। उसका
निर्णय संसार
से ही हो रहा
था—संसार के
विपरीत।
संसारी सीधा
खड़ा है तो
संन्यासी सिर
के बल खड़ा हो
जायेगा। मगर
वह संन्यास
संसार से बहुत
भिन्न न था।
वह भी चित्त
का एक आरोपण
था, एक
व्यवस्था थी,
एक आचरण था।
मैं
संन्यास का जो
रूप तुम्हें
दे रहा हूं वह आचरण
का नहीं है, बोध
का है।
तुम्हारी
जीवन—शैली
नहीं बदलनी है।
तुम अगर सोये
रहे और तुमने
करवट बायें से
दायें बदल ली,
तो भी क्या
होगा? जीवन—शैली
बदल गयी, मुख
बायें था अब
दायें हो गया,
लेकिन तुम
सोये अब भी
हो। और
निश्चित ही
बायें सोये थे,
एक तरह का
सपना देखते थे,
दायें
सोओगे, दूसरी
तरह का सपना
देखोगे।
क्योंकि जब
तुम बायें से
दायें बदल
लेते हो, तो
तुम्हारे
मस्तिष्क में
खून की धाराएं
बदल जाती हैं।
तुम्हारे
भीतर दो
मस्तिष्क
हैं। बायां
मस्तिष्क अलग
है,
दायां
मस्तिष्क अलग
है। अब तो
वैज्ञानिकों
से तुम इसकी
पूछ—ताछ कर ले
सकते हो। जब
तुम एक करवट
होते हो, तो
एक मस्तिष्क
काम करता है।
जब तुम दूसरी
करवट होते हो,
दूसरा
मस्तिष्क काम
करता है।
दोनों के सपने
अलग— अलग
होंगे। जब
तुम्हारी एक
नाक से श्वास
चलती है, तो
एक मस्तिष्क
काम करता है।
और जब दूसरी
नाक से श्वास
चलने लगती है
तो दूसरा
मस्तिष्क काम करने
लगता है।
इसलिए
तुम्हारे
भीतर विचारों के
बड़े, भावों
के रूपांतरण
होते रहते
हैं। जरा देर
में तुम
प्रसन्न दिखाई
पड़ते हो, जरा
में क्रुद्ध
हो जाते हो; तुम्हारे
मस्तिष्क बदल
रहे हैं।
हर
चालीस मिनट के
करीब जब
तुम्हारी
श्वास बदलती
है,
एक नासापुट
से दूसरे
नासापुट में,
तब जरा खयाल
करना, तुम्हारी
भाव—दशा भी
बदल जाती है।
यह चौबीस घंटे
होता रहता है।
रात भी तुम
करवट बदलते हो,
बस भाव—दशा
बदल जाती है।
तो
पुराना
संन्यास तो
करवट बदलने
जैसा था। नींद
तो जारी रहती
है,
सपना बदल
जाता था।
स्वभावत: जो
आदमी बाजार
में बैठेगा, दुकान करेगा,
व्यवसाय
करेगा, एक
तरह का सपना
देखेगा, और
जो हिमालय पर
चला जायेगा और
गंगोत्री के
पास किसी गुफा
में बैठ रहेगा,
वह दूसरी
तरह का सपना
देखेगा। मगर
दोनों सोये हुए
हैं।
मैं
संन्यास को एक
नया अर्थ दे
रहा हूं। करवट
बदलने वाला
नहीं। नींद
तोड़ो, आंख
खोलो। आंख
खुलते ही, तुम
जहां हो वहीं
परमात्मा हो।
न कोई नदी है, न कोई नाव है,
न चितरंजन
डूबने का कोई
डर। तुम दो
क्या हजार नावों
पर सवार हो
जाओ, जरा
भी चिंता न
लो। क्योंकि
तुम्हारे
भीतर जो है, वह डूब ही
नहीं सकता। वह
अमृत है। उसकी
कोई मृत्यु
नहीं। और तुम
जितनी नावों
पर सवार हो
जाओगे, उतना
ही तुम्हारे
जीवन में
वैविध्य होगा;
उतना ही
तुम्हारा
जीवन—संगीत
सघन होगा, समृद्ध
होगा।
ऐसा
ही समझो कि
कोई आदमी
सिर्फ
बांसुरी बजा
रहा है, तो
इसमें एक
वाद्य है। फिर
दूसरा आदमी
बांसुरी के
साथ—साथ तबला
भी बजवा रहा
है, तो
थोड़ा वैविध्य
हुआ। फिर कोई
साथ में वीणा
को भी छेड़ रहा
है, तो और
वैविध्य हो
गया। फिर पूरा
आर्केस्ट्रा
है, पचास
संगीतज्ञ एक
साथ एक संगीत
को जन्म दे
रहे हैं, तो
स्वभावत: उसकी
समृद्धि बढ़ती
जाती है, गहन
होती जाती है।
पुराना
संन्यास एक
रंग का था।
उसमें
इंद्रधनुष के
सारे रंग नहीं
थे! और इसलिए
पुराना संन्यासी
उदास दिखाई
पड़ता था। नाच
नहीं सकता था।
नाचने के लिए
मोर—मुकुट
उसके पास थे
ही नहीं, बांसुरी
भी उसके पास
नहीं थी। उसके
जीवन से गीत
भी पैदा नहीं
होता था। एक
गहन उदासी थी।
ऊब!
मैं
चाहता हूं कि
तुम्हारा
जीवन समृद्ध
हो। उसमें
सारे स्वर
हों। पूरा
सरगम हो
तुम्हारा जीवन; उसमें
सातों स्वरों
का समावेश हो।
और तुम्हारे
जीवन में एक
संगीत हो, जो
समृद्ध है। और
तुम्हारा
जीवन ऐसा हो
जिसमें संसार
को छोड़ा नहीं
गया है, आत्मसात
किया गया है।
निश्चित
ही,
मैं
तुम्हें एक
बड़ी चुनौती दे
रहा हूं। और
मन इतने बड़े
विस्तार को
लेने को तैयार
नहीं होता।
क्योंकि इतने
बड़े विस्तार
में मन की
मृत्यु हो
जाती है। अब
सागर अगर बूंद
पर गिर जायेगा,
तो बूंद मर
ही जायेगी न!
और मैं यही कह
रहा हूं कि
पूरे सागर को
उतर आने दो।
और पूरा सागर
तुम में उतरने
को राजी है।
जो मिटना है, मिट जाने
दो। जो डूबना
हो, डूब
जाने दो, क्योंकि
जानना. वह तुम नहीं
हो जो डूब गया;
जो मिट गया
वह तुम नहीं
हो। जो नहीं
डूब सकता वही
तुम हो, जो
नहीं मिट सकता
वही तुम हो।
इसीलिए
तो गोरख
पुकार—पुकार
कर कह रहे हैं :
मरी हे जोगी
मरौ। क्यों? मृत्यु
का ऐसा आग्रह
क्यों? इसलिए
कि गोरख जानते
हैं कि जो
मरेगा, वह
तुम नहीं हो।
मर—मर कर भी जो
नहीं मरेगा, वही तुम हो।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा!
मृत्यु
कैसे मीठी हो
सकती है? इसीलिए
मीठी हो सकती
है कि जो मर
जायेगा, समझ
लेना वह तुम
थे ही नहीं, भ्रांति थी।
सिर्फ नींद ही
मरेगी और नींद
में देखे गये
सपने मरेंगे।
नींद का जो
साक्षी था, वह नहीं
मरेगा। वह
जागरण में भी
उतना ही रहेगा,
जितना नींद
में था।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरख
दीठा
गोरख
कहते हैं : मैं
मरा और मैंने
देखा, मर कर
देखा। क्या
देखा मर कर? मर कर अमृत
देखा। मर कर
शाश्वत देखा।
समय में मर
गया, शाश्वत
में जन्म हुआ।
रूप—रंग, नाम—
धाम, पता—ठिकाना
सारे
तादात्म्य मर
गये, तो
उसका पता चला
जो मैं
वस्तुत: था, जो सदा से था,
जिसका न कभी
जन्म होता है
और न कभी
मृत्यु होती
है!
दूसरा
प्रश्न :
ऐसे
भाव उठते हैं
कि कलम उठाती
हूं तो समझ
नहीं पाती—
कैसे लिखूं
क्या लिखूं? भीतर
एक तूफान उठा
है। इधर आती
हूं तो एक
अनोखी मस्ती
छा जाती है घर
पर भी वही
मस्ती छायी
रहती है लेकिन
उससे बच्चों
को ऐसा लगता
है कि हमारे
प्रति मां
थोड़ी बेध्यान हो
रही है। और
मुझे यह खुद
को भी कभी— कभी
लगता है कि यह
बच्चों के
प्रति अन्याय
हो रहा है; मेरी
मस्ती बच्चों
के लिए विघ्य
नहीं बननी
चाहिए? यह
समझने पर भी
उनको समग्रता
से प्यार नहीं
कर पाती हूं।
इस हालत में
बड़ी बेचैनी
उठती है तो मैं
क्या करूं? मार्गदर्शन
करने की कृपा
करें।
वीणा!
मस्ती से
बच्चों की कभी
कोई हानि नहीं
हो सकती।
बच्चों की भी
भ्रांति है और
तेरी भी भ्रांति
है। गैर—मस्ती
से हानि होती
है। मस्ती से
तो बच्चे भी
धीरे— धीरे
मस्त होना सीख
जायेंगे। तू
मस्त रहेगी, गायेगी,
गुनगुनायेगी,
नाचेगी..
कैसे इससे
हानि होगी?
ही, लेकिन
मैं तेरा
प्रश्न समझा,
तेरे
बच्चों का भाव
भी समझा। तू
जितना ध्यान बच्चों
को देती रही
होगी, उतना
अब नहीं दे
पायेगी। और
बच्चों के
अहंकार को चोट
लगती है।
बच्चे ध्यान
मांगते हैं।
ध्यान
की मांग
अहंकार की
मांग है। इसे
समझ लेना।
ध्यान की मांग
अहंकार की बड़ी
अनिवार्य जरूरत
है। इसके बिना
अहंकार जी ही
नहीं सकता; यह
अहंकार का
भोजन है।
इसलिए
तुम्हें अगर
बहुत लोग
तुम्हारे प्रति
ध्यान दें, तो
अच्छा लगता
है। तुम आओ और
कोई ध्यान ही
न दे, तुम
आओ और चले जाओ,
कोई जयराम
जी भी न करे; राह से
गुजरो और कोई
देखे भी न
तुम्हारी तरफ,
आदमी तो
आदमी, कुत्ते
भी न भौंके—तो
तुम बड़े उदास
हो जाओगे। तुम
बड़े हताश हो
जाओगे कि हुआ
क्या है! कुछ
तो हो!
इसलिए
तो लोग कहते
हैं कि अगर
नाम न हो तो
कोई हर्ज नहीं, बदनामी
हो जाये, मगर
कुछ तो हो!
बदनामी होगी
तो होगी, कुछ
नाम तो होगा।
लोग चर्चा तो
करेंगे। लोग
चाहते हैं
चर्चित हों, ध्यान दिया
जाये। इसलिए
तो राजनीति की
इतनी पकड़ है
दुनिया में।
राजनीति
का इतना बल क्या
है,
आकर्षण
क्या है? राजनीतिज्ञ
को मिल क्या
जाता है? हजारों—लाखों
लोगों का
ध्यान मिल
जाता है। उससे
अहंकार की
तृप्ति होती
है। इतने लोग
मेरी तरफ देख
रहे हैं.. मैं
प्रधानमंत्री,
मैं
राष्ट्रपति, इतने लोग
मेरी तरफ देख
रहे हैं! मैं
कुछ खास!
छोटे
बच्चों में ही
यह यात्रा
शुरू हो जाती
है। तुमने
देखा होगा, घर
में मेहमान
आये और बच्चों
को तुम कह दो
कि जरा शांत
रहना, घर
में मेहमान आ
रहे हैं—जो
बच्चे अभी
शांत ही थे, वे भी अशांत
हो जाते हैं।
मेहमान आये
नहीं कि बच्चों
ने उपद्रव
शुरू किये
नहीं। कोई आकर
खड़ा हो जायेगा
और कहेगा मुझे
भूख लगी है।
कोई कहेगा
मुझे प्यास लगी
है। बच्चे
लड़ने लगेंगे।
वे मेहमानों
का ध्यान
आकर्षित कर
रहे हैं। वे
यह कह रहे हैं.
सारा ध्यान
तुम्हीं लिये
ले रहे हो, हम
भी हैं यहां!
वे घोषणा कर
रहे हैं अपने
होने की। वे
यह कह रहे हैं
कि ऐसा न समझा
जाये कि हम
नहीं हैं। वे
पैर पटक—पटक
कर घोषणा
करेंगे। वे
सामान तोड़
देंगे, आवाज
करेंगे, चीजें
गिरायेगे, लड़ेंगे,
झगड़ेंगे।
राजनीति शुरू
हो गयी! यही तो
लोग हैं जो कल
मोरारजी
देसाई
बनेंगे...
इत्यादि, इत्यादि।
ये यही लोग
हैं। यहीं से
राजनीति शुरू
हो गयी। बच्चे
ने एक मांग शुरू
कर दी कि मेरी
तरफ ध्यान दो।
और
बच्चा यह
जानता है कि
जब घर में
मेहमान आ गये
हैं तो ध्यान
जल्दी मिलेगा.
क्योंकि
मेहमान क्या
कहेंगे? तो
मां घबडाती
है—जो खिलौना
चाहिए खिलौना
ले लो, पैसा
ले लो, बाहर
चले जाओ, कुल्फी
खरीदो, घूम—फिर
आओ—अभी जो भी
मांग की
जायेगी, वह
भरी जायेगी, क्योंकि
मेहमान जो
मौजूद हैं।
अभी मेहमानों के
सामने मां
इतना उपद्रव
बर्दाश्त
नहीं कर सकेगी;
किसी तरह
खुशामद करेगी
बच्चों की।
मेहमानों के
चले जाने पर
तो बच्चे
भलीभांति
जानते हैं कि
पिटाई हो
जायेगी।
बच्चों
को लेकर तुम
बाजार चले जाओ, वे
सड़क पर अड़ कर
खड़े हो
जायेंगे, जो
घर में कभी
नहीं अड़े
थे—कि यह तो
खरीदना ही है।
वे जानते हैं
कि अब यह
बाजार है, भीड़
है। यहां मां
के अहंकार को
या पिता के
अहंकार को वे
दाव पर लगा
रहे हैं। वे
यह कह रहे हैं कि
अब तुम्हें भी
अपना अहंकार
बचाना हो तो
खरीद ही लो, नहीं तो लोग
क्या कहेंगे?
इतने लोग
ध्यान दे रहे
हैं! तुम
बच्चे को दुकान
पर ले जाओ, दुकानदार
तुमसे भी
ज्यादा ध्यान
बच्चे को देता
है। क्योंकि
बच्चा अगर
लेने को राजी
हो गया, तो
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
दांव पर है।
तुम भी अपना
अहंकार बचाने
में लगे हो; बच्चा भी
अपना अहंकार बचाने
में लगा है।
छोटे—छोटे
बच्चों के
भीतर भी वही
रोग पैदा हो जाता
है,
जो बड़े होकर
बड़ा भयंकर रूप
लेगा।
तो
स्वभावत: वीणा, अगर
तू मस्त रहेगी,
नाचेगी, गायेगी,
गुनगुनायेगी,
तो बच्चों
को ऐसा लगेगा
कि उन पर
ध्यान नहीं दिया
जा रहा है।
लेकिन इससे
हानि नहीं हो
रही, लाभ
हो रहा है।
तेरे बच्चे
राजनीतिज्ञ
नहीं बनेंगे।
उनके अहंकार
की तृप्ति
उनका हित नहीं
है। अहंकार की
तृप्ति ऐसी ही
है जैसे कोई
खाज को
खुजलाये। खाज
को खुजलाने
में पहले तो
तृप्ति मालूम
होती है। नहीं
तो कोई
खुजलाये ही
क्यों? बड़ी
मिठास लगती है
खुजलाने में,
बड़ा मीठा—मीठा
रस आता है।
लेकिन फिर
पीड़ा होती है।
फिर लहू निकल
आता है। फिर
चमड़ी छिल गयी।
अब दर्द होता
है। हर बार
तुमने
खुजलाया है
खाज को, हर
बार दर्द पाया
है। फिर भी जब
खाज होगी, फिर
खुजलाने का मन
होगा।
अहंकार
खाज जैसा है।
उसको खुजलाने
से पहले तो मिठास
मिलती है, पीछे
बहुत कष्ट
होता है।
इसलिए तेरे
बच्चों को अभी
शुरू—शुरू में
तो कष्ट होगा
तेरी मस्ती से,
क्योंकि
उनकी तरफ
ध्यान कम हो
जायेगा, लेकिन
अंततः हानि
नहीं होगी।
जरा भी सोचना
मत कि अन्याय
हो रहा है।
न्याय हो रहा
है। धीरे— धीरे
बच्चे भी
देखेंगे कि
तुझे कुछ मिल गया
है। धीरे—
धीरे उन्हें
भी समझ में
आयेगा। और
बच्चों की समझ
बहुत साफ होती
है, क्योंकि
निर्दोष होती
है। अभी आंखों
पर पर्दे नहीं
होते। अभी
सिद्धातों का
जाल नहीं होता।
अभी
शास्त्रों की
गर्द नहीं
होती। अभी
बच्चों का
परिप्रेक्ष्य
बिलकुल शुद्ध
होता है। अभी
उनकी आंख
सीधा—सीधा
देखती है; अभी
वे इरछे—तिरछे
नहीं जाते।
जल्दी ही वे
देख लेंगे कि
मां को —कुछ
हुआ है। और वे
यह भी देख लेंगे
कि मां पहले
से ज्यादा
मस्त है, आनंदित
है, रसमुग्ध
है। वे भी
आतुर होंगे।
वे भी इसी की तलाश
से भरेंगे।
अगर
मां या पिता
ध्यान करते
हों,
मस्त होते
हों, तो
बच्चे कितने
दिन तक ध्यान
से दूर रह
सकते हैं!
ज्यादा देर
नहीं! क्योंकि
बच्चे अंततः
मां—बाप के
पीछे ही चलते
हैं। तुम गलत
हो तो बच्चे गलत
हो जाते हैं।
क्योंकि
किससे सीखें
और? तुम से
ही सीखते हैं।
अगर तुम
आनंदित हो तो
बच्चे भी
आनंदित होना
सीखेंगे।
शायद
शुरू—शुरू में
अड़चन होगी, क्योंकि
पुरानी आदत बन
गयी होगी
उनकी। तू अब तक
उनकी काफी
खुशामद करती
रही होगी। जरा
उन्होंने 'मैं—तू
किया और तू उन
पर ध्यान देती
रही होगी। अब
तेरा ध्यान
कहीं और बह
रहा है। अब
बच्चों पर
तेरा उतना
ध्यान नहीं
होगा। तो
पुरानी आदत के
कारण उन्हें
अड़चन होगी, मगर यह
सिर्फ आदत के
कारण अड़चन हो
रही है। इसकी
चिंता मत
लेना। इसके
कारण अपनी
मस्ती में खलल
मत डालना।
तेरी मस्ती से
उन्हें जितना
लाभ होगा, तेरे
ध्यान देने से
उतना नहीं
होने वाला है।
क्योंकि
मस्ती उनके
लिए अमृत हो
जायेगी!
अगर
बच्चा अपने
मां और पिता
की मस्ती की
प्रतिमा अपने
भीतर रख सके
तो आज नहीं कल
वह भी मस्त
होगा। उसके
पीछे वह
प्रतिमा
घूमती रहेगी, उसका
पीछा करेगी।
उसे लगता
रहेगा कि जब
तक ऐसी मस्ती
मुझे न मिल
जाए, तब तक
कुछ कमी है, जिंदगी में
कुछ चूका हुआ
है; मेरी
मां तो मस्त
थी! अभी
बच्चों को यह
पता ही नहीं
चलता कि उनकी
जिंदगी में
कुछ चूक रहा
है। क्योंकि
उनकी मां भी ऐसी
ही परेशान थी,
उनके पिता
भी ऐसे ही
परेशान थे।
उनकी मां भी लड़
रही थी, उनके
पिता भी लड़
रहे थे; घर
में कलह ही
कलह थी। वे भी
लड़ेंगे। हर
लड़की अपनी मां
को दोहरायेगी,
हर बेटा
अपने बाप को
दोहरायेगा।
और जब वे
लड़ेंगे, तुम
जरा चौंक कर
देखना।
कभी
तुम अपने बड़े
हो गये बच्चों
के झगड़े देखना, पति—पत्नी
के झगड़े
देखना। तुम
चकित होओगे, वे ठीक
तुम्हारे
रिकार्ड
हैं—हिज
मास्टर्स वायस!
वे वही दोहरा
रहे हैं जो
तुमने किया
था। और बड़े
ढंग से दोहरा
रहे
हैं—अक्षर—अक्षर...।
रंग—ढंग चेहरे
का भी वही हो
जाता है उनका,
जब झगड़ते
हैं। और वही
तुम्हारा
बेटा करेगा अपनी
पत्नी के साथ,
जो
तुम्हारा पति
तुम्हारे साथ
कर रहा है
वीणा! तुम जो
अपने बेटे के
साथ कर रही हो,
जो तुम अपनी
बेटी के साथ
कर रही हो, वही
दोहराया जायेगा।
क्योंकि उनके
पास और कोई
प्रतिमान कहा?
हर लड़की
अपनी मां को
दोहराती
रहेगी। इसलिए
दुनिया
विकसित नहीं
हो पाती।
विकास कैसे हो?
पुनरुक्ति
होती है। हाव—
भाव सब वही
दोहराये जाते
हैं।
और
तुम्हारे
बच्चों को कभी
पता नहीं
चलेगा कि उनके
जीवन में कुछ
खोया है, क्योंकि
उनके पास कोई
और मापदंड
नहीं है जिससे
वे तौलें। वे
देखेंगे इसी
तरह हमारी मां
थी परेशान, उसी तरह हम
परेशान हैं।
इसी तरह हमारी
मां लड़ रही थी,
उसी तरह हम
लड़ रहे हैं।
इसी तरह हमारी
मां कर रही थी,
उसी तरह हम
कर रहे हैं।
उन्हें पता
नहीं चल सकता
कि जीवन में
कुछ खोया है!
उन्होंने
जाना ही नहीं
कोई मस्त आह्लादित
जीवन।
उन्होंने कोई
झलक ही नहीं
देखी, जब
फूल खिले हों।
उन्होंने
काटे ही जाने
हैं। कांटे ही
उनको चुभ रहे
हैं। यही
भाग्य है, ऐसा
मान कर वे जी
लेंगे।
वीणा, तेरे
बच्चे
सौभाग्यशाली
हैं। सबके
बच्चे इतने सौभाग्यशाली
होने चाहिए.
कि उनके
माता—पिता के
जीवन में धन, पद, परिवार
से ज्यादा कुछ
हो। उनके
माता—पिता के
जीवन में
परमात्मा की
थोड़ी—सी झलक
हो। बूंद ही सही!
वही झलक उनको
पकड ले, तो
वे तृप्त न हो
सकेंगे
साधारण जीवन
से। फिर उन्हें
कितना ही धन
मिल जाये और
कितना ही पद
मिल जाये, उनके
पीछे कोई
कचोटता ही
रहेगा कि अभी
वह बूंद नहीं
मिली जो मेरी
मां की आंखों
थी, अभी वह
मस्ती मुझे
नहीं मिली।
पाना है उसे।
पाना ही होगा,
नहीं तो
जीवन अकारथ
गया। नहीं तो
जीवन में कोई
अर्थ नहीं है।
वह काव्य मुझे
मालूम नहीं हो
रहा है, तो
जरूर कहीं कोई
कमी रह गयी
है। कोई तलाश
करनी है, कोई
खोज करनी है।
और
अगर जैसी वीणा, तेरे
और तेरे पति
के बीच एक
रसधार
निर्मित हो रही
है, यह भी
तेरे बच्चे
देख सकें तो
वे भी इस
रसधार को अपने
जीवन में
दोहरायेगे, अपने
संबंधों में
दोहरायेगे।
इसलिए भी मैं
कहता हूं : कोई
संन्यासी घर
छोड़ कर न
जाये। बच्चे
देखें संन्यासियों
को। बच्चे
देखें
संन्यासियों
को—मा की तरह, पिता कर
तरह। बच्चे
देखें
संन्यासियों
कों—सब तरह के
संबंधों में,
ताकि उनके
पास कुछ तो
कसौटी हो जाये
जिस पर वे अपने
जीवन को कसते
रहें। और अगर
जीवन में कमी हो,
तो उसे पूरा
करने का
प्रयास करते
रहें।
तेरा
भाव मैं समझा
वीणा। तुझे
लगता होगा
अन्याय हो रहा
है,
क्योंकि
बच्चे जोर—शोर
कर रहे होंगे
इस बात पर कि
हमारे साथ
अन्याय हो रहा
है, हम पर
उतना ध्यान
नहीं दिया जा
रहा है। जैसी
तू फिक्र करती
थी कल तक
उनकी—कि सब
बटन ठीक से लगे
कि नहीं, और
बिस्तर पर कोई
सलवट तो नहीं
है रात, बच्चे
के कपड़े सब
साफ—सुथरे हैं
या नहीं, उसकी
किताबें तो
नहीं फट गयी
हैं, घर
बैठ कर उसने
स्कूल से लाया
हुआ काम पूरा
किया है या
नहीं किया
है—इस सब पर
तेरा ध्यान कम
होता जायेगा।
तो बच्चों को
लगेगा कि उनके
अहंकार की
तृप्ति नहीं
हो रही। इससे
पीड़ा होगी। वे
शिकायत भी
करेंगे। वे
तेरे खिलाफ
मोर्चा भी खड़ा
करेंगे। वे सब
संगठित हो
जायेंगे, इकट्ठे
हो जायेंगे।
वे सब कहेंगे,
हमारे साथ
अन्याय हो रहा
है।
मगर
मैं तुझसे
कहता हूं कि
अगर तेरी
मस्ती बरसती
रही तो अन्याय
नहीं हो रहा
है,
न्याय हो
रहा है। जल्दी
ही वे समझ
लेंगे कि उतने
ध्यान की कोई
आवश्यकता न
थी। सच तो यह
है, मां—बाप
जरूरत से
ज्यादा ध्यान
दे रहे हैं।
उस ध्यान से
नुकसान हो रहा
है, लाभ
नहीं हो रहा
है। इस सदी के
बच्चे जितने
बिगडे हुए हैं,
दुनिया में
बच्चे इतने
बिगड़े हुए कभी
भी नहीं थे।
और कारण? इस
सदी के
मां—बाप जितनी
चिंता कर रहे
हैं बच्चों की,
उतनी
उन्होंने कभी
भी नहीं की थी;
फुर्सत भी
नहीं थी, समय
भी नहीं था।
जिंदगी का
संघर्ष इतना
था! सुबह पांच
बजे उठ कर चला
जायेगा किसान
खेत पर काम
करने; सांझ
होते—होते
लौटेगा। कहां
फुर्सत थी, कहां समय था
कि बच्चों के
साथ बैठे, कि
रेडियो सुने
कि टेलीविजन
देखे, कि
बच्चों को
फिल्म ले
जाये। कहां
सुविधा थी, कहां समय था?
रोटी—रोजी
पूरी नहीं हो
रही थी। बच्चे
जल्दी ही
प्रौढ़ हो जाते
थे।
यह
तुमने खयाल
किया, अभी भी
गांवों के
बच्चे जल्दी
प्रौढ़ हो जाते
हैं। क्योंकि
छोटी—सी बच्ची
चली पिता का
भोजन लेकर खेत
की तरफ। उतनी
छोटी बच्ची
शहर की किसी
काम की नहीं।
उस पर तुम कोई
भरोसा नहीं कर
सकते। वह अपना
ही भोजन ठीक
से कर ले, वही
मुश्किल
मालूम होता है;
पिता का
भोजन क्या खाक
ले जायेगी!
गाव की छोटी बच्ची
घर का भोजन
बनाने लगती
है। अभी
तुम्हारी
बच्ची को भोजन
करना भी नहीं
आता। उस को
टेबिल पर उसके
सामने बैठ कर
मां को उसको
भोजन करवाना
पड़ता है।
तुम
जरा फर्क देखो, जितना
छोटा गांव
होगा, उसके
बच्चे उतने ही
जल्दी प्रौढ़
हो जाते हैं। चले
गाय को चराने,
बैल को
चराने, दूध
लगाने, लकड़ी
बीनने..
जिंदगी शुरू
हो गयी। सच तो
यह है, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जिस तरह के
बच्चे हम अभी
देख रहे हैं, यह केवल दो
सौ साल की उपज
है। दो सौ साल
के पहले इस
तरह के बच्चे
थे ही नहीं
दुनिया में।
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि जिसको हम
अब कहते हैं किशोरावस्था,
वह होती ही
नहीं थी पहले।
क्योंकि सात—
आठ साल का
बच्चा तो काम
में लगू जाता।
अब बच्चा जब
पच्चीस साल का
हो जाता है तब
काम में लगता
है। और तब भी
लग जाये तो
सौभाग्य!
क्योंकि एक तो
पच्चीस साल
बिना काम करने
की आदत।
पच्चीस साल
मुफ्तखोरी
करने की आदत।
पच्चीस साल तक
मां—बाप के
ऊपर निर्भर
रहने की आदत।
कोई छोटा समय
नहीं है, लंबा
समय है पच्चीस
साल! अगर
पचहत्तर साल
जीयेगा तो एक
तिहाई जिंदगी
हो गयी। एक
तिहाई जिंदगी
तो आदत हो गयी
निर्भर रहने
की। अब अचानक
काम और
जिम्मेवारी!
आज
अमरीका में जो
बच्चे हिप्पी
हो रहे हैं
उसका कारण तुम
समझते हो? अमरीका
सबसे ज्यादा
समृद्ध है, इसलिए सबसे
ज्यादा विकृत
बच्चे पैदा हो
रहे हैं।
समृद्ध होने
के कारण जरूरत
से ज्यादा ध्यान
दिया जा रहा
है बच्चों पर।
बच्चों को
साईकिल ही
नहीं चाहिए, कार भी
चाहिए।
छोटे—छोटे
कच्चे कार चला
रहे हैं। सबसे
ज्यादा दुर्घटनाएं
उन्हीं से
होती हैं।
सबसे ज्यादा
कार की
दुर्घटनाएं
अठारह वर्ष से
लेकर पच्चीस वर्ष
के बीच के
लड़के करते हैं,
लड़कियां
करती हैं। और
सबसे ज्यादा
अपराध भी वही
करते हैं।
सबसे ज्यादा
उपद्रव भी
अठारह और पच्चीस
साल के बीच के
बच्चे करते
हैं। खाली हैं,
ताकत हाथ
में आ गयी है; काम कुछ है
नहीं—युनिवर्सिटी
में आग लगाओ, फर्नीचर तोड़
दो, खिड़कियों
के कांच तोड़
दो—कुछ तो
करना होगा!
यह
तुम कल्पना ही
नहीं कर सकते
थे,
क्योंकि
पच्चीस साल का
पुराने जमाने
का आदमी तो
बड़ा प्रौढ़
होता था।
क्योंकि
सात—आठ साल का होता,
तब तो काम
में लग जाता।
और भी गरीब घर
का होता तो और
भी पहले काम
में लग जाता।
जिम्मेदारियां
सिर पर आती
हैं तो अनुभव
आता है, अनुभव
आता है तो समझ
आती है।
पच्चीस साल का
होते—होते
जीवन का इतना
अनुभव हो जाता
था कि वह इस
तरह की
मूढ़ताएं कर
सकता था जो आज
के लड़के और लड़कियां
कर रहे हैं? असंभव है।
उसमें एक
गुरु—गंभीरता
आ जाती थी। उसे
जीवन का एक
पाठ मिल गया
होता था।
आज
हम सोचते हैं
बच्चों को हम
शिक्षा दे रहे
हैं,
लेकिन जीवन
के पाठ से हम
उनको वंचित रख
रहे हैं। और
उनकी इतनी
फिक्र हम कर
रहे हैं कि न
वे अपने
पाजामा का
नाड़ा बांध
सकते हैं, वह
भी मां बांध
रही है। अब
मैं सोचता हूं
वीणा की
तस्वीर कि बाध
रही है बच्चों
के नाड़े, अब
भजन भी गा रही
होगी, तो
नाड़ा खुल—खुल
जाता होगा, नहीं बंधता
होगा। बच्चे
को नाराजगी
आती होगी कि
यह बात क्या
है! पहले नाड़ा
बिलकुल ठीक
बंधता था, अब
रस्ते में ही
खुल जाता है। मां
ध्यान नहीं दे
रही ठीक से।
बच्चों के
बस्ते, उनका
सामान तू रख
रही होगी, अब
उनको खुद रखना
पड़ रहा होगा।
उनको खाना
खिलाने के लिए
टेबिल पर बैठ
रही होगी कि
खाना खा..।
बच्चे
रो रहे हैं आज
के। किसलिए रो
रहे हैं पूछो
उनसे। पुराने
जमाने के
बच्चे रोते थे
कि भोजन चाहिए, आजकल
के बच्चे रो
रहे हैं कि
उनको मा भोजन
करा रही है, उन्हें भोजन
नहीं करना है।
आंसू टपक रहे
हैं और मां
सामने बैठी कि
भोजन करो।
उन्हें भोजन
नहीं करना है,
या उन्हें
यह भोजन नहीं
करना है, उन्हें
आज कुछ और
चाहिए। कि आज
वे जाना चाहते
हैं काँफी
हाउस, इडली—डोसा,
या कुछ और।
उन पर ध्यान...
उनको चौबीस
घंटे ध्यान
चाहिए। और इस
ध्यान से कुछ
लाभ नहीं होने
वाला है उनको।
यह
जो जिस लड़के
को पच्चीस साल
तक उसकी मां
ने ध्यान किया
है और ध्यान
दिया है और हर
तरह से उसकी
फिक्र की है, यह
कल विवाहित हो
कर अपनी पत्नी
से भी यही अपेक्षा
करेगा, और
उपद्रव शुरू
होगा, क्योंकि
उसकी भी फिक्र
की गयी है। और
वह अपने पति
से ऐसी
अपेक्षा
करेगी जैसी
अपने पिता से
अपेक्षा करती
थी। कलह शुरू
हो जायेगी, पहले दिन से
कलह शुरू हो
जायेगी। उनकी
आकांक्षाए, अपेक्षाएं
बड़ी हैं। लड़की
चाहेगी कि पति
पिता की तरह
सारी
अपेक्षाएं
पूरी करे। पति
चाहेगा कि पत्नी
मां की तरह
सारी
अपेक्षाएं
पूरी करे। यह
कैसे हो सकता
है? दोनों
की
आकांक्षाएं
बड़ी हैं, अभिलाषाएं
बड़ी हैं। और
दोनों ही
गिरेंगे, क्योंकि
दोनों ही पूरा
नहीं कर
पायेंगे।
दुनिया
ने इतने तलाक
कभी नहीं जाने
थे। और इतना
दुखी दापत्य
जीवन कभी नहीं
जाना था। उसके
कारण थे, क्योंकि
इतनी अपेक्षा
कभी नहीं की
थी। अपेक्षा
का कोई कारण
नहीं था।
ऊपर
से देखने में
तो लगेगा कि
अगर ध्यान
हमने बच्चों
पर कम दिया तो
नुकसान होगा।
ऐसा नहीं है।
और भी एक बात
तुझसे कहूं कि
अक्सर हम
बच्चों पर ध्यान
देते हैं जब
बच्चे बीमार
होते हैं, परेशांन
होते हैं, रुग्ण
होते हैं।
वैज्ञानिक
हिसाब से जब
बच्चे रुग्ण
होते हैं, परेशांन
होते हैं, बीमार
होते हैं, तब
बहुत ध्यान
नहीं देना
चाहिए।
क्योंकि ध्यान
का गलत संबंध
जुड़ रहा है।
बच्चा बीमार
है तब मां
उसके पास बैठ कर
उसका सिर दबा
रही है। अब जब
भी इस बच्चे
को भविष्य में
सिर दबवाना
होगा, यह
बीमार हो
जायेगा।
पतिदेव घर आकर
एकदम लेट ही
जायेंगे
बिस्तर पर।
दफ्तर में
बिलकुल ठीक थे,
घर आते ही
सिरदर्द हो
जाता है! वह
चाहते हैं कि पत्नी
उनका सिर
दबाये, पैर
दबाये; उनके
आसपास खुशामद
करे कि वह बड़ा
काम करके लौटे
हैं! और पत्नी भी
पति जब तक घर
नहीं आते तब
तक बिलकुल ठीक
मालूम होती है,
रेडियो सुन
रही है और
अखबार पढ़ रही
है। और जैसे
ही पति आये कि
बिस्तर से लग
जाती है। वह
भी चाहती है
कि पति उसके
सिर पर हाथ
रखे। क्योंकि
पति हाथ ही
सिर पर तब
रखते हैं जब
पत्नी बीमार
होती है।
स्त्रियों
ने तो बीमार
होने की कला
सीख ली है।
उनको पक्का
पता है कि उन
पर ध्यान ही
तब दिया जाता
है। पत्नी
बीमार हो जाये
तो पति पूछने
लगता है : साड़ी
लेनी है, क्या
करना है? जो
करना हो माई
करो, मगर
बीमार न हो!
पत्नी भी
जानती है कि
जब बीमार हो
तभी पति ध्यान
देता है, नहीं
तो पति अपना
अखबार पढ़ता है,
ध्यान देने
की फुर्सत
कहां है? वह
आते ही से
अपने पैर
फैलाकर अखबार
की ओट में हो
जाता है।
अखबार ओट है।
वह बचने का
उपाय है। पति
आते ही से
अखबार खोल
लेता है।
पत्नी इत्यादि
सब उस तरफ छूट
गये, झंझट
मिटी। अब वह
एक ही अखबार
को कई दफे
पढ़ता है।
मैं
एक घर में
मेहमान था।
मैंने देखा कि
वह सज्जन सुबह
भी उसी अखबार
को पढ़ रहे, दोपहर
भी उसी को पढ़
रहे; शाम
को भी जब
पढ्ने लगे, मैंने कहा :
सुनो, तुम
शुरू से लेकर
आखिरी तक कई
बार पढ़ चुके।
वह भी थोड़े
चौंके एकदम, उन्होंने
कहा : आप ठीक
कहते हैं। मगर
यह मेरी रोज
की आदत है, क्योंकि
यही बचने का
उपाय है। मैं
अखबार पढ़ता रहता
हूं पत्नी कुछ
भी कहती है तो
मैं ऐसा दिखाता
हूं कि सुन ही
नहीं रहा हूं।
क्योंकि सुनो
कि झंझट। सुना
कि जेब पर
हमला! बहरे हो
जाना पडता है।
यह अखबार बड़ी
सुविधा है।
इसमें ऐसा लगा
रहता है, पत्नी
समझती है, मैं
अखबार पढ़ रहा
हूं।
बच्चों
पर,
जब वे रुग्ण
हों, तो
उनकी सेवा
करना, लेकिन
ध्यान मत
देना। इन
दोनों में बड़ा
भेद है। जो
जरूरत हो, अपेक्षा
पूरी करना।
उनकी दवा की
जरूरत हो, दवा
देना। उनको
कंबल उढाना हो,
कंबल उढा
लेना। लेकिन
ज्यादा उनकी
खुशामद मत
करना। कहीं
ऐसा न हो कि
तुम्हारी
खुशामद उनके
भीतर बीमारी
में न्यस्त
स्वार्थ बन
जाए। कहीं ऐसा
न हो कि उनको
लगने लगे कि
जब भी ध्यान
चाहिए हो तो
बीमार हो जाने
से मिलेगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
दुनिया में
सत्तर प्रतिशत
बीमारियां
मानसिक हैं।
सत्तर
प्रतिशत, बड़ा
अनुपात है! और
ये सत्तर
प्रतिशत
बीमारियां
ऐसी हैं जो
तुम चाहते हो
कि हो जायें।
तुमने देखा, परीक्षा के
वक्त बच्चे
बीमार हो जाते
हैं! परीक्षा
के वक्त सारी
दुनिया में
बच्चों की
बीमारियां
एकदम बढ़ जाती
हैं। क्योंकि
बीमारी सुगम
उपाय है बचने
का। परीक्षा
देने की जरूरत
नहीं, बीमार
हैं! या अगर
देनी भी पड़ी
परीक्षा और
पास न हुए, तो
भी कोई यह
नहीं कह सकता
कि कोई हमारी
भूल हुई; बीमार
थे। या अगर
तृतीय श्रेणी
में आये तो भी चलेगा,
क्योंकि
बीमार थे, क्या
कर सकते हो? यह तो
बीमारी बड़ी
तरकीब बन गयी।
और इस आदमी ने
बीमारी के साथ
संबंध जोड़
लिया
स्वास्थ्य की
बजाय।
मेरी
अपनी देशना तो
यही है कि जब
बच्चे स्वस्थ
हों,
चाहो तो उन
पर थोड़ा
ज्यादा ध्यान
दे देना; मगर
बीमार हों तो
ज्यादा ध्यान
मत देना। ध्यान
को स्वास्थ्य
से जुड़ने दो।
जब बच्चे मस्त
हों, आनंदित
हों, उनको
गले लगा लेना,
लेकिन जब
बीमार हों तो
कंबल उढा कर
उनको सुला देना।
यह कठोर मालूम
पड़ेगा। ऊपर से
तो कठोर साफ
ही लग रहा है।
लगेगा कि यह
भी क्या मैं
उलटी बातें
सिखा रहा हूं!
ऐसे भी मैं
उलटी ही बातें
सिखाता हूं।
लेकिन बच्चा
बीमार हो तब
उसे कंबल उढा कर
सुला देना; दवा पिला
देना—बस ऐसे
ही जैसे नर्स
करती है। उस
वक्त मातृत्व
मत दिखलाना।
सुविधा हो तो
नर्स ही रख
देना। वह
ज्यादा अच्छा
है। लेकिन जब
बच्चा
प्रसन्न हो, आनंदित हो, तो कभी उसे
गले भी लगाना।
उसका हाथ में
हाथ लेकर
नाचना भी।
उसका
स्वास्थ्य
में रस जोड़ो, ताकि
जिंदगी— भर
उसका रस
स्वास्थ्य
में रहे, बीमारी
में न हो
जाये। दुनिया
की सत्तर
प्रतिशत
बीमारियां
समाप्त हो
सकती हैं, अगर
हम बच्चों का
संबंध
स्वास्थ्य से
जोड़ दें।
तो
वीणा, चिंता
मत कर, तू
मस्त रह। और
इतना मैं
जानता हूं कि
जो मस्ती
ध्यान की तुझे
आ रही है, वह
मस्ती ऐसी
नहीं है कि
उपेक्षा कर
सकेगी तू बच्चों
की। क्योंकि
ध्यान की
मस्ती में
प्रेम बढ़ता है,
घटता नहीं।
इसलिए
उपेक्षा तो
होने ही वाली
नहीं है। ही, जो व्यर्थ
की चिंता थी
वह कट जायेगी।
जो जरूरी है, वह निश्चित
पूरा होता
रहेगा। शायद
तू जितना ध्यान
देती थी उसमें
से नब्बे
प्रतिशत
बेकार रहा हो,
जो कि घातक
था।
और
मां—बाप इतना
ध्यान बच्चों
की तरफ क्यों
देते हैं, इसका
तुमने कभी
विचार किया? मनसविद कहते
हैं अपराध के
कारण। चौकोगे
तुम! मां—बाप
को यह लगता
रहता है कि
बच्चों के लिए
हमें जो करना
चाहिए, हम
नहीं कर पा रहे
हैं। यह इससे
अपराध— भाव
पैदा होता है,
गिल्ट पैदा
होती है... कि
देखो बगल के
पड़ोसी ने तो
बच्चे के लिए
कार ले दी और
हमारा बच्चा
अभी भी एक
फटीचर सायकिल
पर ही चल रहा
है! हम नहीं कर
पा रहे हैं जो
हमें करना
चाहिए बेटे के
लिए। तब क्या
करें? तो
कम—सें—कम
उसकी खुशामद
तो कर ही सकते
हैं, उसके
ऊपर ज्यादा
ध्यान तो दे
ही सकते हैं।
अतिशय रूप से
उसकी चिंता तो
कर ही सकते
हैं। इतना तो
किया जा सकता
है।
यह
पूर्ति है।
लेकिन कोई इस
तरह की पूर्ति
से लाभ
होनेवाला
नहीं है। और
चूंकि हम सच
में प्रेम
नहीं करते
बच्चों को, इसलिए
भी अपराध— भाव
मालूम होता
है। तो उस
अपराध को
छिपाने के लिए
हम बच्चों को
लिए खिलौने
लायेंगे, आइसक्रीम
लायेंगे। उन
बच्चों को हम
बिगाड़ेगे। वह
अपराध— भाव से
ही पैदा हो
रही है बात।
प्रेम बढ़ेगा
तो अपराध— भाव
घट जायेगा।
अपराध— भाव घट
जाएगा तो
अपराध— भाव के
कारण जो—जो काम
तुम कर रहे थे,
वे बंद हो
जायेंगे। तब
जो करने योग्य
है, जो
जरूरी है वह
होगा।
और
इतना मैं
जानता हूं कि
ध्यान से जो
मस्ती आती है, वह
मस्ती एक अर्थ
में बेहोशी
लाती है और एक
अर्थ में होश
भी लाती है।
वह मस्ती बड़ी
विरोधाभासी
है—होश और
बेहोश एक साथ
बढ़ता है। और वीणा
के संबंध में
मैं निश्चित
होकर कह सकता
हूं कि दोनों
एक साथ बढ़ रहे
हैं। इसलिए
कोई भय का कारण
नहीं है।
और
तूने यह भी पूछा
है:
'यह समझने पर
भी उनको
समग्रता से
प्यार नहीं कर
पाती'
इस
संसार में
समग्रता से
प्यार तो किसी
से भी नहीं
किया जा सकता; नहीं
तो फिर परमात्मा
से क्या करोगे?
फिर तो
परमात्मा के
लिए कुछ भी न
बचेगा। इस जगत
में एक
प्रतिशत से
लेकर
निन्यान्नबे
प्रतिशत तक
प्यार किया जा
सकता है, लेकिन
सौ प्रतिशत
प्यार इस जगत
में किसी से
नहीं किया जा
सकता। वह तो
सिर्फ
परमात्मा का
अधिकार है। वह
तो उसका हक
है। वह तो
हमें उसी को
देना होगा।
गुरु से भी
निन्यान्नबे
प्रतिशत
प्यार हो सकता
है, प्रीति
हो सकती है, सौ प्रतिशत
नहीं। वह
पराकाष्ठा है
इस संसार में,
जो शिष्य
गुरु के प्रति
अनुभव करता
है—वह पराकाष्ठा
है प्रेम
की—निन्यान्नबे
प्रतिशत। एक प्रतिशत
बचा रह जाता
है; वह एक
प्रतिशत तो
परमात्मा के
लिए ही
समर्पित होगा।
परमात्मा के
साथ ही हम
समग्ररूपेण
एक हो सकते
हैं।
इसलिए
इस तरह के
असंभव आदर्श
मत बना लेना
कि बच्चों के
साथ समग्र
प्रेम नहीं हो
रहा है। हो ही
नहीं सकता। और
अच्छा है कि
नहीं हो रहा
है। क्यों? क्योंकि
अगर मां बच्चे
को बहुत प्रेम
करे, अतिशय
प्रेम करे, तो भी खतरा
है। इसलिए
प्रकृति ने
बड़ा इंतजाम किया
हुआ है। अगर
मां अपने बेटे
को अतिशय
प्रेम
करे—इतना
प्रेम करे कि
बेटे का मन
मां के प्रेम
से भर जाये, तो यह बेटा
फिर किसी और
स्त्री को
प्रेम न कर सकेगा।
जरूरत ही न
रही, प्रयोजन
ही न रहा; मां
ने ही इसका मन
भर दिया! मगर
यह तो खतरा हो
गया। इस बच्चे
का जीवन तो
उलझ गया। इस
बच्चे का जीवन
किसी मां के
प्रेम से ही
समाप्त हो
जाये, तो
इस बच्चे के
जीवन में अपना
प्रेम कभी
पैदा ही नहीं
होगा।
इसलिए
तुम देखते हो, मां
जितना बच्चे
को प्रेम करती
है, बच्चा
उतना प्रेम
मां को नहीं
कर सकता। यह
स्वाभाविक है,
क्योंकि
बच्चे को किसी
और को प्रेम
करना है। आगे
यात्रा जानी
है जीवन की, पीछे नहीं
जानी है।
इसलिए कोई
मां—बाप यह
अपेक्षा न
करें कि हम
जितना प्रेम
बच्चों को
करते हैं, उतना
ही बच्चे हमें
करें। अगर
उतना ही प्रेम
बच्चे
तुम्हें
करेंगे तो फिर
अपने बच्चों
को क्या
करेंगे? तुम
अपने बच्चों
को प्रेम कर
रहे हो, कभी
तुमने खयाल
किया है कि
इतना प्रेम
तुमने अपने
मां—बाप को
किया था? तब
तुम्हें समझ
में आ जायेगी
बात। वीणा
अपने बच्चों
को प्रेम कर
रही, इतना
प्रेम कभी
अपने मां—बाप
को किया था? इतना प्रेम?
लेकिन
तुम्हारे
मां—बाप ने
इतना ही प्रेम
तुम्हें किया
था। यह तो
गंगा आगे
बहेगी...।
मां—बाप बच्चों
को करेंगे, बच्चे अपने
बच्चों को
करेंगे। उनके
बच्चे उनके
बच्चों को
करेंगे। ऐसे
जीवन आगे
जायेगा। नहीं
तो पीछे की
तरफ जीवन जाने
लगे तो घातक
हो जायेगा।
कभी—कभी
ऐसी रुग्ण दशा
हो जाती है।
मां इतना प्रेम
करती है बेटे
को कि बेटा
अपराध अनुभव
करने लगता है; किसी
और स्त्री के
प्रेम में
पड़ना मतलब मा
के साथ
गद्दारी है।
ऐसी माताएं
हैं जो समझती
हैं कि
गद्दारी है।
इसलिए तो सास
और बहू में
कलह बनी रहती
है। सास—बहू
की कलह सारी
दुनिया में
चलती है। उस
कलह के पीछे
बड़े कारण हैं।
वह सामान्य मामला
नहीं है। वह
किसी एक
स्त्री का
मामला नहीं है,
वह सारी सास
और बहुओं का
मामला है।
क्यों? क्योंकि
सास ने अपने
बेटे को प्रेम
किया था। इतना
प्रेम किया था,
और आज यह
बेटा गद्दार
हो गया। आज यह
उसकी नहीं
सुनता; एक
अजनबी औरत की
सुनता है। मां
जिस बेटे को
बनाने में
पच्चीस साल
लगाती है, बुद्धिमान
बनाने में
पच्चीस साल, उसको कोई
स्त्री पांच
मिनट में
बुद्ध बना देती
है। अब मां को
चोट न लगे तो
और क्या हो? और ये सज्जन
चले... ये अपनी पत्नी
की सुनते हैं
अब। अगर मां
और पत्नी के बीच
विरोध हो तो
ये पत्नी की
सुनेंगे।
पत्नी की
सुननी भी
चाहिए।
क्योंकि इसी
तरह जीवन आगे
जायेगा।
इसमें कुछ
अनहोना नहीं
हो रहा है।
लेकिन
मां की
अपेक्षा गलत
है,
मां की
आकांक्षा गलत
है। मां बच्चे
को बुरी तरह
घेर लेना चाहती
है। कुछ बच्चे
घिर जाते हैं।
जो बच्चे अपनी
मां के प्रति
बहुत प्रेम से
घिर जाते हैं,
वे किसी
स्त्री को
प्रेम नहीं कर
पाते हैं। उनका
जीवन बड़ा उदास
हो जाता है।
और भी कई तरह
के उपद्रव
उनके जीवन में
होंगे। अगर वे
किसी स्त्री
के प्रेम में
किसी तरह अपने
को डाल भी
देंगे तो भी
उनकी मां सदा
बीच में खड़ी
रहेगी। और वे
सदा तौलते
रहेंगे कि यह
स्त्री उनकी
मां के साथ
मेल खाती है
या नहीं। कौन
स्त्री उनकी
मां के साथ
मेल खायेगी? उनकी मां
जैसी और कोई
स्त्री
दुनिया में है
भी नहीं; हो
भी नहीं सकती।
बस जहां—जहां
मां से कम
पड़ेगी, भिन्न
पडेगी, वहीं
गलत हो
जायेगी। मां
जैसा ही भोजन
पकना चाहिए।
मां जैसे ही
कपड़े बनाए
जाने चाहिए।
मां जैसा ही
घर सजाया जाना
चाहिए। यह कौन
स्त्री करेगी,
कैसे करेगी?
और ये
अपेक्षाएं
पूरी नहीं
होतीं। ये
भीतरी अपेक्षाएं
हैं। तो फिर
कलह और
संघर्ष...।
नहीं, बच्चों
को उतना ही
प्रेम देना
जितना सहज
स्वाभाविक
है। समग्रता
की व्यर्थ
आकांक्षा मत
करो।
स्वाभाविक का
भाव रखो, समग्र
का नहीं। बस
स्वाभाविक
जितना है, उतना
प्रेम उचित
है। बच्चों की
चिंता करो। उनके
स्वास्थ्य की
फिक्र करो।
उनके भविष्य
की फिक्र करो।
वे जीवन में अपने
पैरों पर
जल्दी खडे हो
जायें, अपनी
यात्रा पर
निकल जायें, इसकी फिक्र
करो।
और
तुम्हारी
फिक्र इतनी
ज्यादा नहीं
होनी चाहिए कि
वे कमजोर रह
जायें।
क्योंकि
अतिशय फिक्र
कमजोर कर देगी
उनको। जैसे
कोई मां अपने
बेटे का हाथ
पकड़ कर चलाती
ही रहे, चलाती
ही रहे, उसे
चलने ही न दे
कभी अपने
पैरों के बल..?।
मैंने
सुना है एक
धनपति दंपति
अपनी कार से
उतरा। सामान
उतारा गया
होटल में। फिर
उस महिला ने
आवाज दी कि
चार नौकर भेजे
जायें, बेटे
को उतारना है।
बेटा होगा कोई
चौदह साल का।
उसको भी उतारा
गया। नौकर तो
बहुत चकित हुए
और नौकर बड़े दुखी
भी हुए, क्योंकि
बेटा बड़ा
सुंदर था!
उन्हीं में से
एक नौकर ने
कहा. इतना
सुंदर, प्यारा
बेटा, और
चल भी नहीं
सकता! उस
स्त्री ने कहा
: क्या कहा तुमने,
चल क्यों
नहीं सकता, लेकिन चलने
की कोई जरूरत
नहीं है। अपंग
नहीं है मेरा
बेटा, लेकिन
चलने की कोई
आवश्यकता नहीं
है; गरीबों
के बेटे चलते
हैं।
अब
यह तो खतरनाक
मामला हो गया!
अगर गरीबों के
बेटे चलते
हैं। और अगर
मां इतनी अमीर
है कि अपने
बेटे को चलाने
की कोई जरूरत
नहीं, नौकर
उसे उठा कर ले
जा सकते हैं
स्ट्रेचर पर,
तो यह तो
खतरनाक हो
गया। यह तो
अतिशयोक्ति
हो गयी। लेकिन
बहुत—सी
माताएं ऐसी
अतिशयोक्ति
कर लेती हैं।
हम अपनी
मूर्च्छा में
बहुत—सी
अतिशयोक्तिया
करते हैं।
नहीं, स्वाभाविक
रहो। समग्र की
कोई बात मत
उठाओ। समग्र
प्रेम तो होगा
परमात्मा से।
उसकी दिशा में
वीणा, गति
शुरू हो गयी
है। वही तो
मस्ती आ रही
है। वही तो
झलक आ रही है।
लेकिन मेरी
बातों का अर्थ
ऐसा मत समझ
लेना कि मैं
कह रहा हूं
बच्चों के
प्रति कठोर हो
जाओ। यह भी
नहीं कह रहा
हूं कि बच्चों
की उपेक्षा करो,
उदासीन हो
जाओ।
जीवन
में बड़ा
संतुलन रखना
जरूरी है—न तो
अति प्रेम, न
उपेक्षा—मध्य।
और जो मध्य को
खोज लेता है, उसे जीवन की
कुंजी मिल
जाती है। जैसे
नट चलता है
रस्सी पर—ठीक
मध्य में, सम्हाल
कर अपने को!
कभी थोडा
बायें झुकता,
कभी थोड़ा
दायें; लेकिन
दायें झुकता
है इसीलिए कि
बायें गिर न जाये,
बायें
झुकता है
इसीलिए कि
दायें गिर न
जाये। बस
झुककर अपने
संतुलन को बना
लेता है और
बीच में चलता
जाता है। ऐसे
ही जीवन में
प्रत्येक
व्यक्ति को
मध्य को
सम्हालना
चाहिए। बुद्ध
ने कहा है :
मक्षिम
निकाय। बीच
में जो चलना
सीख ले, वह
सत्य तक पहुंच
जाता है।
जीवन
की हर
प्रक्रिया
में बीच में
चलना सीखो। ठीक
मध्य में होना
स्वर्ण—सूत्र
है। न तो अति प्रेम
में पड़ जाना।
क्योंकि अति
मिठास सड़ांध
पैदा कर देगी।
न अति उदास हो
जाना, क्योंकि
अति कड़वाहट
हानिकर हो
जायेगी, हिंसा
हो जायेगी। और
यह संतुलन
प्रत्येक व्यक्ति
को अपने ही
ढंग से खोजना
होता है। इसके
लिए कोई बंधे
हुए सूत्र
नहीं दिये जा
सकते। मैं
नहीं कह सकता
कि यह ठीक बंधा
हुआ ऐसा सूत्र
है, क्योंकि
हर स्थिति में
यह संतुलन
अलग— अलग होगा।
किसी दिन
बच्चा बीमार
है, उस दिन
थोड़ा बायें
झुकना होगा; किसी दिन
बच्चा
प्रसन्न है, उस दिन थोड़ा
दायें झुकना
होगा। किसी
दिन बच्चे की
जरूरत कुछ और
है, किसी
दिन जरूरत
नहीं है।
प्रतिदिन, प्रतिपल
जरूरतें
बदलती हैं। और
जरूरतों के
बदलने के साथ
व्यक्ति को
सम्यकरूपेण
बदलते रहना
चाहिए। इसको
ही मैं सम्यक
प्रेम कहता
हूं।
इसका
ही ध्यान रखो
कि बच्चे का
हित हो सके, कल्याण
हो सके। बच्चा
अपने जीवन में
अपने पैरों पर
खड़ा हो, स्वतंत्र
हो, व्यक्तित्ववान
हो, आत्मवान
हो, शांत
हो, मस्त
हो, परमात्मा
का तलाशी हो।
बस इतनी बातें
खयाल में रहें,
इन्हीं को
सूत्र मानकर
चलते—चलते न
केवल बच्चों
को तुम ठीक
राह दे सकोगे,
बच्चों को
ठीक राह
देते—देते
तुम्हें भी
ठीक राह मिल
जायेगी।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान।
भटका बहुत—
सत्य की खोज
में या सत्य
के भ्रम में!
नभ— चालक रहा
हूं पृथ्वी
समुद्र और
आकाश की सैर
की। आकाश की
ऊंचाई से
पृथ्वी की
छोटाई देखी; मानव
के अहंकार की
व्यर्थता
जानी देश—
विदेश के
तीर्थ देखे।
सत्य
मृगतृष्णा
बना रहा। ईश्वरीय
पुरुषों से
कतरा कर चलता
रहा— यहां तक
कि आपसे भी। हिंदू
मुसलमान और
ईसाईयों की
आस्तिकता
देखी कुछ सार
नजर नहीं आया।
रूस में
नास्तिकता
देखी; कुछ
असार नहीं
देखा; बल्कि
ज्यादा सरलता
नास्तिकता
में देखी। एक थकावट
महसूस हुई
विश्राम
पाया—अज्ञेयवाद
में
फिर
आज से दो
महीना पहले
सत्य का आभास—
सा हुआ। प्रकाश
की एक किरण
दिखाई दी—आपके
आश्रम आनंद—
नीड़ नैरोबी
में। प्रकाश
के स्रोत के
पास खिंचा
आया। ऐसा लगा
कि जीवन में
कुछ होगा एक
संबंध हुआ
आपसे। संन्यास
लेने का तय
किया। फिर
सोचा :
संन्यास तो आ
ही गया; अब तो
प्रयोग करना
है; अनुभव
करना है सत्य
का। भंवरे की
गुंजन के साथ
नाद— ब्रह्म
ध्यान। सांस
के उतार— चढ़ाव
में निर्विचार
का आभास। अब
भौतिक संबंध
यानी माला की
क्या आवश्यकता?
आत्मिक
संबंध हो गया
आत्मिक
संन्यास हो
गया कृपया
समझायें।
किशनसिंह!
लिख कर पूछा न? यह
तो भौतिक बात
हो गयी। उतनी
ही भौतिक, जितनी
माला। कागज पर
लिखा... बिना
लिखे रह जाते!
जब आत्मिक
संन्यास हो
गया, तब
शब्दों से
क्या पूछना? अब तो
निःशब्द में
ही हो जायेगा!
लिखते वक्त नहीं
सोचा कि भौतिक
कागज पर भौतिक
स्याही से भौतिक
शब्दों में
प्रश्न बना
रहे हो! थोड़ा
तो सकुचाते, थोड़ा तो
लजाते!
लेकिन
मन बड़ा बेईमान
है,
मतलब की
बातें निकाल
लेता है।
इसमें
तुम्हें अड़चन
न मालूम हुई।
संन्यास में
भय लगा। भय को
सीधा स्वीकार
नहीं करना
चाहते। उतना
साहस भी नहीं
है कि सीधा कह
सको कि मैं
डरता हूं। ये
गैरिक वस्त्र
पहन कर, माला
पहन कर दीवाना
बन जाऊंगा!
लोग क्या
कहेंगे; लोग
पागल
समझेंगे। लोग
हंसेंगे। लोग
कहेंगे कि तुम
जैसा
बुद्धिमान, किशनसिंह!
और इस नासमझी
में पढ़ गया!
कभी सोचा न था,
कि तुम इतने
देश—विदेश गये,
इतना सब
जाना—समझा—अज्ञेयवादी
थे, एग्नास्टिक
थे; तुम भी
संन्यासी हो
गये! तुमने भी
गैरिक वस्त्र
धारण कर लिये,
तुमने भी
माला पहन ली!
तुम किसी के
अनुयायी हो
गये! तुम जैसा
बुद्धिमान
व्यक्ति, अनुभवी,
ज्ञानी, पढ़ा—लिखा,
सोचा—समझा
जिसने खूब, दार्शनिक
चिंतन किया!
तो
तुम डर रहे हो, लेकिन
डर को सीधा
स्वीकार भी
नहीं करोगे।
तो तुमने एक
तरकीब
निकाली।
रेशनलाइजेशन
है वह, सिर्फ
तर्काभास है!
तुमने एक
तरकीब निकाली
कि आत्मिक
संन्यास तो हो
ही गया। मुझे
पता ही नहीं
है, और
तुम्हारा
आत्मिक
संन्यास हो
गया? यह
तुम न लिखते
तो मुझे पता
ही न चलता। यह
तुमने भला
किया कि लिख
दिया।
कैसे
हो गया आत्मिक
संन्यास? अभी
आत्मा का
तुम्हें पता
भी क्या है? आत्मा का ही
पता होता, तो
फिर यहां आने
की जरूरत ही न
थी। फिर मेरे
पास बैठने का
कोई अर्थ भी न
था। क्योंकि
ज्यादा से
ज्यादा आत्मा का
ही पता करना
है, और
क्या करना है?
तुम
कहते हो
आत्मिक
संन्यास हो
गया। तुम्हें शब्दों
का अर्थ भी
बोध है? साफ—साफ
बोध है? आत्मिक
का क्या अर्थ
होता है? अभी
तुम्हें आत्मा
का अनुभव है? कोई आत्मा
का अनुभव नहीं
है अभी। तो
अभी आत्मिक
संन्यास कैसे
हो जायेगा 2
आत्मिक
संन्यास तो
संन्यास की
पराकाष्ठा
है। अभी तुम
पहली सीढ़ी भी
नहीं चढ़े और
आखिरी सीढ़ी पर
पहुंच गये!
शरीर
से ही शुरू
करना होगा, क्योंकि
शरीर में ही
तुम हो अभी।
और शरीर में
कुछ गलती नहीं
है; कुछ
भ्रांति भी
नहीं, कुछ
भूल भी नहीं
है। श्वास
लेते हो न? वह
भी भौतिक है।
श्वास मत लो, आत्मिक
जीयो। तब
तुम्हें पता
चलेगा कि
पांच—सात
सेकेण्ड में
मुश्किल हो
जायेगी।
जल्दी से श्वास
आ जायेगी! कि
छोड़ो भी, तुम
कहोगे, ऐसा
आत्मिक जीने
में तो मौत हो
जायेगी! भोजन
करते हो न, शारीरिक
है। लेकिन जो
बाहर है, भोजन
के द्वारा पच
जाता है और
भीतर का अंग
हो जाता है, और जो श्वास
बाहर से आती
है वह भीतर
तुम्हारे मास—मज्जा
में समाविष्ट
होती है।
तुम्हारे भीतर
अगर बाहर से
ऑक्सीजन न आती
रहे तो
मस्तिष्क काम
करना बंद कर
देगा। छ:
सेकेण्ड
मस्तिष्क को
ऑक्सीजन न मिले
कि मस्तिष्क
सदा के लिए
खराब हो
जायेगा, सिर्फ
छ: सेकेण्ड!
यही बड़ी तकलीफ
है। जो लोग हृदय
की बीमारी से
मर जाते हैं, उनको
पुनरुज्जीवित
करने का उपाय
है; मगर छ:
सेकेण्ड के
भीतर हो जाना
चाहिए।
पिछले
महायुद्ध में
कुछ लोग
जिलाये गये, जो
हृदय के आघात
से मरे
थे—जिनकी मौत
वास्तविक
नहीं थी; बम
गिरा और
धबडाहट में मर
गये। उनको चोट
नहीं लगी थी
लेकिन घबड़ाहट
में हृदय की
धड़कन बंद हो गयी।
उनको पंप के
द्वारा हृदय
चला दिया गया।
वे अभी भी
जीवित हैं।
मगर यह होना
चाहिए छ: सेकेण्ड
के भीतर। छ:
सेकेण्ड बहुत
थोड़ा समय है।
छ: सेकेण्ड के
बाद क्यों
नहीं हो सकता? बस छ:
सेकेण्ड के
बाद मस्तिष्क
तो खराब हो
गया। फिर हृदय
चल भी जाये तो
भी वह आदमी
मस्तिष्कवान
नहीं हो
सकेगा।
साग—सब्जी की
भांति जीएगा।
गोभी का फूल
होगा। उसके
भीतर विचार और
चेतना का जन्म
नहीं हो
सकेगा। सांस
चलती रहेगी..
पडा रहेगा
गोभी का फूल!
लेकिन बाहर से
तुम श्वास
लेते हो।
तुमने
ये जो विचार
लिखे—यह जो
अज्ञेयवाद, यह
जो नाद—ब्रह्म
ध्यान तुम कर
रहे हो, कि
भंवरे की
गुंजन के साथ
ब्रह्म—ध्यान—यह
सब बंद हो
जायेगा, अगर
छ: सैकेंड के
लिए
प्राण—वायु
बाहर से न मिले।
ध्यान भी न कर
सकोगे! तो
बाहर— भीतर
अलग— अलग नहीं
हैं; इकट्ठे
हैं, संयुक्त
हैं, परस्परनिर्भर
हैं। शरीर और
आत्मा भी
परस्परनिर्भर
हैं। इस
निर्भरता को
समझो, पहचानो।
तब तुम ऐसा न
कह सकोगे कि
बाहर का संन्यास
और भीतर का
संन्यास, शारीरिक
संन्यास और
आत्मिक
संन्यास। ये
सब लफ्फाजियां
हैं। तब तो
तुम शुरुआत से
ही शुरुआत
करोगे। शरीर
से ही संन्यास
की शुरुआत
होती है; शरीर
से ही हो सकती
है।
तुम
यहां आये
नैरोबी से।
शरीर को लाना
पड़ा यहां, तुम
शरीर नैरोबी
में नहीं छोड़
आये। हवाई
जहाज पर शरीर
रखना पड़ा, नाहक
ढोया!
कपड़े—लत्ते
पहनते हो कि
नहीं?
जीवन
को इस तरह
खंडों में
बांटने की आदत
गलत है। और
इसके पीछे हम
अपने बड़े भय
छिपा लेते
हैं। जिंदगी—
भर बामुश्किल
तो तुम्हें
किसी आदमी की
बात जमी। तुम
कह रहे हो, तुम्हारा
हिसाब तो लंबा
है... कि तुम सब
जगह घूमते रहे,
तीर्थ
देश—विदेश के
सब किये हैं।
आस्तिक देशों
में ही नहीं
नास्तिक
देशों में भी
गये। सब जगह
असार पाया...।
तुम्हें सभी
जगह असार मिला,
इसीलिए
तुम्हें मेरी
बातों में
थोड़ा सार दिखाई
पड़ रहा है।
मेरा
संबंध उनसे
जल्दी बन जाता
है,
जिन्होंने
काफी खोज की
है; जो खोज
करके थक गये
हैं; जिन्होंने
विचारा है, संदेह किया
है, जिन्होंने
सोचा है; जिन्होंने
अंधे विश्वास
नहीं किये।
उनसे मेरा
संबंध जल्दी
बन जाता है।
मैं उन्हीं के
लिए हूं। और
वे आज नहीं कल
खोजते हुए
मेरे पास आ ही
जायेंगे,
क्योंकि उनकी
खोज चल रही
है।
झूठे
आस्तिकों से
मेरा संबंध
नहीं जुड़
पाता। क्योंकि
वे तो पहले ही
से मान कर
बैठे हुए हैं।
उन्हें जानने
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
उन्हें खोज का
कोई प्रश्न ही
नहीं उठता।
उन्होंने तो
मान ही लिया
है कोई हिंदू
है,
कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई जैन है।
हर—एक के पास
अपनी किताब है,
अपना मंदिर
है। मान ही
लिया है और उस
मान्यता को
उखाड़ने में वे
डरते भी हैं, कि फिर कौन
उपद्रव शुरू
करे! फिर पता
नहीं इतनी सुरक्षा
मिली कि न
मिली! उठाओ ही
मत, बात ही
मत खोलो, प्रश्न
ही मत जगाओ; चुपचाप
प्रश्न की
छाती पर बैठे
रहो दबाये हुए
उसे। झूठी
श्रद्धा
बनाये रखो।
श्रद्धा
में सुरक्षा
है,
निश्चितता
है। एक भाव
बना रहता है
कि पता है हमें।
पता कुछ भी
नहीं है। शान
जरा भी नहीं
है, ज्ञान
की भ्रांति
बनी रहती है।
तुम सौभाग्यशाली
हो कि तुम्हें
ऐसी ज्ञान की
भ्रांति नहीं थी।
इसलिए
तुम्हें मेरी
बात जमी है।
इसलिए तुम्हें
मुझमें रस
जगा।
अब
आ तो गये
द्वार तक, अब
द्वार से
वापिस ही लौट
जाओगे—बाहर ही
बाहर...? फिर
बहुत पछताओगे,
क्योंकि
फिर ऐसा द्वार
मिले, न
मिले।
क्योंकि और जो
द्वार हैं
उनसे तुम्हें
तृप्ति नहीं
हुई, खयाल
रखना। बहुत
द्वार हैं, मगर उनसे
तुम्हें
तृप्ति नहीं
हुई, खयाल
रखना। और
तुम्हें ऐसा
द्वार शायद ही
पृथ्वी पर
दोबारा मिले!
इसलिए चूकोगे
तो जिम्मेवारी
तुम्हारी है,
उत्तरदायित्व
तुम्हारा है।
आत्मिक
संन्यास एक
दिन घटित होता
है,
लेकिन वह
शारीरिक
संन्यास की
अंतिम
प्रक्रिया
है। क्या तुम
सोचते हो, मुझे
पता नहीं है
कि गैरिक
वस्त्र पहनने
से कोई
संन्यासी
कैसे हो
जायेगा? क्या
तुम सोचते हो
मुझे इतनी समझ
नहीं है कि
माला पहनने से
कोई कैसे
संन्यासी हो
जायेगा? इतनी
समझ तुम्हें
है, तो
मुझे भी होगी।
इतना तो मुझे
भी पता है कि
बाहर के
वस्त्र बदल
लेने से कोई
क्या
संन्यासी हो
जायेगा!
लेकिन
मुझे एक बात
और भी पता है
कि जो बाहर के
वस्त्र बदलने
को भी राजी
नहीं है, वह क्या
खाक संन्यासी
होगा! बाहर के
भी बदलने को राजी
नहीं है, तो
भीतर के कैसे
बदलेगा? भीतर
की बदलाहट में
तो और भी
ज्यादा हमारे
स्वार्थ जुड़े
हैं। बाहर की
बदलाहट तो
उतनी मुश्किल
है भी नहीं।
किसी न किसी
रंग के कपड़े
पहनते ही हो, और कभी—कभी
लोग गैरिक रंग
के कपडे भी पहन
लेते हैं।
आखिर यह भी
रंगों में एक
रंग है। यह तो
मुझे भी पता
है कि सिर्फ
गैरिक रंग के
वस्त्र पहन
लेने से
संन्यास नहीं
हो जाता है। लेकिन
जो गैरिक रंग
के वस्त्र
पहनने की
हिम्मत दिखा
रहा है, वह
कम—से—कम अपनी
तरफ से इंगित
कर रहा है कि
मैं तैयार
हूं। चलो यह पागलपन
करने को भी
तैयार हूं मगर
मुझे आगे ले चलो;
मुझे
यात्रा पर आगे
ले चलो।
यह
तो कसौटी भर
है सिर्फ, क्योंकि
आगे और—और बड़े
पागलपन
आयेंगे। अगर
तुम इसी
पागलपन में न
उतरे तो उन
पागलपनों का
क्या करोगे, फिर और
दीवानगिया
आयेंगी! तुम
तो हर जगह
ठिठक—ठिठक
जाओगे। तुम
कहोगे कि हम
तो आत्मिक ही
रखेंगे।
नाचने का भाव
उठेगा, तुम
कहोगे. शरीर
को क्या नचाना?
हम तो आत्मा
में झई
नाचेंगे! तुम
तो हर बात में फिर
यही अड़चन खड़ी
करोगे। यह तो
इंगित है
शिष्य की तरफ
से। इसमें कुछ
और नहीं है, सिर्फ इशारा
है कि मैं
राजी हूं कि
आप जो कहोगे करने
को राजी हूं।
अगर आप कोई
ऐसी बात भी
कहोगे जो मुझे
जंचती भी नहीं,
बुद्धि को,
तो भी करने
को राजी हूं।
जब किसी को
इतना भाव उठता
है तो
शिष्यत्व
पैदा होता है।
अब
गोरख ने कल ही
कहा न—शीश
झुकाते ही...।
यह शीश झुकाने
का ढंग है।
जान कर मैंने
यह उपद्रव
किया। कोई
अड़चन न थी।
लाखों लोग
मुझे सुनते थे, सब
रंगों के कपड़े
पहनते थे और
सुनते थे। फिर
मैंने यह
आग्रह किया कि
अब जिन्हें और
गहरे जाना है,
वे गैरिक
वस्त्रों को
स्वीकार कर
लें। बस, लाखों
लोगों में से
थोड़े—से हजार
लोग मेरे साथ
चलने को राजी
हो सके। बाकी
ने सोचा : गैरिक—वस्त्र!
हम तो आत्मिक
बात को मानते
हैं। लेकिन इन
आत्मिक बातों
को
माननेवालों
पर मैं वर्षों
से मेहनत कर
रहा था, वे
सिर्फ सुनते
थे, सुनना
उनका मनोरंजन
था। जरा—सा
करने का मौका
आया छिटक गये;
भाग खड़े
हुए! अब यहां
आने में
उन्हें संकोच
भी होता है, क्योंकि
यहां वें नंबर
दो के आदमी हो
गये। यहां
नंबर एक का आदमी
वह है जो
गैरिक है। जो
गैरिक है वह
अंतरंग है। जो
गैरिक
वस्त्रों में
नहीं है, वह
एक बाहरी
व्यक्ति है, एक दर्शक
है। ठीक है, आया है, चला
जायेगा। और जब
तक गैरिक नहीं
हो जाता, तब
तक इस तीर्थ
का हिस्सा
नहीं बन पाता।
यह तो सिर्फ
प्रतीक है।
किशनसिंह, यह
प्रतीक अगर
पूरा न कर सको,
तो जाने
रखना कि यह
कोई आत्मिक और
गैर— आत्मिक का
सवाल न था, यह
सिर्फ
तुम्हारा भय
था।
इब्राहीम
सम्राट था। वह
अपने गुरु के
पास गया और
उसने कहा कि
मुझे दीक्षा
दें। गुरु ने
क्या कहा
मालूम है? गुरु
ने कहा : कपड़े
छोड़ दे, इसी
वक्त कपड़े छोड़
दे। सम्राट से
कहा कपड़े छोड़
दे! और भी
शिष्य बैठे थे,
सत्संग जमा
था, दरबार
था फकीर का।
किसी से कभी
उसने ऐसा न
कहा था कि
कपड़े छोड़ दे।
और इब्राहीम
को कहा कपड़े गिरा
दे, इसी
वक्त गिरा दे!
और इब्राहीम
ने कपड़े गिरा
भी दिये नग्न
खड़ा हो गया।
शिष्य तो चौंक
गये। और जो बात
फकीर ने कही, वह और भी
अदभुत थी।
अपना जूता उठा
कर उसको दे दिया
और कहा : यह ले
जूता और चला
जा बाजार में!
नंगा जा और
सिर पर जूता
मारते जाना और
अल्लाह का नाम
लेना। लोग
हंसें, लोग
पत्थर फेंकें,
लोग भीड़
लगायें, कोई
फिक्र न करना,
पूरा गांव
का चक्कर लगा
कर वापिस आ।
और
इब्राहीम चल
पड़ा।
इब्राहीम के
जाते ही और शिष्यों
ने पूछा कि
ऐसा आपने हम
से कभी
अपेक्षा नहीं
की,
यह आपने
क्या किया? इसकी क्या
जरूरत थी? सिर
में जूते
मारने से कैसे
संन्यास हो
जायेगा? गांव
में नंगे
घूमने से कैसे
संन्यास हो
जायेगा?
उस
फकीर ने कहा
तुमसे मैंने
अपेक्षा नहीं
की थी, क्योंकि
मैंने सोचा
नहीं था कि
तुम इतनी हिम्मत
कर सकोगे। यह
सम्राट है, इसकी कूबत
है। यह हिम्मत
का आदमी है।
इसकी हिम्मत
की जाच लेनी
जरूरी है।
जूते मारने से
कुछ नहीं होगा,
और नंगे
जाने से कुछ
नहीं होगा; लेकिन बहुत
कुछ होगा। यह
आदमी जा सका, इसी में हो
गया। इस आदमी
ने ना—नुच न
की। इसने एक
बार भी नहीं
पूछा कि इसका
मतलब? यह
किस प्रकार का
संन्यास है, यह कैसी
दीक्षा! इस
तरह आप दीक्षा
देते हैं? किस
को इस तरह
दीक्षा दी? इसने संदेह
न उठाया, सवाल
न उठाया; इसी
में घटना घट
गयी। यह आदमी
मेरा हो गया।
तुम वर्षों से
यहां मेरे पास
हो और इतने
निकट न आये, जितना यह
आदमी मेरे
निकट आ गया
है—चुपचाप
वस्त्र गिरा
कर, जो
जूता लेकर चला
गया है और
गांव में
फजीहत करवा
रहा है। अपने
अहंकार को
मिट्टी में
मिलवा रहा है!
तुम वर्षों
में मेरे करीब
न आ सके, यह
आदमी मेरे
करीब आ गया।
और इब्राहीम
जब लौटा, तो
उसके चेहरे पर
रौनक और थी, आदमी दूसरा
था—दीप्तिवान
था! अब जूता तो
बाहर की चीज
है और कपड़े भी
बाहर की चीज
हैं। ऐसे तो सभी
बाहर है।
लेकिन सदगुरु
को उपाय करने
पड़ते हैं। तुम
बाहर हो, तुम्हें
भीतर लाने के
उपाय करने
पड़ते हैं।
इब्राहीम
अदभुत फकीर
हुआ। उसकी
गहराइयों का
कुछ कहना
नहीं! मगर इस
छोटी—सी बात
में घटना घट
गयी!
किशनसिंह, द्वार
तक आ गये हो, चाहो तो मन
की बातें मान
कर लौट भी जा
सकते हो। लेकिन
यह मन तो
तुम्हारे साथ
सदा रहा है, इस मन ने तुम्हें
कहां
पहुंचाया है?
इसी मन की
मान कर फिर चल
पड़ोगे? मन
बड़ा चालबाज है;
सूक्ष्म
उसकी कलाएं
हैं।
और
मैं भी कहता
हूं कि कपड़े
पहनने से कोई
संन्यास नहीं
होता और माला
पहनने से कोई
संन्यास नहीं
होता। और फिर
भी मैं तुमसे
कहता हूं कि
अगर असली
संन्यास की
अपेक्षा है तो
बाहर से ही
प्रारंभ करना
होगा। आत्मिक
संन्यास ही की
खोज है, लेकिन
हम शरीर में
जी रहे हैं; और शरीर से
ही यात्रा
शुरू करनी है।
यात्रा तो
वहीं से हो
सकती है जहां
तुम हो। जहां
तुम हो ही
नहीं, वहां
से कैसे
यात्रा शुरू
करोगे? जो
नर्क में पड़ा
है, उसे
नर्क से ही
यात्रा शुरू
करनी पड़ेगी।
काफी
समय ऐसे ही
बीत गया है, और
समय न बिताओ!
एक
दिवस बीत गया!
ऊषा
मधुबाला—सी
लाई
थी जिसको भर,
संध्या
के चरणों पर
कुमकुम—घट
रीत गया!
एक
दिवस बीत गया!
झूम
उठे थे जिससे
मधुवन
के कुंज प्रात,
कलिका
का हास गया,
मधुकर
का गीत गया!
एक
दिवस बीत गया!
मंजिल
नित पास दिखी,
फिर
भी नित दूर
रही,
पंथी
के पग हारे
निष्ठुर
पथ जीत गया!
एक
दिवस बीत गया!
नयनों
के तारे को
बतलाये
कौन भला—
नयनों
के पथ से बह
उर
का नवनीत गया!
एक
दिवस बीत गया!
प्रतिपल
समय बीता जाता
है। तुम्हें
और मंदिर न
जमे,
और मस्जिद न
जमी। नहीं जमी,
तुम वहां से
लौट आये, ठीक;
लेकिन अब एक
मंदिर जमा
है—एक मंदिर
जो कि मंदिर
कम और मधुशाला
ज्यादा है। अब
तुम्हें एक
मधुशाला जमी
है, अगर
यहां से लौट
गये तो कभी
अपने को क्षमा
कर न पाओगे।
क्योंकि और
जगह से लौट
आये थे तो कोई
प्रश्न ही न
था; तुम्हारा
मन ही न भरा
था। मन भर भी न
सकता था। जिनका
मन भर जाता है
उनकी प्यास ही
झूठी होगी!
असली
प्यास वाले
आदमी का मन
तथाकथित
मंदिर—मस्जिदों
से नहीं भरता, जब
तक कि कोइ
जीवंत मंदिर न
मिल जाये, जहां
अभी बुद्ध का
दीया जल रहा
हो। सिर्फ बुझे
हुए दीयों से
दिल नहीं भरत।
असली प्यासे
का! पानी शब्द
से उसकी
तृप्ति नहीं
हो सकती, तो
वेद से, उपनिषद
से उसकी
तृप्ति कैसे
होगी? शब्द
ही शब्द हैं!
उसे जल का
सरोवर चाहिए।
और
तुम्हारा
अनुभव ठीक था
कि तुमने देखा
कि आस्तिकों
से नास्तिक
सरल हैं। यह
बात सच है। आस्तिक
तो तभी सरल
होता है, जब
सच्चा आस्तिक
हो। और सच्चा
आस्तिक
मुश्किल से
होता है।
क्योंकि
सच्चा आस्तिक
होने का मतलब
है जीवन
रूपांतरित हो,
समाधिस्थ
हो, ईश्वर
का अनुभव हो।
तब सरल होता
है आस्तिक। फिर
उसकी सरलता
बड़ी अदभुत
होती है—सागर
जैसी गहरी
होती है! फिर
किसी
नास्तिकता
में वैसी
सरलता नहीं
होती, जैसी
आस्तिक में
होती है।
रामकृष्ण की
सरलता या रमण
की सरलता!
लेकिन वैसे
व्यक्ति से जब
मिलना होगा
तब। वैसा
व्यक्ति तो
विरला है!
जिन
आस्तिकों से
तुम मिलोगे वे
तो झूठे हैं।
पैदायशी कोई
हिंदू है, पैदायशी
कोई मुसलमान
है; न तो
मुसलमान ने
खोज की है, न
हिंदू ने खोज
की है। जन्म
से मिल गयी एक
बात वसीयत
में। बाप थमा
गये एक किताब
कि हम भी पूजते
रहे; हमारे
बाप थमा गये, तुम भी
पूजते रहना।
सदा इसकी पूजा
होती रही, पूजते
रहना। शायद
कुछ ठीक होता
ही होगा, तभी
तो इतने दिन
से पूजा हो
रही है। न
हमने खोल कर
किताब देखी, न तुम खोल कर
देखना।
क्योंकि
खोलने में लोग
झंझट में पड़
जाते हैं। बस
पूजा कर देना
और सम्हाल कर
रख देना।
ऐसे
हिंदू हो गये
तुम,
ऐसे
मुसलमान हो
गये तुम; यह
तुम्हारी खोज
नहीं। इसलिए
नास्तिक सरल
होता है।
नास्तिक
कम—से—कम इतना
तो साहस
जुटाता है, इतनी तो
ईमानदारी
जुटाता है कि
कहता है कि
मुझे जब तक
अनुभव नहीं
हुआ, मैं
नहीं
मानूंगा।
नास्तिक
ईमानदार होता
है। अब यह बडे
मजे की बात है!
धार्मिक
जिसको हम कहते
हैं उसे
ईमानदार होना
चाहिए; मगर
वह ईमानदार
कैसे हो, उसकी
तो बुनियाद
में बेईमानी
पड़ी है!
हम
लोगों से कहते
हैं : भरोसा
करो,
विश्वास
करो। जो देखा
नहीं, उस
पर भरोसा करो!
यह तो बेईमानी
पर बुनियाद हो
गयी! यह तो झूठ
पर आधार रख
दिया गया। अब
तुम कितना ही
बड़ा मंदिर बना
लो, मंदिर
कितना ही
सुंदर हो; सत्य
नहीं होगा, क्योंकि
बुनियाद में
पत्थर झूठ के
हैं! सत्य पर
भरोसा नहीं
किया जाता, सत्य को
जाना जाता है;
तब भरोसा
आता है। किया
नहीं जाता, आता है।
तो
तुमने ठीक ही
पाया कि
नास्तिक सरल
है। लेकिन
तुमसे मैं यह
बात कह दूं कि
दुनिया के और
देशों के
नास्तिक
ज्यादा सरल
हैं,
रूस के
नास्तिकों की
बजाय।
क्योंकि रूस
में नास्तिकता
अब पैदायशी
है। जैसे
हिंदू यहां पैदायशी
है, ऐसे
रूस का
नास्तिक
पैदायशी है।
रूस में नास्तिकता
धर्म है।
क्रेमलिन
उनका मक्का है
और दास—कैपिटल
उनकी कुरान
है।
कम्युनिज्य
उनके धर्म का
नाम है। अब तो
रूस का बच्चा
उसी तरह नास्तिक
हो रहा है
जैसे दूसरे
देशों के
बच्चे आस्तिक
होते हैं; उसमें
भेद नहीं रहा।
रूस की
नास्तिकता
लचर है। अब तो
रूस में कभी
कोई आस्तिक
होता है तो
सरल होता है।
लेकिन अब रूस
में आस्तिक को
छिप कर होना
पड़ता है, बच
कर होना पड़ता
है। अगर
प्रार्थना भी
करनी हो तो
एकांत में
करनी होती है
कि कानों—कान
किसी को खबर न
हो, क्योंकि
प्रार्थना
स्वीकृत नहीं
है। राज्य का
सम्मान नहीं
है प्रार्थना
को। जो चर्च
में जाता है, समझा जाता
है कि वह एक
तरह की
गद्दारी कर
रहा है देश के
साथ, क्योंकि
देश का धर्म
नास्तिकता
है। इस नास्तिकता
में अब कुछ
नास्तिक की
खूबी न रही।
आस्तिक
देशों में जो
लोग नास्तिक
हैं वे तो खोज
की खबर देते
हैं। नास्तिक
देशों में जो
लोग आस्तिक
हैं वे खोज की
खबर देते हैं।
खोज का मतलब यह
होता है कि जो
तुम पर थोपा
गया है, उसे
मत स्वीकार
करो; निज
की तलाश करो।
वह तो ठीक था
कि तुम उन
मंदिरों से
लौट आये।
सच
कह दूं ऐ
बिरहमन! गर तू
बुरा न माने
तेरे
सनमकदों के
बुत हो गये
पुराने
अपनों
से बैर रखना
तूने बुतों से
सीखा
जंगो—जदल
सिखाया वाइज
को भी खुदा ने
तंग
आके मैंने
आखिर दैरो—हरम
को छोडा
वाइज
का वाज छोड़ा, छोड़े
तेरे फसाने
पत्थर
की मूरतों में
समझा है तू
खुदा है
खाके—वतन
का मुझको हर
जर्रा देवता
है
आ
गैरियत के
पर्दे इक बार
फिर उठा दें
बिछड़ों
को फिर मिला
दें,
नक्यो—दुई
मिटा दें
सूनी
पड़ी हुई है
मुद्दत से दिल
की बस्ती
आ
इक नया शिवाला
इस देश में
बना दें
दुनिया
के तीर्थों से
ऊंचा हो अपना
तीरथ
दामाने—आस्मा
से इसका कलश
मिला दें
हर
सुबह उठके
गाएं मंतर वो
मीठे—मीठे
सारे
पुजारियों को
मय मीत की
पिला दें
शक्ति
भी शांति भी
भक्तों के गीत
में है
धरती
के वासियों की
मुक्ति परीत
में है।
प्रेम
असली धर्म है।
ईश्वर को
मानना न मानना
गौण बात है।
प्रेम असली
धर्म है।
संन्यास में दीक्षा
प्रेम में
दीक्षा है।
एक
नया तीर्थ
यहां हम बना
रहे हैं—प्रेम
का तीर्थ—जहां
आस्तिक भी
अंगीकार हैं, नास्तिक
भी अंगीकार
हैं। हिंदू भी,
ईसाई भी, मुसलमान, बौद्ध—सारी
दुनिया के
धर्मों के
मानने वाले लोग
यहां मौजूद
हैं। शायद कोई
ऐसी दूसरी
स्थली नहीं है
दुनिया में जहां
सारे धर्मों
के, सारी
जातियों के
लोग मौजूद
हों। एक नये
ही ढंग का
मंदिर उठ रहा
है। एक प्रेम
का मंदिर उठ
रहा है।
संन्यास
तो उस प्रेम
के मंदिर में
प्रवेश के लिए
तुम्हारी
प्रार्थना है, और
कुछ भी नहीं।
तुम्हारी
अर्जी है, तुम्हारा
निवेदन है कि
मुझे भी इस
मंदिर के रंग
में रंग लो।
और रंगना पहले
बाहर से होगा,
फिर भीतर भी
रंग
पहुंचेगा।
बाहर से ही बच
गये तो भीतर
से भी बच
जाओगे।
आ
गये हो, सम्हलो।
भाग सकते हो।
भागना सदा
आसान है, जागना
कठिन है।
चौथा
प्रश्न :
परमात्मा
की तलाश है? लेकिन
प्रकृति का
आकर्षण नहीं
छोड़ पाता हूं
क्या करूं?
मैंने
तुमसे कहा कब
कि तुम
प्रकृति का
आकर्षण छोड़ो? तुम
पुरानी बातें
मुझ पर आरोपित
कर देते हो। जो
मैं नहीं कह
रहा हूं वह
तुम सुन लेते
हो। मैं यही
तो कह रहा हूं
कि प्रकृति ही
परमात्मा है,
कुछ आकर्षण
छोड़ना नहीं
है। मगर तुम
अपने दोहराये
जाते हो गीत, जो तुमने रट
लिये हैं, जो
तुम्हें
कंठस्थ हो गये
हैं। तुम्हें
सदियों—सदियों
समझाया गया है
कि प्रकृति के
खिलाफ है
परमात्मा।
प्रकृति को
छोड़ो तो
परमात्मा मिलेगा,
प्रकृति का
निषेध करो तो
परमात्मा
मिलेगा। तुम्हें
इतनी बार ये
बातें कही गयी
हैं कि अब ये
तुम्हारे
भीतर जड़ हो
गयी हैं। बिना
सोचे—समझे
तुम्हारे
भीतर ये
गूंजती रहती
हैं।
मैं
तो यही कह रहा
हूं कि
प्रकृति ही
परमात्मा है।
सृष्टि और
स्रष्टा
भिन्न—भिन्न
नहीं हैं, यही
मेरी उदघोषणा
है। दोनों एक
ही हैं। स्रष्टा
ही सृष्टि हो
गया है।
फूल—फूल में
पत्ते—पत्ते में
वही है। पशुओं
में पक्षियों
में, लोगों
में वही है।
प्रकृति से
भागना नहीं है,
प्रकृति
में जागना है।
स्वभाव के
विपरीत नहीं
जाना है, स्वभाव
में थिर होना
है। और जो
प्रकृति में
जाग कर देखेगा,
उसे
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कुछ भी न
मिलेगा। ऐसा
समझो कि जो सो
कर परमात्मा
को देखता है
उसे प्रकृति
दिखाई पड़ती है,
और जो जाग
कर प्रकृति को
देखता है उसे
परमात्मा
दिखाई पड़ता
है।
प्रकृति
और परमात्मा
दो नहीं हैं; सोये
और जागे हुए
आदमी के अनुभव
हैं। सोये हुए
आदमी का अनुभव
प्रकृति, जागे
हुए आदमी का
अनुभव
परमात्मा।
लेकिन जो है, वह तो एक ही
है।
रूप
की आसक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!
सिंधु
से आकाश बोला
चांद को घन
में छिपाकर—
'चांद
है मेरी धरोहर,
मत मचल तू
व्यर्थ सागर। '
मत्त
लहरों के
करोड़ों कर उठा
कर सिंधु
बोला—
'चांद
की अनुरक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!
रूप
की आसक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!'
फूल
कीटों में
छिपाकर के
भ्रमर से डाल
बोली—
'फूल
है मेरी धरोहर,
मत बढ़ा तू
व्यर्थ झोली। '
गुनगुनाकर, पंख
कीटों में
बिंधाकर, भृंग
बोला—
'गंध—मधु
की भक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!
रूप
की आसक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!'
देख
निर्झर को
निकट आते, नदी
के कूल बोले—
'व्यर्थ
आया तू यहां
तक, बावले,
भुजपाश
खोले!'
काट
करके कूल की
चट्टान
निर्झर ने कहा
यह—
'प्यार
की सौगंध
मुझसे तो न
तोड़ी जा
सकेगी!
रूप
की आसक्ति
मुझसे तो न
छोड़ी जा
सकेगी!
लेकिन
मैं तुमसे
कहता ही नहीं
कि आसक्ति
छोड़ो। मैं
तुमसे कहता ही
नहीं, तुम कुछ
छोड़ो।
छोड़ने—पकड़ने
की बात ही
नहीं कर रहा
हूं सिर्फ जागो।
और जागते ही, जो
नहीं है वह
छूट जायेगा।
क्योंकि
जागते ही, जो
नहीं है उसको
पकड़ना भी
चाहोगे तो
कैसे पकड़ोगे?
और जो है
उसे छोड़ना भी
चाहोगे तो
कैसे छोड़ोगे?
रात
सोये, सपने
में देखा कि
तुम सम्राट
हो। पुरानी
परंपराएं
कहती हैं कि
छोड़ दो यह सम्राट
होना। यह सब
माया है।
त्याग कर दो
ये महल। और
समझ लो कि
सपने में
तुमने मान भी
लिया इस बात
को और तुमने
महल का त्याग
कर दिया, तो
तुम्हारा
त्याग भी सपना
है। जब महल ही
सपना है तो
उसका त्याग
कैसे सच हो
जायेगा, थोड़ा
सोचो तो! झूठ
का त्याग कैसे
सच हो सकता है?
झूठ का
त्याग झूठ ही
होगा। अगर महल
ही झूठ था, तो
महल का त्याग
कैसे सच हो
जायेगा! और
तुम जब कहते
फिरोगे लोगों
से कि मैंने
महल छोड़ दिया,
कि मैंने
महल का त्याग
कर दिया, कि
साम्राज्य
छोड़ दिया, तो
तुम जाहिर
करते रहोगे कि
तुम महल को
अभी भी मानते
हो, महल
अभी भी
तुम्हें झूठ
नहीं है। पहले
महल को पकड़े
थे, अब छोड़
दिया है; मगर
महल की सचाई
कायम है!
मैं
तुम से नहीं
कहता महल
छोड़ो। मैं
तुम्हें झकझोरना
चाहता हूं।
मैं कहता हूं :
जागो! आंख खोल
कर देखो। आंख
खोलते ही जो
है वह बच
रहेगा, जो
नहीं है वह
छूट गया। जो
नहीं है उसे
छोड़ना पड़ता है?
छोड़ना पड़े
तो फिर अभी
तुमने जाना
नहीं। छोड़ना पड़े
तो अभी तुम
जानते हो कि
है।
सच्चा
ज्ञानी न तो
कुछ छोड़ता है
न कुछ पकड़ता है।
महल में हो तो
महल में होता
है,
झोपड़े में
हो तो झोपड़े
में होता है।
न उसका आग्रह
महल से होता
है न झोपड़े से
होता है। झूठा
ज्ञानी या तो
महल से आग्रह
करता है या
झोपड़े से आग्रह
करता है, मगर
आग्रह करता
है।
खयाल
करना, जितना
आग्रह महल का
होता है उतना
ही झोपड़े का भी
हो सकता है।
आग्रह को कोई
भेद नहीं पड़ता
कि बड़ी चीज
चाहिए; लंगोटी
का आग्रह काफी
हो सकता है।
लोग संसार को
छोड़ देते हैं
और त्याग को
पकड़ लेते हैं।
जब संसार ही
झूठ हो गया, तो त्याग भी
झूठ हो गया।
तुम दो और दो
पांच जोड़ रहे
थे, फिर
किसी ने
तुम्हें
चेताया; कोई
सदगुरु मिला
और उसने कहा
दो और दो पाच
होते ही नहीं,
दो और दो
चार होते हैं।
और तुम्हें
जाग आयी और
तुमने दो और
दो चार किये।
क्या तुम यह
कहोगे कि अब
मैंने पांच
छोड़ दिये हैं;
त्याग कर
दिया पांच का?
कि देखो
मेरा त्याग!
घंटा—नाद
करोगे, डुंडी
पीटोगे, ढोल
बजाते फिरोगे
कि देखो मैंने
पांच का त्याग
कर दिया?
ऐसा करोगे तो
लोग तुम्हें
पागल कहेंगे।
पाच था ही
नहीं; भ्रांति
थी तुम्हारी।
तुम जोड़ते थे
वह तुम्हारी
भूल थी, गणित
की भूल थी। और
जब तुम जोड़
रहे थे पांच, तब भी पांच
तुम्हारे
जोड़ने के कारण
हो नहीं गया
था, सिर्फ
भ्रांति ही थी,
चार तो चार
ही था।
दो
और दो चार ही
होते हैं, तुम
चाहे पांच
जोड़ो, चाहे
छह, चाहे
सात, चाहे
तीन, तुम्हारी
मर्जी है,
जो मौज; मगर
दो और दो चार
होते हैं और
चार ही होते
हैं। अब तुमने
जान लिया कि
दो और दो चार
हैं, बात
खत्म हो गयी; छोड़ना क्या
है, पकड़ना
क्या है?
जीवन
सिर्फ ठीक
गणित को समझ
लेने की बात
है।
जल —
ज्यों —ज्यों
गहरा होता है
जल
ज्यों — ज्यों
गहरा होता है,
लहरें
होती हैं
गंभीर।
अंतर
सहनशील बनता
है
ज्यों
— ज्यों गहरी
होती पीर!
बात
प्रणय की कुछ
मत पूछो,
सौ —
सौ संघर्षों
के बीच —
सह —
सह वज सुदृढ़
होती है
यह
फूलों वाली
जंजीर!
हर
आने वाले की
आहट
पहले
तो चौंकाती है,
ज्यों
— ज्यों होती दीर्घ
प्रतीक्षा,
चितवन
हो जाती है
धीर!
ज्यों
—ज्यों दिवस
बीतते जाते,
धुंध
समय की छाती
है,
अधिकाधिक
उजली होती है
बिछुड़े
प्रियतम की
तसवीर!
जल
ज्यों — ज्यों
गहरा होता है
लहरें
होती है
गंभीर।
जल
जो गहरा
होता.....जैसे —
जैसे
तुम्हारे
जागरण की
गहराई बढ़ेगी, जैसे
— जैसे होश सघन
होगा, वैसे—वैसे
तुम
चौकोगे—खिलौने
गिर गये! झूठ
खो गये, सपने
विदा हो गये।
तब जो शेष रह
जाता है वही
परमात्मा है,
वही प्रीतम
है। मैंने तो
तुम से कभी
कहा नहीं कि
तुम संसार
छोड़ो, कि
तुम प्रकृति
छोड़ो, कि
तुम देह छोड़ो।
मुझे तो सब
अंगीकार है, सर्व
स्वीकार है।
मैं तुम्हें
सर्व स्वीकार
का धर्म दे
रहा हूं। मैं
तुम्हें
जीवन—विधायक
धर्म दे रहा
हूं।
निषेध
की बातें
मनुष्य को खूब
भटकाई—यह छोड़ो
वह छोड़ो, यह
तोड़ो वह तोड़ो।
उससे एक तरह
का धर्म पैदा
हुआ जो बहुत
विध्वंसक था।
मैं
तुम्हें एक
सृजनात्मक
धर्म दे रहा हूं
जिसमें छोड़ना
कुछ भी नहीं; जो
है, उसे
रूपांतरित
करना है। और
रूपांतरण की
कीमिया एक ही
है। अभी तुम
बेहोशी से जी
रहे हो, अब
ध्यान की
प्रक्रिया
समझो और होश
से जीने लगो।
ध्यान की आग
तुम्हारे
भीतर जल जाये,
शेष सब
अपने—आप हो
जायेगा। शेष
सब अपने—आप हो
ही जाता है।
आखिरी
प्रश्न :
प्यारे
भगवान! आपके
प्रवचनों से
अंतर में सवाल
उठा है कि
भगवान क्या आप
धर्मयुद्ध की
तैयारी कर रहे
हैं? यदि यह
सच हो तो आपके
महाकार्य के
लिए मैं तैयार
हूं।
तरु, तुझे
अब पता चला? यह
धर्मयुद्ध चल
ही रहा है, और
तू युद्ध में
अग्रपंक्ति
में ही खड़ी
है। मगर यह
बड़े प्रेम का
युद्ध है, इसलिए
शायद पता नहीं
चलता है। और
यह बड़ा शीतल युद्ध
है।
धर्म
का युद्ध शीतल
ही हो सकता
है। यह आग
ठंडी आग है; जो
रोशनी तो देगी,
लेकिन
जलायेगी नहीं!
आग को ही
देखकर जो भाग
खड़े होंगे, वे समझ ही न
पाये।
उन्होंने आग
देखी, उन्होंने
समझा कि जल
जायेंगे, इसलिए
भाग गये। यह
आग ठंडी आग है!
यह जलाती नहीं।
इसके तुम
जितने करीब
आओगे, उतना
ही शीतल
करेगी।
मूसा
के जीवन में
उल्लेख है, जब
मूसा ने पहली
दफा ईश्वर का
दर्शन किया तो
बहुत चौंके।
चौंकाने वाली
बात क्या थी? चौंकाने
वाली बात थी
कि ईश्वर
प्रगट हुआ था
एक लपट की
भाति। एक हरी
झाड़ी में एक
लपट जल रही थी
और झाड़ी हरी
की हरी थी और
झाड़ी जल नहीं
रही थी! आग
देखी झाड़ी में
जलती; आग
जैसी आग
थी—निर्धूम
अग्नि थी, शुद्ध
अग्नि थी! मगर
झाड़ी हरी थी! न
फूल कुम्हलाये
थे, न
पत्ते
कुम्हलाये
थे।
यह
बड़ा प्यारा
प्रतीक है।
धर्म की आग
ठंडी आग है!
फूल इसमें
कुम्हलाते
नहीं, और निखर
जाते हैं!
पत्ते सूख
नहीं जाते, और हरे हो
जाते हैं।
धर्म की आग
जीवन की आग है,
मृत्यु की
नहीं।
युद्ध
तो चल ही रहा
है। जब भी कोई
बुद्ध होता है, तो
युद्ध होता
है! वह बुद्ध
के होने में
ही शुरू हो जाता
है, करना
नहीं पड़ता।
ऐसा मत सोचना
कि मैं कोई
युद्ध का
व्यूह रच रहा
हूं। यहां है
कौन, जो
व्यूह रचे? लड़ना किससे
है? लड़नेवाला
कौन है? मैं
कोई युद्ध का
व्यूह नहीं रच
रहा हूं।
लेकिन
जब भी कोई
बुद्ध होता है
तो युद्ध होता
ही है। बुद्ध
के होने में
युद्ध शुरू हो
जाता है। वह
रोशनी
तुम्हारे
अंधेरे को
तोड़ने लगती है; वही
युद्ध है। वह
ज्योति
तुम्हारी
धारणाओं को
खंडित करने
लगती है, वही
युद्ध है। वह
तलवार चैतन्य
की तुम्हारी मूर्तियों
को खंडित करने
लगती है। यही
युद्ध है।
तुम्हारे
मंदिर गिरने
लगते हैं।
तुम्हारी
मस्जिदें नाराज
होने लगती
हैं।
तुम्हारे
गिरजे क्रुद्ध
होने लगते
हैं। और ऐसा
नहीं है कि
बुद्ध कोई
चेष्टा करके
किसी के युद्ध
में संलग्न
होता है, बुद्ध
के होने में
ही युद्ध है।
मगर युद्ध बड़ा
शीतल है।
कुछ
मेरे बाद और
भी आयेंगे
काफिले
कांटे
यह रास्ते से
हटा लूं तो
चैन लूं।
बुद्धों
का आना रास्ते
से कांटे
हटाने के लिए है।
जब भी कोई जाग
जाता है, फिर
जितने दिन
जीता है एक ही
काम करता है
कि रास्तों से
कांटे हटाता
है। हालांकि,
तुम्हें वे
कांटे कांटे
नहीं मालूम
होते, तुम्हें
फूल मालूम
होते हैं। तुम
उन्हें छोड़ना
भी नहीं
चाहते। तुम
जद्दोजहद
करते हो।
तुम्हें तो
जंजीरें आभूषण
मालूम होती
हैं।
और
जब तुमसे कोई
तुम्हारे
आभूषण छीनने
लगे,
तो तुम
नाराज होओगे
ही स्वभावत:।
छीननेवाले को
तुम्हारी
जंजीरें
दिखाई पड़ रही
हैं, तुम
उन्हें आभूषण
मान रहे हो।
और यह भी हो
सकता है, तुम्हारी
जंजीरें सोने
की हों; फिर
भी क्या फर्क
पड़ता है, सोने
भर से कोई
जंजीरें
आभूषण नहीं हो
जातीं।
इलाही
दुनिया में
अभी कुछ दिन
कयामत न आने
पाये!
तेरे
बनाये हुए बशर
को अभी मैं
इन्सां बना
रहा हूं
तूने
जो आदमी बनाया
था।
बुद्धपुरुष
परमात्मा के
बनाये हुए
आदमी को इनसान
बनाने की
चेष्टा में
संलग्न होते
हैं। मगर भारी
युद्ध है! वैसा
ही जैसे कि
कोई पत्थर को
तोड़ कर मूर्ति
बनाता है, तो
छैनी—हथौड़ी
उठानी पड़ती
है। पत्थर
नाराज भी होता
होगा। चोट भी
पड़ती है, तो
पीड़ा भी होती
होगी। मगर
पत्थर को क्या
पता, अभागे
पत्थर को क्या
पता कि यह
दुर्भाग्य
नहीं है, सौभाग्य
है। लेकिन यह
पता तो अंत
में चलेगा। यह
तो तब पता
चलेगा, जब
पत्थर कट कर
शतइr बन
जायेगा! एक
सुंदर मूर्ति
प्रगट होगी तब
पता चलेगा। तब
पत्थर
धन्यवाद
देगा। मगर यह
तो अंतिम बात
है। रास्ता तो
कठिन होने
वाला है।
'असद'
चलो कि बदल
दें हयात की
तस्वीर
हमारे
साथ जमाने का
फैसला होगा
यह
घटना कुछ छोटी
घटना नहीं है।
यह मेरे साथ तुम्हारा
होना, तुम्हारा
मेरे साथ होना
कोई छोटी घटना
नहीं है! जीसस
के साथ कितने
लोग थे? दस—बारह
लोग थे। जो
निकटतम शिष्य
थे, बारह
थे। उनमें से
भी एक दगा दे
गया। और जो
श्रावक थे, सुननेवाले
थे, वे भी
सौ—दो—सौ से
ज्यादा नहीं
थे। और जब
जीसस को सूली
लगी तो दुश्मन
कितने थे
मालूम है? एक
लाख लोग देखने
इकट्ठे हुए
थे—पत्थर
फेंकने, गालियां
देने!
यही
बुद्ध के साथ
हुआ,
यही सुकरात
के साथ हुआ।
साथ—संग तो कम
लोग देंगे, क्योंकि
सत्य के साथ
होने की
क्षमता ही दुर्लभ
है, उतना
साहस दुर्लभ
है। जब तक
तुम्हें याद न
आ जाये कि
तुम्हारे
भीतर कितना
बड़ा खजाना
छिपा पड़ा है, तुम हिम्मत
न जुटा पाओगे।
अपना
अदाशनास बन
अपना जमाल भी
तो देख
तुझ
में कमी है
कौन—सी, तुझ
में कमी कोई
नहीं
जब
तुम्हें यह
भरोसा आ
जायेगा।
तुझ
में कमी है कौन—सी, तुझ
में कमी कोई
नहीं
अपना
अदाशनास बन
अपना जमाल भी
तो देख
जब
तुम अपना गौरव
देखोगे तो साथ
हो पाओगे किसी
बुद्ध के पास।
थोड़े से ही
लोग अपने गौरव
को देख पाते
हैं,
नहीं तो लोग
कीड़े—मकोड़ों
की तरह ही
सरकते रहते
हैं। उन्हें
याद ही नहीं
आती कि
परमात्मा को छिपाये
बैठे थे।
उन्हें पता ही
नहीं चलता कि
भीतर एक
ज्योति दबी थी,
जो प्रगट हो
जाती तो जीवन
आनंद ही आनंद
हो जाता।
थोड़े—से
लोग साथ होंगे, बडी
संख्या विरोध
में होगी। और
इसलिए अनायास युद्ध
शुरू हो जाता
है।
एक
लम्हे को भी
वक्त की
गर्दिश न थमी
हस्वे—दस्तृर
महो—साल बदलते
ही रहे
एक
लौ,
एक लगन, एक
लहक दिल में
लिये
हम
मुहब्बत की
कठिन राह पै
चलते ही रहे।
कितने
पुरपेच
मराहिल को
किया तै हमने
वादियां
कितनी मिलीं
बीच में
दुश्वार—गुजार
सैकड़ों
संगे—गिरा राह
में हाइल थे
मगर
एक
लम्हे को भी
टूटी न जुनू
की रफ्तार
आज
छाये हैं वो
घनघोर अंधेरे
लेकिन
जिनमें
ढूंढे से भी
मिलते नहीं
राहों के सुराग
वो
अंधेरे, कि
निकलते हुए
डरती हो निगाह
सामने
हो तो नजर आये
न मंजिल का
चिराग
इन
धुआंधार
अंधेरों से
गुजरने के लिए
खूने—दिल
से कोई मशअल
तो जलानी होगी
इश्क
के
रफ्ता—ओ—सरगश्ता
जुनू को ऐ
दोस्त!
जिंदगानी
की अदा आज
सिखानी होगी।
अँधेरा
बहुत है।
आज
छाये हैं वो
घनघोर अंधेरे
लेकिन
जिनमें
ढूंढे से भी
मिलते नहीं
राहों के सुराग
वो
अंधेरे, कि
निकलते हुए
डरती हो निगाह
सामने
हो तो नजर आये
न मंजिल का
चिराग
लेकिन
फिर भी कुछ
कहना तो होगा।
इन
धुआंधार
अंधेरों से
गुजरने के लिए
खूने—दिल
से कोई मशअल
तो जलानी होगी
फिर
चाहे दिल का
खून ही डाल कर
क्यों न मशाल
जलानी पड़े, मशाल
तो जलानी
होगी...!
इन
धुआंधार
अंधेरों से
गुजरने के लिए
खूने—दिल
से कोई मशअल
तो जलानी होगी
इश्क
के रफ्ता—
ओ—सरगश्ता
जुनू को ऐ
दोस्त!
जिंदगानी
की अदा आज
सिखानी होगी।
कुछ
थोड़े पागलों
की जरूरत है, कुछ
जुनूनवालों
की जरूरत है।
उन्हीं को
इकट्ठा करने
में लगा हूं।
उन्हीं को मैं
संन्यासी कह
रहा हूं—वें
जो मेरे साथ
दीवाने होने
को राजी हैं।
युद्ध
तो शुरू हो गया
है,
तरु! युद्ध
तो चल ही रहा
है! जिस दिन
मैं जागा उस दिन
शुरू हो गया।
और इतने लोगों
को जगाकर छोड़ जाना
है कि युद्ध
जारी रहे, कि
युद्ध कभी
समाप्त न हो
सके। और तू
इसमें सम्मिलित
है। और बहुत
इसमें
सम्मिलित
हैं। और उन्हें
भी शायद पता न
हो, क्योंकि
प्रेम की मस्ती
ऐसी है! और
युद्ध का
रंग—ढंग प्रेम
का रंग—ढंग
है। और यह आग
शीतल है, ठंडी
है!
इन
धुआंधार
अंधेरों से
गुजरने के लिए
खूने—दिल से
कोई मशअल तो
जलानी होगी
इश्क के
रफ्ता— ओ—सरगश्ता
जुनू को ३
दोस्त!
जिंदगानी की
अदा आज सिखानी
होगी।
आज
इतना ही
ओशो
के विषय मे
ओशो
की चेतना बचपन
से ही मुक्त
और विद्रोही
थी। बचपन से
ही वे धर्म, समाज
व राजनीति की
स्वीकृत
परंपराओं को
चुनौती देते
रहे और सत्य
के लिए दूसरों
द्वारा दिए गए
ज्ञान व मतों
को मानने की
अपेक्षा
स्वयं ही
प्रयोग करने
का आग्रह करते
रहे।
21 मार्च 1953
को इक्कीस वर्ष
की आयु में
ओशो परम
संबोधि को
उपलब्ध हुए।
अपने विषय में
वे कहते हैं, '' अब मैं किसी
भी चीज की खोज
में नहीं हूं।
अस्तित्व ने
अपने सब द्वार
मेरे लिए खोल
दिए हैं; मैं
तो यह भी नहीं
कह सकता कि
मैं अस्तित्व
से संबंध रखता
हूं क्योंकि
मैं तो इसी का
एक हिस्सा हूं...
जब कोई फूल
खिलता है, तो
उसके साथ मैं
भी खिलता हूं।
जब सूर्य ऊगता
है तो उसके
साथ मैं भी
ऊगता हूं।
अहंकार, जो
लोगों को
विभाजित करता
है, अब
मुझमें नहीं
है। मेरा शरीर
प्रकृति का
हिस्सा है और
मेरा होना
पूरी समग्रता
का अंग है। मैं
कोई भिन्न
इकाई नहीं
हूं। ''
अपने
कार्य के
दौरान ओशो ने
वस्तुत:
मानव—चेतना के
विकास के हर
पहलू पर बोला
है। सिग्मंड
फ्रायड से
च्चांग्ब्ल
जार्ज
गुरजिएफ से
गौतम बुद्ध, जीसस
क्राइस्ट से
रवींद्रनाथ
टैगोर आदि सैकड़ों
रहस्यदर्शियों
और
विश्व—प्रतिभाओं
को ओशो ने
समसामयिक
मनुष्य के लिए
पुनरुज्जीवित
किया है, जो
बौद्धिक समझ
पर नहीं वरन
उनके अपने
अस्तित्वगत
अनुभव की परख
पर आधारित है।
वे
किसी परंपरा
से संबंध नहीं
रखते— ''मैं एक
बिलकुल नई
धार्मिक
चेतना की
शुरुआत हूं। ''
वे कहते हैं,
''कृपया
मुझे अतीत के
साथ मत
जोड़ो—वह याद
रखने योग्य भी
नहीं है। ''
विश्व
भर से आए
शिष्यों और
साधकों को दिए
गए उनके
प्रवचन लगभग
छह सौ पचास
पुस्तकों में
प्रकाशित हो
चुके हैं और
तीस भाषाओं
में अनुवादित
हो चुके हैं।
वे कहते हैं, ''मेरा
संदेश कोई
सिद्धात, कोई
चिंतन नहीं
है। मेरा
संदेश तो
रूपांतरण की
एक कीमिया, एक विज्ञान
है। वे ही लोग
जो तैयार हों
मरने को और
ऐसे नए रूप में
पुनरुज्जीवित
होने को जिसकी
वे अभी कल्पना
भी नहीं कर
सकते.. केवल
वही थोड़े से
साहसी लोग मुझे
सुनने को
तैयार होंगे,
क्योंकि
सुनना जोखिम
से भरा होगा।
''सुनकर, तुमने
पुनरुज्जीवित
होने की ओर
पहला कदम उठा लिया।
तो यह कोई
सिद्धात नहीं
है जिसका तुम
दुशाला ओढ़ लो
और डींग
हांकते फिरो।
यह कोई चिंतन
नहीं है जिसमें
तुम
पीड़क—प्रश्नों
से सांत्वना
खोज लो. नहीं, मेरा संदेश
कोई शाब्दिक
संप्रेषण
नहीं है। यह
तो ज्यादा
जोखिम से भरा
है। यह मृत्यु
और पुनर्जन्म
से कम नहीं
है। ''
पिछले
पैंतीस
वर्षों से ओशो
बोलकर, मौन
सत्संग देकर
या कम्यून
जीवन का अभिनव
प्रयोग करवा
कर मनुष्य में
क्रांति और
जागरण फलित
हो—इस महासृजन
में सतत रत
रहे हैं।
28 अक्यूबर, 1985 को
रूढ़िवादी व
मतांध ईसाई
नीतियों से
ग्रस्त संयुक्त
राज्य
अमेरिका की
निरंकुश रीगन
सरकार ने ओशो
को अकारण व
बिना किसी
वारंट के गिरफ्तार
करवाया और
बर्बरतापूर्वक
उनको पूरे अमेरिका
भर में एक जेल
से दूसरी जेल
में बारह दिन
तक घुमाया।
इसी
जेल—प्रवास के
दौरान ओशो को
थेलियम नामक
धीमा असर करने
वाला जहर दिया
गया और उनके
शरीर को
प्राणघातक
रेडिएशन से भी
गुजारा गया।
तब से उनका
शरीर निरंतर
अस्वस्थ रहने
लगा और भीतर
से जर्जर होता
चला गया, जिसके
बावजूद वे ओशो
कम्यून
अंतर्राष्ट्रीय,
पूना के
गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में 1०
अप्रैल, 1989
तक प्रतिदिन
संध्या दस
हजार शिष्यों,
खोजियों और
प्रेमियों की
सभा में
प्रवचन देते
रहे और उन्हें
ध्यान में
डुबाते रहे।
फिर 17
सितंबर, 1989
से गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में आधे घंटे
के लिए आकर
ओशो मौन
दर्शन—सत्संग
के संगीत और
मौन में सबको
डुबाते रहे। यह
बैठक '' ओशो
व्हाइट रोब
ब्रदरहुड '' कहलाती है।
16 जनवरी, 199०
तक प्रतिदिन
संध्या सात
बजे से व्हाइट
रोब ब्रदरहुड
की सभा में
ओशो
सत्संग—दर्शन
में उपस्थित
रहे। फिर 17
जनवरी को वे
सभा में केवल
नमस्कार करके
वापस चले गए। 18
जनवरी को
व्हाइट रोब
ब्रदरहुड की
संध्या—सभा
में उनके निजी
चिकित्सक
स्वामी अमृतो ने
सूचना दी कि
ओशो के शरीर
में इतना दर्द
है कि वे
हमारे बीच
नहीं आ सकते, लेकिन वे
अपने कमरे में
ही सात बजे से
हमारे साथ
ध्यान में
बैठेंगे।
दूसरे दिन 19 जनवरी, 199०
की संध्या—सभा
में घोषणा की
गई कि ओशो
अपनी देह छोड्कर
पांच बजे
अपराह्न को
महाप्रयाण कर
गए हैं। उसी
संध्या ओशो की
इच्छा के
अनुरूप उनका
शरीर गौतम दि
बुद्धा
आडिटोरियम
में दस मिनट
के लिए लाकर
रखा गया। दस
हजार शिष्यों
और प्रेमियों
ने उनकी आखिरी
विदाई का
उत्सव
संगीत—नृत्य,
भावातिरेक
और मौन में
मनाया। फिर
उनका शरीर
दाहक्रिया के
लिए ले जाया
गया। 21
जनवरी, 199०
की पूर्वाह्न
में उनके
अस्थि—फूल का
कलश महोत्सवपूर्वक
कम्यून में
लाया जाकर
च्चाग्त्सु
हॉल में
निर्मित एक
संगमर्मर की
समाधि में स्थापित
किया गया। ओशो
की समाधि पर
स्वर्ण अक्षरों
में अंकित है.
ओशो
जिनका
न कभी जन्म
हुआ, न
मृत्यु
जो केवल 11
दिसम्बर 1931 से
19
जनवरी 199०
के बीच
इस
पृथ्वी ग्रह
पर आए
विदा
होने के पूर्व
वे ऐसे शांत
थे— मानो कुछ दिनों
की छुट्टियों
के लिए कहीं
जा रहे हैं!
ओशो
ने अपने कार्य
के संबंध में
कुछ बहुत स्पष्ट
मार्गदर्शन
दिए हैं।
ओशो
के शारीरिक
रूप से विदा
हो जाने के
बाद संन्यासियों
को यह महसूस
हो रहा है कि
ओशो अब हमारे
बीच पहले से
भी ज्यादा
उपलब्ध हैं; कम्यून
में उनकी
ऊर्जा पहले से
भी ज्यादा सघन
और प्रगाढ़
प्रतीत होती
है। ओशो की
जीवंत उपस्थिति
से ओतप्रोत इस
बुद्ध—ऊर्जा—
क्षेत्र में उनके
शरीर छोड़ने के
बाद
क्रांतिकारी
रूपांतरण आया है।
ऐसा
महसूस होता है
कि ओशो का
कार्य समाप्त
नहीं, अब
प्रारंभ हुआ
है।
अपने
शरीर से विदा
होने के
संदर्भ में
ओशो के कुछ
उद्गार इस
प्रकार हैं :
''मैं चाहता
हूं कि मेरे
संन्यासी
मेरी स्वतंत्रता,
मेरा होश, मेरा चैतन्य
अपने
उत्तराधिकार
के रूप में ग्रहण
कर लें। ''
''यदि तुमने
मुझे प्रेम
किया है तो
तुम्हारे लिए
मैं हमेशा
जिंदा
रहूंगा। मैं
तुम्हारे प्रेम
में जीऊंगा।
यदि तुमने
मुझे प्रेम
किया है तो
मेरा शरीर मिट
जाएगा तब भी
मैं तुम्हारे
लिए नहीं मर
सकता। ''
''तुम जहां भी
हो, मौन
तुम्हें
मुझसे जोड़
देगा; और
तुम्हारी
प्रतीक्षा वह
पृष्ठभूमि
पैदा कर देगी
जिसमें
मेरा—तुम्हारा
ऐसा मिलन हो
सके जो अशरीरी,
चिन्मय और
शाश्वत हो।...
''मेरे साथ
तुम बहुत समय
तक रहे हो, तुम
अच्छी तरह
जानते हो कि
मेरी मौजूदगी
में तुम्हारे
साथ क्या घटता
है। बस इसे
मौका दो.
आंखें बंद कर
लो, मौन
होकर बैठ जाओ,
और उसी घटना
की प्रतीक्षा
करो। और तुम
हैरान होओगे
कि मेरी
शारीरिक
उपस्थिति की
कोई जरूरत नहीं
है। तुम्हारा
हृदय उसी लय
में धड़क सकता
है—इस अनुभव
से तुम परिचित
हो। तुम्हारे
प्राण उसी
गहराई तक शांत
हो सकते
हैं—उसका
तुम्हें
भलीभांति
अनुभव है। और
फिर कोई दूरी
नहीं रह
जाती।...
''यदि संसार
भर में तुम
मेरी मौजूदगी
को अनुभव करने
लगो, तो
कोई देश मेरी
उपस्थिति को
अपनी जमीन में
प्रवेश करने
से नहीं रोक
सकता। कोई
सरकार मुझे तुम्हारे
हृदय में
प्रवेश करने
से नहीं रोक
सकती।...
''तुम जहां भी
हो मैं
तुम्हें
उपलब्ध हूं।
तुम जहां भी
हो मैं
तुम्हारे साथ
हूं। बस खुले
रहो, ग्राहक
रहो। ''
''
(शरीर से
विदा होकर )
मैं अपने
लोगों में
विलीन हो
जाऊंगा। ठीक
जैसे कि तुम
सागर को कहीं
से भी चखो तो
उसे खारा
पाओगे, ऐसे
ही मेरे किसी
भी संन्यासी
को चखोगे और
तुम भगवत्ता
का स्वाद पाओगे।...
''मैं अपने
लोगों को
आनंदोत्सवपूर्वक,
मस्तीपूर्वक
जीने के लिए
तैयार कर रहा
हूं। तो जब
मैं अपने शरीर
में न रहूंगा,
उससे उनको
कोई फर्क न
पड़ेगा। वे तब
भी उसी ढंग से
जीएंगे—और हो
सकता है मेरी
मृत्यु उनमें
और भी त्वरा
ला दे। ''
''मैं सब तरह
के प्रयास
करता रहा हूं
कि तुम अपनी
निजता के
प्रति, अपनी
स्वतंत्रता
के प्रति सचेत
रहो—बिना किसी
सहायता के
स्वयं के
विकास की परम
संभावना के
प्रति सजग
रहो।.. मैं
पूरा प्रयास
कर रहा हूं कि
तुम सबसे
मुक्त हो
जाओ—मुझसे भी
मुक्त हो जाओ
और खोज की
यात्रा में
अकेले होने
में तुम समर्थ
हो जाओ।. और जो
ध्यान की
विधियां मैंने
तुम्हें दी
हैं, वे
मुझ पर निर्भर
नहीं हैं।
मेरी
उपस्थिति या अनुपस्थिति
से उनमें कुछ
फर्क नहीं
पड़ेगा।...
''तो स्मरण
रखो, जब
मैं विदा हो
चुका होऊंगा,
तब तुम कुछ
खोने वाले
नहीं हो। शायद
तुम कुछ ऐसा
उपलब्ध कर
पाओगे, जिसका
तुम्हें
बिलकुल ही कोई
बोध नहीं है।...
''जब मैं विदा
हो जाऊंगा, तो मैं जा
कहां सकता हूं?
मैं यहां ही
रहूंगा—हवाओं
में, सागरों
में। और यदि
तुमने मुझे
प्रेम किया है,
यदि तुमने
मुझ पर भरोसा
किया है, तो
तुम मुझे
हजारों रूपों
में अनुभव
करोगे। अपने
मौन क्षणों
में अचानक तुम
मेरी
उपस्थिति को
अनुभव करोगे।
''एक बार मैं
देहमुक्त हुआ
कि मेरी चेतना
विश्वव्यापी
हो जाएगी। अभी
तुम्हें मेरे
पास आना पडता
है, तब
तुम्हें मुझे
खोजने और
ढूंढने की
जरूरत नहीं
रहेगी। तुम
जहां कहीं भी
हो, तुम्हारी
प्यास, तुम्हारा
प्रेम—और तुम
मुझे अपने
हृदय में पाओगे,
अपने हृदय
की धडकन में
ही पाओगे। ''
''
अस्तित्व
में मेरा
भरोसा और मेरी
आस्था समग्र
है। जो मैं कह
रहा हूं उसमें
यदि कोई भी
सत्य है तो वह
पीछे जीवित
बचेगा। जो लोग
मेरे कार्य
में उत्सुक
बने रहेंगे वे
बस मशाल को
आगे ले चल रहे
होंगे, बिना
किसी पर कुछ
थोपते हुए—न
तलवार (बल
प्रयोग ) के
जरीए, न
ब्रेड (लोभ
प्रयोग ) के
जरीए। मैं
अपने लोगों के
लिए प्रेरणा
का स्रोत बना
रहूंगा, और
ऐसा अधिकांश
संन्यासी
अनुभव
करेंगे। मैं चाहता
हूं कि वे
स्वयं ही
विकसित हों..
ऐसे सद्गुण
जैसे
प्रेम—जिसके
आसपास कोई चर्च—मंदिर—मस्जिद
अथवा धर्म खड़ा
नहीं किया जा
सकता; जैसे
जागरूकता—जिस
पर किसी का
एकाधिकार
नहीं है; जैसे
उत्सव, उल्लासमयता,
और शिशु
जैसी ताजी और
निर्दोष
आंखें बरकरार
रखना। मैं
चाहता हूं कि
लोग स्वयं को
जानें—किसी और
के अनुसार न
बनें; और
इसका मार्ग
है—भीतर। ''
''मेरे संबंध
में कभी भी
अतीत काल में
बात मत करना।
प्रताड़ित
शरीर के बोझ
से मुक्त होकर
मेरी उपस्थिति
कई गुना बढ़
जाएगी। मेरे
लोगों को याद
दिलाना कि वे
अब मुझे और भी
अधिक महसूस
करेंगे—और वे
इसे तत्क्षण
पहचान जाएंगे।
''
''
अब जब मैं
अपना शरीर छोड़
रहा हूं और
बहुत से लोग
आएंगे, बहुत—बहुत
से और लोगों
का रस जगेगा।
और मेरा कार्य
इतने
अविश्वसनीय
रूप से बढ़ेगा,
जिसकी तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
''
एक
इति.....
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