पउड़ी: 38
जतु
पहारा धीरजु सुनिआरु।
अहरणि
मति वेदु हथीआरु।।
भउ
खला अगनि तपताउ।
भांडा भाउ
अमृत तितु
ढालि।।
घड़ीए सबदु सची
टकसालु।
जिन कउ नदरि करमु
तिन कार।।
'नानक'
नदरी नदरि
निहाल।।
सलोकु:
पवणु
गुरु पाणी
पिता माता धरति
महतु।
दिवस
राति दुइ दाई दाइआ खेले सगलु जगतु।।
चंगिआइआ बुरिआइआ वाचै धरमु
हदूरि।
करमी
आपा आपणी
के नेड़े
के दूरि।।
जिनी
नामु धिआइआ
गए मसकति घालि।
'नानक'
ते मुख उजले
केती
छूटी नालि।।
जतु
पहारा धीरजु सुनिआरु।
अहरणि
मति वेदु हथीआरु।।
भउ
खला अगनि तपताउ।
भांडा भाउ
अमृत तितु
ढालि।।
घड़ीए सबदु सची
टकसालु।
जिन कउ नदरि करमु
तिन कार।।
एक-एक
शब्द समझने
जैसा है: 'संयम
भट्टी है, धीरज
सुनार है, बुद्धि
निहाई है, और
ज्ञान हथौड़ा
है। भय ही
धौंकनी है और
तपस्या अग्नि
है। भाव ही
पात्र है, जिसमें
अमृत ढलता है।
सत्य के टकसाल
में शब्द का
सिक्का गढ़ा
जाता है। जिन
पर उसकी
कृपा-दृष्टि
होती, वे
ही यह कर पाते
हैं। नानक
कहते हैं, वे
उस
कृपा-दृष्टि
से निहाल हो
उठते हैं।'
संयम
का अर्थ है, जीवन को
दिशा देना, जीवन को
मार्ग देना, जीवन को
लक्ष्य देना,
मंजिल देना।
बिना संयम के
आदमी ऐसा है, जो सभी
दिशाओं में
भाग रहा हो।
जिसे ठीक पता
न हो कहां
जाना है, जिसे
ठीक पता न हो
क्या पाना है,
जिसका कोई
लक्ष्य न हो।
बिना संयम का
जीवन ऐसा है, जैसे अंधेरे
में अंधा आदमी
तीर को चला
दे। संयम का
जीवन है
लक्ष्य का ठीक
बोध, निशाना
और तीर को उसी
दिशा में
छोड़ना है जहां
लक्ष्य है।
अगर तुम कहीं
भी तीर को छोड़
दोगे, अगर
किसी भी दिशा
में छोड़ दोगे
अंधेरे में और
अंधे की भांति,
कोई
संभावना नहीं
है कि तुम
किसी स्थिति
को उपलब्ध हो
पाओ। कोई
सिद्धि संभव
नहीं है बिना
संयम के।
तो
संयम का पहला
अर्थ तो यह है, एक दिशा, एक
गंतव्य।
गंतव्य जैसे
ही तुमने पकड़ा,
उस गंतव्य
के विपरीत जो
भी है, उसे
छोड़ने की
सामर्थ्य
इकट्ठी करनी
पड़ेगी। जीवन
में सभी कुछ
नहीं पाया जा
सकता। अगर तुम
एक चीज पाना
चाहते हो, तो
हजार चीज छोड़नी
पड़ेंगी।
जिसने सभी को
पाने की कोशिश
की, वह
बिना कुछ पाए
समाप्त हो
जाता है। पाने
का अर्थ ही है
कि तुमने
चुनाव किया।
तुम
मुझे सुनने
चले आए हो।
तुम्हें बहुत
कुछ संयम करना
पड़ा है, इस
चुनाव के लिए
भी। कुछ काम
अधूरा है, जो
तुम घर पर छोड़
आए हो। इस समय
का दूसरा
उपयोग भी हो
सकता था। तुम
बाजार में धन
कमा सकते थे।
इस समय की
उपयोगिता
बहुत थी, लेकिन
तुमने एक
निश्चय किया
है। तुम यहां
चले आए हो।
इसका अर्थ है,
तुमने कुछ
छोड़ा है। इस
समय से जो-जो
संभावनाएं
थीं, वे सब
तुमने छोड़ी
हैं और एक
संभावना को
चुना है।
प्रत्येक
क्षण की अनंत
संभावनाएं
हैं। एक-एक पल
हजारों
दिशाओं में ले
जा सकता है।
जो आदमी
वेश्या के घर
गया है, वह
मंदिर का
त्याग कर के
गया है। वह
मंदिर में भी
जा सकता था।
उसने संयम रखा
है मंदिर न
जाने का। जो
मंदिर गया है,
वह भी
वेश्या के घर
जा सकता था।
उसने भी संयम
रखा है, वेश्या
के घर न जाने
का। और हजार
संभावनाएं थीं।
एक-एक
कदम तुम उठाते
हो, तब तुम
हजारों कदम
छोड़ते हो। जो
चलता ही नहीं है,
उसे ही संयम
की जरूरत नहीं
है। जो भी
चलेगा, उसे
तो बोधपूर्वक
चुनाव करना
होगा एक-एक
कदम।
तो
दिशा, मार्ग,
लक्ष्य; और
जब इन तीनों
का तालमेल बैठ
जाता है, तब
तुम्हारे
जीवन में संयम
की उपलब्धि
होती है। नानक
कहते हैं, संयम
भट्टी है, जिससे
सोना निखरता
है, कचरा
जल जाता है।
सचेतन रूप से
लक्ष्य को चुन
लेना; तुम्हारा
जीवन तब तीर
बन जाता है।
तब तुम कहीं
जा रहे हो।
तुम ऐसे ही
ठोकरें खा कर
इस कोने से उस
कोने नहीं गिर
रहे हो। तुम
ऐसे ही भीड़ के
धक्के में
कहीं नहीं चले
जा रहे हो।
तुम ऐसे ही
वासनाओं के
द्वारा कहीं
भी नहीं ले
जाए जा रहे
हो।
और वासनाग्रस्त
आदमी और संयमी
आदमी का यही
बुनियादी भेद
है। वासनाग्रस्त
हजार दिशाओं
में एक साथ दौड़ता
है। इसलिए वासनाग्रस्त
धीरे-धीरे
विक्षिप्त हो
जाता है। हो
ही जाएगा। जिसके
जीवन में दिशा
न हो वह पागल
हो ही जाएगा।
क्योंकि वह
हजार काम
साथ-साथ करना
चाहता है। इधर
बैठ कर भोजन
करता है, वह
भी पूरा नहीं
कर पाता, तब
इसके मन में
दूकान चलती
रहती है।
दूकान पर बैठ
कर वह हजार
दूसरे काम मन
में करता रहता
है। उसके हजार
हाथ होते, हजार
पैर होते, हजार
शरीर होते, तो तुम उसकी
असली स्थिति
देख पाते। वह
हजार तरफ एक
साथ चला गया
होता। दुबारा
उन हजार
आदमियों का
कभी मिलना भी
नहीं होता।
पर यही
भीतर स्थिति
है। तुम्हारा
मन तो बिना हाथ, बिना पैर के
हजार दिशाओं
में एक साथ
चला जाता है।
तुम इसलिए तो
खंडित हो, टुकड़े-टुकड़े
हो। और जब तक
तुम अखंड न हो
जाओ, तब तक
प्रभु के
चरणों में चढ़ने
के योग्य न हो
सकोगे। वहां
तो अखंड ही चढ़ेगा।
इस
अखंडता के
कारण ही बहुत
पुरानी
प्रचलित धारणाएं
हैं। इस्लाम
में एक धारणा
है कि अगर कोई
आदमी मर जाए, और मरने के
पहले उसका हाथ
टूट गया हो, या अंगुली
कट गयी हो, या
कोई आपरेशन
हुआ हो, तो
वह परमात्मा
के चरणों में
पहुंचने के
योग्य न रह
जाएगा। इसलिए
मुसलमान डरता
है आपरेशन कराने
से। कराता भी
है तो भी
अपराध-भाव
अनुभव करता
है। क्योंकि
वह परमात्मा
के अयोग्य हुआ
जा रहा है। पख्तूनिस्तान
में पख्तून
आपरेशन भी
कराते हैं, तो अगर उनका
हाथ कट गया तो
हाथ को सम्हाल
कर रखते हैं।
मरते वक्त
उनकी कब्र में
उनके साथ वह हाथ
रख दिया जाता
है। ताकि
परमात्मा के
सामने जब वे
जाएं तो अधूरे
न हों।
यह बात
तो बड़ी
महत्वपूर्ण
है। लेकिन
इसका अर्थ बड़ा
गलत ले लिया
गया है।
परमात्मा के
सामने तुम
अखंड ही पहुंच
सकोगे। ऐसी
धारणा हिंदुओं
में भी है।
तुमने
कहानियां
सुनी होंगी कि
अगर यज्ञ में
जब आदमी कि
बलि दी जाती
थी, तो
सर्वांग आदमी
खोजा जाता था।
अगर जरा-सी
अंगुली भी कटी
हो तो यज्ञ
में आहुति के
योग्य न था।
एक
राजकुमार का
हाथ दब गया
दरवाजे में।
अंगुली टूट
गयी। वह एक
भक्त था। उसने
अपने नौकर को
पीछे मुड़ कर
कहा, परमात्मा
की कृपा है।
अंगुली ही
टूटी। फांसी भी
लग सकती थी।
उस नौकर ने
कहा, यह
जरा भक्ति
मेरी समझ में
नहीं आती।
नौकर तर्कनिष्ठ
था। बुद्धिशाली
था। उसने कहा,
यह जरा
अतिशय है। यह
आस्था मेरी पकड़
में नहीं आती।
अंगुली कट गयी,
चोट लगी है,
खून बह रहा
है। और तुम
धन्यवाद दे
रहे हो! यह धोखा
है। यह तुम
अपने को समझा
रहे हो।
उस
राजकुमार ने
कहा, रुको, समय
ही बताएगा।
क्योंकि
आस्था के लिए
कोई भी तर्क
नहीं दिया जा
सकता है।
सिर्फ समय ही
बताएगा। समय
ही बता सकता
है कि
आस्थावान सही
था या गलत था।
कोई और दूसरा
प्रमाण नहीं
हो सकता।
शिकार
को दोनों गए
थे, मार्ग
भटक गया। और
जंगल में कुछ अवधूतों
ने उन्हें पकड़
लिया, जो
आदमी की बलि
देना चाहते
थे। जब
उन्होंने राजकुमार
को बलि के लिए
खड़ा किया, तो
देखा कि उसकी
एक अंगुली कटी
है। तो
उन्होंने कहा,
यह आदमी
बेकार है, यह
हमारे किसी
काम का नहीं।
नौकर सर्वांग
था। उन्होंने
उसकी बलि दे
दी। जब उसकी
बलि दी जा रही
थी तब
राजकुमार ने
कहा, याद
करो, मैंने
कहा था कि
परमात्मा की
कृपा है, मेरी
अंगुली टूट
गयी। फांसी भी
हो सकती थी।
और समय ही बता
सकता है कि
मैं सही था या
गलत था। और
समय अब बता रहा
है।
यज्ञ
में भी पूरे
आदमी की बलि
दी जाती थी।
मगर यह बात भी
नासमझी की हो
गयी। मतलब
सिर्फ इतना है
कि परमात्मा
में वही आदमी
प्रवेश पा
सकता है जो
अखंड हो।
जिसका कोई भी
टुकड़ा
यहां-वहां न पड़ा
हो। जो पूरा
हो, इंटीग्रेटेड हो। पूरे
तुम तभी
होओगे...।
अंगुली कटने
से कोई अधूरा
नहीं होता।
सिर भी कट जाए
तो भी कोई अधूरा
नहीं होता।
लेकिन चेतना
जब कट जाती है,
तब आदमी
अधूरा होता
है। तुम्हारा
मन जब बिखर जाता
है। और
तुम्हारा मन
ऐसे है जैसे
पारा हो। पारे
को छोड़ दो, हजार
टुकड़े हो जाते
हैं तत्क्षण।
उन्हें पकड़ना
मुश्किल हो
जाएगा। तुम पकड़ने
जाओगे, जिस
पारे के बिंदु
को पकड़ोगे,
वही दस
बिंदुओं में
टूट जाएगा।
तुम्हारा मन पारे
की भांति है।
कितने टुकड़े
उसके हो गए
हैं! और सब
टुकड़े अलग-अलग
जा रहे हैं।
अगर तुम ठीक से
अपने भीतर
जागरूक हो जाओ,
तो तुम देखोगे,
एक मन उत्तर
जा रहा है, एक
पूरब जा रहा
है, एक
पश्चिम जा रहा
है, एक
दक्षिण जा रहा
है। एक धन
पाना चाहता है,
एक धर्म
पाना चाहता
है। सब तरफ जा
रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पत्नी की तलाश
में था। चाहता
था, बहुत
सुंदर स्त्री
मिल जाए।
लेकिन जब शादी
कर के लौटा तो
एक बहुत कुरूप
स्त्री ले
आया। तो मित्रों
ने उससे पूछा
कि यह तुमने
क्या किया? उसने कहा, बड़ी मुसीबत
हो गयी। जिस
आदमी के घर
में लड़की को
देखने गया था,
उस आदमी ने
मुझसे कहा कि
मेरी चार लड़कियां
हैं। पहली
लड़की की उम्र
पच्चीस साल
है। और उसके
लिए मैंने
पच्चीस हजार
रुपए की दहेज
की व्यवस्था
कर रखी है। वह
लड़की बड़ी
सुंदर थी।
लेकिन मैंने
उस आदमी से
पूछा कि
तुम्हारी और
लड़कियों के
संबंध में
क्या खबर है? तो कहा, दूसरी
लड़की की उम्र
तीस साल है।
उसके लिए मैंने
तीस हजार की
व्यवस्था कर
रखी है। तीसरी
की उम्र
पैंतीस साल है,
उसके लिए
मैंने पैंतीस
की व्यवस्था
कर रखी है। और
वह आदमी डरा
चौथी की उम्र
बताने में।
लेकिन मैंने
पूछा, तुम
चौथी के संबंध
में भी
निःसंकोच
कहो। उसने कहा,
उसकी उम्र
पचास साल है।
और मैंने उसके
लिए पचास हजार
की व्यवस्था
कर रखी है। तो
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा कि
मुझे पता ही
नहीं कैसे
मेरे मुंह से निकल
गया! मैंने
उनसे पूछा, और लड़की
नहीं है
तुम्हारी, जिसकी
उम्र साठ साल
हो? और मैं
पचास वर्ष की
औरत से शादी
कर के घर लौट आया।
यह तो रास्ते
में ही मुझे
पता चला कि यह
मैंने क्या कर
लिया।
लेकिन
मन बहुत खंड
है। एक खंड
सौंदर्य को
मांगता है, एक खंड धन को
मांगता है।
इसलिए तुम
अपने मन पर भरोसा
मत करना। तुम
कुछ लेने
जाओगे, कुछ
ले कर लौट
आओगे। और
तुम्हें बहुत
बार ऐसा हुआ
है कि बाजार
तुम लेने कुछ
गए थे और ले कर
तुम कुछ लौट
आए। इस पृथ्वी
पर भी तुम कुछ
और ही लेने
आते हो, और
कुछ और ही ले
कर लौट जाते
हो। तुम अपने
मन पर भरोसा
मत करना।
तुमने अगर
अपने मन का
भरोसा किया, तो तुम कहीं
के न रह
जाओगे। मन का
भरोसा अगर तुमने
किया, तो
तुम खंड-खंड
हो जाओगे, पारे
की तरह टूट
जाओगे।
संयम
का अर्थ है, मन का भरोसा
छोड़ देना। मन
की मत सुनना।
मन के पीछे जो
साक्षी छिपा
है, उसकी
सुनना। और
साक्षी की तुम
सुनोगे, तो तुम याद
रख सकोगे कि
तुम क्या पाने
इस संसार में
आए हो। क्या
खरीदने आए हो
बाजार में। वह
याद तुम्हारा
लक्ष्य
बनेगी। तब तुम
बहुत से रास्ते,
जो टूटते
हैं अलग-अलग
दिशाओं में, उनको छोड़ने
की सामर्थ्य
रख सकोगे।
संयम का अर्थ
है, सार के
लिए असार को
छोड़ने की
क्षमता।
व्यर्थ के लिए,
जिसका कोई
मूल्य नहीं है,
जिससे
अंतिम कोई
सिद्धि पूरी न
होगी, जिससे
जीवन में कोई
आनंद, कोई
शांति, कोई
सत्य फलित न
होगा।
उसका
भी टेम्प्टेशन
है, उसकी भी
बड़ी उत्तेजना
है। वह भी
आकर्षित करता है।
और तुम कई बार
कहते हो कि
क्या हर्जा है?
रास्ते से
उतर कर इस फूल
को थोड़ा तोड़
लें, फिर
रास्ते पर आ
जाएंगे।
लेकिन फूल को
तोड़ने जब तुम
उतरते हो, और
चार कदम तुम
फूल की तरफ
चलते हो, तब
और भी फूल हैं
आगे। और
तुम्हारी
यात्रा बदल
गयी। तुम जरा
इंच भर
यहां-वहां हटे,
तुमने
जरा-सा
क्षणभंगुर का
मोह अपने भीतर
बचाया, तुम
जरा झुके, कि
तुम गए।
तुम्हारे
भटकने के लिए
हजार मार्ग
हैं, और
पहुंचने के
लिए एक मार्ग
है। इसलिए बड़ी
याददाश्त की
जरूरत है।
निरंतर स्मरण
की जरूरत है
कि भटकने के
लिए हजार उपाय
हैं, पहुंचने
के लिए एक
उपाय है।
भटकाने वाले करोड़ हैं, पहुंचाने
वाला एक है।
भटकना चाहो तो
कोई अंत नहीं
है।
जन्मों-जन्मों
तक भटकते रहो।
वही तुमने
किया है, वही
तुम अभी भी कर
रहे हो।
पहुंचना हो तो
एक मार्ग है।
स्मरण
रखना, सत्य अनंत
नहीं हैं, सत्य
एक है। असत्य
अनंत हैं।
उनकी कोई
गिनती करनी
संभव नहीं है।
पाने योग्य एक
है, छोड़ने
योग्य अनंत
हैं। तुमने
अगर कभी
बच्चों की पहेलियां
देखी हैं--पजल्स,
जिनमें
बच्चों के लिए
बहुत से
रास्ते होते
हैं। द्वार एक
होता है
निकलने का, या जाने का, भटकाने के
लिए बहुत से
रास्ते होते
हैं। जो लगते
बिलकुल
रास्ते जैसे
हैं, लेकिन
जब तुम चलते
हो उन पर तो
तुम पाते हो
कि आगे आ कर
दरवाजा बंद हो
गया। कहीं
निकल नहीं पाते।
जिंदगी
भी वैसी ही एक
पहेली है। और
बच्चों की पहेलियां
तो बहुत छोटी
होती हैं। एक
कागज पर बनी होती
हैं। जिंदगी
की पहेली
अंतहीन है। न
उसका आदि है, न कोई अंत
है। बड़ी पहेली
है। इसलिए तो
गुरु का मूल्य
है। क्योंकि
पहेली इतनी
बड़ी है, अगर
तुम अपने ही
सहारे खोजने
की कोशिश किए
और अगर तुम
अपने ही हाथ
से चलते रहे, तो तुम
हजारों बार भटकोगे।
और तब
खतरा यह है कि
कहीं हजारों
बार भटक कर
तुम यह न समझ
लो कि निकलने
का कोई रास्ता
ही नहीं है।
कहीं तुम
निराश न हो
जाओ, कहीं तुम
हताश हो कर
बैठ ही न जाओ।
खतरा यह भी है
कि कहीं
भटकते-भटकते
भटकना
तुम्हारी आदत
न हो जाए।
क्योंकि जिस
काम को हम
बहुत बार करते
हैं, उसे
हम करने में कुशल
हो जाते हैं।
वह काम कोई भी
हो। अगर तुम
बहुत बार
भटकते हो, तो
तुम भटकने में
कुशल हो जाते
हो। तुम इतने
कुशल हो जाओगे
भटकने में कि
ठीक रास्ता
तुम्हारे
सामने पड़ेगा
तो तुम उससे
बच ही जाओगे।
गुरु
का अर्र्थ
केवल इतना ही
है कि जिसने
द्वार पा लिया
हो, और जो तुम्हें
भटकने से
रोके। और जो
तुम से कहे कि
वह रास्ता
कितना ही
प्रलोभन वाला
दिखायी पड़ता
हो, कहीं
पहुंचाता
नहीं है। आखिर
में तुम दीवाल
पाओगे, वहां
कोई द्वार
नहीं है। तुम
धन को कितना
ही पा लो, क्या
पाओगे? आखिर
में पाओगे, दीवाल खड़ी
हो गयी। तुम
पद को पा कर
क्या पाओगे? आखिर में
पाओगे, मार्ग
खो गया। तुम
कितनी ही
प्रतिष्ठा
इकट्ठी कर लो,
क्या
मिलेगा? जिनसे
तुमने
प्रतिष्ठा
पायी उनके पास
ही कुछ नहीं
है। वे
तुम्हें क्या
दे सकेंगे? जिनका खुद
का कोई मूल्य
नहीं है, उनके
मंतव्य का
क्या मूल्य
होगा? तुम
किससे पूछते
फिर रहे हो? तुम किसकी
आंखों में
प्रतिष्ठा
पाने के लिए उत्सुक
हो? जिनके
पास अपनी
आंखें नहीं
हैं, जो
अंधे हैं, उन्होंने
अगर तुम्हारा
सम्मान भी
किया, तो
सम्मान में
क्या मूल्य
होगा? वह
पानी का बबूला
है। मिलेगा भी
नहीं और फूट जाएगा।
नानक
कहते हैं, 'संयम भट्टी
है।'
भट्टी
भी बड़ा विचार
कर कहते हैं।
क्योंकि संयम
कोई फूलों की
सेज नहीं है, आग है। मन तो
चाहेगा फूलों
की सेज। और
संयम तो आग
है। इसलिए मन
संयम से बचता
है। मन असंयम
के लिए सब
तर्क खोजता
है। और संयम
के विरोध में
तर्क खोजता
है। मन असंयम
को कहता है, भोग; संयम
को कहता है, दुख। जब कि
स्थिति
बिलकुल उलटी
है।
भोग
दुख है, क्योंकि
जितना तुम
भोगते हो, उतना
ही तुम सड़ते
हो। हर भोग
तुम्हें
विषाद में छोड़
जाता है। हर
भोग के बाद
तुम पाते हो
कि तुम और भी
टूट गए। तुम
और भी विकृत
हो गए। पहले
ही तुम्हारे
पास कुछ न था।
जो था वह भी अब
छीन लिया गया।
हर भोग तुम्हें
भिखारी बना
जाता है। फिर
भी मन कहता है,
भोग लो, समय
भागा जा रहा
है। कौन जाने
फिर समय मिले
या न मिले! मन
कहता है, भोग
लो, यह
जीवन का अवसर
फिर आए न आए!
लेकिन मन यह
नहीं कहता कि
संयम कर लो, यह जीवन का
अवसर फिर आए न
आए! संयम कर लो,
जीवन भागा
जा रहा है, समय
प्रतिपल
चुकता जा रहा
है। नहीं, मन
समझाता है
संयम के
विपरीत।
क्योंकि मन हमेशा
सुख की
आकांक्षा
करता है।
इसे
थोड़ा गहरा समझ
लें। मन सदा
सुख की
आकांक्षा
करता है, लेकिन
पाता सदा दुख
है। ऐसा लगता
है कि हर जगह दुख
के दरवाजे पर
सुख लिखा है।
सुख देख कर मन
प्रवेश कर
जाता है और
भीतर दुख पाता
है। और ऐसा लगता
है, हर दुख
के दरवाजे पर
जैसा सुख लिखा
है, ऐसे ही
हर सुख के
दरवाजे पर दुख
लिखा है।
जिब्रान
की एक बड़ी
प्रीतिकर
कहानी है कि
संसार के जन्म
के समय
परमात्मा ने
जब सब बनाया, तब उसने एक
सौंदर्य की
देवी और एक
कुरूपता की देवी
भी बनायी। उन
दोनों को उसने
पृथ्वी पर भेजा।
मार्ग लंबा है
आकाश से पृथ्वी
तक आने का।
धूल से भर गए
उनके वस्त्र,
उनके
शरीर--लंबी
यात्रा थी। तो
वे दोनों एक
झील के किनारे
उतरीं, और
स्नान करने को
झील में
उतरीं। दोनों
ने अपने कपड़े
बाहर रख दिए, झील के
किनारे। कोई
था भी नहीं
आसपास। दोनों
नग्न हो कर
झील में स्नान
किए। सौंदर्य
की देवी तैरती
हुई दूर तक
निकल गयी। तभी
कुरूपता की
देवी बाहर
निकली। उसने
सौंदर्य की
देवी के कपड़े
पहन लिए और
भाग खड़ी हुई।
जब सौंदर्य की
देवी ने पीछे
लौट कर देखा
तो वह बड़ी
हैरान हुई।
देखा कि कपड़े
तो जा चुके।
सुबह हुई जा
रही थी, गांव
के लोग जगने
लगे। और आसपास
लोगों के आने-जाने
की चहलकदमी
शुरू हो गयी।
मजबूरी में सौंदर्य
की देवी को
कुरूपता के
वस्त्र पहन लेने
पड़े। और
जिब्रान ने
कहा है, तब
से सौंदर्य की
देवी कुरूपता
की देवी के
वस्त्र पहने
घूम रही है।
और कुरूपता की
देवी सौंदर्य
के वस्त्र
पहने घूम रही
है।
ऐसा ही
कुछ हुआ है। दुख
सुख के वस्त्र
पहने हुए घूम
रहा है। असत्य
सत्य के
वस्त्र पहने
हुए घूम रहा
है। और मन वहीं
धोखा खा जाता
है। वस्त्रों
के भीतर
विपरीत है।
संयम
का अर्थ है, पहले तो
तुम्हें दुख
मालूम पड़ेगा।
संयम का अर्थ
है, पहले
तो बड़ी कठिनाई
मालूम पड़ेगी।
सुबह पांच बजे
ही उठना चाहो
तो कितनी
कठिनाई हो
जाती है! सारा
शरीर बगावत
करता है, सारा
मन इनकार करता
है। कहता है, उठ लेना कल, जल्दी क्या
है? आज
बहुत सर्दी है,
और सोना
कितना सुखद
है। सोने से
कुछ मिला भी नहीं
है। और सोना
कितना सुखद है,
मन समझाता
है।
तुम्हें
उस सुख का कोई
भी पता नहीं
है, जो बाहर
उग रहा है
सूरज के रूप
में। तुम्हें
उस सुख का भी
कोई पता नहीं
है, जो
बाहर पक्षी
गीत गा रहे
हैं, जो
फूलों के खिलने
में छिपा है, जो सुबह की
ओस में छिपा
है, जो
सुबह के होने
में छिपा है।
क्योंकि सुबह
से ज्यादा
सुंदर फिर कोई
क्षण नहीं है।
क्योंकि उतना
ताजा क्षण फिर
कहां से पाओगे?
जो सुबह को
चूक गया, वह
दिनभर
ताजगी की तलाश
करेगा लेकिन
पा न सकेगा।
लेकिन मन कहता
है, थोड़ी
देर और सो लो।
थोड़ी देर और
मूर्च्छित रह लो।
थोड़ी देर और
विश्राम कर लो,
एक करवट और।
और यह
हर तरह की
नींद के संबंध
में मन की
दलील है।
जागना कष्टपूर्ण
मालूम पड़ता
है। सोना सुखद
मालूम पड़ता
है। और जागने
से ही सुख
मिलता है, महासुख मिलता है।
सोने से आदमी
सिर्फ खोता
है।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'संयम भट्टी
है।'
सोना
उससे निखरेगा।
लेकिन आग से
गुजरने की
सामर्थ्य, तैयारी
चाहिए। कष्ट
से गुजर कर ही
कोई महासुख
तक पहुंचता
है। दुख से तो
तुम भी गुजरते
हो, लेकिन
बेमन से
गुजरते हो। तब
वह संयम नहीं
है। जब तुम
दुख के साथ
होशपूर्वक
गुजरते हो, जब तुम दुख
को अंगीकार कर
लेते हो, मार्ग
मान लेते हो, और दुख को
समझ लेते हो
कि यह अनिवार्य
भट्टी है जीवन
की, जिससे
गुजर कर मैं निखरूंगा,
साफ होऊंगा,
शुद्ध
होऊंगा, तब
दुख की पूरी
कीमिया बदल
जाती है।
दुख से
तो सभी गुजरते
हैं, संसारी
भी और
संन्यासी भी।
संसारी बेमन
से गुजरता है,
रोता हुआ
गुजरता है, चूक जाता है
इसीलिए। जो
जाग कर गुजरता
है, स्वीकार
के भाव से
गुजरता है, दुख को
अंगीकार कर
लेता है, वह
दुख को सीढ़ी
बना लेता है।
वह दुख के पार
चला जाता है।
संयम का अर्थ
है, दुख को
मार्ग बना
लेना, साधन
बना लेना। दुख
से अभिभूत न
होना, बल्कि
दुख को सीढ़ी
बना कर उसके
पार उठ जाना।
भट्टी जैसा
है।
'और
धीरज सुनार है।'
भट्टी
में जब सोने
को डाला जाता
है, तो बड़ा
धीरज रखना
पड़ता है।
जल्दबाजी
वहां न चलेगी।
जिसने जल्दी
की, वह
चूका। और
जिसने जल्दी न
की, वह
हमेशा पहुंच
गया है। जल्दी
का अर्थ ही यह
है कि तुमने
दुख को
स्वीकार नहीं
किया। इसलिए तुम
जल्दी कर रहे
हो। तुमने दुख
की महिमा नहीं
जानी, कि
दुख निखारता
है, कि दुख संवारता
है, कि दुख
व्यर्थ से
छुटकारा देता
है। तुमने अभी
दुख का मैत्रीभाव
नहीं पहचाना।
जिसने दुख में
मित्र को देख
लिया, वह
संयमी है। और
जिसने मित्र
को देख लिया, जल्दी क्या
है? वह
धैर्य रख पाता
है। और
परमात्मा की उपलब्धि
धैर्य से होती
है। अनंत
प्रतीक्षा चाहिए।
यह कोई
क्षुद्र नहीं
है कि तुम अभी
पा लो।
तुम
बीज बोते हो।
मौसमी फूलों
के बीज दो
सप्ताह, तीन
सप्ताह में
अंकुरित हो
जाते हैं।
छठवें सप्ताह
में तो फूल लग
जाते हैं।
लेकिन
बारहवां सप्ताह
पूरे
होते-होते
पौधे नष्ट हो
जाते हैं। फिर
तुम देवदार के
वृक्ष लगाते
हो। जो सौ साल
जीएंगे, दो
सौ साल जीएंगे,
चार सौ साल
जीएंगे। फिर
अमेरिका में
ऐसे वृक्ष हैं,
जो पांच
हजार साल
पुराने हैं।
उनको बढ़ने में
बड़ा वक्त लगता
है। सालों बीज
दबा रहता है, तब कहीं
अंकुरण होता
है। मौसमी फूल
जल्दी खिल
जाते हैं।
इस
जीवन के जो
क्षुद्र सुख
हैं, वे जल्दी
मिल जाते हैं।
मगर उतने ही
जल्दी खो भी
जाते हैं।
ध्यान रखना इस
गणित को, जितनी
जल्दी मिलेगा,
उतनी ही
जल्दी खो
जाएगा। अगर
परमात्मा को
ही पाना है, जो सदा
रहेगा, तो
अनंत धैर्य की
जरूरत है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि अनंत
काल बीतेगा तब
तुम्हें
मिलेगा। मिल
तो एक भी क्षण
में सकता है।
लेकिन
तुम्हें धैर्य
रखने की अनंत
क्षमता
चाहिए।
और इस
बात को भी ठीक
से समझ लो।
जितना तुम
धैर्य रख
सकोगे, उतना
जल्दी मिल
जाएगा। और
जितनी तुम
जल्दबाजी
करोगे, उतनी
देर लग जाएगी।
क्यों? क्योंकि
जितना तुम
धैर्य रखते हो,
उतने ही तुम
गहरे हो जाते
हो। जल्दबाजी
उथले आदमी का
लक्षण है।
जल्दबाजी बचकाने
स्वभाव का
लक्षण है।
छोटे बच्चे आम
के बीज बो देते
हैं। घड़ी भर
बाद फिर निकाल
कर देखते हैं,
अभी तक
अंकुर आया या
नहीं आया? यह
अंकुर कभी भी
नहीं आएगा। तुम
बार-बार उघाड़ोगे,
अंकुर कैसे
आएगा। धीरज तो
रखो थोड़ा।
तुमने
देखा, गांव
में किसान है,
उसमें
धैर्य ज्यादा
होता है।
उसमें शांति
भी भिन्न होती
है। शहर का
दुकानदार है,
उसमें
धैर्य कम होता
है। शांति भी
उतनी ही मात्रा
में कम होती
है। जितने तुम
गहरे प्रवेश
करोगे देहात
में, उतना
ही तुम लोगों
को शांत
पाओगे। उसका
कारण है कि
प्रकृति के
साथ उन्हें
धीरज रखना
पड़ता है।
तुमने आज बो
दिया तो कल ही
फसल नहीं काट
लोगे।
तुम्हें
धैर्य रखना
पड़ेगा। वे
धैर्य के मार्ग
से गुजर-गुजर
कर शांत हो
जाते हैं।
लेकिन जिसको
परमात्मा के
फूल पाने हों,
उसने तो
अनंत की खेती
करने का विचार
किया है।
नानक
से उनके पिता
बार-बार कहते
थे कि कुछ काम करो।
कुछ न बन सके
तो तुम
खेती-बाड़ी
शुरू कर दो।
नानक ने कहा, खेती-बाड़ी
तो मैं करता
हूं। बाप ने
कहा, अब
तुम्हारा
दिमाग बिलकुल
खराब हो गया
है। तुमने कब
खेती-बाड़ी की?
कहां है फसल?
क्या कमाया?
मैं तो
तुम्हें बैठे
देखता हूं घर
में। नानक ने
कहा, वह आप
ठीक ही देखते
हैं। मैं जरा
दूसरे ढंग की खेती-बाड़ी
करता हूं। और
जो मैंने
कमाया है, वह
मेरे भीतर है।
और परमात्मा
की कृपा हो और
आपको आंखें
मिलें, तो
वह दिखायी पड़
सकता है। कमाया
तो मैंने बहुत
है, फसल भी
बहुत काटी है।
लेकिन फसल
भीतरी है, जरा
सूक्ष्म है।
साधारण आंखों
से दिखायी नहीं
पड़ेगी।
जो
व्यक्ति धर्म
के मार्ग पर
गया है, उसने
अनंत की फसल काटनी
चाही है। उतना
ही धैर्य भी
चाहिए। धैर्य
का अर्थ यह है
कि तुम
अपेक्षा मत
करना। धैर्य
का अर्थ यह है,
कब होगा यह
मत पूछना। जब
होगा, उसकी
मर्जी। जब हो
जाएगा तब
स्वीकार है।
अनंत काल
व्यतीत हो
जाएगा तो भी
तुम यह मत
कहना कि मैं
इतनी देर से
प्रतीक्षा कर
रहा हूं, अभी
तक नहीं हुआ!
एक बड़ी
पुरानी हिंदू
कहानी मुझे
बहुत प्रीतिकर
रही है कि
नारद स्वर्ग
जा रहे हैं।
और उन्होंने
एक बूढ़े
संन्यासी को
पूछा, कुछ
खबर-वबर
तो नहीं पूछनी
है? तो उस
बूढ़े
संन्यासी ने
कहा कि
परमात्मा से
मिलना हो तो
जरा पूछ लेना
कि कितनी देर
और है? क्योंकि
मैं तीन
जन्मों से
साधना कर रहा
हूं।
वह बड़ा
पुराना
तपस्वी था।
नारद ने कहा, जरूर पूछ लूंगा।
उसके
ही पास एक
दूसरे वृक्ष
के नीचे एक
जवान युवक
बैठा हुआ अपना
एकतारा बजा
रहा था। गीत
गा रहा था।
नारद ने सिर्फ
मजाक में उससे
पूछा कि क्यों
भाई, तुम्हें
भी तो कोई बात
नहीं पुछवानी
है भगवान से? मैं जा रहा
हूं स्वर्ग।
वह अपना गीत
ही गाता रहा।
उसने नारद की
तरह आंख उठा
कर भी न देखा।
नारद ने उसको
हिलाया तो
उसने कहा कि
नहीं, उसकी
कृपा अपरंपार
है। जो चाहिए
वह मुझे हमेशा
मिला ही हुआ
है। कुछ पूछना
नहीं है। मेरी
तरफ से उसे
कोई तकलीफ मत
देना। मेरी
बात ही मत उठाना,
मैं राजी
हूं। और सभी
मिला हुआ है।
बन सके तो मेरी
तरफ से
धन्यवाद दे
देना।
नारद
वापस लौटे। उस
बूढ़े
संन्यासी को
जा कर कहा कि
क्षमा करना
भाई! मैंने
पूछा था वह।
उन्होंने कहा
कि वह बूढ़ा
संन्यासी जिस
वृक्ष के नीचे
बैठा है, उसमें
जितने पत्ते
हैं, उतने
ही जन्म अभी
और लगेंगे।
बूढ़ा तो बहुत
नाराज हो गया।
वह जो पोथी पढ़
रहा था फेंक
दी, माला
तोड़ दी, गुस्से
में चिल्लाया
कि हद हो गयी!
अन्याय है। यह
कैसा न्याय? तीन जन्म से
तप रहा हूं, कष्ट पा रहा
हूं, उपवास
कर रहा हूं, अभी और इतने?
यह नहीं हो
सकता।
उस
युवक के पास
भी जा कर नारद
ने कहा कि
मैंने पूछा था, तुमने नहीं
चाहा था फिर
भी मैंने पूछा
था। उन्होंने
कहा कि वह जिस
वृक्ष के नीचे
बैठा है, उसमें
जितने पत्ते
हैं--वह युवक
तत्क्षण उठा,
अपना
एकतारा ले कर
नाचने लगा और
उसने कहा, गजब
हो गया। मेरी
इतनी पात्रता
कहां? इतने
जल्दी? जमीन
पर कितने
वृक्ष हैं! उन
वृक्षों में
कितने पत्ते
हैं! सिर्फ इस
वृक्ष के
पत्ते? इतने
ही जन्मों में
हो जाएगा? यह
तो बहुत जल्दी
हो गया, यह
मेरी पात्रता
से मुझे
ज्यादा देना
है। इसको मैं
कैसे झेल
पाऊंगा? इस
अनुग्रह को
मैं कैसे
प्रगट कर
पाऊंगा?
वह
नाचने लगा
खुशी में। और
कहानी कहती है, वह उसी तरह
नाचते-नाचते
समाधि को
उपलब्ध हो
गया। उसका
शरीर छूट गया।
जो अनंत जन्मों
में होने को
था, वह उसी
क्षण हो गया।
जिसकी इतनी
प्रतीक्षा हो,
उसी क्षण हो
ही जाएगा।
नानक
कहते हैं, 'धीरज सुनार,
बुद्धि
निहाई, ज्ञान
हथौड़ा।'
बुद्धि
के साथ हम दो
काम कर सकते
हैं। और एक काम
हमने किया है।
हम बुद्धि का
झोले की तरह
उपयोग करते
हैं, निहाई की
तरह नहीं।
बुद्धि का हम
झोले की तरह उपयोग
करते हैं। और
ज्ञान की जगह
हम सूचनाएं इस
झोले में भरते
हैं। शास्त्र
पढ़ते हैं, सदगुरुओं को सुनते
हैं। जो भी
मिलता है जहां
से, सब
उसमें भरते
जाते हैं--एक
झोले की तरह।
और वह झोला भी
भिखारी का।
उसमें सब कूड़ा-कबाड़
भी, अखबार
भी उसी में है,
वेद भी उसी
में है, रेडियो
भी उसी में
पड़ा हुआ है।
किसी ने गाली
दी, वह भी
उसी में है; और किसी ने
मंत्र दिया, वह भी उसी
में है। वह
झोला है।
उसमें सब खिचड़ी
है। उसमें
मंत्र गाली के
साथ मिल गया
है। उसमें वेद
अखबार में खो
गए हैं। इस
झोले को हम ढोते
हैं।
इसको
हम स्मृति
कहते हैं। यह
ज्ञान नहीं
है। यह सिर्फ
कचरा कूड़ा-कबाड़
है। क्योंकि
ज्ञान तो वही
है जो अपने
अनुभव से
मिलता है।
इसमें कुछ भी
तुम्हारा
अनुभव नहीं
है। सब बासा
है, उधार है।
तुमने बुद्धि
का उपयोग झोले
की तरह किया।
और
नानक कहते हैं, 'बुद्धि
निहाई है और
ज्ञान हथौड़ा
है।'
नानक
कहते हैं कि
ज्ञान तो चोट
है, हथौड़ा है। और जब भी
तुम्हें
ज्ञान होगा, कोई भी छोटा
सा भी ज्ञान
होगा, तो
तुम्हारा
रोआं-रोआं कंप
जाएगा उस चोट
से। इसलिए तो
हम ज्ञान से
बचते हैं, क्योंकि
वह शॉक है। उस
धक्के को हम
नहीं सहना चाहते।
हम तो सूचनाएं
इकट्ठी करते
हैं। सूचनाएं
इकट्ठी करने
में कोई भी
धक्का नहीं
है। तुम
शास्त्र में
पढ़ लेते हो कि
परमात्मा परम
सत्य है।
इसमें कौन सा
धक्का है? तुम
शास्त्र में
पढ़ लेते हो, ध्यान मार्ग
है। इसमें कौन
सा धक्का है? पढ़ लिया, याद
कर लिया, दूसरे
को बता दिया।
एक
छोटी बच्ची; मां उसकी
ऊपर से बुला
रही थी
सीढ़ियों पर
खड़ी और वह ऊपर
नहीं जा रही
थी। वह नीचे
आंगन में खेल रही
थी। तो बच्ची
की दादी भी
नीचे धूप ले
रही थी। उसने
कई बार कहा कि
खेलने भी दो, स्नान बाद
में करवा
देना। लेकिन
मां जिद पर
अड़ी थी। उसने
बार-बार कहा
कि चल ऊपर और
स्नान कर।
मजबूरी में
बच्ची ने अपना
खिलौना छोड़ा
और ऊपर चढ़ी।
चढ़ते
वक्त उसने कहा
कि यह कैसा
आश्चर्य है कि
तुम सदा मुझे
कहती हो कि
अपनी मां की
सुनो; और
तुम अपनी मां
की जरा भी
नहीं सुन
रहीं!
तुम जिस
ज्ञान को
दूसरे को देते
हो, उसकी
तुमने कभी खुद
सुनी है? तुम
जो सलाह दूसरे
को देते हो, वह तुम्हारे
जीवन में कभी
आयी है? नहीं,
तुमने भी
बासी पायी है।
और तुम दूसरे
को भी दिए दे
रहे हो। देने
से तुम्हारा
छुटकारा होता
है, झंझट
मिटती है। वह
तुम्हारे लिए
न तो धक्का थी
और न दूसरे के
लिए धक्का
होगी।
इसलिए
सलाह दुनिया
में सब से
ज्यादा दी
जाती है और
सबसे कम ली
जाती है।
ज्ञान लोग
मुफ्त बांटते
हैं, कौन लेता
है? ऐसे
ज्ञानियों से
लोग बच कर
भागते हैं।
क्योंकि ऐसा
ज्ञानी आपको
उबाता है। आप
नहीं भी चाहते,
वह अपना
झोला आप में उंडेलता
है। वह बोझ ढो
रहा है, वह
बांटना चाहता
है। वह कचरा
सम्हाले हुए
है। उसने खुद
भी उसका कोई
उपयोग नहीं
किया है।
ज्ञान
तो चोट है।
क्योंकि
वास्तविक
ज्ञान जीवन के
अनुभव से पैदा
होता है, जीवन
के घर्षण से।
अस्तित्व में
जब तुम छलांग लेते
हो, तब
ज्ञान
उत्पन्न होता
है।
शास्त्रों से
नहीं, शब्दों
से
नहीं--अनुभव
से। अनुभव चोट
है। इसलिए हम
अनुभव से तो
बचते हैं।
गुरजिएफ
कहता था, जैसे
रेलगाड़ियों
में बफर
लगे होते हैं।
हर दो डब्बे
के बीच में
तुमने देखे
होंगे, बफर लगे हैं। बफर
लगाते हैं
इसलिए, ताकि
अगर धक्का लगे
तो दोनों
डब्बे टकरा न
जाएं। या जैसा
कि कार के
नीचे स्प्रिंग
लगे होते हैं,
शॉक एब्जार्वर्स
लगे होते हैं।
ऐसा, गुरजिएफ
कहता था, कि
हमारा ज्ञान
शॉक एब्जार्वर
का काम करता
है। जब कि
वास्तविक
ज्ञान शॉक का काम
करता है।
तुम्हारे
घर में कोई मर
गया है, तो
तुम कहते हो, आत्मा तो
अमर है। इस
ज्ञान का
तुम्हारे
जीवन में कभी
कोई धक्का
नहीं लगा।
इसका तुम
उपयोग शॉक एब्जार्वर
की तरह कर रहे
हो।
जिन
ज्ञानियों ने
यह कहा है कि
आत्मा अमर है, उन्होंने
बड़े संयम, बड़ी
तपश्चर्या, बड़ी भट्टियों
से गुजर कर
कहा है, बड़ी
अग्नियों
से गुजर कर
कहा है। उनके
लिए यह ज्ञान
तो हथौड़ी
की तरह निहाई
पर पड़ा है। इस
ज्ञान में तो
वे चकनाचूर हो
गए हैं। इस
ज्ञान ने तो
उनकी खोपड़ी तोड़
दी है। उनके
अहंकार को
मिट्टी में
गिरा दिया है।
इस ज्ञान ने
तो उनके सारे
शरीर से सब
संबंध
विच्छिन्न कर
दिए हैं। इस
ज्ञान से उनका
सारा संसार
डगमगा कर टूट
गया है, बिखर
गया है। इस
ज्ञान से तो
वे संन्यस्त
हुए हैं। इस
ज्ञान ने तो
उन्हें इस
संसार में
कहीं का न
रखा। इस ज्ञान
ने तो उनकी
यहां से जड़ें उखाड़ दी
हैं। यह ज्ञान
उनके लिए तो
झंझावात की
तरह आया था।
और
तुम्हारे लिए? तुम्हारे
लिए लोरी की
तरह। जब भी
तुम्हें नींद
नहीं आती तब
तुम यह ज्ञान गुनगुना
लेते हो और सो
जाते हो। घर
में कोई मर गया,
तुम कहते हो,
आत्मा तो
अमर है। तुम
मृत्यु और
अपने बीच इसका
उपयोग शॉक एब्जार्वर
की तरह कर रहे
हो। मौत
तुम्हें घबड़ा
देगी।
यह हो
भी सकता था कि
तुम्हारे घर
में कोई मरता
और तुम उसकी
मौत को पूरा
अनुभव करते तो
ज्ञान उपलब्ध
होता।
क्योंकि वह
मौत की घटना हथौड़ी बन
जाती और तुम
निहाई बन
जाते। और वह
चोट तुम पर
पड़ती तो उस
चोट में तुम
जागते।
दुनिया में कोई
बिना चोट के
नहीं जागता
है। और तुम सब
चोटों से बचने
का उपाय कर
लिए हो। तुमने
चारों तरफ शॉक
एब्जार्वर
लगा लिए हैं।
कोई भी चोट
तुम्हें लग
नहीं सकती।
तुम भीतर
सुरक्षित हो।
कोई
मरता है, तुम
कहते हो, आत्मा
अमर है। सड़क
पर कोई भीख
मांगता है, तुम कहते हो,
बेचारा!
अपने कर्मों
के फल भोग रहा
है। तुम दो पैसा
देना नहीं
चाहते।
क्योंकि अगर
वह कर्मों का
फल नहीं भोग
रहा है तो तुम
भी जिम्मेवार
मालूम पड़ोगे।
तो तुम उस
समाज के
हिस्से हो, जो उसे
दरिद्र बना
रहा है।
भिखमंगा बना
रहा है। तुम
उस समाज के
भागीदार हो, जिसने इसे
इस दीनता में
पटक दिया है।
तुम पर भी
थोड़ी
जिम्मेवारी
है। वह
जिम्मेवारी
चोट करती है।
तुम ने एक शॉक एब्जार्वर
बना लिया। तुम
कहते हो, बेचारा!
अपने कर्मों
का फल भोग रहा
है। अपने रास्ते
पर चले जाते
हो। तुम्हारे
मन में इससे कोई
चिंता पैदा
नहीं होती।
तुम
बड़े कुशल हो।
तुम्हारी
चालाकी की कोई
सीमा नहीं है।
ज्ञानियों को
ज्ञान धक्के
से मिलता है।
तुम उसी धक्के
का उपयोग शॉक एब्जार्वर
की तरह करते
हो। कुछ भी हो
जाए तुम अपने
को सम्हाल
लेते हो। तुम
गिरते नहीं।
तुम अपने
अहंकार को बचा
लेते हो। और
वही अहंकार है, जो टूटना
चाहिए।
'बुद्धि
निहाई है और
ज्ञान हथौड़ा
है।'
पड़ेगा
किस पर? इस
निहाई और हथौड़े
के बीच में
अगर तुम आ जाओ,
तो ही
तुम्हारे
जीवन में
ज्ञान
उत्पन्न होगा।
अगर तुम बिखर
जाओ, तो ही!
लेकिन तुम
बिखरते नहीं।
तुम तो बहुत
तरह से अपने
को सम्हालते
हो।
एक दिन
सुबह-सुबह मैं
मुल्ला नसरुद्दीन
के घर गया। खांस
रहा था।
डाक्टर
हजारों बार कह
चुके कि
सिगरेट पीना
बंद करो। वह
बंद करता
नहीं। उससे
मैंने कहा, इतनी तकलीफ
पाते हो, बंद
भी कर दो।
उसने कहा कि
जब आपने पूछ
ही लिया, और
आपने कहा, तो
असलियत बता
दूं। बंद तो
मैं भी करना
चाहता हूं।
लेकिन डरता
हूं। मैंने
कहा, क्या
कारण है डरने
का? इतना
कष्ट भोगते हो,
इतनी तकलीफ,
रात सो नहीं
सकते हो, रात
भर खांसते-खंखारते
हो! उसने कहा, पहली दफा जब
मैंने बंद की
थी, तो उसी
दिन दूसरा
महायुद्ध
शुरू हुआ था।
इनकी
सिगरेट बंद
करने की वजह
से दूसरा
महायुद्ध
शुरू हो गया
था, उसी दिन!
इस डर से अब वे
सिगरेट पीना
बंद नहीं करते।
कि कहीं फिर
युद्ध हो जाए!
तुम अपने
अहंकार के लिए
बड़ी अनूठी
तरकीबें
खोजते हो। तुम
ऐसा सोच कर
चलते हो कि
सारा जगत
तुम्हारे लिए
चलता रहा है, और तुम
नियंता हो।
तुम बिखर
जाओगे तो सब
बिखर जाएगा।
तुम मरोगे तो
सब मर जाएगा।
तुम नहीं रहोगे
तो दुनिया
कैसे चलेगी? तुम्हारे
सिगरेट पीने
या न पीने से युद्ध
हो जाते हैं।
तुम पर सब कुछ
निर्भर है। तुम
अगर गौर करोगे
तो इस तरह की
ही
हास्यास्पद बातें
तुम्हारे
आसपास तुम
इकट्ठी
पाओगे।
'बुद्धि
निहाई है और
ज्ञान हथौड़ा
है।'
तुम
बुद्धि का
उपयोग झोले की
तरह मत करो।
अन्यथा झोला
बड़ा होता
जाएगा और तुम
छोटे होते
जाओगे। और एक
दिन ऐसा आ
जाएगा कि तुम
अपने ही झोले
में खो जाओगे।
तुम उसी के
नीचे दब कर
मरोगे। पंडित ऐसे
ही मरते हैं।
अपने ही ज्ञान
के नीचे दब कर समाप्त
हो जाते हैं।
बुद्धि को
निहाई बनाओ। बुद्धि
उतनी ही चमकती
है जितने ही
जीवन के अनुभव
उस पर पड़ते
हैं। हर चोट
उसे निखार
जाती है।
और
तुमने कभी
खयाल किया!
नहीं तो जाओ
लोहार के यहां
और सुनार के
यहां, जहां
निहाई होती है,
तुम बड़े
हैरान होओगे। हथौड़ा चोट
मारता है। सैकड़ों
हथौड़े
टूट जाते हैं,
एक निहाई
चलती रहती है।
तुम हैरान
होओगे। टूट जाते
हैं हथौड़े,
जो चोट
मारते हैं।
निहाई बची रहती
है। और निहाई
निखरती जाती
है। निहाई में
एक चमक आ जाती
है।
लाओत्से
ने कहा है कि
निहाई क्यों
नहीं टूटती? क्योंकि वह
झेल लेती है। हथौड़ा टूट
जाता है, क्योंकि
वह आक्रमण
करता है।
आक्रामक
टूट जाएगा
अपने आप। तुम
उसकी चिंता मत
करो, तुम
सिर्फ झेलने
में समर्थ हो जाओ।
और हर आक्रामक
स्थिति, हर
घटना जो
तुम्हें हिला
जाती है, तुम्हें
और मजबूत कर
जाएगी। पूछो
सुनार से कि एक
निहाई और
कितने हथौड़े?
तो वह कहेगा,
सैकड़ों हथौड़े
टूट गए, निहाई
एक टिकी है।
टूटना था
निहाई को, क्योंकि
कितने आक्रमण
हुए। लेकिन
तोड़ने वाले
टूट जाते हैं,
सहने वाले
बच जाते हैं।
निहाई में
पूरा राज छिपा
है।
नानक
कहते हैं, 'बुद्धि
निहाई है।'
बुद्धि
टूटेगी
नहीं, डरो
मत। खोलो
अनुभव के लिए,
पड़ने दो
चोटें। जितनी
चोटें पड़ेंगी
तुम्हारे
जीवन चेतना पर,
उतने ही तुम
निखरोगे।
जीवन को एक
अभियान बनाओ,
एक एडवेंचर।
और
जहां भी चोट
पड़ सकती हो, वहां से भागो
मत। जिसने
पलायन किया, वह हारने के
पहले ही हार
गया। उसने
चुनौती स्वीकार
ही न की। वह
भाग खड़ा हुआ। भगोड़े मत
बनो। जीवन के
संघर्षण से भागो मत।
इसलिए
मैं उसको
संन्यासी
नहीं कहता, जो भाग गया।
क्योंकि वह तो
हथौड़ों
से ही भाग
गया। उसकी
निहाई पर जंग
लगेगी हिमालय
में, और
कुछ नहीं हो
सकता। तुम
देखो अपने
संन्यासियों
को, जाओ
हिमालय। तुम
उनमें बुद्धि
का प्रखार
न पाओगे। तुम
उनमें चमक न
पाओगे। तुम उन
पर पाओगे जंग
लग गयी। अगर
तुम्हारे पास
आंखें हैं, तो तुम देखोगे,
उनकी
प्रतिभा दीन
हो गयी, क्षीण
हो गयी। वे
मरे हुए से
हैं। उनके
भीतर जीवन की ज्योति
प्रगाढ़ता
से नहीं जलती
है। उनके भीतर
सब फीका-फीका,
उदास-उदास
हो गया है।
क्योंकि जीवन
की ज्योति के
जलने के लिए
संघर्षण
चाहिए।
संघर्षण भोजन है।
उससे भागो
मत।
नानक
कहते हैं, 'बुद्धि
निहाई है और
ज्ञान हथौड़ा
है।'
और जब
भी तुम्हारे
जीवन में चोट
पड़े तभी ज्ञान
का एक क्षण
उत्पन्न होता
है। उसको तुम
चूको मत। जैसे
रात, कभी
अंधेरी रात
में बिजली
चमकती है। ऐसे
तो तुम कंप
जाते हो।
लेकिन उसी
कंपन में एक
प्रकाश होता
है और सब
अंधेरा खो
जाता है। एक
क्षण को सब
रास्ते साफ हो
जाते हैं।
ज्ञान
की हर चोट
बिजली की चमक
है। बादलों
में घर्षण
होता है तब
चमक पैदा होती
है। और जब जीवन
में घर्षण
होता है, तब
चमक पैदा होती
है। तो जीवन
की किसी भी
स्थिति से भागो
मत। रुको, और
उससे गुजरो।
उसी से प्रौढ़ता
और मैच्योरिटी
आएगी। उसी से
समझ का जन्म
होगा, अंडरस्टैंडिंग
पैदा होगी।
इसलिए
नानक ने अपने
शिष्यों को
संसार से भागने
को नहीं कहा।
क्योंकि वह हथौड़ियों
से भागना है।
यहीं तो सारा
ज्ञान
उत्पन्न होगा।
तुम भाग जाओगे
पत्नी से, तुम बचकाने
रह जाओगे।
क्योंकि
पत्नी के साथ
संघर्षण में एक
प्रौढ़ता
है। तुम भाग
जाओगे अपने
बच्चों से, लेकिन तुम बचकाने रह
जाओगे।
क्योंकि
बच्चों के साथ,
जीवन को बड़ा
करने में
तुम्हारी एक प्रौढ़ता
है जो विकसित
होती है।
तुमने
कभी खयाल किया? जैसे ही एक
बच्चा पैदा
होता है किसी
स्त्री को, वह स्त्री
वही नहीं रह
जाती जो बच्चे
के पहले थी।
क्योंकि बच्चा
ही पैदा नहीं
होता, मां
भी पैदा होती
है उसी के
साथ। उसके
पहले वह साधारण
स्त्री थी, अब वह मां
है। और मां
होना एक अलग
गुणधर्म है, जिसका
साधारण
स्त्री को कोई
भी पता नहीं।
जब एक बच्चा
पैदा होता है,
अब तक जो
जवान आदमी था,
अब जो बाप
बन गया वह
दूसरा आदमी
है। क्योंकि
बाप होना एक प्रौढ़ता
है। बाप होने
का खयाल, बाप
होने की
स्थिति, एक
नए अनुभव की
शुरुआत है।
तुम भागो
मत। जीवन ने
जितने द्वार
खोले हैं, तुम
उन सबका उपयोग
करो।
इसलिए
नानक ने अपने
भक्तों को
जंगल भाग जाने
को नहीं कहा।
कहा कि जीवन
में रुकना।
पड़ने देना हथौड़ियां, डरना मत।
क्योंकि
बुद्धि निहाई
है और ज्ञान हथौड़ा है।
'भय
धौंकनी है और
तपस्या अग्नि
है।'
भय का
उपयोग भी तुम
दो तरह से कर
सकते हो। एक
तो तुम कर ही
रहे हो। वह
उपयोग है कि
जहां-जहां तुम
भयभीत हो जाते
हो, वहीं-वहीं
से तुम भाग
खड़े होते हो।
तुम शुतुरमुर्ग
का तर्क मानते
हो। देखता है
दुश्मन को, रेत में सिर गड़ा कर खड़ा
हो जाता है। न
दिखायी पड़ता
है दुश्मन, सोचता है
नहीं रहा। जो
दिखायी नहीं
पड़ता वह होगा
कैसे? तुम
जहां-जहां भय
पाते हो वहीं
से हट जाते
हो। तो तुम
कैसे बढ़ोगे?
भय अवसर है।
भय क्या है? भय एक ही है
कि तुम मिट न
जाओ।
जहां-जहां तुम
भय पाते हो
वहीं से तुम
हट जाते हो।
और अगर तुम
मिटने को राजी
नहीं हो, तो
परमात्मा
होगा कैसे? भय क्या है? एक ही भय है
कि मैं मर न
जाऊं, समाप्त
न हो जाऊं।
मृत्यु के
अतिरिक्त कोई
भी भय नहीं।
और जो मरने को
राजी नहीं है,
वह
परमात्मा में लीन
होने को कैसे
राजी होगा? जो मरने को
राजी नहीं है,
वह प्रेम
में जाने को
कैसे राजी
होगा? जो
मरने को राजी
नहीं है, वह
प्रार्थना
में कैसे
प्रवेश करेगा?
तो भय
की दो
संभावनाएं
हैं। या तो
तुम पलायन कर
जाओ, या तुम
समर्पण कर दो।
या तो तुम भाग
जाओ, या
तुम समर्पण कर
दो। तुम राजी
हो जाओ कि ठीक
है, मौत
है। स्वीकार
कर लो, आंख
मत छिपाओ।
और जिस दिन
तुम मौत को
खुली आंख से देखोगे, स्वीकार कर
के देखोगे,
उसी दिन तुम
पाओगे कि मौत
तिरोहित हो
जाती है।
तुमने उसे कभी
खुली आंख से
देखा नहीं था।
तुमने कभी
आमना-सामना न
किया था, इसलिए
मौत थी। जीवन
के सब भय
धीरे-धीरे
तिरोहित हो जाते
हैं, अगर
तुम जाग कर
देखना शुरू
करो।
नानक
कहते हैं, 'भय धौंकनी
है।'
तुम भय
से डरो मत।
क्योंकि तुम
भय से जितने
भागोगे, डरोगे,
उतनी ही
तुम्हारे
जीवन की
तपश्चर्या और
अग्नि क्षीण
हो जाएगी।
क्योंकि भय तो
धौंकनी है।
उससे तो अग्नि
प्रज्वलित
होती है।
जहां-जहां भय
हो, वहीं
चुनौती को
स्वीकार कर के
प्रवेश करो।
उसी से तो
योद्धा पैदा
होता है। जहां
भय है, वहीं
प्रवेश करता
है। जहां मौत
है, उसी को
निमंत्रण मान
लेता है। जहां
खतरा है, वहां
सजग हो कर
चलता है, लेकिन
चलता है। भीतर
जाता है। और
जितने भीतर
तुम भय के
जाओगे, उतना
ही अभय
उत्पन्न होता
है। जितना
भागोगे, उतना
भय संगृहीत
होता है।
जो भय
का उपयोग करना
सीख लेता है, नानक कहते
हैं, उसके
लिए भय धौंकनी
हो जाता है।
और हर भय की अवस्था
तपस्या की
अग्नि को
प्रज्वलित
करती है।
भक्त
में भय है।
लेकिन उसने
अपने भय को
भक्ति में रूपांतरित
कर दिया। अब
वह सिर्फ
परमात्मा से
भयभीत है और
किसी से भी
नहीं। और
परमात्मा से
क्यों भयभीत
है? परमात्मा
से सिर्फ
इसलिए भयभीत
है कि उस भय के
द्वारा वह
अपने जीवन में
संयम रख
सकेगा। उस भय
के द्वारा वह
अपने जीवन को
गलत जाने से
बचा सकेगा।
यह भय
साधारण भय
नहीं है। तुम
जिससे भी डरते
हो उसके
दुश्मन हो
जाते हो।
परमात्मा का
भय बहुत अनूठा
है। तुम उससे
डरते हो, उतने
ही उसके प्रेम
में गिरते
जाते हो।
क्योंकि डरने
का कुल इतना
ही अर्थ है कि
कहीं मैं तुझ
से चूक न
जाऊं। कहीं ऐसा
न हो कि मैं
भटक जाऊं।
तुम्हारा भय
केवल इतना ही
बताता है कि
मेरे भटकने की
भी संभावना है।
तू मुझे भटकने
मत देना। तेरी
याद कहीं मुझे
भूल न जाए।
क्योंकि तेरी
अनुकंपा न हो
तो मैं तेरी
याद भी तो सतत
न रख सकूंगा।
मैं तुझे खोजता
हूं, लेकिन
तेरा सहारा न
हो तो मैं
तुझे खोज भी
तो न सकूंगा।
भय का अर्थ है,
मेरी
दीनता। मेरी
असहाय
अवस्था।
भक्त
भय को
प्रार्थना
बना लेता है।
वह भागता नहीं।
वह हर भय को
प्रार्थना
बना लेता है।
जहां-जहां भय
उसे पकड़ता
है, वहां-वहां
वह उसकी
प्रार्थना का
अवसर पाता है।
'भय
धौंकनी है, तपस्या अग्नि
है।'
जब भी
तुम छोटा सा
भी कृत्य
संकल्पपूर्वक
करते हो, तो
तुम्हारे
भीतर एक अनूठा
ताप पैदा होता
है। इसे तुमने
शायद कभी
निरीक्षण न
किया हो। लेकिन
तुम छोटा सा
भी कृत्य अगर
संकल्पपूर्वक
करो--तपश्चर्या
का वही अर्थ
है।
समझो
कि तुम आज
उपवास कर लो।
उपवास किसी स्वर्ग
को पाने के
लिए नहीं।
क्योंकि भूखे
रहने से अगर
स्वर्ग मिलता
होता, तो
बड़ी आसान बात
थी। उपवास
किसी पुण्य के
लिए भी नहीं।
क्योंकि भूखे
रहने से कैसे
पुण्य का संबंध
है? कोई
संबंध नहीं।
उपवास तो
संकल्प की
तपश्चर्या की
एक प्रक्रिया
है। तुमने एक
संकल्प किया कि
आज मैं भूखा
रहूंगा। शरीर
मांग करेगा
रोज की आदत के
अनुसार, भोजन
चाहिए। वक्त
भोजन का आएगा,
शरीर कहेगा,
भूख लगी है।
तुम यह सब सुनोगे।
तुम इसे झुठलाओगे
नहीं। तुम यह
नहीं कहोगे कि
भूख नहीं लगी
है। तुम शरीर
को कहोगे, भूख
लगी है, बिलकुल
ठीक है। समय
भी हुआ है, यह
भी ठीक है।
लेकिन मैंने
निर्णय किया
है कि आज भूखा
रहूंगा। तो आज
भूखा रहना
पड़ेगा। मैं
अपने निर्णय
को शरीर के
लिए नहीं झुकाऊंगा।
लेकिन इसको
सजगता से।
शरीर की मांग
सही है। लेकिन
आज मैं अपने
निर्णय से जीऊंगा।
इसका
क्या अर्थ है? इसका अर्थ
यह है कि तुम
अपने को शरीर
के ऊपर उठा
रहे हो। तुम
शरीर से बड़े
हो रहे हो।
तुम शरीर को
अनुगामी बना
रहे हो। मन
भोजन की याद
करेगा, उसे
करने देना।
तुम उसको भी
कहोगे कि ठीक
है, तुझे
सोचना है सोच।
मैं साक्षी
रहूंगा, मैं
साथी नहीं
हूं। मैं अपने
निर्णय से जीऊंगा।
मेरा संकल्प
है। और तब तुम
पाओगे, तुम्हारे
भीतर एक ताप, एक अग्नि, एक ऊर्जा
पैदा हो रही
है। एक अनूठी
ऊर्जा, जो
तुमने कभी
नहीं जानी थी।
वह ऊर्जा
संकल्प की
मालकियत से
आती है। तुम
अपने मालिक
हो।
कल तुम
सुबह उठोगे, और ही तरह से
उठोगे। कल
सुबह तुम
पाओगे कि मैं शरीर
के ऊपर उठ
सकता हूं। एक
नया अनुभव हुआ
कि मैं मन के
भी ऊपर उठ
सकता हूं। एक
नयी प्र्रतीति
हुई, एक
साक्षात्कार
हुआ कि मैं
शरीर और मन से
भिन्न हूं, इसकी एक
छोटी झलक
मिली।
यही
तपश्चर्या
है।
तपश्चर्या न
तो पुण्य के लिए
है, न मोक्ष
जाने के लिए
है।
तपश्चर्या तो
स्वयं के
जीवन-चेतना को
शरीर और मन के
ऊपर जानने के
लिए है। लेकिन
जिसने उसे ऊपर
कर लिया, उसके
लिए मोक्ष के
द्वार अनायास
ही खुल जाते हैं।
नानक
कहते हैं, 'तपस्या
अग्नि है। भय
धौंकनी है।'
नानक
यह कह रहे हैं
कि तुम किसी
भी चीज से भागो
मत; उसका
उपयोग खोजो।
और हर चीज का
सदुपयोग है।
ऐसी कोई भी
चीज जीवन में
नहीं है जिसका
उपयोग न हो सके।
कामवासना
ब्रह्मचर्य
बन जाती है।
क्रोध करुणा
हो जाता है।
भय प्रार्थना
बन जाता है।
दुख
तपश्चर्या हो
जाती है।
कलाकार चाहिए,
कुशलता
चाहिए। और
नहीं तो जीवन
जो महल बन
सकता था, वही
तुम्हारे लिए
कारागृह बन
जाता है। तुम
पर सब निर्भर
है।
तुम्हारे
पास सभी कुछ
मौजूद है।
उसका ठीक संयोजन
चाहिए। उस
संयोजन का नाम
संयम है।
तुम्हारे
भीतर सब मौजूद
है। लेकिन
तुमने उसे कभी
संजोया नहीं।
उसको ठीक
व्यवस्था, लय और संगीत
नहीं दिया।
चीजें पड़ी
हैं। तुम जानते
नहीं क्या
करें।
तुम्हारे घर
के सामने एक
पत्थर पड़ा है।
तुम सोचते हो,
यह बाधा है।
दूसरा आदमी
उसी पर चढ़ कर
आगे निकल जाता
है। वह सीढ़ी
बन जाती है।
सब मौजूद है।
परमात्मा
मनुष्य को
पूरा ही बनाता
है, अधूरा
नहीं। लेकिन
संयोजन की
सुविधा है, स्वतंत्रता
है।
तुम
अगर गौर करोगे, अध्ययन
करोगे, तो
जिनको तुम
अपराधी कहते
हो और जिनको
तुम पापी या
पुण्यात्मा
कहते हो, जिनको
बुरे और अच्छे
लोग कहते हो, तुम उनमें
वे ही चीजें
पाओगे। वे ही
चीजें, सिर्फ
संयोजन का
फर्क है।
एक चोर
है, वह रात
दूसरे के घर
में प्रवेश
करता है। आसान
काम नहीं है।
उसने भी अपने
भय को बदला
है। दूसरे के
घर में वह ऐसे
प्रवेश करता
है रात, जैसे
कोई भय नहीं।
दीवाल में छेद
करता है, सेंध
लगाता है।
इतने ढंग से
और शांति से
करता है, जरा
भी खटर-पटर
नहीं होती।
फिर इस तरह से
प्रवेश करता
है, और
इतनी सजगता
रखता
है--दूसरे के
घर में अंधेरे
में घुसना--कि
कोई चीज गिर न
जाए, किसी
चीज से टकरा न
जाए। बड़ी
एकाग्रता से,
बड़े होश से।
झेन
फकीर कहते हैं
कि परमात्मा
के घर में
जाना हो तो
चोर की कला सीखनी
पड़ती है।
क्योंकि वहां
भी इतना ही
होश चाहिए, जैसा चोर
घुसता है
दूसरे के घर
में कि टकरा न
जाए। और भय को
वहां भी
रूपांतरित
करना जरूरी
है। जैसे अपना
ही घर है, ऐसे
चोर घुसता है।
झेन
कथा है, एक
बहुत बड़ा चोर
था। जब वह
बूढ़ा हुआ तो
उसके बेटे ने
कहा कि अब
मुझे भी अपनी
कला सिखा दें।
क्योंकि अब
क्या भरोसा?
वह चोर
इतना बड़ा चोर
था कि कभी
पकड़ा नहीं
गया। और सारी
दुनिया जानती
थी कि वह चोर है।
उसकी खबर
सम्राट तक को
थी। सम्राट ने
उसे एक बार
बुला कर
सम्मानित भी
किया था कि तू
अदभुत आदमी
है। दुनिया
जानती है, हम भी जानते
हैं, कि तू
चोर है। तूने
कभी इसे
छिपाया भी
नहीं, लेकिन
तू कभी पकड़ाया
भी नहीं। तेरी
कला अदभुत है।
तो
बूढ़े बाप ने
कहा कि यह कला
तू जानना
चाहता है, तो सिखा
दूंगा। कल रात
तू मेरे साथ
चल। वह कल अपने
लड़के को ले कर
गया। उसने
सेंध लगायी।
लड़का खड़ा
देखता रहा।
वह इस
तरह सेंध लगा
रहा है, इतनी
तन्मयता से, कि कोई
चित्रकार
जैसे चित्र
बनाता हो, कि
कोई
मूर्तिकार
मूर्ति बनाता
हो, कि कोई
भक्त मंदिर में
पूजा करता हो,
ऐसी
तन्मयता, ऐसा
लीन। इससे कम
में काम भी
नहीं चलेगा।
वह मास्टर थीफ
था। वह कोई
साधारण चोर
नहीं था। सैकड़ों
चोरों का गुरु
था।
लड़का
कंप रहा है
खड़ा हुआ। रात
ठंडी नहीं है, लेकिन
कंपकंपी छूट
रही है। उसकी
रीढ़ में बार-बार
घबड़ाहट
पकड़ रही है।
वह चारों तरफ
चौंक-चौंक कर
देखता है।
लेकिन बाप
अपने काम में
लीन है। उसने
एक बार भी आंख
उठा कर यहां-वहां
नहीं देखा।
चोरी की सेंध
तैयार हो गयी,
बाप बेटे को
ले कर अंदर
गया। बेटे के
तो हाथ-पैर
कंप रहे हैं।
जिंदगी में
ऐसी घबड़ाहट
उसने कभी नहीं
जानी। और बाप
ऐसे चल रहा है,
जैसे अपना
घर हो। वह
बेटे को अंदर
ले गया, उसने
दरवाजे के
ताले तोड़े।
फिर एक बहुत
बड़ी अलमारी
में, वस्त्रों
की अलमारी में,
उसका ताला
खोला और बेटे
को कहा कि तू
अंदर जा। बेटा
अलमारी में
अंदर गया।
बहुमूल्य
वस्त्र हैं, हीरे-जवाहरात
जड़े वस्त्र
हैं।
और
जैसे ही वह
अंदर गया, बाप ने ताला
लगा कर चाबी
अपने खीसे में
डाली। लड़का
अंदर! चाबी
खीसे में डाली,
बाहर गया, दीवाल के
पास जा कर जोर
से शोरगुल
मचाया, चोर!
चोर! और सेंध
से निकल कर
अपने घर चला
गया।
सारा
घर जाग गया, पड़ोसी जाग
गए। लड़के ने
तो अपना सिर
पीट लिया अंदर
कि यह क्या
सिखाना हुआ? मारे गए! कोई
उपाय भी नहीं
छोड़ गया बाप
निकलने का।
चाबी भी साथ
ले गया। ताला
भी लगा गया।
घर भर में लोग
घूम रहे हैं।
सेंध लग गयी
है और लोग देख
रहे हैं, पैर
के चिह्न हैं।
नौकरानी उस
जगह तक आयी
जहां अलमारी
में चोर बंद
है।
उसे
कुछ नहीं सूझ
रहा, क्या
करें। बुद्धि
काम नहीं
देती। बुद्धि
तो वहीं काम
देती है अगर
जाना-माना हो,
किया हुआ
हो। बुद्धि तो
हमेशा बासी
है। ताजे से
बुद्धि का कोई
संबंध नहीं।
यह घटना ऐसी
है, इतनी
नयी है, कि
न तो कभी की, न कभी सुनी, न कभी पढ़ी, न कभी किसी
चोर ने पहले
कभी की है कि
शास्त्रों
में उल्लेख
हो। कुछ सूझ
नहीं रहा। बुद्धि
बिलकुल बेकाम
हो गयी। जहां
बुद्धि बेकाम
हो जाती है, वहां भीतर
की अंतस-चेतना
जागती है।
अचानक
जैसे किसी
ऊर्जा ने उसे
पकड़ लिया। और
उसने इस तरह
आवाज की जैसे
चूहा कपड़े को
कुतरता हो। यह
उसने कभी की
भी नहीं थी
जिंदगी में, वह खुद भी
हैरान हुआ
अपने पर।
नौकरानी
चाबियां खोज
कर लायी, उसने
दरवाजा खोला,
और दीया ले
कर उसने भीतर झांका कि
चूहा है शायद!
जैसे
उसने दीया ले
कर झांका, उसने दीए को
फूंक मार कर
बुझाया, धक्का
दे कर भागा।
सेंध से
निकला। दस-बीस
आदमी उसके
पीछे हो लिए।
बड़ा शोरगुल मच
गया। सारा
पड़ोस जग गया।
वह जान छोड़ कर
भागा। ऐसा वह
कभी भागा नहीं
था। उसे यह
समझ में नहीं
आया कि भागने
वाला मैं हूं।
जैसे कोई और
ही भाग रहा
है। एक कुएं
के पास पहुंचा,
एक चट्टान
को उठा कर
उसने कुएं में
पटका। उसे यह
भी पता नहीं
कि यह मैं कर
रहा हूं। जैसे
कोई और करवा
रहा है।
चट्टान कुएं
में गिरी, सारी
भीड़ कुएं के
पास इकट्ठी हो
गयी। समझा कि चोर
कुएं में कूद
गया।
वह झाड़
के पीछे खड़े
हो कर
सुस्ताया।
फिर घर गया।
दरवाजे पर
दस्तक दी।
उसने कहा, आज इस बाप को
ठीक करना ही
पड़ेगा। यह
सिखाना हुआ? अंदर गया।
बाप कंबल ओढ़े
आराम से सो
रहा है। उसने
कंबल खींचा और
कहा कि क्या
कर रहे हो? वह
तो घुर्राटे
ले रहा था।
उसने जगाया।
उसने कहा कि
यह क्या है? मुझे मार
डालना चाहते
हैं? बाप
ने कहा, तू
आ गया, बाकी
कहानी सुबह
सुन लेंगे।
मगर तू सीख
गया। अब
सिखाने की कोई
जरूरत नहीं।
बेटे ने कहा, कुछ तो कहो।
कुछ तो पूछो
मेरा हाल।
क्योंकि मैं
सो न पाऊंगा।
तो बेटे ने सब
हाल बताया कि
ऐसा-ऐसा हुआ।
बाप ने
कहा, बस! तुझे
कला आ गयी।
तुझे आ गयी
कला, यह
सिखायी नहीं
जा सकती।
लेकिन तू आखिर
मेरा ही बेटा
है। मेरा खून
तेरे शरीर में
दौड़ता
है। बस, हो
गया। तुझे राज
मिल गया।
क्योंकि चोर
अगर बुद्धि से
चले तो
फंसेगा। वहां
तो बुद्धि छोड़
देनी पड़ती है।
क्योंकि हर
घड़ी नयी है।
हर बार नए
लोगों की चोरी
है। हर मकान
नए ढंग का है।
पुराना अनुभव
कुछ काम नहीं
आता। वहां तो
बुद्धि से चले
कि उपद्रव में
पड़ जाओगे।
वहां तो
अंतस-चेतना से
चलना पड़ता है।
झेन
फकीर इस कहानी
का उल्लेख
करते हैं। वे
कहते हैं, ध्यान की
कला भी चोरी
जैसी है। वहां
इतना ही होश
चाहिए।
बुद्धि अलग हो
जाए, सजगता
हो जाए। जहां
भय होगा, वहां
सजगता हो सकती
है। जहां खतरा
होता है, वहां
तुम जाग जाते
हो। जहां खतरा
होता है, वहां
विचार अपने-आप
बंद हो जाते
हैं।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'भय धौंकनी
है।'
भय का
उपयोग करो। भय
है तो जागो।
भय से सुरक्षा
मत करो। हम
क्या करते हैं? जहां भय
होता है, वहां
सुरक्षा करते
हैं। अगर भय
है कहीं, तो
हम तलवार ले
कर जाते हैं।
बंदूक साथ रख
लेते हैं, कि
चार नौकर रख
लेते हैं कि
जो हमारी
रक्षा करें।
अगर भय है, तो
हम बड़ी दीवाल
बनाते हैं; पहाड़ खड़ा कर
देते हैं
दीवाल का कि
कोई भीतर न आ सके।
हम भय से
सुरक्षा करते
हैं।
नहीं, भय से
सुरक्षा करने
में तो हमारी
चेतना और भी क्षीण
हो जाएगी। हम
तो और भी
बेहोश हो
जाएंगे। इसलिए
जितने
सुरक्षित लोग
तुम पाओगे, उतने ही
निर्बुद्धि
पाओगे। धनी
आदमी में बुद्धि
पाना जरा
मुश्किल है।
उसके पास
सुरक्षा का
इंतजाम है, इसलिए
बुद्धि की
जरूरत नहीं।
दूसरे लोग
उसकी सेवा कर
रहे हैं।
बुद्धि का काम
वे कर रहे हैं।
उसे क्या
जरूरत है।
इसलिए
धनी घरों में
जब बेटे पैदा
होते हैं, तब तुम
उन्हें हमेशा
मंदबुद्धि
पाओगे। वे मिडियाकर
होंगे। उनमें
कभी तुम चेतना
की झलक न
पाओगे। तुम
ऐसा न पाओगे
कि उनके भीतर
प्रतिभा जलती
है। कोई जरूरत
ही नहीं
प्रतिभा की।
नौकर-चाकर में
प्रतिभा
चाहिए, उनमें
प्रतिभा की
क्या जरूरत है?
नानक
कहते हैं, भय को
धौंकनी बना
लो। भय से जागो।
भय बड़ी अदभुत
स्थिति है।
कंपन आएगा, रोआं-रोआं
थर-थर हो
जाएगा। वहीं
तो मौका है कि जब
सारा शरीर
कंपता हो तब
भी तुम्हारी
चेतना न कंपे।
तब चेतना अकंप
रहे। तो भय
धौंकनी हो
गयी।
'तपस्या
अग्नि है।'
और
जीवन में
जहां-जहां दुख
है, वहां-वहां
दुख को तुम
तपश्चर्या
समझना। और संकल्पपूर्वक
उसे स्वीकार
कर लेना। जब
तुम बीमार पड़ो,
बीमारी को
स्वीकार कर
लेना, लड़ना
मत। और तब तुम
पाओगे, बीमारी
के बाद शरीर
ही स्वस्थ
नहीं हुआ, चेतना
भी एक नए
स्वास्थ्य को
उपलब्ध हुई
है। जब बीमारी
आए तो तुम उसे
देखना और
स्वीकार करना
कि ठीक है।
लड़ना मत, घबड़ाना
मत। मन को
यहां-वहां मत
लगाना।
अन्यथा तुम बीमारी
के अवसर से
चूक गए। ये
सारे जीवन की
सभी स्थितियां
परमात्मा तक
पहुंचने का
मार्ग बन सकती
हैं, याद
रखना। हर घटना
उसके द्वार की
सीढ़ी है। अगर
तुम जानते हो,
अगर तुम
समझते हो, तो
उसका उपयोग कर
लोगे।
'भाव
ही पात्र है
जिसमें अमृत
ढलता है।'
और
नानक कहते हैं, विचार से
नहीं, भाव
से। भाव का
अर्थ है, जो
विचार के पार
तुम्हारी
चेतना है।
विचार तो मस्तिष्क
में है, भाव
तुम्हारे
हृदय में है।
भाव तर्क नहीं
है, प्रेम
है। उससे तुम
गणित नहीं
बिठा सकते।
लेकिन भाव एक
उद्रेक की
अवस्था है। एक
हर्षोन्माद
की अवस्था है।
और जब तुम
भावित होते हो,
तब तुम जगत
से उसकी गहराई
से संयुक्त
होते हो।
विचार
तो तुम्हारी
सब से ऊपरी
सतह है। अगर
ठीक से समझो, तो वह तो घर
के चारों तरफ
लगायी हुई फेंसिंग
है। वह घर
थोड़े ही है।
वह घर का
आंतरिक कक्ष
थोड़े ही है।
विचार तो फेंसिंग
है। वह तो
हमने पड़ोसियों
से रक्षा के
लिए लगा रखी
है। वह तो
सीमा बनाती है।
तुम नहीं हो
वह, तुम तो
तुम्हारा भाव
हो।
लेकिन
भाव से हम डर
गए हैं। और
हमने
धीरे-धीरे भाव
अवरुद्ध कर
दिया है। काट ही
डाला है अपने
को भाव से। हम
हृदय की बात
ही नहीं
सुनते। हम तो
बुद्धि की बात
सुनते हैं। हम
तो बुद्धि के
तर्क से चलते
हैं। बुद्धि
जहां ले जाती
है वहां हम
जाते हैं। और
बुद्धि कहां ले
जा सकती है? बुद्धि सब
से उथली चीज
है तुम्हारे
भीतर, इसलिए
उथले तक ले
जाती है।
इसलिए तुम धन
इकट्ठा करते
हो। इसलिए तुम
कचरा इकट्ठा
करते हो।
इसलिए तुम
पद-प्रतिष्ठा
की चिंता करते
हो।
नानक
कहते हैं, 'भाव पात्र
है जिसमें
अमृत ढलता है।'
तुम
विचार से थोड़े
हटो और भाव
में थोड़े डूबो।
बड़ा मुश्किल
है। क्या
करोगे जिससे
तुम भाव में
डूब जाओ? सुबह
तुम उठे हो, हिंदू उठते
थे पुराने
दिनों में, सूरज के
उगते ही वे
सूर्य-नमस्कार
करेंगे। वे झुकेंगे
सूरज के
सामने। वे
सूर्य का
अनुग्रह
स्वीकार करेंगे।
वे धन्यवाद
देंगे कि तुम
फिर आ गए, एक
दिन और मिला।
फिर तुमने
प्रकाश किया।
फिर फूल
खिलेंगे, फिर
पक्षी गीत गाएंगे,
फिर जीवन की
कथा चलेगी।
तुम्हारा
धन्यवाद है।
तुम्हारा
अनुग्रह है।
वे सूर्य के
सामने हाथ
जोड़े सूर्य का
प्रकाश पीते
थे। और वह जो
भाव, अनुग्रह
का भाव था, वह
उनके हृदय में
एक पुलक भर
देता था।
नदी
जाएंगे तो
स्नान करने के
पहले प्रणाम
करेंगे। एक
भाव का संबंध
जोड़ेंगे नदी
से। तब शरीर
को भी नदी धोएगी
ही, वह तो
तुम्हारा
शरीर भी धोती
है, लेकिन
भीतर भी कुछ
धुल जाएगा।
क्योंकि वे
स्नान करते
समय सिर्फ
स्नान ही नहीं
कर रहे हैं, नदी पवित्र
है, वह
परमात्मा की
है, एक
भीतर-भाव सघन
हो रहा है। वे
भोजन करेंगे
तो भी पहले
परमात्मा को
स्मरण करेंगे,
पहले भोग
लगाएंगे।
पहले उसे, पीछे
स्वयं को।
अन्न
को हिंदुओं ने
ब्रह्म कहा
है। वह है भी। क्योंकि
तुम्हें जीवन
देता है।
हिंदुओं ने हर
चीज को
परमात्मा की
स्मृति बना
ली। हर जगह से
उसके भाव की
चोट पड़नी
चाहिए। उठते, बैठते, सोते,
हर जगह उसकी
याद।
हमने
सब इनकार कर
दिया। हमने
कहा, यह तुम
क्या कर रहे
हो? नदी
में नहा रहे
हो, नदी
सिर्फ पानी
है। और पानी
में क्या है? एच टू ओ।
कहां का भगवान?
सूरज को
प्रणाम कर रहे
हो! सूरज कुछ
भी नहीं है।
आग का गोला।
किसको प्रणाम
कर रहे हो? अगर
यह बात सच है, सूरज आग का गोला
है, नदी
सिर्फ एच टू ओ
है, तो फिर
कहां तुम
भगवान को
पाओगे? फिर
पत्नी क्या है?
पत्नी भी
कुछ नहीं है, हाड़-मांस।
फिर बेटा क्या
है? मांस-मज्जा।
फिर तुम कहां
भाव को जगाओगे?
भाव को
जगाने का अर्थ
है कि जगत
सचेतन है। जो
दिखायी पड़ता
है, वहां
समाप्त नहीं
है, उससे
भीतर है। बहुत
गहरा है। भाव
का अर्थ है कि
जगत में एक
व्यक्तित्व
है, एक
आत्मा है।
माना कि बच्चा
हाड़-मांस
है। वह हाड़-मांस
ही नहीं है
उसके भीतर कुछ
अवतरित हुआ है।
उसके भीतर
भगवान आए हैं।
वह अतिथि है
हमारे घर में।
वृक्ष, माना कि
वृक्ष है; लेकिन
वृक्ष ही नहीं
है, उसके
भीतर भी कोई
बढ़ रहा है।
उसके भीतर भी
कोई आनंदित
होता है, दुखी
होता है। उसके
भीतर भी मूड, भाव, संवेग
आते हैं। उसके
भीतर भी जागरण,
तंद्रा आती
है।
अभी
वैज्ञानिकों
ने बड़ी
खोज-बीन की है
कि वृक्ष भी
उतना ही अनुभव
करता है, जितना
मनुष्य। और
वृक्ष की
अनुभूति बड़ी
गहरी है। उसकी
प्रतीति गहरी
है। वह उतना
ही संवेदनशील
है, जितने
हम। चट्टानें
भी संवेदनशील
हैं।
हर जगह
संवेदना है।
और तुम
संवेदना खो
दिए हो। भाव
खो दिए हो।
इसलिए जगत
बिलकुल उदास, रौनकहीन,
अर्थहीन
मालूम पड़ता
है। जैसे ही
तुम्हारा भाव
जगेगा, वैसे
ही जगत रूपांतरित
हो जाता है।
जगत तो यही
रहता है, सब
कुछ यही रहता
है, फिर भी
सब बदल जाता
है। क्योंकि
तुम बदल जाते हो।
'भाव
ही पात्र है
जिसमें अमृत
ढलता है।'
और
नानक कहते हैं, तुम्हारा
भाव ही पात्र
बनेगा जिसमें
परमात्मा का
अमृत ढलेगा।
अगर तुम्हारे
पास भाव नहीं
तो तुम
परमात्मा से
वंचित रह
जाओगे। भाव को
जगाओ।
लेकिन
भाव को जगाने
में एक ही
बाधा है कि
भाव बुद्धि से
विपरीत है।
बुद्धि से
भिन्न है। संसार
में बुद्धि
कारगर है, भाव कारगर
नहीं है। धन
कमाना हो तो
भाव से न कमा
सकोगे। लुट
जाओगे।
बुद्धि कहेगी,
कोई भी लूट
लेगा। अगर
राजनीति के
शिखर पर चढ़ना
हो, तो भाव
से न चढ़
सकोगे। वहां
तो कठोरता
चाहिए। वहां
तो प्रगाढ़
आक्रामक
विचार चाहिए।
वहां शांति और
मौन काम न
देंगे। वहां
हृदय को तो
भूल ही जाना
कि जैसे वह है
ही नहीं।
मैंने
सुनी है
भविष्य की एक
कहानी कि ऐसा
हुआ--भविष्य
में--कि आदमी
के सभी शरीर
के अंग, हृदय,
सिर, फेफड़े,
गुर्दे, सभी
स्पेयर पार्ट्स
की तरह मिलने
लगे। मिलने ही
लगेंगे एक
दिन। कि
तुम्हारा
गुर्दा खराब
हो गया, तुम
गए वर्कशाप
में, और
तुमने अपना
गुर्दा बदलवा
लिया, और
चल पड़े। जैसे
कि मोटर को ले
जाते हो। चीज बिगड़
गयी, बदल
ली, चल
पड़े।
एक
आदमी का हृदय
खराब हो गया।
तो गया दुकान
पर जहां हृदय
बिकते थे। कई
तरह के हृदय
थे वहां। तो
उसने पूछा कि
इनके दाम? और इनमें
भेद क्या है? तो उस आदमी
ने कई तरह के
हृदय बताए। कि
यह एक मजदूर
का हृदय है, यह एक किसान
का हृदय है, यह एक गणितज्ञ
का हृदय है, यह एक
राजनीतिज्ञ
का हृदय है और
इसके दाम सबसे
ज्यादा हैं।
आदमी ने कहा, इसका क्या
मतलब? तो
उसने कहा, इसका
उपयोग कभी
नहीं हुआ है।
ब्रांड न्यू।
राजनीतिज्ञ
का हृदय है, इसका कभी
उपयोग नहीं
हुआ। यह
बिलकुल बिना
उपयोग का पड़ा
है। इसलिए
इसके दाम ज्यादा
हैं। यह एक
कवि का हृदय
है, इसका
दाम सब से कम
है। इसका बहुत
उपयोग हो गया है,
बिलकुल
सेकेंड हैंड
है।
राजनीतिज्ञ
को हृदय की
जरूरत क्या है?
उसका उपयोग
खतरनाक है
वहां।
तुम
अपने हृदय का
उपयोग
धीरे-धीरे
शुरू करो। धीरे-धीरे
ही हो सकता
है। एक ही बात
याद रखो, कि
विचार को थोड़ा
हटाओ, भाव
को थोड़ा लाओ।
वृक्ष के पास
बैठो। फूल के
पास बैठो।
विचार मत करो
कि यह गुलाब
है। नाम से क्या
लेना-देना। यह
विचार मत करो
कि बड़ा गुलाब
है। बड़े-छोटे
से क्या
लेना-देना।
उसमें एक अदृश्य
सौंदर्य है, तुम उसे
पीओ। सोचो मत
उसके संबंध
में। तुम फूल
के पास बैठ कर
मौन, फूल
के साथ रहो।
जल्दी
ही तुम पाओगे
कि तुम्हारे
हृदय में जो क्रिया
चल रही है, उसने
तुम्हारे
मस्तिष्क की
क्रिया को बंद
कर दिया है।
क्योंकि दो
में से एक ही
जगह जीवन-ऊर्जा
चल सकती है।
जैसे ही
तुम्हारे
हृदय में पुलक
आएगी--और वह
पुलक अनुभव से
ही जानी जा
सकती है। कोई
नहीं कह सकता,
क्या है वह
पुलक! वह
गूंगे का गुड़
है। क्योंकि हृदय
के पास कोई
भाषा नहीं है।
तुम
बैठो फूल के
पास, तुम सुनो
पक्षी का गीत।
तुम वृक्ष से
पीठ टेक कर
बैठ जाओ, आंख
बंद कर लो, उसकी
खुरदरी देह को
अनुभव करो।
तुम रेत पर
लेट जाओ, आंख
बंद कर लो, रेत
के शीतल
स्पर्श को
अनुभव करो।
तुम झरने में
बैठ जाओ, बहने
दो पानी को
तुम्हारे सिर
पर से, और
तुम उसका
प्रीतिकर
स्पर्श अपने
में डूबने दो।
तुम सूरज के
सामने खड़े हो
जाओ आंख बंद
कर के, छूने
दो उसकी
किरणों को
तुम्हें।
और तुम
सिर्फ अनुभव
करो, सोचो मत
कि क्या हो
रहा है। तुम
सिर्फ अनुभव करो।
जो हो रहा है
उसे होने दो
और हृदय को
पुलकित होने
दो। तुम जल्दी
ही पाओगे कि
एक नयी गतिविधि
शुरू होती है
हृदय में।
जैसे एक नया
यंत्र, जो
अब तक बंद पड़ा
था, सक्रिय
हो गया। एक
नयी धुन बजती
है तुम्हारे जीवन
में। तुम्हारे
जीवन का
केंद्र बदल
जाता है। और
उसी बदले हुए
केंद्र पर
अमृत की वर्षा
होती है।
'सत्य
के टकसाल में
शब्द का
सिक्का गढ़ा
जाता है।'
नानक
जिसको शब्द
कहते हैं, वह ओंकार; तुम्हारे
शब्द नहीं।
सत्य के टकसाल
में--और तुम्हारे
जीवन में
जितनी सचाई
आती जाएगी
उतना ओंकार ढलेगा।
उतना ही तुम
ओंकार के रूप
में लीन होते
जाओगे। झूठ से
तुम दूसरे को
नुकसान
पहुंचाते हो,
वह बड़ा
नुकसान नहीं
है। झूठ से
तुम सत्य की
टकसाल नहीं बन
पाते। जहां कि
जीवन का परम
अनुभव ढलेगा,
जहां ओंकार
की धुन बजेगी।
वही असली
नुकसान है।
'जिन
पर उसकी कृपा-दृष्टि
होती है, वे
ही यह काम कर
पाते हैं।'
लेकिन
नानक हर पद के
बाद यह बात
भूलते नहीं हैं
दोहराना कि
याद रखना, तुम्हारी
वजह से यह न
होगा। तुम
कहीं मत अकड़ जाना,
कि मैं बड़ा
भक्त, कि
मैं बड़ा भावुक,
कि मेरा
हृदय बड़ा
तरंगित, कि
मैं बड़ा
तपस्वी, कि
मैं बड़ा
संयमी। नहीं,
नानक कहते
हैं, यह तो
तुम याद ही
रखना कि जिस
पर उसकी
कृपा-दृष्टि
होती है, वे
ही यह काम कर
पाते हैं।
जिन कउ नदरि
करमु तिन
कार।।
नानक नदरी नदरि
निहाल।।
'नानक
कहते हैं, वे
उस
कृपा-दृष्टि
से निहाल हो
उठते हैं।'
'पवन
गुरु है, पानी
पिता है और
महान धरती
माता है। रात
और दिन दाई और
सेवक। उनके
साथ सारा जगत
खेल रहा है।
शुभ-अशुभ कर्म
उसके दरबार
में धर्म के
द्वारा बांचे
जाते हैं। सब
के अपने-अपने
कर्म हैं, जिससे
कोई उसके निकट
है और कोई दूर
है। नानक कहते
हैं, जिन्होंने
उसके नाम का
ध्यान किया और
सचाई से श्रम
किया, उनके
मुख उज्ज्वल
होते हैं। और
उनके साथ
अनेकों मुक्त
हो जाते हैं।'
पवणु
गुरु पाणी
पिता माता धरति
महतु।
दिवस
राति दुइ दाई दाइआ खेले सगलु जगतु।।
चंगिआइआ बुरिआइआ वाचै धरमु
हदूरि।
करमी
आपा आपणी
के नेड़े
के दूरि।।
जिनी नामु धिआइआ
गए मसकति घालि।
नानक
ते मुख उजले केती छूटी नालि।
नानक
के प्रतीक
मूल्यवान
हैं। बहुत भाव
से चुने हैं।
'पवन
गुरु।'
कहते
हैं, गुरु तो
पवन की भांति
है। दिखायी
नहीं पड़ता, अनुभव किया
जा सकता है।
जो देखने
जाएंगे, वे
चूक जाएंगे।
पवन दिखायी
नहीं पड़ता, अनुभव किया
जा सकता है।
उसका स्पर्श
ही जाना जा
सकता है। तुम
उसे मुट्ठी
में बंद नहीं
कर सकते।
गुरु
को मुट्ठी में
बंद नहीं किया
जा सकता। और
जो गुरु
शिष्यों की
मुट्ठी में
बंद हो, जान
लेना गुरु
नहीं। तुम सौ
में
निन्यानबे गुरु
शिष्यों की
मुट्ठी में
बंद पाओगे।
शिष्य उन्हें
चला रहे हैं।
शिष्य बताते
हैं, क्या
करना उचित, क्या करना
उचित नहीं।
शिष्य तय करते
हैं कि क्या
आचरण, क्या
अनाचरण।
शिष्यों की
पंचायतें हैं,
जो साधुओं
को चलाती हैं।
पंचायत तय
करती है कि
कौन साधु
योग्य, कौन
साधु अयोग्य!
पंचायत तय
करती है, किस
साधु को पूजो,
किस को बाहर
निकाल दो। बड़ी
उलटी दुनिया
है हमारी।
गुरुओं को हम
निर्णय करते
हैं! कि तुम ऐसे
उठो, तुम
ऐसे बैठो, ऐसे
चलो। और जो
गुरु इससे
राजी हो जाते
हैं, वे
गुरु नहीं हैं,
इसीलिए
राजी हो जाते
हैं।
तुम
अपने मठों में, आश्रमों में
गुरुओं को न
पाओगे।
गुरुओं के नाम
से चलते हुए
झूठे सिक्के
पाओगे। गुरु
को कोई मुट्ठी
में बांध नहीं
सकता। तुम
महावीर को, बुद्ध को, नानक को चला
नहीं सकते। वे
अपनी मर्जी से
चलते हैं। पवन
अपनी मर्जी से
बहता है। जब
बहता है, बहता
है; जब
नहीं बहता, नहीं बहता।
और तुम मुट्ठी
बांधोगे,
तो पवन
तुम्हारे हाथ
में था वह भी
बाहर हो जाएगा।
जो मुक्त करने
आए हैं, उन्हें
बांधा नहीं जा
सकता। जिनसे
तुम मुक्ति
खोज रहे हो, उनको तुम
कैसे बांध
सकते हो?
इसलिए
नानक कहते हैं, 'पवन गुरु, पानी पिता, धरती माता।'
धरती
के बिना
तुम्हारी देह
नहीं हो सकती।
इसलिए माता
अत्यंत जरूरी
है। उसके बिना
कोई जन्म नहीं
है। लेकिन सब
से स्थूल है
पृथ्वी।
इसलिए माता तो
पशु-पक्षियों
में भी होती
है, पिता
नहीं होता।
पिता के लिए
तो बड़ी
संस्कार की, सभ्यता की
अवस्था
चाहिए। पिता
मन है, मां
देह है।
जहां-जहां देह
है, वहां-वहां
मां है, लेकिन
पिता नहीं है।
जहां मन का
जन्म हुआ, वहां
पिता शुरू होता
है। तो पिता
बड़ी नयी घटना
है।
सिर्फ
मनुष्यों में
पिता है। और
वह भी बहुत प्राचीन
नहीं है। कोई
पांच हजार साल, ज्यादा से
ज्यादा। उसके
पहले पिता
नहीं था। क्योंकि
स्त्री
सामाजिक
संपदा थी।
अनेक लोग उसे
भोगते थे।
पिता का पता
चलाना
मुश्किल था। वह
ठीक पशुओं
जैसी ही
स्थिति थी। तो
यह जान कर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि काका, अंकल
पुराना शब्द
है पिता से।
उन दिनों चाचा
तो होता था, काका होता
था, अंकल
होता था, लेकिन
पिता नहीं
होता था।
क्योंकि
जितने ही बड़ी
उम्र के लोग
होते थे, पिता
होने की
योग्यता के
लोग होते थे, वे सभी काका थे।
और पता नहीं
उनमें कौन
पिता था। इसका
कुछ पता नहीं
था।
पिता
बहुत बाद में
आया। क्योंकि
पिता मन है, संस्कार है,
सभ्यता है।
इसलिए पिता एक
सामाजिक
उपलब्धि है, प्राकृतिक
नहीं।
प्रकृति में
पिता की कोई
भी पहचान नहीं
है। सिर्फ
समाज जब बहुत
विकसित होता
है तो पिता
आता है।
इसलिए
नानक कहते हैं, मां तो धरती
जैसी है, उसके
बिना तो कोई
हो नहीं सकता।
सब से स्थूल है
वह।
'पानी
पिता।'
और
पिता का संबंध
ज्यादा तरल
है। मां का
संबंध ज्यादा
स्थूल है।
तरलता की खबर
देने के लिए वे
कहते हैं, पानी।
'और
पवन गुरु।'
ये तीन
सीढ़ियां
हैं, मां--धरती,
बहुत स्थूल,
मैटीरीयल,
पदार्थ।
इसलिए स्त्री
को हमने
प्रकृति कहा है।
उसके बाद की
ऊंची एक
स्थिति है, जहां पिता
का संबंध शुरू
होता है, सभ्यता,
समाज, संस्कृति।
और उससे भी
ऊंची एक
स्थिति है, जहां गुरु
का संबंध शुरू
होता है, धर्म,
योग, तंत्र।
अगर
तुम मां पर ही
रुक गए, तो
करीब-करीब पशु
जैसे रह
जाओगे। अगर
पिता पर रुक
गए, तो
मात्र मनुष्य
रह जाओगे। जब
तक तुम गुरु
तक न पहुंचो
तब तक
तुम्हारे
आत्मवान होने
की कोई स्थिति
बनती नहीं।
तुम्हारे
जीवन की तीन सीढ़ियां
हैं। मां तक
तो सभी पशु
पहुंच जाते
हैं। पिता तक
सभी मनुष्य
पहुंच जाते
हैं। गुरु तक
बहुत थोड़े से
लोग पहुंच
पाते हैं। और
जब तक तुम
गुरु तक न पहुंचो,
तब तक
तुम्हारी
पूरी ऊंचाई न
आएगी।
क्योंकि मां
शरीर का संबंध,
पिता मन का
संबंध, गुरु
आत्मा का
संबंध है। वह
इस जगत में सब
से बड़ा संबंध
है। उससे न तो
गहरा कोई संबंध
है, न ऊंचा
कोई संबंध है।
इसलिए
जो लोग बिना
गुरु के हैं, करीब-करीब
अधूरे हैं।
गुरु के साथ
ही तुम पूरे
होते हो। इस
जगत की यात्रा
पूरी होती है
और दूसरे जगत
की यात्रा
शुरू होती है।
गुरु इस जगत का
अंत और दूसरे
जगत का
प्रारंभ है।
वह द्वार है।
इसलिए तो नानक
ने अपने मंदिर
को
गुरुद्वारा
कहा। द्वार का
मतलब होता है
एक दुनिया
समाप्त, दूसरी
दुनिया शुरू।
इस तरफ एक
दुनिया, उस
तरफ दूसरी
दुनिया। गुरु
बीच में है।
'रात
और दिन दाई और
सेवक हैं, उनके
साथ सारा जगत
खेल रहा है।'
समय के
साथ सारा जगत
खेल रहा है।
खेलने वाले दो
तरह के हैं।
एक, जिन्होंने
नौकर को और
सेवक को मालिक
बना लिया है।
और एक, जिन्होंने
नौकर को और
सेवक को नौकर
ही समझा है।
समय
तुम्हारा
मालिक नहीं है, तुम्हारा
गुलाम है। तुम
उसका उपयोग
करो। लेकिन
समय को तुम
अपना उपयोग मत
करने दो। हालत
बिलकुल उलटी
है। समय
तुम्हारा उपयोग
कर रहा है।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं, ध्यान
करना है, लेकिन
समय नहीं है।
ध्यान करने के
लिए समय नहीं
है? समय
तुम्हारा
मालिक है? या
तुम समय के
मालिक हो? अगर
तुम समय के
मालिक हो, तो
बहुत समय है
ध्यान करने के
लिए। अगर तुम
गुलाम हो, तो
कोई समय नहीं है।
क्योंकि
सिनेमा देखने
के लिए
तुम्हारे पास
समय है, सरकस
जाने के लिए
समय है। सब
चीजों के लिए
समय है।
बहुत
मजे की बात
है। यही आदमी
सुबह बैठा
अखबार पढ़ रहा
हो घर में; इससे पूछो, क्या कर रहे
हो? यह
कहता है, समय
काट रहे हैं।
यही आदमी समय
काटता है।
ज्यादा समय है,
काटता है।
समय काटे नहीं
कटता, लोग
कहते हैं। और
जब ध्यान की
बात आती है, तो वे कहते
हैं, समय
कहां? वही
के वही लोग!
ऐसे समय बहुत
है, काटे
नहीं कटता।
टेलीविजन
देखो, क्लब
जाओ, फिर
भी बच रहता
है। कहां
बिताओ, यह
सवाल उठता है।
छुट्टी
के दिन लोग
बड़ी कठिनाई
में होते हैं, क्या करो? छुट्टी के
दिन बिलकुल थक
जाते हैं, कुछ
न कर-कर के।
सोमवार को वे
बड़े प्रसन्न
होते हैं। जब
सुबह वे दफ्तर
की तरफ जा रहे
हैं, तब
बड़े प्रसन्न
हैं कि किसी
तरह रविवार टल
गया। या
रविवार को कुछ
उपद्रव कर
लेते हैं।
दस-पचास, सौ
मील का चक्कर
लगा आएंगे।
समुद्र तट पर
जा रहे हैं, पहाड़ी पर जा
रहे हैं। वह
जो एक दिन
विश्राम का मिला
था उसको भी
काम में...।
अमरीका में
कहावत है कि
छुट्टी के दिन
लोग इतने थक
जाते हैं, जितने
कि कभी भी काम
के दिन नहीं
थकते।
समय
तुम्हारा
उपयोग कर रहा
है। अगर तुम
मालिक हो, तो समय बहुत
है। अगर तुम
गुलाम हो, तो
बिलकुल नहीं।
गुलाम के पास
क्या हो सकता
है? समय भी
नहीं है।
नानक
कहते हैं, 'उनके साथ
सारा जगत खेल खेल रहा
है।'
खेल दो
तरह का चल रहा
है। एक, जो
मालिक हैं, वे समय का
उपयोग कर लेते
हैं। वे इस
समय में ही उसको
जानने के लिए
रास्ता बना
लेते हैं, जो
समय के बाहर
है। वही ध्यान
है। अन्यथा
दूसरे लोग हैं,
जो समय के
द्वारा उपयोग
कर लिए जाते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
भिखमंगा अनाज
की दुकान पर
गया। और उसने
कहा कि मेरे
पास बिलकुल
पैसे नहीं
हैं। और आज तो
तुम्हें अनाज
उधार ही देना
पड़ेगा।
दुकानदार को
दया आ गयी।
उसने कहा, ठीक
है, अनाज
तो मैं दिए
देता हूं।
लेकिन एक बात
खयाल रखना।
मुझे थोड़ा शक
होता है। गांव
में सरकस आया
हुआ है। तुम
इसको बेच कर
सरकस मत देख
लेना। उस आदमी
ने कहा, तुम
इसकी बिलकुल
फिक्र मत करो।
सरकस देखने के
लिए पैसे
मैंने पहले से
ही बचा लिए
हैं।
व्यर्थ
के लिए तो तुम
पहले ही समय
बचाए हुए हो।
सार्थक के लिए
समय नहीं
बचता। समय के
मालिक बनो, तो ही समय के
पार जा सकोगे।
'शुभ
और अशुभ कर्म
उसके दरबार
में धर्म के
द्वारा बांचे
जाते हैं।
सबके
अपने-अपने
कर्म हैं, जिससे
कोई उसके निकट
है और दूर है।'
परमात्मा
सब के पास है।
उसकी तरफ से न
तो तुम दूर हो
और न तुम पास
हो। वह सब के
पास एक जैसा
है। लेकिन
तुम्हारी तरफ
से तुम दूर हो
या पास हो।
तुम्हारे कर्म
के कारण या तो
तुम निकट हो
या दूर हो।
करमी
आपा आपणी
के नेड़े
के दूरि।
तुमने
अगर ऐसे कर्म
किए हैं, जो
तुम्हें
सुलाते हैं, मूर्च्छित
करते हैं, तो
तुम पीठ किए
खड़े हो। सूरज
वहीं है, तुम
पीठ किए खड़े
हो। तुमने अगर
ऐसे कर्म किए,
जो तुम्हें
जगाते हैं, होश से भरते
हैं, तो
तुमने सूरज की
तरफ मुंह कर
लिया। खड़े तुम
वहीं हो। सूरज
भी वहीं है, तुम भी वहीं
हो। फर्क
सिर्फ पड़ जाता
है कि तुम्हारी
पीठ सूरज की
तरफ है, तो
बहुत दूर; मुंह
सूरज की तरफ
है, तो
बहुत पास।
परमात्मा
तुम्हारे सदा
एक सा ही पास
है। उसकी नजर
में, नानक
कहते हैं, न
कोई ऊंच है, न कोई नीच। न
कोई पात्र, न कोई
अपात्र। अगर
तुम अपात्र हो
तो अपने ही कारण।
अपने में थोड़ा
फर्क करो, और
तुम पात्र हो
जाओगे।
क्योंकि जो
पात्र हैं, उनमें और
तुम में सिर्फ
एक ही फर्क
है। वे परमात्मा
की तरफ उन्मुख
हैं, तुम
परमात्मा की
तरफ विमुख हो।
नानक
कहते हैं, 'जिन्होंने
उसके नाम का
ध्यान किया और
सचाई से श्रम
किया, उनके
मुख उज्ज्वल
होते हैं। और
उनके साथ अनेकों
मुक्त होते
हैं।'
नानक
कहते हैं, जब भी कोई
मुक्त होता है,
अकेला ही
मुक्त नहीं
होता।
क्योंकि
मुक्ति इतनी
परम घटना है, और मुक्ति
एक ऐसा महान
अवसर है--एक
व्यक्ति की मुक्ति
भी--कि जो भी
उसके निकट आते
हैं, वे भी
उस सुगंध से
भर जाते हैं।
उनकी जीवन-यात्रा
भी बदल जाती
है। जो भी
उसके पास आ
जाते हैं, वे
भी उस ओंकार
की धुन से भर
जाते हैं।
उनको भी मुक्ति
का रस लग जाता
है। उनको भी
स्वाद मिल जाता
है थोड़ा सा।
और वह स्वाद
उनके पूरे
जीवन को बदल
देता है।
'जिन्होंने
उसका ध्यान
किया, सचाई
से उसके लिए
श्रम किया, उनके मुख
उज्ज्वल होते
हैं।'
उनके
भीतर एक
प्रकाश जलता
है। जो अगर
तुम प्रेम से
देखो, तो
तुम्हें
दिखायी पड़
सकता है। तुम
अगर पूजा के
भाव से पहचानो,
तो तत्क्षण
पहचान आ सकता
है। उनके भीतर
एक दीया जलता
है। और उस दीए
की रोशनी उनके
चारों तरफ पड़ती
है।
इसलिए
तो हमने संतपुरुषों, अवतारों के
चेहरे के
आसपास आभा का
मंडल बनाया है।
वह आभा का
मंडल सभी को
दिखायी नहीं
पड़ता। वह
उन्हीं को
दिखायी पड़ता
है, जिनके
भीतर भाव की
पहली किरण उतर
आयी है। उन्हीं
को दिखायी
पड़ता है जिनके
पास श्रद्धा
है। जिनके पास
श्रद्धा की
पहचान है।
और
जिनको यह
दिखायी पड़ता
है, वे उस जले
हुए दीए से
अपना बुझा हुआ
दीया भी जला
लेते हैं। जब
भी कोई एक
मुक्त होता है,
तो हजारों
उसकी छाया में
मुक्त होते
हैं। एक व्यक्ति
की मुक्ति कभी
भी अकेली नहीं
घटती। घट ही
नहीं सकती।
क्योंकि जब
इतना परम अवसर
मिलता है, तो
ऐसा व्यक्ति
बहुतों के लिए
द्वार बन जाता
है।
तुम
अपनी श्रद्धा
और भाव को
जगाए रखना, ताकि
तुम्हें गुरु
पहचान आ सके।
और गुरु को जिसने
पहचान लिया, उसने इस जगत
में परमात्मा
के हाथ को
पहचान लिया।
गुरु को जिसने
पहचान लिया, उसने इस जगत
में जगत के जो
बाहर है उसको
पहचान लिया।
उसे द्वार मिल
गया।
और
द्वार मिल जाए
तो सब मिल
गया। खोया तो
कभी भी कुछ
नहीं है।
द्वार से गुजर
कर तुम्हें
अपनी पहचान आ
जाती है। जो
प्रकाश सदा से
तुम्हारा है, उसकी सुरति
आ जाती है। जो
संपदा सदा से
तुम्हारे पास
है, आविष्कार
हो जाता है।
जो तुम सदा से
ही थे, जिसे
तुमने कभी
खोया न था, गुरु
तुम्हें उसकी
पहचान करा
देता है।
कबीर
ने कहा है, गुरु गोविंद
दोऊ खड़े काके लागूं
पांव?
किसके
छुऊं चरण? अब दोनों
सामने खड़े
हैं। कबीर बड़ी
दुविधा में पड़
गए हैं। किसके
छुऊं चरण? अगर
परमात्मा के
चरण पहले छुऊं,
तो गुरु का
असम्मान होता
है। अगर गुरु
के चरण पहले
छुऊं, तो
परमात्मा का
असम्मान होता
है। तो कबीर
कहते हैं, किस
के चरण छुऊं?
फिर वे
गुरु के ही
चरण छूते हैं।
क्योंकि वे कहते
हैं, बलिहारी
गुरु आपकी जिन
गोविंद दियो
बताय। जब
वे दुविधा में
पड़े हैं, तब
गुरु ने कहा
कि तू गोविंद
के ही चरण छू।
क्योंकि मैं
यहीं तक था।
यह बड़ी मीठी
बात है। जब
कबीर दुविधा
में पड़े हैं
तो गुरु ने
कहा, इशारा
किया, कि
तू गोविंद के
चरण छू, मैं
यहीं तक था।
मेरी बात यहीं
समाप्त हो
गयी। अब
गोविंद सामने
खड़े हैं। अब
तू उन्हीं के
चरण छू।
बलिहारी
गुरु आपकी जिन
गोविंद दियो
बताय।
लेकिन
कबीर ने चरण
फिर गुरु के
ही छुए।
क्योंकि उसकी बलिहारी
है, उन्होंने
गोविंद
बताया।
श्रद्धा
हो तुम्हारे
पास, तो तुम
पहचान लोगे।
बस! श्रद्धा
चाहिए, भाव
चाहिए। विचार
से न कोई कभी
पहुंचा है, न कोई कभी
पहुंच सकता
है। तुम वह
असफल चेष्टा मत
करना। वह
असंभव है। वह
कभी नहीं हुआ।
और तुम भी
अपवाद नहीं हो
सकते।
और
गुरु सदा
मौजूद है।
क्योंकि ऐसा
कभी नहीं होता
कि संसार के
इन अनंत लोगों
में कुछ लोग
उसे न पा लेते
हों। कुछ लोग
हमेशा ही उसे
पा लेते हैं।
इसलिए कभी भी
धरती गुरु से
खाली नहीं होती।
दुर्भाग्य
ऐसा कभी नहीं
आता कि धरती गुरुओं
से खाली हो।
लेकिन ऐसा
दुर्भाग्य
कभी-कभी आ
जाता है कि
पहचानने वाले
बिलकुल नहीं
होते।
बस
इतना ही।
thank you guruji
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