9
अक्टूबर,
1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
सुणौ
हो नरवै सुधि
बुधि का
विचार। पंच तत
ले उतपनां सकल
संसार।
पहलै
आरंभ घट परचा
करी निसपती।
नरवै बोध कथंत
श्री
गोरषजती।।
पहलै
आरंभ छाड़ौ काम
क्रोध
अहंकार। मन
माया विषै
विकार।
हंसा
पकड़ि घात जिनि
करौ। तृस्ना
तजौ लोभ परहरौ।।
छाड़ौ
दद रहां
निरदंद। तजौ
अल्यंगन रहां
अबंध।
सहज
जुगति ले आगा
करौ। तन मन
पवना दिढू करि
धरौ।।
संजम
चितओ जुगत
अहार।
न्यंद्रा तजौ
जीवन का काल।
छाड़ौ
तत मैत बैदंत।
जंत्र गुटिका
धात पाषंड।।
जड़ी
बूटी का नांव
जिनि लेहु।
राज द्वार पाव
जिनि देहु।
थंभन
मोहन बिसिकरन
छाडौ औचाट।
और दसा
परहरौ छतीस।
सकल विधि
ध्यावो
जगदीस।
बहु
विधि नाटारंभ
निबारि। काम
क्रोध अहकारहि
जारि।।
गौ महा रस
फिरी जिनि
देस। जटा भार
बंधौ जिनि केस।
रूष बिरष
बाड़ी जिनि
करी। कूवा
निवाण षोदि
जिनि मरौ।।
टूटै पवना
छीजै काया।
आसण दिढ करि
वैसो राया।
तीरथ
बर्त कदै जिनि
करी। गिर
परबता चढि
प्रानमति
हरी।।
पूजा
पाति जपौ जिनि
जाप। जोग माहि
विटबौ आप।
छाड़ौ वैद काज
व्यौपार।
पढिबा गुणिबा
लोकाचार।।
बहुचेला
का संग
निबारि।
उपाधि मसाण
बाद विष तारि।
येता कहिये
प्रतच्छि
काल। एकाएकी
रहां भुवाल।।
सभा
देषि मांडौ
मति ध्यान।
ग्ता गहिला
होइ रहां
अजाण।
छाडुव राव
रंक की आस।
भिछ्या भोजन
परम उदास।।
रस
रसाइंन
गोटिका
निवारि। रिधि
परहरौ सिधि लेहु
विचारि।
परहरौ
सुरापांत
अरूणा। तातैं
उपजै नीनी रंग।।
नारी, सारी,
कींगुरी।
तीन्यू सतगुर
परहरी।
आरंभ
घट परचै
निसपति। नरवै
बोध कथत श्री
गोरषजती।।
जुज़
मर्तबए कुल को
हासिल करे है
आखिर,
एक
कतरा न देखा
जो दरिया न
हुआ होगा। पदं
एक
बूंद भी ऐसी
नहीं है
अस्तित्व में
जो आज नहीं कल
सागर न हो
जाये। अंश
अंशी हो जाता
है,
खंड अखंड हो
जाता है, सीमित
असीम हो जाता
है। एक बूंद
भी ऐसी नहीं
है जिसकी
नियति में —सागर
होना न हो, तो
फिर एक मनुष्य
भी कैसे हो
सकता है जो
परमात्मा
होने से वंचित
रह जाए?
परमात्मा
होना मनुष्य
का स्वभाव है।
जैसे बूंद
सागर हो सकती
है,
ऐसे मनुष्य
सीमाओं से
मुक्त हो जाये
तो परमात्मा
हो सकता है।
मनुष्य
परमात्मा है,
सिर्फ
सीमायें
गिराने की बात
है। मनुष्य के
परमात्मा
होने में और
कोई बाधा नहीं
है; हमने
चारों तरफ एक
लक्ष्मण—रेखा
खींच रखी है। हमारी
खींची हुई
रेखा है; हम
ही उस रेखा के
बाहर नहीं
जाते; हमने
ही दीवाल बना
ली है; हमने
ही सुरक्षा का
आयोजन कर लिया
है; हम ही
ज्ञात में
आबद्ध हो गए
हैं। अज्ञात
पुकारता है, पर भय के
कारण हम
यात्रा पर
नहीं निकल
पाते।
योग
की यात्रा
अशात की
यात्रा है।
लेकिन अज्ञात
की यात्रा पर
तो वही जायेगा
जो ज्ञात से
थक गया। तुमने
जो जाना है, उससे
मन भरा?
अगर
मन भर गया है
तब तो परमात्मा
तक जाने का
कोई सवाल नहीं
उठता; परमात्मा
तुम्हें मिल
ही गया। मन भर
जाने का नाम
ही तो
परमात्मा का
मिलना है। मन
भरा नहीं है।
मन जरा भी भरा
नहीं है। खाली
का खाली है।
सिर्फ
आशायें—कल भर
जायेगा, परसों
भर
जायेगा—उलझाये
रखती हैं।
सिर्फ आश्वासन
झूठे, जो
कभी पूरे नहीं
होते; किसी
के कभी पूरे
नहीं होते।
कल
मैं एक
लोकप्रिय गीत
सुन रहा था—
जाने
वो कैसे लोग
थे जिनके
प्यार को
प्यार मिला
ऐसे
लोग कभी नहीं
हुए जिनके
प्यार को
प्यार मिला
हो। इस संसार
में कभी कोई
तृप्ति को
उपलब्ध नहीं
हुआ।
जाने
वो कैसे लोग
थे जिनके
प्यार को
प्यार मिला
हमने
तो जब कलियां
मागीं, कीटों
का हार मिला
खुशियों
की मंजिल
ढूंढी तो गम
की गर्द मिली
चाहत
के नग्मे चाहे
तो आहें सर्द
मिली
दिल
के बोझ को
दूना कर गया, जो
गमख्वार मिला
बिछुड़
गया हर साथी
देकर पल दो पल
का साथ
किसको
फुर्सत है जो
थामे दीवानों
का हाथ
हमको
अपना साया तक
अक्सर बेजार
मिला
इसको
ही जीना कहते
हैं तो यूं ही
जी लेंगे
उफ
न करेंगे, लब
सी लेंगे, आंसू
पी लेंगे
गम
से अब घबड़ाना
कैसा? गम सौ
बार मिला
जाने
वो कैसे लोग
थे जिनके
प्यार को
प्यार मिला
हमने
तो जब कलियां
मांगीं
कांटों का हार
मिला
ऐसे
लोग कभी हुए
ही नहीं। यहां
तो जिसने भी
कलियां मांगी
हैं,
उसी को
कीटों का हार
मिला है। इस
संसार में कीटों
के सिवाय कुछ
और है ही
नहीं। ही, दूर
से फूल दिखाई
पड़ते हैं, पास
आने पर कांटे
सिद्ध होते
हैं। जो नहीं
मिला है
प्यारा लगता
है; जो मिल
जाता है वही
व्यर्थ हो
जाता है। अभाव
में आकर्षण
है। दूर के
ढोल सुहावने
हैं।
योग
की यात्रा पर
तो वही
निकलेगा जिसे
यह बात बिल्कुल
साफ हो गई कि
यहां सुख
मिलना संभव
नहीं है। सुख
असंभव है
संसार में। 'क्योंकि
संसार का अर्थ
होता है
बहिर्यात्रा—अपने
से बाहर जाना।
और अपने से
बाहर जाकर कोई
कभी सुख को
उपलब्ध न हो
सकेगा।
क्योंकि जितने
तुम अपने से
दूर हो जाओगे
उतने ही
स्वभाव के
प्रतिकूल हो
जाओगे। और
स्वभाव में
डूब जाना सुख
है। अपने स्व
में निमग्न हो
जाना सुख है।
स्वभाव सुख है,
विभाव दुख
है।
तो
जितने तुम
अपने से दूर
जाते हों—धन
में,
पद में, प्रतिष्ठा
में—उतने ही
तुम दुखी होते
चले जाते हो।
संसार का अर्थ
ये वृक्ष नहीं,
ये
चांद—तारे
नहीं; संसार
का अर्थ है मन
की बाहर जाती
हुई दौड़। बहिर्यात्रा
संसार है।
अंतर्यात्रा
धर्म है।
जरा
अपने जीवन को
गौर से देखो, विचारो,
तो ही गोरख
के ये अमृत
शब्द समझ में
आ सकेंगे।
गोरख के ही
क्यों, समस्त
बुद्धपुरुषों
के वचन इसलिए
तुम्हारे काम
नहीं आते, कि
तुमने अपने
जीवन का निरीक्षण
नहीं किया।
अभी भी
तुम्हारी
आशायें शेष
हैं। अभी भी
तुम्हारी
आशायें खंडित
नहीं हुई हैं।
धोखा
है तमाम
बहरे—दुनिया
देखेगा
तो होंठ तर न
होगा।
दिखाई
पड़ता है, जल
लहरें ले रहा
है; पर दूर
से दिखाई पड़ता
है।
मृग—मरीचिका
है। और जब पास
जाओगे ओंठ तर
भी न हो
सकेंगे। कंठ
तक तो पहुंचने
की बात दूर, ओंठ भी तर न
हो सकेंगे।
सब्ज
होती ही नहीं
यह सरजमीं,
तुख्मे—ख्वाहिश
दिल में तू
बोता है क्या?
इस
जमीन पर
हरियाली कभी होती
ही नहीं। तू
नाहक ही
इच्छाओं के
बीज बो रहा है
अपने दिल में।
बहुत
पछतायेगा। ये
बीज कभी
अंकुरित होते
नहीं।
सब्ज
होती ही नहीं
यह सरजमीं,
तुख्मे—ख्वाहिश
दिल में तू
बोता है क्या?
क्यों
बोये चले जाते
हो नई—नई
आकांक्षाओं
के बीज? पुराने
बीज नहीं
उपजते तो तुम
नए बीज बो
देते हो। ऐसा
जन्मों—जन्मों
से कर रहे हो।
पास
के गये पै एक
बूंद हू न हाथ
लगै,
दूर
सों दिखात
मृगतृष्णिका
में पानी है।
शंकर
प्रमाण—सिद्ध
रंग को न संग
पर,
जानि
परै अंबर में
नीलिमा समानी
है।
भाव
में अभाव है
अभाव में धी
भाव भर्यो,
कौन
कहै ठीक बात
काहू ने न
जानी है।
बहुत
उलझन है इस
जगत की। भाव
में अभाव है।
जो होता है वह
तो भूल जाता
है। जो है वह
तो दिखाई नहीं
पड़ता। भाव में
अभाव है अभाव
में धौं भाव
भर्यो। और जो
नहीं है उसमें
हमारे भाव
उलझे रहते
हैं। जो
तुम्हारे पास
नहीं है उसमें
तुम अटके हो, यह
बात तो तुम जानकर
हैरान होओगे।
लोग
सोचते हैं कि
जो हमारे पास
है उसमें हम
अटके हैं; गलत
है। जो
तुम्हारे पास
है उसमें तो
तुम जरा भी
नहीं अटके हो;
जो
तुम्हारे पास
नहीं है उसमें
अटके हो। तुम्हारे
पास दस हजार
रुपये हैं, उनमें तुम
नहीं अटके हो;
दस लाख, जो
अभी तुम्हारे
पास नहीं हैं,
उनमें तुम
अटके हो। तुम
यह दस हजार
छोड़ भी दो तो
कुछ लाभ न
होगा। जब तक
वे दस लाख न
छूट जायें जो
तुम्हारे पास
नहीं हैं...।
यह
जरा बड़ी उलटी
सी बात मालूम
होगी कि जो
नहीं है, उसमें
हम उलझे हैं।
जो पत्नी
तुम्हारे पास
है उसमें तुम
नहीं उलझे हो,
उससे तो तुम
कब के मुक्त
हो गए हो, उसे
तो तुमने
देखना ही बंद
कर दिया है।
उसे तो तुम
पहचान भी न
सकोगे। कितने
दिन हो गए, कितने
वर्ष, जबसे
तुमने पत्नी
को देखा नहीं
है भर आंख! अपनी
पत्नी को
देखता ही कौन
है! दूसरों की
पत्नियों को
लोग देखते
हैं!
जो
तुम्हारे पास
नहीं है, उससे
तुम उलझे हो।
अभाव ने
उलझाया है।
इसलिए सदगुरु
का बड़ा बेबूझ
काम है। वह
तुमसे वही छीन
लेता है जो
तुम्हारे पास
नहीं है। और
तुम्हें वही
दे देता है जो
तुम्हारे पास
है। पास जाकर पाओगे
बूंद भी नहीं
है वहां, जहा
सागर लहराता
मालूम पड़ता
था।
यह
धोखा ऐसे ही
है जैसे आकाश
नीला दिखाई
पड़ता है। बस
दिखाई पड़ता है; आकाश
का कोई रंग
नहीं है। आकाश
कोई वस्तु
थोड़े ही है कि
उस पर रंग
पोता जा सके।
आकाश तो शून्य
का नाम है।
शून्य
को कैसे लोगे? आकाश
नीला दिखाई भर
पड़ता है।
शंकर
प्रमाण—सिद्ध
रंग को न संग
पर,
जानि
परै अंबर में
नीलिमा समानी
है।
पक्का
प्रमाण है
इसका, अब
वैज्ञानिक
प्रमाण है कि
आकाश में कोई
रंग नहीं होता,
लेकिन फिर
भी नीला दिखाई
पड़ता है। और
मरुस्थल में
जब तुम प्यास
से विदग्ध हो
रहे हो, तुम्हारी
प्यास ही
मृग—मरीचिकाए
पैदा कर लेती
है। और साधारण
आदमी की तो
बात छोड़ दो, असाधारण पुरुष
भी
मृग—मरीचिकाओ
में पड़ जाते
हैं। राम तक
स्वर्ण—मृग को
पकड़ने निकल
पड़े।
स्वर्ण—मृग होते
हैं? कभी
हुए हैं?
कथा
प्यारी है!
सीता को गंवा
बैठे राम—रावण
के कारण नहीं; स्वर्ण—मृग
को खोजने निकल
पड़े, इस
कारण। अगर तुम
मुझसे पूछो तो
रावण ने सीता चुरायी
यह बात गौण है;
राम ने सीता
गंवायी, यह
बात
महत्वपूर्ण
है। थोड़ा सोचो
तो, तुम भी
होते तो सोचते
कि कहीं सोने
का मृग होता
है, कभी
हुआ है? लेकिन
स्वर्ण—मृग
दिखाई पड़ा, चले राम खोज
पर। उठा लिया
धनुष—बाण। छोड़
गए सीता को।
जो था उसे छोड़
गए—उसके लिए, जो नहीं है; और जो कभी
हुआ नहीं और
जो कभी हो भी
नहीं सकता।
बुद्धि जिसके
बिलकुल
विपरीत है, विचार जिसके
विपरीत है, समझ जिसके
विपरीत है—उस
स्वर्ण—मृग को
खोजने चल पड़े।
मगर
कथा प्रीतिकर
है। ऐसे ही तो
हम सब भी स्वर्ण—मृग
को खोजने
निकले हैं, और
सीताओं को
गंवा बैठे
हैं। सीता
यानी तुम्हारी
आत्मा, जो
तुम्हारे पास
है। उसे तो
तुम भूल ही गए
हो। उसकी तरफ
तो पीठ कर ली
है। चले
स्वर्ण—मृग की
तलाश
में—पद—प्रतिष्ठा,
धन, यश, गौरव। ये सब
स्वर्ण—मृग
हैं—जो न कभी
हुए हैं, न
कभी होते हैं।
हस्ती
अपनी हुबाब की
सी है
यह
नुमाइश सराब
की सी है।
चश्मे—दिल
खोल उस भी आलम
पर,
यांकी
औकात खाब की
सी है।
जरा
अपना हृदय उस
परलोक की तरफ
भी खोलो, क्योंकि
यहां तो सब है
जो सपने जैसा
है। चश्मे—दिल
खोल उस भी आलम
पर। दिल की
आंख उस सत्य
की तरफ भी
खोलो, घूंघट
हटाओ, पर्दे
उठाओ। यांकी
औकात खाब
की—सी है!
क्योंकि यहां
की जो सत्ता
है इस संसार
की, वह एक
स्वप्न से
ज्यादा नहीं
है। हस्ती
अपनी हुबाब
की—सी है। एक
बुलबुले जैसी
हस्ती है। पानी
का बुलबुला, अभी बना अभी
मिटा। यह
नुमाइश सराब
की—सी है। यह
तो मृग—जल
जैसा
प्रदर्शन चल
रहा है—झूठा; मान लिया
इसलिये है।
और
लोग क्या—क्या
मान नहीं लेते
हैं! हमारा
सारा संसार
हमारी
मान्यताओं से
निर्मित है।
हमने मान लिया
है। सारी बात
मानने की है।
और मान लिया
है तो चलते
चले जाते हैं।
जिसने नहीं
माना है वैसा, वह
हंसेगा।
जिस
आदमी को धन की
दौड़ लगी है, उसके
लिए धन सत्य
है। और जिसको
धन की दौड़
नहीं लगी है, वह हंसेगा
कि तुम पागल
हो, धन का
करोगे क्या, धन से होगा
क्या? सब
पड़ा रह जाएगा।
जिसकी
मान्यता नहीं
है, वह बड़ा
हैरान होता है
कि तुम किस
चीज के पीछे दौड़
रहे हो! लेकिन
जिसकी
मान्यता है
उसकी आंखों
में नशा है; वह होश में
नहीं है।
यह
संसार हमारी
कामना, हमारी
तृष्णा, हमारी
दौड़, हमारी
महत्वाकांक्षा
का परिणाम है।
और जो इस महत्वाकाक्षा
के ज्वर से
नहीं जागेगा,
वह कभी
पहचान न
पायेगा स्वयं
को। स्वयं को
जाने बिना कोई
सुख नहीं है।
स्वयं को जाने
बिना कोई
संगीत नहीं
है। स्वयं को
जाने बिना कोई
अमृत का स्वाद
नहीं है। ये
सूत्र उसी
अमृत की तलाश
के लिये हैं।
सुणौ
हो नरवै सुधि
बुधि का
विचार।
गोरख
कहते हैं : ऐ
सम्राटो!...
तुम्हें
सम्राट कहते
हैं,
याद रखना।
क्योंकि हो तो
तुम सम्राट, मान लिया है
तुमने कि
भिखमंगे हो।
हो तो तुम मालिक,
मान लिया कि
गुलाम हो। मान
लिया तो हो
गये।
सुणौ
हो नरवै।
ऐं
सम्राटो!
सुनो।
सुधि
बुधि का
विचार।
थोड़ी
समझ की, थोड़ी
बोध की बात भी
सुनो, कि
दौड़ते ही
रहोगे, कि
भागते ही
रहोगे? रुकोगे
नहीं? रुक
कर थोड़ा विचार
न करोगे कि
बहुत दौड़ लिये,
कहां
पहुंचे? एक
दफा
पुनर्निरीक्षण
करो।
पंच
तत ले उतपनां
सकल संसार।
ये
तुम जिन चीजों
के पीछे दौडे
जा रहे हो, वहां
कुछ भी नहीं
है, पांच
तत्वों का खेल
है। मिट्टी, जल, वायु,
अग्नि, आकाश—इनसे
यह सारा खेल
निर्मित हुआ
है। इस खेल
में कुछ भी
नहीं है। और
जिसकी तुम
तलाश कर रहे हो
वह तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। इन पांच
तत्वों के जो
पार है, वह
तुम्हारे
भीतर मौजूद है।
ये पांच तत्व
तो बनते हैं
और मिटते हैं;
गिरते हैं
और उठते हैं।
ये तो लहरें
हैं। इनके साथ
तुम कभी
आनंदित न हो
सकोगे, क्योंकि
ये बन भी नहीं
पातीं कि मिट
जाती हैं।
इनके साथ तुम
कैसे जी पाओगे?
ये
क्षणभंगुर
हैं। और जो
क्षणभंगुर है
उससे दुख
मिलता है। तुम
जरा उसे खोजो
जो शाश्वत है।
और वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
इस
संसार को अगर
देखो गौर से
तो तुम्हें
देखनेवाले का
स्मरण आने
लगे। और अगर
इसे मूर्च्छा
से देखो तो
देखनेवाला तो
भूल ही जाता 'है;
उलझ गए
दृश्य में। जो
उलझा दृश्य
में वह भटका।
और जो द्रष्टा
में जागा वह पहुंच
गया।
पहलै
आरंभ घट परचा
करौ निसपती
नरवै
बोध कर्थत
श्री
गोरषजती।
गोरख
कहते हैं. ३
सम्राटो, तुमसे
चार बातें
कहनी हैं।
गोरख अपनी
पूरी जीवन—चितना
को इन चार
बातों में ढाल
देते हैं।
पहलै
आरंभ घट परचा
करौ निसपती
चार
बातें। पहला
है : आरंभ।
आरंभ का अर्थ
है : अभी तुम
बाहर ही दौड़ते
रहे हो, तुमने
अंतर्यात्रा
का आरंभ भी
नहीं किया। तुमने
आंखें पीछे
नहीं फेरी
हैं। तुमने
लौटकर नहीं
देखा। जिसको
महावीर ने
प्रतिक्रमण
कहा है।
चित्त
की दो दशायें
हैं—आक्रमण...!
आक्रमण यानी बाहर
की तरफ, प्रतिक्रमण
यानी भीतर की
तरफ। आक्रमण
यानी दूसरे पर,
प्रतिक्रमण
यानी अपने पर।
या जिसको
पतंजलि ने
प्रत्याहार
कहा है।
लौट
आओ,
अपने पर लौट
आओ! इसी को
जीसस ने
कन्वर्सन कहा
है। कन्यर्सन
का अर्थ नहीं होता
कि कोई हिंदू
ईसाई हो जाए, कि कोई ईसाई
हिंदू हो जाए।
यह कोई
कन्वर्सन है?
कन्यर्सन
का अर्थ होता
है :
बहिर्यात्रा
अंतर्यात्रा
हो जाये। तुम
मंदिर बाहर न
खोजो, भीतर
खोजो। तुम
बाहर के
तीर्थों पर मत
जाओ, तुम
भीतर स्नान
करो। तुम
ध्यान में
डुबकी लो, तो
जीवन में
क्रांति शुरू
होती है। उस
क्रांति को
गोरख कहते हैं
आरंभ। तभी
तुम्हारा
मनुष्य होना
शुरू हुआ, इसलिये
कहते हैं
आरंभ। पशु भी
बाहर जीते हैं,
पौधे भी
बाहर जीते हैं;
सिर्फ एक
मनुष्य है इस
पृथ्वी पर जो
भीतर भी जी
सकता है। उसकी
ही यह संभावना
है, जो
आत्म—साक्षात्कार
कर सकता है।
बाहर
तो सभी दौडते
हैं,
इसमें कुछ
खूबी नहीं है।
तुम्हारे
जीवन में महिमा
प्रारंभ होती
है उस दिन, जिस
दिन तुम भीतर
लौटना शुरू
होते हो। हुए
गौरवान्वित।
हुए
महिमान्वित।
हुए मनुष्य।
तुम्हारे
भीतर जन्म हुआ
आत्मा का।
तुम्हारे भीतर
परमात्मा की
तलाश शुरू
हुई। और यह
बड़ी से बड़ी
क्रांति है।
और कोई इतनी
बड़ी क्रांति
नहीं है।
अंतरक्रांति
है। उसको कहते
हैं गोरख—आरंभ।
वे
कहते हैं कि
सुनो, ३
सम्राटो!
तुमने अभी
अपने
साम्राज्य का
आरंभ भी नहीं
किया। जिस
संपत्ति के
तुम मालिक हो,
तुमने पहली
कुदाली भी
नहीं मारी उस
खजाने को खोदने
के लिए।
दूसरा
: घट। घट का
अर्थ होता है :
घड़ा। यह जो
शरीर है, यह
घड़ा है। घट, मंदिर है।
इसके भीतर
मालिक छिपा
है। इस घट के
भीतर आकाश छिपा
है। घट में ही
मत उलझ जाना, क्योंकि जब
तुम भीतर की
तरफ मुडोगे, तब तुम्हें
पता चलेगा कि
शरीर इतनी
छोटी चीज नहीं
है जितनी
तुमने समझी
है। शरीर बड़ा
रहस्यपूर्ण
है। शरीर
अपने—आप में
एक संसार है।
वैज्ञानिक
कहते हैं एक—एक
शरीर में
कम—से—कम सात
करोड़ जीवाणु
हैं। इसलिए
हमने इसको
पुरुष कहा है
आत्मा को, क्योंकि
शरीर को पुर
कहा है, नगर,
बसा हुआ
नगर। बंबई भी
छोटी है।
कलकत्ता भी
छोटा है।
कलकत्ते की
आबादी एक करोड़,
तुम्हारे
शरीर की आबादी
पांच करोड़।
पांच करोड़
जीवाणु। पांच
करोड़ जीवंत
कोष्ठ
तुम्हारे
शरीर का
निर्माण करते
हैं। यह कोई
छोटी घटना
नहीं है।
सिर्फ शरीर की
छोटी—सी सीमा
को देखकर
भ्रांति में
मत पड़ जाना।
अब तो तुम्हें
जानना चाहिये
कि
वैज्ञानिकों
ने अणु—शक्ति
की खोज
कीं—अणु, जो
आंख से दिखाई
नहीं पड़ता; लेकिन अणु
का विस्फोट हो
तो नब्बे
सेकेंड में एक
लाख आबादी
वाला
हिरोशिमा राख
हो गया। जो
आंख से नहीं
दिखाई पड़ता, उसमें इतनी
विराट ऊर्जा
छिपी हो सकती
है! तो देह तो
बहुत बड़ी है।
इसमें बड़ी
विराट ऊर्जा
छिपी है। इसके
बड़े रहस्य
हैं।
अगर
तुम अंदर की
तरफ मुडोगे तो
पहला परिचय तो
देह से होगा, क्योंकि
देह मंदिर है।
अगर मंदिर में
जाओगे तो पहले
मंदिर की
सीढ़ियां
चढ़ोगे, मंदिर
की दीवालें
पार करोगे, द्वार से
गुजरोगे, तब
अंतरगृह में
पहुंच पाओगे।
इसलिये पहले
तो अंतर्यात्रा
शुरू करो, फिर
इस घर से
परिचित होओ।
नहीं तो मालिक
से मिलना न हो
सकेगा।
स्वाभाविक
है,
इस देह का
विरोध मत
करना। इसको
सताने मत लग
जाना। नहीं तो
समझ न पाओगे।
यह प्रभु का
बड़ा प्यारा
वरदान है।
इसको दबाना मत,
सताना मत, परेशान मत
करना; क्योंकि
इसको दबाना, सताना, परेशान
करना प्रभु का
इनकार है, नास्तिकता
है।
आस्तिक
तो परमात्मा
को धन्यवाद
देगा कि कैसी
प्यारी देह दी
है! मिट्टी
में भी कैसा
रूप भरा है!
पंच तत्वों
में भी कैसा
जादू है! परमात्मा
जादूगर है।
उसके जादू की
सबसे बड़ी..
सबसे बड़ा
प्रमाण अगर
कोई हो सकता
है,
तो
तुम्हारी देह
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं :
जितना काम देह
में होता है, अगर
हमें किसी
कारखाने में
करना पड़े तो
चार मील तक
उसकी आवाज
गूंजेगी। अभी
तक हम उपाय
नहीं खोज पाए।
विज्ञान ने बहुत
गति कर ली है।
जमीन से आदमी
को चांद पर
उतार दिया।
अणुबम का
विस्फोट
किया। और अब
इतने अणुबम
हमारे पास
इकट्ठे हैं कि
हम सारी
पृथ्वी को
भस्मीभूत कर
सकते हैं, एक
बार नहीं हजार
बार। विज्ञान
के इस परम
विकास के
बावजूद भी
विज्ञान अभी
इसमें सफल
नहीं हो पाया
है कि एक रोटी
को खून में
बदल दे। रोटी
को खून में बदलना
अभी संभव नहीं
हो पाया। यह
जादू
तुम्हारी देह
में घटता है।
और इतना ही
नहीं कि रोटी
खून बनती है, मांस बनती
है; रोटी
तुम्हारा
मस्तिष्क भी
बनती है। रोटी
तुम्हारा
विचार भी बनती
है। रोटी किसी
अपूर्व द्वार
से तुम्हारी
चेतना को भी
प्रज्वलित
रखती है।
इसलिये
तो कहा है :
भूखे भजन न
होई गोपाला।
भूखा आदमी भजन
नहीं कर सकता।
भूखे आदमी के
पास भजन करने
योग्य ऊर्जा
नहीं होती।
भजन के लिए
पेट भरा होना
चाहिए।
इसलिये जो देश
गरीब हो जाता
है वहा भजन खो
जाता है, या
भजन झूठा हो
जाता है। इस
देश में भजन
कभी सच्चा था,
क्योंकि
देश संपन्न
था। कम—से—कम
रोटी—रोजी लोगों
को मिल जाती
थी, कोई
भूखा नहीं मर
रहा था। उन
दिनों बुद्ध
पैदा हुए, महावीर
पैदा हुए, गोरख
पैदा हुए, पतंजलि
और कृष्ण और
हमने बड़ी
ऊंचाइयां
लीं। कम—सें—कम
लोग भूखे नहीं
थे। समृद्ध थे,
ऐसा मैं
नहीं कहता हूं
कि उनके पास
कोई संपत्ति
का अंबार था, ऐसा नहीं
कहता हूं।
लेकिन भूखे
नहीं थे। देह
तृप्त थी। भजन
उठ सकता था।
जब
कोई देश गरीब
होता है तब
वहा कम्मुनिज्य
उठता है, धर्म
नहीं। तब लोग
मारने—मरने को
उतारू हो जाते
हैं। तब घिराव
होते हैं, हड़तालें
होती हैं, दंगे—फसाद
होते हैं, हत्याये—हिसाये
होती हैं। तब
भजन नहीं
उठता। भूखा
आदमी हिंसा कर
सकता है, प्रेम
नहीं। भूखा
आदमी क्रुद्ध
होता है। भूखा
आदमी
करुणावान
नहीं हो सकता
है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं यह
देश अगर
ज्यादा दिन
गरीब रह
गया—जैसा कि
इस देश के
नेताओं ने तय कर
रखा है कि यह
गरीब रहे—अगर
यह देश ज्यादा
दिन गरीब रह
गया,
तो इस देश
में सिवाय
कम्युनिज्य
के और कोई संभावना
न रह जायेगी।
जाने—अनजाने
यह देश कम्मुनिज्य
की तरफ ले
जाया जा रहा
है। ले
जानेवाले
शायद इस बात
से परिचित भी
न हों, होश
भी न हो
उन्हें, शायद
वे तो यही
कोशिश कर रहे
हैं कि देश
कम्युनिस्ट न
हो जाये; मगर
तुम्हारी
कोशिशों का
सवाल नहीं है,
अगर देश
गरीब रहता है
तो
कम्मुनिज्म
के सिवाय कुछ
और हो नहीं
सकता। भजन नहीं
पैदा हो सकता।
जल्दी
करो! इस देश की
दीनता—दरिद्रता, इस
की भुखमरी
मिटानी ही
होगी। नहीं तो
एक बड़े गड्डे
में गिरेगा, जहां से
निकलना
मुश्किल हो
जायेगा।
अंग्रेजों की
दासता से
मुक्त हो जाना
कठिन बात नहीं
थी; एक बार
यह देश अगर
कम्मुनिस्ट
हो गया तो फिर
ये गुलामी की
जंजीरें
तोड़ना असंभव
है, करीब—करीब
असंभव है। रूस
जैसा देश नहीं
तोड़ पा रहा है
तो हम तो तोड़
ही नहीं
पायेंगे। हम
तो बड़ी आसानी
से गुलाम हो
गए थे और हम तो
हजारों साल तक
आसानी से
गुलाम रहे। और
कम्मुनिज्म
तो भयंकर
गुलामी है।
हां, रोटी
मिल जायेगी, और आत्मा
छिन जायेगी, मगर उस कीमत
पर रोटी लेना
बड़ी ग्लानि की
बात होगी।
रोटी पैदा की
जा सकती है।
थोड़ी समझ—बूझ
की जरूरत है, रोटी पैदा
करना कठिन
नहीं है।
लेकिन हमारी
मूढ़ता इतनी
पुरानी हो गई
है कि जिन
कारणों से हम गरीब
हैं, उन्हीं
कारणों को हम
बढ़ाये चले
जाते हैं; और
जिन कारणों से
हम गरीबी मिटा
सकते हैं, उन्हीं
कारणों के हम
दुश्मन हैं।
इंदिरा
की पराजय के
पीछे यही कारण
था—कुल कारण
इतना था कि
उसने बड़ी
चेष्टा की इस
बात की, कि
किसी तरह देश
की जनसंख्या
पर नियंत्रण आ
जाये।
क्योंकि उसके
अतिरिक्त यह
देश कभी अमीर
नहीं हो सकता।
अमीर होना तो
दूर भरपेट भी
नहीं हो सकता।
वही उसकी हार
का कारण बना।
इंदिरा की हार
का कारण कुल
जमा इतना था
कि इस देश के
ऊपर किसी तरह
भी अनिवार्य—रूपेण
संतति—नियमन
थोपने की
कोशिश की।
संतति—नियमन
थोपना ही होगा
तो ही यह देश
गरीबी से बच
सकता है। साठ
करोड़ आबादी हो
गई है। इस सदी
के पूरे
होते—होते एक
अरब आबादी होगी
इस देश की।
हमारी कोई
सामर्थ्य
नहीं है कि हम
एक अरब आबादी
का पेट भर
पायेंगे। लोग
रोज भूखे होते
जायेंगे और
जितने भूखे
होते जायेंगे
उतने क्रुद्ध
होते
जायेंगे। और
जितने क्रुद्ध
होते जायेंगे
उतने
कम्मुनिस्ट
होते
जायेंगे।
अपने—आप! यह
अनिवार्य
प्रक्रिया है।
इंदिरा
की हार इसलिए
हुई कि इंदिरा
ने सचमुच ही
कुछ ठीक काम
करने की
चेष्टा की थी।
और वह काम ऐसा
है कि
जबर्दस्ती ही
करना होगा, नहीं
तो होनेवाला
नहीं है। अगर
तुम लोगों पर
छोड़ दो तो लोग
तो मानने को
राजी नहीं
हैं। लोगों को
फिकिर ही नहीं
है, लोगों
को बोध ही
नहीं है। वे
कहते हैं, परमात्मा
देता है बच्चे,
हम कौन हैं
रोकनेवाले? वे बच्चे
पैदा करते
जायेंगे—चूहों
की तरह बच्चे
पैदा करते
जायेंगे। और
देश रोज गरीब
होता चला
जाएगा। उनको
पता नहीं है, वे क्या कर
रहे हैं।
जबर्दस्ती ही रोकनी
पड़ेगी यह बात,
तो ही
रुकेगी, नहीं
तो नहीं रुक
सकती।
इसको
अनिवार्यत:
रोकना पड़ेगा।
लोगों को बुरा
भी लगेगा, क्योंकि
उनकी पुरानी
आदतों पर बाधा
पड़ेगी। जिस
आदमी को इसमें
ही मजा था कि
उसके कितने
बच्चे हैं, उस पर अगर
रोक डाल दोगे
कि दो या तीन
बस, तो वह
नाराज हो
जायेगा, क्योंकि
उसके पिता ने
तो बारह बच्चे
पैदा किये थे
और वह दो या
तीन बस। यह तो
उसकी परंपरा
में कभी होता
ही नहीं रहा।
इससे
पंडित—पुजारी
भी नाराज होते
हैं,
मुल्ला—मौलवी
भी नाराज होते
हैं, क्योंकि
उनकी संख्या
कम हो रही है।
उनको फिकिर इस
बात की है कि
मुसलमान कम न
हो जायें।
उनको फिकिर इस
बात की है कि
हिंदू कम न हो
जायें।
जैनियों को
फिकर इस बात
की है कि जैन
कम न हो
जायें। उनकी
संख्या कम हो
गई तो उनकी
ताकत कम हो
जायेगी। किसी
को इस बात की
फिकिर नहीं है
कि तुम सब
अपनी संख्या
बढ़ा लोगे, मुसलमान
भी ज्यादा, हिंदू भी
ज्यादा, जैन
भी ज्यादा, यह पूरा देश
मर जायेगा।
ये
सारे
पंडित—पुरोहित, मौलवी,
सब जुड़ कर
इंदिरा को
हराने में
सहयोगी हो
गये। यह
आकस्मिक नहीं
था। इंदिरा का
कसूर अगर कुछ था
तो एक था कि
उसने एक ठीक
काम करने की
चेष्टा की, जो इस देश की
रूढ़िग्रस्त
मनोदशा को
अच्छा नहीं
लगा। इंदिरा
को हटाकर
तुमने
बुड्डे—व्यों
को बिठाल दिया,
जिनसे कोई
आशा नहीं है, जिनकी कोई
क्षमता नहीं
है; जिनके
साथ देश का
कोई भविष्य
नहीं हो सकता।
लेकिन सब
इकट्ठे हो
गए—सारे
प्रतिक्रियावादी,
सारे
प्रतिगामी।
इस देश की
सारी मूढ़ता
इकट्ठी हो गई।
तुम
देखते हो कि
कैसा चमत्कार
हुआ! सारी
राजनैतिक पार्टियां, जिनके
सिद्धांतों
में कोई भी
तालमेल नहीं
है, जिनकी
विचारधाराओं
में कोई
तालमेल नहीं
है, सब
राजी हो गए, इकट्ठे हो
गए। इतने
अवसरवादी
दुनिया में
तुम कहीं भी न
पाओगे, जिन्होंने
अपनी
सिद्धातवादिता,
अपने सारे दर्शन,
अपनी सारी
बड़ी—बड़ी बातें
एक क्षण में
सत्ता के लिए
उतार कर रख
दीं।
समाजवादी और
कांग्रेसी और
जनसंघी
इकट्ठे हो गए,
यह आश्चर्य
की बात है।
मगर आश्चर्य
की नहीं भी है,
क्योंकि
मुसलमान, हिंदू
सभी की
पुराणवादिता,
सभी की
रूढ़िवादिता
को चोट पड़ रही
थी।
इस
देश ने जैसे
तय ही कर लिया
है कि गरीब
रहना है। अगर
गरीब रहना है
तो भजन के
पैदा होने की
अब कोई
संभावना नहीं
है। जो
व्यक्ति के
लिए सच है, समाज
के लिए भी सच
है, राष्ट्र
के लिए भी सच
है, पूरी
मनुष्य—जाति
के लिए भी सच
है। तुम्हारी
देह प्रसन्न
होनी चाहिये,
उत्कुल्ल
होनी चाहिये,
स्वस्थ
होनी चाहिये।
इसलिये
दूसरा काम
योगी का है कि
देह को प्रसन्न
करे,
स्वस्थ करे,
प्रफुल्ल
करे। देह फूल
जैसी हो।
मुस्कराती हो।
आनंद—निमग्न
हो। यह मंदिर
प्रभु का है, इस मंदिर पर
बंदनवार होने
चाहिये।
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
साधु—संन्यासी
तुम्हें उलटी
बात सिखाते
रहे हैं।
उन्होंने जहर
डाला है। उन्होंने
सिखाया है कि
देह दुश्मन है; अगर
परमात्मा को
पाना है तो
देह को तोड़ो, सताओ, गलाओ,
काटो की सेज
बिछा लो। मारो
देह को, जितना
मार सको उतने
परमात्मा के
करीब पहुंचोगे।
झूठी
है यह बात। यह
शत प्रतिशत
झूठी है बात। तुम
जितना देह को
तोड़ डालोगे
उतना ही मंदिर
गिर जायेगा।
और इसी मंदिर
के गिरने में
डर है कि कहीं
देवता भी न दब
जाये। यह
मंदिर है, इसका
सम्मान
चाहिये। गोरख
के मन में बड़ा
सम्मान है देह
का। इसलिये वे
कहते हैं.
पहले अंतर्यात्रा
करो, फिर
मंदिर को
सम्हालो।
तो
दूसरी बात घट।
पहले आरंभ।
घट। फिर इस
घड़े को सम्हालो।
इसी में तो
कहीं वह छिपा
है,
उसकी संपदा
छिपी है। योग
की सारी
प्रक्रियाएं
इसको
सम्हालने के
लिए हैं। यम, नियम, प्राणायाम,
प्रत्याहार...
ये शरीर को
तोड़ने के लिए
नहीं हैं, शरीर
को जोड़ने के
लिए हैं, ये
शरीर को सौंदर्य,
स्वास्थ्य,
शक्ति देने
के लिए हैं।
इनसे शरीर हरा
होगा। उसमें
फूल आयेंगे।
इनके माध्यम
से शरीर की
जड़ें पृथ्वी
में गहरी
प्रविष्ट हो
जायेंगी।
फिर
तीसरी घटना
घटती है परिचय
की : जब
तुम्हारी देह
सुंदर होगी, संगीतपूर्ण
होगी, लयबद्ध
होगी, जब
तुम्हारी देह
में एक छंद
होगा, मस्ती
होगी, तब
तुम्हारा
परिचय होगा
चेतना से। तब
तुम्हें पहली
झलक मिलेगी
उसकी जो इस
मंदिर में
छिपा है; तुम
मंदिर में
प्रवेश कर गए।
उदास, रोते,
भूखे, तुम
इसमें प्रवेश
न कर सकोगे।
स्वास्थ्य की
तरंग पर ही
सवार होना
होगा।
पहलै
आरंभ घट परचा
करौ निसपती
परिचय
हो जाये तब
फिर निष्कर्ष
लेना, निष्पत्ति।
उसके पहले मत
कहना कि ईश्वर
है या नहीं।
उसके पहले मत
कहना कि
निर्वाण है या
नहीं। उसके
पहले कोई
निष्पत्ति मत
लेना, न
हां न ना, न
तो आस्तिक
बनना न
नास्तिक
बनना।
क्योंकि उसके
पहले ली गई
निष्पत्तिया
स्वानुभव पर
आधारित नहीं
हैं, उधार
हैं, बासी
हैं, दूसरों
के द्वारा दी
गई हैं। पता
नहीं दूसरों ने
ठीक दी हों, गैर—ठीक दी
हों। पता नहीं
दूसरे
धोखेबाज रहे हों।
पता नहीं
दूसरे खुद
धोखा खा गए
हों, धोखेबाज
न भी रहे हों!
कौन जाने!
मनुष्य
को खयाल रखना
चाहिये कि मैं
अपने ही शान
पर भरोसा
करूंगा; मैं
अपना ही आधार
बनूंगा; मैं
अपना दीया खुद
बनूंगा। तो
निष्पत्ति
लेना। यह बड़ा
प्यारा विचार
हुआ। पहले
अंतर्यात्रा,
फिर देह का
सुसमायोजन, फिर चेतना
की प्रतीति, ध्यान, फिर
समाधि
निष्पत्ति।
नरवै
बोध कथत श्री
गोरषजती।
और
गोरख कहते हैं
: इतना तुम कर
लो तो तुम्हें
बोध हो जाये
कि तुम सम्राट
हो। मालिकों
का मालिक
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
साहिबों का
साहिब
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
मगर तुम दौड़े
चले जाते हो।
तुम न मालूम
कहां—कहां दौड़ते
हो—एक जगह
छोड़कर तुम सब
जगह दौड़ते हो।
मैंने
सुनी है एक
कथा कि ईश्वर
ने जब पहली
दफा दुनिया
बनाई तो वह
यहीं रहता था
बीच बाजार में, एम.
जी रोड पर।
स्वभावत: अपनी
दुनिया बनाई
थी, दुनिया
के बीच में
रहता था, लेकिन
उसे लोग बड़ा
परेशान करने
लगे। शिकायतें
और शिकायतें।
यह ठीक नहीं, वह ठीक
नहीं। और
शिकायतें भी
ऐसी
विरोधाभासी कि
उन्हें पूरा
भी करना चाहे
तो न कर सके।
कोई कहे कि कल
पानी मत गिराना,
क्योंकि कल
हमने कुछ कपड़े
रंगे हैं, उन्हें
सुखाना है। और
कोई कहे कल
पानी गिरा देना,
क्योंकि
हमने बीज बोये
हैं, कहीं
सूख न जायें।
कोई कहे कल
धूप निकाल
देना, कोई
कहे कल धूप न
निकले; क्योंकि
हम जरा यात्रा
पर जा रहे हैं,
छाया रहे तो
अच्छा रहेगा।
ईश्वर पगलाने
लगा होगा।
किसकी करो
पूरी बात! एक
की करो तो
अनेक की नहीं
होती। इसकी
करो तो उसकी
टूट जाती है।
वह घबड़ा गया।
उसे न दिन
सोने दें लोग
न रात सोने दें
लोग। बीच रात
में जाकर
दरवाजा
खटखटाने लगें
कि ऐसा कर
देना, कि
वैसा कर देना,
कि कल सुबह
सूरज ही न
निकले, कि
जरा जल्दी
निकाल देना
सूरज क्योंकि
खेत पर काम
करना है, अंधेरे
में दिक्कत
होती है।
उसने
अपने देवताओं
को बुलाया, अपने
वजीरों को
बुलाया कि
मुझे कुछ
रास्ता बताओ,
मैं पागल हो
जाऊंगा। मैं
कहां छिप जाऊं?
मुझे मेरे
लोगों से
बचाओ। मैने
इन्हें बनाया,
अब ये मेरी
मुश्किल कर
रहे हैं।
मुझसे एक भूल हो
गई कि मैंने
आदमी बनाया।
इसलिये
तुम्हें पता
है,
ईश्वर ने
आदमी के बाद
फिर कुछ नहीं
बनाया। बुद्धि
आ गई, अकल आ
गई। उसके पहले
बहुत कुछ
बनाया, झाड़
बनाये, पशु—पक्षी
बनाये, पहाड़—नदी,
चांद—तारे,
फिर आदमी, और वह जो
आदमी बनाया, फिर कुछ
नहीं बनाया।
तब से करोड़ों
साल बीत गए, ईश्वर
बिलकुल हाथ
रोके बैठा है।
बनाता ही नहीं
कुछ। भूल ऐसी
हो गई कि अब इस
भूल से और आगे
उसकी हिम्मत
टूट गई है।
तो
उसने कहा, मुझे
कुछ बनाना
नहीं है; लेकिन
जो बन गया बन
गया। मैं कहां
छिप जाऊं।
किसी ने कहा
हिमालय पर छिप
जाएं, गौरीशंकर
पर। उसने कहा
कि जल्दी ही, तुम्हें पता
नहीं है, अभी
कुछ ही क्षण
बीतेंगे और
हिलेरी और
तेनसिंग
एवरेस्ट पर चढ़
जायेंगे। और
एक दफा एक
पहुंच गया, तो फिर पीछे
बस आयेगी और
होटल बनेगी और
एम जी. रोड..
हेलिकाप्टर
से लोग आने
लगेंगे।
तुमको पता
नहीं है, थोड़े
दिन की बात
है। यह कोई हल
नहीं है
स्थायी।
तो
किसी ने कहा
चांद पर... तो
उसने कहा, वह
भी कुछ नहीं
होगा। जल्दी
ही
आर्मस्ट्राग
पहुंच
जायेगा। और
फिर रूसी
पहुंचेंगे और
झंझटें खड़ी
होंगी। तब एक
बूढ़े देवता ने
उसके कान में आकर
कुछ कहा और वह
प्रसन्न हो
गया। उसने कहा,
यह बात ठीक,
यह जंचती
है। उस बूढ़े
ने कहा, आप
ऐसा करो आदमी
के भीतर छिप
जाओ। आदमी
चांद—तारों पर
चला जायेगा, मगर अपने
भीतर कभी नहीं
जायेगा उसे
याद ही न आयेगी।
तब
से ईश्वर
तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है—और बड़े
मजे में है।
कभी—कभार कोई
गोरखजती
पहुंच जाते
हैं। मगर तब
तक उनकी सब
शिकायतें छूट
जाती हैं। तो
उनसे मिलकर
परमात्मा
आनंदित ही
होता है। उनसे
मिलकर नाचता
ही है।
ऐरे—गैरे—नत्थूखैरे
वहां पहुंच
नहीं पाते।
उनको दिल्ली
जाने से फुरसत
नहीं है। कोई
गोरखजती, कोई
गौतम बुद्ध, कोई वर्धमान
महावीर... पर
ऐसे लोगों से
तो बैठकर उसे
भी आनंद मिलता
है। इनके
संग—साथ में
तो वह भी प्रसन्न
होता है।
महफिल जम जाती
होगी, मधु
का दौर चलने
लगता होगा।
रससिक्त
बातें होती
होंगी, कि
गीत गाये जाते
होंगे, कि
नाच, कि
मृदंग बजती
होगी कि वीणा
का तार छेड़ा
जाता होगा। पर
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर है। तुम
परमात्मा हो।
नरवै
बोध कर्थत
श्री
गोरषजती।
ऐसा
अगर भीतर चलो, जरा—सा
बोध ले आओ, ये
चार काम पूरे
कर लो, निष्पत्ति
मिल जाए, जीवन
को निष्कर्ष
मिल जाए, जीवन
को अर्थ मिल
जाए।
पहलै
आरंभ छांडौ
काम क्रोध
अहंकार
और
अगर आरंभ करना
है इस यात्रा
का तो छोड़ना
होगा—काम। काम
का अर्थ होता
है : दूसरे के
बिना मेरा
नहीं चलेगा। दूसरा
चाहिए ही
चाहिए।
स्त्री हो तो
पुरुष चाहिए, पुरुष
हो तो स्त्री
चाहिये।
दूसरे की
जरूरत है।
विपरीत की
जरूरत है। और
विपरीत बाहर
है तो पुरुष
स्त्रियों के
पीछे दौड़ रहे हैं,
स्त्रियां
पुरुषों के
पीछे दौड़ रही
हैं।
काम
से मुक्त होने
का अर्थ है :
पहले मैं यह
तो देख लूं कि
मैं कौन हूं? वस्तुत:
मुझे दूसरे की
जरूरत है या
नहीं? अभी
मुझे यही पता
नहीं मैं कौन
हूं मैं दूसरे
को खोजने चला!
जो अपने से
परिचय बना
लेता है चकित
हो जाता है, दूसरे की
कोई जरूरत
नहीं है।
स्वयं होना
पर्याप्त है।
छांडौ
काम क्रोध
अहंकार।
और
जिसने काम छोड़
दिया, जिसे
दूसरे की
जरूरत न रही, उससे क्रोध
अपने—आप छूट
जाता है।
क्रोध काम की
छाया है।
सिर्फ कामी
क्रोधी होता
है। क्यों? क्योंकि
जिसकी कामना
है उसकी कामना
में अगर कोई
बाधा डाल दे
तो क्रोध पैदा
होता है। जिसकी
कोई कामना ही
नहीं है, उसको
तुम क्रोधित
कैसे करोगे? तुम कुछ भी
बाधा डालते
रहो, उसकी
कोई कामना
नहीं है।
इसलिये
तुम्हारी बाधा
से कोई पीड़ा
नहीं होती।
तुम्हारी
बाधा भी बाधा
नहीं मालूम
होती।
जीसस
ने कहा है : जो
एक गाल पर
चांटा मारे, दूसरा
उसके सामने कर
देना। और जो
तुम्हारा कोट
छीन ले, उसे
कमीज भी दे
देना। और जो
तुमसे कहे एक
मील बोझ ढो कर
ले चलो, तुम
दो मील चले
जाना।
जिसकी
कोई कामना
नहीं उसे कोई
अड़चन न रही।
जिसे दूसरे की
जरूरत ही न
रही,
दूसरा उसे
परेशान भी
नहीं कर सकता।
यह बहुत समझने
की बात है।
तुम्हें
दूसरा तभी तक
परेशान कर
सकता है जब तक
दूसरे की
तुम्हें
जरूरत है।
इसलिये बहुत
उलझाव पैदा
होता है। पति
को पत्नी की
जरूरत है, इसलिये
पत्नी परेशान
कर सकती है।
पत्नी को पति
की जरूरत है, इसलिये पति
परेशान कर
सकता है।
इसलिये प्रेमी
एक—दूसरे को
प्रेम भी करते
हैं और
एक—दूसरे से
नाराज भी रहते
हैं और लड़ते
भी हैं, झगड़ते
भी हैं। क्यों?
क्योंकि
जिसके ऊपर हम
निर्भर हैं, यह निर्भरता
कष्ट देती है
कि उसके हाथ
में हमारी
कुंजी है। हम
अपने मालिक न
रहे।
इसलिये
प्रेमी
संघर्ष करते
रहते हैं इस
बात का कि कौन
मालिक है—मैं
कि तू? विवाह
के बाद
पति—पत्नी का
एक ही संघर्ष
है कि असली
में मालिक कौन
है। इसको वे
कहें न स्पष्ट
रूप से...
स्पष्ट रूप से
कहा भी नहीं
जा सकता। ये तो
राजनैतिक
दाव—पेंच हैं।
कहना नहीं
पड़ता। पत्नी
अपनी चालें
चलती है। पति
अपनी चालें
चलता है।
दोनों
अपनी—अपनी
गोटें
बिठालते रहते
हैं—कौन मालिक
है? हर
बहाने से यह
सिद्ध करना है
कि कौन मालिक
है। पत्नी कुछ
कहेगी तो पति
उसका विरोध
करता है, चाहे
बात विरोध
करने की हो या
न हो। पति कुछ
कहेगा तो
पत्नी विरोध
करती है।
छोटी—छोटी
बातें कि किस
फिल्म को देखने
चलना है, और
झगड़ा।
एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसकी पत्नी
में बहुत झगड़ा
हुआ। घंटे डेढ़
घंटे तक बड़ी
गरमा—गरमी
हो गई। फिर
मुल्ला बाहर
निकल गया। हालत
ऐसी हो गई थी
कि अब मारपीट
की नौबत आ गई
थी। बाहर निकल
गया। ठंडी हवा
में थोड़ा
घूमा—फिरा, थोड़ा
चित्त शात
हुआ। बात
छोटी—सी
थी—किस फिल्म
में जाना? सोचा
उसने कि इस
छोटी—सी बात
में क्या रखा
है, चलो
उसकी ही मान
लो। थोड़ा बोध
आया कि झगड़ा
क्या करना। और
फिर झगड़ा
महंगा भी है।
अभी भूख भी लगनी
शुरू हो रही
है। अभी वह
खाना पकायेगी
नहीं, अभी
रात सोना भी
है, वह रात
सोने भी नहीं
देगी। तकिये
फेंकेगी।
उलटा—सीधा कुछ
उपद्रव मचायेगी,
कि रेडिओ
जोर से लगा
देगी। झंझटें
एकदम आसान तो
नहीं हैं, हल
तो नहीं हो
जातीं। तुमने
जब पैदा कर
दिया उपद्रव
तो उसका
सिलसिला
चलेगा। सब
सोच—समझकर, गणित बिठाकर
उसने कहा, बेहतर
है जिस फिल्म
में जाने को
कहती है उसी में
चले जाना
अच्छा है।
अंदर आया और
उसने कहा कि
प्रसन्न हो जा,
मैं तेरी
माने लेता हूं
तू जिस फिल्म
में चलने को
कहती है वहीं
जाते हैं।
पत्नी ने उसकी
तरफ देखा और
उसने कहा, लेकिन
अब मैंने अपना
इरादा बदल
दिया है। अब
राजी होने से
कुछ भी नहीं
होगा। अब मुझे
उस फिल्म में
जाना ही नहीं
है।
झगड़ा
ही अगर मुद्दा
है तो इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, यह तो
निमित्त है।
लेकिन प्रेमी
झगड़ते हैं, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, उसका
मौलिक कारण यह
है कि जैसे ही
तुम किसी के प्रेम
में पड़े, तुम्हें
एक बात समझ
में आनी शुरू
हो गई कि तुम्हारा
सुख दूसरे पर
निर्भर है। तो
दूसरा जब देगा
तब देगा। दूसरा
छीन ले तो छीन
ले। तुम अपने
मालिक न रहे। तुम
गुलाम हो गये।
गुलामी से
पीड़ा होती है।
पीड़ा से क्रोध
पैदा होता है।
क्रोध से
संघर्षण।
काम—क्रोध
साथ—साथ हैं।
और जहां काम
और क्रोध हैं, उन
दोनों के मध्य
में ही अहंकार
खड़ा होता है।
अगर तुम दूसरे
पर जीत लिये
तो अहंकार
मजबूत होता है;
अगर दूसरे
से हार गए तो
अहंकार छिप
जाता है, भूमि
के अंतर्गत हो
जाता है।
दूसरा रास्ता
खोजता है कि
कहीं और से
जीते।
जिसकी
न कोई कामना
है,
न जिसका कोई
क्रोध है, उसका
अहंकार अपने—
आप विलीन हो
जायेगा। ये
काम—क्रोध के
दो पंख हैं, जो अहंकार
के पक्षी को
उड़ाते हैं।
पहलै
आरंभ छाड़ों
काम क्रोध
अहंकार मन
माया विषै
विकार
छोड़ो
यह सवाल कि
बाहर से कभी
कुछ मिल सकता
है। कभी न
किसी को कुछ
मिला है न
मिलेगा।
जितना मांगोगे
उतना ही
परेशान होओगे, उतना
ही विषाद
होगा।
मैंने
चांद और
सितारों की
तमन्ना की थी
मुझको
रातों की
सियाही के
सिवा कुछ न
मिला
मैं
वह नग्मा हूं
जिसे प्यार की
महफिल न मिली
वह
मुसाफिर हूं
जिसे कोई भी
मंजिल न मिली
जख्म
पाए हैं, बहारों
की तमन्ना की
थी
मैंने
चांद और
सितारों की
तमन्ना की थी।
किसी
गेसू किसी आचल
का सहारा भी
नहीं
रास्ते
में कोई
धुंधला—सा
सितारा भी
नहीं
मेरी
नजरों ने
नजारों की
तमन्ना की थी
मैंने
चांद और
सितारों की
तमन्ना की थी।
दिल
में नाकाम
उमीदों के
बसेरे पाए
रोशनी
लेने को निकला
तो अंधेरे पाए
रंग
और नूर के
धारों की
तमन्ना की थी
मैंने
चांद और सितारों
की तमन्ना की
थी।
मुझको
रातों की
सियाही के
सिवा कुछ न
मिला।
किसी
को भी कभी कुछ
और मिला
नहीं—रात की
स्याही मिली
है। मांगो
चांद—सितारे, मांग
के लिये तुम
स्वतंत्र हो;
लेकिन
तुम्हारी
मांग के
अनुसार कभी
कुछ होता नहीं
है। मांगने के
कारण तुम
भिखारी हो जाते
हो। भिखारी
होने के कारण
तुम्हारा
मूल्य ही गिर
जाता है। तुम
परमात्मा से
दूर छिटक जाते
हो। तुम मालिक
हो जाओ। उस
मालिक से
मिलना हो तो मालिक
हो जाओ। मालिक
से ही मालिक
मिल सकता है।
समानधर्माओं
की मुलाकात
होती है।
भिखमंगे होकर
तुम परमात्मा
से न मिल
सकोगे, मालिक
होकर ही मिल
सकोगे; उस
जैसे ही होकर
मिल सकोगे।
मालिक
होने का क्या
अर्थ है? कोई
मांग न रही—न
माया की, न
काम की, न
लोभ की, न
धन की, न पद
की, कोई मल
न रही। तुमने
कहा : जैसा
तूने मुझे
बनाया, मैं
राजी हूं।
जैसा हूं उससे
राजी हूं। बस
ऐसा ही
परिपूर्ण
राजी हूं। ऐसी
स्थिति में
तुम्हारे
भीतर सम्राट
का जन्म हो
जाता है। फिर
तुम अगर
भिखमंगे भी हो
तो सम्राट हो
गए। अभी तो
अगर तुम
सम्राट भी हो
तो बस नाममात्र
के, भीतर
तुम भिखमंगे
ही हो।
मन
माया विषै
विकार।
हंसा
पकड़ि घात जिनि
करौ।
इन्हीं
सबने मिलकर
तुम्हारी
आत्मा को
पकड़कर मार
डाला है।
इन्होंने ही
तुम्हारे
भीतर के हंस
की गर्दन दबा
दी है।
हंसा
पकड़ि घात जिनि
करौ।
तृस्नां
तजौ लोभ
परहरौ।
छोड़ो
यह तृष्णा।
छोड़ो यह लोभ।
इन्होंने ही
तुम्हें
मारा। इन्हीं
के जहर ने
तुम्हें
समाप्त किया
हुआ है। छांडौ
दद रहां
निरदंद।
यह
दो की भाषा
छोड़ो। मैं और
तू की भाषा
छोड़ो।
निर्द्वंद्व
हो जाओ। जहा
तू गया, तू की
आकांक्षा गई,
वहा मैं भी
चला जाता है।
तब एक सन्नाटा
रह जाता है।
सन्नाटा—जैसे
तूफान के बाद
देखा हो। या सन्नाटा—जैसा
तूफान के पहले
होता है। या
सन्नाटा—अगर
समझ हो तो
तूफान के मध्य
में भी होता है।
अगर बोध हो तो
बाजार में भी
सन्नाटा होता
है। क्योंकि
भीतर तो
सन्नाटा सदा
है, वहा तो
शाश्वत शाति
है। तुम्हें
अगर भीतर डुबकी
लगाना आ जाए
तो बाहर की
कोई अशाति उसे
खंडित न कर
पायेगी, बाहर
का कोई विम्न,
विम्न न
बनेगा।
छांडौ
दद रहां
निरदंद तजौ
अल्यंगन रहां
अबैध
यह
दूसरे का
आलिंगन छोड़ो, क्योंकि
इसी आलिंगन
में तुम बंध
गये हो। दूसरे
के कारण ही
तुम्हारा
जीवन कारागृह
हो गया। दूसरे
के कारण ही
जीवन में
जंजीरें पड़ गई
हैं। दूसरों
की ही दीवाल
है, जिसमें
तुम घिर गए
हो।
तजौ
अल्यंगन रहां
अबैध।
मुक्त
होना है, स्वतंत्र
होना है, आकाश
जैसी
स्वतंत्रता
और असीमता
चाहिए तो फिर निर्द्वंद्व
होना सीखना
पड़ेगा।
सहज
जुगति ले आसण
करौ।
सहज
की साधना
सीखो। सहज
जुगति! वही है
असली युक्ति।
क्या है सहज
की साधना? कुछ
होना न चाहो।
कुछ होने के
कारण ही, कुछ
होने की
आकांक्षा से
आदमी असहज
होता है। जब
तुम कुछ होना
चाहते हो तो
तुम्हारे
सामने एक
आदर्श हो जाता
है—यह होना है!
जैसे
समझो कि तुम
बुद्ध होना
चाहते हो, तो
फिर क्या होगा?
तुम अगर
बुद्ध होना
चाहते हो तो
तुम बुद्ध का अनुकरण
शुरू कर दोगे।
तुम यह भूल ही
जाओगे मैं कौन
हूं तुम बुद्ध
का आचरण करने
लगोगे। अगर तुम
महावीर होना
चाहते हो तो
तुम महावीर
जैसे नग्न खड़े
हो जाओगे। यह
तुम्हारी
निजता न हुई।
तुम कुछ होना
चाहते हो, कोई
आदर्श
तुम्हारे
जीवन में आया
कि तुम झूठे हुए।
आदर्श
के साथ आता है
पाखंड। आदर्श
का मतलब है : भविष्य
में कोई एक
दूर सितारा है, वैसा
मुझे होना
है—कि महावीर,
कि कृष्ण, कि बुद्ध।
और तुम्हें
पता है बुद्ध
दुबारा नहीं
हुए? कोई
दूसरा
व्यक्ति
बुद्ध जैसा
नहीं हो सकता,
होने की
जरूरत भी नहीं
है। न कोई
दूसरा महावीर
कभी होता है।
तुम तुम्हीं
होने को पैदा
हुए हो, कुछ
और होने को
पैदा नहीं हुए
हो। और बुद्ध
भी इसीलिये
बुद्ध हो सके
कि उन्होंने
कृष्ण होने की
चेष्टा नहीं
की थी, न
राम होने की
चेष्टा की थी।
बुद्ध बुद्ध
हो सके, क्योंकि
अपनी निजता
में डूबे। तुम
भी बस तुम ही
हो सकते हो।
अद्वितीय हो
तुम।
तुम्हारे जैसा
न कोई व्यक्ति
कभी हुआ है न
होगा।
परमात्मा पुनरुक्ति
करता ही नहीं।
परमात्मा कोई
टूटा—फूटा
ग्रामोफोन
रिकार्ड नहीं
है कि वही
गाना, वही
गाना, वही
गाना चलता
रहे।
परमात्मा
नित्यनूतन है, प्रवाहमान
है, गतिशील
है। कोई गंदा
डबरा नहीं है
भरा हुआ कि सड़े
और कीचड़ पैदा
हो। बहाव है, प्रवाह है; गंगा है, बही
जाती है।
असहजता
पैदा होती है
आदर्श से।
मनुष्य
पाखंडी हुआ, असहज
हुआ, जटिल
हुआ—आदर्शों
के कारण। लोग
सिखा रहे हैं
एक—दूसरे को।
मां—बाप
सिखाते हैं
बच्चों को—ऐसे
हो जाओ... कि
देखो तुम्हें
बनना है बुद्ध
जैसा, कि
बनना है
सिकंदर जैसा,
कि बनना है
ऐसा। कोई
मां—बाप अपने
बच्चों को नहीं
कहते कि
तुम्हें
तुम्हीं बनना
है। बचना बुद्धों
से। बचना
महावीरों से।
वे हो गए।
सुंदर थे, महिमापूर्ण
थे, मगर
उनसे कोई एक
बात सीखनी हो
तो यही सीखना
कि वे अपनी
निजता में
जीये, तुम
भी' अपनी
निजता में
जीना। आचरण मत
करना, अनुकरण
मत करना।
अनुकरण और
आचरण आदमी को
झूठा कर देते
हैं, क्योंकि
द्वंद्व पैदा
हो जाता है।
तुम कुछ हो, कुछ थोपते
हो, तो
दोहरी बात हो
जाती है। हो
कुछ, करते
कुछ हो। हो
कुछ, बोलते
कुछ हो।
तुम्हारे
कपड़े कुछ, तुम्हारी
आत्मा कुछ।
तुम्हारे
बाहर— भीतर के रंग
में भेद पड़
जाता है।
तुम्हारे
भीतर खंड हो
जाते हैं। और
खंडित हो जाना
असहज है।
सहज
का अर्थ होता :
अखंड
जीना।
तुम
जैसे हो वैसे
ही जीयो।
जरा
सोचो इस बात
को। यह बहुत
बहुमूल्य बात
है। तुम जैसे
हो बस वैसे
जीयो। बुरे तो
बुरे, भले तो
भले। तुम सारी
दुनिया को
अपनी वस्तुस्थिति
से वाकिफ हो
जाने दो। तुम
अपने को उघाड़
दो। तुम कह दो
कि ऐसा मैं
हूं। यह मेरी
नियति। ऐसा
मुझे
परमात्मा ने
बनाया। उसकी
ऐसी मर्जी।
स्वीकार करे दुनिया
तो ठीक, अस्वीकार
करे तो ठीक।
जब
तुम चाहोगे कि
दुनिया मुझे
स्वीकार करे
ही,
तब यह अड़चन
शुरू होगी। तब
यह होगा कि
दुनिया जैसा
चाहेगी वैसा
तुम्हें होना
पड़ेगा। जब तुम
चाहोगे कि
दुनिया मुझे
सम्मान दे तो
अड़चन शुरू
होगी, क्योंकि
दुनिया
सम्मान देगी
अपनी शर्त के
आधार पर। उसकी
शर्तें पूरी
करोगे तो
सम्मान देगी।
उसकी शर्तें
अगर पूरी नहीं
हुईं तो
असम्मान
करेगी।
जिस
आदमी ने कुछ
होना चाहा, वह
भयग्रस्त हो
जायेगा। जो
भयग्रस्त हुआ,
कमजोर हुआ,
आत्मा खोई
उसने। कुछ
होना मत चाहना,
तो तुम
पर्याप्त हो।
परमात्मा की
दृष्टि में तुम
अंगीकार हो, ध्ययथा तुम
होते ही नहीं।
उसने तुम्हें
स्वीकारा है।
जुन्नैद
के जीवन में
कथा है। नए
गांव में आकर ठहरा
जुन्नैद।
सूफी फकीर था, बड़ा
फकीर था। उसके
पड़ोस में ही
एक शरारती, उपद्रवी
आदमी था।
दो—चार दिन तो
उसने देखा, फिर उसके
बर्दाश्त के
बाहर हो गया।
एक सांझ प्रार्थना
कर रहा था, नमाज
में था, प्रार्थना
के बाद उसने
कहा : हे प्रभु,
इस आदमी को
समाप्त कर।
इसकी क्या
जरूरत है दुनिया
में? यह
मेरा पड़ोसी। यह
सिवाय उपद्रव
के और कुछ भी
नहीं है। यह
तेरे लोगों को
सताता है, परेशान
करता है, दुष्ट
है।
जुन्नैद
को कभी किसी
प्रार्थना
में परमात्मा
का उत्तर न
आया था, उस
दिन आया।
परमात्मा ने
कहा. जुन्नैद,
तू चार दिन
से यहां है।
मैं इस आदमी
के साथ साठ साल
से हूं। यह
साठ साल से
मेरा पड़ोसी है,
क्योंकि
मेरे तो सभी
पड़ोसी हैं।
मैं इसे साठ साल
से बर्दाश्त
कर रहा हूं तू
चार दिन न कर
सका? और जब
मैं इसे साठ
साल से
बर्दाश्त कर
रहा हूं तो
इसमें कुछ
होगा, इसका
कुछ राज होगा।
तुझे यह तो
सोचना था, कम—सें—कम
प्रार्थना
करने के पहले,
कि जो
परमात्मा को
स्वीकार है, उसमें तुझे
क्या शिकायत
हो सकती है।
यह
बात प्रीतिकर
है। जुन्नैद
ने उस दिन से
फिर किसी आदमी
के सुधार की
प्रार्थना भी
नहीं की, क्योंकि
जैसी
परमात्मा की
मर्जी। जैसा
है ठीक है। हम
कौन?
जीसस
के पास कुछ
लोग एक स्त्री
को लाये और
उन्होंने कहा
कि इसने
व्यभिचार
किया है। और
पुराने शास्त्र
में लिखा है
कि पत्थर
मारकर इसकी
हत्या कर देनी
चाहिये। आप
क्या कहते हैं?
जीसस
नदी के किनारे
बैठे थे। जीसस
सोच में पड़े
होंगे। पत्थर
मारकर हत्या
कर देना, अगर
इसकी आज्ञा
दें, तो
हिंसा होगी।
फिर जीसस के
प्रेम के सिद्धात
का क्या होगा?
और अगर कहें
कि नहीं क्षमा
कर दो, तो
लोग नाराज
होंगे। लोग
कहेंगे, तुम
हमारे पुराने
धर्म का खंडन
कर रहे हो, हमारे
पुराने
शास्त्रों का
खंडन कर रहे
हो। लोग यही
चाहते थे असल
में। लोग आये
ही इसलिए थे कि
अगर जीसस
कहेंगे कि
क्षमा कर दो
इसको, तो
हम ये पत्थर
जीसस को ही
मारेंगे, क्योंकि
वे हमारे
पुराने
धर्मग्रंथ के
खिलाफ बात कर
रहे हैं। और
अगर उन्होंने
कहा कि मारो
इसे पत्थर तो
हम इस स्त्री
की हत्या भी
करेंगे और
जीसस से
कहेंगे : क्या
हुआ तुम्हारे
प्रेम का, तुम्हारी
करुणा का? कहां
गई तुम्हारी
करुणा, कहां
गया तुम्हारा
प्रेम? सब
धोखाधड़ी की
बातें हैं।
मगर
उन्हें पता
नहीं था कि
जीसस क्या
उत्तर देंगे।
जीसस ने कहा
कि ठीक कहते
हैं पुराने
शास्त्र। ठीक
ही कहते
होंगे। उठा लो
पत्थर, इस
स्त्री की
हत्या कर दो।
लेकिन पत्थर
वे ही लोग
मारें, जिन्होंने
कभी व्यभिचार
न किया हो और
कभी व्यभिचार
का विचार न
किया हो।
वे
जो पंच गांव
के आगे खड़े थे, मेयर
रहा होगा और
म्युनिसिपल
कमेटी के
मेंबर और सब, वे जल्दी से
पीछे हट गए
भीड़ में, कि
कौन झंझट करे!
गांव—भर जानता
है। सबकी हरकतें
जानता है। और
अगर व्यभिचार
न भी किया हो
तो विचार तो किया
ही है। ऐसा
आदमी तो खोजना
कठिन है जिसने
व्यभिचार का
विचार न किया
हो; जो
मोहित न हुआ
हो, आकर्षित
न हुआ हो। वे
चुपचाच पीछे
हट गए। धीरे—
धीरे वे जो
लोग आये थे, उनके हाथ
में पत्थर थे,
पत्थर
उन्होंने
वहीं गिरा
दिये, और
धीरे— धीरे
लोग नदारद
होने लगे।
सांझ हो रही
थी, सूरज
ढल रहा था, सूरज
के ढलते ही
जैसे ही
अंधेरा हुआ, लोग भाग गये
वहां से।
स्त्री अकेली
छूट गई। उस
स्त्री ने
जीसस के चरणों
पर सिर रखा और
कहा कि आप
मुझे जो भी
सजा देना
चाहें दें, मैं
व्यभिचारिणी
हूं। मैं
स्वीकार करती
हूं। मैं
पापिनी हूं।
और आपकी करुणा
ने मेरे हृदय
को गदगद कर
दिया। आप जो
भी सजा दें...।
जीसस
ने कहा कि मैं
कौन हूं सजा
देनेवाला? मैं
तेरे और तेरे
परमात्मा के
बीच कौन हूं? तू जान तेरा
काम जाने, और
तेरा
परमात्मा
जाने। मैं कोई
निर्णय नहीं लेता।
अगर तुझे लगता
हो कि कुछ गलत
किया है तो अब
मत करना। और
तुझे लगता हो
कि जो है वह
ठीक है, तो
जारी रखना।
निर्णायक
परमात्मा
होगा। तेरे और
परमात्मा के
बीच अंतिम
निर्णय होने
वाला है, कोई
बिचवइया नहीं
है। तू जा।
खयाल करते हो
इस बात में? जीसस का
प्रसिद्ध वचन
है. बुराई की
भी निंदा मत
करना। बुराई
की भी! क्यों? इसलिये कि
अगर परमात्मा
चला रहा है तो
कुछ कारण होगा।
अपने भीतर
जागना, जीना
लेकिन जीने का
सूत्र निकलता
हो निजता से।
सहज
जुगति ले आसण
करौ
अगर
तुम्हारा
जीवन सहज हो
जाये तो बस
ठहर गए, आसन
लग गया। यही
असली आसन है।
पालथी मारकर
और सिद्धासन
लगाना असली
आसन नहीं है।
वह तो कोई भी
लगा ले। वह तो
कवायद है।
व्यायाम है, अच्छा है; करो तो शरीर
के लिए
स्वास्थ्य कर
है; लेकिन
उससे कोई
आत्मा नहीं
मिल जायेगी।
सहजता में, निजता में
जो आसन लग
जाता है, तो
आत्मा का
अनुभव शुरू
होता है।
तन
मन पवना दिढ
करि धरौ।
फिर
अपने— आप तन—मन, पवन,
श्वास शांत
होने लगती है,
दृढ़ होने
लगती है। तुम
सहज जीयो।
तुमने देखा, जब भी तुम
झूठ बोलते हो
तुम्हारी
श्वास कैप जाती
है। देखना। जब
भी तुम झूठ
बोलोगे, तुम्हारी
श्वास
डांवांडोल हो
जायेगी; उसकी
सहजता, उसका
छंद टूट
जायेगा। जब भी
तुम सच बोलोगे,
छंद जारी
रहेगा।
इसी
आधार पर
वैज्ञानिकों
ने मशीन बना
ली है—झूठ
पकड़ने की
मशीन। पश्चिम
की अदालतों
में उसका
उपयोग भी शुरू
हो गया है।
आदमी को पता
ही नहीं चलता
कि उसके पैर
के नीचे मशीन
लगी है। उसे
जब खड़ा करते
हैं अदालत में
तो उसके नीचे
मशीन लगी है
और मजिस्ट्रेट
के सामने
ग्राफ बनता
जाता है। जैसे
कार्डियोग्राम
में ग्राफ
बनता है, वैसे
ही
मजिस्ट्रेट
के सामने
ग्राफ बनता
जाता है। उससे
पूछा जाता है,
इस समय घड़ी
में कितने बजे
हैं? वह
कहता है सवा
नौ। झूठ क्यों
बोलेगा? घड़ी
अदालत मेँ लगी
है, ग्राफ
बन रहा है।
उससे पूछा
जाता है कि
यहां कितने
लोग हैं? वह
गिनती कर देता
है कहता है, कि पंद्रह।
झूठ क्यों
बोलेगा? झूठ
बोल भी कैसे
सकेगा? ग्राफ
बन रहा है।
ऐसी दो—चार
बातें पूछते
हैं, जिसमें
वह झूठ बोल ही
न सके। फिर
उससे पूछते हैं,
तुमने चोरी
की? हृदय
तो कहना चाहता
है हां, क्योंकि
की है तो हृदय
को तो पता ही
है। तो हृदय
तो कहता है, ही! और वह
दबाता है ही
को। और खोपड़ी
से कहता है कि
नहीं। बस इसी
में उसकी सांस
डांवांडोल हो
जाती है, ग्राफ
डांवांडोल हो
जाता है। पकड़ा
गया। वह झूठ
बोल रहा है।
कोई
आदमी झूठ नहीं
बोल सकता बिना
श्वास को डांवांडोल
किये। तो जो
आदमी सच जीता
है,
सहज जीता है,
उसकी श्वास
अपने से थिर
होती जाती है।
तुम जानकर यह
हैरान होओगे
कि ध्यान में
एक ऐसी घड़ी आती
है सहजता की, कि जब श्वास
बिलकुल ठहर
जाती है।
बिलकुल! अगर तुम
ध्यानस्थ
व्यक्ति के
सामने आईना ले
जाओ तो आईने
पर भी श्वास
की कोई छाया
नहीं पड़ती, आईने पर भी कोई
श्वास का
धब्बा नहीं
पड़ता।
साधारणत: आईने
को पास लाओगे
नाक के तं।
भाफ निकल रही
है, वह
आईने को
आच्छादित कर
देगी। और
इसलिये कभी—कभी
ध्यान में
जाता हुआ
व्यक्ति घबड़ा
जाता है, कि
कहीं मैं मर
तो नहीं रहा
हूं! घबड़ाने
की कोई जरूरत
नहीं। मर नहीं
रहे हो, पहली
बार तुम्हें
जीवन का, परम
जीवन का, स्पर्श
हो रहा है। सब
ठहर गया है, श्वास तक
ठहर गई है।
इतनी गहन
शांति है कि
हलन—चलन बंद
हो गया है।
संजम
चितओ जुगत
अहार?
संयम
का अर्थ. मध्य
में होना। न
इस अति पर
जाना न उस अति
पर। न तो
ज्यादा खाना न
कम खाना। न
ज्यादा सोना न
कम सोना। मध्य
में रहना।
संजम
चितओ!
और
जिसके चित्त
में संयम आ
गया,
मध्य आ गया,
सब सुधर
गया।
जुगत
आहार!
फिर
युक्तिपूर्वक
आहार करना।
व्यर्थ का आहार
मत करना। आहार
शब्द बड़ा है।
उसका अर्थ
सिर्फ भोजन
नहीं होता।
आहार का अर्थ
होता है : जो भी
तुम भीतर लेते
हो। कोई आदमी आया
और करने लगा
गपशप। जो आदमी
संयमी है, वह
कहेगा : भाई, यह आहार
मुझे मत
करवाओ। मेरे
कान में यह
व्यर्थ की
गपशप न डालो।
क्या प्रयोजन?
मुझे इसमें
कुछ रस नहीं
है। क्योंकि
यह भोजन है
कान का। जो
आदमी
युक्तिपूर्वक
आहार करता है,
वह
कूड़ा—करकट
नहीं पड़ेगा।
वह व्यर्थ की
चीजें नहीं
पढ़ता रहेगा।
क्यों? क्योंकि
वह भी आहार
है। वह व्यर्थ
के दृश्य भी
नहीं देखेगा।
वह टेलीविजन
पर बैठकर
मारकाट नहीं
देखता रहेगा।
वह फिल्म में
जाकर नहीं बैठ
जायेगा कि वही
पिटी—पिटाई
कहानियां, वही
प्रेम, वही
त्रिकोण और
देख रहा है, फिर—फिर वही
देख रहा है।
इस कचरे को वह
भीतर नहीं ले
जायेगा। चूंकि
जो भी तुम
भीतर डालते हो,
उससे तुम
निर्मित हो
रहे हो। भोजन
ही नहीं है अकेली
चीज आहार; सब
चीजें जो तुम
भीतर ले जाते
हो, आहार
हैं।
न्यंद्रा
तजौ जीवन का
काल
और
ऐसा व्यक्ति
मूर्च्छा
छोड़ने लगेगा।
निद्रा का
अर्थ यह मत
समझना कि वह
सोयेगा ही
नहीं। सोयेगा, लेकिन
अब निद्रित
नहीं सोयेगा।
यह जरा सोचने की
बात होगी। अब
निद्रित
जागेगा भी
नहीं। तुम तो
जागे हुए भी
सोये हुए हो।
चले जा रहे
रास्ते पर, हजार विचार
चल रहे हैं, वहीं उलझे।
न तो रास्ता
दिखाई पड़ रहा
है और न लोग
दिखाई पड़ रहे
हैं। चले जा
रहे हैं। अगर
तुमसे कोई
अचानक पूछ
बैठे कि तुम
जिस रास्ते से
गुजर कर आये
हो उस रास्ते
के किनारे जो
वृक्ष है, उस
पर फूल खिले
हैं या नहीं? तुम कहोगे
कि देखा ही
नहीं। और वहीं
से निकलते हो
रोज। दफ्तर
जाते रोज वहीं
से, घर आते
वहीं से, रोज...।
फूल खिले हैं,
देखा ही
नहीं। देखोगे
कैसे? तुम
तो अपने
विचारों में
उलझे चले आ
रहे हो।
लोग
अपने विचारों
में दबे चल
रहे हैं। सोये
चल रहे हैं।
यही निद्रा
है। जैसे—जैसे
निर्विचार
होओगे,जागरण
आयेगा। तब तुम
चकित होकर
पाओगे कि जगत
बहुत सुंदर
है। आंख से
धूल हट गई
विचारों की तो
जगत का
प्रतिबिंब
ठीक—ठीक बनने
लगता है।
विचारों की
तरंगें भीतर
बंद हो गईं तो
झील शांत हो
गई। शात झील
पर पूरा चाद
उतर आता है।
जगत अपूर्व
रंगों से भर
जाता है।
लेकिन जब तक
यह चित्त की
धूल है तब तक
जगत बासा—बासा
मालूम होता
है। ऐसा लगता
है सब वही है।
यहां
कुछ भी वही
नहीं है। सब
रोज नया हो
रहा है। जो सूरज
तुमने कल विदा
किया था, ठीक
सूरज आज वैसा
ही विदा नहीं
होगा; आज
की सांझ कुछ
नये रंग
खिलायेगी। आज
आकाश में नए
बादल होंगे, नए रंग
होंगे। आज के
सूर्यास्त की
आभा कुछ और होगी।
आज का
सूर्योदय भी
कुछ और था।
प्रतिपल सब
बदल रहा है।
यही तो जीवन
का अर्थ है; नहीं तो सब
मर गया होता।
मुर्दा नहीं
है अस्तित्व,
अस्तित्व
जीवंत प्रवाह
है।
लेकिन
तुम नींद में
पड़े हो।
तुम्हें पता
ही नहीं चलता।
तुम चले जा
रहे हो, किसी
तरह चले जा
रहे हो। अभी
तुम्हारा
जागरण भी
निद्रा है और
एक ऐसी घड़ी आती
है होश की, जब
नींद भी होती
है, शरीर
सोया होता है,
लेकिन भीतर
एक छोटा—सा
दीया होश का
जलता रहता है।
ऐसा कभी—कभी
तुम्हारी
जिंदगी में भी
होता है।
जैसे
किसी मां को
बच्चा पैदा
होता है।
वर्षा है, खूब
मेघ गरज रहे
हैं, बिजली
कौंध रही है।
उसे सुनाई
नहीं पड़ता। लेकिन
बच्चा जरा
कुनमुन करे और
उसे सुनाई पड़
जाता है।
मामला क्या है?
आकाश में
बादल गरज रहे
हैं, बिजली
गिर रही है और
मां को कुछ
पता नहीं, वह
मस्त घर्रा
रही है, गहरी
नींद में है।
और बच्चा जरा
कुनमुनाता है,
तब्धण जग
जाती है। उसके
भीतर कोई जागा
हुआ है, थोड़ा—सा
हिस्सा जागा
हुआ राह देख
रहा है कि
कहीं बच्चे को
कोई अड़चन न हो
जाए। उसका
मातृत्व जागा
हुआ है।
यहां
तुम सारे लोग
सो जाओ, फिर
कोई आकर
पुकारे राम, तो बाकी
किसी को सुनाई
नहीं पड़ेगा, लेकिन जिस
आदमी का नाम
राम है वह
कहेगा, भाई
क्यों सताते
हो? सोने
भी नहीं देते?
किसी को
नहीं सुनाई पड़
रहा है। कान
में सबके पड़ा
राम, लेकिन
सबको इसका पता
है, नींद
में भी पता है,
इतना पता है
कि यह अपना
नाम नहीं है, यह कोई और को
सताने आया है।
सुबह तुमसे
कोई पूछे तो
तुम बता भी न
सकोगे कि
तुम्हें
सुनाई पड़ा था
राम; तुम
कहोगे, हमें
कुछ पता नहीं
है। लेकिन राम
को सुनाई पड़ गया
है।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
कंजूस आदमी
मरा, तो
उसकी पत्नी
बैठी रही, रोयी
नहीं। भीड़
इकट्ठी हो गई।
लोग समझे कि
पागल तो नहीं
हो गई सदमे
में। और तभी
एक भिखमंगा आकर
खड़ा हो गया, उसने जोर से
अपना डब्बा
बजाया उस
मुर्दा के
सामने, उसकी
लाश रखी है।
और जैसे ही
उसने डब्बा
बजाया कि वह
औरत रोने लगी।
मोहल्ले के
लोग बड़े हैरान
हुए, उन्होंने
कहा, बात
क्या है? उसने
कहा कि अब
मुझे पक्का हो
गया कि वह मर
गये। अगर
भिखारी को
देखकर घर के
भीतर नहीं जा
रहे हैं उठकर
तो मर गए, निश्चित
मर गए। अभी तक
मुझे शक था कि
हो सकता है
मूर्च्छा में
पड़े हों, मगर
अब निश्चित
है। कैसी ही
मूर्च्छा हो,
भिखारी को
देखकर तो वह
घर के भीतर
चले जाते। अब
निश्चित है कि
आत्मा देह छोड़
चुकी।
तुम्हारे
सामान्य जीवन
में भी
तुम्हें इस बात
का खयाल रहेगा
कि कभी—कभी
किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में
कुछ चीजें
तुम्हारे
भीतर जागी रह
जाती हैं।
जैसे
विद्यार्थी
परीक्षा के
दिनों में रात
में पाता है
कि थोड़ा—सा
जागरण बना है, कई
दफा आंख खोलकर
देख लेता है
कि घड़ी में
कितना बजा है,
सुबह तो
नहीं हो गयी।
परीक्षा सिर
पर खड़ी है, कोई
एक स्वर जागता
रहता है। ये
छोटे—छोटे
अनुभव हैं।
योगी
के भीतर सतत, सतत
एक दीया जलता
रहता है।
इसलिये कृष्ण
ने कहा है कि
और जब सब लोग
सो जाते हैं..
या निशा सर्व
भूताया
तस्यां
जागर्ति
संयमी! जो
सबके लिए नींद
है, गहरी
रात है, वह
भी संयमी के
लिये जागरण
है। इसका मतलब
यह नहीं है कि
कृष्ण सोते ही
नहीं थे, कि
खड़े हैं रात—
भर। पागल हो
जाते।... कि बजा
रहे हैं
बांसुरी रात—
भर, चाहे
कोई
सुननेवाला हो
या न हो। खुद
भी पागल हो
जाते, पड़ोस
के लोग भी
पागल हो जाते।
सोते हैं, मगर
देह ही सोती
है, चेतना
जागती रहती
है।
न्यंद्रा
तजौ जीवन का
काल
यह
मूर्च्छा ही
तुम्हें
वंचित किए है
परम जीवन से।
यही असली
मृत्यु है।
इसको छोड़ दो
तो तुम्हें
शाश्वत जीवन
का अनुभव हो
जाये।
छांडौ
तत मैत बैदंत।
कह
रहे हैं अपने
योगियों से, अपने
शिष्यों से, अपने
संन्यासियों
से, कि
तंत्र—मंत्र,
वैद्यक, इन
सब उपद्रवों
में मत पड़ो—कि
बांध रहे
ताबीज, कि
दे रहे मंत्र
लोगों को, कि
बांट रहे
जड़ी—बूटी, कि
रसायन तैयार
कर रहे!
छांडौ
तत मैत बैदंत।
जंत्र गुटिका
धात पाषंड।।
यह
सब छोड़ो
पाखंड! इस सब
में मत उलझ
जाओ। इसमें उलझा
रहा है इस देश
का साधु बहुत
दिनों से। वह सब
तरह के काम
करता रहा है। बीमारों
को दवाई भी
बांटता है, चमत्कार
भी करता है, खाली हाथ से
विभूति
निकालता है, राख बांटता
है, ताबीज
निकालता है, घड़ियां
निकालता है।
यह सब पाखंड
है, क्योंकि
यह सब हाथ की
कलाबाजी है, ये सब जादू
के काम हैं।
यह
सड़क पर —आहार
करता है तो
तुम एकदम उसके
पैरों में नहीं
गिर पड़ते कि
हे साईंबाबा!
मिलन हो गया, आपकी
तलाश थी! तब
तुम जानते हो
कि यह जादू
है। जादू है, ऐसा मानकर, तुम समझते
हो होगी कोई
हाथ की कला।
लेकिन यही कोई
आदमी गैरिक
वस्त्र पहन कर
साधु—वेश में
खड़ा हो जाए और
करने लगे, बस
गिरे तुम पैर
पर। वही का
वही है, कुछ
फर्क नहीं है,
कुछ भेद
नहीं है। गोरख
अपने शिष्यों
को कहते हैं :
छांडौ
तत मैत बैदंत
जंत्र गुटिका
धात पाषंड।
जड़ी—
बूटी का नांव
जिनि लेहु।
राज दुवार पाव
जिनि देहु।।
और
अगर तुम इस
तरह के धंधों
में पड़े, जड़ी—बूटी
इत्यादि के
उपद्रव में
पड़े, तो आज
नहीं कल तुम
राजनीति में
उलझ जाओगे, तुम
राजद्वार में
पहुंच जाओगे।
राजनीति
का अर्थ होता
है.
पद—प्रतिष्ठा, पद—लोलुपता।
अगर इस तरह के
धंधे में उलझे
तो तुम
पद—लोलुप हो
जाओगे, नहीं
तो तुम करोगे
ही क्यों? यह
सब आकांक्षा
इसीलिये है, ताकि लोग
समझें कि मैं
कुछ
हूं—महत्वपूर्ण,
महान। साधु
को तो सहज
होना चाहिये।
कि मैं नाकुछ
हूं कि मैं
शून्यवत हूं।
उसे कोई दावा
नहीं होना
चाहिये।
चमत्कार कोई
साधु कैसे
दिखायेगा? चमत्कार
तो केवल असाधु
ही दिखा सकता
है, क्योंकि
चमत्कार के
पीछे अहंकार
को पुजवाने की
आकांक्षा है।
थंभन
मोहन बिसिकरन
छांडौ औचाट।
छोड़ो
ये सब
जादूगिरिया—
थंभन, मोहन, सम्मोहन की
कलाएं, वश
में करने की
कलाएं, बिसिकरन।
छांडौ औचाट।
भूत—प्रेत
झाड़ना, उच्चाटन
करना, यह
सब व्यर्थ की
बकवास छोड़ो।
सुणौ हो
जोगेसरो जोगारभ
की बाट और
कहते हैं. हे
योगियो! सुनो,
मैं तुमसे
कहता हूं कि
योगी की असली
राह क्या है।
जोगारंभ
की बाट।
योग
के आरंभ की
असली राह क्या
है,
मैं
तुम्हें
द्वार देता
हूं।
और
दसा परहरौ
छतीस
और
सब छोड़ दो, सिर्फ
उस एक को याद
करो।
हर
सुबह उठके
तुझसे मांगूं
हूं मैं तुझी
को,
तेरे
सिवाय मेरा
कुछ मुद्दआ
नहीं है।
और
सब छोड़ दो, यह
सब समय खराब
करना है, शक्ति
खराब करनी है।
इस सारी ऊर्जा
को एक ही प्रार्थना
में डुबा दो।
उसी को मांग
लो, और कुछ
मत मांगना।
हर
सुबह उठके
तुझसे मांग
हूं मैं तुझी
को,
तेरे
सिवाय मेरा
कुछ मुद्दआ
नहीं है।
परमात्मा
के अतिरिक्त
तुम्हारी कोई
और मांग न हो।
मांग ऐसी होनी
चाहिये कि उस
मांग में तुम
भी खो जाओ।
उसे ढूंढते
मीर खोये गए कोई
देखे इस
जुस्तजू की
तरफ!
यह
मेरी खोज तो
देखो, मीर
कहते हैं। उसे
खोजने निकले
थे और खुद खो गए!
उसे
ढूंढते मीर
खोये गए
कोई
देखे इस
जुस्तजू की
तरफ!
यह
मेरी खोज तो
देखो। निकले
थे खोजने और
खुद खो गए!
हेरत
हेरत हे सखी, रह्या
कबीर हिराई।
बस
वही एक रह जाए, तुम
भी खो जाओ, तभी
वह मिलेगा।
बहुत
ढूंढा उसे फिर
भी न पाया
अगर
पाया पता अपना
न पाया।
बहुत
खोजते रहे, वह
नहीं मिला। तब
तक नहीं मिला
जब तक स्वयं न
खो गए। और जब
वह मिला तो
पीछे लौटकर
देखा तो अपने
को न पाया।
बहुत
ढूंढा उसे फिर
भी न पाया
अगर
पाया पता अपना
न पाया।
ऐसे
डूबो, एक ही
आकांक्षा रह
जाए, एक ही
अभीप्सा रह
जाए। सारी
अभीप्साओं को
उसी पर
समर्पित कर
दो। बहुत
दिशाओं में
यात्रा करोगे
तो कहीं न
पहुंचोगे। इक
साधे सब सधे
सब साधे सब जाये।
और
दसा परहरौ
छतीस। सकल
विधि ध्यावो
जगदीस।
बहु
विधि नाटारंभ
निबारि काम
क्रोध
अहकारहि जारि
और
सब अभिनय
छोड़ो।
नाटारंभ! और
सब नाटक बंद
करो। ये सब
काम—क्रोध के
ही नये रूप
हैं,
ये अहंकार
की ही नई
कलायें हैं।
इनसे सावधान रहो।
नैण
महा रस फिरौ
जिनि देस!
आंखों
में तो वासना
भरी है और तुम
तीर्थ—यात्राएं
करते घूम रहे
हो! इससे कुछ
भी न होगा।
जटा
भार बंधौ जिनि
केस
और
कितनी ही
जटायें बड़ी कर
लो और कितना
ही भार बांध
लो जटाओं का, इससे
कुछ निर्भार न
हो जाओगे।
रूष
बिरष बाड़ी
जिनि करौ
और
चाहे कितने ही
तथाकथित
पुण्य करते
रहो,
कि वृक्ष
लगवा दो
रास्तों के
किनारे, बाडिया
लगवा दो कि
राहगीरों को
छाया मिले...।
कूवा
निर्वाण षोदि
जिनि मरौ
कि
कुएं खुदवा दो
कि लोगों को
पानी पीने मिल
जायेगा; मगर
खयाल रखना, गोरख कहते
हैं.
कूवा
निवल षोदि
जिनि मरौ।
इन्हीं
कुओं में गिर
कर मरोगे। इस
तरह के पुण्य
से कुछ होने
वाला नहीं है।
ध्यान से रहित
जो पुण्य है
वह दो कौड़ी का
है,
क्योंकि वह
अहंकार का ही
विस्तार है।
साधु भी अहंकार
पकड़ लेते हैं।
वे कहते हैं
कि मंदिर बनवा
कर रहेंगे, कि कुआ
खुदवा कर
रहेंगे। बैठ
जाते हैं जिद
करके। और जब
तक उनका मंदिर
न बन जाए और
कुआ न खुद जाये,
तब तक बैठे
ही रहते हैं।
आखिर लोग
परेशान हो
जाते हैं, उनकी
छाती पर रोज
खड़े हैं, किसी
तरह कुछ
दे—दवा कर के
कुआ खुदवा
देते हैं कि
ठीक है भाई, मंदिर बनवा
देते हैं कि
ठीक है। मगर
यह अहंकार का
ही विस्तार
है।
मैं
पुण्य करूं, इसमें
मैं ही भरेगा।
एक और पुण्य
है जो कृत्य नहीं
है—जो ध्यान
से जन्मता है।
मैं ध्यान में
लीन हो जाऊं
परमात्मा में,
फिर वह जो
मुझसे करवा ले,
मैं करने
वाला नहीं
हूं। उसको कुआ
खुदवाना हो तो
कुआ खुदवा ले,
उसको झाडू
लगवाने हों
झाड़ लगवा ले, स्कूल
चलवाना हो
स्कूल चलवा ले,
अस्पताल
बनवानी हो
अस्पताल बनवा
ले; लेकिन
मैं करने वाला
नहीं हूं अब
मैं केवल
उपकरण मात्र
हूं। पहले
ध्यान। यह मत
सोचना कि गोरख
कह रहे हैं कि
पुण्य के काम
बुरे हैं।
गोरख यही कह
रहे हैं कि
अहंकार जब तक
है, तब तक
पुण्य के
कामों की आडू
में वही पलेगा,
वही पुसेगा,
वही बड़ा
होगा। पहले
अहंकार जाने
दो, फिर
पुण्य का
कृत्य अपने आप
आता है; तब
उसमें बड़ी
सुगंध है, बड़ा
सौंदर्य है, बड़ा संगीत
है!
जो
रहीम मन हाथ
है,
तो तन कहु
किन जाहि।
जल
में जो छाया
परे,
काया भीजत
नाहि।।
एक
मन हाथ आ जाए, फिर
शरीर की कोई
फिकिर नहीं
है। एक चैतन्य
पकड़ में आ
जाये, फिर
शरीर की कोई
फिकिर नहीं
है। जल में जो
छाया परे
जैसे
कि तुम रास्ते
से गुजरे और
किनारे पर झील
में तुम्हारी
छाया पड़ी, उससे
तुम्हारा कोई
शरीर थोड़े ही
भीग जाएगा। जल
में जो छाया
परे, काया
भीजत नाहि। अब
तुम्हारा
शरीर थोड़े ही
भीगता है। ऐसे
ही जिसका मन
वश में आ गया, मन ध्यान बन
गया जिसका, अब वह कुछ भी
करे, कैसा
भी रहे, कहीं
भी जाए, कोई
परिणाम बुरा
नहीं होता; उससे शुभ ही
होगा, उससे
अशुभ हो ही
नहीं सकता।
टूटै
पवना छीजै
काया आसण दिख
करि वैसो
राया।।
यह
शरीर तो टूट
जायेगा, जल्दी
श्वास उखड़
जायेगी।
टूटै
पवना!
श्वास
उखड़ जायेगी।
छीजै
काया!
यह
काया जल्दी की
हो जायेगी, मरण
के करीब आ
जायेगी। इसके
पहले कि यह हो,
आसण
दिख करि वैसो
राया
ए
राजा! ए
सम्राट!
सम्हाल लो।
इसके पहले
सम्हाल लो।
पीछे बहुत
पछताना होगा।
मौत आती है, सिवाय
पछतावे के हाथ
कुछ नहीं रह
जाता। क्योंकि
जिंदगी हमने
ऐसी चीजों में
गंवा दी, जिनको
हम साथ न ले जा
सकेंगे। मौत
सब छीन लेगी। सब
ठाठ पड़ा रह
जायेगा। और
ध्यान तो
कमाया नहीं, क्योंकि
ध्यान मृत्यु
में भी साथ जा
सकता है।
ध्यान
परम धन है।
जिसको समाधि
का अनुभव हो
गया,
मृत्यु
उससे कुछ भी
नहीं छीन सकती,
क्योंकि
समाधि को न
शस्त्र छेद
सकते हैं और न
आग जला सकती
है।
टूटै
पवना छीजै
काया। आसण दिख
करि वैसो
राया।
अब
तो सम्हल जाओ
३ राजा! हो तो
तुम राजा, अगर
सम्हल जाओ तो
अभी तुम्हें
राज्य मिल
जाये। जरा में,
क्षणभर में
घटना घट जाये।
तीरथ
बर्त कदै जिनि
करौ
व्यर्थ
के
तीरथ—व्रतों
में मत उलझे
रहो। समय खराब
न करो।
गिर
परबतां चढ़ि
प्रानमति हरौ
और
नाहक पर्वत
चढ़—चढ़ कर अपने
प्राणों को न
सताओ, कि चले
गिरनार, कि
चले शिखरजी, कि चलो चढ़े
हिमालय, कि
कैलाश, कि
बद्रीनाथ, कि
केदार। क्यों
सता रहे हो
प्राणों को?
गिर
परबतां चीड़
प्रानमति
हरौ।
नाहक
मत सताओ!
पूजा
पाति जपौ जिनि
जाप
और
कितना तो तुम
पूजा—पाठ कर
चुके। कितनी
पूजा, कितना
जप! कितने जाप
कर चुके, हुआ
क्या?
पूजा
पाति जपौ जिनि
जाप
जोग
माहि विटंबौ
आप
और
योग भी तुम
खूब कर चुके।
कोई सिर के बल
खड़े हैं, कोई
शरीर को इरछा
कर रहे हैं, कोई तिरछा
कर रहे हैं।
इस सबसे क्या
होगा? यह
सब विडंबना
है। जोग माहि
विटंबौ आप।
नाहक
विडंबनाओं
में मत पड़ो।
छांडौ
वैद काज
व्यौपार
ये
सब व्यवसाय
हैं। इन
व्यवसायों से
सावधान हो
जाओ।
पढिबा
गुणिबा
लोकाचार
बड़ा
क्रांति का
सूत्र है! खूब
तो पढ़ चुके, तोते
तो हो गए पढ़—पढ़
कर, पंडित
हो गये पढ़—पढ़
कर।
पढ़िबा
गुणिबा लोकाचार।
और
खूब तुमने
आचरण सम्हाल
कर अपने को
ऊपर से रंग
लिया, बड़े
गुणवान हो गये
और
लोकाचार
में भी बड़े
कुशल हो।
शिष्टाचार
में बड़े योग्य
हो,
बड़े सभ्य हो
गए। मगर इस
सबसे कुछ भी न
होगा; यह
सब पड़ा रह
जाएगा। यह
पढ़ा—लिखा, ये
गुण जो तुमने
ऊपर से थोप
लिये और यह लोकाचार,
सब पडा रह
जायेगा। जब
जाओगे तो जो
जाएगा पंछी, वह पंछी तो
वैसा ही रहा, तुमने कभी
उस पर कुछ
ध्यान ही न
दिया।
बहुचेला
का संग
निबारि।
अभी
खुद जागे नहीं
हो और चेले
इकट्ठे कर
लिये! खुद तो
जागो, फिर कोई
आयेगा तो बांट
देना। पहले हो
तो! पहले खुद
की ज्योति तो
जले, फिर
किसी बुझे
दीये की
ज्योति जला
देना।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं. हम
जनता की सेवा
करना चाहते
हैं। मैं कहता
हूं : तुम्हारी
कृपा होगा, बड़ी
कृपा यही होगी
कि तुम सेवा न
करो। अभी तुमने
अपनी सेवा
नहीं की।
नहीं, लेकिन
वे कहते हैं
कि हमने तो
सुना है बिना
सेवा के मेवा
नहीं मिलता।
मेवा पर नजर
लगी है, इसलिये
सेवा करना
चाहते हैं!
सेवा से कोई
प्रयोजन नहीं
है. कि सेवा
करने से
स्वर्ग
मिलेगा। बात
उल्टी है.
जिसको स्वर्ग
मिल गया, उससे
सेवा फलती है।
जिसके भीतर
स्वर्ग आ गया,
उसका जीवन
सेवा बन जाता
है। और जिसके
भीतर मेवा बरस
गया, उसके
कृत्यों में
सेवा होती है।
उलटी है बात।
आ
गये पूछने कि
जनता की सेवा
करनी है। मैं
उनसे कहता हूं
कि तुम देख तो
रहे हो जनता
के कितने सेवक
सेवा कर रहे
हैं और जनता
मरी जा रही
है। जितने
सेवक बढते हैं, उतनी
जनता की फांसी
लगी जा रही
है। कोई हाथ
खींच रहा है, कोई पैर
खींच रहा है, कोई गला। वे
कहते हैं कि
हम सब दबा रहे
हैं। मगर इसकी
कोई फिकिर
नहीं है कि
हाथ—पैर टूटे
जा रहे हैं, कि जनता की
गर्दन कटी जा
रही है। मगर
सेवक कहता है
हम तो सेवा
करके रहेंगे!
एक
ईसाई पादरी ने
अपने बच्चों
को स्कूल में
समझाया कि
सेवा करनी ही
चाहिये, कम से
कम एक बार तो
सेवा सप्ताह
में करनी ही
चाहिये। और
तुम्हें एक
सप्ताह का समय
देता हूं सेवा
करके आना।
अगले सप्ताह
उसने पूछा कि
सेवा की बच्चो?
तीन बच्चों
ने हाथ
हिलाये। एक
बच्चे ने कहा
कि ही मैंने
की। बहुत
प्रसन्न हुआ
पादरी। उसने
कहा. क्या
सेवा की बेटा?
उसने कहा, जैसा आपने
कहा था कि कोई
बूढ़ा आदमी या
की औरत रास्ता
पार करती हो
तो करवा देना
हाथ पकड़ कर, मैंने एक
बुढ़िया को पार
करवाया।
प्रसन्न होकर
पादरी ने कहा.
शाबाश! इसी
तरह सीखते
रहोगे, स्वर्ग
मिलेगा।
दूसरे
से पूछा. तूने
क्या सेवा की? उसने
कहा : मैंने भी
एक बुढ़िया को
पार करवाया। तब
थोड़ा पादरी को
संदेह हुआ, मगर सोचा कि
बुढ़ियो की कोई
कमी तो है
नहीं, मिल
गई होगी।
तीसरे से पूछा
: तूने क्या
किया? उसने
कहा : मैंने भी
एक बुढ़िया को
सड़क पार करवाई।
उसने पूछा :
तुम तीनों को
तीन बुढियाएं
मिल गईं? उन्होंने
कहा : तीन नहीं
थीं, थी तो
एक, हम
तीनों ने ही
पार करवाई। तो
उसने पूछा कि
तीन की जरूरत
थी पार करवाने
में? उन्होंने
कहा कि तीन की
क्या, अगर
छ: भी होते तो
बड़ा मुश्किल
मामला था।
बामुश्किल
करवा पाये पार,
क्योंकि वह
पार जाना ही
नहीं चाहती
थी। हाफ गये। मारपीट
हुई। मगर हम
भी डटे रहे कि
सेवा करनी है।
आपने कहा कि
किसी के को
रास्ता पार
करवाना है और
इसके बिना
मेवा नहीं है।
बुढ़िया ने भी
बड़ी ताकत
मारी। बुढ़िया
भी हम धोखे
में थे कि इतनी
बुढ़िया है, बडी ताकतवर
थी—और
चिल्लाये और
चीखे और मारे,
मगर हमने
करवा दिया। जब
तक हम उसको उस
तरफ न करवा
दिये, हम
भी भागे नहीं,
करवा कर भाग
खड़े हुए।
सेवा!
तुम्हारे पास
अभी मेवा नहीं
है। तुम्हारे
पास अभी आत्मा
ही नहीं है।
तुम सेवा के
नाम पर कुछ न
कुछ गलत
करोगे। ऐसी है
तुम्हारी
हालत जैसे कि
तुमने कभी
चिकित्सा—शास्त्र
तो पढ़ा नहीं
और चले मरीजों
की सेवा करने।
तो वही हालत
होगी न, मरीज
मरेंगे! तुम न
जाते तो शायद
बच भी जाते। बीमारी
से सभी नहीं
मर जाते, मगर
अगर कोई
चिकित्सक
जिसको
चिकित्सा—शास्त्र
का कोई अनुभव
नहीं है, मरीजों
की सेवा करने
चला जाये और
देने लगे प्रिस्किपान
और दवाइयां, तो मारेगा।
बीमारी से तो
बच जाते, मगर
वैद्य से बचना
मुश्किल हो
जायेगा।
दुनिया
सेवकों से
बहुत परेशान
हो गई है।
सेवकों ने बड़ा
उपद्रव कर
दिया है। खयाल
रखना, असली
घटना पहले
स्वयं में
घटनी चाहिये।
बहुचेला
का संग
निबारि।
उपाधि मसल बाद
विष टारि
और
उपाधियों के
चक्कर में मत
पड़ो। संसार
में उपाधियां
हैं,
कोई एम. ए. है,
कोई बी. ए. है,
कोई बीएस
सी. है, कोई
एलएल. बी. है, कोई एम. डी. है,
कोई पीएच.
डी., कोई डी.
लिट, कोई
डी. फिल। ये
सांसारिक
उपाधियां
हैं। फिर साधुओं
के जगत में भी
उपाधियां
चलती हैं—कोई
महंत है, कोई
मंडलाचार्य
है, कोई
शंकराचार्य
है, कोई
कुछ है, कोई
कुछ है। कोई
लिखता है एक
सौ पांच श्री
श्री, कोई
लिखता है एक
सौ आठ।
करपात्री
महाराज ने सबको
मात किया, वे
लिखते हैं
अनंत श्री! अब
इसके आगे तुम
बढ़ ही नहीं
सकते। जैसे
छोटे बच्चे
कहते हैं न, कि हम तुमसे
एक ज्यादा, तुम जो भी
कहोगे उससे एक
ज्यादा।
जिसने यह कह
दिया उसने हरा
दिया। अब तुम
कोई भी संख्या
बोलो, वह
एक ज्यादा।
अनंत श्री!
उपाधियां...।
तुम
परमात्मा हो, तुम्हें
किसी और उपाधि
की जरूरत नहीं
है। सब उपाधियां
छोटी हैं। अब
परमात्मा को
और क्या उपाधि
चाहिये? जिन्होंने
जाना है
उन्होंने
तुम्हारी
भगवत्ता की
घोषणा की है।
उन्होंने कहा,
तुम भगवान
हो! तुम परम हो!
तुमसे पार और
कुछ भी नहीं
है। अब तुम
क्या भगवान के
बाद फिर
जोड़ोगे एम. ए., एलएल. बी., पीएच.
डी.! बुद्ध
मालूम पड़ोगे।
सारा
अस्तित्व परमात्मा
से भरा है।
इसलिये
कहते हैं गोरख
उपाधि
मसाण..।
उपाधियों
को तो तुम
मरघट समझो।
बाद
विष टारि..
और
व्यर्थ के
विवाद और
शास्त्रार्थों
में मत पड़ना।
उनको विष की
तरह त्याग दो।
येता
कहिये
प्रतच्छि
काल...
अगर
ऐसा न समझे, न
माना, तो
आखिरी समय में
बहुत
पछताओगे।
येता
कहिये...
इसलिये
कहता हूं
तुमसे
बार—बार।
... प्रतच्छि
काल? एकाएकी
रहां भुवाल।
फिर
अकेले जाना
होगा न। न
शिष्य साथ
जायेंगे, न
उपाधियां साथ
जायेंगी, न
धन, न पद।
अकेले जाओगे
न! इसलिये अभी
से जानो कि अकेले
हो।
येता
कहिये
प्रतच्छि काल
इसलिये
कहता हूं ताकि
तुम्हें याद
दिलाता रहूं
बार—बार कि
आखिरी समय में
जैसे जाओगे वैसे
ही अभी रहो।
अभी से वैसे
रहो। फिर
तुमसे मौत कुछ
भी न छीन
पायेगी। फिर
तुम मौत को
हरा दोगे, मौत
तुम्हें न हरा
पायेगी।
एकाएकी
रहां भुवाल
सभा
देषि मांडौ
मति ग्यान।
लोग
बड़े उत्सुक
रहते हैं कि
कहीं मौका मिल
जाये शान
दिखाने का।
कोई पूछ भर ले
कुछ,
शान दिखाने
का मौका मिल
जाये। यह
अज्ञानी का
लक्षण है।
सभा
देषि मांडौ
मति म्यान
देख
कर कि कोई
सुनने को
उत्सुक है, कि
कोई कुछ पूछ
बैठा है, बेचारा
फंस गया पूछ
कर, एकदम
उसकी गर्दन न
पकड़ लो, एकदम
अपना ज्ञान
उसमें
उंडेलने न
लगो। जब तक कोई
जिज्ञासु न हो,
मुमुक्षु न
हो, चुप ही
रहना।
गूंगा
गहिला होड़
रहां अजाण
जब
तक मुमुक्षु न
मिल जाये तब
तक तो बिलकुल
गुंगे हो जाओ, जैसे
बोलना ही नहीं
आता। गहिला...
पागल हो जाओ, कि लोग
पूछें ही न
अपने— आप, कि
उस पगले से
क्या पूछना।
गुरजिएफ
के पास एक
पत्रकार आया।
वह उसका इंटरव्यू
लेने आया था।
गुरजिएफ चाय
पी रहा था, पत्रकार
को भी बिठाला
पास में। और
पास में बैठी
एक शिष्या से
गुरजिएफ ने
कहा : आज दिन
कौन—सा है? उस
शिष्या ने
कहा. आज
रविवार है।
गुरजिएफ ने जोर
से मुक्का
पटका टेबिल पर
और कहा कि
रविवार हो
कैसे सकता है?
कल ही तो
शनिवार था! वह
पत्रकार ने
सुना तो उसके
होश उड़ गये, कि यह आदमी
है कैसा! और
इतना गुस्से
में आ गया कि
मुक्का पीट
दिया और कहा
कि हो कैसे
सकता है रविवार!
किसको तू धोखा
दे रही है? तूने
समझा क्या है?
कल ही
शनिवार था, आज रविवार
हो गया! वह
पत्रकार तो उठ
खड़ा हुआ। उसने
कहा : नमस्कार!
मैं जाता हूं!
जब
वह चला गया, तब
हंसी देखने
जैसी थी।
गुरजिएफ
हंसा। शिष्य भी
खूब आनंदित
हुए।
उन्होंने कहा
: आपने भी गजब
किया! उसने
कहा. इस मूरख
के सामने समय
खराब करने से
फायदा क्या
है! गहिला होड़
रहां!
यह
कह रहे हैं
गोरख। गोरख
कहते हैं कि
पागल हो जाओ
अगर ऐसा दिखे
कि कोई गड़बड—सडूबड़
फालतू आदमी
है... पत्रकार
इत्यादि...
पागल हो जाओ।
वह अपने— आप ही
रास्ता नाप
जायेगा, फिर
दुबारा आयेगा
भी नहीं।
गूंगा
गहिला होड़
रहां अजल।
और
बिलकुल
अज्ञानी हो
जाओ। और जो
जान लेते हैं
वे अज्ञानी हो
ही जाते हैं।
और जो जान
लेते हैं वे
पागल हो ही
जाते हैं। और
जो जान लेते
हैं वे गुंगे
हो ही जाते हैं।
क्योंकि जो
जाना जाता है, कहने
का कोई उपाय
नहीं। गुंगे
केरी सरकस!
जैसे गुंगे ने
शक्कर खाई हो!
जो जान लेते
हैं वे पागल
हो ही जाते
हैं। क्योंकि
जो जानते हैं
वह इतना भिन्न
है इस जगत के
तर्क से कि इस
जगत का तर्क उसे
अंगीकार नहीं
कर सकता। वे
बावले हो ही
जाते हैं। जो
जान लेते हैं
वे अज्ञानी हो
ही जाते हैं, क्योंकि
उन्हें पता
चलता है : जो
जाना है, वह
ऐसा है जो
जाना जा ही
नहीं सकता; जिसे जानकर
भी जाना नहीं
जा सकता।
अनुभव हो जाता
है, स्वाद
छूट जाता है।
सिद्धात नहीं
बनता।
तेरी
आह किससे खबर
पाइए,
वही
बेखबर है जो
आगाह है।
कहते
हैं कि तेरे
संबंध में
पूछना हो तो
किससे पूछें।
कुछ हैं, जिन्हें
पता नहीं; वे
बताने को राजी
हैं, मगर
उनको पता
नहीं। और कुछ
हैं जिन्हें
पता है, मगर
वे बताने को
राजी नहीं; वे खुद ही
बेखबर हैं, क्या किसी
को खबर दें!
तेरी
आह किससे खबर
पाइए,
वही
बेखबर है जो
आगाह है।
जिसको
पता चल गया है
वह खुद ही
बेखबर हो गया
है। वह बिलकुल
अज्ञानी हो
गया है।
सुकरात
ने मरते वक्त
कहा है कि मैं
एक ही बात जानता
हूं कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता। यह
ज्ञानी का
लक्षण है।
छाड्व
राव रंक की
आस।
छोड़ो
कुछ होने की
चिंता। यहां
बड़ी अजीब
चिंतायें चल
रही हैं; जो
गरीब हैं वे
अमीर होना
चाहते हैं, और जो अमीर
हैं वे सोचते
हैं गरीब बड़े
मजे में हैं।
यह वचन बड़ा
अदभुत है!
छाडूव
राव रंक की आस
जो
रंक हैं वे
राव होना
चाहते हैं, जो
राव हैं वे
सोचते हैं रंक
मजा ले रहे
हैं। जो
सम्राट हैं वे
सोचते हैं; काश, छोड़—छाड़
कर यह सब झंझट,
ले कर एक
इकतारा और
निकलते
गांव—गांव!
कैसा आनंद
नहीं होगा
साधु—संतों
का! होती एक
गुदड़ी और होता
आकाश, कि
मांग लेते दो
टुकड़े और
निश्चित
सोते। पी लेते
पानी सरोवर से,
झाड़ के नीचे
सो रहते। कैसा
मजा नहीं
होता!
जो
राजा हैं, वे
सोच रहे हैं
कि भिखारी को
बडा मजा है।
और भिखारी सोच
रहे हैं कि
मारे गए, कि
कब तक इसी
झाडू के नीचे
पड़े रहें, कभी
छप्पर बनेगा
कि नहीं? कभी
घी भी चुपड़
पायेंगे रोटी
पर कि नहीं? कब गद्दी
हासिल होगी?
यहां
सब परेशान
हैं। जिसके
पास है, वह
सोचता है
जिनके पास
नहीं है वे
आनंद में हैं।
जिनके पास
नहीं है, वे
सोचते हैं कि
जिसके पास है
वह आनंद में
है। गोरख कहते
हैं : दोनों
बातें छोड़ दो।
जहा हो, जैसे
हो, ठीक हो,
आगे की आशा
मत करो।
भिछ्या
भोजन परम
उदास।
जो
मिल गया, जो
परमात्मा ने
दे दिया है—भिक्षा!
जो परमात्मा
ने दे दिया है,
उसमें परम
शांति रखो। और
सब आशायें छोड़
दो। उदास का
अर्थ तुम यह
मत समझना कि
तुम उदास हो
गए, कि
बैठे हैं रो
रहे हैं, कि
मक्खियां
भिनभिना रही
हैं, कि
मक्खी मार रहे
हैं। यह तो
गोरख कह ही
नहीं सकते, क्योंकि
गोरख कहते हैं
:
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं। हैसै
षेलै करिबा रंग!
यह
तो कह ही नहीं
सकते गोरख। और
कोई कहे, गोरख
का उदास कुछ
और अर्थ रखता
है। उद फ़ आस।
जिसकी आशा छोड़
दी जिसने, वह
है उदास। अब
जिसको आगे की
कोई आशा नहीं
है। जो नहीं
कहता कि कल
मजा करेंगे, जब ऐसे हो
जायेंगे। जो
अभी मजा कर
रहा है। जो
कहता है कल की
क्या फिक्र; कल आया न आया!
कल आता कब! अभी
मजा कर रहा
है।
हंसै
षेलै करिबा
रंग!
जो
अभी रंग में
डूबा है।
जिसकी होली
अभी है। जिसकी
दिवाली अभी
है। जो
प्रतीक्षा
नहीं कर रहा
कि कभी और
आयेगी
दीवाली।
उदास
का अर्थ है :
जिसने और सब
तरह की भविष्य
से आशायें छोड़
दीं।
छाडूव
राव रंक की
आस।
भिछ्या
भोजन परम
उदास।।
रस
रसाइंन
गोटिका
निवारि
छोड़ो
रस रसायन। लोग
सैकड़ों
वर्षों से इस
तरह के धंधे
में लगे रहे
हैं। कोई बना
रहा है साधु रसायन, कि
अगर रसायन बन
जाए तो लोहा
सोना हो जाये;
कि रसायन बन
जाए तो मरणधर्मा
आदमी को अमृत
पिला दें, वह
अमर हो जाए।
यह सब छोड़ो।
रस
रसषंन गोटिका
निवारि।
रिधि
परहरौ सिधि
लेहु विचारि
ऋद्धि
को तो छोड़ो, तो
ही सिद्धि
मिलेगी। यह
ऋद्धि और
सिद्धि का बड़ा
प्यारा भेद
है। ऋद्धि का
अर्थ :
चमत्कार कर सकु
अमृत मिल जाए,
लोहे को
सोना बना सकु आकाश
में उड़ सकु
दीवालों के
पार जा सकूं।
ये ऋद्धियां
हैं। इन सबको
छोड़ो तो
सिद्धि मिले।
सिद्धि तो एक
है। सिद्धि का
अर्थ होता है :
जो भीतर छिपा
है उसमें
डुबकी मार
जाओ। न आकाश
में उड़ने की
जरूरत है, न
दीवालों के
पार जाने की
जरूरत है।
दरवाजे काफी
हैं, और
आकाश में
पक्षी उड़ ही
रहे हैं, वे
कोई परमहंस
नहीं हो गए
हैं। और अगर
तुम्हें बहुत
ही दिल हो जाए
तो हवाई जहाज
हैं, बैठ
गए।
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि मैं
पानी पर चल
सकता हूं आप
क्या कर सकते
हैं?
रामकृष्ण
ने कहा कि
पानी पर चल
सकते हो!
कितना समय लगा
इस कला को
सीखने में? उसने कहा.
अट्ठारह साल
लगे।
रामकृष्ण
हंसने लगे।
उन्होंने कहा.
रहे बुद्ध के
बुद्ध! हम दो पैसा
देकर नदी पार
हो जाते हैं, तुम्हें
अट्ठारह साल
लगे, पानी
पर चले, फायदा
क्या है? जाओ
चलो पानी पर, चलते रहो।
पानी पर ही
चलते हो न! नाव
में बैठकर पार
हो जाते हैं
दो पैसा देकर।
इसके लिए
अट्ठारह साल
गंवाये!
गोरख
कहते हैं :
छोड़ो इस तरह
की बातें। ये
सब अहंकार के
ही नए—नए उपाय
हैं।
परहरौ
सुरापात
अरुभंग
और
छोड़ो नशे। नशा
ध्यान का धोखा
दे देता है। इस
देश में साधु
नशा करते रहे
हैं सदियों से, भांग—गांजा।
वेद से लेकर, सोमरस से
लेकर, अब
तक। अब एल एस.
डी. बन गया
अमरीका में, वह सोमरस का
नया वैशानिक
रूपांतरण है।
वेद के ऋषियों
से लेकर अब तक
टिमोथी लीरे
और अल्डुअस हक्सले
तक यह आशा रही
है कि नशा
करने से समाधि
लग जाती है।
नशा करने से
समाधि नहीं
लगती, समाधि
का धोखा पैदा
हो जाता है।
इतनी सस्ती
अगर बात होती
कि नशा कर लिया,
समाधि लग
गई...। हां, गांजा
पी लोगे, भांग
पी लोगे, शराब
पी लोगे— थोड़ी
मस्ती आ
जायेगी, क्योंकि
जीवन की
चिंतायें
थोड़ी देर के
लिए भूल
जायेंगी। मगर
वे चिंतायें
खड़ी हैं अपनी
जगह। नशा
उतरेगा; वापिस
लौट
आयेंगी—दुगने
वेग से।
परहरौ
सुरापांत
अरुभंग।
तातैं उपजै
नाना रंग।
इसी
सबके उपद्रव
में तुम्हारे
भीतर नाना प्रकार
की कल्पनायें, सपने
पैदा होते
रहते हैं।
नारी सारी
कीगुरी।
कामवासना
छोड़ो। अगर नर
हो तो नारी से
मिलेगा कुछ, यह
आकांक्षा
छोड़ो, अगर
नारी हो तो नर
से कुछ मिलेगा,
यह
आकांक्षा
छोड़ो।
नारी
सारी...।
'सारी' कहते
हैं मैना को।
कई साधु यह
धंधा करते
रहते हैं।
बैठाये हैं
मैना को, मैना
उठाती है
कार्ड, लोगों
का ज्योतिष
खोलते हैं, हाथ देखते
हैं, भविष्य
पढ़ते हैं, जनम—कुंडली
जांचते हैं।
यह सब व्यर्थ
की बकवास
छोड़ो।
कींगुरी
होती है, सारंगी
का नाम है।
कुछ हैं जो
इसी धंधे में
लगे हैं कि बस
समझते हैं
सारंगी बजा ली
तो सब बज गया, कि सारंगी
बजा ली तो सब आ
गया। भीतर की
सारंगी कब
बजाओगे?
बाहर की ही
बजाते रहोगे?
ये बाहर के
ढोल पर ही थाप
मारते रहोगे,
भीतर का
नृत्य कब? इसलिये
कहते हैं कि
बाहर के ये सब
जाल छोड दो।
तीन्यू
सतगुर परहरी।
सदगुरुओं
ने कहा है : ये
तीनों छोड़ दो।
आरंभ
घट परचै
निसपति
फिर
क्या करो? आरंभ
करो
अंतर्यात्रा
का। घट! मंदिर
को पहचानो।
मंदिर को सजाओ,
स्वच्छ
करो। शुद्ध
करो। परचै!
परिचय करो
आत्मा का। कौन
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है!
कौन है यह
चैतन्य! कौन
हूं मैं! मैं
कौन हूं इस
प्रश्न को
उठाओ गहरे से
गहरे में। यही
एक प्रश्न सार्थक
प्रश्न है। और
जिस दिन परिचय
हो जायेगा, उस दिन तुम
निष्पत्ति ले
सकोगे। उस दिन
तुम्हारे
जीवन में
निष्कर्ष आ
गया। और जिसके
जीवन में
निष्कर्ष आ
गया उसका
मोक्ष आ गया।
नरवै
बोध कर्थत
श्री गोरषजती
गोरख
कहते हैं : हे
सम्राटो! यही
एक बोध मैं
तुम्हें देना
चाहता हूं।
यही एक याद
देना चाहता हूं।
जागो! यह
जागरण
तुम्हारी
क्षमता है, तुम्हारी
संभावना है।
जैसे बीज में
वृक्ष छिपा है,
ऐसे ही
तुममें
परमात्मा
छिपा है।
जुज़
मर्तबए कुल को
हासिल करे है
आखिर,
एक
कतरा न देखा
जो दरिया न
हुआ होगा।
बूंद
हो तुम, सागर
हो सकते हो।
बूंद में सागर
छिपा है। और जब
तक सागर न हो
जाओ, तब तक
चैन मत लेना, तब तक
विश्राम मत
लेना। पकड़े वह
अभीप्सा तुम्हें
एक प्रज्वलित
अग्नि की
भांति। और सब
भस्मिभूत हो
जाये, और
सब जल जाये, और सब मिट
जाये—तों परम
जीवन का
अविष्कार हो जाता
है।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
आज
इतना ही
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