8
अक्टूबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
1—परमात्मा
को
अनिर्वचनीय क्यों
कहा जाता है?
2—मैं
विचारों से
अत्यधिक
पीड़ित था, तो
एक साधु
महाराज से
ध्यान की विधि
पूछ बैठा।
उन्होंने
राम—राम मंत्र
को सतत स्मरण
करने को कहा। उससे
विचार तो चले
गये हैं, पर
अब राम—राम की
रटंत बनी रहती
है।
अब
मैं
उठते—बैठते
राम—राम रटता
रहता हूं और इसे
रोकना भी
चाहूं तो रोक
नहीं पाता।
इससे एक
विक्षिप्त—सी
दशा हो गयी
है।
आप
कुछ
मार्गदर्शन
दें। मैं इस
मंत्र से छूटना
चाहता हूं।
3—भगवान,
मारो
हे प्रभु मारो, मारो
मरण की है
उत्कंठा।
तिस
मरणी मारो, जिस
मरणी रजनीश
मरि दीठा।
4—आपको
सुनता हूं तो
प्रार्थना का
भाव हृदय में
हिलोरें लेने
लगता है। पर
प्रार्थना
कैसे करूं? प्रार्थना
करना तो मुझे
आता नहीं।
5—मैं
अपनी पत्नी के
अतिरिक्त
अन्य
स्त्रियों में
भी उत्सुक हो
जाता हूं।
लेकिन जब मेरी
पत्नी किसी पुरुष
में उत्सुकता
दिखाती है, तो
मुझे बड़ी
ईर्ष्या होती
है। भयंकर
अग्नि में मैं
जलता हूं।
पहला
प्रश्न:
परमात्मा
को
अनिर्वचनीय
क्यों कहा जाता
है?
जीवन
में सभी कुछ
अनिर्वचनीय
है। परमात्मा
है जीवन की
समग्रता। जब
जीवन का सभी
कुछ अनिर्वचनीय
है,
तो सबका जोड़
तो अति
अनिर्वचनीय
होगा।
तुम
प्रेम का
निर्वचन कर
सकते हो, कोई
पूछे प्रेम
क्या है? और
ऐसा भी नहीं
है कि तुमने
प्रेम न जाना
हो। न बरसी हो
वर्षा, बूंदाबांदी
जरूर हुई
होगी।
किसी—न—किसी
ढंग, किसी—न—किसी
द्वार से
प्रेम की थोड़ी
अनुभूति हुई
होगी। मित्र
का प्रेम जाना
होगा, पति
का, पत्नी
का, बेटे
का, मां का,
पिता का।
कहीं—न—कहीं
से प्रेम की
कोई किरण उतरी
ही होगी, क्योंकि
बिना प्रेम की
किरण के तो
कोई जी ही नहीं
सकता। पहचान
हुई होगी, झरोखा
खुला होगा। पर
अगर कोई पूछे
प्रेम क्या है,
तो एकदम
अवाक रह जाओगे
न, क्या
कहोगे?
कोई
पूछे, सौंदर्य
क्या है? और
ऐसा नहीं कि
सुंदर तुमने
नहीं देखा।
कभी देखी है
पूरे चांद से
भरी रात, कभी
देखा है आकाश
तारों से
जगमगाता। फूल
खिलते देखे
हैं, कोयल
की कूक सुनी
है। वीणा को
बजते जाना है।
बहुत—बहुत
रूपों में
सौंदर्य
प्रगट हो रहा
है। जो अति
संवेदनशून्य
हैं, वे भी
कुछ न कुछ
सौंदर्य
देखते हैं।
कभी किसी मनुष्य
के चेहरे में,
कभी किसी की
चाल में, उठने—बैठने
में, कभी
किसी' के
कंठ में।
सुंदर की कोई
न कोई प्रतीति
तो हुई ही
होगी। इतना
अभागा तो कोई
मनुष्य नहीं
है कि उसे
सुंदर का
अनुभव न हुआ
हो। पर कोई
पूछे सौंदर्य
क्या है? कैसे
करोगे
व्याख्या? क्या
व्याख्या
दोगे? गुंगे
हो जाओगे।
जब
सुंदर की
व्याख्या
नहीं हो पाती, प्रेम
की व्याख्या
नहीं हो पाती,
तो
परमात्मा की
व्याख्या
कैसे होगी? क्योंकि
परमात्मा परम
सुंदर है; और
परमात्मा परम
प्रेम है।
खैर, सौंदर्य
और प्रेम बड़ी बातें
हैं, तुम
शायद सोचो; छोटी बातों
की तरफ आओ।
तुमने स्वाद लिया
है किसी चीज
का? और कोई
अगर पूछे कि
क्या है स्वाद?
मिठास
तुमने जानी है,
मगर अगर कोई
पूछे कि करो
व्याख्या
मिठास की, तो
तुम पराजित हो
जाओगे। मिठास
जैसी छोटी—सी
चीज की भी
व्याख्या
नहीं हो सकती।
वहां भी आदमी
एकदम चुप हो
जाता है, मौन
हो जाता है।
और, अगर
ऐसा आदमी पूछे
जिसने कभी
मिठास न जानी
हो, तब तो
मुश्किल और भी
घनी हो
जायेगी।
मिठास की भी
व्याख्या
नहीं हो सकती।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
जी. ई. मूर ने
शुभ क्या है, इसकी
व्याख्या पर
एक बड़ी अदभुत
किताब लिखी
है। कोई ढाई
सौ पृष्ठों पर
निरंतर मेहनत
करने के बाद
कि शुभ क्या
है, मूर इस
नतीजे पर
पहुंचा कि शुभ
की व्याख्या
नहीं हो सकती।
और उदाहरण जो
लिया मूर ने
वह लिया—जैसे
पीले रंग की
क्या
व्याख्या
करोगे? पीला
रंग जैसी छोटी
चीज सब तरफ
छितरी है।
गेंदे के फूल
खिले हैं।
कनेर के पीले
फूल खिले हैं।
सूरज से बरस
रहा है सोना
पीला। पीले का
तो सबको अनुभव
है। अगर कोई
पूछे पीला
क्या न: तो तुम
इतना ही कह
सकोगे न, पीला
पीला।
मिठास
क्या? मिठास
यानी मिठास।
और प्रेम क्या?
प्रेम यानी
प्रेम।
अनिर्वचनीय
हैं ये सब छोटी
घटनाएं भी, तो वह विराट
तो
अनिर्वचनीय
होगा ही। उसकी
कोई भी तस्वीर
बनाओगे, झूठी
हो जाएगी, छोटी
हो जाएगी।
उसके संबंध
में कोई
सिद्धात निर्मित
करोगे, ओछा
पड़ जायेगा।
इसलिए
कहा है
परमात्मा
अनिर्वचनीय
है। जिन्होंने
जाना है
उन्होंने कहा
है
अनिर्वचनीय है; जिन्होंने
नहीं जाना, वे परमात्मा
का निर्वचन
करते हैं। जो
नहीं जानते, केवल वे ही
परमात्मा का
निर्वचन करते
हैं, वे ही
व्याख्या
करते हैं। वे
ही परमात्मा
की मूर्तियां
बनाते हैं। वे
ही परमात्मा
के लिए सिद्धात
निर्मित करते
हैं, शास्त्र
बनाते हैं।
जिन्होंने
जाना है, वे
तो परमात्मा को
अनिर्वचनीय
ही कहते हैं; वे तो मौन ही
रह गये हैं।
परमात्मा के
संबंध में
नहीं बोले; हा, बोले
हैं, परमात्मा
को कैसे पाया
जाये, इस
संबंध में।
जल
पीयोगे तो
जानोगे कि
मीठा है, खारा
है, शीतल
है, नहीं
शीतल है; पीयोगे
तो जानोगे। जो
जानते हैं, वे सरोवर की
तरफ इशारा
करते हैं; वे
जल के स्वाद
की तरफ एक
शब्द नहीं
बोलते। वे कहते
हैं, वह
रहा सरोवर।
वहां मैंने
पीया। तुम भी
आ जाओ, तुम्हें
भी ले चलूं।
आओ मेरा हाथ
पकड़ लो।
जानने
वाले विधि की
बात करते हैं
कि परमात्मा कैसे
जाना जा सकता
है। न
जाननेवाले
परमात्मा को
सिद्ध करने की
कोशिश करते
हैं,
प्रमाण
देते हैं कि
ऐसा प्रमाण
है। इस तरह का परमात्मा
है। उसके हजार
हाथ हैं, कि
चार हाथ हैं, कि तीन सिर
हैं। सब
मूढ़तापूर्ण
बातें हैं। हजार
हाथों में भी
उसके हाथ पूरे
नहीं होते।
तीन सिर भी
काफी नहीं
हैं। क्योंकि
सब सिर उसके हैं,
और सब हाथ
उसके हैं। और
वे ही हाथ
नहीं जो आज
हैं; जो
हाथ अब तक हुए
हैं वे भी
उसके हैं; जो
आज हैं वे भी
उसके हैं। जो
आगे अनंत काल
में होंगे वे
भी उसके हैं।
हजार हाथों
में कैसे बात
चुकेगी? और
आदमी के ही
हाथ उसके नहीं
हैं, पशु—पक्षियों
के हाथ भी
उसके हैं।
वृक्षों की शाखाएं,
वृक्षों के
हाथ भी उसके
हैं। सब उसका
है। इस विराट
को कैसे समाये
शब्द में, अड़चन
होगी।
जो बात
तुझमें है, तेरी
तस्वीर में
नहीं!
तुमने
किसी से प्रेम
किया?
और तुम्हें
कभी किसी ने
तुम्हारे प्रेयसी
की तस्वीर दी
है और तुमने
भेद देखा?
जो बात
तुझमें है, तेरी
तस्वीर में
नहीं!
रंगों
में तेरा अक्स
ढला,
तू न ढल सकी
सांसों
की आंच, जिस्म
की खुशबू न ढल
सकी
तुझ
में जो लोच है, मेरी
तहरीर में
नहीं
तेरी
तस्वीर में
नहीं!
बेजान
हुस्न में
कहां रफ्तार
की अदा
इनकार
की अदा है न
इकरार की अदा
कोई
लचक भी जुल्फे—गिरहगीर
में नहीं
तेरी
तस्वीर में
नहीं!
दुनिया
में कोई चीज
नहीं है तेरी
तरह
फिर एक
बार सामने आ
जा किसी तरह
क्या
और इक झलक
मेरी तकदीर
में नहीं?
तेरी
तस्वीर में
नहीं!
जो बात
तुझमें है, तेरी
तस्वीर में
नहीं!
साधारण
प्रेम की घटना
में भी ऐसा
तुम्हें
अनुभव होगा, तुम्हारी
प्रेयसी की
तस्वीर उतारी
नहीं जा सकती।
कितने ही कोई
रंग भरे, उसका
रंग नहीं
आयेगा। कितना
ही कोई चमकाये,
उसकी चमक
नहीं आयेगी।
कुछ छूट
जायेगा। जो
जीवंत है, पीछे
छूट जायेगा।
जो असली है, पीछे छूट
जायेगा। जो
ऊपर—ऊपर है, वह तस्वीर में
उतर आयेगा।
आत्मा पीछे
छूट जायेगी, देह पकड़ में
आ जायेगी।
और
परमात्मा
शुद्ध आत्मा
है,
इसलिए
अनिर्वचनीय
है। परमात्मा
इस जगत का शुद्धतम
सार है। फूल
की तो तस्वीर
बन सकती है, लेकिन सुगंध
की तस्वीर
कैसे बनाओगे?
फूल में देह
है और आत्मा
है। सुगंध में
सिर्फ आत्मा
बची, देह
गयी।
परमात्मा
सुगंध है इस
अस्तित्व की।
ही,
वीणा की
तस्वीर बन
सकती है; लेकिन
वीणा के तार
छिड़े, संगीत
उठा, संगीत
की तस्वीर
कैसे बनाओगे?
किसी ने
बनाई है कभी
संगीत की
तस्वीर? अनुभव
हो सकता है।
प्रतीति हो
सकती है।
स्वाद लिया जा
सकता है।
इसलिए
परमात्मा की
व्याख्या में
पड़ना ही मत।
परमात्मा को
ओढो।
परमात्मा को
पहनों।
परमात्मा को
पीयो। परमात्मा
को खाओ, पचाओ।
परमात्मा को
तुम्हारी
मांस—मज्जा
बनने दो। मत
पूछो उसकी
व्याख्या। मत
शब्दों के जाल
में पड़ो।
आओ, चांदनी
को बिछाये, ओढ़े, पहनें
आओ!
चांदनी
की बातें न कैरो।
बातों में
कहीं खो न
जाये बात।
बात—बात में
कहीं अटक न
जाओ। आओ, चांदनी
को बिछाये, ओढ़े, पहनें
आओ!
चांदनी
में नहाये, डूबे
उतरायें
आओ, चांदनी
को बिछाये!
ठंडी—ठंडी—सी
चांदनी है
मरहम
घावों की
चांदनी है
अनियंत्रित
रिसना
घावों
का
थम
जाये बहता हुआ
नयन—जल
ठिठके, जम
जाये
आओ, अनबोये
सपनों का धान
उगायें
आओ, चांदनी
को बिछाये!
मद्धिम—मद्धिम
किरणों की
वंशी
नंदन—वन
में चंदन—सी
वंशी
मधुरिम
कंठ
तुम्हारे—सा
यह
स्वर—साधन
प्रेम—पगे
प्राणों
की
धड़कन—सा
वादन
आओ, मंद्र
लहरियों पर झूमें,
खो जायें
आओ, चांदनी
को बिछाये!
छोड़ो
परमात्मा की
व्याख्या, परमात्मा
के प्रमाण, परमात्मा के
संबंध में
शब्दों का
ऊहापोह। परमात्मा
का विचार नहीं
हो सकता। आओ, निर्विचार
हो जायें।
परमात्मा को
जीये, अनुभव
करें।
मैं
यहां
परमात्मा की.
व्याख्या
करने को नहीं
हूं।
तुम्हारे मन
में अभीप्सा
जगी हो तो तुम्हारा
हाथ लेकर उस
तीर्थ तक
तुम्हें
पहुंचा दे
सकता हूं।
मेरे पास
विद्यार्थी
की तरह मत आओ।
विद्यार्थी
की उत्सुकता
होती है कि
थोड़ा—सा ज्ञान
और बढ़ जाये।
मेरे पास साधक
की तरह आओ। साधक
की अभीप्सा और
है;
विद्यार्थी
से बड़ी भिन्न
है। साधक कहता
है, अनुभव
कैसे हो जाये?
विद्यार्थी
कहता है थोड़ा
ज्ञान कैसे बढ़
जाये।
विद्यार्थी
अपनी स्मृति
को संजोना
चाहता है।
साधक अपने
जीवन को
ज्योतिर्मय
करना चाहता है।
आओ, चांदनी
को बिछाये, ओढ़े, पहनें
आओ!
प्रेम—पगे
प्राणों
की
धड़कन—सा
वादन
मद्धिम—मद्धिम
किरणों की
वंशी
नंदन—वन
में चंदन—सी
वंशी
मधुरिम
कंठ
तुम्हारे—सा
यह
स्वर—साधन
आओ, मंद्र
लहरियों पर
झूमें, खो
जायें
आओ, चांदनी
को बिछाये!
अनुभव
होगा, बस उसी
अनुभव में
निर्वचन है।
साक्षात्कार
हो तो उसी
साक्षात्कार
में सारे शास्त्रों
का प्रमाण मिल
जायेगा। तुम
साक्षी बन
जाओगे, वेदों
के, उपनिषदों
के, कुरानों
के। तुम
साक्षी बनो।
तुम प्रमाण
बनो।
परमात्मा का
प्रमाण मत
पूछो। तुम ही
प्रमाण बन
सकते हो।
तुम्हारी
मौजूदगी
पर्याप्त होगी।
कुछ बातें हैं
जो कहीं नहीं
जातीं; कुछ
बातें हैं जो
प्रगट होती
हैं।
रामकृष्ण
से किसी ने
पूछा, ईश्वर
का प्रमाण? तो रामकृष्ण
ने कहा : मैं, मैं हूं
ईश्वर का
प्रमाण! यह
भाषा
दार्शनिक की
नहीं है, विचारक
की नहीं है; यह भाषा
अनुभोक्ता की
है। मैं हूं
प्रमाण!
जब
विवेकानंद ने
रामकृष्ण को
पूछा कि मुझे
आप ईश्वर
सिद्ध कर सकते
हैं,
ईश्वर है? रामकृष्ण ने
कहा, व्यर्थ
की बकवास बंद
करो। तुझे
ईश्वर को जानना
है, यह
पूछ। ईश्वर है
या नहीं, यह
बात ही मत कर।
तुझे जानना है?
जना सकता
हूं। अभी
जानना है?
विवेकानंद
ने ऐसा नहीं
सोचा था, और
बहुत
मनीषियों के
पास वह गये थे,
जिज्ञासु
थे। जहां खबर
मिली कि कोई
ज्ञानी है, वहीं गये।
सब जगह खाली
हाथ लौटे थे।
चूंकि शब्द तो
बहुत थे, लेकिन
शब्दों से
किसकी कब
तृप्ति हुई!
तुम भूखे हो
और कोई भोजन
की बातें करे,
कैसे
तृप्ति होगी?
विवेकानंद
भूखे थे। उनकी
उत्सुकता
विद्यार्थी
की उत्सुकता
नहीं थी, साधक
की उत्सुकता
थी। लौट आये
जगह—जगह से।
उसी तरह गये
थे रामकृष्ण
के पास भी। और
मन में यह
धारणा थी कि
बेपढा—लिखा
गंवार आदमी है;
जब बड़े—बड़े
पढ़े—लिखों के
पास कुछ नहीं
मिला...।
महर्षि
देवेंद्रनाथ
के पास गये
थे। वे रवींद्रनाथ
के दादा थे।
उनकी बड़ी
ख्याति थी, महर्षि
की तरह ख्याति
थी। वे नदी
में एक बजरे
पर रहते थे। विवेकानंद
आधी रात में
कूद कर बजरे
पर चढ़ गये, नदी
तैर कर; बीच
में बजरा ठहरा
था। अंधेरी
रात, अमावस
की रात! सारा
बजरा कैप
गया...।
देवेंद्रनाथ
ध्यान करते थे
रात्रि के
एकांत में।
आंख खुल गयी, यह युवक खड़ा
है सामने भीगा—
भागा! छोटा—सा
टिमटिमाता
दीया है बजरे
पर। पूछा, क्या
चम्हते हो? विवकानद ने
कहा, ईश्वर
है? देवेंद्रनाथ
भी चौंके, यह
भी कोई वक्त
है पूछने का, यह कोई
जिज्ञासा
करने का समय
है! आधी रात
किसी के बजरे
पर चढ़ आना
भीगे— भागे, अंधेरे में
खड़े हो जाना..
पूछना ईश्वर
है! एक क्षण
झिझके, युवक
पागल मालूम
होता है। उनकी
झिझक देखी कि
विवेकानंद
वापिस कूद गये
नदी में। पूछा
देवेंद्रनाथ
ने कि युवक, वापिस लौट
चले, क्यों?
विवेकानंद
ने कहा. आपकी
झिझक ने सब कह
दिया कि अभी
आपको भी पता
नहीं। झिझके
क्यों आप? जिसे
पता है उसे
पता है। उससे आधी
रात पूछ लो, सोते में से
जगाकर, तो
भी उसे पता
है। जिसे पता
है उसे पता
है। आपकी झिझक
ने सब कह
दिया। मुझे
कुछ पूछना
नहीं है।
तो
स्वभावत: जब
महर्षि
देवेंद्रनाथ
जैसे ज्ञानी, पंडित,
जगत—विख्यात
भी उत्तर न दे
पाये हों तो
यह गांव का
गंवार
रामकृष्ण, यह
क्या उत्तर दे
पायेगा! इस
भाव से भरे
गये थे। लेकिन
बात उलटी हो
गयी। गये थे
रामकृष्ण को
चौंकाने, खुद
चौंक गये।
क्योंकि
रामकृष्ण ने
कहा : जानना है
तुझे और अभी
जानना है? अभी
बता दूं इसी
वक्त? इतना
सोचकर नहीं
गये थे कि अभी
जानना है।
इतनी तैयारी
करके भी न गये
थे। यह तो कभी
सोचा ही न था
कि कोई इस तरह
पूछेगा। और
इसके पहले कि
विवेकानंद
कुछ कहें, रामकृष्ण
उछले और अपने
पैर को
विवेकानंद की
छाती से लगा
दिया। ये कोई
ज्ञानियों के
ढंग नहीं हैं,
ये मस्तों
के ढंग हैं।
मगर मस्तों को
ही पता है।
पता है, इसीलिए
तो मस्ती है।
विवेकानंद
बेहोश होकर
गिर गये। जब
तीन घंटे बाद
होश में आये, रामकृष्ण
ने कहा : बोल, कुछ और
प्रश्न बाकी
बचे? जैसे
किसी और लोक
से लौटे हों!
एक स्वाद लग
गया। फिर
दीवाने हो गये
इस
बे—पढ़े—लिखे
पुरोहित के।
फिर इसी के
पीछे चक्कर
काटने लगे।
नहीं था इसके
पास शास्त्र,
नहीं था ज्ञान,
नहीं थे
सिद्धात, नहीं
थीं बड़ी
उपाधियां, नहीं
था इसका नाम
कोई
विश्वविख्यात।
अट्ठारह
रुपये महीने
की छोटी—सी
नौकरी थी
दक्षिणेश्वर
के मंदिर में
पूजा—पाठ कर
देने की। गरीब
आदमी था। गांव
का
बे—पढ़ा—लिखा
था, दूसरी
कक्षा तक पढ़ा
था। संस्कृत
नहीं आती थी। मगर
विवेकानंद को
कोई मोहित न
कर सका, रामकृष्ण
मोहित कर लिए।
जहा
अनुभव है
परमात्मा का, वहां
एक जीवित जादू
है।
मैं
तुम्हें
परमात्मा की
व्याख्या
नहीं दे सकता; किसी
ने कभी नहीं
दी है। लेकिन
तैयारी हो तो
अनुभव दे सकता
हूं। अनुभव
सुगम है, शास्त्र
बड़े दुर्गम
हैं। अनुभव
इसलिए सुगम है
कि तुम भूल
गये हो भला, लेकिन हो तो
तुम परमात्मा
में ही। जैसे
मछली को पता
नहीं है कि
सागर में है।
सागर में पैदा
हुई है, सागर
में ही रही है;
पता भी कैसे
चले कि सागर
में है? ऐसे
ही तुम
परमात्मा में
जी रहे हो, उसी
में श्वास ले
रहे हो, उसी
में चलते हो, उसी में
बैठते हो। मगर
सदा से यह हो
रहा है, इसलिए
तुम्हें याद
ही नहीं पड़
रही है कि
परमात्मा कहा
है? तुम
पूछते हो
परमात्मा
कहां है? परमात्मा
ही है! उसी ने
तुम्हें घेरा
है। उसी के
जीवन—सागर में
तुम भी जीवित
हो।
इसलिए
कठिन नहीं है
बात। जरा—सा
होश,
बस जरा सा
होश। जरा सी
टिमटिमाती
होश की ज्योति
तुम में जग
जाये कि तुम
जानोगे
परमात्मा ही
है, और कुछ
भी नहीं है।
व्याख्याओं
में पड़ना ही
मत। जब अनुभव
मिल सकता हो
तो कोई पागल
होगा जो व्याख्याओं
की चिंता
करेगा।
परमात्मा
अनिर्वचनीय
है,
पर
अनुभवगम्य
है।
दूसरा
प्रश्न.
मैं
विचारों से
अत्यधिक
पीड़ित था. तो
एक साधु महाराज
से ध्यान की
विधि पूछ बैठा
उन्होंने राम—
राम मंत्र को
सतत स्मरण
करने को कहा।
उससे विचार तो
चले गये हैं
पर अब राम— राम
की रटंत बनी
रहती है। अब
मैं उठते—
बैठते राम—
राम रटता रहता
हूं और इसे
रोकना भी
चाहूं तो नहीं
रोक सकता हूं।
इसकी सतत धारा
भीतर चलती
रहती है। इससे
एक विक्षिप्त—
सी दशा हो गयी है
आप कुछ
मार्गदर्शन
दे, मैं इस
मंत्र से
छूटना चाहता
हूं।
ऐसा
अक्सर हो जाता
है। बीमारी से
आदमी छूट जाता
है तो औषधि से
बंध जाता है।
इसी को
एडिक्यान कहते
हैं। इसलिए चिकित्सक
बहुत चिंता
रखता है कि
जैसे ही बीमारी
जाये, जल्दी
से औषधि भी
बंद करनी
चाहिए, नहीं
तो फिर औषधि
की गुलामी
शुरू हो जाती
है।
मंत्र
सतत रटने की
बात नहीं है।
घडी—दो—घडी उसका
उपयोग करते तो
हानि न होती।
मात्रा में
औषधि लेनी
चाहिए। जिसने
तुम्हें दे
दिया होगा
मंत्र, उसे
मंत्र—शास्त्र
का कुछ पता
नहीं होगा।
मगर यह
तुम्हारे साथ
ही घटा है, ऐसा
नहीं है; यहां
बहुत लोग ऐसे
आते हैं।
एक
सरदार जी को
मेरे पास लाया
गया था। सेना
में हैं; अच्छे
ओहदे पर हैं।
और हालतें
खराब हो गयी
हैं उनकी, क्योंकि
किसी ने बता
दिया है बस
जपते ही रहो, जपते ही
रहो। तो जपुजी
दोहराते रहते
हैं भीतर।
धीरे— धीरे
लोगों को भी
शक होने लगा
कि बात क्या
है, क्योंकि
वे उखड़े—उखड़े
मालूम होने
लगे। जब तुम भीतर
कोई चीज रटते
रहोगे तो बाहर
से उखड़ जाओगे।
रास्ते पर
चलते हैं अब, कोई कार का
हार्न बजा रहा
है कि रास्ते
से हटो, सरदार
जी को पता ही
नहीं चलता, क्योंकि वे
तो अपना जप
में लगे हुए
हैं, उनका
ध्यान वहां
है। पत्नी कुछ
कहती है, सुन
ही नहीं पाते।
पत्नी कुछ
कहती है, बाजार
से कुछ और
खरीद लाते
हैं। फिर तो
दफ्तर में भी,
सेना में भी
भूल—चूके होने
लगीं।
क्योंकि जब तुम्हारा
भीतर चित्त
पूरी तरह उलझ
जायेगा तो
बाहर से तुम
मूर्च्छित
होने लगोगे।
तुम्हारा
जीवन अस्तव्यस्त
हो जायेगा।
मंत्र
तो ऐसा है
जैसे स्नान।
अब कोई दिन— भर
थोड़े ही स्नान
करते रहना है।
मंत्र भी
स्नान है।
घड़ी— भर कर
लिया, ताजे हो
गये, फिर
ताजगी बहती
रहेगी। फिर
ताजगी का भी
ज्यादा लोभ
नहीं करना
चाहिए कि और
कर लूं और कर
लूं। मन बड़ा
लोभी है। मन
कहता है कि अभी
इतना मजा आ
रहा है, और
एक बार कर लूं
और एक बार कर
लूं। और ऐसा
कुछ मंत्र के
साथ ही होता
है, ऐसा
नहीं; किसी
भी चीज के साथ
हो सकता है।
अब
एक मित्र आये।
सारा शरीर
दुखता है, कहते
हैं. सिर में
दर्द है, कमर
में दर्द है।
और कहने लगे, यह सब आपके
ध्यान से ही
हुआ है। मैंने
कहा, मामला
क्या है?
उन्होंने कहा,
पांच दफे
ध्यान करता
हूं दिन में।
अब पांच बार
सक्रिय ध्यान
करोगे तो, मैंने
कहा, तुम
बच गये जिंदा,
यह भी
चमत्कार है!
तुमसे कहा
किसने पांच
बार सक्रिय
ध्यान करने को?
और
कहा कि सब काम—
धाम भी बरबाद
हो गया है।
पांच बार
सक्रिय ध्यान
करोगे तो
दुकान कौन
करेगा? तो
बच्चों को कौन
पालेगा, तो
घर की देख— भाल
कौन करेगा?
नहीं; उन्होंने
कहा कि बहुत
आनंद आता था
एक बार करता
था, तो फिर
मैंने सोचा दो
बार। दो बार
किया तो और
आनंद आया। तो
सोचा तीन बार।
फिर तो अब धुन
लगी रहती है
कि खूब मजा आ रहा
है। मजा तो आ
रहा है, लेकिन
यह शरीर की
हालत खराब हुई
जा रही है।
यह
शरीर मंदिर
है। इसका
सम्मान सीखो।
यह परमात्मा
की देन है।
इसे ऐसा बरबाद
मत करो। यह
परमात्मा का अपमान
है। और लोभ मन
की बीमारी है।
और लोभ कहीं
भी पकड़ सकता
है। दस हजार
हैं तो दस लाख
हो जायें, यह
भी लोभ है, और
एक बार ध्यान
किया, खूब
आनंद आया, तो
दस बार ध्यान
करें, यह
भी लोभ है।
कुछ भेद नहीं
है, वही
लोभी चित्त..।
लोभ से सावधान
रहना!
और
अक्सर ऐसा हो
जाता है। एक
आदमी को मेरे
पास लाया गया।
वह जहा रहता
है वहा जाने
के लिए बीच
में से एक
मरघट पार करना
पड़ता है।
भूत—प्रेतों
का डर.. उसको
बड़ी अड़चन होती
है। और रोज
वहां से जाना
ही है, घर ही
उसका मरघट के
उस पार है।
किसी ने उसको
ताबीज दे दिया
कि तू यह
ताबीज बांध ले,
फिक्र छोड़।
इस ताबीज के
रहते कोई
भूत—प्रेत असर
नहीं कर सकता।
और इसका काम
भी हो गया, ताबीज
बांधकर अब वह
अकड़ से मरघट
से गुजर जाता,
आधी रात में
भी। मगर ताबीज
न खो जाये, इसका
डर लगा रहता
है। रात भी
ताबीज हाथ में
रखकर सोता है,
कि कहीं रात
ताबीज छोड़ा और
वे लोग नाराज
तो होंगे ही, जिनको मरघट
में ताबीज की
वजह से डरवा
कर चले आये हो
वे नाराज तो
होंगे ही।
कहीं आकर छाती
पर न चढ़ बैठें!
अब यह इतना
घबड़ा गया है
कि कहीं ताबीज
चोरी न चली
जाये, कहीं
भूल न जाऊं, कहीं खो न
जाये, कोई
उठा न ले! इतना
घबड़ा गया है
कि भूत—प्रेत
दूर, जितना
भूत—प्रेत से
भय था, उतना
ही भय ताबीज
से हो गया।
मैंने
कल एक कहानी
पढ़ी। चंदूलाल
के परिवार में
एक विकट
समस्या खड़ी हो
गयी है। उनका
तीन वर्षीय
पोता मुन्ना
राम—राम को
लाम—लाम बोलता
था। चंदूलाल
के पड़ोसी और
मित्र ढब्बूजी
ने इस
भाषा—मनोविज्ञान
की चुनौती को
स्वीकार
किया। उसने
मुन्ना को 'र'
प्रशिक्षण
देने के लिए
भाषा
—शास्त्रीय
तरीका
निकाला।
मुन्ना को
पहले ढिर्र
बोलना सिखाया,
ताकि र का
उच्चारण हो
सके। अब राम
को तो लाम कर सकते
हो, ढिर्र
को थोड़ी ढिम्म
कर दोगे। र का
अभ्यास करवाया—ढिर्रऽ...
ढिर्रऽ।
मुन्ना
ढिर्र... ढिर्र
सीख गया। और
एक दिन अचानक
ढिर्र, ढिर्र
बोलते—बोलते
मुन्ना एक साथ
बोलने लगा ढिर्र...
राम—राम। तो र
बोलना आ गया
तो वह भी
चिंतित तो था
ही कि ल बोलता
हूं र नहीं
बोल पाता हूं।
जब ढिर्र
बोलने लगा तो
एक दिन अचानक
बोला आनंद से
भर कर, ढिर्र
राम —राम।
डब्यू जी भी बहुत
प्रसन्न हो
गये सफलता पर।
लेकिन अब
समस्या यह है
कि मुन्ना से
तुम कहो राम
—राम, वह
कहता है ढिर्र
राम—राम। अब
सवाल यह है कि
ढिर्र से कैसे
छुड़ाया जाये ई
सिखा तो
बैठे...। अब उससे
कितना ही कहो,
वह जब भी
कहेगा राम—राम,
तो
पहले—ढिर्र।
तुमने
मंत्र जो सीख
लिया है वह
ऐसे ही हो गया
है—ढिर्र
राम—राम। अब
तुम ढिर्र में
फंस गये!
असल
में विचारों
को जबर्दस्ती
हटाने की कोई
भी चेष्टा कभी
सफल नहीं हो
सकती है।
तुम्हारे भीतर
विचार चलते
हैं ऊलजलूल, तुमने
उन सब विचारों
की शक्ति को
राम—राम, राम—राम,
राम—राम में
लगा दिया है।
यह कुछ
क्रांति नहीं
है, यह
केवल
रूपांतरण है।
वही चीज चल
रही है अभी, पहले कुछ और
सोचते थे कि
लाटरी कैसे
मिल जाये, कि
राष्ट्रपति
कैसे हो जाऊं।
और दूसरे
विचार चलते थे,
वे भी शब्द
हैं, राम
भी शब्द है।
उन सारे
शब्दों में जो
तुम्हारी
शक्ति
नियोजित होती
थी उसको तुमने
राम—राम में
नियोजित कर
दिया; यही
तो तुम्हारा
तथाकथित
मंत्र का
विज्ञान है।
जब तुम
राम—राम, राम—राम
दोहराने लगे
त्वरा से, तीव्रता
से, तो न
समय बचा, न
शक्ति बची, न मन में जगह
बची। राम—राम,
राम—राम की
शृंखला भर गयी,
तब इसमें
लाटरी कैसे
जीतू यह बीच
में आ नहीं
सकता। अगर यह
बीच में आयेगा
तो राम—राम टूटेगा।
यह तुमने
परिपूरक खोज
लिया। यह
क्रांति नहीं
है।
और
इसीलिए तुम
फिर चौबीस
घंटे राम—राम
जपने लगे।
क्योंकि जब भी
राम—राम
छूटेगा वह
लाटरी रास्ता
देख रही। वह
क्यू में पीछे
खड़ी है। वह कह
रही है, कभी
तो राम—राम
बंद करोगे तब
देख लेंगे। वे
भूत बैठे हैं
मरघट में, कि
कभी ताबीज
छूटा तब
तुम्हें मजा
चखा देंगे। इसीलिए
तुम धीरे—
धीरे चौबीस
घंटे रटने लगे,
क्योंकि
तुम्हें डर
लगा कि वे
बातें जो किसी
तरह राम—राम
के जपने से
दूर हो गयी
हैं, कहीं
फिर न प्रवेश
कर जायें! मगर
यह राम—राम
खुद ही बीमारी
हो गयी।
बीमारियां
इतनी आसानी से
हल नहीं होतीं,
थोड़ी
ज्यादा
बुद्धिमत्ता
की जरूरत है।
विचार
को जबर्दस्ती
धक्का देकर
कुछ हल नहीं होगा।
राम—राम भी
विचार है; यह
कोई
निर्विचार
थोड़ी ही है।
इसमें कुछ भेद
थोड़ी ही है।
वही का वही
है। इससे तुम
कुछ समाधि को
थोड़े ही
उपलब्ध हो
जाओगे। तुमने
एक चीज की जगह
दूसरी चीज रख
ली, एक
उलझन की जगह
दूसरी उलझन रख
ली।
मगर
इससे तुम उलझन
से मुक्त नहीं
हो गये। विचार
को जबर्दस्ती
धक्के देने की
आवश्यकता
नहीं है, विचार
के साक्षी
बनो।
तो
मैं तुमसे यह
कहना चाहूंगा
: अब तुम राम—राम
के साक्षी
बनो। इसको
सहयोग देना
बंद कर दो, अन्यथा
तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे। और
बहुत—से लोग
धर्म के कारण
विक्षिप्त
होते हैं।
क्योंकि धर्म
को कोई भी
देता रहता है,
कोई भी
सुझाव देता
रहता है, कोई
भी सलाह देता
रहता है। सलाह
देनेवाले बिना
ढूंढे मिल
जाते हैं, एक
ढूंढो हजार
मिल जाते हैं।
तुम न भी
ढूंढो तो वे
तुम्हें
ढूंढते चले
आते हैं, क्योंकि
उनको सलाह
देने का रस
है। सलाह देने
का मजा भी
बहुत होता है।
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
है कि मैं
सलाह
देनेवाला, तुम
सलाह
लेनेवाले; मैं
ज्ञानी, तुम
अज्ञानी।
इसमें बड़ा रस
आ जाता है।
इसलिए जो बात
तुम्हें पता
भी नहीं होतीं,
उस संबंध मे
भी तुम सलाह
दे देते हो।
तुम खुद भी दे
देते हो। खयाल
रखना, जो
तुम्हारी
हालत है वही
दूसरों की
हालत है। अब
जिस साधु
महाराज ने
तुम्हें यह
समझा दिया है,
उन्हें कुछ
पता नहीं है।
विचार
के साक्षी बनो, अगर
विचार से
मुक्त होना
है। नहीं तो
तुम एक विचार
की जगह दूसरा
रख लोगे, दूसरे
की जगह तीसरा
रख लोगे, तीसरे
की जगह चौथा
रख लोगे, इससे
भेद नहीं
पड़ेगा। पैर
में कांटा
लगा। एक दूसरे
काटे से इस
काटे को निकाल
लिया, लेकिन
दूसरा काटा रख
लिया। क्या
फर्क पड़ने वाला
है? कांटे बदलते
रहोगे।
यही
लोग करते हैं।
किसी को पान
खाने की आदत
है। उसको पान
छुड़वा दो, वह
सिगरेट पीने
लगता है।
सिगरेट छुड़वा
दो, च्युइंगम,
उसमें लग
गया। उसे कुछ
न कुछ चाहिए, मुंह चलता
रहना चाहिए।
अगर सभी छुड़ा
दो तो वह राम—राम,
राम—राम, राम—राम.. वह
भी न्यूइंगम
है, और कुछ
भी नहीं है।
मुंह शात नहीं
रह सकता।
विचार
को समझो।
विचार के
प्रति जागो।
साक्षी बनो।
विचार की धारा
चित्त में
चलती है, उसे
देखो। निर्णय
मत लो अच्छा
क्या, बुरा
क्या; चलने
दो, जैसे
रास्ता चलता
है। रास्ते के
किनारे खड़े तुम
देख रहे हो।
अच्छे लोग भी
निकलते हैं, बुरे लोग भी
निकलते हैं, बेईमान भी
निकलेंगे, ईमानदार
भी निकलेंगे,
साधु, असाधु;
तुम्हें
क्या लेना है?
तुम रास्ते
के किनारे खड़े
सिर्फ देख रहे
हो। तुम सिर्फ
द्रष्टा हो।
साक्षी—मात्र।
और तुम चकित
हो जाओगे, अगर
तुम विचार की
राह के किनारे
खड़े हो जाओ..।
और
विचार सिर्फ
एक राह है।
तुम उससे
भिन्न हो। तुम
विचार नहीं हो, तुम
विचार के
देखनेवाले
हो। बस इतनी
तुम्हें स्मृति
जगानी है कि
मैं द्रष्टा
हूं। चलने दो विचार
को। अब
राम—राम निकले
कि कोकाकोला
निकले, कुछ
भी निकले, चलने
दो विचार। तुम
दूर खड़े देखते
रहो—शात, न
तो पक्ष, न
विपक्ष। न तो
कहना. अहा, कितना
अच्छा विचार
आया! ऐसा कहा
कि फंसे। क्योंकि
उस विचार को
तुम पकड़ लोगे
जो अच्छा लगा।
उससे
तुम्हारा मोह
बन जायेगा।
तुम चाहोगे
बार—बार आना।
मित्रता बना
लोगे। भांवर
पाडू लोगे। या
कोई विचार आया
और कहा कि
बहुत बुरा
विचार है, मैं
देखना भी नहीं
चाहता और आंख
फेर ली। यह भी
तुम्हारा
पीछा करेगा, क्योंकि यह
नाराज हो
जायेगा।
तुमने इसका
अपमान कर
दिया। तुमने
इसका निषेध
किया, नकार
किया; यह
बार—बार
दरवाजे पर
दस्तक देगा।
यह कहेगा कि
मेरी तरफ
देखो।
तुम
जिस चीज को
निषेध करोगे, वह
बार—बार लौट
कर आयेगी। तुम
कोशिश करके
देख लो, कोई
भी विचार को
निषेध करके
देखो, वह
बार—बार
आयेगा। चौबीस
घंटे
सतायेगा। और
अगर तुम किसी चीज
को पकड़ो तो भी
फंसे, त्यागो
तो भी फंसे।
भोग भी पकड़
लेता है, त्याग
भी पकड़ लेता
है। सिर्फ
साक्षी— भाव
में मुक्ति है;
न भोग, न
त्याग। न कहना
बहुत सुंदर, न कहना बहुत
बुरा। कुछ
कहना ही मत, कहने की
जरूरत ही नहीं
है। सिर्फ
देखना। क्या मात्र
देख नहीं सकते,
जैसा दर्पण
देखता है? सुंदर
स्त्री निकली
दर्पण के
सामने से तो
भी वह कहता
नहीं कि जरा
रुक जा, थोड़ी
देर और... कि दो
बात तो कर
लें। कुरूप
स्त्री निकली
तो वह यह नहीं
कहता कि जल्दी
हटो, कि
माई जाओ, कि
आगे बढ़ो, कि
किसी और दर्पण
को सताओ।
दर्पण देखता
है। ऐसे ही
दर्पण की
भांति जब तुम
साक्षी बन
जाओगे, सारे
विचार अपने—आप
शात होने
लगेंगे। एक
ऐसी घड़ी आती
है कि विचार
का रास्ता
निर्जन हो
जाता है, कोई
नहीं आता। उस
सन्नाटे में
पहली दफे
परमात्मा की
भनक सुनाई
पड़ती है, उसकी
टेर सुनाई
पड़ती है। उसी
शून्य में
पहली दफे
समाधि का स्वर
उतरता है। उसी
शून्य में पहली
दफे पूर्ण की
किरण आती है।
तुम
कुछ यह मत
सोचो कि तुम
कुछ धार्मिक
हो गये राम—राम
जपने से। तुम
यह मत सोचो कि
तुमने कोई
बहुत बड़ी
उपलब्धि कर
ली। अगर तुमने
उपलब्धि कर ली, ऐसा
सोचा तो
तुम्हारा
छुटकारा न हो
सकेगा। उपलब्धियों
से कोई छूटना
क्यों चाहेगा?
यह मत समझो
कि तुम्हारे
भीतर कोई
क्रांति हो गयी।
कुछ भी नहीं
हुआ; तुमने
एक बीमारी की
जगह दूसरी
बीमारी उधार
ले ली। वह
उतनी ही
बीमारी है
जितनी पहली थी,
कुछ फर्क
नहीं है। अब
तुम इसको
सहयोग देना
बंद कर दो।
हालांकि कुछ
दिन अड़चन
आयेगी, क्योंकि
तुमने अगर
बहुत दिन
अभ्यास कर
लिया है और अब
यह धारा अपने—
आप चलने लगी
है, तो तुम
सहयोग न दोगे
तो भी कुछ दिन
चलेगी। जैसे
कोई साइकिल
चलाये, फिर
थोड़ी देर पैडल
मारना बंद भी
कर दे तो
पुराना पैडल
का जो मोमैंटम
है, थोड़ी
दूर तक साइकिल
चली जायेगी
बिना चलाये भी।
ऐसे ही कुछ
दिन तक तो यह
राम—राम
चलेगा। मगर अब
तुम सहयोग बंद
कर लो। जितना
तुमने किया
सहयोग उतना ही
काफी है। अब
सहयोग मत दो।
अब अपनी तरफ
से साथ मत दो।
अपनी ऊर्जा
वापिस ले लो।
अब तुम साक्षी
हो जाओ।
ज्यादा
से ज्यादा तीन
महीने यह धारा
चल सकती है
थोड़े—बहुत रूप
में,
मगर रोज
क्षीण होती
जायेगी। अभी
बाढ़ की तरह है—वर्षा
की बाढ़ की तरह;
जल्दी ही
ग्रीष्म—काल
की सूखी—साखी
नदी रह जायेगी।
थोड़ी—बहुत धार,
कहीं—कहीं
डबरों में जल
है। तीन महीने
तक धीरे— धीरे—
धीरे कम
होते—होते—होते
विलीन हो
जायेगी। और
फिर तुम यह
खयाल रखना कि
जो कुछ भी
इसके बाद चले,
विचार जो
पड़े रह गये
हैं, दबे
रह गये हैं, जिनको तुमने
हटा दिया है, राम—राम
करके दबा दिया
है, वे सब
उठेंगे। उनको
भी उठने देना।
भय मत करना।
साधक को
निर्भय होना
चाहिए।
और
विचार का भी
क्या भय है? विचार
में रखा क्या
है? हवा
में बनी तरंग
है। पानी का
बबूला भी नहीं,
हवा का
बबूला है! कुछ
तत्व थोड़े ही
है विचार में।
आकाश का फूल
है; न जड़ है,
न कोई रूप
है, न कोई
रंग है। विचार
तो केवल एक विकार
है। तुम
चुपचाप देखते
रहो, जल्दी
ही
देखते—देखते
तुम पार हो
जाओगे।
साक्षी
अतिक्रमण की
प्रक्रिया
है। और जो अतिक्रमण
कर जाता है
विचार का—बिना
दबाये, बिना
लड़े—झगड़े, सहजता
से, सुगमता
से—वही पहुंच
पाता है।
याद
करो गोरख का
वचन : हसिबा
खेलिबा करिबा
ध्यानं...। यह
कोई गंभीरता
की बात नहीं
है,
हंसते—खेलते
हो जाती है
बात।
हंसते—खेलते
ही होनी
चाहिए। अगर
तुम्हारा
धर्म तुम्हें
गंभीर कर दे
तो समझना कि
कहीं न कहीं
गलती हो गयी।
अगर तुम्हारा
धर्म तुमसे
तुम्हारी
हंसी छीन ले
तो समझना कहीं
भूल हो गयी।
तुम्हारा
धर्म अगर तुम्हारा
जीवन उदास कर
दे, भारी
कर दे, वजनदार
कर दे, अकड़
पैदा कर दे, तो समझना कि
चूक हो गयी।
हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं।
हंसते—खेलते
ध्यान होना
चाहिए। और
ध्यान का अर्थ
है साक्षी।...
तो जरूर जीवन
में महोत्सव
आता है।
तीसरा
प्रश्न.
भगवान!
मारो
हे प्रभु मारो
मारो मरण की
है उत्कंठा
तिस
मरणी मारो जिस
मरणी रजनीश
मरि दीठा।
इतना
पत्थर हूं कि
पूरा पिघल भी
नहीं पाता व्याकुल
हूं। क्या
करूं?
सुधीर
भारती! बात तो
तुमने प्यारी
लिखी, मगर बड़ी
चूक— भरी।
तुमने गोरख के
वचन को नया रूप
दे दिया, मगर
गोरख के वचन
को नया रूप
दिया नहीं जा
सकता। वह जैसा
है वैसा ही
पूर्ण है, उसमें
परिवर्तन
नहीं हो सकता।
गोरख
का वचन फिर से
समझो।
मरौ हे
जोगी मरौ मरौ
मरण है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
तुमने
फर्क बहुत बड़ा
कर लिया है।
तुम कहते हो : मारो
हे प्रभु
मारो!
कोई
दूसरा
तुम्हें मार
नहीं सकता, असंभव
है। तुम्हारे
शरीर को तो
कोई मार सकता
है, लेकिन
तुम्हारे
अहंकार को कोई
नहीं मार सकता।
उस संबंध में
केवल तुम्हीं
समर्थ हो।
परमात्मा भी
तुम्हारे
अहंकार को
नहीं मार सकता,
नहीं तो मार
ही दिया होता
उसने। तुम
कहते हो परमात्मा
सर्वशक्तिमान
है। उसकी भी
कुछ सीमा है
शक्ति की, जैसे
तुम्हारे
अहंकार को
नहीं मार
सकता। अहंकार
अगर होता तो
परमात्मा मार
भी सकता था।
अहंकार है
नहीं, सिर्फ
भ्रांति है।
भ्रांति
तुम्हारी है।
तुम्हारी
भ्रांति
तुम्हीं को
छोड़नी पड़ेगी,
तुम्हारी
भ्रांति मैं
कैसे छोडूं? तुम मानते हो
कि दो और दो
पांच होते हैं;
मैं लाख
मानता रहूं कि
दो और दो चार
होते हैं, इससे
क्या होगा—जब
तक तुम न
मानोगे दो और
दो चार होते
हैं? तुमने
अगर जिद ही कर
रखी है दो और
दो को पांच करने
की, तो तुम
दो और दो को
पांच ही करते
रहोगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी को यह
विक्षिप्तता
पैदा हो गयी
कि वह मर गया
है। जिंदा था
भलीभांति, मगर
यह पागलपन हो
गया पैदा कि
मैं मर गया
हूं। वह लोगों
को कहता फिरता
कि मैं मर गया
हूं भाई, तुम्हें
पता चला कि
नहीं? लोग
कहते कि भाई, यह भी हद हो
गयी! अब तक
किसी मुर्दे
ने इस तरह खबर
नहीं दी, तुम
भी गजब कर रहे
हो! तुम
भले—चंगे हो, सब ठीक—ठाक
है।
पहले
तो लोग मजाक
समझे, लेकिन
धीरे— धीरे
बात गंभीर
होने लगी।
ग्राहक उसकी
दुकान पर आएं,
उससे पूछें;
वह कहे कि
भाई, मैं
तो मर ही गया।
कैसी दुकान, कैसा क्या? उसकी पत्नी
पूछे कि सब्जी
ले आये? वह
कहे कि मरे
हुए आदमी कहीं
सब्जी लाते
हैं? मैं
तो मर चुका!
तुम्हें खबर
नहीं मिली?
फिर
चिंता बढ़ने
लगी : यह मजाक
मजाक नहीं
मालूम होता, यह
तो मामला
गंभीर है।
दों—चार दिन तो
लोगों ने सहा,
फिर उस
मुर्दे को
लेकर
मनोवैज्ञानिक
के पास गये कि
अब उसकी कुछ
चिकित्सा
करवानी
पड़ेगी। मनोवैज्ञानिक
ने भी देखा, मनोवैज्ञानिक
भी हैरान हुआ।
बहुत तरह के
मरीज उसने
देखे थे; यह
पहला ही मरीज
था जो कहता है
मैं मर चुका
हूं। सोचा
मनोवैज्ञानिक
ने, उसने
एक तरकीब
निकाली। उसने
कहा : तुम एक
बात बताओ, अगर
मुर्दा आदमी
को हम चीरा
लगायें तो
उसमें से खून
निकलेगा कि
नहीं? उस
पागल ने कहा
कि मुर्दा
आदमी से कहीं
खून निकला है?
जो मर ही
गया, उसका
तो खून पानी
हो जाता है।
खून नहीं
निकलेगा, खून
जिंदा आदमी से
निकलता है। मनोवैज्ञानिक
खुश हुआ, उसने
कहा : अब ठहरो, चलो मेरे
साथ, दर्पण
के सामने खड़े
हो जाओ। चाकू
उठाकर उसने उस
आदमी के हाथ
में थोड़ा—सा
घाव किया। खून
का फव्वारा निकल
पड़ा; जिंदा
तो था ही वह।
मनोवैज्ञानिक
बोला, अब
बोलो। वह आदमी
बोला कि मेरी
पहली बात गलत
थी। तो इससे
सिद्ध होता है
कि मुर्दा
आदमी को काटने
से भी खून
निकलता है।
अब
क्या करोगे? जिसने
तय ही कर लिया
है कि दो और दो पांच,
कोई उपाय
नहीं है। वह
बोलता है कि
पहली बात गलत
थी, क्षमा
करो, मेरी
भूल हो गयी।
मनोवैज्ञानिक
सोच रहा था कि अब
इसको भरोसा आ
जायेगा कि मैं
जिंदा हूं मगर
भरोसा यह आया
कि मुर्दा
आदमी को काटने
से भी खून
निकलता है।
नहीं, तुम्हारे
अहंकार को मैं
न तोड़ सकूंगा सुधीर।
कोई नहीं तोड़
सकता।
तुम्हारा
अहंकार तुम्हारी
भ्रांति है।
तुम्हीं
जागोगे तो टूटेगा।
बाहर से नहीं
तोड़ा जा सकता।
बाहर की कोई
रोशनी
तुम्हारी
भीतर रोशनी
नहीं कर सकती।
ही, मैं
तुम्हें
प्रक्रिया
बता सकता हूं
कि कैसे तुम
भीतर का दीया
जलाओ। मगर मैं
तुम्हारा दीया
जला नहीं सकता,
जलाना तो
तुम्हें ही
होगा।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
है : बुद्ध
मार्ग दिखाते
हैं,
चलना तो
तुम्हीं को
होता है। कोई
बुद्ध तुम्हारे
लिए चलकर
मंजिल पर नहीं
पहुंच सकता, और पहुंच भी
जाए तो वह
पहुंचेगा
मंजिल पर, तुम
तो जहां के
तहां रह
जाओगे। सत्य
उधार नहीं हो
सकता।
इसलिए
गोरख के वचन
को बदलो मत।
तुमने बात ठीक
कही कि : मारो
हे प्रभु मारो, मारो
मरण की है
उत्कंठा।
लेकिन
नहीं, गोरख ही
ठीक कह रहे
हैं.
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा। वे कह
रहे हैं, तुम्हें
मरना होगा।
अगर यह मेरे
हाथ में हो कि
तुम्हारे
अहंकार को
मिटा दूं तब
तो बात कितनी
आसान हो जाये।
तब तो तुम
मेरे पास आओ, मैं एक जादू
की डंडी फेरूं,
तुम्हारा
अहंकार मिट
जाये, तुम
परमात्मा को
उपलब्ध होकर
अपने घर चले
जाओ। मगर अगर
उतने सस्ते से
मिट जाता हो
तो खतरा है।
रास्ते में
कोई दूसरा मिल
जाये और वह एक
डंडी फेर दे
उलटी, वापिस
जहां के तहां!
एक
आदमी
रामकृष्ण के
पास आया, उसने
कहा कि मैं जा
रहा हूं
गंगा—स्नान को
जा रहा हूं
तीर्थयात्रा
पर जा रहा
हूं। आप क्या
कहते हैं? रामकृष्ण
ने कहा : जाते
हो भाई ठीक; मगर एक खयाल
रखना। तुमने
देखा, गंगा
के किनारे
बड़े—बड़े वृक्ष
खड़े हैं।
उसने
कहा : ही, खड़े
हैं।
'किसलिए खड़े
हैं?'
'यह मुझे पता
नहीं है, यह
भी आप खूब
सवाल पूछते
हैं! वृक्ष
हैं, खड़े
हैं, अब
किसलिए खड़े
हैं, यह
मैं क्या कहूं?'
तो
मैं तुझे राज
बता देता हूं
रामकृष्ण ने
कहा। राज यह
है कि तुम गये
पाप की गठरी
लिए अपने शरीर
पर,
गंगा में
डुबकी लगायी।
जब तुम डुबकी
लगाते हो, गंगा
मइया का
प्रताप, पाप
अलग हो जाते
हैं। मगर पाप
कोई इतनी
आसानी से
तुम्हें छोड़
थोड़े ही देंगे,
वे वृक्षों
पर बैठ जाते
हैं। वे कहते
हैं अब बेटा
निकलोगे तो, कब तक डूबे
रहोगे? निकले
गंगा से, वे
उचक कर फिर
सवार हो गये। सो
किया न किया
सब बराबर हो
गया। तुम जरा
झाडों का खयाल
रखना, डुबकी
मारो तो
निकलना मत
फिर।
उसने
कहा : यह भी आप
क्या कह रहे
हैं,
क्या जान
लेंगे मेरी? अगर डुबकी
मारूंगा और
निकलूंगा
नहीं, तो
गये काम से!
फिर बेकार है
जाना।
रामकृष्ण
ने कहा : फिर
तुम्हारी
मर्जी। फिर वे
झाड़ इसीलिए
खड़े हैं। पाप
तुम करोगे, और
गंगा
तुम्हारे
पापों को
पवित्र कर
देगी! अगर
इतना सस्ता
होता तो
जिंदगी कितनी
आसान होती, लेकिन दो
कौड़ी की हो
गयी होती।
रामकृष्ण
ठीक कहते हैं
कि गंगा में
नहाने से कहीं
पाप धुल सकते
हैं?
ही, शरीर
का कूड़ा—करकट
धुल जायेगा।
वह भी बाहर
आते ही से फिर
धूल उड़ेगी, फिर जम
जायेगी।
लेकिन भीतर को
गंगा कैसे
धोयेगी? बाहर
की गंगा बाहर
की धूल को धो
सकती है। और
भीतर की गंगा
तो तुम्हें
अपनी भीतर की
ही चेतना से
जगानी होगी।
वह जल तो
तुम्हें अपने
ही स्रोतों से
खोजना होगा।
तुम्हें
मरना होगा, मैं
तुम्हें नहीं
मार सकता। मैं
मार भी दूंगा,
कोई भी
तुम्हें जगा
देगा। तुम ही
मरोगे, फिर
तुम्हें कोई
जिंदा न कर
सकेगा। जिसने
होशपूर्वक
अपने भीतर
जागकर अहंकार
को विसर्जित कर
दिया, फिर
इस दुनिया की
कोई शक्ति उसे
वापिस अहंकार के
जाल में नहीं
गिरा सकती।
इसलिए
ऐसा मत कहो
कि—मारो हे
प्रभु मारो, मारो
मरण की है
उत्कंठा!
उत्कंठा से
कोई नहीं मरता
है। जिसको
उत्कंठा है
मरने की, उसी
को तो मरना
है। उत्कंठा
किसको है?
मेरी
बातें तुम
सुनते हो, तुम्हारे
अहंकार को
लगता है कि
काश, हम भी
महायोगी हो
जायें गोरख
जैसे! मगर ये
गोरख उपद्रव
की बात कहते
हैं, ये
कहते हैं. मरो,
फिर हो
सकोगे। चलो
ठीक है मरेंगे,
मगर होकर
रहेंगे। हमें
भी सिद्ध होना
है।
तुम्हारा
अहंकार ही
सिद्ध होना
चाह रहा है, और
उसी को मरना
है। इसलिए
अहंकार कहता
है कि ठीक है, चलो मर
जायेंगे। अगर
यही सिद्ध
होने का उपाय
है तो चलो, मरने
को भी राजी
हैं, मगर
सिद्ध होकर
रहेंगे! और वह
सिद्ध होने की
जो उत्कंठा है,
वही तो बचा
लेती है; वही
तो श्वास है
अहंकार की।
अहंकार
की श्वास कहां
से आती है? कुछ
होने की
आकांक्षा में
से अहंकार को
श्वास मिलती
है। गरीब हो, अमीर होना
चाहते हो; अहंकार
श्वास लेता
रहेगा।
अज्ञानी हो, ज्ञानी होना
चाहते हो; अहंकार
श्वास लेता
रहेगा।
दीन—हीन हो, पद पर
प्रतिष्ठित
होना चाहते हो;
अहंकार
श्वास लेता
रहेगा।
अहंकार
की प्रक्रिया
समझो, अहंकार
जीता कैसे है?
अहंकार
जीता है. तुम
जो हो और तुम
जो होना चाहते
हो, उसके
तनाव में। अ, ब होना
चाहता है, बस
इसी तनाव में
अहंकार
निर्मित होता
है।
अहंकार
मरता कैसे है? तुम
जो हो, उससे
राजी हो गए कि
अहंकार मर
गया। तुमने
कहा. मैं जैसा
हूं बस ठीक, जहा हूं
ठीक। प्रभु
जैसा रखे वैसा
रहूंगा। जो उसकी
मर्जी, वही
मेरी मर्जी।
तुमने तनाव
छोड़ दिया भविष्य
का—कि यह होऊं,
वह
होऊं—अहंकार
गया।
अहंकार
जीता है अतीत
के आधार पर और
भविष्य के आधार
पर। तुम जरा
समझना इस बात
को। अहंकार के
दावे होते हैं
अतीत के कि
मैंने ऐसा
किया, मैंने
वैसा किया; वह सब अतीत।
और अहंकार
कहता है मैं
ऐसा करके रहूंगा
और ऐसा करके
दिखाऊंगा; वह
सब भविष्य।
वर्तमान में
अहंकार होता
ही नहीं। अगर
तुम वर्तमान
में आ जाओ
अहंकार विदा
हो गया। वही
है मृत्यु
अहंकार की।
वर्तमान में आ
जाना अहंकार
की मृत्यु है।
जो
गया,
गया; अब
उसको पकड़े मत
रखो। अतीत को
जाने दो। और
जो नहीं हुआ
है उसकी तुम
आकांक्षा न
करो, क्योंकि
उसकी
आकांक्षा में
अहंकार बचता
रहेगा। 'जो
है' उसमें
परितुष्ट हो
जाओ, तो
इसी क्षण तुम
पाओगे अहंकार
नहीं है। जो
है, जैसा
है—वही ठीक है,
परिपूर्ण
रूप से ठीक
है। इस कला का
नाम ही संतोष
है। और संतोष
में अहंकार मर
जाता है, असंतोष
में अहंकार
जीता है।
इसलिए जितना
असंतुष्ट
आदमी होगा, उतना ही
अहंकारी
होगा। जितना
अहंकारी होगा,
उतना
असंतुष्ट
होगा ये
एक—दूसरे के
साथ—साथ चलते
हैं।
अगर
तुमने यह
उत्कंठा बना
ली सुधीर कि
सिद्ध होना है, कि
हमें भी उस
जगह पहुंचना
है, जहां
हम कह सकें कि
पा लिया
परमात्मा, तो
फिर अहंकार नहीं
मरेगा। सब
अभीप्साएं, सब
आकांक्षाएं, सब वासनाएं,
सब
तृष्णाएं
अहंकार की
अग्नि में घी
का काम करती
हैं।
परमात्मा को
पाने की
आकांक्षा भी
अहंकार की
अग्नि में घी
का काम करती
है।
इसलिए
तुम्हारे
संन्यासी
जितने
अहंकारी होते
हैं,
तुम्हारे
साधारण लोग
उतने अहंकारी
नहीं होते।
तुम्हारे
महात्माओं
में जैसा शुद्ध
अहंकार
मिलेगा, बिलकुल
शुद्ध जहर की
तरह, खालिस,
बिना
मिलावट
के—वैसा
तुम्हें
साधारण लोगों
में नहीं
मिलेगा।
साधारण
दुनिया में तो
हर चीज मिलावट
से भरी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरना चाहता था, तो
जहर लाकर पीकर
और सो रहा। दों—चार
दफा रात में
आंख खोलकर
देखा, अभी
तक मरा कि
नहीं! टटोला, ज्यूंटी
लेकर देखा कि
जिंदा हूं अभी
तक असर नहीं
हुआ। करवटें
बदलता रहा।
सुबह हो गयी, आंख खोलकर
देखी। पत्नी
भी उठकर काम
में लग गयी है,
बच्चे
स्कूल जाने की
तैयारी कर रहे
हैं—यह किस
प्रकार की मौत
है! दूधवाला आ
गया, द्वार
पर दस्तक दे
रहा है। पड़ोसी
की आवाज सुनाई
पड़ रही है... यह
किस तरह की
मौत है! और जहर
इतना पी गया
है कि कहते
हैं कि उससे
अगर चौथाई भी
पीया होता तो
मर जाता, चार
गुना पी गया!
उठकर बैठ गया।
दर्पण में जाकर
देखा कि यह
किस तरह की
मौत है! और किसी
को पता भी
नहीं चल रहा
है, कोई
अर्थी भी नहीं
सजायी जा रही
और कोई मामला नहीं,
पत्नी रो भी
नहीं रही, बच्चे
स्कूल जाने की
तैयारी कर रहे
हैं। तब उसे
खयाल आया कि
यह तो मौत
नहीं है। भागा,
पहुंचा
दुकादार के
पास, जहां
से जहर खरीदकर
लाया था, कि
यह क्या मामला
है 2: दुकानदार
ने कहा कि हम
क्या करें? हर चीज में
मिलावट है।
कोई आजकल
शुद्ध जहर मिल
सकता है 2: वे
जमाने गये, सतयुग की
बातें कर रहे
हो, शुद्ध
जहर! कलियुग
चल रहा है, अब
कोई शुद्ध जहर
वगैरह नहीं
मिलता।
संसार
में हर चीज
में मिलावट
है। साधारण
आदमी है, उसमें
हर चीज मिली—जुली
है। जो
परमात्मा को
पाने चल पड़े
हैं, इनका
शुद्ध होने
लगता है
अहंकार। इनका
जहर सतयुगी
होने लगता है।
इसलिए तुम
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं के
भीतर जैसा दंभ
और जैसी अस्मिता
पाओगे, ऐसी
तुम नहीं
पाओगे कहीं
भी।
इसीलिए
तो तुम्हारे
पंडित, पुजारी,
महात्मा लड़वाते
हैं, लड़ते
हैं।
तुम्हारे
मंदिर, मस्जिद,
गिरजे, गुरुद्वारे
अहंकारों के
अड्डे बन गये
हैं। उनसे
प्रेम नहीं
पैदा होता, उनसे घृणा
पैदा होती है।
उनसे जहर
फैलता है दुनिया
में, अमृत
नहीं फैलता।
अगर
मनुष्य—जाति
सारे धर्मों
से मुक्त हो
जाये तो शायद
शाति हो जाये।
धर्म सभी कहते
हैं शाति लाना
चाहते हैं, लेकिन
लाते अशांति
हैं। मूल
प्रक्रिया
खयाल में नहीं
रह जाती।
वासना
मात्र आदमी को
अहंकार देती
है। और जितनी
बड़ी वासना
उतना बड़ा
अहंकार देती
है। निश्चित, परमात्मा
से बड़ी कोई
वासना नहीं हो
सकती। तो परमात्मा
की वासना से
भरा हुआ आदमी
सर्वाधिक
अहंकारी हो
जाता है।
मैं
तुमसे क्या कह
रहा हूं? मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं :
परमात्मा को
पाना हो तो
परमात्मा की
वासना नहीं
करनी होती।
परमात्मा को
पाना हो तो
वासना का
स्वरूप समझकर
वासना से
मुक्त हो जाना
होता है। जिस
क्षण वासना चली
गयी, उस क्षण
परमात्मा
उतरता है।
परमात्मा
पाया जाता है,
लेकिन
परमात्मा की
कामना नहीं की
जा सकती। परमात्मा
मिलता है और
मिलता उसी को
है जिसने यह बड़ी
शर्त पूरी कर
दी।
इसलिए
बुद्ध जैसे
परमज्ञानी ने
परमात्मा शब्द
का उपयोग भी
नहीं
किया—इसीलिए
कि तुम अज्ञानी
कहीं
परमात्मा की
वासना न करने
लगो। बुद्ध ने
ईश्वर की बात
ही न उठाई, क्योंकि
बुद्ध ने देखा
कि लोग वासना
बदल लेते हैं,
धन नहीं
मांगते, अब
स्वर्ग
मांगते हैं; पद नहीं
मांगते, परमात्मा
मांगते हैं; प्रतिष्ठा
नहीं मांगते,
समाधि
मांगते हैं।
मगर मांगते
हैं! और मांग
जहा है वहां अहंकार
है।
तो
बुद्ध ने कहा :
कोई परमात्मा
नहीं है, कोई
आत्मा नहीं है,
कोई मोक्ष
नहीं है। तुम
यह मत समझना
कि बुद्ध यह
कह रहे हैं
कोई परमात्मा
नहीं है, कि
कोई आत्मा
नहीं है, कि
कोई मोक्ष
नहीं है।
बुद्ध के
माननेवालों ने
भी गलत समझा
और बुद्ध का
विरोध
करनेवालों ने
भी बुद्ध को
गलत समझा।
बुद्ध को
समझना बहुत
दुरूह है, कठिन
है, क्योंकि
बुद्ध —की बात
बड़ी सूक्ष्म
है। बुद्ध यह
कह रहे हैं कि
अगर मैं यह
कहूं कि
परमात्मा है
तो तत्क्षण
परमात्मा
तुम्हारी
वासना का विषय
हो जाता है।
और वासना जब
तक है, तब
तक परमात्मा
मिलेगा नहीं।
इससे अच्छा है
हम परमात्मा
की चर्चा ही
छोड़ दें, बुद्ध
ने कहा। है ही
नहीं। न होगा
बांस, न
बजेगी
बांसुरी। जब
परमात्मा है
नहीं तो तुम परमात्मा
को कैसे
चाहोगे? जब
स्वर्ग है ही
नहीं तो
स्वर्ग की
कामना कैसे
करोगे? और
जब आत्मा भी
नहीं है तो
क्या समाधि?
मगर
अदभुत
प्रक्रिया है
बुद्ध की।
तुम्हारी
वासना के सब
संभव उपाय छीन
लिये। अब
तुम्हारे पास
जो छोटी—मोटी
वासनाएं हैं, धन
कमा लूं पद
काम लूं
प्रधानमंत्री
हो जाऊं। ये
जो छोटी—मोटी
वासनाएं हैं,
इनको तुम
समझने की
कोशिश करो और
तुम पाओगे हर वासना
दुख लाती है।
हर वासना और
गहरे नर्क में
ले जाती है।
देखते—देखते,
पहचानते—पहचानते
एक दिन यह होश
तुम्हें आ जायेगा
कि वासना दुख
है। उसी क्षण
वासना गिर
जायेगी। और
परमात्मा तो
है नहीं कि
वासना को बदल
लो। संसार की
वासना गिर
जायेगी और
परलोक की वासना
का तो उपाय
बुद्ध ने छोड़ा
नहीं है। तुम जिस
क्षण
निर्वासना
में हो जाओगे,
उसी क्षण
परमात्मा मिल
जाता है।
परमात्मा, ऐसा
समझो, तुम्हारी
निर्वासना की
अवस्था का नाम
है। समाधि, ऐसा समझो कि
जब तुम्हारे
भीतर कोई
वासना न रही
तो जो बचता है
वही समाधि है।
यह काम
उत्कंठा से
नहीं होगा।
और
तुम कहते हो.
तिस मरणी
मारो...।
तुम्हारे
मारने में भी
शर्त है। तुम
कह रहे हो
मारना जरूर, मगर
वह मरण होना
चाहिए—वही, जिससे आपको
मिला, जिससे
आपको दर्शन
हुआ, कोई
और दूसरा मरण
न हो जाये! तुम
मरने में भी
शर्त लगाये
हो! तुम
बीच—बीच में
आंख खोलकर
देखते रहोगे
कि कोई गलती
मरण तो नहीं हुआ
जा रहा है!
एक
झेन फकीर ने
अपने एक शिष्य
को ध्यान का
एक प्रयोग
दिया था कि
सोचकर लाओ, एक
हाथ की ताली
कैसे बजती है?
अब एक हाथ
की ताली कहीं
बजती है? बहुत
सोचा, खूब
खोजा उसने।
बड़ा विचारशील
आदमी था। लाये
अनेक बातें कि
एक हाथ की
ताली ऐसे बजती
है, जैसे
आकाश में
मेघों का
गर्जन। और
गुरु ने उसको
एक डंडा मारा
कि मूरख, यह
एक हाथ की
ताली है! कहां
है इसमें एक
हाथ? और जब
गर्जन होता है
आकाश में तो
बादल टकराते हैं,
ये तो दो
हाथ हो गये।
जहा टकराहट है
वहां दो। तू
ऐसी खबर ला
जहां टकराहट न
हो और ध्वनि
उत्पन्न हो।
बहुत उसने खोजा।
कई तरकीबें
निकालीं, सब
में हारता
गया। महीने
बीतने लगे, उदास होने
लगा। दिन— भर
खोज कर आये और
फिर वही की
वही बात; फिर
गुरु उसे भगा
दे। उसने
पुराने
शिष्यों से पूछा
कि भई, तुमने
कैसे हल किया
है?
तो
एक शिष्य ने
बताया कि मेरा
तो ऐसे हल हुआ
कि मुझे भी
इसने बहुत
सताया। तेरा
तीन महीना, मैं
तो तीन साल
घट्टे खाया।
फिर एक दिन
बिलकुल
थका—मादा था, ऊब चुका था...
एक हाथ की
ताली.. यह कहीं
बजती है! यह पागल
और एक हम पागल
हैं कि इसकी
बात मानकर बैठे
हैं, एक
हाथ की ताली
बजने का विचार
कर रहे हैं, ध्यान कर
रहे हैं।
पक्का पता है
कि यह हो नहीं
सकता। हमको भी
पता है, इसको
भी पता है, सब
को पता है।
मगर लग गया
मोह इस आदमी
से। इसके प्रेम
में पड गये, तो चलो यही
करते हैं कि
ठीक है, कभी—न—कभी
तो बजेगी या
कुछ होगा। तीन
साल में जब
बिलकुल थक गया
और मैं पहुंचा
और इसने फिर
पूछा कि एक
हाथ की ताली, कि मैं एकदम
गिर पड़ा। मैं
बिलकुल निराश
ही हो गया था, तो मैं
बिलकुल गिर
पड़ा। और उस
दिन गुरु
प्रसन्न हो
गये। और
उन्होंने
मेरे सिर पर
हाथ रखा, डंडा—वंडा
नहीं मारा उस
दिन, और
कहा. बेटा, उठो,
बज गयी एक
हाथ की ताली!
यह
जो गिरना था, इसमें
अहंकार गिर
गया। यह जो
गिरना था
इसमें सारा
चित्त गिर
गया—उदास, उदास,
उदास... हार, हार, हार...
एक सीमा होती
है। हार उस
जगह पहुंच गयी
कि हार अंतिम
आ गयी। पराजय
पूरी हो गयी।
अब यह पक्का
हो गया कि
मुझसे कुछ
होने वाला
नहीं है। न यह
एक हाथ की
ताली बजनी है,
न मुझे
सफलता मिलनी
है, न मुझे
समाधि लगनी
है। यह हताशा
उस जगह पहुंच
गयी जहा
मृत्यु घट
जाती है
अहंकार की।
विजय मिलती
रहे थोड़ी—
थोड़ी, सफलता
मिलती रहे, तो अहंकार
को पोषण मिलता
रहता है।
इसीलिए तो एक
हाथ की ताली, ताकि अहंकार
को पोषण न मिल
सके। यह तो
प्रक्रिया है
तुम्हारे
अहंकार को
तोड़ने की। तो
गुरु ने सिर
पर हाथ रखा और
कहा कि बज गयी एक
हाथ की ताली!
यह है एक हाथ
की ताली। अब
उठ आ, अब
कोई चिंता
नहीं।
तो
इसने कहा कि
भलेमानस! मुझे
पहले क्यों न
बताया? हम
पहले ही दिन
बजा देते एक
हाथ की ताली, जाकर गिर
पड़ते। आज ही
बजाये देते
हैं; अभी
चला।
चले
वे,
पहुंचे।
जैसे ही गुरु
ने पूछा कि
बजी एक हाथ की
ताली, वह
चारों खाने..
मगर देखकर
गिरे कि कहीं
चोट वगैरह न
लग जाये। जरा
देख लिया एक
तिरछी नजर से
कि सब ठीक—ठाक
है। सिर भी
ऐसी जगह
गिराया जहां तकिया
रखा था। आंखें
बंद करके
बिलकुल
चारोखाने चित,
शवासन में
लेट गये।
चित्त बड़ा
प्रसन्न है कि
आज मामला हल
हुआ, अब
गुरु आये, सिर
पर हाथ फेरा।
और गुरु ने
मारा डंडा। एक
आंख खोलकर
देखा कि मामला
क्या है यह, हम तो कुछ और
ही सोच रहे
थे।
गुरु
ने कहा कि
नासमझ,
मुर्दे कहीं
आंख खोलकर
देखते हैं? और मुर्दे
ऐसा देखकर
गिरते हैं कि तकिया
कहां है? यह
तू नकल कर रहा
है। मैं समझ
गया तू किसकी
नकल कर रहा है,
मगर उसकी
बजी थी एक हाथ
की ताली। तू
अनुकरण कर रहा
है। तू चाहता
है सस्ता कुछ
हो जाये। यह
सस्ती नहीं हो
सकती
बात। वह तीन
साल परेशान
हुआ था। तीन
साल उसने अथक
श्रम किया था।
खून को पसीना
बनाया था। न
दिन सोया था, न
रात सोया था।
खाना—पीना भूल
गया था। सब
लगा दिया था
उसने दाव पर।
तब एक घड़ी ऐसी
आयी थी कि उस पराजय
के क्षण में
टूट कर गिर
पड़ा था। उसने
देखा नहीं था
चारों तरफ कि
पत्थर पर सिर
पड़ेगा कि
तकिये पर।
उसकी कोई
कल्पना भी
नहीं थी कि अब क्या
होने वाला है।
तू तो पड़कर, लेटकर वहा
देख रहा है कि
गुरु का हाथ
आया सिर पर।
जब वह गिरा था
तो सच में
गिरा था, उस
गिरने में
अहंकार गिर
गया था। और तू
जो गिरा है, यह तो
अहंकार का ही
आयोजन है। यह
तो अहंकार की ही
तरकीब है। तू
चाहता है मैं
कह दूं कि हो
गया तू सिद्ध।
इतना सस्ता
नहीं है। तुम
कहते हो. तिस
मरणी मारो...।
कम—से—कम
छुट्टी तो
देते पूरी!
कम—से—कम इतना
तो कहते, जैसा
मारना हो
मारो! वह भी
तुमने छोड़ा
नहीं। तुमने
अपनी शर्त लगा
दी। तुम्हारा
समर्पण भी सशर्त
होता है। और
समर्पण कहीं
सशर्त हो सकता
है? समर्पण
का अर्थ ही होता
है—सब शर्तें
छोड़ी, गिर
पड़े चरणों में,
कि अब जो हो
सो हो, न हो
तो न हो। उसके
लिए भी राजी
हैं। कहीं
भीतर कोर—कोने
में जरा—सी भी
आकांक्षा
छिपी राह देखती
रही, कि अब
ऐसा होगा, अब
ऐसा होना
चाहिए, कि
अब तो हम गिर
भी गये, अभी
तक वह मरण
नहीं हुआ, जिस
मरण से गोरख
को दिखाई पड़ा
था। हम तो अभी
वही के वही।
अभी तक समाधि
नहीं फली। अभी
तक कोई
परमात्मा के
चरण दिखाई
नहीं पड़ रहे।
अगर ऐसी वासना
और विचार बना
रहा तो मृत्यु
हो ही न
पायेगी।
और
खयाल रखो, गुरु
शिष्य को मार
नहीं सकता, गुरु शिष्य
को मरने की
कला सिखा सकता
है। मरना तो तुम्हीं
को पड़ता है।
तुम
भोजन करोगे तो
तुम्हारा पेट
भरेगा। तुम पानी
पीयोगे तो
तुम्हारी
प्यास
बुझेगी। मैं पानी
पीयूं इससे
तुम्हारी
प्यास नहीं
बुझ सकती। मैं
भोजन करूं, इससे
तुम्हारी भूख
नहीं मिट
सकती। मैं
श्वास लूं
इससे
तुम्हारा
हृदय नहीं
धड़केगा। और ये
तो सब ऊपर की
बातें हैं, सबसे गहरी
बात तो है
अहंकार का
मरना, वह
सबसे गहरा है।
वह तो ऊपर से
किया ही नहीं
जा सकता। वह
तो तुम ही
जागोगे, जानोगे
अहंकार की
पीड़ा और नर्क
को पहचानोगे। देखोगे
कि कितना दंश
अहंकार ने
दिया है.......!
तो
यह उत्कंठा की
बात नहीं है, समझ
की बात है। पर
अच्छा सुधीर,
विचार तो
उठा। इसी तरह
विचार उठता है
तो कला सीखी
जाती है। वही
तो मैं सिखा
रहा हूं—मरने
की कला। चाहे
कहो जीवन की
कला, चाहे
कहो मृत्यु की
कला, एक ही
बात है। तुम
मरे तो
परमात्मा
प्रगट हुआ।
तुम्हारी
मृत्यु उसका
प्रारंभ है।
चौथा
प्रश्न:
आपको
सुनता हूं तो
प्रार्थना का
भाव. हृदय में
हिलोरें लेने
लगता है पर
प्रार्थना
कैसे करूं? प्रार्थना
करना तो मुझे
आता नहीं है।
प्रार्थना
की नहीं जाती, प्रार्थना
हो जाती है।
यह जो भाव
हिलोरें लेता
है, यही
प्रार्थना
है। करने
चलोगे, झूठ
कर लोगे। करने
चलोगे, औपचारिक
हो जायेगा।
करने चलोगे, उधार हो
जायेगा।
दूसरों का
अनुकरण हो
जायेगा।
प्रार्थना
अनुकरण नहीं
है। अनुकरण के
कारण ही
पृथ्वी से
प्रार्थना खो
गयी है। लोग
चले अपने—
अपने मंदिर।
अगर मस्जिद
बगल में है तो
वहां जाकर
प्रार्थना
नहीं करते, दो
मील चल कर
जाते हैं मंदिर
में
प्रार्थना
करने। जितना
दो मील चलने
में समय खराब
किया, इतना
भी प्रार्थना
में लगा देते,
मस्जिद बगल
में थी, कहा
जाते हो!
लेकिन वही
हालत मस्जिद
वाले की है।
मंदिर बगल में
है, वहां
तो देखता नहीं,
पीठ करके
निकल जाता है।
जैन—शास्त्रों
में और
हिंदू—शास्त्रों
में इस तरह के
उल्लेख हैं।
एक—से ही
उल्लेख हैं, क्योंकि
मूढ़ता सब में
एक—सी है। ऐसे
उल्लेख हैं
जैन—शास्त्रों
में कि अगर
तुम
हिंदू—मंदिर के
सामने से
निकलते हो और
पागल हाथी
तुम्हारा पीछा
कर रहा हो, तो
पागल हाथी के
पैर के नीचे
दब कर मर जाना
बेहतर है, बजाय
हिंदू—मंदिर
में शरण लेने
के। और ठीक
यही बात
हिंदू—शास्त्रों
में कही गयी
है कि अगर
तुम्हारे पीछे
पागल हाथी पड़ा
हो, तो
उसके पैर के
नीचे दबकर मर
जाना, मगर
जैन—मंदिर में
शरण मत लेना।
ये
कैसी ओछी
बातें हैं, जो
धर्म के नाम
पर चलती रही
हैं। और हिंदू
और जैन तो खैर
अलग—अलग धर्म
हैं। हिंदुओं
में भी कोई
हैं जो राम को
मानते हैं, तो वे कृष्ण
के मंदिर में
न जायेंगे; और कोई हैं
जो कृष्ण को
मानते हैं, वे राम के
मंदिर में न
जायेंगे। और
भी मजे की बात
है, जैनों
में दिगंबर और
श्वेतांबर
हैं; दोनों
ही महावीर को
मानते हैं, मगर दोनों का
भी मंदिर एक
नहीं हो सकता।
आदमी
धर्म के नाम
पर भी
राजनीतियो
में उलझ जाता
है। और यह
सारा उपद्रव
होता है
अनुकरण के कारण।
प्रार्थना एक
सहज निश्छल
भाव है। वृक्ष
को देखकर
तुम्हारे
भीतर आनंद
हिलोरें लेने
लगे,
वहीं झुक
जाना, प्रार्थना
हो गयी। वृक्ष
के पास ही झुक
जाना। वृक्ष
की जड़ों में
ही सिर रख
देना, और
तुम्हारा नमन
परमात्मा तक
पहुच गया।
क्योंकि
परमात्मा से
जुड़े हैं
वृक्ष।
तुम्हारे मंदिर
की मूर्तियां
परमात्मा से
बिलकुल नहीं जुड़ी
हैं, क्योंकि
तुम्हारी
बनायी हुई
हैं। वृक्ष
अभी जीवंत हैं,
उनमें जीवन
बह रहा है, रसधार
बह रही है।
नहीं तो हरे न
होते। नहीं तो
कोंपलें न
निकलतीं।
नहीं तो फूल न
खिलते। अभी
परमात्मा से
जुड़े हैं, झुक
लो।
वृक्ष
की जड़ों में
परमात्मा के
चरण जितनी सरलता
से उपलब्ध हैं, उतनी
तुम्हारी
मंदिर की
मूर्तियों
में नहीं। वे
सब झूठी हैं, औपचारिक
हैं। आदमी की
बनायी हुई
मूर्तियों
में तुम
परमात्मा को
खोजने चले हो?
आदमी की
बनायी हुई
चीजों में
उसको खोजने
चले हो, जिसने
आदमी को बनाया? तुम भूल कर
रहे हो। उसकी
बनायी हुई
प्रकृति चारों
तरफ फैली है।
उसकी नदियां
बह रही हैं, उसके सागर
उतुंग लहरों
से भरे हैं।
उसका चांद उगता
है। उसका सूरज
निकलता है।
उसके वृक्ष
हैं, उसके
पशु—पक्षी हैं,
तुम हो।
किसी
प्रीति के
क्षण में अगर
तुम अपने बेटे
के चरणों में
भी झुक जाओ, तो
भी तुम्हारा
नमन पहुंच
जायेगा। किसी
प्रीति के
क्षण में अगर
तुम अपनी
पत्नी के
चरणों में झुक
जाओ, तो भी
नमन पहुंच
जायेगा।
प्रार्थना
अनौपचारिक
है। उसे उपचार
मत बनाओ। मगर
प्रार्थना
इतनी औपचारिक
हो गयी है कि तुम
यह भूल ही गये
कि प्रार्थना
का अनौपचारिक,
नैसर्गिक.
स्वाभाविक
रूप क्या है।
तुम कहते हो.
आपको सुनता
हूं तो
प्रार्थना का
भाव हृदय में
हिलोरें लेने
लगता है।
वही
प्रार्थना है, अब
और तुम क्या
पूछते हो?
अब
तुम पूछ रहे
हो कि मैं
प्रार्थना
कैसे करूं?
प्रार्थना
घट रही है।
सत्संग में
बैठे—बैठे प्रार्थना
घट जाती है।
अगर मैं
प्रार्थनापूर्ण
हूं और तुम
सरलभाव से
मेरे पास आकर
बैठ गये हो, तुम्हारे
भीतर विवाद
नहीं है, तुम
मेरे एक—एक
शब्द को इस तरह
नहीं सुन रहे
हो जैसे तुम
मेरे
न्यायाधीश हो,
कि तुम्हें
तय करना है कि
क्या ठीक क्या
गलत—तुम मेरे
शब्दों को अगर
ऐसे सुन रहे
हो जैसे कोई
संगीत को
सुनता है, बिना
चिंता किये
क्या ठीक क्या
गलत—अगर तुम
बस मेरे पास
होने का रस ले
रहे हो, तो
प्रार्थना फल
जायेगी, प्रार्थना
घट जायेगी।
तुम्हारे
भीतर कोई झुक
जायेगा।
तुम्हारे
भीतर कोई मिट
जायेगा। तुम्हारे
भीतर कुछ नया
सूत्रपात
होने लगेगा। कोई
तरंग उठेगी, जिसमें तुम
डूब जाओगे।
वही
प्रार्थना
है।
मगर
मैं तुम्हारी
तकलीफ समझता
हूं। तुम सोच
रहे हो कि यह
तो कभी—कभी होता
है;
इसको रोज
व्यवस्था से
कैसे करना? जब भी तुम
व्यवस्था से
करोगे तभी झूठ
हो जायेगा। यह
जब होता है तब
होता है।
प्रार्थना के
लिए समय नहीं
बांधा जा
सकता। ऐसा
नहीं कि रोज
सुबह उठ कर कर
लोगे
प्रार्थना।
जब हो जाये।
कभी आधी रात
हो जायेगी, कभी सुबह, कभी दोपहर। प्रार्थना
का कोई समय
नियत नहीं है,
क्योंकि
परमात्मा का
सारा समय है।
प्रार्थना के
लिए कोई
मुहूर्त नहीं
होता, कोई
क्षण नहीं
होता।
तुम
बजाए नियम
बनाने के, बजाए
एक
क्रिया—कांड
बनाने के, अपनी
सहजता की तरफ
से चलो। जब हो
जाये तब आंख बंद
कर लो, एक
क्षण डूब जाओ।
कहां—कहां
होने लगेगी, तुम चकित
होओगे। तुमने
कभी सोचा न
होगा, ऐसी
जगह होने
लगेगी। कोई
बांसुरी बजा
रहा है और
होने लगेगी।
दोपहर है, सन्नाटा
है, हवाएं
बंद हैं, वृक्ष
हिलते नहीं
हैं... और होने
लगेगी। रात है,
झींगुरों
की झनकार है, और होने
लगेगी। तुम
अपने मित्र के
पास बैठे हो
हाथ में हाथ
लिए हुए, और
होने लगेगी।
कोई नियत काल
नहीं है। और
कैसी होगी हर
बार, कहना
मुश्किल है।
क्योंकि कोई
पुनरुक्ति थोड़े
ही है। भाव की
दशा है। विचार
की बात नहीं
है प्रार्थना।
प्रार्थना
कोई
ग्रामोफोन
रिकार्ड नहीं
है कि वही—वही
होगा, बार—बार वही—वही
होगा। नये—नये
रंग, नये—नये
रूप, नये—नये
ढंग में
प्रार्थना
प्रगट होती
है।
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो, मेरी
मुहब्बत कबूल
कर लो!
उदास
नजरें तड़प—तड़प
कर तुम्हारे
जल्वों को ढूंढती
हैं
जो
ख्वाब की तरह
खो गए उन हसीन
लमहों को
ढूंढती हैं,
अगर न
हो नागवार
तुमको तो यह
शिकायत कबूल
कर लो
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो!
तुम्हीं
निगाहों की
जुस्तजू हो, तुम्हीं
खयालों का
मुद्दआ हो
तुम्हीं
मेरे वास्ते
सनम हो, तुम्हीं
मेरे वास्ते
खुदा हो
मेरी
परस्तिश की
लाज रख लो, मेरी
इबादत कबूल कर
लो
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो!
तुम्हारी
झुकती नजर से
जब तक न कोई
पैगाम मिल सकेगा
न रूह
तस्कीन पा
सकेगी, न दिल
को आराम मिल
सकेगा
गमे—जुदाई
है जानलेवा, यह
इक हकीकत कबूल
कर लो
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो!
कहीं
भी,
कहीं से भी
भेजो सलाम।
किसी फूल के
पास झुक जाओ, भेजो सलाम।
कोयल की कूक सुनकर
नाच उठो, भेजो
सलाम।
बूंदाबांदी
हो रही है
तुम्हारे छप्पर
पर, बूंदों
ने संगीत छेड़
रखा है, भेजो
सलाम।
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो
मेरी मुहब्बत
कबूल कर लो।
और
शब्द बनाने की
जरूरत नहीं है, बिना
शब्द के भेज
दो। परमात्मा
तुम्हारी भाषा
नहीं समझता, तुम्हारे
भाव समझता है।
भाषाएं तो
बहुत हैं। अगर
परमात्मा को भाषा
समझनी पड़े तो
पगला जायेगा।
जमीन पर कोई तीन—सौ
भाषाएं हैं।
ये तो
खास—खास। और
छोटी—छोटी
भाषाएं गिनती
करो, और
बोलियां
गिनती करो तो
बड़ी मुश्किल
में पड़ जायेगा।
परमात्मा की
अड़चन तुम समझ
सकते हो! और एक
ही पृथ्वी नहीं
है, वैज्ञानिक
कहते कम—से—कम
पचास हजार
पृथ्वियों पर
जीवन है।
कम—से—कम!
ज्यादा पर हो
सकता है, लेकिन
पचास हजार पर
तो होना ही
चाहिए। यह
इतना बड़ा
विस्तार है!
फिर आदमी का
ही सवाल नहीं
है, पशु—पक्षी
भी
प्रार्थनापूर्ण
हो जाते हैं!
महर्षि
रमण के आश्रम
में एक गाय मरी
तो उन्होंने
उसे इस तरह
विदा दी जैसे
समाधिस्थ
पुरुष को दी
जाती है। लोग
बहुत हैरान
थे। लेकिन गाय
साधारण गाय थी
भी नहीं, बड़ी
सत्संगी थी।
रमण के पास
आनेवाले और
लोग सत्संगी
कभी आते कभी न
आते, मगर
गाय नियमित
आती थी। ऐसा
कोई दिन नहीं
चूकता था कि
रमण के दर्शन न
करती हो। आकर
खिड़की में से
सिर अंदर करके
खड़ी हो जाती।
खिड़की के बाहर
ही खड़ी रहती
थी, लेकिन
सिर खिड़की के
भीतर कर लेती
थी। घंटों खड़ी
रहती, जब
दूसरे लोग
बैठे रहते वह
भी खड़ी रहती।
जब सत्संग
विदा हो जाता,
तब वह भी
चली जाती। और
कभी—कभी उसकी
आंखों से आंसुओ
के धारे भी लग
जाते थे, वहीं
खड़े—खड़े खिड़की
पर! जब गाय
बीमार पड़ी और
एक दिन नहीं आ
पायी, तो
रमण खुद गये।
जैसे ही उसने,
गाय ने उनको
आते देखा उसकी
आंखों से
आंसुओ की धार
बहने लगी। रमण
का हाथ उसके
सिर पर था जब
वह मरी।
उन्होंने उसे
ऐसा सम्मान
दिया जैसे कि
किसी
समाधिस्थ व्यक्ति
को सम्मान
दिया जाता है।
उसकी समाधि बनवायी।
लोगों
ने पूछा कि
महर्षि, क्या
आप सोचते हैं
यह गाय इतनी
मूल्यवान थी? उन्होंने
कहा : यह इसका
आखिरी जन्म
है। अब यह नहीं
लौटेगी। इसकी
प्रार्थना
सुन ली गयी।
इसकी सलाम
पहुंच गयी।
तो
आदमी का ही
सवाल नहीं है :
पशु—पक्षी हैं, इनमें
भी कोई
प्रार्थनापूर्ण
होते हैं। पौधे
हैं, इनमें
भी कोई
प्रार्थनापूर्ण
होते। अभी वैज्ञानिक
बड़ी खोज में
लगे हैं। और
एक बात बिलकुल
स्पष्ट रूप से,
निर्णायक
रूप से सिद्ध
हो गयी है कि
पौधों में बड़ी
संवेदनशीलता
है—उतनी ही
जितनी
मनुष्यों में;
शायद
ज्यादा, कम
तो नहीं।
रविशंकर
का सितार बजते
देखकर पौधे
भाव—मग्न हो
जाते हैं। इस
पर वैज्ञानिक
प्रयोग हुए
हैं। मस्त हो
जाते हैं। अब
तो यंत्र खोज
लिए गए हैं।
जैसा
तुम्हारा
कार्डियोग्राम
का यंत्र होता
है,
जिससे
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
पहचानी जाती
है, ऐसे
यंत्र खोज लिए
गए हैं जिनसे
वृक्षों की
धड़कन पहचानी जाती
है। यंत्र लगा
दिया जाता है
वृक्ष पर, उसकी
भाव—दशाओं का
पता चलने लगता
है। दुखी है, सुखी है, क्रुद्ध
है, करुणापूर्ण
है?
रविशंकर
का सितार
सुनकर वृक्ष
झुक आते हैं।
जहां से सितार
बज रहा है उस
तरफ। झुकने
लगते हैं। और
आधुनिक संगीत, जाज
और उस तरह के
संगीत को
सुनकर वृक्ष
दूर हटने लगते
हैं, दूसरी
तरफ झुकने
लगते हैं, और
कहना चाहते
हैं कि बंद भी
करो! यह क्या
मचा रक्खा है? तुम्हारा
जो फिल्मी
संगीत चलता
रहता है, लाऊडस्पीकर
लगाकर लोग जो
शोरगुल मचाये
रखते हैं, जिसको
वे संगीत कहते
हैं, वृक्ष
तडूफते हैं।
आदमी तो शायद
संवेदनशीलता
खो दिया है, वृक्षों की
संवेदनशीलता
अब भी उतनी
है।
जो
वैज्ञानिक
वृक्षों पर
प्रयोग कर रहा
था,
वह तो चकित
होकर भरोसा ही
नहीं कर सका, जब पहली दफा
उसे निर्णय
मिलने शुरू
हुए। जब कोई
कुल्हाड़ी
लेकर वृक्षों
को काटने आता
है, अभी
काटना शुरू
नहीं किया, लेकिन
कुल्हाड़ी लिए
वृक्षों ने
देखा कि आ रहा है
लकड़हारा, कि
सारे वृक्ष
कंप जाते हैं।
यंत्र बता
देता है फौरन
कि वृक्ष
चिंतित हैं, बहुत घबड़ाये
हुए हैं, पता
नहीं किसकी
बारी आ गई! और
चकित होने की
बात है कि एक
वृक्ष को काटो
तो सारे वृक्ष
पीड़ित होते
हैं आस—पास।
और ऐसा ही
नहीं कि वृक्ष
को काटने से
पीड़ित होते
हैं; तुम
एक चिड़िया को
मार डालो, सारे
वृक्ष पीड़ित
होते हैं।
चिड़िया को
मारने से!
वृक्षों को
क्या
लेना—देना है?
मगर चिड़िया
भी उनकी थी।
नीड़ बनाती थी
उन पर। उनको
गौरव देती थी,
सौभाग्य
देती थी।
आस—पास नाचती
थी, गीत
गुनगुनाती
थी। टी वी टुक
टुक मचाती थी।
थी तो जीवन
था। और फिर
किसी भी जीवन
को चोट पड़ रही है
तो वृक्षों को
संवेदनशीलता
होती है।
और
जब माली को
वृक्ष आते
देखते हैं
पानी का फव्वारा
लिये तो
आनंद—मग्न हो
जाते हैं। अभी
पानी बरसा
नहीं उन पर, मगर
उनकी प्यास
आतुर हो जाती
है। तैयार हो
गये, प्रसन्नचित्त
हैं। धन्यवाद
उठने लगा। ये
सब अब
वैज्ञानिक
तथ्य हैं। कवि
तो इस तरह की
बातें सदा से
करते रहे हैं।
कवि हजारों
वर्ष पहले वे
बातें कह देते
हैं, जो
विज्ञान को
पकड़ने में
हजारों वर्ष
लग जाते हैं।
महावीर
ने जरूर ही इस
तरह की कुछ
बात वृक्षों में
सुनी होगी, पहचानी
होगी, तभी
उन्होंने कहा
वृक्ष से
कच्चे फल भी
मत तोड़ो। जब
फल पक जायें
और अपने से
गिर जायें तभी
स्वीकार करो।
जब वृक्षों की
यह हालत, तो
पशु—पक्षियों
की तो कैसी न
होगी! कैसे
कठोर होंगे वे
लोग, जो
पशु—पक्षियों
को खाये चले
जाते हैं। और
छोटे—मोटे
लोगों की बात
छोड़ दो, जिनसे
तुम अपेक्षा न
करो.।
अभी
भारत के
राष्ट्रपति
संजीव चोई
मद्रास से बहुत
नाराज लौटे, क्योंकि
मद्रास के
राजभवन में
उनको मांसाहार
की सुविधा
नहीं मिल सकी।
गांधीवादी
हैं। गाधीवादी
टोपी लगाने से
कोई
गांधीवादी
होता है! यह
किस तरह का
गाधीवाद है? मांसाहार
गांधीवादी कर
रहा है, फिर
क्यों बकवास
व्यर्थ
अहिंसा की उठा
कर रखी है? बंद
करो यह बकवास!
भूलो गांधी को
और गांधी के नाम
को। ये थोथी
बातें क्यों
दोहराते हो? किसको धोखा
दे रहे हो?
मगर
तुम्हारे राजनेताओं
में अधिक
मांसाहारी
हैं। तुम्हारे
राजनेताओं
में अधिक शराब
पीनेवाले
हैं। और ये सब
गांधीवादी
हैं। और दो
अक्टूबर को
राजघाट पर
बैठकर चरखा
चलाने लगते
हैं।
मांसाहार कोई
आदमी कर सके
और अहिंसक
होने का दावा
भी कर सके, तो
फिर और झूठ
क्या होगा इस
दुनिया में? मगर सारी
बातों के पीछे
एक ही लक्ष्य
है—कैसे तुम्हारा
वोट मिल जाये?
मैंने
सुना है नेता
जी ने मजमा
लगाया और हांक
लगायी—बहनो और
भाइयो, कहने
की बात है, न
कहने की भी; सुनने की
बात है, न
सुनने की भी, सोचने की
बात है, न
सोचने की भी, करिश्मे
बहुत देखे
होंगे पर भैया
ठहरना, आखिर
तक ठहरना और
सारे खेल
देखकर जाना।
तो... तो यह लो
पहला खेल..
देखे न कितने
करिश्मे, कितने
खेल, अब
हाथों को
दिलों पर धर
लो, दिमाग
को कहीं और धर
दो। मेरी बहनो,
मेरे भाइयो!
कसम है हरेक
भाई को, हरेक
बहन को, बीच
में छोड्कर न
जाना, नहीं
तो मेरी यह सत्ताइस
साल की बेटी
पड़ी रहेगी। तो
बेटी किसकी?
'हमारी', एक
स्वर गूंजा।
नाम?
'
आजादी। '
'कहो सिर काट
दूं इसका?'
'काट दो। '
'हां, काट
दो। तुम्हारी
कौन लगती है? बेटी मेरी
है। कहो काट
कर जोड़ दे
नेता!' 'काट कर जोड़
दे नेता। '
'हां तो
कद्रदान, यह
लो। '
चादर
डाल उसने
आजादी की गरदन
काट अलग रख
दी।
'कहो, दिखा
दे नेता, कपड़ा
हटा दे। ' 'नहीं',
कई चीखें
उभरीं—पर नेता
का स्वर सबसे
ऊपर—
'कसम है
खिसकना मत
अपनी जगह से, वरना
तुम्हारी
आजादी, तुम्हारी
सच्चाई यूं ही
पड़ी रहेगी।
साहिबानों, एक, दो, जितने डाल
सको, वोट
डाल दो। जिला दो
मेरी बच्ची
को। वह एक तरफ
बैठ गया और
सहमे मजमे में
हरेक ने कटी
गरदन देखने के
डर से सारे वोट
डाल दिये उसके
बंद डिब्बे
में।
तुम्हारे
नेता
मदारियों से
ज्यादा भिन्न
नहीं रह गये
हैं। और हर
चीज की
आकांक्षा एक
है कि कैसे
तुम्हारा वोट
पड़ जाये। तो
चरखा भी कातते
हैं,
खादी भी
पहनते हैं, गांधीबाबा
का नाम भी
लेते हैं।
मंदिरों में भी
जाते हैं, मस्जिदों
में भी चले
जाते हैं।
अल्लाह ईश्वर तेरे
नाम, सबको
सनमति दे
भगवान! ऐसे
भजन भी करते
हैं। और मांसाहार
न मिले तो देश
का
राष्ट्रपति, भारत जैसे
देश का
राष्ट्रपति (! )
परेशान हो
जाता है। एक
दिन मांसाहार
नहीं मिल सका
तो अड़चन हो
गई। मिल गया
होता तो शायद
लोगों को पता
ही नहीं चलता
कि वे
मांसाहार भी
करते हैं।
महावीर
को दिखाई पड़ा
होगा कि
वृक्षों को
चोट पहुंचानी
तभी संभव है, जब
तुम्हारे
भीतर
संवेदनशीलता
न हो, जब
तुम पत्थर के
हो गये हो। पशुओं
को मार कर
खाना तभी संभव
है, जब
तुम्हारा
हृदय मर चुका
हो, तुम्हारी
आत्मा बिलकुल
जड़ हो गई हो।
वही
तो कल गोरख ने
कहा,
तुम्हें
याद है न, कि
पत्थर को
पूजते हो और
पत्थर हो गये
हो:! पत्थर के
तुम्हारे
मंदिर हैं, पत्थर की
तुम्हारी
प्रतिमायें
हैं, तुम्हारे
भीतर भी पत्थर
है। तुम्हारे
भीतर से प्राण
खो गए हैं।
सारा
जगत
संवेदनशील
है। यह सारा
जगत अपने— अपने
ढंग से
प्रार्थना कर
रहा है। पूजा
चल रही है, अर्चन
चल रहा है।
भाषा का सवाल
नहीं है, भाव
का सवाल है।
तुम भाषा
छोड़ो। तुम, भाव जब उमगे,
भाव जब
तुम्हारे
प्राणों में
भर जाये, तब
डूब जाओ। ही, रोना हो रोओ,
हंसना हो
हंसों, नाचना
हो नाचो। ये
भाव के ढंग
हैं।
तुम्हारे
आंसू जितने
निकट तुम्हें
ले जायेंगे
परमात्मा के, तुम्हारे
शास्त्र नहीं
ले जा सकते।
क्योंकि तुम्हारे
आंसू
तुम्हारे हैं;
तुम्हारे
हृदय की
गहराइयों से
आते हैं। तुम्हारे
आंसू
तुम्हारा
निवेदन हैं।
सलाम—ए—हसरत
कबूल कर लो
मेरी मुहब्बत
कबूल कर लो
नाचो
कभी मगन होकर, इतना
अपूर्व संसार
दिया है
तुम्हें
उसने। ऐसा
बहुमूल्य
जीवन दिया है!
एक—एक चीज
बेशकीमती है।
यहां एक—एक कण
उससे ही
आपूरित है, इतना
छंदबद्ध
अस्तित्व—और
तुम धन्यवाद
भी नहीं देते!
धन्यवाद
है
प्रार्थना।
और निश्चित ही
उसकी याद
सताये, यह
शुभ है। उसकी
याद तुम्हें
मथ डाले, यह
शुभ है। मगर
इस याद को
औपचारिकता मत
बनाना, नहीं
तो यह झूठी हो
जाती है।
औपचारिकता
काम नहीं आती।
मैं
एक घर में
मेहमान था। उस
घर की बच्ची, स्कूल
में वाद—विवाद
प्रतियोगिता
थी, मुझसे
बोली, कि
आप इतना बोलते
हैं, मुझे
सिर्फ तीन
मिनिट
व्याख्यान
देना है, मुझे
व्याख्यान
तैयार करवा
दो। और अगर आप
तैयार
करवाओगे तो
मुझे प्रथम
पुरस्कार
मिलने ही वाला
है। वह एकदम
पीछे पड़ी थी
तो मैंने उसे
तैयार
करवाया।
बार—बार उसे
दोहरवा कर
तैयार करवा
दिया। पहले ही
उसको कहा कि
भाइयो एवं
बहनो, अगर
मुझसे कोई भूल
हो जाये तो
क्षमा करना।
मैंने उससे
कहा कि तू यह
पहले ही कह
देना। उसके मां—बाप
जा रहे थे, उन्होंने
कहा आप भी
चलें, तो
मैं भी गया
सुनने। तो
उसने
व्याख्यान
शुरू किया, मेरी तरफ
देखा। बहुत
खुश थी, क्योंकि
उसने बिलकुल
तैयार कर रखा
था। उसने कहा :
भाइयो एवं
बहनो! अगर
मुझसे कोई
क्षमा हो जाये
तो आप भूल कर
देना।
अब
क्या करोगे? तोतों
की तरह रटा दो
तो बहुत दूर
तक बात जाती नहीं
है। ऐसे ही
तुम्हारी
प्रार्थनायें
लड़खड़ा कर गिर
जाती हैं।
तुमने सीख लिया
तोतों की तरह।
कर रहे हैं
भजन, मगर
सब
सीखा—सिखाया।
तो अभिनय है, यथार्थ नहीं
है। यथार्थ
होना चाहिये।
तो
मत पूछो :
प्रार्थना
कैसे करूं? हिलोर
आने दो, उसी
हिलोर में
बहो। बस रोकना
मत, जब
हिलोर पकड़े तो
रोकना मत। हम
बड़े कंजूस हो
गये हैं। हम
रोने में डरते
हैं, हम
हंसने में
डरते हैं। हम
नाचने में
डरते हैं। हम
भावाभिभूत
होने में डरते
हैं। हम
बिलकुल सिकुड़
गये हैं।
हमारी पूरी
मनुष्यता
झूठी, थोथी,
पाखंडी हो
गई है।
तुम्हारी
याद सताती है।
घाव की
टीस बढ़ाती है!
आम पर
बोल रही कोयल
दर्द
कुछ घोल रही
कोंपल
आंख से
अपने तुम ओझल
कहीं
छिप बिरहन
गाती है
तुम्हारी
याद सताती है।
कहीं
पर बजती मादक
बीन
नयन से
निंदिया लेती
छीन
तड़पती
मरु में कोमल
मीन
तुम्हें
छू पुरवा आती
है!
घाव की
टीस बढ़ाती है!
अभी
मैं कहती हूं
कुछ बोल
मुझे
दे चुंबन कुछ
अनमोल
प्राण
से प्राण जरा
ले मोल
उमरिया
बीती जाती है!
घाव की
टीस बढ़ाती है!
तुम्हारी
याद सताती है!
परमात्मा
की याद को
सताने दो। टीस
को बढ़ने दो।
तुम्हारे
भीतर घाव गहरा
हो,
वही घाव
प्रार्थना
है।
प्रार्थना
शब्दों में
नहीं होती, प्रार्थना
प्राणों का
गुंजन है।
तुम
जल्दी करना ही
मत इसे शब्दों
में ढालने की, अन्यथा
मन बहुत कुशल
है। मन सब
चीजों को झूठा
करने का
रास्ता जानता
है। रास्ते पर
कोई मिल जाता
है, तुम
एकदम
मुस्कुराने
लगते हो। वह
मुस्कुराहट
झूठी है।
तुम्हारे
भीतर नहीं है,
सिर्फ ओंठ
पर चिपकी है।
जिमी कार्टर
जैसी
मुस्कुराहट
है वह।
मैंने
सुना है कि
जिमी कार्टर
की पत्नी को
रात में उनका
मुंह बंद करना
पड़ता है, नहीं
तो वे रातभर
भी मुंह खोले
रहते हैं।
दिन— भर का
अभ्यास! मुंह
बंद करना पड़ता
है, नहीं
तो कोई चूहा
चला जाये भीतर
या कुछ, उपद्रव
हो जाये कुछ।
तुम्हारी
मुस्कुराहटें
झूठी हैं। तुम
हंसते हो
क्योंकि
हंसना चाहिये, तुम
रोते हो
क्योंकि रोना
चाहिये। कोई
मर गया तो तुम
रोते हो।
मैं
एक घर में
मेहमान था। उस
घर में एक
सज्जन मर गए।
किसी को फिकर
नहीं थी उनके
मरने की। सब प्रसन्न
थे,
क्योंकि वह
सज्जन काफी
सता चुके थे।
कई साल से बीमार
थे। और घर में
अगर एक ही
प्रार्थना
चलती थी सबके
हृदय में, तो
यह कि वह किसी
तरह अब जायें,
भगवान उठाओ
इन्हें! घर— भर
की नाक में दम
कर रखी थी
उन्होंने। वह
मर गये तो सब
प्रसन्न थे, मगर
प्रसन्नता
जाहिर तो नहीं
कर सकते। कोई
मृदंग बजा कर
तुम घोषणा तो
नहीं कर सकते
कि बडे आनंदित
हैं। रोना तो
पड़ेगा ही। सर्दियों
के दिन थे, मैं
बाहर बैठा था।
घर की जो
गृहणी थी, उसने
मुझे कह रखा
था, कोई
बैठने वाला
आये, आप
जरा यह घंटी
बजा देना।
मैंने कहा, क्यों? उसने
कहा कि रोना
पड़ेगा न! कोई
एकदम से आ
जाये और देखे
कोई रो ही
नहीं रहा है, तो लोकलाज
भी रखनी पड़ती
है। तो मैंने
कहा, अच्छा।
एक सज्जन आये,
मैंने घंटी
बजाई। सज्जन
अंदर गये, मैं
भी अंदर गया, मैं देख कर
दंग हुआ। उस
महिला ने
जल्दी से घूंघट
मार लिया जोर
से और रोने
लगी। घूंघट
इसलिये मार
लिया कि आंसू
तो आयेंगे
नहीं। आंसू
कैसे आ सकते हैं?
घूंघट जोर
से मार लिया।
और रोने लगी
जोर—जोर से।
जैसे ही वह
सज्जन गये, घूंघट
वापिस... वह फिर
बातचीत करने
लगी। सब ठीक—ठाक
है, कहीं
कोई अड़चन न
रही।
तुम
रोते भी झूठे
हो,
तुम हंसते
भी झूठे हो!
तुम्हारा
सारा व्यक्तित्व
मिथ्या है।
इसी मिथ्या
व्यक्तित्व
को कहीं तुम
प्रार्थना का
अंग भी मत बना
देना। इसलिये
तो लोग
सत्यनारायण
को कथा करवा
लेते हैं। खरीद
लाये एक पंडित
को कि भाई
करवा दे, ले
लेना दस रुपये;
कि यह भगवान
पीछे पड़ा है, करवा दे
सत्यनारायण
की कथा, कहने
को तो रह
जायेगा कि
करवायी थी
कथा।
तिब्बती
एक प्रार्थना
का चक्र बना
लिये हैं।
छोटा चका जैसा, जैसा
चरखा पर चका
होता है।
उसमें जितने
आरे हैं.. एक सौ
आठ आरे हैं, जैसे माला
में एक सौ आठ
गुरिये होते
हैं। प्रत्येक
आरे पर मंत्र
लिखा है। वह
चके को घुमा
देते हैं।
जितने चक्कर
चका लगा लेता
है, उतने
मंत्र—पाठ का
लाभ मिल गया, पुण्य मिल
गया।
मैं
बोधगया में
था। एक
तिब्बती लामा
मेरे पास ठहरे
थे। वह अपनी
किताब भी पढ़ते
रहें' और
बीच—बीच में
चके को चक्कर
लगा दें। एक
दिन मैंने
देखा, दो
दिन देखा, मैंने
उनसे कहा : एक
काम करो, कहां
का पुराना तुम
यह रवैया लिये
बैठे हो। इसमें
बिजली का तार
जोड़ कर इसको
बिजली से
कनेक्ट कर दो।
तुम फिर जो तुम्हें
करना है करो, यह चक्कर
लगाता ही
रहेगा, लगाता
ही रहेगा। रात
तुम सोये रही
तो भी चक्कर
लगाता रहेगा।
तुम्हारे
पुण्य का कोई
अंत नहीं
रहेगा। पुण्य
ही पुण्य बरस
जायेगा तुम
पर।
किसको
धोखा दे रहे
हो?
लोग
तरकीबें निकाल
लिये हैं
प्रार्थना की
भी, जो
झूठी हैं। लोग
झूठे हैं, इसलिये
जो भी करते
हैं, वही
झूठ हो जाता
है।
मत
पूछो कि मैं
प्रार्थना
कैसे करूं।
लहर उठ रही है, भाव
उठ रहा है—इस
भाव में
रुकावट मत
डालना बस। बाधा
मत डालना। यह
लहर जहा ले
जाये इसके साथ
जरा चले जाना।
डर लगेगा पहले
पहले कि पता
नहीं यह कहां
ले जाए, कि
कहीं बीच
बाजार में
रोने लगू कि
जहा लोग गंभीर
बैठे हों वहा
मैं हंसने लगू
तो लोग पागल समझेंगे!
ध्यान
रखना, सिर्फ
पागल ही
प्रार्थना कर
सकते हैं।
जिनमें पागल
होने की
हिम्मत है वे
ही केवल
प्रार्थना के
रास्ते पर यात्रा
कर सकते हैं।
छूकर
प्राणों की
पीर,
प्रीत बन
जाओ!
जो कुछ
सुलझी थी, आज
उसे उलझा दो
जो कुछ
उलझी थी, आज
उसे सुलझा दो
मेरे
आंसू के सावन
आज सुखा दो
मैं
चाह रही हूं
मुझको आज दुखा
दो
नयनों
के नेही
स्नेह—नीति बन
जाओ!
छूकर
प्राणों की
पीर,
प्रीत बन
जाओ!
तुम
स्नेह—स्वाति
बन,
जीवन— भर
तरसाओ
मेरे
चित—चातक को न
अधिक दरसाओ
अधरों
की यदि मुसकान
चुराओ जानूं
इतना
कर दो धन्यभाग
मैं मानूं
तुम
वर्तमान के
चिर अतीत बन
जाओ!
छूकर
प्राणों की
पीर,
प्रीत बन
जाओ!
मेरे
सम्मुख झूठा
शृंगार नहीं
है
स्वम्मिल
आशाओं का आधार
नहीं है
मेरी
वीणा के बिखरे
तार सजा दो
इंगित
से उनको क्षण—
भर आज बजा दो
गाकर
तुम मेरे गीत, मीत
बन जाओ!
छूकर
प्राणों की
पीर,
प्रीत बन
जाओ!
प्रार्थना
तुम मत करो, परमात्मा
को पुकारो कि
तुम्हारे
भीतर प्रार्थना
बने।
मेरी
वीणा के बिखरे
तार सजा दो
इंगित
से उसको क्षण—
भर आज बजा दो
गाकर
तुम मेरे गीत, मीत
बन जाओ!
छूकर
प्राणों की
पीर,
प्रीत बन
जाओ!
यथार्थ
प्रार्थना, तुम्हारी
नहीं
होती—परमात्मा
के द्वारा ही
परमात्मा की
होती है। तुम
सिर्फ माध्यम
होते हो। बास
की पोंगरी!
वही गाता
तुमसे गीत।
तभी
प्रार्थना
सच्ची होती
है। और तभी
प्रार्थना
मुक्तिदायी
होती है।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
अपनी पत्नी के
अतिरिक्त
अन्य
स्त्रियों में
भी उत्सुक हो
जाता हूं
लेकिन जब मेरी
पत्नी किसी
पुरुष में
उत्सुकता
दिखाती है तो
मुझे बड़ी
ईर्ष्या होती
है भयंकर अग्नि
में मैं जलता
हूं।
पुरुषों
ने सदा से
अपने लिए
सुविधाएं बना
रखी थीं, स्त्रियों
को अवरुद्ध कर
रखा था।
पुरुषों ने स्त्रियों
को बंद कर
दिया था
मकानों की चार
दीवारों में,
और पुरुष ने
अपने को मुक्त
रख छोड़ा था।
अब वे दिन गए।
अब तुम जितने
स्वतंत्र हो,
उतनी ही स्त्री
भी स्वतंत्र
है। और अगर
तुम चाहते हो
कि ईर्ष्या
में न जलों तो
दो ही उपाय
हैं। एक तो उपाय
है कि तुम
स्वयं भी
वासना से
मुक्त हो जाओ।
जहा वासना
नहीं वहां
ईर्ष्या नहीं
रह जाती। और
दूसरा उपाय है
कि अगर वासना
से मुक्त न होना
चाहो तो
कम—से—कम
जितना हक
तुम्हें है, उतना हक
दूसरे को भी
दे दो। उतनी
हिम्मत जुटाओ।
मैं
तो चाहूंगा कि
तुम वासना से
मुक्त हो जाओ।
एक स्त्री जान
ली तो सब
स्त्रियां
जान लीं। एक
पुरुष जान
लिया तो सब
पुरुष जान
लिये। फिर जो
भेद हैं, वे
केवल ऊपरी
रेखाओं के
हैं। और जो एक
स्त्री को
जानकर
स्त्रियों को
नहीं जान पाया,
समझ लेना कि
मूर्च्छित
होकर जी रहा
है। वह अनंत
स्त्रियों को
जानकर भी नहीं
जान पायेगा।
वह जान ही
नहीं पायेगा।
क्योंकि
जानना होता है
बोध से; वह
मूर्च्छित
है। वह भागता
रहेगा एक को
छोड्कर दूसरी
के पीछे।
और
निश्चित ही
तुम जलोगे, क्योंकि
पुरुष के
अहंकार को चोट
लगेगी। इसको
तो तुम समझते हो
बिलकुल ठीक है,
कि तुम किसी
दूसरे की
स्त्री में
उत्सुक हो जाओ
तो कोई अड़चन
नहीं। हम कहते
हैं : पुरुष
आखिर पुरुष
है! पुरुषों
ने ही गढ़ ली
होगी यह कहावत
कि पुरुष आखिर
पुरुष है।
पुरुषों ने ही
यह हिसाब गढ़
लिये कि पुरुष
एक से तृप्त
नहीं होता, पुरुष को
अनेक स्त्री
चाहिये; स्त्री
एक से तृप्त
हो जाती है।
ये पुरुषों की
ही तरकीबें
हैं। स्त्री
को एक से
तृप्त होना चाहिये—वह
एक तुम हो! और
तुम! तुम कैसे
एक से तृप्त
हो सकते हो, तुम तो
पुरुष हो, पुरुष
को तो सुविधा
ज्यादा होनी
चाहिये!
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन के
पड़ोस में
श्रीमान मल्होत्रा
नये—नये आकर
पड़ोसी हुए।
उनकी पत्नी
बहुत सुंदर
है। मुल्ला ने
अपनी पत्नी को
चिढ़ाने के लिए
एक दिन सुबह
उठते से ही
कहा कि सुनो, नाराज न
होना, कुछ
दिनों से रोज
मुझे सपनों
में श्रीमती
मल्होत्रा दिखाई
पड़ती हैं।
पत्नी
बोली : अकेले
ही दिखाई देती
हैं न? मुल्ला
बोला. ही, पर
तुम्हें कैसे
पता चला? पत्नी
ने कहा :
क्योंकि
श्रीमान
मल्होत्रा मेरे
सपनों में आते
हैं। मुल्ला
इससे बहुत
दुखी था। चले
थे पत्नी को
चिढ़ाने, चिढ़
गए खुद।
जितनी
स्वतंत्रता
तुम अपने लिये
चाहते हो, उतनी
ही
स्वतंत्रता
तुम्हारी
पत्नी की भी
है। और अगर
तुम पाते हो
कि नहीं, पत्नी
का दूसरे
पुरुषों में
उत्सुक होना
उचित नहीं है,
तो फिर
तुम्हारा भी
दूसरी
स्त्रियों
में उत्सुक
होना भी उचित
नहीं है। और
जो तुम चाहते
हो तुम्हारी
पत्नी करे, वह तुम्हें
पहले करना
चाहिये; तभी
तुम हकदार हो।
अपनी
वासना की
दौडों को
छोड़ो। और मैं
तुमसे यह बात
कहे देता हूं :
स्त्रियां
निश्चित ही
इतनी ज्यादा
वासनाग्रस्त
नहीं होतीं, जितने
पुरुष होते
हैं।
स्त्रियों के
पास एक तरह का
समर्पणभाव
होता है। और
स्त्रियों के
पास एक तरह की
निष्ठा और
आस्था और
श्रद्धा होती
है। पुरुष का
प्रेम भी
छिछला होता है,
गहरा नहीं
होता, ऊपर—ऊपर
होता है।
पुरुष की
जिंदगी में
प्रेम ही सब
कुछ नहीं होता,
और भी बहुत
चीजें होती
हैं; स्त्री
के जीवन में
बस सब कुछ
प्रेम ही होता
है, और सब
चीजें प्रेम
के ही भीतर
समाविष्ट होती
हैं। पुरुष के
जीवन में और
भी कई काम हैं,
जिनमें
प्रेम भी एक
काम है।
स्त्री के
जीवन में और
कोई काम ही
नहीं है, सारा
काम ही, सारे
काम ही प्रेम
में ही
समाविष्ट
हैं।
पुरुष
उच्छृंखल है, पुरुष
चंचल है। यह
तुम छोटे—छोटे
बच्चों में भी
देख लेना।
छोटा लड़का हो,
शात बैठ ही
नहीं सकता।
चीजें पटकेगा,
घड़ी खोलेगा,
मक्खियां
पकड़ने लगेगा,
कुछ—न—कुछ
करेगा
खटर—पटर। छोटी
बच्ची है, वह
शात बैठी है
एक कोने में।
हो सकता है, अपनी गुड़िया
को छाती से
लगाये हो।
और
तुम खयाल रखना, स्त्रियों
को पता चलना
शुरू हो जाता
है गर्भ में
भी कि लड़का है
कि लड़की। अगर
जरा
संवेदनशील
स्त्री हो, उसे पता
चलना शुरू हो
जाता है, क्योंकि
लड़का वहीं
उपद्रव शुरू
कर देता है। कहीं
टांग मारेगा,
कहीं सिर
हिलायेगा।
लड़की शात होती
है। अनुभवी
मां को पता
चलना शुरू हो
जाता है कि
लड़का है कि
लड़की। उपद्रव
के अनुपात से
पता चलना शुरू
हो जाता है।
इसका
वैज्ञानिक
कारण है।
जीवशास्त्र
कहता है कि
स्त्री के
व्यक्तित्व
में अनुपात है, पुरुष
के
व्यक्तित्व
में अनुपात
नहीं है। स्त्री
के जो अणु हैं,
वे सम हैं।
दो अणुओं से
मिलकर जन्म
होता है व्यक्ति
का—पुरुष और
स्त्री के दो
अणुओं से मिलकर।
पुरुष में
चौबीस
कोष्ठों वाले
अणु होते हैं
और तेईस
कोष्ठोवाले
अणु होते हैं,
दो तरह के
अणु होते हैं।
स्त्री में
चौबीस कोष्ठों
वाला ही होता
है। जब पुरुष
का चौबीस कोष्ठों
वाला अणु
स्त्री के
चौबीस
कोष्ठों वाले
अणु से मिलता
है तो लड़की का
जन्म होता है।
अड़तालीस अणु।
सम होता है
तौल। तराजू के
दोनों पलड़े
बराबर होते
हैं। और जब
पुरुष का तेईस
कोष्ठों वाला
अणु स्त्री के
चौबीस
कोष्ठों वाले
अणु से मिलता
है तो पुरुष
का जन्म होता
है। एक पलड़ा
नीचा होता है,
एक पलड़ा
ऊंचा होता है,
समतुलता
नहीं होती।
सैंतालीस
कोष्ठ होते हैं—एक
तरफ तेईस, एक
तरफ चौबीस।
स्त्री में
चौबीस—चौबीस
कोष्ठ होते
हैं। इसलिये
स्त्री
ज्यादा सुंदर
होती है, समानुपाती
होती है, शात
होती है।
उसमें एक तरह
की समता होती
है। एक तरह की
थिरता होती
है। एक तरह की
गोलाई होती है
स्त्री के
व्यक्तित्व में।
पुरुष में
थोड़ा—सा
तिरछापन होता
है, आडा—आड़ा
जाता है। उसके
वैज्ञानिक
आधार भी हैं।
ढब्बू
जी और उनकी
पत्नी
तीर्थयात्रा
को गये। ढब्बू
जी किताबों के
बड़े प्रेमी
हैं,
चौबीस घंटे
किताबें बगल
में दबाये
रहते हैं। मंदिर
में भी
गए—विश्वनाथ
के मंदिर में
गये होंगे
काशी में। ढब्बू
जी अपनी किताब
ही पढ़ रहे हैं
मंदिर में भी
खड़े होकर।
पत्नी प्रार्थना
कर रही है। अब
उसका दुख तुम
समझो। उसने
जोर से कहा : हे
विश्वनाथ के
देवता! इतना
भर करना, अगले
जन्म में मरकर
मैं स्त्री न
होऊं, किताब
होऊं, ताकि
कम—से—कम ढब्बू
जी के साथ
चौबीस घड़ी तो
रह सकूं।
ढब्बू
जी ने सुना।
वह भी तत्क्षण
झुक गए घुटनों
के बल, हाथ
जोड़कर कहा कि
हे प्रभु! अगर
उसकी
प्रार्थना
मान ही लो तो
तुम इसे
टेलीफोन की
डायरेक्टरी
बनाना, ताकि
हर साल बदल
सकूं।
पुरुष
का चित्त ऐसा
ही चंचल है।
इस चंचलता को जाने
दो। थोड़े थिर
होओ। थोड़े शात
होओ। थोड़े जीवन
में समझदार
होओ। बहुत दौड़
चुके
जन्मों—जन्मों
तक,
कहां
पहुंचे हो? और कब तक
दौड़ते रहोगे? अब ठहरो!
ठहरें
पांव तो मिले
गांव। ठहर जाओ
तो गांव मिल
जाये। तो
जिसकी तलाश है
वह मिल जाये।
उस ठहरने का
नाम ही ध्यान
है। चलते रहने
का नाम संसार है।
ठहर जाने का
नाम परमात्मा
है।
आज
इतना ही।
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