उनमनि रहिबा—प्रवचन—उन्नीसवां
दिनांक: 19 नवंबर,1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
घटि
घटि गोरख बाही
क्यारी। जो
निपजै सो होइ
हमारी।
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी। काचै
भांडै रहै न
पाणी।।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता। को घट
जागे को घट का।
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन। आपा
परचै गुरमुषि
चीन्ह।।
सुणि
गुणवता सुणि
बुधिवता, अनंत
सिधां की
वाणी।
सीस
नवावत सतगुरु
मिलिया, जागत
रैन बिहाणी।।
उनमनि
रहिबा भेद न
कहिबा, पियबा
नीझर पाणी।
लंका
छाडि पलका
जाइबा, तब
गुरुमुष लेबा
वाणी।।
थंभ
बिहूंणी गगन
रचीलै, तेल
बिहूंणी
बाती।
गुरु
गोरख के वचन
पतिआया, तब
द्यौंस नहीं
तहा राती।।
उदय
न अस्त राति न
दिन, सरबे
सचराचर भाव न
भिन्न।
सोई
निरंजन डाल न
मूल, सब
व्यापीक सुषम
न अस्थूल।।
कहा
बुझै अवधू राई
गगन न धरणी, चंद
न सूर दिवस
नहीं रैनी।
ओंकार
निराकार
सूछिम न
अस्थूल, पेडू
न पत्र फलै
नहीं फूल।।
डाल
न मूल न वृष न
बेला, साषी
न सबद गुरु
नहीं चेला।
ग्याने
न ध्याने जोगे
न जुक्ता, पापे
न पुने मोषे न
मुक्ता।।
उपजै
न विनसै आवै न
जाई, जुरा न
मरण बांके बाप
न माई।
भणत
गोरखनाथ
मछींद्र नौ
दासी, भाव
भगति और आस न
पासा।।
यह
समय जो गोरख
के साथ बीता, तीर्थयात्रा
थी। इस समय को
तुम जिंदगी
में गिनती कर
सकते हो। सारे
दिन जिंदगी
में नहीं गिने
जाते; नहीं
गिने जा सकते
हैं। वे ही
दिन जो
प्रभु—स्मरण
में बीतें, वे ही दिन जो
प्रभु के गीत
से पगे हों—बस
उतने ही दिन
जीवन में गिने
जा सकते हैं।
इन दिनों को तुम
जिंदगी में
गिन लेना। ये
बहुमूल्य दिन
थे।
गोरख
के अमृत शब्द
सुन भी लिये
हैं,
कान में पड़
भी गये, तो
भी बहुत कुछ
हो जायेगा। वे
बीज बन
जायेंगे; ठीक
समय पर
अंकुरित होने
लगेंगे।
कटा
है
नासेहे—मुसफिक्कस
से गुफ्तगू
में जो वक्त
उसे
तू जीस्त की
मीयाद में
शुमार न कर।
कवि
ने ठीक कहा है
कि
पंडित—पुरोहितों
के साथ धर्म—चर्चा
में जो समय
गया है, हे
प्रभु, उसे
तू मेरी
जिंदगी में
शुमार मत करना,
वह व्यर्थ
ही गया है।
कटा है
नासेहे—मुसफिक्कस
से गुफ्तगू
में जो वक्त
उसे
तू जीस्त की
मीयाद में
शुमार न कर।
लेकिन
गोरख पंडित
नहीं हैं, ज्ञानी
हैं। गोरख जो
कहे हैं जान
कर कहे हैं। उनके
साथ गुफ्तगू में
जो समय गया, उसे तुम
जिंदगी में
शुमार कर
लेना। वे दिन
चमकते
रहेंगे। उन
दिनों में एक
अलग प्रकाश और
एक अलग संगीत
आ गया है।
शब्द
तो गोरख के
सीधे—साफ हैं।
सैकड़ों साल के
बाद भी उनकी
चोट जीवंत है।
जो बिलकुल
मुर्दा नहीं
हैं,
उनके हृदय
में अब भी
रोमांच हो
आयेगा। जो मर
ही नहीं गये
हैं, संवेदनहीन
ही नहीं हो
गये हैं, उनकी
हृदय—वीणा के
तार छिड़
जायेंगे।
घटि
घटि गोरख बाही
क्यारी।
एक—एक
हृदय में उसी
की बगिया है।
बगिया, प्रतीक
प्यारा है!
मनुष्य जो भी
बनाता है वह बन
तो जाता है, लेकिन बढ़ता
नहीं। कितने
आकाश को
छूनेवाले भवन हम
बनाते हैं; बन तो जाते
हैं, मगर
मुर्दा होते
हैं, बढ़ते
नहीं। और जहां
बढ़ाव नहीं, वहां जीवन
नहीं। इसलिए
आदमी जितनी
चीजें बनाता
है, सब
मुर्दा होती
हैं।
परमात्मा की
बनायी सब चीजें
बढ़ती हैं।
उनमें गति
होती है, वे
गत्यात्मक
होती हैं। बीज
कैसा लगता है,
पत्थर जैसा!
लेकिन जल्दी
ही उसमें
अंकुर आ जाता
है। जल्दी ही
पत्ते निकल
आते हैं।
जल्दी ही
शाखाएं.. जल्दी
ही बड़ा वृक्ष
खड़ा हो जाता
है। कल्पना भी
न कर सकते थे
उस बीज में इस
वृक्ष की।
इतना बड़ा वृक्ष
उसमें छिपा
होगा, इसे
सपने में भी
नहीं सोच सकते
थे! छिपा था, सिर्फ प्रगट
होने की
प्रतीक्षा
करता था।
ऐसा
ही मनुष्य है।
उसके भीतर
विराट छिपा है, सिर्फ
वसंत की
प्रतीक्षा
है। और जिसे
सत्संग मिल
गया, उसका
वसंत आ गया।
जिसे सदगुरु
मिल गया, उसका
समय आ गया, उसकी
घडी आ गयी; बीज
के टूटने का
क्षण आ गया।
सदगुरु की
भूमि में ही, सत्संग के
वसंत में ही, तुम अंकुरित
हो सकोगे।
बहुत
अभागे हैं वे
लोग जो बीज की
भांति ही जीते
और बीज की
भांति ही मर
जाते।
क्योंकि
उन्हें पता ही
नहीं चल पाता
कि कितनी
हरियाली
उनमें छिपी थी; कितना
जीवन वे अपने
भीतर छिपाए
बैठे थे, कितने
सुर्ख फूल
उनके भीतर थे!
कितनी शाखाएं
निकलतीं और
आकाश में
फैलती, और
बादलों से
गुफ्तगू होती
और चांद—तारों
से मुलाकात
होती! और फूल
खिलते और गंध
बिखरती। और न
मालूम कितने
यात्री उनके
नीचे विश्राम
करते। और न
मालूम कितने
पक्षी उन
शाखाओं में
नीड़ बनाते।
बीज
को तोड़ोगे तो
यह कुछ भी न
पाओगे। बीज को
तोड़ोगे तो एक
पत्ता भी न
मिलेगा। और
अनंत पत्ते हो
सकते थे। बीज
की भी टूटने
की समायोजना
करनी होती है।
आदमी
को ऐसा ही
तोड़कर देखोगे, जैसा
विज्ञान
देखता है, तो
आत्मा मिलती
ही नहीं। यह
तुमने बीज को
तोड़ लिया।
उठाया पत्थर
और बीज को
चकनाचूर कर
दिया। अब तुम
पूछते हो :
कहां हैं
इसमें पत्ते
और कहां हैं
फूल, और
कहां है गंध, कहा है
हरियाली! कहां
हैं वे शाखाएं
जिनकी बातें
की जाती थीं? कुछ भी न
मिलेगा। गलत
ढंग से तोड़
दिया बीज। बीज
तो जमीन में
गिरकर टूटना
चाहिए। बीज तो
अपने से टूटना
चाहिए, किसी
के द्वारा
तोड़ा नहीं
जाना चाहिए।
बीज तो जमीन
में गलना
चाहिए।
आहिस्ता—आहिस्ता,
शनै: शनै:
भूमि में लीन
हो जाना
चाहिए। उसी
लीनता से
वृक्ष उठेगा,
जगेगा, जो
सोया पड़ा था
वह प्रगट
होगा। ऐसे ही
मनुष्य है।
अगर
वैज्ञानिक की
जांच—पड़ताल
आदमी के संबंध
में होगी तो न
आत्मा मिलेगी, न
परमात्मा
मिलेगा; न
कोई ध्यान, न कोई प्रेम,
नहीं कोई
फूल, नहीं
कोई गंध, नहीं
कोई संगीत, कुछ भी न
मिलेगा। यह तो
ऐसा ही है
जैसे कोई वीणा
को तोड़ ले और
सोचे कि वीणा
को तोड़ कर
संगीत को पा
लेगा! भरा
होगा संगीत
वीणा में...।
भरा है, मगर
वीणा तोड़कर
नहीं मिलता।
जगाना पड़ता है;
सोया है, उठाना पड़ता
है; पुकारना
पड़ता है।
किन्हीं
कलाकार की
अंगुलियों का
जादू चाहिए—जो
सोए को जगा दे,
जो छिपे को
बाहर बुला ले;
जो घूंघट
उठा दे!
घटि
घटि गोरख बाही
क्यारी।
गोरख
कहते हैं :
एक—एक हृदय
में,
एक—एक घट
में उसकी
बगिया तैयार
होने के लिए
मौजूद है, छिपी
है। एक पूरा
उपवन बन सकते
हो तुम। मगर
सम्यक ऋतु चाहिए।
सम्यक भूमि
चाहिए।
अनुकूल
वातावरण चाहिए।
इसी अनुकूल
वातावरण को
पैदा करने के
लिए सदियों—सदियों
में बार—बार
सदगुरुओं ने
सत्संग
निर्मित किये
हैं। बुद्ध के
पास संघ
बना—वह सत्संग
था। उसमें
हजारों बीज
टूटे और वृक्ष
बने। गोरख के
पास भी सत्संग
बना। ये
उन्हीं को कहे
गये वचन हैं।
मैं
तुम्हें
संन्यासी
कहता हूं गोरख
अपने संन्यासियों
को अवधूत कहते
थे। ये
अवधूतों को संबोधित
वचन हैं—जो
टूटने को राजी
थे,
जो मरने को
राजी थे, जो
मिटने को राजी
थे।
अरे, सूदो—जिया
देखा नहीं
जाता मुहब्बत
में
यह
सौदा और सौदा
है यह दुनिया
और दुनिया है
लाभ—हानि
नहीं देखी
जाती है
प्रीति में।
अरे, सूदो—जिया
देखा नहीं
जाता मुहब्बत
में
लाभ—हानि
का जो विचार
करता है वह तो
प्रेम से वंचित
ही रह जाता
है। और सदगुरु
के साथ होना
तो प्रेम की
परम घटना है।
सत्संग में
डूबना तो
प्रेम की चरम
परिणति है।
अरे, फो—जिया
देखा नहीं
जाता मुहब्बत
में
यह
सौदा और सौदा
है यह दुनिया
और दुनिया है
यह
ऐसा सौदा है
जिसमें हारने
से जीत होती
है;
जिसमें
खोने से पाना
होता है।
यह
सौदा और सौदा
है यह दुनिया
और दुनिया है
और
जो लोग ऐसी
दुनिया में
प्रवेश कर
जाते हैं और
ऐसा सौदा करने
की हिम्मत कर
लेते हैं, उनके
भीतर बीज
टूटते हैं।
अनंत—अनंत
रंगों में
उनके भीतर
परमात्मा की
अभिव्यक्ति
होती है। वे
क्यारिया बन
जाते हैं। वे
वसंत में
प्रगट हुए
उपवन बन जाते
हैं।
घटि
घटि गोरख बाही
क्यारी। जो
निपजै सो होड़
हमारी
लेकिन
खयाल रखना, जितना
प्रगट होगा
वही तुम्हारा
हो सकेगा।
जो
निपजै...।
अभी
कुछ प्रगट
नहीं हुआ है।
अभी तुम सिर्फ
बीज मात्र हो।
इसलिए अभी
तुम्हारे हाथ
में कुछ नहीं, सिर्फ
संभावना है।
संभावना को
वास्तविक करना
होगा।
जो
निपजै सो होड़
हमारी।
उतना
ही होगा तुम्हारा
जितना प्रगट
हो जायेगा। इस
बात को खूब
ध्यान में रख
लेना, सम्हाल
लेना; यह
बड़ी बहुमूल्य
बात है।
जो
निपजै सो होड़
हमारी।
उतना
ही है
तुम्हारा, जितना
तुम अपने भीतर
प्रगट कर
लोगे। वही गीत
तुम्हारा है
जो तुमने
गाया। वही
संगीत तुम्हारा
है जो तुमने
वीणा में जगा
लिया। वही फूल
तुम्हारे हैं
जो प्रगट हुए
हैं, और
जिन्होंने
हवा में गंध
बिखेरी।
अप्रगट तुम्हारा
नहीं है।
अप्रगट पर
तुम्हारा
क्या बस? छिपा
तुम्हारा
नहीं है।
घूंघट के पट
खोल! वह घूंघट
उठे, तो जो
चेहरा दिखाई
पड़े, वही
तुम्हारा है।
और बहुत कुछ
छिपा है, अनंत
छिपा है। तुम
चुकता न कर
पाओगे, इतना
छिपा है।
कभी
तुमने सोचा, एक
छोटा—सा बीज
सारी पृथ्वी
को हरियाली से
भर सकता है!
उसकी अनंतता
तुमने देखी, एक छोटे—से
बीज की अनंतता?
बिंदु में
छिपा सागर
देखा? एक
छोटा—सा बीज, वैज्ञानिक
कहते हैं, सारी
पृथ्वी को
हरियाली से भर
सकता है। एक
बीज से हजार
बीज होंगे, हजारों
बीजों से
करोड़ों बीज
होंगे, करोड़ों
बीजों से
अरबों बीज
होंगे। एक बीज
भर जमीन पर आ
जाये, तो
सारी पृथ्वी
फिर समय की ही
बात है.. सारी
पृथ्वी हरी हो
जायेगी।
एक
बीज की इतनी
क्षमता है, तो
तुम्हारे
भीतर जो बिंदु
है उसकी कितनी
क्षमता न
होगी!
तुम्हारे
भीतर जो
चैतन्य का बीज
है उसकी कितनी
क्षमता न
होगी!
तुम्हारे भीतर
सब छिपा है जो
बुद्धों में
प्रगट हुआ, जिनों में
प्रगट हुआ।
तुम्हारे
भीतर कुराने छिपी
पड़ी हैं; गाओ,
तुम्हारी
हो जायें। और
तुम्हारे
भीतर गीताएं
दबी पड़ी हैं; जगाओ और तुम्हारी
हो जायें। मगर
तुम तो दूसरों
की गीताएं गा
रहे हो, दूसरों
के कुरान गा
रहे हो।
तुम्हें अपने
को जगाने की
तो फुर्सत
नहीं मिल रही।
तुम अपने को तो
पुकारते ही
नहीं, तुम
तो उधार में
जी रहे हो।
तुम तो बाजार
से फूल खरीद
लाते हो और
गुलदस्ते सजा
लेते हो। तुम्हारी
क्यारी अभागी
है। अपार
संपदा लेकर
पैदा होते हो,
लेकिन कभी
उस पर अपना
दावा घोषित
नहीं करते। उतना
ही है
तुम्हारा, ख्याल
रखना... जो
निपजै सो होइ
हमारी।
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी।
गोरख
कहते हैं कि
मैं पुकारता
हूं तुम्हें।
यह जो मैं कह
रहा हूं ये जो
मेरे कथन हैं, ये
तुम्हारे लिए
आवाहन हैं। यह
सिर्फ बात की
बात नहीं है, यह पुकार
है। सुन लो तो
तुम्हारे
भीतर जो अभी अप्रगट
है प्रगट हो
जाये। जो नाच
तुम्हारे पैरों
में पड़ा है, उससे पृथ्वी
तरंगित हो
जाये। और जो
अपूर्व आकाश
तुम्हारे
भीतर है, वह
प्रगट हो, तो
सृष्टि
समृद्ध हो जाये!
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी।
इसलिए
कहते हैं कि
मैं एक—एक घट
में पुकारना चाहता
हूं। यह कहानी
मैं एक—एक से
कह देना चाहता
हूं। यह
तुम्हारे
भविष्य की
कहानी है। अब
यह गोरख के
लिए तो अतीत
की कहानी हो
गयी। यही गुरु
और शिष्य का
भेद है। जो
गुरु के लिए
अतीत हो गया है
वह शिष्य के
लिए भविष्य
है। जो गुरु
में वास्तविक
हो गया है, शिष्य
के लिए संभावी
है। जो गुरु
का बीता हुआ कल
है, वह
शिष्य का आने
वाला कल है।
और अगर आज इन
दोनों का मिलन
हो जाये, तो
सत्संग। बीता
कल और आनेवाला
कल जहां मिलते
हैं, उसी
को आज कहते
हैं न हम। इस
क्षण सारा
अतीत मिल रहा
है और सारा
भविष्य मिल रहा
है। जिस क्षण
वास्तविक हो
गये किसी
व्यक्ति का
मिलन, संभावी
किसी व्यक्ति
से हो जाता है,
उस क्षण
सत्संग हो
जाता है। उस
चिनगारी का
नाम सत्संग
है। और वह
चिनगारी
अपूर्व है। एक
दफा जल उठती
है तो फिर
बुझना नहीं
जानती।
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी। कांचै
भांडै रहै न
पाणी।
इतना
खयाल रखना कि
परमात्मा तो
बरसने को तत्पर
है,
लेकिन अगर
तुम कच्चे घड़े
हो, तो
सम्हाल न
पाओगे। ऐसा भी
नहीं कि
परमात्मा तुम
पर नहीं बरसा
है; बरसा
है, मगर
तुम कच्चे घड़े
हो! तो
परमात्मा की
वर्षा सौभाग्य
बनने के बजाय
उल्टे
दुर्भाग्य हो
जाती है। जो
जानते हैं
उनके लिए
दुर्भाग्य भी
सौभाग्य है, और जो नहीं
जानते उनके
लिए सौभाग्य
भी दुर्भाग्य
हो जाते हैं।
परमात्मा
बहुत रूपों
में तुम्हारे
पास आता है, मगर
तुम पहचान
नहीं
पाते—कच्चे
भांडै! उसकी
वर्षा होती है,
तुम्हारे
लिए
दुर्भाग्य की
घड़ी आ जाती
है। पको! कैसे
पकोगे? अग्नि
से गुजरना
होगा। इसलिए
सदियों—सदियों
में संन्यास
का जो रंग
चुना
गया—गैरिक—उसका
कारण इतना ही
था, वह
अग्नि का रंग
है। अग्नि से
गुजरना होगा,
साधना से
गुजरना होगा,
तो सधोगे, तो पकोगे।
सत्संग
में पुकार
सुनी जाती है।
साधना में
पुकार को
प्रयोग दिया
जाता है।
सत्संग में
बात जम जाती
है,
साधना में
उस जीवन को
रूपांतरित
किया जाता है।
साधना
तुम्हारे
भीतर कच्चे
घड़े को पकाने
का उपाय है।
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी कांचै
भांडै रहै न
पाणी।
गोरख
कहते हैं : मैं
तो पुकारता हूं
मैं तो बरस
उठता हूं। मगर
कच्चे घड़े हैं, उनमें
पानी टिकता
नहीं। वे तो
उल्टे नाराज
हो जाते हैं।
कच्चा घड़ा तो
नाराज हो ही
जायेगा। उसकी
तो जिंदगी
खराब हो गयी।
उस पर तो
वर्षा क्या हो
गयी, वह तो
मिट गया।
वर्षा
सौभाग्य नहीं
बनी, दुर्भाग्य
हो गयी। कच्चा
घड़ा तो वर्षा
से डरेगा।
लेकिन जो घड़ा
वर्षा से
डरेगा, वह
भरेगा कैसे? कच्चा घड़ा
कभी नहीं भर
पायेगा, खाली
का खाली रहा
आयेगा।
इसलिए
तो अधिक लोगों
की जिंदगी
अर्थहीन है—रिक्त, खाली...
उसमें कोई
रसधार नहीं
बहती। ऐसा भी
नहीं लगता कि
क्यों हम जी
रहे हैं, किसलिए?
क्या प्रयोजन
है? न होते
तो क्या हर्ज
था? हुए तो
लाभ क्या? लोग
जी लेते हैं, ढो लेते हैं
जीवन के बोझ
को। लेकिन इस
जीवन में कोई
नृत्य—गीत—उत्सव
नहीं होता। और
जहां नृत्य
नहीं, उत्सव
नहीं, गीत
नहीं, वहा
परमात्मा के
प्रति
धन्यवाद का तो
सवाल कैसे
उठेगा? धन्यवाद
तो केवल वे ही
दे सकते हैं
जो धन्यभागी
हैं। और
धन्यवाद ही
प्रार्थना है
और धन्यवाद ही
पूजा है।
यहां
भी तू वहां भी
तू जमीं तेरी, फलक
तेरा,
कहीं
हमने पता पाया
न हरगिज आज तक
तेरा।
बड़े
बजे की बात
है—विरोधाभासी—कि
वही सब जगह है
और उसका पता
कहीं मिलता
नहीं! किसी से
पूछो परमात्मा
कहां है, तो
कोई उत्तर नही
दे सकता। जो
जानते हैं वे
कहते हैं सब
जगह है। मगर
अगर उनसे यह
पूछो कि ठीक—ठीक
जगह बता दें
कहां है, ताकि
वहां हम चले
जायें और
दर्शन कर लें,
तो कोई पता
नहीं दे सकता।
यहां
भी तू वहां भी
तू जमीं तेरी, फलक
तेरा,
यह
तो हम सुनते
हैं कि आकाश
भी तेरा है और
पृथ्वी भी
तेरी है। और यहां
भी तू है और
वहा भी तू है, सब
तरफ तू है।
कहीं
हमने पता पाया
न हरगिज आज तक
तेरा।
लेकिन
तेरा पता नहीं
मिलता। पता तब
तक न मिलेगा
जब तक तुम्हें
उसका होना
भीतर मालूम न
पड़ जाये। आकाश
में होगा, यह
तो अनुमान है,
सुनी हुई
बात है; कहते
हैं ज्ञानी।
पृथ्वी उसकी
होगी, होगी,
सारे
बुद्धपुरुष
कहते हैं, तो
ठीक ही कहते
होंगे। मगर यह
भरोसा हुआ, अनुभव न
हुआ। उसका
प्राथमिक
अनुभव स्वयं
के भीतर होता
है, वहा से
पता मिलता है।
और जिसे वहां
पता मिल गया, उसे फिर सब
जगह उसका पता
है। फिर जगह—जगह
वही है। जिसने
भीतर देख लिया
उसे सब जगह वह
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है। और जिसे
अपनी बगिया
में फूल
दिखायी पड़ गये,
फिर हर फूल
में उसी की
झलक है। और
जिसने उसका भीतर
नाद सुन लिया,
फिर कहीं भी
नाद होगा तो
उसी की याद
आयेगी। मेरे
हक में हुआ
अच्छा मेरा हद
से गुजर जाना
खुदाई
हाथ आयी तर्क
जब कर दी खुदी
मैंने'।
लेकिन
कब कोई स्वयं
के भीतर उसे
जान पाता है? जब
स्वयं को स्वयं
देता है।
इसलिए बीज का
प्रतीक
सार्थक है।
मेरे हक में
हुआ अच्छा
मेरा हद से
गुजर जाना
खुदाई
हाथ आयी तर्क
जब कर दी खुदी
मैंने।
जब
स्वयं को कोई
समर्पित कर
देता है, तो
स्वयं के
आत्यंतिक
अर्थ को जान
लेता है। बीज
जब मिट जाता
है तो वृक्ष
हो जाता है।
और बूंद जब खो
जाती है सागर
में तो सागर
हो जाती है।
और फिर तो
उठो—बैठो, सोओ—जागो
सब प्रार्थना
ही है।
तेरी
गली के कायदा
कयाम की क्या
बात
इसी
को दिल की
जबां में नमाज
कहते हैं।
जिसे
उसकी गली मिल
गयी,
फिर उसमें
बैठे, उठे।
इसी
को दिल की
जबां में नमाज
कहते हैं।
फिर
यही
प्रार्थना
है।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता।
गोरख
कहते हैं कि
परमात्मा
चुपचाप बिना
आवाज किये
एक—एक हृदय
में घूमता
फिरता है, पुकारता
फिरता है।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता।
—जगाता फिरता
है और चुपचाप,
आवाज भी न
हो उसकी, शोर—गुल
भी न हो। उसकी
पगध्वनि
सुनाई नहीं
पड़ती, वह
निःशब्द आता
है।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता। को घट
जागे को घट सूता।
लेकिन
कभी मुश्किल
से कोई जागा
हुआ मिलता है।
परमात्मा तो
रोज आता है, अनंत—अनंत
रूपों में आता
है। मगर कभी
कोई जागा हुआ
मिलता है, जो
जागा हुआ मिल
जाता है उससे
मिलन हो जाता
है। अधिकतर तो
सोए हैं। को
घट जागे को घट
सूता।
कोई
जाग रहा है, कोई
सो रहा है। जो
सो रहा है, परमात्मा
उसके पास भी
आता है। वसंत
तो उन बीजों
के लिए भी आता
है, जो
जमीन में गिर
गये और मिट गए,
और उन बीजों
के लिए भी आता
है जो जमीन
में नहीं गिरे
और अपने को
सम्हाले हैं।
वसंत तो सभी
के लिए आता
है। वसंत की
कोई शर्त तो
नहीं होती; वसंत आया तो
सभी के लिए
आया।
लेकिन
जिन्होंने
जमीन में अपने
को खो दिया है, जिन्होंने
अपनी खुदी खो
दी है, वे
वसंत का पूरा
लाभ उठा लेंगे;
और जो अपने
को बचाये बैठे
हैं, वे
वंचित रह
जायेंगे।
रात
की
निस्तब्धता
को चीर
यदि
कोई अजाना
स्वर
तुम्हारे
कक्ष में गंजे
प्रिये, मत
यह समझना
डाक
है जगते पहरुए
की।
सेज
पर छितरी अलस
तेरी लटों को।
स्पर्श
यदि कोई
कंपावे भूल से
मत सोचना
कुछ
ढीठ सपने
उनींदी पलकें
तुम्हारी
चूमने आये।
पार
कर सब
खिड़कियों की
अर्गलाएं
गंध
यदि कोई
गुलाबी पास
आये,
भरम
मत जाना—
सलोनी
चांदनी गदरा
गयी है।
स्वरों
के पीछे छिपे
पदचाप होंगे
सिहरनों
के पार होंगी
उंगलियां
झिलमिला
घूंघट उठा कर
देख लेना—
इन्हीं
पल में, इन्हीं
रूपों में
मैं
तुम्हारे पास
तक
प्रिय, नित्य
आऊंगा।
परमात्मा
तो आता है, लेकिन
हम कुछ—कुछ कह
कर समझा लेते
हैं। हवा का झोंका
आया, गुजाता
नाद वृक्षों
से गुजर गया।
हम कहते हैं.
हवा का झोंका
आया था। जो
जानते हैं, वे कहते हैं.
परमात्मा आया
था! आकाश में
मेघ घिरे, बूंदाबांदी
हुई, हम
कहते हैं.
वर्षा हुई। जो
जानते हैं, वे कहते हैं.
वही बरसा। जो
जानते हैं, उनके लिए
सभी इंगित उसी
के हैं, सभी
इशारे उसी के
हैं। उसके
अतिरिक्त कोई
है ही नहीं।
इसलिए पक्षी
जब पुकारे
सुबह, तो
उसी का स्मरण
कर रहे
हैं—जानना। और
सुबह की
किरणें जब
तुम्हारे
द्वार पर आकर
दस्तक देने
लगें, तो
उसी ने दस्तक
दी है—जानना।
लेकिन
यह तो अभी
जानना नहीं बन
सकेगा, मानना
ही रहेगा। यह
जानना तभी
बनेगा जब
तुम्हें भीतर
थोड़ी उसकी झलक
मिलनी शुरू हो
जाये। पहले
परिचय भीतर, फिर ही बाहर
हो सकता है।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता। को घट
जागे को घट
सूता।
धीरे,
धीरे
ओ कनेर के फूल
धीरे
झरना।
मौन,
मौन
ओ मुखरित
कोलाहल
चुप
रहना।
हौले
हौले ओं आरोही
समीर,
हौले
बहना।
इस
सूने टीले के
पास
ओं
चांद,
जरा
धीरे चलना।
साधना
की अबोध बेटी
यहां
बेखबर सोयी
है।
हम
सोये हैं, हम
खूब गहरे सोये
हैं। हम
जन्मों—जन्मों
से सोये हैं।
वसंत आता रहा
और हम सोये
रहे। मधुऋतु
आती रही, जाती
रही, और हम
सोये रहे।
सुबह होती रही
और हम सोये
रहे। हमारा
अंधेरा न
टूटा।
पूर्णिमाएं
आयीं, चांद
आकाश में खिला,
मगर हमारी
अमावस न टूटी;
हमारी
अमावस बनी ही
रही, बनी ही
रही।
अमावस
टूटती है
निद्रा के
टूटने से।
अमावस टूटती
है आंख के
खोलने से। आंख
के खुलते ही
पूर्णिमा हो
जाती है। आंख
के खुलते ही
पूर्णिमा ही
शेष रह जाती
है।
बुद्ध
के जीवन में
प्यारी कथा
है। कथा ही
होगी; ऐतिहासिक
होने की
संभावना कम
है। ऐतिहासिक
हो भी सकती है;
मगर
संयोगमात्र, अगर इतिहास
ऐसा हुआ हो।
बुद्ध
पूर्णिमा के
दिन ही पैदा
हुए, पूर्णिमा
के दिन ही
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, और पूर्णिमा
के दिन ही
उनकी मृत्यु
हुई। मान कर
चलें कि कथा
होगी। ऐसा
संयोग
मुश्किल से
मिलता है कि
उसी दिन जन्मे,
उसी दिन
ज्ञान उपलब्ध
हो, उसी
दिन मृत्यु
हो। मगर हो भी
सकता है, कभी
करोड़ में एक—
आध आदमी के
लिए यह हो भी
सकता है। पर
वह बात गौण है;
इतिहास
मूल्यवान
नहीं है, छिपी
हुई बात गहरी
है। पूर्णिमा
ही है जागे हुए
को। फिर जन्म
हो, जीवन
हो, जागरण
हो, मृत्यु
हो, कुछ भी
हो—जागे हुए
को पूर्णिमा
ही है।
महावीर
के जीवन में
दूसरा प्रतीक
है। महावीर को
ज्ञान अमावस
की रात
उत्पन्न
हुआ—दीवाली की
रात। जैनों का
प्रतीक
दीवाली के
संबंध में हिंदुओं
के प्रतीक से
ज्यादा गहरा
और ज्यादा प्यारा
है। हिंदुओं
की मान्यता है
कि चूंकि राम लंका
को जीत कर
लौटे, रावण को
जीत कर लौटे, उसकी खुशी
में दीपावली
मनायी गयी। यह
विजय—यात्रा
बहुत बड़ी
विजय—यात्रा
नहीं। जैनों
का प्रतीक
ज्यादा
सार्थक मालूम
होता
है—महावीर निर्वाण
को उपलब्ध
हुए। अमावस की
रात महावीर के
लिए अचानक
पूर्णिमा की
रात हो गयी।
इसलिए मैं कहता
हूं यह प्रतीक
बुद्ध के
प्रतीक से भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, अमावस
की रात एकदम
पूर्णिमा की
रात हो गयी!
हम
क्या करें? हमारे
पास और तो कोई
उपाय नहीं, तो हमने
बहुत दीये
जलाये। और हम
क्या कर सकते थे?
अंधे लोग..
भीतर के दीयों
का तो हमें
पता नहीं। महावीर
के लिए अचानक
अमावस की रात
पूर्णिमा हो गयी;
हम क्या
करते, हम
इस प्रतीक को
कैसे
सम्हालते? तो
हमने खूब दीये
जलाये। हमने
बाहर रोशनी
करने की कोशिश
की। बाहर की
रोशनी, महावीर
के लिए जो
भीतर की रोशनी
बनी थी, उसका
इंगित है, उसका
इशारा है।
बाहर के दीये
तो जलेंगे और
बुझ जाएंगे।
दीवाली आयेगी
और चली जायेगी;
लेकिन
महावीर का जो
दीया जला, फिर
नहीं बुझा। वह
दिया बुझने
वाला नहीं है।
तुम
बाहर की
दीवालिया
बहुत मना चुके, अब
भीतर की
दीवाली मनाओ।
वहां अंधेरा
तोड़ना है, और
वहां अंधेरा
टूट सकता है।
तुम हकदार हो
तोड़ने के।
तुम्हारा
अधिकार है
तोड़ना। न तोड़ो,
तो
तुम्हारे अतिरिक्त
और कोई
जिम्मेवार
नहीं। किसी और
की शिकायत मत
करना, और
किसी और पर
दायित्व मत
टालना कि ऐसा
हो गया, ऐसा
हो गया, इसलिए
न तोड़ पाये, कि ऐसी
परिस्थिति न
बनी इसलिए
नहीं तोड़
पाये। परिस्थिति
रोज बन रही है
तोड़ने की, तुम
झुठलाये जाते
हो, इंकार
किये जाते हो
परिस्थिति को,
यह बात
दूसरी है।
तुम्हारे
द्वार पर भी
बुद्धों ने
दस्तक दी है।
और तुम्हारे
द्वार पर भी गोरख
ने अलख जगायी
है। तुम सुनते
ही नहीं।
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता। को घट
जागे को घट सूता।
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन।
बड़ा
प्यारा वचन
है! गोरख के
गुरु थे
मच्छीन्द्रनाथ।
मछली उनका
प्रतीक
है—मीन। गोरख
कहते हैं.
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन।
कि
हर एक के घट
में गोरख भी
छिपा है और
मच्छीन्द्रनाथ
भी छिपा है।
हर—एक के भीतर
चेला भी छिपा
है और गुरु
भी। लेकिन लोग
पहचान ही नहीं
पाते कि
तुम्हारे
भीतर दोनों
छिपे हैं।
जिसे जागना है
वह भी छिपा है
और जो जगायेगा
वह भी छिपा
है। तुम्हारे
भीतर दोनों
चकमक पत्थर
मौजूद हैं; जरा—सी
घर्षण की बात
है कि आग पैदा
हो जायेगी।
जिस
गुरु को तुम
बाहर खोज लेते
हो वह असल में
और कुछ भी
नहीं, तुम्हारे
भीतर के गुरु
की प्रतिछवि
है। बाहर का
गुरु तो दर्पण
है, जिसमें
तुम भीतर के
छिपे गुरु को
देख लेते हो।
इसलिए खयाल
रखना, बाहर
का गुरु
आत्यंतिक
नहीं है; सिर्फ
भीतर के गुरु
की याद दिलाने
का उपकरण मात्र
है। जैसे बाहर
किसी ने वीणा
बजायी और तुम्हारे
हृदय में
गुदगुदी फैल
गयी और
तुम्हारे हृदय
में एक संगीत
झलकने लगा।
जैसे बाहर
सुबह निकली, ताजगी फैली...
और तुम्हारे
भीतर नींद
टूटी। और तुम्हारे
भीतर भी ताजगी
आयी और सुबह
हुई। जैसे
तुमने स्थान
किया, स्नान
तो बाहर हुआ; लेकिन देह
शीतल हुई तो
भीतर मन भी
शीतल हुआ। ऐसे
ही बाहर का
गुरु है—भीतर
के गुरु को
चोट देने के
लिए।
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन।
गोरख
कहते हैं कि
मैं तुम्हें
यह कह देना
चाहता हूं :
तुम्हारा
गुरु भी
तुम्हारे
भीतर छिपा है
और तुम्हारा
शिष्य भी। मगर
यात्रा शिष्य
से शुरू करनी
पड़ेगी। जो
अपने शिष्य को
भी नहीं पहचान
पाया वह अपने
गुरु को कैसे
पहचान पायेगा? गुरु
तो सभी बनना
चाहेंगे। कौन
गुरु नहीं
बनना चाहता g: लेकिन शिष्य
बनने की
क्षमता बहुत
थोड़े—से लोगों
की होती है।
और जिनकी
शिष्य बनने की
क्षमता होती
है वे ही एक
दिन गुरु बन
पाते हैं।
शिष्य बनना
अहंकार के
विपरीत पड़ता
है। गुरु तो
कोई भी बनना
चाहता है।
यहां
मेरे पास लोग
आते हैं। दस—पांच
दिन यहां
ध्यान करेंगे, कुछ
देर यहां
रुकेंगे, फिर
वे तत्क्षण
गुरु बनने की
आकांक्षा से
भर जाते हैं।
दूसरों को
समझाना शुरू
कर देते हैं।
अभी खुद भी
समझ में पड़ा
नहीं है। अभी
खुद भी कुछ
सूझा नहीं है,
दूसरों को
सुझाने लगते
हैं। मुझसे
आकर पूछ भी लेते
हैं। ऐसे
नासमझ लोग
हैं! मुझसे
आकर पूछते भी
हैं कि अब हम
अपने गांव जा
रहे हैं, अब
हम दूसरों को
समझा सकते हैं?
अब हम
दूसरों को
ध्यान करवा
सकते हैं? क्योंकि
हमने दस दिन
ध्यान करके सब
देख लिया। जैसे
कि ध्यान कोई
करके देखने की
बात है, कि
दस दिन तुमने
ध्यान की
प्रक्रिया कर
ली तो तुम्हें
ध्यान का पता
चल गया! लेकिन मजा
इस बात में
ज्यादा है कि
दूसरों को
बतायेंगे।
दूसरों का
नेतृत्व
करेंगे।
नेता
होने की बड़ी
आकांक्षा है!
फिर चाहे
राजनीति हो, चाहे
धर्म हो, नेता
होने की बड़ी
आकांक्षा
अहंकार की है।
इसलिए तुम
कूड़ा—करकट कुछ
भी इकट्ठा कर
लेते हो, दूसरों
के सिर में
डालने लगते
हो। तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं।
तुम्हारा
छोटा बच्चा भी
तुम से पूछता
है, ईश्वर
है? तो
तुमने कभी
खयाल किया, तुम किस अकड़
से कह देते हो
कि ही, ईश्वर
है; तू भी
जब बड़ा होगा, तुझे पता चल
जायेगा। न
तुम्हें पता
चला है, लेकिन
तुम धोखा दे
रहे हो। और
तुम अपने
बच्चे को धोखा
दे रहे हो।
अपने अबोध
बच्चे को धोखा
दे रहे हो! तुम
निर्दोष
बच्चे को धोखा
दे रहे हो।
फिर कल नहीं
तो परसों, परसों
नहीं तो नरसों,
किसी—न—किसी
दिन यह बच्चा
यह बात जान ही
लेगा कि तुमको
भी ईश्वर का
पता नहीं है।
और तब
तुम्हारे
प्रति अगर
इसकी सारी
श्रद्धा खंडित
हो जाये तो
आश्चर्य क्या
है?
मां—बाप
के प्रति
बच्चों की
श्रद्धा
इसीलिए खंडित
होती है।
क्योंकि
मां—बाप ने
झूठे आश्वासन
दिये, झूठे
दावे किये—जो
समय में सब
उखड़ जाते हैं।
एक दिन बच्चा
तुम्हारी
नग्नता देख
लेता है, तुम्हें
खुद भी कुछ
पता नहीं है।
लेकिन तुमने तब
धोखा दिया था
जब बच्चा
असहाय था।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सारी दुनिया
में बच्चों के
मन से
माता—पिता के
प्रति
श्रद्धा उठने
का बड़े से बड़ा
कारण यही है
कि बच्चों को
एक दिन यह
पाखंड दिखायी
पड़ जाता है।
काश,
तुम ईमानदार
रहे होते! जब
तुम्हारे
बेटे ने तुमसे
पूछा था कि
ईश्वर है, तुमने
कहा होता कि
मैं तलाश रहा
हूं मुझे अभी मिला
नहीं, तू
भी तलाशना। और
जब तक मुझे
मिला नहीं, मैं कैसे
कहूं कि है और
कैसे कहूं कि
नहीं है? मैं
कुछ भी नहीं
कह सकूंगा, मैं असहाय
हूं।
तुमने
अपनी दीनता
प्रगट की होती, तो
जिस दिन बच्चा
बड़ा होता उस
दिन सदा के
लिए तुम्हारे
प्रति सम्मान
रखता कि तुम
ईमानदार आदमी
हो। तुमने
धोखा नहीं
दिया। तुम झूठ
नहीं बोले। और
तुमने अगर
अपने बच्चे को
कहा होता कि तू
भी खोजना, जैसे
मैं खोज रहा
हूं। और अगर
तुझे पहले पता
चल जाये तो तू
मुझे बता देना,
मुझे पहले
पता चल जायेगा
तो मैं तुझे
बता दूंगा।
तुमने काश, इतना सम्मान
किया होता, तो श्रद्धा
टूट नहीं सकती
थी।
विश्वविद्यालयों
में शिक्षकों
के प्रति विद्यार्थियों
की कोई
श्रद्धा नहीं; कारण
साफ है।
श्रद्धा—योग्य
ही कुछ नहीं
है। झूठी बातें
तुम कर रहे हो,
जिनका
तुम्हारे
जीवन से कोई
तालमेल नहीं
है। तुम ऐसी
बातें कर रहे
हो जिनका
तुम्हें पता
नहीं है। तुम
बातें कर रहे
हो, क्योंकि
करनी हैं; क्योंकि
पाठ्यक्रम का
अंग हैं। मैं
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
हुआ तो मुझे
एक कालेज से
दूसरे कालेज
में हटाया गया,
निकाला गया
मुझे।
क्योंकि
शिक्षक मुझसे
नाराज होने
लगे।
दर्शनशास्त्र
का मैं
विद्यार्थी
था तो मैंने
दर्शनशास्त्र
के प्रोफेसर
को पूछा कि
पहले यह बात
साफ हो जाये
कि जो आप समझा रहे
हैं इसका आपको
पता है? वह तो
एकदम नाराज हो
गये, कि
अगर मुझे पता
नहीं तो बताता
कैसे?
मैंने
कहा : मैं यह
नहीं पूछ रहा
हूं कि आपने
किताबें नहीं
पढ़ी हैं।
किताबें तो जो
आपने पढ़ी हैं
वे तो मैं भी
पढ़ सकता हूं
मैं भी पढ़ रहा
हूं। मैं यह
पूछता हूं
आपको अनुभव
हुआ है?
वे
पतंजलि के
योग—शास्त्र
पर बोल रहे थे, मैंने
पूछा कि ध्यान
आपने किया? समाधि का
कोई अनुभव हुआ
है? निर्विकल्प
कोई दशा आपने
अनुभव की है?
उन्होंने
विश्वविद्यालय
के कुलपति को
लिख कर भेजा
कि मैं झंझटें
खड़ी करता हूं।
तो या तो वे
नौकरी छोड़
देंगे या मुझे
कहीं और भेज
दिया जाये; हम
दोनों एक साथ
एक ही कक्षा
में नहीं हो
सकते।
उन्होंने कहा
कि मुझे
बेचैनी पैदा
कर देता है।
इस तरह की
बातें पूछ
देता है, जो
कि अगर मैं
ईमानदारी से
कहूं तो मुझे
कुछ पता नहीं।
लेकिन अगर मैं
यह कहूं कि
मुझे पता नहीं,
तो बाकी
विसूतार्थी
कहेंगे. फिर
पढ़ा क्या रहे हैं?
तो यह भी
मैं कह नहीं
सकता कि मुझे
पता नहीं है।
यह तो मान कर
ही चलना पड़ेगा
कि मुझे पता
है।
मैं
उनसे मिला भी; मैंने
कहा कि आप एक
दफा साफ—साफ
कह दें कि पता
नहीं है। मैं
आप को बिलकुल
बाधा नहीं
दूंगा, एक
दफा आप कह
दें।
उन्होंने
कहा कि मैं
कैसे कह सकता
हूं कि मुझे
पता नहीं है? अगर
मैं कहूं मुझे
पता नहीं, तो
फिर मैं कर
क्या रहा हूं?
यह तो मैं
कह ही नहीं
सकता। और तुम
इस तरह के प्रश्न
पूछने बंद कर
दो।
मैंने
कहा : मैं भी
प्रश्न तब तक
पूछे जाऊंगा जब
तक सच्चा
उत्तर न आ
जाये।
क्योंकि मुझे
आपके चेहरे से
पता चलता है
कि आपको पता
नहीं है। आपको
निर्विकार, निर्विकल्प
चित्त का कोई
अनुभव नहीं
है। मैं
प्रश्न ही
पूछता हूं तभी
आप इतने बेचैन
और परेशांन हो
जाते हैं।
शिक्षकों
के प्रति
सम्मान नहीं
हो सकता, क्योंकि
सम्मान का
मौलिक आधार
नहीं है। मगर
हर व्यक्ति
गुरु होना
चाहता है।
ध्यान रखना, दोनों
तुम्हारे
भीतर छिपे
हैं—गुरु भी
और शिष्य भी।
मगर शिष्य
होने से शुरू
करना तो गुरु
होने तक पहुंच
जाओगे। और तब
वैसी गुरुता
होगी, जो
सप्राण होगी,
जो अनुभव पर
आधारित होगी।
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन आपा
परचै
गुरुमुषि चीन्ह।।
इसके
दो अर्थ हो
सकते हैं, दोनों
प्यारे है—कि
जब तक तुमने
गुरु का मुख नहीं
चीन्हा है, जब तक तुमने
अपना गुरु
नहीं चीन्हा
खै, तब तब
तुम अपने को न
पहचान सकोगे।
आदमी अपने चेहरे
को सीधा—सीधा
नहीं देख सकता;
दर्पण में
देख सकता है।
ही, दर्पण
में देख लिया
हो एक बार तो
फिर अपने चेहरे
की एक पहचान
आनी शुरू हो
जाती है।
लेकिन पहला
अनुभव तो
दर्पण में
होता है।
तुम
जरा सोचो, अगर
तुमने कभी
दर्पण न देखा
होता और अचानक
तुम्हारी
तुमसे ही
मुलाकात हो
जाती तो तुम
पहचानते कि यह
मैं ही हूं? नहीं पहचान
सकते थे।
तुम्हें अपने
चेहरे का कोई
पता ही न
होता। और
चेहरा
तुम्हारे पास
है। दर्पण
तुम्हें
चेहरा नहीं
देता। दर्पण
तुम्हें कुछ
भी नहीं देता;
दर्पण
सिर्फ एक झलक
देता है, एक
प्रतिबिंब
देता है। जिसे
तुम सीधा नहीं
देख सकते हो
उसे तुम दर्पण
की छवि में
देख लेते हो।
फिर धीरे—धीरे
अपने चहरे की
पहचान हो जाती
है। गुरु
दर्पण है।
पहली
पहचान तो
तुम्हें इस
बात की करनी
होगी कि कौन
है तुम्हारा
गुरु। किसी से
प्रेम लगा
लेना होगा। और
प्रेम लगाना
नहीं पड़ता, प्रेम
हो जाता है।
सिर्फ बाधा न
डालो तो प्रेम
हो जाये। अनेक
बार तुम गुरु
के करीब आ गये
हो और घड़ी
घटने को ही थी,
घटी ही घटी
थी कि तुम चूक
गये हो। तुमने
हजार बाधाएं
खड़ी कर लीं।
तुमने हजार
प्रश्न खड़े कर
लिये। तुमने
हजार शंकाएं खड़ी
कर लीं। तुमने
हजार संदेह
उठा लिये। और
वह जो प्रेम
की छोटी—सी
उमंग उठी थी, दब गयी, पहाड़ों
के नीचे दब
गयी।
गुरु
की पहचान
प्रेम की उमंग
से होती है।
जिस व्यक्ति
के पास बैठ कर
तुम्हारे
भीतर आनंद का भाव
भर जाये, शाति
की एक लहर दौड़
जाये, एक
सन्नाटा खिंच
जाये, तुम
एक जादू में
मुग्ध हो जाओ,
कोई चीज
तुम्हारे
हृदय को छू
जाये।
तुम्हारा ताल—मेल
बैठ जाये, तुम्हारा
छंद बंध जाये।
तुम्हारी
सांसें किसी
के साथ चलने
लगें।
तुम्हारा
हृदय किसी के
साथ धड़कने
लगे।
जैसे
प्रेम होता है, बस
वैसे ही गुरु
की खोज भी
होती है। यह
बड़ा प्रेम है।
यह प्रेम की
पराकाष्ठा
है। लेकिन तुम
हजार सवाल
उठाते हो कि
यह हिंदू है
कि मुसलमान है
कि ईसाई है कि
जैन है? कि
यह खाता क्या,
पीता क्या,
कपड़े क्या
पहनता, उठता—बैठता
कैसे? तुम
पच्चीस विचार
बीच में लाते
हो। उन्हीं
विचारों में,
उन्हीं
ऊहापोह में, उसी शोरगुल
में, वह जो
थोड़ी—सी उमंग
उठी थी—खो
जाती है। उमंग
बड़ी धीमी होती
है। उसका उठना
मुश्किल, खो
जाना सरल होता
है। तुम्हारे
चित्त के कोलाहाल
में भीतर की
जो धीमी—सी
आवाज आनी शुरू
हुई थी, विनष्ट
हो जाती है।
तुम अपने
कोलाहाल में
डूबे वापिस
लौट जाते हो।
गुरु
की पहचान..।
आपा
परचै
गुरुमुषि
चीन्ह।
गुरु
के चेहरे को
जिसने पहचान
लिया, उसने
बड़े से बड़ा
कदम उठा लिया।
अब अपने को
पहचानने
में ज्यादा
देर न लगेगी।
गुरु को पहचानने
का अर्थ हुआ :
तुम शिष्य बन
गये। शिष्य बन
गये तो आधा
काम तो पूरा
हो गया।
तुम्हारे
भीतर का आधा
अंग तो पूरा
हो गया। अब
दूसरा आधा अंग
रहा। वह गुरु
के पास
बैठते—उठते
किसी दिन पूरा
हो जायेगा, किसी
भी दिन पूरा
हो जायेगा।
लेकिन अड़चन
आती है
तुम्हारे
संस्कारों
से।
काश
तुम इसका
फैसला मेरे ही
दिल पर छोड़ दो
किसकी
मैं बंदगी करूं
कौन मेरा खुदा
बने
तो
सब आसान हो
जाये, मगर
तुम्हारा
समाज छोड़ने
नहीं देता।
काश
तुम इसका
फैसला मेरे ही
दिल पर छोड़ दो
किसकी
मैं बंदगी
करूं कौन मेरा
खुदा बने
लेकिन
मां—बाप तो
छोटे—छोटे
बच्चे की गरदन
पकड़ लेते हैं!
बच्चा तो पैदा
होता है—न
हिंदू न मुसलमान, न ईसाई—मगर
मां—बाप उसकी
गर्दन पकड़
लेते हैं। जल्दी
से उसको चले.
खतना करवा दो,
बपतिस्मा
करवा दो, जनेऊ
पहनवा दो... कुछ
भी करवा दो; जल्दी करो।
पंडित—पुरोहित
के चक्कर में
डाल दो। इस
असहाय बच्चे
को, इस
कोरे कागज को
गद डालो। इस
पर कुछ—कुछ
लिख दो। इसके
पहले कि इसको होश
आना शुरू हो, इसके सिर को
व्यर्थ की
बातों से भर
दो—धारणाओ से,
पक्षपातों
से। फिर
जिंदगी— भर
उन्हीं
पक्षपातों की
आडू से वह
देखेगा। और
उसी देखने के
कारण प्रेम की
घटना नहीं घट
पायेगी।
क्योंकि प्रेम
की घटना
पक्षपातों के
कारण नहीं घट
पाती। प्रेम
की घटना के लिए
पक्षपात एक
तरफ रखे होने
चाहिए, हटा
दिये गये होने
चाहिए।
क्योंकि कौन
जाने गुरु किस
रूप में
आयेगा।
मस्जिद में
मिलेगा कि मंदिर
में कि
गुरुद्वारे
में, क्या
पता?
दुनिया
जब अच्छी होगी, लोग
जब थोड़े और
समझदार होंगे,
तो अपने
बच्चों को
कहेंगे कि जाओ,
सब मंदिरों में
जाओ—मंदिरों
में भी जाओ, मस्जिद में
भी जाओ, गुरुद्वारा
भी जाओ, गिरजा
भी जाओ, अगियारी
भी जाना; जहां—जहां
जा सको जाना।
सब जगह तलाशना,
पता नहीं
कहां मिल जाये,
पता नहीं
कौन दर्पण
तुम्हारे मन
भा जाये! और जो
तुम्हारे मन
भा जाये, वह
तुम्हारा
गुरु है। यह
कोई और दूसरा
निर्णय नहीं
कर सकता।
लेकिन
हम तो हर चीज
में निर्णय
दूसरों से
करवाते रहे।
हम तो बच्चों
को प्रेम भी
नहीं करने देते
हैं। मां—बाप
तय करते हैं
विवाह उनका।
हम तो मौका ही
नहीं देते
प्रेम को, हम
बिलकुल मार ही
डालते हैं।
इसलिए हम
बाल—विवाह
करते थे।
क्योंकि जब
बच्चे बड़े हो
जायेंगे तो
इतना आसान
नहीं होगा
विवाह करना।
तुम किसी युवक
को किसी युवती
से बांधने
लगोगे, तो
वह युवक
कहेगा. लेकिन
मेरा कोई लगाव
नहीं। छोटे—छोटे
बच्चे, जिन्हें
कुछ पता ही
नहीं है, जिन्हें
समझ में ही
नहीं आ रहा कि
हो क्या रहा है,
उनको
ज्यादा मजा
इसमें आ रहा
है कि घोड़े पर
बैठे हैं।
उन्हें घोड़े
से मतलब है।
बैण्ड—बाजा बज
रहा है, वह
बड़े मजे में
हैं! घोड़े पर
बैठ कर चल रहे
हैं। मुकुट
बंधा हुआ है।
छुरी लटकी हुई
है। वे बड़े आनंद
में हैं। उनका
आनंद छुरी में
है, घोड़े
में, बैण्ड—बाजे
में है; उनको
पता ही नहीं
कि क्या हो
रहा है! वे
जिंदगी— भर के
लिए एक उपद्रव
में बंधे जा
रहे हैं, इसका
उन्हें कुछ
पता नहीं।
बच्चों
की अपनी
उत्सुकताएं
होती हैं।
मैंने सुना, एक
आदमी एक गांव
में रहता था।
अपने बच्चों
को लेकर रोज
बगीचा घूमने
जाता था।
बच्चे को बडा
लगाव था, वहां
नेपोलियन की
प्रतिमा थी
एक—घोड़े पर
सवार
नेपोलियन!
घोड़ा बिलकुल
छलांग लगाता
हुआ..। बच्चा
वहां जरूर अपने
पिता को ले
जाता था कि
चलें, नेपोलियन
के पास चलें।
बाप भी बड़ा
खुश था कि उस
बच्चे को
नेपोलियन में
इतनी
उत्सुकता है।
वह जरूर जाता
था, घोड़े
और नेपोलियन
के पास जा कर
घड़ी— भर बैठकर
देखता। फिर
बदली का वक्त
आया, पिता
की बदली हुई, तो बेटे ने
कहा. एक बार
नेपोलियन को
आखिरी बार और
देख आयें। बाप
ले कर बेटे को
बगीचे गया। बाप
ने कहा कि तू
कभी कुछ पूछता
नहीं
नेपोलियन के
संबंध में, तेरी
उत्सुकता
इतनी है!
उसने
कहा. आज पूछता
हूं। नेपोलियन
तो ठीक है, मगर
इसके ऊपर यह
चढ़ा हुआ कौन
बैठा है? बच्चा
तो नेपोलियन
घोड़े को समझता
था। यह ऊपर कौन
चढ़ा बैठा है, यह मुझे
बिलकुल नहीं
जंचता।
नेपोलियन तो
बड़ा शानदार
है!
बच्चों
को अपनी
उत्सुकता
होती है, अपने
ढंग होते हैं,
अपने सोचने
के। छोटे
बच्चे की शादी
कर दी। उसे
पता ही नहीं
क्या हो रहा
है : तुम
मूर्च्छा में
सब करवाये दे
रहे हो। और
ऐसा ही तुमने
गुरु के साथ
भी कर दिया।
और ये जीवन की
दो बडी घटनाएं
हैं। एक
शारीरिक
प्रेम की घटना
है, एक
आत्मिक प्रेम
की घटना है।
तुमने दोनों
मार डालीं।
तुमने दोनों
काट दीं। अब
अगर दुनिया
प्रेम—शून्य
हो जाये तो
आश्चर्य क्या?
न तो यहां
शारीरिक
प्रेम है, न
यहां आत्मिक
प्रेम है।
बाप
मुसलमान था, तो
बेटे को कहा
कि मस्जिद के
अलावा कहीं और
मत जाना। अब
क्या पक्का कि
मस्जिद में
इसे अपना गुरु
मिल जायेगा, मिल ही
जायेगा? बहुत
कम संभावना है
कि मस्जिद में
इसे गुरु मिल
जाये।
क्योंकि जो
गुरु की
योग्यता को
उपलब्ध होते
हैं, वे
शायद ही
मंदिर—मस्जिदों
में पुजारी
बनते हैं!
शायद ही! कौन
ऐसा व्यर्थ का
धंधा करेगा!
कौन परंपरागत
होगा? जिसने
सत्य को जान
लिया है, वह
किसी शास्त्र
से बंधा हुआ
नहीं होगा और
न किसी परंपरा
से बंधा हुआ
होगा, वह
तो स्वयं गवाह
है परमात्मा
का। वह तो
अपनी हैसियत
से खड़ा होगा।
वह तो अपने
अधिकार से बोलेगा।
तो
मंदिर—मस्जिद
में मिल जाते
हैं पुजारी, पुरोहित,
मौलवी, मगर
गुरु नहीं मिल
पाता। मगर इन
गुरुओं के कारण
गुरु के मिलने
में बाधा बन
जाती है। मेरे
पास लोग आते
हैं, मुझसे
पूछते हैं कि
इसमें कुछ
हानि तो नहीं
है, इसमें
कोई पाप तो
नहीं है, क्योंकि
बचपन में किसी
गुरु ने हमारे
कान फूंके थे।
अब हम आपको
गुरु बनायें,
तो इसमें
धोखा तो नहीं
हो रहा?
मैंने
कहा,
तुमने उस
गुरु को चुना
था? उन्होंने
कहा, हमें
तो कुछ पता ही
नहीं था, पिताजी
ने जिससे कान
फुकवा दिये, फुंकवा
दिये। मगर अब
एक मन में
दुविधा बैठ
गयी है कि जब
एक गुरु हो
गया तो अब
दूसरे को गुरु
कैसे बनायें?
और यह गुरु
तुमने बनाया
ही न था।
तुमने ही बनाया
होता तब तो
दूसरे की कोई
जरूरत ही न
होती। तुमने
ही खोजा होता
तब तो दूसरे
की कोई जरूरत
न होती। मगर
एक धोखा हो
गया। यह झूठा
सिक्का
तुम्हारे हाथ
में है, इसकी
वजह से अगर
सच्चा सिक्का
कभी मिलता भी
हो, तो तुम
इस झूठे को
छोड़ न सकोगे।
क्योंकि झूठे को
छोड़ने में
लगेगा. कहीं
कोई पाप तो
नहीं हो रहा
है? इतने
दिन तक जिसे
गुरु माना, अब उसको
कैसे छोड़ दें?
आदत बन गयी,
एक संस्कार
गहरा हो गया।
काश तुम इसका
फैसला मेरे ही
दिल पर छोड़ दो
किसकी
मैं बंदगी
करूं कौन मेरा
खुदा बने तो
आसान हो जाये
बहुत बात।
अच्छी
दुनिया में न
तो मनुष्य के
शारीरिक प्रेम
पर कोई दूसरा
आरोपण करेगा
और न मनुष्य के
आध्यात्मिक
प्रेम पर कोई
दूसरा आरोपण
करेगा। लोग
अपनी प्रेयसी, अपना
प्रेमी खुद
चुनेंगे; लोग
अपना
गुरु खुद
चुनेंगे।
कम—से—कम
प्रेम तो स्वतंत्र
होना चाहिए।
कम—से—कम उस पर
तो कोई जंजीर
नहीं होनी
चाहिए। मगर
बड़ी जंजीरें
हैं प्रेम पर!
प्रेम पर ही
जंजीरें हैं; घृणा
पर तो कोई
जंजीर नहीं
है। घृणा तो
बिलकुल मुक्त
है। प्रेम पर
जंजीरें हैं;
वैमनस्य पर
जंजीरें नहीं
हैं। प्रीति
पर दीवालों पर
दीवालें हैं।
मनुष्य
अप्रेम के ढंग
से जीता रहा
है। और जिन बातों
को तुम प्रेम
भी कहते हो, वे
प्रेम के धोखे
है प्रेम नहीं
है। और धोखे
से तृप्ति
नहीं होती।
झूठे भोजन से
कहीं पोषण
मिलेगा?
दूसरा
अर्थ.. आपा
परचै
गुरुमुषि
चीन्ह
पहला
अर्थ : पहले तो
गुरु के चेहरे
को पहचान लो।
जहां
तुम्हारा
हृदय आदोलित
हो उठे, फिर
फिक्र मत करना
कि तुम्हारी
धारणाओं के अनुकूल
है या नहीं।
हृदय धारणाओं
की चिंता ही
नहीं करता।
हृदय में तो
तूफान आता है,
बाढ़ आती है;
किनारों को
तोड़ कर बह
जाता है। एक
अर्थ।
दूसरा
अर्थ :
आपा
परचै
गुरुमुषि
चीन्ह.. फिर
गुरु के मुख
से जो चिह्न
दिये जायें
स्वयं को
पहचानने के, उन्हें
समझना। वह
जो—जो चिह्न
दे, अंतर्यात्रा
के लिए जो—जो
मील के पत्थर
बताए, उनको
समझना।
सुणि
गुणवता सुणि
बुधिवता।
गुरु
की बात को
बहुत
बोधपूर्वक
सुनना; ऐसे
ही
मूर्च्छित—मूर्च्छित
मत सुन लेना।
नहीं तो पहचान
न आयेगी। यह
बात सूक्ष्म
की है।
सुणि
गुणवता सुणि
बुधिवता अनंत
सिधां की वाणी
और
मजा यह है कि
जो एक गुरु
बोल रहा है, वह
अनंत सिद्धों
की वाणी है।
अभिव्यक्ति
में भेद होगा,
शब्द अलग
होंगे, प्रतीक
अलग होंगे, मगर जो एक
सिद्ध बोलता
है, वह सभी
सिद्धों की
वाणी है। इससे
अन्यथा हो ही
नहीं सकता।
इसलिए जिसने
एक सिद्ध को
पा लिया, उसने
सारे सिद्धों
की परंपरा को
पा लिया। और सिद्धों
की कोई एक—आध
सांप्रदायिक
परपंरा को
नहीं, सारे
सिद्धों की
परंपरा को पा
लिया। और
जिसने गुरु पा
लिया, उसने
मुहम्मद भी पा
लिया गुरु में
और महावीर भी
पा लिया। उसने
जरथुस्त्र भी
पा लिया और
बुद्ध भी पा
लिये। उसने
लाओत्सु भी पा
लिया और बोधिधर्म
भी पा लिया।
जिसने एक गुरु
पा लिया उसने
सारे जगत के
समस्त गुरु पा
लिए, क्योंकि
उनका सूत्र एक
ही है। कुंजी
तो एक ही है, जिससे ताला
खुलता है
अस्तित्व का।
सुणि
गुणवता सुणि
बुधिवता अनंत
सिधां की वाणी।
गोरख
कहते हैं. मैं
जो कह रहा हूं
यह कोई मैं ही कह
रहा हूं ऐसा
नहीं, यह अनंत
सिद्धों की
वाणी है। सीस
नवावत सतगुरु
मिलिया जागत
रैन बिहाणी
और
जिनकी भी
क्षमता है सिर
को झुकाने की, उन्हें
सतगुरु
निश्चित मिल
जाता है। सिर
झुकाने की
क्षमता—बस वही
एकमात्र
अनिवार्य
शर्त है। जो
झुकने को राजी
हैं, उन्हें
गुरु मिल जाता
है। बड़ा
प्यारा वचन
है!
सीस
नवावत सतगुरु
मिलिया...
इधर
शीश झुकाया
नहीं कि उधर
गुरु मिला
नहीं। तल्ला
मिलना हो जाता
है।
हजारों
नूर उसी की
हसरते—दीदार
पर कुरबां
कि
जिसकी जिंदगी
ही
हसरते—दीदार
हो जाये।
सारे
प्रकाश उस पर
न्योछावर
किये जा सकते
हैं।
हजारों
नूर उसी की
हसरतें—दीदार
पर कुरबां।
सारे
प्रकाश उस
व्यक्ति की एक
अभिलाषा पर
कुर्बान किये
जा सकते हैं, जिसके
भीतर—
कि
जिसकी जिंदगी
ही
हसरतें—दीदार
हो जाये।
कि
जिसके भीतर एक
ही दर्शन की
आकांक्षा है, सत्य
के दर्शन की
आकांक्षा है
या प्रभु के
दर्शन की
आकांक्षा है।
जिसके भीतर
प्रभु—दर्शन की
आकांक्षा है,
बस उसको एक
ही काम और
करना है कि जब
हृदय में पुलक
उठे और जब
प्राण पुकार
दें, तो
सिर झुकाने को
राजी हो जाये,
अहंकार को
गलाने को राजी
हो जाये।
सीस
नवावत सतगुरु
मिलिया जागत
रैन बिहाणी।
और
फिर तो रात भी
दिन हो जाती
है। और नींद
भी जागरण हो
जाती है।
जागत
रैन बिहाणी।
एक बार गुरु
से मिलना हो
जाये, तो
रोशनी से
संबंध हो गया,
जागृति से
संबंध हो गया।
फिर तो नींद
भी जाग्रत है।
फिर तो बेहोशी
में भी होश
है। बिना गुरु
के तो सब उदास
है।
शाम
है इस तरह की
आज उदास
खुद
से दूरी का
जिस तरह एहसास
जैसे
सोया हुआ किसी
का नसीब
जैसे
आशिक के दिल
में
फिक्रे—रकीब
जैसे
खामोश जांकनी
का समां
जैसे
उठता हुआ चिता
से धुआं
जैसे
बेबस हो
जुल्मतों में
नजर
जैसे
बेवा का मायके
को सफर
दूर
मंजिल का
फासिला जैसे
लुट
के रह जाये
काफिला जैसे
न
कोई साज है, न
कोई जाम
हाय
यह शाम, उदास—सी
शाम
जिंदगी
बिना गुरु के
ऐसी है—न कोई
साज है न कोई
जाम। न कोई
वीणा बजती है, न
कोई मदमस्ती
का प्याला भर
कर आता है।
न
कोई साज है, न
कोई जाम
हाय
यह शाम, उदास—सी
शाम
जिंदगी
जब तक सत्य से
न जुड़ी हो, सुबह
भी शाम है और
दिन भी रात है,
पूर्णिमा
भी अमावस है।
और जिंदगी भी
मरण का एक
लंबा सिलसिला
है, और कुछ
भी नहीं। सत्य
से संबंध हो
जाये, जिसने
सत्य जाना है
उससे संबंध हो
जाये, जिसकी
आंखों में
परमात्मा की
झलक बनी है
उससे संबंध हो
जाये—तो तुम
परमात्मा से
जुड़ गये। परमात्मा
को जानने वाले
से जुड़ गये तो
परमात्मा से
जुड़ गये। अब
शाम भी सुबह
है। अब रात भी
दिन है। अब
मौत भी सिर्फ
अमृत का दर्शन
होगी।
उनमनि
रहिबा भेद न
कहिबा।
और
जब ऐसा हो
जाये, गुरु से
मिलन हो जाये,
हृदय
आदोलित हो उठे,
वीणा बज
उठे—उनमनि
रहिबा—फिर तो
भीतर ही डुबकी
मार कर रह
जाना।
भेद
न कहिबा!
और
किसी से कहना
भी मत भेद।
क्यों? क्योंकि
कोई समझेगा
नहीं, लोग
समझेंगे
दीवाने हो गये
हो। यह तो ऐसा
ही है जैसे
मजनू को प्रेम
हो गया लैला
से। इसका कोई
यह अर्थ थोड़े
ही है कि सारी
दुनिया के
लोगों को लैला
से प्रेम हो
जाये। और
जिनको प्रेम
नहीं हुआ वे
तो मजनू को
दीवाना
कहेंगे ही।
तुम देखते न, प्रेमियों
को सभी लोग
दीवाना कहते
हैं कि पागल
हो गये। जो हो
गया है पागल
उसको छोड़ कर
सभी को वह पागल
मालूम पड़ता
है। कारण उसका
है, क्योंकि
जो उसे दिखाई
पड़ रहा है वह
किसी को दिखाई
नहीं पड़ रहा।
और जो उसे
दिखाई पड़ रहा
है वह किसी को
दिखायी पड़ भी
नहीं सकता, क्योंकि उसको
देखने की शर्त
ही प्रेम है।
यह बहुत अड़चन
की बात है; इसे
समझ लेना।
मजनू
को एक सम्राट
ने अपने दरबार
में बुलाया। और
अपने दरबार की
बारह
सुंदरियों को
सामने खड़ा कर
दिया। और कहा
कि मैं तुझे
रोज रोते
देखता हूं
गलियों में, चिल्लाते—लैला,
लैला..।
तेरी आवाजें,
तेरी पुकार.
गांव— भर दुखी
है तेरे लिए।
मेरे मन में यह
सवाल उठा कि
लैला बहुत
सुंदर होगी, तभी तो तू
पुकारता
फिरता है। मैं
भी सौंदर्य का
प्रेमी हूं
पारखी हूं तो
मैने छिप कर
लैला को देखा।
उसे मैंने
बहुत साधारण
पाया। तू दीवाना
है, फिजूल
की बकवास में
लगा है! मुझे
तुझ पर इतनी
दया आयी कि
मैंने कहा
तुझे बुलाकर अपने
राज्य की बारह
सुंदरियों
में से जो भी
तू चुनना चाहे
चुन ले।
मजनू
एक—एक के पास
गया और इंकार
करता गया कि
नहीं—नहीं; यह
भी नहीं। जब
बारह को इंकार
कर दिया, सम्राट
ने कहा कि तू
होश में है? इससे ज्यादा
सुंदर
स्त्रियां इस
राज्य में
दूसरी नहीं
हैं। लैला तो
इनके सामने
कुछ भी नहीं
है!
मजनू
हंसने लगा।
उसने कहा कि
नहीं, लैला को
देखने के लिए
मजनू की आंख
चाहिए। आपके
पास आंख ही
नहीं है। आपने
लैला को देखा
नहीं। जिस
लैला को मैंने
देखा है, आपने
उसे लैला को
नहीं देखा, आपने किसी और
को देखा होगा।
एक
कवि देखता है
फूल को, उसे
सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है। एक
वैज्ञानिक फूल
को देखता है, उसे कोई
सौंदर्य
दिखायी नहीं
पड़ता। अगर वह
रसायनविद है
तो उसे सिर्फ
रसायनशास्त्र
की कुछ बातें
दिखायी पड़ती
हैं। एक माली
फूल को देखता है
तो उसे केवल
इतना ही दिखायी
पड़ता है कि
कितने पैसे
मिल जायेंगे
बाजार में
बेचने से।
बर्नार्ड
शॉ कभी फूल को
तोड़ता नहीं
था। एक मित्र
बर्नार्ड शॉ
को मिलने आया
था,
तो अपनी
बगिया से कुछ
फूल तोड़ लाया।
बर्नार्ड शॉ
तो बहुत नाराज
हुआ। उस मित्र
ने कहा. आप कैसी
बात करते हैं!
मैं तो सोचता
था कि आप इतने
बड़े
साहित्यिक, आपको फूलों
से प्रेम
होगा।
उसने
कहा. प्रेम है
इसीलिए तो।
तुमने तोड़ा
क्यों? उसने
कहा कि मैंने
सोचा आपके
कमरे में
गुलदस्ता सजा
दूंगा।
उसने
कहा. मुझे
प्रेम बच्चों
से भी है, क्या
उनकी गर्दनें
काट कर
गुलदस्ता
सजाऊं?
अब
जो फूल में बर्नार्ड
शॉ को दिखायी
पड़ रहा है, वह
शायद ही किसी
को दिखायी
पड़ता हो। इतना
प्रेम, इतना
सौंदर्य, कि
बच्चे की
गर्दन काटने
जैसी पीड़ा हो
जाये—फूल को
तोड़ने में!
तो खयाल
रखना, जिसमें
तुम्हें गुरु
दिखायी पड़ा है,
जरूरी नहीं
है कि सभी को
गुरु दिखायी
पड़े। सच तो यह
है कि तुम्हें
दिखायी पड़ा है,
इसलिए
जितने तुमसे
संबंधित हैं
उनको बिलकुल दिखायी
नहीं पड़ेगा।
उनकी तो
दुश्मनी खड़ी
हो जायेगी।
अगर पति को
गुरु दिखायी
पड़ गया तो
पत्नी को अड़चन
शुरू हो
जायेगी, कि
यह कहां की
झंझट आ गयी! यह
हम दोनों के
बीच में एक
तीसरा आदमी आ
गया। अब पति
मेरा नहीं
रहा।
मेरे
पास पत्नियां
आ कर कहती हैं
कि आपने क्या
कर दिया! आप
हमारे बीच में
क्यों आ गये, हमारी
जिंदगी में
क्यों आ गये? सब ठीक चल
रहा था... और पति
आपके पीछे
दीवाने हो गये।
अब मैं नंबर
दो हूं। अब
उनको फिक्र
यहां की लगी
रहती है।
कैसे
पत्नी बर्दाश्त
करे?
और अगर
पत्नी ने चुन
लिया है गुरु,
तब तो और
मुश्किल हो
जाती है। तब
तो पति के अहंकार
को भयंकर चोट
लग जाती है।
यह तो पति मान
ही नहीं सकता
कि पति के
अतिरिक्त भी
कोई और परमात्मा
है, पति ही
परमात्मा है!
और पत्नी किसी
के चरणों में
झुकने लगी। और
इस तरह वह पति
के चरणों में
नहीं झुकती
है। कौन पत्नी
पति के चरणों
में झुकती, पति को ही
झुकवाती रहती
है!
गुरु
मिल जायेगा तो
तुम्हारे जो
निकटतम हैं, वे
तुम्हारे
खिलाफ हो
जायेंगे।
उनको फिर तुम्हारे
साथ नया आयोजन
करना पड़ेगा, क्योंकि तुम
नये होने लगे।
एक नयी घटना
तुम्हारी
जिंदगी में घट
गयी। और छोटी
घटना नहीं; ऐसी, जो
कि तुम्हारी
पूरी जिंदगी
को उलट—पुलट
कर देगी। अब
तुम्हारी
जिंदगी नये
ढंग से
निर्मित होगी।
और जो तुम से
जुड़े हैं उनको
भी अपनी जिंदगी
नये ढंग से
निर्मित करनी
पड़ेगी, तुम्हारे
साथ अगर जुड़े
रहना है तो।
नहीं तो सब संबंध
उखड़ जायेंगे।
टूट जायेंगे।
इसलिए गुरु का
मिलन एक
क्रांति है।
गोरख
ठीक कहते हैं:
उनमनि
रहिबा भेद न
कहिबा पियबा
नीझर पाणी।
चुपचाप
भीतर— भीतर
पीना, चुपचाप
भीतर— भीतर
समाना। मत
अपने गुरु की
प्रशंसा करना,
क्योंकि
प्रशंसा तुम
करोगे. करना
तुम्हारा चाहेगा
मन, कौन न
करना चाहेगा?
जिसको गुरु
मिल गया वह
चाहता है कि
मुंडेरों पर
चढ़ जाये
मकानों की और
चिल्लाकर
दुनिया— भर को
कह दे कि
पागलो! कहां
चले जा रहे हो,
आओ मेरे
गुरु के पास!
यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। मगर तुम
जितना अपने
गुरु का
सम्मान करोगे,
उतना ही
दूसरे अपमान
करेंगे। तुम
जितनी
प्रशंसा
करोगे, उतनी
ही दूसरे
निंदा
करेंगे।
तुम्हारे
गुरु को मानने
का मतलब तो
होगा कि
तुम्हारे बोध
को स्वीकार कर
लिया। कौन
तुम्हारे बोध
को स्वीकार
करेगा? तुम्हारे
गुरु के खंडन
में वे यह कह
रहे हैं कि
तुम मूर्ख हो,
मूढ़ हो। किस
नासमझ के
चक्कर में पड़े
हो? पागल
हो गये हो, दीवाने
हो गये हो, सम्मोहित
हो गये हो!
कोई
तुम्हारा
निकटतम मित्र
भी यह बात
मानने को राजी
नहीं होगा कि
उसके पहले और
तुमको गुरु मिल
गया। तो तुम
इतने बड़े
पात्र, ऐसे
सुपात्र! कि
उसे. कुछ नहीं
दिखायी पड़ा और
तुम्हें
दिखायी पड़ गया,
तुम ऐसी
आंखवाले! तुम
ऐसे
प्रज्ञाचक्षु!
नहीं, उसके
अहंकार को चोट
पड़ेगी। वह
सिद्ध करने
में लग जायेगा,
हर तरह से
सिद्ध करने
में लग जायेगा
कि तुम गलत
हो। और
तुम्हें गलत
सिद्ध करने का
एक ही उपाय है
कि तुम्हारे
गुरु को
गालियां दे।
कल
मुझसे कोई
पूछता था कि
आपके लोग इतने
खिलाफ क्यों
हैं?
मैंने कहा.
यह बिलकुल
स्वाभाविक है,
कुछ लोग
मेरे इतने
प्रेम में
हैं! और एक
आदमी प्रेम
में पड़े तो
कम—से—कम पचास
आदमी खिलाफ हो
जायेंगे।
क्योंकि उस एक
आदमी से जो
पचास जुड़े हैं,
वे सब खिलाफ
हो गये। उसके
बेटे खिलाफ हो
जायेंगे मेरे;
उसकी पत्नी,
उसके भाई, उसके बंधु, उसके
रिश्तेदार—उसके
सारे
संबंधी..। अब
एक आदमी से
अगर पचास आदमी
जुडे हैं—और
स्वभावत: एक
आदमी से कम से
कम पचास आदमी
तो जुड़े
होंगे—ज्यादा
ही जुडे होंगे,
वे सब मेरे
खिलाफ हो गये।
एक पक्ष में
क्या आया, पचास
विपक्ष में हो
जायेंगे।
मगर
मैंने उनसे
कहा : एक बात
पक्की समझना
कि मेरे बाबत
निर्णय लेना
ही होगा—या तो
मेरे पक्ष में
या मेरे
विपक्ष में, दोनों
हालत में तुम
मुझसे जुड़
गये। दोनों
हालत में तुम
मुझसे बच न
सकोगे। और जो
विपक्ष में है
वह कभी भी
पक्ष में हो
सकता है।
क्योंकि जो पक्ष
में है वह कभी
भी विपक्ष में
हो सकता है।
इसमें कुछ
आश्चर्य की
बात नहीं है।
यहां मित्र
शत्रु हो जाते
हैं, शत्रु
मित्र हो जाते
हैं। इसलिए जो
जुड़ गया, वह
अभी चाहे
शत्रु की तरह
जुड़ा हो, कभी
मित्र हो सकता
है।
ऐसी
भी घटनाएं रोज
यहां घटती हैं, जब
तक पति उत्सुक
था, पत्नी
खिलाफ थी। जब
से पति उत्सुक
नहीं रहा, पत्नी
उत्सुक हो
गयी। झगड़ा है
न! अब जब पति ने
रंग बदल लिया
तो पत्नी ने
भी रंग बदल
लिया। जब से
पति विरोध में
हो गया, पत्नी
पक्ष में हो
गयी।
बड़े
अजीब हैं
लोगों के मन।
और लोग
मूर्च्छित भाव
से जी रहे
हैं। उन्हें
कुछ पक्का पता
नहीं है कि
क्यों—जो
बोलते हैं, क्यों;
जो करते हैं,
क्यों? जो
प्रेम, घृणा,
नाते—रिश्ते
बना लेते हैं,
क्यों?
उनमनि
रहिबा भेद न
कहिबा पियबा
नीझर पाणी।
वह
जो भीतर गुरु
के प्रेम में
जुड़े गये, झरना
बहने लगेगा...
उसको पीना।
बाधो
नहीं, बांधो
नहीं
आरोही
गंध को,
छंद
की पंखुरियों
में
गीतों
की लड़ियों
में।
कूलों
की कारा में
गंगा
की धारा को
बंदी
बनाओ नहीं,
ज्योतिर्मय
किरणों को
स्तब्ध, मौन
ग्रहण करो
वहन
करो,
वहन करो!
चुपचाप
गुरु को पीना
और वहन करना।
समाना, जितना
समा लो। एक
दिन बहेगा
तुमसे। लेकिन
तुम मत बहाना।
जब बहने ही
लगे अपने से, तुम अवश हो
जाओ, तब
बात और। तब तक
सम्हालना।
जैसे कोई
स्त्री गर्भिणी
हो जाती है तो
नौ महीने तक
बच्चे को सम्हालती
है। एक दिन तो
बाहर आयेगा, आखिर कब तक
बच्चा भीतर
रहेगा गर्भ
के। पर जब अपने
से आये तभी
आने देना; जल्दी
मत करना नहीं
तो गर्भपात
होगा। जल्दी
मत करना, नहीं
तो असमय में
कही गयी बात
का कोई मूल्य
नहीं होता।
उनमनि
रहिबा भेद न
कहिबा पियबा
नीझर पाणी।
लंका
छाडि पलका
जाइबा तब
गुरुमुष लेबा
वाणी।।
और
धीरे— धीरे जो
व्यर्थ
है—लंका उसका
प्रतीक है—सोने
की लंका, वह जो
सब व्यर्थ है।
जिसको जगत में
लोग मूल्यवान मानते
हैं, उस
सबको जब तुम
असार जानने
लगोगे; जब
लंका को छोड़
कर तुम
प्रलंका के
निवासी हो जाओगे;
वह धन—दौलत,
पद—प्रतिष्ठा,
सम्मान, अभिमान
का जो जगत है, वह जब
तुम्हें दो
कौड़ी का मालूम
होने लगेगा—
तब
गुरुमुष लेबा
वाणी।
—तभी तुम
योग्य हो
सकोगे कि गुरु
जो तुम्हें दे
रहा है, उसे
तुम झेल पाओ, कि तुम गुरु
से गर्भित हो
पाओ।
सौभाग्यशाली
है वह व्यक्ति
जो किसी के
सामने झुक
पाये। जिसे
ऐसा कोई मिल
जाये जहां
झुकना आसान
हो।
सजदा
उस आसता का न
जिसको हुआ
नसीब
वह
अपने ऐतकाद
में इनसान ही
नहीं
जिसको
प्यारे की
चौखट का
प्रणाम न मिला...
सजदा
उस आसता का न
जिसको हुआ
नसीब
वह
अपने ऐतकाद
में इनसान ही
नहीं
वह
हमारे हिसाब
में अभी आदमी
ही नहीं। आदमी
ही तब बनता है
कोई,
जब उसके
भीतर शिष्य
प्रगट हो
जाये। और जिस
दिन शिष्य
प्रगट हुआ, आदमी बनते
हो तुम। और
जिस दिन
तुम्हारे
भीतर गुरु
प्रगट होगा, उस दिन तुम
भगवान हो
जाओगे। शिष्य
तुम्हारे
भीतर की
मनुष्यता की
पराकाष्ठा
है। और
तुम्हारे भीतर
गुरु का
आविर्भाव
तुम्हारे
भीतर भगवत्ता
का आविर्भाव।
और जब कभी ऐसा
हो जाये कि
कोई मिल
जाये—कोई चौखट,
जहां सिर
झुकाने का मन
हो, तो
चूकना मत, टालना
मत, कल के
लिए स्थगित मत
करना।
मैं
आज ही उसे
क्यों
सफें—दिल न कर
डालूं
यह
खूं की बूंद
मुझे कल यहां
मिले न मिले।
कल
का क्या भरोसा
है?
यह हृदय
धडके न धडके।
यह खून रग में
चले या न चले।
श्वास बहे न
बहे।
मैं
आज ही उसे
क्यों
सर्फे—दिल न
कर डालूं
इसलिए
आज ही समर्पित
कर दूं इसी
क्षण समर्पित
कर दूं।
क्योंकि कल का
कोई भरोसा नहीं।
तब
गुरुमुष लेबा
वाणी
और
जो ऐसा
समर्पित है, और
जिसने असार से
अपनी आंखें
हटा लीं और
सार की तलाश
में चला, बाहर
से मुड़ा और
भीतर की तरफ
चला—वही हकदार
है उसका, गुरु
जो देना चाहता
है, जो
गुरु के पास
पक गया है, जो
भेंट बांटना
चाहता है, जो
प्रसाद गुरु
तभी दे सकता
है।
थंभ
बिहूंणी गगन
रचीलै तेल
बिहूंणी बाती
गुरु
गोरख के वचन
पतिआया जब
द्यौसं नहीं
तहां राती।
और
गुरु एक
चमत्कार करने
वाला है।
लेकिन चमत्कार
तभी हो सकता
है जब तुम
पात्र होओ।
थंभ
बिहूणी गगन
रचीलै!
वह
एक ऐसा आकाश तुम्हें
देना चाहता है
जो बिना किसी
सहारे के है।
थंभ
बिहूंणी गगन
रचीलै।
हम
मंदिर बनाते
हैं,
तो स्तंभ
बनाते हैं, खंभे बनाते
हैं। तब कहीं
मंदिर का
छप्पर बन पाता
है। लेकिन यह
आकाश का छप्पर
देखा! छप्पर
तो है, लेकिन
बिना किसी
सहारे के! ऐसा
ही एक आकाश
भीतर भी है, जो गुरु
देगा। जो
किन्हीं
खंभों पर, सहारे
पर नहीं है।
एक ऐसा मंदिर
भी है, जो
ईंटों से नहीं
चुना गया है।
वही मंदिर
चिन्मय है।
वही असली
मंदिर है।
थंभ
बिहूंणी गगन
रचीलै तेल
बिहूंणी
बाती।
और
अभी तो तुमने
वे दीये देखे
हैं,
जिनमें तेल
से बाती जलती
है। लेकिन तेल
चुक जायेगा तो
फिर दीया बुझ
जाता है। कि
बाती चुक
जायेगी तो
दीया बुझ जाता
है। ये दीये
थोड़ी देर जलते
हैं और बुझ
जाते हैं।
गुरु एक ऐसा
दीया देना
चाहता है—बिन
बाती बिन तेल!
न तो वहां बाती
होगी न वहां
तेल होगा; सिर्फ
रोशनी होगी।
निराधार
प्रकाश होगा।
फिर वही प्रकाश
शाश्वत है।
उसका कोई कारण
नहीं है, इसलिए
उसके मिटने का
भी कोई उपाय
नहीं है।
गुरु
गोरख के वचन
पतिआया।
एक
बार तुम्हें
गुरु के वचन
पर प्रेम आ
जाये। गुरु
गोरख के वचन
पतिआया। 'पतिआया'
शब्द
प्यारा है!
प्रीति आ जाये,
भाव आ जाये।
हृदय गदगद हो
जाये। रोमांच
हो उठे।
गुरु
गोरख के वचन
पतिआया तब
द्यौसं नहीं
तहां राती।
और
उसी दिन से, जिस
दिन से यह
प्रेम जगा, उसी दिन से
अब उस जगत का
अनुभव शुरू हो
गया है—जहां न
दिन होता है न
रात; जहां
द्वंद्व नहीं
है, न जहां
जीवन है न
मृत्यु; न
जहां सुख है न
दुख, न
सफलता न
असफलता—जहां
एक ही
निर्विकार, निर्विकल्प,
निराकार.
जहां दो नहीं
हैं। जहां एक
का ही वास है,
छू
कर प्राणों की
पीर प्रीति बन
जाओ
जो
कुछ उलझी थी
आज उसे सुलझा
दो
जो
कुछ सुलझी थी
आज उसे उलझा
दो
मेरे
नयनों के सावन
आज सुखा दो
मैं
चाह रही हूं
मुझको आज दुखा
दो
नयनों
के नेही स्नेह
नीति बन जाओ।
छू
कर प्राणों की
पीर प्रीति बन
जाओ।
तुम
स्नेह स्वाति
बन जीवन भर
तरसाओ
मेरे
चित चातक को न
अधिक दरसाओ
अधरों
की यदि
मुस्कान
चुराओ जानूं
इतना
कर दो तो
धन्यभाग मैं
मानूं
तुम
वर्तमान के
चिर अतीत बन
जाओ
छू
कर प्राणों की
पीर प्रीति बन
जाओ
मेरे
सम्मुख झूठा
शृंगार नहीं
है
स्वम्मिल
आशाओं का आधार
नहीं है
मेरी
वीणा के बिखरे
तार सजा दो
इंगित
से उसको क्षण
भर आज बजा दो।
गा
कर तुम मेरे
गीत मीत बन
जाओ
छू
कर प्राणों की
पीर प्रीति बन
जाओ।
यह
पतिआने का
अर्थ : बजो दो
मेरे हृदय की
वीणा को, झंकृत
कर दो!
मेरी
वीणा के बिखरे
तार सजा दो
इंगित
से उसको क्षण
भर आज बजा दो।
गा
कर तुम मेरे
गीत मीत बन
जाओ
छू
कर प्राणों की
पीर प्रीति बन
जाओ
जिस
दिन गुरु के
वचन अमृत जैसे
मालूम होने
लगते हैं; जिस
दिन गुरु के
वचन तुम ऐसे
पीने लगते हो
जैसे स्वाति
की बूंद को
चातक पीता; जिस दिन
तुम्हारे और
गुरु के बीच
कोई व्यवधान नहीं
रह जाता, तुम
निर्वस्त्र
हो जाते हो; तुम और गुरु
के बीच कोई
सुरक्षा के
आयोजन नहीं
रखते; तुम
सम्हले
दूर—दूर, अलग—
थलग नहीं होते;
जुड़ ही जाते
हो; गुरु
की तरंग के
साथ तरंगित
होते हो—उस
क्षण :
गुरु
गोरख के वचन
पतिआया तब
द्यौसं नहीं
तहां राती!
बस
उसी क्षण
द्वंद्व मिट
जाता है, द्वैत
मिट जाता है, अद्वैत का
जन्म होता है।
उदय
न अस्त राति न
दिन।
वहा
न सुबह होती
है न सांझ।
उदय
न अस्त राति न
दिन सरबे
सचराचर भाव न
भिन्न।
वहा
भिन्नता का
भाव ही नहीं, वहां
अभिन्नता का
राज्य है।
सोई
निरंजन डाल न
मूल।
वहां
न कोई मूल है न
कोई डाल। इतना
भी भेद नहीं; बस
एक निरंजन है।
सोई
निरंजन डाल न
मूल! सब
व्यापीक सुषम
न अस्थूल।
न
वहा कोई स्थूल
है न वहां कोई
सूक्ष्म है। न
वहा शरीर है न
आत्मा, न
पदार्थ न
चेतना। वहां
सब एक है—सब एक
हो गया। उस
अद्वैत में जो
लीन हो गया, उसने ही
जाना, उसने
ही पाया।
अनंत
सिधां की
वाणी! ये अनंत
सिद्धों के
वचन हैं।
कहा
बुझै अवधू राई
गगन न धरणी
वहा
न पृथ्वी है न
आकाश, न राजा न
रंक।
चंद
न सूर दिवस
नहीं रैनी
न
चांद है न
सूरज है, न दिन
न रात।
ओंकार
निराकार सूछिम
न अस्थूल,
पेडू न पत्र
फलै नहीं फूल।
वहां
सब एक में लीन
हो गया है।
पेड़
न पत्र फलै
नहीं फूल,
ओंकार
निराकार
सूछिम न
अस्थूल।
सब
स्थूल—सूक्ष्म
खो गये, सिर्फ
एक ओंकार का
नाद हो रहा
है। एक संगीत
बज रहा है।
संगीत, जो
अनाहत है।
संगीत, जिसका
कोई स्रोत
नहीं। एक
ज्योति जल रही
है—बिन बाती
बिन तेल!
अर्चना
मैं कर न
पाया।
दो
क्षणों के उस
मिलन में
कौन—सा मैं
गीत गाता?
जब
तुम्हें लख
सामने, निज
को स्वयं मैं
भूल जाता।
बन
गया था मूक, प्रिय
की वंदना मैं
कर न पाया।
अर्चना
मैं कर न
पाया।
मुस्कुराए
तुम,
हृदय में छा
गई मेरे
विकलता,
ज्यों
पतंग विभोर
होता, देखते
ही दीप जलता।
कौन
परिचय दूं
प्रणय की
कामना मैं कर
न पाया?
अर्चना
मैं कर न
पाया।
मौन
अंतर की व्यथा
को क्या गए
पहचान थे तुम?
मैं
छिपाए था जिसे
उसका गए प्रिय
जान थे तुम।
खुल
गया सब भेद, पूरी
साधना मैं कर
न पाया।
अर्चना
मैं कर न
पाया।
हो
रहे थे तुम
द्रवित लख
वेदना का भार
मेरा।
हो
गया साकार ही
था दीन उर का
प्यार मेरा।
स्वप्न
से आये, गए
तुम याचना मैं
कर न पाया।
अर्चना
मैं कर न
पाया।
और जब
ऐसी घड़ी पहली
बार आती है, तो
साधक अवाक रह
जाता है।
अर्चना
मैं कर न पाया!
स्वप्न
से आए गए तुम
याचना मैं कर
न पाया।
उस
क्षण एक शब्द
भी बोला नहीं
जाता—मूक, वाणी
खो जाती है।
चुप्पी हो
जाती है, सन्नाटा
हो जाता है।
जहां न दिन है
न रात, न
उदय न अस्त, वहां मैं—तू
भी कहां? कौन
करे अर्चना, किसकी करे
अर्चना?
अर्चना
मैं कर न
पाया।
दो
क्षणों के उस
मिलन में
कौन—सा मैं
गीत गाता
जब
तुम्हें लख
सामने, निज
को स्वयं मैं
भूल जाता।
बन
गया था मूक, प्रिय
की वंदना मैं
कर न पाया।
अर्चना
मैं कर न
पाया।
उस
अपूर्व अनुभव
को इसीलिए कोई
कभी कह नहीं
पाता। वहा जा
कर वह वाणी
छूट जाती है।
शब्द गिर जाते
हैं,
निःशब्द रह
जाता है। जो
वहा से लौटता
है वह कहे भी
तो कैसे कहे? जो उसने
जाना है, शून्य
था। शब्दों
में कैसे
बांधे?
इसलिए
बुद्धों की
आंखें शून्य
हैं। अगर तुम
उनकी आंखों
में झांकोगे, तो
असीम शून्यता
पाओगे। वहां
तुम कुछ
वक्तव्य नहीं
पाओगे। हौ, निराकार का
स्वाद
मिलेगा। अगर
बुद्धों के
हृदय से
जुड़ोगे, तो
अनाहत का नाद
सुनाई पड़ेगा,
लेकिन कोई
वक्तव्य नहीं,
कोई
सिद्धात नहीं,
कोई
शास्त्र
नहीं।
डाल
न मूल न वृष न
बेला साषी न
सबद गुरु नहीं
चेला!
ग्याने
न ध्याने जोगे
न जुक्तार
पापे न पुने मोषे
न मुक्ता।
अदभुत
वचन है! स्मरण
रखना।
डाल
न मूल न वृष न
बेला।
सब
खो गया। बीज
भी खो गया, वृक्ष
भी खो गया।
पहले तुम बीज
थे। जब तक तुम
शिष्य नहीं
बने, तुम
बीज हो। जब
तुम शिष्य बन
गये, तुम
वृक्ष हुए। और
जब तुम गुरु
बन गए, तो
वृक्ष भी खो
गया। अब तुम
शून्य में, निराकार में
लीन हो गये।
डाल
न मूल न वृष न
बेला साषी न
सबद...।
न
तो वहा कोई
शब्द है, न कोई
सिद्धात है।
साषी
न सबद गुरु
नहीं चेला
वहां
न कोई गुरु है
न कोई चेला
अब। गुरु की
अवस्था ही वही
है,
जब न गुरु
बचता और न
चेला बचता। जब
कोई बचता ही नहीं—एक
सन्नाटा रह
जाता है—एक
अपरिसीम
सन्नाटा
मात्र रह जाता
है, एक
शून्य मात्र
रह जाता है।
गुरु एक
अनुपस्थिति
है। गुरु एक
उपस्थिति
नहीं है—एक
अनुपस्थिति
है। गुरु एक
शून्य है।
इसलिए तो गुरु
के पास सरकने
में डर लगता
है, क्योंकि
शून्य के पास
गये तो शून्य
हो जाओगे। गुरु
तो मृत्यु है।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
गुरु
के पास तो
मरना होगा।
सूली पर चढ़ना
होगा। मगर
सूली के पीछे
ही छिपा
सिंहासन है।
ग्याने
न ध्यांने
वहां
ज्ञान भी चला
जाता है, ध्यान
भी चला जाता
है। कोई बचा
ही नहीं; किसका
ज्ञान, किसका
ध्यान? कौन
करे ध्यान, कौन करे
ज्ञान?
जोगे
न जुक्ता।
न
वहां योग है, न
कोई युक्ति
है।
पापे
न गुने।
न
वहा पाप है न
पुण्य है।
मोषे
न मुक्ता
यह
अदभुत वचन है
कि वहां मोक्ष
भी कहां, वहां
मुक्ति भी
कहां? जो
मुक्त हो सकता
था वही नहीं
है अब। बंधन
ही नहीं गये; जो बंधा था
वह भी गया। अब
तो शून्य का विस्तार
है। अब तो
आकाश ही आकाश
है, अब तो
अनंत ही अनंत
है। मगर इसी
अनंत का नाम
भगवत्ता है।
उपजै
न विनसै आवै न
जाई
अब
उस जगह आ गये
जिसकी न कभी
उत्पत्ति हुई
है और न कभी
विनाश होता
है।
उपजै
न विनसै आवै न
जाई
न
आता न जाता।
इसी को आवागमन
से मुक्ति कहा
है। समझना।
आवागमन से
मुक्ति का
इतना ही मतलब
नहीं है कि फिर
गर्भ में जन्म
न हो। लोग
सोचते हैं, स्वर्ग
में रहेंगे।
फिर संसार में
न आयेंगे। इस
संसार के
दुख—जाल में न
पड़ेंगे।
स्वर्ग में
रहेंगे, जहां
सोने के वृक्ष
हैं और चांदी
के फूल लगते हैं
और
हीरे—जवाहरात
रास्तों पर जड़े
हैं। और शराब
के झरने बहते
हैं। और
सुंदरियां
नाचती ही रहती
हैं। और जहां
शीतल मंद पवन
बहता रहता है।
न कभी गरमी है
न कभी मौत।
कोई का नहीं
होता, कोई
रुग्ण नहीं
होता। ऐसे
देवलोक में
जन्मेंगे। तो
तुम समझे ही
नहीं।
आवागमन
से मुक्ति का
अर्थ है जहां
तुम भी न बचोगे।
स्वर्ग भी
नहीं, नर्क भी
नहीं, पाप
भी नहीं पुण्य
भी नहीं। जब
तक तुम हो तब
तक सब
रहेगा—स्वर्ग
भी रहेगा, नर्क
भी रहेगा; सुख
भी रहेगा, दुख
भी रहेगा; बंधन
भी रहेगा, मुक्ति
भी रहेगी; पाप
और पुण्य भी
रहेगा; आना
और जाना भी
रहेगा। जब तक
तुम हो, तब
तक सब रहेगा। तुम
संसार हो।
इसलिए
बुद्ध ने
इंकार कर दिया
तुम्हारे
होने को, कह
दिया कि कोई
आत्मा नहीं
है। इस बात को
समझना।
इसीलिए कह
दिया कि तुम
नहीं हो, ताकि
यह मोह न बना
रहे। नहीं तो
लोग सोचते हैं
मोक्ष में हम
तो रहेंगे।
दुख मिट
जायेगा, हम
रहेंगे।
बुद्ध ने कहा
है कि तुम ही
दुख हो। तुम
जब तक हो तब तक
दुख रहेगा। जब
तुम ही मिट
जाओगे, तभी
दुख समाप्त
होगा। मगर तब
हमें बड़ी
घबड़ाहट होती
है। तो फिर
फायदा ही क्या,
लोग पूछते
हैं। जब हम ही
न रहे, तो
सार क्या?
अरे
को —जिया देखा
नहीं जाता
मुहब्बत में
यह
सौदा और सौदा
है यह दुनिया
और दुनिया है
तुम
फिर लाभ—हानि
की ही बातें
सोच रहे हो
अभी। फिर
तुम्हें
प्रेम में
मिटने का पता
ही नहीं। गुरु
के पास मिटने
का पाठ सीखा
जाता है। और
जब गुरु के
मिटने में, गुरु
के भीतर डूबने
में, गुरु
के साथ शून्य
हो जाने में
रस उमगने लगता
है, तब
हिम्मत बढ़ती
है, तब साहस
आता है—कि जब
इतने से मिटने
में इतना रस आ रहा
है तो पूरा
मिटने में
कितना रस न
आयेगा। तुम न
रहोगे तभी रस
होगा। तुम न
रहोगे तब आनंद
होगा। ऐसा
नहीं कि मैं
आनंदित हो
जाऊंगा। मैं नहीं
रहूंगा, तब
आनंद रहेगा।
तब आनंद ही
नाचेगा, आनंद
ही उत्सव
मनायेगा।
उपजै
न विनसै आवै न
जाई जुल न मरण
बांके बाप न
माई।
वह
जो अनादि है, अनंत
है, वह तुम
जो हो अपनी
वास्तविकता
में, उसकी
न तो कोई
शुरुआत है, न कोई अंत, न कोई जन्म, न कोई
मृत्यु। उसका
न कोई पिता है,
न कोई मां।
भणत
गोरखनाथ
मछद्रि ना
दासा?
और
सुनते हो यह!
अभी क्षण— भर
पहले गोरख ने
कहा डाल न मूल
न वृष न बेला, साषी
न सबद गुरु
नहीं चेला।
अभी क्षण— भर
पहले कहा कि
वहां न कोई
गुरु है न कोई
चेला। और अब
सुनते हो क्या
कहते हैं!
भणत
गोरखनाथ
मछीद्र नौ
दासां!
कि
गोरख कहते हैं, जो
कि
मच्छींद्रनाथ
के एक दास
मात्र हैं।
भाव
भगति और आस न
पासा
वहां
आशा का कोई
जाल नहीं है, जंजाल
नहीं है, मगर
भाव— भगति
बहुत है। वहां
भाव का बड़ा
अपूर्व अनुभव
है। अनुभव
करनेवाला तो
नहीं बचता, अनुभव की
शुद्धि बचती
है— भाव भगति!
कोई आशा नहीं
है, कोई
तृष्णा नहीं
है, कोई
वासना नहीं है,
कोई जंजाल
नहीं है; लेकिन
भाव का पारावार
नहीं, ऐसा
भाव है! उसी
भाव का नाम
भगवत्ता है।
गुरु भी मिट
गया, चेला
भी मिट गया; लेकिन गुरु
के प्रति जो
कृतशता का भाव
है, वह
नहीं गया।
भणत
गोरखनाथ
मछीद्र नौ
दासा!
कहते
हैं कि
तुम्हारी ही
कृपा से तो आ
सके उस जगह
जहां न कोई
गुरु बचा न
चेला।
तुम्हीं ले आये
धीरे— धीरे
वहा जहां न हम
बचे न तुम।
कैसे अनुग्रह
को भूल जायें? इसलिए
अभी भी
पुकारते हैं
अपने को कि
मैं वही हूं—गोरखनाथ,
मच्छींद्रनाथ
का दास, उनका
सेवक। यह बड़ी
उलट—बासी है!
क्योंकि लोग सोचते
हैं कि जब
स्वयं गुरु हो
गये, स्वयं
ज्ञान हो गया
तो अब तो गुरु छूट
ही गया।
निश्चित छूट
गया, बिलकुल
ही छूट गया।
मगर इसीलिए
अनुग्रह की अपरिसीम
भावना सघन हो
जाती है।
चीन
में एक कथा है.
एक साधु उत्सव
मना रहा था। यह
उत्सव सिर्फ
गुरु के ही
स्मरण में
मनाया जाता है
चीन में। लोग
थोड़े हैरान
थे। उस साधु
से पूछा किसी
ने कि जहां तक
हमें पता है, तुम
जिस व्यक्ति
को गुरु बनाना
चाहते थे, उसने
कभी तुम्हें
शिष्य बनाया
नहीं। और तुम
उसकी मृत्यु
पर यह उत्सव
क्यों मना रहे
हो? यह
उत्सव तो
सिर्फ गुरु की
ही स्मृति में
मनाया जाता
है।
क्या
व्यक्ति
हंसने लगा।
उसने कहा :
यहां जरा उल्टी
बात है, तुम्हारी
समझ में न
आयेगी। मगर
पूछा है, तो
मैं जबाब तो
दे देता हूं
समझो या न
समझो। मैं
बार—बार गुरु
के पास गया कि
मुझे शिष्य
बना लो और वह
बार—बार मुझे
भगाते रहे।
मैं जितना ही आग्रह
करता, वे
उतने ही कठोर
होते गये। वे
डंडा मार कर
मुझे भगा
देते। मैं फिर
पहुंच जाता, द्वार—दरवाजा
बंद कर लेते।
एक बार
उन्होंने मुझे
उठा कर और
खिड़की से बाहर
फेंक दिया।
जितनी मैंने
कोशिश की उतना
ही वे मुझे
भगाते ही रहे।
वे सुनते ही
नहीं थे! और
ऐसे ही भगाते—
भगाते एक दिन
मुझे शान हुआ।
अगर वे मुझे न
भगाते, तो
मुझे शान न
होता। जिस दिन
उन्होंने
मुझे खिड़की से
उठाकर फेंक
दिया और जब
मैं गिरा नीचे
चट्टान पर एक
क्षण को सब
विचार खो गये;
सन्नाटा छा
गया। मैं वहां
पड़ा ही रहा।
और वे मुझे
खिड़की में से
देखते रहे और
मुस्कुराने
लगे। और उस
घड़ी कुछ हो
गया। उस घड़ी
मैंने जाना कि
उन्होंने
स्वीकार कर
लिया है। उस घड़ी
मैंने जाना
दीक्षा हो
गयी। उस घड़ी
मैंने जाना जो
होना था हो
गया। फिर मैं
उन्हें
परेशान करने
नहीं गया। फिर
परेशान करने
की जरूरत ही न
थी। स्वीकार
हो ही गया था।
उन्हीं की याद
में यह उत्सव
मना रहा हूं।
वे मेरे गुरु
थे, यद्यपि
उन्होंने कभी
मुझे शिष्य
नहीं बनाया।
मगर मुझे
शिष्य नहीं
बनाया, इसी
कारण तो मुझे
ज्ञान
उत्पन्न हुआ।
वे मुझे बना
लेते तो शायद
मुझे उत्पन्न
न होता। शायद
वे जानते थे
कि मुझे किस
तरह उत्पन्न
होगा। इसलिए
उनके धन्यवाद
में, उनके
आभार में यह
उत्सव मना रहा
हूं।
शिष्य
और गुरु के
बीच का नाता
बड़ा रहस्यपूर्ण
नाता है। उसे
तो वे ही लोग
जान सकते हैं, जिन्होंने
उसका स्वाद
लिया है।
मुकामे—बेखुदी
तक ले गये
पहले तमन्ना
को
कदम
फिर जिस तरफ
रक्खा
निशाने—राहे—मंजिल
था।
बस
गुरु इतना ही
तो करता है कि
शिष्य का हाथ
पकड़कर
मुकामे—बेखुदी
तक...। जहां
अहंकार भूल
जाये, बेखुदी
आ जाये। जहां
खुद का भाव
भूल जाये
मुकामे—बेखुदी
तक ले गये
पहले तमन्ना
को
वह
शिष्य की
आकांक्षाओं, अभीप्साओं
को उस मुकाम
तक ले जाता है,
जहां
तन्मयता आ
जाये।
विस्मय—विमुग्ध
हो जाये, अहंकार—
भाव भूल जाये।
मुकामे—बेखुदी
तक ले गये
पहले तमन्ना
को
कदम
फिर जिस तरफ
रक्खा
निशाने—राहे—मंजिल
था।
और
जब मैं मिट
गया,
फिर तो आंख
खोली और जिस
तरफ पांव रखा
वहीं मंजिल
थी। जिस तरफ
देखा वहीं
मंजिल थी।
घटि
घटि गोरख बाही
क्यारी जो
निपजै सो होइ
हमारी
घटि
घटि गोरख कहै
कहाणी। कांचै
भांडै रहै न
पली
घटि
घटि गोरख फिरै
निरूता। को घट
जागे को घट
सूता?
घटि
घटि गोरख घटि
घटि मीन आप? परचै
गुरमुषि
चीन्ह
फिर
तो सभी में
वही दिखायी
पड़ने लगता है।
घट—घट में उसी
का वास हो
जाता है। तुम
मिटो और परमात्मा
हो जाये। तुम
जब तक हो तब तक
परमात्मा नहीं
है। गुरु इतना
ही सिखाता है
कि कैसे मिटो।
मिटने की कला
सिखाता है।
मृत्यु की कला
सिखाता है।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
आज
इतना ही
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